The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
प्रश्न ओर उत्तर
(१९५७-१९५८)
श्रीमातृवाणी
प्रथम संस्करण ११७७
मूल फ्रेंच भाषामें 'आंत्रतियें : १ ९१७' के नामसे १९६९ में तथा
'आंत्रतियें : १९०६८' के नामसे १९७२ मे प्रकाशित
स्वत्वाधिकार श्रीअरविंद आश्रम ट्रस्ट १९६१ एवं १९७२
हिन्दी अनुवाद श्रीअरविंद आश्रम ट्रस्ट १९७७
सर्वाधिकार सुरक्षित
मूल्य ३०. ००
खंड ९
श्रीअरविंद आश्रम ट्रस्टकी ओरसे
श्रीअरविंद सोसायटी, पांडिचेरी द्वारा प्रकाशित
श्रीअरविंद आश्रम प्रेस, पांडिचेरी द्वारा भारतमें मुद्रित
वितरक :
शिक्षा :श्रीअरविंद वुकस
प्रकाशकीय वक्तव्य
इस खंडमें माताजीके उन वार्त्तालापोंको भंगृहीत किया गया है जो सन् १९५७ के प्रारंभसे नवंबर, १९५८ के अंततक उनकी ''बुधवारकी कक्षाओं'' मे आश्रमके विद्यार्थियों, अध्यापकों तथा साधकोंके माथ हुए थे । खेलके मैदानोंमें दिये गये वार्त्तालपोंमें ये अंतिम वार्त्तालाप थे । साधारण तौर- पर माताजी श्रीअरविंदके किसी ग्रंथके अपने फ्रेंच अनुवादका मुछ अंश पढा करती थीं । सन् १९५७ के जनवरी महीनेसे अप्रैलतक ''थॉट्म एरंड ग्लिम्प्सेज'' (विचार और झांकियां), अप्रैलसे अक्तूबरतक ''सुप्रामेंटल मैनिफेस्टेशन अपोंन अर्थ'' (पृथ्वीपर अतिमानसिक अभिव्यक्ति) और अक्तूबर, १९५७ से नवंबर १९५८ तक ''द लाइफ डिवाइन'' (दिव्य जीवन) ग्रंथके अंतिम छ: अध्यायसे माताजी कुछ अंश पढा करती थीं ! उन अंशोंको पढनेके बाद वह या तो पढे हुए .अंशकी व्याख्या करती थीं या उसी पड़े विषयपर या दूसरे विषयोंपर पूछे गयें प्रश्नोंका उत्तर दिया करती थीं ।
वार्त्तालाप फ्रेंच भाषामें दिये जाते थे और उन्हें 'टेपरेकार्ड' कर लिया जाता था । इनमेंसे अधिकांश वार्त्तालापोंमे दिये गये मु_ल पाठों तथा उनके अनुवादोंको सबसे पहले त्रैमासिक ''बुलेटिन ऑफ फिजीकल एजुकेशन'' (बादमें ''बुलेटिन ऑफ श्रीअरविंदो इंटरनेशनल सेंटर ऑफ एजुकेशन'') मे फरवरी १९५७ और नवंबर १९५८ के बीच, अगस्त १९६१ मे तथा फरवरीसे अगस्त १९६३ तक प्रकाशित किया गया था । फिर १९५७ के वार्त्तालापोंको पूरे म्ल फ्रेंच पाठका संस्करण सर्वप्रथम १९६१ मे ''आंत्रतियें १९५७" के शीर्षकके साथ प्रकाशित हुआ । ''आंत्रतियें १९५८" सन् १९७२ मे छपा । इन सभी वार्त्तालापोंको एक नया अंग्रेजी अनुवाद १९७३ मे ''क्वेश्चन्स गड्ड आन्सर्स १९५७-५८'' के नामसे पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ । इसी १९७३ के संस्करणको दुबारा सुधारकर ''कलैक्टेड वर्क्स ऑफ द मरद (सेटिनरी गिडशन) '' के खंड ९ मे प्रकाशित किया गया है ।
हिंदीमें प्रकाशित यह ' 'श्रीमातृवाणी'', खंड़ ९, "प्रशन और उत्तर १९५७- ५८'' इसी अंगरेजी ग्रंथका अनुवाद है ।
आर्ष वाणीका अनुवाद करना एक असंभव कार्य है । मूक भाषा न जानने वालोंके लिये ''श्रीमातृवाणी''का अनुवाद 'श्रीअरविंद अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र'का हिंदी विभाग कर रहा है ।
२ जनवरी, १९५७
सत्ताका आनन्द
''यदि ब्रह्म केवल कोई ऐसी व्यक्तित्वरहित अमूर्त सत्ता होती जो हमारी मूर्त सत्ताके प्रत्यक्ष तथ्यका सनातन रूपसे खंडन करती तो उसका वास्तविक अंत लय ही होता, परंतु अभी प्रेम, आनंद स्वात्म-मान भी है जिनपर विचार करना है ।
यह विश्व कोई गणितका सूत्र नहीं है जिसे संख्या और तत्व कहें आनेवाले किन्हीं मानसिक अमूर्त विचारोंके आधारपर हल करना हो और जिसकी परिणति एक शून्य या अभावात्मक इकाईमें हो, न ही यह महज एक भौतिक क्यिा है जो शक्तियों- के किसी समीकरणको मूर्त रूप देती हो । यह तो एक 'आत्म- प्रेमी का आनंद है, एक 'शिशु' की लीला है और उस 'कवि' की असीम आत्म-बहुरूपता है जो अपनी असीम सर्जन-शक्तिकी मस्ती- मे विभोर हो!
हम परम प्रभुके संबंधमें यों कह सकते हैं मानों वह एक ऐसा गणितज्ञ हो जो विश्वरूपी प्रश्ननका हिसाब अंकोंमें कर रहा हो या एक ऐसा विचारक हो जो परीक्षणद्वारा म्लतत्वों और शक्तियोंके संतुलनके पारस्परिक संबंधके आधारपर समस्याका हल खोज रहा हो : परंतु परमप्रभुके संबंधमें हम यों भी कह सकते है मानों वह एक प्रेमी हो, विश्वगत और व्यष्टिगत सामंजस्योंको व्यक्त करनेवाला एक गायक हो, एक शिशु हो या कवि हो । विचारका पहलू ही पर्याप्त नहीं है, आनंदके पहलूको भी पूरी तरह आत्मसात् करना होगा : यदि विचार, शक्तियां,, सत्ताएं, तत्त्व भागवत आनंदके प्राणसे पूरित न हों तो वे खोखले ढांचे मात्र रह जाते हैं ।
ये चीजों प्रतिरूप हैं, किंतु सब कुछ एक प्रतिरूप ही है । अमूर्त- भाव हमारे सामने भगवानके सत्योंके विशुद्ध विचारको रखते है; प्रतिरूप उनके जीवित-जाग्रत रूपको प्रदर्शित करते है ।
यदि दिव्य विचारने दिव्य शक्तिका आलिंगन कर जगत्को उत्पन्न किया है तो सत्ताके आनंदने दिव्य विचारको जन्म दिया है । क्योंकि अनंत भगवान् अपने अंदर अपरिमेय आनंदको धारण किये हुए है, इसीलिये लोक-लोकातर और विश्वकी उत्पत्ति हुई ।
सत्ताकी दिव्य चेतना और सत्ताका दिव्य आनंद, ये दो आदि जनक है; साथ ही ये चरम परात्पर सत्ताएं भी है । अचेतना सचेतन आत्माकी केवल एक मध्यवर्ती मूर्च्छा या तामसिक निद्रा है; पीड़ा और आत्म-निर्वाण भी सत्ताके केवल ऐसे आनंद हैं जो अपनेको दूसरे स्थानपर था अन्य रूपमें पानेके लिये अपनेसे दूर भाग रहे हैं ।
सत्ताका दिव्य आनंद कालके द्वारा सीमित नहीं है; इसका कोई आदि या अंत नहीं है; भगवान् वस्तुओंके एक रूपमेंसे केवल इसलिये बाहर आते हैं जिससे वह उनके दूसरे रूपमें प्रवेश करें ।
आखिर भगवान् क्या है? वह है एक सनातन शिशु जो एक सनातन उद्यानमें एक सनातन खेल खेल रहा है ।',
(विचार और झांकियां)
स्नेहमयी मां, क्या मनुष्य 'देश' और 'काल'से बाहर निकल सकते है?
यदि कोई व्यक्त जगत् से बाहर निकल जाय तो ।
अपनेको वस्तुगत करनेके, अभिव्यक्त करनेके तथ्यने ही देश ओर काल- की सृष्टि की । उसमेंसे बाहर निकलनेके लिये व्यक्तिको म्लकी ओर न्हौटना पड़ेगा, अर्थात् अभिव्यक्तिमेसे बाहर निकलना होगा । नहीं तो, अपनेको वस्तुगत करनेकी सबमें पहली क्रियाके मान ही देहा और काल उत्पन्न हुए ।
शाश्वतता और असीमताका एक ऐसा भाव, बोध या अनुभव है जिसमें व्यक्तिको देश-कालोमेसे बाहर निकल जानेका आभास होता है ।... यह एक आभास मात्र है ।
मनुष्यको सब रूपोंसे परे जाना होगा, चेतनाके सूक्ष्मतम रूपोंसे भी दूर जाना होगा, यहांतक कि विचारके रूपोंसे, चेतनाके रूपोंसे बहुत आगे, ताकि
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वह देश-कालसे बाहर आनेकी प्रतीति पा सके । समाधि (सच्ची समाधि) की स्थितिको प्राप्त करनेवाले लोगोंके साथ सामान्यतया ऐसा ही होता है, और जब वे अपनी सामान्य चेतनामें लौटकर आते है तो उन्हें कुछ याद नहीं रहता क्योंकि वास्तवमें उसमें कोई ऐसी चीज नही थी कि वे याद रखते । यहां श्रीअरविंद यही बात कह रहे है कि यदि ब्रह्म केवल एक व्यक्तित्वहीन अमूर्त वस्तु होते तो लय ही उनका एकमात्र बुद्धिसंगत अंत होता । क्योंकि यह स्पष्ट ही है, यदि कोई व्यक्ति देशकालसे बाह्रा आ जाय तो सारी पृथक् सत्ता अपने-आप ही समाप्त हो जाती है ।
तो यह बात है । व्यक्ति ऐसा कर सकता है किंतु उसका कोई (वास परिणाम नहीं आयगा ।
बस? तुमने देश-कालसे परे जानेकी चेष्टा की? (बालक अपना सिर जोरसे हिलाता है)
माताजी, आप क्या नये वर्षके संदेशकी व्याख्या करेंगी? इसका क्या अर्थ है : ''क्रूसपर चढनेवाला शरीर नहीं, किंतु दिव्य महि- मान्वित शरीर ही जगत्की रक्षा करेगा'?'
में तुम्हें अभी एक बात कहने. जा रही हू, इससे तुम समझ जाओगे ।
एक दिन, में' ठीक नहीं जानती कब, अकस्मात् मुझे याद आया कि मुझे इस वर्षके लिये संदेश देना है । ये संदेश साधारणतया इस बातको सूचित करते हैं कि उस वर्ष क्या होनेवाला है । क्योंकि किन्हीं कारणोंसे मेरे पास कहनेको कुछ नहीं था, इसलिये मैंने अपनेसे पूछा या बल्कि यह पूछा कि क्या कहना चाहिये, इसके लिये मुझे कोई स्पष्ट संकेत मिल सकता है या नहीं । मैंने ठीक-ठीक यह पूछा : इस जगत्में ऐसी कौन-सी सर्वोत्तम अवस्था और वस्तु है जो मनुष्यको या चेतनाकी उस अवस्थाको मत्यके थोड़ा और निकट खींचनेमें मदद कर सकें?
वह सर्वोत्तम अवस्था कौन-सी थी?
कुछ घण्टोंके बाद मेरे हाथमें एक पुस्तिका आ पडी जो अमेरिकासे आयी थी और 'मानव परिवार' नामक छायाचित्रोंकी प्रदर्शनीकी एक तरहकी समीक्षा थी । इस पुस्तिकामें कुछ उद्धरण और बहुत-से छायाचित्रोंकी
'''अशुभकी शक्तिसे अधिक महान् कोई शक्ति ही विजय प्राप्त कर सकती है, क्र्सपर चढनेवाला शरीर नहीं, किंतु दिव्य महिमान्विन शरीर ही जगत्की रक्षा करेगा ।"
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प्रतिरूप थे जिन्हें विषयवार वर्गोमें बांटा गया था और यह सब मनुष्योंमें भाईचारेकी सच्ची भावना जगानेका यत्न करनेके उद्देश्यसे किया गया था । यह सब संभावित युद्धको रोकनेके एक विशाल और कारुणिक प्रयासको सूचित करता था । ये उद्धरण एक महिला संवाददाताने चुने थे जो यहां आकर मुझसे मिली भी थी । और इसलिये यह सब मेरे सामने उस सर्वश्रेष्ठ मानव संकल्पको वस्तुत: हृदयस्पर्शी रूपमें व्यक्त करते हूर'_ आया था जो इम सवय सामूहिक दृष्टिसे प्रकट हो सकना था! मे यह नहीं कहती कि इस जगत्में कहूं ऊंचे उठे हुर'र व्यक्ति नहीं है जो ज्यादा अच्छी तरह नहीं समझते, किंतु ये व्यक्तिगत उदाहरण है, मानवताके लिये कुछ करनेवाला सामूहिक प्रयास नहीं है । मुझे सचमुच इस चीजने छू लिया ।
और: फिर मैं इस पुस्तिकाके अंतिम भागपर पहुंची । उन लोगोंने समाधानके रूपमें मानवकों एक-दूसरेको मारनेसे रोकनेके लिये अपनी अज्ञान- पूर्ण सद्भावनाके साथ कुछ सुझाव दिये थे ।... यह सब इतना घटिया, इतना बलहीन, इतना अज्ञानपूर्ण, इतना अक्षम था कि मुझे सचमुच दया आ गयी -- मैंने अपने मनमें कल्पना की : यह प्रदर्शनी यहां पांडिचेरी -मीत आये, हम उसे प्रदर्शित कर सकें तथा उनकी पुस्तिकामें उपसंहारमें एक खण्ड और जोड़ दें जिसमें उन्हें समस्याका सच्चा समाधान बताया गया हों । और सारी कल्पनाने बहुत ठोस रूपमें यह आकार ग्रहण किया कि इसमे किस प्रकारके छायाचित्रोंकी आवश्यकता होगी, किन उद्धरणोंको रखना होगा, और उसके बाद बिलकुल निर्णयात्मक ढंगसे, मानों कोई चीज चेतना- की गहराईमेंसे उमर आयी हो, इस प्रकार यह वाक्य स्फुरित हुआ । मैंने वह लिख लिया और उसे लिख लेनेके तुरन्त बाद मैंने अपने मनमें कहा : ' 'अरे, यह तो वही है, मेरा संदेश ।'' और फिर यह निश्चय किया गया यही सन्देश रहेगा । बस ।
इसका अर्थ यह है कि यही वस्तु उस सर्वोत्तम मानव सद्भावनाको आगे बढ़ा सकती है जो आज पृथ्वीपर अभिव्यक्त द्रुई है । इस विचारने यह विशेप आकार इमलिये ग्रहण किया कि यह सद्भावना ईसाई धर्मको माननेवाले प्रदेशसे आयी है, इसीलिये, स्वभावत: इसपर: ईमाइयतका काफी विशेष प्रभाव मालूम होता है । किंतु ऐसी वृत्ति जगत् के अन्य सब स्थानों- मे भी पागी जाती है तथा देशों और धर्मोंके अनुसार भिन्न स्वरूपोंमें व्यक्त हुई है । मैंने इस वृत्तिके पीछे रहनेवाले अज्ञानके विरोधमें एक प्रतिक्रिया- कै रूपमें, यह सन्देश लिखा था । स्वभावतया यही विचार भारतमें भी विद्यमान है; यह विचार है -- समस्त भौतिक तथ्यका सम्पूर्ण त्याग और
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माया एवं मिथ्या माने जानें वाक् संसारके लिये गहरी धृणाकी वृत्ति, जो श्रीअरविंद कथनानुसार विगोत्री शक्तियोंका प्रभुत्व स्थापित करनेके लिये क्षेत्र खुला छोड़ देती है । यदि तुम एक दूर स्थित अमूर्त्त वस्तुको पानेके लिये ठोस यथार्थ वस्तुसे भागते हो तो तुम स्थूल साक्षात्कारके सारे क्षेत्रको उन विरोयी शक्तियोंके पूरे अधिकारमें छोड़ देते हों जिन्होंने इस क्षेत्रको हथिया रखा है और जिनका उसपर थोड़ा-बहुत प्रभुत्व भी है । और यह सब पलायन उस चीजके लिये है, उस अभावका अफिर्ग्पात बनने के लिये है जिसे श्रीअरविंद इस सूजे शून्य या रिक्त इकाई कहते है । यह ता निर्वाण लौटना हुआ । यह विचार दूनियामें सब जगह विद्यमान है किंतु भिन्न-भिन्न रूपोंमें प्रकट हुआ है ।
क्योंकि अबतक अशुमका वरोधी निर्वलताके साय, एक ऐसी आध्यात्मिक शक्तिके द्वारा किया गया जिसमें भौतिक जगत्को रूप करनेकी- कोई शक्ति नहीं थी, इसी कारण सद्भावनाका यह विशाल प्रयास एक शोचनीय पराजयके रूपमे पारेणत हुआ और संसारको इसी दुरह- दैन्य, पतन और मिथ्याकी अवस्थामें छोड़ गया है । वस्तुत:, विरोधी शक्तियां जिसगर शासन कर मही है उसी स्तरपर हमें एक ऐसी महत्तर शक्ति प्राप्त करनी चाहिये जो उन शक्तियोंसे बड़ी हों और उनके अपने क्षेत्रमें ही उनपर पूर्णतया विजय पानेमें समर्थ हों । दूसरे शब्दोंमें कहें तो, यह ऐसी आध्यात्मिक शक्ति होनी चाहिये जौ चेतना और स्थूल जगत् दोनोंका रूपांतर कर सके । यह शक्ति है अइपमानसिक शक्ति । आवश्यकता इस बातकी है कि हम भौतिक स्तरपर की गयी इस शक्ति- की क्रियाके प्रति ग्रहणशील बने और अपने छोटे हुए क्षेत्रको पूरी तरह शत्रुके हाथों सौपकर सुदूर निर्वाणमें न भाग जाय ।
विजयकी प्राप्ति न केवल बलिदानसे, न त्यागसे, न ही ऐसे निर्बलतासे होती है । वह केवल ऐसे दिव्य आनंदद्वारा मिलती है जो सामर्थ्य, सहनशीलता और परम साहस-स्वरूप है, यह आनंद अतिमानसिक शक्ति ही लाती है । यह हर एक चीजके त्याग करने और उससे पलायन करनेकी अवेक्षा कही अधिक कठिन है, यह वृत्ति असीम रूपसे महान् वि तार्किक मांग करती है -- किंतु विजय प्राप्त करनेका यही एकमात्र उपाय हैं ।
और तो कुछ नहीं? मेरे प कुछ प्रश्न है, लेकिन प्रेब जरा देर हो गयी है ।
माताजी, इन दिनों जो नयी शक्ति कार्य कर रहो है बह व्यक्ति- कै प्रयलद्वारा कार्य करेगी या उससे स्वतंत्र रूपमे?
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यह विरोध क्यों ? यह शक्ति संसारमे सब व्यक्तिगत प्रयलोंसे स्वतन्त्र होकर, यह भी कह सकते है कि स्वतः ही काय कर रहो है किंतु यह व्यक्तिगत प्रयत्नको उत्पन्न करती है और उसका उपयोग करती है । व्यक्तिगत प्रयत्न उसकी क्रियाका शायद सबसे अधिक शक्तिशाली साधन है । यदि कोई यह समझे कि व्यक्तिगत प्रयत्नका कारण ठयक्ति है तो यह श्रम हैं, किंतु यदि मनुष्य इस बहाने कि वैश्व क्रिया उससे स्वतंत्र है, व्यक्तिगत प्रयत्न करना अस्वीकार कर दे तो इसका अर्थ है कि वह सहयोग नही देना चाहता । भागवत शक्ति उसका उपयोग करना चाहतइाई है, और वस्तुतः अपने अधिकारमें सबसे अधिक शक्तिशाली साधनोंमेसे एक रूपमें व्यक्तिगत प्रयत्नका उपयोग करती है । स्वयं भागवत शक्ति, यह दिव्य बल ही तुम्हारा व्यक्तिगत प्रयत्न है।
और प्राणको जब कहा जाता है : ''तुम्हारा अपने-आपमें कोई अस्तित्व नहीं'' तो उसके आत्म-प्रेमकी प्रथम प्रतिक्रियाको तुम नहीं जानते; यह सहज ही कहता है. ''अच्छा, तो अब मैं कोई काम नहीं करुंगा । कार्यका कर्त्ता मैं नहीं हू, तो फिर मैं कोई काम नहीं करुंगा,'' और ''अच्छा ही है, भगवान् सब कर सकते हैं, यह उनका काम है, मैं अब हिलता भी नह । र्याद काम करनेका श्रेय मुझे नहीं मिलता (यह इस हदतक पहुंच जाता है), तो मैं कोई काम नहीं करता ।'' ठीक है _ किन्तु यथार्थतया यह कोई प्रशंसाकी बात नहीं है, ये बातें मैं निरन्तर सुनती रहती हू । यह कंबल क्षुब्ध अहंका गुबार निकालनेका एक तरीका है, बस! किन्तु यथार्थ प्रतिक्रिया, विशुद्ध प्रतिक्रिया है किंतु भी परिस्थितिमें सहयोग देनेकी उमग- के साथ, खेलको सारी शक्तिके साथ, अपनी चेतनामें विद्यमान संपूर्ण संकल्प- र्शाक्तेकी साथ इस भावनासे खेलना कि तुमसे अनन्त गुन शक्तिशाली कोई ऐसी चीज है जो तुम्हें संभालने हुए है और तुम्हें आगेकी ओर लें जा रही है, एक ऐसी चीज है जो निर्भ्रान्त है और साय ही तुम्हें सब आवश्यक बल प्रदान करती है एवं तुम्हारा सर्वोत्तम उपकरणके रूपमे उपयोग करती है । मनुष्य उसका अनुभव करता है और उसे यह भी लगता है कि किसी- की छत्रछायामे रहकर काम कर रहा है और कमी धोखा नहीं खा सकता तथा जो कुछ भी करता है उसे अधिकतम सफलताके साथ -- प्रसन्न-भावमें -- करता है । यही वस्तुत: सही क्रिया है, अर्थात्, यह अनुभव करना कि उसका नलकूप श्र-त्यन्त तीव्र उनागया हैं, क्योंकि तब वह असीममें विद्यमान एक गनुद्र व्यक्ति नहीं रहता, एक विश्वव्यापी अनन्त 'शक्ति', 'सत्य'की 'शक्ति' उससे कार्य करवाती है । एकमात्र यही सच्ची प्रतिक्रिया है ।
और दूसरा - बेचारा । वह मनमें सोचता है: ''ओह, कर्मका करनेवाला मैं
नही । हार, इसमे मेरी इच्छा व्यक्त नहो होती, मेरी शक्ति कार्य नहीं करती .अच्छा मैं लट जाता हू और अपने-आपको जड़ निटिक्रयतामे नव करता हू और अब जरा भी हिलूंगा-डुलूंगा नहो । '' और भगवान्से कहता है : ''अच्छा, अच्छा, सब कुछ अपनी इच्छाके अनुसार किये जाओ, अब मेरा तो कोई अस्तित्व ही नहीं है । '' यह अवस्था सचमुच दयनीय है! तो बस, यही है बात!
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९ जनवरी, १९५७
''भगवान् प्रकृतिकी ओर झुकना नहीं छोड़ सकते, न ही मनुष्य देवत्वकी अभीप्सा करनेसे रुक सकता है । यह तो सांत और अनंतका सनातन संबंध है । जब ३ एक-दूसरेसे विमुख होते हुए प्रतीत होते है तो उनका यह पीछे हटना और भी अधिक प्रगाढ़' मिलनके लिये होता है ।
मानवमें आकर जगत्की प्रकृति फिरसे आत्म-चेतन हो उठती है ताकि वह अपने दिव्य भोक्ताकी ओर लंबी छलांग लगा सके । इस दिव्य भोक्ताको ही उसने अनजाने अपने अधिकारमें कर रखा है, इसीको प्राण और इंद्रिय-संवेदन अपने अधिकारमें करते हुए भी अस्वीकार करते है और अस्वीकार करते हुए भी बढ़ते हे । यह जगत्-प्रकृति भगवान्को इसी कारण नहीं जानती कि वह अपने-आपको नहीं जानती । अपने-आपको जान लेनेपर बह सत्ताके विशुद्ध आनंदको भी जान जायगी ।
एकत्वमें सर्वकी उपलब्धि, विलय नहीं, यही रहस्य है । भगवान् और मानव, विश्व और विश्वातीत जब एक-दूसरेको जान लेते हे तो एक हो जाते है । उनका विभेद ही अज्ञानका मूल है जिस तरह कि अज्ञान दुःखका मूल है ।',
(विचार ओर झांकियां)
श्रीअरविन्द जैसे कि यहां कहते है, विश्वकी यथार्थ वस्तु वह शैव जिसे मनुष्य
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भगवान् या दिव्यता कहते हैं, किन्तु असलमें वह वस्तु पर 'आनन्द । इस विश्वकी उत्पत्ति आनन्दमें और आनन्दके लिये हुई । किन्तु यह आनन्द सृष्टिका साथ स्रष्टाके पूर्ण एकत्वमें ही रह सकता है । और श्रीअरविन्द इस एकत्वका अधिकर्ताके रूपमे वर्णन करते है, अन्गत्, खापुटा-अधिकर्ता अपनी सृष्टिद्वारा अधिकृत होता है । यह एक प्रकारका पारस्परिक अधि- कार है जो एकताका सच्चा सारतत्व है और सारे आनन्दका स्रोत हू ।
ओर इस विभेदके कारण ही, अर्थात् क्योंकि अधिकर्ताका अधिकृतपर अधिकार नहीं रह गया, न ही अधिकृतका अधिकर्तापर कोई अधिकार रहा, इसीलिये विभेद उत्पन्न हुआ और मूल आनन्द अज्ञानमें बदल गया ।यह अज्ञान (अविद्या) ही सब कष्टका मूल कारण है । यहा 'अज्ञानका भाव वह नहीं है जो साधारागतया समझा जाता है, उसे श्रीअरविन्दने 'अचिन् नाम दिया है । यह अचित् अज्ञानका परिणाम है । यथार्थ अज्ञान ऐसा एकत्वके, मिलनेके, तादात्म्यके सम्बन्धमें अज्ञान । और यही सारे कष्टका कारण है ।
अज्ञानका शासन तमिसे शुरू हों गया जबसे विभेद आरंभ हुआ, दृष्टिके साथ स्रष्टाका सम्बन्ध टूट गया । अज्ञानका राज्य हुक और ये सारे दुःख-कष्ट उसीका परिणाम है ।
जिन लोगोंने आन्तरिक प्रयोग किये हे उन्हें इस बातका अनुभव हैं कि दिव्य स्रोतके लाटा पुन. सम्बन्ध स्थापित हाते ही सब कष्ट विम्हीन हीं जाते. हूं । किन्तु एक बडा आन्दोलन रहा है जिसके सम्बन्धमे मौसे तुम्हें पिछले सप्ताह कहा था । यह आन्दोलन इस मूल दिव्य आनन्दको नही बल्कि कामनाको सृष्टिके स्रोतके रूपमे स्थापित करता हैं । सर्जनके, आत्म-आवि- र्भावके, आत्म-अभिव्यक्तिके इस आनन्दको जिज्ञासुओं और साधु-सन्तोकी एक पूरी-की-पूरी परंपराने आनन्द नहीं बल्कि कामना माना है, बौद्द वर्म- का सारा झुकाव इसी प्रकारका है । और हमारे भीतर आविभवि और संभूतिकैं आनन्दको पुनः प्रतिष्ठित करनेवाली एकतामें समाधानके रूपमे देखनेके बदले वें मानते है कि हमारा लक्ष्य और साधन दोनों अस्तित्वमे आनेकी सारी कामनाका पूर्ण निवेष और शून्यमें लौट जाना ही है ।
यह धारणा एक मूलगत गलतफहमी जैसी है । आत्म-स्वातंत्र्य लिये बिन पद्धतियोंका सुझाव दिया गया है वे विकासकी पद्धतियां है ओर बहुत उपयोगी भी हो सकती है, परन्तु तत्वतः यह बुरे संसारकी धारणा -- क्योंकि यह कामनाका परिणाम है - और इनमें मनुष्यको किसी भी किमतपर यग्गमभव जल्दी-से-जल्दी बचना चाहिये, इसी धारणाने मानवताके इतिहासमें संपूर्ण आध्यात्मिक जीवनको अत्यधिक महान् ओर गंभीर विकृत रूप दिया है ।
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यह धारणा शायद किसी विशेष कालमें उपयोगी हो सकती थी, क्योंकि जगतके इतिहासमें सभी चीजे उपयोगी है, किन्तु यह उपयोगिता अब समाप्त ह?ए गयी है, जीर्ण हों गयी है, और अव समय आ गया है कि हम इस धारणा- का अतिक्रमण करके अधिक मूलगत और उच्चतर सत्यकी ओर लोटे, सत्ताके 'आनन्द', मिलनेके 'हर्ष' और भगवान्के आविर्भावकी ओर मुड़े ।
इस नवीन - मेरा मतलब पार्थिव साक्षात्कारकी दृष्टिसे नवीन -- निर्धारणको ही पहले सब आध्यात्मिक निर्धारणोंका स्थान लेना होगा और आगे आनेवाले नये अतिमानसिक साक्षात्कारके लिये मार्ग खोलना होगा । इसी कारण पिछले सप्ताह मैंने तुमसे कहा था कि इस पृथ्वीपर केवल आनन्द, सच्चा भागवत आनन्द ही 'विजय' ला सकत है ।
स्वभावतः, मनुष्यको आनन्दके नामसे चकरा नहीं जाना चाहिये, और इसीलिये प्रारंभसे ही श्रीअरविन्द हमें यह कहकर सावधान कर देते है कि सब भागोंसे परे होनेपर ही मनुप्य परमानन्दमें प्रवेश कर सकता है । निश्चय ही परमानंद अवस्था यथार्थ रूपमें वह अवस्था है जो इस दिव्य आनन्दके आविर्भावमेसे प्रकट होती है । किन्तु यह उस सबसे एक- दम भिन्न वस्तु है जिसे हम साधारणतया आमोद-प्रमोद और भोग-विलास कहते है और उसे पानेके लिये हमें इन्हें पूरी तरहसे त्याग देना होगा । (एक बालकसे) तुम्हें कोई प्रश्न पूछना है?
कुछ पूछना है, पर हमने अभी उसे पढा नहीं है)
क्या है वह?
वह ईश्वर और प्रकृतिके संबंधमें है ।
अच्छा तो ??इ
ईश्वर और प्रकृति एक-दूसरेकी झलक पा लेनेके भाव परे क्यों भागते है?'
'''ईश्वर और प्रकृति: बालक ओर वालिकाकी तरह खेलने है और प्यार करते है । वे एक-दूसरेकी झलक पानेपर छिपते और भागते है जिससे एक-दूसरेको खोज सकें, पीछा कर सकें और अधिकारमें ले सकें ।
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खेलनेके लिये । श्रीअरविन्द ऐसा ही कहते है. ''वे खेल रहे है ।' ' वे खेलनेके लिये ऐसा करते है ।
(एक तरुण शिष्य) माताजी, क्या प्रकृति यह जानती है कि यह खेल है? भगवान् तो यह ज्नानते हैं कि यह खेल है । किंतु क्या प्रकृति भी यह जानती है?
मेरा विश्वास है कि प्रकृति भी इस बातको जानती हैं, केवल मनुप्य ही नहीं जानता ।
( दूसरा बालक) मधुर मां, प्रकृति अपनेको कहां छिपा सकती
वह कहां छीप सकती है? मेरे बच्चे, वह निश्चेतनामें छिपती है । यह निश्चेतना ही छिपनेका सबसे बड़ा स्थान है । इसके सिवाय, भगवान् भी निश्चेतनामें छिपते है ।
शायद व्यक्ति जब उसे खेल मानकर प्रसन्नतापूर्वक खेलता है तो यह मनोरंजक लगता है । किन्तु जब वह नहीं जानता कि यह एक खेल है तो यह मनोरंजक नहीं होता । तुम समझे या नहीं? जब वह दूसरी तरफ, अर्थात्, भगवान्की ओर पहुंच जाता है तभी इस प्रकार देख सकता है; अर्यात्, जबतक वह अज्ञानमें निवास करता है तो अवश्य ही उस वस्तु- से कष्ट पाता है जो वस्तुत: हमारे लिये रुचिकर और प्रीतिदायक होनी चाहिये । म्उलत: इसका निष्कर्ष यह हैं : जब मनुष्य किसी कार्यको ज्ञान और विवेक-विचारके साथ करता है तो वह उसके लिये बड़ा मजेदार हो जाता है और बड़ा रुचिकर हों सकता है । किन्तु जब यह कार्य ऐसा हो जाता है जो विचारपूर्वक न किया गया हों और जिसे तुम समझते भी नहीं, ऐसी कोई चीज बन जाता है जो तुमपर लादी गयी है और जिसे तुम किसी तरह झेल रहे हो तो यह तुम्हें प्रीतिकर नहीं लगता । इसका समाधान वही हैं जो हमेशा दिया गया है कि तुमुल इस कर्मको विचार- विवेकपूर्वक सीखना, समझना और करना चाहिये । किन्तु यदि मैं अपनी सच्ची भावना कहूं नो मुने लगता है कि रवेलको विदल देना ही अधिक अच्छा होगा... इस स्थितिमें निवास करते हुए व्यक्ति- मुस्करा और समक्ष सकता है और इससे उनका विनोद भी हो सकता है किन्तु जब वह उन लोगोंको देरवता है और उनके विषयमें सचेतन होता है जिन्हें यह समझ
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पाना कठिन लगता है वे खेल रहे है, जो खेलको बहुत गंभीरतासे लेते हैं, बल्कि इसे कगफी बुरा मानते है, तो.. मालूम नहीं, व्यक्ति उसे बदलना ही पसन्द करेगा । यह विशुद्ध रूपसे एक व्यक्तिगत अभिप्राय है ।
में' यह खूब अच्छी तरह जानती हू : जैसे ही व्यक्ति दूसरी ओर पहुंचता है उसके साथ ही... जब निराश और दुःखी होनेके स्थानपर व्यक्ति उच्च भावमें रहकर केवल निरीक्षण ही नहीं बल्कि स्वयं कार्य भी करता है, तो यह परिवर्तन इतना पूर्ण होता दे_ कि' उसके लिये फिर उस स्थितिको याद करना भी कठिन हो जाता है जब कि वह इस निश्चेतनामें, इस अज्ञान- के सारे भारको अपनी पीठपर ढोते हुए जी रहा था; वह क्यों और कैसे जाने बिना ही, और यह जाने बिना कि वह कहां जा रहा है और ऐसी स्थिति क्यों है, सब कुछ 'सह रहा है । वह इन बीती बातोंको भूल जाता है । और तब वह कह सकता है ''यह एक सनातन खेल है जो सनातन उद्यानमें चल रहा है ।'' परन्तु इस खेलको रुचिकर बनानेके लिये प्रत्येक व्यक्तिको नियमोंको जानकर ही खेल खेलना चाहिये, जबतक व्यक्ति रवेलके नियम नहीं जानता तबतक यह उसे प्रीतिकर नहीं लगता । इसी- लिये समाधानके रूपमें यह कहा जाता है : ''लेकिन तुम रवेलके नियम सीखो ।''... यह सबके बूतेकी बात नहीं ।
मेरे ऊपर, वस्तुतः, यह प्रभाव, बड़ा प्रबल प्रभाव पड़ा है कि कोई शरारती विदूषक है जिसने आकर रवेलको बिगड़ दिया और इसे एक नाटकीय वस्तु बना दिया है, और यह शरारती विदूषक ही स्पष्टतया विभेदका और उस अज्ञानका कारण है जो विभेदका परिणाम है और उस कष्टका भी जो उस अज्ञानका परिणाम है । मूलतः, सब आध्यात्मिक परंपराओंके बावजूद, यह मानना मुश्किल है कि इस विभेद, अज्ञान और कष्टकी स्थितिका ज्ञान सृष्टिके प्रारंभसे ही हो गया था । हरेक चीजके बावजूद, यह सोचना कठिन है कि इस अवस्थाको पहले ही जाना जा सकता था । मैं वस्तुत: इस बातपर विश्वास करनेसे इनकार करती हूं । मैं इसे एक संयोग कहती हूं एक काफी भयंकर दुर्घटना कहती हू, किन्तु, तमी, तुम समझ गये न कि यह कम-से-कम मानव चेतनाके अनुपातमें भयंकर है वैश्व चेतनाके अनुपातमें यह केवल एक ऐसी घटना है जिसे सुधारा जा सकता है । और आखिर सुधारनेके बाद व्यक्ति यह कहकर इसे फिर याद भी कर सकेगा. ''अहा इस घटनाने हमें एक ऐसी वस्तु प्रदान की है जो अन्यथा हमें न प्राप्त होती ।'' परन्तु हमें पहने इसके सुधरनेकी प्रतीश्रा करनी होगी ।
जो भी हो, मुझे नहो मालूम ऐसी लोग है या नहि जो कहते है कि इस बातको पहले जान लिया गया था और ऐसा ही संकल्प किया गयाn
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था, परन्तु मैं तुमसे कहती हूं कि यह पहलेसे ज्ञात न था, न ऐसा संकल्प ही किया गया था, और इसी कारण जव यह दुर्घटना बिलकुल अप्रत्याशित रूपसे हुई तो तुरन्त ही म्ल स्रोतमेसे एक अन्य वस्तु कूदकर बाह्रा अ! गयी जो संभवतः प्रकट न होती यदि यह द्दुर्घटना न हुई होनी । यदि. दिव्य आनन्द दिव्य बना रहता और उसी रूपमे धारण किया जाता और प्रत्येक वस्तु विभेदके स्थानपर दिव्य आनन्द और एकताके रूपमे घटती, तो भाग- वत चेतनाको निश्चेतनामें दिव्य प्रेमके श्त्रपमें कभी कूद कोई आवश्यकता न होती । नो, मानव जब इस चीजको बहुत दूसरे और बहुत ऊंचाईपर रहकर देखता है, तो कहता है : ''आखिर, शायद कोई चीज इसमेंसे बाहर आयी है_ ।'' लेकिन मनुष्यको उसे बहुत देरसे और बहुत उच्चावस्थामें रहकर देखना चाहिये ताकि वह ऐसा कह सकें । बल्कि, जब वह बहुत पीछे छूट जाती है, जब मनुप्य इस अवस्थासे परे चला जाता है, दिव्य एकता और आनंदमें प्रवेश फर केत है, जब विभेद, निश्चेतना ओर कष्ट विलीन हुए जाते है, तब वह बहुत समझदारीके साथ कह सकता है : ''ओह, हां, मुझे वह अनुसूची प्राप्त हो गयी है जो अन्यथा कमी न प्राप्त होती ।'' किंतु अनुमतिको पीछे छूट जाना चाहिये, हमें बची अनुभूतिमें नहीं रहना चाहिये । क्योंकि, उसके लिये भी जो - इस बातको मैं जानती हूं -- उसके लिये भी जो इस अवस्थासे बाह्रा निकल आया है, जो 'एकत्व' की चेतनामें निवास करता है, जिसके लिये अज्ञान एक बाह्य वस्तु बन गया है, अब निकटकी -मोर कष्टदायक कोई वस्तु नहीं रहा, उस व्यक्तिके लिये -मीत उन सब लोगोंके कड्योंको, जो अभी उस अनुभवसे बाहर नहीं निकटम है, उदामीन मुस्कराहटके सार्थ देखना असंभव है । मुझे तो यह बात असंभव लगती है । अतः जगत् वस्तुओंका और बीमारीकी उग्रताका विलीन हो जाना सचमुच आवश्यक है, ताकि यह कहा जा सकें : ''ओह! हा, इसमे हमें फायदा हुआ खै । '' यह सच है, हमें कोई वस्तु प्राप्त हुई है किंतु यह सौदा हमें' बना महंगा पड़ा है ।
इसीलिये, मेरा विश्वास है कि इसी कारण, इतने सारे अध्याएममै दीशित और साधु-संत शून्यके, निर्वाणके समाधानकी ओर आकुर हुए है, क्योंकि स्पष्ट ही, अज्ञानमय आविभविके परिणामोंसे बचनेका यही तुक बहुत प्रारंभिक तरीका है ।
केवल, इस आविर्भावको सच्ची यथार्थतामें, सच्ची दिन अभिव्यक्तिमेसे बदल देनेवाला समाधान ही एक बहुत अधिक महान समाधान है । ओर अब इसीके लिये हम कोशिश करना चाहते है, इस निश्चयके सत्य कि
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प्रत्येक वस्तुके बावजूद, चाहे कोई भी चीज सामने आ?g, किसी-न-किसी दिन जरूर सफल होंगे, जो सत्य है वह सनातन रूपसे सत्य रहेगा और जो मूलगत पथ्य हु उसे साक्षात्कारमें एक-न-एक दिन अवश्य ही सत्य होना होगा । श्रीअरविदने हमें कहा है कि हमने इस मार्गपर पहला कदम उठा लिया है और यह भी कहा है कि उपलब्धिका क्षण निकट ही हे खै, इसीको हमें बन, निकल पड़ना चाहिये । बस, इतना ही ।
तो यह प्रश्न तुमहो किया है इr (उस बच्चेंसे जिसने आंख-मिचौनीवाले खेलके भविष्यमें पूछा था) क्या तुम- यही जानना चाहते थे?
वास्तवमें तुम जो पुछना चाहिये थे वह था : ' 'यह मूर्त्ति रूप क्यों है? ''
हां
हम इस बातको उलटा कर सकते थे । विश्व ऐसा है अर्थात्, भगवान् -वाक् मनुप्य ऐसे है, ऐसे प्रतीत होते है, यह कहनेके स्थानपर हमें यह कहना चाहिये कि भगवान् और मनुष्यमें जो मूलगत संबंध है, वर्तमान कहना चाहिये यह शायद उसकी बाह्य और बनावटी अभिव्यक्ति है । वस्तुत: यह वात इम कथनके जैनी होगी कि मनुप्य जब खेलता है तो अपनी गंभीजाकी स्थितिकी अपेशा कही अहइवक उच्चावस्थामें होता है! (हंसी) पोइक्:न गैना फहना हमेशा प्रच्छद नही होता ' शान्त, वैज्ञानिकके पांण्डित्य और लऐतकी कठोर तपस्याकी अपेदरा बच्चोंकी सहज कडिमें अधिक दिव्यता है । मैंने हमेशा यही समझा है । केवल, (मुस्कराते हुए) यह अप: ऐसी दिव्यता है जो अपने क्रियामें बिलकुल सचेतन नर्हो है ।
जहांतक मरी बात खै, मुझे तुम्हारे सामने स्वीकार करना चाहिये कि जब मैं बहुत 'ग मीर ;और चिंतनशील अवस्थाने होती हू उसकी अपेक्षा जब मैं- -- अपने ढंगसे -- अतादमे होती हू और खेलती हू तो मुझे कमाता खैनी: मैं अपने मूल स्वरूपके अड़! इहग्क निकट हू । गंभीर और चिंतनशील होनेपर मुझे हमेशा लगता है कि में इस सारी सृष्टिका बोझ ढो रही कष्ट जो बहुत अधिक मारी और प्रधेरी है जब कि खेलते समय, अर्थात् जब मैं ग्त्रेलती हू, हंस हू, आनंद कर सकतीं हू, तथ- मुझे ऐसा रुप कि त्रारंदकी दरमा रज ऊपरसे बरस रही है औ' इस दृष्टिको, इस जगत्को एक विशेष प्रकारकी आभासे रंग रही है, उसे उसेके मल डःपके अत्रिक निकट ला रही है ।
माताजी, आप कब गंभीर होती है और क्यों?
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ओह! तो तुमने मुझे कमी गंभीर देखा है, नहीं? शायद जब औ एक सीढ़ी नीचे आ जाती हू, मालूम नहीं -- जब कोई डूब रहा हिना है या कठिनाईमें 'होता है तो मनुष्यको उससे बाहर खींच लानेके लिए किनारेसे उतरकर पानिमें आना पड़ता है । शायद यही कल थ है । जव दृष्टीपर कोई विशेष विपत्ति आ पड़ती है तो व्यक्ति थोड़ा नींवें उतरकर खींचता है और इसीलिये वह गंभीर हो जाता है । किंतु जव सब ठीक चर रहा हो तो व्यक्ति हंस सकता है, अनंद कर सकता है ।
असलमें तो यह कहा जा सकता है कि एक प्रतिपादन, सारे उपदेश, यहांतक कि सब प्रार्यनाएं एवं आवाहन भी, उस जगहसे त्वसे है जिसे श्रीअरविद निम्नगोलार्द्ध कहते है, इसका ढाई यह है कि व्यक्नि अभी निम्न भूमिकापर ही है । यह स्थान निम्न गोलार्द्धका शिखर हो सकता है, सीमाप्रांत हों सकता है या केवल कोई किनारा, किंतु व्यक्ति तब भी होता निम्न गोलार्द्धमें ही है । और दूसरी और पहुंवते ही व्यतिको यह सब बिलकुल व्यर्थ और प्रायः बचकाना -- तुरै अ पथमें, -- अजानपूर्ण, बहुत ही अज्ञानपूर्ण प्रतीत होता है । इस स्थितिमें रहना मी बड़ा मनोरंजक होता है जब व्यक्ति कभी एक उमर आता है और कभी दूसरी तरफके किनारे पहुंच जाता हैं । तो, दूसरी ओरका राह किनारा, मानव चेतनाके लिये प्रायः अगम्य शिखर टोह, और जो व्यक्ति इम गोलार्द्ध- मे सचेतन रूपसे और स्वतंत्रतापूर्वक रह सकता है उसके : बावजूद, यह नीचे उतरना ही है ।
मैं बादमें यहां तुम्हारे साथ 'दिव्य जीवन' के पीतम अध्याय पुहना चाहेंगी । मैं समझती हू कि तुम काफी बड़े और काफी वयस्क हों गोते हों, इतने कि इसे समझ सको । और उसके बाद बहुत प्रकारकी बानोंको तुम समझ सकोगे और इस मूल पाठपर आधारित, ऐसे वहुत-से विपयोको हम हाथमें ले सकेंगे जिनसे हमें उपलठिंधकी दिशामें एक गंभीर कदम उठानेमें सहायता मिलेगी । श्रीअरविद इन दो अवस्थाओंके बीचके भेदका बहुटी निश्चित और अद्भुत ढंगसे वर्णन करते है कि किस प्रपत्र मानवकों यह पूर्णताकी, बहरहाल साक्षात्कारकी लगभग सर्वोच्च स्थिति प्रतीत होता है, किस प्रकार वह सब उाब मी निम्न गोलार्द्वसे भवन रखता है, इसमे दैव- ताओके उन सब 'संर्त्रगेंका समावेश है जैसे मानवने' रहे जाना तै और अब भी जानते है -- किस प्रकाय ये सब चीज़ें अव मी बहुत निम्न भूमिकाकी है -- और उयक्ति जब और ऊंवाईपर उठता है नो वह कौन- सी सच्ची अवस्था है, जिसका उन्होंके अतिमानसिक अवस्थाके रूपमें वर्णन किया है ।
और नव नो यह है कि जबतक मनु सचेतन रूपसे ऊपर नहीं जाता नवतक यह वस्तुओंके एक पूरे-के-पूरे जगत्को नहीं समझ सकता ।
नो नव, मैं चाहूँगा, की हम मार्गका उद्घाटन करें और सब साय मिल कर थोडी' परेकी ओर आगे बढे ।
ठीक तो!
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१६ जनवरी, १९५७
''मनुष्य पहले अंधेकी तरह ढूंढता है और यह भी नहीं जानता कि वह अपने दिव्य स्वरूपको ढूंढ रहा है; क्योंकि वह भौतिक प्रकृतिकी तामसिकतासे अपनी खोज प्रारंभ करता है और जब देखने लगता है तब भी उस प्रकाशसे देरतक चुधियाया रहता है जो उसके अंदर बढ़ रहा है । भगवान् भी मनुष्यकी खोजका अस्पष्ट-सा उत्तर देते है । भगवान्, मांको टटोलनेवाले नन्हे बच्चेंके हाथोंके समान ही मनुष्यकी अंधताको खोजते हैं और उसमें आनंद लेते है ।',
मधुर मां, यह कैसे हो सकता है कि कोई व्यक्ति किसी चीजको ख़ोजे और फिर भी उसे यह न मालूम हो कि वह किस चीज- को ढूंढ रहा हं?
तुम अनजाने ही बहुत-मी बंती विचारते, अनुभव करते, चाहते, यहांतक कि करने .मी हो । क्या तुम अपने संबंधमें और तुम्हारे अंदर जो क्रिया हों -चाही है उस सबके संबंधमें पूर्णतया सचेतन हों? -- बिलकुल भी नहीं! उदाहरणके लिये, यदि अचानक अप्रत्याशित रूपसे किसी खांसी समयमें मैं तुमरे मुछ : ' 'तम किस विगयमें सोच रहे हों?'' तो तुम्हारा जवाब सौ- मे ए वार यही होगा : ' 'मैं नह जानता! '' और इसी प्रकार यदि मैं एक दूसरा ऐसा ही प्रश्न करूं : ' 'तुम क्या चाहते हो?'' तो नुम यही कहोगे : ' 'मुझे पता नहीं क्या चाहता हू । '' और ' 'तुम क्या अनुभव कर रहे हो?'' - ' 'मैं नहीं जानता । '' ऐसा सुनिश्चित प्रश्न
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केवल उन्हीं लोगोंसे पूछा जा सकता है जो आश्रम-निरीक्षण करनेके आहंरी है, अपनी जीवनचर्याके विषयमें जागरूक है, जिनका म्यान' इस बात- को जाननेकी आवश्यकतापर केंद्रित है कि उनके अंदर क्या पेयश्र रमता वैर और वही लोग इसका जवाब तुरंत दे सकते है । हा, जीवनके कूर? द्रुष्टोंतोंमें मनुप्य उन बातोंमें तन्मय हो जाता है जिन्हें अनुभव कन्ना, विचारता और चाहता वैद्य और तब वह कह सकता है : ''करा, मैं यह चाहता नए, मैं इसके संबंधमें विचार रहा हू, मैं इसका अनुभव करना हू,'' पर ऐसा जीवनके कुछेक क्षणोंमें ही होता है, सारे सनय नइद्रइा । तुमने कभी इसपर ध्यान दिया है (इ नहीं दिया?
अच्छा, तो मनुष्य यथार्थमें क्या है, इस बातको खोजना, वह पृथ्वीपर क्यों है, इसे ढूंढ निकालना, मनुष्यके भौतिक अस्तित्वका, उसकी उपस्थितिका, उसके इस आकार-प्रकारका, इस सत्ताका सच्चा प्रयोजन क्या है... अधिकतर मनुष्य इन प्रश्नोंको अपनेसे एक बार मी पूछे विना जिये जा रहे है! थोड़े-से उत्कृष्ट लोग ही यह सवाल गानेसे रसपूर्वक करते हैं और उससे भी कम लोग इसका जवाब पानेके लिये काम कग्ना शुरू करते है । क्योंकि जबतक सौभाग्यवश किसी जानकारसे भेंट नहीं होती तबतक इस बातको जान पाना इतना सरल नहीं है । उदाहरणके लिये, मान लो कि तुम्हारे हाथमें श्रीअरविंद कोई किताब कभी न आयी होती, न ही ऐसे लेखकों य दार्शनिनगें या मतोंमेंसे किसीकी, जिहोने अपना जीवन इस खोजके अर्पण कर दिया, यदि तुम गाहगराग जगन्मे लग्नों- करोड़ों साधारण लोगोंकी तरह रहते हो जिन्होंने कभी विशोक अवसरोंको छोड़कर कुछ दवों और धर्मोके सिवाय कुछ नहीं सुना -- ओर वह पार मी श्रद्धाकी अपेक्षा अभ्यास अद्वइवक होता है, और आजकल वह मी हमेशा नहीं, विरप्ने अवसरोंपर -- और वह धर्म भी तुम्हें कम ही यह बताता है कि तुम इस धरतीपर क्यों आये हों '... तव व्यक्ति इसके संबंधमें सोचनेकी बात भी मनमें नहीं लाता । मनुप्य रोजाना अपने दैनिन्स को करते हुए जीवन बिताता है । बन्द-पतनमें वह रखाने और खेलनेके सम्बन्ध- मे ही 'नोचता है और कुछ समय वाद पढ़नेके विषयमें, उसके बाद रिहर जीवनकी सभी परिस्थितियोके बारेमें विचारने लगता हैं । ग्ग्पितु लेनेमे इस समस्याको पूछना, इस समस्याको अदाने सामने रचना जोर मागेसे कहना : ''आखिर, मैं क्यों हूं ' '' ऐसा कितने नशे करते है? पूर-पौत्र लोगोंको यह विचार तभी गात है जव उनके सम्मुख कोई दलाल विपत्ति आ पड़ती है । जव वे अपने किसी प्रिय व्यक्तिको मरने हुए देरवता है या उन्हेंs किन्हीं विशेष दुःखद परिस्थितियोंमें डाल दिया जाता हैं, तब
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यदि वे यापन बुद्धिमान हों तो अपनी ओर मुड़कर अपने मनमें कहते है : ' 'किन्तु, वह दुखदायक स्थिति वस्तुत: क्या है हम गुजर रहे है हाट .मुमका क्या लाभ है और क्या हुश है? ''
और मनुप्य उसी द्रणसे ज्ञानकी खोज शुरू कर देता है ।
और विक्रीत जब खोज लेता है, जैसा कि वह कहता है, समझ गये, जब वह यह खोज त्रेता है कि मनुष्यमें एक दिव्य व्यक्तित्व है और यह भी कि उसे इम दिव्य व्यक्तित्वको खोजना होगा... यह बुद्धि बहुत देरके बाद आती इ, और फिर भी, सबके बावजूद, इस भौतिक शरीरमें जन्म लेनेके कालसे ही, इस मतामें, इनकी गहराईमें, चैत्य विद्यमान होता है जो सारी सत्ताका परिपुर्नाताकी ओर आगे बढाता है । किन्तु इसे, इस चैत्य सत्ताको कौन जानता और पहचानता है ' यह ज्ञान भी किन्हीं विशेष परिस्थितियोंमें ही आता त्रै, और दुर्भाग्यसे अधिकतर ये परिस्थितियां दुःखपूर्ण ही होती है अन्यथा मनुष्य बिना चिन्तन-मननके यों ही जिये जाता है । और मनुष्यकी सत्ताकी गहगईमे यह चैत्य विद्यमान होता है और चेतनाको जागने और पुनः स्थापित करने के लिये यत्न करता है, बार-बार यत्न करता है, यन्न करता ही रहता है । मनुष्य उसके बारेमें कुछ भी नहीं जानता ।
बच्चे, तुम जव १० मालके थे तो इस बातको जानते थे? नहीं, तुम जानने ने ' अच्छा, तब मी तुम्हारी सत्ताकी गहराईमें यह चैत्य सत्ता पन्ने- ग ही इम ण्कताको पान चाहती थी, इसे जाननेका यत्न कर रही थी । दायद यद्री बात तुम्हें यहा लें आपी ।
जीवन बहुत-मी घटनाएं होती है औ-र मनुष्य अपनेसे पूछता तक नहीं कि वे क्यों हुई । मनुप्य उन्हें सामान्य रूपसे लेता है. यह ऐसी खै क्योंकि यह ए_सgई ही है । यह जानना डब।- रोचक होगा कि मेरे इस सम्बन्-पमें वात करनेसे पहाड़ तुममें कितने लोगोंने अपनेसे पूछा था कि तुम यहा कैसे ज्यों गायें ?
स्वभावत आधीक-से-अधिक बार इसका जवाब शायद बड़ा सरल होता हू. ''मेरे माना-पिता यहां हं इसलिये मैं रहता तह ।'' तो भी तुम यहां- जन्मे नहीं थी । कोई भी यहा नही जन्मा । तुम भी नही, नहीं? तुम बंगलौर- भी पैदा हुत ने । यहां कोई नहीं जन्मा ।. और फिर मी तुम सब यहां हो । तुमने गलेसे इसका कारण नहीं पूछा -- ऐसा था इसलिये ऐसा हुआ! और इस प्रकार अपासे पूछनेमे और एक ऐसा सतही जवाब जो इतना सन्तोपप्रद हों कि अन्तिम मान लिया जाय, देनेके बीचमें भी और अपनेको यह कहनेमें : ''कदाचित् यह किसी नियतिकी ओर मेरे जीवनके
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प्रयोजनके प्रति निर्देश करता है?''... यहांतक पहुंचने के लिये हमें कितना लम्बा रास्ता तय करना पड़ता है!
और हरेकके लिये ऐसे कम या अधिक ऊपरी कारण होते हैं जो, इसके अलावा, बहुत महत्त्वके नहीं होते और हरेक वस्तुकी व्याख्या यथासंभव बिलकुल मामूली ढंगसे करते है, किन्तु इसका एक बहुत गहरा कारण है जिसने; सम्बन्धमें तुम अभी नहीं जानते हो । और क्या तुम लोगोंमें ऐसे बहुत-से व्यक्ति है जिनकी यह जानने ने बहुत रुचि है कि वे यहां क्यों आये हैं ? तुममें ऐसे कितने है जिन्होंने अपनेसे यह पूछा हों : '' मेरे यहां रहने का यथार्थ कारण क्रया हैं ?''
बच्चे, तुमने अपनेसे पूछा?
मैंने आपसे एक बार
ओह, ठीक है । और तुम?
मुझे याद नहीं ।
तुम्हें याद नहीं । और तुम?
पहले नहीं, माताजी ।
पहले पूछा था, मधुर मां!
और तुम?
पहले नही । अब बात बनती जा रही है । और तुम ?
नहीं ।
नहीं ।... और .मैं अभी अन्य बहुत-से लोगोमे हूं पूछ सकती हू । मैं यह अच्छी तरह जानती हूं । जो लोग।. यहा जीवनका कुछ अनुभव लेनेके बाद आये है और यहा आए है क्योंकि वे आना चाहते थे, आनेके लिये सौ- तन कारण था, स्वभावतया टोप लोग ही. मुझे कह सकते खै : ' 'मैं यहां इस कारण आया हूं,'' वह कम-से-कम एक आशिक स्पप्टीकगग होगा । नो भी हों सकता है कि बसते अधिक सच्चा और गरारी कारण उनकी पवाड़ने- सें बच निकले, अथीत् वह वस्तु जो इस भागवत कार्यमें विशोष रूपसे उप- लब्ध करनी है । इसके लिये वस्तुत: रास्तेकी बहुत सारी मंजिन्रे पार करनी होती है ।
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असलमें, मनुप्य जब अपनी अन्तरात्माके सम्बन्धमें अभिज्ञ हो जाता है, अपने चितय पुरुषके माथ एक हो जाता है केवल तभी युग-युगान्तरोंमें होनेवाले उगके व्यक्तिगत विकासका चित्र उसकी आंखोंके सामने क्षण भरके लीये कौवा सकता है । तभी मनुष्यको, वस्तुतः, ज्ञान होना शुरू होता है .. उमसे पहले नही । मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि वारतवर तभी वह बहुत. रोचक बन जाता है । वह जीवनकी स्थितिको बदल देता है।
किसी चीजको अस्पष्ट रूपसे अनुभव करना, किसी चीजकी, अर्थात् किसी शाकीतकी, क्रियाकी, आवेगकी, आकर्षणकी, किसी छूसी वस्तुकी एक अनिहिचका छाप पड़ना जो जीवनमें तुम्हें संचालित करती है -- परन्तु अब भी बहुत हल्की और अनिश्चित एवं धुधली है -- इसमें और एक स्पष्ट दर्शनमें, अन्न: निश्चित बोधमें, अपने जीवनके प्रयोजनको पूरी तरह समझनेमें बहुत अधिक भेद- है । और केवल उसी क्षण मनुष्य वस्तुओंको उनके यथार्थ लवरूपा 'देग्वना आरंभ करता है, उससे पहले नहीं । एकमात्र तभी मनुष्य अपनी नियतिके तन्नुका अनुसरण कर सकता है तथा अपने लक्ष्य एवं लक्ष्य- तक पहुँचनेके मार्गको स्पष्ट रूपसे देख सकता है । पर यह होता है केवल क्रमश: होनेवारे आन्तरिक जागरणके द्वारा ही, मानो नये क्षितिजोंमें अकस्मात् दरवाजे गुल जाते है -- यह सचमुच ही एक अधिक वास्तविक, गभीर और अधिक स्थायी चेतनाका नव जन्म है ।
तबतक तुम एक धुंधलकेमें, टटोलते हुए, ऐसी नियतिके भारके नीचे दबे रहते. हों जो कभी-कभी तुम्हें कुचल देती है और तुमपर यह प्रभाव डालती है कि तुम्हारा निर्माण अमुक ढंगसे ही हुआ है और उसके सम्बन्धमें तुम कूल्हा नही कर सकते । तुम जीवनके एक ऐसे बोझके तले दबे पडे खो जो तुमपर सवार रहता है और ऊपर उठकर उन सब तन्तुओंको, संचालन करनेवाले तारोंका, उन विभिन्न सूत्रोंको जो विभिन्न वस्तुओंको, प्रगति- की छीमी क्रिया बाध देते है जो स्पष्ट होती हुई उपलव्धिकी ओर अइग्रसर करती है, विभिन्न म्त्रोंको देखनेके स्थानपर तुम्हें जमीनपर रेंगनेको बता करना है ।
मनुष्यको इस अर्द्ध चेतनामेमे कूदकर बाहर निकल आना चाहिये जिसे साधारणतया बिलकुल स्वाभाविक माना जाता है; --- वह तुम्हारे जीवनका 'सामान्य'' ढंग है और तुम उससे इतनी दूर भी नहीं हट जाते कि इस अनिश्चितता, इस मुस्पटटताकै अभावको देखकर आश्चर्य प्रकट कर सको; जव कि, इसके विपरीत, यह जानना कि व्यक्ति खोज- रहा है और उस खोज- को सचेतन हरिसे, स्वेच्छासे, अटल रहकर और विधिवत् करना एक ऐसी
स्थिति है जो वस्तुत: दुर्लभ लगभग 'असाधारण' है और फिर भी यथा जीवनमें, तो मनुष्य. इसी तरह शुरू करता द्रै ।
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२३ जनवरी, १९५७
अन्त
''मनुष्य और भगवान्के मिलनका हमेशा यह अर्थ होना चाहिये कि भगवान् मानव सत्ताको भेदकर उसमें समाविष्ट हो जायं और मनुष्य अपनेको भगवान्के अंदर निमग्न कर दे ।
किंतु यह निमज्ज्जन आत्मविलय जैसी कोई चीज नहीं है । इस सब खोज, और आवेगकी, कष्ट और हर्षोन्मादकी परिणति निर्वाण नहीं है । यदि इसका अंत यही होता, तो यह लीला कभी शुरू ही न हुई होती ।
दिव्य आनंद ही रहस्य है । विशुद्ध आनंदको जान लो और तुम भगवान्को जान जाओगे ।
तो फिर इस सारी लीलाका आदि क्या था? वह सत् जिसने अपनेको एकमात्र सत्ताके आनंदके लिये बहुविध रूपोंमें व्यक्त करके असंख्य, कोटि-कोटि रूपोंमें डुबकी लगा दी जिससे वह अपनेको अनगिनत रूपोंमें पा सकें ।
और मध्य क्या है? विभेद, जो बहुविध एकत्वके प्रति जानेका यत्न करता ह, अज्ञान, जो नानारूप पूर्ण प्रकाशकी बाढकी ओर जानेका प्रयास कर रहा है, दुःख जो अकल्पनीय आनंद समाधि- का स्पर्श पानेके लिये घोर परिश्रम अनुभव कर रहा है । क्योंकि ये सारी चीजें अंधकारमय आकार और विकृत स्पंदन है ।
और सारी वस्तुका अंत क्या है? जैसे मधु अपना और अपनी
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सारी बूंवोंका इकट्ठा स्वाद ले सके और उसकी सभी बुंदे एक- दूसरेका तथा प्रत्येक बूंद स्वयं संपूर्ण मधुकोशका स्वाद ले सके, इसी तरह परमेश्वरकी, मानवके अंतरात्माकी और इस विश्व- की परिसमाप्ति होनी चाहिये ।
प्रेम प्रधान सुर है, आनंद संगीत है, शक्ति तान है, ज्ञान गायक है, और वह अनंत सर्वात्मा ही इसका रचयिता और श्रोता है । अभी हम लोग केवल प्रारंभिक बेसुर स्वरोंको ही जानते हैं । वे उतने ही भयंकर है जितनी उनकी स्वरसंगति महान् होगी; पर हम आनंदराशिके बहुमुखी संगीतको अवश्य पा लेंगे ।''
मनुष्य विशुद्ध आनंदको कैसे जान सकता है?
सबसे पहले, शुरू करनेके लिये व्यक्तिको ध्यानपूर्वक निरीक्षणद्वारा यह जान केना होगा कि कामना एवं कामनाओंकी तृप्ति एक ऐसा हलका और आनैश्चित सुरव प्रदान करते है जो मिएाइत्र, क्षणजीवी और एकदम असन्तोपदायक होता है । सामान्यतया यही पहला कदम होता है ।
उसके बाद, यदि व्यक्ति समझदार हो तो उसे कामनाको पहचानना सीखना होगा और ऐसे किसी भी कामसे बचना होगा जो उसकी कामनाओंका सन्तुष्ट करे । मनुष्यको उन्हें सन्तुष्ट करनेका यत्न किये बगैर ट्रे धकेल देना चाहिये । और फिर इसका पहला नतीजा, ठीक उन्हीं प्रांरभिक पीग्णामोंमेसे एक होगा जिसे विद्वन् अपने उपदेशोंमें यों स्पष्ट किया हू कामनाको तुरन्त करनेकी अपेक्षा उसे जितने और उसका परित्यागकरने- मे भपारा रूपसे अधिक महान् आनन्द है । प्रत्येक सत्यनिष्ठ और दृढ- निश्चयी माधकको कुछ समय बाद, देर या सवेर, कभी-कभी बहुत ही जल्दी यह होगा यह एक परम सगर्भ्य है, और कामनापर विजय प्राप्त करनेसे अनुभव होनेवाला आनन्द कामनाकी तृाएतसे प्राप्त हो सकनेवाली दाणजीवी और मिपइत सुखसे इतना अधिक ऊंचा होता है कि उससे दुमकी तुलना नहीं हो सकती । यह हुआ दूसरा कदम ।
साधनाको निरन्तर जारी रखनेसे, स्वभावत: ही, बहुत थोड़े समयमें कामनाएं बहुत पीछे रह जायेगी और फिर वे तुम्हें तंग नहीं करेंगी । इस प्रकार तुम अपनी सत्ताके अन्दर थोडी अम्निक गहराईमें प्रवेश करनेके ' लिये स्वतंत्र हों जाओगे ओर अपनेको... आनन्ददाताके, दिव्यतत्वके, भाग-
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वत कृपाके प्रति अभीप्सा करते हुए उद्घाटित कर लोगे । और यदि ऐसा सच्चे आत्म-समर्पणके साथ किया जाय -- ऐसे भावके साय जो अपने- को अर्पित करता है, प्रदान करता है और अपने उत्सर्गके प्रतिदानके रूपमें किसी चीजकी आशा नन्हों करता -- तो व्यक्ति एक ऐसी मधुर, सुखद, अन्तरंग, ज्वलंत, स्नेहभरी ऊष्माका अनुभव करेगा जो हृदयको परिपूर्ण का देती है और दिव्य आनन्दकी अग्रदूत होती है ।
इसके बाद मार्ग सरल होता है ।
मधुर मां, सत्ताका सच्चा 'आनंद' क्या है?
वही जिसके बारेमें में बता रही इ!
उसके बाद, मधुर मां, यहां जब श्रीअर्रावंद एक ऐसी सत्ताकी बात कहते है : ''जिसने अपनेको मात्र अस्तित्वके आनंदक लिये नाना रूपोंमें व्यक्त किया,'' तो यह आनंद क्या है?
अस्तित्वमें रहनेका आनन्द ।
एक ऐसा भी समय आता है जब व्यक्ति तैयार होने लगता है, जब प्रत्येक चीजमें, हरेक पदार्थमें, एक-एक क्रियामें, एक-एक स्पन्दनेमे, अपने चारों ओरकी सभी चीजोंमें -- केवल लोगों और सचेतन सत्ताओंमें ही नही बल्कि वस्तुओं एवं 'पदार्थोंमें, केवल पैड-पौधों और जीवित वस्तुओंमें ही नही किन्तु उपयोगमें आनेवाली किसी भी चीजमें, अपने चारों ओरपिरी वस्तुओ- मे -- इस आनन्दको, सत्ताके इस आनन्दको, केवल वही होनेके आनन्द- को जो व्यक्ति है, केवल होनेके आनन्दको अनुभव करता है । जोरु वह देखता है कि सब कुछ उसी रूपमें सम्बन्धित हों रहा है । किसी वस्तुको स्पर्श करते ही वह उस आनन्दका अनुभव करता है । पर मैं कहती इं कि स्वभावत: ही, मनुष्यको पहले उस साधनाका अम्यास का रैन लिये चाहिर्य जिसके संबंधमें मैंने प्रारंभमें कहा है, अन्यथा, जबतक व्यक्तिमे कामना पसंदगी, आसक्ति या अनुरक्ति एवं विरक्ति ओर यह सब होता है -दावत-त्र- वह आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता -- बिलकुल नही कर शकता ।
और जबतक मनुष्यको किसी चीजमें सुख -- सुख, हा, किसी चीजमें प्राणिक और भौतिक सुख --मिलता है, तो वह हंस आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता । क्योंकि यह आनन्द सर्वत्र विद्युत है । यह आनद एक बहुत सूक्ष्म वस्तु है । वस्तुओंमें विचरण करते समय तुम्हें ऐसा लगता
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है मानों वे आपने आनन्दको तुम्हारे सामने गकार व्यक्त कर रहे हों । ऐसा भी समय आता है जब तुम अपने चारों ओरके जीवनमें इसके आदी हो जाती हो । स्वभावतया, मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि इस आनन्दको मानव सत्ताओंमें अनुभव करना थोड़ा अधिक कठिन है, क्योंकि उनमें पूरी बहुत-सी मानसिक और प्राणिक रचनाएं होती है जो प्रत्यक्ष प्रदर्शन क्षेत्रमें आती है और आनन्दको अस्त-व्यस्त कर देती है । उसमें इस तरहकी अहंकारपूर्ण कठोरता अधिक मात्रामें होती है जो अन्य वस्तुओंके साल भिथीत हों जाती है, इसलिये वहां आनन्दका स्पर्श पाना अधिक मुश्किल होता हैं । पर व्यक्ति पशुओंमें भी इस आनन्दका अनुभव कर सकता है; अभीतक यह रहनुमा पौन्गेंकी अपेक्षा उनमें जरा अधिक कठिनाईसे आता है । किंतु पौधोंमे, फुत्होंमे यह अनुभव बहुत अद्भुत होता है! वे अपने मारे आनन्दको मानों वाणी द्वारा व्यक्त करते है, बाह्य रूपमें प्रकट करते है और जैसा न्कि मैंने कहा, चेतनाकी एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें सभी पदार्थ, युक्तिके चारों ओरकी चीज़ें, उसके द्वारा प्रyउक्त चीजों, प्रत्येक अपने यथास्थिति रूपमे सुखी होती है । तो व्यक्ति इस प्रकार उस क्षण जान जाता है कि उसने सच्चे दिव्य आनन्दका स्पर्श पा लिया है । और: यह स्थिति किसी शर्तसे बंधी नहीं होती । मेरा आशय ह यह नन्हा होती... यह किसी भी वस्तुपर आश्रित नहीं होती । यह वाद्य निर्भर नहीं करती, यह क्म या अधिक अनुकूल रर्गर्गस्थगिरं निर्भर नहीं करती किसी भी वस्तुपर निर्भर नहीं करती : बह म्लतत्वके साथ मिलनकी स्थिति है ।
ओर -ताव यह अवस्था आती हू तो शरीरके सब कोषाणुओंमें व्याप्त हों ननि1 है । यह कोई ऐसी चीज नहीं होती जिसके संबंधमें विचारा जाय - मनुप्य उस अवस्थाग्रे तर्क नहीं करता, विश्लेषण नहीं करता, ऐसा कुछ मी नहो होता : यह ऐसी स्थिति हे जिसमें मनुष्य केवल निवास करता खै । ओर जब शरीर इसमे हिस्सा लेता है तो यह इतना ताजा -- इतना ताजा, इतना सहज, इतना... कि उसके बाद मनुष्य अपनी ओर नहीं चौटता, उस,। अम्मी-निरीक्षणका, आत्म-विश्लेषणका या वस्तुओंके विश्लेषणका कोई .भाव नहीं रहता । यह सब मानों एक उल्लासभरे स्पन्दनोंका गीत बेन- जाता लौ परंतु बहुत, कहुत ही शांत, तीव्रतासे रहित, आवेग से रहित होता है, उसमें यह सब कुछ नहीं होता । यह बड़ा सूक्ष्म और साथ ही बहुत सघन होता हैं, और उसके आनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि सारा बिस्तर ही एक अभूत स्वरसंगति हैं । वह वस्तु भी जो सामान्य मानव चननाको भद्दा ओर अप्रीतिकर लगती है अब अद्भुत लगता' है ।
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दुर्भाग्यवश, जैसा कि मैंने कहा, लोग, परिस्थितियां, ये सब उन मानसिक एवं प्राणिक रचनाओंके साथ सारे समय परेशान करते रहते है । और तब मनुष्य वस्तुओंके इस अज्ञान और अंधकारपूर्ण प्रत्यक बोलरकी. और लौटनेके लिये बाध्य हों जाता है । किंतु, इसके विपरीत, ज्यों ही वह सब समाप्त हो जाता है और व्यक्ति उसमेंसे बाहर निकलनेमें समर्थ हो जाता है... तो सब कुछ बदल जाता है । जैसे कि वे वहां अपने कथनके अंतमें कहते है : सब कुछ बदल जाता है । अद्भुत सामंजस्य होता है! सब कुछ दिव्य आनन्द, सच्चा 'आनंद', विशुद्ध 'आनन्द' वन जाता हैं।
यह बात थोडी मेहनतकी मांग करती है ।
और इस साधनाका जिसके संबंधमें मैंने कहा था और जो हमें करनी है, यदि आनन्द प्राप्तिको लक्ष्य बनाकर इसका अम्यास किया जाय नो फल देरसे प्राप्त होता है, क्योंकि बीचमें एक अहतापूर्ण तत्व घुस आता है, वह एक उद्देश्यको लेकर किया जाता है और समर्पण नही रह जाता, यह एक मांग बन जाता है और उसके बाद.. इसका फल मिलता खै ओर मिलेगा ही, चाहे इसमे' अधिक देर क्यों न लगे युक्ति जव किसी चीज- की मांग नहीं करता, किसी चीजकी अपेक्षा नही करता, आशा नही कर्ता और जब उसके साथ एक हों जाता है, अर्थात् आना-समर्पण कग्ना है, उसमें आत्म-समर्पणका, अभीप्साका भाव होता है और मौदेवाजीकी भावनाके बिना केवल सहज दिव्य बननेकी इच्छा होती है, बम ।
माताजी, आप इस ''मधु विद्रू" समझायंगी?
ओह! मधु..., लेकिन, मेरे बच्चे, यह तो एक उपमा हैं ।
श्रीअरविन्द कहते है ''यदि कोई कल्पना कर सकें.. '' केवल वुडिप्रधान भावनात्मक रूप देनेकी अपेक्षा अधिक ठोस रूपसे समझानेके लिये यह कहा गया है । वे कहते है उदाहरणके लिये यदि तुम ऐसे मधुकोश- की कल्पना कर सको, हां... ऐसे मधुकोशकी जिसमे अपनेको और साय' ही मधुकी प्रत्येक बूदको चखनेकी शक्ति हो; केवल अपनेको मधुके रूपमे चखनेकी ही नही बल्कि प्रत्येक बूंदमें अपने-आपको चलनेकी, मधुकोगर्का प्रत्येक बूंद हों जानेकी, और यदि इनमेंसे प्रत्येक बुध अन्य सबक़ों सके, अपनेको और अन्य सबको, और साथ ही यदि प्रत्येक बुध मानो स्वयं मधु- कोश बनकर उसका स्वाद ले सकें ।
तो यह ऐसा मधुकोश होगा जौ स्वयं अपनेको चख सकेगा ओर मg- कोशकी सब बूंदोंका सर्वांग रूपसे स्वाद ले सकेगा, और प्रत्येक ब्रेद अपनेको
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तथा अलग-अलग बूंदोंको एव समग्र मधुकोशको, अपने रूपमें चख सकेगी .. यह बिलकुल ठीक उपमा है । इसमे। लिये केवल कल्पना-शक्तिकी आवश्यकता है!
ऐसे तो मैं समझता हू । मैं पूछ यह रहा हू कि यह किसीका प्रतीक है?
मधु एक स्वादिप्ट वस्तु है, है न ' तो ये बूंदें दिव्य हर्षके आनन्द हैं । और अभी, जब मैं चीजोंके भीतर स्थित इस स्वयं स्फूर्त और सादे हर्ष- का याद कर रही थीं, उस हर्षको जो सब वस्तुओंके अन्तरमें निवास करता हैं, खैर, वस्तुके लिये यह सचमुच ही कुछ चीज -- ओह! इसकी तुन्ग्नामे मधुका स्वाद अवश्य ही, बहुत भद्दा और निकृष्ट होता है - परन्तु हुपूंछ वैसा ही, बहुत स्वादिष्ट होता है । और यह बड़ा सरल, बहुत ही सरल और अपनी अकृत्रिमता पूर्ण होता हे समग्रतया अकृत्रिम होनेके साथ-साथ बहुत सरल भी होता है ।
तुम जानते हो यह ऐसी वस्तु नहीं जिसपर सोच-विचार किया जाय, व्यक्तिमे इसका आह्वान करनेकी शक्ति होनी चाहिये, व्यक्तिमें थोडी-बहुत कल्पना-शक्ति होनी चाहिये । तो, यदि मनुष्यमें ऐसी क्षमता हो तो वह केवल पढ़कर ही कर सकता है, तब वह समझ सकता है । एक उपमा हूं, केवल एक उपमा है, किन्तु ऐसी उपमा है जिसमें सचमुच आहुंन करनेकी क्षमता है ।
माताजी, प्रत्येक व्यक्ति मित्र-मित्र वस्तुकी करेगा, नहीं?
स्पष्ट खै । किन्तु इस बातका कोई महत्व नहीं । उसके लिये वह ठीक होगी ।
( मैन)
बम ?
मैं उन प्रशानोंको साय लायी थी मेरे सामने रखे गये थे, लेकिन मैं समझती हू कि हमें पहले ही थोडी देर हों गयी है ( माताजी प्रश्नोंपर नजर डालती है) ।
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इनमेंसे एक प्रश्न अत्यन्त बौद्धिक है । इसे हम कमी और दिनके लिये छोड़ देते है । एक और भी है... जो मात्र- दिखावे के लिये किया गया है, और फिर तीसरा प्रश्न भी है, वह बड़ा रोचक है किन्तु इसका रंन्यौरे- वार जवाब देनेकी जरूरत है और आज हमें वैसे ही कुछ देर हो गयी है ।
तथापि यह है एक अन्य प्रश्न जिसका जवाब बड़ी आसानीमे दिया जा सकता है, यह मेरे एक लेखमेंसे लिया गया हैं जिसमे कहा गया है :
''यह मान लेना एक भारी भूल होगी कि भागवत संकल्प जगत्में हमेशा प्रकट रूपमें काम करता है ।',
और फिर श्रीअरविन्दके 'योग समन्वय'में
''यदि हम सब जगह एकत्वको देखे, यदि हम यह पहचान लें कि सब कुछ भगवान्के संकल्पसे ही होता है... इत्यादि ।',
और एक अन्य वस्तु मेरी पुस्तक 'प्रार्थना और ध्यान'मे
''प्रत्येक वस्तु एवं प्रत्येक सत्तामें तू ही कर्त्ता है, और जो व्यक्ति तेरे इतने अधिक समीप है कि निरपवाद रूपसे, सब कर्मोंमें तेरा दर्शन कर सकता है, प्रत्येक कर्मको आशीर्वाद- मे बदलनेका रहस्य जान लेगा ।',
( दिसम्बर १०, १९१२)
और इसलिये मुझसे पूछा गया है कि इन विरोगेंमें किस प्रकार मैल बैठाया जाय । किन्तु इनमें मुझे कोई विरोध नहीं दाहिना । क्योंकि पहले वाक्यमें कहा गया है : ''यह मान लेना एक भारी भूल होगी कि जगत्में भगवान संकल्प सदा खुले रूपमे काम करता है ।',. मैं कहूगी, ऐसा बहुत ही कम होता है जब वह प्रकट रूपमे काम करता हो । वह सदा कार्य करता है, किन्तु प्रकट रूपसे नही । और जब वह प्रकट द्वाग्से कार्य करता है तो उसे ही लोग ''चमत्कार'' कहते है । और ऐसा वरिष्ठ ही होता है । अधिकतर तो यह प्रकट रूपसे काम नहीं करता, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह काम नहीं करता । वह प्रकट रूपसे कार्य नहीं करता, बस इतना ही । इसलिये इसमे परस्पर विरोध नहीं है । बस, यही मेरा
आशय था । यह विरोध बिलकुल ऊपरी जो शब्दोंका अर्थ न समझने- के कारण हुआ हैं ।
'भागवत संकल्प काय करना है, पर खुले रूपमें नहीं । जब वह खुले रूपमें काम करता हैं तो लोग उसे चमत्कार कहते है । बस इतना ही । लोकने यह उसे कार्य करनेसे नहीं रोकता ।
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३० जनवरी, १९५७
बन्धन
''सारा संसार स्वतंत्रताके लिये तरसता है, फिर भी प्रत्येक प्राणीको अपने बंधन प्रिय होते है । यह हमारे स्वभावका पहला विरोधाभास हैं और न सुलइगई जा सकनेवाली एक गुत्थी है ।
मनुष्य जन्मके बंधनसे प्रेम करता है इसलिये वह उसके साथ आनेवाले श्रुप्युकै बंधनोंमें पकड़ा जाता है । इन सब बंधनोंमे रहता हुआ. वह अपनी सत्ताकी स्वतंत्रताके लिये और अपनी पूर्णत्व-प्राप्तिकी सिद्धिके लिये अभीप्सा करता है ।
मनुष्य शक्तिले प्रेम करता ह, इसलिये वह दुर्बलताओंके वशवर्ती। झेता है । क्योंकि संसार शक्तिकी लहरोंका समुद्र है जो आपसमें टकराती है और लगातार एक-दूसरीपर उमडउमड़कर आती हैं । जो एक लहरके शिखरकी सवारी करना चाहता है उसे दूसरी सैकड़ों लहरोंकी थपेड़ोंकी मारसे बेसुध होना ही होगा ।
मनुष्य सुखसे प्रेम करता है इसलिये उसे दुःख-दर्द के जुएके नीचे आना पड़ता है । क्योंकि शुद्ध आनंद जिसमें दुःख का मिश्रण नहीं, केवल स्वतंत्र और राग-रहित आत्माके लिये है । पर मनुष्यके अंदरकी जो वस्तु सुखोंके पीछे दौड़ती है वह दुःख उठानेवाली और आयास करनेवाली एक प्राण-शक्ति है ।
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मनुष्य शांतिका भूखा होता है पर साथ ही उसे व्याकुल मन और व्यथित हदयके अनुभवोंको पा लेनेकी तृष्णा भी लगी होती है । भोग उसके मनके लिये एक ज्वर है, शांति एक जड़ता और उबाऊ एकरसता है ।
मनुष्य अपनी भौतिक सत्ताकी सीमाओंसे प्रेम करता है पर साथ ही बह अपने अनंत मन और अमर आत्माकी स्वतंत्रता- को भी पाना चाहता है ।
मनुष्यके अंदरकी कोई वस्तु ऐसी है जो इन विरोधोंमें एक अद्भुत आकर्षण पाती है । ये सब विरोध उसकी मानसिक सत्ताके लिये जीवनकी कलामयताको बनाते हैं । न केवल अमृत ही, बल्कि विष भी उसकी रुचि और उत्सुकताको आपीन ओर आकृष्ट करता है ।''
(विचार और डाकिया)
मधुर मां, ''कलामयता''का अर्थ क्या है?
अधिकतर लोग जिसे ''कलात्मक'' कहते है, वे केवल वैषम्य है । कलाकार ऐसा कहते हैं और अनुभव करते है कि छाया ही प्रकाशको बनाती खै, यह भी कि यदि वैषम्य संभव न होता तो वे चित्र न बना सकते । संगीतके साथ भी यही बात है : स्वरोंके उतार और चढावके बीच वौग्म्य ही संगीतके बडे-से-बडे आकर्षणोंमेंसे एक है ।
मैं कुछ कवियोंको जानती थी जो कहा करते थे : ''अपने शत्रुत्राकी घृणाके कारण ही हम अपने मित्रोंके प्रेमका मूल्य समझ पाते है ।''.. और किसी सुनिश्चितसी विपत्तिकी संभावना ही सुखर्को उसका पूरा स्वाद देती है, इत्यादि । दैनिक आकुल हलचलके विरोग्मे ही उन्हें विश्रामका और सामान्य शोरगुलके कारण ही उन्हें र्नोरवता मूल्य समझमे आता है । उनमेंसे कुछ तो तुम्हें यहांतक कहते हैं : ''ओह! क्गेंकि है इसीसे सुस्वास्थ्यका मूल्य है ।'' यह- विचार यहांतक आगे जाना हैं कि किसी वस्तुके मूल्यका तभी पता चलता है जव वह तो जाती हो । ओर जैसा कि श्रीअरविंद यहां कहते है : जब क्रिया-प्रवृत्तिका यह ज्वर नही हा ?, कल्पनाशील विचारने यह सक्रियता नही होती लड़ मनुष्यको लगता है कि वह जगत्में जा गिरा है । बहुत सारे मनुष्य नीरवता, शांति और निश्चलतासे
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डरते है । वे जब सक्रियतासे भरे नहीं होते तो अपनेमें वे जीवन ही अनुभव नहीं करते ।
भैने बहुत-से ऐसे उदाहरण देखे जिनमे श्रीअरविन्दने किसीको शांति प्रदान की, उसके मनको शांत बना दिया ओर वह व्यक्ति उनके पास उदास- मी हालतमें वापस आया और कहा : ''मैं' तो जसुमति हो गया हू,'' क्योंकि उसकी विचार-र्शानेत सक्रिय नहीं रही थी ।
जो बात वह यहा कह रहे है, वह एकदम घोर सत्य है । मनुष्य स्व- सुनता गो चाहते- 'है पर उन्हें अपने बंधन भी प्रिय है और जब कोई उनमें बंधनोंकी ले लेना चाहता और उन्हें सच्ची मुक्तिका पय दर्शाना चाहना है, नो वे डर जाते है, यहांतक कि वे प्रायः प्रतिरोध करते है !
मनुष्यकी प्रायः सभी कलाक़ुतियां -- साहित्यिक, काव्यात्मक, कलात्मक -- जीवनमें मित्र वैपम्योंपर आधारित होती है । जब कोई (अपनी कृतिमें) लोगोंको उनके 'दैनिक जीवनके नाटकमेंसे बाहर निकालनेकी चेष्टा करता है नो ३ सचमुच ऐसा अनुभव करते है कि यह कृति कलापूर्ण नहीं है । यदि रक ऐसी पुस्तक लिखना या एक ऐसे नाटककी रचना करना चाहते है जिसमें कोई वौग्म्य न हो, जिसमें हर चीज सामंजस्यपूर्ण रूपसे पवित्र, मरद हो, जहां कोई छाया न हो तो संभवत: यह एक ऐसी चीज होनी जो बहुत अधिक नीरस, उबाऊ और एकदम जीवनहीन प्राणि होगी, नपोकि मनुप्य जिसे ''जीवन'' कहता है वह है जीवन-नाटक जीवन-चिंता, जीवनके तंत्र विरोध । अडाकर संभवतः यदि मृत्यु न रहे नो लोग जीवनसे बुरी तरह ऊब जाय ।
(लंबा मौन)
फलके किसी क्द्रा-प्रसंगभे भैने जो कहा था उससे संबंधित एक प्रश्न मुझमें पूछा गया है :
''जव कोई व्यक्ति किसी लक्षित वस्तुको पाना चाहता है तो जो कठिनाइयां और बाधाएं रास्तेमें आती है -- क्या वे प्रायः इस बातका चिह्न होती हैं कि यह निश्चय, यह योजना, यह प्रयोजना प्रारंभसे सदोष थी और इसलिये इसे जारी नहीं रखना चाहिये या, ठीक इसके विपरीत, जो विजय हमें पानी है, जो रूपांतर हमें सिद्ध करना है बे उसे सूचित करती है?
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क्या वे इस बातका चिह्न हैं कि व्यक्तिको अध्यवसायकी साथ डटे रहना चाहिये? मैं यहां योग-मार्गपर चलनेके निश्चयकी बात नहीं कर रहा हू, बल्कि यह उन छोटे-छोटे निश्चयोंकी बात है जो काम, रवेल था दूसरे क्रियाकलापोंके बारेमें हम लेते हैं । दूसरे शब्दोंमें, परिस्थितियोके, दूसरोंके साथ संबंधोंके और अनुभवके द्वारा जो 'निर्देशन' हमतक आता है उसे हम कैसे पहचानें और समझें? ''
मैं समझती हू यह केवल ऊपरी विरोध हैं ।
यदि कोई योग-साधना करना चाहता है तो स्वभावत: ही उसे किसी कामको हाथमें लेनेसे पहले यह जानते और स्पष्ट रूपसे देखनेकी कोशिश करनी चाहिये कि जो प्रेरणा उसे यिग्ली है वह सच्ची है, भगवान्से आयी है या सिर्फ .बाह्य परिस्थितिजन्य एक प्रतिक्रिया है, एक प्राणिक या मान- सिक तरंग है । यह काफी महत्वपूर्ण, बल्कि अत्यत महत्त्वपूर्ण है कि हम स्पष्ट रूपसे इसे देखनेका प्रयास करें और कारणकी पूरी जानकारीके साथ कोई क्रिया करें । परन्तु ऐसी बहुत सारी चीजे है जिन्हें व्यक्ति करता है पर जिनके बारेमें पहलेसे सोचनेकी उसकी आदत नहीं होती । जब परि- स्थिति आती है वह तदनुसार कर देता है । और 'मृंल्त: वे चीजों अपने- आपमें महत्त्वपूर्ण होती भी नहीं, लगभग अन्य दूसरी चीजों-ही तरh ही होती है जिन्हें व्यक्ति जीवनमें करता है । एकमात्र महा तेजी है वह वृत्ति जिसके साथ उन्हें किया जाता है । तुम्ह यह वात कि तुम किसी कामको इसलिये करते हो कि वह किसी ए_क या दुसरे कागगमे तुम्हारे सामने आ गया है और यह कि युक्तिक गदा हंडी टगे क्;. । लिये बाधित होना पड़ता है जबतक कि' वह बाह्य 'जीवनने रहता हैं ओर उस सबका जीवन-व्यवहारकी' दृप्टिसे एक विशेष जहर व हष्णेता भें', यदि ये काम जीवनमें काफी गहरा असर रखते हों -- जैसे कि दादा करना, इस या उस विशेष स्थानपर जाकर बसने. किसी धनेनो( अपनाना'; सामान्यत: ये चीजों काफी महत्त्वपूर्ण समझी जाती है और कुछ हद;।--ह है भी; पर इनके लिये भी योगकी दृष्टिसे प्रदयेक चीज निस्ता ककृग्नी हैं उस वृत्तिपर जिसे व्यक्ति अपनाता है, न. कि अपने-आप उस चीजपर । इस- लिये, और इन सबसे भी अधिक, उन सब छोटे-छोटे कामोंका जिन्हें न्यक्ति दैनिक जीवनमें करता है, महत्व एकदम ही कम हो जाता है ।
कुछ ऐसे अति-धर्मशील लोग होते है जो अपने सामने समस्याएं तो खड़ी कर लेते है पर उन्हें सुलझाना उनके लिये बड़ा कठिन होता है,
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क्योंकि वे समस्याको रखते ही गलत रूपसे है । मैं एक युवतीको जानती थी जो यियोसोफिस्ट थी और साधंनाम्यास कर रही थी, उसने मुझसे कहा : ''हमें सिखाया जाता है कि हम जो भी करें उस सबमें भगवान्की इच्छा पूरी होनी चाहिये, पर प्रातः जब मैं अपना नाश्ता करती हू तो उसमें मैं कैसे यह जान सकती हू कि भगवान् मेरी कॉफीमें दो चम्मच चीनी डलवाना चाहते है या केवल एक? ''... और यह काफी हृदयस्पर्शी था, है न, और मुझे उसे समझनेमें थोडी कठिनाई हुई कि वह भावना जिसके साथ वह अपनी कॉफी पीती है और वह वृत्ति जो वह अपने भोजन- के प्रति रग्हती है, कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है बनिस्बत इसके कि कितने चम्मच चीनीके उसने अपनी कॉफीमें डाले । '
उन सभी छोटी-छोटी चीजोंके बारेमें जिन्हें व्यक्ति प्रतिक्षण करता है ऐसी ही बात है । भागवत चेतना मानवी ढंगसे कार्य नही करती । वह यह निश्चय नहीं करती कि चीनीके कितने चम्मच तुम अपनी कॉफीमें डालों । वह तो धीरे-धीरे कामों और चीजोंके प्रति तुम्हारी वृत्ति ठीक कर देती है- यह वृत्ति होती है समर्पणकी, नमनीयता, निष्ठा, अभीप्सा, सद्भावना, मृदुता और प्रगतिके लिये प्रयत्न-तत्परताकी -- और यह चीज उन छोटे-छोटे निश्चयोंसे जो तुम्हें प्रतिक्षण करने होते हैं, कही अधिक महत्त्वकी है । मनुष्य यह जाननेकी चेष्टा कर सकता है कि क्या करना सर्वोत्तम है, पर इन बातोंको किसी मानसिक विवेचन या मानसिक पहेलीके द्वारा सुलझाया नहीं जा सकता । असलमें तो एक आंतरिक वृत्तिके द्वारा, जो समस्वरताके - प्रगतिशील समस्वरताके -- वातावरणका निर्माण करती है, यह संभव बनता है कि उसमें व्यक्ति जो कुछ करता है वह सब उस समयकी परि- स्थितिके अनुसार आवश्यक रूपसे सर्वोत्तम होता है । और आदर्श स्थिति तो यह है कि वह वृत्ति इतनी पूर्ण हो जाय कि काम अपने-अपि सहज रूपसे बाह्य बुद्धिके नहीं, बल्कि किसी दूसरी चीजके अधिदेशनमें स्वयं चलता रहे । पर यह, यह तो एक आदर्श अवस्था है - जिसके लिये मनुष्यको अभीप्सा करनी चाहिये और जिसे वह कुछ समय बाद पा भी सकता है । और तबतक सच्ची वृत्ति, सच्ची अभीप्सा बनाये रखनेकी सावधानी रखना
'एक शिष्यको याद है कि ठीक इसी कहानीके प्रसंगसे श्रीमाँने उससे कुछ इस आशयकी बात कही थी :
''अब मैं उस बेचारी भद्र महिलापर और नहीं हंसूंगी । हम अपनी कॉफीमें कितने चम्मच चीनी डालें, इसपर भी प्रभु ध्यान न देते हों ऐसा मैं अब निश्चयसे नही कह सकती! ''
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कही अधिक महत्त्वपूर्ण है बजाय यह निश्चय करनेके कि तुम सामूहिक व्यायाम करो या न करो, किसी नियतं कक्षामें जाओ या न जाओ । क्योंकि इन चीजोंका अपने-आपमें कुछ भी मूल्य नहीं है, इनके मूल्य सापेक्ष होते हैं, एकमात्र महत्त्वकी चीज है अपनी अभीप्साकी ठीक दिशा और प्रगतिके लिये जीवंत संकल्प बनाये रखना ।
एक सामान्य नियमके रूपमें, और इसलिये कि अनुभवका संपूर्ण लाभ मिल सकें जब कोई व्यक्ति किसी कामको हाथमें लें तो बाधाओं और कठिनाइयोंकी कोई परवाह किये बिना उसमें अध्यवसायके साथ लगे रहना चाहिये जबतक कि कोई एकदम सुनिश्चित घटना यह संकेत न करे कि इसे आगे चलाना, अब और करना ठीक नहीं । ऐसा होता विरल ही है । सामान्यतया तो, चीजें अपनी ही धाराका अनुसरण करती हैं और जब वे समाप्तिपर पहुंचती है -- या तो वे अंतको प्राप्त होती है या वांछित परिणाम पैदा करती है - तभी व्यक्ति उनके करनेका असली हेतु जान पाता है । परन्तु बाधाएं, विरोध (या प्रोत्साहन) को ऐसा सुनिश्चित संकेत नहीं समझना चाहिये जिन्हें मानकर चला जाय, क्योंकि ये चीजों स्थिति- स्थितिके अनुसार बिलकुल विभिन्न अर्थ रख सकती है । सो ये बाहरी घटनाएं ऐसी चीजों बिलकुल नहीं हैं जिनसे अपने हाथमें लिये कामकी जांच की जाय । जब कोई व्यक्ति बहुत सचेत और बहुत सच्चा होता है तो जो करना उसने अंगीकार किया है या जो पहलेसे कर रहा होता है उसके मूल्य-महत्वकी बाबत उसे संकेत मिल सकता है, अर्थात् एक आन्तरिक पर बिलकुल स्पष्ट संकेत । वस्तुत: जो पूरी तरह सद्भावनापूर्ण होता है, अर्थात् जो पूरी सच्चाईके साथ, अपनी सत्ताके समूचे भागोंमें ठीक चीज, ठीक तरीकेसे करना चाहता है उसके लिये सर्वदा सकेत होता है । यदि किसी एक या दूसरे कारणसे वह कम या अधिक बुरे कामका प्रवर्तन कर बैठता है तो सर्वदा ही अपने हृदयमें एक बेचैनी अनुभव करता है, ऐसी बेचैनी जो बहुत तीव्र तो नही होती, जो नाटकीय ढंगसे जबर्दस्ती अपनेको जताती तो नहीं, पर होती बहुत स्पष्ट है उसके लिये जो सचेत है, यह खिन्नता जैसी, समर्थनके अभाव जैसी चीज होती है । यह सहयोग देनेसे भी एक प्रकारसे इनकार कर सकती है । पर मैं फिर कहती हू, इसमें उग्रता नहीं होती, जोर-जबर्दस्ती अपनेको मनवानेका आग्रह नहीं होता : यह शोरगुल नहीं मचाती, पीड़ा नहीं पहुंचवाती, बहुत हुआ तो एक हल्की बेचैनी होती है । और यदि तुम इसे अनसुना कर दो, यदि तुम इसकी ओर ध्यान न दो, इसे कोई महत्व प्रदान न करो तो कुछ समय बाद यह पूरी तरह लुप्त हो जायगी और कोई चीज बाकी न रहेगी ।
ऐसी बात नहीं है कि गलती बढ़नेके साथ-साथ यह भी बढ़ती जाय, बल्कि, ठीक इसके विपरीत, यह लुप्त हो जाती है, चेतना आवृत हो जाती है।
फलत: एक सुनिश्चित संकेतके रूपमें तुम इसका प्रयोग नहीं कर सकते, क्योंकि यदि तुमने इस छोटे-सें संकेतक बार-बार अवहेलना की है तो, हां, यह दोबारा नहीं आयेगा । परन्तु में तुम्हें बताती हू कि यदि तुम पूरी सच्चाईके साथ इसके प्रति सचेत बने रहो तो यह तुम्हारा एकदम सु- निश्चित और सर्वोच्च कोटिका पथ-प्रदर्शक सिद्ध होगा ।
और यदि बेचैनी होती है तो वह शुरूमें ही हो जाती है, लगभग तुरत ही, पर यदि वह अनुभव न होती हों तो, हां, तुमने क्या काम शुरू किया है इसकी कुछ बात नहीं, अधिक अच्छा यही है कि बिलकुल अंततक करो, जिससे अनुभव संपूर्ण हो सकें, जबतक कि, जैसा कि मैंने कहा, एकदम सही और सुस्पष्ट संकेत न मिल जाय कि इसे नहीं करना चाहिये ।
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६ फरवरी, १९५७
''मृत्यु बह प्रश्न है जिसे प्रकृति सदा ही 'जीवन'के सामने उसे यह स्मरण दिलानेके लिये रखती है कि उसने अभीतक अपने- को नहीं ढूंढा है । यदि मृत्युका घेरा न होता तो प्राणी सदा- के लिये एक अपूर्ण जीवनके ढांचेके साथ बंधा रहता । मृत्यु- द्वारा पीछा किये जानेपर वह पूर्ण जीवनके विचारके प्रति जागृत हो जाता है तथा उसके साधन और उसकी संभावना- की खोज करता है ।',
हमारे लिये यह विषय इतना सुपरिचित है कि इसपर और कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं लगती । यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे प्रत्येक मनुष्य, जिसकी चेतना जरा भी जाग्रत है, जीवनमें कम-से-कम एक बार तो अपने- सें करता ही है । सत्ताकी गहराइयोंमें जीवनको जारी रखने, उसे लंबा करने और उसका विकास करनेकी एक ऐसी आवश्यकता विद्यमान है कि जिस क्षण मृत्युके साथ ब्यक्तिका पहला संपर्क होता है, चाहे वह संपर्क
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बिलकुल अकस्मात् हुआ हो, पर जिसका होना अनिवार्य है, तो उससे सत्ता- मे एक प्रकारका हटाव होता है ।
कुछमें, जो संवेदनशील होते हैं, यह संत्रास पैदा करता है, दूसरोंमें रोष । ब्यक्तिकी अपने-आपसे यह पूछनेकी प्रवृत्ति होती है : ''यह भयावह प्रहसन 'क्या है जिसमें हम बिना चाहे और बिना समझे हिस्सा लेते है? यदि मरना ही है तो हम पैदा ही क्यों होते है? प्रगति, उन्नति और अपनी शक्तियोंके विकासके लिये किये गायें प्रयलोंसे लाभ ही क्या यदि इनका अंत हाथमें, अधोगति और विघटनमें होना है?.. .'' कुछ विद्रोह करते हैं, दूसरे, कमसबल, निराश हों जाते हैं । यह प्रश्न सदा ही किया जाता है : ''यदि इस सबके पीछे एक चेतन 'संकल्प' विद्यमान है तो वह दानवी प्रतीत होता है ।''
परन्तु श्रीअरविन्द यहां हमें बताते हैं कि मृत्यु जड-तत्त्वकी चेतनामें पूर्णताकी प्यास और प्रगतिकी आवश्यकताको जगानेके लिये एक अनिवार्य साधन है, और यह कि इस महाविपत्तिके बिना सनी प्राणी उसी अवस्थामें, जिसमें वे थे, संतोष किये पड़े रहते -- शायद... । यह निश्चित नहीं है ।
परन्तु अब हम बाध्य है चीजोंको उसी रूपमें लेनेके लिये जैसी कि वें है और, अपनेसे कहते है कि इससे बाहर निकलनेके साधनोंका जैसे भी हो पता लगाना चाहिये ।
वास्तविक बात तो यह है कि सब चीजों सतत प्रगतिशील विकासकी एक अवस्थामें है, अर्थात् सारी सृष्टि, सारा विश्व एक पूर्णताकी ओर आगे बढ़ रहा है और ज्यों-ज्यों व्यक्ति इसकी ओर आगे बढ़ता है यह पूर्णता पीछे हटती प्रतीत होती है कारण, जो किसी समय पूर्णता प्रतीत होती थी बह कुछ समय बाद वैसी नहीं रहती । हमारी चेतनामें जो सूक्ष्मतम स्थितियां है वे तो इस पूर्णताका इसके उत्पन्न होनेके साथ ही तुरत अनुसरण कर लेती है और सीढीपर ज्यों-ज्यों हम अधिक ऊंचे चढ़ते जाते है त्यों-त्यों हमारी प्रगतिकी लय विश्व-प्रगतिकी लयके साथ अधिक मेल खाने लगती है और भागवत विकासकी लयके अधिक नजदीक पहुंच जाती है । परन्तु स्थूल जड़-जगत् स्वभावसे ही कठोर है, वहां परिवर्तन धीमा, अत्यंत धीमा होता है, उस कालगणनाके विचारसे जैसा कि मानव चेतना उसे देरवती है दृष्टिमें न आने जैसा होता है ।... और इस प्रकार होता यह है कि आंतरिक और बाह्य गतियोंमें एक सतत असंतुलन रहने लगता है और यह असमतोलता ही, आंतरिक प्रगतिकी गतिका अनुसरण करनेकी बाह्य ढांचेके यह अक्षमता ही, ढांचेके अपघटन और उसके परिवर्तनकी आवश्यकता उत्पन्न करती है । परन्तु यदि, इस जड-तत्वके, व्यक्ति चेतनासे इतनी
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पर्याप्त मात्रामें भर दे कि इसकी भी वही लय बनी रहे, यदि जुड़-तत्व आंतरिक प्रगतिका अनुसरण करनेके लिये पर्याप्त रूपसे नमनीय बन सके तो संतुलन भंग नहीं होगा और फिर मृत्यु भी जरूरी नहीं रहेगी ।
इस प्रकार, श्रीअरविन्द हमें जैसा बताते है उसके अनुसार, प्रकृतिने इस अधिक उग्र साधनको इसलिये चूना कि भौतिक चेतनामें आवश्यक अभीप्सा और नमनीयता जगायी जा सकें ।
यह स्पष्ट ही है कि जड़-तत्वकी सबसे प्रमुख विशेषता है तमs और यह भी कि यदि यह उग्र प्रयोग न होता तो शायद प्रत्येक व्यक्ति-चेतना इतनी तामसी होती कि वह किसी परिवर्तनकी अपेक्षा अपूर्णतामें ही निरन्तर बने रहना स्वीकार कर लेती... । यह संभव है । कुछ -मी हो, चीजों अब ऐसी ही है, और हमारे लिये, जो कुछ अधिक जानते हैं, बस, एक ही चीज करनेंको शेष रह जाती है और वह है, जहांतक हमें साधन उपलब्ध हैं, 'शक्ति' व 'चेतना'- के, इस नयी 'शक्ति'के आवाहनद्वारा इस सबको बदल देना, इस 'शक्ति'के पास ऐसी सामर्थ्य है कि यह जड़-पदार्थमें उस प्रकारके स्पन्दनका संचार कर सकती है जो इसका रूपांतर कर दें, इसे नमनीय, कोमल और प्रगामी बना दे ।
स्पष्ट ही इसमे' सबसे बढ़ी बाधा है वस्तुओंके वर्तमान स्वरूपके प्रति तासक्ति । और प्रकृति भी, समष्टि रूपमें, यह देखती है कि जिनके पास अधिक गहन शान है वे अधिक तेजीसे बढ़ जाना चाहते है : उसे अपने घुमावदार रास्ते पसंद है, उसे पसंद है कि एकके-ब।द-एक प्रयत्न चलते रहें, विफलताएं आयें, और फिर नया आरंभ हो और नयी खोजों हों, उसे अपने सनकी तौर-तरीके और परीक्षणोंमें हो जानेवाली अकल्पित, अप्रत्याशित बातें परांद हैं । हम कह सकते है इस सबमें जितना अधिक समय लगता है उतना ही उसका मनोरंजन होता है ।
परन्तु बढ़िया-सें-बढ़िया खेलसे भी हम तंग आ जाते है । समय आता है जब हम उसके बदले जानेकी आवश्यकता अनुभव करते है । हम एक एसे खेलक। स्वप्न ले सकते- है जिसमें आगे बढ़नेके लिये कुछ भी नष्ट करना जरूरी न हों, जहां प्रगति करनेका उत्साह इतना हो कि वह नये साधनों और नयी अभिव्यक्तियोंको ढूंढ निकाले, जहां उमंग इतनी तीव्र हों कि बह सदस्, शिथिलता, दुर्बोधता, थकान और उदासीनतापर विजय पा ले।
भला यह शरीर, जैसे ही हम कुछ उन्नति कर लेते हैं, बैठ जानेकी आवश्यकता क्यों अनुभव करता है? यह थक जाता है । कहता है : ''ओह! ठहरो, मुझे थोड़ा विश्राम कर लेने दो ।'' यही चीज है जो इसे मृत्युकी
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ओर ले जाती है । यदि यह अपनेमें सदा ही और अधिक अच्छा करने, और अधिक पवित्र होने, और अधिक सुंदर होने, और अधिक प्रकाशपूर्ण होने और सदा-सर्वदा युवा बने रहनेका प्रबेग अनुभव कर सकता तो व्यक्ति प्रकृतिके इस भयंकर परिहाससे बच सकता ।
उसके लिये इसका कुछ महत्व नहीं । वह सारी चीजको एक साथ देखती है, समग्रताको देखती है । वह देखती है कि कुछ भी खोया नहीं गया है, यह तो महज मात्राओंका, अनगिनत छोटे-छोटे तत्त्वोंका, जिनका कुछ महत्व नहीं, पुनर्मिश्रणभर है । उन्हें वह बर्तनमें फिरसे डाल देती और अच्छी तरह मिलाती है ताकि उनसे वह कुछ नयी चीज तैयार कर सके । पर यह खेल हर किसीके लिये मनोरंजक नहा होता । यदि कोई व्यक्ति अपनी चेतनामें उतना ही विशाल बन सके जितनों कि वह है और उससे भी अधिक शक्तिशाली बन जाय तो डमी चीजको और अधिक अच्छी तरह भला क्यों नहीं कर सकता?
यही समस्या है जो इस समय हमारे सामने है । यह जो नयी 'शक्ति' उतरी है, जो अपने-आपको मूर्तिमंत करनेमें लगी है और कार्यतत्पर है उसकी इस बढ़ी हुई सहायतासे क्यों न हम खेलको अपने हाथमें लेकर इसे अधिक सुंदर, अधिक सामंजस्यपूर्ण और अधिक सवर्ण। बना डालें?
यदि कुछ मस्तिष्क इतने समर्थ हों कि वे इस 'शक्ति'को ग्रहण कर सकें और इसकी संभावनीय क्रियाको आकार प्रदान कर सकें तो यह काफी है । और कुछ बहुत ही प्रतापी व प्रबुद्ध सत्ताओंका होना भी जरूरी है जो प्रकृति- को यह विश्वास दिला सकें कि उसकी पद्धतियोंसे भिन्न दूसरी पद्धतियां भी है... । यह एक पागलपन-सा प्रतीत होता है । पर सभी नयी चीजों, जबतक कि वे वास्तविकताएं नहीं बन गयीं, सदा पागलपन ही प्रतीत होती रही है ।
अब वह घड़ी आ गयी है कि यह पागलपन एक वास्तविकताका रूप ले । और चूंकि हम सब किन्हीं विशेष कारणोंसे -- शायद हममेंसे बहुतोंको अज्ञात, फिर भी बहुत ही सचेतन कारणोंसे -- यहां हैं, हम अपने अंदर यह निश्चय ले सकते हैं कि हमें इस पागलपनको ससिद्ध करना है, कम-से-कम इसे जीनेका परिश्रम भी सार्थक है ।
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७ फरवरी, ११५७
यह वार्ता वृहस्पतिवारको, सम्मिलित ध्यान-
के दिन, दी गयी थी । उस शामको श्रीमां
अपवाद रूपसे बोली थीं ।
इस शाम, ध्यानसे पहले मैं कुछ शब्द कहूगी, क्योंकि कई ब्यक्तियोंने पूछा है_ कि सम्मिलित ध्यान और व्यक्तिगत ध्यानमें क्या भेद है?
व्यक्तिगत ध्यान -- ध्यान कई प्रकारके होते हैं जिनका कि हम अभ्यास कर सकते है, इस चीजको मैं कई बार पहले बता चुकी हू, सो उस बारेमें आज फिरसे नहीं कह रही ।
परन्तु सम्मिलित ध्यानका अभ्यास सब कालोंमें किया जाता रहा है - विभिन्न कारणोंसे, विभिन्न तरीकोंमें और विभिन्न प्रयोजनोंको लेकर । जिसे सम्मिलित ध्यान कहा जाता है वह कुछ लोगोंका एक समुदाय होता है जिसमें लोग किसी निश्चित प्रयोजनके लिये एक जगह एकत्र होते हैं । उदाहरणार्थ, सभी कालोंमें प्रार्थनाके लिये लोग एक जगह इकट्ठे हुआ करते थे; अवश्य ही गिरजाघरोंमें, यह एक प्रकारका सम्मिलित ध्यान ही है । परन्तु गिरजाघरसे बाहर भी, ऐसे लोग रहे हैं जिन्होंने सार्वजनिक प्रार्थनाओंके लिये सम्मिलित ध्यानका आयोजन किया था । ये प्रार्थनाएं दो विभिन्न प्रकारकी है ।
हम जानते है कि मानव-इतिहासके प्रारंभसे लोगोंके कुछ समुदाय अपनी आंतरात्मिक स्थितियोंके सम्मिलित रूपसे अभिव्यक्त करनेके लिये एक जगह इकट्ठे हुआ करते थे । कुछ लोग मिलकर परमात्म-स्तुतिके गीत गाने, भजन गाने, कृपाओंका गुण-गान करने, पूजा-भाव, आभार व कृतज्ञता प्रदर्शित करने और इस प्रकार परमात्माकी स्तुति करनेके लिये इकट्ठे होते थे । दूसरे कुछ लोग -- इसके भी ऐतिहासिक उदाहरण हैं - सम्मिलित रूपसे ईश्वरका आवाहन करनेके लिये इकट्ठे होते थे, उदाहरणार्थ, परमेश्वरसे कुछ चीज मागनेके लिये; और इसे सब एक साथ मिलकर, एक होकर किया करते थे, इस आशासे कि इस आवाहनमें, इस प्रार्थनामें, इस मांगमें अधिक बल होगा । इसके अनेक लोक-विख्यात उदाहरण है । बहुत पुराने उदाहरणोंमेंसे एक १००० ई का है, जब कुछ भविष्यवक्ताओंने यह उद्घोषित किया था कि अब यह संसारका अंत है, और तब सब स्थानोंपर लोग एकत्र हुए थे सम्मिलित प्रार्थनाएं करनेके लिये
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और यह अनुरोध करनेके लिये कि संसारका अंत न हों (!) अथवा कुछ मी हो इसकी रक्षा की जाय । अभी बिलकुल हाल ही मे, आधुनिक कालमें, जब कि इंग्लैडका राजा, जार्ज, निमोनियासे मर रहा था, लोग न केवल गिरजाघरोंमें बल्कि राजप्रासादके सामने सड्कोंपर भी एकत्र हुए थे प्रार्थनाएं करने और परमेश्वरसे यह मांगने कि उसे अच्छा कर दें । ऐसा हुआ कि वह अच्छा हो गया, लोगोंने विश्वास किया कि यह उनकी प्रार्थनाओंसे हुआ... । निःसंदेह, यह सामूहिक ध्यानका एकदम बाहरी, कह सकती हू कि, एकदम सांसारिक रूप है ।
प्राचीन कालके सभी दीक्षा-समुदायोंमें, सनी आध्यात्मिक स्थानोंमें सामूहिक ध्यानका सदा ही अभ्यास किया जाता था, पर वहां प्रेरक भाव सर्वथा भिन्न होता था । वे एकत्र होते थे सामूहिक प्रगतिके लिये, शक्ति, प्रकाश और प्रभावके प्रति एक साथ मिलकर अपने-आपको खोलनेके लिये और... कुछ कम या अधिक रूपमें यहीं चीज है जिसके लिये हम प्रयास करना चाहते है ।
तो, इसकी पद्धतियां दो है और उन्हींके बारेमें मैं तुम्हें आज बताने जा रही हूं । दोनों हालतोंमें, अभ्यास वैसे ही किया जाता है जैसा कि व्यक्ति- गत ध्यानमें, अर्थात् एक ऐसे आसनसे बैठ जाओ जिसे बनाये रखना तुम्हारे लिये पर्याप्त सुखकर हो, पर ऐसा सुखकर न हो कि नींद ही आने लगे । और उसके बाद जो कुछ मैंने तुम्हें तब बताया था जब मैं उधर दूसरी ओर वितरगके लिये जाया करती थी,' उसे करो, अर्थात् अपने-आपको ध्यानके लिये तैयार करो, स्थिर और शांत होनेकी कोशिश करो, केवल बाहरी तौरपर ही गप्पें लगाना बंद न करो, बल्कि अपने मनको भी चुप करनेकी कोशिश करो और अपनी चेतनाको, जो तुम्हारे अंदर उठते सब विचारों और तुम्हारे पूर्वाग्रहोंमें छितरी रहती है उसे जहांतक हो सकें, पूरी तरह समेटकर वापस लाकर यहां हदयके क्षेत्रमें, सौरचक्रमें इस तरह केन्द्रित कारों कि मस्तिष्ककी सभी सक्रिय शक्तियां और वे सब गतियां वों दिमाग- को दौड़ाती रहती हैं, वापस लायी जा सकें और यहां केंद्रित की जा सकें । यह कुछ सेकंडोंमें भी किया जा सकता है और कुछ मिनट भी लग सकते है, यह प्रत्येक व्यक्तिपर निर्भर करता है । निश्चय ही यह प्रारंभिक मन- स्थिति है । इसके बाद, जब यह हो जाय (अथवा तुम जितनी अच्छी तरह कर सकते हो उतनी अच्छी तरह हो जाय), तो तुम दो वृत्तियां अपना सकते हो, अर्थात् सक्रिय वृत्ति या निष्क्रिय वृत्ति ।
'हर शामको, ध्यान या वार्तासे पहले, श्रीमां खेलके मैदानके साथ लगे स्थानपर ''हरे दल''के बच्चोंको मूंगफली बांटने जाया करती थीं ।
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जिसे मैं सक्रिय वृत्ति कहती हू वह है ( मैं इसे सामान्य रूपमें रखूंगी), उस व्यक्तिपर, जो ध्यानका संचालन कर रहा है अपने -आपको एकाग्र करना, वह तुम्हें जो वस्तु देना चाहता है उसे प्राप्त करने के संकल्पके साथ उसके प्रति अपने -आपको खोलना अथवा उस शक्तिके प्रति खोलना जिसके संपर्क- मे वह तुम्हें लाना चाहता है । यह सक्रिय वृत्ति है, क्योंकि यहां एक संकल्प है जो काम करता है और किसी व्यक्तिके प्रति अपने -आपको खोलनेके लिये, किसी युक्तिपर्ण एकाग्र होने के लिये सक्रिय एकाग्रता है ।
दूसरी, निष्क्रिय वृत्ति बस, यह है : पहले एकाग्रचित्त होओ, जैसा कि मैं तुम्हें बता चुकी नष्ट, उसके बाद अपने -आपको खोलो, ठीक ऐसे ही जैसे कोई दरवाजा खोलता है, तुम जहो, जानते हो न! कि तुम्हारे यहां- पर ( हदयकी ओर संकेत करते हुए) एक दरवाजा है, एकाग्रचित्त हो चुकने - के बाद तुम दरवाजा खोलते हो और इस प्रकार बने रहते हो ( निश्चलता- का संकेत करते हुए) अथवा तुम दूसरा एक पुस्तकका रूपक ले सकते हो, तुम अपनी पुस्तकको पूरा-पूरा खोल देते हो जिसके पृष्ठ बढ़िया और एकदम, सफेद है अर्थात् सर्वथा नीरव है और जो होगा उसकी प्रतीक्षा करते हुए तुम उसी अवस्थामें बने रहते हो ।
ये दो वृत्तियां है । जैसा दिन या जैसा अवसर हो उसके अनुसार तुम किसी एक या दूसरीको अपना सकते हो अथवा तुम किसी एकको ही प्रमुखत: चून सकते हो यदि उससे तुम्हें अधिक सहायता मिलती हो । दोनों ही प्रभावकारी है और समान रूपसे उत्तम फल देने वाली हैं ।
अच्छा तो, अब, खास हम अपने मामलेमें, मैं तुम्हें बताती हू कि मैं क्या करने का प्रयत्न करती हू... । जल्दी ही अब उसे एक वर्ष हो जायगा जब एक बुधवारको अतिमानसिक शक्तिका आविर्भाव हुआ था । तबसे यह बहुत सक्रिय रूपसे कार्य कर रही है, भले बहुत थोड़े लोग ही इसे जानते है (!) परन्तु फिर भी मैंने सोचा कि अब हमारे लिये समय अ गया है -- इसे कैसे समाऊ जब हम ग्रहणशीलता बढ़ाने- का प्रयत्न करके उसके कार्यमें कुछ सहायता कर सकते हैं ।
अवश्य ही, यह केवल आश्रममें ही नहीं बल्कि सारे संसारभरमें अपना कार्य कर रही है और हर जगह, जहां कहीं थोडी-सी ग्रहणशीलता है यह ' शक्ति' कार्यमें लगी है । और मुझे कहना चाहिये कि संसारमें आश्रमके पास ही एकमात्र ग्रहणशीलता, ग्रहणशीलताका एकाधिकार नहीं है । परन्तु चू कि बात ऐसी है कि हम सब यहां कम या अधिक यह जानते हैं कि क्या घटित हुआ है, तो हां, मैं आशा करती हू कि व्यक्तिगत रूपसे तो हर एक इस अवसरसे लाभ उठानेका पूरा प्रयास कर ही रहा होगा, पर सामूहिक
रूपसे भी हम कुछ कर सकते हैं, अर्थात् सामूहिक रूपमें अधिक-से-अधिक ग्रहणशीलता प्राप्त की जा सकें इसके लिये विशेष रूपसे उर्वरा भूमि तैयार करनेके लिये हम क्षेत्रको एकरूप बनानेका प्रयास कर सकते हैं, जिससे समय और शक्तिका यथासंभव कम-से-कम अपव्यय हों ।
तो अब, तुम्हें एक सामान्य रूपसे मैंने बता दिया है कि हम क्या करनेका प्रयास करना चाहते है और तुम्हें बस... उसे करना है ।
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१३ फरवरी, १९५७
''पीड़ा और दुःख प्रकृतिकी ओरसे अंतरात्माको यह याद दिलानेके लिये आते हैं कि बह सुख जिसे बह भोगती है सत्ता- के वास्तविक आनंदक एक हल्का-सा संकेतमात्र है । हमारी सत्ताकी प्रत्येक पीड़ा और यंत्रणामें आनंदकी उस ज्वालाका रहस्य निहित है जिसकी तुलनामें हमारे बड़े-से-बड़े सुख भी धुंधली-सी टिमटिमाहट हैं । यही रहस्य है जो जीवनकी महान् अग्नि-परीक्षाओं, कष्टों और भीषण अनुभवोंके प्रति अंत- रात्मामें आकर्षण पैदा करता है पर जिससे हमारा स्नायविक मन बचता और घृणा करता है ।''
बिलकुल स्वाभाविक रूपसे हम अपने-आपसे पूछते हैं कि वह कौनसा रहस्य है जिधर पीड़ा हमें ले जाती है । एक उयली और अपूर्ण दृष्टिसे देखने- पर व्यक्ति यह विश्वास कर सकता है कि यह पीड़ा ही है जिसे अंतरात्मा खोज रही है । पर बात ऐसी नहीं है । क्योंकि अन्तरात्माका अपना निज स्वभाव है स्थिर, अपरिवर्तनशील, निरपेक्ष और परमाह्नादकारी दिव्य आनन्द । परन्तु यह सच है कि यदि व्यक्ति कष्टका साहस, सहिष्णुता औरभागवत कृपामें अडिग विश्वासके साथ सामना कर सके और जब कभी कष्ट आये तो उससे बचते गिरनेके स्थानपर इस संकल्प और इस अभीप्सा- के साथ उसे अंगीकार करे कि इसमेंसे पार होना और उस ज्योतिर्मय सत्य एवं अपरिवर्ती आनन्दको खोज निकालना है जो सभी वस्तुओंके अन्तस्तलमें
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विद्यमान है तो पीड़ा-द्वार इच्छा-तुष्टि या तृप्तिकी अपेक्षा अधिक सीधा और अधिक जल्दीका द्वार होता है ।
मैं' ऐन्द्रिय सुखके बारेमें नहीं कह रही हू क्योंकि वह तो बराबर और लगभग पूरी तरह इस अगाध दिव्य आनन्दकी ओरसे पीठ फेरे रहता है ।
ऐन्द्रिय सुख धोखा देंने वाला और विकृत छद्यरूप है जो हमें अपने लक्ष्य- से भटकाकर दूर ले जाता है । यदि हमें सत्यको पानेकी जल्दी है तो निश्चय ही हमें इसकी खोज नही करनी चाहिये । यह सुरव हमें सारहीन बना देता है, हमें ठगता और भटकाता है । पीड़ा हमें एकाग्रचित्त होनेके लिये विवश कर देती है ताकि हम उस कुचलनेवाली चीजको सहने और उसका सामना करनेमें समर्थ बन सकें । इस प्रकार वह हमें गभीरतर सत्यकी ओर वापस लें जाती है । यदि व्यक्ति सबल हों तो दुःख में हा सबसे आसानीसे सच्ची शक्ति प्राप्त क्;रता है । दुःख में पड़कर ही फिरसे सच्चे श्रद्धा-विश्वासको प्राप्त करना सबसे आसान होता है, - किसी ऐसी चीज- मे विश्वास जो परे है, ऊपर है, सब दुखोंसे परे है ।
जब व्यक्ति आमोद-प्रमोदमें भूला रहता है, जब वह वस्तुओंको उसी रूपमें लेता है जिस रूपमें वें आती हैं और गंभीर होकर जीवनपर सीधी दृष्टि डालनेसे बचना चाहता है, एक शब्दमें, जब. वह भूल जाना चाहता है, यह भूल जाना चाहता है कि कोई समस्या है जिसका समाधान करना है, कोई चीज है जिसे पाना है और यह कि हमारे अस्तित्व और जीवनका कुछ हेतु है, हम यहां केवल समय बिताने और बिना कुछ सीखे या किये यहांसे चले जानेके लिये नहीं आये हैं तो सचमुच वह अपना समय बरबाद करता है । और एक ऐसे सुयोगको खोता है - इस सुयोगको मैं अद्वितीय तो नहीं, पर अद्भुत कह सकती हू -- जो उसे एक ऐसे अस्तित्वके लिये मिला है जो प्रगतिका स्थान है, जो अनंततामें एक ऐसे क्षणके समान है जब तुम जीवनके रहस्यकी खोज कर सकते हो । यह स्थूल पार्थिव अस्तित्व एक अद्भत सुयोग है, एक संभावना है जो तुम्हें जीवनके अस्तित्व-हेतुक पता लगाने, इस गभीरतर सत्यकी ओर एक पग आगे बढ़नेके लिये दी गयी है । इसलिये दी गयी है कि तुम उस रहस्यको खोज सको जो तुम्हें दिव्य जीवनके शाश्वत आनन्दोल्लासके संपर्कमें ला देता है ।
( मौन)
मैं तुमसे पहले भी बहुत बार कह चुकी हू कि दुःख-कष्टकी चाह करना
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एक अस्वस्थ मनोवृत्ति है, इससे अवश्य बचना चाहिये, पर भुलक्कड़पनके द्वारा, उथली हल्की क्रियाओं और मनोविनोदद्वारा, उनसे भागना कायरता है । जब कोई दुःख आता है तो हमें कुछ सिखानेके लिये आता है । जितनी जल्दी हम उसे सीख लेंगे उतनी ही जल्दी उसकी आवश्यकता कम हो जायगी । और जब हम रहस्यको जान जाते है तब फिर दुःखी होना संभव नहीं रहता क्योंकि वह रहस्य हमें दुःखका हेतु, प्रयोजन, मूल और उससे बाहर निकलनेका रास्ता दिखा देता है ।
वह रहस्य है अहंसे छुटकारा पा लेना, उसकी कैदसे निकल आना, अग्नि- आपको भगवान्के साथ एक कर देना, उसमें मिला देना, किसी भी चीजको उससे हमें जुदा न करने देना । जब व्यक्ति एक बार इस रहस्यको खोज लेता है और इसे अपनी सत्तामें चरितार्थ कर लेता है तो पीडाको अस्तित्व- का कोई हेतु नहीं रह जाता और दुःख गायब हों जाता है । यह समताके गहरे भागोंमें, आत्मामें, आध्यात्मिक चेतनामें ही नहीं बल्कि जीवन और शरीरमें भी (दुःखसे छुटकारा पानेका) सबसे प्रबल उपाय है ।
सत्ताके केवल उच्चतर भागोंमें ही नहीं बल्कि शरीरके कोषाणुओंतकमें मी ऐसी कोई व्याधि नहीं, ऐसा कोई विकार नहीं जो इस रहस्यकी खोज और उसके जौवनमें व्यावहारिक, क्रियात्मक रूपका प्रतिरोध कर सकें ।
यदि कोई व्यक्ति यह जानता हो कि कोषाणुओंको उनमें छिपी भव्यता- का ज्ञान कैसे कराया जाता है और उन्हें वह यथार्थता कैसे समझायी जाय जो उन्हें जीवन देती और उनके अस्तित्वको संभव बनाती है तो वे भी समग्र समस्वरतामें सम्मिलित हो जाते है और वह दैहिक अव्यवस्था जो बीमारीका कारण होती है, हमारी अन्य सब अव्यवस्थाओंकी तरह ही विलुप्त हो जाती है ।
पर उसके लिये व्यक्तिको न तो शिथिल होना चाहिये और न भय- भीत । जब कोई शारीरिक विकार आये तो भयभीत नहीं होना चाहिये, इससे भागना नहीं चाहिये बल्कि इसका साहस, शांति और आत्म-विश्वास- के साथ मुकाबला करना चाहिये, इस विश्वासपूर्ण निश्चयके साथ कि बीमारी एक मिथ्यात्व है और यदि कोई व्यक्ति भागवत कृपाकी ओर पूरी तरह, पूरे आत्म-विश्वास ओर पूरी शांत-स्थिरताके साथ मुड़े तो 'यह' इन कोषाणुओंमें भी उसी तरह स्थिर हो जायगी जैसे सत्ताकी गहराइयोंमें स्थित हो जाती है और तब कोषाणु भी शाश्वत 'सत्य' और आनदम भाग लग ।
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२० फरवरी, १९५७
''शरीरकी सीमाएं एक सांचा है; अंतरात्मा और. मनको इनमें अपने-आपको भरना होता है, इन्हें तोड़ना और निरंतर अधिकाधिक विस्तृत सीमाओंमें फिर-फिर ढालना होता है जबतक कि इस ससीम और उनकी अपनी असीमताके बीच मेलका कोई सूत्र न मिल आय ।',
मधुर मां, इससे हमें क्या समझना चाहिये कि ''शरीरकी सीमाएं एक सांचा है? ''
यदि तुम्हारा शरीर सुनिश्चित आकारका न होता और यदि तुम पूरी तरह सचेतन तथा निजी विशेषताओंवाला गठित व्यक्तित्व न होते तो तुम दूसरेके अंदर जा मिलते और पहचाने न जाते ! यहांतक कि जब हम केवल थोड़ा-सा ही अंदरकी ओर अत्यधिक भौतिक प्राण-सत्तामें जाते हैं तो वहां विभिन्न लोगोंके स्पंदनोंका ऐसा मिश्रण होता है कि वहां किसीको पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है । और यदि तुम्हारे पास शरीर न हो तो यह एक प्रकारकी मालीदे जैसी जटिल चीज होगी । इसलिये यह आकार ही, शरीरका यह सुनिश्चित और (देखनेमें) कठोर आकार ही तुम्हें दूसरेसे अलग दिखाता है । इस प्रकार यह आकार मानों एक संचिका काम देता है । (एक बच्चेका संबोधित करते हुए) जानते हो सांचा क्या होता है? -- हां, हम उसके अंदर कुछ चीज, द्रव या अर्द्ध द्रव जैसी कोई चीज डाल देते है और जय वह जम जाती है तो हम साँचे- को तोडकर एक सुनिश्चित आकारकी चीज पा लेते है । हां, तो शरीर- का आकार प्राणिक और मानसिक शक्तियोंके लिये एक सांचेका काम देता है जिससे वे इसके अंदर एक सुनिश्चित आकार ग्रहण कर सकें और इस प्रकार तुम दूसरोंसे भिन्न एक व्यक्ति-सत्ता बन सको ।
थोडा-थोडा करके और बहुत धीमे-धीमे जीवनकी गतिविधियोंके और कम या अधिक सतर्क व सतत शिक्षाके द्वारा तुम ऐसे संवेदन पाने लगते हो जो तुम्हारे निजी होते हैं । और निजी भावनाएं तथा निजी विचार भी आने लगते है । व्यक्तिरूप मन बहुत ही विरल वस्तु. है, यह लंबी शिक्षाका ही फल होता है । अथवा यह एक प्रकारकी विचार-तरंग
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होती है जो तुम्हारे मस्तिष्कमेंसे गुजरती है और फिर दूसरेके और जन- समूहके मस्तिष्कमेंसे गुजरती है और यह निरंतर चक्कर काटती रहती है, इसका कोई व्यक्तित्व नहीं होता । तुम वही सोचते हों जो दूसरे सोचते हैं, दूसरे वही सोचते हैं जो कुछ और लोग सोच रहे हों और प्रत्येक व्यक्ति इसी प्रकार बड़ी मिली-जुली अवस्थामें सोचता है क्योंकि ये विचार-तरंगें, विचारक्पंदन एकसे दूसरेके पास पहुंचते रहते है । यदि तुम ध्यानसे अपने- आपको देखो तो तुम बहुत जल्दी यह जान जाओगे कि तुम्हारे अंदर: ऐसे विचार बहुत कम ही है जो तुम्हारे निजी हों । अपने विचारोंको तुम कहांसे लें आते हो? --सुनी-सुनायी बातोंसे, जो कुछ तुमने पढा है या सीखा है उससे; पर इनमेंसे कितने तुम्हारे अपने अनुभवका परिणाम है, तुम्हारे चिंतनका, विशुद्ध रूपसे तुम्हारे अपने निरीक्षणका परिणाम हैं? - अधिक नहीं ।
जिन लोगोंका प्रबल रूपमें बौद्धिक जीवन होता है, उन्हें ही चिंतन करने, निरीक्षण करने और विचारोंको एक साथ रखनेकी आदत होती है, और धीरे-धीरे इन्हींसे व्यक्तिरूप मनका निर्माण होता है ।
अधिकतर मनुष्य -- केवल अशिक्षित ही नहीं बल्कि पढे-लिखे भी -- अपने सिरमें बहुत ही विरोधी, बहुत ही प्रतिकूल विचार लिये रहते हैं और उन्हें इन विरोधोंका पतातक महीं होता । मैंने इस प्रकारके बहुतसे उदाहरण देखें हैं जिनमें लोगोंने ऐसे विचारोंको पोस रखा था जो परस्पर विरोधी थे । यहांतक कि राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि मानव बुद्धिके सभी तथाकथित उच्चतर क्षेत्रोंके बारेमें उनकी अपनी सम्मतिया थीं, और एक ही विषयपर एकदम विरोधी सम्मतिया थीं पर उन्हें इस बातका पतातक न था । यदि तुम अपना निरीक्षण करो तो देरवोगे कि तुम्हारे ऐसे बहुतसे विचार हैं जिन्हें बीचके विचारोंकी शृंखलासे जोड़नेकी जरूरत है ताकि वे भद्दे रूपमें एक साय न पड़े रहें । और ये मध्यवर्ती विचार सामान्य विचारोंको पर्याप्त रूपमें विस्तृत करनेसे बनते है ।
इस प्रकार, इससे पहले कि कोई व्यक्तित्व सचमुच एक व्यक्तिगत रूप ले और अपनी व्यक्तिगत विशेषताएं रखने लगे, उसे एक पत्रमें रखा जाना जरूरी है, अन्यथा वह पानीकी तरह बह जायगा और उसका कोई आकार न बन पायेगा । अधिक निम्न स्तरके लोग अपने-आपको केवल नामसे ही जानते हैं । नामके बिना वै अपने-आपको अपने पड़ोसीसे अलग करके नहीं जान सकते । उनसे जब पूछा जाता है : ''तुम कौन हो? '' वे कहते हैं : ''मेरा नाम है अमुक ।'' कुछ समय बाद वे तुम्हें अपने पेशेके या अपनी मुख्य विशेषताके बारेमें बताने लगते हैं । तब यह पूछनेपर : ''तुम कौन हो? '' वे कहते हैं : ''मैं' एक चित्रकार हू'' ।
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परंतु एक विशेष स्तरपर उत्तर केवल नाम ही होता है ।
और नाम क्या है? एक शब्दके सिवा कुछ नहीं, ऐसा ही है न? और उसके पीछे क्या है? कुछ भी नहीं, बस, ढेर सारी अनिश्चित वस्तुएं जो व्यक्तिको किसी तरह भी पड़ोसीसे अलग नहीं करतीं । वह अलग इसलिये माना जाता है क्योंकि उसका अलग नाम है । यदि हरेकका वही नाम होता तो एक आदमीको दूसरेसे अलग पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता ।
मैंने उस दिन तुम्हें हवाई जहाजोंके बारेमें लिखी एक पुस्तक' मेंसे एक दासकी कहानी सुनायी थी । जब कभी उससे कोई बात पूछी जाती तो वह सदा अपना नाम लें देता । यह चीज अपने-आपमें एक प्रगति थी । उस समय सब दासोंका एक ही नाम हुआ करता था ''दास'' -- सभी दासोंके साय ऐसा ही था - और उन्होंने उसे अपना लिया था, फलस्वरूप ३ सब एक व्यक्ति बने थे । उनका अपना व्यक्तित्व बिलकुल नहीं था, था, बस, एक पेशा और चुकी वह पेशा लगातार सभी दासोंके लिये एक ही था इस- लिये उन सबका नाम भी एक ही था ।
आदमी एक प्रकारकी, मुश्किलसे अर्द्धचेतन आदतसे जीता है, और कभी अलग होकर अपनेको नहीं देखता, यह नहीं देखता कि वह क्या करता है, क्यों करता है, कैसे करता है । बस, अम्यासवश वैसा करता रहता है । सभी लोग जिस विशेष वातावरण और विशेष देशमें वे पैदा होते है, आप- से-आप वहांकी आदतोंको अपना लेते है, न केवल शरीर-संबंधी स्थूल आदतों- को, बल्कि सोचने-विचारने, अनुभव करने और क्रिया करनेकी आदतोंको भी ।अपने ऊपर जरा भी ध्यान दिये बिना, बिलकुल सहज रूपसे ऐसा करते है । और यदि कोई उनका' ध्यान उधर आकर्षित करता है तो वे आश्चर्यचकित रह जाते है ।
वास्तवमें हमें सोने, बोलने, खाने, चलनेकी एक आदत है और हम यह सब बिलकुल सहज रूपमें क्यों और कैसेपर आश्चर्य किये बिना करते है... और बहुत-सी दूसरी चीजों भी । सारे समय हम चीजोंको आप-से-आप आदतके जोरपर करते रहते है और अपने करनेपर ध्यान नहीं देते । और इसीलिये, जब हम किसी खास समाजमें रहते हैं तो सहज रूपमें वही करने लगते है जो उस समाजमें किया जाता है । और यदि कोई कार्य करते, अनुभव करते, सोचते हुए अपना अवलोकन करना शुरू करता है तो उस परिवेशकी तुलनामें जिसमें वह रहता है असाधारण दानव-सा प्रतीत होता
'संत एक्यूपेरीकी लिखी ''तैर द ज़ोम्म'' पुस्तक ।
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अतः व्यक्तित्वका होना नियम बिलकुल नहीं है, यह एक अपवाद है । और यदि तुम्हारे पास विशेष आकारका यह झोला, तुम्हारा यह बाह्य शरीर, तुम्हारा यह प्रकट रूप न होता तो तुम सब मुश्किलसे ही एक-दूसरे- से अगल पहचाने जा सकते ।
व्यक्तित्वका होना एक विजय है । और जैसा कि श्रीअरविन्द यहां. कहते हैं, यह पहली विजय केवल एक पहली अवस्था है । जब तुम एक बार अपने अंदर व्यक्तिगत, स्वतंत्र और सचेतन सत्ता जैसी चीजका अनुभव कर लो तो तुम्हें यही करना होगा कि उस आकारको तोडकर आगे बढ़ो । उदाहरणार्थ, यदि तुम मानसिक तौरपर प्रगति करना चाहते हो तो तुम्हें अपने सभी मानसिक रूपोंको, अपनी सभी मानसिक रचनाओंको तोड़ देना होगा ताकि नयी रचनाएं बना सको । तो, पहले तो, अपनेको व्यक्ति रूप- मे लानेके लिये घोर परिश्रमकी आवश्यकता होती है और फिर प्रगति करने- क् लिये सब किये-करायेको नष्ट कर देना पड़ता है । परंतु जैसे कि तुम किसी क्रियाको करते हुए उसपर ध्यान नहीं देते, यह केवल आदतके द्वारा होती रहती है (यहां यह कह दूं कि स्वभावत: यह सब किसीके साथ नहीं होता) -- काम करने, पढ़ने, उन्नति करने, कुछ करनेका प्रयास, अपने- आपको कुछ थोड़ा-सा गढ़ना यह एक आदतसे होता जाता है -- तुम इसे बिलकुल सहज-स्वाभाविक रूपसे करते हो और जैसा कि मैंने कहा, करने हुए अपने ऊपर ध्यान भी नहीं देते ।
जब इन् बाह्य आकारोंकी आपसमें रगड़ होती है केवल तभी तुम यह अनुभव करना शुरू करते हो कि तुम दूसरोंसे भिन्न हो । अन्यथा अपने इस या उस नामके कारण ही तुम यह या वह व्यक्ति होते हो । जब रगड़ होती है, जब कोई चीज आरामसे नहीं चलती, केवल तभी तुम भिन्नता- से सचेत होते हो और देखते. हो कि तुम भिन्न हो, नहीं तो तुम्हें इसका पता भी नहीं होता और तुम भिन्न होते भी नहीं । वास्तवमें तुम एक- दूसरेसे बहुत कम, बहुत ही करा भिन्न हो ।
कितनी ही चीजों तुम अपने जीवनमें, कम-से-कम मूल रूपमें, ठीक उसी तरह करते हों जैसे दूसरे करते हैं । उदाहरणार्थ, सोना, चलना, खाना और इसी प्रकारकी अन्य सब चीजों । तुम कभी अपने-आपसे यह नहीं पूछते कि किसी चीजको तुम इसी तरह क्यों करते हो दूसरी तरहसे क्यों नहीं । यदि मैं तुमसे पूछ : तुम इस तरह क्यों करते हो, दूसरी तरह क्यों नहीं? तो तुम्हारी समझमें न आयेगा कि क्या कहो । पर सीधी-सी बात है तुम एक विशेष परिस्थितिमें पैदा हुए हो और उस परिस्थितिमें ऐसा ही करते- का रिवाज है । परन्तु यदि तुम किसी दूसरे कालमें, 'किन्हीं दूसरी परि-
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स्थितियोंमें पैदा हुए होते तो तुम बिलकुल दूसरी तरह आचरण करते और तुम्हें कुछ फर्क न मालूम होता, तुम्हें वह एकदम स्वाभाविक प्रतीत होता ... । एक उदाहरण लेती हूं -- बहुत, बहुत छोटी-सी बातका उदाहरण-- अधिकतर पश्चिमी देशोंमें और कुछ पूर्वी देशोंमें भी लोग इस तरह, दायेंसे बायें सीते हैं लेकिन जापानमें लोग बायेंसे दायें सीते है । हां तो, दायेंसे बायें मीना तुम्हें एकदम स्वाभाविक लगता हैं, लगता है न! तुम्हें ऐसा ही सिखाया गया है और इस बारेमें तुम कभी सोचते ही नहीं, बस उसी तरीकेसे सीते हो । तुम जापान जाते हो, वहां उनके सामने सीने बैठते हों और इससे उन्हें हंसी आती है क्योंकि उनकी आदत और तरह की है । यही बात लिखनेके साथ भी है, तुम लिखते हो बायेंसे दायें और ऐसे लोग भी हैं जो ऊपरसे नीचेकी ओर लिखते हैं और दूसरे बहुतसे दायेंसे बायें लिखते हैं और यह सब बिलकुल सहज रूपमें करते है । मैं। उन लोगोंकी बात नहीं कर रही जिन्होंने अध्ययन किया है, चिंतन किया है, लेरवनकी तुलना की है, मैं कम या अधिक शिक्षित लोगोंकी बात नहीं कर रही हू, नहीं, मैं बिल- कुल साधारण लोगोंकी बात कर रही हू और विशेषत: बच्चोंकी जो बिल- कुल सहज रूपमें और बिना किसी शंकाके वही करते हैं जो उनके चारों ओर होता है । और जब किसी परिस्थितिके संयोगसे ऐसी जगह ले जाये जाते है जहां ३ दूसरे प्रकारके आचार-व्यवहार देखते है तो यह उनके लिये एक आश्चर्यजनक बोध होता है कि वे जिस ढंगसे करते है उससे अलग ढंगसे भी चीजों की जा सकती है ।
और ये बिलकुल सामान्य बातें हैं, मेरा मतलब है कि ये वे बातें हैं जिनकी ओर तुम्हारा ध्यान झट आकर्षित हो जाता है परन्तु छोटेसे-छोटे ब्यौरेमें भी यह चीज सही है । तुम इस प्रकार इसलिये करते हो कि उस स्थान या उस परिस्थितिमें, जहां तुम रहते हो ऐसा ही किया जाता है । और तुम इसे करते हुए कमी इसपर ध्यान नहीं देते ।
मूल रूपमें, उद्भव-स्रोत था 'एक', था न? और सृष्टिको होना था 'बहु' । तो इस 'बहु' को अपने बहु रूप होनेके बारेमें सचेतन बनानेमें पर्याप्त परि- श्रम करना पड़ा होगा ।
और यदि हम बहुत ध्यानसे देखें तो लगता है कि यदि सृष्टिको अपने मूलस्रोतकी स्मृति बनी रहती तो यह विभिन्न प्रकारकी बहुविधता कभी न आ पाती । प्रत्येक प्राणीको केंद्रमें पूर्ण एकताकी भावना बनी रहती और विभिन्नता -- शायद -- कभी प्रकट न हों पाती ।
इस एकताकी स्मृतिको खो देनेके द्वारा ही विभित्रताओंसे सचेत होनेकी संभावना पैदा हुई । और जब हम, दूसरे छोरपर, अचेतनतामें जाते हैं
तो वहां भी हम एक प्रकारकी एकतामें जा गिरते हैं, जो अपने-आपसे अचेतन है, वहां विभिन्नता वैसे ही अनभिव्यक्त है जैसे अपने मूल स्रोतमें थी ।
दोनों छोरौपर विभित्रताका समान अभाव है; एक अवस्थामें एकताकी परम सचेतनताके कारण, दूसरीमें एकताकी पूर्ण अचेतनताके कारण ।
आकारकी स्थिरता एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्तित्वका निर्माण किया जा सकता ।
तो, बस, सारी बात यही है ।
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६ मार्च, १९५७
आज मेरी आंख मुझे पढ़ने न देगी' । परन्तु गत सप्ताह मैंने जो पढा था उसपर मुझसे एक प्रश्न पूछा गया है, इस शाम मैं उसका उत्तर दूंगी । पवित्र, पढ दोगे, जरा?
(पवित्र पढ़ते हैं) इस पैराग्राफका क्या मतलब है : ''स्वतंत्रता अपनी असीम एकतामें सत्ताका नियम है, समस्त प्रकृतिकी गुप्त स्वामिनी है : दासता सत्तामें प्रेमका नियम है, यह अनेकता- के अंदर अपनी अन्य आत्माओंकी क्रीडामें सहायता पहुंचाने- के लिये अपनी इच्छासे अपने-आपको अर्पित कर देती है ।', (विचार और झांकियां)
ऊपरी दृष्टिको ये दोनों चीज़ें बिलकुल विरोधी और असंगत प्रतीत होती हैं । बाहरी तौरपर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि एक ही समय- मे कोई स्वतंत्रता और दासतामें कैसे रह सकता है । परन्तु एक ऐसी मनोवृत्ति है जो दोनोंमें मेल बैठा देती है और उनके मेलसे पार्थिव जीवन- की एक बहुत ही सुखी अवस्थाका निर्माण करती है ।
' २७ फरवरीको केवल पुस्तक-पाठ हुआ और उसके बाद ध्यान, कोई वार्ता नहीं । गत 'दर्शन'के बादसे श्रीमांकि बायीं आंखमें हलका रक्त-स्राव था ।
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जीवनके संपूर्ण विकासके लिये स्वतंत्रता एक प्रकारसे व्यक्तिकी नैसर्गिक मांग है, एक आवश्यकता है । अपने मु_ल रूपमें यह उच्चतम चेतनाकी पूर्ण रूपसे प्राप्ति है, 'एकत्व' और भगवान्के साथ संयोगकी अभिव्यक्ति है । और यह 'स्रोत' और चरितार्थताका असली मर्म है । और चूंकि एकत्व बहुमें (अनेकविधतामें) अभिव्यक्त हुआ है इसलिये किसी ऐसी चीज- की जरूरत थी जो इस मूल स्रोत और अभिव्यक्त सृष्टिके बीच कडीका काम कर सकें । और जिस पूर्णतम कडीकी कल्पना की जा सकती है वह है प्रेम । और प्रेमका पहला संकेत क्या है? अपने-आपको दे देना, सेवा करना । इसकी सहज, तुरत, अनिवार्य रूपसे उमड़ पड़नेवाली गति क्या होती है? सेवा करना । खुशी-खुशी, पूर्णरूपसे, समग्र आत्म-दानके सभा सेवा करना ।
इस प्रकार, अपने शुंड रूपमे, अपने सत्यमें ये दोनों -- स्वतंत्रता और सेवाभाव - विरोधी होनेकी अपेक्षा कही अधिक पूरक है । परम सत्ताके साथ पूर्णतया एक हो जानेपर ही पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होती है, क्योंकि समस्त अज्ञान, समस्त अचेतनता बन्धन है, ये तुम्हें शक्तिहीन, सीमित और असमर्थ बना देते हैं । अपने अंदर अज्ञानका थोड़ा-सा अंश भी एक सीमितता ले आता है और फिर व्यक्ति स्वतंत्र नहीं रहता । जबतक सत्ता- मे अचेतनताका तत्व है यह एक सीमितता है. एक बन्धन है । केवल परम सत्ताके साथ पूर्ण एकता पा लेनेपर ही पूर्ण स्वतंत्रता रह सकती है । और इस एकताको यदि सहज आत्म-दानके द्वारा -- प्रेमके उपहार-स्वरूप -- नहीं, तो भला और कैसे प्राप्त कर सकते है । और जैसा कि मैंने कहा प्रेमकी पहली चेष्टा, पहली अभिव्यक्ति है सेवा ।
इस प्रकार 'सत्य'के अंदर ये दोनों घनिष्ठ रूपमें एक है । पर यहां पृथ्वीपर, अज्ञान और अचेतनाके इस संसारमें यह सेवा जिसे एक सहज- स्वाभाविक क्रिया होना चाहिये था, प्रेमपूर्ण और स्वयं प्रेमकी ही अभिव्यक्ति होना चाहिये था, एक लादी हुई चीज, एक अनिवार्य आवश्यकता बन गयी है जिसे अब केवल शरीर-निर्वाह एवं जीवन-यात्राके लिये करना पड़ता है । इस प्रकार यह एक भद्दा, दुःखद, अपमानजनक चीज बन गयी है । जिसे फूलके खिलनेका तरह आनन्दमय होना चाहिये था वह कुरूपता, थकान और घिनौना कर्तृत्व बन गयी है । और यह भावना, स्वतंत्रताका आवश्यकता भी विकृत होकर स्वाधीन रहनेकी ऐसी प्रयासमें परिणत हो गयी है, जो सीधे विद्रोह, पार्थक्य और एकाकीपनकी ओर लें जाती है ।और ये चीजों सच्ची स्वतंत्रताकी एकदम विरोधी हैं ।
स्वाधीनता!... मुझे याद है मैंने एक ज्ञानी वृद्ध गुह्यवेत्ताको यह
सुन्दर उत्तर देते सुना था, उनसे किसीने कहा था : ''मैं स्वाधीन रहनाचाहता हू! मैं स्वाधीन प्राणी हू! मेरा अस्तित्व तभी है जब मैं स्वाधीन होऊं! '' और उन्होंने मुस्कराहटके साथ उत्तर दिया था : ''इसका मतलब हुआ कि तुमसे कोई प्यार नहीं करेगा, क्योंकि यदि तुमसे कोई प्रेम करे तो तुम तुरत उसके प्रेमके अधीन हो जाओगे ।''
यह एक सुन्दर उत्तर है क्योंकि वस्तुत: प्रेम ही एकताकी ओर ले जाता है और यह एकता ही स्वतंत्रताकी सच्ची अभिव्यक्ति है । जो स्वतंत्रताके नामपर उच्छृंखलताका दावा करते हैं वे इस सच्ची स्वतंत्रताकी ओरसे पूरी तरह पीठ फेर लेते हैं, क्योंकि वे प्रेमसे इंकार करते है ।
विकृति आती है जबर्दस्ती करनेसे ।
कोई बाध्य होकर प्रेम नहीं कर सकता । किसीको प्रेम करनेके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता -- तब वह प्रेम नहीं रह जाता । इसलिये जैसे ही बाध्यता बीचमें आती है, वह मिथ्यात्व बन जाता है । आंतरिक सत्ताकी सभी क्रियाएं सहज-स्वाभाविक क्रियाएं होनी चाहिये -- ऐसी सहज- स्वाभाविकता जो आंतरिक सामंजस्यसे, सहानुभूतिपूर्ण समझसे -- स्वेच्छासे किये गायें आत्मदानमें -- गभीरतर सत्यकी ओर सत्ताके सच्चे स्वरूप, हमारे 'स्रोत' और 'उद्देश्य'की ओर वापस मुड़नेसे आती है ।
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८ मार्च, १९५७
निम्नलिखित कहानी श्रीमांने एक ''शुक्रवारकी
कक्षा'' मे' सुनायी थी । सामान्यतया तो यह
बच्चोंकी पढ्नेके लिये ही थी ।
एक बौद्ध कथा
आज भी मैं पढ नहीं सकती, इसलिये मैं तुम्हें एक कहानी सुरागी । यह एक बौद्ध कथा है, शायद तुम जानते होओ, यह आधुनिक है पर इसे प्रामाणिक होनेका श्रेय प्राप्त है । मैंने इसे श्रीमती 'ज' सें सुना था, शायद तुम्हें मालूम हो वे सुविख्यात बौद्ध हैं, विशेषत: वे ल्हासा पहुंचने-
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वाली पहली यूरोपीय महिला थी । उनकी यह तिब्बत यात्रा बहुत संकट- पूर्ण और रोमांचकारी थी । इस यात्राकी एक घटना स्वयं उन्होंने मुझे सुनायी थी । इस शाम मैं तुम्हें वही सुना रही हू ।
वै कुछ सहयात्रियोंके साथ यात्रा कर रही थीं और वह एक काफिला- सा बन गया था । और: तिब्बत जानेके लिये चुकी हिन्द-चीनसे होकर जाना अपेक्षाकृत अधिक आसान था, अतः वे उसी तरफसे जा रहे थे । हिन्द-चीन विशाल जंगलोंसे घिरा है और इन जंगलोंमें बाघ बहुतायतसे पाये जाते है । इनमेंसे कुछ नर-भक्षी बन जाते है... और जब ऐसा होता है तो वे उसे ''बाघजी'' कहते है ।
एक दिन काफी शाम बीते, जब वे एक घने जंगलके बीचमें थे -- किसी सुरक्षित स्थानपर डेरा लगा सकनेके लिये इस जंगलको पार करना जरूरी था -- कि श्रीमती 'ज'को ख्याल आया कि उनके ध्यानका समय हो गया है । उन दिनों वे निश्चित समयोंपर ध्यान किया करती थीं, बिलकुल नियमित रूपसे, बिना कभी चुके । और चूंकि उनके ध्यानक समय हो गया था, उन्होंने अपने हानियोंसे कहा : ''यात्रा जारी रखिये मैं यहां बैठकर ध्यान करूंगी और ध्यान समाप्त करके आप लोगोंसे आ मिलूंगी । इस बीच आप अगले, पड़ावतक पहुंचकर डेरा तैयार करें ।'' ''नहीं, नहीं, श्रीमतीजी, यह असंभव है, एकदम असंभव,'' एक कुलीन कहा - अवश्य ही उसने अपनी भाषामें कहा था, पर मैं बता दूं कि श्रीमती 'ज' तिब्बतियोंकी तरह तिब्बती भाषा जानती थीं - ''यह बिलकुल असंभव है, इस जंगलमे बाघजी है और यह उसके भोजनकी तलाश- मे निकलनेका समय है । हम आपको नहीं छोड़ सकते और आप यहां नही रुक सकतीं! '' उन्होंने उत्तर दिया : ''मुझे उसकी परवाह नहीं, ध्यान सरक्षासे ज्यादा जरूरी है । आप सब जायं, मैं यहां अकेली रहूंगी ।''
अपनी इच्छाके बिलकुल विपरीत वे चल पड़े, क्योंकि श्रीमती 'ज'से बहस करना असंभव था, जब वे किसी कामको करनेका निश्चय कर लेती थीं तो कोई चीज उसे करनेसे न रोक सकती थी । साथी चले गायें और वे आरामसे एक वृक्षके नीचे बैठ गयीं और ध्यानमें चली गयीं । कुछ देर बाद उन्हें किसी अप्रिय चीजकी उपस्थितिका अनुभव हुआ । यह देखनेके लिये कि वह क्या है उन्होंने आंखें खोली... देखा, तीन-चार कदम दूर, ठीक सामने बाघजी ललचायी आंखोंसे देख रहा है! तो एक उत्तम बौच्छदकी तरह उन्होंने कहा : ''अच्छा, यदि इसी तरह' मुझे निर्वाण- की प्राप्ति होनी है तो ठीक है । बस, मुझे, जैसा कि उचित है, सम्यक् भावमें शरीर छोड़नेकी तैयारी करनी चाहिये ।'' और बिना हीले, बिना
जरा भी कांपे उन्होंने अपनी आंखें फिरसे बंद कर ली और ध्यानमें, कुछ अधिक गहरे और प्रगाढ़ ध्यानमें चली गयीं; संसार-मायासे अपने-आपको पूरी तरह अलग करके उन्होंने अपने-आपको निर्वाणके लिये तैयार कर लिया... । पांच मिनट बीते, दस मिनट बीते, आधा घंटा बीत गया - कुछ नहीं हुआ । तब चूंकि ध्यान समाप्तिका समय हो गया था, उन्होंने अपनी आंखें खोली... वहां कोई बाघ न था! निश्चय ही शरीर- को इतना निश्चल देखकर उसने सोचा होगा कि यह खाने योग्य नहिं है! क्योंकि लकड़बग्घेको छोड़कर अन्य जंगली पशुओंकी तरह, बाघ भी मृत शरीरपर नहीं झपटता, उसे नहीं खाता । संभवत: उस निश्चलतासे प्रभावित होकर वह चला गया होगा -- मैं यह नहीं कह सकती कि वह ध्यानकी प्रगाढ़तासे प्रभावित होकर चला गया क्योंकि मेरे विचारमें बाघ ध्यानके प्रति बहुत संवेदनशील नहीं होते! उन्होंने अपने-आपको अकेला और खतरेके बाहर पाया । वे शांतिसे अपने मार्गपर आगे बढ़ी और डेरेपर पहुंचकर बोली : ''लो, मैं यह रही ।',
तो यह है कहानी । अब हम उनकी तरह ध्यान शुरू करते हैं, अपने- आपको निर्वाणके लिये' तैयार करनेके लिये नहीं (हंसी), बल्कि अपनी चेतनाको ऊंचा उठानेके लिये!
