CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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प्रकाशकीय वक्तव्य

 

इस खंड में माताजी के शिक्षाविषयक लेखों, संदेशों, पत्रों और वार्तालापों का संग्रह हैं । 'श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-केंद्र' के वार्षिकोत्सवों पर मंचित किये जाने के लिये लिखे गये तीन नाटकों का भी इसमें समावेश हैं ।

 

 पहला भाग : लेख

 

   ये लेख पहले-पहल १९४९ से १९५५ के बीच 'शारीरिक शिक्षण पत्रिका' (जो बाद में ' श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र' की पत्रिका बन गयी) में छपे थे । माताजी पहले फ्रेंच में लिखती थीं, बाद में उन्होंने कुछ का पूरा और कुछ का आंशिक अनुवाद अंग्रेजी में किया था ।

 

 दूसरा भाग : संदेश, पत्र और वार्तालाप

 

   १.श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-केंद्र-के भाग में मुख्य रूप से माताजी का शिक्षा-केंद्र के विधार्थियों और अध्यापकों के साथ पत्र-व्यवहार और वार्तालाप हैं । कुछ अन्य संस्थाओं और व्यक्तियों को दिये गये संदेश भी इसमें हैं । अधिकतर वक्तव्य फ्रेंच में थे । इनमें से कुछ आश्रम की पत्रिकाओं और पुस्तकों में छप चुके हैं, और कुछ यहां पर पहली बार छप रहे हैं ।

 

  जिन वक्तव्यों की तारीख मिल जाती हैं उन्हें तारीखवार रखा गया है, बाकी जो जहां ठीक लगे बीठा दिये गये । एक ही व्यक्ति को एक के बाद एक लिखे गये पत्रों के बीच में बस खाली जगह छोड़ीं गयी है; और अलग-अलग लोगों को लिखे गये पत्रों के बीच. यह निशानी रखी गयी हैं ।

 

  २. श्रीअरविन्दाश्रम शारीरिक शिक्षण विभाग-इस विभाग का परिचय देते हुए नौ छोटे-छोटे लेख पहले 'शारीरिक शिक्षण पत्रिका' में १९४९ और १९५० में छपे थे । बीच के उप-विभागों में शारीरिक शिक्षण के वार्षिक समारोहों और प्रतियोगिताओं के समय दिये गये लिखित और ध्वन्याकित संदेश हैं, अगले में सामान्य संदेश. और व्यक्तिगत पत्र हैं और अंतिम विभाग में नारी-शरीर के बारे में एक लेख है जो पहले- पहल १९६० में पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ था ।

 

  ३. न्यू एज एसोसिएशन-ये इस सभा के सेमिनारों को दिये गये संदेश हैं ।

 

  ४. विधालय में माताजी के काम की झांकी- ये पत्र और टिप्पणियां हैं । ये हमारे विद्यालय की एक अध्यापिका के प्रश्रों के उत्तर हैं, इसका काल ९९६० से १९७२ हैं ।

 


  ५. कक्षा के मुखिया को उत्तर-यह शारीरिक शिक्षा-विभाग की एक कप्तान के साथ पत्र-व्यवहार हैं ।

 

  ६. कक्षा के मुखिया को उत्तर-इस विभाग में एक युवा कप्तान को लिखे गये पत्रों से शिक्षासंबंधी पत्रों का संकलन हैं ।

 

  ७. वार्तालाप-इस भाग में १९६७ के दो वार्तालाप तथा फरवरी १९७३ के छ: वार्तालाप हैं । ये शिक्षा के बारे में माताजी के अंतिम वक्तव्य हैं ।

 

 तीसरा भाग : नाटक

 

   आश्रम विधालय के वार्षिकोत्सव के सिलसिले में हर वर्ष पहली दिसम्बर को नाटक हुआ करता है जिसमें यहां के बिधार्थी और अध्यापक भाग लेते हैं । माताजी ने इस अवसर के लिये तीन नाटक लिखे थे । 'भविष्य की ओर' १९४९ में, 'महान रहस्य' १९५४ में और 'सत्य की ओर आरोहण' १९५७ में मंच पर खेले गये थे । 'महान् रहस्य' के बारे में माताजी का एक पत्र भी छापा जा का हैं ।

 

   यह माताजी के शताब्दी-ग्रंथ-संग्रह का बारहवां खंड है । जैसा कि हम हमेशा कहते आये हैं, माताजी के शब्दों का अनुवाद करना एक असंभव काम है । जो लोग मुल नहीं पढ़ सकते उनके लिये 'श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-केंद्र' के हिन्दी विभाग ने यह अनुवाद तैयार किया है ।

भाग १

 

शिक्षा-विषयक लेख

 

  मै इन लेखों में सारी यौगिक परिभाषा को साधारण शब्दों में रखने की कोशिश कर रहीं हूं, क्योंकि ये 'बुलेटिन' अधिकतर ऐसे लोगों के लिये हैं जो सामान्य जीवन बिताते हैं, साथ ही योग के शिक्षणार्थियों के लिये भी हैं-मेरा मतलब ऐसे लोगों से है जिन्हें मूलतः शुद्ध भौतिक जीवन में रस है लेकिन जो अपने भौतिक जीवन में, सामान्य जीवन की अपेक्षा अधिक पूर्णता प्राप्त करना चाहते हैं । यह बहुत कठिन काम है पर है एक तरह का योग । ये लोग अपने-आपको ''भौतिकवादी'' कहते हैं और अगर योग की परिभाषाओं का उपयोग किया जाये तो वे उत्तेजित या क्षुब्ध हो उठते हैं । इसलिये हमें उनके साथ उन्हीं की भाषा बोलनी चाहिये और ऐसे शब्दों स बचना चाहिये जो उन्हें धक्का दें । लेकिन मैंने अपने जीवन में ऐसे लोगों को देखा है जो अपने-आपको ''भौतिकवादी" कहते तो थे, फिर मी, योग-साधना का दावा करनेवालों की अपेक्षा कहीं अधिक कठोर आत्मसंयम का पालन करते थे ।

 

   हम चाहते यही हैं कि मानवजाति प्रगति करे; चाहे वह योग-साधना का दावा करे या न करे, इसका महत्त्व नहीं हैं, बशर्ते कि वह प्रगति के लिये आवश्यक प्रयास करे।

 

(२५ -१२ -१९५०)

-माताजी

 

 प्रश्र और उत्तर १९५०-५१, 'श्रीमातृवाणी', खण्ड ४, पृ० ७-८


जीवन-विज्ञान

 

अपने-आपको जानना ओर संयत करना

 

  लक्ष्यहीन जीवन दुःखी जीवन होता है ।

 

  तुम में से प्रत्येक का अपना लक्ष्य होना चाहिये । परंतु यह कभी न भूलना कि तुम्हारे लक्ष्य के गुणों पर जीवन के गुण निर्भर होंगे ।

 

  तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये उच्च और विशाल, उदार और निष्काम । तब तुम्हारा जीवन तुम्हारे अपने लिये और दूसरों के लिये भी बहुमूल्य हों जायेगा ।

 

  परंतु तुम्हारा आदर्श चाहे जो भी हो, तुम उसे तबतक पूर्ण रूप से नहीं प्राप्त कर सकते जबतक कि तुम अपने अंदर पूर्णता नहीं पा लते ।

 

  अपनी पूर्णता प्राप्त करने के लिये सबसे पहला पग है अपने विषय में सचेतन होना, अपनी सत्ता के विभिन्न अंगों और उनकी अलग-अलग क्रियाओं के विषय में सचेतन होना । तुम्हें इन सब अंगों को एक-दूसरे से अलग करके देखना और पहचानना सीखना चाहिये ताकि तुम स्पष्ट रूपरो यह पता लगा सको कि तुम्हारे अंदर जो सब क्रियाएं होती हैं, तुम्हें कर्म में जोतनेवाले जो अनेक प्रकार के आवेगप्रवेग, प्रतिक्रियाएं और परस्पर-विरोधी इच्छाएं तुम्हारे अंदर उठती हैं, उन सबका मूल कहां है । यह एक श्रमसाध्य अध्ययन होगा और इसके लिये बहुत अधिक लगन और सच्चाई की आवश्यकता है । क्योंकि मानव स्वभाव की, विशेषकर मन के स्वभाव की यह एक सहज-प्रवृत्ति हैं कि हम जौ कुछ सोचते, अनुभव करते, कहते और करते हैं उसकी हम एक अनुकूल व्याख्या दे डालते हैं । जब हम बहुत अधिक सावधानी के सत इन सब क्रियाओं को देखेंगे, माना इन्हें अपने उच्चतम आदर्श के न्यायालय में पेश करेंगे और उसके निर्णय के सामने झुक जाने को एक सच्चा संकल्प बनाये रहेंगे, केवल तभी हम यह आशा कर सकते हैं कि हमारे अंदर एक ऐसा विवेक उत्पन्न होगा जो कभी भूल न करे । अगर हम सचमुच उन्नति करना और अपनी सत्ता के सत्य को जानने की क्षमता प्राप्त करना चाहते हैं, अर्थात् उस एक बात को जान लेना चाहते हैं जिसके लिये वास्तव में हमने जन्म लिया , जिसे हम इस पृथ्वी पर अपना उद्देश्य कह सकते हैं, तो फिर, जो चीजें हमारी सत्ता के सत्य का खंडन करती हैं, जो चीजें उसका विरोध करती हैं, उन सबको हमें खूब नियमित रूप से और निरंतर होनेवाली एक क्रिया के द्वारा अपने अंदर से निकालते रहना होगा अथवा उन्हें अपने अंदर नष्ट करते रहना होगा । बस, इसी तरह धीरे-धीरे हमारी सत्ता के सभी भाग, सर्दा अंग संघटित होकर हमारे चैत्य केंद्र के इर्द-गिर्द एक पूर्ण सुसमंजस वस्तु का रूप ग्रहण कर सकेंगे । इस एकीकरण के कार्य को एक हदतक पूर्णता प्राप्त कराने के लिये एक लंबे समय की आवश्यकता होती हैं । इसीलिये, इसे सिद्ध. करने के लिये,

 


हमें धैर्य और सहनशीलता-रूपी अस्त्रों से सुसज्जित होना चाहिये और यह निश्चय कर लेना चाहिये कि अपने प्रयास को सफल बनाने के लिये जितने दिनों तक अपना जीवन बनाये रखने की आवश्यकता होगी उतने दिनों तक बनाये रखेंगे ।

 

  और इस पवित्रीकरण और एकीकरण का प्रयास करने के साथ-हीं-साथ हमें अपनी खत्ता के यंत्रवत् काम करनेवाले बाहरी भाग को पूर्ण बनाने की ओर भी बहुत अधिक ध्यान देना चाहिये । जब उच्चतर सत्य अभिव्यक्त होना चाहे तब उसे तुम्हारे अंदर एक ऐसी मनोमय सत्ता मिलनी चाहिये जो पर्याप्त रूप में सूक्ष्म और समृद्ध हों, जो प्रकट होने की चेष्टा करनेवाली भावना को विचार का एक ऐसा रूप देने में समर्थ हों जो उसकी शक्ति और स्पष्टता की रक्षा कर सके । फिर, वह विचार जब शब्दों का जामा पहनने की चेष्टा करे तब तुम्हारे अंदर उसे अपने को व्यक्त करने की यथेष्ट शक्ति प्राप्त हों ताकि शब्द उस विचार को प्रकाशित कर सकें और उसे विकृत न कर डालें । और जिस सिद्धांत के अंदर तुम सत्य को मूर्तिमान करते हो, उसे तुम्हारे सभी मनोभावों, तुम्हारी सभी इच्छाओं और क्रियाओं, तुम्हारी सत्ता के सभी किया-कलापों मे ह्मलकते रहना चाहिये । और अंत में, निरंतर प्रयास के द्वारा, स्वयं इन सब क्रियाओं को भी अपनी उच्चतम पूर्णता प्राप्त करनी चाहिये ।

 

  यह सब एक चतुर्विध साधना के दुरा प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी साधारण रूप-रेखा हम यहां दे रहे हैं । इस साधना के ये चारों रूप एक-दूसरे से अलग-अलग नहीं हैं, इनका अनुसरण मनुष्य एक साथ ही कर सकता हैं; वास्तव में, ऐसा करना हीं अधिक अच्छा है । इस साधना का जहां से आरंभ होता है उसे हम चैत्य साधना कह सकते हैं । हम अपनी सत्ता की अंतश्चेतना के केंद्र को अपने जीवन के उच्चतम सत्य के आंतर धाम को ''चैत्य' ' नाम से पुकारते हैं, यहीं वह केंद्र हैं जो इस सत्य को जान सकता है और अभिव्यक्त कर सकता है । अतएव, हमारे लिये सबसे प्रधान बात यह है कि हम अपने अंदर इसकी उपस्थिति के अपर ध्यान एकाग्र करें और अपने लिये इसे एक जीवंत सत्य बना लें और इसके साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लें ।

 

  इस सचेतनता को प्राप्त करने के लिये और अंत में इस तादात्म्य को सिद्ध करने के लिये देश और काल के अंतर्गत बहुत-सी पद्धतियां निश्रित की गयी हैं और कुछ यांत्रिक भी हैं । सच पूछा जाये तो प्रत्येक मनुष्य को वह पद्धति ढूंढ निकालनी होगी जो उसके लिये सबसे अधिक उपयुक्त हो । और अगर साधक में सच्ची और सुदृढ़ अभीप्सा हो, अदद और सक्रिय संकल्प-शक्ति हों तो यह निश्रित हैं कि वह एक-न- एक तरीके से, बाहर से अध्ययन और उपदेश के द्वारा, भीतर से एकाग्रता, ध्यान, अनुभव और दर्शन के दुरा उस सहायता को अवश्य पायेगा जो लक्ष्य तक पहुंचने के लिये उसके लिये आवश्यक है केवल एक हीं चीज है जो पूर्ण रूप से अनिवार्य है और वह बे उसे खोज निकालने और प्राप्त करने का संकल्प । यह खोजने और प्राप्त

 


करने का प्रयास हीं जीव का सबसे पहला कार्य होना चाहिये, यही वह बहुमूल्य मोती है जिसे हमें चाहे किसी मूल्य पर प्राप्त करना चाहिये । तुम चाहे जौ कुछ करो, तुम्हारा व्यवसाय और कार्य जो भी हों, अपनी सत्ता के सत्य को पाने और उसके साथ युक्त होने का तुम्हारा संकल्प बराबर ही जीवंत बना रहना चाहिये, जो कुछ तुम करते हों, जो कुछ तुम अनुभव करते हो और जो कुछ तुम विचार करते हो, उस सबके पीछे उसे सदा विद्यमान रहना चाहिये । '

 

  आंतरिक खोज की इस क्रिया को पूरा करने के लिये यह अच्छा हैं कि मानसिक विकास की उपेक्षा न की जाये । क्योंकि हमारा मनोमय यंत्र एक समान हीं हमारा बहुत बहा सहायक या बहुत बड़ा बाधक हो सकता है  । अपनी सबसे स्वाभाविक स्थिति में मानव मन बराबर हीं अपनी दृष्टि में सीमित होता है, अपनी समझ में संकीर्ण और अपनी परिकल्पनाओं में कठोर । और इसे विशाल, गभीर और नमनीय बनाने के लिये कुछ प्रयास की आवश्यकता होती है  इसलिये यह बहुत आवश्यक है कि मनुष्य प्रत्येक बात पर जितने दृष्टिकोण से विचार करना संभव हो उतने दृष्टिकोण सै विचार करे । इस विषय से संबंधित एक अभ्यास ऐसा हैं जो विचार में बहुत अधिक नमनीयता और ऊंचाई ला देता है । वह इस प्रकार है : स्पष्ट रूप सें प्रकट की गयी एक प्रतिज्ञा-एक प्रतिपाद्य मत सामने रख देना चाहिये, फिर उसके मुकाबले में उसका विरोधी मत भी ला उपस्थित करना चाहिये जो वैसी हीं सूक्ष्मता के साथ प्रकट किया गया हो । फिर, सावधानी के साथ सोचते-विचारते हुए उस समस्या को विस्तारित करना चाहिये अथवा उसका अतिक्रम करना चाहिये, ताकि एक ऐसा समन्वय प्राप्त हो जाये जो उन अत्यंत विरोधी मातों को भी एक विशालतर, उच्चतर और अधिक व्यापक भावना के अंदर युक्त कर दे ।

 

   इसी तरह के बहुत-से अभ्यास काम में लाये जा सकते हैं; ऐसे कुछ अम्यासों का चरित्र के ऊपर लाभदायी प्रभाव पड़ता है और इसलिये वे द्विविध लाभ प्रदान करते हैं एक ओर तो वे मन को विकसित करते हैं और दूसरी ओर मनुष्य के अनुभवों और उनके परिणामों के ऊपर संयम स्थापित करते हैं । उदाहरणार्थ, तुम्हें वस्तुओं और लोगों के विषय में अपने मन को कोई निर्णय नहीं करने देना चाहिये, क्योंकि मन ज्ञान का यंत्र नहीं है-यह तो ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ  बल्कि इसे स्वयं ज्ञान के द्वारा चालित होना चाहिये । ज्ञान तो उस क्षेत्र की चीज हैं जो मानव मन के क्षेत्र से बहुत ऊपर है, यहां तक कि वह शुद्ध भावनाओं के क्षेत्र से भी परे हैं । मन को निक्षल-नीरव और सतर्क बनाना होगा ताकि वह ऊपर से ज्ञान को ग्रहण कर सके और उसे अभिव्यक्त कर सके, क्योंकि वह रूप देने, संघटन करने और कार्य करने का यंत्र है । वास्तव में, इन्हीं कार्यों के अंदर वह अपने पूरे मूल्य और यथार्थ उपयोगिता को प्राप्त करता है ।

 

  एक दूसरा अभ्यास है जो चेतना की प्रगति में बहुत अधिक सहायक हों सकता हैं ।

 


जब कभी किसी विषय पर मतभेद हो, जैसे कि कोई निर्णय करने के समय अथवा कोई कार्य पूरा करने के समय, तब हमें कभी अपनी धारणा या दृष्टिकोण सें चिपके नहीं रहना चाहिये । बल्कि, इसके विपरीत, हमें दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करना चाहिये, अपने-आपको उसके स्थान पर रख देना चाहिये और तर्क- वितर्क या, यहांतक कि, लड़ाई-झगड़ा करने के बदले, एक ऐसा समाधान इदं निकालना चाहिये जो दोनों पक्षों को युक्तिसंगत ढंग से संतुष्ट कर सके सदिच्छा- संपन्न मनुष्यों के लिये बराबर ही ऐसा एक समाधान तैयार रहता है ।

 

  यहां पर अब प्राण को विकसित करने की चर्चा भी अवश्य करनी चाहिये । हमारे अंदर यह प्राणमय सत्ता ही आवेग-प्रवेग और कामना-वासना का, उत्साह और तीव्रता का, क्रियात्मक शक्ति और निराशापूर्ण अवसाद का, उत्तेजना और विद्रोह का घर है, यह प्रत्येक चीज को गति प्रदान कर सकतीं, गूढ़ सकतीं और सिद्ध कर सकती है, साथ हीं यह प्रत्येक चीज को तोड़-फोड़ और नष्ट भी कर सख्ती है । ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य के अंदर यही भाग ऐसा है जिसे उन्नत करना सबसे अधिक कठिन है । इसे उन्नत करना दीर्घ परिश्रम का कार्य है और इसके लिये महान् धैर्य की आवश्यकता है, और यह पूर्ण सच्चाई की अपेक्षा रखता हूं । क्योंकि सच्चाई न होने पर मनुष्य एकदम आरंभ से ही अपने-आपको धोखा देने लगेगा और उन्नति का उसका सारा प्रयास व्यर्थ चला जायेगा । अगर प्राण का सहयोग प्राप्त हो तो कोई भी सिद्धि असंभव नहीं मालूम होती, किसी प्रकार का रूपांतर असाध्य नहीं प्रतीत होता । परंतु निरंतर उसका यह सहयोग प्राप्त करना बड़ा कठिन है । प्राण एक अच्छा कार्यकर्ता है, परंतु अधिकांश मे वह अपनी तुष्टि की चेष्टा करता है । अगर उसकी कामना पूरी नहीं की जाती है, चाहे वह पूर्ण रूप में या आशिक रूप में भी, तो वह झूँझल जाता है और नाराज हो जाता है ओर हड़ताल कर बैठता हैं । फलस्वरूप, कम या अधिक पूर्ण रूप से शक्ति विलीन हो जाती है और अपने स्थान में मनुष्यों और वस्तुओं के प्रति विराग, निरुत्साह या विद्रोह, अवसाद और असंतोष छोड़ जाती है । ऐसे मौक़ों पर मनुष्य को स्थिर-अचंचल बने रहना चाहिये और क्रिया करना अस्वीकार कर देना चाहिये, क्योंकि ऐसे ही समय मे लोग मूर्खतापूर्ण कार्य कर बैठते हैं और जिस चजि को उन्होंने महीनों निरंतर प्रयास करके प्राप्त किया होता है उसको, उसका द्वारा प्राप्त की हुई सारी उन्नति को, है  कुछ मिनिटों में ही बिगाड़ या चौपट कर सकते हैं । ये सब कठिन परिस्थितियां उन सब लोगों के लिये कम टिकाऊ और कम खतरनाक होती हैं जिन्हेंने अपने महापुरुष के साथ ऐसा संस्पर्श स्थापित कर लिया हैं जो उनके अंदर अभीप्सा की ज्योति को सजीव रखने के लिये और जिस आदर्श को सिद्ध करना है उसका बोध बनाये रखने के लिये पर्याप्त है । वे लोग इस चेतना की सहायता से, धैर्य और लगन से अपने प्राण के साथ एक विद्रोही बच्चे की तरह व्यवहार कर सकते हैं, उसे सत्य और ज्योति दिखा सकते हैं, उसमें विश्वास जमाने का और जो सदिच्छा कुछ

 


समय के लिये आच्छादित हो गयी थीं, उसे उनमें जगाने का प्रयास कर सकते हैं । ऐसे धैर्यपूर्ण हस्तशेप की सहायता से प्रत्येक कठिन परिस्थिति को एक नयी प्रगति के रूप में, लक्ष्य की ओर बड़े हुए एक नये पग के रूप में परिवर्तित किया जा सकता हे । प्रगति धीमी हो सकतीं है, पतन बार-बार हो सकता है, पर यदि साहसपूर्ण संकल्प बनाये रखा जाये, तो यह निहित है कि हम एक दिन विजयी होंगे और यह देखेंमें कि सभी कठिनाइयां सत्य की जाज्वल्यमान चेतना के सामने गल गयी या विलीन हो गयी हैं ।

 

  अंत में, एक युक्तिसंगत और स्पष्टदर्शी शारीरिक शिक्षण के द्वारा हमें अपने शरीर को सुदृढ़ ओर सुकोमल अवश्य बनाना चाहिये ताकि जो सत्य-शक्ति हमारे अंदर अभिव्यक्त होना चाहती है उसके लिये हमारा शरीर इस जड़ जगत् के अंदर एक उपयुक्त यंत्र बन सके ।

 

    वास्तव में, शरीर को कभी हुक्म नहीं चलाना चाहिये, उसे तो हुक्म मानना चाहिये । अपने सहज-स्वभाव में वह एक अनुगत और' विश्वासपात्र सेवक है । दुर्भाग्यवश, अपने प्रभुओं के-मन और प्राण के-विषय में विवेक-विचार करने की क्षमता बहुधा उसमें नहीं होती ! वह अंध-भाव से, अपने निजी हित का बलिदान देकर भी, उनकी आज्ञा का पालन करता है । मन अपने मतवादों, अपने कठोर बघौर मनगढ़ंत सद्धांतों के द्वारा, प्राण अपनी उत्तेजनाओं, अपनी ज्यादतियों और दुवृत्तियों के द्वारा शरीर की स्वाभाविक समतोलता नष्ट करने के लिये और उसमें थकान, दुर्बलता और रोग उत्पन्न करने के लिये शीघ्र सब कुछ कर डालेंगे । इस अत्याचार से शरीर को अवश्य मुक्त करना होगा, और चैत्य केंद्र के साथ सत्ता का निरंतर एकत्व स्थापित करने पर ऐसा करना संभव हो सकता है । हमारे शरीर में मेल बैठने और सहन करने को अद्भुत क्षमता हैं । हम साधारणतया जितना अनुमान कर सकते हैं उससे बहुत अधिक कार्य करने की क्षमता उसमें है । अभी जो अज्ञानी और स्वेच्छारगरी प्रभु इस पर शासन कर रहे हैं उनके स्थान में यदि सत्ता के केंद्रीय सत्य का शासन इस पर हो जाये नौ उस समय इसकी कार्यक्षमता को देखकर मनुष्य दंग रह जायेगा । तब शांत और स्थिर, दृढ़ और अचल रहते हुए हम जितना चाहें उतना प्रयास वह प्रत्येक मुहूर्त करेगा, क्योंकि उस समय वह सीख चुका होगा कि काम के अंदर किस तरह विश्राम लिया जाता है, जिस शक्ति को वह ज्ञानपूर्वक और लाग के लिये खर्च कर रहा है उसकी पूर्ति वह विश्वशक्तियों के साथ संस्पर्श स्थापित करके किस प्रकार कर सकता हैं । इस स्वस्थ और संतुत्श्ति जीवन में शरीर के अंदर एक नया सामंजस्य अभिव्यक्त होगा जो उच्चतर क्षेत्रों के सामंजस्य को प्रतिबिंबित करगा और यह उच्चतर सामंजस्य शरीर को पूर्ण अंगसौष्ठव और आदर्श सौंदर्य प्रदान करेगा । और यह सामंजस्य क्रमश: बढ़ता रहेगा, क्योंकि सत्ता का सत्य कर्ता अचल-अटल नहीं होता । वह निरंतर एक वर्द्धनशील, एक अधिकाधिक सर्वागीण और सर्वग्राही परिपूर्णता की ओर खुलता रहता

 


है । जैसे ही शरीर एक क्रमवर्द्धमान सामंजस्य की मति का अनुसरण करना सीख लेगा, वैसे ही उसके लिये, रूपांतर-सिद्धि की लगातार होनेवाली एक प्रक्रिया के द्वारा, भंग और विनष्ट होने की आवश्यकता से बच जाना संभव हो जायेगा । इस तरह मृत्यु के अटल विधान के बने रहने के लिये कोई कारण नहीं रह जायेगा ।

 

  जब हम पूर्णता की इस मात्रा को प्राप्त हो जायेंगे, जो कि हमारा लक्ष्य है , तब हम देखेंगे कि जिस सत्य की खोज हम कर रहे हैं वह चार प्रधान चीजों सें बना है- प्रेम, ज्ञान, शक्ति और सौंदर्य । सत्य के ये चारों रूप अपने-आप हमारी सत्ता के अंदर अभिव्यक्त होंगे । चैत्य पुरुष होगा सच्चे और शुद्ध प्रेम का वाहन, मन होगा अभ्रांत ज्ञान का यंत्र, प्राण प्रकट करेगा एक अदम्य शक्ति और सामर्थ्य; और शरीर बन जायेगा पूर्ण सौंदर्य और पूर्ण सामंजस्य की प्रतिमा ।

 

('बुलेटिन', नवम्बर १९५०)

 

शिक्षा

 

मनुष्य की शिक्षा उसके जन्मकाल से ही आरंभ हों जानी चाहिये और उसके समूचे जीवन चलती रहनी चाहिये । बल्कि, सच पूछा जाये तो, यदि शिक्षा को अत्यधिक मात्रा मे फलदायक होना हो तो उसे जन्म से पहले ही आरंभ हों जाना चाहिये । वास्तव मे, स्वयं माता ही इस शिक्षा का प्रारंभ द्विविध क्रिया के द्वारा करती हैं : सबसे पहले यह अपनी निजी उबरती के लिये उसे स्वयं अपने ऊपर आरंभ करती है, और फिर उसे बच्चे के अपर आरंभ करती हैं जिसे वह अपने अंदर स्थूल रूप में बढ़ती है । यह बात निशित है कि जन्म लेनेवाले बच्चे का स्वभाव बहुत कुछ उसे उत्पन्न करनेवाली माता पर, उसकी अभीप्सा और संकल्प पर निर्भर रहता है, और जिस भौतिक वातावरण में वह निवास करती है उसका प्रभाव तो पड़ता हीं है । जो शिक्षा मां को प्राप्त करनी है उसके लिये यह बात ध्यान में रखनी होगी कि उसके विचार सदा सुंदर और शुद्ध हों, भाव उच्च और सूक्ष्म तथा चारों ओर का वातावरण यथासंभव सुसमंजस और अत्यंत सादगी से भरा हुआ हो । और अगर इसके साथ ही वह चेतन और निशित रूप में यह इच्छा भी रखे कि वह जिस ऊंचे-से-ऊंचे आदर्श को धारण कर सकती है उसी के अनुसार वह बच्चे को बनायेगी तो बच्चे को संसार में आने के लिये खूब उत्तम अवस्थाएं प्राप्त करनी होगी और उसके लिये अधिक-से-अधिक संभावनाएं खुल जायेगी । भला ऐसी अवस्था में कितने अधिक कठिन प्रयासों और निरर्थक जटिलताओं से बचा जा सकता है !

 

   शिक्षा के पूर्ण होने के लिये उसमें पांच प्रधान पहलू होने चाहिये । इनका संबंध मनुष्य की पांच प्रधान क्रियाओं से होगा- भौतिक, प्राणिक, मानसिक, आतरात्मिक और आध्यात्मिक । साधारणतया, शिक्षा के ये सब पहलू व्यक्ति के विकास के अनुसार, एक के बाद एक, कालक्रम से आरंभ होते हैं । परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि एक पहलू दूसरे का स्थान ले ले, बल्कि सभी पहलुओं को जीवन के अंत काल तक, परस्पर एक-दूसरे को पूर्ण बनाते हुए जारी रहना चाहिये ।

 

   हम यहां शिक्षा के इन पांचों पहलुओं पर एक-एक करके विचार करेंगे और उनका पारस्परिक संबंध मी समझने का प्रयत्न करेंगे परंतु इस विषय के विस्तार में जाने से पहले मै माता-पिताओं को एक सलाह देना चाहती हूं । इनमें अधिकतर लोग विभिन्न कारणों से बच्चों की सच्ची शिक्षा के विषय में बहुत कम सोचते हैं । जब उन्होंने संसार मैं एक बच्चे को जन्म दे दिया, उसके भोजन का प्रबंध कर दिया तथा उसका स्वास्थ्य बनाये रखने के लिये लगभग काफी अच्छे ढंग से देखभाल रखते हुए उसकी विभिन्न भौतिक आवश्यकताएं पूरी कर दी तब वे समझ लेते हैं कि उन्होंने अपना कर्तव्य पूरी तौर से निभा दिया है । कुछ दिन बाद वे उसे स्कूल में प्रविष्ट करा देंगे और उसकी मानसिक शिक्षा का भार अध्यापक के हाथों में सौंप देंगे ।

 


  कुछ माता-पिता ऐसे भी हैं जो यह जानते हैं कि उनके बच्चे को शिक्षा मिलनी चाहिये और वे उसे शिक्षा देने की चेष्टा भी करते हैं । पर उनमें से बहुत थोड़े लोग-जो इस विषय में अत्यंत तत्पर और सच्चे होते हैं उनमें से भी बहुत थोड़े लोग- -यह जानते हैं कि बच्चे को शिक्षा देने की योग्यता प्राप्त करने के लिये सबसे पहला कर्तव्य हे अपने-आपको शिक्षा देना, अपने विषय में सचेतन होना और अपने ऊपर प्रभुत्व स्थापित करना, ताकि हम अपने बच्चे के सामने कोई बुरा उदाहरण न पेश करें । क्योंकि एकमात्र उदाहरण के द्वारा ही शिक्षा फलदायी बनाती है । यदि हम अपने जीवत् उदाहरण के द्वारा अपनी सिखायी बातों का सत्य उसे. न दिखा दें तो केवल अच्छी बातें कहने और बुद्धिमानी का परामर्श देने का, बच्चे पर बहुत थोड़ा प्रभाव पड़ता है । सच्चाई, ईमानदारी, स्पष्टवादिता, साहस, निष्काम-भाव, निः स्वार्थता, धैर्य, सहनशीलता, अध्यवसाय, शांति, स्थिरता, आत्म-संयम आदि सभी ऐसे गुण हैं जौ सुन्दर भाषणों की अपेक्षा अनन्तगुना अधिक अच्छे रूप में अपने उदाहरण के द्वारा सिखाये जाते हैं । माता-पिताओ ! एक ऊंचा आदर्श अपने सामने रखो और उसी आदर्श के अनुकूल सर्वदा कार्य करो । तुम देखेगी कि तुम्हारा बच्चा भी धीरे-धीरे उस आदर्श को अपने अंदर ला रहा है, और जो-जो गुण तुम उसके स्वभाव में देखना चाहते हो उन्हें वह अपने-आप अभिव्यक्त कर रहा हैं । यह अत्यंत स्वाभाविक है कि बच्चे अपने माता-पिता के प्रति आदर और भक्ति-भाव रखते हैं; अगर है एकदम अयोग्य हीं न हों तो वै अपने बच्चों को देवता जैसे प्रतीत होते हैं और बच्चे यथाशक्ति उत्तम-से-उत्तम रूप में उनका अनुकरण करने की चेष्टा करते हैं ।

 

  बहुत थोड़े लोगों को छोड़कर, प्रायः सभी माता-पिता इस बात का विचार नहीं करते कि उनके दोषों, आवेगों, दुर्बलताओं और आत्म-संयम के अभाव का उनके बच्चों पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है । अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा बच्चा तुम्हारा आदर करे तो अपने लिये आदर-भाव रखो और प्रत्येक मुहूर्त सम्मान के योग्य बनो । कभी स्वेच्छाचारी, अत्याचारी, असहिष्णु और क्रोधित मत होओ । जब तुम्हारा बच्चा तुमसे कोई प्रश्र पूछे तब तुम, यह समह्मकर कि वह तुम्हारी बात नहीं समझ सकता, उसे जड़ता और मूर्खता कंप. साथ कोई उत्तर मत दो । अगर तुम थोड़ा कष्ट स्वीकार करो तो तुम सदा ही उसे अपनी बात समझा सकोगे । इस प्रसिद्ध उक्ति के होते हुए भी कि सत्य बोलना सदा अच्छा नहीं होता, मैं दृढ़तापूर्वक कहती हूं कि सत्य बोलना सदा अच्छा होता है । चतुराई केवल इस बात में है कि उसे इस ढंग से कहा जाये कि सुननेवाले का मस्तिष्क उसे ग्रहण कर ले । जीवन के प्रारंभिक काल में बारह से चौदह वर्ष की. अवस्था तक, बच्चों का मन सूक्ष्म भावनाओं और सामान्य विचारों तक नहो पहुंच पाता । फिर भी, तुम ठोस उपमा, रूपक या दृष्टांत द्वारा ये सब चीजें समझने का अभ्यास उसे करा सकते हों । काफी बढ़ी उम्र तक और जो लोग मानसिक रूप से सदा छोटे ही बने रहते हैं उन लोगों के लिये सैद्धांतिक विवेचन के एक- ढेर की

 

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अपेक्षा, एक आख्यान, एक कथानक, यदि अच्छे ढंग से कहा जाये तो, अधिक शिक्षाप्रद होता है ।

 

   एक और भूल से तुम्हें बचना होगा : जबतक कोई निश्रित उद्देश्य न हो ओर एकदम अनिवार्य न हो जाये तबतक कभी अपनी बच्चे को बुरा-भला मत कहो । बार-बार डांट-फटकार खाने सें बच्चा उसके प्रति कुंद हो जाता है और फिर वह शब्दों और स्वर की कठोरता को बहुत अधिक महत्त्व नहीं देता । विशेषकर इस बात की सावधानी रखो कि ऐसे अपराध के लिये, जिसे तुम स्वयं करते हों, उसे कभी मत डांट । बच्चों की दृष्टि बड़ी पैनी और साफ होती है, वे बहुत जल्दी तुम्हारी दुर्बलताओं का पता लगा लेते हैं और उन्हें बिना किसी दयाभाव के नोट कर लेते हैं ।

 

  जब बच्चा कोई भूल कर बैठे तो अपनी ओर से ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दो कि वह अपने-आप सरलता और सच्चाई के साथ उसे स्वीकार कर ले । और जब वह स्वीकार कर ले तब तुम दयालुता और प्रेम के साथ उसे समझा दो कि उसके कार्य में -क्या स्व थी और फिर उसे दुबारा वैसा नहीं करना चाहिये । किसी भी हालत में उसे बुरा-भला मत कहो, स्वीकार किये हुए अपराध को अवश्य क्षमा कर देना चाहिये । तुम्हें अपने और अपने बच्चे के बीच किसी प्रकार का भय नहीं घुसने देना चाहिये, भय के द्रारा शिक्षा देना बड़ा खतरनाक तरीका है, यह सदा हीं छल-काष्ठ और असत्य को उत्पन्न करता हैं । स्पष्टदर्शी, सुदृढ़ पर साथ ही कोमल प्रेम और पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान विश्वास का बंधन पैदा करते हैं जो तुम्हारे बच्चे की शिक्षा को फलदायी बनाने के लिये अत्यंत आवश्यक होता हैं । ओर फिर, यह कभी न भूलो कि तुम्हें अपने कर्तव्य के शिखर पर स्थित रहने तथा उसे वास्तविक रूप में निभाने के त्रिये सदा और निरंतर अपर उठना होगा । बच्चे को जन्म देने के नाते हीं तुम्हें उसके प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिये ।

 

('बुलेटिन', फरवरी १९५१)

 

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शारीरिक शिक्षा

 

मानव चेतना के जितने मी स्तर हैं उनमें भौतिक स्तर एक ऐसा स्तर है जो पूरी तरह से पद्धति, व्यवस्था, अनुशासन और प्रणाली के दुरा नियंत्रित होता है । जड़-तत्त्व में जो नमनीयता और ग्रहणशीलता का अभाव है उसके स्थान पर हमें पूरे झल्ले के साथ एक ऐसा सुसंगठन ले आना होगा जो सच्चा भी हों और व्यापक भी । इस सुसंगठन को लाते हुए, अवश्य ही हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि हमारी सत्ता के सभी लोक-लोकतंत्र परस्पर-संबद्ध एक-दूसरे पर आश्रित और एक-दूसरे में प्रवेश किये हुए हैं । फिर भी, यदि किसी मानसिक या प्राणिक आवेग को शरीर के अंदर व्यक्त होना हो तो उसे एक अनुचित और सुनिश्चित प्रणाली का अनुसरण करना होगा । यहीं कारण है कि शरीर की समस्त शिक्षा को, अगर उसे फलोत्पादक होना हो तो, कठोर और सविस्तार, पूर्वदर्शी और प्रणालीबद्ध होना होगा । उसे आदतों का रूप ग्रहण कर लेना होगा, क्योंकि शरीर सचमुच अम्यासों से गठित एक सत्ता है । परंतु वे सब अभ्यास संयमित और नियमित होने चाहिये और साथ हीं उनमें इतनी पर्याप्त मात्रा में लोच होनी चाहिये कि वे सभी परिस्थितियों और मानव आधार की वृद्धि और विकास की आवश्यकताओं के अनुकूल अपने को ढाल सकें ।

 

  शरीर की समस्त शिक्षा एकदम जन्म के साथ ही आरंभ हों जानी चाहिये और जीवन-भर चलती रहनी चाहिये । उसके विषय मे ऐसा कभी नहीं कहा जा सकता कि उसका आरंभ बहुत जल्दी हो गया है अथवा वह बहुत देर तक चल रहीं है ।

 

  शरीर की शिक्षा के तीन प्रधान रूप हैं : १. शारीरिक क्रियाओं को संयमित और नियमित करना, २. शरीर के सभी अंगों और क्रियाओं का सर्वांगपूर्ण, प्रणाली-बद्ध और सुसमंजस विकास करना और है. अगर शरीर में कोई दोष या विकृति हो तो उसे सुधारना ।

 

  यह कहा जा सकता है कि जीवन के एकदम आरंभिक दिनों सें हीं, बल्कि करीब- करीब आरंभिक घंटों से हीं, बच्चे को भोजन, नींद, मलत्याग इत्यादि के विषय में पहले प्रकार की शिक्षा देती चाहिये । अगर बच्चा अपने जीवन के एकदम प्रारंभ से अच्छी आदतें डाल लें तो वह जीवन-भर बहुत-सी तकलीफों और असुविधाओं से बचा रहेगा, साथ हीं उसके जीवन के आरंभिक वर्षों में उसकी देखभाल का भार जिन लोगों पर होगा उनका काम भी बहुत अधिक आसान हो जायेगा ।

 

  लोगों की यह मान्यता है कि अगर इस शिक्षा को युक्तिपूर्ण, उन्नत और फलदायी होना हों तो यह अवश्य हीं मानव शरीर के सरसरे ज्ञान पर, उसकी रचना और उसकी क्रियाओं के ज्ञान पर आश्रित होनी चाहिये । जैसे-जैसे बच्चा बड़ा हो, वैसे-वैसे उसे अपने अंग-प्रत्यंचों की क्रियाओं को देखने का अभ्यास कराना चाहिये ताकि वह उन्हें अधिकाधिक नियमित कर सके, इस बात का ध्यान रख सकें कि उनकी क्रियाएं

 

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स्वाभाविक और सुसमंजस हों । जहांतक उठने-बैठने, हिलने-डुलने एवं अन्य चेष्टाओं के ढंग का प्रश्र है, बुरी आदतें बहुत कम उम्र में और बहुत जल्दी हीं बन जाती हैं और वे सारे जीवन के लिये बड़े खतरनाक परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं । जो लोग शिक्षा के प्रश्र पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हैं, अपने बच्चों को स्वाभाविक ढंग से विकसित होने के लिये उत्तमोत्तम सुविधाएं देना चाहते हैं, उन सबको आवश्यक सूचनाएं और उपदेश आसानी से प्राप्त हो सकते हैं । आज इस विषय का अध्ययन अधिकाधिक सावधानी के साथ किया जा रहा है और बहुत-सी पुस्तकें प्रकाशित हुई और हों रहीं हैं जो इस विषय पर आवश्यक सभी प्रकार के निर्देश और ज्ञान प्रदान करती हैं ।

 

  यहां मेरे लिये यह संभव नहीं कि इस विषय के समाधान के लिये पूरे ब्योरे के साथ इसकी कार्य-प्रणाली में प्रवेश करूं, और फिर प्रत्येक समस्या हीं अन्यों से मित्र है और समाधान भी प्रत्येक व्यक्ति के प्रसंग मे अलग और समुचित होना चाहिये । भोजन के प्रश्र का अध्ययन खूब विस्तार और सावधानी के साथ किया गया हैं; बच्चों के विकास मै सहायता देनेवाले खाद्य पदार्थों को साधारणतया लोग जानते हैं और उनका उपयोग कर लाभ उठा सकते हैं । परंतु यहां यह याद रखना बहुत आवश्यक है कि शरीर की सहज-बुद्धि जबतक कि वह ज्यों-की-त्यों बनी रहती है, सभी सद्धांतों से अधिक जानती है । यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे बच्चे स्वाभाविक ढंग से विकसित हों तो तुम्हें उन्हें ऐसा भोजन खाने के लिये बाध्य नहीं करना चाहिये जिससे है अब गये हों, क्योंकि शरीर में प्रायः एक सुलिखित सहज-बोध होता हैं जिससे वह जान लेता है कि उसके लिये कौन-सी चीज हानिकारक है । अवश्य ही, अगर बच्चा चंचल और मनमौजी हों तो बात दूसरी है ।

 

  अपनी साधारण स्थिति मे, अर्थात् मानसिक धारणाओं या प्राणिक आवेगों का कोई हस्तक्षेप न हों तो, शरीर यह भली-भांति जानता है कि उसके लिये कौन-सी चीज अच्छी ओर आवश्यक है; पर इस प्रकार की स्थिति सामान्य रूप से केवल तभी आसकती है जब कि बच्चे को खूब सावधानी के साथ शिक्षा दी गयी हों और वह वासनाओं को, आवश्यकताओं को पृथक करना सीख गया हो । जो भोजन सादा और स्वास्थ्यप्रद हो, सार-तत्त्व से भरपूर और भूख बढ़ानेवाला हो, सब प्रकार की व्यर्थ की जटिलताओं से खाली हो, उसका स्वाद उसे पड़ता चाहिये । उसे अपने रोज के भोजन मे उन सब चीजों से अवश्य परहेज रखना चाहिये जो महज पेट को भर देती और भारीपन ले आती हैं; विशेषकर उसे यह सिखाना चाहिये कि वह अपनी भूख के अनुसार भोजन करे, न अधिक, न कम, और न अपने लोभ और पेटूपन को तृप्त करने का एक अवसर समझकर भोजन करे । बिलकुल बचपन से हीं हमें यह जान लेना चाहिये कि हम अपने शरीर को सबल और स्वस्थ रखने के लिये भोजन करते हैं, रसना के सुखों का उपभोग करने के लिये नहीं । बच्चे को वही भोजन देना चाहिये जो उसके स्वभाव के अनुकूल हो, स्वास्थ्य और स्वच्छता-संबंधी नियमों के अनुसार

 

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बना हों, जो खाने मैं स्वादिष्ट हा और फिर भी बहुत सादा हो ओर यह भोजन बच्चे की उस और उसके नियमित कार्य के अनुसार चूना और नपा होना चाहिये, इसमें वे सभी रासायनिक और शक्तिशाली तत्त्व होने चाहियें जो शरीर के सभी अंगों के विकास और संतुलित वृद्धि के लिये आवश्यक हैं ।

 

  क्योंकि बच्चे को वही भोजन दिया जायेगा जो उसके स्वास्थ्य की रक्षा करने और आवश्यक शक्ति प्रदान करने के लिये आवश्यक होगा; हमें डस विषय मे खूब सावधान रहना चाहिये कि 'बच्चे को परेशान करने या दण्ड देने के एक उपाय के रूप में भोजन का उपयोग न किया जाये । बच्चे को यह कहने की आदत कि 'तुम अच्छे बच्चे नहीं हो, तुम्हें तीसरे पहर का कलेवा नहीं दिया जायेगा इत्यादि, बहुत हानिकारक है । ऐसा कहकर तुम उसकी उन्हीं-सी चेतना मे यह संस्कार उत्पन्न करते हो कि भोजन उसे मुख्यतः अपनी लोभ-लालसा को दृष्ट करने के लिये दिया जाता है, न कि इसलिये कि वह उसके शरीर के अच्छे ढंग से कार्य करते रहने के लिये अनिवार्य है ।

 

  उसके बाद, एक दूसरी बात बच्चे को एकदम बाल्यकाल मे हीं सिखाना चाहिये और वह है- स्वच्छता और स्वस्थ आदतों के प्रति अनुराग । अगर तुम चाहते हो कि स्वच्छता के लिये यह अनुराग स्वास्थ्य के नियमों के लिये आदर-भाव बच्चे में दिखायी दें तो तुम्हें बड़ा सावधानी के साथ यह ख्याल भी करना चाहिये कि कहीं तुम उसके अंदर बीमारी का भय न भर दो । भय शिक्षा के लिये सबसे बुरा साधन हैं, क्योंकि भय अपने विषय को खींच ले आने का सबसे अधिक निश्रित पथ हैं । फिर भी, जहां एक ओर बीमारी का भय नहीं होना चाहिये, वहां दूसरी ओर उसमें किसी प्रकार की रुचि होनी भी उचित नहीं । यह एक प्रचलित विश्वास है कि तीक्ष्मा बुद्धिवाले लोगों का शरीर दुर्बल होता हैं । यह भ्रम है और इसका कोई आधार नहीं । संभवत: कभी एक युग था जब कि शारीरिक अस्तव्यस्तता के प्रति लोगों की एक विचित्र और गंधी रुचि थी, पर सौभाग्य की बात है कि वह प्रवृत्ति अब थ हो गयी है । आजकल लोग सुगठित, सुदृढ़, मांसल, बलिष्ठ और पूर्ण सुडौल शरीर की प्रशंसा करते हैं और उसका सच्चा मूल्य समझते हैं । पर, जो हो, बच्चों को यह शिक्षा देनी चाहिये कि वे स्वास्थ्य को आदर की दृष्टि से देखें, उस स्वस्थ मनुष्य की प्रशंसा करें जिसका शरीर बीमारी के आक्रमण को थ फेंक देने की कला जानता है । बहुत बार बच्चे बीमारी का बहाना करते हैं ताकि वे किसी आवश्यक, किंतु कष्टपूर्ण कार्य से बच जायें, उस कार्य से बच जायें जिसमें उनकी रुचि नहीं, अथवा उनके माता-पिता का हृदय पसीज जाये और वे उनकी इच्छा को तृप्त कर दें । बच्चे को यथासंभव शीघ्र-सें-शीघ्र यह भी सीखा देना चाहिये कि यह पद्धति बहुत लाभदायी नहीं है और बीमार हो जाने पर लोग तुम मे अधिक दिलचस्पी नहीं दिखलायेंगे, बल्कि उससे विपरीत अवस्था मै दिखलायेंगे । दुर्बल लोगों मे यह विश्वास करने की प्रवृत्ति होती हैं कि उनकी दुर्बलता

 

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उन्हें विशेष रूप से लोगों का प्रिय बना देतो हैं और वे लोग, यदि आवश्यक हों, अपने साथ और इर्द-गिर्द रहनेवाले लोगों का ध्यान. सहानुभूति अपनी ओर आकर्षित करने के एक साधन के रूप मे अपनी इस दुर्बलता का और, यहां तक कि, अपनी बीमारी का उपयोग करते हैं । किसी मा कारण सै इस घातक प्रवृति को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये । बच्चों को सिखाना चाहिये कि बीमार होना दोष-त्रुटि और हीनता का सूचक है , न कि किसी गुण या त्याग का ।

 

  इसके लिये उत्तम बात यह हैं कि जब बच्चा अपने अंगों का व्यवहार करने योग्य हो जाये तब प्रतिदिन कुछ समय अपने शरीर के सभी भागों को विधिपूर्वक और नियमित रूप से विकसित करने मे लगाये । प्रत्येक दिन २० सै ३० मिनट तक- अगर संभव हों तो सवेरे बिछौने से उठने के बाद का समय अधिक अच्छा होगा-यदि लगाये जायें तो वे मांसपेशियों मे अच्छी गति ओर संतुलित वृद्धि ले आने के लिये पर्याप्त होंगे । साथ ही, उससे जोडों और रीढ़ की हड्डी का सख्त पंडू जाना भी रुक जाता है जो कि, साधारणतया, अपने समय रो पहले ही आ जाता हैं । बच्चों की शिक्षा के साधारण कार्यक्रम के अंदर खेल-कूद को काफी अच्छा स्थान देना चाहिये, इससे उसे समस्त औषध-जगत् की अपेक्षा, कहीं अधिक अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त होगा । अगर धूप में घंटा व्यायाम किया जाये (शारीरिक हरकत की जायें), तो कमजोरी या फल की कमी दूर करने मे वह बलवर्धक दवाओं (टनाकों) के समूचे भंडार से कहीं अधिक काम करता है । मैं तो तुम्हें यह सलाह दूंगी कि जबतक दूसरी तरह से काम चलाना पूर्ण रूप से असंभव न हो जाये तबतक कभी औषध मत ग्रहण करो; और इस '' पूर्ण रूप से असंभव' ' के विषय में मी तुम्हें पूर्ण रूप से कठोर होना चाहिये-इस स्थिति को सहज ही स्वीकार नहीं करना चाहिये । यद्यपि शरीर-चर्या के इस प्रोग्राम के अंदर कुछ प्रसिद्ध साधारण पद्धतियां हैं जिनके द्वारा शरीर का उत्तमोत्तम विकास किया जा सकता है; फिर भी, यदि किसी पद्धति को पूर्ण रूप सें फलदायी बनाना हो तो प्रत्येक व्यक्त्ति के लिये स्वतंत्र रूप से विचार करना चाहिये और उसके लिये कोई पद्धति निश्रित करने के लिये यदि संभव हों तो किसी सुयोग्य व्यक्ति की सहायता लेन चाहिये, अथवा इस विषय से संबंधित पुस्तकों का अवलोकन करना चाहिये । ऐसी पुस्तकें काफी छप चुकी हैं अथवा छप रहो हैं ।

 

  पर, हर हालत में, बच्चों को, चाहे वह जो कुछ भी करता हो, सोने के लिये काफी समय मिलना चाहिये । यह समय उम्र के अनुसार अलग-अलग हो सकता है । पालने के बच्चे को जगाने की अपेक्षा, सोना अधिक चाहिये । पर जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे सोने का समय कम होता जायेगा । परंतु युवा अवस्था आने तक, यह समय ८ घंटे से कम नहीं होना चाहिये और फिर सोने का स्थान खूब शांत और हवादार होना चाहिये । और कभी व्यर्थ में बच्चे को प्रारंभिक रात की नींद सें वंचित नहीं करना चाहिये । स्नायुओं को आराम पहुंचाने के लिये आधी रात सें पहले का

 

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समय सबसे उत्तम है । फिर जगने के समय भी, प्रत्येक आदमी के लिये, जो अपनी स्नायुओं में समतोलता बनाये रखना चाहता है , विश्राम करना अत्यंत आवश्यक है । मांसपेशियों और स्नायुओं को विश्राम देने की विधि जानना एक कला है और बिलकुल छोटी अवस्था में हीं बच्चे को इसकी शिक्षा देनी चाहिये । पर बहुतेरे माता-पिता ऐसे होते हैं जो इसके विपरीत अपने बच्चों को निरंतर कार्य करते रहने के लिये बाध्य करते हैं । जब बच्चा चुपचाप बैठता है तब है समझते हैं कि वह बीमार हो गया है । यहांतक कि, ऐसे माता-पिता भी हैं जिन्हें अपने बच्चों से घरेलू काम कराने की बुरी आदत होती है, और इस तरह वे बच्चों के आराम करने का समय ले लेते हैं । एक बढ़ते हुए स्नायुमंडल के लिये इससे अधिक बुरी चीज और कोई नहीं । अत्यंत लगातार होनेवाले प्रयास का दबाव अथवा उसके अपर लादे हुए, स्वेच्छापूर्वक पसंद किये गये कार्य का भार सहने मे वह असमर्थ होता है । समस्त प्रचलित भावनाओं और धारणाओं के विरुद्ध मेरा तो मत यह है कि बच्चों से सेवा की मांग करना उचित नहीं है, यह समझना अनुचित है कि माता-पिता की सवा करना बच्चे का कर्तव्य है । बल्कि अधिक बड़ा सत्य इसके विपरीत है : निक्षय हीं यहीं स्वाभाविक है कि माता-पिता अपने बच्चों की सेवा करें, कम-से-कम उनकी अधिकतम देखभाल करे । यदि बच्चा स्वतंत्रतापूर्वक परिवार के लिये काम करना स्वयं पसंद करे और कार्य को खेल के रूप में करे तभी उसे ऐसा करने देना उचित है । और उस हालत में भी हमें इस विषय में सावधान रहना चाहिये कि किसी तरह उसके आराम का समय कम न हो जाये जो उसके शरीर के समुचित रूप से कार्य करने के लिये अत्यंत आवश्यक है ।

 

  मैं कह चुकी हूं कि बिलकुल छोटी उम्र से हो बच्चों को शारीरिक स्वास्थ्य, शक्ति-सामर्थ्य और संतुलन का आदर करना सिखाना चाहिये । सौंदर्य की महान् आवश्यकता के अपर भी खूब जार देना चाहिये । छोटे-छोटे बच्चों मैं सौंदर्य की अभीप्सा होनी चाहिये, इसलिये नहीं कि दूसरे उससे प्रसन्न होंगे या उससे उनका नाम होगा, बल्कि स्वयं सौंदर्य के प्रेम के लिये सौंदर्य की चाह होनी चाहिये । क्योंकि, सौंदर्य वह आदर्श है जिसे भौतिक जीवन मे सिद्ध करना है । प्रत्येक मनुष्य के अंदर यह संभावना निहित है कि वह अपने शरीर की विभिन्न गतियों में सामंजस्य स्थापित करे । मनुष्य का शरीर, यदि वह अपने जीवन के आरंभ से हीं शरीर-चर्या की किसी युक्तिपूर्ण पद्धति का अनुसरण करे तो वह अपना सामंजस्य स्थापित कर सकता है  और इस तरह सौंदर्य अभिव्यक्त करने के योग्य हो सकता है । जब हम सर्वांगपूर्ण शिक्षा के अन्यान्य पहलुओं की चर्चा करेंगे तब हम देखेंगे कि एक दिन, यदि इस सौंदर्य को अभिव्यक्त होना है तो उसके लिये हमें किन भीतरी शर्तों को पूरा करना होगा ।

 

  अबतक मैंने केवल बच्चों को दी जानेवाली शिक्षा की बात कही हैं क्योंकि उचित

 

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समय पर दिये जानेवाले उन्नत शारीरिक शिक्षण के दुरा बहुत-से शारीरिक दोषों को, कुरूपताओं को दूर किया जा सकता है । पर अगर किसी कारणवश किसी को यह शिक्षा बचपन मै न दी गयी हो तो इसका आरंभ किसी भी उम्र में किया जा सकना है और फिर सारे जीवन इसका अनुसरण किया जा सकता है । परंतु जितनी हीं देर सै हम आरंभ करेंगे उतना ही अधिक हमें बुरी आदतों का मुकाबला करना, उन्हें सुधारने, जड़ता-कठोरता को दूर कर कोमलता-नमनीयता लाने और विकृत अंगों को दुरुस्त करने के लिये तैयार रहना होगा । इस तैयारी के काम के लिये बहुत अधिक धैर्य ओर लगन की आवश्यकता होगी और तब कहीं वह अवस्था आयेगी जब हम शरीर के आकार और उसकी गतियों मे सामंजस्य स्थापित करने के लिये किसी क्रियात्मक प्रोग्राम को आरंभ कर सकेंगे । परंतु जिस सौंदर्य को प्राप्त करना है उसके जीवंत आदर्श को अगर तुम अपने अंदर धारण करो तो अपने लक्ष्य पर पहुंचना तुम्हारे लिये सुनिश्चित हैं ।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९५१)

 

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प्राण की शिक्षा

 

सब प्रकार की शिक्षाओं में संभवत: प्राण की शिक्षा सबसे अधिक आवश्यक  है । फिर मी इसका ज्ञानपूर्वक तथा विधिवत् आरंभ और अनुसरण बहुत कम लोग करते हैं । इसके कई काराग हैं : सबसे पहले, इस विशेष विषय का जिन बातों सें संबंध  उनके स्वरूप के विषय में मानव बुद्धि को कोई सुस्पष्ट धारणा नहीं हैं; दूसरे, कार्य बड़ा हीं कठिन है और इसमें सफलता प्राप्त करने के लिये हमारे अंदर सहनशीलता, अनंत अध्यवसाय और सुदृढ़ संकल्प होने आवश्यक हैं ।

 

  निःसंदेह, मनुष्य की प्रकृति में प्राण एक स्वेच्छाचारी और जोर-जबर्दस्ती करनेवाला अत्याचारी हैं । और, क्योंकि इसमें बल-वीर्य, शक्ति-सामर्थ्य, उत्साह और अमोघ क्रियाशीलता निहित हैं, बहुत लोग इसके प्रति भयमिश्रित सम्मान का भाव रखते हैं और इसे सदा प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं । परंतु यह एक ऐसा मालिक हैं जो किसी चीज से संतुष्ट नहीं होता, इसकी माँगों की कोई सीमा नहीं । दो भावनाएं जो बहुत प्रचलित हैं, विशेषकर पश्चिम में, इसके प्रभुत्व को और अधिक सुदृढ़ बनाने में सहायता कर रहीं हैं : एक-जीवन का लक्ष्य सुखी होना हैं; दो- तुम एक विशिष्ट स्वभाव लेकर उत्पन्न हुए हो और उसे बदलना असंभव है !

 

  पहली भावना एक बहुत गभीर सत्य की वीभत्स विकृति है : वह सत्य यह हैं कि जो कुछ भी है वह सत्ता के आनंद पर आधारित है और सत्ता के आनंद के बिना जीवन का अस्तित्व हीं नहीं रहेगा । परंतु सत्ता का यह जो आनंद हूं भगवान् का एक गुण है  और इसलिये किसी भी शर्त साई बंधा नहीं है, उसे जीवन में सुख की खोज के साथ मिला-जुला नहीं देना चाहिये, क्योंकि यह तो अधिकांश में, परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं ! जो दृढ़ विचार हमें यह विश्वास प्रदान करता है कि हमें सुखी होने का अधिकार हैं, वह स्वभावत: ही, हमें अपना जीवन हर अवस्था में अपनी इच्छा के अनुसार बिताने की ओर ले जाता है । यह मनोभाव अपने अंधकारपूर्ण और आक्रमणकारी अहंभाव के कारण सब प्रकार का विरोध और दुःख-कष्ट, धोखा और अनुत्साह तथा अंत में प्रायः भयंकर हानि पैदा करता है ।

 

   वास्तव मे जगत् जैसा है, इसमें जीवन का लक्ष्य व्यक्तिगत सुख प्राप्त करना नहीं, बल्कि व्यक्ति को उत्तरोत्तर सत्य-चेतना के प्रति जाग्रत् करना है ।

 

  दूसरी भावना इस बात सें उत्पत्र होती है कि स्वभाव मे कोई मूलगत परिवर्तन लें आने के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य अपनी अवचेतना के अपर लगभग पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त करे, और साथ ही निश्चेतना से जो कुछ भी उठता हैं- जो, सामान्य प्रकृति मे, वंशानुक्रम के या जिस पारिपार्धिक अवस्था में मनुष्य जन्मा होता हैं उसके परिणामों का प्रकाश होता हैं- उसे बढ़ी कठोरतापूर्वक संयमित करे । पर वह भगीरथ कार्य केवल चेतना की प्रायः असामान्य वृद्धि तथा भगवत्कृपा की निरंतर सहायता के

 


दुरा हीं सिद्ध किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त, इस कार्य का प्रयास बहुत कम हीं किया गया है, बहुत-से विख्यात गुरओं ने इसे असाध्य और आकाश-कुसुम ही घोषित किया है । फिर भी यह असाध्य नहीं हैं । सच पूछा जाये तो स्वभाव का रूपांतर सिद्ध किया जा चुका है एक स्पष्टदर्शी साधना और अध्यवसाय के द्वारा जो, इतना दृढ़ होता है कि कोई भी चीज, यहांतक कि, अत्यंत स्थायी असफलताएं भी उसे निरुत्साहित नहीं कर सकतीं ।

 

  इसके लिये अत्यंत आवश्यक प्रारंभ यह है कि मनुष्य उस स्वभाव का पूरे ब्योरे के साथ और पूर्ण रूप सै निरीक्षण करे जिसे रूपांतरित करना है । अनेक मनुष्यों के लिये, स्वयं यह कार्य भी कडा कठिन और प्रायः चकरा देनेवाला होता है । परंतु एक बात है जिसे प्राचीन परंपराएं जानती थीं और जो आंतर अन्वेषण की भूल-भुलाया के अंदर पथ-प्रदर्शक सूत्र का कार्य कर सकतीं है । वह यह है कि प्रत्येक मनुष्य के अंदर काफी मात्रों मे, और विशिष्ट व्यक्तियों मै कहीं अधिक सुशिक्षित के साथ, स्वभाव की दौ विरोधी प्रवृत्तियां होती हैं, जो प्रायः समान अनुपात में और एक- हीं चीज की प्रकाशित आकृति और छाया के समान होती हैं । इसी कारण जो मनुष्य असाधारण रूप में उदार होने की क्षमता रखता है वही अकस्मात् देखता है कि उसकी प्रकृति में एक तरह का कठोर कंजूसी धंस आयी है, साहसी मनुष्य कहीं पर डरपोक बन जाता हैं और भला मनुष्य सहसा बुरी प्रवृत्तिया ग्रहण कर लेता है । मालूम होता है कि जीवन प्रत्येक व्यक्ति को एक आदर्श की अभिव्यक्ति की संभावना के साथ-साथ उसके विरोधी तत्त्व प्रदान करता है  । ये तत्त्व उसे ठोस रूप मे दिखा देते हैं कि सिद्धि को सुलभ बनाने के लिये वह कौन-सा युद्ध हैं जो लड़ना हे और वह कौन-सी विजय है जो उसे प्राप्त करनी है । इस तरह देखने से, समूचा जोबन हीं एक शिक्षा-क्रम हैं जो कम या अधिक सचेतन रूप में, कम या अधिक स्वेच्छापूर्वक चलता रहता हैं । कुछ व्यक्तियों मे यह शिक्षा प्रकाश को प्रकट करनेवाली क्रियाओं को सहायता पहुंचाती है, दूसरों मे, इसके विपरीत, छाया को प्रकट करनेवाली क्रियाओं को । अगर परिस्थितियां और पारिपार्धिक अवस्था अनुकूल हो तो छाया को हानि पहुंचाकर प्रकाश बढ़ता हैं, अन्यथा इसके विपरीत होता है । यदि एक उच्चतर तत्त्व का, एक सज्ञान संकल्प-शक्ति का ज्योतिर्मय हस्तक्षेप न हो जो प्रकृति को अपनी मनमौजी प्रक्रिया का अनुसरण न करने दे, बल्कि उसके स्थान में एक युक्तिसंगत और स्पष्टदर्शी साधना को ला बिठाते तो व्यक्ति का स्वभाव प्रकृति की मनमौज के अनुसार और भौतिक तथा प्राणिक जीवन के कठोर नियमों के अधीन गठित होता है । हम जब शिक्षा की युक्तिपूर्ण पर्द्धाते की बात कहते हैं तब हमारा मतलब इस सज्ञान संकल्प-शक्ति से ही होता हैं ।

 

   इसी कारण, यह अत्यंत आवश्यक है कि. बच्चे की प्राण की शिक्षा यथासंभव शीध-से-शीघ्र, निःसंदेह, ज्यों हीं वह अपनी इंद्रियों का व्यवहार करने के योग्य हों

 

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जाये त्यों ही, आरंभ हो जानी चाहिये । इस तरह वह बहुत-सी बुरी आदतों से बच जायेगा और हानिकारक प्रभावों को दूर कर सकेगा !

 

 प्राण की शिक्षा के दो प्रधान रूप हैं । बे दोनों हीं लक्ष्य और पद्धति की दिष्टि से एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं, पर हैं दोनों हीं एक समान महत्त्वपूर्ण । पहला इंद्रियों के विकास और उनके उपयोग से संबंध रखता है और दूसरा ही अपने चरित्र के विषय में सचेतन होना और धीरे-धीरे उस पर प्रभुत्व स्थापित कर अंत में उसका रूपांतर साधित करना ।

 

  फिर इंद्रियों के शिक्षा के भी कई रूप हैं, जैसे-जैसे सत्ता वर्द्धित होती है वैसे-वैसे वे रूप एक-दूसरे के साथ जुड़ते चले जाते हूं निश्चय ही, यह शिक्षा बंद कभी नहीं होनी चाहिये । इंद्रियों को इस प्रकार सुशिक्षित किया जा सकता है कि वे अपनी क्रिया में, साधारणतया उनसे जैसी आशा की जाती है उससे बहुत अधिक निर्दोषता और शक्ति प्राप्त कर सकें ।

 

  किसी प्राचीन गुह्य ज्ञान ने घोषणा की थीं कि मनुष्य जिन इंद्रियों को विकसित कर सकता है उनकी संख्या पांच नहीं, बल्कि सात है और कुछ शेष क्षेत्रों मे बारह तक हैं । विभिन्न जातियो ने विभिन्न युगों मे इन अतिरिक्त इंद्रियों मे सै किसी को भी कम या अधिक पूर्णता के साथ आवश्यकतावश विकसित किया था । अगर एक समुचित साधना का लगातार अनुसरण किया जाये तो जो लोग सच्चे दिल से इनके विकास तथा उसके परिणामों मे रुचि रखते हैं वे सभी इन्हें प्राप्त कर सकते हैं । उदाहरणार्थ, जिन अनेक शक्तियों की लोग प्रायः ही चर्चा किया करते हैं, उनमें से एक है- अपनी शरीर-चेतना को विस्तारित कर देना, अपने से बाहर इस प्रकार फैला देना कि उसे किसी एक निशित बिंदु पर एकाग्र किया जा सके और इस तरह दु की चीजों को देखा, सुना, सूंघा, चाख और यहांतक कि छुआ जा सकें ।

 

 इंद्रियों और उसके व्यापार की सामान्य शिक्षा के साथ हीं यथाशीघ्र विवेक और सौंदर्य-बोध के विकास की शिक्षा भी देनी होगी । अर्थात् जो कुछ सुंदर और सामंजस्यार्ण है, सरल, स्वस्थ और शुद्ध है, उसे चून लेने और ग्रहण करने की क्षमता- क्योंकि शारीरिक स्वास्थ्य के समान हीं मानसिक स्वास्थ्य भी होता हैं, जिस तरह शरीर और उसकी गतियों का एक सौंदर्य होता है उसी तरह इद्रियानुभवो का भी एक सौंदर्य और सामंजस्य है  । जैसे-जैसे बच्चे की सामर्थ्य और समझ बाढ़ें वैसे-वैसे उसे अध्ययनकाल मे हीं यह सिखाना चाहिये कि वह शक्ति और यथार्थता के साथ- साथ सौंदर्य-विषयक सुरुचि और सूक्ष्म वृत्ति का भी विकास करे । उसे सुन्दर, उच्च, स्वस्थ और महत् चीजें, चाहे वे प्रकृति मे हों या मानव सृष्टि मे, दिखानी होगी, उन्हें पसंद करना और उनसे प्रेम करना सिखाना होगा । वह एक सच्चा सौंदर्यानुशीलन होना चाहिये और वह पतनकारी प्रभावों से उसकी रक्षा करेगा । मालूम होता है कि गत महायुद्धों के तुरंत बाद और उन द्वारा उद्दीप्त भयानक स्नायविक उत्तेजना के

 

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फलस्वरूप, मानों मानव सभ्यता के पतन और समाज-व्यवस्था के भंग होने के चिह के रूप मे, एक प्रकार की बढ्ती हुई नीचता ने मनुष्य-जीवन को, व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से भी, अधिकृत कर लिया है, विशेषकर सौंदर्य-लक्षी जीवन और इंद्रियों के जीवन के स्तर मे । अगर इंद्रियों का विधिवत् और ज्ञानपूर्वक संस्कार किया जाये तो बच्चे मे संसर्ग-दोष के कारण जो निकृष्ट, सामान्य और असंस्कृत चीजें आ गयी हैं बे  धीरे-धीरे के की जा सकतीं हैं, और साथ हीं, यह संस्कार उसके चरित्र पर भी सुखद प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करेगा । क्योंकि जिस व्यक्ति ने सचमुच एक समुन्नति रुचि विकसित की है वह, स्वयं उस सुरुचि के कारण हीं, भद्दे, बर्बर या हानि ढंग से कार्य करने मे अपने को असमर्थ अनुभव करेगा । यह सुरुचि, अगर यह सच्ची हों तो, व्यक्ति के अंदर एक प्रकार की महानता और उदारता ले आयेगी जौ उसका कार्य करने की पद्धति मे सहज-स्वाभाविक ढंग सें प्रकट होंगी और उसे बहुत-सी नीच और उल्टी क्रियाओं से अलग रखेगी ।

 

  इससे स्वभावत: ही हम प्राण की शिक्षा के दूसरे पहलू पर पहुंच गये हैं, उस पहलू पर जिसका संबंध चरित्र और उसके रूपांतर से है ।

 

  साधारणतया, साधना की जो विधियां प्राण, उसकी शुद्धि और उस पर प्रभुत्व-प्राप्ति से संबंध रखती हैं, वे दमन, संयम, त्याग और संन्यास के द्वारा अग्रसर होती हैं । यह प्रक्रिया निश्रित हीं अधिक आसान और शीघ्र फल देनेवाली है, यद्यपि, गभीरतर दिष्टि से देखने पर, सच्ची और सांगोपांग शिक्षा की अपेक्षा, कम टिकाऊ और कार्यकारी है । इसके अतिरिक्त, यह प्राण के हस्तक्षेप, सहायता और सहयोग की समस्त संभावना को हीं बहिष्कृत कर देती है । परंतु, यदि कोई व्यक्ति का और उसके कार्य का सर्वांगीण विकास करना चाहता हो तो प्राण की यह सहायता प्राप्त करनी अत्यंत आवश्यक हैं ।

 

  अपने अंदर की बहुत-सी क्रियाओं के विषय मे सचेतन होना, यह देखना कि हम क्या करते हैं और क्यों करते हैं, अत्यंत आवश्यक आरंभ है । बच्चे को सिखाना चाहिये कि वह आत्म-निरीक्षण करे, अपनी प्रतिक्रियाओं तथा आवेगों और उनके कारणों को समझे, अपनी वासनाओं का, उग्रता और उत्तेजना की अपनी क्रियाओं का, अधिकार जमाने, अपने उपयोग मे लाने और शासन करने की सहज प्रेरणा का तथा मिथ्याभिमान-रूपी आधार-भूमिका-जिस पर ये चेष्टाएं अपनी परिपूरक दुर्बलता, अनुत्साह, अवसाद और निराशा के साथ स्थित होती हैं-स्पष्टदर्शी साक्षी बने ।

 

  स्पष्ट हीं प्रक्रिया तभी लाभदायी होगी जब निरीक्षण करने की शक्त्ति बढ़ने के साथ-साथ प्रगति करने और पूर्णता पाने का संकल्प भी बढ़ता जाये । ज्यों ही बच्चा इस संकल्प को धारण करने की योग्यता प्राप्त कर ले त्यों हीं, अर्थात् साधारण विश्वास के विपरीत, बहुत' कम उम्र में हीं यह उसके अंदर भर देना चाहिये ।

 

  प्रभुत्व और विजय-प्राप्ति के इस संकल्प को जाग्रत् करने की विधियां विभित्र व्यक्तियों के लिये विभिन्न प्रकार की होती हैं । कुछ व्यक्तियों के लिये युक्तिपूर्ण तर्क

 

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सफल होता है , दूसरों के लिये भावुकता ओर शुभ कामना को व्यवहार मै लाना पड़ता है, फिर अन्यों के लिये मर्यादा और आत्म-सम्मान का भाव ही पर्याप्त होता है । परंतु सभी लोगों के लिये अत्यंत शक्तिशाली उपाय है-उसके सामने निरंतर और सच्चाई के साथ दृष्टांत उपस्थित करना ।

 

  अगर एक बार संकल्प दृढ़ता से स्थापित हो जाये तो फिर विशेष कुछ करना नहीं रह जाता । बस, इतना ही पयाप्त है कि सच्चाई और लगन के साथ मनुष्य आगे बढ़ता जाये और हार को कभी अंतिम चीज न मान. बैठे । अगर तुम समस्त दुर्बलता और पीछे हटाने से बचना चाहो तो एक महत्वपूर्ण बात तुम्हें अवश्य जाननी चाहिये और उसे कभी नहीं भूलना चाहिये : मनुष्य अपने संकल्प को अपनी मासर्पोशयों की तरह विधिबद्ध और वर्द्धमान अम्यासों के द्वारा उबर और कर सकता है  । जौ चीज तुम्है महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं होती उसके लिये भी अधिक-से-अधिक प्रयास अपने संकल्प से मांगने मे तुम्हें हिचकिचाना नहीं चाहिये; क्योंकि प्रयास के द्वारा हीं क्षमता बढ्ती हैं, उसे अत्यंत कठिन कार्यों मे मी व्यवहार मै लाने की शक्ति धीरे-धीरे प्राप्त होती है । जो कुछ करने का निर्णय तुमने किया है वह तुम्हें अवश्य करना चाहिये चाहे कुछ मी क्यों न हो जाये, यहांतक कि चाहे तुम्हें कितनी हीं बार नये सिरे सै अपना प्रयास क्यों न आरंभ करना पड़े । प्रयास के द्वारा तुम्हारा संकल्प सुदृढ़ होगा और अंत मे तुम्हें इससे अधिक कुछ भी नहीं करना पड़ेगा कि तुम स्पष्ट दिष्टि से वह लक्ष्य चून लौ जिसके लिये तुम इसका व्यवहार करोगे ।

 

  सार-रूप मे कह सकते हैं : हमें अपने स्वभाव का पूरा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और फिर अपनी क्रियाओं पर ऐसा संयम प्राप्त करना चाहिये कि हमें पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त हो जाये और जिन चीजों को रूपांतरित करना है उनका रूपांतर साधित हो जाये।

 

  अब, बाकी सब कुछ निर्भर करता है उस्र आदर्श पर जिसे प्रभुत्व और रूपांतर के प्रयास के द्वारा प्राप्त करने की चेष्टा की जाती हैं । प्रयास और उसके फल का मूल्य उस आदर्श के मूल्य पर निर्भर करेगा । इस विषम- की चर्चा हम मन की शिक्षा के संबंध मे आलोचना करते हुए अपने अगले लेख मैं .करेंगे ।

 

('बुलेटिन', अगस्त १९५१)

 

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मन की शिक्षा

 

सब प्रकार की शिक्षाओं मै सबसे अधिक प्रचलित हैं मन की शिक्षा । तो भी कुछ एक अपवादों को छोड्कर, साधारणत:, इसमें ऐसे छिद्र रह जाते हैं जो इसे बहुत हीं अपूर्ण और अंत में एकदम निरर्थक बना देते हैं ।

 

  मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि शिक्षा का अर्थ लोग समह्मते हैं मन की आवश्यक शिक्षा । बच्चे को कुछ वर्ष एक कठोर शिक्षा पद्धति के अनुसार शिक्षा दे चुकने पर, जो उसके मस्तिष्क को प्रबुद्ध करने की अपेक्षा कहीं अधिक उसमें ज्ञान- सामग्री को दंभ देती है, हम समझ लेते हैं कि उसके मानसिक विकास के लिये जो कुछ करम आवश्यक था वह पूरा हो गया । पर बात ऐसी नहीं है । अगर शिक्षा समुचित मात्रा मैं और विचार-विमर्श के साध मी दी जाती है और वह मस्तिष्क को कोई हानि नहीं पहुंचाती तो भी वह मानव मन को वे सब क्षमताएं नहीं दे पाती जो उसे एक अच्छा और उपयगी यंत्र बनाने के लिये आवश्यक है । साधारणतया जो शिक्षा बच्चों को दी जाती हे वह, अधिक-से-अधिक, शारीरिक व्यायाम की तरह मस्तिष्क की नमनीयता को बढ़ा सकतीं है । इस दृष्टिकोण से देखें तो, मानवी विद्या की प्रत्येक शाखा ही एक विशेष प्रकार का मानसिक व्यायाम होती है, और इन सब शाखा- प्रशाखाओं मे सें प्रत्येक के अंदर जिस शब्दावलि का प्रयोग किया जाता है वह उस शाखा की अपनी विशेष और सुशिक्षित भाषा होती है ।

 

  मन की सच्ची शिक्षा के, उस शिक्षा के जो मनुष्य को एक उच्चतर जीवन के लिये तैयार करेगी, पांच प्रधान अंग हैं । साधारणतया ये अंग एक के बाद एक आते हैं, पर विशेष व्यक्तियों मे बे अदल-बदल कर या एक साथ भी आ सकते हैं । वे पांचों अंग, .संक्षेप मे, इस प्रकार हैं :

 

  १. एकाग्रता की शक्ति का, मनोयोग की क्षमता का विकास करना ।

 

  २. मन को व्यापक, विशाल, बहुविध और समृद्ध बनाने की क्षमताओं विकसित करना।

 

  है. जो केंद्रीय विचार या उच्चतर आदर्श या परमोल्लल भावना जीवन मे पथ- प्रदर्शन का काम करेगी उसे केंद्र बनाकर समस्त विचारों को सुसंगठित, व्यवस्थित करना ।

 

  ४. विचारों को संयमित करना, अनिष्ट विचारों का त्याग करना, ताकि मनुष्य अंत में, जैसा चाहे वैसा और जब चाहे तब  कर सकें ।

 

  ५. मानसिक निश्रित का, परिपूर्ण शांति का और सत्ता के उच्चतर क्षेत्रों से आनेवाली अंत:प्रेरणाओं को अधिकाधिक पूर्णता के साथ ग्रहण करने की क्षमता का विकास करना ।

 

  शिक्षा के इन अंगों को कार्यान्वित करने के लिये मित्र व्यक्तियों के लिये जिन

 

 


पद्धतियों का व्यवहार किया जा सकता हैं उन सबका पूरा ब्योरा देना तो यहां संभव नहीं है, पर फिर भी कुछ व्याख्यात्मक सूचनाएं दी जा सकतीं हैं।

 

  यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकतीं कि बच्चे की मानसिक उन्नति को जो चीज सबसे अधिक बाधा पहुंचाती है वह है  उसके विचारों का निरंतर विक्षिप्त होते रहना । बालक का विचार तितली की तरह इधर-उधर उड़ता रहता बे और उसे एकाग्र करने के लिये उसे अपनी ओर से महान प्रयास करने की आवश्यकता होती है । फिर भी यह क्षमता उसमें गुप्त रूप सें विद्यमान है । क्योंकि जब तुम किसी चीज मे उसकी दिलचस्पी पैदा कर पाते हों तब वह काफी हद तक ध्यान जमाने मे समर्थ हो जाता हैं । अतएव, यह शिक्षा की चतुराई पर निर्भर करता है कि वह धीरे-धीरे बच्चे के अंदर ध्यान जमाने के लिये निरंतर एक समान प्रयास करने और कोई कार्य करते समय उसमें अधिकाधिक पूर्णता के साथ डूब जाने की क्षमता और योग्यता पैदा करे । ध्यान एकाग्र करने की इस क्षमता को विकसित करनेवाले सभी साधन अच्छे हैं; आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार खेल से आरंभ कर पारितोषिक तक, सभी काम मे लायी जा सकते हैं । पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण चीज है मनोवैज्ञानिक क्रिया । सर्वप्रथम साधन यह है कि जो चीज हम बच्चे को सिखाना चाहते हैं उसमें उसकी दिलचस्पी उत्पन्न कर दें, कार्य करने की रुचि, उन्नति करने की इच्छा जगा दें । बच्चे को देने योग्य सबसे मूल्यवान उपहार यहीं है कि हम उसमें सीखने का अनुराग, सर्वदा और सर्वत्र सीखने का अनुराग पैदा कर दें ताकि उसके लिये जीवन की सभी परिस्थितियां, सभी घटनाएं अधिक और सदा अधिकाधिक सीखते रहने के लिये नित्य नवीन अवसर बन जायें ।

 

  इसके लिये सजगता और एकाग्रता के अतिरिक्त निरीक्षण, यथार्थ अंकन तथा विश्वस्त स्मरणशक्ति भी पैदा करनी चाहिये । निरीक्षण की क्षमता का विकास विभिन्न प्रकार के और स्वाभाविक अम्यासों के द्वारा, बच्चे के विचार को सजग, सतर्क और स्फूर्तिमान बनाये रखने मे सहायता देनेवाले सभी सुअवसरों का उपयोग करके किया जा सकता है । स्मरण-शक्ति की अपेक्षा उसकी बोध-शक्ति को बढ़ाने पर बहुत अधिक बल देना चाहिये । मनुष्य केवल वही जानता हैं जिसे वह समझता है । जो चीज मनुष्य यंत्र की तरह रट लेता हैं वह धीरे-धीरे धुंधली होती जाती है और अंत मे विलीन हो जाती है । जो कुछ तुम समझ जाते हो उसे तुम कभी नहीं भूलते । कोई भी चीज कैसे और क्यों होती है यह बच्चे को समझाने में तुम्हें कभी आनाकानी नहीं करनी चाहिये । अगर तुम स्वयं न समझा सको तो तुम्हें उसे किसी ऐसे व्यक्ति के पास भेज देना चाहिये जो उसका उत्तर देने योग्य ज्ञान रखता हो अथवा उस प्रश्र से संबंध रखनेवाली पुस्तकें दे देनी चाहिये । बस, इसी तरह तुम धीरे-धीरे बच्चे में सच्चे अध्ययन की रुचि तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिये अथक यत्न करने की आदत जगा सकते हो ।

 

   इस तरह स्वभावत: हम विकास के दूसरे स्तर में आ जायेंगे जहां पर मन अपने को विस्तारित और समृद्ध बनायेगा ।

 

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  जैसे-जैसे बच्चा उन्नति करे वैसे-वैसे तुम उसे यह दिखलाओगे कि किस प्रकार प्रत्येक चीज अध्ययन का सुन्दर विषय बन सकतीं है, बशर्ते कि प्रश्र पर ठीक ढंग से विचार किया जाये । प्रत्येक दिन, प्रत्येक मुहूर्त का जीवन समस्त पाठशालाओं से बढ़कर होता है; वह होता हैं बहुविध और जटिल, अदृष्टपूर्व अनुभवों से, समाधान के लिये प्रस्तुत समस्याओं से, स्पष्ट और प्रभावक उदाहरणों से तथा प्रत्यक्ष परिणामों से भरा-पूरा । अगर तुम बच्चों के पूछे हुए असंख्य प्रश्रों का बुद्धिमानी तथा स्पष्टता के साथ उत्तर दे सको तो उनमें बड़ी आसानी से एक स्वस्थ-सुन्दर खोज की वृत्ति जगायी जा सकतीं हैं । कोई भी मजेदार उत्तर अपनी शृंखला में अन्यान्य चीजों को खींच ले आता है और बच्चा, अपना ध्यान आकृष्ट होने के कारण, बिना किसी प्रयास के बहुत अधिक, पाठशाला में बैठकर साधारणतया जो कुछ सीखता है उससे बहुत अधिक सीख जाता है । सावधानी तथा बुद्धिमानी के साथ पुस्तकों का चुनाव करने से भी बच्चे मे लाभदायी चीजें पढ़ने की रुचि उत्पन्न होती है जो एक साथ ही शिक्षाप्रद और आकर्षक होती है । तुम्हें ऐसी किसी चीज से डरना नहीं चाहिये जो बच्चे की कल्पना-शक्ति को जगाती और संतुष्ट करती है; कल्पना हीं वह चीज हैं जो सर्जनशील मानसिक वृत्ति को विकसित करती  तथा यहीं वह चीज है जो अध्ययन को एक सजीव वस्तु बना देती है और जिससे मन आनंद के साथ वर्द्धित होता है ।

 

  मन की नमनीयता और विशालता बढ़ाने के लिये हमें केवल अनेक और बहुविध विषयों के अध्ययन की ओर हीं नहीं, बल्कि, विशेषकर, एक हीं विषय पर विभिन्न दिशाओं से विचार करने की ओर ध्यान देना चाहिये । ऐसा करने से बालक व्यावहारिक तरीके से यह समझ जायेगा कि एक हीं बौद्धिक समस्या का सामना, निपटारा तथा समाधान करने के बहुतेरे रास्ते हैं । इस तरह उसका मस्तिष्क सब प्रकार की कठोरता से मुक्त हो जायेगा और, साथ-हीं-साथ उसकी चिंतनशक्ति अधिक समृद्ध तथा नमनीय हों जायेगी और कहीं अधिक बहुमुख एवं व्यापक समन्वय के लिये तैयार हो जायेगी । इस तरीके सें बच्चे मे यह भाव मी भरा जा सकता है कि मानसिक ज्ञान अत्यंत आपेक्षिक वस्तु है और फिर धीरे-धीरे ज्ञान के एक अधिक सच्चे उद्गम के लिये उसमें अभीप्सा जगायी जा सकती है !

 

  निःसंदेह, जैसे-जैसे बच्चा अपने अध्ययन मे अग्रसर होता है और उम्र मे बड़ा होता है, वैसे-वैसे उसका मन भी परिपक्व होता है और सामान्य भावनाओं को ग्रहण करने में अधिकाधिक सक्षम होता हैं; और फिर, इसके साथ-साथ सदैव निञ्जयात्मक भाव की आवश्यकता उत्पन्न हों जाती हैं, एक ज्ञान की आवश्यकता महसूस होती हैं जो इतना अधिक स्थायी हों कि उसे आधार बनाकर एक मानसिक रचना तैयार की जा सकें-ऐसी रचना तैयार की जा सके जो मस्तिष्क मे एकत्र हुई सभी भिन्न और अस्त- व्यस्त और बहुधा विरोधी भावनाओं को सुव्यवस्थित तथा क्रमबद्ध करने दे । निक्षय हीं, यदि हम अपने विचारों की अस्तव्यस्तता से बचना चाहें तो उन्हें इस प्रकार क्रमबद्ध

 

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करना बहुत ही आवश्यक हैं । सभी विरोधी चीजें प्रतिपूरक चीजों मे रूपांतरित हो सकती हैं; पर उसके लिये हमें एक ऐसी उच्चतर भावना को ढूंढ निकालना होगा जो उन्हें सुसमंजस बनाने मे समर्थ हो । यह सदा हीं अच्छा है कि सभी समस्याओं पर संभाव्य सभी दृष्टिकोणों से विचार किया जाये ताकि पक्षपात और संकीर्णता से बचा जाये; पर अगर हमारे विचार का सक्रिय और सृष्टिक्षम होना हो तो उसे, प्रत्यय) क्षेत्र मे, गृहीत सभी दृष्टिकोणों  एक स्वाभाविक और युक्तिसंगत समन्वय होना चाहिये । अगर तुम्हें अपने सभी विचारों को एक साथ शक्तिशाली तथा निर्माणकारी शक्ति का रूप देना हों ती तुम्हें अपने मानसिक समन्वय की केंद्रीय भावना को चुनने मे बहुत सावधानी रखनी चाहिये; क्योंकि उसी के अपर तुम्हारे समन्वय का मूल्य निर्भर करेगा । जितनी हीं ऊंची और विशाल तुम्हारी केंद्रीय भावना होगी और जितनी ही अधिक वह विश्वजनीन होगी, काल और देश से ऊपर उठी हुई होगी, उतनी हीं अधिक और जटिल भावनाओं, धारणाओं और विचारों को वह सुव्यवस्थित और सुसमंजस बनाने मैं समर्थ होगी ।

 

  कहने की आवश्यकता नहीं कि व्यवस्थित करने का कार्य तुरत पूरा-का-पूरा नहीं किया जा सकता । मन को, अगर उसे अपने बल और यौवन को बनाये रखना है तो, नित्य-निरंतर उन्नत होना होगा, सभी नये-नये ज्ञानों के प्रकाश मे अपनी मान्यताओं को सुधारते रहना होगा, नयी मान्यताओं को शामिल करने के लिये अपने क्षेत्र का बढ़ाना होगा और इसके लिये अपने विचारों को फिर से श्रेणीबद्ध और सुसंगठित करना होगा ताकि उनमें से प्रत्येक विचार को, दूसरों के साथ उसके संबंध को देखते हु (र, अपना समुचित स्थान प्राप्त हो और इस तरह समूचा विचार-समुदाय सुसमंजस और सुव्यवस्थित हो जाये ।

 

  परंतु हमने अबतक जो कुछ कहा है  वह सब चिंतनशील मन से संबंध रखता ३७, उस मन से संबंध रखता है जो ज्ञान प्राप्त करता है । पर ज्ञानार्जन मानसिक कार्य का केवल एक अंग है; कम-से-कम इतना हीं प्रधान दूसरा अंग है रचनात्मक वृत्ति, रूप देखने की क्षमता और इसलिये कार्य के लिये तैयारी करने को क्षमता । मानसिक कार्य के इस अंश को, यद्यपि यह है बहुत हीं महत्त्वपूर्ण, बहुत कम लोगों ने ही विशेष अध्ययन या अनुशीलन का विषय बनाया हे । केवल वही लोग जो किसी कारणवश अपनी मानसिक क्रियाओं पर कठोर नियंत्रण करना चाहते हैं, इस रचनात्मक वृत्ति का निरीक्षण और अनुशासन करने की बात सोचते हैं; और फिर, जब वे इसके लिये प्रयास करने लगते हैं तब ऐसी महान् कठिनाइयां उनके सामने खड़ी हो जाती हैं जो अलंध्य प्रतीत होती हैं ।

 

   फिर भी फन की इस रचनात्मक किया के ऊपर संयम स्थापित करना आत्म- शिक्षण का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है; यहांतक कहा जा सकता है कि इसके बिना किसी मी प्रकार का मानसिक प्रभुत्व पाना संभव नहीं । अध्ययन का जहांतक संबंध

 

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हैं, सभी विचार स्वीकार करने योग्य हैं और उन सबको उस समन्वय के अंदर ले आना चाहिये जिसका कार्य ही होगा अधिकाधिक समृद्ध और बहुविध होना; पर कार्य का जहांतक संबंध है, बात इससे एकदम भिन्न होगी । जिन विचारों को हम स्वीकार करेंगे उन्हें कार्य रूप मे परिणत करने के लिये हमें उनपर कठोर संयम स्थापित करना होगा । हमारे मानसिक समन्वय के आधारभूत केंद्रीय विचार का साधारण झुकाव जिस ओर हो, उसी के साथ मेल खानेवाली भावनाओं को हमें कार्य रूप मे अभिव्यक्त होने देना चाहिये । इसका अर्थ होता है कि हमारी मानसिक चेतना में में जो भी विचार प्रवेश करे उसे हमें केंद्रीय भावना के सामने ला रखना चाहिये । और अबतक एकत्र किये हुए विचारों के बीच में अगर उस विचार को अपना समुचित स्थान -प्राप्त हो जाये तो उसे समन्वय के अंदर शामिल करना चाहिये; अगर उसे अपना समुचित स्थान प्राप्त न हो तो उसे बाहर फेंक देना चाहिये ताकि वह कार्य के अपर कोई भी प्रभाव न डाल सके । मानसिक पवित्रीकरण का यह कार्य खूब नियमित रूप से करना चाहिये और तभी अपने कार्य के ऊपर हमारा पूर्ण अधिकार सुरक्षित रह सकता है ।

 

  इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये उत्तम यह है कि थोड़ा-सा समय दैनिक रूप में नियत रखा जाये जब हम अपने विचारों को चुपचाप देखें और अपने समन्वय के भीतर यथास्थान सजाकर रखें । एक बार जहां इस बात की आदत पड गयी कि फिर तुम अपने विचारों के अपर, कार्यादि के भीतर भी, संयम बनाये रख सकोगे और इस योग्य हो जाओगे कि जो -कार्य तुम कर रहे हो उसके लिये जो विचार उपयोगी नहीं हैं उन्हें सामने न आने दो । विशेषकर, यदि सजगता और एकाग्रता की शक्ति को  बढ़िया जाये तो, हमारी बाह्य सक्रिय चेतना केवल उन्हीं विचारों को आने देगी जिनकी आवश्यकता होगी और तब है सब-के-सब अधिक शक्त्ति-संपन्न और फलोत्पादक हो जायेंगे । और अगर, एकाग्रता तीव्र हो जाने पर, यह आवश्यक हो कि चिंतन बिलकुल किया हीं न जाये, तो समस्त मानसिक प्रकंपन बंद करके प्रायः पूर्ण निकल-नीरवता प्राप्त की जा सकती है। इस निक्षल-नीरवता के अंदर मनुष्य धीरे- धीरे उच्चतर मानस क्षेत्रों की ओर खुल सकता है और वहां से जो अतःप्रेरणाएं आती हैं उन्हें स्मरण रखना सीख सकता है ।

 

  परंतु इस अवस्था के प्राप्त होने से पहले भी निक्षल-नीरवता अपने-आपमें अत्यंत उपयोगी चीज हैं । जिन लोगों का मन कुछ विकसित और क्रियाशील होता है उनमें से अधिकांश का मन कभी शांत नहीं रहता । दिन के समय, उसकी क्रिया पर एक प्रकार का संयम रहता है; पर रात के समय, शरीर की निद्रा की अवस्था में, जाग्रत् अवस्था के संयम के प्रायः संपूर्ण रूप मे हट जाने पर, मन अत्यधिक क्रियाशील हो जाता है  और उसकी सारी क्रियाएं बहुधा असंबद्ध होती हैं । इसके कारण मन पर एक प्रकार का जोर पड़ता है जो अंत में थकावट ले आता है और मानसिक शक्तियों को कम कर देता है ।

 

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  असली बात यह है कि मानव सत्ता के अन्य सभी भागों की तरह मन को भी विश्राम की आवश्यकता होती  है ओर उसे यह विश्राम तबतक नहीं मिल सकता जबतक कि हम यह न जान लें कि यह दिया कैसे जाता है । अपने मन को विश्राम देने की कला एक ऐसी चीज है जो हमें अवश्य आयत्त करनी चाहिये । मन को विश्राम देने का एक तरीका है मन के कार्य को बदलते रहना; परंतु सबसे अधिक विश्राम की संभावना विद्यमान हैं निक्षल-नीरवता के अंदर । जहांतक मानसिक तृतीयों का संबंध है , निक्षल-नीरवता की शांति मे कुछ मिनट बिताने का अर्थ होता है घंटों सोने की अपेक्षा कहीं अधिक लाभदायी विश्राम लेना ।

 

जब हम अपनी इच्छानुसार मन को निक्षल-नीरव बनाना और ग्रहणशील निक्षल- नीरवता में उसे एकाग्र करना सीख जायेंगे तब ऐसी कोई समस्या नहीं रह जायेगी जिसे हम हल न कर सकें, कोई ऐसी मानसिक कठिनाई नहीं रह जायेगी जिसका कोई समाधान न प्राप्त हो जाये । जब विचार चंचल होता है तब वह अस्त-व्यस्त और शक्तिहीन हो जाता है; सजग शांति के अंदर ही ज्योति प्रकट हो सकतीं है और मनुष्य की क्षमताओं के नवीन क्षेत्रों को उद्युक्त कर सकतीं है ।

 

('बुलेटिन', नवम्बर १९५१)

 

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आंतरात्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा

 

 अबतक हमारा विषय वह शिक्षा रहीं है जो संसार मे जन्म लेनेवाले प्रत्येक बच्चे को दी जा सकतीं है और जो केवल मानवीय क्षमताओं से ही संबंध रखती हैं, परंतु हमें अनिवार्य रूप मे वहीं रुक जाने की आवश्यकता नहीं । सब मानव प्राणियों मे अंदर छिपी हई एक महत्तर चेतना की संभावना मौजूद है जो उनके सामान्य जीवन की सीमा से बड़ी है और जिसकी सहायता से वे एक उच्चतर और अधिक व्यापक जीवन मे भाग लेने के अधिकारी बन सकते हैं । वास्तव में, यही चेतना सभी असाधारण व्यक्तियों मे जीवन को शासित करती है  तथा उसकी परिस्थितियों और साथ हीं इन परिस्थितियों के प्रति उनकी वैयक्तिक प्रतिक्रिया को भी व्यवस्थित करती हैं ! जो बात मनुष्य का मन नहीं जानता और नहीं कर सकता उसे वह चेतना जानती और करती है । यह उस प्रकाश के समान है जो व्यक्ति के केंद्र में चमक रहा है । इसकी किरणें बाह्य चेतना के मोटे आवरणों में से प्रसारित होत्री हैं । कुछ व्यक्तियों को इसकी उपस्थिति का एक अस्पष्ट-सा भान रहता हैं; बहुत-से बच्चे भी इसके प्रभाव के अधीन होते हैं जो कभी-कभी अत्यधिक स्पष्ट रूप से उनकी सहज-प्रेरित क्रियाओं, यहां तक कि उनके शब्दों मे भी दृष्टिगोचर होता है । दुर्भाग्यवश, माता-पिता बहुधा इसका अर्थ नहीं जानते और न हीं यह समह्मते हैं कि उनके बच्चों के अंदर कौन-सी क्रिया चल रहीं हैं । इसलिये इन घटनाएं की ओर उनकी अपनी प्रतिक्रिया भी कोई अच्छी नहीं होती और उनकी सारी शिक्षा का अर्थ ही यह रह जाता हैं कि वह बच्चे को इस क्षेत्र मे यथासंभव अचेतन बना दे, उसका सारा ध्यान बाह्य वस्तुओं पर केंद्रित कर दे तथा उसमें इन्हींको महत्त्वपूर्ण समझने का अभ्यास डाल दे । बाह्य वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रीय करना बहुत लाभदायक तो है, पर यह कार्य उचित ढंग से करना चाहिये । ये तीन प्रकार की शिक्षाएं-शारीरिक, प्राणिक तथा मानसिक-इसी सें संबंधित हैं । हम कह सकते हैं कि ये शिक्षाएं व्यक्तित्व का निर्माण करने, मनुष्य को अस्पष्ट और अवचेतन जड़ता से उबारने तथा उसे एक सुलिखित और आत्म-चेतन सत्ता बनाने के साधन हैं । अंतरात्मा की शिक्षा के द्वारा हम जीवन के सच्चे आशय, पृथ्वी पर अपने अस्तित्व के कारण तथा जीवन की खोज के लक्ष्य और उसके परिणाम के प्रश्र पर आते हैं : अपनी नित्य सत्ता के प्रति व्यक्ति का आत्म-समर्पण । इस खोज का संबंध, साधारणतया, एक गुह्य भाव तथा धार्मिक जीवन से है, क्योंकि विशेष रूप से धर्म-मत ही जीवन के इस पहल मे व्यस्त रहे हैं, पर ऐसा होना आवश्यक नहीं । ईश्वर-विषयक गुह्य विचार के स्थान पर सत्य का अधिक दार्शनिक विचार आ सकता है, पर फिर भी यह खोज सार-रूप में वही रहेगी, केवल उस तक पहुंचने का मार्ग ऐसा हो जायेगा कि अत्यधिक आग्रहशील प्रत्यक्षवादी भी इसको अपना सकेगा; क्योंकि आतरात्मिक जीवन की तैयारी के लिये मानसिक विचारों और धारणाओं का सबसे

 


अधिक महत्त्व नहीं है । महत्त्वपूर्ण बात यह हैं कि अनुभव को जीवन में लाया जाये, यह अनुभव अपने-आपमें यथार्थ शक्तिशाली होता है, यह उन सब सद्धांतों से स्वतंत्र है जौ इसके पहले, इसके साथ या इसके पीछे आते हैं, क्योंकि अधिकतर ये सिद्धांत व्याख्या--रूप हीं होते 'हैं जिसके द्वारा मनुष्य को कुछ-कुछ ज्ञान-प्राप्ति का सम हो जाता है ।  आदर्श या पूर्ण सत्ता को मनुष्य प्राप्त करना चाहता है उसे वह उस वातावरण के अनुसार, जिसमें वह उत्पन्न हुआ हैं और उस शिक्षा के अनुसार जो उसे प्राप्त हुई है, भिन्न-भिन्न नाम दे देता है । अगर अनुभव सच्चा हो तो वह सार रूप में समान हीं रहता है । भेद केवल उन शब्दों और उक्तियों में है जिनमें उसका निरूपण होता है और यह होता है उस व्यक्ति के विश्वास और मानसिक शिक्षा के अनुसार जिसको यह अनुभव प्राप्त हुआ हैं ! यह निरूपण एक निकटवर्ती वणनमात्र हैं । जैसे- जैसे अनुभव अपने-आपमें अधिकाधिक यथार्थ और सुसंबद्ध होता जाये, वैसे-वैसे इस निरूपण को भी, उत्तरोत्तर विकसित तथा यथार्थ होते जाना चाहिये । फिर भी, यदि हम आतरात्मिक शिक्षा की एक सामान्य रूप-रखा खींचना चाहें तो अंतरात्मा से हमारा अभिप्राय क्या है, इस विषय में हमें कुछ विचार अवश्य बना लेना चाहिये, चाहे वह विचार कितना ही सापेक्ष क्यों न हों । उदाहरणार्थ, यह कहा जा सकता हैं कि एक व्यक्ति की रचना उन असंख्य संभावनाओं में से किसी एक के देश और काल मे प्रसेपण के द्वारा होती है जो समस्त अभिव्यक्ति के सर्वोच्च उद्गम में गुप्त रूप सें विद्यमान हैं । यह उद्गम एकमेव विश्वव्यापी चेतना के द्वारा व्यक्ति के नियम या सत्य में मूर्त रूप धारण कर लेता है और इस प्रकार उत्तरोत्तर विकास करते झ उसकी आत्मा या चैत्य पुरुष बन जाता हैं ।

 

  मुझे इस बात पर जोर देना चाहिये कि जो कुछ संक्षेप मे यहां कहा गया है उसे न तो अंतरात्मा की पूर्ण व्याख्या कहा जा सकता है और न ही पूरे-का-पूरा विषय उम्रमें आ जाता है- अभी बहुत कुछ बाकी हैं । यह एक अति संक्षिप्त निरूपणमात्र है और इसका उपयोग व्यवहार-रूप में हो सकता है । यह उस शिक्षा का आधार बन सकती है जिस पर अब हमें विचार करना हैं ।

 

  आंतरात्मिक उपस्थिति के द्वारा हीं व्यक्ति का सच्चा अस्तित्व व्यक्ति तथा उसके जीवन की परिस्थितियों से संपर्क प्राप्त करता हैं । यह कहा जा सकता है कि अधिकांश व्यक्तियों में यह उपस्थिति अज्ञात और अपरिचित रूप मे पर्दा के पीछे से कार्य करती हो पर कुछ में यह अनुभव-गोचर होती हैं तथा इसकी को भी पहचाना जा सकता है; बहुत ही विरले लोगों में यह उपस्थिति प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हर्ता है और नन्हींमें इसकी किया भी अधिक प्रभावशाली होती है । ऐसे लिंग ही एक विशेष विश्वास और निञ्जय के साथ जीवन में आगे बढ़ते हैं; ये हीं अपने भाग्य के स्वामी होते हैं । इस स्वामित्व को प्रान्त करने तथा अंतरात्मा की उपस्थिति के प्रति सचेतन होने के लिये ही आतरात्मिक शिक्षा के अनुशीलन की जरूरत है पर इसके

 

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लिये एक विशेष साधन, अर्थात् व्यक्ति के निजी संकल्प का होना आवश्यक है । क्योंकि अभीतक अंतरात्मा की खोज, इसके साथ तदात्मता, शिक्षा के स्वीकृत विषयों का अंग नहीं बनी है । कई ऐसी विशेष पुस्तकें हैं जिनमें इस विषय को सीखने के लिये कुछ उपयोगी निर्देश मिल जाते हैं । किन्हीं विशेष अवस्थाओं मे कुछ भाग्यशाली लोगों की किसी ऐसे व्यक्ति से भेंट भी हो सकतीं है जो उन्है मार्ग दिखाने मे समर्थ होता है तथा इस पर चलने के लिये उन्हें आवश्यक सहायता पहुंचा सकता है, पर अधिकतर यह कार्य मनुष्य को अपनी ही मौलिक प्रेरणा द्वारा करना होता हैं । यह खोज उसका व्यक्तिगत कार्य हैं तथा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये एक महान संकल्प, दृढ़ निक्षय और अथक अध्यवसाय की विशेष आवश्यकता पड़ती है । ऐसा कहा जा सकता हैं कि प्रत्येक को अपनी कठिनाइयों मे से अपना रास्ता आप निकालना होता है । कुछ हद तक तो इस लक्ष्य को लोग जानते हैं; क्योंकि जिन्हेंने उसे प्राप्त कर लिया हैं उनमें से अधिकांश थोड़े-बहुत स्पष्ट रूप मे इसका वर्णन कर चुके हैं । पर इस खोज का सर्वोच्च महत्त्व इसकी सहज-स्वाभाविकता और सच्चाई मे है जो सामान्य मानसिक मर्यादाओं मे नहीं होती । इसीलिये, जो कोई इस साहसपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाना चाहता हैं वह पहले प्रायः, एक ऐसे व्यक्ति की खोज करता है जो इस कार्य को सफलतापूर्वक कर चुका होता है और साथ हीं जो उसे सहारा देने और रास्ता दिखाने मे समर्थ है । फिर भी, कई ऐसे एकाकी जिज्ञासु होते हैं जिनके लिये कुच सामान्य निर्देश उपयोगी हो सकते हैं ।

 

  प्रारंभ मे मनुष्य को अपने अंदर उस चीज की खोज करनी होगी जो शरीर और जीवन की परिस्थितियों से स्वतंत्र हैं, जिसका जन्म न तो उस मानसिक रचना से हुआ है  जो उसे प्राप्त हुई है, न उस भाषा से जो वह बोलता है; न उस वातावरण के अम्यासों तथा रीति-रिवाज रो जिसमें वह रहता हैं और न हीं उस देश या युग से जिसमें वह उत्पन्न हुआ है तथा जिससे उसका संबंध है । उसे, अपनी सत्ता की गहराई में, उस वस्तु को ढूंढना होता हैं जिसके अंदर व्यापकता, असीम विस्तार तथा नित्य स्थिरता का भाव है । तब वह अपने-आपको केंद्र से बाहर की उतर प्रसारित -करता हू, विशाल और व्यापक बनाता हैं; प्रत्येक वस्तु मे तथा सब प्राणियों मे निवास करने लगता है व्यक्तियों को एक-दूसरे से पृथक करनेवाली सीमाएं टूट जाती हैं । वह उनके विचारों में सोचता है, उनके संवेदनों से स्पंदित होता है, उनकी भावनाओं मे अनुभव करता है, सबके जीवन मे जीता है । जो जड़ प्रतीत होता था, वह एकाएक जीवन सें पूर्ण हो जाता है, पत्थर स्पंदित हो उठते हैं, पौधे संवेदन, इच्छा तथा दुःख अनुभव करने लगते हैं, पशु एक मूक-सी, पर स्पष्ट और व्यंजक भाषा में बोलते हैं; सब वस्तुएं एक ऐसी अद्भुत चेतना सै सजीव हो उठती हैं जो देश और काल से परे हैं । यह आतरात्मिक उपलब्धि केवल एक पक्ष हैं; इसके अतिरिक्त और भी बहुत-से हैं । ये सब मिलकर तुम्हारे अहंभाव की सीमाओं तथा तुम्हारे बाह्य व्यक्तित्व की

 

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दीवारों से, तुम्हारी प्रतिक्रियाओं की असमर्थता और तुम्हारे संकल्प की दुर्बलता से तुम्हें बाहर निकाल लाते हैं ।

 

  पर, जैसा कि मै पहले कह चुकी हूं, यहां तक पहुंचने का मार्ग लंबा और कठिन है, इनमें अनेक जाल बिछे हैं तथा कठिनाइयां हैं और इनका सामना करने के लिये एक ऐसे दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है  जो सब प्रकार की परीक्षाओं के सम्मुख टिक सके । यह एक अपरिचित प्रदेश की, एक महान ध्येय की खोज के लिये अज्ञात वन मंच से एक अन्वेषक की यात्रा के समान है । अंतरात्मा की उपलब्धि मी एक महान् खोज हैं, इसके लिये उतनी हीं निडरता और सहनशीलता की आवश्यकता है जितनी हमें नये महाद्वीपों का खोज मे होती है  । जिसने इस काम को हाथ मे लेने का निश्चय कर लिया है उसके लिये कई निर्देश उपयोगी हो सकते हैं ।

 

  पहली और शायद अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मन आध्यात्मिक वस्तुओं के विषय मे राय बनाने मे असमर्थ है  । जिन लोगों ने भी इस विषय पर लिखा है वे सब यहीं कहते हैं; पर बहुत कम लोग ऐसे हैं जो इस पर आचरण करते हैं । फिर भी इस मार्ग पर अग्रसर होने के लिये सब प्रकार की मानसिक धारणाओं ओर प्रतिक्रियाओं से बचना सर्वथा अनिवार्य है ।

 

  आराम, सुख-भोग या प्रसन्नता के लिये हर प्रकार की वैयक्तिक कामना का त्याग कर दो; बस, उन्नति के लिये प्रज्ज्वलित अग्निशिखा बन जाओ । जो कुछ तुम्हारे मार्ग में आये उसे अपने विकास के लिये मानो और तुरंत इस अपेक्षित विकास को साधित भी कर लो ।

 

  सब कार्य प्रसन्नता से करने का यत्न करो परंतु प्रसन्नता कभी तुम्हारे कार्य का प्रेरक भाव न बनने पाये ।

 

  कभी उत्तेजित, उद्विग्न या विक्षुब्ध मत होओ । सब अवस्थाओं मे पूर्ण रूप से शांत बने रहो । फिर भी सदा सजग रहो ताकि जो उन्नति तुम्है करनी है उसे तुम जान सको तथा बिना समय नष्ट किये उसे प्राप्त कर सकी ।

 

  भौतिक घटनाओं को उनके बाह्य रूपों के आधार पर अंगीकार मत करो । ये सदा हीं किसी अन्य वस्तु की, जो सत्य वस्तु हैं, परंतु जो हमारी तलीय बुद्धि की पकड़ मे नहीं आती, अशुद्ध अभिव्यक्त्ति होती है ।

 

  किसी के व्यवहार के प्रति शिकायत मत करो, जबतक तुम्हारे अंदर उक्तके स्वभाव की उस चीज को बदलने की शक्ति हीं न हो जो उसे वैसा करने को प्रेरित करती हैं; अगर तुम्हारे पास वह शक्ति है तो शिकायत करने के स्थान पर उसे बदल दो । तुम जो भी करो, अपने लक्ष्य को सदा स्मरण रखो । इस महान उपलब्धि की खोज मे कोई भी चजि बड़ी या छोटी नहीं है; सब समान रूप से महत्त्वपूर्ण है, ये इसकी सफलता मे सहायता भी पहुंचा सकतीं हैं और बाधा भी डाल सकती हैं, जैसे भोजन से पहले तुम इस अभीप्सा पर कुछ क्षण अपना ध्यान एकाग्र करो कि जो खाना तुम

 

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खाने लगे हों वह तुम्हारे शरीर के लिये उस प्रयोजनीय तत्त्व को पैदा करे जो इस महान उपलब्धि के लिये तुम्हारे प्रयत्न का ठोस आधार बनेगा तथा उसे इस प्रयत्न मे सहनशीलता और अध्यवसाय की शक्ति प्रदान करेगा ।

 

  सोने से पहले, तुम कुछ क्षण के लिये एकाग्र होकर अभीप्सा करो कि यह निद्रा तुम्हारी थकी हुई नसों को पुन: शक्ति प्रदान करे, तुम्हारे मस्तिष्क मे स्थिरता और शांति लाये, ताकि सोकर उठने के बाद तुम नये उत्साह के साथ इस महान उपलब्धि की ओर अपनी यात्रा को फिर से आरंभ कर सको ।

 

  कुछ भी करने से पहले, इस इच्छा-शक्ति पर अपना ध्यान केंद्रित करो कि तुम्हारा कार्य इस महान् उपलब्धि की ओर अग्रसर होने में तुम्हें सहायता पहुंचाये, कम-से-कम बाधक तो न बने !

 

  जब तुम बोलों, तो मुख से शब्द निकालने से पहले कम-से-कम इतनी देर तो अपने-आपको एकाग्र कर लो ताकि तुम्हारा शब्दों पर नियंत्रण रहे और वही शब्द मुख से निकले जो अनिवार्य रूप मे आवश्यक हैं, केवल वही जो इस महान उपलब्धि की ओर अग्रसर होने में किसी प्रकार भी बाधक नहीं है ।

 

  संक्षेप मे, अपने जीवन के प्रयोजन और लक्ष्य को कभी मत भूलो । इस महान उपलब्धि का तुम्हारा संकल्प सदा तुम्हारे अपर तथा जो कुछ तुम करते हो और जो कुछ तुम हो उस पर सजग रूप में विद्यमान रहे मानों यह प्रकाश का एक विशाल पक्षी है जो तुम्हारे अस्तित्व की सब गतिविधि को प्रभावित करता है ।

 

  तुम्हारे अथक और सतत प्रयत्न के फलस्वरूप सहसा एक आंतरिक कपाट खुल जायेगा और तुम एक ऐसी ज्वलंत ज्योति मे प्रवेश करोगे जो तुम्हें अमरता का आश्वासन प्रदान करेगी तथा स्पष्ट अनुभव करायेगी कि तुम सदा हो जीवित रहे हो और सदा ही जीवन रहोगे; नाश बाह्य रूपों का हीं होता है और अपनी वास्तविक सत्ता के संबंध से तुम्हें यह भी पता लगेगा कि ये रूप वस्त्रों के समान हैं जिन्हें पुराने पंडू जाने पर फेंक दिया जाता है । तब तुम सब बंधनों सें मुक्त हों जाओगे और परिस्थितियों के जिस बोझ को प्रकृति ने तुम पर लादा है तथा जिसे वहन करते हुए तुम कष्ट भोग रहे हो, उसके नीचे कठिनाई से अग्रसर होने के स्थान पर तुम--यदि इसके नीचे कुचल जाना नहीं चाहते हो तो- अपनी भवितव्यता के प्रति सचेतन होकर तथा जीवन के स्वामी बनकर सीधे, दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ सकते हो ।

 

  पर इस स्थूल देह की समस्त दासता से छुटकारा और सब प्रकार के वैयक्तिक मोह से मुक्ति पाना ही सर्वोच्च सिद्धि नहीं है । शिखर पर पहुंचने से पहले और कई मंज़िलों को पार करना होगा । इनके बाद कई और भी आ सकतीं हैं और आयेंगी ही जो भविष्य के द्वार खोल. देंगी । ये अगली मंज़िले हीं इस शिक्षा का विषय होगी जिन्हें मै आध्यात्मिक शिक्षा कहती हूं ।

 

  पर इस नये विषय पर आने तथा इस प्रश्र को विस्तारपूर्वक विचारने से पहले, एक
 

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बात का स्पष्टीकरण उपयोगी होगा । आतरात्मिक शिक्षा, जिसके बारे मे हम अभी कह चुके हैं, और आध्यात्मिक शिक्षा, जिसके बारे में हम अब कहेंगे, इन तने। मे भेद करना जरूरी क्यों हैं? दोनों साधारणतया ''योग साधना' ' का एक हीं व्यापक नाम पाने के कारण, आपस में मिल-जुल गयी हैं, यद्यपि इनके लक्ष्य बहुत भिन्न हैं : एक का लक्ष्य है पृथ्वी पर उच्चतर सिद्धि की प्राप्ति, जब कि दूसरी समस्त पार्थिव अभिव्यक्ति से, यहांतक कि संपूर्ण संसार से पलायन करके अव्यक्त की ओर लौट जाना चाहती हैं ।

 

  अतएव यह कहा जा सकता है कि आतरात्मिक जीवन एक ऐसा जीवन है जो अमर हैं, अनंत काल, असीम देश, नित्य प्रगतिशील परिवर्तन हैं, और बाह्य रूपों के संसार में एक अविच्छिन्न धारा है । दूसरी ओर, आध्यात्मिक चेतना का अर्थ है नित्य और अनंत में निवास करना तथा देश-काल से, सृष्टिमात्र से बाहर स्थित हो जाना । अपनी अंतरात्मा को पूर्ण रूप से जानने और आतरात्मिक जीवन बिताने के लिये मनुष्य को समस्त स्वार्थपरता का त्याग करना होगा; किंतु आध्यात्मिक जीवन के लिये अहंमात्र से मुक्त हो जाना होगा ।

 

  आध्यात्मिक शिक्षा मे यहां भी, मनुष्य का स्वीकृत लक्ष्य, उसके वातावरण, विकास तथा स्वभाव की रुचियों के -संबंध मे, मानसिक निरूपण मे, मित्र-भिन्न नाम धारण कर लेगा । धार्मिक प्रवृत्तिवाले उसे ईश्वर कहेंगे और उनका आध्यात्मिक प्रयत्न फिर इस रूपातीत परात्पर ईश्वर के साथ तादात्म्य प्राप्त करने के लिये होगा, न कि उस ईश्वर के साथ जो वर्तमान सब रूपों मे है । कुछ लोग इस 'परब्रह्म' या 'सर्वोच्च आदिकारण' कहेंगे, और कुछ 'निर्वाण'; कुछ और, जो संसार को तथ्यहीन भ्रम समझते हैं, इसे 'एक अद्वितीय सत्य' का नाम देंगे; जो लोग अभिव्यक्तिमात्र को असत्य मानते हैं उनके लिये यह 'एकमात्र सत्य' होगा । लक्ष्य की ये सब परिभाषाएं अंशत: ठीक हैं, पर हैं सब अधूरी, ये केवल सद्वस्तु के एक-एक पक्ष को हीं व्यक्त करती हैं । दद्रु भी मानसिक निरूपणों का कुछ महत्त्व नहीं; बीच की अवस्थाओं को एक बार पार कर जाने के बाद मनुष्य सदा एक हीं अनुभव पर पहुंचता हैं । जो शी हों, शुरू करने के  सबसे अधिक सफल तथा शीघ्र दद्रु जानेवाली चीज पूर्ण आत्म-समर्पण हैं । इसके साथ हीं, जिस उच्च-से-उच्च -सत्ता की मनुष्य कल्पना कर शत्रुता हे उसके प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण के आनंद से अधिक पूर्ण आनंद और नहीं है; कुछ इसे ईश्वर का नाम देते हैं और कुछ 'पूर्णता ' वहां । यदि यह समर्पण लगातार स्थिर भाव मे तथा उत्साहपूर्वक किया जाये तो एक ऐसा समय भाता है जब मनुष्य इस कल्पना है ऊपर उठाकर एक ऐसे अनुभव को प्राप्त कर लेता हैं जिसका वर्णन तो नहीं हो सकता, परंतु जिसका फल व्यक्ति पर प्रायः सदा एक समान होता छै । जैसे-जैसे उसका आत्म- समर्पण अधिकाधिक पूर्ण और सर्वांगीण होता जायेगा; उसके अंदर उस सत्ता के साथ एक होने की तश्त उसमें पूर्ण रूप सें मिल जाने की अभीप्सा पत्र होती जायेगी जिसे
 

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उसने समर्पण किया हैं और क्रमश: यह अभीप्सा सब विषमताओं और बाधाओं को पार कर लेगी, विशेषकर उस अवस्था मे जब इस अभीप्सा के साथ-साथ व्यक्ति मे प्रगाढ़ और सहज प्रेम भी डोर क्योंकि तब कोई भी वस्तु उसकी विजयशील प्रगति के रूप मे मार्ग मे बाधक नहीं हो सकेगी ।

 

  इस तादात्म्य मे तथा अंतरात्मा के साथ तादात्म्य मे एक मौलिक भेद है । अंतरात्मा के साथ तादात्म्य को अधिकाधिक स्थायी बनाया जा सकता है और कुछ लोगों मे यह स्थायी बन भी जाता है और जिसने इसे सिद्ध कर लिया है उसको यह कमी नहीं छोड़ता, उसके बाह्य कर्म चाहे जो भी हों । दूसरे ब्दों मे हम कह सकते हू कि यह तादात्म्य ध्यान और तन्मयता में हीं नहीं प्राप्त होता, बल्कि इसका प्रभाव मनुष्य के जीवन में प्रतिक्षण, निद्रा मे और साथ ही जाग्रत् अवस्था में भी अनुभव किया जाता है ।

 

  इसके विपरीत, समस्त बाह्य रूपों से मुक्त्ति, रूपातीत सत्ता सें तादात्म्यता अपने- आपमें स्थिर नहीं रह सकतीं; क्योंकि यह स्वभावत: हा स्थूल रूप के नाश का कारण बन जायेगी । कुछ परंपरागत गाथाएँ कहती हैं कि यह नाश पूर्ण तादात्म्य स्थापित होने के बीस दिन के भीतर हीं अवश्यमेव हो जाता हैं । तथापि ऐसा होना आवश्यक नहीं हैं, और यह अनुभव चाहे क्षणिक हीं हो, चेतना में ऐसे परिणाम उत्पन्न कर देता है जो कभी नहीं मिटते और जो सत्ता के सब स्तरों, आंतरिक और बाह्य दोनों, पर प्रतिक्रियाएं पैदा करते हैं । और एक बार तादात्म्य स्थापित कर लेने के बाद इसे इच्छानुसार पुन: प्राप्य किया जा सकता है, पर एक शर्त पर कि व्यक्ति उन्हीं अवस्थाओं की फिर से लाना जानता हो ।

 

   निराकार में लीन हो जाना वह सर्वोच्च मुक्ति है जिसे प्राप्त करने की इच्छा केवल वही लोग करते हैं जो इस जीवन से छुटकारा पाना चाहते हैं, क्योंकि. यह उन्हैं अब और आकर्षित नहीं करता । वे संसार के वर्तमान रूप से संतुष्ट नहीं हैं, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं । पर यह एक ऐसी मुक्ति है जो संसार को जैसा वह है वैसा ही छोड़ देती है और दूसरों के सुख-दुःख मे कोई सहायता नहीं पहुंचाती । यह अंग लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकती जो एक ऐसे सुख का उपभोग करना नहीं चाहते जिसके वे अकेले या प्रायः अकेले ही भोक्ता होते हैं । ये लोग तो एक ऐसे संसार का स्वप्न देखते हैं जो इसकी वर्तमान अव्यवस्था और सामान्य दुःख-दैन्य के पीछे छुपे हुए प्रकाशपूर्ण वैभव के अधिक योग्य हो । वे चाहते हैं कि जिन आश्चर्यों को उन्होंने अपनी आंतरिक गवेषणा मे उपलब्ध कर लिया है उनसे दूसरों को लाभ पहुंचाये । और यह वे कर भी सकते हैं, क्योंकि वे अब अपने आरोहण के शिखर पर पहुंच गये हैं ।

 

   नाम और रूप की सीमाओं के परे से एक नयी शक्ति का आवाहन किया जा सकता है, चेतना की उस शक्ति का जिसकी अभिव्यक्ति अभी नहीं हुई है और जो, प्रकट होकर, वस्तुओं के क्रम की बदलने मे समर्थ होगी तथा एक नये जगत् को

 

 

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जन्म देगी । क्योंकि दुःख, अज्ञान तथा मृत्यु की समस्या का हल यह नहीं हैं कि व्यक्ति सांसारिक दुखों से बचने के लिये निर्वाण द्वारा अव्यक्त मे मिल जाये, और न हीं सृष्टि के पूर्ण तथा अंतिम रूप से स्रष्टा मे लौट जाने से-जो संदिग्ध है- समष्टि का वैध दुःख सै छुटकारा हो सकता हैं । यह तो विश्व का दुःख दूर करने के लिये विश्व को ही मिटा देना हुआ । इस समस्या का हल जडू-तत्त्व के रूपांतर, एक ऐसे पूर्ण रूपांतर मे हैं जिसे साधित करने के लिये प्रकृति पूर्णता की ओर अपने विकास की युक्त्तियुक्त ऊर्ध्वमुख यात्रा को जारी रखेगी जैसा कि उसने अबतक रखा है और इससे एक नयी जाति का जन्म होगा । इसमें और मनुष्य मे वैसा हीं आपेक्षिक संबंध होगा जैसा मनुष्य और पशु मे है । वह जाति पृथ्वी पर एक नयी शक्ति, नयी चेतना तथा नये बल को अभिव्यक्त करेगी । और तभी एक नयी शिक्षा का आरंभ होगा जिसे हम अतिमानसिक शिक्षा कह सकते हैं; यह, अपनी सर्वसमर्थ क्रिया से, व्यक्तियों की चेतना को हीं प्रभावित नहीं करेगी, वरन उस तत्त्व को भी प्रभावित करेगी जिससे हैं बने हैं तथा उस वातावरण को भी जिसमें वे रहते हैं ।

 

  जिन शिक्षाओं के बारे में हम पहले कह चुके हैं और जो सत्ता के विभिन्न अंगों की ऊर्ध्वमुखी गति के द्वारा नीचे सें अपर की ओर विकसित होती हैं, उनके विपरीत अतिमानसिक शिक्षा की विकास-क्रिया ऊपर से नीचे की ओर चलेगी, इसका प्रभाव सत्ता की एक अवस्था से दूसरी मे व्याप्त होता जायेगा जबतक कि वह अंतिम, अर्थात् भौतिक अवस्था तक न पहुंच जाये । भौतिक अवस्था का रूपांतर प्रत्यक्ष रूपमें तभी दिखायी देगा जब सत्ता की आंतरिक अवस्थाएं काफी अच्छी तरह रूपांतरित हों चुकी होगी । इसलिये अतिमानस की उपस्थिति को स्थूल रूपों द्वारा समह्मने का प्रयत्न सर्वथा अनुचित हैं, क्योंकि ये रूप तो सबसे अंत में बदलते हैं जब कि अतिमानसिक शक्ति व्यक्ति में बहुत पहले से कार्य कर रही होती है । भौतिक जीवन में तो इसका प्रभाव बाद मे हीं दृष्टिगोचर होता हैं ।

 

  संक्षेप मैं यह कहा जा सकता है कि अतिमानसिक शिक्षा के फलस्वरूप केवल मानव प्रकृति का उत्तरोत्तर विकास ही नहीं होगा और न हीं केवल उसकी सुप्त शक्तियां हीं दिन-दिन बढ्ती जायेगी, बल्कि प्रकृति का अपना और साथ-हीं-साथ संपूर्ण सत्ता का भी रूपांतर हो जायेगा । प्राणियों की एक योनि का नया आरोहण होगा, मानव से ऊपर अतिमानव की ओर जिससे अंत मे पृथ्वी पर दिव्य जाति का आविर्भाव होगा ।

 

('बुलेटिन' फरवरी, १९५२)

 

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एक अंतर्राष्ट्रीय विश्रविधालय-केंद्र

 

   मनुष्य जिन परिस्थितियों मे संसार मे रहते हैं वे उनकी अपनी चेतना के परिणाम हैं । चेतना को बदले बिना परिस्थितियों को बदलने की इच्छा करना कोरा स्वप्न है । जिन लोगों को इस बात का ज्ञान हों गया हैं कि मानव जीवन के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, वित्तीय तथा शिक्षा और स्वास्पय-संबंधी विभिन्न क्षेत्रों में स्थिति को सुधारने के लिये क्या किया जा सकता है और क्या करना चाहिये, है वही व्यक्ति हैं जिन्हेंने किसी-न-किसी अंश मे अपनी चेतना असाधारण ढंग से विकसित कर लीं है तथा ज्ञान के उच्चतर स्तरों के साथ अपना संबंध जोड़ लिया है । पर उनके विचार रहे सदा कम या अधिक सैद्धांतिक हीं, अथवा यदि उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया भी गया तो सदैव थोड़े-बहुत समय के बाद बुरी तरह से असफल हुआ कारण, कोई भी मानव-संगठन मूलत: नहीं बदला जा सकता जबतक कि मानव चेतना ही अपने-आपमें न बदली जाये । नयी मानवता के अग्रदूत एक के बाद एक आये, कई आध्यात्मिक और सामाजिक धर्म चलाये गये उनके प्रारंभिक प्रयत्न कभी- कभी आशापूर्ण भी होते थे, परंतु क्योंकि मानव-प्रकृति मूलतः नहीं बदली गयी थी, उसकी स्वाभाविक पुरानी भूलें धीरे-धीरे फिर प्रकट हो उठी । और कुछ ही समय में यह पता लगने लगा कि मनुष्य लगभग उसी स्थान पर खड़ा हैं जहां सै वह इतनी आशा और उत्साह लेकर चला था । मनुष्य की अवस्थाओं को सुधारने के प्रयत्न मे सदैव दो प्रवृत्तियां काम करती रहीं हैं; प्रकट रूप मे विरोधी प्रतीत होने पर भी दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं और दोनों मिलकर प्रगति के लिये कार्य करती हैं । एक प्रवृत्ति सामूहिक पुनस्संगठन का समर्थन करती है जो मानवजाति को सफल एकता की और ले जाये । दूसरी का मत हैं  कि सब प्रकार का विकास पहले व्यक्ति को करना होगा; वह इस बात पर बल देती हैं कि व्यक्त्ति को वे सब अवस्थाएं प्रदान करनी चाहिये जिनमें वह स्वाधीनतापूर्वक उन्नति कर सके । ये दोनों प्रवृत्तियां समान रूप से सत्य हैं और साथ हीं आवश्यक भी । इसलिये, दोनों के लिये इकट्ठा प्रयत्न करना चाहिये । कारण, सामूहिक विकास और वैयक्तिक विकास अन्योन्याश्रित हैं । व्यक्ति लंबी छलांग लगा सकें उससे पहले सामूहिक जीवन का कुछ-न-कुछ विकास हो जाना आवश्यक हैं । अतएव, कोई ऐसा साधन ढूंढना चाहिये जिससे दोनों विकास साथ-साथ चल सकें ।

 

  इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिये हीं श्रीअरविन्द ने अपने अंतर्राष्ट्रीय विष विद्यालय की योजना बनायी थीं । इससे उनका आशय कुछ ऐसे चुने हुए लोगों को तैयार करना था जो मानवजाति के क्रमिक एकीकरण के लिये कार्य कर सकें

 

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और साथ हीं उस नयी शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिये तैयार हो जायें जो पृथ्वी को रूपांतरित करने के लिये अवतरित हो रहो है । कुछ सामान्य विचार इस विश्वविद्यालय-केंद्र के संगठन का आधार-रूप होंगे, साका हीं वे अध्ययन के कार्यक्रम को भी निर्धारित करेंगे ।

 

  इनमें ख सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विचार यह है कि मनुष्यजाति की एकता न तो एकरूपता से, न प्रभुत्व से और न ही दमन सें प्राप्त हो सकती हैं । सब राष्ट्रों का समस्यापूर्ण संगठन ही-ऐसा संगठन जिसमें प्रत्येक को अपनी प्रतिभा तथा समष्टि मे अपने उचित कर्म के अनुसार स्थान प्राप्त होगा-उस पूर्ण और विकसनशील एकता को लाने मैं समर्थ हो सकता है जो संभवत: स्थायी सिद्ध हों । यह समन्वय जीवंत हो इसके लिये समष्टिकरण को एक ऐसे केंद्रीय विचार पर आधारित होना होगा जो यथासंभव उच्च और व्यापक हो तथा जिसमें सब प्रवृत्तियों को, अत्यंत विरोधी प्रवृत्तियों को भी, अपना निश्रित स्थान प्राप्त हो । यह उच्चतम विचार हीं मनुष्य को जीवन की वे सब आवश्यक अवस्थाएं प्रदान करेगा जो उस नयी शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिये तैयार कर सकेगी; यह शक्ति हीं भावी जाति को उत्पन्न करेगा ।

 

  प्रतिस्पर्धा की हर प्रकार की प्रवृत्ति तथा प्रधानता, और अधिकार प्राप्त करने के लिये प्रत्येक संघर्ष की जगह समस्वर संगठन तथा सूक्ष्म-दृष्टियुक्त्त प्रभावशाली सहयोग की भावना को प्रतिष्ठित करना होगा ।

 

  इसे संभव बनाने के लिये यह आवश्यक है कि बच्चे छोटी अवस्था से न केवल उपर्युक्त विचार के हीं अभ्यस्त बनें बल्कि उनके अनुसार कर्म भी करें । इसीलिये यह ' अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय-केंद्र ' अंतर्राष्ट्रीय होगा- अंतर्राष्ट्रीय इस कारण नहो कि इसमें सब देशों के विद्यार्थी प्रविष्ट किये जायेंगे इसलिये भी नहीं कि यहां उन्हें अपनी मातृभाषा मे शिक्षा दी जायेगी, बल्कि इसलिये कि संसार के विचित्र प्रदेशों की संस्कृतियां यहां केवल बौद्धिक रूप में विचार, मत, सिद्धांत और भाषा मे हीं नहीं, वरन् जोवत रूप में अम्यारगें, रीति-रिवाजों और सब प्रकार की कलाओं- चित्रकला, मूर्तिनिर्माण, संगति, गृह-शिल्प, साज-सज्जा आदि- यहां तक स्थूल रूप में प्राकृतिक .दृश्य, वेश-भूषा, खेल-कूद उद्योग- धंधे तथा मोजनतक में सबके 'लिये सुलभ होगी । एक ऐसी विश्व-प्रदर्शनी की व्यवस्था करनी होगी जिसमें सब देश सजीव और साकार रूप मे उपस्थित होंगे । इसमें आदर्श यह होगा कि प्रत्येक राष्ट्र का, जिसकी अपनी निश्चित संस्कृति है, एक पृथक भवन होगा जो उस संस्कृति को प्रस्तुत करेगा; उसका निर्माण उसी नमूने के अनुसार किया जायेगा जो उस देश की रीति-नीति को अधिक-स-अधिक स्पष्ट रूपमे उपस्थित करेगा; वह राष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि-स्वरूप प्राकृतिक और निर्मित दोनों प्रकार की कुतियों, यहांतक कि ऐसी कुतियों को भी प्रदर्शित करेगा जो उसकी बौद्धिक ओर कलात्मक प्रतिभा तथा आध्यात्मिक प्रवृत्तियों

 

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को सर्वोत्तम रूप मे प्रकट करती हों । इस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र इस सांस्कृतिक समन्वय में अत्यंत क्रियात्मक और सजीव रुचि रखेगा और उस भवन का, जो उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता हैं, दायित्व लेकर इस कार्य मे सहायता पहुंचायेगा । इसके साथ ही उसी राष्ट्र के विद्यार्थियों के निवास के लिये एक छात्रावास भी होगा जो आवश्यकतानुसार छोटा-बड़ा हों सकता हैं । इस प्रकार ये विद्यार्थी अपनी मातृभूमि की संस्कृति का आनंद लेते हुए केंद्र मे ऐसी शिक्षा प्राप्त करेंगे जो संसार की अन्य संस्कृतियों के साथ इनका परिचय करा देगी । अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा तब स्कूल को बेंतों पर प्राप्त होनेवाली केवल सैद्धांतिक शिक्षा ही नहीं होगी, वरन् जीवन के समस्त अंगों में व्यावहारिक मी होगी ।

 

  यहां इस संगठन का केवल एक सामान्य विचार उपस्थित किया गया हैं ।

 

  इसलिये, पहला लक्ष्य यह होगा कि व्यक्तियों को इस बात मे सहायता दो जाये कि वे जिस राष्ट्र के हैं उसकी गंभीर प्रतिभा को भली-भांति जान लें तथा अन्य राष्ट्रों के रहन-सहन के ढंग सें भी परिचय प्राप्त कर लें ताकि वे संसार के सब देशों की सच्ची भावना को समान रूप से जान सकें तथा उसका मान कर सकें । समस्त विश्व- संगठनों को वास्तविक या जीवित रहने के योग्य बनने के लिये राष्ट्र-राष्ट्र के बीच तथा व्यक्ति-व्यक्ति के बच पारस्परिक आदर और पारस्परिक सद्भाव पर आधारित सहयोग हीं मनुष्य को आज की दुःखद अव्यवस्था मे से निकाल सकते हैं । इसी उद्देश्य और भावना के साथ इस विश्वविद्यालय-केंद्र मे समस्त मानवी प्रश्रों का अध्ययन किया जायेगा; और इनका हल भी उस अतिमानसिक ज्ञान की सहायता से किया जायेगा जिस पर श्रीअरविन्द ने अपने ग्रंथ में काफी प्रकाश डाला हैं ।

 

('बुलेटिन' अप्रैल १९५२)

 

(२)

 

  'श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय-केंद्र' में दी जानेवाली शिक्षा को जो नियम संचालित करेंगे उनके विषय में यह कहा गया था कि प्रत्येक राष्ट्र को विश्व की समस्वरता में अपना स्थान प्राप्त करना होगा, अपनी भूमिका निभानी होगी ।

 

  पर इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि प्रत्यक राष्ट्र स्वच्छंदतापूर्वक अपनी किसी महत्त्वाकांक्षा और लालसा के अधीन होकर अपना स्थान चुनेगा । किसी देश का लक्ष्य मानासेक रूप में, बाह्य चेतना की अहंकारयुक्त और अज्ञानमूलक रुचियों दुरा निर्धारित नहीं किया जा सकता । क्योंकि ऐसा होने से राष्ट्रों में केवल संघर्ष का क्षेत्र हीं बदलेगा, संघर्ष फिर भी, और शायद अधिक तीव्र रूप में बना रहेगा ।

 

   जिस प्रकार व्यक्ति की अपनी अंतरात्मा होती हैं जी उसकी वास्तविक सत्ता हैं  और उसके भविष्य को थोड़े-बहुत प्रत्यक्ष रूप में परिचालित करती है, उसी प्रकार

 

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प्रत्येक राष्ट्र की भी अंतरात्मा होती है, उसको सच्ची सत्ता वही है और वही उसकी भवितव्यता का पर्दे के पीछे से निर्माण करती हैं । यहीं देश की आत्मा हैं, राष्ट्रीय प्रतिभा है, जाति की भावना है, राष्ट्रीय अभीप्सा का केंद्र है , किसी देश के जीवन में जो कुछ सुन्दर, उत्कृष्ट, महान और उदार होता हैं उसका फ्ल स्रोत है । सच्चे देश-भक्त प्रत्यक्ष सत्ता के रूप में इसकी उपस्थिति अनुभव करते हैं । इसी को भारतवर्ष में एक दिव्य सत्ता का-सा रूप दे दिया गया है; जो लोग अपने देश से सच्चा प्रेम करते हैं वे इसे भारत माता कहकर पुकारते हैं और अपने देश के हित के लिये इसी के आगे अपनी दैनिक प्रार्थना करते हैं । यह भारत माता ही देश के सच्चे आदर्श को, विश्व में उसके सच्चे उद्देश्य को सांकेतिक रूप मे व्यक्त करती है , उसे मूर्तिमान करती है  ।

 

  भारतवर्ष के कुछ विशिष्ट विचारक तथा अध्यात्मचेता श्रेष्ठ जन तो इसे विथमाता की हीं एक विभूति मानते हैं, जैसा कि दुर्गा-माता के एक स्तोत्र से प्रकट होता है । इसके कुछ पदों का अनुवाद नीचे दिया जा रहा है :

 

 ''मां दुर्गे ! सिंहवाहिनी, सर्वशक्तिदायिनि, तेरे... शक्ति-अंश से उत्पन्न हम भारत के युवकगण तेरे मंदिर में बैठे हैं । माता, हमारी प्रार्थना सुन, तू पृथ्वी पर अवतरित हो, अपने-आपको लू भारत की इस भूमि पर अभिव्यक्त कर ।

 

  ''मां दुर्गे! शक्तिदायिनि, प्रेमदायिनि, ज्ञानदायिनि, सौम्य-रौद्र-रूप-धारिणि मां ! सु अपने शक्ति-स्वरूप में भयंकर है । जीवन-संग्राम में, भारत संग्राम में हम तेरे हीं दुरा प्रेरित योद्धा हैं; मां, लू हमारे हृदय मे, हमारे मन में असुर की शक्ति दे, हमारी आत्मा और हमारी बुद्धि को देवता का गुण, कर्म और ज्ञान दे ।

 

  ''मां दुर्गे! भारत, जगत् की सर्वश्रेष्ठ जाति, घोर तिमिर से आच्छन्न थीं । मां, तू पूर्वगगन में प्रकट हो रही है, तेरे दिव्य अंगों की आभा के साथ-साथ उषा का आगमन हो रहा है और वह अंधकार को छिद्र-भिन्न कर रहीं है । अपने आलोक का विस्तार कर, मां, अंधकार का नाश कर ।

 

  ''मां दुर्गे! हम तेरी संतान हैं, तेरी कृपा से, तेरे प्रभाव से हम महत् कार्य के, महत् आदर्श के योग्य बनें । हमारी क्षुद्रता का, हमारे स्वार्थ का, हमारे भय का लू विनाश कर मां!