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१३ मार्च, १९५७
आज फिर पुस्तक-पाठ नहीं चलेगा । परंतु मैंने जो लिखा है उसके बारेमें किसीने एक प्रश्न पूछा है -- पवित्र, तुम्हारे पास है? पढो ।
(पवित्र पढ़ते है) : ''हमारा सबसे अच्छा मित्र बह है जो हमारी सत्ताके सर्वश्रेष्ठ भागमें हमसे प्रेम करता है और फिर भी, हम जो कुछ हैं उससे कुछ भिन्न बननेको नहीं कहता ।',
( 'विचार-सूत्र और विरोधाभासी वचन' सें)
मुझे इसका मतलब समझानेके लिये कहा गया है । मेरी वर्दी इच्छा होती है कि मैं तुमसे सब प्रकारकी विरोधाभासी वस्तुएं कहूं । पर अभी... जो भी हो, जब मैंने यह लिखा था तो मैं एक ऐसी बातके बारेमें
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सोच रही थी जिसे लोग सामान्यत: भूल जाते है । हम अपने मित्रों तथा अपने चारों ओरके सभी व्यक्तियोंसे यह चाहते हैं कि ३ वास्तवमें जैसे हैं वैसे न रहकर हम जैसा चाहते हैं वैसे बन जायं । हम अपने लिये एक आदर्श बना सकते है और उसे सबपर लाg करना चाह सकते है, परंतु... यह चीज मुझे टॉल्स्टायके पुत्रकी याद दिलाती है जिससे मैं जापानमें मिली थी । वह मनुष्योंमें एकता लानेकी आशासे सारे संसार- की यात्रा कर रहा था । उसका उद्देश्य बहुत बढ़िया था, पर कार्य करने- का ढंग उतना अच्छा नहीं था! वह अविचल गंभीरतासे कहता था कि यदि सब एक ही भाषा बोलें, एक-सा पहनावा पहने, एक-सा श्वान-पान रखें, एक-सा आचरण करें तो यह चीज जबर्दस्ती एकता ले आयेगी! यह पूछे जानेपर कि इस विचारको कार्यान्वित भरनेके बारेमें उसने क्या सोचा है, उसने कहा, इसके लिये एक देशसे दूसरे देशमें जाना तथा वहां- पर नयी, पर सार्वभौम भाषाका, एक नये, पर सार्वभौम पहरावेका, नयी, पर सार्वभौम आदतोंका प्रचार करना काफी होगा । बस इतना ही । और यही चीज थी जिसे वह करना चाह रहा था!
(हंसते हुए) वस्तुतः, प्रत्येक व्यक्ति अपने छोटे-से क्षेत्रमें ऐसा ही है । उसका अपना एक आदर्श होता है, अपनी एक धारणा होती है कि क्या सत्य है, क्या सुन्दर है और श्रेष्ठ है, यहांतक कि क्या दिव्य है और अपनी इस धारणाको वह दूसरोंपर लादना चाहता है । बहुत-से ऐसे लोग भी हैं जिनकी भगवान्के बारेमें अपनी खास धारणा है और वे उसे अपनी पूरी शक्तिके साथ भगवानपर थोपना चाहते है... और सामान्यतया तबतक हार नहीं मानते जबतक जीवन ही न छुट जाय ।
इस वाक्यको लिखते हुए मेरा ध्यान इसी सहज और प्रायः अचेतन वृत्तिकी ओर था । क्योंकि यदि मैं तुममेंसे किसीसे कहूं : ''देखो, तुम भी यही चीज करना चाहते हो,'' तो तुम तीव्र प्रतिवाद करते हुए कहोगे : ''नहीं! अपने जीवनमें कभी नहीं! '' परंतु जब तुम लोगोंके बारेमें सम्मति बनाते हो, विशेषत: उनके जीवन-व्यवहारके बारेमें अपनी प्रति- क्रिया करते हो तो यह इसीलिये होता है कि तुम उन्हें इस बातका दोष देते हों कि वे वैसे नहीं हैं जैसे तुम्हारे मतानुसार होने चाहिये । यदि हम यह कभी न भूलें कि विश्वमें कोई दो वस्तुएं ठीक एक जैसी नही हों सकतीं और न होनी ही चाहिये, कारण, तब दूसरी वस्तु व्यर्थ हो जायगी क्योंकि उस जैसी एक पहलेसे ही मौजूद है और यह कि विश्वका निर्माण ऐसी अनतविध अनेकरूपताओमें समस्वरता लानेके लिये हुआ है जिसमें कोई भी दो गतियां -- बल्कि यहांतक कि कोई भी दो चेतनाएं
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-- कभी एक समान नहीं हो सकतीं, तो भला हम किस अधिकारसे दखल दे सकते और चाह सकते हैं कि कोई व्यक्ति हमारे अपने विचारों- के अनुरूप बने?... क्योंकि यदि तुम एक विशेष ढंगसे सोचते हो तो अवश्य ही दूसरा ठीक उसी ढंगसे नही सोच सकता; और यदि तुम एक विशेष प्रकारके व्यक्ति हो तो यह बिलकुल निश्चित है कि दूसरा ठीक उसी नमूनेका नहीं हो सकता । अतः जो चीज तुम्हें सीखनी चाहिये वह यह है कि विश्वकी विभिन्न वस्तुओंमें, प्रत्येकको उसके अपने स्थानपर रखकर संगति, समन्वय और मेल ला सको । संपूर्ण समस्वरता संपूर्णतया एकरूप हो जानेंमें बिलकुल नहीं है, बल्कि संगति स्थापित करनेमें है जो प्रत्येक वस्तुको उसके अपने स्थानपर रखनेसे ही आ सकती है ।
हमें अपने मित्रसे जिस प्रतिक्रियाकी आशा करनेका अजिकार है उसके मूलमें यही चीज होनी चाहिये कि वह यह इच्छा न करे कि उसका मित्र उसीके जैसा बने बल्कि वह चाहे कि मित्र वही बने जो कि वह सचमुच है ।
तो, वाक्यके शुरूमें मैंने कहा है. ''वह तुम्हारी सत्ताके सर्वश्रेष्ठ भागमें तुमसे प्रेम करता है''... इसे जरा अधिक साफ शब्दोंमें कहें तो तुम्हारा मित्र वह नहीं है जो तुम्हें अपने नीचे-से-नीचे स्तरपर आने, अपने साथ मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने और बुरी बातें करनेके लिये उत्साहित करता है या जो तुम्हारे बुरे कामोंकी सराहना करता है, यह बिलकुल स्पष्ट है । पर फिर भी, आमतौरसे, बहुत-बहुत बार और प्रायः ही तुम किसी पैसे व्यक्ति- सें मित्रता करते हो जिसके साथ तुम अपनी गिरी हुई अवस्थामें कोई ग्रंकोच या बेचैनी नहीं महसूस करते । तुम उसे ही अपना सबसे अच्छा मित्र समझते हो जो तुम्हारी मूर्खताओंमें तुम्हें उशहित करता है, उनसे हिल- मेल बढ़ाते हो जो स्कूल जानेके बदले इधर-उधर भटकने फिरट्टो है, बगीचोंमें फल चुरानेके लिये भाग जाते है, अपने अध्यापकोंको ताने मारते है और इसी तरहकी सब चीजों करते हैं । मैं' किसीपर व्यक्तिगत रूपसे टीका- टिप्पणी नही कर रही हू, मैं ऐसे उदाहरण अवश्य दे सकती हू और (वेद है उनकी संख्या बहुत अधिक है । संभवत: इसी कारण मैंने कहा है : ''ये तुम्हारे सच्चे मित्र नहीं है ।'' परन्तु फिर भी, ये सबसे बढ़कर सुविधा- जनक होते है क्योंकि वे तुम्हें यह अनुभव नहीं होने देते कि तुम गलतीपर हों; इसके विपरीत जो व्यक्ति तुमसे आकर कहता है : ''देखो, क्या तुम्हें नहीं लगता कि इधर-उधर निठल्ले फिरने और: मूर्खताएं करनेके बदके कक्षामें चलना ज्यादा अच्छा होगा! '' ऐसेको सामान्यतया यही उत्तर मिलता है : ''मुझे तंग न करो! तुम मेरे सच्चे मित्र नहीं हो ।'' संभवत: इसी- कारण मैंने यह वाक्य लिखा' था । मैं फिर कहती हू कि मैं' व्यक्तिगत
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रूपसे किसीपर आक्षेप नहीं कर रही हू, फिर भी, यह तुम्हें एक ऐसी बात बतानेका उपयुक्त अवसर है जो दुर्भाग्यवश बहुत अधिक बार हुआ करती है।
यहां कुछ बच्चे ऐसे है जो कभी बहुत होनहार थे, अपनी कक्षामें प्रथम आते थे, गंभीरतापूर्वक काम करते थे, जिनसे मुझे बड़ी आशाएं थीं, पर जो इस प्रकारकी मित्रताओंसे पूरी तरह बिगड़ गये हैं! और चूंकि बात चल पडी है मैं आज उनसे कहती हू कि मुझे इसका बड़ा खेद है । और ऐसे साथियोंको मैं मित्र नहीं, जानी दुश्मन कहती हू; इनसे ऐसे ही बचना चाहिये जैसे संक्रामक रोगोंसे बचा जाता है ।
हम छूतके रोगीका संसर्ग पसंद नही करते, बल्कि सावधानतापूर्वक उससे बचते है; सामान्यतया ऐसे व्यक्तिको पृथक् रखा जाता है जिससे वह रोग फैलने न पाये । परन्तु बुरे कार्यकी और बुरे व्यवहारकी छूत, दुराचार, मिथ्या- त्व और जो कुछ निकृष्ट है उस सबकी छूत किसी भी बीमारीकी छूतसे बहुत अधिक भयंकर होती है और इससे बड़ी सावधानीसे बचनेकी जरूरत है । तुम्हें अपना सबसे अच्छा मित्र उसे मानना चाहिये जो तुमसे कहता है कि मैं किसी बुरे या भद्दे कार्यमें भाग नहीं लेना चाहता, जो तुममें निम्न प्रलोभनोंका सामना करनेका साहस बधांता है, ऐसा व्यक्ति ही सच्चा मित्र है । ऐसे व्यक्तिसे ही मेल-जोल रखना चाहिये, न कि उससे जो तुम्हारे साथ थोड़ा हंस-खेल लें और तुम्हारी बुरी प्रवृत्तियोंको सबल बनाये । यह है सारी बात ।
अब मैं अधिक विस्तारमें नहीं जाती और आशा करती हू कि मैंने जो कहा है उसे वे समझ गायें होंगे जो मेरे मनमें है ।
वस्तुतः, तुम्हें केवल उन्हीं व्यक्तियोंको अपने मित्रके रूपमें चुनना चाहिये जो तुमसे अधिक बुद्धिमान् हों, जिनकी संगति तुम्हें ऊंचा उठाये, अपनेपर विजय पाने, प्रगति करने, और भी अधिक अच्छा करने और स्पष्टतर रूप- सें देखनेमें सहायता करे । और अंतमें सबसे अच्छा मित्र जो तुम्हें मिल सकता है, क्या वह भगवान् ही नहीं है, जिनके सामने तुम सब कुछ कह सकते, सब कुछ प्रकट कर सकते हो? क्योंकि निश्चय ही, सर्व करुणा, सर्व शक्तिका स्रोत वहीं है, वह प्रत्येक भूलकी, यदि उसें दोहराया न जाय तो,' मिटा 'सकती और सच्ची चरितार्थताका मार्ग रवोल सकती है । ये वे ही है जो सब कुछ समझ सकते और सब घावोंको भर सकते हैं तथा पथ- पर सदा सहायता कर सकते है, तुम हिम्मत न हार जाओ, लड़खड़ा न
' ११६१ मे, इस वार्ताके प्रथम बार छपनेके अवसरपर श्रीमांने इस वाक्य- पर यह टिप्पणी की थी : '' जबतक तुम दोषोंको दोहराते रहते हो कुछ भी
पडो, गिर न जाओ बल्कि लक्ष्यकी ओर सीधे चलते जाओ इसमें तुम्हारी सहायता कर सकते हैं । वे ही सच्चे मित्र हैं, अच्छे और बुरे दिनोंके साथी हैं । वे समझ सकते और घावोंको भर सकते हैं और जब तुम्हें उनकी जरूरत होती है, वे सदा उपस्थित हो जाते हैं । जब तुम उन्हें सच्चाईसे पुकारते हो तो वे सदा पथ-प्रदर्शन करने और सहारा देने - और सबसे सच्चे रूपमें प्रेम करने -- के लिये आ उपस्थित होते हैं ।
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१५ मार्च, १९५७
निम्नलिखित वार्ता शुक्रवारको सुनायी गयी
थी । इस दिन श्रीमां बच्चोंको कुछ पढ-
कर सुनाया करती थीं ।
तेमसेमके संस्मरण
आज फिर मैं पढूंगी नहीं लेकिन कहानी भी नहीं सुनाऊंगी : आज मैं तुम्हें श्रीमती 'अ'के बारेमें कुछ सुनाती हू ।
मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि प्रत्येक मिनट तुम उसे नया कर देते हो । जब कोई व्यक्ति गलती करता है, चाहे वह गंभीर हो या मामूली, उसका परिणाम उसके जीवनमें अवश्य होता है, यह एक ऐसा 'कर्म' है जिसका फल उसे भोगना ही पड़ता है, परन्तु भागवत कृपा, यदि तुम 'उसे' पुकारो, उसकी काट कर सकती है पर इसके लिये यह आवश्यक है कि त्रुटिको दोहराया न जाये । यह मत सोचो कि तुम वह-की- वही मूर्खताएं अनिश्चित कालतक करते रहोगे और 'कृपा' उनके परिणामों- को अनिश्चित कालतक रद्द करती रहेगी । लेकिन बात ऐसी नहीं है । अतीतको पूरी तरह साफ किया जा सकता और पोंछा जा सकता है, यहां- तक कि उसका भविष्यपर कोई प्रभाव न रहे, पर शर्त यही है कि उसे तुम स्थायी वर्तमान न बना लो; यह आवश्यक है कि? तुम स्वयं अपने अंदरके गलत स्पन्दनोंको रोको, उन्हीं स्पन्दनोंको अनिश्चित कालतक फिर- फिर पैदा न करते रहो ।''
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श्रीमती 'अ' वाइट द्वीपमें पैदा हुई थीं । और तेमसेममें अपने पतिके साथ रहती थीं । उनके पति एक महान् गुह्यवेत्ता थे और स्वयं श्रीमती 'अ' भी बहुत प्रभावशाली गुह्यवेत्ता थीं । उनकी परोक्षदर्शनकी शक्ति तो विलक्षण थी, उनके पास माध्यमविषयक शक्तियां और बहुत-सी असाधारण सिद्धियां भी थीं । उन्होंनें अत्यंत पूर्ण प्रशिक्षण पाया था और इसके लिये अति कठोर साधना की थी । वे अपनेसे बाहर जा सकती थी, अर्थात् अपने भौतिक शरीरसे निकलकर अपनी पूरी चेतनाके साथ सूक्ष्म शरीरमें प्रवेश करतीं और ऐसा वे एकके-बाद-एक बारह बार कर सकती थी, अर्थात् चेतनाकी एक अवस्थासे दूसरीमें सचेतन रूपसे जातीं और वहावैसी ही सचेतन बनी रहतीं जैसी कि भौतिक शरीरमें और फिरसे उस सूक्ष्म शरीरको समाधिमें छोड़ उससे बाहर चली जातीं और इस प्रकार आगे- आगे करती हुई बारह बार करके आकार-जगत्की अंतिम सीमातक पहुंच जातीं... । इस विषयमें में तुम्हें फिर कभी बताऊंगी, जब तुम इन बातों- को कुछ अधिक अच्छी तरह समझने लगोगे । पर आज मैं तुम्हें थोडी-सी छोटी-छोटी घटनाएं सुनाती हू जो मैंने वहां तेमसेममें देखें थीं जब कि मैं वहां थी' और वह कहानी भी सुनाऊंगी जो उन्होंनें मुझे सुनायी थीं ।
घटनाएं बाहरी है जरूर, पर काफी मनोरंजक- है । वह प्रायः सदा ही समाधि-अवस्थामें रहती थीं और उन्होने अपने शरीरको इतना सधा लिया था कि जब वह समाधि-अवस्थामें होतीं, अर्थात् जब उनकी सत्ताके एक (या अधिक) भाग बाहर गये हुए होते तो भी शरीरका अपना' जीवन चलता रहता, वे फिर सकती थीं, यहांतक कि कुछ छोटे-मोटे भौतिक कार्य भी कर सकती थीं... वह बहुत अधिक काम किया करती थीं, वह अपनी समाधि-अवस्थामें अच्छी तरह बोल सकती थीं, इसलिये जो देखती थीं उसका वर्णन करती जाती थीं और उस सबको लिख लिया जाता था । इन लेखनों बादमें एक शिक्षाका रूप ले लिया (ये कहीं अन्यत्र प्रकाशित हुए है) । इस सबके और जो गुह्य कार्य वह कर रही थी उसके कारण वह थक जाया करती थीं, इन अर्थोंमें कि उनका शरीर थक जाता था और ठोस रूपमें अपनी खोयी शक्तिको फिरसे प्राप्त करना चाहता था ।
तो एक दिन जब वह विशेष रूपसे थकी थीं, मुझसे बोलीं : ''देखो, मैं अपने बालकों कैसे पुनः प्राप्त करती हू ।', वह अपने बगीचेसे -- वस्तुत: यह बगीचा न होकर एक विशाल संपत्ति थी, जिसमें सैकड़ों जैतूनके वृक्ष थे
'११९०७ में
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और अंजीर तो ऐसे थे जैसे मैंने अन्यत्र कभी नहीं देखे । पहाड़की ढलान- पर बना यह बगीचा सचमुच बहुत अद्भुत था, मैदानसे लेकर पहाड़की लगभग आधी ऊंचाईतक यह फैला हुआ था - इस बगीचेमें नींवू थे, संतरे थे... और चकोतरे थे । चकोतरेपर काफी बड़े फूल आते है और ये संतरेके फूलोंसे अधिक सुगन्धित होते हैं । वह इनसे इत्र बनाना जानती थी, इसकी एक बोतल उन्होंने मुझे भी दी थी -- हां तो, वह अपने बग़ीचे- से एक बड़ा-सा चकोतरा, जो बहुत बड़ा और पका हुआ था, तोड़ लायी थीं । वह अपने बिस्तरपर लेट गयीं और इस चकोतरेको अपने सौरचक्रपर यहां, इस प्रकार दोनों हाथोंसे थामकर, लेटे-लेटे विश्राम करने लगीई । सोची नहीं, केवल विश्राम कर रही थीं, मुझसे बोली : ''एक घंटे बाद आना ।'' एक घंटे बाद जब मैं' वापस आयी... तो चकोतरा मालपूएकी तरह चपटा पड़ा था । इससे पता लगता था कि उनके पास जीवनी-शक्तिको सोख लेनेकी ऐसी सामर्थ्य थी कि उन्होंने फलका सारा सत्व खींच लिया था और वह एकदम ढीला और, चपटा हो गया था । यह मैंने स्वयं देखा था । तुम कर देखो, तुमसे न बनेगा! (हंसी)
एक और समयकी बात है - और यह अधिक मजेदार है,... परन्तु पहले मैं तुम्हें तेमसेमके बारेमें कुछ बता दूं, शायद तब जानते न होओ । तेमसेम दक्षिण अलजीरियामें एक छोटा-सा शहर है और सहारा रेगिस्तान- के लगभग किनारेपर स्थित है । यह शहर एक घाटीमें बसा है जो चारों तरफ पहाड़ोंसे घिरी है । पहाड़ बहुत ऊंचे तो नहीं पर फिर भी छोटी पहाड़ियोंसे ऊंचे है । और घाटी बहुत उपजाऊ, हरी-भरी और शोभनीय है । जनता अधिकतर अरब है और ये संपन्न व्यापारी हैं, सचमुच यह अच्छा संपन्न शहर है -- बल्कि था, क्योंकि मैं नहीं जानती कि अब कैसा है, मैं तुम्हें इस शताब्दीके शुरूकी बातें सुना रही हू तो वहां खूब अमीर सौदागर थे और ये अरब लोग महाशय 'अ'के दर्शनोंके लिये आया करते थे । वे जानते तो कुछ नहीं थे, समझते भी न थे पर दिलचस्पी बहुत रखते थे ।
एक दिन शामके समय, उनमेंसे एक आदमी आया और ऐसे प्रश्न पूछने लगा जो बड़े ही बेतुके थे । श्रीमती 'अ'ने मुझसे कहा : ''देखो, हम जरा कौतुक करेंगे ।'' उस घरके बरामदेमें एक बड़ी-सी मेज थी जो सामान्यत: खाना खानेके काम आया करती थी । यह मेज़ खूब चौडी और खूब लम्बी थी, इसके आठ पावे थे, दोनों तरफ चार-चार । सचमुच यह बहुत ही बड़ी और भारी मेज थी । इस व्यक्तिके आतिथ्यके लिये कुत्तियाँ लगायी गयीं थीं, पर वे मेजसे कुछ दूर थीं । एक सिरेपर वह
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बैठा था और दूसरे सिरेपर श्रीमती 'अ', मैं और महाशय 'अ' एक ओरको बैठे थे । हम चारों वहां थे । मेजके पास कोई न था, हम सब उसके काफी दूर थे । तो, वह प्रश्न पूछ रहा था, और जैसा कि मैंने कहा वे अधिकतर हास्यास्पद थे, शक्तियां कैसी-कैसी होती हैं और उन शक्तियोंसे -- जिसे वह ''जादू'' कहता था -- क्या-क्या किया जा सकता है... । श्रीमती 'अ'ने मेरी ओर देखा पर बोलीं कुछ नहीं, एकदम शांत-स्थिर बैठी रहीं । एकाएक मैंने चीख, भयमिश्रित चीख सुनी । मेज चलने लगी और एक वीरकी-सी गतिसे दूसरे सिरेपर बैठे उस बिचारे आदमीपर आक्रमणके लिये बढ़ी और जाकर उसे टक्कर मारी । श्रीमती 'अ'ने मेजको छुआ नहीं था, किसीने भी नहीं छुआ था । उन्होंने केवल मेजपर अपनेको एकाग्र किया था और अपनी प्राण-शक्तिद्वारा उसे चलाया था । पहले तो मेज थोडी हिली फिर धीरे-धीरे चलने लगी और फिर एकाएक, मानों एक ही छलांगमें, वहां गयी और उस आदमीपर टूट पडी । वह भाग खड़ा हुआ और फिर कभी नहीं आया ।
उनके पास वस्तुओंको अदृश्य कर देंने और फिरसे स्थूल रूपमें लें आने- की शक्ति भी थी । पर वह कभी कुछ कहती नहीं थी, डींग नहीं मारती थीं, ''मैं' कुछ करने वाली हू,'' ऐसा कभी नहीं कहतीं थीं, बस चुपके-से कर देतीं थीं । वह इन चीजोंको बहुत महत्व नहीं देती थीं, वह जानती थीं कि ये केवल इस बातका प्रमाण है कि विशुद्ध रूपसे भौतिक शक्तियों- के अलावा दूसरी शक्तियां भी है ।
शामके समय जब मैं बाहर जाया करती थी (दोपहरी ढले मैं महाशय 'अ'के साथ देहाती प्रदेश देखने या पहाड़ोंपर पड़ोसी गांवोंमें जाया करती थी), तो मैं अपने दरवाजेको ताला लगाकर जाती थी, यह मेरी आदत थी, मैं सदा ही दरवाजेपर ताला रखती थी । श्रीमती 'अ' शायद ही कभी बाहर जाती थीं, इसका कारण मैं तुम्हें पहले ही बता चुकी हू, क्योंकि वह अधिकांश समय समाधिकी अवस्थामें रहती थीं, और इसलिये घर ही रहना पसंद करती थीं । परन्तु जब मैं सैरसे वापस लौटती और अपना दरवाजा खोलती (दरवाज़ेपर ताला लगा होता था, इसलिये यह संभव न था कि अंदर कोई आया हो) तो मुझे अपने तकियेपर फूलोंका एक छोटा-सा हार मिलता । ये फूल बगीचेमें होते थे, इन्हें ''बेl द नीव'' ' कहते है । ये हमारे यहां भी है, ये शामको खिलते हैं और इनकी
१Mirabilis, Marvel of Peru (पेरुका आश्चर्य), श्रीमांने इसे अर्थ दिया है : 'सांत्वना' ।
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महक बहुत बढ़िया होती है । यहां एक पूरा-का-पूरा उद्यान-पथ इन्हींसे, इस फुलकी बड़ी और ऊंची हानियोंसे बना था । ये फूल अनोखे होते है (मेरा ख्याल है यहां भी ये उसी तरहके हैं), एक ही झाड़ीगर विचित्र रंगोंके फूल : पीले, लाल, मिश्रित, बैगनी । ये फूल बहुत छोटे-छोटे होते है जैसे... घण्टिका पुष्प; नहीं बल्कि जैसे हरिणपदी, पर ये झाड़ियों- पर होते हैं (हरिणपदी पके लता है, इसकी झाड़िया होती है), ये हमारे बगीचोंमें भी है । वह सदा इन्हें अपने कानोंमें लगाया करती थीं, क्योंकि इनकी महक बड़ी प्यारी होती है, ओह! कितनी सुहाती और सुन्दर! हां तो, वह उद्यान-पथमें इन झाड़ियोंके बीवी सैरके लिपे जाया करती थीं, ये काफी ऊंची थीं पर वह इनपरसे फूल इकट्ठे कर लेती थीं -- और जब मैं लौटती तो फूल मेरे कमरेमें होते थे...! उन्होंने मुझसे कभी नहीं कहा कि ऐसा वह कैसे करती हैं । पर इतना निश्चित है कि वे कमरेमें नहीं जाती थीं । उन्होंने एक बार मुझसे पूछा था : ''क्या तुम्हारे कमरेमें फूल नहीं थे? '' - मैंने कहा : ''हां, थे अवश्य ।', बस, इतना ही । मैं समझ गयी कि वह ही उन फूलोंको रखती है ।
मैं तुम्हें बहुत-सी कहानियां सुना सकती हू, परन्तु. .बस, एक कहानी सुनाकर समाप्त करती हू । यह उन्होंने मुझे सुनायी थी, मेरी देखी हुई नहीं है।
मैं तुम्हें बता चुकी हू कि तेमसेम सहाराके बहुत पास है, इसलिये वहां- की आबोहवा रेगिस्तानी है, सिवाय उस घाटीके जहां नदी बहती है । यह नदी कमी सूखती नहीं और सारी घाटीको खूब उपजाऊ बनाये रखती है । परन्तु पहाड़ बिलकुल बंजर पड़े थे । केवल एक भाग ऐसा था जो कृषि- विशेषज्ञोंके हाथमें था और जहां कुछ पैदा होता था । पर महाशय 'अ' का उद्यान (सचमुच एक विस्तृत भूसंपत्ति) जैसा कि मैंने कहा, एक अद्भुत जगह थी.. .प्रत्येक चीज वहां पैदा होती थी, जिसकी तुम कल्पना कर सकते हो ऐसी प्रत्येक चीज और वह भी बहुत बड़े परिमाणमें । तो, उन्होंने मुझे सुनाया (वे वहां काफी लंबे समयसे थे) कि अबसे लगभग पांच-छ वर्ष पूर्व, मैं सोचती हू, कृषि-विशेषज्ञोंके मनमें आया कि इन बंजर पहाड़ोंकी वजहसे नदी किसी दिन सूख सकती है और यह ज्यादा अच्छा रहेगा कि वहां कुछ पैड-पौधे उगाये जायं । तेमसेमके प्रशासकने आदेश जारी किया कि पास-पड़ोसकी सब पहाड़ियोंपर वृक्ष रोgए जायं, यह एक काफी विस्तृत घेरा है, समझे! उसने चीडके वृक्षोंके लिये कहा था क्योंकि समुद्री चीड़ अलजीरियामें अच्छी तरह हों जाता है और वे इसे आजमाना चाहते थे । पर किसी कारणसे, भूलसे कहो या झकसे, भगवान् जाने!
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-- चीडकी जगह आदेश चला गया देवदारुके पौधोंका! देवदारुके वृक्ष उत्तरी प्रदेशोंमें होते हैं, वे रेगिस्तानके वृक्ष नहीं हैं । फिर भी इन पौधोंका बड़ी सावधानीके साथ रोपा गया । श्रीमती 'अ' ने यह सब देखा और मेरा विचार है, उन्हें लगा कि परीक्षण कर देखें । और हुआ यह कि चार-पांच वर्षमें वे केवल फूट हा नहीं आये बल्कि शानदार हो गये थे । जब मैं वहां, तेमसेममें थी तो इन वृक्षोंसे पहाड़ चारों ओर एकदम हरे थे । उन्होने मुझसे कहा : ''तुम देखती ही हो, ये चीडके नहीं, देव- दारुके वृक्ष है ।', और सचमुच वे देवदारु ही थे (तुम जानते ही हो देवदारु क्रिसमस-वृक्ष है, जानते हो ने!) । फिर उन्होंने बताया कि तीन साल बाद जब ये देवदारु कदमें कुछ बढ़ गये, तो अचानक एक दिन, बल्कि यूं कहें दिसम्बरकी एक रात, जैसे ही बत्ती बुझाकर वह सोयी कि एक बहुत धीमी, हल्की आवाजने उन्हें जगा दिया (आवाजके प्रति वह बहुत संवेदनशील थीं); आरव खोलकर देखा तो चंद्रकिरण-सी कुछ चीज लगी -- चांद उस रात था ही नहीं -- और उससे कमरेंका एक कोना जगमगा रहा था । ध्यानसे देखा तो वहां एक छोटा-सा बौना खड़ा था, जैसा कि नॉर्वे, स्वीडन और स्केंडिनेवियाकी परी-कथाओंमें आता है, वह बहुत छोटा-सा था -- सिर बड़ा, नोकीली टोपी और गहरे हरे रंगके नोकीले? जूते । और उसकी दादी लंबी सफेद थी और वह सारा-का-सारा बर्फसे ढका था ।
उन्होने उसकी ओर देखा (खुली आंखोंसे) और उसे देखकर कहा : ''किंतु... ऐह! तुम यहां क्या कर रहे हो? (वह जरा परेशान-सी थीं क्योंकि कमरेकी गर्मीसे बर्फ पिघल रही थी और फर्शपर एक छोटी-सी डबरी बना रही थी) किंतु तुम यहा क्या कर रहे हो? ''
बहुत प्यारी-सी मुस्कानके साथ वह उनकी ओर मुस्कराया और बोला : ''परन्तु देवदारुके वृक्षों द्वारा हमें इशारा जो किया गया है! ये वृक्ष बर्फ- को आमंत्रित करते हैं । ये बर्फ़ीले प्रदेशोंके वृक्ष हेऐ और मैं हू बर्फका राज।, मै तुम्हें बताने आया हू कि... हम आ रहे है, हमें बुलाया गया है ओर हम आ रहे है ।''
-- ''बर्फ?... परन्तु हम तो सहाराके बहुत समीप है! ''
-- ''आह! तो तुम्हें देवदारु लगाने ही नहीं चाहिये थे! ''
अंतमें उन्होंने उससे कहा. ''सुनो, मै नहीं जानती कि तुम जो कह रहे हो वह ठीक है या नहीं, परन्तु तुम मेरा फ़र्श खराब कर रहे हो, भाग जाओ! ''
वह चला गया, साथ ही चन्द्र-किरण भी विलीन हो गयी । उन्होंने
लेप्य जलाया ( क्योंकि वहां बिजली नहीं थी), लैम्प जलाकर देखा... कि जहां वह खड़ा था वहां पानीकी छोटी-सी डबरी बन गयी है । तो, यह स्वप्न नहीं था, वहां सचमुच एक छोटा प्राणी था जिसकी बर्फ पिघल- कर पानी हो गयी थी । और अगले दिन जब सूर्योदय हुआ तो वह बर्फ- से ढेक पहाड़ोंपर हुआ । ऐसा पहली बार हुआ था, इससे पहले उस प्रदेशमें ऐसा नहीं देखा गया था ।
तबसे हर सर्दियोंमें -- बहुत समयतक तो नही पर कुछ समयतक -- सब पहाड़ बर्फसे ढक जाते हैं ।
सो, यह है मेरी कहानी ।
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२० मार्च, ११५७
''विजयका आनंद कभी-कभी संघर्ष और कष्टके आकर्षणसे कम होता है; फिर भी विजयशील मानव आत्माका उद्देश्य मुकुट होना चाहिये न कि सूली।
अभीप्सा न करनेवाली अंतरात्माएँ परमात्माकी असफलताएं हैं; परंतु प्रकृति उनसे प्रसन्न होती है और उनकी संख्या बढ़ाना चाहती है क्योंकि वे उसके स्थायित्वका आश्वासन देते और उस- के साम्राज्यको लंबाते हैं ।
जो दरिद्र हैं, अज्ञानी, अकुलीन या अशिष्ट हैं वे प्राकृत जन नहीं हैं, प्राकृत जन वे सब हैं जो तुच्छता और सामान्य मानवतासे संतुष्ट हैं ।
मनुष्योंकी सहायता कर पर उन्हें अपनी शक्तिसे वंचित करके मुहताज न बना; उनका पथ-प्रदर्शन कर और उन्हें सीख दे पर ध्यान रख कि उनकी उपक्रमशक्ति और मौलिकता अक्षत रहें; दूसरोंको अपने अंदर ले ले, पर बदलेमें उन्हें उनकी प्रकृतिका पूर्ण देवत्व प्रदान कर । जो यह कर सकता है वही नेता और गुरु है ।
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परमेश्वरने संसारको युद्धका एक क्षेत्र बनाया है और इसे योद्धाओं- की ठोकरों तथा भारी मल्लयुद्ध और संघर्षकी चिल्लाहटोंसे भर दिया है । क्या तू उनकी शांतिको चुरा लेना चाहता है, वह मूल्य चुकाये बिना ही जो उन्होंने इसके लिये निश्चित किया है !
पूर्ण प्रतीत होनेवाली सफलतापर विश्वास मत कर, परंतु सफल हो चुकनेके बाद जब तू देखे कि अभी बहुत कुछ करना बाकी ह तो प्रसत्र हो और आगे बढ़ता चल क्योंकि सच्ची पूर्णतासे पहले लंबा परिश्रम होता है ।
इससे बढ़कर सुन्न कर देनेवाली और कोई भूल नहीं हो सकती कि गलतीसे किसी पड़ावको ही लक्ष्य समझ लिया जाय या किसी विश्राम-स्थलपर बहुत अधिक ठहरा जाय ।''
श्रीअरविदने यहां यह सब जो कहा है उसका उद्देश्य है मानव प्रकृतिके तमस्के, उसकी जड़ता, आलस्य, सहज-सन्तुष्टि और परिश्रम न करनेकी प्रवृत्तिके विरुद्ध लड़ना । जीवनमें कितनी ही बार हमें ऐसे लोग मिलते है जो शांतिप्रिय इसलिये होते है कि ३ लडाईसे डरते है, जो संग्रामजीतने- से पहले ही आरामके लिये लालायित होते हैं, जो अपनी जरा-सी प्रगतिसे संतुष्ट हो जाते हैं और अपनी कल्पना तथा कामनाओंमें उसे ऐसी अद्भुत प्राप्ति समझ लेते है जो उनके आधे रास्तेमें रुक जानेको न्याय-संगत ठहराती है ।
सामान्य जीवनमें, निःसंदेह, ऐसा बहुत होता है । वस्तुत: यह मध्य- वर्गीय आदर्श है और इसने मानवजातिको एक तरहसे मुरदा बना दिया है और मनुष्यको वैसा बना डाला है जैसा वह आज है । ''जबतक युवा हो काम करो, धन, सम्मान, पदका अर्जन करो, थोडी दूर-दृष्टि रखो, कुछ बचाओ और एक पूंजी जमा कर लो, पदाधिकारी बनो, ताकि जब तुम चालीसके होओ तो आराम कर सको, अपनी आमदनीका और बादमें पेन्शनका उपभोग कर सको ।'' - बैठ जाना, रास्तेमें रुक जाना, आगे न बढ़ना, सो जाना, समयसे पहले कब्रकी ओर चल देना, जीवनका उद्देश्य और प्रयोजन ही जीना बन्द कर देना - बैठ जाना!
जिस क्षण मनुष्य आगे बढ़ना बन्द कर देता है, वह पीछे जाता है ।
जिस क्षण वह संतुष्ट होकर बैठ जाता है तथा और आगे अभीप्सा नहीं करता वह मरना शुरू कर देता है । जीवन है गति, जीवन है प्रयास, जीवन है आगेकी ओर बढ़ना, एक पहाड़ी चढ़ाई चढ़ना, नये-नये ज्योति-शिखरोंको पार करना और भविष्यकी चरितार्थताकी ओर अग्रसर होना । विश्राम करनेकी इच्छासे बढ़कर खतरनाक कोई वस्तु नही है । हमें विश्रामकी खोज करनी चाहिये कर्ममें, प्रयासमें, आगेकी ओर बढ़नेमें -- उस सच्चे विश्रामकी जो भागवत कृपामें पूर्ण भरोसा रखनेसे, इच्छाओं- के अभावसे, अहंपर विजय प्राप्त करनेसे मिलता है ।
सच्चा विश्राम चेतनाको विस्तृत करनेसे, विश्वभावापत्र बनानेसे मिलता है । संसार जितने विशाल बन जाओ और तुम सदा आराममें रहोगे । कर्मकी भरपूरतामें, रणस्थलीके बीचोंबीच, विविध प्रयासोंके पूर्ण प्रवेगमें तुम अनंतता और शाश्वतताकी विश्रांतिका अनुभव करोगे ।
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२२ मार्च, १९५७
निम्नलिखित कहानी श्रीमांने एक शुक्रवार-
की कक्षामें सुनायी थी ।
आज मैं तुम्हें एक छोटी-सी कहानी पड़कर सुना रही हू जो मुझे काफी बोधप्रद लगी है । यह पुराने समयकी कहानी है और बताती है कि उन दिनों क्या हुआ करता था जब छापेखाने नहीं थे, पुस्तके नही थीं और शान केवल गुरु या दीक्षित व्यक्तिके पास ही हुआ करता था और गुरु पात्रके सिवाय किसीको नहीं देता था; और उसकी दृष्टिटगें, सामान्यत: ''पात्र'' होनेका अर्थ था जो कुछ सीखा हों उसे जीवनमें उतारना । वह तुम्हें एक सत्य देता और आशा करता था कि तुम उसपर आचरण करोगे । और जब तुम उसे आचरणमें ले आते तभी वह अगला शान देनेके लिये राजी होता ।
अब चीजों बिलकुल और तरह होती है । सब कोई और जो चाहे पुस्तक प्राप्त कर सकता और उसे पूरे-का-पूरा बाँच सकता है और उस- पर आचरण करने या न करनेके बारेमें अपनी मरजी मुताबिक पूरी तरह
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स्वतंत्र है । यह सब ठीक है । परन्तु इससे बहुतोंके मनमें कुछ बर्राती पैदा हो जाती है । जो लोग बहुत-सी पुस्तकें पढ लेते हैं वे सोचते है है कि इतना पर्याप्त है और चूंकि उन्होंने बहुत पढ लिया है इसलिये अब उनके साथ सब प्रकारकी चामदेकारिक बातें होनी चाहिये, उन्हें उसपर आचरण करनेका कष्ट उठानेकी कोई जरूरत नहीं है । इसलिये वे अधीर हो जाते है और कहते है : ''यह कैसी बात है कि मैंने इतना सब पढा ओर फिर भी मैं वह-का-वही हू! -- मेरी कठिनाइयां भी वही है, कोई सिद्धि भी नहीं मिली? '' ऐसी टिप्पणियां मैं प्रायः ही सुनती हू ।
वे एक महत्त्वपूर्ण बात भूल जाते है कि उन्होंने जो शान -- बौद्धिक, मानसिक शान -- प्राप्त किया है वह अधिकारी होनेसे पहले ही, अर्थात् पढे हुए ज्ञानको आचरणमें लानेसे पहले ही, प्राप्त कर लिया है, और इससे स्वभावत: उनकी चेतनाकी स्थिति और विचारोंके बीच एक संघर्षकी स्थिति है, वे इस शानकी चर्चा तो आरामसे कर सकते हैं लेकिन इसपर आचरण नहीं किया !
तो मैं यह कहानी अधीर व्यक्तियोंको यह बतानेके लिये पढ रही हूं कि पुराने जमानेमें क्या हुआ करता था, जब न कोई पुस्तक मिलती थी और न उसे पढ़ना संभव थ।-, जब शान पानेके लिये गुरु या दीक्षित व्यक्ति- पर निर्भर रहना होता था क्योंकि शान केवल उसीके पास होता था और उसे यह किसी और गुरु या शिक्षकसे मिला होता था और वह तुम्हें यह ज्ञान तभी देता था जब उसकी खुशी होती, अर्थात् जब वह तुम्हें इसका अधिकारी समझता ।
तो, मेरी कहानी इस प्रकार है (श्रीमा पड़ती है) :
दीक्षाकी एक कहानी
(गुजरातीसे अनूदित)
किसी जमानेमें एक बड़े तपस्वी और बड़े ज्ञानी महएंमा थे । वे आयु और बुद्धि दोनोंमें बड़े थे और सब उनका मान करते थे । उनका नाम था जुनून । और बहुत-से बालक, किशोर और युवक उनसे दीक्षा लेनेके लिये उनके पाय आते थे, उन्हींके आश्रममें ठहरते और लंबे समयतक गुरु- गृहमें रहकर विद्याभ्यास करते और बादमें जब स्वयं विद्वान् बन जाते .तो घरोंको लौट जाते ।
एक दिन एक युवक उनके पास आया, जिसका नाम था यूसुफ हुसैन ।
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महात्माकी इच्छा हुई कि उसे अपने पास ही रख लें, उन्होंने उससे यह भी न पूछा कि तुम हो कौन । इस प्रकार चार साल बीत गये । तब एक दिन जुनूनने यूसुफको बुलवाया और पहली बार उससे पूछा : ''तुम यहां क्यों आये हो? '' यूसुफ बिना सोचे-विचारे उत्तर दिया : ''धार्मिक दीक्षा लेने ।', जुनून कुछ न बोले । उन्होंने सेवकको बुलाया और उससे पूछा : ''तुमने बक्सा तैयार कर लिया, जैसा मैंने कहा था? ''
-- ''जी हुजूर, बिलकुल तैयार है ।''
-- ''तो तुरत ले आओ,'' जुनून बोले ।
सेवकने बड़ी सावधानीके साथ बक्सा महात्माजीके सामने रख दिया; उन्होंने उसे लिया और यूसुफको देते हुए बोले : ''देखो, मेरे एक मित्र है जो उधर दूर नील नदीके किनारे रहते है, जाओ, यह बक्सा उन्हें मेरी ओरसे दे आओ । परन्तु देखो भाई, रास्तेमें कोई भूल न करना । इस बक्से- को सावधानीसे रखना और निश्चित व्यक्तिको ही देना । जब तुम वापस आओगे तो मैं तुम्हें दीक्षा दूँगा ।'' उन्होंने एक बार फिर अपनी सीख दोहरायी और उसे वह रास्ता बताया जिससे होकर उसे नील नदीपर पहुंचना था । यूसुफने गुरुचरणोंमें प्रणाम किया, बक्सा उठाया और अपने रास्तेपर चल दिया ।
वह निर्जन एकान्त-स्थान जहां महात्माके मित्र रहते थे बड़ा दूर था और उन दिनों कोई सवारी या रेलगाड़ी भी न थी । अतः यूसुफ पैदल ही जा रहा था । वह सारे सवेरे चलता रहा, चलते-चलते दोपहरी हों गयी, गर्मी बहुत तेज थी और चारों ओर चिलचिलाती धूप पडू रही थी, वह थक गया । सो, वह जरा सुस्तानेके लिये सड़कके किनारे एक पुराने वृक्षकी छायामें बैठ गया । बक्सा बहुत छोटा था और उसमें ताला नहीं था । यूसुफने भी इधर कोई ध्यान नहीं दिया था । गुरुजन बक्सा अपने मित्रके पास पहुंचानेके लिये कहा था और वह कुछ पूछे बिना उसे त्येकार चल पड़ा था ।
पर अब, दोपहरीमें आराम करते समय, यूसुफने सोचना शुरू किया । उसका मन फुर्सतमें था, और किसी चीजसे घिरा न था... । ऐसा बहुत कम ही होता होगा कि ऐसी हालतमें कोई मूर्खतापूर्ण विचार मनमें न घुस आता हो... । ऐसेमें उसकी आंखें बक्सेपर पडी । उसने उसे देखना शुरू किया । ''अच्छा, बढ़िया छोटा-सा बक्सा!... है, इसपर तो ताला भी नहीं दिखता... कितना हल्का हे! इसके अंदर कुछ हों ऐसा हों सकता है भला? इतना हलका... । शायद (वाली है? '' यूसुफने हाथ बढ़ाया कि खोल ले । एकाएक विचार बदल गया : ''परन्तु नहीं... भरा हो या
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खाली, इसके अंदर कुछ भी हो वह मेरा विषय नहीं है । गुरुजीने अपने मित्रके पास इसे लें जानेके लिये कहा है, बस, इतना ही । बस, इतना भर ही मेरा काम है । मुझे किसी और चीजके बारेमें नहीं सोचना चाहिये ।',
कुछ देरतक तो यूसुफ शांत होकर बैठा रहा । पर उसका मन शांत नहीं होता था । बक्सा अब भी उसकी आंखोंके सामने था । बढ़िया छोटा-सा बक्सा । ''लगता है बिलकुल खाली है ।'' उसने सोचा : ''खाली बक्सेको खोलनेमें हर्ज ही क्या है?... यदि ताला लगा होता तो मैं समझता कि हां, यह बुरा है.. पर जिस बक्सेपर ताला ही नहीं उसके लिये यह अधिक गंभीर बात नहीं । मैं, बस, क्षणभरके लिये ही तो खोलूंगा और फिर बंद कर दंगा ।''
यूसुफको विचार उस बक्सेके चारों ओर चक्कर काट रहा था । उसके लिये अपने-आपको उससे अलग करना असंभव था, उस विचारपर काबू पाना असंभव था जो उसके अंदर घुस आया था, ''देखें तो, बस एक उड़ती नजर, एक झलक भर ।'' एक बार फिर उसने हाथ बढ़ाया और इस बार भी वापस खींच लिया और दुबारा शांत होकर बैठ रहा । पर सब व्यर्थ । अंतमें यूसुफने निश्चय कर लिया और आहिस्तासे, बहुत आहिस्तासे उस बक्सेको खोला । अभी मुश्किलसे रवुल ही पाया था कि बस! एक चुहिया फुदकी... और गायब हों गयी । उस बेचारी चुहियाने जो इस बक्सेमें बुरी तरह घुटन रही थी, स्वतंत्रताकी ओर लपकनेमें एक सैकंडकी भी देरी नहीं की!
यूसुफ बहुत शर्मिंदा हुआ । उसने आंखें फाड़कर बार-बार देखा... बक्सा वहां खाली पड़ा था । अब उसका दिल बुरी तरह दुःखसे धड़कने लगा : ''देखा, महात्माने केवल एक चूहा, एक छोटी-सी चुहिया भेजी थी और मैं उसे भी सुरक्षित उसके 'मुकामतक न पहुंचा सका । सचमुच, मुझ- से भारी भूल हुई है । अब क्या करूं? ''
यूसुफ पश्चात्तापसे भरा था । पर अब कुछ किया भी न जा सकता था । व्यर्थ ही उसने वृक्षका चक्कर लगाया, व्यर्थ ही उसने सड़कपर खोजा । चुहिया सचमुच उड़नछू हो गयी थी... कांपते हाथोंसे यूसुफने ढक्कन बंद .किया और घबराहट और निराशासे भरा फिर अपनी यात्रापर चल पड़ा ।
जब वह नील नदीपर अपने गुरुके मित्रके घर पहुंचा तो उसने महात्मा- का उपहार उनको भेंट किया और जो भूल उससे हुई थी उसके कारण एक कोनेमें चुपचाप प्रतीक्षा करने लगा । यह व्यक्ति एक बड़े संत थे ।
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उन्होंने बक्सा खोला और तुरन्त समझ गये कि क्या बात है । अच्छा यूसुफ,'' उन्होंने उस दीक्षार्थी युवककी ओर मुड़कर कहा : ''चुहिया तो तुमने खो दी, अब... मुझे (वेद है कि महात्मा जुनून तुम्हें दीक्षा नहीं देंगे, क्योंकि परम शानका पात्र होनेके लिये व्यक्तिको अपने मनपर पूरा अधिकार होना चाहिये । तुम्हारे गुरुको, स्पष्ट ही, तुम्हारी संकल्प-शक्ति- के बारेमें कुछ संदेह था इसलिये तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिये उन्हें इस युक्तिसे काम लेना पड़ा । और जब तुम इस नगण्य-सी बातको भी पूरा नहीं कर सके, एक छोटी-सी चुहियाको बक्सेमें नहीं रख सके तो भला तुम कैसे आशा करते हो कि तुम महान् विचारोंको अपने सिरगे और सच्चे ज्ञानको अपने हृदयमें संभाल कर रख सकोगे? यूसुफ, कोई भी चीज नगण्य नहीं है । अच्छा, अब अपने गुरुके पास वापस जाओ । चरित्रकी दृढ़ता सीखो और अनथक प्रयत्न करना सीखो । विश्वास-योग्य बनो ताकि एक दिन उस महान् आत्माके सच्चे शिष्य बन सको ।''
हतोत्साह यूसुफ महात्माके पास वापस लौट आया और अपना अपराध स्वीकार किया । ''यूसुफ,'' उन्होंने कहा : ''तूने एक अपूर्व अवसर खो दिया । मैंने तुझे केवल एक निकम्मी-सी चुहिया संभालनेके लिये दी थी, तू उतना न कर सका । तो भला तू कैसे आशा करता है कि द् सब संपदाओंमें सबसे बहुमूल्य, भागवत सत्यको संभाल कर रख सकेगा? उसके लिये तुझमें आत्म-सयमका होना जरूरी है... । जा और सीख, मनपर प्रभुत्व पाना सीख, क्योंकि उसके बिना कोई बड़ी चीज प्राप्त नहीं की जा सकती ।''
लज्जित और नतसिर यूसुफ चला आया । त्बसे उसके मनमें बस एक ही विचार था : आत्म-प्रभुत्व प्राप्त करना... इसके लिये (इसने सालों- साल अनथक प्रयास किया, कठोर और कठिन तपस्या की और अंतमें अपनी प्रकृतिका स्वामी बननेमें सफल हुआ । तब आत्म-विश्वाससे भरा यूसुफ अपने गुरुके पास वापस आया । महात्मा उसे फिर वापस आया देखकर और तैयार पाकर बहुत प्रसन्न हुए । और इस प्रकार यूसुफने महात्मा जुनूनने महान् दीक्षा प्राप्त की ।
कई वर्ष बीत गये, यूसुफका ज्ञान और प्रभुत्व बढ़ते गये और वह इस्लामके बहुत बड़े और गिने-चुने संतोमेंसे एक हुए हैं ।
*
(श्रीमां बच्चोंसे कहती है) तो, यह कहानी बताती है कि व्यक्तिको अधीर नहीं होना चाहिये, बल्कि यह समझना चाहिये कि सच्चे रूपमें ज्ञान
पानेके लिये, वह चाहे जो भी हो, उसे व्यवहारमें लाना जरूरी है, अर्थात् अपनी प्रकृतिपर प्रभुत्व पाना जरूरी है ताकि तुम उस ज्ञानको क्रियामें अभिव्यक्त कर सको ।
तुम सबको, जो यहां आये हो, बहुत-सी बातें बतायी गयी है, तुम्हें सत्यके संसारके संपर्कमें रखा गया, तुम ठीक उसीके बीच रहते हो, जो हवा तुम श्वासके साथ अपने अंदर लेते हो वह उससे भरी है, फिर भी तुममेंसे कितने कम है जो यह जानते है कि इन सत्योंका मूल्य केवल तभी है जब उन्हें आचरणमें लाया जाय और चेतना, ज्ञान, आत्मिक समता, वैश्वभाव, असीमता, अनंतता, परम सत्य, भागवत उपस्थिति और... इस तरहकी जो भी चीजे है उनके बारेमें बातें करनेका तबतक कोई अर्थ नहीं होता जबतक तुम इन चीजोको जीनेका स्वयं कोई प्रयास नहीं करते और उन्हें ठोस रूपमें अपने अंदर अनुभव नहीं करते । अपने-आपसे यह मत कहो : ''ओह! मैं इतने वर्षोंसे यहां हू और कितना अधिक चाहता हू कि अपने प्रयलोंका फल पा सकूं ।'' तुम्हें यह जान लेना चाहिये कि अपनी प्रकृतिकी एक जरा-सी दुर्बलतापर, जरा-सी तुच्छतापर, जरा-सी क्षुद्रतापर विजय पानेके लिये भी बहुत अधिक दृढ अध्यवसाय और अटूट धैर्य की आवश्यकता होती है । दिव्य प्रेमके बारेमें बातें करनेसे क्या लाभ यदि व्यक्ति बिना अहंभावके प्रेम नहीं कर सकता? और अमरताके बारेमें बातें करनेसे क्या फायदा यदि व्यक्ति अपने भूत और वर्तमानके साथ मजबूतीसे चिपटा रहे और सब कुछ पानेकी खातिर कुछ भी छोड़ना न चाहे ।
तुम सब अमी बहुत छोटे हो, पर तुम्हें अभीसे ही यह सीख लेना चाहिये कि लक्ष्यपर पहुंचनेके लिये यह ज्ञान होना जरूरी है कि कीमत कैसे अदा की जाती है और यह कि परम सत्योंको समझनेके लिये उन्हें दैनंदिनी व्यवहारमें लाना जरूरी है ।
अच्छा ।
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२७ मार्च, १९५७
जहां कहीं तू महान् अंत देखे निश्चित समझ ले कि महान् प्रारंभ होनेवाला है । जहां कोई डरावना और दुःखदायी विनाश तेरे दिलको दहलाता हो, उसे यह विश्वास दिलाकर सांत्वना दे कि
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एक विशाल और महान् सृजन होनेवाला है । परमेश्वर केवल छोटी धीमी आवाजमें ही नहीं, बल्कि आग और तूफानमें भी है ।
विनाश जितना ही बड़ा होगा सुजनके उतने ही खुले अवसर होंगे । परंतु विनाश प्रायः ही लंबा, धीमा और असह्य होता है, सृजन आनेमें देरी करता है या उसकी विजयमें बार-बार विघ्न पड़ते हैं । रात फिर-फिर लौट आती है और दिन देर लगाता है या झूठी उषाकी प्रतीति होती है । इससे निराश न हो ध्यानसे देखता जा और काम करता जा । जो तीव्र आशा रखते हैं वही जल्दी निराश होते हैं । न आशा रख और न भय, परंतु परमेश्वरके प्रयोजन और अपने संकल्पकी विजयमें निश्चयपूर्ण विश्वास रख ।
दिव्य 'कलाकार' का हाथ बहुत बार ऐसे काम करता है मानों बह अपनी प्रतिभा और सामग्रीके बारेमें अनिश्चित हों । ऐसा लगता है वह छूता, परखता और छोड़ देता है, उठाता, फेंक देता और फिरसे उठा लेता है, परिश्रम करता, असफल होता, कच्चा काम करता और उधेड़ता और बुनता रहता है । जब- तक सभी चीजों तैयार न हो जायं तबतक उसके काममें आश्चर्य और निराशाका क्रम रहता है । जिसे चूना था उसे निन्दाके रसातलमें फेंक दिया जाता है; जिसे त्याग दिया था वह भव्य प्रासादका आधार बन जाता है । पर इस सबके पीछे एक सुनिश्चित ज्ञान-दृष्टि है, -- जिसका पार हमारी बुद्धि नहीं पा सकती -- और है असीम सामर्थ्यकी मंद मुस्कान ।
परमेश्वरके सामने संपूर्ण काल पड़ा है और उसे हमेशा जल्दीमें रहनेकी जरूरत नहीं । बह अपने उद्देश्य और सफलताके बारेमें सुनिश्चित है और यदि अपने कामको पूर्णताके नजदीक लानेके लिये उसे सौ बार भी तोड़ना पड़े तो बह उसकी परवाह नहीं करता । धैर्य हमारा सबसे पहला महान् आवश्यक पाठ है, पर बह अलस मंदता नहीं जो भीरू, संशयात्मा, क्लांत, आलसी, निराकांक्ष या दुर्बल ब्यक्तिमें क्रिया-प्रवृत्तिके प्रति होती है; ऐसा धैर्य जो शांत और वृद्धिशील बलसे भरपूर है, जो जागरूक होकर देखता और अपनेको तीव्र प्रहारोंकी घडीके
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लिये तैयार करता है जो प्रहार थोड़े होते हुए भी भाग्यको पलट देनेके लिये पर्याप्त होते हैं ।
किसलिये परमेश्वर अपने संसारपर ऐसी उग्रतासे हथौड़े बरसाता है, उसे रौंदता और आटेकी तरह गूंधता है, इतनी अधिक बार रक्त-स्नान कराता और भट्टीकी लाल नरकाग्निमें झोंकता है? क्योंकि जन-साधारणमें मानवता अब भी एक कठोर, असंस्कृत और मलिन कच्ची धातुके रूपमें है जो किसी और तरह गलायी और ढाली नहीं जा सकती; जैसी उसकी सामग्री है, वैसी ही उसकी कार्य-प्रणाली । यदि यह अपनेको अधिक बढ़िया और शुद्ध धातुके रूपमें बदलनेके लिये तैयार हो जाय तो इसके साथ बरतनेके उसके तरीके भी अधिक कोमल और मधुर हो जायेंगे और इसका उपयोग भी अधिक उच्च एवं सुन्दर होगा ।
किसलिये उसने ऐसी सामग्रीको चूना था बनाया जब कि चुननेके लिये उसके सामने समस्त असीम संभावना मौजूद थो? क्योंकि उसकी दिव्य 'कल्पना' ही ऐसी थी, उस कल्पनाने न केवल सुन्दरता, मधुरता और पवित्रताको ही अपनी आंखोंके आगे रखा बल्कि शक्ति, संकल्प और महानताको भी देखा । शक्तिका तिरस्कार मत कर और ना ही इसकी कुछ आकृतियोंकी कुरूपताके कारण इससे घृणा कर, यह भी न सोच कि केवल प्रेम ही परमेश्वर है । संपूर्ण पूर्णतामें कुछ अंश वीरताका, बल्कि दानवताका भी होना चाहिये । परंतु बडे-से-बडे शक्ति पैदा होती है बडे-से-बडे कठिनाईमेसे ।
आखिर सारी समस्या यह जानने की है कि मानवता शुद्ध सोनेकी अवस्थामें पहुंच गयी है या अब भी इसे मूषा या कुठालीमें परखनेकी जरूरत है।
एक चीज स्पष्ट है कि मानवता अभीतक शुद्ध सोना नहीं बनी है, यह साफ ही दिखता है और निश्चित है ।
परन्तु संसारके इतिहासमें कुछ ऐसी बात हो गयी है जो यह आशा बंधाती है कि मानवतामें कुछ गिने-चुने, थोड़े-से व्यक्ति शुद्ध सोनेमें बदलने- के लिये तैयार है और ये बिना हिंसाके शक्तिको, बिना विनाशके वीरताको और बिना विध्वंसके साहसको अभिव्यक्त कर सकेंगे ।
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ठीक अगले ही परिच्छेदमें श्रीअरविंद इसका उत्तर देते हैं : ''यदि मनुष्य एक बार आध्यात्मिक होनेके लिये सहमत हो सकें ।'' यदि व्यक्ति आध्यात्मिक' होनेके लिये बस, सहमत हो जाय... सहमत हो जाय ।'
इसके अंदरकी कोई चीज इसे चाहती है, इसके लिये अभीप्सा करती है, परन्तु बाकी सारी सत्ता इंकार करती है, वह-की-वही बनी रहना चाहती है : एक' मिश्रित धातु, जिसे भट्टीमें डालनेकी जरूरत है ।
हम इस समय फिर एक बार पृथ्वीके इतिहासमें एक निर्णायक मोडपर हैं । सब ओरसे लोग मुझसे पूछ रहे हैं : ''अब क्या होनेवाला है? '' हर जगह तीव्र व्यथा, प्रतीक्षा, भयकी स्थिति है । ''अब क्या होनेवाला है? '' ... इसका उत्तर, बस, एक ही है : ''यदि मानवता आध्यात्मिक होनेके लिये बस, तैयार हो जाय ।''
शायद इतना पर्याप्त हो कि कुछ व्यक्ति शुद्ध सोना बन जायं, क्योंकि यह उदाहरण घटनाचक्रको बदलनेके लिये काफी होगा... यह आवश्यकता बहुत प्रबल रूपमें हमारे सामने है ।
वह साहस और वह वीरता, जिसकी भगवान् हमसे अपेशा रखते है, उसका उपयोग हम अपनी कठिनाइयों, अपूर्णताओं और मलिनताओंके विरुद्ध लडनेमें क्यों न करें? हम आंतरिक शुद्धिकी भट्टीका सामना वीरतापूर्वक क्यों न करें ताकि फिर एक बार उस भयानक और आसुरिक विनद्वामेंसे गुजरनेकी आवश्यकता ही न पड़े जो सारी सम्यताको अंधकारमें डूब देगा ।
यही समस्या आज हमारे सामने है । हममेंसे प्रत्येकको इसे अपने ढंगसे हल करना है ।
इस समय मैं उन प्रश्नोंका उत्तर दे रही हू जो मुझसे पूछे गये है और मेरा उत्तर वही है जो श्रीअरविंदका है :
यदि मनुष्य एक बार आध्यात्मिक होनेके लिये सहमत हो सके... और इसके साथ मैं एक बात और जोड़ती हू : समय दबाव डाल रहा है... मानवीय दृष्टिकोणसे ।
'''सब कुछ बदल जाय यदि मनुष्य एक बार आध्यात्मिक होनेके लिये सहमत हो सकें; परन्तु उसकी मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृति उच्च- तर विधानके प्रति विद्रोह करती है । वह अपनी अपूर्णताओं\से प्यार करता ह ।
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३ अप्रैल, १९५७
सब कुछ बदल जाय यदि मनुष्य एक बार आध्यात्मिक होनेके लिये तैयार हो सके; परंतु उसकी मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृति उच्चतर विधानके प्रति विद्रोह करती है । वह अपनी अपूर्णतासे प्यार करता है ।
आत्मा हमारी सत्ताका सत्य है । अपनी अपूर्णतामें मन, प्राण और शरीर इसके मुखौटे हैं, परंतु अपनी पूर्णतामें इसके सांचे होंगे । केवल आध्यात्मिक होना ही पर्याप्त नहीं है, इससे कुछ अंतरात्माएं तो स्वर्गके लिये तैयार हो जाती हैं परंतु पृथ्वी बहुत कुछ जहा-की-तहां छूट जाती है । समझौता भी निस्तार पानेका कोई उपाय नहीं है ।
संसार तीन प्रकारकी भ्रांतियोंसे परिचित है । भौतिक क्रांतिके प्रबल परिणाम आते हैं, नैतिक और बौद्धिक क्रांतियां अपने क्षेत्र- मे अत्यधिक व्यापक और अपने फलोंमें बहुत अधिक समृद्ध होती हैं, परंतु आध्यात्मिक क्रांति महान् बीजोंका बोना है ।
यदि यह तिहरा परिवर्तन पूर्णत: एकताल होकर एक ही समयमें हो सके तो एक निर्दोष कार्य संपन्न हो सकता है; परंतु मानवजातिके मन और शरीर प्रबल आध्यात्मिक प्रवाहको पूरी तरह धारण नहीं कर सकते; बहुत कुछ छलक जाता है, बाकीका बहुत कुछ दूषित हो जाता है । इससे पहले कि एक विशाल आध्यात्मिक बुराईसे थोड़ा-सा फल प्राप्त किया जा सके, हमारी भूमिका बहुत बार बौद्धिक और भौतिक जुताइयां करने- की जरूरत है।
प्रत्येक धर्मने मानवजातिको सहायता पहुंचायी है । पेगन धर्मने मनुष्यके अंदर सौंदर्यके प्रकाशको, उसके जीवनकी विशालता और उच्चताको, उसके बहुमुखी पूर्णताके उद्देश्यको आगे बढ़ाया है । ईसाइयतने उसे भागवत प्रेम और परोपकारकी झांकी दी । बौद्ध धर्मने उसे अधिक ज्ञानी, भद्र और पवित्र होनेका सन्मार्ग दिखाया
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है । यहूदी धर्म और इस्लामने उसे धार्मिक भावसे क्रियामें सच्चा होना और ईश्वरके प्रति उत्कट भक्ति रखना सिखाया और हिन्दू धर्मने उसके सामने बड़ी-से-बड़ी और गहरी-से-गहरी आध्यात्मिक संभावनाओंको खोलकर रख दिया है । यदि ईश्वर- विषयक ये सब दृष्ठियों आपसमें मिलकर एक हो जायं तो एक बहुत बड़ी चीज होगी परन्तु बौद्धिक सिद्धांत और सांप्रदायिक अहंभाव रास्तेमें खड़े है ।
सभी धर्मोने बहुत-सी आत्माओंको बचाया है, परन्तु अभीतक कोई भी मानवजातिको आध्यात्मिक बनानेमें समर्थ नहीं हो सका । क्योंकि उसके लिये किसी पंथ या मत-विश्वासकी नहीं बल्कि अपने आध्यात्मिक विकासपर स्थिर रूपसे सबका समावेश करते हुए सतत प्रयत्नकी जरूरत है ।
आज हमें संसारमें जो परिवर्तन दिखायी देते है ३ अपने आदर्श और उद्देश्यमें बौद्धिक, नैतिक और भौतिक हैं । आध्यात्मिक क्रांति अपने अवसरकी प्रतीक्षामें है और इस बीच कहीं-कहीं अपनी लहरोंको उछालती है । जबतक यह नहीं आ जाती दूसरी क्रांतियोंका मतलब समझमें नहीं आ सकता और तबतक वर्तमान घटनाओंकी सब व्याख्याएं और मनुष्यके भविष्यके बारेमें पूर्वानुमान व्यर्थ हैं । क्योंकि, उस आध्या- त्मिक कांतिका स्वरूप, शक्ति और परिणाम ही हमारी मानवजातिके अग्रिम चक्रको निश्चित करेंगे ।
(विचार और झांकिया)
मां, श्रीअर्रावंदने यहां लिखा है : ''यदि ईश्वर-विषयक ये सब दृष्ठियों आपसमें मिलकर एक हो जायं तो एक बहुत बड़ी चीज होगी परंतु बौद्धिक सिद्धांत और सांप्रदायिक अहंभाव रास्तेमें खड़े हैं ।''
इन सब दृष्टियोंको मिलाकर एक करना कैसे संभव है?
इन चीजोंमें संगति और समन्वय मानसिक चेतनामें नहीं लाया जा सकता । इसके लिये यह जरूरी है कि मनसे ऊपर उठा जाय और विचारके पीछे
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जो भावना विद्यमान है उसे खोजा जाय । श्रीअरविदने यहां उदाहरणके तौरपर दिखाया है कि इनमेंसे प्रत्येक धर्म मानवीय प्रयत्न, अभीप्सा और उपलब्धिमें किस-किस चीजका प्रतिनिधित्व करता है । इन धर्मोंको उनके बाह्य रूपमें लेने के स्थानपर -- जो कि। केवल सिद्धांत और बौद्धिक धारणाएं होते है -- यदि हम उन्हें उनकी उस मूल भावनामें, उस मूल तत्वमें लें जिसका वे प्रतिनिधित्व करते है तो उन्हें मिलाकर एक करना कठिन नहीं है । वे, बस, मानव प्रगतिके विभिन्न पहलू हैं जो एक-दूसरेको अच्छी तरह पूर्ण करते हैं पर उनमें और भी बहुत-से पहलुओंको मलाने की जरूरत है ताकि एक अधिक समग्र और पूर्ण प्रगति हो सके, जीवनके प्रति अधिक पूर्ण समझ पै दा हो सकें और भगवान्के प्रति हमारी पहुंच अधिक स्वाँगी ता बन सके । और यह एकीकरण भी, जिसके लिये चीजोंके पीछे विद्यमान आत्मातक वापस लौटना पहले ही जरूरी हों जात है, पय नहीं है; इसमें भविष्य-विषयक उस दृष्टिको जोड़ना भी आवश्यक है, जिसे मानव जातिने सदा उद्देश्यके रूप मे सामने रखा है, जो संसारकी भावी ची चरितार्थता है, वह अंतिम '' आध्या क्रान्ति' ' अर्थात्, अ तीमन सिक क्रांति है जिसकी श्रीअरविदने चर्चा की है और जो नये युगका सूत्रपात करेगी।
अतिमानसिक चेतनामें ये सब चीजों परस्पर-विरोधी या पृथक् न रहकर एक-दूसरेकी पूरक बन जाती हैं । यह केवल इनका मानसिक रूप ही है जो इन्हें वि भक्त करता है । एक मानसिक रूप जिस चीजका प्रतिनिधित्व करता है उसे दूसरे सब म रूपोंद्वारा प्रकट की गयी वस्तुके साथ मिलना चाहिये ताकि एक सुसंगत संपूर्ण वस्तु बन सके । धर्म और सच्चे आध्यामिक जीवनके बीच मूल भेद, बस, यही है ।
धर्मका अस्तित्व लगभग पूरी तरह बाह्य रूपोंमें, मत-विश्वासमे और कुछ विचारोंके समूहमें होता है, और वह थोड़े -से असाधारण व्यक्तियोंकी आध्यात्मिकताके द्वारा ही महान् बनता है । उधर सच्चा आध्यात्मिक जीवन और उससे भी बढ़कर आनेवाली अतिमानसिक उपलब्धि, सभी बंधे- बंध (ये बौद्धिक रूपों और जीवनके सभी सीमित रूपोंसे स्वतंत्र होता है । यह सभी संभावनाओं और अभिव्यक्त रूपोंको अपने अंदर लेकर उन्हें अधिक उच्च और वैश्व सत्यकी अभिव्यक्तिका साधन बना लेता है ।
एक नया धर्म न केवल अनुपयोगी बल्कि अनर्थक भी होगा । आवश्यकता है एक नये जीवनके निर्माणकी, एक नयी चेतनाको अभिव्यक्त करने - की । और यह एक ऐ सी चीज है जो बौद्धिक सीमाओं और मानसिक रूपोंसे परे है । एक जीवंत सत्यको अभिव्यक्त होना चाहिये ।
इस सत्यकी उपलब्धिमें सभी वस्तुएं अपने तत्व और अपने सत्य रूपमें
जरूर आ जानी चाहिये । इस उपलब्धिको दिव्य सत्यकी यथासंभव अधिक- सें-अधिक समग्र, पूर्ण और वैश्व अभिव्यक्ति होना चाहिये । केवल यही मानव जाति और संसारको बचा सकती है । यही वह महान् क्रांति है जिसकी श्रीअरविंदने चर्चा की है । और यही वह चीज है जिसे वे चाहते थे कि हम उपलब्ध करें ।
इसकी मोटी-मोटी रूपरेखा उन्होंने उस पुस्तकमें दी है जिसे हम अगले बुधवारसे शुरू करनेवाले हैं; इसका नाम है : अतिमानसिक अभिव्यक्ति । और आज मैंने जो पहला वाक्य पढा था वही सारी समस्याकी कुंजी रहेगा, न केवल व्यक्तिके लिये बल्कि समष्टिके लिये भी :
''सब कुछ बदल जाय यदि मनुष्य एक बार आध्यात्मिक होने- के लिये तैयार हो सके; परंतु उसकी मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृति उच्चतर विधानके प्रति विद्रोह करती है । बह अपनी अपूर्णतासे प्यार करता है ।',
मैं चाहती हू कि हम इसीको आज ध्यानका विषय बनायें ।
( ध्यान)
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१० अप्रैल, १९५७
''इन खेल आदिका दूसरा अमूल्य लाभ है उस मनोभावकी वृद्धि जिसे हम जिंदादिल या खेलाड़ी मिजाज कहते हैं । इस- के अंदर, प्रसन्नता, सहनशीलता, सबकी सुविधा-असुविधाका बिचार, प्रतियोगियों और प्रतिस्पर्द्धियोके प्रति समुचित और मैत्रीका भाव, आत्म-संयम, खेलके नियमोंका सावधानीके साथ पालन, ईमानदारीके साथ खेलना और अनुचित उपायोंका उपयोग न करना, उदास हुए बिना और अपने सफल प्रतिद्वन्द्वियोंके प्रति क्रोध या कुभाव रखे बिना हार या जीतको समान भावसे ग्रहण करना, खेलमें नियुक्त जज, पंच था 'रेफरी'के निर्णयको सच्चाईके साथ स्वीकार करना आदि गुण
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शामिल हैं, ये सब गुण केवल खेलके लिये ही नहीं, वरन् साधारण जीवनके लिये भी उपयोगी हैं और इनके विकासमें जो सहायता खेल-कूदके द्वारा प्राप्त होती है, वह प्रत्यक्ष और बहुमूल्य होती है । यदि ये गुण केवल व्यक्तिके जीवनमें ही नहीं, बल्कि राष्ट्र के जीवनमें और अंतर्राष्ट्रीय जीवनमें भी, जहां आजकल इनकी विरोधी प्रवृत्तियों ही अत्यंत प्रबल हो गयी है, अधिक व्यापक रूपमें विकसित किये जाये तो हमारे इस दुःखपूर्ण जगत्का जीवन अधिक निर्बाध हो सकता है और जिस सामंजस्य और मित्रताकी हमें आज अत्यंत आवश्यकता है उसकी संभावना भी अधिक हो सकती है... यहांतक कि मनकी उच्चतम और पूर्णतम शिक्षा भी शारीरिक शिक्षाके बिना पर्याप्त नहीं है... जिस राष्ट्रमें ये सब गुण अधिक-से- अधिक मात्रामें होंगे वही संभवतः विजय, सफलता और गौरव प्राप्त करनेमें सबसे अधिक सफल होगा, साथ ही उस एकता- के लानेमें और उस अधिक सुसमंजस विश्व-व्यवस्थाके धानानेमे भी सबसे अधिक समर्थ होगा जिसकी ओर हम मानवजाति- के भविष्यके लिये आशाभरी निगाहसे देखते हैं ।
(श्रीअरविंद, ३० दिसम्बर १९४८ का संदेश')
मधुर मां, खेलोंके साम्मुख्य (टूर्नामेंट) मे कई बुरी भावना- से खेलते है, वे जीतनेके लिये दूसरोंको हानि पहुंचानेकी चेष्टा करते है । हमने देखा है कि छोटे बच्चेतक यही बात सीख रहे है । इससे कैसे बचा जाय?
बच्चोंको जो चीजों सबसे बढ़कर हानि पहुंचाती है ३ हैं अज्ञान और बुरा उदाहरण । इसलिये यह अच्छा होगा कि दलोंके नेता रवेल शुरू करनेके पहले अपने अधीन सब बच्चोंको इकट्ठा करके उन्हें वे सब बातें बतायें जो श्रीअरविंदने यहां कही है और उनकी व्याक्या भी करें जैसी कि हमने 'खिलाड़ीके नियम' तथा 'आदर्श बालक' अथवा 'बच्चोंके लिये चिरस्मरणीय बातें' नामक छोटी-छोटी पुस्तिकाओंमें दी है । ये बातें बच्चोंके सामने
'यह ''संदेश'' श्रीअरविदने. आश्रमकी शारीरिक शिक्षण पत्रिकाके प्रथम अंक (फरवरी १९४८) के लिये दिया था । यह उनकी 'अतिमानसिक अभिव्यक्ति' पुस्तककी भूमिकाका काम करता है ।
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प्रायः ही दोहरायी जानी चाहिये । साथ ही उन्हें बुरी संगति. और बुरे साथियोंसे बचनेके लिये चेतावनी भी देनी चाहिये, इसकी चर्चा मैं पहले किसी कक्षामें कर चुकी हू ।
और सबसे बड़ी बात यह है कि उनके सामने अच्छा उदाहरण रखा जाय... । जो तुम उन्हें बनाना चाहते हो वह स्वयं बनो । नि:स्वार्थता, धैर्य, आत्म-संयम, सब परिस्थितियोंमें सदा प्रसन्न बने रहनेकी वृत्ति, अपनी तुच्छ वैयक्तिक नापसन्दगियोपर विजय, एक प्रकारकी स्थिर सदिच्छा, दूसरेकी कठिनाइयोंको समझना - इन चीजोंका उदाहरण उनके सामने रखो । और अपने स्वभावमें ऐसी समता रखो कि बच्चे तुमसे भय न मानें, क्योंकि दंडका भय ही बच्चोंको छल करना, झूठ बोलना, यहांतक कि बुरा काम करना सिखाता है । यदि बे यह समझें कि वे तुमपर विश्वास कर सकते हैं तो वे तुमसे कुछ छिपायेंगे नहीं और तब तुम उन्हें आज्ञाकारी और सच्चा बनानेमें सहायता कर सकोगे । सबसे महत्त्वपूर्ण बात है अच्छा उदाहरण रखना । श्रीअरविंद इन्ही चीजोंकी चर्चा करते है । - सब परिस्थितियोंमें सदा बने रहनेवाला स्थिर, प्रसन्न मनोभाव, आत्म-विस्मरण, अर्थात् अपनी छोटी-छोटी कठिनाइयोंको दूसरोंपर न डालना, जब तुम थके हुए हो या तुम्हारी तबीयत ठीक न हो तब भी बदमिजाज न होना, धैर्य न खोना । और यह एक पर्याप्त पूर्णताकी, एक आत्म-संयमकी मांग करता है जो उपलब्धिके मार्गपर एक बड़ा भारी पग है । यदि तुम एक सच्चे नेता बननेकी शर्तें पूरी कर लो,. चाहे वह बच्चोंके एक छोटे-से दलका नेता बनना ही क्यों न हो, तो तुम योग साधित करनेके लिये जिस अनु- शासनकी आवश्यकता है, उसमें काफी आगे बढ़ चुके होंगे ।
तुम्हें समस्याको इसी दृष्टिसे देखना है, आत्म-प्रभुत्व, आत्म-नियंत्रण और सहनशीलताकी दृष्टिसे, जो तुम्हारी वैयक्तिक स्थितिको तुम्हारे दल या सामूहिक कार्यपर प्रतिक्रिया करनेकी अनुमति नहीं देती । अपने-आपको भूल जाना सच्चा नेता बननेकी एक अत्यंत आवश्यक शर्त है : अपना कोई स्वार्थपूर्ण हित न रखना, अपने लिये कुछ न चाहना, बल्कि अपनेपर निर्भर दलके हितको, संपूर्ण वस्तुके, समग्र वस्तुके हितको ध्यानमें रखना; इसी ध्येयको सामने रखकर कार्य करना और अपने कार्यसे किसी प्रकारका वैयक्तिक लाभ न चाहना ।
इस प्रकार, एक छोटे दलका नेता एक बहुत बड़े दलका, एक राष्ट्रका उत्तम नेता बन सकता है और एक सामूहिक भूमिकाके लिये तैयार हो सकता है । यह एक ऐसा शिक्षण है जिसका बहुत अधिक महत्व है और वस्तुत: इसीके लिये हमने यह प्रयत्न किया है और कर रहे है कि ज्यों ही
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संभव हो प्रत्येकको एक जिम्मेदारीका काम, छोटा या बड़ा, दिया जाय जिससे वह सच्चा नेता बनना सीख सके ।
सच्चा नेता बननेके लिये यह जरूरी है कि व्यक्ति पूरा निःस्वार्थ बने, जहांतक हो सकें अपने अंदरसे सभी स्वाभिमान और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियोंको मिटा दे । नेता बननेके लिये व्यक्तिको अपने अहंभावको जीतना जरूरी है और अपने अहंपर विजय पाना योग करनेके लिये पहला अनिवार्य पग है । इस तरह रवेल भगवान्को पानेमें प्रभावशाली सहायता कर सकते हैं ।
बहुत कम लोग इसे समझते है, और साधारणत: जो लोग खेलोंके इस बाह्य अनुशासनके, स्थूल भौतिक उपलब्धिपर इस एकाग्रताके विरोधी हैं उनमें' अपनी भौतिक सत्तापर नियंत्रणका सर्वथा अभाव है । और श्री- अरविंदका पूर्णयोग साधित करनेके लिये अपने शरीरपर नियंत्रण होना सबसे पहला अनिवार्य पग है । जो लोग शारीरिक शिक्षणकी प्रवृत्तियोंको घृणाकी दृष्टिसे देखते है वे पूर्णयोगका सच्चे राधेपर एक पग भी न चल सकेंगे जबतक कि पहले इस घृणासे छुटकारा नही पा लेते । शरीरपर सब प्रकारका नियंत्रण होना एक अनिवार्य आधार है । जो शरीर तुमपर शासन करता है वह शत्रु है, यह एक अव्यवस्था है जिसे तुम स्वीकार नहीं कर सकते । मनकी आलोकित संकल्प-शक्तिका ही शरीरपर शासन होना चाहिये, यह नही कि शरीर मनपर अपना नियम लागू करे । जब व्यक्ति जानता हो कि अमुक चीज बुरी है तो उसे न करनेके लिये समर्थ होना चाहिये और जब वह किसी चीजको चरितार्थ करना चाहे तो कर सकें, पग-पगपर अपनी अयोग्यता, दुर्भावना या शरीरके असहयोगके कारण उसे रुकना न पड़े । और इसके लिये शारीरिक अनुशासनका अभ्यास और अपने घरका मालिक बनना जरूरी है ।
ध्यानमें निमग्न रहना और अपनी तथाकथित महानताकी ऊंचाईसे भौतिक वस्तुओंको देखना बड़ा सुहावना है, परंतु जो अपने घरका स्वामी नहीं, वह दास ही है ।
(मौन)
उस ओर, तुममेंसे किसीके पास कोई प्रश्न नहीं? नहीं?
मां, शारीरिक शिक्षणकी प्रवृत्तियोंके बारेमें एक समस्या यह है कि किसी एक खेल या एक प्रवृत्तिमें पूर्णता प्राप्त करने- के लिये हमें केवल उसी खेल मा प्रवृत्तिपर ही अपने-आपको केंद्रित कर देनेकी आवश्यकता होती है ।
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यह बात बिलकुल गलत है । पत्रिकाके पहले ही अंकमें मैंने इस बातको पूरे विस्तारके साथ समझाया है । ' यह एकदम गलत है । वस्तुत: जिसने अपने ऊपर नियंत्रण पा लिया है और एकाग्रताकी शक्तिका विकास कर लिया है वह एकाग्रताकी इस शक्तिका प्रयोग देखनेमें अत्यंत भिन्न, यहां- तक कि कभी-कभी तो बिलकुल विरोधी चीजोंपर भी कर सकता है और उसे इन चीजोंको इस प्रकार कर सकना चाहिये कि एक चीज दूसरीको नुकसान न पहुंचाये ।
इसमें विचारणीय प्रश्न केवल समयका रह जाता है, जिसे दो तरहसे हल किया जा सकता है : प्रथम तो अपने जीवनको आलोकित और व्यव- स्थित ढंगसे संगठित किया जाय और दूसरे समयको व्यर्थ जानेसे रोका जाय, अधिकतर लोग अपना समय निरर्थक प्रवृत्तियोंमें गंवा देते है -- यदि ये निरर्थक प्रवृत्तियों गायब हो जायं तो सारे संसारके लिये एक आशीर्वाद होगा -- और इन प्रवृत्तियोंमें मैं पहले नंबरपर जिसे रखती हू वह है गप्पें मारना, अर्थात् अपने मित्रोंसे, अपने साथियोंसे निरर्थक. बातें करना... सभी प्रवृत्तियोंमें । बातचीतमें जो समय खराब जाता है वह बहुत ज्यादा होता है । जहां एक शब्द पर्याप्त होता है, तुम पचास बोलते हों और केवल यही समयकी एक ही क्षति नहीं है..... । वस्तुत: जब किसीको समयकी कमी प्रतीत होती है तो इसका मतलब होता है कि वह अपने जीवनको व्यवस्थित करना नहीं जानता । अवश्य ही, ऐसे लोग भी है जो बहुत सारे काम करते हैं पर वह भी यह दिखाता है कि जीवनमें व्यवस्था- का अभाव है ।
सच्ची व्यवस्थामें प्रत्येक चीजको उसी अनुपातमें स्थान प्राप्त होता है जितना उसे चाहिये । तुम सब अच्छी तरह जानते हो कि दस-पंद्रह मिनट- के सुसमन्वित व्यायामसे तुम शरीरको उसके लिये आवश्यक सब शिक्षण दे सकते हों । यह तुम्हें यहां सिखाया गया है और तुम्हारे सामने प्रमाणित भी किया जा चुका है । शरीरकी समुचित समतोलताके लिये इतना पर्याप्त है । अवश्य ही, रवेलोंसे और भी कई प्रकारकी योग्यताएं प्राप्त होती है, परंतु तुम प्रतिदिन, जैसा कि मैं जानती हू, अधिक-सें-अधिक एक घंटेसे ज्यादा नहीं खेलते और दिन-भरमें इतना समय देना अधिक नहीं है।
यह एक बहाना है । अपने जीवनको व्यवस्थित करो और तुम देखोगे कि प्रत्येक चीजके लिये तुम्हारे पास अवकाश है........ यहांतक कि एक उत्तम विद्यार्थी बननेके लिये भी ।
'शारीरिक। शिक्षण पत्रिका, अप्रैल १९४९, ''एकाग्रता गैर विक्षेप'' ।
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१७ अप्रैल, १९५७
''पूर्णता ही सभी प्रकारके शिक्षण और संवर्धनका, आध्यात्मिक, आंतरात्मिक, मानसिक, प्राणिक संस्कृतियोंका उद्देश्य है और यही शारीरिक शिक्षणका भी उद्देश्य होना चाहिये । यदि हमारा प्रयत्न सत्ताकी सर्वांगीण पूर्णताके लिये है तो उसके भौतिक भाग- को एक तरफ नहीं छोड़ा जा सकता; क्योंकि शरीर ही भौतिक आधार है, शरीर वह साधन है जिसका हमें उपयोग करना ह । ''शरीरं खलु धर्मसाधनम्'', यह पुरानी संस्कृत उक्ति है -- शरीर ही धर्मकी चरितार्थताका साधन है और धर्मका मतलब है वह प्रत्येक आदर्श जिसे हम अपने सामने रखते हैं, उसे कार्यान्वित करनेका विधान और उसकी क्यिावली । सर्वांगीण पूर्णता ही वह अंतिम उद्देश्य है जिसे हमने अपने सामने रखा है, क्योंकि हमारा आदर्श है दिव्य जीवन, जिसका हम यहां निर्माण करना चाहते है । हम चाहते हैं आत्माका जीवन जो पृथ्वीपर चरितार्थ हो, ऐसा जीवन जो यहीं, पृथ्वीपर भौतिक जगत्की अवस्थाओंमें अपने आध्यात्मिक रूपांतरको साधित करे । यह तब- तक नहीं हो सकता जबतक शरीरका भी रूपांतर नहीं हो जाता, जबतक इसकी क्रियाएं और व्यापार उस उच्चतम योग्यता और पूर्णतातक नहीं पहुंच जाते जो इसके लिये संभव है या संभव बनाये जा सकते है ।
(अतिमानसिक अभिव्यक्ति)
मां, शरीरके व्यापार किस तरह अपनी ''उच्चतम योग्यता''तक पहुंच सकते हैं?
ठीक ''रूपांतर''के द्वारा । इसका अर्थ है सर्वांगीण रूपांतर । श्रीअरविन्दने इसके बारेमें बादमें आगे चलकर कहा है ।
हमारा वर्तमान शरीर पशु-शरीरका ही एक उन्नत रूप है, पर इसमें भी संदेह है क्योंकि यदि हमने कुछ दृष्टियोंसे पाया है तो अन्य कुछ दृष्टियोंसे खोया भी है । यह तो स्पष्ट ही है कि विशुद्ध भौतिक योग्यताओंकी दृष्टि- सें कई पशु हमसे ऊंचे है । जबतक हम किसी विशेष प्रशिक्षण और रूपांतरद्वारा अपनी योग्यताओंको सचमुच बदलनेमें सफल नहीं हो जाते तबतक
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यह कहा जा सकता है कि बल और शारीरिक शक्तिकी दृष्टिसे एक बाघ या सिंह हमसे कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं । फुर्तीलेपनमें बंदर हमसे बढ़ा हुआ है । और उदाहरणके तौरपर एक पक्षी बिना किसी बाह्य यंत्रकी सहायता- के, बिना किसी वायुयानके, हवामें विचरण कर सकता है जो अभीतक हमारे लिये संभव नहीं हुआ है...... आदि । और हम अपने अंगोंकी क्रियाओंमें पशु-सदृश आवश्यकताओंसे बंधे हुए है । जबतक हम, उदाहरणार्थ स्थूल भोजनपर, जडतत्वको इस स्थूल रूपमें अपने अंदर ग्रहण करनेपर निर्भर करेंगे, तबतक हम निम्न कोटिके पशु ही रहेंगे ।
अतः, हम जो कुछ आगे पढ़ने वाले है मैं उसके बारेमें पहलेसे चर्चा नहीं करना चाहती, परंतु हमारे शरीरके ये निरे पशु-सदृश व्यापार, वह सारा भाग जो पूरी तरह पशु-जीवन-सदृश है -- हमारी रक्तत-संचारपर निर्भरता और रक्तके लिये रवानेकी आवश्यकतापर निर्भरता आदि तथा वह सब भी जो इसके अंतर्गत है -- ये भयानक सीमाएं और बंधन है! यह स्पष्ट है कि जबतक भौतिक जीवन इनपर निर्भर है, हम अपने जीवनको दिव्य नहीं बना सकेंगे ।
तो, हमें सोचना होगा कि मनुष्यकी पशुताका स्थान जीवनके किसी अन्य स्रोतको लें लेना चाहिये, और यह बिलकुल समझमें आनेवाली बात है -- न केवल समझमें आने योग्य है बल्कि अंशत: चरितार्थ भी की जा सकती है; और प्रत्यक्ष ही यही वह लक्ष्य है जिसे हमें, यदि हम जडतत्वको रूपांतरित करना ओर इसे दिव्य गुणोंको व्यक्त करनेके योग्य बनाना चाहते है तो, अपने सामने रखना चाहिये ।
अति प्राचीन परंपरामें (वेद और कैल्डियन परंपराओंसे भी पुरानी एक परंपरा थी जो इन दोनोंका मूल रही होगी), उस प्राचीन परंपरामें एक ऐसे ''गौरवपूर्ण शरीरका'' जिक्र आता है जो इतना नमनीय होगा कि वह अंतरतम चेतनाद्वारा प्रतिक्षाग बदला जा सकेगा : वह शरीर उस चेतनाको अभिव्यक्त करेगा, उसमें आकारकी दृढ़ता नहीं होगी । यह एक आलोकमयताका प्रश्न था : उस शरीरका उपादानरूप जडूतत्व इच्छा करते ही आलोकमय हों सहेगा । उसमें एक ऐसे हलकेपनकी संभावनाकी भी चची है जो शरीरको इच्छाशक्तिके द्वारा, आंतरिक शक्तिको प्रयोगमें लानेकी किसी प्रणालीद्वारा हवामें विचरने योग्य बना देगा । इसी प्रकारकी अन्य बातें भी है । इन बातोंके बारेमें बहुत कुछ कहा गया है ।
मैं नहीं जानती कि पृथ्वीपर कमी ऐसे व्यक्ति हुए हों जिन्होंने अंशत: यह स्थिति पा ली हो पर बहुत थोड़े-से' रूपमे किसी एक या दूसरी चीजकी आशिक उपलब्धिके कुछ दृष्टांत मिलते है जिनसे प्रमाणित होता है
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कि ऐसा संभव है । इस भावनाके आधारपर .आगे चलें तो हम कल्पना कर सकते है कि इन् वर्तमान भौतिक अंगों और उनकी क्रियाओंका स्थान ऐसे केंद्र लें लेंगे जहां बल और शक्ति केंद्रित होगी और जो उच्चतर शक्तिको ग्रहण कर सकेंगे, साथ ही जो एक प्रकारकी कीमियाद्वारा उन शक्तियोंको जीवन और शरीरकी आवश्यकताओंके लिये प्रयुक्त कर सकेंगे । शरीरमें विभिन्न ''केंद्रों'' की बात हम. करते ही है--योगाम्यास करनेवालोंके लिये यह सुपरिचित ज्ञान. है -- परंतु इन केंद्रोंको इस हदतक पूर्ण बनाया जा सकता है कि ये जडतत्वपर उच्चतर शक्ति और स्पदनोंकी सीधी क्रिया- के द्वारा विभिन्न अंगोंका स्थान ले लें । जिन लोगोंने गुह्यविद्याका अच्छी तरह, उसके अतिशय सर्वांग रूपमें अभ्यास किया है, कहा जा सकता है कि वे सूक्ष्म शक्तियोंको भौतिक रूप देनेकी प्रक्रियाको जानते है और उन्हें भौतिक स्पदनोंके संपर्कमें ला सकते है । यह कार्य केवल हों ही नहीं सकता बल्कि किया भी जाता है । और यह सब एक विज्ञान है, इस विज्ञानको अपने-आपको पूर्ण और पूरा करना चाहिये । और इसका प्रयोग, स्पष्ट ही उन नये शरीरोंके निर्माण और उनकी गतिविधियोंके संचालनमें होगा जो इस भौतिक जगत्में अतिमानसिक जीवनको अभिव्यक्त कर सकेंगे ।
परंतु जैसा कि श्रीअरविन्द कहते है कि इस स्थितिपर पहुंचनेसे पहले यह अच्छा है कि हम सभी सुलभ साधनोंका उपयोग करें और शारीरिक क्रियाओं- पर नियंत्रणको बढ़ाने और उसे एक विशेष विशिष्टतातक पहुंचानेमें सफल हों । यह बहुत स्पष्ट है कि जो लोग शारीरिक शिक्षणका वैज्ञानिक और सुसमन्वित रूपमें अनुशीलन करते है वे अपने शरीरपर इतना नियंत्रण प्राप्त कर लेते है जो साधारण व्यक्तिके लिये अकल्पनीय होता है । जब रूसी कसरतबाज यहां आये थे तो हमने देखा ही था कि वे कितनी सरलतासे ऐसे व्यायाम कर लेते थे जो साधारण व्यक्तिके लिये असंभव हैं और वे उन्हें ऐसे कर रेह थे जैसे यह संसारकी सबसे आसान चीज हो, उसमें प्रयासका थोड़ा भी .मान न होता था! हां तो, यह अधिकार शरीरके रूपा- तरकी ओर एक महान् पग है । और इन लोगोंने, कह सकती हू कि जो सिद्धांतत: जड़वादी हैं, अपने प्रशिक्षणमें किसी आध्यात्मिक पद्धतिका उपयोग नहीं किया था; एकमात्र भौतिक साधनों और मानवी संकल्पशक्तिको सज्ञान प्रयोगसे उन्होंने यह परिणाम प्राप्त किया था, यदि उन्होंने इसमें आध्या- त्मिक ज्ञान और शक्तिको जोड़ दिया होता तो बे चमत्कारिक परिणामोंपर पहुंच गये होते... । संसारमें प्रचलित मिथ्या धारणाओंके कारण सामापहुंच: हम इन दोनों चीजोंको -- आध्यात्मिक प्रभुत्व और भौतिक प्रभुत्वको -- एक साथ नहीं देखते, और इस प्रकार सदा ही एकमें दूसरी चीजका
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अभाव रहता है; पर ठीक यही चीज है जिसे हम करना चाहते हैं और श्रीअरविन्द इसीको समझाते हैं : यदि दोनों मिल जायं तो परिणाम ऐसी पूर्णतातक पहुंच सकता है जिसे साधारण व्यक्ति सोच भी नहीं सकता और इसीके लिये हम प्रयास करना चाहते है ।
जैसा कि वे आगे कहते हैं (संभवत: इसे हम अगली बार पढ़ेंगे) पहले हमें उन अनेक मूर्खतापूर्ण पूर्वाग्रहोंसे लड़ना होगा जो भौतिक और आध्या- त्मिक जीवनके बीच एक दृढ विरोध पैदा कर देते है । और यह चीज मानव चेतनामें इतनी गहरी जड़ें जमाये हुए है कि इसे निकालना बहुत कठिन है, यहांतक कि उनमें' भी जो सोचते हैं कि उन्होंने श्रीअरविन्दकी शिक्षाको समझ लिया है! जब मैंने फिरसे ध्यान. शुरू किया (बिलकुल भिन्न कारणसे) तो बहुतोंने कहा : ''आह! आखिर, हम आध्यात्मिक जीवन- की ओर लौट पड़े है''.. । और सचमुच इसी चीजने मुझे लंबे समयतक ध्यान करनेसे रोका था ताकि इस मूर्खताको प्रोत्साहन न मिले; पर दूसरे कारणोंसे इसे करना जरूरी था, इसलिये मैंने इसे फिरसे शुरू किया । जबतक यह मूर्खता मानव चेतनामेंसे जड़मूलसे नहीं निकाल फैंकी जाती तबतक अतिमानसिक शक्तिके सामने यह कठिनाई सदा रहेगी कि मानव विचारका, जो कुछ भी समझता नहीं, अंधकार उसे निगाल न जाय । अच्छा, फिर भी, कुछ करेंगे ।
मैंने 'अतिमानसिक अभिव्यक्ति' पुस्तकको इसलिये चूना है कि इससे मुझे एक अवसर मिलेगा कि मैं तुम्हें उस सत्यके संपर्कमें छा सकूं जो एक योद्धाकी-सी भावनाके साथ व्यक्त किया गया है ताकि तुम उस पुराने विभाजनके, सनातन 'सत्य' के विषयमें इस पूर्ण नासमझीके विरुद्ध लड़ सको ।
और संभवतः, जब हम इस पुस्तकका वाचन समाप्त कर चुकेंगे, मैं तुम्हें बताऊंगी कि हमने फिरसे ध्यान क्यों शुरू किया, पर निश्चय ही ''आध्या- त्मिक जीवनकी ओर लौटने'' के लिये नहीं!
ओह! यह चीज इतनी गहरी जड़ें जमाए हुए है । यहांतक कि जो समझनेका दावा करते है -- जब वे आध्यात्मिक जीवनकी बात सोचते है तो झट ध्यानकी बात सोचने लगते है ।
अच्छा, फिर भी हम ध्यान करेंगे, पर किसी और ही कारणसे!
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२४ अप्रैल, १९५७
''भौतिक जगत्में दिव्य जीवनका आवश्यक रूपसे अर्थ होता है सत्ताके दो छोरोंका, आध्यात्मिक ऊंचाई और भौतिक आधारका मिलन । अंतरात्मा 'जडूतत्व'पर स्थापित जीवनको अपना आधार बनाकर आत्माकी ऊंचाइयोंकी ओर चढ़ती है पर अपने आधार- को फेंक नहीं देती, वह ऊंचाइयों और गहराइयोंको एक-दूसरेसे मिला देती है । आत्मा 'जडुतत्व' और भौतिक जगत्में अपनी समस्त ज्योति, महिमा और शक्तिके साथ नीचे उतर आती और इनसे जड़ जगतके जीवनको भरती और उसे रूपा- तरित करती है ताकि वह अधिकाधिक दिव्य होता जाय । रूपांतर किसी ऐसी चीजमें परिवर्तन नहीं है जो नितांत सूक्ष्म और आध्यात्मिक हो, जिसके लिये 'जड-तत्त्वकी' अपने स्वरूपमें ही घृणायोग्य हो और जो इसे आत्माको नीचे रोक रखनेवाली बाधा था बेड़ी समझता हो; यह 'जडूतत्व'को आत्माका रूप समझकर ग्रहण करता है, यद्यपि अभी यह रूप उसे आवृत करता है पर वह इसे आत्माको व्यक्त करनेवाले साधनामें बदल देता है, यह 'जडुतत्व'की शक्तियोंका, उसकी क्षमताओं और पद्धतियोंका त्याग नहीं करता, उनकी गुप्त संभावनाओंको प्रकाशमें लाता, उन्हें समुत्रत और परिष्कृत कर उनके स्वभावगत दिव्यतत्वको प्रस्फुटित कर देता है । सो दिव्य जीवन किसी ऐसी चीजका परित्याग नहीं करेगा जो दिव्य बनने योग्य हो; हमें सभी चीजोंको हाथमें लेना है, समुन्नति करना है और एकदम पूर्ण बनाना है...
पूर्णताकी खोजमें हम अपनी सत्ताके किसी भी छोरसे चलना शुरू कर सकते हैं पर, कम-से-कम प्रारंभमें, हमें अपने चुनावके अनुरूप ही साधनों और प्रक्यिाओंका उपयोग करना होता है । योगमें जो प्रक्यिा उपयोगमें लायी जाती है बह आध्यात्मिक और चैत्य है, यहांतक कि उसकी प्राणिक और भौतिक प्रक्यिाओंको भी आध्यात्मिक या चैत्य रूप दे दिया जाता है और साधारण जीवन और जडतत्वसे संबंध रखनेवाली उनकी अपनी गतिसे अधिक ऊंची गतिमें उठा दिया जाता है, जैसे कि हठयोग और राजयोगमें प्राणायाम और आसनोंका उपयोग.... ।
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दूसरी ओर, अगर हम निम्नतर छोरके किसी क्षेत्रसे शुरू करें तो हमें उन्हीं साधनों और प्रक्यिाओंका उपयोग करना होता है जिन्हें 'जीवन' और 'जडतत्व' प्रस्तुत करते हैं और प्राणिक ओर भौतिक शक्ति जिन शर्तो और जिस शैलीको आरोपित करती है उनका आदर करना होता है । हम क्रिया-प्रवृत्तिको, प्राप्त उप- लब्धि और पूर्णताको, पहली स्थितिसे आगे बढ़ा सकते हैं, यहां- तक कि सामान्य संभावनाओंसे भी परे लें जा सकते है, पर फिर भी हमें खड़ा होना होता है उसी आधारपर जिससे हमने शुरू किया था और उन्हीं सीमाओंके भीतर जो यह हमें देता है । यह बात नहीं कि दोनों छोरोंकी क्रिया मिल नहीं सकती और उच्चतर पूर्णता निम्नतर पूर्णताको अपने अंदर ले नहीं सकती और उसे ऊपर नहीं उठा सकती, परंतु सामान्यतः यह केवल तभी होता है जब निम्नतर पूर्णता एक उच्चतर दृष्टि, अभीप्सा और प्रयोजनकी ओर मुड जाती है : और यदि हमारा लक्ष्य मानव जीवनका दिव्य जीवनमें रूपांतर हो तो हमें यह करना ही होगा । परंतु इसके लिये यह आवश्यक हो जाता है कि मानव जीवनकी क्यिा-प्रवृत्तियोंको हाथमें लिया जाय और उन्हें आत्माकी शक्तिद्वारा परिष्कृत कर उदात्त बनाया जाय । यहां निम्नतर पूर्णता लुप्त नहीं हो जायेगी; वह रहेगी पर उच्च- तर पूर्णताद्वारा परिवर्धित एवं रूपांतरित हो जायेगी और इस उच्चतर पूर्णताको केवल आत्माकी शक्ति ही दे सकती है ।
( अतिमानसिक अभिव्यक्ति)
मधुर मां, श्रीअरविन्दने यहां उच्चतर पूर्णता और निम्नतर पूर्णताकी बात कही है...
उच्चतर पूर्णता है आध्यात्मिक पूर्णता, भगवान्के साथ पूर्ण मिलन और तादात्म्य, तथा निम्न जगत्की सभी सीमाओंसे मुक्ति । यह आध्यात्मिक पूर्णता है, यह योग करनेसे आती है -- यह शरीर और भौतिक जगत् से सर्वथा स्वतंत्र होती है -- इसके लिये प्राचीन समयमें पहली आवश्यकता थी शरीर और भौतिक जीवनको एक तरफ रख देना ताकि उच्चतर जगत्- सें और अंतमें भगवान्से संबंध स्थापित किया जा सकें । तो यह हुए उच्च- तर पूर्णता ।
और निम्नतर पूर्णता है मनष्यको उसके वर्तमान रूप, उसके शरीर और
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सभी भौतिक वस्तुओंके साथ उसके संबंधके रहते हुए जो वह अधिक-से- अधिक कर सकता है उसमें सफल बनाना । और यह सभी महान् प्रतिभाशाली व्यक्तियों, प्रतिभाशाली कलाकारों, साहित्यिकों, प्रतिभाशाली व्यवस्थापकों और महान् प्रशासकोंमें पायी जाती है । उन सबमें पायी जाती है जिन्होंने भौतिक क्षमताओंको उनकी उच्चतम पूर्णतातक और मानव विकासको उसकी शक्यताओंकी चरम सीमातक पहुंचाया है । हम उदाहरण ने सकते है उन लोगोंका जिनका अपने शरीरपर प्रभुत्व है और जो अद्भुत चीजों कर लेते हैं जैसे कि युद्धके दिनोंमें विमान-चालकोंने कर दिखायी थीं । उन्होंनें अपने शरीरसे ऐसी चीजों करवायीं जो प्रथम दृष्टिमें असंभव प्रतीत होती थीं; ऐसी सहनशीलता, शूरवीरता, शक्ति इसमेंसे उपलब्ध की जो लगभग अकल्पनीय थी, सभी दृष्टियोंसे : शारीरिक। बल, बौद्धिक उपलब्धि और शक्ति, साहस, नि:स्वार्थता, उदारता, परोपकारको व्यक्त करनेवार्दने भौतिक गुणोंकी दृष्टिसे अकल्पनीय थी । वे सभी मानवीय क्षमताओंको परिश्रमसे चरम पराकाष्ठातक ले गये । यह है निम्नतर पूर्णता ।
उच्चतर पूर्णता आध्यात्मिक और अतिमानवीय पूर्णता है । निम्नतर पूर्णता मानवीय पूर्णता है जिसे उसकी चरम पराकाष्ठातक पहुंचानेकी चेष्टा की गयी है । यह समस्त आध्यात्मिक जीवन एवं आध्यात्मिक अभीप्सासे पूर्णत: स्वतंत्र हो सकती है । कोई व्यक्ति बिना किसी आध्यात्मिक अभीप्साके भी प्रतिभाशाली हो सकता है । किसी ब्यक्तिमें आध्यात्मिक जीवनके बिना भी अत्यंत असाधारण नैतिक गुण हो सकते है । सामान्यत: जिनमें मानवीय उपलब्धिकी बहुत बड़ी शक्ति होती है वे अपनी स्थितिसे संतुपुट -- कम या अधिक संतुष्ट - रहते हैं । वे अनुभव करते है कि वे आत्म-पर्याप्त हैं, अपनी उपलब्धि और अपने सुरवका स्रोत अपने ही अंदर लिये है, और उन्हें यह समझाना और महसूस कराना बहुत कठिन होता है कि वे अपने कार्यके, बे चाहे कुछ भी हों, निर्माता नहीं हैं । इनमें अधिकतर लोग, कुछ अपवादोंको छोड़कर ऐसे होते हैं जिनसे यदि कहा जाय : ''इस कामको तुमने नहीं, बल्कि तुमसे उच्चतर किसी शक्तिने किया है, तुम तो, बस, एक यन्त्र मात्र थे,'' तो वे इसे बहुत अधिक नापसंद करेंगे और तुम्हें अपना रास्ता नापनेके लिये कहेंगे । इसलिये ये दोनों पूर्णताऐं, सामान्य जीवनमें, वस्तुतः' अलग-अलग ही चलती हैं । पुराने योगोंमें कहा जाता था कि योग करनेकी पहली शर्त है जीवनसे विरक्ति । परन्तु जो लोग कुछ मानवीय पूर्णता पा लेते हैं, सामान्यत: जीवनसे बहुत कम ही विरक्त होते है जबतक कि कुछ ऐसा न हो कि उनके सामने कोई
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व्यक्तिगत कठिनाइयां न आ जायं -- जैसे आस-पासके लोगोंकी अकृतज्ञता, उनकी प्रतिभाको न समझना, उसका पूरा मूल्यांकन न होना - तब इस सबसे उनका दिल खट्टा हो जाता है, नहीं तो जबतक सफलता और सर्जन- का काम चलता है वे पूरी तरह संतुष्ट रहते है । और जबतक वे संतुष्ट रहते हैं - विशेषत:, अत्य-संतुष्ट रहते है -- तबतक उन्हें किसी और चीजको पानेकी आवश्यकता महसूस नहीं होती ।
यह अनिवार्य रूपसे सच नहीं होता, पर सामान्यत: ऐसा ही होता है । और जबतक किसी प्रतिभाशाली व्यक्तिमें ऐसी आत्मा न हो जो अपने- आपसे पूरी तरह सचेतन हो और पृथ्वीपर किसी विशेष कार्यको पूरा करने- के लिये आयी हो, तबतक बहुत संभव है कि कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा हो, बड़ा हो और यह जाने बिना मर भी जाय कि पार्थिव जीवनके अति- रिक्त कुछ और भी है । और सबसे बढ़कर यही, समझे, यही भावना कि अधिकतम उपलब्धि हो चुकी है एक ऐसी संतुष्टि प्रदान करती है जो व्यक्तिको किसी अन्य चीजकी आवश्यकता अनुभव करनेसे रोके रखती है... । यदि उनकी आत्मा अपने-आपसे और भौतिक जगत्में अपने प्रयोजनसे पूरी तरह सचेतन हो तो उन्हें एक धुंधला आभास मिल सकता है कि यह सब बहुत खोखला है, ये सब उपलब्धियां या सफलताएं बहुत ऊपरी हैं और कोई ऐसी चीज है जो अभीतक अप्राप्त है; पर यह आभास भी केवल दैवनिर्दिष्ट व्यक्तियोंको ही मिलता है और वास्तवमें मानवजाति- के इतने बड़े समुदायमें ऐसे लोग बहुत नहीं होते ।
केवल ये दैवनिर्दिष्ट लोग ही इन दो पूर्णताओंको मिला सकते है और किसी सर्वांगीण वस्तुको प्राप्त कर सकते है.. । किंतु यह बहुत विरल है । महान् आध्यात्मिक नेता बहुत कम ही भौतिक जगत्में कोई महान् काम कर पाये हैं । ऐसा हुआ अवश्य है, पर यह बहुत विरल है 1 भगवान्- के जो सचेतन अवतार हुए है केवल उन्हींमे, स्वभावत:, इन दो पूर्णताओंकी संभावना रही है, पर यह तो अपवादकी बात है । जिन लोगोंका जीवन आध्यात्मिक था, जिन्हें कोई महान् सिद्धियां प्राप्त थीं, उनके पास किन्हीं विशेष क्षणोंमें बाह्य चरितार्थताकी योग्यता भी रही है, यह भी अपवादकी ही बात है, लेकिन यह भी अविच्छिन्न नहीं थीं, उसमें वह समग्रता, वह सर्वांगीणता, वह पूर्णता नहीं थी जो भौतिक चरितार्थतापर ही अपनेको केंद्रित करनेवाले व्यक्तियोंमें पायी जाती है । और यही कारण है कि जो लोग केवल बाह्य चेतनामें निवास करते है, जिनके लिये स्थूल पाथिव जीवन ही सब कुछ है और जिसका वास्तवमें अस्तित्व है, जो एकदम यथार्थ, प्रत्यक्ष और सबके लिये अनुभवगम्य है, वे सदा यह महसूस करते
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प्रश्न और उत्तर ८९ हैं कि आध्यात्मिक जीवन कुछ अस्पष्ट-सी और भौतिक दृष्टिसे अति सामान्य चीज है ।
मुझे ऐसे बहुत-से व्यक्ति मिले है -- ''बहुत'' से, हां, काफी अच्छी संख्यामें -- जो यह दिखाना चाहते थे कि आध्यात्मिक शक्तियां बाह्य प्राप्ति- के लिये बहुत बड़ी योग्यता प्रदान करती हैं । उन्होंनें अपनी असाधारण आध्यात्मिक अवस्थाओंमें चित्र बनाने या संगीत रचने या कविता लिखनेकी कोशिश की, पर जो कुछ उन्होंने रचा वह बिलकुल घटिया था; उसकी तुलना उन प्रतिभावान् कृतियोंसे नहीं की जा सकती जिन्होंने भौतिक कला- को हस्तगत किया 'अत । और इसने, अवश्य हीं भौतिकवादी लोगोंको यह कहनेका एक सुंदर अवसर दिया. ''देखा, तुम्हारी तथाकथित शक्ति किसी कामकी नहीं निकली ।'' परन्तु इसका कारण यह है कि अपने बाह्य जीवनमें वे केवल साधारण व्यक्ति थे, क्योंकि यदि अत्यधिक महान् आध्यात्मिक शक्ति एक अशिक्षित जड़ व्यक्तिमें प्रवेश कर भी जाय, तो वह स्पष्ट ही ऐसी कृति तो उत्पन्न करेगी जो उस कृतिसे कहीं अधिक ऊंची होगी जो उस शक्तिके बिना की जाती, पर उस कृतिसे काफी निचले दर्जेकी होगी जिसे एक! ऐसा प्रतिभाशाली व्यक्ति उत्पन्न करता जिसका भौतिकपर अधि- कार है । आत्माका श्वास ही काफी नहीं है, यंत्रमें भी उसे व्यक्त करने- की योग्यता चाहिये ।
मेरा ख्याल है श्रीअरविंद जो बातें समझाने जा रहे है उनमेंसे एक यह है कि यह क्यों जरूरी हैं कि भौतिक बाह्य सत्ताका मी पूरा विकास हो, उसमें जडतत्वपर सीधा अधिकार करनेकी योग्यता हो, क्योंकि तब तुम आत्माके हाथमें एक ऐसा यंत्र सौप देते हो जो उसे व्यक्त कर सकता है, नहीं तो... । हां, मैं. ऐसे भी कई लोगोंको जानती थी जो अपनी साधारण अवस्थामें तीन प्रक्रियाँ भी बिना गलती किये नहीं लिख सकते थे, उनमें केवल वर्तनीकी भूले ही नहीं, व्याकरणकी भूलें भी होती थीं, अर्थात् जो किसी विचारको स्पष्टतासे व्यक्त नहीं कर सकते थे -- पर, जब बे अपनी आध्यात्मिक अभीप्साके क्षणोंमें होते तो बहुत सुन्दर चीजों लिखा करते थे, पर फिर भी ये सुन्दर चीजों वैसी सुन्दर नहीं होती थीं जैसी उच्चकोटिके लेखकोकी । बे अपनी सामान्य अवस्थामें जो कर सकते थे उसकी तुलनामें बढ़िया प्रतीत होती थीं । यह सच है कि इनमें उनकी अधिकतम वर्तमान क्षमताओंका उपयोग हुआ था, इसीने उन चीजोंको कुछ मूल्य दिया जो अन्यथा कुछ भी न हो पाती । परन्तु मान लो तुम्हारे सामने सच्चे अर्थोंमें एक प्रतिभाशाली व्यक्ति है - प्रतिभावान् संगीतज्ञ, कलाकार, साहित्यिक - जिसका अपने यंत्रपर पूरा अधिकार है, जो उसका
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उपयोग ऐसी रचनाके लिये कर सकता है जिसमें उच्चतम मानवीय संभावना व्यक्त हो, तो अब यदि तुम उसमें एक आध्यात्मिक चेतना, अति- मानसिक शक्तिको जोड़ दो तो तुम्हें सचमुच एक दिव्य चीज मिलेगी ।
और ठीक यही उस प्रयासकी कुंजी है जो श्रीअरविंद हमसे करवाना चाहते थे।
तुम्हारा शरीर अपनेमें जिन संभावनाओंको छिपाये हुए है यदि तुम उन्हें बाहर निकाल लाओ, यदि तुम इसे सामान्य, सुपरिचित, वैज्ञानिक पद्धतियों- द्वारा प्रशिक्षित करो, यदि तुम इस यंत्रकों अधिकतम संभव रूपमें पूर्ण बना दो तो जब अतिमानसिक सत्य उस शरीरमें प्रकट होगा तो तुरत - बिना सदियोंकी तैयारीकी आवश्यकताके -- वह आत्माको व्यक्त करनेवाला अद्भुत यंत्र बन जायेगा ।
यही कारण है कि श्रीअरविंद सदा ही यह कहते और दोहराते रहे हैं : दोनों छोरोंपर काम करो, एकके लिये दूसरेकी अवहेलना न करो । निश्चित ही, यदि तुम दिव्य चेतना प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें आध्या- त्मिक अभीप्साका त्याग नहीं करना चाहिये, किंतु यदि तुम पृथ्वीपर एक पूर्ण दिव्य सत्ता बनना चाहते हो तो इसका पूरा ध्यान रखो कि दूसरा सिरा छूट न जाय, और अपने शरीरको भी जितना संभव हो उतना बढ़िया यंत्र बनाओ ।
सामान्य मानव बुद्धिकी यह बीमारी है -- जो पार्थक्य एवं विभाजनसे उत्पन्न होती है -- कि वह ऐसे काम करती है मानों चीज सदा था तो यह होती है या वह । यदि तुम इसे चुनते हो तो उससे मुंह मोड लेते हों और यदि उसे चुनो तो इधर पीठ कर लेते हों ।
यह दरिद्रता है । तुम्हें सभी चीजोंको ग्रहण करना, उन्हें एकत्रित करना और सुसमन्वित करना जानना चाहिये । तब वह एक संपूर्ण प्राप्ति होगी ।
(बच्चोंकी ओर मुड़ते हुए) तुम्हें कुछ कहना है?
कहनेसे करना कहीं अधिक अच्छा है । और आज मैंने इसके लिये तुम्हें प्रोत्साहित किया है ।
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१ मई, १९५७
आश्रम-जीवनमें खेल और शारीरिक व्यायाम जैसी प्रवृत्तियोंको अपनानेमें यह बात स्पष्ट है कि उनकी पद्धतियां और उनसे सिद्ध होनेवाले प्रथम उद्देश्य उसी क्षेत्रके होंगे जिसे हमने सत्ता- का निम्नतर छोर कहा है । मूलतः इनका आरंभ आश्रम-विद्या- लयके बच्चोंके शारीरिक शिक्षण एवं दैहिक बिकासके लिये किया गया है क्योंकि ये बच्चे अभी इतने छोटे हैं कि उनकी क्रियाओंमें असलमें आध्यात्मिक उद्देश्य या साधनाको शामिल नहीं किया जा सकता... । फिर भी मानवीय सीमाओंके भीतर जो कुछ पाया जा सकता है वह भी काफी महत्त्वपूर्ण और कभी-कभी अपरिमित होता है : हम जिसे प्रतिभा कहते हैं बह मानव स्तरके विकासका ही तो एक अंग है, और इसकी प्राप्तिका, विशेषत मंत्र और संकल्पके क्षेत्रकी प्राप्तिका हमें दिव्यताकी ओर आधी दूरतक ले जा सकती हैं । यहांतक कि मन और संकल्प शरीरके साथ जो कुछ कर सकते हैं, शरीर और शारी- रिक जीवनके अपने क्षेत्रमें, शारीरिक उपलब्धियोंके रूपमें जो कुछ कर सकते हैं, अर्थात् शरीरकी सहनशीलता, सब प्रकारके पराक्रम, बिना थके या बिना टूटे लगातार काम किये जाना और शुरूमें जितना संभव प्रतीत होता था उससे भी आगे जारी रखना, साहस और अपार व मर्मान्तक शारीरिक पीडाके नीचे भी घुटने न टेकना, ये तथा अन्यान्य कई प्रकारकी विजयें जो कभी-कभी अलौकिकताके निकट था अलौकिकतातक पहुंच जाती हैं, मानव क्षेत्रमें देखनेको मिलती है और इन्हें हमारी सर्वांगीण पूर्णताकी जो कल्पना है उसीका एक अंग समझना चाहिये... । हम पहले कह आये हैं कि शरीर अचेतनाकी सृष्टि है और अपने-आपमें अचेतन है घा कम-से-कम अपने कुछ भागों और अपनी अधिकांश गुप्त क्रियाओंमें अवचेतन है । परंतु जिसे हम अचेतना कहते हैं वह तो एक बाहरी रूप, एक बास-स्थान, एक यंत्र है उस गुप्त 'चेतना' या 'अतिचेतना' का जिसने इस चमत्कारकी, इस विश्वरूप चमत्कारीकी, सृष्टिकी है । जडुतत्व अचेतनाका क्षेत्र और सृष्टि है परंतु इस जडूतत्त्वके क्यिा-कलापमें पूर्णता, उनका उद्देश्य एवं अभिप्रायके अनुरूप साधनोंका प्रयोग, उनकी कुतियों-
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मे देखनेवाली चमत्कार और अद्भुत सौंदयोंकी सृष्टि प्रमाणित करते है कि जड़ जगतके प्रत्येक हिस्सेमें और उसको प्रत्येक क्रियामें इस अतिचेतनाकी उपस्थिति और शक्ति मौजूद है, चाहे अपनी अज्ञतामें हम इसे कितना भी क्यों न नकारों । और यह शरीर- मे भी मौजूद है, इसीने इसे रचा है और इसका हमारी चेतनामें आविर्भाव ही विकासका गुप्त लक्ष्य है और हमारे अस्तित्वके रहस्यकी कुंजी है ।
मां, क्या खेल-प्रतियोगिताएं हमारी प्रगतिके लिये आवश्यक हैं?
नैतिक शिक्षाकी दृष्टिसे वे काफी हदतक आवश्यक है, क्योंकि यदि तुम उनमें सम्यक् वृत्तिके साथ भाग ले सको तो यह तुम्हारे लिये अपने अहंकारको वशमें करनेका एक बहुत अच्छा अवसर है । पर यदि तुम उसमें भाग तो लो पर अपनी दुर्बलताओं और निम्न प्रवृत्तियोंको जीतनेका कोई प्रयत्न न करो तो स्पष्ट ही तुम उनसे लाभ उठाना नहीं जानते और तब कोई फायदा नहीं होता । किन्तु यदि तुम ठीक वृत्तिके साथ खेलनेकी भावना रखते हो और निम्न वृत्तियोंको, ईर्ष्या या महत्वाकांक्षाको नहीं आने देते और उस भावको जिसे ''खिलाड़ी-जैसा सही भाव'' कहते है, अर्थात् अपना' पूरा प्रयत्न करते हुए परिणामकी चिन्ता न करना, इस भावको बनाये रखते हो, मतलब यह कि यदि तुम अधिकतम प्रयास करते हो और सफलता न मिलनेपर या चीजों अपने पक्षमें न होनेपर दुःखित नहीं होते तो प्रतियोगितामें भाग लेना बहुत उपयोगी है । इन सब प्रतियोगिताओंसे तुम्हें महत्तर आत्म-नियंत्रण और परिणामके प्रति अनासक्तिके भावकी प्राप्ति हो सकती है जिससे असाधारण चरित्रके गठनमे बड़ी सहायता मिलती है । अवश्य ही, यदि तुम इन चीजोंको सामान्य ढंगसे करो, सामान्य प्रति- क्रियाओं और ओछे व्यवहारको बीचमें आने दो, तो तुम्हें कुछ भी सहायता नहीं मिलेगी । परन्तु यह बात तो, तुम चाहे जो भी करो, सभीके लिये ठीक है, रवेलके क्षेत्र हों या बुद्धिका, जो भी हो, यदि व्यक्ति सामान्य ढंगसे काम करता है तो वह अपना समय बर्बाद करता है । परन्तु यदि तुम खेलते वक्त, साम्मुख्यों और प्रतियोगिताओंमें भाग लेते वक्त सम्यक् वृत्ति बनाये रखते हो तो यह एक बहुत अच्छा शिक्षण है, क्योंकि यह तुम्हें विशेष प्रयत्नके लिये, अपनी सामान्य सीमाओंसे थोड़ा आगे बढ़नेके लिये बाधित करता है । निश्चय ही यह एक सुयोग है जिसमें तुम अपनी बहुत-
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सी प्रवृत्तियोंसे सचेतन. हो सकते हो, अन्यथा वे सदा अचेतन ही बनी रहतीं ।
परन्तु स्वभावतः, तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि इन्हें प्रगतिमें एक सुयोग और साधन बनाना है । यदि तुम, बम, अपने-आपको ऐसे ही शिथिल छोड़ रखते हो और बिलकुल सामान्य ढंगसे खेलते हो तो तुम अपना समय बर्बाद करते हो; पर यह नियम तो प्रत्येक चीजके लिये है : पढ़ाईके लिये तथा. और सनी चीजोंके लिये, वे चाहे जो भी हों । सब कुछ सदा ही इसपर निर्भर करता है कि कामको किस तरह किया जाता है, इसपर इतना नही कि व्यक्ति क्या करता है, बल्कि उस भावपर जिसमें वह उसे करता है ।
यदि तुम सब योगी होते और जो कुछ तुम करते उस सबको अपने पूरे परिश्रम और सामर्थ्यके साथ करते, और साथ ही जितना अब कर सकते हो सदा उससे भी और अधिक अच्छा करनेकी भावनाके साथ करते तो स्पष्ट ही प्रतियोगिताओंकी, पारितोषिक व पुरस्कारकी आवश्यकता न होती, परंतु जैसा कि श्रीअरविंदने लिखा है, छोटे बच्चोंसे योगी होनेकी मांग नहीं की जा सकती । और तैयारीके कालमें बढ़ावा देनेवाली किसी चीजका होना जरूरी है ताकि अत्यधिक भौतिक। चेतना प्रगतिके लिये प्रयास कर सके... । और यह बाल्यकाल बहुत वर्षोंतक चल सकता है ।
इसमें आदर्श स्थिति बह होगी जो मैंने पिछले 'बुलेटिन''में लिखी है, मुझे मालूम नहीं तुमने उसे पढा है या नहीं, परन्तु मैंने कुछ इस प्रकारकी चीज लिखी है :
कोई महत्वाकांक्षा न रखो,
सबसे बड़ी बात यह है कि दिखावा न करो,
परन्तु प्रति मुहूर्त्त वह होओ
जो अधिक-से-अधिक हो सकते हो ।
तुम चाहे जो करते हो, सर्वांगीण जीवनकी आदर्श स्थिति यही है । और यदि व्यक्ति इसे साध लेता, तो हां, निश्चय ही, वह पूर्णताके पथपर बहुत आगे बढ़ जाता है । परन्तु, यह स्पष्ट है कि अपनी सारी सच्चाईके साथ इसे कर सकनेके लिये एक वास आंतरिक प्रौढ़ताका होना जरूरी है । तुम इसे एक कार्यक्रमके तौरपर सामने रख सकते हों ।
यदि तुम चाहो तो आज हम इसीको अपने ध्यानका विषय बनायें ।
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८ मई, १९५७
मां, सामान्यतः हम देखते है कि हममेंसे बहुत-से उन खेलों या उन प्रवृत्तियोंमें ही रुचि रखते हैं जिनमें कुछ उत्तेजना होती है, और ऐसे बहुत ही कम है जो गंभीर प्रकारकी प्रवृत्तियों या व्यायामोंमें रुचि लेते हों, ऐसा क्यों है?
क्योंकि अधिकतर लोगोंमें रुचि पैदा करनेवाली चीज है प्राणिक तुष्टि । प्रशिक्षणके व्यायामोंमें, जिनमें खेलों-जैसी उत्तेजना नहीं होती, रुचि लेनेके लिये यह आवश्यक है कि सत्तापर बुद्धिका शासन हो । सामान्य मनुष्योंमें बुद्धि ही मानव चेतनाका शिखर है और सत्ताके इसी भागको बाकीपर शासन करना चाहिये, क्योंकि यही भाग व्यवस्थित और युक्तिसंगत है, अर्थात् यह चीजोंको व्यवस्था, भलाई और उपयोगिताकी भावनासे करता है और एक' बनी-बनायी योजनाको, जिसे हरएक मान्यता देता और व्यवहारमें लाता है, मानकर चलता है; जब कि सत्ताका प्राणिक भाग उत्तेजना, आकस्मिकता और साहसिक कर्मको पसंद करता है -- ये सब खेलको आकर्षक बनाते है -- और इनसे भी बढ़कर प्रतियोगिताओंको, जीतनेके प्रयत्न और विरोधी दलपर विजय आदिको पसन्द करता है । यह प्राणिक तरंग है । और चूंकि प्राण ही मनुष्यमें उत्साह, प्रेरणा और सामान्य शक्तिका स्थान है इसलिये जब आकस्मिकता, संघर्ष और विजयका आकर्षण नहीं होता तो यह सों जाता है, जबतक कि इसने सतत और स्वाभाविक रूपसे बौद्धिक संकल्पकी आज्ञा माननेकी आदत ही न डाल ली हो । और यह भी शारीरिक शिक्षणका एक पहला लाभ है, क्योंकि यह एक तथ्य है कि यह चीज तबतक अच्छी तरह नहीं की जा सकती जबतभा शरीर भी प्राणिक तरंगकी अपेक्षा बुद्धिकी आशा माननेकी आदत न डाल त्व । उदाहरणार्थ, उस शारीरिक पूर्णताके विकासको, शारीरिक शिक्षणको को जो डबल आदि व्यायामोंकी सहायतासे किया जाता है; इन व्यायामोंमें विशेष उत्तेजनाकी कोई चीज नहीं होती, बल्कि ये व्यायाम अनुशासनकी, नियमित और बुद्धिसंगत अभ्यासोंकी मांग करते है, अतः इनमें आवेग, इच्छा या तरंगके लिये कोई स्थान नहीं होता (यदि इन्हें पूरी नियमितताके सार किया जाय), तो इन व्यायामोंको सचमुच अच्छी तरह करनेके लिये व्यक्ति- को अपने जीवनको बुद्धिद्वारा शासित करनेकी आदत डालती चाहिये । पर यह बात सर्वसामान्य- नही है । सामान्यत: तो इच्छाकी तरंगें, अपनी
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सब प्रतिक्रियाओंसहित उत्साह और आवेग ही मानव जीवनपर शासन करते हैं, जबतक कि व्यक्ति सावधानी न बरते कि बात दूसरी तरहसे हो । शरीरके कठोर अनुशासनका पालन कर सकनेके लिये और उससे व्यवस्थित और नियमित प्रयास करानेके लिये जिसमें कि वह पूर्ण बन सकें व्यक्तिको पहले ही कुछ-कुछ मनीषी होना चाहिये । इस प्रयासमें इच्छाकी सनकोंको लिये कोई स्थान नहीं है । क्या तुम नही देखते कि जब कोई व्यक्ति अतियोंमें, किसी प्रकारके असंयम और अव्यवस्थित जीवनमें ग्रस्त हो जाता है तो उसके लिये अपने शरीरको नियंत्रित करना और उसका सामान्य विकास साधना बिलकुल असंभव हों जाता है । यदि तुम इसका ख्याल नहीं रखते तो, स्वभावत: ही, तुम अपने स्वास्थ्यको चौपट कर लेते हो जिसके फलस्वरूप शारीरिक पूर्णताके आदर्शका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग नष्ट हो जाता है, क्योंकि बिगडे और टूटेफृटे स्वास्थ्यसे तुम किसी कामके नहीं रहते । और निश्चय ही ये इच्छाओं और प्राणिक तरंगोंके तुष्टि या किन्हीं महत्वाकांक्षाओंकी अनुचित माँगें ही हैं जिनकी बजहसे शरीर दुःख भोगता और बीमार पड़ता है ।
स्वभावत: जो लोग जीवनके अति प्रारम्भिक नियमोंतकको भी नहीं जानते, उनका अज्ञान भी तो है; पर वह -- क्यों, सब जानते हैं कि मनुष्यको जीवित रहना सीखना चाहिये; उदाहरणार्थ, सब जानते है कि आग जलाती है और पानी डुबो सकता है! ये सब बातें लोगोंको बतानेकी जरूरत नहीं होती, ज्यों ही वे कुछ बड़े होते है, इन चीजोंको तेजीसे सीख लेते है । परन्तु इस बातको कि केवल स्वस्थ बने रहनेके लिये ही जीवनपर बुद्धिका नियंत्रण बहुत जरूरी है, निम्न श्रेणीके मनुष्य सदा स्वीकार नही करते, उन्हें तो जीवनमें आनंद तभी मिलता है जब वे आवेगोंमें जीते हैं ।
मुझे एक आदमीकी याद है जो बहुत पहले यहां आया था । वह यहां- से फ्रेंच संसदके चुनावके लिये खड़ा होना चाहता था । उसे मुझसे मिलाया गया क्योंकि लोग उसके बारेमें मेरी राय जानना चाहते थे । उसने मुझसे आश्रम और यहांके जीवनके बारेमें प्रश्न किये और यह पूछा कि मेरी दृष्टिमें जीवनके लिये अनिवार्य अनुशासन क्या है । वह आदमी सारे दिन सिगरेट मुंहसे लगाये रखता और जरूरतसे ज्यादा शराब पीता था । और स्वभावत: उसे यह शिकायत थी कि वह बहुत ज्यादा थक जाता और कभी- कभी तो अपने-आपपर काबू न रख पाता था । मैंने उससे कहा : ''देखो, सबसे पहले तुम्हें सिगरेट छोड़ देनी चाहिये और फिर शराब भी छोड़ देनी चाहिये ।', उसे विश्वास ही नहीं हुआ, हक्का-बक्का होकर उसने मेरी ओर देखा और कहा : ''लेकिन, अगर न तो सिगरेट पीनी है और न शराब
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ही तो फिर जीनेका अर्थ ही क्या है? '' तब मैंने उससे कहा, ''यदि तुम अभी उस अवस्थामें हों तो किसी और चीजके बारेमें बातचीतका कुछ फायदा नहीं ।''
यह बात हम जितना समझते हैं उससे कहीं अधिक व्यापक हे । यह हमें वाहियात लगती है क्योंकि हमारे पास, निश्चय हो, सिगरेट फूंकने और शराब पीनेसे बढ़कर मजेदार काम है, लेकिन साधारण मनुष्योंके लिये इच्छाओंकी पूर्ति ही जीवनका एकमात्र हेतु है । उन्हें लगता है कि इस तरह वे अपनी स्वाधीनता और जीवनके हेतुको पुष्ट करते हैं । तथापि यह केवल जीवनका पथ-पुष्ट होना या विकृत होना है, जो जीवनकी मूल वृत्तिका निषेध और भौतिक जीवनमें मन और प्राणिक तरंगका एक विकृत हस्तक्षेप है । यह एक विकृत तरंग है जो सामल्यत पशुओंमें नहीं पायी जाती । पशुओंका सहज-बोध मनुष्यके सहज-बोधसे कहीं अधिक युक्तिसंगत होता है 1 इसके अलावा, मनुष्यके अंदर यह सहज-बोध अब रह भी नहीं गया है, इसका स्थान एक अति विकृत तरंगने ले लिया है ।
विकृति एक मानव रोग है, पशुओंमें यह बहुत ही विरल पाया जाता है, और वह भी केवल उन्हीं पशुओंमें जो मनुष्यके ज्यादा नजदीक हैं और इसी कारण उसकी छ्तमें आ गये है ।
इस विषयमें एक कहानी है । उत्तरी अफ्रीकामें -- अल्जीरियामें - कुछ अफसरोंने एक बंदर पाल रखा था । बंदर उन्हींके साथ रहता था । एक शामको भोजन करते समय उन्हें एक भद्दा विचार आया, उन्होंनें बंदर- के सामने शराब पेश की । बंदर पहले तो सबको पीते देखा, फिर उसे लगा यह तो कुछ मजेदार चीज है, उसने एक गिलास पी लिया -- शराब- का एक पूरा गिलास । इसके बाद उसकी तबीयत खराब हुई, वेहद खराब । दर्दके मारे बेचारा मेजके नीचे लुढ़कता, छटपटाता रहा, सचमुच वह बहुत ही कष्ट पा रहा था । अर्यात् भौतिक प्रकृतिपर, जो पहलेसे भ्रष्ट न हुई हो, अलकोहलका सहज प्रभाव क्या होता है यह उसने अपने उदाहरणसे दिखा दिया । वह इस विष-प्रयोगसे मरते-मरते बचा । रवैर, वह नीरोग हो गया । कुछ समय बाद उसे फिर ब्यालूके लिये आने दिया गया, क्योंकि अब वह ठीक था । किसी अफसरने फिरसे उसके सामने शराबका गिलास रख दिया । भयंकर गुस्सेमें उसने गिलास उठाया और देनेवालेके सिरपर दे मारा... इस तरहु उसने दिखा दिया कि वह मनुष्योंसे ज्यादा बुद्धिमान है!
छोटी अवस्थामें ही यह शुरू करना और जान लेना अच्छा है कि यदि सार्थक जीवन जीना है और शरीर अधिक-से-अधिक जितना देने योग्य है
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वह पूरा-पूरा प्राप्त करना है तो बुद्धिको ही गृह-स्वामी बनाना अनिवार्य है । और यह योग करने या किसी उच्च उपलब्धिकी बात नहीं है बल्कि एक ऐसी चीज है जो सब जगह सिखायी जानी चाहिये, सब विद्यालयोंमें 'सब परिवारोंमें, सब घरोंमें । मनुष्यकी रचना हुई ही इसलिये है कई वह एक मानसिक प्राणी बने, तो केवल मनुष्य होनेके लिये (हम किसी और चीजके लिये नहीं कह रहे, केवल मनुष्य होनेकी बात कर रहे हैं) जीवन- पर बुद्धिका शासन होना चाहिये, प्राणिक तरंगोंका नहीं । यह चीज सब बच्चोंको बिलकुल छुटपनसे ही सिखायी जानी चाहिये । यदि कोई व्यक्ति बुद्धिद्वारा शासित नहीं है तो वह उजड्ड गंवार है, सामान्य पशुसे भी गायाबीता; क्योंकि पशुओंमें मन या बुद्धि भले न हो जो उनका संचालन करे पर वे अपने जातिगत सहजबोधका अनुसरण करते हैं । उनमें एक ऐसा जातिगत सहज बोध होता है जो बहुत अधिक संतुलित होता है और जो उनकी क्रियाओंको उनकी हितकी दृष्टिसे यवस्थित करता है । और आप- से-आप, बिना जानें ही वे इस जातिगत सहज-बोधके अधीन रहते है जो उस जीव-जातिकी, प्रत्येक जीव-जातिकी दृष्टिसे पूरी तरह युक्तिसंगत होता है पर वे पशु जो किसी-न-किसी कारणसे इससे बाहर आ जाते है -- मैं अभी कुछ देर पहले उन पशुओंकी बात कर रही थी जो मनुष्यके नजदीक रहते है और अपने जातिगत सहज-बोधकी अपेक्षा मनुष्यकी बात मानने लगते है -- वे बिगड़ जाते है और अपने जातीय गुणोंको खो बैठते है । यदि पशुको उसकी अपनी स्वाभाविक अवस्थाओंमें रहने दिया जाय और वह मनुष्यके प्रभावसे मुक्त हो तो वह अपनी दृष्टिसे बहुत अधिक समझदार जीव होता है क्योंकि वह केवल उन्हीं चीजोंको करता है जो उसकी प्रकृतिके और उसके हितके अनुरूप होती है । अवश्य ही, वह अमंगलकारी दुर्घटनाओंसे क६ट पाता है, क्योंकि दूसरी जातियोंके साथ उसका सतत संघर्ष चलता है, परंतु अपने-आपमें वह असंयम नहीं करता । मुर्खताओंका और विकृतिका प्रारंभ होता है सचेतन मनसे और मनुष्यजातिसे । यह मनुष्यका अपनी मानसिक क्षमताका दुरुपयोग है । विकृति मानव जातिसे ही शुरू होती है । यह प्रकृतिके उस विकासका जो मानसिक चेतनाके रूपमें प्रकट है, अपरूप है । डसलिये ज्यों ही मनुष्य विचार करने योग्य हो जाय उसे सबसे पहले यही मिखना चाहिये कि वह बुद्धिकी आशा माने जो कि मनुष्यजातिका एक अति-बोध ( Super- Instinct) है । बुद्धि ही मानव-प्रकृतिकी स्वामी है । व्यक्तिको बुद्धिकी ही आज्ञा माननी चाहिये और निम्न सहज प्रवृत्तियों- का दास बननेसे पूरी तरह इंकार कर देना चाहिये । मैं' यहां योगकी या आध्यात्मिक जीवनकी बात नहीं कर रही, उस सबकी बात बिलकुल
नहीं, उससे इसका कुछ संबंध नहीं । यह तो, बस, मानव जीवनका प्राथमिक ज्ञान है, यह विशुद्ध रूपसे मानवीय है : जो भी मनुष्य बुद्धिको छोड़- कर किसी औरकी बात मानता है वह एक प्रकारसे निम्न श्रेणीका पशु है, सामान्य पशुसे भी निचले दर्जेका । लो, समझ गये । और यह बात सर्वत्र सिखायी जानी चाहिये । यह प्रारंभिक शिक्षा है जो बच्चोंको दी ज चाहिये ।
बुद्धिके राज्यका अंत केवल तभी होना चाहिये जब चैत्यका विधान आ जाय जो भागवत संकल्पको प्रस्थापित करता है ।
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१५ मई, १९५७
मां, सृष्टिके आरंभसे ही नर और मादामें यह भेद क्यों रहा है?
किस सृष्टिके आरंभसे? वत्स, तुम किस सृष्टिकी बात कर रहे हो?... पृथ्वीकी?
जी !
पहली बात तो यह है कि यह बात बिलकुल ठीक नहीं है । ऐसी जीवजातेयां है जिनमें ऐसा कोई भेद नहीं है; और आरंभमें ऐसा कोई था भी नहीं -- यह हुई पहली बात । दूसरी यह कि पृथ्वीकी यह सृष्टि विशुद्ध रूपसे भौतिक सृष्टि है, और एक प्रकारसे विश्व-सृष्टिका स्थूल और घन रूप है; और विश्व-सृष्टिमें यह भेद आवश्यक रूपसे नहीं है, वहां सब प्रकारकी संभावनाएं मौजूद है, सब संभव चीजों वहां होती रही है और अब भी होती है । यह भेद सृष्टिका सारा आधार नहीं है ।
इसलिये तुम्हारा प्रश्न टिकता नहीं, क्योंकि यह सही नहीं है ।
तो पार्थिव सृष्टिमें ऐसा क्यों है?
मैंने अभी तुम्हें बताया कि आरंभसे ऐसा नहीं है । कोई भी जीवशास्त्री
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तुम्हें बना सकता है कि ऐसी जीव जातियां है जो इस प्रकारकी बिलकुल नही है । इस साधनाका प्रयोग 'प्रकृति'ने किया है -- वह कई परीक्षण करती है, उसने सब संभव जीव-जातियां बनायी हैं, एक' ही आकारमें दो- को गढ़ है, सनी संभव चीजे उत्पल की है... यह प्रयोग जारी है क्योंकि संभवत: यह उसे अधिक व्यावहारिक लगा! मैं नहीं जानती । बस, इतना ही ।
परंतु दूसरे लोकोंमें, यहांतक कि पार्थिव जगत्में, पार्थिव जगतके सूक्ष्म लोकोंमें, सूक्ष्म भौतिकतकमें और प्राणिक तथा मानसिक जगतोंमें यदि ऐसे प्राणी है जिनमें इस प्रकारका विभेद है तो ऐसे प्राणी भी है जो न नर हैं न मादा । ऐसा है । उदाहरणार्थ प्राणिक जगत्में लिंगका भेद बहुत कम पाया जाता है, सामान्यतः, वहांकी सत्ताओंमें लिंग-भेद नहीं होता । और मुझे प्रबल रूपमें ऐसा लगता है कि देवलोक, जैसा कि मनुष्योंने उसका बरना किया है, बहुत कुछ मानव विचारसे प्रभावित है । जो भी हो, ऐसे भी बहुत-से देवता हैं जिनका कोई लिंग नहीं । सभी देशोंके देवकुलोंके बारेमें कही जानेवाली अधिकतर कहानियां ऐसी ही है जो मानव विचारसे प्रबल रूपमें प्रभावित है । तो, यह भेद प्रकृतिका, अपना उद्देश्य पूरा करनेका, एक साधन है, बस, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं । हमें इसको इसी रूपमें लेना चाहिये । यह कोई सनातन' प्रतीक नहीं है -- बिलकुल नही ।
हां, ऐसे बहुत-से लोग हैं जो इस भेदको बहुत महत्व देते है -- यदि इससे उन्हें संतोष मिलता हो तो वे इसे बनाये रख सकते हैं । पर यह अंतिम या सनातन बिलकुल नहीं है... न अपने-आपमें पूर्ण है । शायद यह अधिमानसका आदर्श रहा हो, यह संभव है... पर वहां भी संपूर्ण रूपमें नहीं, केवल आशिक रूपमें । लेकिन फिर भी जो लोग इस भेदपर मोहित है वे इसे बनाये रख सकते है यदि यह उन्हें पसंद हो! इससे उन्हें खुशी होती हो... इसके अपने लाभ है, अपनी हानियां है, बहुत-सी हानियां है ।
मां, तो प्राण-जगत्की शक्तियां इससे क्यों बची हुई है?
क्रया?
आप कहती है कि यह भेद प्राणिक जगत्में नहीं है ।
मैं यह नहीं की है, मैं कहती हू कि यह सामान्य नियम
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नहीं है और यह कि, इसके विपरीत तुम्हें वहां लिगभेदवाले प्राणियोंकी अपेक्षा ऐसे प्राणी ज्यादा मिलते है जिनमें लंगभेद नहीं है । और यह भी संभव है कि प्राण-जगत्में यह भेद पृथ्वीके प्रभावसे आया
तो, अब? इन प्रश्नोंका कारण क्या है और तुम इनसे क्या सिद्ध करना चाहते हो? मैं तो यह जानना चाहती हू । तुम्हें यह किसने बताया कि विश्वके आरंभसे ही ऐसा है? उन लोगोंने जो इसे इसी तरह बनाये रखनेके लिये बड़े उत्सुक हैं? मैं फिर कहती हू, यदि इससे उन्हें संतोष मिलता है तो वे इसे बनाये रख सकते हैं, कोई इसमे बाधा न डालेगा । यदि इससे उन्हें प्रसन्नता होती है तो यही सही!
''मनके जिन स्तरोंकी हम आज धारणा करते हैं उनसे भी अधिक ऊंचे स्तर हैं और हमें एक दिन उनतक पहुंचाना ही होगा, बल्कि उनसे भी आगे अधिक ऊंची ऊंचाइयोंकी ओर, आध्यात्मिक अस्तित्वकी ओर ऊपर उठना होगा । और ज्यों- ज्यों हम ऊपर उठते जायं, हमें अपने निम्न अंगोंको भी उन- की ओर खोलना होगा और उन्हें प्रकाश और शक्तिकी श्रेष्ठतर एवं उच्चतर ऊर्जस्वितासे भर देना होगा । अपने शरीरको भी हमें आत्माका अधिकाधिक और यहांतक कि संपूर्ण रूपमें सचेतन ढांचा और यंत्र, एक सचेतन प्रतीक, मुहर- छाप और शक्ति बनाना होगा । और जसे-जैसे वह इस पूर्णतामें बढ़ता है, उसकी गतिशील क्यिा और आत्माके प्रति अनुक्रिया और सेवा करनेकी शक्ति तथा उसका क्षेत्र भी बढ़ना चाहिये । उसपर आत्माका अधिकार भी बढ़ना चाहिये । साथ ही उसकी शक्तिके विकसित और प्रयाससे प्राप्त, दोनों भागोंमें, यहांतक कि अपने-आप होनेवाली, उनमें भी जो नी- चेतनाकी यांत्रिक गतियां मालूम होती है, आत्माके कार्यकी नमनीयता बढ़नी चाहिये । लेकिन यह एक सच्चे रूपांतरके बिना नहीं हो सकता । और मन, प्राण तथा शरीर तकका रूपांतर ही वास्तवमें बह परिवर्तन है जिसकी ओर हमारा विकास गुप्त रूपसे बढ़ रहा है । इस रूपांतरके बिना पृथ्वीपर दिव्य जीवन अपनी पूर्ण समग्रताके साथ प्रकट नही हो सकता । इस रूपांतरमें स्वयं शरीर भी एक अभिकर्ता और हिस्सेदार बन सकता है । निःसंदेह, यह संभव है कि
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आत्मा अपनी स्थूल क्रियाओंके अंतिम या सबसे निचले आधार- के रूपमें एक निष्क्रिय और अपूर्ण रूपसे सचेतन शरीरके द्वारा भी अपने-आपको पर्याप्त मात्रामें अभिव्यक्त कर सके, पर वह पूर्ण था आदर्श अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । शायद पूर्ण रूपसे सचेतन शरीर पार्थिव रूपांतरकी ठीक-ठीक पार्थिव पद्धति और प्रक्रियाको भी ढूंढकर निकाल सकें, और उसे क्रियान्वित कर सके । निश्चय ही, इसके लिये आत्माके परम प्रकाश, शक्ति और सर्जनकारी आनंदको ब्बक्तिचेतनाके शिखरपर स्थापित हो जाना चाहिये और नीचे शरीरमें अपना आदेश- निर्देश भेजना चाहिये.. .''
मां, क्या शरीरका रूपांतर मन और प्राणके रूपांतरके बाद ही बन सकेगा या स्वतः ही हो जायेगा?
सामान्यता: इस प्रकारका रूपांतर ऊपरसे नीचेकी ओर होता है, नीचेसे ऊपरकी ओर नहीं ।
स्पष्ट ही यदि तुम पक्के जड़वादी हो तो तुम कहोगे कि आकारका अपना उत्कर्ष ही नयी क्षमताओंको जन्म देता है । पर यह बिलकुल ठीक नहीं है । चीजे सामान्यत: ठीक इसी तरीकेसे नहीं होतीं । मैं तुम्हें चुनौती देती हू, तुम मनके रूपांतरसे पहले अपने शरीरका रूपांतर कर लो । जरा प्रयत्न करो, देखें!
मनके दखलके बिना जब तुम एक अंगुली नहीं हिला सकते, एक शब्द नहीं बोल सकते, एक कदम नहीं चल सकते तो यदि तुम्हारा मन पहले ही रूपांतरित न हो चुका हो तो तुम किस साधनासे अपने शरीरके रूपा- तरकी आशा करते हों '
अगर तुम अज्ञानकी अवस्थामें ही रहो -- संपूर्ण अज्ञान कह सकती हू, जिसमें अभी तुम्हारा मन है, -- तो तुम अपने शरीरके रूपांतरका विचार ही कैसे कर सकते हो '
कभी-कभी हम शरीरमें एक प्रबल प्रतिरोध पाते है । इस- का क्या कारण है? मनका कोई दखल वहां नहीं होता, फिर भी प्रतिरोध रहता है । सबसे बड़ा प्रतिरोध भौतिकसे ही आता है, भौतिकका एक विशेष प्रतिरोध है ।
सबसे अधिक प्रतिरोध कहांपर है?... तुम्हारे सिरमें । (हंसी) । यह किसी विशेष व्यक्तिकी बात नहीं है । परिवर्तनको अधिकतर अस्वीकार करनेवाली चीज ही है भौतिक मन - जो बहुत हठी है, समझे! वह अपने सामर्थ्यकी निश्चयतामें बड़ा ही हठीला है, ऊफ!... इसका अपने अज्ञानके प्रति, अपने सोचने, देखने और न जाननेके तरीकेका प्रति जो अनुराग है उसमें यह बहुत ही हठीला है ।
बस?... अच्छा! तो हम अब और कुछ नहीं कहेंगे ।
मैं इसका इलाज जानना चाहता हू ।
ओह! ओह!... (लंबा मौन)... बस, यही इलाज है ।
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२९ मई, १९५७
''जिस आदर्शकी हमने कल्पना की है उसका मूलसूत्र है दिव्य शरीरमें दिव्य जीवन... धरतीपर विकासकी प्रक्रिया अब- तक बहुत धीमी और मंद रहीं है -- यदि यहां एक रूपांतर, एक क्रमिक या आकस्मिक परिवर्तन अपेक्षित है तो किस तत्व- को इसमें हस्तक्षेप करना होगा?
''यह तो निश्चित है कि अपने विकासके परिणामस्वरूप ही हम इस रूपांतरकी संभावनातक पहुंचते हैं । जैसे प्रकृतिने 'जुड़-तत्व'से परे विकसित होकर 'प्राण'को व्यक्त किया और 'प्राण'- त परे विकसित होकर 'मन' को अभिव्यक्त किया, ऐसे ही अब 'मन' से भी परे विकसित होकर उसे हमारी सत्ताकी एक ऐसी चेतना और शक्तिको अभिव्यक्त करना है जो हमारी मानसिक सत्ताकी अपूर्णता और ससीमतासे मुक्त होगी, जो अतिमानसिक या सत्य-चेतना होगी और आत्माकी शक्ति और पूर्णताको विकसित करनेमें समर्थ होगी । यहां धीमा या मंद परिवर्तन जरूरी तौरपर हमारे विकासका विधान या तरीका नहीं रह जायगा, ऐसा कम या अधिक मात्रामें केवल तभी- तक रहेगा जबतक मन अज्ञानसे चिपटा रहेगा और हमारे
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आरोहणको अटकाये रखेगा, परंतु एक बार जय हम सत्य- चेतनामें विकसित हो जायेंगे तो सत्ताके आध्यात्मिक सत्यकी शक्ति ही सब कुछ निर्धारित करेगी...
''यह भी संभव है कि रूपांतर क्रमिक अवस्थाओंमें संपन्न हो । प्रकृतिकी कुछ शक्तियां मनोमय भूमिकासे संबंध रखते हुए भी बढ़ते हुए विज्ञानकी ही अप्रकट संभाव्यताएं हैं, ३ हमारे मानवीय मनसे ऊपर उठी हुई हैं तथा भगवानके प्रकाश और शक्तिमें हिस्सा बंटाती है । ऐसा प्रतीत हो सकता है कि इन स्तरोंमेंसे होकर आरोहण और उनका मानव प्राणीमें अव- तरण ही विकासकी स्वाभाविक दिशा होगी । परंतु व्यवहार- मे यह पता लग सकता है कि ये मध्यवर्ती स्तर संपूर्ण रूपांतर- के लिये पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि, वे स्वयं मनकी ही ज्योतिर्मय संभाव्यताएं हैं, शब्दके पूरे अर्थमें अतिमानसिक नहीं, अतः वे मनमें केवल आशिक दिव्यता ही उतार ला सकते हैं या इसे उस दिव्यताकी ओर ऊपर उठा सकते हैं परंतु सत्य- चेतनाकी पूर्ण अतिमानसिकतामे ऊपर नहीं ले जा सकते । फिर भी ये स्तर आरोहणके सोपान या अवस्थाएं बन सकते है जिनतक कुछ लोग पहुंचेंगे और वहीं ठहर जायंगे, जब कि दूसरे और ऊपर चले जायंगे और अर्द्ध-दिव्य जीवनके श्रेष्ठ- तर स्तरपर पहुंच जायंगे ओर वहां निवास करेंगे । यह नहीं मान लेना चाहिये कि सारी मानवजाति एक साथ अतिमानसमें उठ जायेगी ।... .''
आज शाम मैं तुमसे ठीक इसी क्रमिक रूपांतरके बारेमें कुछ कहूंगी... प्रायः ही मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता है : जब हम एक आदर्श सिद्धान्तके तोरपर यह मानते है कि अपने शरीरके साथ व्यवहार करते हुए यह ज्ञान रहना चाहिये कि शरीर विश्वकी सर्वोच्च 'सद्वस्तु'का और हमारी सत्ताके सत्यका केवत्र एक परिणाम और यंत्र-भर है -- और इस बातको सीखा देने और स्पापुट कर देनेके बाद कि हमें इसी सत्यको साधना है, हमारे आश्रमके संगठनमें चिकित्सक और औषधालय क्यों है? सर्वत्र मान्य आधुनिक सिद्धान्तोंपर आधारित यह शारीरिक शिक्षण-पद्धति क्यों है? और जब तुम घूमनेके लिये बाहर जाते हों तो क्यों मैं तुमसे कहीं औरका पानी बिलकुल न पीने और फिल्टरका पानी साथ ले जानेके लिये कहती
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हू? ओर जो फल तुम्हें खानेके लिये दिये जाते है उन्हें मैं कीटाणु-नाशक घोलसे क्यों धुलवाती हू, आदि?
यह सब तुम्हें, परस्पर-विरोधी प्रतीत होता है । पर इस शाम मैं तुम्हें बहुत स्पष्टतासे ऐसी चीज समझा देना चाहती हू जो -- मैं आशा करती हू -- तुम्हारी इस विरोधी भावनाको समाप्त कर देगी । असलमें, मैं तुम्हें कई बार बता चुकी हू कि जब दो विचार य। सिद्धान्त परस्पर-विरोधी प्रतीत होते हों तो व्यक्तिको अपने विचारमें जरा ऊपर उठकर उस बिंदुको खोज निकालना चाहिये जहां ये विरोध एक व्यापक समन्वयमें मिल जाते है !
इस प्रसंगमें, समन्वय पाना बहुत आसान है यदि हम एक बातको ध्यानमें रखें कि अपने शरीरके साथ व्यवहार करनेके लिये, इसके पोषण एवं रक्षण- के लिये, इसके स्वास्थ्यको अच्छी दशामें बनाये रखने और उन्नत करनेके लिये जो पद्धति हमें बरतनी होती है वह पूरी तरह चेतनाकी उस अवस्था- पर निर्भर है जिसमे हम होते हुँ; क्योंकि हमारा शरीर हमारी चेतनाका ही एक यंत्र है और यह चेतना इसपर सीधा कार्य कर सकतीं है और इससे जो चाहे प्राप्त कर सकती है ।
अब यदि तुम साधारण भौतिक चेतनामें निवास करते हों, यदि तुम चीजोंको साधारण भौतिक चेतनाकी दृष्टिसे ही देरवते हैं।, साधारण भौतिक चेतनासे उनके बारेमें विचार करते हो तो अपने शरीरपर कार्य करनेके लिये तुम्हें साधारण भौतिक साधनोंका ही उपयोग करना पड़ेगा । ये भौतिक पद्धतियां एक पूरा-का-पूरा विज्ञान हैं जिसे मनुष्यने अपने अस्तित्वकी लंबी अवधिमें उपार्जित किया है । यह विज्ञान बहुत जटिल है, इसकी प्रक्रियाएं अनगिनत, पेचीदा और अनिश्चित है, प्राय. परस्पर-विरोधी, सदा प्रगतिशील और लगभग पूर्णतया सापेक्ष है! फिर भी इससे बहुत सुनिश्चित और यथार्थ -परिणाम प्राप्त हुए है । जबसे शारीरिक शिक्षगा एवं संवर्धन- की प्रवृत्तिने जोर पकड़ा है इस विषयमें बहुत-से (g२ाईक्षण, अध्ययन और निरीक्षण हुए है और उन्हें संकलित किया गया है जिनसे हम अपने भोजन, क्रिया-कलाप, व्यायाम आदिको एवं समस्त बाह्य जीबनको व्यवस्थित कर सकते है और जो इनका अध्ययन और दृढ़तासे पालन करना चाहते हू उन्हें अपने शरीरको स्वप्तावस्थामें बनाये रखेंने, यदि उसमें कोई दोष हों तो उन्हें सुधारने और इसकी सामान्य अवस्थाको समुत्रत करनेमें ये काफी सहायता करते है और कभी-कभी तो बहुत ही आश्चर्यजनक परिमाण प्राप्त करनेमें मी ।
इसके अतिरिक्त मैं यह भी कह सकतीं हूं कि यह बौद्धिक मानवी
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विज्ञान, जैसा कि यह आजकल है, सत्यको प्राप्त करनेके अपने सच्चे प्रयत्न- मे अधिकाधिक और आश्चर्यजनक रूपमें, आत्माके मु_ल सत्यके निकट आता जा रहा है । और ऐसी प्रवृत्तिको पहलेसे देख सकना असंभव नहीं है जिसमें ये दौनों मल सत्यके बहुत गहरे और बहुत घनिष्ठ ज्ञानमें एक हा जायेंगे ।
इस प्रकार, उन सभीके लिये जो भौतिक स्तरपर और भौतिक चेतनामें निवास करते है, अपने शरीरके साथ व्यवहार करते हुए_ भौतिक साधनों और प्रक्रियाओंका उपयोगमें लाना आवश्यक है । और चूकि अधिकतर लोग, यहांतक कि आश्रमवाले भी, एक ऐसी चेतनामें रहते है जो पूरी तरह भौतिक न सही पर मुख्यतः भौतिक ही है, ते। उनके लिये यहीं अधिक स्वा- भाविक है कि वे शरीरकी सुरक्षाके लिये भ1ऐतिक विज्ञानद्वारा बताये गये सिद्धल्तोका अनुसरण एवं पालन करें ।
अब, श्रीअरविंदका शिक्षाके अनुसार यह अंतिम प्राप्तव्य स्थिति नहीं है, ना ही यह वह आदर्श है जिसतक हम उठना चाहते है । इससे ऊंची एक अवस्था है जिसमें चेतना, अमी अपने. क्रिया-व्यवहारोंमें मुख्यतः या अंशत: मानसिक रहते हुए भी, आध्यात्मिक जीवनके लिये अपनी अभीप्सामें उच्च- तर क्षेत्रोंकी ओर पहलेसे खुली होती है और अतिमानसिक प्रभावके प्रति मी खुली होती है ।
चेतनाके इस प्रकार खुल जानेपर व्यक्ति उस अवस्थाके परे चला जाता है जिसमे जीवन विशुद्ध रूपसे भौतिक होता है (जब मैं ''भौतिक'' कहती हूं तो मैं उसमें समस्त मानसिक और बौद्धिक जीवनको और सभी मानव उपलब्धियोंको, यहांतक कि उच्च कोटिकी मानवीय उपलब्धियोंको मी सम्मिलित कर लेती हू, मैं उस भौतिक जीवनकी बात कर रही हूं जहां मानवीय क्षमताएं अपने शिखरपर है, उस पार्थिव एवं भौतिक जीवनकी जिसमें मनुप्य मानसिक और बौद्धिक दृष्टिसे उ५-च प्रकारकी प्राप्तियोंको अभिव्यक्त कर सकता है), व्यक्ति उस भौतिक अवस्थाको पार कर अतिमानसिक शक्तिकी ओर, जो इस समय पृथ्वीपर क्रियाशील है, खुल सकता है और उस मध्यवर्ती क्षेत्रमें प्रवेश कर सकता है जहां दोनों प्रभाव आपसमें मिलते और एक-दूसरेमें व्याप्त हो जाते है, अर्थात्, जहां चेतना अपने क्रिया-कलापों- मे मानसिक और बौद्धिक रहते हुए भी अतिमानसिक शक्ति और सामर्थ्यसे इतनी भरपूर होती है कि बह उच्चतर सत्यका यंत्र बन सकती है ।
वर्तमान समयमें पूर्वापर इस स्थितिको वे लोग प्राप्त कर सकते है जिन्होंने इस समय अभिव्यक्त होती हुई अतिमानसिक शक्तिको ग्रहण करने- के लिये अपने-आपको तैयार किया है । और उस अवस्थामें, चेतनाकी
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उस अवस्थामें, शरीर पहलेकी अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ इस स्थितिसे लाभ उठा सकता है । वह सत्ताके मूल सत्यके साथ इस हदतक सीधा संपर्क स्थापित कर सकता है कि वह सहज ही, हर क्षण अंतः प्रेरणा या अंतदष्टिसे यह जान लें कि क्या करना है और यह कि वह इसे कर सकता है ।
मैं कहती हू कि इस स्थितिको अब वे सभी प्राप्त कर सकते है जो अतिमानसिक शक्तिको ग्रहण करने, आत्मसात् करने और उसका आदेश माननेके लिये अपने-आपको तैयार करनेका कष्ट उठाते है ।
स्वभावत: इससे ऊंची एक स्थिति है, वह स्थिति जिसे श्रीअरविंद आदर्श- के रूपमें रखते हैं -- दिव्य शरीरमें दिव्य जीवन । लेकिन वे स्वयं कहते है कि इसमे समय लगेगा । यह पूर्ण रूपांतर है जो चुटकी बजाते ही नहीं सिद्ध हों सकता । वह बहुत अधिक समय लें सकता है । लेकिन जब वह हो जायेगा, जब चेतना अतिमानसिक चेतना बन जायेगी, तब क्षणक्षणपर मानसिक पसंद कार्र्योका निश्चय नही करेगी, न काम शारीरिक योग्यताके अधीन होगा । सारा शरीर ही सहज और पूर्ण रूपमें आन्तरिक सत्यकी पूर्ण अमिउयक्ति होगा ।
यही वह आदर्श है जिसे सामने रखना चाहिये और जिसकी उपलब्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये । परन्तु तुम्हें यह भ्रम नहीं होना चाहिये और यह नही सोचना चाहिये कि यह द्रुत और चामत्कारिक रूपमें होनेवाला रूपांतर होगा, जो तुरत-फुरत, अद्भुत रूपमें, अनायास और बिना काम किये हो जायेगा ।
तथापि अब यह एक सभावनामात्र नहीं है, अब यह सुदूर भविष्यके लिये केवल प्रतिज्ञा भी नहीं है, यह तो एक ऐसी चीज है जो चरितार्थ की जा रही है । और तुम पहलेसे ही न केवल पूर्वज्ञानद्वारा, बल्कि अनुभ्तिद्वारा भी उस मुहूर्त्तको देख सकते हों जब शरीर सत्ताके सर्वाधिक आध्यात्मिक भागके अनुभवको सर्वनाश दोहरा सकेगा जैसे आंतरिक आत्मा पहले कर चुकी है । शरीर अपनी दैहिक चेतनामें' परम सद्वस्तुके सामने खड़ा हों सकेगा, उधर समग्र रूपमें मुड सकेगा ओर अपने सभी कोषोंके संपूर्ण आत्म- दान और पूर्ण सचाईके साथ कह सकेगा. ''मैं 'तू' बन जाऊ - अनन्य भावसे, पूर्ण भावसे -- 'तु' बन जाऊं, असीम रूपमें, सनातन रूपमें... बिलकुल सहज रूपमें ।''
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५ जून, १९५७
कोई प्रश्न है? नहीं?