 

  ''मां दुर्गे! तू काली है... हाथ मे कृपाण धारण करके तू असुरों का नाश करती है । देवी! अपने कूर निनाद सें तू हमारे अंत-स्थित शत्रुओं का नाश कर । इनमें से एक भी हमारे अंदर जीवित न रहे; हम शुद्ध और निर्मल हो जायें- यहीं हमारी प्रार्थना है; मां लू प्रकट हो ।

 

   ''मां दुर्गा ! भारत, स्वार्थ, भय और क्षुद्रता के हीन गर्त मे गिरा हुआ है । हमें महान बना, हमारे प्रयत्नों को महत् रूप दें, हमारी हृदय को विशाल बना, हमें अपने संकल्प

 

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के प्रति सच्चा रख । ऐसी कृपा कर कि हम और अधिक उस वस्तु की कामना न करें जो क्षुद्र, निःशक्त आलस्य पूर्ण, तथा भयग्रस्त हो ।

 

  ''मां दुर्गे! योगशक्ति का अत्यधिक विस्तार कर, हम तेरी आर्यसंतान हैं; हमारे अंदर लुप्त शिक्षा, चरित्र, मेधाशक्ति, श्रद्धा-भक्ति, तपोबल, ब्रह्मचर्यबल और सत्य शान का पुन: विकास कर- इन सबका जगत् में वितरण कर । हे विश्वजनीन, मनुष्य की सहायता के लिये प्रकट हो, अशुभ का नाश कर ।

 

  ''मां दुमें! अंतस्थ शत्रुओं का संहार कर और फिर चारों ओर की बाधाओं को निर्मूल कर दे । भद्र, वीर और पराक्रमी भारत-जाति, प्रेम और एकता मे, सत्य और शक्ति में, शिल्प और साहित्य मे, विक्रम और ज्ञान में श्रेष्ठ भारत-जाति उसके पवित्र काननों में, उर्वर खेतों मे, गगनचुंबी पर्वतों के तले, पूतसलिला नदियों के तीर पर निवास करे । तेरे चरणों में हमारी यही प्रार्थना है, मां, तू प्रकट हो ।

 

  ''मां दुर्गे! अपने योग-बल द्वारा हमारे शरीर मे प्रवेश कर । हम तेरे यंत्र बनेंगे, तेरी अशुभनाशक तलवार बनेंगे, तेरा ज्ञानविनाशी प्रदीप होंगे । अपने शिशुओं की इस अभिलाषा को पूर्ण कर, मां ! तू स्वामिनी बनकर अपना यंत्र चला, तलवार हाथ मे लेकर अशुभ का नाश कर, प्रदीप ऊंचा उठकर ज्ञान का प्रकाश विकीर्ण कर; तू प्रकट हो । ''

 

   हम अन्य देशों में मी राष्ट्रीय आत्मा के लिये इसी प्रकार का आदर-भाव, उसके सर्वोच्च आदर्श की अभिव्यक्ति के लिये योग्य यंत्र बनने की ऐसी ही अभीप्सा, प्रगति और पूर्णता के लिये ऐसी ही लगन देखना चाहेंगे जो प्रत्येक जाति को अपनी राष्ट्रीय आत्मा के साथ एकाकार होने और इस प्रकार अपने सच्चे स्वरूप और कार्य को जानने के लिये उत्साहित करती है । इससे प्रत्येक मनुष्य, इतिहास की सभी आकस्मिक घटनाओं के होते हुए भी, एक सजीव तथा अमर सत्ता बन जायेगा ।

 

('बुलेटिन', अगस्त १९५२)

 

 

(३)

 

नवागंतुको को परामर्श

 

 अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय-केंद्र धीरे-धीरे संगठित हो रहा है । जबतक नया भवन तैयार नहीं हो जाता, जहां इस केंद्र की स्थायी रूप में स्थापना की जायेगी, जिसका नक्शा तैयार है, कुछ विभागों का, जैसे पुस्तकालय, वाचनालय तथा कुछ थोडी-सी कक्षाओं का प्रबंध पुराने मकानों में ही कर दिया गया हैं; ये मकान बाद में गिरा दिये जायेंगे । शिक्षकों और विद्यार्थियों ने आना आरंभ कर दिया है । कुछ लोग विदेशों से भी

 

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आये हैं जिनके लिये इस देश का जलवायु तथा रीति-रिवाज, सब नया है । ये आश्रम मैं पहली बार आये हैं और इसके जीवन और रहन-सहन से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ! कुछ तो सवा करने या सोखने की मानसिक अभीप्सा से प्रेरित होकर आये हैं; कुछ योग करने, भगवान् को पाने तथा उससे युक्त होने की आशा लेकर आये हैं । कुछ ऐसे भी हैं जो अपने-आपको पूर्ण रूप से पृथ्वी पर भागवत कार्य के लिये समर्पित कर देने के इच्छुक हैं । सभी अपने चैत्य पुरुष से प्रेरित होकर आते हैं जिसका उद्देश्य उन्हें आत्म- उपलब्धि की ओर ले जाना है । तब उनका चैत्य पुरुष आगे होता है और चेतना को शासित करता हैं; व्यक्तियों और वस्तुओं से उनका संबंध चैत्य द्वारा हीं होता हैं । उन्है सब कुछ अच्छा और सुन्दर लगता हैं, उनका स्वास्थ्य सुधरा जाता है , चेतना निर्मल हो जाती है और वे प्रसन्न, शांत और सुरक्षित अनुभव करते हैं; उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होने अपनी चेतना का उच्चतम संभावना पा लीं है । इस शांति, परिपूर्णता और प्रसन्नता को प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक व्यक्ति मे स्वभावतः वै चैत्य द्वारा दी गयी देखते हैं । यह संबंध उन्हें उस सच्ची चेतना के प्रति ग्रहणशील बना दात है जो यहां व्याप्त है और सब कार्य संपन्न कर रहीं हैं । जबतक यह ग्रहणशीलता रहती है, शांति, परिपूर्णता और प्रसन्नता भी रहती है, साथ ही विकास के तात्कालिक फल भा दिखायी देने लगते हैं-उनका शरीर ठीक और स्वस्थ हो जाता है, प्राण मे शांति और सदिच्छा का ओर मन मे निर्मलता और व्यापकता का निवास रहता है । सामान्य रूप रो ही उनमें संतोष और दृढ़ विश्वास की भावना बनी रहती है । पर मनुष्य के लिये अपने चैत्य पुरुष के साथ सतत संबंध बनाये रखना कठिन हैं । जैसे ही कोई नवागंतुक यहां स्थिर रूप मे बस जाता है और उसके अनुभव की ताजगी मंद पंडू जाती है, पुराना व्यक्त्तित्य पुनः अपनी सब आदतों, रुचियों, छोटी-मोटी सनकों, दुर्बलताओं तथा भ्रांतियों के साध अपर आ जाता है; शांति का स्थान अशांति ले लेती है, प्रसन्नता लुप्त हो जाती है, बुद्धि विमुख हो जाती है और यह भाव प्रवेश करने लगता है कि यह स्थान भी वैसा ही हैं जैसे और स्थान हैं, कारण, अब वह स्वयं वैसा बन गया है जैसा और जगह था । जो कुछ किया जा चुका है उसकी ओर देखने के स्थान पर वह अब अधिकाधिक और प्रायः उसी को ओर देखने लगता है जो अभी किया जाना है; वह उदास और असंतुष्ट हों उठता है, अपने-आपको दोषी माननई के स्थान पर अन्य व्यक्तियों और वस्तुओं को दोषी ठहराने लगता हूं । वह शिकायत करने लगता है कि यहां सुख-सुविधा का अभाव है, जलवायु अनुकूल नहीं है, भोजन अनुपयुक्त हैं जिससे उसका पाचन बिगड़ जाता है  आदि-आदि । श्रीअरविन्द की इस शिक्षा का आश्रय लेकर शरीर योग का एक अनिवार्य आधार हैं तथा इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, बल्कि इसका खूब ध्यान रखना चाहिये, उसकी भौतिक चेतना अपने- आपको पूर्ण रूप सें इसी पर एकाग्र करने लगती हैं और इसे संतुष्ट करने के साधन ढूंढने मे लग जाती है जो व्यवहारिक रूप मे संभव नहीं है । शायद कुछ अपवाद को

 

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छोड़कर ही, जितना दिया जाता है माँगें उतनी हीं बढ़ती हैं । इसके अतिरिक्त, भौतिक सत्ता अज्ञानमयी और अंधी है; वह मिथ्या धारणाओं, पूर्व-कल्पित विचारों, पक्षपातों और अभिरुचियों से परिपूर्ण हैं । अपने-आप वह शरीर के साथ उपयुक्त व्यवहार करने में सफल नहीं हों सकतीं । यह तो केवल अंतरात्मा की चेतना है जिसके पास ठीक ढंग से कार्य करने के लिये आवश्यक बुद्धि और निर्मल दृष्टि होती हैं ।

 

  तुम पूछोगे कि इस अवस्था का इलाज क्या है? यहां हम भ्रांति के चक्कर मे पड़ गये हैं, क्योंकि सारा कष्ट चैत्य पुरुष सें संबंध-विच्छेद होने पर पैदा होता है और केवल चैत्य पुरुष ही इन समस्याओं का हल ढूंढ सकता है । अतएव, इलाज एक ही है; सावधान रहो चैत्य पुरुष को दृढ़ता से पकड़े रहो, उसे पीछे की ओर न चले जाने दो, अपनी चेतना मे से किसी चीज को भी अपने और उसके बीच मे न पडूने दो, कान बंद कर लो, अन्य किसी भी सुआव को मत सुनो, अपना विश्वास केवल उसी मे रखो ।

 

  सामान्यतया, जो व्यक्ति अपने चैत्य पुरुष के प्रति सचेतन हो जाते हैं वे इसके द्वारा प्राणिक और शारीरिक आकर्षणों और क्रियाओं से मुक्ति पाना चाहते हैं; वे भगवत् चिंतन के आनंद तथा उसके साथ सतत संपर्क की अटल शांति मे निवास करने के लिये संसार का त्याग करने के इच्छुक रहते हैं । पर जो लोग श्रीअरविन्द के योग को अपनाते हैं उनकी वृत्ति इससे सर्वथा मित्र होती है । जब ये अपनी अंतरात्मा को पा लेते हैं और उसके साथ युक्त हो जाते हैं तो ये उससे अपेक्षा करते हैं कि वह शरीर की ओर ध्यान दे, भगवान् के साथ अपने स्वाभाविक संबंध से उत्पन्न हुई चेतना के द्वारा उस पर कार्य करे और उसका रूपांतर करे ताकि वह दिव्य चेतना एवं सामंजस्य को ग्रहण और अभिव्यक्त करने के योग्य हों जाये ।

 

  हमारे प्रलय का यहां यही उद्देश्य है और यही अंतर्राहीय विश्वविद्यालय-केंद्र की शिक्षा का चरम लक्ष्य मी होगा ।

 

  इसलिये उन सब लोगों से जो विश्वविद्यालय मे आ रहे हैं मै फिर कहूंगी-हमारी कार्य-योजना को और अपने आने के मूल कारण को कभी मत भूलो । किंतु अपनी ओर से पूरा प्रयत्न करने पर भी यदि बादल घिरी आयें, आशा और आनंद तिरोहित हो जायें और उत्साह ठंडा पड़ जाये तो याद रखो कि यह इस बात का लक्षण हैं कि' तुम अपने चैत्य पुरुष से छ हट गये हो और तुमने उसके आदर्श के साथ अपना संपर्क खो दिया है । इस बात को याद रखने से तुम एक गलती से बच जाओगे । तुम अपने चारों ओर के व्यक्तियों तथा दूसरी चीजों को दोषी नहीं ठहराओगे और इस प्रकार निरर्थक रूप में अपने कष्टों और कठिनाइयों की वृद्धि नहीं करोगे ।

 

('बुलेटिन' नवम्बर १९५२)

 

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चतुर्विध तपस्या और चतुर्विध मुक्ति

 

(१)

 

  अतिमानसिक उपलब्धि की ओर ले जानेवाली सर्वांगीण शिक्षा की खोज करने के लिये चार तपस्याओं और साथ ही चार प्रकार की मुक्त्ति की जरूरत हैं ।

 

   साधारणत:, लोग तपस्या और आत्म-दमन को एक हीं समझने की मूल करते हैं । जब तपस्या की बात की जाती है तो लोग उस तपस्वी की साधना की बात सोचते है जो भौतिक, प्राणिक और मानसिक जीवन को आध्यात्मिक बनाने के कठिन काम से बचने की कोशिश करता है और इसलिये यह घोषणा करता है कि यह रूपांतर के योग्य है  हीं नहीं, और उसे निर्दय होकर व्यर्थ भार, बंधन, आध्यात्मिक प्रगति मे बेड़ी मानकर फेंक देता है  । बहरहाल, यह माना जाता है कि यह ऐसी चीज है जिसे ठीक करना असंभव है, एक भार है जिसे न्यूनाधिक रूप मे खुशी-खुशी तबतक ढोते रहना  जबतक प्रकृति या भगवान् की कृपा मृत्यु के द्वारा तुम्हें उससे छुटकारा न दिल दे । धरती का जीवन अच्छे-सें-अच्छे रूप मे प्रगति के लिये क्षेत्र है और मनुष्य को उससे अधिक-से-अधिक लाभ उठाने की कोशिश करनी चाहिये और जल्दी-से-जल्दी पूर्णता की उस स्थिति तक पहुंचना चाहिये जो इस परीक्षा को अनावश्यक बनाकर इसका अंत कर दे ।

 

  हमारे लिये समस्या बिलकुल और हीं है !हमारे लिये पार्थिव जीवन केवल एक रास्ता या साधन नहीं है उसे रूपांतर के द्वारा एक लक्ष्य, एक उपलब्धि बनना चाहिये । जब हम तपस्या की बात करते हैं तो शरीर के लिये निंदा की या अपने- आपको उससे अलग कर लेने की दृष्टि नहीं होती । हम आत्म-संयम और आत्म-प्रभुत्व की आवश्यकता के कारण तपस्या की बात छेड़ते हैं । क्योंकि एक ऐसी तपस्या है जो तपस्वी की सभी तपस्याओं सें बढ़कर, उनसे अधिक पूर्ण और अधिक कठिन है-वह है रूपांतर के लिये आवश्यक चतुर्विध तपस्या जो व्यक्ति को अतिमानस सत्य की अभिव्यक्ति के लिये तैयार करती हैं । इस तरह, उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं कि शरीर की पूर्णता के लिये शारीरिक प्रशिक्षण जिस तपस्या की मांग करता है उसकी बराबरी करनेवाली तपस्याएं कम हीं होगी । लेकिन उसकी बात हम उचित समय पर करेंगे ।

 

  अपेक्षित चार प्रकार की तपस्याओं का वर्णन करने से पहले मुझे एक प्रश्र स्पष्ट कर देना चाहिये जो अधिकतर लोगों के मन मे बहुत सारी गलतफहमियों और उलझनों का कारण है ।  यह है तपस्वी की इन क्रियाओं के बारे मे जिन्हें लोग आध्यात्मिक साधना मानते हैं । इन क्रियाओं मे शरीर के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है ताकि, जैसा कहा जाता है उसके अनुसार, आत्मा को उससे मुक्त किया जा

 

 


सकें । वास्तव में, ये क्रियाएं आध्यात्मिक साधना का ऐंद्रिय विकृत रूप हैं । कष्ट पाने की विकृत आवश्यकता हीं तपस्वी से आत्म-पीड़न करवाती है । साधुओं का कीलों का बिछौना और ईसाई साधुओं की टाट की वेश-भूषा और कोह की मार मे एक, थोड़ा- बहुत छिपा हुआ, पीडासक्ति का प्रभाव होता है जिसे न तो स्वीकार किया जाता है, न स्वीकार किया हीं जा सकता है । यह उग्र संवेदनों के लिये एक अस्वस्थ चाह या अवचेतन आवश्यकता  है । वास्तव में, ये चीजें आध्यात्मिक जीवन से कोसों दु की हैं । ये भद्दी, निम्नकोटि की, अंधेरी और रुग्ण हैं । इनके विपरीत, आध्यात्मिक जीवन प्रकाश और संतुलन, सौंदर्य और आनंद का जीवन हैं । शरीर पर की जाने वाली एक प्रकार की मानसिक और प्राणिक कुरता ने इनका आविष्कार और गुणगान किया हैं । लेकिन कुरता, चाहे वह अपने हीं शरीर पर क्यों न हो, आखिर कुरता हैं और सभी प्रकार की कुरता बहुत बड़ी निश्चेतना का चिह्न हैं । अचेतन प्रकृतियों को प्रबल संवेदनों की जरूरत होती है, उसके बिना उन्हें कुछ अनुभव हीं नहीं होता; और कुरता एक प्रकार की प्रपीड़न कामुकता है जो बहुत प्रबल संवेदन पैदा करती है । इस प्रकार की क्रियाओं का उद्देश्य यह माना जाता हैं कि सभी प्रकार के संवेदनों से छुट्टी पा लीं जाये ताकि शरीर हमारी आत्मा की ओर की उड़ान में और बाधा न दे सके । परंतु इसकी उपयोगिता संदेहास्पद है । यह भली-भांति जानी हुई बात है कि अगर तुम तेजी से प्रगति करना चाहते हो तो तुम्हें कठिनाइयों से डरना न चाहिये; इसके विपरीत, जब कभी अवसर आये तब कठिन चीजों को चुनने से हीं संकल्प-शक्ति बढ्ती है और स्नायुओं में बल आता है । वास्तव में, तपस्या की विकृतियों और उनके विघटनकारी परिणामों के द्वारा सुख की विकृतियों और उनके अज्ञानमय परिणामों के साथ संघर्ष करने कर अपेक्षा, संयम और संतुलन के साथ समुचितता और स्थिरता का जीवन बिताना कहीं अघिक कठिन है । अपनी भौतिक सत्ता के साध इस हद तक बुरा व्यवहार करना कि वह शन्यवत् हो जाये, इसकी अपेक्षा, उसमें स्थिरता और सरलता के साथ सामंजस्यपूर्ण उत्तरोत्तर विकास पाना बहुत अधिक कठिन हैं । बड़े गर्व के साथ अपने संयम का प्रदर्शन करने के लिये शरीर को उसके लिये आवश्यक आहार और शुद्ध अम्यासों से वंचित करने की अपेक्षा, बिना इच्छा के गंभीरतापूर्वक जीना कहीं ज्यादा कठिन है । रोग या दुर्भावना की अवहेलना करने और उसकी ओर ध्यान न देने और उसे अपना विनाश कार्य करते रहने देने की अपेक्षा, उस पर आंतरिक और बाल सामंजस्य, शुद्धि और संतुलन दुरा विजय प्राप्त करना या उसे आने न देना बहुत ज्यादा कठिन है । और सबसे कठिन काम है चेतना को हमेशा उसको क्षमता के शिखर पर बनाये रखना और शरीर को कभी निचले आवेगों या प्रेरणाओं के प्रभाव में आकर काम न करने देना ।

 

 इस लक्ष्य को सामने रखकर हमें चार तपस्याएं अपनानी चाहिये, जिनके परिणाम-

 

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स्वरूप चार मुक्तियां आयेंगी । उनके अभ्यास सें हीं चार प्रकार की साधनाएं या तपस्याएं संघटित होंगी जिन्हें हम कह सकते हैं :

 

१. प्रेम की तपस्या

२. ज्ञान की तपस्या

३. शक्ति की तपस्या

४. सौंदर्य की तपस्या

 

  इनका क्रम, कह सकते हैं, ऊपर सें नीचे की ओर है । परंतु इनके क्रम को देखकर किसी को श्रेष्ठ या हीन न मान लेना चाहिये और न हीं कम या ज्यादा कठिन मानना चाहिये । इससे यह मी नहीं पता चलता कि इन तपस्याओं को किस क्रम में लिया जाना चाहिये या लिया जा सकता हैं । इनका क्रम, महत्त्व और कठिनाई व्यक्ति- व्यक्ति के हिसाब सें अलग हैं और इनके बारे मे कोई पक्का नियम नहीं बनाया जा सकता । हर एक को अपनी क्षमता और निजी आवश्यकता के अनुसार अपनी पद्धति खोजनी होगी और उसे कार्यान्वित करना होगा ।

 

  यहां केवल एक व्यापक दृष्टि दी जायेगी जो यथासंभव पूर्ण आदर्श-प्रणाली सामने रख सके । तब हर एक इसे अपनी क्षमता के अनुसार अच्छे-से-अच्छे रूप में व्यवहार में का सकेगा ।

 

  सौंदर्य की तपस्या हमें भौतिक जीवन की तपस्या के द्वारा कर्म की स्वतंत्रता की ओर ले जायेगी । इसका आधारभूत कार्यक्रम होगा एक ऐसा शरीर बनाना जो आकार में सुन्दर, ठवन और भंगिमा में सामंजस्यपूर्ण, अपनी गतिविधि में लचीला और फुर्तीला, कार्य में सबल और स्वास्थ्य तथा जीवन-क्रियाओं में प्रतिरोध की शक्ति रखनेवाला हो ।

 

  इन परिणामों को पाने के लिये, सामान्य रूप में, ऐसी आदतें डालना और उनका उपयोग करना अच्छा होगा जो भौतिक जीवन का संगठन करने में सहायक हों । क्योंकि शरीर नियमित कार्यक्रम के चौखटे मे ज्यादा अच्छी तरह काम करता है । फिर भी व्यक्ति मे वह सामर्थ्य होनी चाहिये कि वह अपनी आदतों का, वे चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हों, दास न बन जाये; उसमें अधिक-सें-अधिक नमनीयता होनी चाहिये ताकि जब-जब जरूरत हो आदमी अपनी आदतों को बदल सके ।

 

  तुम्हें नमनीय और बलवान् मांसपेशियों के शरीर में इस्पात की स्नायुएं बनानी चाहिये ताकि, जब अनिवार्य हो तो तुम सब कुछ सह सको । लेकिन साथ हीं इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि शरीर से, वृद्धि और प्रगति के लिये जितना प्रयास, जितनी शक्ति जरूरी है उससे ज्यादा की मांग न की जाये, उन सब चीजों से पूरी सावधानी के साथ बचा जाये जो थकाकर चूर कर देनेवाली हों और अंत में भौतिक तत्त्वों के विघटन और क्षय की ओर ले जायें ।

 

  जो शारीरिक शिक्षण ऐसा शरीर बनाना चाहता हैं जो उच्चतर चेतना का उपयुक्त

 

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यंत्र बन सके वह बहुत कठोर आदतों की मांग करता है : भोजन, नींद, शारीरिक व्यायाम और सभी अन्य क्रियाओं मे बहुत अधिक नियमितता । तुम्हें अपने शरीर की आवश्यकताओं का बढ़ी सावधानी से अध्ययन करना चाहिये-ये व्यक्ति-व्यक्ति मे बदलती रहती हैं- और फिर एक सामान्य कार्यक्रम निश्चित कर लेना चाहिये; एक बार कार्यक्रम निश्रित हो जाये तो तुम्हें, उसे हिलानेवाली मन-मौज या ढील के बिना कटाई के साथ उसका पालन करना चाहिये । इसमें उस तरह के अपवाद बिलकुल न हों जिनमें मनुष्य बस ''एक बार' ' के लिये रस लेता हैं- क्योंकि ''एक बार' ' बार-बार आने लगता है । केवल एक बार सें भी तुम अपने संकल्पबल की प्रतिरोध-शक्ति को कम कर देते हों और हर पराजय के लिये द्वार खोल देते हो । तुम्हें सब कमजोरियों के लिये रास्ता बंद कर देना चाहिये : रात की शरारतें बिलकुल न होनी चाहिये जिनसे तुम एकदम टूटकर लौटते हो । दावतों के, भकोसना के ऐसे कार्यक्रम न होने चाहिये जो पेट की सामान्य क्रिया मे गड़बड़ करे । कोई ऐसे विक्षेप, मन-बहलावा या आमोद-प्रमोद न होने चाहिये जो तुम्हारी शक्ति नष्ट करते हैं और तुम्हें दैनिक अभ्यास के लिये उदासीन या निर्जीव छोड़ जाते हैं । तुम्हें एक बुद्धिमत्तापूर्ण और सुशिक्षित जीवन की तपस्या करनी चाहिये, भौतिक रूप से तुम्हारा सारा ध्यान शरीर को भरसक पूर्ण बनाने मे लगा रहे । इस आदर्श लक्ष्य को पाने के लिये तुम्हें सब प्रकार की अतियों से, छोटी-बढ़ी, सब तरह की बुरी आदतों से बचना चाहिये; तमाकू शराब आदि जैसे मंद विषों से अपने-आपको मुल्क रखना चाहिये; लोग इन्हें अनिवार्य आवश्यकता बना लेते हैं और ये धीरे-धीरे उनके संकल्प-बल और स्मृति को नष्ट कर देते हैं । बिना अपवाद के लोग, यहांतक कि बहुत अधिक बुद्धिवादी भी, भोजन मे, उसके तैयार करने और खाने में जो सर्वग्राही रस लेते हैं, उसके स्थान पर शरीर की आवश्यकताओं के लगभग रासायनिक ज्ञान तथा इन्हें पूरा करने के लिये विशुद्ध वैज्ञानिक प्रकार की तपस्या को बिठाना चाहिये । भोजन की इस तपस्या के साथ हमें एक और तपस्या भी जोड़ देनी चाहिये और वह है नींद की तपस्या । इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें सोये बिना रहना चाहिये, नहीं, तुम्हें यह जानना चाहिये कि कैसे सोया जाये । नींद का अर्थ निश्चेतना मे जा गिरना न होना चाहिये जिससे शरीर ताजा होने की जगह, भारी हो जाये । संयत भोजन हो और सब प्रकार की अतियों सें परहेज रहे तो सो सखने से पहले कई घंटे खराब करने की जरूरत नहीं पड़ती । फिर भी, नींद की मात्रा की अपेक्षा, उसके गुण का महत्त्व अधिक है । अगर नींद से सचमुच लाभदायक विश्राम पाना हो तो बिस्तर पर जाने से पहले, उदाहरण के लिये, दम्य, संप या फल के रस का एक प्याला पी लेना लाभदायक होता हैं । हल्का भोजन शांतिपूर्ण नींद लाता है । हर हालत मे, तुम्हें बहुत अधिक भोजन से बचना चाहिये । क्योंकि उससे नींद खराब और अशांत होती है  और दुः स्वप्न आते हैं या नींद भारी, स्थूल और तामसिक हो जाती है , लेकिन सबसे जरूरी चीज हैं मन को निर्मल रखना, भावनाओं

 

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को अचंचल रखना, इच्छाओं की बुदबुदाहट और उसके साथ की चेष्टाओं को शांत करना, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि कोई सोने से पहले बहुत बोल चुका हो, ज़ोरों से बहस कर चुका हो, कोई बहुत मजेदार और उत्तेजक चीज पढ़ चुका हो तो ज्यादा अच्छा यह हैं कि सोने रो पहले थोड़ा आराम कर लिया जाये ताकि मन के क्रिया-कलाप शांत हो जायें और जब केवल शरीर सो रहा हो तब मस्तिष्क असंयत गतिविधियों मे न फंसा रहे । दूसरी ओर, अगर तुम्हें ध्यान का अभ्यास है तो ज्यादा अच्छा होगा कि तुम कुछ क्षणों के लिये किसी उच्च और विश्रामदायक विचार पर उच्चतर और महानतर चेतना के लिये अभीप्सा करते हुए, अपने मन को एकाग्र करो । इससे तुम्हारे नींद को बहुत लाभ होगा और तुम बढ़ी हद तक, नींद मै निश्चेतना मे जा गिरने के भय से सुरक्षित रहोगे ।

 

  संपूर्ण विश्राम, शांति और नीरव निद्रा की रात्रि की तपस्या के बाद दिन की तपस्या आती है जिसकी व्यवस्था ज्ञान से की गयी हो । शारीरिक विकास के लिये आवश्यक क्रमबद्ध विकसनशील कसरतों और काम के बीच, तुम जो कुछ भी करो, तुम्हारी दिनचर्या बुद्धिमानी से विभाजित होनी चाहिये । ये दोनों ही शारीरिक तपस्या के अंग हो सकते हैं और होने चाहिये । जहांतक व्यायाम का प्रश्र है, हर एक को ऐसे व्यायाम चुनने चाहिये जो उसके शरीर के लिये सबसे अधिक अनुकूल हों । और अगर हो सके तो इसका चुनाव किसी ऐसे विशेषज्ञ की सहायता से किया जाये जो व्यायाम से होनेवाले अधिकतम लाभ को दृष्टि मे रखते हुए उन्हें क्रमबद्ध करके मिला सके । इनका चुनाव या कार्यान्वयन मन की मौज के अधीन नहीं होना चाहिये । तुम्हें यह या वह चीज इसलिये नहीं करनी चाहिये कि वह ज्यादा सरल या सुखद है । तुम अपने कार्यक्रम मे तभी कुछ हरे-फेर करो जब तुम्हारा प्रशिक्षक उसे आवश्यक समझे । अपनी पूर्णता और उन्नति की दृष्टि से हर शरीर एक समस्या है जिसे हल करना होगा । और उसे हल करने के लिये बहुत धीरज, अध्यवसाय और नियमितता की आवश्यकता है । लोग जो कुछ मी सोचे, व्यायामी का जीवन सुख और विक्षेप का जीवन नहीं होता । उसके विपरीत, यह वांछित परिणाम पाने के लिये क्रमबद्ध प्रयत्न और कठोर अम्यासों का जीवन होता हैं । इसमें बेकार और हानिकर सनको के लिये कोई स्थान नहीं होता ।

 

  काम भी एक तपस्या है । इसमें यह जरूरी है कि अपनी पसंद न हो, जो भी करना हो उसे रस लेकर किया जाये । जो व्यक्ति अपने-आपको पूर्ण बनाना चाहता हैं उसके लिये छोटे या बड़े, महत्त्वपूर्ण और महत्त्वहीन काम के जैसी कोई चीज नहीं होती । जो प्रगति और आत्म-प्रभुत्व के लिये अभीप्सा करता  उसके लिये सभी काम एक- से उपयोगी हैं । कहा जाता हैं कि तुम जिस काम मे रस लेते हो उसी को अच्छे-से- अच्छी तरह कर सकते हों । यह सच हैं, लेकिन यह और भी सच है कि तुम जो भी करो, चाहे वह कितना हीं नगण्य क्यों न लगता हो, उसमें रस ले सकते हो । इस

 

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प्राप्ति का रहस्य पूर्णता की अभीप्सा में है । तुम्हारा चाहे जो पेशा हो, तुम्हारा चाहे जो काम हो, उसे प्रगति के संकल्प के साथ करो । तुम जो कुछ करो, उसे न सिर्फ अपनी सामर्थ्य-भर अच्छा करो, बल्कि हमेशा पूर्णता की ओर बढ़ते हुए, हमेशा अच्छे-से- अच्छा करते रहने के उत्साह के साथ करो । इस तरह, बिना अपवाद के, सभी चीजें रुचिकर हों जाती हैं, एकदम शारीरिक श्रम से लेकर अत्यधिक कलात्मक और बौद्धिक कार्य तक, सभी चीजें रुचिकर और रसप्रद हों जाती हैं । प्रगति के लिये अनंत क्षेत्र हैं और तुम छोटी-से-छोटी चीज में भी गंभीर हो सकते हों ।

 

  यह हमें स्वाभाविक रूप में कर्म में मुक्ति की ओर ले जाता है । तुम्हें अपने कार्य में सभी सामाजिक रूढ़ियों और नैतिक पसंदों से मुक्त होना चाहिये । इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हें स्वच्छंद, असंयत जीवन बिताना चाहिये । इसके विपरीत, यहां तुम एक ऐसे नियम के अधीन हाते हो जो सभी सामाजिक नियमों की अपेक्षा अधिक कठोर है, क्योंकि वह किसी ढोंग को नहीं सहता, वह संपूर्ण निष्कपटता की मांग करता है । सभी शारीरिक क्रियाएं इस तरह व्यवस्थित की जानी चाहिये जिससे शरीर संतुलन, शक्ति और सौंदर्य में बढ़ता जाये । इस लक्ष्य को दृष्टि में रखते हुए मनुष्य को सब प्रकार की विलास-प्रियता और काम-केलि से बचना चाहिये । क्योंकि प्रत्येक कामुक किया मृत्यु की ओर एक और कदम है । इसीलिये, सभी युगों में, सभी पवित्र संप्रदायों में, अमरता की अभीप्सा करनेवालों के लिये यह क्रिया वर्जित रही हैं । इसके बाद ही निश्चेतना का कम या ज्यादा लंबा काल आता हैं जो सब प्रकार के प्रभावों के लिये द्वार खोल देता है और चेतना को नीचे गिरा देता है । वास्तव में जो अतिमानसिक जीवन के लिये तैयारी करना चाहता है उसे अपनी चेतना को कभी सुख-भोग, विश्राम या मन-बहलावे के बहाने भी असंयम या निश्चेतना में न फिसलनें देना चाहिये । विश्राम शक्ति और प्रकाश में लेना चाहिये, न कि अंधकार और दुर्बलता में । उन सब लोगों के लिये जो उन्नति के लिये अभीप्सा करते हैं, संयम ही नियम है । परंतु विशेषकर उनके लिये जो लोग अपने-आपको पूर्ण रूपांतर और अतिमानसिक अभिव्यक्ति के लिये तैयार करना चाहते हे, उनके लिये तो संयम की जगह पूर्ण ब्रह्मचर्य की जरूरत है जो दबाव के द्वारा या जोर-जबरदस्ती से नहीं, बल्कि एक आंतरिक किमिया के द्वारा जो सामान्यतया, प्रजनन के कार्य मैं लगनेवाली शक्ति को ओज में, प्रगति और सर्वांगीण रूपांतर की शक्ति में बदल दे । यह कहने की तो जरूरत हीं नहीं हैं कि पूरा-पूरा, सच्चा लाभदायक परिणाम पाने के लिये सब प्रकार की काम-वासना और आवेग को शारीरिक संकल्प के साथ-हीं-साथ मानसिक और प्राणिक चेतना से निकाल बाहर करना चाहिये, समस्त आमूल और स्थायी रूपांतर अंदर से बाहर की ओर .होता है । बाह्य रूपांतर आंतरिक रूपांतर का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम होता है  ।

 

  प्रकृति की आज्ञा के अनुसार वर्तमान जाति को जैसा-का-तैसा बनाये रखने के

 

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लिये शरीर को इस काम के लिये सौंप देना या इसी शरीर को एक नयी जाति की सृष्टि के लिये एक कदम बनाना-इन दोनों में से एक निर्णायक चुनाव करना होगा । दोनों एक साथ नहीं चल सकते । हर क्षण तुम्हें निश्चय करना होगा कि तुम्हें बीते कल की मानवता में बने रहना है या भावी कल की अतिमानवता का अंग बनना है । अगर तुम भावी जीवन के लिये तैयारी करना चाहते हों और उसके सक्रिय, समर्थ सदस्य बनना चाहते हो तो तुम्हें वर्तमान जीवन के अनुसार ढलन से और उसमें सफल होने से इनकार कर देना होगा ।

 

  अगर तुम समग्र सौंदर्य और सामंजस्य में जीने के आनंद की ओर खुलना चाहते हों तो तुम्हें अपने-आपको सुख-भोगों से वंचित रखना होगा ।

 

  यह स्वभावत: हमें प्राणिक तपस्या की ओर ले आता है : संवेदनों की तपस्या, शक्ति की तपस्या की ओर । प्राणमय पुरुष, वास्तव मे, शक्ति का, उपलब्ध करनेवाले उत्साह का आधार है । प्राण में ही विचार संकल्प में बदलकर कर्म की सक्रियता का रूप लेता है । यह सच हैं कि प्राण हीं कामनाओं और आवेगों, उग्र आवेशों और साथ हीं उतनी हीं उग्र प्रतिक्रियाओं की, विद्रोह और अवसाद की भूमि हैं । साधारणतः, इसका इलाज हैं गला घोंट देना, इसे संवेदनों से वंचित कर देना । वास्तव में, संवेदन हीं इसका मुख्य आहार है और उसके बिना यह सो जाता हैं, शिथिल और मंद पड़ जाता हैं और अंत में पूरी तरह खाली हो जाता हैं ।

 

  तथ्य तो यह हैं कि प्राण तीन स्रोतों से पोषण प्राप्त करता हैं । उसके लिये सबसे आसान है , नीचे की ओर से संवेदनों दुरा आनेवाली भौतिक शक्तियों तक पहुंचना । दूसरा स्रोत है स्वयं अपने हीं स्तर पर वैश्व प्राणिक शक्तियां, लेकिन इसके लिये उसे काफी विशाल और ग्रहणशील होना चाहिये ।

 

  तीसरा स्रोत अपर की ओर हैं जिसके प्रति साधारणत: वह तभी खुलता है जब वह प्रगति के लिये तीव्र अभीप्सा दुरा, आध्यात्मिक शक्तियों और अंत:प्रेरणाओं से अनुप्राणित होकर उन्हें आत्मसात् करे ।

 

  मनुष्य प्रायः हमेशा, कम या ज्यादा, इनमें एक और स्रोत जोड़ने की कोशिश करते हैं । साथ हीं यह स्रोत उनके लिये उनके अधिकतर दुखों और दुर्भाग्यों का स्रोत होता हैं । यह है अपने साथी-प्राणियों के साथ प्राणिक शक्तियों का आदान-प्रदान । साधारणतः, यह दो-दो के दल में होता हैं जिसे वे फल से प्रेम मान बैठते हैं, लेकिन यह दो शक्तियों के बीच आकर्षण मात्र होता है जो परस्पर आदान-प्रदान में ही सुख मानती हैं ।

 

  तो अगर हम अपने प्राण को भूखा नहीं मारना चाहते तो संवेदनों का न तो त्याग करना चाहिये, न उन्हें रूम करना या भोथरा बनाना चाहिये । उनसे बचने की भी जरूरत नहीं हैं, बल्कि उनका बुद्धि और विवेक के साथ उपयोग करना चाहिये । संवेदन जान और शिला के लिये बहुत अच्छे यंत्र हैं । उन्हें इस काम में उपयोगी बनाने के

 

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लिये जरूरी है कि उनका उपयोग अहंकारपूर्ण हेतु के लिये, आमोद-प्रमोद के लिये या सुख और आत्म-तुष्टि की अंधी अज्ञानमयी खोज के लिये न किया जाये ।

 

  इंद्रियों को हर चीज घृणा या अप्रसन्नता के बिना ले सकनी चाहिये और साथ ही उन्हें विभिन्न प्राणिक स्पंदनों के गुण, स्रोत और परिणाम के बारे में अधिकाधिक विवेक-शक्ति विकसित करनी चाहिये और यह जानना चाहिये कि वे भौतिक और प्राणिक सत्ता की प्रगति और उनके संतुलन में सहायक हैं या नहीं । इसके अतिरिक्त, भौतिक और प्राणिक जगत् को उनकी सारी जटिलताओं के साथ समझने और उनका अध्ययन करने के लिये साधन के रूप में इंद्रियों का उपयोग होना चाहिये । इस तरह है रूपांतर के महान प्रयत्न में अपना सच्चा स्थान लेगी ।

 

 प्राण को कमजोर बनाकर नहीं, बल्कि उसे प्रकाशयुक्त, बलवान और शुद्ध करके हीं व्यक्ति सत्ता की सच्ची प्रगति मे सहायता दे सकता हैं । अपने-आपको संवेदनों सें वंचित करना मी उसी तरह हानिकर है जैसे भोजन खै वंचित रखना । लेकिन जैसे भोजन का चुनाव बुद्धिमत्ता के साथ, शरीर के विकास ओर उसके व्यापार-विशेष को ध्यान मे रखते हुए करना चाहिये, उसी तरह संवेदनों का चुनाव और नियंत्रण भी विशुद्ध वैज्ञानिक ढंग की तपस्या के दुरा, इस अत्यधिक सक्रिय यंत्र की उन्नति और पूर्णता को हीं ध्यान में रखते हुए करना चाहिये, क्योंकि वह सत्ता के अन्य सभी भागों के विकास के लिये आवश्यक हैं ।

 

  प्राण को शिक्षा देकर, उसे अधिक शिष्ट, अधिक भावुक और अधिक सूक्ष्म या यूं कहें, अधिक सुरुचि-संपत्र-शब्द के अच्छे-से-अच्छे अर्थों मे- बनाकर हीं व्यक्ति इसकी हिंसामय उग्रताओं और पाशविकताओं पर विजय पा सकता है । ये चीजें प्रायः उसकी अशिष्टता ओर अज्ञानमयी, सुरुचिविहीन क्रियाएं होती हैं ।

 

   वास्तव मे, प्राण, जब शिक्षित और प्रकाशयुक्त हों तो, उतना हीं महान वीर और निःस्वार्थ हो सकता हैं जितना अभी सहज रूप से शिक्षा के बिना अशिष्ट, अहंकारपूर्ण और विकृत हैं । अगर हर एक अपने अंदर सूख की खोज को अतिमानसिक पूर्णता की अभीप्सा मे बदलना जाने तो यह काफी हैं । उसके लिये यदि प्राण की शिक्षा अध्यवसाय और निष्कपटता के साथ काफी आगे बढ़ायी जाये तो एक ऐसा क्षण आता है जब उसे लक्ष की महानता और उसके सौंदर्य के बारे मे विश्वास हो जाता है और वह भागवत आनंद को पाने के लिये अपनी इंद्रियों के तुच्छ और म्रांतिजनक संतोषों को त्याग देता हैं ।

 

('बुलेटिन', फरवरी १९५३)

 

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 जब हम मानसिक तपस्या के विषय मे बात करते हैं तो .हमें तुरंत उन लंबे ध्यानों

 

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का ख्याल आता है जो विचारों पर नियंत्रण और अंत में शिखर के रूप में आंतरिक नीरवता की ओर ले जाते हैं ! योग-साधना का यह पक्ष सुपरिचित हैं और इसके बारे में विस्तार से कुछ कहने की जरूरत नहीं । लेकिन इसका एक और पक्ष भी है जिसकी ओर लोग ज्यादा ध्यान नहीं देते, यह है वाणी का संयम । कुछ विरल अपवादों को छोड्कर, साधारणतः, खुली बकवास के विरुद्ध पूर्ण मौन को ही खड़ा किया जाता है। लेकिन वाणी का नियंत्रण करना पूर्ण निरोध की अपेक्षा ज्यादा महान् और फलप्रद तपस्या है ।

 

  धरती पर मनुष्य ही पहला प्राणी है जो स्पष्ट रूप में उच्चारित ध्वनि का उपयोग करता है । वह सचमुच इस पर गर्व करता है और बिना सोचे-समझे, बिना विवेक के इसका उपयोग करता है । संसार उसके शब्दों के कोलाहल सें बहरा हो गया है, इसलिये कभी-कभी मनुष्य को वनस्पति-जगत् की समस्वर नीरवता का अभाव खलता है ।

 

  यह एक जाना हुआ तथ्य है कि मानसिक शक्ति जितनी कम होगी बोलने की आवश्यकता उतनी ही अधिक होगी । उदाहरण के लिये, आदिम जातियां हैं, ऐसे लोग हैं जिन्हें कोई शिक्षा नहीं मिली, है बोले बिना सोच ही नहीं सकते । तुम उन्हें कम या अधिक धीमी आवाज में बुदबुदाते सुन सकते हो । अपनी विचार-धारा का अनुसरण करने के लिये उनके पास बस, यहीं एक तरीका है, बोले हुए शब्दों के बिना उनके विचार कोई रूप हीं नहीं ले सकते ।

 

  काफी बढ़ी संख्या मे ऐसे लोग हैं, पढे-लिखों मे भी, जिनकी मानसिक शक्ति बहुत दुर्बल हैं और है  कहने से पहले  यह नहीं जानते कि उन्हें क्या कहना है । उनके साथ बातचीत बहुत बतानेवाली हो जाती है और उसका अंत हीं नहीं आता । लेकिन जब वह बोलते हैं तो उनके विचार अधिकाधिक स्पष्ट और यथार्थ हो जाते हैं और इस कारण वह एक हीं बात को बार-बार, बार-बार दोहराने के लिये बाधित होते हैं ताकि वह उसे ज्यादा-ज्यादा ठीक तरह कह सकें । कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें वे जो कुछ कहना चाहते हों उसे पहलई से तैयार करना पड़ता है और अगर उन्हें अचानक कहीं कुछ बोलना पंडू जाये तो है हिचकिचाते, हकलाने लगते हैं, क्योंकि वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसके लिये उपयुक्त शब्दों को क्रमबद्ध करने का उन्हें समय हीं नहीं मिला ।

 

  और अंत मे, कुछ जन्मजात वक्ता होते हैं जिन्हें भाषण-कला पर पूरा अधिकार होता हैं । वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसे कहने और भली-भांति कहने के लिये उन्हें सहज रूप से शब्द मिलते जाते हैं ओर वे अच्छी तरह बोलते हैं ।

 

  फिर भी, यह सब मानसिक तपस्या की दृष्टि से बकवास की गिनती मे आ जाता हैं । बकवास से मेरा मतलब है ऐसा कोई भी शब्द बोलना जो एकदम अनिवार्य न हो । तुम पूछ सकते हो, इसका निर्णय कैसे किया जाये? इसके त्शिये हमें सामान्य

 

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रूप में बोले गये शब्दों का वर्गीकरण करना होगा ।

 

  सबसे पहले, भौतिक क्षेत्र मे, वे सब शब्द हैं जो भौतिक कारणों से बोले जाते हैं । बे सबसे ज्यादा संख्या मे हैं और सामान्य जीवन में शायद सबसे अधिक उपयोगी भी हैं । ऐसा लगता है कि शब्दों की एक सतत गूंज हमारे दैनिक रूढ़ कार्य की अनिवार्य संगत बन गयी है । लेकिन फिर अगर तुम शोर को कम-से-कम करने का प्रयत्न करो तो तुम देखना शुरू करोगे कि बहुत-सी चीजें नीरवता में ज्यादा अच्छी और ज्यादा जल्दी की जा सकतीं हैं । और इससे आंतरिक शांति और एकाग्रता बनाये रखने में मी सहायता मिलती हैं ।

 

  अगर तुम अकेले नहीं हो, बल्कि औरों के साथ रहते हों तो ऐसी आदत डालों कि अपने-आपको सारे समय ऊंची आवाज में उच्चारित शब्दों मे अभिव्यक्त न करते रहो, तब तुम देखेगी कि तुम्हारे और औरों के बीच थोड़ी-थोडा करके एक आंतरिक समझ पैदा हों गयी है; तब तुम उनके साथ कम-से-कम शब्दों मे या बिना शब्दों के हीं एक-दूसरे से संपर्क रख सकोगे । यह बाहरी मौन आंतरिक शांति के लिये बहुत अनुकूल होता है और अगर तुम्हारे अंदर सद्भावना और सतत अभीप्सा हैं तो तुम प्रगति के लिये सहायक वातावरण पैदा कर सकोगे ।

 

  सार्वजनिक जीवन मे, उन शब्दों के साथ जिनका संबंध जीविका और भौतिक व्यापार से जुड़ा होता हैं, बे शब्द भी जुड़ जाते हैं जो संवेदनों, भावनाओं और आवेगों को व्यक्त करते हैं । इस क्षेत्र मैं बाहरी मौन की आदत बहुमूल्य सहायक सिद्ध होती है । क्योंकि जब तुम पर संवेदनों या भावनाओं का हमला होता है  तो यहीं मौन की आदत तुम्हें सोचने का अवकाश देती है  और अगर जरूरत हो तो तुम्हें अपने संवेदनों और भावों को शब्दों मे प्रकट करने सें पहले हीं रोक लेती है । इस तरह कितने सारे लझई-झगडों को रोका जा सकता है; तुम कितनी बार उन मनोवैज्ञानिक विपदाओं सें बच सकते हो जो बहुत बार वाणी के असंयम का परिणाम होती हैं !

 

  तुम इस हद तक भले न जाओ, पर तुम्हें हमेशा अपने उच्चारित शब्दों पर संयम रखना चाहिये । तुम्हें अपनी जीभ को क्रोध, उग्रता या रोष के अधीन कभी काम न करने देना चाहिये । उससे आनेवाले परिणामों मे केवल झगड़ा हीं बुरा नहीं है, बल्कि यह तथ्य भी है कि तुम बरनी जीभ के द्वारा वातावरण मे बुरे भाव प्रक्षिप्त होने देते हो, क्योंकि ध्वनि के स्पंदनों से ज्यादा छुतहा कोई और चीज नहीं है । इन गतियों को अपने-आपको प्रकट करने का अवसर देकर तुम उन्हें अपने अंदर और दूसरों के अंदर स्थायी बनाते हों ।

 

  सबसे अधिक अवांछनीय प्रकार की बकवास में उस बातचीत की भी गिनना चाहिये जो तुम औरों के बारे में करते हो ।

 

   जबतक तुम संरक्षक, अध्यापक या विभागाध्यक्ष के रूप में कुछ लोगों के उत्तरदायी न हो तबतक दूसरे क्या करते हैं और क्या नहीं करते इसके साथ तुम्हारा

 

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कोई मतलब नहीं । तुम्हें औरों के बारे में बातचीत करने से, उनके बारे में राय देने से, या वे क्या करते हैं या दूसरे उनके बारे में क्या सोचते या कहते हैं, इस विषय में कुछ कहने सें बचना चाहिये ।

 

हो सकना है कि तुम्हारा काम हीं ऐसा हो कि किसी विशेष विभाग या व्यवसाय या सामूहिक कार्य में क्या हो रहा हे इसकी सूचना देना तुम्हारा कर्तव्य हो जाता हैं । ऐसी हालत में, तुम्हारी रिपोर्ट शुद्ध रूप से काम के साथ ही संबद्ध होनी चाहिये, किसी व्यक्तिगत मामले से नहीं । वह हर हालत में पूरी तरह वस्तुनिष्ठ होनी चाहिये । तुम्है उसके अंदर व्यक्तिगत प्रतिक्रिया, पसंद, सहानुभूति या विरोध की प्रवेश न करने देना चाहिये । विशेष रूप से, तुम्हें जो काम सौंपा गया हैं उसमें किसी निजी तुच्छ वैरभाव को कभी न मिलने दो ।

 

हर हालत मैं, सामान्य रूप से, दूसरों के बारे मे तुम जितना हीं कम बाख-उनकी प्रशंसा मे भी-उतना ही अच्छा । अपने अंदर क्या हों रहा हैं उसे हीं ठीक-ठीक जानना इतना मुश्किल है-फिर भला निश्रित रूप से यह कैसे जाना जाये कि दूसरों में क्या हो रहा हैं? इसलिये किसी भी व्यक्ति के बारे मे कोई अटल निर्णय न सुना दो । वह यदि दुर्भावनापूर्ण न भी हुआ तो मूर्खतापूर्ण तो अवश्य होगा ।

 

  जब विचार शब्दों मे अभिव्यक्त किया जाता है तो ध्वनि के स्पंदन में विचार के साथ सबसे अधिक भौतिक तत्त्व का संबंध जोड़कर उसे ठोस और प्रभावशाली वास्तविकता बना देने की काफी क्षमता होती है । इसलिये तुम्हें चीजों या लोगों के बारे में बुरी बातें न कहनी चाहिये, शब्दों मे ऐसी चीजों को व्यक्त न करना चाहिये जो भागवत उपलब्धि की प्रगति का विरोध करें । यह एक सामान्य और सुशिक्षित नियम हैं । किंतु इसका एक अपवाद भी  है । तुम्हें किसी चीज या कर्म की आलोचना तबतक न करनी चाहिये जबतक तुम्हारे अंदर उसका- जिसकी तुम आलोचना कर रहे हों- अंत करने या उसका रूपांतर करने की सचेतन शक्ति और सक्रिय संकल्प न हो । वस्तुतः, इस सचेतन शक्त्ति और क्रियाशील संकल्प में स्थूल भौतिक पदार्थ मे प्रतिक्रिया की संभावना उत्पन्न करने की, पूरे स्पंदन को अस्वीकार करने की और अंत में उसे इस हद तक सुधारने की क्षमता होती हूं कि उसके लिये अपने-आपको भौतिक स्तर पर व्यक्त करना असंभव हो जाता है ।

 

  यह काम बिना किसी .संकट और भय के केवल वही कर सकता हैं जो विज्ञानमय लोकों में विचरण करता हो और जिसे अपनी मानसिक क्षमताओं में आत्मा का प्रकाश और सत्य की शक्ति प्राप्त हो । वह दिव्यकर्मी सब प्रकार की पसंद और आसक्ति से मुक्त्ति होता हैं । वह अपने अंदर अहंकार की सीमाओं को तोड़ चुकता है उत् वह धत्ती पर अतिमानसिक कार्य के पूर्णतया शुद्ध और निवैयक्तिक के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ।

 

  ऐसे शब्द भी हैं जो विचार, सम्मति, मनन और अध्ययन के परिणामों को व्यक्त

 

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करने के लिये काम आते हैं । यहां हम बौद्धिक क्षेत्र मे हैं ओर यह सोच सकते हैं कि इस क्षेत्र मे मनुष्य ज्यादा समझदार और संतुलित होते हैं और यहां कठोर तपस्या कम अनिवार्य हैं । लेकिन बात ऐसी बिलकुल नहीं हैं, क्योंकि यहां भी लोगों ने विचारों और ज्ञान के इस क्षेत्र में भी, विश्वासों की उग्रता, साम्प्रदायिक असहिष्णुता और पसंद का, आवेग का प्रवेश करा दिया है । अतः यहां भी व्यक्ति को मानसिक तपस्या का आश्रय लेना चाहिये और उन विचारों के आदान-प्रदान से सावधानी के साथ बचना चाहिये जिनकी समाप्ति ऐसे तर्क-वितर्क में होती हैं जो अधिकतर कटु और प्रायः हमेशा हीं निरर्थक होते हैं; और उन मतभेदों से भी बचना चाहिये जिनका अंत गरिमा-गरम बहस, यहांतक कि झगड़े में मी होता है । यह सब मन की संकीर्णता सें आता है और जब आदमी मानसिक क्षेत्र मे काफी ऊंचा उठ जाये तो इसका इलाज आसानी से हो सकता है ।

 

  वास्तव में, आदमी जब यह जान जाये कि सूत्रबद्ध विचार उस चीज को कहने का केवल एक ढंग हैं जो वर्णन से परे है , तो फिर सांप्रदायिकता असंभव हो जाती है । हर विचार या भाव मे थोड़ा-सा सत्य या सत्य का एक पहलू होता है, पर कोई विचार या भाव ऐसा नहीं है जो अपने-आपमें पूर्ण सत्य हो ।

 

   चीजों की सापेक्षता का यह भाव, व्यक्ति मे संतुलन रखने और उसकी बातचीत मे गंभीर संयम बनाये रखने मे बहुत सहायक होता है । मैंने एक गुह्यवेत्ता, जिसे कुछ ज्ञान प्राप्त था, यह कहते हुए सुना था : ''कोई भी चीज तत्त्व: अशुभ या बुरी नहीं हैं; केवल ऐसी चीजें हैं जो अपने स्थान पर नहीं हैं । हर एक चीज को उसके अपने स्थान पर रख दो और तुम सामंजस्यपूर्ण संसार पा जाओगे । ''

 

  फिर भी, काय की दिष्टि से, विचार का मूल्य उसकी व्यावहारिक शक्ति के अनुपात मे होता है । यह सच है कि यह शक्ति जिन लोगों में काम करती हैं उनके अनुसार भिन्न होती है । एक भाव-विशेष जो एक व्यक्ति में महान प्रेरक शक्ति रखता  वहां दूसरे में एकदम असफल होता है । लेकिन शक्ति अपने -आपमें संक्रामक है । कुछ भावों मे दुनिया का रूपांतर करने की शक्ति होती है । इन्हीं को व्यक्त करना चाहिये । ये आत्मा के आकाश में पथ-प्रदर्शक नक्षत्र हैं और ये हीं धरती को अपना परम उपलब्धि की ओर ले जाते हैं ।

 

  अंत में, वे सब शब्द हैं जो पढ़ाने के लिये काम में लाये जाते हैं । शब्दों की यह श्रेणी शिशु-विहार से लेकर विश्वविद्यालय तक फैली है  जिसमें मनुष्य के कलात्मक ओर साहित्यिक सर्जनों का भी समावेश है जो या तो मनोरंजक होते हैं या शिक्षाप्रद । हंस क्षेत्र में सब कुछ कार्य के मूल्य पर निर्भर है और यह विषय इतना बड़ा है  कि इसे यहां पर ले सकना संभव नहीं हैं । यह एक तथ्य हैं कि आजकल शिक्षा की ओर बहुत ध्यान दिया जा रहा है और नयी-सें-नयी वैज्ञानिक खोजों का उपयोग करके उन्हें शिक्षा की सेवा में लगाने का सराहनीय प्रयास हों रहा है । लेकिन सत्य के लिये

 

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 अभीप्सा करनेवालों के लिये यहां भी तप की जरूरत है ।

 

  आमतौर पर यह माना जाता हैं कि शिक्षा की प्रक्रिया मे हल्की, मनोरंजक बल्कि तुच्छ कृतियों को मी स्थान मिलना चाहिये ताकि प्रयास का दबाव कम पड़े और केवल बच्चों को हीं नहीं, बडों को भी कुछ आसानी हो । एक दृष्टिकोण से यह सच है लेकिन दुर्भाग्यवश इस मान्यता के कारण चीजों की, एक ऐसी पूरी-की-पूरी श्रेणी को आयात करने का बहाना मिल गया है जो मानव प्रकृति मे जो कुछ गंवारू, भद्दा और निम्न कोटि का हैं उसके खिलने से क्रम नहीं है । इस मान्यता मे अत्यंत जघन्य प्रवृत्तियों तथा अति हीन रुचियों को अनिवार्य आवश्यकता के रूप में अपना प्रदर्शन करने और अपने-आपको स्थापित करने का अच्छा बहाना मिल जाता है । लेकिन बात ऐसी नहीं है; आदमी कामुक हुए बिना विश्राम कर सकता है, वह लंपट बने बिना भी अपने-आपको आराम दे सकता है । वह विश्राम कर सकता है , पर अपनी प्रकृति की स्थूल चीजों को उभरने दिये बिना । लेकिन तपस्या की दृष्टि से इन आवश्यकताओं को भी अपनी प्रकृति बदलने की जरूरत है; आराम एक आंतरिक नीरवता में, विश्राम ध्यान मे, और शिथिलीकरण आनंद मे बदल जाता है ।

 

  मन-बहलाव की, काम में आराम की, जीवन के लक्ष्य को कुछ समय के लिये या ज्यादा समय के लिये पूरी तरह मूल जाने की और साथ हीं जीवन के छ? हेतु को भूल जाने की आवश्यकता को बिलकुल स्वाभाविक और अनिवार्य नहीं मान लेना चाहिये । यह एक ऐसी दुर्बलता है जिसके आगे मनुष्य अभीप्सा की तीव्रता के अभाव, संकल्प-शक्ति की अस्थिरता, अज्ञान, निश्चेतना और निरुत्साह के कारण झुक जाता है। इन प्रवृत्तियों को न्यायसंगत न ठहराओ और शीघ्र ही तुम देखोगे कि ये जरूरी नहीं रहीं; कुछ समय बाद ये तुम्हारे लिये अरुचिकर, यहांतक कि, अग्राह्य हो जायेंगी । तब मनुष्य की कृतियों का एक छोटा नहीं, बल्कि काफी बड़ा भाग, जो ''मनबहलाव '' कहाता है पर सचमुच है नीचे ले जानेवाला, अपना आधार और प्रोत्साहन खो बैठेगा ।

 

  फिर भी यह न समझो कि बोले हुए शब्दों का मूल्य बातचीत के विषय पर निर्भर हैं । तुम आध्यात्मिक विषयों पर भी उसी तरह बकवास कर सकते हो जैसे किसी और विषय पर । लेकिन इस प्रकार की बकवास सबसे अधिक भयंकर बकवासों में से एक हो सकतीं है । उदाहरण के लिये, नया साधक जो थोड़ा-बहुत जानता है उसे औरों में बांटने के लिये बहुत उत्सुक रहता है । लेकिन जैसे वह मार्ग पर आगे बढ़ता है उसे अधिकाधिक पता लगता हैं कि वह बहुत नहीं जानता और औरों को सिखाने का प्रयास करने से पहले उसे अपने ज्ञान के मूल्य के बारे में निश्रित होना चाहिये जबतक कि अंत में वह बुद्धिमान न हो जाये और यह अनुभव न करने लगे कि कुछ मिनिटों तक उपयोगी बात करने के लिये घंटों की नीरव एकाग्रता की जरूरत होती हैं । इसके अतिरिक्त, आंतरिक जीवन और आध्यात्मिक साधना के बारे में वाणी के

 

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उपयोग पर कठोर ज्यादा अनुशासन रखना होगा और जबतक एकदम आवश्यक ही न हो कुछ न कहा जाये ।

 

  यह भली-भांति जाना हुआ तथ्य हैं कि अगर तुम अपनी अनुभूति मे इकट्ठी की गयी शक्ति को, जो तुम्हारी प्रगति को तेज करने के लिये है, क्षण-भर में गायब होते नहीं देखना चाहते तो तुम्हें अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों के बारे में कभी न बोलना चाहिये । इसमें केवल एक हीं अपवाद हो सकता है-गुरु, जब तुम उनसे अपनी अनुभूति के बारे में कोई व्याख्या चाहो या उसके अर्थ के संबंध में कोई आदेश चाहो । वास्तव में, तुम केवल अपने गुरु के सामने ही इन चीजों के बारे में बिना किसी भय के बोल सकते हो, क्योंकि केवल गुरु अपने ज्ञान दुरा तुम्हारी अनुभूति के तत्त्वों की तुम्हारी भलाई के लिये नयी चढ़ाई के सोपान में बदल सकते हैं ।

 

  यह सत्य है कि गुरु भी स्वयं अपनी निजी बातों के बारे में इसी तरह नीरवता के नियम के अधीन होते हैं । प्रकृति में हर चीज गतिशील है; अत: जो आगे नहीं बढ़ता वह पीछे हटाने के लिये बाधित है । अपने शिष्य की भांति गुरु को भी आगे बढ़ना चाहिये, चाहे उनकी प्रगति उसी स्तर पर न हो । उनके लिये भी अपनी अनुभूति के बारे में बोलना हितकर नहीं है : अनुभूति की गतिशील शक्ति को शब्दों मे प्रकट किया जाये तो वह बड़ी हदतक भाप बनकर उड़ जाती है । दूसरी ओर, शिष्यों को अपने अनुभव समझाकर गुरु उनकी समझ और उनकी प्रगति में प्रबल सहायता पहुंचाते हैं । उन्हें अपनी समझ के अनुसार यह जानना होगा कि किस हदतक की दूसरे के लिये बलि चढ़ाये । यह तो जानी-मानी बात है कि उनके वर्णन मे शेखी या अहंमन्यता का प्रवेश नहीं होना चाहिये, क्योंकि जरा-सा अभिमान उन्हें गुरु की जगह पाखंडी बना देगा ।

 

  रहीं बात शिष्य की, तो उससे मैं कहूंगी : ''हर हालत मे अपने गुरु के प्रति निष्ठावान बने रहो, वह चाहे कुछ भी क्यों न हो तुम जितनी दूरतक जा सको वह तुम्हें उतनी दूरतक ले जायेंगे । लेकिन अगर तुम्हें भगवान् को हीं गुरु के रूप में पाने का सौभाग्य प्राप्त हा तो तुम्हारी उपलब्धि की कोई सीमा न होगी । ''

 

  फिर भी, जब भगवान् धरती पर अवतार लेते हैं तो वे भी प्रगति के इस विधान के अधीन होते हैं । उनकी अभिव्यक्ति के यंत्र को, भौतिक सत्ता को, जो उनका परिधान होती है, सतत प्रगति की अवस्था में रहना चाहिये और उनकी निजी आत्माभिव्यक्ति का नियंत्रण करनेवाले विधान एक तरह से धरती की प्रगति के सामान्य विधान से जुड़े रहते हैं । इस तरह सशरीर भगवान धरती पर तबतक पूर्ण नहीं हो सकते जबतक मनुष्य पूर्णता को समझने और स्वीकार करने के लिये तैयार न हों । ऐसा एक दिन होगा जब मनुष्य सब कुछ भगवान् के प्रति प्रेम के कारण करेंगे, आज की तरह उनके प्रति कर्तव्य मानकर नहीं । तब प्रगति एक प्रयास, और बहुधा संघर्ष होने की जगह एक आनंद होगी, 'या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि प्रगति समस्त सत्ता की निष्ठा

 

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के आनंद के दुरा होगी, अहंकार के प्रतिरोध के दमन दुरा नहीं, जिसका अर्थ होता है बहुत प्रयास और कभी-कभी बहुत दुःख-कष्ट ।

 

  अंत मे, मैं तुमसे यह कहूंगी : यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारी वाणी सत्य को अभिव्यक्त करे और भागवत शब्द की शक्ति प्राप्त करे तो पहले से मत सोचो कि तुम क्या कहोगे, यह निश्चय न करो कि क्या कहना अच्छा या बुरा होगा, यह हिसाब न लगाओ कि जो तुम कहनेवाले हो उसका क्या प्रभाव होगा । अपने मन मैं नीरव रहो और 'सर्व प्रज्ञा', 'सर्व ज्ञान', 'सर्व चेतना' के लिये सतत अभीप्सा के सच्चे भाव मे स्थिर रहो । तब, अगर तुम्हारी अभीप्सा निष्कपट है , अगर यह चीजों को अच्छी तरह करने और सफल होने की महत्त्वाकांक्षा को छिपाने के लिये एक आवरण नहीं है, अगर वह शुद्ध सहज और सर्वांगीण है तो तुम सरलता के साथ बोल सकोगे, वही शब्द बोलेगा जो बोले जाने चाहिये, न अधिक, न कम, और उनमें सर्जक शक्ति होगी ।

 

('बुलेटिन' अप्रैल १९५३)

 

(३)

 

   सभी तपस्याओं में यह सबसे कठिन ही संवेदन और भावों की तपस्या, प्रेम की तपस्या ।

 

  वस्तुत:, शायद भावों के क्षेत्र मे मनुष्य को, अन्य सब क्षेत्रों से बढ़कर, एक विवशता, अदम्यता और अनिवार्यता का अनुभव होता हैं, एक शासक नियति का भाव होता है जिससे वह बच नहीं सकता । प्रेम को (कम-से-कम वह चीज जिसे मनुष्य यह नाम देते हैं) विशेष रूप में एक ऐसा निरंकुश प्रभु माना जाता है जिसकी सनको से नहीं बचा जा सकता, जो तुम्हारे अपर मनचहिए ढंग से प्रहार करता है, और तुम चाहो या न चाहो, तुम्हें आज्ञापालन के लिये बाधित करता है । प्रेम के नाम पर बुरे- से-बुरे अपराध किये गये हैं, बेलगाम मूर्खताएं की गयी हैं ।

 

  और फिर भी, मनुष्य ने प्रेम की इस शक्ति को वश मै करने की आशा से, इसे सौम्य ओर विनीत बनाने के लिये सब प्रकार के नैतिक और सामाजिक नियम बनाये हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वह नियम तोड़ने के लिये हीं बनाये गायें थे और उसकी स्वछंद गति पर लगाये गायें प्रतिबंध उसकी विस्फोटक शक्ति को बढ़ाते प्रतीत होते हैं । क्योंकि प्रेम की गतिविधि को नियमों के दुरा वश में नन्हों किया जा सकता । प्रेम के अदम्य आवेगों को केवल प्रेम की अधिक महान अधिक ऊंची और अधिक सच्ची शक्ति हीं वश में कर सकतीं है । प्रेम हीं प्रेम पर, उसे प्रकाशित करके, उसका रूपांतर करके और उसे बढ़कर शासन कर सकता है । क्योंकि यहां भी, अन्य किसी भी और स्थान की अपेक्षा कहीं अधिक, संयम दाबने या त्यागने में नहीं, एक उदात्ता किमिया

 

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के दुरा रूपांतरित करने मे हैं । इसका कारण यह हैं कि संसार पर क्रिया करनेवाली सभी शक्तियों मे प्रेम ही सबसे अधिक शक्तिशाली, सबसे अधिक अदम्य हैं । प्रेम के बिना जगत् फिर से निक्षेतना की अवस्था मे जा गिरेगा ।

 

  वस्तुतः, चेतना विश्व की स्रष्टा है, परंतु प्रेम उसका रक्षक हैं । केवल सचेतन अनुभूति हीं इस बात की झांकी दे सकती है कि प्रेम क्या है, क्यों है और कैसे हैं । उसकी प्रतिलिपि शब्दों मे निश्रित रूप से उस वस्तु का मानसिक छद्यवेश हैं  जो सब प्रकार की अभिव्यक्ति से बच निकलती हैं । दार्शनिक, गुह्मवेत्ता, रहस्यवादी, सब प्रयास कर चुके हैं, लेकिन व्यर्थ । मै यह दावा नहीं करती कि जहां है असफल हों गये वहां मैं सफल होऊंगी । मेरा उद्देश्य है उस चीज को सरल-से-सरल भाषा मे रखना जो उनकी लेखनी के द्वारा इतना अमूर्त और जटिल रूप ले लेती है । मेरे शब्दों का केवल यहीं लक्ष्य होगा कि है एक बच्चे को भी जीवित-जाग्रत् अनुभूति की ओर ले जायें ।

 

  प्रेम, अपने सार-तत्त्व में, एकात्मता का आनंद हो वह ऐक्य के आनंद में अपनी चरम अभिव्यक्ति पाता हैं । इन दो अवस्थाओं के बीच वैध अभिव्यक्ति के सभी पक्ष आ जाते हैं ।

 

  इस अभिव्यक्ति के आरंभ में, प्रेम अपने उद्गम की पवित्रता मे दो गतियों से बना होता हैं, पूर्ण मिलन की प्रवृत्ति के दो पूरक ध्रुवों सें बना होता है । एक ओर आकर्षण की परम शक्ति और दूसरी ओर हैं पूर्ण आत्म-समर्पण की आवश्यकता जिसका कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता । व्यक्तिगत सत्ता में चेतना के अपने मुछ स्रोत सें बिछुड़कर निश्रेतना बनते समय जो खाई खुद गयी थीं उसे पाटने के लिये -कोई और शक्ति प्रेम से बढ़कर नहीं हो सकती ।

 

  जो -चीज देश-काल मे प्रक्षिप्त की गयी थीं उसे इस भांति बनी हुई सृष्टि को नष्ट किये बिना स्वयं अपने में वापिस लाना था । इसके लिये प्रेम, जो मिलन की एकमात्र अदम्य शक्ति हैं, उमर पड़ा ।

 

  वह अंधकार और निक्षेतना पर मंडराता रहा हैं, उसने अपने-आपको अगाध रात्रि के वक्ष में बिखेर दिया है, चूर-चूर कर दिया हैं । और तभी सें जागरण और आरोहण का आरंभ द्रुआ हैं, धीरे-धीरे जढ़तत्त्व का निर्माण और उसका अंतहीन विकास शुरू हुआ था । क्या यह प्रेम ही नहीं है जो एक म्रांतिणि और अंधेरे रूप मे भौतिक और प्राणिक प्रकृति की सभी प्रेरणाओं के साथ जुड़ा है तथा प्रत्येक क्रिया और प्रत्येक समूहीकरण की ओर प्रेरित करता हैं? वनस्पति जगत् मे यह बिलकुल स्पष्ट दिखायी देता हैं । पेड़-पौधों मे यह अधिक प्रकाश और अधिक हवा, अधिक स्थान पाने के लिये बढ़ने की आवश्यकता हैं, तो फूल मे यही सौंदर्य और सुरभि के साथ प्रस्फुटन हैं । और पशु-जगत् मे क्या यहीं भूख-प्यास, अधिकार, विस्तार और प्रजनन, संक्षेप मे कहें तो सभी कामनाओं के पीछे जाने-अजाने रूप मे नहीं रहता? और उच्चतर श्रेणियों में

 

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मादा की अपने बच्चों के लिये निःस्वार्थ निष्ठा मे यहीं चीज नहीं है? यह चीज हमें स्वभावत: मानवजाति तक ले आती हैं जहां मानसिक गतिविधि के विजयपूर्ण आगमन सें यह संबंध अपनी चरम सीमा को पा लेता हैं , क्योंकि वहां पर यह सचेतन और सुविवेचित हैं । वास्तव में, धरती के विकास में जब यह संभव हुआ तो प्रकृति ने प्रेम की इस महान शक्ति को लेकर प्रजनन के साथ जोड़कर, मिलाकर अपनी सर्जक शक्ति की सेवा मे लगा दिया । यह संयोग इतना ज्यादा हिल-मिल कर घनिष्ठ हो गया कि बहुत क्रम लोगों में इतनी प्रबुद्ध चेतना हैं कि वे इन दोनों को अलग करके इनका अलग-अलग अनुभव कर सकें । इस प्रकार प्रेम को सब तरह की अधोगति सहनी पड़ी, वह पशुता के स्तर तक उतर गया ।

 

  इसी अवस्था से प्रकृति के कामों में धीरे-धीरे क्रमिक अवस्थाओं के द्वारा अधिकाधिक जटिल और बहुतेरे समूहों की सहायता से फिर से आद्य ऐक्य की रचना करने की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में प्रकट हुई । उसने प्रेम की शक्ति दुरा दो मनुष्यों को साथ लाकर दो का समूह पैदा किया जो कुटुंब का फल हैं । एक बार उसने व्यक्तिगत अहंभाव की सीमाओं को दोहरे अहं का रूप देकर तोड़ दिया और फिर बालक को प्रकट करके परिवार की ज्यादा जटिल इकाई को जन्म दिया । आगे चलकर कुटुंबों के अनेक संबंधों और व्यक्तियों के आदान-प्रदान और रक्त के मिश्रण से गोत्र, वंश, जाति, वर्ग और अंत में, राष्ट्र की रचना की । समूहों की रचना का काम संसार-भर में एक हीं साथ अलग-अलग स्थानों पर होता रहा और इसी ने विभिन्न जातियों के निर्माण को स्पष्ट रूप दिया । प्रकृति इन जातियों को मी, धीरे-धीरे, मानव एकता का स्थूल और वास्तविक आधार बनाने के प्रयत्न मे एक-दूसरे सें मिला देगी ।

 

  अधिकतर लोगों की चेतना को यह जीवन के संयोगों का खेल लगता है; किसी सार्वभौम योजना की और उनका ध्यान हीं नहीं जाता । परिस्थितियां जैसे-जैसे आती हैं, हैं उन्हें अपने स्वभाव के अनुसार कम या ज्यादा आसानी के साथ स्वीकारते हैं, कुछ लोग संतुष्ट होते हैं और कुछ असंतुष्ट ।

 

  संतुष्ट लोगों मे, एक श्रेणी ऐसे लोगों की हैं जो प्रकृति के तौर-तरीके के साथ पूरा मेल खाते हैं : ये हैं आशावादी । उन्हें रात के कारण दिन अधिक प्रकाशमान दीखता हैं, छाया के कारण रंग अधिक चमकीले हैं, कष्ट के कारण हर्ष अधिक तीव्र होता है, दुःख सुख को अधिक मोहक बनाता हैं । रोग स्वास्थ्य को उसका पूरा मूल्य प्रदान करता है; मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए भी सुना हैं कि वे दुश्मन पकार खुश होते हैं, क्योंकि तब बे अपने मित्रों का मूल्य ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं । बहरहाल, ऐसे लोगों के लिये काम-केलि सबसे अधिक सुखकर कार्य है, जीभ की संतुष्टि जीवन के उन रसों में से है जिनके बिना काम नहीं चल सकता; उनके लिये यह बिलकुल स्वाभाविक बात हैं  कि जो पैदा हुआ हैं उसे मरना भी होगा : यह उस यात्रा का अंत है जो अगर बहुत ज्यादा चलती तो नीरस तौर उबाऊ हो जाति ।

 

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  संक्षप में, उन्हें जीवन जैसा है वैसा हीं बिलकुल ठीक लगता  हैं । वे यह जानने की परवाह नहीं करते कि उसका कोई हेतु या लक्ष्य भी  या नहीं; वे दूसरों के दुःख- दैन्य से कष्ट नहीं पाते और प्रगति की कोई आवश्यकता नहीं देखते ।

 

  लेकिन तुम्हें ऐसे लोगों का ''मत परिवर्तन' ' करने की कोशिश कभी नहीं करनी चाहिये; यह बहुत बड़ी स्व होगी । अगर दुर्भाग्यवश वे तुम्हारी बात मान लें तो हैं  अपना वर्तमान संतुलन खो बैठेंगे, लेकिन कोई नया संतुलन न पायेंगे । वे आंतरिक जीवन के लिये तैयार नहीं हैं, लेकिन वे प्रकृति के प्यारे हैं; उसके साथ उनकी घनिष्ठ मैत्री है और उनकी इस प्राप्ति को बिना कारण धक्का न पहुंचना चाहिये ।

 

  संसार मे दूसरे संतुष्ट लोग ऐसे हैं जो इनसे जस कम संतुष्ट और, सबसे बढ़कर, कम स्थायी रूप में संतुष्ट हैं । उनकी संतुष्टि प्रेम की क्रिया के जादू के कारण होती है । हर बार जब कोई व्यक्ति उस संकीर्ण सीमा को तोड़ता  हैं जिसमें उसके अहं ने उसे बंद कर रखा है, जैसे हीं वह आत्म-दान के कारण खुली हवा मे उठता है, वह चाहे किसी और मनुष्य के लिये हो या परिवार या देश या अपने श्रद्धा-विश्वास के लिये, उसे इस आत्म-विस्मृति के अंदर प्रेम के अद्भुत आनंद का पूर्ण रस प्राप्त होता हैं और इससे उसे ऐसा लगता हैं कि वह भगवान् के संपर्क में आ गया  हैं। लेकिन बहुधा यह क्षणिक संपर्क होता है, क्योंकि मनुष्यों मे प्रेम तुरंत अहंकारपूर्ण निम्न गतियों मे मिल जाता बे जो उसे बदरंग बना देती हैं और उसकी पवित्रता की सारी शक्ति को छू कर देती हैं । फिर भी, अगर वह शुद्ध बना भी रहता तो भी भागवत सत्ता के साथ यह संपर्क चिरस्थायी न होता, क्योंकि प्रेम भगवान् का केवल एक पक्ष  हैं , एक ऐसा पक्ष जो धरती पर अन्य पक्षों की तरह समान रूप से विकृत हों गया  हैं ।

 

  बहरहाल, ये सब अनुभूतियां उस सामान्य मनुष्य के लिये बहुत अच्छी और उपयोगी हैं जो सामान्य पथ पर भावी ऐक्य के लक्ष्य की ओर डिगते पैरों से बढ़ती गयी प्रकृति का अनुसरण करता है, लेकिन इनसे उन लोगों को संतोष नहीं हो सकता जो गति को तेज करना चाहते हैं । दूसरे शब्दों मे कहें तो ये उन्हें संतुष्ट नहीं कर सकतीं जो किसी और धारा का, अधिक सीधी और अधिक तेज धारा का अनुसरण करना चाहते हैं, जो उन्हें सामान्य मानव प्रकृति और उसकी अनंत यात्रा से मुक्त कर दे, जो उन्हें आध्यात्मिक प्रगति मे भाग लेने योग्य बना दे, जो उन्हें हुत मार्ग से उस नयी जाति की सृष्टि की ओर ले जाये जो धरती पर अतिमानसिक सत्य को अभिव्यक्त करेगी । इन विशिष्ट आत्माएं को मनुष्य-मनुष्य के बीच सारे प्रेम का त्याग करना होगा, क्योंकि वह चाहे कितना भी सुन्दर और पवित्र क्यों न हो, वह एक प्रकार से लघु परिपथ (शार्ट सर्किट) बना देता है और भगवान् के साथ सधे संबंध को काट देता है ।

 

  जिसने भागवत प्रेम को जान लिया है वह और सभी प्रकार के प्रेम को धुंधला, क्षुद्र अहंकार और अंधकार सें मिला हुआ पाता है; वह व्यापार या श्रेष्ठता के लिये,

 

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अधिकार के लिये संघर्ष के जैसा लगता है और अपने अच्छे-से-अच्छे रूप मे भी वह गलतफहमी, चिड़चिड़ेपन, मन-मुटाव और नासमझी से भरा रहता  हैं ।

 

   और फिर, यह जानी हुई बात  हैं कि तुम जिससे प्रेम करते हो उसी के जैसे बनते जाते हों । अगर तुम भगवान् जैसे बनना चाहो तो तुम्हें केवल उन्हीं से प्रेम करना चाहिये । जिसने भगवान् के सायुज्य के आनंद का अनुभव किया  हैं वही जान सकता  हैं कि बाकी सारा प्रेम उसकी तुलना मे कितना नीरस, मंद और शक्त्तिहीन होता  हैं और यदि इस सायुज्य को प्राप्त करने के लिये कठोरतम तपस्या की जरूरत पड़ तो भी कोई चीज अत्यंत कठिन, बहुत अधिक लंबी या अत्यंत कठोर नहीं हैं- बशर्ते कि वह तुम्हें वहांतक पहुंचा दे-क्योंकि यह सब प्रकार की अभिव्यक्ति से परे है ।

 

   हम धरती पर इस अद्भुत स्थिति को चरितार्थ करना चाहते हैं । यहीं धरती का रूपांतर करके उसे भागवत सत्ता के योग्य आवास बनायेगी । तब सच्चा और विशुद्ध प्रेम एक ऐसे शरीर में अवतार लेगा जो उसके लिये आवरण या छद्यवेश न रहेगा । तपस्या को ज्यादा सरल बनाने के लिये तथा ज्यादा नजदीक और स्पष्ट रूप से अनुभव की जा सकनेवाली घनिष्ठता उत्पन्न करने के लिये भगवान् ने प्रेम के सर्वोच्च रूप मे एक ऐसा भौतिक शरीर ग्रहण करने की इच्छा की जो देखने मे मनुष्य-शरीर के जैसा हीं हो । लेकिन हमेशा हीं जडू-द्रव्य के स्थूल रूप मे बंद होने के कारण वह अपना एक विकृत रूप ही व्यक्त कर सके । बे अपनी पूर्णता के वैभव मे अपने- आपको तभी अभिव्यक्त कर सकेंगे जब मनुष्य अपनी चेतना और शरीर मे कुछ अनिवार्य प्रगति कर लेंगे; क्योंकि मनुष्य का तुच्छता-भरा मिथ्याभिमान और उसका मूर्खतापूर्ण अहंभाव, मानव शरीर मे अभिव्यक्त भागवत प्रेम को दुर्बलता, निर्भरता और आवश्यकता का चित मान लेता है ।

 

  लेकिन फिर भी, मनुष्य शुरू मे धुंधले रूप मे, लेकिन जैसे-जैसे वह पूर्णता की ओर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ज्यादा स्पष्ट रूप में यह जानने लगता है कि केवल प्रेम हीं संसार के दुःख-कष्ट का अंत ला सकता है; प्रेम का अनिर्वचनीय आनंद हीं, अपने सार-तत्त्व में, संसार से विछोह की जलती हुई पीड़ा को थ कर सकता है । क्योंकि परम ऐक्य के आनंद मे ही सृष्टि को अपने अस्तित्व का हेतु और उसकी चरितार्थता प्रान्त हो सकतीं  हैं ।

 

  इसलिये कोई भी प्रयास बहुत कठिन नहीं हैं, कोई तपस्या बहुत कठोर नहीं हैं अगर वह भौतिक तत्त्व को इतना प्रकाशित, शुद्ध पूर्ण और रूपांतरित कर सके कि भगवान् जब उसमें रूप धारण करें तो वह उन्हैं छिपा न पाये । तब वह अद्भुत प्रेम अपने-आपको इस जगत् में प्रकट कर सकेगा, इस भागवत प्रेम  हीं जीवन को मधुर आनंद के स्वर्ग में बदलने की क्षमता  हैं ।

 

  तुम कह सकते हो कि यह तो चरम उद्देश्य, प्रयास का मुकुट, अंतिम विजय है;

 

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लेकिन वहांतक पहुंचने के लिये क्या किया जाये? कौन-से मार्ग का अनुसरण किया जाये ओर रास्ते के पहले कदम कौन-से हैं?

 

  चूंकि हमने यह निक्षय कर लिया हैं कि पूर्ण वैभवमय प्रेम को भगवान् के साथ अपने व्यक्तिगत संबंध के लिये सुरक्षित रखें, इसलिये औरों के साध अपने संबंध मे प्रेम की जगह एक पूर्ण अपरिवर्तनशील, स्थायी और अहंकारजन्य शुभ कामना और सद्भावना रखेंगे जो बदले में किसी पुरस्कार, कुतज्ञता या मान्यता की भी आशा न करेगी । दूसरे तुम्हारे साथ चाहे जैसे व्यवहार करें, तुम अपने-आपको किसी मनोमालिन्य या नाराजगी मे न बहने दोगे; और भगवान् के प्रति अपने विशुद्ध प्रेम में तुम उन्हें हीं इस बात के लिये एकमात्र निर्णायक बनाओगे कि बे दूसरों की गलतफहमी और दुर्भावना से तुम्हारी रक्षा कैसे करेंगे ।

 

  तुम अपने आनंद या अपने सुख के लिये केवल भगवान् पर ही निर्भर रहोगे, केवल उन्हीं मे सहायता और आश्रय खोजोगे और पाओगे । वे तुम्हें हर दुःख मे आश्वासन देंगे, तुम्हें पथ पर चलायेंगे, तुम ठोकर खा जाओ तो तुम्हें उठायेंगे और यदि दुर्बलता और क्कांति की घड़ियां आयें तो प्रेम की बलवान भुजाओं मे लकर अपनी सुखद मधुरिमा. मे लपेट लेंगे ।

 

  यहां एक गलतफहमी से बचने के लिये मुझे यह बता देना चाहिये कि भाषा की मांग के कारण मुझे भगवान् के लिये पुल्लिंग रूप का उपयोग करना पड़ता  हैं। लेकिन वास्तव मे मै प्रेम के रूप मे जिस सत्य के बारे मे बोल की हू वह सीलिंग और पुल्लिंग सब प्रकार के लिंगों से ऊपर ओर परे है; और जब वह मानव देह लेता हैं, तो तटस्थ भाव से, उसे जो काम करना  हैं उसकी जरूरत की दृष्टि से नर या नारी का शरीर धारण करता हैं ।

 

  संक्षेप में, भाव की तपस्या मे सब प्रकार की भाव-संबंधी आसक्ति का त्याग आता  हैं , वह चाहे किसी प्रकार का क्यों न हो, चाहे किसी व्यक्ति के लिये हो, परिवार के लिये हों, देश के लिये हो या किसी और चोज के लिये हो । और इस त्याग के साथ भगवान् के लिये अनन्य रूप से आसक्ति होनी चाहिये । इस एकाग्रता की पूर्णाहुति होगी सर्वांगीण तादात्म्य मे, और यह घरती पर अतिमानसिक उपलब्धि के लिये यंत्र- रूप होगी ।

 

  यह बात हमें बिलकुल स्वाभाविक रूप मे चार मुन्स्तियों तक ले जाती है जो इस सिद्धि के चार मूर्त्त रूप हैं । भाव-संबंधी मुक्ति, अतिमानसिक एकता की सर्वांगीण उपलब्धि के परिणामस्वरूप, कष्टों सें मुक्ति होगी । मानसिक मुक्त्ति, अर्थात् अज्ञान से मुक्ति सत्ता मे प्रकाशमय मन, अर्थात् अतिमानसिक चेतना की प्रतिष्ठा करेगी जो अपने-आपको 'वाणी ' की सर्जक शक्ति के रूप मे प्रकट करेगी ।

 

  प्राणिक मुक्ति या इच्छा-कामना से मुक्त्ति व्यक्तिगत संकल्प को भागवत संकल्प के साथ पूरी तरह और सचेतन रूप मे एक होने की क्षमता प्रदान करेगी और शांति,

 

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धीरज और परिणामस्वरूप, शक्ति लायेगी ।

 

  अंत मे, सबसे ऊपर मुकुट के रूप मै आती है भौतिक मुक्ति या भौतिक कार्य- कारण के नियम से मुक्त्ति । तुम पूरी तरह अपने स्वामी होने के कारण प्रकृति के नियमों के दास नहीं रहते जिसके कारण तुम अवचेतन और अर्धचेतन प्रेरणाओं द्वारा चलाये जाते हो, जो तुम्हें साधारण जीवन की लीक से बांध देता है । इस मुक्ति के कारण तुम पूर्ण ज्ञान के साथ यह निश्चय कर सकते हो कि तुम कौन-सा मार्ग अपनाना चाहते हो, उस कार्य को चून सकते हो जिसे तुम चरितार्थ करना चाहते हो, अपने-आपको अंध नियति से मुक्त्ति कर सकते हो । अपने जीवन-पथ मे उच्चतम संकल्प, सत्यतम ज्ञान और अतिमानसिक चेतना के सिवा किसी और को हस्तक्षेप न करने दो ।

 

  ('बुलेटिन', अगस्त १९५ वे)

 

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छोटे-बढ़े विधार्थियों से

 

   धरती के इतिहास मे कुछ ऐसे संक्रांति काल आते हैं जब हज़ारों वर्षों से चली आयी चीजों को अपना स्थान ऐसी चीजों को देना पड़ता है जो अभिव्यक्त होने को हैं । ऐसे काल मे विश्व चेतना विशेष रूप से केंद्रित होती है, या यूं कहा जा सकता है, उसके प्रयास में तीव्रता आती है जो, जिस प्रकार की प्रगति करनी है, जिस प्रकार का रूपांतर सिद्ध करना है उसके अनुसार भिन्न-भिन्न होती है । हम विश्व इतिहास के ठीक ऐसे हीं मोड पर है । जैसे प्रकृति धरती पर पहले हीं एक मानसिक सत्ता को बना चुकी है, वैसे हीं अब इस मन में अतिमानसिक चेतना और व्यक्तिन्व लाने के लिये एकाग्र क्रिया हों रहीं है ।

 

  कुछ सत्ताएं, मैं यूं कह सकती हूं, देवताओं के रहस्य सें परिचित हैं । उन्हें घरती के जीवन की इस घड़ी के महत्त्व के बारे मे बतलाया गया है और उन्होंने जैसे हो सके वैसे अपनी भूमिका निभाने के लिये धरती पर जन्म लिया हैं । एक महान् ज्योतिर्मय चेतना पृथ्वी के अपर उठ रही है और उसने वातावरण में एक भंवर-सा पैदा कर दिया है । जो लोग खुले हैं उन सबको इस भंवर से एक लहर प्राप्त होती है , इस ज्योति से एक किरण मिलती है और हर एक अपनी क्षमता के अनुसार उसे रूप देने की कोशिश में है ।

 

  यहां हमें यह अनुपम सौभाग्य प्राप्त है कि हम विकिरणशील ज्योति के ठीक बीच में, रूपांतर की शक्ति के स्रोत में हैं ।

 

  श्रीअरविन्द ने मानव शरीर में अतिमानसिक चेतना को उतारा, उन्होंने हमें केवल पथ का स्वरूप हीं नहीं दिखाया, लक्ष्य तक पहुंचने के लिये उसके अनुसरण का तरीका हीं नहीं दिखाया, बल्कि अपनी निजी उपलब्धि के द्वारा हमारे आगे उदाहरण भी रखा है । हम कह सकते हैं कि उन्होंने यह प्रमाण दिया है कि यह किया जा सकता है और अब उसे करने का समय है ।

 

  अतः, हम यहां पर उसी को दोहराने के लिये नहीं हैं जिसे और लोग कर चुके हैं । हम यहां एक नयी चेतना और नये जीवन की अभिव्यक्ति के लिये अपने-आपको तैयार करने के लिये हैं । इसीलिये में तुमसे, विद्यार्थियों से, बात कर रही हू, अर्थात् उन सबसे जो सीखना चाहते हैं, अधिकाधिक सीखना चाहते हैं और ज्यादा अच्छा सीखना चाहते हैं, ताकि एक दिन तुम नयी शक्ति के प्रति खुल सको और उसकी भौतिक स्तर पर अभिव्यक्ति को संभव बना सको । क्योंकि यही हमारा कार्यक्रम है, तुम्हें यह न भूलना चाहिये । अगर तुम इसका सच्चा कारण जानना चाहो कि तुम यहां क्यों हो तो तुम्हें याद रखना चाहिये कि हमारा लक्ष्य है संसार मे भागवत संकल्प को अभिव्यक्त करनेवाला, जहांतक हो सके, अधिक-से-अधिक पूर्ण यंत्र बनना । और, अगर यंत्र को पूर्ण बनना हैं तो तुम्हें उसे साधना होगा, शिक्षण और

 


प्रशिक्षण देना होगा । तुम उसे बंजर जमीन या अनगढ़ पत्थर की तरह नहीं छोड़ सकते । हीरा कलापूर्ण ढंग से तराशे जाने पर हीं अपना पूरा सौंदर्य दिखाता हैं । तुम्हारे बारे में भी यहीं बात हैं । जब तुम यह चाहते हों कि तुम्हारी भौतिक सत्ता अतिमानसिक चेतना को अभिव्यक्त करनेवाला पूर्ण यंत्र बने तो तुम्हें उसे साधना होगा, आकार देना होगा, शुद्ध करना होगा और उसमें जो कमी हो उसे पूरा करना होगा और जो कुछ उसमें पहले से हीं  है से पूर्ण बनाना होगा । इसीलिये तुम कक्षा में आते हो, मेरे बच्चे, चाहे तुम बड़े हो या छोटे, क्योंकि व्यक्ति हर अवस्था में सीख सकता है- और इसलिये तुम्हें कक्षा मे जाना होता है ।

 

  कभी-कभी जब तुम कुछ अनमने-से हो तो तुम कहते हो : ''यह कक्षा कितनी उबाऊ होगी!'' हां, हो सकता है कि कक्षा एक ऐसा अध्यापक लेता है जो तुम्हारा मनोरंजन करना नहीं जानता । वह एक अच्छा अध्यापक हो सकता है, फिर मी तुम्हारा मनोरंजन नहीं कर सकता, क्योंकि यह हमेशा आसान नहीं होता । ऐसे दिन होते हैं जब आदमी को मनोरंजन करने की इच्छा नहीं होती । तुम्हारे लिये और उसके लिये समान रूप से ऐसे दिन होते हैं जब तुम विद्यालय में रहने की जगह कहीं और रहना ज्यादा पसंद करोगे, फिर मी तुम कक्षा में जाते हो, तुम जाते हो क्योंकि जाना चाहिये, क्योंकि अगर तुम अपनी सब सनको के अनुसार चलने लोग तो कभी अपने अपर अधिकार न पा सकोगे; तुम्हारी सनकें हीं तुम्हें अपने वश में रखेगी । इसलिये तुम कक्षा में जाते हो । परंतु यह सोचते हुए न जाओ : '' ओह, कक्षा कितनी अरुचिकर और उबाऊ होगी, '' उसकी जगह यूं कहो : ''जीवन मे एक क्षण भी ऐसा नहीं होता, एक परिस्थिति भी ऐसी नहीं होती जो प्रगति का अवसर न हो । तो आज मै कौन-सी प्रगति करनेवाला हूं ? आज मैं जिस कक्षा में जा रहा हूं, वहां जो विषय पढ़ाया जायेगा उसमें मुझे रस नहीं है । लेकिन शायद मेरे अंदर हीं कुछ कमी है; शायद, मेरे मस्तिष्क के किसी कोने में, कुछ कोषाणुओं में विकार है । इसीलिये मुझे इस विषय में रस नहीं आता । अगर बात ऐसी है तो मैं कोशिश करुंगा, अच्छी तरह सुनूंगा, एकाग्र रहूंगा, और सबसे बढ़कर, अपने दिमाग से इस छिछोरपन को निकाल बाहर करुंगा । यह ऊपरी हलकापन हीं इस बात के लिये जिम्मेदार है कि जब कोई बात मेरी पकड़ मे नहीं आती तो मैं ऊब उठता हू । मैं इसलिये अब उठता हूं क्योंकि मैं समझने का कोई प्रयास नहीं करता, मेरे अंदर प्रगति के लिये संकल्प नहीं हे । '' जब तुम प्रगति नहीं करते तब सर्पा को तो ऊब आती है, चाहे वह जवान हो या छाछ, क्योंकि हम यहां धरती पर प्रगति करने के लिये हैं । अगर जीवन प्रगति न करता तो वह कितना थकानेवाला हो जाता! जीवन एकरस है, बहुधा सुखकर नहीं होता, वह सुंदर होने से बहुत दूर है । लेकिन अगर हम उसे प्रगति का क्षेत्र मान लें तो हर चीज बदल जाती हैं, हर चीज रुचिकर बन जाते है और ऊब के लिये कोई जगह हा नहीं रहती । काली बार जब तुम्हें अपना अध्यापक थकानेवाला लगे तो कुछ न करने में

 

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अपना समय बरबाद करने की जगह, यह समझने की कोशिश करो कि वह ऐसा क्यों है । अगर तुम्हारे अंदर अवलोकन की क्षमता है और अगर तुम समझने के लिये प्रयास करो तो तुम शीघ्र देखोगे कि कैसा चमत्कार हो गया, अब तुम्हें अब नहीं आ रहीं ।

 

   यह इलाज प्रायः सभी अवस्थाओं में अच्छा होता है । कभी-कभी किन्हीं विशेष प्रकार की परिस्थितियों में तुम्हें हर चीज उदास, थकानेवाले और मूर्खता-भरी लगती है । इसका अर्थ है कि स्वयं तुम भी वैसे ही थकानेवाले और नीरस हो जैसी तुम्हारे परिस्थितियां, यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण वे कि तुम प्रगतिशील अवस्था मे नहीं हो । तुम्हारे ऊपर से अब और खिन्नता की एक लहर दौड़ गयी है । और इससे बढ़कर जीवन के उद्देश्य का विरोधी और नहीं है । ऐसे समय तुम प्रयास करके अपने-आपसे पूछ सकते हो : ''यह खिन्नता इस बात का प्रमाण है कि मुझे कुछ सीखना हैं, अपने अंदर कोई प्रगति करनी है, किसी तमस् को जीतना है, किसी दुर्बलता पर विजय पानी है । खिन्नता या अब चेतना का चपटा हो जाना है; अगर तुम अपने अंदर ही उपचार ढूंढ तो उसे तुरत गायब होते देखोगे । अधिक लोग ऊब की अवस्था मे अपनी चेतना मे एक कदम अपर उठने का प्रयास करने की जगह एक कदम नीचे आ जाते हैं । बल्कि जिस स्तर पर थे उससे भी नीचे उतर जाते हैं और अधिक-से-अधिक मूर्खता-भरी चीजें करते हैं । वे अपना मन बहलाने की आशा से एकदम भद्दी चीजें करते हैं । इसी तरह लोग पीना शुरू करते हैं, अपना स्वास्थ्य खराब कर लेते हैं और अपने मस्तिष्क को मृतप्राय बना देते हैं । अगर वह गिरने की जगह ऊपर उठे होते तो इस अवसर का लाभ उठाकर प्रगति कर लेते ।

 

  वास्तव में, यह बात उन सब परिस्थितियों मे समान रूप से सच्ची है जब जीवन तुम्हें कोई करारी चोट पहुंचता है , जिस चोट को मनुष्य ''महाविपत्ति '' कहता है । वह सबसे पहली चीज जो करना चाहते हैं वह है भुला देना, मानों वैसे ही वह बहुत जल्दी नहीं क्या जाते! और भूलने के लिये वह सब तरह की चीजें करते हैं । जब चीज बहुत कष्टदायक डोर उठे तो उन्त्रें मनबहलाव की तलाश होती हैं, जिसे वह 'मनबहलाव' कहते हैं, यानी मूर्खता-भरी चीजें करते हैं और अपनी चेतना को अपर उठाने की जगह, और भी नीचे घसीटते हैं । अगर तुम्हें बहुत कष्टप्रद अनुभव हो रहा हो वों कभी अपने-आपको सुन्न करने की, स्व जाने की, निकेतन में उतने को कोशिश न करो, बल्कि आगे बढ़े, अपने दुःख के हृदय मे पैठो । तुम वहां उस ज्योति, सत्य, शक्ति और आनंद को पाओगे जिन्हें पीड़ा छिपाती हैं । लेकिन उसके लिये तुम्है दृढ़ होना चाहिये और नीचे फिसलने से इनकार करना चाहिये ।

 

  इस तरह तुम्हारे जीवन की सभी छोटी-बड़ी घटनाएं प्रगति का अवसर बन सकतीं हैं । अगर तुम उनसे लाभ उठाना जानी तो ब्योरे की नगण्य चीजें भी अंतरप्रकाश की ओर ले जा सकती हैं । जब कभी तुम किसी ऐसे चीज में लगे हो जो तुम्हारे पूरे-पूरे ध्यान की मांग नहीं करती तो अपनी अवलोकन-शक्ति को विकसित करने का लाभ


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उठाओ । तुम देखोगे कि तुम मजेदार खोजें कर पाओगे । मै क्या कह रहीं हूं यह समझाने के लिये मै तुम्हें दो उदाहरण दूंगी । जीवन की दो छोटी-छोटी घटनाएं हैं जो अपने-आपमें कुछ भी नहीं हैं, पर फिर भी गहरी और स्थायी छाप छोड़ जाती हैं।

 

  पहला उदाहरण है पैरिस की एक घटना का । तुम्हें इस महानगरी मे टहलना है । सब जगह शोर है, दीखने में सब कुछ अस्त-व्यस्त है , एक चूककरनेवाला। हलचल है । अचानक तुम एक स्त्री को देखते हो जो तुम्हारे आगे-आगे चल रहीं है; वह अन्य अधिकतर औरतों जैसी हीं है, उसके वेश मै ऐसी कोई चीज नहीं जो ध्यान खींच, लेकिन उसकी चाल अद्भुत हैं, लचीली, तालबद्ध सुरुचिपूर्ण और समस्वर । तुम्हारा ध्यान खिंचता हैं और तुम उसकी प्रशंसा करते हो । फिर, इतने लालित्य के साथ चलता हुआ यह शरीर प्राचीन यूनान के वैभवों की और उसकी संस्कृति द्वारा समस्त संसार' को दिये गये सुन्दरता के अनुपम पाठ की याद दिलाता है, और यह क्षण तुम्हारे लिये अविस्मरणीय हो उठता हैं- और यह सब एक ऐसी स्त्री के कारण जो चलना जानती थी!

 

  दूसरा उदाहरण संसार के दूसरे छोर, जापान से है । तुम अभी इस देश में, जो इतना अधिक सुंदर है, काफी समय रहने के लिये आये-हीं-आये हो । तुम्हें लगता हैं कि तुम यहां की भाषा का थोड़ा-बहुत परिचय न कर लो तो काम चलाना कठिन होगा । तुम जापानी भाषा सीखना शुरू करते हो और लोगों को बोलते हुए सुनने का कोई अवसर नहीं छोड़ते ताकि तुम उससे परिचित हो जाओ । उसी समय तुम दाम में, जिसमें तुम आकर बैठे हो, अपनी मां के साथ एक चार-पांच वर्ष के बच्चे को देखते हो । बच्चा शुद्ध स्पष्ट लहजे में बोलना शुरू करता है  । तुम सुनते हो और तुम्हें यह अनोखा अनुभव होता है कि जिन बातों को तुम्हें बड़े प्रयास के साथ सीखना पड़ता है  उन्हें वह बालक सहज रूप सें जानता है , और जहांतक जापानी भाषा का संबंध है , अपनी छोटी अवस्था के बावजूद वह तुम्हारा अध्यापक हो सकता है ।

 

  इस तरह जीवन जस्यपूर्ण बन जाता है और हर पग तुम्हें नया पाठ देता है । इस दिष्टि से देखा जाये तो जीवन सचमुच ज़ीने योग्य है ।

 

('बुलेटिन', नवम्बर १९५३)

 

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भविष्य-दृष्टि

 

 भवितव्यता को पहले से जान लेना! कितनों ने इसके लिये प्रयास किया है, कितनी पद्धतियां बनी हैं, भविष्य-दर्शन की कितनी विधाएं रुचि गयी हैं, विकसित की गयी हैं और फिर झूठी पंडिताई और अंधविश्वास के आरोप के साथ नष्ट हों गयी हैं! पर भवितव्यता को पहले से जान लेना हमेशा इतना कठिन क्यों रहा है? जब कि यह साबित हो चुका है  कि प्रत्येक चीज अनिवार्य रूप सें पूर्व निर्दिष्ट है , तब क्या कारण है कि हम शिक्षित रूप से नियति को जानने मे सफल नहीं हो पाते?

 

  यहां भी समाधान योग मे ही मिलता है । यौगिक साधना के द्वारा हम केवल अपनी भवितव्यता को पहले से जान हीं नहीं सकते, बल्कि उसे बदल भी सकते हैं, प्रायः पूर्ण रूप से बदल सकते हैं । सबसे पहले, योग हमें यह सिखाता है कि हम एकमात्र सत्ता, एक सीधी-साद चीज नहीं हैं, जिसकी केवल एक हीं, सीधी-सदी और युक्त्तिसंगत भवितव्यता हो सकतीं हैं । हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि अधिकतर मनुष्यों की भवितव्यता जटिल, बहुविध होती है । उसमें इतनी जटिलता होती है जो कभी-कभी असंगत अंड बंड अवस्था तक पहुंच जाती है । क्या यह जटिलता ही वह चीज नहीं है जो अप्रत्याशित और अनिर्दिष्ट की छाप देकर कहती हैं कि उसके बारे मे पहले से कुछ नहीं जाना जा सकता?

 

  इस समस्या को हल करने के लिये हमें पहले यह जानना होगा कि सभी सजीव प्राणी, विशेषकर मनुष्य, कई सत्ताओं की समष्टि से बना है जो एक साथ दलबद्ध होती हैं, एक-दूसरी मे प्रवेश करती हैं, कभी-कभी अपने-आपको संगठित करती और एक- दूसरे को पूर्ण बनाती हैं और फिर अन्य समयों मे, एक-दूसरे का विरोध और खंडन करती हैं । इन सत्ताओं या सत्ता की अवस्थाओं मे सें प्रत्येक का अपना एक निजी लोक है और वह स्वयं अपने अंदर अपनी भवितव्यता को, अपनी नियति को वहन करती है । और इन सभी नियतियो का योगफल-जो कभी-कभी बड़ा ही बेढब होता है-वह चीज हैं जो व्यक्ति की भवितव्यता का निर्माण करता ३1 परंतु इन सभी सत्ताओं का संगठन और पारस्परिक संबंध व्यक्तिगत साधना और संकल्प-शक्ति के द्वारा बदला जा सकता है और नियति की विभिन्न धारणाएं अलग-अलग ढंग से, चेतना की एकाग्रता के अनुसार एक-दूसरे पर कार्य करती हैं और इसलिये उनका सम्मिश्रण हमेशा बदलता रहता है, इसलिये उसके विषय मे भविष्यवाणी करना संभव नहीं होता ।

 

  उदाहरणार्थ, किसी प्राणी की भौतिक या स्थूल भवितव्यता उसके पिता और माता के पूर्वजों से, उन बाह्य स्थूल अवस्थाओं, परिस्थितियों से आती है जिनमें वह जन्मा होता है; अतएव हम पहले च ही जान सकते हैं कि उसके भौतिक जीवन की क्या- क्या विशेष घटनाएं होगी, उसका स्वास्थ्य कैसा और शरीर की उम्र लगभग कितनी होगी । परंतु फिर आती है मैदान मे उसकी प्राणमय सत्ता की रचना (कामना-वासना,

 


आवेग-उत्तेजना आदि के साथ-ही-साथ संचालन-शक्ति और सक्रिय संकल्प की सत्ता) जो अपने साथ अपनी निजी भवितव्यता भी ले आती है । यह भवितव्यता भौतिक भवितव्यता पर अपना प्रभाव डालती है और उसे पूर्ण रूप से बदल सकतीं हैं, यहांतक कि बहुत बार उसे अधिक बुरी अवस्था मे पहुंचा देती हैं । उदाहरण के लिये मान लें कि एक आदमी बढ़ी अच्छी भौतिक स्थिति के साथ पैदा हुआ है और उसे बहुत स्वस्थ जीवन बिताना चाहिये । अब यदि उसका प्राण-पुरुष उसे सब प्रकार की ज्यादतियों, बुरी आदतों, यहांतक कि पापकर्मों की ओर धकेल दे तो वह इस तरह अपनी अच्छी भवितव्यता को अंशत: नष्ट कर सकता है और स्वास्थ्य और बल- सामर्थ्य के सामंजस्य को खो सकता है जिसे उसने इस हानिकारक हस्तक्षेप के न होने पर अवश्य प्राप्त किया होता । यह केवल एक उदाहरण है । परंतु समस्या इससे बहुत अधिक जटिल है, क्योंकि भौतिक और प्राणिक भवितव्यता के साथ फिर आ जुटती हैं मानसिक भवितव्यता, आतरात्मिक भवितव्यता और कितनी ही अन्य-अन्य भवितव्यताएं ।

 

  वास्तव मे, कोई जीवन मनुष्य- श्रेणी मे जितना ही ऊंचा खड़ा होता है उसकी सत्ता उतनी हीं अधिक जटिल होती है, उतनी ही अधिक विविध होती है उसकी भवितव्यता । और इसलिये उसके भाग्य को पहले से जानना उतना हा अधिक कठिन होता है । पर, जो हो, यह सब केवल ऊपर से देखने मे हीं ऐसा हैं । जब सत्ता की इन विभिन्न स्थितियों का और उनसे संबंधित आंतर जागतों का ज्ञान प्राप्त होता है तब साथ-ही- साथ, उस ज्ञान के फलस्वरूप, इन विभिन्न भवितव्यताओं को, उनके पारस्परिक सम्मिश्रण को और उनके सम्मिलित या सर्वप्रधान कार्य को पहचानने की क्षमता भी आ जाती है । भवितव्यता की उच्चतर धारणाएं स्पष्ट ही विश्व के केंद्रीय सत्य के बहुत समीप होती हैं, उससे मिलती-जुलती होती हैं और अगर उन्हें हस्तक्षेप करने दिया जाये, तो उनका कार्य निक्षय हीं लाभदायी होता है । इस तरह जीवन-यापन करने की कला-सर्वोत्तम विधि-यह होगी कि हम अपने को हमेशा अपनी उच्चतम चेतना के अंदर बनाये रखें और इस तरह अपने जीवन और कार्य मे अपनी उच्चतम भवितव्यता को ही अन्य भवितव्यता के अपर प्राधान्य स्थापित करने दें । इस तरह हम कह सकते हैं, और इसमें फल होने का कोई डर नहीं, कि हमेशा अपनी चेतना के शिखर पर रहो और तब तुम्हारे लिये वही होगा जो अच्छे-से-अच्छा होगा । परंतु यह एक ऐसी चरम अवस्था है जिसे प्राप्त करना आसान नहीं हैं । परंतु, फिर भी, जबतक यह आदर्श अवस्था न उपलब्ध हो, तबतक प्रत्येक व्यक्ति कम-से-कम इतना तो कर ही सकता हैं कि जब कोई खतरा या संगीन अवस्था सामने आये ता वह अभीप्सा, प्रार्थना तथा भागवत इच्छा के प्रति विश्वासपूर्ण आत्म-दान के दुरा अपनी उच्चतम भवितव्यता का आवाहन करे । ऐसा करने पर, व्यक्ति का आवाहन जितना सच्चा होता है  उसी अनुपात में यह उच्चतर भवितव्यता व्यक्ति की सामान्य भवितव्यता में

 

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अनुकूल हस्तक्षेप करती है , और घटना-चक्रों को, जहांतक उसका अपना व्यक्तिगत संबंध हो, एकदम परिवर्तित कर देती है । इसी तरह की घटनाएं हमारी बाह्य चेतना को चमत्कार, दिव्य हस्तक्षेप प्रतीत होती हैं ।

 

('बुलेटिन', फरवरी १९५०)

 

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रूपांतर

 

   हम चाहते हैं सर्वागीण रूपांतर, शरीर और उसके सभी क्रिया-कलापों का रूपांतर । परंतु इसका एक प्रथम पूर्ण रूप से अनिवार्य पग हैं : चेतना का रूपांतर जिसे और कोई चीज आरंभ करने से पहले पूरा करना होगा । यह कहने की जरूरत नहीं कि इस विषय मे हमारी यात्रा का प्रारंभ-स्थल होगा इस रूपांतर की अभीप्सा और इसे सिद्ध करने का संकल्प; उसके बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता । परंतु अभीप्सा के साध यदि एक प्रकार का आंतरिक उद्घाटन, एक प्रकार की ग्रहणशीलता भी आ जूठे तो व्यक्ति एक ही छलांग में इस रूपांतरित चेतना में प्रवेश कर सकता है और वहीं बना रह सकता है । कहा जा सकता है कि चेतना का यह परिवर्तन अकस्मात् होता है; जब होता हैं तो एकाएक हों जाता है , उसकी तैयारी भले हीं बहुत धीरे-धीरे और दीर्घकाल सें होती आयी हो । मैं यहां मानसिक दृष्टिकोण मे होनेवाले किसी सामान्य परिवर्तन की बात नहीं कह रहीं, बल्कि स्वयं चेतना के परिवर्तन की बात कह रहीं हूं । यह एक प्रकार से पूर्ण और विशुद्ध परिवर्तन हैं, आधारभूत स्थिति मे होनेवाली एक क्रांति है; यह प्रायः गेंद को भीतर से बाहर उलट देने के जैसी बात है । इस परिवर्तित चेतना मे प्रत्येक चीज केवल नयी और भिन्न हीं नहीं मालूम होती, बल्कि पहले साधारण चेतना को जैसी मालूम होती थीं उससे प्रायः उलटी प्रतीत होती हैं । साधारण चेतना मे तुम धीरे-धीरे चलते हो, एक-के-बाद-एक प्रयोग करते हुए चलते हो, अज्ञान से किसी सुदूर-स्थित और यहांतक कि, संदिग्ध शान की ओर जाते हो । पर रूपांतरित चेतना में तुम ज्ञान से आरंभ करते हो, और ज्ञान से ज्ञान की ओर अग्रसर होते हो । फिर भी, यह है  आरंभ हीं, क्योंकि बाहरी चेतना, बाहरी और क्रियाशील सत्ता के विभिन्न स्तर और अंश एक भीतरी रूपांतर के फलस्वरूप, धीरे-धीरे और क्रमश: हीं रूपांतरित होते हैं ।

 

  वह वास्तव में चेतना का एक आशिक परिवर्तन है जिसके कारण तुम उन सब चीजों में बिलकुल रस लेना छोड़ देते हो जो पहले वांछनीय लगती थीं; लेकिन यह तो केवल चेतना का एक परिवर्तन है , वह चीज नहीं है जिसे हम रूपांतर कहते हैं । क्योंकि रूपांतर तो एक मौलिक और निरपेक्ष वस्तु हैं; वह एक परिवर्तन मात्र नहीं है, बल्कि चेतना का एकदम उलट जाना है : मानो सारी सत्ता एक चक्कर खा गयी हो और एक और ही स्थिति मे जा खड़ी हुई हो । इस उलटी हुई चेतना में हमारी सत्ता जीवन और वस्तुओं से ऊपर खड़े होती है और वहां से उनके साथ व्यवहार करती है; वह केंद्र मे होती है और वहीं सें अपनी क्रिया बाहर की ओर चलाती हैं । जब कि साधारण चेतना मे हमारी सत्ता बाहर और नीचे खड़ी रहती है : बाहर से वह केंद्र में आने के लिये प्रयास करती है, नीचे से वह अपने अज्ञान और अंधापन के बोध्य तले दबी हुई उनसे ऊपर उठने के लिये जी-तोड़ संघर्ष करती है । साधारण चेतना यह नहीं

 

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जानती कि वास्तव में चीजें कैसी हैं; वह केवल ऊपरी छिलके को, कठोर आवरण को ही देखती हैं । परंतु सच्ची चेतना केंद्र मे, सद्वस्तु के हृदय में रहती हैं और समस्त गतिविधि और क्रिया-कलाप के मूल को अपनी सीधी दृष्टि से देखती है । अंदर और अपर रहते हुए यह सभी वस्तुओं और शक्तियों के मूल उद्गम, कारण और परिणाम को जानती हैं ।

 

  मै फिर दुहरा रही हूं, चेतना का यह मलटना आकस्मिक होता हैं । कोई चीज तुम्हारे अंदर खुल जाती हैं और तुम अपने को तुरत-फुरती एक नवीन जगत् मे पाते हो । यह परिवर्तन आरंभ सें हीं संभव हैं कि अंतिम और सुनिश्चित न हो इसे स्थायी रूप से जमाने और तुम्हारा सामान्य स्वभाव बनने के लिये समय की आवश्यकता होती हैं । परंतु एक बार परिवर्तन हो जाये तो वह तत्त्वतः, सदा के लिये बना रहता है; और उसके बाद जिस चीज की जरूरत होती हैं वह है  अपनी ठोस अभिव्यक्ति के लिये उसका पूर्ण ब्योरे के साथ कार्यान्वित होना । रूपांतरित चेतना की पहली अभिव्यक्ति हमेशा आकस्मिक प्रतीत होती है । तुम्हें यह नहीं लगता कि तुम धीरे-धीरे और क्रमश: एक चीज सें दूसरी चीज मे बदलते जा रहे होरा बल्कि यह अनुभव करते हो कि तुम एकाएक एक नयी चेतना में जाग्रत् हो गये हो या जन्म पा रहे हो । मन का कोई मी प्रयास यह परिवर्तन नहीं ला सकता; क्योंकि मन से तुम यह कल्पना हीं नहीं कर सकते कि यह क्या चीज है और मन का कोई मी वर्णन यथार्थ नहीं हों सकता ।

 

यही समस्त, सर्वांगीण रूपांतर का प्रारंभ है ।

 

('बुलेटिन', अगस्त १९५०)

 

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मृत्यु का भय और

उस पर विजय प्राप्त करने के चार साधन

 

   सामान्यत: मानव-प्रगति को रोकनेवाली सबसे बढ़ी बाधा शायद भय है; भय के रूप विविध तथा असंख्य होते हैं, वह अपने-आपमें विरोधयुक्त, तर्कहीन, अनुचित और प्रायः बुद्धि से विपरीत होता हैं । मृत्यु का भय सब प्रकार के भयों मे सबसे अधिक सूक्ष्म और हठी होता हैं । उसकी जड़ें अचेतना तक में गहरी पैठ होती हैं और वहां से उन्हें उखाड़ फेंकना आसान नहीं होता । प्रत्यक्ष हीं यह भय कई मिश्रित तत्त्वों से बना होता है; ये चीजें हैं, सुरक्षा की भावना, आत्म-रक्षा की चिंता जिसका भाव होता है कि चेतना का सूत्र लगातार सुनिश्चित रूप से चलता रहे, अज्ञात के प्रति घबराहट, अप्रत्याशित और अचिंत्य से उत्पन्न उद्वेग और शायद इस सबके पीछे कोषाणुओं की गहराई मे छिपी हुई यह सहज-भावना काम करती है कि मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं जिससे बचा न जा सके और यह मी कि यदि कुछ शर्ते पूरी की जा सकें तो उस पर विजय प्राप्त की जा सकतीं है; यद्यपि यह सत्य है कि स्वयं भय हीं इस विजय के मार्ग में एक भारी बाधा हैं । कारण, हम उसी पर विजय प्राप्त कर सकते हैं जिससे हम डरते नहीं, और जो मृत्यु से डरता है वह पहले से ही मृत्यु के दुरा विजित हो चुका है !

 

   इस भय से कैसे छुटकारा पाया जाये? इसके लिये कई तरीके काम मे लाये जा सकते हैं । किंतु अपने इस प्रयास के प्रारंभ मे हीं कुछ सहायक मूलभूत विचारों को जान लेना आवश्यक है । पहली और अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह जान लेना है कि जीवन अविभाज्य और अमर है, बस, उसके रूप अनगिनत होते हैं और वे रूप ही क्षणिक तथा नाशवान होते हैं । यह ज्ञान व्यक्ति को अपने मन मे शिक्षित और स्थायी रूप से जमा लेना चाहिये और यथासंभव अपनी चेतना को उस नित्य जीवन के साथ एकात्म कर लेना चाहिये जो सब रूपों सें स्वतंत्र है , पर फिर भी अपने-आपको सब रूपों में अभिव्यक्त करता है । इससे हमें यह आवश्यक मनोवैज्ञानिक आधार मिल जाता है जहां से समस्या का सामना किया जा सकता है , क्योंकि समस्या तो है हीं न ! आंतरिक सत्ता यदि इतनी पर्याप्त मात्रा में आलोकित हो भी जाये कि वह सब भैयों से अपर उठ जाये, तो भी शरीर के कोषाणुओं में भय छिपा ही रहेगा, अस्पष्ट और स्वत: चालित रूप में, बुद्धि की पकड़ से परे, प्रायः निक्षेतना-सा । इन्हीं अंधेरी गहराइयों मे से उसे ढूंढ निकालना होम, पकड़ना होगा और उस पर चेतना तथा विश्वास का प्रकाश डालना होगा ।

 

  इसलिये, जीवन का नाश तो नहीं होता, रूप अवश्य विघटित हो जाता है और शारीरिक चेतना इसी विघटन से भय खाती हैं । फिर भी, रूप लगातार परिवर्तित होते

 


रहते हैं और कोई मी वस्तु इस परिवर्तन को प्रगतिशील होने से नहीं रोक सकती । यह प्रगतिशील परिवर्तन हीं इस बात को संभव कर सकता हैं कि मृत्यु अनिवार्य न हों । पर यह कार्य है कठिन, और इसकी शर्ते बहुत कम लोग पूरी कर सकते हैं । इस प्रकार मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त करने की विधि व्यक्ति के स्वरूप या उसकी चेतना की अवस्थाओं के अनुसार, भित्र-भित्र होगी । इन विधियां को चार प्रमुख श्रेणियों में बांट सकते हैं और प्रत्येक श्रेणी में अनेक भेद-विभेद भी होंगे; सच तो यह है कि प्रत्येक को हीं अपनी प्रणाली अपने-आप विकसित करनी होगी ।

 

  पहली विधि बुद्धि सें संबंध रखती है । यह कहा जा सकता हैं कि संसार की वर्तमान अवस्था में मृत्यु अनिवार्य है; प्रत्येक शरीर जो जन्म लेता है , एक-न-एक दिन अवश्य हीं मृत्यु को प्राप्त होगा, और करीब-करीब सभी की मृत्यु तभी आती हैं जब उसे आना होता हैं; उसकी खड़ी को न कोई टाल सकता है और न कोई जल्दी ही छाल सकता है । जो उसका आना चाहता हैं उसे कभी-कभी बहुत लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती हैं और जो उससे डरता है वह, सब सावधानियां बरतते हुए भी, अचानक उसका ग्रास बन जा सकता हैं । मृत्यु की खड़ी अटल रूप मे नियत की हुई प्रतीत होती हैं, इसके अपवाद बहुत थोड़े-से ही लोग होते हैं जिनमें वे शक्तियां होती हैं जो कि साधारण मानव जाति मे नहीं पायी जाती । तर्क-बुद्धि यह सिखाती हैं कि जिस चीज से बचा नहीं जा सकता उससे डरना मूर्खता है । उपाय एक ही है, वह यह कि इस तथ्य को स्वीकार कर लिया जाये और दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण मनुष्य वही करे जो अच्छे-से-अच्छा कर सकता हैं और इसकी चिंता न करे कि आगे क्या होगा । यह प्रक्रिया उन बुद्धिवादियों के लिये अत्यंत फलदायी होती है जो तर्क-बुद्धि के नियमों के अनुसार काम करते हैं; किंतु जो भावुक लोग अपनी भावनाओं में निवास करते हैं और उन्हीं के द्वारा संचालित होते हैं, उनमें यह कम फलप्रद सिद्ध होगी । निःसंदेह, इन लोगों को दूसरी विधि अपनानी चाहिये, वह हैं आंतरिक खोज की । सब भावों से परे, हमारी सत्ता की नीरव और शांत गहराइयों मे एक प्रकाश सदा प्रज्ज्वलित रहता है, यह अंतरात्मा की चेतना का प्रकाश हैं । इस प्रकाश को खोजों, रस पर एकाग्र होओ; यह तुम्हारे अंदर ही है । दृढ़ संकल्प के द्वारा तुम निश्चय ही यह प्रकाश पाओगे और ज्यों ही तुम उसमें प्रवेश पाओगे, त्यों ही तुम अमरता की अवस्था के प्रति जाग्रत् हो जाओगे । तुम अनुभव करोगे कि तुम सदा हीं जीवित रहे हों और सदा ही जीवित रहोगे; उस अवस्था में तुम अपने शरीर सें पूर्णतया स्वतंत्र हो जाते हो इम्हारा चेतन अस्तित्व उस पर आश्रित नहीं रहता; और यह शरीर तो बहुत-से नाशवान रूपों मे से एक हैं जिनके द्वारा तुमने अपने-आपको अभिव्यक्त किया ! तर मृत्यु विनाश की अवस्था नहीं रहती, वह केवल एक संक्रमण की अवस्था हो जाती है । तत्काल हीं समस्त भय भाग जाता हैं और तुम मुक्त पुरुष की शांत नित्यता के साथ जीवन में आगे बढ़ते हो ।

 

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  तीसरी विधि उन लोगों के लिये है जो एक दिव्य अस्तित्व में-जिसे वे अपना भगवान् कहते हैं- श्रद्धा रखते हैं और जिसे वे अपने-आपको उसे समर्पित कर चुके होते हैं । ये लोग पूर्णतया उसी के होते हैं; उनके जीवन की सभी घटनाएं भागवत इच्छा की अभिव्यक्ति होती हैं, इन घटनाएं को वे केवल एक शांत समर्पण-भाव सें हीं नहीं, बल्कि कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हैं, कारण, उन्हें यह विश्वास रहता है कि जो कुछ भी उनके साथ घटता है वह सत्य  हो उनके भले के लिये होता है । उन्हें अपने भगवान् में तथा उसके साथ अपने वैयक्तिक संबंध में एक प्रकार का गुह्य विश्वास होता है। उन्होंने अपनी इच्छा पूर्ण रूप से भगवान् की इच्छा को अर्पित कर दी होती है और वे उसके अटल प्रेम और संरक्षण को अनुभव करते हैं, जीवन और मृत्यु की आकस्मिक घटना का उस प्रेम और विश्वास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । उनके अंदर सदा यह अनुभूति रहती है  कि बे पूर्ण आत्म-समर्पण के साथ अपने प्रियतम के चरणों मे प्रणत हैं अथवा उसकी बांहों मे आश्रय लिये हुए हैं और वहां पूर्ण सुरक्षा अनुभव कर रहे हैं । उनकी चेतना मे भय, चिंता या दुःख के लिये जस भी स्थान नहीं होता; इस सबका स्थान एक शांत और हर्षपूर्ण आनंद ले लेता  है ।

 

  किंतु प्रत्येक को गुह्यवेत्ता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता ।

 

  अंत मे, कुछ लोग जन्मजात योद्धा होते हैं; जीवन जैसा है उसे वे स्वीकार नहीं कर सकते, अपने अंदर वे एक अमरता के अधिकार का, इस धरती पर ही पूर्ण अमरता के अधिकार का स्पंदन अनुभव करते हैं । उनके अंदर एक प्रकार का सहज-ज्ञान होता है कि मृत्यु बस, एक बुरी आदत है और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने उसपर विजय प्राप्त करने का निलय लेकर जन्म लिया है । इस पर विजय का अर्थ होता है भयंकर और सूक्ष्म आक्रमणकारियों की सेना के विरुद्ध घोर युद्ध ऐसा युद्ध जो सदा हीं, यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक क्षण हीं, लड़ना पड़े । इस मोर्चे पर आने का खतरा उसी को उठाना चाहिये जिसमें इसके लिये .अदम्य उत्साह हो । इस युद्ध के कई मोर्चे हैं; यह कई स्तरों पर होता है जो आपस मे एक-दूसरे से मिले-जूले-से तथा एक-दूसरे के पूरक होते हैं ।

 

  पहला मोर्चा हीं काफी भीषण होता है । वह एक सामूहिक मन का युद्ध होता है, एक विशाल तथा अभिभूत और विनाश कर देनेवाले सुझाव के विरुद्ध, ऐसे सुझाव के विरुद्ध जो सहस्रों वर्ष के अनुभव पर आधारित है , प्रकृति के एक ऐसे नियम पर आधारित है  जिसका अभीतक कोई अपवाद देखने मे नहीं आता । वह एक ऐसी हठीली मान्यता का रूप धारण कर लेता है : ''सदा ही ऐसा होता रहा है , इससे भिन्न कुछ हों हीं नहीं सकता । मृत्यु अनिवार्य है, और यह आशा करना पागलपन है कि मृत्यु अनिवार्य नहीं होगी । '' यह राय सर्वसम्मत हैं और अभी तक तो किसी बड़े-से- बड़े विद्वान ने भी इसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाने का, भविष्य मे आशा देने का जस भी साहस नहीं किया हे । और जहांतक धर्मों की बात है, अधिकतर धर्मों ने तो मृत्यु

 

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के तथ्य को हीं अपनी कार्य-शक्ति का आधार बनाया है और वे कहते हैं कि यह भगवान् की इच्छा है कि मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो, क्योंकि उसीने उसे नश्वर बनाया है । इनमें से बहुत-से तो मृत्यु को उद्धार, मुक्त्ति और कभी-कभी तो पुरस्कार का रूप भी दे देते हैं । वै यह उपदेश देते हैं : 'सर्वोच्च' की इच्छा के आगे नत होकर मृत्यु के विचार को बिना किसी विद्रोह के स्वीकार करो, और तुम्हें शांति और सुख मिलेगा । यह सब होते हुए भी, मन को अपने विश्वास मे अटल रहना होगा, अपना संकल्प अटूट बनाये रखना होगा । किंतु जिसने मृत्यु पर विजय पाने का संकल्प कर लिया हैं उसपर ये सब सुझाव कोई प्रभाव नहीं डालते, उसकी निक्षयता एक गहरे प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित होती है और उस निक्षयता को ये सुझाव छू नहीं सकते ।

 

  दूसरा युद्ध होता है भावों का, यह उस आसक्ति के विरुद्ध युद्ध है जो उसकी अपनी बनायी हुई वस्तुओं के प्रति, अपनी प्रिय वस्तुओं के प्रति होती है । कठिन परिश्रम के परिणामस्वरूप, कभी-कभी तो कठोर प्रयत्न के फलस्वरूप, तुमने अपना घर बनाया होता है, अपना जीवन निर्माण किया होता है, अपना सामाजिक, साहित्यिक, कलात्मक, वैज्ञानिक या राजनीतिक कार्य शिक्षित किया होता है, तुमने एक ऐसे वातावरण की सृष्टि कर लीं होती है जिसके तुम मध्यबिंदु होते हो और जिसपर तुम कम-से-कम उतना हीं आश्रित होते हो जितना कि वह तुमपर होती है  । तुम व्यक्तियों के एक बड़े समूह द्वारा, कुटुम्बियों, मित्रों और सहकर्मियों द्वारा गिरे रहते हो और जब तुम अपने जीवन के विषय मे सोचते हो ये सब तुम्हारी विचार-धारा मे उतना हीं स्थान ग्रहण किये होते हैं जितना कि प्रायः तुम स्वयं ग्रहण किये होते हो यहांतक कि यदि ये अचानक तुमसे कु हटा दिये जायें तो तुम अपने-आपको खोया-खोया-सा अनुभव करने लगेगा मानों तुम्हारी अपनी सत्ता का एक बहुत महत्त्वपूर्ण भाग गायब हो गया हो ।

 

  इन सब वस्तुओं का त्याग करने -का प्रश्र ही नहीं है, क्योंकि इनसे, प्रायः अधिकांश मे, तुम्हारी सत्ता के धरातल का, तुम्हारे अस्तित्व के लक्ष्य का निर्माण होता है । किंतु त्याग करना है इनके प्रति अपनी आसक्ति का ताकि तुम इनके बिना रहने में समर्थ अनुभव कर सको, बल्कि, यदि ये तुम्हें छोड़ दें तो तुम अपने लिये नयी परिस्थितियों मे और अशिक्षित समय के लिये नया जीवन फिर से बनाने के लिये तैयार रह सको, क्योंकि यही अमरता का परिणाम है  । इस अवस्था का अर्थ होता हैं सब कुछ अधिकतम ध्यान तथा सावधानी से व्यवस्थित और संपन्न कर सकना, किंतु साध हीं कामना और आसक्तिमात्र से मुक्त्ति रहना; कारण, यदि तुम मृत्यु से बचना चाहते हो तो तुम्हें किसी भी नश्वर वस्तु सें बंधना नहीं चाहिये।

 

  भावनाओं के बाद संवेदन आते हैं । यहां लड़ाई निर्मम होती है और शत्रु भयंकर हो जाते हैं । वे तुम्हारी छोटी-से-छोटी दुर्बलता भी देख लेते हैं और वहीं आघात करते हैं जहां तुम असावधान होते हों । यहां विजय अस्थायी होती और वही लड़ाई अनिश्चित

 

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रूप से और बार-बार लड़नी पड़ती हैं । जिस शत्रु को तुम हारा हुआ समह्मते हो वह बार-बार तुम पर चोट करने के लिये उठ खड़ा होता हैं । यहां दृढ़ रूप मे सुधे हुए चरित्र की, अथक सहनशीलता की आवश्यकता होती हैं ताकि समस्त पराजय, निराशा, अस्वीकृति और निरुत्साह का तथा नित्यप्रति के अनुभवों और पार्थिव घटनाओं के परस्पर-विरोध सें उत्पत्र अपरिमित क्लांति का सामना किया जा सके ।

 

  अब हम सबसे अधिक भयंकर युद्ध पर आते हैं, यह है भौतिक युद्ध जो शरीर मे लड़ा जाता हैं; क्योंकि यह बिना दम लिये, बिना विराम के चलता रहता हैं । यह जन्म के साथ शुरू होता हैं और दोनों योद्धाओं-रूपांतर की शक्ति और विलयन की शक्ति-में से किसी एक की पराजय के साथ हीं समाप्त हों सकता है । मैंने जन्म से कहा, क्योंकि ये दोनों गतियां उसी क्षण से संघर्ष रत होती हैं जिस क्षण मनुष्य संसार मे आता है , यद्यपि संघर्ष सचेतन और सुविवेचित रूप बहुत बाद मे लेता है । क्योंकि हर अस्वस्थता, हर रोग, हर विकृति, यहां तक कि दुर्घटनाएं भी विलयन की शक्ति का परिणाम हैं, उसी तरह विकास, सामंजस्यपूर्ण विकास, आक्रमण का प्रतिरोध, रोग- मुक्ति, हर स्वाभाविक क्रिया की ओर लौटना, हर प्रगतिशील सुधार आदि रूपांतर की शक्ति की क्रिया का परिणाम हैं । बाद में चलकर, चेतना के विकास के साथ, जब युद्ध सुविवेचित हो जाता है , तब यह दो परस्पर-विरोधी गतिविधियों के बीच एक प्रचण्ड प्रतियोगिता होती हैं, यह देखने के लिये प्रतियोगिता होती है कि देखें, लक्ष्य तक कौन पहले पहुंचता है , मृत्यु या रूपांतर । इसका अर्थ हैं एक अंतहीन प्रयास, एक पुनरुद्धार शक्ति का आवाहन करने के लिये सतत एकाग्रता और इस शक्ति के प्रति कोषाणुओं मे ग्रहणशीलता की वृद्धि । हास और विनाश की शक्तियों के विरुद्ध पग-पग पर, एक-एक बिंदु पर युद्ध करना और हर उस चीज को जो प्रकाश देनेवाली, शुद्ध करनेवाली और स्थिर करनेवाली अपर उठती हुई प्रवृत्ति को प्रत्युत्तर देने की क्षमता रखती हैं, ऐसी हर चीज को उसकी पकडू से छीन लेना । यह एक अंधकारपूर्ण और हठी संघर्ष है जिसका अधिकतर कोई प्रत्यक्ष परिणाम नहीं दिखायी देता, किन्हीं आशिक और सदा अनिखित विजयों का कोई बाहरी चिह्न नहीं दिखायी देता-क्योंकि हमेशा यहीं लगता है कि जो काम किया गया है उसे दोबारा करना होगा । बहुधा, जब एक पग आगे बढ़ता हैं तो उसके लिये कहीं और पीछे हटना होता है। एक दिन जो काम पूरा हो जाता है दूसरे दिन उसी को उधेड़ जा सकता है । वस्तुतः, शिक्षित और स्थायी विजय तभी हो सकतीं बे जब वह संपूर्ण हों और इस सबमें समय लगता है , बहुत समय ! वर्ष-पर-वर्ष बड़ी कठोरता के साथ चलते चले जाते हैं और विरोधी शक्तियों का बल बढ़ाते जाते हैं ।

 

  इस सारे समय चेतना खाई मै संतरी की तरह खड़ी रहती है : तुम्हें डटे रहना चाहिये, हर कीमत पर डटे रहना चाहिये, भय के कंपन के बिना, जागरूकता में कमी लाये बिना, जो लक्ष्य सिद्ध करना हैं उस पर, और ऊपर से आनेवाली प्रेरणा और

 

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सहारा देनेवाली सहायता पर अटल श्रद्धा के साथ डटे रहना चाहिये । विजय सबसे अधिक सहनशील को ही मिलेगी ।

 

  मृत्यु के भय पर विजय पाने का एक और मी तरीका हैं, लेकिन वहांतक इतने कम लोगों की पहुंच हैं कि यहां उसका उल्लेख केवल एक सूचना के रूप में किया जाता हैं । वह है जानबूझकर और सचेतन रूप से मृत्यु के क्षेत्र में जीते जी प्रवेश करना, और फिर उस लोक से लौटकर भौतिक शरीर में वापिस आना, और पूर्ण ज्ञान के साथ भौतिक सत्ता के जीवन-क्रम को फिर से अपना लेना । लेकिन इसके लिये तुम्हें दीक्षित होना चाहिये ।

 

('बुलेटिन', फरवरी १९५४)

 

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'मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त करने के चार साधन'-विषयक

 

लेख के अंतिम अनुच्छेद पर किये गये

 

प्रश्नों का उत्तर

 

 

    जो भी प्रश्र किये गये हैं वे इस एक हीं प्रश्र मे ढाले जा सकते हैं : वह कौन- सा ज्ञान है या अनुशासन है जो निर्भयतापूर्वक मृत्यु का सामना करने की सामर्थ्य प्रदान करता है?