मधुर मां, क्या हमें ऐसे प्रश्न पूछने चाहिये जो सहज रूपसे नहीं आते?
''जो प्रश्न सहज रूपसे नहीं आता''से तुम क्या समझते हो?
क्योंकि सामान्यतः, कक्षामें ऐसा बहुत बार होता है कि हम यह महसूस करते है कि यदि हम कुछ पूछेंगे नहीं तो आप हमें कुछ न बतायेंगे, अतः हम सोचते हैं, फिर-फिर सोचते हैं, क्योंकि हमें कोई प्रश्न तो पूछना ही चाहिये!
यह इसपर निर्भर है कि तुम कौन-सा प्रश्न खोज पाते हो! यदि प्रश्न रोचक है... तुमने उसे खोजनेके लिये प्रयास किया है, इसका मतलब यह नहीं कि वह आवश्यक रूपसे खराब ही है ।
क्या तुम्हारे पास ऐसा कोई प्रश्न है?
तो...
वस्तुत: श्रीअरविदने जो कुछ लिखा है व्यक्ति उस सबको ध्यानसे पढ जाय तो उसे अपने सब प्रश्नोंके उत्तर मिल जायेंगे । परन्तु कुछ ऐसे क्षण होते है और विचारोंको प्रस्तुत करनेके कुछ ऐसे ढंग होते है जो चेतना- को गहरे रूपमें प्रभावित करते हैं और आध्यात्मिक प्रगति करनेमें सहायक होते है । पर प्रस्तुत विचारके'; प्रभावशाली होनेके लिये जरूरी है कि वह तात्कालिक अनुभवकी एक सहज-स्फ्र्त अभिव्यक्ति हो । जो चीजों पहले कही जा चुकी है उन्हें, यदि उसी ढंगसे दोहरा दिया जाय तो चूंकि वे चीजों भूतकालके अनुभव है, वह कथन एक प्रकारकी शिक्षाका रूप ले लेता है
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जिसे उपदेशात्मक कथोपकथन कहा जा सकता है, वह मस्तिष्कके कुछ कोषोंको तो सक्रिय कर देता है पर वस्तुत: बहुत उपयोगी नहीं होता ।
मेरे लिये, जो कार्य मैं करनेका प्रयत्न कर रही हू उसके लिये, नीरवता- मे किया गया कार्य सदा ही बहुत अधिक महत्चपूर्ण होता है... । उस अवस्थामें, जो शक्ति कार्य करती है वह शब्दोंद्वारा बंधी नहीं होती, इससे उसे अनतगुना बल प्राप्त हों जाता है और साथ ही वह प्रत्येक चेतनामें उसी चेतनाके ढंगके अनुरूप अभिव्यक्त होती है, इससे वह असीम रूपमें अधिक प्रभावकारी हों जाती है । नीरवतामे जब कोई स्पन्दन किसी विशेष उद्देश्य या किसी सुनिश्चित परिणामकी प्राप्तिके लिये दिया जाता है तो वह प्रत्येक व्यक्तिके मनकी ग्रहणशीलताके अनुसार उसकी चेतनामें ठीक ऐसा रूप लेता है जो उसके लिये अत्यधिक प्रभावकारी, सक्रिय एवं तात्कालिक रूपमें अत्य- धिक उपयोगी हो सकता है । उधर जब उसे शब्दोंका रूप दे दिया जाता है तो हरेकको उसे एक सुनिश्चित रूपमें, उन शब्दोंके सुनिश्चित अर्थमें ग्रहण करना होता है जिनमें उसे प्रकट किया गया है, -- इसमें उसकी कर्मसंबन्धी बहुत बड़ी शक्ति और समृद्धता खो जाती है, क्योंकि पहले तो शब्दोंको ठीक उसी रूपमें समझा नहीं जाता जो उनसे अभिप्रेत होता है; दूसरे, उन्हें सदा व्यक्तिकी समझनेकी योग्यताके अनुसार नहीं कहा जाता ।
अतः जबतक प्रश्न ऐसा न हो जो तुरत किसी ऐसी अनुभूतिको उत्पन्न करनेवाला हों जिसे नये सूत्रमें अभिव्यक्त किया जा सकें तबतक मेरे विचार- मे सदा यही अच्छा है कि चुप रहा जाय । और केवल सजीव प्रश्न ही ऐसी अनुभूति करा सकता है जो जीवंत शिक्षाका सुअवसर बन सकें । और प्रश्न सजीव हो इसके लिये जरूरी है कि वह प्रगतिकी आंतरिक आवश्यकताको प्रतिध्वनित करता हो, उस सहज-स्वाभाविक आवश्यकताको प्रतिध्वनित करता हो जो किसी एक या दूसरे स्तरपर, सामान्यत: मानसिक स्तरपर, प्रगति करनेकी होती है, परंतु यदि कदाचित् वह किसी आंतरिक अभीप्साको, किसी समस्याको जो सामने है और जिसे वह सुलझाना चाहता है, प्रतिध्वनित करता हों तो वह बहुत रोचक, सजीव और उपयोगी बन जाता है । वह किसी अंतर्दृष्टि, किसी उच्चस्तरीय बोध या चेतनामें किसी ऐसी अनुभूतिकी ओर लें जा सकता है जो सूत्रको नया रूप दे दे ताकि वह उपलब्धिके लिये नयी शक्तिसे भर उठे ।
ऐसे प्रसंगोंको छोड़कर मैं सदा यही अनुभव करती हू कि यह कही अधिक अच्छा है कि कुछ न कहा जाय और यह कि पुछ मिनटका ध्यान सदा ही अधिक उपयोगी होता है ।
कक्षाके शुरूमें मैं जो वाचन करती हू वह विचारकों एक दिशा, एक
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मोड प्रदान करने, ओर उसे किसी विशेष समस्या या विचार-समुहपर स्थित करनेके लिये होता है या समझकी नयी संभावनाके लिये होता है जो वाचन- से आती है । वस्तुत: यह वाचनके बाद नीरवतामें किये जानेवाले घ्यानके लिये एक विषय जैसा बन जाता है ।
बोलनेकी खातिर बोलना बिलकुल रोचक नहीं होता । इसके लिये विद्यालय है, यहां नही ।
पर, मधुर मां, जब आप बोलती हैं तो और चीज होती
(दूसरा बालक) मां, जब आप कुछ कहती हैं तो हम उसे मनसे समझनेकी कोशिश करते हैं, पर जब आप नीरवतामें कुछ देती है तो हमें सत्ताके किस भागपर एकाग्र होना चाहिये?
घ्यानके लिये सदा ही यह अधिक अच्छा है, -- समझ रहे हो न? हम यहा ''ध्यान'' शब्दका प्रयोग तो कर रहे है पर इसका मतलब ''सिरमें विचारोंकी क्रियाशीलता'' नहीं है, बल्कि ठीक इससे विपरीत है -- तो ध्यानके लिये सदा ही यह अधिक अच्छा है कि उसे एक केंद्रपर एकाग्र किया जाय, उस केंद्रपर जिसे अभीप्साका केंद्र कहा जा सकता है, जहां अभीप्साकी लौ जलती रहती है, उस सौर-चक्रके केंद्रपर अपनी सब शक्तियोंको एकत्र कर लिया जाय, और यदि संभव हों तो, एक ऐसी सजग नीरवताकी स्थिति प्राप्त कर ली जाय जिसमें व्यक्ति मानों किसी अत्यधिक सूक्ष्म चीजको सुननेका प्रयास कर रहा हों, किसी ऐसी चीजको जो उसकी पूर्ण सजगता, पूर्ण एकाग्रता ओर संपूर्ण नीरवताकी अपेक्षा रखती हो, और फिर बिलकुल भी क्रियाशील न हुआ जाय । सोचे या क्रियाशील हुए बिना अपने-आप- को इतना खोल देना कि जो कुछ ग्रहण किया जा सकता हो वह सब ग्रहण कर लिया जाय, पर इसकी पूरी सावधानी रखते हुए कि जो वस्तु उस समय हों रही है उसे समझनेकी कोशिश भी न की जाय, क्योंकि यदि व्यक्ति उसे जानना, यहांतक कि ध्यानसे देखना भी चाहता है तो उसमें एक प्रकारकी मस्तिष्ककी क्रिया बनी रहती है जो ग्रहणशीलताकी पूर्णताके अनुकूल नहीं होती -- नीरव रहना, सजग एकाग्रतामें जितना संभव है
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उतने समग्र रूपमें नीरव रहना और फिर निश्चल हो जाना ।
यदि व्यक्ति इसमें सफल हो जाय तो सब समाप्त होनेपर, जब वह ध्यानसे बाहर आता है तो कुछ देर बाद ( सामान्यत: तुरत नहीं), सत्ताके अंदरसे चेतनामें कुछ नयी चीज प्रकट होती है. एक नयी बोध-शक्ति, वस्तुओं- का एक नया मूल्यांकन, जीवनमें एक नयी वृत्ति -- संक्षेपमें, जीवनका एक नया ढंग प्रकट होता है । यह सब क्षणिक हो सकता है, परंतु उस क्षण- मे, यदि व्यक्ति इधर ध्यान दे तो उसे पता चलता है कि कोई चीज है जो बोध-शक्ति या रूपांतरके मार्गपर एक कदम आगे बढ़ गयी है । यह एक ज्ञानालोक हो सकता है, एक ऐसी बोधशक्ति हो सकती है जो अधिक क्यफची हो या सत्यके अधिक निकट हों या एक रूपांतरकारी शक्ति हो सकती है जो तुम्हें आंतरिक प्रगति करने मे या चेतना को विस्तारित करनेमें या अपनी गतियों एवं क्रियाओंपर प्रभुत्वकी वृद्धिमें सहायता पहुंचाती है ।
पर ये परिणाम कमी तात्कालिक नहीं होते । क्योंकि यदि व्यक्ति उन्हें, उसी समय देखनेकी कोशिश करे तो वह एक ऐसी सक्रिय अवस्थामें रहता है जो सच्ची ग्रहणशीलताकी विरोधी है । व्यक्तिको उस समय जितना संभव हो उतना तटस्थ, निश्चल और निष्क्रिय रहना चाहिये, पृष्ठ-भूमिमें नीरव अभीप्सा अवश्य रहनी चाहिये पर वह शब्दों, विचारों यहांतक कि भावनाके रूपमें भी रूपायित नहीं होनी चाहिये । उसे एक ऐसी वस्तु होना चाहिये जो तीव्र स्पन्दनके रूपमें इस प्रकार ऊपर उठती है ( ऊपर उठती लौकी तरहका संकेत), पर जो कोई रूप धारण नहीं करती तौर सबसे बढ़कर, जो समझनेका कोई प्रयास नहीं करती ।
थोड़े अम्यासके बाद व्यक्ति ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेता है कि जब चाहे, कुछ क्षणोंमें ही, इस स्थितिमें आ जाय, अर्थात्, तब वह ध्यानमें कोई समय नहीं खोता । शुरूमें, स्वभावत: व्यक्तिको धीरे -धीरे मनको शांत करना, चेतनाको एकत्रित और एकाग्र करना होता है, इस प्रकार तीन- चौथाई समय वह तैयारीमें बे देता है । परन्तु जब व्यक्ति अभ्यास कर लेता है तो वह दो-तीन क्षणोंमें ही इसे प्राप्त कर लेता है और तब उसे ग्रहण करनेके लिये सारे समयका लाभ मिल जाती है ।
स्वभावत: इससे और आगेकी तथा अधिक पूर्ण अवस्थाएं भी है पर वे बादमें प्राप्त होती हैं । परन्तु यदि तुम कम-से-कम इस अवस्थाको पा लो तो ध्यानका पूरा लाभ उठा सकते हों ।
अब हम प्रयत्न करते है ।
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१२ जून, १९५७
''वास्तवमें यह संभव ह कि बहुत लंबे समयतक उपवास करते हुए भी अंतरात्मा, मन और प्राणकी, यहांतक कि शरीरकी भी शक्तियों और क्रियाओंको बनाये रखा जाय, या गहन और दिन-रात लेखन-कार्यमें रत रहा जाय, बिलकुल भी सोया न जाय, दिनमें आठ-आठ घंटे टहला जाय, इन सब क्यिाओंको अलग-अलग या एक साथ जारी रखा जाय और फिर भी शक्तिकी कोई कमी, कोई थकान, किसी प्रकारकी कमजोरी या हास महसूस न हो । उपवासकी समाप्तिपर व्यक्ति तुरत अपनी सामान्य खुराकसे शुरू कर सकता है, यहांतक कि चिकित्सा-शास्त्रकी बतायी हुई बीचकी सावधानी- के बिना सामान्यसे अधिक खुराक ले सकता है । मानों ये दोनों अवस्थाएं, पूर्ण उपवास और भरपूर भोजन, उस शरीरके लिये, जिसने एक प्रकारके प्रारंभिक रूपांतरके द्वारा योगकी शक्तियों और क्रियाओंका यंत्र होना सीख लिया हो, ऐसी स्वा- भाविक अवस्थाएं हों कि अदल-बदलकर एकसे दूसरीमें तुरत और आसानीसे जाया जा सकता है । परंतु एक चीजसे मनुष्य नहीं बच पाता, और वह है शरीरके स्थूल तंतुओंका, उसके मांस और जड-पदार्थका हास । विचार-दृष्टिसे ऐसा लगता है कि बस इसका कोई क्रियात्मक तरीका और साधन हाथ आ जाय तो यह अंतिम अजेय बाधा भी पार की जा सकती है और शरीरकी शक्तियोंका स्थूल प्रकृतिकी शक्तियोंके साथ आदान-प्रदान करके अर्थात्, ब्यक्तिसे प्रकृतिको उसको आवश्यकता देकर और उसके वैश्व भावसे उसकी पोषक शक्तियोंको सीधा लेकर शरीरको वशमें रखा जा सकता है । विचार-दृष्टिसे ऐसा भी लगता है कि अपने पोषण और नवीकरणके साधनोंको अपने परिपार्श्वसे जुटानेकी जिस क्षमताको हम जीवन-विकासके मूलमें देखते है, उसी क्षमताको व्यक्ति इस विकासके शिखरपर पहुंचकर फिरसे खोज सकता और प्रस्थापित कर सकता है, या नहीं तो विकासको पहुंचा हुआ वह व्यक्ति ऐसी महत्तर शक्ति भी प्राप्त कर सकता है कि
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वह उन साधनोंको नीचेसे या परिपार्श्वसे ग्रहण करनेके बदले ऊपरसे ग्रहण कर ले ।',
श्रीअरविदने लंबे उपवासमें भी अपनी सभी क्रियाओंको बनाये रखनेकी जिस संभावनाके यहां उल्लेख किया है वह उनके अपने ही अनुभवका वर्णन है!
वह एक संभावनाकी बात नहीं कर रहे, वरन् एक ऐसी बात कह रहे हैं जिसे उन्होंनें स्वयं किया है । पर यह मोचना एक भरिा भूल होगी कि इस अनुभवके बाह्य रूपकी नकल की जा सकती है । संकल्प-शक्तिके जोरसे यदि व्यक्ति इसमें सफल हों भी जाय तो भी वह अनुभव आध्या- त्मिक दृष्टिसे पूर्णतया असफल रहेगा जबतक कि उससे पहले चेतनामें ही परिवर्तन न हो जाय, और यह प्राथमिक मुक्ति होगी ।
भोजनका त्याग करने-भरसे तुम आध्यात्मिक उन्नति नही कर सकते । तुम केवल स्वतंत्र होकर ही ऐसा कर सकते हो, न केवल भोजनके प्रति समस्त आसक्ति, इच्छा ओर चितनसे बल्कि समस्त आवश्यकतासे भी मुक्त होकर, अर्थात्, ऐसी अवस्थामें पहुंचकर जहां ये चीजे तुम्हारी चेतनाके लिये इतनी परायी हो जाती है कि इनके लिये वहां कोई स्थान ही नही रहता । उस अवस्थामें ही व्यक्ति एक सहज और स्वाभाविक परिणामके तोरपर, उपयोगी रूपमें, रवाना छोड़ सकता है । कहा जा सकता है कि इसकी अनिवार्य शर्त है रवाना ही भूल जाना -- इसलिये भूल जाना क्योंकि सत्ताकी समस्त शक्तियां और समस्त एकाग्रता एक अधिक संपूर्ण और अधिक सच्ची आंतरिक उपलव्धिपर लगी होती है, उस सतत अत्यावश्यक तन्मयता- मे लगी होती है कि सारी सत्ताका, शरीरके कोषोंतकका भी, दिव्य शक्तियों- के साथ मिलन स्थापित हा जाय, ताकि यही सच्चा जीवन हों, न केवल यह जीवनके अस्तित्वका हेतु हों बल्कि जीवनका सार यही हो, न केवल यह जीवनकी एक अनिवार्य आवश्यकता हों, बल्कि जीवनका समस्त आनन्द ओर इसके अस्तित्वका समस्त हेतु भी यही हा ।
जब ऐसी अवस्था आ जाती है, जब यह उपलब्धि प्राप्त हों जाती है तो रवाना, न खाना, सोना, न सोना इस सबका कुछ महत्व नही रहता । यह एक बाह्य 'लय' होती है जो उन वैश्व शक्तियोकी क्रीडापर छोड़ दी जाती है जो तुम्हारे चारों ओरकी परिस्थितियों और मनुप्योंद्वारा अपने- आपको अभिव्यक्त करती है, और तब शरीर, आंतरिक सत्यके साग संपूर्णत एक होनेके कारण नमनीय तथा सतत अनुक्लताकी क्षमता लिये होता है ।
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यदि भोजन हों तो रवा लेता है, न हों तो उस बारेमें सोचता मी नहीं । अगर नींद आये तो सों लेता है, वरना सोचता मी नहीं और यही बात दूसरी सब चीजोंके साथ होती है... । जीवन यह सब नही है! ये जीवनके, बस, ढंग है । मनुष्य बिना सोचे-विचारे अपने-आपको इनके अनु- कूल बना लेता है । यह खिलनेकी-सी भावना प्रदान करता है, जैसे पौधे- पर एक फल खिलता है; यह एक ऐसी क्रिया है जो संकल्प-शक्तिके जोर- से नही होती, फिर भी परिपार्श्वकी शक्तियोंके साथ पूरी तरह सुसमंजस होती है । जीवनका ढंग भी ऐसा हों जाता है कि वह प्राप्त परिस्थिति- के साथ पूरी अनुहार_?_लतामे होता है पर वे चीज़ें अपने-आपमें उसके लिये कुछ महत्व नही. रखती ।
फिर एक ऐसा समय आता है जब, सब चीजोंसे मुक्त होनेके कारण, व्यक्तिको क्रियात्मक रूपसे किसी चीजकी जरूरत नहीं होती । वह हर चीजका उपयोग कर सकता है, सब कर्म कर सकता है पर उसकी चेतना- पर इनका कोई वास्तविक प्रभाव नही पड़ता । सचमुच इसी स्थितिका महत्व है । बाह्य रूपोंका या उच्चतर जीवनकी अभीप्सा करनेवाली मान- सिक चेतनाके मनमाने निश्चयोंका अनुसरण करना एक साधन हों सकता है पर वह विशेष प्रभावकारी नहीं होता, फिर भी व्यक्तिको एक तरहसे याद दिनेश सकता है कि जीवन अपनी पशुतामें अभी जैसा है उससे भिन्न होना चाहिये -- परन्तु यह वह (अभीप्सित) चीज नहीं है, वह चीज बिल- कुल भी नहीं है । जो व्यक्ति अपनी आंतरिक अभीप्सामें पूरी तरह तल्लीन है, इस हदतक कि वह इन बाह्य चीजोंके बारेमें कुछ सोचता ही नहीं, इनकी कुछ परवाह नही करता, जो आ जाय उसे स्वीकार कर लेता है और न आये तो उधर ध्यान भी नहीं देता, ऐसा न्यक्ति उस व्यक्तिसे मार्गपर कहीं अधिक आगे बन्द हुआ होता है जो कठोर तापस नियमोंको अपनानेके लिये अपनेको इस भावसे बाध्य करता है कि ये उसे उपलब्धिकी ओर लें जायेंगे ।
एकमात्र चीज जो सचमुच प्रभावकारी है वह है चेतनाका परिवर्तन, अतिमानसिक शक्तियोंके स्पन्दनके साथ घनिष्ठ, सतत, पूर्ण एवं अपरिहार्य रूपमें एकत्व पा लेनेके द्वारा मिलनेवाली आंतरिक मुक्ति, उधर ही प्रति- क्षणकी व्यस्तता, सत्ताके सभी तत्त्वोंके- संकल्प, संपूर्ण सताकी, शरीरके सभी कोषोतककी भी, अभीप्सा -- यह है अतिमानसिक शक्तियों व दिव्य शक्तियों- के साथ मिलन । और तब इस ओर ध्यान देनेकी कोई जरूरत नहीं रह जाती कि परिणाम क्या होंगे । वैश्व शक्तियोंकी क्रीड़ा और अभि- ब्यक्तिमें जो होना है वह बिलकुल स्वाभाविक और सहज रूपमें स्वतः ही
होगा, इस ओर अपना मन लगानेकी जरूरत नहीं रहती । एकमात्र चीज जिसका महत्व होता है वह है 'शक्ति', 'ज्योति', 'सत्य', 'बल' और अति- मानसिक चेतनाके अवर्णनीय आनन्दके साथ सतत, सर्वांगीण और पूर्ण संपर्क -- सतत, हां, सतत संपर्क ।
यह है सच्चाई । बाकी सब तो नकल है, एक प्रहमन-सा है जिसे मनुष्य अपने-आपसे खेलता है ।
पूर्ण पवित्रताका अर्थ है होना, निरन्तर अधिकाधिक पूर्ण संभूतिके अंदर 'होना' । व्यक्तिको कभी दावा नही करना चाहिये कि वह ऐसा है : उसे सहज-स्वाभाविक रूपमें वैसा होना चाहिये ।
इसीका नाम सच्चाई है ।
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१९ जून, १९५७
मधुर मां, जब कोई व्यक्ति सख्त बीमार हो जाता है तो यह विशुद्ध भौतिक घटना होती है या उसके आध्यात्मिक जीवनकी कठिनाई?
यह निर्भर करता है व्यक्तिपर! यदि वह व्यक्ति योग कर रहा हो तो स्पष्ट ही यह उसके आध्यात्मिक जीवनकी एक कठिनाई होती है । यदि उस ब्यक्तिका योगसे कुछ भी संबंध न हो और वह साधारण प्रकारका जीवन व्यतीत कर रहा हो ते। यह एक साधारण दुर्घटना होती है । यह पूरी तरह ब्यक्तिपर निर्भर है । बाह्य घटना एक जैसी हो सकती है परन्तु आंतरिक कारण बिलकुल भिन्न होते है । कोई भी दो बीमारियां ठीक एक जैसी नहीं होतीं, यद्यपि बीमारियोंपर नामके परचे लगा दिये गये है और उनके श्रेणीकरणका प्रयत्न किया गया है, पर वास्तविक बात यह है कि हर कोई अपने ढंगसे बीमार पड़ता है और उसका ढंग इसपर निर्भर है कि वह क्या है, उसकी चेतनाकी स्थिति क्या है और वह कैसा जीवन व्यतीत करता है ।
हम बहुत बार कह चुके है कि रोग हमेशा सतुलन-भंगका परिणाम होते हैं । परन्तु यह संतुलन-भंग सत्ताकी बिलकुल विभिन्न अवस्थाओंमें हो सकता है। एक साधारण आदमीके लिये, जिसकी चेतना बाह्य भौतिक जीवनमें
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केंद्रित हैं, यह विशुद्ध रूपसे भौतिक संतुलनका, उसके विभिन्न अवयवोंकी क्रियामें संतुलनका, भंग होता है । परन्तु जब इस विशुद्ध ऊपरी जीवनके पीछे आंतरिक जीवनका निर्माण होता है तो रोगके कारण बदल जाते हैं । वे सदा ही सत्ताके विभिन्न भागोंके बीच संतुलनका प्रकट करते है : व्यक्ति- की आंतरिक प्रगति या आंतरिक प्रयत्न ओर उसके जीवनकी, शरीरकी बाह्य स्थिति या प्रतिरोधक बीच असंतुलनको प्रकट करते हैं;
यहांतक कि सामान्य बाह्य दृष्टिसे मी, बहुत लंबे समयसे लोग इसे जानते है कि तात्कालिक नैतिक कारणोंसे होनेवाली प्राणमें प्रतिरोधकी कमी ही सदा बीमारीका मूल कारण होती है । जब व्यक्ति एक सामान्य संतुलनकी अवस्थामें होता है और सामान्य शारीरिक समस्वरताकी अवस्थामें रहता है तो शरीरमें प्रतिरोधकी अपनी शक्ति होती है, बीमारियोंके प्रतिरोधका एक यथेष्ट वातावरण उसके अंदर होता है : उसका अत्यधिक भौतिक तत्व ऐसे सूक्ष्म स्पन्दन भेजता है जिनमे रोगोंका, यहांतक कि संक्रामक कहलानेवाले रोगोंका भी सामना करनेकी शक्ति होती है (वस्तुत: सभी स्पंदन संक्रामक होते है, फिर भी कुछ रोग विशेष रूपसे संक्रामक माने जाते है) । हां तो, विशुद्ध बाह्य दृष्टिसे भी यदि कोई व्यक्ति ऐसी अवस्थामें हो कि उसके अंगोंकी क्रियाएं समस्वर हों और उसमें यथेष्ट नैतिक संतुलन हों तो उसके साथ ही उसमें प्रतिरोधकी सभी ऐसी शक्ति होती है कि छूतकी बीमारी उसे छू नहीं सकती । परन्तु यदि किसी-न-किसी कारण वह अपना संतुलन खो बैठे या उदाहरणार्थ किसी अवसाद, असंतोष, नैतिक कठिनाई या अत्यधिक थकानके कारण कमजोर पडू जाय तो शरीरकी सामल्य प्रतिरोध हाक्ति कम हो जाती है और वह रोगके प्रति खुल जाता है । परन्तु यदि हम उस व्यक्तिका विचार करे जो योग कर रहा है तो बात ?? अलग हो जाती है, इन अर्थोंमें कि तब असंतुलनको कारण दूसरे प्रकारके होते है और बीमारी सामान्यत: किसी ऐसी आंतरिक कठिनाईको प्रकट करती है जिसे जीतना है ।
तो प्रत्येकको अपने-आप ढूंढना होगा कि वह बीमार क्यों है ।
सामान्य दृष्टिकोणसे, अधिकतर लोगोंमें प्राय. भय -- यह मानसिक या प्राणिक भय हो सकता है, पर प्रायः सदा ही यह शारीरिक भय, कोषाणु- गत भय -- होता है जो सब प्रकारकी छूतकी बीमारियोंके प्रति द्वार खोल देता है । मानसिक भयको वे सब व्यक्ति हटा सकते है जिनमें थोड़ा आत्म- संयम और मानवोचित गौरव हो । प्राणिक भय अधिक सूक्ष्म होता है और अधिक बड़े संयमकी मांग करता है । और जहांतक शारीरिक भयकी बात है उसपर विजय पानेके लिये तो सच्चे योगकी आवश्यकता पड़ती है,
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कारण, शरीरके कोषाणु सभी अप्रिय एवं कष्टकारी वस्तुओंसे डरते है और ज्यों ही कुछ बेचैनी हुई, चाहे वह बहुत मामूली-सी हो, वे चिंताकुल हो उठते है, वे आरम्में जरा भी बाधा पसंद नहीं करते । तो उनपर विजय पानेके लिये ब्यक्तिका चेतन संकल्पपर प्रभुत्व जरूरी है । सामान्यत: इस प्रकारका भय ही बीमारियोंके. लिये द्वार खोल देता है । मैं पहले दो भैयों (मानसिक और प्राणिक भयों) की बात नहीं करती, उनपर तो, जैसा कि मैंने कहा, किसी भी मनुष्यको जो इस शब्दके श्रेष्ठतम अर्थमें मनुष्य होना चाहता है विजय पा लेनी चाहिये क्योंकि वह (भय) एक कायरता है । पर शारीरिक भयको जीतना अधिक कठिन है, इसके न रहनेपर तो अत्यंत प्रबल आक्रमणोंको भी हटाया जा सकता है । यदि व्यक्तिका अपने शरीर- पर थोड़ा भी नियंत्रण हों तो वह रोगके प्रभावोंको कम कर सकता है पर वह निरापदता नहीं है । शरीरके कोषाणु स्थूल भौतिक भयके कारण सिहर उठते हैं, यही चीज बीमारियोंको बढ़ा देती है ।
कई ऐसे व्यक्ति होते है जो स्वाभाविक रूपसे नहीं डरते, शरीरमें भी नहीं; उनमें यथेष्ट प्राणिक संतुलन होता है, इससे वे भय नहीं खाते, डरते नहीं, उनके शारीरिक जीवनके लय-तालमें एक स्वाभाविक समस्वरता होती है जिससे वे सहज हीं बीमारी को बहुत हलका कर लेते हैं । इसके विपरीत, दूसरे कई ऐसे होते है जिनके लिये बीमारी बुरे-सें-बुरा रूप ले लेती है, यहांतक कि कमी-कभी तो विनाशकारी स्थितितक पहुंच जाती है । यहां एक पूरा सोपान-क्रम है जिसे आसानीसे देखा जा सकता है । हां, यह उनके जीवनका गतिके एक प्रकारके सुखकर लय तालपर निर्भर होता है जो या तो इतना यथेष्ट मात्रामें समस्वर होता है कि वह रोगके बाह्य आक्रमणोंका प्रतिरोध कर सकता है, या फिर होता ही नहीं, अथवा पर्याप्त सशक्त नहीं होता और उसका स्थान भयकी सिहरन, एक प्रकारकी सहजात आशंका ले लेती है जो जरा-सें भी अप्रिय संपर्कको किसी कष्टदायक और बुरी चीजमें बदल डालती है । ता यह एक पूरा सोपान-क्रम है, उस व्यक्ति- से लेकर जो गभीर संक्रामक रोगों और महामारियोंसे मी अछूता निकल जाता है, उस व्यक्तितक जो जरा-सी बातसे बीमार पडू जाता है । अतः स्वाभाविक रूपसे यह हर व्यक्तिके गठनपर निर्भर है । और जैसे ही वह प्रगतिके लिये प्रयत्न करना चाहता है यह स्वभावत. उसके अर्जित आत्म-प्रभुत्वपर निर्भर करता है -- जबतक कि शरीर उन्चतर 'इच्छा-शक्ति'- का आशा माननेवाले यंत्र नहीं बन जाता और इससे समस्त आक्रमणोंके लिये एक सामान्य निवारण शक्ति नहीं पा लेता ।
परन्तु जब व्यक्ति भयको। निकाल सकता है तो वह लगभग सुरक्षित हो
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जाता है । उदाहरणार्थ, महामारियां या तथाकथित महामारियां - जैसी कि आजकल फैली हुई हैं -- निन्यानवे प्रतिशत भयसे आती हैं, यह भय तब एक बहुत ही गंदे मानसिक भयका रूप ले लेता है, और इसे पैदा करनेवाली चीजों है अखबारोंकी खबरें, व्यर्थके बातें और न जानें क्या- क्या ।
मां, दवाइयोंकी उस शरीरके लिये क्या उपयोगिता है जो पूरा अचेतन नहीं है? क्योंकि जब हम भागवत कृपाको उतारनेकी चेष्टा करते हैं तब भी देरवते है कि थोडी-सी दवाकी जरूरत है, यदि दवा दी जाती है तो वह लाभ करती है । क्या इसका अर्थ यह है कि केवल शरीरको दवाकी आवश्यकता है या यह कि मन-प्राणमें कहीं कोई दोष है?
अधिकतर प्रसंगोंमें दवाका उपयोग (जब उसे उचित मात्रामें लिया जाता है, अर्थात् व्यक्ति उससे अपने-आपको विषाक्त नहीं करता) बस, इतना ही है कि वह शरीरमें आत्म-विश्वास पैदा करनेमें सहायता पहुंचाती है । शरीर ही अपने-आपको नीरोग करता है । जब यह अच्छा होना चाहता है तो अच्छा हो जाता है । और इस बातको अब काफी बड़ी संख्यामें लोग मानने लगे है, यहांतक कि बहुत-से परंपरावादी डाक्टर भी कहते है : ''हां, हमारी दवाइयों सहायता करती है, पर दवाइयां नीरोग नहीं करती, शरीर ही नीरोग होनेका निश्चय करता है ।', ठीक है, जब शरीरसे कहा जाता है ''यह लो'' तो यह अपने-आपसे कहता है, ''अब मैं अच्छा हो जाऊंगा'' और जब यह कहता है कि ''मै नीरोग हों रहा हू'' तो हा, यह नीरोग हो जाता है!
लगभग सभी रोगोंके लिये ऐसी चीज़ें है जो सहायता करती हैं -- थोडी-सी -- बशर्ते कि उनका उपयोग उचित मात्रामें किया जाय । यदि उचित रूपमें न किया गया तो निश्चय रखो कि तुम पूरी तरह टूट जाओगे । तुम एक चीजका इलाज करोगे और दूसरीके शिकार हों जाओगे जो साधारणतया उससे भी बुरी होगी । पर फिर भी, यह थोडी-सी सहायता, बस, थोडी-सी कोई चीज जो तुम्हारे शरीरको यह विश्वास दिला दे : ''अब ठीक होगा, अब चूंकि मैंने यह लें ली है इसलिये निश्चय ही सब कुछ बिलकुल ठीक हो जायगा,'' शरीरको बहुत सहायता पहुंचाती है और यह अच्छा होनेका निश्चय कर लेता है ओर अच्छा हों जाता है ।
यहां भी संभावनाओंका एक पूरा ''सरगम'' है उस योगीसे लेकर जो
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आंतरिक संयमकी ऐसी पूर्ण अवस्थामें होता है कि विष खाकर भी उससे विषाक्त नहीं होता, उस व्यक्तितक जो जरा-सी खरोंच लगनेपर डाक्टर- के पास भागा जाता है और जिसे सब प्रकारकी विशेष दवाइयोंकी जरूरत होती है ताकि शरीर स्वस्थ होनेके लिये उपयुक्त क्रिया कर सकें । यह एक पूरा ''सरगम'' है, जिसमें सभी संभव उदाहरण है, सर्वांगीण एवं उच्च- तम आत्म-प्रभुत्वसे लेकर समस्त बाह्य सहौषधियों और बाहरसे सेवन की जानेवाली चीजोंकी दासतातक -- दासता और पूर्ण स्वतंत्रता । यह एक पूरा क्रम-सोपान है । सभी कुछ संभव है । यह बाह्य स्वरोंके एक बहुत बड़े पदके समान है, जो अत्यधिक जटिल, पर अत्यधिक पूर्ण है, जिसे तुम बजा सकते हो और शरीर वाद्य-यंत्र है ।
मां, क्या व्यक्ति मानसिक प्रयत्नके द्वारा (उदाहरणार्थ, बीमार पडनेपर दवा न लेनेके संकल्पके द्वारा) शरीरको समझनेमें सफल हो सकता है?
इतना काफी नहीं है । मानसिक संकल्प काफी नहीं है, बिलकुल नहीं । तुम्हारे शरीरमें ऐसी सूक्ष्म प्रतिक्रियाएं होती है जो मानसिक संकल्पकी बात नहीं मानतीं, यह काफी नहीं होता । किसी और चीजकी जरूरत है ।
दूसरी भूमिकाओंका स्पर्श करना चाहिये । मनकी शक्तिसे अधिक उच्च शक्तिकी आवश्यकता है ।
और इस दृष्टिसे देखें तो मनकी सभी चीजों आंतरिक शंकाका विषय होती है । तुम एक निश्चय कर लेते हो पर विश्वास रखो कि हमेशा कोई ऐसी चीज आयेगी जो शायद इस निश्चयका खुला विरोध तो न करे, पर इसकी प्रभावकारितापर शंका करेगी । इतना काफी है, समझे, जरा- सें भी संदेहके उठ खड़े होनेसे संकल्पका आधा प्रभाव खो जाता है । जब तुम कहते हों, ''मैं यह चाहता हू,'' ठीक उसी समय यदि कहीं पीछे, पृष्ठ- भूमिमें कोई ऐसी चीज छिपी हो जो पूछती हों, ''परिणाम क्या होगा? '' तो सब कुछ नष्ट करनेके लिये इतना काफी है ।
मनकी क्रियावलीका यह खेल अति सूक्ष्म है और कोई भी सामान्य मानवी साधन इसे पूरी तरह नियंत्रित करनेमें सफल नही हों सकता । उदाहरणके लिये, इस चीजको वे सब अच्छी तरह जानते है जो योगका अभ्यास करते है और अपने शरीरपर प्रभुत्व पाना चाहते है : यदि उन्होंनें कठोर यौगिक साधनाके द्वारा अपने अंदरकी किसी चीजको -- शरीरकी
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किसी विशेष दुर्बलताको, किसी असंतुलनकी ओर खुलनेको -- नियंत्रित करनेमें सफलता पा ली हो, यदि उन्होंनें इसपर काb पा किया हो और उसका कुछ फल सामने आया हों, उदाहरणके लिये, वह असंतुलन लंबे समयतक, बरसोंतक न रहा हों, तो यदि किसी दिन, किसी मुहूर्त्त उनके मनमें यह विचार घूम जाय, ''आह! अब यह समाप्त हो गया,'' तो अगले ही क्षण वह वापस आ जाता है । इतना-भर काफी होता है । क्योंकि यह चीज बताती है कि व्यक्ति विचारके स्तरपर, जहां कि उसपर आक्रमण हो सकता है परित्यक्त वस्तुके स्पदनोंके संपर्कमें आ गया और इस चीजने शक्तियोंकी क्रीडामें उन्हें शुक प्रकारका कारण प्रदान कर दिया, उसे उधर खोल दिया और वह चीज वापस आ जाती है ।
योगमें यह तथ्य खूब सुपरिचित है । प्राप्त विजयके बारेमें कहना- भर: ही - मनसे कहना भी, समझे, उसके बारेमें सोचना भी योगके वर्षके समस्त प्रभावको नष्ट कर देनेके लिये काफी है । बाहरसे आनेवाले. समस्त स्पदनोंकी रोकनेके लिये एक प्रबल मानसिक नीरवता अपरिहार्य है । पर इस नीरवताको पाना इतना कठिन है कि उसके लिये व्यक्तिको, श्रीअरविंदने जिसे ''निम्न गोलार्द्ध'' कहा है, उसे पार करके उच्चतर, पूर्णत: आध्यात्मिक. गोलार्द्धमें पहुंच जाना होगा, ताकि ऐसी बात फिर न हो ।
नहीं, मानसिक क्षेत्रमें विजयकी प्राप्ति नहीं हुआ करती । यह असंभव है । यह क्षेत्र सभी प्रभावोंके प्रति, सभी विरोधी धाराओंके प्रति खुला है । तुम्हारी बनायी हुई सभी मानसिक रचनाएं, अपना विरोधी तत्व भी अपने साथ लिये रहती है । व्यक्ति उसे दमन करनेकी कोशिश कर सकता है, जहांतक संभव हों उसे अ-हानिकर बना सकता है, पर उत्सका अस्तित्व बना रहता है, वह चीज विद्यमान रहती है और जरा-सी मी दुर्बलता पाकर या जागरूकता अथवा सावधानताकी कमी पाकर अंदर घुस आती है और सारे कार्यको नष्ट कर देती है । मनके द्वारा बहुत कम परिणाम प्राप्त होते है और जो होते भी है वे मिश्रित होते है । किसी और चीजकी आवश्यकता है । सुरक्षित रूपमें कार्य करनेके लिये व्यक्तिको मनके क्षेत्रसे श्रद्धाके क्षेत्रमें या फिर उच्चतर चेतनाके क्षेत्रमें जाना चाहिये ।
यह बहुत स्पष्ट है कि श्रद्धा शरीरपर क्रिया करनेके लिये एक बहुत प्रभावशाली सावन है । वे लोग जो सरलहृदय होते है, जिनमें विचारों- की जटिलता नहीं होती -- सीधे-सादे लोग, हं -- जिनका मानसिक विकास बहुत उच्च और जटिल नहीं होता, पर जिनमें एक गहरी श्रद्धा
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होती है, अपने शरीरको अत्यधिक प्रभावित कर सकते है, अत्यधिक । यही कारण है कि कभी-कभी लोग आश्चर्य करते हैं ''देखो, एक यह व्यक्ति है जो महान् उपलब्धि पा चुका है, असाधारण है, फिर भी छोटी-छोटी भौतिक वस्तुओंका दास है जब कि वह दूसरा व्यक्ति, हे भगवान! - जो बिलकुल साधारण, सीधा-सादा आदमी है, और अनगढ़ लगता है पर जिसमें बड़ी श्रद्धा है, कठिनाइयों और बिध्न-बाधाओंको ऐसे पार कर जाता है मानों एक विजेता हो! ''
मैं .यह नहीं कहती कि उच्च मानसिक विकासवाला व्यक्ति श्रद्धा प्राप्त नहीं कर सकता, पर यह अधिक कठिन है । क्योंकि वहां सदा ही यह मानसिक तत्व विद्यमान रहता है जो प्रतिवाद करता, तर्क करता व समझनेकी कोशिश करता. है, पर जिसे समझना व विश्वास दिलाना कठिन है, वह प्रमाण चाहता है । उसकी श्रद्धा कम (वरी होती है । उसके लिये इस सर्पिल विकासमें एक अधिक ऊंची स्थितिको प्राप्त करना, मनसे परे आध्यात्मिकतामें जाना जरूरी है, तब वहां स्वभावत: ही श्रद्धा एक ऐसा लेती है जो बहुत ऊंचे प्रकारका होता है । परंतु मेरा मत- लब है कि साधारण दैनिक जीवनमें एक बहुत सीधा-मादा मनुष्य जिसमें बहुत ज्वलंत श्रद्धा हो शरीरपर प्रभुत्व पा सकता है (यह सच्चा ''प्रभुत्व'' नहीं होता, यह केवल एक सहज-स्वाभाविक गति होती है), अपने शरीर- पर अधिक बड़ा नियंत्रण रख सकता है अपेक्षा उसके जो विकासकी बहुत ऊंची अवस्थाको पहुंच चुका हो ।
मां, मुझे एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछना है । एक असाध्य रोग, अंग-संबंधी रोग आपकी कृपासे दूर हो गया है, पर जरा-सा क्यिा-संबंधी रोग दूर नहीं हो पा रहा । यह कैसे? फिर उसी शरीरमें! यह ग्रहणशीलताकी कमी है या...
यह चीज इतनी अधिक व्यक्तिगत है कि इसका उत्तर देना असंभव है । जैसा कि मैंने कहा कि प्रत्येक व्यक्तिके लिये बात बिलकुल भिन्न होती है, और जबतक क्रिया-व्यापारके पूरे विस्तारमें न जाया जाये तबतक इन चीजों- की व्याख्या नहीं दी जा सकती । प्रत्येक व्यक्तिका प्रसंग भिन्न होता है !
और प्रत्येक वस्तुके लिये, प्रत्येक घटनाके उतनी ही व्यारव्यग़रं दी जा सकती है जितने चेतनाके स्तर है । एक दृष्टिसे... निश्चय ही, यह अत्यधिक सीधी-सादी दृष्टि है, यह कहा जा सकता है कि एक भौतिक व्याख्या है, एक प्राणिक व्याख्या है, एक मानसिक व्याख्या है, एक आध्या-
त्मिक व्याख्या है, एक... । एक ही तथ्यके लिये व्याख्याके अनगिनत स्तर है । कोई भी व्याख्या पूरी सच्ची नहीं, सभीमें सत्यका अंश होता है । और अतमें यह कहा जा सकता है कि यदि तुम व्याख्याओंके क्षेत्रमें प्रवेश करना चाहो, यदि तुम एक चीजको लो और उसकी व्याख्या देंने लगो तो सदा ही तुम उसकी व्याख्या किसी दूसरी चीजके द्वारा देनेके लिये बाधित होते हो । ओर तुम अनिश्चित रूपसे एक चीजके द्वारा दूसरीकी व्याख्या करते हुए सारे संसारका चक्कर लगा लोगे और कभी तुम्हारी व्याख्याका अंत नही आयेगा ।
मूलत:, जब कोई व्यक्ति इस तथ्यको इमकी समग्रतामें ओर इसके साररूपमें देख लेता है तो सबसे बुद्धिमत्ताकी बात जो वह कह सकता है वह यही है : ' 'यह चीज ऐसी है क्योंकि यह ऐसी है । ''
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२६ जून, १९५७
''परंतु फिर भी प्रजननके साधारण साधनों और भौतिक प्रकृति- की स्थूल पद्धतिका सहारा लेनेकी आवश्यकता है । अगर इस आवश्यकतासे बचना हो तो एक विशुद्ध गुह्य पद्धतिको संभव बनाना होगा, ऐसी अतिभौतिक प्रक्यिाओंका सहारा लेना होगा जो भौतिक फल उत्पल करनेके लिये अतिभौतिक साधनोंके द्वारा कार्य करें; इसके बिना काम-प्रेरणा और उस- की पशु-सुलभ प्रीक्याको अतिक्रम नहीं किया जा सकता । अगर स्थूल वस्तुको सूक्ष्म रूपमें बदल देने और फिर उसे सूक्ष्म रूपसे स्थूल रूपमें ले आनेकी प्रक्यिामें कुछ सत्यता हों, जिसके संभव होनेका दावा गुह्य-विद्या-विशारद करते हैं और जिसे घटनाओंके द्वारा सिद्ध होते हुए हम लोगोंमेंसे बहुतोंने देखा है', तो फिर इस तरहकी पद्धतिका होना सभा-
संभवतः श्रीअरविंदका सकेत ( दूसरी चीजोंके साथ-साथ) उस घटनाकी ओर है जो १९२१ मे, पाडिचेरीमें ''अतिथिगृह'' मे हुई थी जहां श्रीअरविंद रहा करते थे । एक रसोइयेको निकाल दिया गया था । अपना बदला लेनेकी कोशिशमें वह एक स्थानीय जादूगरके पास गया, और ''अतिथि-
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व्यताके क्षेत्रसे बाहर नहीं होगा । क्योंकि गुह्य-वेत्ताओंके सिद्धांतके अनुसार और अपनी सत्ताके क्षेत्रों एवं स्तरोंकी जो रूपरेखा यौगिक ज्ञानने हमें दी है उसके अनुसार एकमात्र सूक्ष्म भौतिक शक्ति ही नहीं, बल्कि, प्राण और स्थूल जड़- तत्त्वके बीच एक सूक्ष्म भौतिक जड़-तत्व भी है, और इस सूक्ष्म भौतिक पदार्थके अंदर रूपोंका निर्माण करना और इस तरह निर्मित रूपोंको स्थूल पार्थिव सघनतामें ले आना शक्य है । यह संभव होना चाहिये और इसे संभव माना जाता है कि इस सूक्ष्म भौतिक पदार्थमें निर्मित रूपोंको किसी गुह्य शक्ति और प्रक्यिाके हस्तक्षेपद्वारा उसकी सूक्ष्म अवस्थासे सीधा स्थूल भौतिक अवस्थामें लाया जा सकें, चाहे यह किसी स्थूल भौतिक प्रक्रियाकी सहायता व हस्तक्षेपसे हो अथवा उसके बिना । यदि कोई अंतरात्मा किसी शरीरमें आना या अपने लिये किसी शरीरका निर्माण करना चाहे ताकि वह पृथ्वीपर दिव्य जीवनमें भाग लें सके तो उसे इसमें सहायता की जा सकती है अथवा, सीधे रूपग्रहणकी इस पद्धतिद्वारा उसे एक निर्मित रूप प्रदान किया जा सकता है ताकि उसे काम-प्रक्रिया- द्वारा प्राप्त जन्ममेंसे न गुजरना पड़े और मन व स्थूल शरीर-
गृह''के चौकमें पत्थरोंकी बौछार होने लगी और नियमित रूपसे कई दिन- तक होती रही । जो लोग वहां पहली मंजिलपर रहते थे उन्होंने अपनी आंखकी ठीक ऊंचाईपर इन पत्थरोंको बनते और चौकमें गिरते देखा था । ये पत्थर इतने वास्तविक थे कि एक युवा सेवक इनसे घायल हुआ था और इन्हें इकट्ठा किया जा सकता था (विचित्र बात यह है कि सवार काई लगी थी) । अतमें, जब पत्थर बंद कमरोंमें भी गिरने लगे और अधिकाधिक बड़े होते गायें और इसमे कोई सन्देह नहीं रहा कि इनका स्रोत कोई गुह्य शक्ति है तो श्रीमांने अपनी आंतरिक शक्तिसे इसमें हस्तक्षेप किया और ''बौछार'' बन्द हों गयी... । कुछ दिन बाद जादूगरकी पत्नी भागी-भागी श्रीअरविदके पास आयी और क्षमा और कृपाके लिये याचना करने लगी : जादूगर हस्पतालमें था, और अपने पत्थरोंकी वौछारकै प्रत्याघातसे मरनेको हो रहा था । श्रीअरविदने मुस्कराकर उत्तर दिया, ''झुमके लिये उसे मरनेकी जरूरत नहीं! '' और सब चीज फिरसे ठीक हो गयी । यह घटना श्री अंबालाल पुराणीद्वारा लिखित 'द लाइफ अंक श्रीअरविदो' नामक अंग्रेजी पुस्तकके पृ० २७३ पर विस्तारसे दी हुई है ।
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की वृद्धि एवं विकासके लिये किसी निम्न अवस्था था बोझिल सीमाओंके अंदरसे न गुजरना पड़े, जो जीवनके वर्तमान ढंगमें एक अनिवार्य चीज है । तब वह तुरत ही ऐसे शारीरिक गठन और ऐसी महत्तर शक्तियों व क्यिाओंसे अपना जीवन शुरू कर सकेगा जो सचमुच दिव्य भौतिक शरीरके उपयुक्त हों, और ऐसा दिव्य शरीर इस क्रमिक विकासमें, एक दिन जब दिव्यीकृत पार्थिव प्रकृतिमें जीवन और बाह्य आकार दोनों- का संपूर्णतः रूपांतर हो जायगा, अवश्य प्रकट होगा ।',
(अतिमानसिक अमिउयक्ति)
मां, अब जब कि अतिमानस यहां पृथ्वीपर है क्या गर्भसे बिना गुजरे सीधे रूप धारण करनेकी यह पद्धति संभव है?
क्रया यह संभव है? तुम पूछ रहे हो कि यह संभव है या नहीं?... प्रत्येक चीज संभव है? तुम क्या जानना चाहते हों? क्या यह हो चुका है ?
जो !
एकदम निचले, पूर्ण भौतिक स्तरतक नहीं; गोचर सूक्ष्म भौतिक स्तरतक हो चुका है, मध्यवर्ती इंद्रियोंद्वारा, जो भौतिक इंद्रियों और सूक्ष्म भौतिक इंद्रियोंके बीचमें है उनके द्वारा उसे जाना जा सकता है । उदाहरणार्थ, जैसे हम श्वासको एक हल्की वायुके रूपमें अनुभव करते है, जैसे गन्धके कुछ बोध सूक्ष्म सुगन्धोंके रूपमें होते हैं । स्वभावत., जिन्हें अंतर्दृष्टि प्राप्त है वे देख भी सकते है, पर अत्यधिक स्थूल इद्रियोंको वहां--कैसे कह? -- किसी ऐसी सुस्थिर वस्तुका बोध नही होता जैसा कि भौतिक शरीरका होता है जिसे हम स्थूल रूपमें अनुभव करते है । ऐसे आभास होते है, हा, उन्हें देखा मी जा सकता है, पर वे उड़ते-से होते है, उनमें दृढ़ता, जडतत्वकी दृढ़ता नहीं होती, आकारकी ठोस निश्चितता अभीतक प्राप्त नहुाई हुई है । मेरा मतलब है वहां संपर्क होता है, यहांतक कि स्पर्शक संपर्क भी प्राप्त होता है, उसे देखा भी जा सकता है पर वहां ऐसी मुस्थिरता नन्हीं होती जैसी हम स्थल शरीरमें देखते है । ये आते-जाते आभास है और स्वभावत: एकदम ठोस वास्तविकताकी वही अनुभूति नहीं देते । तथापि प्रभाव निरंतर रहता है, हस्तक्षेप निरंतर रहता है, बोब
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निरंतर रहता है, पर उस शरीरकी-सी दृढ़ता नहीं होती... हां, जो कमरेसे बाहर जाता है और उसी रूपमें लौट आता है जिस रूपमें गया था, समझ रहे हो न? अथवा जैसे जब तुम किसी स्थानपर बैठते हो तो उतने स्थान- को पूरे ठोस रूपमें घेरे होते हो, उस प्रकारकी स्थिरता नहीं होती ।
मैं नहीं कह सकती क्योंकि मैं वह सब नही जानती जो पृथ्वीपर हुए चुका है या हो रहा है, पर जहांतक मुझे मालूम है, यह चीज, यह ठोस सुस्थिरता अभीतक प्राप्त नहीं हुई है ।
फिर भी, (जो कुछ प्राप्त हुआ) वह भौतिकतासे संबंध रखता था क्योंकि उसमें दर्शन, संपर्क और श्रवण मौजूद था । किंतु श्रवण - उसके लिये अत्यन्त भौतिक रूप लेना जरूरी नही है : सूक्ष्म भौतिक जीवनके नाद, उसके प्रकंपन अच्छी तरह सुने जा सकते है और यह एक बहुत विचित्र बात है कि सूक्ष्म भौतिक जगत्में श्रवण और गन्ध ही सबसे सुस्थिर प्रतीत होते है, रूप-दर्शनसे मी अधिक -- और साथ ही संपर्ककी भी एक विशिष्ट भावना, जो बहुत, बहुत यथार्थ होती है । केवल भौतिक शरीरकी यह बहुत अधिक भौतिक उपस्थिति जो एक सुनिश्चित स्थानको इतने यथार्थ रूपमें घेरे होती है कि कोई दूसरी वस्तु उस स्थानपर नही आ सकती अभीतक संभव नहीं हुई है । अत: जो कुछ अभीतक प्राप्त किया गया है वह अत्यधिक भौतिक होनेकी अपेक्षा अधिक तरल रहा है ।
क्या यह प्रगति मानव चेतनापर निर्भर है?
तुम्हारा मतलब है अधिक पूर्ण मूर्त रूप लेनेके लिये?... यह निर्भर है जडू-तत्वके स्पदनोंके साथ व्यवहार करनेकी क्षमतापर, और व्यवहार करने- की यह क्षमता अवश्य ही चेतनाकी विशिष्ट स्थितिका परिणाम है । और सब कुछ तुम्हारे दृष्टि-बिंदुपर निर्भर है, क्योंकि कोई भ) वैयक्तिक प्रगति उसके बिना नही हों सकती जिसे भागवत संकल्पकी ''स्वीकृति'' कहा जाता है । और अंतमें, सृष्टिमें कुछ भी भागवत मकल्पकी स्वीकृतिके बिना नहीं हों सकता । इसलिये....
मां, क्या पहला अतिमानसिक शरीर इसी तरहका होगा?
किस तरहका?
पार्थिव जन्ममेंसे गुजरे बिना रूपांतर?
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आह! क्षमा करना, चीजोंको उलझाओ नहीं । दो बातें है । एक ओर तो विशुद्ध अतिमानसिक सृष्टिकी संभावना है औ र दूसरी ओर इस भौतिक शरीरके अतिमानवीय शरीरमें प्रगतिशील रूपसे रूपांतरित होते जाने की संभावना है । यह एक प्रगतिशील रूपांतर होगा जिसमें कुछ वर्ष लगेंगे, संभवत : काफी वर्ष लगें औ र उससे एक ऐ सें प्राणिक आविर्भाव हों जो '' मनुष्य '' शब्दके साथ पशुताकी जो भावना जुडी है उस अर्थमें तो '' मनुष्य '' नही होगा, पर ऐसा अतिमानसिक प्राणी भी न होगा जो समस्त पशुता सें पूरी तरह बाहर हो, क्योंकि उसका वास्तविक मू ल उद्भव मजबूरन पाशविक है । इस प्रकार रूपांतर तो हों सकता है औ र इतना रूपांतर हो सकता है कि -इस मूल लोतसे काफी कुछ मुक्ति मिल जाया, पर फिर भी वह चीज विशुद्ध और संपूर्णत : अतिमानसिक सृष्टि नहीं होगी । श्रीअर्रावंद कहा है कि एक मध्यवर्ती जाति होगी -- जाति होगी या शायद कुछ व्यक्ति होंगे, कहना कठिन है - एक मध्यवर्ती पैड जो रास्तेका काम देगी अथवा सृष्टिके प्रयोजन एवं आवश्यकताकी दृष्टिसे इसे स्थायी भी बनाया जा सकता है । परंतु यदि हम उस शरीरसे शुरू करें जो वर्तमान मानव शरीरोंकी तरह बना हुआ है तो वही परिणाम कमी नहीं प्राप्त होगा जो तब होगा जब शरीर पूरी तरह अतिमानसिक पद्धति और प्रक्रियासे बनकर तैयार होगा । शायद वह इस अर्थमें बहुत कु छ अति- मानवकी तरह होगा कि पशु-समान समस्त व्यक्त रूप समाप्त हो जायंगे पर उसमें उस शरीरकी वह चरम पूर्णता नहीं होगी जो अपनी रचनामें विशुद्ध रूपसे अतिमानसिक होगा ।
और इस रूपांतरित मानव शरीरमें क्या स्त्री और पुरुषका भेद रहेगा?
क्या, क्या कहा तुमने?
यदि अतिमानस इस रूपांतरित शरीरको स्वीकार करे...
स्वीकार करे? क्या मतलब हुआ इसका कि ''स्वीकार करे''?
इसका मतलब यह कि इस अर्ध-मानव शरीरमें ''उतर आये'' -- क्या तब भेद रहेगा?
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पर यह ऐसी बात नही है, यह बोतल नहीं है जिसमे तुम कोई द्रव-पदार्थ भर लो । यह ऐसा नहीं है ।
तुम यह पूछ रहे हो कि शरीरका अपना नर या मादा रूप रहेगा या नहीं? संभवत: यह चीज उस सत्ताके चुनावपर छोड़ दी जायेगी जो इस गृह- मे प्रवेश करेगी, गृहस्वामीपर... । तुम्हें इसमें, इस भेदमें बहुत अधिक रुचि है? (हंसी)
आप कहती हैं कि भेद नहीं होगा, पर अभीतक' तो काफी भेद बना हुआ है ।
किस दृप्टिसे? यदि शारीरिक आकृतिसे तुम्हारा मतलब है तो बात समझमें आती है -- तो भी, इतना अधिक नहीं, फिर भी । किस दृष्टिसे?
सेक्स-विषयक इस विचारकी दृष्टिसे कि दो विभिन्न सेक्स है । यह अभीतक बना हुआ है ।
विचार? पर वह तो सोचनेवालेका दोष है! इसे बिना सोचे मी काम चल सकता है । ये, समझे, विचारकी अत्यंत संकीर्ण सीमाएं है और ये ऐसी चीजों है जिन्हें तुम अपने शरीरके रूपांतरके लिये प्रयत्न करो उससे पहले ही लुप्त हो जाना चाहिये । यदि तुम अभी भी इन अति तुच्छ, निरी पशूचित कल्पनाओंमें निवास करते हों तो इमकी बहुत आशा नहीं कि तुम शरीरके रूपांतरकी कुछ जरा-सी मी प्रक्रिया शुरू कर सततेंगे । तुम्हें पहले अपने विचारको रूपांतरित करना होगा. । क्योंकि वह एक ऐसी चीज है जो अभी मी बहुत नीचे तलमें रेंग रही नैण । यदि तुम इसे अनुभव करतेमें असमर्थ हो कि कोई सचेतन खमौर सजीव सत्ता सेक्सकी समस्त भावनासे, किसी विशिष्ट आकारमें भी, पूर्णत: मुक्त हो सकती खै तो इसका... इसका मतलब है कि तुम अभीतक जन्म-विषयक पशुतामें आकंठ डूबे हुए हो ।
आंतरिक विचारमें व्यक्ति इसे अनुभव कर सकता है, पर भौतिक जीवनकी यथार्थतामें...
क्या, यथार्थता?
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मैंने बाह्य जीवनमें इसे अभी नहीं पाया है । आंतरिक रूपमें...
तुम अपना समय इसीके बारेमें सोचनेमें बिताते हो?
परंतु व्यक्ति चौबीस-के-चौबीस घंटे ऐसे रह सकता है कि इस भेद- के बारेमें एक मी विचार न आये । तुम अवश्य ही इस चीजसे पूरी तरह सम्मोहित हो गये लगते हो । तुम सोचते हो कि जब मैं तुमसे बात करती हू तो मैं यह सोचती हूं कि तुम पुरुष हों और जब मैं तारासे बात करती हू लौ यह सोचती हू कि वह स्त्री है ।
फिर भी भेद तो है हा!
आह! पर यह आवश्यक बिलकुल भी नहीं है ।
सिद्धांत रूपमें मैं समझता हू ।
सिद्धान्त रूपमें! कौन-सा सिद्धान्त?
कि कोई भेद नहीं है । किंतु जब मैं किसी ब्यक्तिके संपर्कमें आता हू तो मैं किसी पुरुष या स्त्रीसे ही बात करता हू । '
ओह, यह तुम्हारे लिये और उसके लिये बहुत खेदकी बात है ।
नहीं, यह जो होना चाहिये उससे ठीक उलटी बात है । जब तुम किसी व्यक्तिके संपर्कमें आते हो और उससे बात करते हो तो तुम्हें उसके अंदर- की ठीक उस वस्तुसे बात करनी चाहिये जो समस्त पशुतासे ऊपर है, तुम्हें उसकी अंतरात्माको संबोधित करना चाहिये, उसके शरीरको नहीं । बल्कि तुमसे और अधिककी आशा की जाती है, तुमसे चाहा जाता है कि तुम भगवानको संबोधित करो -- अंतरात्माको भी नहीं - प्रत्येक प्राणीमें स्थित छुकमैव भगवानको संबोधित करो और उसके प्रति सचेतन बने रहो ।
परंतु यदि केवल एक तरफका व्यक्ति ही सचेतन हो और दूसरा पशुवत् हो तो क्या होगा?
यदि केवल एक ही सचेतन हो? पर इस बारेमें तुम जानते ही क्या हो? कैसे और किस स्तरसे तुम यह निर्णय करते हो कि दूसरा सचेतन नहीं है?
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उत्तर देनेके ढंगसे ।
पर शायद वह तुम्हारे बारेमें यही सोचता हो!
अच्छा, लो मैं तुम्हें बताती हुं कि जबतक दूसरेसे बात करने ममय तुम उसमें भागवत उपस्थितिको संबोधित नहीं करते, तबतक इसका मतलब यही होता है कि तुम अपने अंदर मी उसके प्रति सचेतन नहीं हों । और उस हालतमें दूसरे व्यक्तिकी अवस्थाके बारेमें निर्णय देना एक बहुत बड़ी ढिठाई है । तुम उसके बारेमें जानते ही क्या हो? यदि तुम स्वयं दूसरे- मे भगवानके प्रति सचेतन नहीं हों ता तुम किस अधिकारसे कह सकते हों कि वह उनके बारेमें सचेतन है या नहीं? किस आधारपर? अपनी तुच्छ बाह्य बुद्धिके? किंतु वह तो कुछ भी नहीं जानती! वह किसी भी चीजको देखनेमें बिलकुल असमर्थ है ।
जबतक तुम्हारी दुष्टि सब चीजोंमें सतत रूपसे भगवानके दर्शन नही करती तबतक दूसरे किस स्थितिमें है इसपर निर्णय देनेका न केवल तुम्हें अधिकार नहीं होता, बल्कि तुम्हारे अंदर क्षमता भी नहीं होती । और ऐसी अवस्था पाये बिना जिसमें यह दृष्टि सहज और अनायास रूपमें सतत बनी रहे किसी व्यक्तिके बारेमें राय देना मनकी धृष्टताको सूचित करता है जो कि ठीक वही चीज है जिसके बारेमें श्रीअरविंदने हमेशा कहा है... । और होता यह है कि जिसमें यह दुष्टि और चेतना है, जो सब वस्तुओंमें स्थित सत्य देख सकता है, उसे कमी किसी वस्तुका, चाहे वह कुछ भी हो, मूल्यांकन करनेकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती । क्योंकि वह प्रत्येक वस्तुको समझता और जानता है । फत्ठस्वरूप तुम्हें यह बात निश्चित रूप- सें बता देनेकी जरूरत है कि जिस क्षण तुम वस्तुओं, व्यक्तियों और परि- स्थितियोंके मूल्यांकन करने लगते हो तुम सर्वथा मानवी अज्ञानमें होते हो । इसे सारांशमें यों कह सकते है. जब तुम समझते हों तो मूल्यांकन करने नहीं बैठते और जब मूल्यांकन करते हो तो इसका मतलब होता है कि तुम जानते ही नहीं ।
मूल्यांकन उन पहली चीजोंमेंसे है जो, इससे पहले कि तुम अतिमानसके पथपर एक कदम मी धर सको, चेतनामेंसे पूरी तरह साफ हो जानी चाहिये, कारण यह भौतिक प्रगति या शारीरिक प्रगति नहीं है, यह केवल विचारकी एक बहुत जरा-सी प्रगति, मानसिक प्रगति है । और जबतक तुम अपने मनमेंसे इस सब अज्ञानका पूरी तरह सफ़ाया नही कर देते तुम अतिमानसके पथपर एक कदम भी चलनेकी आशा नहीं कर सकते ।
वास्तवमें, तुमने ऐसी बात कही है जो बहुत भयंकर है । यह कहकर
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कि ''यदि वह पशुवत् हुए तो मैं उसकी अंतरात्माको संबोधित नहीं कर सकता,'' तुमने अपना ही परिचय दिया है... तुमने अपनेपर ही लेबल लगाया है । खैर ।
उन सब लोगोंने जिन्हें भागवत उपस्थितिका सच्चा और निश्छल अनु- भव प्राप्त हो चुका है, उन सबोंने जो सचमुच भगवानके संपर्कमें रह चुके है हमेशा कहा है कि कभी-कभी, बल्कि प्रायः ही मनुप्योंद्वारा अत्यन्त निंदित, अत्यन्त उपेक्षित और मानव 'बुद्धि' द्वारा अत्यधिक तिरस्कृत वस्तुमें भी तुम दिव्य प्रकाशकी चमक पा सकते हों ।
ये कोरे शब्द नहीं है, ये सजीव अनुभूतिया हैं ।
अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ, ऊंचनीचके सब विचार, सब धारणाएं मानव मनके अज्ञानसे संबंध रखती है, यदि तुम सचमुच भागवत जीवनके संपर्कमें आना चाहते हो तो तुम्हें इस अज्ञानसे पूरी तरह म्उक्त हो जाना चाहिये, तुम्हें चेतनाकी ऐसी भूमिकामें उठ जाना चाहिये जहां ये विचार कोई वास्तविकता नहीं रखते । (वहां) ऊंच-नीचकी भावना पूरी. तरह समाप्त हो जाती है, इसका स्थान एक दूसरी चीज लें लेती है जिसका स्वरूप बहुत भिन्न होता है -- यह एक प्रकारसे बाह्य प्रतीतियोंको पार करने और ऊपरी आवरणोंको वेधने और दृष्टि-बिन्दुको बदलनेकी क्षमता है ।
और ये शब्द नहीं है, यह बिलकुल सच है कि प्रत्येक वस्तुका रूप पूरी तरह बदल जाता है, जीवन और सब वस्तुएं जैसी लगती थीं उससे बिल- कुल भिन्न हों जाती है ।
वह समस्त सांसारिक संपर्क, अर्थात् संसारके प्रति वह साधारण दृष्टि (जो पहले थी) अपनी वास्तविकता पूरी तरह खो देती है । वही अवास्तविक, माया, मिथ्या, असत् प्रतीत होने लगता है । कोई दूसरी चीज -- जो बहुत पार्थिव, यथार्थ, भौतिक है -- सत्ताका. वास्तविकता बन जाती है और देखनेके सामान्य तरीकेके साथ इसका कुछ मेल नहीं होता । जब व्यक्ति उस दृष्टिको पा जाता है -- जो दृष्टि दिव्य शक्तिके कार्यको देखती है, उस गतिकों देखती है जो बाह्य प्रतीतियोंके पीछे, उनके अंदर, उनके द्वारा कार्य करती है -- तो वह सामान्य मानव मिथ्यात्वमें निवास करने- की अपेक्षा किसी अधिक सत्य वस्तुमें निवासके लिये तैयार हों जाता है, पर उससे पहले नहीं ।
इसमें समझौता नहीं होता, समझे? यह बीमारीके बाद धीरे-धीरे स्वस्थ होने जैसी चीज नही है : तुम्हें, जगतोकी अदला-बदली करनी होती है । जबतक तुम्हारा मन तुम्हारे लिये वास्तविक है, तुम्हारा सोचनेका तरीका तुम्हारे लिये सच्चा, वास्तविक, यथार्थ है, यह प्रमाणित करता है कि तुम
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अभी वहां नही पहुंचे हो । तुम्हें पहले दूसरी ओर पहुंचना होगा, तभी तुम उसे समझ सकोगे जो मैं- कह रही हू ।
दूसरी ओर पहुंचे ।
यह सच नहीं है कि व्यक्ति थोडा-थोडा करके समझ सकता है, यह ऐसी बात नहीं है । इस प्रकारकी प्र गति दूसरी है । अधिक सत्य यह है कि व्यक्ति एक खोलमें बन्द है ओ र इस खोलके अंदर कुछ चीज बन रहीं है जैसे अण्डेमें मुर्गीका बच्चा । यह अंदर तैयार होता रहता है । यह अंदर होता है, तुम इसे नहीं देरवते । रवोलके अंदर कुछ होता है, परन्तु व्यक्ति बाहर कुछ नहीं देखता । औ र जब सब तैयार हो जाता है तभी खोलको भेदने और तोडकर बाहर आ जानेकी सामर्थ्य प्राप्त होती है । ऐसा नहीं है कि व्यक्ति अधिकाधिक गोचर या दृश्य बनता जाता है : व्यक्ति अंदर बंद होता है -- अंदर बंद -- और संवेदनशील व्यक्तियोंको तो ऐसा भयंकर अनुभव होता है कि वे दवे जा रहे है, वे बाहर निकलनेकी कोशिश कर रहे है पर सामने एक दीवार है, वे टकराते हैं, टकराते है, टकराते जाते है पर बाहर नहीं निकल पाते ।
और जबतक व्यक्ति वहां, अंदर होता है, वह मिथ्यात्वमे रहता है औ र जिस दिन गवान्की कृपासे उस खोलको तोडकर बाहर प्रकाशमें आ जाता है, वह स्वतंत्र हो जाता है ।
यह एकाएक, सहज रूपमें, बिलकुल अप्रत्याशित रूपमें हो सकता है । मुझे नहीं लगता कि व्यक्ति धीरे-धीरे पार जा सकता है । मुझे नहीं लगता कि यह एक ऐसी चीज है जो आहिस्ता-आहिस्ता घिसती जाती है और एक दिन तुम पार देखने योग्य हो जाते हो । मुझे अबतक एक मी ऐसा उदाहरण नही मिला । बल्कि वहां, अंदर श क्तिका ऐ सा जमाव, आवश्यकताकी ऐसी घनता और प्रयत्नमें ऐसी धीरता होती हुए जो समस्त भय., चिंता और गणनासे मुक्त हो जाती है, वह आवश्यकता ऐसी जबर्दस्ती होतीं है कि व्यक्ति परिणामकी फिर कोई परवाह रहीं करता ।
व्यक्ति एक विस्फोटककी तरह हों जाता है, जिसे कोई रोक नहीं सकता और वह फूट पड़ता है, अपने कारागारसे बाहर जाज्वल्यमान प्रकाशमें निकल जाता है ।
उसके बाद वह कभी पीछे नहीं लौटता ।
सचमुच, यह राक नया जन्म होता है ।
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३ जुलाई, १९५७
मुझसे पूछा गया है कि क्या हम सामूहिक योग कर रहें है और सामूहिक योगकी शर्तें क्या हैं ।
मैं सबसे पहले तो यह कह सकती इ' कि सामूहिक योग करनेके लिये यह आवश्यक है कि हम एक समूह हों (!) और फिर यह कि समूह होनेके लिये कौन-कौन-सी शर्ते है । पर गत रात्रि (मुस्कराते हुए) मुझे यहांके अपने समूहका एक प्रतीकात्मक स्वप्न आया ।
यह स्वप्न मुझे रातके पहले पहरमें आया और उसकी अप्रिय छापने मुझे जगा दिया । मैं दुबारा सों गयी ओर इसे पूरी तरह भूल गयी और अमी जब मैंने इस पूछे गये प्रश्नके बारेमें सोचा तो सहसा वह स्वप्न- दर्शन वापस आ गया । यह इतनी अधिक तीव्रताके साथ और इतने अनिवार्य रूपमें वापस आया कि अब जब कि मैं तुम्हें ठीक यह बताना चाहती थी कि श्रीअरविदने 'दिव्य जीवन'के अंतिम अध्यायमें जिस आदर्श समूहका वर्णन किया है -- यह वर्णन एक अतिमानसिक, विज्ञानमय समूहका है, और केवल वही श्रीअरविन्दका पूर्ण योग कर सकता है और वह एक ए_से प्रगतिशील सामूहिक शरीरमें भौतिक रूपमे चरितार्थ हों सकता है जो अधिकाधिक दिव्य बनता जा रहा हो -- उत्तरके अनुसार हम किस प्रकार- के समुहको चरितार्थ करना चाहते है, तो उस स्वप्न-दर्शनकी स्मृति इतनी अनिवार्य हो उठी कि उसने मुझे उसे कहनेसे रोक दिया ।
इसका प्रतीक बहुत था, यद्यपि वह, ऐसा कहा जा सकता है कि, बहुत परिचित ढंगका था, पर ठीक अपनी परिचितताके कारण वह इतना वास्तविक है कि उसमें भ्रांति नही हो सकती.. । यदि मैं इसे विस्तार- से मुनाऊ तो शायद तुम समझ नहीं सकोगे, यह काफी जटिल था । यह कुछ इस प्रकारका विलम्ब था -- कैसे कह? -- जैसे एक बड़ा भारी होटल हो, जिसके विभिन्न कमरोंमें समस्त पार्थिव संभावनाओंका वास था । और यह सब निरंतर एक रूपांतरणकी अवस्थामें था; सभी लोगोंके अंदर रहते, भवनके कुछ भाग अथवा पूरे-के-पूरे वरंड एकाएक सुवस्त कर दिये जाते और फिर नये बनाये जाते थे । यह सब इस तरह हों रहा था कि यदि कोई व्यक्ति इधर-उधर घूम रहा हों, चाहे वह इसी विशाल होटलके अंदर हो, तो यह खतरा था कि जब वह अपने कमरेमें वापस आना चाहे तो दुबारा अपना कमरा न पा सके! क्योंकि वह ध्वस्त किया जा चुका होगा और एक दूसरी ही योजनाके अनुसार फिरसे बनाया जा रहा होगा ।
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वहां व्यवस्था थी, प्रबंध था....... और वहां वह अजीब अस्तव्यस्तता भी थी जिसका मैंने जिक्र किया है, और उसमें एक प्रतीक था । वहां एक प्रतीक था जो निश्चित रूपसे उसपर लागू होता है जो श्रीअरविन्दने यहां' शरीरके रूपांतरकी आवश्यकताके बारेमें लिखा है, कि जीवनको दिव्य जीवन- मे परिवर्तित करनेके लिये किस प्रकारका रूपांतर होना चाहिये ।
यह स्वप्न कुछ-कुछ इस प्रकार था : कहीं, इस विशाल मकानके बीचों बीच एक कमरा सुरक्षित था, कहानीमें ऐसा लगता था कि यह मां और उसकी बेटीके लिये है । मां राक बड़ी बढ्ती औरत थी, बहुत सत्तावाली एवं अति महत्त्वपूर्ण अध्यक्षा थी और सारी व्यवस्थाके बारेमें उसके अपने विचार थे । बेटीके पास गति और क्रियाकी एक प्रकारकी ऐसी शक्ति थी जिससे वह तुरत सब जगह उपस्थित हों सकती थी, तब भी जब वह उस कमरेमें होती थी जो....... हां, वह कमरेसे कुछ बड़ा एक कोठा-सा था और सबसे बर्ड़ीं बात यह कि वह ठीक बीचोंबीच लगता था । परंतु वह अपनी मौक़े साथ हमेशा बहसमें लगी रहती थी । मां चाहती थी कि चीजों जैसी थीं वैसी ही बनी रहें,, उनका छंद वही रहे जो पहले था, अर्थात्, ठीक उसी पुरानी पद्धतिसे चलता रहे कि एक चीजको ध्वस्त कर उससे दूसरी चीज बना ली जाय और फिर कोई और चीज बनानेके लिये इसे भी नष्ट कर दिया जाय -- इससे वह मकान भयंकर रूपसे अस्त-व्यस्त लगता था । और इस कारण बेटीको वह सब पसंद नहीं था, उसकी एक और योजना थी । वह सबसे पहले इस व्यवस्थामें कुछ बिलकुल नयी चीज, एक प्रकारकी उच्चतर व्यवस्था ले आना चाहती थी जिससे यह सारी अस्त- व्यस्तता आवश्यक न रह जाय । अंतमें, चूकि समझौतेपर पहुंचना असंभव .था इसलिये वह निरीक्षणका चक्कर लगानेके लिये कमरेसे बाहर चली गयी । उसने अपना चक्कर लगाया, हर चीज देरवी और फिर अपने कमरेमें वापस जाना चाहा (क्योंकि यह उसका भी कमरा था), ताकि वह कोई सुनिश्चित कार्रवाई कर सके । और तब एक बिलकुल विचित्र चीज शुरू हुई । उसे अच्छी तरह ख्याल था कि उसका कमरा किस जगह था, किंतु हर बार जब-जब उसने उधर जानेका रास्ता पकड़ा या तो सीढ़ियां गायब हों गयीं या चीजों इतनी अधिक बदल गयीं कि वह अपना रास्ता न पहचान सकी! और इस कारण वह यहां गयी, वहां गयी, ऊपर चढी, नीचे उतरी, ढ्ढा, बाहर गयी, वापस आयी... अपने कमरेमें
'अतिमानसिक अभिव्यक्ति
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वापस जानेंका रास्ता पाना असंभव था! ऐसा लग रहा था मानों यह सब एक भौतिक रूपमें हो रहा है, मैं बता चुकी हू कि यह रूप बहुत ही परि- चित और सामान्य था, और जैसा कि इन सब प्रतीकात्मक स्वप्नोंमें सदा होता है, वहां कही ( इसे कैसे कहूं?) इस होटलका एक प्रबंध-विभाग भी या और एक महिला थी जो एक प्रकारसे इस होटलकी प्रबंध-संचालिका (मैनेजर) थी, जिसके पास सब चाबियां थीं और प्रत्येक व्यक्ति कहां ठहरा है इसे जानती थी । तो बेटी इस महिलाके पास गयी और पूछा : ''क्या आप मेरे कमरेका रास्ता बता सकेंगी?'' -- ''आह, हां, निश्चय ही, यह बहुत सरल है । '' चारों तरफ जो लोग थे उन्होंने उसे ऐसे देखा मानों कह रहे हों, ' 'यह तुम कैसे कह सकती हों?'' परंतु वह उठी, और उसने साधिकार एक कमरेकी, उस कमरेकी चाबी मांगी और कहा, ' 'मैं तुम्हें वहां न्ठिये चलती हू । '' फिर उसने तरह-तरहके रास्ते पकड़े, बढे ही जटिल, और बड़े बेतुके! और बेटी बड़े ध्यानसे उसका अनुसरण कर रही थी कि कही वह आखसे ओझल न हों जाय । और ठीक उसी क्षण जब उन्हें उस स्थानपर पहुंच जाना चाहिये था जहां वह तथाकथित कमरा था, एकाएक मैनेजर (हम उस महिलाको अब मैनेजर कहेंगे), वह मैनेजर अपनी चाबी सहित...... विलुप्त हो गयी! और विलुप्त हों जानेका यह संवेदन इतना तीव्र' था कि... सभी कुछ एक साथ विलुप्त हो गया ।
यदि... । इस पहेलीको समझनेमें सहायता देनेके लिये मैं तुम्हें यह बता सकती हू कि मां अपने वर्तमान स्वरूपमें भौतिक प्रकृति है और बेटी है नयी सृष्टि । मैनेजर मानसिक चेतना है, प्रकृतिने संसारको अभी- तक जैसा बनाया है उसकी वह व्यवस्थापिका है, अर्थात्, वर्तमान भौतिक प्रक़ुतिमें अभिव्यक्त उच्चतम व्यवस्था-बोध है । यह इस स्वप्न-दर्शनकी कुंजी है । अवश्य हीं, जब मैं दुबारा उठी तो तुरत जान गयी कि समस्या- का -- जिसे सुलझाना असंभव लगता है -- समाधान क्या हों सकता है । मैनेजर और चाबीका विलुप्त हों जाना स्पष्ट चिह्न था कि वह उसे, जिसे हम नये संसारकी सर्जिका चेतना कह सकते है, अपने सच्चे स्थानपर पहुंचानेमें बिलकुल असमर्थ थी ।
मैं इसे जानती थी पर मैंने इसका समाधान नहीं देखा था, जिसका मत- लब होता है कि यह एक ऐसी चीज है जिसे अभी चरितार्थ होना है । यह उस मकानमें, उस अजीब इमारतमें अभीतक चरितार्थ नहीं हुई थी । और बस, चेतनाका यही प्रकार इस संगति-विहीन सृष्टिको किसी ऐसी चीजमें परिवर्तित कर देगा जो वास्तविक हों, सच्चे ढंगसे सोचविचारकर, संकल्प- पूर्वक क्रियान्वित की गयी हों, जिसमें एक केंद्र हों जो अपने सच्चे स्थान-
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पर, एक जाने-पहचाने स्थानपर हों और उसके पास सच्ची कार्यकारी शक्ति हों ।
प्रतीक बिलकुल स्पष्ट है : सभी संभावनाएं और सभी क्रियाएं मौजूद है पर हैं अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त । उनमें न तो सामंजस्य है और न ही वे केंद्रीय सत्य, चेतना और संकल्पके चारों ओर केंद्रित व एकत्रित है । तो अब हम वापस आते हैं... ठीक इस सामूहिक योगके प्रश्नपर और उस समूहपर जो इसे चरितार्थ करेगा, अर्थात्, इस बातपर कि वह समूह किस प्रकारका होगा ।
निश्चय ही यह कोई मनमानी रचना नहीं होगी जैसी कि मनुष्य बनाते है जिसमें वे चीजोंको ऐसे ही बेतरतीब, बिना किसी व्यवस्था और वास्तविकताके रख देते हैं; और सारी चीज केवल कुछ अवास्तविक कडियोंद्वारा एक साथ जुडी रहती है । यहा उसका प्रतीक हैं होटलकी दीवारें । और सामान्य मानवी रचनाओंमें (यदि हम उदाहरणके तोरपर धार्मिक समाजको ले तो), वास्तवमें, उसका प्रतीक जो चीज़ें है वे हैं मटकी इमारत एवं वस्त्रों, क्रियाओं तथा गतिविधिकी एकरूपता -- मैं इसे और अधिक स्पष्ट करके कहती हूं : सबका परिधान एक-सा होता है, सब एक समयपर उठते, एक-सा खाना खाते, एक-सी प्रार्थना करते है इत्यादि-इत्यादि, वहां एक सामान्य समानता होती है, पर अंदर चेतनाओंकी बड़ी विषमता होती है, प्रत्येक अपने ही ढंगसे चलता है, क्योंकि यह समानता जो लगभग विश्वास और मतकी अभित्रतातक पहुंच जाती है बिलकुल भ्रामक समानता
यह मानव-समूहका अत्यंत सामान्य प्रकार है त्ठोग किसी समान आदर्श, समान कर्म, समान उपलब्धिके चारों ओर एकत्रित, संयुक्त, सम्मिलित होते हैं, पर होते हैं बिलकुल कृत्रिम ढंगसे । इसके विपरीत श्रीअरविन्द हमें बताते है कि एक सच्चा समाज -- जिसे वह विज्ञानमय या अतिमानसिक समाज कहते हैं -- केवल प्रत्येक सदस्यकी आंतरिक उपलब्धिके आधारपर हीं टिक सकता है जिसमें प्रत्येक समाजके अन्य सब सदस्योंके साथ अपनी सच्ची और यथार्थ एकता व समानता महसूस करने लगे, अर्थात्, प्रत्येकको यह महसूस होना चाहिये कि वह एक सदस्य नहीं है जौ जिस किसी तरह औरोंसे जुड़ा हुआ है, बल्कि सब एकमें हैं, उसीमें है । प्रत्येकके लिये टूमरे सब इतने अधिक अपने होने चाहिये जितना उसका अपना शरीर, और वह
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भी मानसिक या कृत्रिम तौरसे नहीं, वरन् चेतनाके तथ्यके द्वारा, आंतरिक उपलब्धिके द्वारा ।
इसका मतलब है कि इस विज्ञानमय समाजको चरितार्थ करनेकी अभीप्सा करनेसे पहले प्रत्येक व्यक्तिको पहले विज्ञानमय सत्ता बनना चाहिये (या कम-से-कम बनना शुरू कर देना चाहिये) । यह स्पष्ट है कि व्यक्तिगत कार्य आगे-आगे चलना चाहिये और सामूहिक कार्य उसके पीछे-पीछे; परंतु होता ऐसा है कि सहज-स्वाभाविक रूपमें, या यूँ कहें, संकल्पके मनमाने हस्तदोपके बिना, व्यक्तिगत प्रगति सामाजिक अवस्थाद्वारा नियंत्रित या शिथिल कर दी जाती है । व्यक्ति और समूहके बीच एक ऐसी परस्पर-निर्भरता है जिससे चाहकर भी अपने-आपको पूरी तरह मुक्त नही किया जा सकता । यहांतक कि वह व्यक्ति मी जो अपने योगमें चेतनाकी पार्थिव और मानव अवस्थासे अपने-आपको पूरी तरह मुक्त करनेकी कोशिश कर रहा है, समूचे जन-समूहके साथ, कम-से-कम अपनी अवचेतनामें, बंधा रहता है, जो उसपर लगाम या रोक लगाती है, यहांतक कि पीछेकी ओर खींचती भी है । व्यक्ति बहुत तेजीसे आगे बढ़नेका प्रयत्न कर सकता है, आसक्ति और उत्तर- दायित्वके सारे बोझको उतार फेंकनेके लिये प्रयत्न कर सकता है, पर सब कुछके बावजूद, उपलब्धि, उस ब्यक्तिकी भी उपलब्धि जो अत्युच्च ऊंचाई- पर है और विकास-पथपर सबसे आगे है, समष्टिकी उपल्डब्धिपर, पृथ्वीपर मानव-समूहकी अवस्थापर निर्भर है । और यह चीज निश्चय ही पीछेकी ओर खींचती है, यहांतक कि कमी-कभी तो जो चीज उपलब्ध करनी है उसे पानेके लिये पृथ्वीके तैयार होनेकी शताब्दियोंतक प्रतीक्षा करनी पड़ती है ।
यही कारण है कि श्रीअरविन्दने भी, किसी ओर जगह, यह कहा है कि दोहरी क्रियाकी आवश्यकता है, और यह कि व्यक्तिगत प्रगति और उप- वन्धिके लिये किये जानेवाले प्रयत्नमें, समूचे समाजको ऊपर उठानेके प्रयत्न व उपक्रमको भी मिला देना' चाहिये, ताकि वह उस प्रगतिको साधित कर सक्ए: भंमृाए व्यक्तिकी महत्तर प्रगतिके लिये अनिवार्य है : कहा जा सकता है कि यह सामूहिक प्रगति व्यक्तिको एक अ?।र कदम आगे बढ़नेका अवसर देगी ।
ओर अब, मैं तुम्हें यह बताती हू कि यही कारण था जिससे मैंने सोचा कि यह उपयोगी रहेगा कि सम्मिलित ध्यान किये जायं ताकि एक ऐसे सामूहिक वातावरणके निर्माणका कार्य हों सके जो गत रात्रिके मेरे विशाल होटलसे कुछ अधिक व्यवस्थित हों!
तो, इन ख्यानोंका (जो धीरे-धीरे अब अधिक बार हुआ करेंगे क्योंकि अब हम ''वितरण'' 'के स्थानपर भी ध्यान किया करेंगे) जो सबसे अच्छा लाभ तुम उठा सकते हो वह यह है कि अपने अंदर, जितना तुम जा सकते हो, जाओ और अपनी सत्ताकी गहराईमें उस स्थानका पता लगाओ जहां तुम एकताके वातावरणको महसूस कर सकें।-, प्रत्यक्ष कर सको ओर संभवत: बना भी सको, इस एकताके वातावरणमें व्यवस्था और: संगठनकी शक्ति प्रत्येक तत्त्वको उसके अपने स्थानपर रख सकेगी और इस वर्तमान अस्तव्यस्ततामेंसे एक नये, सुसमंजस संसारकी रचना कर मकेगी । अच्छा ।
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९ जुलाई, १९५७
बच्चोंके साथ यह बातचीत असामान्य
रूपसे मंगलवारको ध्यानसे पहले हुई थी ।
हमने कहा था कि हम अपने-आपको विधिवत् साधनाके लिये तैयार कर रहे है... । इस विषयमें एक बात ऐसी है जिसपर मैं पहले भी बहुत जोर दे चुकी हू, पर (वेद है तुम लोगोंपर उसका कुछ अधिक असर नहीं हुआ । मुझे ख्याल आया कि भावी साधनाके निमित्त तुम्हें तैयार करनेके लिये शायद उसीसे शुरू करना अच्छा रहेगा ।
तो, आजके हमारे ध्यानका विषय होगा : ''वाणीके असंयमद्वारा होने- वाली हानि ।',
अनेक बार मैंने तुमसे यह कहा है कि प्रत्येक शब्द जो निरर्थक रूपमे बोला जाता है एक खतरनाक बकवास है । पर इस प्रसंगमें, ''स्थिति'' अब चरम सीमापर पहुंच गयी है (ऐसी कई बातें हैं जो कही गयी है, बार-बार कही गयी है, और उन सबने जिन्होंने मनुष्य-जातिको पूर्ण बनानेका प्रयत्न किया है उन्हें दोहराया है - दुर्भाग्यवश उनका अधिक फल नहीं निकला), यह प्रश्न है निन्दात्मक बातचीतका... परापवादका, उस रसिका जो दूसरोंकी बुराई करनेसे मिलता है । जो इस असंयममें जिप्त होता है वह
' उन दिनों माताजी खेलके मैदानमें खेल-कूदके बाद मूंगफली या कुछ मिठाई बांटा करती थीं -- अनु.
अपनी चेतनाको नीचे गिराता है, पर इस असंयमके साथ जब व्यक्ति गन्दी तकरार पर उतर आता है और अशिष्ट शब्दोंका प्रयोग करता है तो वह आत्महत्याके बराबर है, अपने अंदर आध्यात्मिक आत्महत्याके बराबर है ।
मैं इस बातपर जोर देती हू और आग्रहपूर्वक कहती हू कि इसे अत्यन्त गंभीरतासे लो ।
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१० जुलाई, १९५७
''यह भी संभव है कि विकासका प्रबेग यह रूप ले कि स्वयं अंगोंका ही परिवर्तन हो जाय, उनकी क्रिया एवं उपयोगमें परिवर्तन आ जाय ओर उनके उपकरणत्वकी, बल्कि उनके अस्तित्वकी भी आवश्यकता बहुत कुछ कम हो जाय । सूक्ष्म शरीरके केंद्र ही -- व्यक्ति सूक्ष्म शरीरसे सचेतन हो जायगा और उसके अंदर जो कुछ होता है उसे जान जायेगा -- अपनी शक्तियोंको स्थूल स्नायु, चक्रों और तंतुओंमें उंडेल देंगे और ३ शक्तियां फिर सारे स्थूल शरीरमेंसे विकीर्ण होंगी । इस प्रकार इस नये जीवनमें सारा भौतिक जीवन और उसके आवश्यक क्रिया-कलाप इन उच्चतर अभिकरणोंद्वारा अधिक स्वच्छंद और प्रचुर रूपमें तथा कम बोझिल और कम सीमाकारी पद्धतिसे चलते रहेंगे और संपादित होते रहेंगे । और यह क्रिया इतनी दूरतक जा सकती ह कि ये अंग अनिवार्य ही न रह जायं, बल्कि हो सकता है कि ये अत्यंत बाधक प्रतीत होने लगें : केंद्रीय शक्ति इनका व्यवहार कम-से-कम करती जा सकती और अंतमें उनके व्यवहारको पूरी तरह हटा सकती है । यदि ऐसा हुआ तो वे अंग पोषणके अभावमें क्षीण हो सकते है और नगण्य अवस्थाको प्राप्त हो सकते हैं या लुप्त हो सकते हैं । केंद्रीय शक्ति उनके स्थानपर बिलकुल भिन्न गुणधर्मवाले सूक्ष्म अंगोंको ला सकती है, और यदि किसी स्थूल वस्तुकी आवश्यकता हो तो ऐसे उपकरणोंको ले आ सकती है जो क्रिया-शक्तिके रूप था नमनीय वाहन हों,
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हो सकता ह ३ ऐसे अंग न हों जिन्हें हम जानते है । यह ( परिवर्तन) शरीरके परमोच्च संपूर्ण रूपांतरका एक भाग हो सकता है, यद्यपि यह भी अंतिम नहीं होगा । ऐसे परिवर्तनों- की कल्पनाके लिये हमें बहुत आगेकी ओर देखना होगा और जो मन वस्तुओंके वर्तमान रूपसे आसक्त है वह उनकी संभावनापर विश्वास करनेमें असमर्थ हो सकता है । पर किसी आवश्यक परिवर्तनको लानेके विषयमें कोई ऐसी सीमा या असंभावना विकासके प्रवेगपर नहीं लादी जा सकतीं... । जिस चीजका अतिक्रमण करना है, जिस चीजका अब कोई उपयोग नहीं रह गया है या जो हासको प्राप्त हों गयी है, जो सहायक नहीं रही, या जो बाधक बन गयी है, उसे छंटा एवं रास्तेमें छोड़ा जा सकता है । शरीरके विकासके, उसके शुरूके प्रारंभिक रूपसे लेकर अत्युन्नत रूप, मानव रूपतक हुए विकासके इतिहासमें यह बात स्पष्ट रही है, तो कोई कारण नहीं कि यही प्रक्यिा मानवसे दिव्य शरीरकी ओर संक्रमणमें क्यों न दखल करे । क्योंकि पृथ्वीपर दिव्य शरीरके आविर्भाव या निर्माणके लिये एक प्रारंभिक रूपांतर अवश्य होना चाहिये, एक नया, महत्तर एवं अधिक उन्नत रूप अवश्य प्रकट होना चाहिये, न कि छोटे-मोटे सुधारोंके साथ वर्तमान भौतिक रूप और उसकी सीमित संभावनाओंको ही चलते जाना चाहिये । ''
एक नये जीवनकी, नये संसारकी स्वच्छन्द कल्पना कर सकनेके लिये सत्ताकी पुरानी आदतोंसे मुक्ति पानेमें सफल होना होगा जो काफी कठिन है । स्वभावतः, मुक्तिका प्रारंभ चेतनाके उच्चतम स्तरोंसे होता है : मनके लिये यह अधिक आसान है कि वह नयी चीजोंकी कल्पना कर लें अपेक्षा प्राण- के कि वह, उदाहरणार्थ, चीजोंको नये रूपमें महसूस करे और शरीरके लिये तो यह और भी कठिन है कि इसका विशुद्ध भौतिक बोध प्राप्त कर सके कि नया जगत् कैसा होगा । फिर भी यह बोध भौतिक रूपांतरसे पहले होना जरूरी है : पहले व्यक्तिको पुरानी चीजोंकी अस्वाभाविकता, और यदि ऐसा कह सकूं तो, उनमें वास्तविकताका अभाव अत्यन्त यथार्थ रूपमें महसूस होना चाहिये । उसे ऐसे महसूस होना चाहिये, बल्कि ऐसे ठोस छाप होनी चाहिये कि वे जीर्ण-शीर्ण, भूतकालकी वस्तुएं है और जिनके बने रहनेका कोई हेतु नहीं रह गया है । भूतकालकी वस्तुएं, जो ऐति-
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हासिक बन चुकी हैं (जौ उस दृष्टिसे अपना महत्व रखती है और वर्तमान और -भविष्यके आगे बढ़ाती है) 1 उनकी पुरानी छाप एक ऐसी गति है जो पुराने जगतसे संबंध रखती है : यह पुराना जगत् है जो अनावृत हो रहा है जिसका अपना भूत, वर्तमान और भविष्य है । पर जहांतक नये जगत्की सृरि:टकी वात है हम कह सकते है कि वहां केवल अवस्थांतर चल रहा है, देरवनेमें ऐसा लगता है -- ऐसी छाप डालता है कि दो चीजों हैं जो एक-दूसरेमें मिली हुई है, पर जो लगभग अलग-अलग है; ' भूतकालकी चीजोंमें, मलें न्यूनाधिक परिवर्तन कर दिये जायें, नयी चीजोंके साथ बने रहनेकी शक्ति-सामर्थ्य नहीं रह गयी है । वह, वह नया जगत् हठात् एक बिलकुल नया ही अनुभव है । इससे मिलते-जुलते कालको जाननेके लिये हमें गिछेके उस समयमें जाना चाहिये जब पशुसे मानव सृष्टिमें संक्रमण हुआ था, पर उस समय चेतना इतने पर्याप्त रूपमें मानसिक नहीं हुई थी कि वह निरीक्षण कर सकती, समझ सकती और बुद्धिपूर्वक अनुभव कर सकती -- मक्र बिलकुल अविज्ञात रूपमें बनाना पड़ा होगा । इसलिये जिस चीजके बारेमें मैं कह रही हू वह पार्थिव सृष्टिमें बिलकुल नयी है, अपूर्व है, ऐसी चीज है जिसका कोई पूर्व-दृष्टांत नही, सचमुच यह एक ऐसा बोध या संवेदन या छाप है... जो बिलकुल निराला और नया है । (थोडी चुप्पीके बाद) एक स्थानान्तरण; एक ऐसी वस्तुसे जो अनावश्यक रूपसे बनी हुई है और जिसके पास, बस, बहुत गौण-सी अस्तित्व-शक्ति शेष है एक ऐसी वस्तुकी ओर जो बिलकुल नयी है, पर जो इतनी छोटी है, इतनी अलक्ष्य है, कह सकते है, अभी प्रायः दुर्बल ही है; उसके पास अभी अपना प्रभाव डालने, अपने स्वत्वको स्थापित करने, अपनी प्रभुता जमानेकी इतनी शक्ति नही है कि वह दूसरेका स्थान ले सकें । इस कारण दोनों साथ-साथ बनी हुई है, पर, जैसा कि मैंने कहा है, एक दूसरेको स्थानांतरित करती हुई, अर्थात्, दोनोंके बीच संबंध गुम है ।
इसका वर्णन करना कठिन है, परंतु यह बात मैं तुमसे इसलिये कह रही हू क्योंकि यही चीज थी जिसे मैंने कल शाम महसूस किया। था । मुझे यह इतनी तीव्रतासे महसूस हुई... कि उसने मुझे कुछ चीजों दिखलायी और एक बार जब मैं उन्हें देख चुकी तो मुझे लगा कि इनके बारेमें तुमसे कहना मजेदार रहेगा ।
यह विचित्र बात है कि इतनी नयी, इतनी विशेष क्षौर मैं कह सकती
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हू कि इतनी अप्रत्याशित चीज सिनेमा' दिखाये जाते समय घटी । जो लोग यह मानते है कि कुछ चीजों महत्त्वपूर्ण है और कुछ नहीं, कुछ क्रिया- कलाप योगमें सहायक हैं दूसरे नहीं, हां, उनके लिये यह एक और अवसर है जो उन्हें, झुठलाता है । मैंने सदा यह पाया है कि अप्रत्याशित चीजों ही सबसे रोचक अनुभव प्रदान करती हैं ।
कल शाम एकाएक कुछ ऐसी चीज हुई जिसका मैंने अभी, जितनी अच्छी तरह मुझसे हों सका, वर्णन किया है (मुझे मालूम नहीं कि मैं तुम्हें अपनी बात समझनेमें सफल हुई या नही), पर यह चीज सचमुच बिलकुल नयी और एकदम अप्रत्याशित थी । हमें गंगा-किनारे स्थित एक मंदिरमें मूर्तिका चित्र दिखाया गया था, जो काफी भद्दा-सा था (क्योंकि मैं समझती हू कि यह मूर्तिका फोटो रहा होगा, मैं इस बारेमें कोई ठीक जानकारी नही प्राप्त कर सकी), जब मैं उस चित्रको देख रही थी, जो देखनेमें बहुत साधारण- सा आर जैसा मैंने कहा काफी भद्दा था, तो मैंने उस वास्तविकताको मी देखा था जिसे वह निरूपित करनेका प्रयत्न कर रहा था और जो उसके पीछे था, और उसने मुझे उस समूचे जगत् के संपर्कमें ला दिया जो धर्मका, पूजा-उपासनाका, अभीप्साका और देवताओंके साथ मनुष्यके संबंधका जगत् था, - मैं पहले ही भूतकालकी क्रियाका प्रयोग कर रही हूं - जो मनुष्यका अपनेसे दिव्यतर किसी चीजको पानेके आध्यात्मिक प्रयासका पुष्प-रूप था, कुछ ऐसी चीज थी जो अपनेसे उच्चतर वस्तुकी ओर उसके प्रयत्नकी उच्चतम और लगभग शुद्धतम अभिव्यक्ति थी । और एकाएक बहुत यथार्थ ओर ठोस रूपमें मुझपर यह छाप पडी कि यह एक दूसरा ही जगत् है, ऐसा जगत् है जो अब वास्तविक और सजीव नहीं रहा, जो पुराना हों चुका है, अपनी वास्तविकता, अपना सत्य रहो चुका है, किसी ऐसी चीजने, जिसने अभी जन्म ग्रहण किया है, इसे अतिक्रांत कर दिया है, पीछे छोड़ दिया है । उसने अपने-आपको व्यक्त करना केवल शुरू ही किया है, पर उसका जीवन इतना प्रबल, इतना सत्य और इतना उदात्त है कि उसके आगे यह सब मिथ्या, अवास्तविक और निसार हों गया है ।
'यहां उल्लेख ''रानी रासमणि'' नामक बंगला फिल्मके बारेमें है जिसमें श्री रामकृष्ण परमहंसका जीवन अंशत: चित्रित किया गया है और रानी रासमणिका भी, जो एक धनी, अत्यन्त बुद्धिमती और धार्मिक प्रवृत्तिकी बंगाली विधवा थीं । उन्होंनें १८४७ मे दक्षिणेश्वर (बंगाल) मे कालीका मंदिर बनवाया था । वहीं श्री रामकृष्ण रहा करते थे और कालीकी पूजा किया करते थे ।
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तब मैंने सचमुच समझा -- क्योंकि मैंने सिरसे या बुद्धिसे नहीं, बल्कि शरीरसे समझा, तुम समझ रहे हों कि मेरा क्या मतलब है -- शरीरके कोषाणुओंमें इसे समझा -- कि एक नये जगत् ने जन्म ले लिया है औ र बढ़ना शुरू कर रहा है ।
जब मैंने यह सब देखा तो उससे मुझे एक चीजकी याद हों आयी जो .... मेरा ख्याल है कि मुझे ठीक याद है, सन् ११२६ ' मे हुई थीं ।
श्रीअरविन्दने बाह्य कार्यका दायित्व मुझे सौंप दिया था क्योंकि वे अति- मानसिक चेतनाकी अभिव्यक्तिमें शीघ्रता लानेके लिये एकाग्रतामें निमग्न हो जाना चाहते थे । कुछ लोगोंसे जो वहां थे उन्होंने कहा था कि वे 'उन्हें सहायता एवं पथ-प्रदर्शनके लिये मुझे सौंप रहे है, स्पष्ट ही मैं उनके संपर्कमें रहूंगी और वे मेरे द्वारा कार्य करेंगे । चीजों एकाएक और जल्दी हीं एक निश्चित रूप लेने लगीं; एक बहुत अद्भुत सृष्टि चरितार्थ की जा रही थी, असाधारण व्योरोंतक मे, अद्भुत अनुभव हो रहे थे, दिव्य सत्ताओंके साथ संपर्क प्राप्त होता था और सब प्रकारकी अभिव्यक्तिया हों रही थीं जिन्हें सामान्यत : चामत्कारिक समझा जाता है । अनुभव एक-पर-एक होने लगे थे, सचमुच चीज एं बिलकुल अद्भुत रूपमें औ र.... मुझे कहना चाहिये, अतीव रोचक रूपमें आत्मप्रकाश कर रही थीं ।
एक दिन, रोजानाकी तरह मैं श्रीअरविन्दको यह बताने गयी कि क्या हुआ है -- हम किसी ऐसी चीजतक पहुंच गये थे जो सचमुच बहुत ही दिलचस्प थी औ र शायद जो हुआ था उसे सुनानेमें मैंने जरा अत्युत्साह दिखाया था -- तो श्रीअरविन्दने मेरी ओर ताका... और कहा : ' 'हां, यह अधिमानसिक सृष्टि है । यह बहुत रोचक है औ र बहुत सुन्दरतासे संपादित की गयी है । तुम चमत्कारोंको संपन्न कर सकोगी और वे तुम्हें सारे संसारमें प्रसिद्ध कर देंगे, तुम पृथ्वीपर सब घटनाओंको उलट-पुलट सकोगी, निश्चित ही.. । '' और फिर वे मुस्कराये और बोले : '' यह बहुत बड़ी सफलता होगी । परंतु यह अधिमानसिक सृष्टि है । यह वह सफलता नहीं है जो हम चाहते है । एक नये जगत्की, अतिमानसिक जगत्की, उसकी समग्रतामें, सृष्टि कर सकनेके लिये तात्कालिक सफलताको कैसे छोड़ा जाता है यह जानना चाहिये । ''
अपनी आंतरिक चेतनामें मैं तुरत समझ गयी : कुछ घंटोंके बाद वह
'यह सन् १९२६ की बात है कि श्रीअरविन्द एकांतमें चले गये और आश्रमकी आधिकारिक रूपसे स्थापना हुई ।
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सृष्टि समाप्त हो गयी... । और त्बसे हमने फिरसे दूसरे आधारपर (कार्य) शुरू किया है ।
हां तो, मैंने तुम लोगोंके सामने यह घोषणा की थी कि नया संसार उत्पन्न हो चुका है । परंतु यह पुराने संसारके भंवर-जालमें इतना अधिक निमग्न था कि आजतक बहुतोंको भेदका कुछ खास पता नहीं लगता । फिर भी नयी शक्तियोंका कार्य अत्यन्त नियमित रूपसे, अत्यन्त धीर-स्थिर रूपमें, अत्यन्त दृढ रूपमें और एक हदतक अत्यन्त प्रभावशाली रूपमें -भल रहा है । मेरा कल शामका अनुभव -- सचमुच इतना नवीन अनुभव -- इस कार्यकी ही एक अभि-व्यक्ति था । इस सारेका परिणाम मैंने उतरोत्तर रूपमें प्राय. प्रतिदिनके अनुभवोंमें लक्ष्य किया है । इसे संक्षेपमें, बल्कि सीधेमें। रूपमें, इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता हैं
पहली बात तो यह कि यह आध्यात्मिक जीवन ओर दिव्य 'सहस्तु' का केवल एक 'नया विचार' मात्र नहीं' है । इस विचारकों श्रीअरविन्दने व्यक्त किया था और स्वयं मैंने भी इसे बहुत बार व्यक्त किया है, इसे कुछ-कुछ ऐसा रूप दिया जा सकता है : पुरानी आध्यात्मिकताका मतलब था जीवनसे भागकर दिव्य 'सद्वस्तु' मे चले जाना और संसारको वही और उसी रूपमें छोड़ देना जहां और जिस रूपमें यह था, जब कि, इसके विपरीत, हमारी नयी दृष्टिका स्वरूप है जीवनको दिव्य बनाना, भौतिक जगत्को दिव्य जगत्में. रूपांतरित करना । यह पहले कहा जा चुका है, वार-बार कहा जा चुका है, बल्कि थोड़ा-बहुत समझा भी जा चुका है, और निश्चय ही यही उस कार्यका आधारभूत विचार है जिसे हम करना चाहते है । परंतु यह ऐसे भी हो सकता था कि उन्नति और विस्तारके साथ पुराना जगत् ही बना रहता (और जबतक यह धारणा विचारके नेत्रमें मौजूद है, वस्तुत: यह उससे भिन्न चीज नही हो सकती), परंतु जो चीज हुई है, सच- मुचमें नयी चीज, वह यह है कि एक नया संसार जन्मा है, जन्मा है, जन्मा है । यह रूपांतरित होता हुआ पुराना संसार नहीं है, बत्कि यह एक नया संसार है जो जन्मा है । और हम ठीक उस कालमें है जो संक्रमणका काक है जहां दोनों एक-दूसरेमें गुंये है -- जहां दूसरा अभी सर्वशक्तिमान् बना हुआ है और साधारण चेतनाको पूरी तरह शासित करता है, पर जहां नया मी चुपके-से घुस आता है, बहुत नम बने रहकर और बिना पता लगे -- इसका पता इस हदतक नहीं लग पात। कि बाहरी रूपमें यह अभीतक अधिक उलट-फेर नहीं कर रहा और अधिकतर लोगोंकी जेतनाके प्रिय ही पूकदम अलक्ष्य है । ' फिर भी यह कार्यरत है और बढ़ रहा है -- समय आयेगा जब यह इतना प्रबल हों जायेगा कि दृश्य तौरपर भी अपनेको मनवा सकेगा।
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जो भी हो, चीजोंको सरल ढंगसे प्रस्तुत करनेके लिये यह कहा जा सकता है कि पुराना संसार, जिसे श्रीअरविदने अधिमानसिक सृष्टि कहा है, विशिर रूपमें, देवताओंका युग था और फलस्वरूप धर्मोंका युग था । और जैसा कि मैंने कहा, यह अपनेसे उच्चतर वस्तुके प्रति मानव प्रयासका पुरुष-रूप था, इसने अनेक धर्मोंको जन्म दिया जो कि सर्वश्रेष्ठ आत्माओं और अदृश्य जगत् के बीच एक धार्मिक संपर्क-रूप थे । इन सबसे ऊपर एक और मी अधिक ऊंची उपलब्धिको पानेके प्रयत्नस्वरूप धर्मकी एकता- के विचारने, सब अभिव्यक्त धर्मोंके पीछे स्थित इस 'अद्वितीय किसी वस्तु'के विचारने जन्म लिया; और यह विचार, कहा जा सकता है कि, सचमुच मानव अभीप्साकी पराकाष्ठा थीं । हां तो, यह है अग्रभाग, एक ऐसी चीज जो अभीतक पूरी तरह अधिमानसिक जगतसे, अधिमानसिक सृष्टिसे संबंध रखती है और वहांसे' इस ''दूसरी किसी चीज''को देखती प्रतीत होती है जो एक नयी सृष्टि है, पर इसे पकडू नहीं पाती -- इसतक पहुंचनेके प्रयत्न करती है, इसे आता हुआ अनुभव करती है, पर इसे समझ नहीं पाती । इसे समझनेके लिये (चेतनाका) विपर्यय जरूरी है । यह जरूरी है कि अधिमानसिक सृष्टिसे बाहर निकल आया जाय । नयी सृष्टि, अति- मानसिक मूउटिको आना था ।
और अब ये सब पुरानी चीजों इतनी पुरानी, इतनी अव्यवहार्य, इतनी अविहित प्रतीत होती है -- जैसे ये वास्तविक सत्यकी विडंबना हों ।
अतिमानसिक जगत्में धर्म नहीं रहेंगे । सारा जीवन ही जगत्में प्रकट होता हुई दिव्य 'एकता'की, रूपोंमें अभिव्यक्ति एवं प्रस्फुटन होगा । और जिन्हें लोग आज देवता कहते हैं वे भी नहीं रहेंगे ।
ये महान् दिव्य सत्ताएं स्वयं भी नयी सृष्टिमें भाग लें सकेंगी; पर इसके लिये उन्हें उस परिधानके साथ जिसे ''अतिमानसिक उपादान'' कहा जा सकता है पृथ्वीपर आना होगा । और यदि उनमेंसे कुछ अपने ही जगत्में, जैसे वे है वैसे ही, बने रहना पसंद करें, यदि वे यह निश्चय करें कि उन्हें भौतिक रूपमें अभिव्यक्त नही होना है तो उनका संबंध अतिमानसिक पृथ्वीके प्राणियोंके साथ मित्रताका, सहयोगिताका, और बराबरीका संबंध होगा, क्योंकि उच्चतम दिव्य तत्व नये अतिमानसिक जगतके प्राणियोंमें पृथ्वीपर प्रकट हो चुका होगा ।
जब भौतिक उपादान अतिमानसिक रूप ले लेगा तो पृथ्वीपर जन्म लेना हीनताका परिचायक नहीं रह जायेगा, इसके ठीक विपरीत, इससे उस परि- पूर्णता एवं प्राचुर्यको प्राप्त किया जा सकेगा जो किसी और तरह नहो पाया जा सकता ।
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परन्तु यह सब भविष्यकी बात है, उस भविष्यकी जो शुरू हो चुका है, पर इसे पूरी तरहसे चइग्रतार्थ होनेमें कुछ समय लगेगा । इस बीच, हम एक ऐसी विशेष, अतीव विशेष अवस्थामें स्थित है जैसी पहले कमी नहीं आयी । हम उस वेलामें उपस्थित है जब नया जगत् जन्म ले रहा है, पर जो बहुत छोटा है, दुर्बल है -- अपने सार-रूपमें नहीं बल्कि बाह्य अभिव्यक्तिमें -- जो अभी पहचाना नहीं गया, अनुभव नहीं किया गया, और बहुतोंने तो उसमें इंकार ही किया है । पर यह मौजूद है । मौजूद है और बढ़नेका प्रयत्न भी कर रहा है तथा परिणामके बारेमें सुनिश्चित है । ता भी इसतक पहुंचनेवाला पथ बिलकुल नया पथ है जिसपर अबतक कोई नहीं चला -- कोई नहीं गया, किसीने अभीतक ऐसा नहीं किया! यह आरंभ है, एक विश्वव्यापी आरंभ । इसलिये. यह एक बिल्कुल अप्रत्याशित और अकल्पित अभियान है ।
पु?छ लोगोंको अभियान प्रिय होते है । उन्हीं लोगोंका मैं आह्वान कर रही हू और उनसे यह कहती हू : ''मैं तुम्हें इस महान् अभियानके लिये निमंत्रित करती हू ।''
यह आध्यात्मिक रूपसे उन्हीं कार्र्योको, जिन्हें, दूसरे हमसे पहले कर चुके है, दुबारा करनेका प्रश्न नही है, क्योंकि हमारा अभियान उससे आगेसे शुरू होता है । यह नयी सृष्टिका, बिधकुल नयी सृष्टिका प्रश्न है जिसमें सब अनपेक्षित चीजों, संकट, खतरे एवं संयोग मौजूद है -- यह सच्चे रूपमें एक अभियान है । इसका लक्ष्य है सुनिश्चित विजय, पर उधर जानेंका मार्ग अज्ञात है, इसे बीहड़ प्रदेशमेसे पग-पगपर खोजना होगा । यह एक ऐसी बात है जो इस वर्तमान जगत्में इससे पहले कभी नहीं हुई और इसी रूपमें फिर कमी होगी मी नही । यदि तुम्हें इसमें रुचि हो... । हां तो, हम चल पड़े । कल तुम्हारे साय क्या होगा -- इस बाबत मैं कुछ नहीं जानती ।
उस सबको एक तरफ रख दो जो पहले देखा जा चुका है, सोचा जा चूका है, बनाया ज। चुका है शेर तब... अज्ञतामें चलना शुरु: करो । जो होना है, हुआ करे! अच्छा ।
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१७ जुलाई, १९५७
किसीको पाठमेसे कोई प्रश्न नही पूछना है?... आज मेरे पास तुमसे कहने- के लिये कुछ विशेष नही है, और यदि तुम्हें कोई उत्सुकता न हो कि शरीरकी नयी पूर्णताए क्या हों सकती हैं...
मां, यहां प्रचलित शारीरिक शिक्षामें हमारा उद्देश्य है : ''शरीर- पर अधिकाधिक नियंत्रण पाना'', है न? और पिछली बार हमने जो पढा था उसमें श्रीअरविंदने कहा है कि हठयोग और तांत्रिक पद्धतियां शरीरपर बहुत बड़ा नियंत्रण प्रदान करती हैं' तो हम अपनी प्रणालीमें इन पद्धतियोंको शामिल क्यों नहीं करते?
' कोई चीज हमारे अंदर है अथवा कोई चीज विकसित करनी होगी, संभवत : अपनी सत्ताके किसी केंद्रीय और अभीतक गुह्य अंगको विकसित करना होगा जो शक्तियोंसे भरा है और उसकी शक्तियां जिस हदतक प्रकट हो सकती थीं उनके केवल एक अंश ही हमारे प्रकृत और वर्तमान गठनमे प्रकट हु है, पर यदि वे शक्ति यां पूरी त रह प्रकट एवं प्रभावशाली हो जायं तो वे आत्मा और अतिमानसिक सत्य-चेतनाकी ज्योति और शक्तिकी सहायतासे आवश्यक भौतिक रूपांतर साधित कर सकती एवं उसके फलोंको सकती है । इस चीजको तत्र-विद्याद्वारा प्रकाशित एवं योग- पडतियोंद्वारा स्वीकृत चक्र-व्यवस्थामें पाया जा सकता है । ये चक्र हमारी सत्ताकी समस्त सक्रिय शक्तियोंके सचेतन केंद्र ओ र स्रोत हैं, विभिन्न ग्रन्थियों- द्वारा अपना कार्य करते है और ऊपर उठती हुई एक क्रम-परंपरामे व्यवस्थित है जो सबसे नीचेके भौतिक केंद्रसे प्रारंभ कर सबसे ऊपर मानस- केंद्र औ र आध्यात्मिक केंद्रतक जाती है । इस सर्वोच्च-केंद्रको ही सहस्र- दल कमल कहा जाता है, जहां आरोहण करती हुई प्रकृति, तांत्रिकोंकी ' कुंडलिनी शक्ति ', ब्रह्ममें जाकर मिल जाती औ र दिव्य सत्तामें मुक्त हो जा ती है । ये सब चक्र हमारे अंदर निमीलित या. अर्ध-निमीलित अवस्थामें है, इन्हें खोलना होगा ताकि इनका पूर्ण स हमारी भौतिक प्रकृतिमें प्रकट हों सके : परंतु एक बार जब ये खुल जाते है तो इनकी क्षमताओंके वि कासकी औ र सर्वागी ण रूपांतरको संभव बनानेकी के ।ई सीमा सहज ही नहीं बांधी जा सकती.. । परंतु ये परिवर्त न भी भौतिक प्रक्रियाओंका
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ये शरीरपर क्रिया करनेकी गुह्य प्रक्रियाएं है (कम-से-कम तांत्रिक पद्धतियां), जब कि उन्नतिकी आधुनिक पद्धतियां सामान्य भौतिक प्रक्रियाओंका व्यवहार करती है, ताकि शरीर अपनी वर्तमान अवस्थामें जितनी पूर्णता प्राप्त कर सकता है, कर लें.. .मै तुम्हारा प्रश्न पूरी तरह पकडू नही पायी । ये प्रक्रियाएं पूर्णतया भिन्न है ।
इन सब पद्धतियोंका आधार है वह शक्ति जो सचेतन संकल्पद्वारा जड़- तत्वपर प्रयुक्त की जाती है । साधारणत: यह एक ऐसी पद्धति है जिसका किसी व्यक्तिने काफी सफलताके साथ प्रयोग किया और इसे एक क्रिया- सिद्धान्तके तौरपर स्थिर कर औरोंको बताया और फिर उन्होंने भी इसे जारी रखा और पूर्ण बनाते गये, अंतमें इसने एक या दूसरे प्रकारकी काफी स्थिर शिक्षण-पद्धतिका रूप ले लिया । परन्तु इसका जो संपूर्ण आधार है वह है सचेतन संकल्पका शरीरपर प्रभाव । पद्धतिके सुनिश्चित रूपका बहुत अधिक महत्व नही है । देशों और कालोंके अनुसार किसी एक या दूसरी पद्धतिका प्रयोग किया जाता रहा है, पर इसके पीछे जो चीज है वह है एक निश्चित धारामें विधिवत् कार्य करती हुई मानसिक शक्ति । स्वभावतः, कुछ पद्धतियां उच्चतर शक्तिको प्रयोगमें लानेका प्रयत्न करती हैं जो धीरे-धीरे अपनी क्षमता मानसिक शक्तिमें उंडेल देती हैं. जब उच्च कोटिकी कोई शक्ति मानसिक पद्धतिमें उडेली जाती है तो स्वभावत: वह अधिक प्रभावकारी और सक्षम बन जाती है । पर प्रधानत: ये सब शिक्षण- पद्धतियां सबसे अधिक उस व्यक्तिपर निर्भर हैं जो इनका व्यवहार करता है और उस ढगपर जिसे वह प्रयोगमें लाता है । वह शिक्षणके इस सर्वथा बाह्य आधारका अत्यधिक भौतिक व सामान्य प्रक्रियाओमें भी उच्च कोटिकी शक्तियोंको भरनेके लिये उपयोग कर सकता है । तो, सब पद्धतियां, वें चाहे जो मी हों, लगभग पूरी तरह उस व्यक्तिपर निर्भर हैं जो उनका उपयोग करता है और इस बातपर कि वह उनमें क्या भरता है ।
कुछ ऐसा अवशेष छोड़ देंगे जो पुराने रास्ते चलता रहेगा और उच्चतर नियंत्रणके वशवर्ती नहीं होगा । यदि इसे परिवर्तित न किया जा सका तो बाकी रूपांतर भी स्वयं रुक सकता या अपूर्ण रह सकता है । शरीरका संपूर्ण रूपांतर इस बातकी अपेक्षा रखता है कि इसका जो अत्यधिक भौतिक मांग है उसका, उसकी रचना, प्रक्रिया एवं स्वभावके गठनका, पर्याप्त परि- वर्तन हो जाय ।
(अतिमानसिक' अभिव्यक्ति)
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लेकिन देखा, यदि इस प्रश्नको अत्यंत आधुनिक और अत्यंत बाह्य रूपमें लें, कि ऐसा कैसे होता है कि जो क्रियाएं हम अपने प्रति दिनके जीवनमें, प्रायः सदा ही, करते है या जो हमें अपने काममें, यदि वह स्थूल भौतिक काम हो तो, करनी. पड़ती है वे हमारी मांसपेशियोंको विकसित करने एवं शरीरमें समस्वरता लानेमें कोई सहायता नहीं करतीं या बहुत थोडी-सी, न के बराबर ही करती' है, जब कि दूसरी ओर ठीक वे ही क्रियाएं यदि सचेतनताके साथ, स्वेच्छापूर्वक, विशिष्ट उद्देश्यको सामने रखकर की जायं नो एकाएक हमारी पेशियों और शरीरके निर्माणमें सहायता करती है । यह कैसे होता है? उदाहरणार्थ, कुछ ऐसे काम है जिनमें लोगोंको अत्यधिक भारी बोझ, जैसे सीमेंट या अनाज या कोयलेके बोरे, ढोने होते है; वे बहुत परिश्रम करते है और इसे एक हदतक उपार्जित सहजताके साथ कर लेते है, हार उससे उन्हें शरीरकी समस्वरताकी प्राप्ति नहीं होती क्योंकि वे इसे अपनी पेशियोंका- विकसित करनेकी भावनाके साथ नहीं करते, वे इसे, बस, ' 'यों ही'' करते रहते है । पर जो व्यक्ति किसी एक पद्धतिका, वह चाहे सीखती हुई हो अथवा अपनी बनायी हुई, अनुसरण करता है और बिल्कुल? इन्हीं क्रियाओंको इस या उस पेशीको उन्नत करनेके और अपने शरीरमें सामान्य समस्वरता लानेके संकल्पके साथ करता है -- वह सफल होता है । परिणामस्वरूप, हम कह सकते है कि सचेतन संकल्पमें कुछ ऐसी चीज- है जो स्वयं कियाके अंदर बहुत कुछ जोड़ देती है । जो लोग सचमुच शारीरिक शिक्षणका -- जैसा कि इसे अब समझा जाता है -- अभ्यास करना चाहते हे वे जो कुछ करते है सब सचेतनताके साथ करते है । वे मीढीमे नीचे उतरनें है सचेतन भावमें, वे साधारण जीवनकी क्रियाओंको करते है सचेतन भावमें, न कि यंत्रवत् । एक सजग दृष्टिको शायद इनमें कुछ फर्क मालूम दें पर सबसे बड़ा फर्क होता है उस संकल्पका, उस चेतना- का जो उसमें डटात्ठी- जाती है । कही जानेके लिये चप्रना और व्यायामके तौरपर चलना, यह एक ही तरहका चलना नहीं है । तो, यह सचेतन संकल्प ही है जो इन सब चीजोंमें महत्त्वकी वस्तु है, यही उन्नति साधित करता और उत्प्रास'ना करता है । अतः मे२ए: कहनेका अभिप्राय यह ' है कि प्रयुक्त पद्धतिका अपने-आपमें केव सापेक्षिक महत्व है, किसी विशिष्ट परिणामको सिद्ध करनेका संकल्प ही असलमें महत्त्वपूर्ण वस्तु है ।
एक योगी या माधक आसनोंको आध्यात्मिक परिणाम या केवल अपने शरीरपर ही नियंत्रण पानेके लिये करता है- और वह इन परिणामोंको पास्वेत। है, क्योंकि वह इसी उद्देश्यके साथ उन्हें करता है, जब कि मैं ऐसे लोगोंको जानती हू जो बिलकुल ये ही चीजों करते है पर ऐसे कारणोंसे
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जिनका आध्यात्मिकतासे कोई संबंध नहीं और वे उनसे उत्तम स्वास्थ्यतक नहीं पा सके! पर फिर भी वें करते है ठीक ये ही चीजों और प्रायः इन्हें योगीसे मी अधिक अच्छी तरह करते हैं, पर इससे उन्हें स्थायी ।स्वास्थ्यकी प्राप्ति नहीं हुई... क्योंकि उन्होंने इस विचारके साथ, इस लक्ष्यको मनमें रखकर आसन नहीं किये थे । मैंने उनसे पूछा, ''भला, यह कैसी बात कि यह सब करते हुए भी तुम बीमार हों? '' -- ''ओह! इस बारेमें तो मैंने कमी सोचा ही नहीं, मैं जो आसन करता हूं वह इसलिये नहीं करता ।', यह चीज इस कथनकी पुष्टि करती है कि सचेतन संकल्प ही जडपर क्रिया करता है, स्थूल कर्म नहीं ।
परन्तु तुम जरा प्रयोग करके देख लो, और तब तुम अच्छी तरह समझ जाओगे कि मेरा मतलब क्या है । उदाहरणार्थ, अपनी क्रियाओंको, कपड़े पहनने, नहाने, कमरा साफ करने.. आदिकी जो भी क्रियाएं है सबको सचेतन भावसे करो, इस संकल्पके साथ करो कि अब यह पेशी काम करेगी, अब वह पेशी काम करेगी, तब तुम उसका फल देखोगे, तुम बहुत ही आश्चर्यकर परिणाम प्राप्त करोगे ।
सीढ़ियोंपर चढ़ना और उतरना -- तुम कल्पना नहीं कर सकते कि यह चीज शारीरिक शिक्षाकी दृष्टिसे कितनी अधिक उपयोगी हों सकती है, यदि तुम जानते हो कि इसका उपपोग कैसे किया जाता है । एक साधारण आदमीकी तरह इसलिये ऊपर जाना क्योंकि तुम ऊपर जा रहे हो और इसलिये नीचे उतरना क्योंकि तुम नीचे आ रहे हों, इसके स्थानपर यदि तुम काम करनेवाली सब पेशियोंसे सचेतन रहते हुए और इसका ख्याल रखते हुए कि वे समस्वरतामें कार्य करें ऊपर जाओ तो तुम उसका फल देखोगे । जरा कोशिश कर देखो! कहनेका मतलब यह कि जीवनकी सभी गतियोंको तुम अपने शरीरके समस्वर विकासके लिये उपयोगमें ला सकते हों ।
तुम किसी चीजको उठानेके लिये झुकते हो, अलमारीके एकदम ऊपर पडी किसी चीजको खोजनेके लिये उचकते हो, दरवाजा खोलते हों, उसे बंद करते हो, रुकावटको देखनेके लिपे चारों ओर मुड़ते हो, ऐसी सैकड़ों चीजों है जिन्हें तुम निरन्तर करते हो और जिनका तुम अपने शारीरिक शिक्षणमें उपयोग कर सकते हों और वे तुम्हें सिद्ध कर दिखायेंगी कि क्रियाओंके अंदर रखी गयी चेतनाका ही प्रभाव होता है, ऐसे ही किये जानेवाले भौतिक कर्मकी अपेक्षा सौगुना अधिक प्रभाव होता है । तो, जो भी पद्धति तुम्हें पसन्द हो तुम उसे चून सकते हों, पर तुम दिन-भरके अपने सारे जीवनको ही इस तरहसे उपयोगमें ला सकते हों... । निरंतर शरीरकी समस्वरताके बारेमें और
गतियोंके सौंदर्यके बारेमें सोचो, ऐसी कोई चेष्टा न करो जो सुललित न हों, जो शोभन न जान पड़ती हो । तब तुम गतियों और भाव-भगिमाका एक असाधारण छन्द पा जाओगे ।
हम अब इस सबपर ध्यान करेंगे ।
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२४ जुलाई, १९५७
''वास्तवमें एक अतिमानस यहां अब भी विद्यमान हैं, पर है निवर्तित अवस्थामें । इस व्यक्त मन, प्राण और जडतत्वके पीछे छिपा हुआ है । अतः अभी प्रकट रूपमें या अपनी स्वीय शक्तिसे क्यिा नहीं करता : अगर बह क्यिा करता है तो इन्हीं निम्नतर शक्तियोंके माध्यमसे, इनके गुण-धर्मोंद्वारा उसमें हेरफेर हो जाते है और इसी कारण उसे अभी पहचाना नहीं जाता । जब ऊपरसे अवतरण करता हुआ अतिमानस सन्निकट आ जायेगा और यहां पहुंच जायेगा केवल तभी यह (निवर्तित अतिमानस) पृथ्वीपर मुक्त हो सकेगा और हमारे अन्नमय, प्राणमय और मनोमय अंगोंकी क्यिामें अपने-आपको प्रकट कर सकेगा, ताकि ये निम्नतर शक्तियां भी हमारी समस्त सत्ताकी संपूर्णतः दिव्यीकृत क्रियाका अंग बन सकें; यही चीज है जो हमें सुसिद्ध दिव्यत्व या दिव्य जीवन प्राप्त करायेगी । 'जडतत्व'में निवर्तित प्राण और मनने भी बिलकुल इसी तरह अपने-आपको यहां ससिद्ध किया है, क्योंकि जो चीज निवर्तित है केवल वही विवर्तित हो सकती है, अन्यथा कोई आविर्भाव ही न हो सकता ।''
मधुर मां, निवर्तित अतिमानस क्या है?
यह वही है जो अ-निवर्तित है!
यह वही चीज है जिसे श्रीअरविदने इस रूपमें कहा है कि यदि भगवान सब वस्तुओंके केंद्रमें न होते तो वह इस जगत्में कमी अभिव्यक्त न हो
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सकते; और उन्होंने इसे इस रूपमें मी कहा ह कि तत्वतः, अपने मूल रूपमें एवं अपनी अंतरतम रचनामें, यह सृष्टि, यह जगत् दिव्य है; और यही कारण है कि दिव्यता एक दिन स्थापित हो सकती है, गोचर बन सकती है और इस समय जो कुछ इसे आवृत एवं विकृत करता है उस सबको स्थापित कर सकती है । इस दिव्यताका जितना अंश अबतक प्रकट हुआ है वह यह जगत् है जिसे हम देरवते हूं, किंतु अभिव्यक्ति अपरसीम है और इस वर्तमान मानसिक इस: बाद, जिसका शिखर तथा आदर्श है मनुष्य, एक दूसरा तत्व प्रकट होगा जिसे श्रीअरविंद अतिमानस कहते है, वस्तुत. यह मनके बाद अगला कदम है, और वर्तमान जगत्की दृष्टिसे देखें तो, स्वभावत: यह ''अतिमानस'', अर्थात्, मनसे ऊपरकी कोई चीज होगा । और वह यह भी कहते है कि यह सचमुच एक जगत्- का दूसरे जगत्में परिवर्तन होगा, क्योंकि अबतक की सारी सृष्टि, जिस रूपमें उसे हम जानते है, उससे संबंध रखती है जिसे उन्होंने ''निम्नतर गोलार्द्ध'' कहा है और जो अज्ञानद्वारा शासित एव अचेतनापर आधारित हैं, जब कि दूसरा जगत् इससे एकदम उलटा होगा, वह किसी ऐसी चीजका प्रकट रूप होगा जो बिलकुल दूसरे ही जगतसे संबंध रखती होगी, उस जगतसे जो अज्ञानपर आधारित न होकर 'सत्य'पर आधारित होगा । यही कारण है कि यह सचमुच एक नया जगत् होगा । परंतु यदि इस ?? अति- मानस) जगत्का सार, इसका मूल-तत्त्व इस वर्तमान जगत्में अंतर्निहित न होता तो एकसे दूसरेमें रूपांतरित होनेकी कोई आशा ही न रहती । तब वे इतने अधिक सौर भिन्न एवं विरोधी दो जगत् होते कि उनमें जरा भी पारस्परिक संबंध न होता । और तब अपरिहार्य रूपसे यह होता कि जिस क्षण व्यक्ति इस जगत्मेंसे बाहर आ जाता और 'सत्य', 'प्रकाश' और 'ज्ञान' के जगत्में उदित हो जाता तो वह निरे अज्ञान और अचेतनाके इस जगत् के लिये, मानों, अगोचर एवं अस्तित्वहीन हों जाता ।
इसका क्या कारण है कि जब यह परिवर्तन हो भी जायगा तब मी एक संबंध बना रहेगा और नया जगत् पुरानेपर क्रिया कर सकेगा? यही कि अपने सार और मूल रूपमें यह पुराने जगत्में पहलेसे विद्यमान और निवर्तित है । तो वस्तुत: यह यहा विद्यमान है, अंदर, एकदम गहराईमें, छिपा हुआ, अदृश्य, अबोध्य एवं अप्रकट है, पर अपने सार रूपमें यह यहां है अवश्य । फिर भी, जबतक ऊपरकी ऊंचाइयोंसे अतिमानसिक चेतना, शक्ति, ज्योति इस जगत्में सीधी अभिव्यक्त नहीं होती, जैसी कि डेढ़ वर्ष पहले हुई थी, तबतक इस अतिमानसके, जौ एक मूल-तत्वके रूपमे इस भौतिक जगत्का आधार-शैल है, अभिव्यक्त होनेकी संभावना नही होगी । नीचे
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इसकी जागृति और अभिव्यक्ति ऊपरसे आनेवाले स्पर्शक प्रत्युत्तर रूप होगी, जो स्पर्श इस जडतत्वकी गहराइयोंमें छिपे अपने समरूप तत्त्वको बाहर निकाल लायेगा... । बस, यही चीज है जो आजकल हो रही है । परंतु जैसा कि मैंने दो सप्ताह पहले तुमसे कहा था, यह भौतिक जगत् अपने प्रत्यक्ष प्रकट रूपमें सामान्य चेतनाके लिये इतना शक्तिशाली और इतने पूर्ण रूपमें सत्य है कि जब अतिमानसिक शक्ति और चेतना आविर्भूत हुई तो यह उसे मानों निगलन ही गया, और अब उसकी उपस्थितिका किसी प्रकार- का जरा-सा आभास, अनुभूति या प्रतीति पानेके लिये भी एक लंबी तैयारी- की आवश्यकता है । आर इसी कार्यमें वह आजकल व्यस्त है ।
इसमें कितना समय लगेगा यह पहलेसे देखना कठिन है । यह अधिकतर कुछ लोगोंकी शुभेच्छा और ग्रहणशीलतापर निर्भर होगा, कारण, व्यक्ति सदा ही समूहकी अपेक्षा अधिक तेजीसे आगे बढ़ता है और अपनी प्रकृतिवश मानद- जाति ही शेष सृष्टिसे पहले अतिमानसको अभिव्यक्त करनेके लिये नियत है ।
इसमें सहयोगकी आधारभूत चीज अवश्य ही परिवर्तनका संकल्प है, यह संकल्प कि हम जैसे है वैसे ही न बने रहें, और यह कि वस्तुएं जैसी हैं वैसी ही न बनी रहे । इसे करनेके कई तरीके है । और 'जब वे सफल हा जाती है तो सभी पद्धतियां अच्छी होती हैं । कोई व्यक्ति इस वर्तमान स्थितिसे गहरे तौरसे विरक्त होकर उससे बाहर आने और किसी अन्य वस्तुको पानेकी तीव्र चाह अनुभव कर सकता है । कोई दूसरा ऐसा अनु- भव कर सकता है - और यह अधिक भावात्मक पद्धति है -- वह अपने अंदर सुनिश्चित रूपसे किसी सुन्दर और सत्य वस्तुका स्पर्श एवं सान्निध्य पाकर स्वेच्छासे शेष सबको छोड़नेका लिये तैयार हों सकता है ताकि इस नये सौंदर्य और सत्यकी ओर प्रयाणमें कोई चीज भार न बने ।
प्रत्येक दशामें जो चीज अनिवार्य है वह है प्रगतिके लिये एक प्रदीप्त संकल्प और अग्रगतिको अटकानेवाली सब चीजोंका स्वेच्छासे प्रसन्नतापूर्वक त्याग : आगे बढ़नेसे जो कुछ रोकता हों उसे अपनेसे परे फेंक दो और अज्ञातकी ओर 1 इस प्रज्वलित विश्वासके साथ कृउछ करो कि यही कलका सत्य है, यह अवश्यंभावी है, अवश्य प्रकट होगा, कोई चीज, कोई व्यक्ति, कोई सद्भावना, यहांतक कि प्रकृति मी, इसे वास्तविक रूप लेनेसे नही रोक सकती -- शायद यह सुदूर भविल।दुयकी चीज नहीं है -- यह एक वास्तविकता है जो इस क्षण भी क्रियान्वित की जा रही है । और जो परिवर्तित होना तथा पुरानी आदतोंसे अपनेको बोझिल न होने देना जानते हैं वे निश्चय ही उसे न केमेल देखनेका, बल्कि जीवनमें चरितार्थ करनेका भी सौभाग्य प्राप्त करेंगे ।
लोग सो जाते है, भूल जाते हैं, जीवनको हलके रूपमें लेते हैं -- वेमुले रहते हैं, सब समय भूले रहते है... । परन्तु यदि तुम यह याद रख सको... कि हम एक विशेष घडीमें, एक अनुपम कालमें उपस्थित है, और यह कि नये जगत् के प्रादुर्मावके ममय उपस्थित होने का एक बहुत बड़ा सौभाग्य, एक बहुमत अवसर हमें प्राप्त हुआ है तो तुम उस सबसे आ सानी- से छुटकारा पा सकते हो जो बाधा पहुंचाता और प्रगतिको अटकाता है । तो जो चीज सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है वह है इस तथ्यको याद रखना और इसकी ठोस अनुभूति न होनेपर भी इस मे निश्चयता और विश्वास बनाये रखना; सदा याद रखना, बार-बार उस स्मृतिको वापस बुल लाना, इसी विचारके साथ सोना, इसी भावनाके साथ उठना, जो कुछ मी करना सब हसीन महान् सत्यको, एक सतत अवलंबके रूपमे, पृष्ठभूमिमें रखते हुए करना कि हम एक नये जगतके प्रादुर्भावकी वेलामें उपस्थित हैं ।
हम इस मैं भाग लें सकते है, हम यह नया जगत् बन सकते है । और सचमुच, जब तुम्हें इतना अद्भुत अवसर प्राप्त हुआ है तो इसके लिये सब कुछ छोड़नेको तत्पर होना चाहिये ।
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३१ जुलाई, ११५७
मधुर मां, शुक्रवारको आपने हमें ध्यानके लिये यह विषय दिया था : ''शरीरमें भगवानके लिये अभीप्सा कैसे जगायी जाय ।',
हां !
मां, इसे कैसे किया जाय?
स्वभावत: इसे करनेके कई तरीके है, और वस्तुत: प्रत्येकको अपना-अपना तरीका ढूंढना चाहिये । प्रारम्में वह बहुत भिन्न और बाह्य रूपसे काफी कुछ विरोधी भी हो सकता है ।
पहले समयमें, जब योग जीवनसे पलायन-रूप था, सामान्य रीति यहीं थी कि, कुछ थोड़े-से पूर्व-निर्दिष्ट व्यक्तियोंको छोड़कर, लोग योगके बारेमें
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तभी सोचते थे जब वे बूढ़े हो जाते, काफी लंबा जी लेते, जीवनके उतार- चढ़ाव, सुरव-दुख, खुशी और गमको, इसके दायित्वोंको और इसके भ्रममंजनोंको जान चूकते थे । निश्चय ही उस सबको जान चूकते थे जिसे सामान्यत: मनुष्य जीवनसे प्राप्त करता है और स्वभावत: इस सबसे जीवन- के सुखोंकी अवास्तविकताके प्रति उनकी आंखें कुछ-कुछ खुल जाती थीं, और इस कारण वे किसी दूसरी चीजको सोचनेके लिये काफी एक चुके होते थे, ओर उनका शरीर भले जवानीके जोशसे भरा न हों. (!), कम-से- कम बाधक नहीं बनता था, तृरितयोंको छककर जान लेनेके कारण ज्यादा कुछ मांगता न था.. । इस छोरसे आध्यात्मिकताके लिये प्रयत्न करना तब बहुत अच्छा है जब व्यक्ति जीवनको पीछे छोड़ देना चाहता हों और उससे रूपांतरके लिये किसी सहयोगकी आशा न करता हों । स्पष्ट ही यह मबसे सरल पद्धति है । परंतु यह मी सुस्पष्ट है कि यदि व्यक्ति चाहता हो 'कि यह भौतिक जीवन भी दिव्य जीवनमें भाग लें, उसकी क्रिया एवं उपलब्धिका क्षेत्र बने तो यह अधिक अच्छा है कि इसकी 'प्रतीक्षा न की जाय कि शरीर जीर्ण-शीर्ण और होकर पर्याप्त रूपसे... शांत हों ले ताकि वह योगमें रुकावट न डाल सकें । इसके विपरीत यह कहीं अधिक अच्छा है कि इसे तब योगमें लगाया जाय जब बिलकुल युवा हो, शक्ति- सें भरा हों आर अपनी अभीप्सामें यथेष्ट उत्साह और तीव्रता भर सकता हो । तब व्यक्तिको त्एसी थकावट या क्लांतिपर निर्भर रहनेकी अपेक्षा, जिसमे किसी मी चीजके रिनये और अधिक मांगे नहीं रह जाती, एक प्रकार- के आंतरिक प्रवेगपर, अज्ञातके प्रति, नवीनके प्रति -- पूर्णताके प्रति, अरर- मे उठनेवाली उत्साह व प्रवेगपर निर्भर करना चाहिये । और यदि तुम्हें ऐसी अवस्थाओंमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त हो जहां तुम बचपनसे ही सहायता और पथ-प्रदर्शदा प्राप्त कर सको तो जब तुम बहुत छोटे हों तभी जीवनसे मिलनेवाले क्षणिक होकर उथले सुरवों और उस अद्भुत वस्तुके बीच विवेक करनेका' प्रयत्न करो जब जीवन, कर्म और उन्नति एक पूर्णता और सत्यके जगत्में संपादित होंगे, जहां ममि तुच्छ सीमाएं और तुच्छ अक्षमताएं विलीन हों जायेंगी ।
जब व्यक्ति बहुत छोटा होता है और जिसे मैं' ''शुभ-जात' ' कहती हू, अर्थात् वह सचेतन चैत्य-पुरुषके साथ जन्म लेता है तो उस बालकके सपनोंमे सदा इस प्रकारन्रुाई अभीप्सा रहती है जो उसकी बाल-चेतनाके लिये एक प्रकारकी महत्वाकांक्षा होती है, वह अभीप्सा किसी ऐसी चीजके लिये होती खै जो सुंदर-ही-सुंदर है, जहां कुरूपताका नाम नही, जहां, बस, न्याय है, अनीति या अन्यायाचरण नही, जहां अपार सौजन्य है और अंतमें जहां सचेतन
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कौर सतत रूपसे मिलनेवाली सफलता-ही-सफलता है और जहां नित्य-निरतर चमत्कार-पर-चमत्कार होते हैं । जब वह छोटा होता है तो चमत्कारोंके ही सपने लेता है, वह चाहता है सब दुष्टता और दुर्जनता मिट जाय, प्रत्येक वस्तु सदा प्रकाशपूर्ण, सुंदर और आनंदमय बनी रहे, वह उन कहानियोंको पसंद करता है जौ सुखान्त होती है । यही चीज है जिसपर तुम्हें निर्भर करना चाहिये । जब शरीर दुःख-दर्द महसूस करता हो तथा अपनी अक्षमता एवं अशक्तता महसूस करता हों तो उसे ऐसी शक्तिके सपने दो जिसके सामर्थ्यकी कोई सीमा नहीं, ऐसे सौदर्यके जिसमें कोई कुरूपता नहीं और अद्भुत क्षमताओंके सपने दो : बालक ऐसे-ऐसे सपने लेता है कि वह हवामें उड सकता है, जहां जरूरत हो वहां उपस्थित हो सकता है, बीमारोंको अच्छा कर सकता है; सचमुच ही बचपनमें व्यक्ति इसी प्रकारके सब सपने लेता है... । सामान्यत: माता-पिता और शिक्षक इन सबपर पानी फेर देते है, यह कह- कर कि ''ओह! वह, वह तो सपना है, वह वास्तविकता नहीं है । '' जव कि होना इससे ठीक उलटा चाहिये । बच्चोंको बताना चाहिये कि ''हा, यही चीज है जिसे सिद्ध करनेका तुम्हें, प्रयत्न करना चाहिये ओर यह केवल संभव ही नहीं, बल्कि सुनिश्चित मी है, बशर्ते तुम अपने अंदर उस वस्तुके संपर्कमें आ जाओ जिसमें इसे करनेकी सामर्थ्य है । इसीको तुम्हारे जीवनका पथ-प्रदर्शन करना चाहिये, उसमे व्यवस्था लानी चाहिये और उस सच्ची वास्त- विकताकी ओर तुम्है विकसित करना चाहिये जिसे दुनिया भ्रम समझती है ।''
ऐसा ही होना चाहिये, बजाय: इसके कि बच्चोंको साधारण मामूली बच्चे बना डाला जाय, जिनकी समझ सादी और ग्राम्य होती है, जिसमें ऐसी सत्यानासी आदत जमकर बैठ जाती है, जहां कहीं कुछ अच्छा हुआ नहीं कि झट 'यह विचार ऊपर उठ आता है कि ''ओह! ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलेगा,'' जब कोई व्यक्ति मधुर और शिष्ट बर्ताव करता है तो यह छाप कि ''मोह । वह बदल जायेगा! '' जब तुम किसी चीजको संपन्न करनेमें समर्थ हो जाते हो तो यह भावना, ''ओह! करने मैं इसे इतनी अच्छी तरह न कर सहूगा । '' यह चीज तुम्हारे अंदर सब कुछको नराट कर देनेवाले तेजाबकी तरह काम करती है, और यह भविष्यकी संभावनाओंमें आशा, निश्चयता और आत्म-विश्वासको हर लेती है ।
बालक जब उत्साहसे भरा हो तो उसपर कभी पानी न क्रेरो । उससे कमी यह न कहो, ''देखो, जीवन इस प्रकारका नहीं है । '' बल्कि तुम्हें उसको उत्साहित करना चाहिये, उससे कहना चाहिये, ''हां, अभी तो चीजों बेशक उस प्रकारकी नहीं है, वे कुरूप प्रतीत होती हैं, परंतु इनके पीछे एक सौंदर्य है जो अपने-आपको प्रकट करनेका प्रयत्न कर रहा है । उसीके
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लिये प्रेम पैदा करो, उसीको आकर्षित करो । उसीको अपने सपनों ओर महत्वाकांक्षाओंका विषय बनाओ ।''
और यदि इस कामको तभी किया।- जाय जब व्यक्ति बहुत छोटा। होता है नो उससे कठिनाई तबकी अपेक्षा बहुत कम होती है जब बादमें उसे इन सब चीजोंको रद्द करना पड़ता है, बुरी शिक्षा-'जन्य बुरे परिणामोंको मिटाना होता है और उस प्रकारकी मूQ तथा तुच्छ सामान्य बुद्धिसे मुक्त होना होता है जो जीवनसे किसी अच्छी चीककी आशा नहीं करती, उसे नीरस और दुखदायी बना डाअती है, फलस्वरूप सब आशाएं और सौंदर्यके सब तथा- कथित मिथ्या सपने खंडित हो जाते है । इसके विपरीत तुम्हें बच्चेंसे (ओर यदि तुम गोदके बच्चे- न हो ता अपने-आपसे) यह कहना चाहिये-, ''मुझ- मे जो कुछ अवास्तविक, असंभव, भ्रमपूर्ण प्रतीत होता हुए वही वास्तवमें मध्य है ओर उसे ही मुझे संवर्धित करना है । '' जब मेरे अंदर यह अभीप्सा है कि ''मैं किसी असमर्थताद्वारा सदाके लिये सीमित नहीं रहूंगा ओर किसी अशुभ भावनाद्वारा हमेशाके लिये रुद्ध नही रहूंगा,'' तो यह मी जरूरी है कि मैं अपने अंदर इस विश्वासको बढ़ाऊं कि यही चीज है जो वस्तुत: सत्य है ओर इसे ही मुझे जीवनमें पाना है ।
तब शरीरके कोषोंमें विश्वास जाग्रत् हों जाता है । और तुम देखोगे कि --वय शरीरके दादरा श्री तुम्हें एक प्रत्युत्तर मिलता है । स्वयं शरीर अनुभव करेगा कि यदि आंतरिक संकल्प सहायता करे, दृढ़ता पैदान करे, दिशा-निर्देश कर ले चले तो हा, सब सीमाएं, सब अक्षमताएं धीरे-धीरे दूर हों जायेंगी ।
और इस प्रकार, जब पहला अनुभव होता है -- कमी-कभी यह तमी हा जाता है जब तुम द-हुत छोटे होते हो -- आंतरिक हर्ष, आंतरिक सौंदर्य, आंतरिक प्रकाशके साथ जब पहला संपर्क होता है, उस चीजके साथ पहला संपर्क होता है जिसे पानेपर तुम एकाएक महसूस करते हों, ''आह! यही तो चीज थी जिसे मैं चाहता था,'' तो तुम्हें चाहिये कि तुम इसे पुष्ट करो, कमी मूलो नहीं, इसे सामने बनाये रखो, अपने-आपसे कहो, ''मैंने इसे जब एक बार महसूसस किया है ता मैं इसे दुबारा भी महसूसस कर सकता हू । यह मेरे किये वास्तविक रह चुका है, चाहें सैकण्ड-भरके लिये ही रहा हो, पर यही चीज है जिसे मैं अपनेमें वापस एशना चाहता हूं... । '' ओर शरीरको डमी ओर आंखें लगाये रखनेके लिये -- इसीकी तलाशके लिये उत्साहित करो, यह विश्वास रखते हुए कि इसके अंदर यह संभावना है ओर यदि यह इसे पुकारे ता यह वापस आयेगी ओर जीवनमें फिर प्रकट होगी । यह ऐसी चीज है जिसे छुटपनमें ही कर लेना चाहिये,' बल्कि ऐसी चीज
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है जिसे हर समय करना चाहिये जब भी तुम्हें अपने अंदर मुड़ते, अपने अंदर संपर्क स्थापित करने, अपने अंदर अवलोकन करनेका अवसर मिले । और तब तुम देखोगे । जव बालक अपनी सहज प्राकृत अवस्थामें होता है, अर्थात् जब वह बुरी शिक्षा और बुरे दृष्टंतद्वारा बिगड़ा नहीं होता, जब वह स्वस्थ, अपेक्षाकृत संतुलित और सामान्य वातावरणमें पैदा होता और पलता है तो शरीरमें एक सहज-स्वाभाविक विश्वास होता है कि यदि कोई चीज बिगड़ भी गयी तो वह ठीक हो जायगी, इसमें मन या प्राणके हस्तक्षेपकी आवश्यकता नही होती । स्वयं शरीरमें यह निश्चयता होती है कि वह अच्छा हो जायेगा, उसे निश्चित विश्वास होता है कि बीमारी या अस्वस्थता अवश्य दूर हों जायेगी । यह तो वातावरागके बुरे संस्कारोंका परिणाम होता है कि शरीर धीरे-धीरे यह सीखने लगता है कि ऐसी मी बीमारियां है जो असाध्य है, ऐसी भी दुर्घटनाएं है जो ठीक नहीं हो सकतीं और यह कि बूढ़ापन भी एक दिन आयेगा, और इसी प्रकारकी सब वाहियात बातें जो उसके विश्वास और उसकी आस्थाको हर लेती है । पर सामान्य अवस्थामें एक सामान्य बच्चेका शरीर (शरीर, मैं विचारकी बात नहीं कर रही), स्वयं शरीर यह महसूस करता है कि जब कोई चीज बिगड़ जायेगी तो निश्चित ही वह फिरसे ठीक भी हो जायेगी । और यदि ऐसा नहीं होता तो इसका अर्थ है कि वह पहले ही बिगड़ चुका है । सुस्थता इसे स्वाभाविक अवस्था प्रतीत होती है और जब कोई चीज खलल डालती है और यह बीमार पडू जाता है तो यह इसे एकदम अस्वाभाविक प्रतीत होता है । अपने सहज-बोधके, स्वाभाविक सहज-बोधके द्वारा इसे निश्चित विश्वास होता है कि सब ठीक हो जायेगा । यह तो केवल विचार- की अशुद्धता ही है जो इसके इस विश्वासको हर लेती है । ज्योज्यों बालक बड़ा होता है विचार अधिकाधिक मिथ्या होता जाता है, तमाम सामूहिक सुझाव आते है और इस प्रकार, थोडा-थोडा करके शरीर अपनी आस्था बैठता है और स्वभावत: अपना आत्म-विश्वास देनेके कारण, संतुलन- को, जब कोई चीज बिगड़ गयी हों तो, पुनः स्थापित करनेकी अपनी स्वाभाविक क्षमताको भी खो बैठता है ।
और यदि तुम्हें, जब तुम बहुत छोटे हो तभीसे, एकदम बचपनसे, धोरवा देनेवाली, अवसाद लानेवाली, बल्कि सडांध पैदा करनेवाली या यूं कहूं, नाट- भ्रष्ट कर देनेवाली चीजों सिखायी जायें - तो बेचारा यह शरीर अपनी पूरी कोशिशोंके बावjऊद बिगड़ चुका होता है, स्वास्थ्य खो चुका होता है और अपनी आन्तरिक सामर्थ्य, अपनी आन्तरिक शक्ति, और प्रतिक्रियाकी क्षमताका मी इसे बोध नहीं रहता ।
पर यदि तुम ध्यान रखो कि यह बिगड़ने न पाये तो शरीरमें अपने ही अंदर 'विजय'का विश्वास होता है । विचारके गलत उपयोगसे और उसका शरीरपर जो प्रभाव पड़ता है वही उससे विजयकी निश्चितिके। छीन लेता है । तो, करने लायक पहली चीज है इस विश्वासको नष्ट करनेकी जगह पोषण एंब संवर्धन करना, और इसके साथ, फिर अभीप्साके प्रयत्नकी जरूरत नही रहती, फिर तो, बस, यह विजयमें इसी आंतरिक विश्वासका बिल्कुल सहज रूपमें प्रस्फुटित होना या उन्मीलित होना होता है ।
शरीर अपने अंदर दिव्य होनेका भाव लिये रहता है ।
तो यदि तुमने इसे खो दिया है तो इसे अपने अंदर पुनः प्राप्त करनेकी कोशिश करो ।
जब कोई बालक तुम्हें ऐसा सुंदर सपना सुनाये जिसमें उसके पास बहुत सारी शक्तियां थीं और सब कुछ बहुत सुंदर था तो छयान रखो, उससे ऐसा कभी न कहो, ''ओह! जीवन इस प्रकारका नहीं है,'' क्योंकि ऐसा करना गलत होगा । इसके विपरीत, उससे कहो, ''जीवन ऐसा ही होना चाहिये
और इसी प्रकारका होगा ।''
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७ अगस्त, ११५७
श्रीअर्रावंद लिखते हैं : ''अतिमानसका अवतरण उस मनुष्यके लिये, जो उसे ग्रहण करेगा और सत्य-चैतन्यसे भर उठेगा, दिव्य जीवनकी सब संभावनाएं खोल देगा । यह न केवल उस संपूर्ण विशिष्ट अनुभवके क्षेत्रको, जिसे पहलेसे आध्यात्मिक जीवनका गठन करनेवाला माना जाता है, बल्कि उस सबको भी हाथमें लेगा जिसे हम इस समय उस क्षेत्रसे बाहर रखते हैं... ।'' (अतिमानसिक अभिव्यक्ति)
तो, तुम क्या जानना चाहते हो? क्या बाहर रखा गया है? हम किसे बाहर रखते है!... यह व्यक्तियोंपर निर्भर है । पर, वास्तवमें तुम पूछ क्या रहे हों?