 

  अभी तक यहां ज्ञान की इस प्रणाली के विषय मे, जो साथ-हीं-साथ कार्य की प्रणाली भी है, कुछ नहीं कहा गया है, क्योंकि इस ज्ञान का अध्ययन तथा अभ्यास सबके हाथों मे नहीं सौंपा जा सकता । गुह्य शक्तियों के बारे मे बात करने का अधिक मूल्य नहीं है; मनुष्य को उन्हैं अनुभव मे लाना चाहिये । और यह अनुभव केवल उन क्षमताओं की ही मांग नहीं करता जो केवल बहुत क्रम लोगों को प्राप्त हैं, वरन उस मनोवैज्ञानिक विकास की भी मांग करता है जिसे बहुत कम लोग प्राप्त कर सकते हैं । आधुनिक जगत् मे यह ज्ञान कदाचित् ही वैज्ञर्ग़नेक माना जाता हैं, फिर भी यह वैज्ञानिक है, क्योंकि यह उन सब शर्तों को पूरा करता है जो सामान्यत: विज्ञान मे आवश्यक मानी जाती हैं । यह ज्ञान की एक ऐसी पद्धति है जो कुछ सद्धांतों के अनुसार व्यवस्थित की गयी है; यह कुछ यथार्थ क्रियाओं का अनुसरण करती हैं और व्यक्ति समान अवस्थाओं मे समान हीं परिणाम प्राप्त करता है । साथ ही, यह एक विकसनशील ज्ञान  । मनुष्य इसके अध्ययन में जुट सकता है और इसे नियमित और युक्तिपूर्ण ढंग से विकसित भी कर सकता है, बिलकुल उन दूसरे विज्ञानों की तरह, जिन्हें आज का संसार विज्ञान मानता है । केवल एक भेद है कि यह अध्ययन उन वास्तविकताओं के साध संबंध रखता है जो अत्यधिक भौतिक संसार की वस्तुएं नहीं हैं । यदि तुम यह ज्ञान सीखना चाहते हो तो तुम्हारे पास विशेष इंद्रियां होनी चाहिये । क्योंकि इसके क्षेत्र साधारण इंद्रियों से परे हैं । ये विशेष इंद्रियां मनुष्य के अंदर सुप्तावस्था मे विद्यमान हैं । जिस प्रकार हमारा एक भौतिक शरीर है, उसी प्रकार अन्य सूक्ष्मतर शरीर भी हैं और इनकी भी अपनी इंद्रियां हैं; ये इंद्रियां हमारी भौतिक इंद्रियों से कहीं अधिक सूक्ष्म, यथार्थ तथा शक्तिशाली हैं । क्योंकि हमारी शिक्षा इस क्षेत्र के साथ संबंध रखने की अभ्यस्त नहीं है, स्वभावत: हीं ये इंद्रियां साधारणतया विकसित नहीं होती और जिन जगतों मे ये कार्य करती हैं वे हमारी सामान्य चेतना की पहुंच से परे हैं । पर बच्चे, सहज-स्वाभाविक रूप मे हीं, अधिकतर इसी जगत् मे निवास करते हैं, वे वहां उन सब प्रकार की वस्तुओं की देखते हैं जो उनके लिये भौतिक वस्तुओं के समान हीं वास्तविक हैं; वे उनके विषय मै बातें भी करते हैं, किंतु उनसे प्रायः यहीं कहा जाता है कि वे मूर्ख अथवा झूठे हैं, कारण, वे उन विषयों के

 

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बारे मे बातें करते हैं जिनका दूसरों को कुछ अनुभव नहीं, पर जो उनके अपने लिये उतने ही सच्चे, गोचर और वास्तविक हैं जितनी कोई और चीज जिसे सब देख सकते हैं । बच्चे, सोते या जागते हुए जो स्वप्न देखते हैं वे भी बड़े सजीव होते हैं और उनके जीवन के लिये अत्यंत महत्त्व रखते हैं । अत्यधिक मानसिक विकास के बाद हीं ये शक्तियां बच्चों मे मंद पडू जाती हैं तथा कभी-कभी विलीन होकर समाप्त भी हो जाती हैं । फिर भी कुछ ऐसे सौभाग्यशाली लोग भी हैं जो सहज रूप मे विकसित आंतरिक इंद्रियों के साथ हीं जन्मे हैं, और इस बात का कोई कारण नहीं कि ये इंद्रियां जाग्रत् न रहें या विकसित न हों । यदि उन लोगों की, ठीक समय पर, किसी ऐसे मनुष्य के साथ भेंट हो जाये जिसे यह ज्ञान प्राप्त है और जो उनकी सूक्ष्म इंद्रियों की विधिवत् शिक्षा मे उन्हें सहायता पहुंचा सके, तो वे गुह्य जगतों के अध्ययन और खोजों के लिये रोचक यंत्र बन सकते हैं ।

 

  सभी युगों मे, पृथ्वी पर कुछ ऐसे इक्के-दुक्के व्यक्ति या छोटे समुदाय हुए हैं जो अति प्राचीन परंपरा के रक्षक थे तथा जिन्द्रोंने अपने अनुभवों द्वारा उस परंपरा की पुष्टि की थीं; ये इस प्रकार के विज्ञान का अभ्यास भी किया करते थे । वे ऐसी आत्माओं को खोजते थे जिन्हें विशेष रूप से यह शक्ति प्राप्त हो, और उन्हें आवश्यक शिक्षा देते थे । साधारणतया ये समुदाय थोड़ा-बहुत गुप्त या रहस्यमय जीवन व्यतीत करते थे, क्योंकि साधारण लोग इस प्रकार की क्षमताओं और क्रियाओं के प्रति बहुत असहिष्णु होते हैं, ये उनकी बुद्धि से परे की चीजें होती हैं तथा उन्हें भयभीत कर देती हैं । तब भी मानव इतिहास मे ऐसे महान् युग हुए हैं जब इस विद्या की दीक्षा देनेवाली संस्थाएं स्थापित हुई और उन्हें मान्यता भी मिली; लोग उन्हें उपयोगी समझते तथा उनका मान करते थे । इस प्रकार की संस्थाएं प्राचीन मिस्र देश, प्राचीन कैल्डिया और भारतवर्ष मै तथा आशिक रूप मे यूनान और रोम मे भी थीं; मध्यकालीन यूरोप मे गी ऐसे विद्यालय थे जो गुह्यविद्या की शिक्षा देते थे; किंतु इन्हें बडी सावधानी सें अपने- आपको गुप्त रखना पड़ता था, क्योंकि ईसाई धर्म, जो कि राजधर्म था, इनका पीछा करता तथा इन्हें दंडित करता था । और यदि दुर्भाग्यवश यह पता लग जाता कि कोई खी या पुरुष इस गुह्यविद्या का अभ्यास करता वे तो वह चिता पर चढ़ा दिया जाता था और उसे जादूगर समझकर जीवित जला दिया जाता था । अब यह ज्ञान लुप्तप्राय हो गया है; बहुत ही कम लोग अब इस विद्या को जानते हैं । किंतु ज्ञान के साथ- साथ, असहिष्णुता भी चली गयी है । यह सत्य है कि हमारे समय मे अधिकतर शिक्षित लोग इस विद्या को स्वीकार करना नहीं चाहते या इसे कोरी कल्पना कहकर दबा देते हैं, यहांतक कि, इसे ढोंग समह्मते हैं, ताकि वे अपने अज्ञान और अपनी उस व्याकुलता को अपने से छुपा सकें जो वे अनुभव करते यदि उन्हें एक ऐसी शक्ति की वास्तविकता को स्वीकार करना पड़ता जिसके ऊपर उनका कोई वश नहीं है । साथ ही उन लोगों मे भी जो उसे अस्वीकार नहीं करते, अधिकतर को ऐसी चीजों से कोई

 

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विशेष प्रेम नहीं होता; ये उन्हें उलझन और चिंता मे डाल देती हैं । किंतु अंत में उन्हें यह मानना पड़ा कि यह कोई अपराध नहीं है । जो लोग गुह्यविद्या का अभ्यास करते हैं वे अब चिता पर नहीं चढ़ाये जाते और न हीं बंदीगृह मे डाले जाते हैं । केवल एक बात हैं कि अब, चूंकि छुपाने की आवश्यकता नहीं रही, बहुत-से लोग दावा करने लगे हैं कि यह सान उन्हें प्राप्त है, किंतु ऐसे बहुत कम लोग हैं जो इसे सचमुच जानते हों । उस रहस्य से लाभ उठाकर, जो पहले गुह्यविद्या को आच्छादित किये हुए था, कुछ महत्त्वकांक्षी लोग, जिन्हें सत्य असत्य की कोई चिंता नहीं होती, रहस्यी- करण और ठगी के साधन के रूप में इसका प्रयोग करने लगे हैं । किंतु उन्हें देखकर ही इस विद्या के विषय में अपना विचार बना लेना उचित नहीं, क्योंकि वे तो इसे जानने का झूठा दावा करते हैं । मानव कार्य-व्यवहार के सभी क्षेत्रों में नीम-हकीम तथा ठग विद्यमान हैं; किंतु उनके पाखंड को एक ऐसी सच्ची विद्या पर लांछन नहीं लगाना चाहिये जिसके प्राप्त होने का वे झूठा अभिमान करते हैं । इसी कारण, इस विद्या की उन्नति के महान् युगों मे, जब ऐसे विद्यालय विद्यमान थे और जहां इसका अभ्यास होता था, जो कोई इस विद्या को सीखना चाहता था उसे प्रविष्ट होने से पहले बहुत लंबे समय तक, कमी-कभी तो वर्षों तक, अत्यंत कठोर, दोहरे अनुशासन, अर्थात् आत्म-विकास तथा आत्म-संयम का अनुसरण करना पड़ता था । एक ओर तो अभीक्ष्ण के आशयों की सच्चाई तथा निःस्वार्थता, उसके उद्देश्यों की पवित्रता, आत्म- विस्मृति और अहंनिषेध की उसकी योग्यता, त्याग की भावना तथा निरहंकारता के संबंध मे यथासंभव निक्षय प्राप्त किया जाता था, - इस प्रकार उसकी अभीप्सा की उच्चता तथा श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाती थी, - और दूसरी ओर प्रार्थी को कई परीक्षाओं मे से गुजरना पड़ता था जिसका उद्देश्य यह निक्षित करना होता था कि क्या उसकी क्षमताएं पर्याप्त हैं और वह उस विद्या का अभ्यास, जिसके लिये वह अपने-आपको समर्पित करना चाहता हैं, बिना किसी खतरे के कर सकता है? ये परीक्षाएं विशेषतया व्यक्ति की लालसाओं और कामनाओं पर संयम, एक अचल शांति की स्थापना और सबसे बढ़कर पूर्ण निर्भयता पर आग्रह करती थीं, क्योंकि इस कार्य मे पूर्ण निर्भयता सुरक्षा की आवश्यक शर्त हैं ।

गुह्यविद्या, अपने एक पक्ष मे, एक प्रकार की रसायनविद्या है जो आंतरिक विस्तार में शक्तियों की क्रीड़ा तथा जगतों एवं वैयक्तिक आकारों की रचना में प्रयुक्त की जाती हैं । और जिस प्रकार भौतिक रसायनविद्या मे विशेष पदार्थों का व्यवहार खतरे से खाली नहीं हैं, उसी प्रकार गुह्य जगतों में भी कुछ विशेष शक्तियों का प्रयोग करने तथा उनसे संपर्क रखने मे खतरा है, यह तभी अहानिकर हों सकता हैं जब व्यक्ति शांत और अविचल रह सके ।

 

    एक अन्य पक्ष से देखें तो गुह्य विद्या एक अन्वेषक के लिये अज्ञात प्रदेशों की खोज तथा अनुसंधान के समान हैं जिनके नियम तथा विधि-विधान वह प्रायः कष्ट

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उठाकर ही सीखता हैं । कुछ प्रदेश तो नये जिज्ञासु के लिये काफी भयावह भी होते हैं, वह अपने-आपको नये और अदृष्ट संकटों से घिरा पाता हैं । फिर भी, उनमें से अधिकतर संकट उतने सत्य नहीं हैं जितने काल्पनिक, और जो लोग उनका सामना निडरता से करते हैं उनके लिये वे अपनी अधिकांश वास्तविकता खो देते हैं ।

 

      प्रत्येक अवस्था मे, सभी युगों मे, यह परामर्श दिया जाता रहा हैं कि किसी ऐसे गुरु से शिक्षा लेनी चाहिये जो अनुसरणीय पथ दिखा सके, संकटों से सावधान कर सके, चाहे वे काल्पनिक हों या नहीं, और समय पडूने पर रक्षा कर सके ।

 

     इसलिये यहां इस विद्या की कुछ और बारीकियों के विषय में कहना कठिन है, सिवाय इसके कि गुह्यविद्या के अध्ययन का अनिवार्य आधार सत्ता की अनेक अवस्थाओं तथा आंतरिक जगतों के मूर्त एवं गोचर सत्य की स्वीकृति है, जो चार या अनेक आयामोंवाले व्योमों के सिद्धांत का मनोवैज्ञानिक प्रयोग है ।

 

     इस प्रकार गुह्यविद्या की परिभाषा यों की जा सकती हैं : यह विद्या, आकारों के जगत् में, उस चीज का मूर्त विषयीकरण हैं जिसकी शिक्षा आध्यात्मिक भ्रनुशासन शुद्ध मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण सें देते हैं । इन दोनों को, विकास और समग्र कर्म की पूर्णता के लिये, एक-दूसरे का पूरक होना चाहिये । आध्यात्मिक अनुशासन के बिना गुह्य ज्ञान एक ऐसा उपकरण हैं जो यदि अपवित्र हाथों मे पडू जाये तो उस व्यक्ति के लिये जौ उसे प्रयोग मे लाता हैं तथा अन्यों के लिये भी संकटपूर्ण हों जाता हैं । उधर गुह्यविद्या के बिना आध्यात्मिक ज्ञान के बाह्य प्रभावों मे यथार्थता और निश्चितता का अभाव रहता है; यह केवल आत्मनिष्ठ जगत् मे हीं सर्वशक्तिमान है । ये दोनों जब कर्म मे, चाहे वह आंतरिक हो या बाह्य, संयुक्त हो जाते हैं, तो अदम्य हो जाते हैं और अतिमानसिक शक्ति की अभिव्यक्ति के योग्य यंत्र बन जाते हैं ।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९५४)

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'मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त करने के चार साधन'-विषयक

लेख के अंतिम अनुच्छेद पर किये गये

 

प्रश्नों का उत्तर

 

  जो भी प्रश्र किये गये हैं बे सब इस एक हीं प्रश्र मे ढालें जा सकते हैं : वह कौन- सा ज्ञान है या अनुशासन है जो निर्भयतापूर्वक मृत्यु का सामना करने की सामर्थ्य प्रदान करता है?

 

  अभी तक यहां ज्ञान की इस प्रणाली के विषय मे, जो साथ-हीं-साथ कार्य की प्रणाली भी है , कुछ नहीं कहा गया है, क्योंकि इस ज्ञान का अध्ययन तथा अभ्यास सबके हाथों मे नहीं सौंपा जा सकता । गुह्य शक्तियों के बारे मे बात करने का अधिक मूल्य नहीं है; मनुष्य को उन्हैं अनुभव मे लाना चाहिये । और यह अनुभव केवल उन क्षमताओं की ही मांग नहीं करता जो केवल बहुत क्रम लोगों को प्राप्त हैं, वरन उस मनोवैज्ञानिक विकास की भी मांग करता है जिसे बहुत कम लोग प्राप्त कर सकते हैं । आधुनिक जगत् मे यह ज्ञान कदाचित् ही वैज्ञर्ग़नेक माना जाता हैं, फिर भी यह वैज्ञानिक है , क्योंकि यह उन सब शर्तों को पूरा करता है जो सामान्यत: विज्ञान मे आवश्यक मानी जाती हैं । यह ज्ञान की एक ऐसी पद्धति है जो कुछ सद्धांतों के अनुसार व्यवस्थित की गयी है; यह कुछ यथार्थ क्रियाओं का अनुसरण करती हैं और व्यक्ति समान अवस्थाओं मे समान हीं परिणाम प्राप्त करता है । साथ ही, यह एक विकसन शील ज्ञान है । मनुष्य इसके अध्ययन मे जुट सकता है और इसे नियमित और युक्तिपूर्ण ढंग से विकसित भी कर सकता है , बिलकुल उन दूसरे विज्ञानों की तरह, जिन्हें आज का संसार विज्ञान मानता है । केवल एक भेद है कि यह अध्ययन उन वास्तविकताओं के साध संबंध रखता है जो अत्यधिक भौतिक संसार की वस्तुएं नहीं हैं । यदि तुम यह ज्ञान सीखना चाहते हो तो तुम्हारे पास विशेष इंद्रियें होनी चाहिये । क्योंकि इसके क्षेत्र साधारण इंद्रियों से परे हैं । ये विशेष इंद्रियां मनुष्य के अंदर सुप्तावस्था मे विद्यमान हैं । जिस प्रकार हमारा एक भौतिक शरीर है, उसी प्रकार अन्य सूक्ष्मतर शरीर भी हैं और इनकी भी अपनी इंद्रियां हैं; ये इंद्रियां हमारी भौतिक इंद्रियों से कहीं अधिक सूक्ष्म, यथार्थ तथा शक्तिशाली हैं । क्योंकि हमारी शिक्षा इस क्षेत्र के साथ संबंध रखने की अभ्यस्त नहीं है , स्वभावत: हीं ये इंद्रियां साधारणतया विकसित नहीं होती और जिन जगतों मे ये कार्य करती हैं वे हमारी सामान्य चेतना की पहुंच से परे हैं । पर बच्चे, सहज-स्वाभाविक रूप मे हीं, अधिकतर इसी जगत् मे निवास करते हैं, वे वहां उन सब प्रकार की वस्तुओं की देखते हैं जो उनके लिये भौतिक वस्तुओं के समान हीं वास्तविक हैं; वे उनके विषय मै बातें भी करते हैं, किंतु उनसे प्रायः यहीं कहा जाता है कि वे मूर्ख अथवा झूठे हैं, कारण, वे उन विषयों के

 


बारे मे बातें करते हैं जिनका दूसरों को कुछ अनुभव नहीं, पर जो उनके अपने लिये उतने ही सच्चे, गोचर और वास्तविक हैं जितनी कोई और चीज जिसे सब देख सकते हैं । बच्चे, सोते या जागते हुए जो स्वप्न देखते हैं वे भी बड़े सजीव होते हैं और उनके जीवन के लिये अत्यंत महत्त्व रखते हैं । अत्यधिक मानसिक विकास के बाद हीं ये शक्तियां बच्चों मे मंद पंडू जाती हैं तथा कभी-कभी विलीन होकर समाप्त भी हो जाती हैं । फिर भी कुछ ऐसे सौभाग्यशाली लोग भी हैं जो सहज रूप मे विकसित आंतरिक इंद्रियों के साथ हीं जन्म हैं, और इस बात का कोई कारण नहीं कि ये इंद्रियां जाग्रत् न रहें या विकसित न हों । यदि उन लोगों की, ठीक समय पर, किसी ऐसे मनुष्य के साथ भेंट हो जाये जिसे यह ज्ञान प्राप्त है और जो उनकी सूक्ष्म इंद्रियों की विधिवत् शिक्षा मे उन्हें सहायता पहुंचा सके, तो बे गुह्य जगतों के अध्ययन और खोजों के लिये रोचक यंत्र बन सकते हैं ।

 

   सभी युगों मे, पृथ्वी पर कुछ ऐसे इक्के-दुक्के व्यक्ति या छोटे समुदाय हुए हैं जो अति प्राचीन परंपरा के रक्षक थे तथा जिन्हेंने अपने अनुभवों द्वारा उस परंपरा की पुष्टि की थीं; ये इस प्रकार के विज्ञान का अभ्यास भी किया करते थे । वे ऐसी आत्माओं को खोजते थे जिन्हें विशेष रूप से यह शक्ति प्राप्त हो, और उन्हें आवश्यक शिक्षा देते थे । साधारणतया ये समुदाय थोड़ा-बहुत गुप्त या रहस्यमय जीवन व्यतीत करते थे, क्योंकि साधारण लोग इस प्रकार की क्षमताओं और क्रियाओं के प्रति बहुत असहिष्णु होते हैं, ये उनकी बुद्धि से परे की चीजें होती हैं तथा उन्हें भयभीत कर देती हैं । तब भी मानव इतिहास मे ऐसे महान् युग हुए हैं जब इस विद्या की दीक्षा देनेवाली संस्थाएं स्थापित हुई और उन्हें मान्यता भी मिली; लोग उन्हें उपयोगी समझते तथा उनका मान करते थे । इस प्रकार की संस्थाएं प्राचीन मिस्री देश, प्राचीन कुल्हिया और भारतवर्ष मै तथा आशिक रूप मे यूनान और रोग मे भी थीं; मध्यकालीन यूरोप मे गिर ऐसे विद्यालय थे जो गुह्यविद्या की शिक्षा देते थे; किंतु इन्हें बड़ी सावधानी सें अपने- आपको गुप्त रखना पड़ता था, क्योंकि ईसाई धर्म, जो कि राजधर्म था, इनका पीछा करता तथा इन्हें दंडित करता था । और यदि दुर्भाग्यवश यह पता लग जाता कि कोई खो या पुरुष इस गुह्यविद्या का अभ्यास करता है तो वह चिता पर चढ़ा दिया जाता था और उसे जादूगर समझकर जीवित जला दिया जाता था । अब यह ज्ञान लुप्तप्राय हो गया है; बहुत ही कम लोग अब इस विद्या को जानते हैं । किंतु ज्ञान के साथ- साथ, असहिष्णुता भी चली गयी है । यह सत्य है कि हमारे समय मे अधिकतर शिक्षित लोग इस विद्या को स्वीकार करना नहीं चाहते या इसे कोरी कल्पना कहकर दबा देते हैं, यहांतक कि, इसे ढोंग समह्मते हैं, ताकि बे अपने अज्ञान और अपनी उस व्याकुलता को अपने से छुपा सकें जो है अनुभव करते यदि उन्हें एक ऐसी शक्ति की वास्तविकता को स्वीकार करना पड़ता जिसके ऊपर उनका कोई वश नहीं है। साथ ही उन लोगों मे भी जो उसे अस्वीकार नहीं करते, अधिकतर को ऐसी चीजों से कोई

 

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विशेष प्रेम नहीं होता; ये उन्हें उलझन और चिंता मे डाल देती हैं । किंतु अंत मे उन्हें यह मानना पड़ा कि यह कोई अपराध नहीं है। जो लोग गुह्यविद्या का अभ्यास करते हैं वे अब चिता पर नहीं चढ़ाये जाते और न हीं बंदीगृह मे डाले जाते हैं । केवल एक बात हैं कि अब, चूंकि छुपाने की आवश्यकता नहीं रही, बहुत-से लोग दावा करने लगे हैं इकी यह सान उन्हें प्राप्त है , किंतु ऐसे बहुत कम लोग हैं जो इसे सचमुच जानते हों । उस रहस्य से लाभ उठाकर, जो पहले गुह्यविद्या को आच्छादित किये हुए था, कुछ महत्त्वकांक्षी लोग, जिन्हें सत्य असत्य की कोई चिंता नहीं होती, रहस्य- रण और ठगी के साधन के रूप मे इसका प्रयोग करने लगे हैं । किंतु उन्हें देखकर ही इस विद्या के विषय मे अपना विचार बना लेना उचित नहीं, क्योंकि है तो इसे जानने का झूठा दावा करते हैं । मानव कार्य-व्यवहार के सभी क्षेत्रों में नीम-हकीम तथा ठग विद्यमान हैं; किंतु उनके पाखंड को एक ऐसी सच्ची विद्या पर लांछन नहीं लगाना चाहिये जिसके प्राप्त होने का वे झूठा अभिमान करते हैं । इसी कारण, इस विद्या की उन्नति के महान् युगों मे, जब ऐसे विद्यालय विद्यमान थे और जहां इसका अभ्यास होता था, जो कोई इस विद्या को सीखना चाहता था उसे प्रविष्ट होने से पहले बहुत लंबे समय तक, कमी-कभी तो वर्षों तक, अत्यंत कठोर, दोहरे अनुशासन, अर्थात् आत्म-विकास तथा आत्म-संयम का अनुसरण करना पड़ता था । एक ओर तो अभीक्ष्ण के आशयों की सच्चाई तथा निःस्वार्थता, उसके उद्देश्यों की पवित्रता, आत्म- विस्मृति और अहनिषेध की उसकी योग्यता, त्याग की भावना तथा निरहंकारता के संबंध मे यथासंभव निक्षय प्राप्त किया जाता था, - इस प्रकार उसकी अभीप्सा की उच्चता तथा श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाती थी, - और दूसरी ओर प्रार्थी को कई परीक्षाएं मे से गुजरना पड़ता था जिसका उद्देश्य यह शिक्षित करना होता था कि क्या उसकी क्षमताओं पर्याप्त हैं और वह उस विद्या का अभ्यास, जिसके लिये वह अपने-आपको समर्पित करना चाहता हैं, बिना किसी खतरे के कर सकता है? ये परीक्षाएं विशेषतया व्यक्ति की लालसा और कामनाओं पर संयम, एक अचल शांति की स्थापना और सबसे बढ़कर पूर्ण निर्भयता पर आग्रह करती थीं, क्योंकि इस कार्य मे पूर्ण निर्भयता सुरक्षा की आवश्यक शर्त हैं।

 

   गुह्यविद्या, अपने एक पक्ष मे, एक प्रकार की रसायनविद्या है जो आंतरिक विस्तार में शक्तियों की क्रीड़ा तथा जगतों एवं वैयक्तिक आकारों की रचना में प्रयुक्त की जाती हैं । और जिस प्रकार भौतिक रसायनविद्या मे विशेष पदार्थ का व्यवहार खतरे से खाली नहीं हैं, उसी प्रकार गुह्य जगतों में भी कुछ विशेष शक्तियों का प्रयोग करने तथा उनसे संपर्क रखने मे खतरा है, यह तभी अहानिकर हों सकता हैं जब व्यक्ति शांत और अविचल रह सके ।

 

   एक अन्य पक्ष से देखें तो गुह्य विद्या एक अन्वेषक के लिये अज्ञात प्रदेशों की खोज तथा अनुसंधान के समान हैं जिनके नियम तथा विधि-विधान वह प्रायः कष्ट

 

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उठाकर ही सीखता हैं । कुछ प्रदेश तो नये जिज्ञासु के लिये काफी भयावह भी होते हैं, वह अपने-आपको नये और अदृष्ट संकटों से घिरा पाता हैं । फिर भी, उनमें से अधिकतर संकट उतने सत्य नहीं हैं जितने काल्पनिक, और जो लोग उनका सामना निडरता से करते हैं उनके लिये है अपनी अधिकांश वास्तविकता खो देते हैं ।

 

  प्रत्येक अवस्था मे, सभी युगों मे, यह परामर्श दिया जाता रहा हैं कि किसी ऐसे गुरु से शिक्षा लेनी चाहिये जो अनुसरणीय पथ दिखा सके, संकटों से सावधान कर सके, चाहे वे काल्पनिक हों या नहीं, और समय पडूने पर रक्षा कर सके ।

 

  इसलिये यहां इस विद्या की कुछ और बारीकियों के विषय में कहना कठिन है, सिवाय इसके कि गुह्यविद्या के अध्ययन का अनिवार्य आधार सत्ता की अनेक अवस्थाओं तथा आंतरिक जगतों के मूर्त एवं गोचर सत्य की स्वीकृति है, जो चार या अनेक आयामोंवाले व्योमों के सिद्धांत का मनोवैज्ञानिक प्रयोग है ।

 

  इस प्रकार गुह्यविद्या की परिभाषा यों की जा सकती हैं : यह विद्या, आकारों के जगत् मे, उस चीज का मूर्त विषयीकरण हैं जिसकी शिक्षा आध्यात्मिक अनुशासन शुद्ध मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण सें देते हैं । इन दोनों को, विकास और समग्र कर्म की पूर्णता के लिये, एक-दूसरे का पूरक होना चाहिये । आध्यात्मिक अनुशासन के बिना गुह्य ज्ञान एक ऐसा उपकरण हैं जो यदि अपवित्र हाथों मे पंडू जाये तो उस व्यक्ति के लिये जौ उसे प्रयोग मे लाता हैं तथा अन्यों के लिये भी संकटपूर्ण हों जाता हैं । उधर गुह्यविद्या के बिना आध्यात्मिक ज्ञान के बाह्य प्रभावों मे यथार्थता और निश्चितता का अभाव रहता है; यह केवल आत्मनिष्ठ जगत् मे हीं सर्वशक्तिमान है । ये दोनों जब कर्म मे, चाहे वह आंतरिक हो या बाह्य, संयुक्तता हो जाते हैं, तो अदम्य हो जाते हैं और अतिमानसिक शक्ति की अभिव्यक्ति के योग्य यंत्र बन जाते हैं ।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९५४)

 

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एक स्वप्न

 

   संसार मे एक ऐसा स्थान होना चाहिये जिसे कोई देश या राष्ट्र अपनी संपत्ति न कह सके, ऐसा स्थान जहां सब लोग पूरी स्वतंत्रता से विश्व नागरिक बनकर एकमात्र सत्ता-परम सत्य की आज्ञा का पालन करते हुए रह सकें; वह शांति, एकता और सामंजस्य का स्थान होगा जहां मनुष्य की सारी युद्ध-वृत्तियों का उपयोग दुःख और दर्द को जितने मे, अपनी कमज़ोरियों और अज्ञान पर प्रभुत्व प्राप्त करने मे, तथा अपनी सीमाओं और अशक्यताओं पर विजय प्राप्त करने मैं होगा; ऐसा स्थान जहां मामूली इच्छाओं और आवेगों की तृप्ति तथा भौतिक सुख और आमोद-प्रमोद की अपेक्षा आत्मा की आवश्यकताओं और प्रगति को अधिक महत्त्व दिया जायेगा । इस स्थान पर, बच्चे अपनी आत्मा के साथ संबंध खोये बिना समग्र रूप से बढ़ और विकसित हो सकेंगे; शिक्षा भी यहां परीक्षाएं मे उत्तीर्ण होने, प्रमाणपत्र प्राप्त करने अथवा ऊंचे पद पाने के लिये नहीं दी जायेगी, वह विभिन्न क्षमताओं को बढ़ाने और नयी क्षमताओं को प्रकट करने मे सहायता देगी । इस स्थान पर सेवा करने और संगठित करने के अवसर उपाधियों और पदो का स्थान ले लेंगे । प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताओं को समान रूप से पूरा किया जायेगा । सामान्य अवस्था में मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक श्रेष्ठता जीवन के सुखों व शक्तियों के बढ़ावे मे नहीं, बल्कि कर्तव्यों और जिम्मेदारियों की वृद्धि मे अभिव्यक्ति पायेगी । सभी लोगों को सभी प्रकार का कलात्मक सौंदर्य, चित्रकला, शिल्प, संगीत, साहित्य आदि समान रूप से प्राप्य होगा । इस कलात्मक सौंदर्य का आनंद प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक या आर्थिक परिस्थिति के बल पर नहीं, बल्कि अपनी आंतरिक क्षमताओं के अनुपात मे हीं प्राप्त कर सकेगा । क्योंकि इस आदर्श स्थान में धन सम्राट नहीं होगा; भौतिक संपत्ति तथा सामाजिक पद की अपेक्षा व्यक्तित्व का अधिक मूल्य होगा । यहां पर काम आजीविका के लिये नहीं, बल्कि अपने-आपको अभिव्यक्त करने और अपनी क्षमताओं तथा संभावनाओं को विकसित करने के लिये होगा, साथ हीं यह काम पूरे समुदाय के लिये भी होगा । दूसरी ओर, समुदाय हर एक के निर्वाह तथा कार्यक्षेत्र का प्रबंध करेगा । संक्षेप में, यह ऐसा स्थान होगा जहां मानव संबंध, जो प्रायः ऐकांतिक रूप से प्रतियोगिता और संघर्ष पर आधारित होते हैं, अधिक अच्छा करने की स्पर्धा तथा सहयोग में और भ्रातृ-भाव में बदल जायेंगे ।

 

  निश्चय हीं पृथ्वी अभी ऐसे आदर्श को चरितार्थ करने के लिये तैयार नहीं है , क्योंकि अभीतक मानव के पास इसे समह्मने और स्वीकार करने के लिये आवश्यक ज्ञान नहीं है, न इसे कार्यान्वित करने के त्रिये अनिवार्य सचेतन शक्ति हीं हैं; इसीलिये मैं इसे स्वप्न कहती हूं !

 

  फिर भी यह स्वप्न वास्तविकता बनने की तैयारी में है । हम श्रीअरविन्दाश्रम में

 


अपने मर्यादित साधनों के अनुसार एक छोटे पैमाने पर यही करने का प्रयास कर रहे हैं । उपलब्धि अभी पूर्णता से काफी कु है, फिर भी प्रगति हो रहीं है; धीरे-धीरे हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं । हम आशा करते हैं कि एक दिन वर्तमान दुर्व्यवस्था में से निकल कर अधिक सत्य और अधिक समस्वर नये जीवन में प्रवेश करने के लिये हम इसे संसार के सामने एक क्रियात्मक और प्रभावशाली साधन के रूप में रख सकेंगे।

 

 ('बुलेटिन', अगस्त १९५४)

 

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मानवजाति का उपकार

 

  जो व्यक्ति पूर्ण योग की साधना करना चाहता है  उसके लिये मानवजाति की भलाई अपने-आप मे लक्ष्य नहीं हो सकती, यह तो केवल एक परिणाम और फल है । मानव-अवस्थाओं को सुधारने के समस्त प्रयत्न, उन्हीं अवस्थाओं के द्वारा प्रेरित तीव्र उत्साह और लगन के होते हुए मी, अंत में बुरी तरह असफल हीं हुए हैं । इसका कारण यह है कि मानव जीवन की अवस्थाओं का रूपांतर केवल तभी हो सकता हैं जब उससे पहले एक प्रारंभिक रूपांतर, अर्थात् मनुष्यों की चेतना का रूपांतर साधित हों जाये, या कम-से-कम उन थोड़े-से विशिष्ट व्यक्तियों की चेतना का रूपांतर तो हो हीं जाये जो एक अधिक व्यापक रूपांतर का आधार तैयार कर सकते हों ।

 

  किंतु इस विषय पर हम थोडी देर बाद आयेंगे; यह हमारे विषय का उपसंहार होगा । पहले तो मैं इसके दो प्रभावशाली दृष्टांत के विषय मे कुछ कहूंगी जो सच्चे परोपकारी व्यक्तियों के दृष्टांत से लिये गये हैं ।

 

  ये दो दृष्टांत दो प्रसिद्ध व्यक्तियों के हैं जो विचार और कर्म के दो छोरों का प्रतिनिधित्व करते हैं । उन दो उत्कृष्ट मानव आत्माएं ने, जिनकी अभिव्यक्ति एक संवेदनशील एवं दयालु हृदय के रूप में हुई थीं, मानवजाति का कष्ट अनुभव किया और उनकी अंतरात्माओं में एक-सा संवेदन उत्पन्न हुआ । दोनों ने अपना समस्त जीवन अपने मनुष्य-सथियों के कष्ट निवारण के उपाय की खोज मे अर्पण कर दिया । और दोनों का यह विश्वास था कि उन्होंने यह उपाय ढूंढ लिया हैं । किंतु दोनों के समाधान, जो परस्पर विरोधी कहे जा सकते हैं, अपने-अपने ढंग से अपूर्ण और आशिक होने के कारण असफल रहे और मनुष्य के कष्ट भी वैसे-के-वैसे ही बने रहे।

 

  एक उदाहरण पूर्व का है-राजकुमार सिद्धार्थ का जो पीछे बुद्ध कहलाये और दूसरा पश्चिम का- श्री वैसा (Monsieur Vincent) जिन्हें उनकी मृत्यु के बाद लोगों ने संत वैसा द पोल की उपाधि दी । कहा जा सकता है कि ये दोनों मानवीय चेतना के दो छोरों पर स्थित थे । इनके उपकार के ढंग पूर्णतया एक-दूसरे के विरोधी थे, फिर भी दोनों का यह विश्वास था कि मुक्ति आत्मा के द्वारा, उस परम सत्ता के दुरा ही हो सकतीं है जो विचार से परे हैं; एक उसे भगवान् कहते थे और दूसरे निर्वाण ।

 

  संत वैंसां द पोल का विश्वास अत्यंत उत्कट था और उन्होंने अपने साथियों को भी यही उपदेश दिया कि मनुष्य को अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिये । किंतु जब वह मानवीय दुःखों के संपर्क मे आये तो उन्हें शीघ्र हीं ज्ञात हो गया कि आत्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्य के पास उसे खोजने के लिये समय होना चाहिये । जिन लोगों को प्रातः से सायं तक और कभी-कभी सायं से प्रातः तक भी, जरा-सी कमाई के लिये, जो उन्हें जीवित रखने के लिये मी शायद ही पर्याप्त होती हो, कठोर परिश्रम करना पड़ता है, उन्हें अपनी आत्मा के विषय में सोचने का अवकाश हीं कहां मिलता है?

 


तब बे अपने दयालु हृदय की सरलता के साध इस निर्णय पर पहुंचे कि जिन लोगों के पास आवश्यकता सै अधिक धन हैं, वे यदि, कम-से-कम, गरीब लोगों की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर दें तो दुःखी लोगों को अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिये समय मिल सकता है । वे सामाजिक कार्यों के गुण तथा प्रभाव मे, एक सक्रिय एवं भौतिक उपकार मे विश्वास रखते थे । उनकी यह धारणा थीं कि दुःख का अंत तभी हो सकता हैं जब अधिकतर व्यक्ति कष्ट से मुक्त हों जायें, अधिक-से- अधिक व्यक्तियों का, अधिकतम व्यक्तियों का दुःख-मोचन हो जाये । किंतु यह केवल शामक औषध हैं, दुःख का इलाज नहीं । तथापि जिस पूर्ण लगन और आत्म- त्याग के साथ संत वैसा ने अपना कार्य किया था, उसने इन्हें मानव इतिहास में एक अत्यधिक उज्ज्वल और प्रभावशाली व्यक्ति बना दिया । किंतु फिर भी ऐसा प्रतीत होता हैं कि उनके प्रयत्नों ने दीन और असहाय मनुष्यों की संख्या बढ़ायी हीं, घटाती नहीं । यह सत्य है कि उनके उपदेशों का एक बड़ा ठोस परिणाम यह हुआ कि धनिकों के एक विशेष वर्ग के मन में उपकार को एक दृढ़ भावना उत्पन्न हो गयी और इसी कारण जिन लोगों का उपकार किया गया उनकी अपेक्षा उपकार करनेवालों को अधिक लाभ पहुंचा ।

 

  चेतना के ठीक दूसरे छोर पर थे उच्च और पावन करुणावाले बुद्ध । उनके अनुसार कष्ट जीवन का ही परिणाम हैं और वह जीवन को नष्ट करने से ही नष्ट हो सकता है । क्योंकि जगत् और जीवन मनुष्य की जीवित रहने की इच्छा का परिणाम एवं अज्ञान का फल हैं; इच्छा का नाश करो, अज्ञान को  करो और तब जगत् और उसके साथ-ही-साथ दुःख और कष्ट भी विलुप्त हो जायेंगे । एकाग्रता के महान प्रयत्न के दुरा उन्होंने एक साधना का, एक ऐसी उच्चतम और अत्यंत प्रभावशाली साधना का विकास किया जो मुक्ति के पिपासुओं को इससे पहले कभी उपलब्ध नहीं हुई थीं । लाखों मनुष्यों ने उनकी शिक्षा को स्वीकार किया, यद्यपि ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम थीं जो उसे व्यवहार में भी ला सकते हों । किंतु संसार की अवस्था अब भी वैसी हीं है , मानवीय कष्टों में कहीं मी कोई विशेष कमी दृष्टिगोचर नहीं होती ।

 

  तब भी लोगों ने उनके प्रति कृतज्ञता और सम्मान का भाव प्रकट करने के लिये एक को संत की उपाधि प्रदान की है और दूसरे को देवता का पद । किंतु बहुत हीं कम ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हेंने सच्चे दिल से उस शिक्षा या आदर्श को, जो उनके सामने रखा गया था, व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न किया हो, यद्यपि ऐसा करना हीं कृतज्ञता-प्रदर्शन का एकमात्र वास्तविक ढंग है । पर, यदि ऐसा हुआ भी होता, तो भी मनुष्य-जीवन की स्थिति मे कोई प्रत्यक्ष सुधार न होता । कारण, सहायता करना कोई इलाज नहीं हैं, न हीं पलायन का अर्थ है विजय । शारीरिक कष्टों का निवारण-यह समाधान संत वैसा द पोल का था-किसी भी प्रकार मनुष्यों को उनके दुःखों ३ग़ैर कष्टों से मुक्त नहीं कर सकता; कारण, समस्त मानव कष्ट भौतिक अभावों से हीं नहीं

 

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उत्पत्र होते और न हीं केवल बाह्य साधनों दुरा  किये जा सकते हैं । बात इससे बिलकुल दूसरी हैं । शारीरिक कुशल-क्षेम से हीं आवश्यक रूप मे सुख और शांति नहीं मिलती, दरिद्रता मी आवश्यक रूप मे कोई दुःख का कारण नहीं हैं, जैसा कि उन सुप्रस्वियों के उदाहरण से स्पष्ट है जो दरिद्रता को अपनाते थे, जो अपनी अकिंचनता को हीं पूर्ण शांति और आनंद का स्रोत एवं कारण समझते थे । ऐसे उदाहरण सभी देशों मे मिलते हैं । इसके विपरीत, संसार के सुखों का उपभोग भी-उन सब सुखों का जिन्हें स्थूल धन सुख, आराम और बाह्य संतोषों के रूप में अपने साथ लाता है-उस मनुष्य को दुःख और कष्ट के आक्रमण सें नहीं बचा सकता जिसके पास ये सब वस्तुएं हों ।

 

  दूसरा समाधान, जो बुद्ध का हैं, अर्थात् जीवन से पलायन भी समस्या का हल नहीं कर सकता । यह मान भी लिया जाये कि बहुत-से व्यक्ति इस साधना का अभ्यास करके अंतिम मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, तब मी इसके द्वारा पृथ्वी से दुःख का लोप नहीं हो सकता, न हीं दूसरों के, अर्थात् उन सबके कष्ट हीं किये जा सकते हैं जो अभी इस निर्वाण-पथ का अनुगमन करने मे समर्थ नहीं ।

 

वस्तुत: सच्ची प्रसन्नता वह है जिसे मनुष्य प्रत्येक स्थिति मे, चाहे वह कैसी भी हो, अनुभव कर सके, क्योंकि वह जिस लोक से आती हैं उस पर बाह्य अवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं पंडू सकता । किंतु वह प्रसन्नता बहुत कम लोगों के हिस्से मे आती है, अधिकतर लोग तो अभीतक पार्थिव अवस्थाओं के वश मे हैं । अतएव हम कह सकते हैं कि एक ओर तो मानव चेतना मे परिवर्तन होना अत्यंत आवश्यक है, और दूसरी ओर, पार्थिव वायुमंडल के पूर्ण रूपांतर के बिना मनुष्य-जीवन की अवस्थाओं मे कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं हो सकता । हर हालत में उपाय एक ही है : पृथ्वी पर तथा मनुष्य में, एक साथ हीं, एक नयी चेतना की अभिव्यक्ति होनी चाहिये । इस संसार में अतिमानसिक चेतना का अवतरण और उसके साथ-ही-साथ एक नयी शक्ति, नये प्रकाश और बल का प्रादुर्भाव ही मनुष्य को उस दुःख, पीड़ा और कष्ट से मुक्त्ति कर सकता हैं जिसमें वह आपादमस्तक डूबा पड़ा हैं । कारण, केवल अतिमानसिक चेतना ही पृथ्वी पर एक उच्चतर संतुलन, एक अधिक पवित्र और सच्चा प्रकाश उतार कर रूपांतर के महान चमत्कार को साधित कर सकतीं हैं ।

 

इस नयी अभिव्यक्ति के लिये हीं प्रकृति यत्नशील हैं । किंतु इसके मार्ग यातनापूर्ण हैं और प्रगति अनिश्चित उसे स्थान-स्थान पर रुकना और पीछे हटना पड़ता है, यहांतक कि उसका सच्चा प्रयोजन समझना भी कठिन ही जाता हैं । फिर मी, यह अधिकाधिक स्पष्ट हो रहा हैं कि वह मनुष्यजाति मे से एक नयी जाति, अतिमानसिक जाति का प्रादुर्भाव करना चाहती हैं; हंस जाति का मनुष्य के साथ वही आनुपातिक संबंध होगा जो मनुष्य का पशु के साथ है । किंतु इस रूपांतर के लिये, एक नयी जाति के सृजन के लिये अंधे परीक्षण और अन्वेषण करने में सदियां लग सकतीं हैं; जब कि मनुष्य की विवेकपूर्ण इच्छा-शक्ति से यह कार्य न केवल थोड़े समय में ही,

 

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किंतु बिना अपव्यय और हानि के भी साधित हो सकता हैं ।

 

  ठीक इसी प्रसंग में पूर्णयोग के उपयुक्त्त स्थान और उसकी उपयोगिता का पता चलता है । कारण, योग का उद्देश्य एकाग्रताऔर प्रयत्न की तीव्रता के दुरा उस विलंब पर विजय प्राप्त करना  जिसे काल किसी भी आमूल रूपांतर और नये सृजन के कार्य पर थोप देता है ।

 

  पूर्णयोग का अर्थ यह नहीं हैं कि व्यक्ति इस भौतिक जगत् को स्थिर रूप सें इसके भाग्य पर छोड्कर इससे मांग खड़ा हों । न ही यह योग भौतिक जीवन को, जिस रूप मे यह है, बिना किसी निक्षयात्मक परिवर्तन की आशा के स्वीकार हीं करता है । यह जगत् को भागवत इच्छा की अंतिम अभिव्यक्ति के रूप मे अंगीकार नहीं करता ।

 

   पूर्णयोग का ध्येय हैं चेतना की सब पीढ़ियों पर, साधारण मानसिक चेतना से लेकर अतिमानसिक और भागवत चेतना तक, आरोहण करना और जब यह आरोहण पूरा हो जाये तो वापिस इस जड़ जगत् की ओर लौटना और इस प्रकार से प्राप्त अतिमानसिक शक्ति और चेतना को इसमें संचारित करना, ताकि यह पृथ्वी क्रमश: अतिमानसिक और दिव्य जगत् में रूपांतरित हो जाये ।

 

   पूर्णयोग विशेषकर उन लोगों के प्रति अभिमुख होता है जिन्हेंने वह सब कुछ पा लिया है जिसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है, लेकिन फिर भी संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि वे जीवन से उस चीज की मांग करते हैं जो वह नहीं दे सकता । जो अज्ञात को जानने के लिये आतुर हैं, जो पूर्णता के लिये अभीप्सा करते हैं, जो अपने से वेदनाप्रद प्रश्र पूछते हैं और जिन्हें उनका कोई शिक्षित उत्तर नहीं मिलता, ठीक वही लोग पूर्णयोग के लिये तैयार कहे जा सकते हैं ।

 

  कुछ ऐसे आधारभूत प्रश्र भी हैं जिन्हें वे लोग, जो मानवजाति के भाग्य में रुचि रखते हैं और प्रचलित सद्धांतों से संतुष्ट नहीं हैं, अनिवार्य रूप में, अपने से पूछते हैं । उन्हें इन शब्दों में रखा जा सकता है

 

यदि मरना हीं हैं तो जन्म क्यों लिया जाये?

यदि दुःख ही भोगना है तो जीवन क्यों धारण करें?

यदि वियोग हीं होना है तो प्रेम क्यों किया जाये?

यदि स्व ही करनी है तो विचार क्यों करें?

यदि गलतियां हीं करनी हैं तो कार्य क्यों करें?

 

    इनका समुचित उत्तर केवल एक ही हो सकता हैं  कि अवस्थाएं वैसी नहीं हैं जैसी होनी चाहिये । और ये विरोध केवल अनिवार्य ही नहीं हैं, बल्कि इनका उपाय भी हो सकता हैं और एक दिन ये कभी हो जायेंगे । कारण जगत् का वर्तमान स्वरूप ऐसा नहीं हैं कि उसका समाधान न हो सके । पृथ्वी संक्रमण-काल में सें मुजर रही हैं । यह काल मानवीय चेतना को लंबा अवश्य प्रतीत होता हैं, क्याकि उसकी अपनी अवधि बहुत अल्प हैं। पर सनातन चेतना के लिये यह बहुत छोटा हैं । यह काल

 

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अतिमानसिक चेतना के प्रकट होने के साथ ही समाप्त हो जायेगा । तब असंगति का स्थान सुसंगति ले लेगी और विरोध का स्थान समन्वय ले लेगा ।

 

  यह नयी सृष्टि, अनिमानवजाति का यह प्रादुर्भाव, अत्यधिक अनुमान और विवाद का  विषय रहा है । अतिमानव कैसा होगा इस विषय में थोड़े-बहुत रोचक रूपकों की कल्पना करने मैं मनुष्य को आनंद आता हैं । किंतु ''समान' ' हीं ''समान' ' को जानता हैं। दिव्य प्रकृति की चेतना को फल रूप मे प्राप्त करके ही व्यक्ति यह सोच सकता है कि उस दिव्य प्रकृति की अभिव्यक्ति का क्या रूप होगा । तथापि, जिन लोगों ने इस चेतना को अपने अंदर उपलब्ध कर लिया है बे सामान्यत: अतिमानव का वर्णन करने की अपेक्षा इस बात के लिये अधिक उत्सुक हैं कि स्वयं अतिमानव बन जायें ।

 

  फिर भी, यह बताना होगा कि अतिमानव निश्चित रूप में क्या नहीं होगा, ताकि मार्ग में आनेवाली कुछ भ्रांतियों से बचा जा सके । उदाहरणार्थ, मैंने कहीं पढ़ा है कि अतिमानवजाति अपने फल रूप मे कूर तथा संवेदनको होगी । चूंकि अतिमानव दुःख- कष्टों से अपर होंगे, वे दूसरों के दुःख-कष्टों को कोई महत्त्व नहीं देंगे, हैं  उन्हें उनकी अपूर्णता और हीनता का लक्षण समझें । निःसंदेह, जो ऐसा सोचते हैं वे अतिमानव और मानव के संबंध को उसी भाव से देखते हैं जिस भाव सें एक मनुष्य अपने हीन साथी-प्राणियों, अर्थात् पशुओं को देखता हैं । किंतु यह व्यवहार उच्चता का प्रमाण होना तो छू रहा, अचेतनता और मूर्खता का एक निशित लक्षण है । यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि ज्यों ही मनुष्य ऊंचे स्तर पर पहुंचता हैं, वह पशुओं के प्रति दया अनुभव करने लगता हैं तथा उनकी दशा सुधारने का प्रयत्न करता  हैं । किंतु इस बात में अतिमानव संवेदनशील हों जाता हैं , सत्य का कुछ अंश अवश्य है; वह यह कि उस उच्चतर जाति में अहंभावयुक्त्त, दुर्बल और भावुक प्रकार की दया नहीं होगी जिसे मनुष्य उदारता कहते हैं । यह दया उतनी फलप्रद नहीं, जितर्नो हानिकारक हैं । इसका स्थान एक ऐसी प्रबुद्ध और सशक्त करुणा ले लेगी जिसका प्रयोजन केवल कष्टों का सच्चा इलाज करना होगा, न कि उन्हें स्थायी बनाना ।

 

  इसके अतिरिक्त, यह विचार इस बात पर प्रकाश डालता है कि पृथ्वी पर प्राणिक सत्ताओं के आधिपत्य का क्या रूप होगा । हैं सत्ताएं अपनी प्रकृति में अमर हैं और अपनी क्षमताओं में मनुष्य से कहीं अधिक शक्तिशाली, किंतु वे अपनी संकल्पशक्ति में भगवान् की अटल विरोधिनी मी हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व मे उनका कार्य भगवान् की प्राप्ति को तबतक टालते रहना वे जबतक कि इस प्राप्ति के यंत्र, अर्थात् मनुष्य सब बाधाओं को पार करने के लिये पर्याप्त रूप मे पवित्र, सशक्त और पूर्ण नहीं हो जाते । बेचारी पीड़ित पृथ्वी को ऐसे अशुभ आधिपत्य की संभावना से सचेत कर देना शायद सर्वथा अनुपयोगी न हो ।

 

  जबतक अतिमानव स्वयं आकर मनुष्य को अपने सच्चे स्वभाव का प्रमाण न दे दे,

 

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प्रत्येक सद्भावनापूर्ण व्यक्ति के लिये बुद्धिमत्ता का काम यह होगा कि वह उन सबके बारे मे सचेतन हो जाये जिसे वह सर्वाधिक सुन्दर, श्रेष्ठ, सत्य, पवित्र, उज्ज्वल तथा उत्कृष्ट समझता है; वह इस बात की अभीप्सा करे कि यह विचार संसार तथा अन्य व्यक्तियों के परम हित के लिये उसके अंदर चरितार्थ हो जाये ।

 

 ('बुलेटिन', नवम्बर १९५४)


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 स्त्रियों की समस्या

 

  मैं आज स्रियों की समस्या के विषय में कुछ कहना चाहती हूं । यह समस्या देखने - में तो उतनी ही पुरानी है जितनी की मनुष्यजाति, परंतु अपने मूत्र में यह इससे भी ' बहुत अधिक पुरानी हैं। कारण, यदि कोई एक ऐसे नियम को ढूंढना चाहे जो इसका शासन तथा समाधान करता हैं , तो उसे विश्व के उद्गम तक, बल्कि सृष्टि के भी परे जाना होगा ।

 

  कुछ प्राचीनतर परंपराएं, संभवत: प्राचीनतम परंपराएं विश्व की उत्पत्ति का कारण 'सर्वोच्च सत्ता' का वह संकल्प बताती हैं जो आत्मनिष्ठ रूप में अपने-आपको व्यक्त करने के लिये होता हैं। ऐसा प्रतीत होता हैं कि इस विषयीकरण का पहला कार्य था सृजनात्मक 'चेतना' का प्रकट होना । यह सत्य है कि ये प्राचीन परंपराएं अभ्यासवश ही 'सर्वोच्च सत्ता' की पुल्लिंग के रूप में और 'चेतना' की सीलिंग के रूप में चर्चा करती हैं तथा इस आदि भाव को ही पुरुष और स्त्री के विभेद का स्रोत बना देती हैं, इसी के दुरा वे पुरुष को स्त्री पर प्रधानता भी दे देती हैं, जब कि वास्तविक बात यह हैं कि अभिव्यक्ति सें पहले दोनों हीं एक, अभिद्रव तथा सहवर्ती थे । पुरुष-सत्ता ने हीं पहला निर्णय किया और उसी ने उस निर्णय को चरितार्थ करने के लिये सर्वसत्ता को जन्म भी दिया । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि स्त्री-सत्ता के बिना सृष्टि-कार्य नहीं हो सकता, तो पुरुष-सत्ता के प्रारंभिक निश्चय के बिना स्त्री-सत्ता का आविर्भाव भी नहीं हो सकता ।

 

  निश्चय ही, यहां यह प्रश्र किया जा सकता हैं कि क्या यह व्याख्या कुछ अत्यधिक मानवीय नहीं हैं । किंतु, सच्ची बात यह है कि समस्त व्याख्याएं ही, जो कि मनुष्य कर सकता हैं, कम-से-कम अपने बाह्य स्वरूप में, अवश्य हीं मानवीय होगी । कारण, कुछ असाधारण व्यक्ति उस ' अज्ञेय' ओर ' अचिंत्य' की ओर अपनी आध्यात्मिक चढ़ाई में मानव प्रकृति से ऊपर जा सके हैं तथा अपनी खोज के ध्येय के साथ, एक उच्च तथा एक प्रकार की अकल्पनीय अनुभूति में, एक हों सके हैं, किंतु ज्यों हीं उन्होंने अपनी उपलब्धि से दूसरों को लाभ पहुंचाना चाहा, उन्हें उसे सूत्रबद्ध करना पड़ा और उनके सूत्र को तब ग्राह्य बनने के लिये मानवीय और प्रतीकात्मक होना पड़ा । फिर भी, यह प्रश्र किया जा सकता है कि क्या ये अनुभव और इनके दुरा प्रदर्शित सत्य प्रधानता के उस भाव के लिये उत्तरदायी हैं जो पुरुष खिल के प्रति हमेशा बनाये रखता है, या, इसके विपरीत, सामान्य रूप से प्रचलित यह प्रधानता का भाव हीं अनुभूतियों के सूत्रबद्ध रूप के लिये उत्तरदायी हैं...

 

  बहरहाल, यह तथ्य तो निर्विवाद ही है कि पुरुष अपने-आपको बढ़ा सम्मतता है तथा अपना प्रभुत्व जमाना चाहता हैं, उधर स्त्री अपने-आपको उत्पीड़ित अनुभव करती हैं और फिर परोक्ष या अपरोक्ष रूप में विद्रोह करती है; और इन दोनों का यह झगड़ा

 

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युग-यग सें चला आ रहा हो यह स्व मे एक हीं हैं, पर अनगिनत रूप-रंगों मे प्रकट होता हैं ।

 

  यह तो मानो हुई बात हैं कि पुरुष सारा दोष स्त्री पर थोपता है और उसी प्रकार स्त्री सारा दोष पुरुष पर थोपती हैं । पर, वास्तव में, दोष समान रूप में दोनों का मानना चाहिये और दोनों में से किसी को भी अपने-आपको दूसरों से बढ़ा मानने का गर्व नहीं करना चाहिये । बल्कि जबतक प्रधानता और हीनता का यह विचार छू नहीं कर दिया जायेगा तबतक कोई भी वस्तु या कई भी व्यक्ति इस भ्रांति को दूर नहीं कर सकेगा जो मानवजाति को दो विरोधी शिविरों मे बांट देती है, और न तबतक समस्या का कोई समाधान हीं हो पायेगा ।

 

  इस समस्या पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है । इस पर इतने दृष्टिकोण से विचार किया गया है कि इसके सब पक्षों का विवेचन करने के लिये एक पोथा भी पर्याप्त न होगा । साधारणतया, सिद्धांत बहुत अच्छे होते हैं और हर एक के अपने- अपने गुण भी होते हैं, किंतु व्यवहार में ये उतने सुखदायी नहीं सिद्ध होते । मुझे नहीं मालूम कि सफलता के स्तर पर हम पाषाण-युग से कुछ आगे बढ़े हैं या नहीं । कारण, पारस्परिक संबंध मे पुरुष और स्त्री एक दूसरे के पूरी तरह निरंकुश स्वामी और साथ हीं कुछ दयनीय दास भी होते हैं ।

 

  हां, सचमुच दास; क्योंकि जबतक मनुष्य में इच्छाएं हैं, अभिरुचि और आसक्तिया हैं, तबतक वह इन वस्तुओं का और उन व्यक्तियों का भी दास बे जिन पर वह इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये निर्भर रहता है ।

 

  अतएव, स्त्री पुरुष की दासी इसलिये हैं कि वह पुरुष और उसके बल के प्रति आकर्षण अनुभव करती हैं , उसके अंदर घर बसाने की इच्छा होती हैं, वह घर से प्राप्त होनेवाली सुरक्षा को चाहती हैं, और अंत में उसके अंदर मातृत्व के प्रति मोह भी होता है । इधर पुरुष भी स्त्री का दास हैं , अधिकार-भावना के कारण, शक्ति और प्रभुत्व की तृष्णा के कारण, काम-वासना की तृप्ति की इच्छा तथा विवाहित जीवन की छोटी- मोटी सुख-सुविधाओं के प्रति आसक्ति के कारण ।

 

  इसलिये कोई भी कानून स्त्री को तबतक बंधनमुक्त्त नहीं कर सकता जबतक वह स्वयं हीं बंधनमुक्त्त न हो जाये; इसी प्रकार पुरुष भी अधिकार जमाने की आदतों के होते हुए तबतक दासता से मुक्त नहीं हो सकता जबतक वह अपने अंदर की सारी दासता से मुक्त न हो जाये ।

 

  यह गुप्त संघर्ष की अवस्था जिसे प्रायः कोई स्वीकार नहीं करता; किंतु जो, अच्छे-सें-अच्छे दृष्टांत मे भी, सदा अवचेतन में उपस्थित रहती है, तबतक अनिवार्य प्रतीत होती हैं, जबतक मनुष्य पूर्ण चेतना के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिये, 'सर्वोच्च सत्ता' के साथ एक होने के लिये, अपनी सामान्य चेतना से ऊपर नहीं उठ जाते । कारण, जब तुम उस उच्च चेतना को प्राप्त कर लेते हो तो देखते हो कि

 

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पुरुष और स्त्री का भेद केवल शारीरिक भेद रह जाता हैं ।

 

  हो सकता हैं कि वस्तुतः, प्रारंभ में पृथ्वी पर एक विशुद्ध पुल्लिंग और एक विशुद्ध सीलिंग का प्रतिरूप रहा हो, प्रत्येक के अपने-अपने स्पष्ट भिन्न प्रकार के गुण रहे होंगे, किंतु समय के प्रवाह में अनिवार्य मिश्रण, आनुवंशिकता, पुत्रों का माता से सादृश्य और पुत्रियों का पिता से सादृश्य, सामाजिक उन्नति, एक ही व्यवसाय-इन सबने मिलकर हमारे समय में एक विशुद्ध प्रतिरूप को पाना दुर्लभ कर दिया हैं । सब पुरुष अपने कई पक्षों में स्त्री-सदृश हैं । इसी प्रकार सब स्त्रियों भी कई गुणों के ख्याल से, विशेषतया आधुनिक समाज में, पुरुष-सदृश हैं । दुर्भाग्य से, शारीरिक आकृति के कारण झगड़े की आदत चली आ रही हैं, बल्कि प्रतिदुंदिता की भावना के कारण शायद बढ़ भी गयी है ।

 

  पुरुष और स्त्री , दोनों हीं अपने अच्छे क्षणों में लिंग-भेद मूल जाते हैं, किंतु जरा-सी उत्तेजना पाते हीं वह भेद फिर से आ जाता है; स्त्री अनुभव करने लगती हैं कि वह स्त्री है, और पुरुष तो यह जानता ही हैं कि वह पुरुष है और झगड़ा फिर अशिक्षित अवधि के लिये, किसी-न-किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष स्तर पर चलने लगता है और प्रकट रूप में जितना कम स्वीकार किया जाता है उतना हीं कटु होता है । कोई पूछ सकता है कि क्या यह झगड़ा तबतक ऐसा ही न चलता रहेगा जबतक पुरुष और स्त्री न रहकर ऐसी जीवंत आत्माएं नहीं बन जाते जो लिंग-रहित शरीर में अपने एक ही अमित्र स्रोत को अभिव्यक्त करती हों ।

 

  कारण, हम एक ऐसे संसार का स्वप्न देखते हैं जिसमें अंततः, ये सब विरोध विलीन हों जायेंगे, जहां केवल एक ऐसी सत्ता हीं जीवित रह सकेगी तथा उन्नति को प्राप्त होगी जो उस सबका, जो मानव सृष्टि मे सर्वश्रेष्ठ है, सामंजस्यपूर्ण समन्वय होगी और जो अखंड चेतना एवं क्रिया मे, विचार एवं कार्यान्वित में, अंतर्दृष्टि एवं सृजन मे एकत्व लाभ कर लेगी ।

 

  जबतक समस्या का यह सुखद और आमूल समाधान नहीं हो जाता, भारतवर्ष और बातों की भांति इस बात में भी उन प्रचंड विरोधात्मक भेदों का देश रहेगा जिन्हें फिर भी एक अत्यंत व्यापक एवं विस्तृत समन्वय में परिणत किया जा सकता है ।

 

  वस्तुतः, क्या भारतवर्ष मे ही उस परम जननी की अत्यधिक तीव्र भक्ति और पूर्ण उपासना नहीं की जाती जो विश्व को बतानेवाली और शत्रुओं पर विजय पानेवाली हैं, जो समस्त देवताओं और समस्त जगतों की माता है, सकल-वरदायिनी है?

 

   और क्या भारत में ही हम स्त्री -तत्त्व, 'प्रकृति', अर्थात् 'माया' की अत्यंत आमूल रूप में निंदा और उसके प्रति अत्यधिक घृणा प्रदर्शित होते नहीं देखते, क्योंकि वह एक विकारजनक भ्रम हैं तथा समस्त दुःख और पतन का कारण हैं, अर्थात् ऐसी प्रकृति हैं जो विमोहित और कलुषित करती हैं तथा व्यक्ति को भगवान् सें ले जाती है?

 

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भारतवर्ष का सारा जीवन हीं इस विरोध से सराबोर हैं; वह अपने मन और हृदय, दोनों में इससे पीड़ित हैं । यहां, सर्वत्र, मंदिरों में देवियों की मूर्तिया प्रतिष्ठित हैं, मां दुर्गा हैं हीं भारतवर्ष की संतानें मुक्ति और मोक्ष की आशा करती हैं । और फिर भी एक भारतवासी ने ही यह कहा है कि अवतार कभी स्त्री के शरीर में जन्म नहीं लेगा, क्योंकि तब कोई विचारवान हिंदू उसे न पहचान पायेगा! पर यह प्रसन्नता की बात हैं कि भगवान् इस संकीर्ण सांप्रदायिक भावना सें प्रभावित नहीं होते और न ही इन तुच्छ विचारों द्वारा प्रेरित होते हैं । जब उनकी पार्थिव शरीर में अवतरित होने की इच्छा होती है तो वह इस बात की परवाह कम ही करते हैं कि लोग उन्हें पहचानेंगे या नहीं । इसके अतिरिक्त, ऐसा प्रतीत होता है कि अपने सब अवतारों में उन्होंने विद्वानों की अपेक्षा बच्चों और सरल हृदयों को अधिक पसंद किया हैं।

 

  जो भी हों, जबतक एक ऐसी नयी जाति को, जिसे प्रजनन की आवश्यकता के अधीन होने की जरूरत न हो और जो सत्ता के दो पूरक लिंगों में विभाजित होने के लिये बाध्य न हों, उत्पन्न करने के लिये प्रकृति को प्रेरित करनेवाला नया विचार एवं नयी चेतना प्रकट नहीं हो जाते, तबतक वर्तमान मानवजाति की उन्नति के लिये अधिक-सें-अधिक यहीं किया जा सकता हैं कि पुरुष और स्त्री दोनों के साथ पूर्ण समानता का व्यवहार किया जाये, दोनों को एक ही शिक्षा तथा प्रशिक्षा दी जाये तथा दिव्य सत्ता के साथ, जो कि समस्त लिंग-भेदों सें ऊपर हैं, सतत संपर्क स्थापित करके समस्त संभावनाओं और समस्त समस्वरताओं के उद्गम को प्राप्त किया जाये ।

 

 और तब शायद भारतवर्ष, जो विषमताओं का देश हैं, नयी उपलब्धियों का देश बन जायेगा, जैसे यह इनकी परिकल्पना का पालना रहा हैं।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९५५)

 

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भाग २

 

संदेश, पत्र, बातचीत

 


श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-केंद्र

 

 प्रस्तावना

 

 

  १९२० और १९३० के दशकों मे माताजी कुछ लोगों को फ्रेंच सीखने के बारे मे कुछ निर्देश दिया करती थीं या अन्य विषयों के अध्ययन के बारे मे सामान्य परामर्श देती थीं । उन दिनों, आश्रम मे बच्चे नहीं लिये जाते थे । १९४० के बाद कुछ परिवारों को स्वीकृति मिली और उनके बच्चों के लिये शिक्षा की व्यवस्था की गयी । २ दिसम्बर, १९४३ को माताजी ने लगभग बीस बच्चों को लेकर बाकायदा विद्यालय का आरंभ किया । वे स्वयं भी पढ़ाती थीं । अगले सात वर्षों मे धीरे-धीरे विद्यार्थियों की संख्या बढ्ती गयी ।

 

   २४ अप्रैल, १९५१ को माताजी की अध्यक्षता में एक सम्मेलन हुआ जिसमें एक अंतर्राष्ट्रीय विश्व-विद्यालय केंद्र स्थापित करने का निक्षय किया गया । ६ जनवरी, १९५२ को उन्होंने ' श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय केंद्र ' का उद्घाटन किया । कुछ वर्षों बाद इसका नाम बदलकर अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-केंद्र कर दिया गया ।

 

  आजकल इस शिक्षा-केंद्र में पूरा या आशिक समय देनेवाले लगभग १९५० अध्यापक और पांच सौ विद्यार्थी हैं जिनमें बालकक्ष से लेकर उच्चतर शिक्षातक कई छात्र हैं । पाठचक्रम में मानविकी, भाषाएं, ललित कलाएं, विज्ञान, इंजीनियरिग, उद्योग और व्यावसायिक शिक्षा आदि सम्मिलित हैं । पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कारखाने, रंगमंच, नाटक, संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि के अपने-अपने कक्ष भी हैं ।

 

  शिक्षा-केंद्र केवल मानसिक शिक्षा पर केंद्रित न रहकर व्यक्ति के हर पहलू को विकसित करने का प्रयास करता हैं । उसमें 'फ्री प्रोग्रेस सिस्टम ' (मुक्त प्रगति-पद्धति) का प्रयोग होता है । माताजी के शब्दों मे : ''यह ऐसी प्रगति हैं जिसका निर्देशन अंतरात्मा करती हैं , जो अभ्यास, परिपाटी और पूर्वकल्पित विचारों पर आधारित नहीं हैं । '' विधाथीं को अपने-आप सीखने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है । वह विषयों का चुनाव अपने-.आप करता है और अपनी हीं गति से आगे बढ़ता है, और फिर, अपने विकास का दायित्व अपने अपर ले लेता है । अध्यापक इतना प्रशिक्षक नहीं होता जितना सलाहकार या सूचनाएं देनेवाला । कार्यक्षेत्र में अध्यापकों और विद्यार्थियों के स्वभाव के अनुसार इस पद्धति मै हैं -फेर भी कर लिये जाते हैं । कुछ हैं जो अब भी परंपरागत शिक्षा-पद्धति को ज्यादा पसंद करते हैं और निशित कार्यक्रम के अनुसार अध्यापक से पढ़ते हैं ।

 

  गणित और विज्ञान की पढ़ाई फ्रेंच मे होती है और बाकी विषय अंग्रेजी मे पढाये

 


जाते हैं । हर विद्यार्थी से आशा की जाती है कि वह अपनी मातृभाषा पड़ेगा । उनमें से कुछ भारतीय यूरोपीय अन्य भाषाएं भी पढ़ते हैं ।

 

  शिक्षा-केंद्र उपाध्याय नहीं दिया करता । वह बिधार्थी में सीखने का आनंद और प्रगति- के लिये अभीप्सा जगाने की कोशिश करता हैं जो इतर प्रयोजनों से मुक्त होती हैं !

 

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संदेश

 

 श्रीअरविन्द अंतर्राहीय शिक्षा-केंद्र के प्रतीक का अर्थ

 

 

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 ऐक्यबद्ध ईश्वर और ईश्वरी की समर्थ अभिव्यक्ति

 

- श्रीमां

 

*

 

   श्रीअरविन्द ने अपने काम के विकास के बारे में जो अभिनव रूप सोचा था वह है पांडिचेरी में एक अंतर्राष्ट्रीय विश्व-विद्यालय की स्थापना जिसमें सारी दुनिया से विद्यार्थी आ सकें ।

 

   अब यह सोचा गया हैं कि उनके नाम का सबसे अधिक उचित स्मारक होगा इस विश्वविद्यालय की स्थापना जो इस बात को ठोस रूप में अभिव्यक्त कर सके कि उनका काम अबाध शक्ति के साथ चलता जा रहा हैं ।

 

(१९५१)

* 


श्रीअरविन्द स्मारक सम्मेलन के लिये उद्घाटन-संदेश

 

  श्रीअरविन्द हमारे बीच में उपस्थित हैं और अपनी समस्त सृजनात्मक प्रतिभा के साथ विश्वविद्यालय केंद्र के निर्माण की अध्यक्षता कर रहे हैं । उन्होंने बरसों तक यह माना था 'कि भावी मानवता को अतिमानसिक ज्योति ग्रहण करने योग्य बनाने के लिये वह आज के श्रेष्ठ लोगों को धरती पर नयी ज्योति, शक्ति और जीवन अभिव्यक्त करनेवाली नयी जाति में रूपांतरित करें ।

 

  उनके नाम से आज मैं इस सम्मेलन का उद्घाटन करती हूं जो उनके सबसे अधिक प्रिय आदर्शों में से एक को चरितार्थ करने के लिये हो रहा हैं।

 

(२४-४-१९५१)

 

*

 

 

 विद्यार्थियों की प्रार्थना

 

  हमें वह वीर योद्धा बना जो बनने के लिये हम अभीप्सा करते हैं । वर दे कि हम डटे रहने का प्रयास करनेवाले भूत के विरुद्ध, सफलतापूर्वक उस भविष्य का युद्ध लड़ सकें जो अभी जन्म लेने को है ताकि नयी चीजें अभिव्यक्त हो सकें और हम उन्हें ग्रहण करने योग्य बनें ।

 

(६-१-१९५२)

 

*

 

 

  मुझे पूरा विश्वास हैं , मैं बिलकुल आश्वस्त हू, मेरे मन में लेशमात्र मी संदेह नहीं है कि यह विश्वविद्यालय, जो यहां स्थापित किया जा रहा हू धरती पर सबसे बड़ा ज्ञानपीठ होगा ।

 

  इसमें पचास वर्ष लग सकते हैं, इसमें सौ वर्ष लग सकते हैं, तुम्हें मेरे यहां रहने के बारे में संदेह हो सकता हैं। मै यहां होऊं या न होऊं, मेरा काम पूरा करने के लिये मेरे ये बच्चे यहां होंगे ।

 

  और जो आज इस दिव्य कार्य मे सहयोग देंगे उन्हें ऐसी असाधारण उपलब्धि मे भाग लेने का आनंद और गर्व प्राप्त होगा ।

 

(२८-५-१९५२)

 

*

 

   हम यहां वही करने के लिये नहीं हैं जो और करते हैं (उससे थोड़ा अच्छा क्यों न हो) ।

 

  श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय विथविद्यालय केंद्र' के उद्घाटन के समय यह दी गयी थीं।

 

१०२


  हम यहां वह करने के लिये हैं जो और नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें यह ख्याल ही नहीं हैं कि यह किया जा सकता हैं ।

 

 हम यहां भविष्य के बच्चों के लिये दिव्य भविष्य का मार्ग खोलने के लिये हैं । और कोई चीज कष्ट उठाने लायक और श्रीअरविन्द की सहायता के योग्य नहीं हैं ।

 

(६-९-१९६१)

 

*

 

 कक्षओं के वार्षिक उद्घाटन के समय दिये गये संदेश

 

  एक और वर्ष बीत गया और अपने पीछे पाठों का बोझा छोड़ता गया जिनमें कुछ कठोर हैं और कुछ पीडाजनक भी ।

 

  अब एक नया वर्ष शुरू हो रहा हैं और अपने साथ प्रगति और उपलब्धियों की संभावनाएं ला रहा हैं। लेकिन इन संभावनाओं का पूरा लाभ उठाने के लिये... हमें पिछले पाठों को सम्मन चाहिये ।

 

  यह जानना अधिक महत्त्वपूर्ण हैं कि सभी दुर्घटनाएं निक्षेतना का परिणाम होती हैं । फिर भी, बाहरी रूप से, उनके मुख्य कारणों में से एक है अनुशासनहीनता का भाव । अनुशासन के लिये एक प्रकार का तिरस्कार ।

 

  यह हमारे ऊपर छोड़ा गया है कि हम अनुशासनयुक्त सतत प्रयास के द्वारा यह प्रमाणित करें कि हम अधिक सचेतन और अधिक सत्य जीवन की अपनी अभीप्सा मे सच्चे और निष्कपट हैं ।

 

(१६ -१२-१९६६)

 

  सत्य हीं तुम्हारा स्वामी और तुम्हारा पथ-प्रदर्शक हो ।

 

  हम अपनी सत्ता और अपने क्रिया-कलाप में सत्य और उसकी विजय के लिये अभीप्सा करते हैं ।

 

  सत्य के लिये अभीप्सा ही हमारे प्रयासों की गति और ऊर्जा हो ।

 

  हैं सत्य! हम तेरा पथ-प्रदर्शन चाहते हैं । धरती पर तेरा हीं राज्य आये ।

 

(१६-१२-१९६७)

 

  जब कोई सत्य में निवास करता हैं तो वह सभी विरोधों के अपर होता हैं ।

 

(१६-१२-१९६८)

 

  तुम जो सिखाना चाहते हो वह पहले तुम्हें जीना चाहिये ।

 

  नूतन चेतना के बारे मे बोलने के लिये, वह चेतना तुम्हारे अंदर प्रवेश करे और

 

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तुम्हें अपने रहस्य बतलाये । केवल तभी तुम कुछ क्षमता के साथ बोल सकते हो ।

 

  नूतन चेतना में अपर उठने के लिये पहली शर्त हैं मन की इतनी विनयशीलता कि तुम्हें यह विश्वास हो कि जो कुछ तुम समझते हों कि तुम जानते हो वह जो कुछ सीखना बाकी हैं उसके आगे कुछ मी नहीं हैं ।

 

  बाहरी सैरि पर जो कुछ तुमने सीखा है वह उच्चतर ज्ञान की ओर उठने में सहायक एक कदम हो ।

 

(१६-१२ -१९६९)

 

  केवल शांत-स्थिरता मे हीं सब कुछ जाना और किया जा सकता है । जो कुछ उत्तेजना और उग्रता मे किया किया जाता हैं वह मतिमंद और मूर्खता हैं । सत्ता मे भागवत उपस्थिति का पहला चिह्न हैं शान्ति ।

 

 हम यहां और जगहों सें ज्यादा अच्छा करने के लिये और अपने-आपको अतिमानसिक भविष्य के लिये तैयार करने के लिये हैं । इसे कभी न भूलना चाहिये । मै सबसे सच्चे, निष्कपट सद्भाव सें अनुरोध करती हूं ताकि हमारा आदर्श चरितार्थ हो सके ।

 

(१६-१२-१९७१)

 

*

 

 दिल्ली के 'मदर्स इंटरनेशनल स्कूल' के नाम संदेश

 

   पृथ्वी पर एक नयी ज्योति प्रकट हुई हैं । आज जिस नये विद्यालय का उद्घाटन हो रहा हैं वह उसका पथ-प्रदर्शन पाये ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(२३-४-१९५६)

 

   सत्य के प्रति अपने प्रयास में हमें वास्तविक रूप सें सच्चा और निष्कपट होना सीखा ।

 

(२३-४-१९५७)

 

   विगत कल की सिद्धियां आगामी कल की उपलब्धियों की ओर छलांग लगाने के लिये लचकदार तख्ता हों ।

 

(२३-४-१९५८)

 

१०४


  आओ, हम अपने-आपको धरती पर अभिव्यक्त होते हुए नये जीवन के लिये तैयार करें ।

 

 (२३-४-१९५९)

 

  सबसे अच्छे विद्यार्थी वे हैं जो जानना चाहते हैं, वे नहीं जो दिखाना चाहते हैं ।

 

(२३-४-१९६६)

 

   मदर्स स्कूल-सचाई, निष्कपटता ।

 

(२३-४-१९६७)

 

  निष्कपटता का माप सफलता का माप हैं ।

 

(२३-४-१९६८)

 

  भविष्य प्रत्याशा से भरा है । अपने-आपको उसके लिये तैयार करो ।

आशीर्वाद ।

 

(२३-४-१९६९)

 

*

 

   'श्री मीराम्बिका विद्यालय, अहमदाबाद' के उद्घाटन पर संदेश

 

श्रद्धा और सच्चाई सफलता के जुड़वां एजेंट हैं ।

आशीर्वाद ।

 

(१४-६-१९६५)

 

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उद्देश्य

 

   हम श्रीअरविन्दाश्रम में क्यों हैं?

 

 प्रकृति।.में एक अपर उठनेवाला विकास हैं जो पत्थर से पौधों मे और पौधे से पशु मे तथा पशु से मनुष्य मे उठता हैं , चूंकि अभीतक मनुष्य हीं इस उठते हुए विकास की अंतिम सीढ़ी है, वह समझता हैं कि इस आरोहण मे वही सबसे ऊंचा स्तर हैं और यह मानता हैं कि धरती पर उससे ऊंचा कुछ हो ही नहीं सकता । लेकिन यह उसकी भूल हैं । अपनी भौतिक प्रकृति मे वह अभीतक पूरा-पूरा पशु है, एक विचारशील और बोलनेवाला पशु हैं, फिर भी, अपने भौतिक अम्यासों और सहज बोधों में पशु है । निःसंदेह, प्रकृति ऐसे अपूर्ण परिणामों से संतुष्ट नहीं हो सकती । वह एक ऐसी सत्ता को लाने के लिये प्रयत्नशील हैं जो मनुष्य की तुलना मे वैसा हीं होगा जैसा मनुष्य पशु की तुलना में, वह ऐसी सत्ता होगी जो अपने बाहरी रूप में तो मनुष्य हीं होगी, लेकिन उसकी चेतना मन तथा उसकी अज्ञान की दासता से बहुत ऊंची उठ जायेगी ।

 

  श्रीअरविन्द धरती पर मनुष्य को यहीं सत्य सिखाने के लिये आये थे । उन्होंने कहा कि मनुष्य केवल एक संक्रमणशील सत्ता हैं जो मानसिक चेतना में निवास करता है, लेकिन उसमें एक नयी चेतना, सत्य-चेतना प्राप्त करने की संभावना है । वह पूरी तरह सामंजस्यपूर्ण, शिव, सुंदर, सुखी और पूर्णतः सचेतन जीवन ज़ीने के योग्य होगा । अपने सारे पार्थिव जीवन में श्रीअरविन्द ने अपना पूरा समय अपने अंदर उस चेतना को स्थापित करने में लगाया जिसे उन्होंने अतिमानस का नाम दिया हैं , और जो लोग उनके इर्द-गिर्द इकट्ठे थे उन्हें सहायता दी कि वे भी इसे पा सकें ।

 

  तुम्हें यह बहुत बड़ा लाभ हैं कि तुम बहुत छोटी अवस्था मे हीं आश्रम में आ गये हो, यानी, अभी नमनीय अवस्था में आये हों जिसे नये आदर्श के अनुसार गाढ़ा जा सकता है और तुम नयी जाति के प्रतिनिधि बन सकते हो । यहां आश्रम मे तुम वातावरण, प्रभाव, शिक्षा और उदाहरण की दृष्टि से अच्छी-से-अच्छी अवस्था में हो ताकि तुम्हारे अंदर यह अतिमानसिक चेतना जगायी जा सके और तुम उसके विधान के अनुसार बढ़ सको ।

 

  अब, सब कुछ निर्भर हैं तुम्हारे संकल्प और तुम्हारी सच्चाई पर । अगर तुम्हारे अंदर यह संकल्प है कि अब और सामान्य मानवजाति के होकर न रहोगे, अब और विकसित पशु बनकर न रहोगे; अगर तुम्हारा संकल्प है कि नयी जाति के मनुष्य बनकर श्रीअरविन्द के अतिमानसिक आदर्श को चरितार्थ करोगे, एक नयी धरा पर नया और उच्चतर जीवन जायंगे तो तुम अपना अभीष्ट उद्देश्य पाने के लिये यहां समस्त आवश्यक सहायता पाओगे, तुम अपने आश्रम में रहने का पूरा-पूरा लाभ

 


 उठाओगे और अंततः, संसार के लिये जीते-जागते उदाहरण बनोगे ।

 

(२४-७-१९५१)

 

*

 

हमारे शिक्षा-केंद्र का असली उद्देश्य और लक्ष्य क्या है? क्या श्रीअरविन्द के ग्रंथ पढ़ाना? केवल यही? सभी ग्रंथ या उनमें ले कुछ? या हमें विद्यार्थियों को इस योग्य बनाना है कि बे माताजी और श्रीअरविन्द के ग्रंथ पड़ सकें? हमें उन्हें आश्रम-जीवन के लिये तैयार करना है श ''बाहरी'' काम के लिये मी? इस बारे मे बहुत सारे मत हवा मे चक्कर लाम रहे हैं और है मत लोग जिनसे हम जानने की आशा करते हैं दे मी बहुत-सी अलम-अलग बातें कहते हैं समझ मे नहीं आता कि किस पर विश्वास किया जाये किसी निहित और वास्तविक ज्ञान के बिना हम किस आधार पर काम करें? माताजी मैं आपसे मार्गदर्शन के लिये प्रार्थना करता हू?

 

यह इन ग्रंथों या अन्य ग्रंथों को पढ़ने के लिये तैयार करने का सवाल नहीं है । सवाल है उन सबको जो इसके योग्य हों साधारण मानव विचार, भाव और क्रिया की रूढ़ि मे से खींचने का; जो यहां हैं उन सबको अपने अंदर से मानव विचार और क्रिया-पद्धति की दासता को निकाल फेंकने के अवसर देना । जो लोग सुनना चाहते हैं उन सबको यह सिखाना है कि ज़ीने का एक और अधिक सत्य मार्ग है, कि श्रीअरविन्द ने हमें बताया है कि किस प्रकार जीवित का और सत्य सत्ता बना जा सकता है- और यह कि यहां की शिक्षा बच्चों को उस जीवन के लिये तैयार करने और उसके योग्य बनाने के लिये है ।

 

   बाकी सबके लिये, मानव विचार और जीवन-पद्धति के लिये संसार बहुत विशाल हैं और वहां सबके लिये जगह है ।

 

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१०७


  हम संख्या नहीं, एक चयन चाहते हैं हम प्रखर विधार्थी नहीं जीवित आत्माएं चाहते हैं ।

 

 *

 

  यह मालूम होना चाहिये और हमें यह खुलकर कहन मे संकोच न करना चाहिये कि हमारे विद्यालय का उद्देश्य हैं उन लोगों का पता लगाना ओर उन्हें प्रोत्साहित करना जिनमें प्रगति की आवश्यकता इतनी सचेतन हो गयी हैं कि उनके जीवन को दिशा दे सके ।

 

*

 

  सांसारिक दृष्टि-बिंदु से, प्राप्त परिणामों की दिष्टि से निश्चय हीं चीजें ज्यादा अच्छी तरह की जा सकती हैं । परंतु मैं किये गये प्रयास की बात कह रहीं हू, और प्रयास अपने अधिक-से-अधिक गहरे अर्थों में । काम शरीर के द्वारा की गयी प्रार्थना है । तुम्हारे काम के उस प्रयास से भगवान् संतुष्ट हैं; जिस चेतना ने इसे देखा है वह सचमुच संतुष्ट है । ऐसी बात नहीं है कि मानव दृष्टि सें इससे ज्यादा अच्छा नहीं किया जा सकता । बहरहाल, हमारे लिये यह उद्यम-विशेष बहुतों में से एक है; यह हमारी साधना में एक गति मात्र है । हम और भी बहुत-सी चीजों में लगे हैं । काम के किसी एक अंग-विशेष को लगभग पूर्णता तक पहुंचाने मे समय, साधन ओर उपायों की जरूरत हैं और वे हमारे पास नहीं हैं । लेकिन हम किसी एक चीज मे पूर्णता नहीं चाहते, हमारा लक्ष्य है संपूर्ण उपलब्धि ।

 

  बाहरी दिष्टि समालोचना योग्य बहुत कुछ पा सकती है और समालोचना करती भी है, लेकिन आंतरिक दृष्टि से जो कुछ किया गया है, भली-भांति किया गया है । बाहरी दृष्टिकोण से तुम सब प्रकार के मानसिक, बौद्धिक रूपों को लेकर आते हो और तुम्हें लगता है कि यहां जो कुछ किया गया है उसमें कुछ भी असाधारण नहीं है । लेकिन इस तरह तुम उसे नहीं देख पाते जो साधना के पीछे  है। एक अधिक गहरी चेतना उपलब्धि की ओर बढ़ते उस अभियान को देख सकेगी जो सबसे बाजा ले जाता है। बाहरी दिष्टि आध्यात्मिक जीवन को नहीं देखती । वह अपनी तुच्छता से हीं निर्णय करती  है ।

 

  लोग हमारे विश्वविद्यालय में भरती होने के लिये छुट्टियां लिखते हैं और पूछते हैं कि हम किस प्रकार की उपाधि या प्रमाणपत्र के लिये तैयारी करवाते हैं, किस प्रकार की आजीविका के लिये रास्ता खोलते हैं । मै उनसे कहती हूं : अगर तुम 'यही चाहते हो तो कहीं और चले जाओ, इससे कहीं ज्यादा अच्छी और बहुत-सी जगहें हैं, सभ्य

 

१०८


भारत में भी इससे बहुत ज्यादा अच्छी जगहों हैं । उस दिशा मे हमारे पास न तो उनकी साज-सज्जा है, न वह शान है । तुम्हें जिस प्रकार की सफलता की चाह है वह तुम्हें वहां मिल जायेगी ! हम उनसे प्रतियोगिता नहीं करते । हम एक और हीं क्षेत्र मे, एक और ही स्तर पर गति करते हैं ।

 

  लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं चाहती हू कि तुम अपने-आपको औरों सें श्रेष्ठ मानो । सच्ची चेतना अपने-आपको औरों सें श्रेष्ठ मानने मैं अक्षम होती है । केवल तुच्छ चेतना ही अपनी श्रेष्ठता दिखाने की कोशिश करती है । ऐसी सत्ता से एक बच्चा भी श्रेष्ठ होता है, क्योंकि वह अपनी गतिविधि में सहज-स्वाभाविक होता है । इस सबसे अपर उठे । भगवान् के साथ अपने संबंध और उनके लिये तुम जो करना चाहते हों उसे छोड्कर और किसी बात में रस न लो । यहीं एकमात्र रुचिकर चीज है ।

 

(३०-११-१९५५)

 

*

 

   हम यहां एक सरल और आरामदेह जीवन बिताने के लिये नहीं हैं । हम यहां भगवान् को पाने के लिये, भगवान् बनने के लिये, भगवान् को अभिव्यक्त करने के लिये हैं ।

 

  हमारा क्या होता है यह भगवान् की चिंता का विषय है, हमारी चिंता का नहीं । हमारी अपेक्षा भगवान् ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया की प्रगति के लिये और हमारी प्रगति के लिये क्या अच्छा है ।

 

(२३-८-१९६७)

 

*

 

  सेवा भाव विकसित करना यहां के प्रशिक्षण का भाग है और यह बाकी पढ़ाई- लिखाई को पूरा करता है ।

 

(१३-६-१९६१)

 

  तुम्हें धार्मिक शिक्षा को आध्यात्मिक शिक्षा न समझ बैठना चाहिये ।

 

  धार्मिक शिक्षा भूतकाल की चीज है और प्रगति को रोकती है ।

 

  आध्यात्मिक शिक्षा भविष्य की शिक्षा है--यह चइतना को प्रदीप्त करती हे और उसे भावी उपलब्धियों के लिये तैयार करती है ।

 

जहां कहीं ऐसा चिह्न (मै) आता हैं, उसका मतलब यह हैं कि यह माताजी की मौखिक टिप्पणी है जिसे किसी साधक ने लिख लिया था और बाट में माताजी की दिखाकर स्वीकृति ले लीं थी ।

 

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  आध्यात्मिक शिक्षा धार्मिक शिक्षा से ऊपर हैं और सार्वभौम सत्य की ओर प्रयास करती हैं ।

 

  वह हमें भगवान् के साथ सीधा नाता जोड़ना सिखाती हैं ।

 

(१२-२-१९७२)

 

*

 

  शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को जीवन मे और समाज में सफलता के लिये तैयार करना नहीं हैं, बल्कि उसकी पूरणीयता को ऊपरी चरम गति तक बढ़ाना है।

 

 *

 

  सफलता को लक्ष्य न बनाओ । हमारा लक्ष्य है पूर्णता । याद रखो तुम नये जगत् की देहली पर हो, उसके जन्म में मांग ले रहे हो और उसके सृजन मे सहायक हो । रूपांतर से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं है । इससे अधिक मूल्यवान् कोई हित नहीं

 

*

 

  साधारण तौर पर शिक्षा, संस्कृति, इन्द्रियों की सुरुचिपूर्णता गंवारू सहजवृत्ति, कामना और आवेग की गतियों का मार्जन करने के साधन हैं । उन्हें मिटा देना उनका उपचार नहीं है; इसकी जगह उन्हें सुसंस्कृत बनाना, बौद्धिक और सुरुचिपूर्ण बनाना चाहिये । उनका प्रतिकार करने का यही सबसे अच्छा तरीका हैं । उन्हें चेतना की प्रगति और विकास की दिष्टि से अपना अधिक-से-अधिक विकास प्रदान करना मनुष्य की शिक्षा और संस्कृति का भाग है, ताकि मनुष्य सामंजस्य के भाव और प्रत्यक्ष दर्शन की यथार्थता पा ले ।
 

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बिधार्थी

 

 विजय के लिये आह्वान

 

   मेरे वीर छोटे सिपाहियो ! मै तुम्हारा अभिवादन करती हूं । मै विजय के साथ मिलने के लिये तुम्हारा आह्वान करती हूं ।

 

*

 

  तुम जो युवा हो, तुम ही देश की आशा हो । इस प्रत्याशा के योग्य बनने के लिये तैयारी करो ।

आशीर्वाद ।

 

*

 

  एक चीज के बारे मे तुम शिक्षित हो सकते हो-तुम्हारा भविष्य तुम्हारे हो हाथों में है । तुम वही आदमी बनोगे जो तुम बनना चाहते हो । तुम्हारा आदर्श और तुम्हारी अभीप्सा जितने ऊंचे होंगे, तुम्हारी सिद्धि भी उतनी ही ऊंची होगी । लेकिन तुम्हें दृढ़ निक्षय रखना चाहिये और अपने जीवन के सच्चे लक्ष्य को कभी न भूलना चाहिये ।

 

(२-४-१९६३)

 

*

 

   युवा होने का अर्थ है  भविष्य मे जीना ।

 

  युवा होने का अर्थ है हमें जो कुछ होना चाहिये वह बनने के लिये, हम जो कुछ हैं उसे छोड़ने के लिये हमेशा तैयार रहना !

 

युवा होने का अर्थ हैं कभी यह न स्वीकार करना कि कोई चीज सुधार नहीं जा सकती ।

 

(२८-३-१९६७)

 

*

 

   केवल वही वर्ष जो व्यर्थ में बिताये जाते हैं तुम्हें का बनाते हैं ।

 

  जिस वर्ष में कोई प्रगति नहीं की गयी, चेतना में कोई वृद्धि नहीं हुई, पूर्णता की ओर कोई अगला कदम नहीं उठाया गया वह वर्ष व्यर्थ में बिताया गया ।

 


  अपने जीवन को अपने-आपसे कुछ उच्चतर और विशालतर वस्तु की चरितार्थ करने पर एकाग्र करो तो तुम्हें बीतते हुए वर्षों का भार कभी न लगेगा ।

 

(२१-२-१९५८)

 

*

 

 तुम जितने वर्ष जिये हो उनकी संख्या तुम्हें बूढ़ा नहीं बनाती । तुम बूढ़े तब होते हो जब प्रगति करना बंद कर दो ।

 

   जैसे ही तुम्हें लगे कि तुम्हें जो कुछ करना था वह कर चुके, जैसे हीं तुम अनुभव करो कि तुम्हें जो कुछ जानना था वह जान चुके, जैसे हीं तुम बैठकर अपने परिश्रम का फल भोगना चाहो और यह सोचों कि तुम जीवन मे काफी कुछ कर चुके हों तो तुम एकदम बूढ़े हो जले हीं और तुम्हारा क्षय शुरू हो जाता है ।

 

   इसके विपरीत, जब तुम्हें यह विश्वास हो कि जो जानना बाकी है उसको तुलना मे तुम जो जानते हो वह कुछ भी नहीं है, जब तुम्हें लगे कि तुमने जो कुछ किया है वह जो कुछ करना बाकी है उसका केवल आरंभ बिंदु है, जब तुम भविष्य को प्राप्त करने योग्य अनंत संभावनाओं से भरे चमकते सूर्य के रूप मे देखो तब तुम युवा हो । तुमने धरती पर चाहे जितने वर्ष बिताये हों तुम युवा और भार्यों कल की उपलब्धियों से समृद्ध हो ।

 

  और अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारा शरीर तुम्हें धोखा दे तो व्यर्थ की उत्तेजना मे अपनी शक्ति नष्ट करने से बचो । तुम जो भी करो, शांत, स्थिर और प्रकृतिस्थ होकर करो । शांति और नीरवता मे अधिकतम शक्त्ति है ।

 

(२१-२-१९६८)

 

*

 

 सुखी और सार्थक जीवन के लिये आवश्यक तत्त्व हैं निष्कपटता, विनय, अध्यवसाय और प्रगति के लिये कभी न बुझनेवाली प्यास । और सबसे बढ़कर तुम्हें प्रगति की असीम संभावना के बारे में विश्वास होना चाहिये । प्रगति हीं यौवन है । सौ वर्ष की अवस्था मे मी तुम युवक हों सकते हों ।

 

(१४-२-१९७२)

 

*

 

 अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य लक्ष्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों का समाधान मिल जायेगा ।

 

बूढ़ा न होने का सबसे अच्छा तरीका हैं प्रगति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाना ।

 

(१८-१-१९७२)

 

*

 

११२


 शाश्वत यौवन का रहस्य है हर क्षण नये जीवन मे पुनरुज्जीवित होना ।

 

 *

 

  आदमी को हमेशा केवल बौद्धिक ढंग से ही नहीं, मनोवैज्ञानिक ढंग से मी सीखते रहना चाहिये, उसे चरित्र की दृष्टि सै प्रगति करनी चाहिये, अपने अंदर गुण उपजाने और दोष ठीक करने चाहिये; हर चीज को अपने अज्ञान और अक्षमता को दूर करने का अवसर बनाना चाहिये; तब जीवन बहुत अधिक समय और ज़ीने का कष्ट उठाने योग्य बन जाता है ।

 

(२७ -१ -१९७२)

 

*

 

  बच्चा अपने विकास के बारे मे चिंता नहीं करता, वह बस बढ़ता जाता है ।

 

*

 

  बच्चे के सरल विश्वास मे बड़ी शक्ति होती है ।

 

(१७-११ -१९५४)

 *

 

   जब बच्चा सामान परिस्थितियों मे रहता है, तो उसे सहज विश्वास होता है कि उसे जिन चीजों की जरूरत होगी वै सब उसे मिल जिर्यिगी ।

 

   यह विश्वास जीवन-भर अडिग बना रहना चाहिये; लेकिन बच्चे के अंदर अपनी आवश्यकताओं का सीमित, अज्ञान-भरा और ऊपरी भान होता है, उसकी जगह उत्तरोत्तर, अधिक विशाल, अधिक गहरे और अधिक सत्य विचार को लेना चाहिये जो परम प्रज्ञा के साथ मेल खाता हो, यहांतक कि हमें यह अनुभव हा जाये कि केवल भगवान् ही जानते हैं कि हमारी सच्ची आवश्यकताएं क्या हैं और हम हर चीज के लिये उन्हीं पर निर्भर रह सकें ।

 

(१९-११-१९५४)

 

*

 

  सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण शर्त है विश्वास, एक बालक का-सा विश्वास और यह सरल भाव कि जरूरी चीज आ जायेगी, इसके बारे मे कोई प्रश्र हीं नहीं । जब बच्चे

 

११३


को किसी चीज की जरूरत होती है तो उसे विश्वास होता हैं कि वह है आ जायेगी । इस प्रकार का सरल विकास या निर्भरता सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण शर्त  ।

 

 *

 

  बच्चों में भय क्यों होता हैं? क्योंकि बे कमजोर होते हैं ।

 

  वे अपने चारों ओर के वयस्क लोगों से शारीरिक तौर पर कमजोर होते हैं और साधारणत: प्राणिक और मानसिक तौर पर मी कमजोर होते हैं । भय हीनता-भाव सें पैदा होता हैं ।

 

  फिर भी, उससे छुटकारा पाने का एक उपाय है, और वह हैं : भागवत कृपा पर विश्वास रखना और सभी परिस्थितियों में रक्षा के लिये उसी पर निर्भर रहना ।

 

  तुम जैसे-जैसे विकसित होते जाओगे, वैसे-वैसे यदि तुम अपने अंदर अंतरात्मा- यानी, अपनी सत्ता के सत्य-के साथ संपर्क को विकसित होने दो, तो अपने भय पर विजय पाते जाओगे और हमेशा यह प्रयास करो कि तुम जो कुछ सोचों, जो कुछ बोलों, जो कुछ करो वह सब इस सत्य की अधिकाधिक अभिव्यक्ति हो ।

 

  जब तुम सचेतन रूप से उसमें निवास करोगे, तो फिर तुम्हें अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में किसी चीज का भय न रहेगा, क्योंकि तुम उस वैश्व 'सत्य' के साथ एक होंगे जो संसार पर शासन करता है ।

 

(८-८-१९६४)

 

*

  मधुर मां

 

    कोई बालक अपने मां-बाप या अध्यापकों की सहायता के बिना यह कैसे जान सकता है कि वह क्या है?

 

तुम्हें अपने-आप उसका पता लगाना चाहिये, लेकिन अपने मन के दुरा नहीं । केवल चैत्य पुरुष ही तुम्हें बता सकता है ।

 

मधुर मां

 

  हमें बचपन में  बताया जाता है कि यह अच्छा हैं और वह बुरा है और हम सारे जीवन यही रट लगाये कथे हैं कि यह अच्छा है और वह बुरा है वास्तव में यह कैसे जाना जाये कि क्या अच्छा है और क्या बुरा?

 

११४


तुम सत्य को तभी जान सकते हो जब तुम भगवान् के बारे में सचेतन होते हों ।

 

*

 

   मैं मूल-म्राति से कैसे बच सकता हूं?

 

यह जानकर कि सत्य क्या हैं ।

 

*

 

प्रभो, हम तुझसे प्रार्थना करते है :

हम ज्यादा अच्छी तरह समझ सकें कि हम यहां क्यों हैं,

हमें जो करना है उसे ज्यादा अच्छी तरह कर सकें,

हमें यहां जो बनना चाहिये वह बन सकें,

ताकि तेरी इच्छा सामंजस्य के साथ पूरी हों सकें ।

 

(१५-१-१९६२)

 

*

 

  हमारा हर रोज और हर समय का प्रयास यही हो कि हम 'तुझे' ज्यादा अच्छी तरह जान सकें और 'तेरी ' सेवा ज्यादा अच्छी तरह कर सकें ।

 

(१-१-१९७३)

 

*

 

  मधुर मां, वर दे कि इस क्षण और सदा हीं हम तेरे सरल बालक बने रहें, और हमेशा तुझे अधिकाधिक प्यार करते चलें ।

 

*

 

मेरी एक छोटी-सी अम्मी रहती मेरे हिय में;

हम दोनों मिल मुदित हुए हैं, कभी न बिछुड़े जिया मे ।

 

*

 

मधुर मां

 

  क्या जब कभी मैं आपको बुलाता हू तो आप सुन सकतीं हैं?

 

११५


मेरे प्रिय बालक,

 

  विश्वास रखो कि तुम जब कभी मुझे बुलाते हो तो मै सुनती हूं और मेरी सहायता और मेरी शक्ति सीधी तुम्हारी ओर जाती हैं ।

 

मेरे आशीर्वाद सहित ।

 

 

(१-६-१९६०)

 

शुभ जन्मदिन ।

 

  मैं पूरे दिल के साथ तुम्हें अपनी बांहों में भरती हूं और तुम्हारी उच्चतम अभीप्सा की पूर्ति के लिये आशीर्वाद देती हू ।

 

सप्रेम ।

 

(३०-८-१९६३)

 

शुभ जन्मदिन ।

 

  गुलाबों (समर्पण) के एक पूरे गुच्छे के साथ ताकि तुम्हारी अभीप्सा चरितार्थ हों और तुम मेरे आदर्श बालक बन जाओ, अपनी अंतरात्मा और अपने जीवन में सच्चे लक्ष्य से अवगत रहो ।

 

  मेरे प्रेम और आशीर्वाद सहित !

 

(३०-८-१९६४)

 

*

 

 छात्रावास के विधार्थियों के लिये संदेश

 

 ('दॉर्त्वारं छात्रावास के विधार्थियों के लिये संदेश)

 

  हम सब अपनी दिव्य जननी के सच्चे बालक बनना चाहते हैं । लेकिन मधुर मां, उसके लिये हमें धीरज और साहस, आज्ञाकारिता, सद्भावना, उदारता और निः स्वार्थता तथा अन्य सभी आवश्यक गुण प्रदान कर ।

 

   यहीं हमारी प्रार्थना और अभीप्सा हैं ।

 

(१५-१-११४७)

(बड़े लड़कों के छात्रावास के लिये)

 

   यह दिन तुम्हारे लिये एक नये जीवन का आरंभ हो, एक ऐसे जीवन का जिसमें तुम यह अधिकाधिक जानने की कोशिश करो कि तुम यहां क्यों हों और तुमसे क्या आशा की जाती है ।

 

   हमेशा अपनी पूर्णतम और सत्यतम पूर्णता को चरितार्थ करने की अभीप्सा में रहो । और आरंभ के लिये स्वयं अपने ऊपर लगाये गायें नियंत्रण मे ईमानदार, सच्चे, सीधे-सादे, उदात्ता और पवित्र होने की चेष्टा करो ।

 

  मै हमेशा सहायता करने और राह दिखाने के लिये तुम्हारे साथ रहूंगी ।

 

  मेरे आशीर्वाद ।

 

(१९६३)

 

 (संलग्न 'दॉर्त्वारं छात्रावास के लिये)

 

   आज हम सब जो एक सामूहिक स्मरण मे इकट्ठे हुए हैं, यह अभीप्सा करते हैं कि यह तीव्रता उस सच्चे ऐक्य का प्रतीक हो जो सदा-सर्वदा अधिक सच्ची और अधिक पूर्ण उपलब्धि के लिये प्रयास पर आधारित हो ।

(१५-१-१९६८)

 

(युवकों का छात्रावास)

 

  हमेशा अपने 'आदर्श' के प्रति निष्ठावान ओर अपनी क्रिया मे सच्चे और निष्कपट रहो ।

 

*

 

११६

अध्ययन

 

 मेरे प्रिय बालक,

 

   सच्ची बुद्धिमत्ता हैं किसी मी स्रोत सें आनेवाले ज्ञान को सीखने के लिये तैयार रहना ।

 

  हम फूल से, पशु से, एक बच्चे हैं चीजें सीख सकते हैं बशर्ते कि हम हमेशा अधिक जानने के लिये उत्सुक हों क्योंकि संसार मे केवल एक हीं 'शिक्षक' हैं - परम

 

११७


प्रभु-और बे हर चीज मे से अभिव्यक्त होते हैं ।

 

  मेरे समस्त प्रेम के साथ ।

 

(९-३-१९६७)

 

*

 

  अच्छा काम करने के लिये अच्छी रुचि होनी चाहिये ।

 

  रुचि अध्ययन और सुरुचिपूर्ण लोगों की सहायता से शिक्षित की जा सकतीं है ।

 

  सीखने के लिये, पहले तुम्हें यह अनुभव होना चाहिये कि तुम नहीं जानते ।

 

(१५-१२-९९६५)

 

*

 

  जब तुम्हें लगे कि तुम कुछ नहीं जानते हो तुम सीखने के लिये तैयार होते हो ।

 

*

 

(दिसंबर १९६५)

 

   सारा प्रश्र यह हैं कि क्या विद्यार्थी अपना ज्ञान बढ़ाने और अच्छी तरह रहने के लिये, जो जानना जरूरी है उसे सीखने के लिये विधालये जाते हैं-या वे दिखावा करने के लिये और अच्छे अंक लेने के लिये विद्यालय जाते हैं ताकि वे इस बारे मे घमंड छांट सकें ।

 

  'शाश्वत चेतना' के आगे, सचाई और निष्कपटता की एक बूंद का मूल्य दिखावे और आडंबर के समुद्र से बढ़कर है ।

 

 *

 

   देखो, वत्स, दुर्भाग्य की बात यह हैं कि तुम अपने-आपमें बहुत ज्यादा रमे रहते हो । तुम्हारी उम्र मे, मै पूरी तरह से अपनी पढ़ाई मे लगी रहती थीं- अपने-आपको जानकारी देने, सीखने, समझने और जानने में लगी रहती थीं । इसी मे मुझे रस आता था, यही मेरा आवेग था । मेरी मां, जो मुझसे और मेरे भाई सें बहुत प्रेम करती थी, हमें कभी अनमना, असंतुष्ट या आलसी न होने देती थी । वह हमारे ऊपर हंसती, हमें डाँटती और हमसे कहती थी : ''यह क्या मूर्खता है? हास्यास्पद न बनो, जाओ और अपना काम करो, अपनी अच्छी या बुरी मनोदशा की परवाह न करो! इसमें कोई मजा नहीं हैं । ''

 

   तकनीकी पाख्यक्रम के उद्घाटन के समय दिया गया संदेश ।

 

११८


  मेरी मां की बात बिलकुल ठीक थी और झ अनुशासन तथा काम करते हुए एकाग्रता और आत्म-विस्मृति सीखने के लिये उनकी बहुत कृतज्ञ हूं ।

 

  मैंने तुम्हें यह इसलिये बताया हैं क्योंकि तुम जिस चिंता की बात करते हो वह इसलिये आती है क्योंकि तुम अपने-आपमें बहुत ज्यादा रमे रहते हों । तुम्हारे लिये बहुत ज्यादा अच्छा होगा कि जो कर रहे हो (चित्रकला या संगीत) उसमें मन लगाओ, अपने मन को विकसित करो जो अभीतक बहुत अशिक्षित है, और ज्ञान के हैं तत्त्व सीखने मे लगाओ जिनका जानना अनिवार्य है यदि तुम अज्ञानी और असंस्कृत नहीं रहना चाहते ।

 

  अगर तुम नियमित रूप से दिन मे आठ-नौ घंटे काम करो तो तुम्हें भूख लगेंगी । तुम अच्छी तरह हैं  जाओगे और शांति से सकोगे और तुम्हारे पास यह सोचने के लिये समय न होगा कि तुम अच्छी मनोदशा मे हो या बुरी ।

 

  मैं ये सब बातें तुम्हें पूरे प्यार के साथ बता रहीं हू और आशा करती हू कि तुम उन्हें समझ लोगे ।

 

  तुम्हारी मां जो तुमसे प्यार करती हैं ।

 

(१५-५ -१९३४)

 

*

 

   हे मां मैं आपकी इच्छा के अनुसार चलना चाहता हूं और कुछ नहीं चाहता ।

 

तो जल्दी से वह रास्ता छोड़ दो जो तुमने अपना रखा है- अपना समय मटरगश्ती और लड़कियों के साथ बातचीत में न गंवाओ । फिर से गंभीरता के साथ काम करना शुरू करो, पदो, अपने-आपको शिक्षित बनाओ, अपने मन को रुचिकर और उपयोगी चीजों मे लगाओ, व्यर्थ की बकवास मे नहीं और अपने प्राणिक आकर्षणों के लिये झूठे बहाने न बनाओ । अगर सचमुच यह तुम्हारी सच्ची (निष्कपट) इच्छा हैं तो विश्वास रखो कि मेरी शक्ति विजय पाने मे तुम्हें सहायता देगी !

 

(२७-९-१९३४)

 

   जिन दिनों मैं पढार्ड नहीं करता मुझे बुरा लगता है लेकिन जब मैं पढ़ना शुरू कर देता हू तो प्रसन्नता वापिस आ जाती  हैं ! मैं यह प्रक्रिया नहि समय पाता?

 

प्रक्रिया से तुम्हारा क्या मतलब हैं ? यह कोई प्रक्रिया नहीं है; बुरा लगने का अंत स्वाभाविक रूप से मन को पढ़ाई पर एकाग्र करने का स्वाभाविक परिणाम है । पढ़ाई एक ओर, मन को एक स्वस्थ क्रियाशीलता देती हैं  और दूसरी ओर, उसकी एकाग्रता को छोटे-से भौतिक अहंकार के रुग्ण चिंतन से दूर हटाती हैं ।

 

(३-१२ -१९३४)

 

११९


  माताजी क्या 'द' के यहां उसकी गुजराती कविताएं पढ़ने के लिये जाना ठीक

 

   यह सब इस पर निर्भर हैं कि उसका तुम पर क्या प्रभाव पड़ता हैं । अगर वहां से ''अधिक शांत और संतुष्ट होकर आते हो ती ठीक है । इसके विपरीत, अगर इससे तुम दुःखी और असंतुष्ट हो जाते हो तो वहां न जाना ज्यादा अच्छा होगा । तुम अवलोकन करो कि तुम्हारे ऊपर क्या असर होता है और उसके अनुसार निर्णय करो ।

 

(१३-१२-११३४)

 

   मैंने स्वप्न मे देखा कि आपने लिखा हे : ''मेरे बच्चे तुमने पढ़ना क्यों छोड़ दिया? '' आपने और मी बहुत कुछ लिखा था मैं चाहूंगा कि अमर संभव हो तो आप वह यहां लिख दें ।

 

हां, वास्तव मे कल रात मैंने तुमसे पूछा था कि तुम क्यों नहीं पढ़ते, और मैंने तुमसे कहा था कि प्राणिक आवेगों के आगे इस तरह से झुक जाना, निश्चित रूप से, उन्हें वश मे करने का तरीका नहीं है । अगर तुम प्राणिक दुर्भावना और मानसिक अवसाद को खतम करना चाहते हो तो तुम्हें अपने लिये अनुशासन नियत करना चाहिये, और चाहे किसी कीमत पर क्यों न हो, उसे अपने ऊपर लागू करना चाहिये । अनुशासन के बिना आदमी जीवन मे कुछ नहीं कर सकता और समस्त योग उसके बिना असंभव हैं ।

 

  जब बुरा लगता है तो शारीरिक काम करना तो कठिन नहीं होती पर पंडित मैं अनुशासन के अनुसार चलना कठिन हो जाता है फिर भी मैंने निक्षय किया है कि जब मैं पढ़ाई-लिखाई नहीं करूंगा तो काना नहीं खाऊंगा?

 

कैसा अजीब-सा विचार हैं न तुम्हारा! प्राण के अपराध के लिये शरीर को दंड देना! यह उचित नहीं है ।

 

(२२-१२-३४)

 

  आज सवेरे सै बहुत अवसाद छाया है और श्सलिये पढ़ना-लिखना असंभव हो गया हैं !

 

यह नहीं चलेगा ।

 

   तो माताजी मैं क्या करूं?

 

१२०


अपने-आपको पढ़ने के लिये बाधित करो और अवसाद भाग जायेगा । क्या तुम यह कल्पना कर सकते हो कि कोई छात्र विद्यालय मे जाकर अध्यापक से कहे : ''महाशय, आज मैंने गृहकार्य नहीं किया क्योंकि मे अवसादग्रस्त था' '?

 

  अध्यापक निश्चय ही उसे कड़ी सजा देगा ।

 

(१६-१-१९३५)

 

  मेरा ख्याल है कि पक बात आपको पसंद नहीं है- कि मैं पढार्ड-लिखाई लगाकर नहीं करता

 

पढ़ाई मन को मजबूत बनाती है और उसकी एकाग्रता को प्राण के आवेगों और कामनाओं से हटाती है । मन और प्राण पर काबू पाने के तरीकों मे से पढ़ाई-लिखाई पर एकाग्र होना एक बहुत शक्तिशाली तरीका है; इसीलिये पढ़ना-लिखना इतना जरूरी हैं ।

 

(२८-१-१९३५)

 

   मेरा मन शांत नहीं होता शायद इसलिये कि मैं पढार्ड मे मेहनत नहीं करता । पढार्ड मे बहुत मजा नहीं आता

 

 आदमी मजे के लिये नहीं पढ़ता-वह पड़ता है सीखने और अपने मस्तिष्क को विकसित करने के लिये ।

 

(१-२-१९३५)

 

   मेरे लिये पढ़ना एकदम असंभव है क्योंकि जड़ता आ जाती है

 

अगर तुम नहीं पड़ोगे तो जड़ता बढ़ती जायेगी ।

 

(४-३-१९६५)

 

  समझ मैं नहीं आत? समय कैसे काहू समझ मे तो कुछ आता नहीं?

 

पढो, समह्मने का सबसे अच्छा तरीका यही हैं ।

 

  आप कहती हैं पढो लेकिन पढ़ना अच्छा नहीं लगता

 

तुम पढ़ाई मे काफी समय नहीं लगाते, इसलिये तुम्हें मजा नहीं आता । आदमी

 

१२१


सावधानी के साथ जो भी करे वह निश्चय हीं मजेदार हों जाता हैं ।

 

(१०-४-१९३५)

 

  तो मैं कौन-सा रास्ता अपनऊं? प्रयास करने का ठीक और सच्चा रास्ता कोना-सा हैं ? 

 

वही करो जो मैंने कल बतलाया था-नियमित और सुव्यवस्थित ढंग सें पढ़कर अपने मस्तिष्क सें काम करवाओ; तब उन घंटों मे जब तुम पढ़ता न रहे होंगे, तुम्हारा मस्तिष्क काफी काम कर चुकने के कारण आराम कर सकेगा और तुम्हारे लिये यह संभव होगा कि अपने हृदय की गहराई मे एकाग्र हो सको और वहां चैत्य स्रोत को पा सको; वहां तुम कृतज्ञता और सच्चे सुख, दोनों के बारे मे सचेतन हो सकोगे ।

 

(२२-५-१९३५)

 

  सतत अवसाद के कारण मेरी पोइस खटाई मे पड़ी हो !

 

मै तुम्हें बता चुकी हू कि पढ़ाई के द्रारा ही तुम अवसाद पर विजय पा सकते हों ।

 

(२७-५-१९६५)

 

  मैं यह जानना चाहता हू कि क्या छोटे बच्चों के लिये सारे समय खेलते रहना अच्छा है?

 

 बच्चों के लिये काम और पढ़ाई का एक समय होना चाहिये और खेल का मी समय होना चाहिये ।

 

(१६-११-१५३६)

 

  क्या आपका ख्याल है कि मेरा मन विकसित हो का है ?

 

नियमित पढ़ाई उसे विकसित किये बिना न रहेगी ।

 

(७-१२-१९३६)

 

   मैं पपड़ी की ओर अधिकाधिक हुक रहा हू और साधना की ओर कम ध्यान देता हूं? पता नहीं यह वांछनीय है या नहीं ?

 

 यह ठीक हैं; पढ़ाई साधना का अंग बन सकती हैं ।

 

(८-१२ -१९३६)

 

१२२


  अगर कोई मुझे पढ़ता है तो क्या यह जरूरी है कि वह मेरे अपर यकाय होने के लिये मेरे साथ तादात्म्य स्थापित करे?

 

 एकाग्रता के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता ।

 

(१८-५-१९३७)

 

  क्या आपका ख्याल हैं कि बहुत ज्यादा मानसिक काम की वजह ले थकान आती हैं?

 

नहीं, वह मानसिक तमस् के कारण आती हैं?

 

(२१-१-१९४१)

 

*

 

   (किसी अध्यापक ने लिखा कि मेरे विद्यार्थी ने मेहनत नहीं की ?

 

 धीरज बनाये रखो-यह किसी प्रकार का मानसिक तमस् है; एक दिन वे जाग उठेंगे।

 

*

 

   अपनी किताबें होते हुए मी विद्यार्थी अपने पाठ नहीं सीख सकते?

 

छोटे बच्चों के साथ बहुत धीरज होना चाहिये और एक ही बात बार-बार दोहराते जाओ, तरह-तरह से समझाते जाओ । धीरे-धीरे वह उनके मन मे प्रवेश करेगी ।

 

*

 

 काम मे नियमित होने की अपेक्षा बुद्धि और समझने की क्षमता निक्षित रूप है ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं । स्थिरता बाद में प्राप्त की जा सकती हैं? ।

 

*

 

   माताजी आलस्य से कैसे छुटकारा पाया जा सकता है?

 

आलस्य दुर्बलता या रस के अभाव से आता हैं । पहली चीज का उपचार करने के लिये-तुम्हें मजबूत होना चाहिये ।

 

१२३


दूसरी चीज को ठीक करने के लिये-कुछ रुचिकर काम करना चाहिये ।

 

*

  मधुर मां

 

  आपने मनुष्यसे कहा है कि दुर्बलता को दूर करने के लिये मजबूत बनना चाहिये माताजी क्या आप मुझे बनायेगी कि मजबूत कैसे बना जाता  हैं ?

 

पहले तुम्हारे अंदर समग्र संपूर्ण रूप से उसके लिये चाह होनी चाहिये और फिर जो कुछ जरूरी हैं वह करना चाहिये ।

 

*

 

  मानसिक जड़ता ले कैसे पिंड छुड़ाया जाये?

 

इसका इलाज मन को जगाने का प्रयास नहीं हैं  । उसे अचल, नीरव अवस्था मे ऊपर की ओर, अंतर्भासिक ज्योति के क्षेत्र की ओर स्थिर, शांत अभीप्सा मे मोड़ों और नीरवता मे प्रतीक्षा करो ताकि ज्योति नीचे उतरते और तुम्हारे मस्तिष्क मे बालू ला दे । इससे मस्तिष्क थोझ-थोड़ा करके इस प्रभाव की ओर खुलेगा और अंतर्भाव को ग्रहण और प्रकट करने योग्य बनेगा ।

 

  प्रेम और आशीर्वाद ।

 

(२६-९-१९६७)

 

*

  मधुर मां

 

  पता नहीं इस वर्ष क्या बात है हम विद्यालय मैं या क्रीड़ांगण मे जरा मी प्रगति नहीं कर पा रहे ! हमारे मन हमेशा बेचैन और क्षुब्ध क्षमे हैं हम एकाग्रता खो हैं हम गप्प लगाने और बुरी बातों के बारे मे सोचने मे अपना समय नष्ट करते हैं हम अपनी असफलताओं को पार नहीं कर पाते माताजी हम आपसे विनय करते हैं कि हमें हंस कष्टकर स्थिति मे ले उबारिये हम प्रगति करना चाहते हैं? हम आपके सच्चे बालक बनना चखते हैं  कृपया मार्ग दिखाइये ।

 

विलाप करने से कोई लाभ नहीं होता ।

 

१२४


तुम्हारे अंदर संकल्प होना चाहिये, आवश्यक प्रयास करो ।

 

*

 

   संकल्प-शक्ति को मजबूत बनाने के लिये क्या करना चाहिये?

 

 उसे प्रशिक्षित करो, जैसे मांसपेशियों से काम लेकर उनसे कसरत करवायी जाती हैं, वैसे हीं इससे कसरत करवाओ ।

 

(२३-३-१९३४)

 

*

 

  एकाग्रता और संकल्प-शक्ति को मांसपेशियों की तरह विकसित किया जा सकता हर हैं नियमित प्रशिक्षण और कसरत से विकसित होते हैं ।

 

*

 

  माताजी,

 

   अपने  संकल्पशक्ति को मजबूत कैसे बनाया जाये?

 

 कसरत करके ।

 

*

 

   कोई चीज सीखने मे कुछ महीनों से अधिक लगते हैं । प्रगति करने के लिये तुम्हें अध्यवसाय के साथ काम करना चाहिये ।

 

(९२-११-१९५४)

 

*

 

   एक प्रबल आवेग मुझे इतना अधिक अध्ययन करने के लिये बाधित करता है ।

 

 जबतक तुम्हें अपने-आपको गठित करने की जरूरत हैं, अपने मस्तिष्क का निर्माण करने की जरूरत हैं तबतक तुम्हें अध्ययन के लिये इस आवेग का अनुभव होता रहेगा; लेकिन जब मस्तिष्क भली-भांति बन चुकेगा तो धीरे-धीरे अध्ययन के लिये रुचि भी कम हो जायेगी ।

 

१२५


  हमारे जीवन मैं तर्कबुद्धि का क्या उपयोग है ?

 

तर्कबुद्धि के बिना मानव जीवन असंगत और अनियंत्रित रहेगा; हम आवेगमय पशुओं या असंतुलित पागलों जैसे होंगे ।

 

(६-४-१९६१)

 

*

 

   माताजी छान और बुद्धि क्या हैं? क्या हमारे जीवन मे उनकी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका हैं ?

 

ज्ञान और बुद्धि यथार्थ रूप में मनुष्य के उच्चतर मन के गुण हैं जो उसे पशु से अलग करते हैं ।

 

  ज्ञान और बुद्धि के बिना व्यक्ति मनुष्य नहीं, मानव रूप मे पशु होता हैं ।

 

आशीर्वाद ।

 

(३०-१२-१९६९)

 

*

 

  अपने 'वार्तालाप' मे आपने कह? है कि बुद्धि सत्य छान और धरती पर उसकी चरितार्थता के बीच मध्यस्थ का काम करती है क्या इसका यह मतलब नहीं है कि मन ले अपर उठाकर सत्य ज्ञान प्रान्त करने के लिये बौद्धिक शिक्षण अनिवार्य है?

 

एक अच्छा, विशाल, नमनीय और समृद्ध मानसिक यंत्र बनाने के लिये बौद्धिक शिक्षण अनिवार्य है, परंतु उसकी क्रिया वहीं समाप्त हो जाती हैं ।

 

   मन सें अपर उठने में, वह सहायक की अपेक्षा बाधक अधिक हैं क्योंकि साधारणत:, एक सुसंस्कृत और शिक्षित मन अपने-आपसे संतुष्ट रहता हैं और ऐसा विरल ही होता हैं कि वह अपने-आपको चुप करने की कोशिश करे ताकि उसे पार किया जा सके ।

 

*

 

  तुम जो कुछ जानते हो वह सब, वह चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, जो तुम

 

१२६


जान सकते हो उसकी तुलना मे कुछ भी नहीं है, बशर्ते कि तुम अन्य उपायों का उपयोग कर सको ।

 

*

 

  समझने का सबसे अच्छा तरीका यह हैं कि अपनी चेतना मे हमेशा इतने ऊंचे उठ कि तुम सभी परस्पर-विरोधी विचारों को एक सामंजस्यपूर्ण समन्वय मे एक कर सको ।

 

  और उचित वृत्ति के लिये, यह जानना कि क्षणभरके के लिये भी अपने एकमात्र लक्ष्य-भगवान् के प्रति आत्म-निवेदन और उनके साथ तादात्म्य-को नजर से ओझल किये बिना नमनीयता के साध एक स्थिति से दूसरी स्थिति मे कैसे जाया जाये ।

 

(२९-४-१९६४)

 

*

 

   महत्त्वपूर्ण बात है यह जानना कि मन उस एक परम पुरुष को जानने मे अक्षम हैं- इसलिये उनके बारे मे जो कुछ कहा या सोचा जाता है वह एक विडंबना और मोटा-मोटा अनुमान है और शिक्षित रूप से ऐसे विरोधों से भरा है जिनमें कोई संगति नहीं हों सकतीं ।

 

  इसीलिये हमेशा यह शिक्षा दी गयी है कि सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिये मानसिक नीरवता अनिवार्य हैं ।

 

(३१-८-१९६५)

 

*

 

 स्पष्ट समज्ञ, अंतर्दर्शन और उचित क्रिया के लिये एक बहुत-बहुत स्थिर, शांत मस्तिष्क अनिवार्य हैं ।

 

*

 

   कृपया विचारों के प' और आवश्यकताओं के अंतर्दर्शन के बीच भेद कर सकने मे सहायता दीजिये

 

 अपर से प्रेरणा पाने के पहले मन को स्थिर-शांत और नीरव होना चाहिये ।

 

१२७


  मन को स्थिर शांत रहना चाहिये ताकि संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये 'शक्ति' उसके द्वारा प्रवाहित हो सके ।

 

*

 

   हम विद्यार्थी की ठीक तरह सोचना कैसे सीखा सकते हैं?

 

मानसिक क्षमता नीरव ध्यान मे विकसित होती हैं ।

 

(२३-३-९९६६)

 

*

 

  मैं अतर्मास की सहायता से काम करने की कोशिश करुंगा मेरे प्रयास मे सहायता कीजिये

 

प्राण को अचंचल बनाओ ।

 

  मन को शांत करो ।

 

  मस्तिष्क को नीरव और स्थिर रखो- एक समतल भूमि की न्याई । ऊर्ध्वमुख और एकाग्र ।

 

  और प्रतीक्षा करो...

 

(२९-९-११६७)

 

*

 

  तुम मानसिक क्रिया-कलाप के द्वारा मन को स्थिर-शांत नहीं कर सकते, तुम्हें जिस सहायता की आवश्यकता हैं वह किसी उच्चतर या गहनतर स्तर से प्राप्त हो सकती हैं । और दोनों को नीरवता मे हीं पाया जा सकता है ।

 

(१८-१२-१९७१)

 

*

 

   मन मे वाद-विवाद को कैसे रोका जाये?

 

पहली शर्त है जितना हों सके उतना रूम बोलो ।

 

   दूसरी शर्त है, केवल उसी चीज के बारे मे सोचो जो तुम इस समय कर रहे हो, उसके बारे मे मत सोचो जो तुम्हें करना हैं या जो तुम कर चुके हो ।

 

  जो हो चुका है उसके लिये कभी न पछताओ और जो होनेवाला है उसकी कल्पना न करो ।

 

जहांतक बन पड़े अपने विचारों मे निराशा को रोको और स्वेच्छापूर्वक आशावादी बनो ।

 

*

 

 माताजी 

 

  रबतंत्र शांत,निरबा मन बहुत अच्छी चीज हैं मैं उसे ज्यादा-ज्यादा पाना चाहूंगा मैं अपने अंदर विचारों और भावनाओं के भंवर से बचना चाहूंगा जो मुझे खिलौने की तरह इधर-से-उधर फेंकते रहते हैं?

 

यह क्रमश: आला हैं ।

 

  जोर मत डालो ।

  शांत और विश्वस्त रहो ।

 

(१२-३-१९७३)

 

*

 

   अब, बुद्धि जिस चीज को समझ गयी हैं उसे सारी सत्ता अनुभव करे । मानसिक ज्ञान का स्थान प्रगति की प्रज्वलित शक्ति को लेना चाहिये ।

 

*

 

१२८

पढ़ना

 

 मधुर मई आपने कहा है कि मैं ठीक तरह नहीं सोचती हम अपने विचारों को कैसे विकसित कर सकते हे?

 

तुम्हें बहुत एकाग्रता और ध्यान के साथ ऐसी पुस्तकें पढ़नी चाहिये जो तुम्हें सोचने के लिये बाधित करती हैं, उपन्यास या नाटक नहीं । तुम जो पढो उसका ध्यान लगाओ, जबतक तुम किसी विचार को समझ न जाओ तबतक उसपर मनन करो । कम बोलो, शांत और एकाग्र रहो और तभी बोलो जब बोलना अनिवार्य हो ।

 

(३१-५-१९६०)

*

१२९


  मैं मोटरकार के बारे में एक पुस्तक पड़ रहा हूं लेकिन मैं तेजी ले पड़ जाता हू जटिल मशीनों के वर्णन को छोड़ता जाता हूं !

 

अगर तुम किसी विषय को पूरी तरह से, ईमानदारी के साध पूरे विस्तार से नहीं सीखना चाहते तो उसे हाथ न लगाना ही ज्यादा अच्छा है । यह मानना एक बहुत बढ़ी फल हैं कि वस्तुओं के बारे में अधूरा, ऊपरी ज्ञान किसी उपयोग का हो सकता हैं; यह लोगों का सिद्द फूला देने के सिवा और किसी काम का नहीं होता, क्योंकि वे मान बैठते हैं कि हैं जानते हैं, जब कि सचमुच कुछ भी नहीं जानते ।

 

*

 

  जो कुछ पढो ध्यान से पढो, और अगर तुम उसे भली-भांति नहीं समझ पाये हों तो फिर सें दोबारा पढ़ो ।

 

*

 

  'य' ने मुझे लिखा है कि तुम कितने सारे उपन्यास पढ़ते हो । मुझे नहीं लगता कि इस तरह का पढ़ना तुम्हारे लिये हितकर हैं - और जैसा कि तुमने मुझे बतलाया था, तुम शैली के लिये पढ़ते हो, तो किसी अच्छे लेखक की कोई अच्छी पुस्तक ध्यान से पढ़ना, तेजी से की गयी इस ऊपरी पढ़ाई से ज्यादा अच्छा हैं ।

 

 मेरे उपन्यास के दो कारण हैं शब्द और शैली सीखना !

 

सीखने के लिये तुम्हें बहुत ध्यान से पढ़ना चाहिये और जो पढ़ना हो उसे बहुत ध्यान से चुनो ।

 

(२५-१०-१९३४)

 

   क्या आपका ख्याल है कि मुझे गुजराती सरित् पढ़ना दर्द कर देना चाहिये?

 

यह सब इस पर निर्भर हैं कि इस साहित्य का तुम्हारी कल्पना पर क्या प्रभाव पड़ता है । अगर वह तुम्हारे सिर में अवांछनीय विचार और तुम्हारे प्राण मे कामनाएं भर देता हैं तो निंद्य ही इस प्रकार की पुस्तकों का पढ़ना बंद कर देना चाहिये ।

 

(२-११-१९३४)

 

   क्या फ्रेंच उपन्यास पढ़ने मे कोई हर्ज है

 

१३०


उपन्यास पढ़ना कभी हितकर नहीं होता ।

 

(२४-४-१९३७)

 

*

 

  जब कोई मंदी ' श अखिल उपन्यास पड़ता है ती क्या उसका प्राण मन के द्वारा उसमें रस नहीं लेता?

 

मन मै भी विकार होते हैं । वह प्राण बहुत ही तुच्छ और अपरिष्कृत हैं जो ऐसी चीजों में रस लेता है ।

 

*

 

  अनगढ़ मनवाले जो कुछ पढ़ते हैं, वह उसके मूल्य की परवाह किये बिना उनमें पैठ जाता हैं और सत्य के रूप मे अपनी छाप छोड़ जाता है । इसलिये उन्हें पढ़ने के लिये जो चीजें दी जायें उनके चुनाव में बहुत सावधानी बरतनी चाहिये और यह देखना चाहिये कि इसमें ऐसी चीजों को ही स्थान मिले जो सच्ची और अनेक निर्माण के लिये उपयोगी हों ।

 

(३-६-१९३९)

 

*

 

  मैं ऐसी साहित्य की कक्षाओं को स्वीकृति नहीं देती जो दिखावटी तौर पर ज्ञान के लिये हैं (?), हैं ऐसी मानसिक कीचड़ की अवस्था मे धंस जाती हैं जिनके लिये यहां स्थान नहीं हैं, और जो आगामी कल की चेतना के निर्माण मे किसी प्रकार की सहायता नहीं दे सकतीं । तुम्हारे पत्र के सिलसिले मै कल मैंने 'क' से यही बात कही थी और मैंने संक्षेप में बताया था कि जो होना चाहिये और जो है उनके बीच के संक्रमणकाल को मैं किस रूप मे देखती हू ।

 

  अगर हम, यहां या वहां एक सच्ची और ज्योतिर्मयी अभीप्सा की अभिव्यक्ति देख सकें, तो उसे अध्ययन का अवसर बनाया जा सकता हैं  और वह एक मजेदार उन्नति होगी ।

 

  तुम साथ मिलकर इस विषय का निर्राक्षण करो और मुझे बताओ कि तुम क्या निश्चय करते हो ।

 

  बहरहाल : ''साहित्य की कक्षाएं' ' बंद वि

 

(१८-७-१९५९)

 

१३१


  साहित्य का मूल्य क्या है?

 

यह इस पर निर्भर हैं कि तुम क्या होना या करना चाहते हो । अगर तुम साहित्यिक बनना चाहते हो तो तुम्हें बहुत-सा साहित्य पढ़ना चाहिये । तब तुम जानोगे कि क्या ।लिखा गया हैं और तुम पुरानी चीजों को नहीं दोहराओगे । तुम्हें एक जाग्रत मन रखना चाहिये और यह जानना चाहिये कि चीजें प्रभावशाली ढंग से कैसे कही जायें ।

 

  लेकिन अगर तुम सच्चा ज्ञान चाहते हो, तो यह तुम्हें साहित्य मे नहीं मिलेगा । मेरी दिष्टि मे, साहित्य अपने-आपमें बहुत ही निम्न स्तर पर है-इसमें अधिकांश सृजनात्मक प्राण का कार्य हैं, और जब वह बहुत ऊंचा उठता हैं तो विशुद्ध चक्र (कंठ स्थित चक्र) तक जा पाता हैं जो बाह्य अभिव्यक्ति वाले मन का स्थान है । यह मन तुम्हें बाहरी चीजों के संपर्क मे ला देता हैं । और, अपने क्रिया-कलाप मे, साहित्य शब्दों और विचारों को आपस मे जोड़ने का खेल है । यह मन मे एक प्रकार का कौशल विकसित कर सकता है, विवाद, वर्णन, मनोरंजन और विनोद की कुछ क्षमता पैदा कर सकता हैं ।

 

   मैंने अंग्रेजी साहित्य मे बहुत कुछ नहीं पूढा-मैंने कुछ सौ पुस्तकें हीं देखी हैं । लेकिन मैं फ्रेंच साहित्य को बहुत अच्छी तरह जानती हूं-मैंने एक पूरा पुस्तकालय पड रखा है और मैं कह सकती हूं कि 'सत्य' की दिष्टि से देखें तो उसका कोई अधिक मूल्य नहीं हैं । सच्चा ज्ञान मन के ऊपर से आता है । साहित्य बहुत सामान्य या तुच्छ विचारों का खेल होता है । कुछ विरले अवसरों पर ऊपर से कोई किरण आ जाती हैं । अगर तुम हज़ारों पुस्तकों मे खोजों तो कहीं इधर-उधर जरा-सा अंतर्भाव दिखा जायेगा । बाकी कुछ नहीं हैं ।

 

  मैं यह नहीं कह सकतीं कि साहित्य पढ़ने सें तुम श्रीअरविन्द को ज्यादा अच्छी तरह समझने के योग्य हो जाते हो । इसके विपरीत, यह बाधक भी हों सकता हैं । क्योंकि शब्द तो वही होते हैं लेकिन उनका उपयोग श्रीअरविन्द के उपयोग सें इतना भिन्न होता है, उन्हें जिस ढंग से इकट्ठा रखा गया हैं वह श्रीअरविन्द के ढंग सें इतना अलग होता हैं कि ये शब्द तुम्हें उस ज्योति से बहुत ककर देते हैं जिस ज्योति का श्रीअरविन्द इन शब्दों द्वारा वहन करना चाहते हैं । श्रीअरविन्द के प्रकाश तक पहुंचने के लिये हमें अपने मन को साहित्य ने जो कुछ कहा हैं या किया है उस सबसे खाली कर लेना चाहिये । हमें अंदर पैठकर ग्रहणशील नीरवता मे निवास करना और फिर उसे अपर की ओर मोड़ना चाहिये । केवल तभी हम ठीक ढंग  हैं कोई चीज पा सकते हैं । अपने सबसे बुरे रूप मे, मैंने देखा हैं कि साहित्य का अध्ययन आदमी को इतना ख और विकृत बना देता हैं कि वह श्रीअरविन्द की अंग्रेजी का मूल्य आकने बैठ जाये और उनके व्याकरण मे स्व निकाले!

 

  लेकिन हां, मै साहित्य के अध्ययन को बिलकुल अस्वीकृत नहीं कर रही । हमारे
 

१३२


बच्चों मे से बहुत-से अनगढ़ अवस्था मे हैं और साहित्य उन्हें कुछ रूप, कुछ लचकीलापन दे सकता है । उन्हें कई स्थानों पर काफी तराशने की जरूरत है । उन्हें बढ़ा बनाने, सक्रिय और फुर्तीला बनाने की जरूरत हैं ! साहित्य एक प्रकार की जिम्नास्टिक्स का काम देकर, उन्हें झकझोर कर तरुण बुद्धि को जगा सकता हैं ।

 

  मै इतना और कह दूं कि अभी पिछले दिनों अध्यापकों मे साहित्य के मूल्यांकन के बारे में जो विवाद चला था वह तुम्बी में तूफान के जैसा था । यह वास्तव में उस समस्या का एक अंग हैं  जिसका संबंध शिक्षा के पूरे आधार के साथ हैं । मेरी दृष्टि मे हमारे विद्यालय के प्रत्येक विभाग मे जो कुछ हो रहा हैं वह अपनी नींव में एक ही समस्या है । जब मैं हर जगह की शिक्षा पर नजर डालती हू तो मुज्ञो उस योगी के जैसा अनुभव होता हैं  जिससे कहा गया था कि एक दीवार के आगे बैठकर ध्यान करे । मुझे अपने सामने एक दीवार-सी दिखायी देती हैं । यह एक भूरि-सी दीवार हैं जिसमें इधर-उधर कुछ नीली धारियां हैं-ये अध्यापकों के कुछ सार्थक काम करने के प्रयास हैं- लेकिन सब कुछ ऊपरी सतह पर हो रहा है और इस सबके पीछे सब कुछ इस दीवार के जैसा हैं जिस पर मैं इस समय अपना हाथ मार रही हूं । यह कठोर और अभेद्य है, यह सच्चे प्रकाश को बंद कर देती है । कोई द्वार नहीं हैं-इसमें से घुसकर उस प्रकाश मे नहीं जाया जा सकता ।

 

  जब युवा विद्यार्थी मेरे पास आते हैं और मुझे अपने काम के बारे में कुछ बतलाते हैं तो हर बार जब मैं उनसे कोई उपयोगी चीज कहना चाहती हूं तो यहीं ठोस दीवार मेरे मार्ग में बाधक होती हैं ।

 

  मेरा इरादा बे कि शिक्षा की समस्या को अपने हाथ में लू । मैं उसके लिये अपने- आपको तैयार तैयार कर रहीं हूं । इसमें दो वर्ष लग सकते हैं । मैंने पवित्र ' को चेतावनी दे दी बे  कि जब मै हस्तक्षेप करूंगी और चीजों को फिर से गड़ंग तो एक बवण्डर के जैसा लगेगा । लोगों को ऐसा लगेगा कि हैं अपने पैरों पर खड़े तक नहीं रह सकते! इतने प्रकार की चीजें उलट-पुलट जायेंगी । पहले चारों ओर घबराहट फैलेगी । लेकिन, इस बवण्डर के परिणामस्वरूप, दीवार टूट जायेगी और प्रकाश फट पड़ेगा ।

 

  मुझे लगा कि पहले सें बतला देना अच्छा हैं कि आमूल परिवर्तन होगा । इस तरह अध्यापक उसके लिये तैयार हो सकते हैं ।

 

   मै साहित्य के अध्यापकों की सद्भावना के बारे में शंका या अवहेलना नहीं करना चाहती । और कुछ पुराने अध्यापक हैं जो सचमुच अपना अच्छे-से-अच्छा प्रयास कर रहे हैं । मै इस सबकी सराहना करती हूं । और विश्वविद्यालय मे परिवर्तन के बारे में मैंने हर चीज का ख्याल रूखा हैं । लेकिन मैं फिर से कहती हूं कि यह सारी बहस,

 

  १आश्रम के शिक्षा-विभाग के अध्यक्ष । - अनु

 

१३३


एक व्यर्थ की ओर बहुत सारी उत्तेजना रही हैं जिसे हम चीटियों की लड़ाई या सांप निकल जाने पर लकीर पीटना कह सकते हैं ।

 

 *

 

  एक सूक्ष्म जगत् है जहां तुम चित्रकारी, उपन्यास, सब प्रकार के नाटक और सिनेमा तक के लिये समस्त संभव विषय पा सकते हों ।

 

  अधिकतर लेखक वहीं से अपनी प्रेरणा पाते हैं ।

 

*

 

  (एक अध्यापक ने सुझाव दिया कि अपराध क्षइंसा स्वच्छंदता आदि ले संबंध रखनेवाली पुस्तकें विद्यार्थियों की पहुंच से बाहर होनी चाहिये !)

 

यह इतना विषय का प्रश्र नहीं हैं बल्कि जीवन की धारणा मे गंवारूपन और संकीर्णता और स्वार्थपूर्ण सामान्य बुद्धि का प्रश्र हैं जौ कलाहीन, महानताहीन और सुरुचिहीन ढंग सें अभिव्यक्त है । ऐसी चीजों को सावधानी के साथ बड़े और छोटे बच्चों की पाक्य सामग्री मे से हटा देना चाहिये । वे सब चीजें जो चेतना को नीचा करती और घटाती हैं निकाल दी जानी चाहिये ।

 

(१-११-१९५९)

 

*

 

  किताबों का चुनाव सावधानी के साथ करना चाहिये ! कुछ किताबों मे ऐसे विचार होते हैं जो निक्षय ही हमारे बच्चों की चेतना को नीचा करते हैं सिर्फ ऐसी ' के बारे मे ही सत्या दी जा सकती है जो हमारे आदर्श के अनुकृत हों या जिनमें ऐतिहासिक कहानियां साहसमरी कहानियां या खोजबीन की बातें हों

 

  ऐसी किताबों के बारे मे तुम कभी जरूरत से ज्यादा सावधान नहीं हो सकते जिनका बहुत विषैला असर होता हैं ।

 

आशीर्वाद ।

 

(१७-४-१९६७)

 

*

 

१३४


  मैं रामायण-महामारत की कहानियों और तुलसी कबीर मीरा आदि के गीतों ?पर बहुत जोर देता हूं क्या इन प्राचीन चीजों को जारी रखना आपके ममि के विपरीत हैं !

 

हर्गिज नहीं- महत्त्व मनोवृत्ति का है । भूत को भविष्य की ओर उछलने का तख्ता होना चाहिये, प्रगति को रोकनेवाली जंजीर नहीं । जैसा कि मैंने कहा हैं, सब कुछ भूतकाल की ओर तुम्हारी मनोवृत्ति पर निर्भर हैं ।

 

   कुछ अच्छे-अच्छे कवियों और संतों ने राधा और कृष्ण के प्रेम के बारे मे हंस तरह  लिखा हैं मानों वह ऐहिक प्रेम हो !

 

मैंने इसे हमेशा सच्चे शब्द और ठीक भाषा पाने की अक्षमता माना हैं ।

 

*

 

यह सब बेहूदगी पढ़ना बंद कर दो । जो रहस्यवाद पुस्तकों मे मिल सकता हैं वह प्राणिक और अत्यंत भयावह होता हैं ।

 

*

 

  अगर तुम सचमुच जानना चाहते हो कि संसार में क्या हों रहा है तो किसी प्रकार के मी अखबार पढ़ना बंद कर दो क्योंकि वे झूठ से भरे होते हैं ।

 

  अखबार पढ़ने का मतलब है महान सामूहिक मिथ्यात्व में भाग लेना ।

 

(२-२-१९७०)

 

   माताजी अगर हम अखबार न पढ़ें तो यह कैसे जान सकते हैं कि हमारे देश मे तथा अन्य देशों मे क्या हो रहा हैं ! हमें उनसे कम-से-कम कुछ अंदाज तो हो ही जाता हे ' न? या उन्हें बिलकुल न पढ़ना ज्यादा अच्छा होगा !

 

मैंने यह नहीं कहा कि तुम्हें अखबार नहीं पढ़ने चाहिये । मैंने कहा हैं कि तुम जो कुछ पढो उस पर आंख मूँद कर विश्वास न कर लो । तुम्हें जानना चाहिये कि सत्य एक अलग ही चीज है ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(४-२-१९७०)

 

*

 

मैं देखना चाहता हू कि मैं पढ़ना बंद कर दूं तो क्या होगा?

 

 अपने मन को सदा एक ही चीज पर स्थिर रखना मुश्किल हैं, और अगर उसे व्यस्त रखने के लिये काफी काम न दिया जाये तो वह बेचैन हो उठता है । इसलिये मेरा खयाल हैं कि पढ़ना एकदम बंद कर देने की जगह ज्यादा अच्छा यह हैं कि पुस्तकों का चुनाव सावधानी के साथ करो ।

 

*

 

  (किसी आश्रमवासी को अपनी पुस्तक 'प्रार्थना और ध्यान' देते हुए माताजी ने यह टिप्पणी लिखी थी !

 

*

 

इस पुस्तक को मत पढो जबतक कि तुम्हारे अंदर यह इरादा न हो कि तुम उसके अनुसार काम करोगे ।

 

*

 

   पुस्तकालय को एक बौद्धिक मंदिर होना चाहिये जहां आदमी प्रकाश और प्रगति पाने के लिये आता है ।

 

 *

 

१३५

 

आचरण

 

 बच्चों को सदा क्या याद रखना चाहिये

 

पूर्ण सच्चाई की आवश्यकता ।

'सत्य' की अंतिम विजय की निक्षयता ।

सिद्धि के संकल्प के रहते निरंतर उन्नति की संभावना ।

 

१३६


आदर्श बालक

 

शान्त स्वभाव होता है

 

  जब सारी बातें उसके विरुद्ध जाती हुई मालूम होती हैं अथवा सभी निर्णय उसके विपक्ष मे होते हैं तब भी वह क्रोधित नहीं होता ।

 

उत्साही होता है

 

  जो कुछ वह करता हैं उसे वह अपनी योग्यता के अनुसार उत्तम-सें-उत्तम रूप मे करता है और यह जानते हुए भी कि असफलता प्रायः निश्चित है, वह अपना कार्य निरंतर करता रहता हैं । वह सर्वदा सीधे? ढंग से ही विचार करता है और सीधे ढंग से हीं कार्य करता है ।

 

सत्यनिष्ठ होता हैं

 

 वह कभी सत्य बोलने से नहीं डरता-परिणाम चाहे कुछ भी क्यों न हो ।

 

धैर्यशील होता है

 

  अपने प्रयासों का फल देखने के लिये यदि उसे दीर्घ काल तक प्रतीक्षा करनी पड़े तो भी वह निरुत्साहित नहीं होता ।

 

सहनशील होता हैं

 

   वह सभी अनिवार्य कठिनाइयों और दुखों का सामना करता है और उनके कारण मन मे जस भी नहीं झुँझलाता ।

 

अध्यवसायी होता हैं

 

  वह अपने प्रयास को कभी ढीला नहीं होने देता-चाहे जितने लंबे समय तक उसे क्यों न जारी रखना पड़े ।

 

समचित होता है

 

  वह सफलता और विफलता दोनों अवस्थाओं मे समता बनाये रखता हैं ।

 

साहसी होता है

 

  चाहे उसे बहुत बार पराजय का सामना क्यों न करना पेड़, वह हमेशा अंतिम विजय के लिये संग्राम मे लगा रहता है ।

 

१३७


 आनन्दी होता हैं

 

  वह जानता हैं कि सब प्रकार की परिस्थितियों मे किस तरह हंसा जा सकता हैं और हृदय को प्रसन्न रखा जा सकता है ।

 

विनयी होता हैं

 

  वह अपनी सफलता के ऊपर गर्व नहीं करता और न अपने सथियों से अपने को बड़ा हीं समझता हैं ।

 

उदार होता हैं

 

  वह दूसरों के गुणों की प्रशंसा करता है और सफलता प्राप्त करने मे दूसरों को सहायता देने के लिये बराबर तत्पर रहता हैं ।

 

 ईमानदार ओर आझाकारी होता हैं

 

  वह सब प्रकार के अनुशासनों को मानता है और सदा हीं ईमानदारी सें काम लेता

हैं !

 

('बुलेटिन', अगस्त १९५०)

 

*

 

  आदर्श बालक समझदार होता हैं !उसे जो कुछ कहा जाये वह सब समझता हैं , वह सीखने से पहले अपने पाठ को जानता हैं और उससे जो भी पूछा जाये वह उसका उत्तर देता है ।

 

*

 

  उसे भविष्य पर श्रद्धा होती है, भविष्य सौंदर्य और प्रकाश से भरा हुआ और आनेवाली उपलब्धियों से भरपूर हैं ।

 

  बचपन भविष्य का प्रतीक और आनेवाली विजयों की आशा है ।

 

*

 

१३८


आदर्श बालक

 

... जब विद्यालय में हो तो पढ़ना चाहता हैं,

... खेल के मैदान में हो तो खेलना चाहता है,

... भोजन के समय खाना चाहता है,

... सोने के समय सोना चाहता हैं,

... हमेशा अपने चारों ओर के लोगों के लिये प्रेम से भरा होता हैं,

... को हमेशा भागवत 'कृपा' पर विश्वास होता है,

... भगवान् के लिये गहरे आदर से भरा होता हैं ।

 

 बच्चे को जो चीजें सिखाती चाहियें

 

१.पूरी पूरी सचाई और निष्कपटता की जरूरत ।

२.अंत में 'सत्य' की हीं विजय की निश्रित ।

३.प्रगति की संभावना और उसके लिये संकल्प ।

  अच्छा स्वभाव, न्याय-संगत व्यवहार, सत्यनिष्ठा ।

  धैर्य, सहनशीलता, अध्यवसाय ।

  समता, साहस, प्रसन्नता ।

 

*

 

  ११ और १३ वर्ष की अवस्था के बच्चों की पढ़ाई मैं मुख्य रूप से किस बात पर ध्यान देना चाहिये?

 

सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो उन्हें सिखनी चाहिये वह हैं सच्चे और निष्कपट होने की परम आवश्यकता ।

 

  समस्त असत्य को, चाहे वह कितना भी हल्का क्यों न हो, अस्वीकार करो । उन्हें सदा प्रगति करते रहना मी सिखाना चाहिये, क्याकि जैसे हीं कोई प्रगति करना बंद करता है, वैसे हीं वह पीछे गिरता हैं  और यह क्षय का आरंभ है ।

 

*

 

  मै जैसा देखती और जानती हू उसके अनुसार, सामान्य नियम यह होना चाहिये कि चीख वर्ष से ऊपर के बच्चों को स्वाधीनता मिलनी चाहिये । उन्हें सलाह तभी दी जाये जब हैं सलाह माँगें ।

 

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  उन्हें यह पता होना चाहिये कि अपने जीवन की व्यवस्था करने के लिये वे स्वयं जिम्मेदार हैं ।

 

  अभी तुमने जो विचार और भाव प्रकट किये हैं उन्हें सुनकर मै बहुत प्रसन्न हू और मैं तुम्हें अपने आशीर्वाद देती हू । मैं बस, यही चाहती हू कि तुम्हारे विचार केवल आदर्श न बने रहें बल्कि वास्तविकताएं बन जायें । तुम्हारी यह प्रतिज्ञा होनी चाहिये कि आदर्श को अपने जीवन और चरित्र में चरितार्थ करो । मैं इस अवसर पर तुम्हें कुछ ऐसी बात बताती हू जो मै तुम्हें बहुत दिनों से बतलाना चाहती थी । यह तुम्हारी पढ़ाई के बारे मे है । स्वभावत: अपवाद होते हैं पर अपवाद हीं नियम को बल देते हैं । उदाहरण के लिये, तुमने आज छुट्टी मांगी । मुज्ञो नहीं लगा कि तुम्हें अधिक विश्राम की जरूरत है । तुम्हारा यहां का जीवन लगभग सतत विश्राम के क्रम पर गठित है । फिर भी, मैंने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली । लेकिन तुमने ''शुभ-समाचार' ' को जिस तरह लिया उससे मुझे कष्ट हुआ । तुममें से कुछ ने तो इसे विजय भी मान लिया । लेकिन मैं पूछती हू, किसकी विजय? किसके विरुद्ध विजय? अधिकाधिक सीखने और जानने के आनंद पर निक्षेतना की विजय? सुव्यवस्था और नियम पर अव्यवस्था की विजय? प्रगति और आत्म-विजय के प्रयास पर अज्ञानपूर्ण और ऊपरी इच्छा- शक्ति की विजय?

 

  तुम्हें मालूम होना चाहिये कि यह जीवन और शिक्षा की सामान्य अवस्था मे रहनेवाले लोगों की सामान्य प्रवृत्ति है । लेकिन तुम- अगर तुम उस महान आदर्श को चरितार्थ करना चाहते हो जो हमारा लक्ष्य है, तो तुम्हें सामान्य जीवन की अंधी और अलानपूर्ण स्थितियों मे रहनेवाले सामान्य लोगों की सामान्य और निरर्थक प्रतिक्रियाओं मे संतुष्ट न रहना चाहिये ।

 

  जब मै ऐसी बातें कहती हू तो लगता है कि मै बहुत पुराने ख़यालों की हू, फिर भी, मुझे कहना चाहिये कि तुम्हें बाहरी प्रभाव और सामान्य आदतों के बारे मे बहुत ज्यादा सावधान रहना चाहिये । तुम्हें उनकों अपनी भावनाओं और अपनी जीवन- प्रणाली को आकार देने की स्वीकृति न देनी चाहिये । जो कुछ भी बाहरी और विजातीय वातावरण से आये उसे अपने अंदर न कूद पढ़ने दो-वह सब अतिसामान्य और अलानपूर्ण होता हैं । अगर तुम नव मानव के परिवार के बनना चाहते हों तो दयनीय रूप मे आज और बीते कल के बच्चों का अनुकरण न करो । दृढ़, बलवान् और श्रद्धा से भरपूर बनो । जैसा कि तुम कहते हो महान विजय प्राप्त करने के लिये युद्ध करो और उसमें जितो । जैसा तुम पर भरोसा है और मै तुम पर विश्वास करती हू ।

 

  विश्वविद्यालय के वार्षिकोत्सवों के समय मैंने जो कहा था उसे मैंने अभीतक

 

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प्रकाशित नहीं किया हैं। मैंने आशा की थीं कि तुम इस पाठ से लाभ उठाओगे और अपनी गतिविधि को सुधार लोग । खेद के साथ मुझे कहना पड़ता है कि स्थिति सुधीर नहीं हैं : ऐसा मालूम होता है कि कुछ विद्यार्थियों ने कक्षा का समय अपने बुरे-से-बुरे रूप को प्रकट करने के लिये चूना हैं । वे सड़क के छोकरों से भी ज्यादा बुरा व्यवहार करते हैं । न केवल यह कि वे उन्हें दिये गायें अध्यापक से लाभ नहीं उठाते, बल्कि औरों को भी पाठ का लाभ न उठाने देने मे शरारत-भरी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं ।

 

  हम जगत् को यह दिखाना चाहते हैं कि भावी कल का मनुष्य कैसा होना चाहिये । क्या हम उनके आगे यहीं उदाहरण रहेंगे ?

 

(अप्रैल १९५३ में प्रकाशित)

 

*

 

  अध्यापकों की सभा ने कुछ विद्यार्थियों के नियंत्रण सदाचार और सद्व्यवहार के बारे मैं चिंता प्रकट की !

 

मैं शिष्ट व्यवहार की आवश्यकता पर जोर देती हूं । मै नाली के कीड़े जैसे व्यवहार मे कोई बड़ी बात नहीं देखती ।

 

(४-३-१९६०)

 

*

 

 सच्चा बल और सुरक्षा हृदय में स्थित भागवत सत्ता से आते हैं ।

 

  अगर तुम इस सत्ता को हमेशा अपने अंदर रखना चाहो तो सावधानी के साथ वाणी, आचार और क्रिया है समस्त अशिष्टता और गंवारूपन को दूर रखो ।

 

  स्वाधीनता की स्वच्छंदता और आजादी को अभद्र व्यवहार न मान बैठो : विचार शुद्ध होने चाहिये और अभीप्सा तीव्र ।

 

(२६-२-१९६५)

 

   क्या यह जो स्वाधीनता हमें दी गयी हे वह उन लोगों के लिये खतरनाक नहीं है जो अभी तक जाग्रत नहीं हैं जो अभीतक अचेतन हैं? किस बिरले पर हमें यह सौभाग्य प्रदान किया क्या है?

 

संकट और जोखिम प्रगति का भाग होते हैं । उनके बिना, कभी कोई चीज आगे न बढ़ेगी; इसके अतिरिक्त, ये उन लोगों के चरित्र-निर्माण के लिये अनिवार्य हैं जौ प्रगति करना चाहते हैं ।

 

(१३-४-१९६६)

 

*

 

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दो चीजें करने की जरूरत हैं । बच्चों को यह सिखाना चाहिये :

क) परिणाम चाहे कुछ क्यों न हों, वे कभी झूठ न बोलें;

ख) उग्रता, कोप, क्रोध पर संयम रखें ।

 

   अगर ये दो चीजें की जा सकें, तो वे अतिमानवता की ओर ले जाये जा सकते हैं।

 

  यह ख्याल है कि अगर हम परंपराएं और बंधनों को थोड़े तो हम सामान्य मानवजाति की सीमाओं से मुक्त हो जाते हैं । लेकिन यह गलत हैं ।

 

  जिसे हम ''परामानव' ' कह सकते हैं वह होने के लिये इन दो चीजों को पाना जरूरी है : झूठ न बोलना और अपने-आपको वश में रखना ।

 

  भगवान् के लिये संपूर्ण भक्ति सबसे अंतिम अवस्था है, लेकिन ये दो बातें पहले चरितार्थ करनी होगी !

 

(१८-७-१९७१)

 

*

 

  मनुष्य होने के लिये अनुशासन अनिवार्य हैं । अनुशासन के बिना तुम जानवर के सिवा कुछ नहीं हो । मै तुम्हें दो सप्ताह देती हू ताकि तुम यह दिखा सको कि तुम सचमुच बदलना चाहते हो और नियंत्रण मे रहना चाहते हो । अगर तुम नियंत्रित और आज्ञाकारी बनना चाहते हो तो मैं तुम्हें एक और अवसर देने के लिये तैयार हूंं । लेकिन धोखेबाजी की कोशिश मत करो... । कपट का जरा-सा भी चिह्न दिखायी दिया तो मुझे तुम्हें भेज देना पड़ेगा ।

 

  व्यक्ति आदमी बनना तभी शुरू करता हैं जब वह उच्चतर और सत्यतर जीवन के लिये अभीप्सा करना शुरू करता है और रूपांतर का अनुशासन स्वीकार करता हैं ।

 

  इसके लिये तुम्हें अपनी निम्नतर प्रकृति और अपनी कामनाओं को वश में करने से प्रारंभ करना चाहिये ।

 

(८-३-१९७२)

 

*

 

विधार्थियों से

  

 कक्षा में शोर मचाना स्वार्थपूर्ण मूढ़ता का कार्य है ।

 

  अगर तुम चुपचाप ध्यान देकर कक्षा में उपस्थित होने का इरादा नहीं रखते तो न आना ज्यादा अच्छा हैं ।

 

*

 

   विद्यालय में लड़ना कक्षा में लड़ना, क्रीढ़ांगण में लड़ना, गली में लड़ना, धर पर

 

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लड़ना (चाहे अपने धर में हो या छात्रावास मे) मना हैं ।

 

  हमेशा और हर जगह बच्चों को आपस मे लड़ने की मनाही हैं , क्योंकि हर बार, जब तुम किसी पर प्रहार करते हो तो वह तुम्हारी अपनी अंतरात्मा पर प्रहार होता हैं ।

 

(१५-१-१९६३)

 

*

 

  जब मै अपने खेल के सथियों सें असहमत होती थी तब जिस उपाय को काम मे लाती थीं, तुम्हें भी वही उपाय सुझा रही हू । उन दिनों मैं बहुत संवेदनशील थी, जैसे तुम हो । जब वे बुरा-भला कहते तो मुझे बहुत चोट लगती थी, विशेषकर जब वे ऐसे लोग होते जिन्हें मैंने हमेशा सहानुभूति और सद्भावना दिखायी थीं । मै अपने-आपसे कहा करती थीं : ''मै दुःखी और दीन क्यों बनें? अगर वे जो कहते हैं वह ठीक है तो मुझे खुश होना चाहिये कि मुझे यह पाठ मिला और मुझे अपने-आपको ठीक कर लेना चाहिये; और अगर वे गलती पर हैं तो मै उनके लिये चिंता क्यों करूं? -उन्हें अपनी भूलो के लिये दुःखी होना चाहिये । दोनों अवस्थाओं में मेरे लिये सबसे अच्छी और प्रतिष्ठापूर्ण बात यही है कि मैं बलवान् शांत और अविचल बनी रहूं । ''

 

  मै अपने-आपको जो पाठ आठ वर्ष की अवस्था में पढ़ाया करती थीं और जिसका अनुसरण करने की कोशिश करती थीं वह इसी प्रकार के सभी उदाहरणों मे अब भी उपयोगी हैं ।

 

(१७-४ -१९३२)

 

*

 

बच्चों सै कुछ बातें

 

  १. अगर तुम यह नहीं चाहते कि दूसरे तुम्हारा मजाक करें तो तुम मी औरों का मजाक न उड़ाओ ।

 

  २. अगर तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारा सम्मान करें तो तुम भी हमेशा सम्माननीय ढंग से काम करो ।

 

  है. अगर तुम चाहते हो कि सब तुमसे प्यार करें तो तुम मी सबसे प्यार करो ।

 

  चूंकि यहां लड़के-लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं इसलिये हमने हमेशा आग्रह किया हैं कि उनके आपसी संबंध सामान्य सथियों जैसे हों जिनमें सेक्स या कामुकता का कोई स्थान न हो और सब प्रकार के प्रलोभनों सें बचने के लिये उन्हें एक-दूसरे के कमरे में जाने या अकेले मे गुप्त रूप से मिलने के लिये मना किया गया है । यह हर

 

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एक के आगे स्पष्ट कर दिया गया है । अगर इन नियमों का कठोरता से पालन किया जाये तो कोई अप्रिय चीज नहीं हो सकती ।

 

(१६-८-१९६०)

 

*

 

  ज्योतिषियों का कहना है कि जिनका जन्म नवम्बर मे होता है बे सेक्स के पीछे पागल होने हैं !

 

ज्योतिषी जो कहते हैं उस पर विश्वास हीं क्यों करते, हों? यह विकास ही कष्ट लाता

 

  श्रीअरविन्द कहते हैं कि आदमी वही बन जाता है जो वह अपने बारे में सोचता है । इस उपाय का उपयोग करके देखो, यह सचि कि तुम अच्छे बच्चे हो और सेक्स से छुटकारा पा जाओगे ।

 

  आग्रह के साथ लगातार पांच वर्षों तक इस उपाय का प्रयोग करो । अपने अंदर संदेह या अनुत्साह को घुसने मत दो और पांच साल के बाद मुझे परिणाम बताना । इसका बहुत ख्याल रखो कि परिणाम के बारे में कभी संदेह न करना ।

 

(१९६५)

 

*

 

   तुम इस सेक्स के मामले को बहुत अधिक महत्त्व दे रहे हो ।

 

  उसके बारे मे बिलकुल न सोचों-ज्यादा रुचिकर चीजों मे रस लो । ज्ञान और चेतना मे बढ़ने की कोशिश करो और जब सेक्स के विचार या सेक्स के आवेग आये तो उन्हें लात मारकर भगा दो-तब तुम मेरे सैनिकों मे से एक बनने की आशा कर सकते हो ।

 

(१९६५)

 

 मैं पहले ही तुम सबसे कह चुकी हू कि यह न सोचों कि तुम लड़के हो या लड़की । अपने-आपको मानव सत्ताएं मानो जो समान रूप से भगवान् को पाने, वही होने और उन्हें अभिव्यक्त करने के लिये प्रयत्नशील हैं ।

 

(१६-२-१९६६)

 

*

 

  सेक्स के बारे मे जानकारी का एकदम अभाव गंभीर तकलीफें पैदा कर सकता मै जिन बच्चों को जानता हू ' कुछ जानकारी देन? चाहता हू?

 

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शरीर-विधान की दृष्टि से कुछ विचार देना विकृति लानेवाले लज्जा के पुराने हानिप्रद और मूर्खतापूर्ण भाव को दूर कर सकते हैं ।

 

  कुछ विद्यार्थी कहते हैं कि हम लिंगहीन समाज की बाट जोह रहे हैं फिर भाषा मे लिंग के मत्थे मे क्यों पड़े?

 

यह केवल मजाक हैं... या मन की एक मरोड़ हैं और जो सलाह दी गयी है उसे होशियारी के साथ समझने सें इंकार करती है ।

 

  कुछ अच्छे विधर्मी धन की इतना? अधिक महत्व देते हैं कि सुनकर एक धक्का लगता है! क्या हम इस विषय पर बातचीत कर सकते हैं?

 

हां, कोशिश करो-इसकी बहुत अधिक) जरूरत है । ऐसा लगता है कि आजकल धन ही परम प्रभु बन गया हैं - सत्य पृष्ठभूमि मे हटता जा रहा हैं , रहा प्रेम, वह तो बिलकुल अदृश्य है!

 

  मेरा आशय है भागवत प्रेम से, क्योंकि मनुष्य जिसे प्रेम कहते हैं वह तो धन का बड़ा अच्छा मित्र है ।

 

  जब कोई बच्चा तुम्हें अपने परिवार के धन-दौलत की कहानियां सुनाकर प्रभावित करना चाहे तो चुपचाप मत बैठे रहो । तुम्हें उसे समझाना चाहिये कि यहां संसारी दौलत का महत्त्व नहीं है, केवल उसी धन का कुछ महत्त्व है जो भगवान् को अर्पण कर दिया गया हो, कि तुम बड़े मकान मे रहने से, पहले दर्जे मे यात्रा करने से या बहुत खुले हाथों खर्च करने से बड़े नहीं बन जाते । तुम्हारी महत्ता सत्यवादी, निष्कपट और कृतज्ञ होने से हीं बढ़ सकती हैं वि

 

*

 

  मैंने कहा है और मैं इस निर्णय को फिर से दोहराती हू कि पन्द्रह साल से छोटे बच्चों को नौ बजे तक सो जाना चाहिये-जों ऐसा नहीं करते वे आज्ञाकारी नहीं हैं और यह बात दुःखद है ।

 

माताजी नींद के लिये आधी रात मे पहले का समय आधी रात के बाद के समय मे ज्यादा अच्छा क्यों है?

 

क्याकि प्रतीकात्मक रीति से, आधी रात के समय तक सूर्यास्त होता रहता है जब कि आधी'शत के तुरंत बाद, पहले घंटे से ही सूर्योदय हो जाता है ।

 

  आशीर्वाद ।

 

(२२-८-१९६९)

 

  माताजी जल्दी सोना और जल्दी जागना कैसे लाभप्रद होता है?

 

जब सूर्यास्त होता हैं तो धरती पर एक प्रकार की शांति उतरती है और यह शांति नींद के लिये हितकर है ।

 

  जब सूर्योदय होता हैं तो धरती पर एक ओजस्वी शक्ति उतरती हैं और यह शक्ति काम में सहायक होती हैं ।

 

  जब तुम देर में सोते और देर में उठते हो, तो तुम प्रकृति की शक्तियों से उलटे चलते हो और यह बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं हैं ।

 

  आशीर्वाद ।

 

(२१-१२-१९६९)

 

   माताजी यहां अध्यापकों और कप्तानों के प्रति हमारी क्या वृत्ति होनी

 

आझाकसि, विनीत और स्नेहभरी वृत्ति । हैं तुम्हारे बह माई या बढ़ी बहनें हैं जो तुम्हारी सहायता करने के लिये बहुत कष्ट उठाते हैं ।

 

आशीर्वाद ।

 

(१-२-१९७०)

 

*

 

१४५

 

छुट्टियां

 

  छुट्टियों के बारे मैं आश्रम मे दो अफवहैं फैली हुई हैं

 

   पहली यह कि इस वर्ष तो आप हमें बाहर जाने की स्वीकृति दे रही हैं पर अमले वर्ष स्वीकृति न मिलेगी, दूसरी यह कि आप नहीं चाहती कि हम बाहर

 

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  मै जानना चाहूंगा कि कौन-सी अफवहैं ठीक हैं क्योंकि बहुत-से विद्यार्थियों को आपसे जाने की स्वीकृति मिल चुकी हे

 

दोनों में से कोई भी सत्य नहीं है ।

  दोनों मे सें कोई भी मिथ्या नहीं हैं ।

 

  ये दोनों और इनके अतिरिक्त और भी बहुत-सी मेरी समन्वयात्मक और सामंजस्यपूर्ण इच्छा-शक्ति की विकृत अभिव्यक्तियां हैं ।

 

  व्यक्तिगत रूप से हर एक को मेरा उत्तर, यदि वह सच्चा, निष्कपट हो, उसकी आवश्यकता की अभिव्यक्ति होता हैं ।

 

(१७-१०-१९६४)

 

*

 

   माताजी बाहर जानें से हम अपना आध्यात्मिक लाभ क्यों और कैसे खो बैठते हैं? हम सचेतन रूप ले प्रयास कर सकते हैं अरे फिर आपका संरक्षण तो है न !

 

 अपने मां-बाप के पास जाना उस प्रभाव के पास लौटना है जो सबसे अधिक मजबूत होता हैं : और ऐसे उदाहरण बहुत क्रम हैं जहां मां-बाप तुम्हारी आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होते हों, क्योंकि वे साधारणत: सांसारिक उपलब्धि मे ज्यादा रस लेते हैं ।

 

  जो मां-बाप मुख्य रूप से आध्यात्मिक उपलब्धि मे रस लेते हैं वे साधारणत: अपने बच्चों को मिलने के लिये नहीं बुलाते ।

 

आशीर्वाद ।

 

(८-११-१९६९)

 

*

 

   जो विद्यार्थी १६ दिसंबर को विद्यालय के सत्रारंभ पर उपस्थित न होंगे उन्हें सारे वर्ष विद्यालय में प्रवेश न मिलेगा ।

 

(नवंबर १९६९)

 

*

 

 ''हॉलीडेज'' या छुट्टियां?

 

हम ''होली'' डेज' कह सकते हैं? इनके दो प्रकार होते हैं : एक मान्यता के अनुसार

 

 अंग्रेजी मे छुट्टी को ''हॉलीडे' ' कहते हैं और ''होली डे' ' हुआ पवित्र दिन ।

 

भगवान् ने छ: दिन (या युग) तक काम करके यह सृष्टि बनायी और सातवें दिन विश्राम, एकाग्रता और ध्यान-चिंतन के लिये काम बंद रखा । इसे भगवान् का दिन कहा जा सकता हैं ।

 

  दूसरे : मनुष्य, भगवान् के बनाये हुए जीव, छ: दिन तक अहंकारमय उद्देश्यों के लिये,''ज्यक्तिगत हितों के लिये काम करते हैं, और सातवें दिन आराम करने और अपने अंदर और अपर देखने के लिये समय निकालने के लिये, अपनी सत्ता और चेतना के स्रोत का ध्यान करने और उसमें गोता लगाकर नयी शक्ति प्राप्त करने के लिये काम बंद रखते हैं ।

 

  इस शब्द को आधुनिक अर्थ मे समझने के ढंग के बारे में कुछ कहने की शायद हीं जरूरत हो, अर्थात् अपने मनोविनोद के व्यर्थ के प्रयास के लिये हर संभव रूप से समय नष्ट करना ।

 

*

 

  क्या ओरोवील के जौ लोग सच्चे सेवक बनना चाहते हैं उनके लिये रविवार का दिन है ?

 

शुरू में सप्ताह की व्यवस्था इस तरह से की गयी थी : छ: दिन व्यक्ति उस समुदाय के लिये काम करे जिसका वह अंग हैं; सप्ताह का सातवां दिन आंतरिक खोज के लिये, भगवान् के लिये और अपनी सत्ता, भगवान् की इच्छा के प्रति निवेदित करने के लिये आरक्षित था । तथाकथित रविवार के विश्राम का यहीं एकमात्र अर्थ और उसका सच्चा कारण हैं ।

 

  यह कहने की जरूरत नहीं है कि उपलब्धि के लिये निष्कपटता एक आवश्यक स्थिति हैं; समस्त कपट पतन हैं ।

 

(२५-१०-१९७१)

 

*

 

१४७

 

अन्यत्र पढ़ाई

 

   मेरा इरादा था कि तुम्हें अपनी पढ़ाई के लिये, उसके बारे मे कुछ भी कहे बिना जाने दूं क्योंकि हर एक को अपना चूना हुआ मार्ग अपनाने की छूट होनी चाहिये । लेकिन तुमने जौ लिखा हैं वह मुझे कुछ लिखने के लिये बाधित कर रहा है ।

 

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  निःसंदेह, बाह्य दृष्टि से इंग्लैंड में तुम्हें वह सब मिलेगा जो तुम पाना चाहते हो, जिसे मनुष्य ज्ञान कहते हैं । लेकिन ' सत्य' और 'चेतना' की दृष्टि से तुम्हें वह वातावरण कहीं नहीं मिलेगा जिसमें तुम यहां रह रहे हो । दूसरी जगहों पर तुम धार्मिक या दार्शनिक भाव पा सकते हो, लेकिन सच्ची आध्यात्मिकता, भगवान् के साथ सीधा संबंध, उन्हें मन, प्राण और क्रिया में पाने की सतत अभीप्सा आदि ऐसी चीजें हैं जिन्हें जगत् में बिखरे हुए विरले व्यक्तियों ने ही पाया है और है किसी भी विश्वविद्यालय में जीवित तथ्य के रूप में नहीं हैं, वह चाहे कितना भी उन्नत क्यों न हो ।

 

  व्यावहारिक रूप में, जहांतक तुम्हारा संबंध है, तुमने जो अनुभूति प्राप्त की हैं उससे बह जाने का बड़ा खतरा है और तब यह नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारा क्या होगा ।

 

  मैं इतना हीं कहना चाहती थी- अब चुनना और निश्चय करना तुम्हारे हाथ मे हैं ।

 

(२२ -१० -१९५ २)

 

   हम ' की या तो आजीविका की खोज मे या अध्ययन के लिये आश्रम छोड़कर जाते हुए देखते; ये ऐसे लोग जो बचपन से यहां ' जब युवक औरों को जाते हुए देखते तो उनमें एक प्रकार की अनिश्चितता- सी और थे सावधानी के सक् : ''कौन जाने किसी दिन ' मरी बारी मी न ना जाय ? '' लगता कि इन सबके पीछे शक्ति हैं? वह क्या हैं ?

 

यह अनिश्चितता और ये प्रयाण निम्न प्रकृति के कारण हैं जो योग-शक्ति का प्रतिरोध करती है और भागवत क्रिया को धीमा करने की कोशिश करती है, किसी बुरी भावना से नहीं, बल्कि यह निशित करने के लिये कि लक्ष्य की ओर बढ़ने की जल्दी में कोई चीज भुला न दी जाये, किसी की अवहेलना न हो जाये । बहुत हीं कम हैं वे लोग जो संपूर्ण समर्पण के लिये तैयार हैं । बहुत-से बच्चे जो यहां पड रहे हैं उन्हें भागवत कार्य के लिये तैयार होने से पहले जीवन के साथ भिड़ना की जरूरत हैं । इसीलिये वे सामान्य जीवन की कसौटी पर केस जाने के लिये यहां से जाते हैं।

 

(११-११-१९६४)

 

*

 

  (एक विद्यार्थी को किलकते मे क्रियात्मक पाठधक्रम मे सम्मिलित ह7एने का निमंत्रण मिला ?)

 

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जो सचाई के साथ सीखना चाहते हैं उनके लिये यहां सब प्रकार की संभावनाएं हैं । एक ही चीज है जो बाहर मिल सकती हैं  और यहां नहीं मिलती, वह है बाह्य अनुशासन का नैतिक दबाव ।

 

  यहां तुम स्वतंत्र हो और एकमात्र वही दबाव रहता हैं जिसे तुम अपने-आप डालो-काते कि तुम निष्कपट ओर सच्चे हो ।

 

 अब फैसला तुम्हें करना है ।

 

(३-८-१९६६)

 

*

 

कछ लड़के-लड़कियां का कहना है कि बे यहां पढ़ाई के लिये आये हैं साधना के लिये नहीं इसलिये बे जो चाहे कर सकते हैं उन्हें क्या उत्तर देना चाहिये या उनके प्रति कैसी रखनी चाहिये?

 

उनसे कहा जा सकता हैं कि उन्हें यहां नहीं रहना चाहिये । हम किसी पर योग थोपते नहीं हैं; लेकिन उन्हें एक स्वस्थ और समुचित जीवन बिताना चाहिये, और अगर वे यह नहीं चाहते तो उन्हें कहीं और चले जाना चाहिये ।

 

 माताजी क्या उन्हें यहां से भेजा जा सकता है?

 

उनमें से किसी एक को मेरे पास ले आओ जो पढ़ाई में बहुत कमजोर हो । मै बोलूं नहीं, कुछ परीक्षण करूंगी, अगर वह सफल हुआ तो तुम औरों को भी ला सकते हो।

 

*

 

  (एक अध्यापक ने लिखा कि कुछ विद्यार्थी हमारे शिक्षा-केंद्र ले संतुष्ट नहीं हैं !)

 

 तुम उनसे कह सकते हो अगर उन्हें यह विश्वास नहीं हैं कि यहां पर वे कुछ ऐसी चीज सीख सकते हैं जो कहीं और नहीं बढ़ायी जाती तो अच्छा है कि वे विद्यालय बदल लें । उनके बिना हमें कोई हानि न होगी ।

 

साधारण-सी भीड़ होने की जगह कुछ चुने हुए लोगों का होना ज्यादा अच्छा हैं ।

 

*

 

१५०


  (एक बिधार्थी ने अपना पाठ्यक्रम लगभग समाप्त कर लिया? उसके सामने थी कि अमरीका में जाकर आये की पड़ी करे श आश्रम मे तस्कर काम करे उसने माताजी से पूछा)

 

मैं तुम्हें तुरंत बता सकतीं हूं कि यह इस पर निर्भर है कि तुम जीवन से क्या चाहते हो । अगर तुम साधारण जीवन या सामान्य पुराने ढंग के अनुसार सफल जीवन बिताना चाहते हो तो अमरीका चले जाओ और भरसक प्रयास करो ।

 

  इसके विपरीत, अगर तुम भविष्य के लिये और उसमें बननेवाली नयी सृष्टि के लिये तैयार होने की अभीप्सा करते हो तो यहीं बने रहो और जो आनेवाला है उसके लिये अपने-आपको तैयार करो ।

 

(१७-१ -१९६९)

 

*

 

  हम यहां केवल उन्हीं बच्चों को चाहते हैं जो अपने-आपको नये जीवन के लिये तैयार करना चाहते हैं और जो जीवन में सफलता की अपेक्षा, प्रगति को ज्यादा महत्त्व देते हैं । हम उन्हें नहीं चाहते जो आजीविका कमाने और सांसारिक सफलता पाने के लिये अपने-आपको तैयार करना चाहते हैं । वे कहीं और जा सकते हैं ।

 

  हम बच्चों से क्या आशा करते हैं यह समह्म सखने के लिये उन्हें दस वर्ष से ऊपर होना चाहिये । जो बच्चे एक नये साहसिक कार्य के लिये तैयार हैं, जो नवजीवन चाहते हैं, जो उच्चतर उपलब्धि के लिये तैयार हैं, जो चाहते हैं कि अभीतक जो बना रहा है वह न रहकर बदले, उन बच्चों का स्वागत है ।

 

हम उनकी सहायता करेंगे !

 

(जनवरी १९७२)

 

*

 

  पुनर्दर्शनाय, मेरे बच्चे, तुम्हें जो अनुभूति हुई हैं उसे कभी न भूल, और कोई बाहरी अंधेरा तुम्हारे अंदर घुसकर तुम्हारी चेतना को ढंकने न पाये ।

 

मै तुम्हारे साथ हूं ।

 

*

 

 पुनर्दर्शनाय, मेरे बच्चों, मैं चाहती हूं कि तुम्हारे लिये जीवन सुखद हों, और एक दिन तुम 'ज्योति' और 'सत्य' में जन्म लो ।

 

१५१

 

अध्यापक

 

 किसी बच्चे को देने लायक सबसे अनमोल उपहार है उसमें सीखने के लिये ललक पैदा करना, हमेशा और हर जगह सीखते रहना ।

 

*

 

  हर जीवित सत्ता के लिये अपने-आपको जानना और अपने ऊपर काबू रखना सीख लेना एक अमूल्य संपदा हैं । अपने-आपको जानने का अर्थ है अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का हेतु जानना, अपने अंदर जो कुछ होता है उसका 'क्यों' और 'कैसे ' जानना । अपने-आप पर काबू पाने का अर्थ हैं जो निक्षय कर लिया है वही करना, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं, आवेगों, कामनाओं या सनको की न तो सुनना और न उनका अनुसरण करना ।

 

  स्पष्ट हैं कि किसी बालक को नैतिक नियम बतलाना कोई आदर्श चीज नहीं है; लेकिन उसके बिना काम चलाना बहुत कठिन हैं । जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता जाये, उसे सभी नैतिक और सामाजिक नियमों की सापेक्षता बतलायी जा सकती हैं ताकि वह अपने अंदर उच्चतर और सत्यतर नियम को पा सके । लेकिन इस मामले मै सावधानी से आगे बढ़ना चाहिये और सच्चे नियम को खोज पाने की कठिनाई पर जोर देना चाहिये । जो मानव विधि-विधान को अस्वीकार करके अपनी स्वाधीनता की घोषणा करते हैं और कहते हैं कि हैं '' अपना हीं जीवन जीते हैं' ' उनमें अधिकतर अति सामान्य प्राणिक गतिविधि की आज्ञा के अनुसार चलते हैं और उसे अपनी आंखों मे न सही, कम-से-कम दूसरों की आंखों मे मजरूह देकर न्यायसंगत ठहराने की कोशिश करते हैं । वे नैतिकता को सिर्फ इसलिये ठोकर मारते हैं क्योंकि वह उनकी सहजवृत्तियां की तुष्टि मे बाधक होती हैं ।

 

  किसी को नैतिक और सामाजिक विधानों के बारे में कोई निर्णय करने का अधिकार तबतक नहीं हैं जबतक कि वह उनसे अपर का आसन न पा ले; आदमी उन्हें तबतक नहीं छोड़ सकता जबतक कि उनके स्थान पर कोई ज्यादा ऊंची चीज प्रतिछित न कर ले, जो इतना आसान नहीं है ।

 

  बहरहाल, बच्चे को हम जो अच्छे-से-अच्छा उपहार दे सकते हैं वह हैं उसे अपने- आपको जानना और अपने अपर शासन करना सिखलाना ।

 

(जुलाई १९३०)

 

*

 


सफल अध्यापक के व्यक्तित्व की विशेषताएं'

 

  १. पूरा-पूरा आत्म-संयम, केवल इतना ही नहीं कि अपना क्रोध न दिखलाओ, बल्कि सभी परिस्थितियों में पूरी तरह शांत, स्थिर और अविचल बने रहना ।

 

  २. आत्मविश्वास के मामले में, अपने महत्त्व की सापेक्षता का भी भान होना चाहिये ।

 

  सबसे बढ़कर, यह जान होना चाहिये कि अगर अध्यापक चाहता है कि उसके विद्यार्थी प्रगति करें तो स्वयं उसे भी हमेशा प्रगति करनी चाहिये । उसे कभी, वह जो हैं या वह जितना जानता है उससे संतुष्ट न होना चाहिये ।

 

  है. अध्यापक में अपने विद्यार्थियों के प्रति मूलभूत श्रेष्ठता का भाव न होना चाहिये और न हीं उनमें से किसी के लिये वरीयता या आसक्ति ।

 

  ४. उसे यह मालुम होना चाहिये कि आध्यात्मिक दिष्टि से सब समान हैं और उसके अंदर केवल सहिष्णुता की जगह व्यापक बोध और समझ होनी चाहिये ।

 

  ५. '' अध्यापक और मां-बाप दोनों का यह काम हैं कि बच्चे को अपने-आपको शिक्षित करने के योग्य बनाये और इसमें उसको मदद करें, उसे अपनी बौद्धिक, नैतिक, सौंदर्य-बोधात्मक और व्यावहारिक क्षमताओं को विकसित करने और एक मूलभूत सत्ता के रूप मे खुले तौर पर विकसित होने मे मदद दें जिसे जड़ लोचदार पदार्थ की तरह कोई आकार देने के लिये गूंथना या दाबने की जरूरत नहीं । '' (श्रीअरविन्द ''मानव क्रम-विकास' ')

 

(जून १५५४ में प्रकाशित)

 

*

 

  यह कभी न भूलो कि एक अच्छा अध्यापक होने के लिये तुम्हें अपने अंदर सें समस्त अहंकार का उन्मूलन करना होगा । '

 

(१० दिसम्बर १९६०)

 

*

 

  और श्रीअरविन्द के बतलाये अतिमानसिक सत्य के अनुसार पढ़ने के योग्य होने के लिये तुम्हारे अंदर अहंकार बिलकुल न रहना चाहिये । '

 

(दिसंबर १९६०)

 

*

 

१.किसी शिक्षक-प्रशिक्षण-महाविद्यालय की प्रश्नावली पर माताजी की टिप्पणियां। २.अध्यापकों की वार्षिक बैठक के लिए संदेश ।

३.अध्यापकों की वार्षिक बैठक के लिए संदेश ।

 

समस्त अध्ययन, कम-से-कम अध्ययन का अधिकांश, भूतकाल के बारे में सीखना ही होता हैं, उससे आशा की जाती है कि उसके सहारे तुम वर्तमान को ज्यादा अच्छी तरह समझ सकोगे । लेकिन अगर तुम इस खतरे से बचना चाहते हो कि विद्यार्थी कहीं भूत से ही न चिपटे रह जायें और भविष्य मे देखने से इंकार कर दें तो तुम्हें हैं बड़ा ? सावधानी के साथ उन्हें यह समझाना चाहिये कि भूतकाल में जो कुछ हुआ  उसका उद्देश्य था, आज जो हो रहा हैं उसकी तैयारी करना, और यह कि आज जो कुछ हों रहा हैं वह भविष्य की ओर ले जानेवाले मार्ग की तैयारी से बढ़कर कुछ नहीं है । वह भविष्य ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज है जिसके लिये हमें तैयारी करनी चाहिये ।

 

 अंतर्भाव को पोषण देकर ही तुम भविष्य में ज़ीने की तैयारी कर सकते हो ।

 

(१८-९-१९६७)

 

*

 

  भूतकाल की जगह भविष्य के बारे में सोचों ।

 

(१५-१२-१९७२)

 

१५३

 

अध्यापन

 

विधालय अध्यापक और विधार्थी, दोनों की प्रगति का अवसर होना चाहिये । हर एक को मुक्त रूप से विकसित होने का अवसर मिलना चाहिये ।

 

 कोई पद्धति उतनी अच्छी तरह से कभी नहीं लागू की जा सकती जबतक कि स्वयं अध्यापक ने हीं उसे न खोजा हो । अन्यथा वह अध्यापक के लिये उतना हीं ऊबाऊ होता है जितना विद्यार्थी के लिये ।

 

 *

 

  एक बात हैं जिस पर मुझे जोर देना चाहिये । बाहर के विश्वविद्यालयों मैं जो किया जाता है उसका अनुसरण करने की कोशिश मत करो । विद्यार्थियों मे केवल आकड़े और जानकारी सस्ते की कोशिश न करो । उन्हें इतना अधिक काम न दो कि उन्हें और किसी चीज के लिये समय ही न मिले । तुम्हें रेल पकने की जल्दी नहीं है । विधार्थी जो सीखते हैं उसे समह्मने दो । उन्हें उसे आत्मसात करने दो । पाख्यक्रम

 

  १अध्यापकों की वार्षिक बैठक के लिए संदेश ।

 

१५४


समाप्त करना तुम्हारा लक्ष्य नहीं होना चाहिये । तुम्हें कार्यक्रम इस तरह बनाना चाहिये कि विद्यार्थियों को उन दूसरी चीजों के लिये भी समय मिल सके जिन्हें हैं सीखना चाहते हैं । उन्हें शारीरिक व्यायाम के लिये काफी समय मिलना चाहिये । मै नहीं चाहती कि वे बहुत अच्छे विद्यार्थी तो हों, पर रहें दुबला-पतले, रक्तहीन और पांडुर । शायद तुम्हारा जवाब यह हो कि इस तरह उन्हें पढ़ने-लिखने के लिये काफी समय न मिलेगा, लेकिन यह कमी पूरी करने के लिये उनके अध्ययन-काल को बढ़ाना जा सकता हैं, कोई पाख्यक्रम चार वर्ष में पूरा करने की जगह, तुम उसमें छ: वर्ष लगा सकते हो । यह उनके लिये ज्यादा अच्छा होगा; हैं यहां के वातावरण को ज्यादा आत्मसात् कर सकेंगे और उनकी प्रगति और सब छोड़कर एक हीं दिशा मे नहीं होगी । यह हर दिशा मे चौमुखी प्रगति होगी !

 

(१०-९-१९५३)

 

उच्चतर पाठधक्रम के विद्यार्थियों की पढार्ड का स्तर नीचा किये बिना उन्हें ज्यादा काम-मार न देने का यह उपाय है कि जिन्हें काम ज्यादा लगता हो उन्हें कुछ विषय छोड़ने की सत्हाह दी जाये तब वे अपना समय और अपनी शक्ति उन्हीं विषयों पर एकाग्र कर सकेंगे जिन्हें हैं सीखना चाहते हैं? पामक्रम हल्का करने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा होगा? पामक्रम हल्का करने से औरों की हानि होगी? यह स्वाभाविक है हमारे यहां प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के सक् ऐसे विद्यार्थी मी हैं जो इतने प्रतिभाशाली नहीं हैं जो उसी गति सै नहीं चल सकते ये अभी के लिये कुछ विषय छोड़ सकते हैं और बाद मे एक वर्ष अधिक त्हमाकर उसे मी सीख सकते हैं क्या यह एक अच्छा हल हैं !

 

यह निर्भर करता हैं । इसे सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता, उनमें से बहुतों के लिये यह विशेष उपयोगी न होगा । वे उस स्थिति तक नहीं पहुंचे हैं कि पढ़ने के विषय कम हों तो अमुक विषयों पर ज्यादा' एकाग्र हो सकें । परिणाम यहीं होगा कि उनमें ढीलें पढ़ने की वृत्ति बढ़ेगी- और यह एकाग्र होने से एकदम उलटा है ।- और इससे समय बरबाद होगा ।

 

  समाधान इसमें नहीं हैं । तुम्हें करना यह चाहिये कि विद्यार्थी जो भी कर रहे हों उसमें रस लेना दिखाओ-यह विद्यार्थियों की रुचिकर चीज करने के समान नहीं है! तुम्हें उनके अंदर ज्ञान और प्रगति के लिये इच्छा जगानी चाहिये । तुम किसी भी काम में, उदाहरण के लिये, कमरे में आलू लगाने में-रस ले सकते हो, बशर्ते कि तुम एकाग्रता के साथ करो, अनुभव प्राप्त करने के लिये, प्रगति करने और अधिक सचेतन

 

१५५


होने के लिये करो । मै प्रायः यह बात उन विद्यार्थियों सें कहा करती हू जो यह शिकायत करते हैं कि उनका अध्यापक अच्छा नहीं हैं । भले उन्हें अध्यापक पसंद न हो, भले वह बेकार बातें किया करता हों, भले वह ठीक स्तर का न हो, फिर भी, वे अपनी कक्षा मे कुछ लाभ उठा सकते हैं : कोई बहुत मजेदार चीज सीख सकते हैं और? चेतना मे प्रगति कर सकते हैं ।

 

  अधिकतर अध्यापक अच्छे विद्यार्थी पाना चाहते हे, ऐसे विद्यार्थी चाहते हैं जो अध्ययनशील, ध्यान देनेवाले हों, बात समह्मते हों : बहुत सारी चीजें जानते हों और अच्छे उत्तर दे सकते हों- यानी, अच्छे विद्यार्थी हों । इससे सब कुछ बिगड़ जाता हैं । विद्यार्थी पढ़ने और सीखने के लिये किताबें देखना शुरू करते हैं और केवल दूसरों की कही और पुस्तकों मे पढ़ीं चीजों पर हीं निर्भर रहते हैं, और उस अति चेतन भाग से संपर्क खो बैठते हैं जो अंतर्भाव के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता हैं । प्रायः छोटे बच्चों मे यह संपर्क रहता है, परंतु पढ़ाई की प्रक्रिया खो जाता हैं ।

 

  विद्यार्थी इस तरह की ठीक दिशा मे प्रगति कर सकें इसके लिये स्पष्ट हैं कि अध्यापक इस बात को समखें और देखने तथा पढ़ने के अपने पुराने तरीके बदले । उसके बिना, मेरा काम अटका हुआ है !

 

(१६-१२-१९५९)

 

*

 

(अध्यापकों मे इस विषय मे मतभेद था कि उच्चतर कक्षाओं के साहित्य के विद्यार्थियों के लिये अंग्रेजी साहित्य को अनिवार्य बनाया जाये या ऐच्छिक जब निर्णय के लिये यह बात माताजी के सामने रखी गयी ती उन्होंने उत्तर दिया:)

 

अध्यापकों से :

 

 संगठन के ब्योरों को इतना अधिक नहीं, वृत्ति को बदलना चाहिये ।

 

 ऐसा मालूम होता हैं कि जबतक स्वयं अध्यापक सामान्य बौद्धिक स्तर सें ऊपर नहीं उठते तबतक उनके लिये अपना कर्तव्य पूरा करना और अपने कार्य को सिद्ध करना कठिन होगा ।

 

(१०-८-१९६०)

 *

 

  एकरूपता के द्वारा एकता नहीं प्राप्त की जाती ।

 

  कार्यक्रमों और पद्धतियों की एकरूपता के द्वारा शिक्षा की एकता नहीं पायी जा सकती ।

 

१५६


  एकता प्रश्र की मांग के अनुसार मौन या प्रकट रूप से केंद्रीय आदर्श, केंद्रीय शक्ति या ज्योति, शिक्षा के उद्देश्य या लक्ष्य के साथ सतत संपर्क द्वारा हीं आ सकती

 

  सत्य और परम 'एकता' अपने-आपको विविधता के द्वारा ही प्रकट करती है । मानसिक तर्क ही अभिन्नता की मांग करता है । व्यवहार में, हर एक को अपनी ही पद्धति-जिसे वह समझता और अनुभव करता है-खोजनी और काम में लाती होगी । केवल इसी तरह शिक्षा प्रभावकारी हों सकतीं है ।

 

(१३-१०-१९६०)

 

*

 

  माताजी क्या आप कृपया थोड़े-से शब्दों मे बतला सकेगी कि ''मुक्त प्रगति'' ले आपका क्या मतलब हैं?

 

एक ऐसी प्रगति जिसका निदेशन अंतरात्मा करती हो, आदतें, परिपाटियां या पूर्वकल्पित विचार नहीं ।

 

*

 

(कई अध्यापकों ने अपनी रिपोर्ट देते हुए विद्यार्थियों की अनियमित उपस्थिति और पढ़ाई के बारे मे चिंता व्यक्त की? अध्यापकों की राय थी कि कुछ ही विद्यार्थी संतोषजनक काम कर रहे हैं उन्होने कक्षाओं की ज्यादा कड़ी व्यवस्था करने का सुझाव दिया माताजी ने उत्तर दिया :)

 

पहले अध्यापकों के लिये :

 

  रिपोर्ट मे जो आकड़े दिये गये हैं उनसे मैं संतुष्ट हूं । लोग चाहे कुछ भी सोचे, बहुत अच्छे विधार्थियों का अनुपात संतोषजनक हैं । अगर डेढ़-सी विद्यार्थियों मे सात विशुद्ध मूल्यवाले हैं तो यह बहुत अच्छा हैं ।

 

अब संगठन के बारे में :

 

  सब मिलाकर कक्षाओं का पुनर्गठन बहुमत की आवश्यकताओं को पूरा करने की दृष्टि से किया जा सकता हैं, यानी, उनकी दिष्टि से जो, किसी बाहरी दबाव या अपर से लगाये गये नियंत्रण के बिना, बुरे तरह काम करते हैं और कोई प्रगति नहीं करते ।

 

  लेकिन यह आवश्यक है कि नयी कक्षाओं में वर्तमान शिक्षा-पद्धति बनी रहे, ताकि विलक्षण व्यक्ति आगे बढ़ सकें और मुक्त रूप से विकसित हों सके । यह हमारा

 

१५७


सच्चा लक्ष्य हैं। यह बात मालूम होनी चाहिये-हमें इसकी घोषणा करते हुए सकुचाना न चाहिये-कि हमारे विद्यालय का समस्त उद्देश्य है उन लोगों को खोजना और उन्हें प्रोत्साहित करना जिनमें प्रगति की आवश्यकता इतनी सचेतन हो गयी  हैं कि उनके जीवन को दिशा दे सके । इन ''मुक्त प्रगति' ' कक्षाओं में प्रवेश पाना एक षिशेषाधिकार होना चाहिये ।

 

  नियमित अवधि के बाद (उदाहरण के लिये, हर महीने) चुनाव होना चाहिये और जो इस विशेष शिक्षा से लाभ नहीं उठा सकते उन्हें साधारण धारा मे वापिस भेज देना चाहिये ।

 

  रिपोर्ट में जो आलोचनाएं की गयी हैं वह जितनी विद्यार्थियों पर लाम होती हे उतनी ही अध्यापकों पर भी । कच्छी क्षमतावाले विद्यार्थियों के लिये, अपने विषय का अच्छा जानकार एक अध्यापक काफी हैं-बल्कि एक अच्छी पाक्य-पुस्तक जिसके साथ विश्व-कोश तथा अन्य कोश हों, काफी हैं । लेकिन जैसे-जैसे तुम नीचे उतरते हों और विद्यार्थियों की क्षमता कम होती जाती है, वैसे-वैसे अध्यापक की क्षमता अधिकाधिक होनी चाहिये : अनुशासन, आत्म-संयम, समर्पण-भाव, मनोवैज्ञानिक समझ, संक्रामक उत्साह, विद्यार्थियों मे सोये हुए भाग-जानने की इच्छा, प्रगति की आवश्यकता, आत्मसंयम आदि-को जगाने की क्षमता ।

 

  जैसे हम विधालय की व्यवस्था इस तरह करते हैं कि विशिष्ट छात्रों की खोज कर सकें और उनकी सहायता कह सकें, उसी तरह, कक्षाओं को जिम्मेदारी विशिष्ट अध्यापकों को देनी चाहिये ।

 

  अतः मै हर अध्यापक से मांग करती हू कि वह अपने विद्यालय के काम को अपनी योग-साधना का सर्वोत्तम और हुत तम मार्ग समझे । और फिर, प्रत्येक कठिनाई और प्रत्येक कठिन बिधार्थी उसके लिये समस्या का दिव्य समाधान पाने का अवसर हो ।

 

(५-८-१९६३)

 

*

 

  माताजी मेरे विद्यार्थी कहते हैं कि 'अ' ने उनसे कहा हैं कि रीतिपूर्वक अम्यासों के द्वारा सुप्त क्षमताओं को विकसित किया जा सकना है कहते हैं कि आपने उसे ये अभ्यास बतलाये हैं उसने यह मी कहा है कि हमारे शिक्षा-केंद्र मे इनका परीक्षण होगा !

 

'क्ष' के आग्रह पर मैंने, पहले अभ्यास का संकेत दिया था-परंतु परिणाम दुर्भाग्यपूर्ण- से निकले, और मुझे बंद करना पड़ा ।

 

  जब समय आता है तो ये चीजें स्वभावतः, यूं कहें, सहजरूप में आती हैं । और

 

१५८


ज्यादा अच्छा यह हैं कि मनमाने संकल्प न किये जायें ।

 

आजकल यहां हमें जो शिला दी जाती है वह बाहर कहीं दी गयी शिक्षा ले बहुत मित्र नहीं है ठीक ईसी कारण हमें विद्यार्थियों की गुप्त आध्यात्मिक क्षमताओं को प्रशिक्षित करने की कोशिश करनी चाहिये लेकिन यह विधालय में कैसे किया जाये?

 

यह किसी बाहरी उपाय से नहीं किया जा सकता । यह लगभग पूरी तरह अध्यापक की वृत्ति और चेतना पर निर्भर है । अगर स्वयं उसमें अंतर्दृष्टि और अंतर्ज्ञान नहीं हैं तो वह ये चीजें विद्यार्थियों को कैसे दे सकता है?

 

  सच पूछो तो, हम मुख्य रूप सें आध्यात्मिक शक्ति से भरे वातावरण पर निर्भर हैं जो चारों ओर से घेरे हुए हैं , जिसका प्रभाव अवश्य होता हैं , भले वह दिखायी न दे या अनुभव न हो ।

 

(२०-४-९९६६)

 

*

 

अध्यापकों और विद्यार्थियों के नाम :

''वैर ला पैर्फेक्सियों' '' की कक्षाएं श्रीअरविन्द की शिक्षा के अनुसार हैं ।

वे 'सत्य' की सिद्धि की ओर ले जाती हैं ।

जो इस बात को नहीं समझते वे अपने भविष्य की ओर पीठ कर रहे हैं ।

 

(सितंबर १९६६)

 

(किसी अध्यापक ने शिकायत की कि बहुत-सी व्यर्थ की बातें बढ़ायी जाती हैं-उदाहरण के लिये भाषाओं की कक्षा मे विद्यार्थियों से मूर्खतामरी कहानियां पढ़ने के लिये कहा जाता है और उन्हें लोगों के जीवन और रीति-रिवाजों के बारे मे नगण्य चीजें बतलायी जाती हैं !

 

तुम्हारी कठिनाई इस कारण आती है क्योंकि तुम्हारे अंदर अभीतक वह पुरानी मान्यता हैं कि जीवन मे कुछ चीजें ऊंची हैं और कुछ नीची । यह ठीक नहीं है । चीजें या क्रियाएं अपने-आपमें ऊंची-नीची नन्हों होती, करनेवाले की चेतना सत्य या मिथ्या होती है ।

 

  'मुक्त प्रगति पद्धति' के अनुसार वर्गीकृत कक्षाओं का नाम ।

 

१५९


  अगर तुम अपनी चेतना को 'परम चेतना' के साथ एक करके 'उसे' अभिव्यक्त करो तो तुम जो कुछ सोचोगे, जो कुछ अनुभव करोगे या जो कुछ करोगे वह सब ज्योतिर्मय और सत्य बन जायेगा । पढ़ाने का विषय बदलने की जरूरत नहीं है, तुम जिस चेतना के साथ पढ़ाते हो उसे प्रबुद्ध होना चाहिये ।

 

(३१-७-१९६७)

 

*

 

मुझे नहीं मालूम कि मेरे अंदर अंतरात्मा जैसी कोई चीज है मी या नहीं फिर मी अध्यापक के नाते आशा की जाती है कि मैं विद्यार्थियों की अंतरात्मा के विकास पर जोर दूं- इस पर कुछ प्रकाश डलिये

 

विरोध इस कारण आता है कि तुम इसे मानसिक रूप देना चाहते हों और यह असंभव हैं । यह वृत्ति की बात है, मुख्य रूप सें आंतरिक वृत्ति की जो यथासंभव बाहरी क्रियाओं का भी संचालन करती है । यह पढ़ाने की नहीं, उससे कहीं अधिक ज़ीने की चीज हैं ।

 

*

 

  अगर हमें कोई नयी पद्धति अपनानी है तो उसको ठीक-ठीक रूप क्या होगा?

 

वह हर अध्यापक की क्षमता के अनुसार, यथासंभव अधिक-से-अधिक अच्छे ढंग से क्रियान्वित की जायेगी ।

 

(२५-७-१९६७)

 

*

 

(किसी अध्यापक ने अमुक आयु के बच्चों का कार्यक्रम बदलने का सुझाव दिया उसने सतर्क दी कि कक्षाएं कम कर दी जाये; अध्यापक व्यक्तिगत रूप मै सवेरे के समय विद्यार्थियों की सहायता करें और केवल दोपहर को कक्षा के रूप मे मिले अंत मे उसने लिखा:)

 

  बहुत-से अध्यापक यह अनुभव करते हैं कि 'क्ष' की कक्षओं और ''पुरानी पद्धति'' कहनेवाले कथाओं मे विभाजन अवांछनीय क्ष हम आशा करते हैं कि क्रर्यठन के कारण दोनों के बीच का फर्क बहुत कम ख जायेगा क्या आपका ख्याल हैं किंतु  विभाजन जारी रहन? चाहिये? क्या हमें उसके माय होने के लिये राह देखते रहन? चाहिये?

 

१६०


यह कहीं अधिक अच्छा होगा कि भेद तुरंत गायब हो जाये । जो तुम सुझा रहे हों उसकी सार्थकता व्यवहार मे हीं दिखायी देगी । इसलिये मुझे लगता है कि सबसे अच्छा यहीं हैं कि प्रयोग करके देखा जाये, अगर परिणाम आने मे देर लगे तो पूरे एक वर्ष तक, और अगर परिणाम तबतक स्पष्ट होने लगे तो तीन महीने के लिये परीक्षण करके देखा जाये ।

 

  सचाई और लचीलेपन के साथ तुम समस्या हल कर सकोगे ।

 

 (६-११-१९६७)

 

*

 

९-११-१९६७ पक्ष को उच्चतर पामक्रम के अध्यापकों की बैठक मे उच्चतर पामक्रम मे परिवर्तन के बारे मे बातचीत के बाद निम्नलिखित सुझाव दिये गये

 

  १. विद्यार्थी पूरी स्वतंत्रता के साथ विषयों का चुनाव करे और यह चुनाव विद्यार्थी की वास्तविक खोज और उसके उत्साह को प्रतिबिम्यित करे!

 

  २. हल तश्त चुने हुए हर विषय की एक परियोजना हो जो आवश्यकता के अनुसार छोटी-फ्री हो !

 

  है. प्रत्येक परियोजना मे विद्यार्थी उस विषय के जानकार अध्यापक या अध्यापकों की सहायता ले सकें !

 

  ४. कोई निश्चित मौखिक कक्षाएं न होगी; लेकिन विद्यार्थियों के सक् समझौता करके जब जरूरी द्वि मौखिक कक्षाएं ली जा सकती द्वै परंतु यह कक्षाएं दोपहर को हों तो ज्यादा अच्छा है?

 

  ५. यह निशित नहीं किया जा सकता कि हर विद्यार्थी अपने चुने हुए कार्यक्रम मे ले कितना करेगा अपना पामक्रम पूरा कर लेने के लिये विद्यार्थी मे सतत प्रयास क्षमताओं का विकास अपने विषयों की समझ काफी स्पष्टता और यथार्थता के सक् लिखने तथा विषयसंगत प्रश्नों का मौखिक उत्तर देने की क्षमता होनी चाहिये  काम की राशि की अपेक्षा उसके स्तर का महत्व ज्यादा होमर यद्यपि राशि की उपेक्षा नहीं होगी पर उसे हमारे उच्च स्तर के अनुरूप होना चाहिये

 

  उक्त प्रस्ताव कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः सर्वसम्मति ले स्वीकृत हुआ और यह नय हुआ कि इसे मर्म-दर्शन के लिये माताजी के पास भेजा जाये !

 

  यहां चौदह प्रस्तावों मे से केवल वे पांच प्रस्ताव ही दिये गये हैं जीवनपर माताजी का उत्तर आधारित हैं ।

 

१६१


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यह ठीक है । अब महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसे सचाई तथा सम्यकता के साथ किया जाये ।

 

आशीर्वाद ।

(नवंबर १९६७)

 

*

 

'छ' ने कह? कि हमें माताजी ले पूछना चाहिये कि इस योजना- पद्धति के अनुसार हर विद्यार्थी ले कहा जायेगा कि वह गहन अध्ययन और गवेषणा के लिये एक या अधिक विषयों का बुनाव करे तो क्या उसके सक् छात्रों को ज्ञान की अन्य प्रशाखाओं का अधिक परिचय देने के लिये कुछ और व्यापक अध्ययन नहीं करना चाहिये?

 

विधालय विधार्थियों को सोचने, अध्ययन करने, प्रगति करने और हो सके तो बुद्धिमान बनने की तैयारी करवाने के लिये है-यह सब केवल विद्यालय में हीं नहीं, सारे जीवन में चलता रहना चाहिये ।

 

(नवंबर १९६७)

 

*

 

  यह मानी हुई बात ह्वै कि माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी योग करने के लिये श यह निश्चय करने के लिये कि उन्हें योग-साधना करनी है श नहीं बहुत छोटे होते हैं इसलिये उनकी शिला केवल शिला है और कुछ नहीं ?

 

  लेकिन उच्चतर कलाएं' में मेरा ख्याल है यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि उनमें वही तहों प्रवेश फ सकते हैं जो योग करना चाहते हों- अश्व शिला योग बन जाती है!

 

  अगर माताजी इस विषय पर निर्देशन दे सकें तो हममें ले कड़यों के लिये यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जायेगी

 

बात बिलकुल ऐसी नहीं है । सभी स्तरों पर, प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर, सभी कक्षाओं मे बच्चे योग-पद्धति का अनुसरण करेंगे और नये ज्ञान को नीचे लाने की तैयारी और कोशिश करेंगे । अतः कहा जा सकता है कि सभी बच्चे योग कर रहे हैं ।

 

लेकिन, फिर भी, योग करनेवालों और शिष्यों मे भेद करना चाहिये । शिष्य होने के लिये व्यक्ति को समर्पण करना होता है और इसका निर्णय संपूर्ण और सहज होना चाहिये । ऐसा निश्चय व्यक्तिगत रूप से, जब पुकार आये तभी लिया जा सकता है

 

१६३


और यह थोपा नहीं जा सकता, यहां तक कि इसका सुआव भी नहीं दिया जा सकता।

 

आशीर्वाद ।

 

(१६-११-१९६७)

 

*

 

   (गणित की कक्षा के लिये पाक्य-पुस्तक के चुनाव के बारे में)

 

 मुझे केवल फ्रेंच पुस्तक हीं काम लायक लगती है-दूसरी तो असंभव हैं और काम में अरुचि पैदा करती हैं ।

 

  लेकिन मैं यह सलाह नहीं दूंगी कि यह फ्रेंच पुस्तक विद्यार्थियों को दी जाये । उन्हें सचमुच पुस्तकों की जरूरत नहीं है  अध्यापक या अध्यापकों को पुस्तक का उपयोग करके विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुसार, उनकी जानकारी और क्षमता के अनुसार पाठ तैयार करने चाहिये । मतलब यह कि अध्यापक को पढ़ना चाहिये कि पुस्तक में क्या है , उसे थोड़ा-थोड़ा करके, काफी व्याख्या के साथ, टिप्पणियां और उदाहरणों के साथ विद्यार्थियों को समझाना चाहिये ताकि विषय सुगम और आकर्षक बन सके, यानी, निर्जीव सूखा सिद्धांत न बनकर सजीव व्यावहारिक चीज बन जाये ।

 

(३-१२-१९६७)

 

*

 

मधुर मां लगभग एक सप्ताह हुआ जब हमने 'उच्चतर कक्षाओं' मे नया परीक्षण शुरू किया था हुमने मैं ही कुछ धन उठ खड़े हुए हैं जिन पर मैं आपसे 'प्रकाश' और 'मार्गदर्शन' चाहता हूं !

 

  अध्यापकों और विद्यार्थियों की व्यवस्था और कार्यक्रम को ऐसा रूप दिया क्या है कि व्यक्ति का खुलकर विकास और प्रगति हो सके

 

  १. कुछ अध्यापकों का कहना है कि यह श्रेष्ठ विधार्थियों के लिये ठीक है लेकिन साधारण या औसत बिधार्थी के लिये ठीक नहीं है !

 

  लेकिन माताजी क्या हमें यह प्रयास न करना चाहिये कि साधारण और औसत विद्यार्थी को श्रेष्ठ बिधार्थी में बदल सकें? अमर झ तो क्या यह ज्यादा अच्छा न होगा कि श्रेष्ठ लोके के प्रशिक्षक पर जोर दिया जाये और कभी-कदास कुछ थोडी श अधिक अवधि के लिये औसत विद्यार्थियों के लिये सुविधाएं दी जायें- लेकिन हमेशा लक्ष्य यही रह कि ये सुविधाएं अनावश्यक हो जायें?

 

 अपनी समीक्षा का यह विवरण पढ़कर माताजी ने ''आशीर्वाद' ' लिखा और अपने हस्ताक्षर किये !

 

१६४


हम यहां उन्हीं बच्चों को लेना चाहते हैं जो श्रेष्ठ कहला सकें । व्यवस्था उन्हीं के लिये होनी चाहिये । जो इसमें ठीक न बैठे उन्हें एक साल के परीक्षण के बाद चले जाना चाहिये ।

 

२. कुछ अध्यापकों का कहना है कि वैयक्तिक प्रगति और व्यक्ति जिस समुदाय का अंग ह्वै उस समुदाय की प्रगति मे टक्कर होती है इसे कैसे ठीक किया जाये? इस टक्कर का क्या उपाय है?

 

  कहा क्या है कि अगर व्यक्ति न्यूनाधिक रूप मैं अपने दल के साके रहता है तो वह समुदाय के अनुभव से लाभ उठा सकता है सामुदायिक अध्ययन बातचीत आदि ले लाम उठा सकता है?

 

यह सब बेकार है- अगर व्यक्ति अपनी अधिक-से-अधिक गति से प्रगति कर सके तो निक्षय हीं दल को उससे लाभ होगा । अगर व्यक्ति को समुदाय की संभावना या क्षमता के अधीन रखा जाये तो वह अपनी समग्र प्रगति का अवसर खो बैठता हैं ।

 

 (२२-१२-१९६७)

 

*

 

  'क्ष' ने कुछ समय पहले मुझसे पूछा था कि क्या मैं 'मुक्त प्रगति' कक्षाओं में काम करना चाहूंगा अभी मैं उन कलाएं में काम कर रहा हूं जिन्हें ''पुरानी पद्धति' ' की कक्षाएं कहा जाता है?

 

  माताजी बतलाइये कि मैं जहां हूं वहीं बना ख या 'मुक्त प्रगति' कक्षाओं मे काम करूं?

 

पढ़ाने का पुराना ढंग निक्षय हीं पुराना पंडू चुका है और धीरे-धीरे सारे संसार से उठ जायेगा ।

 

  सच्ची बात तो यह है कि हर अध्यापक को, आधुनिक विचारों से प्रेरणा लेते हुए वह पद्धति खोजनी चाहिये जो उसकी प्रकृति के अधिक अनुकूल है। अगर उसे पता न हो कि क्या करना चाहिये तो वह 'क्ष' की कक्षा के साथ मिल सकता है !

 

*

 

  साधारण कक्षाएं भूतकाल की चीजें हैं और धीरे-धीरे गायब हों जायेंगी । रहीं बात अलग काम करने की या ''पूर्णता की ओर' ' कक्षाओं के साथ मिलने की. तो यह चुनाव पूरी तरह तुम पर निर्भर है । क्योंकि किसी को पढ़ाने, उसे पढ़ाने के लिये

 

१६५


तुम्हें सिद्धांतों और बौद्धिक चिंतनों से हटकर बहुत ठोस व्यावहारिकता और उसके सभी ब्योरों मे आना होगा ।

 

  कक्षा लेते समय पढ़ाना सिखाना निक्षय हीं अध्यापक बननेवाले के लिये बहुत अच्छा है, परंतु निक्षय ही विधार्थियों के लिये कम उपयोगी हैं ।

 

  ''पूर्णता की ओर' ' कक्षओं मे जाना शुरू करनेवाले के लिये बहुत उपयोगी हो सकता है, जो वहां पढ़ाने का क्रियात्मक ढंग सीख सकता है ।

 

  चुनाव तुम्हारे हाथों मे है ।

 

*

 

मैंने अपने अंदर दो परस्पर विरोधी विचार देखे हैं अ एक प्रकार के विचार व्यक्तिगत कार्य के पक्ष में हैं प्रकार के कार्य के?

 

क्या यह संभव नहीं हैं कि कक्षा के समय की दो बराबर या आवश्यकता के अनुसार कम-ज्यादा भागों में बांटा जाय और दोनों पद्धतियों का निरीक्षण किया जाये? इससे पढ़ाने में विविधता आयेगी और विद्यार्थियों तथा उनकी क्षमता का अवलोकन करने के लिये ज्यादा विस्तृत क्षेत्र मिलेगा ।

 

*

 

  (१४ से १८ की उम्र के बच्चों के दो दलों के बारे मैं कुछ प्रश्रों का सारांश दे रहा हूं यद्यपि दोनों दल 'मुक्त प्रगति-पद्धति' पर आधारित थे, पर ''आये की ओर'' का कार्यक्रम ''पूर्णता की ओर'' की अपेक्षा ज्यादा संघटित था !)

 

  १. अध्यापकों मे हमारे विद्यालय की दिशा के बारे में कुछ मतभेद है ! ईन मतभेदों ले कैसे बचा जाये?

 

  २. क्या चौदह वर्ष कार्य कम उम्र के बच्चों के लिये निश्चित कार्यक्रम और निशित कक्षाएं हों या उन्हें मी अपनी कार्य दिशा और अपनी गति बनने की स्वाधीनता होनी चाहिये?

 

  है. यह हमारा आवश्यक कार्य है या नहीं कि यह देखें कि बच्चे की अंतरात्मा के लिये किन परिस्थितियों मैं आये आना और उसके विकास को दिशा देना संभव होगा

 

  ४. क्या हम ''आगे की ओर'' और ''पूर्णता की ओर' ' खो पक करने के बारे में विचार करें?

 

१६६


ये बातें एक हीं साथ ठीक भी हैं और गलत भी ।

 

  सबसे पहले ऐसा मालूम होता हैं कि सात वर्ष की आयु के बाद, जिन लोगों मे जीवित अंतरात्मा होती है वे इतने जाग्रत होते हैं कि अगर उनकी सहायता की जाये तो उसे पाने के लिये तैयार होते हैं । सात से नीचे यह अपवाद स्वरूप हैं ।

 

  हमारे बच्चों में बहुत भेद हैं । पहले वे हैं जिनमें जीती-जागती अंतरात्मा है । उनके लिये कोई प्रश्र हीं नहीं । हमें उसे पाने में उनकी सहायता करनी चाहिये ।

 

  लेकिन दूसरे मी हैं, जो छोटे जानवरों के-से हैं । अगर वे बाहर के बच्चे हैं, जिनके मां-बाप आशा करते हे कि उन्हें पढ़ाया जायेगा- तो उनके लिये '' आगे की ओर' ' ठीक हैं । इसका कोई महत्त्व नहीं ।

 

  समस्या यह नहीं है कि कक्षाएं और कार्यक्रम हों या नहीं । समस्या हैं बच्चों के चुनाव की ।

 

  सात वर्ष की अवस्था तक बच्चों को मौज करनी चाहिये । विद्यालय एक खेल हो और वे खेल हीं खेल में सीख़ें । खेलते-खेलते उनके अंदर सीखने, जानने और जीवन को समझने के लिये रस उत्पन्न होगा । पद्धति का बहुत महत्त्व नहीं हैं । अध्यापक की वृत्ति का महत्त्व हैं । अध्यापक को ऐसी चीज नहीं होना चाहिये जिसे दबाव के कारण स्वीकार किया जाता है । वह सदा एक ऐसा मित्र होना चाहिये जिससे तुम प्यार करते हों क्योंकि वह तुम्हारी मदद और मनोरंजन करता है ।

 

 सात वर्ष सें ऊपर, जो तैयार हैं उनके लिये नयी पद्धति का उपयोग किया जा सकता है, बशर्ते कि एक ऐसी कक्षा भी हो जिसमें और बच्चे सामान्य रीति से काम कर सकें । और उस कक्षा के लिये अध्यापक को यह विश्वास होना चाहिये कि वह जो कुछ करवा रहा  है वही ठीक तरीका हैं । उसे यह नहीं लगना चाहिये कि उसे एक घटिया काम की ओर धकेल दिया गया है ।

 

  जब लोग सहमत नहीं होते हों इसका काराग होता है उनका ओछापन और उनकी संकीर्णता, यहीं चीजें उन्हें सहमत होने से रोकती हैं । वे अपने विचार मे ठीक हो सकते हैं... पर हो सकता हैं कि वे ठीक चीज नहीं कर रहे, अगर उनके अंदर आवश्यक उद्घाटन नहीं है ।

 

  ये चीजें व्यक्तित्व के विचार से ऊपर होनी चाहिये । इन दोनों को मिला देना कमजोरी है । व्यक्तित्व का कोई विचार नहीं होना चाहिये ।

 

  कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें हम नहीं कर सकते ! उदाहरण के लिये, अगर हम सभी बच्चों को नयी पद्धति मे लेना चाहें तो हमें सबको एक-दो महीने लच्छे परीक्षण के लिये लेना होगा, यह पता लगाना होगा कि कौन चल सकते हैं, और बाकी को अपने-अपने धर लौटा देना होगा । यह असंभव है ।

 

  इसलिये हमें अंदर से समाधान लाना होगा । ऐसे बच्चे हैं जो नयी पद्धति को पसंद नहीं करते-उत्तरदायित्व उन्हें चिंता में डाल देता है । बच्चों ने अपने पत्रों मे मुझे

 

१६७


इस बात की सूचना दी है । हम उन्हें जैसा-का-वैसा छोड़ सकते हैं ।

 

  हर एक को, बिना अपवाद के, बिना अपवाद के, यह जानना चाहिये कि वह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो जानता है और जो जानता है उसे क्रिया में लाता हैं । हर एक, उसे -जो होना चाहिये वह होना और जो करना चाहिये वह करना सीख रहा हैं।

 

(१६-११-१९६८)

 

*

 

  तुमने अपने काम के बारे में जो लिखा हैं उसे मैंने संतोष के साथ पड़ा और तुम्हारे अपने काम के लिये उसे स्वीकार करती हूं ।

 

  लेकिन तुम्हें समझना चाहिये कि दूसरे अध्यापक अपने काम के बारे में और तरह से सोच सकते हैं और वे भी उतने ही ठीक हों सकते हैं ।

 

  'य' के बारे में तुम्हारी समालोचना पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि मैं उसके और उसकी वृत्ति के बारे में जो जानती हूं यह उसके साथ मेल नहीं खाती ।

 

  मैं इस अवसर पर तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि आध्यात्मिक प्रगति और 'सत्य' की सेवा सामंजस्य पर आधारित होती हैं, विभाजन और समालोचना पर नहीं ।

 

(१५-११-१९६८)

 

*

 

  प्रगति विस्तार में है, प्रतिरोध में नहीं ।

 

  सभी दृष्टिबिडओं को, हर एक को उसके सच्चे स्थान पर रखकर, साथ लाना चाहिये किसी की अवहेलना करके किसी और पर जोर न देना चाहिये ।

 

  सच्ची प्रगति आत्मा के विस्तार और सभी सीमाओं के समापन में है ।

 

(२२-९०-१९७१)

 

*

 

  अध्यापकों को आवश्यक चेतना में विकसित होना चाहिये, काम के वास्तविक अनुभव पर जोर होना चाहिये और बच्चे के मन में खेल और काम के बीच कोई फर्क न होना चाहिये-सब कुछ रुचिमय हो रस से भरपूर । अध्यापक का काम हैं ऐसी रुचि उत्पन्न करना ।

 

अगर रुचि है तो काम ठीक होगा हीं ।

 

(१-११-११७१)

 

*

 

  आज 'र' था और कक्षा के बाद पता लगा कि आपने उसे मेरी कक्षा बढुड़इमिरि की कक्षा में जाने की दी है?

 

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उसने मुझसे कहा कि वह पढ़ाई-लिखाई की जगह हाथ का काम करना बहुत ज्यादा पसंद करेगा । मुझे लगा कि अपने सहज-बोध में वह ठीक है और उसकी प्रकृति के अनुसार उसका चुनाव अच्छे-से-अच्छा है । इसलिये मैंने उसे आवश्यक अनुमति दे दी ।

 

(२६-३-१९५६)

 

*

 

  तुम्हें इस बात का बहुत ख्याल रखना चाहिये कि जो पाठ तुम पढ़ते हो वे एक ही न हों । तुम्हारे विषय एक-दूसरे के साथ संबंधित हैं । अगर दो अध्यापक एक हीं विषय पर बोले तो स्वभावत: दोनों के दृष्टिबिडओं में कुछ भेद होगा । अलग-अलग कोण से देखें तो एक ही चीज अलग-अलग दिखाई देती हैं । इससे बच्चों के युवा मानस में गड़बड़ी पैदा होगी और है अध्यापकों मे तुलना करना शुरू करेंगे जो बहुत वांछनीय नहीं है । इसलिये हर एक को दूसरों के विषय में चक्कर लगाये बिना अपने ही विषय तक रहना चाहिये ।

 

(१०-९-१९५३)

 

*

 

  बच्चों सें जो प्रश्र पूछे जायेंगे उनके बारे में चाहूंगी कि अध्यापक शब्दों की जगह विचारों में सोचें ।

 

  और फिर बाद में, जब विचारों के द्वारा सोचना उनके लिये सामान्य हो जाये तो मै उनसे ज्यादा प्रगति करने के लिये कहूंगी, जो निर्णायक प्रगति होगी, यानी, विचारों से सोचने की जगह अनुभूतियों से सोचना होगा । जब तुम यह कर सको तभी वास्तव मे समझना शुरू करते हो ।

 

*

 

  आपने अध्यापकों से ''शब्दों में सोचने की जगह विचारों मे सोचने के लिये'' कहा है ! साथ ही आपने यह मी कहा है कि इसके बाद आप उनसे अनुभवों मे सोचने के लिये कहेगी क्या आप सोचने के इन तीन प्रकारों पर प्रकाश डालने की कृपा करेंगी?

 

हमारे मकान पर एक बहुत ऊंचा मीनार है; उस मीनार मे सबसे ऊपर एक प्रकाशमान खुला कमरा है , यह खुली हवा और पूर्ण प्रकाश में प्रवेश पाने से पहले सबसे अपर का है ।

 

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  कभी-कभी, जब हमें अवकाश हों, हम इस प्रकाशमान कमरे मे चढ़ जाते हैं, और वहां अगर हम बिलकुल शांत रहें, तो दो-एक या कई मेहमान हमसे मिलने आते हैं; कोई लंबा होता हैं, कोई ठिगना, कोई अकेला होता हैं, कोई दल समेत; सब-के-सब प्रकाशमान और मनोहर ।

 

साधारणतः, उनके आगमन की खुशी मे और उनका अच्छी तरह स्वागत करने की जल्दी मे, हम अपनी शांति खो बैठते हैं और दौड़ते हुए उस बड़े हाल मे नीचे आते हे जो मीनार का आधार है और जो शब्दों का गोदाम है । यहां कम या ज्यादा उत्तेजित होकर, हम अपने पास आनेवाले इस या उस मेहमान का आलेखन करने के प्रयास मे अपनी पहुंच के सभी शब्दों को चुनते, रद्द करते, जोड़ते, इकट्ठा करते, फिर से व्यवस्थित करते हैं । लेकिन बहुधा हम उनका जो चित्र बनाने में सफल होते हैं वह एक चित्र होने की अपेक्षा व्यंग्य-चित्र होता हैं ।

 

  लेकिन अगर हम ज्यादा बुद्धिमान होते, तो हम कहीं, मीनार की चोटी पर बिलकुल शांत, स्थिर, आनंदपूर्ण चिंतन मे बने रहते । तब, कुछ अवधि के बाद, हम देखेंगे. कि स्वयं मेहमान धीरे-धीरे, लालित्य के साथ, शांति सें, अपने सौंदर्य और सुरुचि को खोये बिना नीचे उतर रहे हैं और, जब वे शब्दों के भंडार मे सें गुजरेंगे तो बिना प्रयास के, सहज रूप से, एकदम भौतिक मकान मे मी दिखाई देने योग्य शब्दों का परिधान पहन लेंगे ।

 

  इसे मैं विचारों के द्वारा सोचना कहती हू ।

 

  जब यह पद्धति तुम्हारे लिये रहस्यमय न रह जायेगी तब मैं तुम्हें बताऊंगी कि अनुभवों के द्वारा सोचना किसे कहते हैं ।

 

(३१-५-१९६०)

 

*

 

  जब तुम शब्दों के द्वारा सोचते हो तो तुम जो सोचते हो उसे केवल उन्हीं शब्दों के दुरा व्यक्त कर सकते हो । विचारों द्वारा सोचने पर एक हीं विचार को नाना प्रकार के शब्दों के दुरा व्यक्त किया जा सकता है । शब्द भी अलग-अलग भाषाओं के हा सकते हैं-बशर्ते कि तुम एक से अधिक भाषाएं जानते हो । विचारों के द्वारा सोचने के बारे में यह पहली, सबसे अधिक प्रारंभिक बात हैं ।

 

  जब तुम अनुभव से सोचते हो, तो तुम बहुत ज्यादा गहराई मे जाते हो और तुम एक हीं अनुभव को नाना प्रकार के विचारों के दुरा व्यक्त कर सकते हो । तब विचार किसी भी भाषा मे यह या वह रूप ले सकता हैं और सभी में अदल-बदल के बिना सारभूत उपलब्धि एक ही रहेगी ।

 

*

 

१७०


  बोलते समय विश्वास पैदा करने के लिये, विचारों मे नहीं, अनुभवों मे सोचो ।

 

*

 

  क्या तुम 'क' के साथ अध्यापकों की सभा मे गये थे? वह सभा इसलिये हों रहीं थी क्योंकि बे अपने अध्ययन के अतिरिक्त हर एक को कोई विशेष योजना देना चाहते थे । बे  उन्हें ऐसी चीजें खोजने मे सहायता करना चाहते थे जिनका वैज्ञानिक आजकल पता लगा रहे हैं-''पानी क्या है, '' ''शक्कर पानी मे क्यों घुलती है ?'' - और इन सब बातों सें वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि बे कुछ नहीं जानते।

 

  अतः मैंने उससे प्रश्र किया : ''मृत्यु क्या है?''

 

  यह बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । सैकड़ों वर्षों से मनुष्य यह प्रश्र पूछते आये हैं । वे नहीं जानते ।

 

  विधार्थी कहेंगे कि वे नहीं जानते कि मृत्यु क्या है, लेकिन वे अन्वेषण के द्वारा पता लगा लेंगे । यह समझने के लिये, तुम्हें यह जानना चाहिये (माताजी बहुत-सी दिशाओं की ओर संकेत करती हैं), और अंत में अगर तुम सीधी लकीर पर चलते चले जाते हो, तो उसकी अपेक्षा यह ज्ञान बहुत ज्यादा विस्मृत होगा ।

 

  नीरवता मे, हम, 'सत्य' के संपर्क मे आते हैं ! फिर विचार उतरता है , शब्दों के 'पुस्तकालय' मे सें गुजरता है और सबसे अधिक उपयुक्त्त शब्द चून लेता है। पहले यह धुंधले रूप मे आता है । जबतक वह यथार्थ रूप न ले ले तुम्हें प्रयास करते जाना चाहिये । तुम्हें उसे लिख लेना चाहिये, पर तुम्हें शांत रहना और जारी रखना चाहिये । तब तुम्हें ठीक शब्द मिलेगा । इस तरह जो शब्द आता है  वह अपने तात्त्विक अर्थ मे होता है, रूढ़िगत अर्थ मे नहीं ।

 

यह ठीक सद्वस्तु नहीं है; परंतु सद्वस्तु के निकटतम आनेवाले यही शब्द हैं । अध्यापकों को यह करना चाहिये । यह बहुत उपयोगी होगा बजाय इसके कि (सिर के अंदर गोल-गोल चक्कर लगाने का संकेत) ।

 

 (मौन)

 

  पता नहीं, दुमने मानसिक नीरवता पाने का प्रयास किया हैं या नहीं । तुम अपना सारा जीवन उसमें लगा सकते हो और हों सकता हैं कि लगभग कुछ भी प्राप्ति न हों, जब कि यह बहुत मजेदार है ।

 

  पहले कुछ नहीं होता । तुम्हें यूं ही रहना होगा : सक्रिय रूप से नहीं-भगवान् की ओर अभीप्सा में रहो । मन में कोई भी गति न हो समर्पण भी नहीं, यह गति है संपूर्ण... कुछ-कुछ आत्मदान और आत्मत्याग के बीच की चीज । और अगर मन

 

१७१


अपनी सत्ता-पद्धति का निवेदन कर दे तो एक दिन सहज रूप मे उत्तर आ जाता है । वह प्रकाश की तरह आता है ।

 

  तुम जितने अधिक शांत होंगे, तुम्हारे अंदर जितना विश्वास होगा, तुम जितना अधिक ध्यान दोगे, वह उतने हीं अधिक स्पष्ट रूप में आयेगा । समय आता है जब तुम्हें' 'केवल इतना करना होता है (खोलने का संकेत)... । विद्यार्थी एक प्रश्र पूछता है । तुम वैसे हीं रहते हो (वही संकेत)...

 

  और सबसे बढ़कर, यह कि सक्रिय रूप में न सोचों : ''मै जानना चाहता हूं... मै इससे क्या कहूं?'' नहीं!

 

  तब तुम्हें हमेशा विद्यार्थी के लिये उत्तर मिलेगा । शायद उसके पूछे हुए प्रश्र का उत्तर नहीं, बल्कि वह उत्तर जिसकी उसे जरूरत है । और वह हमेशा मजेदार होगा...

 

  वहां, ऊपर, तुम्हें सब कुछ मालूम होता है । जब तुम यह मानने लोग कि मन शक्तिहीन है, कि वह कुछ नहीं जानता तो तुम नीरव हों जाते हों । तुम्हें अधिकाधिक विश्वास होता जाता है कि वहां, ऊपर, एक ऐसी चेतना है जो न सिर्फ जानती है, बल्कि जिसमें शक्ति हैं, जो छोटे-से-छोटे ब्योरे को देखती है और परिणामतः विद्यार्थी की आवश्यकता को जानती हैं और उसका उत्तर देती है । जब तुम्हें इस बात का विश्वास हो जाये तो तुम निजी हस्तक्षेप छोड़ देते हो और कहते हो: ''लो, मेरा स्थान ले लो ।"

 

(३१ -७-१९६७)

 

*

 

मैंने ईन तीन बच्चों को अधिकर खेलने दिया और इस आशा ले कि बे इस तरह जल्दी द्वि उसके बाहर निकल आयेंगे !

 

  और वास्तव मे हुआ मी यही । तीसरे सप्ताह के आरंभ मे तीनों बच्चा व्यक्तिगत खेलों के लिये अपने नाम देखे हैं और अपने शोर-शराबें के खेलों को भूलते जा रहे हैं!

 

  क्या मैं ऐसा करना जारी रख : ''स्कूल के बाहर'' के बने इस छोडे को बनने और कुटने दूं तथा इसमें जो समय लगता है जो विद्यालय की दृष्टि से समय की बरबादी है उसकी परवाह न करूं?

 

 निक्षय हीं, यही सबसे अच्छा उपाय है ।

 

  क्या विद्यालय के ढांचे मे लते हुए हम ''स्कूल के बखर'' के कुछ खेलों के लिये अनुमति दे दें जैसे चूका-छिपी मेद के खेल (क्रिकेट) गृह-निर्माण आदि... बच्चों को इन चीजों के लिये शोर मचाते हुए देखकर हमें लगा

 

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कि शायद हमारे बच्चे अमुक प्रकार कौवे क्रिया-कलाप से- कमी किसी खैर मैदान मैं परी आजादी के साथ खेलने सै !- कटे रहे होने क्या यह वास्तव मै बच्चों की सच्ची आवश्यकता है?

 

निःसंदेह

 

(२३-९-१९६०)

 

*

 

 बच्चों के लिये उपयोगी और लाभदायक खेल चुनना बहुत कठिन है । इसके लिये बहुत चिंतन और मनन की जरूरत है , और जो कुछ बिना सोचे-समझे किया जाता है उससे असुखकर परिणाम हो सकते हैं ।

 

*

 

 अगर बच्चों को, बहुत छोटों को भी, चीजें व्यवस्था मे रखना और एक प्रकार की चीजों को एक साथ सजाना आदि आदि, सिखाया जाये तो वे उसे बहुत पसंद करते हैं और भली-भांति सीखते हैं । बच्चों को सुव्यवस्था और साफ-सुथरापन के पाठ सिखाते का, सैद्धांतिक नहीं बल्कि क्रियात्मक ओर व्यावहारिक ढंग से पाठ सिखाने का, यह अच्छा अवसर है ।

 

  परीक्षण करो, मुझे विश्वास है कि बच्चे चीजों को व्यवस्थित करने में तुम्हारी सहायता करेंगे ।

 

  प्रेम और आशीर्वाद ।

 

(१४-१२-१९६३)

 

*

 

देखा गया है कि काकी बड़ी संख्या मे बच्चे बैठने या लिखने के समय ठीक ढंग ले नहीं बैठते लिखते समय वै कापी अपने सामने नहीं रखते ४५ से ९० दरजे के कोण पर रखते हैं

 

शायद ज्यादा अच्छा होगा कि पहले स्वयं अध्यापक लिखते समय उचित ढंग से बैठना सीख़ें?

 

  मेरे आशीर्वाद के साथ ।

 

*

 

१७३


अपने एक पत्र मे श्रीअरविन्द ने और साधना के लिये उसकी तैयारी के बारे लिखा है मैं उसकी प्रतिलिपि आपके पास भेज खा हूं मैं यह जानना चाहना कि क्या छोटी मतवालों को उत्साह के साथ आध्यात्मिक जीवन और विचारों के बारे मे दी गयी चेतावनी की कक्षा के विद्यार्थियों के आये बोलते हुए ध्यान मे रखना जरूरी है? क्या उसके अंदर श्रीअरविन्द के शब्दों मे ''नकली और अवास्तविक आय का भय'' है?

 

   श्रीअरविन्द का पत्र : ''सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि और को और विशेष रूप ले युवावर्ग को साधना की ओर खींचने के लिये बहुत ज्यादा आतुर होना नहीं है जो साधक इस योग की ओर उतार है उसमें वास्तविक पुकार होनी बछिये और वास्तविक पुकार के होते हुए मी प्रायः यह काफी कठिन होता है लेकिन जब तुम लोगों की उत्साहपूर्ण प्रोपेगडा नाव ले खिचते हो तो सच्ची अग्नि नहीं एक नकली और अवास्तविक आय सुलगाने का भय खता है या एक ऐसी अल्पजीवी आम सुलगती है जो टिक नहीं सकती और प्राणिक लहरों के उतर मैं दब जाती है यह विशेष रूप ले उन तकवा के बारे मे ज्यादा होता है जो नमनीय होते हैं और आसानी सै अपने नहीं किसी और के दिये हुए विचारों और मावों मैं पकड़े जाते हैं- बाद मे प्राण अपनी असंतुष्ट मौक़े के सक् उठ ख़म होता है और है दो परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच जाते हैं या तेजी से सामान्य जीवन और क्रिया कै आकर्षण और कामनाओं की के आये हक जाते हैं तहक अवस्था मे साधारणके रुकाव हंसी तरफ होता है या फिर एक अयोग्य आधार ऐसी पुकार के दबाव मे कष्ट पाता है जिसके लिये वह तैयार न थर या शर्म-से-कम अमी तैयार न था जब व्यक्ति के अपने अंदर सच्ची चीज होती है तो वह आगे बढ़ता है और अंत मे साधना का पूछ मार्ग अपना लेता ह्वै लेकिन मेंसे बहुत ही कम होते हैं उन्हीं लोगों को लेना ज्यादा अच्छा है जो अपने-आप उत हैं और उनमें भी दे जिनमें सतत और सच्ची पुकार है !"

 

यह उद्धरण बहुत सुन्दर हैं और बहुत अधिक उपयोगी हैं ।

 

  तरुणों के साथ बोलते हुए, जो स्वभावत: अपने विचार आसानी से बदल लेते हैं, श्रीअरविन्द की चेतावनी को निश्चित रूप से याद रखनी चाहिये ।

 

  कक्षा मे तुम्हें बहुत ज्यादा वस्तुनिष्ठ होना चाहिये ।

 

  आशीर्वाद ।

 

(२-६ -१९६७)

 

*

 

मूल -लैटर्स ऑन योग, सेण्टनरी वोल्यूम २४, पृ० १६१५-१६ ।

 

मैं जानना चाहूंगा कि इस पत्र मे 'वस्तुनिष्ठ' ले आपका क्या मतलब है? क्या आपका मतलब यह है कि विधार्थियों को साधना-संबंधी आपके और श्रीअरविन्द के दर्शन को समझाते हुए विचार और वाणी मे व्यक्तिगत भावों को न आने दिया जाये?

 

हां, यहीं ।

 

  अपने बारे मे या अपनी अनुभूति के बारे मे मत बोलों ।

 

(५-६-१९६७)

 

*

 

  अध्यापकों को अपनी कक्षा के दिन या समय अनुपस्थित न रहना चाहिये । अगर कोई विधालय के समय बाहरी क्रिया-कलाप के लिये बाधित होता है तो वह अध्यापक नहीं हो सकता ।

 

(५-३-१९६७)

 

 

१७४

अनुशासन

 

  नियंत्रण कक्षा का सर्वोत्तम या सबसे अधिक प्रभावशाली तत्त्व नहीं हैं । सच्ची शिक्षा को इन विकसनशील सत्ताओं में विद्यमान वस्तु को खोलना और व्यक्त करना चाहिये । जैसे फूल सूर्य के प्रकाश मे खिलते हैं ठीक वैसे हीं बच्चे आनंद मे खिलते हैं । स्पष्ट हैं कि आनंद का मतलब कमजोरी, अव्यवस्था और अस्तव्यस्तता नहीं है, -बल्कि एक प्रकाशमय और सौम्य भद्रता है जो अच्छे को प्रोत्साहित करती हैं और बुरे पर बहुत जोर नहीं देती । न्याय की अपेक्षा कृपा सत्य के ज्यादा नजदीक है ।

 

(१९६१)

 

  माताजी जब कक्षा में कोई बच्चा अनुशासन के अनुसार चलने ले इकार करे तो क्या करना चाहिये? क्या उसे मनमानी करने दी जाये?

 

 सामान्यतः, १२ वर्ष की उम्र के बाद सब बच्चों के लिये अनुशासन जरूरी होता हैं ।

 

   कुछ अध्यापक मानते हैं कि आप अनुशासन क्वे विरूद्ध हैं ।
 

१७५


उनके लिये अनुशासन एक मनमाना नियम है जिसे छोटे बच्चों पर लादा जाता है, वे अपने-आप उसके अनुसार नहीं चलते । मै इस प्रकार के अनुशासन के विरुद्ध हूं ।

 

तो अनुशासन ऐसा नियम पालन है जिसे बच्चा स्वयं अपने ऊपर लगाता है'' उसे इसकी आवश्यकता का मान कैसे कराया जाये? उसका अनुसरण करने मे सहायता कैसे की जाये?

 

उदाहरण सबसे अधिक प्रभावी प्रशिक्षक है। किसी बच्चे से ऐसे नियम-पालन के लिये कभी न कहो जिसका अनुसरण स्वयं तुम नहीं करते । स्थिर-शांत, समता, सुव्यवस्था, नियमितता, व्यर्थ के शब्दों का अभाव-ये ऐसी चीजें हैं जिनका अध्यापक को हमेशा अभ्यास करते रहना चाहिये, यदि वह चाहता है कि उसके विद्यार्थियों मे ये गुण पैदा हों ।

 

  अध्यापक को हमेशा समय-पालन करना चाहिये । उसे हमेशा, ठीक वेशभूषा के साथ कक्षा शुरू होने से कुछ मिनट पहले, उस जाना चाहिये । और सबसे बढ़कर, उसे कभी झूठ न बोलना चाहिये ताकि उसके बिधार्थी झूठ न बोले; उसे कभी विद्यार्थियों पर गरम न होना चाहिये ताकि विद्यार्थी कभी क्रोध न करें; और यह कह सकने के लिये : ''उपद्रव का अंत प्रायः आंसुओं में होता हैं, '' उसे कभी उनमें सै किसी पर हाथ न उठाना चाहिये ।

 

  ये बिलकुल प्रारंभिक और मौलिक बातें हैं जिनका अभ्यास बिना अपवाद के हर विद्यालय में होना चाहिये ।

 

*

 

  तुम बच्चों पर मनोवैज्ञानिक शासन तभी ला सकते हों जब तुम्हें स्वयं अपनी प्रकृति पर काबू हों ।

 

*

 

(१६-७-१९६३)

 

*

 

 पहले, अच्छी तरह से जानो कि तुम्हें क्या पढ़ाना हैं । अपने बच्चों और उनकी विशेष आवश्यकताओं को अच्छी तरह समझने की कोशिश करो ।

 

  बहुत शांत रहो और बहुत धीरज रखो, कभी गुस्सा न करो; दूसरों का स्वामी बनने से पहले स्वयं अपने स्वामी बनो ।

 

(७-१२-१९६४)

 

*

 

१७६


  अगर तुम्हें दूसरों पर अधिकार का प्रयोग करना है तो पहले स्वयं अपने ऊपर अधिकार प्राप्त करो । अगर तुम बच्चों मे अनुशासन नहीं रख सकते तो मार-पीट न करो, चिल्लाओ मत, व्यग्र मत होओ-इसके लिये अनुमति नहीं दी जा सकतीं । अपर से स्थिरता और शांति को उतारों । उनके दबाव से चीजें सुधर जायेंगी !

 

*

 

   माताजी छोटे बच्चों के लिये हमें क्या करना चाहिये?

 

ओह! छोटे बच्चे अद्भुत होते हैं! मैं बहुत-से छोटे बच्चों को देखती हू । लोगों को उन्हें मेरे पास लाने की आदत हो गयी है । उन बच्चों मे जो अभी दो वर्ष से मी कम के हैं उनमें अभी से जो चेतना होती है  वह अद्भुत है । वे सचेतन होते हैं । उनके पास अपने-आपको अभिव्यक्त करने के लिये साधन नहीं होते, शब्द नहीं होते, परंतु वे बहुत सचेतन होते हैं । अतः बच्चे को डांटना, लगता है...!

 

 उस दिन परसों, एक बच्चा मेरे पास लाया गया था और वह बुदबुदा रहा था । और निश्चय हीं उसकी मां... । तो मैंने उसे एक गुलाब दिया और कहा : देखो, यह तुम्हारे लिये है !'' निश्चय हीं वह शब्द तो नहीं समझा, पर उसने गुलाब को इधर-उधर घुमाया और शांत हों गया । छोटे बच्चे अद्भुत होते हैं । यह काफी है कि उनके चारों ओर चीजें रख दो और उन्है छोड़ दो । जबतक कि बहुत हीं जरूरी न हो बीच मे मत पढ़ो । और उन्हें छोड़ दौ । और उन्हें कभी मत डांटो ।

 

(३१-७-१९६७)

 

*

 

  तुम एक अच्छे अध्यापक हो परंतु बच्चों के साथ तुम्हारा व्यवहार आपत्तिजनक है !

 

  बच्चों को प्रेम और मृदुता के वातावरण मे शिक्षा देनी चाहिये ।

  मार-पीट नहीं, कभी नहीं ।

  डांट-डपट नहीं, कभी नहीं ।

  हमेशा मृदु सहृदयता, और अध्यापक को उन गुणों का जीता-जागता उदाहरण होना चाहिये जिन्हें बच्चों को प्राप्त करना है ।

 

  बच्चों को विद्यालय जाते हुए खुश होना चाहिये, सीखते हुए खुश होना चाहिये, और अध्यापक को उनका पहला मित्र होना चाहिये जो उनके आगे उन गुणों का उदाहरण रखता है जो उन्हें प्राप्त करने चाहिये ।

 

१७७


   और यह सब ऐकांतिक रूप सें अध्यापक पर निर्भर करता हैं । इस पर कि वह क्या करता है और कैसे व्यवहार करता है ।

 

*

 

  बच्चे कक्षा में इतना अधिक बोलते हैं कि प्रायः उन्हें डांटना पड़ता है

 

 बच्चों को कड़ाई से नहीं, आत्मसंयम से वश में किया जाता हे ।

 

   मुझे तुम्हें यह बतला देना चाहिये कि अगर कोई अध्यापक मान चाहता हैं तो उसे माननीय होना चाहिये । केवल ' क्ष' हीं नहीं जिसने मुझे बतलाया हैं कि तुम आज्ञा पालन कराने के लिये पीटते हो इससे कम माननीय चीज और कोई नहीं हैं । पहले तुम्हें आत्मसंयम करना चाहिये और अपनी इच्छा लादने के लिये कभी पाशविक बल का प्रयोग नहीं करना चाहिये ।

 

  मैंने हमेशा यहीं सोचा हैं कि विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता के लिये अध्यापक के चरित्र की कोई चीज जिम्मेदार होती  ।

 

  मैं आशा करता हू, कि आप कुछ निशित आदेश देखी जो ५ कक्षा मे व्यवस्था रखने मे सहायता दें !

 

सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं आत्मसंयम और कभी गुस्सा न करना । अगर तुम्हें अपने अपर संयम न हों तो तुम दूसरों को वश मे करने की आशा कैसे कर सकते हो, और फिर बच्चे, जो तुरंत पहचान लेते हैं कि तुम आपे से बाहर हों?

 

*

 

 बालकों की कक्षाओं के अध्यापकों से

 

एक ऐसा नियम जिसका कठोरता से पालन होना चाहिये :

 

   बच्चों को पीटना सख्ती से मना हैं- सब प्रकार की मार निषिद्ध हैं, हल्का या तथाकथित मैत्रीपूर्ण घूंसा भी । किसी बच्चे को इसलिये मारना क्योंकि वह आज्ञा- पालन नहीं करता या नहीं समझता या औरों को तंग करता है , आत्मसंयम के अभाव का सूचक हैं, और यह अध्यापक तथा विद्यार्थी, दोनों के लिये हानिकर हैं ।

 

  जरूरत हो तो अनुशासन की कार्रवाई की जा सकती है पर पूरी तरह स्थिर शांति के साध, किसी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया के कारण नहीं ।

 

*

 

  कक्षा मे शांति का वातावरण रखने के लिये क्या करना चाहिये ?

 

 अपने-आप पूरी तरह शांत रहो ।

 

अपने साथ एक बड़ा-सा, लगभग एक मीटर लंबा गत्ता लाओं जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों मे लिखा हो :

 

 ''शान्त रहो''

 

  (इससे बहुत वडे-बड़े अक्षरों मे सफेद जमीन पर काले अक्षर हों), जैसे हीं बच्चे बोलना शुरू करें, यह गत्ता उनके सामने कर दो ।

 

आशीर्वाद ।

 

*

 

  किसी बच्चे से ऐसी कोई बात न कहो जिसे सचमुच जानने के लिये भुलाना पड़े । किसी बच्चे के आगे ऐसा कोई काम न करो जो उसे बड़ा होकर न करना चाहिये ।

 

*

 

   यह कभी न भूलो कि छ: वर्ष सें कम का छोटा बच्चा जितना व्यक्त कर सकता हैं उससे बहुत अधिक जानता है ।

 

*

 

१७८

गृहकार्य

 

  सभी विद्यार्थी यह शिकायत करते हैं कि उनके अध्यापक केवल अपनी ही कक्षा की सोचते हैं और उसके देना चाहते हैं हर एक यही सोचता है कि वह बहुत थोड़ा दे रहा है और वह यह नहीं समझता कि थोडी- थोड़ा ही स्तुत हुए जात है !

 

२७९


मै यह नहीं कह सकती कि उनकी बात गलत हैं ।

 

  वे सभी अध्यापक जो विधार्थियों के एक दल को पढ़ाते हों, आपस में एकमत होकर कार्य दें ताकि विधार्थियों पर काम का भार अधिक न हो जाये और वे आराम तथा विश्रांति पा सकें जो अनिवार्य है ।

 

  मैं कोई उपयोगी सलाह दे सकूं इससे पहले यह सम्मिलित तैयारी जरूरी हैं । रही बात विषयों की, तो ऐसे विषय चुनना अनिवार्य बे जो उनकी निजी अनुभूतियों से मेल खाते हों और इस तरह आत्मावलोकन, निरीक्षण और व्यक्तिगत प्रभावों के विश्लेषण को प्रोत्साहित करें ।

 

(दिसंबर १९५९)

 

*

 

(एक गणित के अध्यापक ने पूछा कि उसे गृहकार्य-संबंधी ईसा तात्कालिक नीति का कठोरता ले पालन करना चाहिये या नहीं कि दस वर्ष ले कम के बच्चों को कोई गृहकार्य न दिया जाये उसके कुछ विधार्थियों ने धर पर करने के लिये कुछ सवाल मांगो हैं माताजी ने लिखा:)

 

यह गृहकार्य का मामला बड़ा कंटीला है । जो गृहकार्य करना चाहते हैं इसके बारे मे सीधा मुझे लिखें ।

 

(१९६०)

 *

 

   अपनी गणित की कक्षा मे हम कुछ चाहते हैं!

 

 काश, तुम जरा ज्यादा शुद्ध फ्रेंच लिख पाते!

 

  अगर तुम सचमुच चाहते हों तो कुछ गृहकार्य कर सकते हो-लेकिन ज्यादा अच्छा यह है कि सावधानी और एकाग्रता के बिना बहुत अधिक करने की अपेक्षा, जो करते हो ज्यादा अच्छी तरह करो ।

 

  अगर तुम कुछ मी करना चाहते हो तो अपने-आपको अनुशासित करना और एकाग्र होना सीखो ।

 

(२८-६ -१९६०)

 

*

 

  मै इससे सहमत नहीं हूं कि बच्चों को धर पर काम करना चाहिये । उन्हें धर पर जो इच्छा हो वह करने के लिये स्वतंत्र होना चाहिये ।

 

समस्या का हल शांति कक्ष' मे पाया जा सकता हैं ।

 

(१४-९-१९६७)

 

*

 

  यह निश्चय बच्चों और उनके मां-बाप से इस प्रकार की बहुत-सी शिकायतें पाने के बाद किया गया हैं कि गृहकार्य के कारण बच्चे बहुत देर मे सोते हैं और काफी न सो पाने के कारण बच्चे थके-थके रहते हैं ।

 

  मै जानती हूं कि इन सब शिकायतों में अतिशयोक्ति हैं, लेकिन है इस बात की सूचक भी हैं कि इस रूढ़ि में कुछ प्रगति करना जरूरी हैं ।

 

  इस योजना को समस्त ब्योरों में लोच और नमनीयता के साथ हल करने की जरूरत हैं ।

 

  मैं सभी बच्चों को एक ही तरह हांकने के पक्ष मे नहीं हूं; इससे एक तरह का एकरूप स्तर बन जाता बे जो पिछले हुए विद्यार्थियों के लिये तो लाभदायक होता हैं  पर उनक लिये हानिकर होता हैं जो सामान्य ऊंचाई से ऊपर उठ सकते हैं ।

 

  जो सीखना और काम करना चाहते हैं उन्हें प्रोत्साहन देना चाहिये । लेकिन जो पढ़ना-लिखना नहीं चाहते उनकी शक्ति किसी और दिशा में मोहनी चाहिये ।

 

  चीजों को व्यवस्थित और संगठित करना है । काम के ब्योरे बाद में शिक्षित किये जायेंगे ।

 

आशीर्वाद ।

 

(२६-९-१९६७)

 

*

 

२८०

परीक्षाएं

 

माताजी मै यह जानना चाहूंगा कि नये वर्ष में कक्षा की व्यवस्था के बारे में आपका क्या विचार हैं नयी कक्षाएं बनाने सें पहले परीक्षा होगी या नहीं?

 

मै परीक्षा को बिलकुल जरूरी मानती हूं । बहरहाल फ्रेंच में तो परीक्षा होगी ।

 

प्रेम और आशीर्वाद ।

 

(२९-१०-१९४६)

 

*

 

 एक कमरा जहां बच्चे चुपचाप बैठते या अध्ययन करते हैं ।

 

१८१


 किसी कक्षा के लिये विद्यार्थी रूढ़िगत परीक्षाओं के दुरा नहीं चुने जा सकते । यह अपने अंदर सच्चा मनोवैज्ञानिक भान उत्पन्न करने सें ही हो सकता हैं ।

 

  जो बच्चे सीखना चाहते हैं उन्हें चून लो, उन्हें नहीं जो किसी तरह धक्का देकर आगे आना चाहते हैं ।

 

 (२९-१०-१९६५)

 

*

 

  (परीक्षाओं मे धोखेबाजी के बारे मे)

 

मैं क्या करूं? क्या हमें मी वही करना चाहिये जो बाहर किया जाता है- हर कमरे मे तीन-तीन अध्यापकों को निरीक्षण के लिये रख दिया जाये? अध्यापक यहां आश्रम मे हंस तरह करना पसंद नहीं करते

 

   या हम परीक्षा लेना हीं बंद कर दें? यह प्रस्ताव जोश संदिग्ध मालूम होता ह्वै क्योंकि और निबंधों मे मी तो यही होता है?

 

   बहरहाल समस्या, ह्वै और कोई वास्तविक समाधान पाने के लिये यह जानना चाहिये कि बच्चे ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं?

 

   कृपया मुझे असदव्यवहार का कारण और इस समस्या का समाधान बतोलिया !

 

 यह बहुत सरल हैं । यह इसलिये होता है क्योंकि बहुत-से बच्चे इसलिये पढ़ते हैं कि उनके घरवाले रिवाज और प्रचलित विचारों के कारण इसके लिये बाधित करते हैं, वे जानने और सीखने के लिये नहीं पढ़ते । जबतक पढ़ने का उद्देश्य नहीं बदला जाता, जबतक कि हैं  इसलिये नहीं पढ़ते कि हैं जानना चाहते हैं, तबतक बे अपना काम आसान बना लेने और कम-से-कम प्रयास साथ परिणाम पाने के लिये सब प्रकार की चालाकियां खोजते रहेंगे ।

 

(जून १९६७)

 

*

 

 (माताजी ने कहा है कि निम्नलिखित वक्तव्य का बार-बार दोहराना हर रोज सैकड़ों हज़ारों बार दोहरानर यहांतक कि वह एक जीवित-जाग्रत स्पन्दन बन जाये विद्यार्थी की हंस विषय मे सहायता करेगा कि वह अपने अंदर क्वे त्रिये संकल्प और प्रयोजन प्रतिष्ठित कर सके !)

 

सब विधार्थियों द्वारा हर रोज दोहराये जाने के लिये :

 

  हम अपने परिवार के लिये नहीं पढ़ते, हम कोई अच्छा पद पाने के लिये नहीं

 

१८२


पढ़ते, हम पैसा कमाने के लिये नहीं पढ़ते, हम कोई उपाधि पाने के लिये नहीं पढ़ते।

 

 हम सीखने के लिये, जानने के लिये, संसार को समझने के लिये और पढ़ाई से मिलनेवाले आनंद के लिये पढ़ते हैं ।

 

(जून १९६७)

 *

 

 एक हीं उपाय है, इस परीक्षा को और आनेवाली सभी परीक्षाओं को रद्द कर दो । सभी परचों को अपने पास बंदे हुए पुलिंदे के रूप में रख छोड़-मानो वे थे हीं नहीं- और चुपचाप कक्षाएं जारी रखी ।

 

  वर्ष के अंत में तुम विद्यार्थियों के बारे में टिप्पणियां दोगे जो लिखित उत्तर-पत्रों पर आधारित न होकर, उनके व्यवहार, उनकी एकाग्रता, उनकी नियमितता, उनकी तुरंत समझने की क्षमता और बुद्धि के खुले होने पर आधारित होगी ।

 

  अपने लिये, तुम इसे एक साधना के रूप मे लोग, तुम्हें अधिक आंतरिक संपर्क, तीक्ष्मा अवलोकन और निष्पक्ष दृष्टि पर भरोसा करना होगा ।

 

 विधार्थियों के लिये यह जरूरी होगा कि बिना पूरी तरह समझे तोता-रटन्त करने की जगह, जो पढ़ते हैं उसे सचमुच समझें ।

 

  इस भांति शिक्षा मे एक सच्ची प्रगति होगी ।

 

 आशीर्वाद सहित ।

 

(२१-७-११६७)

 

*

 

 मुझे लगता है कि परीक्षा यह जानने का दकियानूसी और व्यर्थ उपाय हैं कि बिधार्थी समझदार, इच्छुक और एकाग्र हैं या नहीं ।

 

यदि स्मरण-शक्ति अच्छी हो तो एक मनु, यांत्रिक मन भी परीक्षा मे अच्छी तरह से उत्तीर्ण हों सकता है और निश्चय हीं भावी मनुष्य के लिये इन गुणों की जरूरत नहीं । पुरानी आदतों के प्रति सहिष्णुता के कारण मैं इस बात के लिये राजी हो गयी थी कि जो परीक्षा जारी रखना चाहें वे रख सकते हैं । लेकिन मैं आशा करती हूं कि आगे चलकर यह सुविधा जरूरी न रहेगी ।

 

  अगर परीक्षाएं हटा दी जायें, तो यह जानने के लिये कि क्या बिधार्थी अच्छा हैं, अध्यापक को जरा अधिक आंतरिक संपर्क और मनोवैज्ञानिक ज्ञान की जरूरत होगी । लेकिन हमारे अध्यापकों से यह आशा की जाती हैं कि हैं योग करते हैं, अतः उनके लिये यह कठिन न होना चाहिये ।

 

(२२ -७ -१९६७)

 

*

 

१८३


निश्चय ही अध्यापक को यह जानने के लिये कि बिधार्थी ने कुछ सीखा हैं, कोई प्रगति की हैं , विद्यार्थी को परखना होगा । परंतु यह परख व्यक्तिगत और हर बिधार्थी के अनुकूल होनी चाहिये, सबके लिये एक हीं यांत्रिक परख नहीं । वह एक सहज और अप्रत्याशित परख होनी चाहिये जिसमें कपट और दिखलावे का स्थान न हों । यह भी स्वाभाविक हैं कि अध्यापक के लिये यह बहुत ज्यादा कठिन है लेकिन साथ ही बहुत ज्यादा जीवित-जाग्रत और मजेदार भी ।

 

  तुमने अपने विधार्थियों के बारे मे जो टिप्पणियां लिखी हैं उनमें मुझे मजा आया । इससे प्रमाणित होता हैं कि उनके साथ तुम्हारा व्यक्तिगत संबंध है- और अच्छी पढ़ाई के लिये यह अनिवार्य हैं ।

 

   जो कपटी हैं वे सचमुच सीखना नहीं चाहते, बे केवल अच्छे अंक या अध्यापक की शाबाशी चाहते हैं-मुझे उनमें रस नहीं हैं ।

 

(२५-७-१९६७)

 

*

 

   ''मुक्त प्रगति कक्षाओं'' मे पुरस्कार देने के लिये कौन- सी कसौटी होनी चाहिये !

 

 पुरस्कार निश्रित रूप से प्रतियोगिता के स्तरों के अनुसार न होने चाहिये ।

 

  (१) क्षमता और (२) सद्भावना तथा सतत प्रयास के अमुक स्तर को लांघनेवालों को, समान मूल्यवाले, पुरस्कार दिये जा सकते हैं ।

 

    पुरस्कार योग्य होने के लिये दोनों चीजें होनी चाहिये ।

 

१८४

पाठ्यक्रम


माताजी ओर श्रीअरविन्द के ग्रंथों का अध्ययन

 

मधुर मां आपकी और श्रीअरविन्द की पुस्तकों को किस तरह पढ़? जाये ताकि बे केवल मन के दुरा सनम में आने की जगह हमारी चेतना मे घुस जायें?

 

मेरी किताबें पढ़ना मुश्किल नहीं है क्योंकि बे बहुत सरल, लगभग बोलचाल की भाषा में लिखी गयी हैं । उनसे लाभ उठाने के लिये इतना काफी हैं कि उन्हें ध्यान और एकाग्रता के साथ, आंतरिक सद्भावना की वृत्ति से, उनमें जो शिक्षा दी गयी हैं उसे ग्रहण करने और जीवन में उतारने की इच्छा से पड़ा जाये ।

 

  श्रीअरविन्द ने जो लिखा हैं उसे समझना कुछ ज्यादा कठिन है क्योंकि अभिव्यंजना बहुत ज्यादा बौद्धिक है और भाषा बहुत अधिक साहित्यिक और दार्शनिक । मस्तिष्क को उनकी चीज ठीक तरह समझने के लिये तैयारी की जरूरत होती हैं और साधारणत: तैयारी में समय लगता हैं । अगर कोई विशेष प्रतिभावाला हैं जिसमें सहजात अंतर्भाव की क्षमता हो तो और बात हैं ।

 

  बहरहाल, मै हमेशा यह सलाह देती हूं कि एक बार में थोड़ा-सा पढो, मन को जितना शांत रख सकते हो रखो, समझने की कोशिश न करो, दिमाग को जहांतक हो सके मौन रखो, और जो दम पढ़ता रहे हो उसमें जो शक्ति हैं उसे अपने अंदर गहराई में प्रवेश करने दो । शांत-स्थिरता और नीरवता में ग्रहण की गयी यह शक्ति अपनी ज्योति का काम करेगी और, अगर जरूरत हुई तो, मस्तिष्क मे इसे समझने के लिये आवश्यक कोषाणु पैदा करेगी । इस तरह, जब तुम उसी चीज को कुछ महीनों के बाद दोबारा पढ़ते हो तो तुम्हें लगता हैं कि उसमें व्यक्त किया गया विचार बहुत ज्यादा स्पष्ट और निकट, और कभी-कभी बहुत परिचित हो गया हैं ।

 

  ज्यादा अच्छा यह हैं कि नियमित रूप से पढ़ो, रोज थोड़ा-सा पढ़ो और हों सके तो एक शिक्षित समय पर; इससे मस्तिष्क के लिये ग्रहण करना आसान हो जाता हैं ।

 

(२-११-१९५९)

 

*

 

 मधुर मर श्रीअरविन्द की जो पुस्तक कठिन हैं और मेरि समझ में नहीं आती उदाहरण के लिये 'सावित्री: 'दिव्य जीवन: उन्हें मैं किस वृत्ति के सबा पूढा?

 

  एक बार में थोड़ा-सा अंश पढ़ो, बार-बार पढ़ो जबतक कि समय में न आ जाये ।

 

(२३ -६ -१९६०)

 

*

 

१८५


  श्रीअरविन्द के ग्रंथ पढ़ने का सच्चा तरीका क्या हैं?

 

सच्चा तरीका हैं एक बार मे थोड़ा-सा एकाग्रता के साथ पढ़ना, मन जहांतक हो सके नीरव रहे, समझने के लिये सक्रिय रूप से प्रयास किये बिना, अपर की ओर को नल्लईवता मे मूषा रहे और ज्योति के लिये अभीप्सा करे । धीरे-धीरे समह्म आती जायेगी ।

 

  और फिर, दो-एक वर्ष मे, तुम फिर से उसी चीज को पड़ोगे और तुम जान जाओगे कि पहला संपर्क अस्पष्ट और अपूर्ण था, और यह कि सच्ची समझ बाद मे, उसे क्रियात्मक रूप देने का प्रयास करने के बाद आती हैं ।

 

(१४ -९० -१९६७)

 

*

 

  तुम धरती पर आये हो अपने-आपको जानना सीखने के लिये ।

 

  श्रीअरविन्द के ग्रंथ पढो और सावधानी से अपने अंदर जितनी गहराई मे रुक सकते हो जाओ ।

 

(४-७-१९६९)

 

*

 

  श्रीअरविन्द की शताब्दी के इस वर्ष मे हम विधालय के अध्यापक और विद्यार्थी श्रीअरविन्द की सेवा के लिये क्या कर सकते हैं?

 

  सबसे पहले यह पढो कि श्रीअरविन्द ने शिक्षा के विषय मे क्या लिखा है । फिर तुम्हें उसे अपने व्यवहार मे लाने के लिये कोई रास्ता खोजना होगा ।

 

(१९७२)

 

*

 

  श्रीअरविन्द धरती पर अतिमानसिक जगत् की अभिव्यक्ति की घोषणा करने आये थे और उन्होंने इस अभिव्यक्ति की घोषणा हीं नहीं की बल्कि अंशत: अतिमानसिक शक्ति को मूर्त रूप भी दिया और अपने उदाहरण के दुरा यह बतलाया कि उसे अभिव्यक्त करने के लिये क्या करना चाहिये । सबसे अच्छी बात जो हम कर सकते हैं वह यह हैं : उन्होंने हमसे जो कुछ कहा हैं  उसका अध्ययन करें और उनके उदाहरण का अनुसरण करने की कोशिश करें और अपने-आपको नयी अभिव्यक्ति के लिये तैयार करें ।

 

  यह चीज जीवन को उसका असली अर्थ देती हैं और हमें सभी बाधाओं पर विजय पाने में सहायता देगी ।

 

१८६


हम नयी सृष्टि के लिये जियें तो हम युवा और प्रगतिशील रहकर बलवान् और अधिक बलवान् होते जायेंगे ।

 

(३०-१-१९७२)

 

*

 

  श्रीअरविन्द की शताब्दी के लिये मैं व्यक्तिगत रूप ले श्रीअरविन्द के प्रति कौन-सी सर्वोत्तम मेट दे सकता हूं?

 

पूरी सचाई के साथ उन्हें अपना मन अर्पण कर दो ।

 

(१३-११-१९७०)

 

श्रीअरविन्द की सेवा में सचाई के साथ अपना मन अर्पण करने के लिये क्या यह जरूरी नहीं है कि एकाग्रता की शक्ति को बहुत विकसित किया जाये? क्या आप बतलायेंगी इस बहुमूल्य क्षमता की पैदा करने के लिये क्या करना चाहिये?

 

एक समय शिक्षित कर लो जब तुम हर रोज शांत-स्थिर हो सको ।

 

श्रीअरविन्द की कोई एक पुस्तक ले लो । दो-एक वाक्य पढो । तब गहरे अर्थ समझने के लिये नीरव और एकाग्र रहो । काफी गहराई मे एकाग्र होने की कोशिश करो ताकि तुम मानसिक नीरवता पा सको, और फिर, जबतक कोई परिणाम न मिल जाये तबतक इसी तरह रोज करते रहो ।

 

  स्वभावत: तुम्हें सो न जाना चाहिये ।

 

(३ -२ -१९७२)

 

*

 

  अगर तुम ध्यान से श्रीअरविन्द की चीजें, पढो तो तुम जो कुछ जानना चाहते हों सबका उत्तर पा लोग ।

 

(२५-१०-१९७२)

 

*

 

   श्रीअरविन्द ने सभी विषयों पर जौ कुछ कहा हैं उसका ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से तुम आसानी से इस संसार की सभी चीजों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हो ।

 

*

 

१८७


     माताजी बुद्धिमान कैसे बना जाता हैं?

 

 श्रीअरविन्द की चीजें पढो ।

 

* 

 

 श्रीअरविन्द की चीजों का अध्ययन पुस्तकों सें नहीं, विषयवार करना चाहिये- उन्होंने भगवान् एकता, धर्म, विकास-क्रम, शिक्षा, आत्म-सिद्धि अतिमानस आदि, आदि के बारे में क्या कहा है

 

*

 

    क्या (अंग्रेजी) शिक्षा-समिति यह मान लेने मे ठीक है कि विद्यालय के अंग्रेजी पामक्रम मे माताजी और श्रीअरविन्द की कृतियों होनी चहीयों?

 

हां

 

    क्या संपूर्ण पूस्तकें चुनना अच्छा है श अलग-अलम पुस्तकीं सै चुने हुए

 

 विद्यालय के लिये संकलन ज्यादा अच्छे हैं ।

 

      क्या योग क्वे बारे मे जो पुस्तकें हैं उनमें से मी उद्धरण चुनने चाहिये?

 

 बहुत हीं सरल चीजें, जैसे ''योग के तत्त्व' ' मे से ।

 

अंग्रेजी अध्ययन के लिये इन ' का उपयोग किस तरह किया जाये ? उन्हें समझाया जाये या बस यूं ही पड़ लिया जाये? विशेषकर यदि माताजी योगसंबंधी ' के लिये स्वीकृति देती हैं ती उन्हें किस तरह पढ़ाया जाये?

 

 योग के दृष्टिकोण से नहीं ।

 

     क्या इन संकलनों को अध्यापक निजी रूप में? कक्षा की आवश्यकताओं को

 

माताजी ने 'अध्यापक निजी रूप में' के नीचे लकीर लगाकर हाशिये में लिख दिया ''हां' '।

 

१८८


   द्रष्टि मे रखते हुए तैयार करें (जिस पर शिक्षा-समिति की स्वीकृति हो) और बिस विद्यालय-समिति की सहमति ले लें?

 

   या शिक्षा-समिति विश्वविद्यालय-समिति की सहमति से एक क्रमिक संकलन तैयार करे जो अध्यापकों की सिफारिश पर आधारित हो?

 

नहीं, क्योंकि वह काफी लचीला न होगा ।

 

    हर कक्षा मै अंग्रेजी को पांच अंतर मिलते हैं ? क्या इनमें से एक या अनेक अंतर पूरी तरह माताजी और श्रीअरविन्द की चीजें पढ़ने क्वे लिये रखे जायें?

 

हां

 

   क्या इस ए के लिये हसके सिवा एक या अधिक अंतर और रखे जायें?

 

नहीं

 

क्या भाषा-स्तर की कोई सीमा है जिसके नीचे ये कृतियों कक्षा की न दी जायें? अगर ऐसा हो तो अंग्रेजी के कौन-से दलों को इसमें न लिया जाये?

 

*

 

यह पूरी तरह से विद्यार्थियों की क्षमता पर निर्भर हैं ।

 

*

 

(उच्चतर कक्षाओं के अध्यापकों के नाम)

 

   माताजी ने सुझाव दिया है कि 'उच्चतर कक्षाओं' मे श्रीअरविन्द के ग्रंथों के अध्ययन के लिये यह पद्धति अपनायी जाये :

 

(१) पहले अध्यापक विषय के आवश्यक तत्वों का परिचय दे

 

(२) फिर वह अपनी टिप्पणियां के बिना विद्यार्थियों को श्रीअरविन्द का सबसे अधिक एक [या अधिक) उद्धरण और मनन करने के लिये दे जो उस विषय के साथ संबंध रखता हो !

 

(३) तब बिधार्थी से कहा जाये कि वे अमली कक्षा मे मौखिक रूप से  एक छोटे-से निबंध मे यह बतलाये कि वे क्या समझ पाये और उन्होने क्या निष्कर्ष निकाला !

 

(२५-१०-१९५९)

 

१८९


अपर (१) के बारे मे : क्या माताजी की च्छा यह है कि विषय प्रस्तुत करते समय अध्यापक अपने-आप श्रीअरविन्द की पुस्तक मे ले कुछ न पड़े ?

 

 निश्चय हीं जब कमी अध्यापक को उपयोगी लगे वह श्रीअरविन्द के उद्धरण पढ़कर सुना सकता है ।

 

    (२ के बारे मैं : क्या विषय प्रस्तुत करने के बाद अध्यापक श्रीअरविन्द के ग्रंथों ले संबद्ध प्रसंग बतला दिया करे परंतु अपने-आप उन्हें कक्षा क्वे सामने न पड़े? क्या वह विद्यार्थियों से कह सकता है कि अगर समय हो तो ईन उद्धरणों को कक्षा मैं बैठकर ही पढो? या उन्हें केवल घर पर ही पढ़ना चाहिये प्र?

 

 वह अपने-आप पढ़ सकता है , विद्यार्थियों से मन-ही-मन या जोर से पढ़ने के लिये कह सकता है, वे घर पर या कक्षा मे कहीं भी पढ़ सकते हैं; यह समय और परिस्थितियों पर निर्भर है। जरूरी बात यह है कि श्रीअरविन्द की चीजें विद्यार्थियों के सामने चबायी हुई और आधी जीर्ण अवस्था मे न आयें । अध्यापक मूल्यांकन के सभी तत्त्व बता सकता हैं लेकिन बच्चों का सीधा संपर्क होना चाहिये । उन्हें बोध का आनंद मिलना चाहिये । अध्यापक को इस बात का ख्याल रखना चाहिये कि वह श्रीअरविन्द की महान चेतना और विद्यार्थी के मन के बीच पर्दा बन बाधक न हो ।

 

   (३) के बारे मैं : क्या माताजी यह चाहती हैं कि बच्चे कक्षा मे क्या समझे हैं इसकी मौखिक श लिखित परख अगत्ही बैठक मे ही तकाई जाये? अगर कोई विषय या पाठ एक अंतर से ज्यादा समय तो क्या उनसे पाठ श विषय समाप्त होने के बाद अपनी बात कहने क्वे लिये कहा जा सकता है?

 

 स्वभावत: यह अध्यापक के हाथ मे है ।

 

   कुछ विषय इसलिये निर्धारित किये किये हैं ताकि थे श्रीअरविन्द की चीजें पढ़ने से पत्ते का काम दें श्रीअरविन्द की ' पढ़ने से पत्ते इन विषयों को अलग तहना की जगह क्या अध्यापक दोनों विषयों को साथ-साध कत्ल सकता है श्रीअरविन्द की ' मे छै विषय देते हुए उसके साथ संबद्ध विचार समझाये जा सकते हैं?

 

 तुम जैसा चाहो कर सकते हो, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, इस बात की सावधानी बरतनी चाहिये कि श्रीअरविन्द की चीज बच्चों के पास तब आये जब उन्हें आवश्यक

 

१९०


जानकारी मिल चुकी हो और तैयारी करवा दी गयी हो, परंतु श्रीअरविन्द की चीज उनकी पूरी ताजगी और शक्ति के साथ आनी चाहिये ।

 

  श्रीअरविन्द की कोई पुस्तक-विशेष पड़ते समय क्या अध्यापक उनके अन्य ग्रंथों सें किसी विषय पर अन्य उद्धरण दे सकता है? हंसी तन क्या वह माताजी के उद्धरण भी ले सकता है?

 

 संकोच करके अपने-आपको सीमित क्यों करते हो? तुम निश्चय ही माताजी और श्रीअरविन्द के अन्य ग्रंथों को उद्धत कर सकते हो !