मैं नहीं देख पाता कि हम किस चीजको अलग रखते हैं ।
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ओह! यह समझदारीकी बात है । यहां हम कहते हे कि हम कुछ भी बाहर नही रंखते । ठीक उसी कारणसे । हमने सगी. मानव-प्रब्रूतियोंको- को अपना लिया है, वे चाहे जो मी हों, उनकों मी जिन्हें बिल्कुल आध्यात्मिक नहीं समझा जाता । पर मैं यह अवश्य कहूगी कि उनकी प्रकृति बदलना बहुत कठिन है! फिर भी, हम चोटा कर रहे है, हम इसमें यथासंभव पूरी सद्भावना लगा रहे है ।
यह भी कहा गया है कि अवतरण परिवर्तनको अधिक आसान बना देगा । '
दो बिन्दु है जो- बहुत जोरसे विरोध करते है - एक तो वह सब जो राजनीतिसे संबंध रखता है और दूसरा वह सब जो घनसे संबंध रखता है । ये दो स्थल ऐसे है जिनके बारेमें मनुष्यकी वृत्तिको बदलना सबसे कठिन है ।
सिद्धान्त रूपमें हमने कहा है कि हमारा राजनीतिसे कोई संबंध नही है और यह सच है कि इस समय प्रचलित राजनीतिसे हमारा कोई संबंध
पृथ्वीपर दिव्य जीवनके लिये यह आवश्यक नही कि वह पार्थिव जीवन- त कोई संबंध न रखनेवाःप्रा और उससे बिलकुल अलग-थलग हों. वह मानव और मानव-जीवनका लेकर, जो कुछ रूपांतरित हो सकता है उसे रूपांतरित करेगा, जो आध्यात्मिक बन सकता है उसे आध्यात्मिक बनायेगा शेषपर अपना प्रभाव डालेगा और उसमें एक मौलिक या ऊपर उठानेवाला परिवर्तन लें आयेगा, वैश्व और व्यक्तिके बीच एक गभीर संबंध स्थापित करेगा और आदर्शको आध्यात्मिक सत्यसे, जिसकी वह ज्योतिर्मय छाया है, आक्रांत कर उसे एक महत्तर एवं उच्चतर जीवनमें या उसकी ओर ऊपर उठानेमें सहायता करेगा.. । यह समग्र ही है कि यदि अतिमानस आ जाय और पार्थिव प्रकृतिमें अतिमानसिक सताकी व्यवस्था एक प्र-मगन तत्त्वके रूपमें स्थापित हो जाय, जैसे आजकत्र मन प्रधान तत्व है, पर हों जाय पूर्ण निश्चितताके साथ, तो पार्थिव जीवनपर प्रभुत्व प्राप्त करना ) सब चीजोंको उनके स्तरपर और उनकी स्वाभाविक सीमाओंके अंदर रूपांतरित करनेकी क्षमता प्राप्त करना, जिसके लिये मन अपना अपूर्णतामें सक्षम नही था, अर्थात् मानव-जीवनमें एक बहुत बड़े परिवर्तनका आ जाना अनिवार्यत: सुनिश्चित हों (जायेगा, चाहे वह रूपांतरकी अवस्थातक न भी जा सकें ।
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नहीं है । पर यह भी एकदम स्पष्ट है कि यदि राजनीतिको इसकी सच्ची भावनामें लिया जाये, अर्थात्, इसे मानव-समुदायोंके संगठन, शासनके ब्योरे, सामूहिक जीवनकी व्यवस्था और दूसरे समुदायों (अर्थात्, दूसरे राष्ट्रों व देशों) के साथ संबंधके रूपमें लिया जाये तो अवश्य ही इसे अतिमानसिक रूपांतरके अंतर्गत होना होगा, क्योंकि जबतक राष्ट्रीय जीवन और राष्ट्रोंका पारस्परिक सबंधु वैसा ही बना रहेगा जैसा अब है तबतक पृथ्वीपर अति- मानसिक जीवन बिताना बिलकुल असंभव है । इसलिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि यह परिवर्तित हों, यह बहुत जरूरी है कि इसपर भी ध्यान दिया जाय ।
जहांतक वित्त-व्यवस्थाका प्रश्न है, अर्थात्, विनिमय और उत्पादनका ऐसा साधन प्राप्त करना जो सरल हो -- ''सरल'', कम-से-कम जो सरल होना चाहिये, आदिमकालकी उस विनिमय पद्धतिसे भी अधिक सरल जब एक चीज देकर दूसरी चीज प्राप्त की जाती थी -- ऐसा साधन जो तत्वतः समूची पृथ्वीके लिये हों, सार्वभौम एवं सर्वत्रोपयोगी हो; जीवनको सरल बनानेके लिये यह चीज बहुत अनिवार्य है । परन्तु मानव प्रकृतिके क्षरण जो चीज अब हों रही है वह ठीक इससे उलटी है । स्थिति ऐसी है कि वह प्रायः असह्य-सी हो उठी है । दूसरे देशोंके साथ थोड़ा मी संबंध रखना असंभव-सा हों गया है, और विनिमयका वह साधन जिसे जीवनको सरल बनानेवाला होना चाहिये था इतना जटिल बन गया है कि जल्दी ही हम गतिरोधकी विकट स्थितिमें पहुंच जायेंगे - हम उस अवस्थाके बहुत, बहुत नजदीक है जब हम कुछ मी न कर सकेंगे, सब बातों- मे बंध जायेंगे । यदि कोई दूसरे देशसे जरा-सी चीज मंगाना चाहता है तो उसे ऐसी जटिल आर कष्टकारक प्रक्रियाओंका अनुसरण करना पड़ता है कि वह सब छेड़-छाड़ अपने छोटे-से कोनेमें बैठ रहता है और अपने ही बगीचेमें होनेवात्ठे आन्दुओंपर संतोष कर लेता है और यह जाननेकी जरा भी आशा नही करता कि दूसरे स्थानोंपर क्या चल या हो रहा है ।
हां तो, ये दो स्थल है जहां सबसे अधिक प्रतिरोध है । मानव चेतना- मे यही चीज सबसे अधिक अज्ञान और अचेतनाकी और सामान्य रूपसे कह सकती हू कि दुर्भावनाकी शक्तियोंके अधीन है । यही उन्नतिमें और सत्यकी ओर बढनेते सबसे अधिक रुकावट डालती है । दुर्भाग्यसे प्रत्येक मनुष्यमें भी यही स्थल है जो दुराग्रही होता है और संकीर्ण रूपमें मूर्खता- पूर्ण बना रहता है और जो उसके सामान्य अम्यासकी बात नहीं, उस सबको समझनेसे इंकार करता है । तो, इन चीजोंको लेकर इन्हें, रूपांतरित करने- की इच्छा करना सचमुच एक वीरतापूर्ण कार्य है । हां, हम इसके लिये
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भी प्रयत्न कर रहे है और जबतक यह हो नहीं जाता तबतक पृथ्वीकी अवस्थाओंको बदलना असंभव है ।
आर्थिक और सामाजिक अवस्थाओंको बदलना राजनीतिक और वित्तीय अवस्थाओंको बदलनेकी अपेक्षा, (अपेक्षा ही) ज्यादा आसान हैं । आर्थिक और सामाजिक दृष्टिसे कुछ ऐसे सामान्य और सार्वभौम विचार हे जिन्हें मानव-मन समझता है । कुछ ऐसी उदार और विशाल भावना और सामूहिक संगठनकी बातें है जो एकदम निरर्थक और अव्यवहार्य प्रतीत नर्द। होतीं, परन्तु ज्यों ही तुम दूसरी दो बातोंको छेड़ते हों, जो अत्यधिक महत्त्वकी है, विशेषत: राजनीतिका प्रश्न, तो बात बिलकुल और हो जाती है... । कारण, हम ऐसे जीवनकी कल्पना कर सकते है जो वित्तसंबंधी सब जटिलताओंसे मुक्त हो -- यद्यपि वह, बिना शब्दालंकारके, होगी एक विशुद्ध दरिद्रता ही : वित्तीय. संभावनाओं और प्रक्रियाओंमें अतिशय भरपूर संभावनाएं निहित हैं, क्योंकि यदि उनका उचित ढंग और उचित वृत्तिके साथ उपयोग किया जाये तो वे मनुष्योंके समस्त संबंधों और कामोंको बहुत हदतक सरल बना देंगी ओर जीवनकी जटिलताको कम कर देंगी जो किन्हीं दूसरी परिस्थितियोंमें करना बहुत कठिन है । पर मैं नहीं जानती कि किस कारणसे (सिवाय इसके कि बुरे-से-बुरा सामान्यत: अच्छे-से-अच्छेके पहले आता है), सरल रास्ता लेनेके बजाय मनुष्योंने इतना जटिल रास्ता पकड़ा है कि बावजूद वायुयानोंके जो तुम्हें संसारके एक कोनेसे दूसरे कोनेतक कुछ ही दिनोंमें पहुंचा देते है, बावजूद सारे आधुनिक आविप्कारोंके जो जीवनको ''छोटा'' बनानेकी कोशिश करते है, इतना नजदीक कि अब दुनियाभरकी सैरके लिये ८० दिन नहीं लगते, बावजूद इस सबके विदेशी मुद्राके विनिमयकी जटिलता, उदाहरणार्थ, इतनी अधिक है कि बहुत-से लोग बाहर नहीं निकल पाते (मेरा मतलब है अपने देशसे बाहर नहीं निकल पाते), क्योंकि उनके पास दूसरे देशमें जानेक्ए; लिये साधन नहीं है और यदि वें दूसरे देशमें रहनेके लिये अपेक्षित धनकी मांग करते हैं तो उनसे कहा जाता है : ''क्या तुम्हारा वहां जाना बहुत जरूरी है? क्या तुम कुछ प्रतीक्षा नहीं कर सकते, इस समय हमारे लिये प्रबोध करना बहुत कठिन है... ।'' मैं मजाक नहीं कर रही, गंभीरतासे कह रहीं हूं, यही हों रहा है । इसका मतलब हैं कि जिस स्थानपर हमने जन्म लिया है उसीमें हम अधिकायिक बंदी होते जा रहे है, जब कि विज्ञानकी प्रवृत्तियों देशोंके इतना निकट लाती जा रही है कि मनुष्य सारे विश्वका हों सकता है या कम-से-कम सारी पृथ्वीका तो हो ही सकता है ।
अच्छा, ता यह है दशा । पिछले युद्धसे तो यह और भी बिगड़ गयी
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है और हर साल बिगड़ती ही जाती है । लोग अपने-आपको एक ऐसी अजीब स्थितिमें पा रहे है कि जिस चीजको उन्होंने इतना जटिल बना डाला है, दुर्भाग्यसे उसे सरल बनानेका कोई साधन उन्हें नही मिल रहा ओर फलस्वरूप पार्थिव वातावरणमें यह विचार विकसित हों रहा है - एक ऐसा विचार जिसे अति मूर्तिपूजा कहा जा सकता है, पर दुर्भाग्यसे यह मूर्खतापूर्ण होनेसे कही अधिक बुरा है, यह विपत्तिपूर्ण है -- यह विचार कि यदि ससारमें एक बहुत बड़ी क्रांति हों जाय तो शायद पीछे स्थिति अधिक अच्छी हो जायगी... । लोग निषेध, असंभवता, प्रत्यादेश, नियम ओर प्रतिक्षणकी जटिलताओंके बीच ऐसे जकड़ गये है कि उनका दम घुटने लगा है और सचमुच उनके अंदर यह विचार आता है कि यदि सब ध्वस्त हा जाय तो शायद चीजों अधिक अच्छी हो जायं!... यह विचार हवा- मे नैण । सभी सरकारोंने अपनी स्थिति ऐसी असंभव बना ली है और वे इतनी अधिक जकड़ दी गयी है कि उन्हें लगता है कि आगे बढ़नेके लिये सब कुछ तोड़ना जरूरी है.. (चुप्पी) । दुर्माग्यसे यह स्थिति संभावनासे कुछ अधिक बन गयी है, एक बहुत गंभीर संकट बन गयी है । और यह भी निश्चित नही है कि जीवन अभी और अधिक असंभव नहीं बनेगा क्योंकि मनुष्य इस दुर्व्यवस्थामेंसे -- जटिलताओंकी इस दुर्व्यवस्थामेंसे, जिसमें मानव- जाति जा फंमी है -- बाहर निकलनेमें अपने-आपको बहुत ही असहाय अनुभव कर रहा है । यह एक छाया है -- पर दुर्भाग्यसे बहुत सक्रिय छाया है -- उस नयी आशाकी छाया. जो मानव चेतनामें उदित हो रही है, वह आशा और आवश्यकता किसी ऐसी चीजके लिये है जो अधिक समस्वर हों, ओर जैसे-जैसे जीवन, जैसा कि यह आजकल बना हुआ है, अधिकाधिक इम समस्वरताका विरोधी होता जाता है वैसे-वैसे वह आवश्यकता भी तीव-सें-तीव्रतर होती जाती है । ये दो विपरीत अवस्थाएं इतने प्रचण्ड रूपमे आमने-सामने मुकाबलेमें खड़ी है कि कि'री भी समय विस्फोट जैसी कोई चीज घट सकती है ।
यह है इस समय संसारकी हालत ओर यह कोई बहुत अच्छी अवस्था नही है । परंतु हुमारे लिये एक संभावना रहती है (मैं पहले भी कई बार तुमसे उसके बारेमें चर्चा कर चुकी हू). चाहे बाहरके संसारमें चीजों पूरी तरह बिगड़ गयी हों और विपत्तिको टाला न जा सकता हों तो भी हमारे लिये एक संभावना है ( मेरा मतलब उन लोंगोंसे है जिनके लिये अति-
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मानसिक जीवन कोरा स्वप्न नहीं है; जो इसकी वास्तविकतामें विश्वास रखते है और जिनमें इसे चरितार्थ करनेकी अभीप्सा है, (मेरा मतलब अनि- वार्य रूपसे उन लोगोंसे नहीं है जो यहा पाण्डिचेरी आश्रममें एकत्र हुए है, बल्कि उन लोगोंसे है जो श्रीअरविद-प्रदत शानसे तथा इस ज्ञानद्वारा ही जीवन-यापन करनेके संकल्पसे परस्पर बंधे हुए है), उनके लिये यह संभावना है कि वे अपनी अभीप्सा, संकल्प और प्रयत्नमें तीव्रता भर तथा अपनी शक्तियोंको एकत्रित कर दिव्य चरितार्थताके समयको कम कर दें, उनके पास इस चमत्कारको कार्यान्वित करनेकी संभावना है कि वे (व्यक्ति- गत रूपमें ओर थोडी मात्रामें सामूहिक रूपमें) दिव्य चरितार्थतामें अपेक्षित समय, अवधि एवं देशपर विजय पा लें, प्रयत्नकी तीव्रताके द्वारा समयका' स्थान लें लें, चरितार्थताकी ओर काफी द्रुत गतिसे और काफी दूरतक बढ़ जायं ताकि संसारकी वर्तमान स्थितिके परिणामोंसे अपने-आपको बचामके, यह संभावना है कि वे शक्ति, बल, प्रकाश और सत्यपर अपने-आपको इतना एकाग्र कर दें कि इसी उपलब्धिके द्वारा वे इन परिणामोंसे ऊपर उठ जाय और उनसे अपने-आपको बचा लें ओर यह कि 'प्रकाश', 'सत्य' अनेरा 'पवित्रता' -- आंतरिक रूपांतरसे प्राप्त होनेवाली दिव्य 'पवित्रता' -- द्वारा प्रदान की गयी सुरक्षाका उपभोग करें और इसके परिणामस्वरूप ऐसा'। हों सकता है कि तूफान संसारपरसे ऐसे ही गुजर जाय और निकट भविष्यकी इस महान् आशाको नष्ट न कर पाये और यह कि यह झंझा दिव्य चरितार्थता- के सूत्रपातको अपने साथ बहा न लें जाय!
आरामसे शांतिके साथ सोते पड़े रहने और चीजोंको उनके अपने ही छंदसे चलते रहने देनेकी अपेक्षा यदि तुम अपने संकल्प, उत्साह और अभीप्साका दबाव डालो और प्रकाशमें उभरा आओ तो तुम अपना मीर ऊंचा उठा सकते हों; तुम चेतनाके उच्चतर क्षेत्रमें अपने रहने, श्वास लेने, उन्नत होने और विकसित होनेके लिये ऐसा स्थान प्राप्त कर सकते हों जो गुजरते तूफानसे ऊपर अछूता हो ।
यह संभव है । बहुत थोड़े परिमाणमें यह पहले भी किया जा चुका है जब पिछली लड़ाई चल रही थी और श्रीअरविन्द यहां थे । इसे दुबारा भी किया जा सकता है । परंतु तुममें इसके लिये चाह होनी चाहिये और प्रत्येकको अपना कार्य जितनी सच्चाई और पूर्णतासे वह कर सकता है, करना चाहिये ।
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१४ अगस्त, १९५७
आज शामको प्रश्नोंका उत्तर देनेके स्थानपर मै चाहती हू कि हम श्रीअरविन्दकी स्मृतिमें ध्यान करें, इसपर ध्यान करें कि उस स्मृतिको अपने अंदर जीवंत कैसे बनाये रखा जाय और उस कृतज्ञताको भी, जो हमारे अंदर उस सबके लिये होनी चाहिये जो उन्होंनें किया और अब भी अपनी सदा ज्योतिर्मय, सजीव और सक्रिय चेतनामें इस महान् दिव्य चरितार्थता- के लिये कर रहे है । वे पृथ्वीपर इस दिव्य चरितार्थताकी केवल घोषणा करने ही नही, बल्कि उसे ससिद्ध करने भी आये थे और वे इसे सिद्ध करने- मे. लगे हुए हैं ।
कल उनका जन्मदिन है, यह विश्वके इतिहासमें एक शाश्वत जन्म है ।
२१ अगस्त, १९५७
मां, काफी समयसे कुछ ऐसा महसूस होता है कि हमारी प्रवृत्तियोंमें सामान्य चेतना कुछ नीचे गिर गयी है, विशेषतः, जबसे आश्रम इतना अधिक बढ़ गया है । इसका क्या कारण है और हम इसका क्या इलाज कर सकते हैं?
क्या तुम आश्रमकी सभी प्रवृत्तियोंकी बात कर रहे हों या केवल खेल- .. आश्रमकी सभी प्रवृत्तिया?
बहुत अधिकको तो मैं जानता नहीं, मां, जिनको मैं देखता हू उनमें ।
(लवि चुप्पीके बाद) बात कुछ जटिल-सी है, मैं समझानेकी कोशिश करती हूं!
एक लंबे अर्मेतक आश्रम व्यक्तियोंका केवल एक जमघट था, प्रत्येक व्यक्ति किसी चीजका प्रतिनिधित्व करता था, पर एक व्यष्टिके तौरपर ही, उनमें कोई सामूहिक संगठन नहीं था । यह शतरंज-पटलपर रखे पृथक्-
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पृथक् प्यादोंकी तरह था -- उनमें केवल ऊपरसे देखनेवाली एकता थीं -- या यूं कहें कि यह एक ऊपरी तथ्य था कि लोग एक स्थानपर एक साथ रहते थे और उनमें कुछ आदतें समान थीं -- वे भी बहुत नहीं, बस कुछेक ही । प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यताके अनुसार विकास करता था -- या नहीं करता था और दूसरोंके साथ उसका संबंध कम-से-कम था । इस प्रकार, इस विचित्र समूहका गठन करनेवाले व्यक्तियोंके मूल्यके अनुरूप यह कहा जा सकता था कि उसका एक सामान्य मूल्य था, पर था बहुत बदलता हुआ और उसमें कोई सामूहिक सत्व नहीं था । यह स्थिति बहुत लैबे-- बहुत ही लंबे समयतक बनी रही । ओर यह तो केवल अभी हाल ही मे एक सामूहिक सत्त्वकी आवश्यकता अनुभव होनी शुरू हुई -- यह जरूरी नह। है कि यह आश्रमतक ही सीमित हो, बल्कि उन सबको मी अपने अंदर समाविष्ट किये हुए है जो अपने-आपको श्रीअरविंदका शिष्य कहते हैं (मेरा मतलब है : भौतिक रूपसे नहीं, बल्कि अपनी चेतनामें), और उनकी शिक्षा- के अनुसार जीवन बितानेका प्रयत्न करते है । उन सबमें एक ऐसे सर्व- सामान्य जीवनकी आवश्यकता जाग्रत हो गयी है जो पूर्णतया भौतिक परि- स्थितिपर ही आधारित न हों, बल्कि एक गहनतर सत्यका प्रतिनिधित्व करता हों, और जबसे अतिमानसिक चेतना और शक्तिका अवतरण हुआ है त्बसे यह और भी प्रबल हो उठी है । यह एक ऐसे समाजका आरंभ है जिसे श्रीअरविदने अतिमानसिक या विज्ञानमय समाज कहा है... । निश्चय ही, उन्होंने यह कहा है कि इसके लिये समुदायके व्यक्तियोंमें, स्वयं भी, अतिमानसिक चेतना होनी चाहिये; परंतु इस व्यक्तिगत पूर्णतातक पहुंचे बिना -- बल्कि इस पूर्णतासे बहुत दूर रहते हुए भी -- जिसे हम ''सामूहिक व्यक्तित्व'' कह सकते हैं उसके निर्माणके लिये एक आंतरिक प्रयत्न मी साथ-साथ चलता रहा है । सच्ची एकताकी, एक गहनतर संबंधकी आवश्यकता अनुभव होती रही है और उसकी प्राप्तिके लिये प्रयल किया गया है ।
इससे कुछ.. कठिनाइयां उठ खड़ी हुई, क्योंकि पहलेका सरव इतना अधिक वैयक्तिक था कि कुछ प्रवृत्तियोंमें खलल पड़ा, मेरा मतानब यह नही है कि भौतिक रूपमें पड़ा, क्योंकि चीजे उससे बहुत भिन्न नही है जैसी पहले थीं, खलल कुछ गहरी चेतनामें पड़ा । और सबसे बढ़कर यह (इसी बातपर मै जोर देना चाहती हू) कि इसने कुछ हदतक एक आंतरिक परस्पर निर्भरता पैदा कर दी है जिसने, स्वभावत: ही, वैयक्तिक स्तरको -- जरा -- नीचा कर दिया है, सिवाय उन लोगोंके जिन्होंने, हम कह सकने है, पहले ही समतल करनेकी प्रवृत्तिका मुकाबला करने लायक पर्याप्त सक्षम
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आंतरिक उपलब्धि पा ली है । इसीसे ऐसी छाप पड़ती है कि सामान्य स्तर नीचे गिर गया है, पर यह बात ठीक नहीं है । सामान्य स्तर पहलेसे अधिक ऊंचा है, परंतु वैयक्तिक स्तर कइयोंमें नीचे आ गया है, वे लोग भी, जो किसी एक या दूसरी उपलब्धिके योग्य थे, ऐसा अनुभव करने लगे है मानों उनपर एक भार आ पड़ा है, जो पहले नहीं था, वे नहीं जानते कि ऐसा क्यों हुआ, यह भार परस्पर-निर्भरताका परिणाम है । पर यह केवल एक अस्थायी प्रभाव है जो उलटे, सुधारकी ओर, ए_क बहुत स्पष्ट सामान्य प्रगतिकी ओर लें जायगा ।
स्वभावत:, यदि प्रत्येक व्यक्ति सचेतन होता और इस प्रकारके समतलनके प्रभावके आगे झुकनेके बजाय इसका मुकाबला करता, ताकि वह समष्टिसे आनेवाले तत्वों, प्रभावों, प्रवाहोंको रूपांतरित कर सकता, उन्हें परिवर्तित एवं उन्नत कर सकता तो समूचा समुदाय ही वेगके साथ उच्च- तर चेतनामें उठ जाता और उससे बहुत आगे बढ़ जाता जहां व्यक्ति पहले था!
मैंने जब तुमसे प्रयत्न करनेकी अधिकाधिक अनिवार्य आवश्यकताके बारेमें कहा था (विस्तारपूर्वक समझाये बिना), तो मेरा लक्ष्य यही था । और निश्चित रूपसे मेरा यह इरादा भी था कि मैं तुम्हें एक दिन यह समझाऊं कि तुम जो व्यक्तिगत प्रयत्न करोगे उससे केवल व्यक्तिगत उन्नति ही न होगी, बल्कि यू कह सकते हैं कि, वह फैलेगी या उसके अत्यंत महत्त्वपूर्ण सामूहिक परिणाम होंगे । परंतु मैंने महीनोंतक कुछ नहीं कहा क्योंकि मै चाह रही थी कि व्यक्तिगत चेतना सामूहिक व्यक्तित्वकी आवश्यकताको स्वीकार करने, बल्कि कह सकती हूं कि उसे माननेके लिये ही सही, तैयार हों जाय । यही चीज है जो तुम्हें अब बतायी जानी चाहिये । इस ऊपरसे देखनेवाली उतारका, जो केवल अकेला नहीं है, दूसरा कोई कारण नहीं । यह विकासकी सर्पिल गति है जिसका यह तकाजा है कि व्यक्ति उपलब्ध स्थितिसे दूर चला जाय, ताकि वह उपलब्धि न केवल अधिक विस्तृत, बल्कि अधिक ऊंची भी हो जाय । यदि इसमें प्रत्येक व्यक्ति चेतन रूपसे और शुभ भावनाके साथ सहयोग दे तो यह विकास कही अधिक द्रुतगतिसे आगे बढ़ेगा ।
यह एक अनिवार्य आवश्यकता है यदि तुम चाहते हो कि आश्रमका यह जीवन ज़ीने लायक हो । प्रत्येक वस्तु जो उन्नति नहीं करती आवश्यक द्वपसे अवनत होने लगती है और नष्ट हो जाती है । यदि आश्रमको बने रहना है तो उसे अपनी चेतनामें विकास करना होगा ओर एक सजीव समष्टि बनना होगा । तो यह बात है ।
विकासके सर्पिल चक्करमें इस समय हम उपलब्धिकी उस रेरवासे कुछ दूर चले गये है जहां हम कुछ वर्ष पूर्व थे, पग्तु हम दुबारा उसपर लौट आयेंगे, पर पहलेसे ऊंचे स्तरपर ।
तो यह है उतर ।
कुछ गतिविधियां ऐसी हो सकती है जो बाहरी तौरसे उसके विपरीत मालूम दें जो कुछ मैंने अभी कहा है, पर वह.. ऐसा ते'। सदा ही होता है । कारण प्रत्येक बार जब तुम कोई चीज चरितार्थ करना चाहते हों तो पहली कठिनाई जो तुम्हारे सामने आती है वह है विरोध, उन सब वस्तुओंका विरोध जो पहले सक्रिय नहीं थीं और अब विरोध करनेके रसिये उठ खड़ी हुई है । वह सब जो इस परिवर्तनको स्वीकार करना नही चाहता, स्वभावत, भड़क उठता और विद्रोह करता है । पर इसका कुछ महत्व नहीं । यह वैसी ही चीज है जैसी व्यक्तिमें होती है । जब तुम प्रगति करना चग्हते हों, जिस कठिनाईको जीतना चाहते हों वह तुम्हारी चेतनामें दसगुना अधिक महत्त्वपूर्ण और बलवती हो उठती है । वहां केवल डटे रहनेकी बात है, बस । यह गुजर जायगी ।
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२8 अगस्त, १९५७
मां, श्रीअर्रावंद यहां कहते हैं : ''समूची मानवजाति (अति- मानसिक प्रभावके) स्पर्शको प्राप्त करेगी या परिवर्तनके लिये तैयार उसका केवल एक भाग, यह इस बातपर निर्भर है कि विश्वके धारावाहि-क्रममें क्या अभिप्रेत या संभव है ।''
''क्या अभिप्रेत या संभव है'' का क्या मतलब है? ये दोनों तो अलग-अलग बातें है । अभीतक आप कहती रहो हैं कि यदि मानवजाति परिवर्तित हो जाय, यदि वह नवजन्ममें भाग लेना चाहे...
दोनों बातें एक ही है । जव तुम किसी चीजको रवास एक स्तरसे देखते हों तो तुम उसे पडी रेखामें देखते हों और जब दूसरे स्तरसे देखने हो
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तो खड़ी रेखामें देरवते हो (श्रीमां अपनी पुस्तकका आवरण और पृष्ठ भाग दिखाती हैं) । तो यदि तुम ऊपरसे देखो तो कहोगे ''अभिप्रेत'' है; और नीचेसे देखनेपर कहोगे ''संभव'' है.. । पर यह है बिलकुल एक ही बात, केवल देखनेके दुष्टि-बिंदुका फर्क है ।
परंतु उस स्थितिमें, हमारी अक्षमतासे या परिर्क्तनेच्छाके अभावसे उसमें कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये ।
हम इस बारेमें पहले कई बार कह चुके है । यदि तुम उस चेतनामें रहते हो जो मनद्वारा कार्य करती है, चाहे वह उच्चतम मन ही क्यों न' हो, तो तुम्हें यह बोध होता है कि कारण और परिणाम पूर्णतया नियत है और तुम महसूस करते हो कि वस्तुएं जैसी है वैसी वे इसीलिये हैं क्योंकि ३ उससे भिन्न हा ही नहीं सकतीं ।
जब तुम मानसिक चेतनासे पूरी तरह बाहर निकल आते हों और वस्तुओं-संबंधी उच्चतर बोधमें -- जिसे तुम आध्यात्मिक या दिव्य कह सकते हो -- प्रवेश पा जाते हो, केवल तभी तुम अपने-आपको एकाएक पूर्ण स्वतंत्रताकी अवस्थामें पाते हो जहां सब कुछ संभव है ।
जिन लोगोंने उस अवस्थाका स्पर्श पाया है अथवा उसमें रहे है, चाहे क्षण-भरके लिये ही सही, उन्होंने उसका वर्णन इस रूपमें करनेका प्रयत्न किया है कि वह एक सर्व-समर्थ पूर्ण निरपेक्ष 'संकल्प' है, और यह चीज मानव मनमें तुरत यह भाव पैदा करती है कि वह स्वेच्छाचारी है । इसी विकृतिके कारण उस विचारकी उत्पत्ति हुई -- जिसे मैं परंपरागत कहती नष्ट -- कि एक सर्वोपरि निरंकुश भग वान् है, जिसे किसी भी आलोकित मनके लिये स्वीकार करना संभव नहीं । मेरा ख्याल है कि ठीक ढंगसे व्यक्त न किया गया यह अनुभव ही उस भावनाका मूल-स्रोत है । असलमें इसे पूर्ण निरपेक्ष 'संकल्प' कहना गलत है : यह उससे बहुत, बहुत, बहुत भिन्न है । यह बिल्कुल दूसरी ही चीज है । कारण, मनुप्य ''संकल्प'' से ऐसा समझता है कि वह एक निर्णय है जो किया जाता ओर कार्यान्वित किया जाता है । हम ''संकल्प'' शब्दका प्रयोग करनेको विवश होते है पर विश्व- मे क्रियारत 'संकल्प' वास्तवमें न तो किया गया चुनाव है और न ही निर्णय । इसके लिये जो शब्द मुझे निकटतम प्रतीत होता है वह है
ईक्षण, अंतर्दर्शन । वस्तुओंकी विद्यमानता इसलिये हुए क्योंकि वे देखी गयी थीं । स्वभावत: यह ''देखना'' वही नहीं है जैसा हम इन आंखोंसे देरवते हैं (श्रीमां अपनी आंखोंके छूती है), फिर भी यही निकटतम है । यह हुक अंतर्दर्शन है -- अपने-आपको उन्मीलित करता हुआ एक अंतर्दर्शन ।
क्रमिक रूपमें जैसे-जैसे विश्वका ईक्षण चलता है -- वह वस्तुगत रूप लेता जाता है ।
इसीसे श्रीअरविन्दने कहा है ''अभिप्रेत या संभव है । '' यह न तो एक चीज है, न दूसरी । जो कुछ भी हम कहते है वह एक विक़ुति है ।
वस्तुगत रूप धारण करना - विश्वका वस्तुगत रूपमें आना -- एक ऐसी चीज है मानो यह शाश्वत कालसे विद्यमान वस्तुका देश ओर कालमें प्रक्षेप हों, उसका मानों एक सजीव बिम्ब हों । और जैसे-जैसे यह बिंब देश और कालके पर्देपर प्रक्षिप्त होता है यह वस्तुगत रूप लेता जाता है ।
परम पुरुष 'अपना बिंब' निहार रहे होते है ।
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४ सितंबर १९५७
आज किसीने मुझसे एक प्रश्न पूछा हैं। यह मेरे उन शब्दोंसे सम्बन्ध रखता है जो मैंने तुमसे १४ अगस्तको, श्रीअरविन्दके जन्मदिवसके पहले कहें थे । यह प्रश्न मुझे रोचक प्रतीत हुआ क्योंकि इसका सम्बन्ध उन वाक्योंमेंसे एकके साथ है जो जरा गूढुया रहस्यमय होते है और सरली- करणके कारण अनेकार्थक या अस्पष्ट-से हों जाते है । जानबूझकर ही उन्हें ऐसा रवा गया था ताकि प्रत्येक ठयक्ति उसे अपनी चेतनाके मंत्रके अनुसार समझ सकें । यह बात मैं तुम्हें पहले कई बार बता चुकी हू कि यह संभव है कि ठीक उन्हीं शब्दोंको विभिन्न स्तरोंपर समझा जाय । इन शब्दोंको जानबूझकर सरल और जानबुद्कर ही अपास्त गया था ताकि उन्हें अर्थकी जिस जटिलताको व्यक्त करना था उसके वाहक बन सकें ।
वह अर्थ विभिन्न स्तरोंपर थोडा-थोडा भिन्न होता है परन्तु वह एक- दूसरेका पूरक होता है और वह तबतक सचमुच पूर्ण नहीं होता जबतक कि
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उसे एक साथ सब स्तरोंपर न समझा जाय । सच्ची समझ सब अर्थोंकी एक साथ समझ है, उसमें सभी अर्थ एक साथ दृष्टिमें, पकडूमें, समझमें आ जाते है । पर उन्हें, व्यक्त करनेके लिये, हमारे पास जो भाषा है वह बहुत अक्षम है, हमें चीजोंको विवश होकर एकके बाद एक करके, बहुत-से शब्दों और अनेक व्याख्याओंके द्वारा कहना पड़ता है.. । मैं भी अब वही करने जा रही हू!
यह प्रश्न उन शब्दोंसे संबंधित है जो मैंने श्रीअरविन्दके जन्मके बारेमें कहें थे (यह उनके जन्मदिनसे पहले कहें गायें थे) । मैंने उसका एक ''सनातन जन्म''के रूपमें वर्णन किया था । मुझसे पूछा गया है कि ''सना- तन''से मेरा क्या. अभिप्राय है ।
स्वभावत:, यदि इन शब्दोंको अक्षरशः: लिया जाय तो एक ''सनातन जन्म' 'का कुछ विशेष अर्थ नहीं बनता । पर मैं तुम्हें अभी बताऊंगी कि कैसे इसकी एक भौतिक व्याख्या या अर्थ, एक मानसिक अर्थ, एक चैत्य अर्थ और तुक आध्यात्मिक अर्थ हो सकता है -- और वास्तवमें है मी । भौतिक रूपमें, इसका अर्थ यह है कि इस जन्मके परिणाम तबतक रहेंगे जबतक स्वयं पृथ्वी रहेगी । श्रीअरविन्दके जन्मके परिणाम पृथ्वीके संपूर्ण अस्तित्वकालमे अनुभव होते रहेंगे । अतः मैंने इसे कुछ कवित्वपूर्ण ढंगसे 'सनातन'' कहा है ।
मानसिक रूपमें, यह एक ऐसा जन्म है जिसकी स्मृति सनातन कालतक बनी रहेगी । आगे युगोतक श्रीअरविन्दका जन्म और उसके प्रभाव स्मरण किये जायेंगे ।
चैत्य रूपमें यह एक ऐसा जन्म है जिसकी पुनरावृत्ति विश्वके इतिहासमें शाश्वत रूपसे युगयुगतक होती रहेगी । यह एक ऐसा प्रादुर्भाव है जो पृथ्वीके इतिहासमें, युग-युगमें, समय-समयपर होता है, अर्थात् यह जन्म स्वयं अपने-आपको नये-नये रूपोंमें बार-बार दुहराता है और शायद प्रत्येक बार कुछ अधिक बड़ी चीज -- अधिक सिद्ध और अधिक पूर्ण चीज -- अपने साथ लाता है, परन्तु यह पार्थिव शरीरमें अवतरित होने, अभिव्यक्त होने, जन्म लेनेकी वही क्रिया होती है ।
और अन्तमें, विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे, यह कहा जा सकता है कि यह जन्म पृथ्वीपर ''सनातन''का जन्म है । क्योंकि प्रत्येक बार जब अव- तार भौतिक रूप ग्रहण करते है ते। यह पृथ्वीपर स्वयं ''सनातन''का जन्म होता है ।
यह सब बात, दो शब्दोंमें आ गयी है : ''सनातन जन्म'' ।
तो, अपनी बात पूरी करते हुए अन्तमें, मैं तुम्हें, एक सलाह देती हू -
भविष्यमें, अपने-आपसे यह कहनेसे पहले : ''लो, इसका, भला, क्या अर्थ है, मुझे ते। कुछ समझमें नहीं आया, शायद ठीकसे अभिव्यक्त नहीं किया गया,'' तुम अपने-आपसे यह कह सकते हों : ''संभवत: मैं उस स्तरपर नहीं हू जहां मैं इसे समझ संक्,'' और तब शब्दोंके पीछे केवल शब्दोंको नही, बल्कि किसी और चीजको खोजनेकी कोशिश करो । यह लो!
मैं सोचती हू हमारे ध्यानके लिये यह एक अच्छा विषय है ।
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११ सितंबर , ११५७
मधुर मां, ऐसा क्यों होता है कि हम पहली दृष्टिमें ही कुछके प्रति आकर्षित हो जाते है और दूसरोंके प्रति हटाव अनुभव करते है?'
सामान्यत: यह प्राणिक सादृश्य एवं समानताओंपर आधारत होता है, किसी और चीजपर नहीं । कुछ प्राणिक स्पन्दन परस्पर-अनुकूल होते है और कुछ नहीं होते । सामान्यत. यही बात होती हो और कुछ नहीं । यह प्राणिक रसायन-विद्या है ।
इससे भिन्न दृष्टिकोण अपनानेके लिये व्यक्तिको बहुत गहरी और बहुत ही स्पष्टदर्शी चेतनामें स्थित होना चाहिये । चैत्य चेतनापर आधारित एक ऐसा आन्तरिक बोध होता है जो हमें जात देता है कि किन लोगोंकी अभीप्सा और उद्देश्य हमारे जैसे है और कौन मार्गपर हमारे संगी हो सकते है और वह बोध तुम्हें, यह स्पष्ट दृष्टि भी प्रदान करता है कि किन लोगों. का मार्ग बहुत भिन्न है, या किनमें ऐसी शक्तियां है जो तुम्हारे लिये विरोधी और तुम्हारी प्रगतिमें हानि पहुँचानेवाली हों सकतीं है । पर इस बोधकों प्राप्त करनेके लिये व्यक्तिको अनन्य भावसे अपनी आध्यात्मिक उन्नति एवं सर्वांगीण सिद्धिमें ही निमग्न रहना चाहिये । किन्तु ऐसा प्रायः होता नहीं । और सामान्यत:, जब व्यक्तिको यह अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है तो इसका परिणाम आकर्षण या विकर्षण नहीं होता, बल्कि यह एक, यूं कह सकते है कि अत्यन्त ''वस्तुगत'' ज्ञान होता है, और एक प्रकारकी
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आन्तरिक निश्चयता होती है जो तुम्हें आकर्षणों या विकर्षणोंद्वारा नहीं, वरन् शान्ति ओर विवेकसे काम करनेके लिये' प्रेरित करती है ।
अतः सामान्य रूपसे और लगभग पूर्ण रूपसे यह कहा जा सकता है कि जिन लोगोंमें अत्यन्त प्रबल और आवेग-युक्त राग व द्वेष हाते है वें प्राणिक चेतनामें निवास करते हैं । उनके साथ मानसिक समानताएं भी मिली रह सकती हैं, अर्थात् ऐसे बुद्धिशाली व्यक्ति होते है जो समान प्रवृत्तियोंसे संपर्क बनाना. पसन्द करते है, पर वहां भी -- ये वे लोग होते. है जो बौद्धिक रूपसे बहुत ऊंचे- स्तरपर होते है - उसका अधिक ठीक रूप यही होता है कि उन्हें संपर्कमें कम या अधिक सर्वानुमति होनी है, कुछ ऐसी चीज जो अधिक शान्त और अनासक्त होती है । व्यक्ति कुछके साथ बातचीत करके प्रसन्न होता है जब कि दूसरोंके प्रति जरा भी आकर्षण नहीं होता । वहां कोई लाभ नहीं दिखायी देता । इस संपर्कमें थोडी दूरी रहती है और यह शान्त होता है, यह बुद्धिके' क्षेत्रसे अधिक सम्बन्धित है । परन्तु राग और द्वेष' स्पष्ट ही प्राणिक जगत्की चीजों है । हा तो, जैसे एक भौतिक रसायन-विद्या है उसी तरह एक प्राणिक रसायन-विद्या भी 'है. कुछ शरीर ऐसे होते हैं जो एक-दूसरेसे दूर हटते है जब कि कुछ आकृष्ट करते हैं, ऐसे पदार्थ होते है जो परस्पर मिल जाते है और ऐसे -मी होते हैं जिनके मिलनेसे विस्फोट होता है, यह भी ऐसी ही बात है । कुछ प्राणिक स्पन्दन ऐसे हाते है जिनमे समस्वरता होती है और इतनी अधिक होती है कि सौमें निन्यानवे बार लोग इन संभावनाओंको उस रूपमें लें लेते हैं जिसे मनुष्य प्रेम कहते है और एकाएक वे महसूस करने लगते है : ''ओह! वह पुरुष, उसीके लिये तोम प्रतीक्षा कर रही थी,'' ''ओह! वह लड़की, उसीकी ता मुझे खोज थी । '' (हंसती हुई) और वे एक-दूसरेकी ओर दौड पड़ते है, - जबतक कि वे यह नहीं जान लेते कि ये बहुत ही ऊपरी बातें है और देर- तक नही टिकती । तो बात ऐसी है । इसलिये जो योग करना चाहते है उन्हें पहली सलाह यही दी जाती है : ''राग-द्वेषसे ऊपर उठा' ।'' यह ऐसी चीज है जिसमे कुछ भी गहरी वास्तविकता नहीं होती और यह कम-से-कम तुम्हें ऐसी कठिनाइयोंमें डाल सकती है जिन्हें, कभी-कभी जीतना बहुत ही कठिन होता है । इन चीजोंसे तुम्हारा जीवन बरबाद हों जा सकता है । और सर्वोत्तम तो यह है कि इन चीजोंकी ओर बिलकुल ही ध्यान न दो -- थोड़ा अन्तमुर्ख होओ ओर अपने-आपसे पूछो कि किस कारण -- यह कारण अधिक रहस्यमय नहीं होता '-- तुम इस व्यक्तिसे मिलना पसन्द करने हो, और दूसरेसे नही ।
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परन्तु एक ऐ सा क्षण होता है जब व्यक्ति पूरी तरह अपनी साधनामें लगा होता है, तब वह अनुभव कर सकता है ( पर बहुत सूक्ष्म और बहुत ही शान्त रूपमें) कि यह सम्पर्क-विशेष साधनाके लिये हितकर है । और दूसरा हानिकर है । परन्तु वह सदा, ऐसा कह सकते है कि, बहुत अधिक ' 'तटस्थ' ' रूप लेता है । और यहांतक कि प्राणके इन तथाकथित आकर्षणों औ र विकर्षणोका विरोधी भी होता है; अधिकतर इसका उनसे कोई सम्बन्ध नहीं होता ।
अतएव, सबसे अच्छी बात यह है कि इन बातोंसे जरा दूर रहकर इन- पर दृष्टिपात करो ओर अपनेको इन चीजोंकी व्यर्थताका उपदेश दो ।
स्पष्ट ही, कुछ प्रकृतिया प्राय. मूलतः बुरी होती है, ये सत्ताएं जन्मसे ही दुष्ट होती हैं और दूसरोंको हानि पहुंचाना पसन्द करती हैं, ओर युक्ति- युक्त रूपमें, यदि तुम बिलकुल स्वाभाविक अवस्थामें होओ, बिगड़े न होओ, सहज प्राकृतिक अवस्थामें होओ जैसे कि पशु होते है ( इस दृष्टिसे वे मनुष्योंसे बहुत अच्छे होते है, विकृति मनुष्यजातिसे शुरू होती है), तो तुम अलग रहोगे, जैसे तुम मूलत: हानिकर वस्तुसे परे रहते हों । परन्तु सौभाग्यसे ये लोग बहुत नहीं होते और जीवनमें जिन लोंगोंसे तुम मिलते हो वे सामान्यतया काफी मिश्रित स्वभावके होते है, उनमें भलार्ड और बुराईमें, yऋ कह सकते है कि, एक प्रकारका संतुलन रहता है और उनके साथ तुम्हारा सम्बन्ध भी एक ही साथ भला औ र बुरा होता है । सों, इसका कोई कारण नहीं कि तुम उनके प्रति तीव्र विद्वेषका अनुभव क रो क्योंकि तुम स्वयं मी वैसे ही, काफी मिश्रित ढंगके व्यक्ति हों ( हस्ते हुए), जैसेको तैसा मिलता है!
यह मी कहा जाता है कि कुछ लोग पिशाच-सदृश होते है औ र जब वे किसी व्यक्तिके पास आते है तो सहज रूपमें उसकी प्राण-शक्ति और बल चूस लेते हैं, उनसे ऐसे ही सावधान रहना चाहिये जैसे किसी भयानक संकटसे रहा जाता है । परन्तु वह भी... यह नही कि उनका अस्तित्व ही नही होता परन्तु वे बहुत नही होते और निश्चित रूपसे इतने पूर्ण रूपसे ( बुरे) नहीं होते कि उनसे मिलनेपर दूर भागनेकी जरूरत पड़े ।
ता', साररूपमें, यदि तुम योगमें उन्नति करना चाहते हों तो करने योग्य पहली बात है अपनी नापसन्दगियोंको जीतना... और अपनी पसन्दगियोंको भी । इन सबपर मुस्कानके साथ नजर डालो ।
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''एक नयी जाति तब पृथ्वीपर और पार्थिव शरीरमें ऐसे मनो- भय जीवोंकी जाति होगी जो विश्वगत अज्ञानके राज्यकी वर्तमान अवस्थाओंसे मुक्त होगी और इस हदतक मुक्त होगी कि उसे एक पूर्णताप्राप्त एवं ज्योतिर्मय मन प्राप्त होगा । यह मन अतिमानस या 'सत्य-चेतना' की एक छोडी सहायक क्रिया होगा और हर हालतमें उन समस्त संभावनाओंसे भरा होगा जो उस सत्यके प्रतिग्रहीताके रूपमें कार्य कर सकेंगी और कम-से-कम विचार और जीवनमें उसकी द्वितीय कोटिकी क्रिया होगा । यह उसका एक भाग भी हो सकता है जिसे पृथ्वी- पर दिव्य जीवन कहा जाता है और कम-से-कम ज्ञानमें होने- वाले विकासका आरंभ हो सकता ह, जो पूर्णत: या मुख्यतः अज्ञानमें नहीं होगा । यह किस हदतक संभव हो सकेगा, सारी मानवजातिको यह अंतमें अपनेमें समेट लेगा या केवल इसका एक उन्नत भाग ही इसे प्राप्त करेगा, यह इसपर निर्भर होगा कि स्वयं क्रय विकासके अंदर कौन-सा अभिप्राय निहित है, इसपर कि जो भी वैश्व या परात्पर 'संकल्प' विश्वकी गतियोंको निर्धारित करता है उसका अभिप्राय क्या है? ''
क्या यह अभिप्राय अज्ञात है?
क्या तुम इसे जानते हो? जानते हा?
यह स्पष्ट ही है कि विकासका एक उद्देश्य है और अब अध- बीच नहीं रुक सकता ।
तुम इसे जानते हों क्योंकि तुमने श्रीअरविदकी पुस्तकें पडी हैं । परंतु राह-चलते किसी व्यक्तिको लो -- वह चाहे जो भी हो -- और उससे पूछो कि इस विश्वका, इस क्रम-विकासका क्या अभिप्राय है, तो तुम्हें पता चलेगा कि वह क्या उत्तर देता है! यहीं कि वह इस बारेमें कुछ नहीं जानता । स्वभावत:, जिन्होंने श्रीअरविदकी पुस्तकें पडी है और उनका अध्ययन किया है वे समझते है कि वे इस बारेमें कम-से-कम कुछ तो जानते हैं । जब श्रीअरविदने यह लेख लिखा था तो स्पष्ट ही उन्होंने इसे उन लोंगोंके लिये लिखा था जो योग नहीं कर रहे, जिन्होंने उनकी
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पुस्तकें नहीं पढ़ीं ओर जो शारीरिक शिक्षाके काममें लगे हुए है; अत. उन्होंने अपने-आपको उनके स्थानपर रखा ओर उनके विचारोंको व्यक्त किया और उन्हें कुछ आगे ले चलनेकी कोशिश की । उन्होंनें यहा अपना आधार उन्हींको बनाया है जिन्होंने उनकी पुस्तकें नहीं पडी ।
परंतु तुम कहते हो, ''यह स्पष्ट ही नैण । '' यहा ऐसे कई है -- निश्चय ही अनेकों है -- यदि तुम उनमें प्रत्येकसे व्यक्तिगत रूपसे पूछो कि जो. कुछ उन्होंनें पढ़ा है उसे बिना दोहराये इस जागतिक क्रम-विकासमें निहित अभिप्रायके बारेमें वे स्वयं क्या महसूस करते या सोचते है, क्या इसमे कोई अभिप्राय है.. । मुझे नहीं लगता कि ऐसे बहुत मिलेंगे जो पूरी सच्चाईसे कह सकें. ''यह ऐसा है, वैसा है, वह है... यह स्पापुट ही वह है । '' उनमेंसे ऐसे लोग तो होंगे जो श्रीअरविदकी रचनाओंके अंश उद्धत कर सकें, पर वैसे... ।
स्वयं तुम यदि सोचना -- जो कुछ तुमने पढा है उसकी सहायतासे सोचना -- बंद कर दो और अपने व्यक्तिगत अनुभवको व्यक्त करनेकी कोशिश करो तो क्या कोई निश्चिति रहेगी?
मैं' पढ्नेसे, या सुननेसे या ऐसी और चीजोंसे जो परिणाम प्राप्त होता है उसके बारेमें नहीं कह रही, समझे? मैं तो उसके बारेमें कह रही हू जो व्यक्तिके निजी, उसके अपने स्वीय अनुभवका परिणाम है, ऐसी चीज जो उसके लिये इसलिये स्पष्ट है क्योंकि वह उसका अपना निजी अनुभव है -- क्या तुम उसका वर्णन कर सकते ते? कर सकते हो क्या?
जी।
जी!,तो तुम्हें बधाई देती हूं ।
मेरे बावजूद, बात ऐसी है ।
अच्छा, मैं आशा करती हू कि तुम जैसे बहुत-से होंगे । बस, इतना ही ।
मुझमें कई विरोधी तत्व भी हैं, पर फिर भी कुछ चीज है '
हां, यह अच्छी बात है, यह अs--छा है -- यह बहुत अच्छा है ।
तो मैं कह सकती हूं तुमने यहा अपना समय बर्बाद नहीं किया है! (हंसी) तो, इस चीजको अब हम 'अपने अंदर देखेंगे !
(ध्यान)
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१८सितंबर ,१९५७
मां, अतिमानसिक जीवनमें गुह्यविद्याका क्या स्थान होगा?
विशेष रूपसे गुहाबीद्या ही क्यों?
क्योंकि सब कुछ ज्ञात होगा, है न?
गुह्यविद्या ही क्यों? अतिमानसिक जीवनमें हर चीजके लिये स्थान है! क्या तुम्हें इसमें विशेष रुचि है?
गुह्यविद्याके बारेमें हम जो कुछ समझते हैं उसके अनुसार यह एक ऐसी विद्या है जो हमें अदृश्य चीजोंका ज्ञान प्रदान करती है, अदृश्य जगत्का, अदृश्य शक्तियोंका... । परंतु अति- मानसिक जगत्में तो यह सब ज्ञात ही होगा ।
गुह्मविद्यासे तुम क्या समझते हो?
अदृश्य जगत् और अदृश्य शक्तियोंका ज्ञान ।
तो -- मैं पूरी तरह समझी नहीं ।. अतिमानसमें व्यक्तिके पास ज्ञान नहीं रहेगा या कुछ ओर?
व्यक्तिके पास पहलेसे ही ज्ञान होगा, इसलिये...
पहलेसे... पर तब वह गुह्यजान होगा! मैं तरह ठीक नहीं समझी ।
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गुह्यविद्या चीजोंके साथ बरतनेका एक (वास ढंग है । 'दिव्य जीवन' पुस्तकमें श्रीअरविदने इसे काफी विस्तारसे समझाया है । यह जानने ओर क्रिया करनेकी विशेष पद्धति है और कोई कारण नहीं कि इसे लुप्त हां ' जाना चाहिये या
यह स्वाभाविक चेतना बन जायेगी । शायद तब इस गुह्य- विद्याको सीखनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी ।
ओह! तुम मोचते हो कि गुह्यविद्या ऐसे सीखा जाती है जैसे कोई पियानो बजाना सीखता है! (हंसी) पर यह ऐसी बात नहीं है, कुछ भी हों, यह ऐसे नहीं होता । असलमें, जिनमें कोई खास अभिवृत्ति नही होती वे गुह्यविद्यापर संसारकी सब पुस्तकें पढ सकते हैं और फिर भी उन्हें पता नहीं चलेगा कि इसका प्रयोग कैसे किया जाय । इसके लिये खास योग्यताकी आवश्यकता होती है ।
यह ऐसा ही है जैसे तुम पियानो बजानेकी विधिपर संसारकी सभी पुस्तकें पढ ले। -- यदि तुम उसे जाओगे नहीं ते।. तुम्हें, कभी बजाना नहीं आयेगा । पर जैसे कुछ जन्मजात संगीतज्ञ और जन्मजात कला- कार होते है वैसे ही कुछ ऐसे लोग भी होते है जो अपने सारे जीवन-भर इसपर मेहनत करते है और कुछ हासिल नहीं कर पाते । गुह्यविद्याके साथ भी ऐसी ही बात है । यदि तुम्हारा मतलब यह हो कि जब. व्यक्ति अतिमानव बन जायेगा तो उसे सब कुछ करनेकी नैसर्गिक क्षमता प्राप्त हों जायगी तो यह बात ठीक है, पर इसका अर्थ यह नह। कि क्षमता सहज-स्वाभाविक-क होगी । हो सकता है तुम्हें, अपना काम सीखनेकी विषयपर ध्यान एकाग्र करनेकी आवश्यकता पड़े ओर यह भी हो सकता है कि व्यक्तिके पास सब कुछ कर सकनेकी सामर्थ्य हो, पर यह जरूरी नहीं कि वह उसे करे हीं! यह सब होते हुए मी भेद होंगे, श्रेणी- करण होगा, व्यक्ति-व्यक्तिके और उनकी विशिहट रुचियोंके अनुसार विशेष योग्यताएं मी होगा । मैं नहीं समझ पाती कि तुम अतिमानसिक जगत्को किसी औरकी अपेक्षा विशेषत: गुह्यक्रियासे ही वंचित क्यों रखना चाहते हो ।
अतिमानसिक जीवनके बारेमें तुम्हारी क्या धारणा है? क्या तुम इसे एक ऐसा स्वर्ग समझते हो जिसमें प्रत्येक व्यक्ति एक ही-सी चीज, एक ही-से ढंगसे करता होगा... स्वर्ग-सम्बन्धी पुराना विचार कि प्रत्येक व्यक्ति वहां देवदूत होता है और वीणा बजाया करता है? बात बिलकुल ऐसी ही नहीं नैण । वहां सब विभेद होंगे, विशिष्टताएं होंगी और विभिन्न क्रिया-
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कलाप होंगे, पर व्यक्ति साधारण मानव अज्ञानमें कार्य करनेके स्थानपर ज्ञानमें कार्य करेगा, बस, यही फर्क होगा ।
और क्षमताएं भी बढ़ जायेंगी, है न?
क्षमताएं?... तुम गुह्यविद्याको इस रूपमें लें रहें हों कि यह जीवन और वस्तुओंपर, एक प्रक्रियाके रूपमें, कार्य करनेकी शक्ति है, पर वह गुह्यविद्या नही, वह तो जादूगरी है ।
गुह्यविद्या चेतनाका एक विशेष प्रयोग है, बस । कहनेका मतलब यह कि इस समय, जैसा कि मनुष्य इसका व्यवहार करते है, यह बाह्य रूपोंके पीछे स्थित शक्तियोंका और उनकी क्रीडाका सीधा प्रत्यक्ष एवं सचेतन बोध है और चूकि यह उनका सीधा प्रत्यक्ष बोध होता है इसलिये व्यक्तिके पास उनपर क्रिया करनेकी शक्ति-सामर्थ्य भी रहती है और वह इन शक्तियोंकी क्रीडामें, अभीष्ट परिणामको? प्राप्तिके लिये, कम व अधिक उच्च संकल्पका हस्तक्षेप करा लेता है ।
अतिमानसिक जगत्में ये शक्ति-सामर्थ्य सहज-स्वाभाविक रूप- मे व्यक्तिको प्राप्त रहेंगे ।
सहज-स्वाभाविक रूपमें... । परन्तु प्रत्येक व्यक्ति ही गुह्यविद्याका प्रयोग करता है, बिना यह जाने कि वह उसका प्रयोग कर रहा है । प्रत्येक व्यक्तिको यह सामर्थ्य सहज-स्वाभाविक रूपमें प्राप्त है पर वह जानता नहीं कि उसे यह प्राप्त है । यह सामर्थ्य सुईकी नोक बराबर बहुत थोडी हो सकती है, औ र यह बहुत बड़ी भी हे । सकती है, पृथ्वी या विश्व जितनी बड़ी भी; पर तुम उसका प्रयोग किये बिना रह रहीं सकते, केवल तुम उस बारेमें कुछ जानते नही । तो, जो फर्क तुम कर सकते हों वह, बस, इतना ही है कि जब व्यक्तिको अतिमानसिक चेतना प्राप्त हो जायगी ते'। वह उसे जानता होगा, बस इतना ही । तो, तुम्हारा प्रश्न अपने-आप समाप्त हे [ जाता है ।
जब तुम सोचते हो ( इस बातके। पता नहीं कितनी ही बार मैंने तुम्हें बताया है), जब तुम सोचते हो तो तुम गुह्यविद्याका ही व्यवहार कर रहें होते हों । केवल, तुम इस बारेमें कुछ जानते नहीं । जब तुम किसी व्यक्तिके बारेमें सोचते हो ते। तुम्हारा एक भाग स्वतः ही उसके संपर्कमें आ जाता है और यदि तुम्हारे विचारके साथ कोई संकल्प मी जुड़ा हुआ
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हों कि वह व्यक्ति इस प्रकार या उस प्रकारका हा, इस काम या उस कामको करे, इस बात या उस बातको समझे (वह चाहे जो भी हो), हां तो, तुम गुह्यविद्याका ही व्यवहार कर रहे होते हो, केवल तुम इसे जानते नहीं... । कुछ लोग इसे शक्तिशाली ढंगसे कर लेते हैं और यदि उनका विचार सशक्त हों तो वह चीज चरितार्थ और सिद्ध हो जाती है, जब कि दूसरोंमें यह (सामर्थ्य) बहुत दुर्बल होतीं है और उन्हें बहुत फल नहीं मिलता । यह तुम्हारे विचारकी प्रबलतापर ओर साथ ही तुम्हारी एकाग्रताकी क्षमतापर निर्भर है । पर इस प्रकारकी गुह्यविद्याका हर कोई बिना जाने ही व्यवहार करता है । तो फर्क इतना ही है कि जौ गुह्यविद्याका वस्तुत: अभ्यास एव प्रयोग करता है वह जानता है कि बह इसे कर रहा है और शायद यह मी कि वह कैसे इसका प्रयोग कर रहा ' ।
आपने हमें श्रीयुत 'क्ष' के बारेमें कई बार बताया है कि ३ एक महान् गुह्मवेत्ता थे, मैंने सोचा कि अतिमानसिक जगत्में तो यह एक सहज प्राकृतिक चीज होगी, हर कोई उन जैसा समर्थ होगा ।
परन्तु विशेष रूपसे यही क्यों? यह) बात तो मेरी समझमें नहीं आयी! विशेष रूपसे गुह्यविद्या ही क्यों?
क्योंकि मैं सोचता हू कि अदृश्य जगत्का सब ज्ञान गुह्यविद्या- के क्षेत्रके अंतर्गत आ जाता है ।
तो, इस समय साधारण जीवनमें मनुष्य अचेतन या अर्द्ध- चेतन है, पर पूर्ण चेतना प्राप्त हो जानेपर वह गुह्मविद्यासे भी वैसे ही पूर्ण रूपसे सचेतन हो जायगा ।
नहीं, यह सब बहुत सुन्दर है, परन्तु तुम सोचते हों कि अतिमानसिक जीवन- मे कार्य-कालोंमें कोई श्रेणी-विभाजन नहीं रहेगा या कुछ और? यह कि वहां सब अभिन्न, एक-सदृश होगा, सबके पास एक सर्व-सामान्य सहज प्राकृतिक क्षमता होगी?
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नहीं, वहां भी क्रम-सोपान होगा ।
वहां वस्तुओंसे बरतनेके सदा विभिन्न तरीके होंगे । हों सकता है कि गुह्य- शक्ति अधिक सर्व-सामान्य हों, परन्तु यदि तुम्हारी कल्पना ऐसी हो कि वहां प्रत्येकके पास समान रूपसे एक ही-सी गुह्यशक्ति होगी तो वहां कोई विभेद नहीं रहेगा । समझ रहे हो? कुछ लोंगोंके पास गुह्यशक्ति होती है आर वे उसका प्रयोग उनपर करते है जिनके पास वह नहीं होती किन्तु यदि प्रत्येकको वह ममान रूपसे उपलब्ध हों तो वह फिर गुह्यविद्या ही नहीं रहेगी.. । तुम्हारा अभिप्राय यही है?
जी ।
आह!... खैर, मुझे पूरा विठवास है कि अत्यन्त पूर्ण अतिमानसिक स्थितिके चरितार्थ हो जानेपर भी व्यक्ति-व्यक्तिके बीच क्षमताओं और गुणोंका विभेद माद बना रहेगा । परन्तु बजाय इसके कि व्यक्ति कमी तो अपने स्थान- पर रहे और कमी न रहे, जो करना चाहिये. उसे कमी तो करे और कमी न करे, और करे भी तो अचेतन रूपमें, इसकी जगह वह अपने सही स्थान- पर -- मैं सोचती हू सदा अपने ही स्थानपर -- होगा और जो उसे करना चाहिये उसे सदा करेगा ओर सचेतन रूपसे करेगा । दूसरे शब्दोंमें, बजाय वहां होने, ओर अधेएमें जाननेकी कोशिश करने एवं टटोलनेके वह जानता होगा कि उसे क्या करना है और उसे आतम रूपसे करेगा । यही सारा फर्क है । विभिन्नताZ वहां रहेगी, प्रत्येकका अपना भाग होगा, अपना स्थान होगा, प्रन्येकक्ए: अपने क्रिया-कलाप होंगे । यह मत सोचो कि हर एक एक जैसा दीरवने लगेगा, एक ही-सा काम, एक ही-से तरीकेसे करता होगा! वह तो भयंकर संसार होगा ।
हम कह सकते है कि अतिमानसिक जगत्में ओर हमारे वर्तमान जगत्में इस प्रकारका भेद होगा : जो कुछ तुम नहीं जानते उसे जान जाओगे, जो तुम नही कर सकते उसे कर सकोगे, जो तुम नहीं समझते उसे समझ लोगे ओर जिन चीजोंसे तुम अचेतन हों उनसे सचेतन हों जाओगे । और म्उलत: नयी सृाइा:टका आधार यही है : अज्ञानके स्थानपर ज्ञान, अचेतनाके स्थानपर चेतना और दुर्बलताके म्यानपर बल-सामर्थ्यकी स्थापना करना । परन्तु इसका जरूरी तौरसे यह मतलब नहीं है कि प्रत्येक चीज एकसदृश होगी और इस हदतक कि उसे पहचाना भी न जा सके ।
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श्रीअरविन्दने हमें बताया है कि स्वयं अतिमानसमें उपलब्धिके विभिन्न स्तर है और ये स्तर क्रमिक रूपसे विकासकी उसी गतिके साथ ही व्यक्त होंगे जो विश्वकी उन्नतिकी अधिष्ठात्री रही है । लोगोंके लिये अतिमानसिक जीवनमें विकासकी कल्पना करना कठिन केवल इसलिये हो रहा है क्योंकि अबतक यह जगत् मनुष्योंके अधिकतर भागके लिये बन्द रहा है या कुछके लिये मुश्किलसे थोड़ा-सा खुला है, पर विकास वहां बना ही रहेगा । और जिस क्षण प्रगति होती है उसके साथ आरोहण मी होता है । वहां पूर्णता है पर बह मी एक निश्चित विधानके अनुसार उन्नत होती रहती है । और यह विधान चेतनाके सामने -- चाहे वह पूर्णत: आलोकित चेतना ही क्यों न हो -- क्रमश: उद्घाटित होता है और यह अज्ञानमें काम करनेके बदले सत्यमें काम करता है.. । वह कुछ चीज' जो 'अभिव्यक्ति'में संपूर्ण एवं समग्र रूपमें, एक बरगी ही (कुछ-कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि अतिविस्तृत रूपमें) विद्यमान नहीं है, पर जो उत्तरोतर बढ़ रही है, वह भी वृद्धिके उसी विधानका अनुसरण करेगी जैसा कि यह जगत् जिसमें हम अब रहते है । पर इसके स्थानपर कि हमें पता ही न हों कि हम कहां जा रहे है, हां, हमें अपने रास्तेका पता होगा और हम उसका सचेतन रूपसे अनुसरण करेंगे । इसके स्थानपर कि व्यक्ति, बस, खड़ा कल्पना करता या अनुमान या अटकल लगाता रहे कि क्या करना चाहिये, वह देख सकेगा कि उसे कहां जाना है ओर जान सकेगा कि वहां कैसे पहुंचना है । तो यही मौलिक भेद होगा । निश्चय ही, यह कोई नीरस, उबाऊ जीवन नही होगा जहां सब कुछ अनिश्चित कालतक बना रहे और उसमें कोई परिवर्तन न हो ।
मैं समझती हू मानव चेतनामें सदा यह प्रवृति होतीं है कि वह कही पहुंच जाना, बैठ जाना चाहती है, वह ऐसा अनुभव करना चाहती है कि आखिर, यह समाप्त हो गया : ''हम पहुंच गायें, ठिकाने लग गये, अब और नहीं हिलना ।'' वह ता एक दुर्बल अतिमानस होगा ।
पर बढ़ती हुई पूर्णताकी ओर आरोहण एवं विकासकी यह गति निश्चय ही वहां स्पष्ट दीख पड़ेगी । और अन्धकारमें अपने-आपको उन्मीलित करनेके स्थानपर -- जहां हर एक अन्धा है और टटोलता है -- यह प्रकाश- मे अपने-आपका उन्मीलित करेगी और व्यक्तिको यह जाननेका आनन्द
'इस वार्ताके प्रथम प्रकाशनके समय, श्रीमांने इस ''कुछ चीज''का अधिक स्पष्टतासे वर्णन किया : ''वह अनमिव्यक्ति जो अपनी अभिव्यक्तिके लिये अतिमानसिक जगत्का प्रयोग करेगी ।''
प्राप्त होगा कि वह कहां जा रहा है और कैसे चल रहा है । बस इतना
तो तुम्हें मेरे पास आकर यह नही पूछना चाहिये. ''क्या वहां यह चीज होगी? '' या : ''क्या वहां वह चीज नहीं होगी? '' जितनी चीजों हमारे पास अब हैं उससे बहुत ज्यादा चीजों वहां होंगी । सब संभव चीजों वह्रां होंगी ।
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२५ ,सितंबर १९५७
''एक नवीन मानवजातिका हमारे लिये अर्थ है मनोमय प्राणियोंकी एक ऐसी जाति था संततिका आविर्भाव या विकास जिसका मानसिक तत्व अज्ञानमें रहनेवाला ठीक वही मन नहीं होगा जो ज्ञानकी तलाश करता है, पर अपने ज्ञानकी स्थिति- मे भी अज्ञानसे बंधा होता है, जो ज्योतिकी खोज तो करता है पर उसका स्वाभाविक स्वामी नहीं होता, ज्योतिकी ओर खुला तो होता है पर ज्योतिके अंदर निवास नहीं करता, जो अभीतक पूर्णताप्राप्त यंत्र नहीं है, सत्यसे सचेतन और अज्ञानसे मुक्त नहीं है । इसके स्थानपर वह जाति पहलेसे ही उस वस्तु- पर अधिकार पा चुकी होगी जिसे ज्योतिर्मय मन कहा जा सकता है, ऐसा मन जो सत्यमें निवास करनेमें समर्थ होगा, सत्यके विषयमें सचेतन होने और अपने जीवनमें अप्रत्यक्षकी जगह प्रत्यक्ष ज्ञानको व्यक्त करनेमें समर्थ होगा । उसकी मनः शक्ति ज्योतिका यंत्र होगी और अब अज्ञानका यंत्र नहीं रहेगी । अपनी उच्चतम अवस्थामें वह अतिमानसमें प्रवेश करनेमें समर्थ होगी, और उस नयी जगत्मेंसे ही अतिमानवोंकी नयी जाति तैयार की जायगी जो पार्थिव प्रकृतिके बिकासके अग्रणीके रूपमें आविर्भूत होंगे ।',
निश्चय ही यह वही चीज है जिसकी श्रीअरविन्द हमसे आशा करते थे और जिसकी उन्होंने एक ऐसे अतिमानवके रूपमें कल्पना की थी जो वर्तमान मानव और अतिमानवके बीच एक मध्यवर्ती सत्ता होगी, उस अतिमानवके
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जो अतिमानसिक तरीकेसे निर्मित होगा, जो पतुकी श्रेणीमें बिलकुल न रहेगा और जो पशुजीवन-सम्बन्धी समस्त आवश्यकताओंसे मुक्त होगा ।
हम लोग, जैसे अब हैं, सामान्य पशु-प्रणालीसे उत्पल हुए हैं और परिणामत यदि हम अपने-आपको रूपान्तरित कर भी लें तब भी हममें पशुउद्गमका कुछ-न-कुछ अंश बचा ही रहेगा । पर श्रीअरविन्दकी दृष्टिका अतिमानव साधारण पशु-पद्धतिसे जन्म हर्गिज नही' लेगा, बल्कि वह सीधा, एक ऐसी प्रक्रियाद्वारा निर्मित होगा जो अभीतक हमें गुह्य प्रतीत होती हो पर जो शक्तियों और उपादानका एक ऐसा प्रयोग होगी जिससे शरीर साधारण पशु-विधानके अनुसार की गयी रचना न होकर 'भौतिकीकरण होगा, न कि साधारण पशु-विधानके अनुसार सृष्ट एक रचना ।
यह बिलकुल स्पष्ट है कि मध्यवर्ती जीवोंका होना जरूरी है ओर यह भी कि इन्हीं मध्यवर्ती जीवोंको ही उन साधनोंको खोजना होगा जो अति- मानसके जीवको रूपायित कर सकें । इसमें सन्देह नही कि श्रीअरविन्दने जब यह लिखा था तो उनका विश्वास था कि इसी कार्यको हमें करना है ।
मैं सोचती हू - मैं जानती हू -- कि अब यह सुनिश्चित है कि हम उस चीजके। पा लेंगे जिसकी उन्होंनें हमसे आशा की है । अब यह आशा- मात्र नहीं रही, बल्कि एक निश्चयता हो गयी है । अब केवल समयकी बात हैं जो इस उपलब्धिके लिये जरूरी है और वह हमारे व्यक्तिगत प्रयत्न, हमारी एकाग्रता और हमारी सद्भावनाके... और उस महत्त्वकी अनुसार जो हम इम तथ्यको देते है कम या अधिक लम्बा होगा । अन्यमनस्क दर्शकको चीज़ें बहुत कुछ वैसी ही लग सकती है जैसी वे पहले थीं, पर जो देखना जानता है और बाह्य प्रतीतियोद्वारा भ्रान्त नहीं होता उसके लिये चीज़ें ठीक चल रही है !
प्रत्येक अपना अधिकतम प्रयत्न करता चले तो शायद सबके नित्य पहले प्रत्यक्ष परिणामोंके दृष्टिगत होनेमें बहुत अधिक वर्षोंसे बितानेकी जरूरत न होगी ।
यह देखना तुम्हारा काम है कि यह कार्य तुम्हें संसारकी अन्य सब वस्तुओंसे अधिक रोचक लगता है या नहीं.. । एक समय होता हैं जब स्वयं शरीर अनुभव करने लगता है कि इसके समान, इस रूपांन्तरके समान संसारकी कोई चीज नहीं है जिसके लिये जीवन धारणा किया जाय, ऐसी कोई चीज नहीं जिसके लिये इतनी अभिरुचि हों सके जितनी रूपांन्तरके लिये तीव्र अभिरुचि । ऐसा प्रतीत होता है मानों शरीरके सब कोषाणु उस 'प्रकाश'के प्यासे है जो व्यक्त होना चाहता है, उसको पुकारते है,
उसमें एक गभीर आनन्द पाते है और 'विजय'के बारेमें सुनिश्चित है ।
इसी अभीप्साको मैं तुम्हारे अन्दर संचारित करनेकी कोशिश कर रही h और तुम समझ जाओगे कि इस कार्यकी तुलनामें, 'प्रकाश'में रूपान्तरित होनेकी तुलनामें जीवनका ओर सब कुछ नीरस, निसार, निरर्थक और निकम्मा हैं ।
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२ अक्रूर, ११५७
''अतिमानसका मूल स्वरूप है सत्य-चेतना जो अपने स्वभावके सहज अधिकारसे, अपने ही प्रकाशद्वारा जानता है : उसे ज्ञानपर पहुंचना नहीं होता, बल्कि ज्ञान उसके पास पहलेसे होता है । निश्चय ही वह, विशेषत: अपने विकास-कार्यमें, ज्ञानको बाह्य चेतनाके 1rपीछे रख सकता और इस तरह उसे सामने ले आ सकता है मानों बह पर्देके पीछेसे आया- हो; पर, तब भी, यह पर्दा केवल प्रतीत होता है, वास्तवमें यह वहां होता नहीं : ज्ञान बराबर वहां था, चेतना उसे अधिकृत किये थी और अब प्रकट करती है... 'ज्योतिर्मय मन' मे, जब वह पूरी वर्तुल पूर्णताको प्राप्त कर लेता है, सत्यका यह विशिष्ट गुण अपने-आपको प्रकट करता है । यद्यपि यह गुण वसन धारे होता है, पर वह वसन, उसे ढकता हुआ प्रतीत होनेपर भी, पारदर्शक होता है । क्योंकि यह भी एक सत्य- चेतना, ज्ञानकी एक आत्म-शक्ति ही है जो अतिमानससे ही उद्भूत और उसीपर आश्रित है, यद्यपि है सीमित और अवरकोटिका । जिस चीजको हमने विशेषत: 'ज्योतिर्मय मन'- का नाम दिया है बह वास्तवमें चेतनाके लोकोंकी उतरती क्रमपरपरामें ऐसा अंतिम स्तर है जिसमें अतिमानस अपनी पसंदकी सीमाद्वारा या स्व-अभिव्यक्तिकी क्यिाओंके अल्प- परिवर्तित रूपोंके द्वारा अपने-आपको आवृत कर रखता है, परंतु उसका मूल स्वभाव ज्यों-का-त्यों बना रहता है : उसमें प्रकाशकी, सत्यकी, ज्ञानकी ही क्रिया होती है, वहां अचेतना, अज्ञान, भूलम्गंतिके लिये कोई स्थान नहीं । वह ज्ञानसे
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ज्ञानकी ओर बढ़ता है, यहां अभी हम सत्य-चेतनाकी सीमा पार कर अज्ञानके अंदर नहीं आये है ।',
मधुर मां, मैं प्रकरणके इस अंशको समझा नहीं :
'' 'ज्योतिर्मय मन' मे, जब वह पूरी वर्तुल पूर्णताको प्राप्त कर लेता हैं, सत्यका यह विशिष्ट गुण अपने-आपको प्रकट करता है, यद्यपि यह गुण वसन धारे होता है, पर वह वसन, उसे ढकता हुआ प्रतीत होनेपर भी, पारदर्शक होता है... ।',
हूं, इसमें तुम क्या नही समझे?
ऐसा वसन जो पारदर्शक होता है और
प्रतीक है ।
यह कुछ-कुछ ऐसी बात ह ।
अतिमानसिक दृष्टिमें यक्रुतिक बरतुओंका सीधा, समग्र और तत्काल ज्ञान प्राप्त हो जाता है, इन अर्थोंमें कि व्यक्ति प्रत्येक वस्तुको उसके अपने पूरे और समग्र रूपमें एक साथ देख लेता है, वस्तुके सत्यको उसके सब पहलुओंमें एक साथ और.. इन पहलुओंको मी युगपत पूरा-का-पूरा देख लेता है । पर ज्यों ही वह उसे समझाना या निरूपित करना चाहता है, यूं कह सकते हैं कि, वह उस स्तरपर उतरनेको विवश होता है जिसे श्रीअरविन्दने यहां ''ज्योतिर्मय मन'' कहा है जंहापर वस्तुओंको एकके बाद एक करके, एक विशेष क्रममें और एक-दूसरेके साथ विशेष संबंधमें कहना या सोचना या व्यक्त करना होता है । इसमें युग- पदता लुप्त हों जाती है क्योंकि व्यक्त करनेके हमारे वर्तमान ढंगकी स्थिति- मे सब चीजोको एक साथ, एक ही बारमें कह सकना असंभव है, अत. हम जो कुछ देखते या जानते है उसके एक भागको प्रदेशमें रखनेको विवश होते है ताकि हम उसे एक-एक करके सामने ला सकें, इसी चीजको उन्होंने ''पर्दा'' कहा है, जो पारदर्शक है क्योंकि व्यक्ति एक साथ सब कुछ देखता और जानता है, उसे वस्तुका समग्र ज्ञान होता है, परंतु वह उसे एक बारमें ही पूरे-का-पूरा व्यक्त नहीं कर सकता । जबतक हम वैसे ही बने है जैसे हम है, हमारे पास न तो शब्द है और न व्यक्त करनेकी संभावना । हमें अपने-आपको व्यक्त करनेके लिये आवश्यक रूपसे निम्न कोटिकी प्रक्रिया- का उपयोग करना पड़ता है, पर फिर भी हममें उस समय पूरा शान रहता
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है; इस ज्ञानको शब्दोंमें संचारित करनेकी आवश्यकता ही हमें, यूं कह लें, हम जो कुछ जानते है उसके एक भागको पर्देमें रखने 'और उसे क्रमिक रूपसे बाहर लानेको विवश करती है । पर यह पर्दा पारदर्शक है क्योंकि हम वस्तुको जानते है - उसे उसकी समग्रतामें जानते, देरवते, समझते है -- पर हम सब कुछ एक ही साथ व्यक्त नहीं कर सकते, हमें चीजोंको एक- एक करके क्रमिक रूपसे कहना होता है । यह अभिव्यक्तिका पर्दा है जो हमारी प्रस्तुत करने और समझनेकी, दोनों ही आवश्यकताओंके अनुकूल है । शान वहां विद्यमान है, सचमुच विद्यमान है -- ऐसा नही है कि व्यक्ति उसे खोज रहा हो और ज्यों-ज्यों पाता जाता हो त्यों-त्यों व्यक्त करता जाता हों - यह वहां अपनी संपूर्णतामें विद्यमान है, पर अभिव्यक्तिकी आवश्यकता व्यक्तिको वस्तुओंको एक-एक करके कहनेको विवश करती है; और इससे स्वभावत. जो कुछ वह बोत्बता है उसकी सर्वशक्तिमत्ता कमी आ जाती है क्योंकि उसमें सर्वशक्तिमान तभी रह पाती है जब वस्तुकी समग्र दृष्टिको उसकी समग्रतामें व्यक्त किया जाय । सर्वज्ञता वहां तत्वतः विद्यमान है, वहा है, सुस्पष्ट रूपमें है, परंतु इस सर्वज्ञताकी संपूर्ण शक्ति कार्य नहीं कर सकती क्योंकि उसे अपने-आपको व्यक्त करनेके लिये एक स्तर नीचे उतर आना पड़ता है ।
समझमें आया कि मेरा क्या मतलब है? हां?
पूरे तौरसे अतिमानसिक ज्ञानमें वास कर सकनेके लिये अभिव्यक्तिके वर्तमान साधनोंसे भिन्न साधनोंकी आवश्यकता है । अतिमानसिक ज्ञानको अतिमानसिक तरीकेसे व्यक्त कर सकनेके लिये अभिव्यक्तिके नये साधनोंको विकसित करना होगा... । अब, हम अपनी मानसिक क्षमताको उसकी चरम अवस्थातक उठानेकी बाध्य है, ताकि वहां केवल एक प्रकारकी, यूं कह सकते है कि, मुश्किलसे देखनेवाली सीमारेखा रहे -- फिर भी सीमारेखा तो रहेगी, क्योंकि हमारे अभिव्यक्तिके साधन अभी मी मानसिक जगतके है, उनमें अतिमानसिक क्षमता नहीं है 1 हमारे पास उनके लिये आवश्यक इन्द्रिय मी नहीं हैं । हमें अतिमानसके जीव बनना होगा, जिनका उपादान अतिमानसिक हों, आंतरिक रचना अतिमानसिक हो ताकि हम अतिमानसिक ज्ञानको अतिमानसिक तरीकेसे अभियुक्त कर सकें । अबतक हम... आधे रास्तेमें है; हम, अपनी चेतनामें कहां, पूरी तरह अतिमानसिक दृष्टि और शानमें उदित हों सकते हैं, परंतु उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते । अपने- आपको अभिव्यक्त करनेके लिये हमें फिरसे एक स्तर नीचे आनेको बाध्य होना पड़ता है ।
तो यह पर्दा जो उसे ढकता हुआ प्रतीत होनेपर भी पारदर्शक होता है,
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चेतनाके लिये पारदर्शक है समझ रहे हों? क्योंकि चेतना वस्तुओंको अति- मानसिक तरीकेसे देखती और जानती है, पर एक भाग पर्देमें रहता है और केवल क्रमिक रूपसे ही बाहर आता है क्योंकि इसे दूसरी तरहसे करनेका कोई रास्ता नहीं । परंतु चेतनाके लिये यह. पारदर्शक है, यद्यपि बाह्यत यह छिपा प्रतीत होता है । यही बात है ।
कल हमने जो सिनेमा देखा था उसके बारेमें मुझसे प्रश्न पूछे गायें है, ... । पहला प्रश्न यदि और कुछ न कहा जाय तो विचित्र तो है ही! मैं उसे ठीक उसी रूपमें तुम्हारे सामने रख रही हू । मुझसे पूछा गया है :
''आपने 'प्रार्थना और ध्यान' पुस्तकमें जिन बुद्धका जिक्र किया है क्या वे ही वास्तविक बुद्ध हैं जिनकी प्रतिमाएं पूंजी जाती है? ''
प्रतिमाएं..... बुद्धिकी प्रतिमाएं हज़ारों है । एक बुद्ध वे है जिस रूपमे वे भारतमें गाने जाते है, ३ बुद्ध हैं जिस रूपमें वे लीकमें माने जाते है, वे बुद्ध है जो तिब्बतमें माने जाते है, वे बुद्ध हैं जो चीन, कंबोडिया, थाईलैड़, जापान और दूसरे स्थानोंपर माने जाते है । यदि तुम ऐतिहासिक तथ्यकी बात कर रहे हों तो मैं सोचती हू, हर एक तुमसे यही कहेगा कि वे भारत- के गौतम बुद्धिकी स्तुति करते हैं, पर असलमें बुद्ध धर्मकी हर एक शाखा, और. बहुत-सी दूसरी शाखाओंमें, प्रत्येककी बुद्धके बारेमें अपनी ही कल्पना है और वह एक दिव्य सत्ताकी कल्पना होनेकी अपेक्षा कहीं अधिक उस देवताकी कल्पना होती है जो प्रतिमामें पूजा जाता. है, इसलिये... यदि तुम मुझे कोई प्रतिमा दिखाओ और पूछो : ''क्या इस प्रतिमामें उन्हीं बुद्धका प्रभाव या उपस्थिति है जिन्हें आपने देखा है? '' तो मैं कह सकती हू, हां या नहीं, परंतु जब तुम कहते हो : ''जिनकी प्रतिमाएं पूंजी जाती है'', ता उत्तर दे सकना मेरे लिये संभव नही क्योंकि यह इसपर निर्भर है कि पूजी जानेवाली प्रतिमामें किस सत्ताको उतारा गया है । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह सदा वही नाम होता है, पर वास्तवमें मैं नहीं जानती कि यह
'महात्मा बुद्धपर अंग्रेजीमें एक प्रलेख. चित्र : गौतम बुद्ध ।
'''प्रार्थना और ध्यान'' दिसंबर २० -२ १, १११६ मातृवाणी खण्ड १,
पृ ० २००-२०१
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सदा वही आध्यात्मिक व्यक्तित्व होता है या नहीं, इसलिये मैं' कुछ नहीं कह सकती ।
यदि तुम मुझसे उन प्रतिमाओंके बारेमें पूछो जो हमने कल देरवी थीं... तुमने देखा कि वें कितनी अधिक थीं और उनमें कुछ तो बहुत, बहुत भिन्न थी । वह एक बहुत ही भिन्न बुद्ध थे । एक प्रतिमा ऐसी थी जो बार- बार दिखायी गयी थी, वह जो' कि बहुत प्रामाणिक है, पर वहां बहुत सारी ऐसी भी थीं जो कम-से-कम बुद्धके दूसरे ही व्यक्तित्वोंको प्रस्तुत करती थी । सब इसपर निर्भर है कि तुम्हारा मतलब क्या है, यदि तुम्हारा मतलब ऐतिहासिक रूपसे है तो, हां, वे सदा तुमसे यही कहेंगे कि ये बुद्ध ही है, पर प्रत्येक प्रतिमा भिन्न होती है ।
तो, यह हुआ पहला प्रश्न । अब हम दूसरी बातपर आते है जो बिलकुल भिन्न है :
''वर्तमान समयमें, बुद्धकी शिक्षा मानवजातिको अतिमानसीकरणके पथपर (बढ़नेमें) किस रूपमें सहायता या बाधा पहुंचा सकती है? ''
प्रत्येक वस्तु जो मानवजातिको प्रगति करनेमें सहायता पहुंचाती है, एक सहायता है और वह सब जो उसे प्रगति करनेसे रोकता है एक बाधा है!
वस्तुत:, यह प्रश्न तुम मुझसे इसलिये कर रहे हो क्योंकि हम 'धम्मपदका अध्ययन करते और उसपर ध्यान करते है'... । स्वभावत: मैंने इस पुस्तकको इसलिये लिया है क्योंकि मैं समझती हू कि विकासकी एक विशेष अवस्थामें यह बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकतीं है । यह एक साधना है जिसे कुछ सूत्रोंमें निश्चित रूप दिया गया है । यदि तुम इन सूत्रोंका यथोचित रूपमें उपयोग करो तो यह पुस्तक बहुत सहायक हो सकती है, अन्यथा मैं इसे लेती ही नहीं । कितनी सहायक हो सकती है यह प्रत्येक व्यक्तिपर निर्भर है । यह इसपर निर्भर है कि वह इससे लाभ उठा सकता है या नहीं ।
अब, अंतिम प्रश्न है :
''श्रीअर्रावंदने कहा है कि बुद्ध एक अवतार थे... ''
कुछ समयतक, प्रत्येक शुक्रवारको ध्यानसे पहले श्रीमां बौद्धधर्मकी अत्यंत पवित्र पुस्तक 'धम्मपद' भैंसे कुछ श्लोक पढा करती थीं ।
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हम यह पहले कई बार कह चुके हैं ।
ओर फिर यही वह स्थल है जो अधिक रहस्यमय हों उठता है
' 'बुद्धके उपदेशोंको छोड़कर उनके व्यक्तित्वकी कौन-सी चीज संसारमें अभी भी विद्यमान है? ''
(जिस साधकने प्रश्न पूछा था उसे संबोधित करते हुए) यह भेद तुम किस- लिये करते हों?
बुद्ध जब निर्वाणमें चले गये तो यह कहा गया कि उनके उप- देश अब उनके अवशेषमें रहेंगे ।
अवशेषमें! अच्छा, तो इसका अर्थ हुआ कि दोनों चीजों साथ-साथ इकट्ठी रहती है । न मालूम क्यों तुम उसमें भेद कर रहे हो । उनके उपदेशोंमें उनके प्रभावकी कुछ चीज है, यह स्वाभाविक है! ये उपदेश ही उनके प्रभावको मानसिक क्षेत्रमें प्रसारित करते है ।
उपदेशोंको छोड़कर उनकी जो सीधी क्रिया है वह इने-गिने लोगोंतक ही सीमित है, केवल उन्हींतक जो उनके अनन्य उपासक है और जिनमें आह्वान करनेकी शक्ति है । अन्यथा, उनकी क्रियाका अतिमहत्वपूर्ण भाग, बलकि सारी-की-सारी क्रिया उनके उपदेशोंसे संबंधित है, उपदेशोंके साथ एक और मिली-जुली है । इनमें भेद करना कठिन प्रतीत होता है ।
(थोडी चुप्पीके बाद) भागवत शक्तिके जो रूप अवतार-रूपसे भिन्न- भिन्न व्यक्तियोंकी सूरतमें प्रकट हुए, वे किसी विशेष उद्देश्यको लेकर, किसी विशेष प्रयोजनके लिये ओर वैश्व-विकासके किसी विशेष कालमें प्रकट हुा?_ है, परंतु वे थे 'एक सत्ता' के ही विभिन्न पहलू । अतः भेद केवल उसमें है जो उनके कार्यका विशिष्ट रूप है, नहीं ता 'यह वही एक 'सत्य', वही एक 'शक्ति', वही एक शाश्वत 'जीवन' है जो इन रूपोंमें अभिव्यक्त होता है और किसी विशेष कालमें, किसी विशेष कारण व किसी विशेष उद्देश्यके लिये इन रूपोंको प्रकट करता है; वह इतिहासके कालगतिमें सुरक्षित हों जाता है, अतः नये रूपोंको ही सदा नयी प्रगतिके लिये प्रयोगमें लाया जाता है । पुराने रूप बने रह सकते है जैसे कि कोई स्पंदन चिरकालतक बना रहता है, पर ऐतिहासिक रूपसे यह कहा जा सकता है कि उनके अस्तित्वका हेतु अस्थायी होता है और नया कदम उठानेके लिये एक रूपका स्थान दूसरा रूप ले लेता है । मनुष्यकी भूल यह है वह सदा उससे
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चिपका रहता है जो बीत चुका है, वह भूतको अनिश्चित कालतक बनाये रखना चाहता है । इन चीजोंका उपयोग उस कालमें करना चाहिये जब ये लाभकारी होती हैं । क्योंकि प्रत्येक व्यक्तिके विकासका एक इतिहास होता है : तुम उन अवस्थाओंमेंसे गुजर सकते हो जहां यह साधनाएं क्षणिक रूपमें उपयोगी हों, पर जब तुम उस क्षणको पार कर जाओ तो निश्चय ही तुम्हें किसी और चीजमें प्रवेश करना चाहिये और यह देखना चाहिये कि ऐतिहासिक रूपसे जो अबतक लाभकारी रहा है, वह अब लाभकारी नहीं रहा । निश्चय ही, मैं उन लोंगोंसे जो, उदाहरणार्थ, मानसिक विकास और संयमकी एक विशेष अवस्थातक पहुंच गये हैं, यह नहीं कहूंगी : ''धम्मपद पढ़ें। और उसपर चिन्तन करो,'' यह तो समय नष्ट करना होगा । मैं इसे उन लोगोंको देती इ जो उस अवस्थाके परे नहीं गये हैं जहां इसकी जरूरत होती है ।
परन्तु मनुष्य अपने कन्धोंपर सदा अन्तहीन बोझ लिये फिरता है । वह भूतकालकी किसी चीजको छोड़ना नही चाहता और उस निरर्थक ढेरके बोझके नीचे अधिकाधिक दबता जाता है ।
तुम्हारे पास एक पथ-प्रदर्शक होता है जो मार्गके एक भागके लिये होता है परन्तु जब तुम उतना चल लो तो उस पथको और उस पथ-प्रदर्शकको छोड़ दो और, और आगे बढ़ जाओ! यह एक ऐसी चीज है जिसे मनुष्य कठिनाईसे कर पाते है । जब उन्हें कोई ऐसी चीज मिल जाती है जो उन्हें सहायता पहुंचाती है ता वे उससे चिपटा जाते है और वे तनिक भी आगे सरकना नहीं चाहते । जिन्होंने ईसाई धर्मकी सहायतासे प्रगति की है ३ उसे छोड़ना नहीं चाहते, ३ उसे अपने कन्धोंपर ढोने फिरते है, जिन्होंने बौद्ध धर्मकी सहायतासे प्रगति की है वे उसे छोड़ना नहीं चाहते और उसे अपने कन्धोंपर ढोये फिरते है, ओर इस प्रकार यात्रा रुक जाती है और तुम्हें, अनिश्चित कालके लिये, देर हो जाती है ।
एक बार जब तुमने उस अवस्थाको पार कर लिया तो उसे झड़ जाने दो, उसे विदा हो जाने दो! तुम आगे बढ़ो ।
मां, बौद्धधर्मके पुनरुद्धारका जो वर्तमान धार्मिक-राजनीतिक आंदोलन...
क्या? ओह! मैं राजनीतिमें भाग नहीं लेती । यह एकदम व्यर्थ है । लोग चीजोंका, बस, राजनीतिक आवश्यकताओंके लिये उपयोग कर लेते है, लेकिन बह बिलकुल रोचक नहीं ।
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९ अक्रूर, १९५७
श्रीमां 'अतिमानसिक अभिव्यक्ति'के अंतिम
पृष्ठोंका पढ़ना समाप्त करती है ।
असलमें यह पुस्तक पूरी नहीं हुई थी, यह वहीं रह गयी, और भाग आनेवाले थे...
अच्छा तो, हम बिना प्रश्नोंके ही समाप्त करनेवाले है?
मां, एक प्रश्न है जो इस अंतिम पैरके बारेमें है : ''यहांतक कि इस भौतिक जड़ जगत्में भी, जो कि हमें अज्ञानका जगत् प्रतीत होता है तथा जो एक अंधी अचेतनासे आरंभ कर 'अज्ञान'मेंसे होती हुई और कठिनाईके साथ अपूर्ण 'प्रकाश' एवं 'ज्ञानकी ओर बढ्ती हुई 'शक्तिका -- कार्य प्रतीत होता है, ऐसे इस जड़ जगत्में भी वस्तुओंमें एक गुप्त 'सत्य' विद्यमान है जो सब कुछकी व्यवस्था करता है, सत्ताकी अनेक परस्पर-विरोधी शक्तियोंको 'आत्मा'की ओर निर्दिष्ट करता है और स्वयं अपनी ही उन ऊंचाइयोंकी ओर बढ़ता जाता' है जहां बह अपने उच्चतम ' सत्यको अभिव्यक्त कर सके और विश्वके गुप्त प्रयोजनको पूरा कर सके । यहांतक कि अस्तित्व रखने- वाला यह भौतिक जगत् भी वस्तुओंमें विद्यमान उस सत्यके .प्रतिरूप बना है जिसे हम प्रकृतिका 'विधान' कहते हैं, इसी सत्यसे हम उच्चतर सत्यकी ओर आरोहण करते हैं जबतक कि हम परमोच्च सत्ताके 'प्रकाश' मे उभरा नहीं आते । यह जगत् वस्तुतः प्रकृतिकी अंध शक्तिने नहीं बनाया है : 'अचेतना' तकमें परम 'सत्य'की उपस्थिति अपना कार्य कर रही है; इस अचेतनाके पीछे एक देखनेवाली 'शक्ति' है जो निर्म्रान्त रूप- सें कार्य करती है और स्वयं अज्ञानके कदम भी, जब बे लड़खड़ाते प्रतीत होते है तब भी, (इसी शक्तिद्वारा) निर्देशित होते है; क्योंकि जिसे हम 'अज्ञान' कहते हैं वह 'ज्ञान' ही है
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जिसपर पर्दा पड़ा है, ऐसा 'ज्ञान' है जो उस शरीरमें कार्य करता है जो उसका अपना नहीं है, पर जो अपने परम आत्म-आविष्कारकी ओर अग्रसर हो रहा है । यह 'ज्ञान' ही प्रच्छन्न अतिमानस है जो सृष्टिका आधार है और सभीको अपनी ओर लिये चल रहा है और इन अनेकानेक बहुविध मनों, प्राणियों और पदार्थोंके समूहका पीछे- सें मार्ग-दर्शन करता है जिसमें प्रत्येक अपनी ही प्रकृतिके विधानका अनुसरण करता प्रतीत होता है । इस विशाल और विस्तृत जगत् के ऊपरी जंजालमें एक विधान है, सत्ताका एक अनन्य सत्य है, जागतिक जीवनको परिचालित और परिपूर्ण करनेवाला एक उद्देश्य है । अतिमानस यहां आवृत-रूपसे विद्यमान है, वह अपनी सत्ताके स्वाभाविक विधान और आत्म- प्रकाशके अनुसार कार्य नहीं करता, परंतु यदि बह ' यहां न होता तो कोई चीज अपने लक्ष्यको प्राप्त न कर सकती । अज्ञानी मनद्वारा संचाक्ति संसार शिव ही विर्श्वखलामे बह जायगा; असलमें गुप्त 'सर्वज्ञता', जिसका कि यह आच्छादन है, के सहारेके बिना वह अस्तित्वमें ही न आ सकेगा और न बना रह सकेगा । और एक अंध अचेतन शक्तिसे चलनेवाला संसार निरंतर उन्हीं आंतरिक क्यिाओंको दुहराता तो रह सकता है, पर न तो उसका कोई अर्थ होगा और न वह कहीं पहुंच ही सकेगा । 'यह उस क्रम-विकासका मूल हेतु नहीं हो सकता, जो 'जडतत्त्व'मेंसे जीवन और जीवनमेंसे मनका तथा 'जड़-तत्व', 'जीवन' ओर 'मन' की चढ़ती हुई और अतिमानसतक पहुंचती हुई स्तरपरंपराका निर्माण करता है । बह गुप्त सत्य जो अतिमानसमें आकर आविर्भूत हो जाता है, सब समय वहां था, परंतु अब वह अपने-आपको तथा वस्तुओंमें विद्यमान सत्यको एवं हमारे अस्तित्वके अर्थको अभिव्यक्त करता है ।
यदि अतिमानस वस्तुओंके पीछे छिपा हुआ है तो उसे पाना इतना कठिन क्यों है?
क्योंकि वह छिपा हुआ है! (हंसी)
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यहांतक कि अज्ञानमें भी यह कार्य करता है, यह उसे 'सत्य'- की ओर ले जा रहा है...
श्रीअरविन्द बताते है कि यदि अतिमानसिक सत्य वस्तुओंके पीछे विद्यमान न होता तो संसार जैसा कुछ भी अब व्यवस्थित है उतना भी व्यवस्थित रूप न ले पाता । हम महसूस करते है कि एक चेतना है जो अत्यन्त आलों- कित संकल्पवाली है, उसीने इ-स सबको एक सुनिश्चित योजनाके अनुरूप व्यवस्थित किया है और वह न ता अज्ञान और ना ही अचेतनाका परिणाम हो सकती है ।
वस्तुत:, तुम्हारी अतिमानस या 'सत्य-चेतना' को वस्तुओंके पीछे देख सकनेकी जो कठिनाई है वह ठीक तुम्हारे अपने व्यक्तिगत अज्ञान और अचेतनाका ठीक परिमाण दिखाती है; क्योंकि जो लोग इस अज्ञान और अचेतनासे बाहर निकल आये है वे इसे बहुत स्पष्ट रूपमें देखते हैं । कठि- नाई अचेतनाकी जिस अवस्थामें व्यक्ति होता है उसपर निर्भर होती हैं । पर जो अचेतनाकी इस अवस्याको पार कर गया है उसके लिये अति- मानसको देख पाना जरा मी कठिन नहीं होता, उसके लिये यह एकदम प्रत्यक्ष होता है ।
यदि कोई व्यक्ति जरा दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और आत्मनिष्ठ चेतनामें प्रवेश करे तो वह बहुत आसानीसे वस्तुओंकी एक प्रकारकी ''वस्तुनिष्ठ अवास्तविकता'' से परिचित हों सकता है; जो वस्तु सामान्य चेतनाके लिये एकमात्र वास्तविक, सुनिश्चित, ठोस और कह सकते है कि परिमेय होती है वही इतनी अनिश्चित, लगभग अवास्तविक-सी बन जाती है, उसकी वास्तविकता केवल उसे देखनेवाली चेतनामें ही रहती है -- और वह पूरी तरह परिवर्तनशील वास्तविकता होती है, कमी-कमी तो चेतना बोधके अनु- सार परस्पर-विरोधी मी होती है । यदि हम संसारके बारेमें दी गयी विभिन्न व्याख्याओंको, इसे व्यक्त करनेवाले विभिन्न तरीकोंको अपने सामने रखें तो हमें कई तरहकी, कमी-कभी तो परस्पर-विरोधी, विचार- शृंखलाए मिलेंगी, फिर भी वे है विभिन्न चेतनाओंके किसी एक ही चीज- के बारेमें प्राप्त बोध । ठीक, इस अंतिम अनुच्छेदके बारेमें, यह एक चरम दृष्टिबिन्दु है, एक प्रतिज्ञा है कि जो कुछ है वह भागवत संकल्पकी ही पूरी-पूरी अभिव्यक्ति है (दार्शनिकोंके कुछ सम्प्रदाय ऐसे है जो, अपने
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व्यक्तिगत अनुभवके आधारपर, इस बातका प्रतिपादन करते है कि प्रत्येक वस्तु पूरे रूपमें भागवत संकल्पकी ही अभिव्यक्ति है), और फिर एकदम दूसरे सिरेपर यह कथन है कि जगत् एक प्रकारका गड़बड़झाला है, इसमें कोई छन्द नही, कोई हेतु नहीं, न जाने यह क्यों और कैसे अस्तित्वमें आया, और न मालूम किधर जा रहा है, इसमें न कोई तर्क है, न युक्ति- युक्तता, न संगति -- यह केवल एक संयोग है । यह यूं ही है, हम नहीं जानते क्यों । अच्छा तो, अब यदि तुम इन दो चरम दृष्टिबिन्दुओंको लो और उस सबको अपने. सामने रखो जो जगत् के विषयमें इस सिरेसे उस सिरेतक कहा गया, लिखा गया, बताया और सोचा गया है और यदि तुम उस सबको इकट्ठा एक साथ देख सको तो तुम देखोगे कि यह सब है ते। उसी एक जगतके बारेमें, पर फिर भी व्याख्याएं इतनी अधिक भिन्न- भिन्न है कि यह जगत्, यूं कह सकते हैं कि, केवल देखनेवालेकी चेतनामें ही अस्तित्व रखता है... । निश्चय ही, वहां जरूर ''कुछ चीज'' होनी चाहिये, पर वह कुछ चीज मनुष्य जो सोचते है उससे परेकी होनी चाहिये -- बहुत परेकी, बहुत भिन्न । इसीसे व्यक्तिको पूरी तरह ऐसा महसूस होता है कि जगत् भ्रमपूर्ण एवं अवास्तविक है ।
मूलतः, जगत्की वास्तविकता प्रत्येक व्यक्तिकी चेतनाके लिये बिलकुल व्यक्तिनिष्ठ होती है, उसकी कोई व्यक्ति-निरपेक्ष वास्तविकता नहीं है, कारण, एक तरफ तो यह कहा जा सकता है कि यह जगत् परम सचेतन सर्वोच्च संकल्पका परिणाम है और वही सब कुछको शासित करता है ओर दूसरी तरफ यह भी कहा जा सकता है कि इस जगत् के अस्तित्वका कोई तर्कसंगत कारण नही, यह, बस, एक अगम्य संयोग है -- पर फिर मी ये दोनों धारणाएं किसी ऐसी चीजके बारेमें है जो बिलकुल एक ही चीज है ।
क्या तुमने इसके बारेमें कमी सोचा नहीं?
हर एक्का अपना विचार होता है - जो थोड़ा-बहुत स्पष्ट, थोड़ा-बहुत व्यवस्थित और थोड़ा-बहुत सुनिश्चित होता है -- इसी विचारको वह जगत् कहता है । प्रत्येकका देखनेका अपना तरीका होता है, अनुभव. करनेका अपना तरीका होता है, ओर दूसरोंके साथ उसके अपने विशिख सम्बन्ध होते हैं, इसी चीजको वह जगत् कहता है । वह स्वभावत: अपने-आपको केन्द्रमें रखता है और तब हर एक उसके देखने, अनुभव करने, समझने और चाहनेके, उसकी अपनी प्रतिक्रियाके अनुसार उसके चारों ओर व्यवस्थित हो जाता है । पर चूंकि यह प्रत्येक चेतनाके लिये व्यक्तिगत रूपसे भिन्न होता है, इसलिये इसका अर्थ हुआ कि हम जिसे जगत् कहते
है -- स्वयं वह चीज - वह हमारे अनुभवसे पूरी तरह छूट जाती है । यह कोई दूसरी ही होनी चाहिये । और वह क्या है उसे समझ सकनेके लिये हमें अपनी व्यक्तिगत चेतनासे बाहर आ जाना चाहिये और इसी चीजको श्रीअरविन्द ''निम्नते उच्चतर गोलार्द्धका पथ'' कहते है । निम्न गोलार्द्धमें उतने ही विश्व है जितने कि व्यक्ति, पर उचचतर गोलार्द्ध- मे ऐसी ''कुछ चीज'' है - जो वही है जो वह है - जिसमें सभी चेतनाएं जरूर ही मिल जाती है । इसीको वह ''सत्य-चेतना'' कहते है ।
जैसे-जैसे मानव चेतना प्रगति करती है वैसे-वैसे उसमें यह सापेक्षताका बोध भी अधिकाधिक बढ़ता जाता है और साथ ही एक प्रकारकी भावना, बल्कि यूं कहें कि एक अस्पष्ट-सी छाप कि एक 'सत्य' है जो साधाराग नरकोंसे नहीं जाना जा सकता, पर जो किसी-न-किसी तरीकेसे जाना जरूर: जा सकता है ।
बस, यही बात है ।. मैं आशा करती हूं कि हम जो अब अगली पुस्तक पढ़ेंगे, अर्थात् 'दिव्य जीवन', उसमें हमें इस समस्याकी कुंजी मिलेगी ।
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१६ अक्रूर, १९५७
मेरे पास चार प्रश्न आये है । स्वभावत: ये उस बारेमें नहीं है जो मैंने अभी पढा है, बल्कि ये अलग-अलग तीन विषयोंपर हैं । और प्रत्येकके लिये बहुत लम्बे उत्तरोंकी आवश्यकता है । पर, फिर भी मैं पहंरेठ दो प्रश्नोंको लेती हू जो मेल खाते है । ये 'आत्मा' के अन्तर्लयनके बारेमें है । r' पहला प्रश्न है :
यदि वह सब जिसे कि अभिव्यक्त होना है जड़-तत्वमें पहलेसे ही अंतर्लीन है तो क्या उसमें अतिमानसके अतिरिक्त दूसरे
'श्रीअरविंद हमसे कहते हैं कि विकास अथवा विवर्तन अंतलयनका ही परिणाम है । इस रीतिसे, जीवन जडू-तत्वमें अंतर्लीन है, मन जीवनमें निवर्तित है, और अतिमानस मनमें निवर्तित है । शून्यमेंसे किसी चीजका प्रादुर्भाव नहीं हा' सकता । चूंकि सर्वोच्च सत्ता 'जडू-तत्व' में अंतर्भूत है इसीसे 'जडतत्त्व'मेंसे उसका प्रादुर्भाव हो सकना शक्य है ।
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तत्व भी अंतर्निहित हैं जो कि जब अतिमानस पूरी तरह अभिव्यक्त हो चुकेगा उसके बाद अभिव्यक्त होंगे?
तर्कानुसार कहा जा सकता है ''हां'', क्योंकि तत्वतः जडतत्व और सर्वोच्च सत्तामें तादात्म्य है । परन्तु -- और यह बात दूसरे प्रश्नको ले आती है ।
क्या अंतर्लयन 'कालमें चरितार्थ हुआ और क्या उसका भी ऐसा ही इतिहास है जैसा कि क्रम-विकास है?
लगभग यह कहा जा सकता है कि इस प्रश्ननका उत्तर प्रश्नकर्ताकी मनोवस्थापर निर्भर है... । विद्वान तुमसे कहेंगे कि कई विभिन्न मत है जो इन विषयोंकी .चर्चा बहुत भिन्न-भिन्न रूपोंमें करते हैं । तत्वविचारक हैं जो कहानियोंको मानते ही नही, उनका मन मुख्य रूपसे विचारशील और दार्शनिक होता है और जैसा कि मैंने कहा, तत्वमीमांसा और अमूर्त चिन्तनमें लगा रहता है, उनकी दृष्टिमें कहानियां केवल बच्चोंके लिये ही अच्छी है । फिर मनोवैज्ञानिक है जो प्रत्येक चीजको चेतनाकी गतियोंमें अनूदित कर देते है और अन्तमें वे लोग है जो चित्रोंको पसन्द करते है, उनके लिये विश्वका इतिहास एक महान् विकास है, जिसे ''चलचित्र' के जैसा कहा जा सकता है और चित्रोंमें यह विकास उनके लिये बहुत अधिक सजीव और वास्तविक वस्तु होता है, क्योंकि चाहे वह केवल प्रतीकरूप ही हों, पर वह चीजोंको अधिक घनिष्ठ और वास्तविक रूपमें समझनेमें सहायता करता है ।
यह तो मानी हुई बात है कि तीनों व्याख्याएं समान रूपसे सच्ची हैं और मुख्य वस्तु है अपने विचारमें उनमें संगति और समन्वय स्थापित कर सकना । परंतु तत्त्व-शास्त्रकी रुक्षताको हम अलग छोड़. देते है इसलिये कि उन्हें विद्वान् त्वोगोंकी पुस्तकोंमें ही पढ़ना अधिक अच्छा है जो चीजोंको एकदम सुनियत, सुनिश्चित ओर रूखे ढंगसे कहते है! मनोवैज्ञानिक दृष्टि- कोण... इसके बारेमें बोलनेकी जगह इसे जीना ज्यादा अच्छा है । तब, हमारे लिये बाकी रह जाती है बच्चोंके उपयोगकी कहानी । हमेशा बच्चा बना रहना अच्छा है । और यदि हम इसकी आवश्यक सावधानी रखें कि हम उसे एक रूQ सिद्धांत न बना दें - जिसमें, यदि व्यक्ति धर्मद्रोही बनना न चाहे तो कुछ भी परिवर्तित नहीं किया जाना चाहिये -- तो हम इन कहानियोंको कम-से-कम एक ऐसे साधनके रूपमें ले सकते हैं जो हमारी बाल-सदृश चेतनाके सामने उस चीजको एक सजीव रूपमें उपस्थित कर देती है जो अन्यथा हमसे दूर ही रहती ।
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जो बहुत-सी कहानियां कही गयी हैं जो कम या अधिक सच्ची, कम या अधिक पूर्ण, कम या अधिक सार्थक है, उनमेसे हम कोई भी चून सकते हे । परंतु यदि कोई व्यक्ति अपने अंदर या अपनेसे बाहर मूर्त्ति रूप देकर (जो इस दृष्टिसे तत्वतः एक ही बात है) उस कहानीको फिर- से, कम-से-कम अंशत: मोटे रूपमें जी सकें, तो यह चीज व्यक्ति- को चीजोंके क्यों और कैसेको जाननेमें और उनपर प्रभुत्व पानेमें सहायता करती है । कुछ लोगोंने इसे किया बोर वे एक साथ दीक्षित, गुह्यवेता या पैगम्बर माने जानें लगे -- और बहुत सुन्दर कहानियां कही गयी है ।
मैं' तुम्हें उनमेंसे एक कहानी बहुत संक्षेपमें सुनाती हू । इसे वेदवाक्य न मान लेना, बल्कि इसे... एक कहानीके रूपमें ही लेना ।
परम प्रभुने जब अपने-आपको मूर्त रूप देनेका निश्चय किया, ताकि वह अपने-आपको देख सकें, तो जिस चीजको उन्होंने सबसे पहले अपनेमें- से बाहर प्रकट किया वह था जगत्का 'ज्ञान' और उसे बनानेकी 'शक्ति' । इस 'शान-चेतना' और 'शक्ति' ने अपना काम शुरू किया । परम 'संकल्प' में एक योजना थी और उस योजनाका पहला सिद्धांत यह था कि मूलभूत 'आनंद' और 'स्वतंत्रता'की साथ-ही-साथ अभिव्यक्ति हों, जो इस सृष्टिकी सबसे रोचक विशेषता मालूम होती है ।
तो, इस 'आनंद' और 'स्वतंत्रता' को रूपोंमें अभिव्यक्त करनेके लिये मध्यवर्ती सत्ताओंकी आवश्यकता हुई । और शुरूमें चार सत्ताएं विश्व- विकासका प्रारंभ करनेके लिये बाहर प्रकट की गयीं, यह विश्व-विकास उस सबको क्रमश: बाहर प्रकट करनेके लिये था जो परम प्रभुने संभाव्यताके रूपमें मौजूद था । बे सत्ताएं, अपने मूल अस्तित्वमें थी. 'चेतना' और 'प्रकाश', जीवन', 'आनंद' और 'प्रेम' तथा 'सत्य' ।
तुम आसानीसे कल्पना कर सकते हों कि उनमें एक ऐसी भावना थीं कि उनके पास एक महान् शक्ति है, महान् बल है, कुछ ऐसी चीज है जो दुर्जेय है, क्योंकि म्उलत: वे इन चीजोंका सत्वरूप ही तो थे । और साथ ही उन्हें चुनाव करनेकी पूरी स्वतंत्रता थी क्योंकि यह सृष्टि स्वयं स्वतंत्रता- का साकार रूप बननेवाली थी... । जैसे ही उन्होंने काम करना शुरू किया (इसे कैसे किया जाय इस बारेमें उनकी अपनी-अपनी कल्पना थी), पूर्णत: स्वतंत्र होनेके कारण उन्होंनें इसे स्वच्छंद रूपमें करना पसंद किया । सेवक ओर यंत्रकी वृत्तिको अपनानेकी जगह, जिसके बारेमें श्रीअरविदने इसमे कहा है जो मैंने अभी पढा' उन्होंनें स्वभावत: स्वामी होनेकी वृत्ति
'''तलवार युद्ध-क्रीडामें आनंद पाती है, तीर अपनी सनसनाहट और
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अपनायी, और यह भूल ही (मैं कह सकती हू) विश्वकी अव्यवस्थाका प्रथम कारण, उसका मूल कारण थी । जैसे ही अलगाव हुआ - क्योंकि मूलभूत कारण यही है, विभाजनका -- जैसे ही सर्वोच्च सत्ता और उससे प्रकट हुई वस्तुके बीच विभाजन हुआ वैसे ही 'चेतना' अचेतनामें, 'प्रकाश' अंधकारमें, 'प्रेम' घृणामें, 'आनंद', कष्टमें, 'जीवन' मृत्युमें और 'सत्य' मिथ्यात्वमें परिवर्तित हो गया । और वे स्वच्छंद रूपसे, विभाजन और अव्यवस्थामें अपनी सृष्टि बनाते चले गायें ।
उसीका परिणाम यह जगत् है जैसा कि हम उसे देरवते है । यह धीरे- धीरे क्रमिक रूपोंमें संपन्न हुआ; यह सब तुम्हें बढ़ाऊं सचमुच बात लंबी हो जायगी, परंतु अंततः, इसकी चरम परिणति है जड़-तत्व -- अंधकार- मय, अचेतन, दयनीय.... । सर्जक शक्ति, जिसने इन चार सत्ताओंको मूलत: संसारकी सृष्टिके लिये अपनेमेंसे बाहर प्रकट किया था वहां उपस्थित थी, उसने परम प्रभुकी ओर मुड़कर जो अशुभ उत्पन्न हों चुका था उसके उपचार और प्रतिकारके लिये प्रार्थना की ।
तब उसे (सर्जक शक्तिको) अपनी 'चेतना' को नीचे अचेतनामें, अपने 'प्रेम' को इस दुःख में और अपने 'सत्य' को' इस मिथ्यात्वमें उतारनेका आदेश मिला । और यह, पहली बार जिन्हें प्रकट किया गया था उनकी अपेक्षा अधिक बड़ी चेतना, अधिक संपूर्ण प्रेम और अधिक पूर्ण सत्य जडतत्वकी वीभत्सतामें मानों कूद पड़े ताकि उसमें चेतना, प्रेम और सत्यको जगा सकें और 'उद्धार' की उस क्रियाका आरंभ कर सकें जिसका प्रयोजन इस भौतिक विश्वको उसके परम स्रोतको ओर वापस ले जाना है ।
इस प्रकार, जडू-तत्वमें ये, जिन्हें ''क्रमिक अंतर्लयन'' कहा जा सकता है, स्पष्ट है और उन अंतर्लयनोंका इतिहास रहा है । और इन्हीं अन्तर्लयनोंका वर्तमान परिणाम है अचेतनामेंसे उभरते अतिमानसका प्रकट होना; पर ऐसा नही कहा जा. सकता कि इस प्राकटचके बाद फिर कोई दूसरा नहीं होगा... । क्योंकि परम प्रभु अक्षय हैं, और हमेशा नये जगत् बनाते रहेंगे ।
तो यह है मेरी कहानी ।
उडानमें उल्लास अनुभव करता है, पृथ्वी अंतरिक्षमें चकरा देनेवाली तेजी- से घूमनेमें ही हर्ष-विह्वल है, और सूर्य अपने जाज्वल्यमान तेज:पुंज एवं सनातन गतिके सम्राट-सम आनंदमें मस्त है । हे आत्म-सचेतन यंत्र, तू भी अपने निर्दिष्ट कर्मोका आनंद लें ।',
('कर्मोका आनंद', 'अतिमानव' पुस्तकसे उद्धत)
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२३ अक्तूबर, १९५७
श्रीमां 'दिव्य जीवन' के अंतिम छ: अध्यायों-
को पढ़ना शुरू करती है !
''एक आध्यात्मिक विकास ही, अर्थात्, 'जड़-तत्व' में चेतनाका ऐसा विकास कि वह अपने रूपोंको इस प्रकार निरंतर विकसित करती चले कि अंतमें वह रूप अंदर रहनेवाली आत्मा'को प्रकट कर सके, यही तब पार्थिव जीवनका मुख्य स्वर, उसका केंद्रीय अर्थपूर्ण हेतु है । यह अर्थ आरंभ में 'आत्माके, दिव्य सद्वस्तुके, सघन भौतिक 'निश्चेतना' मे अंतर्लीन होनेके कारण छिपा रहता है; 'अचेतना'का आवरण, 'जड-तत्त्वकी असंवेदनशीलताका आवरण, अपने भीतर कार्य करनेवाली वैश्व चित्-शक्तिको छिपाये रहता 'है, फलतः, 'ऊर्जा', जो सर्जक 'शक्ति' का भौतिक 'विश्व' मे धारण किया गया पहला रूप है, अपने-आपमें अचेतन प्रतीत होती है, पर तब भी एक विशाल गुह्य 'प्रज्ञा' के कार्य करती है ।
('लाइफ डिवाइन', पृ ० ८२४)
मधुर मां, मेरी समझमें नहीं आया कि 'चित्-शक्ति' क्या श्री, अतः मैं कुछ भी न समझ सका!
समझने लायक पहली चीज ठीक यह पहला वाक्य है जो एक तथ्यको, विश्व जीवनके मूलतत्व और उसके अस्तित्वके हेतुको बतलाता है । क्या तुम नहीं देखते कि हम इस खण्डके अंतसे शुरू कर रहे है, ये अंतिम छ: अध्याय है । पुस्तकके सारे प्रारंभिक भागमें श्रीअरविंद विश्व और जीवनके कैसे और क्यों समझानेवाले सभी सिद्धातोंको एकके बाद एक लेते है । वे उन्हें उनकी अंतिम सीमातक ले जाते है ताकि यह बता सकें कि उनका अर्थ क्या था, अन्तमें उन्होंने दिखाया है कि वे कहातक अधूरे और अपूर्ण थे, ओर उन्होंनें सच्चा समाधान दिया है । वह सब तो मानों हमारे पढ्नेके पहले ही समाप्त हों चुका । उस सारेमेंसे गुजरनेके लिये तो हमें लगभग दस वर्ष लग जाते! और उसे किसी लाभदायक ढंगसे समझनेके लिये तुम्हें बहुत प्रकारके ज्ञान, और बहुत अधिक बौद्धिक विकासकी जरूरत होती ।
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लेकिन हम वहांसे शुरू कर रहे हैं जहां उन्होंने पूरे बौद्धिक तरीकेसे बताया है कि जीवनके अस्तित्वका हेतु क्या था । वे इसे इस तरह सूत्रमें कहते है : ' 'पार्थिव जीवनका केंद्रीय सार्थक हेतु... '' । क्योंकि उन्हें सारे विश्वसे मतलब नहीं है । उन्होंनें हमारे पार्थिव जीवनको ही लिया है, सारे विश्वके अस्तित्वके हेतुक प्रतीकात्मक घन प्रतिनिधिके रूपमें लिया है । वास्तवमें कई पुरानी परंपराओंके अनुसार धरती, गहरे आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे, विश्वके प्रतीकात्मक केंद्रके रूपमें बनी है ताकि रूपांतरका काम ज्यादा आसानीके साथ, एक सीमित, धन ' 'देश' ' ( यूं कहा जा. सकता है) मे किया जा सके जहां समस्याके सभी तत्व घने रूपमें इकट्ठे हों ताकि क्रिया ज्यादा समग्र और प्रभावशाली हा सके । इसलिये यहां श्रीअरविंद केवल पार्थिव जीवन- की बात करते हैं । लेकिन हम समझ सकते है कि यह एक प्रतीकात्मक जीवन है, यानी यह वैश्व क्रियाका प्रतिनिधि है । यह प्रतीकात्मक, थन प्रतिरूप है । और वे कहते है कि ' 'केंद्रीय हेतु'' यानी, पार्थिव जीवनके अस्तित्वका हेतु 'जडू-तत्व'के केंद्रमें छिपी हुई 'आत्मा ' को -- जो अंदरसे बाहरकी ओर एक क्रमश: बढ़ते हुए विकासकी ओर धकेलती है, जगाना, अंतिम रूपसे प्रकट करना और समग्र रूपमें अभिव्यक्त करना है ।
तो, बाहरी रूपोंमें जैसा तुम देखते हो पहले-पहल खनिज जगत् मिलता है जिसमें पत्थर, मिट्टी, धातुएं आती हैं जो हमारी बाहरी चेतनाको बिल- कुल निश्चेतन दिखती है । फिर भी इस निश्चेतनाके पीछे 'आत्माका प्राण है, 'आत्मा' की चेतना है जो पूरी तरह छिपी हुई है मानों सोयी हुई हो (यद्यपि यह केवल बाहरी रंगरूप है) । यह देखनेमें बिलकुल बेजान लगनेवाले जडतत्वको धीरे-धीरे,. अंदरसे रूपांतरित करनेके लिये काम करती है, ताकि उसका संगठन अपने-आपको चेतनाकी अभिव्यक्तिके लिये अनुकूल बना सके । और वे कहते है कि पहले-पहल जड-पदार्थका यह परदा इतना संपूर्ण होता है कि ऊपरी दृष्टिसे यही लगता है कि इसमें न तो प्राण है, न चेतना । तुम एक पत्थरको उठाकर सामान्य दृष्टिसे ओर चेतनासे देखो तो कहोगे : ' 'इसमें जान नहीं है, इसमें चेतना नहीं है । '' लेकिन जो बाहरी रंगरूपके पीछे देखना जानता है उसके लिये इस पदार्थ- के केंद्रमें - पदार्थके प्रत्येक अणुमें परम दिव्य सद्वस्तु छिपी हुई है जो अंदरसे, धीरे-धीरे, युगोंसे इस जड-पदार्थका किसी ऐसी चीजमें बदलनेमें लेगी है जों अंदरकी 'आत्मा' को अभिव्यक्त करनेके लिये काफी व्यंजक होगी । तब 'जीवन' की कहानीका अनुक्रम आगे बढ़ता है : कैसे पत्थरसे, उसकी विभिन्न जातियोमेसे होते हुए अचानक प्रारंभिक प्राण फूट पड़ा और उसीके साथ एक प्रकारका संगठन, यानी एक जैव तत्व जो प्राणको
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प्रकट करनेमें सक्षम है । लेकिन खनिज और वनस्पति जगतोंके बीच अंतर्वर्ती तत्व है । पता नहीं चलता कि वे खनिजके अंश है या उनसे वनस्पतिका प्रारंभ हों चुका है (विस्तारसे उनका अध्ययन करनेपर अजीब- सी जातियां दिखायी देती है जो न यहांकी है, न वहांकी, जो पूरी तरह यहांकी नहीं हैं और अभीतक वहांकी भी नहीं हो पायी) । तब वनस्पति- जगत्का विकास शुरू होता है जहां स्वभावत: प्राण प्रकट होता है क्योंकि यहां वृद्धि है, रूपांतरण है -- पौधेमें अंकुर फूटते है, वह बढ़ता और विकसित होता है -- जीवनके प्रथम तथ्यके माथ-ही-साथ सड़न और विघटनका तथ्य भी आता है जो पत्थरकी अपेक्षा यहां बहुत तेज होता है । अगर पत्थरको अन्य शक्तियोंके आघातोंसे बचाया जाय तो वह, हमें लगता है, अनिश्चित कालतक रह सकता है । जब कि वनस्पति वृद्धि, चढ़ाव, उतार और सड़नके चक्रका अनुसरण शुरू कर देती है - लेकिन यह सब बहुत ही सीमित चेतनाके साथ । जिन्होंने विस्तारपूर्वक वनस्पति-जगत्का अध्ययन किया है वे भली-भांति जानते है कि उनमें चेतना होती है । उदाहरणके लिये, वनस्पतिको जीनेके लिये सूर्यकी जरूरत होती है (सूर्य उन्हें वह ऊर्जा देता है जिससे उनकी वृद्धि होती है), तो, अगर तुम किसी पौधेंको ऐसी जगह रख दो जहां धूप नहीं आती तो तुम उसे हमेशा धूपतक पहुंचने- के लिये चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते हुए, कोशिश करते हुए प्रयास करते हुए देखोगे । उदाहरणके लिये, घने जंगलमें जहां मनुष्य हस्तक्षेप नहीं करता सभी पौधोंमें इस प्रकारका संघर्ष होता है जो एक-न-एक तरहसे धूपको पकड़नेके लिये सीधे चढ़नेका प्रयास करते हैं । यह बड़ा मनोरंजक है । लेकिन अगर तुम कोई गमला दीवारोंसे घिरे. छोटे-से आगनमें रख दो, जहां धूप नहीं आती, ता' जो पौधा प्रायः इतना ऊंचा है (संकेत) इतना ऊंचा हो जाता है : वह धूप पानेके लिये प्रयास करते हुए अपने-आपको लंबा खींचता है । फलस्वरूप एक चेतना होती है, जीनेका संकल्प होता है जो अभिव्यक्त हों चुकता है । और फिर थोडा-थोडा करके जातियोंमें अधिकाधिक विकास होता जाता है । और तुम फिरसे एक ऐसी बीचकी स्थिति देखते हा, जो, अभी पशु तो नही है, पर अब वनस्पति भी नहीं रही । ऐसी बहुत-सी जातियां है जो बहुत मनोरंजक है । ऐसे पौधे है जो मांसाहारी हैं । खुले मुंह जैसे पौधे होते है, तुम- उसमें एक मक्खी डालों और, गड़प, निगलन जाते हैं । ये अब ठीक पौधे नहीं है, पर अभीतक पशु भी नहीं बने । इस तरहके बहुत- सें पौधे है ।
तथ्य- तुम पशुतक आते हों । पहले जानवरों और पौधोंमें फर्क करना कठिन है । उनमें चेतना नहींके बराबर होती है । फिर तुम जानवरोकी
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सभी जातियोंको देखो । तुम उन्हें जानते हों, जानते हों न? उच्चतर पशु जातियां, वास्तवमें बहुत सचेतन होती है । उनकी अपनी स्वतंत्र इच्छा- शक्ति होती है । वे बहुत सचेतन और अद्भुत रूपसे बुद्धिमान होते हैं, उदाहरणके लिये, हाथी । तुम हाथी और उसकी अद्भुत बुद्धिकी बहुत सारी कहानियां जानते हो । फलस्वरूप यहां मन काफी स्पष्ट रूपसे दिखायी देता है । और इस क्रमिक विकासमेंसे हाते हुए हम अचानक उस जातिपर जा पहुंचते है जो शायद गायब हो गयी है (जिसके कुछ अवशेष मिले है), यह बन्दरके जैसी या उसी फुलकी मध्यवर्ती जाति रही होगी । भले वह ठीक बन्दरन हो जिसे हम जानते है, पर उसके जैसी जाति -- एक ऐसा पशु जो दो पैरोंपर चलता था । और वहांसे हम आदमीतक आ पहुंचते हैं । मनुष्यके विकासका एक पूरा प्रारम्भ है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसमें बहुत बुद्धिमत्ता दिखायी देती है, लेकिन उसमें मनकी क्रिया शुरू हो चुकती है, स्वाधीनताका आरंभ, परिस्थितियों और प्रकृतिकी शक्तियोंके प्रति स्वतंत्र प्रतिक्रियाका आरंभ । इस तरह मनुष्यमें पूरा सप्तक है जिसके शिखरपर है वह व्यक्ति जो आध्यात्मिक जीवनके योग्य हो ।
इस पृष्ठपर श्रीअरविन्द हमसे यही कहते है ।
बस इतना है, तुम्हें कोई प्रश्न पूछना हो तो...?
मधुर मां, यहां ३ कहते हैं, ''यह चेतना... मनुष्यमें अपने चरमोत्कर्षतक पहुंचती है और उसे पार कर जाती है... ''
हां, यही तो मैंने तुमसे अभी-अभी कहा है । अपनी उच्चतम अवस्थामें मनुष्य प्रकृतिसे बिलकुल स्वतंत्र होने लगता है -- ' 'बिलकुल' ' तो जरा अतिशयोक्ति है । वह बिलकुल स्वतंत्र हो जरूर सकता है । जिसने आध्या त्मिक चेतना उपलब्ध कर ली, जिसका भागवत मूलस्रोतके साथ सीधा सम्बन्ध है वह प्रट्टातिसे, प्रकृतिकी शक्तियोंसे शब्दशः स्वतंत्र है ।
( वर्षा शुरू हों जाती है) यह लो, यह हमें शान्त करनेके लिये है! (हंसी) ओर इसीको वे ' 'अपने-आपको पार कर जाना' ' कहते हैं । यानी, वह ' सत्ता ', आन्तरिक भागवत चेतना, वह परम आध्यात्मिक सद्वस्तु अपने विकासके प्रयासमें... ( वर्षा जोर पकडू लेती है)... ओहो! हमें चुप रहना पड़े गा ।... अपने-आपको अभिव्यक्त करनेके सचेतन माध्यमकी विकसित करनेकी रवोजमें इ स योग्य हों गयी है कि प्रकृतिकी सभी प्रक्रियाओंमेंसे गुजरे बिना सीधा सम्पर्क स्थापित कर सकें ।
अब, मेरा ख्याल है हमें बन्द करना होगा । ध्यान नहीं होगा क्योंकि.
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३० अक्तूबर, १९५७
'' 'जडतत्वसे 'मन' तक और उससे भी परे होनेवाले प्रकृति- के इस पार्थिव विकासके कार्यकी द्विविध प्रक्रिया है : एक तो भौतिक विकासकी दृश्य प्रक्यिा है जिसका साधन है जन्म -- कारण, प्रत्येक विकसित शारीरिक रूप जो चेतनाकी अपनी विकसित शक्तियोंको बहन करता है, वश-परंपराद्वारा संरक्षित और अविच्छिन्न रखा जाता है, और उसके साथ ही, अंतरात्माके विकासकी अदृश्य प्रक्यिा है जिसका साधन है पुनर्जन्म, यह चेतना और आकारोंके उत्तरोत्तर उन्नत होते क्रममें अपने-आपको चरितार्थ करता है । पहलेको यदि अपने-आपमें लें तो इसका मतलब होगा केवल एक जागतिक विकास; क्योंकि व्यक्ति जल्दी नष्ट हो जानेवाला उपकरण है, और जाति ही, जो अधिक देरतक टिकनेवाली सामूहिक रचना है, जगतके 'अधिवासी' का, वैश्व 'आत्मा'का क्रमिक अभिव्यक्तिमें वास्तविक पग होगी : अतः पुनर्जन्म एक अनि- वर्य अवस्था है यदि धरतीपर वैयक्तिक सत्ताका भी किसी प्रकारका दीर्घकालिक स्थायित्व और विकास अपेक्षित है । वैश्व अभिव्यक्तिमें प्रत्येक श्रेणी, प्रत्येक विशिष्ट रूप-रचना, जो अंतरस्थ 'आत्मा'को वहन कर सके, पुनर्जन्मद्वारा एक ऐसे साधनके रूपमें प्रयुक्त की जाती है कि उसमें वैयक्तिक आत्मा, चैत्य सत्ता अपनी अंतर्हित चेतनाको अधिकाधिक प्रकट कर सके । इस प्रकार प्रत्येक जीवन अंदरकी चेतनाकी महत्तर प्रगतिके द्वारा 'जतत्व'पर विजय प्राप्त करनेमें एक पग बन जाता है, इसी तरह अंतमें एक दिन यह चेतना 'जडू-तत्व-' को भी 'आत्मा' की पूर्ण अभिव्यक्तिका साधन बना लेगी ।,
('लाइफ डिवाइन', पृ० ८२ ',र-२ ६)
इसे समझना कठिन है, मधुर मां!
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आह...
यदि तुम पृथ्वीके इतिहासको लो तो जीवनके सभी रूप एकके बाद एक, एक साधारण योजना एवं कर्मके अनुसार इस प्रकार प्रकट हुए है कि उनमें हर बार एक नयी पूर्णता और एक नयी चेतना जोड़ी जाती रही है । पशुओंके रूपोंको ही जरा लें लो (क्योंकि उन्हें समझना अधिक आसान है, ये मनुष्यसे पहलेका आखिरी रूप हैं); प्रत्येक पशु जो प्रकट हुआ उसके सामूहिक रूपमें (मेरा मतलब यह नहीं कि पूरे ब्यौरेमें), एक अतिरिक्त पूर्णता, पूर्ववर्ती पूर्णताकी अपेक्षा एक अधिक बड़ी पूर्णता थी, और इस आरोहणशील प्रगतिका शिखर था मानव रूप, जो अभीके लिये चेतनाकी दृष्टिसे उसे अभिव्यक्त करनेमें सबसे अधिक समर्थ है, अर्थात् मानव रूप अपने उत्रूटतम रूपमें, अपनी उच्चतम संभावनाओंमें, पहलेके सभी पशु-रूपोंकी अपेक्षा अधिक चेतनाके उपयुक्त है ।
यह प्रकृतिमें विकासका एक तरीका है ।
गत सप्ताह श्रीअरविन्दने हमें बताया था कि यह प्रकृति एक आरोहण- शील प्रगतिका अनुसरण कर रही है ताकि वह सब रूपोंके अंदर विद्यमान दिव्य चेतनाको अधिकाधिक प्रकट कर सकें । तो, प्रत्येक नये रूपके साथ जिसे यह उत्पन्न करती है, प्रकृति एक ऐसा रूप बनाती है जो इस रूपके अंदर विद्यमान आत्माको अधिक पूर्णताके साथ अभिव्यक्त कर सके । परंतु यदि इसी प्रकार चलता तो, एक रूप आता, उन्नत होता, अपने उच्चतम शिखरपर पहुंचता और पीछे दूसरा रूप आ जाया करता; पहले रूप लुप्त नही होते, परंतु व्यष्टिके प्रगति न हो पाती । एक .व्यष्टि कुत्ता या बंदर, उदाहरणार्थ, अपनी सब विशेषताओंके साथ अपनी जातिसे संबंध रखता है, जब बंदर या मनुष्य अपनी उच्चतम संभावनाओंपर पहुंच जायगा, अर्थात्, जब एक व्यष्टि-मानव मानवताका सर्वश्रेष्ठ प्ररूप बन जायगा, तो वही सब कुछ समाप्त हों जायगा; व्यक्ति और आगे प्रगति नहीं कर सकेगा । वह प्ररूपी मानव है और प्ररूपी मानव ही बना रहेगा । इस प्रकार, पार्थिव विकासकी दृष्टिसे इसमे एक प्रगति है क्योंकि आनेवाली प्रत्येक जाति अपने- सें पूर्ववर्ती जातिकी तुलनामें एक प्रगतिको उपस्थापित करती है, परंतु व्यष्टि- की दृष्टिसे वहां कोई प्रगति नहीं होती; वह पैदा होता है, बढ़ता है, मर जाता है और लुप्त हो जाता है । इसलिये व्यष्टिके प्रगतिको सुनिश्चित करनेके लिये यह जरूरी था कि किसी दूसरे साधनको खोजा जाय, पहला पर्याप्त न था । तमी तो, व्यष्टिके अपने अंदर, प्रत्येक रूपके भीतर वियमान, चेतनाका एक ऐसा संघटन मौजूद है जो आंतरिक दिव्य उपस्थितिके अधिक समीप और अधिक सीधे प्रभावमें है और इस रूपका, जो उस
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प्रभावके (ऊर्जाकी उस प्रकारकी आंतरिक सकेंद्रताके) अंतर्गत होता है, अपना एक जीवन होता है जो भौतिक रूपसे सर्वथा स्वतंत्र होता है -- इसे हीं हम सामान्यतः ' 'अंतरात्मा' ' या ' 'चैत्य सत्ता' ' कहते है - दिव्य केंद्रके चारों ओर संघटित यह सत्ता दिव्य प्रकृतिको ग्रहण कर लेती औ र अमर और शाश्वत बन जाती है । बाह्य शरीर झड़ जाता है, पर वह बना रहता है उन सारे. अनुभवोंमें गुजरता हुआ जो प्रत्येक जीवनसे उसे प्राप्त होते है, इस प्रकार एक जीवनसे दूसरे जीवनमें प्रगति चलता रहती है ओर यह प्रगति उसी एक व्यक्तिकी होती है । और विकासकी यह गति पहलीको पूर्ण बनाता है, इस अर्थमें कि पहले एक जाति पूर्ववर्ती जातिकी तुलनामें प्रगति करती थीं, उसके स्थानपर अब व्यक्ति इन जातियोंकी प्रगतिकी सब अवस्थाओंमेंसे गुजरता है और तब मी प्रगति जारी रखनेमें समर्थ होता है जब वह जाति अपनी अधिकतम सभा वनातक पहुंच जाती है, और... वहां रुक जाती या लुप्त हो जाती है ( वह निर्भर करता है विभिन्न अवस्थाओं - पर), परंतु वे और आगे नहीं बढ़ सकतीं, जब कि व्यक्ति, इस निरे भौतिक रूपसे सर्वथा स्वतंत्र एक जीवन रखनेके कारण, एक रूपसे दूसरेमें जा सकता और अनिश्चित कालतक अपनी प्रगति जारी रख सकता है । यह द्विविध गति- का निर्माण करता है जो अपने-आपको पूर्ण बनाती है । और यही कारण है कि प्रत्येक मनुष्यमें अपने उस रूपसे सर्वथा स्वतंत्र रूपमें उच्चतम उपलब्धिपर पहुंचनेकी शक्यता विद्यमान है जिसपर कि वह इस समय अस्थायी तौरसे निर्भर है ।
ऐसे लोग है ( ऐसे लोग रहे है औ र मुझे लगता है कि अब भी है!) जो कहते है कि उन्हें पूर्वजन्मोंकी स्मृति है और वे उस सबका वर्णन करते है जब वे कुतरा, हाथी या बंदर थे और जो-जो उनके साथ हुआ उसकी बड़े विस्तारसे कहानियां सुनाते है । मैं उनके साथ किसी बहसमें नही पडूंगी, पर फिर भी ये उदाहरण इस तथ्यको स्पष्ट करते है कि मनुष्य बननेसे पहले व्यक्ति बंदर रहा है -- शायद व्यक्तिके पास इसे याद करनेकी सामर्थ्य नहीं होती! पर वह दूसरा विषय है -- परंतु यह निश्चित है कि यह अन्त:स्थ दिव्य स्फुलिंग अपने-आपसे अधिकाधिक सचेतन होते जानेके प्तिये कई क्रमिक रूपोंमेसे गुजरा है । और यदि यह प्रमाणित हो जाय कि व्यक्ति उस रूपकी स्मृति रख सकता है जो रूप मानव रूपमें पाये जाने- वाले चैत्य पुरुष बननेसे पहले था, तो हां, वह अच्छी तरह इसे याद कर सकता है कि वह पेडोंपर चढ़ा था, नारियल खोये थे और नीचेसे गुजरने- वाले यात्रियोंसे अनेक प्रकारकी क्षरारते की थी ।
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कुछ मी हो, तथ्य सामने है । शायद बादमें हम देखेंगे कि इस चैत्य पुरुषके लिये, जिस ढंगसे मनुष्य स्मरण करता है उस ढंगसे स्मृतियोंको प्राप्त करनेके रिजये, एक विशेष प्रकारका आंतरिक संघटन जरूरी है - हम इस बारेमें बादमें बात करेंगे जब पुस्तकमें प्रसंग आयेगा - पर हर हालत- मे यह तथ्य स्थापित, हो गया है : यह विकासकी द्विविध गति ही है जो गक-दूसरेको काटती हुई अपने-आपको पूर्ण बनाती है, जब कि यह प्रत्येक प्राणीमें स्थित दिव्य ज्योतिको उपलब्धिकी अधिकतम संभावनाएं प्र-दान करती है । इसी चीजको श्रीअरविन्दने यहां समझाया है । (बालकको संबोधित करते हुए) इसका मतलब है कि अपने बाह्य शरीरमें तुम उस पशुजातिके हो जो अतिमानसिक जाति बननेके रास्तेंमें है । तुम अभी वह नहीं हो! परंतु तुम्हारे अंदर जो चैत्य पुरुष है वह इससे पहले मी बहुत-सी, बहुत-सी, अनगिनत जातियोंमें रह चुका है और अपनी सत्तामें हज़ारों वर्षके अनुभव लिये है और वह तबतक बना रहेगा जबतक तुम्हारा मानव शरीर विद्यमान है और विघटित नहीं हो जाता ।
हम बादमें देखेंगे कि क्या इस चैत्य पुरुषमें अपने शरीरका रूपांतर करने- की संभावना है और क्या यह पशु-मनुष्य और अतिमानवके बीचकी मध्य- वार्त्ता जातिका निर्माण कर सकता है -- इसका हम बादमें अध्ययन करेंगे -- फिर भी, अभीके लिये, अमर अंतरात्मा ही मानव शरीरमें अपने-आपके बारेमें अधिकाधिक सचेतन होती जाती है । बस, यही बात है । अब समझ गये '
(दूसरा बालक) मां, प्रकृतिमें हम प्रायः देखते हैं कि एक पूरी- की-पूरी जाति लुप्त हो जाती है । ऐसा किसलिये होता है?
संभवत: प्रकृतिने समझा होगा कि यह सफल नहीं है!... तुम जानते ही हों कि जब यह अपने-आपको कर्ममें डालती है तो पूरी प्रचुरताके साथ डाल देती है, इसमे मितव्ययिताकी भावनाका सर्वथा अभाव होता है । हम इसे देख सकते है । यह जो-जो परीक्षण कर सकती है, करती है, ऐसे-ऐसे आविष्कार कर डालती है, जो बहुत ही .अद्भुत होते हैं, पर कमी-कमी यह ... यह एक अंधी गलीके समान है । उस ओरसे धक्का देनेपर, प्रगति करनेके बजाय तुम उन चीजोंपर पहुंच जाते हों जो बिलकुल सुन्दर नहीं होतीं । यह अपनी सर्जन-प्रेरणाको पूरी प्रचुरताके साथ निर्माण-कार्यमें झोंक देती है, हिसाब नही लगाती, और जब समवाय बहुत सफल नहीं होता, तो हां, यह, बस, ऐसा कर देती है (इशारेसे बताती है), उसे मिटा देती
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है, इससे उसे कुछ कष्ट नहीं होता । प्रकृतिके पास, तुम देरवते ही हों, बहुतायतकी .सीमा नहीं । मैं समझती हू वह किसी भी प्रकौरके परीक्षण- के लिये ना नहीं करती । पर कोई चीज केवल तमी बनी रहती है जब उसका ऐसा सुयोग हो कि वह किसी सफल परिणामकी ओर ले जाने- वाली हों । निश्चय ही बन्दर और मनुष्यके बीच कुछ मध्यवर्ती या सभकक्ष जातियां रही हैं, उनके शेष चिह्न पाये गये है (शायद बड़ी सद्भावनाके साथ! पर फिर भी, शेष चिह्न तो मिले हे), हां तो, वे जातियां लुप्त हो गयी है । तो, यदि हम परिकल्पना करना चाहे, ते.; पूछ सकते हैं कि क्या आगे आनेवाली जाति पशु-मनुष्य और अतिमानवके बीच मध्य- वर्ती जाति चिरस्थायी होगी या महत्वहीन समझी जायगी ओर मिटा दी जायगी...? इसे हम बादमें देखेंगे । अगली बार जब हम मिलेंगे तो हम इस बारेमें बात करेंगे!
यह सिर्फ असीम प्राचुर्यका विलास है । प्रकृतिके पास यथेष्ट ज्ञान और चेतना है और वह ऐसे व्यवहार करती है कि उसके पास अनगिनत और असमर्थ तत्व है जिन्हें, आपसमें मिलाया जा सकता है, फिर पृथक् किया जा सकता है, उन्हें नया रूप दिया जा सकता और फिर मिटाया जा सकता है और... यह एक बहुत बड़ा विशाल कड़ाहा है, इसमे चीजों घोट जा रही है, एक चीज बाहर लायी जाती है, वह काम नहीं देती तो उसीमें वापस डाल दी जाती है, दूसरी लें ली जाती है । इसके परिमाणकी जरा कल्पना करो... इसी पृथ्वीको ही लें लौ : तुम समझने हो न? एक या दो रूप या सौ इसके लिये कोई महत्व नहीं रखते, वहां तो हज़ारों, लारवों रूप है । और फिर कुछ थोड़े-से वर्ष, सौ वर्ष, हजार वर्ष, या लाखों वर्ष भी इसके लिये कोई महत्व नहीं रखते, इसके सामने पूरा अनन्तकाल पड़ा है !
जब हम चीजोंको, देश और कालमें, मनुष्यके मानदण्डसे मापकर देखते है तो ओह! यह हमें बहुत ज्यादा लगता है, पर प्रकृतिके लिये यह कुछ भी नहीं है, बस, बच्चेका खेल है, एक मनोविनोद है । तुम इस मनो- रंजनको पसन्द करो या न करो, पर है यह मनोविनोद ही ।
यह बिलकुल स्पष्ट है कि इससे प्रकृतिका मनोरंजन होता है और उसे कुछ जल्दी नहीं है ।. यदि उससे कहा जाय कि बिना रुके, अपनी पूरी गतिसे चलकर अपने कार्यके इस भाग या उस भागको तेजीसे समाप्त कर डालों, तो उसका उत्तर हमेशा एक ही होता है : ''पर ऐसा किसलिये, क्यों भला? क्या तुम्हें यह मनोरंजक नहीं लगता ?"
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१३ नवंबर, १९५७
मेरे पास पहले पृष्ठके बारेमें एक प्रश्न है जहां श्रीअरविन्दने कहा है : ''एक आध्यात्मिक विकास ही, जडू-तत्वमें चेतनाका ऐसा विकास कि वह अपने रूपोंको इस प्रकार विकसित करती चले कि अंतमें रूप अंतरस्थ आत्माको अभिव्यक्त कर सके यही, तब पार्थिव जीवनका मुख्य स्वर, उसका केंद्रीय अर्थ-पूर्ण हेतु है ।''
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८२४)
तो, रूप या आकारकी दृष्टिसे, मनुष्य दूसरे पशुओंसे किस अर्थमें अधिक श्रेष्ठ है?
मैं मोचती हू इसे जानना काफी सरल है ।
श्रीअरविंद एक ऐसे रूपकी बात कहते हैं जो 'आत्मा' को अभिव्यक्त कर सकें । 'आत्मा' की अभिव्यक्तिका अपना स्वरूप ही है चेतना, ज्ञान और अंतमें प्रभुत्व । यह स्पष्ट ही है कि सौंदर्यके दृष्टिसे और विशुद्ध बाह्य भौतिक रूपकी दृष्टिसे कुछ पशुओंके रूप ऐसे मिल सकते है जो सुन्दर हों और मैं समझती हू शायद मनुष्य इस रूपसे... इस अवनतिकी अवस्था- मे जो रूप है उससे सुन्दर रूप मिल सकते है । ऐसे भी युग रहे' है जब मनुप्यजाति अधिक सुन्दर और अधिक सामंजस्यपूर्ण प्रतीत होती थी, पर जहांतक 'आत्मा' को अभिव्यक्त करनेके ढंगका प्रश्न है, मनुष्यकी श्रेष्ठताके बारेमें लेशमात्र भी सदेह नहीं । और कुछ नहीं तो केवल यह तथ्य ही कि वह सीधा खड़ा हों सकता है चीजोंको ऊपरसे देख सकनेकी क्षमताका प्रतीक है । सदा जमीनकी ओर नाक लगाये रहनेकी जगह वह जिसे देखता है उक्तता शासन करता है । स्पष्ट ही यह कहा जा सकता है कि पक्षी तो उड़ते है पर पैरवोंसे बंदरी आत्म-अभिव्यक्तिका साधन प्राप्त करना कठिन है!
यह सीखी, खड़ी स्थिति बड़ी प्रतीकात्मक है । यदि तुम चौपाये बन- कर चलनेकी कोशिश करो तो देखोगे कि उस स्थितिमें, जब कि आरव और नाक आवश्यक रूपसे जमीनकी ओर होते हैं, ऐसा नहीं लगता कि तुम चीजोंको दृष्टिके एक दूसरे स्तरसे या ऊपरसे देख रहे हो । मानव शरीर. की सारी रचना ही मानसिक जीवनको अभिव्यक्त करनेके लिये हुई है ।
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उदाहरणार्थ, मस्तिष्कका अनुपात मनुष्यके सिरकी रचना, भुजाओं और हाथोंकी रचना, यह सब, आत्माको अभिव्यक्त करनेकी दृष्टिसे निर्विवाद है, उनसे एकदम श्रेष्ठ है, और ऐसा प्रतीत होता है कि उसे पूरी तरह बुद्धिको अभियुक्त करनेकी दृष्टिसे कल्पित करके ही गढ़ा गया है ।
निश्चय ही, शक्ति, नमनीयता और स्फूर्तिकी दृष्टिसे मनुष्य पशुओंमें सबसे बढ़कर प्रतिभाशाली नही है, परंतु 'आत्मा'को अभिव्यक्त करनेमें कोई दूसरा प्राणी ऐसा नही जिससे उसकी तुलना की जा सकें । उसकी प्रत्येक चीज इसी दृष्टिसे बनायी गयी है । हम चाह सकते हैं कि इस संभावनाके साथ उन दूसरी चीजोंको भी जोड़ दें जो केवल मानसिक जीवनके लिये ही उत्सर्ग कर दी गयी प्रतीत होती हैं -- परंतु यह बात भी है कि ठीक इस मानसिक जीवनको अभिव्यक्त करनेकी क्षमताके कारण हीं मनुष्य अपने- मे उन सामथ्योंको विकसित कर सकता है जो उसमें अभी केवल सुप्त अवस्थामें ही विद्यमान है । मनुष्यके पास प्रशिक्षण-शक्ति है, उसके शरीर- को उन्नत एवं प्रशिक्षित किया जा सकता है । वह अपनी कुछ सामथ्योंको बढ़ा सकता है । तुम ऐसे किसी पशुकी कल्पना नही कर सकते, उनमेसे भी किसी पशुकी नहीं जिन्हें कि हम बहुत सराहते है, जो उदाहरणार्थ, शारीरिक शिक्षणके, विशुद्ध रूपसे शारीरिक शिक्षणके योग्य हों (मैं स्थल जाने और चीजोंको सीखनेकी बात नहीं कर रहीं हू, बल्कि विशुद्ध रूपसे शारीरिक शिक्षणकी, मांसपेशियोंको विधिपूर्वक समुन्नति करनेकी बात कह रहीं हू) । पशु जन्म लेता है और जो कुछ उसके पास है उससे लाभ उठाता है और अपनी प्रकृतिके नियमके अनुसार विकसित होता है किंतु वह अपने-आपको प्रशिक्षित नहीं करता या करता भी है तो बिलकुल प्रारंभिक अनगढ़ रूपमें और अत्यधिक सीमित क्षेत्रमें; जब कि मनुष्य एक सामान्य और योजनाबद्ध विकासके द्वारा अपने दोषोंको सुहगर सकता और अपनी संभावनाओंको पूरा कर सकता है । मनुष्य निश्चय ही एक सुव्यवस्थित तरीकेसे प्रगति करनेवाला पहला पशु है, क्योंकि वह अपनी योग्यताओं और अपनी संभावनाओंको बढ़ा सकता है, और अपनी क्षमताओंको विकसित कर उन वस्तुओंको पा सकता है जो सहज-स्वाभाविक रूपमें उसे प्राप्त नहीं है । परंतु ऐसा पशु एक भी नहीं जो यह कर सकें ।
हां, मनुष्यके प्रभावमें आकर बहुत-से पशुओंने उन क्रियाओंको करना सीख लिया है जिसे वे सहज-स्वाभाविक रूपमें नहीं कर सकते थे, पर फिर भी यह संभव हुआ है मनुष्यके प्रभावसे ही । निश्चय ही, यदि मनुष्य न होते तो कोई कुत्ता या घोड़ा उन क्रियाओंको कमी न सीख पाता जिन्हें वह मनुष्यके संपर्कमें आकर सीख जाता है । परिणामतः, यह स्पष्ट है कि
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मानव शरीर-रचना 'आत्मा'को अभिव्यक्त करनेके लिये सबसे उपयुक्त है । यह शरीर हमें अपर्याप्त प्रतीत हो सकता है, पर यह सिर्फ इस कारण है क्योंकि हम महसूस करते है कि हम अपने शरीरसे उससे अधिक प्राप्त कर सकते हैं जितना यह अपने-आप सहज-स्वाभाविक रूपमें, प्रशिक्षित करनेके संकल्पके बिना देता । और बुद्धिको, निरीक्षण, अवधारणा और निगमनको -- सभी मानसिक क्षमताएं है -- अभिव्यक्त करनेकी शक्यताके कारण ही मनुष्यने प्रकृतिके नियमोंको धीरे-धीरे समझना सीखा है और उसने न केवल उन्हें समझनेका, बल्कि उनपर वशित्व प्राप्त करनेका भी प्रयत्न किया है ।
यदि हम जो कुछ मनुष्य इस समय है उसकी तुलना 'सत्य'में निवास करनेवाले उस उच्चतर प्राणीसे करें जो हम बनना चाहते है तो स्पष्ट ही हम मनुष्यके बारेमें, जैसा कि वह अभी है, काफी निन्दा करते हुए बात कर सकते है ओर उसकी अपूर्णताओंको शिकायत कर सकते हैं ।यदि हम अपने-आपको उन पशुओंके स्थानपर रखें जो विकासमें ठीक उससे पहले आये है तो वह ऐसी संभावनाओं और शक्तियोंसे सज्जित है जिन्हें दूसरे अभिव्यक्त करनेमें एकदम असमर्थ है । यह तथ्य ही कि उसमें ऐसी महत्वाकांक्षा, इच्छा, संकल्प मौजूद है कि मैं प्रकृतिके नियमोंको जानु, उन- पर ऐसा वशित्व प्राप्त कर लू कि उन्हें, अपनी आवश्यकताओंके अनुरूप एक हदतक बदल ढालू, एक ऐसी चीज है जो किसी मी पशुके लिये असंभव है, अकल्पनीय है ।
तुम कह सकते हो कि मुझे मनुष्यके बारेमें इतने प्रशंसात्मक रूपमें कहने- की आदत नहीं है (हंसी), परन्तु यह इसलिये है कि उसकी अपने बारेमें अत्यधिक प्रशंसात्मक रूपमे सोचनेकी आदत है!
परंतु यदि हम उसकी तुलना प्रकृतिकी बनायी हुई दूसरी वस्तुओंसे करें तो नि:संदिग्ध रूपमें वह सीढीके शिखरपर है ।
परंतु, मां, तब प्रश्न उठता है : क्या चेतनाके अवतरणसे आकार- का विकास होता है या आकारका विकास ही उच्चतर चेतनाके अवतरणको आवश्यक बना देता है?
चेतनाके अवतरणके बिना कोई विश्व ही न होगा । वह, तुम्हारा विश्व, कहांसे ओर किसके द्वारा आरंभ होगा?
मनुष्यका उदाहरण लें तो, क्या पशु-मानव मनको नीचे लाया या मनके अवतरणसे ही...