 

(१०-११-१९५९)

 

*

 

  (''मारता का आध्यात्मिक इतिहास'' की रूपरेखा माताजी को पढ़कर सुनायी गयी उन्होने कहा:)

 

 नहीं! इससे काम न चलेगा । इस तरह से नहीं करना चाहिये । तुम्हें एक जोर के धमाके के साथ शुरू करना चाहिये ।

 

   तुम इतिहास का सातत्य दिखाने की कोशिश कर रहे थे जिसका श्रीअरविन्द परिणाम या चरम बीड़ हैं । यह बिलकुल मिथ्या है ।

 

  श्रीअरविन्द इतिहास के बिलकुल नहीं हैं; वे उसके बाहर, उसके परे हैं ।

 

  श्रीअरविन्द के जन्म तक, धर्म और अध्यात्म के पंथ हमेशा भूतकालीन व्यक्तियों पर आधारित थे और है ''जीवन का लक्ष्य' ' बताते थे धरती से जीवन के विलय को । तो, तुम्हारे सामने दो विकल्प होते थे : या तो

 

  -इस जगत् में ऐसा जीवन जो तुच्छ विलास और पीड़ा, सुख-दुःख का चक्कर होगा और ठीक तरह व्यवहार न करने से नरक का भय रहेगा, या

 

  - यहां से किसी और लोक मे बच निकलना स्वर्ग, निर्वाण, मोक्ष...

 

  इन दोनों मे से चुनने लायक कुछ भी नहीं है , दोनों समान रूप सें खराब हैं । श्रीअरविन्द ने हमें बतलाया है कि यहीं वह आधारभूत फल थीं जो भारत की दुर्बलता और उसके पतन के लिये जिम्मेदार हैं । बौद्ध धर्म, जैन धर्म, मायावाद देश की समस्त जीवन-शक्ति को सुखा देने के लिये काफी थे ।

 

  यह सच है कि आज धरती पर भारत हीं एकमात्र देश है जिसे इस बात का भान बे कि 'जडू-द्रव्य' के सिवा और भी किसी चीज की सत्ता है। अन्य देश- यूरोप, अमरीका आदि- इसे बिलकुल स्व चुके हैं । इसलिये संदेश अभीतक उसी के पास है , उसे सुरक्षित रखना और दुनिया तक पहुंचाना है । लेकिन अभी तो वह अव्यवस्था मे बिखेर और छटपट खा है ।

 

१९१


  श्रीअरविन्द ने बतलाया है कि सत्य सांसारिक जीवन सें भागते मे नहीं, उसके अंदर रहकर, उसे रूपांतरित करने ओर उसे दिव्य बनाने मे है ताकि भगवान् यहां, भौतिक जगत् मे अभिव्यक्त हो सकें ।

 

   तुम्हें ये सब बातें पहली बैठक में कहनी चाहिये । तुम्हें बिलकुल सीधा और स्पष्ट होना चाहिये... इस तरह! (माताजी मेज़ पर अपने हाथों से चतुष्कोण आकार बनाती हैं ।)

 

   तब, जब यह बात स्पष्ट, जोरदार शब्दों मे कह दी जाये, और उसके बारे मे कोई शंका न रहे- और केवल तभी-तुम आगे बढ़कर धर्म या धार्मिक तथा आध्यात्मिक नेताओं का इतिहास सुनकार उनका मनोरंजन कर सकते हो ।

 

   तब- और केवल तभी- तुम उनके द्वारा पोषित और घोषित दुर्बलता और मिथ्यात्व के बीजों को दिखला सकोगे ।

 

  तब- और केवल तभी-तुम समय-समय पर, स्थान-स्थान पर एक ' अंतर्भाव' पा सकोगे कि कुछ और भी संभव , उदाहरण के लिये वेद मे (पणियों की गुहा मे उतरनें की बात हैं); तंत्रोंमे भी... एक छोटी-सी जलती हुई ज्वाला ।

 

(३१ -३ -१९६७)

 

 *

 

   श्रीअरविन्द न भूतकाल के हैं न इतिहास के ।

  श्रीअरविन्द वह 'भविष्य' हैं जो चरितार्थ होने के लिये आगे बढ़ रहा हैं ।

  अतः हमें उस शाश्वत यौवन को बनाये रखना चाहिये जो तेज प्रगति के लिये, मार्ग पर फिसड्डी बनकर न पेड़ रहने के लिये जरूरी है ।

 

(२ -४ -१९६७)

 

   *

 

 ''विद्यार्थी पूरी स्वतंत्रता के साथ विषयों का चुनाव करे और यह चुनाव विद्यार्थी की वास्तविक खोज और उसके उत्साह को प्रतिबिंबित करे । ''

 

  प्रस्ताव १ : देखिये पृ० १६२

 

१९२


  उन्होने कहा कि जब 'उच्चतर कक्षाएं' शुरू की नयी थीं तो माताजी का मुख्य इरादा यह था कि सभी विद्यार्थियों को श्रीअरविन्द की शिला की काकी समझ हरे उन्होने हीं हंस उद्देश्य से 'सामान्य पामक्रम' की व्यवस्था की श्री ! हमारा 'शिक्षा-केंद्र' मत्त' श्रीअरविन्द की शिक्षाएं देने और गण करने के लिये हैं तो फिर उनका अध्ययन ऐच्छिक कैसे रखा जा सकता है? वास्तव ऐ यह मानना बड़ा ही अजीब होगा कि हमारे 'शिक्षा-केंद्र' के किसी विद्यार्थी को श्रीअरविन्द के ग्रंथों के अध्ययन मे रस न होगा? और अगर न हो तो हम उसे अपने 'केंद्र' का विद्यार्थी कैसे मान सकते हैं?

 

 हां, जो विद्यालय मे पढ़ना चाहते हैं लेकिन उनके लिये नहीं जो अकेले हीं पढ़ना चाहते हों ।

 

(नवंबर १९६७)

 

*

 

   यह सुझाव दिया क्या है कि 'बुलेटिन' मे माताजी की जो बातचीत छपा करती है और जो अन्य महत्त्वपूर्ण त्9एख छपते हैं जो मुख्यत: 'शिक्षा-केंद्र' के विद्याथियों के लिये होते हैं उन्हें पढ़ने के लिये महीने मैं दो-एक घटे रखे जायें और माताजी ले यह प्रभा जाये कि ये लेख कौन- सी माफ मे पड़े जायें?

 

  अगर तुम मेरे लेखों या वार्तालापों का उपयोग करना चाहते हो तो फ्रेंच में करो ।

 

(२७ -७-१९५९)

 

*

 

 श्रीअरविन्द की चीजें अंग्रेजी मे, और मेरी फ्रेंच मे पढ़नी चाहिये ।

 

(४-३-१९६६)

 

  आपने कहा है कि श्रीअरविन्द के ग्रंथ समझने मै दो-एक वर्ष लगने तो क्या यह उचित है कि अध्यापक हमसे (कक्षा मे पढ़ीं हुर्र श्रीअरविन्द की चीजों के बारे मे) मत पूँछें?

 

मैंने कहा था कि भली-भांति समह्मने मे कई वर्ष लग जायेंगे । लेकिन अगर तुम समह्मदार हो तो कुछ थोड़ा-बहुत तो तुरंत समझ जाओगे; अध्यापक तुम्हारी समझ की मात्रा के बारे मे अंदाज लगाना चाहते हैं ।

 

(७-१०-१९६७)

 

*

 

१९३


    मेरा काम इस प्रकार का हैं कि मुझे हमेशा पढ़ना लिखना और सोचना पड़ता है- परिणामत: थे अधिकतर मन मे ही रहता हू मानसिक कार्य मे निरंतर व्यस्तता मेरे चैत्य केंद्र के रहने मे बाधक होती है इसने मेरे जीवन को बहुत शुक और डावैडोल बना दिया है आपने 'बुत्हेटिन' मे कहा है कि इस प्रफुल्ल का सतत मानसिक क्रिया-कत्था अभिव्यक्त होती हुई 'नयी चेतना' को ग्रहण करने के लिये अच्छा नहीं है त्नेकिन जब मुझे जो काम करना पड़ता है उसके त्हिये यह जरूरी है तो मैं क्या कर सकता हू?

 

ऐसा लगता हैं कि तुम यह क्या गये हों कि बरसों तक श्रीअरविन्द पूरा-का-पूरा ' आर्य' ' पूर्ण मानसिक नीरवता मे लिखा करते थे । वे अपर से आनेवाली प्रेरणा को सीधा हाथों के द्वारा टंक-यंत्र पर अभिव्यक्त होने देते थे ।

 

(७ -३ -१९६९)

 

*

 

   'आर्य' के अध्ययन का विचार बहुत अच्छा  है । तुम अपने-आप जो थोड़ा-बहुत समझ लो वह दूसरे की व्याख्या के सागर से ज्यादा अच्छा और उपयोगी है ।

 

*

 

   तुम उपयोगी रूप मे जैविकी पोहा सकते हो और साथ हीं श्रीअरविन्द के ग्रंथों का अध्ययन जारी रख सकते हो ।

 

   यह ज्यादा अच्छा है कि तुम जो भी करो बहुत गंभीरता के साथ और अच्छी तरह करो, बजाय इसके कि अपने कामों को बढ़ाते जाओ ।

 

  अच्छा अध्यापक होना आसान नहीं है; परंतु यह हैं बहुत मजेदार और अपने- आपको विकसित करने का बहुत अच्छा अवसर ।

 

  रहीं बात श्रीअरविन्द की चीजें पढ़ने की, तो इन्हें पढ़ना हमारे लिये भविष्य के द्वार खोल देता हैं ।

 

(१६ -११ -११७२)

 

*

 

   हम जो कुछ पढ़ते अध्ययन करते और सीखते हैं वह सब श्रीअरविन्द की कृतियों के आये मिथ्यात्व का ढेर मालूम होता है तब फिर उन पर समय नष्ट क्यों किया जाये?

 

   श्रीअरविन्द की मासिक अंग्रेजी पत्रिका (१९१४ -११२१ ) उनकी प्रायः सभी मुख्य गद्य कृतियों पहले उसी मे छपी थीं ।

 

१९४


मेरा ख्याल है कि यह मन के लिये जिम्नास्टिक्स मात्र हैं!

 

*

 

   प्रिय माताजी मै तत्वज्ञान और निशिवासर का सर अध्ययन करना चाहता हूं मैं 'दिव्य जीवन' भी पढ़ने की सोच रहा हू

 

 अगर तुम तत्त्वज्ञान और नीतिशास्त्र पढो तो केवल मानसिक जिम्नास्टिक्स के रूप मे पढो जो तुम्हारे मस्तिष्क को कुछ कसरत दे, लेकिन इस तथ्य को कभी आंख से ओझल न होने दो कि यह ज्ञान का स्रोत नहीं है और यह कि उस तरीके से तुम ज्ञान नहीं पा सकते । स्वभावत: यह बात 'दिव्य जीवन' के बारे मे नहीं है...

 

  मुझे लगता  है कि अपने 'गृह-निर्माण विभाग' के काम के अतिरिक्त अगर तुम्हारी पढ़ने की इच्छा हो तो ज्यादा उपयोगी होगा कि तुम हड़बड़ी किये बिना, गंभीरता और सावधानी के साथ श्रीअरविन्द की पुस्तकों का अध्ययन करो । यह तुम्हारी साधना मे अरि सब चीजों की अपेक्षा अधिक सहायक होगा ।

 

(९ -३ -१९४१)

 *

 

   मैं श्रीअरविन्द की किस पुस्तक ले आरंभ करूं?

 

 'दिव्य जीवन' से ।

 

मेरे आशीर्वाद ।

 

(११-३-१९४१)

 

*

 

   (माताजी ने एक अध्ययन दल के लिये निम्नलिखित प्रस्तावित कार्यक्रम

 

   १. प्रार्थना (श्रीअरविन्द और माताजी, अपनी शिक्षा को समझने के हमारे इस प्रयास मे हमें सहायता प्रदान लीजिये ।)

 

  २. श्रीअरविन्द की पुस्तक पढ़ना ।

  है. क्षणभर मौन ।

 

४. जो भी चाहे पढ़ें हुए पाठ के विषय में एक प्रश्र करे ।

५. प्रश्र का उत्तर ।

६. सामान्य वाद-विवाद बिलकुल नहीं ।

 

   यह एक दल की बैठक नहीं है, श्रीअरविन्द की पुस्तकें पढ़ने के लिये एक कक्षा मात्र हैं।

 

(३१-१०-१९४२)

 

*

 

१९५

भाषाएं

 

   पूर्व और पश्चिम मे मेल करने के लिये, एक की सर्वोत्तम चीजें दूसरे को देने के लिये और एक सच्चा सामंजस्य लाने के लिये सब प्रकार के अध्ययन के लिये एक विश्व-विद्यालय की स्थापना की जायेगी और हमारा विद्यालय उसका केंद्र होगा ।

 

   अपने विद्यालय मे मैंने फ्रेंच भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया है । इसका एक कारण यह हैं कि फ्रेंच संसार की सांस्कृतिक भाषा  है । बच्चे भारतीय भाषाएं जस पीछे सीख सकते हैं । अगर अभी भारतीय भाषाओं पर ज्यादा जोर दिया जाये, तो भारतीय मानस की स्वाभाविक वृत्ति के अनुसार वह प्राचीन साहित्य, संस्कृति और धर्म मे फंसा जायेगा । तुम भली-भांति जानते हों कि हम प्राचीन भारतीय चीजों का मूल्य स्वीकार करते हैं, लेकिन हम यहां कुछ नया सृजन करने के लिये हैं, कुछ ऐसी चीज लाने के लिये हे जो धरती के लिये एकदम नयी होगी । इस प्रयास मे, यदि तुम्हारा मन पुरानी चीजों से बंधा रहे तो वह आगे बढ़ने से इंकार करेगा । भूतकाल के अध्ययन का अपना स्थान हैं, लेकिन उसे भविष्य के काम मे बाधा न देनी चाहिये !

 

*

   क्या फ्रेंच को एक विशेष भाषा के रूप मे लिया जाये जो बच्चों को पहत्हे आपके साथ और फिर सुन्दरता के अमुक स्पंदनों के सक् संपर्क ये जायेगी?

 

 कुछ-कुछ ऐसा हीं हैं ।

 

मैं बस, इतना कह सकती हू कि हमारा विद्यालय सारे भारत मे फ्रेंच पढ़ाने के लिये सबसे अच्छे विद्यालयों मे सें एक-शायद सबसे अच्छा-माना जाता हैं और मेरा ख्याल हैं कि इस प्रशंसा के योग्य होना अच्छा हैं ।

 

१९६


   यहां के बच्चों के साथ संबंध के विषय मे, मै हमेशा उनके साथ फ्रेंच मे हीं बोलती हू ।

 

*

 

   विज्ञान क्रैक मे क्यों पढ़ाया जाये?

 

 इसके बहुत-से कारण हैं, ज्यादा गहरे कारण कहे बिना तुम्हें अपने हृदय मे मालूम होने चाहिये ।

 

    बाहरी कारणों मे मै कह सकतीं हू कि फ्रेंच बहुत ज्यादा सुशिक्षित और यथार्थ भाषा होने के कारण विज्ञान के लिये अंग्रेजी से ज्यादा अच्छी है । अंग्रेजी कविता के लिये बहुत ज्यादा श्रेष्ठ हैं ।

 

   कुछ व्यावहारिक कारण भी हैं जिनमें यह तथ्य भी हैं कि उन सबके लिये जिन्हें बड़े होकर अपनी आजीविका कमानी होगी, जिन्हें फ्रेंच का अच्छा ज्ञान होगा वे बहुत आसानी सें काम पा लेंगे ।

 

  आशीर्वाद ।

 

(९ -२ -१९६९)

 

*

 

    फ्रेंच निश्चय ही सबसे अधिक सुशिक्षित और स्पष्ट भाषा हैं, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि सें यह सत्य नहीं हैं कि फ्रेंच उपयोग के लिये सबसे अच्छी भाषा अंग्रेजी मे सुनम्यता है, एक प्रवाह हैं जो फ्रेंच मे नहीं हैं, और यह सुनम्यता अनिवार्य है उस चीज को न बिगड़ने के लिये जो अनुभूति मे मन के द्वारा अभिव्यक्त और रूपायित चीजों से बहुत ज्यादा विशाल और व्यापक हैं ।

 

(जनवरी १९५०)

 *

 

 (अनुवाद के बारे में)

 

   (बोते) = मेहरबानी और सद्भावना;  (बिऐवेइयास) हर चीज के अच्छे पक्ष को देखना । यह मात्र आशावाद नहीं है जो बुरी चीजों की ओर सें आंखें मूँद लेता है । यह एक चैत्य दृष्टि हैं जो हर जगह 'शुभ' देखती है ।

 

  ऐसे बहुत-से शब्द हैं जिनका अनुवाद नहीं किया जा सकता । श्रीअरविन्द के हास्य और व्यंग्य का फ्रेंच मे अनुवाद नहीं किया जा सकता । जब अंग्रेजी हास्य को फ्रेंच मे

 

१९७


अनूदित किया जाता हैं तो वह मूढतापूर्ण और नीरस लगता हैं; जब फ्रेंच हास्य को अंग्रेजी मे अनूदित किया जाता है तो वह कूर और निरर्थक बन जाता हैं । ये दोनों भाषाएं इतनी अधिक समान मालूम होती हैं फिर भी, दोनों की प्रतिभा एकदम भिन्न है । ''

 

(४-७-१९५६)

 *

 

   मैं कल तुम्हें किताब प्रार्थना और ध्यान भुजंगी लेकिन तुम जो पढ़ते हो उसे भली-भांति समझने के लिये तुम्हें व्याकरण का अच्छा अध्ययन करना चाहिये ।

 

(२०-६-१९३२)

 

    मैं अच्छी फ्रेंच शैली कहां सीख?

 

 यह व्याकरण की उच्चस्तरीय पुस्तकों मे सिखायी जाती हैं, और इसके लिये विशेष पुस्तकें भी होती हैं । शैली के मुख्य नियमों मे से एक यह है कि जब तक एकदम अनिवार्य न हों जाये गद्य लेखों मे ''मैं '' का प्रयोग न किया जाये और किसी हालत में एक के बाद एक दो वाक्य कभी ''मै' ' से शुरू न किये जायें । इससे तुम्हें यह अंदाजा होगा कि अपनी दैनिक रिपोर्ट लिखते समय तुम्हें उसमें शैली लाने के लिये क्या करना चाहिये!

 

(२० -७-१९३३)

 

*

 

   फ्रेंच सरलता और स्पष्टता के साथ लिखी जानी चाहिये ।

 

(२९-९-१९३३)

 

*

 

   सरलता और स्पष्टता से लिखी गयी फ्रेंच ज्यादा अच्छी होती हैं; जटिल बिम्ब का ढेर भाषा को आडम्बरपूर्ण बना देता हैं ।

 

*

 

१९८


मेरी प्यारी इन्हीं मुस्कान

 

   तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है, मैं कोई कारण नहीं देखती कि तुम मजेदार चीजें पढ़ने की जगह, उबानेवाले अभ्यास क्यों करो ।

 

   भाषा सीखने के लिये पढ़ना, पढ़ना, पढ़ना-तथा जितना हो सके उतना बोलना चाहिये ।

 

   मेरे समस्त प्रेम के साथ ।

 

(१० -७ -१९३५)

 

*

 

   मैं फिर ले फेंच अध्ययन शुरू करना चाहता हूं विशेषकर बतकहा माप कुछ देगी !

 

 सबसे अच्छा यह है कि बोलों... हिम्मत के साथ हर मौके पर ।

 

   माताजी क्या आप कुछ अच्छे लेखकों क्वे नाम बता सकेगी जिनकी कृतियों मैं पड़ सकूं?

 

 अगर फ्रेंच पढ़नी  है तो फ्रेंच साहित्य की कोई पायता-पुस्तक अध्ययन के लिये ले लो और उसमें उल्लिखित लेखकों की एक-एक दो-दो पुस्तकें पढो । शुरू  है आरंभ करो, यानी, प्रारंभिक लेखों से शुरू करो ।

 

(२२ -१ -१९३६)

 

*

 

    अगर नाप पसंद करें तो मैं एक अपनी पसंद की पुस्तक क्षमा और आपकी सलाह के अनुसार फ्रेंच के किसी प्रांरभिक लेखक की?

 

 मैंने यह नहीं कहा कि तुम्हें केवल प्रांरभिक लेखकों की कृतियों ही पढ़नी चाहिये; मैंने कहा था पाक्य-पुस्तक मे जिन लेखकों का उल्लेख हैं उनमें से हर एक की एक- दो पुस्तकें पढो और शुरू करो प्रारंभिक लेखकों से ।

 

(२४ -९ -१९३६)

 

*

१९९


   माताजी मैंने फ्रेंच ' पढ़ना शुरू कर दिया है- 'स' ने एक दी  है!

 

 अच्छा  है कि तुम बहुत-सी फ्रेंच पढ़ो, यह तुम्हें लिखना सीखा देगा ।

 

 (७-४-१९६९)

 

*

 

   आज मैंने ई ५ की कक्षा त्9ाई और हमने 'वर्षसे आक द मादर' का पढ़ना और समझाना जारी रखा यद्यपि मैं सदा हंस पुस्तक की भाषा के सौंदर्य की ओर ध्यान खचित? रहता हुं फिर मी मैं हंस बात हेरबारे मे सचेतन हूं कि मैं अंग्रेजी पढ़ाने की अपेक्षा व्याख्या पर ज्यादा जोर देता हू !

 

 यह बिलकुल ठीक हैं क्योंकि यह उन्हें अंग्रेजी मे सोचने के लिये बाधित करता हैं जो भाषा सीखने का सबसे अच्छा तरीका है ।

 

(२ -५ -१९४६)

 

*

 

    'क्ष' ने अपने दो लड़कों की पढ़ाई की के बारे मे आपकी राय पंछी हैं उठने अपने एक लड़के को बंबई के किसी हटेलियन मिशनरी स्कूल मे भरती कराया है जहां माध्यम अंग्रेजी है? और वह अपने बेटे को मी शीघ्र ही वहीं भरती कराना चाहता है लेकिन आजकल भारत मे भाषा को लेकर जो विवाद चर्म खा है हिसके कारण वह चकरा गया है और यह ठीक नहीं कर फ खा कि अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय मैं भेजे या अपनी मातृभाषा- मराठी- के विद्यालय मे अवस्था मै उसे विद्यालय बतकहा होगा वह इस मामले मे आपका पथ-प्रदर्शन चाहता है?

 

 मातृभाषा ठीक है । लेकिन जो उच्चतर शिक्षण चाहते हैं, उनके लिये अंग्रेजी अनिवार्य है !

 

   आशीर्वाद ।

 

(३-११-१९६७)

 *

 

   इस समय हमारी 'उच्चतर कक्षाओं' के बहुत-से विद्यार्थी कोई मी भाषा इतनी अच्छी तरह नहीं जानते कि उसमें अपने विचार और भाव अच्छी तरह

 

२००


   संवेदनशीलता के साथ व्यक्त कर सकें; माताजी इसकी जरूरत है श नहीं? अगर है तो उन्हें कौन-सी भाषा सिखनी चाहिये? एक सामान्य श अंतर्राष्ट्रीय मापा या अपनी मातृभाषा?

 

   अगर सिर्फ एक ही सीखनी हैं तो ज्यादा अच्छा है कि यह (माताजी ने ''सामान्य या अंतर्राष्ट्रीय भाषा' ' के नीचे लकीर खींच दी) ।

 

*

 

   उपयोगिता की से हमारे कुछ विद्यार्थी साहित्यिक हिंदी नहीं सीखना चाहिये !

 

 उन्हें दोनों सिखाओ, सच्ची भाषा और अब उसने क्या रूप ले लिया ३- वह वास्तव मे बहुत मजेदार होगा-तथा और चीजों की अपेक्षा यह उन्हें बुरी हिंदी बोलने की आदत से छुडा देगा।

 

   क्या आप कहती हैं कि विद्यार्थियों की के बावजूद मैं हिन्दी पढ़ता चूल !

 

 संकोच के बिना चलते चलो... ।

 

  अमृत कहता है हिन्दी कक्षा की अपेक्षा उसकी तमिल कक्षा की अवस्था बहुत ज्यादा खराब हैं । वह कहता है कि अगर विद्यार्थी न भी आयें तब भी वह कक्षा जारी रहेगा- स्वयं अपने-आपको पायेगा!

 

(३० -९ -१९५९)

 

   हिन्दी उनके लिये अच्छी है जो हिन्दी-भाषी प्रदेश से आये हैं । संस्कृत सभी भारतवासियों के लिये अच्छी है ।

 

 मुझे भारतीय भाषाओं के लिये बहुत अधिक मान हैं और अब भी जब समय मिलता है, संस्कृत पढ़ना जारी रखती हू ।

 

२०१


 संस्कृत को भारत की राष्ट्र-भाषा होना चाहिये ।

 

(१९ -४ -११७१)

 

*

 

   जिन विषयों पर आपने और श्रीअरविन्द ने सीधे उत्तर दिये हैं उनके बारे मे हम मी ('श्रीअरविन्द कर्मधारा' वाले) ठीक-ठीक उत्तर दे सकते हैं उदाहरण के लिये... भाषा के मात्रे मे आपने कहा कि १ - स्थानीय भाषा को शिला का माध्यम होना चाहिये २ - संस्कृत को राष्ट्र-भाषा होना चाहिये और है - अंग्रेजी को ' भाषा होना चाहिये?

 

    क्या हमारा यह उत्तर देना ठीक होगा?

 

 हां ।

 

  आशीर्वाद ।

 

(४-१०-१९७१)

 

*

 

 (ओरोवील में बढ़ायी जानेवाली भाषाएं)

 

(१) तमिल

(२) फ्रेंच

(३) सरल संस्कृत जो भारत की भाषा के रूप मे हिन्दी का स्थान लेगी

(४) अंतरराष्ट्रीय भाषा की हैसियत से अंग्रेजी

 

(१५-१२-१९७०)

 

 २०२

विभित्र-मित्र  भाषओं में माताजी की हस्तलिपियां

 

   अगले आठ पृष्ठों मे हम माताजी की निम्नलिखित भाषाओं की हस्तलिपियों के नमूने दे रहे हैं :

 

   संस्कृत (ईशोपनिषद फ्रेंच अनुवाद के साथ), हिल पीलनिशीन, चीनी, जापानी, बंगाली ।

 

   ओरोवील वधालय के उद्घाटन के अवसर पर लिखित । उद्घाटन के लिये माताजी का संदेश शा : ''जानने और प्रगति करने के लिये सच्चा संकल्प । ''

 


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कला

 

भौतिक स्तर पर भगवान् अपने-आपको सौंदर्य मे प्रकट करते हैं ।

 

*

 

    भौतिक जगत् में, और सब चीजों की अपेक्षा सौंदर्य भगवान् को सबसे अच्छी तरह अभिव्यक्त करता हैं । भौतिक जगत् रूप और आकार का जगत् हैं, और रूप की पूर्णता ही सौंदर्य हैं । सौंदर्य 'शाश्वत' का निर्वचन करता, उसे प्रकट और अभिव्यक्त करता हैं ! उसकी भूमिका हैं सारी अभिव्यक्त प्रकृति की रूप और आकार की पूर्णता के द्वारा, सामंजस्य द्वारा और अपर उठानेवाले तथा किसी उच्चतर की ओर ले जानेवाले आदर्श देह द्वारा 'शाश्वत' के संपर्क मे लाना ।

 

*

 

 सौंदर्य तुम्हारा अविचल आदर्श हो ।

अंतरात्मा का सौंदर्य

भावों का सौंदर्य

बिचारों का सौंदर्य

क्रिया का सौंदर्य

कर्म का सौंदर्य

 

ताकि तुम्हारे हाथों से कभी कोई ऐसी चीज न निकले जो शुद्ध और सामंजस्यपूर्ण सौंदर्य की अभिव्यक्ति न हों ।

 

   और 'भागवत सहायता' हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी ।

 

*

 

   सर्वश्रेष्ठ कला ऐसे 'सौंदर्य ' को प्रकट करती हैं जो तुम्हें 'भागवत सामंजस्य' के संपर्क में ला देता हैं ।

 

*

 

   अगर कला को दिव्य 'जीवन' में कुछ अभिव्यक्त करना  है , तो वहां भी, विशाल और ज्योतिर्मय शांति को अपने-आपको प्रकट करना चाहिये ।

 

*

 

२११


 आध्यात्मिक सौंदर्य में संक्रामक शक्ति होती है ।

 

*

 

 सौंदर्य प्रकृति का आनन्दमय समर्पण हैं ।

 

*

 

  सच्ची कला का अर्थ  है भौतिक जगत् में सौंदर्य की अभिव्यक्ति । पूर्णतया परिवर्तित जगत् मे, यानी, समग्ररूप से भागवत सद्वस्तु की अभिव्यक्ति में, कला को जीवन में दिव्य सौंदर्य का प्रकट करनेवाला और शिक्षक होना चाहिये ।

 

*

 

  कला में भी हमें ऊंचाइयों पर रहना चाहिये ।

 

*

 

  सुरुचि कला की कुलीनता हैं ।

 

 *

चित्रकला

 

   सच्ची चित्रकला का लक्ष्य है सामान्य वास्तविकता से अधिक सुन्दर चीज का सृजन करना ।

 

(३-४-१९३२)

 

*

 

    क्या नाप चाहेगा कि मैं कमी-कमी चचियों और पशुओं  के चित्र बनाऊं?

 

अगर तुम चाहो-लेकिन प्रकृति से आंकना सीखने के लिये ज्यादा अच्छा है ।

 

(२३-१२-१९३२)

 

२१२


   आपने आज जो रेखांकन भेजा थर मैंने उसकी नकल करने की कोशिश की !

 

   सीखने के लिये, रेखांकन को ज्यादा बड़ा करना ज्यादा अच्छा होगा जिससे उसकी ब्योरे की बातें बाहर आ सकें ।

 

(५ -१ -१९३३)

 

*

 

   मैंने किसी की सहायता के बिना यह चित्र बनाया है यह कैसा बना हैं ? क्या मैं सीख सकूंगी?

 

सीखने का अर्थ हैं कोई चित्र बनाने सें पहले महीनों पर महीने अध्ययन करना; प्रकृति सें अध्ययन करना, पहले लंबे समय तक रेखांकन करना, उसके बाद कहीं जाकर रंग भरना ।

 

   अगर तुम नियमित रूप से कठोर अध्ययन करने को तैयार हो, तो शुरू कर सकते हो, वरना प्रयास न करना ज्यादा अच्छा  है ।

 

(६ -१ -९९३३)

 

*

 

   मैं यह जानना चाहूंगा कि क्या चित्र देखना हानिकर है !

 

स्वभावत: यह इसपर निर्भर हैं कि कौन-से चित्र हैं । बहुधा, बे सामान्य जीवन के बोर में होते हैं, और इसलिये चेतना को नीचे की ओर खींचते हैं ।

 

(१०-१२-१९३४)

 

*

 

 ''क्यूबिज्म ' तथ' अन्य अत्याधुनिकवाद

 

 अगर ये कलाकार सच्चे और निष्कपट होते, अगर उन्होंने वही चित्रित किया होता जो उन्होने देखा और अनुभव किया  है, तो उनके चित्र एक अस्तव्यस्त मन और असंयत प्राण की अभिव्यक्ति होते । लेकिन, खेद की बात है कि ये चित्रकार निष्कपट नहीं हूं और ये चित्र मिथ्यात्व की अभिव्यक्ति, कुछ विचित्र होने, ध्यान आकर्षित करने के लिये लोगों को चकराने की इच्छा पर आधारित कृत्रिम कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं और वास्तव मे, इसका सौंदर्य के साथ कोई संबंध नहीं है ।

 

(२७ -३ -१९५५)

 

*

२१३


फूलों के चित्रों में सबसे बड़ा कबसे अच्छा हैं, क्योंकि वह ज्यादा सहज और मुक्त्ति  है । तुम जो चित्रित करते हो उसे अनुभव करना चाहिये और जो करो खुशी से करो ।

 

  बहुत-सी सुन्दर चीजों की नकल करो, लेकिन वहां भी वस्तुओं के भाव, गहरे जीवन को पकड़ने की कोशिश करो ।

 

(१२ -८ -१९६२)

 

आपके आये अपनी कठियार स्पष्ट करने के लिये मैं अपने दो नये चित्र भेज रहीं हूं ? एक को मैंने पूरा कर लिया है पर भूखे संतोष नहीं हे? दूसरे थे केंद्र अमी अधूरा है मैं जानती हू कि मैं क्या करना चाहती हूं पर मै कर नहीं पाती मै आपसे यह पूछना चाहती हूं कि क्या मैं पेरिस में अध्ययन करने सै ज्यादा प्रगति कर पतंगी या मेरे लिये यहीं खाकर प्रयास करना ज्यादा अच्छा छै? मैं खुशी सै आपके फ़ैसले क्वे अनुसार करूंगी?

 

प्यारी बच्ची,

 

  मैंने तुम्हारे चित्र देखे हैं-वे लगभग पूर्ण हैं । लेकिन उनमें जो कमी है वह तकनीक की नहीं-चेतना की है । अगर तुम अपनी चेतना को विकसित करो तो तुम सहजरूप से खोज लोग कि अपने-आपको कैसे व्यक्त किया जाये । कोई भी, और विशेषकर कोई औपचारिक शिक्षक, तुम्हें यह चीज नहीं सीखा सकता ।

 

  तो, यहां से छोड़कर कहीं और जाना, किसी ''कला अकादमी '' में जाना, प्रकाश को छोड्कर अंधकार और निक्षेतना के गढ़ने में उतरना होगा।

 

   तुम चालाकियों के दुरा चित्रकार बनना नहीं सीख सकती-यह तो ऐसा हीं होगा जैसे धार्मिक अनुष्ठान की नकल करके भगवान् को पाने की चाह करना ।

 

  सबसे बढ़कर और हमेशा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज हैं सचाई, निष्कपटता । अपनी आंतरिक सत्ता को विकसित करो- अपनी अंतरात्मा को पा लो, और उसके साथ-ही-साथ तुम सच्ची कलात्मक अभिव्यक्ति पा लोग ।

 

   मेरे आशीर्वाद के साथ ।

 

(२५-५-१९६३)

 

  तुम ब्योरों में क्यों जाना चाहती हो? यह बिलकुल आवश्यक नहीं है । चित्रकला प्रकृति की नकल करने के लिये नहीं हूं, बल्कि प्रकृति का सौंदर्य देखकर अनुभव होनेवाले संस्कार, भाव, भावना को व्यक्त करने के लिये हैं । यही चीज मजेदार है और इसी को व्यक्त करना चाहिये और चूंकि तुम्हारे अंदर यह करने की संभावना है इसलिये मैं तुम्हें चित्र बनाने के लिये प्रोत्साहित करती हूं ।

 

(१९६३)

 

*

 

२१४


   मैंने तुम्हारे चित्र देखे हैं और निक्षय हीं पिछले वर्ष से प्रगति हुई हैं ।

 

  आधुनिक कला एक परीक्षण है, जो केवल भौतिक रंग-रूप से भिन्न कुछ और चीज व्यक्त करना चाहता है, पर अभी है बहुत भद्दा । विचार अच्छा हैं-लेकिन स्वभावत: अभिव्यक्ति का मूल्य पूरी तरह से उसके मूल्य पर निर्भर है जो अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहता है ।

 

  आजकल प्रायः सभी कलाकार सबसे निकली प्राणिक और मानसिक चेतना में निवास करते हैं, और परिणाम बिलकुल तुच्छ होते हैं ।

 

  अपनी चेतना को विकसित करने की कोशिश करो, अपनी अंतरात्मा को खोजने का प्रयास करो, तब तुम जो करोगे वह सचमुच रसमय होगा ।

 

  तुम्हारे लिये आज सें जो नया वर्ष शुरू हो रहा है उसके लिये मै तुम्हें यह कार्यक्रम दे रहीं हूं ।

 

(९२ -८ -१९६३)

 

 मुझे यह कहते हुए खेद होता है कि चित्रों में पिछले वर्ष की अपेक्षा कोई विशेष प्रगति नहीं हुई । उनमें सचाई और सहजता की कमी है; इनमें दिष्टि नहीं, विचार हैं- और विचार एक बचकाना तरीका है । मैंने पिछले वर्ष जो कहा था उसे चरितार्थ करना बाकी है । चेतना को ज्योति और सचाई मे विकसित होना पक्षीय और आंखों को कलात्मक रीति से देखना सीखना चाहिये ।

 

(१२ -८ -१९६४)

 

   मै आजतक तुम्होरे चित्रों को न देख पायी । निश्चय हीं तुमने प्रयास किया है और जो चित्र प्रेम मैं हैं वह आंखों के लिये मोहक है ! लेकिन तुम बहुत ज्यादा सोचती हो ओर काफी नहीं देखती । दूसरे शब्दों मे, तुम्हारी दिष्टि मौलिक, सहज या प्रत्यक्ष नहीं हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हारा चित्रण अभीतक रूढिप्रधान  है और उसमें मौलिकता का अभाव है-जो दूसरे करते हैं उसकी नकल हैं ।

 

  सभी चित्रों के पीछे एक दिव्य सौंदर्य है, एक दिव्य सामंजस्य  है : हमें इसके संपर्क में आना चाहिये; हमें इसे अभिव्यक्त करना चाहिये ।

 

(१२-८-१९६५)

 *

 

 संगीत

 

   उन सबके नाम जिन्हेंने आज के संगीत में मांग लिया था : श्रीअरविन्द ने और

 

२१५


मैंने यह अनुभव किया कि इस बार बहुत प्रगति हुई हैं । केवल प्रस्तुत करने के बाहरी ढंग में हीं नहीं, पीछे के बढ़े लक्ष्य, एकाग्रता और आंतरिक वृत्ति में भी । यह दिन सबके लिये आशीर्वाद लाये ।

 

 (२४-४-१९३२)

 

*

 

 न जाने कौन यह गप्प फैला रहा है कि मुझेसंगीत पसंद नहीं हैं । यह बिलकुल सच नहीं है-मुख संगीत बहुत पसंद है, लेकिन उसे छोटी-सी मंडली में सुनना चाहिये, यानी, ज्यादा-से-ज्यादा पांच-छ: आदमियों के लिये हो । अगर भीड़ हो तो, बहुधा, वह सामाजिक समारोह हो जाता  है  और जो वातावरण बनता हैं वह अच्छा नहीं होता ।

 

*

 

   तुम्हारे लिये अपने-आपको संगीत और लेखन में व्यस्त रखना हमेशा अच्छा है; क्योंकि तुम्हारी प्रकृति को इसमें अपना अंतर्जात कार्य मिल जाता है और यह प्राणिक ऊर्जा को सहारा देता और संतुलन बनाये रखता हैं ।

 

*

 

   साधना के बारे मे मैं तुमसे पूछना चाहूंगी : संगीत के दुरा हीं साधना क्यों नहीं करते? निश्चय हीं ध्यान हीं साधना का एकमात्र उपाय नहीं है । तुम्हारे संगीत के द्वारा भक्ति और अभीप्सा में विकास हो सकता हैं और प्रकृति को सिद्धि के लिये तैयार किया जा सकता हैं ।

 

   अगर ध्यान और एकाग्रता के क्षण अपने-आप आयें तो ठीक हैं! लेकिन उनके लिये जोर डालने की जरूरत नहीं ।

 

(२३ -१ -१९३९)

 

*

 

   संगीत भी धरती की सभी चीजों का अनुकरण करता हैं-जबतक वे भगवान् की ओर न मुझे बे दिव्य नहीं हो सकतीं ।

 

(२५-५-१९४१)

 

*

 

क्या मेरा यह कहना ठीक होगा कि जब माताजी ऑर्गन बजाती हैं तो संगीत की अमुक त्रिया उन स्पंदनों का सृजन करती हैं जो उस उच्चतर 'शक्ति' की अभिव्यक्ति के लिये जरूरी .हैं ज़िले माताजी धरती पर स्थापित करना चाहती

 

२१६


जब कोई उच्चतर चेतना में निवास करता  है तो वह जो भी करे, सोचे या बोले उसमें इस उच्चतर चेतना के स्पंदन प्रकट होते ही हैं । इस व्यक्ति की धरती पर उपस्थिति के तथ्य से हीं उच्चतर स्पंदन व्यक्त होते हैं ।

 

  आशीर्वाद ।

 

   आपके संगीत में जो बुन बार-बार आया करती है उसका अर्थ क्या है?

 

 तुमने देखा होगा कि यह धुन साधारणत: तब आती हैं जब कोई कष्ट या दुर्व्यवस्था प्रकट की गयी हो । वह समस्या के समाधान के रूप में आती है । इसका अर्थ हैं आगे बढ़ना, प्रगति, चेतना में एक कदम आगे । यह बोध के रूप मे आती  है । मेरा संगीत साधना की आंतरिक गतियों के अनुरूप होता है । कभी-कभी कोई कष्ट, कोई दुर्व्यवस्था, कोई समस्या, कोई गलत गति, जिसके बारे में हम समझते थे कि हमने उसे जीत लिया हैं, वह और अधिक बल के साथ वापिस आती हैं । लेकिन तब, उसके उत्तरस्वरूप या सहायता के रूप में, वृद्धि चेतगा का उद्घाटन- और फिर अंतिम बोध ।

 

   इस संगीत को समझना बहुत कठिन हैं-विशेषकर पश्चिमी मन के लिये । प्रायः पक्षिमी लोगों के लिये इसका कोई अर्थ नहीं होता; है आसानी सें उसमें तदनुरूप गतियों का अनुभव ही नहीं करते । अधिकतर वे लोग जो भारतीय राम मे रस ले सकते हैं उन्हें यह संगीत पसंद आ सकता हैं; क्योंकि इसमें रागों का कुछ सादृश्य हैं । लेकिन यहां भी रूप की दृष्टि से, संगीत के नियमों और स्वरांकण की सभी परंपराओं को तोड़ा गया हैं ।

 

(३० -१० -१९५७)

 

*

 

   क्रीड़ांगण में आपके संगीत के साथ ध्यान करते समय हमें क्या करना चाहिये?

 

इस संगीत का लक्ष्य होता है अमुक गहन भावों को जगाना ।

 

  उसे सुनने के लिये तुम्हें अपने-आपको जितना हों सके उतना नीरव और निश्चेष्ट बनाना चाहिये । और यदि, मानसिक नीरवता में, सत्ता का एक भाग साक्षी-भाव धारण कर सके जो भाग लिये या प्रतिक्रिया किये बिना केवल देखता हैं तो वह देख सकता हैं कि भावों और भावनाओं पर संगीत का क्या असर हो रहा हैं और; अगर वह गहरी स्थिर शांत और अर्द्धसमाधि की स्थिति पैदा करे तो यह काफी अच्छा  है ।

 

(१५ -११ -१९५९)

 

*

 

२१७


  मधुर; मां हम किसी और के बजये हुए सभीत की भावनाओं में कैसे प्रवेश कर सकते है !

 

 उसी तरह जैसे तुम सहानुभूति, सहजता, कम या ज्यादा गहरी सजातीयता या फिर गहरी 'एकाग्रता के द्वारा- जो अंत मे तादात्म्य बन जाती है- दूसरों के भावों में भाग लेता है ! जब तुम तीव्र, धनी एकाग्रता के साथ संगीत सुनते हो यहांतक कि मस्तिष्क के अंदर के, और सारे शोर को बंद करके पूर्ण नीरवता प्राप्त कर लेते हो तो ऊपर कही गयी अंतिम पद्धति का अनुसरण होता है । संगीत के स्वर बूंद-बूंद करके उस नीरवता मे गिरते हैं और केवल वही एक शब्द रहता है; और उस ध्वनि के साथ सभी भावनाएं, सभी भावों की गतियां इस तरह देखी और अनुभव की जाती हैं मानों  है स्वयं हमारे अंदर पैदा हो रहीं हों ।

 

(२० -१० -११५१)

 

'क' और मैं मिलकर ' बजाते हैं हमें एक पुस्तक मिली है जिसके गति बहुत सुंदर बहुत सरल और लय बजाते के लिये बहुत संयम हैं हम जानना चाहेगा कि क्या प्रेम और मृत्यु की कविताएँ जो हमारे आश्रम के आदर्श के सक् मेल नहीं खाती अपनी त्व मे कई भावना लिये छठी हैं? क्या गिरजाघर में बजाये जानेवाले संमति के बजाना हमारे लिये ठीक नहीं है ? अगर ऐसा है तो हम गंवारू शब्दों या धार्मिक शनोंवाली तानें नहीं बजयोगी !

 

 तुम दोनों अवस्थाओं मे शब्द छोड़कर केवल संगीत रख सकते हों ।

 

   अगर तुम संगीत लिखना जानते हो तो (शब्दों की नकल किये बिना) केवल तानों की नकल कर लो । अगर तुम संगीत लिखना नहीं जानते तो किसी जानकार से लिखवा लो, वह तुम्हारे लिये लिख दे या तुम्हें लिखना सीखा दे ।

 

   इन किताबों को अपने पास मत रखो, इन किताबों का बुरा असर हो सकता है ।

 

(९९६५)

 

 *

 

 हमें संमति से किस चीज की आशा करनी चाहिये?

संगीत के किसी द्कड़े के गुण का मूल्यांकन कैसे किया जाये?

(संगीत के लिये) सुधि कैसे पैदा की जाये?

सिनेमा जैज वग़ैरा के हल्के संगीत क्वे बारे मे आपकी क्या राय है? हमारे बच्चों की यह बहुल पसंद है ।
 

 २१८


संगीत का' काम है चेतना की अपने-आपको आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक उठाने में सहायता करना ।

 

   वह सब तो चेतना को नीचा करता है, कामनाओं को प्रोत्साहित करता और आवेगों को जगाता हैं, संगीत के सच्चे लक्ष्य के वरिष्ठ  है  और उससे बचना चाहिये ।

 

   यह नाम का नहीं, प्रेरणा का प्रश्र हैं-अरि केवल आध्यात्मिक चेतना हीं इसमें निर्णायक हो सकती हैं ।

 

(२२-७-१९६७)

 

*

 

 (एक मध्यकालीन गीत के बारे में)

 

   शब्द बेतुके हैं, बल्कि कुरुचिपूर्ण हैं । साधारणत:, जब हम कोई गीत सीखते थे तो अगर उसके शब्द अशोभन होते तो उन्हें बदल दिया जाता था और केवल तर्ज रखी जाती थीं ।

 

   जिसमें लय का ज्ञान हो वह इसे आसानी से कर सकता हैं ।

 

(फरवरी १९६८)

 

    (किसी मान-समारोह के कार्यक्रम पर छपी दो ईसाई सूक्तियों के बारे में)

 

 यह ठीक है बशतें कि यह ऐकांतिक न हो और अन्य धर्मों को भी स्थान मिले ।

 

(मार्च १९६८)

 

*

 

 कविता

 

 कविता आत्मा की संवेदनशीलता हैं ।

 

*

 

       मेरे लिये सच्ची कविता समस्त दर्शन और समस्त व्याख्या से परे हैं ।

 

*

 

२१९


 फोटोग्राफी

 

    आधुनिक फोटोग्राफी एक कला बन गयी है और, अन्य कलाओं की तरह, सार्थक रूप में, सच्चे सौंदर्य-बोध के साथ अंतरात्मा की आंतरिक भावनाओं को व्यक्त कर सकती है ।

 

*

 

    अगर फोटोग्राफर कलाकार हो तो फोटोग्राफी कला बन जाती हैं ।

 

 

सिनेमा

 

    आजकल हम लोग बहुत ज्यादा फिल्में देखते हैं पता नहीं वे हमें किस तरह शिला दे सकती हैं !

 

अगर तुम्हारे अंदर सच्ची वृत्ति हों तो हर चीज कुछ सीखने का अवसर होती है ।

 

    बहरहाल, इस अधिकता से तुम यह समझ सकते हो कि कुछ लोगों की फिल्में देखने की निरंकुश कामना उतनी हीं घातक हो सकतीं है जितनी अन्य सब कामनाएं ।

 

(११ -५ -१९६३)

 

*

 

    हम चाहेंगे कि बच्चों को ऐसे जीवन के चित्र दिखा सकें जैसा वह होना चाहिये, लेकिन हम उस बिंदु तक नहीं पहुंचे हैं, उससे अभी हैं । ऐसी फिल्में अभीतक बनी नहीं हैं । और अभी तो, बहुधा, सिनेमा ऐसा जीवन दिखलाता हैं जैसा नहीं होना चाहिये, वह इतनी तीव्रता से दिखाया जाता हैं कि तुम्हें जीवन से धृणा हो जाती है । यह भी तैयारी के रूप मे उपयोगी हैं ।

 

   आश्रम मे फिल्में को मनोरंजन की दृष्टि से नहीं, शिक्षा के एक अंग की दृष्टि से प्रवेश मिलता है । तो हमारे सामने शिक्षा की समस्या होती है ।

 

   अगर हम यह सोचे कि बच्चे को केवल वही सीखना और जानना चाहिये जो उसे हर निम्न, भद्दी, उग्र ओर गिरानेवाली गति से शुद्ध रख सके तो हम एक साथ सारी मानवजाति के साथ पूरा संपर्क खतम कर देंगे, आरंभ होगा युद्ध और हत्या की, संघर्ष

 

२२०


और धोखेबाजी की कहानियों से जो इतिहास के नाम से चलती हैं; हमें परिवार के साथ, रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ सभी संबंध खतम कर देने होंगे; हमें उनकी सत्ता के सभी प्राणिक आवेगों पर अंकुश लगाना होगा ।

 

   कन्वेंट की चारदीवारी मे बंद साधु-जीवन या भुजाओं ओर वनो में संन्यासी जीवन के पीछे यही विचार था ।

 

  लेकिन यह उपचार बिलकुल प्रभावहीन निकला और मानवजाति को दलदल में सें निकालने में असमर्थ रहा ।

 

   श्रीअरविन्द के अनुसार, उपचार कुछ और हीं है ।

 

   हमें संपूर्ण जीवन का. उसमें अभीतक बाकी समस्त कुरूपता, मिथ्यात्व और कुरता का सामना करना चाहिये, लेकिन हमें अपने अंदर समस्त शिव और सुन्दर, समस्त ज्योति और समस्त सत्य को खोजने की सावधानी बरतनी चाहिये ताकि हम सचेतन रूप से इस स्रोत का बाकी संसार के साथ नाता जोड़ सकें और उसे रूपांतरित कर सकें ।

 

  यह भाग जाने या न देखने के लिये आंखें मूँद लेने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन है, लेकिन यही एक सच्चा प्रभावकारी उपाय है-यह उन लोगों का मार्ग है जो सचमुच बलवान और शुद्ध हैं, जो 'सत्य' को अभिव्यक्त करने मे समर्थ हैं ।

 

(२९ -५ -११६८)

 *

 

माताजी फिल्में कैसे देखनी चाहिये? अमर हम पात्रों के साथ एक हो जाये और यदि वह दुखान्त या फिल्म हो तो हम उसमें बहुत फंसे जाते हूं रोते और भयभीत होते हैं अगर हम अलग- थलग रहे तो उसका भली-भांति मजा नहीं सकते ? तब क्या करना चाहिये?

 

प्राण के ऊपर प्रभाव पड़ता है और वही द्रवित होता है ।

 

   अगर तुम मानसिक रूप से देखो, तो वही रुचि नहीं रहती; कष्ट पाने या द्रवित होने की जगह तुम शांति के साथ फिल्म का मूल्यांकन कर सकते हों, तुम देख सकते हो कि वह ठीक तरह बनी हैं या नहीं, अभिनय अच्छा है या नहीं और चित्रों का कोई कलात्मक मूल्य हैं या नहीं ।

 

    पहली अवस्था में तुम '' अच्छे दर्शक '' हो, दूसरी में तुम ज्यादा शांत होते हो । आशीर्वाद ।

 

(३० -१ -१९७०)
 

*

 

२२१


(ओरोवील में सिनेमा के बारे में)

 

 १५ वर्ष से कम के बच्चे केवल शिक्षणात्मक फिल्में देखेंगे ।

 

  ओरोवील मे दिखायी जानेवाली फिल्में के चुनाव में सावधानी बरतनी चाहिये ।  ओर बोली सबसे बचना चाहिये जो निम्न गतियों और क्रियाओं को प्रोत्साहन देता है ।

 

 (२५-२-१९७२)

 *

 

 नीरव होना सीखो

 

   सिनेमा उन लोगों के लिये दिखाया जाता है जो चित्रों को देखना तथा शब्दों और संगीत को सुनना चाहते हैं । उन्हें यह अधिकार है कि वे शांति के साथ देख-सुन सकें ।

 

   जो बातें करना, गप्पें लगाना, हंसना और शोर मचाना यहांतक कि दौड़-भाग करना बंद नहीं कर सकते उन्हें वहां न रहना चाहिये, क्याकि वे जो कुछ करते हैं उसे, अपने से मित्र प्रकार के लोगों के रंग में भंग किये बिना, कहीं और कर सकते हैं ।

 

   तो फैसला यह है : चुपचाप दर्शक-या फिर सिनेमा बंद ।

 

(१२ -१० -१९६२)

 

*

 

 ''विज़र्ड ऑफ आज''

 

   आज रात को तुम्हें जो फिल्म दिखायी जायेगी उसके बारे में जरा-सी व्याख्या उसे ज्यादा रसप्रद बना देगी ।

 

  यह फिल्म तीन भागों में है , दो काले और एक, सबसे विस्मृत भाग, रंगीन । दो काले भाग (पहला और अंतिम) यह दिखाते हैं कि चीजें भौतिक जगत् में कैसी दिखती हैं; रंगीन चित्र ऐसे हीं कथाक्रम और ऐसे हीं चरित्रों को प्राणमय लोक में दिखाता है, यह वह जगत् है जहां आदमी गाड़ी नींद में अपना शरीर छोड़कर जाता हैं । जबतक तुम्हारा भौतिक शरीर हो, तबतक प्राण-जगत् में कोई सच्ची हानि नहीं हो सकतीं, भौतिक शरीर रक्षक का काम देता है , और तुम हमेशा, जब चाहो, उसमें पहले दो वाक्य माताजी की टिप्पणियां पर आधारित हैं । जब ये उन्हें दिखलाये नये तो उन्होंने तीसरा वाक्य जोड़ दिया ।

 

  आश्रम में जब यह फिल्म दिखायी गयी थीं तो माताजी ने लाउड-स्पीकर पर यह टिप्पणी की थी ।

 

लौटकर आ सकते हों । यह चीज इस चित्र में शास्त्रीय ढंग से दिखायी गयी हैं ! तुम देखोगे कि छोटी लड़की अपने पैरों में जादुई लाल-सुर्ख जूते पहनती हैं, और जबतक वह जूते पहने रहती हैं तबतक उसे कोई नुकसान नहीं हो पाता । ये लाल-सुर्ख जूते भौतिक शरीर के साथ संबद के प्रतीक हैं, और जबतक ये जूते पैरों मे रहते हैं, वह, जब मरज़ी, शरीर मै लौट सकतीं हैं और वहां आश्रय पा सकतीं हैं ।

 

दो और बातें मजेदार हैं । एक है बरफ की बौछार जो दल को दुष्ट डायन के प्रभाव से बचाती है । इस डायन ने अपने जादू के द्वारा कल्याणकारी ऊर्जा के मरकत भवन की ओर उन्हें बढ़ने से रोक दिया हैं । प्राणिक जगत् मे, बरफ पवित्रता का प्रतीक हैं । उनकी भावनाओं और उनके इरादों की पवित्रता उन्हें महान विपदा है बचा लेती वे । यह भी ख्याल करो कि अच्छे जादूगर के कीले में जाने के लिये उन्हें सुनहरी ईटों के चौथे रास्ते पर से, प्रकाशमय विश्वास और आनन्द के रास्ते से जाना पड़ता है ।

 

   दूसरी बात है : डॉरोथी भूसे के आदमी को आग से बचाने के लिये उस पर पानों डालती है, तो कुछ पानी उस डायन के मुंह पर गिरता हैं जिसने आग सुलगाती थी और वह तुरंत घूमकर मर जाती हैं । पानी पवित्रता की शक्ति का प्रतीक हैं और इस शक्ति का उपयोग सद्भावना और सचाई के साथ किया जाये तो कोई भी विरोधी सत्ता या शक्ति उसके सामने नहीं ठहर सकती ।

 

   अंत में, जब अच्छी परी छोटी लड़की को बतलाती हैं कि वह कैसे एक जूते से दूसरे को बजाकर वर लौट सकतीं है, तो वह कहती है कि धर से अच्छा कुछ भी नहीं है; तो यहां ''घर' ' का मतलब हैं भौतिक जगत् जो सुरक्षा और सिद्धि का स्थान है ।

 

  जैसा कि देखते हों, इस फिल्म का विषय मजेदार है और ज्ञान सें रिक्त नहीं हैं । खेद की बात हैं कि यह उतनी अच्छी, सुंदर और सामंजस्यपूर्ण नहीं हो पायी जितनी कि हों सकती थी । इसके ढांचे मे बहुत-सी रस की दृष्टि से गंभीर भूलें हैं और बहुत- से शोचनीय गंवारूपन हैं ।

 

(१४ -९ -१९५२)

 

*

 

२२२

 अन्य विषय

 

   लिखना-पढ़ना जानना, कम-से-कम एक भाषा शुद्ध रूप से बोल सकना, थोड़ा-सा सामान्य भूगोल जानना, आधुनिक विज्ञान का थोड़ा-सा परिचय होना और आचार- व्यवहार के कुछ नियम जानना- किसी दल या समाज में रहने के लिये यह जरूरी

 

*

 

२२३


मुझे लगता हैं कि योग के बिना मनोविज्ञान निर्जीव है ।

 

मनोविनोद के अध्ययन का अनिवार्य परिणाम होना चाहिये योग, अगर योग सिद्धांत नहीं तो कम-से-कम क्रियात्मक योग ।

 

(२३-१२-९९६०)

 

   जो एक है उसके भाग मत करो । विज्ञान और आध्यात्मिकता, दोनों का एक ही लक्ष्य है-'परम भागवत सत्ता' । फर्क बस इतना है कि आध्यात्मिकता यह बात जानती है और विज्ञान नहीं जानता ।

 

(दिसंबर १९६२)

 

*

 

   मधुर मर कुछ चीजें मेरी प्रगति के लिये अच्छी हैं लेकिन बहुत नीरस लगती हैं  उदाहरण क्वे लिये गणित एक अच्छा विषय है लेकिन नहीं रुचता कृपया बताश्ये कि मैं उन विषयों में कैसे रस सकता हुं जिनकी ओर मुझे आकर्षण नहीं होता?

 

ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो हमें जाननी चाहिये, इसलिये नहीं कि वे विशेष रुचिकर हैं बल्कि इसलिये कि ३वे उपयोगी या अनिवार्य तक हैं; गणित उनमें से एक हैं ।

 

  जब हमारे पास ज्ञान की मजबूत पृष्ठभूमि हों तभी हम सफलता के साथ जीवन का सामना कर सकते हैं ।

 

   इतिहास और भूगोल केवल उन मनों को रोचक लग सकते हैं जो इस धरती को जानने के लिये उत्सुक हैं, जिसपर हमारा निवास है ।

 

  इन दो विषयों में रस ले सखने से पहले, तुम्हें अपनी ज्ञान की प्यास के क्षितिज को विस्मृत करना और अपनी चेतना के क्षेत्र को बढ़ाना चाहिये ।

 

*

 

   आपको पाने में गणित इतिहास विज्ञान कैसे सहायक हो सकते हैं?

 

 ये कई तरीकों से सहायक हो सकते हैं

 

२२४


  १. 'सत्य' की ज्योति पाने और सह सकने के लिये मन को मजबूत, विस्मृत ओर नमनीय होना चाहिये । ये अध्ययन इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये बहुत अच्छे हैं ।

 

  २. अगर तुम विज्ञान का काफी गहराई में अध्ययन करो, तो वह तुम्हें बाहरी रूप- रंग की अवास्तविकता का भान करा देगा और इस तरह तुम्हें आध्यात्मिक सद्वस्तु की ओर ले जायेगा ।

 

  है. भौतिक प्रकृति के सभी पहलुओं और गतियों का अध्ययन तुम्हें वैश्व माता के संपर्क में ले आयेगा, और इस तरह तुम मेरे ज्यादा नजदीक होगे ।

 

(१७ -१२ -१९६६)

 

   रही बात अंकगणित की । मैं लिखित की अपेक्षा व्यावहारिक गणित को ज्यादा पसंद करती हूं, मानसिक गणित की क्षमता के विकास पर जोर देती हूं । यह ज्यादा कठिन है, लेकिन यह तुम्हारे मानस दर्शन और तर्क-बुद्धि की क्षमता को बहुत विकसित करता है । रट हुए ज्ञान की जगह सच्ची समझदारी विकसित करने के लिये यह एक समर्थ उपाय है।

 

   जब तुम मानसिक अंकगणित जानते हों और अंकगणित को समझते हो, तो फिर दूसरे गणित के सीखने-समह्मने मे बहुत कम समय लगता है ।

 

  समान वस्तुओं की सहायता से-छोटी संख्याओं के लिये तुम स्वयं बच्चों से हीं शुरू कर सकते हों और फिर जब दहाई और सेंकते की बात आये तो कंकण या गणित की सहायता ले सकते हो ।

 

  इस भांति, थोड़ा कष्ट उठाकर, तुम उन्हें सभी क्रियाएं तर्कसंगत रूप में सीखा सकते हो और इस तरह है बच्चों के लिये वास्तविक, जीवित और ठोस अर्थ ले लेते हैं ।

 

२२५

 

राष्ट्रीय शिक्षा

 

 हमारा उद्देश्य भारत के लिये राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति नहीं है, बल्कि सारे जगत् के लिये शिक्षा छै ।

 

*

माताजी

 

     हमारा लक्ष्य भारत के लिये एकांतिक शिला नहीं है बलकि सारी मानवजाति के लिये आवश्यक और आधारभूत शिला ह्वै मरमर क्या यह ठीक नहीं हैं माताजी कि (अपने सांस्कृतिक प्रयासों और प्राप्ति के कारण? शिला क्वे बारे में भारत की अपने तथा जघन के प्रति कुछ विशेष जिम्मेदारी है? बहरहाल मेरा ख्याल है कि वह आवश्यक शिला ही करने की राष्ट्रीय शिला होगी वास्तव मैं यह मानता हूं कि इसी कति हर बड़े राह में अपनी विशेष विमित्रताओं के आधार पर एक राष्ट्रीय शिला होगी !

 

क्या यह ठीक है और माताजी हलका समर्थन करेगी?

 

 हां, यह ठीक है और अगर मेरे पास तुम्हारे प्रश्र का पूरा उत्तर देने का समय होता तो मैं जो उत्तर देती उसका यह एक भाग होता ।

 

  भारत के पास आत्मा का ज्ञान है या यूं कहें था, लेकिन उसने भौतिक तत्त्व की अवहेलना की और उसके कारण कष्ट भोगा ।

 

   पश्चिम के पास भौतिक तत्त्व का ज्ञान हैं पर उसने ' आत्मा' को अस्वीकार किया और इस कारण बुरी तरह कष्ट पाता है ।

 

  पूर्ण शिक्षा वह होगी जो, कुछ थोड़े-से परिवर्तनों के साथ, संसार के सभी देशों में अपनाये जा सके । उसे पूर्णतया विकसित और उपयोग में लाने हुए भौतिक द्रव्य पर ' आत्मा' के वैध अधिकार को वापिस लाना होगा ।

 

  मै जो कहना चाहती थी उसका संक्षेप यहीं हैं ।

 

  आशीर्वाद सहित ।

 

(२६ -७ -१९६५)

 

२२६


भारतीय शिक्षा के आधारभूत प्रश्र'

 

    (१) भारत के वर्तमान और भावी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जीवन की दृष्टि में भारत को शिला में किस चीज को अपना लक्ष्य बनाना चाहिये?

 

अपने बालकों को मिथ्यात्व के त्याग और 'सत्य' की अभिव्यक्ति के लिये तैयार करना ।

 

   (२) किस उपाय से देश इस महान लक्ष्य को चरितार्थ कर सकता है? इस दिशा में आरंभ कैसे किया जाये?

 

भौतिक को ' आत्मा' की अभिव्यक्ति के लिये तैयार करके ।

 

    (३? भारत की सच्ची प्रतिमा क्या है और उसकी नियति क्या है?

 

 जगत् को यह सिखाना कि भौतिक तबतक मिथ्या और अशक्त है जबतक वह ' आत्मा' की अभिव्यक्ति न बन जाये ।

 

(४) माताजी भारत में विज्ञान और औद्योगिकी की प्रगति को किस दृष्टि ले देखती हैं ? मन के अंदर 'आत्मा' के विकास में हैं क्या कर सकते हैं?

 

   इसका एकमात्र उपयोग है भौतिक को ' आत्मा' की अभिव्यक्ति के लिये अधिक मजबूत, अधिक पूर्ण और अधिक समर्थ बनाना ।

 

(५) देश राष्ट्रीय एकता के लिये काकी चिन्तित है माताजी की क्या दृष्टि है? भारत अपने तथा जगन् क्वे प्रति अपने उत्तरदायित्व को कैसे पूरा करेगा?

 

    सभी देशों की एकता जगत् की अवश्यंभावी नियति हैं । लेकिन सभी देशों की एकता के संभव होने के लिये पहले हर देश को अपनी एकता चरितार्थ करनी होगी ।

 

  (६) भाषा की समस्या भारत को काकी नंग करती है इस मात्रे मे हमारी उचित वृत्ति क्या होनी चाहिये ?

 

  अगस्त १९६५ में भारत सरकार का शिक्षा-आयोग आश्रम के 'शिक्षा-केंद्र' की शिक्षा पद्धति का :निरीक्षण करने छै लिये पांडिचेरी आया था । उस समय कुछ अध्यापकों ने माताजी सें ये प्रश्र पूछे थे ।

 

२२७


एकता एक जीवित तथ्य होना चाहिये, मनमाने नियमों के द्वारा आरोपित वस्तु नहीं । जब भारत एक होगा तो सहज रूप से उसकी एक भाषा होगी जिसे सब समझ सकेंगे ।

 

(७) शिक्षा सामान्यत: साक्षरता और एक सामाजिक स्तर की चीज बन गयी लौ क्या यह हानिकर नहीं है? लेकिन शिला को उसका आंतरिक मूल्य और उसका मूलमूत आनन्द कैसे प्रदान किया जाये?

 

 परंपराओं से बाहर निकल कर और अंतरात्मा के विकास पर जोर देकर ।

 

   (2) आज हमारी शिला कौन-से दोषों और धनियों का शिकार है? हम उनसे कैसे बच सकते हैं?

 

 क-सफलता, आजीविका और धन को दिया जानेवाला प्रायः ऐकांतिक महत्त्व । ख-' आत्मा' के साथ संपर्क स्थापित करके और सत्ता के 'सत्य' के विकास और उसकी अभिव्यक्ति की परम आवश्यकता पर जोर देकर ।

 

(५ -८ -१९६५)

 

*

 

   (१) बच्चों को मिथ्यात्व के त्याग के लिये कैसे तैयार किया जाये [क) जब कि अभी तक मिथ्यात्व मेरे रक्त मे और शरीर के एक-एक मे है? (ख) जब कि अहंकारपूर्ण और स्वत्वात्मक भाव के कारण मिथ्यात्व के प्रति आकर्षण बढ़ता ही जा का है?

 

   (२) हर देश की एकता कैसे सिद्ध हो सकती हैं [क) जब कि व्यक्ति के अंदर ही एकता नहीं हैं? रख) जब कि परिवार (ख) दो सदस्यों मे एकता नहीं छै? (म) जब कि किसी संस्था श संगठन मै एकता नहीं है?

 

  (३) जब एक आश्रमवासी मी अपनी निजी आवश्यकताएं पूरी करने के लिये सामाजिक स्तर का संक्रमण फैलाता है तो परंपराओं से बाहर निकलने और अंतरात्मा के विकास पर कैसे जोर दिया जाये?

 

  (४) जब हर एक अपने अहं की के लिये और अपने महत्व के प्रदर्शन के लिये धन के पीछे दौड़ रहा है तो सफलता आजीविका और धन को लगभग ऐकान्तिक महत्व कैसे न दिया जाये ?'

 

   माताजी के ५-८-९९६५ (चितला पत्र) के उत्तरों के आधार पर किसी अध्यापक ने ये प्रश्र भेजे थे ।

 

२२८


हर एक को .यह काम करने के लिये एक शरीर दिया गया है क्योंकि अपने अंदर इन चीजों को चरितार्थ करके हीं तुम धरती पर इन्हें चरितार्थ करने में मानवजाति की सहायता कर सकते हो ।

 

  अध्यापक में शिक्षित रूप सें हैं गुण और वह चेतना होनी चाहिये जिन्हें वह अपने विद्यार्थियों को प्राप्त करवाना चाहता है ।

 

*

 

   मै चाहूंगी कि वे (सरकार) योग को शिक्षा के रूप में स्वीकार कर लें, यह केवल हमारे लिये नहीं, देश भर के लिये अच्छा होगा ।

 

   भौतिक-द्रव्य का रूपांतर होगा, वह ठोस आधार होगा । जीवन दिव्य बनेगा । भारत को नेतृत्व करना चाहिये ।

 

*

 

 पांडिचेरी में फ्रेंच संस्था के उद्घाटन के अवसर पर दिया गया संदेश

 

   किसी भी देश में बालकों को जो सबसे अच्छी शिक्षा दी जा सकतीं हैं उसमें यह सिखाना भी आ जाता है कि उनके देश की सच्ची प्रकृति क्या है और उसके अपने गुण कौन-से हैं, उनके राष्ट्र को जगत् में कौन-सा कार्य पूरा करना है और वैश्व वृन्दवाद्य में उसका सच्चा स्थान कौन-सा हैं । उसके साथ हीं दूसरे देशों की भूमिका की विस्मृत समझ भी होनी चाहिये, लेकिन नकल की भावना से नहीं, और साथ हीं अपने देश की प्रतिभा को आंख से ओझल किये बिना । फांस का अर्थ था भावों की उदारता, विचारों की नवीनता ओर निर्भीकता और कार्य में क्षात्र धर्म और शौर्य । यह फांस सबका मान और सबकी प्रशंसा पाता था : इन्हीं गुणों के कारण वह संसार मे ऊंचा उठा हुआ था ।

 

  उपयोगितावादी, हिसाबी, व्यापारिक फांस फांस नहीं रहा । ये चीजें उसके सच्चे स्वभाव के साथ मेल नहीं खाती और इन्हें व्यवहार में लाकर वह संसार में अपना उदात्ता स्थान खो रहा हैं ।

 

   यहीं बात है जो आज के बच्चों की बतायी जानी चाहिये ।

 

(४ -४ -१९५५)

 

२२९

 

श्रीअरविन्दाश्रम का शारीरिक शिक्षण विभाग

 

 इस विभाग की स्थापना मई १९४2 मे थी यह 'श्रीअरविन्द ' शिला- केंद्र' कै विद्यार्थियों अध्यापकों तथा अन्य आश्रम-वासियों क्वे लिये शारीरिक शिक्षण की व्यवस्था करता है हसके कार्य क्वे लिये प्रशिक्षकों का दल है जो कप्तान कहलाते हैं ऐथलेटिज्य जिम्नास्टिक्स तैराकी,,, आसन आदि सिखाते की व्यवस्था है वर्ष का कार्यक्रम बार विभागों मे बंटा है : पहत्हे तीन विभागों मै प्रशिक्षण की अवधि खै बाद प्रतियोगताएं होती हैं? वर्ष के अंत मे इसमें मान होनेवाले २ दिसम्बर को वार्षिकोत्सवों के रूप मे प्रस्तुत करने के लिये एक विशेष कार्यक्रम तैयार करते हैं यह कार्यक्रम आश्रम के ग्रमंड मे होता है इस विमान मैं ऐक्य अपना पुस्तकालय है जिम्नेजियम 'प्ले ग्रउंडः ' ग्राउंड: तैरने के लिये तालाब? टेनिस कोर्ट हाल आदि की व्यवस्था है

 

  माताजी ने इस विभाग के निर्माण मे सक्रिय रूप ले नाग लिया था? हैं बरसों तक शाम के चारु साढ़े बार के बाद का समय शारीरिक शिक्षण के विभित्र कार्य-कत्थक में बिताया करती थीं !

 


यौवन

 

 यौवन इस बात पर निर्भर नहीं है कि हम कितने छोटे हैं, बल्कि इस पर कि हम मे विकसित होने की क्षमता और प्रगति करने की योग्यता कितनी हैं । विकसित होने का अर्थ हैं अपनी अंतर्निहित शक्तियां, अपनी क्षमताएं बढ़ाना; प्रगति करने का अर्थ है अबतक अधिकृत योग्यताओं को बिना रुके निरंतर पूर्णता की ओर ले जाना । जस (बूढ़ापन) आयु बड़ी हों जाने से नहीं आती बल्कि विकसित होने और प्रगति करने की अयोग्यता के कारण अथवा विकसित होना और प्रगति करना अस्वीकार कर देने के कारण आती है । मैंने बीस वर्ष की आयु के वृद्ध और सत्तर वर्ष के युवक देखें हैं । ज्यों ही मनुष्य जीवन मे स्थित हो जाने और पुराने प्रयासों की कमाई खाने की इच्छा करता है, ज्यों हीं मनुष्य यह सोचने लगता हैं कि उसे जो कुछ करना था वह उसे कर चुका और जो कुछ उसे प्राप्त करना था वह प्राप्त कर चुका, संक्षेप में, ज्यों ही मनुष्य प्रगति करना, पूर्णता के मार्ग पर अग्रसर होना बंद कर देता है, त्यों ही उसका पीछे हटना, का होना शिक्षित हो जाता हैं।

 

  शरीर के विषय में भी मनुष्य यह जान सकता हैं कि उसकी क्षमताओं की वृद्धि और उसके विकास की कोई सीमा नहीं, बशर्ते कि मनुष्य इसकी असली पद्धति और सच्चे कारण ढूंढ निकालने । यहां हम जो बहुत-से परीक्षण करना चाहते हैं उन्हीं में से एक यह शारीरिक विकास भी हैं और हम मानवजाति की सामूहिक धारणा को निर्मूल कर संसार को यह दिखा देना चाहते हैं कि मनुष्य में कल्पनातीत संभावनाएं निहित हैं !

 

(२ फरवरी, १९४९)

 

एकाग्रता और विक्षेप

 

जो लोग खेल-कूद मे सफल होना चाहते हैं वे किसी एक धारा या एक विषय को चून लेते हैं जो उन्हें पसंद आये या उनकी प्रकृति के अनुकूल होरा हैं अपनी पसंद के बीषय पर पूरी तरह से एकाग्र होते हैं और इस बात का खास ख्याल रखते हैं कि अपनी शक्तियों को इधर-उधर न बिखरे । जैसे जीवन में आदमी अपनी जीविका के लिये एक खास मार्ग चून लेता है और अपना सारा ध्यान उसी पर लगा देता हैं, उसी तरह खिलाडी भी किसी विशेष खेल या शारीरिक क्रिया को चून लेता है और उसमें भरसक पूर्णता पाने के लिये पूरे प्रयास को एकाग्र कर देता है । यह पूर्णता साधारणत: एक ही गति को बार-बार करते रहने से सहज प्रतिवर्तन क्रिया के रूप में आती है । परंतु, अपने हित में, इस सहज प्रतिवर्तन क्रिया का स्थान एकाग्र मनोयोग ले लेता है । एकाग्रता की यह क्षमता केवल बौद्धिक क्रियाओं में ही नहीं बल्कि सब प्रकार के क्रिया-कलाप में हो सकती है और यह शक्तियों पर सचेतन रूप से अधिकार करने से आती हैं ।

 

  यह जानी हुई बात हैं कि मनुष्य का मूल्य उसके केंद्रित मनोयोग की क्षमता के अनुपात मे होता है, एकाग्रता जितनी अधिक होती हैं परिणाम भी उतना ही असाधारण होता है, यहांतक कि पूर्ण और अविरत एकाग्र मनोयोग अपने काम पर प्रतिभा की मुहर लगा देता है । अपनी ही अन्य गतिविधियों की तरह खेल-कूद में मी प्रतिभा हो सकती हैं ।

 

   तो क्या हम एकाग्रता की पूर्णता पाने के लिये अपनी क्रियाओं को एक ही क्रिया तक सीमित रखने की सलाह दे सकते हैं?

 

   सीमित करने के लाभ तो जाने हुए हैं, लेकिन उसकी असुविधाएं भी हैं, सीमा संकीर्णता लाती है और अपनी चुनी हुई दिशाओं को छोड्कर अन्य दिशाओं मे अक्षमता लाती है । यह पूर्ण विकसित और सामंजस्यपूर्ण मानव के आदर्श से उलटी बात हैं । इन परस्पर-विरोधी वृत्तियों में कैसे मेल बैठाया जाये?

 

   समस्या का एक ही समाधान मालूम होता हैं । जैसे कोई विधिवत् रूप से वैज्ञानिक और क्रमिक प्रशिक्षण दुरा मांसपेशियों को विकसित करता है, उसी तरह वैज्ञानिक और विधिवत् प्रशिक्षण के द्वारा एकाग्र मनोयोग की क्षमता को भी इस तरह विकसित किया जा सकता है कि स्वेच्छा से किसी भी विषय या किसी भी क्रिया पर एकाग्र हुआ जा सके । इस तरह तैयारी का काम धीरे-धीरे, लगातार एक ही क्रिया को दोहराते हुए अवचेतना मे करने की जगह, सचेतन रूप से इच्छा-शक्ति को एकाग्र करके और मनोयोग को किसी एक बिंदु पर अपनी योजना और निक्षय के अनुसार केंद्रित करके किया जाता हैं । सबसे बड़ी कठिनाई है भीतरी और बाहरी परिस्थितियों की परवाह न करते हुए एकाग्रता की यह क्षमता प्राप्त करना-यह शायद कठिन हैं पर दृढ़ निक्षय

 


करनेवाले अध्यवसायी के लिये असंभव नहीं हैं । और फिर, विकास का चाहे जो मार्ग अपनाया जाये, सफलता के लिये दृढ़ निक्षय और अध्यवसाय अनिवार्य हैं ।

 

  प्रशिक्षण का उद्देश्य हैं मनोयोग को केंद्रित करने की एक ऐसी क्षमता को विकसित करना जो इच्छा के अनुसार किसी भी विषय पर अत्यंत आध्यात्मिक सें लेकर अत्यंत जड़-भौतिक तक अपनी शक्ति की पूर्णता मे से कुछ भी खोये बिना लगा सके, उदाहरण के लिये, भौतिक क्षेत्र में, अपनी शक्ति को एक खेल सें दूसरे खेल की ओर, एक क्रिया से दूसरी क्रिया की ओर समान रूप से सफलता के साथ लगा सकना । किसी खेल या उत्तोलन, कलाबाज़ी, मुक्केबाजी, दौड़ आदि शारीरिक क्रियाओं में जिस एकाग्रता की जरूरत होती हैं, सभी शक्तियों को इनमें से किसी गति पर केंद्रित करने से शरीर में जो आनंद की लहर आती हैं, वही अपने साथ क्रिया की पूर्णता और सफलता लाती हैं। साधारणत: यह तब होता हैं जब खिलाडी किसी खेल या क्रिया में विशेष रस लेता हैं और उसकी घटना सब प्रकार के संयम, निर्णय या संकल्प को पार कर जाती हैं ।

 

  फिर भी एकाग्र मनोयोग के समुचित प्रशिक्षण के द्वारा व्यक्ति इच्छा, या यूं कहें, आदेश के अनुसार इस स्थिति को ला सकता हैं, और फलस्वरूप किसी भी क्रिया को संपादित करने की पूरी-पूरी क्षमता अनिवार्य रूप से आ जाती हैं ।

 

   हम अपने 'शारीरिक शिक्षण-विभाग' में ठीक इसी चीज के लिये प्रयास करना चाहते हैं । अन्य प्रक्रियाओं की अपेक्षा इस प्रक्रिया से परिणाम ज्यादा धीमे आ सकते हैं, परंतु तेजी की यह कमी निश्रित रूप से अभिव्यक्ति की पूर्णता और प्रचुरता द्वारा पूरी हो जायेगी ।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९४९)
 

२३५

 

हमारा मुखपृष्ठ और हमारा झंडा

 

  हमारे 'बुलेटिन' के मुखपृष्ठ पर छपा झंडा रजतनील रंग के समचतुष्कोण के ठीक  .बीचोंबीच, पूरी तरह खिला हुआ सुनहरा कमल हैं जिसमें पंखुड़ियों की दो पंक्तियां हैं, चार अंदर बारह बाहर ।

 

   यह नील रंग आत्मा का नीला रंग है और सुनहरा रंग 'परात्पर मां' का रंग है । झंडे को घेरे हुए लाल रंग आलोकित भौतिक चेतना का प्रतीक हैं ।

 

   शुरू में यह झंडा केवल जि० एस० आ० एस० आ० (''जनैस स्पौर्तिव द लाश्रम द अरविन्द' ') या ' श्रीअरविन्दाश्रम युवक खिलाडी संघ' का झंडा था; पर जब यहां (आश्रम मे) १५ अगस्त, १९४७ को भारत की स्वाधीनता मनायी गयी तो देखा गया कि यह समस्त भारत के आध्यात्मिक लक्ष्य को भी अभिव्यक्त करता हैं, इसलिये यह हमारे लिये पुनरुत्थित, एकता-प्राप्त, संयुक्त और विजयी भारत का प्रतीक है जो अपने-आपको शताब्दियों की निर्जीवता से उठाकर, गुलामी की बूड़ियों को फेंककर, नव जीवन की प्रसव वेदना में से होकर फिर सें एक बार एक महान् संयुक्त राष्ट्र के रूप में उदय हों रहा हैं जो संसार और उसकी मानवजाति को आत्मा के ऊंचे-से-ऊंचे लक्ष्य तक ले जायेगा ।

 

   इसलिये हम ऐसे प्रतीकवाले झंडे पाकर अपने-आपको बहुल भाग्यवान् मानते हैं और इसे गहरा प्रेम और आदर देते हैं ।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९४९)

 

शक्ति का अक्षय भंडार

 

किसी खिलाडी को यौगिक साधना से जो सबसे बढ़ी सहायता मिल सकतीं है वह यह हैं कि साधना उसे यह सीखा सकती हैं कि विष-ऊर्जा के अक्षय स्रोत से शक्ति खींचकर अपनी शक्ति को नया और ताजा कैसे बनाया जा सकता हैं ।

 

   आधुनिक विज्ञान ने पोषण-कला मे बहुत उबरती की हैं , अभीतक शक्ति पाने के लिये यहीं सबसे अधिक जाना-माना साधन हैं । लेकिन यह प्रक्रिया अपने अच्छे-से- अच्छे रूप में भी अशिक्षित है और नाना प्रकार की सीमाओं से घिरी है । यहां हम इस विषय को नहीं ले रहे, क्योंकि इस विषय में बहुत कुछ कहा जा चुका हैं । पर यह स्पष्ट हैं कि जबतक मनुष्य और संसार अपनी वर्तमान अवस्था में हैं तबतक भोजन अनिवार्य हैं । योग-विज्ञान शक्ति प्राप्त करने के अन्य साधनों को जानता है, और यहां हम दो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधनों की बात करेंगे ।

 

   पहला है जड़ और पार्थिव जगत् मे एकत्रित शक्तियों के साथ नाता जोड़ना और उनके अक्षय भंडार से आजादी के साथ ले सकना । ये भौतिक शक्तियां अंधेरी और निक्षेतना होती हैं; ये मनुष्य के अंदर पाशविकता बढ़ाती हैं, लेकिन साथ-हीं-साथ, ये मानव शरीर और भौतिक प्रकृति के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संबंध भी स्थापित करती हैं । जो इन शक्तियों को लेना और इनका उपयोग करना जानते हैं वे प्रायः जीवन में सफलता पाते हैं और जो कुछ हाथ में लेते हैं उसमें सफल होते हैं । पर फिर भी वे बहुत हदतक जीवन की परिस्थितियों ओर शारीरिक स्वास्थ्य की अवस्था पर निर्भर रहते हैं । उनमें जो सामंजस्य पैदा होता हैं वह आक्रमणों से सुरक्षित नहीं होता; जब परिस्थितियां उलटी हो जायें तो वह गायब हों जाता हैं । बालक बिना नापे-तोले, मस्ती में, खुलकर इधर-उधर हाथ-पैर मारता हुआ शक्ति फेंकता और भौतिक प्रकृति सें शक्ति पाता रहता हैं । लेकिन अधिकतर मनुष्यों में, जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं, यह क्षमता जीवन की चिंताओं और चेतना में मानसिक क्रियाओं के महत्त्व पा लेने के कारण मर-सी जाती हैं ।

 

फिर भी, शक्ति का एक स्रोत हैं । एक बार उसका पता लग जाये तो फिर जीवन की भौतिक अवस्थाएं चाहे जैसी क्यों न हों, चाहे जैसी परिस्थितियां क्यों न आ जायें, वह स्रोत कभी सूख नहीं सकता । कहा जा सकता हैं कि यह आध्यात्मिक शक्ति हैं जो नीचे से, निक्षेतना की गहराइयों में से नहीं, बल्कि ऊपर से, मनुष्यों और जगत् के परम स्रोत से, अति चेतना के शाश्वत और सर्वशक्तिमान वैभवों से आती हैं । वह हर जगह, हमारे चारों ओर मौजूद है और हर चीज में घुसी हुई हो और उसके साथ नाता जोड़ने के लिये और उसे पाने के लिये इतना काफी हैं कि उसके लिये सचाई से अभीप्सा की जाये, अपने-आपको पूरे श्रद्धा-विश्वास के साथ उसके प्रति खोला जाये, अपनी चेतना को विशाल बनाया जाये और विश्व 'चेतना' के साध एक हुआ जाये ।

 


   शुरू मे, यह चीज असंभव नहीं, तो कठिन जरूर प्रतीत हों सकती हैं । लेकिन अगर तथ्यों को जरा ज्यादा नजदीक से देखा जाये, तो मालूम होगा कि यह चीज इतनी परायी नहीं है, सामान्य रूप से विकसित मानव चेतना से इतनी दूर नहीं हैं । चास्तव में, ऐसे लोग बहुत कम होंगे जिन्हेंने अपने जीवन मे, कम-से-कम एक बार, यह अनुभव नहीं किया कि मानों हैं अपने-आपसे परे उठा लिये गये हैं, एक अप्रत्याशित और ऐसी असाधारण शक्ति से भर गये हैं जो उन्हें, उस समय के लिये, सब कुछ करने की सामर्थ्य देती है; ऐसे क्षणों में कोई चीज बहुत कठिन नहीं मालूम होती और '' असंभव' ' शब्द अपना अर्थ खो बैठता है ।

 

   यह अनुभव, चाहे कितना भी क्षणिक क्यों न हो, हमें उस उच्चतर शक्ति के संपर्क की एक ज्ञानी दे देता हैं जिसे योग-साधना पाती और बनाये रखती हैं ।

 

   इस संपर्क को पाने की विधि यहां बड़ी मुश्किल से हीं बतायी जा सकतीं है । इसके अतिरिक्त, यह एक व्यक्तिगत चीज हैं , हर एक के लिये अपना तरीका है जो हर व्यक्ति को वहीं आकर पकड़ता है जहां वह खड़ा हो, अपने-आपको उसकी निजी ज़रूरतों के अनुकूल बनाता है और उसे एक कदम आगे बढ़ने मे सहायता देता हैं । रास्ता लंबा हैं और कमी-कभी गति धीमी होती हैं, लेकिन परिणाम कष्ट उठाने लायक हैं । हम सहज ही इस शक्ति के परिणामों की कल्पना कर सकते हैं जो हर परिस्थिति में और जब चाहे तब शक्ति के उस असीम भंडार सें शक्ति ग्रहण करती है जो अपनी भास्वर पवित्रता से युक्त सर्वसमर्थ है । थकान, क्लांति, रोग, जस और मृत्यु तक रास्ते की बाधाएं भर रह जाते हैं, उन्हें स्थिर संकल्प के द्वारा निश्चित रूप से पार किया जा सकता हैं ।

 

('बुलेटिन', अगस्त १९४९)

 

२३८

यथार्थ निर्णय

 

    खेलों की प्रतियोगिताओं सें संबंध रखनेवाली जो कई बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं, उनमें से एक हैं ठीक-ठीक निर्णय देने की समस्या ।

 

   इस विषय मे जिन-जिन संघर्षों और विवादों का उत्पन्न होना अन्य अवस्थाओं मे अवश्यंभावी होता, उनसे बचने के उद्देश्य से सदा के लिये एक बरगी यह शिक्षित कर दिया गया हैं कि प्रतियोगिताओं में भाग लेनेवालों को जीजों या पंचों के निर्णय को निर्विवाद स्वीकार कर लेना होगा । इस बात से जहांतक विचाराधीन व्यक्तियों का संबंध हैं वहांतक तो इस समस्या का समाधान हों जाता है, पर निर्णय करनेवाले व्यक्तियों का जहांतक संबंध है, इसका कोई समाधान नहीं होता; क्योंकि अगर वे सच्चे हों तो उनपर जितना अधिक विश्वास किया जायेगा उतनी हीं अधिक उन्हें अपने निर्णय मे पूर्ण रूप सें निर्भ्रान्त होने के लिये सावधानी रखनी होगी । यहीं कारण है कि एकदम आरंभ में ही मैं उन सब मामलों को रद्द कर देती हूं जिनमें कि नीति के कारण या ऐसे हीं कारणों से पहले हीं निर्णय कर दिया गया होता है । क्योंकि, यद्यपि दुर्भाग्यवश प्रायः हीं पर्याप्त अवसरों पर ऐसा ही किया जाता है, तो भी प्रायः सब लोग इस बात पर सहमत होंगे कि ऐसा करना नीचता हैं और मनुष्य की मर्यादा यह नहीं चाहती कि इस तरह की बात की जाये ।

 

    साधारणतया, लोग यह समझते हैं कि अगर निर्णय खेलों के नियमाधीन के गभीर ज्ञान और पर्याप्त निष्पक्षता पर आश्रित हों तो फिर कोई हर्ज नहीं । ऐसा निर्णय इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान पर निर्भर होता है और प्रायः ही लोग उसे ऐसी चीज समझते हैं जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । पर, जो हो, यदि वास्तव मे देखा जाये तो इस तरह प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्वयं निर्भरता नहीं होता । ये इंद्रियां उस व्यक्ति की आंतरिक अवस्था के सीधे प्रभाव मे होती हैं जो उनका उपयोग करता हैं, और इसलिये दृश्य वस्तु के विषय मे द्रष्टा का जो भी मनोभाव होता है उसके द्वारा एक-न-एक प्रकार से इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान परिवर्तित, मिथ्या और विकृत हो जाता है ।

 

     उदाहरणार्थ, जो लोग किसी एक दल या संस्था के होते हैं, वे या तो उस दल के सदस्यों के प्रति बहुत अधिक नरम होते हैं या अनुचित रूप सें सख्त होते हैं । सत्य की दृष्टि से देखा जाये तो, चाहे नर्मी हो या सख्ती, कोई भी एक-दूसरे से अधिक मूल्य नहीं रखती, क्योंकि दोनों हीं अवस्थाओं में निर्णय आंतरिक भावना के अपर आश्रित होता हैं, न कि तथ्यों के वास्तविक और अनासक्त ज्ञान पर । यह बात बहुत स्पष्ट है, पर इस हदतक यदि न भी जाया जाये, तो भी यह कहा जा सकता हैं कि कोई मी मनुष्य, यदि वह योगी. न हो तो, इन सब आकर्षणों और विकर्षणों से मुक्त नहीं होता और इन सब चीजों को बहुत कम ही लोग अपनी ऊपरी सक्रिय चेतना में देख पाते हैं, जब कि ये इंद्रियों की क्रियाओं पर बहुत अधिक प्रभाव डालती हैं ।

 


      जो मनुष्य पसंदगी और नापसंदगी से, कामनाओं-वासनाओं सें, और अपनी अभिरुचियों से एकदम ऊपर उठ गया है, वही प्रत्येक चीज की ओर पूर्ण निष्पक्षता के साथ देख सकता है; उसकी इंद्रियों की विशुद्ध रूप से वस्तुनिष्ठ दृष्टि पूर्णता-प्राप्त मशीन की तरह बन जाती है जिसके ज्ञान के साथ सजीव चेतना की उज्ज्वलता जड़ी हीं ।

 

    यहां भी यौगिक साधना हमारी सहायता कर सकतीं हैं और उसके दुरा हम इतने ऊंचे चरित्रों का निर्माण कर सकते हैं कि वे सत्य के यंत्र बन सकें ।

 

('बुलेटिन', नवम्बर १९४९)

 

२४०

ऑलिम्पिक रिग्ज

 

 अधिकारिक रूप से यह घोषित किया गया है कि आलिम्पिक की पांच कड़िया (रिग्जू) संसार के पांच महाद्वीपों को सूचित करती हैं, परंतु उसमें न तो उन कड़यों के रंगों का कोई विशेष अर्थ बताया गया हैं और न प्रत्येक महाद्वीप का अपना-अपना विशिष्ट रंग निश्रित करने का कोई इरादा दिखायी देता हैं ।

 

   पर, जो हो, इन रंगों का अध्ययन करना और यह देखना कि इन रंगों का क्या अर्थ हों सकता है ओर ये रंग कोई विशेष संदेश देते हैं या नहीं, बहुत मजेदार होगा । यह अच्छी तरह जानी-मानी बात है कि प्रत्येक रंग का एक अर्थ होता हैं, परंतु विभित्र व्याख्याताओं ने उन्हें विभिन्न प्रकार का अर्थ दिया हैं और अधिकांश में हैं अर्थ एक-दूसरे के विरोधी हैं । उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि ऐसे अर्थों का कोई सर्वजन स्वीकृत वर्गीकरण नहीं हैं । इसका कारण यह हैं कि इन रंगों को मनुष्य मन की दृष्टि से देखता है, अथवा कम-से-कम व्याख्याता की व्याख्या पर उसके मन का प्रभाव पड़ता है । परंतु मनुष्य यदि मन के अपर जाकर परे के वास्तविक गुह्य क्षेत्रों मे प्रवेश करे, तो प्रत्येक रंग का सच्चा अर्थ प्रत्येक आदमी के लिये, जो इस तरह सीधा ग्रहण कर सकेगा, एक हीं होगा । यह बात केवल इसी क्षेत्र के लिये नहीं बल्कि सभी आध्यात्मिक और गुह्य अनुभूतियों के लिये एकदम सही है । समस्त कालों और स्थानों के जोगियों की आध्यात्मिक अनुभूतियों में हम एक बढ़ी ही अद्भुत समानता पाते हैं । अतएव, इस दृष्टिकोण से यदि हम ऑलिम्पिक चिह्र की कड़यों के रंगों को देखें, तो हमें उनका सच्चा गूढ़ अर्थ मिल सकता है और फिर संसार के महाद्वीपों के साथ उनका संबंध जोड़ने की बात का भी अध्ययन किया जा सकता है ।

 

   हरा रंग एक विशाल और शांत मनोभाव को और प्रकृति के साथ सीधे संपर्क और अत्यंत सामंजस्यपूर्ण संबंध को सूचित करता है । यह उस महाद्वीप का प्रतीक हो सकता हैं जिसमें खुले हुए विस्तृत मैदान हों और जहां के लोग बिलकुल शुद्ध और सरल हों, किसी मिलावट के कारण नष्ट न हों गये हों और प्रकृति और मिट्टी के बहुत समीप हों ।

 

  लाल भौतिक और स्थूल जगत् का रंग हैं । इसलिये लाल कड़ी उन रोगों के लिये प्रयुक्त हो सकतीं है जिन्हेंने भौतिक जगत् पर महान विजय प्राप्त की हों । यह रंग साथ ही यह भी सूचित करता है कि इस भौतिक सफलता ने उन्हें दूसरों के ऊपर प्रभुत्व प्रदान किया है । जो हो, यह उन लोगों को सूचित करता हैं जो अत्यंत भौतिक और स्थूल वस्तुओं पर ही अधिक जोर देते हैं ।

 

   नीला रंग, दूसरी ओर, एक, नये महाद्वीप को सूचित करता हैं जिसके सामने उसका सारा भविष्य पड़ा हैं और जिसमें बहुत बडी-बडी संभावनाएं हैं, परंतु जौ अभी कच्चा और पूरी तरह विकास की प्रक्रिया में हैं ।

 


   काला रंग वास्तव में अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण चुनाव है क्योंकि यह केवल एक ऐसे महाद्वीप को ही सूचित कर सकता है जो तेजी से गभीर अंधकार में गिर रहा हो- यह रंग पतनोन्मुख जाति के काली विस्मृति के अंदर गिरने की अवस्था को प्रकट करता

 

    इसैंके विपरीत, पीला रंग सब रंगों में सबसे अधिक गौरवपूर्ण हैं । वह दिव्य 'ज्योति ' का सुनहला रंग है-उस 'ज्योति' का जो समस्त वस्तुओं के 'मूलस्रोत' और ' आदि- स्थान' से आती हैं और जो विकसनशील मनुष्यजाति को, अपने दयालु हाथ से, उसके भागवत 'फल' की ओर वापिस ले जायेगी ।

 

    जिस ढंग से ये कड़िया व्यवस्थित हैं, उसका भी एक अर्थ है । काला केंद्रीय और आधार-रूप रंग हैं, और यह निश्चय ही आज संसार में फैली हुई वर्तमान अंधकारपूर्ण अस्तव्यस्तता का तथा अज्ञान के अंधकारपूर्ण समुद्र के ऊपर मनुष्यजाति की नौका को खेने के लिये संघर्ष करनेवाले लोगों की अंधता का सच्चा परिचायक है ।

 

   हम आशा करते हैं कि भविष्य में इस काली कड़ी के स्थान पर एक सफेद कड़ी आ जायेगी जब मानव-व्यापारों का ज्वार पलटा खायेगा, जब अज्ञान की छाया एक नवीन ज्योति के, एक नयी 'चेतना' की उन्वल, श्वेत, स्वयं प्रकाशमान ज्योति के उदय होने के कारण दूर हों जायगी और जब चकाचौंध करनेवाली इस उज्ज्वलता के सम्मुख मनुष्यजाति की नौका के कर्णधार वे लोग होंगे जो 'प्रतिश्रुत लोक' की ओर जाने का मार्ग निश्चित करेंगे ।

 

('बुलेटिन' नवम्बर १९४९)

 

२४२

चैम्पियनशिप पदक

 

 इस त्रिमास में 'जि० एस० आ० एस० आ० ' की ओर से एथलेटिक चैम्पियनशिप की जो प्रतियोगिताएं हुई थीं, उनमें हर उपदल के चैम्पियन को उपहारस्वरूप चैम्पियनशिप पदक मिला था । यह पदक एक सुनहरे कुछ के रूप में है जिसके बीच में लाल रंग का चक्र है और चक्र मे सें बारह सफेद किरणें निकल रहीं हैं ।

 

  पद के आकार और रंग का गुह्य अर्थ हैं और उसकी व्याख्या इस तरह की जा सकतीं हैं:

 

  कछुआ पार्थिव अमरता, यानी, इस धरती पर भौतिक सत्ता की अमरता का प्रतीक हैं । लाल केंद्र आलोकित भौतिक का प्रतीक हैं और इससे ''सत्य' के समग्र 'प्रकाश' का बारह किरणें निकल रही हैं । किरणें आकार में गोलाई लिये हुए हैं और यह बताती हैं कि 'प्रकाश' स्वभाव. से गतिशील है और क्रिया में लगा हैं ।

 

   कछुए का अपना सुनहरा रंग यह बताता हैं कि इस पार्थिव अमरता को ' अति- मानस' सहारा दे रहा है और केवल वही रूपांतर साध सकता हैं ।

 

('बुलेटिन', नवम्बर १९४९)

 

साम्मुख्य या ''टूर्नामेंट' '

 

जनवरी, फरवरी, मार्च और अप्रैल हमारे लिये साम्मुख्य के महीने हैं । छोटे और बड़े, सभी एक समान उत्साह के साथ मांग लेते हैं, पर, यह मैं अवश्य कहूंगी कि प्रतियोगिता में भाग लेनेवाले साधारण खिलाड़ियों के मनोभाव के साथ नहीं । क्योंकि हम हमेशा जीतने का नहीं, बल्कि यथाशक्ति अच्छे-से-अच्छे ढंग सें खेलने का और इस तरह एक नवीन प्रगति के लिये मार्ग खोलने का प्रयास करते हैं ।

 

   हमारा लक्ष्य सफलता नहीं है- हमारा लक्ष्य हैं पूर्णता ।

 

   हम नाम या यश प्राप्त करने की चेष्टा नहीं कर रहे, हम चाहते हैं भगवान् की अभिव्यक्ति के लिये अपने-आपको तैयार करना । यहीं कारण है कि हम साहस के साथ कह सकते हैं : प्रतीत होने की अपेक्षा होना कहीं अच्छा हैं । अगर हमारी सच्चाई पूर्ण हों तो हमें अच्छा प्रतीत होने की जरूरत नहीं । और पूर्ण सच्चाई से हमारा अभिप्राय यह हैं कि हमारे सभी विचार, अनुभव, इंद्रिय-बोध और कर्म हमारी सत्ता के केंद्रीय ' सत्य' के सिवा और किसी चीज को अभिव्यक्त न करें ।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९५०)

 

शारीरिक शिक्षा के दलों' की प्रार्थनाएं और माताजी के उत्तर

 

 मधुर मां मर तूने हमारे लिये मार्ग को सभी संकटों और कठिनाइयों ले मुक्त रखा है यह मार्ग निश्चय ही लक्ष्य तक ले जाता हैं ! और जब अंतिम विजय प्रान्त होगी तो वह अनन्तता तक जा पहुंचेगी !

 

   मां हमें हमेशा हरा रख ताकि हम बिना रुके हमेशा उस मार्ग पर बढ़ते रहें जो तूने हमारे लिये इतने श्रम के साथ बनाया है !

 

 मेरे नन्हे बच्चों, तुम आशा हो, तुम भविष्य हो । इस तरुणाई को हमेशा बनाये रखो, यहीं प्रगति की क्षमता है; तुम्हारे लिये ''असंभव'' शब्द का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा ।

 

(२२-४-१९४९)

 

गुप बी

 

    मधुर मां हम तेरी अंतिम सुनिश्चित  विजय के लिये लडनेवाले तेरे वीर वफादार सिपाही बनना चाहते हैं !

    मधुर मां की जय !

 

विजय के लिये आह्वान

 

   मेरे नन्हे बहादुर सिपाहियो, मै तुम्हारा अभिवादन करती हू, विजय सें साक्षात्कार करने के लिये तुम्हारा आवाहन करती हू ।

 

(३-४-१९४९)

 

*

 

 गुप सी

 

   प्रभो अपने श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं को समस्त अज्ञान ले मुक्त कूर उनकी पवित्रता की ध्वजा को छोटे-से-छोटे रास्ते ले उपलब्धी' की ओर ले जा?

 

    तेरी ही इच्छा पूरी हों हमारी नहीं

 

    यहां इन दलों का उल्लेख उसी तरह किया गया हैं जैसे उस समय थे । बाद में उनमें फेर-फेर हुए है।

 


प्रभु अपने कार्यकर्ताओं में से उन्हीं को '' श्रेष्ठ' ' कहेंगे जो अपने अंदर की पाशविकता को पूरी तरह जीत लेंगे और उसके परे चले जायेंगे । आरंभ में हम उनके निष्ठावान और सच्चे निष्कपट कार्यकर्ता बनें और जब यह विनम्र कार्यक्रम पूरा हो जाये तब - हम अपने-आपको ज्यादा बड़ी उपलब्धियों के लिये तैयार करेंगे ।

 

 (२३ -४ -१९४९)

 *

 

 गुप डी

 

 मधुर मां हम तेरे वीर योद्धा बनना चाहते हैं हम अंतिम 'विजय' तक तेरा अनुकरण करेंगे!

 

एक, सच्चे और निष्कपट हृदय से हम सब 'विजय' के लिये संकल्प करते हैं, लेकिन वह एक-एक चरण करके ही उपलब्ध हो सकती है । अध्यवसायपूर्ण अनुशासन पहला कदम है । तुम्हारी नयी वर्दी इसकी प्रतिपूर्ति का प्रतीक हो ।

 

(१७-४-१९४९)

 

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 गुप डीजी

 

मधुर  हम- तेरे नन्हे बालक- तेरे सर्वशक्तिमान 'प्रकाश' के लिये अभीप्सा करते हैं? और मधुर मां तूने हमें अंतिम 'विजय' का आश्वासन दिया हो तुर्रा इच्छा है कि हम तेरे वफादार सच्चे बहादुर और अनुशासन सैनिक बनें !

 

    मधुर मई यह हमारी प्रतिज्ञा है हमारा निश्चय है कि हम रेले होते और सबसे बढ़कर यह कि हम अपने-आपको पूरी तरह तेरे हाथों मै सौंप देने? हमें यह करने की शक्ति प्रदान कर !

 

मै तुम्हारी प्रतिज्ञा स्वीकार करती हूं, और तुम उसे सिद्ध करने में मेरी सहायता पर भरोसा रख सकते हो । आयु का अस्तित्व उन्हीं लोगों के लिये है जो बूढ़े होने का चुनाव करते हैं।

 

   आगे बढ़ो, हमेशा आगे बढ़ो, भय के बिना और संकोच के बिना आगे बढ़ो ।

 

(२२-४-१९४९)

 

*

 

२४६


गुप डीके

 

      दिव्य जननी हमारी प्रार्थना है :

 

वर दे कि हम हमेशा तेरी आज्ञाकारी और सच्चे सैनिक रहे तेरी शक्ति हमें विरोधी शक्तियों के विरूद्ध लड़ने और तेरी विजय पाने के योग्य बनाये माताजी की जय !

 

    हमेशा निष्ठावान और अध्यवसायी रहो तो तुम्हें उपलब्धि में अपना भाग मिलेगा ।

 

(२२-४-१९४९)

 

 नृप ई

 

     हम वही होना चाहते हैं जो द हमें बनाना चाहे !

 

    मुझे तुम्हारी सद्भावना पर पूरा विश्वास है । मेरी सहायता पर विश्वास रखो ।

 

*

 

 कप्तानों का दल

 

 'शारीरिक शिक्षण' के कप्तानों :

 

   तुम सर्वश्रेष्ठ हो सकते हो और तुम्हें होना चाहिये । मै सोच रहीं थी कि, आश्रम मे, एक केंद्र होना चाहिये जिसके चारों ओर सब कुछ संगठित हो । 'शारीरिक शिक्षण' के कप्तान शारीरिक 'शिक्षा के केंद्र' हों सकते हैं । उनकी संख्या अधिक होने की जरूरत नहीं है, लेकिन चुनाव अच्छा हो, है पहली श्रेणी के लोग हों, अतिमानवता के सच्चे प्रत्याशी हों जो अपने-आपको पूरी तरह, बिना कुछ बचाये भगवान् के महान् कार्य के लिये दे सकें । तुमसे यहीं आशा की जाती है । यही तुम्हारा कार्यक्रम होना चाहिये ।

 

(मार्च, १९६१)

 

*

 

   माधुर मां

 

   तूने हमें जो लक्ष्य दिखलाया है हम मिलकर उसके लिये काम करने की अभीप्सा करते हैं !

 

२४७


    इस महान कार्य की सिद्ध करने के लिये हमें आवश्यक त्रजुतर सहस्र अध्यवसाय और सदभाव प्रदान कर !

 

   हमारे अंदर वह ज्वाला जगा जो हमारे अंदर के सारे विरोध को भस्म कर दे ..और हमें तेरे वफादार सेवक बनने के योग्य बनाये

 

मेरे बालको,

 

   हम सब उसी एक लक्ष्य और उसी उपलब्धि के लिये मिलकर एक हुए हैं-हमें भागवत 'कृपा' ने जो काम पूरा करने के लिये दिया हैं वह अनोखा और नवीन है । मैं आशा करती हूं कि तुम इस काम के असाधारण महत्त्व को अधिकाधिक समझो और तुम अपने अंदर उस श्रेष्ठ आनंद को अनुभव करोगे जो उपलब्धि सें तुम्हें प्राप्त होगा ।

 

   भागवत शक्ति तुम्हारे साथ है- उसकी उपस्थिति को अधिकाधिक अनुभव करो और खबरदार, उसे कभी धोखा न देना ।

 

   ऐसा अनुभव करो, ऐसी इच्छा करो, ऐसा कार्य करो कि तुम नये जगत् की सिद्धि के लिये नयी सत्ताएं बनो और इसके लिये मेरे आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगे ।

 

 (२४ -४ -१९६१)

 

२४८

प्रतियोगिताओं के लिये संदेश

 

 ऐथलेटिक्स प्रतियोगिता १९५९

 

   भौतिक आंखें जिन दृश्यों को देख सकतीं हैं उनके पीछे एक बहुत अधिक ठोस और स्थायी वास्तविकता हैं । इस वास्तविकता में मैं आज तुम्हारे साथ हूं और सारे ऐथलेटिक्स काल में रहूंगा । बल, शक्ति, ज्योति और चेतना निरंतर तुम्हारे साथ रहेगी, ताकि हर एक को, उसकी ग्रहणशक्ति के अनुसार, उसके प्रयास में सफलता मिले और सभी सच्चे प्रयास को मिले. प्रगति का शीर्ष-मुकुट ।

 

(१९ -७ -१९५९)

 

*

 

 जिम्नास्टिक्स प्रतियोगिता १९५९

 

  मैंने ऐथलेटिक्स की ऋतु के आरंभ में जो कहा था वह जिम्नास्टिक्स प्रतियोगिताओं के लिये भी ठीक हैं; मैं सारे समय तुम्हारे साथ रहूंगी, तुम्हारे प्रयास में सहायता करूंगी और तुम्हारे प्रदर्शन का आनंद लुंगी ।

 

  मेरे आशीर्वाद सहित ।

 

(९६-१०-१९५९)

 

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 ऐथलेटिक्स प्रतियोगिता १९६०

 

    सभी मेरी शक्ति, मेरी सहायता और मेरे आशीर्वाद के साथ, आनंद और विश्वास के साथ, अपना अच्छे-से-अच्छा करें ।

 

(२१-८-१९६०)

 

*

 

 ऐथलेटिक्स प्रतियोगिता ११६२

 

    पहला होने की महत्त्वाकांक्षा के स्थान पर यथासंभव अच्छे-से-अच्छा करने का संकल्प करो ।

 

   सफलता की कामना के स्थान पर प्रगति के लिये उत्कंठा रखी ।

 

   ख्याति के लिये उत्सुकता के स्थान पर पूर्णता के लिये अभीप्सा करो ।

 


   शारीरिक शिक्षण उच्चतर ओर अधिक अच्छे जीवन के लिये आवश्यक सभी चीजें- चेतना और संयम, अनुशासन और प्रभुत्व, आदि, लाने के लिये हैं ।

 

   ये सब बातें मन में रखो, सचाई के साध अभ्यास करो ओर तुम अच्छे ऐथलीट बन जाओगे; सच्चे मनुष्य होने के रास्ते पर यह पहला कदम है ।

 

  आशीर्वाद ।

 

(१५ -७-१९६२)

 *

 

 ऐथलेटिक्स प्रतियोगिता १२६३

 

   उन सबसे जो अपने शरीर को 'दिव्य जीवन' के लिये उपयुक्त बनाना चाहते हैं, मैं कहती हू, ऐथलेटिक्स प्रतियोगिता के इस अच्छे अवसर को न खोआ और यह कभी न मूलों कि हम जो कुछ करें उसमें पूर्णता के लिये अभीप्सा करते रहें । क्योंकि पूर्णता की यह चाह ही, सभी कठिनाइयों के बावजूद हमें 'लक्ष्य' तक ले जायेगी ।

 

    आशीर्वाद ।

 

(२१ -८ -१९६३)

 

*

 

 ऐथलेटिक्स प्रतियोगिता १९६४

 

   हम एक नयी दुनिया की नींव रखने के लिये यहां हैं ।

 

      ऐथलेटिक्स में सफल होने के लिये जो गुण और कौशल चाहिये, है सब ठीक वही हैं जो नयी शक्ति को ग्रहण करने और अभिव्यक्त करने के लिये भौतिक मनुष्य मे होने चाहिये।

 

   मैं आशा करती हूं कि तुम इस ज्ञान और इस भावना के साथ इस ऐथलेटिक्स प्रतियोगिता में उतरंग और उसे सफलता से पूरा करोगे ।

 

   मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।

 

(२४-८-१९६४)

 

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२५०


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*

जिम्नास्टिक्स प्रतियोगिता १९६४

 

 १८ अक्तूबर एक अच्छा दिन हैं ।

जिम्नास्टिक्स एक अच्छी कला हैं ।

और तुम एक अच्छे जिमास्ट होगे ।

आशीर्वाद ।

 

(१८-१०-१९६४)

 

२५१


 प्रतियोगिताएं ९९६६

 

   तुम्हें यह याद दिलाना ज्यादा अच्छा रहेगा कि हम यहां एक विशेष काम के लिये हैं, एक- ऐसे काम के लिये जो और कहीं नहीं किया जाता ।

 

  हम परम चेतना, वैश्व चेतना के संपर्क मे आना चाहते हैं, हम उसे अपने अंदर उतार लाना और अभिव्यक्त करना चाहते हैं । लेकिन उसके लिये हमारी नींव बहुत ठोस होनी चाहिये; हमारी नींव है हमारी भौतिक सत्ता, हमारा शरीर । इसलिये हमें एक ऐसा शरीर बनाना चाहिये जो ठोस, स्वस्थ, सहनशील, कुशल, फुरतीला और मजबूत, हर चीज के लिये तैयार हो । शरीर को तैयार करने के लिये शारीरिक व्यायाम से अच्छा और कोई तरीका नहीं हैं : खेलकूद, ऐथलेटिक्स, जिम्नास्टिक्स तथा अन्य क्रीड़ा शरीर को विकसित करने और मजबूत बनाने के लिये सबसे अच्छे उपाय हैं । इसलिये मै तुम्हें आज से शुरू होनेवाली प्रतियोगिताओं मे पूरे दिल से, पूरी ऊर्जा और पूरे संकल्प के साथ भाग लेने का निमंत्रण देती हूं ।

 

(१ -४ -१९६६)

 

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 प्रतियोगिताएं १९६७

 

   शारीरिक प्रशिक्षण और खेलकूद के अवसर पर :

 

   मुझे फिर से एक बार कहना चाहिये कि आध्यात्मिक जीवन का अर्थ 'भौतिक द्रव्य' का तिरस्कार नहीं, उसे दिव्य बनाना है । हम शरीर को त्यागना नहीं, उसका रूपांतर करना चाहते हैं । इसके लिये शारीरिक प्रशिक्षण सबसे अधिक सीधा प्रभाव करनेवाले साधनों में से एक हैं ।

 

   इसलिये मैं आज से शुरू होनेवाले कार्यक्रम में उत्साह और अनुशासन के साथ भाग लेने के लिये निमंत्रण देती हूं- अनुशासन, इसलिये क्योंकि वह सुव्यवस्था की पहली अनिवार्य शर्त है; उत्साह, इसलिये क्योंकि वह सफलता की आवश्यक शर्त है ।

 

     आशीर्वाद ।

 

(१-४ -६९६७)

 

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२५२


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प्रतियोगिताएं १९६८

 

   शक्ति पाने के लिये पहली शर्त हैं आज्ञाकारिता ।

 

    शक्ति अभिव्यक्त करने से पहले शरीर को आज्ञा मानना सीखना चाहिये; और शारीरिक प्रशिक्षण शरीर के लिये सबसे बढ़िया अनुशासन है ।

 

    अतः शारीरिक प्रशिक्षण के लिये उत्सुक और सच्चे होओ और तुम शक्तिशाली शरीर पा लोग ।

 

     मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।

 

(१ -४ -१९६८)

 

*

 

 प्रतियोगिताएं १९६९

 

    इस वर्ष के आरंभ सें एक नयी चेतना, नयी सृष्टि, अतिमानव की तैयारी करने के लिये धरती पर काम में लगीं हैं । इस सृष्टि के संभव होने के लिये मानव शरीर को बनानेवाले पदार्थ मे एक बहुत बहा परिवर्तन जरूरी है, उसे चेतना के प्रति अधिक ग्रहणशील और उसकी क्रिया के आगे अधिक लचीला होना चाहिये ।

 

    यहीं वे गुण हैं जिन्हें तुम शारीरिक शिक्षण के द्वारा पा सकते हो ।

 

   तो, अगर हम इस तरह के परिणाम को नजर मे रखते हुए ऐसे अनुशासन का पालन करें तो शिक्षित हीं बहुत अधिक मजेदार परिणाम आयेंगे ।

 

   सबको प्रगति और उपलब्धि के लिये मेरे आशीर्वाद ।

 

(१ -४ -१९६९)

 

 प्रतियोगिताएं १९७०

 

    हम भगवान् को अपने विकसित होते हुए शरीर के कौशल की भेंट से बढ़कर और कौन-सी भेंट दे सकते हैं?

 

   आओ, पूर्णता के लिये किये गये प्रयासों को निवेदित कर दें, इससे शारीरिक शिक्षण हमारे लिये एक नया अर्थ और बहुत अधिक मूल्य पा लेगा ।

 

   संसार एक नयी सृष्टि के लिये तैयारी कर रहा है, आओ, हम भौतिक रूपांतर के मार्ग पर अपने शरीर को अधिक बलवान अधिक ग्रहणशील और अधिक लचीला बनाकर शारीरिक प्रशिक्षण के द्वारा सहायता करें ।

 

(१ -४ -१९७०)

 

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२५४


प्रतियोगिताएं ११७१

 

   हम उन ''दिव्य मुहूर्तों' ' में से एक में हैं जब पुरानी नींवें हिल जाती हैं और बड़ी अस्त-व्यस्तता होती हैं; लेकिन जो आगे छलांग लगाना चाहते हैं उनके लिये यह एक अद्भुत अवसर हैं, प्रगति की संभावना अपवादित रूप से बहुत अधिक है ।

 

    क्या तुम उनमें से न होंगे जो इसका लाभ उठायेंगे?

 

   तुम्हारे शरीर इस महान परिवर्तन के लिये शारीरिक प्रशिक्षण द्वारा तैयार हों! सबको मेरे आशीर्वाद ।

 

(१ -४ -१९७१)

 

 प्रतियोगिताएं ११७२

 

    आओ, इस वर्ष हम अपने शरीर के सभी क्रिया-कलाप को श्रीअरविन्द के प्रति अर्पित कर ढे ।

 

(१-४-१९७२)

 

२५५

शारीरिक व्यायामों के वार्षिक प्रदर्शन के लिये संदेश

 

 प्रदर्शन १९६०

 

   शाबाश! उन सबको जिन्हेंने कल' के प्रदर्शन में भाग लिया था, मेरी ओर से शाबाशी! यह बहुत बढ़िया था । हर एक को मेरी बधाइयां । सब कुछ अच्छी तरह आयोजित था और अच्छी तरह प्रस्तुत किया गया था ।

 

सभी को प्रेम और आशीर्वाद ।

 

(नवम्बर, १९६०) प्र

 

*

 

प्रदर्शन १९६३

 

  कल मैं सारी शक्ति और समस्त चेतना के साथ तुम्हारी सहायता करने और तुम्हें सहारा देने के लिये सारे समय तुम्हारे साथ थीं, मैं जानती थी कि वर्षा एक ऐसी परीक्षा होगी जिसमें उत्तीर्ण होना ही होगा । '

 

   तुमने उसमें विजय पायी है और इसके लिये मैं बहुत खुश हूं । सभी को मेरे पूर्ण संतोष के बारे में बता दो ।

 

   मेरे आशीर्वाद के साथ ।

 

(३-१२-१९६३)

 

*

 

प्रदर्शन १९६४

 

  उन सबको मेरे आशीर्वाद जो प्रदर्शन मे भाग लेनेवाले हैं ताकि वे अपनी-अपनी क्षमता की चोटी पर रह सकें ।

 

(२-१२-१९६४)

 

*

 

प्रदर्शन १९६६

 

   साहसी, सहनशील और जागरूक बनो; और सबसे बढ़कर, पूरी ईमानदारी के साथ सच्चे बनो ।

 

    तब तुम सभी कठिनाइयों का सामना कर सकोगे और विजय तुम्हारी होगी ।

 

(२-१२-१९६६)

 

*

 

मुख्य प्रदर्शन के पूर्वाभ्यास मे ।

प्रदर्शन के समय बहुत जोर से वर्षा हुई थीं ।
 


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प्रदर्शन १९६७

 

 शरीर के कोषाणुओं की प्रार्थना

 

 अंस जब कि हम 'कृपा' के प्रभाव से धीरे-धीरे निक्षेतना में से बाहर निकल रहे हैं और सचेतन जीवन की ओर जाग रहे हैं तो हमारे अंदर से अधिक प्रकाश और अधिक चेतना के लिये एक उत्कट प्रार्थना उठती हैं :

 

   ''हे सृष्टि के परम प्रभु, हम अनुनय करते हैं, हमें वह बल और सुन्दरता, सामंजस्यपूर्ण पूर्णता प्रदान कर जो धरती पर तेरे दिव्य यंत्र बनने के लिये जरूरी

 

(२ -१२ -१९६७)

 

२५८

सामान्य संदेश और पत्र

 

    अपने शरीर के 'स्वामी' बन जाओ-यह तुम्हें स्वाधीनता की ओर ले जायेगा ।

 

*

 

    शरीर की चेतना को विकसित करने के लिये शारीरिक-शिक्षण सबसे अच्छा उपाय हैं और शरीर जितना अधिक सचेतन होगा, उतना ही अधिक उन भागवत शक्तियों के प्रति ग्रहणशील बन सकेगा जो उसे रूपांतरित करने और एक नयी जाति को जन्म देने के लिये काम कर रही हैं ।

 

*

 

 (जिम्नास्टिक्स के लिये एक कमरे के बारे मे)

 

    क्या इस कमरे में हवा और रोशनी हैं? हवा और रोशनी के बिना की गयी कसरत फ़ायदे की जगह नुकसान ज्यादा पहुंचाती है ।

 

(५-१०-१९४५)

 

*

 

    सीखने के लिये यह एक अत्यंत आवश्यक और अनिवार्य पाठ है। कोई उपयोगी काम सहयोग की भावना और खेल के अनुशासन के बिना नहीं हो सकता ।

 

(१५ -५ -११४७)

 

*

 

    आजकल जो खेल-कूद की प्रतियोगिताएं हो छी हैं इन्हें हमें किस भाव से लेना चाहिये और इनमें कैसे मान लेना चाहिये है!

 

 

 संलग्न पुस्तिका' को पढो-इससे तुम्हें उत्तर मिल जायेगा और साथ ही पहले 'बुलेटिन' मे श्रीअरविन्द का संदेश ' पढ़ो ।

 

(२-६-१९४९)

 

  'कोड ऑफ स्पोर्दसमैनशिप'

श्रीअरविन्द सेटिनरी वोल्यूम, खंड १६, पृ० ६-४ ।

 


   अगर मैं तुम्हारी बात को ठीक समझी हूं तो तुम यह कहना चाहते हो कि तुम जो शारीरिक क्रिया कर रहे हो उसपर एकाग्र होने से मानसिक क्रिया-कलाप अपने-आप बंद हो जाते हैं और इससे शरीर की क्षमता बढ्ती है । यह सच है बशर्ते कि एकाग्रता पूर्ण हो जो विरल ही होती हैं ।

 

'आशीर्वाद ।

 

(२ -६ -११४९)

 

(एक कप्तान ने दस-ग्यारह वर्ष क्वे बच्चे को ऐथलेटिक्स सिखाना शुरू किया था उसने माताजी से पूछा कि क्या उसे अपने क्रिया-कलाप की योजना बनानी चाहिये! माताजी का उत्तर:)

 

  योजना अच्छी चीज हैं, लेकिन बच्चों की अपेक्षा तुम्हारे लिये ज्यादा अच्छी हैं । मेरा मतलब यह हैं कि तुम्हें ठीक-ठीक पता होना चाहिये कि तुम क्या करना चाहते हो और तुम्हें अपने काम की व्यवस्था करनी चाहिये । लेकिन अपनी पद्धति को बहुत कठोरता के साथ लाम मत करो क्योंकि बच्चे अपनी गतिविधि मे स्वतंत्र और सहज होना चाहते हैं और यह स्वतंत्रता उनके विकास के लिये अच्छी है ।

 

   मेरा प्रेम और आशीर्वाद ।

 

(६ -६ -१९५०)

 

*

 

 सोवियेट जिम्नास्टस दल' से

 

   भइयो, हम तुम्हारा अभिवादन करते हैं, हम सब यहां पर जिस शारीरिक पूर्णता के लिये अभीप्सा करते हैं उसके मार्ग पर तुम इतने आगे हो ।

 

   हम अपने बीच, आश्रम में, तुम्हारा स्वागत करते हैं । हमें विश्वास हैं कि आज महान मानव परिवार की एकता की ओर एक और कदम उठाया गया है ।

 

(३ -४ -१९५६)

 

*

 

   अपने अंदर संपूर्ण समन्वय का निर्माण करो ताकि जब समय आये तो 'संपूर्ण सौंदर्य' अपने-आपको तुम्हारे दुरा प्रकट कर सके ।

 

(१९५९)

 

*

 

    १सोवियेट जिम्नास्टस को संदेश जिन्हेंने २ और है अप्रैल १९५६ को आश्रम के 'सदोष ग्राउंड' में प्रदर्शन दिये थे ।

 

२६०


हठयोग के बारे में

 

    हमने अपने अनुभव से जाना है कि किसी विशेष व्यायाम-पद्धति पर ही एकमात्र यौगिक व्यायाम की मुहर नहीं लगायी जा सकतीं और यह शिक्षित रूप से नहीं कहा जा सकता कि केवल इन्हीं कसरतों में भाग लेने से स्वास्थ्य लाभ होगा क्योंकि ये यौगिक कसरतें हैं।

 

    अपनी आवश्यकताओं और क्षमताओं के अनुकूल कोई भी युक्तियुक्त व्यायाम- पद्धति व्यायाम करनेवाले को अपना स्वास्थ्य सुधारने में सहायता देगी । और फिर मनोवृत्ति का महत्त्व ज्यादा हैं । यौगिक वृत्ति से अपनायी गयी, कोई भी सुनियोजित वैज्ञानिक रूप से व्यवस्थित व्यायाम-पद्धति यौगिक कसरत हो सकती है और उसमें भाग लेनेवाला शारीरिक स्वास्थ्य और नैतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान की दृष्टि से पूरा लाभ उठा सकता है ।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९५९)

 

*

 

  मैं केवल सुन्दर होना चाहता हूं !

 

 सचाई के साथ शारीरिक व्यायाम करो और तुम सफल हों जाओगे ।

 

(१९६५)

 

*

 

    मुझे इस बात में बुद्धिमानी नहीं मालूम होती कि छ: वर्ष से कम उम्र के बच्चों को समुद्र-स्नान के लिये ले जाया जाये; उनके लिये समुद्र का पानी बहुत तेज होता है ।

 

(८-२ -१९६६)

 

*

 

   (एक कप्तान ने लिखा कि उसने बच्चों से कहा है कि अगर बे अपने दल के नियंत्रक में रहेंगे तो माताजी प्रसब्र होगी माताजी ने लिखा :)

 

 तुम्हारा उत्तर ठीक हैं ।

 

   अगर कोई नियंत्रण में रहने की क्षमता नहीं रखता हो तो वह जीवन में कोई भी चिरस्थायी मूल्य की चीज करने में असमर्थ होता हैं ।

 

(१६-२-१९६७)

 

*

 

२६१


   (एक कप्तान ने माताजी को लिखा कि उसे ऐसा छनता है कि वह शारीरिक और मानसिक ढंग सै "पीट-सा'' क्या है माताजी ने उत्तर दिया:)

 

 चिंता मत करो-कुछ अच्छी और नियंत्रित कसरतों ये और मेरे आशीर्वाद के साथ सब ठोंक हों जायेगा ।

 

    प्रेम और आशीर्वाद ।

 

(१४-३-९९६७)

 

*

 

   तीन बार मेरे दाहिने ४टने मे चोट लगी है और तीनों बार मैं ठीक हो गया ।

 

 माताजी यह वर लीजिये कि फिर से चोट न लगे और मैं अपने दल के काम ले वंचित न रहूं?

 

अधिक सचेतन होओ तो तुम्हें फिर से चोट न लगेगी ।

 

(८-७-१९६८)

 

   माताजी मैंने देखा है कि मैं अपने भौतिक शरीर को उसकी वास्तविक क्षमता से  जरा ज्यादा अच्छा करने के लिये बाधित नहीं कर पाता? मैं जानना चाहूंगा कि मैं उसपर कैसे जोर डाल सकता हूं? लेकिन माताजी क्या अपने शरीर पर जोर डालना ठीक है?

 

 नहीं ।

 

  शरीर प्रगति करने के योग्य है और धीरे-धीरे वह जो चीजें नहीं कर सकता था उन्हें करना सीख सकता है । लेकिन उसकी प्रगति की क्षमता प्राण की प्रगति की कामना और मन के प्रगति के संकल्प की अपेक्षा बहुत धीमी है । और अगर प्राण और मन को क्रिया के स्वामी के रूप में छोड़ दिया जाये तो बे शरीर को परेशान कर मारेमें, उसको नष्ट कर देंगे और स्वास्थ्य बिगाड़ देंगे ।

 

    इसलिये तुम्हें धीरज रखना चाहिये और शरीर की लय का अनुसरण करना चाहिये; वह ज्यादा समझदार हैं और जानता है कि वह क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता।

 

   स्वभावतः, तामसिक शरीर भी होते हैं और उन्हें प्रगति करने के लिये कुछ प्रोत्साहन की जरूरत होती है ।

 

६२


परंतु हर चीज में, हर हालत में अपना संतुलन बनाये रखना चाहिये ।

 

आशीर्वाद ।

 

(१३-१०-१९६९)

 

   माताजी हमें प्रतियोगिताओं और प्रदर्शनों में क्यों भाग लेना चाहिये?

 

 क्योंकि यह ज्यादा प्रयास करने का और इसलिये तेजी से प्रगति करने का अवसर होता हैं।

 

आशीर्वाद ।

 

(१६-११-१९६९)

 

 (खेलकूद में दुर्घटनाओं के बारे में)

 

 मुझे नहीं लगता कि यहां बाहर की अपेक्षा ज्यादा दुर्घटनाएं होती हैं । निक्षय हीं यहां कम होनी चाहिये । लेकिन उसके लिये, यहां रहनेवाले बच्चों को चेतना मे अधिक विकसित होने की कोशिश करनी चाहिये (यह कहीं और की अपेक्षा यहां ज्यादा सरल हैं)  लेकिन, दुर्भाग्यवश, उनमें से बहुत कम यह करने का कष्ट उठाते हैं । वे मिला हुआ सुअवसर खो बैठते हैं ।

 

(२२-१२-१९६९)

 

   माताजी खेल-कूद और शारीरिक प्रशिक्षण में क्या?

 

सभी क्रीड़ाएं, प्रतियोगिताएं, साम्मुख्य आदि, वे सब चीजें जो प्रतियोगिता पर आधारित हैं और जिनके अंत मे स्थान और इनाम मिलते हैं, वे सब खेल-कूद (स्पर्धा) हैं । शारीरिक शिक्षण का मतलब हैं सब कसरतों का मेल जिसका उद्देश्य है शरीर को स्वस्थ रखना और विकसित करना ।

 

    स्वभावतः, हमारे यहां दोनों साथ-साथ हैं । लेकिन यह विशेष रूप से इसलिये है क्योंकि मनुष्य को, विशेषत: छोटी आयु में, अभीतक प्रयास करने के लिये कुछ उत्तेजना की जरूरत होती हैं ।

 

आशीर्वाद ।

 

(१४ -१ -१९७०)

 

*

१६३


खेल-कूद शरीर को 'रूपांतर' के लिये तैयार करने में सहायता देते हैं ।

 

(३०-९-१९७०)

 

*

 

   (खेल-कूद के साम्मुख्य में जोतनेवाले को जो कार्ड मिलता है उसपर अंकित चित्र के बारे मे)

 

 जोतनेवाले के कार्ड पर जो चित्र बना हैं वह एक यूनानी कांस्य मूर्ति पर आधारित है और यह हमारे इस संकल्प को प्रकट करता है कि हम शारीरिक शक्ति का उपयोग आवेगों के काले सांड पर प्रभुत्व पाने के लिये करेंगे ।

 

*

 

   (खेल-कूद के समुदय मे दूसरा होनेवाले को जो कार्ड दिया जाता है उसपर जो रेखाचित्र है उसके बारे मे)

 

दूसरा होनेवाले के कोई पर रोदें के 'विचारक ' का मतलब है ज्यादा अच्छे परिणाम के लिये साधन को पूर्ण बनाने पर मनन की आवश्यकता ।

 

*

 

   (जिम्नास्टिक्स प्रतियोगिता पुरस्कार के कार्ड पर गुस्ताव मोरो क्वे 'र्हडिपस और स्फिंक्स' के रेखाचित्र के बारे मै)

 

 संसार की पहेली

 

   अगर तुम से हल कर सको तो अमर हो जाओगे, लेकिन असफल रहे तो मर जाओगे ।

 

२६४

नारियों से-उनके शरीर के बारे में

 

 (कुछ प्रश्रों के उत्तर)

 

   १. हे भगवान् क्या तुम यह नहीं भूल सकते कि तुम लड़का हो या लड़की और मनुष्य बनने की कोशिश नहीं कर सकते?

 

    २. प्रत्येक विचार (या विचारों का दर्शन) अपने काल और देश मे सच्चा होता हैं । लेकिन अगर वह ऐकांतिक होना चाहे या अपना समय पूरा हो जाने पर भी बचे रहने की कोशिश करे, तो वह सच्चा नहीं रहता ।

 

 शारीरिक शिक्षण के उद्देश्य ले अपने दल क्वे बच्चों क्वे लाख व्यवहार करते समय बालिकाओं क्वे विषय मे कुछ समस्याएं हमारे सामने आ खड़ी होती हैं उनमें ले अधिकांश ऐसे सुझाव हैं जो उन्हें अपने मित्रों से बड़ी लड़कियां से माता-पिता या अभिभावकों और डाक्टरों ले मित्रते हैं कृपा कर्कर नीचे लिखे प्रश्रों पर कुछ प्रकाश डालिये ताकि अपने उत्तरदायित्वों को अधिक योग्यता के साथ पूरा करने के लिये हमें अधिक छान प्राप्त हो

 

१. अपने मासिक काल के विषय मे किसी क्याकि का मनोभाव क्या होना चाहिये?

 

२. क्या अपने मासिक काल में किसी लड़की को अपने शारीरिक शिक्षण के सामान्य कार्यक्रम मैं शाम लेना चाहिये?

 

३. कुछ लड़कियां अपने मासिक काल में क्यों पूर्णत: हो जाती हैं तथा अपने पीठ क्वे निचले मान में और पेट में दर्द का अनुभव करती हैं जब कि औरों की कोई नहीं होती या बहुत मामूली-सी होती है?

 

४. कोई लड़की अपने मासिक काल के दुःख-दर्द को कैसे जीत सकती है?

 

५. क्या आपकी राय सें लड़कों और लड़कियों के लिये मित्र-मित्र प्रकार के व्यायाम होने चाहिये? क्या तथाकथित ' खेलकूदों का अभ्यास करने ले किसी लड़की के जननेन्द्रिय आदि अंग को हानि पहुंच सकती है?

 

६. क्या कठिन व्यायामों का अभ्यास करने ले किसी लड़की की आकृति बदल जायेगी और वह एक पुरुष की आकृति की तरह मांसल हो जायेगी और ईसा कारण वह लड़की .कुरूप दिखायी देने लगेगी?

 

७. यदि कोई लड़की विवाह करना चाहे और पीछे उसे बच्चा हों तो क्या कठिन व्यायामों की खरब उसे बच्चा होते समय अधिक कठिनाइयां होगी?

 


   ८. नारीत्व की ले पालिकाओं के लिये शारीरिक शिक्षण का क्या आदर्श होना चाहिये?

 

   ९. हमारी नवीन जीवन-पद्धति के अंदर पुरुष और स्त्री का क्या मुख्य कार्य - होना चाहिये? उनमें परस्पर क्या संबंध होगा?

 

    १०. नारी के शारीरिक सौंदर्य का क्या आदर्श होना चखिये?

 

 तुम्हारे प्रश्रों का उत्तर देने से पहले मैं तुमसे कुछ बातें कहना चाहती हूं जो निस्संदेह तुम जानते हो, पर तुम यदि यह जानना चाहते हों कि श्रेष्ठ जीवन कैसे यापन किया जाये तो तुम्हें उन्हें कभी भूलना नहीं चाहिये ।

 

   यह सच है कि हम, अपने आंतरिक स्वरूप में, एक आत्मा हैं, सजीव अंतरात्मा हैं जो अपने अंदर भगवान् को वहन करती है, और भगवान् बनने की, उन्हें पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करने की अभीप्सा करती हैं; वैसे हीं यह भी सच है कि, कम-से-कम इस क्षण, अपनी अत्यंत स्थूल बाह्य सत्ता में, अपने शरीर में, हम अब भी एक पशु, स्तनपायी जीव हैं, निस्संदेह एक उच्चतर जाति के हैं, पर पशुओं जैसे ही निर्मित हैं और पशु-प्रकृति के नियमों के ही अधीन हैं ।

 

  तुम लोगों को निक्षय हीं यह पढ़ाया गया होगा कि स्तनपायी जीवों की एक विशेषता यह है कि उनकी मादा गर्भ-धारण करती हैं और अपने गर्भस्थ बच्चे को तबतक वहन करती और निर्मित करती हैं जबतक वह क्षण नहीं आ जाता जब बच्चा पूर्ण आकार प्राप्त करके अपनी माता के शरीर से बाहर निकल सके और स्वतंत्र रूप से जीवन यापन करने लगे ।

 

   इस कार्य को दिष्टि मे रखकर प्रकृति माता ने स्त्रियों को फल की कुछ अतिरिक्त मात्रा प्रदान की है जो बालक के निर्माण के लिये व्यवहुत होती है । परंतु इस अतिरिक्त रक्त का उपयोग करना सर्वदा आवश्यक नहीं होता, इसलिये जब कोई बच्चा पैदा होनेवाला नहीं होता तब रक्त की अधिकता और जमाव से बचने के लिये अतिरिक्त रक्त को निकाल फेंकने की आवश्यकता होती है । बस, यही है मासिक चर्म का कारण । यह एक सीधी-सी स्वाभाविक क्रिया हैं, जिस पद्धति सें नारी का निर्माण हुआ है उसीका एक परिणाम हैं और शरीर की अन्य क्रियाओं की अपेक्षा इसे अधिक महत्त्व देने की कोई आवश्यकता नहीं हैं । यह कोई रोग नहीं है और किसी दुर्बलता या सच्ची असुविधा का कारण नहीं बन सकती । अतएव एक स्वाभाविक स्थिति मे रहनेवाली स्त्री को, ऐसी स्त्रीको जो अनावश्यक ढंग से नर्म तबीयत की न हों, उसे केवल स्वच्छता-संबंधी आवश्यक सावधानी बरतनी चाहिये, इसके विषय में कभी जरा भी सोचना नहीं चाहिये और अपने कार्यक्रम मे कोई मी परिवर्तन न कर, नित्य की तरह अपना दैनिक जीवन बिताना चाहिये । यहीं अच्छा स्वास्थ्य बनाये रखने का सबसे उत्तम उपाय हैं ।

 

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   इसके अतिरिक्त, यह स्वीकार करने पर भी कि जहांतक हमारे शरीर का प्रश्र है हम अब मी भयंकर रूप सें पशत्व से संबंध रखते हैं, हमें यह सिद्धांत नहीं बना लेना चाहिये कि यह पशु-अंग, जिस तरह हमारे लिये अत्यंत ठोस और अत्यंत सत्य है उसी तरह वह एकमात्र वस्तु है जिसकी अधीनता स्वीकार करने के लिये हम बाध्य हैं और जिसे हमें अपने अपर शासन करने देना चाहिये । दुर्भाग्यवश जीवन मे अधिकतर यहीं होता है और निक्षय हीं मनुष्य अपनी भौतिक सत्ता के प्रभु की अपेक्षा कहीं अधिक गुलाम हैं । परंतु इसके विपरीत हीं होना चाहिये क्योंकि व्यक्तिगत जीवन का सत्य एकदम दूसरी चीज हैं ।

 

    हमारे अंदर एक विवेकपूर्ण संकल्प-शक्ति हैं जिसे कम या अधिक बोध प्राप्त है और जो हमारे चैत्य पुरुष का प्रथम यंत्र है । इसी युक्तिपूर्ण संकल्प-शक्ति का हमें उपयोग करके यह सीखना चाहिये कि एक पशु-मानव की तरह नहीं, वरन सच्चे मनुष्य की तरह, देवत्व के उम्मीदवार की तरह कैसे जीना चाहिये ।

 

   और इस सिद्धि की ओर जाने का पहला पग है इस शरीर का एक अक्षम दास न रह, इसका प्रभु बन जाना ।

 

   इस लक्ष्य को प्राप्त करने मे अत्यंत उपयोगी सहायता देनेवाली चीज है शारीरिक साधना अर्थात् व्यायाम ।

 

   लगभग एक शताब्दी से उस कक्षा का पुनरुद्धार करने का प्रयास हों रहा है जिसे प्राचीन युगों मे बहुत महत्त्व दिया जाता था और जिसे लोग अंशत: स्व गये हैं । अब यह पुनः जाग्रत् हो रहा है और आधुनिक विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ. यह भी एक नवीन विस्तार और महत्त्व को प्राप्त करता जा रहा है । यह ज्ञान स्थूल शरीर तथा उस असाधारण प्रभुत्व की चर्चा करता है जो प्रबुद्ध और विधिबद्ध शारीरिक शिक्षण की सहायता से शरीर के ऊपर प्राप्त किया जा सकता है ।

 

   यह पुनरुद्धार एक नयी शक्ति और ज्योति की क्रिया का फल है जो निकट भविष्य मे सिद्ध होनेवाले महान रूपांतर की सिद्धि के योग्य शरीर को तैयार करने कै लिये पृथ्वी पर फैल गयी हैं ।

 

   हमें इस शारीरिक शिक्षण को प्रधान महत्त्व देने में हिचकिचाना नहीं चाहिये जिसका उद्देश्य ही हैं हमारे शरीर को इस योग्य बना देना कि वह पृथ्वी पर अभिव्यक्त होने का प्रयास करनेवाली नवीन शक्ति को ग्रहण और प्रकट करने लगे । इतना कहकर, अब मैं उन प्रश्रों का उत्तर देती हू जिन्हें तुमने मेरे सामने रखा हैं ।

 

   १. अपने मासिक काल के प्रति किसी लड़की का मनोभाव क्या होना चाहिये !

 

 वही मनोभाव होना चाहिये जो तुम किसी एकदम स्वाभाविक और अपरिहार्य वस्तु के

 

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प्रति रखती हो । इसे यथासंभव कम-से-कम महत्त्व दो और इसके कारण कोई परिवर्तन किये बिना, अपने सामान्य जीवन को नियमित रूप से चलाती रहो ।

 

   क्या अपने मासिक काल में किसी लड़की को अपने शारीरिक शिक्षण के सामान्य कार्यक्रम में मांग लेना चाहिये?

 

यदि शारीरिक व्यायाम करने का उसे अभ्यास हो तो उसे निश्चय हीं इस कारण उसे बंद नहीं करना चाहिये । यदि कोई अपना सामान्य जीवन बिताने का अभ्यास सर्वदा बनाये रखे तो बहुत शीघ्र उसे ऐसी आदत पंडू जायेगी कि उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसे मासिक हो रहा है ।

 

३. कुछ लड़कियां अपने मासिक काल मैं क्यों : हो जाती हैं तथा अपनी पीठ के निचले मान में और पेट में दर्द का अनुभव करती हैं जब कि ' को कोई नहीं होती श बहुत -सी होती है?

 

 यह प्रश्र व्यक्ति के स्वभाव तथा अधिकांशत: शिक्षा का है । यदि किसी लड़की को अपने बचपन से ही यह अभ्यास हो गया हो कि वह बिलकुल मामूली तकलीफ की ओर भी बहुत अधिक ध्यान देती हो और अत्यंत तुच्छ असुविधा के लिये भी बहुत अधिक हाय-तौबा मचाती हो तो वह सहन करने की सारी क्षमता खो बैठेगी और कोई भी चीज उसके दुर्बल होने का कारण बन जायेगी । विशेषकर यदि मां-बाप अपने बच्चों की प्रतिक्रियाओं के विषय में बहुत शीघ्र चिंतित हों उठे तब तो उसका असर और भी बुरा होगा । अधिक बुद्धिमानी की बात यही हैं कि बच्चों को थोड़ा बलशाली और सहनशील होने की शिक्षा दी जाये और उन सब छोटी-मोटी असुविधाओं और दुर्घटनाओं के प्रति कम-से-कम दक्षिणता करना सिखाया जाये जिनसे जीवन मे सर्वदा बचा नहीं जा सकता । शांत सहिष्णुता का भाव ही सबसे उत्तम मनोभाव है जिस मनुष्य स्वयं अपने लिये धारण कर सकता है और अपने बच्चों को भी सीखा सकता हैं ।

 

   यह बिलकुल जानी हुई बात है कि यदि तुम किसी कष्ट की आशा करो तो वह अवश्य तुम्हें प्राप्त होगा और, एक बार यदि वह आ जाये, यदि तुम उसपर अधिक ध्यान दो तो वह अधिकाधिक बढ़ता जायेगा और जबतक कि वह, जैसा कि साधारणतया उसे नाम दिया जाता है, '' असह्य' ' हीं न हो उठे, यद्यपि थोडी-सी संकल्प-शक्ति और साहस का प्रयोग करने पर ऐसा कोई दुःख-दर्द नहीं जिसे सहा न जा सके ।

 

   ४. कोई लड़की अपने मासिक काल क्वे दुःख- दर्द को कैसे जीत सकती है ?
 

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कुछ व्यायाम ऐसे हैं जो पेट को मजबूत बनाते तथा रक्त प्रवाह को बढ़ाते हैं । इन व्यायामों को नियमित रूप से करते रहना चाहिये और दर्द के दूर हो जाने पर भी उन्हें जारी रखना चाहिये । बड़ी उम्र की लड़कियों को इस प्रकार का दर्द प्रायः पूर्ण रूप से काम-वासना के कारण होता हैं । यदि हम वासनाओं से मुक्त हों जायें तो हम दर्द से भी मुक्त हो जाते हैं । वासनाओं से मुक्त होने के दो उपाय हैं; पहला है प्रचलित उपाय, वासना की तृप्ति (अथवा यों कहें कि इसे यह नाम दिया जाता है, क्योंकि वासना के राज्य मे ''तृप्ति' ' नाम की कोई चीज है ही नहीं) । इसका अर्थ हैं साधारण मानव-पशु का जीवन बिताना, विवाह, संतान, और बाकी सभी चीजें ।

 

    निक्षय ही, एक दूसरा पथ भी है , उससे कहीं अधिक अच्छा पथ है , -वह हैं संयम, प्रभुत्व, रूपांतर का पथ; यह कहीं अधिक महान् और अधिक प्रभावशाली है ।

 

५. क्या आपकी राय मैं ' और 'लड़की के लिये मित्र-मित्र प्रकार के व्यायाम होने चाहिये? क्या तथाकथित खेल-कूद का अभ्यास करने ले लड़की के जननेंद्रिय आदि अंगों को हानि पहुंच सकती है ?

 

 सभी प्रसंगों में, जैसे लड़कों के लिये वैसे ही लड़कियों के लिये, व्यायामों को प्रत्येक व्यक्ति की शक्ति और क्षमता के अनुसार क्रमबद्ध क्या देना चाहिये ! यदि कोई दुर्बल छात्र एकाएक कठिन और भारी व्यायाम तिकोने की कोशिश करे तो वह अपनी मूर्खता के कारण दुःख भोग सकता है । परंतु, यदि बुद्धिमानी के साध- और धीरे-धीरे शिक्षा दी जाये ते। लड़कियां और लड़के दोनों ही सब प्रकार के खेलों में भाग ले सकते हैं और इस प्रकार अपनी शक्ति और स्वास्थ्य को बहा सकते हैं ।

 

  बलवान् और स्वस्थ बनने से शरीर को कभी कोई हानि नहीं पहुंच सकतीं, भले हीं वह शरीर स्त्री का हीं क्यों न हो!

 

६. क्या कठिन व्यायाम का अभ्यास करने ले किसी लड़की की आकृति बदल जायेगी और वह पक पुरुष की आकृति तरह मांसल हो जायेगी और इस कारण वह लड़की कुरूप दिखायी देने लगेगी?

 

दुर्बलता और क्षीणता भले ही किसी विकृत मन की दृष्टि मे आकर्षक प्रतीत हों, पर यह प्रकृति का सत्य नहीं हैं और न आत्मा का द्वि सत्य हैं ।

 

  यदि तुमने कमी व्यायाम करनेवाली स्रियों के चित्रों को देखा हो तो तुम्हें पता चलेगा कि उनका शरीर कितना पूर्ण सुंदर होता हैं; और कोई भी व्यक्ति यह अस्वीकार नहीं कर सकता कि उनका शरीर मांसल होता हैं ।

 

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७. यदि कोई लड़की विवाह करना चाहे और पीछे उसे बच्चा हो तो क्या कठिन व्यायामों क्वे कारण उसे बच्चा होते समय अधिक कठिनाइयां होगी?

 

   मैंने ऐसा कोई उदाहरण कभी नहीं देखा । बल्कि इसके विपरीत, जो स्त्रियों कठिन व्यायाम करने की शिक्षा प्राप्त करती हैं और सुदृढ़ मांसल शरीरवाली होती हैं वे बच्चा धारण करने और पैदा करने की कठिन परीक्षा मे कहीं अधिक आसानी और कम दर्द के साथ उत्तीर्ण होती हैं ।

 

   मैंने अफ्रीका की उन स्त्रियों की एक विश्वसनीय कहानी सुनी है जो भारी बोझ लेकर मीलों यात्रा करने की आदी होती हैं । एक स्त्रीगर्भवती थीं और एक दिन यात्रा करते समय ही उसके बच्चा जनने का समय हो गया । वह रास्ते मे एक किनारे, एक पेड़ के नीचे बैठ गयी, उसका बच्चा भूमिष्ठ हुआ, आधा घंटा उसने विश्राम किया, फिर वह उठ खड़ी हुई और अपने पुराने बोझ के साध-साथ बच्चे को भी लेकर चुपचाप अपने रास्ते पर चल पड़ी मानों उसे कुछ भी न हुआ हो । यह इस बात का अत्यंत उज्ज्वल उदाहरण है कि स्वास्थ्य और शक्ति पर पूर्ण अधिकार रखनेवाली एक नारी क्या कर सकती है ।

 

   डाक्टर कहेंगे कि मनुष्यजाति ने आज जितनी मी प्रगति की है उस सबके होते हुए भी किसी सभ्य समाज मे इस तरह की बात कभी घटित नहीं हो सकतीं; परंतु हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि, शरीर की दृष्टि से देखा जाये तो, आधुनिक समस्याओं ने जो संवेदनशीलता, दुःख-कष्ट और जटिलता उत्पन्न की हैं उसके मुकाबले यह कहीं सुखदायी स्थिति हैं ।

 

   इसके अलावा, साधारणतया डाक्टर लोग अस्वाभाविक प्रसंगों मे हीं अधिक दिलचस्पी लेते हैं और है अधिकांशतः उसी दृष्टिकोण सें विचार करते हैं । परंतु हमारे लिये बात इससे भिन्न है; हम स्वाभाविक से अति-स्वाभाविक की ओर जा सकते हैं, न कि अस्वाभाविक सें जो कि सर्वदा हीं पथभ्रष्टता और निष्कृष्टता का चिह्न होता हैं ।

 

   ८. नारीत्व की दृष्टि ले पालिकाओं क्वे लिये शारीरिक शिक्षण का क्या आदर्श होना चाहिये?

 

 मेरी समझ में नहीं आता कि लड़की से भिन्न लड़कियों के लिये शारीरिक शिक्षण का कोई विशेष आदर्श क्यों होना चाहिये ।

 

   शारीरिक शिक्षण का उद्देश्य हैं मानव शरीर की सभी संभावनाओं को विकसित करना, जैसे, सुसामंजस्य, शक्ति, नमनीयता, चतुरता, फुर्तीलापन, सहनशीलता आदि की संभावनाओं को प्रस्फुटित करना, अपने अंगों और इंद्रियों की क्रियाओं पर अपना अधिकार बढ़ाना, एक सज्ञान संकल्प-शक्ति के व्यवहार के लिये शरीर को सर्वागपूर्ण

 

२७०


यंत्र बनाना । यह कार्यक्रम सभी मानव प्राणियों के लिये एक समान उत्तम हैं, और ऐसा कोई कारण नहीं कि लड़कियों के लिये कोई दूसरा कार्यक्रम स्वीकार करने की कामना की जाये ।

 

   ९. हमारी नवीन जीवन- पद्धति क्वे अंदर पुरुष और स्त्री का क्या कार्य मुख्य होना चाहिये? उनमें परस्पर क्या संबंध होगा?

 

भला दोनों के बचि तनिक भी विभेद क्यों किया जाये? वे दोनों ही एक जैसे मानव प्राणी हैं जो वर्ग, जाति, धर्म तथा राष्ट्रीयता के परे 'भागवत कार्य' के लिये उपयुक्त्त यंत्र बनने की चेष्टा करते हैं, जो एक ही अनंत दिव्य माता की संतान हैं तथा एक ही 'शाश्वत भगवान्' को प्राप्त करने की अभीप्सा रखते हैं ।

 

    १०. नारी के शारीरिक सौंदर्य का क्या आदर्श होने? चाहिये ?

 

अंगों के परिमाण में पूर्ण सामंजस्य, कोमलता और बल-सामर्थ्य, कमनीयता और क्षमता, नमनीयता और दृढ़ता, तथा सबसे बढ़कर, अति उत्तम, एक रूप और अपरिवर्तनशील स्वास्थ्य जो एक शुद्ध चरित्र आत्मा बनने का, जीवन मे समुचित विश्वास तथा 'भागवत कृपा' में अटल श्रद्धा-विश्वास रखने का परिणाम होता है ।

 

   अंत मे एक बात और जोड़ दूं :

 

   मैंने ये सब बातें तुमसे इसलिये कही है कि तुम्हें इन्हें सुनने की आवश्यकता थीं, पर तुम इन्हें अकाटय सिद्धांत का रूप मत दे देना क्योंकि ऐसा करने पर ये अपना सत्य हीं खो बैठेगी ।

 

(सितंबर १९६० मे प्रकाशित)

 

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न्यू एज ऐसोसियेशन (नव युग संघ)

 

     नव युग संघ की स्थापना 'श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-केन्द्र' की उच्चतर कक्षाओं' के विधार्थियों के विचारों की अभिव्यक्त करने के लिये एक मंच के रूप मे १९६४ मे की गयी थी

 

    हर सम्मेलन के विषय पर नीचे कुछ संकेत-चिड़ दिये गये हैं पाठक उन्हें ध्यान में रखें:

 

(ग) - माताजी का दिया हुआ विषय

(घ) - प्रस्तावित विषयों मैं ले माताजी के दुरा चूना हुआ विषय;

(ङ)- माताजी के द्वारा विषय

 

  एक खुली बातचीत, जहां हर एक जो सोचता या अनुभव करता है उसे अभिव्यक्त कर सकता है ।

 

(१९६४)

 

*

 

उद्घाटन समारोह (१२-७-१९६४)

 

   यह कभी न मानो कि तुम जानते हो ।

   हमेशा ज्यादा अच्छी तरह जानने की कोशिश करो ।

   आशीर्वाद ।

 

(१२-७-१९६४)

 

*

 

 पहला सम्मेलन (९-८-१९६४)

 

     सामान्य मानसिक क्रिया-कलाप के पार जाने का सबसे अच्छा तरीका क्या है ? (ग)

 

 मेरा उत्तर है : चुप रहो ।

 

दूसरा सम्मेलन (२२-११-१९६४)

 

   'दिव्य जीवन' के लिये अपनी अभीप्सा मे स्थिर और सच्चे कैसे हों । (ग)

 

 'दिव्य जीवन' को प्राप्त करने लायक सबसे महत्त्वपूर्ण चीज मानो ।

 

*

 

 तीसरा सम्मेलन (१४-२-१९६५)

 

     कार्य के आवेगों में 'सत्य' और मिथ्यात्व के बीच फर्क कैसे करें । (ग)

 

 जो लोग अंधकार और मिथ्यात्व की शक्तियों पर 'सत्य' की ज्योति के विजयी होने मे सहायता करना चाहते हैं वे अपनी गतिविधि और क्रिया को शुरू करनेवाले आवेगों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करके, और उनके बीच भेद करके, जो 'सत्य' से आते हैं

 

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और जो मिथ्यात्व सें आते हैं उनमें से पहले को स्वीकार और दूसरे को अस्वीकार करके ऐसा कर सकते हैं ।

 

   धरती के वातावरण मे 'सत्य की ज्योति ' के ' आगमन' के पहले प्रभावों मे से एक है- यह विवेक शक्ति ।

 

वास्तव में 'सत्य की ज्योति' दुरा लिये हुए इस विवेक के विशेष उपहार को पाये बिना, 'सत्य' के मनोवेगों और मिथ्यात्व के मनोवेगों में फर्क करना बहुत कठिन है । फिर भी, आरंभ में सहायता करने के लिये, तुम यह निर्देशक नियम बना सकते हो कि जो-जो चीजें शांति, श्रद्धा, आनंद, सामंजस्य, विशालता, एकता और उठता हुआ विकास लाती हैं वे 'सत्य' से आती हैं; जब कि जिन चीजों के साथ बेचैनी, संदेह, अविश्वास, दुःख, फूट, स्वार्थपूर्ण संकीर्णता, जड़ता, उत्साहहीनता और निराशा आयें वे सीधी मिथ्यात्व सें आती हैं ।

 

(२२ -१ -१९६५)

 

*

 

 चौथा सम्मेलन (२५-४-१९६५)

 

    अपने अध्ययन को साधना का साधन कैसे बनाया जाये? (घ)

 

*

 

 पांचवा सम्मेलन (८-८-१९६५)

 

     अपनी कठिनाइयों को प्रगति के अवसरों में कैसे बदला जाये? (घ)

 

*

 

 छठा सम्मेलन (२१-११-१९६५)

 

  १ -मानवजाति की प्रगति का सबसे अच्छा उपाय कौन-सा है'? (ड)

  २ -सच्ची स्वाधीनता क्या हैं और उसे कैसे पाया जाये ? (ङ)

 

१ -स्वयं प्रगति करना ।

२ -(क) अहं से मुक्ति ।

     (ख) अहं से छुटकारा पा कर ।

 

(१३-१०-१९६५)

 

*

 

२७६


सातवां सम्मेलन (२०-२-१९६६)

 

   'सत्य' की सेवा कैसे की जाये? (डा)

 

*

 

 आठवां सम्मेलन (६४-८-१९६६)

 

    मनुष्य की नियति क्या हैं? (घ)

 

*

 

 नवां सम्मेलन (२७-९१-१९६६)

 

       सच्चा प्रेम क्या हैं , उसे कैसे पाया जाये? (घ)

 

 क्या तुम जानते हो कि सच्चा प्रेम क्या हैं?

 

   सच्चा प्रेम केवल एक हीं है, भगवान् का प्रेम जो मनुष्यों मे भगवान् के लिये प्रेम मे बदल जाता है ।

 

   क्या हम कह सकते हैं कि भगवान् का स्वभाव हैं 'प्रेम'?

 

*

 

 यह प्रश्र २९६६ के नये वर्ष के संदेश से संबंध रखता हैं

 

     ''आओ, हम 'सत्य' की सेवा करें ।"

 

२७७


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 दसवां सम्मेलन (१९-२-१९६७)

 

     'चुनाव' अनिवार्य क्यों है ?' (घ)

 

क्योंकि जैसा श्रीअरविन्द ने कहा हैं, हम एक ''भागवत मुहूर्त' ' में हैं- और संसार के रूपांतरकारी विकास ने तेज और तीव्र गति अपना ली हैं ।

 

*

 

 ग्यारहवां सम्मेलन (३०-४-१९६७)

 

     इस समय की आवश्यकता क्या है? (घ)

 

सचाई (निष्कपटता) ।

 

   भगवान् को धोखा देने की कोशिश न करो ।

 

*

 

 बारहवां, सम्मेलन (१३-८-१९६७)

 

    श्रीअरविन्द और 'नव युग' । (घ)

 

*

 

 चौथा वार्षिक अधिवेशन (१०-९-१९६७)

 

  पुरानी रुचियों से अलग हो जाना और पुराने नियमों को न मानना अच्छा है-लेकिन इस शर्त पर कि व्यक्ति स्वयं अपने अंदर एक अधिक सच्ची और अधिक ऊंची चेतना पा ले जो 'सामंजस्य', 'शांति', 'सौंदर्य' और श्रेष्ठतर, विशाल और प्रगतिशील 'व्यवस्था' को अभिव्यक्त करे ।

 

(२६-८-१९६७)

 

*

 

यह प्रश्र १९६७ के नये वर्ष के संदेश से संबंध रखता हैं:

 

    मनुष्यों, देशों, महाद्वीपो । '

    चुनाव अनिवार्य है :

    सत्य या फिर रसातल ।

 

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 तेरहवां सम्मेलन (२६-११-१९६७)

 

      शिक्षा पर नयी दृष्टि । (ध)

 

  शिला का निर्देशक सिद्धांत क्या ? होना चाहिये?

 

'सत्य', 'सामंजस्य', 'स्वाधीनता' ।

 

*

 

चौदहवा सम्मेलन (२५-२-१९६८)

 

    हम माताजी से क्या आशा रखते हैं । (ग)

 

    ठीक-ठीक वह क्या वरतु है जिसकी हमें आपसे आशा करनी चाहिये?

 

 सब कुछ!

 

   धरती पर अपने 'कार्य' की सिद्धि क्वे लिये आप हमसे और मानवजाति ले किसी चीज की आशा करती हैं?

 

 किसी चीज की नहीं ।

 

क्या अपने साठ वर्ष से अपर क्वे अनुभव मे आपने देखा है कि आपने हमसे और मानवजाति सें जो आशा की थी वह पर्याप्त रूप में सफल हे?

 

 चूंकि मै किसी चीज की आशा नहीं करती इसलिये मै इस प्रश्र का उत्तर नहीं दे सकतीं ।

 

क्या हमारे और मानवजाति के लिये आपके 'कार्य' की सफलता किसी रूप मे हमारे और मानवजाति के दुरा आपकी आशाएं की पूर्ति पर निर्भर है?

 

 सौभाग्यवश नहीं ।

 

(२०-२-१९६८)

 

*

 

२८०


पन्द्रहवां सम्मेलन (२८-४-१९९६८)

 

      १. युवा कैसे रहा जाये? (घ)

      २. निरन्तर प्रगति का रहस्य क्या हे?' (घ)

 

 १ - चूंकि हास और विघटन जो. को जानेवाली चीजें हैं वे मृत्यु का आरंभ हैं तो क्या यह संभव है कि मृत्यु पर विजय पाये विना. को रोका जा सके?

 

  क्या शरीर के भौतिक कोषों को अतिमानसिक आनंद के द्वारा पूर्णत: रूपांतरित किये विना शारीर को निरंतर युवा रखा जा सकता है?

 

   जबतक अतिमानस धरती पर अभिव्यक्त न हो जाये तबतक इन प्रश्रों का उत्तर कैसे दिया जा सकता ३? उसकी अभिव्यक्ति के बाद हीं हम जान सकेंगे कि वह कैसे आया और कैसे अभिव्यक्त हुआ ।

 

(२५-४-१९६८)

 

   २ - क्या आपके उत्तर का मतलब यह है कि अतिमानस अभीतक धरती पर अभिब्यक्त नहीं हुआ है? या आपका मतलब है निश्चेतन 'जड़ पदार्थ' के मुल तक मे संपूर्ण अभिव्यक्ति? आपने कहा ह्वै कि २९ फरवरी १९५६ को अतिमानसिक अभिव्यक्ति का आरंभ हो क्या था हो सकना हैं किंतु आपके इस उत्तर का मातहत है पूर्ण अभिव्यक्ति । क्या आप इसे स्पष्ट करने की कृपा करेगी?

 

मैं उस अतिमानसिक अभिव्यक्ति की बात कह रहीं हू जो सबके लिये स्पष्ट हो, निपट अज्ञानी के लिये भी- जैसे मानव अभिव्यक्ति सबके लिये स्पष्ट हुई जब वह अभिव्यक्त हुई ।

 

(२६ -४ -१९६८)

 

*

 

सोलहवां सम्मेलन (२३-२-१९६९)

 

  १-धर्मों के भगवान और एकमेव भगवान् । (घ)

   -तपक्षर्या और सच्चा संयम । (घ)

 

  ये प्रश्र १९६८ के नये वर्ष के संदेश सें संबंध रखते हैं :

 

     ''हमेशा युवा रहो, कभी पूर्णता के लिये प्रयास करना बंद न करो ।"

 

२८१


श्रीअरविन्द के योग के साधक को मृतकाल और वर्तमान मे पूजे जानेवाले भयावन के विभित्र रूपों के ?जारियों के प्रति कैसी वृत्ति रखनी चहिर्य? अगर वह उनकी पूजा जारी रखे तो क्या वह उसकी प्रगति मे बाधक होगी और ' उसके लक्ष्य की सिद्धि को रोकेंगी?

 

सभी पुजारियों की ओर शुभचितायुक्त सद्भावना ।

        सभी धर्मों के प्रति एक प्रबुद्ध उदासीनता ।

        रही बात ' अधिमानस ' सत्ताओं के साथ संबंध की, अगर यह संबंध पहले से हैं, हर एक का अपना अलग समाधान होगा ।

 

 धर्मों के विभित्र देवताओं की अतिमानसिक युग में क्या भूमिका होगी? क्या दे धरती पर अतिमानसिक 'सत्य' की प्रतिष्ठा और 'जड़-तत्त्व' के रूपांतर में सहायता कर सकते हैं?

 

 अभी से यह प्रश्र नहीं किया जा सकता ।

 

(१९-२-१९६९)

 

*

 

 सत्रहवां सम्मेलन (२७-४-१९६९)

 

   १ -हमारा योग एक साहस--कार्य क्यों है? (घ)

   २ - श्रद्धा की शक्ति । (घ)

 

   १ - हमारा योग किस अर्थ मैं साहस-कार्य है?

 

उसे एक साहस-कार्य कहा जा सकता है क्योंकि यह पहली बार है कि कोई योग भौतिक जीवन सें बच निकलने की जगह उसका रूपांतर करने और उसे दिव्य बनाने का लक्ष्य अपना खा हैं ।

 

   २ - योग में श्रद्धा की ऐसी अनिवार्य आवश्यकता क्यों है?

 

क्योंकि हम एक पैसे लक्ष्य के लिये प्रयास कर रहे हैं जैसा पहले कर्मों नहीं किया गया ।

 

    ३- श्रद्धा में निहायत शक्ति किस कारण होती है?

 

२८२


तुम्हारी श्रद्धा तुम्हें 'परम पुरुष' के रक्षण में रख देती है और वे सर्वशक्तिमान हैं ।

 

(२६-४-१९६९)

 

*

 

 छठा वार्षिक अधिवेशन (१७-८-१९६९)

 

   स्व शब्दों से अपर, सब विचारों हैं अपर अभीप्सा करती हुई श्रद्धा की प्रकाशमान नीरवता मे अपने-आपको पूरी तरह, बिना कुछ बचाये हुए, समस्त जीवन के परम प्रभु के अर्पण कर दो और वे तुम्हें जो बनाना चाहते हैं वही बना देंगे ।

 

     मेरे प्रेम और आशीर्वाद के साथ ।

 

*

 

 अठारहवां सम्मेलन (२३-११-१९६९)

 

    यह रहा एक विषय ।

 

    जगत् का निस्तार एकता और सामंजस्य मे हैं । इस एकता और सामंजस्य के बारे मे तुम्हारी क्या कल्पना हैं?

 

      आशीर्वाद । (ग)

 

 उत्रिसवां सम्मेलन (२२-२-१९७०)

 

    वह कौन-सा बड़ा परिवर्तन हैं जिसके लिये संसार तैयारी कर रहा है? हम उसकी सहायता कैसे कर सकते हैं? (ङ)

 

   १ - यह कौन-सा महान परिवर्तन है जिसके लिये संसार तैयारी कर रहा हैं?

 

 चेतना का परिवर्तन । और जब हमारी चेतना बदल जायेगी तब हम जान लेंगे कि यह परिवर्तन क्या हैं ।

 

    २ - हम इस परिवर्तन को लाने मैं कैसे सहायता दे सकते हैं ?

 

   यह प्रश्र १९७० के नये वर्ष के संदेश के साथ संबंध रखता है :

 

   ''संसार एक महान् परिवर्तन की तैयारी में हैं। क्या तुम सहायता करोगे?''

 

२८३


परिवर्तन के आने मे हमारी सहायता की जरूरत नहीं हैं, लेकिन हमें अपने-आपको उस चेतना के प्रति खोलना चाहिये ताकि उसका आना हमारे लिये व्यर्थ न हो ।

 

(१९-२-१९७०)

 

*

 

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२८४


बीसवां सम्मेलन (२६-४-११७०)

 

   क्या सुखी होना जीवन का लक्ष्य हैं? (घ)

 

 क्या सुखी होना जीवन का लक्ष्य है?

 

   यह तो चीजों को ऊट-पटांग ढंग से रखना हुआ ।

 

   मानव जीवन का लक्ष्य हैं भगवान् को खोजना और उन्हें अभिव्यक्त करना । स्वभावतः इस खोज से सुख मिलता है; परंतु यह सुख अपने-आपमें लक्ष्य न होकर एक परिणाम है । और मनुष्यजाति पर आनेवाली अधिकतर विपदाओं का कारण है एक सामान्य अनुवर्ती परिणाम को जीवन का लक्ष्य मान बैठने की स्व ।

 

(२- ३-१९७०)

 

*

 

 सातवां वार्षिक अधिवेशन (१६-८-९९७०)

 

    श्रीअरविन्द के 'स्वप्न' का भारत । (ङ)

 

   अपने एक संदेश मे आपने कहा है :

     ''भारत की सबसे पहली समस्या है अपनी अंतरात्मा को फिर से पाना और

   उसे अभिव्यक्त करना? ''

       भारत की अंतरात्मा को फिर से कैसे पाया जाये?

 

 अपने चैत्य पुरुष के बारे में सचेतन होओ । तुम्हारी चैत्य सत्ता भारत की ' अंतरात्मा' में तीव्र रूप से रस ले और उसके लिये सेवा-भाव सें अभीप्सा करे; और अगर तुम सच्चे और निष्कपट हो तो सफल होओगे ।

 

(१५ -६ -१९७०)

 

*

 

 इक्कीसवां सम्मेलन (२९-११-१९७०)

 

       संसार की समस्याओं का समाधान चेतना के परिवर्तन में है । इस परिवर्तन के बारे में तुम्हारी क्या कल्पना हैं ? इसे कैसे लाया जाये? (घ)

 

२८५


जिस चेतना को अभिव्यक्त करना हैं वह धरती के वातावरण में आ चुकी हैं । अब केवल ग्रहणशीलता का प्रश्र हैं ।

 

(१९-११-१९७०)

 

*

 

बाईसवां सम्मेलन (२८-२-१९७१)

 

      भविष्य में छलांग किस तरह लगायी जाये?' (घ)

 

अपने पिछले नये सत्रह ले संदेश मैं आपने कह? था : ''चुनाव अनिवार्य है '' इस वर्ष आपने एक ''छलांग' ' लगाने के लिये कहा है ? उस ''चुनाव' ' और इस ''छलाग' ' मे क्या फर्क है?

 

 चुनाव मानसिक हैं । छलांग पूरी सत्ता लगाती हैं ।

 

    यह छलांग कैसे लगायी जाये?

 

हर पक का अपना तरीका होगा ।

 

    आपने इस वर्ष क्वे संदेश मे बाइबल क्वे शब्द ''केसेड'' (धन्य) का उपयोम क्यों किया हैं? क्या हलका कोई विशेष महत्व हे?

 

 ''जलसे'' पर बाइबल का एकाधिकार नहीं हैं ।

 

(२४-२-१९७१)

 

 तेईसवां सम्मेलन (२५-४-१९७१)

 

     समग्र पूर्णता का हमारा आदर्श क्या है? (घ)

 

भगवान् के साथ सचेतन ऐक्य ।

 

(२८-३१९७१)

 

*

 

   यह प्रश्र १९७९ के नये वर्ष के संदेश से संबद रखता है :

   ''धन्य हैं बे जो भविष्य की ओर छलांग लगाते हैं ।',

 

२८६


आठवां वार्षिक अधिवेशन (२२-८-१९७१)

 

    श्रद्धा रखो और सच्चे (निष्कपट) बनो ।

    आशीर्वाद ।

 

(२२-८-१९७१)

 

*

 

 चौवीसर्वा सम्मेलन (२८-११-१९७१)

 

        युवकों को श्रीअरविन्द का आह्वान । (घ)

 

     युवकों को श्रीअरविन्द का आह्वान क्या है?

 

'अतिमानसिक' चेतना के प्रकाश में ज्यादा अच्छे भविष्य के निर्माता बनो ।

 

(२७-११-१९७१)

 

*

 

 पच्चीसवां सम्मेलन (२७-२-९९७२)

 

    श्रीअरविन्द की शताब्दी के योग्य कैसे बनें?' (ड)

 

इस वर्ष पहली जनवरी को आपने कहा था : ''इस वर्ष श्रीअरविन्द की शताब्दी के लिये धरती पर एक विशेष सहायता आयी है ''

 

   क्या -आप कृपया इस शक्ति क्वे स्वरूप और उसकी क्रिया के बारे मे बता सकेगी और यह मी कि उसका लाभ उठाने के लिये हमें क्या करना चाहिये?

 

 जो अपने अहंकार पर चैत पुरुष के आधिपत्य के द्वारा ग्रहणशील बन सकेंगे, वे इस सहायता को जानेंगे और उसका पूरा लाभ पायेंगे ।

 

(२४-२-१९७२)

 

*

 

 छब्बीसवा सम्मेलन

 

(२३-४-१९७२)

 

*

 

   शिक्षा और योग ! (घ)

 

   यह प्रश्र ११७२ के नये वर्ष के संदेश से संबंध रखता हैं :

 

    ''आओ, हम सब श्रीअरविन्द की शताब्दी के योग्य बनने की कोशिश करें ।''

 

२८७


    अगर शिला को योग के अंग के रूप मे लिया जाये तो उसमें कौन-सी भावना होगी उसका क्या रूप होगा ?

 

श्रीअरविन्द की किताबें पढो ।

 

(१९-४-१९७२)

 

*

 

नवां वार्षिक अधिवेशन (१२-८-१९७२)

 

    श्रीअरविन्द भविष्य को प्रकट करते हैं । (ग)

 

२ जनवरी १९७२ के संदेश मे आपने कहा है :

       ''उनकी शताब्दी के इस वर्ष में उनकी सहायता और मी प्रबल  होगी! यह हम पर छोहा क्या है कि हम उसके प्रति अधिक सतहें और उससे लाभ उठाते!

    ''भविष्य उनके लिये है जो वीर आत्मा हैं ! ''

     क्या आप यह बताने की कृपा करेगी कि हूस संदेश मे ''वीर'' से आपका क्या मतलब है?

 

वीर किसी चीज से नहीं डरता, किसी चीज की शिकायत नहीं करता और कभी हार नहीं मानता ।

 

*

 

सत्ताईसवां सम्मेलन (२५-२-१९७३)

 

    जगत् को यह दिखाने के लिये कि मनुष्य भगवान् का सच्चा सेवक बन सकता है हम किस तरह सच्चा सहयोग दे सकते हैं ? (घ)

 

भगवान् के सच्चे सेवक बनकर ।

 

(२४-२-१९७३)

 

*

 

 यह प्रश्र १९७२ मे बड़े दिन के अवसर पर दिये गये संदेश से संबंध रखता हैं :

 

     ''हम जगत् को दिखाना चाहते हैं कि मनुष्य भगवान् का सच्चा सेवक बन सकता हैं । पूरी सचाई के साथ कौन सहयोग देगा ? ''

 

२८८


अट्ठाईसवां सम्मेलन (२२-४-१९७६)

 

    व्यक्ति की स्वाधीनता की मांग और समष्टि की एकता और सुव्यवस्था की आवश्यकता मे कैसे मेल बिठाया जाये? (ङ)

 

 स्वाधीनता का मतलब अव्यवस्था और अस्तव्यस्तता से बहुत भिन्न हैं ।

 

   हमें आंतरिक स्वाधीनता प्राप्त होनी चाहिये, और अगर तुम्हें वह प्राप्त हैं तो कोई भी उसे तुमसे नहीं छीन सकता ।

 

(२८-३-१९७३)

 

*

 

(अक्तूबर १९६७ में कुछ विद्यार्थी इन सम्मेलनों मैं बोलने से कतरा रहे थे अपनी कठिनहि के रूप में मानसिक तमस और संकोच और लोगों के सामने बोत्हने में लज्जा को कारण बतला रहे थे ये कठिनाइयां माताजी के सामने रखी गयीं तो उन्होने लिखा:)

 

 इस प्रकार के कार्य-कलाप का मुख्य उद्देश्य हीं है उन कठिनाइयों को छू करना जिन्हें वे गिना रहे हैं-तमस संकोच, आलस्य आदि ।

 

   और ठीक इसी कारण मैंने तुमसे वर्ष में चार बार करने के लिये कहा हैं ।

 

  बिधार्थी यहां सुखी जीवन के लिये नहीं हैं बल्कि अपने-आपको दिव्य जीवन के लिये तैयार करने के लिये हैं ।

 

  अगर वे किसी प्रयास सें बचे, आलसी तथा ''तामसिक' ' बने रहें तो तैयार कैसे होंगे?

 

(३०-१० -१९६७)

 

२८९

 

स्कूल में माताजी के काम की ज्ञलक


 

(१)

 

आश्रम और स्कूल में फ्रेंच

 

(दो-तीन अध्यापक स्कूल मे शिला के माध्यम के बारे में बातचीत करते हैं? उसका सारांश इस टिप्पणी के साथ माताजी क्वे सामने रखा जाता है :)

 

     अपनी शिला-विषयक पुस्तक मैं श्रीअरविन्द कहते हैं कि बच्चे को अपनी मातृभाषा मै शिला मिलनी चाहिये,

 

श्रीअरविन्द ने यह कहा तो हैं, लेकिन उन्होंने और भी बहुत-सी चीजें कही हैं जो उनकी सलाह की पूरक हैं और जो सिद्धांतवादी की हर संभावना को रद्द करती हैं । स्वयं श्रीअरविन्द ने बहुत बार दोहराया हैं कि अगर तुम एक चीज को निश्चयपूर्वक स्वीकारते हो, तो तुम्हारे अंदर उससे ठीक विपरीत को भी स्वीकारने की क्षमता होनी चाहिये; अन्यथा तुम 'सत्य' को नहीं समझ पाओगे ।

 

   (उसी में एक अध्यापक पूछता है कि आश्रम में फ्रेंच का क्या भविष्य हैं ?)

 

आश्रम में हम फ्रेंच सिखाना जारी रखेंगे, बहरहाल तबतक तो जरूर जबतक मै निन्दा हू, क्योंकि श्रीअरविन्द, जिन्हें फ्रेंच बहुत प्रिय थी और जो इसे बहुत अच्छी तरह जानते थे, यह मानते थे कि यह भाषाओं के ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।

 

(२३ -८ -१९६५)

 

    (कोंच के बारे मे वार्तालाप के समय एक शिष्य माताजी का ध्यान हक बात की ओर खचित? है कि अब बहुत- ले फ्रेंच लोग विशेष रूप से नवागंतुक अच्छी तरह कैंची जाननेवालों के सादा मी अंग्रेजी मै बात करते हैं माताजी थोडी देर एकाग्र रहती हैं फिर कहती हैं : ''इसमें हानि उन्हीं की हैं '' तब शिष्य पूछता है कि माताजी इस विषय पर कोई संदेश दें तो क्या वह त्कमदायक होगा हैं अपने हाथ से यह संदेश लिखती हैं और सतर्क देती हैं कि इसे सकृत् और आश्रम मे थमाता जाये और इसकी एक प्रति स्कूल के पुस्तकालय मे लगायी जाये अत: फोटो प्रतियां बनायी गयी !)

 

   श्रीअरविन्द को फ्रेंच बहुत प्रिय थीं । उनका कहना था कि वह एक स्पष्ट और एक

 

सुशिक्षित भाषा हैं जिसका व्यवहार बुद्धि की स्पष्टता को बढ़ाता हैं । चेतना के विकास की दिष्टि से, यह बहुमूल्य है । फ्रेंच मे तुम जो कहना चाहते हो, ठीक वही कह सकते हो ।

 

- आशीर्वाद ।

 

(१९-१०-१९७१)

 

(२)

 (फ्रेंच की कक्षओं में काम की व्यवस्था)

 

(अध्यापकों का एक दल कुछ कक्षओं को लेकर कुछ व्यवस्था करने को योजना बना रहा है? उनमें ले एक माताजी ले पूछता हैं कि इसमें उन्हें आपत्ति हैं या नेही !)

 

कोई आपत्ति नहीं, यह ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम्हें निःसंकोच रूप सें आपस मे व्यवस्थित करना चाहिये ।

 

(जनवरी १९६१)

 

(दो अध्यापकों मैं काम को लेकर गरमागरम बहस चली उनमें ले एक समस्या को माताजी के सामने प्रकट करता है और उनकी राय मांगता है माताजी उत्तर देती हैं :)

 

 सच पूछा जाये तो मेरी कोई राय नहीं है । सत्य की दिष्टि से अभीतक सब कुछ भयंकर रूप से घुल-मिला है, प्रकाश और अंधकार, सत्य और मिथ्या, ज्ञान. और अज्ञान का कम या अधिक सुखद मेल हैं, और जबतक राजों के अनुसार निर्णय होंगे और काम किये जायेंगे तबतक हमेशा ऐसा हीं रहेगा ।

 

  हम एक ऐसे काम का उदाहरण देना चाहते हैं जो सत्य की दिष्टि से किया गया हो, लेकिन दुर्भाग्यवश हम इस आदर्श को चरितार्थ करने से बहुत दूर हैं; और अगर सत्य की दिष्टि, अभिव्यक्त होती भी हो तो क्रिया-रूप लेते-लेते बिलकुल विकृत हो जाती हैं !

 

   अतः, चीजों की वर्तमान अवस्था मे, यह कहना -असंभव है : यह सच हैं और यह झूठ, यह हमें लक्ष्य से दूर ले जाता है, यह हमें लक्ष्य के नजदीक ले आता हैं ।

 

जौ प्रगति करनी हैं उसके अनुसार हर एक चीज का उपयोग किया जा सकता है अगर हम उपयोग करना जानें तो हर चीज उपयोगी बन सकती है ।

 

    महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम जिस आदर्श को चरितार्थ करना चाहते हैं उसे कभी आंखों से ओझल न होने दें और इसी उद्देश्य से सभी परिस्थितियों का लाभ उठायें ।

 

    अंततः, चीजों के पक्ष या विपक्ष मे निर्णय न लेना और साक्षी की निष्पक्षता के साथ घटनाओं की घटते देखना और भागवत 'प्रज्ञा' मे आश्रय लेना ज्यादा अच्छा हैं । वह भले के लिये निश्चय करेगी और जो करना आवश्यक हैं करेगी ।

 

(जुलाई ९९६१)

 

(एक अध्यापक ने माताजी से काम के बारे मे कुछ प्रश्र किये थे और माताजी का व्यक्तिगत उत्तर अपने साथियों को दिखलाया । इस असावधानी पर खेद प्रकट करते हुई उसने तुरत माताजी सै इस विषय मे बात की !)

 

तुमने जो कहा वह कहने मे कोई हर्ज नहीं हैं, क्योंकि देखो, मैं हर एक से पूरी सच्चाई के साथ कह सकती हू, ''मैं सहमत हूं । '' वास्तव मे, यह एक ऐसी चीज है जिसे समझने मई तुम्हें काफी कठिनाई होती हैं, क्योंकि मन इसे स्वीकार नहीं कर पाता । लेकिन हर एक के दृष्टिकोण के पीछे, सत्य का एक पहलू होता है, कभी-कभी सत्य का बहुत छोटा-सा पहलू, और मैं इस पहलू से हमेशा सहमत होती हूं-स्पष्टतः, बशर्ते कि वह दूसरों को हटाकर एकमात्र सत्य बनने की कोशिश न करे ।

 

    और मै इस क्रिया के एक साधन की खोज मे हू जिससे सभी पहलू अभिव्यक्त हो सकें, हर एक अपने स्थान पर, एक-दूसरे को हानि पहुंचाये बिना रहे । जिस दिन मुझे यह साधन मिल जायेगा, उस दिन मै स्कूल को पुनर्व्यवस्थित करने लग जाऊंगी । तबतक, तुम हमेशा' विचारों को मत सकते होरा यह हितकर है, जबतक कि यह न तो कट्टर हो, न ऐकांतिक, न उग्र, और जबतक कि तुम आपस में कभी न ज्ञगज्ञो !

 

(अगस्त १९६१)

 

(३)

 

२९४

  फ्रेंच सिखानेवाले भारतीयों को फ्रेंच सिखाने के विषय में

 

 पाठ्य पुस्तक की खोज

 

 (एक जवान भारतीय अध्यापिका के लिये पाठ्य- पुस्तक चुमने की बात थी

 

२९५


वह अपनी फेंच सुधारना चाहती थी फ्रेंच अध्यापिका ने माताजी से आल्बैर काम्य की पुस्तक 'धा पेस्त' के बारे मे उनकी राय पूछी [''पेस्त' ' का मतलब है हानिकर कीड़े-मकोड़े])

 

 

घूरोपवासियो के लिये अमुक चीजें पढ़ना हितकर हो सकता है, उनकी चमड़ी काफी सख्त होती है, ताकि हैं अपने अंदर सच्ची करुणा की भावना को जगा सकें; लेकिन यहां भारत मे यह आवश्यक नहीं हैं । और ऐसे जीवन के चित्र को अंधकारपूर्ण बनाना ठीक नहीं जो पहले से हीं अपने-आपमें काफी अंधकारपूर्ण हैं ।

 

(माताजी ज्यूल रोमैं की पुस्तक 'रशैर्श धून गलीज' [गिरजाघर की खोज मे) की ओर इशारा करती हैं और अपनी प्रति फ्रेंच अध्यापिका को भेजती हैं ताकि वह उसके बारे मे जानकारी प्रान्त कर्कर सके! अध्यापिका को किताब के कुछ अध्याय पढ़कर ''धक्का' ' तगड़ा है और वह माताजी के सामने काफी कठोर शब्दों मे अपना भाव प्रकट करती हे माताजी उत्तर देती हैं:)

 

'रशैर्श जून एग्लीज' मेरी रुचि की पुस्तक है । ज्यूल रोमैं महान लेखक हैं और उनकी फ्रेंच पहले दर्जे की हैं । अगर मैंने कुछ हिस्सों को न पढ़ने की बात की थी ' तो यह इसलिये कि कुछ हिस्से जवान लहूकी के दिमाग के लिये उचित नहीं हैं । लेकिन काट-छांट करना आसान है और बाकी हिस्सा बहुत अच्छा है ।

 

     (फ्रेंच अध्यापिका पुस्तक को पढ़ना जारी रखती है और मर्क ल्छापैं की पुस्तक 'ला फांस ' [आज का फांस ] का सुझाव देती है !)

 

मैंने अभी रस लेकर पुस्तक देखी । इस बार, बहुत अच्छी लगी ।

 

(मई १९६०)

 

*

 

 काम के कार्यक्रम की खोज

 

(फ्रेंच अध्यापिका अपने एक युवा भारतीय विद्यार्थी के लिये सम्यताओं के इतिहास अध्ययन की योजना आरंभ करती है ? वह इसे माताजी के आगे प्रस्तुत करती हैं! )

 

    पहले की एक चिट्ठी में माताजी ने लिखा था : '' थोडी-बहुत काट-छांट के साथ ज्यूल सेमों की कुछ पुस्तकें अच्छी होगी, विशेष रूप से 'रशैर्श खून एग्लीज' ।'')

 

काम वास्तव में मजेदार हो सकता हैं, लेकिन तभी जब वह श्रीअरविन्द की पुस्तक 'मानव चक्र '' पर आधारित हो (वह 'बुलेटिन' में छप चुकी है) । क्योंकि इस पुस्तक में मानव क्रमविकास की सारी समस्याएं केवल प्रस्तुत हीं नहीं की गयीं, बल्कि हल भी की गयी हैं । जब कभी श्रीअरविन्द किसी सभ्यता या देश की बात करते हैं, तो मेल खानेवाले ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन किया जा सकता है, और यह सचमुच मजेदार काम होगा ।

 

(सितम्बर १९६०)

 

भारतीय अध्यापकों के लिये जो फ्रेंच कक्षा चत्हती है उसमें बहुत-से लोग समकात्हीन लेखकों की रचनाएं पढ़ना चहते हैं क्योंकि पुरानी रचनाओं की अपेक्षा हूनकी भाषा ज्यादा आट्टनिक होती है माताजी की क्या राय है?

 

मै आधुनिक लेखकों के बारे मे जितना जानती हूं उसने मेरी अधिक पढ़ने की इच्छा को खतम कर दिया हैं ।

 

क्यों जानबूझकर कीचड़ मे प्रवेश किया जाये? उससे तुम्हें क्या लाभ हो सकता है? यह ज्ञान कि पक्षिमी जगत् कीचड़ मे लोट रहा हैं? इसकी कोई जरूरत नहीं । लगता हैं कि चुने हुए, अच्छी तरह चुने हुए भाग ही समाधान हैं ।

 

(मई १९६३)

 

    (एक युवा अध्यापक के विषय में जिसे तेजी सै फ्रेंच सिखनी थीं और साथ हीं स्कूल में काफी व्यस्त कार्यक्रम का भी पालन करना था !

 

मैं पूरी तरह सहमत हूं । 'क' को भली-भांति फ्रेंच सीखने के लिये समय मिलना चाहिये और उसके काम करने और पढ़ाने के घंटों को इस तरह व्यवस्थित करना चाहिये कि उसे तुम्हारे साथ पाठ जारी रखने का समय मिले, यह तबतक चले जबतक कि उसे यह न लगे कि अब उसके लिये और पढ़ना आवश्यक नहीं रहा ।

 

(सितम्बर १९६६)

 

*

 

२९६

विधार्थियों को फ्रेंच पढ़ाना

 

 

     विधार्थियों की वर्तनी कैसे सुधारी जाये

 

 अब यह पुस्तक के रूप मे उपलब्ध है ।
 

२९७


साधारणतः, वर्तनी के लिये, आंखों की सहायता लेनी चाहिये । हर एक शब्द का अपना रूप होना चाहिये जिसे आंख याद रख सके । मानसिक स्मरणशक्ति की अपेक्षा दिष्टि की स्मरणशक्ति ज्यादा उपयोगी होती हैं । बहुत पढ़ना चाहिये-देखना, देखना, - .बोर्ड पर, किताबों में, चित्रों में देखना ।

 

    शैली लिंग और व्याकरण के लिये भी, पढ़ना, बहुत पढ़ना ही सबसे अच्छा हैं । इस तरह सब. कुछ अवचेतना मे पैठ जाता हैं । सीखने का यह सबसे अच्छा तरीका हैं !

 

(जनवरी १९६२)

 

 परीक्षाओं के विषय में

 

   परीक्षाएं तुम्हें बच्चे को पंडिताऊ मूल्य बताने के लिये उपयोगी हैं, लेकिन उसका असली मूल्य बताने के लिये नहीं ।

 

  जहांतक बच्चे के असली मूल्य का सवाल है, किसी और चीज को खोजना है, लेकिन यह बाद में आयेगी और उसका स्वरूप भी अलग होगा ।

 

  में  पंडिताऊ मूल्य के नहीं असली मूल्य को नहीं खड़ा करती; दोनों एक हीं व्यक्ति में एक साथ मौजूद हो सकते हैं, लेकिन यह काफी विरल तथ्य हैं और असाधारण प्रकार के लोगों को उत्पन्न करता है ।

 

(१९६२)

 

*

 

    (स्कूल मे फ्रेंच के बारे में किसी अध्यापिका की बिद्र के हाशिये पर माताजी की टिप्पणियां ! विधार्थी कार्यपत्र लेकर काम कर रहे  थे !)

 

    विधार्थी फ्रेंच मैं प्रगति क्यों नहीं करते एक्का पक कारण यह है कि अध्यापक उनका संशोधन नहीं करते

 

 बहुत सच्ची बात है ।

 

     ... कार्यपत्र का काम तमी उपयोगी होगा जब यथार्थ संशोधन हों !

 

बहुत अच्छी बात है ।

 

     अध्यापकों और बच्चों के लाभ के लिये सभी का संशोधित रुप बनाने लगी हूं !

 

२९८


बहुत अच्छी बात हैं ।

 

      यह जरूरी है कि अध्यापक एक बार ये संशोधन देख जायें...

 

 जरूर, एक बार सें ज्यादा ।

 

     ... ताकि बे अपनी गलतियों के प्रति सचेतन हों

 

 हां, उन्हें खास जरूरत है ।

 

    काम करते समय अगर बच्चे के हाथ मे यह संशोधित रूप हो तो अच्छा होगा !

 

 हां, यह बहुत उपयोगी है ।

 

     केवल  मूलों की नीचे लकीर खींच देने से बच्चा कुछ नहीं सीखता !

 

 सच हैं ।

 

   मुझे डर है कि अध्यापकों के हित के लिये मैं जो संशोधित झप बनाती हूं बे  मल्ली-भाव के साथ दराज़ों में ही पड़े रहने हैं...

 

 यह वीभत्स है!

 

    अगर ऐसा ही है तो साल के अंत मे बच्चे बहुत-सा काम तो कर्कर चुके होत्री लेकिन उसका कोई लाभ न होगा

 

 बिलकुल ठीक । लगभग सभी अध्यापक, कुछ अपवादों को छोड्कर, विद्यार्थियों से भी ज्यादा आलसी होते हैं ।

 

    मेरा ख्याल है इस सा फ्रेंच. भाषा को लेकर मैं आपको ऊबा रही हूं !

 

 नहीं, तुम मुझे ऊबा नहीं रही, तुम्हारी बात ठीक है ।

 

''मुझे लगता है कि कितने ही बच्चों की सद्भावना में मिल जाती है क्योंकि कक्षा का वातावरण अच्छा भले हरे पर काम बहुत कम उपयोगी होता है और आवश्यक काम होता ही नहीं! ''

 

(२५ दिसम्बर, १९६२)

 

हां !

(५)

 

२९९

'चुनी हुई पुस्तकों का पुस्तकालय' '

 

    (एक अध्यापिका देखती है कि '' का पुस्तकालय' मे ऐसी कोई रचनाएं हैं जो- अगर पुस्तकात्हय को अपने नाम के अनुरूप होना हो तो- वहां न होनी चाहिये वह कोई बार माताजी ले हसके बारे मे बात करती है यह

 

 'चुनी हुई पुस्तकों का पुस्तकालय' के संघटन के विषय मे माताजी की सलाह :

 

    सभी आधुनिक उपन्यास निकाल दिये जायें ।

 

   केवल विद्वत्ता, तत्त्व दर्शन, कला और विज्ञानों की रचनाएं रखी जायें ।

 

   सबसे अच्छा यह होगा कि पुस्तकों की सूची थोडी-थोडी लायी जाये, ताकि माताजी पुस्तकों की सामग्री जान सकें ।

 

   यह महत्त्वपूर्ण बात हैं ।

 

   (अध्यापिका माताजी से कि ''विद्वत्ता की रचनाओं'' ले उनका आशय क्या वे उत्तर देती

 

यह सब किताबें जिनका लक्ष्य हैं शिक्षा प्रदान करना ।

 

  'चुनी हुई पुस्तकों का पुस्तकालय ' का लक्ष्य हैं विधार्थियों को अच्छी फ्रेंच भाषा और श्रेष्ठ फ्रेंच विचार सिखाना ।

 

   उसमें विशेष रूप से विद्वत्ता की रचनाएं होनी चाहिये, अर्थात् जिनका लक्ष्य हैं !

 

   शिक्षा-केंद्र' का अपना निजी पुस्तकालय ।

   माताजी के साथ वार्तालाप के बाद उसी अध्यापक की लिखी हुई टिप्पणी । यह टिप्पणी माताजी को पढ़कर सुनायी गयी थी, उन्होंने स्वीकृति लिखकर हस्ताक्षर कर दिये !

 

३००


शिक्षा प्रदान करना : तत्त्वदर्शन, कला, विज्ञान इत्यादि की पुस्तकें ।

 

  उपन्यास बहुत कम होने चाहिये (विद्यार्थी बहुत हीं ज्यादा उपन्यास पढ़ते हैं) और आधुनिक उपन्यास नहीं होने चाहिये, जबतक कि वे विशेष रूप से अच्छे स्तर के न हों ।

 

  'चुनी हुई पुस्तकों का पुस्तकालय' मे साहित्य का स्थान है ताकि विद्यार्थी यह सीख सकें कि साहित्य क्या चीज हैं ।

 

   पुस्तकों के चुनाव में ध्यान देने लायक सबसे महत्त्वपूर्ण है भाषा का स्तर और उसकी शैली ', कोई ''भव्य' ' चीज जैसे क्कोबैर (लेखक) की । अनुवाद नहीं होने चाहिये, या बहुत ही कम, और वह मी प्रसिद्ध कृतियों के-हम ''उत्कृष्ट कलाकृति' ' नहीं कह सकते क्योंकि वे बहुत ही कम हैं!'

 

   (चुनी हुई पुस्तकों का पुस्तकालय' ले खराब किताबों को निकालने के विषय मे माताजी ने कहा हैं :)

 

 उन्हें एक विशेष स्थान पर रखना चाहिये, एक विशेष कक्ष मे जिसका नाम हो ''खराब पुस्तकें ' ', ताकि जो लोग यह पढ़ना चाहते हों कि इन पुस्तकों में क्या पुस्तकों  वे श सकें ।

 

  जब तुम पुस्तकें मांगते हो तो तुम्हें बहुत सावधानी बरतनी चाहिये ।

 

  'चुनी हुई पुस्तकों का पुस्तकालय' का सवाल महत्त्वपूर्ण सवाल है ।

 

    'चुनी हुई पुस्तकों का पुस्तकालय' के लिये माताजी का संदेश:

 

 'चुनी हुई पुस्तकों का पुस्तकालय' का कर्तव्य है अच्छी तरह फ्रेंच सिखाना ।

      १- पुस्तकें अच्छी तरह लिखित होनी चाहिये ।

      २-उन किताबों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये जो शिक्षा की दृष्टि से रुचिकर हों ।

      ३-उपन्यासों को तबतक प्रवेश न मिलना चाहिये जबतक वे असाधारण ढंग से लिखे हुए न हों ।

      ४- अनुवाद बहुत कम हों-उन्हें केवल प्रसिद्ध किताबों तक हीं सीमित रखना चाहिये ।

 

        १जब यह वाक्य पढ़ा जा रहा था तब माताजी ने विशेष रुचि दिखायी ।

 

       २माताजी के साथ वार्तालाप के बाद उसी अध्यापक की लिखी हुई टिप्पणी । यह टिप्पणी माताजी को पढ़कर सुनायी गयी थीं, उन्होंने ''स्वीकृत' ' लिखकर हस्ताक्षर कर दिये।

 

      ५ ---बाकी सबको यह कहकर बड़े पुस्तकालय भेज देना चाहिये : ''कम प्रशंसनीय हैं'' । '

 

(१९७१)

 

(अध्यापिका माताजी को लिखी अपनी आगे उनके आये पढ़कर सुनाती है उसमें और चीजों के अतिरिक्त वह कहती है : .. मै समझती हू- कि 'हुए पुस्तकात्हय' की सामग्री को उसके अधिकतर अंश को बदत्हना और स्तर को कुछ उठाना समवन हैं! क्या आप यह बताने की कृपा कर सकती हैं कि आप इस विचार ले सहमत हैं श नहीं और मैं उसे चरितार्थ करने का प्रयास कर सकती हूं या नहीं? '' माताजी बल देकर कहती हैं :)

 

 पूरी तरह, मै पूरी तरह सहमत हूं । यह अनिवार्य है । हम ऐसे स्तर तक उतर आये हैं! हर एक चीज मे! आह, मैं पूरी तरह सहमत हूं ।

 

(१९७२)

 (६)

 

३०१

दस से बारह वर्ष के बच्चों की कक्षा में माताजी की क्रिया

 

    छोटे बच्चों खो फ्रेंच किस तरह सिखायी जाये?

 

सबसे अच्छा होगा बहुत सरल शब्दों और वाक्यों का प्रयोग करते हुए उन्हें कहानियां सुनाना, ताकि वे समह्म सकें (एक छोटी-सी, मजेदार या दिलचस्प कहानी), ओर  कक्षा में हीं, उन्होंने जो सुना हैं उसे लिखने के लिये कहना ।

 

   हां लेकिन बच्चे बहुत शोर मचाते हैं !

 

कम-से-कम चुप्पी तो जरूरी है । मै जानती हूं कि साधारणत: सबसे ज्यादा अधम बच्चे सबसे ज्यादा बुद्धिमान् होते हैं । लेकिन वश में अस्नेह के लिये उन्हें ऐसी प्रतिभा का दबाव अनुभव होना न्टहिये जो उनकी प्रतिभा से ज्यादा शक्तिशाली हों । और

 

 माताजी नै इसे लिखवाया था, फिर ठीक करके उन्होंने हस्ताक्षर कर दिये ।


३०२


इसके लिये, उनके स्तर तक न उतरना जानना चाहिये, और विशेष बात यह कि हैं  जो कुछ करते हैं उससे प्रभावित नहीं होना चाहिये । वास्तव में, यह एक यौगिक समस्या है !

 

   अगर अध्यापक शांत रहे तो क्या सारी समस्याएं हल हो सकती हैं?

 

 हां, लेकिन इसके लिये सत्ता के हर अंग में पूर्ण शांति होनी चाहिये ताकि शक्ति उसके दुरा अभिव्यक्त हो सके ।

 

   (माताजी क्वे देखने के लिये बच्चों की कापियां उनके पास भेजी गयी थीं !)

 

वर्गीकरण किये बिना मैंने बच्चों की कापियों मे टिप्पणियां दी हैं । क्या वर्गीकरण बहुत जरूरी हैं? हर एक के अपने-अपने गुण हैं और उन्हें वर्ग में डालना कठिन है ।

 

(जून-जुलाई १९६०)

 

*

 

(अध्यापक की एक का उद्धरण:) "मुझे आप पर विश्वास है और आपके कारण बच्चों पर; जहांतक मेरा सवाल हैं मैं कुछ नहीं जानता और आप हमारे लिये जो कुछ चाहती हैं उसके सिवाय कुछ नहीं कहता पक्त-एक्ट कदम करके- बस यह दिखाने की कृपा कर्कर कि क्या किया जाये और किस तरह उत्तर दिया जाये हमारा पक्ष-प्रदर्शन लीजिये और बाहरी परिस्थितियों के परिणाम चाहे कुछ मी क्यों न हरे हम अपने हृदय की गहराई मे चुपचाप आपका अनुसरण करेंगे? बच्चे केवल आपकी ''शांति'' और आपके ''प्रेम'' मे विकसित हों और खीलें हम सब मिलकर केवल पआपके लिये ही जियें । ''

 

कक्षा के, तुम्हारे, बच्चों के और मेरे बीच जो सचमुच संपर्क स्थापित होता है, निक्षय ही वही सबसे महत्त्वपूर्ण चीज हैं और उसे हर कीमत पर बनाये रखना चाहिये । लेकिन भौतिक संगठन या ढांचे की अपेक्षा वह आंतरिक वृत्ति पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं । वास्तव मे, यहीं वृत्ति सारे स्कूल मे, सभी अध्यापकों मे और सभी छात्रों मे मौजूद होनी चाहिये । इसी को प्राप्त करना चाहिये और इसी दिशा मे हमें प्रयास भी करना चाहिये ।

 

    (कक्षा काफी सुधर गयी छै अध्यापक लिखता है :)''यह सब जिसने तरह परिवर्तन ला दिया है हमारे अंदर आपके काम का परिणाम है है न? ''

 

 हां, अवश्य ।

 

 (अध्यापक यक्ष करता है कि क्या इस कक्षा में माताजी के साथ उसे जो है उसके कारण अगत्ही सतर्क मी दत्त को लेने की अपेक्षा इसी कक्षा को उसके साथ रखना ज्यादा अच्छा नहीं होगा ?)

 

बच्चों के विभिन्न चरित्र ब्योरे के जिन परिवर्तनों को आवश्यक बनाते हैं, उनके साथ यह अनुभूति सभी बच्चों पर लागू होने और उनके अनुकूल बनने के लिये पर्याप्त लचीली और नमनीय होनी चाहिये । इस तरह तुम्हें विश्वास हों सकता है कि अनुभूति चलती रहेगी । फर्क बस इतना हीं होगा कि बच्चे वह-के-वही नहीं होंगे ।

 

    (अध्यापक ने बच्चों के साथ काम के लिये दत्लें की व्यवस्था की? परिणाम ठीक ' आया और कक्षा में खूब शोर मचता अध्यापक ने पूछा कि क्या ईसा जारी रखना चाहिये !)

 

उन्हें परीक्षण जारी रखने देना चाहिये । धीरे-धीरे यह व्यवस्थित हो जायेगा । और परिणाम ज्यादा अच्छे आयेंगे ।

 

     (बहुत अच्छी तरह काम चलने के बाद बच्चों के साथ अब काम करना कठिन बन रहा?

 

    शिथिलता निस्संदेह आनेवाली छुट्टियों के कारण हैं ।

 

(अक्तूबर १९६०)

 

(७)

 

३०३

सात से नौ वर्ष के बच्चों की कक्षा मे माताजी की क्रिया

 

    (स्वयं बच्चों के प्रकट किये हुए विचारों क्वे आधार पर माताजी कक्षा का नाम देती हैं : 'आर्ब्र अंसोलेभये' [ सुधा प्रकाशित पैड ] ! वे समझाती

 

पेड़ हैं अभीप्सा करता हुआ और बढ़ता हुआ जीवन । सूर्य का प्रकाश है ' सत्य ' का प्रकाश।

 

   तर्क का शीतल प्रकाश जीवन को बढ़ने और विकसित होने मे सहायता नहीं देता । जब सूर्य अपनी आनंद-भरी रश्मियों को घराती पर उंडेलना हैं तब 'सत्य ' का अम्मा- भरा और जीवनदायी प्रकाश हीं सहायता देता हैं ।

 

३०४


  (अध्यापक नये क्रिया-कलापों का परिचय करवाते हैं जैसे कोई के बरतन बनाना बागबान गत्ते सै चिड़िया-धर बनाना कोष का निरीक्षण करना इत्यादि बच्चे इन क्रिया- कलापों को पसंद करते हैं लेकिन फिर ''पढ़ने- लिखने'' का काम बहुत ले स्वीकारते हैं !)

 

अच्छा आरंभ है । यह स्वाभाविक रूप से ज्यादा बौद्धिक कार्य-कलापों के प्रति बढ़ेगा, और इस बीच सावधानी से किया गया काम कुछ सीखने का अवसर होता है ।

 

   (कुछ प्रश्रों के उत्तर)

 

 १ - बच्चों को कक्षा मे खेल के लिये भी बंद कर देना अच्छा नहीं है ।

२ - क्षण-भर की चुप्पी और एकाग्रता सभी बच्चों के लिये अच्छी हैं । लेकिन प्रार्थना अनिवार्य नहीं होनी चाहिये । जिन्हें करनी हों उन्हें प्रोत्साहन दिया जायेगा । मेरा सुझाव यह  हैं  कि कक्षा मे एक तख्ता लगाया जाये जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों मे लिखा हो :

 

   ''माताजी हमारी सहायता और हमारा पथ-प्रदर्शन करने के लिये यहां हमारे बीच सदा उपस्थित हैं । ''

 

   अधिकतर बच्चे समझ जायेंगे, और कुछ अनुभव करने मे सक्षम हैं ।

 

(दिसम्बर १९६०)

 

*

 

(अध्यापिका को लगता है कि बच्चे उपद्रवी बल्कि आत्हसी हैं और तोतों की नियति वह है  क्या बात ऐसी इसलिये हैं कि उनकी असली रुचि अध्ययन की ओर नहीं है?

 

हां !

 

    कक्षा में शांति और स्थिरता और बच्चों से काम प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिये?

 

सबसे उपयोगी चीज हैं उनके अंदर अध्ययन के लिये सच्ची रुचि, सीखने और जानने की आवश्यकता पैदा करना या जगाना, उनकी मानसिक जिज्ञासा को जाग्रत करना ।

 

   (अध्यापिका परिणामों के अभाव की शिकायत करती है !)

 

३०५


महीनों, यहांतक कि सालों के कठोर अध्यवसायपूर्ण नियमित और हठीले प्रयास के बाद हीं तुम अधिकार के साथ (और तब भी ।) कह सकतीं हो कि वह व्यर्थ और असफल रहा ।

 

  कैसे किया जाये?

 

   जबरदस्ती करना न तो शिक्षा का श्रेष्ठ सिद्धांत है न हीं सबसे अधिक उपयोगी ।

 

   सच्ची शिक्षा तो उस चीज को विकसित करना और खोलना चाहिये जो पहले से हीं ग्रहण करनेवाली सत्ताओं में विधामान है । जिस तरह फूल सूर्य के प्रकाश मे खिलते हैं, उसी तरह बच्चे आनंद मे खिलते हैं । यह कहने की जरूरत नहीं कि आनंद का मतलब कमजोरी, अस्तव्यस्तता और गड़बड़ नहीं । बल्कि एक प्रकाशमय सद्भावना हैं जो अच्छे को प्रोत्साहन देती हैं  और बुरे पर कठोरता से जोर नहीं देती ।

 

     'कृपा' हमेशा न्याय की अपेक्षा 'सत्य' के ज्यादा नजदीक होती है ।

 

     माताजी कक्षा मे काम कर सकें हसके लिये क्या किया जाये?

 

ऐसी कोई चीज नहीं, कोई पद्धति नहीं, कोई प्रक्रिया नहीं जो अपने-आपमें बुरी हो सब कुछ इस पर निर्भर हैं  कि तुम किस वृत्ति से करते हों ।

 

   अगर तुम मेरी मदद चाहती हो, तो उसे तुम काम के इस सिद्धांत को स्वीकारने या उसे त्यागने से नहीं प्राप्त कर सकतीं । बल्कि कक्षा से पहले, एकाग्र होकर, अपने हृदय मे (और अगर संभव हों तो अपने सिर मै भी) मौन और शांति को उत्पन्न करके, और इस सच्ची अभीप्सा के साथ मेरी उपस्थिति को बुलाकर कि मैं -अ एक क्रिया के पीछे उपस्थित रहूं, तुम मेरी सहायता प्राप्त कर सकतीं हो, उस तरह नहीं जिस तरह तुम सोचती हो कि मै काम करूंगी (क्योंकि यह केवल मनमानी और आवश्यक रूप से गलत धारणा हों सकती है), बल्कि शांति, स्थिरता और आंतरिक सहजता के साथ । यह रहा अपनी कठिनाई मे से निकलने का सच्चा, एकमात्र उपाय ।

 

    और जबतक तुम इसे चरितार्थ करने की प्रतीक्षा में हो, तबतक अपनी क्षमताओं और परिस्थितियों के अनुसार, सच्चाई के साथ और विक्षुब्ध हुए बिना, स्थिरता और अध्यवसाय के साथ अपना भरसक प्रयास करो ।

 

    'कृपा' हमेशा उसके साथ रहती हैं जो भली-भांति करना चाहे ।

 

    जहां बच्चों के साथ  काम का सवाल है माताजी किस चीज को ''अध्यवसाय'' कहती हैं?

 

कापी में मै जो कहना चाहती थी, वह यह कि जबतक आंतरिक मनोवैज्ञानिक !

 

३०६


परिवर्तन चोट पहुंचाये बिना बाहरी परिवतंन न लाये तबतक' अपना काम चुपचाप जारी रखना हमेशा ज्यादा अच्छा हैं । इसी को मैं कहती हूं'' अध्यवसाय' ' ।

 

(जनवरी १९६१)

 

   काम और अनुशासन में शिथिलता आ रही है क्या यह अध्यापक में ''प्राण की हड़ताल'' के कारण है?

 

 निश्चय ही । प्राण के असहयोग से उत्पन्न शक्ति की कमजोरी शिथिलता का कारण है । बच्चे इतने पर्याप्त रूप से मन मे नहीं रहते कि वे सहज रूप सें ऐसे मानसिक संकल्प की बात मान लें जिसे प्राण-शक्ति का सहारा प्राप्त न हों, जो उन्हें बाहरी अभिव्यक्ति के बिना हीं प्रभावित करती हो । जब प्राण सहयोग देता है, तो मेरी शक्ति उसके द्वारा काम करती हैं और अपनी उपस्थितिमात्र से प्राण मे सहज रूप से व्यवस्था -बनाये रखती हैं ।

 

  छोटे बच्चे उस मानसिक शक्ति के प्रति कम संवेदनशील होते हैं जो प्राणशक्ति से आवेष्टित न हो । और प्राण-शक्ति प्राप्त कर सकने के लिये स्वयं तुम्हें पूर्ण रूप से स्थिर होना चाहिये ।

 

   (अध्यापक बच्चों के लाख उनके मनपसंद विषयों को लेकर अध्ययन की एक परियोजना बनाने का सुझाव रखता !)

 

 हां, यह विचार अच्छा है । मैत्रीपूर्ण सहयोगवाला वातावरण हमेशा ज्यादा अच्छा होता हैं !

 

(फरवरी १९६१)

 

*

 

   कठिन समय का आरंभ हो खा है अध्यापक के लिये कौन-सी सच्ची होगी !

 

 केवल चैत्य अभीप्सा हीं सच्ची है । जो कुछ प्राण और मन से आता हैं वह आवश्यक रूप से अहंकार-मिश्रित और मनमाना होता है । बाहरी संपर्क के साथ प्रतिक्रिया द्वारा नहीं, बल्कि और निर्विकार सद्भावना की दृष्टि मे काम करना चाहिये । बाकी सब कुछ तो केवल उलझते हुए और मिश्रित परिणाम देकर अव्यवस्था को बनाये रखेगा ।

 

३०७


   (किसी अध्यापक की से उद्धरण) : मुझे लगता हैं केवल मानसिक आवेग ही काम करवाते हैं और थे निशाना चूक जाते हैं इसलिये यद्यपि मैं कम हस्तक्षेप करता हूं फिर मी मुझे लगता है वह बहुत ज्यादा हैं क्योंकि वह सच्ची चीज नहीं है और मेरा ख्याल है कि आपकी बात से मैं यह समझा हूं कि सच्ची स्थिरता हर प्रकार के बाहरी हस्तक्षेप से बहुत ज्यादा उपयोगी है

 

  मुझे यह भी लगता है कि अमर मैं एक अनुभव मे सै गुजर हा हूं तो बच्चों के लिये मी वही बात है और वास्तव मे हम एक साथ मिलकर इस अनुभव से गुजर रहे हैं हम एक ही नाव के यात्री हैं; केवल भगवान ही उसका अर्थ और परिणाम जानते हैं

 

 समस्या पहली नजर मे जैसी मालूम होती है उससे कहीं अधिक अर्थ रखती हैं । यह वास्तव मे हर प्रकार के अनुशासन और जबरदस्ती के विरुद्ध बच्चों की प्राणिक शक्तियों का विद्रोह है । साधारण सामान्य तरीका होगा सभी अधम बच्चों को स्कूल से बाहर कर देना और केवल '' अच्छे' ' बच्चों को रखना । लेकिन यह पराजय और निर्बलता हैं ।

 

  अगर तुम अंततः पूर्ण स्थिरता में, आंतरिक शक्ति के संचार द्वारा, इस विद्रोह को वश में ला सको, तो वह परिवर्तन और सच्ची समृद्धि बन जाता हैं  । मै यही कोशिश करना चाहती हूं और आशा करती हू कि तुम्हारे लिये मेरे काम में सहयोग देते रहना संभव होगा । और अब चूंकि जो करना चलती हूं तुम केवल वही नहीं, बल्कि उस काम की रचना और प्रक्रिया भी समझ गायें, इसलिये मुझे विश्वास है कि हम सफल होकर रहेंगे । तुम्हें असफलताओं के लिये तैयार रहना चाहिये और हताश नहीं होना चाहिये ।

 

   प्रकाश को स्वीकार करने और उसके द्वारा परिवर्तित होने से पहले प्राणिक शक्तियां निराशा से पागल होकर लड़ती हैं, यह विशेष रूप से बच्चों मे होता है, क्योंकि उनकी तर्क-बुद्धि क्रम विकसित होती हैं । लेकिन अंतिम विजय सुनिश्चित है, और हमें टिके रहना तथा प्रतीक्षा करना जानना चाहिये ।

 

    (अध्यापक प्रकाश प्रेम लचीलापन और कक्षा मैं माताजी क्वे काम में सहयोग देने के लिये जो कुछ आवश्यक हो उसे प्राप्त कर सकने के लिये प्रार्थना करना हैं !)

 

 माताजी इस पूरे उद्धरण के नीचे लकीर खींचती हैं और हाशिये पर टिप्पणी -बढ़ाती हैं : ''यह ठीक हैं  । ''

 

३०८


यह सब निरंतर तुम्हारे साथ हैं । उनके प्रति खुले रहो और उन्हें काम करने दो ।

 

(मार्च १९६१)

 

*

 

   (अध्यापक बच्चों से दलों मे काम करवाने की सोचता है क्या उसे उनके स्तर के अनुसार स्वयं दत्त बनाने चाहिये या बच्चों को अपनी-अपनी पसंद के अनुसार करने देना चाहिये..."?)

 

 उन्हें अपनी सहज अनुभूतियों के साथ दल बनाने दो ।

 

 अध्यापक में स्थिरता आवश्यक रूप से कक्षा मे मी स्थिरता लायेगी यानी ''शान्त वातावरण जिसमें हर पथ बिना शोर और विरुद्धता के बिना विकलता और आलस्य के अपने छन्द और अपनी क्षमताओं के अनुसार काम करेगा..."?

 

 अगर तुम्हारी स्थिरता सर्वांगीण है, यानी, एक साथ आंतरिक और बाह्य है, अगर वह 'भागवत उपस्थिति' की धारणा पर आधारित है, और निर्विकार हैं, यानी, हर परिस्थिति मे सतत और अपरिवर्तनीय है तो वह निःसंदेह सर्वशक्तिमान होगी, और बच्चे अनिवार्य रूप से उसके प्रभाव के आगे झुक जायेंगे और कक्षा, सहज और लगभग स्वाभाविक रूप से, ठीक वही होगी जो तुम चाहते हों कि हो । '

 

(अप्रैल १९६१)

 

*

 

   (अध्यापक का ख्याल है कि बच्चों में काम के लिये रुचि और काम के लिये आनंद को विकसित करना चाहिये माताजी उत्तर देती हैं :)

 

 स्कूल, कक्षा और काम के बारे में तुम जो कुछ कहते हो ठीक हीं कहते हो, और तुम संगठन के लिये जो प्रयास करना चाहते हो उसके साथ मै पूरी तरह सहमत हूं ।

 

   (माताजी बच्चों को संबोधित करते हुए थे दो संदेश मी लिखती हैं :)

 

 अगर तुम्हें काम नापसंद हैं , तो तुम जीवन में हमेशा दुःखी रहोगे ।

 

     १इस संदेश के बाद से कक्षा मे स्थिरता निश्रित रूप से आ गयी ।

 

३०९


जीवन में सचमुच सुखी होने के लिये, काम पसंद करना चाहिये ।

 

(जुलाई १९६१)

 

*

 

  इस कक्षा के बच्चों के लिये माताजी के कुछ ओर संदेश

 

 मेरे  प्रिय बच्चे, काम पसंद करो और तुम सुखी रहोगे । सीखना पसंद करो और तुम प्रगति करोगे ।

 

(बच्चों ने अपने अध्यापक के लाख साल-भर का कार्यक्रम बना लिया : फ्रेंच मे बोलना ठीक तरह पढ़ने बिना मूत्र किये फ्रेंच लिखना अच्छी तरह गिनती सीखना हिसाब क्वे सवालों को समझना जोड़ बाकी गुजरा मान जानना' कक्षा की कापी मे माताजी उत्तर देती हैं:)

 

 मेरे प्रिय बच्चे, मैंने तुम्हारी चिट्ठी पढ़ी और मैं इस बात से सहमत हूं कि साल के अंत में तुम यह सब चीजें खूब अच्छी तरह जानो जो तुमने यहां लिखी हैं ।

 

   लेकिन एक बात पर मै .तुम्हारा ध्यान खींचना चाहती हूं, क्योंकि यह केंद्रीय और सबसे महत्त्वपूर्ण बात है : वह है कक्षा मे तुम्हारी वृत्ति और वह मनोदशा जिसमें तुम स्कूल जाते हो ।

 

  कक्षा में अपनी दैनिक उपस्थिति का लाभ उठाने के लिये, तुम्हें वहां सीखने, सतर्क और एकाग्र होने, अध्यापक जो कहते हैं उन पर कान देने और गंभीरता तथा शांति के साथ काम करने की सच्ची इच्छा लेकर जाना चाहिये ।

 

  अगर तुम अपना समय चिल्लाने में, विक्षुब्ध होने मे और निक्षेतना तथा असभ्य बच्चों की तरह सब कुछ उलट-पुलट देने मे बिताते हो, तो तुम अपना समय बरबाद करते हो, अध्यापक का समय नष्ट करते हो और .कुछ भी नहीं सीखते । साल के अंत मे तुमसे यह कहने के लिये बाधित होऊंगी कि तुम खराब विद्यर्श्गि हो और तुम एक कक्षा से दूसरी में जाने के योग्य नहीं हो ।

 

   कक्षा मे सोखने की इच्छा के साथ आना चाहिये, अन्यथा यह समय नष्ट करना हैं, क्योंकि अगर तुममें एक भी असभ्य हो तो वह बाकी सबको परेशान करने के लिये पर्याप्त है । मैं चाहती हूं कि तुम यह निश्चय करो : तुम अच्छे, शांत, सतर्क बच्चे बनोगे, और अच्छी तरह काम करोगे । इस कापी में तुम्हें मुख यहीं वचन देना चाहिये ।

 

   और जब तुममें से हर एक, अपनी पूरी सदिच्छा के साथ, लिख ले तो कापी मेरे पास भेज दो ताकि मै तुम्हें अपने आशीर्वाद दे सकूं ।

 

(१९६१ के आरंभ में)

 

 (बच्चे सीधे नहीं बैठते और बुरी तरह  लिखते हैं? माताजी की टिप्पणी:)

 

 बुरी तरह बैठने की अपेक्षा सीधा बैठना अधिक थकाऊ नहीं हैं । जब तुम सीधे रहते हो, तो शरीर सामंजस्यपूर्ण रूप सें विकसित होता हैं । जब तुम बुरी तरह बैठते हो, तो शरीर विकृत हों जाता है और कुरूप बन जाता है ।

 

   घसीटा मारने की अपेक्षा साफ-साफ लिखना ज्यादा थकानेवाला नहीं है । जब गृहकार्य साफ-साफ किया गया हो, तो वह आनंद से पढ़ा जाता है । जब वह खराब अक्षरों में लिखा जाता है, तो वह पढ़ा भी नहीं जा सकता ।

 

   जो कुछ करना हो उसे ध्यान देकर करना हर प्रकार की प्रगति का आधार हैं ।

 

 (१९६१)

 

   दिन बीत जाते हैं, सप्ताह बीत जाते हैं, महीने बीत जाते हैं, साल बीत जाते हैं और काल अतीत मे विलुप्त हो जाता हैं  । और बाद मैं, जब वे बड़े हो जाते हैं, जिन्हें अब बालक रहने का परम सौभाग्य प्राप्त नहीं रहता, तो उन्हें इस बात का खेद होता है कि उन्होंने अपना समय खो दिया, हैं  उसका उपयोग जीना जानने के लिये जो चीजें आवश्यक हैं उन सबको सीखने में कर .सकते थे ।

 

(मार्च १९६१)

 

(८)

 

३१०

१६ से १८ वर्ष के विधार्थियों की कक्षा में माताजी की क्रिया

 

१९६१ मै, स्कूल में अध्ययन की पुनर्व्यवस्था के अवसर पर, माताजी ने कहा था कि अगर बिधार्थी पढ़ाई के रुचिकर विषयों पर सवाल करना चाहें तो वे स्वयं उनक उत्तर देने के लिये तैयार हैं । किसी ने उनसे एक विषय चून देने के लिये कहा, तो उन्होंने कहा : ''मौत'' ।

 

   यह प्रस्ताव सबके सामने रखा गया । एक फ्रेंच कक्षा ने निम्नलिखित कार्य माताजी के इस प्रस्ताव के उत्तरस्वरूप दिया ।

 

   विभित्र बैठकों में हर एक विधार्थी ने स्वयं प्रश्र बनाये और इन प्रश्रों को इकट्ठा करके माताजी के पास भेज दिया गया ।

 

 (बिधार्थी ने माताजी को लिखा और उनके साध ''मौत'' पर अध्ययन करने की

 

३११


  स्वीकृति मामी  माताजी ने मौखिक रूप ले अध्यापक को ये आवश्यक निर्देशन दियों?

 

 विषय है : मौत क्या है?

 

   किस तरह आरंभ किया जाये? अपने भीतर खोज करनी चाहिये, भीतर देखना चाहिये; पुस्तकें पढ़कर जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिये । या प्राण और मन मे क्या हो रहा हैं  यह ढ़ूढ़ना नहीं चाहिये : मौत के बारे मे तुम्हें क्या लगता है, तुम क्या सोचते हो?

 

   खोज पूरी तरह भौतिक स्तर पर होनी चाहिये : भौतिक दृष्टि सें, मौत क्या हैं ? एकाग्र होना चाहिये और उत्तर अपने अंदर खोजना चाहिये । भाषण नहीं देने चाहिये । एक ही वाक्य बोलना चाहिये । तुम जितने अधिक बुद्धिमान होते हों, अपने- आपको अभिव्यक्त करने के लिये तुम्हें उतने ही कम शब्दों की जरूरत होती हैं  ।

 

(२७ अप्रैल, १९६८)

 

    (''भौतिक दृष्टि से मौत क्या हैं?'' इस प्रश्र पर विद्यार्थियों के उत्तर :

       ''दिमाग के ओ मे रक्त-संचार पूरी तरह बंद हो जाता हैं । ''

          ''जब दिमाग काम करना बंद कर देता है और शरीर का विघटन शुरू हो जाता है तब मौत होती हैं ! ''

        'ऊर्जा का स्रोत श अंतरात्मा की के कारण हर प्रकार का शारीरिक क्रिया- कत्कप बंद हो जाता है?''

        ''मौत के वास्तविक तथ्य सै मुझे का विचार आता है जिसमें हम बढ़ती ऊर्जा के साथ 'अंतरिम' मे उछालें जाते हैं ''

         माताजी कक्षा को संबोधित करते हुई उत्तर देती हैं :)

 

 मैंने तुम्हारा भेजा हुआ पत्र मजा लेकर पढ़ा । और यह रहा मेरा उत्तर :

 

    मौत उन कोषाणुओं के विकेंद्रीकरण और छितराव की घटना है जिससे भौतिक शरीर बनता है

 

    चेतना अपने स्वभाव सें हीं अमर है, और भौतिक जगत् में अभिव्यक्त होने के लिये वह कम या अधिक टिकाऊ रूप धारण करती है ।

 

   भौतिक पदार्थ रूपांतर के मार्ग पर है ताकि वह इस चेतना के लिये बहुरूप अभिव्यक्ति की अधिकाधिक पूर्ण और टिकाऊ विधि बन सके ।

 

(१८ मई, १९६८)

 

*

३१२


     (इस बार माताजी हर एक प्रश्र का अलग उत्तर देती हैं और अपना उत्तर अध्यापक को भेजती हैं :)

 

 यह रहे तुम्हारे विद्यार्थियों के प्रश्रों के उत्तर । आशा हैं बे समह्म जायेंगे ।

 

अगर कोई अपने व्यक्तित्व के बारे मे सचेतन हो जाये तो क्या वह सामूहिक हित की परवाह किये बिना स्वार्थ ले काम का खतरा मोल लेता है ?

 

 एक कोषाणु का अपना हित क्या हैं!

 

*

    क्या विकेंद्रीकरण एक ही बार में हो जाता है या थोड़ा- थोड़ा करके होता है?

 

सब कुछ एक ही साथ नहीं छितर जाता; बहुत समय लगता हैं ।

 

  शारीरिक सत्ता की केंद्रीय संकल्पशक्ति सभी कोषाणुओं को एक साथ बनाये रखने की शक्ति को त्याग देती है । यह पहला तथ्य है । किसी-न-किसी कारण से वह (सत्ता) विघटन को स्वीकार लेती हैं । सबसे शक्तिशाली कारणों मे से एक है ऐसे असामंजस्य का भाव जो सुधार से परे है; दूसरा हैं समन्वय और सामंजस्य के प्रयास को बनाये रखने सें विरक्ति । वास्तव मे, अनगिनत कारण हैं, लेकिन जबतक कि कोई प्रबल दुर्घटना न हो तबतक विशेष रूप सै संबद्धता को बनाये रखने की यह इच्छा, किसी-न-किसी कारण से या अकारण ही, गायब हो जाती हैं । यही अनिवार्य रूप से मृत्यु के पहले होती हैं ।

 

   क्या हर एक की केंद्र के साध अपन? ऐक्य बनाये रखने क्वे लिये सचेतन होना चाहिये?

 

 बात ऐसी नहीं हैं । यह अभी अर्ध-सामूहिक चेतना हैं, यह कोषाणुओं की व्यष्टिगत चेतना नहीं हैं ।

 

*

 

    क्या विकेंद्रीकरण हमेशा मौत के बाद ही होता है या पहले मी शुरू हो सकता है !

 

 बहुत बार यह पहले शुरू हो जाता है ।

 

३१३


कोषाणु हवा मे छितर जाते हैं श शरीर में ही ? अमर हवा मे छितर जाते हैं तो निश्चय ही शरीर को कोषाणु के साथ विलुप्त हो जाना चखिये?

 

स्वभावतः, मौत के बाद शरीर विलीन हों जाता है, लेकिन उसमें बहुत समय लगता 'हैं ।

 

*

 

    क्या ''ओ क्वे छितराव'' के इस वाक्यांश में ''छितराव'' शब्द का कोई विशेष अर्थ है? अगर है तो क्या है?

 

 मैंने बिलकुल निश्चयात्मक अर्थ में छितराव शब्द का प्रयोग किया है ।

 

   जब शरीर को रखनेवाली एकाग्रता बंद हो जाती है और शरीर विलीन हो जाता है तो जो कोषाणु विशेष रूप से विकसित किये गये थे और जो अपने अंदर स्थित 'उपस्थिति' के प्रति सचेतन बन गये थे, है  बिखरे जाते हैं और किसी और संघटन में पैठ जाते हैं जहां, संसर्ग के दुरा, वे उस 'उपस्थिति' को जगाते हैं जो हर एक में हैं । और इस तरह संघटन, विकास और छितराव के तथ्य से सारा जड़-पदार्थ विकसित होता है और संसर्ग के द्वारा सीखता है, संसर्ग के द्वारा विकसित होता है, संसर्ग के दुरा अनुभव प्राप्त करता है।

 

   स्वभावत:, कोषाणु शरीर के साथ विलीन हो जाता हैं । कोषाणुओं की चेतना अन्य संयोजनों में प्रविष्ट होती है ।

 

(५ जून, १९६८)

 

*

 

    जब भौतिक सत्ता की संकल्पशक्ति अकारथ हों जाती है तो क्या वह भौतिक कारण के बिना होता है या बिना किसी कारण क्वे?

 

 भौतिक चेतना केवल भौतिक रूप से हीं सचेतन होती है; भौतिक सत्ता की संकल्पशक्ति उन कारणों के बिना विलुप्त हो सकतीं हैं जिनके बारे में वह खुद सचेतन हों ।

 

   समन्वय और सामंजस्य को बनाये रखने के प्रयास में भौतिक सत्ता को विरर्क्लि कहां सै आती हे?

 

 साधारणत:, यह विरक्ति तब पैदा होती है जब सत्ता का एक अंश (कोई महत्त्वपूर्ण

 

३१४


 अंश, प्राण या मन) गति करने सें एकदम इंकार कर दे । तब यह इनकार, भौतिक रूप मे, समय के साथ आनेवाले विघटन के विस्फोट प्रयास करने की अस्वीकृति मे अनूदित होता है ।

 

    भौतिक सत्ता की केंद्रीय संकल्पशक्ति में और कोषाणुओं में संपर्क कहां होता है ? और किस तरह होता है?

 

कोषाणुओं में एक आंतरिक रचना या संगठन होता है जो विष के संगठन से मेल खाता है । इसलिये समरूप आंतरिक और बाह्य अवस्थाओं में संपर्क होता है... । वह (अवस्था) ''बाह्य' ' नहीं होती, लेकिन व्यक्ति के लिये बाह्य होती है । यानी, कोषाणु को, अपनी आंतरिक संरचना मे, संपूर्ण संरचना मे स्थित अपने साथ मेल खानेवाले अवस्था सें स्पंदन मिलता हैं । हर एक कोषाणु अलग-अलग दीप्तियों से रचा हुआ हैं, उसका अपना पूर्ण रूप से ज्योतिर्मय केंद्र होता है, और ज्योति का संपर्क ज्योति से होता है । यानी, संकल्प-शक्ति, ज्योतिर्मय केंद्र मेल खानेवाली ज्योतियों को छूकर, सत्ता के आंतरिक संपर्क द्वारा कोषाणुओं पर काम करता है । हर एक कोषाणु ब्रह्मण्य के साथ मेल खानेवाला छोटा-सा जगत् हैं ।

 

(१५ जुलाई, १९६८)

 

*

 

क्या प्रगति के लिये संकल्प समय क्वे साथ आनेवाले विघटन को रोकने के लिये काफी है? शारीरिक सत्ता इस विघटन की किस प्रकार रोक सकतीं हैं?

 

ठीक यही तो है शरीर का रूपांतर : शारीरिक कोषाणु केवल सचेतन हीं नहीं, बल्कि सच्ची 'शक्ति-चेतना' के प्रति ग्रहणशील बन जाते हैं; यानी, वे इस उच्चतर 'चेतना' के काम को स्वीकार कर लेते हैं । यहीं हैं रूपांतर का काम ।

 

   कोषाणु के जड़ पदार्थ पर संकल्प-शक्ति और केंद्रीय प्रकाश जो भौतिक नहीं है किस तरह काम करते हैं?

 

 यह ठीक वैसा हीं है जैसे यह पूछना : ''संकल्प-शक्ति जड़-पदार्थ पर कैसे काम करती हैं?'' सारा जीवन ऐसा ही तो हैं । इन बच्चों को समझाना चाहिये कि उनका पूरा अस्तित्व ही इस संकल्प-शक्ति की क्रिया का परिणाम है, कि संकल्प-शक्ति के बिना जड़-पदार्थ निश्चय और अचल होगा और ठीक तथ्य यह कि जड़-पदार्थ पर संकल्प-शक्ति के स्पंदन की क्रिया ही जीवन को संभव बनाती है । वरना जीवन होता

 

३१५


ही नहीं । अगर वे एक वैज्ञानिक उत्तर चाहते हैं और यह जानना चाहते हैं कि यह कैसे होता हैं तो वह ज्यादा कठिन हैं, लेकिन तथ्य तो है ही, यह तथ्य हर क्षण दिखता हैं ।

 

- (२० जुलाई, १९६८)

 

*

 

     हम शारीरिक सत्ता के प्रति किस तरह सचेतन हो सकते हैं?

 

 मानवजाति, लगभग पूरी-की-पूरी, केवल शारीरिक सत्ता के बारे में हीं सचेतन है । शिक्षा के साथ-साथ, अपने प्राण और मन के बारे में सचेतन व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है । जहांतक चैत्य पुरुष के प्रति सचेतन होनेवाले मनुष्यों का सवाल हैं, उनकी संख्या अपेक्षया बहुत कम हैं ।

 

    अगर तुम कहना चाहो : ''शारीरिक सत्ता की चेतना को किस तरह जगाया जाये?'' तो शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य ठीक यही तो है । शारीरिक शिक्षा ही कोषाणुओं को सचेतन होना सिखाती है । लेकिन दिमाग को विकसित करने के लिये है अध्ययन, निरीक्षण, बुद्धिमत्तापूर्ण शिक्षा, विशेष रूप से निरीक्षण और तर्कणा । और स्वभावतः, चरित्र के दृष्टिकोण से चेतना की शिक्षा के लिये होना चाहिये योग ।

 

    क्या शारीरिक सत्ता की केंद्रीय संकल्प-शक्ति का शरीर मे कोई विशेष स्थान

 

 दिमाग है ।

 

   क्या मरे बिना मौत की अनुभूति हो सकती है?

 

निश्चय ही । तुम्हें यौगिक रूप से मौत की अनुभूति हो सकती है; यह अनुभूति भौतिक रूप से मी हो सकतीं है, बशर्ते कि कुछ हीं समय के लिये हो ताकि चिकित्सकों को इतना समय न मिले कि तुम्हें मुर्दा घोषित कर दें ।

 

    मौत के बाद सत्ता का कौन-सा अंग इस बात के प्रति सचेतन होता है कि सत्ता मर गयी है?

 

 सत्ता का जो मी अंग जिंदा रहता हैं वही समझ लेता है कि शरीर अब नहीं खा । यह निर्भर है ।

 

३१६


  हम निश्चिति क्वे साथ कैसे कह सकते हैं कि भौतिक शरीर मर गया है?

 

 केवल तभी जब वह सनडे लगे ।

 

      विघटन की क्रिया को कैसे रोका या नियंत्रित किया जाये ?

 

 शारीरिक संतुलन को बनाये रखने की सावधानी बरात कर ।

 

    जब कोई मरता है तो क्या यह जरूरी है कि उसे शारीरिक यातना हो ?

 

 जरूरी नहीं हैं ।

 

(२८ सितम्बर,१९६८)

 

*

 

    मौत की प्रक्रिया को रोकने के लिये हमें अपने दैनिक जीवन मे क्या करना चाहिये ?

 

तरीका यह है : शरीर से अपनी चेतना को खींच लो और उसे गभीर जीवन पर एकाग्र करो ताकि इस गहरी चेतना को शरीर में ला सको ।

 

अगर जीवन मै ''अहं'' का भाव मन के साथ एक हो क्या है तो क्या मौत के बाद की सब अनुभूतियां इसी ''अहं'' की होती हैं यानी क्या वह उसके साक ही जीवन की स्मृतियां को मी बनाये रखता है? मैं यह मन क्वे बारे मे पूछ रहा हूं क्योंकि मौत के बाद दूसरे अंगों की अपेक्षा यह ज्यादा समय तक बना रहता है

 

यह बात सच नहीं है कि मन ज्यादा देर तक बना रहता है। चैत्य चेतना जो शरीर के एक छोटे-से अंश के साथ एक हो गयी थी वह इस छोटे-से भौतिक व्यक्ति मैन से निकल जाती हैं । इस चेतना ने जिस ढंग से अपना जीवन गढ़ा है, उसी के अनुपात में वह अपनी बनायी हुई चीज को याद रखती हैं और स्मृति घटनाएं हैं चैत्य चेतना के साध बहुत घनिष्ठ रूप से बंधी होती है । जहां चैत्य चेतना ने घटनाओं मे भाग नहीं लिया, उन घटनाओं की स्मृति नहीं रहती । और केवल चैत्य चेतना हीं बनी रह सकतीं है; मन स्मृतियां संजोये. नहीं रखता, यह बात बिलकुल गलत हैं ।

 

(१ फरवरी, १९६९)

 

*

 

३१७


   (कुछ दिन बाद इस बिधार्थी के विषय में अध्यापक क्वे साध बातचीत करते हुए माताजी निष्क के रूप मे कहती हैं :?

 

 बरताव में मौत है हीं नहीं ।

कक्षा की मुखिया को उत्तर

 


सूत्र

 

१-कोई महत्त्वाकांक्षा न रखो, और सबसे बढ़कर यह कि किसी चीज का दिखावा न करो, हर क्षण, तुम अधिक-से-अधिक जो हो सकते हो वह बनो ।

 

(२५ -२-१९५७)

 

२-वैश्र अभिव्यक्ति में तुम्हारा क्या स्थान हैं, यह तुम्हारे लिये परम पुरुष हीं ठीक करेंगे ।

 

(२-५-१९५७)

 

 ६-परम प्रभु नै अलंध्य रूप से संसार के वृन्दवाद्य में तुम्हारा स्थान शिक्षित कर दिया है, लेकिन वह स्थान जो भी हों, तुम्हें भी अतिमानसिक उपलब्धि की चरम ऊंचाइयों तक चढ़ने का उतना ही अधिकार हैं जितना औरों को ।

 

(१७-५-१९५७)

 

   ४ - अपनी सत्ता के सत्य में तुम क्या हो, यह अलंध्य रूप से निश्रित कर दिया गया है, कोई व्यक्ति या कोई चीज तुम्हें वह होने से नहीं रोक सकती; लेकिन यह तुम्हारे स्वतंत्र चुनाव पर छोड़ा गया है कि तुम वहांतक पहुंचने के लिये कौन-सा रास्ता अपनाओ ।

 

(१९ -५ -११५७)

 

 ५-ऊपर उठते हुए विकास में हर एक अपनी दिशा चुनने के लिये स्वतंत्र है : वह चाहे तो 'सत्य ' के शिखरों की, चरम उपलब्धि की ओर जानेवाली तेज और खड़ी चढ़ाई अपनाये या शिखरों से मुंह मरोड़कर, उतरते हुए अनंत जन्मों के अशिक्षित, सरल, सर्पिल मार्ग को स्वीकार ।

 

(२३ -५ -११५७)

 

 ६ -काल की गति में, बल्कि इसी जीवन मे तुम एक हीं बार, हमेशा के लिये, अटल रूप मे अपना चुनाव कर सकते हो, और तब तुम्हें हर नये अवसर पर उसका अनुमोदन करना होगा; या फिर, अगर आरंभ में तुमने अंतिम निर्णय न लिया हो तो तुम्हें हर क्षण सत्य और मिथ्यात्व के बीच चुनाव करना होगा ।

 

(२३ -५ -१९५७)

 


७ - लेकिन अगर तुमने आरंभ में अलंध्य निर्णय नहीं भी लिया, अगर तुम्हें वैध इतिहास के उन अपूर्व क्षणों में ज़ीने का सौभाग्य प्राप्त हो जब 'कृपा' उपस्थित हो, धरती पर अवतरित हुई हों तो वह फिर से, कुछ अपवादरूप क्षणों में ऐसा अंतिम -चुनाव करने की संभावना प्रदान करेगी जो तुम्हें सीधा लक्ष्य तक ले जायेगा ।

 

(२३ -५ -१९५७)
 

३२२

पत्रव्यवहार

 

   मधुर मां

 

   हमारे शिक्षा केंद्र विधार्थियों को डिप्लोमा  या सर्टिफ़िकेट क्यों नहीं दिया जाते ?

 

 लगभग एक शताब्दी से मानवजाति एक रोग से पीड़ित है जो अधिकाधिक बढ़ता हीं दिखा रहा है और आज वह अपनी चरम अवस्था पर आ पहुंचा हैं; इसे हम ''उपयोगितावाद' ' कहते हैं । ऐसा लगता है कि चीजों और मनुष्यों को, परिस्थितियों और कर्म को अनन्य रूप से उसी एक दृष्टिकोण से विचारना और सराहा जाता हैं । जिसकी कोई उपयोगिता नहीं उसका कोई मोल नहीं । यह ठीक है कि जो उपयोगी है वह निरुपयोगी से बेहतर है । लेकिन पहले यह समझ लेना चाहिये कि मनुष्य किसे उपयोगी मानता है-उपयोगी किसके लिये, किसके प्रति, किस लिये?

 

    और, उत्तरोत्तर, बे जातियां जो अपने को सभ्य समझती हैं उसी चीज को उपयोगी कहती हैं जो धन ला सके, काम सके या पैदा कर सके । सबका निर्णय और मूल्यांकन उसी एक आर्थिक. दृष्टिकोण से किया जाता है । मैं इसे ही उपयोगितावाद कहती हूं । और यह रोग बहुत हीं संक्रामक हैं, क्योंकि बच्चे भी इससे अछूते नहीं रहते ।

 

   उस उम्र मे जब कि सुन्दरता, भव्यता और पूर्णता के सपने संजोये जाने चाहिये, ऐसे सपने जौ शायद सामान्य अर्थों से कहीं अधिक उदात्ता होते हैं, पर जो निक्षय हीं कुष्ठित सामान्य बुद्धि से उच्चतर हैं, आजकल बच्चे पैसे के सपने देखते हैं और उसे कमाने के साधनों के बारे मे चिंतातुर रहते हैं ।

 

इसी तरह जब वे अपनी पढ़ाई के बारे में सोचते हैं तो उस सब पर विचार करते हैं जो आगे चलकर उनक लिये उपयोगी हो सके ताकि जब वै बड़े हों तो बहुता-सा धन काम सकें ।

 

  और परीक्षाओं मे सफल होने के लिये तैयारी करना उनके लिये सबसे महत्त्वपूर्ण बन गया है, क्योंकि डिप्लोमा, सर्टिफ़िकेट और उपाधि ही उन्हें उच्च पद प्राप्त करा सकते हैं और इनकी सहायता से धन भी खूब काम सकते हैं ।

 

     उनके लिये पढ़ाई का न कोई और उद्देश्य है, न महत्त्व ।

 

   ज्ञान के लिये सीखना, प्रकृति और जीवन के रहस्यों को जानने के लिये पढ़ना, चेतना को विकसित करने के लिये अपने-आपको शिक्षित करना, आत्म-प्रभुत्व पाने के लिये स्वयं को अनुशासित करना, अपनी दुर्बलताओं, अक्षमताओं और अज्ञानताओं को अतिक्रम करने के लिये पढ़ना, जीवन मे अधिक उच्च, विशाल, उदार और सच्चे उद्देश्य की ओर बढ़ने के लिये अपने-आपको तैयार करना... यह तो बे सोच हीं नहीं
 


सकते, इसे तो वे कपोल-कल्पना हीं समझते हैं । बस, एक हों चीज महत्त्वपूर्ण हैं-व्यावहारिक होना, धन कमाना सीखना और उसके लिये अपने को तैयार करना ।

 

  आश्रम का यह 'शिक्षा-केंद्र' उन बच्चों के लिये उपयुक्त्त स्थान नहीं हैं जो इस रोग के शिकार हैं । और उनके आगे इस बात को अच्छी तरह प्रमाणित कर देने के श्रव्य ही हम उन्हें किसी प्रकार की परीक्षा के लिये या किसी सरकारी प्रतियोगिता के लिये तैयार नहीं करते और न हीं उन्हें कोई डिप्लोमा या उपाधि देते हैं जो बाहरी दुनिया मे उनके काम आ सके ।

 

   हम यहां केवल उन्हीं बच्चों को चाहते हैं जो एक उच्चतर और श्रेष्ठतर जीवन की अभीप्सा करते हैं, जिनमें ज्ञान और पूर्णता की प्यास है, जो एक पूर्णता सच्चे भविष्य की ओर उत्कटता से निहारते हैं !

 

     बाकी सबके लिये दुनिया काफी बड़ी है ।

 

  (१७-७-१९६०)

 

मधुर मां

 

    शारीरिक शिक्षा- विभाग में आपने सब आवश्यक व्यवस्था कर रखी है ताकि शारीरिक प्रशिक्षण द्वारा हम सब संभव तरीकों के अपने शरीर को विकसित कर सकें और इस तरह सर्वांगीण रूपांतर के महान कार्य में मांग लेने को तैयार हो जायें !

 

     हम वर्षों सें खेल-कूद और सब तरह के शारीरिक व्यायाम सिखाते आ ने हैं लेकिन हम देखते हैं कि हमारे अधिकतर विद्यार्थी इस मूलमूत भाव को नहीं पकड़ पाते साधारणतया के  मनोरंजन उत्तेजना आवेगमय विनोद और सब तरह की पसंद-नापसंद रहे बहक जाते हैं परिणामस्वरूप अनुशासन सदमावनर संकल्प दृढ़ निश्चय परिश्रम और सच्ची की जो निबल ही हमें प्रगति की ओर ले जाती है सामान्य कमी रहती है फुटबत्ह सांख्य श कोई उत्तेजक खेल उनमें खूब उत्साह जगाता है पर निष्ठा और एकाग्रता के लाख किया जानेवाले काम जो किन्हीं शारीरिक ' पर अधिकार पाने मे सहायता करता और अमुक दोषों को सुधार देता सदा ही बड़े प्रभावहीन ढंग ले किया जाता है विद्यार्थियों की बहुत बड़ी संख्या चाहे है छोटे हों श बड़े इस रोग ले ग्रस्त हैं ऐसे बहुत कम हैं जो शारीरिक शिला का अभ्यास ठीक से करते हैं  इसे सामान्य अभ्यास मे उतारना कैसे सिखाया जाये?

 

 चेतना का तत्त्व हीं बदलना होगा, चेतना का स्तर उठाना होगा, चेतना के धर्म को प्रगति करनी होगी ।

 

   वस्तुस्थिति वैसी ही है जैसी तुमने बतायी है, क्योंकि अधिकतर बच्चों की चेतना

 

३२४


शरीर में केंद्रित रहती है जो तामसिक होता हैं और प्रयास कम ही करना चाहता हैं । वे आराम की जिंदगी चाहते हैं, और उत्तेजना या खेल की प्रतियोगिता या होइ हीं उनमें इतनी-सी रुचि जगा पाती है कि है प्रयास करने के लिये तैयार हों सकें ।

 

    इसके लिये, प्राणिक आवेग को जगाना होता है ताकि वह संकल्प में तीव्रता ला सके । प्रगति की भावना बौद्धिक संकल्प का अंश है जो उन बहुत थोड़े-से लोगों मे सक्रिय होती है जो अपने मे चैत्य पुरुष के साथ संपर्क मे होते हैं; बाद मे, उनमें जो मानसिक रूप से विकसित होते हैं और जो अपने विकास की आवश्यकता का अनुभव करते हैं और स्वयं पर काबू पाना चाहते हैं ।

 

    मैंने बताया है कि इलाज है चेतना को ज्यादा ऊंचे स्तर तक ले जाना । पर स्वभावत:, यह कप्तानों और प्रशिक्षकों की चेतना से आरंभ करना होगा ।

 

    सबसे पहले तो इस बात की स्पष्ट परिकल्पना होनी चाहिये कि वे उनसे क्या पाना चाहते हैं जिनके लिये वे जिम्मेदार हैं; और सिर्फ इतना हीं नहीं, उन्हें खुद भी उन गुणों को प्राप्त करना होगा जिनकी वे उनसे अपेक्षा रखते हैं । इसके अतिरिक्त, इन गुणों के साथ-साथ उन्हें अपने चरित्र और कार्य में अत्यधिक धैर्य, सहनशीलता, सद्भावना, समझ और निष्पक्षता विकसित करनी होगी । उनमें न तो पसंद-नापसंद होनी चाहिये, न आकर्षण या घृणा की भावना ।

 

    इसलिये यदि हम चाहें कि विद्यार्थी अपनी ओर से इस सच्ची मनोवृत्ति को अपनाएं तो कप्तानों के इस नये दल को श्रेष्ठ लोगों का दल होना चाहिये, ताकि वे उनके सामने अच्छा उदाहरण रख सकें ।

 

    अतः, मैं सबसे कहती हूं : सच्चाई से काम में लग जाओ, देर-सवेर बाधाएं कक्ष हो जायेंगी ।

 

(५ -७-१९६१)

 

मधुर मां

 

 हमारे शारीरिक प्रशिक्षण के कार्यक्रम मे कुछ ऐसी क्रियाएं हैं जो औरों की अपेक्षा अधिक गंभीर होती हैं और एकाग्रता की अपेक्षा रखती हैं; ये सहज हीं बच्चों को उठा देती हैं क्या कप्तानों को अपने दत्त को इस तरह व्यवस्थित करना चाहिये कि  जो कुछ सिखाये वह लइचकर और मनोरंजक हरे या बच्चों को अपने अंदर रुचि पैदा करने की कोशिश करनी चाहिये?

 

 दोनों चीजें अनिवार्य हैं और, जहांतक हो को, दोनों को हमेशा रहना चाहिये ।

 

   शिक्षक उन्हें जो कुछ सिखाये उसमें थोडी-सी कल्पना और आविष्कारशील नमनीयता के साथ कुछ आकर्षक और कुछ अप्रत्याशित मिला देना चाहिये ।

 

  अपनी ओर से, बच्चों को, खुद ही प्रगति के लिये संकल्प और अभिरुचि को

 

३२५


संवारते हुए, वे जो कुछ मी करें उसमें सतत रुचि पैदा करनी चाहिये ।

 

  जबतक ऐसा न हों जाये तबतक कप्तान बच्चों को उनके व्यायामों की व्यवस्था का थोड़ा-बहुत भार सौंप दें ताकि जो विचार उन्हें सूझते हों, यदि है ठीक हों तो ठनाका यथासंभव उपयोग हो सके ।

 

  यदि सहयोग और उत्तरदायित्व की भावना बच्चों मे जगायी जाये तो बे जो कुछ करते हैं उसमें रुचि लेंगे और उसे खुशी से करेंगे ।

 

(२१ -७ -१९६१)

 

मधुर मां

 

    हम प्रायिक दिन खेल से पहले और बाद में एक मिनट के लिये मन को एकाग्र करते हैं  इस एकाग्रता के समय हमें क्या करने का प्रयास करना चाहिये ?

 

 पहले, तुम जो कुछ करने जा रहे हों उसे भगवान् को अर्पित करो, ताकि वह समर्पण की भावना से किया जा सके ।

 

   बाद में, भगवान् से प्रार्थना करो कि तुम्हारे अंदर प्रगति के संकल्प की वृद्धि हो ताकि तुम उनकी सवा के अधिकाधिक योग्य यंत्र बन सको ।

 

   तुम शुरू करने सें पहले नीरवता मे आत्मनिवेदन भी कर सकते हो ।

 

   और अंत में, भगवान् के प्रति चुपचाप कृतज्ञता अर्पित करो ।

 

   मेरा मतलब है कि यह गति हृदय से, दिमाग में किसी शब्द के बिना की जाये ।

 

(२४ -७ -१९६१)

 

*

 

   मानव जीवन में सभी कठिनाइयों, सभी विसंगतियों, सभी नैतिक कष्टों का कारण होता है, हर एक के अंदर उपस्थित अहंकार और उसके साथ उसकी कामनाएं, उसकी रुचियां और अरुचिया । निःस्वार्थ काम मे भी जिसमें दूसरों की सहायता करनी होती हैं, जबतक तुम अहं और उसकी मांगो पर विजय पाना न सीख लो, जबतक तुम उसे चुपचाप और शांत रहकर एक कोने मे बैठने के लिये बाधित न कर सको, अहंकार हर उस चीज के विरुद्ध प्रतिक्रिया करता हैं जो उसे पसंद नहीं आती, एक आंतरिक तूफान खड़ा कर देता है जो सतह पर आता है और सारा काम बिगाड़ देता है ।

 

   अहंकार पर विजय पाने का यह काम लंबा, धीमा और कठिन है; यह (काम) सतत चौकसी और निरंतर प्रयास की मांग करता है । यह प्रयास कुछ लोगों के लिये ज्यादा सरल होता है और कुछ लोगों के लिये ज्यादा कठिन ।

 

    हम यहां आश्रम में यह काम मिलकर श्रीअरविन्द के ज्ञान और उनकी शक्ति की

 

३२६


सहायता से करने के लिये हैं; हम इस कोशिश में हैं कि एक ऐसेसमाज चरितार्थ कर जो ज्यादा सामंजस्यपूर्ण; ज्यादा ऐक्य पूर्ण और परिणामस्वरूप, जीवन में ज्यादा सार्थक हो ।

 

   जबतक मैं भौतिक रूप से तुम सबके साथ रहती थीं, मेरी उपस्थिति हीं तुम्हें अहंकार पर यह प्रभुता पाने में सहायता देती थी और इसलिये मुझे व्यक्तिगत रूप से इस विषय मे प्रायः बोलने की जरूरत न होती थी ।

 

   परंतु अब यह प्रयास हर व्यक्ति के जीवन का आधार होना चाहिये, विशेष रूप से तुममें से उन लोगों के लिये जो जिम्मेदारी की स्थिति में हैं और जिन्हें औरों की देखभाल करनी होती है । नेताओं को हमेशा उदाहरण रखना चाहिये, जो लोग उनकी देख-रेख मे हैं उनसे वे जिन गुणों की मांग करते हैं स्वयं उन्हें उन गुणों को आचरण मे लाना चाहिये; उन्हें समझदार, धीर, सहनशील, सहानुभूति पूर्ण होना चाहिये, उनमें ऊष्मा और मैत्रीपूर्ण सद्भावना होनी चाहिये, लेकिन अपने लिये मित्र जुटाने की अहंकारपूर्ण वृत्ति से नहीं, बल्कि उदारता के दुरा, ताकि वे औरों को समझ सकें और उनकी सहायता कर सकें ।

 

   सच्चा नेता होने के लिये अपने-आपको, अपनी रुचियों और पसंदों को क्या जाना अनिवार्य हैं ।

 

   मै अब तुमसे इसी की मांग कर रहीं हू ताकि तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को उस तरह निभा सको जैसे निभाना चाहिये । और तब तुम अनुभव करोगे कि जहां तुम अव्यवस्था और अनैक्य देखते थे, है गायब हों गये हैं और उनकी जगह सामंजस्य, शांति और आनंद ने ले लीं है ।

 

    तुम जानते हो कि मै तुमसे प्रेम करती हूं और मै तुम्हें सहारा देने, तुम्हारी सहायता करने और रास्ता दिखाने के लिये हमेशा तुम्हारे साथ हूं ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(२६ -८ -१९६९)

 मधुर मां

 

      कुछ बच्चे पूछते हैं कि यहां छछिया बिताने का सबसे अच्छा तरीका क्या है !

 

 यह कोई रोचक काम करने का, कुछ नया सीखने का या अपने स्वभाव या पढ़ाई मे किसी कमी को सुधारने-संवारने का बहुत अच्छा अवसर है ।

 

  यह किसी काम का स्वतंत्र चुनाव करने का और इस तरह अपनी सत्ता की सच्ची क्षमताओं को खोजने का बहुत अच्छा मौका हैं ।

 

आशीर्वाद ।

(१-११-१९६९)

 

३२७


 मधुर मां

 

   क्या आपको यह पसंद हैं कि चुटियों में विद्यार्थी अपने माता-पिता क्वे पास जायें या कहीं बाहर जाकर ' बितायें?

 

 यह कहा जा सकता हैं कि छुट्टियों में बच्चे जो कुछ करते हैं वह इसका प्रमाण हैं कि वे क्या हैं और अपने यहां के निवास सें कितना लाभ उठा पाते हैं । इस तरह, हर एक के लिये बात अलग-अलग होती है और उसकी प्रतिक्रिया का गुण उसके चरित्र का गुण सूचित करता हैं ।

 

    सच पूछो तो, जो विद्यार्थी कुछ और करने की अपेक्षा यहां रहना पसंद करते हैं, वै ही यहां की शिक्षा से पूरी तरह लाभ उठाने के योग्य हैं और उनमें जिस आदर्श की शिक्षा यहां दी जात्रा हैं उसे पूर्णतया समझने की क्षमता हैं ।

 

आशीर्वाद ।

 

(२ -११ -१९६९)

 

मधुर मां

 

 क्या इसका अथ छ जो बाहर जाते हैं बे  उस आदर्श को जिसकी उन्हें यहां शिला दी जाती है तरह समझने मे असमर्थ हैं या हम उन्हें अपना आदर्श समझाने मे असमर्थ हैं?

 

  मैं यह नहीं कहती कि यहां की शिक्षा पूर्ण और वैसी हीं हैं जैसी होनी चाहिये । पर यह निश्रित है कि विद्यार्थियों की एक अच्छी संख्या बहुत रुचि रखती है और अच्छी तरह समझती हैं कि यहां कुछ ऐसा है जो और कहीं नहीं मिल सकता ।

 

  अतः, ऐसे विद्यार्थियों को ही यहां रहना चाहिये, और चूंकि मांग पूरी करने के लिया हमारे पास जगह की कमी है, इसलिये चुनाव करना आसान रहेगा ।

 

आशीर्वाद ।

 

(३ -११-१९६९)

 मधुर मां

 

      क्या यह आदर्श उन्हें सिखाया जा सकता है जो इसे नहीं समझ सकते और इसे उन्हें कैसे सिखाया जाये? क्या हम शिक्षक और प्रशिक्षक? इस कठिन कार्य को करने के योग्य हैं?

 

 हम जो सिखाना चाहते हैं वह सिर्फ एक मानसिक आदर्श नहीं हैं, वह हैं एक नये जीवन की परिकल्पना और चेतना की एक उपलब्धि । सभी के लिये यह उपलब्धि

 

३२८


नयी हैं, और इसे दूसरों को सिखाते का एक ही सच्चा तरीका हैं : इस नयी चेतना के अनुसार खुद जीना और इसके द्वारा अपने-आपको रूपांतरित होने देना । उदाहरण सें बढ़ी कोई और सीख नहीं हैं । दूसरों से कहना : '' अहंकारी मत बनो, '' कुछ अर्थ नहीं रखता, पर यदि कोई सब प्रकार के अहं से मुक्त हो तो वह औरों के लिये शानदार उदाहरण बन जाता हैं; और जो 'परम सत्य' के अनुसार कार्य करने की सच्ची अभीप्सा करता हैं, वह अपने आस-पास रहनेवालों पर एक छूत का-सा प्रभाव डालता हैं । अतएव उन सबका, जो प्रशिक्षक या अध्यापक हैं, पहला कर्तव्य हैं स्वयं उन गुणों का उदाहरण बनना जो हैं दूसरों को सिखाना चाहते हैं ।

 

    और यदि, इन शिक्षकों और प्रशिक्षकों मे कुछ ऐसे हैं जो इस पद के योग्य नहीं हैं, क्योंकि हैं अपने चरित्र के दुरा बुरे उदाहरण रखते हैं, तो उनका पहला कर्तव्य हैं अपने चरित्र और अपनी क्रिया को बदलकर योग्य बनना; और कोई उपाय नहीं हैं! आशीर्वाद ।

 

(४ -१ १ -११६९)

 

मधुर मां

 

 आपके बिचार मै आश्रम के किसी शिक्षक या प्रशिक्षक मे कौन-से गुण आवश्यक हैं? यदि कोई शिक्षक अनुभव करे कि उसमें इस काम को ठीक तरह करने की योग्यता नहीं है ती क्या यह अच्छा न होगा कि वह इस काम को छोड़ दे? क्योंकि हमारी वजह सें बच्चों को हानि होती है है न?

 

 यहां के शिक्षकों और प्रशिक्षकों में चाहे कितनी खामियां क्यों न हों, है बाहर के शिक्षकों से सदा अच्छे होंगे । कारण जो यहां काम करते हई वे पारिश्रमिक के लिये नहीं करते, वरन एक उदात्ता आदर्श की सेवा के लिये काम करते हैं । यह जानी हुई बात है कि हर एक, उसमें चाहे जो गुण और क्षमताएं क्यों न हों, उस आदर्श की सिद्धि की ओर निरंतर प्रगति कर सकता हैं और करते जाना चाहिये जो अब भी वर्तमान मानव उपलब्धियों सें बहुत ऊंचा है ।

 

    पर यदि कोई सचमुच अच्छे-से-अच्छा करने को उत्सुक हैं तो वह काम करते- करते हीं प्रगति करता जाता हैं और अधिक-से-अधिक अच्छा करना सीखता हैं ।

 

   आलोचना कभी-कदास ही उपयोगी होती हैं, वह सहायता करने के बदले निरुत्साहित ही अधिक करती है । हर शुभ संकल्प को बढ़ावा देना चाहिये, क्योंकि ऐसी कोई प्रगति नहीं जो धैर्य और सहनशीलता से साधित न हो सके ।

 

   मूल बात तो यह हैं कि व्यक्ति में यह विश्वास होना चाहिये कि चाहे जितना उपलब्ध हो चुका हो फिर भी उसके अंदर इच्छा हो तो वह हमेशा ज्यादा अच्छा कर सकता हैं ।

 

३२९


  जिस आदर्श को प्राप्त करना  हैं वह है आत्मा और चरित्र की अचूक समता, हर कसौटी पर अटल धीरता और, स्वभावतः, पसंद-नापसंद और कामना का अभाव ।

 

  यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जो सिखाता हैं उसके काम की उचित पूर्ति के लिये अनिवार्य शर्त है अहंकार का अभाव; और ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो इस प्रयास की आवश्यकता से बच सकें ।

 

   लेकिन, मैं दोहराती हूं, और कहीं की अपेक्षा, यह प्रयास यहां कहीं ज्यादा आसानी से किया जा सकता है ।

 

आशीर्वाद ।

 

(५ -९१ -१९६९)

 

मधुर मां

 

जो साधारण  जीवन के सुख-मोम से जैसे सिनेमा होटल सामाजिक जीवन आदि ले आकर्षित होने हैं क्या उन्हें हमारे स्कूल मे पढ़ने के त्शिये आन? चखिये? क्योंकि ऐसा लगता हे कि सामान्यतया हमारे अधिकतर बिधार्थी हसीत्हिये अपनी छुखइयां बाहर बिताने जाते हैं और जब हैं वापिस आते हैं तो उन्हें हर बार अपने-आपको यहां के अनुकूल बनाने में काफी समय लग जाता हैं!

 

 जो साधारण जीवन और उसकी उत्तेजना से बहुत ज्यादा आसक्त हों उन्हें यहां नहीं आना चाहिये, क्योंकि वे विस्थापित-से रहते हैं और अव्यवस्था पैदा करते हैं ।

 

   किंतु उनके यहां आने से पहले यह जानना कठिन हैं, क्योंकि इनमें से अधिकतर लोग बहुत छोटे होते हैं, और उनका चरित्र अभी कच्चा होता है ।

 

   लेकिन ज्यों ही दुनिया का पागलपन उन्हें अपनी पकड़ मे लेने लगे, तो उनके अपने लिये और दूसरों के लिये, यही अच्छा होगा कि हैं अपने माता-पिता के पास, और अपनी आदतों की ओर लौट जायें ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(१४ -९१ -११६९)

 

मधुर मां

 

 यहां बहुत -से बच्चे हैं जिन्हें उनके माता-पिता ने केवल शिला के लिये यहां भेजा ३? यह भावना उनके अंदर अच्छी तरह धर कर गयी है कि है सिर्फ विद्यार्थी हैं और अध्ययन दूत इने के बाद यहां से चले  जायेंगे

 

३३०


   जब हम जानते हैं कि  इन बच्चों के सामने यह विचार स्पष्ट है कि दे क्या करना चाहते हैं तो क्या उन्हें अधिकारियों की ओर ले यहां सै चले जाने एवं कहीं और जा कर अध्ययन करने की सलाह देना अच्छा नहीं होश? अ चूंकि एक बार है स्वीकार कर लिये नये हैं अत: उन्हें अपना अध्ययन यहीं जारी रखने और इस करने देना चाहिये?

 

 दुर्भाग्यवश, बहुत-से मां-बाप ऐसे हैं जो अपने बच्चों को यहां इसलिये नहीं भेजते कि उन्हें विशेष शिक्षा मिलेगी, बल्कि इसलिये कि आश्रम निः शुल्क शिक्षा देता है; फलस्वरूप उन्हें और कहीं की अपेक्षा यहां बहुत कम खर्च करना पड़ता हैं ।

 

   पर इस सौदेबाजी के लिये बेचारे बच्चों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, और यदि वे इस योग्य हों तो हमें उन्हें अपने-आपको पूर्णत: विकसित करने का अवसर देना चाहिये । इसलिये हम यहां उन्हें स्वीकार कर लेते हैं जिनमें कुछ संभावना देखते हैं । और जब हमें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता हैं कि वे यहां की शिक्षा से कोई लाभ नहीं उठा पा रहे, केवल तभी हम उन्हें यहां से चले जाने की छूट देने के लिये तैयार हो जाते हैं और वह भी तब जब वे स्वयं जाना चाहें ।

 

आशीर्वाद ।

 

(१५ -११ -१९६९)

 मधुर मां

 

    जो बिधार्थी यह जानते हैं कि उन्हें अपनी शिला समाप्त कर लेने के बाद यह? ले चले जाना है क्या उन्हें समय-समय पर बाहर नहीं जाते रहना चाहिये ताकि बाद में दे स्वयं को साधारण जीवन के अनुरूप डाल सकें?

 

 साधारण जीवन को अपनाने में कोई कठिनाई नहीं होती, इस गुलामी के सामने तो लोग जन्म सें हीं घुटना टेक हुए हैं, सभी इसे परंपरागत रोग की तरह ढोते रहते हैं । जिनका जन्म हीं मुकुल होने के लिये हुआ  उन्हें भी इस विरासत से सच्ची मुक्ति पाने के लिये सतत और कठिन संघर्ष करना होगा ।

 

आशीर्वाद ।

 

(१६-११-११६९)

 

मधुर मां

 

    जो छात्र अपनी करके च्छा सै बखर चले जायेने उनसे आप क्या आशा करती हैं? निचय ही उनमें और साधारण लोके मे काकी अंतर होना चखिये क्या होना क अंतर?

 

३३१


प्रायः, इनमें से अधिकतर जब अपने-आपको सामान्य जीवन में पाते हैं तो इस अंतर को समझ लेते हैं और वे जो कुछ खो बैठे हैं उसके लिये पछताते हैं । उनमें से कम ही लोगों में इतना साहस होता है कि वे साधारण परिस्थितियों से प्राप्त सुविधाओं से मुंह मोड सकें, पर दूसरे भी जीवन का सामना उतनी अचेतना से उन लोगों की तरह नहीं फेरते जिनका आश्रम से कभी संपर्क नहीं रहा ।

 

   हम जो काम कर रहे हैं वह किसी बदले की आशा सें नहीं, बल्कि मानवता की प्रगति मे सहायता पहुंचाने के लिये है ।

 

    आशीर्वाद ।

 

(१८-११-१९६९)

 

मधुर मां

 

   आपके  बिचार में किस हद तक छात्रों पर अनुशासन थोपना शीक्ष या प्रशिक्षक का कर्तव्य है?

 

 स्पष्टतः, छात्रों को अनियमितता, अशिष्टता या लापरवाही से रोकना अनिवार्य है; दुर्भावनापूर्ण और अहितकर शरारतें भी सहन नहीं की जा सकतीं ।

 

   पर एक आम और सामान्य अपवादरहित नियम यह है कि शिक्षकों को, विशेषकर शारीरिक शिक्षा देनेवाले प्रशिक्षकों को सदा उन गुणों का जीवंत उदाहरण बनना चाहिये जिनकी वे छात्रों से मांग करते हैं; अनुशासन, नियमितता, शिष्ट व्यवहार, साहस, अध्यवसाय, प्रयास में धारिता शब्दों की अपेक्षा उदाहरण से अधिक अच्छी तरह सीख जाते हैं । और यह तो पक्की बात हैं : बच्चों के सामने वह कभी मत करो जिसके लिये तुम उन्हें मना करते हो ।

 

   बाकी के लिये, हर स्थिति का अपना समाधान होता है, कौशल और विवेक सै काम लेना चाहिये ।

 

   इसीलिये शिक्षक या प्रशिक्षक बनना अनुशासनों में सबसे अच्छा अनुशासन है, यदि कोई उसका पालन करना जाने ।

 

आशीर्वाद ।

 

(२०-११-१९६९)

 

 बच्चों को यह समझकर शरारत छोड़नी चाहिये कि शरारती होना शर्म की बात है, न कि सजा के डर से । '

 

   बाद में माताजी ने यह जोड़ दिया : ''यह पहला कदम है । जब वह इतनी कु तक आ गया  वह और आगे प्रगति कर सकता है ओर अच्छा बनने का आनंद जान सकता है। ''

 

३३२


पहली अवस्था में, वह सचमुच उन्नति करता हैं ।

 

   दूसरी मे, वह मानव चेतना में एक पग और नीचे उतर जाता है, क्योंकि भय चेतना का अधःपतन है ।

 

(२१-११-१९६९)

 

मधुर मां

 

 क्या शिक्षाक या  प्रशिक्षक का उत्तरदायित्व स्कूल या खेल के घंटों के साथ समाप्त हो जाता है?

 

   मैं यह इसलिये पूछ रहीं हू क्योंकि साधारणतया हमारे बच्चे सड़कों पर बहुत महा आचरण करते हैं सड़क पर मनमाने ढंग. से चत्हती हैं बीच सड़क पर होकर गप्पें लगाते हैं और सबसे जटिल समस्या तो तब खड़ी होती है जब क्ष बिना बीत या बुरे के साड़कित्क चत्कते हैं या फिर एक ही समशील पर दो-दो सवार हो जाते हैं हूलसे हम मै ले किसी का कोई सरोकार नहीं होता क्योंकि यह काम क्वे घटों के बाद होता है?

 

और ' इसे बंद करने के लिये कोई कदम नहीं उठाता अत: नियम- पालन के प्रति उदासीनता इतनी बढ़ गयी है कि जिम्मेदार लोग मी स्व नियमों की अवहेलना करते हैं

 

 ऐसी परेशान करनेवाली स्थिति का सबसे अच्छा इलाज है, जब सब बच्चे इकट्ठे हों (संभवत: खेल के मैदान में), तब उन्हें इस विषय पर छोटा-सा भाषण दिया जाये कि बड़कों पर कैसा आचरण करना चाहिये-- क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये । यदि उन्हें यह सब दिलचस्प बनाकर बताया जाये, और हो सके तो विनोदपूर्ण ढंग से, तो निक्षय हीं इसका असर होगा ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(२१-११-१९६९)

 

   मधुर मां

 

      क्या इसका अर्थ यह हुआ कि एक बार छात्रों को यह समझाने के बाद कि सड़क पर कैसा आरक्त करना चाहिये काम के घटों के बाद किये जाये उनके व्यवहार के प्रति हमारा कोई उत्तरदायित्व नहीं ख जाता?

 

 जिस घटना को तुमने देखा न हों उसमें हाथ डालना कठिन हैं । गप्पी की बात हमेशा अनिच्छित रहती हैं । पर यदि कोई प्रशिक्षक अपने किसी छात्र के अशिष्ट आचरण के समय स्वयं उपस्थित हों, तो उसका बीच मे पड़ना समयोचित होगा, निक्षय हीं लेकिन

 

३३३


 इस शर्त पर कि छात्र के प्रति उसका व्यवहार स्नेह और सद्भावना से भरा हों । आशीर्वाद।

 

(२२-९९ -१९६९)

 

  मधुर मां

 

     क्या आप यह ठीक नहीं समझती कि बच्चों को आश्रम के लिये कोई निःस्वार्थ काम करना सिखाना हमारी शिला के कार्यक्रम का अंग होना चाहिये कम-से-कम सप्ताह मे एक बार?

 

निःस्वार्थ काम करना सदा ही अच्छा होता है। पर यह और भी अच्छा होगा यदि काम मनोरंजक भी हो, उठा देनेवाला नहीं ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(२६ -११ -९९६९)

 

    मधुर मां

 

    हर साल हम ए-२ और ए-र दलों क्वे सर्वत्र छात्रों को विशेष पुरस्कार देते हैं इस वर्ष एक लड़के ने सतर्क-भर बहुत अच्छा काम किया लेकिन ईन छुट्टियों मैं वह अपने माना-पिता के पास चला क्या और उसने २ दिसंबर के खेलों के प्रदर्शन मे मान नहीं लिया क्या आपके विचार मे उसे इस वर्ष का पुरस्कार देना उचित होगा?

 

यह इस पर निर्भर हैं कि वह यहां से नया कैसे : उसने अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया है या वह स्वयं हीं जाना चाहता था । यदि वह स्वयं जाना चाहता था तो, उसके बाह्य गुण कुछ भी क्यों न हों, उसे यह पुरस्कार न देना हीं उचित होगा, क्योंकि देने का अर्थ होगा हम आंतरिक वृत्ति और विद्यार्थी के द्वारा नयी सृष्टि के लिये कल के मानव तैयार करने के लक्ष्य-जिसका हम अनुसरण कर रहे हैं- के बोध को कोई महत्त्व नहीं देते ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(९ -१२ -१९६९)

 

   मधुर मां

 

    क्या बच्चों को काम करने और उनमें रुचि जमाने के लिये कोई पुरस्कार या हमनाम देन? अभीष्ट है?

 

यह तो स्पष्ट है कि बच्चों के लिये यह श्रेयस्कर होगा कि वे अपनी चेतना के विकास

 

३३४


 के लिये अध्ययन करें और उन विषयों के बारे मे सीख़ें जिन्हें वे नहीं जानते; लेकिन उन्हें पुरस्कार देने मे कोई हर्ज नहीं जो विशेष रूप से अध्ययनशील, अनुशासन में रहनेवाले और काम में एकाग्र रहे हों ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(१७-१२ -१९६९)

 

मधुर मां

 

 क्या आप यह ठीक समझती हैं कि यहां शिक्षक या प्रशिक्षक बनने के लिये खासकर बच्चों का प्रशिक्षक बनने के लिये अमुक अवधि तक आश्रम मे रहना आवश्यक हैं?

 

 इसके लिये चेतना की एक खास वृत्ति का होना आवश्यक हैं- और दुर्भाग्यवश, आश्रम मे कई वर्ष रह लेने पर भी वह यथार्थ वृत्ति हमेशा नहीं आती ।

 

   सच पूछो तो, शिक्षकों को जांच-परखकर नियुक्त करना चाहिये और देखना चाहिये कि वे इस यथार्थ वृत्ति को प्राप्त करके अपने-आपको अपने काम की आवश्यकता के अनुरूप ढाल सकते हैं या नहीं ।

 

     आशीर्वाद ।

 

(१९-१२-१९६९)

 

   मधुर मां

 

      यहां मता -पिता और अभिभावकों कि क्या भूमिका है ? छात्रों कि अधिक अच्छी शिक्षा में बे किस तरह मदद दे सकते है!

 

   ३३५


यहां, माता-पिता या अभिभावकों का पहला कर्तव्य है  अपने बच्चों की दी जानेवाली शिक्षा का उदाहरण या शब्दों के द्वारा विरोध न करें ।

 

   निश्चय ही, जो सबसे अच्छा काम वे कर सकते हैं वह यह हैं कि बच्चों को आज्ञापालन करने और अनुशासन मै रहने के लिये प्रोत्साहित करें ।

 

आशीर्वाद ।

 

. (२४ -१२-१९६९)

 

 मधुर मां

 

   वेश-मूषा फैशन और गहने के बारे मे आपकी क्या राय है?

 

   आपके विचार मैं आश्रम-जीवन मे सुसंस्कृत अभिरुचि कैसी होनी चाहिये?

 

सौभाग्यवश, मेरी कोई राय नहीं ।

 

   मेरे लिये सुसंस्कृत रुचि का अर्थ है सरल और सच्चा होना ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(४-१-१९७०)

 

  मधुर मां

 

        आपने हमें जो स्वतंत्रता दे रखे है उसे व्यवस्थित करना बच्चों की कैसे सिखाया जाये ?

 

बच्चों को तो सभी कुछ सीखना है । यही उनका मुख्य काम होना चाहिये ताकि  अपने-आपको उपयोगी और सृजनशील जीवन के लिये तैयार करे ।

 

साथ-हीं-साथ, जैसे-जैसे बे बढ़े होते जायें, उन्हें अपने अंदर खोज करनी चाहिये कि वह चीज या चीजें कौन- सी हैं जिनमें वे सबसे ज्यादा रुचि लेते हैं ओर जिन्हें वे अच्छे ढंग से कर सकते हैं । सुप्त क्षमताएं होती हैं जिन्हें विकसित करना चाहिये । ऐसी क्षमताएं भी होती बे जिन्हें खोजा जा सकता हैं ।

 

बच्चे में कठिनाइयों पर विजय पाने की चाह जगानी चाहिये और यह भी कि यह (विजय) जीवन को विशेष मूल्य देती हैं; जब व्यक्ति ऐसा करना जान ले तो वह सदा के लिये अवसाद का नाश कर देता है और जीवन मे नयी रुचि पैदा कर देता है !

 

हम प्रगति करने के लिये धरती पर हैं और हमें सब कुछ सीखना है ।

 

(१४ -१-१९७१)

   मधुर मां

 

     कल आपने लिखा था : ''समा क्षमताएं होती हैं जिन्हें विकसित करना

 

३३६


   चाहिये ऐसी क्षमताएं मी होती हैं जिन्हें खोजा जा सकता है ''

 

      इन क्षमताओं की खोज में शिक्षक या प्रशिक्षक की क्या भूमिका हैं?