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ओह! तुम्हारा मतलब है : क्या यह मध्यवर्ती प्राणी या उच्चतर वानरमें विद्यमान कोई चीज थी जिसने अपनी अभीप्साके द्वारा मनके आगमनको संभव बनाया? परन्तु स्वयं अभीप्सा पहलेके अवतरणका फल है ।
यह बहुत स्पष्ट है कि ऐसी कोई चीज उस वस्तुमेंसे अभिव्यक्त नही हों सकती जो उसमें शुरूसे विद्यमान न हो । तुम किसी चीजको शून्यमें- से नहीं प्रकटा सकते । तुम उसी चीजको जो पहलेसे है उमगने, प्रकट होने, खिलौने और वर्धित होनेमें सहायता कर सकते हों । लेकिन यदि कुछ न होता तो कभी कुछ बाहर न आता । समस्त प्रगति, समस्त पूर्णता ऐसी ''किसी चीज' के आन्तरिक प्रयत्नका फल है जो पहलेसे विद्यमान है और आत्म-अमिउयक्ति खोज रही है । कहनेका मतलब यह कि, पूरी तरह, यह मूलतत्व ही होता है जो पहले आता है, अभिव्यक्ति बादमें । जैसे-जैसे हम 'दिव्य जीवनको आगे आगे पढ़ते जायंगे, श्रीअरविदो इस चीज- को हमारे आगे सभी संभव उपायोंसे सिद्ध करेंगे । यदि वहां कोई सनातन 'तत्व' न होता, कोई 'परमसद्वस्तु' न होती (इसे हम जो चाहें नाम दे सकते हैं, दे सकते है न!), तो कोई विश्व न हुआ होता, क्योंकि कुछ नहीमेसे कभी कुछ चीज नहीं प्रकट हुआ करती ।
इस बातको हम पढ़ते समय देखेंगे, तब तुम दार्शनिक कसरत करनेको मजबूर होओगे । पर फिर मी, बिना दर्शन या मानसिक व्यायामके, यह स्पष्ट है कि कोई चीज बनानेके लिये तुम्हारे पास कोई चीज होनी चाहिये जिससे तुम उसे बना सको ।
मनुष्यके मानसिक विकासका एक पूरा युग ऐसा है या था जिसमें लोगों- ने बड़ी गंग्रीरतासे यह प्रमाणित करनेकी चेष्टा की कि 'जड-तत्व'के उत्कर्षने ही 'आत्मा'को जन्म दिया है । पर वह सिद्धान्त टिक नहीं सका (श्रीमां हंसती है) । तुम्हारी छोटी-से-छोटी चेष्टा, जो कुछ भी तुम करते हा वह सब, इस बातका स्पष्ट प्रमाण है कि पहले तुम सोचते हो और फिर उसे करते हों, छोटी-से-छोटी मात्रामें भी । जो जीवन चेतन संकल्पका परिणाम नहीं, वह एक सर्वथा असंबद्ध जीवन होगा । मेरा मतलब है कि यदि प्रकृति चेतन उद्देश्यसे युक्त एक चेतन शक्ति अरि चेतन संकल्प न होती तो कोई भी चीज रूप न लें पाती । यदि हम थोड़ा भी निरीक्षण करें, वैयक्तिक जीवनका जो बहुत छोटा-सा क्षेत्र हमें मिला है उसमें मी यदि हम देखें, तो हमें इसका पूरा-पूरा विश्वास हो जायगा ।
पर फिर मी... यह ठीक उन विषयोंमें सें एक है जिनपर श्रीअरविदने काफी विस्तारसे कहा है, अतः इसके बारेमें हम फिर बात करेंगे ।
यह कहा जा सकता है कि आगपर प्रभुत्व मनुष्यकी श्रेष्ठताका प्रतीकात्मक चिह्न है । जर्हा मनुष्य होता है, आग जलायी जाती है ।
दो चीजों ऐसी हैं जो पशुओंकी क्रियाओसे स्पष्ट रूपमें श्रेष्ठ हैं, एक तो लिखनेकी क्षमता, दूसरे सुस्पष्ट वाणीकी संभावना । ओर यह चीज स्पष्टतया इतनी श्रेष्ठ है कि सभी उन्नत पशु इस स्पष्टोच्चारित वाणीके प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, यह उन्हे मोह लेती है । यदि तुम किसी जंगली पशुसे बहुत स्पष्टताके साथ, ठीक आवाजमें और साफ-साफ बोलो तो बह तत्काल आकर्षित हो जाता है, सचमुच मुग्ध हो जाता है (मैं' उन पशुओंके बारेमें नहीं कह रही जो मनुष्यके पास रह चुके हैं, बन्कि ठीक उन पशुओंके बारेमें कह रही हू जो मनुष्यके संपर्कमें पहले कभी नही आये) । एकदम वें घ्यान देते हैं और अभिव्यक्त होती हुई श्रो:ठतर शक्तिको अनुभव करते हैं ।
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१७ नवंबर , १९५७
'' यह शंका भी की जा सकती है कि क्य-विकास जहांतक पहुंच चुका है उससे और आगे जाने की उसकी संभाव्यता है भी या नहीं, या क्या एक अतिमानसिक वकासकी, पााइr थव प्रकृतिके आधारभूत ' अज्ञान' के अंदर एक संपूर्ण ' सत्य-चेतना के, एक ' ज्ञान ' -पुरुषके आाइ वर्भावकी संभाव्यता है... ।
माना कि सृष्टि ' कालातीत सनातन ' की ' सनातन काल' मे एक अभिव्यक्ति है, माना कि ' चेतना' के सात स्तर हैं और जड नि श्चेतनाको ही आत्माके पुनरारोह णका आधार बनाय गया है, माना कि पुनर्जन्म एक तथ्य है और पृ थ्वीकी व्यवस्थाका एक अंग है, फिर भी इनमेंसे किसी एकको या सबको सम्मिाइ लत रूपमें मान लेने का अनिवार्य रूपसे यह परिणाम नहीं निकलता कि वैयक्तिक सत्ताका आध्यात्मिक विकास होता है । पार्थिव आइ स्तत्वके आध्यात्मिक अर्थ एवं आंतरिक प्रक्रि याके बारे- मे एक दूसरा दृष्टिकोण लेकर भी चला जा सकता है । यदि प्रत्ये क सृष्ट वस्तु अभिव्यक्त भागवत सत्ताका ही एक रूप है
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तो अपने अंदर विद्यमान आध्यात्मिक उपस्थितिके कारण प्रत्येक अपने-आपमें दिव्य है, चाहे प्रकृतिमें उसका बाह्य क्रय, आकार या गुण-धर्म कुछ भी क्यों न हो । अभिव्यक्तिके प्रत्येक रूपमें भगवान् अस्तित्वका आनंद लेते हैं, अतः उसमें परिवर्तन या प्रगति हो इसकी कोई आवश्यकता नहीं । 'अनन्त सत्ता' की प्रकृति जिस प्रकारके आत्मप्रकाशको, वह सुनिश्चित कर्मका हो या चरितार्थ संभावनाओंकी श्रेणी-परंपराका, आवश्यक बना देती है, बह असंख्य प्रकारकी विविधता, रूपोंकी बहुविध संतति, चेतना व प्रकृतियोंमें नमूनोंके रूपमें, जिन्हें हम अपने चारों ओर सर्वत्र देखसे हैं, यथेष्ट मात्रामें प्रस्तुत है ही । सृष्टिमें कोई उद्देश्य- मूलक प्रयोजन नहीं है और हो भी नहीं सकता, क्योंकि सभी कुछ तो 'असीम' के अंदर विद्यमान है; ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे प्राप्त करनेकी भगवानको आवश्यकता हो या जो उनके पास न हो; यदि सृष्टि और अभिव्यक्ति बनी है तो केवल सृष्टि और अभिव्यक्तिके आनंदके लिये, किसी उद्देश्यके लिये नहीं । तो, किसी ऐसी विकास-क्रियाको माननेका कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है जिसके शिखरपर पहुंचना हो या जिसका चरितार्थ और सिद्ध करने योग्य कोई लक्ष्य हो या जो अंतिम पूर्णताके लिये कोई प्रवेग लिये हो ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ० ८२५-२७)
यह एक तर्क है जो श्रीअरविदने उपस्थित किया है । जैसा कि उन्होंने कहा है कि यह समस्याको देखने और उसका समाधान करनेके तरीकोंमें- से एक है, पर इसका यह मतलब नहीं कि यह उनका अपना दृष्टिकोण है । ठीक इसी पद्धतिको उन्होंने इस सारी पुस्तकमें, सब जगह अपनाया है वे विभिन्न तर्क, विभिन्न दृष्टिकोण, विभिन्न विचार व धारणाएं हमारे सामने रखते हैं और जब वे सब समस्याओंको हमारे सामने रख चूकते है उसके बाद समाधान प्रस्तुत करते हैं । यही कारण है कि हमारे अध्ययनके ढंगमें एक असुविधा है, क्योंकि मैं तुम्हारे सामने एक अनुच्छेद पढ़ती हू और यदि हम वहीं रुक जायं तो ऐसा प्रतीत होगा कि उन्होंनें अपने दृष्टिकोणका प्रतिपादन किया है; और फिर यदि ऐसा हो कि वह पढा हुआ तुम्हें ठीक याद न रहे और जब मैं' अगली बार अगला अनुच्छेद पडू जिसमें वे दूसरे दृष्टिकोणकी व्याख्या करते हैं (कभी-कमी वह बहुत भिन्न, यहांतक कि एकदम उलटा भी होता है), और हम वहां रुक जायं तो निष्कर्ष होगा
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यह भी उनका दृष्टिकोण है । तो इससे एक परस्पर-विरोध उपस्थित हो जाता है । और यदि हम आगे जारी रखें तो दो या तीन परस्पर-विरोध उपस्थित हो जायंगे । मैं तुमसे यह बात इसलिये कह रही हू क्योंकि मैंने लोगोंको, (जो सर्वथा ऊपरी तौरसे पढ़ते है और संभवत: पूर्णतया अविच्छिन्न रूपसे भी नहीं पढ़ते (जो अपने-आपको अत्यधिक बुद्धिमान् और विद्वान् समझते है), कहते सुना है, वे मुझसे कहते हैं : ''परन्तु श्रीअरविन्द इस पुस्तकमें सारे समय अपने-आपको दोहराते रहते है । प्रायः प्रत्येक अनुच्छेदमें वह हमसे फिर वही बात कहते है ।', (श्रीमां हंसती है) । क्योंकि वह विचार-प्रणालीके सभी दृष्टि-बिन्दुओंके प्रस्तुत करते हैं ओर बादमें अपना दृष्टिकोण, निष्कर्ष प्रदान करते हैं; उसके बाद फिर एक बार विचार-प्रणालीके सभी दृष्टि-बिन्दुओंके प्रस्तुत करते हैं, सब समस्याओंको सामने लाते है और तब अन्तमें उस सत्यको सिद्ध करते हैं जिसे वे हमें_ समझाना चाहते हैं -- ''तो वह अपने-आपको दोहराते हैं ।''
वास्तवमें, स्वभावत: इस जालमें फंसनेसे बचनेके लिये यह जरूरी है कि पर्याप्त ध्यानके साथ पढा जाय । तुम्हें दत्तचित्त होना चाहिये और विषय-वस्तुके बीचमें ही निष्कर्षपर नहीं पहुंच जाना चाहिये, अपने-आपसे यह नहीं कहना चाहिये : ''ओह, देखो! श्रीअरविन्दने कहा है यह ऐसा है ।', वह नहीं कहते कि ''यह ऐसा है,'' वह बताते हैं कि ऐसे लोग है जो कहते हैं कि ऐसा है । और वह तुम्हें दिखाते हैं कि इस समस्याको बहुत-से बागोंने किस रूपमें रखा है और फिर दूसरी बार दिखाते हैं कि उसी समस्याको दूसरे लोगोंने कैसे रखा है; और जब वे (उस समस्याके) सभी दृष्टिकोणोंको स्परपुटताके साथ हमें समझा चुकाते है, केवल तभी अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते है । और अतीव मनोरंजक बात तो यह है कि उनका निष्कर्ष हमेशा एक समन्वय होता है : सभी दूसरे दृष्टिकोणोंको उसमें अपना स्थान मिल जाता है बशर्ते कि वे यथोपयुक्त रूपमें ठीक बैठ जायं । वह (निष्कर्ष) किसीको अलग नहीं करता, सब दृष्टिकोणोंको संयुक्त करता है और उनमें समन्वय ला देता है ।
परन्तु चूंकि हमारा पाठ हर तीसरे सप्ताह चलता है इसलिये हमें उस सबको (हंसते हुए) भूलनेका समय मिल जाता है जो पहले पढा था! मुझे मालूम नहीं कि तुम प्रश्नको याद कर सकते हो या नहीं जो पूछा गया था?... नहीं?...
क्या व्यक्तिगत विकास भी होता है या नहीं होता?... एक वैश्व विकास हैं (श्रीअरविन्द इसे दिखाते है), परन्तु इस वैश्व विकासके अन्दर व्यक्तिगत रूपमें भी विकास होता है या नहीं?... तो अब, उन्होंनें हमारे
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सामने एक विचार-पद्धति प्रस्तुत की है (जो, स्पष्ट ही, एकदम तर्क-संगत है और एकदम युक्ति-संगत है) पर जिसमें वैयक्तिक विकासको माननेकी कोई आवश्यकता बिलकुल नहीं नैण । सारा वैश्व समवाय युक्ति-संगत रूपमें ठीक है, और वैयक्तिक विकासकी आवश्यकताको बीचमें लाये बिना हीं उसे युक्तियुक्त रूपमे प्रमाणित किया जा सकता है ।
परन्तु यदि हम धैर्यके साथ चलते चलें तो थोडी देरमें वह हमारे सामने यह प्रमाणित करेंगे कि विश्व-व्याख्याकी इस पद्धतिमें, जिसे हमने लिया है, वैयक्तिक विकासके विचारका होना क्यों और कैसे जरूरी है । परन्तु जो चीज मैं जानना चाहती हू वह यह है कि यह समस्या तुम्हारे लिये कोर्ट वास्तविकता रखती भी है या नहीं -- इसका किसी ऐसी चीजसे मेल है या नहीं जिसे तुम समझते हो? क्या तुमने यह समझ लिया है कि एक ऐसे प्रगतिशील और विकसनशील विश्वकी कल्पना की जा सकती है जिसमें यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति व्यक्तिगत रूपसे भी विकास कर रहा हो?
यह जरूरी है कि मैं तुमसे प्रश्न पूछ, यह पूछ कि क्या तुम सबसे पहले, व्यक्तिगत विकास और वैश्व विकासके भेदको समझते हो, और यह कि ये दोनों कैसे आगे बढ़ सकते हैं?
प्रकृति अपने वैश्व विकासकी ओर कैसे बढ्ती है ? इसे, मेरा ख्याल है, तुम समझ चुके हा?
व्यक्ति मरता है और फिर पैदा होता है.... भौतिक रूपमें, क्या यह वही बात नहीं है?
हां, मैं बाह्य जगत्की, भौतिक जगत्की बात कर रही हू जैसा कि हम उसे देखते हैं ।
व्यक्ति मरता है और पैदा होता है....
नहीं, वह और ही चीज है । जो कुछ तुम कह रहे हो -- मरना और फिर पैदा होना, फिर मरकर फिर जन्म लेना - वह वैयक्तिक विकासकी प्रक्रिया है बशर्ते कि व्यक्तिकी कोई चीज जीवन और मृत्युमें होती हुई शेष बनी रहती हों, क्योंकि यदि वह सर्वथा, निशेषत मर जाय, निशेषत: विघटित हो जाय तो पुनर्जन्म किसका होगा? यह आवश्यक है कि कोई चीज शेष बनी रहे -- पुनर्जन्मोंभेंसे होती हुई शेष बनी रहे
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-- अन्यथा वह वही व्यक्ति नहीं होगा । यदि कुछ भी शेष न रहे तो विकास करनेवाला व्यक्ति नहीं होगा, प्रकृति होगी । प्रकृति जड-पदार्थका उपयोग करती है; इस जड़-पदार्थसे वह रूपोंको गढ़ती है (मैं तुम्हें यह अतीव सरल तरीकेसे समझा रही हू, फिर भी), इसके पास जड-पदार्थका ढेर है .और उससे यह संयोग बनाती रहती है । वह एक रूप बनाती है, वह विकसित होता है, वह विघटित हो जाता है, व्यक्ति-तत्वके रूपमें बना नहीं रहता । वह किस कारण बना नहीं रहता? क्योंकि प्रकृतिको फिरसे दूसरे रूपोंको बना. सकनेके लिये जड-पदार्थकी, द्रव्यकी आवश्यकता होती है । तो वह जो बनाती है उसे नष्ट कर देती है और फिर उसीसे कोई दूसरी चीज बनाती है, वह इसी प्रकार जारी रखती है और यह धारा व्यक्तिकी प्रगतिके बिना ही अनिश्चित कालतक जारी रह सकती है. समूची समष्टि प्रगति करती है ।
मान गौ तुम्हारे पास प्लास्टिसीन है (तुम्हें प्लास्टिसीन मालूम है न, जिससे मॉडल बनाये जाते हैं? अच्छा ।) तुम एक रूप बनाते हो, जब बना चुकते हों तो वह तुम्हें पसंद नहीं आता, तुम उसे तोड़ देते हो और उसकी फिरसे गाढ़ी लुगदी बनाकर दूसरा रूप बनानेका प्रयास करते हो । तुमने प्रगति की है, तुम प्रयास करते हो, अपने मुताबिक उसे ढालते हो; तुम कहते हो : ''यह संतोषजनक नहीं था, मैं फिर कोशिश करता हूं,'' और तुम्हारा वह रूप पहलेसे कुछ अच्छा बनता है, पर फिर भी वह वैसा नहीं है जैसा तुम चाहते हो; इसलिये तुम उसे फिरसे तोड़ देते हो, थोड़ा पानी डालकर लुगदी बना लेते हो और दूसरा रूप शुरू करते हों । और तुम अनिश्चित कालतक यही कर सकते हो । द्रव्य सर्त्रदा वही एक होता. है, पर अस्तित्व सदा वही एक नहीं होता, क्योंकि तुम्हारे प्रत्येक रूपका, एक रूपके तौरपर, एक विशिष्ट अस्तित्व तो है, पर जिस क्षण तुम उसे तोड़ देते हो फिर वहां कुछ भी शेष नहीं रह जाता ।
तुम उस एक ही रूपको पूर्ण बनानेका प्रयास कर सकते हो या फिर दूसरे रूपोंके लिये भी प्रयास कर सकते हो । उदाहरणार्थ, तुम एक कुताया घोड़ा बनानेकी कोशिश कर सकते हो, और यदि तुम सफल नहीं होते नो तुम दूसरा घोड़ा या कुत्ता बनानेकी कोशिश कर सकते हो, परंतु ऐसा भी हों सकता है कि तुम कोई अलग ही चीज बनाने लगो । यदि तुम एक घर बनाओ और वह घर यदि तुम्हें पसंद न आये तो तुम उसे तोड़ देते हो और दूसरे ही नमूनेपर दूसरा घर बनाते हों, परंतु पहले घरकी कोई चीज शेष नहीं रहती सिवाय स्मृतिके, यदि तुम उसे बनाये रखना चाहो । इसी प्रकार प्रकृति एकदम निश्चेतन और बिना आकृतिवाले
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बेडौल जड-पदार्थसे शुरू करती है; फिर एक या दूसरा रूप बनाने की कोशिश करती है; केवल, हमारी तरह एक समयमें एक चीज बनाने के स्थानपर, वह एक साथ लाखों चीजों बनाती है । परंतु यह तो, बस, अनुपातका प्रश्न है, यह इसलिये है क्योंकि प्रकृतिके पास अधिक साधन हैं, बस इतनी ही बात है । पर इसका आवश्यक रूपसे यह मतलब नहीं कि वहां जीवनके तत्व या चेतनाके तत्व जैसी कोई स्थायी चीज होती है जो रूपमें प्रवेश करती हो और जब रूप तोडू दिया जाय तो दूसरे रूपमें प्रवेश करनेके लिये शेष बीत रहे । यह बड़ी आसानीसे तुम्हारे और तुम्हारी प्लास्टीसीनके साथ भी हो सकता है : तुम कोई चीज बनाते हों, उसे तोडू देते हो, फिर- से बनाते हो, औ र फिर तोड देते हो, अनिश्चित कालतक, और कुछ भी शेष नहीं रहता ( जैसा कि मैंने कहा) सिवाय जो पहले बनाया था उसकी स्मृतिके । परंतु यदि हम व्यक्तिगत विकासको मान लें, कि वहां कोई चीज है जो स्थायी एवं नित्य है, जो एक रूपसे दूसरे रूपमें जाती है और प्रत्येक नये रूपके साथ एक नयी प्रगति करती है और उच्चतर तथा उच्चतरसे भी उच्चतर रूपोंमें जाने योग्य बनती जाती है जबतक कि वह! ' 'कोई चीज' ' विकासके अंतमें पूर्ण रूपसे सचेतन सत्ता नहीं बन जाती, तो यह इस सत्ता- का वैयक्तिक विकास होगा और यह प्रकृतिके विकासको द्विगुणित और पूर्ण बनानेवाला होगा ( यह स्वतंत्र नहीं, उसके साथ-साथ चलेगा), बल्कि अधिक ठीक यह है कि यह सत्ता ही अपने वैयक्तिक विकासके क्षेत्रके तौरपर प्रकृतिके विकासका उपयोग कर रही होगी... । बात पकडू रहे हो न? अच्छा!
श्रीअरविन्दने इस समय जिस चीजको हमारे सामने रखा है वह एक ऐ सें जगत्की व्याख्या है जो बिलकुल युक्तिसंगत और बुद्धिगम्य रूपमें ऐ सें किसी व्यक्तिकी आवश्यकताके बिना काम करता रहेगा जो एक रूपसे दूसरे रूपमें ' जाता है, किसी ऐसी चीजके बिना का म करता रहेगा जो स्थायी हा, समस्त विनाश और मृत्युसे मुक्त हों, जो सब रूपोंमेसे गुजरती हुई शेष बनी रहती हों और प्रकृतिके विकासके साथ-साथ अपनी निजी, व्यक्तिगत प्रगति भी कर रही हों... । यह ऐसा है मानों तुम अपने बनाये रूपके बीचमें एक छोटा-सा कीमती पत्थर रख दो और चाहो कि अगले बनाये जानेवाले रूपोंके अंदर भी इसे ऐसे ही ढककर रखा जाय । तो अपने कीमती पत्थर- को तुम एक रूपसे दूसरे रूपमें ले जाते हो ( पर अभी यह तुलना अदूर्ग है, क्योंकि कीमती पत्थर जैसे-जैसे एक चीजसे दूसरी चीजमें चलता जाता है अधिकाधिक कीमती बनता जाता है), और यह ऐसा है मानों जब वह एक रूपसे दूसरे रूपमें जाय तो वह अधिकाधिक प्रकाशपूर्ण और शुद्ध आकारमें अधिकाधिक सुस्पष्ट होता जाय ।
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तो, यह लो । समझे कि नहीं?
कुछ-कुछ । आह! यह अपने-आपमें कुछ है!
तो, इसे पूरा करनेके लिये, तुम व्यक्तिगत विकासमें विश्वास करते हो या नहीं?... क्या तुम्हें इसका कोई अनुभव है?... ओर तुम उसका अनुभव किस प्रकार प्राप्त कर सकते हों?... वह मनोरंजक होगा । व्यक्तिगत विकासको प्रकृतिके सामूहिक विकाससे स्वतंत्र रूपमें कैसे अनुभव किया जा सकता है?
तुम इसका उत्तर दे सकते हों? तुम?
जबतक कोई व्यक्ति अपने अंदर उस तत्त्वसे सचेत नहीं होता जो शाश्वत है, वह कैसे जान सकता है कि...
आह! ठीक, यह ठीक है । यह बहुत अच्छा है, तब बात इस प्रश्नपर लौट आती है कि क्या तुम इस शाश्वत तत्वसे सचेतन हो जो तुम्हारी सताके अंदर है?
क्या तुम उसे खोज कर देखनेवाले हो कि वह तुम्हें अपने अंदर मिल सकती है या नहीं?
यह इतना छुपा हुआ क्यों है?
संभवतः केवल इसलिये कि लोग उसकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते! यदि उन्होंने द्वारोंको खोलनेका कष्ट उठाया होता तो शायद वे उसे फ जाते... । स्पष्ट ही वह एक भद्रपुरुष है -- एक भद्रपुरुष या भद्रमहिला या कुछ और, चाहे जो भी हो - जो आत्म-प्रदर्शन. पसंद नहीं करता, उपरितलपर आकर जबर्दस्ती तुम्हारा ध्यान नहीं खींचता । बल्कि संभवत: प्रतीक्षा करता है कि तुम उसकी खोजमें अंदर जाओ? संभवतः वह गृहकी एकदम गहराईमें बहुत प्रशांत रूपमें विराजमान है ओर हमें एक-एक करके द्वारोंको खोलना होगा ।
कम-से-कम मैं तो ऐसा नहीं पाती कि वह छुपा हुआ है । मैं तो देखती हू वह सब जगह अभिव्यक्त है, सब समय, सब क्षण, सब वस्तुओंमें अभि- व्यक्त है ।
क्या तुम उसे खोज रहे हो? उसे खोजनेवाले हों?
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४ दिसंबर, १९५७
''वास्तवमें हम देखते है कि सृष्टिके मूलतत्व स्थिर और अपरिवर्तनशील हैं : सत्ताका प्रत्येक प्ररूप अपने रूपमें बना रहता है और अपने स्वसे भिन्न होनेकी न तो चेष्टा करता है, न इसकी कोई आवश्यकता ही है । माना कि सत्ताके कुछ प्ररूप विलुप्त हो जाते हैं और अन्य प्ररूप उत्पल होते हैं, इसका कारण यह है कि विश्वगत 'चित्-शक्ति' विनष्ट होनेवाले प्ररूपोंसे अपने जीवन-आनंदको वापस ले लेती है और अपनी प्रसन्नताके लिये दूसरे रूपोंका सर्जन करने लगती है । परंतु प्रत्येक जीवनके प्ररूपका, जबतक बह रहता है, अपना एक खास प्रकार होता है और उसमें चाहे जो भी छोटे-मोटे परिवर्तन हों, वह अपने उस प्रकारके प्रति सच्चा बना रहता है : वह अपनी ही चेतनासे बंधा रहता है और उससे निकलकर अन्य चेतनामें नहीं जा सकता; अपनी ही प्रकृतिसे सीमित होनेके कारण इन सीमाओंका उल्लंघन करके अन्य-प्रकृतिमें नहीं जा सकता । यदि 'अनत'की 'चित्-शफ्ति'ने 'जडू-तत्त्व'को अभिव्यक्त कर चुकनेके बाद 'जीवन'- को अभिव्यक्त किया और 'जीवन को अभिव्यक्त कर चुकनेके बाद 'मन' को अभिव्यक्त किया है तो इससे यह परिणाम नहीं निकलता कि वह अगली पार्थिव सृष्टिके तौरपर अब अति- मानसको अभिव्यक्त करेगी! कारण, 'मन' और 'अतिभन' सर्वथा विभिन्न गोलाद्धोंसे संबंध रखते हैं, 'मन 'अज्ञान' की निम्नतर स्थितिकी वस्तु है और 'अतिमन' 'दिव्य ज्ञानकी', उच्चतर स्थितिकी । यह जगत् 'अज्ञान' का जगत् हैं और इस-
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का ऐसा ही बने रहना अभिप्रेत है; उसमें यह अभिप्राय तो नहीं जान पड़ता कि उच्चतर गोलार्द्धकी शक्तियोंको सत्ताके इस निम्नतर गोलार्द्धमें नीचे उतार लाया जाय या उनकी छुपी उपस्थितिको यहां अभिव्यक्त किया जाय । क्योंकि यदि वे शक्तियां यहां विद्यमान हैं भी, तो एक छिपे, अगम्य अंतर्धापित रूपमें ही हैं, और सृष्टिको केवल बनाये रखनेके लिये है । उसे पूर्ण बनानेके लिये नहीं । मनुष्य इस अज्ञानमयी सृष्टिका शिखर है, वह उस चरम चेतना और ज्ञानतक पहुंच चुका है जहांतक यह सृष्टि पहुंच सकती थी : यदि वह ओर आगे जानेकी कोशिश करता है तो वह केवल अपने-आप मनके ही अधिक विस्तृत चक्रोंमें चक्कर काटता रहेगा । क्योंकि यहां तो उसके अस्तित्वकी चाप यही है, एक सीमित वृत्त जो 'भन' को अपने चक्करोंमें धुमाता रहता है और वह उसी बिंदु- पर वापस लौट आता है जहांसे बह चला था; 'मन' अपने चक्करोंसे बाहर नहीं निकल सकता -- ऐसा सब विचार कि गति या प्रगतिकी एक सीधी रेखा है जो असीम रूपमें ऊपर या पार्श्व दिशामें, 'असीम' में जा पहुंचती है, एक मग्न है । यदि मनुष्यकी आत्माको मानवताके परे जाना हो ताकि वह अति- मानस या उससे भा आगे पहुंच सके तो इसे वैश्व अस्तित्वमेंसे बाहर निकल जाना होगा या तो 'आनंद' और 'ज्ञान' की भूमिका अथवा जगत्में या फिर अनभिव्यक्त 'शाश्वत' और 'असीन्स, में चले जाना होगा ।''
('लाइफ डिवाइन', पृ ८२७-२८)
वस्तुतः, कुछ प्रारंभिक तैयारी कर लेनी चाहिये, प्रत्येक नये अनुच्छेदके विचारको लिख लेना चाहिये और उसे पहलेके विचारके साथ जोड़ना चाहिये, ताकि अध्यायके अंतमें एक पूरा चित्र तुम्हारे सामने उपस्थित हो सकें, क्योंकि जो कुछ मैंने अभी पढा है उसमेंसे यदि तुम कोई प्रश्न पूछो तो उसके लिये ऐसे उत्तरकी जरूरत हो सकती है जो कभी-कभी हमने पहले अनुच्छेदमें जो पढा है, उससे लगभग उलटा हो । यह प्रतिपादनका उनका तरीका है । यह ऐसा है मानों श्रीअरविन्द अपने-आपको एक प्रकारके गोलकके केंद्रमें, जैसे पहियेकी धुरीमें, रख रहे हों जिसके कि आरे नेमि या परिधिसे लगे होते हैं । श्रीअरविन्द सदा प्रारंभ-बिंदुपर वापस लौट आते हैं और वहांसे सीधे सतहतक आ जाते है और वह हर बार ऐसा करते हैं
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जिससे यह छाप पड़ती है कि वह उसी एक चीजको बार-बार दोहराते रहे हैं, परंतु यह केवल विचारकी स्पष्टताके लिये है जिससे तुम उसे समझ सको । यह जरूरी है कि तुम्हें विचारोंकी बहुत स्पष्ट स्मृति हो ताकि जो वह कहते हैं तुम उसे ठीक-ठीक समझ सको ।
मैं इसपर जोर इसलिये दे रही हू कि यदि तुम कर्मसे नहीं बढ़ते तो अध्ययनसे बहुत लाम नहीं उठा सकोगे, यह तुम्हें एक गोरखधंधेके समान लगेगा जिसमें रास्ता ढूंढ पाना बहुत मुश्किल होता है... । सब विचार केंद्रमें एक साथ जुड़े हुए है और नेमिसे सर्वथा विभिन्न दिशाओंमें चले नये है । क्या तुम्हारे पास इस बार कोई प्रश्न है?... नहीं ।
यह कठिन है, है न? मैं पढ़ती हू और यह बहुत अच्छी तरह देखती हू कि प्रश्न करना कठिन है, क्योंकि जबतक हम उपपत्तिके अन्ततक न पहुंच जायं हम नही जानते कि वह कहां पहुंचना या क्या समझाना चाह रहे हैं; पर साथ ही यह भी ठीक है कि यदि तुम सारा विवरण पढ जाओ तो सब बातोंको याद कर सकना असंभव है (जबतक कि किसीको विशेष रूपसे सच्ची और यथार्थ स्मृति प्राप्त न हो) । अन्ततक पहुंचते-पहुंचते तुम यह भूल जाओगे कि शुरूमें क्या आया था । अतः कुछ लिख लेना, संक्षेपमें कुछ लिख लेना हितकर होगा, प्रत्येक अनुच्छेदका सारांश एक या दो प्रमुख विचारोंमें तैयार करके लिख लो ताकि अन्तमें मिलान कर सको ।
श्रीअरविन्द यह।- कहते है कि प्रत्येक जाति अपने जातिगत गुणोंसे, अपनी रचनाके मूल सूत्रोंसे, सन्तुष्ट रहती है, वह नयइ?ा जातिमें अपने-आपको रूपान्तरित या परिवर्तित करनेकी चेष्टा नहीं करती । एक कुत्ता कुत्ता बने रहनेसे ओर एक घोडा घोडा बने रहनेसे सन्तुष्ट है और कभी भी वह, उदाहरणार्थ, हाथी बननेकी चेष्टा नहीं करता! यहांसे शुरू करके श्रीअरविद पूछते हैं : क्या मनुष्य भी मनुष्य बने रहनेसे सन्तुष्ट रहेगा या वह मनुष्यसे अतिरिक्त कुछ और बन जानेकी आवश्यकताके प्रति, अर्थात्, अतिमानव बन जानेकी आवश्यकताके प्रति जाग जायगा?
यह है इस अनुच्छेदका सार ।
परन्तु जब व्यक्ति इन व्याख्याओंके, विचारशील मनका अभ्यस्त हो और वह इसे पढे तो सत्तामें कोई चीज सन्तुष्ट नहीं होती, कहनेका मत- लब यह कि यहां जो प्रश्न है वह केवल बाह्यतम रूपका, सत्ताके बाहरी खोलका है, परन्तु इसके विपरीत ठयक्ति अपने अन्दर ऐसी 'कुछ चीज'
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महसूस करता है जिसमें उस रूपके परे जानेकी अदम्य प्रवृत्ति है । इमि चीजको श्रीअरविन्द हमें स्पष्टतासे महसूस कराना चाहते है ।
मैंने ऐसे पालतू पशु देखें है जिनमें वे जो कुछ थे उससे भिन्न बन जाने- की सचमुच एक प्रकारकी आन्तरिक आवश्यकता विद्यमान थी । मैंने ऐसे कुत्ते देखे है जो इस प्रकारके थे, बिल्लियां देखी है जो इस प्रकारकी थीं, घोड़े, यहांतक कि पक्षी भी देखे है जो इस प्रकारके थे । बाह्य रूप अवश्य ही वही था जो होता है, परन्तु वहां उन पशुओंके अन्दर कोई ऐसी सजीव और सुव्यक्त चीज थी जो दूसरी अभिव्यक्तिपर, दूसरे रूपपर पहुंचनेका स्पष्ट प्रयत्न कर रही थी । और प्रत्येक मनुष्य जो पशु-मानवकी अवस्थासे ऊपर उठ चुका है और मनुष्य-मानव बन चुका है उसमें इस सर्वथा असंतोष- जनक अर्द्ध-पशुसे -- जो अपनी अभिव्यक्तिमें और अभिव्यक्ति तथा जीवन- के साधनोंमें असन्तोषजनक है - कुछ और बन जानेकी ऐसी आवश्यकता होती है जिसे मैं 'सुधारातीत' आवश्यकता कह सकती हू । तो समस्या यह है : क्या यह अनिवार्य आवश्यकता अपनी अभीप्सामें इतने पर्याप्त रूपमें प्रभावकारी होगी कि स्वयं रूप या जाति, अपना विकास एवं रूपान्तर साबित कर सकें अथवा यह चीज, सत्तामें स्थित यह अनश्वर चेतना, रूपके नष्ट होनेपर उससे बाहर उच्चतर रूपमें प्रविष्ट होनेके लिये चली जायगी, इसके अतिरिक्त वह रूप जैसा कि हम देखते है, अभीतक अस्तित्वमें नहीं आया है!
तो, जो समस्या हमारे सामने है वह यह है : यह उच्चतर रूप कैसे बनेगा? यदि तुम इस समस्यापर विचार करो तो यह वडी रोचक बन जाती है । क्या यह एक प्रक्रियाद्वारा होगा, हमें कल्पना करनी होगी, कि यह रूप ही थोडा-थोडा करके एक नये आकारको जन्म देनेके लिये रूपान्तरित हो जायगा या किन्हीं दूसरे साधनोंद्वारा, जिन्हें हम अभीतक नहा जानते, वह नया रूप संसारमें प्रकट होगा?
कहनेका मतलब यह कि क्या एक सातत्य बना रहेगा या अकस्मात् नये रूपका आविर्भाव होगा? हम अभी जो है और हमारी आन्तरिक आत्मा जो बनना चाहती है इन दोनोंके बीच एक उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ संक्रम रहेगा या वहां एक व्यवधान होगा, अर्थात्, क्या हमें नये रूपके आविर्भावकी प्रत्याशामें - जिस आविर्भावकी प्रक्रियाका हमें कोई पूर्वानुमान नहीं और जिसका हमारे वर्तमान रूपसे कोई सम्बन्ध नहीं - इस वर्तमान मानव रूपको छोड़ देना पड़ेगा? क्या हम आशा कर सकते है कि इस शरीरके लिये ही, जो भौतिक अभिव्यक्तिका वर्तमान साधन है, यह संभव हों जायगा कि वह अपने-आपको किसी ऐसी चीजमें क्रमश: रूपान्तरित
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कर ले जो उच्चतर जीवनको अभिव्यक्त करनेकी सामर्थ्य रखता हों या दूसरे रूपमें जानेके लिये, जो पृथ्वीपर अभीतक है ही नही, हमें इस रूपको पूरी तरह छोड़ देना जरूरी होगा?
यह है समस्या, और यह बहुत रोचक समस्या है ।
यदि तुम इसपर चिन्तन करना चाहो तो वह तुम्हें कुछ अधिक प्रकाश- की ओर लें जायगी ।
हम इसपर अभी चिन्तन कर सकते है ।
( इस वार्ताके प्रथम प्रकाशनके समय
( ६ मार्च, १९६३), श्रीमांने निम्नलिखित
टिप्पणी जोड़ी :]
दोनों क्यों नहीं?
दोनों एक ही समय होंगे । एक दूसरेका बहिष्कार नहीं करता ।
हां, परंतु क्या एक दूसरेमें रूपांतरित हो जायगा?
एक रूपान्तरित हों जायगा और दूसरेकी मोटी रूपरेखाके समान होगा । और दूसरा, पूर्ण, तब प्रकट होगा जब यह अस्तित्वमें आ जायगा । क्योंकि दोनोंका अपना सौन्दर्य है, अपना अस्तित्व-हेतु है, अतः दोनों होंगे ।
मन हमेशा चुनाव करना, निश्चयपर पहुंचना चाहता है -- पर चीजों इस प्रकार कही है । यहांतक कि बह सब, जिसे हम कल्पनामें ला सकते है, उससे बहुत कम है जो होगा । सच पूछो तो उन सभीका, जिनमें तीव्र अभीप्सा और आन्तरिक निश्चयता है, इसकी चरितार्थताके लिये आवाहन किया जायगा ।
सब जगह, सभी क्षेत्रोंमें, सर्वदा, शाश्वत रूपसे सब कुछ संभव होगा और जो कुछ संभव है वह सब, सब, किसी निश्चित समयपर चरितार्थ होगा - कम-या-अधिक लम्बे नियत समयपर, पर होगा सब ।
ठीक ऐसे ही जैसे पशु ओर मनुष्यके बीच सब प्रकारकी संभावनाएं पायी गयी है जो कि बनी नही रहीं, उसी प्रकार वहां भी सब प्रकारकी संभावनाएं होंगी : हर एक अपने ही ढंगसे प्रयत्न करेगा और वह सब मिलकर भावी उपलब्धिको तैयार करनेमें मदद करेगा ।
यह प्रश्न पूछा जा सकता है : क्या मानव जाति कुछ अन्य जातियोंकी तरह ही पृथ्वीपरसे लुप्त हो जायगी?... कुछ जातियां पृथ्वीपरसे लुप्त हैं। गयी है । पर मानवजातिके समान लम्बे समयतक बनी रहनेवाली जातियां नही । मेरा ख्याल ऐसा नहीं है; और निश्चय ही वे जातियां तो नहीं ही जिनमें प्रगतिका यह बीज, प्रगतिकी यह संभावना थी । बल्कि लगता तो कुछ ऐसा है कि क्रमविकास ऐसी धाराका अनुसरण करेगा जो अधिकाधिक उच्च जातिके सन्निकट पहुंचती जायगी, और, संभवतः, जो कुछ अभीतक निम्न जातिके बहुत अधिक समीप है वह सब मिट जायगा, जैसे वे जातियां मिट गयीं ।
हम सदा यह भूल जाते है कि, न केवल सब चीजों संभव हैं - सब चीजों, यहांतक कि अत्यन्त विरोधी भी २- बल्कि सब संभव चीजों कम-सें- कम एक क्षणका अस्तित्व तो पाती ही हैं ।
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११ दिसंबर, १९५७
''आगे चलकर खोजसे यदि यह भी पता चले कि कुछ रासायनिक या दूसरी स्थितियोंमें 'जीवन' प्रकट होता है तो इस संयोगसे केवल इतनी बात स्थापित होगी कि कुछ भौतिक अवस्थाओंमें 'जीवन' रूपायित होता है, न कि यह कि कुछ रासायनिक स्थितियां 'जीवन' की संघटक एवं मौलिक स्थितियां है या निष्प्राण 'जडू-तत्व' का सप्राण 'जड़-तत्व' मे परि- वर्तन साधनेवाले वैकासिक कारण हैं । अन्य स्थलोंकी तरह यहां भी जीवनका प्रत्येक क्रम अपने-आपमें और अपने द्वारा अस्तित्व रखता है, अपनी ही विशिष्ट ऊर्जाद्वारा एवं अपने ही स्वभावके अनुसार रूपायित हुआ है, ९ इससे ऊपर या नीचेकी श्रेणियां इसकी उद्भव था परिणामी शृंखला नहीं हैं, बल्कि पार्थिव प्रकृतिकी अविच्छिन्न सोपान-पद्धतिमें केवल तारतम्यताकी स्थितियां है ।
('लाइफ डिवाइन', पृ ० ८२९)
मधुर मां, पहला मनुष्य कैसे प्रकट हुआ था?
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श्रीअरविन्द वहां कहते है, ठीक यही बात कि यदि हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं तो हम देरवते है कि एकके बाद एक सिद्धान्त आते है और उनमें बहुत स्थिरता नहीं होती और ऐसी वस्तुएं होने की जगह, जिन्हें प्रमाणित किया जा सकता है, कहीं अधिक एक प्रकारकी क्रमिक कल्पनाओं-से प्रतीत- होते हैं ( यदि हम विशुद्ध रूपसे भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाएं) । समझा यह जाता है कि चूंकि यह भौ तिकवादी दृष्टिकोण है अत : इसे प्रमाणित करना सबसे आसान है, पर स्पष्ट ही यह सबसे कठिन है । यदि हम गुह्य दृष्टिकोणको लें तो हमें ऐसी परंपराए मिलती है जो संभवत: कतिपय स्मृतियोंपर आधारित हैं, परन्तु, चूंकि यह ज्ञान समस्त भौतिक प्रमाणोंसे ऊपर है, यह वैज्ञानिक कल्पनाओं और ऊहापोहसे कहीं अधिक संदिग्ध माना जाता है । आन्तरिक तर्कके लिये तो इसे समझना और स्वीकार करना अ । सान है, परन्तु वहां भी भौतिक प्रमाणोंसे अधिक प्रमाण उपलब्ध नही हैं कि पहला मनुष्य एक था या पहले मनुष्य कई थे या कु छ ऐ सी चीज थी जो अभीतक मनुष्य नहीं थी पर फिर भी मनुष्य जैसी थी । ये अनुमानमात्र है ।
परंपराए - जो स्वभावत: केवल मौखिक परंपराएं ही हैं और वैज्ञानिक दृष्टिसे सर्वथा विवादास्पद है, परन्तु जिनका आधार व्यक्तिगत स्मृतियां है -- कहती हैं क पहला मानव या पहले मानव दूं पति या पहले मानव व्यक्ति गुह्य पद्धतियोंके अनुसार -- कुछ-कुछ वैसी पद्धतियोंके जिसकी पूर्वसूचना श्रीअरविन्दने भावी अतिमानसिक प्रक्रियाके बारेमें दी है -- बने थे, अर्थात्, उच्चतर जगतोंसे सब घित सत्ताओंने, एकाक्ता और भौतिकी- करणकी प्रक्रियाद्वारा अपने लिये भौतिक शरीर बना या गूढू लिया! ऐ सा नहीं हुआ कि निम्नतर जातियोंमें उत्तरोत्तर विकसित हे [कर एक शरीरको उत्पन्न काया जो पहला मानव शरीर बना ।
आध्यात्मिक और गुह्य ज्ञानके अनुसार चेतना ही रूपसे पहले आती है, चेतना ही अपनी एकाग्र ताके द्वारा अपने रूपका निर्माण करती है; जब कि भौतिकतावा दो विचारके अनुसार रूप ही चेतना सें पहले आता है और चेतना-
' ''.. ३ तथ्य जिनसे विज्ञान व्यवहार करता है यदि विश्वसनीय है तो उनपरसे वह जिन सामान्य कारणोंपर दांव लगाता. है वे अल्पजीवी होते है; वह उन्हें कुछ दशाब्दियों या शताब्दियोंतक पकड़े रहता है, परिकर दूसरे सामान्यीकरणोंपर, वस्तुओंके सम्बन्धमें दूसरे सिद्धान्तोंपर चला जाता है । यह बात भौतिक विज्ञानतकमें होती है जहां तथ्योंके ठोस रूपमे जांचा जा सकता और परीक्षणोंद्वारा सत्य प्रमाणित किया जा सकता है । ''
(वही, पृ ८२८)
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के लिये अभिव्यक्त होना संभव बनाता है । जिन लोगोंको अदृश्य जगतोंका ज्ञान और शक्तियोंकी क्रीडाका सीधा अनुभव है उन्हें इसमें कोई सन्देह नही : आवश्यक रूपसे यह चेतना ही है जो अपनी अभिव्यक्तिके लिये रूपका निर्माण करती है । अब, जिस ढंगसे चीजों पृथ्वीपर चरितार्थ होती है उसमें एकदम निश्चित रूपसे उच्च कोटिकी चेतना ही रूपमें प्रवेश करती और उसे रूपांतरित होनेमें सहायता करती है ताकि वह उसे -- तुरत या कुछ पीढियोंमें -- अभिव्यक्त करनेके योग्य हों जाय! जिन लोगोंको अंतर्दृष्टि और ज्ञान प्राप्त है उनके लिये इसमें रज। भी संदेह नही । यह असंभव है कि इससे उलटा हों । परंतु जो लोग दूसरे सिरेसे, नीचेसे, चीजोको'। लेते है वे इसे स्वीकार नहीं करते -- परंतु, तो मी, यह अज्ञान- का काम नहीं है कि वह ज्ञानको सीख दे! फिर भी आज वह ठीक यही चीज कर रहा है । जाननेसे सन्देह करना सरल है, मानव मन सब चीजों- पर संदेहका अम्यस्त है, यह उसकी पहली प्रवृत्ति है, और स्वभावत: इस तरीकेसे वह कुछ भी नही जान पाता ।
आविर्भाव या अभिव्यक्तिसे पहले उसकी कुछ अवधारणा होती है यह बात एकदम सुनिश्चित है । जिन लोगोंका भूत कालके साथ सीधा संबंध रह चुका है उन्हें, मानवके उस मुल आदर्श रूपकी स्मृति है, जो मानव जातिके वर्तमान स्वरूपसे कहीं अविक उच्च कोटिका था, जो पृथ्वीपर एक उदाहरण प्रस्तुत करने आया था और एक प्रतिज्ञा-रूप था कि मानव- जाति जब अपने चरमोत्कर्षपर पहुंच जायगी तो वह कैसी होगी ।
जीवनमें नकल करनेकी एक प्रवृत्ति, ''किसी चीज'' का अनुकरण करने- का एक प्रकारका प्रयत्न पाया जाता है । इसके अत्यन्त विस्मयकारी उदाहरण हमें पशु-जीवनमें मिलते है -- बल्कि यह चीज पहले ही, वनस्पति- जीवनसे ही आरंभ हों जाती है । परंतु पशु-जीवनमें बह बहुत ध्यान रवीचती है । इसके अनेकों उदाहरण दिये जा सकते है । तो, उस रूपमें, पशु-जीवनके एक प्रकारके प्रयत्नकी, पृथ्वीपर गुह्य साधनोंद्वारा जो आदर्श रूप अभिव्यक्त होना था, उसके लिये चेष्टा करने एवं उसका प्रतिरूप बनने, उसकी नकल करने, उसका समरूप तैयार करनेके उनके प्रयलोंकी भली- भांति कल्पना की जा सकतीं है । और ऐसी सतत कोशिशोंके तथा अधि- काधिक सफल प्रयलोंके द्वारा ही पहले मानव रूप निर्मित हुए होंगे ।
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१८ दिसंबर, १९५७
'दिव्य जीवन' भैंसे एक अनुच्छेद पढ्नेके बाद ।
जिस एकमात्र सचमुच महत्त्वपूर्ण चीजकी आधुनिक विज्ञानने खोज की है वह यह है, विशुद्ध बाह्य बार भौतिक दृष्टिकोणसे चीजों वैसी नहीं है जैसी प्रतीत होती है । जब तुम किसी शरीरको, किसी मनुष्य या पदार्थ या भूदृश्यको देखते हो तो तुम इन चीजोंका बोध आंख, स्पर्श ओर श्रवणकी सहायतासे प्राप्त करते हो और इनकी विशद जानकारी गन्ध एवं स्वादके द्वारा; हां तो, विज्ञान तुम्हें बताता है : ' 'यह सब भ्रम है, तुम चीजोंको उस तरह बिल- कुल नही देखते जैसे कि वे है '', तुम उनका स्पर्श उस रूपमें नही पाते जैसी वे वास्तवमें है, उस रूपमें उन्हें अनुभव नहीं करते जैसी वे है,. उनका स्वाद उस रूपमें प्राप्त नहीं करते जैसा कि वह है । तुम्हारे अंगोंकी रचना ऐसी है जो तुम्हें इन चीजोंके संपर्कमें खास ढंगसे लाती है और वह ढंग एकदम ऊपरी, बाह्य, भ्रामक और अवास्तविक होता है । ''
विज्ञानकी दृष्टिसे तुम -- अणुओंके नहीं -- किसी ऐसी चीजके समूह हो जो अणुसे भी असीम रूपमे अतीन्द्रिय है और सदा गतिशील रहती है । ऐसी कोई चीज नहीं है जो किसी चेहरेसे, किसी नाक, आंख या मुड से मेल खाती हो, यह केवल बस, एक प्रतीति है । ओर वैज्ञानिक इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं -- उसीपर जिसपर प्राचीन निर्बन्ध अध्यात्मवेत्ता पहुंचे थे -- कि संसार एक भ्रम है । यह एक बड़ी भारी खोज है, बहुत बड़ी... एक कदम ओर, और ३ सत्यमें प्रवेश पा जायेंगे । तो, जब कोई आकर मुझसे कहता है : ' 'मैं इसे देखता, छूता, अनुभव करता हू, मैं इसके बारेमें सुनिश्चित हू,'' तो वैशानिक दृष्टिकोणसे यह एक मूर्खता है । ऐसी बात वही कह सकता है जिसने वस्तुओंका कमी वैज्ञानिक ढंगसे, जैसी वे है उस रूपमें, अध्ययन नहीं किया । इस प्रकार बिलकुल विरोधी रास्तेसे वे उसी परिणामपर पहुंचे हैं : जगत्, जिस रूपमें तुम उसे देखते हों, एक भ्रम है ।
अब, वह सत्य क्या है जो इसके पीछे है?... जिन लोगोंने आध्यात्मिक ज्ञानकी खोज की है, वे कहते है : ' 'हमें इसका अनुभव है, '' परन्तु स्वभावत: यह विशुद्ध रूपसे उनका आत्मनिष्ठ अनुभव है, अभीतक ऐसा को आधार नहीं जिसके अनुसार पूरी तरह यह कहा जा सके कि यह अनुभव
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हर एकके लिये निर्विवाद रूपसे सत्य है । प्रत्येक व्यक्तिका अनुभव उसके लिये निर्विवाद रूपसे सत्य होता है । परन्तु यदि तुम उससे कुछ आगे बढ़ते हों... ।
वस्तुत: किसी अनुभव या अन्वेषणका महत्व उस शक्तिके द्वारा जाना जा सकता है जो वह हमें प्रदान करता है : इन बाह्य रूपोंको, वस्तुओं, परि- स्थितियों और संसारको उस अनुभवमेंसे अभिव्यक्त संकल्पके अनुरूप चीजमें परिवर्तित एवं रूपांतरित करनेकी शक्ति । मुझे लगता है कि किसी वैयक्तिक या सामूहिक अनुभवकी यथार्थताका सबसे व्यापक प्रमाण यह होगा कि उसमें वस्तुओंको -- इन दिखती वस्तुओंको ही हम संसार कहते है - जैसी वे अब है उससे भिन्न रूप देतेकी शक्ति हो । आत्मनिष्ठ दृष्टि- कोणसे अनुभवका व्यक्तिगत चेतनापर जो प्रभाव पड़ता है वही उसका सुनिश्चित प्रमाण है : जिसने परमानन्दको, परम शांति, नित्य सुरव और वस्तुविषयक गहन ज्ञानको पा लिया है उसे प्रमाण कही अधिक मिल चुका है । बाह्य रूपपर अनुभवका कैसा प्रभाव पड़ेगा यह अनुभवके अतिरिक्त और भी बहुत सारी चीजोंपर निर्भर है (संभवत: उन अनुभवोंके प्रथम कारणपर निर्भर है), पर इस सबमें एक चीज है जो छूसा प्रमाण प्रतीत होती है जिसे दूसरे लोग और साथ ही वह स्वयं भी जिसे अनुभव हुआ है, सहज ही स्वीकार कर सकते हैं और वह है दूसरे लोगों और वस्तुओंपर (जो सामान्य चेतनाके लिये ''वस्तुनिष्ठ'' हैं उनपर) अधिकार- शक्ति । उदाहरणार्थ, यदि बह व्यक्ति, जिसने चेतनाकी उस स्थितिको पा लिया है जिसकी मैंने चर्चा की है, उसे दूसरोंतक पहुंचानेकी शक्ति- सामर्थ्य रखता है तो वह आशिक रूपसे (केवल आशिक रूपसे ही) उसके अनुभवकी वास्तविकताका प्रमाण होगी; परंतु यदि, इससे आगे बढ़कर, चेतनाकी जिस स्थितिमें वह है उसे यदि वह इस बाह्य जगत्में मी ला सके -- उदाहरणार्थ, यदि बह पूर्ण समस्वरताकी स्थितिमें है तो उस समस्वरताको इस प्रत्यक्षत: असमस्वर जगत्में ला सकें -- तो, मैं समझती हू, वह ऐसा प्रमाण होगा जिसे बहुत सरलतासे स्वीकार किया जा सकेगा, यहांतक कि जड़वादी, वैज्ञानिक मनोमाववाले व्यक्ति भी उसे स्वीकार कर सकेंगे । यदि इन आभासी रूपोंको किसी ऐसी चीजमें परि- वर्तित किया जा सके जो इस जगत् से, जिसमें हम आजकल रहते हैं अधिक सुन्दर, अधिक सामंजस्यपूर्ण और अधिक आनन्दपूर्ण हों तो संभवत: वह एक ऐसा प्रमाण होगा जिससे इंकार नहीं किया जा सकेगा । यदि हम इस बातको कुछ और भी आगे बढायें, यदि, जैसा कि श्रीअरविंद हमें विश्वास दिलाते है, अतिमानसिक शक्ति, चेतना व ज्योति इस जगत्को
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परिवर्तित कर एक नयी जाति. उत्पन्न कर दे तो जैसे बन्दर और पशु मनुष्य- के अस्तित्वसे इंकार नही कर सके (यदि वे बोलनेवाले होते), ऐसे हीं मनुष्य भी इन नये प्राणियोंके अस्तित्वसे इंकार नहीं कर सकेगा - बशर्त्ते कि वे मानवजातिसे पर्याप्त रूपमें भिन्न हों, ताकि वह भेद मनुष्यके इन म्गंतिजनक अंगोसे भी स्पष्ट देखा जा सकें ।
इन तर्कोसे ऐसा प्रतीत होता 'है कि (अतिमानसिक अभिव्यक्तिका) सबसे सुनिश्चित और स्पष्ट पहलू और वह एक जो संभवत: सबसे पहले प्रकाशमें आयगा (संभवत:), वह 'आनन्द' और 'सत्य' की अपेक्षा 'शक्तिका पहलू अधिक होगा । क्योंकि नयी जातिके पृथ्वीपर स्थापित हो सकने और जीवित रह सकनेके लिये यह जरूरी होगा कि पृथ्वीके अन्य तत्त्वोंसे उसकी रक्षा की जाय, और शक्ति ही सुरक्षा है -- कृत्रिम, बाह्य और झूठी शक्ति नही, बल्कि सच्चा 'बल', जयशाली 'संकल्प' । तो यह मानना असंभव नहीं है कि अतिमानसिक क्रिया सामंजस्य, ज्योति, आगद और सौंदर्यके क्रिया होनेसे मी पहले शक्तिकी एक क्रिया होगी, ताकि वह सुरक्षाका काम कर सकें । स्वभावतः, शक्तिकी इस क्रियाको सचमुच प्रभावकारी हो सकने- के लिये 'ज्ञान', 'सत्य', 'प्रेम' और 'सामंजस्य' पर आधारित होना चाहिये; परंतु ये चीजों भी तभी अभिव्यक्त हा सकेंगी -- दृश्य रूपमें, थोडी-थोडी करके अभिव्यक्त होगी -- जब, यूं_ कहा जा सकता है, कि आधार सर्वसमर्थ संकल्प एवं शक्तिकी क्रियाद्वारा तैयार हो चुकेगा ।
परन्तु न्यूनतम रूपमें भी इनमेंसे किसी चीजके संभव हों सकनेके लिये सबसे पहले पूर्ण संतुलनका एक आधार होना जरूरी है, ऐसा संतुलन जो अहंके अत्यंताभाव, परम पुरुषके प्रति पूर्ण समर्पण तथा पूर्ण पवित्रताकी : परम पुरुषके साथ स्थापित तादात्म्यकी देन है । इस पूर्ण संतुलनके आभगरके बिना अतिमानसिक शक्ति बहुत खतरनाक गाती है, तुम्हें किसी भी सूरतमें उसे खोजना या अपनी ओर खींचना नहीं चाहिये, क्योंकि उसकी अत्यल्प मात्रा भी इतनी शक्तिशाली एवं भीषण होतीं है कि वह पूरी सत्ताके संतुलनका बिगड़ा सकती है ।
' इस बारेमें जब मैं तुमसे बात कर ही रही हू तो मैं तुम्हें एक चीजकी सलाह देना चाहती हूं । अपनी प्रगतिकी इच्छा तथा. उपलब्धिकी अभीप्सामें इसका ध्यान रखो कि कमी शक्तियोंको अपनी ओर मत खींचो । अपने-आपको दे दो, निरंतर आत्म-विस्मृतिद्वारा जितनी नि:स्वार्थता तुम प्राप्त कर सकते हों उतने निःस्वार्थ-भावसे अपने-आपको खोलो, अपनी ग्रहणशीलताको जितना अधिक हो सकें बढ़ाओ, परन्तु 'शक्तिको अपनी ओर खींचनेकी कभी कोशिश मत करो, क्योंकि खींचनेकी इच्छा करना ही एक
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खतरनाक अहंकार है । तुम अभीप्सा कर सकते हो, अपने-आपको रवोल सकते हो, अपने-आपको दे सकते हा, पर लेनेकी इच्छा कमी मत करो । जब कुछ बिगड़ जाता है तो लोग 'शक्ति'को दोष देते हैं, पर इसके लिये उत्तरदायी शक्ति नहीं है; यह पात्रकी महत्वाकांक्षा, अहंकार, अज्ञान और दुर्बलता है जो उत्तरदायी है ।
उदारता एवं पूर्ण नि:स्वार्थावके साथ अपने-आपको दे दो और अधिक गहरे अर्थमें तुम्हारे साथ कमी कुछ बुरा नहीं होगा । लेनेकी कोशिश करो और तुम खाईके मुंहपर होंगे ।
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प्रश्न और उत्तर
१९५८
१ जनवरी, १९५८
हे पार्थिव माता, प्रकृति, तूने कहा है कि तू सहयोग देगी, और तेरे इस सहयोगकी श्री-शोभा और महिमाका कोई ओर- छोर नहीं ।
( १ जनवरी, १९५८ का सन्देश)
मधुर मां, क्या आप इस सालके संदेशको समझायेंगी?
इसका स्पष्टीकरण. किया जा चुका है! यह लिखा जा चुका है, २१ फरवरी- के बुलेटिनमें छपनेके लिये तैयार है ।
इसमें समझानेकी बात कुछ नही है । यह ते। एक अनुभूति है, कुछ ऐसी बात जो घटी थी ओर जब घटी तभी मैंने उसे लिख लिया था । संयोगकी बात है कि यह ठीक उसी समय हुआ जब मुझे याद आया कि इस सालके लिये मुझे कुछ लिखना है (जो उस समय आनेवाला नया साल था जिसका आज पहला दिन है) । जब मुझे ख्याल आया कि मुझे कुछ लिखना था -- लिखनेके लिये नहीं, बल्कि साथ-ही-साथ - यह अनुभूति मी आयी, और जब मैंने इसे लिख डाला तब. एहसास हुआ कि... यह तो इसी वर्षके लिये संदेश है । '
निम्न लेखांश २१ फरवरी, १ ९'१८ के
बुलेटिनमें दी गयी व्याख्या है :
( ३० अक्तुबर, ११५७ की) अपनी एक क्लासमें मैंने प्रकृतिका, अव्यय सिरजनहारी प्रकृतिकी, अपार प्रचुरताका जिक्र किया था ना सदा नये -नये समवायोके किये आकारोंके पूरे समुहको मिलाती है, फिर अलग करती है, दुबारा गढ़ती है, उन्हें बना ती है, बिगड़ती है और नष्ट कर देती है । मैंने बताया था कि यह एक बहुत बड़ा कड़ाहा है । तुम इसे चलाओ तो कुछ-न-कुछ निकल आयगा । यदि वह ठीक न हो तो उसे उसीमें फेंक दे और कोई दूसरी चीज निकाल लो । उसके लिये एक या दो या सौ रूपोंका कुछ महत्व नही है, वहां ते हज़ारों, लाखों रूप है और सा ल? साल
तो सैकड़ों, हज़ारों, लाखों - बेहिसाब है, उनका कोई महत्व नहीं, अनन्त काल है उसके सामने 1 स्पष्ट ही उसे इसमें मजा आता है, ओर उसे कोई उतावली नही । यदि तुम उसे चटपट कुछ कर डालनेको कहो तो हमेशा उसका एक ही जवाब होता है : ''पर किसलिये ऐसा करूं? आरिवर क्यों? क्या तुम्हें इसमें मजा नहीं आता? ''
जिस शाम मैंने तुम्हें, ये बातें बतायी थीं उसी शाम प्रकृतिके साथ मैंने अपना सर्वत: तादात्म्य किया था, उसकी लीलाके भीतर पैठ गयी थी । तादात्म्यकी इस क्रियाको प्रत्युत्तर मिला, - प्रकृति और मेरे बीच एक नयी प्रगाढ़ आस्तिकता पनपी, पास, और अधिक पास आते जानेकी एक दीर्घ प्रक्रिया - और इसकी चरम पराकाष्ठा, आयी नवम्बरकी अनुभूतिमें ।
एकाएक प्रकृतिको बोध हुआ । उसने समझ लिया कि जिस नयी चेतना- का जन्म हुआ है वह मुझे उठा फेंकनेपर उतारू नही, बल्कि अपनी 'मुजाओंमें भर लेनेका आतुर है । उसने समझ लिया कि यह नयी आध्यात्मिकता जीवनसे कन्नी नहीं काटती, उसकी गतिके दृढ विस्तारके सामने भयसे मैदान नहीं छोड़ती, इसके विपरीत, उसके सब पहलुओंको एक साथ लेकर चलना चाहती है । उसकी समझमें आ गया कि अतिमानसिक. चेतना उसे घटानेके लिये नहीं, पूर्ण बनानेके लिये उतरी है ।
और तब, परम सस्ते आदेश आया, ''उठ, आंखें रवोल, हे प्रकृति, सहयोगका आनन्द तेरे सामने है । '' और अचानक सारी प्रकृति आनन्दसे पुलकित हो उछल पडी और बोली, ''मुझे स्वीकार है । मैं साथ दूंगी ।'' और उसके साथ-ही-साथ आयी शान्ति और पूर्ण निस्तब्धता, ताकि देह- का यह आधार, प्रकृतिके आनन्दकी इस प्रबल बाढको जो मानों कृतज्ञता- का अनवरत प्रवाह थी, कुछ तोड बिना, कुछ खोये बिना ग्रहण कर सकें, अपनेमें समेट सकें । उसने स्वीकारा, अनन्त कालमें दूरतक निहारा कि यह अतिमानसिक चेतना उसे अधिक पूर्ण रूपसे संसिद्ध करेगी उसकी गतिको अधिक शक्ति प्रदान करेगी, उसकी लीलामें नये आयाम और नयी संभावनाएं जोड़ देगी ।
और अचानक ही मैंने सुने धरतीके हर कोनेसे आते हुए वे महागान जो हम कभी-कमी सूक्ष्म-भौतिक जगत्में सुनते है । कुछ-कुछ बीथोवेनकी संगीत-रचनाके समान थे वे । ऐसी तान जो प्रगति-अभियानके समय ही बजायी जाती है । लगा मानों प्रकृति और आत्माके इस नये संयमके आनन्दको, चिर बिछुड़े दो पुराने बंधुओके पुनर्मिलनके हर्षको व्यक्त करनेके लिये, एक भी सुर भंग किये बिना पचासों आर्केस्ट्रा एक साथ बज उठे हों ।
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तब फूट पड़े ये शब्द. ''ओ पार्थिव माता, प्रकृति, तूने कहा है कि तू सहयोग देगी और इस सहयोगकी श्री-शोभा और महिमाका कोई ओर-छोर नहीं ।''
और इस श्री-शोभासे फूटता उल्लास पूर्ण शान्तिमें अनुभूत हुआ ।
और इस तरह हुआ इस नये वर्षके संदेशका उद्भव ।
पहली जनवरी, १९५८ की वार्ता जारी रहती है ।
मैं तुमसे एक बात कहना चाहूंगी : इस अनुभूतिका गलत अर्थ मत लगाना, यह कल्पना मत कर बैठना कि बस अब सब कुछ बिना किसी कठिनाईके, और हमारी निजी इच्छाओंके अनुरूप संपन्न होगा । यह इस लोककी बात नहीं है । इसका यह मतलब नहीं है कि जब हम वर्षा न चाहें तो वह नहीं बरसेगी! हम दुनियामें कोई घटना घटते देखना चाहे तो वह तुरन्त घट जायेगी, सारी-की-सारी कठिनाइयां ? बिला जायेंगी, सब कुछ परी -कथाओं जैसा होगा । नहीं, ऐसा नहीं है । इससे कहीं गहन बात है । जो नयी शक्ति अमिउयक्ति हो चुकी उसे प्रकृतिने अपनी शक्तियोंकी क्रीडामें स्वीकार कर लिया है, अपनी क्रियाओंमें इसे शामिल भी कर लिया है । ओर जैसा होता है, प्रकृतिकी गतियां ओर प्रयास ऐसे पैमानेपर होते है जो मनुष्यके मानदण्डसे अनन्त गुना बड़ा होता है और साधारण मानव चेतनाकी दृष्टिमें नहीं समाता । यह एक आंतरिक मनोवैज्ञानिक संभावना है जो धरापर उतरी है, धरतीके घटना-कर्मका कौतुकमय परिवर्तन नहीं है ।
मैं यह इसलिये बताये दे रही हू कि कही लोग यह माननेको न ललचा उठे कि धरतीपर परी-कथाएँ सत्य होने जा रही है । अभी उसका समय नहीं आया ।
चीजों कैसे घटती है यह जाननेके लिये चाहिये अतुल धैर्य, अति विशाल एवं व्यापक दृष्टि ।
जो चमत्कार होते है उन्हें शब्दशः चमत्कार इसलिये नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे उस तरह नहीं घटते जैसे किस्से-कहानियोंसे हुआ करते
हैं । वे चीजोंको देखनेकी बहुत गभीर दृष्टिको हीं दिखायी देते है -- अति गभीर, बहु-विस्तीर्ण, अपार दृष्टिको ।
भागवत कृपाकी क्रियाको पहचाननेके लिये पहले उसकी विधियों और उपकरणोंका अनुसरण कर सकना आना चाहिये । वस्तुओंके गहनतर सत्य- को देखनेके लिये आभासोंसे ही अन्धे न बन जानेकी शक्ति होनी चाहिये ।
आओ, आजकी शाम हम यह सार्थक संकल्प ले : इस वर्ष भरसक अच्छे- से-अच्छा करनेकी चेष्टा करें जिससे समय बेकार न गुजर जाय ।
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८ जनवरी, १९५८
'दिव्य जीवन' से एक अनुच्छेद पढ्नेके बाद ।
हमने निश्चय किया है हम एक-एक अनुच्छेद पढ़ेंगे ताकि हम विस्तृत व्याख्यामें गहरे पैठ सकें । पर इस ढंगसे पढ्नेमें एक असुविधा भी है । जैसा कि मैं पहले मी कह चुकी हू, श्रीअरविन्द सभी मतोंको, उनके सब युक्ति-तर्कोको साथ लेते है और सविस्तार खोलकर रख देते है, जिससे कि दे समस्याको हल करनेमे उनकी अक्षमता और खामियोंको दशा सकें और उसका ठीक-ठीक समाधान सुझा सकें; पर (हंसती हुई) जब हम एक तर्क- वितर्कके बीचमें ही रुक जाते हैं और एक ही अनुच्छेद पढ़ते है, दलीलके अन्ततक नही पहुंचते तो संभव है कि हम बड़े न्भतमीनानसे कल्पना कर बैठे या विश्वास कर लें कि यह उनका अपना मत है ।
सचमुच, ऐसे मी सिद्धातशून्य व्यक्ति हैं जिन्होंने यह किया है । जब उन्होंने यह प्रमाणित करना चाहा कि उनके मत ठीक हैं तो उन्होंने अपने मतके समर्थनमें श्रीअरविन्दके अनुच्छेदोंको उद्धत कर दिया, पर यह नहीं बताया कि उनके आगे-पीछे क्या है । उन्होंने कहा. ''देखिये, 'दिव्य जीवन' मे' श्रीअरविन्दने ऐसा लिखा है... ।'' उन्होंने ऐसा लिखा है, पर इसका यह मतलब नहीं कि देखनेका यह तरीका उनका अपना था । अब हमारे सामने भी वही कठिनाई है । मैं दा अध्यायोंसे गुजरी हू, जीवन, क्रम-विकास,
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अस्तित्वका अभिप्राय (या अस्तित्वके अभिप्रायके अभाव) के बारेमें आधुनिक मतोंमेंसे एक मतका प्रमाण बारीकीसे पढ रही थी ओर श्रीअरविन्दने उसे बडे निश्चयात्मक ढंगसे... प्रस्तुत किया है मानों यह उनका अपना मत और देखनेका ढग हों । जब हम. बीचमे ही रुक जाते है तो बेकल हो उठते है, लगने लगता है. ''यह वह नहीं है जो उन्होंनें हमें बताया था! यह कैसे हों सकता है कि अब वें ऐसे मतका प्रतिपादन कर रहे है? ''.. यह बडी दिक्कत पैदा करता है । लेकिन यदि मै पूरी-की-पूरी दलील पढ्ने लगू तो जब हम अंतिम कड़ीतक पहुंचेंगे तबतक तुम आरंभ भूल चुके होगे और कुछ न समझ पाओगे! अतः सर्वोत्तम बात यही है कि हम एक-एक अनुच्छेद पढ़ें ओर यह समझनेकी चेष्टा करते हुए कि वे क्या कहना चाहते है धीरे-धीरे आगे बढ़ें । लेकिन यह कल्पना मत पाल बैठना कि ३ इसीको सत्य प्रमाणित करना चाहते हैं । वें केवल मतोंका और उनका समर्थन करनेवाली सभी बातोंका विशद विवरण देते है, यह नहीं कहते कि देरवनेका सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है ।
वस्तुत: तुम्हें इस पढ़ाईको एक ऐसा सुअवसर समझना चाहिये जो तुम्हें दार्शनिक मनको विकसित करनेकी, चितनको युक्ति-युक्त कर्मसे सजानेकी योग्यता व तर्कको ठोस आधारपर प्रतिष्ठित करनेकी क्षमता देगा । इसे मांसपेशियोंको विकसित करनेके लिये डम्बल-व्यायामकी तरह समझना चाहिये. ये है मस्तिष्कको विकसित करनेवाले डम्बल-व्यायाम । पर हां, कोई निष्कर्ष निकालनेकी उतावली नहीं करनी चाहिये । यदि हम धीरजसे प्रतीक्षा कर सकें तो परिच्छेदके अंतमें अकाटच तर्कके ठोस आधारपर हमें वे दिरवायेंगे कि वे जिस निष्कर्षपर पहुंचे है, उसपर क्यों पहुंचे है ।
इसमें कुछ ऐसी बात है जिसपर प्रश्न उठता हो.. ।
मां, इस पुस्तकसे संबंधित .नहीं ।
कुछ और? क्या है वह?
मां, कभी-कभी सहसा कुछ विचार आ जाते हैं । कहांसे आते है ३ और किस तरह मस्तिष्कमें काम करते हैं?
कहांसे आते है? - मनके वातावरणसे ।
क्यों आते हैं?. हों सकता है कि उनसे तुम्हारी भेंट वैसी हो जैसे आम चौराहेपर किसी राहगीरसे । ज्यादातर ऐसा हीं होता है । तुम
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अपने-आपको उस राहपर पाते हो जहां विचार मंडराते है । तुम्हारी मुठभेड़ उस विचारसे होती है और वह तुम्हारे सिरमें घुस आता है । स्वा- भाविक है कि जिन्हें एकाग्र होने, ध्यान करनेका अभ्यास है और जिनके लिये बौद्धिक समस्याएं एक ठोस और मूर्त अस्तित्व रखती हैं, वे अपने मन- की एकाग्रताके कारण सहधर्मी विचारोंको आकर्षित करते है और तब वे ''विचारोंकी एक टोली'' रचाते हैं जिसे वे इस तरह सुव्यवस्थित करते है कि अपने सामने आयी समस्याका हल निकाल सकें या अपने सामने आये हुए प्रश्नोंपर प्रकाश डाल सकें । पर इसके लिये चाहिये मनकी एकाग्रता- का अभ्यास और वह दार्शनिक मन जिसके बारेमें मैं तुम्हें बता रही थी कि उसके लिये विचारोंका एक जीवन्त अस्तित्व है, उनका अपना स्वतंत्र जीवन है और जिन्हें सिलसिलेवार मनकी बिसातपर शतरंजके मोहरोंकी तरह सजाना है : तुम उन्हें, उठाते हो, खिसकाते हो, चाल बदलते हो, फिरसे रखते हों, सुव्यवस्थित करते हो, इन विचारोंकी एक सुसंगत इकाई गढ़ती हो । इनकी अपनी व्यक्तिगत, स्वतंत्र सत्ताएं होती है जिनका आपसमें लगाव होता है । ये अपने आंतरिक धर्मके अनुसार संगठित होते हैं । पर इसके लिये तुममें होना चाहिये चितना, मनन, विश्लेषण, निगमन और मन- को सुव्यवस्थित करनेका अभ्यास । नहीं तो, यदि कोई ''ढीला-ढाला'' रहे और जो कुछ भी सामने आये उसीके अनुसार जीवन बिताये तो वह एक खुला बाजार होगा : उसमें रास्ते है, रास्तेपर चलनेवाले है और तुम अपने- आपको पाते हो एक चौराहेपर, वहां कोई विचार तुम्हारे सिरमेंसे गुजर जाता है, यहांतक कि कमी-कमी तो एकदम असंबद्ध विचार आते है, यहां- तक कि मनमें जो धमा-चौकड़ी मचती है उस सबको यदि लिख लिया जाय तो लगेगा कि अच्छी अण्डबण्ड है!
एक बार हमने कहा था कि हम एक छोटा-सा खेल कर सकते है, यह उपयोगी होगा - हठात् किसीसे पूछ बैठो : ''तुम क्या सोच रहे हों? '' तुम देखोगे कि बहुत थोड़े होंगे जो साफ-साफ कह सकें कि मैं अमुक बातके बारेमें सोच रहा था । यदि कोई तुम्हें ठीक-ठीक जवाब दे सके तो समझो कि वह विचारशील व्यक्ति है । आम तौरपर सहज उत्तर होता है : ''ओह, मुझे मालूम नहीं ।''
उदाहरणके लिये : तुम्हें तो पता है कि जिन्होंने सुव्यवस्थित और संगठित रूपमें शारीरिक व्यायाम किया है वे जानते हैं कि एक खास क्रियाके लिये कौन-कौन-सी मांसपेशियोंको काममें लाना होता है, उन मांसपेशियोंको गति देनेके लिये कौन-सा तरीका 'बेहतर होता है और कम-से-कम शक्तिको खोते हुए अधिक-से-अधिक फल मिल सकता है । अस्तु, विचारोंपर भी यही
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बात लागू होती है । जब तुम विधिवत् प्रशिक्षण पाते हो तो ऐसा समय आता है जब तुम तर्क-मालाका इस तरह निष्पक्ष अनुसरण कर सकते हो जैसे रजत पटपर छायाचित्र प्रक्षेपण -- तुम एक-दूसरेसे शुरू होनेवाले विचार- के तार्किक निगमनका अनुसरण कर सकोगे ओर आदिसे अंतिम निष्कर्षतक, कम-से-कम समयमें उसकी स्वाभाविक, तर्कसंगत व्यवस्थित गतिसे आगे बढ़ सकोगे । एक बार यदि यह करनेकी आदत हो जाय, जैसे कि एक निश्चित फल पानेके लिये मांसपेशियोंको चलाने-घुमानेकी आदत होती है, तो तुम्हारे विचार सुस्पष्ट होंगे । नहीं तो विचारोंकी गतियां, बौद्धिक गतियां धुंधली, अयथार्थ और डांवांडोल होती है । एकाएक कोई चीज उमड़ती है, पता नहीं क्यों, फिर दूसरी चीज धूसती है पहलीका खण्डन करनेके लिये, इसका भी कुछ पता नही होता कि क्यों । और यदि तुम इन्हें ठीक-ठीक सजाने-सवारनेकी चेष्टा करो, ताकि यह जान सको कि इन विचारोंका आपसी सम्बन्ध क्या है तो शुरू-शुरूमें कुछ बार ऐसा करनेका प्रयास करते हुए तुम अच्छा-खासा सिरदर्द मोल ले लोगे । तुम्हें, लगेगा कि तुम किसी अछूते गहन वनमें राह पानेके लिये कोशिश कर रहे हो ।
परिकल्पनात्मक मनको विकासके लिये अनुशासनकी आवश्यकता होती है । यदि तुम उसपर विधिवत् अनुशासन नहीं रखते ते। हमेशा बादलोंमें डोलते रहोगे । अधिकतर लोग जस मी परेशान हुए बिना अपने मनमें अत्यधिक विरोधी विचारोंको पोमते रहते हैं ।
जबतक तुम अपने मनको व्यवस्थित करनेकी चेष्टा नहीं करते तबतक कम-से-कम अपने चिन्तनपर नियंत्रण न कर पानेका खतरा तो मोल लेते ही हो । बहुधा तुम अपने विचारोंका मूल्य तभी जान पाते हों जब बे कर्मतक उतर आयें । और अगर कर्मक्षेत्रतक नहीं तो कम-से-कम भावनातक तो निश्चय ही आ जायं । हठात् तुम महसूस करते हों कि तुममें ऐसी कुछ भावनाएं है जो बहुत वांछनीय नहीं है । तब तुम्हें अनु- भव होता है कि तुमने अपने सोचने-विचारनेपर जरा भी लगाम नहीं लगायी ।
मधुर मां, लोगोंमें बुरे विचार क्या इसलिये उठते हैं कि उन- का अपने मनपर कोई वश नहीं होता?
बुरे विचार?... इसके कई कारण हो सकते है । वास्तवमें, इसके बहुत सारे कारण हैं । बुरे स्वभावके कारण भी ऐसा हो सकता है । यदि
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उनमें कलुषित भावनाएं हों तो ये कलुषित भावनाएं मलिन विचारोंका कारण बन सकती हैं । इसका उलटा भी हों सकता है । शायद वे एक खुले मैदानकी तरह है जहां तरह-तरहके सुझाव बेरोक-टोक बाहरसे घुस आते है और, जैसा कि मैं कह चुकी हू, ये सुझाव उनमें घर कर लेते है और धीरे-धीरे बुरी भावनाओंको जन्म देते है । ये अवचेतन प्रभावके फल भी हो सकते है, .क्योंकि ये नियंत्रणके अभावमें सदा आपसमें टकराते रहते हैं । ये प्रभाव जब ऊपरी सतहपर उमर आते है तो उन्हें नियंत्रित करने और अनचाहे प्रभावोंको रोकनेके बदले सबको अपनी मरजीके मुताबिक घुसने दिया जाता है, दरवाजे खुले रहते हैं ।
तुम अच्छी-बुरी, उदासीन, आलोकित, अंधियारी, सब तरहकी चीजोंमें डूबते-उतराते हो । सामान्यत:, हर एकको चेतनाको छाननेका काम करना. चाहिये । वही स्वीकारों जिसे तुम स्वीकारना चाहते हो, वही सोचो जौ तुम सोचना चाहते हो । जबतक तुम विचारोंको औपचारिक स्वीकृति नहीं दे देते तबतक उन्हें भावनाओं और क्रियाओंमें मत बदलने दो ।
मूलतः भौतिक अस्तित्वका यही सार है । हर कोई कतिपय स्पन्दनोंके समूहको, जो उसके खास कार्य-क्षेत्रका प्रतिनिधित्व करते है, संयमित करनेका साधन है । हर एकको वही ग्रहण करना चाहिये जो गवान्की योजनाके साथ मेल खाता हो, बाकी सब त्याज्य है ।
लेकिन हजारमें एक भी ऐसा नहीं जो यह करता हो । अर्ध-चेतन अवस्थामें या शायद परिस्थिति और परिवेशकी रगड़से तुम थोडा-वहुत कर लेते हो, पर जब स्वेच्छासे करनेकी बात उठती है तो निश्चय ही ऐसे बहुत कम लोग है जो स्वेच्छासे करते हों, और स्वेच्छासे करनेवालोंमें मी ठीक ढंगसे और सच्चे ज्ञानके साथ करनेवाले तो और भी विरल है । अपने विचारोंपर नियंत्रण! अपने विचारोंपर कौन नियंत्रण रखता है? केवल वही जिन्होंने इसके लिये अपनेको साधा है, बचपनसे इसके लिये सतत सच्चा प्रयत्न किया है ।
यहां तो पूरा सप्तक है, है न? यह विचारोंपर नियंत्रणके निपट अभाव- से शुरू होता है । अधिकतर लोंगोंके लिये यह इस तरह रूपायित होता है : विचार उनपर शासन करते है, न कि वे विचारोंपर । मनुष्योंकी अधिक संख्या विचारोंसे परेशान रहती है, पर उनसे छुटकारा नहीं पा सकती । अक्षरशः: वे उन्हें अपने अधिकारमें रखते हैं, उनमें इतनी क्षमता नही होती कि इन विचारोंके प्रति अपनी सक्रिय चेतनाके दरवाजे बंद- कर सकें । विचार ही उनपर अधिकार जमाते और शासन करते है । हर रोज तुम लोगोंको यह कहते सुनते हों, ''ओह! यह विचार, वह सारे समय, बार-बार
आता रहता है । मैं इसमे पिण्ड नहीं छुडा सकता । '' चिन्तासे लेकर दुर्भाव और भयतक, हर तरहके विचार इनपर सब तरफसे पिल पड़ते है । वे विचार जो डरका रूप धर लेते है बहुत कष्टदायक होते है । तुम उन्हें स्तर फेंक देनेकी कोशिश करते हों, पर वे एलास्टिक कितेक तरह लौटकर तुमपर ही गिरने है । कौन है जिसे अधिकार प्राप्त हो? इसके लिये जरूरत है बरसोंके श्रमकी, एक लम्बे अम्यासकी । और तब वहांतक पहुंच पाना जो अपने-आपमें पूर्ण नियंत्रण तो नहीं, फिर भी एक चरण तो है ही : ऐसा करनेकी क्षमता (मा बुहारनेकी मुद्रामें माथेपर हाथ फेरती हैं), मनकी सारी उथल-पुथलको बुहार फेंकनेका, सारे स्पन्दनोंको आनेसे रोक देनेकी क्षमता । और तब मनकी सतह शून्य-सपाट हों जाती है । सब कुछ रुक जाता है, थमा जाता है, जैसे खुली- पुस्तकका सफेद पन्ना --- पर लगभग भौतिक दृष्टिसे, समझे... बिलकुल कोरा!
खुद जरा करके देरवो । वह बड़ा मजेदार है ।
और तब व्यक्ति मस्तिष्कमें नाचनेवाले बिन्दुतक पहुंच जाता है । मैंने देखा है, मैंने श्रीअरविन्दको किसीके मस्तिष्कमें ऐसा करते देखा है, एक व्यक्ति ठीक यह शिकायत किया करता था कि विचार उसे कष्ट दे रहे है । मानों उनका हाथ आया, नाचते काले बिन्दुको पकड़ा और ऐसे (दूर फेंकनेका इगित) किया जैसे कोई एक कीडेको उठा फेंकता है, बहुत दूर । और बस, सब' कुछ हो गया । सब कुछ था शान्त, नीरव, ज्योतिर्मय... । यह देखा जा सकता था, जानते हो, विना कुछ कहें उन्होंनें उठा फेंका -- ओर सब खतम ।
चीजों एक-दूसरेमें गुंथी रहती है. मैंने ऐसा भी देखा है जब कोई तीव्र वेदनासे कराहता हुआ उनके पास आया : ''ओह! बड़ा दर्द हों पल है, आह! कितना दर्द है! '' उन्होंने कुछ भी नहीं कहा, शान्त बने रहे, एकटक उसे देखा फजौर मैंने देहरा कि उनका सूक्ष्म हाथ .आगे बढ़ा, अव्यवस्था और अस्तव्यस्ततामें चक्कर काटते उस छोटे-से बिनुको पकड़ा, ओर उसे निकाल फेंका (वही 'मुद्रा), और लो, सब छू-मन्त्र हो गया ।
''वाह, देखिये! मेरा सारा दर्द उड़ गया! ''
बस!
१५ जनवरी, ११५८
मां ''दिव्य जीवन'' का एक अनुच्छेद पढ़ती
हैं जिसमें भौतिकवादियोकी दलीलोंका विव-
रण है (''मनुष्य और क्रमविकास'' का
दसवां अनुच्छेद) ।
यदि ये सब दलीलें सच होतीं और कोई उच्चतर सिद्धि न होती... तो करनेको कुछ रह ही न जाता । सौभाग्यवश यह सच नहीं है ।
पर श्रीअरविन्दने अकसर कहा है कि उन्होंनें जो कुछ कहा है या भविष्य- वाणी की है उसकी सच्चाईका अकाटच प्रमाण तबतक नहीं मिलेगा जबतक वह ससिद्ध नही हो जाती; जब सब कुछ चरितार्थ हों जायगा तो जो माननेसे इंकार करते है वे लोग अपनी गलती पहचाननेको मजबूर हों जायंगे - पर शायद वे तबतक जीवित ही न रहें!
अतः करनेको एक ही बात रह जाती है. विरोधों और नकारोंकी परवाह न करते हुए, अपनी श्रद्धा और बशपने निश्चयपर दृढ रहते हुए अपनी राह चलते चले। ।
कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें सुरव-चैन और आरामसे रहनेके लिये दूसरोंके सहारे, विश्वास और निश्चितिकी जरूरत है -- ऐसे लोग सदा दुःखी रहते है, क्योंकि स्वभावतः: उन्हें ऐसे लोग मिचते रहेंगे जो विश्वास नहीं करते और इससे वे परेशान और पीड़ित होंगे । हर एकको अपनी निश्चिति अपने ही भरित खोजनी चाहिये, सब चीजोंके बावजूद इसे बनाये, संभालने रखना चाहिये और किसी भी किमतपर लक्ष्यतक बढ़ते जाना चाहिये । विजय अधिक-सें-अधिक सहिष्णुकी होती है ।
सब विरोधोंके होते हुए अपनी सहन-शक्ति बनाये रखनेके लिये हमारे सहारेका आधार अचल-अटल होना चाहिये और एक ही सहारा अचल-अटल है, वह है 'सत्'का, 'परम सत्य'का सहारा ।
किसी औरको खोजना बेकार है । केवल यही है जो कमी साथ कही छोड़ता ।
२२ जनवरी, १९५८
श्रीमां ''दिव्य जीवन'' पढ़ना जारी रखती
हैं और उच्चतर जातिके आविर्भावके विरुद्ध
बौद्धिक तर्कको आलोचना समाप्त करती
है ।
अगली बार हम असली तर्क-वितर्क आरंभ करेंगे । ये सब तर्क-वितर्क उस प्रदेशमें विचरते है जहां तुम्हें आने-जानेकी आदत नहीं है, है क्या? वह तुम्हारे लिये काफी अजाना क्षेत्र है ।
असलमें तो यह एक खास प्रदेश है, कर्म और व्यावहारिक सिद्धिके लिये निपट बेगाना । मुझे हमेशा यह संभव लगता है कि मनुष्य किसी भी एक विचारकों ले, तर्कवितर्कका आरंभ-केन्द्र बनाकर बौद्धिक तर्कोंके द्वारा उसे पूर्ण सत्य प्रमाणित कर सकता है ।
यह बात काफी ध्यान देने योग्य है कि मानव क्रिया-कलापके ये दो क्षेत्र-- कर्म और चिन्तन - ऐसे है जिनका चेतनामें एक साथ निबाह प्रायः कठिन होता है । अतिविकसित चिन्तनशील मनवाले व्यक्तिका व्यावहारिक होना तो और भी विरल है । और दूसरी तरफ कर्मी-जन चिन्तनशील मनमें हमेशा बेचैनी महसूस करते है ।
जब किसीका व्यावहारिक झुकाव मूलत: कार्य-सिद्धिकी ओर होता है ते। उसे ये सब, चिन्तन-मनन, वाद-विवाद और निगमन, कम या अधिक आलसियोंके मनबहलावका धन्धा लगते हैं । लेकिन... इसे जोरसे नहीं कह सकती क्योंकि यह बात बुद्धिजीवियोंको रास नहीं आयेगी । मुझे तो यह सदा ही एक कसरत लगी है जो मानसिक विकासकी दृष्टिसे तो मनो- रंजक है, पर उसका कोई खास व्यावहारिक परिणाम नहीं । अब अगर जरा तुम उनकी बात सुनो जो कल्पनाओंमें रमते हैं तो ३ कहेंगे : ''शारीरिक व्यायाम बेकारका धन्धा है जिसका कोई व्यावहारिक लाभ नहीं । क्या भला होता है कसरत करनेसे? तुम पुट्ठे ही तो हिलाते हों? जैसे तुम अपने शारीरिक पुट्ठे हिलाते हों, वैसे ही हम भी अपने मानसिक पुट्ठे क्यों न हिलाये? '' और दोनों दलीलें एक ही स्तरकी है ।
क्? विचारमें इसका समाधान कही और है ।
(लंबा अंतराल)
जैसे ही मनुष्यको यह विश्वास हों जाय कि एक जीवन्त और वास्तविक 'सत्य' इस यथार्थ जगत्में व्यक्त होनेकी कोशिशमें है तो उसके जिस एकमात्र चीजका महत्व और मोल रह जाता है वह है इस 'सत्य'के साथ अपनेको एक स्वर करना, जितनी पूर्णतासे हों सकें उसके साथ तादात्म्य साधना, केवल उसे अभिव्यक्त करनेवाले एक यंत्रके सिवा कुछ न होना, उसे अधिकाधिक जीता-जागता मूर्त रूप देते जाना, ताकि यह उत्तरोत्तर पूर्णताके साथ आविर्भूत हों सकें । सभी मत, सभी सिद्धान्त और सभी प्रणालियां 'सत्य'को अभिव्यक्त करनेकी सामर्थ्यके अनुपातमें कम या अधिक अच्छी है । जैसे व्यक्ति इस पथपर आगे बढ़ता है अगर वह 'अज्ञान'की सभी सीमाओंके पार चला जाय तो उसे पता चलता है कि इस अभिव्यक्तिकी समग्रता, इसकी संपूर्णता, सर्वांगीणता 'सत्य'के आविर्भावके लिये आवश्यक है, कुछ भी त्याज्य नहीं, किसीका मी कम या ज्यादा महत्व नहीं है । एक ही चीज जो आवश्यक दिखती है, वह है सभी चीजोंका सामंजस्य जो हर चीज- को यथास्थान, बाकी सबके साथ सच्चे सम्बन्धमे एड़ दे, ताकि पूर्ण 'ऐक्य' समन्वयकारी ढंगसे प्रकट हो सकें ।
यदि कोई इस स्तरसे नीचे उतरता है तो मैं कहूंगी कि अब वह कुछ नही समझता और सभी तर्क-वितर्क सच्चे मूल्योंको' हूर लेनेवाली संकीर्णता और सीमाओंमें समान रूपसे अच्छे है ।
सबके साथ समन्वय रखते हुए हर चीजका अपना स्थान है । और तब मनुष्य समझना और उसके अनुसार जीना आरंभ कर सकता है ।
व्यक्ति यह अनुभव करता है कि एक छोटी-सी क्रिया, चाहे वह कितनी ही तुच्छ ओर नगण्य क्यों न दिखती हो, यदि वह उस 'सत्य'के साथ समस्वर है तो सब शानदार युक्तियोंसे अधिक कीमती है ।
अपने भीतर ज्योतिके एक बिन्दुको चमकने दो । और वही बिन्दु -- प्रकाश क्या है ओर क्या कर सकता है -- इसपर दुनिया-भरके सबसे सुन्दर भाषणोंकी अपेक्षा अंधेरेको विलीन करनेमें अधिक प्रभावशाली होगा ।
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२९ जनवरी, १९५८
''निश्चेतनामें भी, कम-से-कम छिपी हुई आवश्यकताकी एक ऐसी प्रेरणा है जो रूपोंके विकासको उत्पन्न करती है और रूपोंमें विकास पाती हुई चेतना है; यह भली-भांति माना जा सकता है कि यह प्रेरणा गुप्त चेतन पुरुषकी विकसनशील इच्छा है और प्रगतिशील अभिव्यक्तिके लिये उसका दबाव विकासमें छिपे हुए अभिप्रायका प्रमाण है... । अपने-आपको अनिवार्य रूपसे पूर्ण करनेवाला सत्ताका सत्य विकासका मूल- भूत तथ्य होगा, किंतु इच्छा और उसका उद्देश्य भी क्रिया- शील तत्त्वके उपकरणके अंगके रूपमें, उसके एक अंशके रूप- मे अवश्य विद्यमान रहमे चाहिये ।''
( 'दिव्य जीवन')
मधुर मां, वाक्यका पिछला हिस्सा मेरी समझमें नहीं आया ।
तुम क्रया नहीं समझे? वे कहते हैं कि क्रमविकास 'सत्ताके सत्य' की, जो विश्वका सारमृत तत्व है, अपरिहार्य संसिद्धि परिणाम ह । इस 'सत्य'की सिद्धि, 'सत्ताके सत्य'की संसिद्धि ही क्रमविकास आधारभूत तत्व है, अर्थात्, यही क्रमविकासका निमित्त और कारण है; लेकिन स्वभावतया ही, यदि इस 'सत्ताके सत्य'की संसिद्धि अनिवार्य है ता वह एक संकल्प और योजनाकी मदरसे ही होनी चाहिये । कोई उद्देश्य होना चाहिये और उस उद्देश्यकी पूर्तिके ' लिये संकल्प होना चाहिये ।
यह जरूरी है कि इस सत्यकी उपलब्धिके लिये उसमें उपलब्ध करनेकी इच्छा-शक्ति हों और कोई उद्देश्य, कोई योजना, परियोजना हो जिसे वह उपलब्ध करना चाहता है । कुछ उपलब्ध करनेके लिये मनुष्यमें उसके लिये संकल्प होना चाहिये और संकल्पके लिये यह जानना जरूरी है कि वह क्या करना चाहता है । यदि उसे यह पता न हो कि वह क्या करना चाहता है तो वह उसे नही कर सकता । पहले उसे जानना होगा, अपने सामने कोई योजना, कोई रवाका, चाहे तो कार्यक्रम रखना होगा, उसे यह जानना होगा कि वह क्या करना चाहता. है; उसके बाद करनेका संकल्प करना होगा और तब वह उसे कर पायेगा ।
तुम्हें मालूम है कि वे कहते हैं : यह विश्व वैश्व 'सत्ता' के सत्यकी
क्रमिक परिपूर्ति है । विश्वका विस्तार वैश्व पुरुषके सत्यकी वर्धनशील, क्रमिक उपलब्धि है; लेकिन इस सत्यकी चरितार्थताके लिये यह आवश्यक है कि इसके पास कोई योजना हो, अर्थात्, इसे पता हो कि उसे क्या करना है और उसे संपन्न करनेके लिये संकल्प हो ।
जब तुम कोई काम करने लगते हो तो तुम जानते हो कि तुम क्या करना चाहते हो, है न? और तब तुममें उसे करनेकी इच्छा होती है, नहीं तो नहीं कर सकते । यह भी वही बात है, वे यही कह रहे है ।
यह मानना पड़े गा कि विश्वकी कोई योजना है, यह संयोगसे पैदा होनेवाली कोई चीज नहीं है, और इस योजनाकी परिपूर्तिके लिये परम 'इच्छा-शक्ति' कार्यरत है, नहीं तो कुछ भी नहीं हों सकता । तुम देखते हों न कि श्रीअरविंद उन लोगोंका खंडन करते है जो कहते है कि विश्वकी कोई योजना और संकल्प नहीं है । जिस क्षण हम यह मान लेते है कि विश्वके पीछे एक चेतना -- एक सचेतन सत्ता - है तो हम सहज ही सीधे-सीधे यह भी मान लेते हैं कि विश्वकी कोई योजना है और इस योजना-पूर्तिके लिये कोई इच्छा-शक्ति भी है । वे बस यही कहते । यह तो आसान है, है न?
तुम्हें इसी बातको व्यक्तिगत रूपमें घटाना होगा । जब कोई सचेत होता है और सचेतनतासे कोई काम करता है तो निश्चय ही वह यह जानता है कि वह क्या करना चाहता है । उसकी क्या रूपरेखा है । उदाहरणके लिये, जब तुम छात्रावासके वार्षिक उत्सवके लिये कोई कार्य- क्रम तैयार करते हो तो तुम्हारा कोई उद्देश्य होता है, होता है न? तुम वार्षिकोत्सवके लिये कुछ कार्यक्रम बनाना चाहते हों, फलत: तुम एक योजना बन। ते हो, क्या खेला जायगा, कैसे खेला जायगा, इसका चुनाव करते हों और साथ ही इसे करनेकी इच्छा करते हो, वरना तुम उसे करोगे ही नहीं -- बस, श्रीअरविंद भी ठीक यही कहते हैं । अर्थात्, यदि यह विश्व एक सचेतन सत्ता है और यदि कोई ' चेतना' अपने-आपको अभिव्यक्त करती है तो वह अवश्य ही किसी योजनाके अनुरूप और अभिव्यक्तिके संकल्पके साथ अभिव्यक्त करती है -- बहुत आसान है यह तो ।
समझे?... थोड़ा-सा?
क्या तुम नहीं जानते कि कुछ करनेके लिये मनुष्यको यह ज्ञान होना चाहिये कि उसे क्या करना है, फिर उसे करना चाहिये, करनेका संकल्प होना चाहिये? यहांतक कि यदि तुम यहांसे वहांतक जानेकी सोचते हों तो तुम्हें निश्चय करना होगा कि तुम वहां जाना चाहने हो और फिर होनी चाहिये वहांतक चलनेकी इच्छा, नहीं तो तुम सरकोगे ही नही । है न ऐसा?
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हां मां ।
आह! बस ऐसा ही है, ऐसा ही सरल ।
साधारणतया, लोग चीजों इतने सहज और स्वाभाविक ढंगसे करते है कि वें व्यान ही नहीं देते कि वे कैसे कर रहे हैं । यदि ३ अपनेसे पूछ बैठे कि यह कैसे होता है तो सारी प्रक्रियासे अवगत होनेमें कुछ क्षण लग जायेंगे । तुमने रहनेकी ऐसी आदत डाल ली है कि तुम यह भी नहीं जानते कि यह कैसे होता है । जीवनकी (सभी क्रियाएं) और गतिविघियां सहज, यंत्रवत्, प्रायः अचेतन अवस्थामें अर्धचेतनाके साथ की जाती है, और इतनी आसान-सी बात भी ख्यालमें नही आती कि कुछ करनेसे पहले यह मालूम होना चाहिये कि क्या करना है ओर फिर उसे करनेकी इच्छा होनी चाहिये । जब इन दोनों क्रियाओंमेंसे किसीमें कुछ खराबी आ जाती है -- उदाहरणार्थ, मनमें योजना बनानेकी और उसे कार्यान्वित करनेकी क्षमता -- जब दोनों गलत काम करने लगती हैं, तभी व्यक्तिको अपनी उचित कार्य-कुशलताके बारेमें चिंता सताने लगती है । उदाहरणके लिये, सवेरे उठनेपर यदि तुम्हें यह पता न हो या याद न रहे कि तुम्हें उठना, हाथमुह धोना, कपड़े पहनना, नाश्ता करना है और इधर-उधरके काम करने है तो तुम अपनेसे कहोगे : ''अरे! क्या बात है, कहीं कुछ दालमें काला है -- मुझे यह भी पता नहीं है कि मुझे क्या करना, जरूर कहीं कुछ गड़बड़ा है ।''
बादमें, यदि यह जानकर कि तुम्हें, क्या करना है -- कि तुम्हें, उठकर, नहा-धोकर कपड़े पहनने है - पर तुम उसे कर न सको : कोई चीज, प्रेरित करनेवाली शक्ति काम न करे या शरीरपर उसका कोई असर न हो तो एक बार फिर तुम चिंता करने' लगोगे ओर कहोगे : ''हाय राम! कहीं मै बीमार तो नहीं पंड गया? ''
अन्यथा तुम्हें इसका भानतक न होता कि सारा जीवन ऐसा ही है । यह तुम्हें नितांत स्वाभाविक लगता है, बस, ''यह ऐसा ही'' है । इसका मतलब यह है कि कर्म करते हुए तुम अर्ध-सचेतन मी नहीं होते, यह तो म्वतचालित, सहज आदत है और तुम कर्म करते हुए अपनी ओर ध्यान भी नहीं देते । इसलिये, यदि तुम अपनी वृत्तियोंका वशमें करना चाहते हो तो पहली चीज है यह जानना कि क्या हो रहा है ।
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मूलत: शायद यही कारण है कि चीजे हमेशा ठीक-ठीक नहीं चलतीं । यदि सब कुछ सहज-सामान्य लयसे चलता रहे तो हम कभी अपने कर्मके प्रति सचेतन नहीं होंगे; अपने-आप सहज रूपसे आदतके अनुसार सोचे-विचारे बिना सब कुछ करते जायेंगे, आत्म-निरीक्षण नहीं करेंगे । अतः कमी मी आत्म-प्रभुत्व नही प्राप्त कर सकेंगे । यह कुछ ऐसी चीज होगी, अपनेको पीछेसे व्यक्त करती कही कोई धुधली-सी चेतना जो तुमसे काम करवाती है, पर तुम्हें उसका ख्याल भी नहीं होता । और यदि कहीं कोई परायी या अनजानी शक्तिकी लहर आ जाय तो वह तुमसे कुछ भी करवा सकती है, तुम उस प्रक्रियाका समझ भी न सकोगे जिससे वह तुमसे काम करा लेती है । और वास्तवमें यही होता है ।
जब मनुष्य प्रक्रियासे पूरी तरह सचेत हों जाता है, जब वह जीवनकी कार्य-शैलीके विज्ञानसे, जीवनकी गतिविधि ओर प्रक्रियासे अवगत हो जाता है तभी वह स्वयंको संयमित करना शुरू करता है, वरना पहले ता वह संयमकी बात बिलकुल नहीं सोचता । हां, यदि कुछ अप्रिय बात हों जाय, जैसे, तुम कोई काम करो और उसके दुःखद फल हाथ आयें तो तुम सोचते हां : ''अच्छा, तो मुझे वह काम बन्द कर देना चाहिये,'' और तब, उस मुहूर्त तुम यह अनुभव करते हों कि ''कैसे जिया जाय'' -- इसका भी अपना पूरा तकनीकी शास्त्र है और अपने जीवनपर अधिकार पा सकनेके लिये इसका ज्ञान आवश्यक है! अन्यथा मनुष्य क्रियाओं-प्रतिक्रियाओंका, आवेगों- प्रवेगोंका न्यूनाधिक समन्वित ढेर होता है । उसे कुछ भी पता नहीं होता कि चीजों कैसे होता है । यह वही चीज है जो जीवनके आघातोंसे, रगड़से और ऊपरसे देखनेवाली अव्यवस्थाओंसे सत्तामें बनता है ओर जिसमें बहुत छोटे बच्चोंकी चेतना गाढ़ी जाती है । छोटा बच्चा बिलकुल अचेतन होता है, धीरे-धीरे, बहुत धीरे उसे चीजोंका भान होता है । पर यदि कोई विशेष सावधानी न बरती जाय तो लोग जानें बिना ही कि वे कैसे जीते है, अपनी सारी-की-सारी जिन्दगी गुजार देते है । उन्हें इसका भान- तक नहीं होता ।
अतः कुछ भी हों सकता है ।
लेकिन यह तो भौतिक जगत्में अपने बारेमें सचेतन होनेका सबसे पहला
छोटा-सा कदम है ।
तुममें कुछ धुंधले-से विचार और भगवनाएं होती है, होती है न? जो कम या ज्यादा तर्कसंगत रूपसे विकसित होती है (कम ही, ज्यादा नल।); उससे तुमपर हल्की-सी छाप पड़ती है और फिर जव- तुम झुलस जाते हो तो तुम्हें, पता लगता है कि कुछ गड़बड़ है, जब तुम गिरकर चोट लगा
लेते हो तो समझ जाते हो कि कहीं कुछ गड़बड़ है -- यह तुम्हें, सोचनेको प्रेरित करता है कि इस या उस चीजपर तुम्हें, ध्यान देना चाहिये ताकि तुम गिर न पडो, जल न जाओ, खुदको चोट न पहुंचाओ । यह बात धीरे-धीरे बाह्य अनुभव और बाह्य संस्पशोंसे ही आती है । नहीं तो आदमी अर्ध-चेतनका ढेर है जो यह जाने बिना चलता-फिरता है कि वह क्यों और कैसे चल-फिर रहा है ।
यह अचेतनताकी आदिम अवस्थासे उबरनेके लिये बहुत छोटा-सा आरंभ
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५ फरवरी, १९५८
''दार्शनिक आपत्ति अधिक गंभीर है; क्योंकि, यह स्वतः-सिद्ध जान पड़ता है कि निरपेक्ष ब्रह्मकी अभिव्यक्तिका केवल अभि- व्यक्तिके आनंदको छोड़कर और कुछ उद्देश्य नहीं हो सकता; इस वैश्व वक्तव्यमें जड-तत्त्वकी विकासमूलक गति-धारा भी अभिव्यक्तिके एक अंगके रूपमें आ जानी चाहिये; वह वहां केवल उन्मीलनके, प्रगतिशील कार्यान्वयनके, उद्देश्यरहित क्रमिक आत्म-प्रकाशनके आनंदके लिये ही हो सकती है । समग्र विश्वको भी अपने-आपमें कोई संपूर्ण वस्तु माना जा सकता है; समग्र होनेके नाते, न तो उसे कुछ प्राप्त करना है, न अपने स्वरूपकी पूर्णतामें कुछ जोड़ना है । परंतु यहां भौतिक जगत् सर्वांगपूर्ण समग्रता नहीं है, बह संपूर्णका एक अंगमात्र है, स्तर-परंपरामे केवल एक स्तर है; अतः बह अपनेमें समग्रके उन अविकसित अभौतिक तत्वों या शक्तियों- की, जो उसकी जड़ताके भीतर अंतर्लीन हैं, विद्यमानताको अंगीकार कर सकता है; केवल इतना ही नहीं, इसके साथ- साथ वह विश्व-संस्थानके उच्चतर स्तरोंसे उन्हीं शक्तियोंके अवतरणको भी अपनेमें अंगीकार कर सकता है जिससे कि उन स्तरोंकी सजातीय क्रियाएं यहां भौतिक परिसीमनकी कठोरतासे उन्मुक्त हो जायं । सत्की महत्तर शक्तियोंकी ऐसी अभिव्यक्ति जिसके अंतमें भौतिक जगत्की संपूर्ण सत्ता
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एक उच्चतर, एक आध्यात्मिक सृष्टिके रूपमें अभिव्यक्त हो जाती है, विकासका उद्देश्य मानी जा सकती है । यह उद्देश्य किसी भी ऐसे तत्त्वको प्रविष्ट नहीं करता जो समग्रता- मे न हो यह केवल अंशमें समग्रताकी उपलब्धिका विचार प्रस्तुत करता है । वैश्व समग्रताकी आशिक गति-धारामें उद्देश्य-रूप तत्त्वको अंगीकार करनेमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती; यदि वह उद्देश्य वहां समग्र गति-धारामें अंतर्निहित समस्त संभावनाओंकी सुपूर्ण अभिव्यक्ति हो यहां जिस उद्देश्य- की चर्चा की जा रही है वह मानव अर्थमें उद्देश्य नहीं है, अपितु अंतर्यामी ब्रह्मकी इच्छामें सचेतन, आभ्यन्तरिक सत्य आवश्यकताकी प्रेरणा है । निस्संदेह, यहां सब कुछ सत्ताके आनंदके लिये है, सब लीला है; परंतु लीला भी तो अपने भीतर एक ऐसा उद्देश्य रखती है जिसे पूरा करना है और उस उद्देश्यकी पूर्ति हुए बिना लीलाकी सार्थकता पूरी न होगी । बिना उपसंहारका नाटक एक कलात्मक संभावना हो सकती है, वह केवल पात्रोंके देखनेमें हर्ष अनुभव करनेके लिये और ऐसी समस्याओंमें हर्ष लेनेके लिये हो सकती है कि जिनका कोई समाधान नहीं दिया गया है अथवा समाधानको सदाके लिये अनिश्चितताकी तुलामें लटकाते रहनेके लिये छोड़ दिया गया है; यह विचारमें लाया जा सकता है कि पार्थिव विकासका नाटक भी इसी स्वभावका हो, यह भी संभव है कि उस विकासमें परिणाम अभिप्रेत हो या अंतर्निहित तथा पूर्व-निर्धारित हो और यह अधिक विश्वासप्रद हो सकता है । आनंद संपूर्ण सत्ताका गुह्य तत्त्व है और सत्ताकी संपूर्ण क्यिन् का आधार है; परंतु आनंद उस सत्यके कार्यान्वयनके आनंद- का बहिष्कार नहीं करता जो (सत्य) सत्तामें अंतर्निहित है, सत्ताकी शक्ति या इच्छामें पिरोया हुआ है और जो, उसकी (सत्ताकी) चित्-शक्ति उसकी (सत्ताकी) समस्त क्रियाओंकी क्रियात्मक और कार्यकारी अभिकर्त्री है और उनकी सार्थकता जाननेवाली है उस (चित्-शक्ति) के छिपे आत्म-ज्ञानमें धारण किया हुआ है ।',
( 'लाइफ डिवाइन', पु० ८ ३'-३ '१)
यदि कोई समस्याको साधारण व्यावहारिक बुद्धिके लिये अधिक सुबोध
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बनाना चाहे ते'। वह सोच सकता है कि सब कुछ शाश्वत कालसे अस्तित्वमें है ओर इसीलिये समकालिक मी है । लेकिन यह संपूर्ण समकालिक, शाश्वत अस्तित्व उस चेतनाकी जायदाद, मिल्कियतकी तरह है जो अपनी जमीनोंमें विचरनेमें आनन्द लेती है, अपनी पूरी जागीरकी लगभग असीम नहीं, तो कम-से-कम अनिश्चित यात्रामें सुरव पाती है और इस तरह एकके बाद एक चीजको खोजती जाती है, ऐसी चीजोंको जो पहलेसे ही विद्यमान है, सदासे विद्यमान रही हैं.. पर जहां परमकी चरण-धूलि कमी नहीं पडी । अपनी खोजमें वह जिस पथपर चलती है वह तुरन्त चूना हुआ इतना स्वतंत्र, अप्रत्याशित और अपूर्वदृष्ट पथ हो सकता है कि यद्यपि उसका संपूर्ण राज्य अनादि कालसे चला आ रहा है, और अनन्त कालतक रहेगा, फिर भी बहु नितात्र अप्रत्याशित अज्ञात ढंगसे वहां पहुंच सकती है और इस तरह सारे संबंधों ओर सभी संभावनाओंके लिये द्वार खोल सकती है ।
और यह खोज उसकी अपनी खोज भी है क्योंकि यह राज्य भी वह स्वयं ही है; तुरन्त लिये गायें निश्चयोंद्वारा, मनकी किसी पूर्वनिर्धारित योजनाके बिना, पूर्ण स्वतंत्रता ओर हर पल अप्रत्याशितताके सारे आनन्द- के साथ यह खोज की जा सकती है -- और यह होगी अपनी ही सत्तामें अनन्त विहार ।
सब कुछ पूरी तरह पहलेसे 'निर्धारित है, क्योंकि सब कुछ चिरकालसे चला आ रहा है, फिर भी पार किये जानेवाले पथमें स्वतंत्रता है, अप्रत्याशितता है ओर वे मी पूर्ण हैं ।
और इसी तरह अनेक लोकोंका समसामयिक अस्तित्व है जिनका आपस- मे कोई प्रत्यक्ष संपर्क नहीं, फिर भी ये सहवर्ती है । लेकिन इनकी खोज धीरे-धीरे ही होती है और तब लगता है कि यह कोई नवीन सृष्टि है... वस्तुओंको इस तरह देरवते हुए हम यह अच्छी तरह समझ सकते है कि इस भौतिक जगत् के साथ-ही-साथ जैसा कि हम इसे इसकी सारी अपूर्णताओं, सीमाओं और अज्ञानके साथ जानते है, अपने-अपने क्षेत्रोंमें स्थित अन्य एक या अनेक लोकोंका अस्तित्व है जिनन्ही प्रकृति हमारी इस धरतीसे इतनी भिन्न है मानो हमारे उनका कोई अस्तित्व हीं नहीं, क्योंकि हमारा उनसे कोई नाता नहीं । लेकिन जिस क्षण सनातन महती यात्रा इस लोकको पार करके उस लोकमें जायगी, उसी क्षण, इस सनातन 'चेतना'- के केवल पार जानेसे ही अनिवार्य रूपमे एक शृंखला बन जायगी और धीरे-धीरे दोनों जगतोंमें आपसी संबद्ध हो जायगा ।
वस्तुतः आजकल यही कार्य हो रहा है और हम निश्चयपूर्वक यह कह सकते है कि अतिमानसिक जगत् पहलेसे ही विद्यमान है, पर अब वह
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समय आ पाया है जब सर्वोच्च 'चेतना' के अभियानका यही लक्ष्य होगा और तब धीरे-धीरे इस जगत् और उस जगतके बीच एक चेतन संपर्क स्थापित हो जायगा और यात्राके इस नये दिशामानके कारण दोनोंमें एक नया नाता दिखायी देगा ।
अन्य व्याख्याओंकी तरह यह भी एक व्याख्या है और शायद उन लोगोके लिये अधिक आसानीसे सभझमें आनेवाली हों जो तत्वमीमासक नहीं है... । कम-से-कम मुझे तो यह पसन्द है!
मां, आपने कहा है कि सब कुछ पूर्णतः पूर्वनिर्धारित है, तब व्यक्तिगत प्रयासका स्थान कहां है?
मैंने अभी-अभी तुम्हें, बताया है कि वह 'महान् यात्री' हर क्षण अपनी यात्रा- की दिशा चुनता रहता है, अतः यहां चुनावकी पूरी छूट है, और यही छूट वैश्व अभिव्यक्तिको वह अकल्पनीय रूप और परिवर्तनकी संभावना प्रदान करती है, क्योंकि परम प्रभु यदि चाहें तो, अपना मार्ग बदलनेके लिये पूरी तरह स्वतंत्र है । बल्कि यही है पूर्ण स्वाधीनता । किंतु सब कुछ वहां विद्यमान है और चूंकि सब कुछ मौजूद है इसलिये सब कुछ पूर्णतया निर्धारित भी है -- उसका अस्तित्व सदासे चला आ रहा है, गर इसकी खोज बिलकुल अप्रत्याशित ढंगसे होती है । इस खोजमें ही निहित है स्वाधीनता ।
तुम घूमने निकलते हो, और सहसा, एक रास्तेको छोड़ दूसरा रास्ता पकड़नेमें तुमको मजा आता है । तुम्हारा रास्ता बिलकुल नया होता है, पर वे चीजों तो वहां पहलेसे ही विद्यमान थीं जहां तुम जा रहे थे, सदा ही उनका अस्तित्व था, इसीलिये वे पहलेसे निर्धारित थीं -- पर तुम्हारी खोज निर्धारित नहीं थी ।
निःसंदेह, परम 'चेतना' के साथ एकाकार हुई चेतनाको ही इस पूर्ण स्वाधीनताका बोध हो सकता है । जबतक तुम परम 'चेतना' के साथ एकाकार नहीं हो जात, तबतक, मजबूरन, तुम्हारा यह ख्याल, यह भाव या विचार होता है कि तुम एक उच्चतर 'संकल्प' द्वारा शासित हों, पर, जिस क्षण तुम उस 'संकल्प-शक्ति' के साथ एक हों जाते हों, तुम पूर्णतः स्वाधीन
हम इस बातपर लौट आते हैं जो श्रीअरविन्द सदासे कहते आ रहे है : ''परम प्रभुके साथ एकाकार होनेमें ही सच्ची स्वाधीनता चरितार्थ होती ?
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मधुर मां, जव कि हर नये जन्ममें मन, प्राण और शरीर नये होते हैं तो पिछले जन्मोंके अनुभव उनके लिये कैसे उपयोगी होते है? क्या हमें उन सब अनुभवमेंसे दुबारा गुजरना होता
यह व्यक्ति-व्यक्तिपर निर्भर है!
जन्म-जन्मान्तरोमे मन और प्राण विकास और प्रगति नही करते (कुछ एक विरल अपवादोंको और क्रम-विकासकी बहुत उन्नत अवस्थाको छोड़- कर) : चैत्य पुरुष विकसित होता है ओर प्रगति करता है । अतः, होता यह है : चैत्य पुरुषके क्रिया और विश्रामके काल अदल-बदलकर आते हैं; भौतिक जीवनकी अनुभूतियोंद्वारा, भौतिक देहके होते हुए सक्रिय जीवन- द्वारा और मन, प्राण, तनके सब अनुभवोंद्वारा चैत्य पुरुष प्रगति करता है; इसके बाद, साधारणतया, चैत्य पुरुष आत्मसात् करनेके लिये एक प्रकार- की विश्रान्तिमें चला जाता है जहां सारे सक्रिय जीवनकी अर्जित प्रगतिके परि।गामका लेखा-जोखा होता है । जब यह आत्मसात्करण पूरा हो .जाता है, जब वह पृथ्वीपर निवास करते हुए सक्रिय जीवनमें जो प्रगति की थी उसे अपनेमें समा लेता है तव वह उस सारी प्रगतिके फलको लिये हुए फिरसे नया शरीर धारण करता है, और एक उन्नत अवस्थामें तो अपने रहनेके लिये परिवेश, शरीरका प्रकार और जीवनका प्रकार भी चून लेता है, ताकि अपने किसी खास अनुभवको पूरा कर सके । कुछ बहुत अधिक विकसित लोगोंमें शरीर छोड़नेसे पहले ही चैत्य पुरुष यह निर्णय ले सकता है कि अगले जन्ममें वह कैसा जीवन अपनायेगा ।
जब वह लगभग पूरी तरहसे निर्मित, काफी सचेतन सत्ता बन जाता है तो वह नयी कायाकी रचनाकी अध्यक्षता करता है । आम तौरसे आन्तरिक प्रभावद्वारा वह उन तत्वों और पदार्थोको चुनता है जो इसका शरीर इस तरह बनायेगे कि शरीर नये अनुभवकी आवश्यकताओंके अनुकूल बन सकें । किन्तु यह तो काफी उन्नत अवस्थाकी बातें हैं । बादमें, जब वह पूरी तरह निर्मित हो चुकता है और सेवाकी भावनासे, भागवत 'कार्य' में सामूहिक सहाय और सहयोगके ख्यालसे धरतीपर लौटता है तब वह पिछले जन्मोंके प्राण और मनके अमुक तत्वोंको इस निर्मित होती कायामें लानेमें सफल होता है जो पिछले जन्मोंमें चैत्य शक्तियोंद्वारा संगठित और अनुप्राणित
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होनेके कारण सुरक्षित रहे और, फलत:, अब आम प्रगतिमें भाग लें सकते है । पर हां, यह होता है बहुत, बहुत उन्नत अवस्थामें ।
जब चैत्य पुरुष पूर्ण विकसित और सचेतन हो, जब वह भागवत 'संकल्प'- का सचेतन यंत्र बन जाय तो यह मन और प्राणको इस तरह संगठित करता है कि वे मी व्यापक सांमजस्यमें भाग ले सकें और उन्हें मी सुरक्षित रखा जा सके ।
विकासकी समुत्रत अवस्था देहके विघटनके बाद भी मन और प्राणके कम-से-कम कुछ अंशकों सुरक्षित रखनेकी अनुमति देती है । उदाहरणके लिये : यदि, मानवी क्रिया-कलापमें कुछ भाग (मानसिक या प्राणिक) खास तौरसे विकसित कर लिये गायें हों तो मन और प्राणके ये तत्व उसी ''रूप- मे'' अक्षुण्ण बने रहते है -- उसी क्रियाके रूपमें जो पूरी तरह शृंखलित की गयी है -- जैसे, उच्च बौद्धिक स्तरवाले लोगोंमें, जिन्होंने अपने मस्तिष्कका विशेष विकास किया है, उनके व्यक्तित्वका मानसिक अंश इस रचनाको बनाये रखता है और एक व्यवस्थित दिमागके रूपमें सुरक्षित रहता है जिसका अपना जीवन होता है और जिसे अगले जीवनतक रखा जा सकता है, ताकि वह अपनी सारी कमाईके साथ उसमें मांग लें सकें ।
कlलकारोंमें, उदाहरणार्थ, कुछ संगीतज्ञोंमें, जिन्होंने अपने हाथोंका सचेतन रूपसे प्रयोग किया है, प्राणिक ओर मानसिक तत्व हाथोंके रूपमें बना रहता है और ये हाय काफी सचेतन रहते है और जीवित लोंगोंके शरीरको भी माध्यम बना लेते हो यदि उनमें विशेष सादृश्य हों -- आदि-आदि ।
अन्यथा, साधारण लोगोंमें, जिनका कि चैत्य पुरुष पूर्णतया विकसित ओर सुव्यवस्थित नहीं होता, यदि मृत्यु बहुत शान्त और संकेन्द्रित हुई हों तो चैत्य पुरुषके शरीर छोड़नेपर मानसिक और प्राणिक रूप कुछ समयतक बने रह सकते है । लेकिन यदि कोई अचानक आवेशभरी अवस्थामें अनगिनत आसक्तियां लिये मरा हो तो, सत्ताके अलग-अलग भाग बिखर जाते हैं ओर अपने-अपने क्षेत्रमें कम या अधिक समय अपना जीवन जीकर बिला जाते हैं ।
शरीरमें चैत्य पुरुषकी उपस्थिति ही संघटन और परिवर्तनका केन्द्र है । अतः यह मानना भारी भूल है कि प्रगति जारी रहती है, या, जैसा कुछ लोग मानते है कि, दो भौतिक जन्मोंके बीचके संक्रमणकालमें यह अधिक पूर्ण और द्रुत होती है; साधारणतया प्रगति बिलकुल नहीं होती, क्योंकि चैत्य पुरुष विश्राम करने चला जाता है और अन्य भाग अपने-अपने लोकमें क्षणिक जीवन बिताकर विलीन हों जाते. है ।
पार्थिव जीवन प्रगतिका क्षेत्र है । यहां, इस धरापर, पार्थिव अस्तित्व-
की अवधिमें ही प्रगति संभव है । अपने विकास और क्रम-विकासकी स्वयं व्यवस्था करता हुआ चैत्य पुरुष ही एक जन्मसे दूसरे जन्ममें प्रगतिको वहन करता है ।
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१९ फरवरी, १९५८
श्रीमां ३ फरवरीको हुई अपनी अनुभूति
पढ़कर सुनाती है ।
३ फरवरी, १९५८
अतिमानसिक जगत्की सत्ताओंमें और मनुष्योंमें वही अन्तर है जो मनुष्यो ओर पशुओंमें है । कुछ दिन पहले मुझे पशुओंके जीवनसे एकाकार हों जानेकी अनुभूति हुई थी, ओर यह एक तथ्य है कि जानवर हमें नहीं समझते, उनकी चेतना इस तरह बनी है कि हम उनकी पकड़से लगमग पूरी तरह बच निकलते है । फिर भी मैं कुछ पालतू जानवरोंको जानती थी - बिल्ली, कुत्ते -- विशेषकर बिल्लिया, जो हमतक उठ आनेके ??? अपनी चेतनामें प्रायः यौगिक प्रयत्न करती थी । पर साधारणतः, जब वे हमें, जीते ओर कार्य करते देखती है तो वे हमें नही समझती, ३ हमें उस तरह नही देखतीं जैसे कि हम है, और हमारे कारण तकलीफ पाती है । हम सदा उनके लिये एक पहेची बने रहते है । उनकी चेतनाका एक बहुत छोटा-सा अंश ही हमारे साथ जुडा होता है । ठीक यही बात हमारे माथ होती है जब हम अतिमानसिक लोककी ओर देखनेका प्रयास करते है । जब चेतनाका नाता स्थापित हों जायगा तभी हम उसे देखेंगे, ओर तब भी हमारी सत्ताका केवल वही अंश उसे उसके यथार्थ रूपमें देख सकेगा जो इस तरह रूपान्तरणसे गुजर चुका होगा, नहीं तो दोनों जगत्-, ' पशु और मानव जगत्की तरह, अलग-थलग रहेंगे ।
मुझे ३ फरवरीको जो अनुभूति हुई वह इसका प्रमाण है । इसके पहले, अतिमानसिक जगत् के साथ मेरा संपर्क व्यक्तिगत था, आत्मपरक था, जब- कि. ३ फरवरीको मैं वहां मूर्त रूपमें घूमी, वैसे ही मूर्त रूपमें जैसे पहले कभी पैरिसमें घूमा करती थी, सारी आत्मपरकतासे स्वतंत्र ऐसी एक दुनियामें जिसका अपना अलग अस्तित्व है ।
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यह दोनों लोकोंके बीच बनाये जानेवाले एक सेतुके समान है ।
यह रही वह अनुभूति जौ मैंने उसके तुरन्त बाद लिखवायी थी ।
अतिमानस-लोक चिरस्थायी रूपमें विद्यमान है और मैं' वहां अतिमानसिक शरीरमें स्थायी रूपसे वर्तमान हू । आज ही मुझे उसका प्रमाण मिला जब मेरी पार्थिव चेतना तीसरे पहरको दो से तीन बजेके बीच सचेतन रूपमें वहां गयी और रही । अब मैं जानती हू कि इन दोनों जगतोंको सतत और सचेतन सम्बन्धमें जोड़नेके लिये जिस चीजकी कमी है वह है वर्तमान स्थितिमें भौतिक जगत् और वर्तमान स्थितिमें अतिमानसिक जगत्- के बीचका प्रदेश । इसी प्रदेशका निर्माण व्यक्तिगत चेतना और व्यक्ति- तिरपेक्ष जगत्में बाकी है । और वह निर्मित हो रहा है । पहले जब मैं उस नयी सृष्टिकी बात किया करती थी, जो बन रहीं है, वह इसी मध्यस्थ प्रदेशकी बात थी । इसी तरह जब मैं इस तरफ होती हू, यानी, भौतिक चेतनाके क्षेत्रमें, और जब मैं अतिमानसिक शक्तिको, अतिमानसिक ज्योति और तत्त्वको जडू-तत्वमें निरन्तर पैठते देखती हू तो वह इसी प्रदेशका . निर्माण-कार्य होता है जिसे मैं देखती हू और जिसमें मैं भाग लेती हूं ।
मैंने अपने-आपको एक विशाल जहाजमें पाया, जो उस जगहका प्रतीकात्मक प्रतिरूप था जहां यह कार्य चल रहा है । एक शहर जितना बड़ा यह जहाज पूर्णतया व्यवस्थित था । निश्चय ही वह कुछ समयसे कार्य- रत था, क्योंकि उसकी व्यवस्था पूर्ण थी । यह वह जगह है जहां उन ' लोगोंको आकार दिया जाता है जो अतिमानसिक जीवनके लिये नियत हैं । ये लोग (या कम-से-कम उनकी सत्ताका एक अंश) पहले ही अति- मानसिक रूपान्तरमेंसे गुजर चुके थे, क्योंकि खुद वह जहाज और जो उसमें सवार थे वे सब न तो भौतिक जगतके थे, न सूक्ष्म-भौतिक जगतके, न प्राणिक जगतके और न मानसिक जगतके - वह एक अतिमानसिक तत्व था । स्वयं वह तत्व ठोस अतिमानसका था, ऐसा अतिमानसिक तत्व जो भौतिक जगतके सबसे निकट है और जिसकी अभिव्यक्ति सबसे पहले होगी । वहीका प्रकाश सुनहली और लाल ज्योतिका मिश्रण था जिससे जगमगाते नारंगी रंगका एक रूप-पदार्थ बना था । सब कुछ ऐसा ही था -- ज्योति ऐसी थी, लोग ऐसे थे, सूक्ष्म छटामेदके साथ सभी इसी रंगमें रंगे थे और इसी भेदके काराग एक चीज दूसरी चीजसे अलग पहचानी जा सकती थी । सामान्य छाया. एक छायाविहीन जगत्की पड़ती थी, वहां सूक्ष्म अन्तर तो
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थे पर छायाएं नहीं थीं । वायुमण्डल आनन्द, शांति और व्यवस्थासे परि- पूर्ण था; वहां सब काम नियमित रूपसे चुपचाप चल रहा था । पर साथ ही वहां शिक्षण, और सब क्षेत्रोंमें प्रशिक्षणकी बारीकियां देखी जा सकती थीं जिनके द्वारा नावके लोगोंको तैयार किया जा रहा था ।
वह विशाल तरी अभी-अभी अतिमानसके तटसे आ लगी थी, ओ र यहीं उन लोगोंके पहले दलको उतरना था जिन्हें अतिमानसिक जगत्का भावी निवासी बनना था । इस पहली उतराईकी पूरी तैयारी हो चुकी थी । घाटपर कुछ विशालकाय सत्ताएं तैनात थीं । ये लोग मनुष्य नहीं थे और न पहले कभी म रहे थे, औ र न ही वे अतिमानसिक जगत्के स्थायी निवासी थे । उन्हें तो ह्रस्व लोकसे वहां भेजा गया था ताकि वे उतराईकी चौकसी कर सकें और उसपर नियंत्रण रख सकें । शुरूसे ही सारे समय उस पूरे समूहका परिचालन मेरे हाथोंमें था । स्वयं मैंने सब दल तैयार किये थे । मैं नावकी सीढीकी ऊपरली पैडीपर खड़ी थी और एक-एक करके दलोंको बुलाकर नीचे घाटपर भेज रही थी । वे दीर्घकाल सत्ताएं जो वहां तैनात थीं मानों उतरनेवालोंका निरीक्षण कर रही थीं, जो तैयार थे उन्हें, अनुमति दे रही थीं ओर जो तैयार नहीं थे उन्हें, वापस नावमें भेज रही थीं जहां उन्हें प्रशिक्षण जारी रखना था । वहां खड़ी- खड़ी जब मैं उन्हें देख रही थी तो मेरी चेतनाका वह अंश जो यहांसे गया था उनमें बड़ी रुचि लेंने लगा । वह सभीको देखना और पहचानना चाहता था । वह देखना चाहता था कि वे किस तरह बदल गये थे और उन्हें परखना चाहता था जौ तुरंत ले लिये गयें ओर जिन्हें वहीं रहकर अभी प्रशिक्षण जारी रखना था । कुछ देर बाद, जब मैं वहां खडी-खडी देख रही थी ते। मुझे ऐसा लगा कि मुझे कोई -- चेतना या यहांका कोई व्यक्ति -- पीछेकी ओर खींच रहा है ताकि मेरा शरीर जाग सके--और अपनी चेतनामें मैंने प्रतिवाद किया : ' 'नहीं, नहीं, अभी नहीं! अभी नहीं, मैं' लोगोंको देखना चाहती हू । '' मैं देख रही थी और बड़े चावसे ध्यानपूर्वक देख रही थी.. । यह तबतक होता रहा जबतक कि सहसा, यहां इस दीवार-घडीने तीन बजाने शुरू कर दिये, वह मुझे जबरदस्ती वापिस धरती- पर लें आयी । मुझे अपने शरीरमें अचानक आ गिरनेका अनुभव हुआ । मैं एक झटकेके साथ नीचे उतरी थी पर मेरी स्मृति सही-सलामत थी, यद्यपि बहुत ही अचानक मुझे वापिस बुला लिया गया था । बिना हिले-डुले मैं तबतक शांत बनी रही जबतक कि मैंने पूरी अनुभूतिको पुन: याद करके सुरक्षित नहीं कर लिया ।
उस नावपर चीजोंके स्वभाव और स्वरूप वैसे नहीं थे जैसे हम इस
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पृथ्वीपर देखते है । उदाहरणार्थ, उनकी पोशाकें कपड़े-जैसे नहीं बनी थो और वह चीज जो कपड़े-जैसी लगती थी कपड़ेकी तरह नहीं बुनी गयी थी; वह उनके शरीरका ही एक अंग थी, वे उसी तत्वसे बनी थी जो तरह-तरहके रूप धर लेता था । उसमें एक तरहकी नमनीयता थी । जब किसी परिवर्तनकी आवश्यकता होती तो वह हो जाता था, पर किसी बनावटी या बाह्य तरीकेसे नहीं, बल्कि एक आंतरिक क्रियाद्वारा, वह चेतनाकी क्रियाद्वारा होता था जो उस तत्त्वको रूप या आकृति देती थी । जीवन अपने आकार आप रच लेता था । वहां सब चीजोंमें एक ही तत्व था : वह आवश्यकता और उपयोगिताके अनुसार अपने स्पंदनके गुणको बदल लेता था ।
जिन्हें नये प्रशिक्षणके लिये लौटा दिया गया था उनका रंग एक-सा नहीं था, लगता था कि उनके शरीरपर ऐसे तत्त्वके गहरे धूसर धब्बे थे जो धरतीके तत्वसे मिलते-जुलते थे, वे धूमिल लगते थे, मानों ज्योतिद्वारा बे न तो पूरी तरह ओत-प्रोत हुए थे, न रूपांतरित । ऐसा सब जगह नहीं था, बस कहीं-कहीं ।
घाटपर जो दीर्घकाय सत्ताएं थीं' वे उसी रंगकी नही थीं', कम-से-कम उनमें वह नारंगी आभा नहीं थी, वे अधिक पागडुर और पारदर्शी थी । उनके शरीरके एक भागको छोड़कर बाकीका खाका. ही दीखता था । वे बहुत लंबी थीं, उनके शरीरमें मानों हड्डियों तो थीं ही नही, वे आवश्यकतानुसार कोई भी आकार ले सकती थी । कमरसे पांवतक ही स्थायी घनत्व था जो शरीरके बाकी मागोंमें महसूस नही होता था । उनका रंग अधिक पीला था, बहुत थोडी-सी लालिमा लिये, वह अधिक सुनहला था, शायद सफेदके अविक पास । धवल-से प्रकाशसे आलोकित अंश पारभासी थे; फिर नितांत पारदर्शी नही थे, फिर भी नारंगी तत्वसे कम ठोस और अधिक सूक्ष्म थे ।
जब मैं वापस बुलायी गयी और उस घड़ी जब मैं ''अभी नहीं''' कह रही थी, दोनों बार मैंने अपने-आपको एक उड़ती निगाहसे देखा, अर्थात्, अतिमानसिक जगत्में अपने रूपकों देखा । मैं उन दीर्घकाय सत्ताओं और नावपरके लोगोंका एक मिश्रण थी, मेरा ऊपरी भाग, खासकर सिर एक रेखा-चित्र था, जिसकी अंतर्वस्तु श्वेत थी और कोर नारंगी । पांवकी ओर जाते जाते उसकार वर्ण नावके लोगोंकी तरह होता जाता था, यानी, वह नारंगी था; दुबारा सिरकी ओर आते-आते वह अधिकाधिक पारभासक और श्वेत होता जाता था, और लाली घट जाती थी । सिर केवल एक रेखा-चित्र-सा था जिसके अंदर भास्वर सूर्य था, इसमेंसे ज्योतिकी
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किरणें निकल रही थीं जो संकल्प-शक्तिकी क्रिया थी ।
जिन्हें मैंने जहाजमें देखा था उन सबको मैं पहचानती थी । उनमेंसे कुछ तो यहां, आश्रमके थे, कुछ और जगहोंसे आये थे, पर मैं उन्हें भी जानती थी । वहां मैंने सभीको देखा । लेकिन चूकि मैं जानती थी कि जब मैं लौट गीतों मुझे कु छ भी याद न रहेगा _ मैंने कोई मी नाम न देने का निश्चय किया । और फिर इसकी कोई जरूरत मी नही । तीन- चार चेहरे बहुत स्पष्ट दिखायी देते थे, औ र जब मैंने उन्हें, देखा तो मैं अपनी उस भावनाको समझ पायी जो यहा पृथ्वीपर उनकी आंखमें देखते समय पैदा हुई थी : कितना अनूठा उल्लास था उनमें... । वे अधिकतर युवक थे, बच्चे बहुत कम थे और उनकी उम्र चौदह-पंद्रहके बीच थी । निश्चय ही, वे दस-बारह वर्षसे कमकेन थे ( मैं वहां इतने काफी समयतक नहीं ठहरी कि इन सब बारीकियोंको देख सकती) । कुछ एकको छोड़कर बौद्धोंकी संख्या नहींके बराबर थी । तटपर उतरनेवालोंमें कुछको छोड़कर अधिकतर अधे आयुवा ले थे । इस अनुभूतिके पहले ही कुछ व्यक्ति उस जगह कई वार जांच जा चुके थे, जहां अति- मान सिक बनने की योग्यतावाले व्यक्तियोंकी परीक्षा होतीं थी । तब मैंने कई आश्चर्यजनक बातें देरवी और उन्हें अंकित. कर लिया; कु छेक । तो मैंने इसके बारेमें बताया भी था । लेकिन मैंने आज जिन्हें तटपर उतारा है उन्हें मैंने बड़ी अच्छी तरह देखा है; वे बीचकी आयुवा लें थे, न छोटे बच्चे थे, न बूढ़े, कुछ विरल अपवाद अवश्य थे । और यह काफी कुछ मेरी आशासे मेल खाता था । मैंने कु छ न कहने और नाम न बताने का निश्चय किया । चूकि मैं अंततक वहां नहीं रुकी अत : ठीक-ठीक चित्र पाना मेरे लिये संभव न था । वह चित्र न तो पूरी तरह स्पष्ट था, न पूर्ण । मैं यह भी नहीं चाहती कि कुछको उसके बारेमें बताऊं ओर कुछको नहीं ।
मैं इतना ही कह सकती हू कि यह दृष्टिकोण या फैसला केवल उस तत्वपर आधारित था जिससे लोगोंका निर्माण हुआ था, अर्थात्, क्या वे पूर्णत: अतिमानसिक जगत् के प्राणी थे, क्या वे उसी विशिष्ट तत्त्वके बने थे, जों दृष्टिकोण अपनाया गया था वह न तो नैतिक था, न मनोवैज्ञानिक । यह हो सकता है कि जिस तत्त्वसे उनके शरीर बने थे वह कसी आन्तरिक विधान या आन्तरिक क्रियाका परिणाम हो, पर उस समय तो उसका प्रश्न नही था । कम-से-कम इतना तो स्पष्ट है कि वहांके मूल्य कुछ और है ।
जब मैं लौट आयी तो अनुभूतिकी यादके साथ-ही-साथ मैं यह भी जानती थी कि अतिमानसिक जगत् स्थायी था, वहां मेरी उपस्थिति भी स्थायी थी, सिर्फ कमी थी तो एक कडीकी जो चेतना और तत्त्वके बीच
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सम्बन्ध जोड़ सकें । और वह कड़ी गाढ़ी जा रही है । उस समय मुझे एक चरम सापेक्षताकी अनुभूति हुई (वह अनुभूति काफी देरतक, लगभग दिन-मर बनी रही) -- नहीं, ठीक ऐसा भी नहीं : वह अनुभूति यह थी कि इस जगत् और उस जगत् के सम्बन्धने उस दृष्टिकोणको नितनित बदल दिया जिसके अनुसार चीजोंका मूल्यांकन ओर विवेचन होना चाहिये । इस द्रष्टिकोणमें कोई मानसिक तत्व न था, बल्कि इसने ऐसी विलक्षण आन्तरिक भावना जगायी कि बहुत-सी चीजों जिन्हें, हम अच्छा या बुरा मानते हैं सचमुच वैसी नहीं है । यह बिलकुल स्पष्ट है कि सब कुछ निर्भर है चीजोंकी क्षमतापर, अतिमानसिक जगत्को रूपायित करनेकी स्वाभाविक योग्यतापर या फिर उसके साथ नाता छोड़नेपर । यह हमारी साधारण गुण-विवेचनाओंसे बहुत अधिक भिन्न है, कभी-कभी तो' विपरीत मी । मुझे एक छोटी-सी चीज याद आ रही है, जिसे अकसर हम बहुत रवराब मानते हैं, कितना अजीब लगा यह देखकर कि वास्तवमें वह बहुत बढ़िया थी! कुछ अ१र चीजों जिन्हें हम बहुत महत्त्वपूर्ण समझते है, वास्तवमें कोई महत्व नहीं रखती : अमुक चीज ऐसी है या अमुक वैसी, इसका कोई महत्व नहीं । यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि दिव्य और अदिव्यकी हमारी विवेचना ही ठीक नही होती । कुछ चीजोंपर तो मैं हंस पडी... । भगवद्-विरोधी क्या है इसकी हमारी सामान्य भावना कृत्रिम प्रतीत होती है, वह ऐसी चीजपर आधारित लगती है जो सत्य और सजीव नही है (और फिर जिसे हम 'यहां जीवन कहते है वह उस जगत्की तुलनामें जीवन्त नहीं लगा), जो मी हो, यह भाव आधारित होना चाहिये दोनों जगतोंके बीचके हमारे सम्बन्ध- पर और इस बातपर कि चीजों अपने सम्बन्धको और भी सरल या कठिन कैसे बनाती है । तब इस बातकी विवेचनामें बहुत अन्तर पडू जायगा कि कौन-सी चीज हमें भगवानके निकट लें जाती है और कौन-सी दूर । मनुष्योंमें मी मैंने देखा कि जो चीज उन्हें अतिमानसिक बननेमें मदद देती है या बाधा डालती है वह उससे बहुत मित्र है जिसकी कल्पना हमारी नैतिक धारणाएं करती है । मुझे लगा कि हम कितने... हास्यास्पद है ।
(श्रीमां तब बच्चोंसे कहती है) : इसका अनुक्रम है, एक प्रकारसे ३ फरवरीको हुई अनुभूतिका परिणाम । लेकिन इसे अभी पढ़ना कुछ असामयिक होगा । यह बादमें अप्रैल अंकमें प्रकाशित होगा ।
मुझे तुम्हें यह अवश्य बता देना चाहिये कि फिलहाल हमारे जगत् और
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अतिमानसिक जगत् के बीच जो सबसे प्रधान अन्तर मुझे लगता है वह यह है (ओर यह अन्तर अपनी सारी अतिशयताके साथ मेरे सामने तभी प्रकट हुआ जब मैं वहां सचेतन होकर गयी, उस चेतनाके साथ गयी जो सामान्य- तया यहां काम करती है) : भीतर, बहु-त गहराईमें जो कुछ हों रहा है उसे छोड़कर बाकी सब कुछ यहां बिलकुल बनावटी लगा । साधारण भौतिक जीवनका कोई भी मूल्य सत्यपर आधारित नहीं है । जैसे तन ढकनेके लिये हम कुछ कपड़ा लेनेके मजबूर होते है और जब उसे पहनना चाहे तो पीठपर डालनेके लिये पोशाकें सीते हैं वैसे ही खानेके लिये हमें बाहरसे चीजों लेनेकी जरूरत पड़ती है और पोषणके लिये उन्हें उदरस्थ करना पड़ता है । हर तरहसे हमारा जीवन बनावटी है ।
सच्चा, सरल, सहज जीवन जैसा अतिमानसिक जगत्में होता है, वह जिसमें चीज़ें सचेतन संकल्पद्वारा निर्झरकी तरह निकलती है, पदार्थ- पर ऐसा अधिकार होता है कि वह हमारे निश्चयके अनुरूप बन जाय । और जिसके पास शक्ति और शान हैं वह जो चाहे प्राप्त कर सकता है, लेकिन जिसके पास नहीं है उसके पास मनचाही चीजों पानेके लिये कोई कृत्रिम साधन नहीं होता ।
साधारण जीवनमें सभी कुछ कृत्रिम है । जन्म और परिस्थितियोके संयोगसे तुम कुछ ऊंची या नीची स्थिति, कम या ज्यादा आरामदेह पाते हो, इसलिये नहीं कि यह तुम्हारी आंतरिक आवश्यकता और तुम्हारी सत्ताकी सहज, स्वाभाविक और सरल अभिव्यक्ति है, बल्कि इसलिये कि जीवनमें संयोगसे आयी परिस्थितियां तुम्हें इन चीजोंके संपर्कमें लें आयी है । एक बिलकुल निकम्मा आदमी बहुत ऊंची स्थितिमें हो सकता है और निर्माण एवं सृजन ओर संगठनकी अद्भुत योग्यतावाला व्यक्ति अपने- आपको अति दीन-हीन और सीमित परिस्थितियोंमें गुलामी करता पा सकता है, जब कि, यदि दुनिया सच्ची होती तो वह पूर्ण रूपसे उपयोगी आदमी होता ।
इस बनावटीपन, कपट ओर निरी सत्यहीनताने मुझे ऐसा' धक्का दिया कि... आदमी सोचता रह जाता है कि इतने मिथ्या जगत्में यथार्थ मूल्यांकन कैसे हों सकते है ।
त्वेकिन उदास, दुःखी, विद्रोही, असन्तुष्ट होनेके बजाय, जैसा कि मैं तुम्हें अन्तमें बता रही थी, ऐसी हास्यास्पद, ऊट-पटांग भावना थी कि कुछ दिनों- तक जब भी ग लोगों और वस्तुओंको देखती थी तो बेतहाशा हंसी फूट पड़ती थी । परिस्थितियोंके बेतुकेपनके कारण ऐसी हंसी जिसका मेरे सिवाय किसीको कोई कारण न दीख सकता था ।
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जब मैंने तुम्हें अज्ञातकी यात्राके लिये, साहसिक यात्राके लिये आमंत्रित किया था ता' मैं नहीं जानती थी कि मेरा कहना इतना सच था, और मैं यह वचन दे सकती हू कि जो जोखिम उठानेको तैयार है दे बड़ी मनोहारी खोजें करेंगे ।
३ फरवरीके अनुभवके कुछ दिन बाद
श्रीमांको अन्य अनुभव हुए जो कुछ-कुछ
पिछले अनुभवके अनुक्रममें थे । यह रहा
वह अंश (अभिलेख) :
हर व्यक्ति अपने साथ, अपने वायुमंडलमें उन्हें, लिये फिरता है जिन्हें श्रीअरविन्दने सेंसर या ''छिद्रान्वेषी'' नाम दिया है । ये एक तरहसे विरोधी शक्तियोंके स्थायी प्रतिनिधि होते है । इनका धन्धा है हर काम- की, हर चिन्तनकी, चेतनाकी छोटी-से-छोटी क्रियाकी निर्मम आलोचना करना, तुम्हें अपने आचार-व्यवहारके गुप्त-से-गुप्त स्रोतको सामने ला खड़ा करना, तुम्हारे पवित्र और उदात्त देखनेवाले विचारोंके सहगामी तुच्छ-से- तुच्छ, हीन स्पन्दनतकको उजागर कर देना ।
यहां नैतिकताका कोई सवाल नही है । ये महाशय नैतिकताके आढतिया नहीं होते, फिर भी नैतिकताका प्रयोग करना खूब अच्छी तरह जानते है! ओर जब उन्हें धर्मभीरु चेतनासे काम पड़ता है तो वे बेदर्दीसे उसकी नाक- मे दम कर सकते है, वे हर क्षण उसके कानोंमें फुसफुसायेगे : ''तुम्हें, ऐसा नहीं करना चाहिये था, तुम्हें, वैसा नहीं करना चाहिये था, बल्कि तुम्हें, ऐसा करना चाहिये था, ऐसा कहना चाहिये था, अब तो तुमने सब कुछ मटियामेट कर दिया, तुमने लाइलाज भूल की है, देखा गलतियोंने सब कुछ इस तरह चौपट कर दिया है कि सुधारकी कोई गुंजाइश ही नहीं ।'' ये किसी-किसीकी चेतनातकपर भी कब्जा कर लेते हैं. तुम किसी विचारकों खदेड़ देते हों, और ठप! दा मिनट बाद वह फिरसे आ घुसता है; तुम उसे फिर खदेड़ते हो, पर वह फिरसे तुमपर हथौड़े बरसानेके लिये आ धमकता है ।
जब भी इन महाशयोंसे भेंट होती है, मैं उनका स्वागत करती हू, क्योंकि वे पूरी तरह निष्कपट होनेके लिये विवश करते है, वे सूक्ष्मतम पाखण्डको मी सूंघ लेते है और पल-पलपर तुम्हें अपने गुप्त-सें-गुप्त स्पन्दनोंके सामने
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ला खड़ा करते है । ये बहुत बुद्धिमान् है! बुद्धिमत्तामें ये हमसे अनन्त- गुना बढ-चढ्कर है. ये सब कुछ जानते है, सचमुच आश्चर्यजनक सूक्ष्मता- के साथ छोटे-से-छोटे विचार, क्रिया या तर्कको तुम्हारे विरुद्ध तैनात करने- मे बड़े माहिर है ये । उनसे कुछ भी नहीं चूकता । किन्तु जो बात इनपर शत्रुताका. रंग चढ़ाती है वह यह है कि ये सबसे पहले और सबसे बढ़कर पराजयवादी है । ये चित्रको सदा अंधकारमय बनाकर तुम्हारे सामने रखते है, और जरूरत पड़े तो तुम्हारे अपने अभिप्रायोंको भी विकृत कर देते है, ये सचमुच निष्कपटताके सच्चे यंत्र है । पर जान-बूझकर ये एक चीज भूल जाते है, किसी चीजको बहुत दूर, पीछे छोड़ आते हैं मानों उसका कोई अस्गिव ही नही : वह है भागवत कृपा । ये प्रार्थनाओंको मी भूल जाते है, वह स्वतःस्फूर्त्त प्रार्थना जो एकाएक हदयके तलसे एक आकुल पुकार बनकर उठती है और 'कृपाको उतार लाती है और चीजोंकी धारा- को बदल देती है ।
और हर बार जब तुम कुछ प्रगति करते हो, एक नये उच्च स्तरपर पहुंचते हों, वे फिरसे तुम्हारे पिछले जीवनके सारे कार्य-कलाप तुम्हारे सामने रख देते है और कुछ महीनों, कुछ घंटों या कुछ मिनटोंमें उस उच्च स्तरपर पुनः तुम्हें उन सब परीक्षाओंमेंसे गुजारते है । और विचारको परे हटाना ओर यह कहना. ''ओह,! मैं जानता हू,'' और आंखोपर परदा डाल लेना ताकि कुछ दिखायी न दे, काफी रहीं है । उसका सामना करना होगा, उसे जीतना होगा, अपनी चेतनाको ज्योतिसे परिपूरित, निष्कंप, बिना कुछ बोले शरीरके कोषाणुओंको नि:स्पन्द रखना होगा -- ओर तब आक्रमण विलीन हो जाता है ।
लेकिन हमारी ''शुभ और अशुभ' की धारणाएं कितनी उपहासजनक है । हमारी मान्यताएं कि कौन-सी चीज भगवानके नजदीक है और कौन-सी चीज भगवान्से दूर, कैसी हास्यास्पद है । उस दिन, ३ फरवरीकी अनुभूति मेरे लिये आंख खोलनेवाली घटन।. थी । मैं उसमेंसे बिलकुल बदली हुई निकली । एकाएक बहुत सारी बीती बातें, कर्म, अपने जीवनके वे पक्ष जो अबतक अबोध्य थे, मेरी समझमे आ गये । -- सचमुच, एक बिन्दुसे दूसरे बिन्दुतक जानेकी छोटी-सें-छोटी राह सीधी रेखा नहीं है जैसा कि लोग कल्पना करते है ।
और जितनी देर वह अनुभूति रही, करीब एक घंटा -- उस समयका तुक घटा भी बहुत लम्बा होता है --, मैं एक निराली आनन्दपूर्ण अवस्था- मे थी, लगभग मदहोशीकी अवस्थामें... । दोनों चेतनाओंमें आपसमें इतना अन्तर है कि जब तुम उनमेंसे एकमें हाते हों तो दूसरी झूठी लगती है,
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सपने-जैसी, मैं जब लौटी तब सबसे पहले जो चीज मुझे खली वह थी यहांके जीवनकी निस्सारता । यहांकी क्षुद्र धारणाएं कितनी हास्यास्पद और बेतुकी लगती है... । हम कुछ लोगोंके बारेमें कहते है कि वे पागल हैं, पर अतिमानसिक दृष्टिकोणसे उनका पागलपन शायद महान् प्रज्ञा हो, और शायद उनका आचरण सच्चाईके ज्यादा करीब हो -- मैं उन अभागे पागलोंकी बात नहीं कर रही जिनके दिमागको कोई चोट पहुंची है, पर अन्य बहुत सारे अबोध पागलोंकी, आलोकित पागलोंकी बात कर रही हू : वे बहुत जल्दी सीमा पार कर जाना चाहते थे, पर बाकी सबने साथ नही दिया ।
जब हम अतिमानसिक चेतनासे इस मानव जगत्को देखते है तो उसकी प्रधान विशेषता होती है अजनबीपन और बनावटीपनकी भावना -- एक बेतुकी दुनिया, क्योंकि वह बनावटी होती है । यह जगत् इसलिये मिथ्या है क्योंकि उसका भौतिक रूपरंग वस्तुओंकी गहरी सच्चाईको बिलकुल ही प्रकट नहीं करता । जो अन्दर है और जो दिखायी देता है उनमें कुछ अव्यवस्था-सी है । इस तरह, एक आदमी जिसकी गहराइयोंमें दैवी शक्ति है, बाहरी स्तरपर अपने-आपको गुलामकी स्थितिमें पा सकता है । यह बेहूदगी है! दूसरी ओर अतिमानसिक जगत्में इच्छा-शक्ति सीधे-सीधे पदार्थपर कार्य करती है, और पदार्थ उस इच्छा-शक्तिका आज्ञाकारी होता है । तुम अपने-आपको ढकना चाहते हों : वह तत्व जिसमें तुम रहते हों तुम्हें ढकनेके लिये तुरत पोशाकका रूप धारण कर लेता है । तुम एक जगहसे दूसरी जगह जाना चाहते हो : बिना किसी वाहन या किसी तरहके कृत्रिम उपकरणके तुम्हें, यहांसे वहां पहुंचा देनेके लिये तुम्हारी इच्छा ही काफी होती है । अतः मेरी अनुभूतिके जहाजको चलानेके लिये किसी कल- पुर्जेकी जरूरत नहीं हुई, वह इच्छा ही थी जिसने पदार्थको आवश्यकतानुसार बदल दिया था । जब उतरनेका समय आया तो तट मी अपने-आप बन गया । जब मैंने दलोंके उतारना चाहा तो जिन्हें उतरना था वे मेरे एक शब्द कहें बिना स्वयं जान गये और वे अपने क्रममें आ गयें । चुपचाप सब कुछ होता यश, वहां अपनी बात समझानेके लिये कुछ कहनेकी जरूरत हीं नहीं पडी; परंतु जहाजकी नीरवतामें कृत्रिमताकी वह छाप नहीं थी जो यहां हुआ करती है । यहां जब तुम मौन रहना चाहते हो तब तुम्हें चुप रहना पड़ता है; यहां नीरवता शब्दके विपरीत है । वहां नीरवता थी गुंजायमान, जीवंत, सक्रिय, व्यापक और बोधगम्य ।
यहां विसंगति उन सब बनावटी साधनोंसे आती है जिनका सहारा लेना पड़ता है । किसी मी मूर्खको अधिक शक्ति प्राप्त हो सकती है यदि उसके
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पास आवश्यक चतुर साधन प्राप्त करनेके तरीके हों । लेकिन अति- मानसिक लोकमें व्यक्ति जितना अधिक सचेत होगा और चीजोंकी सच्चाई- के साय जितना अधिक एकलय होगा उस पदार्थपर उसकी इच्छा-शक्ति- का अधिकार भी उतना ही अधिक होगा । यही अधिकार सच्चा अधि- कार है । यदि तुम परिधान चाहते हों तो उसे बनानेके लिये तुममें क्षमता, सच्ची क्षमता होनी चाहिये । यदि तुममें वह क्षमता नहीं है तो फिर तुम नंगे रहो । वहां एक भी ऐसा उपकरण नहीं जो इस क्षमताका स्थान लें सकें । यहां लाखों-करोड़ोमे एक भी ऐसा प्रभुत्व नहीं जो किसी सच्च1ई चीजकी अभिव्यक्ति हो । सब कुछ घोर मूर्खतापूर्ण है ।
जब मैं फिरसे नीचे उतर आयी -- ''नीचे उतर आयी'' यह ते। कहने- का ढंग है, क्योंकि यह न ता ऊपर है, न नीचे. न भीतर, न बाहर, वह... कही है, -- मुझे स्वयंको फिरसे संभालनेमें कुछ समय लगा । मुझे यह मी याद है कि मैंने किसीसे कुछ कहा था : ''अब हम पुन: अपनी अम्यस्त मूर्खतामें गिरने जा रहे हैं ।'' किंतु बहुत-सी बातें मेरी समझमें आ गयी है और मैं वहांसे निर्णायक शक्ति लेकर लौटी हू । अब मैं जानती हू कि यहां इस धरतीपर वस्तुओंके मूल्यांकनके हमारे तरीकेके साथ और हमारी तुच्छ नैतिकताके साथ अतिमानसिक जगत् के मूल्यांकनका कोई मेल नहीं ।
यहांकी ऊपरी चीजों नाटकीय नहीं । ये मुझे अधिकाधिक साबुनके बुलबुले जैसी लगने लगी है, खासकर ३ फरवरीसे ।
ऐसे लोग है जो निराशामें, अंसूमरे उस अवस्थामें आते है जिसे वे भीषण नैतिक यातना कहते है, जब मैं उन्हें यूं देरवती हूं ता- अपनी चेतनाकी, जो तुम सबको अपनेमें समाये है, एक सुईको जरा-सा घूमा देती हूं, और जब वे वापस चले जाते है तो अपने-आपको बिलकुल स्वस्थ पाते हैं । यह सुई ठीक कम्पासकी सुईकी तरह है. अपनी चेतना- मे तुम उसे घुमाभर दें'। और सब कुछ समाप्त । स्वभावत: वह बादमें अम्यासवश दुबारा आ जाता है । ये साबुनके बुलबुलोंके सिवा और कुछ नहीं ।
मैंने मी यातनाओंको जाना है, लेकिन मेरे अंदर हमेशा एक ऐसी चीज रहती थी जो तटस्थ होकर पीछे रहना जानती थी ।
इस दुनियामें केवल एक ही चीज है जो मुझे अभीतक असह्य लगती
है, वह है भौतिक विकृति, शारीरिक दुःख-दर्द, कुरूपता. प्रत्येक सत्तामें निहित सौदर्यकी संभावनाको अभिव्यक्त करनेकी अक्षमता । पर एक दिन इसपर भी विजय प्राप्त की जायगी । वहां भी, एक दिन वह शक्ति आयेगी जो सुईको जरा-सा घूमा देगी । हमें सिर्फ चेतनामें और ऊपर उठना होगा! जड़-पदार्थमें जितनी ही गहराईमें उतरना चाहो उतना ही चेतनामें ऊपर उठना आवश्यक होगा । इसमें कुछ समय लगेगा । निःसंदेह श्रीअरविदने ठीक ही कहा है कि इस कार्यमें कुछ शताब्दियां अंग जायंगी ।
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२६ फरवरी, १९५८
मधुर मां, आपने हमें कई बार सूर्यकी शक्तियोंके बारेमें बताया है, लेकिन चन्द्रमा या तारोंफे बारेमें कभी कुछ नहीं कहा?
किस दृष्टिकोणसे? प्रतीकात्मक दृष्टिकोणसे?