 

शिक्षकों को एक किताब नहीं बनना चाहिये जो स्वभाव और चरित्र का भेद किये बिना, सबके लिये एक समान, ऊंची आवाज से पढ़ी जाये । शिक्षक का पहला कर्तव्य है कि वह छात्र को अपने-आपको जानने मे जिस चीज के योग्य  उसकी खोज करने मे मदद दे ।

 

   इसके लिये उसके खेलों की, वह सहज और स्वाभाविक रूप से जिन क्रिया- कलापों की ओर आकर्षित होता है और यह भी कि वह क्या सीखना पसंद करता है, क्या उसकी बुद्धि सजग है या नहीं, उसे कैसी कहानियां अच्छी लगती हैं, कौन-से कामों मे वह रस लेता है, कौन-सी मानवीय उपलब्धिया उसे आकर्षित करती हैं, ये सब उसे ध्यान मैं रखना होगा ।

 

    शिक्षक को यह पता लगाना होगा कि जिन बच्चों का उस पर उत्तरदायित्व है उनमें सें हर बच्चा किस श्रेणी का 'है । और सतर्क निरीक्षण के पश्चात् यदि उसे दो या तीन असाधारण बच्चे मिल जायें जिनमें जानने की प्यास हों, प्रगति के लिये लगन हो, तो उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि जो शक्तियां उनका व्यक्तिगत विकास साधित करती हैं उनमें चुनाव की स्वतंत्रता देते हुए वह इस उद्देश्य के लिये उन शक्तियों का उपयोग करने मे उनकी मदद करे ।

 

एक साथ बैठे श्रेणी के बच्चों को एक हीं पाठ पढ़ाने का पुराना तरीका, निश्चय हीं मितव्ययी और आसान है, पर साथ हीं वह नितांत प्रभावहीन भी है, और इस तरह सबका समय बरबाद होता है ।

 

(१५-१-१९७२)

 

 मधुर मां

 

  आपने लिखा है : ''सतर्क निरीक्षण के पड़ता यदि उसे (अध्यापक की) दो श तीन असाधारण बच्चे मिल जाये जिनमें जानने की प्यास हरे प्रगति क्वे लिये तगना हो तो उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि जो शक्तियां उनका व्यक्तिगत विकास साधित करती हैं उनमें चुनाव की स्वतंत्रता देते हुए वह इस उमेश के लिये उन शक्तियों का उपयोग करने में उनकी मदद करे ! ''

 

    क्या आप यह कहना चखती हैं कि चुनाव की स्वतंत्रता सिर्फ असाधारण बच्चों को ही दी जानी चाहिये ? और दूसरों को?

 

मैंने चुनाव की स्वतंत्रता असाधारण छात्रों को देने की बात इसलिये कही है कि यदि सचमुच तुम पूर्णतः विकसित होने में उनकी मदद करना चाहो तो उनके त्शिये यह नितांत अपरिहार्य है ।


३३७


    निस्संदेह, तुम सभी बच्चों को चुनाव की स्वतंत्रता दे सकते हों और यह उनके यथार्थ स्वभाव को जानने का एक अच्छा साधन है; पर उन में सें अधिकतर आलसी और पढ़ाई में कम रुचि रखनेवाली होंगे । लेकिन, दूसरी ओर, हो सकता हैं कि वे हाथ के काम में दक्ष हों और स्वेच्छा सें उन वस्तुओं को बनाना सीख़ें । इसे भी प्रोत्साहन त्रिलना चाहिये । इस तरह बच्चे समाज मे अपना ठीक-ठीक स्थान खोज जायेंगे और जब बड़े होंगे तो उस स्थान को भरने के लिये तैयार होंगे ।

 

   सभी को यह सिखाना चाहिये कि वे जो कुछ करें अच्छी तरह करने के आनंद से करें, चाहे वह बौद्धिक काम हों या कलात्मक या शारीरिक, और विशेषकर यह सिखाना चाहिये कि काम कैसा भी क्यों न हो, यदि उसे यत्न और कुशलता सें किया जाये तो उसकी अपनी गरिमा है ।

 

(१६ -१ -१९७२)

 

मधुर मां

 

 क्या आपको विचार मे असाधारण बच्चों की शक्तियों को उनकी विशेष प्रतिमा क्वे काम मे लगाना पक्षीय श उन्हें पूरन विकास की ओर मोड़ना अधिक

 

 यह पूरी तरह बच्चे और उसकी क्षमताओं पर निर्भर हैं ।

 

(९८-१-१९७२)

 

मधुर मां

 

   एक बार मैंने आपसे पूछा था कि बडों को आश्रम के लिये कोई  निःस्वार्थ काम करना सिखाना मी हमारी शिला क्वे कार्यक्रम का अंग होना चाहिये या नहिं कम-से-कम सप्ताह मे एक बार और आपने कहा था :

 

    ''निस्वार्थ काम करना सदा ही अच्छा होता है पर यह और मी अच्छा होगा यदि काम मनोरंजक मी हरे उठा देनेवाला नहीं ''

 

   क्या आप कोई सुझाव देगी कि इसे हमारे कार्यक्रम मे कैसे रखा जाये?

 

 यदि बच्चे यह देख सकें कि कौन-कौन से काम हैं जिन्हें बे कर सकते हैं, तो उनमें कोई-न-कोई काम करने की रुचि जगेगी और यदि वे सचमुच समझदार हों तो यह उनके लिये खेल की तरह मनोरंजक बन जायेगा ।

 

(१८-१-१९७२)

 

३३८


मधुर मां

 

जब आपने फाहा था कि बच्चों के खेलों को ध्यान ले देखना ', तब आपका आशय कितनी उम्र के बच्चों ले था?

 

 यह पूरी तरह बच्चों पर निर्भर है । कुछ तो सात साल की उम्र में हीं सजग होते हैं, कुछ काफी समय लेते हैं ।

 

   महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि बच्चों को खुद को देखने और परखने का अवसर दिया जाये ।

 

    मां,  सात साल सै लेकर कितने साल तक ?'

 

 कह सकते हो करीब-करीब अठारह साल की उम्र तक । यह तो बच्चे-बच्चे पर निर्भर है । ऐसे बच्चे होते हैं जो चौदह या पंद्रह साल की उम्र में पूर्णतः विकसित हो जाते हैं । हर एक के लिये बात अलग होगी । यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर हैं... ।

 

(१८-१-१९७२)

 

मधुर मां

 

    आपने लिखा है ''विदरक  की यह पता लगाना होगा कि उस पर जिन बच्चों का उत्तरदायित्व है उनमें से हर बच्चा किस श्रेणी का है  ''

 

    बच्चों की श्रेणी को कैसे पहचाना जाये?

 

 उनका रहन-सहन देखकर ।

 

     बच्चों को श्रेणीबद्ध करने के लिये उनके चरित्र को, उनकी आदतों और प्रतिक्रियाओं के निरीक्षण दुरा जानना होगा ।

 

    शिक्षक को पाठ सुनाने का यंत्र नहीं बनना चाहिये, उसे मनोवैज्ञानिक और निरीक्षक बनना होगा ।

 

(११ -१ -१९७२)

 

    मधुर मां क्या समान स्तर क्वे बच्चों को एक ही दल मे हरद्वार रखना चाहिये !

 

इसके अपने लाभ और असुविधाएं, दोनों हैं । छात्रों के दल इस आधार पर बनाने

 

     १ जनवरी, ९९७२ की चिट्ठी ।

    २मौखिक प्रश्र और उत्तर ।

 

३३९


चाहिये कि तुम उन्हें क्या दे सकते हों और तुम्हारे पास क्या सुविधाएं हैं । व्यवस्था नमनीय होनी चाहिये ताकि आवश्यकता के अनुसार उसे सुधार जा सके ।

 

   एक अच्छा शिक्षक बनने के लिये गुरु की सूक्ष्म दिष्टि और उनका ज्ञान होना चाहिये और साथ ही सब कसौटियों के लिये धैर्य ।

 

(११-१-१९७२)

 

    मधुर मां

 

आपने कहा है : ''शिक्षकों का पहला कर्तव्य है कि वह छात्रों, को अपने- आपको जानने मे मदद दे ! ''

 

हम किस तरह अपने-आपको जानने मे छात्र की मदद कर सकते हैं? उसके लिये क्या यह जरूरी नहीं है कि हम खुद उच्चतर चेतना के अमुक्त स्तर तक पहुंच चुके हों ?

 

हां, जरूर । '

 

   शिक्षक की मनोवृत्ति होनी चाहिये प्रगति के लिये सतत संकल्प, वह बच्चों को जो सिखाना चाहता है केवल उसी को ज्यादा अच्छी तरह जानने के लिये ही नहीं, बल्कि उससे भी बढ़कर वे क्या बन सकते हैं यह दिखाने के लिये उसका जीवंत उदाहरण बनना ।

 

    (पांच मिनट के ध्यान के बाद) शिक्षक बच्चों से जो बनने की अपेक्षा रखता है उसे उसका जीता-जागता उदाहरण बनना चाहिये ।

 

(९९ -१ -१९७२)

 

  मधुर मां

 

     क्या छात्रों को क अपने-आपको जानना सिखाते के लिये यही एक तरीका हैं!

 

 ठीक तरीका बस यहीं हैं । यदि शिक्षक उनसे कहें : ''झूठ नहीं बोलना चाहिये' ' और वह खुद झूठ बोले; ''गुस्सा नहीं करना चाहिये' ' और वह स्वयं गुस्सा करे-तो इसका फल क्या होगा? बच्चे न केवल अध्यापक पर विश्वास करना छोड़ देंगे, बल्कि उस पर भी जो वह सिखाता हैं...

 

     १मौखिक उत्तर (यही वाक्य) ।

      २मौखिक प्रश्र और उत्तर ।


३४०


मां जो कुछ आप लिखती हैं मैं उसे हर रोज -मंडित कर लेती हूं और 'प ' उसे और अध्यापकों को दिखाने के लिये स्कूल ले जाता है और फेर (उसे पढ़कर) बड़े प्रसव होते हैं अब कई शिक्षक आपसे पूछने के लिर्य प्रश्र देने लगे हैं '

 

 (हंसते हुए) अच्छी बात हैं! बड़ी अच्छी बात हैं!

 

(१९-१-१९७२)

 

मधुर मां

 

जब बच्चे कि पहल करने की क्षमताओं क्वे आधार पर वर्गों को व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं तो हम देखते हैं कि मित्र-मित्र विषयों की पढार्ड क्वे स्तर में समानता नहीं होती? यह उन अध्यापकों के काम को कठिन बना देता हैं जिन्हें प्रतिहत पद्धति ले पडाने की आदत है ।

 

 हम यहां हैं ही कठिन काम करने के लिये । यदि हम वही दोहराते रहें जो दूसरे करते हैं तो इसकी सार्थकता हीं क्या है; पहले हीं दुनिया में बहुतेरे विद्यालय हैं ।

 

   जनता के अज्ञान को कु करने की कोशिश की गयी है और इसके लिये सबसे सरल पद्धतियां अपनायी गयी हैं । पर अब वह समय बीत गया हैं और मानवजाति ज्यादा और पुर्जा रूप से सीखने के लिये तैयार हैं । यह उनकी जिम्मेदारी हैं जो पथ- प्रदर्शनों की पंक्ति मे अग्रणी हैं ताकि दूसरे उनका अनुसरण कर सकें ।

 

(२१-१-१९७२)

 

मधुर मां

 

बच्चों शोधक्षमताओं को खोजने. का अवसर देने और व्यक्तिगत विकास कंप पक्ष का अनुसरण करने के लिये हमारी शिक्षण-संस्था की व्यवस्था के बारे में आपकी क्या कल्पना है?

 

 हम यहां यहीं करने की कोशिश कर रहे हैं । यह अध्यापक पर निर्भर है । मेरे पास कोई ऐसा सिद्धांत नहीं जिसे काम पर उतारा जा सके...

 

   हम यहां यहीं करने में लगे हैं । पर इसे ठीक ढंग से कर पाना शिक्षकों पर निर्भर है, वे कितना कष्ट उठा सकते हैं और उनमें मनोवैज्ञानिक सुध-बूझ की कितनी क्षमताएं हैं । उसे विद्यार्थी के स्वभाव और उसकी क्षमता को जानने मे समर्थ होना

 

     मौखिक प्रश्र और उत्तर ।

       २मौखिक उत्तर (सिर्फ यही अनुच्छेद) ।
 

३४१


 चाहिये ताकि वह हर एक की आवश्यकता के अनुसार अपनी शिक्षा की रीति बदल सकें ।

 

२२-१-१९७२)

 

मधुर मां

 

 क्या शिक्षाको का वर्गीकरण होना चाहिये? क्या यहीं सबसे अच्छा तरीका है?

 

 जब सभी को ज्ञान की एक समान साधारण उपयोगी नींव दे दी गयी हो, जैसे कि पढ़ना-लिखना, कम-से-कम एक भाषा अच्छी तरह बोल पाना, तोड़ी-सी सामान्य भूगोल की जानकारी, आज के विज्ञान का सामान्य ज्ञान और सामूहिक या सामाजिक जीवन के आचार-व्यवहार के कुछ अनिवार्य नियम जान लेने के बाद जब कोई एक या एक से अधिक विषय का गहराई से अध्ययन करना चाहे तो विषयवार वर्गीकरण महत्त्वपूर्ण होता हैं ।

 

    किसी विषय के विस्मृत और गहरे अध्ययन की उचित उम्र बच्चे पर और उसकी सीखने की क्षमता पर निर्भर है ।

 

   जल्दी हीं बेह हो जानेवाले बारह वर्ष की उम्र मे आरंभ कर सकते हैं । अधिकतर बच्चे शायद पन्द्रह वर्ष की उम्र मे आरंभ करें, सत्रह या अठारह मे मी हों सकता हैं। और जब कोई एक विषय पर प्रभुत्व पाना चाहता है, विशेषकर वैज्ञानिक या दार्शनिक विषय मे, तो उसे जीवन-भद्दा सखिने के लिये तैयार रहना चाहिये; अध्ययन कभी बंद नहीं होना चाहिये ।

 

(२२ -१ -११७२)

 

     मधुर मां

 

   में फिर से उसी प्रश्र पर लतों रही  ''बच्चों के वर्ग'' से आपका ठीक- ठीक क्या मतलब है?

 

   क्या इन वर्गों मे केवल उनके चरित्र को ही ध्यान मे रखना चाहिये या हूनकी रुचियों को मी?

 

   चरित्र के वर्ग ।

 

     बच्चों की संभावनाओं का मूल्यांकन करने के लिये साधारण नैतिक विचार कम हीं उपयोगी होते हैं । विद्रोही, अनुशासनहीन, जिद्दी स्वभाववाले प्रायः अपने अंदर वे गुण छिपाये रहते हैं जिनका उपयोग करना सीखा नहीं गया हैं । हो सकता हैं कि निठल्ला भी शांति और धैर्य की बड़ी संभावनाओं को छिपाये हों ।

 

३४२


    खोजने के लिये पूरी दुनिया पड़ी हैं और सरल समाधान शायद हीं किसी काम के होते हों । विभित्र चरित्र को पहचानने और उन्हें अच्छी तरह उपयोगी बनाना जानने के लिये अध्यापकों को छात्रों सें कहीं ज्यादा मेहनत करनी होगी ।

 

(२३ -१ -११७२)

   मधुर मां

 

     कल आपने आचार- व्यवहार के नियमों के बारे मे बताया था ! सामूहिक जीवन मे आप आचरण के कौन- से नियमों की अनिवार्य मानती हैं!

 

 धैर्य, अध्यवसाय, उदारता, उदात्ता या विशाल मन, सूक्ष्म दिष्टि, शांत और व्यापक दृढ़ता और अहं पर तबतक प्रभुत्व जबतक कि वह पूरी तरह वश में न आ जाये या उसका अंत हीं न हो जाये ।

 

    मां यह ठीक वही बात ' जो मैं आपसे पूछना थी मैंने ''आचार- व्यवहार क्वे नियम' ' का महत्ता ''शिष्टाचार' ' समझा था !

 

 शिष्टाचार सामान्य जीवन के नैतिक नियम हैं और इनका हमारे दृष्टिकोण से कोई महत्त्व नहीं !

 

(२३-१-१९७२)

 

मधुर मां

 

   आपने फाहा श कि चरित्र के अनुसार छात्रों का वर्गीकरण करना ! अपनी अज्ञान की वर्तमान अवस्था में हम एक वर्गीकरण लादने का प्रयास करें तो क्या वह बहुत मनमाना और साथ बढ़ते हुए बच्चों के लिये एक खतरनाक खेल न होगा !

 

स्वभावत:, यह अंश होगा कि मनमाने और अज्ञानपूर्ण निर्णय न लिये जायें । यह बच्चों के लिये घातक होगा ।

 

    मैंने जो कहा था वह उनके लिये हैं जो चरित्र को पहचानने और उसका ठीक मूल्यांकन करने में समर्थ हैं, नहीं तो. उसका फल घृणित और प्रचलित यांत्रिक शिक्षा से मी अधिक अनिष्टकारी होगा ।

 

(२४ -१ -१९७२)
 

३४३


 मधुर मां

 

    आपने हमसे कुछ करने के लिये कहा है उसे कर सकने के लिये क्या शिक्षक का पहला कर्तव्य यह न होगा कि  उतावल और मनमाने ढंग ले कुछ कर बैठने के पहत्हे सच्च ले कठोर योग-साधना करे?

 

 जरूर!

 

   जो कुछ मैंने लिखा है वह आदर्श हैं जिसे चरितार्थ करना है; इसे कर सकने के लिये अपने-आपको तैयार करना होगा ।

 

    इस प्रणाली को अपना सकने के लिये शिक्षक को सूक्ष्मदर्शी मनोवैज्ञानिक होना चाहिये और इसके लिये समय और अनुभव की आवश्यकता हैं ।

 

(२४ -१ -१९७२)

 

मधुर मां

 

 बच्चे के बिगो  ललक को सूक्ष्मदर्शी मनोवैज्ञानिक एक गुरु होना बछिये आपको तो माध्यम ही है कि हम उससे कोसों छ हैं शिक्षक जैसे द्रव उसे देखते हुए शिला की प्रणाली को कैसे व्यवस्थित किया जाये ताकि सिखाते की पद्धति को सुधार? जा सके?

 

 यह जानते हुए कि उन्हें सब कुछ सीखना हैं, वे जो कुछ कर सकें, करें । इस तरह उन्हें अनुभव होगा और वे अधिकाधिक अच्छा करेंगे । यह सीखने की उत्तम रीति हैं और यदि उन्होंने इसे पूरी सच्चाई से अपनाया तो वे दो-तीन साल मे प्रवीण हों जायेंगे और सचमुच उपयोगी होंगे ।

 

   स्वभावतया, इस तरह से किया गया काम सचमुच रोचक होगा और छात्रों की ही नहीं, शिक्षकों की भी प्रगति करायेगा ।

 

(२५ -१ -१९७२)

 

मधुर मा

 

     बच्चों के बर्ग की तरह क्या अध्यापकों के भी-उनके पडाने के तरीके उनके दृष्टिकोण और कुछ काल विषयों मैं सहज पैठ के अनुसार- वर्य होने चाहिये ?

 

 इसके लिये आवश्यक हैं कि जो पढ़ाई की व्यवस्था करते हैं उन्हें सूक्ष्मदर्शी

 

 मौखिक उत्तर (यही वाक्य) ।

 

३४४


मनोवैज्ञानिक, सचेत होना चाहिये और उनमें बहुत सद्भावना होनी चाहिये, उन्हें यह पता हो कि उन्हें भी सीखना हैं और प्रगति करनी है ।

 

    सच्ची मनोवृत्ति तो यह होनी चाहिये कि जीवन सतत अध्ययन का क्षेत्र है जहां सीखना यह सोचकर कभी बंद नहीं करना चाहिये कि हमें जो कुछ जानना चाहिये वह सब हम जानते हैं । हम सदा अधिक सीख सकते हैं और ज्यादा समझ सकते हैं ।

 

(२५-१-१९७२)

   मधुर मां

 

    यदि  बच्चे तो कि  उम्र ले हैं? हलैक्दोनिक विभाग में क्रियात्मक काम करना चाहें तो क्या उन्हें प्रोत्साहन देना चाहिये?

 

 हा, जरूर ।

 

(२५ - १ - १९७२)

 

मधुर मां

 

   काम कि इस पद्धति मे अध्यापक को हर छात्र क्वे लिये अलम-अत्हम काफी समय देना होगा पर अध्यापकों की संख्या इतनी नहीं है सभी सहायता मागनेवालों को यथासंभव संतुष्ट करते हुए उनकी मान पर केले ध्यान

 

 इसके लिये कोई सिद्धांत नहीं बनाया जा सकता । यह व्यक्ति-विशेष पर, संभावनाओं और परिस्थितियों पर निर्भर है । यह एक मनोवृत्ति हैं जिसे शिक्षक को अपनाना चाहिये और अपनी शक्ति-भर अच्छी-से-अच्छी तरह काम में लाना चाहिये और संभव हो तो अधिकाधिक काम में लाना चाहिये ।

 

(२६ -१ -१९७२)

 

मधुर मां

 

   आपने उस काहा था कि ऐसे शिक्षक हैं जो योग्य नहीं हैं उन्हें पढ़ाना छोड़ देना चाहिये शिक्षक की क्षमता का मूल्यांकन करने का क्या मापदंड है?

 

 पहले तो उसे यह समझना, यह जानना चाहिये कि हम क्या करना चाहते हैं और ठीक-ठीक यह समझे कि उसे कैसे किया जाये ।

 

    दूसरे, उसमें छात्रों को समझने के लिये मनोवैज्ञानिक विवेक होना चाहिये, उसे यह पता होना चाहिये कि उसके छात्र कैसे हैं और क्या कर सकते हैं ।
 

३४५


   स्वभावतः, जो विषय पढ़ता हैं उसमें वह पारंगत हो । यदि वह फ्रेंच पढ़ता हैं, तो उसे फ्रेंच आनी चाहिये । यदि वह अंग्रेजी, भूगोल, विज्ञान पढ़ता हैं, वह जो कुछ पढ़ता है उसे उसका ज्ञान होना चाहिये!

 

   लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह हैं कि उसमें मनोवैज्ञानिक विवेक हो । '

 

 (३१-१-१९७२)

 

     मधुर मां

 

     आजकल बाहरा के विद्यालयों में विशेषकर पाश्चात्य देशों मे '' ' ' पर बहुल जोर दिया जा खा हैं!

 

''यौन शिक्षा' ' क्या है? वह क्या सिखाती हैं?

 

    मुझे तो पसंद नहीं कि इन चीजों मे व्यस्त रहा जाये । हमारे समय में हम कभी इन विषयों में नहीं उलझा करते थे । अब बच्चे हर जड़ी इसी की चर्चा करते हैं-यह उनके दिमाग मे, उनकी भावना में घर कर गया है । यह बात घिनौनी है । यह कठिन हैं, बहुत कठिन है ।

 

  लेकिन यदि बाहर इसकी चर्चा करते हैं तो यहां भी उसके बारे मे बताना चाहिये । उन्हें यह बता देना चाहिये कि इन चीजों का क्या परिणाम होता है । खासकर लड़कियों को बता देना चाहिये कि परिणाम घातक हों सकते हैं । मै जब छोटी थी, उस जमाने मे, कमी इन सब चीजों की चर्चा नहीं होती थी, इन विषयों में सिर नहीं खाया जाता था । उस जमाने में, इन सबके बारे में कोई बात ही नहीं करता था । मै नहीं चाहती कि यहां इस विषय पर बहस की जाये । इसीलिये तो तुम शारीरिक व्यायाम मे लगे रहते हो । इस तरह सारी शक्तियां बल, सुन्दरता, क्षमता आदि विकसित करने में काम आती हैं, और तुम्हें अधिकाधिक संयम करने का बल मिलता हैं । तुम देखोगे कि जो बहुत शारीरिक व्यायाम करते हैं वे आवेगों को दमन करने में अधिक सबल होते हैं । '

 

   (ध्यान के बाद) जिस शक्ति का उपयोग मनुष्य प्रजनन में करते हैं और जिसने उनके जीवन मे एक गुरुतर स्थान बना लिया है, उस शक्ति का उपयोग उन्हें इसके विपरीत प्रगति और उच्चतर विकास के लिये करना चाहिये, नयी जाति के आगमन की तैयारी मे लगाना चाहिये । पर पहले शरीर और प्राण को कामनाओं से मुक्त्ति करना होगा; नहीं तो भयंकर अनर्थ होने का डर रहता हैं।

 

(१ -२ -११७२)

 

      मौखिक उत्तर ।

         २मौखिक उत्तर (यहांतक हीं) ।

 ३४६


मधुर मां

 

छोटे बच्चों और (उदाहरण के लिये चौदह या पन्द्रह सात् के बच्चों) के सक् शिक्षकों क्वे आचरण और उत्तरदायित्व में क्या मुख्य अंतर है?

 

 स्वभावतया, जिस अनुपात में बच्चों की चेतना और बुद्धि विकसित होगी, उतना हीं उनकी मध्यस्थता सें हमारा वास्ता पड़ेगा ।

 

(३-२-१९७२)

 

   मधुर मां

 

      क्या बच्चे को सजा देनी चाहिये?

 

 सजा ? सजा से तुम्हारा क्या मतलब हैं? यदि एक लड़का कक्षा मे शोर मचाता हैं और दूसरों को काम करने से रोकता है तो उससे ठीक तरह व्यवहार करने के लिये कहना चाहिये; और यदि वह फिर भी करता रहे तो उसे कक्षा से निकाल देना चाहिये । यह, यह तो कोई सजा नहीं, यह तो उसके किये का सहज परिणाम हैं ! लेकिन सजा देना! सजा देना! तुम्हें सजा देने का कोई अधिकार नहीं । क्या तुम भगवान् हो? तुम्हें सजा देने का अधिकार दिया किसने? बच्चे भी तुम्हारी हरकतों पर तुम्हें सजा दे सकते हैं । क्या तुम स्वयं निर्दोष हो? क्या तुम जानते हो कि क्या अच्छा हैं और क्या खराब? केवल भगवान् जानते हैं । भगवान् को ही सजा देने का अधिकार हैं । '

 

  तुम जैसे स्पंदन छोड़ते हो वैसे हीं स्पंदनों सें तुम्हारा संपर्क हो जाता हैं३ । यदि तुम बुरा और नाशक स्पंदन छोड़ तो यह बिलकुल स्वाभाविक होगा कि तुम वैसे ही स्पंदन को अपनी ओर आकर्षित करो और यहीं है सच्ची सजा, यदि तुम इसी शब्द का प्रयोग करना चाहो; पर यह दुनिया की भागवत व्यवस्था से कतई मेल नहीं खाता ।

 

   प्रत्येक कार्य का अपना भला या बुरा परिणाम होता हैं, पर पुरस्कार या दंड का विचार निरा मानवीय विचार हैं जो 'सत्य-चेतना' की कार्य-पद्धति सें बिलकुल मेल नहीं खाता । यदि वह 'चेतना' जो दुनिया को चलाती है, मानवीय पुरस्कार और दंड की नीति से काम करती तो धरती कब की मनुष्यों से खाली हो चुकी होती ।

 

   जब मनुष्य इतने पवित्र हो जायेंगे कि दिव्य स्पंदनों को विकृत किये बिना प्रसारित कर सकेंगे तब, दुनिया से दुःख-कष्ट मिट जायेगा । यहीं हैं एकमात्र उपाय ।

 

(३-२-१९७२)

 

   मौखिक उत्तर (यहीं अनुच्छेद) ।

 

३४७


    कुछ अध्यापकों ने मुझे लिखा है कि मैंने तुम्हें जो कुछ लिखा है वह उन्होंने पहा हैं और उससे उन्हें बहुत लाभ हुआ है । अतः तुम उन्हें दिखाना जारी रख सकतीं हो ।

 

  यह प्रार्थना मां?

 

हां, यदि तुम इसे अलग कागज पर टंकी कर को, यह :

 

    ''हम भगवान् के सच्चे सेवक बनना चाहते हैं । ''

 

और इसके बाद प्रार्थना :

 

   ''परम प्रभु, 'पूर्ण चैतन्य', केवल तू ही ठीक-ठीक जानता हैं कि हम क्या हैं, हम क्या कर सकते हैं, हमें क्या प्रगति करनी है जिससे हम तेरी सेवा के योग्य और समर्थ हो सकें? जैसा कि हम चाहते हैं । हमें अपनी संभावनाओं के प्रति सजग-सचेतन बना, अपनी कठिनाइयों के प्रति भी ताकि हम निष्ठा के साथ तेरी सेवा करने के लिये उस पर विजय पा सकें । ''

 

उसके बाद यह-शेष अंश :

 

    ''भगवान् के सच्चे सेवक बनने मे हीं परम आनंद है । ''

 

      ऐसे भी लोग हैं जिन्हें इससे लाभ पहुंचा हैं । क्या तुमने उन्हें अपनी कापी दिखायी ?

 

यह कापी (ध्यान की कापी) मैं सबको नहीं दिखाती? कापी से शिक्षा- संबंधी प्रश्रों को टंकित करके स्कूल भेज देती हूं पर यह कापी मैं सबको नहीं दिखती !

 

 नहीं, यह तो तुम्हारे लिये है । लेकिन तुम इस तरह की चीजों की नकल कर सकतीं हो जो सबके लिये हो । तुम उन्हें सट्भावनावालों को दिखा सकती हो । बहुतों ने मुझे लिखा हैं कि इससे उन्हें बहुत लाभ हुआ है । इसलिये तुम उन्हें दिखाना जारी रख सकतीं हो ।

 

   हां मैं यह कापी सभी को नहीं दिखाती क्योंकि मेरा ख्याल था कि आप जल्दी द्वि हलका उपयोम '' में करना चाहेगा !

 

   सबका नहीं । उदाहरण के लिये, इसे मैं 'बुलेटिन' में छापना नहीं चाहूंगी ।

 

(१४-२-१९७२)

 

     १इस तारीख (१४ फरवरी) का सारा वार्तालाप मौखिक हैं ।
 

३४८


मधुर मां

 

   आपने जैसा वर्गीकरण विद्यालय में करने क्वे लिये कहा थर क्या उसी तरह का वर्गीकरण शारीरिक शिला में मी होना चाहिये?

 

शारीरिक व्यायाम के लिये, सब कुछ शरीर और उसकी क्षमताओं पर निर्भर है । सरल और न थकानेवाले व्यायाम सभी को दिये जा सकते हैं ।

 

   इसके बाद, सब कुछ उनके शरीर, उनकी शक्ति, उनके स्वास्थ्य, थकान के प्रति उनकी सहनशक्ति आदि, आदि पर निर्भर हैं ।

 

   क्षमताओं के अनुकूल व्यायाम देना चाहिये और क्षमताओं के अनुरूप हीं बच्चों का वर्गीकरण होना चाहिये । यह अनुभव और निरीक्षण का प्रश्र हैं ।

 

    शारीरिक शिक्षा का अच्छा शिक्षक बनने के लिये शरीर-विज्ञान, शरीर-अव्ययों के अलग-अलग काम, उनका विकास और उनकी क्रियाओं के बारे मे जानना चाहिये । (१६ -२ -१९७२)

 

   मधुर मां

 

      क्या आप अनुशासन के बारे में कुछ लिखने की कृपा करेगी?

 

भौतिक जीवन के लिये अनुशासन अनिवार्य हैं । अंगों के सुचारु कार्य का आधार है अनुशासन । जब शरीर का कोई अंग या भाग सामान्य शारीरिक अनुशासन की अवज्ञा करता है ठीक तभी तुम बीमार पढ़ते हो ।

 

     प्रगति के लिये अनुशासन अनिवार्य है । तुम दूसरों के लगाये अनुशासन से केवल तभी बच सकते हो जब तुम अपने अपर कठोर और ज्ञानयुक्त्त अनुशासन लगा सको । सर्वोत्कृष्ट अनुशासन हैं भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण और भावना मे या क्रिया- कलाप मे कहीं किसी की कोई सुनवाई न हों । इस समर्पण के कुछ भी न बच पाये- यहीं चरम और कठोर अनुशासन है ।

 

६१७-२ -१९७२)

 

 मधुर मां

 

   कल आपने अनुशासन के बारे में लिखा था लेकिन आरोपित किये भैये उस अनुशासन क्वे बारे मैं हमारी क्या मनोवृत्ति होनी चाहिये जिसका सामान्य जीवन में हमें अनुसरण करना पड़ता है?

 

सामुदायिक जीवन में अनुशासन आवश्यक हैं ताकि कमजोर बलवान दुरा सताये न जायें; और जो लोग समाज में रहना चाहते हैं उन सभी को इस अनुशासन का मान करना चाहिये ।

 

३४९


     किंतु यह अनुशासन उनके द्वारा लागू होना चाहिये जिनके मन सबसे विशाल हैं, यदि संभव हो तो ऐसों के द्वारा जो 'भागवत उपस्थिति' के प्रति सचेतन और समर्पित हों, ताकि समाज सुखी रह सकें ।

 

    सह शक्ति उन्हीं के हाथों में होनी चाहिये जो 'भागवत इच्छा' के प्रति सचेतन हैं, ताकि धरती प्रसन्न रहे । पर अभी तो यह असंभव हैं क्योंकि जो 'भागवत इच्छा' के प्रति सचमुच सचेतन हैं उनकी संख्या नगण्य है, और चूंकि उनमें ऐसी कोई आकांक्षा भी नहीं है।

 

    वास्तव में, जब इस उपलब्धि का समय आयेगा तो वह स्वभावतः अपनी जगह ले लेगा।

 

    प्रत्येक का कर्तव्य है कि अपनी शक्ति-भर पूरी तरह अपने-आपको इसके लिये तैयार करे ।

 

(१८ -२ -१९७२)

 

मां कुछ लोग इस बात की आलोचना करते हैं कि शारीरिक शिला मै हमने बहुत सारे नियम बन? रखे हैं और बच्चों पर कडा अनुशासन लादते हैं

 

बिना अनुशासन के शारीरिक शिक्षा संभव नहीं है । कठोर अनुशासन के बिना स्वयं शरीर भी काम न कर सकेगा । असल मे, इस तथ्य को न स्वीकारना ही व्याधियों का मुख्य कारण हैं ।

 

पाचन, वृद्धि रक्त-संचरण, सब, सब कुछ हीं तो एक अनुशासन है चिंतन, गतियां, चेष्टाएं सभी तो एक अनुशासन है । यदि अनुशासन न हो तो लोग तुरत बीमार क्या जाते हैं । '

 

(१८-२-१९७२)

 

मधुर मां

 

     बिधार्थी  खासकर? किशोर यह शिकायत करते हैं कि प्रायः वै उन शारीरिक व्यायामों को मी करने के लिये बाधित किये जाते हैं जिन्हें करना वे पसंद नहीं करते और जो उन्हें रुचिकर नहीं लगते मर क्या आप इसके बारे मे कुछ कहेंगी ?

 

 हम धरती पर अपना मनचाहा करने के लिये नहीं हैं, बल्कि प्रगति करने के लिये हैं ।

 

    शारीरिक व्यायाम तुम्हारे मनोरंजन या तुम्हारी सनको को तृप्त करने के लिये

 

     मौखिक उत्तर (यहीं अनुच्छेद ।

 

३५०


नहीं, बल्कि शरीर को विकसित करने और मजबूत बनाने के लिये विधिवत् अनुशासन के रूप में बनाये गये हैं ।

 

   सच्ची बुद्धिमानी तो यह है कि जो कुछ करो खुशी से करो, और यह संभव है यदि तुम जो कुछ करो उसे प्रगति का साधन बना लो । पूर्णता पाना बहुत कठिन है और इसे उपलब्ध करने के लिये हमेशा बहुत प्रगति की आवश्यकता होती हैं ।

 

   सुख की खोज में जाना निखद हीं अपने-आपको दुःखी करने का सबसे अच्छा उपाय है ।

 

   यदि तुम सचमुच शांति और आनंद चाहते हो तुम्हारी सतत लगन होनी चाहिये : ''मुझे ऐसी कौन-सी प्रगति करनी चाहिये ताकि मैं भगवान् को जान सकूं, उनकी सेवा कर सकूं?'''

 

    तुम इसे 'च' को दिखा देना । जो कुछ बच्चे कहते हैं उस पर उसे कान नन्हा देना चाहिये था । वह बहुत दिनों से यहां है । उसे यह बात मालूम होनी चाहिये ।

 

   यह (''सुख की खोज में जाना निक्षय हीं अपने-आपको दुःखी करने का सबसे अच्छा उपाय है' ') पूर्ण सत्य है । यह इस बात की पुष्टि करता हैं कि यदि तुम अपने क्षुद्र अहं को संतुष्ट करना चाहते हो तो तुम जरूर दुःखी होओगे । निश्चय हीं । अपने- आपको दुःखी करने का यह सबसे अच्छा तरीका हैं । यह कहना : '' ओह, यह मुझे उठा देता है; ओह, मुझे जो पसंद हों वह करना चाहिये; ओह फलाना मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता; ओह, जिंदगी मुझे वह नहीं देती जो मैं चाहता हूं !'' ओह!!! ''क्या मैं वह हू जो मुझे होना चाहिये?

 

      ''क्या मै वह करता हू जो मुझे करना चाहिये?

      ''क्या मैं उतनी प्रगति कर रहा हू जितनी मुझे करनी चाहिये?''

      तब वह रोचक बन जाता हैं । समझे!

 

      '' अपनी अगली प्रगति के लिये मुझे क्या सीखना चाहिये? मेरी कौन-सी कमजोरियां हैं जिन्हें मुझे सुधारना चाहिये? कौन-सी कठिनाई हैं जिसे मुझे पार करना है? मेरी कौन-सी कमजोरी है जिसे मुझे मिटाना ३?'' बस यहीं ।

 

    और तब, स्वभावतया, अगले क्षण : ''भगवान् की सेवा करने और उन्हें समझने के लिये मैं कैसे समर्थ बानू ?'' बस यहीं!

 

    मैंने खास तौर से इसे लिख दिया हैं ताकि तुम 'च ' को दिखा सको ।

 

   हर्र मां वह यह बात जानती है परंतु वह जानना चाहती थी कि बच्चों को यह बात कैसे समझाती जाये?

 

हां, इतना ही कहना हैं ।

 

(१९ -२ -११७२) '

 

    १लिखित प्रश्र और उत्तर । निम्नलिखित टिप्पणी मौखिक हैं ।

 

३५१


शारीरिक शिक्षा के प्रशिक्षकों के लिये कुछ उपयोगी सुज्ञाव

 

 (ये वाक्य प्रणव ने अंग्रेजी मे लिखकर माताजी को दिये

थे, और लगता है कि फ्रेंच मे इसका अनुवाद माताजी

और पवित्र ने किया था) ।

 

१.कक्षा में आने से पहले पाठ की तैयारी करके आओ । सोचो और हर ब्योरे को पहले से निर्धारित कर को ।

 

२.ठीक समय से जरा पहले आओ कक्षा के लिये जो कुछ जरूरी है उस सबकी जांच कर को और उसे तैयार रखो । काम में आनेवाले सभी उपकरणों को तैयार रखो ।

 

३.तुम खुद समय के पाबंद बनो और छात्रों से समय की पाबंदी का आग्रह करो ।

 

४.ठीक ढंग से क्ट्रपदे४ पहने और सीटी ले जाना मत भूलो ।

 

५.लड़को सें आग्रह करो कि ठीक ढंग की वरदी पहने ।

 

६.काम आरंभ करने से पहले कम-से-कम समय लो ।

 

७.अच्छी तरह बोलना और उत्तम आदेश देना सीखो ।

 

८.जब जरूरी समज्ञ तभी बोलो । तुम्हारी सभी व्याख्याएं संक्षिप्त होनी चाहिये । काम को प्रधानता दो !

 

९.प्रारंभिक कार्य मे यथार्थता पर बल दो । दैहिक फल पाने के लिये व्यायाम को बार-बार देहराओ ।

 

१०.खेल के समय खूब छूट दो और उसमें खुलकर खुशी से भाग लेने के लिये प्रोत्साहन दो । लेकिन उदासीनता और अनुशासनहीनता को प्रश्रय मत दो ।

 

११लड़कों में से हीं मुखिया को चुनो और कक्षा के कार्यों मे अच्छे फल के लिये उनका उपयोग करो ।

 

१२.ऐसा प्रयास करो कि लड़के अपने-आपको अनुशासित करने मे रस लें ।

 

१३.कक्षा की समझदारी को जगाओ ताकि छात्र कार्यक्रम मे अपनायी गयी क्रियाओं के तर्कसंगत और शिक्षात्मक मूल्य को समह्म ।

 

१४.व्यायाम की गतिविधि को कक्षा के पाठ के लिये पोषक द्रव्य का काम करना चाहिये और अंत तक उसे ठीक रीति से चलते रहना चाहिये : थकावट और परेशानी से बचने के लिये छात्रों की उस और उनकी क्षमता को ध्यान में रखकर सावधानी से व्यायाम का चुनाव करो ।

 

१५.थकावट और अब को दूर भगाते का मूल मंत्र हैं मनोरंजन ।

 

१६.और अधिक प्रयास के लिये प्रोत्साहित करने का सबसे अच्छा तरीका है अच्छे काम की सराहना ।

 

३५२


१७. रुचि को बनाये रखने के लिये हेर-फेर और विविधता जरूरी हैं । और पाठ में मनोयोग को बनाये रखने के लिये जरूरी है व्यायाम और सातत्य ।

 

१८.   हर श्रमसाध्य व्यायाम सें पहले शरीर को गरमा लेना नहीं भूलना चाहिये ।

 

१९.एक. स्वर्णिम नियम जिसे सदा याद रखना चाहिये : वे व्यायाम और क्रियाएं जिन्हें प्रशिक्षक अच्छी तरह जानता हैं एक लंबे अभ्यास के बाद हीं आसान बनी हैं, पर वे नौसिखिये के लिये नयी और कभी-कभी कठिन भी होती हैं । अतः प्रशिक्षक को एक ही दिन में पूर्णता की आशा नहीं करनी चाहिये ।

 

२०.जबतक छात्र धोरे-धीरे, सावधानी सें कठिन व्यायाम और कसरत के लिये तैयार नहीं हो जाते तबतक उन्हें ये चीजें करने की अनुमति कभी नहीं देनी चाहिये । बार-बार की असफलताओं आसानी से आत्म-विश्वास को नष्ट कर देती हैं ।

 

२१.जब प्रशिक्षक कुछ समझाये या दिखाये तब लड़कों को अर्धवृत्त में खड़े हो जाना चाहिये और छोटे कद के लड़कों को आगे । प्रशिक्षक को इस तरह खड़ा होना चाहिये कि वह सब को देख सके और छात्र भी अपनी-अपनी जगह से प्रशिक्षक को देख सकें ।

 

२२.सूरज की ओर मुंह करके छात्रों को कभी खड़ा नहीं करना चाहिये; जहांतक संभव हो उन्हें छाया मे ले आना चाहिये ।

 

२३.नियमित कार्यक्रम आरंभ करने से ठीक पहले पूरे दल को सावधान की मुद्रा मैं खड़ा करना अच्छा हैं । यदि जस भी बाधा आ जाये तो पूरे दल को आराम की मुद्रा में कर देना चाहिये । व्यर्थ मे छात्रों को सावधान की मुद्रा में रखना उचित नहीं, और जब छात्र सावधान की मुद्रा मे खड़े हों तो उन्हें जैसे-तैसे खड़े होने देने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।

 

२४.प्रत्येक पाठ का आरंभ सिलसिलेवार और आकर्षक ढंग उ होना चाहिये और समाप्ति भी उसी आकर्षक ढंग सें हो । पाठ के आरंभ के कुछ पहले पूरे दल को कुछ क्षणों के लिये सावधान की मुद्रा मे खड़ा होना होगा और छुट्टी देने के ठीक पहले भी इसी क्रम को दोहराना चाहिये । यह क्रिया में एकाग्रता और सचेतन प्रयास को सरल बनाता और उसके सामने एक लक्ष्य रखता है ।

 

२५.सारी शारीरिक क्रियाओं के पहले ''सुरक्षा '' का मूलमंत्र होना चाहिये ।

 

३५३

 

कक्षा के मुखिया को उत्तर
 


यहां हमारे इतने विविध प्रकार क्वे क्रिया- कलाप हैं कि किसी पक वरतु के साथ लगाकर उसमें प्रान्त करना कठिन हो जाता है शायद श्सीत्हिये हम साधारण भौसत अवस्था से आये नहीं बढ़ सकते! श फिर इसका कारण क्या हमारे अंदर दृढ़ एकाग्रता का अभाव है?

 

 साधारण औसत दर्जे के कार्य का कारण न तो विविधता है, न ही कार्य की अधिकता, कारण  है एकाग्रता की शक्ति का अभाव ।

 

   व्यक्ति को एकाग्र होना सीखना चाहिये और उसे सभी कार्य पूर्ण एकाग्रता के साथ करने चाहिये ।

 

(४ -७ -१९६१)

 

यह जानना सचमुच में एक समस्या हैं कि विधार्थियों मैं रुचि कैसे जगायी जाये चाहे वह खेलों मे हो या व्यायामों में अब हम किसी चीज में उनकी रुचि का अभाव देखते हैं तो हमारा उत्साह मी ठंडा पड़ जाता है

 

 विद्यार्थियों का उत्साह अध्यापक की सच्ची योग्यता के अनुपात में हीं होता हैं ।

 

(१२-७-१९६१)

 

   (दल-नायकों के लिये एक संदेश के विषय मे) आप हमसे जो चाहती हैं उससे हम बहुल दु? हैं कम-से-कम मैं ती हूं ? यह कार्य बड़ा कठिन है और हममें समय लगेमर बहुत तंबा समय ' अमी इस समय क्या किया जाये? चेतना को बदत्हना और श्रेष्ठ व्यक्ति बनने में काकी समय त्हनेमा अमी तो हम विद्यार्थियों के स्तर के ही हैं अतएव इस समय की समस्या का समाधान नहीं हुआ प्रत्येक दिन प्रत्येक विश्व क्वे लिये रुचि कैसे जगा सकते हैं?

 

    यह कार्य चेतना को बदलने और श्रेष्ठ बनने से भी अधिक दुः साध्य हैं । अतएव, तत्काल ही कार्य शुरू कर देना सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं । बाकी तो सब बहाने हैं जिन्हें हमारा आलस्य अपने आगे रख लेता है ।

 

(१५-७-१९६१)

 

हम अंतरात्मा और आत्मा फ्री प्रायः चर्चा करते हैं ' मैं इनके विषय में कुछ मी नहीं समझता  ये दोनों वस्तुए क्या हैं और इनकी अनुभूति कैसे प्रान्त की जा सकती है ?

 

३५७


श्रीअरविन्द ने इस विषय पर (अपने पत्रों मे) काफी कुछ लिखा हे और मैंने मी अपनी पुस्तक 'शिक्षा' मे इसकी पूरी व्याख्या की है । तुम्हें इस विषय को पढ़ना, अध्ययन करना चाहिये और सबसे बढ़कर इसे व्यवहार में लाना चाहिये ।

 

६४-१० -१९६१) ??

 

   मै चाहती हू कि तुम अपने अंदर ध्यानपूर्वक देखो और मुझे यह बताने का यत्न करो कि जासूसी कहानियों मे कौन-सी बात है जिसमें तुम्हें रस आता  है ।

 

(१६-१०-१९६१)

 

मैं इन्हें ' मन-बहलावा के लिये पड़ता हूं !जिस्मी विशेषतया पैरी मनसे की ' में ), सदा एक अदालत का दृश्य जिसमें वकील पैरी मेसन निश्चित रू से मुकदमा हारता प्रतीत, उसके को हत्या का अपराधी घोषित कर दिया जपता, सभी सबूत उसके विरूद्ध पढ़ते ? ' वकीत्च्च पैरी मेसन की कमात्ह की छात्र स्थिति को बदल देखती रहस्य- पितृहस्या ' और सारा मुकदमा किसी उच्च कोटि के बड़े पुत्रवान की मानसिक कसरत के समान प्रतीत ' हर बद्द पुस्तक की समाप्त करने के बाद ऐसा लगता कि प्राप्ति कुछ मी ', मैंने कुछ मी नया ' सीखा केवल समय नष्ट किया !

 

 यह बिलकुल हीं निरर्थक तो नहीं  है । तुम्हारे मन मे निःसंदेह तमस् बहुत अधिक हैं और लेखक की ये मानसिक कलाबाजी इस तमस को थोड़ा-सा झकझोर कर तुम्हारे मन को जगा देती  है । किंतु ऐसा देर तक नहीं टिक सकता और तुम्हें उच्चतर वस्तुओं की ओर मुड़ना होगा ।

 

(१६ -१० -१९६१)

 मधुर मां

 

    मैन एक बात देखी जो हम सब पर लगे; वह यह वि हम दो दिसंबर के कार्यक्रम में अधिक-से-अधिक खेलों में मांग' क्या अधिक अच्छा नहीं कि हम बहुत-से खत्तों में स्तर का प्रदर्शन करने की जगह एक या दो खेल सुनकर उनमें अच्छे- से-अच्छा प्रदर्शन करें?

 

प्रत्येक लड़का या लड़की अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करता  है और यदि वह

 

 शारीरिक शिक्षा का वार्षिक प्रदर्शन ।

 

३५८


उस प्रकृति के नियम का साहस और सच्चाई के साथ पालन करता है, तो वह सत्य के अनुसार चलता है । अतएव दूसरों के विषय में कोई मत बनाना या निर्णय लेना संभव नहीं  है । व्यक्ति केवल अपने विषय में ही जान सकता हैं, और तब भी उसे अपने-आपको धोखा न देने के लिये बहुत अधिक सच्चाई के साथ कार्य करना होगा ।

 

(४-११-१९६१)

 

मधुर मां

 

  आपने हमें ग-बार बताया है कि हमारे सारे क्रिया-कलाप भगवान के प्रति निवेदित होने चाहिये  इसका ठीक अर्थ क्या हैं और इसे कैसे किया जाये? उदाहरणार्श्र जब आदमी टेकनी या बास्केट-बॉत्छ खेल तो उसे कैसे निवेदित करे? हसके लिये स्वमावतया मानसिक रचनाएं काफी नहीं होती!

 

इसका यह अर्थ है कि तुम जो कुछ करो उसे किसी वैयक्तिक अहंभावयुक्त्त उद्देश्य, सफलता के लिये, यश-प्राप्ति के लिये, भौतिक लाभ के लिये अथवा झूठे घमंड के लिये न करो, बल्कि सेवा और निवेदन के भाव से करो ताकि तुम भागवत इच्छा के प्रति अधिक सचेतन हो सको तथा अपने-आपको अधिक संपूर्ण रूप से उन्हें सौंप सको, यह तबतक करते रहना चाहिये जबतक कि तुम इतनी उत्तरी न कर को कि तुम यह जान जाओ और यह अनुभव करने लोग कि स्वयं भगवान् ही तुम्हारे अंदर कार्य कर रहे हैं, उन्हींकी शक्ति तुम्हें अनुप्राणित कर रही  है, उन्हींकी संकल्प तुम्हें सहारा दे रहा है-यह अनुभूति तुम्हें केवल एक मानसिक ज्ञान के रूप हीं नहीं होनी चाहिये, बल्कि यह तुम्हारी चेतना की सच्ची अवस्था, एक सशक्त, सजीव अनुभूति होनी चाहिये ।

 

     इसे संभव बनाने के लिये, सभी अहंभाव-युक्त हेतु तथा अहंभाव की सभी प्रतिक्रियाओं को लुप्त हो जाना चाहिये ।

 

(२० -१ १ -१९६१)

 

मधुर मा

 

    हमने शारीरिक-शिक्षण की समस्याओं और संवद प्रणालियों पर मित्रों के साध बातचीत की है मूल समस्या यह है : ऐसा कार्यक्रम कैसे बनाया जाये जिसे सब पसंद करते हों और जो सामान्यतया सभी सदस्यों क्वे लिये अधिक- से-अधिक प्रभावकारी हो? क्या सांख्य आवश्यक हैं? क्या हमें किसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती नहीं करनी चाहिये? और यदि स्वतंत्रता दे दी जाये तो क्या वह व्यावहारिक झप मे ठीक रहेगा? आदि... यह ऐसा विषय

 

३५९


   है जिसका ऐसा समाधान खोजना सरल नहीं है जो प्रत्येक को काफी मात्रा मे खुश रख सके झ यदि मां स्वयं हस्तक्षेप करें तो बात  है !

 

 यह असंभव हैं । प्रत्येक की अपनी रुचि होती  है और अपना स्वभाव । बिना अनुशासन के कोई कार्य नहीं किया जा सकता-सारा जीवन ही अनुशासन हैं ।

 

(२०-९-१९६२)

 

    अपने शारीरिक शिला के कार्यक्रम तथा यहां क्वे कई अन्य क्रिया-कलापों के विषय मे जब मैं एक मित्र से बात कर रहा था तो उसने पूछा : ''क्या तुम एक मी ऐसे व्यक्ति का सच्चा उदाहरण दे सकते हो जो हनते सारे खेलों में माय लेता हो और उन सबमें अपना मानदंड काकी ऊंचा तख्ता हो- सारे संसार में सिर्फ एक व्यक्ति? ''

 

 यह न भूलो-तुम सब जो यहां हो- कि हम ऐसी वस्तु को उपलब्ध करना चाहते दवे जो अभीतक पृथ्वी पर कहीं चरितार्थ नहीं हुई हैं; अतएव जो हम करना चाहते हैं उसका उदाहरण कहीं अन्यत्र ढूंढना मूर्खता की बात है ।

 

   उसने यह भी कहा था : ''माताजी कहती हैं कि जिन लोगों के पास किसी विशेष विषय की प्रतिमा है और जो उसका दूरी तरह ले अनुसरण करना चाहते हैं उन्हें यहां दूरी स्वतंत्रता तथा सब ' प्रान्त हैं! ', उदाहरणार्श्र एक महान संगीतकार आदि बनने के लिये स्वतंत्रता कहां है '' मट्ठर मर क्या आप इस स्वतंत्रता के विषय पर कुछ कहेगी ?

 

 मैं जिस स्वतंत्रता की बात करती हूं वह  है आत्मा के संकल्प का अनुसरण करने की स्वतंत्रता, मानसिक और प्राणिक सनको और कल्पनाएं पर चलने की स्वतंत्रता नहीं ।

 

   में जिस स्वतंत्रता की बात करती हू वह है आडंबरहीन सत्य जो निम्नतर, अज्ञानमय सत्ता की सभी दुर्बलताओं और इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने की प्रवृत्ति रखता है ।

 

   मै जिस स्वतंत्रता की बात करती हूं वह हैं व्यक्ति की अपनी उच्चतम, श्रेष्ठतम और दिव्यतम अभीप्सा के प्रति पूर्ण और निःशेष भाव में निवेदित करने की स्वतंत्रता ।

 

   तुम में से कौन इस मार्ग का सच्चे दिल से अनुसरण करता हैं? गत बना लेना तो सरल  है, किंतु बात को समझना अधिक कठिन है और चरितार्थ करना तो इससे भी कहीं अधिक कठिन हैं ।

 

(१८-११-१९६२)


३६०


    लड़कियां सदा ही नुकसान में रहती हैं : दे लड़कों की तरह जो चाहे नहीं कर सकतीं !

 

क्यों नहीं?

 

    तुम्हारे कथन के विरोध में सैकड़ों प्रमाण हैं ।

 

(३१-५-१९६३)

 

   मेरे मस्तिष्क मैं काफी ''छुडा- कर्कट'' भरा है जो मुझे स्पष्टतया सोचने और नये विचारों को शीघ्रतापूर्वक ग्रहण करने से रोकता है मैं इससे कैसे मुक्त हो सकता हूं ?

 

अधिक अध्ययन करने से, अधिक सोचने-विचारने से, बौद्धिक व्यायाम से । उदाहरणार्थ, किसी भी सामान्य विचार का निरूपण करो और फिर उसके विरोधी विचार का और तब इन दोनों विचारों मे समन्वय खोजों, दूसरे शब्दों में, एक ऐसा तीसरा  ढूंढ जो इन दोनों मे समन्वय स्थापित कर दे ।

 

(२५-६-६ -१९६३)

 

 तुम उपन्यास क्यों पढ़ते हो ? यह एक मूर्खतापूर्ण कार्य है और इसमें समय नष्ट होता है । यह भी एक कारण है जिससे तुम्हारे मस्तिष्क में स्पष्टता नहीं है और वह अब भी अस्तव्यस्त हैं ।

 

(२७-६-१९६३)

 मधुर मां

 

 यह सहज-प्रवर्ती पुरुष मैंने ए-२ दल के बच्चों मे एक बड़ी अनोखी बात देखी; लड़के लड़कियों के सक् काम करना नहीं चाहते; यहां तक कि वे उनके पास श .उनके साध खड़ा होना मी रसद नहीं करते ? यह मेद-मान् हनन छोटे बच्चों मे जो अभी मुश्किल ले  वर्ष के ही हुई हैं कैसे आ नया बड़ी विचित्र बात है यह !

 

यह पूर्वजों से आयी हुई चीज है और अवचेतना सें उठी है ।

 

   यह सहज-प्रवृत्ति पुरुष जाति के दंभ, अपनी श्रेष्ठता के मूर्खतापूर्ण विचार, और इससे मी अधिक इस मूर्खतापूर्ण भय पर आधारित है कि खो एक भयंकर प्राणी है जो तुम्हें पाप के मार्ग पर खींच लाती .हैं । बच्चों मे, अभीतक यह अवचेतन रूप मे है, पर उनके कार्य पर अपना प्रभाव अवश्य डालती है ।

 

३६१


मधुर मां

 

  आपने हमें बताया है कि लड़के और लड़कियों का यह अलगाव पूर्वजों से आयी हुर्र चीज है किंतु तो मी आपसे यह इतना आवश्यक हो गया है कि - हमें कप्तानों को क्या करना चाहिये मेरा अपना विचार तो यह है कि इस उन्हें त्राहि देना श कमी डाटना मी अधिक पसंद करते हैं मैं सोचता हूं कि हंस ओर  आंखें मूंद लेने ले उस समस्या का महत्व कम हो जाता है और इस तद् लड़कियों और लड़कों के बीच का भेद मी कृमिल पड़ जाता है  आपका क्या विचार है ?

 

 इसके लिये कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता, सब कुछ विशेष व्यक्ति और परिस्थितियों पर निर्भर हैं । दोनों ढंगों से अच्छे-बुरे तत्त्व, लाभ और हानियां हैं । कप्तानों के लिये, मुख्य बात यह हैं कि उनमें व्यवहार-कौशल और पर्याप्त आंतरिक बोध हो ताकि जब जरूरत हो तो वे हस्तक्षेप कर सकें और जब न देखना ज्यादा अच्छा हो तो आंखें मूंद सकें ।

 

(१५-७-१९६३)

 

क्या यहां इस स्थान पर जहां हमें इतनी अधिक स्वतंत्रता प्राप्त हैं और जिससे हम लाभ उठाने मे असमर्थ हैं पक आधारभूत अनुशासन का होना अधिक अच्छा नहीं होगा ?

 

 तुम यह कह रहे हो, किंतु तुम स्वयं उन लोगों में सें हो जिनसे अति आवश्यकता पड़ने पर, उदाहरणार्थ, शारीरिक शिक्षा में, जरा-से भी अनुशासन की मांग की जाये तो (कम-से-कम विचार मे) विद्रोह कर बैठते हैं ।

 

(२१-७-१९६३)

 

हमारे अध्यापक 'क' ने गंभीर और ढंग ले हमें भाषण दिया है : ''कठिन परीक्षाओं को पास करने के लिये तैयार रहो हम पक कठिन और भयानक स्थिति क्वे कगार पर हैं '' ' उन्होने हल्की व्याख्या नहीं की

 

 वे अपने विचार को समह्म देते तो अच्छा रहता, क्योंकि मुझे पता नहीं कि है किस बात की चर्चा कर रहे थे- शायद वे तुम्हें छिछोरेपन, विचारशीलता, लापरवाही और असावधानी के प्रति चौकस करना चाहते थे ।

 

    तुम सब युवा लोगों का जीवन यहां बड़े आराम का रहा है, और तुम इससे लाभ

 

३६२


उठाकर आध्यात्मिक विकास पर पूरा ध्यान देने के स्थान पर, बहुत ज्यादा बदनामी मोल लिये बिना, जितना हो सका अपना मनबहलाव करते रहे, अतएव तुम्हारी सजगता दबी रहीं।

 

    निःसंदेह 'क' ने तुम्हें फिर से जगाने के लिये ही ऐसा कहा होगा ।

 

(२७-८-१९६३)

 

   पहली दिसंबर क्वे प्रदर्शन के लिये मेरी दूरी तैयारी नहीं हुई है और सबा हई उसके लिये मुझमें जरा मी उत्साह नहीं है

 

 जब व्यक्ति कोई कार्य करने का निर्णय कर ले और उसे स्वीकार कर ले तो उसे अधिक-से-अधिक अच्छे ढंग से करना चाहिये ।

 

  प्रत्येक वस्तु चेतना और आत्म-संयम के विकास करने का अवसर हो सकती हैं । और विकास कर सकने का यह प्रयत्न तत्काल कार्य को, वह चाहे जो भी हो, रोचक बना देता हैं।

 

(२६ -९ -१९६३)

 

श्रीअरविन्द अपने एक सूत्र' [न० १६४ ) मे लिखते हैं : ''जो लोम अपने अपर स्वेच्छापूर्वक आरोपित कानन को स्वतंत्रतापूर्वक पूर्व रूप से और बुद्धिमानी से मानने मैं असमर्थ हैं उन्हें दूसरों की इच्छा के अधीन रहना चाहिये । '' मां मैं ऐसा ही प्राणी हू क्या आप मुझ पर अपना अनुशासन प्रयुक्त करेगी?

 

मेरे बच्चे, ठीक यहीं मैं काफी अरसे से करने की कोशिश कर रही हूं, विशेषतया जब सें मै तुम्हारी कापी अपने पास मंग रहीं हूं और उसे शुद्ध कर रहीं हूं ।

 

   अनुशासन के इसी उद्देश्य से मैंने तुम्हें रोज एक हीं वाक्य लिखने को कहा हैं- उसका लंबा होना भी आवश्यक नहीं, किंतु उसे शुद्ध होना चाहिये- पर अफसोस!

 

   अभीतक, मुझे इसमें सफलता नहीं मिली हैं- तुम्हारे वाक्य प्रायः ही लंबे और अस्पष्ट होने हैं, कुछ अन्य छोटे भी होते हैं-पर सभी में गलतियों होती हैं और प्रायः, प्रायः हीं, वही-की-वही गलतियों, लिंग की, वाक्यों के अंदर शब्दों के परस्पर-संबंध की तथा क्रिया के रूपों की गलतियों होती हैं जिन्हें मैं कितनी हीं बार ठीक कर चुकी हूं ।

 

    ऐसा लगता हैं कि मुझसे वापिस पाने पर तुम अपनी कापी को चाहे देखते तो हो, पर उसका बारीकी से अध्ययन नहीं करते अपनी उन्नति के लिये उससे लाभ उठाने की कोशिश भी नहीं करते ।

 

 सेटिनरी वोल्यूम', खण्ड १७, पृ० ९९ ।

 

३६३


   जीवन को अनुशासन में रखना आसान नहीं है, उन लोगों के लिये भी जो बलवान हैं, अपने साथ कड़ाई का प्रयोग करते हैं, जो साहसी एवं सहनशील हैं ।

 

   किंतु अपने सारे जीवन को अनुशासित करने के लिये प्रयत्न करने से पहले, त्रस्त को अपनी कम-से-कम एक क्रिया को ही अनुशासन में रखने की कोशिश करनी चाहिये, और तबतक करते रहना चाहिये जबतक उसमें सफलता न प्राप्त हो जाये ।

 

(१३ -१० -१९६३)

 

सुना हैं कि आपकी के लिये आपके पास (अंग्रेजी साहित्य की) कुछ ' की मैत्री गयी ' आय केवल माताजी और श्रीअरविन्द की ' का ही पड़ा जाना पसंद करती हैं आपने बल्कि यह मी कहा है कि इन ' के ये चेतना का स्तर नीचे गिर जाता है !

 

   मां क्या यह बात उन पर ही प्रयुक्त होती है जो योग कर रहे हैं या यह सत्हाह आप सबको देती हैं ?

 

 पहली बात यह है कि जो कुछ तुमसे कहा गया है वह ठीक नहीं हैं । दूसरी, सलाह जिसे दी जाती हैं उसीके लिये होती हैं, इसे सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता ।

 

(१२-११-१९६३)

 

    मैं अपनी मे बहुत अनियमित हूं मेरी समझ मे नहीं आता कि हसके  लिये क्या करूं?

 

 अपने ''तमस'' को थोड़ा हटा दो, अन्यथा तुम मूर्ख-के-मूर्ख रह जाओगे!

 

(२७-१२-१९६३)

 

हम प्रायः नयी चीज करने ले डरते हैं; शरीर नये तरीके ले काम करने ले इनकार करता है उदाहरण के लिये जिम्नास्टिक्स की कोई नयी कसरत या लगाने के किसी नये तरीके ले डरता है । यह डर कहां से आता है? सहस मुक्त कैसे हुआ जा सकता है? और फिर ' को उसके त्रिये कैसे प्रोत्साहित किया जा सकता है?

 

 शरीर किसी भी नयी चीज से डरता हैं क्योंकि उसका आधार हीं हैं तमस प्राण ही उसमें राज्य की प्रमुखता लाता है । इसी लिये, सामान्यतः, महत्त्वाकांक्षा, स्पर्धा और

 

३६४


अहंकार के रूप में प्राण का हस्तक्षेप हीं शरीर के तमस को आह फेंकने और प्रगति के लिये आवश्यक प्रयास करने के लिये बाधित करता है ।

 

    स्वभावतः, जिनमें मन प्रधान हैं है अपने शरीर को भाषण देकर भय पर विजय पाने के लिये सब प्रकार की युक्तियाँ दे सकते हैं ।

 

    सबके लिये सबसे अच्छा उपाय है भगवान् के प्रति आत्म-निवेदन और उनकी अनंत 'कृपा' पर विश्वास ।

 

(१३ -५ -१९६४)

 

आध्यात्मिक अनुशासन के लिये तैयार हो जाने की प्रतीक्षा करते हुए मुझे माताजी ये इस निद्रा मैं ले बाहर निकालने और अपनी चैत्य चेतना को जगाने की प्रार्थना करने के अतिरिक्त और क्या करना चाहिये ?

 

 अपनी बुद्धि को विकसित करने के लिये नियमित रूप से और बढ़े ध्यान के साथ श्रीअरविन्द की कृतियों पढ़ो । अपने प्राण को विकसित करने और उस पर प्रभुत्व पाने के लिये, कामनाओं को जितने के संकल्प के साथ - ध्यान से अपनी गतियों और प्रतिक्रियाओं का अवलोकन करो, अपने चैत्य पुरुष को पाने और उसके साथ एक होने के लिये अभीप्सा करो । भौतिक रूप से, तुम जो कर रहे हो उसे करना जारी रखो, अपने शरीर को विधि पुरःसर विकसित करो और उस पर अधिकार प्राप्त करो, क्रीड़ांगण मैं और अपने काम के स्थान पर काम द्वारा अपने-आपको उपयोगी बनाओ, और यह सब जितना बने निःस्वार्थ रूप से करो ।

 

अगर तुम सच्चे, ईमानदार और निष्कपट हो तो मेरी सहायता जरूर तुम्हारे साथ रहेगी और एक दिन तुम उसके प्रति सचेतन हो जाओगे ।

 

(२२ -७ -१९६४)

 

कई बार मेरी अच्छा होती हैं कि मैं अपनी सारी किया-' छोड़ दूं- खेत्हू बैठूं अध्ययन आदि और सारा समय काम मैं लगा दूं ' मेरा तर्क इसे स्वीकार नहीं करता यह विचार ' कहां से और क्यों आता है ?

 

 इस संबंध में तुम्हारा तर्क ठीक है । मनुष्य की बाह्य प्रकृति में प्रायः हीं एक तामसिक प्रवृत्ति विधामान रहती हैं और उसका कार्य होता है जीवन-संबंधी अवस्थाओं को सरल बना देना ताकि जटिल परिस्थितियों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न न करना पड़े । किंतु यदि व्यक्ति अपनी समग्र. सत्ता विकसित करना चाहता हैं तो यह सरलीकरण बिलकुल ठीक नहीं ।

 

(१९ -८ -१९६४)

 

३६५


 प्रायः मैं श्रीअरविन्द की कृतियां पढ़कर या उनके शब्द सुनकर आश्चर्यचकित ख जाता हू : यह शाश्वत सत्य यह अभिव्यक्ति का सौंदर्य लोगों की आंखों ले कैसे बच निकत्हता है? यह सचमुच आचार्य की बात हे कि अभीतक उन्हें ' कम-से-कम एक परम स्रष्टा शुद्ध कलाकार उत्कृष्ट कवि क्वे कप में मान्यता नहीं मिली? तो मैं अपने-आप ले कहता हूं कि मेरे निर्णय मेरे मूल्यांकन श्रीअरविन्द के प्रति भक्ति में रंग हुए हैं- और हर एक नकल नहीं है त्वेकिन नहीं लगता कि यह ठीक है? तो फिर औरों क्वे हृदय उनके शब्दों रहे मंत्रमुग्ध क्यों नहीं होते?

 

 श्रीअरविन्द को कौन समझ सकता है ? बे समस्त विश्व के जैसे विशाल हैं और उनकी शिक्षा अनंत हैं...

 

  उनके जरा नजदीक आने का एकमात्र उपाय है उन्हें पूरी सच्चाई के साथ प्यार करना और अपने-आपको बिना संकोच के उनके कार्यों के प्रति समर्पित कर देना । इस तरह, हर एक अपना अच्छे-से-अच्छा प्रयास करता है और श्रीअरविन्द ने संसार के जिस रूपांतर की भविष्यवाणी की है उसके लिये अपनी ओर से भरसक सहयोग देता हे ।

 

(२-१२-१९६४)

 

श्रीअरविन्द ने कही पर कह? है कि अगर हम भागवत कृपा क्वे आगे समर्पण कर दें तो वह हमारे लिये सब कुछ कर देगी तब फिर तपस्या का क्या

 

 अगर तुम यह जानना चाहो कि श्रीअरविन्द ने अमुक विषय पर क्या कहा है तो तुम्हें कम-से-कम वह सब तो पढ़ना ही चाहिये जो उन्होंने उस विषय पर लिखा है । तब तुम देखोगे कि उन्होंने ऊपरी तौर पर बहुत अधिक परस्पर-विरोधी बातें कही हैं । लेकिन जब तुम सब कुछ पढ़ लो और थोड़ा-बहुत समझ लो तो देखोगे कि सभी विरोध एक-दूसरे के पूरक हैं और उन्हें संपूर्ण समन्वय मे व्यवस्थित और एकीकृत किया गया हैं ।

 

    यह रहा श्रीअरविन्द का एक और उद्धरण जो तुम्हें बनायेगा कि तुम्हारा प्रश्र अज्ञान पर आधारित है । और भी बहुत-से हैं जिन्हें तुम रुचि के साथ पढ़ा सकते हो, जो तुम्हारी समझ को ज्यादा नमनीय बनायेगा : '

 

   '' अगर पूर्ण समर्पण न हो तो बिल्ली के बच्चे की वृत्ति नहीं अपनायी जा सकती; वह तामसिक निष्ठित बन जाती है ओर अपने-आपको समर्पण का नाम दे लेती

 

३६६


है । अगर शुरू मे पूर्ण समर्पण संभव न हो तो इसका मतलब यह है कि व्यक्तिगत प्रयास आवश्यक है । ''

 

(१६-१२-१९६४)

 

    एकाग्रता और संकल्प-शक्ति को कैसे बढ़ायी जाये? कोई भी काम करने के लिये इनकी बहुत आवश्यकता होती है?

 

एक नियमित, अध्यवसायी, कठोर, अविचल अभ्यास के द्वारा-मेरा अभिप्राय हैं एकाग्रता और संकल्प-शक्ति के अभ्यास द्वारा ।

 

(७-४-१९६५)

 

    क्या मानसिक उदासीनता और उत्सुकता का अभाव एक तरह की मानसिक

 

 साधारणत: ये चीजें मानसिक जड़ता के कारण होती हैं, लेकिन कोई बहुत तीव्र साधना के द्वारा शांत-स्थिरता और तटस्थता तथा परिणामतः पूर्ण समता प्राप्त कर सकता हैं जिसके आगे अच्छा-बुरा, प्रिय और अप्रिय बाकी नहीं रहते । लेकिन उस हालत में, मानसिक क्रिया की जगह बहुत ऊंचे प्रकार की अंतर्भासिक किया ले लेती है !

 

(२५ -५ -१९६६)

 

       इस मानसिक आलस्य और जड़ता से कैसे निकला जाये?

 

 चाह कर, अध्यवसाय और आग्रह से । हर रोज पढ़ने, व्यवस्था करने और विकास के मानसिक व्यायाम दूरा ।

 

  दिन के दौरान कभी यह किया जाये और कभी एकाग्रता में मानसिक नीरवता का अभ्यास, बारी-बारी से बदलते रहें ।

 

(१-६ -१९६६)

 

३६७

 

बातचीत


 

५ अप्रैल, १९६७

 

 (माताजी एक टिप्पणी लिखती हैं) यह एक प्रश्र का उत्तर हैं । क्या तुम्हें मालूम है  कि मैंने विधालय के अध्यापकों से क्या कहा हैं? मुझसे एक और प्रश्र किया गया हैं । यह हैं मेरे उत्तर का आरंभ :

 

   '' 'सामान्य जीवन' और ' आध्यात्मिक जीवन' के बीच विभाजन एक पुरानी रूढ़ि है !"

 

   तुमने यह प्रश्र पढ़ा हैं ? मुझे फिर से पढ़कर सुनाओ ।

 

   ''हमने भविष्य के बारे में बातचीत की ! मुझे  ऐसा लगा कि सभी अध्यापक कुछ-न-कुछ करने के लिये उत्सुक ताकि बच्चों को इस बात का भान सके कि दे यहां क्यों  उस समय मैंने कह ? कि मेरी समझ में बच्चों के सक् प्रायः आध्यात्मिक चीजों की बात करने से उलटा परिणाम आत ?, और ये शब्द अपना मूल्य खो बैठते !...

 

 '' आध्यात्मिक चीजें' '... आध्यात्मिक चीजों से उसका क्या मतलब है?

 

   रिष्ट है कि अगर अध्यापक उसे एक कहानी के तौर पर सुनाएं..

 

 आध्यात्मिक चीजें... उन्हें इतिहास पढ़ाया जाता है  या आध्यात्मिक चीजें, उन्हें विज्ञान पढ़ाया जाता है या आध्यात्मिक चीजें । यहीं तो मूर्खता हैं । इतिहास में ' आत्मा' मौजूद है विज्ञान में ' आत्मा' मौजूद हैं-'सत्य' हर जगह है । और जरूरत इस बात की है कि उसे गलत तरीके से नहीं, बल्कि सत्य-विधि सें पढ़ाया जाये । यह बात उनके दिमाग में नहीं घुसती ।

 

वह आगे लिखता है : ''मैंने सुज्ञाभाव दिया है कि ज्यादा अच्छा यह होगा कि मिलकर माताजी की आवाज' को सुना जाये क्योंकि हम क्ले सब कुछ न समझ पाये परंतु आपकी आवाज अपना आंतरिक कार्य दूत कर लेगी जिसका मूल्यांकन हम नहीं कर सकते इस बारे में मैं यह जानना चाहूंगा कि बच्चे को आपके संपर्क में लाने का सबसे अच्छा तरीका क्या हे ऐसा तगाई कि सभी सुझाव जिनमें मेरे सुझाव की मी गिनती है मनमाने हैं जिनका वास्तविक मूर्धन्य कुछ नहीं?

 

      माताजी की कक्षाओं के ध्वन्याकित फ़ीते ।

 


''माताजी क्या यह ज्यादा अच्छा न होगा कि अध्यापक केवल उन्हीं विषयों पर ध्यान दें जो वै पढ़ा रहे हैं क्योंकि आध्यात्मिक जीवन की देख-रेख करने क्वे लिये तो माप हैं ही? ''

 

 मैं उसे ए यह उत्तर दूंगी : कोई '' आध्यात्मिक जीवन' ' हैं हीं नहीं! यह वही पुराना विचार हैं, वही पुराना विचार-एक संत हैं, संन्यासी हैं,... जो आध्यात्मिक' जीवन का प्रतिनिधित्व करता हैं और बाकी सब सामान्य जीवन का- और यह सत्य नहीं है, यह सत्य नहीं हैं, यह बिलकुल सत्य नहीं हैं ।

 

     अगर उन्हें अब भी दो चीजों के बीच विरोध की जरूरत है- क्योंकि बेचारा मन के विरोध के बिना काम नहीं कर सकता- अगर रूहें विरोध की जरूरत हैं, तो वे 'सत्य' और 'मिथ्यात्व' के बीच के विरोध को लें सकते हैं, यह जस ज्यादा अच्छा है; मै यह नहीं कहती कि यह पूर्ण है, लेकिन यह जस ज्यादा अच्छा है । तो, सभी चीजों में, सब जगह 'सत्य' और 'मिथ्यात्व' का मिश्रण हैं : तथाकथित '' आध्यात्मिक जीवन' ' मैं, संन्यासियों में, सवारियों में, उन लोगों में जो समझते हैं कि धरती पर दिव्य जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन सबमें- वहां भी ' सत्य ' और 'मिथ्यात्व ' 'का मिश्रण है ।

 

किसी प्रकार का विभाजन न करना ज्यादा अच्छा होगा ।

 

(मैंने)

 

    बच्चों के दिल में, ठीक इसी कारण कि वे बच्चे हैं, भविष्य को जितने का संकल्प बैठाना, हमेशा आगे देखने और जितनी तेजी से हो सके उतनी तेजी सें... भावी की ओर आगे बढ़ने का संकल्प बैठाना बहुत अच्छा है  । लेकिन वे अपने साथ भूतकाल के बोझ का, भूत के कष्टकर बड़े पत्थर का पूरा, असह्य भार न घसीट । जब हम चेतना और ज्ञान में बहुत ऊंचे हों, तभी पीछे देखना यह जानने के लिये हितकर हो सकता हैं कि है कौन-से बिंदु हैं जहां से यह भविष्य अपने-आपको प्रकट करना शुरू करता है । जब हम सारे चित्र को देखें, जब हमारे अंदर सार्वभौम दृष्टि हो, तब यह जानना रुचिकर होता हैं कि भविष्य में जो उपलब्धि होगी वह पहले से हीं उद्घोषित की जा चुकी है, जैसे, श्रीअरविन्द ने कहा कि दिव्य जीवन धरती पर अभिव्यक्त होगा, क्योंकि वह पहले हीं 'जढ़तत्त्व' की गहराइयों में अंतर्निहित हैं; इस दृष्टि से पीछे देखना या नीचे देखना मजेदार हो सकता हैं- यह जानने के लिये नहीं कि क्या द्रुआ था, या यह जानने के लिये कि मनुष्य क्या जानते थे : यह बिलकुल बेकार है । बच्चों से कहना चाहिये : अद्भुत चीजें अभिव्यक्त होने को हैं, उन्हें ग्रहण करने के लिये अपने-आपको तैयार करो । तब अगर वे कुछ ज्यादा ठोस, कुछ ज्यादा सुगम बात जानना चाहें तो तुम कह सकते हों : श्रीअरविन्द इन चीजों की घोषणा करने

 

३७२


आये थे; तुम जब उनकी कृतियों पढ़ा सकोगे तो इस बात को समझो । तो इससे रस जागता हैं, जानने की इच्छा जागती है  ।

 

मैं बहुत स्पष्ट रूप से देख सकता हूं कि वह किस कठिनहि की ओर इशारा कर रहा है : अधिकतर लोग- अपने सारे लेखों या भाषणों मे- अपने निजी अनुभव के सत्य बिना आडम्बरपूर्ण भाषा का उपयोग करते हैं जिसका कोई असर नहीं होत्र बल्कि नकारात्मक असर होता है वह इसी ओर सकेत कर रहा है !

 

 हां, इसीलिये उन्हें वह करना चाहिये जो मैंने बताया है ।

 

   आह ! लेकिन अभी बहुत समय नहीं बीता जब कि अधिकतर अध्यापक कहा करते थे : '' ओह! लेकिन हमें ऐसा करना चाहिये क्योंकि -सब जगह ऐसा हीं किया जाता हैं । '' (मुस्कराते हुए) वे कुछ दूर तो आ हीं हाये हैं । लेकिन अभी बहुत दूर जाना है !

 

   लेकिन सबसे बढ़कर, सबसे जरूरी यह है कि इन विभाजनों को हटाया जाये । और उन में से हर एक के मन मे, सभी के मन में यह हैं : आध्यात्मिक जीवन और साधारण जीवन बिताने, आध्यात्मिक चेतना और सामान्य चेतना मे विभाजन-लेकिन चेतना एक हीं है ।

 

   अधिकतर लोगों में तनि -चौथाई चेतना सोया हुई और विकृत होती है, बहुतों में वह और भी अधिक, पूर्णत: विकृत होती है । लेकिन जिस बात की जरूरत हैं वह बस, यह नहीं है कि एक चेतना में से दूसरी मे छलांग लगायी जाये, जरूरत इस बात की है कि अपनी चेतना को खोला जाये (अपर की ओर संकेत) और उसे 'सत्य' के स्पंदनों से भरा जाये, उसका उस चीज के साथ सामंजस्य किया जाये जिसे यहां होना चाहिये-वहां तो है समस्त शाश्वत काल से है हीं- लेकिन यहां, यहां होना चाहिये : जो धरती का ''भावी कल' ' हैं । अगर तुम अपने ऊपर वह सारा बोझ लाद को जिसे तुम्हें अपने पीछे खींचना हैं, अगर तुम उन सब चीजों को घसीटते चलो जिन्हें छोड़ देना चाहिये, तो तुम बहुत तेजी से आगे न बढ़ सकोगे ।

 

   ध्यान रहे, धरती के भूतकाल की बातों को जानना बहुत मजेदार और बहुत उपयोगी हो सकता है, लेकिन वह ऐसी चीज न हो जो तुम्हें भूत के साथ बांध दे या कस दे । अगर उसका उपयोग कूदने के तख़्ते की तरह से किया जाये तो ठीक हैं, परंतु वास्तव मे, यह है बहुत गौण ।

 

(मौन)

 

    बच्चों को पढ़ाने के नये तरीके को रूप देना या विस्तार देना बहुत मजेदार होगा ।

 

३७३


उन्हें बहुत छोटी उम्र में लें लो । जब वे बहुत छोटे हों तो ज्यादा आसानी रहती हैं । हमें लोगों की जरूरत हैं- ओह! हमें विलक्षण अध्यापकों की जरूरत होगी-जिन्हें, पहले जो कुछ ज्ञात है उसका काफी अच्छा प्रलेखन प्राप्त हो ताकि उनसे जो कुछ पूछा- जाये उसका वे उत्तर दे सकें, और साथ-हीं-साथ, अगर अनुभव नहीं, तो कम-से- कम?  सच्ची अंतर्भासात्मक बौद्धिक वृत्ति का ज्ञान हो- अनुभव ज्यादा अच्छा हैं, और-स्वभावत: उसकी क्षमता हो तो और भी अच्छा- कम-से-कम यह ज्ञान तो हों ही कि जानने का सच्चा तरीका है मानसिक नीरवता, एकाग्र नीरवता जो सत्यतर 'चेतना' की ओर मूजी हो, और उससे आनेवाली चीज को ग्रहण करने की क्षमता हो । इससे अच्छा तो यह होगा कि इसे ग्रहण करने की क्षमता होरा कम-से-कम, यह समझा दिया जाये कि यहीं सच्ची चीज है-यह एक प्रकार का प्रदर्शन हो- और यह बताया जाये कि यह केवल इस दिष्टि से काम नहीं करता कि क्या सीखा जाये, ज्ञान के समस्त क्षेत्र की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि जो कुछ करना हैं उस सबके क्षेत्र से मी : यह निर्देश पाने की क्षमता हों कि उसे कैसे किया जाये; और जैसे-जैसे तुम बढ़ते जाओगे यह इस स्पष्ट बोध में बदल जायेगा कि क्या करना चाहिये, और इस बात का यथार्थ निर्देश होगा कि कब करना चाहिये । कम-से-कम बच्चों में, जैसे हीं सोचने की क्षमता आये-यह सात वर्ष की अवस्था में आरंभ होती है, पर चौदह-पंद्रह तक बहुत स्पष्ट हों जाती है - उन्हें यह बतला देना चाहिये कि वस्तुओं के गहरे सत्य के साथ संबंध रखने का यहीं एक तरीका है, और यह कि बाकी सब कम या अधिक तौर पर चीज का एक भद्दा मानसिक अनुमान है जिसे प्रत्यक्ष जाना जा सकता हे, बच्चों को सात वर्ष की अवस्था में जरा-सा निर्देशन दें देना चाहिये और चौदह वर्ष की अवस्था मे यह करने का पूरा तरीका समझा देना चाहिये ।

 

निष्कर्ष यह है कि स्वयं अध्यापकों में अनुभूति और साधना का कम-से-कम सच्चा आरंभ होना चाहिये और यह कि यह किताबें इकट्ठी करने और उन्हींकी दोहरा देने का प्रश्र नहीं है  । इस तरह तुम अध्यापक नहीं हों सकते; अगर बाहरी दुनिया ऐसा होना चाहती है  तो उसे होने दो । हम ''प्रोपेगडा' ' करनेवाले नहीं हैं, हम केवल यह दिखा देना चाहते हैं कि क्या किया जा सकता है और यह प्रमाणित करने की कोशिश करना चाहते हैं कि यह करना ही पड़ेगा ।

 

   जब तुम बच्चों को बहुत छोटी अवस्था में लेते हो तो यह अद्भुत बात होती है । करने के लिये बहुत कम होता हैं : केवल होना काफी होता है ।

 

    कभी स्व न करो ।

    कभी आपे सें बाहर न होओ ।

    हमेशा समझा ।

 

    और करने लायक चीज बस, यहीं है-स्पष्ट रूप से यह जानो और देखो कि यह गति क्यों हुई है , यह आवेग क्यों आया है , बच्चे का आंतरिक गठन क्या है, कौन-सी

 

३७४


चीज है  जिसे मजबूत बनाना और आगे लाना चाहिये; उन्हें छोड़ दो, खिलन के लिये स्वतंत्र छोड़ दो; उन्हें बहुत-सी चीजें देखने का, बहुत-सी चीजें छूने का, यथासंभव अधिक-से-अधिक चीजें करने का अवसर दो । यह बहुत मजेदार हैं । और सबसे बढ़कर यह कि जिस चीज के बारे में तुम समझते हो कि तुम जानते हो, उसे उन पर लादने की कोशिश न करो ।

 

    उन्हें कभी न डांटो । हमेशा समह्म और अगर बालक तैयार हैं तो समझाओ; अगर वह समझने के लिये तैयार न हो- अगर स्वयं तुम तैयार हो-तो मिथ्या स्पंदनों के स्थान पर सत्य स्पंदन रखो । लेकिन यह... अध्यापकों से ऐसी पूर्णता की मांग करना है जो किसी विरले में हीं होती है ।

 

   लेकिन अध्यापकों के लिये एक कार्यक्रम बनाना बहुत मजेदार होगा, एकदम तली से अध्ययन का सच्चा कार्यक्रम, - जो बहुत लचीला हो और जो बहुत गहरे संस्कार देनेवाला हो । बहुत छोटी अवस्था में यदि उन्हें सत्य की कुछ बूंदें दी जायें तो सत्ता के विकास के साथ-ही-साथ वे बिलकुल स्वाभाविक रूप से मिलेंगे । यह सुन्दर कार्य होगा ।

 

३७५

११ नवंबर १९६७

 

तो?

 

'क' : अभी हाल मे आपने 'ख' की चिट्ठी' का जो उत्तर दिया था उसका अर्थ दो प्रकार ले लगाया क्या है

 

    कुछ लोग पहले वाक्य पर जोर दे रहे हैं जो है : ''विभाजन तुरंत गायब हो जाये तो बहुत अधिक अच्छा होना? '' उनका ख्याल है कि बुरे सकृत् क्वे लिये एक ही संगठन अपनाकर यानी वर्तमान मुक्त-प्रगति की कक्षाओं को सामान्य करके या समझौता करके भौतिक स्तर पर हमें इस विभाजन को हटाने का प्रयास करना चाहिये?

 

   दूसरों का कहना है कि विशेष रूप से मनोवैज्ञानिक भेदों को हटाने का सवात्श्र है और सबसे पहले मुक्त-प्रगति की भावना को व्यापक करना चाहिये आपके उत्तर के अगले हिस्से को आधार बनाकर दे समझते हैं कि जो कक्षाएं अबतक रूढ़िगत मानों का अनुसरण करती आयी हैं उनके परिवर्तन के लिये कुछ समय की आवश्यकता है और हम बाद मे कुछ निखद करेंगे

 

 उत्तर देने से पहले, सबसे पहले, मैं ठीक-ठीक यह जानना चाहूंगी, ठीक-ठीक, व्यावहारिक और भौतिक रूप से जानना चाहूंगी कि भेद क्या है ।

 

   मेरा विचार हैं कि ''मुक्त-प्रगति-पद्धति' ' मै ऐसा नहीं है कि विद्यार्थी बैठे हों और अध्यापक मंच सें सारे समय भाषण देता रहे; विद्यार्थी तटस्थ भाव से अपनी-अपनी मेज़ पर बैठे हों । वे अपना मनपसंद काम कर रहे हों और अध्यापक कहीं भी, किसी कमरे मे या किसी विशेष जगह पर हो । विद्यार्थी को कोई प्रश्र पूछना हो तो वह उसके पास जाये । मै तो यहीं समझती हू, बिलकुल...

 

       'ख' : ठीक ऐसा ही है माताजी !

 

 तो अब, पुरानी पद्धति को जारी रखने के लिये यह जरूरी हैं कि सभी विद्यार्थी कतार बाधे बैठे रहें और अध्यापक अपने मंच पर बैठा हो, यानी, ऐसी स्थिति हो जो बिलकुल हास्यास्पद है  । मुझे अच्छी तरह याद हैं, जब मैं 'क्रीड़ांगण' मे जाया करती थी, मुझे बड़ा अच्छा लगता था जब मै बैठती थी और सब लोग मेरे इर्द-गिर्द होते थे, हम स्वतंत्र होते थे... । लेकिन मेज़, मंच, ऐसे विद्यार्थी जो जड़ हुए हों... । दें

 

      १ 'शिक्षा-केंद्र' के पांच अध्यापकों के साथ बातचीत ।

      २ देखिये पृ० १६० ।

 


बिलकुल भौतिक रूप मे कह रहीं हूं, मनोवैज्ञानिक रूप से नहीं; फलस्वरूप, अगर यह बदल जाये तो भी बहुत बड़ा सुधार होगा ।

 

   ऐसा न हो कि सभी विद्यार्थी, इस तरह लगभग पंक्ति बनाकर आयें, और फिर हर एक अपनी-अपनी जगह बैठ जाये, फिर अध्यापक आकर बैठे... । तब, अगर वे सभ्य शिष्ट हों तो सभी विद्यार्थी उठ खड़े हों (हंसी), अध्यापक बैठ जाये और अपना भाषण आरंभ कर दे । विद्यार्थी जिस किसी चीज के बारे मे सोचते रहें, उनका ध्यान चारों तरफ घूमता रहे और फिर अगर उनकी मर्जी हों तो अध्यापक की बात पर कान दें । हां तो, यह समय बरबाद करना है , बस यहीं ।

 

    यह चीज बहुत, बहुत, बहुत भौतिक और व्यावहारिक हो इसे तुरंत बदला जा सकता हैं । अध्यापक कोई कोना या कोई जगह या छोटा कमरा चुनता है-मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानती, लेकिन मेरे लिये यह सब बराबर है- ऐसा कोई स्थान जहां विद्यार्थी आकर उससे सलाह कर सकें, वह चाहे उसी कमरे में हो या साथ के कमरे में । स्वयं अध्यापक इधर-उधर की बातें सोचने में नहीं, विद्यार्थियों के प्रश्रों के उत्तर तैयार करने मे अपना समय मजेदार ढंग से लगा सकता हैं ।

 

     यह तो तुरंत किया जा सकता है, हैं न? लो, बस ।

 

अब, यह जरूरी नहीं है कि सभी दल एक हीं नाम अपनाये । यहीं... मनुष्य में एक प्रकार की वृत्ति होती है... आह! उसे हम शिष्टता के साथ... भेल-धसान कह सकते हैं, हैं न... । हमेशा उन्हें... पथ-प्रदर्शन करने के लिये किसी-न-किसी की जरूरत होती है ।

 

   विद्यार्थी को स्कूल मे इस तरह न आना चाहिये मानों वह किसी बहुत हीं उबाऊ चीज के लिये आ रहा हों जिससे बचा नहीं जा सकता, बल्कि इस दिष्टि से आना चाहिये कि वहां कोई मजेदार चीज करने की संभावना हो सकतीं हैं । अध्यापक को इस विचार के साथ स्कूल में रहना या आना नहीं चाहिये कि वह केवल आध घंटे या पैंतालीस मिनट तक वह चीज सुनाने जा रहा है जिसके लिये उसने थोडी-बहुत तैयारी की हैं, जो खुद उसे भी उबाऊ लगती है, और फलस्वरूप वह विद्यार्थियों का मन नहीं बहला पाता, बल्कि उसे बहुत-से रूप लेने की प्रक्रिया में छोटे-छोटे व्यक्तित्वों के साय मानसिक- और अगर संभव हो तो ज्यादा गहरे- संपर्क में पैठने की कोशिश करनी चाहिये, ऐसे व्यक्तित्वों के साथ जिनमें, हम आशा करते हैं, कुछ जिज्ञासा हों । तो उसे इनकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर सकना चाहिये । बहुत विनम्र भाव से, इस बात के प्रति सचेतन होना चाहिये कि वह काफी नहीं जानता और उसे अभी बहुत कुछ सीखना हैं; पर किताबों से नहीं सीखना हैं-उसे जीवन को समह्मने की कोशिश करके सीखना हैं ।

 

  तब तुम्हारे काम का एक और हीं ढांचा होगा । मै नहीं जानती... तुम विद्यार्थियों को चीजें बाँटते हो

 

३७७


  'क' : मधुर मां मैं आपको अभी बतलाता हूं कि हम किस तरह काम करनेवाले हैं यह एक सर्वागीण स्वतंत्रता हैं...

 

 ठीक 'है, ठीक है । अब कहते चलो । अपना प्रश्र ।

 

   'क' : बहरहाल हमारी नयी दृष्टि मे और कुछ व्यावहारिक कारणों ये मी सैकड़ों विद्यार्थियों क्वे लिये एक ही संगठन की कल्पना से की जा सकतीं है विशेष विशेष लय से इसलिये क्योंकि हम बच्चे के विकास के लिये आवश्यक घनिष्ठता स्थापित करना चाहते हैं जब हमने 'म' के साथ इस समस्या पर विचार किया था ती हमने परिवार की रचना के बारे मे सोचा था यानी ज्यादा-से-ज्यादा १८० से २०० बच्चों के दल हरे जिनके संगठन का लक्ष्य एक ही हो और जिसमें तथाकथित माध्यमिक शिला के स्तर तक के बच्चों के विकास क्वे लिये सारी सुविधाएं हरे लेकिन साथ-ही-साथ कुछ हद तक हर फल की मौलिकता बनी रहे

 

  इन दलों मे निश्चय ही लेन-देन तथा संपर्कों की शायद कुछ सामूहिक क्रिया-कलापों की मी सारी समावनाए रहेगी जो उच्चतर विद्यालय तक बढ़ती होगी ! उसके बाद पक और संगठन आयेगा जो विश्वविद्यालय के जीवन के विशिष्टीकरणों के अनुसार होगा !

 

       सामान्य स्तर पर एकता रखते हुए मी हम हंस तरह पक जीवित-जाग्रत विचित्रता को बनाये रखेंगे हसके बारे मे आपका क्या विचार हैं?

 

 ठीक है । इतना काफी है । यह अच्छा है । यह सिद्धांत है न?

 

     'क' : जी हां माताजी ?

 

 यह सिद्धांत है और अब, व्यावहारिक स्तर पर उतरें तो तुम्हारे पास कुछ कमरे हैं, और वह सब... । तुम किस तरह.

 

   'क' : माताजी उसे जारी रखने क्वे बारे मैं मैं अपनी कलाओं की बात कर रहा हूं यानी जो अबतक?

 

 बहुत अच्छा ।

 

 ( क ' '' मुक्त-प्रगति '' की कक्षाओं का लंबा विवरण देता हैं ।)


यह अच्छा हैं, अच्छा हैं । तो तुम क्या चाहते हो?... यह अच्छा हैं । लेकिन इसे निक्षय ही व्यापक बना सकते हैं!

 

'क'. मधुर मर हमें थोड़ा-सा संकोच हो खा है क्योंकि कठिनत कक्षओं ये ऐसे बच्चे हैं- स्वभावत: थोड़े बड़े - जिन्होने इस तरीके से काम करना नहीं सीख ? है  इसलिये हम सोच रहे थे कि पिछली चिह में आपने जो लिखा था उसके मुताबिक परिवर्तन के लिये कछ समय दें और अगर जैसा कि आपने सुझाव दिया था उदखरण के लिये तीन महीने के अंत मे स्थिति ज्यादा तेज विकास के लिये अनुकूल न हो तो हम बदल लेंगे ।

 

    ('ख' से) लेकिन तुम, उदाहरण के लिये, तुम जो कर रहे थे उसकी जगह क्या करना चाहते हो?

 

   'ख' : सिद्धता-रुप मंच वही जिसका 'कुं ने प्रस्ताव रखा है !

 

हां !

 

    'ख'  : बस फर्क इतना है कि दोपहर की अध्यापक पहले की तरह ही निद्रित समय पर विद्यार्थियों से मिलना चाहते हैं?

 

 निश्रित समय पर? विद्यार्थी शिक्षित समय पर स्कूल आते हैं, आते हैं न?

 

     'ख' : दोपहर को तीन अंतर होत्री रोज?

 

 तीन अंतर?

 

 'ख' : चालीस या पचास मिनट क्वे तीन अंतर? यानी दोपहर को हम वही रखना चाहते हैं जो पहले थर वही सिद्धांत

 

 तीन अंतर? देखें...

 

    'ख'. लगातार तीन कक्षाएं माताजी?

 

 स्कूल निश्चित समय पर खुलता है, है न ? विद्यार्थियों को उस समय वहां उपस्थित रहना चाहिये । है जिस किसी समय नहीं आ संकेत ।

 

३७९


    'क ': जी हां माताजी

 

 ... क्योंकि ''मुक्त-प्रगति'' का अर्थ अनुशासन का अभाव नहीं है ...

 

  '' 'क'. नहीं नहीं यह तो सु निशित  हो

 

ऐसा न हो कि बिधार्थी स्वतंत्रता के बहाने आध घंटा देर से आये, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता स्वतंत्रता नहीं हैं, वह बस, अनुशासनहीनता है । यह जरूरी है कि हर एक के लिये सख्त अनुशासन हों । लेकिन बच्चा अपने-आपको अनुशासित करने मे समर्थ नहीं है, उसे अनुशासन का अभ्यास देना पड़ेगा । फलस्वरूप यह जरूरी हैं कि वह एक ही समय पर उठे, एक हीं समय पर तैयार हो, और एक हीं समय पर स्कूल आये । यह तो अनिवार्य है, वरना एक असंभव अस्तव्यस्तता हो जायेगी ।

 

    'क' : पौने आठ बजे माताजी

 

 ठीक हैं, तब स्कूल सचमुच आठ बजे खुलता है ।

 

    'क' : पौने आठ बजे

 

 नहीं । स्कूल, फाटक पौने आठ बजे खुलते हैं ।

 

     'क' : जी नहीं जी नहीं... कक्षाएं पौने आठ बजे शुरू होते हैं !

 

 ओह! बे  पौने आठ बजे शुरू होती हैं । और खत्म होती हैं?

 

       'क' : साढ़े ग्यारह बजे

 

 सादे ग्यारह । ('ख' सें) तो तुम कहते हो कि दोपहर को तुम...

 

 'ख' : थे स्कूल आयेंगे एक बजकर पचास मिनट पर !

 

और स्कूल से कितने बजे जायेंगे?

 

       'ख': चार बजे

 

३८०


 चार बजे । 'क्रीड़ांगण में' उन्हें कितने बजे रहना पड़ता हैं?

 

     'क' : साढ़े धार बजे लगभग  ऐसा द्वै माताजी!

 

    'ख' : स चार या पांच

 

   ' क ' : कमी- कमी पांच बजे

 

 जब वे जाते हैं तो खाते हैं, उन्हें कुछ खाना दिया जाता है । साढ़े चार बजे । हां, यह संभव है ...

 

    'ख' : काना साढ़े तीन ले सादे वार तक दिया जाता है माताजी

 

 यह संभव है, अगर वे बहुत नियमित हों तो । लेकिन मैं समझना चाहती हूं । ''तीन अंतर' ' का मतलब है... एक द्वि अध्यापक बच्चों के तीन अलग-अलग दल लेता है, या वही विद्यार्थी तीन अलग-अलग अध्यापकों के पास जाते हैं और अध्यापक हर एक को अलग से पढ़ता है ।

 

    'ख' : नहीं मधुर मर यह कुछ अत्हम हो

 

 अपनी बात स्पष्ट करो । तुम्हारी कक्षा में कितने बिधार्थी हैं?

 

    'ख' : लगभग ढेड सौ !

 

 डेढ़ सौ! ठीक है । तो डेढ़ सौ विद्यार्थी आते हैं । फिर क्या होता है ?

 

    'ख' : हर एक  के लिये एक शिक्षित कक्षा होगी जहां उसे जाना होगा

 

 डेढ़ सौ ? एक कक्षा में डेढ़ सौ! यह तो असंभव है!

 

    'ख' : एक कक्षा मे नहीं हम उन्हें कक्षाओं में बांट देते हैं फ्रेंच के लिये अंग्रेजी क्वे लिये अलाय-अत्हम स्तरों पत

 

 ओह! तो सब एक ही स्तर के नहीं हैं ।

 

३८१


   'ख' : पांचवीं ले दसवीं तक?

 

ओह ओह, ओह! और तब डेढ़ सौ विद्यार्थियों के लिये कितने अध्यापक होंगे?

 

   'ख' : तीस अध्यापक लमभम तीस

 

 तीस अध्यापक । अच्छा । तो फिर क्या होता हैं ? तुम्हारे पास कितनी कक्षाएं हैं? कितने कमरे?

 

    'ख' : लगभग पन्द्रह या सोलह  कमरे हैं!

 

 तो दोपहर को तुम क्या पढ़ाते हो ? देखो, क्या निश्चित विषय पढ़ाया जाते हैं या उसी प्रकार का काम होता है ?

 

'क' : माताजी अगर आप अनुमति दें तो... हमारे लिये फर्क यह होगा कि हम पूरी स्वतंत्रता चाहते हैं जब कि दे पहले की तक कुछ हद तक निमित कक्षाएं ही चलना चाहते हैं

 

 शिक्षित कक्षाएं?

 

    'क' : यानी एक निर्धारित स्तर बच्चे  की निर्धारित संख्या निर्धारित अध्यापिका ...

 

 ओह! तो अध्यापक का सिखाते का तरीका बदलेगा, लेकिन विशेष बच्चों को वह विशेष विषय पढ़ायेगा...

 

     'क' :... उन बच्चों को उस समय वहां आना ही होगा !

 

 हां, हां । यह ठीक है । यह चल सकता है । केवल इसका मतलब है कि तुमको... । लेकिन उस वक्त तुम लोग सिखाते क्या हो? भाषाएं?

 

 'क' : जी हुई विशेष रूप से भाषाएं माताजी !

 

 ओह ! तो यह केवल भाषाओं के लिये हैं ।

 

३८२


   'क'. यह केवल भाषाओं के लिये है !

 

 अब मै समझी । तो इन डटे सौ विधार्थियों के लिये कितनी भाषाएं होगी?

 

    'ख' : सिद्धांत: तीन : अंग्रेजी फेंच और उनकी अपनी मातृभाषा !

 

 ओ! तब तो बहुत-सी भाषाएं हैं ! बंगाल, गुजराती, हिन्दी हैं और फिर तमिल, तेलुगु । इतने मे ही पांच हो गयीं ।

 

 'ख' : संस्कृत

 

वह तो... । यह भाषा सबको सिखनी चाहिये । विशेष रूप से उन सबको सिखनी चाहिये जो यहां काम करते हैं... पंडितों की संस्कृत नहीं... सबको, सबको संस्कृत सिखनी चाहिये, चाहे उनका जन्मस्थान कोई भी क्यों न हो ।

 

'क' : माताजी सिद्धांत: यह वही चीज जिसके बारे मे हम विचार कर रहे है अगले साल सभी बच्चों को उनकी मातृभाषा के अशिरस्क संस्कृत प्रयोगी !

 

 हां । लेकिन पांण्डित्य के स्तर की संस्कृत नहीं, बल्कि वह संस्कृत, वह संस्कृत- कैसे कहूं? - जो भारत की सभी भाषाओं के लिये द्वार खोलती है । मेरे ख्याल सें यह अनिवार्य है । आदर्श तो यह होगा कि, कुछ सालों में, एक नवविकसित कायाकल्प- प्राप्त संस्कृत, यानी, बोलचाल की संस्कृत भारत की प्रतिनिधि भाषा हो-भारत की सभी भाषाओं के पीछे संस्कृत दिखायी देती हैं और ऐसा हीं होना चाहिये । जब हमने इसके बारे मे बातचीत की थीं तो श्रीअरविन्द का यहीं विचार था । क्योंकि अब तो अंग्रेजी सारे देश की भाषा है, लेकिन यह अस्वाभाविक है । बाकी जगत् के साथ संबंध को ज्यादा सरल बनाने के लिये यह बहुत अच्छी हैं, लेकिन जिस प्रकार हर एक देश की अपनी भाषा होती है, उसी प्रकार यह जरूरी है कि... । और यहां, जैसे ही हम एक राष्ट्रभाषा की चाह करते हैं कि सब लोग झगड़ने लगते हैं । हर एक चाहता हैं कि उसी की भाषा राष्ट्रभाषा बने, और यह बिलकुल वाहियात है । लेकिन संस्कृत के विरोध में कोई कुछ नहीं कह सकता । यह दूसरी भाषाओं सें बहुत पुरानी हैं और इसमें बहुत- से शब्दों की धातुएं हैं ।

 

   यह चीज मैंने श्रीअरविन्द के साथ पढ़ीं थीं और स्पष्टत: यह बहुत मजेदार बे  । कुछ धातुएं हैं जो जगत् की सभी भाषाओं मे मिलती हूं-ऐसी ष्ठवनियां, धातुएं हैं जो उन

 

३८३


 सभी भाषाओं मे पायी जाती हैं । तो हां, यह, यह चीज, यहीं चीज सिखनी चाहिये और इसी को राष्ट्रभाषा होना चाहिये । जिस तरह फांस मे हर बच्चे को फ्रेंच आनी चाहिये, चाहे वह ठीक तरह न बोल पाये, या उसे अच्छी तरह नहीं जाने, लेकिन यह जरूरी -है कि उसे थोडी-बहुत फ्रेंच आती हो-उसी तरह भारत मे जन्ममें हर बच्चे को संस्कृत आनी चाहिये; और जगत् के सभी देशों के साथ यहीं बात हैं । यह जरूरी हैं कि उसे राष्ट्रभाषा आती हो । और फिर, जब वह इसे सीख जाये तो वह जितनी भाषाएं सीखना चाहे सीख ले । अबतक, लोग जगहों मे हीं खोये हुए हैं, और यह वातावरण किसी चीज का निर्माण करने के लिये बहुत खराब हैं । लेकिन मुझे आशा है कि एक दिन आयेगा जब यह संभव होगा ।

 

   इसलिये मै चाहती हूं कि यहां सरल संस्कृत बढ़ायी जाये, जितनी सरल हो सके उतनी, लेकिन ऐसा नहीं जिसे ठीक-पीसकर सरल बना दिया गया हो-बल्कि ऐसी सरल जो अपने फल के अनुरूप हों... ये ष्ठवनियां, फल ष्ठवनियां जिनसे बाद में शब्द बने हैं । मुझे पता नहीं कि यहां कोई है मी जो यह काम कर सके । वस्तुतः, मुट्ठे पता नहीं कि ऐसा कर सुननेवाला भारत में भी कोई है  या नहीं । श्रीअरविन्द जानते थे । लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति जिसे संस्कृत आर्त हों कर सकता है ... । मुझे पता नहीं । तुम्हारे यहां संस्कृत के अध्यापक कौन हैं? ''च' '?

 

        'ख' : 'च; 'छ'..

 

'छ'...? लेकिन वह तो यहां कभी नहीं होता ।

 

      'ख': बे फरवरी मे आ रहे  हैं !

 

हां, बहुत पहले ''ज'' भी था ।

 

   'ख' : 'जै फिर कुछ युवा अध्यापक है 'छ: और 'ट'!

 

नहीं, ऐसा कोई व्यक्ति होना चाहिये जो काफी जानता हो । मैंने एक बार 'च' से बात की थीं । उसने मुझसे कहा कि वह एक सरल व्याकरण तैयार कर रहा है-मुझे मालूम नहीं उसने इस भाषा के लिये क्या किया जो सारे देश में व्यापक हो सकती हैं । मुझे नहीं मालूम । शायद, आखिर, 'च' ही सबसे अच्छा है  ।

 

  तो, दोपहर को, कौन-कौन से अध्यापक हैं ? तुम्हारा कहना हैं कि लगभग तीस है !

 

   'ख'. सभी कक्षाओं के लिये पांचवीं कक्षा से...

 

३८४


पूरे स्कूल के लिये?

 

   'क' : माध्यमिक कक्षाओं के लिये माताजी ?

 

 इससे नीचे की कक्षाओं से तुम्हारा संपर्क नहीं हैं ?

 

    'क' : उसकी देखभाल अध्यापकों के दूसरे दल करते हैं

 

 हां, ठीक है । और माध्यमिक कक्षा के लिये लगभग डेढ़ सौ विद्यार्थियों के लिये तुम्हारे पास तीस अध्यापक हैं । तो जब वे आते हैं तो क्या जानते हैं ? कुछ नहीं ? किंकर गर्जन में फ्रेंच सिखाते की बात है, है न? उनके साथ फ्रेंच बोलते हैं । लेकिन मुझे पता नहीं इस बारे में सख्ती है या नहीं ।

 

    'क' : बहुत सख्ती नहीं है माताजी?

 

 बहुत नहीं, हैं न ?

 

    'ध'. पहले  सख्ती थी अब तो अधिकतर हिंदी में बोलते हैं

 

 बिलकुल छुटपन से, छुटपन से हीं बच्चों में अपना मन बहलाने की प्रवृत्ति होती हैं, उनमें... उनमें कठोरता नहीं होती और उनकों यह जानने मे बड़ा मजा आता हैं कि कैसे एक हीं चीज को विभिन्न भाषाएं विभित्र नाम देती हैं । उनमें अब भी है ... या उनमें अभीतक मानसिक कठोरता नहीं होती । उनमें अब मी वह नमनीयता होती हैं जिससे वे सचेतन हो जाते हैं कि चीज का अपने-आपमें अस्तित्व है, कि उसे जो नाम दिया जाता है  वह केवल एक रिवाज है  । तो मेरा ख्याल है कि उनके लिये यहीं बात है , कि दिया गया नाम 'बस, एक रिवाज है । और इसलिये, कई बच्चों को फलाना कहने में, उदाहरण के लिये, ''हां' ' या ''ना' ' कहने में, ये हीं शब्द लो, ''हां' ' या ''ना' ' कहने में मजा आता है । फ्रेंच में इस तरह कहते हैं, जर्मन में इस तरह कहते हैं, अंग्रेजी में इस तरह कहते हैं, डटे लयन में इस नहर कहते हैं, हिंदी में इस तरह कहते हैं, संस्कृत में इस तरह... । तो अगर तुम खिलाना जानो तो यह बहुत मजेदार खेल है । कोई चीज ले लो और फिर कहो : ''देखो यह है ... । '' इस तरह । या कोई जीवंत कुत्ता लो, या एक जीवंत पक्षी, या एक छोटा जीवंत पैड, और फिर उनसे कहो, ''देखो, ये सब भाषाएं हैं और... । '' उनके अंदर बिलकुल कोरा होता है, वे बहुत अच्छी तरह, बहुत आसानी से सीख सकते हैं । यह बहुत मजेदार खेल है । ('ख' से)

 

३८५


लेकिन इसके साथ तो तुम्हारा कोई संबंध नहीं, तुम तो पहले हीं...

 

   ठीक है । तो, स्वभावतः, तुम्हारे तीस अध्यापक और डेढ़ सौ विद्यार्थी, उनके साथ तुम्हें... । है  जो भाषा सीखना चाहते हैं, उसके मुताबिक अलग-अलग कक्षाओं मे जस्त हैं । यह काफी स्वाभाविक हैं, यहांतक कि मुझे अनिवार्य भी लगता हैं, क्योंकि सभों अध्यापकों के एक साथ रहने की जरूरत नहीं-वे बातें करने लग जायेंगे... और फिर बिधार्थी आयेंगे और यह सब पूरा एक... नहीं! यह ठीक हैं ।

 

   जब तुम फ्रेंच सीखना चाहो तो इस कक्षा में जाते हों, जब तुम अंग्रेजी सीखना चाहो तो उस कक्षा मे, जब...

 

   'ग' : माताजी ऐसी बात नहीं हो

 

 तब फिर?

 

    'ख' : सुबह ऐसा होता हो

 

 तो तुम क्या पढ़ाते हो?

 

    ' ख ' : मैं गणित सिखाता हूं !

 

 भाषाओं के साथ तो इसका कोई संबंध नहीं हैं!

 

    'ख' : और इतिहास!

 

 तुम गणित फ्रेंच मे पढ़ाते हो? हां, पर तब तो समस्या और जटिल हो जाती है... । क्या (हंसी), क्या बात हैं? ('ख' से) तुम्हें क्या कहना है?

 

   'क' 'ख' ले कहता है) : क्या बतलाया जाये?

 

 'ख ' : हम जौ करना चाहते हैं ठीक-ठीक वही

 

 'प' : क्या मौखिक कक्षाएं मी होती हैं?

 

   'ख'  केवल भाषाओं के लिये ही नेही बल्कि गणित और विज्ञान के लिये मी मौखिक कक्षाएं होनी हैं?

 

३८६


   'क' : माताजी जिन निशित कक्षाओं ने बच्चों को मकानों गणित और विज्ञान के लिये जाना पड़ता है उन्हें जारी रखा जा खा है सुबह का समय स्वतंत्र काम क्वे लिये रखा क्या है? तीन विषयों क्वे लिये उन्होने दोपहर तिन निशित कक्षाएं रखी हैं जब कि हमें ..

 

 भाषाएं?

 

    'क' : भाषाएं गणित और विज्ञान... और इतिहास मी !

 

 विज्ञान?

 

   'ख'. जी हां विज्ञान-वनस्पति विज्ञान भौतिक विज्ञानता!

 

 हां, यह पूरा एक जगत् है । तो फिर क्यों?... तो बाकी क्या रह गया? साहित्य '? क्या? हर चीज को समा लेनेवाला विज्ञान के अतिरिक्त, साहित्य हैं, और फिर? कला? स्वभावतः, यह तो...

 

    'क' : ('ख' ले) क्या तुम सनी विषयों क्वे लिये निशित कक्षाएं रख रहे हो? (माताजी ले) मुहर मर हम संक्षेप मे कह सकते हैं कि दोपहर करे कुछ हदतक एक ऐसे संगठन को जारी रखा जा रहा है जो पहले के संगठन से मित्हता-जुत्हता है यानी निशित कक्षाएं केशी लेकिन सुबह का काम अपेक्षाकृत स्वतंत्र हो !

 

यहां मै कुछ जानना चाहूंगी । भाषा किस तरह सिखायी जाती है ? क्योंकि जो अध्यापक सभी को एक ही चीज कहना शुरू कर देता हैं... । विद्यार्थी वहां से निकलते हैं और उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता! भाषा, उसे तो यथार्थतः सबसे अधिक जीती-जागती चीज होनी चाहिये, सबसे अधिक जीवंत! और उसके जीवंत होने के लिये यह जरूरी है कि विद्यार्थी उसमें भाग लें । उन्हें केवल ऐसे कान नहीं होने चाहिये जो कुर्सी पर बैठे सुनते रहें! अन्यथा, वहां से निकलने पर उन्होंने कुछ भी न सीखा होगा ।

 

    'क ' : माताजी जहांतक. हमारा संबंध, कक्षाएं इस प्रकार व्यवस्थित की जाती हैं : हर प्रकार क्वे लिखित काम खै लिये: अध्यापक और विद्यार्थी क्वे बीच व्यक्तिगत संबंध हर प्रकार के मौखिक काम बैठक इत्यादि के

 

२८७


   लिये हम बच्चों क्वे सामने रोज कई समावनाए रखते हैं और है उनमें से किसी मे माय लेने के लिये स्वतंत्र होते हैं

 

संभावना

 

   'क': उदाहरण के लिये विभित्र बीजों पर वाद-विवाद वार्तालाप होते हैं- कुछ बच्चे हैं जो उदखरण क्वे लिये सामयिक विषय आदि की अपेक्षा वैज्ञानिक विषय ज्यादा पसंद करते हैं श नाटक के बारे मे तात्कालिक प्रयास होता है इत्यादि यह सब बच्चों को एक दिन पहत्हे या उसी दिन बताया जाता है उनकों एक कक्षा मे जाना पड़ता है लेकिन वह चून सकते हैं कि किसमे जायें... और फिर लेखन व्याकरण यह सब होता है?

 

 हां, क्योंकि इन बच्चों को भाषा आती हैं । ('ख' से) और तुम?

 

     'क ' उसके लिये भी चीज

 

 ('क' से) हां, इस तरह, यह ठीक हैं ।

 

   ('ख' सें) लकिन तुम्हारी दोपहरवाली कक्षा... तुम रूहें किस तरह चलाने की सोच रहे हो? इस तरह? बच्चे कुर्सियों पर बैठे रहेंगे और .अध्यापक भाषण देगा? है  भगवान्! कितना उबाऊ है! अध्यापक ऊब जाता है, सबसे पहले वही अब जाता है, तो स्वभावत: वह अपनी ऊब विद्यार्थियों को बांट देता है ।

 

  इस तरह की व्यवस्था हो सकतीं है : एक विषय ले लो और अध्यापक इस या उस व्यक्ति से प्रश्र पूछे : ''इसके बारे में तुम्हारी क्या राय है? इसके बारे मे तुम क्या जानते हो?'' और यों ही, इस तरह, और फिर, स्वभावत:, अगर दूसरे लोग कान दे रहे हैं तो उनकों लाभ होगा । इस तरह एक प्रकार की जीवित-जाग्रत व्यवस्था- ऐसा उबाऊ भाषण नहीं-जिससे पांच मिनट मे आंख लग जाये । तुम प्रश्र पूछो, या फिर, अगर बोर्ड हो तो... बोर्ड पर मोटे-मोटे अक्षरों मे बड़ा प्रश्र लिखी ताकि सब लोग पढ़ा सकें, फिर पूछो : ''इसका जवाब कौन दे सकता हैं?'' इस तरह करो, यहां-वहां प्रश्र पूछो, उनसे पूछो जिन्होने प्रश्र किया है ... । और जब एक व्यक्ति उत्तर दे तब कहो : '' क्या कोई है जो इसकी बात को पूरा कर सके?'' यह जरूरी हैं कि अध्यापक मे कुछ जान हों ।

 

   मैं समझती हूं-हर एक भाषा के लिये एक कक्षा, अलग-अलग दल-दोपहर को, ठीक हैं । लेकिन भगवान् के लिये, यह नहीं कि... और कुर्सी पर बैठकर : ''यह कब खत्म होगा?'' वे अपनी जड़ी देखते हैं... । और सौ मे से एक भी अध्यापक ऐसा

 

३८८


नहीं जो सबका मनोरंजन करने के लिये खुद काफी मनोरंजक ही । और पहली बात यह हैं कि वही सबसे पहले ऊबने लगता हैं । उसके लिये, यह... यहां नहीं, लेकिन बाहर यहीं आजीविका है, इसलिये...

 

    एक साथ बीस, तीस, चालीस विद्यार्थी होने चाहिये... एक साथ कितने, बीस? लगभग बीस?

 

 'ख' : जी हां माताजी

 

 केवल : '' ओह! अब हम एक रोचक कार्य करेंगे । चालों देखें, हम मन बहलाने के लिये क्या कर सकते हैं? कौन-सा खेल खेल सकते हैं?'' तो, स्वभावतः, इस तरह तुम कुछ ढूंढने हो, खोज करते हो । और तब वह (अध्यापक) सजीव रहता है, क्योंकि उसे कुछ खोजना पड़ता है, और विद्यार्थी सामने बैठे होते हैं, इस प्रकार... । जब: उनमें थोड़ा आत्म-सम्मान हो तो वे भी कुछ कह सकना चाहते हैं, और इस तरह वातावरण जीवंत बन जाता है  । क्या यह घर पर बैठकर करने... सीखने की अपेक्षा ज्यादा मजेदार न होगा? अगर तुम सच्चे हो, तो अगले दिन तुम जो कक्षा लेनेवाले हो उसके लिये शाम को काम करते हो, बहुत सावधानी के साथ सीखते हो, नोदन लेते हो, और लिखते हों, और... । तुम विषय तैयार कर सकते हो, है  न, तैयार करते हो ताकि सभी प्रश्रों का उत्तर दे सको । यह हमेशा आसान नहीं होता । लेकिन अच्छी तरह अपना विषय तैयार करना यह अच्छा हैं; रात के समय थोड़ा प्रकाश और थोडी अभीप्सा पाने की कोशिश करना, और फिर, अगले दिन, तुम जो जानते हो उसे ज़ीने के लिये एक जीवंत तरीका ढूंढना । और वहां अध्यापक और विद्यार्थी न हों... नहीं, नहीं! जीती-जागती सत्ताओं का एक दल हो, जिसमें कुछ व्यक्ति औरों सें कुछ अधिक जानते हैं, बस ।

 

 'क' : माताजी अब एक मंत्र है एक और महत्त्वपूर्ण मंत्र आपने हमसे बहुत बार कहा हैं कि हम जो प्रश्र करते हैं उसका सच्चा उत्तर केवल शांति मे ही मिल सकता है बच्चों ले यह खोज कराने का कि यह शांति कैसे स्थापित होती है सबसे अच्छा तरीका क्या है? क्या इसी तरह ज्ञान का स्थान चेतना

 

 (लंबा मौन)

 

 देखो. कक्षाओं की इस पद्धति मे जहां सब बैठे हैं, अध्यापक भी बैठा हैं और काम करने का समय भी सीमित है, यह संभव नहीं हैं । अगर तुम्हारे अंदर निरपेक्ष स्वतंत्रता

 

३८९


हैं तभी तुम जब कभी तुम्हारे अंदर नीरव होने की आवश्यकता हो, तुम नीरवता स्थापित कर सकते हो । लेकिन जब सभी विद्यार्थी कक्षा मे हों और अध्यापक भी... जब अध्यापक अपने अंदर शांति स्थापित कर रहा हों, सभी विद्यार्थी... तब यह - संभव नहीं है ।

 

वह घर पर रात को नीरवता स्थापित कर सकता है, एक दिन पहले कर सकता है, ताकि वह अगले दिन के लिये तैयारी कर सके, लेकिन वह... । यह तुरंत लागू होनेवाला नियम नहीं बन सकता । स्वभावतः, जब तुम नसैनी के सबसे अपर के खड्डे पर हो और तुम्हें अपने मन को बिलकुल नीरव रखने की आदत हों तो तुम कुछ और नहीं कर सकते; लेकिन तुममें से कोई भी वहां नहीं पहुंचा है । इसलिये उसकी बात न करना ज्यादा अच्छा है । इसलिये मेरा ख्याल है कि... । विशेष रूप सें इस पद्धति में-सीमित समय की कक्षाएं, विद्यार्थियों की सीमित संख्या, शिक्षित अध्यापक और निश्रित विषय... उस समय तुम्हें क्रियाशील रहना चाहिये ।

 

    यह जरूरी है कि... । अगर विद्यार्थी ध्यान या एकाग्रता का अभ्यास करना चाहें, अंदर पैठने की कोशिश करना चाहें... तो यह अंतर्भासिक जगत् के साथ संपर्क मे आना है, केवल मानसिक उत्तर पाने की जगह जो ऐसा हैं-अपर से उत्तर पाना है, वह उत्तर जो कुछ ज्योतिर्मय और सजीव होता है । लेकिन इसके लिये घर मे रहते हुए अभ्यास करना चाहिये ।

 

स्वभावत:, जिसको आदत है उसे कक्षा में-जब अध्यापक प्रश्र पूँछें, बोर्ड पर प्रश्र लिखे या कहे : ''इसका जवाब कौन दे सकता है?'' -तब यह व्यक्ति इस तरह कर सकता है (माताजी अपने दोनों हाथ अपने ललाट पर रखती हैं), कुछ पा सकता है, ओह! और उसके बाद कह सकेगा... । लेकिन... जब हम उस बिंदुतक पहुंच जायेंगे तो यह एक बड़ी प्रगति होगी !

 

  वरना, तुम जो कुछ सीखते हो उसी को मस्तिष्क के भंडार सें बाहर निकाल लाते हो । यह बहुत मजेदार नहीं होता, लेकिन कम-से-कम इससे कुछ मानसिक कसरत मिल जाती है । और कक्षा की पद्धति लोकतंत्रीय पद्धति है, क्यों! यह इसलिये क्योंकि... सीमित समय मे, सीमित स्थान पर... अधिक लोगों को सीखा सकना चाहिये, ताकि हर एक लाभ उठा सके । यही पूरी-पूरी लोकतंत्र की भावना हैं । तब एक प्रकार का... समीकरण अनिवार्य हो जाता है । हां तो... तुम सबको एक ही स्तर पर रख देते हो और यह बात शोचनीय है  । लेकिन जगत् की वर्तमान स्थिति में, हम कह सकते हैं : '' अभी इसकी आवश्यकता है । '' केवल धनवान लोगों के बच्चे हीं जो खर्चा दे सकेंगे... स्पष्टतः, इसके बारे में सोचना बहुत सुखद नहीं हैं । नहीं, पूरी आबादी के लिये... ओरोवील के लिये, प्रारंभिक. कक्षाओं की समस्या होगी और यह मजेदार समस्या होगी : उन बच्चों को कैसे तैयार किया जाये जो इधर-उधर से इकट्ठे किये गये हैं, जिनके घर में सीखने के लिये कोई साधन नहीं है, जिनके मां-बाप

 

३९०


अज्ञानी हैं, सीखने के साधन की कोई संभावना नहीं हैं, कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं, केवल कचवा महल हैं, इस तरह-उनकों जीना कैसे सिखाया जाये? यह एक मजेदार समस्या होगी ।

 

    'क' : माताजी अगले साल के लिये हमने जो कुछ तैयार किया है उसके अनुसार हम बच्चे के व्यक्तित्व के लिये दूत सम्मान फ लेंगे सर्वागीण रुपए वे हर क्षण- केवल बच्चे का महत्व होगा उस दत्तक का नहीं जिसका वह अंग है तरह और फिर अभी मैं आपसे जो प्रश्र पूछ खा था उसके संबंध मे- सुबह के काम की परिस्थितियां कछ मित्र हैं क्योंकि काम स्वतंत्र रूप मैं होना? तोशायद ऐसी परिस्थितियों मे बच्चे स्वतंत्र...

 

हां, वहां, सुबह का काम, वहां जो काम होता है इस तरह, ''पूर्णता की ओर' ''... । वे भली-भांति ऐसा कर सकते हैं : क्षण-भर के लिये नीरव, एकाग्र रह सकते हैं, अंदर जो कुछ शोर मचाता है उसे इस तरह चुप करके प्रतीक्षा कर सकते हैं । सवेरे है  यह कर सकते हैं । नहीं, मेरे कहने का मतलब यह है कि जब घटे-भर की या पौन घंटे की कक्षा हों... जिसमें एक दल और एक अध्यापक हो... तो तुम कार्यव्यस्त रहने के लिये बाधित होते हो ! यह मजेदार होगा अगर पौन घंटे तक सब लोग... (हंसी) । एक चीज एक बार की जा सकती हैं, कम-से-कम एक बार : तुम एक विषय रखो, अन्य पाक्य विषयों से, यह विषय उनके सामने रखो और कहो : ''हम पंद्रह मिनट तक चुपचाप रहेंगे, चुपचाप; बिना आवाज किये, किसी को मी आवाज नहीं करनी चाहिये । हम पंद्रह मिनट तक चुपचाप रहेंगे । पंद्रह मिनट तक बिलकुल, बिलकुल नीरव, निक्षल और सतर्क रहने की कोशिश करेंगे, और फिर हम देखेंगे कि पंद्रह मिनट के बाद क्या होता है । '' शुरू मे हम पांच मिनट हीं कर सकते हैं, तीन मिनट, दो मिनट, कोई हर्ज नहीं । पंद्रह मिनट बहुत ज्यादा हैं, लेकिन यह करना चाहिये... यह प्रयास करो... यह देखो । कुछ बच्चे छटपटाने लगेंगे । शायद बहुत कम बच्चे हैं जो चुपचाप रहना जानते हैं; या फिर है  सो जाते हैं-लेकिन अगर है सों जायें तो कोई हर्ज नहीं ! हम यह कम-से-कम एक बार करके देख सकते हैं, यह देख सकते हैं कि क्या परिणाम आता हैं : ''देखें ।! दस मिनट की नीरवता के बाद मेरे प्रश्र का उत्तर कौन देता है? लेकिन ऐसा न हों कि उन दस मिनिटों में तुम मानसिक रूप से उस विषय के बारे मे जितना आन सको उतना इकट्ठा करने की कोशिश करो, नहीं, नहीं-ये दस मिनट ऐसे हों जब तुम बिलकुल ऐसे, कोरे, निश्चल, नीरव, सतर्क रहो... सतर्क और नीरव । ''

 

  '' मुक्त-प्रगति-पद्धति '' पर आधारित एक दल का नाम ।

 

३९१


अब, अगर अध्यापक सच्चा अध्यापक हैं तो इन दस मिनिटों में वह अंतर्भाव के क्षेत्र से उस ज्ञान को उतारता हैं और उसे कक्षा में फैलाता है । और इस तरह तुम मजेदार काम करते हो, और उसका परिणाम मी देखोगे । तब स्वयं अध्यापक मी थोडी प्रगति करने लगेगा । तुम कोशिश कर सकते हों । कोशिश करो, फिर देखोगे!

 

      'क' : माताजी हमने यह कोशिश की है

 

 देखो, जो लोग सच्चे हैं, सच्चे और बहुत- कैसे कहा जाये? -जो अपनी अभीप्सा में बिलकुल निष्कपट हैं, उन्हें इसमें अद्भुत सहायता मिलती हैं, एक चेतना है जो बिलकुल जीवंत, बिलकुल क्रियाशील होती है जो... हर प्रकार की एकाग्र नीरवता को प्रत्युत्तर देने के लिये तैयार रहती हैं । इससे छ: साल का काम छ: महीनों में किया जा सकता है, लेकिन... यह जरूरी है कि इसमें कहीं ढोंग न हो, ऐसी चीज नहीं होनी चाहिये जो नकल करने की कोशिश करती हो, दिखावा करती हों । वहां... सचमुच, तुम्हें पूरी तरह, निष्कपट, पवित्र, सच्चा, होना चाहिये, इस बात के प्रति सचेतन होना चाहिये कि. च. हम केवल उसी के सहारे जीते हैं जो ऊपर से आता है । तब... तब... तब तुम लंबे गडों से आगे बढ़ सकोगे ।

 

लेकिन इसे रोज, नियमित रूप से, शिक्षित समय पर मत करो, क्योंकि तब वह एक आदत और उबानेवाले चीज बन जाती है । यह... अप्रत्याशित होना चाहिये! तुम अचानक कह उठते हो : ''चलो, हम ऐसा करें' '.. अ जब तुम्हें लगे कि तुम खुद कुछ ऐसे हो, कुछ-कुछ तैयार । यह बहुत मजेदार होगा ।

 

  एक प्रश्र पूछो, भरसक बुद्धिमानी का प्रश्र, केवल सैद्धांतिक या पंडिताऊ प्रश्र नहीं- थोड़ा जीवंत प्रश्र । वह मजेदार होगा ।

 

(मौन)

 

तुम देखोगे जैसे-जैसे तुम इसे सिद्ध करने के लिये प्रयास करोगे वैसे-वैसे तुम प्रकृति में,-निम्नतर प्रकृति मे, यानी, निम्नतर मन, निम्नतर प्राण, निम्नतर शरीर में-कितना ढोंग भरा हैं, कितनी झूठी महत्त्वाकांक्षा भरी है... । तुम कोई भी... । दिखावा करने की इच्छा पाओगे : यह जरूरी है कि इन सबको पूरी तरह, जड़ से निकाल दिया जाये, उनका स्थान अभीप्सा की सच्ची लौ ले ले, उस पवित्रता के प्रति अभीप्सा जो हमें 'परम चेतना' हमसे जो चाहती है उसी के लिये जीता रखती हो, जो हमसे वही करवाती हो जो 'परम चेतना' चाहती है और तभी करवाती है जब वह चाहती है । तब तुम एकदम अलग व्यक्ति हों संकेत हो... । यह मार्ग पर काफी थ है, लेकिन तुम इसे, सारी सत्ता की शुद्धि... हमेशा, करने की कोशिश करते रहो । तब न स्कूल होता हैं, न अध्यापक, न विद्यार्थी, न अब; तब... केवल जीवन

 

३९२


होता हैं जो रूपांतरित होने की अभीप्सा करता हैं । यह लो : यही है  आदर्श, हमें वहां तक जाना है  ।

 

   तुम्हें और भी प्रश्र पूछने हैं?

 

   'क' : माताजी क्या आप स्कूल के लिये नये सत्र के लिये कोई संदेश दे सकेगी? वह दिसंबर ले शुरू होता है !

 

 अगर कुछ आ गया तो दे दूंगी ।

 

   'स' मुझे फूल दो । वहां एक गुलदान हैं जिसमें लाल छुच्छ हैं । वहां । वे इन दोनों के लिये हैं । वहां ।

 

  ('क' से) यह ले , तुम्हारे लिये ।

 

   ('ख' से) और यह रहा तुम्हारा । तुम्हारे लिये तो पूरा भविष्य सामने है । तुम्हें तोड़ना पड़ेगा... । जानते हो, विचार में तुम अभी तक पुरानी आदतों सें बंदे हों । तुम हमेशा सें यहीं रहते आये हो, लेकिन इसका तुमने पर्याप्त लाभ नहीं उठाया, तुम अभीतक बहुत ज्यादा वैसे हो... ।

 

    तो अब, तुम्हें यह लेना होगा, सब कुछ तोड़ना होगा, सब कुछ तोड़ना होगा, सब कुछ तोड़ना होगा । ऊपर से जो प्रकाश आता है उसी के सहारे जीना होगा । अपनी चेतना को मुक्त्ति करो, मुक्त करो । यह जरूरी है । अच्छा हुआ कि तुम आये । तुम अभीतक बहुत बंद हो, इस तरह, पुरानी आदतों से बंदे हो और... और अभितप्त, एक और चीज हैं, अभी पूर्वजता आदि का बोझ है... । यह सभी के लिये है, लेकिन फिलहाल केवल... । मै अभीतक तुम्हें मुक्त कर रहीं हूं । तुम अभीतक ऐसे हो... ऐसे... ऐसे... ऐसे... सोचने की तुम्हारी पुरानी आदतें, सीखने की तुम्हारी पुरानी आदतें, तुम्हारी पुरानी आदतें-बहुत पुरानी नहीं-सिखाते की पुरानी आदतें । तो यह सब : उन्हें तोड़ दो! इस तरह... यह जरूरी है कि जब तुम कक्षा में जाओ, तो रोज कक्षा मे जाने से पहले एक प्रकार की प्रार्थना करो, 'परम चेतना' का आह्वान करो, और उनसे इस दल का निर्देशन करने के लिये सहायता मांगो, इस जीवंत पदार्थ की राशि को उनके प्रभाव मे लाने के लिये सहायता मांगी । तब यह कितना मजेदार और जीवंत हों जायेगा... । तो यह बात है ।

 

   पुनर्दर्शनाय ।

 

   और अब, 'घ' के लिये, एक गुलाब ।

 

  ('घ' से) यह लो । यह देखो, यह ज्यादा क्रियाशील है । तुम इसे न देख पाओगी, पर यह अधिक क्रियाशील है ।

 

   लेकिन नारियों, नारियां सिद्धांत: कार्यकारिणि शक्ति 'हैं । यह कभी नहीं भूलना चाहिये । और प्रेरणा ग्रहण करने के लिये, अगर तुम्हें जरूरत मालूम हों तो पुरुष की

 

३९३


चेतना से सहारा ले सकतीं हो । 'परम चेतना' ज्यादा शिक्षित होती है, लेकिन फिर भी, अगर तुम्हें माध्यम की जरूरत हो... । लेकिन कार्य करने के लिये, तुम्हारे अंदर ही वह शक्ति हैं जो समस्त संगठन की शक्ति के साथ, सभी ब्योरों मे जा सकतीं हैं । मै संसद की नारी-सदस्यों में यह चीज भरने में लगीं हूं-तुम्हें मालूम हैं संसद मे नारियां हैं ? मैं उनकों यह सीखा रहीं हूं : वे पुरुष के आगे दस्यु न बनें । तुम्हारे अंदर कार्यान्वयन की शक्ति है । इसका प्रभाव पड़ेगा ।

 

    ('क' और 'ख' से) ओह ! यह तुम्हें नीचा दिखाने के लिये नहीं हैं (हंसी)... । प्रेरणा आती हैं... कार्यान्वयन... । लो बस ।

 

     तो मैं तुम्हें दे चुकी, तुम्हें दे चुकी... । ('स' से) तुम्हें-तुम्हें मैंने नहीं दिया । वहां!

 

     लो । और यह 'ग' के लिये हैं ।

 

     तो, मेरे बच्चों, पुनर्दर्शनाय ।

 

   ('क' से) और अगर तुम्हें जरूरत पेड़ तो हमेशा लिख सकते हो । मै नहीं कहती कि मै तुरंत जवाब दूंगी, लेकिन इस तरह (माताजी माथे पर हाथ रखती हैं), मै तुरंत जवाब देती हूं । यह तुम्हें सीखना होगा, क्यों! इस तरह (लिखने का संकेत) समय लगता है । फिर भी, मुझे सूचना देते रहना अच्छा है ।

 

    'क'. जी हां माताजी?

 

 पुनर्दर्शनाय ।


३९४

 ८ फरवरी, १९७३

 

       'क' : जबतक हम किसी नयी पद्धति को निशित कर ले तबतक अपने- आपको तैयार करने का सबसे अच्छा उपाय क्या हैं ?

 

 स्वभावतः, वह है अपनी चेतना को विस्तृत और प्रबुद्ध करना- लेकिन यह कैसे किया जाये ? तुम्हारी अपनी चेतना... उसे विस्तृत और प्रबुद्ध करना । और, अगर तुम, तुममें सें हर एक, अपने चैत्य पुरुष को पा सके और उसके साथ एक हो सके तो सभी समस्याएं हल हो जायेंगी ।

 

   चैत्य पुरुष मनुष्य में भगवान् का प्रतिनिधि है । तो यह बात हैं, समझे-भगवान् कोई छू की चीज या पहुंच के बाहर नहीं हैं । भगवान् तुम्हारे अंदर हैं परंतु तुम उनके बारे में सचेतन नहीं हो । बल्कि तुम... अभी वे एक प्रभाव की जगह 'उपस्थिति ' के रूप में काम कर रहे हैं । लेकिन होनी चाहिये एक सचेतन 'उपस्थिति', तुम्हें हर क्षण अपने-आपसे यह पूछ सकना चाहिये, क्या है... कैसे... भगवान् इसे किस तरह देखते हैं । यह ऐसा है : पहले भगवान् कैसे देखते हैं, और फिर भगवान् कैसे चाहते हैं, और फिर भगवान् कैसे कार्य करते हैं । और यह अगम्य देशों में जाकर नहीं, ठीक यहीं । केवल, अभी के लिये, समस्त पुरानी आदतें और व्यापक निश्चेतना एक प्रकार का ढक्कन रख देती हैं जो हमें देखने और अनुभव करने से रोकता है । तुम्हें... तुम्हें उसे उठाना, तुम्हें उसे ऊपर उठाना पड़ेगा ।

 

   वस्तुतः, तुम्हें सचेतन यंत्र बनना पड़ेगा... सचेतन... भगवान् के बारे में सचेतन ।

 

साधारणत: इसमें पूरा जीवन लग जाता हैं, या कभी-कभी, कुछ लोगों को कई जीवन लगते हैं । यहां, वर्तमान अवस्था में, तुम इसे कुछ हीं महीनों में कर सकते हों । क्योंकि जो... जिनमें तीव्र अभीप्सा हैं वे कुछ महीनों में कर सकते हैं ।

 

(लंबा मौन)

 

     क्या तुमने कुछ अनुभव किया है?