हां, मां ।
यह निर्भर है संप्रदायोंपर, यह निर्भर है कालपर, यह निर्भर है देशोंपर ... । आम तौरसे चन्द्रमा आध्यात्मिक शक्ति, आध्यात्मिक प्रगति, आध्यात्मिक अभीप्सासे संवर्धित होता है ।
बढ़ता चन्द्रमा रूपांन्तरके लिये आध्यात्मिक अभीप्साका प्रतीक माना जाता था, और आध्यात्मिक परिपूर्णताका प्रतीक था पूनमका चांद । चांदनी सदा ही अन्तर्दर्शनों, काव्यमयी प्रेरणाओं और पार्थिव लोकसे परेके क्रिया- कलापके त्दिये बड़ी अनुकूल मानी जाती रही है । तरह-तरहके किस्से- कहानियां और किबदंतियां इन तारोंके बारेमें प्रचलित है -- वे तारे जो किसी दिव्य पुरुषके जन्मदिनपर उगते है... पर यह सब काफी हदतक साहित्यिक प्रतीक है ।
यह विश्वास काफी व्यापक है कि मनुष्यके भाग्यपर तारोंका विशेष प्रभाव पड़ता है । यहांतक कि एक पूरा शास्त्र ही इसपर खड़ा हो गया है और आकाशमें तारोंकी विभिन्न स्थितियोंके आधारपर वह लगभग पूरी भविष्यवाणी कर देता है कि किसीके: जीवनमें क्या घटनेवाला है ।
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जब हम चिन्तनकी प्रारंभिक अवस्थामें होते है तो हम यह अर्थ लगाते है कि तारोंका हमारे जीवनपर प्रभाव होता है... यह सोचना ज्यादा तर्क- संगत और ठीक लगता है कि यह मनुष्यके भाग्यकी एक स्वर-लिपि या अभिलेख है, क्योंकि, विश्व-ऐक्यमें सब कुछ एक साथ चलता- है, और यदि तुम्हें व्यक्ति और विश्वके आपसी सम्बन्धोंको पढ़ना आता हों तो तुम्हें वैश्व नक्षत्रोंकी स्थितिमें एक-न-एकके जीवनके'। प्रतीक-रूपसे दर्शाता हुआ ग्राफ़-सा मिलेगा ।
अनुभव प्रमाणित करता है कि यह अंकन, जिसे फलित-ज्योतिषमें जन्म- कुण्डली कहते है, कोई निर्णायक चीज नहीं और न ही यह नियति अनिवार्य है, क्योंकि जब कोई योग करनेका और आध्यात्मिक विकास करने- का निश्चय करता है तो वह जन्मकुण्डलीके अटल विधानसे बच निकलता है । यह भौतिक स्तरपर वैश्व और वैयक्तिक जीवनके बीचके सम्बन्धका एक तरहका अंकन होगा और चेतनाके भौतिक स्तरमें चेतनाके उच्चतर स्तरके समावेशसे ये सम्बन्ध बदल मी सकते है ।
इन सबको हम अर्ध-ज्ञानकी संज्ञा दे सकते है जो वैश्व सत्ता और वैयक्तिक सत्ताकी अन्योन्याश्रित कड़को पकड़नेकी एक प्रकारकी अविकसित चेष्टा है । और ये सारी चीजों भाषाओं-भर है जो कुछ कच्चे ज्ञानोंको निश्चित रूप देनेमें सहायक होती है । ये संपूर्ण नियम या निर्विवाद तथ्य नही है । वस्तुओंको यथातथ रूपमें समझनेके लिये ये प्रयास है, प्रयत्न है, पर हैं काफी अधूरे, कुछ लोंगोंके लिये इनमें आकर्षण हो सकता है, पर आरिवर ये वस्तुओंके सत्यके लिये स्थूल प्रवेश जैसे ही है ।
यदि कोई मानसिक मानवीय ज्ञानकी पर्याप्त गहराईमें जाय तो वह अनु- भव करेगा कि बाह्य रूपसे प्राप्त मानसिक चेतनाका यह शान एक काफी जटिल भाषासे बढ़कर शायद ही कुछ हो । यह हमें एक-दूसरेको समझने- के किये तो समर्थ बनाती है, परन्तु वस्तुओंके सत्यके साथ इसका नाता दूरका ही होता है ।
तादात्म्यके द्वारा एक सीधा मार्ग है जो बहुत अधिक प्रभावशाली है, कह सकते है कि वह तुम्हारी अंगुलीको, समूचे यंत्रको वस्तुओंकी कुंजीपर रख देता है, एक सीधी, सरल कुंजी जिसे अपने-आपको व्यक्त करनेके लिये किसी दुरूह ज्ञानकी आवश्यकता नहीं, ऐसा कुछ जो चेतना और संकल्प- की गतिविधियोंसे मेल रचाता है, जिसे अपने-आपको व्यक्त करनेके लिये सारी मानसिक: उलझनोंकी जरूरत नहीं पड़ती । तब अपन) सर्वांग संपूर्णता- के साय वैश्व यथार्थता प्रतीक बन जाती है जिसे उसके सार तत्त्वमें प्रत्यक्ष देखा जा सकता है ।
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५ मार्च, १९५८
मां, क्या आप ''प्रत्यावर्तन'' के बारेमें हमें कुछ बतायेंगी जिसकी बात आप पहले भी कई बार कह चुकी हैं? आपने कहा था कि नयी चेतनाको पानेके लिये प्रत्यावर्तन आवश्यक है ।
प्रत्यावर्तन?
अब हमें किस तरहके प्रत्यावर्तनकी जरूरत है? आपने कहा था ''चेतनाका प्रत्यावर्तन ।',
यह तो कहनेका एक तरीका है । इसका यह मतलब नहीं कि तुम सिर नीचे और पांव ऊपर करके चलने लगो!... यह तो एक रूपक है ।
हां, मां, श्रीअरविन्दने भी कहा है,' तब...
'''सामल्य पाशव सत्तासे मानव स्वभावकी सत्तामें परिवर्तनकी आवश्यक शर्त होगी दैहिक गठनका विकास; यह विकास एक तेज प्रगतिकी, चेतनाके प्रत्यावर्तन या पलटावकी, एक नयी उच्चतापर पहुंचने और वहांसे निचली भूमिकाओंपर नजर डालनेकी सामर्थ्य प्रदान करेगा; यह सामर्थ्यको इतना ऊंचा ओर विशाल बना देगा कि जो प्राणीको यह क्षमता देगा जिससे वह पुरानी पाशविक शक्तियोंपर अधिक विशाल एवं अधिक नमनशील बुद्धि, अर्थात्, मानव बुद्धिके द्वारा अधिकार करके उनपर क्रिया करेगा और इसके साथ-ही-साथ या पीछेसे प्राणीके नये प्ररूपके उपयुक्त अधिक महान् ओर सूक्ष्मतर शक्तियोंको -- जैसे कि तर्क करने, चिन्तन करने, जटिल प्रेक्षण करने, संगठित आविष्कार करने, विचार और खोज करनेकी शक्ति- को -- विकसित कर सकेगा... ऐसा पलटाव प्रकृतिके प्रत्येक आमूत्न संक्रमणमें हुआ है; अतः जडू-तत्वसे उन्मज्जित होती हुई 'प्राण-शक्ति' 'जडतत्वकी ओर मुड़ती है, भौतिक ऊर्जाकी क्रियाओंपर प्राणिक अन्तःसत्ता आरोपित करती है, इसके साथ-साथ वह अपनी निजी नवीन गति-प्रवृत्तियों एवं क्रियाओंको भी विकसित करती है; फिर 'प्राण-शक्ति' और 'जडू-तत्व' में प्राणिक मन उन्मज्जित होता है और अपनी चेतनाके अन्तस्तत्वको उनकी क्रियाओंपर आरोपित करता है, और इसके साथ-साथ अपनी त्रिया
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यदि रूपक तुम्हें किसी प्रत्यक्ष ज्ञानकी ओर ले जाता है तो अच्छी बात है, पर तुम इसके द्वारा नहीं (श्रीमां सिरकी तरफ इंगित करती है) समझ सकते । यदि यह तुमपर ऐसी छाप छोड़ता हो जो उन चीजोंकी व्याख्या करती हों या उन्हें अच्छी तरह समझा सकती हों तो यह बड़ी अच्छी बात है, पर; उन्हें न तो शब्दोंकी भरमारसे और न मस्तिष्कसे ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है ।
चीजोंके। बिलकुल अलग ढंगसे देखनेपर जिस तरहका संवेदन होता है -- उसे प्रत्यावर्तन कहते है । यह जैसे... हमेशा उसकी तुलना समपार्श्वता या प्रिज़मसे की जाती है : जब तुम उसे एक तरफसे देखो तो प्रकाश श्वेत होता है, और यदि तुम उसे उलटा कर देखो ता- वह सब तरहके रंगोंमें बिखर जाता है । यह कु-छ ऐसी ही चीज है ।
शब्दोंका माल और उनकी उपयोगिता तब है जब, किसी विशेष कृपा- वश, वे उस 'सद्वस्तुके साथ तुम्हारा संपर्क करा दें, अपने-आपमें उनका कोई मूल्य नही ।
वस्तुतः, आदर्श अवस्था (जिसे अभीतक कुछ व्यक्ति अंशत: उपलब्ध कर चुके है) तो है सारभूत विचारको, और उसे भी जो विचारके परे है एक अवस्था -- चेतनाकी अवस्था, ज्ञानकी अवस्था, प्रबोधकी अवस्था --उसे सीधा, स्पन्दनद्वारा भेजना । जब तुम सोचते हों तो तुम्हारा मान- सिक तत्व, तुम्हारे विचारको तुम्हारी चेतना जो रूप देती है उसके अनुसार, अमुक ढंगसे स्पन्दित होता है; और यदि इनका सुरमेल अच्छी तरह बिठाया गया हो तो यही स्पन्दन दूसरेके मनद्वारा ग्रहण किया जाना चाहिये ।
मूलत. शब्द केवल अन्य चेतना या अन्य चेतनाके केन्द्रको आकर्षित करने- के साधन हैं, ताकि वह स्प-दनके प्रति एकाग्र हो सकें और उसे ग्रहण कर सके, पर यदि वह एकाग्र नहीं है और उसमें अपेक्षाकृत नीरवतामें ग्रहण करनेकी क्षमता नहीं है तो तुम चाहे मीलों शब्द उचेलते जाओ, फिर भी अपने-आपको रत्ती भर भी न समझा पाओगे । और एक क्षण ऐसा भी होता है जब अपने कुछ- स्पन्दनोंके निस्सरणमें अति सक्रिय मस्तिष्क स्पष्ट और सुनिश्चित स्पन्दन ही पकडू सकता है, अन्यथा उलझन और अनिश्चितताका धूमिल मिश्रण-सा रहता है, पोली, धुंधली, उलझी हुई राशि-
और क्षमताएं भी विकसित करता है, एक नया महत्तर उन्मज्जन और प्रत्यावर्तन, अर्थात्, मानवताका उन्मज्जन प्रकृतिकी पूर्व घटनाओंके अनुरूप है; यह उसी व्यापक नियमका नवीन प्रयोग होगा ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ ० ८३८-३१)
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का-सा आभास देता है, कोई विचार नहीं उभारता । तब, कोई बोलता' है तो आवाज साफ-साफ सुनायी पड़ती है, लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ता -- यह आवा जकी बात नहीं है, यह तो स्पन्दनोंमें सुनिश्चितताकी बात है ।
यदि तुम अपना विचार ठीक-ठीक निकाल सकें ।, यदि यह तुम्हारी चेतनासे निकला सजीव ओर सचेतन विचार हों और दूसरी चेतनासे मिलने जा रहा हो, या यूं कहें, यदि तुम्हें पता हों कि तुम क्या कहना चाहते हे तो यह उस सुनिश्चितताके साथ आता है, उसके अनुकूल स्पन्दन जगाता है और उसके अनुरूप स्पन्दनके साथ आता है विचार या चिन्तन या चेतना- की अवस्था और तब हम ए क-दूसरेको समझ सकते है ' पर यदि जे कुछ विस्तृत हुआ है वह उलझा हूं।. और अयथार्थ है, यदि तुम्हें अच्छी तरह मालूम नहीं कि तुम क्या कह ना च। हतेहो, यदि तुम अ (प ही समझने की चेष्टा कर रहे हो कि तुम क्या कहना चाहते हो, ओर दूसरी तरफ यदी श्रोता सुनने के लिये यथेष्ट जागरूक नहो है या वह कही और व्यस्त और क्रियाशील है तो तुम चाहे घंटों बोलते जाओ, वह तुम्हें बिलकुल नही समश्नेगा ।
औ र वस्तुत : अकसर यही होता है । तुमने दूसरोंतक जो कुछ भें जने की चेष्टा' की उसके परिणामको यदि तुम उनकी चेतनामें देख सको ते 1 तुम्हें हमेशा यह लगता है... तुम्हें मालूम है विकृत करने वाले आईने क्या होते हैं? क्या तुमने कमी नहीं देखे विकृत करने वाले आईने? वे आईने जिनमें तुम आइ धक लम्बे दिखायी देते हों या अधिक मोटे, जो एक अंगको बड़ा करके दिखाते हैं, दूसरेको छोटा, सचमुच तुम अपने सामने अपना ही भद्दा कार्टून देखते हों -- ह ?, बिलकुल यही होता है; जो कु छ तुमने कहा है, दूसरेकी चेतनामें उसका काफी विकृत कार्टून देखते हो । और आदमी मान बैठता है कि उसकी बात समझ ली गयी है क्योंकि शब्दोंकी आवाज सुन ली गयी है लेकिन वहां कुछ भी सच रित नहीं हुआ ।
अत : यदि तुम मानसिक तत्वपर जरा-सा मी प्रभाव डालना चाहो ते। पहली बात यह सीखो कि स्पष्ट रूपमें कैसे सोचा जाय, शब्दपर आश्रित मौखिक विचार नहीं, वरन् ऐ सा बीच जिसे शब्दोंकी जरूरत न हों, जो शब्दोंसे परे अपने -आपमें समझा जा सकें, जो तथ्यके साथ मेल खाता हो, चेतनाकी एक अवस्थाके तथ्य, या ज्ञानके तथ्यके साथ । शब्दोंके बिना सोचने की जरा कोशिश करो, तब पता लगे गा कि तुम कितने पानी- मे हो ।
क्या तुमने कमी ऐ सी कोशिश नहीं की? की? अच्छा कर देखो ।
जो बात तुम दूसरोंतक पहुंचाना चाहते हों उसकी तुम्हें बहुत स्पष्ट
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और सुनिश्चित समझ होती है - यह एक विशेष तरीकेसे स्पन्दित होती है, उसमें मानसिक तत्त्वको एक रूप देनेकी सामर्थ्य होती है । और फिर, इसके बाद, आदमीकी मानवी आदतोंकी सुविधाके लिये चेतनाके स्पन्दनको शाब्दिक रूप देनेकी कोशिशमें तुम इसके इर्द-गिर्द बहुत-से शब्द सजाने लगते हो वहां, बहुत नीचे) । लेकिन यह शाब्दिक रूप बिलकुल गौण है । यह तो चिन्तन-शक्तिके परिधान जैसा है, और वह भी घटिया परिधान ।
बह क्या है जो शब्द जुटाता है?
ओह! नही । ठीक ढंगसे सोचो । मैं. तुम्हारी बात नही समझी । यह कच्ची रूईके रोओंकी तरह आ रही है ओर मेरे लिये निरर्थक है ।
मुझे लगता है कि विचार बननेसे पहले ही शब्द निकल आता ह ।
बिलकुल ठीक!
इस चिन्तन-शक्तिका उदाहरण है, जैसा कि पुराने जमानेमें कहा जाता था, भाषाओंकी देन । और यह तथ्य है कि यह घटना निश्चित रूपसे घटी है और अब भी घट सकती है । तुम शब्दोंके बिना, -- स्पष्ट अन्तर्दृष्टि. के साथ ओर इस अन्तर्दृष्टिको दूसरोंतक भेजनेकी शक्तिके साथ, चेतनाके इस व्यापारके साथ जिसका संचारण हों सकता है -- सोचते हों (जिसे मैं सोचना कहती हू उस तरह सोचते हों); अब, चाहे तुम बहुत-से लोगों- के बीचमें हों या थोड़े-से, लेकिन ऐसे जो अलग-अलग भाषाओं बोलते है और किसी विशेष भाषामें ही सोचनेके आदी है क्योंकि उनका लालन-पालन उसी तरह हुआ है । लेकिन तुम चीजोंकी अपनी अन्तर्दृष्टिके, अपनी समझ और अपने अनुभवके स्पन्दन फेंकते हो । लोगोंका ध्यान खींचनेके लिये कुछ शब्द बोलते हो -- चाहे जिस भाषामें, जिससे तुम सर्वाधिक परिचित हो, इसका कुछ महत्व नहीं -- लेकिन तुम्हारी अन्तर्दृष्टि और प्रक्षेपण इतने यथार्थ है कि सीधे दूसरोंके दिमागमें उनकी अपनी भाषामें अनृदित हों जाते हैं । बाह्य तथ्यके अनुसार तो तुम फ्रेंच या अंग्रेजीमें बोल रहे हो, पर हर एक अपनी भाषामें समझता है । लोग सोचते है कि यह दन्त- कथा है - यह दन्तकथा नहीं है । यह बात आसानीसे समझमें आने- वाली चीज है, यह उस क्षेत्रमें प्रवेश करनेपर लगभग प्रारंभिक बात है
जिसे मैं चिन्तनका क्षेत्र कहती हू । ध्यान रखो, मैं अतिमानसिक चीजों- की बात नहीं कर रही, यह अतिमानसिक शक्ति नहीं है, यह तो सिर्फ चिन्तनका सच्चा क्षेत्र है । यानी, तुम सोचना आरंभ करते हो ।
और यदि तुम जिन लोगोंके साथ हों वे भी सोचते हैं तो यह सारा व्यापार अपने-आप हों जायगा, लेकिन ऐसे लोग बहुत ही कम है जो सचमुच सोचते हैं । ' पर जब वे पर्याप्त शक्तिके साथ सोचते है तो इससे निरे उपरितलीय ओर यथातथ बोधमें होनेवाले अवरोध दूर हों जाने है । यह इस प्रकार ऊपर उठती है (अर्ध चन्द्रसे आकारका सकेत), बोधके उच्चतर क्षेत्र. में जाती है, और तब, हर एकमें, उसकी माराके प्रान्तमें जा गिरती है । और हर एक अपने-अपने अनुभवकी सच्चाईके बलपर कहता है. ''ओह! यह आदमी इस भाषामें बोल रहा है,'' दूसर। कहता है : ''क्षमा करना, वह तो यह बोल रहा है! '' और तीसरा कहता है : ''नहीं, नहीं, वह तो कोई और ही भाषा बोल रहा है''.. । ओर वास्तवमें हर एक सच कह रहा है; शायद वह उनमेंसे कोई भी भाषा नहीं बोल रहा, वही मापा बोल रहा है जो वह हमेशा व्यवहारमें लाता रहा है -- एक या दो और ... लेकिन यह ऐसे ही होता है, यह ऐसे ऊपर उठती है (वही मुद्रा) और फिर गिरती है... रेडियो-तरगोंकी तरह ।
ते। अब, हम चेष्टा करनेवाले है । मैं तुम्हें कुछ बतानेवाली हू, देखे, तुम कुछ समझते हो कि नहीं ।
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१२ मार्च, १९५८
''चेतनाकी ओरसे नवीन अभिव्यक्तिकी, अर्थात्, मानव अभिव्यक्ति- की यह व्याख्या दी जा सकती है कि यह वैश्व प्रकृतिमें अंतर्लीन हुई छिपी 'चेतनाका उभार है । परंतु ऐसी दशामें उस चेतनाके उन्मज्जनका वाहन होनेके लिये कोई भौतिक आकार पहलेसे ही विद्यमान रहना चाहिये, वह वाहन स्वयं उन्मज्जनकी शक्तिके द्वारा नवीन आंतरिक सृष्टिकी आवश्यकताओंके अनु- कूल बना दिया गया होगा । अथवा फिर यह हो सकता है कि
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पहलेके भौतिक प्ररूपों था प्रतिमानोंसे तेजीसे दूर हटनेकी किया- ने नवीन प्राणीको जन्म दिया होगा । परंतु चाहे जिस किसी परिकल्पनाको क्यों न स्वीकार किया जाय, इसका अर्थ होता है वैकासिक प्रक्यिा, - भेद है केवल अपसरण था संक्रमणकी विधि एवं यंत्रावलीमें । अथवा, इसके विपरीत, यह हों सकता है कि नीचेसे चेतनाका उभार न होकर, हमसे ऊपरके मनोमय स्तरसे 'मन'का अवतरण, संभवत: अंतरात्मा या मनोमय पुरुषका पार्थिव प्रकृतिमें अवतरण हुआ हो । ऐसी दशामें यह कठिनाई उपस्थित होती है कि मानव शरीर कैसे प्रकट हुआ, क्योंकि यह अत्यधिक जटिल एवं दुःसाध्य अंग सहसा बना या अभिव्यक्त हो गया होगा यह कल्पना करना कठिन है; कारण, प्रकियामें ऐसी आश्चर्यजनक द्रुत गति, यद्यपि सत्ताके अतिभौतिक स्तरोंपर सर्वथा संभव हो सकती है, पर भौतिक 'ऊर्जा' की सामान्य संभावनाओं या शक्यताओंमें संभव प्रतीत नहीं होती । यहां वह तभी घट सकती है जब कोई अतिभौतिक शक्ति या प्रकृतिका कोई नियम हस्तक्षेप करे अथवा स्रष्टा 'मन पूर्ण शक्तिके साथ और साक्षात् 'जड़-तत्त्व' पर क्यिा करे । अतिभौतिक' शक्ति' और स्रष्टाकी क्यिाको 'जडू-तत्व'- मे होनेवाले प्रत्येक नवीन आविर्भावमें स्वीकार किया जा सकता है; प्रत्येक ऐसा आविर्भाव वस्तुत: ऐसा चमत्कार है जो एक ऐसी गुप्त 'चेतना' के द्वारा घटित किया जाता है जिसे छिपी हुई 'मन ऊर्जा' या 'प्राणिक ऊर्जाका अवलंब प्राप्त है; परंतु यह क्रिया कहीं भी साक्षात्, स्पष्ट, स्वयं-पर्याप्त दिखायी नहीं देती; यह सर्वदा पहलेसे ही तैयार हुए भौतिक आधार (शरीर) पर अध्यारोपित की जाती है और प्रकृतिकी किसी प्रतिष्ठित पद्धतिके विस्तारके द्वारा कार्य करती है । यह अधिक मनोगम्य है कि किसी पहलेसे विद्यमान शरीरमें अतिभौतिक अन्त:स्रवणके प्रति उन्मीलन था जिससे कि बह नवीन शरीरमें रूपांतरित हो गया; परंतु भौतिक प्रकृतिके अतीत इतिहासमें ऐसी कोई घटना घटी हो इसे सरलतासे नहीं माना जा सकता; ऐसी घटना होनेके लिये यह आवश्यकता प्रतीत होती है कि किसी अदृश्य मनोमय पुरुषने किसी ऐसे शरीरके निर्माणमें हस्तक्षेप किया हो जिसमें बह निवास करना चाहता था; अथवा फिर, यह हो सकता है कि स्वयं 'जडतत्त्व'मेंसे ही किसी ऐसे मनो- मय पुरुषका पहले ही विकास हो गया था जो अतिभौतिक शक्ति- को ग्रहण करने और उसे अपनी भौतिक सत्ता (शरीर) के कठोर
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एवं संकीर्ण नियमोंपर आरोपित करनेमें पहलेसे ही समर्थ था । अन्यथा हमें यह मानना पड़ेगा कि कोई ऐसा शरीर अस्तित्वमें आ चुका था जो पहलेसे ही इतना अधिक विकसित था कि वह एक विशाल मानस अन्त:स्रवणके ग्रहण करनेमें उपयुक्त था अथवा अपनेमें मनोमय पुरुषके अवतरणके प्रति मननशील अनु- क्यिा करनेमें समर्थ था । परंतु ऐसा होनेके लिये यह मानना होगा कि शरीरमें मनका पहले ही उस विकास हो गया था जंहापर कि ऐसी ग्रहणशीलता संभव है । यह सर्वथा बुद्धि- गम्य है कि नीचेसे ऐसे विकास और ऊपरसे ऐसे अवतरणने पार्थिव प्रकृतिमें मनुष्यके आविर्भावमें सहयोग दिया हो । संभव है पशुमें पहलेसे ही विद्यमान अंतर्भूत चैत्य-तत्वने स्वयं मनोमय पुरुषको सप्राण 'जडू-तत्त्व'को क्षेत्रमें अवतरण करनेके लिये इस उद्देश्यसे आह्वान किया हो कि वह पहलेसे ही क्रिया करनेवाली प्राणिक-मानस ऊर्जाको ग्रहण करके उच्चतर मनमें ऊपर उठा ले । परंतु फिर भी यह विकासकी ही एक प्रक्रिया होगी, ऐसी प्रक्यिा कि जिसके अनुसार उच्चतर स्तर पार्थिव प्रकृतिमें पहलेसे ही विद्यमान अपने निजी तत्त्वके प्रकट होने और विशाल होनेमें सहायता देनेके लिये केवल हस्तक्षेप करता है ।''
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८३९-४०)
समस्याकी कठिनाई यह है कि रूपान्तर ओर सृजनकी इस प्रक्रियामें केवल मनोमय सत्ता हीं रुचि ले सकी, ओर पशु-जातिमें मनोमय चेतना इतनी पर्याप्त कही थी कि वह इस प्रक्रियामें रुचि लें सकती ।
पशुओंके पास होनेवाली घटनापर ध्यान देनेका, उससे अवगत होनेका या उसे याद रखनेका कोई साधन नहीं था । और इसीलिये धराके इतिहास- का यह भाग लुप्तप्राय हो गया । इस रूपान्तर-कर्मका अनुसरण कर सकने- के लिये और इसकी याद बनाये रखनेके लिये मनुष्यके जैसी मानसिक क्षमताको हमारे लिये हस्तक्षेप करना चाहिये... । वास्तवमें हम कल्पना ज्यादा करते है, याद कम । यह तो विदित है कि चैत्य पुरुष इस सबमेसे गुजर चुका है, लेकिन उसने इसे मनमें सजाकर नही रखा । चैत्य पुरुषकी स्मृति चैत्य स्मृति है जो बिलकुल दूसरे ढंगकी होती है; मानसिक स्मृतिकी तरह यह ऐतिहासिक नही होती जो घटनाओंका ठीक- ठीक व्योरा रख सकें ।
लेकिन अब, जब कि हम नये रूपांतरकी, नये प्रादुर्भावकी, जैसा कि
यह यहां कहलाता है, देहलीपर खड़े है और मानवीय मानसिक सत्ता और अतिमानसिक सत्ताके बीच रूपांतरकी प्रक्रियामें भाग लेनेवाले है, हम मन- की इस ऐतिहासिक क्षमतासे लाभ उठायेंगे जो घटना-कर्मका अनुसरण करेगी ओर उसे लिपिबद्ध कर लेगी । अतः उस दृष्टिसे मी इस समय जो कुछ प्रत्यक्ष हो रहा है वह धरतीके इतिहासमें एकदम अनूठा है । शायद - बल्कि निश्चयपूर्वक, जब हम रूपांतरकी प्रक्रियाके बिलकुल छोरतक बढ़ते जायेंगे तो हमें सब पिछले रूपांतरोंकी चाबी मिल जायगी; यानी, जब प्रक्रिया दोहरायी जायगी तो जो कुछ हम अब समझना चाह रहे हैं उसे निश्चयताके साथ जान जायेंगे । इस बार यह प्रक्रिया दोहरायी जायगी मानसिक और अतिमानसिक सत्ताके बीच ।
अतः निरीक्षण-शक्तिके एक विशेष विकासके लिये तुम्हें, आमंत्रण है कि यह सब अर्ध-स्वप्तावस्थामें ही न हो जाय, तुम एक नये जीवनमें जागो और तुम्हें, पता भी न चले कि यह सब कैसे हों गया ।
मनुष्यको बहुत चौकस और सजग रहना होगा, और छोटे-छोटे आंतरिक मनोवैज्ञानिक व्यापारोंमें रस लेते रहनेके बजाय, जो कि... बहुत पुराने ढंगके है ओर उस सारे मानव इतिहाससे संबंधित है जो बहरहाल अपनी नवीनता खो चूक। है, उन चीजोकी ओर ज्यादा ध्यान देना बेहतर होगा जो अधिक गुरुता लिये है, अधिक सूक्ष्म है, अधिक निर्वेयक्तिक है, और वे (वास दित्श्चस्पीवाली नयी खोजोंतक लें जायेंगीं ।
बिना पक्षपात या पसन्दके, बिना अहं और आसक्तिके सूक्ष्म बुद्धिकी आंखें खोला और प्रति दिन होनेवाली घटनाओंको देखो ।
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१९ मार्च, ११५८
''इसके बाद, यह भी माना जा सकता है कि शरीरमें चेतना और सत्ताके प्रत्येक प्ररूप या प्रतिमानको, एक बार स्थापित हो जाने- के बाद, उस प्ररूपके धर्मके प्रति, अपनी प्रकृतिके उद्देश्य और नियम (स्वभाव) के प्रति निष्ठावान् रहना होगा । परंतु यह भी भली भांति हो सकता है कि अपने परे जानेके प्रति आवेग मानव प्ररूपके विधानका एक भाग हो और मनुष्यकी आध्यात्मिक शक्तियोंमें सचेतन संक्रमणका साधन भी दिया गया हो;
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मनुष्यमें ऐसी सामर्थ्यका होना उस योजनाका अंग हो सकता है जिसके अनुसार सर्जन करनेवाली 'ऊर्जा'ने उसका निर्माण किया है । यह स्वीकार किया जा सकता है कि मनुष्यने अभीतक मुख्यतया जो कुछ किया है वह अपनी प्रकृतिके घेरेके भीतर, प्रकृतिकी कभी नीचे उतरती और कभी ऊपर उठती सर्पिल गतिमें किया है; उसने सीधी रेखामें प्रगति नहीं की, अपनी अतीत-कालीन प्रकृतिसे कोई निर्विवाद, मूलभूत या आमूल अति- क्रमण नहीं किया है । उसने केवल अपनी सामथ्योंको तीक्ष्ण और सूक्ष्म बनाया है और उनका अधिकाधिक जटिल और लचीला उपयोग किया है । यह कहना भी सत्य नहीं होगा कि जबसे मनुष्य प्रकट हुआ है त्बसे अथवा उसके अर्वाचीन और निश्चित हो सकनेवाली इतिहास-कालमें मानव-प्रगति जैसी कोई वस्तु नहीं हुई; कारण, प्राचीन कालके मनुष्य चाहे जितने महान् क्यों न हों, उनकी उपलब्धियां और रचनाएं चाहे जितनी उत्कृष्ट क्यों न हों, उनकी आध्यात्मिकताकी, बुद्धि या चरित्रकी शक्तियां चाहे जितनी प्रभावशाली क्यों न हों, फिर भी, पीछेके विकास-युगोंमें मनुष्यकी उपलब्धियोंमें, उसकी राजनीति, उसके समाज, जीवन, विज्ञान, तत्त्वज्ञान, कला, साहित्य और हर प्रकार- के ज्ञानमें सूक्ष्मता एवं जटिलताकी अधिकाधिक वृद्धि हुई है, उन- मे ज्ञान और संभावनाका बहुविध विकास हुआ है; यहांतक कि उसके आध्यात्मिक प्रयासमें भी, -- यद्यपि बह आध्यात्मिकताकी शक्तिमें प्राचीनोंकी शक्तिसे कम आश्चर्यजनक रूपसे ऊंचा और कम विशाल रहा है, -- यह बढ्ती हुई सूक्ष्मता, नमनशीलता, गहराइयोंकी थाह और खोजका विस्तार रहे हैं । उच्च प्रकार- की संस्कृतिसे पतन हुए है, एक विशेष प्रकारके रूढ़िवादमें तीक्ष्ण किन्तु कुछ समयके लिये उतार आया है, आध्यात्मिक प्रेरणा बन्द हुई है, प्रकृतिके बर्बर जड़वादमें डुबकियां लगी हैं; किन्तु यह सब सामयिक घटनाएं हैं, अपने निकृष्टतम रूपमें प्रगतिके सर्पिल चक्रका नीचेकी ओर घुमाव है । निः सन्देह, यह प्रगति मानव जातिको अपनेसे परे, मनोमयी सत्ताके अतिक्रमणमें, रूपान्तरमेंसे नहीं ले गयी है । परन्तु इसकी आशा भी नहीं की जा सकती थी; कारण, सत्ता एवं चेतनाके प्ररूपमें वैकासिकी प्रकृतिकी क्रिया पहले उस प्ररूपको ठीक ऐसे सूक्ष्म और बढ्ती हुई जटिलताके द्वारा उसकी अधिकतम सामर्थ्यतक,
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उस समयतक बढ़ाते जाना है जबतक कि वह (प्ररूप) इसके लिये तैयार नहीं हो जाता कि प्रकृति उसके खोलको तोडकर उसे बाहर निकाल दे, वह परिपक्व निर्णायक आविर्भावके लिये, चेतनाके प्रत्यावर्तन, चेतनाके अपनी ओर अभिमुखी होनेके लिये तैयार न हो जाय; यह विकासमें एक नयी भूमिका है । यदि यह मान लिया जाय कि प्रकृतिका अगला कदम है आध्यात्मिक और अतिमानस प्राणी तो मानव जातिमें जो आध्यात्मिकताके प्रति खिंचाव हैं उसे इस बातका संकेत माना जा सकता है कि यह प्रकृतिका अभिप्राय है; यह इस बातका भी चिह्न है कि मनुष्यमें यह सामर्थ्य है कि वह अपनेमें उस संक्रमण- को ला सके अथवा उसके लानेमें प्रकृतिको सहायता दे सके । यदि मानव विकासकी प्रक्रिया यह थी कि पाशवी सत्तामें एक ऐसे प्ररूपका आविर्भाव हो जो कुछ अंशोंमें वानर जातिके सदृश था किन्तु पहले ही से मानवताके तत्त्वोंसे युक्त था, तो मानव सत्तामें ऐसे आध्यात्मिक प्ररूपका आविर्भाव, जो हो तो मनोमय पशु-भावमय मानवताके जैसा, पर उसपर पहलेसे ही आध्यात्मिक अभीप्साकी छाप लगी हो, आध्यात्मिक और अतिमानस सत्ता (प्राणी )के वैकासिक उत्पादनके लिये प्रकृतिकी स्पष्ट प्रक्रिया होगी ।'''
('लाइफ डिवाइन', पृ ० ८४१-४२)
एक चीज बहुत स्पष्ट मालूम होती है, मानवजात इतनी अधिक अति- क्रियाशीलता और व्यापक संत्रासके कारण आम तनाव -- प्रयासमें तनाव, कर्ममें तनाव, यहांतक कि दैनिक जीवनमें तनाव -- की एक खास अवस्था- तक आ पहुंची है कि लगता है मानों पूरा मानव-समूह उस बिन्दुपर आ गया है जहां या तो यह प्रतिरोधसे टूट-फट जाय और एक नयी चेतनामें उमर आये या फिरसे अंधकार और तमस्की खाईमें जा गिरे ।
यह तनाव इतना पूर्ण और व्यापक है कि, स्पष्ट ही, कहीं कुछ-न-कुछ तोड़ना ही पड़ेगा । यह इसी तरह चलता नहीं रह सकता । इसे जड़- पदार्थमें बल, चेतना और शक्तिके नये तत्व अवमिश्रणका निश्चित संकेत माना जा सकता है जो अपने दबावसे ही यह विकट स्थिति उत्पन्न कर रहा है । उन्हीं पुराने साधनोंकी आशा बाहरी तौरपर की जा सकती है जिनका उपयोग प्रकृति उथल-पुथल मचानेके लिये किया करती है; लेकिन एक नया गुण है जिसे सिर्फ श्रेष्ठ वर्गमें ही देखा जा सकता है, पर यह
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श्रेष्ठवर्गमें भी काफी फैला हुआ है -- एक ही बिन्दुपर, दुनियामें एक ही जगहपर केंद्रित नहीं है । दुनियामें सब जगह, सब देशोंमें इसकी विद्यमानताके संकेत मिलते हैं : नया, उच्चतर, उत्तरोत्तर प्रगतिशील समाधान पानेकी प्रबल इच्छा, एक विशालतर, अधिक सर्वतोमुखी पूर्णताकी ओर उठनेका प्रयल ।
अमुक अधिक सामान्य, अधिक व्यापक और शायद अधिक समूहगत विचार मी विकसित हा रहे हैं और जगत्में काम कर रहे है । दा चीजों एक हों रही है : एक अधिक विशाल और अधिक समूचे विनाशकी संभावना, अनर्थकी संभावनाको बेतहाशा बढ़ाता हुआ एक आविष्कार, ऐसा महा विध्वंस जैसा पहले कमी नहीं हुआ; दूसरी ओर, साथ-ही-साथ एक कहीं अधिक उच्च और व्यापक विचारों और संकल्पके प्रयासोंका जन्म, बल्कि आविर्भाव जिनकी सुनायी होनेपर वे अपने साथ पहलेसे अधिक विस्तृत, अधिक विशाल, अधिक सर्वांग और अधिक पूर्ण उपचार लायेंगे ।
अधिकाधिक दिव्य उपलब्धिकी, ऊपर चढ़ते हुए विकासकी, रचनात्मक शक्तियों और अधिकाधिक विनाशकारी, सशक्त रूपसे विध्वंसकारी, एकदमसे बेलगाम, पागल शक्तियोंके बीच संघर्ष और विरोध कही अधिक प्रत्यक्ष और स्पष्ट सबमें दिखायी देता है, यह एक तरहकी दौड या प्रतियोगिता है कि देखें, लक्ष्यतक पहले कौन पहुंचे । ऐसा लगता है कि विरोधी, भगवद्-विरोधी शक्तियां, प्राण जगत्की शक्तियां धरापर उत्तर आयी है, और इसे अपनी कर्म-भूमि बना रही है, साथ-ही-साथ इसपर एक नया जीवन लानेके लिये एक नयी, उच्चतर, अधिक बलशाली आध्यात्मिक शक्ति मी धरापर उतरी है । इससे संघर्ष विकटतर, उग्रतर ओर अधिक दृष्टिगोचर हों उठता है, लेकिन साथ ही अधिक निर्णयात्मक भी लगता है । इसीलिये शील ही समाधान पा जानेकी आशा की जा सकती है ।
एक समय था, बहुत पहलेकी बात नहीं, जब मनुष्यकी आध्यात्मिक अभीप्सा दुनियाकी सब चीजोंसे निर्लिप्त जीवनसे पलायन या ठीक-ठीक कहें तो युद्धसे कतरानेके लिये, संघर्षसे ऊपर उठनेके लिये., सारे प्रयाससे बचनेके लिये नीरव, निष्क्रिय शान्तिकी ओर मुड़ी हुई थी । यह एक आध्यात्मिक शान्ति थी जिसमें सब तनाव, संघर्ष और प्रयासोंकी समाप्तिके साथ-साथ सब तरहके दुःख-कष्ट भी समाप्त हो जाते थे और आध्यात्मिक एवं दिव्य जीवनके लिये इसे ही एकमात्र सच्ची अभिव्यक्ति माना जाता था । इसे ही भागवत कृपा, भागवत सहायता, भागवत हस्तक्षेप समझा जाता था । और अब मी, वेदना, तनाव, अति तनावके इस युगमें भी, सब सहायताओंमें यह परम शान्ति ही सबसे अच्छी तरह ग्रहण की जाती है और स्वागत पाती है । यही वह सुरव है जिसकी मांग की जाती
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है, जिसकी आशा की जाती है, अभीतक अनेकोंके लिये यही भागवत हस्तक्षेप और भागवत कृपाका सच्चा संकेत है ।
वास्तवमें, व्यक्ति चाहें कुछ भी पाना चाहे, उसे आरंभ इस पूर्ण और निर्विकार शान्तिकी स्थापनासे ही करना चाहिये, यही वह आधार है जिस- पर मनुष्यको काम करना है, लेकिन यदि कोई ऐकान्तिक, निजी, अहंजन्य मुक्तिके ही सपने न लेता हो तो वह इसीसे सन्तुष्ट नहीं हो सकता । भाग- वत कृपाका एक दूसरा पहलू भी है - प्रगतिका पहलू, जो सब बाधाओं- पर विजयी होगा, वह पहल जो मानव जातिको नयी उपलठिंधकी ओर आगे बढ़ायेगा, एक नयी दुनियाके द्वार खोल देगा और केवल इने-गिने लोंगोंके लिये ही इस दिव्य उपलब्धिसे लाभ उठाना संभव न बनायेगा, वरन् उनके प्रभाव, दृष्टांत और बलद्वारा शेष मानव जातिके लिये भी एक नयी और अधिक अच्छी अवस्था संभव कर देगा ।
यह भविष्यमें उपलब्धिके मार्गको, उन संभावनाओंको, जो पहले देखी जा चुकी है, खोल देती है, जब मानव जातिका एक पूरा भाग, वह समूचा मांग जो नयी शक्तियोंकी और सचेतन या अचेतन रूपसे खुल गया है, एक उच्चतर, अधिक सामंजस्यमय, पूर्णतर जीवनकी ओर उठाया जायगा... । र्याद व्यक्तिगत रूपान्तर सदा अनुज्ञेय या संभव न हो, तो समूहका एक तरहका उन्नयन, सच्चा सामंजस्य होगा जो नयी व्यवस्था और नये सामंजस्यकी स्थापनाको संभव बना देगा, और अव्यवस्थाकी यातनाओं और वर्तमान संघर्षोको दूर करके उनकी जगह समष्टिके सामंजस्यमय कार्यके लिये व्यवस्था ला देगा ।
जीवनमें मनके हस्तक्षेपसे जो विकार, कुरूपता, और विकृतियोंका पुंज आया है, जिन्होंने दुःख-कष्ट, नैतिक दारिद्र्य एवं कुत्सित और घृणित दुःखोंके पूरे प्रदेशको बढ़ा दिया है, जिसने मनुष्य जीवनके एक पूरे भागको एसा भयावह बना दिया है, उस सारेको अन्य विपरीत साधनोंद्वारा दूर करनेके लिये अन्य परिणाम प्रवृत्त होंगे । सचमुच, उसे दूर होना ही चाहिये । यही वह चीज है जो कई बातोंमें मानव जातिको पशु-जीवनकी सरलता और सब कुछके बावजूद नैसर्गिक सहजता और सामंजस्यकी तुलनामें अनन्तगुना बदतर बनाती है । पशुओंका दुःख-कष्ट कभी मी इतना दयनीय व कुत्सित नहीं होता जितना कि मानव जातिके एक पूरे भागमें जो एकमात्र अ-हंम्लक आवश्यकताओंके काममें लगी मनोवृत्तिद्वारा विकृत हो गया है ।
हमें या तो ऊपर उठना होगा, 'ज्योति' और 'सांमजस्यमें छलांग लगानी होगी, या स्वस्थ और अविकृत पशु-जीवनकी सरलतामें वापिस जा गिरना होगा।
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१९५८ मे, इस वार्तालापके प्रथम प्रकाशनके
समय श्रीमांने नयी शक्तियोंके प्रभावसे
मानव जातिके एक पूरे भागके ''उत्रयन'' के
बारेमें निम्न अंश जोड़ा :
लेकिन जो ऊपर नहीं उठाये जा सकते, जो प्रगति करनेसे इनकार करते है, वे अपने-आप ही मानसिक चेतनाकी क्रिया खो बैठेगे और फिरसे मानवसे निम्नतर स्तरपर उतर आयेंगे ।
मैं तुम्हें अपनी एक अनुभूति सुनाती हू जो तुम्हें, इसे ठीक तरह समझने- मैं सहायता देगी । यह अनुभूति ३ फरवरीकी अतिमानसिक अनुभूतिके कुछ समय बाद हुई थी ओर मैं तब भी उस अवस्थामें थी जब पार्थिव जगत्की चीजों बहुत दूर और बेतुकी मालूम होती थीं । एक दर्शनार्थी दलने मुझसे मेरे पास आनेकी अनुमति मांगी थी और एक शाम वे रवेलके मैदानमें आये । वे धनी थे, यानी, उनके पास जीवन-निर्वाहके लिये जितना चाहिये उससे ज्यादा धन था । उनमें एक महिला थी जो साड़ी पहने थी, वह बड़ी रथुलकाय थी, उसने साड़ी इस तरह लपेट रखी थी कि सारा शरीर छिपा रह सकें । जब उसने मेरा आशीर्वाद पानेके त्ल्यिए झुकना चाहा तो साडीका एक पल्ला खिसक गया और शरीरका एक अंग खुल गया, एक नंगा पेट - एक दीर्घाकार पेट । मुझे काफी धक्का लगा... । ऐसे स्थूलकाय लोग होते हैं जिनमें कुछ घृणास्पद नहीं होता, पर इसमें मैंने सहसा विकृति, और सडांध देखी जिसे वह पेट अपनेमें छिपाये था, वह एक विशाल फोड़े-जैसा था जो लोभ, पाप, कुत्सित रुचि और ओछे चाहको प्रकट करता था, जो घटियापनमें, और सबसे बन्दकर, विकृतिमें ऐसी तृप्ति पाता था जैसी कोई जानवर भी नहीं चाहेगा । मैंने क्षुद्रतम बुभुक्षा- की सेवामें रत पतित, कुत्सित मनकी विकृतिको देखा । तब एकाएक मेरे अन्दरसे एक वैदिक प्रार्थना-सी फूट पडी : ''हे प्रभु, यही है वह जिसे मिटना चाहिये ।''
हम अच्छी तरह समझते है कि भौतिक दुख-दैन्यको, इस दुनियाकी संपत्तियोंके विषम वितरणको बदला जा सकता है, हम आर्थिक और सामाजिक हलकी कल्पना करते है जो इसका उपचार कर सकती है, लेकिन बह दूसरी दुर्दशा, मानसिक दुर्दशा, प्राणिक विकृति नही बदली जा सकती । वह बदलना नहीं चाहती । और जो लोग मानवताके इस वर्गमें आते है ३ पहलेसे ही विघटनके लिये दंडित है ।
आदि-पापका अर्थ यही है. एक विकृति जिसका उद्भव मनके साथ-साथ हुआ ।
मानवजातिका वह भाग, मानव चेतनाका वह मांग, जिसमें अतिमानसके साथ एकाकार होनेकी और अपनेको मुक्त करनेकी क्षमता है, वह पूर्णत: रूपान्तरित हो जायगा -- वह एक भावी सत्यकी ओर बढ़ रहा है जो अभी बाह्य रूपमें अभिव्यक्त नहीं हुआ है; वह भाग जो प्रकृतिके, पशुकी सरलता- के बिलकुल निकट है, प्रकृतिमें पुनः घुल-मिल जायगा और घनिष्ठ रूपसे आत्मसात् कर लिया जायगा । लेकिन मानव चेतनाका वह कलुषित भाग उन्मूलित हों जायगा जो अपने मनके गलत उपयोगके कारण विकृतिकी ओर ले जाता है ।
इस तरहकी मानवता एक ऐसे निष्फल प्रयासका अंग है -- जिसका दमन होना चाहिये-जैसे दूसरी आदिम जातियां विश्वके इतिहास-क्रममें लुप्त हो गयीं ।
प्राचीन कालके कुछ पैगम्बरोंको ऐसा भविष्य-सूचक अन्तर्दर्शन हुआ था, पर जैसा अकसर होता आया है, चीजों गड्डमड्ड हो गयीं, ओर उन्हें भविष्य- सूचक अन्तर्दर्शनके साथ-साथ अतिमानसिक जगत्का अन्तर्दर्शन नहीं हुआ जो मानवताके उस भागको उठाने आयेगा जो स्वीकार करता है और इस भौतिक जगत्को रूपान्तरित कर देगा । अतः, उन लोगोंको जो ऐसी अवस्थामें, मानवीय चेतनाके इस विकृत भागमें जन्मे है, आशा बंधानेके लिये उन्होंनें श्रद्धाद्वारा मुक्तिकी शिक्षा दी : जिन्हें, आडूमें भगवानकी यज्ञा हुतिपर श्रद्धा है उनका अपने-आप दूसरे जगत्में केवल श्रद्धाद्वारा उद्धार हों जायगा -- बिना समझे, बिना बुद्धिके । उन्होने अतिमानसिक जगत्- को नहीं देखा. और न ही आडमें अन्तर्लयनकी भगवानकी उदात्त 'आहुति' को देखा है जिसकी पराकाष्ठा होगी स्वयं जडमें भगवानकी पूर्ण अभिव्यक्ति ।
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२६ मार्च, १९५८
''संगत रूपसे कहा जाता है कि यदि ऐसा विकासात्मक चरमोत्कर्ष अभिप्रेत है और मनुष्यको उसका माध्यम होना है तो केवल कुछ थोड़े-से विशेष रूपसे विकसित मनुष्य नये प्ररूपका निर्माण करेंगे ओर नये जीवनकी ओर बढ़ेंगे; एक बार यह हो जाय तो प्रकृतिके प्रयोजनके लिये आध्यात्मिक अभीप्सा आवश्यक न रह जायेगी और मानवजातिका बाकी हिस्सा उस आध्यात्मिक अभीप्सासे नीचे गिर जायगा और
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अपनी सामान्य स्थितिमें निष्क्रिय पड़ा रहेगा । इसी तरह यह भी युक्ति दी जा सकती है कि यदि जीव पुनर्जन्मके द्वारा विकासके स्तरोंमेंसे होते हुए आध्यात्मिक शिखरकी ओर चढ़ता है तो मानव स्तरको सुरक्षित रखना होगा; इसके बिना 'जडू-तत्व' और अतिमानवके बीचकी सबसे आवश्यक पैडीका अभाव रहेगा । साथ ही यह भी तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिये कि सारी मानवजातिके एक साथ अतिमानस स्तरतक उठ जानेकी जरा-सी भी संभाव्यता या संभावना नहीं है । परंतु यहां जो कुछ कहा जा रहा है वह इतना अधिक क्रांति- कारी और आश्चर्यजनक नहीं है; यहां केवल यह कहा जा रहा है कि जिस समय मानव मन वैकासिक संवेगके एक विशेष स्तर या पहुंच जायगा तो उसमें वह सामर्थ्य आ जायगी कि बह चेतनाके उच्चतर स्तरकी ओर उठने और सत्तामें उसे मूर्त्ति रूप देनेके लिये आगे बढे । इस तरह मूर्त्ति रूप देनेके कारण प्राणीकी प्रकृतिके सामान्य संघटनमें अवश्य ही परिवर्तन आ जायगा; यह परि- वर्तन होगा उसके मानसिक, आवेगात्मक और संवेदनात्मक संघटनमें तथा काफी दूरतक शारीरिक चेतनामें और हमारे प्राण एवं ऊर्जाओंको अनुकूल करनेवाले शरीरमें; परंतु चेतना- का परिवर्तन प्रधान तत्व होगा, प्रारंभिक क्रिया होगी, शारी- रिक परिवर्तन गौण होगा, एक परिणाम होगा । जब अंतरात्माकी ज्योति-शिखा, चैत्य दीप्ति हृदय और मनमें बल- शाली हो जायगी और प्रकृति तैयार हो जायगी तो चेतनाका यह तत्वान्तरण मनुष्यके लिये हमेशा संभव रहेगा । आध्यात्मिक अभीप्सा मनुष्यमें सहज रूपसे मौजूद है; कारण, पशुका विपरीत, उसे अपूर्णता और परिसीमाका ज्ञान रहता है और वह यह अनुभव करता है कि जो कुछ वह अब है उससे परेकी कोई वस्तु उसे प्राप्त करनी है; मानवजातिमें कभी भी अपनेसे परे जानेकी प्रेरणाके लुप्त होनेकी संभावना नहीं है । मनुष्यकी मनोमय भूमिका सर्वदा वहां रहेगी, पुनर्जन्मकी श्रेणी-परंपरामे केवल एक श्रेणीके रूपमें नहीं, अपितु आध्यात्मिक और अतिमानस अवस्थाकी ओर आरोहणके लिये खुली सीढीके रूपमें ।',
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८४२-४३)
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यह तो स्पष्ट ही है कि अपने-आपको और अपने जीवनको देखनेकी यह मानसिक क्षमता ही मनुष्यको असाधारण विशिष्टता प्रदान करती है । पशु सहज भावसे यंत्रवत् जीता है, यदि वह ध्यान देता भी है कि वह कैसे जीता है तो वह काफी नगण्य और महत्वहीन-से स्तरपर होगा, अतः वह शान्ति- सें रहता है और कोई चिन्ता नहीं करता । यहांतक कि यदि कोई पशु किसी दुर्घटना या बीमारीसे पीड़ित हों तो वह पीड़ा भी कम-से-कम हो जाती है क्योंकि वह इसे नहीं देरवता, इसे अपनी चेतनामें और भविष्यमें प्रक्षिप्त नही करता, बीमारी या दुर्घटनाके बारेमें विचार नहीं गढ़ता रहता ।
मनुष्यके साथ शुरू हो गयी है यह चिरंतन चिन्ता कि क्या होनेवाला है और यही दुश्चिता उसकी यातनाका एकमात्र नहीं तो प्रधान कारण तो है ही । वस्तुपरक चेतनाके साथ शुरू हुई दुश्चिता, दर्दभरी कल्पनाएं, चिन्ता, यंत्रणा, भावी अनिष्टोकी आशंका जिनके फलस्वरूप अधिकांश मनुष्य -- सबसे कम सचेतन नहीं वरन् सर्वाधिक सचेतन मनुष्य -- निरंतर संताप- मे जीते है । मनुष्य इतना सचेतन है कि वह उदासीन नहीं रह सकता, पर इतना सचेतन भी नहीं है कि यह जान सकें कि क्या होगा । सचमुच, मूल किये बिना यह कहा जा सकता है कि धरतीके सारे प्राणियोंमे मनुष्य ही सर्वाधिक दयनीय है । मनुष्य ऐसे रहनेका आदी हो गया है क्योंकि रोगकी यह अवस्था उसे अपने पूर्वजोंसे विरासतमें मिली है, पर यह है सचमुच दयनीय अवस्था । उच्चतर स्तरतक उठनेकी इस आध्यात्मिक शक्तिद्वारा और पशुकी अचेतनाको आध्यात्मिक परा-चेतनाद्वारा स्थानान्तरित करके ही सत्तामें न सिर्फ जीवनके उद्देश्यको देखनेकी और प्रयासकी पराकाष्ठाको पहलेसे जान लेनेकी क्षमता आती है वरन् उच्चतर आध्यात्मिक शक्तिमें स्पष्टदर्शी विश्वास भी आता है जिसके प्रति व्यक्ति पूर्ण आत्म- दान कर सकता है, उसके भरोसे अपने-आपको छोड़ सकता है, अपने जीवन और भविष्यको उसे सौंप सकता है और इस तरह सब चिन्ताओंसे मुक्त हों सकता है ।
म्पष्ट ही मनुष्यके लिये यह असंभव है कि वह फिरसे. पशु-स्तरपर जा गिरे और अबतक उपलब्ध चेतनाको गंवा दे : अतः उसके लिये एक ही उपाय रह जाता है, जिस अवस्थामें वह है, जिसे मैं दयनीय अवस्था कहती हू, उससे निकलनेके लिये, और एक उच्चतर अवस्थातक जहां चिन्ताका स्थान ले लेता है निर्भरतापूर्ण आत्म-दान और अकाशमयी परिसमाप्तिका विश्वास, उठ आनेके लिये एक ही रास्ता है -- चेतनाका परिवर्तन ।
सच पूछो तो इस अवस्थासे अधिक दयनीय अवस्था और कोई नहीं कि तुम्हारे ऊपर उस अस्तित्वका दायित्व हो जिसकी चाबी तुम्हारे पास नहीं है,
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यानी, वह सूत्र तुम्हारे हाथमें नहीं है जो राह दिखा सके और समस्याएं सुलझा सकें । पशु अपने आगे कोई समस्या नहीं रखता : वह बस जीता है । इसकी सहज-वृत्ति इसे प्रवृत्त करती है, यह उस सामूहिक चेतनापर मरोसा करता है जिसमें जन्मजात ज्ञान है और इससे ऊंची है; परंतु यह यंत्रवत् और स्वाभाविक रूपसे होता है, इसे उसके लिये संकल्प नही करना पड़ता, उसे जीवनमें लानेके लिये प्रयास नहीं करना पड़ता, यह बहुत नैसर्गिक ढंगसे वैसा होता है, और चूंकि इसपर अपने जीवनका दायित्व नहीं है, यह अपने लिये चिन्ताएं नहीं खड़ी करता । मनुष्यके साथ जनमती है अपने-आपपर निर्भर रहनेकी भावना और क्योंकि उसके पास आवश्यक ज्ञान नहीं होता, इसलिये साथ ही शुरू हों जाती है शाश्वत यंत्रणा । इस यंत्रणाका अंत तभी हो सकता है जब व्यक्ति अपनेसे उच्चतर, उस शक्तिके प्रति सर्वांग समर्पण कर दे, जिसे वह पूरी तरह अपने-आपको सौंप सकें, अपनी चिंताएं उसके हाथमें थमा सके और अपने जीवनको चलाने और सब कुछ व्यवस्थित करनेका भार उसपर छोड़ सके ।
जब किसीके पास आवश्यक ज्ञान ही न हो तो भला समस्या कैसे सुलझ सकती है? दुर्भाग्य तो यह है कि मनुष्य मानता है कि उसे अपने जीवनकी सब समस्याएं सुलझानी हैं, पर उसके पास अपेक्षित ज्ञान नहीं है । यहीं है उसके कष्टोंका स्रोत और मूल । वही चिरंतन प्रश्न : ''मुझे क्या करना चाहिये? ''... इसके साथ एक और, इससे भी अधिक तीक्ष्ण प्रश्न जुड़ जाता है : ''क्या होनेवाला है? '' और साथ ही न्यूनाधिक, उत्तर देनेकी अक्षमता।
इसीलिये अब आध्यात्मिक साधनाएं पूरा भार समर्पित कर देनेकी और उच्चतर, तत्वपर भरोसा रखनेकी आवश्यकतासे आरंभ होती है । अन्यथा शांति असंभव है ।
और फिर मी, मनुष्यको चेतना दी गयी है ताकि बह प्रगति करे, जो नही जानता उसे खोज निकाले, जो वह अभीतक नहीं है उसमें विकसित हो सके; और इस प्रकार कहा जा सकता है कि निश्चल और स्थिर शांतिकी अवस्थासे ऊंची एक अवस्था है : यह है एक ऐसी सर्वांगपूर्ण आस्था जो प्रगतिके संकल्पको बनाये रखने और सब दुश्चिन्ताओंसे, फल ओर परिणामकी चितासे मुक्तिद्वारा प्रगतिके प्रयासको सुरक्षित रखनेके लिये पर्याप्त हो । यही उन पद्धतियोंसे अगला चरण है जो ''नीरवता- वादी'' कहलाती हैं, जो सब क्रिया-कलापके त्यागपर तथा एक निश्चलता और आंतरिक शांतिमें डुबकी लगानेपर आधारित हैं, जिन्होंने सारे जीवन का परित्याग कर दिया क्योंकि एकदम अचानक उन्हें यह अनुभव हुआ कि शांतिके बिना आंतरिक सिद्धि नहीं मिल सकती, ओर स्वभावतया मनमें यही आया कि शांति तबतक नही मिल सकती जबतक मनुष्य बाह्य परिवेशमें रहता है, उस चितातुर अवस्थामें रहता है जिसमें समस्या तो खड़ी कर दी जाती है, पर समाधान नहीं किया जाता क्योंकि वैसा कर सकनेके लिये उसके पास ज्ञान नहीं होता ।
इससे अगला चरण है समस्याका सामना करना, लेकिन उस परम शक्तिमें अखंड विश्वासकी स्थिरता। और निश्चयताके साथ, जो जानती है और तुमसे काम करा सकती है । और तब काम छोड़ देनेके बजाय उच्चतर शांतिमें रहकर मनुष्य कर्म कर सकता है जो सशक्त और सक्रिय होता है ।
यही है वह चीज जिसे जीवनमें भागवत हस्तक्षेपका नया पहलू, जीवन- मे दिव्य शक्तियोंके हस्तक्षेपका नया रूप, आध्यात्मिक सिद्धिका नया पक्ष कहा जा सकता है ।
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२ अप्रैल, १९५८
मां, आपने कहा था कि जब कोई जान-बूझकर भूल करता है तो वह अनजानेमें की गयी भूलसे कहीं अधिक गंभीर होती ह ।
जब तुम अज्ञानवश कोई गलत काम करते हों, क्योंकि तुम नहीं जानते कि यह गलत है, तो यह स्पाइट है कि, जब तुम यह जान जाते हो कि यह गलत है, जब अज्ञान दूर हो जाय और तुम्हारे अंदर: सदिच्छा हो तो तुम वह भूल फिर नही करते, और उस अवस्थासे निकल आते हो जिसमें तुम वह भूल कर सकते थे । पर यदि तुम्हें मालूम है कि यह भूल है और तुम उ-से करते हो तो इसका अर्थ यह है कि तुममें कहीं विकृति है जिसने स्वेच्छासे अवस्थाका, या दुर्भावनाका, या यहांतक कि भगवद्विरोधी शक्तियोंका पक्ष चूना है ।
और यह तो स्पष्ट है कि जब कोई भगवद्विरोधी शक्तियोंके पक्षको चुनता है या इतना दुर्बल और चंचल है कि उनके साथ रहनेके प्रलोमनका प्रति-
रोध नहीं कर सकता, तो यह मनोवैज्ञानिक दृष्टिसे अनन्तगुना संगीन है । इसका अर्थ है कि कहीं कुछ दूषित है! या कोई आसुरिक शक्ति पहलेसे ही तुमपर हावी है, या कम-से-कम उन शक्तियोंके प्रति तुममें सहज सहानुभूति है । और अशानकी अपेक्षा इसे ठीक राहपर लाना कही अधिक कठिन है।
अज्ञानको सुधारना अंधकारपर विजय पानेकी तरह है : तुम एक दीप जला लो और अन्धकार लुप्त हो जायगा । पर यह जानते हुए कि यह भूल है, किसी भूलको दुबारा करना ऐसा ही है जैसा कि प्रकाशके होते हुए उसे स्वेच्छासे बुझा देना:.. । यह तो बिलकुल स्वेच्छासे अंधकारको वापिस लाने जैसी बात हुई । क्योंकि दुर्बलताकी दलील लागू नह) होती । भागवत कृपा सदा उनकी सहायताको प्रस्तुत रहती है जो अपने-आपको सुधारना चाहते हैं, वे यह नहीं कह सकते : ''अपने-आपको सुधारनेके लिये मैं अत्यंत दुर्बल हू ।', मैं कह सकते है कि अभी उन्होंनें स्वयंको सुधारने- का संकल्प नहीं लिया है, सतामें कहीं ऐसा कुछ है जिसने ऐसा करनेक।. निश्चय नहीं किया है, यही चीज गंभीर है ।
दुर्बलताकी दलील तो एक बहाना है । जिसने भी संकल्प किया है उसे चरम शक्ति देनेके लिये भागवत कृपा प्रस्तुत है ।
इसका मतलब है कपट, इसका मतलब दुर्बलता नहीं है । और कपट सदा ही शत्रुके लिये खुला द्वार होता है! अर्थात्, जो विकृत है उसके सान कुछ गुप्त सहानुभूति है । यही अवस्था गंभीर है !
अज्ञानको तिरोहित करनेके लिये, जैसा कि मैं कह चुकी हू, दीप जलाना. ही काफी है । भूलोंकी सचेतन पुनरावृत्तिमें आवश्यक है चरका देना ।
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९ अप्रैल, १९५८
मधुर मां, क्या मानव-मनके द्वारा दूसरे ब्यक्तिकी आत्माको पहचानना संभव है?
चीजों इतनी कटी-छंटी, इतनी अलग-थलग नहीं है जितनी कि कहनेमें लगती हैं, इसलिये अपने अंदर सत्ताके विभिन्न अंगोंको ठीक-ठीक और साफ-साफ देखना कठिन होता है जबतक कि कोई अध्ययन और अवलोकनके एक सुदीर्घ
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प्रशिक्षण और लंबे अनुशासनमेंसे न गुजर लें । आत्मा, मन, प्राण और यहांतक कि शरीरके बीच भी कोई कठोर विमाजन नहीं है । आत्मा मनके अंदर धीरे-धीरे प्रवेश करती है । कुछ लोगोंमें यह काफी अधिक होती है, इसे देखा जा सकता है । तब मनका वह अंश जिसे एक तरहका बोध प्राप्त होता है, जो चैत्य पुरुषके साथ एक तरहका सूक्ष्म संपर्क रखता है, वह दूसरेमें आत्माकी उपस्थिति अनुभव कर सकता है ।
जिनमें एक हदतक दूसरोंकी चेतनामें घुसनेकी योग्यता है, जहां वे सीधे उनके विचारको, उनके मानसिक क्रिया-कलापको देख या अनुभव कर सकें, जो अपनी बात समझानेके लिये शब्दोंका उपयोग किये बिना ही दूसरोंके मानसिक वायुमंडलमें घुस सकते है, वे आसानीसे यह अंतर जान सकते है कि किसीकी आत्मा क्रियाशील है और किसकी सोयी पडी है । आत्माकी सक्रियता मनकी क्रियाशीलताको एक खास रंगमें रंगती है --- वह अधिक हलकी, अधिक सुबोध और अधिक आलोकित होती है --, अतः वह अनुभव की जा सकती है । उदाहरणार्थ, किसीकी आंखमें देखकर तुम कुछ निश्चयताके साथ बता सकते हो कि उसकी आत्मा जीवत है या तुम्हें उसकी आंखमें उसकी आत्मा नहीं दिखायी पड़ती । ऐसे लोग बहुत है ( ''बहुत''- से मेरा मतलब विकसित व्यक्तियोंमेसे), जो यह अनुभव कर सकते है, ऐसा कह सकते है । पर स्वभावतः, ठीक-ठीक जाननेके लिये कि किसकी आत्मा किस सीमातक जाग्रत् और सक्रिय है, किस सीमातक सत्तापर शासन करती पैर, उसकी अधिपति है, स्वयं व्यक्तिमें चैत्य चेतना होनी. चाहिये, क्योंकि वही निर्णायक ढंगसे विचार कर सकती है । लेकिन उस तरहका आंतरिक स्पंदन होना कोई बिलकुल असंभव बात नहीं है जो तुमसे कहलवाता है : ''ओहो! इस व्यक्तिमें आत्मा है ।''
अब स्पष्ट है कि लोग (यदि वे दीक्षित नही हैं तो) प्राय. जिसे ''आत्मा'' कहते है वह है प्राणिक क्रियाशीलता । जब किसीका प्राण शक्ति- शाली, क्रियाशील, कृतसंकल्प होता है जो शरीरके कार्योंको परिचालित करता है, जब उसका लोगों, वस्तुओं और घटनाओंके साथ बहुत ही प्राण- वंत या घनिष्ठ संपर्क होता है, जब उसमें कलाके लिये, सौदर्यकी सभी अभिव्यक्तियोंके लिये विशेष रुचि होती है, तब आग तौरपर हम यह कहने और माननेके लिये ललचा जाते है : ''ओह! इसकी आत्मा जाग्रत् है,'' पर वह उसकी आत्मा नहीं होती, वह होती है उसकी प्राणिक सत्ता जो सजीव है डोर उसकी शारीरिक क्रियाको परिचालित करती है । विकासकी ओर कदम उठानेवालों धौर अभीतक नितांत भौतिक जीवनकी जड़ता और तमस्में पड़े रहनेवालोंमें यही है प्रथम अंतर । वह पहले तो आकृतिको
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और फिर क्रियाको मी एक तरहके स्पंदनकी तीव्रता प्रदान करता है जिससे प्रायः यह छाप पड़ती है कि इस व्यक्तिकी आत्मा जाग्रत् है, लेकिन यह वह चीज नहीं है, यह तो उसका प्राण है जो विकसित है, जिसमें विशेष क्षमता है, जो भौतिक जड़तासे कहीं अधिक शक्तिशाली है और जो उन्हें स्पंदनकी, जीवनकी और क्रियाकी वह तीव्रता देता है जो उन लोंगोंके पास नहीं होती जिनकी प्राणिक सत्ता विकसित नही है । प्राणिक क्रिया और आत्माके बीच यह द्विविध प्रायः ही होती रहती है.. - आत्माके स्पंदनकी अपेक्षा प्राणिक स्पंदन मनुष्यकी चेतनाकी पकडूमें ज्यादा आसानीसे आते हैं ।
किसीकी आत्माको अनुभव करनेके लिये साधारणतया मनको अचंचल बना देना जरूरी है -- एकदम अचंचल, क्योंकि जब वह क्रियाशील होता है तो तुम आत्माके स्पंदनको नहीं, उसके स्पदनोंकी अनुभव करते हो ।
और तब, जब तुम किसी ऐसे व्यक्तिको देखते हो जो अपनी आत्माके बारेमें सचेत है और अपनी आत्मामें रहता है, जब तुम ऐसे व्यक्तिको देखने हो ते'। नीचे उतरनेका आभास होता है, ऐसा लगता है कि तुम गहरे, गहरे, गहरे, सत्ताकी गहराईमें दूर, दूर, दूर, दूरतक अंदर पैठ रहे हो जब कि साधारणतया यदि तुम किसीकी आंखमें देरवते हों तो बहुत जल्दी ही तुम्हारी भेंट एक ऐसी सतहसे होती है जो स्पंदित होती और तुम्हारी दृाट्रिटको उत्तर देती है, पर तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम नीचे, नीचे, नीचे, नीचे मानों विवरमें गहरे -- और दूर, बहुत दूर, बहुत दूर कही भीतर जा रहे हों, तब तुम्हें.. संक्षिप्तता मौन उत्तर मिलता है । नही तो, आम तोरपर, तुम पैठते हों -- ऐसी आंखें मी है जिनमें तुम पैठ नही सकते, वे बंद दरवाज़ेकी तरह होती हैं -- पर ऐसी आंखें मी होती है जो खुली रहती है, तुम घुसते हों और निकट ही पीछे कुछ स्पंदित होती हुई चीज पाते हो, इस तरह, रह-रहकर चमकती हुई, स्पंदित होती हुई । ओर तब यहीपर, यदि तुम भूल कर बैठो तो कह उठते हो, ''ओह! इसमें जाग्रत् आत्मा है'' -- यह वह नहीं है, यह तो उसका प्राण है ।
अंतरात्माको पानेके लिये इस तरह जाना होगा (भीतर डुबकी लगानेका संकेत), इस तरह, ऊपरी सतहसे पीछे हटना होगा, गहरे पैठना होगा, और घुसना होगा, घुसना होगा, घुसता होगा, घुसना होगा।., नीचे उतरना होगा, नीचे, नीचे, नीचे उतरना होगा एक बहुत गहरे, शांत, निश्चल विवरमें, और तब वहां, वहां है एक तरहका.. कुछ जौ उष्ण है, लात, तत्वमें समृद्ध और अत्यंत निश्चल, और सर्वथा परिपूर्ण, मिठासकी तरह, -- यह है आत्मा ।
ओर यदि तुम आग्रह करो और स्वयं अपने-आप सचेत होओ, तो एक
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तरहकी परिपूर्णता पैदा होती है जो किसी वस्तुके पूर्ण होनेका आभास देती है जो अपनेमें अथाह गहराइयोंको समाये है जिनमें यदि कोई पैठे तो अनु- भव करेगा कि अनेक रहस्य उद्घाटित हो जायेंगे... किसी शाश्वत तत्त्वके प्रशांत जलोंमें पड़ते प्रतिबिंबक नाई । और तब आदमी अपने- आपको कालके द्वारा सीमित नहीं पाता ।
लगता है कि हम हमेशा रहे हैं और अनंत कालतक रहेंगे ।
यह तब होता है जब हम अंतरात्माके मर्मको छू लेते है ।
और यदि संपर्क पर्याप्त सचेत और सर्वांगीण रहा हों तो वह तुम्हें बाह्य आकृतिकी दासतासे मुक्त कर देता है; अब तुम यह महसूस नहीं करते कीचक शरीर है इसीलिये तुम जी रहे हों । यही है साधारणतया मनुष्यका सामान्य संवेदन, उस बाह्य आकृतिसे इस हदतक बंधे रहना कि जब भी वह ''मैं' के बारेमें सोचता है तो वह ''शरीर' के बारेमें सोचता है । यह आम बात है । व्यक्तिगत सत्य है शारीरिक सत्य । जब कोई आंतरिक विकासके लिये चेष्टा करता है और सत्तामें कुछ ऐसी चीज खोज निकालने- का प्रयत्न करता है जो अधिक स्थिर हो, तभी वह अनुभव करना शुरू करता है कि वह ''कुछ'' है जो युग-युगांतर और सब तरहके परिवर्तनोंमेंसे गुजरते हुए मी सर्वदा सचेत है, और इसी कुछको ''मैं'' होना चाहिये । पर यह पहले ही काफी... काफी गहरे अध्ययनकी अपेक्षा रखता है । नहीं तो, यदि तुम सोचो ''मैं यह करुंगा,'' ''मुझे उसकी जरूरत है,'' तो यह हमेशा तुम्हारा शरीर होता है, जरा-सी एक तरहकी इच्छा होती है, जो संवेदनों, प्रायः उलझी हुई भावुक प्रतिक्रियाओं एवं और भी अधिक उलझे हुए ऐसे विचारोंका मिश्रण होती है जो किसी भी आवेग, आकर्षण, इच्छा और चाहसे प्राणवंत हो उठते है, और यह सब क्षणिक ''मैं'' बन जाता है । लेकिन सीधे नहीं, क्योंकि तुम इस ''मैं'' की सिरसे, धूसते, हाथ- पैरसे और उस सबसे जो हिलता-डुलता है, अलग कल्पना नहीं कर सकते, यह बड़ी घनिष्ठतासे जुड़ा हुआ है ।
तुम बहुत चिंतन, बहुत अनुभव, बहुत अध्ययन, बहुत अवलोकनके बाद यह समझना आरंभ करते हो कि ये एक-दूसरेसे लगभग स्वतंत्र हैं, यह भी कि पीछे रहनेवाली इच्छा-शक्ति उससे काम करा मी सकतीं है ओर मना भी कर सकती है और वह गति, कार्य और सिद्धिके साथ पूर्णतया एकाकार न हो -- अर्थात्, वहां अनिश्चय है । पर इसे देख पानेके लिये लंबा अनुभव चाहिये ।
और फिर, और भी लंबे अनुभवकी आवश्यकता है यह देखनेके लिये कि वह दूसरी चीज जो वहां है, इस तरहकी सचेतन सक्रिय इच्छा-शक्ति,
वह ''किसी और'' द्वारा परिचालित होती है जो देरवती है, परखती है, निर्णय करती है और अपने निर्णयोंको ज्ञानपर आवरित करनेकी चेष्टा करती है -- यह, यह तो और भी देरसे आता है । और तब, जब तुम उस ''किसी और चीज' को देखना आरंभ करते हो तो तुम देखना आरंभ करते हो कि इसमें उस दूसरी चीजको गति देनेकी सामर्थ्य है जो एक क्रियाशील इच्छा-शक्ति है; सिर्फ यही नहीं, प्रतिक्रियाओं, भावनाओं और संवेदनोंपर इसकी क्रिया बहुत सीधी और बहुत महत्त्वपूर्ण होती है, और अंतमें, वह सत्ताकी सारी गतिविधियोंपर नियंत्रण रख सकती है, वह अंश जो देखता है, जो अवलोकन करता है, जो परखता है, जो निर्णय करता है । यह है संयमका प्रारंभ ।
जब तुम इसके बारेमें सचेत हो जाते हो तो सूत्र तुम्हारे हाथ लग जाता है और जब तुम संयमके बारेमें कहते हों, तुम जान सकते हों : ''अरे! हां, उसीके पास है संयमित करनेकी शक्ति ।''
इसी तरह व्यक्ति अपने-आपका देखना सीखता है ।
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१६ अप्रैल, ११५८
''क्रम-विकासके पिछले चरणोंमें प्रकृतिको मुख्य रूपसे भौतिक संगठनकी ओर अपना ध्यान और प्रयास लगाना पड़ा था, क्योंकि केवल इसी तरहसे चेतनाका परिवर्तन हो सकता था । ' उस समय- तक चेतनाकी जो शक्ति रूप ले रही थी उसके अंदर शरीरमें परिवर्तन लानेकी पर्याप्त क्षमता नहीं थी, इसलिये यह जरूरी था । परंतु मनुष्यमें इस कर्मको उलट देना संभव है, वास्तवमें अनिवार्य है क्योंकि अब विकास एक नये शारीरिक संगठनको लेकर नहीं, बल्कि उसकी चेतनाके द्वारा, उसके रूपांतरके द्वारा साधित हो सकता है और होना चाहिये । वस्तुओंकी आंतरिक वास्तविकतामें चेतनाका परिवर्तन हमेशा मुख्य तत्व रहा है, विकास-कर्मकी हमेशा ही एक आध्यात्मिक सार्थकता रही है और भौतिक परिवर्तन केवल सहायक उपकरण रहा है । लेकिन यह संबंध इन दो तत्वोंके पहले अस्वाभाविक संतुलनसे छिपा था । बाहरी निश्चेतना महत्त्वकी दृष्टिसे
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आध्यात्मिक तत्व या सचेतन सत्ताको दबाये और धुंधला-सा बनाये रहती है । लेकिन एक बार संतुलनके ठीक हो जानेपर यह आवश्यक नहीं रह जाता कि चेतनाके परिवर्तनसे पहले शरीरका परिवर्तन हो । शरीरमें जिस किसी परिवर्तनकी आवश्यकता होगी उसे चेतनाका परिवर्तन अनिवार्य बनाकर साधित कर लेगा । यह बात ध्यान देने लायक है कि मानव मन पौधों और पशुओंमें नयी जातियोंका विकास करनेमें प्रकृतिकी सहायता करनेकी क्षमता दिखा चुका है । उसने अपने परिवेशके नये रूपोंकी सृष्टि की है । और अपनी मनोवृत्तिमें अपने ज्ञान और अनु- शासनके द्वारा बहुत-से परिवर्तन किये हैं । यह असंभव नहीं है कि मनुष्य अपने आध्यात्मिक और शारीरिक विकास और रूपांतरके लिये भी प्रकृतिकी सचेतन रूपसे सहायता करे । इसके लिये प्रेरणा तो है ही और वह अंशतः प्रभावशाली है यद्यपि अभीतक बाहरी मन उसे अधकचरे रूपमें ही समझता ओर स्वीकार करता है । लेकिन किसी दिन वह समझ सकता है और अपने अंदर गहराईमें पैठकर साधनको, गोपन ऊर्जा और चिच्छक्तिकी अभीष्ट कियाको खोज सकता है, जिसमें उस चीजकी वास्तविकता छिपी है जिसे हम प्रकृति कहते हैं... ।
अगर धरतीपर 'जडतत्त्व'मेंसे हमारे जन्मका गुप्त सत्य आध्यात्मिक उन्मीलन है, अगर प्रकृतिमें जो हो रहा है बह मूल रूपसे चेतनाका विकास है तो मनुष्य, जैसा कि बह है, विकासका अंतिम पर्व नहीं हो सकता । वह आत्माकी बहुत ही अपूर्ण अभिव्यक्ति है, मन अपने-आपमें बहुत ही सीमित रूप और साधन है । मन चेतनाका एक मध्यवर्ती स्तर है, मनोमय सत्ता केवल संक्रमणकालीन सत्ता ही हो सकती है । तब यदि मनुष्य मनका अतिक्रमण करनेमें असमर्थ है तो उसे छोड़कर अतिमानवको प्रकट होना और सृष्टिकी बागडोरको अपने हाथमें लेना होगा । लेकिन अगर उसका मन अपनेसे परेकी ओर खुल सकता है तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य स्वयं अतिमानव और अतिमानवतातक न पहुंचे या कम-से-कम, प्रकृतिमें अभिव्यक्त होते हुए आत्माके उस उच्चतर पदके विकासमें अपने मन, प्राण और शरीरका योगदान न दे ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ ८४३)
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बहरहाल, अब हम एक निश्चतिपर पहुंच गये हैं, क्योंकि उपलब्धिका प्रारंभ हो चुका है । हमारे पास प्रमाण है कि कुछ स्थितियोंमें, मानव- जातिकी साधारण अवस्था अतिक्रम की जा सकती है और चेतनाकी एक नयी अवस्था संपन्न की जा सकती है. जो कम-से-कम मानव और अतिमानवके बीच एक सचेतन संबंधकी अनुमति दे ।
निश्चयपूर्वक यह दावा किया जा सकता है कि मानसिक और अति- मानसिक सत्ताओंके बीच एक मध्यस्थ जाति होगी, एक तरहका अति- मानव जिसमें अभी मनुष्यकी प्रकृतिके कुछ अंश और गुण बाकी होंगे, अर्थात्, जो अपने अति बाह्य रूपमें मनुष्य ही होगा जिसका म्ल है पशु, पर जो अपनी चेतनाको इतना रूपांतरित कर लेगा कि वह अपनी उप- लब्धि और अपने कार्यमें एक नयी जाति, अतिमानवजातिका सदस्य हों सके ।
इस जातिको संक्रांतिक जाति माना जा सकता है, क्योंकि पहलेसे ही जाना जा सकता है कि वह पुराने पाशविक तरीकेमेसे गुजरे बिना नयी सत्ताओंको जन्म देनेके साधन खोज निकालेगी, ये ही वे सताएं होंगी - जिनका जन्म, सचमुच, आखयात्मिक जन्म कहलायगा -- जो नयी जाति- के, अतिमानवजातिके तत्त्वोंका निर्माण? करेंगी ।
अतः हम उन्हें अतिमानव कह सकते हैं जो जन्मे तो पुरानी प्रजनन- पद्धतिसे है पर आनी उपलब्धिमें अतिमानसिक सिद्धिके नये जगत् के साथ सचेतन और सक्रिय संपर्क बनाये हैं ।
लगता है - बल्कि यह निश्चित है -- कि मध्यवर्ती जगत्को, जो पहलेसे ही तैयार हो रहा है, बनानेवाला पदार्थ अधिक समृढ अधिक शक्तिशाली, अधिक आलोकमय, अधिक सहिष्णु, कुछ अधिक सूक्ष्म, ओर अधिक पैने, नये गुणोंसे युक्त है, और इसमें सर्वव्यापकताकी तरह- की जन्मजात क्षमता है, मानों इसकी सूक्ष्मता और परिमार्जनके कारण स्पदनोंकी, यदि बिलकुल पूरी तरह नहीं, तो अधिक विस्तृत रूपमें अनुभव किया जा सकता है और वह विभाजनके उस संवेदनको दूर कर देता है जो प्राचीन पदार्थद्वारा, सामान्य मानसिक पदार्थ- द्वारा अनुभव होता है । स्पंदनकी एक सूक्ष्मता जो बोध-क्षमताको सार्वभौम और विश्वव्यापी बनाती है, सहज और नैसर्गिक है । विभाजन- का, विच्छेदका संवेदन इस पदार्थद्वारा सहज-स्वाभाविक रूपसे लुप्त हो जाता है । और यह पदार्थ इस समय लगभग विश्वव्यगि रूपसे पार्थिव वायुमंडलमें फैला हुआ है ।
सिर्फ चेतनाकी थोडी-सी एकाग्रता, एक प्रकारकी तन्मयतासे यह
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जाग्रत् अवस्थामें इंद्रियगोचर हो सकता है, यदि उसे चेतनाकी सामान्य बहिर्मुखतासे, जो अधिकाधिक कृत्रिम और मिथ्या. लगता है, भीतरकी ओर खींचा जाय, अंतर्मुखी हुआ जाय । यह बहिर्मुखीनता, यह बोध जो पहले स्वाभाविक था अब झूठा, अवास्तविक और नितांत- बनावटी लगता है; वह उन वस्तुओंको जैसी कि वे है, कोई उत्तर नहीं देता, इसका उस गतिसे संबंध है जिसका किसी भी सच्ची वास्तविक वस्तुसे मेल नही ।
यह नया बोध अपना प्रभाव अधिकाधिक डाल रहा है, वह अधिकाधिक सहज बनता जा रहा है, और कमी-कभी तो, सत्ताके पुराने तरीकेको फिरसे पकडू पाना कठिन हो जाता है, माना वह धुंधले अतीतमें विलीन होता जा रहा है -- ऐसी वस्तु जो लुप्त होने-होनेको है ।
इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिस क्षण एक शरीर, जो निश्चय ही पाशविक तरीकेसे जन्मा है, अपने-आपसे बाहर गयें बगैर, बिना किसी प्रयासके, सहज और स्वाभाविक रूपसे उस चेतनामें ज़ीने योग्य हो जाय तो यह प्रमाणित हों जायेगा कि यह कोई अनोखा और अपवादिक उदाहरण नहीं है, वरन् सिर्फ एक सिद्धिका अग्रदूत है जो, चाहे नितांत साधारण न भी हों, फिर भी कम-से-कम कुछ व्यक्ति तो उसमें मांग बंटा ही सकते है, और इसके अतिरिक्त जैसे ही वे उसमें भाग वटायेंगे वे अलग-अलग व्यक्ति होनेका बोध खो देंगे और एक प्राणवन्त समूह बन जायंगे ।
यह नयी सिद्धि, कहा जा सकता है कि, विद्युत-गतिसे आगे बढ़ रही है, क्योंकि, यदि हम प्रचलित ढंगसे समयका हिसाब लगाये तो अभी दो ही वर्ष हुए है (दो वर्षसे जरा-सा ज्यादा), जब अतिमानसिक तत्वने पार्थिव वायुमंडलमें प्रवेश किया और जबसे पार्थिव वायुमंडलके गुणमें यह परिवर्तन हुआ।
यदि चीजों इसी गतिसे प्रगति करती गयी तो यह संभवसे भी अधिक, करीब-करीब स्पष्ट, हों जायगा, कि श्रीअरविदने अपने पत्रमें जो लिखा है वह भावी घोषणा है : १९६७ मे अतिमानसिक चेतना सिद्धिदायिनी शक्तिकी अवस्थामें पहुंच जायेगी । दूं
' ''४-५-६७ पूर्ण सिद्धिका वर्ष है । '' -- 'श्रीअरविदके पत्र', प्रथम भाग, श्रीअरविदके साहित्य-संग्रह, १६ वा खंड, पृ० ४४ ।
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२३ अप्रैल, १९५८
मधुर मां, जब हमारे अंदर अधिक अच्छा करनेका प्रयास चलता है, पर हमें कोई प्रगति नहीं दिखती, तो हम बहुत हताश हो जाते हैं । क्या करना सबसे अच्छा होगा?
हताश न होना!... निराशा कहीं नही लें जाती ।
शुरूमें, सबसे पहली बात तो तुम्हें अपने-आपसे यह कहनी चाहिये कि तुम यह जाननेमें प्रायः बिलकुल अक्षम हो कि तुम प्रगति कर रहे हो या नहीं, क्योंकि, बहुधा, जो हमें गतिहीनताकी अवस्था लगती है, वह आगे- की ओर छलांग लगानेकी लंबी -- कभी-कभी लंबी पर किसी हालतमें अंतहीन नहीं -- तैयारी होती है । कभी-कभी हमें लगता है कि हफ़्ते और महीने बीतते जाते है और तब सहसा वह चीज सामने आ जाती है जिसकी ओर तैयारी हो रही थी, और हम देखते है कि काफी कुछ बदल पाया है, औ र एक साथ कई स्थलोंपर ।
जैसा कि योगमें हर बातके लिये होता है, यह जरूरी है कि प्रगतिके लिये प्रयास इसलिये किया जाये क्योंकि प्रगतिके प्रयाससे प्रेम है । फालसे स्वतंत्र, प्रयासका , प्रगतिके लिये अभीप्सा ही अपने-आपमें पर्याप्त होनी चाहिये । योगमें व्यक्ति जो कुछ करता है वह करनेके आनंदके लिये करना चाहिये, अपने वांछित फलकों रयानमें रखकर नहीं.. । सच- मुच, जीवनमें, सदा, हर वस्तुमें, फलपर हमारा अधिकार नहीं होता । और यदि हम सच्ची मनोवृत्ति अपनाना चाहते है तो हमें सहज तरीकेसे काम करना, अनुभव करना, विचारना और प्रयास करना चाहिये, क्योंकि वही है जिसे करना चाहिये, किसी वांछित परिणामको दृष्टिमें रखकर नही ।
जैसे ही हम फलके बारेमें सोचते है हम सौदेबाजीपर उतर आते है और यह प्रयासकी सारी सच्चाईको छीन लेता है । तुम प्रगतिके लिये प्रयत्न करते हा- क्योंकि तुम अपने अंदर इसकी आवश्यकता महसूस करते हो, प्रयत्न और प्रगति करनेके लिये अनिवार्य आवश्यकता । यह प्रयत्न वह भेंट है जो तुम अपने अंदर स्थित 'दिव्य चेतना' को विश्वकी 'दिव्य चेतना' को अर्पित कर रहे हों, यह अपनी कृतज्ञता व्यक्त करनेका, अपने- आपको दे देनेका तुम्हारा ढंग है, और फलस्वरूप यह कोई प्रगति लाता है या नहीं - इसका कुछ भी महत्व नहीं है । तुम तभी प्रगति करोगे
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जब यह निर्णय हो जायगा कि प्रगतिका समय आ गया है, इसलिये नहीं कि तुम चाहते हो ।
यदि तुम प्रगतिकी इच्छा करते हो, उदाहरणार्थ, यदि तुम अपने-आपको वशमें करना चाहते हों, कुछ त्रुटियां, दुर्बलताओं, अपूर्णताओपर विजय प्राप्त करनेका प्रयत्न करते हों, और लगभग तुरत ही अपने प्रयत्नका फल पाना चाहते हो तो तुम्हारा प्रयत्न सारी सच्चाई देता है । वह सौदे- बाजी हो जाती है । तुम कहते हो : ''देखो, मैं प्रयत्न करने जा रहा हू क्योंकि अपने प्रयत्नके बदलेमें अमुक चीज चाहता हू । ''. तब तुम सहज- स्वाभाविक नहीं रह जाते ।
अतः दो चीजों याद रखनी चाहिये । पहले, परिणाम क्या होना चाहिये यह निर्णय करनेकी क्षमता हमें नहीं है । यदि हम भगवानपर भरोसा रखते हैं, यदि हम कहते हैं... यदि हम कहते हैं, ''ठीक है, मैं सब कुछ दे दंगा, सब कुछ, मैं जो कुछ दे सकता हू, प्रयत्न, एकाग्रता सब कुछ, और वही विचार करेगा कि बदलेमें क्या किया जाय ... या बदलेमें कुछ दिया भी जाय या नहीं, और मैं, मैं स्वयं नहीं जानता कि परिणाम क्या होना चाहिये । '' अपने अंदर कुछ भी रूपांतरित करनेसे पहले क्या हम निश्चित रूपसे कह सकते है कि इस रूपांतरको को न-सी दिशा, राह और रूप लेना चाहिये? - बिलकुल नहीं । अतः यह तो हमारी कल्पनामात्र है बार साधारणतया हम वांछित परिणामकी संकीर्ण सुग्गा बांध देते है, उसे एकदम ही तुच्छ, क्षुद्र, छिछला, सापेक्ष बना देते है । हम नही जानते कि ठीक-ठीक परिणाम क्या हो सकता है ओर क्या होना चाहिये । हमें बादमें पता चलता है । जब वह आता है, जब परिवर्तन हो चुकता है, तब यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो कहेंगे : ''आह! तो यह है, इसीकी ओर तो मैं बढ़ रहा था! '' -- पर यह तो बादमें ही पता चलता है । पहले तो, सच्चे रूपांतर, सच्ची प्रगतिकी तुलनामें व्यक्ति सिर्फ धुंधली कल्पनाएं करता है जो बिलकुल ऊपरी और बचकानी होती है ।
अतः हम कहते है, पहली बात है. हममें अभीप्सा है, पर सचमुच हम नहीं जानते कि कौन-सा. सच्चा परिणाम है जो हमें मिलना चाहिये । यह तो केवल भगवन् ही जान सकते है ।
दूसरी बात, यदि हम भगवान्से कहें, : ''मैं तुझे अपना प्रयत्न अर्पण करता हू, लेकिन देख, बदलेमें मेरी प्रगति होनी चाहिये नहीं तो मैं तुझे कुछ मी नहीं दूँगा! '' तब यह सौदेबाजी हुई । बस!
सहज कार्य, जो इसलिये किया जाता है कि तुम अन्यथा कर ही नहीं सकते, सद्भावनाकी भेंटके रूपमें किया गया काम ही एकमात्र' वह काम है जो सचमुच मूल्यवान् है ।
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३० अप्रैल, १९५८
जैसा कि मैंने अनुमान लगाया था, मेरे पास ऐसे प्रश्नोंकी झंडी लग गयी है जो मुझे ३ फरवरीको हुई अतिमानसिक अनुभूतिकी मानसिक रूपसे व्याख्या करनेको बाध्य कर रहे है ।
तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें बताएं और उस सीमातक उसका मानसी- करण करूं जबतक कि एक नयी पद्धति स्थापित न हो जाय और तुम अपनी नयी मानसिक रचनामें आरामसे बैठे रहो... । मुझे तुम्हें निराश करनेका (वेद है, लेकिन यह बिलकुल असंभव है । और यदि तुम उसे समझना चाहते हों जो मैंने लिखा है तो प्रयास करो और अतिमानसिक चेतना प्राप्त करो । बस, मुझे इतना ही तुमसे कहना है ।
इस सनकसे खूब सावधान रहो जो एक पुराने सिद्धांतके स्थानपर नये- को बिठाकर कहना चाहती है : ''ओह! वह झूठा था, पर अब हम नेतृत्व करनेके लिये अच्छा व्यावहारिक मार्ग-दर्शक बनायेगे जो अंतत: सच्चा होगा ।', एक मानसिक रचना कमी सच्ची नहीं हों सकती, और मैं' इसे बनाना अस्वीकार करती हू । मैं उन शब्दोंका प्रयोग करनेको बाध्य थी जिन्हें मनुष्य समझते है, पर मैंने यह प्रयोग यथासंभव असंगत ढंगसे किया (!) ताकि वह बहुत ही मानसिक न हा जाये, और मैं मानसिक ढंगके अनुरूप संगत होनेसे इंकार करती हू । यह बात सिर्फ उन प्रश्नोंके लिये ही नहीं है ना मुझसे यहां पूछे गये है या मुझे पत्रद्वारा प्राप्त हुए है, वरन् उन सबके लिये भी जो इस विषयपर आनेवाले हैं, अतः अब प्रश्न करना निरर्थक होगा ।
मैं हर एकको वही सलाह दंग : ''प्रयत्न करो, काम करो, अपने-आपको खोला, अपने-आपको पूरी तरह नयी शक्तिके सुपुर्द कर दो, और एक दिन आयेगा जब तुम्हें अनुभूति होगी ।''
अनुभूतिके साथ-साथ, तुम यह भी ठीक-ठीक समझ जाओगे कि कितने निरर्थक थे ये प्रश्न ।
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७ मई, ११५८
''विकास करती हुई प्रकृतिकी सबसे पहली भूमिकाओंमे हमें उस- की निश्चेतनाके मूक रहस्योंसे ही पाला पड़ता है । उसके कामोंमें कोई सार्थकता या उद्देश्य नहीं प्रकट होता । वह जिस पहले रूपको लेकर ही तल्लीन थी -- जो हमेशाके लिये उसका एकमात्र व्यापार मालूम होता है -- उसे छोड़कर किसी और तत्वका संकेत भी नहीं मिलता । उसके आदिम कार्यमें केवल 'जड़-तत्व' ही एकमात्र मूक और नग्न वैश्व सद्वस्तु प्रतीत होता है । यदि सृष्टिका कोई सचेतन 'साक्षी' होता, जिसे कुछ बताया न जाता, तो उसे असल देखनेवाली बहुत बढ़ी खाईमेंसे एक 'ऊर्जा' प्रकट होती हुई दिखायी देती जो 'जडू-तत्त्व', जड़-जगत् और जड़-पदार्थोकी सृष्टि करनेमें लगी होती, जो निश्चेतनाकी अनंतताको किसी असीम विश्वकी योजनामें पा असंख्य विश्वोंके समुदायमें संगठित करनेमें लगो होती, जो किसी निश्चित लक्ष्य दा सीमाके बिना उसके चारों ओर देशमें फैल होते । बह साक्षी देखता कि नीहारिकाओं, नक्षत्र-समूहों, सूर्य और ग्रहों सृष्टि केवल अपने लिये है, उसका कोई अर्थ नहीं, बह कारण या उद्देश्य-विहीन है । उसे लगता कि यह एक बहुत ही बड़ी मशीन है जिसका कोई उपयोग नहीं, एक महान् किंतु निरर्थक गति, एक युगोंतक चलनेवाला दृश्य है जिसे देखनेवाला कोई नहीं, एक वैश्व प्रासाद है जिसमें रहनेवाला कोई नहीं; क्योंकि उसे इसके अंदर निवास करनेवाली 'आत्मा' का कोई चिह्न न दिखायी देता, कोई ऐसी सत्ता न दिखायी देती जिसके आनंद- के लिये यह बनाया गया हो । इस प्रकारकी सृष्टि किसी निश्चेतन 'ऊर्जा'का परिणाम या किसी अतिचेतन उदासीन निरपेक्ष पर प्रतिबिंबित रूपोंका माया चल-चित्र, उनका छाया नाटक या कठपुतलीका तमाशा ही हो सकता है । 'जड-पदार्थका इस अपार और अनंत प्रदर्शनमें उसे अंतरात्माका कहीं कोई साक्ष्य न मिलता और न ही 'मन' या 'प्राणका कोई चिह्न दिखायी देता । उसे यह संभव ही न लगता, बल्कि कल्पनामें भी न आता कि इस हमेशाके लिये निष्प्राण और सबेदनहीन मरू जगत्में कभी प्राणकी बाढ़ आ जायगी, किसी गुह्य और गणनातीत, सजीव
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प्रकृतिका
और सचेतन वस्तुका बाहरी तलकी ओर रास्ता खोजता हुआ पहला स्पंदन होगा ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ० ८४८-४९)
मधुर मां, यह वाक्य मेरी समझमें नहीं आया : ''विकास करती हुई प्रकृतिकी स्वसे पहली भूमिकाओंमे हमें उसकी निश्चेतनाके मूक रहस्योंसे ही पाला पड़ता है ।'' उसका रहस्य क्या है, मधुर मां?
प्रकृतिका अभिप्राय?... शुरूसे श्रीअरविन्दने कहा है कि गहराईमें जड़ तत्त्वके अंतस्तलम भागवत हु है । अरे सारा ०थव क्रमविकास सृष्टिको अपने म्लकी ओर लौटनेकी तैयारीके लिये हुआ है, उस भागवत उपस्थितिकी ओर लौटनेके लिये जो हर वस्तुके केंद्रमें है -- यही है प्रकृतिका अभिप्राय ।
यह विश्व 'परम' का स्थल रूप है, मानों अपने-आपको देखनेके लिये, जीनेके लिये, अपने-आपको जाननेके लिये उसने अपने बाहर स्थूल रूप धारण किया हो और संभूतिमें उसे अभिव्यक्त करनेके लिये एक जीवन और चेतना हो जो उसे अपने मूलके रूपमें पहचाननेके योग्य हो और सचेतन रूपमें उसके साथ एक हों जाय । विश्वके अस्तित्वका और कोई उद्देश्य नहीं । पृथ्वी वैश्व जीवनका एक तरहका प्रतीकात्मक स्फटिकीकरण है, छोटा संस्करण है, संकेंद्रण है, ताकि क्रमविकासका कार्य और उसका अनुसरण अपेक्षाकृत आसान हो जाय । और यदि हम पृथ्वीका इतिहास देखें तो समझ सकेंगे कि विश्व क्यों रचा गया है । सनातन 'संभूतिमें परम ही अपने प्रतिसनान हो रहा है; और लक्ष्य है 'अभिव्यक्त विश्व'- मे सृष्टिका स्रष्टासे मिलन, एक सचेतन स्वेच्छापूर्ण और स्वतंत्र मिलन ।
यही है प्रकृतिका रहस्य । प्रकृति कार्यकारिणि 'शक्ति' है, यही है जो कार्य करती है ।
और यह इस सृष्टिको लेती है जो प्रकट रूपमें बिलकुल अचेतन है पर जिसके भीतर 'परम चेतना' और एकमात्र 'सद्वस्तु' है, और काम करती है ताकि यह सब विकसित हों जाय, आत्म-सचेतन हो जाय और अपनेको पूरी तरह चरितार्थ कर ले । पर वह यह शुरूसे नहीं दिखाती । यह धीरे-धीरे विकसित होती है, और इसीलिये प्रारंभमें यह ऐसा रहस्य होती है जो अंतकी तरफ खुलेगा । और क्रमविकासमें मनुष्य अब एक काफी ऊंची अवस्थातक पहुंच गया है और अब यह रहस्य उद्घाटित किया
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जा सकता है और जो कुछ बाहरी अचेतक्तामें किया जाता था वह अब सचेतनतासे, स्वेच्छासे किया जा सकता है और इसीलिये कहीं अधिक शीध्ग्तासे और सिद्धिके आनन्दके साथ किया जा सकता है ।
मनुष्यमें अब मी देखा जा सकता है कि आध्यात्मिक सत्य विकसित हो रहा है और पूर्णतया एवं मुक्त भावसे अभिव्यक्त होनेवाला है । पहले, पशु और पौधेमें यह... । इसे देखनेके लिये बहुत स्पष्ट दृष्टिकी जरूरत थी, लेकिन मनुष्य तो स्वयं इस आध्यात्मिक सत्यसे अवगत है, कम-से-कम अपने मानव जीवनके उच्चतर भागमें तो है ही । मनुष्य यह जानने लगा है कि 'परम मूल' उससे क्या चाहता है और वह उसकी कार्यान्वितिमें सहयोग दे रहा है ।
प्रकृति चाहती है कि सृष्टि स्वयंको स्थूल रूपमें अभिव्यक्त 'स्रष्टा' अनु- भव करने लगे, अर्थात्, 'सृष्टि' और 'स्रष्टा'में कोई भेद नहीं है और लक्ष्य है सचेतन और संसिद्ध मिलन । यही है प्रकृतिका रहस्य ।
मां, यहां श्रीअरविन्द लिखते है : ''उसकी निश्चेतनाका मूक रहस्य'' । उसकी ''निश्चेतना'' क्यों?
किसकी निश्चेतना?
प्रकृतिकी ।
नहीं, प्रकृति वास्तवमें अचेतन नहीं है, पर उसका बाह्य कप अचेतन है । वह शुरू हुई 'निश्चेतना'से लेकिन निश्चेतनाकी गहराईमें चेतना थी, और यही चेतना धीरे-धीरे विकसित होती है ।' उदाहरणार्थ, खनिज पदार्थ, पत्थर, मिट्टी, धातुएं, पानी, पवन, सब काफी अचेतन दीखते हैं यद्यपि यदि कोई ध्यानसे देखें... । और अब विज्ञानको पता लग रहा है कि यह केवल बाह्य रूप है, यह सब है संकेन्द्रित ऊर्जा, और स्वाभाविक है कि सचेतन शक्तिने यह सब पैदा किया है । लेकिन ऊपरसे, जब हम चट्टान- को देखते है तो तुरत यह नहीं सोचते कि यह सचेतन है, यह सचेतन होने- का आभास नहीं देती, यह बिलकुल निश्चेतन दिखती है ।
'इस वार्ताके प्रकाशनके समय श्रीमांने निम्न सुधार किया.. ''चेतना विकसित नहीं खाती, चेतनाका आविर्भाव, इसकी अभिव्यक्ति विकसित होती है : यह अपने-आपके अधिकाधिक व्यक्त करती है ।''
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रूप ही निश्चेतन होता है । वह अधिकाधिक सचेतन होता जाता है । खनिज जगत्तकमें कुछ दृश्य मिलते है जो प्रच्छन्न चेतनाको प्रकट करते हैं, जैसे कुछ स्फटिक । यदि तुम देखो कि किस सूक्ष्मता, किस यथार्थता और साख्वजस्यके साथ यह रचा गया है, यदि तुम जरा भी खुले हों तो तुम यह अनुभव करनेको बाध्य होंगे कि इसके पीछे एक चेतना काम कर रही है, यह किसी निश्चेतन संयोगका परिणाम नहीं हो सकता ।
क्या तुमने शैल-स्फटिक देखे हैं?... क्या तुमने कमी नहीं देखा शैल- स्फटिक?
देखे हैं, मां ।
यह सुन्दर होता है, है न? बहुत कलात्मक होता है यह ।
समुद्रकी गतियोंको, पवनकी गतियोंको देख मनुष्य यह अनुभव किये बिना नहीं रह सकता कि उसके पीछे कोई चेतना काम कर रहीं है, बल्कि कई चेतनाएं. काम कर रही हैं । असलमें यह ऐसा ही है । सर्वाधिक उथला रूप ही निश्चेतन होता है ।
वस्तुतः, प्रत्येक सत्तामें क्रम-विकासकी सारी प्रक्रिया दुहरायी जाती है मानों ठयक्ति, जो कुछ अबतक हो चुका है, उस सबमेंसे चकरानेवाले वेग- के साथ गुजर रहा है और अगला कदम लेनेसे पहले निमिष मात्रामें उस सबको फिरसे जी लेना आवश्यक था ।
प्रारंभ... निश्चेतनामें, अंधकारमें, विस्मृतिमें, अचेतनामें महान् यात्रा -- जागरण... और प्रकाशमें पुनरागमन ।
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१४ मई, ११५८
'जैसे वनस्पति-जीवनमें सचेतन पशुको धुंधली-सी संभावना रहती है, जैसे पशु मानस-संवेदन, इंद्रिय-बोध और धारणाके प्रारंभिक तत्त्वोंसे स्पंदित होता है, जो विचारशील मनुष्यकी प्रथम भूमि हैं, उसी तरह मनुष्य या मानसिक सत्तामेंसे आध्यात्मिक मनुष्य, संपूर्ण चिन्मय जीवका विकास होता है । विकसनशील ऊर्जा अपने पहले जड़ स्वरूपका अतिक्रमण करनेवाले, अपनी सच्ची आत्मा और उच्चतम प्रकृतिकी खोज करनेवाले मनुष्यको प्रकट करने के लिये मनुष्यको उदात्त बनाती है ।
' 'लेकिन अगर इसे प्रकृतिके अभिप्रायके रूपमें मान लिया जाय तो तुरंत दो प्रश्न उठते हैं और निश्चयात्मक उत्तरकी मांग करते हैं -- पहला, मनोमय सत्तासे आध्यात्मिक सत्ताकी ओर संक्रमण- का ठीक-ठीक स्वरूप क्या होगा और, जब इसका उत्तर मिल जाय, तो दूसरा, मनोमय मनुष्यमें आध्यात्मिक मनुष्यके विकास- की प्रक्रिया और पद्धति क्या होगी? पहली दृष्टिमें यह स्पष्ट मालूम होता है कि जैसे हर श्रेणी अपने से पहलेकी श्रेणीमें केवल प्रकट ही नहीं, बल्कि उन्मज्जित होती है, जैसे 'प्राण' 'जड़- तत्त्व' में उन्मज्जित होता है और अपनी अभिव्यक्तिमें बड़ी हदतक उसकी भौतिक परिस्थितियोंमेंसे सीमित और निर्धारित होता है; जैसे मन जडमें स्थित प्राणमें उन्मज्जित होता है ओर उसी तरह अपनी अभिव्यक्तिमें भौतिक और प्राणिक परिस्थितियोंसे सीमित और निर्धारित होता है, उसी तरह आत्माको भी आडूमें स्थित प्राणमें प्रकट होने वाले मनमें उन्मज्जित होना होगा और वह भी वडी हदतक मानसिक स्थितियोंसे - जिनमें उसको जड़ें हैं -- और प्राणकी अवस्थाओं और अपने जीवनकी भौतिक अवस्थाओं- से सीमित ओर निर्धारित होगी । ''
( ' लाइफ डिवईन, पृ ० ८५१ - ५२)
जैसे-जैसे अतिमानसिक जीवनकी -- जो विश्वके उन्मीलनमें अगली ससिद्धि होनी चाहिये -- प्रारंभिक अवस्थाएं, शायद बहुत स्पष्ट तो नहीं, फिर भी निश्चित रूपसे, धीरे-धीरे विकसित हो रही हैं, यह अधिकाधिक स्पष्ट होता
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जा रहा है कि अतिमानसिक जीवनतक पहुंचनेके लिये सबसे कठिन सावन है बौद्धिक क्रियाशीलता ।
यह कहा जा सकता है कि जीवनमें किसी चैत्य भावसे -- जो जड-पदार्थसे भागवत उपस्थितिकी प्रतिच्छायाके समान, एक आलोकित निस्सरण- के समान है --अतिमानसिक चेतनाकी ओर जानेकी अपेक्षा मानसिकसे अति- मानसिक जीवनकी ओर जाना कहीं अधिक कठिन है । उच्चतम बौद्धिक चितनसे किसी भी अतिमानसिक स्पंदनतक जानेकी अपेक्षा चैत्य भावसे अतिमानसिक चेतनातक जाना कहीं अधिक आसान है । शायद यह शब्द ही हमें धोखा देता है । शायद, चूंकि हम उसे ''अतिमानसिक'' कहते-- है, इसलिये उच्चतर मानसिक, बौद्धिक क्रियाद्वारा उसतक पहुंचनेकी आशा करते है? लेकिन तथ्य बहुत भिन्न है । इस अति उच्च, अति शुद्ध, अति प्रशस्त, बौद्धिक क्रियाद्वारा मनुष्य एक तरहकी ठंडी, शक्तिहीन भावमयताकी ओर, एक बोझी ज्योतिकी ओर जाता दिखता है जो निश्चित ही जीवन- सें बहुत दूर है और अतिमानसिक सत्यके अनुभवसे तो ओर भी अधिक दूर ।
इस नये पदार्थमें, जो संसारमें फैल रहा है और काम कर रहा है, इतनी प्रगाढ़ एक उष्णता है, शक्ति और आनंद है कि इसके सामने सारी बौद्धिक क्रिया ठंडी और शुष्क दिखती है । और इसीलिये इन विषयोंपर जितना कम बोला जाय उतना अच्छा । मात्र एक क्षण, गहरे और सच्चे प्रेमइक् मात्र एक उछाल, बोधका वह सिर्फ एक क्षण जो भागवत कृपामें मिलता है, सब संभव व्याख्याओंकी अपेक्षा लक्ष्यके अधिक समीप लें जाता है ।
सूक्ष्म, स्पष्ट, आलोकित, पैना ओर गहराईतक पैठनेवाला एक तरहका सूक्ष्म संवेदन सूक्ष्मतम व्याख्याओंकी अपेक्षा द्वारको ज्यादा खोल देता है । यदि हम अनुभवको और आगे बढ़ाये तो लगता है कि जब हम शरीरके रूपांतरका काम हाथमें लेते है, जब शरीरके कुछ कोषाणु जो औरोंसे अधिक तैयार, अधिक परिष्कृत, अधिक सूक्ष्म और अधिक नमनीय हैं, जो भागवत कृपा, भागवत संकल्प, भागवत शक्तिको और उस ज्ञानका उपस्थितिको जो बौद्धिक नही है अपितु तादात्म्यद्वारा प्राप्त शान है, मूर्त रूपमें अनुभव करने- मे सफल हों जाते हैं, जब हम शरीरके कोषाणुओंमें इसका अनुभव पाते हैं, तब, वह अनुभूति इतनी पूर्ण, इतनी अनिवार्य, इतनी जीवंत, मूर्त, स्फाटक और यथार्थ होती है कि बाकी सब निरर्थक सपना लगता है ।
और इसीलिये हम कह सकते है कि जब सचमुच वृत्त पूरा हो जायगा और दोनों छोर आपसमें मिल जायेंगे, जब उच्चतम निपट जडमें आविर्भूत होगा, तभी अनुभूति सचमुच निर्णायक होगी ।
ऐसा लगता है कि हम सचमुच कमी नहीं समझ सकते जबतक कि अपने शरीरद्वारा नहीं समझ लेते ।
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२१ मई, १९५८
मधुर मां, ''मानसिक ईमानदारी'' का ठीक-ठीक अर्थ क्या है?
यह ऐसा मन है जो अपने-आपको धोखा देनेकी चेष्टा नहीं करता । वास्तवमें, ''चेष्टा' की बात ही नहीं उठती क्योंकि वह ऐसा करनेमें खूब सफल रहता है!
ऐसा लगता है कि मनुष्यके सामान्य मनोवैज्ञानिक गठनमें, मनका निरंतर कार्य होता है कामनामय पुरुषमें, प्राणमें, मनके सर्वाधिक भौतिक भागों- मे एवं शरीरके सूक्ष्मतम भागोंमें जो कुछ होता है उसकी सफाई देना । हमारी गलतियों और अवांछनीय क्रियाओंद्वारा छोडी दुःखद छापोंसे यथा- संभव बचनेके लिये जो कुछ हम करते है उसकी सफाई देनेमें, यहांतक कि उसे सुविधाजनक ढंगसे उचित ठहरानेमें प्रायः सत्ताके सभी भागोंकी साझेदारी-सी होती है । उदाहरणार्थ, यदि किसीने विशेष प्रशिक्षण ही न पाया हो और इसपर खूब श्रम ही न किया हो तो, मनुष्य जो कुछ करता है मन अपने-आपको उसकी काफी अनुकूल सफाई दे लेता है ताकि उससे कोई तकलीफ न हो । यह तो बाहरी प्रतिक्रियाओं या परिस्थितियों या दूसरासे आये स्पदनोंके दबावके कारण वह धीरे-धीरे कम अनुकूल दृष्टिसे देखनेको सहमत होता है कि वह क्या है और क्या करता है बोर अपनेसे पूछना शुरू करता है कि चीजों जैसी है उससे अच्छी नही हों सकतीं ।
स्वाभाविक रूपसे, पहली प्रतिक्रिया होती है आत्मरक्षाकी । मनुष्य चौकस रहने लगता है और बहुत स्वाभाविक ढंगसे,... छोटी-से-छोटी बातोंके लिये, बिलकुल नगण्य-सी बातोंके लिये औचित्य ढ्ढा है -- जीवनमें यह साधारण मनोभाव है ।
और व्यक्ति अपने-आपको कैफियत देता है; केवल परिस्थितियोंके दबावसे ही दूसरोंको या किसी और व्यक्तिको सफाई देना शुरू करता है । पहले तो वह अपने-आपको तसल्ली देता है; पहली बात : ''यह ऐसा हुआ क्योंकि इसे ऐसा ही होना था, यह इसके कारण ऐसा हुआ, और... '',
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बस, दोष हमेशा परिस्थितियोंका या दूसरोंका होता है । सचमुच प्रयासकी जरूरत होती है -- जैसा कि मैंने कहा है, जबतक किसीने अनुशासनका पालन न किया हो, मनुष्यको यंत्रवत् ऐसा करनेकी आदत होती है -- यह समझना शुरू करनेके लिये कि शायद चीज़ें वैसी नहीं हैं, एक प्रयामकी जरूरत पड़ती है! और इसके लिये भी कि शायद जो करना चाहिये था ठीक वैसा ही नहीं किया गया, जैसी चाहिये थी वैसी प्रतिकिया नहीं हुई । और जब कोई देखना शुरू कर भी देता है तब उसे सार्वजनिक रूपसे माननेके लिये तो डोर भी बड़े प्रयासकी जरूरत पड़ती है ।
जब कोई देखने लगता है कि उसने गलती की है तो मनकी पहली चेष्टा होती है उसे पीछे फेंककर सामने परदा डा लनेकी, बहुत सूक्ष्म छोटी-सी सफाईका परदा, और जबतक वह दिखानेको विवश ही न हो जाय वह उसे छिपाता रहता है । यही है वह चीज जिसे मैं ' 'मानसिक ईमान- दारिका अभाव' ' कहती हू ।
पहले तो मनुष्य अम्यासवश अपने-आपको धोखा देता है, लेकिन तब मी, जब वह अपनेको धोखा न देना शुरू करता है, सुखसे रहनेके लिये सहजवृत्तिवश उसकी चेष्टा होती है, अपनेको धोखा देनेकी चेष्टा । अतः जब एक बार यह समझमें आ जाय कि मैं अपनेको धोखा दे रहा था तो उसे निश्छल-भावसे यह स्वीकारनेके लिये : ' 'हां, मैं अपनेको धोखा दे रहा था,' ' एक और भी बड़ा कदम उठानेकी जरूरत होती है !
ये सब चीजों इतनी अम्यासगत होती है, इस तरहसे यंत्रवत् की जाती है कि मनुष्यको इसका भानतक नहीं होता; लेकिन जब तुम अपनेको अनु- शासित करनेकी इच्छा करने लगते हों तो सचमुच तुम बहुत बड़ी विस्मय- कारी रोचक खोजें करते हो । जब तुम यह खोज लेते हो तो तुम जान जाते हो कि तुम निरंतर एक... स्थितिमें निवास कर रहे हों, सबसे अच्छा शब्द होगा ' 'आत्म-वंचना' ', एक स्वेच्छाकृत वंचनाकी स्थिति; अर्थात्, नैसर्गिक रूपसे तुम अपने-आपको धोखा देते हो । यह बात नहीं है कि इसके लिये तुम्हें सोचनेकी जरूरत पड़ती है : बढे सहज ढंगसे तुम अपने कियेपर परदा डाल देते हो ताकि वह यथार्थ रंगोंमें न देखे... और यह सब उन चीजोंके लिये होता है जो बिलकुल तुच्छ और महत्वहीन-सी होती हैं! क्या तुम नहीं देखते, कि यह बात तो समझमें आती है कि यदि अपनी गलती स्वीकार करनेसे किसीके जीवनतकके लिये गंभीर परिणाम उठ खड़े हों तो आत्मरक्षाकी सहजवृत्ति बचावके लिये उससे यह करा लें, लेकिन यहां वह बात नहीं है, यह तो उन चीजोंके लिये है जो बिलकुल महत्वहीन हैं, जिनका कुछ भी परिणाम नहीं निकलता, सिर्फ इतना ही होता है कि
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तुम्हें अपने-आपसे कहना पड़े : ''मैं अपनेको छल रहा था ।',
इसका मतलब यह हुआ कि मानसिक रूपसे सच्चा या निष्कपट बननेके लिये प्रयास आवश्यक है । इसके लिये आवश्यकता है प्रयासकी, अनुशासनकी । स्वभावतः, मैं उन लोगोंकी बात नहीं कर रही जो इसलिये झूठ बोलते हैं कि वे पकड़े न जायं, क्योंकि, यह तो सभी जानते है कि ऐसा नहीं करना चाहिये । इसके अतिरिक्त, सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण सर्वाधिक निरर्थक होते है क्योंकि वे इतने सुस्पष्ट होते है कि उनसे कोई भी धोखा नहीं खा सकता । ऐसे उदाहरण हमें निरंतर मिलते हैं; तुम किसी- को गलती करते हुए पकड़े और उसे कहो : ''यह ऐसे है''; वह म्खताभरी सफाई देगा जिसे कोई नहीं समझ सकता, कोई नहीं मान सकता, यह बेतुकी होती है लेकिन अपनेको बचानेकी आशासे यह की जाती है 1 यह अनायास होता है, है न? लेकिन यह जानी हुई बात है कि ऐसा नई? किया जाता । पर एक दूसरी तरहका धोखा तो और भी अधिक सहज है और इसकी इतनी आदत होती है कि पता भी नहीं चलता । अतः जब हम मानसिक ईमानदारीकी बात केहते है तो हम उसके बारेमें कहते है जो सतत और अध्यवसायी प्रयाससे प्राप्त की जाती है ।
तुम अपने-आपको पकड़ते हो, है न? अचानक पकड़ते हों, अपने सिरमें कहीं या फिर यहां (श्रीमां हदयकी ओर संकेत करती है), जो और भी गंभीर है -- अपने-आपको छोटी-सी बड़ी मन-पसंद सफाई देते हुए पकडू लेते हो । और तभी जब तुम अपनेको पकडूमें ले लेते हो, कसकर जकड़ रहते हो और अपने-आपको आमने-सामने साफ-साफ देखते हुए कहते हा' : ''क्या तुम सोचते हो कि यह ऐसा है? '' और, यदि तुम बहुत साहसी हो, और गहरा दबाव डालों तभी तुम अपनेसे यह कहकर पडि छुटाते हों : ''हां, मैं अच्छी तरह जानता हू कि यह वैसा नहीं है! ''
कमी-कमी इसमे बरसों लग जाते है । स्पष्टतया और पूर्णतया यह देखनेके लिये कि व्यक्ति अपने-आपको कितना धोखा दे रहा था, और वह भी उस समय जब कि उसे विश्वास था कि वह सच्चा है, लंबा समय लगना जरूरी है, उसे अपने भीतर बहुत कुछ बदलना जरूरी 'है, चीजोंको देखनेका दृष्टिकोण भिन्न होना जरूरी है, परिस्थितियोंके सामने आनेपर एक अलग अवस्था होनी जरूरी है, एक दूसरा संबंध जरूरी है ।
यह संभव है कि पूर्ण सत्यनिष्ठा तबतक न आ सके जबतक हम इस
मिथ्यात्वमरे जीवनके, जैसा कि हम इसे धरापर जानते है, यहांतक कि उच्चतर मानसिक' जीवनके भी, क्षेत्रसे ऊपर न उठ जायं ।
जब व्यक्ति उच्चतर क्षेत्रमें, 'सत्य'की दुनियामें उठ आयेगा, तब वह सचमुच वस्तुओंको उनके यथार्थ रूपमें देख सकेगा, और उन्हें यथार्थ रूपमे देखकर उनके वास्तविक सत्यमें जी सकेगा । तब स्वभावतया सभा मिथ्यात्व ढह जायंगे । अपने अनुकूल सफाइये देनेका कोई प्रयोजन नहीं रह जायगा, वे तुर्त हों जायंगी क्योंकि सफाई देनेको कुछ रह ही नहीं जायगा ।
वस्तुएं स्वयं-सिद्ध होंगी, 'सत्य' सब रूपोंमें चमकेगा, भ्रांतिकी संभावना लुप्त हों जायगी ।
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२८ मई, १९५८
''यह बिलकुल सत्य है कि एक बाहरी दृष्टिको 'प्राण' 'जडु'का ही एक व्यापार लगता है, 'मन' 'प्राण'की क्यिा मालूम होती है और हो सकता ह कि जिसे हम अंतरात्मा या आत्मा कहते हैं वह मानसकी ही एक शक्ति हो, अंतरात्मा 'मन'का ही एक सूक्ष्म रूप हो और आध्यात्मिकता एक सशरीर मानसिक सत्ताकी उच्च क्यिा । लेकिन यह एक बाहरी दृष्टि है क्योंकि इसमें विचार बाहरी रूप और प्रक्रियापर ही केंद्रित रहता है और यह नहीं देखता कि प्रक्रियाके पीछे क्या है । इसी दिशामें चलते हुए यह कहा जा सकता है कि बिजली जड़, बादल और जलर्कां उपज या उनकी क्रिया है क्योंकि ऐसे क्षेत्रोंमें ही बिजली कौंधती है । लेकिन अधिक गहरी खोजने बताया है कि इसके विपरीत जल और बादल दोनों ही का आधार है बिजलीकी ऊर्जा, वही उनकी संघटक शक्ति या ऊर्जा -- पदार्थ है । जो परिणाम दिखता है वहीं -- रूपमें भले न हो, पर वास्तवमें -- मूल स्रोत है, कार्य अपने सार तत्त्वमें देखनेवाले कारणसे पहले मौजूद होता हैं । बाहर प्रकट होनेवाली क्यिाशीलताका तत्त्व अपने वर्तमान कार्यक्षेत्रसे पहले होता है । विकसनशील प्रकृतिमें सब जगह ऐसा ही है । यदि 'जड़-पदार्थमें 'प्राण' पहलेसे न होता और 'जडमें प्राण' के रूपमें प्रकट न होता तो 'जड़-पदार्थ' कभी जीवन
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धारण न कर सकता । यदि प्राण और जड़-तत्वके पीछे 'मन- तत्त्व' न होता और विचारशील मन प्राणको अपना क्रियाक्षेत्र न बनाता तो जडमें स्थित प्राण कभी अनुभव, निरीक्षण, विचार, न कर पाता । इसी तरह मनसे प्रकट होनेवाली आध्यात्मिकता एक ऐसी शक्तिका चिह्न है जिसने अपने-आप प्राण, मन और शरीरकी स्थापना की है और अब सप्राण, विचारशील शरीरमेंसे आध्यात्मिक सत्ताके रूपमें प्रकट हो रहीं है । यह उन्मज्जन कहातक जायगा, बह प्रधान रूप ले सकेगा ओर अपने उपकरणको रूपांतरित कर सकेगा या नहीं, यह बादका प्रश्न है । पहली आवश्यकता तो यह स्थापित करनेकी है कि 'आत्माका अस्तित्व 'मनसे भिन्न है और वह 'मन 'से बड़ी है, आध्यात्मिकता मानसिकतासे भिन्न है और इसलिये आध्यात्मिक सत्ता मान- सिक सत्तासे स्पष्ट रूपमें भिन्न है : 'आत्मा' क्रमविकासमें अंतिम उन्मज्जन है क्योंकि वही अंतर्लयात्मक मौलिक तत्व और अंग है । विकास अंतर्लयनसे उलटी क्यिा है । अतर्लयनमें जो सब- के बाद, अंतमें आता है बह विकासमें सबसे पहले प्रकट होता है । अतर्लयनमें जो मौलिक और आद्य था वह विकासमें अंतिम और परम उन्मज्जन हो जाता है ।''
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८५२-५३)
आज मुझसे अवतारके बारेमें बोलनेके लिये कहा गया है ।
पहली बात तो मुझे यह कहनी है कि श्रीअरविदने इस विषयपर लिखा है और जिसने मुझसे यह प्रश्न किया है वह श्रीअरविंदका लिखा हुआ पढ़ना शुरू करे तो अच्छा होगा ।
उसके बारेमें मुझे कुछ नहीं कहना है क्योंकि उसे पढ़ना ही तुम्हारे लिये अधिक अच्छा होगा ।
पर मैं' तुम्हें एक बहुत पुरानी परंपरा, आध्यात्मिक और गुह्य परंपराओं- की दोनों ज्ञात धाराओं, अर्थात्, वैदिक और कैल्डियन धारणाओंसे मी पुरानी परंपराओंके ' बारेमें बताऊंगी; ऐसी परंपरा जो लगता है इन दो शांत धाराओंके मूलमें रही होगी । इसमें कहा जाता है कि जब विरोधी शक्तियोंके द्वारा जिन्हें हिंदू परंपरामें असुर कहते है -- यह संसार अपने 'ज्योति' और जन्मजात ' चेतना'के विधानके अनुसार प्रगति करनेके बजाय, तम, निश्चेतना और अविद्या, जिनसे हम परि-चालित हैं, मे डूब गया, तब 'सृजनकारी शक्ति' ने 'परम आदि मूल' से अभ्यर्थना की, इस पथ-
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म्पष्ट विश्वको बचानेके लिये विशेष हस्तक्षेपकी याचना की; -और इस प्रार्थनाके उतरमें 'परम मूल-स्रोतसे उद्भूत हुई प्रेम और चेतनासे निर्मित एक विशेष सत्ता जिसने सीधे निबिड़ निश्चेतन जडमें डुबकी लगायी ताकि वहां आदि 'चेतना' और 'प्रेम' के प्रति उसे जगानेका काम शुरू हो सकें ।
पुरानी कथाओंमें इस 'पुरुष 'का वर्णन इस प्रकार आता है कि एक बहुत अंधेरी गुफा के तलमें यह गहरी नींदमें सोया पड़ा है और वहां इसकी नींदमें ही इसमेंसे प्रकाशकी तेज रंगीन किरणें फूटी जो धीरे- धीरे निश्चेतनमें फैल गयीं और निश्चेतनके सब तत्वोंमें जा बसी, ताकि वहां 'जाग्रति'का काम शुरू कर सकें ।
यदि इस निश्चेतनमें कोई सचेतन भावसे प्रवेश करे तो अब भी वहां इस अलौकिक 'सत्ता'को देख सकेगा जो अभीतक गहरी नींदमें सोयी हुई है, निस्सरणका अपना कार्य कर रही है, 'ज्योति' फैला रही है; और वह उस समयतक यह करती रहेगी जब तक 'निश्चेतन' निश्चेतन न रह जायगा, जबतक दुनियासे अंधकार मिट नहीं जाता -- और सारी सुराइष्ट 'अतिमानसिक चेतना'के प्रति सजग नहीं हों जाती ।
और दर्शनीय बात यह है कि यह विलक्षण 'सत्ता' उस 'सत्ता 'के साय मिलती-जुलती है जिसे मैने एक दिन अपने अंतर्दर्शनमें देखा था, वह सत्ता जो दूसरे छोरपर, 'साकार' और 'निराकार' की सीमापर स्थित है । लेकिन वह सुनहली अरुण-प्रभा-मंडित थी जब कि यह अपनी नींदमें हीरे-सी चमकती शुभ्रता लिये थी जिससे दूधिया किरणें निकल रही थीं ।
और वास्तवमें, सब अवतारोंका मूल यही है । कहना चाहिये कि यह पहला वैश्व अवतार है जिसने धीरे-धीरे उत्तरोत्तर अधिक सचेतन शरीर धारण किये और अंतमें उन परिचित-सी 'सत्ताओंकी पंक्तिमें आविर्भूत हुआ जो विश्वको तैयार करनेके कामको पूरा करनेके लिये सीधी 'परम' के यहांसे अवतरित हुई है, ताकि विश्व निरंतर प्रगतिके द्वारा, अति- मानसिक 'ज्योति'को उसकी संपूर्णतामें ग्रहण करने और अभिव्यक्त करने- के लिये तैयार हो सकें ।
हर देशमें, हर परंपरामें, यह घटना एक खास ढंगसे, विभिन्न सीमाओं- के भीतर, विभिन्न विवरणोंके साथ, अमुक विशिष्टताओंके साथ प्रस्तुत की गयी है, लेकिन सच पूछो तो इन कथाओंका मूल एक ही है और कहा जा सकता है कि वह बीचकी सब अवस्थाओंसे गुजरे बिना अंधतम जडुमें, 'परम' का सीधा, सचेतन हस्तक्षेप है जिससे कि यह जड़-जगत् भागवत शक्तियोंको धारण करनेके लिये जाग उठे ।
इन अवतारोंको अलग करनेवाले अंतराल उत्तरोत्तर छोटे होते दीखते है, मानों जैसे जड़ अधिकाधिक तैयार होता गया वैसे ही क्रिया भी जोर पकड़ती और अधिक तेज होती चली गयी, साथ ही अधिकाधिक सचेतन और अधिकाधिक प्रभावशाली और निर्णायक भी ।
और यह अपने-आपको बहुगणित करता और तीव्र बनाता रहेगा जब- तक कि सकल ब्रह्माण्ड 'परम' का पूर्ण अवतार नहीं बन जाता ।
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४ जून, १९५८
''शुरूमें आत्मा और आध्यात्मिकताका यह सत्य मनके लिये स्वयं- सिद्ध नहीं होता । मनुष्यको मनके द्वारा अपनी आत्माका पता लगता है कि वह कोई ऐसी चीज है जो उसके शरीरसे भिन्न है, जो उसके सामान्य मन और प्राणके ऊपर है लेकिन उसे उसका कोई स्पष्ट संवेदन नहीं होता, केवल अपनी प्रकृतिपर पड़नेवाली कुछ प्रभावोंके प्रतीति होती है । चूंकि थे प्रभाव मनोमय और प्राणमय रूप लेते हैं इसलिये इनमें दृढ और तीक्ष्ण भेद नहीं किया जा सकता । अंतरात्माका प्रत्यक्ष बोध स्पष्ट और सुनिश्चित स्वतंत्रता नहीं प्राप्त करता । वास्तवमें बहुधा मानसिक और प्राणिक भागोंपर चैत्यके दबावके आधे प्रभावोंको, मानसिक अभीप्सा और प्राणिक कामनाओंकी मिली- जुली रचनाको भूलसे अंतरात्मा मान लिया जाता है, ठीक उसी तरह जैसे पृथक् करनेवाले अहंकारको आत्मा मान लिया जाता है, हालांकि अपने सच्चे रूपमें आत्मा सार रूपसे विश्वगत और व्यक्तिगत दोनों होती है । इसी तरह किसी प्रकारके दृढ या उच्च विश्वास या आत्मोत्सर्ग या परहितकामनाकी उत्तेजनासे प्रेरित मानसिक अभीप्सा और प्राणिक उत्साह और उत्कंठाके मिश्रणको भूलसे आध्यात्मिकता मान लिया जाता है । परंतु यह अस्पष्टता और उलझनें विकासके इस अस्थायी चरणमें अनिवार्य है क्योंकि अज्ञान ही इसका आरंभ-बिंदु है और हमारी पहली प्रकृतिका पूरा चिह्न हैं । इसलिये विकासको एक उपार्जित अनुभव या स्पष्ट ज्ञानके बिना अपूर्ण अंतर्भासिक प्रत्यक्ष दर्शन
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ओर सहज-प्रेरणा या खोजसे शुरू करना पड़ता है । यहांतक कि हवे रचनाएं भी जो प्रत्यक्ष दर्शन या प्रेरणाओंके पहले प्रभाव हैं या आध्यात्मिक विकासकी सूचक हैं, वे भी अप्रतिवार्य रूपमें अघूरी और काम-चलाऊ होनी चाहिये । लेकिन इस प्रकार उत्पन्न भूल सच्चे बोधके रास्तेमें बहुत बड़ बाधाके कप- में आती है और इसलिये इस बातपर जोर देना आवश्यक है कि आध्यात्मिकता उच्च बौद्धिकता नहीं है, आदर्शवाद नहीं है, मनका नैतिक मोड या नैतिक शुद्धता या तपस्या नहीं है । बह धार्मिकता या उग्र और ऊंचा उठाया हुआ धार्मिक भावावेग नहीं है और न इन सब उत्तम वस्तुओंका सम्मिश्रण ही है । एक मानसिक विश्वास, धर्म था मत, भावुकता-भरी अभीप्सा, धार्मिक या नैतिक नियमोंके अनुसार जीवनका नियंत्रण आध्यात्मिक उपलब्धि या अनुभूति नहीं है । मन और प्राणके लिये ये चीजों काफी मूल्यवान् हैं । स्वयं आध्या- त्मिक विकासके लिये भी इनका यह मूल्य है कि ये प्रकृतिको तैयार करने, संयत करने या उपयुक्त रूप देनेवाली क्रियाएं हैं, फिर भी ये मानसिक विकासकी चीजों हैं, -- इनमें अभीतक आध्यात्मिक उपलब्धि, अनुभूति और परिवर्तनका आरंभ नहीं हुआ है । अपने सार रूपमें आध्यात्मिकता है अपनी सत्ताके आंतरिक सत्यके प्रति, उस आत्मा, अंतरात्माके प्रति जागरण जो हमारे मन, प्राण, शरीरसे भिन्न है, उसे जानने, अनुभव करने, वही बन जानेकी आंतरिक अभीप्सा, उस महत्तर परम सत्ताके साथ नाता जोड़ना और उसके साथ संबंध रखते हुए एक हो जाना जो हमारे अंदर भी निवास करती है, सारे विश्वमें व्याप्त है और इस सबके परे भी, और इस अभीप्सा, संपर्क और ऐक्यके परिणामस्वरूप हमारी सारी सत्ताका घुमाव, परिवर्तन या रूपांतर, एक नयी संभूति, नयी सत्ता, नयी आत्मा और नयी प्रकृतिमें अभिवृद्धि था जागरण ।''
('लाइफ डिवाइन', पृ० ट'अ६६-५(७)
असलमें, जबतक संदेह या हिचकिचाहट रहती है, जबतक तुम यह जाननेके लिये अपने-आपसे प्रश्न करते हों कि शाश्वत आत्मासे तुम्हारा साक्षात्कार हुआ है या नहीं, तबतक यह प्रमाणित होता है कि सच्चा संपर्क अभीतक नहीं हो पाया है । क्योंकि, जब यह अद्भुत घटना घटती है तो वह अपने
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साथ ऐसा ''कुछ'' लें आती है जो इतना अनिर्वचनीय, इतना नवीन ओर इतना अनिर्वचनीय होता है कि शंका या प्रश्नकी गुंजायश ही नहीं रूह जाती । यह सचमुच, इस शब्दके पूरे-पूरे अर्थोंमें, नव-जन्म होता
तुम एक नये व्यक्ति बन जाते हों, और चाहे जो मार्ग हो या बादके मार्गकी जो भी कठिनाइयां हों, वह अनुभूति तुम्हें कारी नहीं छोड़ती । यह दूसरी बहुत-सी अनुभूतियोंकी तरह वैसी चीज नहीं है जो पीछे हट जाती है, पृष्ठभूमिमें चली जाती है, जो तुममें बाहरी रूपमें एक धुंधली स्मृति छोड़ जाती है जिसे पकड़े रहना कठिन हो जाता है, जिसकी याद फीक पड जाती है, मलिन हों जाती है, नहीं, यह ऐसी नहीं है । ' तुम नये व्यक्ति बन जाते हो, और निश्चित रूपसे वही रहते हों चाहे कुछ मी क्यों न हो जाय । और मनकी सारी अक्षमताएं, प्राणकी सारी कठिनाइयां, शरीरका सारा तम मी इस नयी स्थितिको नहीं बदल सकता, यह नयी स्थिति जो चेतनाके जीवनमें एक निर्णायक काट लाती है । पहले- की सत्ता और बादकी सत्ता एक जैसी नहीं रह जाती । विश्वमें तुम्हारी स्थिति और उसके साथ संबंध, जीवनमें स्थिति और उसके साथ संबंध, समझनेकी अवस्था और उसके साथ संबंध वही नहीं रह जाते : वास्तविक विपर्यय या उलटाव है जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता । इसलिये जब लोग मुझसे कहते हैं : ''मैं जानना चाहता हू कि मैं' अपनी आत्माके संपर्कमें हू या नही,'' तो मैं उनसे कहती हू : ''यदि तुम यह प्रश्न करते हो तो यही इस बातको प्रमाणित करनेके लिये काफी है कि आत्माके साथ तुम्हारा संबंध नहीं है । तुम्हें इसके उतरकी जरूरत नहीं, क्योंकि तुम खुद ही उसका उत्तर दे रहे हों ।'' जब वह होता है तो बस होता है, फिर सब खतम, इसके अलावा और कुछ नहीं रह जाता ।
और चूंकि हम उसके बारेमें बात कर रहे है तो मैं तुम्हें उस बातकी याद दिलाती चलूं जो श्रीअरविन्दने कही है, दोहरायी है, लिखी है, दावेके साथ कही है और बार-बार कही है, यानी, उनके योगका, पूर्ण योगका प्रारंभ इस अनुभूतिके बाद ही हो सकता है, उसके पहले नहीं ।
अतः, इस कल्पना और अमको मत पोस कि यह अनुभूति होनेसे पहले कोई यह जानना शुरू कर सकता है कि अतिमानस क्या है, और इसके बारेमें कोई धारणा बना सकता है, चाहे वह कितनी मी छोटी क्यों न हों ।
इसलिये, यदि कोई इस पथपर आगे बढ़ना चाहता है तो पहले बड़ी विनम्रतासे इस नव-जन्मकी राहपर चल पड़ना चाहिये, और अतिमानसिक
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अनुभूतियां प्राप्त कर सकनेके भ्रमको पोसनेके पहले आत्माका साक्षात्कार करना चाहिये ।
तुम्हें दिलासा देनेके लिये मैं इतना कह सकती हू कि तुम्हारे इस समय धरतीपर जीनेके तथ्य-भरसे -- चाहे तुम इसके बारेमें सचेतन होओ या नहीं, चाहे तुम इसे चाहो या नहीं -- तुम हर सांसके साथ इस नये अतिमानसिक तत्त्वको आत्मसात् कर रहे हो, जो इस समय पार्थिव वायुमंडलमें फैल रहा है । और वह तुम्हारे अंदर उन वस्तुओंको तैयार कर रहा है जो तुम्हारे निर्णायक कदम उठाते ही एकदम एकाएक अभिव्यक्त होंगी ।
यह तुम्हें कदम उठानेमें मदद करेगा या नहीं, यह दूसरी बात है जिसका अध्ययन करना शेष है, क्योंकि जो अनुभूतियां होती हैं, और जो अब बार- बार होंगी वे बिलकुल नये ढंगकी होंगी, क्या होने जा रहा है यह पहलेसे ही नहीं जाना जा सकता; अध्ययन करना होगा, और गहरे अध्ययनके बाद ही निश्चयके साथ कहा जा सकेगा। कि यह अतिमानसिक तत्व नव- जन्मके कार्यको आसान बनायेगा या नही.. । मैं तुम्हें इसके बारेमें कुछ समय बाद बताऊंगी । फिलहाल, अधिक अच्छा होगा कि इन वस्तुओंपर निर्भर न रहो और सहज रूपसे आध्यात्मिक जीवनमें जन्म लेनेके मार्गपर चल पडो ।
जब तुम वहांतक पहुंच जाओगे तब वे सारे प्रश्न जो तुम्हारे अंदर उठते हैं, या तुम मुझसे पूछते हो, हल हों जायेंगे ।
जो भी हो, जीवनके प्रति तुम्हारी वृत्ति इतनी भिन्न हो जायगी कि तुम यह समझने लगोगे कि आध्यात्मिक रूपसे जीनेका क्या मतलब होता है । और तब, तुम एक बड़ी चीज भी समझ जाओगे, बहुत बड़ी चीज, कि बिना अहंके कैसे जिया जा सकता है ।
तबतक उसे कोई नहीं समझ सकता । सारा जीवन अहंपर इतना अधिक निर्भर है कि लगता है कि अहंमें या अहंके द्वारा न हो तो जीना या कुछ करना नितांत असंभव है । पर इस नव-जन्मके बाद तुम मुस्कराते हुए अहंको देख सकते हो और उससे कह सकते हो : ''मेरे दोस्त, अव मुझे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं रही! ''
यह भी उन परिणामोंमेसे एक परिणाम है जो तुम्हें मुक्तिकी काफी निश्चयात्मक अनुभूति प्रदान करता है ।
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११ जून, १९५८
''जब निश्चयात्मक उन्मज्जन होता है तो उसका एक चिह्न है हमारे अंदर एक. ऐसी निहित, आंतरिक, स्वयंभू चेतनाकी स्थिति या क्यिा जो अपने-आपको अपने अस्तित्वके कारण ही जानती है, जो कुछ उसके अंदर है उसे भी उसी तरह तादात्म्यके द्वारा जानती है और जो कुछ हमारे मनको बाहरी लगता है उसे भी उसी ढंगसे, एक ऐसी तादात्म्यकी क्रियाद्वारा था आंतरिक साक्षात् चेतनाके द्वारा देख पाती है जो वस्तुओंको बाहरसे व्याप्त कर लेती है, उसे भेदती है, उसके अंदर प्रवेश करती है, उस वस्तुके अंदर अपने-आपको पाती है और उसमें किसी ऐसी चीजसे अवगत होती है जो मन, प्राण या शरीर नहीं है । तो यह स्पष्ट है कि एक आध्यात्मिक चेतना है जो मनसे भिन्न है और वह हमारे अंदर एक ऐसी आध्यात्मिक सत्ताकी उपस्थितिको प्रमाणित करती है जो हमारे ऊपरी मानसिक व्यक्तित्वसे भिन्न है ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ ८५५)
मधुर मां, क्या सबमें आध्यात्मिक सत्ता होती है?
यह निर्भर है कि हम ''सत्ता'' किसे कहते है । यदि हम ''पुरुष' के स्थानपर ''उपस्थिति'' कहें, तो, हो, सबके अंदर आध्यात्मिक उपस्थिति होती है । यदि ''पुरुष' से हमारा मतलब है एक संगठित, अपने बारेमें पूर्ण सचेतन, स्वतंत्र और निश्चयपूर्वक अपना अधिकार जमानेवाली शक्तिसे युक्त और बाकी सारी प्रकृतिको शासित करनेवाली सत्तासे -- तो नहीं! इस स्वतंत्र और सर्वशक्तिमान् सत्ताके होनेकी संभावना तो सबमें है, लेकिन इसकी उपलब्धि लंबे प्रयासका फल होती है ' जिसमें कभी-कभी तो अनेक जन्म लग जाते है ।
यह आध्यात्मिक उपस्थिति, यह अंतरप्रकाश हर एकमें होता है, यहां- तक कि बिलकुल शुरूसे होता है... । असलमें, यह सब जगह है । मैंने इसे बहुत बार कुछ पशुओंमें देखा है । अमुक संयम और सुरक्षाकी नींवमें यह एक चमकते बिंदुकी तरह होती है, एक ऐसी चीज जो अर्ध-चेतन अवस्थामें भी बाकी सृष्टिके साथ सामंजस्य बनाये रखना संभव करा देती
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है ताकि ऐसे विछवंस साधारण और स्थायी न बन जायं जिनका कोई इलाज न हो । इस उपस्थितिके बिना प्राणिक हिंसा और आवेशोंसे उपजी अव्यवस्था ऐसी होगी जो किसी भी क्षण व्यापक विछवंस ला सकती है, एक तरहका पूर्ण विध्वंस जो प्रकृतिकी प्रगतिको रोक देगा । यही वह उपस्थिति है, वह आध्यात्मिक ज्योति है -जिसे लगभग आध्यात्मिक चेतना कहा जा सकता है - जो प्रत्येक जीवमें है, प्रत्येक वस्तुमें है । इसीके कारण सब विषमताओं, आवेगों और उग्रताओंके होते हुए भी कम-से-कम कुछ व्यापक सामंजस्य तो रहता ही है जो प्रकृतिके कार्यको ससिद्ध होने देता है ।
मनुष्यमें यह उपस्थिति काफी प्रत्यक्ष हो जाती है, यहांतक कि सर्वाधिक अविकसित मनुष्यमें भी । यहांतक कि अति दानवीय मानवमें भी, ऐसे मानवमें भी जिसे देखकर राक्षस या दानवके अवतारका ही आभास मिलता है, उसमें भी कुछ ऐसी चीज होती है जो दुर्दमनीय रूपसे नियंत्रण करती है - बुरे-से-बुरे मनुष्यके लिये भी कुछ चीजों असंभव होती है । और इस उपस्थितिके बिना, यदि जीवन अनन्य भावसे विरोधी शक्तियोंद्वारा, प्राण- की शक्तिद्वारा अधिकृत होता तो यह असंभवता न रहती ।
हर बार, जब इन विरोधी या आसुरी शक्तियोंकी लहर धरापर फैलती है तो लगने लगता है कि अब इस अस्तव्यस्तता और संत्रासको फट पडूने- से कोई न रोक सकेगा, और सदा हीं, एक निश्चित घडीमें, बिलकुल आशा- तीत और अव्यास्येय रूपमें एक नियन्त्रण हस्तक्षेप करता है और वह लहर थाम ली जाती है, और पूर्ण विध्वंस नहीं हो पाता । और यह होता है जड़-पदार्थमें उसी 'उपस्थिति'के कारण - परम प्रभुकी उपस्थितिके कारण ।
पर बहुत ही विरले लोगोंमें और लंबी, बहुत लंबी, जन्म-जन्मांतरोंकी लंबी तैयारीके बाद ही यह' 'उपस्थिति' एक सचेतन, स्वतंत्र, सुसंगठित सत्तामें बदलती है, जिस घरमें रहती है उसकी सर्व-समर्थ स्वामिनी बनती है, इतने पर्याप्त रूपमें सचेतन और सशक्त होती है कि न केवल इस घर- को, बल्कि इसके परिवेशको सदा अधिकाधिक विस्तृत और सदा अधिक प्रभावशाली हाते हुए क्रिया और विकिरणके क्षेत्रको भी नियंत्रित कर सकती है !
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१८ जून, १९५८
''आंतरिक सत्ताको खोलनेके प्रयासमें प्रकृतिने चार मुख्य दिशाओं- का अनुसरण किया है, -- धर्म, गुह्य विद्या, आध्यात्मिक विचार और आंतरिक आध्यात्मिक उपलब्धि और अनुभूति । इनमें पहली तीन उस तरफ जानेवाली गालियां है और चौथी दिशा ही वहां प्रवेश पानेका खुला रास्ता है । इन चारों शक्तियोंने एक साथ कभी कम या ज्यादा संबंध रखते हुए, कभी बदलते हुए सहयोग, कभी एक-दूसरेका खंडन करते हुए और कभी एकदम स्वतंत्र रूपमें काम किया है । धर्मने अपने कर्मकांड, अनुष्ठान और संस्कारोंमें गुह्य तत्व स्वीकार किया है, उसने आध्यात्मिक चिंतनका सहारा लिया है । उसने कभी उससे मत या धर्मशास्त्रको प्राप्त किया है, कभी उसके सहायक आध्या- त्मिक दर्शनको पाया है । इसमें पहली विधि सामान्यतः पश्चिम- की है और दूसरी पूर्वकी । लेकिन आध्यात्मिक अनुभूति ही धर्मका अंतिम लक्ष्य और उपलब्धि, उसका आकाश और शिखर है । लेकिन कभी-कभी धर्मने गुह्य विद्याका निषेध भी किया और अपने गुह्य तत्त्वको कम-से-कम कर दिया है, उसने दार्शनिक मनको शुद्ध बौद्धिक विदेशी मानकर परे हटा दिया है और अपने पूरे भरके साथ मत, धार्मिक आग्रह, धार्मिक भावावेग, पार्थिव उत्साह और नैतिक आचरणका सहारा लिया है; उसने आध्यात्मिक उपलब्धि और अनुभूतिको कम-से-कम कर दिया है या एकदम हटा दिया है । गुह्यजान कभी-कभी आध्यात्मिक उद्देश्यको अपना लक्ष्य बनाया है और गुड्यान और अनुभूतिको उसका एक मार्ग बनाया है और एक प्रकारके गुह्य दर्शनकी रचना की है लेकिन अधिकतर उसने आध्यात्मिक दृश्योंके बिना ही अपने-आपको गुड्यान और अम्यासोतक ही सीमित रखा है । बह इंद्रजाल या केवल जादूगरीकी ओर मुड गया और पैशाचिक आचरणतक जा पहुंचा है । आध्यात्मिक दर्शन प्रायः ही दर्शनकी सहायता लेता रहा है और उसे अपना सहारा था अनुभूतिका मार्ग मानता रहा है । वह उप- लब्धि और अनुभूतिका परिणाम रहा है था उसने ऐसी रचनाएं की हैं जो वहांतक पहुंचनेका साधन हों । लेकिन उसने धर्मकी
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सहायता -- या बाधाका पूरा परित्याग किया है और अपने ही बलपर आगे चला है । बह या तो मानसिक ज्ञानसे संतुष्ट रहा है था उसने विश्वासके साथ अनुभव ओर प्रभाव- शाली साधनाका रास्ता ढूंढ लिया है । आध्यात्मिक अनुभूतिने इन तीनों साधनोंका आरंभ-बिंदुका रूपमें उपयोग किया है लेकिन उसने उन सबको भी त्यागकर शुद्ध रूपसे अपने ही बल- का आश्रय लिया है । उसने गुह्य ज्ञान और शक्तियोंको भयानक प्रलोभन और उलझानेवाली बाधाएं मानकर दूर रखा । उसने केवल आत्माके शुद्ध सत्यकी खोज की और दर्शनको उठाकर रख दिया । उसकी जगह वह हदयके उत्साह और एक आंतरिक रहस्यमय आध्यात्मीकरणके द्वारा अपने लक्ष्यपर पहुंचती है । वह धार्मिक मतों, पूजा, आचार-व्यवहार आदिको निचली कोटिका या पहली भूमिका मानकर, इन सब सहारोंको छोड़कर, सब जालोंको उतारकर आध्यात्मिक परमार्थ तत्त्वके शुद्ध संपर्कतक जा पहुंची है । ये सब विभित्रताएं आवश्यक थीं । प्रकृति- ख विकासात्मक प्रयासने अपना सच्चा मार्ग पानेके लिये और परम चेतना और पूर्ण ज्ञान पानेके लिये, अपना सच्चा और संपूर्ण मार्ग खोज निकालनेके लिये सभी दिशाओंमें प्रयोग किये है । इनमेंसे हर एक साधन था मार्ग हमारी समग्र सत्ताकी किसी चीजके अनुरूप है और इसलिये उसके विकासके पूर्ण लक्ष्यके लिये आवश्यक है । मनुष्यके आत्म-विस्तारके लिये चार बातें आवश्यक हैं, यदि उसे ऊपरी तलके अज्ञानका ऐसा प्राणी न रहना हो जो वस्तुओंके सत्यको अंधेरेमें टटोलता हुआ और ज्ञानके टुकड़ों और खंडोंको जोड़नेवाले -- बाहरी तलपर, अभी जैसा है, वैसा ही - छोटा-सा वैश्व 'शक्ति 'का अर्ध-क्षम जीव है । उसे अपने-आपको जानना चाहिये और अपनी सभी क्षमताओंको खोजना और उनका उपयोग करना चाहिये । लेकिन अपने- आपको और जगत्को पूरी तरह जाननेके लिये उसे अपने और उसके बाहरी रूपके पीछे जाना होगा, उसे अपनी मानसिक सत्ता और प्रकृतिके भौतिक तत्त्वके नीचे गहरी डुबकी लगानी होगी । यह तभी किया जा सकता है जंबू वह अपने आंतरिक मन, प्राण, शरीर और चैत्य सत्ता और उसकी शक्तियों और गति-विधियों तथा वैश्व विधानों और गुह्य 'मन' और 'प्राण' की प्रक्यिाओंको जाने जो विश्वके भौतिक उग्र रूपके पीछे मौजूद
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हैं : यदि गुह्यवाद शब्दको इसके विस्तृत अर्थोंमें लें तो यही गुह्यवादका क्षेत्र हैं । उसे उस 'शक्ति' या उन 'शक्तियों'को भी जानना चाहिये जो जगत् पर शासन करती हैं । यदि कोई 'वैश्व आत्मा' या 'स्रष्टा' है तो उसके साथ जैसे भी संभव हो संबंध या सायुज्य स्थापित करके वैश्व सत्ता या विश्वकी शासक 'सत्ताओंके साथ या परम पुरुष और उनके परम संकल्पके साथ किसी प्रकारकी समस्वरता लाकर उसके दिये हुए विधानका अनुसरण करे और उसके द्वारा दिये हुए या प्रकट किये हुए जीवन और आचरणके लक्ष्यका अनुसरण करे । और अपने- आपको उस ( पुरुष) की मांगके अनुसार उच्चतम उच्चतातक उठानेमें समर्थ हो । वह ( पुरुष) इस जन्ममें या अगले जन्म- मे जिस उच्चतर उच्चताकी मांग करता है, उसतक अपने-आप- को उठानेमें समर्थ हो । और अगर इस प्रकारकी कोई वैश्व या परम 'सत्ता' दा 'आत्मा' नहीं है तो उसे यह जानना चाहिये कि वह है क्या, और अपनी वर्तमान अपूर्णता और अशक्यतामेंसे वहांतक कैसे उठा जा सकता है । यह धर्मका रास्ता है । उसका उद्देश्य है मानव और भगवान्में संबंध स्थापित करना और यह करते हुए विचार, प्राण और शरीरको इतना ऊंचा उठाना कि वे अंतरात्मा और आत्माके शासनको स्वीकार कर सकें । परंतु यह ज्ञान एक मत या रहस्यमय अंतःप्रकाशसे बढ़कर होना चाहिये । मनुष्यके विचारशील मनको इसे स्वीकार कर सकना, वस्तुओंके तत्व और विश्वके अवलोकित सत्यके साथ यह संबंध करनेमें समर्थ होना चाहिये । यह दर्शनका क्षेत्र है और आत्माके सत्यके क्षेत्रमें यह काम केवल आध्यात्मिक दर्शन ही कर सकता है । चाहे वह अपनी प्रक्रियामें बौद्धिक हो या अंतर्भासिक । किंतु सारा ज्ञान और सारा प्रयास तभी सफल हो सकता है जब वह अनुभूतिमें बदल जाय और चेतना तथा उसकी प्रतिष्ठित क्यिाओंका अंग बन जाय । आध्यात्मिक क्षेत्रमें सभी धार्मिक, गुह्य या दार्शनिक ज्ञान और प्रयास तभी सफल हो सकते हैं जब ३ अंतमें आध्यात्मिक चेतनाको खोल सकें और ऐसे अनुभवोंको लाये जो उस चेतनाकी प्रतिष्ठा करें, उसे हमेशा उन्नत, विस्तृत और समृद्ध बनायें तथा ऐसे जीवन और कर्मकी रचना करें जो आत्माके सत्यके अनुरूप रह सकें ।', ( 'लाइफ डिवाइन', पृ ० ८६० -६२)
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एक बात बड़ी विलक्षण है -- अब मुझे याद नहीं कि आगे चलकर श्री- अरविंद इसके बारेमें कुछ कहेगे या नहीं -- लेकिन ये चारों क्रियाएं या उपलब्धिया जिनके बारेमें श्रीअरविन्द कह रहे है (धर्म, गुह्यवाद, आध्यात्मिक दर्शन और आध्यात्मिक अनुभूति), और जो मनुष्यके रूपांतर एवं विकासके लिये आवश्यक हैं, समान रूपसे मनुष्यके पहुंचके भीतर नहीं है ।
जिसका, अधिक-से-अधिक मनुप्योंद्वारा (जो लगभग पूरी तरह भौतिक चेतनामें रहते हैं), अभ्यास किया जा. सकता है, और शायद जिसे अधिक-से-अधिक लोग ''समझ'' सकते है (यद्यपि वह निश्चय ही ''समझ'' नहीं है!), वह है धार्मिक पद्धति, केवल इसलिये कि वह निर्धारित मतों और प्रथाओंपर आधारित है । सिर्फ श्रद्धावश या सामूहिक सुझाव (मुख्यत: सामूहिक सुझाव) द्वारा अधिकांश मनुष्य जो अभीतक पर्याप्त आंतरिक विकासतक नहीं पहुंचे है, धर्मके मार्गपर इकट्ठे हों सकते है ।
गुहावादके लिये तो तुम्हें पहलेसे ही विकासके दूसरे चरणतक पहुंच जाना चाहिये और प्राणिक जगत्में और भी अधिक सचेतन होना चाहिये, ताकि शक्तियोंके खेलके साथ संपर्कमें आ सको, यह उनके संचालनके लिये अनिवार्य है ।
आध्यामिक दर्शनके लिये तो सिर्फ ३ थोड़े-से लोग हैं जिनका मानसिक विकास काफी पूर्ण हों चुका है और जो बौद्धिक स्तरपर पूर्णत: सचेतन है, जो इस साधनको उपयुक्त ढंगसे अपना सकते हैं; नहीं तो उन सबके लिये यह अंध-पत्र है जिनमें मानसिक कसरत करनेकी क्षमता नहीं है, और जो मनकी कलाबाजियोंका अनुसरण नहीं कर सकते !
और अंतमें, 'दिव्य जीवन' में कहींपर श्रीअरविदने कहा है कि आध्यात्मिक अनुभूतिके मार्गका अनुसरण करनेके लिये अपने अंतरमें ''आध्यात्मिक सत्ता'' होनी चाहिये, तुम्हें ''द्विज'' होना चाहिये, क्योंकि यदि अपने अंदर आध्यात्मिक सत्ता नहीं है जो कम-से-कम आत्म-ज्ञान पानेके छोर- पर तो हो, तो भले व्यक्ति उन अनुभूतियोंकी नकल करनेकी चेष्टा कर लें, पर वह घटिया अनुकरण होगा या पाखंड, वह वास्तविकता नहीं होगी ।
फलतः, एक साथ ही इन चारों मार्गोंका अनुसरण कर सकने और उनके अम्याससे सत्ताके लिये पूरा लाभ उठानेके लिये पहलेसे ही पूर्ण व्यक्तित्व होना चाहिये, जो मानवी और आध्यात्मिक प्रक़ुतिके चारों मुख्य- तत्वोंमें सचेतन जीवनके योग्य हो ।
स्वभावतः, यह आंतरिक विकास सदा प्रत्यक्ष नहीं होता, और हमारी
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भेंट किसी ऐसे व्यक्तिसे हों सकती है जिसके अंदर एक सचेतन आध्यात्मिक सत्ता हो, जो सुन्दरतम अनुभूतियां पानेके लिये तैयार हों, जब कि, बाहर- से वह बिलकुल अनगढ़ और अधूरा दिखता हो ।
यह भी जरूरी नहीं कि इस प्रगतिका उल्लिखित कर्मसे ही अनुसरण किया जाय, पर यदि हम चाहें कि हमारी उपलब्धि पूर्ण हो और सत्ताका पूर्ण रूपांतरण हो तो इन साधनोंमें हर एक जो कुछ लाये उसके सारका हमें उपयोग कर सकना चाहिये ।
चैत्य या आध्यात्मिक चेतना तुम्हें गहरी आंतरिक सिद्धि, भगवानके साथ संपर्क, बाह्य बाधाओंसे मुक्ति देती है; पर यदि इस मुक्तिका असर होना है, बाकी सत्तापर इसकी प्रतिक्रिया होनी है तो मनको काफी उपर्युक्त होना होगा, ताकि 'ज्ञान'की आध्यात्मिक ज्योतिको धारण कर सके; प्राणको यथेष्ट शक्तिशाली होना होगा, ताकि प्रत्यक्ष रूपोंके पीछेकी शक्तियोंका संचालन कर सकें, उनपर प्रभुत्व पा सके, शरीरको काफी अनुशासित और व्यवस्थित होना होगा ताकि नित्यके, हर पलकें आचरण और चेष्टामें गहरी अनुभूतिको व्यक्त कर सके और संपूर्ण जीवन जी सके ।
यदि इन चीजोंमेंसे एकाकी भी कमी हो तो परिणाम पूर्ण नहीं होगा । कोई यह बहाना बनाकर कि यही सबसे महत्त्वपूर्ण, 'केंद्रीय वस्तु' नहीं है -- इस या उस चीजको अति तुच्छ समझ सकता है -- और बाहरी चीजोंकी अवहेलना तुम्हें 'परम' के साथ आष्यात्मिक संबंध बनानेमें रोक नहीं सकती, पर यह बात जीवनसे पलायन करनेवालोंके लिये ही अच्छी है । यदि हमें संपूर्ण समग्र सत्ता बनना है, सर्वांगीण सिद्धि पानी है, तो हमें अपनी आध्यात्मिक अनुभूतिको मन-प्राण-शरीरमें रूपायित कर सकना चाहिये । जितना ही यह रूपायन पूर्ण होगा, अखंड और संपूर्ण सत्ताद्वारा संपादित होगा, उतनी ही हमारी सिद्धि सर्वांगीण और अविकल होगी ।
पूर्ण योगका अनुसरण करनेवालोंके लिये कुछ भी निरर्थक नहीं है और कुछ भी उपेक्षा योग्य नहीं है... । सारी बात है हर चीजको उसके उचित स्थानपर रखना जानना, और उसीको शासनका भार देना जो सचमुच शासनका अधिकारी हो ।
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२५ जून, १९५८
''वस्तुओंका स्वभाव ही ऐसा है कि सारे विकासको शुरूमें एक धीमे उन्मीलनके रूपमें बढ़ना होता है । हर नये तत्त्वको, जो अपनी शक्तियां विकसित करता है, 'निश्चेतना' और 'अज्ञान'की अंतर्लीनतामेंसे अपना रास्ता बनाना पड़ता है । उसे 'निश्चेतना'- की ओरसे आनेवाले और दबाव, उसके सहज विरोध और अवरोध तथा 'अज्ञान'के अड़ंगा लगानेवाले मिश्रण और अंधे दुराग्रही विलबनोंका सामना करते हुए अपने-आपको अंतर्लयन और आदिम माध्यमके अंधकारकी पकडमेंसे निकालने- का कठिन काम करना पड़ता है । प्रकृति शुरूमें एक अस्पष्ट प्रेरणा और प्रकृतिको स्वीकार करती है और यह इस बातका चिह्न है कि गुह्य, अंतस्तलीय निमज्जित तत्व ऊपर आनेके लिये जोर लगा रहा है । तब जो चीज होनेवाली है उसके छोटे-छोटे आधे दवे हुए संकेत, अपूर्ण आरंभ, अनगढ़ तत्त्व, प्रारंभिक रूपरंग, छोटे, नगण्य, मुश्किलसे पहचानी जा सकने वाली प्रमात्राओंके रूपमें (''क्वांटा'') होते हैं । उसके बाद छोटे-बड़े रूप आते हैं, अधिक विशिष्ट और पहचाने जा सकने- वाले गुण दिखायी देने लगते हैं, पहले यहां-वहां, अपूर्ण रूपमें या बहुत हल्के, फिर ज्यादा स्पष्ठ; ज्यादा रचनात्मक और अंतमें निर्णायक उन्मज्जन, चेतनाका उलटाव (विपर्यय), उसके आमूल परिवर्तनकी संभावनाका आरंभ । फिर भी हर दिशामें बहुत कुछ करना बाफी है । विकासके प्रयत्नके सामने पूर्णताकी ओर लंबा और कठिन मार्ग है । जो किया जा चुका है उसे दृढ़ करना है, फिरसे गिरने और नीचेकी ओर आकर्षित होनेसे असफलता और विनाशसे सुरक्षित रखना है । इतना ही नहीं, उसे उसकी संभावनाओंके सभी क्षेत्रोंमें उसकी संपूर्ण आत्मोपलब्धिकी समग्रतामें, उसकी अधिक-से-अधिक उच्चता, सूक्ष्मता, समृद्धि और व्यापकतामें खोलना है । उसे प्रभुत्वपूर्ण सर्वग्राही और व्यापक होना है । हर जगह प्रकृतिकी यही प्रक्यिा होती है और इसकी उपेक्षा करना, प्रकृति जिस आशयसे कार्य करती है उसे खो देना और उसकी कार्य-प्रणालीकी भूल-भुलैयामें खो जाना है ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ० ८६२-६३)
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यह व्यक्तिगत विकासका बिलकुल ठीक वर्णन लगता है । यह ठीक ऐसा ही नैण । और इसीलिये व्यक्ति धैर्य खो बैठता है या हिम्मत हार जाता है क्योंकि उसे महसूस होता है कि वह आगे नहीं बढ़ रहा । लेकिन जब तुम शरीरका विकास - स्थूल (जड़) भौतिकका विकास -- करनेमें जुट जाते हों, जब तुम चाहते हो कि भौतिक देह साधना करे तो बिलकुल ऐसा ही होता है । बिना किसी सुनिश्चितता और यथार्थताके, बिना यह जाने कि कहांसे शुरू करें, तुम सब तरहकी चीजों करनेकी चेष्टा करते हों और तब तुम्हें महसूस होता है कि तुम टटोल रहे हो, ढूंढ रहे हो, चक्कर काट रहे हो पर कहीं पहुंच नही रहे । इसके बाद धीरे-धीरे, एक चीज दिखायी देती है, फिर दूसरी और बहुत देर बाद लगता है कि अब कुछ कार्यक्रम बन रहा है । और इसका वर्णन श्रीअरविन्द अंतकी तरफ करते है, जब क्रम- विकासका उद्देश्य प्रकट हो जाय और दिखायी देने लगे तो इस बातके लिये कितनी सावधानी बरतनी चाहिये कि पुन: उसे आदिम 'निश्चेतना' फिरसे लील न जाय!
और इसीलिये काम.... अंतहीन लगता है । फिर मी, इसे करनेका रास्ता केवल यही है 1 जिस पथपर चलना है वह शरीरकी अम्यस्त अवस्था- तक पहुंचता है और वह है प्रायः पूर्ण निश्चेतना जिसके हम अम्यस्त हैं, क्योंकि हम है ही ''वैसे'' । और इसके बाद चेतनाका पूर्ण जागरण, सब कोषाणुओं, सब अंगों, सब क्रियाओंका प्रत्युत्तर... दोनोंके बीच श्रमकी शताब्दियां दिखती हैं । जो भी हो, यदि किसीने खुलना, अभीप्सा करना, अपनेको देना सीख लिया है, और इन्हीं सब गतियोंको शरीरमें प्रयुक्त कर सकता है, कोषाणुओंको भी वही करना सीखा सकता है तो काम अधिक तेजीसे बढ़ता है । लेकिन अधिक तेजीसे मेरा मतलब तेज नही; यह अब भी लंबा और धीमा काम है । और हर बार, जब-जब कोई तत्व रूपांतरकी गतिमें पहले शामिल नहीं हुआ, पर अब शामिल होनेके लिये जाग पड़ा है तो हमें लगता है कि सब कुछ दुबारा नये सिरेसे करना होगा -- हम जिसे मान बैठे थे कि हो चुका है उसे मी दुबारा करना होगा । पर यह सच नहीं है, तुम वही चीज दुबारा नहीं करते, यह नये तत्वमें उसी तरहकी चीज करनी होती है जिसे या तो तुम पहले भूल गये थे या उसे एक तरफ रख दिया था, क्योंकि वह तैयार नहीं थी और जो अब तैयार होकर जाग उठी है और अपना स्थान लेना चाहती है । इस तरहके बहुत-से तत्व होते हैं... ।
तुम शरीरको बहुत सरल समझते हो, है न? यह एक शरीर है, यह ''मेरा'' शरीर है, आखिर है ते। एक ही रूप - परंतु यह ऐसा नहीं है!
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इसमें सैकड़ों सत्ताएं गुंथी हुई है । हर एक दूसरीसे बेखबर है, लेकिन सब किसी गहनतर चीजसे समन्वित हैं जिसे दे नहीं जानती, उन्हें ऐक्यका बोध केवल इसलिये है कि वे तत्वोंकी अनेकता और मित्रताके प्रति सचेतन नहीं ।
तत्वतः यह अनेकता ओर भिन्नता ही, बीमारियां न सही, पर अधिकतर विकारोंको पैदा करती है । कुछ ठीक-ठाक चल रहा है, मार्ग-दर्शक सूत्र भी हाथ लग गया है, तुम अपने पथपर बढ़ रहे हो, तुम्हें लगता है कि फल मिलने हीं वाला है और फिर सहसा ठप्पा! कुछ हों जाता है, बिलकुल अप्रत्याशित, तुम्हें पता भी नहीं था कि यह वहां था. यह जग जाता है और अभियानमें माग लेनेके लिये आग्रह करता है । पर यह भयंकर उथल-पुथल मचा देता है और तुम्हें सब कुछ नये सिरेस करना पड़ता है ।
अंतरकी सब सत्ताओंकी, सब प्रदेशोंकी साधना बहुत लोगोंने की है, उसे सविस्तार समझाया है, कुछने उसे क्रमबद्ध किया है, अवस्थाएं और रास्ते चिह्नित कर दिये है । तुम एक अवस्थासे दूसरी अवस्थातक चले जाते हो क्योंकि तुम्हें पता है कि यह ऐसे ही होना चाहिये, लेकिन जैसे ही तुम शरीरमें प्रविष्ट होते हो तो यह अछूते जंगलके समान है... । यहां सब कुछ करना हैं, सब कुछ संपन्न करना है, सब कुछ बनाना है । अतः तुम्हें बहुत-से धैर्य, अत्यधिक धैर्यके लैस होना होगा, यह मत सोचो कि तुम किसी कामके नहीं, क्योंकि इसमें बहुत समय लगता है । कमी हताश नहीं होना चाहिये, कमी अपनेसे यह मत कहो : ''ओह! यह मेरे लिये नहीं है ।' ' उसे हर एक कर सकता है यदि समय, साहस, सहनशीलता और आवश्यक अध्यवसायके साथ काममें जुट जाय । लेकिन ये सब अपेक्षित है । पर इन सबसे बढ़कर, सबसे बढ़कर जरूरत है कमी हिम्मत न हारनेकी, एक ही कामको दुबारा करनेके लिये, दस बार, विस बार, सौ बार करनेके लिये तैयार रहनेकी -- जबतक कि सचमुच वह पूरा न हो जाय । और यह प्राय. ही होता है कि जबतक सब कुछ नही हो जाता, काम समाप्त नहीं हो जाता, तबतक लगता रहता है कि हमने कुछ भी कह)' किया ।
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९ जुलाई, १९५८
''धर्मने यह दावा किया कि वह सत्यका निर्णय दैवी प्रमाण, अंत:- प्रेरणा, ऊपरसे आये हुए परम पवित्र और अचूक प्रभुत्वके आधारपर करता है । इस दावेके कारण उसने अपने-आपको निषेधके प्रति खोल दिया है । उसने अपने-आपको मानव विचार, भावना, आचार-व्यवहारपर विना किसी ननुनचके, बिना किसी बाद-विवाद या प्रश्नके लादना चाहा है । यह दावा अतिशय और अपक्व है यद्यपि एक तरहसे उन अंत:- प्रेरणाओं और प्रदीप्तियोंके आदेशात्मक और निर्बोध स्वभावके द्वारा धार्मिक भावनाओंपर आरोपित किया गया है जो उसे प्रमाणित करती हैं और उसे उचित ठहराती हैं और मनके अज्ञान, संदेह, दुर्बलता, अनिश्चितताके बीच अंतरात्मासे आती हुई गुह्य ज्योति और शक्तिके रूपमें श्रद्धाकी आवश्यकताके द्वारा आरोपित की गयी हैं । मनुष्यके लिये श्रद्धा अनिवार्य है, उसके बिना वह अपनी 'अज्ञात'की ओर यात्रा न कर सकेगा । लेकिन उसे आरोपित नहीं करना चाहिये । उसे आंतरिक आत्मासे मुक्त प्रत्यक्ष दर्शन या अलंध्य आदेशके रूपमें आना चाहिये । निर्विवाद स्वीकृतिके लिये उसका दावा. तभी उचित माना जा सकता है जब मनुष्यकी प्रगति आध्यात्मिक प्रयास- के परिणामस्वरूप उस उच्चतम ऋतचित्तक पहुंच जाय जो पूर्ण और समग्र है, सब प्रकारके मानसिक और प्राणिक मिश्रणोंसे मुक्त है । हमारे सामने यही चरम उद्देश्य है लेकिन अभीतक यह उपलब्ध नहीं हुआ है । और समयसे पहलेके दावेने मनुष्यकी धार्मिक सहज-वृत्तिके सच्चे कार्यको धुंधला कर दिया है । इस सहज-वृत्तिका सच्चा काम है आदमीको 'दिव्य सद्वस्तु'की ओर ले जाना । अभीतक उसने इस दिशामें जो कुछ पाया है उसे संगठित करना और हर आदमीको आध्यात्मिक साधनाका एक ऐसा ढांचा देना, 'दिव्य सत्य'को खोजने, स्पर्श करने और उसके नजदीक जानेका एक ऐसा मार्ग बतलाना जो उसकी प्रकृतिकी शक्यताओंके लिये उपयुक्त हो ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ ८६३-६४)
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मधुर मां, क्या व्यक्तिगत प्रयाससे श्रद्धा बढ़ायी जा सकती है?
श्रद्धा निश्चित रूपसे हमें भागवत कृपाद्वारा दिया गया उपहार है । यह सनातन सत्यकी ओर सहसा खुलते हुए द्वारकी तरह है जिसमेंसे हम उसे देख सकते हैं, लगभग छू सकते हैं ।
मानवीय आरोहणमें अन्य सब चीजोंकी तरह इसमें भी व्यक्तिगत प्रयासकी जरूरत पड़ती है (विशेषकर प्रारंभमें) । यह संभव है कि किन्हीं अपवाद- रूप परिस्थितियोंमें, किन्हीं ऐसे कारणोंसे जो हमारी बुद्धिकी पकडूमें बच निकलते है, श्रद्धा संयोगकी तरह, अप्रत्याशित रूपसे आये, चाहे इसके लिये अभ्यर्थना भी न की गयी हो, परंतु अकसर यह किसी कामनाका, आवश्यकता- का, अभीप्साका, सत्तामें किसी ऐसी चीजका प्रत्युत्तर होती है जो ढूंढता है और चाहती है, चाहे वह अनवरत और क्रमबद्ध रूपमें भले न हों । लेकिन, चाहे जैसे मी आयी हो, जब श्रद्धाका उपहार मिल चुका हों, जब यह आकस्मिक, आंतरिक प्रकाश हो चुका हो तब इसे सक्रिय चेतनामें निरंतर बनाये रखनेके लिये व्यक्तिगत प्रयास नितांत अपरिहार्य है । व्यक्तिको अपनी श्रद्धाको पकड़े रहना चाहिये, इसके लिये संकल्प करना चाहिये, इसके पीछे लगा रहना चाहिये, इसे बढ़ाना चाहिये, इसे सुरक्षित रखना चाहिये । मानव मनको संदेह, तर्क और संशय करनेकी एक बड़ी विकृत और शोचनीय आदत है । बस इसी जगह जरूरत पड़ती है मानव प्रयासकी : इन्हें माननेसे इन्कार करना, इनकी बात सुननेसे इन्कार करना और इससे बढ़कर इनका अनुसरण करनेसे इन्कार करना । संदेह और अविश्वासके साथ मानसिक रूपसे खेलनेसे बढ़कर खतरनाक कोई और खेल नहीं है । वे केवल शत्रु ही नहीं, भयंकर जाल हैं, एक बार कोई इनमें फंस जाय ते। उसके लिये अपने-आपको बाहर निकालना अत्यंत दुष्कर हो जाता है ।
कुछ ऐसे लोग हैं जो विचारोंके साथ खेलनेको, उनपर बहस करनेको, अपनी श्रद्धाका प्रतिवाद करनेको एक बड़ी मानसिक सुरुचि समझते है, वे सोचते है कि यह तुम्हें बहुत ऊंची मनोवृत्ति देती है, और इस तरह तुम ''अंधविश्वासों'' ओर ''अज्ञान''से ऊपर उठ जाते हों; लेकिन संदेह और अविश्वासके इन सुझावोंको सुननेसे ही तुम घोरतम अज्ञानमें जा गिरते हो ओर सीधे रास्तेसे भटक जाते हो । तुम उलझन, भूल और प्रतिवादोकी भूल- भुलैयामें जा घुसते हो... । यह सदा निश्चित नहीं होता कि तुम इसमेंसे बाहर निकल मी सकोगे । तुम आंतरिक सत्यसे इतनी दूर चले जाते हो कि वह तुम्हारी दृष्टिसे ओझल हो जाता है और कभी-कभी तो अपनी आत्माके साथ सभी संभव संपर्क गंवा बैठते हो ।
निश्चय ही अपनी श्रद्धाको बनाये रखनेके लिये, इसे अपने अंदर बढ़ने देनेके लिये व्यक्तिगत प्रयास आवश्यक है । बादमें - बहुत बादमें - एक दिन, जब हम अतीतकी ओर नजर डालेंगे तो देखेंगे कि जो कुछ हुआ है, यहांतक कि जो हमें सबसे ज्यादा खराब लगा था बह भी, हमें पथपर बढ़ानेके लिये 'भागवत कृपा' थी; और तब हमें भान होता है कि व्यक्तिगत प्रयास भी कृपा ही थी । परंतु वहां पहुंचनेसे पहले बहुत दूरतक चलना पड़ता है, बहुत संघर्ष करना पड़ता है, और कभी-कमी तो बहुत सहना भी पड़ता है ।
तामसिक निष्क्रियतामें बैठे रहना और कहते रहना : ''यदि मुझे श्रद्धा मिलनी है तो मिलेगी ही, भगवान् मुझे देंगे,'' यह आलस्य और अचेतनाकी वृत्ति है, लगभग दुर्भावना है ।
आंतरिक ज्वालाको प्रज्वलित रखनेके लिये उसमें ईंधन देना होगा; आग- पर नजर रखनी होगी, उसमें अपनी सब गलतियोंका, जिनसे तुम छुटकारा पाना चाहते हो, जो कुछ तुम्हारी प्रगतिको धीमा करता है, जो कुछ तुम्हारे पथको अंधियारा बनाता है, उस सबको समिधा बनाकर आहुति देनी होगी । यदि तुम आगमें ईंधन नहीं डालते तो यह तुम्हारी अचेतनता और तमस्की राखमें दबी हुई सुलगती है, और तब तुम्हें अपने लक्ष्यतक पहुंचनेके लिये कुछ साल ही नहीं, अनेक जन्म और शताब्दियां लग जायेगी ।
तुम्हें अपनी श्रद्धाकी उसी तरह निगरानी करनी चाहिये जैसे कोई किसी अत्यधिक मूल्यवान् वस्तुके कदमके समय करता है और इसका उन सब चीजोंसे सावधानीके साथ बचाव करना चाहिये जो इसे हानि पहुंचा सकती '' ।
प्रारंभके अज्ञान और अंधकारमें श्रद्धा ही 'भागवत शक्ति'को सबसे सीधा आविर्भाव है जो युद्ध करने और विजय प्राप्त करनेके लिये आती है ।
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१६ जुलाई, १९५८
''... धर्मका यथार्थ व्यापार यही है कि वह मनुष्यके मन, प्राण और शरीरको इस तरह तैयार करे कि आध्यात्मिक चेतना उन्हें अपने हाथमें लें सड । उसे मनुष्यको उस बिन्दुतक ले जाना है जहांसे आध्यात्मिक ज्योति पूरी तरह उन्मज्जित
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होने लगती है । इस बिंदुपर आकर धर्मको झुकना सीखना चाहिये । तब उसे अपने बाहरी रूपोंपर आग्रह न करके, भीतरी आत्माको अपने सत्य और अपनी यथार्थताको पूरी तरह विकसित होनेका पूरा अवकाश देना चाहिये । इस बीच, जहांतक बन पढे, मनुष्यके मन, प्राण और शरीरको अपने हाथमें लेकर उनकी सभी क्यिाओंको आध्यात्मिक दिशा देनी चाहिये । और उसे चाहिये कि उनके आध्यात्मिक अर्थको प्रकाशित करे, आध्यात्मिक शुद्धिकी छाप और आध्यात्मिक स्वभावके आरंभकी ओर प्रवृत्त करे । धर्मके इसी प्रयासमें भूलें होती हैं क्योंकि बह जिस पदार्थसे व्यवहार कर रहा है उसका स्वभाव ही है भूल करना । बह घटिया तत्त्व ठीक उन्हीं रूपोंपर आक्रमण करता है जिनका उद्देश्य है आध्यात्मिक और मानसिक, प्राणिक या भौतिक चेतनाओंके बीच मध्यवर्ती होना । बह उन्हें घटा देता, भ्रष्ट या कलुषित कर देता है । परंतु आत्मा और प्रकृतिके बीच मध्यवर्ती होनेके नाते धर्मके इस प्रयासमें ही 'उसकी सबसे बड़ी उपयोगिता है । मानव विकासमें सत्य और भूलम्ग्म सदा साथ-साथ रहते हैं । इनके साथ-साथ रहनेके कारण सत्यका त्याग नहीं किया जा सकता । उनके घुले-मिले रूपोंमेसे भूल-म्ग्मको निकाल बाहर करना चाहिये । यह प्रायः बहुत कठिन काम होता है ओर अगर इसे बेढंगे तरीकेसे किया जाय तो इसका परिणाम होगा धर्मके शरीरपर घाव करना । क्योंकि बहुत बार जिसे हम भूल-म्गंति समझते हैं बह किसी सत्यका चिह्न या छद्मवेश दा या विकृत रूप होता है जो भूल-भभर शल्य-क्यिा करनेके दौरान भूल-भ्रमके साथ- साथ काट दिया जाता है । स्वयं प्रकृति बहुत बार अच्छे अन्नके साथ-साथ जंगली घास और झाड-झंकाडुको बहुत समय- तक साथ-साथ बढ़ने देती है क्योंकि तभी तो उसकी अपनी वृद्धि, उसका स्वतंत्र विकास संभव हो सकता है ।''
('लाइफ डिवाइन', पृ० ८६४-६५)
मधुर मां, क्या साधारण आदमीके जीवनमें धर्म एक आवश्यकता ?
समाजोंके जीवनमें यह एक आवश्यकता है क्योंकि सामूहिक अहंके लिये यह
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दोष-निवारकका काम करता है, जिसके नियंत्रणके अभावमें यह कहीं अधिक फूल उठता ।
सामूहिक चेतनाका स्तर व्यक्तिगत चेतनाके स्तरसे हमेशा नीचा रहता है । यह बात देखने लायक है । उदाहरणार्थ, जब लोग एक दलमें या बहुत बड़ी संख्यामें इकट्ठे होते हैं तो चेतनाका स्तर बहुत नीचे गिर जाता है । चीडकी चेतना व्यक्तिगत चेतनासे काफी नीची होती है, और निश्चय ही समाजकी सामूहिक चेतना उसके सदस्योंकी चेतनासे नीची होती है । वहां, यह (धर्म) एक आवश्यकता है । सामान्य जीवनमें, हर व्यक्तिका, चाहे बह जाने या न जाने, हमेशा एक धर्म होता है, लेकिन कभी-कमी उसके वर्मका उद्देश्य काफी निचले प्रकारका होता है... ।
जिस देवताकी वह उपासना करता है वह सफलताका देवता मी हो सकता है, या धनका या शक्तिका देवता हो सकता है या सिर्फ कुल-देवता : बच्चोंका देवता, कुटुंबका देवता, पूर्वजोंका देवता । धर्म हमेशा रहता है । हर व्यक्तिके अनुसार उसके धर्मका स्वरूप अलग-अलग होता है, पर किसी आदर्शके मूल तत्त्वको जीवनका केंद्र- बनाये विना मनुष्यके लिये जीना, जीते रहना, जीवनमें चलते जाना कठिन है । अकसर तो उसे इसका पता ही नहीं होता, अगर उससे पूछा जाय कि तुम्हारा आदर्श क्या है तो वह उसे शब्दोंका रूप नहीं दे पायेगा... । किंतु उसका कोई-न-कोई आदर्श होता है -- धुंधला-सा, कुछ ऐसा जो उसे अपने जीवनमें सबसे ज्यादा अनमोल लगता है ।
उदाहरणके लिये : अधिकतर मनुष्योंके लिये यह सुरक्षा ही आदर्श है; सुरक्षामें रहना, उन अवस्थाओंमें रहना जहां उसे जिंदा रहते चलनेका भरोसा हो । यदि हम ऐसा कह सकें तो, यह महान् ''लक्ष्यों' 'मेसे एक है, मानव उद्देश्योंके महान् प्रेरक हेतुओंमेंसे एक है । कुछ लोग ऐसे हैं जिनके लिये आराम ही महत्त्वपूर्ण है, कुछके लिये सुरव और मन-बहलाव ।
यह सब बहुत निम्न कोटिका है और हम इसे आदर्श कहनेके लिये लालायित न होंगे । परंतु यह सचमुच धर्मका एक प्रकार है, देखनेमें लगता है कि यह इस योग्य है कि मनुष्य इसके लिये अपना जीवन उत्सर्ग कर दे... । कई तरहके प्रभाव हैं जो इसे अपना आधार बनाकर लोगोंपर हावी होनेका मौका ढूंढते है । असुरक्षा, अनिश्चयकी भावना एक तरहका हथियार है, एक माछयम है जिसे राजनीतिक बार धार्मिक दल लोगोंको प्रभावित करनेके लिये व्यवहारमें लाते है । वे इन विचारोंके साथ खिल- वाड करते है ।
हर मानवीय, राजनीतिक या सामाजिक विचार किसी ऐसे आदर्शकी निम्नतर अभिव्यंजना होता है जो प्रांरभिक या अविकसित धर्म है । जैसे
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ही चिंतनकी क्षमता आती है वैसे ही आवश्यक रूपसे हर पलकें पाशविक दैनिक जीवनसे किसी ज्यादा ऊंची चीजके लिये अभीप्सा उठती है और यही वह चीज है जो जीनेकी शक्ति और संभावना प्रदान करती है ।
स्वभावतया, यह कहा जा सकता है कि व्यक्तियों और समष्टियोंकी कीमत उनके आदर्श, उनके धर्मके गुणके अनुपातमें होती है, अर्थात्, उस चीजके अनुपातमें जिसे वे जीवनमें सबसे ऊंचा स्थान देते हैं ।
निस्संदेह, यदि धर्मकी बात करते समय किसीका मतलब मान्यता-प्राप्त धर्मोसे हो तो यह सच है कि हर एक्का अपना धर्म होता है, चाहे वह उसे जाने या न जाने, चाहे वह उन महान् धर्मोंका ही अनुयायी हो जिनका नाम और इतिहास है । यह निश्चित है कि यदि कोई सिद्धांतोंको कंठस्थ कर ले ओर बताये हुए विधि-विधानोंके आगे सिर झुका दे तब भा हर एक अपने ही ढंगसे समझता है और कार्य करता है, केवल धर्मका नाम एक रहता है, लेकिन वही धर्म उन सब लोगोंके लिये एक नहीं होता जो सोचते हैं कि वे इसका पालन कर रहे हैं ।
कहा जा सकता है कि 'अज्ञात' ओर सर्वोत्तमके लिये इस अभीप्साकी कुछ अभिव्यंजनाके बिना जीवन बहुत दूभर हो जायगा । यदि प्रत्येक मनुष्यके हृदयमें किसी अधिक अच्छी चीजकी (चाहे वह किसी भी तरहकी हों) आशा न होती तो उसे जिंदा रहनेके लिये आवश्यक शक्ति मुश्किलसे ही मिल पाती ।
लेकिन बहुत कम लोग ऐसे ' है जो स्वतंत्र रूपसे सोच सकते है; धमके इर्द-गिर्द जमा हो जाना, उसे अंगीकार कर लेना, अपना लेना और उस धार्मिक समूहका एक अंग बन जाना अपने लिये अपना धर्ममत बनानेकी अपेक्षा कहीं आसान है । अतः बाहरसे देखनेमें तो व्यक्ति यह या वह होता है, परंतु तत्वतः वह केवल एक दिखावा है ।
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२३ जुलाई, १९५८
मां, अंतर्भासिक क्षमताको कैसे विकसित किया जा सकता है?
अंतर्भासिक कई प्रकार होते है, और ये क्षमताएं हमारे अंदर होती हैं । वे हमेशा ही थोडी क्रियाशील रहती हैं लेकिन हम उन्हें पहचानते नही, क्योंकि हुमारे अंदर क्या हो रहा है उसकी ओर हम बहुत ध्यान नहीं देते ।
भावनाओंके पीछे, सत्ताकी गहराईमें, हत्केंद्रके पास आसीन चेतनामें एक तरहका पूर्वज्ञान रहता है, पूर्वदृष्टिकी क्षमताके जैसा, पर विचारोंके रूपमें नहीं, बल्कि भावनाओंके रूपमें, करीब-करीब संवेदनोंका बोध । उदाहरणके लिये, जब कोई कुछ करनेका निर्णय करने लगता है ता कमी- कमी एक प्रकारकी बेचैनी-सी होती है, या अंदरसे इंकार होता है ओर साधारणतया, यदि कोई इस गहनतर संकेतको सुन लें ता वह देखेगा कि वह उचित थी ।
कुछ अन्य लोगोंमें कोई चीज धकेलती है, सकेत देती है, आग्रह करती है (मैं आवेशोंकी बात नहीं कह रही, समझे, उन स्पंदनोंकी बात नहीं कह रही जो प्राणसे या उससे भी निम्न स्तरसे आते है), ऐसे संकेत जो भावनाओंके पीछे काम करते है, जो सत्ताके भावात्मक पक्षसे आते है; वहां भी, तुम्हें इसका काफी स्पष्ट संकेत मिल सकता है कि क्या करना चाहिये । ये अंतर्भास या उच्चतर सहज-बोधके प्रकार हैं जिन्हें निरीक्षण और परि- णामोके अध्ययनसे बढ़ाया जा सकता है । स्वभावतया, इसे पूरी तरह सच्चाईसे, वस्तुपरक दृष्टिसे, निष्पक्ष रूपसे करना चाहिये । यदि कोई चीजों- को किसी (वास ढगसे ही देखना चाहे और साथ हीं इस निरीक्षणका अभ्यास करना चाहें तो सब बेकार होगा । इसे तो ऐसे करना चाहिये मानों कोई अपने बाहरसे किसी चीजको घटते देख रहा हो, किसी दूसरेके दृष्टिकोणसे देख रहा हो ।
यह अंतर्भासिक एक प्रकार है और शायद पहला जो साधारणत: प्रकट होता है ।
एक दूसरा प्रकार मी है, पर उसका निरीक्षण करना कहीं अधिक कठिन है क्योंकि जो सोचनेके, तर्क-बुद्धिसे काम करनेके -- भावावेशसे नहीं, तर्क- बुद्धिसे -, कोई काम करनेसे पहले उसपर विचार करनेके आदी है उनके अर्ध-चेतन विचारमें कारणसे लेकर परिणामतक बहुत तेज प्रक्रिया होती है जिसके कारण व्यक्ति श्रंखलाको, तर्ककी पूरी शृंखलाको नहीं देखता और
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फलत: यह नहीं समझ पाता कि यह तर्ककी शृंखला है और बस, वह धोखा हवा जाता है । तुम्हें लगता है कि यह अंतर्भास है, पर यह अंतर्भास नहीं है : यह अत्यधिक द्रुत गतिसे होनेवाली तर्कणा है जो अवचेतन है और किसी समस्याको लेकर सीधी निष्कषोंतक पहुंचती है । इसे अंतर्भास मान लेनेकी गलती कमी नहीं करनी चाहिये ।
अंतर्भास, साधारण मस्तिष्कके काममें, वह चीज है जो ज्योतिकी एक बूदकी तरह सहसा टपकती है । यदि किसीमें क्षमता है, मानसिक अंतर्दर्शनकी क्षमताका प्रारंभ है तो यह ऐसी छाप छोड़ता है मानों कोई चीज बाहरसे या ऊपरसे आ रही है, -- मानों ज्योतिकी एक बूंदका दिमाग- पर जरा-सा आघात है जो सब तर्कवितर्कसे बिलकुल अलग है ।
जब तुम मनको नीरव करनेमें, इसे चुप ओर एकाग्र करनेमें, इसकी नित्यकी क्रियाको रोकनेमें सफल हो जाते हों, मानों यह एक तरहके दर्पण- मे बदल गया हों और अविरत एवं नीरव मनोयोगमें उच्चतर क्षमताकी ओर मुड गया हों, तब यह आसानीसे देखा जा सकता है । व्यक्ति ऐसा करना भी सीख सकता है । इसे सीखना ही चाहिये, यह एक आवश्यक अनुशासन है ।
जब तुम्हें, कोई प्रश्न हल करना हों, वह चाहे कुछ भी हों, तो आम तौर- पर तुम अपना ध्यान यहां' (भौंहोंके बीच दिखाते हुए) एकाग्र करते हो, आंखोंसे ऊपर, मध्यमें, जो सचेतन संकल्पका केंद्र है । परंतु, जब तुम यह करते हों तब अंतर्भासिक संपर्कमें नहीं आ सकते । तुम संकल्प, प्रयास और यहांतक कि अमुक प्रकारके शानके स्रोतके संपर्कमें आ सकते हों, पर बाह्य, लगभग भौतिक क्षेत्रमें; जब कि यदि तुम अंतर्भासिक साथ संपर्क चाहते हों तो तुम्हें, इसे (श्रीमां माथा दिखाती है) बिलकुल निश्चल रखना .चाहिये । क्रियारत विचारकों यथासंभव रोक देना चाहिये और सिरके ऊपर स्थित और यदि संभव. हो तो इससे मी जरा ऊपर स्थित सारी मानसिक क्षमता- को... एक दर्पणके समान बना देना चाहिये जो बहुत शांत हो, बहुत स्तब्ध हो, नीरव और एकाग्र अधीनताके साथ ऊपरकी ओर मुंडा हुआ हो । यदि तुम ऐसा करनेमें सफल हो जाते हो तो तुम्हें -- शायद तुरत तो नहीं -- लेकिन तो भी, तुम्हें, उन ज्योतिकी बूदोंका बोध हो सकता है जो अभीतक अज्ञात क्षेत्रसे दर्पणपर पडू रही हैं और एक सचेतन विचारके रूपमें अनूदित हो रहीं हैं जिसका तुम्हारे बाकीके विचारोंसे कोई संबंध नहीं क्योंकि तुम उन्हें नीरव कर सकें हों । बौद्धिक अंतर्भासिक यह वास्तविक प्रारंभ है । यह एक अनुसरण करने योग्य साधन है । ' हो सकता है कि तुम लंबे समयतक प्रयत्न करो पर सफलता हाथ न लगे, लेकिन ''दर्पणको स्तब्ध
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और सावधान बनाने' में जैसे ही तुम सफल हो जाओगे वैसे ही तुम्हें उसका फल मिलेगा, यह आवश्यक नहीं कि वह ठीक-ठीक विचारका रूप हों, पर ऊपरसे उतरती हुई ज्योतिका संवेदन हमेशा होगा । और उस समय यदि तुम इस अपरसे आती हुई ज्योतिको ग्रहण कर सकें।, तुरत ही किसी बवंडर-जैसे काममें न जुट जाओ, इसे नीरवता और स्थिरतामें ग्रहण करो और इसे सत्ताकी गहराईतक भेदने दो, तब कुछ समय बाद या तो यह आलोकित बिचारमें या फिर यहां (श्रीमां हृदयकी ओर संकेत करती है), इस दूसरे चक्रमें यथार्थ निदर्शनके रूपमें अनूदित हों जाती है ।
स्वभावतया, पहले इन दो क्षमताओंका विकास करना चाहिये; उसके बाद, जैसे ही कुछ परिणाम नजर आये, तो, जैसा कि गैन पहले कहा है, उस परिणामका निरीक्षण करना चाहिये और जो कुछ हों रहा है उसको और उसके परिणामोंके साथके संबंधको देखना चाहिये; देखो, बहुत ध्यानसे देखो कि क्या भीतर आया है, किसने क्या विकृति पैदा की है, कम या ज्यादा तर्कद्वारा, निम्न इच्छा-शक्तिके हस्तक्षेपद्वारा, जो कुछ-कुछ सचेतन भी है, तुमने क्या जोड़ा है; और बहुत गहन अध्ययनके बाद (वास्तव- मे तो लगभग हर पलके, कम-से-कम दैनिक और बार-बारकें अध्ययनके बाद) मनुष्य अपने अंतभसिको विकसित करनेमें सफल होता है । बहुत लंबा समय लगता है इसमें । समय लगता है और फिर घातके स्थल मी है : तुम अपनेको छल सकते हों, अवचेतन इच्छाओंको, जो' अपनेका प्रकट करनेकी कोशिश करती है, ओर आवेगोंद्वारा मिले निदर्शनको, जिन्हें तुमने खुले रूपमें ग्रहण करनेसे इंकार कर दिया था, अंतर्भास मानकर बैठ सकते हो; सचमुच, सब तरहकी कठिनाइयां है । तुम्हें इसके लिये तैयार रहना होगा । लेकिन यदि तुम, लगे रहो तो सफलता जरूर मिलेगी ।
एक ऐसा मी क्षण होता है जब तुम्हें, आंतरिक पथ-प्रदर्शनका अनुभव होता है, जो कुछ भी करते हो उस सबमें बड़े प्रत्यक्ष ढंगसे कोई तुम्हें चलाता है । पर हां, उस पथ-प्रदर्शनकी अधिक-सें-अधिक शक्ति पानेके लिये तुम्हें स्वभावतया उसके साथ सचेतन समर्पण जोड़ देन।. होगा । उस उच्चतर शक्तिद्वारा किये गये निदर्शनका अनुसरण करनेके लिये तुम्हारे अंदर सच्चा निश्चय होना चाहिये । यदि तुम ऐसे करते हों ते।... तुम बरसोंके अध्ययनको लांघ सकते हों, अत्यधिक तेजीसे परिणामको पकडू सकते हों । यदि तुम उसे जोड़ दो तो फल बहुत जल्दी मिल जायगा । पर, इसे करना चाहिये सच्चाईके साथ.. एक 'तरहकी आंतरिक सहजताके साथ । यदि तुम इस समर्पणके बिना प्रयत्न करना चाहो तो तुम्हें सफलता मिल सकती है - जैसे तुम अपने व्यक्तिगत संकल्पके विकासके लिये मी करते
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हो और उसे काफी शक्तिशाली बना लेते हों -- लेकिन इसमें बड़ी देर लगती है, बहुत बाधाओंसे टक्कर लेनी पड़ती है और फल मी बहुत संदिग्ध होता है; व्यक्तिको बहुत प्रयत्नशील, आग्रही, अध्यवसायी होना चाहिये, तब सफलता अवश्यंभावी है, पर काफी परिश्रमके बाद ।
सच्चे, पूर्ण आत्मदानके साथ अपनेको समर्पित कर दो और तुम बिना रोक-टोकके वेगसे आगे बढ़ोगे, तुम कहीं अधिक तेज चलोगे - लेकिन इसे हिसाब लगाकर मत करना, क्योंकि यह सब कुछ बिगड़ा देता है!
इसके अतिरिक्त, जीवनमें तुम कुछ भी करना चाहो, एक चीज नितांत .अपरिहार्य है ओर सबके मूलमें है, वह है ब्यान एकाग्र करनेकी क्षमता । यदि तुम एक बिन्दुपर ध्यान और चेतनाकी किरणोंको केंद्रित करनेमें सफल हों जाते हों और इस एकाग्रताको दृढ संकल्पद्वारा बनाये रख सकते हो तो ऐसी कोई चीज नहीं जो इसका प्रतिरोध कर सकें - चाहे कुछ मी क्यों न हो, वह नितांत जड़-भौतिक विकाससे लेकर उच्चतम आध्यात्मिक विकासतक, पर इस अनुशासनका पालन करना चाहिये निरंतर, या यूँ कहें, निर्विकार रहते हुए; यह नहीं कि हमेशा एक ही चीजपर एकाग्र रहना होगा -- मेरा मतलब यह नहीं है, मेरा मतलब है एकाग्रता सीखनेसे ।
भौतिक रूपमें, अध्ययन, खेल-कूद, सब तरहके शारीरिक और मानसिक विकासके लिये यह नितांत अपरिहार्य है । और मनुष्यकी कीमत उसके अवधानके गुणके अनुपातमें होती है ।
और आध्यात्मिक दृष्टिसे तो इसका और भी अधिक महत्व है । कोई भी आध्यात्मिक बाधा देसी नहीं जो एकाग्रताकी मर्मभेदी शक्तिका प्रति- रोध कर सकें । उदाहरणके लिये, चैत्य पुरुषका संधान, अंतःस्थित भग- वान्के साथ मिलन, उच्चतर प्रदेशोंकी ओर उन्मीलन, सब प्रगाढ़ और आग्रही एकाग्रताकी शक्तिद्वारा उपलब्ध किये जा सकते हैं -- लेकिन इसे करना सीखना होगा ।
मानवी क्षेत्रमें, और अतिमानवीतकमे ऐसी कोई चीज नही है जिसकी कुंजी एकाग्रताकी शक्ति न हों ।
इस क्षमताके साथ तुम श्रेष्ठ खिलाडी हो सकते हो, श्रेष्ठ विद्यार्थी हो सकते हों, कलाकार, साहित्यिक ओर वैज्ञानिक बन सकते हों, सबसे बड़े संत बन सकते हों । और प्रत्येक व्यक्तिमें यह प्रारंभ-बिन्दुके रूपमें रहता है -- यह सबको मिला हुआ है, पर वे इसे बढ़ाते नहीं !
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३० जुलाई, १९५८
मधुर मां, प्लेंचेट या प्लेंशेटके प्रयोगसे किस तरहकी शक्तियों-
को पुकारा जा सकता है और इसे कैसे किया जाता है?
ओह! ओह!... क्या तुम्हारा मतलब स्वत:लेखनसे है?
हां, मां!
यह उनपर निर्भर है जो इसे करते है । कमी-कमी तो कोई भी शक्ति नहीं होती! होते हैं सिर्फ उन लोंगोंके मानसिक और प्राणिक स्पंदन जो प्लेशेटपर काम करते है, अट्ठानवे' प्रतिशत तो उनके अपने अवचेतन विचार उमर आते है । यदि उन लोगोंका किन्हीं अदृश्य सत्ताओंके साथ संपर्क हो तो हर प्रकारकी चीज हो सकती है लेकिन उसमें कुछ भी बहुत प्रशंसनीय नहीं होता ।
लगभग निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि यह वह चीज नहीं है जो लोग समझते हैं, इस अर्थमें कि अकसर वे उसका आह्वान करनेकी कोशिश करते है जिसे वें किसी मृत व्यक्तिकी, परिवारके सदस्य, मित्र या प्रियजन- की और जिसके साथ वे संपर्क बनाये रखना चाहते हैं उसकी ''आत्मा'' समझते है । इसके अतिरिक्त उनसे निरे मूर्खताभरे प्रश्न करते हैं । सौभाग्यवश... वे उन्हें परेशान करनेमें सफल नहीं होते!
इस दृष्टिकोणसे यह कहा जा सकता है कि यदि तुम्हारा किसी मृत व्यक्तिके साथ, जो शरीर छोड़ चुका है, प्रगाढ़ और. सच्चे प्यारा संबंध था और यदि तुम स्वयं काफी स्थिर और दृढ हों तो वह व्यक्ति कम-या- ज्यादा लंबे समयके लिये, अपने प्राणके लिये तुम्हारे वायुमंडलमें (अपने प्रियजनके वायुमंडलमें) आश्रय चून सकता है 1 इस हालतमें इसका अर्थ होगा कि संबंध बहुत निकटका था, बहुत अंतरंग था औ र यदि तुम इतने जड़वादी नहीं हो कि कोई सीधा मानसिक बोध ही न हो तो तुम इस व्यक्तिके साथ मानसिक रूपमें संबंध बनाये रख सकते हो, उससे आदान-
'बादमें माताजीने निम्न टिप्पणी जोड़ी : ''मुझे नब्बे प्रतिशत कहना चाहिए क्योंकि अपवाद मी होते हैं - मैं उन्हें जानती हू -- लेकिन वे दूतने विरत्ठ है कि उनके विषयमें न बोलना ही अच्छा है । ''
प्रदान कर सकते हों । ऐसा बहुत विरल होता हैं, क्योंकि आम तौरपर यदि तुम्हारा वायुमण्डल काफी स्थिर और दृढ है और सचमुच सुरक्षा प्रदान कर सकता है तो वह व्यक्ति जो शरीर छोड़ चुका है, वहां गहन विश्रांति- मे चला जाता है और उसे परेशान करना बिलकुल अनुचित है; स्वसे अच्छा तो यह होगा कि तुम उस व्यक्तिको अपने प्यारमें लपेट लो और शांतिसे रहने दो ।
अतः यदि इस तरीकेसे, जिसे मैं अनगढ़ तरीका कह सकती '2, उसके साथ संबंध स्थापित करना संभव मी हों तो भी ऐसा करना शोभा नहीं देता । किंतु आम तौरपर, जो लोग चले गये है उन्हें मध्यवर्ती अवरथामें कुछ समयके लिये आश्रय देनेकी जिनमें योग्यता है, आवश्यक क्षमता है उनमें यह बेतुका, ऊटपटाग विचार नहीं आता कि प्लेंशेटके उपयोग करके अपने प्रियजनोंके आराममें खलल डालें... सौभाग्यसे!
पर जो इस प्रयोगमें, स्वास्थ्यकी उत्सुकताके प्रयोगमें रस लेते है उन्हें वही मिलता है जिसके वे योग्य हैं; क्योंकि, जिस वातावरणमें हम निवास करते है वह छोटी-छोटी अनेक सत्ताओंसे, जो असंतुष्ट कामनाओं और बहुत निम्न प्रकारकी प्राणिक गतियोंसे जन्मी हैं, और प्राण-जगतकी अधिक महत्त्वपूर्ण सत्ताओंकी सड़ांधसे भरा रहता. है -- सचमुच, यह इनसे भरपूर है, अधिकतर नहीं देखते कि इस प्राणइागक वायुमंडलमें क्रय। हो रहा है और निश्चित रूपसे यह उनके लिये सुरक्षा है क्योंकि यह बहुत अर्थिक सुहावना नही है -- लेकिन यदि अस्वास्थ्यकर उत्सुकतावश ३ इसके संपर्कमें आनेकी धृष्टता करना चाहें, और स्वतलेखन या मजे घुमाने या... ऐसी ही कोई और चीज करनेकी चेष्टा शुरू कर दें तो होता यह है कि इन छोटी सत्ताओंके एक या अनेक उन्हें बनाकर खिलवाड़ करती है, उनके अवचेतन मनसे सब आवश्यक सूचनाएं इकट्ठी करके इस बातके प्रत्यक्ष प्रमाणके रूपमें उन्हींके पास भेजती है कि जिन व्यक्तियोंको बुलाया गया था वे व्यक्ति वे स्वयं है!
इन सबके बारेमें अपने जाने हुए दृष्टांतोंको लेकर मैं तुम्हारे लिये पूरी पुस्तक लिख सकती हू, क्योंकि ऐसी चीजों करनेमें लोग बहुत गर्व अनुभव करते है, अपने अनुभवकी सत्यताके ''प्रमाण'' देते हुए उन्हें तुरत लिख डालते हं, ऐसे हास्यास्पद प्रमाण जो उन्हें यह दिखानेके लिये काफी होने चाहिये कि कोई उनपर हंस रहा है! अभी हालमें ही मुझे किसी 'रेस व्यक्तिका एक और दृष्टांत मिला है जो कल्पना कर रहा था कि उसका श्रीअरविन्दके साथ संपर्क है और वे उसके सामने सनसनीदार रहस्योद्घाटन कर रहे है -- यह बिलकुल हास्यास्पद था ।
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बहरहाल, आम तौरपर ये (ओह! बहुधा) ये तुम्हारी अपनी शक्तियां होती है, तुम्हारी अवचेतन मानसिक शक्तियां, प्राणिक शक्तियां जिन्हें तुम प्लेशेटमें रख देते हों और फिर अपने लिये सनसनीदार रहस्योद्घाटन तैयार कर लेते हो! तुम इस तरहकी अनेक चीजे कर सकते हों... । एक बार मैं लोगोंके सामने यह प्रमाणित करना चाहती थी कि जिसका वे आह्वान कर रहे थे वह और कोई नहीं, वे खुद ही थे; अतः केवल संकल्पकी एकाग्रताके बलपर फर्नीचरको थपथपाकर, मेजोंको स्वतः चलाकर मैंने एक छोटा- सा मजाक किया, और!... स्वत:लेखनसे लिये तुम्हें, केवल अपने सचेतन संकल्पको अपने अंदर समेट लेना और हाथको ढीला छोड़ देना होता है, बिलकुल इस तरह (मुद्रा), और इसे बेटोक छोडू दो और तब हाथ गति करना आरंभ कर देगा, पर तुम्हारे भीतर बैठा को छोटा-सा बिंदु है जो इसमें रस लेता है और वह चाहता है इस गतिविधिका कोई अर्थ हो । वह अवचेतन मनका द्वार खटखटाता है जो सनसनीखेज रहस्योद्घाटन करने लगत। है । असत्में, यह सारा एक चोर फंदा है । जबतक कोई इसे वैज्ञानिक ढंगसे न करे; लेकिन तब, वैज्ञानिक ढंगसे करनेपर उसकी समझ- मे आ जाता है कि इसमें कुछ नहीं रखा है - बिलकुल कुछ नहीं, सिवाय इसके कि तुम अपना समय बीता रहे हों जिसे तुम समझते हों कि मजेदार ढंगसे बीत रहा है ।
कुछ लोगोंके साथ ऐसा होता है कि प्राणिक शक्तियां सचमुच उनपर अधिकार जमा लेती है, उस हालतमें यह खतरनाक हों जाता है । लेकिन सौभाग्यवश यह बहुधा नहीं होता । क्योंकि तब यह बहुत खतरनाक हो उठता है ।
बहुत समय पहले, जब मैं फांस मे थी, मैं एक आदमीको जानती थी जिसने इस तरहके अभ्यास कर-करके एक प्राणिक सत्ताके साथ अपना संबंध जोड़ लिया था । वह जुआरी था और अपना समय सट्टा और रुलेट खेल खेलनेमें बिताता था । वर्षका कुछ समय वह 'मौत कार्योमें रुलेट खेलनेमें बिताता था और बाकी समय दक्षिण फ्रासमें रहकर शेयर बाजारमें फाटका खेलता था । ' और सचमुच कोई सत्ता उसे माध्यम बनाये हुए थी, (स्वतः- लेखनद्वारा) । बरसोंसे उसका प्रयोग कर रही थी, उसे बिलकुल ठीक-ठीक, यथातथ संकेत देती थी । जब वह रुलेट खेलता तो वह कहती : ''इस संख्या या इस जगहकी बोली बोलों,'' और वह -जीत जाता था । स्वभावतया, वह इस ''प्रेतात्मा''की पूजा करता था जो उसे इतने सनसनीदार रहस्य बताती थी । शेयर बाजारमें भी वह उससे कहती : ''इसपर दांव लगाओ या उसपर बाजी लगाओ,'' और उसे सब निर्देश देती
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थी । यह आदमी बहुत अधिक धनी बन बैठा । अपने सब मित्रोंके सामने वह अपने उस तरीकेके बारेमें शेखी बघार करता था जिससे वह इतना अमीर बन गया ।
किसीने उसे सावधान किया; और कहा : ''ध्यान रखो, यह कोई ईमान- दारिका सौदा नहीं दिखता, इस ''प्रेतात्मा''पर भरोसा मत करो ।'' वह उस आदमीसे बिगड़ बैठा । कुछ दिन बाद वह 'मौत कार्योमें था और. । वह हमेशा ऊंची बाजी लगाता था, क्योंकि तुम्हें पता ही है, वह सदा जीतता था, सबका दिवाला निकाल देता था, सभी उससे भय रवाते थे । तब ''प्रेतात्मा''ने उससे कह। : ''सब कुछकी बाजी लगा दो, जो कुछ तुम्हारे पास है वह सब इसपर लगा दो''... । उसने वैसा ही किया और एक ही दांवमें सब कुछ गंवा बैठा! फिर भी शेयर बाजारके फाटकेका बचा हुआ कुछ पैसा उसके पास था । उसने मनमें सोचा : ''यह दुर्भाग्य है ।'' उसे हमेशाकी तरह दुबारा बड़ा स्पष्ट निर्देश मिला : ''ऐसा करो ।'' और उसने किया - सब चौपट हों गया! और अंतमें ''प्रेतात्मा''ने कहा (पूरा मजा लेना चाहिये) : ''अब तुम आत्म-हत्या करोगे । एक गोली दाग दो अपने सिरमें ।'' और वह इतना वशीभूत था कि उसने वैसा ही किया... । कहानी यहां समाप्त हो जाती है । यह एक प्रामाणिक कहानी है । अतः कम-से-कम हम यह तो कह ही सकते है कि यह खतरनाक है, इस तरहके धंधोंमें दिलचस्पी न लेना ही अच्छा है ।
नहीं! ये या तो निरर्थक-से मनोरंजनके साधन है या फिर हानिकर धंधे ।
मां, श्रीअरविन्दने ''यौगिक साधन'' पुस्तक इसी ढंगसे लिखी...
नहीं, नही । वह यह चीज बिलकुल नहीं है । इस तरहकी गड़बड़ी मत करो । वह अलग ही चीज थी । श्रीअरविंद जानते थे कि ३ किसके संपर्कमें है, उन्होंने यह जान-बूझकर किया था और जिसके साथ संपर्कमें थे उस व्यक्तिको चूना था, उनका इन छोटी-छोटी सत्ताओंसे कोई सरो- कार नहीं था जिनकी मैं अभी-अभी चर्चा कर रही थी, बिल्कुल मी नहीं, एकदम नहीं । यह तो ऐसी चीज थी जो सीधे मानसिक जगत्में घटी थी, तुम्हें चीजोंका इस तरह मिला न देना चाहिये । इनका आपसमें कोई संबंध नहीं, बिलकुल नहीं ।
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यदि तुममें शान, नियंत्रण, शक्ति ओर एक विशेष निष्क्रिय अवस्थामें जानेकी क्षमता हों तो तुम इउछापूर्वक यह जानते हुए कि वह कौन है और उच्चतर स्तरपर क्रिया करते हुए आसानीसे किसीकी ओर सहायताका हाथ बढ़ा सकते हो, लेकिन उसके लिये पहलेसे ही ऊंची चेतना, आत्म- स्वामित्व अपेक्षित है जौ सबकी पहुंचके भीतर नहीं है । यह देख सकनेके लिये कि अमुक स्तरपर तुम्हारा' किस्से सरोकार है और अपना नियंत्रण खोये बिना, कारणके पूरे ज्ञानके साथ उस प्रयोगके लिये' स्वेच्छापूर्वक सहमति दे सकनेके किये काफी आंतरिक विकासकी. आवश्यकता है । हर ऐरा-गैरा उससे नहीं खेल सकता । पर प्लेंशेटके चलानेके किये अपने-आपको काफी धोखा देना ही पर्याप्त है और वह चलना शुरू कर देगा ।
मां, जो कुछ आप हमें बता रही हैं क्या वह गुह्यविद्याओंका एक भाग है?
यह केवल परीक्षण करनेके लिये था, बस ।
सामान्यतया, पहुंचनेका यह मार्ग अच्छा नहीं है, क्योंकि आंतरिक क्षेत्र- मे, आंतरिक विकासमें, यह लोगोंके उपन्यास पढनेकी आवश्यकताके अनु- रूप है । जिसका मन अभीतक तामसिक अवस्थामें पडू'।- है और आधा जड़ है उन्हें जागनेके लिये उपन्यास पढनेकी जरूरत पड़ती है यह किसी प्रतांसनीय अवस्थाका लक्षण नहीं, कम-से-कम ऊंची अवस्थाका तो नहीं । हा, तो आंतरिक क्षेत्रमें यह इसीके समान है । जब कोई बिल- कुरते आदिम अवस्थामें हो, आंतरिक तीव्र जीवत न हो ता' उसे उपन्यास पढनेकी जरूरत पड़ती है या फिर वह अपनी. कल्पनामें उपन्यास रुचता है, और तब वह ऐसे प्रयोगोमें रस लेता है और मान बैठता. है कि वह बड़ी रोचक चीज कर रहा है... । इसमें वैसा ही मजा आता है जैसा उपन्यासोंमें -- साहित्यिक उपन्यास मी नहीं, बल्कि सस्ते रोमांटिक उपन्यास जो पत्रिकाओंके अंतमें छपते है ।
श्रीअरविदने मुझे बताया था कि कुछ लोगोंको इसकी जरूरत होती है क्योंकि उनकी। मन इतना जड़ है कि यह उन्हें, झकझोरकर जरा-सा जगा देता है । हां, तो यह वही बात है । ऐसे कुछ लोग हैं जिन्हें,
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अपने प्राणको थोड़ा-सा जागनेके लिये इस तरहकी कसरतोंकी जरूरत पडू सकती है क्योंकि वह सोया पड़ा है, जड़ है और... इससे उनके जीवनमें थोडी रुचि पैदा होती है । फिर भी, हम यह नहीं कह सकते कि ये बहुमूल्य धंधे है । ये तो समय काटनेके, मन-बहलानेके साधन है ।
और यह कभी किसीके लिये कुछ प्रमाणित नहीं कर सका । तुम कह सकते हो : ''ओह! यह तुम्हें समझा देता है कि एक आंतरिक जीवन है, एक अदृश्य जीवन है और तुम्हारा उन चीजोंसे संपर्क करा देता है जिन्हें तुम नहीं देखते और प्रमाणित कर देता है कि उनका अस्तित्व है' ' - यह सच नहीं है ।
जबतक तुम्हारे भीतर आध्यात्मिक पुरुष न हों जो जागने और अपना जीवन जिनमें समर्थ हो तबतक ये चीजों तुम्हें बिलकुल कुछ नहीं सिखाती । मैं ऐसे लोगोंको जानती थी -- खासकर एकको जो वैज्ञानिक था, बुद्धिमान् था, योग्य था; उसने उच्च विज्ञानका अध्ययन किया था, इजीनियर था और एक महत्त्वपूर्ण पदपर था; यह आदमी एक संस्थाका सदस्य था जो ' 'प्रेतात्मवादिक' ' कहलाती थी, उसे एक माध्यम मिल गया था जो सचमुच बहुत असाधारण योग्यताओंवाला था । वह हर बैठकमें उपस्थित रहता था ताकि कुछ सीख सकें, अपनेको विश्वास दिला सकें और अदृश्य जगतके अस्तित्व, अदृश्य जगतके ठोस और वास्तविक अस्तित्वके प्रत्यक्ष प्रमाण पा सके । कडे-सें-कडे निरीक्षणमें, यथासंभव वैज्ञानिक ढंगसे उसने वह सब देखा जो देखा जा सकता था -- अंतिम व्योरेतक पूरी जांच- पड़ताल पहले ही कर ली थी । उसने जो कुछ विलक्षण देखा था वह सब मुझे सुनाया, उसने मेरे हाथमें एक चीजका टुकड़ा रखा जो आजकलके प्लास्टिकके कपड़ेसे मिलता-जुलता था, जो बुना हुआ नहीं होता, प्लास्टिकका टुकड़ा ( लेकिन उन दिनों प्लास्टिक नहीं था, तबतक उसका आविष्कार नही हुआ था, बहुत पहलेकी बात है यह) मेरे हाथमें था, फाड़ हुआ जरा-सा टुकड़ा जिसपर बड़ा सुंदर छोटा.-सा डिज़ाइन बना था । उसने मुझे बताया कि यह सब कैसे हुआ । जब माध्यमको समाधिस्थ कर दिया गया तो एक व्यक्ति इस पदार्थसे बना चोगा पहने प्रकट हुआ ( यहां सूक्ष्म वस्तुओंको मूर्त रूप दिया गया था); यह व्यक्ति उसके सामनेसे गुजरा और उसने एक छोटे-सें पशुकी तरह, जो कि वह था, एक छोटा-सा टुकड़ा प्रमाणके लिये फाड़ लिया और अपने पास रख लिया । माध्यम गुर्राया -- और सब कुछ, सब कुछ तुरत गायब हों गया... । लेकिन वह टुकड़ा उसके ह रह गया ओर उसने वह मुझे दिया । मैंने वह उसे वापिस कर दिया । उसने मुझे सिर्फ दिखाया था मेरे हाथमें रखा था ।
तो, तुम देखते हो कि वह काफी ठोस चीज थी, क्योंकि बह टुकड़ा अब मी उसके पास था; वह अपने-आपसे यह नहीं कह. सका कि यह मतिविभ्रम है । लेकिन इस बातके होते श, इन सब अद्भुततम कहानियोंके बावजूद, जिनसे कि एक पूरी किताब तैयार की जा सकती है, बह किसी भी चीजपर विश्वास नही करता था । वह किसीकी व्याख्या नहीं कर सका । ओर वह अपने-आपसे पूछता था कि पागल कौन है, वह स्वयं या दूसरे या... । इस सबने उसके ज्ञानको आधा कदम भी आगे नहीं बढ़ाया ।
कोई इन चीजोंपर विश्वास नहीं कर सकता जबतक कि वह इन्हें अपने अंदर वहन न करे ।
तुम्हारे सारे बाह्य प्रमाण तुम्हें कमी कोई ज्ञान नहीं दे सकते । जब तुम स्वयं भीतर विकसित होते हों, इन चीजोंके साथ सीधा ओर आंतरिक संबंध स्थापित करने योग्य होते हों तभी यह जान सकते हो कि ये क्या है, लेकिन यदि तुम्हारे अंदर वह सत्ता नहीं है जो यह शान पानेके योग्य हो तो कोई स्थूल प्रमाण -- स्थूल और इस तरहका - तुम्हें ज्ञान नहीं दें सकता ।
अतः निष्कर्ष. यही निकलता है कि इस तरहका प्रयोग एकदम बेकार है । जिनमें आंतरिक सत्ता है -- एक-न-एक दिन जीवन ही उन्हें, जगानेका भार लेगा और उस वस्तुके संपर्कमें ला देगा जिसे जानना उनके लिये आवश्यक है ।
मैं इन चीजोंका अस्वास्थ्यकर उत्सुकता समझती हू, बस ।
३३८
६ अगस्त , १९५७
मधुर मां, सामूहिक प्रार्थनाका क्या प्रभाव ओर महत्व होता '?
इसके बारेमें, सामूहिक प्रार्थना और उसके उपयोगके बारेमें, हम पहले ही बातचीत कर चुके है । मेरे ख्यालसे यह 'बुलेटिन' मे भी छप चुकी है ।
इसके अलावा, जैसे तरह-तरहकी समष्टियां होती है वैसे ही तरह- तरहकी सामूहिक प्रार्थनाएं मी होती हैं । एक बेनाम जमघट, भीड़ होती
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है जो परिस्थितिके संयोगसे, आंतरिक सामंजस्यके बिना, परिस्थितिकी शक्तिके धक्केसे बनती है, जैसे, जब कोई राजा या कोई ऐसा व्यक्ति जो जन-समूहका ध्यान आकर्षित करता हो, एक संकटमय अवस्थामें हो, चाहे वह बीमार हों या दुर्घटनाग्रस्त, और जनता समाचार जानने और अपनी भावना प्रकट करनेके लिये उमड़ पडू रही हों : तो परिस्थितियों- के संयोगसे ही लोग इकट्ठे होते. है, अर्थात्, समान रुचि और भावनाके सिवाय कोई आंतरिक संबंध नहीं होता । ऐसा मी उदाहरण मिलता है कि सारी भिड़ उस व्यक्तिके आरोग्यके शिले अनायास प्रार्थना करने बैठ गयी जिसमें उसकी खास रुचि थी । स्वभावतः, वही भीड़ें बिलकुल भिन्न उद्देश्यसे, घृणाके उद्देश्यसे इकट्ठी हो सकती हैं और उनकी चीख-चिल्लज्हट भी एक तरहकी प्रार्थना होती है, विरोधी और विनाशकारी शक्तियोंके प्रति प्रार्थना । यह सहज गतिविधि होती है, न व्यवस्थित, न प्रत्याशित ।
ऐसे व्यक्तियोंकी समष्टि भी होती है जो एक आदर्श या एक शिक्षा या कार्यकी चरितार्थताके लिये जमा होते हैं, इनका आपसमें व्यवस्थित संबंध, एक ही लक्ष्यका संबंध, एक ही श्रद्धा और संकल्पका संबंध होता है । ये सामूहिक प्रार्थना और ध्यानके अगुदुठानके लिये विधिवत् जमा हों सकते है, यदि उनका लक्ष्य उदात्त है, संगठन सुचारु ढंगसे हुआ है, उनका आदर्श प्रबल है, तो यह समष्टि अपनी प्रार्थनाओं या अपने ध्यानद्वारा दुनियाकी घटनाओंपर, अपने आंतरिक विकासपर और अपनी सामूहिक प्रगतिपर यथेष्ट प्रभाव डाल सकती है । निश्चय ही ऐसे समूह औरोंसे बहुत अधिक श्रेष्ठ होते है, पर उनमें भीडकी अंध शक्ति, चीडकी सामूहिक क्रिया नहीं होती । ये इन आवेगों-प्रवेगको अभिप्रेत और सचेतन व्यवस्थाकी शक्तिद्वारा बदल देते है ।
सदा ही, धरतीपर ऐसे समूह रहे है जो काने-आपको इस तरह संगठित करते थे । इनमेंसे कइयोंका ऐतिहासिक जीवन रहा है, दुनिया- मे ऐतिहासिक कार्य रहा है, लेकिन आम तौरपर जनसाधारणमें इन्हें विशिष्ट व्यक्तियोंकी अपेक्षा ज्यादा सफलता नहीं मिली । इनपर हमेशा संदेह किया गया, ये आक्रमणों धौर अत्याचारोंके शिकार रहे और प्रायः ही बड़ी क्र्रतासे, बहुत अशानमय, अन्धकारमय तरीकोंमें भंग कर दिये गयें... । एक निश्चित लक्ष्यके लिये, किसी मान्यता, बल्कि सिद्धांत या मतको घेरकर, खड़े होनेवाले ऐसे अर्थ-धार्मिक, अर्ध-विरचित दत्त मी हुए हैं जिनका इतिहास बड़ा ही दिलचस्प रहा है । और निश्चय ही उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रयाससे सामूहिक प्रगतिके लिये बहुत कुछ किया है । एक आदर्श संगठन है जिसे यदि ठीक-ठीक कार्यान्वित किया जाय तो
वह एक बहुत सबल ऐक्यका सृजन कर सकता है, यह ऐसे अवयवोंसे बना होगा जिनका एक ही लक्ष्य और एक ही संकल्प होगा और उनका आंतरिक विकास इतना हो चुका होगा कि लक्ष्यकी, उद्देश्यकी, अभीप्साकी -बगैर कार्यकी आंतरिक एकताको एक सुसंगत ठोस शरीर दे सकें ।
सभी युगोंसे दीक्षा-केंद्रोंमें कम-या-अधिक प्रसन्नता देनेवाले तरीकेसे इसके लिये प्रयास किया है और गुह्य परंपराओंमें सदा ही इसे कर्मका अत्यधिक शक्तिशाली साधन बताया गया है ।
यदि सामूहिक एकता व्यक्तिगत एकताकी संलग्नताको पा सकती तो वह व्यक्तिके कार्य और बलको और भी अधिक बढ़ा सकती ।
साधारणत:, यदि बहुत-से व्यक्तियोंको इकट्ठा कर दिया जाय ता हर अलग-अलग व्यक्तिके गुणकी अपेक्षा दलका सामूहिक गुण कहीं कम होगा लेकिन, इसके विपरीत, एक पर्याप्त सचेतन और समन्वित संगठनद्वारा व्यक्तिगत कार्यकी क्षमताको बहुगुणित किया जा सकता है ।
३४०
१३ अगस्त, १९५८
मधुर मां, जुलाई १९५३ मे आपने हमसे कहा था कि पांच साल बाद मैं तुम्हें ''आध्यात्मिक जीवनके बारेमें पढ़ाऊंगी' । जो कुछ आपने कह। था, मां, मैं बह ले आया हू ।
अच्छा! यह तो मजेदार बात है ।
(श्रीमां बच्चेद्वारा दिया गया मूल पड़ती है) क्या यह छप गया है?
नहीं, मां ।
ओह, अंतिम वाक्य कितना सुन्दर है!
(थोडी देर चुप रहनेके बाद) तो, तुम मुझसे क्या आशा करते हो (इ... शुरू करनेकी?
,'प्रश्न ओर उत्तर, १९५३, १ ०' जुलाई ।
३४१
लेकिन मैंने तो पहले ही शुरू कर दिया है, है न? पांच साल बीतनेके पहले ही ।
लगता है उस दिन, मैंने... ओह! मैंने यहां लिखा--मैंने जो लिखा... ।
यह 'मातृबाणी'में लिखा हुआ है, मधुर मां ।'
उसमें मैंने संन्यास और आध्यात्मिक जीवनके बीच जो उलझन पैदा होती है उसके विषयमें लिखा है, और मैंने वचन दिया था कि एक दिन मै तुम्हें बताऊंगी कि लोग जिसे भगवान् कहते है और जिसे मैं भगवान् कहती हू, उनके बीच ३ क्या उलझन पैदा कर लेते हैं ।
लेकिन इस विषयमें तो मैं तुम्हें कई बार बता चुकी हू, है न?
मुझे अपना वचन याद नहीं था लेकिन याद रखे बिना हीं मैंने उसे निभाया है, और वह भी वह दिन आनेसे पहले ही!
अब यदि तुम इस विषयपर ठीक-ठीक प्रश्न पूछो तो मैं देखूंगा कि मैं क्या बता सकती हू । आध्यात्मिक जीवनके बारेमें तुम क्या जानना चाहते हो?... क्या तुम्हारे पास कोई खास प्रश्न है?
आपका मतलब है कि आप ध्यान शुरू करा चुकी हैं, मां?
हां!.. .और जो पड़ती हू उसकी व्याख्याएं देना भी शुरू कर चुकी हू । छोटी कक्षामें तो हमने आध्यात्मिक जीवन बितानेके लिये आवश्यक अनुशासनपर ध्यान करना शुरू भी कर दिया है । और जब मैंने 'धम्मपद' पढ़ना शुरू किया तो हमने बहुत-सी ऐसी चीज़ें पढ़ीं जो आध्यात्मिक जीवन- के ज्ञानकी ओर ले जाती है । किंतु यदि तुम्हें किसी खास विषयपर कोई सुनिश्चित प्रश्न पूछना हों तो पूछ सकते हो, मैं उत्तर दूंगी ।
मधुर मां, यहां आश्रममें रहते हुए हमें जितना लाभ उठा सकना चाहिये हम उतना लाभ क्यों नहीं उठाते?
आह! यह तो बहुत सीधी-सी बात है, इसलिये क्योंकि यह बहुत आसान
' 'मातृवाणी' १९२१ ।
३४२
है ।...... जब गुरुको ढूंढनेके लिये तुम्हें, सारी दुनियाका चक्कर लगाना पड़े, जब तुम्हें शिक्षाके पहले शब्दोंको पानेके लिये सब कुछ त्यागना पड़े, तब, वह शिक्षा, वह आध्यात्मिक सहायता उस चीजकी तरह बहुत अनमोल बन जाती है जो बड़ी कठिनाईसे मिलती है और तुम उसके अधिकारी बननेके लिये बहुत प्रयास करते हों ।
तुममेंसे अधिकतर यहां तब आये जब ३ बहुत छोटे थे, ऐसी उमा थी जब आध्यात्मिक जीवनका या आध्यात्मिक शिक्षाका कोई प्रश्न ही नहीं उठता... वह बिलकुल असामयिक होता । तुम यहांके वातावरणमें रहे पर उसे जाने बिना, तुम मुझे देखनेके, मेरी बात सुननेके अम्यस्त हो, मैं तुम्हारे साथ ऐसे बात करती हू जैसे सभी बच्चोंके साथ की जाती है, मैं तुम्हारे साथ रवेलीतक हू, जैसे कोई बच्चोंके साथ खेलता है; तुम्हें बस यहां आना और बैठना होता है और तुम मुझे बोलते हुए सुनते हों, तुम्हें सिर्फ प्रश्न करना होता है और मैं' उतर दे देती हू । मैंने कमी किसी- को कोई बात बतानेसे इन्कार नहीं किया । यह इतना सरल है । बस इतना काफी है... जीना - सोना, खाना, व्यायाम करना और विद्यालयमें अध्ययन करना । तुम यहां वैसे ही रहते हों जैसे कहीं बाहर रहते । और इसीलिये, तुम इसके आदी हों गयें हो ।
यदि मैंने कड़े नियम बनाये होते, यदि मैंने कहा होता : ''मैं तुम्हें तबतक कुछ नहीं बताऊंगी जबतक तुम उसे जाननेके लिये प्रयास नही करते,'' तो शायद तुम कुछ प्रयास करते, पर नहीं, यह मेरे विचारोंसे मेल नहीं खाता । कठोर शिक्षाकी अपेक्षा मैं वातावरणकी शक्ति उदाहरणपर ज्यादा विश्वास करती हू । मैं विधिवत्, अनुशासित प्रयत्नकी अपेक्षा मूक संचार- द्वारा सत्तामें कुछ जगा देनेपर ज्यादा भरोसा करती हू ।
शायद, अंतत:, कोई चीज तैयार हा रही है और एक दिन वह फूट निकलेगी ।
मैं इसीकी आशा करती हू ।
एक दिन तुम अपने-आप कहोगे : ''अरे! मैं इतने समयसे यहां हू मुझे कितना कुछ सीख लेना चाहिये था, उपलब्ध कर लेना चाहिये था, और मैंने कमी हसके बारेमें सोचातक नही । बस, ऐसे ही कभी-कभार! '' और तब, उस दिन... हां, उस दिन, जरा कल्पना करो, तुम सहस.।- एक ऐसी चीजके प्रति जाग्रत् हों उठोगे जिसकी ओर कभी तुम्हारा ध्यान ही नहीं गया; लेकिन जो तुम्हारे भीतर गहराईमें है, जिसमें सत्यके लिये प्यास है, रूपांतरके लिये प्यास है और जो इसे पानेके लिये अपेक्षित प्रयत्न करनेको तैयार है । उस दिन तुम बहुत तेज चलोगे, लंबे डगोंसे आगे बढ़ोगे... ।
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शायद जैसा कि मैंने कहा था, आज पांच साल बाद, वह दिन आ पहुंचा है? मैंने कहा था : ''मैं तुम्हें पांच साल देती हू''.. । अब वे पांच साल बीत गयें हैं, अतः शायद वह दिन आ गया है । शायद, तुम अचानक एक अदमनीय आवश्यकता अनुभव करो कि अब निश्चेतन और अज्ञानमें नहीं जीना है, उस अवस्थामें नहीं रहना है जिसमें कारण जाने बिना तुम काम करते हो, कारण समझे बिना अनुभव करते हों, विरोधी इच्छाएं रखते हा, किसी चीजके बारेमें कुछ नहीं समझते, केवल आदत, दिनचर्या और प्रतिक्रिया वश जीते हों, बस जीवनको सहज रूपमें लेते हों । और एक दिन आता है जब तुम उससे संतुष्ट नही रहते ।
तुम देखोगे कि यह हर एकके लिये अलग-अलग 'है । ज्यादातर यह जानने, समझनेकी आवश्यकता होती है ' कुछ लोगोंके लिये यह जो कुछ करना चाहिये और जैसे करना चाहिये उसे वैसा करनेकी आवश्यकता होती है; कुछ दूसरोंके लिये यह एक धुंधली-सी अनुभूति होती है कि इस इतने अचेतनता, व्यर्थ और निरर्थक जीवनके पीछे कुछ ऐसी चीज है जो जीनेके लायक हैं, जिसे पाना है -- एक सद्वस्तु है, इन मिथ्यात्वोंका और माया- जालोंके परे एक सत्य है ।
सहसा तुम महसूस करते हो कि जो कुछ तुम कर रहे हो, जो कुछ देख रहे हो उसका कोई अर्थ नही, उसके अस्तित्वका कोई हेतु नहो, लेकिन कही कुछ ऐसा है जिसका अर्थ है कि मूलतः .हम यहां इस धरतीपर किसी काम- के लिये है, इस सबका, इन सब गतिविधियोंका, सब उद्वेगोंका, शक्ति और ऊर्जाके इस सारे अपव्ययका जरूर कोई प्रयोजन होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, और यह बेचैनी जो हम अपने अंदर अनुभव कर रहे हैं, यह असंतोष, यह आवश्यकता, किसी चायके लिये प्यास जरूर हमें कही लें जायेंगी ।
और एक दिन तुम अपनेसे पूछते हो. ''पर हमारा जन्म क्यों दुआ?.. हम मर क्यों जाते है?... हम दुख क्यों भोगते है?... हम काम क्यों करते है?..... .''
अब तुम एक छोटी-सी मशीनकी तरह नहीं रह जाते, मुश्किलसे अर्ध- चेतन । तुम सचमुच अनुभव करना, सचमुच काम करना, सचमुच जानना चाहते हो । तव, साधारण जीवनमें व्यक्ति पुस्तकें खोजता है, ऐसे लोगों- को ढूंढता है जो उससे थोड़ा ज्यादा जानते हों, किसीकी रवे शुरू करता है जो इन प्रश्नोंका समाधान कर सकें, 'अज्ञान'का परदा उठा मकें । यहां, यह सब बहुत आसान है । तुम्हें केवल... वही करना होता है जो प्रतिदिन करते हों, लेकिन करना होता है किसी उद्देश्यसे ।
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तुम समाधिपर जाते हो, श्रीअरविन्दका चित्र देखते हो, मुझसे फूल लेने आने हो, पढ़ने बैठते हो, तुम बह सब करते हो जो प्रायः किया करते हो लेकिन... अपने अंदर एक प्रश्न लिये : क्यों?
और तब, यदि तुम प्रश्न करो तो तुम्हें उत्तर मिल जाता है ।
क्यों?
क्योंकि अब हम वैसा जीवन नहीं चाहते जैसा वह है, क्योंकि हम अब मिथ्या और अज्ञानको नहीं चाहते, क्योंकि हम पीड़ा और अचेतनताको और नहीं चाहते, क्योंकि हम अव्यवस्था एवं दुर्भावनाको और नहीं चाहते, क्योंकि श्रीअरविन्द हमें यह बतानेके लिये आये हैं : 'सत्य'को पानेके लिये धरतीको छोड़नेकी जरूरत नहीं, अपनी 'अंतरात्मा 'को पानेके स्किये जीवनका त्याग आवश्यक नहीं, भगवानके साथ संबंध जोड़नेके लिये संसारका त्याग या सीमित मत रखना जरूरी नहीं है । भगवान् सब जगह हैं, हर वस्तुमें है और यदि वे छिपे हुए हैं तो इसलिये कि हम उन्हें ढूंढनेका कष्ट नहीं उठाते ।''
मात्र एक सच्ची अभीप्साद्वारा हम अपने अंदरका मुहरबंद द्वार खोल सकते हैं और पा सकते हैं... वह 'कोई' चीज जो जीवनकी सारी सार्थ- कताको बदल देगी, हमारे सारे प्रश्नोंका उत्तर दे देगी, सारी समस्याओंको हल कर देगी और हमें उस पूर्णता और 'सद्वस्तु'तक ले जायेगी जिसके लिये हम अनजाने अभीप्सा करते हैं, केवल वही हमें संतुष्ट कर सकती है और स्थायी उत्फुल्लता, संतुलन, बल और जीवन थे सकती है ।
यह सब तो तुम बहुत बार सुन चुके हों ।
तुम सुन चुके हो -- आह! यहां कुछ ऐसे मी है जो इसके इतने आदी पटा चुके है कि यह उन्हें वैसा ही लगता है जैसे एक गिलास पानी पीना या धूपके लिये अपनी खिड़की खोलना ।
पर चूकि मैंने तुम्हें, वचन दिया था कि पाच सालमें तुम इन चीजोंको जी सकोगे., इनका ठोस, सच्चा विश्वास दिलानेवाला अनुभव पाओगे तो, इसका मतलब है कि तुम्हें तैयार हों जाना चाहिये और यह कि हम शुरू करनेवाले हैं ।
हमने थोड़ा-सा प्रयत्न किया है लेकिन अब गंभीरतासे करने जा रहे है! आरंभिक बिंदु : इच्छा करना, सचमुच चाहना, इसकी जरूरत महसूस करना । अगला चरण : केवल उसीके बारेमें सोचना । एक दिन आयेगा, बहुत जल्दी आयेगा, जब तुम किसी और चीजके बारेमें सोच ही न सकोगे । यही एक चीज है जिसका कुछ मूल्य है । और इसके बाद... ।
तुम अपनी अभीप्साको शब्दबद्ध करते हो, अपने हदयसे सच्ची प्रार्थनाका
निर्झर फूटने देते हो जो तुम्हारी आवश्यकताकी सच्चाईको व्यक्त करती है । और तब... हां, तब, तुम देखोगे कि क्या होता है ।
कुछ होगा । निश्चय ही कुछ होगा । हर एकके लिये. इसका रूप भिन्न होगा । बस । मुझे खुशी हुई कि तुमने मुझे यह दिया ।
३४५
१५ अगस्त, १९५८
यह छोटी-सी वार्ता एक शुक्रवारको दी गयी
थी । साधारणतया यह दिन 'धम्मपद' पढ़ने-
के लिये नियत था ।
चूंकि आज श्रीअरविंदका जन्मदिन है, मैंने सोचा 'धम्मपद' पढ़नेको जगह कुछ और पडू जिसमे तुम्हें, रस आये ओर जो तुम्हें यह दिखाये कि श्रीअरविदने देवताओंके साथ हमारे संबंधका निरूपण कैसे किया है ।
तुम जानते ही हो, जानते हों न, कि भारतमें विशेषकर, देवताओंकी अनगिनत श्रेणियां हैं, सब विभिन्न स्तरोंपर है, कुछ मनुष्यके बहुत पास, दूसरी 'परम' के बहुत समीप, ओर बहुत-सी मध्यवर्ती ।
जो मैं तुम्हें बताना चाहती हू उसे तुम अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे यदि मैं पौराणिक देवताओंका उल्लेख करूं (वैसे देवता जैसे हमन उस दिन चित्रपटपर देखे थे), और जो, मैं कहूंगी कि कई बातोंमें मनुष्य- से बदतर है (!) यद्यपि शक्तिके हिसाबसे वे अनतगुना महान् है ।
अधिमानसके देवता हैं जो पृथ्वीके महान् स्रष्टा है -- अभीतक । वेदके देवता हैं जिनका उल्लेख ऋषियोंने हमतक आनेवाली हर चीजमें किया है । और है अतिमानसके देवता जो पृथ्वीपर अभिव्यक्त होनेवाले है, यद्यपि अपने स्तरपर वे शाश्वत कालसे विद्यमान है ।
यहां श्रीअरविंद विशेषकर वैदिक देवताओंके बारेमें कह रहे हैं, पर अनन्य भावसे नहा', न ही बिलकुल निश्चित रूपसे । कुछ भी हो, ये देवता पौराणिक देवताओंकी अपेक्षा महान् हैं ।
श्रीअरविदने जो कहा है वह यों है : संक्षेपमें यह एक प्रार्थना है :
विस्तृत होओ मेरे अंदर, हे वरुण;
शक्तिशाली बनो मेरे अंदर, हे इंद्र;
हे सूर्य, प्रदीप्त हों और भास्वर बनो;
हे चन्द्र, शोभा-सुषमा और मधुरिमासे भर उठो ।
उग्र और भयंकर बने'।, हैं रुद्र;
प्रचंड और वेगवान् बनो, हैं मरुत्;
बलवान् और साहसी होओ, हे अर्यमा;
विलासी और सुखदायी बने'।, हैं भग;
कोमल, कृपालु, प्रेमिल और अनुरागी बनो, हे मित्र;
उज्ज्वल और उद्भासक होओ, हैं उषा;
हे निशे, भव्य और उर्वर बनो;
हे जीवन, परिपूर्ण, प्रस्तुत और प्रफुल्ल होओ,
हे मृत्यु, एक सौधसे दूसरे सौधतक मुझे ले चलो ।
इन सबको एक लय-तालमें बांध दो, हे ब्रह्मणस्पति ।
मैं इन देवताओंका दास न बनूँ, हे काली! '
तो, श्रीअरविंद कालीको बड़ी मुक्ति दायिनी शक्ति मानते है जो लगनके साथ प्रगति करनेकी ओर प्रवृत्त करती है ओर तुम्हारे अंदर बंधन नहीं छोड़ती जो तुम्हें प्रगति करनेसे रोके ।
मेरा ख्याल है कि छियानवे लिये यह अच्छा विषय होगा ।
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२७ अगस्त, १९५८
मधुर ' मां, जब आप हमें किसी विषयपर ध्यान करनेके लिये कहती हैं, उदाहरणके लिये जब हम ध्यानके लिये यह विषय चुनते हैं कि हम प्रकाशकी ओर खुल रहे हैं तो हम अजीब- अजीब चीजोंकी कल्पना करने लगते हैं, एक दरवाजा खुलनेकी कल्पना करते है आदि-आदि, लेकिन यह सब हमेशा मानसिक रूप ले लेता है ।
' 'बिचार और सूत्र', पृ० ८६ ।
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यह व्यक्ति-व्यक्तिपर निर्भर है । हर एक्का अपना विशेष तरीका होता है । यह पूरी तरह हर व्यक्तिपर निर्भर है । कुछ लोगोंके लिये ऐसे बिंब हो सकते है जो उनकी सहायता करते है; दूसरी ओर, कइयोंका मन ज्यादा भावात्मक होता है और वे केवल ३गवो या विचारोंको देखते है, दूसरे, जो ज्यादा सवेदनों और भावनाओंमें रहते हैं, मनोवैज्ञानिक गतियां, आंतरिक भावनाएं और संवेदन पाते हैं - यह हर एकपर निर्भर है । जिनका भौतिक मन सक्रिय, खासकर रचनात्मक होता है वे चित्र देरवते है, पर हर एक एक ही चीजको अनुभव नही करता । उदाहरणार्थ, यदि तुम अपने साथवालेसे पूछो... (साथवालेका संबोधित करते हुए) जब मैं तुम्हें कोई विषय देती हू तो क्या तुम भी इसी तरहके बिंब देखते हों?
कभी-कभी ।
कभी-कमी?
अधिकतर मैं कुछ महसूस करता हू ।
बह अधिकतर क्या होता है?
एक संवेदन ।
एक स्वेदन, हा । बहुधा यह स्वेदन होता है (मेरा मतलब सामान्यतया), बिबसे ज्यादा एक संवेदन या अनुभव होता है । बिंब हमेशा उनकों दीखते है जिनमें रचनात्मक मानसिक शक्ति होती है, जिनका स्थूल मन सक्रिय होता हैं । यह इस बातका लक्षण है कि वह अपनी मानसिक चेतनामें सक्रिय है ।
(वह बच्चा जिसने पहला प्रश्न पूछा था) लेकिन क्या इस तरह यह ठीक है?
हर चीज ठीक है, यदि उससे कुछ परिणाम आये । उपाय कुछ भी हो, वह अच्छा है । वह ठीक क्यों न हा?... यह जरूरी नहीं है कि इस तरहके बिंब हास्यास्पद ही हों । ३ बिलकुल हास्यास्पद नहीं होते, वे मान-
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मिक बिंब है । यदि उनसे कुछ परिणाम हाथ लगता है तो वे बिलकुल ठीक हैं । यदि उससे तुम्हें कोई अनुभव होता है तो वह ठीक है ।
दृष्टांतके रूपमें, जब मैं तुमसे अपने भीतर गहरे पैठनेकी कहूं तो तुममें- से कुछ संवेदनपर एकाग्र होंगे । इसी तरह कुछ दूसरोंको एक गहरे कुंएमें उतरनेका अनुभव होगा, वे एक अंधेरे और गहरे कुंडी ओर जाती हुई सीढ़ियां चित्र स्पष्टतया देखेंगे और वे नीचे, और नीचे, गहरे, और गहरे उतरते जाते हैं और कभी-कमी ठीक एक द्वारपर जा पहुंचते हैं; वे उसमें घुसनेकी इच्छा लिये वहीं बैठ जाते है और कमी-कमी द्वार खुल जाता है, वें अंदर जाते हैं और एक तरहका हल या कमरा या गुफा देखते है, कुछ इसी तरहका ओर वहांसे, यदि वे आगे बढ़ना जारी रखें तो एक और दर- वाजेपर पहुंचते है और पुन: रुक जाते हैं, प्रयाससे दरवाजा खुल जाता है भार वे और आगे बढ़ते हैं, और यदि यह अध्यवसायके साथ किया जाय और वे अनुभवको जारी रख सकें, तो वे अपने-आपको एक दरवाज़ेके सम्मुख खड़ा पाते है जो... एक खास तरहकी दृढ़ता ओर गांभीर्य लिये हेत है । एकाग्रताके महाप्रयाससे दरवाजा खुल जाता है और वे सहसा निर्मलता और ज्योतिके एक हालमें प्रवेश करते हैं; और तब -- जानते हो - वे अपनी आत्माके साथ संपर्ककी अनुभव प्राप्त करते हैं... । मुझे तो बिंबोंमें कोई बुराई नहीं दिखती ।
नहीं, मां, लेकिन यह तो कोरी कल्पना है, नहीं है क्या, मां?
कल्पना? पर कल्पना क्या है?... तुम ऐसी किसी चीजकी कल्पना नहीं कर सकते जिसका विश्वमें अस्तित्व न हो । जो चीज कहीं न हों उसकी कल्पना करना असंभव है । केवल एक ही चीज संभव है, वह यह कि तुम अपना बिंब यथास्थान न रखो : या तो तुम उसे वे गुण और विशिष्टताएं दे दो जो उसमें नही हैं या फिर उसकी उचित व्याख्या न दे- कर ओर तरहसे व्याख्या कर दो । लेकिन तुम जो कुछ कल्पना करते हो उसका कही-न-कहीं अस्तित्व है; सारी बात है उचित स्थानको जानना और उसे वहां बीठा देना ।
स्वभावत:, यदि यह कल्पना करनेके बाद कि तुम एक दरवाजेके सामने खड़े हो जो खुल रहा है, तुम यह सोचो कि सचमुच तुम्हारे शरीरके भीतर एक भौतिक दरवाजा है तो वह भूल होगी । लेकिन यदि तुम यह समझो कि तुम्हारी एकाग्रताके प्रयासने यह मानसिक रूप लिया है तो यह बिलकुल ठीक है । यदि तुम मानसिक जगत्की सैर करने निकलो तो तुम्हें इस
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तरहके अनेक रूप दिखायी देंगे, सब तरहके रूप जिनका भौतिक अस्तित्व नहीं है पर जो मानसिक जगत्में भली-भांति विद्यमान है ।
तुम्हारे विचारके रूप लिये बिना तुम किसी चीजके बारेमें सशक्त रूपसे नहीं सोच सकते । लेकिन अगर तुम मान बैठो कि यह रूप भौतिक था तो, स्पष्ट ही, यह भूल होगी । फिर मी मानसिक जगत्में यह पूरी तरह विद्यमान है ।
कल्पना निर्माणकी शक्ति है । असलमें, जिनमें कल्पना नहीं होती वे मानसिक दृष्टिकोणसे निर्माता नहीं होते, वे अपने विचारको ठोस शक्ति नहीं दे सकते । कल्पना कर्मका एक बहुत शक्तिशाली साधन है । उदाहरणार्थ, यदि तुम्हारे कहीं दर्द हो रहा हो और तुम यह कल्पना कर सको कि तुम उसका लोप किये दे रहे हों या दूर हटा रहे हों या नष्ट कर रहे हो -- ऐसी सब तरहकी कल्पनाएं -- तो बहुत अच्छी तरह सफल होते हो ।
एक आदमीकी कहानी है कि उसके बाल बड़ी तेजीसे झड़ रहे थे, इतने कि कुछ ही हफ्तोंमें वह गंजा हों जाता । तब किसीने उससे कहा : ''जब तुम कंधी करो तो यह कल्पना करो कि ये बढ़ रहे है, और बड़ी तेजीसे बढ़ रहे है ।'' और हर बार कैसी करते समय वह कहता : ''ओह । मेरे बाल बढ़ रहे हैं, ये बड़ी तेजीसे बढ़ रहे है... ।'' और ऐसा हीं हुआ । जब कि, सामान्यतया, लोग करते यह हैं कि वे अपने-आपसे कहते है : ''आह! फिरसे मेरे बाल झगड़ने शुरू हो गये, अब मैं गंजा हो जाऊंगा, यह निश्चित है, वह जरूर होगा ।''
स्पष्ट है कि ऐसा ही होता है!
मां, शुक्रवारकी कक्षाओंमें आप प्रायः हमें कोई एक वाक्य' पढ- कर सुनाती है और उसपर ध्यान करनेके लिये कहती है । लेकिन एक वाक्यपर ध्यान कैसे किया जाय? क्या हमें सोचना चाहिये, उसके भावपर ध्यान करना चाहिये या...? क्या करना चाहिये?
वाक्यपर ध्यान करना?
जि !
' उन दिनों यह 'धम्मपद'मेंसे होता था ।
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स्पष्ट हा है, उसके अर्थकर ।
अर्थात्, हमें सोचना चाहिये... ।
हा । नो फिर?
क्योंकि मां, बह मानसिक क्यिा हो जाती है, नहीं होती क्या?
वाक्य तो पहलेसे ही मानसिक रचना है; मानसिक रचना की जा चुकी है । वाक्य उस मानसिक रचनाकी अभिव्यक्ति है । अत. जब तुम किसी वाक्य- पर ध्यान करो तो उसके दो तरीके हैं । एक सक्रिय, साधारण बाह्य तरीका है शब्दोंके अर्थकर विचार करने और उन्हें समझनेकी कोशिश करनेका, वाक्यके ठीक-ठीक अर्थको बौद्धिक रूपसे समझनेका -- यह है सक्रिय ध्यान । तुम उन चंद शब्दोंपर एकाग्र होते हों और उनसे जो विचार व्यक्त हुआ है उसे लेकर तर्क, निगमन, विश्लेषणद्वारा उसके अर्थको समझनेकी कोशिश करते हो ।
दूसरा तरीका है जो अधिक सीधा और गहरा है; इस मानसिक रचनाको, शब्दोंके इस समवायको और जिस विचारका ये प्रतिनिधित्व करते है उसको लेना और अपने ध्यानकी सारी शक्तिको उसपर केंद्रित करना, अपनी सारी शक्तिको उस रचनापर एकाग्र होनेके लिये अपने-आपके'। बाध्य करना । उदाहरणके लिये, स्थूल रूपसे देखी हुई किसी चीजपर अपनी सारी शक्तिको एकाग्र करनेके स्थानपर तुम उस विचारको लेते हो ओर उसपर अपनी सारी शक्ति एकाग्र करते हो - स्वभावतः, मनमें ।
और उसके बाद यदि तुम विचारकों एकाग्र करनेमें और उसकी चंचलता- को रोकनेमें सफल हो जाते हों तो बहुत सहज ढंगसे शब्दोंद्वारा व्यक्त विचारको लांघकर उनके पीछेके भावतक पहुंच जाते हों जो दूसरे शब्दों- द्वारा, दूसरे रूपोंद्वारा व्यक्त हो सकता है । भावकी विशिष्टता है अपनेको अलग-अलग विचारोंसे भूषित करनेकी शक्ति । और जब तुम इतनी दूरतक चले जाते हो तो तुम शब्दोंके सरल बोधकी अपेक्षा कहीं अधिक गहरे जा पहुंचते हो । स्वाभाविक है कि यदि तुम एकाग्रताका अभ्यास करते रहो और तुम्हें यह पता हो कि इसे ऐसे किया जाता है तो तुम भावकों पारकर इसके पीछे छिपी आलोकमयी शक्तितक जा सकते हो । तब वहां तुम बृहत्तर और गहनतर प्रदेशमें प्रवेश करते हो । पर उसके लिये कुछ प्रशिक्षण अपेक्षित है । फिर भी, अंततः ध्यानकी रीति यही है ।
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यदि तुम काफी गहराईमें जानेमें सफल हो जाते हो तो तुम्हें भावके पीछे 'मूलतत्व' ओर 'शक्ति' मिलती है ओर ये ही तुम्हें सिद्धिकी शक्ति प्रदान करती है । जो लोग ध्यानको आध्यात्मिक विकासके साधनके रूपमें अप- नाते है वे इसी तरहसे चीजोंके पीछे स्थित 'म्लतत्वके साथ एक हो जानेमें और इन चीजोंपर ऊपरसे क्रिया करनेमें सफल होनेकी शक्ति पाते है ।
पर इतनी दूर गये बिना भी (इसका मतलब है काफी कड़ा अनुशासन, कठोर अभ्यास, है न!) तुम विचारसे भावतक काफी आसानीसे जा सकते हो, तब वह तुम्हें मनमें प्रकाश और बोध प्रदान करता है जिसके काराग तुम्हें भावको अपने मनचाहे रूपमें व्यक्त करनेकी छूट होती है । एक भाव बहुत-से विभिन्न रूपोंमें, बहुत-से विभिन्न विचारोंमें उसी तरह व्यक्त हो सकता है, जैसे, जब तुम अधिक भौतिक स्तरपर उत्तर आते हो तो एक विचार बहुत-सें विभिन्न शब्दोंद्वारा व्यक्त किया जा सकता है । नीचेकी ओर, अभिव्यक्तिकी ओर जाते हुए, यानी, भाषण या लेखनद्वारा व्यक्त करनेके लिये बहुत-से विभिन्न सूत्र होते हैं जो विचारकों व्यक्त करनेके काम- मे आते हैं, लेकिन यह विचार, विचारके उन अनेक रूपोंमेसे सिर्फ एक रूप है जो भावको, पीछे स्थित 'मूलतत्व'को व्यक्त करते हैं और यदि और गहराईतक जाया जाय तो स्वयं इस भावके पीछे आध्यात्मिक ज्ञान और शक्तिका एक सारतत्व विद्यमान है जो, फिर, सब जगह फैल सकता है बार अभिव्यक्त जगत्पर कार्य कर सकता है ।
जब तुम्हारे पास कोई विचार होता है तो तुम शब्द ढूंढते हों, है न? और फिर अपने विचारको अभिव्यक्त करनेके लिये तुम शब्दोंको व्यवस्थित करनेकी कोशिश करते हो; तुम एक विचारको व्यक्त करनेके लिये अनेक शब्दोंका प्रयोग कर सकते हो, तुम अपने-आपसे कहते हों : ''नहीं, जरा ठहरो, यदि मैं उस शब्दके बदले इस शब्दका उपयोग करूं तो मैं जो सोच रहा हू उसे यह कहीं अधिक अच्छी तरह व्यक्त करेगा ।'' जब तुम्हें लिखनेका ओर लेखन-शैलीका प्रशिक्षण दिया जाता है तो यही सिखाया जाता है ।
परंतु जब मैं तुम्हें एक लिखित वाक्य देती हू जिसमें विचारको व्यक्त करनेकी शक्ति होती है और तुम्हें उसपर एकाग्र होनेके लिये कहती हू तब, विचारके इस रूपसे तुम इसके पीछे स्थित भावतक जा सकते हो जो अनेक विभिन्न विचारोंमें अभिव्यक्त हो सकता है । यह एक बड़ी क्रम-परंपराके समान है : 'मूलतत्व' एकदम शिखरपर है पर वह अपने- आपमें अंतिम नहीं है क्योंकि तुम उससे और भी ऊपर उठ सकते हो; पर इस 'मूलतत्व'को' भावमें व्यक्त किया जा सकता है, और ये भाव
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अनेक विचारोंमें ठयक्ति किये जा सकते हैं, और ये अनेक विचार बहुत-सी भाषाओंका, और उससे भी अधिक, शब्दोंका प्रयोग कर सकते हैं ।
जब मैं तुम्हें कोई विचार देती हू, तो वह केवल एकाग्र होनेमें महायता देनेके लिये होता है... । कुछ संप्रदाय तुम्हारे सामने कोई चीज रख देते है - एक फूल या पत्थर, कुछ इसी तरहकी चीज, औ र फिर तुम सब उसके इर्द-गिर्द बैठकर उसपर एकाग्र होते हो और तुम्हारी आंखें इस तरह स्थिर हों जाती हैं ( माताजी दिखाती है कि कैसे) जबतक कि तुम वह विषय-वस्तु ही न बन जाओ । एकाग्रताका यह भी एक तरीका है । उस तरह लगातार, बिना हिले-डुले देखनेसे, अंतमें, जिस वस्तुको तुम देखते हो उसमें प्रवेश पा जाते हो । लेकिन तुम्हें सब तरहकी चीजोंको देखना शुरू नहीं कर देना चाहिये : स्थिरतासे उसी- को देखो । वह तुम्हें एक ऐसा रूप देती है जो... तुम्हें भेंगा कर देती है ।
यह सब एकाग्रता सिखानेके लिये है । बस, इतना ही ।
कमी-कभी इनमेंसे कोई वाक्य बहुत गहन सत्यको व्यक्त करता है । यह उन सौभाग्यशाली वाक्योंमेंसे होता है जो बड़े भावपूर्ण होते है । अतः यह पीछे स्थित सत्यको पानेमें तुम्हारी सहायता करता है ।
जब हम 'धम्मपद' समाप्त कर लेंगे तो मैं यही करनेकी सोच रही हू 1 आजकल मैं श्रीअरविदकी नवीनतम पुस्तक 'विचार और सूत्र'का अनुवाद कर रही हू जो हाल ही मे प्रकाशित हुई है, और मेरी इच्छा लैम्प कि हर शुक्रवारको एक वाक्य, एक सूत्र ( टिप्पणीके साथ या उसके बिना, जब जैसी आवश्यकता हों) दूं लेकिन ध्यानके लिये एक विषयके रूपमें । इसके तरीके और साधन अभी खोजने हैं... । हम दो भिन्न तरीकोसे आरंभ कर सकते हैं । मैं उन्हें कर्मसे लुंगी, अतः तुम्हें हमेशा पता रहेगा कि अगले सप्ताहके लिये कौन-सा आयेगा और तुम पहलेसे ही प्रश्न तैयार कर लोगे; या फिर तुम यदि पहलेसे प्रश्न तैयार नहीं कर लेते तो शायद यह ज्यादा मजेदार होगा कि एक वाक्य लेकर उसपर ध्यान करनेके बाद अगली बार पिछले सप्ताहके दिये गयें वाक्यके बारेमें मुझसे पूछो । तब, उन पूछे गयें प्रश्नोंमेंसे मैं उन प्रश्नोंको चुन लुंगी जो मुझे सबसे अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण लगेंगे और उनका उत्तर दूंगी । और बादमें हम एक नया वाक्य लेंगे जिसपर उस दिन ध्यान करेंगे और अगले सप्ताह वह प्रश्नोंका विषय होगा । और यह चीज मैं बहुत यथार्थ और सुनिश्चित उद्देश्यसे करनेवाली हू : यह है तुम्हें अपनी मान- सिक तंद्रासे बाहर नीका लेना और जो कुछ मैं तुम्हें बताती हू उसे सोचने
और समझनेके लिये बाध्य करना... । क्योंकि वह केवल कानोंमें जरा-सा शोर करता है, सिरमें और मी कम, और फिर दूसरी तरफसे निकल जाता है और बस, सब खतम! कभी-कमी, बिरले ही, विशेष कृपा हो जाय तो, यहां जरा-सा असर होता है, इस तरह, कापती हुई लौ की तरह टिकता हैं -- जो थोडी देर जलती है और फिर, कुश ।... कोई चीज फूँक मार देती है, वह बूझ जाती है और बस, मारा ग्वेन खतम ।
हमें कुछ पाठ चाहिये, मधुर मां ।
उस दिन जब तुमने मुझे बताया था कि मैंने तुम्हें ''पाठ'' पढ़ानेका वचन दिया था तो मैंने उसे बहुत गंभीरतासे लिया । मैं अपना वचन निभानेवाली हूं । तो बस!
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३ सितंबर, १९५८
मधुर मां, उस दिन आपने मुझे बताया था कि कल्पनाको नियंत्रित करना सीखना जरूरी है ।
यह कैसे किया जाता है?
जो अस्पष्ट रूपसे ''कल्पना'' कहलाती है, वह कल्पना बड़ी जटिल और बहुविध वस्तु हैं ।
यह मानसिक या किसी ओर क्षेत्रमें पाये जानेवाले रूपोंको देखने, अंकित करने और ध्यान देनेकी क्षमता है । कालके क्षेत्र, साहित्यके क्षेत्र, कार्यके क्षेत्र, कार्यके क्षेत्र, विज्ञानके क्षेत्र, सभी मनके क्षेत्र है -- बहुत ऊंचे और सूक्ष्म मनके नहीं - उस मनके जो भौतिक मनके ऊपर है और जो, हमारे जाने बिना, अपने-आपको कार्यमें व्यक्त करनेके लिये व्यक्ति- गत मन और सामूहिक मनमें स्वयंको सतत उंडेलता रहता है ।
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कृउछ लोगोंका, एक विशेष क्षमताद्वारा, उन स्तरोंसे संपर्क होता है, वे वहां मिली किसी-न-किसी रचनाको बटोर लेते हैं, उसे अपनी ओर खींचते है और व्यक्त करते है । भिन्न-भिन्न लोगोंमें व्यक्त करनेकी भिन्न-भिन्न क्षमता होती है, पर जिनमें उन स्तरोंकी ओर खुलनेकी, वहां देखनेकी, अपनी ओर उन आकारोंको आकषित करनेकी और उन्हें अभिव्यक्त करने- की क्षमता होती है -- चाहे वह साहित्यमें हा या चित्रकारीमें, संगीतमें हो या कर्ममें या विज्ञानमें -- वे व्यक्त कर सकनेकी अपनी क्षमताके अनुसार चाहे तो असाधारण प्रतिभावान' होते है या फिर सचमुच मेधावी ।
उच्चतर प्रतिभावाले लोग भी है । ये वे लोग हैं जो महत्तर लोकके प्रति, महत्तर शक्तिके प्रति अपनेको रवोल सकते है, जो मानसिक परतोंसे गुजरती हुई, मानव मनमें आकार लेती है और दुनियामें नवीन सत्यों, दार्शनिक प्रणालियों, नूतन आध्यात्मिक शिक्षाओंके रूपमें प्रकाशित होती है, ये उन महान् सत्ताओंके, जो इस धरातलपर जन्म लेती हैं, कर्म और माथ-ही-साथ क्रियाएं है । वह एक कल्पना हुए जिसे ''सत्यकी कल्पना'' कहा जा सकता है ।
ये महत्तर शक्तियां जब पृथ्वीके वायुमंडलमें उतरती हैं तो सजीव, सक्रिय और सबल रूप लेती हैं, धरतीपर फैल जाती हैं और नये युगकी तैयारी करती हैं ।
इन दो तरहकी कल्पनाओंको महत्तर कल्पनाएं कह सकते है ।
और अब हम आते हैं अधिक सामान्य स्तरपर, हर एकके अंदर, कम या अधिक परिमाणमें, अपनी मानसिक क्रियाको रूप देनेकी क्षमता होती है और वह इस रूपका उपयोग चाहे तो अपने साधारण कार्योमें या किसी चीजकी रचना करने या उपलब्धि करनेमें करता है । हम हर घड़ी, हमेशा, बिंबोंकी, आकृतियोंकी सृष्टि करते रहते हैं । हम सदा उन्हें वायुमंडलमें भेजते रहते हैं, जानतेतक नहीं कि हम ऐसा कर रहे हैं - वे घूमने निकल जाती है, एक व्यक्तिसे दूसरेके पास जाती है, साथियोंसे मिलती हैं, कमी-कमी हिल-मिल जाती है, और खुशी-खुशी निभना लेती हैं; कमी-कमी कलह छिड जाता है और लड़ाई शुरू हों जाती है; क्योंकि प्रायः, बहुत बार, इन मानसिक कल्पनाओंमें इच्छा-शक्तिका छोटा-सा तत्व होता है जो अपने-आपको ससिद्ध करनेकी चेष्टा करता है, और तब हर एक अपनी रचनाको भेजनेकी कोशिश करता है ताकि वह काम करे और चीजों वैसा रूप लें जैसा वह चाहता है, और, चूंकि हर एक ऐसा करता है... यह एक व्यापक उलझन पैदा कर देती है । वातावरणमें इन रचनाओं- को देख सकनेके लिये यदि हमारी आंखें खुली हों तो हम आश्चर्यजनक
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चीज़ें देखेंगे : मानसिक जगत्की छोटी-छोटी सत्ताओंकी भीड़ -- जो निरंतर वायुमंडलमें उछाली जा रही हैं और जो सदा अपनेको ससिद्ध करनेके लिये सचेष्ट रहती हैं -- युद्धभ्मियां, तरंगें, रेले और पलायन, इन रचनाओंकी एक ही प्रवृत्ति रहती है -- अपने-आपको मूर्त्ति रूप देनेकी, भौतिक रूपसे चरितार्थ करनेकी, और च्किवें अनगिनत है ( धरतीपर इतनी जगह ही नहीं कि उनकी भारी संख्या अभिव्यक्त हो सकें), अतः वे धक्का धक्का करती है, एक-दूसरेको कुहनी मारती है, जिनका उनसे मेल नही बैठता उन्हें धक्के दे देती है, यहांतक कि एक कदम मिलाकर चलती हुई सेना खड़ी कर लेती हैं ताकि वे देश और कालमें मिल सकनेवाली जगह ले सकें ( अनगिनत रचनाओंकी तुलनामें यह बिलकुल छोटी-सी जगह है) ।
अतः, व्यक्तिगत रूपसे जो होता है बह यही है । ऐसे लोग हैं - सभी - जो बिना जाने यह सब करते हैं और एक चीजसे दूसरी चीजपर उछाले जाते है और वे आशा करते है, चाहते है, इच्छा करते हैं, निराश होते हैं, कमी-कमी खुश होते हैं, कभी-कमी हताश, क्योंकि उन चीजोंपर न तो उनका नियंत्रण होता है, न प्रभुत्व । लेकिन बुद्धिमानीका आरंभ है अपने-आपको विचार करते हुए देखना और इस दृश्यको देखना, वातावरणमें इन छोटी-छोटी जीवंत सत्ताओंके, जो व्यक्त होनेकी चेष्टामें हैं, सतत प्रक्षेपणके प्रति सजग होना । यह सब उस मानसिक वायुमंडलसे निकलता है जिसे हम अपने अंदर ढोये फिरते हैं । एक बार यदि हम देख लें और अवलोकन करें तो हम छांटना शुरू कर सकते हैं, यानी, उसे पीछे धकेल दें जो हमारी उच्चतम इच्छा या अभीप्सासे मेल न खाता हों और -सन रचनाओंको ही व्यक्त होने दें जो हमारी प्रगति और प्रकृत विकासमें मदद दे सकें ।
यह है सक्रिय विचारपर नियंत्रण, और उस दिन मेरे कहनेका यही अभिप्राय था ।
कितनी ही बार हम बैठते हैं ओर हमें भान होता है कि विचार आकार बनाना शुरू कर रहा है, अपने-आपको कहानी सुना रहा है; और तब, जब हम जरा भी पटु हो जाते हैं, तो न केवल हम कहानीका उस रूपमें खिलना देखते हैं जैसे हम जीवनमें, अपने जीवनमें उसे देखना चाहेंगी, वरन् हम एक चीजको काट सकते हैं, कुछ विस्तार जोड़ सकते है, अपनी कृतिमें पूर्णता ला सकते हैं, एक सुंदर-सी कहानी रच सकते है जहां सब कुछ हमारी उच्चतम अभीप्सासे मेल खाता हुआ होगा । ओर एक बार जब हम सामंजस्यपूर्ण, पूरा-पूरा निर्माण कर लें, उतना परिपूर्ण जितना हमसे बन पड़े, ते'। हम अपना हाथ खोल देते है और पंछीको उड़ जाने देते है ।
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यदि यह अच्छी तरह बनाया गया हों ते। हमेशा चरितार्थ हाकर रहता है । यही हम नहीं जानते ।
लेकिन इसकी परिपूर्ति धीरे-धीरे होती है, कमी-कभी बहुत देर बाद, जब व्यक्ति अपनी कहानी मुल चुकता है, उसे याद नहीं आता कि उसने यह कहानी अपने-आपको सुनायी थी -- वह बहुत बदल गया है, अन्य चीजोंके बारेमें सोचता है, दूसरी कहानियां रुचता है, और अब पहलेकी कहानीमें रस नहीं. रहता; ओर यदि वह काफी जागरूक नही है तो जब उस पहली कहानी- का परिणाम आता है तो वह पहले ही उससे बहुत दूर होता है ओर उसे अव बिलकुल याद नहीं होता कि यह उसकी अपनी कहानीका परिणाम है... । इमाःनये आत्म-संयम इतना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि तुम्हारे भीतर बहु- विष ओर विरोधी इच्छाएं हों -- केवल इच्छाएं हीं नहीं, झुकाव, दिशा देखनेवाले ओर जीवनके स्तर हों -- ते। ये सब तुम्हारे जीवनमें युद्ध खड़ा कर देते है । उदाहरणके लिये, अपने उच्चतम स्तरपर रहते हुए तुमने एक सुन्दर कहानी गाढ़ी जिसे तुम दुनियामें भेज देते हों, लेकिन इसके बाद, शायद अगले दिन, शायद उसी दिन, शायद थोडी देर बाद ही तुम काफी नीचे भौतिक स्तरपर उतर आये और ऊपरकी ये चीजे तुम्हें कुछ-कुछ... परी-कथा जैसी, अवास्तविक लगती है; ओर तुम बहुत ठोस, बहुत उपयोगितावादी रचनाएं बनाने लगते हों जो हमेशा बहुत सुन्दर नही होती... । और वे भी चली जाती हैं ।
मैं ऐसे लोगोंको जानती हू जिनके स्वभावमें इतने विपरीत, विरोधी पक्ष हाते हे कि एक दिन तो वे शानदार, उज्ज्वल, बलवान्, स्वयंको चरितार्थ कर सकनेवाली रचना बना सकते है और अगले दिन, पराजयवादी, अंधकारमय, काली रचना - निराशाकी रचना ओर फिर दोनों-की-दोनों आगे बढ़ जाती है । और मैं परिस्थितियोंके दौरान सुन्दर संरचनाको चरितार्थ हाते देख रही थी ओर जब वह चरितार्थ हों रही थी तभी अंधेरी रचना उस सबको ढा रही थी जो पहलीने बनाया था । ओर यह जैसे जीवनके छोटे ब्योरोंमें होता है वैसे ही महान् क्षेत्रोंमें भी होता है । ओर यह सब इसलिये कि व्यक्ति सोचते हुए अपनेपर निगरानी नही रखता, क्योंकि वह अपने-आपको इन विरोधी गतियोंका गुलाम मान लेता है, क्योंकि वह कहता है : ' 'ओह! आज ते-। मेरी तबीयत ठीक नहीं है; आह! आज तो सब कुछ उदास-उदास लग रहा है,'' और वह यह बात इस तरह कहता है मानों यह अवश्यंभावी विपदा हा जिसके विरुद्ध कोई कुछ नहीं कर सकता । पर कोई यदि एक कदम पीछे हट- कर खड़ा हों या जरा ऊपर चढ़ जाय तो वह इन सब चीजोंपर नजरडाल सकता है, उन्हें यथास्थान रख सकता है, कुछको रख सकता है, अवांछनीय चीजोंको नष्ट कर सकता है या उनसे पिंड छुडा सकता है और अपनी सारी कल्पना-शक्तिको (जो कल्पनाशील कहलाती है) केवल- उसके लिये लगा सकता है जो उसे चाहिये, था उसकी उच्चतम अभीप्सा- के साथ मेल खाती हों । मैं इसे ही कल्पनाका संयम कहती हू ।
यह बड़ा रोचक है । जब कोई इसे करना सीख लेता है और: निर्यात रूपसे करता है ते। उसके पास ऊबनेके लिये समय नहीं रह जाता ।
और व्यक्ति समुद्रकी लहरोंपर तैरते, निरुपाय भावसे हर लहरके थपेड़ा खाते, इधर-उधर नाचते कर्मके समान न रहकर एक पंछी बन जाता है जो अपने पंख खोलता है, लहरोंके ऊपर उड़ान भरता है और जहां चाहे चला जाता है । बस ।
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१० सितंबर, १९५८
''आधुनिक कालमें जैसे भौतिक विज्ञानने अपने शोधकार्यको बढ़ाया और प्रकृतिकी गुप्त भौतिक शक्तियोंको मानव उपयोगके लिये मानव ज्ञानके द्वारा संचालित कर्मके लिये उन्मुक्त किया, वैसे ही गुह्यविद्या पीछे हट गयी और अंतमें इस आधारपर एक ओर रख दी गयी कि 'ज-तत्व' ही सच्चा पदार्थ है और 'मन' तथा 'प्राण' उसीकी विभागीय क्रियाएं है । इसी आधारपर, भौतिक 'ऊर्जा'को ही सब चीजोंकी चाबी मानकर भौतिक विज्ञान- ने हमारे मन और प्राणके सामान्य और असामान्य व्यापारों और क्रियाओंके भौतिक उपकरण और भौतिक प्रक्रियाके ज्ञान- द्वारा मन और प्राणकी प्रक्यिाओंपर नियंत्रण करनेकी कोशिश की है । आध्यात्मिकताको मानसिकताका ही एक रूप मानकर उसकी अवहेलना की गयी है । चलते-चलते यह कहा जा सकता है कि अगर यह प्रयास सफल हो गया तो यह मानव जातिके अस्तित्वके लिये खतरेसे खाली न होगा । आज भी तो मानव जाति कई वैज्ञानिक खोजोंका दुरुपयोग और भद्दा उपयोग कर रही है क्योंकि वह अभीतक इतनी वडी और खतरनाक शक्तियोंको संभाल सकनेके लिये मानसिक और नैतिक तौरपर
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तैयार नहीं है । विज्ञानके द्वारा किया गया वन और प्राणका यह नियंत्रण हमारी सत्ताके मूलमें रहनेवाली और उसे धारण करनेवाली गुप्त शक्तियोंके ज्ञानके बिना किया गया कृत्रिम नियंत्रण होगा । पश्चिममें गुह्यविद्याको बड़ी आसानीसे हटा- कर एक तरफ रखा जा सका क्योंकि वहांपर वह कभी प्रौढ़ न हो पायी थी, कभी पककर दार्शनिक या दृढ श्ववस्थित आधारको न पा सकी थी । उसने खुलकर अतिप्राकृतिकके रोमांचमें रस लिया या अपने मुख्य प्रयासको अतिसामान्य शक्तियों- का उपयोग करनेके लिये गुर और प्रभावशाली विधियां खोज निकालनेपर केन्द्रित करनेकी भूल की । वह भटककर काले दा सफेद जादूटोनेमें बदल गयी या गुह्य रहस्यवादकी ऐंद्रजालिक साज-सज्जा बन गयी और अंतमें एक सीमित और अल्पज्ञानकी अतिरंजना वनी । इन प्रवृत्तियों और मानस-आधारकी इस अस्थिरताने गुह्यविद्याकी रक्षा करना कठिन और करना सरल बना दिया । बह एक ऐसा लक्ष्य बन गयी जिसपर आसानीसे प्रहार हो सकता है । मिलमें और पूर्वमें ज्ञानकी यह धारा ज्यादा बड़े और व्यापक प्रयासतक जा पहुंची । अब भी यह प्रौढ़ता तंत्रोंकी विलक्षण प्रणालीमें सुरक्षित देखी जा सकती है । यह केवल असाधारण -- अतिसामान्य -- का बहुमुखी विज्ञान न थी । इसने धर्मके सभी गुह्य तत्वोंकी .आधार दिया और आध्यात्मिक साधना और आत्मोपलब्धिकी एक महान् और शक्तिशाली पद्धतिका विकास किया । क्योंकि उच्चतम गुह्यविद्या बह है जो 'मन', 'प्राण' और 'आत्मा' की गुप्त गतिविधियों और क्रियात्मक अति- सामान्य संभावनाओंको खोज निकालती है और हमारी मान- सिक, प्राणिक और आध्यात्मिक सत्ताकी अधिक प्रभावशालिताके लिये उनका उपयोग उनकी अपनी शक्तिके साथ या किसी क्रियात्मक पद्धतिके द्वारा करती है ।
प्रचलित विचारोंमें गुह्यविद्या जादू-टोना या तथाकथित अति- प्राकृतिककी क्रियापद्धतिके साथ संबंध रखती है । लेकिन यह उसका एक पक्ष ही है, यह कोरा अंधविश्वास नहीं है जैसा वे लोग यूं ही मान लेते हैं जिन्होंने गुप्त प्राकृतिक शक्तिके इस पक्षको गहराईसे नहीं देखा, बिलकुल नहीं देखा या इसकी संभावनाओंपर प्रयोग नहीं किया । सूत्र और उनका
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प्रयोग, सुप्त शक्तियोंका यंत्रीकरण जिस तरह भौतिक विज्ञानमें उपयोगी है उसी तरह मनः शक्ति और प्राण-शक्तिके गुह्य उप- योगमें आश्चर्यजनक रूपसे प्रभावकारी हो सकता है, लेकिन यह एक गौण विधि है और इसकी दिशा भी सीमित है । क्योंकि मन और प्राणकी शक्तियां अपनी क्रियामें नमनीय, सूक्ष्म और परिवर्तनशील होती है, उनमें 'जडतत्वकी कठोरता नहीं होती । उन्हें जाननेके लिये, उनकी कार्य-पद्धतिको समझने और उनका उपयोग करनेके लिये, एक सूक्ष्म और नमनीय संबोधि या अंतर्भासकी जरूरत होती है, यहांतक कि उनके स्थापित सूत्रोंको समझने और उनका उपयोग करनेके लिये भी सूक्ष्म और नमनशील अंतर्भासकी जरूरत पड़ती है ।. यंत्री- करण और कठोर सूत्रीकरणपर बहुत बल देनेसे हो सकता है कि ज्ञान बंजर हो जाय या एक दिये हुए आकारमें ही बंधकर रह जाय और व्यावहारिक रूपमें भूल और म्गंति बहुत बड़ जायं, अज्ञान-भरी रुचियाँ, दुरुपयोग और असफलता ही हाथ लगें । अब हम इस अंधविश्वाससे बाहर निकल रहे है कि 'जडू-पदार्थ' ही एकमात्र तत्व है, इसलिये प्राचीन गुह्य- विद्या और नवीन सूत्रोंका ओर तथा 'मन' के छिपे हुए सत्यों और शक्तियोंके वैज्ञानिक अनुसंधान और चैत्य, असामान्य और अतिसामान्य मनोवैज्ञानिक व्यापारोंके अध्ययनकी ओर लौटना संभव है, बल्कि कुछ अंशोंमें दिखायी पडू रहा है । लेकिन अगर इसे पूर्ण होना है तो अनुसंधानकी इस दिशाके सच्चे आधार, सच्चे लक्ष्य और निर्देशन, आवश्यक प्रतिबंधों, खोजको इस दिशाकी आवश्यक सावधानियोंको फिरसे खोजना होगा । उसका सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिये मनकी शक्ति, प्राण-शक्ति और छिपी हुई शक्तियों और आत्माकी ज्यादा बड़ी शक्तियोंको खोज । गुह्यविज्ञान तत्वतः अंतस्तलीयका, हमारे और विश्वप्रकृतिके अंतस्तलीयका विज्ञान है, साथ ही उस सबका जिसका अंतस्तलीयके साथ संबंध है, इसमें अवचेतन और अतिचेतन भी आ जाते है । यह आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञानके लिये और उस ज्ञानकी सच्ची क्रियाशीलताके लिये इसके उप- योगका विज्ञान है ।''
('लाइफ १० ८७५-७७)
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मधुर मां, सफेद जादू क्या होता है?
हम ''सफेद जादू'' उस जादूको कहते हैं जो लाभदायक होता है ओर ''अभि- चार'' या ''काला जादू'' उसे जो हानिकर होता है । पर ये तो केवल शब्द है, इनका कोई अर्थ नहीं होता ।
जादू?..... यह एक ज्ञान है जिसे केवल भौतिक सूत्रोंतक ही सीमित कर दिया गया है । यह उन शब्दों या संख्याओं या फिर संख्याओं और शब्दोंके संयोजन जैसा है जिन्हें कोई ऐसा व्यक्ति जिसके पास कोई आंतरिक शक्ति न भी हो, केवल उच्चारित भर कर दे या लिख दे तो अपना काम जरूर करते हैं । गुह्यविद्यामें इनका वही स्थान है जो विज्ञान- मे रसायन-सूत्रोंका । तुम्हें पता ही है, विज्ञानमें, कुछ तत्वोंको मिलाने और उनसे नये तत्वोंको उत्पन्न करनेके लिये कुछ रासायनिक सूत्र होते है; यदि तुम्हारे पास कोई मानसिक शक्ति या प्राणिक शक्ति, यहांतक कि शारीरिक शक्ति भी न हो, यदि तुम केवल अपने उस सूत्र'का अक्षरशः: अनुसरण करो तो तुम्हें वांछित परिणाम मिल जाता है -- याद रखना ही काफी होता है । हा तो, ध्वनियों, अक्षरों, संख्यांक ओर शब्दोंके संय1एजनसे जिनमें अपने उचित गुणोंके कारण अमुक परिणाम प्रान्त करनेकी क्षमता होती है, गुह्यविद्यामें इसी तरहका प्रयास किया गया है । इस तरह, पहला जडूमति जो इस मार्गपर आता है वह यदि इसे सीख ले और जैसा बताया गया हों ठीक वैसे ही करे तो वह मनचाहा फल पा लेता है (या विश्वास करता है कि पा लेगा) । जब कि... उदाहरणके लिये, हम मित्रको जिसका गुह्यविद्यामें प्रयोग किया जाता है; जबतक कि मंत्र गुरुद्वारा न दिया गया हों और गुरु उस मित्रके साथ अपनी गुह्य या आध्यात्मिक शक्ति प्रदान न करे तबतक तुम चाहे हज़ारों बार उस मंत्रका जाप करो, कोई असर नही होगा ।
कहनेका मतलब यह है कि सच्ची गुह्यविद्यामें इसका उपयोग करनेके लिये व्यक्तिमें गुण, योग्यता, आंतरिक देन होनी चाहिये और वही सुरक्षा- कवच है । ऐरा-गैरा नौसिखिया सच्ची गुह्यविद्याका उपयोग नही कर सकत। । ओर यह कोई जादू भी नही है, न सफेद जादू, न काला जादू और न ही सुनहला जादू, यह जादू है ही नही, यह आध्यात्मिक शक्ति है जो लंबी साधनाद्वारा ही प्राप्त की. जा सकती है; और अंतमें, केवल भाग- वत कृपासे ही तुम्हें मिलती है ।
इसका मतलब है कि ज्यों ही मनुष्य 'सत्य' के निकट पहुंचता है वह नीमहकीमीसे, सारे पाखंडों और मिथ्यात्वसे त्राण पा जाता है । मेरे पास
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इसके बहुत-से और बहुत ही निर्णायक प्रमाण है । अतः जिसके पास सच्ची गुह्यविद्याकी शक्ति है उसके पास, साथ-हों-साथ, हम यं_ कह सकते है, इस आतरिक सत्यके बलपर, उस सत्यके बिंदु-भर प्रयोगद्वारा जादुओंको मिटा देनेकी शक्ति भी होती है, चाहे वे सफेद हों या काले हों या किसे। और रंगके । कर्हेय चीज ऐसन नही जो इस शक्तिका प्रतिरोध कर सकें । जादू करनेवालोंको यह बात अच्छी तरह मालूम होती है, क्योंकि सभी देशोंमें, खासकर भारतमें, वे सदा इस बातमें बहुत सावधानी. बरतते है कि अपने मंत्रोंका प्रयोग य।एगियों और संतोंके विरुद्ध न करें क्योंकि ३ जानते है कि थोडीकी यांत्रिक और बहुत छिछली शक्तिके साथ भेजे गये उनके ये मंत्र आध्यात्मिक जीवन बितानेवालेकी संरक्षिका सच्ची शक्तिके साथ वैसे ही टकरायेंगे जैसे दीचारके साथ गेंद टकराती है और स्वभावत: वहांसे उचटकर उनका मैत्र वापस उन्हींपर आकर गिरेगा ।
योगी या संतको कुछ करनेकी. जरूरत नही. पड़ती., उसें अपने-आपको बचानेकी इच्छातक नहीं' करनी पड़ती : सब दुत्छ अपने-आप हों जाता है । वह चेत्तना और आतरिक शक्तिकी एक ऐंसी अवस्थामें होता है जो हर निम्नतर चीजसे स्वतः उसकी रक्षा करती है । स्वभावतया, दूसरोंको बचाने- के लिये भी वह अपनी शक्तिका स्वेच्छासे उपयोग कर सकता है । उसक्ए: वातावरणसे बुरी रचनाका इस तरह उचटना, अपने-आप उसकी रक्षा करता है, लेकिन यदि यह बुरी र-चना किसी ऐसेके विरुद्ध भेज) गयी है जो उसके सरक्षणमें है या जिसने उसकी सहायता मांगी है तथ्य- वह अपने वायुमंडलकी र्गातेसे, अपने प्रभामंडलसे उस व्यक्तिको घेर सकता है जो जादूभरे दुष्ट टोनोंके प्रति खुला हुआ है और उचटनेकी. प्रक्रिया उसी तरह होती है और काम करती है जिससे वह बुरी रचना बहुत स्वाभाविक ढगसे भेजनेवालेके ऊपर जा गिरे । लेकिन ऐंसी दशामे योगी या संत-महात्माके सचेतन संकल्पकी आवश्यकता होती है । जो कुछ हुआ हों उसकी सूचना उसे अवश्य दी जानी चाहिये और उसे हस्तक्षेप करनेका निर्णय करना चाहिये । सच्चे ज्ञान होर जादूमें यही अंतर है ।
ओर कुछ?.... बस, इतना ही?
मां, क्या भौतिक विज्ञान उन्नति करते-करते अपने-आपको गुह्य- विद्याकी ओर खोल सकता है?
यह (विज्ञान) इसे ''गुह्यविद्या'' नहीं कहता, बस इतनी बात है । यह केवल शब्दोंका खेल है.... । वे आजकल सनसनीखेज खोजें कर रहे है जो
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गुह्यविद्या जाननेवालेंको हज़ारों साल पहले मालूम थी । ये लंबा चक्कर लगाकर अब उसी चीजपर आ पहुंचे हुँ ।
उदाहरणार्थ, चिकित्सा-शास्त्रमें, व्यावहारिक वितानमें वे नयी-से-नयी खोजोंके साथ, उन्हीं चीजोंतक, जिन्हें कुछ ऋषि बहुत, बहुत पहले जानते थे, भौचक्के होकर, बहुत रसके साथ पहुंच रहे हैं । और तब वे उन्हें तुम्हारे सामने नये चमत्कारोंकी तरह प्रस्तुत करते हैं - पर वास्तवमें, बे, उनके वे चमत्कार, होते कुछ पुराने हैं!
अंततः वे बिना जाने गुह्य विद्याका अभ्यास कर रहे होंगे । क्योंकि, मौलिक रूपसे, ज्योंही कोई वस्तुओंके सत्यके पास पहुंचता है, चाहे वह ??? ही कम क्यों न हो, ओर जब कोई अपनी खोजमें सच्चा होता है, बाह्य रूपोंसे ही संतुष्ट नहीं हों जाता, सचमुच कुछ पाना चाहता है, गहरा पैठता है, बाह्य रूपोंको भेदक उनके पीछे जाता है, तभी वह वस्तुओंके सत्यकी ओर बढ़ना शुरू करता है । ओर जैसे-जैसे वह इसके समीप पहुंचता जाता है वह उसी ज्ञानको पुनः प्राप्त करता है जिसे वे लोग अपने अतर-अन्वेषणोंद्वारा बाहर लाये थे जिन्होंने भीतर पैठनेसे आरंभ किया था ।
केवल पद्धति और पथ अलग-अलग होते है, पर खोजी हुई वस्तु एक ही होगी, क्योंकि खोजने योग्य वस्तुएं दो नही हैं, वह तो एक ही है । आवश्यक रूपसे यह वही होगी । सब कुछ इसपर निर्भर है कि तुम कौन-से पशुका अनुसरण करते हो । कुछ लोग तेजीसे बढ़ते है, कुछ धीरे-धीरे, कुछ सीधे जाते है; दूसरे (जैसा कि मैंने पहले कह।- है) लंबा चक्कर काट- कर पहुंचते है; और कितना अधिक श्रम! कितना परिश्रम किया है उन्होंने!.. फिर भी यह है अति आदरणीय ।
अब वै पता लगा रहे है कि संज्ञाहर औषधियोंकी जगह ३ सम्मोहन- विद्यासे काम ले सकते हैं और उससे अनतगुना अच्छे परिणाम होंगे । ओर सम्मोहनविद्या -- कहनेके ढंगने इसे आधुनिक रूप दे दिया है -- गुह्यविद्याका ही एक रूप है; यह उस शक्तिका बहुत सीमित, बहुत छोटा- सा रूप हैं जो गुह्य शक्तिकी तुलनामें रति भर है, लेकिन, फिर मी, यह है गुह्यविद्याका ही एक रूप जिसे आधुनिक शब्दोंका बाना पहना दिया गया है ताकि वह आधुनिक बन जाये । ओर, मुझे पता नही कि तुम इन चीजोंसे अवगत हो या नही, किंतु एक खास दृष्टिकोणसे यह
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बहुत रोचक है : जैसे, सम्मोहनकी इस प्रक्रियाका प्रयोग एक ऐसे ब्यक्तिपर किया गया था जिसके घावपर चमड़ी लगानी थी । पूरा विवरण तो मुझे अब याद नही, लेकिन उसकी बांहको टांगके साथ पंद्रह दिनतक जोड़ रखना था... । यदि उस व्यक्तिको पलस्तर, पट्टी आदि कई तरहकी चीजों लगा- कर चलने-फिरनेसे रोक दिया जाता तो पंद्रह दिनके बाद वह अचल हा जाता - सब कुछ सख्त हो जाता और अपनी बांहको स्वतंत्र रूपसे हिलाने-डुलानेके लिये उसे हपतों इलाज कराना पड़ता । इस व्यक्तिका कुछ भी नही बांधा गया, स्थूल रूपसे कुछ भी निष्क्रिय नही बनाया गया -- न पलस्तर, न पट्टियां - कुछ भी नहीं - व्यक्तिको केवल सम्मोहित किया गया और उससे अपनी बांहको अमुक ढंगसे रखनेके लिये कहा गया । उसने किसी प्रयास, कठिनाई और अपने संकल्पके हस्तक्षेपकी जरूरतके बिना उसे पंद्रह दिन वैसे ही रखा : यह तो सम्मोहन करनेवालेका संकल्प हस्तक्षेप करता था । यह पूर्णतया सफल हुआ; बांह इच्छित मुद्रामें रही, और जब पंद्रह दिन पूरे हो गये और सम्मोहनके प्रभावको दूर कर दिया गया और व्यक्तिसे कहा गया : ''अब तुम हिल सकते हो,'' तो वह हिस्तने लगा । तो, यह प्रगति है ।
वे (दोनों) जल्दी ही मिल जायेंगे, यह शब्दोंका खेल रहेगा और कुछ नहीं - और यदि कोई बहुत हठीला न हो तो वह शब्दोके मूल्यके बारेमें सहमत हों सकता है ।
मधुर मां, कहते है कि सम्मोहनसे सम्मोहित व्यक्तिपर, बादमें, बुरा असर पड़ता है ।
नही, नही । यदि कोई दूसरेपर अपनी इच्छा लादनेके लिये सम्मोहनका प्रयोग करता है तो स्पष्ट ही वह दूसरे व्यक्तिको बहुत क्षति पहुंचा सकता है, पर हम उस सम्मोहनकी बात कर रहे हैं जिसका उद्देश्य ''लोकोपकारी'' कहा जा सकता है और जो निश्चित हेतुओंकी लिये किया जाता है ।
यदि करनेवालेकी नीयत बुरी न हो तो सब बुरे प्रभावोंसे बचा जा सकता है ।
यदि तुम रसायन-सूत्रोंका बिना जाने प्रयोग करो तो तुम एक विस्फोट पैदा कर सकते हों (हंसी) और वह बहुत भयंकर होता है । उसी तरह, यदि तुम गुह्य मंत्रोंको आशापूर्वक प्रयोगमें लाओ -- या अहंपूर्वक जो कि अज्ञानसे भी बदतर है - तो तुम्हें भी हानिकर परिणाम मिल सकते है । परंतु इसका यह मतलब नहीं कि गुह्यविद्या बुरी है या सम्मोहनविद्या बुरी
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है या रसायन-विज्ञान बुरा है । तुम रसायन-विज्ञानपर इसलिये प्रतिबंध नहीं लगा देते क्योंकि कुछ लोग विस्फोट कर देते हैं! (हंसी)
गुह्यविद्या सीखनेके लिये मनुष्यमें कुछ विशेष गुण होने चाहिये जब कि विज्ञान सीखनेके लिये... ।
लेकिन हर चीजके लिये विशेष गुण होने जरूरी हैं ।
विज्ञानका ज्ञान साधारण आदमीकी पहुंचके भीतर है ।
सुनो, यदि तुम कलाकार नहीं हो तो तुम तूलिका, रंग, कैनवस लेकर वर्षों काम करते रहो, बेहिसाब पैसा बहाओ, श्रम करते रहो - तब भी वीभत्स चीजों ही चित्रित करोगे । यदि तुम संगीतज्ञ नहीं हो तो पियानो बजानेमें घंटों जूते रहो पर कभी कामकी चीज नही बजा सकोगे । विशिष्ट गुण तो सदैव आवश्यक होते हैं... । कसरतीके लिये भी; यदि तुम जन्म- जात कसरती नहीं हों तो तुम चाहे जितनी कोशिश कर लो केवल साधा- रण और औसत दर्जेका कुछ करनेमें ही सफल हो सकोगे । यह उससे अच्छा होगा जो बिलकुल ही चेष्टा नहीं करता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तुम अपने-आप ही सफल हों जाओगे । इसके अतिरिक्त, यदि हम एक कदम और आगे बढ़े, हर एकमें असंरन्त संभावनाएं होती है जिनका उसे भान नहीं होता और जो तभी विकसित होती है, जब, जो आवश्यक है वह किया जाय और वैसे ही किया जाय जैसे किया जाना चाहिये... । पर उन्नति दो प्रकारकी होती है, सिर्फ एक ही नहीं । एक प्रगति है अपनी संभावनाओंको, क्षमताओंको, दक्षताओं और गुणोंको अधिकाधिक पूर्ण बनाते जाना -- आम तौरसे शिक्षाद्वारा यही प्राप्त होता है, लेकिन यदि तुम महत्तर सत्यतक जाकर कुछ और जरा अधिक गहरे विकासके लिये चेष्टा करो तो तुम अपने पहलेके गुणोंमें कुछ और नये गुण जोड़ सकोगे जो मानों तुम्हारी सत्तामें सोये पड़े थे ।
तुम अपनी संभावनाओंको बहुगुणित कर सकते हों, उन्हें फैला और बढ़ा सकते हों; तुम सहसा कोई चीज ऊपर ले आ सकते हों जिसके बारेमें तुमने सोचा भी नहीं था कि तुम्हारे पास है । मैं पहले कई बार इसकी व्याख्या कर चुकी हू । जब तुम अपने भीतर अपना चैत्य पुरुष पा लेते हो तो उसी समय काफी अप्रत्याशित रूपसे बे चीजों विकसित होती हैं जो तुम पहले बिलकुल नहीं कर सकते थे, ऐसी चीजों प्रकाशमें आती
हैं जिनके बारेमें तुम सोचतेतक न थे कि वे तुम्हारे स्वभावमें हैं । इस- के भी मेरे पास अनगिनत उदाहरण हैं । इसका एक उदाहरण मैंने तुम्हें, दिया था, पर एक बार फिर दोहरा रही हू ताकि अच्छी तरह समझा संक् ।
मैं एक युवा लड़कीको जानती थी जो बहुत साधारण वातावरणमें पैदा हुई थी, उसे बहुत शिक्षा भी नहीं मिली थी, और जो टूटी-फूटी-सी फ्रेंच लिख लेती थी, उसने अपनी कल्पनाको भी नहीं साधा था और साहित्यिक रुचि तो थी ही नहीं : मानों उसमें वह संभावना तो थी ही नहीं । हां तो, तब उसे अपने चैत्य पुरुषके साथ संपर्ककी आंतरिक अनुभूति प्राप्त हुई और जबतक वह संपर्क जीवंत और प्रत्यक्ष रहा, उसने अपूर्व चीजों रिनखीं । जब वह उस अवस्थासे पुनः साधारण अवस्थामें आ गिरी तो उसे दो वाक्य मी ठीक तरहसे जोड़ने नहीं आते थे! अवस्थाओंको स्वयं देखा है ।
प्रतिभा हर एकमें होती है - लेकिन व्यक्तिको पता नहिं होता !
हमें इसे सामने ले आनेका तरीका ढ्ढा होगा. सो रहा है -- यह अपने-आपको प्रकाशित करनेसे मांगता । हमें इसके लिये द्वार खोल देने होंगे ।
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१७ सितंबर, १९५८
''उच्चतम ज्ञानकी ओर बुद्धिके द्वारा पहुंचना और मनका उस- पर अधिकार करना, मनुष्यके अंदर प्रकृतिकी इस कियाके लिये अनिवार्य सहायता है । साधारणत: हमारे ऊपरी तत्वपर तर्क-बुद्धि ही मनुष्यके चिंतन, निरीक्षण और कर्मका मुख्य उपकरण है । यह निरीक्षण करती, समझती और चीजोंको व्यवस्थित करती है । 'आत्मा 'की किसी भी समग्र प्रगतिमें केवल अंतर्भास, अंतर्दृष्टि, अंतःसंवेद, हदयकी भक्ति, 'आत्मा 'की चीजों- ण गंभीर और प्रत्यक्ष जीवन-अनुभवका विकास काफी नहीं है, बुद्धिको भी आलोकित और संतुष्ट करना होगा, हमारे सोच- विचार करने वाले मनको भी हमारी प्रकृतिके इस ऊचेसे-ऊंचे विकास और च्छिाके लक्ष्य, प्रक्यिा ओर सिद्धांतों और इसके
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पीछे विद्यमान उसके सत्यको समझने और उसके बारेमें युक्ति- युक्त और व्यवस्थित विचार बनानेमें सहायता करनी होगी । आध्यात्मिक उपलब्धि 'और अनुभव, आत्माधिक और साक्षात् ज्ञान, आंतरिक चेतनाकी वृद्धि और आंतरात्मिक संवद इस विकासके निश्चित रूपसे उचित साधन हैं ? मननशील और आलोचक बुद्धिकी सहायता भी बहुत महत्व रखती है । बहुत-से लोग इस बुद्धिके बिना काम चला सकते हैं क्योंकि उनका आंतरिक यथार्थताओंके साथ सीधा और साक्षात् संपर्क होता है और ३ अनुभव और अंतर्दृष्टिसे संतुष्ट रहते हैं, फिर भी इस विकासकी समग्र गतिमें बुद्धिका भाग लेना अनिवार्य है । यदि परम सत्य आध्यात्मिक 'परमार्थ तत्व' है तो मनुष्यकी बुद्धिको यह जाननेकी जरूरत है कि उस मूल 'सत्य'का स्वरूप क्या है और बाकी सत्ताके साथ, हमारे साथ, विश्वके साथ उसके संबंधका सिद्धांत तत्व क्या है । स्वयं बुद्धि यथार्थ आध्यात्मिक तत्त्वके साथ हमारा नाता नहीं जोड़ सकती, लेकिन वह 'आत्मा'के सत्यको मानसिक रूप देकर इस काममें मदद कर सकती है । यह मानसिक रूप मनके सामने उस सत्यकी व्याख्या करता है और उस सत्यकी अधिक साक्षात् खोजमें भी काम आ सकता है । बुद्धिकी इस सहायताका बहुत बड़ा महत्व है ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ ० ८७७-७८)
मधुर मां, यहां श्रीअरविन्द लिखते हैं : ''उच्चतम ज्ञानकी ओर बुद्धिके द्वारा पहुंचना, और मनका उसपर अधिकार करना.. .'' यह कैसे संभव है?
जो कुछ हमारे साथ आध्यात्मिक जगत्में होता है उसे मानसिक रूप देने- की प्रवृत्ति हमारे अंदर हमेशा रहती है; हम उसे अपने-आपको समझाना चाहते है, उससे निष्कर्ष निकालते हैं, अनुभूतिको कर्मके नियममें बदल देते है, जो कुछ हुआ है उससे मानसिक रूपमें लाभ उठाना चाहते है ताकि अनुभूतिको व्यावहारिक उपयोगितामें बदला जा सके । इसीको श्रीअर्रावंद कहते है ''अनुभूतिपर मनका अधिकार'' । कहा जा सकता है कि यह यंत्रवत् होता है । दुर्भाग्यसे, अनुभूतिका सर्वोत्तम भाग हमेशा छूट जाता है; और यदि कोई उसे ज्यों-का-त्यों बनाये रखना भी चाहे
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तो उसके लिये उस अवस्थामें रहना आवश्यक होगा जहां अनुभूतिको मानसिक रूप नहीं दिया जाता, यदि कोई बाह्य जगत्में रहे तो यह व्यावहारिक रूपमें असंभव होगा । इसीलिये जो मनके हस्तक्षेपके बिना अपनी आध्यात्मिक अनुभूतिका आनंद लेना चाहते थे वे समाधिकी अवस्थामें ही रहा करते थे और बड़ी सावधानीके साथ कर्मके धरातल- पर उतरनेसे बचते थे । लेकिन यदि कोई जीवनका रूपांतर करना चाहता है, यदि कोई चाहता है कि मन, प्राण, शरीर और दैनिक कार्यों- पर आध्यात्मिक अनुभूतिका प्रभाव पडे तो इसे मानसिक रूप देने और अनिवार्य ह्रासको स्वीकारनेसे तबतक नहीं बचा जा सकता जबतक कि स्वयं मन ही रूपांतरित न हो जाय और अनुभूतिको विकृत किये बिना उसमें भाग लेनेके योग्य न बन जाय ।
हम जो करना चाहते हैं वह और भी कठिन है, क्योंकि हम चाहते है कि प्राण भी रूपांतरित हो और अनुभूतिको विकृत किये बिना उसमें माग लें सकें और अंतमें, स्वयं भौतिक शरीरतक आध्यात्मिक क्रियामें रूपांतरित हो जाय और अनुभूतिमें बाधक न बना रहे ।
साधारण विचारके लिये रूपांतरकी बातको स्वीकार करना सबसे अधिक कठिन है, क्योंकि इसका मतलब है लगभग उसी क्षमताको बदल डालना । डुम रूपांतरको संभव बनानेके लिये सब क्रियाओंको बदलना होगा, पर हम इस क्षमता और इसकी क्रियाको अभिन्न रूपमें देखनेके इतने अम्यस्त हैं कि हम अपने-आपसे पूछते हैं कि हम जिस तरह सामान्यतया सोचते है उससे अलग ढंगसे भी सोचना संभव है क्या?
यह तभी संभव है जब किसीको मानसिक स्तरपर पूर्ण नीरवताकी अनु- भूति हो चुकी हों और आध्यात्मिक शक्ति अपनी ज्योति और बल्डके सायर मनमेंसे होकर नीचे उतर आये और इससे विश्लेषण, निगमन और तर्कणा- के साधारण तरीकेका अनुसरण किये बिना, सीधा काम करा सके । इन सब क्षमताओंको, जो आम तौरसे मनकी प्राकृतिक क्षमताएं समझी जाती हैं, रोक देना चाहिये, और अपनी अभिव्यक्तिके लिये इन उपायोंसे गुजरे बिना ही आध्यात्मिक 'ज्योति', 'ज्ञान' और 'शक्ति' को इन्हें सीधी अभिव्यक्तिकी धारामें रूपांतरित कर सकना चाहिये ।
मन अपने बाह्यतम रूपमें कर्मका साधन है, व्यवस्थित और कार्यान्वित करनेका यंत्र । यह विचारोंको कर्मसे सजाता है, उनका आपसमें संबंध जोड़ता है, उनसे कामके लिये निष्कर्ष निकालता है और इस कामको प्रेरणा और आवेग देता है । इस व्यवस्था-शक्ति और कामकी प्रेरणा और आवेगको ही सीधा आध्यात्मिक शक्तिद्वारा उत्पन्न किया जा सकता
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है जो मानसिक चेतनापर अधिकार कर लेती है और विश्लेषण, निगमन और तर्कणाकी बे प्रक्रियाएं आवश्यक नहीं रह जाती । अंतर्भासमें ये चीज़ें पहलेसे ही कुछ-कुछ इसी ढंगसे होती हैं; लेकिन आध्यात्मिक हस्तक्षेप मानों अति अंतर्भास बन जाता है, अनुभवके अंतर्दर्शनकी, तादात्म्यद्वारा प्राप्त ज्ञानकी सीधी अभिव्यक्ति हो जाता है ।
इस रूपांतरकी कई अवस्थाएं होती हैं, इनमें पहली अवस्थाएं इस क्रियाकी एक तरहकी मानसिक नक़लें होती हैं । मानसिक पृष्ठभूमिपर विश्लेषण, तर्कणा, निगमन और निष्कर्षोंको सूत्रबद्ध करनेकी सारी प्रक्रिया लगभग अनायास ही हा जाती है और ऐसा परिणाम हमारे सम्मुख घास देती है कि लगता है कि यह अंतर्भास है, लेकिन अब भी यह होता है उस सारे कार्यका परिणाम ही जो बड़ी तेजीसे हुआ है और, जैसा कि मैंने कहा था, हुआ एक ऐसी पृष्ठभूमिपर जिसका हमें बहुत भान नहीं होता, यहांतक कि हम आरंभिक बिंदु और परिणाम देखते हैं, बीचकी सारी प्रक्रियाका, मानसिक गतिविधिके पूरे विकासका विस्तारसे अनुसरण नहीं करते । जिन लोगोंका मन बहुत तेज होता है, जो चीजोंको बड़ी तेजीसे पकडू सकते हैं, जिनकी मान- सिक क्रिया बहुत तेजीसे ओर तुरत-फुरत चलती है वे ऐसी छाप छोडू सकते हैं कि उन्हें अंतर्भास प्राप्त है, पर यह केवल बाहरी रूप और सच्चे अंतर्भासिक प्रायः अनुकरण होता है । अंतर्भास शुरूसे ही सीधा अंतर्दर्शन होता है, ऐसी चीज, जिसे तर्कणा और निगमनकी जरूरत नहीं पड़ती । अंतर्भासके द्वारा पहलेसे ही प्रत्यक्ष ज्ञानकी अभिव्यक्ति हो जाती है ।
परंतु वहांतक आनेसे पहले, जो भी अनुभूतियां होती हैं उन्हें बाह्य चेतनातक पहुंचनेके लिये निरीक्षण, विश्लेषण और निगमनके सामान्य मानसिक तरीकेसे गुजरना पड़ता है और तब... अनुभूतिका सार-तत्वतक तिरोहित हो जाता है, रह जाता है केवल बड़ा शुष्क भूसे-जैसा कुछ जो उपलब्ध करनेकी अपनी पूरी शक्ति प्रायः गंवा चुका होता है - प्रायः, प्रायः गंवा चुका होता है ।
किंतु जिन लोगोंकी बौद्धिक क्रिया बहुत प्रबल होती है ३ हर चीजको, सब आंतरिक अनुभूतियोंको पकड़ने आर उन्हें सूत्रबद्ध करना शुरू करने- की लगभग अनिवार्य आवश्यकतासे बंधे होते हैं । इसके साथ यदि उनमें व्यक्त करनेकी भी क्षमता हो तो वे उन्हें शब्दों ओर वाक्योंका जामा पहनानेकी कोशिश करते हैं; और जब कोई इन अनुभूतियोंको जीवनमें उतार
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लेता है और उतरती रेखाको जान जाता है तो वह देखता है कि हर स्तर- पर अनुमतिकी गहन सत्यता सामने रहने आर समूची सत्ताका परिचालन करनेके बजाय पीछे हट रही है, पृष्ठभूमिमें विलीन हों रही है - यह इस तरह पीछे जाती है (संकेत) और बाहर रह जाता है केवल कुछ,.. जो एक तरहका शुष्क और बेजान अनुकरण होता है । यह चाहे जोशीथे शब्दोंमें व्यक्त किया गया हो, फिर भी उस 'वस्तु' की तुलनामें जो वहां अपने-आपमें, अपने गहन सत्यमें थी, यह इतना सिकुड़-सिमटा, कटा हुआ होता है... । अनुभूतिका सच्चा आनंद, सच्चा सौंदर्य, आंतरिक उत्साह, अनु- भूतिकी वह अद्भुत उष्णता, सब बहुत दूर, पीछे चले जाते है । तुम इसे पकड़े रहना चाहते हों लेकिन यह तुमसे बच निकलता है । और मूत्रबद्ध करनेकी यह क्षमता बड़ी महंगी पड़ती है ।
मां, यहांके जीवनमें ''मनके विकास'' से हमें क्या समझना चाहिये? और इसकी उपयोगिता क्या है?
मुझे लगता है कि मैं एक बार पहले मी तुम्हें यह समझा चुकी हू । मेरा ख्याल है कि ''शिक्षा'' पर लिखे लेखोंमें मैंने इसकी विस्तृत व्याख्या की है । यह शरीरके लिये शारीरिक शिक्षाके परिणामोंसे बिलकुल मिलता-जुलता ।
हमारे पास अंग हैं, पेशियां हैं, नसें हैं, वस्तुत: वह सब है जिनसे मिल- कर शरीर बनता है; यदि हम उन्हें विशिष्ट विकास और विशिष्ट प्रशिक्षण न दें तो ये सब शरीरकी 'शक्ति' को यथाशक्य व्यक्त तो करेंगे, परंतु वह अभिव्यंजना होगी निपट भद्दा और अघूरी । निस्संदेह, एक शरीर जो शारीरिक शिक्षाके अत्यंत पूर्ण और यथोचित तरीकोसे प्रशिक्षित किया गया है, वह ऐसी चीज़ें करनेमें समर्थ होगा जो इसके बिना कभी न कर पाता । मेरा ख्याल है कि कोई इस बातसे इंकार नहीं कर सकता । हां, तो मनके लिये भी यही बात लागू होती है । तुम्हारे पास एक मानसिक यंत्र है जिसमें अनेक संभावनाएं है, अनेक क्षमताएं है, लेकिन ये संभावनाएं और क्षमताएं छिपी हुई है, इन्हें विशिष्ट शिक्षणकी, विशिष्ट रूपसे सजानेकी आवश्यकता है ताकि ये 'ज्योति'को व्यक्त कर सकें । यह निश्चित है कि साधारण जीवनमें दिमाग मानसिक चेतनाकी बाह्य अभिव्यंजनाके आसन है, तो, यदि दिमाग विकसित न हों, यदि यह अनगढ़ रहे तो ऐसी असंख्य चीज़ें है जो व्यक्त नहीं की जा सकेंगी, क्योंकि अपने-आपको व्यक्त करने- के लिये उनके पास आवश्यक यंत्र नहीं होगा । यह एक वाद्ययंत्रकी तरह
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होगा जिसमें अधिकतर स्वर नहीं हैं, वह कुछ मोटा सादृश्य तो उत्पन्न कर देगा, पर यथार्थ कुछ मी नहीं ।
मानसिक शिक्षण, बौद्धिक शिक्षा. तुम्हारे मस्तिष्ककी बनावटको बदल देती है, काफी हदतक बढ़ा देती है और परिग्गामस्वरूप अभिव्यंजना अधिक समृद्ध और यथार्थ हो उठती है ।
यदि तुम जीवनसे भागना चाहो ओर अनिर्वचनीय शिखरोंपर चढ़ना चाहो. तो यह जरूरी नहीं है, पर यदि तुम अपनी अनुभूतिको बाह्य जीवनमें मन रूप देना चाहो तो यह अपरिहार्य है ।
मां, आपने कहा था कि यदि कोई विश्लेषण, निगमन आदिकी क्षमताओंको बहुत अधिक विकसित कर ले तो ३ आध्यात्मिक अनुभूतियोंके लिये बाधक बन जाते हैं है न?
यदि उनपर नियंत्रण न हो, प्रभुत्व न हो ता, हां । लेकिन यह जरूरी नहीं है । जरूरी नहीं । शायद यह नियंत्रणको थोड़ा दुःसाध्य बना देता है, क्योंकि स्वभावतः, अनगढ़ सत्ताकी अपेक्षा व्यक्तिभावापन्न सत्तापर प्रभुत्व पाना अधिक कठिन है -- अधिक आत्म-भावापन्न हों जानेसे अहं अधिक घनीभूत और आत्म-संतुष्ट भी हो जाता है, होता है न?... पर यदि यह मान लें कि इस कठिनाईपर विजय पा ली गयी है, तो अनगढ़ और अशिक्षित स्वभावमें प्राप्त फलकी अपेक्षा अतिविकसित ब्यक्तिमें प्राप्त फल अनतगुना श्रेष्ठ होगा । मैं यह नही कह रही कि रूपांतरकी प्रक्रिया, बल्कि उत्सर्गकी प्रक्रिया कठिनतर नहीं होगी, लेकिन एक बार यह हस्तगत हो जाय तो परिणाम कहीं अधिक उदात्त होगा ।
वाद्य-यंत्रोंके साथ इसकी तुलना आसानीसे की जा सकती है, एक वह हो जिसमें गिने-गिनाये परदे हों और दूसरेमें उससे दस गुन । हां, तो उस वाद्यको बजाना शायद ज्यादा आसान होगा जिसमें केवल चार या पांच स्वर हों, लेकिन स्पष्ट ही, उस वाद्यसे निकलनेवाली संगीत श्रेष्ठतर हुाएगा जिसमें पूरे परदे हों ।
एकाकी वाद्यके बजाय आरकेस्ट्राके साथ तुलना करके इसे और अच्छी तरह समझा जा सकता है । एक मानव प्राणी, एक पूर्ण विकसित व्यक्ति उन महान् वृन्दवाद्योमेसे एक वृन्दवाद्यसे बहुत मिलता-जुलता है जिसमें सैकड़ों वादक होते हैं । स्पष्ट ही, उन सबको नियंत्रित और संचालित करना बड़ा कठिन है पर परिणाम शानदार हो सकता है ।
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२४ सितंबर१९५८
''हमारा सामान्य विचारशील मन सामान्य आध्यात्मिक सत्य, उसके निरपेक्ष स्वरूपके तर्क और उसकी सापेक्षताओंके तर्क, उनके आपसी संबंध और उनके एकके दूसरेमें जलद जानेके मामलेमें ही लगा रहता है और यह देखता है कि सत्ताके आध्यात्मिक सिद्धांतके मानसिक परिणाम क्या हैं... । (बौद्धिक रूपसे समझनेकी) यह आवश्यकता जिस साधनसे पूरी हो सकती है, हमारे मनकी प्रकृतिने हमें जो दिया है, वह है दर्शन, और इस क्षेत्रमें वह आध्यात्मिक दर्शन होना चाहिये । पूर्वमें ऐसे बहुतेरे शास्त्र प्रकट हुए हैं, प्रायः हमेशा जहां कहीं पर्याप्त आध्यात्मिक विकास हुआ है वहीं, उसे बुद्धिसंगत सिद्ध करने- के लिये एक दर्शन उठ खड़ा हुआ है । शुरूमें अंतर्भासिक दर्शन और अंतर्भासिक अभिव्यक्ति ही इसकी प्रक्यिा थी जैसी उपनिषदोंके अगाध विचार और गंभीर भाषामें है । लेकिन बादमें समालोचनात्मक पद्धति ओर दृढ तर्क-प्रणाली और तार्किक संगठनका विकास हुआ । पीछे आनेवाले दर्शन आंतरिक उपलब्धियोंके बौद्धिक प्रतिपादन' या तार्किक रूपमें उसको उचित सिद्ध करनेके लिये थे या उन्होंने अपने-आपको उपलब्धि और अनुभूतिके लिये मानसिक आधार और क्रमबद्ध पद्धति प्रदान की ।' पश्चिममें जहां चेतनाकी समन्वयात्मक प्रवृत्तिका स्थान विश्लेषण करने और अलग करनेकी वृत्तिने ले लिया वहां लगभग शुरूसे ही आध्यात्मिक प्रेरणा और बौद्धिक तर्क एक-दूसरेसे अलग हो गये । दर्शन-शास्त्र शुरूसे ही चीजोंकी शुद्ध बौद्धिक और युक्तिसंगत व्याख्याकी ओर मुड गया । फिर भी ''पाइथागोरियन,'' ''स्टोइक'' और ''एपीक्यूरियन'' जैसे दर्शन आये जो केवल विचारके लिये नहीं, बल्कि जीवन-संचालनके लिये भी क्रियात्मक थे । उन्होंने सत्ताकी आंतरिक पूर्णताके लिये एक अनुशासन और एक प्रयासका विकास किया जो बादके ईसाई या नवीन ''पेगन'' धर्मकी विचार- रचनाओंमें उस ऊंचे आध्यात्मिक स्तरतक जा पहुंचे जहां पूरब और पच्छिम एक साथ मिल गये । लेकिन इसके बाद सारी
' जैसे, भगवद्गीता । ' जैसे, पातंजल योग-दर्शन ।
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चीजको बौद्धिक कप देनेका काम पूरा हो गया और आत्माका और उसकी सक्रियता तथा जीवन और उसकी ऊर्जाओंके साथ दर्शनका संबंध या तो कट गया या इतना कम हो गया जितना तात्विक विचार अमूर्त और गौण प्रभावके द्वारा जीवन और कर्मको प्रभावित कर सकता है । पश्चिममें धर्मने दर्शनको नहीं, पंथोंके धर्मशास्त्रको अपना सहारा बनाया । कभी-कभी व्यक्ति-विशेषकी प्रतिभाके बलपर आध्यात्मिक दर्शन प्रकट हुआ है, लेकिन पश्चिममें वह पूर्वकी तरह आध्यात्मिक अनुभव और साधनाके हर महत्त्वपूर्ण मार्गका आवश्यक साथी नहीं रहा है । यह सत्य है कि आध्यात्मिक विचारका दार्शनिक विकास पूरी तरह अनिवार्य नहीं है, क्योंकि आत्माके सत्योंतक अंतर्भास और ठोस आंतरिक संपर्कके द्वारा सीधा और पूरी तरह पहुंचा जा सकता है । यह कहना भी आवश्यक है कि आध्यात्मिक अनुभूतिपर बुद्धिका आलोचनात्मक नियंत्रण बाधक और अविश्वसनीय हो सकता है क्योंकि यह उच्चतर आलोकके क्षेत्रपर डाला गया निम्नतर प्रकाश है । सच्ची नियंत्रणवाक्ति आंतरिक विवेक, चैत्य संवेदी और कौशल, ऊपरसे पथ-प्रदर्शनके उत्कृष्ट हस्तक्षेप या नैसर्गिक और ज्योतिर्मय आंतरिक पथ-प्रदर्शनमें होती है । लेकिन यह विकास-धारा भी जरूरी है क्योंकि आत्मा और बौद्धिक तर्कके बीच एक पुल होना चाहिये । हमारे समग्र आंतरिक विकासके लिये आध्यात्मिक या कम-से-कम आध्यात्मीकृत बुद्धिकी जरूरत है । उसके बिना यदि दूसरा ज्यादा गहरा पथ-प्रदर्शन न मिले तो आंतरिक क्यिा अव्यवस्थित, असंयत, अस्त-व्यस्त और अनाध्यात्मिक तत्त्वोंसे मिश्रित या एकदेशीय या अपनी उदारतामें अपूर्ण हो सकती है । 'अज्ञान'को समग्र 'ज्ञान'में रूपांतरित करनेके लिये हमारे अंदर एक ऐसी आध्यात्मिक बुद्धिका विकास आवश्यक है जो उच्चतर प्रकाशको लेकर हमारी प्रकृतिके सभी भागोंमें प्रवाहित कर सके । यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती आवश्यकता है ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ० ८७८-८०)
इसमें काफी सामग्री है, इसपर कम-से-कम एक दर्जन प्रश्न पूछे जा सकते है! (एक बच्चेंसे) तो, बारहमेंसे पहला?
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मेरे पास एक प्रश्न आया हैं, परंतु शाब्दिक है, अतः बहुत रोचक नही है । यह प्रारंभका वाक्यांश है : ''सत्ताके आध्यात्मिक सिद्धांतके मानसिक परिणाम'' का क्या अर्थ है?
यह प्रश्न शायद उस व्यक्तिने पूछा है जिसे ''सिद्धांत'' का अर्थ मालूम नहीं ।
सिद्धांतका अर्थ है उस सत्यका प्रतिपादन जो तर्कद्वारा प्राप्त हुआ हीं । गणितमें और अन्य सभी बाहरी विज्ञानोंमें इस शब्दका प्रयोग काफी ठोस रूपमे किया जाता है । दार्शनिक दृष्टिकोणसे भी यह वही चीज है । प्रस्तुत दृष्टातमें, जीवनके आध्यात्मिक सिद्धातका प्रतिपादन यों किया जा सकता है : सापेक्षताओंमे 'निरपेक्ष' या अनेकतामें 'एकता' । लेकिन ''मान- सिक परिणाम'' की व्याख्याके लिये हमें दर्शन-शास्त्रकी शरण लेनी होगी ओर मेरा ख्याल है कि तुम उसके लिये काफी कच्चे हो । और वास्तवमें उसका अर्थ समझनेके लिये, व्यक्तिको ऐसा लगता है कि दर्शन-शास्त्र उस स्पर्श-रेखाकी तरह सदा सत्यके छोरपर ही रहता है जो पास आती है, ओर पास आती है पर कमी छूती नहीं, कुछ है जो बच निकलता है । ओर सत्यमें यह कुछ ही सब कुछ है ।
इन चीजोंके'। समझनेके लिये... केवल अनुभूति -- इस सत्यका जीना आवश्यक है । साधाराग इंद्रियोंके तरीकेसे इसे अनुभव करना नही, बल्कि अपने भीतर सत्यका अनुभव करना, एक ही समयमें दो अवस्थाओंके ठोस अस्तित्वका अनुभव करना जो विरोधी होते हुए भी साथ रहती हैं । सभी शब्द केवल उलझनें पैदा करते है । बस, अनुभूति ही उस 'वस्तु' -क्। ( ठोस वास्तविकता प्रदान करती है : 'निरपेक्ष' और सापेक्षका, 'एक' और 'अनेक' का युगपत अस्तित्व, ऐसी दो अवस्थाएं नही जों एक-के-बाद-एक आती हों और एक-दूसरीसे उत्पन्न होती हों, बल्कि एक ऐसी अवस्था है जो दो विरोधी तरीकोसे... उस स्थितिके अनुसार देखी जाती है, जो तुम 'सद्वस्तु' के विषयमें अपनाते हो ।
कोरे शब्द अनुभूतिको झुठला देते हैं । शब्दोंमें बोलनेके लिये व्यक्तिको एक पग पीछे नही, बल्कि एक पग नीचे जाना पड़ता है ओर सारभूत सत्य छूट जाता है । सिर्फ पथके रूपमें उनका उपयोग करना चाहिये जो उस 'वस्तु' तक पहुंचनेके लिये प्रायः सुलभ हे जिसे सूत्रबद्ध नही. किया जा सकता । ओर इस दृष्टिकोणसे कोई एक सूत्रबद्धता दूसरीसे अच्छी नहीं, सर्वोत्तम वह है जो सबको स्मरण रखनेमें सहायता करती है, अर्थात्, विचारमें कृपाका हस्तक्षेप किस तरहसे घनीभूत हुआ ।
शायद कोई भी दो रास्ते बिलकुल एक जैसे नहीं होते, शायद हर एक-
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को अपना रास्ता स्वयं ढूढना चाहिये । पर यहा गलती नहीं करनी चाहिये, यह तर्क-बुद्धिद्वारा ''ढूढना'' नही है, यह अभीप्साद्वारा ''ढूढना'' है : यह अध्ययन और विश्लेषणद्वारा नई।-, बल्कि अभीप्साकी तीव्रता और अंदरसे खुलनेकी सच्चाईद्वारा ढूढना है ।
जब कोई सच्चाई और आध्यात्मिक 'सत्य'की ओर अनन्य भावसे मुंडा हुआ हों, इसे भले ही कोई नाम दे लो, जब बाकी सब कुछ गौण हां जाता है, जब केवल वही अत्यावश्यक और अपरिहार्य हो तब, उत्तर पाने- के ? उत्कट, निरपेक्ष, पूर्ण एकाग्रताका एक पल मात्र काफी होता है ।
ऐसी अवस्थामें अनुभूति पहले आती है, सही रूपमें निरूपित सूत्रबद्धता तो बादमें, फलस्वरूप और स्मृतिस्वरूप की जाती है । इस तरीकेमें गलती- की गुंजाइश नहीं रहती । सूत्रबद्धता कम या अधिक यथातथ हो सकती है, उसका कोई महत्व नही जबतक कि तुम उसे रूढू सिद्धांत ही न बना लो । यह तुम्हारे लिये अच्छा है, बस इतनेकी ही जरूरत है । यदि तुम इसे दूसरोंपर थोपना चाहे।, चाहे बह कुछ मी हों और अपने-आपमे पूर्ण ही क्यों न हों, उसे बह अनुचित चीज हों जाती है ।
इसीलिये धर्म सदा भूल करते आये है -- सदा -- क्योंकि वे अनुभूति- की अभिव्यजनाको मानक रूप दे देना चाहते है और उसे अकाट्य सत्यके रूपमे सबपर लादना चाहते है । जिसे अनुभूति हुई उसके लिये बह सच्ची, अपने-आपमें पूर्ण और विश्वासोत्पादक थी । उसके लिये अपने बनाये हुए सूत्र भीं अत्युत्तम थे । लेकिन उन्हें दूसरोंपर लादनेकी इच्छा रखना एक मालिक भूले है जिसके परिणाम बिलकुल अनर्थकारी होते है, जो सदा, सदा सत्यसे दूर, बहुत दूर ले जाती है ।
अतः सब धर्म, चाहे वे कितने ही सुन्दर क्यों न हों, मनुष्यको सदा बुरी-से-बुरी अतियोंकी ओर ले गयें । धर्मके नामपर किये गये सारे अप- राध, सारे आतंकरे नृशंस कार्य मानव इतिहासके सबसे ज्यादा काले धब्बोंमेसे है और यह है केवल इसी छोटीसी मौलिक भूलके कारण : जो एक व्यक्तिके लिये ठीक हो उसे समष्टि या समूहके लिये ठीक माननेका इच्छा रखना ।
रास्ता दिखा देना चाहिये और द्वार खोल देना चाहिये, शर हर एकक। राहपर चलना होगा, द्वारोंसे गुजरना होगा और अपनी व्यक्तिगत सिद्धिके लिये खुद ही रास्ता बनाना होगा ।
एकमात्र सहायता जो कोई लें सकता है और लेनी चाहिये वह है 'कृपा'- की सहायता जो हर एकमें उसकी सच्ची आवश्यकताके अनुसार, अपने- आपको व्यक्त करती है ।
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१ अक्तूबर , १९५८
मधुर मां, नैतिक पूर्णताका आदर्श क्या है?
नैतिक पूर्णताएं हज़ारों है । हर एक्का नैतिक पूर्णताका अपना-अपना आदर्श होता है ।
सामान्यतया, जिसे नैतिक पूर्णता कहा जाता है वह है उन सब गुणोंका होना जो नैतिक समझे जाते हैं : किसी दोषका न होना, कमी अनुचित न करना, कमी भूल न करना, सदा अपनी ऊंची-से-ऊंची स्थितिमें रहना, सब सद्गुणोंका होना... यानी, उच्चतम मानसिक कल्पना और भावनाको चरितार्थ करना : सब गुणोंको (अनेक गुण है, है न?), सब संकेतोंका, उस सबको जो मनुष्यकी परिकल्पनामें सुन्दरतम है, कुलनितम है, सबसे सच्चा है, और फिर उन्हें सर्वांग रूपसे जीवनमें उतारना, अपने सभी काम उसीसे परिचालित होने देना, सब गतिविधिया, सब प्रक्रियाएं, सब भावनाएं, सब कुछ... । यह है पूर्णताके नैतिक आदर्शको जीना । मनुष्यके मानसिक विकास-कर्मका यह शिखर है ।
इसे करनेवाले लोग बहुत नही है... । लेकिन फिर भी! कुछ हुए है और कुछ अब भी हैं । आम तौरसे लोग इसे ही आध्यात्मिक जीवन मानते हैं । जब वे इस तरहके किसी आदमीको देखते है तो कह उठते है : ''ओह! यह महान् आध्यात्मिक पुरुष है ।'' वह एक बड़ा संत हों सकता है, एक बड़ा साधु हो सकता है, लेकिन आध्यात्मिक पुरुष नहीं हो सकता ।
फिर भी, यह आदर्श है बहुत अच्छा और इसे प्राप्त करना बहुत कठिन है! ओर आंतरिक विकास-क्रममें ऐसा समय आता है जब इसके लिये प्रयत्न करना और इसे उपलब्ध करना बहुत आवश्यक होता है । यह तो स्पष्ट ही है कि अपने आवेगों और अशानमयी बाह्य प्रतिक्रियाओंसे परिचालित होनेकी अपेक्षा यह अनतगुना उदात्त है । कुछ अर्थोंमें यह अपने स्वभावपर प्रभुत्व पाना है । बल्कि यह एक अवस्था है जिसमेंसे मनुष्यको गुजरना
ही पड़ता है, क्योंकि यह वह अवस्था है जब मनुष्य अपने अहंका स्वामी बनना शुरू करता है, जब बह इसे झाडू फेंकनेको तैयार होता है -- तब भी यह होता तो है पर इतना दुर्बल हो जाता है कि अंत समीप ही दिखता है 1 दूसरी तरफ जानेके लिये यह अंतिम पड़ाव होता है और निश्चय ही, यदि कोई इस पड़ावसे गुजरे बिना दूसरी तरफ जानेकी कल्पना करता है तो वह भारी भल कर बैठनेका गुरूर जोखिम उठाता है... अपनी निचली प्रकृतिके सम्बन्धमें पूर्ण दुर्बलताको पूर्ण स्वतंत्रता समझ बैठता है । नैतिक पूर्णताके इस आदर्शको कुछ समयके लिये, चाहे वह कितना ही थोड़ा क्यों न हो, उपलब्ध किये बिना मनोमय पुरुषसे (चाहे वह पूर्णतम और सर्वाधिक असाधारण ही क्यों न हो) सच्चे आध्यात्मिक जीवनकी ओर जाना लगभग असंभव है । ऐसे बहुत लोग हैं जो पथको छोटा बनानेकी चेष्टा करते हैं और बाह्य प्रकृतिकी सब कमज़ोरियों विजय पानेसे पहले अपनी आंतरिक स्वतंत्रताका दावा करना चाहते हैं -- वे अपनेको चलनेका भारी खतरा मोल लेते है । सच्चा आध्यात्मिक जीवन और पूर्ण स्वतंत्रता उच्चतम नैतिक उपलब्धियोंमें कहीं अधिक उच्चतर चीजों हैं, लेकिन तुम्हें, उस स्वतंत्रता नामकी चीजसे अवश्य बचना चाहिये जो केवल आत्म-रंजन और सब नियमोंकी अवज्ञा है ।
मनुष्यको ऊपर उठना चाहिये, हमेशा ऊपर, और ऊपर; उन्नततम मानवजातिने जो कुछ प्राप्त किया है उससे कम उन्नत नहीं ।
सच्ची आध्यात्मिकतामें, उस आध्यात्मिकतामें, जो सीमाओंसे बंधी नही है, जो 'अनंतता' और 'शाश्वतता'में सर्वांगीण रूपसे वास करती है, प्रवेश पानेके त्दिये अपने आध्यात्मिक पंख खोलनेसे पहले और उन सब चीजोंको ऊपरसे इस प्रकार देखनेसे पहले कि वे अभीतक व्यक्तिगत रूपसे संबंधित है, मनुष्यमें अनायास ही वह सब बन जानेकी क्षमता होनी चाहिये जिसे मनुष्यजातिने उच्चतम, सुन्दरतम, पूर्णतम, अधिक-से-अधिक अनासक्त, अधिक-सें-अधिक विस्तृत और अधिक-सें-अधिक श्रेष्ठ माना है ।
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८ अक्रूर, १९५८
मधुमयी मां, क्या मानव और अतिमानवके बीच कोई मध्य- वर्ती अवस्थाएं नहीं होंगी?
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शायद अनेक होंगी ।
मानव और अतिमानव? तुम नयी अतिमानसिक जातिकी बात ता नही कर रहे, कर रहे हो क्या? क्या सचमुच तुम उसीकी बात कर रहे हो जिसे हम अतिमानव कहते हैं, अर्थात्, मनुष्य, जो मानवी ढंगसे जन्मा है और अपनी भौतिक सत्ताका, जो उसे साधारण मानव जन्मके द्वारा मिली है, रूपांतर करनेकी कोशिश कर रहा है? सोपान? अवश्य, असंख्य आशिक उपलब्धियां होंगी । हर एककी क्षमताके अनुसार रूपांतरका स्तर अलग-अथग होगा, और यह निश्चित है कि अतिमानवसे मिलती-जुलती चीजतक पहुंचने- से पहले न्यूनाधिक सफल या असफल प्रयास काफी संख्यामें होंगे, और ये ही ल्डगभग सफल प्रयोगात्मक प्रयास होंगे ।
वे सब जो अपनी साधारण प्रकृतिपर विजय पानेकी कोशिश करते हैं, जो उन गहनतर अनुभूतियोंको भौतिक रूपमें ससिद्ध करनेकी कोशिश करने हैं जो उन्हें दिव्य 'सत्य' के संपर्कमें लें आयी हैं, जो अपनी दृष्टि 'परात्पर' और 'परम' की ओर मोड़नेके बजाय अपने अंदर उपलब्ध चेतनाके परि- वर्तनको भौतिक रूपमें, बाह्य रूपमें ससिद्ध करनेकी कोशिश करते है वे सब नौसिखिये अतिमानव है... । और उनके प्रयासकी सफलतामें अन- गिनता अंतर है । हर बार जब हम कोशिश करते हैं कि साधारण आदमी न रहे, साधारण जीवन न बितायें, अपनी हरकतोंमें, कार्य-कलापों ओर प्रतिक्रियाओमे दिव्य 'सत्य' को अभिव्यक्त करे; जब हम व्यापक अज्ञान- द्वारा शासित न होकर उस 'सत्य'द्वारा शासित होते है, तब हम शिक्षाथी अतिमानव होते है और अपने प्रयासोंका सफलताके अनुपातमें, कम या अधिक, अच्छे शिक्षार्थी होते है, पथपर कम या अधिक आगे बढे हुए ।
ये सब पड़ाव हैं, अतः... । मुख्यतः, जाननेकी बात तो यह है कि 'रूपांतर' की इस दौडसे दोनोंमेंसे कौन पहले पहुंचता है, वह जो दिव्य 'सत्य' के प्रतिरूपमें अपनी कायाको रूपातरित करना चाहता है या इस शरीरकी विकृत होते जानेकी पुरानी आदत, इतना विकृत कि आनी बाह्य संपूर्णतामें जीवित न रह सकें । यह होड है 'रूपांतर' और 'क्षय' के बीच । केवल दो ही चीजों है जो रुकनेके स्थल बन सकतीं है और बता सकती हैं कि व्यक्ति कहातक सफल हुआ है : या ती सफलता, यानी, अतिमानव बन जाना (तब, स्वभावतया, वह कह सकता है : ''अब मै मंजिलपर पहुंच गया हू ।',)... या फिर मृत्यु ।
सामान्यत: व्यक्ति ''मार्ग'' मे होता है ।
लक्ष्य-प्राप्ति या जीवनका अकस्मात् विच्छेद, इन दोनोंमेंसे एक चीज होतीं है जो आगेकी गतिका अस्थायी अंत ला देती है । और पथपर चलते हुएदोनों ही प्रायः कम या अधिक दूर होते हैं, लेकिन मंजिलतक पहुंचे बिना कोई यह नहीं कह सकता कि वह किस सोपानपर है । अंतिम चरण- की ही गिनती होती है । अतः, जो अबसे सैकड़ों या हज़ारों साल बाद आयेगा और पीछेकी ओर देखेगा वही कह सकेगा : ''अमुक-अमुक सोपान था, अमुक-अमुक सिद्धि हुई थीं । ''... वह है इतिहास, यह घटनाका ऐतिहासिक अवबोधन होगा । तबतक हम सब गति और काममें लगे है ।
कहा है, कहातक पहुंचे है और कहातक जाना है?... अच्छा होगा कि इस सबके बारेमें बहुत ज्यादा न सोचा जाय क्योंकि यह तुम्हें, पंगु बना देता है और तुम अच्छी तरह दौड नहीं सकते । केवल दौड़नेके बारेमें सोचना ही अच्छा है, और किसी चीजके बारेमें नहीं । अच्छी तरह दौड़नेके- का यही एक तरीका है । अपनी दृष्टि वही डालों जहां तुम्हें जाना है और सारा प्रयास आगे बढ़नेका क्रियामें लगा दो । तुम कहां हों, कहातक पहुंचे हो, इसकी चिंता करना तुम्हारा काम नहीं है । मैं कहती हू : ''यह इतिहास है,'' यह बादमें आयेगा । हमारे प्रयासके इतिहासकार हमें बतायेंगे (क्योंकि शायद हम तब भी होंगे), वे हमें बतायेंगे कि हमने क्या किया, कैसे किया... । फिलहाल आवश्यक है करना -- केवल यही एक महत्त्वपूर्ण चीज है ।
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२२ अक्तूबर, १९५८
''यह बह दृष्टिकोण नहीं है जिससे मनुष्यमें आध्यात्मिक विकास- की सार्थकताका निर्णय किया जा सकता है या उसका मूल्य आका जा सकता है । उसका उद्देश्य पुरानी या आजकलकी मानसिक अवस्थाके आधारपर मानव समस्याओंको हल करना नहीं है । उसका उद्देश्य है हमारी सत्ता, हमारे जीवन और हमारे ज्ञानको एक नया आधार देना । रहस्यवेत्ताकी संन्यास या परलोककी ओर वृत्ति इस बातका बहुत अधिक पुष्ट प्रमाण है कि बह भौतिक प्रकृतिद्वारा आरोपित सीमाओंको स्वीकार नहीं करता । उसकी सत्ताका मुख्य हेतु ही है प्रकृतिके परे जाना । अगर वह उसे बदल नहीं सकता तो बह उसे छोडू जायेगा । साथ ही आध्यात्मिक पुरुष सदा ही मानव जातिके
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जीवनसे दूर-दूर नहीं रहे हैं । आत्माके केंद्रीय रूपमें खिलनेके मुख्य भाव हैं : सभी प्राणियोंके साथ एकताका भाव, विश्व प्रेम और करुणापर जोर, सबके भलेके लिये अपनी शक्तियों- को खर्च करनेकी इच्छा । इसीलिये आध्यात्मिक व्यक्ति सहायता करनेके लिये प्रवृत्त हुआ, उसने प्राचीन ऋषियों और देवदूतों तरह मार्ग-दर्शन किया और जय कभी वह रचना करने- के लिये झुका और जब उसने आत्माकी किसी साक्षात् शक्ति- को साथ लिया तब आश्चर्यजनक परिणाम हुए । लेकिन आध्यात्मिकता समस्याका जो हल दिखाती है बह कोई बाहरी हल नहीं है, यद्यपि बाहरी साधनोंका भी उपयोग तो करना ही है, उसके अनुसार आंतरिक परिवर्तन और चेतना तथा प्रकृतिका रूपांतर करना होगा ।
अगर आध्यात्मिकताका अभीतक कोई निर्णायक परिणाम नहीं आया, केवल आशिक परिणाम ही दिखायी दिया है, चेतनाके परिमाणमें कुछ नये और अधिक अच्छे तत्त्व ही इकट्ठे किये जा सके हैं तो इसका कारण यह है कि साधारण मानवने हमेशा आध्यात्मिक प्रवृत्तिको पथभ्रष्ट किया है, वह आध्यात्मिक आदर्शसे पीछे हटा है या उसने केवल बाहरी रूपको स्वीकार किया है और आंतरिक परिवर्तनको अस्वीकार कर दिया है । आध्यात्मिकता- से यह मांग नहीं की जा सकती कि वह जीवनके साथ अनाध्यात्मिक तरीकोंसे व्यवहार करे या उसके रोगोंकी चिकित्सा रामबाण दवाइयोंसे, यानी, उन राजनीतिक, सामाजिक या अन्य यांत्रिक उपायोंसे करनेकी कोशिश करे जिनका उपयोग मन हमेशा करता रहा है और जिनमें हमेशा असफलता ही हाथ लगीं है और जो कभी किसी समस्याको हल करनेमें सफल म होंगे । इन उपायोंसे किये गये अधिक-से-अधिक उग्र परिवर्तन भी कुछ नहीं बदल पाते । पुराने रोग नये रूपमें बने रहते है । बाहरी परिवेशका रूप बदल जाता है, परंतु मनुष्य जो था वही बना रहता है । बह अब भी एक नादान मानसिक प्राणी है जो अपने ज्ञानका या तो गलत उपयोग करता है या प्रभावशाली रूपमें उपयोग नहीं करता । अहंकार ही उसे चलाता है, प्राणिक इच्छाएं ओर आवेग तथा शारीरिक आवश्यकताएं उसपर शासन करती है । वह अपनी दृष्टिमें अनाध्यात्मिक और छिछला है, अपने बारेमें और अपना परि-
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चालन करनेवाली शक्तियोंके बारेमें अनभिज्ञ है... । केवल एक आध्यात्मिक परिवर्तनसे, बाहरी मानसिक चेतनासे अधिक गहरी आध्यात्मिक चेतनामें विकसित होनेसे ही वास्तविक और प्रभाव- शाली फर्क पडू सकता है । आध्यात्मिक मनुष्यका मुख्य काम है अपने अंदर आध्यात्मिक सत्ताको खोजना । और दूसरों- को इस प्रकारके विकासमें सहायता देना ही उसकी वास्तविक जातीय सेवा है । जबतक यह न हो जाय तबतक बाहरी सहायता कुछ हल्का कर सकती है, सांत्वना दे सकती है, पर इससे ज्यादा कुछ नहीं या बहुत ही कम ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ ८८३-८५)
मधुमयी मां, जिसमें अधिक आध्यात्मिक क्षमता न हो बह इस काममें अधिक-से-अधिक सहयोग कैसे दे सकता है?
मैं नहीं जानती कि यह कहा जा सकता है कि किसीमें कम या अधिक आध्यात्मिक क्षमता है । बात ऐसी नही है ।
आध्यात्मिक जीवन जीनेके लिये जो चीज आवश्यक है वह है चेतना- का उलटना । व्यक्तिके मानसिक क्षेत्रकी विभिन्न क्षमताओं और संभावनाओं- से इसकी तुलना किसी मी तरह नहीं की जा सकतीं । किसीके लिये यह तो कहा जा सकता है कि उसमें मानसिक, प्राणिक या शारीरिक योग्यताएं बहुत नहीं हैं, कि उसकी संभावनाएं बड़ी सीमित हैं, उस हालतमें यह भी पूछा जा सकता है कि किन तरीकोंसे इन योग्यताओंको विकसित किया जा सकता है, अर्थात्, नयी योग्यताएं कैसे प्राप्त की जायं जो कि निस्संदेह काफी कठिन हैं । पर आध्यात्मिक जीवन जीनेका अर्थ है अपने भीतर दूसरे जगतके प्रति खुलना । यह मानों अपनी चेतनाको उलटना है । साधारण मानव चेतना, यहांतक कि अतिविकसित मनुष्योंकी, यहांतक कि मेधावी ओर महती सिद्धि-प्राप्त मनुष्योंकी चेतना मी एक बहिर्मुखी गति होती है -- सारी शक्तियां बाहरकी ओर प्रेरित होती हैं, सारी चेतना बाहर फैली होती है; और यदि कोई चीज अंतर्मुखी होती भी है तो वह बहुत कम होती है, बहुत विरल, बहुत आशिक होती है, यह किन्हीं विशेष परिस्थितियों एवं उग्र आघातोंके दबावसे होता है । ये आघात जीवन सिर्फ इसी आशयसे देता है कि चेतनाकी बहिर्मुरवीनताकी गतिको थोड़ा उलट सके ।
लेकिन जिन्होंने आध्यात्मिक जीवन बिताया है उन सबको एक ही
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अनुभव हुआ है : कहा जा सकता है कि सहसा उनकी सत्तामें कोई चीज उलट गयी, एकदम अचानक पलट गयी, कभी-कभी पूरी अंदरकी ओर मुड गयी, और अंदर मुड़नेके साथ-साथ ऊपरकी ओर भी मुड गयी, भीतरसे ऊपरकी ओर (लेकिन यह बाहरी ''ऊपर'' नही है, यह है भीतर गहराईमें, भौतिक ऊंचाइयोंकी कल्पनासे भिन्न कोई चीज) । शब्दशः कोई चीज उलट गयी है । एक निर्णायक अनुभूति हुई, और जीवनका दृष्टिकोण, जीवनको देखनेकी भंगिमा और जीवनके प्रति अपनाया गया आधार - सब कुछ सहसा बदल गया है, कुछ लोगोंमें तो काफी निश्चित रूपसे, अटल ढंगसे बदल गया है ।
और जैसे ही व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन और सद्वस्तुकी ओर मुड़ता है वह 'अनंत' और 'शाश्वत' का स्पर्श करता है और तब कम या ज्यादा योग्यताओं या संभावनाओंका प्रश्न ही नहीं रह जाता । आध्यात्मिक जीवनके बारेमें मनकी परिकल्पना ही यह कह सकती है कि आध्यात्मिक रूपसे जीनेके लिये उसमें बहुत-सी या कुछ योग्यताएं है, पर यह कहना बिलकुल समीचीन नहीं । इतना ही कहा जा सकता है कि अंतिम ओर पूर्ण प्रत्यावर्तनके लिये कोई कम तैयार है और कोई ज्यादा... । सारतः. यह साधारण क्रिया-कलापसे पीछे हटाने और आध्यात्मिक जीवनकी खोज- मे जानेकी मानसिक क्षमता हीं है जिसे नापाक जा सकता है ।
किंतु जबतक तुम मानसिक क्षेत्रमें रहते हो, इस अवस्थामें होते हो, चेतनाके इस स्तरपर रहते हो तबतक तुम दूसरोंके लिये ज्यादा कुछ नही कर सकते, न तो व्यापक जीवनके लिये और न ही खास व्यक्तियोंके लिये, क्योंकि स्वयं तुम्हें निश्चिति नहीं होती, निश्चित अनुभव नहीं होता, तुम्हारी चेतना अध्यात्म-जगत्में प्रतिष्ठित नहीं होती; केवल इतना ही कहा जा सकता है कि मानसिक क्रियाएं अच्छा ओर बुरा पक्ष लिये होती हैं, पर उनमें ज्यादा शक्ति नहीं होती, कम-से-कम आध्यात्मिक संसर्गकी वह शक्ति तो होती ही नहीं जो एकमात्र सच्ची प्रभावकारी शक्ति है ।
चेतनाकी जिस अवस्थामें मनुष्य स्वयं वास करता है, उस अवस्थाको दूसरों- को हस्तांतरित कर सकनेकी शक्यता ही वह एकमात्र चीज है जो सचमुच प्रभावकारी होती है । लेकिन इस शक्तिका आविष्कार नहीं किया जाता, इसकी नकल नही की जा सकती, इसके होनेका दिखावा नही किया जा सकता; जब कोई अपने-आप उस अवस्थामें प्रतिष्ठित हों जाता है, जब वह भीतर रहता है, उस तरह रहनेका प्रयास नहीं करता - जब वह उसमें होता है तो यह अनायास ही आ जाता है । और इसी
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कारण, जिन लोगोंका जीवन सचमुच आध्यात्मिक होता है वे छैले नहीं जा सकते ।
आध्यात्मिक जीवनका अनुकरण उन लोगोंको तो भ्रममें डाल सकता है जो अभीतक मनमें वास करते है, पर वे लोग धोखा नही खा सकते और गलती नही कर सकते जिन्होंने चेतनाके इस प्रत्यावर्तनको पा लिया है, जिनका बाह्य सत्ताके साथ संबंध सर्वथा अलग है ।
मनोमय पुरुष इन लोगोंको नहीं समझता । जबतक कोई मानसिक चेतनामें वास करता है, चाहे वह उच्चतम ही क्यों न हों, और आध्या- त्मिक जीवनको बाहरसे देखता है, तबतक वह मानसिक क्षमताओंद्वारा, खोजने, गलती करने, सुधारने, प्रगति करने और दुबारा खोजनेके अभ्यास- द्वारा निर्णय करता है; और वह कल्पना कर बैठता है कि आध्यात्मिक जीवनवाले भी उसी अशक्यतासे पीड़ित हैं, लेकिन यह बहुत भारी भूल !
जब सत्ता उलट जाती है तो यह सब समाप्त हों जाता है । तब मनुष्य खोजता नहीं, देखता है । अनुमान नहीं करता, जानता है । टटोलता नहीं, लक्ष्यकी ओर सीधा चलता है । और जब वह आगे - थोड़ा ही आगे -- बढ़ चुकता है तब वह इस परम सत्यको जान जाता है, अनुभव करता है और इसे जीता है कि केवल 'परम सत्य' ही काम करता है, केवल 'परम देव' ही कामना करता है, जानता है और मनुष्यों- द्वारा काम करता है । वहां किसी गलतीकी गुंजाइश ही कैसे रह सकती है? वह जो कुछ करता है वह इसलिये करता है कि 'वह' उसे करना चाहता है ।
हमारी भ्रांत दृष्टिके लिये ये शायद अबोध्य क्रियाएं होतीं हैं, पर उनका कोई अर्थ होता है, उद्देश्य होता है और वे वहां ले जाती हैं जहां लें जाना चाहिये ।
यदि कोई सच्चाईके साथ दूसरोंकी और संसारकी मदद करना चाहता है तो सबसे अच्छी बात जो वह कर सकता है यह है कि वह अपने-आप वही बने जो दूसरोंको बनाना चाहता है -- केवल एक दृष्टांतकी तरह नहीं, बल्कि विकिरण करती हुई शक्तिके केंद्रके रूपमें जो अपने अस्तित्व- के बलपर बाकी दुनियाको बदलनेके लिये विवश कर दे ।
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२९ अक्तूबर १९५८
''यह सत्य है कि आध्यात्मिक प्रवृत्ति जीवनकी ओर नहीं, जीवनके परे देखनेकी रही है । यह भी सत्य है कि आध्यात्मिक परि- बर्तन सामूहिक नहीं, व्यक्तिगत ही रहा है, उसके परिणाम मानव व्यक्तिमें तो सफल रहे हैं, पर मानव समूहमें या तो असफल रहे है या परोक्ष रूपसे ही काम कर पाये हैं । प्रकृतिका आध्यात्मिक विकास अभी अपनी प्रक्रियामें ही है, अपूर्ण है, बल्कि यह कहा जा सकता है कि अभी उसका आरंभ ही हुआ है । उसका मुख्य काम रहा है आध्यात्मिक चेतना और ज्ञानके आधारको स्थापित करना और बढ़ाना और आत्माके सत्यमें जो शाश्वत है उसके अंतर्दर्शनके लिये आधार या रूपको अधिकाधिक तैयार करना । जब प्रकृति ब्यक्तिके द्वारा इस गहन विकास और रचनाको पूरी तरह पुष्ट कर दे तभी विस्तार था क्रियात्मक रूपसे प्रसार करनेके स्वभाववाली किसी भौतिक चीजकी आशा की जा सकती है था सामूहिक आध्यात्मिक जीवनके लिये कोई प्रयत्न स्थायी सफलता पा सकता है । पहले भी स्थायी आध्यात्मिक जीवनके लिये प्रयत्न किये गये है लेकिन अधिकतर व्यक्तिगत आध्यात्मिकताके रक्षाक्षेत्रके रूपमें । जब- तक प्रकृति अपने इस कामको पूरा नहीं कर लेती तबतक व्यक्तिको अपने मन और प्राणको आत्माके उस सत्यके अनुरूप पूरी तरह बदलनेकी समस्यामें ही उलझे रहना पड़ेगा जिसे वह अपनी आंतरिक सत्ता और ज्ञानमें प्राप्त कर रहा है या प्राप्त कर चुका है । समयसे पहले बड़े पैमानेपर सामूहिक आध्या- त्मिक जीवनके लिये किये गये प्रयासके दूषित होनेकी संभावना रहती है ओर इस तरह दूषित होनेके कारण हो सकते हैं क्रियात्मक पक्षमें आध्यात्मिक ज्ञानकी कमी, साधकोंकी व्यक्ति- गत कमी, साधारण मन, प्राण और शरीरकी चेतनाओंका सत्यको हथियाकर उसे यांत्रिक, अंधकारपूर्ण और म्पष्ट बनानेके लिये आक्रमण । मानसिक बुद्धि और उसकी तर्क करनेकी प्रधान शक्ति मानव जीवनके तत्व और उसके स्थायी स्वभाव- को नहीं बदल सकतीं : ये केवल तरह-तरहके यंत्रीकरण, कुशल प्रयोग, परिवर्धन और सूत्रोंको ही पैदा कर सकती हैं । लेकिन
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पूरा मन भी, भले यह पूरी तरह आध्यात्मिकभावापत्र हो जाय, परिवर्तन नहीं ला सकता । आध्यात्मिकता मनको अपनेसे ऊंचे स्तरोंके साथ संपर्क रखनेमें सहायता करती है, अपने-आपसे छुटकारा पानेमें भी मदद करती है । वह व्यक्तिगत् मानव सत्ताओंकी बाह्य प्रकृतिको आंतरिक प्रभावके द्वारा ऊपर उठा सकती है । लेकिन जबतक उसे मानव समूहमें मन- को यंत्र बनाकर काम करना है, बह धरतीके जीवनपर प्रभाव डाल सकती है लेकिन जीवनका रूपांतर नहीं कर सकती । इसी कारण आध्यात्मिक मनमें यह प्रवृत्ति रही है कि वह ऐसे प्रभावोंसे संतुष्ट हो जाय और पूर्णताको किसी और ही लोकमें खोजें या हर तरहके बाहरी प्रयासको एकदम छोड़कर अपने- आपको एकमात्र व्यक्तिगत सिद्धि था मुक्तिपर एकाग्र करे । अज्ञानसे बनी प्रकृतिके पूरे-पूरे रूपांतरके लिये मनसे ज्यादा ऊंचे क्रियाशील उपकरणकी जरूरत है ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ० ८८५-८६)
मधुमयी मां, इसका क्या अर्थ है : ' 'आध्यात्मिकता मनकी... अपने -आपसे छुटकारा पानेमें मदद करती हैं '?
जबतक मनको यह विश्वास है कि वह मानव चेत्तनाका शिखर है, कि उससे परे और ऊपर और कुछ नहीं है तबतक वह अपनी क्रियाको पूर्ण समझता है और इस क्रियाकी सीमाओंके भीतर की गयी उन्नतिसे तथा अपने क्रिया-कलापमें बढ्ती हुई स्पष्टता, यथार्थता, जटिलता, लोच और नमनीयता- से पूरी तरह संतुष्ट होता है ।
अपने-आपसे और अपने किये कामसे सदा संतुष्ट रहनेकी इसकी सहष्यवृत्ति रहती है, और यदि इसकी अपनी शक्तिसे अधिक बड़ी और ऊंची कोई शक्ति न होती जो इसे अकाट्य रूपसे इसकी सीमाएं और इसकी दीनता दिखाती रहती है तो यह उचित्त दरवाजेसे बाहर निकलनेका प्रयास कभी न करता । वह दरवाजा है सत्ताकी एक उच्चतर और सत्यतर विधामें मुक्ति ।
जब आध्यात्मिक शक्ति काम कर सकती है, जब यह अपना प्रभाव डालना आरंभ करती है तब यह मनकी इस आत्म-संतुष्टिको झकझोरती है और लगातार दबाव डालकर इसे यह अनुभव करा देती है कि इसके परे उच्चस्तर और सत्यतर कोई चीज है; तब दंभका एक छोटा-सा अंश,
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जो खास इसीका हों सकता है, इस प्रभावके अधीन हार मान लेता है और जैसे ही उसे यह बोध हो जाता है कि वह सीमित और अज्ञानी है, सच्चे सत्यतक पहुंचानेमें असमर्थ है, वैसे ही मुक्ति और किसी परात्पर चीजक्ए: प्रति उन्मुक्त होनेकी संभावना शुरू हों जाती है । पर इसे उस परात्पर- की शक्ति, सौंदर्य और बलका अनुभव अवश्य होना चाहिये ताकि उसे समर्पण कर सकें । अपनेसे उच्चतर वस्तुकी उपस्थितिमें इसे अपनी असमर्थता और सीमाओंका बोध अवश्य पा सकना चाहिये, अन्यथा यह अपनी अशक्तताका अनुभव कैसे करेगा?
कमी-कभी तो एक ही संपर्क काफी होता है, ऐसी चीज जो उस आत्म- तृप्तिमें जरा-सी दरार कर दें, उसके बाद उसके परे जानेकी इच्छा, एक विमलतर ज्योति पानेकी आवश्यकता जगती है, और इस जागरणके साथ आती है उन्हें प्राप्त कर लेनेकी अभीप्सा और अभीप्साके साथ आरंभ होती है मुक्ति और एक दिन सब सीमाओंको तोडकर व्यक्ति अनंत 'प्रकाश'- की ओर खुल जाता है ।
अगर यह अनवरत दबाव साथ-ही-साथ अंदर और बाहरमें, ऊपर और गभीरतम गहराइयोंसे न पड़ता तो कोई भी चीज कभी न बदलती ।
इसके होते हुए भी कितना समय लगता है चीजोंके बदलनेमें! कितना दुराग्रही प्रतिरोध है इसनिचली प्रकृतिमें, कैसी अंध और मूर्खतापूर्ण आसक्ति है जीवनके पाशविक तरीकोंके साथ, अपनेको मुक्त करनेसे कितना इनकार!
मारे अमिव्यक्त जगत्में दुःख, अंधकार और मतमें पडे विश्वको उसमेंसे बाह्रा निकालनेके लिये एक अनंत 'कृपा' हमेशा काम करती रहती है । अनादि कालसे यह 'कृपा' अपने निरंतर प्रयासद्वारा कार्य करती आ दही है और इस विश्वको किसी महतर, सत्यतर और सुन्दरतर वस्तुकी आवश्यकता- के प्रति जगानेमें कितने युग लग गये.... !
अपनी ही सत्तामें मिलनेवाले प्रतिरोधसे प्रत्येक व्यक्ति अनुमान लगा सकता है कि कितने दृढ प्रतिरोधके साथ यह विश्व 'कृपा' के कार्यका विरोध करता है ।
मनुष्य निर्णायक प्रगतिके लिये तभी तैयार होता है जब वह समझ लेता है कि सब बाह्य चीजे, मानसिक धारणाएं ओर भौतिक प्रयास यदि ऊपरसे आयी 'ज्योति' और 'शक्ति'को, अपने-आपको अभिव्यक्त करनेकी चोटा करते हुए 'सत्य'को पूरी तरह अर्पित नहीं हैं तो बेकार हैं, व्यर्थ है । अतः
एकमात्र सच्चा प्रभावकारी मनोभाव है 'उसको' संपूर्ण, सर्वांग, उत्साह और भक्तिभरा आत्मदान जो हमारे ऊपर अवस्थित है, एकमात्र उसीमें सब कुछ बदल डालनेकी शक्ति है ।
जब अंतःस्थित 'आत्मा' के प्रति खुल जाता है तो उसे उस उच्चतर जीवनका पहला पूर्वास्वाद मिल जाता है जो ज़ीने योग्य है; फिर आती है उसतक उठनेकी चाह, वहांतक पहुंचनेकी आशा; फिर यह विश्वास कि यह सम्भव है और अंतमें आवश्यक प्रयास करनेकी शक्ति और अंततक जानेका निश्चय ।
हप अपने-आपको जगाना होगा, तभी विजय मिल सकती है ।
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५ नवंबर, १९५८
''आध्यात्मिक सत्य आत्माका सत्य है, बुद्धिका सत्य या गणित- का प्रमेय या तर्ककी सिद्धांत-सूत्र नहीं । वह अनंतकास एक सत्य है, अनंत विभिन्नतामेंसे एक । वह अनंत विभिन्नतावाले पक्षों और गठनोंको धारण कर सकता है । आध्यात्मिक विकास- के लिये यह जरूरी है कि एक ही 'सत्य'की ओर जानेवाले विभिन्न मार्ग हों, विभिन्न प्रयत्न हों और उसके ग्रहण किये हुए रूप भी विभिन्न हों । यह विभिन्नता इस बातका चिह्न है कि अंतरात्मा एक सजीव यथार्थताको प्राप्त कर रही है । पदार्थोंके ऐसे काल्पनिक रूप या वस्तुओंकी ऐसी रचना नहीं जो मृत पथरीले सूत्रोंमें परायी जा सकती है । सत्यके बारेमें यह कठोर तार्किक और बौद्धिक धारणा कि यह कोई ऐसा अकेला बिचार होना चाहिये जिसे सबको स्वीकार करना पड़ेगा, एक ऐसा विचार या विचार-पद्धति जो और सब विचारों या पद्धतियोंको हटा दे, एक एकाकी सीमित तथ्य या अकेला त्यों- का सूत्र जिसे सभीको मान्यता देनी चाहिये -- यह एक ऐसी धारणा है जो भौतिक क्षेत्रके सीमित सत्यको प्राण, मन और आत्माके बहुत अधिक जटिल ओर नमनशील क्षेत्रमें अनुचित रूपसे स्थानांतरित करता है...
आध्यात्मिक मनुष्यके विकासमें आवश्यक रूपसे बहुत-सी
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वपहमिकाएं हैं और हर भूमिकामें सत्ता, चेतना, जीवन, प्रकृति, विचार और चरित्रमें व्यक्तिगत रचनाओंकी बहुत अधिक विभिन्नता होती है । यंत्र-रूप मनकी प्रकृति और जीवनके साथ उसके व्यवहार करनेकी आवश्यकता ही साधकके विकासकी भूमिका और उसके व्यक्तित्वके अनुसार अनंत विभिन्नता पैदा कर देती है । इसके अतिरिक्त यह जरूरी नहीं है कि शुद्ध आध्यात्मिक आत्मोपलब्धिकी और आत्मािव्यक्तिके क्षेत्र ही एक जैसा, एक- रस बना रहे । यहां भी मौलिक एकताके साथ-ही-साथ बहुत सही विविधता हो सकती है । परमात्मा एक है पर उसकी आत्माएं बहु हैं । जीवात्मा ने प्रकृतिकी जैसी रचना की है, उसीके अनुसार उसकी आध्यात्मिक स्वाभिथ्यक्ति होगी । एकतामें विविधता अभिव्यक्तिका नियम है । अतिमानसिक एकीकरण और संघटन इन विविधताओंमें सामंजस्य लायेगा, परंतु इनका नाश प्रकृतिमें निवास करनेवाली 'आत्मा'का अभि- प्राय नहीं है ।''
('लाइफ डिवाइन', पृ ०८८६-८८)
व्यक्तिगत विकासकी दृष्टिसे औ र उन लोगोंके लिये जो अभी पथके शुरूमें ही हैं, उस बातके बारेमें चुप रहना जिसे वे नहीं समझते, उन चीजोंमेंसे एक है जो प्रगतिमें सबसे अधिक सहायक होती हैं । चुप कैसे रहा जाय यह जानना, केवल बाहरी तौरपर शब्द न बोलना ही नहीं, बल्कि यह जानना कि भीतर कैसे नीरव रहा जाय, यह जानना कि मन, जैसा कि वह हमेशा करता है, अपनी स्वभावगत ढिठाईके साथ अपने अज्ञानके दावेके साथ घोषणा न करे, समझनेमें असमर्थ यंत्रद्वारा समझनेकी कोशिश न करे, अपनी दुर्बलताओंके पहचानने और बस सहज-भावसे चुपचाप स्वयंको खोले, प्रकाशकों ग्रहण करनेके लिये मुहूर्त्तको प्रतीक्षा करे क्योंकि केवल 'प्रकाश', सच्चा प्रकाश ही उसे समझ प्रदान कर सकता है । जो कुछ इसने सीखा है वही सब कुछ नहीं है, जो कुछ निरीक्षण किया है वही सब कुछ नहीं है, जो कुछ जीवनका तथाकथित अनुभव लिया है वही सब कुछ नहीं है, वह तो' कुछ और है बो इस सबको पूरी तरह अतिक्रम कर जाता है । इससे पहले कि यह कुछ और -- जो 'कृपा' की अभिव्यंजना है -- उसमें अभिव्यक्त हो, यदि मन बड़ी शांतिसे, बड़ी विनखतासे अचंचल बना रहे, समझनेकी, आर सबसे बढ़कर मूल्यांकन करनेकी कोशिश न करे, तो चीज़ें अधिक तेजीसे आगे बेढंगी ।
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अचंचल और नीरव रहना सीखना... । जब तुम्हारे सामने सुलझानेके लिये कोई समस्या हों ता सब संभावनाओं, सब परिणामों, करणीय या अकरणीय सब संभव चीजोंपर दिमाग लड़ानेकी जगह यदि तुम सद्भावनाकी अभीप्सा लिये अचंचल बने रह सको, यदि संभव हों तो सद्भावनाकी आवश्यकता लिये, तो बहुत जल्दी समाधान निकल आता है । और क्योंकि तुम नीरव होते हों, इसलिये तुम उसे सुन पाते हों ।
जब तुम किसी कठिनाईमें फंस जाओ तो इस तरीकेको आजमाओ : विक्षुब्ध होने, बम विचारोंको उलटने-पलटने, ज़ोरशोर समाधान ढेन, चिता करने, चिढ़ने, अपने सिरके अंदर इधर-उधर भागते रहनेके बजाय-- मेरा मतलब बाह्य रूपसे नही है, इतनी सामान्य बुद्धि तो तुममें होगी ही कि बाह्य रूपमें दौड-भाग न करो! वरन्, भीतर, अपने सिरमें -- अचंचल बने रहो । और अपने स्वभावके अनुसार, उत्कटताके साथ या शांतिके साथ, तीव्रताके साथ या विस्तारके साथ या इन सबको मिलाकर, प्रकाशकी अभ्यर्थना करो और उसके आगमनकी प्रतीक्षा करो ।
इस तरह पथ काफी छोटा हो जायगा ।
१२ नवम्बर, १९५८
''यदि आध्यात्मिक मनुष्यके विकासमें प्रकृतिका एकमात्र उद्देश्य यही हो कि उसे परम सद्वस्तु (परमार्थ) की ओर जाग्रत कर दे और उसे अपने-आपसे, अर्थात्, उसने 'शाश्वत'की 'शक्ति' होते हुए 'अविद्या' का जो मुखौटा पहने रखा है उससे, यहांसे किसी उच्चतर भूमिकामें ले जाकर मुक्त कराये, यदि विकासमें यह कदम ही अंतिम और बाहर जानेका मार्ग है, तो सार रूपमें उसका काम पूरा हो चुका है और अब कुछ भी करनेके लिये बाकी नहीं है । रास्ते बन चुके है, उनपर चलनेकी क्षमता विकसित हो चुकी है, सृष्टिका लक्ष्य या अंतिम शिखर स्पष्ट है । अब हर अंतरात्माके लिये यही काम बचा ह कि बह
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व्यक्तिगत रूपसे ठीक भूमिका और ठीक घुमावपर पहुंचे, आध्यात्मिक रास्तोंमें प्रवेश करे ओर अपने ही चुने हुए रास्तेसे इस घटिया अस्तित्वमें बाहर निकल जाय । लेकिन हमने यह माना है कि इसके आगे कुछ और भी आशय है, -- केवल 'आत्मा'का प्रकट होना ही नहीं, प्रकृतिका आमूल और सर्वांगीण रूपांतर । प्रकृतिमें आत्माके सशरीर जीवनकी सच्ची अभिव्यक्तिको चरितार्थ करनेका संकल्प है, उसने जिसे शुरू किया है उसे 'अज्ञान'से 'ज्ञान'की ओर ले जाकर पूरा करनेका, अपने मुखौटेको हटानेका, अपने-आपको ज्योतिर्मय 'चिच्छक्ति'के रूपमें प्रकट करनेका एक संकल्प है जो अपने अंदर शाश्वत 'सत्ता' और उस सत्ताके सार्वभौम 'आनंद'को धारण किये हुए है । तब यह स्पष्ट हो जाता है कि अभीतक कुछ बाकी है जिसे पूरा नहीं किया गया है, अब भी जो बहुत कुछ करना बाकी है -- भूरि अस्पष्ट कर्तव्य -- वह आंखोंके सामने स्पष्ट हो जाता है । एक ऐसा शिखर बाकी है जहांतक पहुंचना बाकी है, एक ऐसा विस्तार है जिसमें अंतर्दर्शन करनेवाली आंखोंके फैलाना है, जिसपर संकल्पके पंखोंको पहुंचाना है, भौतिक विश्वमें 'आत्मा'- का आत्म-पुष्टीकरण बाकी है । क्रमविकासका 'शक्ति'ने अभीतक जो किया है बह यहीं है कि कुछ व्यक्तियोंको अपनी अंतरात्मा- के बारेमें ज्ञान दे दिया है, उन्हें अपनी आत्माकी चेतना दी ह, यह ज्ञान दिया है कि वे शाश्वत सत् है, प्रकृतिके बाहरी रूपोंमें छिपे 'परम देव' या 'परम सद्वस्तुके साथ उनका संपर्क करवा दिया है । प्रकृतिका एक विशेष परिवर्तन इस प्रकाश- को तैयार करता है । उसके साथ या उसके पीछे-पीछे चलता है, परंतु यह बह पूर्ण और मौलिक परिवर्तन नहीं है जो पार्थिव प्रकृतिके क्षेत्रमें निश्चित और दृढ़ नूतन तत्त्वको, नवीन सृष्टि- को स्थापित करे और सत्ताकी एक चिरस्थायी नयी व्यवस्था लाये । आध्यात्मिक प्राणी तो विकसित हुआ है, परंतु वह अति- मानसिक सत्ता विकसित नहीं हुई जो आगे चलकर प्रकृतिका नेता होगी ।',
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८८९-९०) मां, अपने विकासकी ठीक अवस्था और मोड़का कैसे पता लग सकता है?
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कैसे पता लग सकता है!... तुम्हें इसकी खोज करनी होगी । आग्रह- पूर्वक इसे चाहना होगा । यही तुम्हारे लिये एकमात्र महत्त्वपूर्ण बात होनी चाहिये ।
जब कोई अपनी आत्माको खोजने, उसके साथ युक्त हों जानें और उसे अपने जीवनको शासित करनेकी अनुमति देनेका आवश्यक आंतरिक प्रयास करता है तो इस खोजका एक तरहका अनोखा सम्मोहन होता है जिसके कारण सबसे पहली वृत्ति यह होती है कि वह अपने-आपसे कहें : ''जो मैं चाहता हू वह अब मेरे पास है, मुझे अनंत आनंद मिल गयी। है! '' ओर बस, वह किसी अन्य चीजकी ओर ध्यान नहीं देता ।
वस्तुतः, ऐसा लगभग उन सब लोगोंके साथ हुआ है जिन्होंने यह खोज की है, उनमेंसे कुछ ऐसे भी है जिन्होंने इस अभ्नुाऋइतके'। सिद्धिका सिद्धांत बना डाला और कहा : ''जब तुम इतना कर चुके, अब और कुछ करना बाकी नही रहा; तुम लक्ष्यतक और पथके अंततक पहुंच गये हों ।''
निश्चय ही, और आगे जानेके लिये बड़े साहसकी जरूरत है, यह आत्मा जो खोजी जाय वह निर्भीक हूतात्मा होनी चाहिये जो दूसरोंका दुःख देखकर अपनको इस विचारसे तसल्ली देती हुई अपने आंतरिक हर्षसे जरा भी संतुष्ट नही होती कि देर-सवेर सब उसी अवस्थातक पहुंचेंगे, और जो प्रयत्न मैंने किया हैं उसे दूसरे भी करें तो उनके लिये अच्छा है या, ज्यादा-सें-ज्यादा, इस विचारसे कि आंतरिक प्रज्ञाकी इस अवस्थामें रहते हुए ''महान् सद्भावना'' और ''गहरी अनुकल्प'' द्वारा वह लोगोंको वहांतक पहुँचनेमें मदद कर सकती है, और जब सब उसे प्राप्त कर लेंगे तो वह दुनियाका अंत होगा और यह उन लोंगोंके लिये अच्छा होगा जो दुःख भोगना नही चाहते!
लेकिन... एक ''लेकिन'' है । क्या तुम्हें विश्वास है कि परम प्रभुका स्वयंको अभिव्यक्त करते समय यही उद्देश्य और यही आशय था?
अगर यही परिणाम हो तो सारी सृष्टि, यह सारी वैश्व अभिव्यक्ति अधिक-से-अधिक एक भद्दा मजाक मालूम होती है । यदि इससे बाहर हो है तो फिर इसे शुरू ही क्यों किया जाय! यदि यह केवल तुम्हें
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यह दिखानेके लिये है कि इसमेंसे कैसे बाहर निकला जा सकता है तो इतना संघर्ष करनेसे, इतना दुःख भोगनेसे क्या लाभ, ऐसी सृष्टि बनानेका क्या लाभ जो कम-से-कम अपने बाह्य रूपमें इतनी दुखांत और नाटकीय हो -- तब तो आरंभ न करना ही कहीं अधिक अच्छा होता ।
लेकिन यदि तुम चीजोंकी एकदम गहराईतक जाओ, केवल अहंभावसे ही विमुक्त नही, बल्कि अहंसे भी विमुक्त होकर अपने-आपको पूरी तरह, बिना कुछ बचाये, इतनी संपूर्णता और अनासक्तिके साथ समर्पित कर दो कि तुम परम प्रभुकी योजनाको समझनेके योग्य बन जाओ तो तुम जान जाओगे कि यह एक भद्दा मजाक नहीं है, आरंभिक बिंदुतक वापिस आनेके लिये टेढा-मेढा, थोड़ा घिसा-पिटा रास्ता नहीं है । इसके विपरीत, यह तो सारी सृष्टिको जीनेका आनंद, जीनेका सौंदर्य, जीनेकी महिमा, एक उदात्त जीवनकी भव्यता और उस आनंद, सौंदर्य और महिमाकी सतत प्रगतिशील वृद्धि सीखनेके लिये है । अतः हर चीजका अर्थ है, और तव संघर्ष करके, दुःख भोगकर तुम्हें पछतावा नहीं होता तुममें केवल दिव्य लक्ष्यको प्राप्त करनेका उत्साह होता है और उस प्राप्तिके लिये लक्ष्य ओर विजयकी निश्चितिके साथ तुम सिरके बल कूद पड़ते हो ।
लेकिन यह जान सकनेके लिये अहंवादी होना छोड़ना पड़ेगा, परम उत्स- सै कटकट, अपनेमें सिमट-सिकुड़कर एक अलग व्यक्ति होना छोड़ना होगा । सबसे बढ़कर जरूरी है अपने अहंको उतार फेंकना । और तब तुम अपने सच्चे लक्ष्यको पहचान सकोगे -- और बस, यही एक तरीका है!
अपने अहंको उतार फेंकना, एक अनुपयोगी परिधानकी तरह गिर जानें देना ।
फलको देखते हुए इसके लिये प्रयत्न करना सार्थक है । और फिर पथपर तुम अकेले नहीं हो । यदि तुममें भरोसा हों तो तुम्हें सहायता मिलती है ।
यदि एक निमिषके लिये भी 'कृपा' के साथ तुम्हारा संपर्क हुआ है, उस अलौकिक 'कृपा' के साथ जो तुम्हें बढ़ाये लिये जाती है, पथपर दौड़ाये लिये जाती है, तुम्हें यह मी भुला देती है कि तुम्हें जल्दी करनी है, यदि उस 'कृपा' के साथ तुम्हारा निमिष मात्रिके लिये भी संपर्क हुआ है तो तुम्हें भूलना जानेका प्रयास करना चाहिये । ओर, जिसके जीवनमें गुत्थिया नही है, ऐसे शिशुकी निष्कपटता और सरलताके साथ, अपने-आपको 'कृपा' के हाथमें सौंप दो और उसे कार्य करने दो ।
आवश्यकता है इस बातकी कि जो कुछ प्रतिरोध करे उसकी मत सुनो; जो खंडन करे उसका विश्वास न करो - एक भरोसा रखो, सच्चा भरोसा,
एक विश्वास द्वारा तुम अपने-आपको पूरी तरह बिना हिसाबकिताबके, बिना सौदेबाजीके दे दो । भरोसा रखो! अंततक भरोसा रखो, कहो : ''यह करो, मेरे लिये यह कर दो, मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हू ।'' यही है सर्वश्रेष्ठ तरीका ।
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२६ नवंबर, १९५८
''... जैसे यहां ' ज्ञान' को खोजते हुए ' अज्ञान' के आधारपर, जो अपने -आप ' ज्ञान ' मे विकसित होता जाता है, ' मन प्रतिष्ठित है, उसी तरह अब ' अतिमानस ' को अप ने महत्तर ' प्रकाश ' मे बढ़ ने वाले ' ज्ञान ' - के आधारपर प्रतिष्ठित होना चाहिये । परंतु यह तबतक संभव नहीं है जबतक आध्यात्मिक मनोमय प्राणी पूरी तरहसे ' अति- मानस' तक उठकर उस की शक्तियोंको धरतीके जीवनमें नहीं उतार लाता । ' मन' और ' अतिमन ' के बीचकी खाईपर पुल बनाना होगा, बंद रास्तोंको खोलना होगा और जहां अ भीतक शून्यता ओर शांत निश्चलता है वहां आरोहण, अवरोहणके रास्ते बन ? होंगे । यह केवल उस त्रिविध रूपांतरके द्वारा किया जा सकता है जिसके संबंधमें हम स रसरी तौरपर उल्लेख कर आये हैं । इनमेंसे पहला है चैत्य परिवर्तन, यानी, हमारी वर्तमान प्रकृा तपूरी तक बदलकर र अंतरात्माका उपकरण बन जाय । इसके बाद या इसके स ?? आध्यात्मिक पीरवर्तन आना चाहिये, यानी, उच्चतर ' ज्योति ', ' ज्ञान ', ' वल ', ' शक्ति ', ' आनंद ', ' पवित्रता' का पूरी सत्तामें, प्राण और शरीरके निचले-से- निचले गुप्त स्थानोंमें, यहांतक कि अवचेतनाके अंधकारमें भी अवतरण होना चाइ हेय । और अंतमें आयेगा आइ तम कस रूपांतर । आरोहणकी क्रियाके शिखर-रूप ' अतिमानस ' मे आरोहण होना चाहिये और हमारी पूरी सत्ता और प्रकृतिमें अतिमानस ' चेतना' - का रूपांतरकारी अवतरण होना चाहिये । ''
( ' लाइफ डिवाइन ' । पृ ० ८१० - ११)
आत्माकी क्या भूमिका है?
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कहा जा सकता है कि यह परम प्रभु और अभिव्यक्त विश्वके बीच सचेतन मध्यस्थ है और साथ-ही-साथ परम प्रभुके साथ अभिव्यक्त विश्वका मिलन- स्थल ।
आत्मा उच्चतम देवत्वको समझने और उसके साथ संपर्क स्थापित करने- मे सक्षम है और साथ-ही-साथ उच्चतम परम देव और बाह्यतम अभिव्यक्त विश्वका सबसे कम विकृत, सबसे अधिक पवित्र मध्यस्थ है । यह आत्मा ही है जो अंतरात्माकी सहायतासे चेतनाको 'उच्चतम' की ओर, भगवान्- की ओर मुड़ती है आर आत्मामें ही चेतना भगवानको समझना आरंभ कर सकती है ।
यह कहा जा सकता है कि जिसे ''आत्मा' ' कहा जाता है वह है जड़ भौतिक जगत्में 'कृपा' द्वारा लाया गया वातावरण, ताकि यह अपने मुल्की चेतनाके प्रति जाग सकें और उसतक लौटनेकी अभीप्सा कर सकें । सच- मुचा यह एक तरहका वातावरण है जो मुक्त करता है, द्वार खोल देता हैं और चेतनाको स्वतंत्रता प्रदान करता है । यही है वह जो सत्यकी उप- लब्धिकी तैयारी करता है ओर अभीप्साको उसकी पूरी शक्ति ओर ससिद्धि प्रदान करता है ।
और भी ऊपरसे देखते हुए इसे यूं भी कहा जा सकता है : इस क्रिया, इस दीप्त और मुक्तिप्रद प्रभावको ही ''आत्मा'' नाम दिया गया है, उस सबको जो हमारे लिये परम तथ्योतक जानेके पथ खोल देता है, जो हमें 'अज्ञान'की दलदलमेंसे, जहां हम फंस हुए है, बाहर खींच लाता है, हमारे लिये द्वार खोल देता है, हमें राह दिखाता है, हमें कहा जाना चाहिये इसका निर्देशन करता है । मनुष्यने इसीका नामकरण किया है ''आत्मा'' । यह भागवत कृपाद्वारा विश्वमें बनाया गया वह वातावरण है जो उसे उस अधकारमेंसे उधार सके जिसमें वह जा गिरा है ।
मानव प्राणीमें जीवात्मा मानों उसका व्यक्तिगत संकेंद्रण, व्यक्तिगत प्रतिनिधित्व है । जीवात्मा मानवजातिकी विशेष चीज है, केवल मनुष्य- में हीं इसका अस्तित्व है । यह मनुष्यमें आत्माकी एक विशेष अभिव्यक्ति- की तरह है । अन्य जगतोकी सत्ताओंमें जीवात्मा नही होतीं, लेकिन ३ आत्मामें वास कर सकते है । कहा जा सकता है कि जीवात्मा मानवमें आत्माका प्रतिनिधि है, उसे अधिक तेजीसे ले चलनेके लिये विशिष्ट सहायता है । जीवात्माके द्वारा हीं व्यक्तिगत उन्नति संभव होती है । अपने मूल रूपमे आत्माकी क्रिया अधिक व्यापक, अधिक सामूहिक होती है ।
फिलहाल आत्मा सहायक और पथ-प्रदर्शककी भूमिका निभाती है, पर यह जड़ जगत्की सर्वशक्तिमान् प्रभु नहीं है; जब नये जगत्में 'अतिमानस'
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संघटित हो जायगा तब आत्मा प्रभु बनकर बिलकुल स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूपसे प्रकृतिपर शासन करेगी ।
जिसे ''नव जन्म'' कहा जाता है वह आध्यात्मिक जीवनमें, आध्यात्मिक चेतनामें जन्म है, वह अपने अंदर आत्माकी किसी ऐसी चीजको वहन करना है जो जीवात्माके द्वारा, व्यक्तिगत रूपसे, जीवनको शासित करना और अस्तित्वकी स्वामिनी बनना शुरू कर सकती है । लेकिन अतिमानसिक जगत्में आत्मा ही सचेतन रूपसे, सहजम्हवाभाविक रूपसे समग्र जगत्की और इसकी सब अभिव्यक्तियों और अभिव्यजनाको स्वामिनी होगी ।
व्यक्तिगत जीवनमें इसीसे सारा अंतर पडू जाता है, जबतक तुम आत्मा- के बारेमें बोलते-भर हों, इसके बारेमें कुछ पढा है, इसके अस्तित्वका धुँधला-सा परिचय है, यह चेतनाके लिये कोई बहुत मूर्त वास्तविकता नही है, तो इसका मतलब है कि तुम आत्मामें नहीं जन्मे हों । और जब तुम आत्मामें जन्म ले लेते हो तो यह सारे स्थूल जगतसे अधिक मूर्त, कहीं अधिक जीवंत, कही अधिक सत्य और कहीं अधिक प्रत्यक्ष हों जाती है । और इसीके कारण मनुष्योंमें सारभूत भेद होता है । जब यह अनायास रूपसे सत्य बन जाती है - सच्चा, ठोस अस्तित्व, ऐसा वातावरण जिसमें तुम स्वच्छंदता से सास लें सको - तब तुम जान जाते हों कि तुम उस पार चले गये हो । पर जबतक यह अस्पष्ट और धुंधली-सी रहती है -- तुमने इसके बारेमें कही गयी बातें सुनी-भर है, तुम जानते हो कि इसका अस्तित्व है लेकिन... । यह ठोस वास्तविकता नहीं बनी -- तो इसका अर्थ है कि अभीतक तुम्हारा नव जन्म नहीं हुआ है । जबतक तुम अपने- आपसे यह कहते हों : ''हां, इसे मै देखता हू, इसे छूता हू, मैं जो पीड़ा भोगता हू., जो भूख मुझे सताती है, जो नींद मुझपर हावी होती है, वही सत्य हें, सचमुच यहीं ठोस है... ।'' (माताजी हंसती है) तो इसका अर्थ है कि तुम अभी उस पार नहीं गयें हो, आत्मामें नही जन्मे हो ।
असलमें अधिकतर मनुष्य कैदीके समान है जिनके लिये सब दरवाजे और खिड़कियां बंद हैं, अतः उनका दम घुटता है (यह बिलकुल स्वाभाविक है), लेकिन उनके पास वह कुंजी है जो दरवाज़ों और खिड़कियोंको खोल सकती है, पर वे उसका उपयोग नहीं करते... । निश्चय ही, ऐसा मी समय होता है जब उन्हें यह मालूम नहीं होता कि उनके पास कुंजी है, परंतु इसे जान लेनेके बहुत बादमें भी, यह बताये जानेके बहुत बाद भी
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वे इसका उपयोग करनेसे झिझकते है और उन्हें सदेह होता है कि इसमे दरवाजे और खिड़कियोंको खोलनेकी क्षमता है भी । ओर क्या दरवाजे और खिड़कियां खोलना अच्छा होगा! यह महसूस कर लेनेपर भी कि ''आखिर, शायद यह अच्छा ही हो '', थोड़ा डर बना रहता है : ''जब ये दरवाजे और खिड़कियां खुल जायंगे तो क्या होगा?... '' और: वे डरे रहते है । उन्हें उस प्रकाश और स्वतंत्रतामें खो जानेका डर होता है । वे उसीमें बने रहना चाहते है जिसे वे ''अपना आपा'' कहते है । उन्हें अपना मिथ्यात्व और बंधन पसंद है । उनमें कुछ चीज इसे पसंद करती है और इससे चिपटी रहती है । वै इस ख्यालमें रहते है कि अपनी सीमाओंके बिना उनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा ।
इसीलिये यात्रा इतनी लंबी है, इसीलिये यह इतनी दुरूह है । क्योंकि यदि सचमुच कोई अपनी अस्तित्वहीनताके लिये सहमत हो तो सब कुछ कितना आसान, द्रुत, आलोकमय और आनंदमय हों जायगा -- पर शायद उस तरह नही जैसे लोग हर्ष ओर आसानीको समझते है । तथ्य नौ यह है कि ऐसे लोग बहुत कम है जिन्हें संघर्ष पसंद नही है । बद्रुत कम लोग इस बातसे सहमत होंगे कि रातकान होना संभव है, वे प्रकाशकी कल्पना अंधकारके उलटे रूपके सिवाय कर ही नही सकते ''छायाओंके बिना चित्र न होगा, संघर्षके बिना विजय न होगी और कष्ट-सहन बिना आनन्द न होगा। ।', बस यही उनकी धारणा है ओर जबतक कोई इस तरह सोचता है तबतक, आत्मामें उसका जन्म नही हुआ हैं ।
(खेलके मैदान दी गयी वार्ताओंमें यह अंतिम वार्ता है ।)
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अनुक्रमणिका
इस सारी लीलाका, १ -३, २०अ
महान्, आरंभ महान्, ६९-७०
अंतरात्मा ?r चैत्यपुरुष, जीवात्मा,
-का सतत यत्न, १७
-से सचेतन संपर्कका फल, ११,
२८१, ३८७
-का निज स्वरूप, ४०, २८८
किसे कहते , २० ३अ
इतना छुपा हुआ क्यों है, २१७
-का विकास : उसके क्रिया और
विश्रामके काल, २५३-५५
उन्नत, का नया शरीर, २५३-५४
-को पानेके लिये.., २८८
-की सामर्थ्य, २१०
भूलसे जिसे मान लिया जाता है,
-मैं ही जीवनकी सार्थकता, ३४५
-के साथ संपर्कसे सुप्त संभावनाएं
सहसा प्रकाशमें, मे ६५-६६
के लिये काम, रे ८९-९०
आत्माका व्यक्तिगत संकेंद्रण, ३९४
सूचना :
ऐसे गढे :
अति बच्चा पशु चीज
-योंमें को ओमें '', सब
अतियोंमें बच्चोंको पशुओंमें सब चीजे
( २) जिन वाक्यों में केवल शुरूमें ( ') है वह अपने-आपमें पूरा वाक्य है । उन्हें मूल शब्दके साथ मिलाकर न पढ़ें ।
( ३) ज ( ) का प्रारंभ नही दिखाया गया, वहां मूल शब्दसे पहले ( '') कल्पना कर लें ।
(४) कही-कही अधिक स्पष्टताके लिये लिखा है :
(दे 'जगत्'-के रूपों भी), इसका मतलब है जगतके नीचेका वह वाक्य देखो जो -के रूपोंसे शुरू होता है ।
( ५) पृष्ठ संख्याके बाद अ का मतलब है कि वह प्रसंग उस पृष्ठके अंतसे शुरू होकर, बस, अगले पृष्ठके आरंभतक ही गया है ।
( ६) जहां वाक्य-रचना मूल शब्दके साथ संगत न जान पडे, वहां मूल शब्दके आगे कोष्ठमें जो शब्द दिया गया है उसके साथ मिलाकर पढ्नेसे यह संगत बन जायगी ।
मानव जातिके'। विशेष चीज, ३९४
-क द्वारा ही व्यक्तिगत उन्नति संभव,
(दे० 'अभीप्सा', 'आत्मा' भी)
अंतर्भास, ३६०
-की' क्षमताका विकास, ३२१-३२
हृदय व बुद्धिके, ३२९-३०
-की मानसिक नकचें, ३६९
अंतर्राष्ट्रीय जीवन, ७७
अंतर्लयन, ३०७
-के बारेमें, १९४-९७
अचेतना, २, ११, १९८, २४९
अच्छा-बुरा !दिव्य-अदि०य, शुभ-अशुभ, -
की. हमारी धारणा, १२९,२६०,
अज्ञान, २०, १२९, ३०९, ३२०
दुःख का मूल, ७-८, १०, ११
यथार्थ, ८
-का राज्य, ८
व अचेतनताका फल, ४९
जीवनके प्रति, ९५
ज्ञान ही है, १ ९०अ
-के अंदर सत्यचेत्तना. ., २११,
२१ अ
ज्ञानको सीख दें!, २२५
(दे 'भूल', 'विभेद' भी)
अति,
-योंमें स्वास्थ्य चौपट, ९५
अतिमानव ! अतिमानस सत्ता,
अतिमानसिक तरीकेसे निर्मित और
इस भौतिक शरीरसे रूपांतरित, १२५,१८२
-के उत्पादनकी प्रक्रिया, २७७
शिक्षार्थी, ३७'
(दे० 'प्रयत्न' मी)
अतिमानस,
-का अवतरण ही निवर्तित अति-
मानसको मुक्त. ., १४९-५१
निवर्तित : क्या है, १४९-५०; यदि
यहां नहोता, १५०, १११,१९२
-ले अवतरणका परिणाम, १५७,
१५८ टि०
-का मूल स्वरूप : सत्यचेतना, १८३
-को पाना कठिन क्यों, यदि बह वस्तु-
ओंके पीछे छुपा. ., १११-९२
-की धारणा बना सकना, ३११
-काविविधताके साथ व्यवहार,३ ८८
-की प्रतिष्ठाके लिये.., ३९३
अतिमानसिक अभिव्यक्ति (पुस्तक),
८४, १ ७३अ
अतिमानसिक अभिव्यक्ति,
-का प्रमाण, २२७अ
-का पहला पहलू : शक्ति, २२८
एक बार जब हो जायगी, २८१-८२
अतिमानसिक जगत् !नया जगत्,
और पुराना जगत्, १३८-४१ ।
१४२, १५०-५१
जन्मा है, १४१, १४२
-मे धर्म नहीं रहेंगे, १४३
-की संभावनामें मूल हेम, १५०-५१
-मे सहयोग : की आधारभूत चीज,
१५१; करनेके तरीके, १५१
-की सत्ताओं और मनुष्योंमें अंतर,
और भौतिक जगत्का मध्यवर्ती
प्रदेश, २५६, २५९अ, २९२
और हमारे जगतके बीच प्रधान
अंतर, २६१,२६४-६५
३९८
अतिमानसिक जीवन,
-मे गुह्यविद्याका क्या स्थान होगा?
१७५-७८
-मे भेद होंगे, १ ७६-७७, १७८-७९
और साधारण जीवनमें फर्क,
१७७, १७९,१८०
-मे विकास बना रहेगा, १८०
-में सब संभव चीजों होंगी, १८१
-को बौद्धिक क्रियाशीलताद्वारा पाना
कठिन, चैत्यभावसे आसान,
(दे० 'दिव्य जीवन' भी)
अतिमानसिक ज्ञान,
-मे वास और उसकी अभिव्यक्ति,
१८४-८६
अतिमानसिक तत्त्व ?r नया तत्व या
पदार्थ, २५६
-के जडू पदार्थमें अवमिश्रणके संसक्त,
२७७-७८
-के गुण, २९२,३०२
-की इद्रियगोचरता संभव, २ ९२अ
-का बढ़ता प्रभाव; निष्कर्ष, २९३
-को तुम हर सांसके साथ ., ३१२
और नवजन्मका कार्य, ३१२
अतिमानसिक दृष्टि, १८४
(दे० 'मूल्यांकन' भी)
अतिमानसिक नाथ, ३० 'श्रीमाताजी
अतिमानसिक शक्ति !r नयी शक्ति ओ,
-का सामर्थ्य, ५,
-का कार्य और व्यक्तिगत प्रयत्न, ५-७
-का प्रथम आविर्भाव, ३९, १५०
आश्रममें ही नहीं, सर्वत्र क्रियाशील,
३९,१०५
-का कार्य, १४२, १५१
-को भौतिक जगत् निगाल गया, १५१
-का आधार : पूर्ण संतुलन, २२८
(दे० 'विरोधी शक्ति', 'संतुलन' भी)
अतिमानसिक समाज, १६४
(दे० 'समाज' भी)
अधिकार,
पारस्परिक, ८
सच्चा, पदार्थपर, २६१, २६५
अधिमानसिक सृष्टि, १४१, १४३
अधीरता, ६५
अध्यवसाय, ३२,६९
अनुभव ?अनुभूति, १४०,३१२
पहला, आंतरिक सत्ताका, और करने
लायक चीज, १५५
जगत् के पीछेके सत्यका, २२६
-की यथार्थताका प्रमाण, २२७
-का एक क्षण सब व्याख्याओंकी
अपेक्षा.., ३०२
पूर्ण तभी, जब शरीरके कोषाणु भी
. ., ३ ०२अ
(दे० 'आध्यात्मिक अनुभूति' मी)
अनुशासन, ७९,२३९,२८७,३३०,
अभियान, दे० 'आह्वान'
अभीप्सा ? ज्वाला, लौ, आवश्यकता,
३२८,३५४, ३७५, ३८६
न करनेवाली अंतरात्माएं, ६२
आंतरिक, मे तल्लीन, ११३
व प्रयत्नकी ऐसी घनता कि व्यक्ति
विस्फोटक.., १३०
सत्य जीवनकी, १५३-५४, १५५
जिसे 'मां' हममें संचारित. ., १८३
३९९
-को प्रज्वलित रखनेके लिये., ३२५
'सहसा एक अदमनीय आवश्यकता-
का अनुभव, ३४३-४५
'सचमुच चाहना होगा, ३४५,३११
(दे० 'नियम', 'शरीर', 'सत्य' भी) अमरता, ६१
अमृत, २८
अवतार, ८८
एक भागवत शक्तिके ही रूप, १८८;
नये रूपोंका प्रयोजन, १८८
-के बारेमें, ३०७-९; एक बहुत
पुरानी परंपरा, ३०७-८
अशुभ
-की शक्तिसे महान् शक्ति ही विजय
प्राप्त.., ३ टि०, ५
(दे 'आनंद' भी)
अहं, ६,२४,३०९, ३८०
-से मुक्ति : जरूरी, ४२, ३९२;
आत्म-प्राप्तिके बाद, ३१२
-पर वशित्व : रवेलोंसे, ७९, ९२;
नैतिकताद्वारा, ३७७
है 'शक्ति' को खींचनेकी इच्छा,
' 'मैं' सें शरीरका बोध,
सामूहिक, ३२६
व्यक्तिभावापन्न सत्ताका, ३७१
अपनी अस्तित्वहीनताके लिये यदि
कोई सचमुच सहमत हो, ३९६
आंतरिक संकेत, ३२ -३, ३२१
आकर्षण,
मानवका, विरोधोंमें, २७-९, ३१६
अग्निपरीक्षाओं ब कष्टोंका, ४०,
-विकर्षण, पहली दृष्टिमें, १७०-७२
आकार
-की स्थिरता, व्यक्तित्व-निर्माणका
साधन, ४३-८
(दे 'रूप', 'चेतना' भी)
आत्म-जिज्ञासा, १ ६-७, ३४, ३४-'
आत्मदान, दे 'समर्पण'
आत्म-निरीक्षण! अवलोकन, १६,
४५,२४८, २८९-९०, ३३१,
३५६,३५७
आत्म-प्रभुत्व ?r आत्म-संयम [, ६८, ७?:
जरूरी, ६९,३५७
-की पहली चीज, २४७-४८, २९०
(दे० 'कल्पना', 'वाणी', विचार', '
शरीर' मी)
आत्म-वंचना ? छल, कपट, २८६,
३ ०४-५, ३३१, ३७७
आत्म-संतोष, ३० 'बैठ जाना'
आत्मा ! आध्यात्मिक सत्ता ।,
और जडूतत्व ( शरीर के संबंध,
७३, ८५, १००-१, २०२
-का श्वास ही काफी नहीं, यंत्रमें
मी योग्यता चाहिये, ८९
-की अभिव्यक्तिका रूप, २०७
-को पहचानना, दूसरेकी, २८६-८८
जिसे लोग, कहते हैं, २८७-८८
मनसे भिन्न है, ३०७,३१३
-से संपर्क : शंका, ३१०-११
-के निश्चयात्मक उन्मज्जनका चिह्न
क्या सबमें होती है? ३१३-१४
लंबे प्रयासका फल, ३१३, ३१४
४००
के खिलनेके मुख्य भाव, ३८०
-की क्या भूमिका है? ३९३-९५
-मे नव जन्म, ३९५, ३९६
आदत,
-के द्वारा सब क्रियाएं, ४५-६,
२४७,३४४
- ओ, पुरानी, से मुक्ति.., १३८,
आदर्श, दे'लक्ष्यं, 'काम', 'धर्म', 'प्रगति'
आध्यात्मिक,
होना हीं पर्याप्त नहीं, ७३
आध्यात्मिक अनुभूति,
-ने जो दिशा पकडी, ३१६
-के लिये चाहिये, अंतरमें 'आध्या-
त्मिक सत्ता', ३१८, ३३८,
-को मन-प्राण-शरीरमें भी रूपायित
करना जरूरी, ३१९, ३६८
-को मानसिक रूप देनेकी प्रवृत्ति,
३६७-६१, ३७२, ३७४; इस-
से उसका सारतत्व नष्ट, ३६७,
३६९-७०, ३७४
-का दार्शनिक विकास, ३७३
-पर आकोचक बुद्धिका नियंत्रण,
आध्यात्मिक उपस्थिति,
सबके अंदर, ३१३
-का प्रभाव, ३१४
मनुष्यमें काफी प्रत्यक्ष, ३१४
अविकसित या दानवीय मानवमें
भी, ३१४
(दे 'विनाश' भी)
आध्यात्मिक क्रांति ( अतिमानसिक
क्रांति
अवसरकी प्रतीक्षामें, ७४
-से नया युग, ७५
आध्यात्मिक जीवन,
-को विकृत रूप देनेवाली धारणा,
7अ
और भौतिक जीवनमें विरोधकी
भावना, ८४
-मे कुछ चीजों महत्त्वपूर्ण, कुछ नहीं,
ऐसा मानना, १४०
-का आरंभिक बिंदु, ३४५, ३८७
जीनेका अर्थ, ३८१-८२
-का अनुकरण, ३८३
(दे 'समाज' भी)
आध्यात्मिकता,
पुरानी, ८, ८६, १४२, २७८,
२८४अ
विषयक : नवीन निर्धारण ?दृष्टि1ऐ,
९, १४२; अगला चरण, २८४-८५
-के प्रति मानव जातिमें खिंचाव इस
बातका चिह्न.., २७७
भूलसे, जिसे मान लिया जाता है,
३०९-१०
सार रूपमें, क्या है, ३१०
-द्वारा प्रस्तुत मानव समस्याका हल,
३८०, ३८१
'आध्यात्मिक क्षमता किसीमें कम
या अधिक, ऐसा नहीं, ३८१-८२
मनको अपने-आपसे छुटकारा पानेमें
मदद करती है'' : व्याख्या, '
३८५-८६
(दे० 'मनुष्य', 'मनुष्यजाति',
'विज्ञान' भी)
आध्यात्मिक दर्शन,
४०१
-ने जो दिशा ली, ३१५-१६
-का क्षेत्र, ३१७
मे: योग्य व्यक्ति, ३१८
-का स्वरूप पूर्वमें और पश्चिममें,
३७२-७३
''आध्यात्मिक सिद्धांतके मानसिक
परिणाम'' : व्याख्या, ३७४
आध्यात्मिक नेता,
-ओंकी बाह्य चरितार्थता, ८८
आध्यात्मिक पूर्णता, ८६
आध्यात्मिक मनुष्य,
और मानव जातिकी सहायता,
३७९-८१
आध्यात्मिक विकास ? व्यक्तिगत
विकास
ही पार्थिव जीवनके अस्तित्वका
हेतु, ९२, १९८,१९९,२०७, २९१
-का एक इतिहास, प्रत्येकको, ई'५
-का आरंभ अज्ञानसे, ३०९अ
-की चार चीज़ें - आध्यात्मिक
दर्शन, गुह्यवाद,' धर्म ध आध्या-
त्मिक अनुभूति, ३१५-१९
सदा प्रत्यक्ष नहीं होता, ३१८अ
-की प्रगतिका स्वरूप, ३२०
निर्णायक, के लिये मनुष्य कब
तैयार होता हैं, ३८६अ
-मे विभिन्नताका सत्य, ३८७-८८
-मे सबसे सहायक चीज, ३८७,
३८८-८९
-कीठीकअवस्थाकापता कैसे, ३९०
-का सर्वश्रेष्ठ तरीका, ३९२-९३
आष्यात्मिक शक्ति,
और बाह्य योग्यता, ८९
(दे 'मन' भी)
आनन्द, २२७
सत्ताका, १-२, २२-३
द्वारा अशुभपर विजय, ''६, १
यथार्थ, १
रहस्य, विश्वन्टीलाका, २०.१,
-को जानना. साधना, २१-३; इसे
यदि आनंद-प्राप्ति: लक्ष्यके
साथ किया जाय, २४
-का अनुभव; पशुओं, पौधों, फूलोंमें,
२३; मनुष्योंमें थोड़ा कठिन, २३
(दे 'विश्व', 'सुरव' भी)
आश्रम
-के पास ही ग्रहणशीलताका एका-
धिकार नहीं, ३९
-जीवनमें खेल : इनका आरंभ व
उद्देश्य, ९१-२ (दे 'खेल' भी)
-मे चिकित्सक, औषधालय. .क्यों,
१०३-४
-के अतिथिगृहमें पत्थरोंकी बौछार-
वाली घटना, १२१-२२ टि०
-मे अधिमानसिक सृष्टि, १४१ -की स्थापना, १४१
-की सामान्य चेतना नीचे गिर गयी
लगती है : कारण व इलाज,
१६३-६६
-क्ए: 'सामूहिक व्यक्तित्व' : का
निर्माण, १६३-६४ ते मेरा
मतलब, १६४
-को यदि बने रहना है, १६५
-मेंरहतेहुए पूरा लाभ हम क्यों नही
उठाते ?, ३४२-४४
आश्रमवासी,
४०२
तुम यहां कैसे आ गये?, १७-८
'हम विशेष कारणोंसे यहां हैं,
'हमें जिसके लिये प्रयत्न करना
चाहिये, ३६, ६९,१०६, १५२,,
१ ५', १६५, १७२, २२ अ
२३६, २४२, २४४, २६२
२७५,२९६, ३११-१२, ११
३२०-२२, ३४५, ३७९, ३ ८८-
८९,३११, ३९२-९३
'हमारा सामूहिक प्रयास, ३८,४०
'तुम यहां सत्यके संसारके संपर्कमें
रखे गये हो, ६१
(दे० 'अतिमानसिक तत्त्व' भी)
श्रीअरविन्द हमसे जिस प्रयासकी
आशा करते थे, ७५-६, ८९-
१०, १८१-८२
'हमारे लिये : एक संभावना है,
१६१-६२; से मेरा मतलब, १६ १अ
आसन, ८५
- ओंका परिणाम भावनापर निर्भर,
१४७-४८
आसक्ति, ३५, ३८६
आह्वान ( निमंत्रण
-मल पड़नेके, १३, १५१, २४२,
३११, ३१२
अभियानके लिये, १४४, २६२
इस सक्रमणकालके सजग निरीक्षण-
का, २७५
ई
ईसाई धर्म, ७३,१८९,३७२
उ
उदाहरण,
अच्छा रखना, ७८
उदाहरण [रूपक आदि पुस्तकके],
'मधु अपनी बूँदों.., २ ०अ, २४-५
'शादी करना जैसे निश्चय, ३०
'थियोसोफिस्ट युवती : कांफीमें
चीनीकी समस्या, ३१
'१ ००० ई०, संसारका अंत, ३७
'राजाके रहनेके लिये प्रार्थना,
३८,३४०
'दरवाजा या पुस्तक खोलना, ३१
'दास, नाम वाला, ४५
'सीने ब लिखनेका तरीका, ४७
'गुझवेत्ताकी टिप्पणी, स्वाधीनता-
पर, झेंपू
'शांतिप्रिय लोग, ६३
'सिंहका बल, बंदरका फुर्तीलापन,
पक्षीका हवामें विचरण, ८२
'रूसी कसरतबाज, ८३
'युद्धमें विमानचालक, ८७
'आध्यात्मिक अवस्थामें चित्र,
संगीत, कविता
करनेकी कोशिश, ८१
'सिगरेट और शराबमें जीवनकी
सार्थकता माननेवाला, ९५-६
'बंदरका शराब, ९६
'अण्डेमें मुर्गीका बच्चा, १३०
'सिनेमा : रानी रासमणि, १४० टि०
'बोझ ढोनेका काम, १४७
'चलना, सीढ़ियोंपर चढ़ना-उतरना,
चीज उठाना.., १४७-४८
'वायुयानोंसे दुनिया छोटी, १६०
४०३
'पियानो बजाना सीखना, पुस्तकोंसे,
'सिनेमा : गोतम बुद्ध, १८६ टि०
'पत्थर सामान्य दृष्टिमें, १९९,२१९
'पौधोंका धूप पानेके लिये प्रयास,
'पौधे, मांसाहारी, २००
'हाथी, अत्यंत बुद्धिमान्, २०१
'कुत्ता, हाथी, बंदर-योनिकी आप-
बीती बातें, २०४-५
'प्लास्टीसीनके रूप बनाना, २१५
'कुत्ता या घोड़ा, हाथी बननेकी
चेष्टा नहीं करता, २२०
'वार्षिकोत्सवके लिये कार्यक्रम, २४६
'मवेरे उठनेपर करणीय कार्यका
पता न हो या शक्ति न हो, २४७
'नाटक उपसंहारके बिना, २५०
'घूमने निकलना, एक रास्ता छोडू
दूसरा रास्ता.., २५२
'हाथ, कलाकारों और संगीतज्ञोंके,
'पहननेके लिये यहां पोशाक और
खानेके लिये चीजोंकी, बाहरसे
जरूरत, २६१
'निकम्मा आदमी यहां ऊंची और
योग्य दीन स्थितिमें, २६१,२६४
'प्रिज्ममेसे प्रकाशकों देखना, २६९
'विकृत करनेवाले आईने, २७०
'दीपसे अंधकार लुप्त, २८६
'स्फटिक, समुद्र व पवनकी गतियोंसे
प्रच्छन्न चेतनाका आभास, ३००
'बिजली, बादलकी उपज!, ३०६
'अच्छे अन्नके साथ जंगली घास,
'फ्रांसका एक जुआरी, प्रेतात्मक
माध्यम, ३३५-३६
'एक वैज्ञानिक, जो अदृश्य जगत्का
प्रत्यक्ष प्रमाण.., ३३८-३१
'दरवाजा खुलना, ३४७
'गहरे कुंएमें उतरनेका अनुभव,
अंदर एक हाल. ., ३४९
'बाल जिसके झड़ रहे थे, ३५०
'फूल या पत्थरपर एकाग्रता,३५३
'समुद्रका कर्क नही, पंछी, ३'१८ '
गेंद दीवारसे टकराकर वापस,
'बांहको टांगके साथ पंद्रह दिनतक
सम्मोहनसे जोड़े रखा, ३६४
'अल्प-शिक्षित युवती, चैत्य-संपर्क-
कालमें अपूर्व लेखिका, ३६६
'वाद्ययंत्र, जिसमें अधिकतर स्वर
नहीं, ३७ ०अ
'आर्केस्ट्रा. विकसित व्यक्ति, ३७१
'दौड़नेके तरीका, ३७९
(दे० 'आश्रम', 'कर्म', 'कहानी',
'श्रीअरविंद', 'श्रीमाताजी' मी)
उद्देश्य, दे० 'लक्ष्य'
उन्मज्जन,
जडतत्वमेंसे प्राण, मन व अध्यात्म-
सत्ताका : इसका स्वरूप व
प्रक्रिया, १४९, १९९-२०१,
२६८-६१ टि०, २७२-७५८,
२७५-७७, ३०१, ३०६-७
उपनिषद्, ३७२
उपलब्धि ?[ चरितार्थता],
नयी, मे सभी वस्तुएं आ जानी
चाहिये, ७५-६, २४४
-का जिन्हें सौभाग्य. ., १५१, २२२
४०४
-का प्रयास करनेवालोंके एक
सलाह २२८-२१
( दे ० 'निश्चिति', 'समय' भी)
उपवास, दे ० 'भाजन', 'श्रीअर्रावंद'
ए
एक और बहु, ५८७,३७४
एकता ! एकत्व,
-मे सर्वकी उपलब्धि, विलय नही,
७-८
स्रष्टाका सृष्टिके साथ, ८, २९९
सचेतन, अचेतन, ४७अ
-मे ही पूर्ण स्वतंत्रता, '४९, २५२
-की प्राप्ति आत्मदानद्वारा, ४९
-मे विविधता अभिव्यक्तिका
नियम, ३८८
(दे० 'श्वभिन्नता' भी)
एकाग्रता, २३८
-की शक्तिका महत्व, ८०, ३३२
सतत, आंतरिक उपलब्धिपर, ११२
-का एक पल जब काफी.., ३७५
(दै० 'ध्यान' भी)
औ
औषध! दवाई,
-की उपयोगिता, ११७
न लेनेका संकल्प, ११८
क
कक्षा,
-के शुरूमें वाचनका प्रयोजन, १०८अ
-के लिये 'विचार और सूत्र' लेनेका
उद्देश्य, ३५३-५४
कठिनाई ( बाधा, ८४
काममें, किस बातका चिह्न, २९-३२
-सें छुटकारा : उपाय, १५२, मे ८९
प्रगति करना चाहनेपर, १६६
(दे 'जडुतत्व', 'नीरवता',
'शक्ति' भी)
कर्म,
-ओंका आनन्द, तलवार, तीर.. .की
तरह, १९६-९७ टि०
और चिंतनका एक साथ निबाह
कठिन, २४३
( दे० 'काम', 'मन' भी)
कलाकार, २८,७०, ३६५
कलामयता, ३० 'विरोध'
कल्पना, २५
निर्माणकी शक्ति है, ३५०
-पर नियंत्रण, ३५४-५८
(दे० 'ध्यान' भी)
कहानी
बौद्ध : श्रीमती 'ज' के ध्यानके समय
बाघ, ५०-२
यूसुफका, दीक्षाकी, ६५-८
विश्व-सृष्टिकी, १९६-९७
रचना, ३५६-५७
काम ! कार्य,
करनेका श्रेय यदि मुझे नहीं
मिलता, ६-७
रुचिकर कब, अप्रीतिकर कब, १०
-को बारेमें सही 'निर्देशन' को कैसे
पहिचानें, २१-३२
-मे महत्त्वकी चीज : वृत्ति, ३०-१,
३२,९३, १४७-४८
४०५
-मे आदर्श स्थिति, ३१, २९६
हाथमें लेनेपर एक सामान्य नियम,
३२-३
दोनों छोरोंपर, ९०; एकके लिये
दूसरेकी अवहेलना नहीं, ९०,
प्रतिदिनके, शारीरिक शिक्षणके
रूपमें, १४७-४९
'भूरि अस्पष्ट कर्प्यम्', ३९०
(दे० 'कर्म', 'प्रयास', 'वाणी',
'समय' भी)
कामना ( इच्छा,
-तृप्तिसे कामना-जने अधिक
आनंद, २१-२
-के रहते आनंद नहीं, २२
-ओंकी पूर्ति साधारण मनुष्यके
जीवनका हेतु, ९४-६
कार्य ( परिणाम,
कारणसे पहले मौजूद, रे ६०६
काली, ३४७
कुंडलिनी शक्ति, १४५
कृतज्ञता,
श्रीअरविदके प्रति, १६३
केंद्र, ३० 'चक्र'
-या तीन : भौतिक, नैतिक, आध्या-
त्मिक, ७३-५
और स्वस्तिका विचार, १६१
ख
खेल
प्रकृतिका, लुकाछिपीका, ९-१२;
इसे बदल देना अधिक अच्छा,
१०-२, ३५-६ (दे 'भगवान्'
भी)
-ओंका अमूल्य लाभ, ७६-७
-भें बुरी भावनासे खेलना : बच्चों-
को कैसे बचाया जाय, ७७-८
और योग, ७८-९
-प्रतियोगिताओंमें प्रगति, ९२-३
-ओंकी अपेक्षा व्यायामोंमें रुचि कम :
क्यों?, ९४
(दे 'आश्रम', 'शारीरिक शिक्षण', 'सचेतनता' भी)
खेलाती मिजाज, ७६, १२
खोज, ४१, ३११
दिव्य स्वरूपकी, अंधवत्, १५-२०
-मे स्वतंत्रता, २५१-५२
, रोचक, आंतरिक कार्यमें, २६२,
-के योग्य वस्तुए, दो नही,
ग
गीता [भगवद्गीता], ३७२ टि०
गुण,
रवेलोंसे विकसित होनेवाले, ७६
बच्चों में विकसानेके, ७८
निम्नतर पूर्णतामें, ८७, ११
नैतिक, ३७६
(दे० 'गुह्यविद्या' भी)
गुरु, ३४३
कौन, ६९
गुह्यविद्या ( गुह्यजान, गुह्यवाद,
८३ २२४
क्या है, १७६, १७७
४०६
का प्रयोग प्रत्येक व्यक्ति करता
है, १७७-७८
-ने जो दिशा अपनायी, ३१५
-के योग्य व्यक्ति, ३१८
पश्चिममें और पूर्वमें, ३५९
उच्चतम रूपमे, मे ५९, ३६०
और सफेद जादू, ३६१-६२
सीखनेके लिये विशिष्ट गुण चाहिये
जब कि विज्ञान.., रे ६५
( दे०'विज्ञान' भी)
ग्रहणशीलता, ५, ३६, ३९-४०, १५१
२२८ (दे 'नीरवता' भी)
च
चंद्रमा
ओर चादनीका प्रतीक,२६६
चक्र [ केंद्र, शरीरत्याग,
- कों पूर्ण बनाना होगा, ८३
- ओंके उद्घाटनका फल, १४०६ टि०
चमत्कार, २६, २७, ११, २७३
-ओकों देखनेकी दृष्टि, २३५अ
चिंतन २४३, २७१-७२
चिंता २४७, २८३
चीज [ वस्तु],
एकमात्र महत्त्वकी, ३२, ११ ३- १४,
१५२,२४४,३४५,३७९,
३८२,३९१
सब, प्रगतिशील विकासकी
अवस्थामें, ३४
करना, जैसे दूसर करते है
४६-७
ऐसी है, क्योंकि यह ऐसी है, १२१
- ओ, पुरानी, की अस्वाभाविकताका
बोध जरूरी, १३८
'', वैसी नही है जैसी प्रतीत होती
है (विज्ञान) 2२२६
, हमेशा ठीक-ठीक क्यों नही
अधिक अच्छी, की मनुष्यके हृदयमें
यदि आशा न होती, ३२८
चेतना,
-का नव जन्म, १९, १३०, ३११
( दे० 'आत्मा' भी)
-का परिवर्तन, १२९-३०, ३८१-
८२, ३८३; फिर भी बहुत कुछ
करना बाकी, ३२०, ३९०
-का प्रभाव, भौतिक कर्ममें, १४७-
-के अवतरणसे आकारका विकास या
आकारका विकास चेतनाके अव-
तरणको.., २०९-१०
'मूलतत्व अभिव्यक्तिसे पहले,
२१०, ३०६
ही रूपसे पहले, २२४-२५
-को माननेका काम करना चाहिये,
२४०, ३५६
-का पलटाव प्रकृतिके प्रत्येक
संक्रमणमें, २६८ टि०
-के प्रत्यावर्तनकी मतलब, २६१
-का यह तत्वातरण तब मनुष्यके
लिये सदा समाव होगा, २८२
-का परिवर्तन ही मानव समस्याओं-
का हल, २८३, ३८०
-के परिवर्तनका क्रम पिछले विकास-
मे और मनुष्यमें, २९०-९१
विकसित नहीं होतीं, इसकी अभि-
४०७
व्यक्ति विकसित होती है,
२९९टि०
(दे० 'उन्मज्जन', 'जगत्' -के
रूपों', 'शरीर' भी)
छ
छिद्रान्वेषी ?[सेंसर]
हर एकके साथ, २६२-६३
ज
जगत् । संसार
-की रक्षा, ३ टि०, ५, ७७
( दे० 'मनुष्य जाति' भी)
-के -प्यागका विचार, ४-५
(दे० 'जीवन' भी)
बुरेकी धारणा, ८; इसके अति-
क्रांतका समय आ गया है, १
शक्तिकी लहरोंके समुद्र, २७
युद्धका क्षेत्र, ६३
-को परमेश्वर आटेकी तरह क्यों
गुँधता है, ७१
-के रूपों और क्रियाओंके पीछे एक
गुप्त 'चेतना', १ १अ, ३००
-के प्रति दृष्टिका परिवर्तन, चेतना-
परिवर्तनके बाद, १२१
जड़, मे भी एक गुप्त 'सत्य', ११० -
११, १९२; इसे जाना जा
सकता है, १९४
अध-शक्तिने नही बनाया, यह
संयोग नहीं, ११०, २४६
-मे एक विधान, योजना है, १११,
-की परस्पर-विरोधी व्याख्याएं,
१९२-९३
-की वास्तविकता व्यक्तिनिष्ठ,
-के भ्रमपूर्ण प्रतीत होनेका कारण,
११३ २२६
प्रत्येक व्यक्तिका, १९३
यह, विभाजनका परिणाम, १९७
यह, मिथ्या किस लिये, २६४
(दे० 'अतिमानसिक जगत्',
'विश्व' भी)
जडूतत्व ? जड़ पदार्थ, '
-का रूपांतर : बाधा, ३४,३ '६
रूपांतरकी दृष्टिमें, ट'७५
-मे रूपांतरकी क्रिया, ट'७५
-मे अतिचेतनाकी उपस्थित,
११-२, २९८
सूक्ष्म भौतिक, १२ रे
-पर विजय, २०२, २६६
-भैंसे आत्माके जन्मका सिद्धता,
(दे० 'आत्मा', 'उन्मज्जन',
'शरीर', 'समय', भी)
जन्म, २०२, २११
-सें प्रेम, इस लिये मृत्यु, २७
काम-प्रक्रियाद्वारा : इससे यदि
बचना हो, १२१-२३; इस-
की हानि, १२ २अ
लेना पृथ्वीपर, अतिमानसिक रूपों-
के प्रकट होनेके बाद, १४३
नये, मे पिछले जन्मके अनुभव उप-
योगी कैसे?, २५३
(दे० 'आत्मा', 'चेतना' भी)
जन्मकुण्डली, २६७
४०८
जागरण, ३८६, ३८७
सद्वस्तुके प्रति, ३४३-४४
जाति,
मध्यवर्ती (नयी, मानव और
अतिमानवके बीचकी ), १२५,
१७३, १८ १-८२, २२८,२९२,
३७८,
पूरी-की-पूरी लुप्त हो जाती है,
क्यों?, २०५-६, २१८
मध्यवर्ती, बंदर और मनुष्यके-
की, २०६
अपने जातिगत गुणोंसे संतुष्ट, वह
नयी जातिमें परिवर्तित होनेकी
चेष्टा नहीं करती, २२०
(दे०'मनुष्य जाति' भी)
जापान
-मे सीनेका तरीका, ४७
जीवन, २१
-मे आत्म-जिज्ञासा, १६-७
(दे० 'आत्म-जिज्ञासा' मी)
ओर मृत्यु, ३३
है, गति, प्रयास.., ६४
-को व्यवस्थित करो तो समय..,
-का त्याग, ८६, ८७, १४२,
२८४अ, ३१९,३७१
-की पथ-भ्रष्टता, ९६
-के फूलके खिलनेकी-सी अवस्था,
प्रत्येक, जडतत्वपर विजयमें एक
पग, २०२
रासायनिक संयोगका परिणाम नही,
-मे नकल करनेकी प्रवृत्ति, २२५
-मे जीनेकी शक्तिका मूल, ३२७-
(दे० 'अतिमानसिक जीवन',
'आध्यात्मिक जीवन', 'दिव्य
जीवन', 'भौतिक जीवन',
'कामना', 'रूप', 'विरोध' भी)
जुनून, महात्मा, ६५
ज्ञान, ३३१
स्पष्ट, जीवनके प्रयोजनका, ११
-का 'पात्र', ६४-५, ६८
और आचरण, ६४-५, ६८अ
अतिमानसमें दे 'सत्यचेतना'
और संकल्प जरूरी कुछ करनेके
लिये, २४६-४७
तादात्म्यद्वारा, २६७,३१३,३६१
सामान्य 'मैं', सक्रिय इच्छाबाक्ति
और अंतरात्माके भेदका, २८९-
अपना द जगत्का पानेके लिये जरूरी
चीज, ३१६
(दे 'अतिमानसिक ज्ञान', 'सत्य',
'समझ', 'संदेह' भी)
ज्योति ( प्रकाश, २८
-के बिंदुको अपने भीतर चमकने
दो, २४४
-मे छलांग या पशु-जीवनमें वापस,
२७७,२७९
-की बूंद, नीरव मनमें, ३३०-३१
(दे 'भय' भी)
ज्योतिर्मय मन,
-के बारेमें, १७३, १८१, १८३
-मे 'सत्य' वसन धारे.. पर बह
पारदर्शक : व्याख्या, १ ८४- '६
४०९
टॉल्स्टायके के पुत्र,
-के मानव एकताके बिचार, ५३
त
तंत्र ( तत्र विद्या, १४४, ३५९
तम ( जड़ता, तामसिक निष्क्रियता],
-के विरुद्ध लड़ना, ६२-४
और प्राणिक क्रियाशीलता, २ ८७अ
श्रद्धाके उपार्जनमें, ३२५
तर्क-वितर्क, २४३
तारों,
-का भाग्यपर प्रभाव, २६६-६७
तेमसेम, ३० 'श्रीमाताजी'
तेरा द जेम्स (पुस्तक), ४8६ टि०
त्याग [ छोड़ना],
पानेकी खातिर, ६१
अनिवार्य, नये जगत्को लानेके
लिये, १५१, १५२
(दे० 'जगत्', 'जीवन' मी)
द
दरिद्र ( दरिद्रता, ६२, १०
दर्शन, ३१७,३७२
पाइथागोरियन, स्टोइक और
एपीक्यूरियन, ३७२
(दे० 'आध्यात्मिक दर्शन' भी)
दासता
शरीर ब निम्न प्रवृत्तियोंकी, ७९,
बाह्य आकृतिकी, सें मुक्ति, २८९
विरोधी गतियोंकी, ३५७-५८
(दे 'स्वतंत्रता' भी)
दिखावा, ९३
दिव्य जीवन (पुस्तक), १७६, ३१८
-के अंतिम अध्याय, १४,१९८
-का पाठ, २३६-३७
दिव्य जीवन,
-के लिये शरीरका रूपांतर जरूरी,
८१, ८२, १००
-का अर्थ, ८५
मानव जीवनकी सब क्रिया-प्रवृत्ति-
योंके हाथमें लेगा, ८५, ८६,
१५७-५८
-के लिये अतिमानसका अवतराग
आवश्यक, १४९
'आध्यात्मिक जीवन' भी)
दिव्य कलाकार,
-का हाथ ऐसे काम करता है
मानों.., ७०
दिव्य प्रेम,
निश्चेतनामें न कूदता यदि.., १२
-ने निश्चेतनामें डुबकी.., ३०८
दुःख-कष्ट ( पीड़ा, विपत्ति,]
-का रहस्य, २, २०, १ ६-७, ४०,
४२, २४८
विलीन कब, ८, ४२
जगत् के, का विलयन आवश्यक,
१२,२७९
-का सामना : फल ४०अ
-भैंसे सच्ची शक्ति व श्रद्धा, ४१
-की चाह अस्वस्थ वृत्ति, ४ १अ
भौतिक, और विकृति जन्य, २८०
(दे० 'कठिनाई', 'मनुष्य',
४१०
'मुक्ति', 'शरीर', 'सचेतनता',
'समर्पण' भी)
दुर्बलता,
-पर विजय, ६९,२९५
-की दलील, एक बहाना, २८६
'निरुपाय भाव जरूरी नहीं, ३५७-
(दे० 'स्वतंत्रता' भी)
दुर्भावना [अशुभ भावना, असद्भावना),
१५१, १५४, १५५, ३२५
दूसरा
यदि पशुवत्.., १२१
( दे० 'दोष', 'निंदा', 'मूल्या-
कन', 'विचार', 'विभिन्नता',
'सहायता' भी)
देवता, १४,३२७
और अतिमानसिक जगत्, १४३
-ओंके बारेमें, ३४६-४७
वेश और काल,
-से बाहर निकलना, २-३
दोष,
-ओंको दोहराना, ५५ टि०
हमेशा दूसरोंका, ३०४
(दे० 'भूल', 'शक्ति' भी)
ध
धन, ३० 'राजनीति'
धम्मपद (पुस्तक), ३४२,३४६
बहुत सहायक, १८७
पढ़ना उपयोगी कब, १८९
धर्म,
प्रत्यक-., इस्लाम, बद्ध, पेगन
हिन्दू ८३-४
- ओंकी ये सब दृष्ठियों मिलकर यदि
एक हो जायं, ७४-५; यह
एकीकरण भी पर्याप्त नहीं, ७५
मानव जातिको आध्यात्मिक बनाने-
मे समर्थ क्यों नहीं हो सका,
नया अनुपयोगी ही नहीं, अनर्थकारी
भी, ७५
-का मतलब, ८१
-का जगत्, युग, १४०, १४३.
-ने जो दिशा ली, ३१५
-का रास्ता ब उद्देश्य, ३१७
सुलभ, अधिक लोगोंको, ३१८
-का दावा, ३२३
-का यथार्थ व्यापार, ३२५
-के प्रयासमें भूले, ३२६,३७५
-की उपयोगिता, ३२६
क्या एक आवश्यकता है, साधारण
जीवनमें? ३२६-२८
ब आदर्श, कोई-न-कोई प्रत्येक
व्यक्तिका, ३२७-२८
'समाज' भी)
धैर्य, ७८
पहला पाठ, ६९, ७०, ३२२
कैसा, ७ ०अ
'डटे रहनेकी बात है, १६६
खो बैठनेका कारण, ३२१
ध्यान,
सम्मिलित : की दो पद्धतियां, सक्रिय
व निष्क्रिय, ३८-९; की प्रारंभिक
तैयारी, ३८; मे हमारा प्रयास,
३८,३९-४०; का प्रयोजन व
४११
-के लिये अच्छी स्थिति, १० ९- १०
-मे एकाग्रता कहां व कैसे, १०९
-का पूरा लाभ, ११०
किसी विषयपर : बिम्बोंकी कल्पना-
के बारेमें, ३४७-५०
किसी वाक्य ?r विचार 1ए पर : दो
तरीके, ३५१-५३
( दे श्रीमाताजी' मी)
न
नयी जाति, ३० 'जाति'
निंदा,
निंदित वस्तुमें भी दिव्यता, १२१
दूसरोंकी, १३ ६अ
निम्न गोलार्द्ध,
और उच्चतर गोलार्ध, १४, १५०,
१९४,२११
नियम
बाह्य और आंतरिक अभीप्सा, ११३
निराशा, ३५७
'निराश न हो, ७०, ३२२
'निराश जल्दी कौन, ७०
कही नही ले जाती, २९४
(दे० 'प्रयत्न' भी)
निर्णय, दे० 'मूल्यांकन'.
निर्वाण ( लय, १, २, ३, '१, ७
-की ओर आकर्षणका कारण, १२
यदि अंत होता, २०
निश्चिति, ३८२
उपलब्धिकी, १३, १०६, १४४,
१५१, १८२, २९२
-को खोजना अपने ही भीतर, २४२
निश्चेतना, १०, २४५, २९९, ३०८,
३२०,३२१
नीरवता, २८, ३६८,३८८
-से डर, २८अ
-मे श्रीमांकि शक्ति अधिक कार्य
करती है, १०८
-मे ग्रहण कैसे करना, १०९-१०
यहां और अतिमानसिक जगत्में,
'नीरव रहना सीखना, समस्या या
कठिनाईके सामने, ३८९
(दे० 'मन', 'शांति' भी)
नेता,
कौन, ६२
बननेकी शर्ते, ७८-९
नैतिक पूर्णता,
-का क्या आदर्श है?, ३७६
-भैंसे गुजरना जरूरी, ३७६-७७
प
पथ, ३८९
बिलकुल नया है, १४'
भूतकालका, १८९
लंबा, कठिन है, ३२०
कोई दो, एक जैसे नही, ३ ७४अ
अपना स्वयं ढूंढना चाहिये, ३७०६
-पर चलना होगा, ३७५
-को छोटा बनानेकी चेष्टा, ३७७
-पर कहां है.. न सोचो, ३७९
-पर तुम अकेले नहीं, ३९२
'यात्रा लंबी और दुरूह क्यों, ३१६
परंपरा (वेदसे भी प्राचीन), ८२, ३०७
परिवर्तन, ११
तिहरा, यदि एक साथ ., ७३
४१२
आजके, बौद्धिक, नैतिक.., ७४
अतिमानसके अवतरण से, १५८ टि०
पृथ्वीपर, तबतक संभव नहीं, १६०
-की हमारी अक्षमता से तब रूपांतर-
मे फर्क नही पड़ना चाहिये,
आष्यात्मिक त्मक शक्तिके दबावसे, ३८६
( दे ० ' चेतना ', ' मन ', ' रूपांतर ',
' समय ', ' समर्पण ' भी)
परिस्थिति, १६, १७, ३०४
पवित्रता, पूर्ण, ११४
पशु, २७४, ३०१
कई, हमसे ऊंचे, भौतिक योग्यता-
ओमें, ८१ - २, २०७, २०८
- क सहज बो ध, १६, १७
मनुष्यके नजदीकवाले, १६
-से मनुष्य बदतर, १७, १७२, २७१
-जगत् का बिका स, २०० - १
- ओमें भी, दूसरी अभिव्यक्तिपर
पहुंचने का प्रयत्न, २२१
हमें नहीं समझते, २५५
-की पीड़ा, २८३
-के आगे कोई समस्या नहीं, २८४
-ओ और पौधोंकी नयी जातियोंको
विकास मनुष्यद्वारा, २११
( दे० ' आनंद ', ' मनुष्य ' भी)
पागल ( आलोकित), २६४
पातंजल योग-दर्शन, ३७२ टि०
पाना, दें ० ' त्याग '
पाप ( आदि पाप), २८०
पुनर्जन्म, २०२, २१४ अ
पुस्तक [नाटक],
सामंजस्यपूर्ण, नीरस, २ ऐ
पढ़ना पर्याप्त नहीं, ६५
'उपन्यास पढ़ना, ३३७-३८
पूर्णता, १३
प्रगतिशील, ३४
-से पहले लंबा परिश्रम, ६३
-के लिये यदि सौ बार मी..,
७०, ३२२
-मे कुछ अंश दानवताका,., ७१
-के लिये एक ही प्रवृत्तिपर अपने-
को केंद्रित करनेकी समस्या,
७९-८०
सर्वांगीण, उद्देश्य, ८१, ११, ३११
-की खोज : किसी भी छोरसे, ८५-६;
दोनों छोरोंपर काम, ९०
उच्चतर और निम्नतर : व्याख्या,
८६-९०
निम्नतर, आध्यात्मिकताके बिना
भी, ८७
-को किसी और लोकमें खोजनेकी
प्रवृत्ति, ३८५
पूर्णयोग, ३११
और शारीरिक शिक्षण, ७९,८१
-का आरंभ कब, ३११
-का लक्ष्य ३० 'लक्ष्य'
पूर्वजन्म
-ओंकी स्मृति, २०४-५
( दे० 'स्मृति' भी)
पूर्वज्ञान, ३० 'अंतर्भास'
पूर्वनिर्धारितता, ३० 'स्वतंत्रता', 'प्रयत्न'
पृथ्वी,
जहां-की-तहां छूट जाती है, ७३
विश्वका प्रतीकात्मक संकेंद्रण,
१९९, २९८
( दे०. 'परिवर्तन', 'रूपांतर',
४१३
प्रकाश, ३० 'ज्योति'
प्रकृति
-का कार्य करनेका तरीका,. ३५,
३६, २० '१-६, २३३-३४
-मे विकासका तरीका, २०३, २१ ५-
-के सहयोगका आश्वासन : श्रीमांकि
अनुभूति ओर वर्ष ५टका संदेश,
२३३-३५; इसका गलत अर्थ
मत लगाना, २३५
-का .अगला कदम, १०२, १५०,
-के विकासकी पहली भूमिका,
-का अभिप्राय, २ पूट-पूप, ३८९-
कार्यकारिणि 'शक्ति' है, २९८
अचेतन नहा, उसका वाह्य रूप
अचेतन है, २९९-३००
(दे 'रवेल', 'भगवान्', 'मनुष्य',
'विकास' भी)
प्रगति ( उन्नति 1ए, २६३
-का संकल्प मुख्य, बजाय प्रतिक्षण-
के छोटे-छोटे निश्चयोंके, ३१-२
-के लिये विनाश जरूरी न हो, ३५,
अगली, के लिये आवश्यक चीज,
४६, १८९
'आगे बढ़ना बंद तो.., ६३अ, १६५
-के लिये प्रयास : मे आदर्श स्थिति,
९३; मे सम्यक् वृत्ति, २९४-
९५ (दे 'उपलब्धि' भी)
मानव, के लिये दोहरी क्रियाकी
आवश्यकता : व्यक्तिगत, सामा-
जिक, १३ ५'
जो बाधाओंको मिटा मानवजाति-
को नयी उपलहइख्धकी ओर ले
जायगी, २७९; इन्कार करने-
वालोंकी भवितव्यता, २८०
तुम तभी करोगे जब.., २ ९४अ
दो प्रकारकी, ३६५
( दे० 'आध्यात्मिक विकास',
'कठिनाई', 'खेल', 'भागवत कृपा',
'भौतिक जीवन', 'मनुष्य' भी)
प्रतिभा, ११, ३६६
प्रतिभाशाली व्यक्ति, ८७-८, ३५५
प्रभुत्व,
आध्यात्मिक और भौतिक एक
साथ, ८३ अ, ८८-९०
व्यक्तिभावापन्न सत्तापर कठिन,
( दे० 'आत्मप्रमुत्व', 'मन' भी)
प्रयत्न ( प्रयास ),३९२
व्यक्तिगत, का स्थान कहां यदि सब
पूर्व निर्धारित है, २५२
सुदीर्घ, अपेक्षित, २८६अ, २८९,
३०३, ३०४, ३०५, ३२ १- २२,
३३०-३१
'हम ढूंढनेका कष्ट नहीं उठाते,
२१७, ३४५
करनेपर भी प्रगति नही दिखती तो
निराशा, क्या करना चाहिये?,
२९४-९५
व्यक्तिगत, कृपा ही थी, ३२५
मानवसे अतिमानवकी ओर जानेके,
३७८, ३९३
(दे० 'अतिमानसिक शक्ति',
'अभीप्सा', 'आत्मा', 'आश्रम-
४१४
वासी', 'पूर्णता', 'प्रगति', '
भगवान्', 'श्रद्धा' भी)
प्रश्न,
'मैं यहां क्यों हू.. ., १ ६-८, ३४४-
पूछनेके बारेमें, १०७-९
(दे० 'श्रीअरविंद' भी)
प्राण ( प्राण-शक्ति, प्राणिक क्रिया-
शीलता, ७३, १००, ३११
-के आत्मप्रेमकी प्रतिक्यिा और
सच्ची प्रतिक्यिा, ६-७
सुखोंके पीछे दौड़ती, दुं:ख.., २७
पसंद करता है उत्तेजना, ९४
ही उत्साह, शक्तिका स्थान, ९४
-को 'आत्मा' समझना, २८७-८८
(दे० 'उन्मज्जन', 'मन' भी)
प्रार्थना, १४
सम्मिलित : दो प्रकारकी, ३७-८
सामूहिक, का प्रभाव, ३३९-४१
(दे० 'भागवत कृपा' मी)
प्रेम, २१, ६१
अपने बंधनोंसे, २७-८, २९,३९६
शक्ति, सुरव, शांति व सीमाओंसे,
इसलिये..., २७-८
एक कंडी.., ४९
-की पहली सहज गति, ४१
और स्वतंत्रता, ५०
और बाध्यता, ५०
अपनी अपूर्णताओसे, ७२,७३, ७६
यदि सच्चा, मृत ब्यक्तिसे, ३३३-३४
(दे० 'आकर्षण', 'दिव्य प्रेम'
प्लेंचेट [ स्वतः लेखन],
-का प्रयोग, ३३३-३१
फल ( परिणाम, ३० 'भगवान्'
फूल, 'बेल द नीवि', '५९अ
ब
बंधन, ३० 'प्रेम'
बनना, दे० 'होना'
मालके [ बच्चा], १३, ४७
- ओंको हानि पहुँचानेवाली चीज़ें, ७७
' 'आदर्श बालक' पुस्तक, ७७
-ओकों पारितोषिक, ९३
-के सपने, १५३-५४
-के सपनोंके साथ व्यवहार, १ '१४-
५५, १५७
बने रहना अच्छा, १९५
( दे० 'खेल', 'भय', 'योग' भी)
बीथोवेनकी, २३४
बुद्ध २१
-की शिक्षाओं अतिमानसिक पथपर
किस रूपमें सहायक, १८७
एक अवतार, १ ८७अ
-के उपदेश और सीधी क्रिया, १८८
( दे० 'श्रीमाताजी' मी)
बुद्धि
-की बीमारी, इस था उसको चुनने-
की, ९०, २२२
-का शासन अपेक्षित, सत्तापर,
९४, ९७
-के राज्यका अंत तभी, १८
-द्वारा निर्णय देना, १२८
ग्राम्य, की सत्यानासी आदत :
अशुभ भावना, १५४, १५५
४१५
बौद्धिक क्रिया एक तरहकी ठंडी,
शुष्क.., ३०२
-को संतुष्ट करना होगा, ३६६-६७
आध्यात्मीकृत, की जरूरत, ३७३
(दै० 'अंतर्भास', 'अतिमानसिक
जीवन', 'आध्यात्मिक अनुभूति',
'मन' भी)
बुद्धिमत्ता ![ बुद्धिमानी], १२१, ३५६
बैठ जाना ( रुक जाना, आत्म-संतोष,
३४, ६३, ८८,१८०, ३८५
बौद्ध धर्म, ७ ३-४, १८९
भ
भगवान्, ३४२
-की विश्व-लीला, १-२, २ ०-१,
क्या है, १-२
और प्रकृतिका संबंध, ७, ९-१०
-की ओर !r दूसरी ओर जब पहुंचते
हों, १०,११,१४,१३०,३८३,
'भागवत चेतना मानवी ढंगसे कार्य
नहीं करती, ३१
ही सबसे अच्छा मित्र, ५५-६
विनाशमें भी, ७०
-के कार्यके पीछे सुनिश्चित ज्ञान-
दृष्टि, ७०
-के सामने संपूर्ण काल.., ७०
-की सामग्री, ७१
यदि वस्तुओंके केंद्रमें न होते, १४९,
निरंकुश, का विचार, १६७
-को प्रयासके फलका अर्पण, २९४
छिपे हुए इसी लिये है, ३४५
(दे० 'आध्यात्मिक उपस्थिति',
'जगत्', 'विश्व' तथा 'दिव्य' और
'भागवत.. ', के अंतर्गत भी)
भय,
दण्डका, बच्चोंको, ७८
रोगीका कारण, ११५-१७
शारीरिक, पर विजय पाना कठिन,
११५-१६
-के विचार, २४१
'प्रकाश' मे खो जानेका, ३१६
भागवत कृपा ?r 'कृपा', २३६
और प्रार्थनाके प्रभावको छिद्रान्वेषी
भूल जाता है, २६३
-का एक चिह्न : शांति; दूसरा.
प्रगति, २७९,२८५
-की सहायता., २८६,३२५,३७६,
३८६,३१२
-को भूल न जाना, ३९२
(दे० 'प्रयत्न', 'विश्वास' भी)
भागवत संकल्प, १२४
' -से सब कुछ होता है'', ''भागवत
संकल्प सदा प्रकट रूपसे कार्य
नहीं करता'' : व्याख्या, २६-७
भाव,
-की विशिष्टता, ३५१
-सें 'मूलतत्व' तक, ३५ १अ
भावना ( वृत्ति., दे० 'काम'
भाषा
व शब्द हमारे, १६९,१८४,१८५
'शब्दोका मूल्य, २६१
भूतकाल,
-सें चिपक, १८९
भूल, ६३, ३१०
और भगवानकी मित्रता, ५५
करना जानबूझकर, और अज्ञानमें,
२८५-८६ (दे 'दोष' भी)
भूल जाना,
आमोद-प्रमोदमे, ४१, ४२
'लोग भूले रहते है, १५२
(दे० 'भागवत कृपा' भी)
भूल-म्गंति, ३० 'सत्य'
भोजन
-पर निर्भरता, ८२
छोड़नेकी शर्त, ११२
भौतिक जीवन ! पार्थिव जीवन, भौतिक
अस्तित्व
एक अद्भुत सुयोग, ४१
-का विकास क्यों जरूरी, ८९-९०
-से ऊंची एक स्थिति, १०५; इसे
अब वे सब पा सकते.., १०५-६
-को भी यदि दिव्य जीवनमें भाग
लेना है तो.., १५३
-का सार, २४०
ही प्रगतिका क्षेत्र, २५४अ
-के मूल्य सत्यपर आधारित नहीं,
यहां सब कुछ कृत्रिम है, २६१,
२६४-६५
(दे० 'जीवन', 'आध्यात्मिक
जीवन', 'आध्यात्मिक विकास',
मंत्र, ३६१,३६४
मत-विश्वास, ७४,७५, २४४
मन,७३,१५८,टी०, २१९,२२२,
२११, ३१९, ३२४, ३५१,
ठयक्तिरूप, ४३-४
-पर प्रभुत्व पाना जरूरी, ३८-९
और संकल्पकी प्राप्तियां शरीरमें,
८३, ८७, ११
भौतिक, बड़ा हठीला, १०२
-के निश्चय, शंकाका विषय, ११८
-का बोध : कारण ओर परिणाम
नियत हैं, १६७
दार्शनिक, का विकास, २३७
-को व्यवस्थित दे० 'विचार'
-की सामान्य अवस्था, २३८,२३९,
२४०
व प्राण भावी जन्मके लिये सुरक्षित
कब, २५३-५४
-का कार्य, सफाई देना, ३०३-४
-को नीरव कर देनेका फल, ३३ ०-
कर्म और व्यवस्थाका यंत्र, ३६८
-का कर्म सीधे आध्यात्मिक शक्ति-
द्वारा संभव, ३६८-६९
-के विकासकी उपयोगिता, ३७०-७१
-का अधिक विकास बाधक!, ३७१
परिवर्तन नहीं ला सकता, ३८४अ
सदा आत्म-संतुष्ट, आध्यात्मिक
शफ्ति इसे झकझोरती..,
यदि समझनेकी कोशिश न कर, स्वयं '
को खोले, ३८८-८९
(दे० 'आध्यात्मिकता', 'उन्मज्जन',
'बुद्धि', 'श्रद्धा', 'संदेह', 'समझना'
मनुष्य [मानव],
४१७
-मे प्रकृति आत्म-चेतन, ७
-की सामान्य अवस्था, १ ५-७, १९,
९५-६, २४७-४९, ३१६, ३४४,
३५६, ३८०
यदि आध्यात्मिक होनेके लिये सह-
मत. उसकी प्रकृति विद्रोह..,
७२ टि०, ७३, ७६
(दे० 'विरोध' भी)
-की रचना किस लिये, ९७
-की आध्यात्मिक अभीप्साकी उच्च-
तम उपलब्धि, १४०, १४३
इस सृष्टिका शिखर, १५०, २११
-मे मनकी क्रिया, स्वाधीनताका
प्रारंभ, २ उ १
-मे यह चेतना अपने चरमोत्कर्ष-
पर पहुंचती और उसे पार कर
जाती है : व्याख्या, २०१
-की उपलब्धिकी शक्यता, २०४
-की पशुसे श्रेष्ठता, २ ०७-९, २११
सीधा खड़ा हो सकता है, रे ०७
-के पास प्रशिक्षण-शक्ति, योजना-
बद्ध विकासकी शक्ति, २०८
-की अपने बारेमें प्रशंसात्मक रूपमें
सोचनेकी आदत, २०१
-का आरापर प्रभुत्व, २११
-मे लिखने व सुस्पष्ट वाणीकी
क्षमता, २११
यदि ओर आगे जानेकी कोशिश
करता है, २११
क्या मनुष्य रहनेसे संतुष्ट रहेगा,
२२०-२१
-की प्रगति : अभीतक, प्राचीनोंकी
अपेक्षा व आध्यात्मिकतामें,
२७६; उसे आत्म-अतिक्रमण-
मे नहीं ले गयी, कारण, २७६अ
और पशुमें अंतर, २८२-८३
-के चिंता-संताप ब कष्टोंका कारण,
२८३-८४; इनसे मुक्तिका एक
ही रास्ता, २८३-८४
ही सर्वाधिक दयनीय, २८३
-के साथ जनमती है आत्म-निर्भरता-
की भावना, २८४
-को चेतना दी गयी है ताकि, २८४
-मे क्षमता, प्रकृतिकी सहायता
करनेकी, २११, २१९
विकासका अंतिम पर्व नहीं, २९१
-मे स्वयं अतिमानवतातक पहुंचने-
की शक्यता, २११
-से आध्यात्मिक सत्ताकी ओर
संक्रमणके बारेमें दो प्रश्न, ३०१
कुंजीका प्रयोग करनेसे झिझकते है,
३९५-९६
( दे० 'व्यक्ति', 'सत्ता', 'अति-
मानसिक जगत्', 'आध्यात्मिक
उपस्थिति', 'कामना', 'पशु',
'प्रगति', 'प्रयत्न', 'समस्या' भी)
मनुष्य-शरीर ? मानव-प्ररूप,
चेतनाको अभिव्यक्त करनेमें अभी-
तक सबसे समर्थ, २० ३; २०७-९
-से उच्चतर रूप कैसे बनेगा :
समस्या, २२१-२३; सब कुछ
संभव, २२२, २२३
कैसे प्रकट हुआ २२३-२५, २७३-
-का गठन और सामर्थ्य, २६८ टि०
-का विधान, २७५अ
-के सामान्य संघटनमें तब अवश्य
परिवर्तन आ जायगा, २८२
४१८
एक, जब उस चेतनामें सहज रूपसे
ज़ीने योग्य हो जायगा, २९३
मनुष्य जाति ( मानवता),
अभी कच्ची धातुके रूपमें, ७१
-का भविष्य, ७१-२, ७३-४, ७६,
२७९, २८०-८१
-के बारेमें आशा, कुछ व्यक्ति यदि
.., ७१, ७२, १५१, १६२
आध्यात्मिक प्रवाहको धारण नहीं
.., ७३
एक साथ अतिमानव नहीं.., १०३,
इस समयकी जटिलता और
दुर्व्यवस्था, १६१
-के लिये क्या ''अभिप्रेत या संभव''
है व्याख्या, १६६-६८
क्या कुछ अन्य जातियोंकी तरह
लुप्त हो जायगी?, २२३
-मे तनाव उस बिंदुपर.., २७७
-मे आत्म-अतिक्रमणकी अभीप्सा,
२८१ २८२
'मानव स्तरके लुप्त हो जानेकी
संभावना नहीं, २८२
-के लिये फिरसे पशु-स्तरपर जा
गिरना असंभव, २८३
-की समस्याओंको हल राजनीतिक
व सामाजिक उपायोंसे, ३८०
(दे 'आध्यात्मिकता', 'जगत्',
'परिवर्तन', 'प्रगति', 'विज्ञान',
'संक्रमणकाल', 'समस्या', 'सह-
यता', 'समाज' भी)
मस्तिष्क ( दिमाग ओ, २६९, ३३०,
महत्त्वार्फाक्षा, ९३,१५३-५४
मानव परिवार (पुस्तिका), ३
मानसिक ईमानदारी, ३०३-०६
मानसिक रचना, ४६, २९६
मित्र, २८
सबसे अच्छा, ५२-६
बुरा, ५४-५, ७८
मिथ्यात्व, ३०६, ३१६
मित्र, ३५९
मुक्ति, २७९
'मुक्त व्यक्ति और दूसरोंका कष्ट,
१ ०अ, १२, ३११
-का प्रारंभ, उच्चतम स्तरोंसे, १३८
आत्माके संपर्कसे, २८९, ३१२
व्यक्तिगत, पर एकाग्रताकी प्रवृत्ति,
-की संभावना कब बनती है, ३८६
यदि सृष्टिका उद्देश्य होता, ३८९
(दे 'स्वतंत्रता', 'दासता',
'श्रद्धा', 'समर्पण' भी)
मूल्य ! [कीमत]६३
वस्तुकी, विरोधी वस्तुसे, २८
अदा करना जानो, ६१
व्यक्ति या समष्टिकी, किस्से,
३२८ ३३२
(दे० 'शांति' भी)
मूर्ल्याकन [निर्णय],
करना, दूसरोंका, १२८, ३८३,
-का हमारा तरीका और अतिमान-
सिक जगत्का, २६०, २६५
इस जगत्में, २६१
मृत्यु, २५४
यदि न रहे, २९, ३३
वह प्रश्न है जिसे प्रकृति.., ३३
४१९
-के प्रति पहली प्रतिक्रिया, ३३-४
-की आवश्यकता क्यों, ३४-५
कब जरूरी न रहेगी, मेर१, ३६
य
यंत्र, दे 'आत्मा'
यूसुफ हुसैन, संत, ६५-८
योग, ७८,११४,११५,१११
-की प्रक्रिया, आध्यात्मिक, ८५
-की शर्त, पुराने योगोंमें, ८७
सामूहिक, की शर्तें, १३१,१३४-३५
बुढ़ापेमें, १५२-५३
छुटपनसे यदि. ., १५३, १५५
-के लिये प्रवेगके आधार, १५४
-मे आकर्षण-विकर्षण, १७१, १७२
(दे 'आध्यात्मिकता', 'रोग' भी)
योगी, ९३,३६२
यौवन
'युवा रहनेका प्रवेग, ३६
र
रागद्वेष, १७१
राजनीति, १८९
और धनके बारेमें मनुष्यकी वृत्ति-
को बदलना कठिन, १५८-६०
-से हमारा कोई संबंध नहीं, पर. .,
१५८अ
राष्ट्र,
सर्वाधिक सफल, ७७
(दे 'संकट' भी)
रासमणि, रानी, १४० टि०
रुप,
आरोहणशील, जीवनके, १ ९९-
२०१, २०३
चेतनासे पहले (जड़वादी), २२४अ
(दे० 'आकार', 'मनुष्य-शरीर',
'प्रकृति' भी)
रूपांतर,
क्रमिक, के बारेमें, १०३, १०५-६
पूर्ण, के बारेमें, १०६
'अधिक उन्नत रूप, न कि छोटे-छटे
सुधार, १३८
भौतिक, से पहले नये रूपका बोध
जरूरी, १३८
-का कार्य जब सबसे रोचक, १८२-
-की सब समस्याएं पृथ्वीपर. .,१९९
और क्षयमें होड, ३७८
पूर्ण, के लिये मनसे ऊंचे उपकरण-
की जरूरत, ३८५
त्रिविध : चैत्य, आध्यात्मिक, अति-
मानसिक, ३९३
(दे० 'परिवर्तन', 'जडूतत्व',
'शरीर', 'समय' भी)
रोग
-सें छुटकारा : उपाय, ४२
भौतिक घटना या आध्यात्मिक
जीवनकी कठिनाई, ११४-१६
-का मूल कारण, ११५
-से प्रभावित होना : एक पूरा
सोपान-क्रम, ११६,१ १७अ
(दे 'औषध', 'संतुलन' भी)
ल
लक्ष्य । उद्देश्य ओ,
४२०
मुकुट, न कि सूली, ६२
पड़ावको स मझ लेना, ६३
व आदर्श हमारा, ८१, १०२, १०६,
१४२, ३२३ ( दे ० ' पूर्णता ' मी)
( दे ० ' विकास ', ' प्रकृति ' भी)
वनस्पति,
-जगत्का विकास, २००
-मे चेतना, २००
वाणी,
'बातें करना सत्योंकी, ६१
'कहनेसे करना अच्छा, ९०
'बोलनेकी खातिर बोलना, १०९
'योगमें शरीरपर प्रान्त विजयके
बारेमें कहना, ११८-११
-के असंयमपर, १३६-३७
-की सर्वशक्तिमत्ता कब, १८५
'इन विषयोंपर जितना कम बोला
जाय.., ३०२
'जिस बारेमें तुम नही समझते,
चुप रहना, ३८८
(दे० 'समय' भी)
विकास ![ क्रम-विकास],
-क। गुप्त लक्ष्य, ९२,१००, १११,
२४५, २५०, २९८
-की प्रक्रिया : अबतक, १०२;
भावीमें, १०२-३, १३७-३८
-का अभिप्राय क्या अज्ञात है?,
-के अभिप्रायको स्वयं महसूस करते
हों, ऐसे कितने!, १७४
अंतर्लयन ही परिणाम, १९८ टि०
क्रमिक, का वर्णन, १९९-२०१
-की द्विविध प्रक्रिया : भौतिक और
आंतरात्मिक, २० २-५, २१४-
के और आगे जानेकी संभाव्यतामें
शंका, २११-१२, २१८-१९
वैयक्तिक सत्ताका मानना जरूरी
नहीं, २११-१२
वैयक्तिक, को यदि मानों, २१६
-की प्रक्रिया मानव प्राणीके 'जन्मकी,
२७३-७४
-की सारी प्रक्रिया प्रत्येक सत्तामें
दुहरायी जाती है, ३००
अंतर्लयनसे उलटी क्रिया है, ३०७
-की 'शक्ति' ने अभीतक जो किया
है, ३१०
(दे० 'आध्यात्मिक विकास',
'चेतना', 'प्रकृति', 'मनुष्य' भी)
विकृति, ५०
मनसे शुरू हुई, ९६, ९७, १७२,
२७९,२८०
भौतिक, पर विजय, २६६
-को दूर होना ही चाहिये, २७९-८०
बिचार,
तुम्हारे निजी, बहुत कम, ४४
कहांसे आते है, ४४,२ ३७अ
विरोधी, मनमें, ४४, २३१
अपना, दूसरोंपर लादना, ५ ३-४,
- ओ, विरोधी, मे समन्वय पानेका
तरीका, ७४अ, १०४
- ओंको व्यवस्थित करना, २३८-३१
- ओंका अपना स्वतंत्र जीवन, २३८
बुरे, उठानेके कई कारण, २३९-४०
४२१
- ओप नियंत्रण, २४०-४१, ३५६
- ओकों सीधा स्पदनद्वारा भेजना,
२६९, २७१
(दे० 'कल्पना', 'ध्यान', 'आध्या-
त्मिकता', 'जगत्', 'स्त्री' भी)
विचार और सूत्र (पुस्तक), ३५३
विजय,
-की प्राप्ति : उपाय, ५, १
-की अभीप्सा., ६२-३
मनके क्षेत्रमें, नहीं, ११८-११
सर्वाधिक सहिष्णुकी, २४२
(दे० 'सफलता', 'अशुभ', 'जड़-
तत्व', 'विश्वास' भी)
विज्ञान (भौतिक), २९९,३५४
-की प्रक्रियाएं व सिद्धांत, १०४,
-की उपलब्धिया, १०४
सत्यकी खोजमें आत्माकी ओर,
-की महत्त्वपूर्ण खोज, २२६; एक
पग और, और वे सत्यमें. ., २२६
-की बाहरी दृष्टि, मे ०६
-का व्यवहारगुह्यविद्या और आध्या-
त्मिकताके साथ, ३५८
-का आधार, ३५८
-द्वारा मन-प्राणका नियंत्रण, ३५८-
५९; इसमें मानद जातिके
लिये खतरा, ३५८
-की खोजोंका दुरुपयोग : कारण,
३५८अ
-के रसायन-सूत्र, ३६१,३६४
गुह्यविद्याकी ओर, ३६२-६४
वित्त-व्यवस्था, १५९-६०
विनाश [विध्वंस],
ओर सृजन, ७०
-की शक्तियां, दे 'विरोधी शक्ति'
'खाईके, मुंहपर, २२९
-पर नियंत्रण, 'उपस्थिति' के ही
कारण, ३१४
(दे० 'क्रांति' भी)
विभाजन ९०, १९७,२९२
विभिन्नता,
दूसरोंसे, सें सचेत कब, ४४-६
न बन पाती यदि एकताकी स्मृति
बनी रहती, ४७
-का सत्य, ५ ३अ, ३८७-८८
विभेद
अज्ञानका मूल, ७-८, ११
मध्यवर्ती अवस्था, २०
विरोध [ अवरोध, प्रतिरोध ],
- ओंसे जीवनकी कलामयता. व्याख्या,
२८-९
निश्चेतना व अज्ञानका, ३२०
कितना, निचली प्रकृतिमें!, ३८६
-की मत सुनो, ३१२
विरोधी शक्ति,
-योंके अधिकारमें संसारको छोडू
देना, ५
-यां धरतीपर उत्तर आयी है, साथ
ही नयी शक्ति भी, २७८
-योंकी लहर जब धरापर. ., ३१४
विश्राम,
करनेकी इच्छा, खतरनाक, ६४'
सच्चा, ६४
विश्व [ सृष्टि ],
क्या है, १-२, २४५६अ, २१८
-की उत्पत्तिका हेतु : आनंद, २,
७-८, २०, २४९-५०; कामनाको
४२२
मानना, ८
-की विभेद, अज्ञानकी अवस्था एक
दुर्घटना, ११-२; इसका सुफल
भी, ११-२
-का वस्तुगत रूपमें आना, १६८,
-की तीन व्याख्याएं : तात्विक, मनो-
वैज्ञानिक, बालोपयोगी, १९५
इस, की विशेषता, १९६
-की अव्यवस्थाका प्रथम कारण,
चेतन संकल्पका परिणाम, २१०,
२४५-४६
-मे उद्देश्य मूलक प्रयोजन नहीं,
२१२; इस आपत्तिका उत्तर,
२४९-५०
शाश्वत कालसे है, अतः सम-
सामयिक है, २५१
परमचेतनाका राज्य, पर उसमें
विचरण स्वतंत्र, अप्रत्याशित,
-के अस्तित्वका उद्देश्य, २९८,
३९२; इसे जान लेनेपर उसकी
पूर्तिका उत्साह, ३९२
एक भद्दा मजाक, यदि उद्देश्य बाहर
निकलना हों, ३१ १अ
(दे० 'जगत्', 'कहानी', 'प्रकृति',
'भगवान्', 'मुक्ति', 'समझना
' मी)
विश्वास, १ '१ १, १ ५रे, २८३, २८५
रख विजयमें, ७०
सत्य जीवनमें, १ ५ण
शरीरमें, विजयका, १५७
अदृश्य जीवनमें तबतक नही, ३३१
'भरोसा रखो 'कृपा' पर, ३ ९२अ
(दे० 'श्रद्धा', 'संदेह' भी)
व्यक्ति,
जो 'शक्ति' को ग्रहण कर सकें, ३६
१५१ (दे० 'मनुष्य-जाति' भी)
-गत और सामूहिक उन्नति, १३५,
-गत चेतना और सामूहिक चेतना,
३२७, ३४१
(दे 'आध्यात्मिक विकास',
'मूल्य' भी)
व्यक्तित्व,
-का निर्माण, ४३-८
-का होना एक विजय, ४६
बनाना, फिर तोड़ना, ४६
(दे० 'प्रभुत्व' भी)
व्यवस्था, ३० 'जीवन', 'विचार'
व्याख्या, १२०-२१, २९६
श
शक्ति, २१, रे७
-का तिरस्कार मत कर, ७१
पैदा होती है कठिनाईमेसे, ७१
-यों, सूक्ष्म, को भौतिक रूप देना,
८३, १२१-२२
ही सुरक्षा है,
-योंको अपनी ओर मत खींचो,
२२८-२९
-को दोष देना, २२१
(दे० 'अतिमानसिक शक्ति' आध्या-
त्मिक शक्ति', 'अशुभ', 'जगत्'
शिष्ट, दे 'भाषा', 'समझना'
४२३
शरीर, ३१९
क्र्सपर चढनेवाला नहीं, दिव्य
महिमान्वित, ३ टि०
-मे आनन्दका स्पर्श, २३
-को मृत्युकी ओर ले जानेवाली
चीज, ३४,३ ५अ
-मैं दुःखसे छुटकारा. उपाय, ४२,
१५४,३५०
-की सीमाएं एक साँचा है. व्याख्या,
४३-८
-पर नियंत्रण जरूरी, ७१, ८३
-को एक तरफ नहीं छोड़ा जा सकता,
आधार, धर्मसाधनम्, ८१
-का रूपांतर : जरूरी, ८१; मे
अपेक्षित चीज़ें, १००
-के व्यापार 'उच्चतम पूर्णता' तक :
व्याख्या, ८१ -२
हमारा पशु-सदृश, ८१ -२
-की सीमाएं व बंधन, ८२
-के अंगोंका स्थान 'केंद्र'.., ८२-३,
-के रूपांतरसे जिस लक्ष्यको हमें
सामने रखना.., ८२
गौरवपूर्ण, ८२
-का निर्माण गुह्य पद्धतिद्वारा, ८३
१२२; इसमें ठोसताकी कमी,
१२३-२४; इसमें प्रगति किस-
पर निर्भर, १२४
-पर काम.. तो जब अतिमानसिक
सत्य.., १०
-मे अतिचेतनाकी आविर्भाव लक्ष्य,
११ -२
-को बुद्धिद्वारा शासित करना, ९४-५
-के दुख-भोगका कारण, ९५
-का रूपांतर मन-प्राणके रूपांतरके
बाद या.., १०१
-मे प्रतिरोध, मनके दखलके बिना
भी, १० १अ
दिव्य, मे दिव्य जीवन, १० २इ, १०६
चेतनाका ही एक यंत्र, १०३, १०४
-के साथ व्यवहारमें तब भौतिक
साधनोंका उपयोग क्यों?,
१०३-५
-की अब संभाव्यता, १०६, ११ १-
जब कह सकेगा : ''मैं 'तू' बन जाऊं'',
मे प्रतिरोध शक्ति, ११५
ही नीरोग होनेका निश्चय करता
है, ११७
-परविजयके लिये मनसे उच्च शक्ति
अपेक्षित, ११८-११
रूपांतरितमें क्या स्त्री-पुरुषका भेद
रहेगा?, १२५-२६
-कै अंगोंका ही रूपांतर, १३७-३८
-के लिये नये जगइका भौतिक बोध
प्राप्त करना कठिन, १३८
-के संपूर्ण रूपांतरके लिये, १४६ टि०
-मे, भगवानके लिये अभीप्सा कैसे
जगायी जाय?, १ '१२, १ '१ ''६,
-मे एक सहज-स्वाभाविक विश्वास,
१५६, १५७; यह कैसे खोया
जाता है, १५६, १५७; करने
लायक चीज, १५७
-की अभीप्सा रूपांतरके लिये,
१८२अ
४२४
-के कोषाणु जब उपस्थितिको मूर्त
रूपमे अनुभव करने.., ३०२
-के रूपांतरका कार्य लंबा, धीमा,
३२१-२२; इसे हर एक कर
सकता ह, ३२२; इसमें अपेक्षित
चीजों, ३२२
तुम्हारा, एक शरीर नहीं, ३२ १अ
-मे विचारोंका कारण, ऐ २२
(दे०'मनुष्य-शरीर', 'अति-
मानव', 'अहं', 'आत्मा', 'जड़-
तत्व', 'मल', 'रूपांतर',
'समझना', 'साधना' भी)
शांति, २२७
-की भूख, साथ व्याकुलताकी.., २८
-को, मूल्य चुकाये बिना, चरा, ६३
ही अभीतक 'भागवत कृपापर का
चिह्न, २७८-७९
अन्यथा असंभव, २८४
(दे 'नीरवता', 'श्रीअरविन्द' भी)
शारीरिक शिक्षण,
-मे हमारा प्रयत्न, ७टैअ
-का उद्देश्य, ८१
-कै परिणाम, ८३, ९४-५, ३७०
शारीरिक शिक्षण-पद्धति,
- का उद्देश्य, १४५
-का आधार, १४६-४९
शिक्षा, ७७,३६५
जो सबको दी जानी चाहिये, ९७-८
(दे० श्रीमाताजी' मी)
शुद्धि
-की ट्टीका सामना, ७२
शून्य,
-भैंसे किसी चीजका प्रादुर्भाव नहीं
हो सकता, ११४, २१०
श्रद्धा,
-की शरीरपर क्रिया, १११
मानसिक विकासवालेकी, १२०
-द्वारा मुक्तिकी शिक्षा, २८१
अनिवार्य, पर आरोपित.., ३२३
क्या प्रयाससे बढायी जा सकती
है?, ३२४-२५
(दे 'विश्वास' भी)
श्रवण,
और गंध, सूक्ष्म जगत्में, १२४
श्रीअरविन्द, २६६,३११, ३३७
-का आश्वासन उपलब्धिके बारेमें,
-ने किसीको जब शांति प्रदान. ., २१
-को पढ्नेसे सब प्रश्नोंके उत्तर,
-का अनुभव, उपवासक, १११-१२
-का जन्मदिन, १६३, ३४६
किस लिये आये थे, १६३, ३४५
-का जन्म एक 'सनातन जन्म' :
व्याख्या; १६९-७०
-ने पार्थिव जीबनको हीलिया, १९९
-का प्रतिपादनका तरीका, २१२,
२१९-२०,२३६
अपने-आपको दोहराते, २१३,२२०
-को पढ़ते हुए सावधानी, २१३,
-के निष्कर्ष, .२१३
-का लिखा, उनका मत नहीं, २३६
-को अपने समर्थनमें उद्धत २६६
-ने मस्तिष्कमेंसे काले बिंदुको पकड़ा
और दूर फेंक दिया, २४१
-का लोगोंका दर्द दूर करना, २४१
४२५
-के कथनकी सच्चाईका प्रमाण तब-
तक नही., २४२
-की घोषणा : ४-५-६७ पूर्ण सिद्धि-
का वर्ष, २९३
-के साथ, प्लेंशेटद्वारा, संपर्कमें होने-
की कल्पना करनेवाला, ३२४
-की 'यौगिक साधन' पुस्तक, ३३६
-की एक प्रार्थना : वैदिक देवताओं,
वरुण, इन्द्रक, सूर्य, मरुत्.. के
प्रति, ३४६-४७
(दे० 'सुरक्षा' भी)
श्रीमाताजी,
प्रकृतिके खेलके बारेमें, १०-२
'हम जो करना चाहते है व कर रहे
है, १ २अ, ३५, ३६, ७टअ
८४, १४२, १५८, १५९अ,
'जब मैं खेलती हू, १३
गंभीर क्रय, १ ३अ
'इच्छा होती है तुमसे विरोधाभासी
वस्तुएं कहूं, ५२
-की टॉल्स्टायके पत्रसे भेंट, ५३
-के 'तेमसेममें संस्मरण, ५६-६२
-का उत्तर मानवताके बारेमें, ७२
'इसी चीजने मुझे लंबे समयतक
ध्यान करनेसे रोका था, ८४
-का यहांके अपने समूहका प्रती-
कात्मक स्वप्न, १३१-३५
-का अनुभव : नये और पुराने जगत्-
का, १४०-४१
श्रीअरविदो जब अधिमानसिक
सृष्टिकी बात बताने गयीं, १४१
'हमारी नयी दृष्टिका स्वरूप, १४२
' ' प्रार्थना और ध्यान' मे वर्णित बुद्ध
क्या वही है जिनकी प्रतिमाएं
पूजी जाती है?, १८६-८७
'मैं नहीं पाती कि आत्मा छुपा हुआ
है २१८
-की ३ फरवरी १९५८ की ( अति-
मानसिक नावकी) अनुभूति,
२५५-५६; इसे यदि समझना
चाहो, २९६
-की चरम सापेक्षताकी अनुभूति,
-का निराश लोगोंको स्वस्थ करना,
'मैंने यातनाओंको साह है, २३५
'एक ही चीज मुझे असह्य लगती
है, २ ६५अ
.क्रि अनुभूति और प्रार्थना, एक
धनी, कुत्सित पेटवाली, महिला-
को देखकर, २८०
-का मजाक, प्लेशेटवालोके साथ,
'कठोर शिक्षाकी अपेक्षा मैं बता-
वरणकी शक्तिको.., ३४३
'आपने कहा था : ५ साल बाद मैं
तुम्हें,.., ३४१, ३४४, ३४०_
(दे० 'अभीप्सा', 'नीरवता',
'प्रकृति', 'राजनीति' भी)
श्रीरामकृष्ण, परमहंस, १४० टि०
स
सकट,
-की स्थिति देशोंकी, १६१
संकल्प
मानसिक, काफी नहीं. शरीरपर
४२६
नियंत्रणके लिये, ११८-१९
मचेतन, का प्रभाव शरीरपर,
१४६-४९
परिवर्तन व प्रगतिका, आवश्यक
नये जगत्को लानेके लिये, १५१
सर्व-समर्थ, पूर्ण निरपेक्ष, १६७
-सें मनुष्य क्या समझता है, १६७
लें : इस वर्ष अच्छे-से-अच्छा करनेका
ताकि समय बेकार., २३६
(दे० 'ज्ञान', 'मन', 'संदेह' भी)
संक्रमणकाल,
जब पशुसे मानव सृष्ट., १३९
जिसमें हम उपस्थित हैं, १३९,
१४२, १४४
संतुलन
-भंग रोगका कारण, ११४
पूर्ण, की प्राप्तिकी शर्त, २२८
पूर्ण, के बिना अतिमानसिक शक्ति-
को खींचना खतरनाक, २२८
संदेश
वर्ष ५७ का व व्याख्या, ३-५
नये वर्षके, क्या सूचित करते हैं, ३
(दे० 'प्रकृति' भी)
संदेह ( शंका,
-से संकल्पका प्रभाव खो.., ११८
करना, जानेसे सरल, २२५
करना मनका स्वभाव, २२५,३२४
और अविश्वाससे खेलना, ३२४
'दरवाजा' खोलनेकी क्षमतामें, ३९६
(दे० 'आत्मा' भी)
संभव, ३० 'अतिमानसिक जीवन',
'मनुष्य-शरीर'
संभावना,
सभी, के लिये द्वार खुला, २५१
-एं, असंख्य, हर एकमें, ३६५
संयम, ३० 'आत्म-प्रभुत्व'
सचेतनता, ४७,२४७
अपने संबंधमें, कितनी, १५-६
आघातोंसे, १ ६-७, ४६, २४८-४९
रवेलोंसे, ९२अ
(दे० 'आत्म-निरीक्षण', 'आत्म-
जिज्ञासा', 'जागरण', 'विभिन्नता'
सन्याई, ३३१
किसका नाम है, ११४
'पूर्ण सत्यनिष्ठा क्रय आयेगी, ३ ०५अ
(दे० 'मानसिक ईमानदारी'
सत्ता,
-एं, मूलत: बुरी, १७२
-एं, चार, सृष्टिके प्रारंभमें, १९६
(दे० 'आनंद' भी)
सत्य 'सत्य', ३०६
- ओंका। मूल्य आचरणसे, ६१
-के आविर्भावके लिये आवश्यक
चीज, २४४
-को समझनेके लिये, रे ०२, ३७४
और भूल-भ्रांति सदा साथ, ३२६;
पृथक्करण में सावधानी, ३२६
-की खोजमें सच्चा उसी ज्ञानको
पुन: प्राप्त.., ३६३
-की अनन्य चाह और उत्तर, ३७५
आध्यात्मिक, कोई एक, सर्व-स्वी-
कार्य, सिद्धांत-सूत्र नहीं, ३८७
-को सुन सकनेके लिये, ३८९'
(दे० 'ज्ञान', 'अनुभव', 'अभीप्सा',
'जगत्', 'भौतिक जीवन' मी)
सत्य चेतना, १९४
४२७
अतिमानसमें और ज्योतिर्मय मनमें,
१८३-८४
सफलता,
पूर्ण प्रतीत होनेवाली, ६३
अध्यवसायीको, ३३१,३३२
(दे० 'विजय' भी)
समझना,
मनसे ऊंची वस्तुओंको, १५,३७४,
उन्हीं शब्दोंको, विभिन्न स्तरोंपर,
१६८-६९
भाग्य की स्वरलिपिको, २६७
एक-दूसरेको, २६७, २६९-७०
जबतक शरीरद्वारा नहीं,३०३
मे सृष्टि-योजनाको, ३९२
समझौता, ७३,१२९
समय
बरबाद करना : आमोद-प्रमोदमें,
४१; बातोंमें, ८०; चीजों-
को सामान्य ढंगसे करनेमें,
९२,९३
दबाव डाल' ण है, ७२
-की कमीका मतलब, ८०
लगेगा : पूर्ण रूपांतर में, १०६; जड़
पदार्थपर विजयमें, २६६
वर्तमान, धरतीके इतिहासमें अपूर्व,
१३९, १४४, १५२, २७५
उपलब्धिमें कितना, १५१, १८२;
इसे कम कर देनेकी संभावना,
१६२,१८२
नहीं, ऊबनेके लिये, ३५८
कितना, चीजोंके बदलनेमें!, ३८६
समर्पण [आत्मदान], ४९
-को यदि जोड़ दो अपने प्रयत्नमें,
२२,२४, ३३ १अ
'दे दो, खोलो, पर लेनेकी इच्छा
.., २२८-२९
उपाय, मानवकी चिंताओं व कष्टों
- से मुक्तिका, २८३, २८४
प्रयासके फलका, २५५
कर सकनेके लिये चाहिये. ,३८६
-में ही बदलनेकी शक्ति, ३८७
शिशु-सा. निष्कपट, सरल, ३९२
(दे० ' एकता' भी)
समस्या,
-एं, अति धर्मशील लोगोंकी, ३०-१
खेलको बदलनेकी, ३६
मानवताका, ७१-२; इसकी कुंजी,
-एं, सुलझाना, मानवका, अपनी,
२८४-८५
-का समाधान, नीरवतामें, ३८९
(दै 'आध्यात्मिकता', 'मनुष्य-
जाति', 'मनुष्य-शरीर' भी)
समाज ( समूह, समष्टि ]
आदर्श अतिमानसिक, श्रीअरविंद
के अनुसार, १३१, १३४-३५
धार्मिक, की समानता, १३४.
-के जीवनमें धर्म एक आवश्यकता,
३२६-२८
-यां तरह-तरहकी, ३३९-४१
'आदर्श संगठनकी शक्ति, ३४०-४१
'सामूहिक आध्यात्मिक जीवनके
प्रयत्न, ३८४-८५
(दे० 'आश्रम', 'प्रार्थना', 'मूल्य',
'व्यक्ति', 'श्रीमाताजी' भी)
समाधि, ३, ३६८
४२८
समानता दे० 'समाज'
सम्मोहन विद्या, ३६३-६४
सहज-स्वाभाविकता, ५०
सहस्र दल कमल, १४१
सहायता,
कर, पर मुहताज न बना, ६२
मानवजातिकी, ३८०-८१
दूसरोंकी, ३८२, ३८३
सहारा
दूसरोंका, २४२
एक ही, अचल-अटल, २४२
साधना,
'आनन्द' को जाननेकी, २१-२
कामना-जयकी, २१
-की एक अवस्थाको जब तुम पार
कर जाओ.., १८९
शरीरकी, अछूते जंगलके समान,
सापेक्षता,
-का बोध, १९४
-ओमें निरपेक्ष, ३७४
(दे० 'श्रीमाताजी भी)
सामूहिक, दे 'समाज', 'व्यक्ति'
साहस ( वीरता ,५, ७१, ७२,३०५,
३२२, ३९१
सुख,
और आनंद, ९, २१, २२, २७,
४०, ४१
कामना-तृप्तिकी, २१
-से प्रेम, इसलिये दुःख, २७
-की खोज, ४१
सांसारिक, १५३
सुरक्षा, ३३४
संसारपर मंडराते तूफान से : शर्त,
-की प्राप्ति पहले भी, श्रीअरविन्दके
रहते, १६२
ही आदर्श, अधिक लोगोंका, ३२७
(दे 'शक्ति' भी)
सेवा, दे० 'स्वतंत्रता'
सोचना, २१०
किसी व्यक्तिके बारेमें, गुह्यविद्याका
प्रयोग ही है, १७७-७८
बिना शब्दोंके, २७०-७१, २७२
सचमुच, २७२
स्वतंत्र रूपसे, ३२८
अलग ढंगसे संभव है क्या,
दौड़नेके बारेमें ही, ३७९
स्त्री और पुरुष [नर और मादा],
-का भेद, ९८-१००; विचार और
व्यवहारमें, १२६-२७; इसमें
सम्यक् वृत्ति, १२७
स्मृति ( याद रखना,
विशेष घडीमें उपस्थित होनेकी,
चैत्य और मानसिक, २७४
(दे० 'पूर्वजन्म' मी)
स्वतंत्रता, १९६
-की चाह और बंधनोंसे प्रेम भी,
२७-८, २९
और दासता सेवा भाव पूरक,
४८-५०
-का वर्तमान रूप, ४९
और उच्छृंखलता, ५
-की अवस्था, जहां सब कुछ संभव
है, १६७
४२९
और पूर्वनिर्धारितता : व्याख्या,
२५१-५२
और निम्न प्रकृतिकी दुर्बलता,
आध्यात्मिक, से पहले नैतिक पूर्णता-
को जीना जरूरी, ३७७
(दे० 'मुक्ति', 'एकता', 'खोज' मी)
ह
हृदय, दे० 'अंतर्भास'
होना ? बनना], ९३,११४
४३०
४३१
सूची (उद्धरण)
बिचार और झांकियां
योगसमन्वय
प्रार्थना और ध्यान
अतिमानसिक अभिव्यक्ति
अतिमानव (कमोंकी आनंद)
दिव्य जीवन [लाइफ डिवाइन ]
विचार और सूत्र
१-७४
७७-१९१
१९६-९७ टी०
१९८-३९३
३४३-४८
४३२
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