 

  बिलकुल सच कहो । क्या तुमने कुछ अनुभव किया, या तुम्हारे लिये कोई फर्क नहीं पड़ा? पूरी सच्चाई के साथ कहो । हां तो? कोई उत्तर नहीं देता । (माताजी हर एक से बारी-बारी से पूछती हैं और सब अपनी प्रतिक्रिया बताते हैं ।)

 

   'ख' : मधुर मई मैं जानना चाहता हू कि कोई विशेष अवतरण हुआ था?

 

 कोई अवतरण नहीं होता । यह एक गलत विचार हैं : कोई अवतरण नहीं होता । यह

 


एक ऐसी चीज है जो हमेशा यहां है लेकिन तुम उसे अनुभव नहीं करते । कोई अवतरण नहीं होता : यह बिलकुल गलत विचार है ।

 

   क्या तुम जानते हो कि चौथा आयाम क्या होता हैं? जानते हो वह क्या है? 'रख' : हमने उसके बारे में सुन? है...

 

तुम्हें अनुभव है?

 

    ' 'ख' : नहीं मधुर मां

 

   आह! लेकिन वास्तव मे आधुनिक विज्ञान का यह सबसे अच्छा प्रस्ताव है : चतुर्थ आयाम । हमारे लिये, भगवान् हीं चतुर्थ आयाम हैं... चतुर्थ आयाम के भीतर है । वह हर जगह हैं, है न, हर जगह हमेशा । वह आता-जाता नहीं है, वह हैं, हमेशा, हर जगह । यह तो हम, अपनी मूर्खता के कारण उसे अनुभव नहीं कर पाते । चले जाने की कोई जरूरत नहीं है, बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं ।

 

    अपने चैत्य पुरुष के बारे में सचेतन होने के लिये, तुम्हें चतुर्थ आयाम को अनुभव कर सकने के योग्य होना चाहिये, वरना तुम यह नहीं जान सकते कि वह क्या हैं?

 

   है भगवान्! सत्तर वर्ष से मैं जानती हूं कि चतुर्थ आयाम क्या है... सत्तर वर्ष से भी ज्यादा से!

 

(मौन)

 

   अनिवार्य, अनिवार्य! जीवन वहीं सें शुरू होता है । अन्यथा तुम मिथ्यात्व मे, गड़बड़-आले में और भ्रांति में और अंधकार में रहते हों । मन, मन, मन, मन! अन्यथा, अपनी चेतना के बारे में सचेतन होने के लिये, तुम्हें उसे मानसिक रूप देना होगा । यह भयंकर है, भयंकर! लो बस ।

 

    'क' : माताजी, नय जीवन पुराने का ही प्रवाह नहीं है, हैं न ? वह अंदर से उमड़ता है !

 

हां, हां,...

 

    'क' : दोनों में कोई चीज समान नहीं है...

 

   है, हैं, लेकिन तुम उसके बारे मे सचेतन नहीं हों । लेकिन तुम्है होना चाहिये, होना .चाहिये... । मन तुम्हें उसे अनुभव करने से रोकता है । तुस्तुंए होना चाहिये... । तुम हर चीज को मानसिक रूप दे लेते हो, हर चर्चों को... । तुम जिसे चेतना कहते हों वह चीजों के बारे मै सोच-विचार है, तुम उर्स। को चेतना कहते हो :चीजों के बोरे में

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सोच-विचार । लेकिन यह वह चीज बिलकुल नहीं हैं, यह चेतना नहीं हैं । चेतना को बिलकुल स्वच्छ और स्वादहीन होना चाहिये ।

 

(मौन)

 

वहां, हर चीज ज्योतिर्मय और ऊष्मा-भरी होती है... बलवान्! और शांति, सच्ची शांति, जो जड़ता नहीं है, जो निश्चेष्टता नहीं है ।

 

     'क'. और माताजी क्या सब बच्चों को यह लक्ष्य के रूप मे बताया जा सकता है !

 

   सबको... नहीं । वे सब एक हीं उम्र के नहीं हैं, चाहे भौतिक रूप से उनकी उम्र एक ही क्यों न हो । ऐसे बच्चे हैं जो... जो अभी प्राथमिक अवस्था में हैं । तुम्हें... । अगर तुम अपने चैत्य पुरुष के बारे में पूरी तरह सचेतन हो तो तुम्हें यह जान सकना चाहिये कि कौन-से बच्चों की अंतरात्मा ज्यादा विकसित है । ऐसे बच्चे हैं जिनमें चैत्य पुरुष अभी बिलकुल प्रारंभिक अवस्था में है । चैत्य पुरुष की उम्र समान नहीं है, नहीं, बिलकुल नहीं । साधारणत: चैत्य पुरुष को अपना पूरा गठन करने में कई जीवन लग जाते हैं, और वही एक शरीर से दूसरे शरीर में जाया करता है और इसीलिये हमें अपने पूर्वजन्मों का भान नहीं होता : क्योंकि हमें अपने चैत्य का भान नहीं होता  लेकिन कभी-कभी, ऐसे क्षण होते हैं जब चैत्य पुरुष किसी घटना में भाग लेता है; वह सचेतन हो जाता है, और उसकी स्मृति रह जाती हैं । कभी-कभी व्यक्ति को... व्यक्ति को आशिक स्मृति होती है, किसी घटना या परिमिति की स्मृति, या किसी विचार या किसी क्रिया की स्मृति, इस तरह : यह चैत्य के सचेतन होने के कारण होता हैं ।

 

 

   देखो यह कैसे होता है, अब मैं सौ के पास पहुंच रही हूं, बस, अब पांच वर्ष की देरी हैं । वत्स, मैंने पांच वर्ष की अवस्था से सचेतन होने का प्रयास शुरू कर दिया था । यह तुम्हें यह बताने के लिये है... । और अभी मैं चलती चली जा रहीं हूं, और यह प्रयास मी जारी है । केवल... । निक्षय हीं, मैं अब एक ऐसे बिंदु पर अ गयी हूं जहां मै शरीर के कोषाणुओं के लिये काम कर रही हूं, लेकिन फिर भी, काम बहुत पहले शुरू हो गया था ।

 

    यह तुम्हें हतोत्साह करने के लिये नहीं, बल्कि... तुम्हें यह बताने के लिये है कि यह काम बस, यूं ही नहीं हो जाता!

 

    शरीर... शरीर एक ऐसी पदार्थ का बना हुआ है जो अभीतक बहुत भारी हैं, और ' अतिमन' के अभिव्यक्त होने के लिये स्वयं पदार्थ को बदलना होगा ।

 

    तो, यह बात हैं ।

 

३९७

१४ फरवरी, १९७३

 

छोटे बच्चों के साथ काम की व्यवस्था की निरंतरता बनाये

रखने के बारे माताजी ने कहा :

 

लेकिन एक बात है, एक बात है जो मुख्य कठिनाई हैं : वे हैं मां-बाप । जब बच्चे मां-बाप के साध रहते हैं तो मैं उसे बिलकुल आशाविहीन मानती हूं, क्योंकि मां-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे को वैसी हीं शिक्षा मिले जैसी स्वयं उन्हें मिली थीं, और है चाहते हैं कि उन्हें अच्छी नौकरी मिल जाये, और है पैसा कामनायें-वे सभी चीजें हों जो हमारी अभीप्सा से उल्टी हैं ।

 

    जो बच्चे अपने मां-बाप के साथ रहते हैं... वास्तव में, मुह्मे पता नहीं क्या किया जाये । मां-बाप का उनपर बहुत प्रभाव होता हैं और अंत में है उन्हें कहीं और, किसी अन्य विद्यालय में जाने के लिये कहते हैं ।

 

    और यह, सब कठिनाइयों से-सबसे- यह सबसे बढ़ी कठिनाई है : मां-बाप का प्रभाव । और अगर हम उस प्रभाव के विरुद्ध क्रिया करें तो मां-बाप हमसे घृणा करने लगेंगे और तब स्थिति पहले से भी खराब होगी, क्योंकि वे हमारे विरुद्ध अप्रिय बातें कहेंगे । लो बस ।

 

    यह मेरा अनुभव है । सौ में से निन्यानवे बच्चों ने मां-बाप के कारण कुमार्ग लिया है!

 

   मुझे यह अनिवार्य लगता है । हमें एक परिपत्र भेजना चाहिये : ''जो मां-बाप यह चाहते हैं कि उनके बच्चों को साधारण रीति सें शिक्षा मिले और वे अच्छी नौकरी पाने के लिये, अपनी आजीविका के लिये और शानदार जीवन के लिये पढ़ें, उन्हें अपने बच्चों को यहां न भेजना चाहिये । '' लो बस ।

 

   हमें करना चाहिये... । और यह बहुत जरूरी हैं ।

 

    देखो, ऐसे बहुत-से, हां, बहुत-से मां-बाप हैं जो अपने बच्चों को यहां इसलिये भेजते हैं कि यहां और जगहों से कम खर्च पड़ता है । और यह सबसे खराब हैं, सबसे खराब । हमें... हमें... हमें उनसे कहना होगा : '' अगर तुम अपने बच्चों को शानदार जीवन के लिये शिक्षा देना चाहते हो, चाहते हों कि वे धन कलाएं तो उन्हें यहां मत भेजों । '' लो बस ।

 

    'क' : माताजी हम एक परिपत्र तैयार करेंगे  मै आपको दिखा क्या! मैं 'ख' आदि के सक् मिलकर तैयार करुंगा '

 

 ऐसे बच्चे थे जो बहुत अच्छी तरह चल रहे थे और यहां बहुत खुश थे । है  छुट्टियों में

 

 


मां-बाप के पास गये और बिलकुल बदलकर और निगमकर लोटे । और तब अगर हम उनसे यह बात कहें तो यह और भी बुरी बात होगी क्योंकि तब मां-बाप उनसे कहेंगे : '' ओह, ये लोग बुरे हैं, ये तुम्हें हमारे विरुद्ध कर रहे हैं । '' तो होना यह चाहिये... मां-बाप बच्चों को यहां भेजे उससे पहले उन्हें पता होना चाहिये ।

 

मेरा यह अनुभव बरसों से, बरसों से, इतने बरसों से रहा है, इतने बरसों से! खतरा बच्चों से नहीं है, आलस्य से नहीं है, यह बात भी नहीं है कि बच्चे विद्रोही हैं : संकट, महासंकट हैं मां-बाप ।

 

   जो लोग अपने बच्चों को यहां भेजे उन्हें समझ-बूझकर भेजना चाहिये, वे बच्चों को यहां इसलिये भेजे क्योंकि यह अन्य सभी स्थानों से भिन्न है । और बहुत-से ऐसे हैं जो नहीं आयेंगे... । और जो केवल इसलिये आते हैं कि यहां खर्च कम है, हां तो, वे भेजना बंद कर देंगे ।

 

 जब अध्यापक चलने को हुआ तो माताजी ने कहा

 

 मैं चाहूंगी... मैं चाहूंगी बच्चे यहां भेजने से पहले लोगों को हमारे विद्यालय की वृत्ति का पता हो, क्योंकि वह एक बुरी अवस्था होती है जब बच्चे खुश हैं पर मां-बाप खुश नहीं होते; और इससे बड़ी ऊट-पटांग और कभी-कभी खतरनाक परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं । यह बहुत जरूरी हैं, बहुत जरूरी!

 

३९९

१८ फरवरी, १९७३

  

'क' : आज मैं आपके सामने 'ट' का पक पन पहंगा उसने अपनी कलाओं के बारे में पत्र दिया है आप जानती हैं कि ईसा वर्ष उसने छोटे बच्चों के साथ काम शुरु किया है ?

 

 ओह !

 

'क' : वह लिखती है : ''हम हर बच्चे क्वे लिये पूर्ण रूप ले विकसित होना संभव बनाना चाहते हैं और सबसे बढ़कर हम चाहते हैं कि उसकी सीखने की इच्छा सान बनी के '' (पत्र में कुछ प्रस्तावित खेलों का वर्णन है जो चीजें उनके लिये बनायी नयी हैं उनकी तथा. कार्यक्रम की बात है फिर वह कहती है:) ''लेकिन ' बच्चों की सभी ' को खुल-खेलने का अवसर तभी मिलता है जब उन्हें पर्याप्त स्वतंत्र छेत्र प्रान्त हरे एडसलिये कोई कठिनाई सिर उठाती हैं विशेष रूप से शोर-शराबे को तथा उनकी गतिविधि की संयत रखना मुश्किल होता है अमी कुछ दिन पहत्हे उन्होने मेकैनो ले तस्वीरें और पिस्तौलें बनायी थीं? ''

 

ओह !

 

 'क' : (जारी रखता है) : ''हमने उन्हें अभिनय के लिये एक नाटक दिया है इस आशा ये दिया है कि दे कुछ समय के बाद ठंडे पड जायेने? लेकिन हिंसा की इच्छा लड़ाई- या जासूसी कहानियों तक- की पसंद के लिये क्या किया जाये?"

 

 तुम्हारे पास लिखने के लिये कुछ है?

 

       'क' : जी हां !

 

जबतक मनुष्य अपने अहंकार और उसकी कामनाओं के वश में हैं तबतक हिंसा जरूरी है... । ठीक है?

 

     'क' : जी हां माताजी !

 

   लेकिन हिंसा का उपयोग केवल आत्म-रक्षा में, जब किसी पर आक्रमण हों तब किया

 


जाना चाहिये । जिस लक्ष्य की ओर मानवजाति गति कर रहीं हैं और जिसे हम चरितार्थ करना चाहते हैं, वह हैं एक ऐसी प्रकाशमान समझ की अवस्था जिसमें हर एक की और साथ हीं समग्र सामंजस्य की आवश्यकताओं का ख्याल रखा जाता हैं ।

 

   'क' : जी हां माताजी

 

भविष्य को हिंसा की जरूरत न होगी, क्योंकि उसमें दिव्य 'चेतना' का राज होगा जिसमें हर चीज दूसरी के साथ सामंजस्य में रहती और एक दूसरे को पूरा करती हैं । यह काफी है?

 

    'क' : जी ! अमी आपने जो कहा है, उसे मैं पड़े देता हूं माताजी ! (पड़ता है )

 

यह ठीक है?

 

          'क' : जी हां माताजी बिलकुल ठीक?

 

   तो एक सामान्य रीति से पूछती है कि जब इस तरह की चीजें सि? उठाये जब बच्चे इस प्रकार की बातों मैं व्यस्त हों तो : 'हमें बीच मैं पड़ता चाहिये या तबतक प्रतीक्षा करनी चाहिये जबतक कि इस प्रकार की गति दबाकर कुत्त न हो जाये ?

 

तुम्हें... तुम्हें बच्चों से प्रश्र करने चाहिये और उनसे अचानक पूछना चाहिये : '' क्या तुम्हारे दुश्मन हैं? कौन हैं ये दुश्मन?'' तुम्हें यह कहना चाहिये... । तुम्हें उनसे थोड़ा बोलवाना चाहिये... । चूंकि वे देखते हैं... सेना मे एक बल और एक सुन्दरता है जिसे बच्चे बहुत जोर से अनुभव करते हैं । लेकिन उसे बनाये रखना चाहिये । सिर्फ, सेनाओं का उपयोग आक्रमण करने और जीत लेन के लिये नहीं करना चाहिये, बचाव करने और...

 

    'क': रक्षा

 

... और रक्षा । ठीक है ।

 

   पहले उसे यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये : अभी के लिये, हम ऐसी अवस्था मे हैं जब हथियारों की जरूरत हैं । हमें यह समझ लेना चाहिये कि यह एक संक्रमण अवस्था है-यह अंतिम नहीं है, लेकिन हमें उस ओर बढ़ना चाहिये ।

 

   शांति-- शांति, सामंजस्य- को चेतना के परिवर्तन के स्वाभाविक परिणाम के रूप में होना चाहिये ।

 

४०१


'क' : और उसका दूसरा प्रश्र हैं माताजी- मैं आपको याद दिल दूं कि उसके पास आठ ले दस वर्ष के बच्चे हैं- वह कहती है : ''इस अवस्था मे जब इस बच्चों में मानसिक दृष्टि काम करने लगती है हम आंतरिक सहजता की हानि पहुंचाये बिना इस मानसिक गति का उपयोम कैसे कर सकते हैं?

 

बहुत कुछ स्थिति और बच्चे पर निर्भर है !

 

   देखो, भारत में अहिंसा का विचार है जिसने भौतिक हिंसा के स्थान पर नैतिक हिंसा को बीठा दिया हैं-लेकिन यह कहीं अधिक खराब हैं !

 

  तुम्हें उनकों यह समझाना चाहिये... । तुम बच्चों से कह सकते हो, समझा सकते हो कि भौतिक हिंसा के स्थान पर नैतिक हिंसा को रखना अधिक अच्छा नहीं है !

 

  रेल को रोकने के लिये उसके आगे लेट जाना नैतिक हिंसा है जो भौतिक हिंसा की अपेक्षा ज्यादा गड़बड़ पैदा कर सकती है । तुम... तुम सुन सकते हो?

 

   लेकिन यह बालक पर निर्भर है, स्थिति पर निर्भर हैं । तुम्हें कोई नाम न लेना चाहिये, यह न कहो कि इस या उस व्यक्ति ने ऐसा कहा हैं ! उन्हें विचार और प्रतिक्रियाएं समझाती चाहिये ।

 

   तुम्हें... यह एक अच्छा उदाहरण है : तुम्हें यह समह्मने चाहिये कि रेल को रोकने के लिये उसके आगे लेट जाना उतनी हीं बड़ी हिंसा हैं... बल्कि हथियार लेकर उसपर आक्रमण करने से भी बढ़कर हिंसा है  । समझे, बहुत-सी, बहुतेरी चीजें कही जा सकतीं हैं । यह हर स्थिति पर निर्भर हैं ।

 

   स्वयं मैंने पटेबाजी को बहुत प्रोत्साहित किया था क्योंकि उससे आदमी एक कौशल, अपनी गतियों का संयम और उग्रता का नियंत्रण सीखता है । एक समय मैंने पटेबाजी को बहुत प्रोत्साहन दिया था, और तब, मैंने पिस्तौल चलाना भी सीखा था । मै पिस्तौल से गोली चलाती थी, मै रामफल भी चलाती थी क्योंकि इससे स्थिरता और कौशल और शिक्षित दिष्टि प्राप्त होती है जो बहुत बढ़िया हैं, और इससे तुम खतरे के समय भी स्थिर रहने के लिये बाधित होते हो । मुझे नहीं मालूम कि ये चीजें क्यों... । तुम्हें हमेशा निराशाजनक रीति से अहिंसक न होना चाहिये- इससे चरित्र... शिथिल बन जाते हैं ।

 

   अगर वह बच्चों को... क्या करते देखती हैं ? वे तलवारें बना रहे थे?

 

    'क' : जी हां माताजी दे मेकैनो ले तलवारें बना रहे थे

 

 उसे ऐसे अवसरों पर कहना चाहिये : '' ओह, तुम्हें पटेबाजी सिखनी चाहिये ! '' और साथ हीं पिस्तौल भी !

 

४०२


    'क' : जी हां माताजी

 

 और उनसे कहो... उन्हें निशानाबाजी सिखाओ... इसे एक कला का रूप दे दो, एक कला और शांत-स्थिर पूर्णता, और आत्म-संयत कौशल के प्रशिक्षण का रूप दे दो । तुम्हें कभी... कभी गोहार नहीं मचानी चाहिये... । उससे काम न चलेगा, बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं । मैं उसके पक्ष मे बिलकुल नहीं हूं । आत्मरक्षा के उपाय अच्छी तरह सीखने चाहिये और इसके लिये उनका अभ्यास भी करना चाहिये ।

 

 यहां 'क' ने उत्तर फांस के फ्लेण्डर्ज इलाक़े मैं होनेवाली तीरंदाजी

की बात की, लेकिन वह ठीक तरह न समझा पाया, इसलिये

माताजी ने समझा कि वह धनुहियों की बात कर रहा है ।

 

तो वे चिड़िया मारना शुरू करेंगे...

 

      'क' : लेकिन हमारे यहां तीरंदाजी के लिये सुविधाएं नहीं हैं माताजी यही कठिनाई है!

 

बे चीजों की तोड-फोड़ शुरू कर देंगे । मैं बहुत... हां, अगर... । लेकिन जब वे पूरी तरह समझ लें कि यह केवल आत्मरक्षा के लिये है, और किसी चीज के लिये नहीं नहीं, तब दुर्घटनाएं होगी । भूखे नहीं लगता कि यह बहुत बुद्धिमानी होगी । अगर उन्हें रस हो तो तुम उन्हें पटेबाजी और निशानेबाजी सीखा सकते हो, यानी, यों, जैसा कि मै 'ट' को लिख रहीं हूं... । अगर वह किसी बच्चे को यह करते देखे तो उसे यह न करना चाहिये... (माताजी त्रास से दोनों भुजाएं उठाने का अभिनय करती हैं) । उसे उससे कहना चाहिये, उसे समझाना आना चाहिये : ''इससे तुम्हें अपनी मांसपेशियों पर ज्यादा अधिक अधिकार प्राप्त होता हैं, इससे तुम्हें मजबूत और शांत और आत्म-संयत रहना पड़ता है । '' इसके विपरीत, यह उन्हें एक बहुत अच्छा पाठ पढ़ाने का अवसर होता हैं । लेकिन तुम्हें अपने-आप समह्म सकना चाहिये, और सबसे बढ़कर, सबसे बढ़कर, उन्हें समझा सकना चाहिये... उन्हें यह समझा सकना चाहिये कि नैतिक हिंसा ठीक उतनी हीं बुरी हैं जितनी भौतिक हिंसा । यह उससे भी ज्यादा खराब हो सकतीं है; यानी, भौतिक हिंसा कम-से-कम तुम्हें मजबूत, आत्म-संयत होने के लिये बाधित करती है, जब कि नैतिक हिंसा... । तुम ऐसे हो सकते हो (माताजी ऊपरी स्थिर-शांति का दिखावा करती हैं) और फिर भी तुम्हारे अंदर भयंकर नैतिक हिंसा हो सकतीं हैं ।
 

४०३

२४ फरवरी, १९७३

 

'क' : आज की शाम मैं आपको 'ट' का एक पत्र सुनाना चाहता हूं ! उसके  पिछले पत्र के बारे में आपने जो कहा था यह उसी क्वे सिलसिले में है : 'हमने  देखा है कि कुछ बच्चों मे बहुत जोरदार प्राणिक गति होती हैं जो भौतिक संकेतों का अनुसरण करती है दूसरों क्वे लिये यह केवल एक खेल होता है । एक लड़का तो बरामद में मार्चिय करता है और कहता है : 'मैं माताजी की सेना का सैनिक मांगा ' क्या सबके बारे में आप कोई यथार्थ निर्देश ?"

 

 कहां मार्चिंग करता है?

 

   'क' : बरामदे में मार्चिय करता है !

 

 मुंडेर पर तो नहीं न?

 

    'क' : जी नहीं और फिर वह दूत चक्कर लगता है सावधान होकर खड़ा हो जाता है और कहता ह्वै : ''मैं माताजी की सेना का सैनिक बनूंगा ''

 

 यह तो बड़ी अच्छी बात है ।

 

   'क' : तो मै आये पड' माताजी ?

 

 हां, हां ।

 

'क' : ''रही बात नैतिक उठता की मेरी समझ मे नहीं नाता कि प्रकृति के किन तत्वों ले हमें हल्की संभावना का पता लय सकता है उदाहरण के लिये क्या बच्चे की रूठन की वृत्ति उसकी सनक पर रोक रहमानेवाली हर चीज के विरुद्ध विद्रोह की वृत्ति ले यह अंदाज लगाया जा सकता है या किसी और चीज से ? इस चीज को ठीक दिशा में मोड़ना के लिये क्या करना चाहिये ताकि अंत में उसका रूपांतर हो सके ?

 

मेरा ख्याल है कि तुम्हें बच्चों की इन छोटी-मोटी क्रियाओं को कोई महत्त्व नहीं देना चाहिये-इससे उन्हें प्रोत्साहन ही मिलता है  तुम्हें उनकी ओर ध्यान न देना चाहिये,

 


इस तरह नजर न डालों मानों तुम उन्हें कोई महत्त्व दे रहे हो । उनसे पिंड छुटाते के लिये उन्हें महत्त्व देने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा तरीका हैं । तुम्हें बिलकुल... तुम्हें अहंभाव की इन क्रियाओं की ओर जस भी ध्यान न देना चाहिये । यह भी न दिखाओ कि तुमने उन्हें देखा भी है-इससे उनका सारा मनोवैज्ञानिक सहारा हट जाता दूर । अगर कोई बच्चा रूठता है तो तुम उसकी ओर जरा मी ध्यान न दो । इससे रूसने का सारा प्रभाव हीं चला जाता है । समझे?

 

    'क' : जी हां माताजी

 

 तुम्हें बच्चों की इन छोटी-मोटी गतिविधियों को कोई महत्त्व न देना चाहिये... सबसे बढ़कर, कोई महत्त्व न दो ।

 

   'क' : क्योंकि अगर बे देखें कि ईन चीजों को महत्व दिया जा खा है तो वे फिर ले वही करने को प्रेरित होगी !

 

 निक्षय ही !

 

    बच्चे सहज-ज्ञान से अपनी ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं । जैसे वह बच्चा जो छत पर सैनिक होने का ढोंग करता है... और ऐसी ही अन्य चीजें । तुम्है इन्हें कोई महत्त्व न देना चाहिये, उन्हें चलने दो । डांट-फटकार मत करो, सबसे बढ़कर, डांट-फटकार न करो... और उनकी ओर ध्यान न दो ।

 

    बच्चे दुर्बल प्राणी होते हैं, और इसलिये बे सोचते हैं कि बेतुके बनकर बे अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर सकेंगे । उन्हें पता लगना चाहिये कि यह तरकीब काम नहीं करती ।

 

   'क' : और '' डांटना नहीं चाहिये, है न ?

 

ओह, विशेष रूप से यह तो हरगिज नहीं! सबसे बढ़कर, उन्हें डांटो मत, डांटो मत । -तब अध्यापक उतना हीं बुरा हो जाता है जितना कि बिधार्थी । जब वह डाँटता है तो ऐसा लगता है कि... वह संयम खो बैठा हैं । इसका अर्थ है कि वह भी बिधार्थी के ही स्तर पर है । तुम्हें मुस्कराते रहना जानना चाहिये... हमेशा ।

 

    'क' : यह बहुत जरूरी है !

 

 बहुत, बहुत, बहुत जरूरी ।

 

४०५


'ख ' श्रीअरविन्द के ''सुप्रामेंटल मेनिफेस्टेशन अपॉन अर्थ' ' (' धरती

पर अतिमानसिक अभिव्यक्ति ') मे से एक अनुच्छेद पड़ता हैं :

 

   '' 'अतिमन' अपने मूल तत्व मे सत्य-चेतना है ऐसी चेतना जो हमेशा उस '।. 'अज्ञान' से मुक्त खाती है जो हमारी वर्तमान स्वाभाविक या बिकसोनमुख सत्ता का आधार हैं हमारे अंदर की उसमें ले आत्म-ज्ञान और -ज्ञान और ज्ञता चेतना और विश्व में हमारे जीवन ले सच्चे उपयोम को पाने की चेष्टा कर रहीं हैं सूक्ति 'अनमन' सत्य-चेतना है इसलिये उसमें यह ज्ञान और सत्य सन की शक्ति नेसर्गिक छै उसका मार्च सीधा है और वह सीधा अपने लक्ष्य पर जा पहुंचता है उसका छेत्र विस्ट्रत है और असीम मी हो सकत? है इसका कारण यह है कि ज्ञान उसका निजी स्वभाव है : उसे ज्ञान प्रान्त नहीं करना होता वह स्वभाव से उसके अधिकार मे होता है; उसक्ते पग अविद्या और अज्ञान ये किसी अपूर्ण प्रकाश की ओर कति जाते बल्कि सत्य ले महत्तर सत्य की ओर बढ़ते हैं सत्य-दर्शन से गभीर दर्शन की ओर अंतर्मास ले अतर्मास की ओर प्रकाश से परम असीम ज्योति की ओर बढ़ते हुए विस्तार ले परम बृहत और स्वयं अनंतता तक बढ़ते हैं उसके शिखर पर उसके पास दिव्य सर्वशक्तिमत्ता होती है लेकिन उसकी क्रमानुगत आत्माभिव्यक्ति की गति मे मई जिसके द्वारा वह अंतत: अपने ऊंचे-से-ऊंचे शिखरों को प्रकट करेगी वहां मी उसे स्वभावत: अज्ञान और भ्रांति ले पूरी तरह मुक्त होना चाहिये : वह सत्य और प्रकाश से आरंभ करके हमेशा सत्य और प्रकाश मे गति करता है ' उसका ज्ञान हमेशा सत्य होता है इसलिये उसकी इच्छा मी हमेशा सच्ची होती हो वह चीजों के सक् व्यवहार करते हुए कमी घपले में नहीं पड़ता और न ही उसके कदम कमी ठोकर खाते हैं 'अतिमन' में भावना और संवेग कमी अपने सत्य से जुदा नहीं होते कोई मल नहीं करवे कमी फिसलते नहीं सत्य और वास्तविक ले उधर-उधर नहीं एतौ कमी सौंदर्य और आनंद का नहीं कर सकते और न ही दिव्य आर्जव से मधुकर छ हो सकते हैं  'अतिमन' मे संवेदन कमी गलत राह पर नहीं ले जा सकता और न महता की ओर छ सकता है जब कि ये दोनों यहां पर उसकी स्वाभाविक अपृर्णताएं उसके निंदा और अविश्वास क्वे कारण हैं और हमारा अज्ञान उनका करता है 'अतिमन' दुरा दिया क्या अधूरा विवरण मी एक सत्य है जो और आये के सत्य की ओर  जाता है उसकी अकरी किया पूर्णता की ओर एक कदम है 'अतिमन' का समस्त जीवन और सभी क्रियाएं और उसका पक्ष-प्रदर्शन स्वभावत: मिथ्यात्व और अनिशितताओं से सुरक्षित है जब कि ये हमारे मान में हो वह सुरक्षा मैं अपनी पूर्णता की ओर गति करता हैं? एक बार

 

४०६


यहां सत्य-चेतना अपने शिक्षित आधार पर स्थापित हो जाये तो दिव्य जीवन का विकल आनंद में क्रांति होगा प्रकाश में होते हूर आनंद की ओर यात्रा होगी!

 

 यह बहुत, बहुत, बहुत महत्त्वपूर्ण है । बहुत महत्त्वपूर्ण ।

 

    वे सब लोग जो 'अतिमन' को अभिव्यक्त करने का दावा करते हैं शांत हो जायेंगे ।

 

(मैंने)

 

    'ख' : आज के लिये बस इतना हई मधुर मां !

 

 यह अच्छा है । यह कहां छापेवाला हैं?

 

    'ख' : मै युवाओं के लिये एक पुस्तक तैयार कर रहा हूं उसमो!

 

 ओह ! यह इतना अच्छा है... और इतना महत्त्वपूर्ण हैं ।

 

   ओरोवील मे ऐसे लोग हैं जो यह मानते हैं कि वे अभी से हीं ' अतिमन' को अभिव्यक्त कर रहे हैं । और जब तुम उनसे कहो कि बात. ऐसी नहीं हैं तो है विश्वास नहीं करते । उन्हें यह पढ़ना चाहिये । हर एक को यह पढ़ना चाहिये ।

 

'क' : माताजी अभी हाल मे उन्होने श्रीअरविन्द के बारे मे बोलने क्वे लिये निमंत्रण दिया है मैं इस अवसर का लाभ उठाकर उन्हें यह अनुच्छेद सुनाऊंगा! 

 

 ओहो, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा । तुम्हें इसे धीरे-धीरे पढ़ना चाहिये, ताकि उन्हें ठीक डग से सुनने का अवसर मिले ।

 

 सेटिनरी वोल्यूम १६ !

 

४०७

२६ फरवरी , ११७३

 

 'क' माताजी के आगे प्रश्रों की एक तालिका पढ़कर सुनाता हैं

जिसका अध्यापकों को उत्तर देना है ।

 

'क' : और अब हमारा अंतिम प्रश्र यह है : ''माताजी ने लिखा था कि बच्चों के मन में खेल और काम में कोई फर्क न होना चाहिये विशेषकर छोटे बच्चों के लिये जिनमें पढ़ने का आनंद रस ले आन? चाहिये  यह कैसे किया जाये कि काम और खेल मैं फर्क न हो ? आपका कोई सुझाव है ? ''

 

सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं मां-बाप और उनका विद्यालय... विद्यालय... विद्यालय जाना । ज्यादा अच्छा है कि हम उनसे यह न कहें : ''तुम विद्यालय जा रहे हो... ।आ रहे हो... । आज हम अमुक-अमुक खेल खलंगा... आज अमुक-अमुक खेल खेलों । '' और इसी तरह । लेकिन मां-बाप? जो यहां अपने मां-बाप के बिना हैं बे ....

 

   'क' : विशेषाधिकार प्रान्त हैं

 

 हां, बहुत विशेषाधिकार!

 

थोडी देर बाद 'क' ने माताजी है पूछा कि क्या आपको अध्यापकों

से कुछ और पूछना हैं ? बहुत देर चुप रहने के बाद माताजी ने

हंसते हुए कहा :

 

 मेरा सिर खाली हैं ।

 

१४ मार्च, १९७३

 

'ख' माताजी के सामने एक अध्यापक का पत्र पढ़ता है जो ''इस

गड़बड़ से हट जाना और इस वर्ष के लिये विद्यालय छोड़ देना' '

चाहता हैं । तब माताजी को बतलाया गया कि किन कारणों से

उसने यह फैसला किया ।

 

जहांतक मेरा सवाल हैं, मै इन मामलों को बिलकुल नहीं समझती । मेरे लिये ये सब... । 'क' का क्या कहना हैं?

 

    'क' : मैं क्षति जानता के आपसे क्या कह माताजी

 

मुझे इतना ही बताओ : तुम्हें कैसा लगता है? मुझे लगता है कि विद्यालय मे गड़बड़ की सत्ता घुस गयी हैं और... । उनका मतलब एक ही है, पर वे अलग-अलग परिभाषाओं का उपयोग करते हैं, और परिभाषाओं में टक्कर होती हैं । मुझे मालूम है कि उनमें बहुत ज्यादा एक-सी अभीप्सा है, परंतु हर एक अपनी ही भाषा बोलता है और भाषाओं में सामंजस्य नहीं है और है व्यर्थ का वाद-विवाद करते हैं । लो, मुझे तो लगता है कि सबसे अच्छा उपाय यह होगा कि हर एक कुछ समय के लिये चुपचाप रहे । तुम अपना समाधान बतलाओ ।

 

   मैं भी, उन लोगों के साथ जो... जो मेरे साथ हैं, मुझे कमी कोई कठिनाई नहीं होती थी, और अब तो ऐसा लगता है मानों हम अलग हीं भाषा बोल रहे हैं ।

 

    'क' : और उन चीजों पर जोर देने की जगह जो हमें नजदीक लाती हैं हम मित्रता की बातों पर जोर देते हैं अत:...

 

हां, वे उसी पर जोर देते हैं । लेकिन मेरे ऊपर इसका अजीब प्रभाव होता है; इससे मुझे ऐसा लगने लगता है मानो मै बीमार हूं । मेरे अंदर कोई बीमारी नहीं हैं । मै स्वस्थ हूं और यह चीज मुझे सारे समय बीमारी का-सा अनुभव कराती रहती है ।

 

    'क' : यह असामंजस्य का स्वदंन है !

 

हां, वास्तव में यह साधारण मानसिक चेतना से अतिमानसिक चेतना में संक्रमण है । अतिमानसिक चेतना की उपस्थिति में मानसिक चेतना संन्यस्त रहती हैं । मुझे लगता है-मैं तुम्हें बतलाती हूं, मेरे अंदर यह चीज कैसे आती है-कि हर मिनट व्यक्ति मर सकता है, स्पंदन इतने भिन्न होते हैं । तो केवल तभी जब मैं बहुत स्थिर होता हूं... तो सत्ता, चेतना... पुरानी चेतना-जो मानसिक चेतना बिलकुल नहीं है, फिर भी-पुरानी चेतना अपना मंत्र जपती जाती है । एक मंत्र है... वह अपना मंत्र जपती,

 


जाती है । तो वह एक पृष्ठभूमि की नाई होता है, एक संपर्क-बिंदु का तरह... । अजिर है... । और तब उसके परे, कोई चीज हैं जो ज्योति और शक्ति से भरपूर है , लेकिन वह इतनी नयी है कि वह लगभग संत्रास पैदा कर देती है । अतः, समह्मते, अगर यहीं चीज... मेरे अंदर... मुझे बहुत अनुभव ही, है न ? तो अगर यह चीज मेरे अंदर ऐन प्रतिक्रिया लाती है, अगर ऐसी हीं चीज दूसरों में हो तो मुझे लगता हे कि हम पागल हो जायेंगे! लो, इतना काफी है ।

 

   क्या यह किसी के साथ मेल खाता है?

 

   'क' : जी छू माताजी

 

तो मेरा ख्याल है कि हमें बहुत शांत रहना चाहिये ताकि...

 

    'क'. (जैविकी क्वे बारे मै कुछ बातें करने के बाद) : पर तथ अपनी बात पर वापिस आते हुए उदाहरण क्वे लिये क्या हमें नजदीक लानेवाली चीजों पर जोर देकर और जैसा कि आपने उस दिन कहा था विभित्र तत्त्वों के संयोजनों को यथासंभव जल्दी चरितार्थ करके... मेरा ख्याल है कि अमर हर एक यह हूढ़ंने का निक्षय कर ले कि काम के विभित्र हर्म्य को कैसे सबा लाया जा सकता है हां तो है विचित्रता क्वे हिंदुओं को मूल जायेने और केवल उन चीजों के बारे में ही ज्यादा सोचने जो ज्यादा नजदीक लाती हैं

 

हां, हां, लेकिन हमारी भाषा... मैं तुमसे कहनेवाली थी : ''यह अच्छा विचार है, '' पर मैंने मानों अपने-आपसे कहते हुए अपना कान पकड़ा । यह विचार नहीं, समझे, यह नोट हमारी भाषा हैं जो... यह मानों एक टोपा है जो उसे पूरी तरह ढक लेता है, एक मानसिक टोपा जिससे वह पिंड छुलाना नहीं चाहता । सचमुच, यह कठिन समग है । मेरा ख्याल है कि हमें बहुत शांत रहना चाहिये, बहुत शांत, बहुत शांत । मै तुम्हें अपना पुराना मंत्र बताती हूं; यह बाह्य सत्ता को बहुत शांत रखता है :

 

  ॐ मनो भगवाते ।

 

   ये तीन शब्द । मेरे लिये इनका अर्थ था :

   ऊ-मैं परम प्रभु से याचना करती हूं ।

   मनो-उन्हें नमस्कार हो ।

   भगवाते- मुझे दिव्य बनाओ ।

   यह उनका अनुवाद है, यानी... । सुना तुमने?

 

   'क' : जी हर्र माताजी

 

मेरे लिये इसमें सब कुछ शांत करने की शक्ति है ।
 

४१०

भाग है
 

नाटक

 


 भविष्य की ओर

 

गंध में लिखा एक एकांकी नाटक जो किसी भी देश में उसके रीति-रिवाज के अनुसार तोड़ी-बहुत अदल-बदल करके खेला जा सकता है ।

 

पात्र :

 

 वह

कवि

सूक्ष्मदर्शी गायिका

चित्रकार

सखी

 


  भविष्य की ओर

 

  (पर्दा उठता है वह अपनी साध की पढ़ीं एक सहेली के साथ सोक पर बैठे है !)

 

वह- आहा, तुम कैसी अच्छी हो जो इतने दिनों बाद मिलने आ गयीं... मैंने तो सोच लिया था कि तुम मुझे मूल गयीं ।

 

सखी-हर्गिज नहीं । लेकिन मैं तो तुम्हारा ठिकाना ही खो बैठे और यह भी न जान पायी कि तुम्हें कहां खोजूं । और अब इतने दिनों बाद तुम्हें देखकर कीनना आश्चर्य हो रहा हैं ! तू और विवाहिता... कैसी अजीब बात है! मुझे तो विश्वास हीं नहीं होता ।

 

वह-हां, स्वयं मुह्मे भी आश्चर्य हैं ।

 

सखी-मैं समझ सकती हूं... मुझे याद है कि तुम कितने व्यंग्य के साथ विवाह को ''उत्पादन और उपभोग की सहयोग-समिति' ' कहा करती थीं, और मानव जीवन में जो कुछ पशुवृत्ति को या पाशविकता को व्यक्त करे उसके लिये तुम्हें कितनी घृणा हुआ करती थी । कैसे भाव-भंगी के साथ तुम कहा करती थीं : ''हम कुत्ते- बिल्ली तो न बनें... । ''

 

वह-हां, मै हमेशा प्रचलित धारणाओं और रीति-रिवाजों का मजाक उड़ानें में बहुत रस लेती थी । लेकिन तुम्हें मेरे साथ न्याय करने के लिये यह भी मानना होगा कि मैंने कभी सच्चे प्रेम अर्थात् जो प्रेम आंतरिक मिलन से पैदा होता हैं, जिसमें विचारों और अभीप्साओं की समानता होती है, उस प्रेम के विरुद्ध कभी कुछ नहीं कहा । मैंने हमेशा उस महाप्रेम के स्वप्न देखे हैं जो दो व्यक्तियों को एक वनाता हो, जो पशुवृत्ति से अछूता हो, जो महाप्रेम सृष्टि के मूल में है उसे भौतिक रूप में प्रकट कर सके । यहीं समह्म मेरे विवाह का मुख्य कारण था । लेकिन इससे बहुत सुखकर अनुभूति नहीं हुई । मैंने बड़ी सच्चाई के साथ, वहीं तीव्रता से प्रेम किया पर मेरे प्रेम को अपनी आशा के अनुसार प्रत्युत्तर नहीं मिला...

 

सखी-बेचारी!

 

वह-नहीं, तुम्हारी सहानुभूति पाने के लिये मैंने यह बात नहीं कही ! मुझे दया की जरूरत नहीं है । जगत् की जो अवस्था है उसमें मेरे स्वप्न का चरितार्थ होना लगभग असंभव है । उसके लिये मानव प्रकृति में एक बड़े परिवर्तन की जरूरत हैं । इसके अतिरिक्त, हम दोनों मै, मेरे और मेरे पति में, बहुत मेल-मिलाप हैं, फिर भी दोनों अपने-अपने स्थान पर पूरी तरह अकेलापन अनुभव करते हैं । परस्पर आदर- मान की भावना और एकदूसरे की सुविधा-असुविधा का ख्याल हमारे अंदर एक सामंजस्य बनाये हुए है और इस कारण जीवन का भार कुछ हल्का हो जाता है । परंतु क्या यही सुख हैं?

 


सखी-बहुतों की दृष्टि में तो यही सुख हैं ।

 

वह-यह ठीक है, परंतु कभी-कभी जीवन बड़ा खाली-खाली लगता हैं । इस खालीपन और शून्यमान को भरने के लिये ही मैंने अपने-आपको पूरी तरह सें और पूरी . सच्चाई के साथ एक अद्भुत कार्य में लगा दिया है जो मुझे अत्यंत प्रिय है । वह श. काम क्या है? दुःखी मानवता के कष्ट को हल्का करना, उसे अपनी क्षमताओं और अपने जीवन के सच्चे लक्ष्य और अंतिम रूपांतर के संबंध में सजग करना ।

 

सखी-मुझे लगता हैं कि एक महान और असाधारण वस्तु तुम्हारे जीवन को परिचालित कर रहीं हैं । लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि वह है क्या, इसलिये मुझे वह काफी रहस्यमय लगती है ।

 

वह-हां, मुझे सारी बात ठीक तरह समह्मकर कहनी चाहिये । विस्तार से कहने में समय लगेगा । अगर मैं तुम्हारे धर आ जाऊं... क्या राय है?

 

सखी-वाह, बहुत अच्छे ! मुझे बढ़ी खुशी होगी । तो फिर कब आ रही हो ? आज हीं रखो ।

 

वह-हां, खुशी से । मुझे लोगों को इस अनुपम साधना के बारे मे बताते हुए बढ़ी खुशी होती है जो हमारे जीवन को दिशा और हमारे संकल्प को निर्देश देती है । अभी, भूखे कुछ चीजों को ठीक-ठक करना होगा ताकि मेरे पति जब सैर से वापिस आयें तो उन्हें सब कुछ तैयार मिले । और उनके अपने काम मे लगते ही मै बाहर निकल पहुंची और तुमसे मिलने आ जाऊंगी ।

 

सखी- अच्छा, तो चूल । अब तो जल्दी हीं मिलेंगे ।

 

(वह अपनी सखी क्वे साथ परदे के पीछे दरवाजे तक जाती है  लौटकर लिखने की मेज़ पर कामज गुस्तके और लिखने का सामान ठीक तरह सजा देती है मजे पर कुछ कृत्य रखता है और चारों ओर नजर दौड़ाकर देख लेती है कि सब कुछ ठीक है उसी समय दरवाजे के तात्हे मैं चाबी घूमने की आवाज आती है !)

 

वह- आहा ! बे आ गये । (कवि आता हैं ! बह बड़े रहने के साथ उसकी ओर बढ़ती हैं ?? क्यों, सैर अच्छी रही न?

 

कवि- (अन्यमनस्क भाव से)  हां । (कुरसी पर टोप रखता है ) मुझे अपनी कविता का उपसंहार मिल गया । टहलते-टहलते ये पंक्तियों अचानक ही आ गयीं । सचमुच खुशी हवा मे घूमने-फिरते से प्रेरणा सहज रूप से आ जाती है । हां, मुह्मे लगता बे कि ऐसा ठीक रहेगा : मेरी कविता के अंत मे एक महाविजय का मान होगा, एक विजय-मंत्र होगा, विकसित मानव का कीर्तिमान होगा जिसने अपनी मूल चेतना के साथ वह जो कुछ कर सख्ती हैं उसके लाना और उसे चरितार्थ करने की सामर्थ्य को खोज लिया है । मै पार्थिव अमरता की विजय की सुखद भव्यता के ऐक्य की ओर बढ़ते हुए उस मानव का वर्णन करता हूं । सचमुच यह कैसी सुन्दर और सार्वभौम चीज होगी, है न ? बहुत समय बीत चुका हैं, अब कला को कुरूप

 

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और पराजय का साथ न देना चाहिये... । वह कैसा सुखद दिन होगा जब काव्य, चित्रकला और संगीत केवल सौंदर्य, विजय और आनंद को अभिव्यक्त करेंगे, इतना ही नहीं, वे भावी सिद्धि का रास्ता खोल देंगे, उस जगत् की ओर ले चलेंगे जहां मिथ्यात्व, दुःख-कष्ट, कुरूपता और मृत्यु न होगी... । परंतु जबतक यह नहीं हो पाये तबतक मनुष्य को अब मी कितना दुःख-दैन्य, कितना कष्ट और कटु एकाकीपन सहना पड़ का है... । सचमुच भयंकर हैं यह अवस्था ! हर एक को, वह चाहे या न चाहे, अपना भार अपने कंधों पर ढोना ही पढ़ो रहा है । (बिचारमन वह- (नजदीक आकर बड़े प्रेम ले उसके कंधे पर हाथ रखते हुए ? चली, अपना काम शुरू कर दो, तुम जानते हीं हो कि विषाद के लिये यही रामबाण औषध है । मै तुम्हें प्रेरणा के हाथों में सौंपती हूं । मैंने अपनी सखी को वचन दिया है कि आज शाम उसके यहां बताऊंगी और उसे उस अद्भुत शिक्षा के बारे में कुछ बताऊंगी जो हमारे जीवन को मार्ग दिखाती है । हम दोनों मिलकर संभवत: इस गहन सत्य से मरे दों-चार पृष्ठ पढ़ेंगे । इस विषय पर मनन करने में हम दोनों को बड़ा आनंद मिलता ह्वै । इससे बहुतों की धारणाएं उलट-पुलट हो जाने की संभावना है, है न । लोगों की दृढ़ मान्यता हैं कि स्त्रियों केवल कपड़े-लत्तों की बातें करने में हीं होशियार होती हैं । साधारण रूप से देखा जाये तो यह बात है भी ठीक । अधिकतर सिय बहुत हल्की या ओछे होती हैं, या कम-से-कम बाहर से देखने में तो ऐसा ही लगता है  । पर बहुत बार इस हलकापन के पीछे भारी हृदय छिपा होता हैं, मानों यह ओछापन अतृप्त जीवन को ढके रखने के लिये एक परदा होता है । बेचारी औरतें! मैं ऐसी बहुत-सी स्त्रियों को जानती हूं जो बहुत दुःखी हैं और दया की पात्र हैं ।

 

कवि-तुम्हारी बात ठीक है । स्त्रियों की दशा बहुत दुखपूर्ण और दयनीय है । प्रायः सभी आवश्यक सहायता और सहारे से वंचित हैं और वे उन छोटी-छोटी डींगियों जैसी हैं जिनके पास ऐसा बंदरगाह तक नहीं है जो तूफ़ानों के समय उन्हें आसरा दे सके । क्योंकि अधिकतर स्त्रियों को ऐसी शिक्षा नहीं मिलती जिसकी सहायता से वे अपनी रक्षा कर सकें।

 

वह-यह सच है । इसके अतिरिक्त, शक्तिशाली और समर्थ नारी को भी प्रीति और सुरक्षा की तीव्र जरूरत होती है, एक सर्वसमर्थ की जो अपने सुखदायी माधुर्य के साथ उस पर झुका हुआ हो और उसे चारों ओर सें घेरे रहे । वह प्रेम मे इसी की खोज करती हैं, और अगर सौभाग्यवश उसे पा जाये तो उससे जीवन में विश्वास पैदा होता हैं और आशा के सब द्वार खुल जाते हैं । और अगर यह न मिले तो उसके लिये जीवन एक ऊसर मरुभूमि बन जाता हैं जो हृदय को जलाता और सुखा देता हैं ।

 

कवि-वाह, तुम यह सब कितनी अच्छी तरह कहती हो! तुम ऐसे व्यक्ति की तरह

 

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   बोलती हो जिसने तीव्रता के साथ इन बातों का अनुभव किया हों! मै इन बातों को लिख रखूंगी, मेरी अगली पुस्तक स्त्री-शिक्षा के बारे मे होगी, उसमें ये बातें काम आयेगी । चली, अब मै काम मे लग ।

 

वह- अच्छी बात है; तो फिर मैं भी चूल । (किताब लिये बाहर निकल जाती है !)

 

कवि- (मेज़ के सामने बैठकर देखता है कि उसके काम के लिये सब कुछ तैयार है? हमेशा की तरह वही सजग और सहृदय सावधानी । यह अपनी सुव्यवस्था और मृदुता मे कभी नहीं चूकती । उसकी ओर देखने से लगता हैं मानों एक -ज्योति है : उसके चारों ओर उसकी बुद्धिमत्ता और सहृदयता की रोशनी छिटकती है, जिसे वह अपने आस-पास के लोगों पर फैलाती जाती है और उन्हें विशाल क्षितिज की ओर ले चलती है । मैं उसकी प्रशंसा करता हू, मुझे उसके लिये बहुत मान हैं... । लेकिन यह सब तो प्रेम नहीं है... । प्रेम! वह तो स्वप्न है! क्या कभी सत्य भी होगा? (एक अदमुत स्वर मे माना सुनायी देता है कवि लपककर खुश्क खिड़की की ओर जाता है  ओह, कितना अच्छा स्वर है! सकुचाई सुनता थे माना खतम होने पर एक लम्बी सांस लेकर मेज़ की ओर बढ़ता है उसी समय दरवाजा खटखटाने की आवाज होती है !) हां, भाई, कौन हैं?

 

(कवि दरवाजा खोलने जाता है चित्रकार का प्रवेश)

 

कवि- ओहो, तुम हो! आओ, सु स्वागतम । इधर कैसे भटक पढ़ें?

 

   चित्रकार- तुमसे कुछ बातें करनी थीं । अभी तुम्हारी श्रीमती मिल गयीं और उन्होंने कहा कि तुम अपनी ''गुफा' ' मे ही ही । तो सीधा इधर चला आया ।

 

कवि-बढ़ा अच्छा किया तुमने... । आओ, जिसे तुम ''गुफा' ' कहते हो उसमें प्रवेश करी, और अपनी बात शुरू कर दो । मेरी उत्सुकता न बढ़ाई । कुछ चित्रों के बारे मे कहना है?

 

चित्रकार-नहीं, चित्रकारी ठीक नहीं चल रहीं हैं । उसके बारे मे फिर कभी । आज तो संगीत की बात करनी है । (कवि के कान खड़े हो जाते हैं ?? कल शाम को एक मित्र के यहां दावत मे, एक उच्च कोटि की सच्ची गायिका का गान सुना; सुना है वह तुम्हारी पडोसिन है । (कवि आश्चर्य और रुचि दिखाता है !) तुम उसे जानते हों?

 

कवि-नहीं, लेकिन यहीं बैठे-बैठे बहुत बार उसका गाना सुना हैं । कैसा अद्भुत गल। है, उसे सुनते ही मेरे अंतर की सभी तंत्रीय झंकृत हो उठती है । पहले-पहल जब उसका स्वर मेरे कानों मे पहा, तभी से कुछ परिचित-सा लगता है, मानों अतीत की प्रतिध्वनि हो । मै प्रायः छ: मास है यह सुन रहा हू, ऐसा लगता है मानों वह मेरे काम के साथ ठीक ताल मे चलता है । कई बार इच्छा द्रुआ है कि ऐसे सुंदर स्वरयंत्र की स्वामिनी सें परिचय कर छ ।

 

चित्रकार-कैसा सुयोग ! कल हीं पहली बार उसके साथ परिचय हुआ, वह बड़े मधुर
 

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स्वभाव की लड़की मालूम हुई । हम दोनों बातचीत करते रहे और उसने किसी प्रसंग मे कहा कि उसे तुम्हारी कविता बहुत पसंद है, ऐसा लगा कि उसने तुम्हारी कविता बड़े उत्साह के साथ पढ़ीं हैं । उसने यह भी कहा है कि वह जीवन मे बिलकुल अकेली हैं, उसका कोई नहीं है, उसे अपने ही बल पर खड़ा रहना पड़ता है और कभी-कभी बड़ी मुश्किल आ जाती है । वह किसी सहगान मे भाग लेने के स्वप्न देख रहीं है । यह सुनते ही मुख तुम्हारा ख्याल हो आया, तुम्हारा तो इस क्षेत्र मे कच्छा परिचय हैं । तुम्हारी उदारता तो सब जानते हैं । मैंने प्रस्ताव किया कि मैं तुमसे उसके बारे मे बातचीत करुंगा और यह पता लगाऊंगा कि किसी बेह संगीतकार या संगीत लेखक के साथ उसका परिचय करा देने के लिये तुम तैयार हों या नहीं-मेरे आने का उद्देश्य बस, यही है ।

 

कवि-बड़ा अच्छा किया तुमने । हां, मैं वहीं खुशी के साथ उसके काम-काज में लग जऊंगा। तो तुम दोनों ने ठीक क्या निक्षय किया है?

 

चित्रकार-यह ठीक हुआ था कि यदि तुम राजी हो जाओ तो उसे इसी समय यहां बुल लऊंगा और मैं तुम दोनों का परिचय करा दंगा-उसका घर दूर नहीं हैं । कवि-बिलकुल ठीक । जाओ, उसे ले' आओ । मैं प्रतीक्षा करता हू । (चित्रकार जाता है!)

 

   कवि- (बड़ी चंचलता ले हुआ ) कितनी अजीब बात है, कितनी अजीब... । संयोग नाम की कोई चीज नहीं होती; हर कार्य का कारण होता है, पर हां, वह कारण हमारे बस मे नहीं होता । आंतरिक सादृश्य-कौन जाने? मैं यह जानने के लिये उत्सुक हूं कि स्वर जितना सुन्दर है यंत्र मी उसके समान सुन्दर है या नहीं । लो, आ गये । (भिड़ा हुआ दरवाजा खुलता है ) ओह, क्या सुन्दर हे! (गायिका का मुसकुराते हुए प्रवेश पीछे-पीछे चित्रकार)

 

चित्रकार- आइये, यह हैं मेरे सुप्रसिद्ध कवि मित्र, जिनकी आप खूब तारीफ किया करती हैं ।

 

कवि- आइये, आइये, आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई । मैं यह कहने का सुयोग ले सुंड कि मैं आपके गले का बड़ा प्रशंसक हूं, .जिसका उपयोग आप कला के लिये इतने कौशल के साथ करती हैं ।

 

गायिका- आपकी कृपा है, महाशय, धन्यवाद । आशा करती हू कि इस तरह बिना औपचारिकता के घुस आने के लिये आप क्षमा करेंगे । लेकिन आखिर हम पड़ोसी ही तो हैं । परिचय होने से पहले ही मैं आपको जानती थी । मैंने देखा है कि मेरे गाते समय प्रायः आप सुनने के लिये खिड़की के पास आ खड़े होते हैं, और, पहले-पहल, जब आपने तारीफ की तो मुझे अच्छा नहीं लगा । मैंने सोचा कि आप मेरा मजाक उठा रहे हैं ।

 

कवि-क्या कहती हैं आप! मै तो आपको यह बतला रहा था कि मैं आपके गुण पर

 

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   कितना मुग्ध हूं और आपके गाने से जो सुरुचिपूर्ण आनंद मिल रहा था उसके लिये आभार-प्रदर्शन कर रहा था ।

 

चित्रकार- अच्छा, अब मेरा काम हो गया, मै चला । चित्रों के एक व्यापारी से मिलना - हैं । उफ़! कैसा रद्दी आदमी है! मुझसे ऊट-पटांग काम करवाना चाहता है और ?एक कहता है कि यही आधुनिक रुचि हैं । लेकिन मै विरोध कर रहा हूं...

 

कवि-हां, विरोध करो, बहादुरी के साथ विरोध करो । आधुनिक रुचि के इस विकार को कभी प्रोत्साहन न दो । ऐसा लगता है कि आजकल लोगों की चेतना कला के एक मिथ्या आभास मे फिसल गयी है, यह विकृति मानव-सर्जन के सभी क्षेत्रों में फैली हुई है ।

 

चित्रकार-ठीक है, भाई, अब मै चलता हूं, प्राण में एक नया साहस लेकर सत्य के लिये युद्ध करने । अच्छा, फिर मिलेंगे !

 

कवि और गायिका- अच्छा नमस्कार । (चित्रकार जाता है !)

 

कवि- (सोफा दिखाकर) कृपया बैठ जाइये न ।

 

गायिका- (बैठती है) तो आप कुछ लोगों से मेरा परिचय करा देंगे और मेरे गान की व्यवस्था कर देंगे?

 

कवि-जरूर । यहां के एक विख्यात संगीत-दिग्दर्शक मेरे मित्र हैं और आप जैसे गुणी लोगों के लिये सब रास्ते खुले रहते हैं ।

 

गायिका-बहा उपकार होगा । बहुत, बहुत धन्यवाद ।

 

कवि-नहीं, नहीं, धन्यवाद न लीजिये । (गायिका के पास बैठते हुए) आपको अगर मालूम होता कि आपने मुझे कितना आनंद दिया है... । काश, आपको मालूम होता कि आपके ऊष्मा-भरे कंठ ने मेरे दैनिक कार्य मे कितना सुख दिया हैं । उन सुंदर और मधुर घंटों के लिये मै द्वि आपकी ऋणी हू; हां, मुझे ही धन्यवाद देना चाहिये ।

 

गायिका-यह तो सब आपकी कृपा हैं । (चारों ओर देखकर मुस्कराते हुए कवि से) एक अजीब बात है, यहां मुझे सब कुछ परिचित-सा लगता है, शायद चीजें इतनी परिचित नहीं हैं जितनी यहां की हवा, वह वातावरण जो चीजों को लपेटे हुए हैं । धृष्टता के लिये क्षमा करें, मुझे ऐसा लगता है मानों मै अपने हीं धर में हू, मानों हमेशा से यहीं रहती आयी हू । और मुझे लगता है कि अब मुझे सब प्रकार का सौभाग्य प्राप्त होगा ।

 

कवि-इससे मुझे ही सबसे पहले खुशी होगी ।

 

गायिका- (जरा चुप रहाकर) आपको एक मजेदार बात सुनाऊं । लगभग छ: महीने पहले की बात है, मैं अपनी मां की मृत्यु के बाद कुछ कमाई की आशा में इस शहर में आयी थीं, मुह्मे कई मकानों में से किसी एक को चुनना था, हर एक में अपनी-अपनी सुविधा-असुविधा थीं । आखिर मैंने इस मकान को चूना, यह औरों

 

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से विशेष न था, मैंने इसे अंतःप्रेरणा के कारण लिया था, मुझे लगा कि मै इसमें सुखी रखूंगी और यह मेरे लिये शुभ होगा... । अजीब बात है न?

 

कवि- (कुछ सोचते हुए) अद्भुत, हां, बढ़ी अद्भुत बात हैं... (स्वगत) कौन जाने, यह आंतरिक संयोग न हो । (गायिका से)  देखिये, यह मी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस दिन से रोज आपका मान सुन रहा हूं उस दिन से बड़ी शांति और तृप्ति का अनुभव करता हूं, और आपके साथ परिचय करने की बही इच्छा थी ।

 

गायिका- और मै आपको एक बड़े लेखक के रूप में ही जानती थी, आपकी प्रतिभा की मै बहुत अधिक सराहना करती थी, पर आपसे मिल सकने की बात तो मेरे स्वप्न मे भी न आयी थीं । जीवन मे कितनी हीं बातें बढ़ी असाधारण और रहस्यमय होती हैं... रहस्यमय शायद इसलिये कि हम उनके कारण नहीं जानते, अन्यथा सभी बातें बड़ी सहज और स्वाभाविक होती । अब यही लीजिये न, इस समय, मैं भी अपने अंदर एक स्वस्ति और शांति का अनुभव कर रहीं हूं और उससे बढ़ा बल मिल रहा है । आप नहीं जानते, मुझे इस समय बल और साहस की कितनी जरूरत है... । मेरे जैसी अनाथ लड़की के लिये जीवन बड़ा हीं कठोर है, मेरा कोई सहारा नहीं, कोई सहायक नहीं, मुझे बिना किसी मदद के अपने पैरों पर खड़े होकर आजीविका कमानी है और इस सारे युद्ध में कोई ऐसा नहीं जिसकी ओर मदद के लिये आंख उठा सकूं । लेकिन आपके साथ मिलकर ऐसा लगता है मानों सारी विघ्न-बाधाएं दूर हो जायेंगी ।

 

कवि-विश्वास रखिये, मै आपकी सहायता के लिये भरसक कोशिश करुंगा । एक कलाकार और फिर आप जैसी महिला की सहायता करना जहां हमारा कर्तव्य है वहां बढ़ा आनंददायक भी हैं ।

 

गायिका- (कवि का हाथ सहजरूप में अपने हाथ मे लेते हुए ) धन्यवाद । ऐसा लगता है कि हम दोनों चिरकाल से इसी तरह, पास-पास बैठे हैं, और हम पुराने मित्र हैं... । क्यों, हम दोनों मित्र हैं न ?

 

कवि- (गंभीरता ले) हां, हृदय की गहराइयों से ।

 

गायिका-मुझे यहां इतनी आजादी का अनुभव हो का है कि मैं सभ्यता और शिष्टाचार भूलती जा रही हू । इसका सबसे बढ़ा प्रमाण लीजिये, मुझे बहुत जोर से नींद आ रहीं है । अपने धर मे बहुत दिनों से अच्छी नींद नहीं आयी । बड़ी चिंता लगीं रहती हैं, मुझे ऐसा लगता हैं मानों अदृश्य शत्रु चारों ओर से घेरकर मेरा अनिष्ट करना चाहते हैं । मै किसी तरह अपने-आपको शांत नहीं रख पाती, मुझे आराम की बहुत अधिक जरूरत है रार यह नहीं मिल पाता । जब कि यहां मुझे ऐसा लगता है मानों एक ऊष्मा-भरा, सजीव लबादा मुझे चारों ओर सें घेरे हुए हैं और धीरे-धीरे नींद मेरे ऊपर अधिकार करती जा रहो है ।

 

कवि- (सन्देह देखते हुए ) तो इस गद्दे पर लेट जाइये न । आराम से लेटिये किसी

 

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बात की चीना न कीजिये । और सबसे बढ़कर, एक क्षण के लिये मी सभ्यता, शिष्टाचार और लोकाचार की परवाह न कीजिये; ये सब बाधा-व्याघात हैं जिनका मूल्य कुछ भी नहीं । मनुष्य ने इन्हें अपने दुर्भाग्य के लिये ही गढ़ा है ।

 

.गायिका-मुझे नींद की बहुत जरूरत है । मेरे सिद्द मे निरंतर दर्द हमेशा बना रहता है 6. जिसके कारण बड़ा कष्ट होता हैं । जल्दी-से-जल्दी सफलता पाने के लिये मैंने बड़ा परिश्रम किया हैं और मेरा सिर बहुत अधिक थक गया हैं ।

 

कवि- (बड़े आवेग क्वे साध) आपकी अनुमति हो तो... मुझे लगता है कि मैं आसानी से आपके कष्ट को हल्का कर सकता हूं । (गायिका के माथे' पर इकी बार हाथ करता ह्वै फिर थोडी देर उसके तिरपन हाथ रखता है गायिका गद्दे पर .त्एटते ही खो जाती है उसके चेहरे पर प्रस्तरण और सुख का भाव है !)

 

गायिका- (आधी नींद में ) अब अच्छा लग रहा है... अब दर्द नहीं रहा... कैसा आनंद है !

 

कवि- (तकिये ठीक-ठाक करता है ताकि वह आराम ले लेट सके और उसके पास सोफा पर बैठकर उसका हाथ अपने हाथ मे लेते हुए स्वगत) बेचारी, कितनी दुःखी हैं, इतनी सुन्दर और फिर भी इतनी अकेली!

 

गायिका- (नींद मे) ओह, कैसा सुन्दर है!

कवि- (धीमे स्वर में) क्या हैं सुन्दर?

 

गायिका - (पहत्हे की तरह नींद मैं ही) आपके चारों ओर जो बैंगनी प्रकाश है... एक जीवित-जाग्रत प्रकाशमान नीलम की तरह । यह मेरे चारों और भी है, यह मुझे बल दे रहा है । यह एक कवच है, अमोघ कवच... । अब कोई अशुभ वस्तु मेरे पास न फाटक पायेगी । (आनंद के साध) यह बैंगनी रंग कितना सुंदर है जो आपको चारों ओर सें घेरे हुए है !

 

कवि- अब अच्छा लग रहा है तो शिक्षित होकर बिना कुछ देखे-सुने सोती चाहिये । गायिका- (दूर ले आती हुर्ड़ आवाज मे) मैं सो रही हू, हां, सो रहीं हू । ओह, कैसी शांति हैं, कैसा आराम है!

 

कवि- ?(मृदुता से उसकी तरफ देखती हुए) सो जा, बच्ची, सो जा-नींद हीं तेरे सजीवन हैं । तेरा जीवन बहा दुःखमय रहा हैं, अब विश्राम जरूरी है । (कुछ देर चुप रहकर) अपने- आपको धोखा देने से क्या लाभ? मुझे स्वीकार कर लेना चाहिये : जिस तरह उसका कंठस्वर मेरी एक-एक हुत्तंत्री को झंकृत कर उठता है, इसी प्रकार उसको उपस्थिति मेरे अंदर शांति और प्रगाढ़ सुख भर देती है । और अब यह. मेरे संरक्षण मे सो रहीं है, यह उसको पहली सचेतन नींद है । उसे मेरे अपर इतना विश्वास हैं, यह विश्वास हो मेरे लिये एक दायित्व पैदा करता है, इस दायित्व को स्वीकार करना मेरे लिये बहुत ही मधुर होगा । लेकिन मैंने जिसके साध भवरे डाली हैं! मै जानता हूं कि वह मजबूत और साहसी है, मुझे मालूम है कि वह बहुत दीनों

 

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से जानती है कि उसके लिये मेरा स्नेह एक साथी के स्नेह से अधिक नहीं हैं । इतने से उसे संतोष नहीं होता; यह तो उसके प्रेम की गहराई को छू भी नहीं पाता । फिर भी उसके प्रति मेरी जिम्मेदारी तो है ही । उससे किस मुंह से कहूं कि मेरी सारी सत्ता किसी और पर केंद्रित है ? और फिर भी मैं कपट नहीं कर सकता; असत्य हीं एकमात्र पाप है । इसके अतिरिक्त, यह है भी बेकार : उस जैसी खिल को धोखा देना असंभव है । ओह, जीवन प्रायः कितना कठोर हो उठता है!

 

गायिका- (नींद मे करवटें बदलते हुए अपना हाथ कवि के हाथ पर रखकर) मै सुखी हूं... सुखी हूं... (छोटे बच्चे की निर्भरता के लाख कवि की गोद में सिर रख देती हे !)

 

कवि-प्यारी बच्ची! मै कर मी क्या सकता हूं? (बड़ी देर तक सोच-विचार मे डूबा हुआ उसे ताकता रहता है ! गायिका लंबी सांस त्हेकर अंगड़ाई लेकर उठ बैठती है!)

 

गायिका-- (आश्चर्य के साथ इधर-उधर देखकर) मै तो सो गयी थी... । कैसी अच्छी नींद आयी, ऐसी कच्छी तरह तो मैं जीवन में कभी नहीं सोयी ।

 

कवि-मैं बहुत खुश हूं ।

 

गायिका- (सस्नेह उसे देखते हुए) देखिये, यह प्रकाश जो आपको घेरे हुए था और जो मेरे ऊपर भी पंडू रहा था वह एक साथ ही बल और सरक्षणदायक था; वह कितना सुंदर, कितना सुखदायक था । अब भी जगाने पर अपने चारों ओर उसका अनुभव कर रहीं हूं ।

 

कवि-हां, वह प्रकाश आपके चारों ओर अब भी हैं । क्या आप पहली बार इस तरह रंगीन प्रकाश देख रहीं हैं ?

 

गायिका- नहीं, कुछ ऐसा याद पड़ता हैं कि किन्हीं व्यक्तियों के चारों ओर प्रकाश या रंगीन कुहासा देखा है । लेकिन आपके चारों ओर जैसा प्रकाश देखा है ऐसा पहले कभी नहीं देखा और कभी इतनी घनिष्ठता भी नहीं हुई । प्रायः औरों के चारों ओर एक गंदा, अस्वास्थ्यकर धुंध-सा दिखायी देता है । भला वह क्या होता हैं?

 

कवि-बात स्पष्ट करने के लिये जस लंबा उत्तर देना होगा । मैं अपनी ओर से थोड़े-से शब्दों में हीं समझाने का प्रयास करुंगा । अगर आप ऊबने लगे तो भूखे रोक दें । हम लोगों की सत्ता अलग-अलग अवस्थाओं और तत्त्वों से मिलकर बनी हैं । हम मित्र-मित्र तत्त्वों से बने हैं-पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि । सोमयज्ञों?

 

गायिका-हां, मैं चाव सें सुन रही हूं ।

 

कवि-कम घना तत्त्व अधिक घने तत्त्व मे से निकल सकता है, जैसे आश्रम बरतनों मे से पानी भाप बनकर उह जाता है । बस, इतना ही अंतर कि यहां कुछ भी नष्ट नहीं होता । उसी भांति, हमारे अंदर जो अधिक सूक्ष्म तत्व हे वह हमारे शरीर के चारों ओर एक आवरण-सा बना देता है जिसे हम सूक्ष्म छाया या परिमंडल कहते हैं ।

 

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गायिका-मैं अच्छी तरह समह्म गयी । अब सारी बात स्पष्ट है । तो इस तरह परिमंडल को देख सकना तो बहुत उपयोगी होता होगा?

 

कवि- आपका अनुमान ठीक है, यह बड़ी उपयोगी चीज है । आप आसानी है समझ - सकतीं हैं कि परिमंडल हमारे अंदर की अवस्था, हमारी भावना और हमारे विचारों  एका प्रतिबिंब होता है । यदि हमारे विचार और हमारी भावना शांत और सामंजस्य- युक्त हों तो परिमंडल भी शांत और सामंजस्यपूर्ण होगा; यदि भावनाएं विक्षुब्ध और विचार चंचल हों तो परिमंडल मी चंचलता और विक्षोभ प्रकट करेगा । उस समय यह धुंध के जैसा दिखायी देगा जैसा कि आपने अमुक लोगों के चारों ओर देखा !

 

गायिका- अब समझी । तो यह परिमंडल गुप्त रहस्यों को प्रकट करता हैं ।

 

कवि-हां, जो लोग परिमंडल को देख सकते हैं उन्हें धोखा देना असंभव हैं । उदाहरण के लिये, यदि कोई बुरे उद्देश्य से आता है तो वह अपने-आपको चाहे जितना देवता या साधु पुरुष दिखाना चाहे, सब व्यर्थ होगा । उसका परिमंडल उसके बुरे उद्देश्य और विचारों को प्रकट कर देगा ।

 

गायिका- (प्रशंसा-भाव से) कैसी अद्भुत बात है! यह शान दुनिया में क्या परिणाम ला सकता है! लेकिन आपने यह सब सुन्दर बातें कहां सीखी? मेरा ख्याल है कि इन्हें जानेवाले बहुत नहीं हैं ।

 

कवि-हां, विशेष रूप से इस आधुनिक युग मे, हमारे युग में जिसमें सफलता और उससे प्राप्त होनेवाली भौतिक तृप्ति ही का मान है । और फिर ऐसे अतृप्त लोगों की संख्या भी काफी हैं- और बढ्ती जा रही है-जो इस जीवन के हेतु और लक्ष्य को जानना चाहते हैं । दूसरी ओर, ऐसे लोग मी हैं जो ज्ञानी हैं और दुःखी मानवजाति की सहायता करना चाहते हैं; ये लोग उस पस विद्या की रक्षा करते हैं जो हमें वंश-परंपरा से मिली है । यह विद्या उस साधना-शैली का आधार है जिसका उद्देश्य हैं मनुष्य है उस चेतना के प्रति जाग्रत करना जो यह बताती हैं कि वह सचमुच क्या है और क्या कर सकता है ।

 

गायिका-यह साधना कैसी अद्भुत होगी! आप थोड़ा-थोड़ा करके मुझे मी यह सब दिखलायेंगे न? क्योंकि अब तो हम प्रायः हीं मिला करेंगे, है न? मैं तो यही चाहूंगी कि हम फिर कभी अलग न हों... । जब मै सो रहीं थीं तो मैंने अनुभव किया कि आप मेरे लिये सब कुछ हैं और मैं भी हमेशा के लिये आपकी हूं । और मैंने अनुभव किया कि आपकी छत्रछाया मुझे हमेशा के लिये घेरे रहेगी । और मै जो इतना अधिक डरती थीं, मुख लगता था कि मेरे सामने अनगिनत शत्रु हैं, वही मैं शांत, स्थिर, निश्रित हूं, क्योंकि जो भी मेरा अनिष्ट करना चाहे उससे कह सकतीं हूं : '' अब मुझे तुम्हारा डर नहीं है, मै पूरी तरह सुरक्षित हू । मुह्मे ऐसा संरक्षण प्राप्त है जो मुझे कभी न छोड़नेका । '' क्यों मै ठीक कह रहीं हूं न ?

 

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कवि-हां, हां, तुम ठीक हीं कह रही हो ।

 

गायिका-मैं बहुत ही खुश हूं । आखिर आपसे मिलकर बहुत आनंद हुआ । कितने दिनों तक आपकी प्रतीक्षा की है ! और आप, आप मी खुश हैं?

 

कवि-हां... । अभी तुम्हारे सोते समय मैंने जिस शांत और स्थिर सुख का अनुभव किया वैसा अनुभव पहले कभी नहीं हुआ था । (विचारमग्न होकर) हां, यहीं तो है सच्चा प्रेम और यह प्रेम एक शक्ल है; इस मिलन के फलस्वरूप सब संभावनाओं की सिद्धि हों सकती हैं... । मगर...

 

गायिका-मगर क्या? जब हम दोनों ही एक साथ रहने मे इतना सुख पाते हैं तो फिर कौन-सी चीज बाधा दे सकती है...?

 

कवि- (हठात् खड़े होते हुए) आह, तुम्हें नहीं मालूम! (''वह'' दिखायी देती है और कवि धूप हो जाता हैं ''वह'' कुछ समय पहले ले ही परदे की ओट ये खड़ी शी ? ओह ! (शांत भाव ले मुस्कराती हुई ''वह'' आये आती है !)

 

गायिका-मुझे नहीं मालूम था कि आप विवाहित हैं!

 

वह- (गायिका लें) परेशान न होओ । (कवि की ओर मुड़कर) और तुम भी मत घबराओ । हां, तुम लोगों की बातचीत का अंतिम हिस्सा मैंने सुना है । मै ठीक उस समय आयी थी जब यह सोचकर उठ रहीं थी । पहले इच्छा हुई कि लौट चूल, तुम्हारी बातचीत मे बाधा न डालें फिर मुझे लगा कि शायद तुम दोनों की बातों को सुन लेना हम सबके लिये हितकर हो । इसलिये मै रुक गयी । चूंकि मुझे विश्वास था कि तुम बड़े असमंजस में पड जाओगे, मेरे मित्र । मैं तुम्हारी ऋजुता और निष्कपट-भाव को जानती हू, और मुझे लगा कि तुम बड़ी दुविधा में पढ़कर बहुत कष्ट पाओगे । तुम जानते ही हों कि जिस शिक्षा को हमने महा सत्य माना है उसके अनुसार सच्चे मिलन का एकमात्र यथार्थ बंधन प्रेम है । प्रेम की अनुपस्थिति हीं किसी मी मिलन को रद्द करने के लिये काफी है । निश्चय हीं, प्रेम के बिना मिलन हो सकता है, जिसमें परस्पर आदर-सम्मान और एक-दूसरे के लिये स्वार्थ- त्याग होता है, इस प्रकार के मिलन है जीवन भली-भांति चल सकता है, पर मै समझती हूं कि जब प्रेम का उदय हो जाये तो और सबको रास्ता छोड़ देना चाहिये । मेरे मित्र, तुम्हें याद तो होगा हीं कि हम दोनों ने यह तय किया था : हमने एक-दूसरे से वादा किया था कि अगर हम में से किसी में सच्चा प्रेम जाये ती उसी क्षण वह विवाह के बंधन से पूर्णतः मुक्त हों जायेगा । इसीलिये मैंने तुम्हारी बातें सूनी, और अब मै तुमसे यह कहने आयी हूं कि तुम मुक्त हो, सुखी रहो ।

 

कवि- (बहुत आवेश के साध) लेकिन तुम, तुम? मै जानता हूं कि तुम हमेशा चेतना के शिखर पर, निर्मल और शांत ज्योति में निवास करती हो पर अकेलापन कभी- कभी बड़ा कठिन हों जाता हैं और समय पहाड़ बन जाता हैं ।

 

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वह- ओह, मैं अकेली नहीं रहूंगी । मैं उसके पास जाती हू जिनकी कृपा से हमने अपने मार्ग को जाना, जो सनातन ज्ञान की रक्षा करते हैं और आजतक,  से हीं, हमारा पथ-प्रदर्शन करते रहे हैं । वे मुझे अवश्य आश्रय देंगे ! (गायिका की ओर मुड़कर उसका हाथ अपने हाथ मे लेती हैं !) आओ, परेशान न होओ । सहृदय और सच्ची स्त्रियों का वह अधिकार हैं कि वे स्वतंत्रता के साथ उस व्यक्ति को चून सकें जो जीवन मे उनकी रक्षा करे और उन्हें रास्ता दिखाये । तुमने जो किया हैं वह बिलकुल स्वाभाविक और ठीक है । शायद हमारा व्यवहार और हमारी कार्य-पद्धति तुम्हें आश्चर्यजनक लगे; ये बातें तुम्हारे लिये नयी हैं और तुम इनके कारणों से अपरिचित हो । (कवि की ओर इशारा करके) यह तुम्हें सब कुछ समझा देंगे । अच्छा, तो अब मैं विदा लेती हूं । लेकिन ठहरो, उससे पहले तुम दोनों के हाथ मिला दूं । (गायिका का हाथ कवि के हाथों में देती है !) प्रेम के आशीर्वाद से बड़ा कोई आशीर्वाद नहीं हो सकता । पर फिर भी उसके साथ मै अपना आशीर्वाद भी जोड़ती हूं, मैं जानती हूं कि वह तुम्हें मधुर लगेगा । तुम्हारी अनुमति हो तो एक और बात भी कहती चंड, इसे मेरा अनुरोध मान सकते हो । तुम्हारा मिलन पाशविक सूत्र या इंद्रियों की लालसा को तृप्ति देने के लिये एक बहाना न हो इसके विपरीत, वह मिलन परस्पर एक-दूसरे की सहायता से आत्मजय प्राप्त करने का साधन बने, तुम लोग निरंतर अभीप्सा और प्रगति के लिये प्रयास के साथ अपने चरम उत्कर्ष की ओर जा सको । तुम्हारा यह संबंध एक साथ ही महान और उदार हों, अपने स्वरूप में और गुणों में महान् अपनी क्रिया में उदार हों । जगत् के सामने उदाहरण बनो और सभी शुभ संकल्पवालों को दिखा दो कि मानवजाति का सच्चा लक्ष्य क्या है ।

 

गायिका- (बहुत द्रवित होकर) आप विश्वास रखिये, आप हम पर जो विश्वास करती हैं, उसके योग्य बनने का हम पूरा-पूरा प्रयास करेंगे और आपकी शुभ कामनाओं के योग्य बनने की अधिक-से-अधिक कोशिश करेंगे । परंतु मैं एक बार आपके मुंह सें सुनना चाहती हूं कि मेरे इस मकान में प्रवेश और उसके बाद की घटनाओं ने आपको कोई ऐसी क्षति तो नहीं पहुंचाये जिसे पूरा करना असंभव हो ।

 

वह-डरो मत । अब मैंने भली-भांति जान लिया है कि केवल एक ही प्रेम हैं जो मुझे संतुष्ट कर सकता है : वह हैं भगवान् के लिये प्रेम, भागवत प्रेम, चूंकि. एक भागवत प्रेम ही मनुष्य को कभी निराश नहीं करता । शायद एक दिन वह सुअवसर आयेगा और आवश्यकता के अनुसार सहायता भी मिलेगी जिसके परिणामस्वरूप परम सिद्धि लाभ होगी, यानी, भौतिक सत्ता का रूपांतर और दिव्यीकरण जिससे यह जगत् सामंजस्य और ज्योति, शांति और सौंदर्य से बना हुआ एक पुण्य स्थल बन जायेगा ।
 

४२६


  (गायिका अधिकाधिक द्रवित होती हाथ जोड़े प्रार्थना की मुद्रा मैं खड़ी है ! कवि आदर के साथ "उस" की ओर हुक जाता है, उसके हाथ पर अपना मस्तक रख देता है परदा मदिरता है !

 

४२७

महान् रहस्य

 

छ: एकालाप और एक सिंहावलोकन

 

माताजी दुरा लिखित

 

 इनके सहयोग से

 

नलिनी (लेखक)

पवित्र (वैज्ञानिक)

आंद्रे (उधोगपति)

प्रणव (व्यायामी)

 


महान् रहस्य के बारे मे माताजी का पत्र

 

 प्रिये आंद्रे,

 

   मुझे मालूम है कि तुम बहुत कार्य-व्यस्त रहते हो और तुम अधिक समय नहीं निकाल सकते । फिर मी, मैं तुमसे कुछ करने के लिये कह रही हूं और आशा करती हूं कि तुम्हारे लिये उसे करना संभव होगा ।

 

   बात यह है ।

 

पहली दिसम्बर के लिये मैं कुछ ऐसी चीज तैयार कर रही हू जो नाटक-कला की किसी भी श्रेणी में नहीं आती, जिसे निक्षय हीं नाटक नहीं कहा जा सकता, पर, फिर भी, उसे मंच पर दिखाया जायेगा और मुझे आशा है कि वह नीरस न होगा । मै ऐसे लोगों की जीभ पर शब्द रख रही हू जिनके जीवन और पेशे एक-दायरे से बहुत भिन्न रहे हैं, और स्वभावतः, ज्यादा अच्छा होगा कि है सब एक हीं भाषा न बोले; मेरा मतलब यह है कि उनकी शैलियाँ अलग-अलग हों । मैंने कई लोगों रो कहा है कि वे किसी-न-किसी पात्र का लबादा पहने लें, और, उनकी दृष्टि से, वह पात्र क्या कहेगा यह मुझे लिख दें । बाद मे, कुछ काट-छांट करनी होगी तो मै कर लुंगी ।

 

  मैं इसकी भूमिका भेज रही हू जो परदा उठने है पहले पढ़ी जायेगी! इससे तुम्हें कुछ अंदाज होगा कि मैं क्या करना चाहती हू और तुम्हें मेरा मतलब समझने मे मदद मिलेगी।

 

    तुम देखोगे कि पात्रों में एक उद्योगपति है, एक बढ़ा व्यापारी है । मैं अधोगति भाषा से भली-भांति परिचित नहीं हूं और मेरा ख्याल था कि तुम इसके लिये कोई देसी चीज लिखकर मेरी सहायता कर सकोगे जो वास्तविक जीवन के अनुरूप हो । यह आदमी अपनी जीवन-गाथा सुनाता है और मैं चाहती हूं कि यह किसी बड़े उद्योगपति की (अमरीकन या कोई और) जीवनी हो, उदाहरण के लिये, कोई जैसी जीवनी हो । मैं उनसे एक-के-बाद-एक बुलावा रही हू; उन्हें अपनी जीवन-गाथा, अपनी महान् विजयों को सुनाने के लिये अधिक-से-अधिक दस मिनट मिलेंगे । इस नाजुक समय पर, वे अपनी विजयों से असंतुष्ट और किसी ऐसी चीज के लिये लालायित हैं जिसे न तो वे जानते हैं और न समझते हैं । मै इसके साथ ही तुम्हें उद्योगपति के भाषण का, अपनी दिष्टि से, अंतिम भाग भी मेज़ रही हूं, लेकिन, निश्चय ही, तुम इसमें जो परिवर्तन जरूरी समझो कर सकते हो ।

 

  मैंने पवित्र से वैज्ञानिक का भाषण तैयार करने के लिये कहा है, नलिनी लेखक का वक्तव्य तैयार कर रहा है, व्यायामी क्या कहेगा यह प्रणव ने अंग्रेजी में तैयार कर लिया है, लेकिन मै उसे फ्रेंच रूप दे लुंगी, राजनेता की रूप-रेखा मैंने तैयार कर लौ है, कलाकार को देख रही हूं, अज्ञात व्यक्ति को तो खैर, देखुगी, क्योंकि उसके दुरा मै स्वयं बोल रही हूंगी ।

 

  उसके बाद हमें निक्षय करना होगा कि अभिनेता कौन होंगे; देबू अज्ञात व्यक्ति होगा, हृदय व्यायामी, मै पवित्र को वैज्ञानिक बनने के लिये राजी .करने की कोशिश कर रहीं हू, मनोज या तो लेखक होगा या कलाकार । स्वभावतः, आदर्श तो यह होगा कि तुम यहां आकर अपना लिखा हुआ स्वयं बोलों- लेकिन हो सकता है कि तुम्हें यह चरितार्थ -न हो सकनेवाली मूर्खता लगे... । सच तो यह है कि यह केवल टोह लेने का प्रयास हैं; इस बारे मे हम बाद में फिर बातचीत करेंगे... । मै आशा करती हूं कि मैंने कोई जरूरी बात छोड़ नहीं दी है । लेकिन अगर तुम कोई ब्योरा चाहो तो मै भेज दूंगी ।

 

(७-७-१९५४)

 

४३१


महान रहस्य

 

छ: एकालाप और एक सिंहावलोकन

 

   मानव प्रकृति के विषय मे होनेवाली एक विश्व परिषद् में भाग लेने के लिये जाते हुए संसार के सबसे प्रसिद्ध छ: आदमी, ऐसा लगता है कि संयोग सें, एक ''लाइफ- बोट' ' में आ मिलते हैं, क्योंकि उनका जहाज बीच समुद्र में डब गया हैं ।

 

   नौका में एक सातवां आदमी भी है । वह युवा प्रतीत होता हैं, या यूं कहें, वह वयस्-हीन हैं । उसका वेश-भूषा किसी देश या किसी युग जैसी नहीं है । वह चुपचाप निकल होकर पतवार के पास बैठा है, पर वह औरों की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा है । है उसकी ओर जस भी ध्यान नहीं देते, उसका होना-न-होना बराबर हैं !

 

 वे व्यक्ति हैं :

 

राजनीतिज्ञ

लेखक

वैज्ञानिक

कलाकार

उधोगपति

व्यायामी

अज्ञात व्यक्ति

 

   पानी खत्म हो चुका हैं, रसद चूक गयी है । उनकी शारीरिक यातनाएं असह्य हो उठी हैं । क्षितिज पर कही कोई आशा नहीं; मृत्यु निकट आती जा रही है । अपने वर्तमान क्लेशों से मन को हटाने के लिये, उनमें से हर एक अपनी जीवन-गाथा सुनाता है ।

 

 (परदा उठता है ।)

 


राजनीतिज्ञ

 

   आप लोगों की इच्छा हैं तो लीजिये, मै ही सबसे पहले बताता हूं कि मेरा जीवन कैसा रहा हैं ।

 

  मैं एक राजनीतिज्ञ का बेटा था और बचपन से हीं सरकारी बातों और राजनातिक समस्याओं से परिचित था । मेरे माता-पिता अपने मित्रों को जब दावत दिया करते थे तो इन बातों पर अच्छी तरह बहस हुआ करती थीं । मैं भी बारह वर्ष की आयु से वहां उपस्थित खा करता था । विभिन्न राजनीतिक दलों के मत मुझसे छिपे न थे और मै अपने छोटे-से उत्साहपूर्ण मस्तिष्क मे प्रत्येक कठिनाई का हल पा लेता था ।

 

   स्वभावतः, मेरी पढ़ाई-लिखाई भी इसी दिशा में चली और मैं राजनीति-विज्ञान का एक प्रतिभाशाली छात्र बन गया ।

 

  फिर, जब सद्धांतों को क्रिया मे लाने की बात आयी तब मुझे पहले गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पझ और तब मुझे मालूम हुआ कि अपने विचारों को क्रियान्वित करना लगभग असंभव-सा हैं । मुझे समझते करने पड़े और धीरे-धीरे मेरा महान् आदर्श मुरझा गया ।

 

    मैंने जाना कि सफलता सचमुच व्यक्तिगत मूल्यांकन नहीं है, बल्कि सफलता अपने-आपको परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेने और दूसरों को खुश करने की क्षमता का नाम हैं । इसके लिये, हमें दूसरों की त्रुटियां को ठीक करने की जगह उनकी कमज़ोरियों की लल्लो-चप्पा करनी पड़ती हैं ।

 

   निःसंदेह, आप सभी जानते होंगे कि मेरा उज्ज्वल जीवन कैसा रहा हैं, उसके बारे मैं स्वयं मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं । लेकिन हां, मैं इतना तो कहना हीं चाहूंगा कि जैसे हीं मैं प्रधान मंत्री वान और मेरे हाथ मे सचमुच कुछ शक्ति आयी, वैसे ही मैंने अपनी जवानी के पुरुषार्थ की महत्त्वाकांक्षाओं को याद किया और उन्हें चरितार्थ करने की कोशिश की । मैंने चाहा कि मैं दलबंदी में न पहूं । संसार मे राजनीतिक और सामाजिक प्रवृत्तियों, हलचलों में जो विग्रह मचा हुआ है और जो सारे संसार को तोड़ने में लगा है, फिर भी, मै समझता हू कि इनमें से प्रत्येक के अंदर कुछ अच्छाइयां और कुछ बुराइयों हैं, इस सबमें सें मैंने एक हल निकालना चाहा । इनमें से कोई भी पूत-पूरा अच्छा या पूरा-पूरा बुरा नहीं है, इनकी अच्छाइयों को बुनकर एक क्रियात्मक और सामंजस्यपूर्ण हल निकालना चाहिये । लेकिन मै ऐसे समन्वय का कोई सूत्र न पा सका जो परस्पर-विरोधी तत्त्वों में एकता ला सकें, उसे क्रियात्मक रूप देना तो और मी असंभव था ।

 

   अतः, मै राष्ट्रों में शांति, एकता और सौहार्द चाहता था, मै सबके भले के लिये सहयोग -चाहता था और मुझसे बड़ी शक्ति ने मुझे युद्ध करने पर, आबिवेकी तरीकों और अनुदार निर्णयों दुरा विजय प्राप्त करने पर बाधित कर दिया ।

 


   लेकिन फिर भी मुझे एक बड़ा नीतिकुशल नेता माना जाता है, मेरे अपर आदर, सम्मान और प्रशंसा की बौछार की जाती है ओर मुझे ''मानवजाति का मित्र' ' माना जाता हैं ।

 

   लेकिन मै अपनी कमजोरी जानता हूं और मैंने उस सच्चे ज्ञान और सच्ची शक्ति को खो दिया ओ मेरे बचपन की सुन्दर आशाएं को सफलता का मुकुट पहना सकतीं ।

 

  और अब अब कि अंत नजदीक हैं, मुझे लगता हैं कि मैंने बहुत हीं थोड़ा किया है और जो किया हैं वह मी शायद बुरी तरह, और मैं मृत्यु के दुरा पर टूटे सपनों का विषाद लेकर पहुंचेंगे ।

 

४३४


लेखक

 

   इस मर्त्यलोक मे स्पंदन करते हुए सत्य और सौंदर्य को मैंने पंखदार शब्दों से पकड़ना चाहा । हमारी आंखों के सामने जो सृष्टि का सौंदर्य-विस्तार फैला हुआ है-यह चंराचर जगत् ये दृश्य और घटनाएं- और इसी तरह फैला हुआ हमारी अनुभूतियों और संवेदनों का दूसरा जगत् हमारी चेतना में एक रहस्यमय मायाजाल बना देता हैं, मानों मय दानव की बनायी भूल-भुलाया हों । वह सृष्टि मेरे ऊपर सम्मोहन-जाल फेंकती है, उसकी वाणी में किब्ररियों की बांसुरी से ज्यादा मधुरता हैं, वह भूखे बुल रही हैं अपने- आपको जानने, पहचानने और मूर्त रूप देने के लिये । मैंने अपने शब्दों को वही ध्वनि देनी चाही ।

 

   मैंने वस्तुओं के मर्म को वाणी देनी चाही, मैंने चाहा कि काल-पुरुष के रहस्यों का उद्घाटन करूं । जो कुछ छिपा हुआ हैं, जो अज्ञात हैं, जो अपनेर सुदूर रहस्यमय आवास से सूर्य और नक्षत्र और मानव-हृदय का परिचालन करता हैं, मैंने उसे खोलकर दिव्य लोक में लाकर रखना चाहा । पार्थिव और अपार्थिव वस्तुओं के आयास-प्रयास मूक कठपुतलियों के अस्तव्यस्त नाटक जैसे हैं; मैंने उन्हैं वाचा और चेतना अर्पित की । मेरी दृष्टि में शब्द एक अनुपम यंत्र हैं, उनसे बढ़कर परिवाहक यंत्र कोई नहीं । शब्दों की गहन कुछ ऐसी है कि वे वस्तु को मूर्त रूप मी दे सकते हैं और प्रकाश मे भी ला सकते हैं, वे तरल होते हुए भी अस्पष्ट नहीं हैं, ठोस होते हुए भी पारदर्शक नहीं हैं । शब्द एक ही समय दो सृष्टियों के साथ संबंध रखता है । वह पार्थिव जगत् का है इसलिये स्थूल आकार दे सकता हैं : और पर्याप्त सूक्ष्म होने के नाते अत्यंत सूक्ष्म वस्तुओं, शक्ति और स्पंदन, नियम और विचारों के साथ संबंध रखता है । वह अपार्थिव को पार्थिव बना सकता है, अशरीरी को शरीर दे सकता है; और इनसे बढ़कर, वह वस्तुओं के सच्चे अर्थ को, रूप के पिंजरे में बंद यथार्थ भाव को मुक्त करता है ।

 

     मैंने अपने गीति-काव्य में, मनुष्य और प्रकृति के हृदय की व्याकुलता, उनके क्रंदन, उनके शत्रुओं के रहस्य को खोलना चाहा । कथा-कहानी के विशालतर पट पर, मैंने जीवन के विविध भावों और आवेगों का चित्रण किया, उसके उलंग ज्ञान-शिखर और उसकी साधारण दैनिक मूढ़ता को आका, जो घटनाएं मनुष्य और प्रकृति के इतिहास मे घटती हैं मैंने उनमें प्राण का स्पंदन पैदा किया और उन्हें एक भावपूर्ण वास्तविकता प्रदान की । मैंने जीवन के हास्य और रुदन को नाटक का रूप दिया और मुझे यह बताने की जरूरत नहीं हैं कि उस प्राचीन रूप को ही नवीन आवश्यकताओं और मांगो को भली-भांति पूरा करते हुए देखकर आप लोगों को कितना आनंद हुआ था । मैंने जीवित शक्तियों के पात्रों को कभी न भुलाये जा सकनेवाले व्यक्तित्व के सांचे में ढाला । शायद उपन्यास, जो अधिक विस्तृत और अधिक सुस्पष्ट यंत्र है, इस युग की

 


वैज्ञानिक शोधवृत्ति के अधिक अनुकूल हैं । क्याकि इसमें चित्र और व्याख्या, दोनों हैं । मैंने व्यष्टि और समष्टि के जीवन का इतिहास दिया और उसके साथ हीं संपूर्ण मानवजाति के इतिहास की कभी गोल, कभी कुंडलियों जैसी और कभी बढ़ती हुई गति के कुछ अंश को देना चाहा । लेकिन मैंने जाना और अनुभव किया कि मनुष्य की अंतरात्मा के लिये केवल परिधि का विस्तार और बाह्य प्रसार काफी नहीं हैं । वह ऊंची उजान चाहती है । वह ऊर्ध्वता शैली की मांग करती है । यह सोचकर मैंने महाकाव्य रचा । इसमें निश्चय ही सारे जीवन का परिश्रम लग गया । हां तो, आपमें से बहुत-से उसके मर्म को न समझ पाये, अधिकतर उससे अभिभूत हो गये, फिर भी सभी ने उसके जादुई स्पंदन का अनुभव किया । हां, रहस्यों का पर्दा चाक करने के लिये यह मेरा जी-जान से अंतिम प्रयास था ।

 

   मैंने अपने विषय और भाषा को कैसे चित्र-विचित्र रूप दिये । एक निपुण वैज्ञानिक की नाई मैंने शब्दों के साथ खेल किया, मै उन्हें उलट-पलट कर, उनमें हेर-फेर करके उनका रूपांतर करना जानता था और जानता था उनमें नवीन अर्थ, नवीन स्वर, नवीन व्यंजना लाना । मैं सिसरो की तरंग, मिलटन की उच्च गंभीरता, रासीन की मधुर सुकुमारता को हस्तगत कर सकता था; मेरे लिये वईसवर्थ की सर्वोत्तम काव्य की सरलता या शेक्सपीयर का जादू अनुपलब्ध न था । वाल्मीकि की उलंग महिमा या व्यास की उदात्ता मेरे लिये अगम्य शिखर न थे ।

 

और फिर भी मैंने जो चाहा था वह न पा सका । मुझे संतोष न हों पाया । मैं अतृप्त रह गया । क्योंकि आखिर, मैंने जो कुछ किया है वह एक स्वप्न से बढ़कर नहीं है, मानों हवा मे स्वप्न बिखेर हों । आज मुझे लगता है कि मैंने वस्तुओं के वास्तविक सत्य को छुआ तक नहीं है, उनकी सौंदर्य-आत्मा की हवा तक नहीं पा सका । मैं ऊपर-ही-ऊपर एक खरोंच-सी कर पाया हूं , मैं प्रकृति के बाह्य आवरण का स्पर्श-भद्द कर पाया हू; पर उसका शरीर, उसकी अपनी सत्ता मुझसे दूर ही रहीं हैं । बाहर से देखने मे चाहे कितना भी सच्चा और मनोहर क्यों न लगे, पर मै सृष्टि के अंग-प्रत्यंग पर एक मकड़ी का जाल हीं तो रच पाया हूं । जिन उपायों और यंत्रों को मैंने एक बार स्वभावत: अपनी क्षमता में निष्कलंक और पूर्ण माना था, मेरी धारणा थी कि वे सर्वग्राही, सर्वप्रकाश और सर्वसमर्थ हैं, वही साधन अंत मे मुझे हताश कर रहे हैं । अब मुझे लगता है कि एक महान नीरवता, एकांत मौन हीं वस्तुओं के हार्य के अधिक नजदीक है । इसी चिंतन-प्रवाह मे, इस अनंत चपलता के बीच में अपनी असहाय भुजाएं उठाकर फाउस्टस की तरह चिल्ला उठता हूं : '' ओ असीम प्रकृति रानी, मै तुम्हें कहां पा सकूंगी ?'' एक और महाकवि की तुलना उस असमर्थ देवदूत से की गयी थी जो शून्य में अपने चमकदार सुनहरे पंखों को फड़फड़ा रहा हो । सारी मानवजाति इससे बढ़कर और कुछ नहीं हैं ।

 

    आज अपने जीवन की संध्या में, एक बच्चे के अलान के सहा मै पूछता हूं कि

 

४३७


इस सबका मतलब क्या है ? हम किस देवता के आगे सिर झुकाएं और किसे अपनी हवि दें- कसौ दैव्य अविष विधेम । सेकीना की अंतर्दृष्टि क्या हैं? हम किसलिये जियें और किसलिये मरें? पृथ्वी पर इस अड़ते हुए आविर्भाव का अर्थ क्या हे? इस .सारे प्रयास और संघर्ष का, इतने कष्टों और इतनी सफलताओं के मुकाबिले मे इतनी 'वेदना का क्या मूल्य हैं? ऐसी ज्वलंत आशाएं और विजयी उत्साह का क्या अर्थ है जो अज्ञान और अचेतना की ऐसी खाई मे ले जायें जिसे कोई पाट न सके? और इस सबकी अनिवार्य समाप्ति-विलय और विनाश जो आविर्भाव से मी अधिक रहस्यमय हैं-देखकर लगता है मानों सारा ही एक अविश्वसनीय, वीभत्स और व्यर्थ का मजाक हो ।

 

 कृपा की मुद्रा मे ईश्वर (इबरानी भाषा) ।

 

४३८


वैज्ञानिक

 

   आप लोगों में से कइयों की तरह, मैंने अपना जीवन मानवजाति की अवस्था सुधारने के उद्देश्य ये नहीं शुरू किया था । मेरे लिये कर्म नहीं, ज्ञान ही मुख्य आकर्षण था-ज्ञान का भी आधुनिक रूप : विज्ञान । मुझे लगता हैं कि प्रकृति के रहस्यों को छिपानेवाले परदों के एक कोने को उठाकर वहां छिपे स्रोतों को जस अधिक जान लेने से बढ़कर अद्भुत और हों ही क्या सकता ? मैंने, शायद अनजाने हीं, प्रचलित धारणा के अनुसार यह मान लिया था कि ज्ञान की वृद्धि के परिणामस्वरूप शक्ति आवश्यक रूप से बढ़ेगी, और प्रकृति पर हर नयी विजय आज न सही कल, मनुष्य की अवस्था को जरूर सुधारेगी, उसकी नैतिक और भौतिक स्थिति में उब्रति लायेगी । उन विचारों की न्याई, जिनकी जुड़े भौतिक विज्ञान की प्रतिष्ठा करनेवाली गत शताब्दी में हैं, मेरी दृष्टि में भी अज्ञान, एकमात्र नहीं तो मुख्य पाप तो अवश्य था ! यही मानव के पूर्णता की ओर अभियान में बाधा देता था । हम बिना ननुनच के, मनुष्य की असीम पूर्णता को मान बैठे थे । हम मानते थे कि धीमी हो या तेज, पर प्रगति है अवश्यंभावी । हमें विश्वास था कि जब इतनी तक आ चुके हैं तो आगे भी जाया जा सकता है । हमारे लिये, ज्यादा जानने का अर्थ ही था अधिक समझना, अधिक बुद्धिमान और न्यायसंगत होना-एक शब्द में कहें तो उन्नति करना ।

 

हमने इस धारणा को भी स्वतःसिद्ध मान लिया : 'विश्व' जैसा हैं उसे वस्तुपरक रूप मे वैसा जानना, उसके नियमों पर अधिकार कर लेना संभव है । यह बात इतनी स्पष्ट थीं कि हमें उसके बारे मे जस भी शंका नहीं हुई । 'विष' और मैं-हम दोनों का अस्तित्व हैं, एक का काम है दूसरे को समझना । निस्संदेह, मैं 'विश्व' का एक अंग हूं, पर उसे समह्मने की प्रक्रिया मे उससे खड़ा होकर वस्तुपरक रूप सें देखता हूं । मै स्वीकार करता हूं कि जिन्हें मैं प्रकृति के नियम कहता हूं उनकी अपनी पृथक सत्ता है, वे मेरे या मेरे मन के ऊपर निर्भर नहीं हैं; है सभी विचारवान लोगों के लिये एक ही हू ।

 

   मैंने विशुद्ध ज्ञान के इस आदर्श से प्रेरित होकर अपना काम शुरू किया । मैंने भौतिक विज्ञान और उसमें भी विशेषकर अणु, तेजष्कियता (रेडियो एक्टिविटी) के क्षेत्र को चूना जिसमें बेकरेल और दोनों क्यूरी ने पहले से ही राजमार्ग बना रखा था । यह वह समय था जब प्राकृतिक तेजष्कियता का स्थान कृत्रिम तेजकियता ने ले रखा था, जब कीमियागरों के स्वप्न सच्चे हो रहे थे । मैंने उन बड़े वैज्ञानिकों के साथ काम किया जिन्होने यूरेनियम विस्फोट की खोज की और मैंने अणुबम के जन्म को भी देखा : ये कठोर, अविच्छिन्न और एकनिष्ठ परिश्रम के वर्ष थे । उन्हीं दिनों मुझे वह प्रेरणा मिली जिसके कारण मैंने अपनी पहली खोज की, यानी, अणु-केंद्रित ऊर्जा या न्यूक्कियर ऊर्जा से सीधी-सीधी बिजली प्राप्त करने को संभव बनाया । आप जानते

 

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ही हैं कि इस खोज ने सारी दुनिया की आर्थिक स्थिति मे एक मौलिक परिवर्तन ला दिया, क्योंकि इसके कारण ऊर्जा सस्ती होने के कारण सर्वसुलभ हो गयी । अगर यह खोज सनसनीपूर्ण थी तो उसका कारण यह था कि इसने मनुष्य को श्रम के अभिशाप ?से मुक्त कर दिया, अब वह रोटी कमाने के लिये खून-पसीना एक करने के लिये विवश न रहा ।

 

   इस भांति मैंने अपने यौवन के स्वप्न को सिद्ध किया- एक महान् खोज की- और साथ ही मैंने मनुष्यजाति के लिये उसका महत्त्व भी समज्ञ । बिना विशेष प्रयास के मैं मनुष्यजाति के लिये एक वरदान ले आया था ।

 

    मेरी पूर्णतया संतुष्ट होने के भरपूर कारण थे, पर यदि मै संतुष्ट हुआ भी तो ज्यादा देर के लिये नहीं । अब हम मृत्यु के दुरा पर खड़े हैं और मेरा रहस्य संभवत: मेरे साथ हीं विलीन हो जायेगा, इसलिये मै कह सकता हूं कि इसके कुछ समय बाद हीं, मैंने न केवल यूरेनियम, थोरियम आदि दुर्लभ धातुओं से, अपितु तांबा और एल्यूमिनियम आदि सें भी अणु-शक्ति को मुक्त कराने का तरीका खोज निकाला । लेकिन फिर मेरे सामने एक जटिल समस्या आ खड़ी हुई जिसके भार ने मुझे लगभग ढेर कर दिया । क्या अपनी खोज को प्रकट कर दूं? मेरे सिवा इस रहस्य को अभीतक और कोई नहीं जानता था ।

 

     आप सब अणु-बम की कहानी जानते .हीं हैं । आप यह भी जानते हैं कि उसके बाद उससे भी भयंकर एक अस की खोज हुई-वह था उदजन बम । मेरी तरह आप भी जानते हैं कि मानवता इन खोजों के भार से लड़का रहीं है, इन खोजों ने मनुष्य के हाथ में संहार की कल्पनातीत शक्ति पकड़ा दी है । पर अब अगर मैं अपनी इन खोजों को प्रकाशित कर दूं उनके रहस्यों को खोल दूं तो एक विकट संहार की आसुरी शक्ति जिस किसी के हाथ लग सकतीं है । और इस पर किसी का कोई अधिकार या नियंत्रण न रहेगा... । यूरेनियम और थोरियम को सरकारें आसानी सें अपने हाथ मे रख सकती थीं, एक तो इसलिये कि वे दुष्प्राप्य थीं, पर उससे भी बढ़कर इसलिये कि उन्हें परमाणु राशि के काम में लगाना बहुत कठिन था । पर आप कल्पना कर सकते हैं कि वह स्थिति कितनी भयंकर होगी जब हर हत्यारा या पागल या मतांध व्यक्ति अपनी कामचलाऊ प्रयोगशाला मे ऐसे अस बना सके जिनसे पैरिस, लंदन या न्यूयार्क को उडाया जा सके! क्या यह मानवजाति के लिये एक घातक प्रहार न होगा? मैं खुद अपनी खोज के भार से चकराया । मैं बहुत देर तक हिचकिचाता और अभीतक किसी ऐसे निक्षय पर नहीं पहुंच पाया जो मेरे दिल और दिमाग, दोनों को संतुष्ट कर सके ।

 

     इस भांति अपनी जवानी में जिस पहले सूत्र को लेकर मैं प्रकृति कै रहस्यों की खोज करने चला था, वही टुकड़े-टुकड़े हों गया । अगर ज्ञान की हर वृद्धि अधिक शक्ति लाती हो, तब भी यह हर्गिज नहीं कहा जा सकता कि उससे मानव कल्याण

 

४४०


भी होता है । वैज्ञानिक प्रगति का यह अर्थ हैं कि उसके सहन हीं नैतिक प्रगति भी हो । वैज्ञानिक और बौद्धिक ज्ञान मानव प्रकृति को बदलने मे असमर्थ हैं, फिर भी इनकी आवश्यकता अनिवार्य हो उठी है। मानव की लोलुपता और मनोवेग आज भी प्रायः वैसे हीं हैं जैसे अश्मकाल में थे; यदि भविष्य में मी वे ऐसे बने रहे तो मानव का सर्वनाश शिक्षित हीं है । अब हम ऐसी अवस्था तक पहुंच चुके हैं कि यदि शीघ्र हीं आमूल नैतिक रूपांतर न हो तो मानवजाति अपने हीं हाथों इस नयी शक्ति से अपना विनाश कर लेगी ।

 

अच्छा, अब देखें मेरे यौवन की दूसरों स्वतःसिद्ध धारणा का क्या हुआ । क्या मैं कम-रहने-कम विशुद्ध ज्ञान का आनंद पा सका, क्या मै शिक्षित रूप से प्रकृति की रचना के छिपे तलों को थोड़ा-बहुत भी पकड़ पाया? क्या मैं यह आशा कर पाया कि प्रकृति को संचालित करनेवाले सच्चे नियमों को जानने का आनंद ले सकूंगी? खेद की बात तो यह हैं कि यहां भी मेरे आदर्श ने मुह्मे निराश कर दिया । हम वैज्ञानिकों ने कब से यह विचार छोड़ रखा हैं कि हर परिकल्पना या सिद्धांत को पूरा- पूरा सत्य या असत्य होना हीं चाहिये । हम अब यही कहते हैं कि यह सुविधाजनक एक, यह तथ्यों के साथ मेल खाता एक और एक काम-चलाऊ व्याख्या देता है । मगर यह जानना कि यह सच है या नहीं, अर्थात् वास्तविकता के साथ मेल खाता है या नहीं-यह वों एक और किस्सा है । और शायद यह प्रश्र ही निरर्थक है । निःसंदेह और सिद्धांत भी हैं, निःसंदेह क्यों, अवश्य ऐसे सिद्धांत भी हैं जो इन्हीं तथ्यों को इतनी ही अच्छी तरह स्पष्ट कर सकते हैं और इसलिये है भी इतने हीं न्यायसंगत हैं । आखिर, ये सिद्धांत हैं क्या? वे बिम्बमात्र हीं तो हैं । वे उपयोगी अवश्य हैं, क्योंकि उनके दुरा हम भविष्य की अनेक चीजों को देख सकते हैं; वे यह तो दिखाते हैं कि घटनाएं कैसे घटती हैं, पर उनके अस्तित्व के ' क्यों' और 'कैसे' का उत्तर नहीं दे पाते । वे हमें वास्तविकता की ओर नहीं ले जाते । इसे सारे समय हीं लगता है कि हम सत्य और वास्तविकता के चारों ओर चक्कर काट रहे हैं, उन्हें भित्र-भित्र कोणों से देखते हैं, भिन्न-भिन्न दिशाओं से नजर डालते हैं, पर उसे खोजने में या पकड़ पाने में कभी सफलता नहीं मिलती; यह अपने-आप भी पर्दा हटाकर अपने-आपको प्रकट नहीं करता ।

 

और फिर, दूसरी ओर, हम जो कुछ माप-तोल करते हैं, जिससे हम आशा करते हैं कि वह इस स्थूल जगत् के बारे में कुछ बनायेगा, उसमें भी मानव सहायता की जरूरत होती है । इस माप-जोख की क्रिया से ही हम बाहरी तथ्य पर कुछ-न-कुछ हलचल पैदा कर देते हैं और यह हलचल जगत् के बाह्य रूप में कुछ तो हेर-फेर कर ही देती है । तो इस माप-तोल. से मिलनेवाला ज्ञान भी पूरी तरह नि:संदिग्ध नहीं है । इस सब हिसाब-किताब से हम संसार का जो चित्र बनाते हैं वह संभव तो होता है, पर सुशिक्षित नहीं । हम भौतिक जगत् के जिस स्तर पर रहते हैं वहां यह अनिश्चितता

 

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नगण्य-सी होती है, पर इससे अत्यंत सूक्ष्म अणु-परमाणु के जगत्( के लिये यहीं बात नहीं कही जा सकती । यहां पर एक मौलिक अक्षमता है, एक ऐसी बाधा हैं जिसे पार करने की आशा तक नहीं की जा सकती । इसका कारण हमारी अनुसंधान-पद्धति की त्रुटि नहीं है, चीजों की अपनी प्रकृति हीं ऐसी है, अतः हम जिन रंगीन चश्मों से सृष्टि देखते हैं उन्हें उतार फेंकना असंभव है । मेरे सारे हिसाब, मेरी सारी परिकल्पनाओं, है जितने परिमाण में जगत् को पकड़ पाते हैं उतने हीं परिमाण मुझे और मेरे मन को मी लिये रहते हैं । है जितने वस्तुपरक हैं उतने हीं आत्मपरक, और वस्तुतः, उनका अस्तित्व शायद मेरे मन में हीं हो ।

 

   'असीम' के तट पर, मैंने एक पदचिह्न देखा और बालू पर निशान देखकर मैंने उसकी मूर्ति गढ़ने चाही जिसने यह पदचित छोड़ था । मुझे आखिर सफलता तो मिली, लेकिन मैंने देखा, वह व्यक्ति स्वयं मैं ही था । आज मेरी यह अवस्था है-हम सबकी अवस्था यही है- और भूखे कोई मार्ग नहीं दिखता ।...

 

    लेकिन आखिर शायद इस बात से कुछ आशा बंधती है कि मैंने विश्व के बारे में असंख्य संभावनाएं हीं देखी हैं, कोई निश्रित ज्ञान नहीं पाया- शायद इसी में यह आशा छिपी है कि मनुष्य का भविष्य सदा के लिये अवरुद्ध नहीं है ।

 

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कलाकार

 

   मेरा जन्म एक संभांत मध्यवर्गीय कुटुम्ब मे हुआ था । मेरे घरवाले कला को आजीविका नहीं, मन-बहलाव की चीज मानते थे और उनके मतानुसार कलाकार बड़े हल्के, अनैतिक और धन के प्रति उदासीन होते हैं- और उनकी दृष्टि मे यह बड़ी खतरनाक चीज थी । शायद विरोध की भावना है प्रेरित होकर हीं मैंने चित्रकला को अपने जीवन का आदर्श बना लिया । मेरी सारी चेतना दो आंखों में केंद्रित थी और मै शब्दों की अपेक्षा रेखा-चित्रों द्वारा अपने-आपको ज्यादा अच्छी तरह व्यक्त कर पाता था । मैंने पुस्तकें पढ़कर सीखने की अपेक्षा चित्र देखकर अधिक सीखा; और एक बार देखें हुए प्राकृतिक दृश्य, मानव-आकृति या रेखांकित चित्रों को कभी न भूलता था ।

 

    मैंने कठोर परिश्रम दुरा, तेरह वर्ष की आयु मे हीं रेखांकन, जल-रंग, पेस्टल और तैल-चित्र की तकनीक अच्छी तरह सीख ली थी । फिर अपने माता-पिता के मित्रों और परिचितों के लिये छोटे-मोटे काम करके कुछ कमाने का अवसर मिल गया, और पैसा आते ही मेरे परिवार ने मेरे काम को गंभीरता सें लेना शुरू कर दिया । इससे लाभ उठाकर मैंने यथासंभव गहरा अध्ययन शुरू किया । ठीक आयु होने पर मै ललितकला-शाला मे भरती हो गया और शीघ्र ही प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगा । 'रोम' पुरस्कार पानेवाले सबसे छोटी आयुवालों में मै भी एक था और इससे मुझे इटालियन कला का गहरा अध्ययन करने के लिये अच्छा अवसर मिला । कुछ समय बाद, छात्रवत्ति पाकर मैंने स्पेन, बेलजियम, हालैंड, इंग्लैंड और अन्य देशों का भ्रमण किया । मैं एक हीं शैली या एक हीं युग का कलाकार न बनना चाहता था । मैंने पूर्व और पश्चिम के सभी देशों की सब प्रकार की कला का अध्ययन किया ।

 

    साथ ही मेरा अपना काम भी जारी था । मैं एक नये कला-सूत्र के संधान मे लगा था । इसमें महान सफलता मिली, यश मिला और ख्याति मिली; चित्र-प्रदर्शनियों में प्रथम पुरस्कार मिले, चित्रों की परीक्षा करनेवाली ज्यूरी में स्थान मिला, मेरे चित्र सारे संसार के बढ़े-बड़े संग्रहालयों में स्थान पाने लगे और मेरी चीजों के लिये चित्र- विक्रेता पागल हो उठे । चारों ओर से धन, उपाधि, सम्मान की वर्षा होने लगी लोग मुझे ''प्रतिभाशाली' ' तक कहने लगे... । पर मै संतुष्ट नहीं हूं । प्रतिभा की मेरी कल्पना कुछ और ही है । प्रतिभाशाली को एक नये ही आधार पर एक नये उच्चतर, अधिक शुद्ध अधिक सत्य और अधिक महान सौंदर्य को नये साधन, नवीन पथ और पद्धति से अभिव्यक्त करना होगा । जबतक मै मानव पशुता का बंदी हूं, तबतक जड़ प्रकृति के रूप से पूरी तरह छुटकारा पाना संभव नहीं । उसके लिये अभीप्सा तो रहीं है, पर ज्ञान, अंतर्दृष्टि का अभाव था ।

 

   और आज जब हम सब मरने लगे हैं तो मुझे लग रहा है कि मैं जैसा सृजन करना चाहता था, न कर पाया, मैं जिस चीज को आंकना चाहता था न आक पाया । और मुझे लगता है कि यश-ख्याति के ढेर के होते हुए भी मैं असफल ही रहा ।

 


उधोगपति

 

   यहां हम सब ही अपने हृदय खोल रहे हैं और, साथ हीं, मैं जो कहूंगा उसका --उपयोग मेरे प्रतिरूप या मेरी सफलता-या यूं कहिये तथाकथित सफलता-से जलने- '''वाले न कर पायेंगे, इसलिये मै आपको अपनी दृष्टि से अपनी कहानी सुनाता हूं-ठीक वैसी जैसे मैं उसे देखता हूं, वैसे नहीं जैसे अन्य लोग उसका बखान करते हैं ।

 

   घटनाएं तो ठीक हीं बतायी गयी हैं । मेरे पिता एक छींटे-से गांव में लोहार थे । मैंने उनसे पितृदाय मे धातुओं के काम में रस लेना सीखा; उन्होंने मुझे अच्छी तरह किये गायें काम में मजा लेना सिखाया और सिखाया हाथ में लिये काम में अपने- आपको भुला देना । मैंने अपने काम का अतिक्रमण करना-दूसरों से मी ज्यादा अच्छा करना, प्रगति करना-उनसे हीं सीखा । मुनाफा ही उनका मुख्य उद्देश्य न था, फिर भी उन्हें अपने व्यवसाय में सर्वोपरि होने का गर्व जरूर था और वे प्रशंसा सुनकर खिल उठते थे ।

 

   इस शताब्दी के आरंभ मे जब अंतर्दहन द्वारा चलनेवाला इंजन आया तो उसकी शक्तियों को देखकर हम छोटे लड़के पागल हों उठे । बिन घोड़े की गाड़ी को, या जिसे आज मोटरकार कहते हैं, बनाना हमारे लिये ऐसा लक्ष्य था जो महानतम प्रयास के योग्य हो । सच तो यह है कि उन दिनों जो इने-गिने नमूने बने थे है भी पूर्णता से बहुत दूर थे  ।

 

   कुछ कल-पुरज़े इकट्ठे किये और उस भानुमति के पिटारे से जो इस काम के लिये नहीं बना था, मैंने पहली मोटर तैयार की । उसने जीवन में मुझे सबसे अधिक प्रसन्नता दी । डगमगाती असुविधाजनक सीट पर बैठकर मैंने अपनी गाड़ी को पिताजी के कारखाने से नगरपालिका तक कुछ सौ गज चलाया । यह लड़खड़ाता, हांफता-कांपता, अजीबो-गरीब यंत्र राहगीरों को डराता था, और उसे देखकर कुत्ते भोंकते और घोड़े बिदकते थे, फिर भी मेरी दृष्टि में इस यंत्र सें बढ़कर सुन्दर कोई और चीज न थी ।

 

   मैं इसके तुरंत बाद की, उन लोगों के द्वेष की बात नहीं कहता जो कहते थे कि भगवान् ने घोड़ा को गाड़ी खींचने के लिये बनाया है , रेल को बनाकर काफी भ्रष्टाचार फैलाया जा चुका है, अब इस पैशाचिक यंत्र को सड़कों और शहरों में भीड़ बढ़ाने के लिये लाने की जरूरत नहीं । ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक थी जो कहते थे कि इन तुनकमिजाज मशीनों के लिये, जिन्हें सिर्फ विशेषज्ञ या सनकी ही संभाल सकते हैं, कोई भविष्य नहीं । कुछ ऐसे साहसी मी निकल आये जिन्होने इस्पात खरोदने और दो-एक कारीगर रखने लायक पैसे उधार दे दिये । इन लोगों में वैसी हीं अंध-श्रद्धा थी जैसी पिछले शताब्दी में अमरीका के सोने की खोज में भागते हुए सनकियों में, जो वीरान और सब तरह प्रतिकूल प्रदेश में अशिक्षित और मृगतृष्णा-सी समृद्धि के पीछे भागते थे ।

 


   मैं पैसे के पीछे दीवाना नहीं था । अभी-अभी बनी मटरों से ज्यादा सुविधाजनक और ज्यादा सस्ती मोटर बना सकने का संतोष ही मेरे लिये पर्याप्त था । मुह्मे कुछ ऐसा लगता था कि यातायात का यह साधन अधिक सस्ता रहेगा, क्योंकि आखिर, उसकी चालक शक्ति को बैठकर नहीं खिलाना होगा । उसमें तेल की तभी जरूरत होगी जेब वह काम करे । अगर इसका दाम कम रखा जा सके तो बहुत-से लोग जो फोड़ों को पालने के स्थायी खर्च से सकुचाते हैं, इसे ले सकेंगे ।

 

   बड़े पैमाने पर गालियां पैदा करने के लिये जिस नमूने का उपयोग हुआ था उसे सब आज भी याद करते हैं । वह पहियों से बहुत ऊंचा था ताकि देहातों की ऊबड़- खाबड़ सड़कों पर चल सके, उसे खूब मजबूत बनाया गया था ताकि अक्खड़ किसान भी उसका उपयोग कर सकें, परंतु जो इसे अभीतक बड़े आदमियों के चोंचले हीं मानते थे, इसकी उपेक्षा करते थे । इस गाड़ी को चलाना बहुत आसान था, उसमें कोई प्रयास न करना पड़ता था । इससे हमें विश्वास हो गया कि शीघ्र हीं अच्छी मोटरों को चलाने के लिये भा विशेषज्ञ की जरूरत न होगी ।

 

  प्रथम महायुद्ध ने हीं मोटर को घोड़े सें आगे बढ़ने का पहला मौका दिया । रोगिवाहक गाड़ियों के लिये, हथियारों के यातायात के लिये, उन सब चीजों के लिये जिन्हें शीघ्र ले जाना था, सब भारी-भारी चीजों के लिये मोटरों की जरूरत हुई । मेरे कारखाने में बहुत ज़ोरों सें काम होने लगा । सेना-विभाग से बढ़ी-बढ़ी मांग आने लगीं जिन्होने मुझे अपने यंत्रों को सुधारने और उत्पादन तथा संयोजन-विधियों को पूर्णता की ओर ले जाने का अवसर दिया ।

 

   महायुद्ध के अंत तक, मेरे पास एक सुव्यवस्थित संस्था थो । लेकिन ऐसा लगता था कि नागरिक आवश्यकताओं की तुलना मे यह बहुत ज्यादा भारी-भरकम थीं । मेरे सहायक घबरा उठे । उन्होंने आग्रह किया कि मै उत्पादन कम कर दूं कर्मचारियों की संख्या घटा दूं सामान भेजनेवालों के दिये झ आम्र रद्द करवा दूं और कुछ समय तक प्रतीक्षा करके देखें कि मांग का प्रवाह किस स्तर पर आकर टिकता हैं । बेशक, ये बुद्धिमानी की बातें थीं; लेकिन दुनिया की सबसे सस्ती मोटर का उत्पादन करने के लिये यह बढ़ा अच्छा अवसर था, ऐसे अवसर बार-बार नहीं आया करते । उत्पादन कम करने का अर्थ होता लागत में वृद्धि । तो मैंने निक्षय  कि हमें बिक्री को देखकर उत्पादन कम नहीं करना चाहिये, बल्कि उत्पादन के अनुसार बिक्री को बढ़ाना चाहिये । छ: महीने की धुआंधार इश्तहारबाज़ी ने मेरी बात को सत्य प्रमाणित कर दिया ।

 

   उसके बाद से मेरी कंपनी मानों अपने-आप आगे बढ्ती गयी । मुझे महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का भार अधिकाधिक अपने सहायकों पर छोड़ना पड़ा, मैं अपने-आप केवल सिद्धता निरूपित करता था । मेरा सिद्धांत था कि अपनी चीजों का स्तर गिराये बिना और मज़दूरों के वेतन कम किये बिना-मैं चाहता था कि मेरे कार्यकर्ता दुनिया

 

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में सबसे अधिक वेतन पानेवाले हों-हमें अपनी चीजें कम-से-कम खर्च पर तैयार करनी चाहिये, कम-से-कम दाम पर बेचने चाहिये, ताकि हमेशा नयी-नयी श्रेणी के ग्राहकों तक पहुंचा जा सके-व्यापार की क्षति कम किये बिना मुनाफा कम करना था, विज्ञापन और प्रचार को इस तरह संगठित करना था कि उत्पादन के खर्च पर ज्यादा डाले बिना अपेक्षित मुनाफा पाना; अंत में, यदि माल देनेवाले हमसे अतिरिक्त मुनाफा लें तो मुझे मशीनरी के भाग, तैयार या आधे तैयार हिस्से तथा कच्चा माल भी अपने-आप तैयार करने में न हिचकिचाना चाहिये ।

 

   मेरा व्यवसाय एक जीवित बढ़ते हुए प्राणी की तरह विकसित होने लगा । मैं जिस चीज में हाथ लगाता उसीमें सफलता मिलती । परिणामस्वरूप, मै पौराणिक गाथाओं के नायक जैसा एक छोटा-मोटा देवता बन गया जिसने एक नयी जीवन-प्रणाली को जन्म दिया, मै एक उदाहरण बन गया जिसका अनुसरण किया जाता था । मेरी किसी भी मामूली बात का, मेरे नगण्य-से कामों का विश्लेषण किया जाता था, उनके बाल की खाल निकाली जाती थी और उन्हें एक वेद-वाक्य के रूप मे जनता के सामने पेश किया जाता था ।

 

इस सबके पीछे कोई सत्य है? मेरा व्यापार आगे बढ़ता जाता है और इसीलिये जीवित है । उसकी प्रगति मे कोई रूकावट उसके लिये सांघातिक होगी । क्योंकि उन्नतिशील व्यवसाय में ऊपरी खर्च उत्पादन के खर्च सें थोड़ा पीछे रहता है, यदि उत्पादन का खर्च उसके बराबर हो जाये तो वह जो थोड़ा-सा मुनाफा रखा जाता हैं, उसे निगल जायेगा । मेरा व्यापार इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि परिपक्वता की ओर बढ़नेवाले स्वस्थ शरीर की अपेक्षा, एक फूला हुआ मुसब्बर लगता है । उदाहरण के लिये, मेरे कुछ विभागों में औरों के साथ कदम मिलाये रखने के लिये मज़दूरों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करना पड़ता है, और जैसे ही इस विभाग में मशीनों मे सुधार करके स्थिति ठीक की जाती है, वैसे हीं किसी दूसरे विभाग में यहीं हाल हो जाता हैं । मै इस मामले में अपने-आपको असहाय-सा पाता हूं, क्योंकि सारी गति मे यदि कहीं मी रुकावट आयी तो कार्यकर्ता की और मी अधिक दुर्दशा हों जायेगी ।

 

   और मैंने मानवजाति को क्या दिया? लोग ज्यादा आसानी से सफर कर सकते हैं । लेकिन क्या वे एक-दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह समश पाते हैं? मेरा अनुसरण करते हुए, जीवन को अधिक सरल बतानेवाली बहुतेरी चीजों को बेह पैमाने पर तैयार करना और अधिक-से-अधिक ग्राहकों तक पहुंचाना शुरू हुआ । लेकिन इसके परिणामस्वरूप क्या नयी-नयी आवश्यकताएं नहीं पैदा की गयीं और उसके साथ-हीं- साथ मुनाफ़े के लिये लोभ नहीं बढ़ता गया? मेरे आदमियों को अच्छा वेतन मिलता है लेकिन ऐसा लगता है कि मै उनमें अधिकाधिक और उससे भी अधिक, अन्य कारख़ानों के लोगों से अधिक कमाने की तृष्णा पैदा करने मे हीं सफल हुआ हूं । मुझे लगता है कि वे असंतुष्ट हैं, दुःखी हैं । मेरी आशाओं के विपरीत, उनका जीवन-स्तर

 

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उठाने से, उनके योग-क्षेम की ठीक व्यवस्था कर देने से उनके अंदर मानव व्यक्तित्व का विकास नहीं हुआ । सच पूछिये तो मनुष्य के दुखों का भार जैसे-का-तैसा हीं बना है, आज मी वह पहले जैसा दुः सह है, और, ऐसा लगता है कि मैंने जो उपाय किये हैं उनसे उसका उपचार नहीं हों सकता । मुझे लगता है कि आधार में ही कोई ऐसी स्व रह गयी है जिसे मेरे उपाय ठीक नहीं कर पाते । इतना हीं नहीं, मै उसे जानता और समझता भी नहीं हूं । मुझे लगता हैं कि कोई रहस्य है जिसका उद्घाटन करना अभी बाकी है; और उसके बिना हमारे सारे प्रयास बेकार हैं ।

 

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व्यायामी

 

    मैं कसरती परिवार में पैदा हुआ था । मेरे मां-बाप खेल-कूद, दौड़-भाग और विभिन्न कसरतों मे निपुण थे । मेरी मां तैराकी, डुबकी, धनुर्विद्या, पटेबाजी और नृत्य में विशेष रूप से कुशल थीं । वह इन चीजों के लिये काफी विख्यात थीं और उन्हें कई स्थानीय पारितोषिक भी मिल चुके थे ।

 

    मेरे पिता एक विलक्षण व्यक्ति थे । वे जिस चीज में हाथ लगाते उसी में सफलता मिलती थीं । है अपने विद्यार्थी-जीवन मे फुटबॉल, बास्केटबॉल और टेनिस के जाने- माने खिलाडी थे । मुष्टि-युद्ध और लंबी दौड़ में वे अपने ज़िले मे सबसे अच्छे थे । फिर, बाद में, एक सरकस-दल में जा मिले और वहां फलांग देखी तथा घुड़सवारी के खेलों में नाम पाया । लेकिन उनकी अपनी विशेषता थी शरीर-गठन (''बॉडी बिल्डिंग' ') और कुश्ती । इनके लिये उन्होंने बहुत ख्याति पायी ।

 

    स्वस्थ, सबल और सक्षम शरीर पाने के लिये ऐसे परिवार में पैदा होना और पलना स्वभावत: एक आदर्श अवस्था थीं । मेरे माता-पिता ने जो शारीरिक उपलब्धिया बड़े कष्ट से परिश्रम कर-कर के पायो थीं, वे मुझे सहज प्राप्त हो गयीं । इसके अतिरिक्त, मेरे व्यायामी माता-पिता मेरे अंदर अपने स्वप्नों की सार्थकता देखना चाहते थे, -वे मुझे एक महान् और सफल व्यायामी के रूप में देखना चाहते थे । अतः उन्होंने मुझे बड़ी सावधानी के साथ पाला, है चाहते थे कि मैं स्वास्थ्य, बल, तेज और ओज प्राप्त कर सकूं । इस विषय में उन्हें जितनी जानकारी थीं, जितना भी अनुभव था, उस सेबका उपयोग मेरे लालन-पालन मे किया; और उन्होंने इसमें कोई कसर न रखी । मेरे जन्म से हीं स्वास्थ्य और स्वास्थ्य-विज्ञान को दृष्टि से भोजन, वक, नींद, सफाई और अच्छी आदतों का यथासंभव पूरा ख्याल रखा गया । उसके बाद व्यवस्थित रूप से कसरतों की बारी आयी जिनके द्वारा मेरे शरीर मे सौष्ठव, उचित अनुपात, शोभा, छंद और सुसंगति लाये गये । फिर तत्परता, फुर्ती, साहस, सतर्कता, यथार्थता और अंग- प्रत्यंग की क्रियाओं में सहयोग लाने की शिक्षा दी, और अंत में शक्ति और सहनशीलता प्राप्त करना सिखाया ।.

 

   मुझे एक छात्रावास में भेजा गया । स्वभावत: मुझे शारीरिक शिक्षण का कार्यक्रम सबसे अधिक पसंद आया । मैंने उसमें खूब रस लेना शुरू किया और कुछ ही वर्षों में मुझे विद्यालय के अच्छे खिलाडियों और व्यायामिकों में स्थान मिलने लगा । मुद्ये पहली बार सफलता मिली जब मै अंतर्विद्यालय मुष्टि-युद्ध प्रतियोगिता में चैम्पियन बना । यह देखकर मेरे मां-बाप कितने प्रसन्न हुए! उन्हें लगा कि उनके स्वप्न चरितार्थ होने लगे हैं । इस सफलता से मुझे बहुत बढ़ावा मिला, और तबसे मैंने पूरी दृढ़ता, बड़े ही यत्न और परिश्रम के साथ शारीरिक शिक्षण की विविध शाखाओं के कौशल का सीखना और उनमें निष्णात होने का प्रयास शुरू कर दिया । मुझे सब प्रकार के खेल-

 


कूद और कसरतों में भाग लेकर शरीर की नाना प्रकार की क्षमताओं को विकसित करना सिखाया गया । मेरा ख्याल था कि शारीरिक शिक्षण की एक व्यापक पद्धति के दुरा आदमी एक से अधिक या यूं कहिये, कई प्रकार की शारीरिक प्रवृत्तियों में बहुत सफल और दक्ष हों सकता है । इसलिये जिस-जिस खेल में मौका मिला, मैंने उस-उस में भाग लिया । मैंने बरसों खुली प्रतियोगिताओं में कुश्ती, मुष्टि-युद्ध भार उठाना, शरीर-गठन, तैराकी, दौड़-भाग, कूद-फांद, टेनिस, कसरत आदि मे नियमित रूप से प्रथम पुरस्कार लिये ।

 

   अब मै अठारह वर्ष का था । मैं खेलों की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेना चाहता था । मैं सर्वांगीण विकास का पक्षपाती था इसलिये मैंने राष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिये डेकैथलन को चूना । यह सबसे अधिक कठिन होता है, - इसमें तेजी, बल, सहनशक्ति और सब अंगों का समन्वय आदि गुणों की बड़ी कड़ी परीक्षा होती है । मैं कठिन अभ्यास के लिये मैदान मे उतर पड़ा और छ: महीने के कठोर परिश्रम के बाद आसानी सै राष्ट्रीय पारितोषिक प्राप्त कर लिया, मेरे बाद का व्यक्ति मुझसे बहुत दूर रह गया था ।

 

   राष्ट्रीय शरीर-शिक्षण संस्था के व्यवस्थापक मेरी सफलता देखकर स्वाभाविक रूप से मुह्मे 'विश्व-आलिम्पिक्स' में भेजने के बारे में सोचने लगे । अगले दो वर्ष के अंदर 'विश्व-ऑलिम्पिक्स' होनेवाली थीं और मुह्मे वहां डेकैथलन में देश का प्रतिनिधित्व करने का निमंत्रण मिला । विश्व-प्रतियोगिता में भाग लेना हंसी-खेल नहीं है, वहां सारे संसार के अच्छे-से-अच्छे खिलाडी इकट्ठे होते हैं । अब समय नष्ट करने का अवसर नहीं था ।

 

  तो मैंने पिताजी के निर्देश और मां की देखभाल में प्रशिक्षण शुरू कर दिया । मुझे बड़ा कठिन परिश्रम करना पड़ता था । कभी-कभी प्रगति असंभव-सी लगती थीं और हर बात कठिन मालूम होती थी । फिर भी मैं दिन-पर-दिन, मास-पर-मास काम पर पिला रहा, और फिर आखिर ' ऑलिम्पिक' के खेलों का दिन आ गया ।

 

   मुझे शेखी नहीं बघारनी चाहिये, पर मैंने अपनी ही आशा से बहुत ज्यादा अच्छा किया । मैं प्रथम तो आया ही, परंतु न मुझसे पहले और न मेरे बाद किसी ने मेरे जितने अंक पाये । यह बात किसी को संभव न लगती थीं । पर हुआ यहीं, और मेरी और माता-पिता की ऊंची-सें-ऊंची महत्त्वाकांक्षा पूरी हो गयी ।

 

  लेकिन मेरे अंदर एक आश्चर्यजनक बात हुई । यद्यपि मै सफलता और यश के शिखर पर था, फिर भी लगा कि मेरे अंदर एक उदासी और एक खोखलेपन का भाव आ खा है; -ऐसा लगता था मानों मेरे अंदर कोई कह रहा ही कि कोई कसर रह गयी है, किसी चीज की खोज करनी होगी, अपने अंदर किसी चीज की प्रतिष्ठा करनी होगी । ऐसा लगता था मानों वही वाणी कह रहीं है : शायद कोई और रोम हो जिसके लिये मेरी शारीरिक दक्षता, क्षमता और ऊर्जा का अधिक अच्छा उपयोग हो सकता है ।

 

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परंतु वह चीज क्या हैं इसका मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था । धीरे-धीरे यह स्थिति चली गयी । इसके बाद भी मैंने बहुत-सी महत्त्वपूर्ण प्रतियोगिताओं मे भाग लिया, और सबमें काफी सफल रहा । परंतु प्रत्येक विजय के बाद यह भावना मुझे जोर से आ अकड़ती थी।

 

मेरी ख्याति के कारण नवयुवकों का एक दल मेरे चारों ओर इकट्ठा हो गया । युवक शारीरिक शिक्षण के भिन्न-भिन्न विषयों मे मेरी सहायता चाहते थे, मैंने बड़ी खुशी से सहायता दी । मैंने देखा कि अपने प्रिय विषय मे, यानी, खेल-कूद, व्यायाम आदि में दूसरों की सहायता करने मे एक आनंद हैं । मै प्रशिक्षक के रूप मे सफल हो रहा था । मेरे कई विद्यार्थी खेल-कूद, व्यायाम आदि मे आश्चर्यजनक सफलता पा रहे थे । शिक्षक-रूप मे अपनी सफलता देखकर और खेल-कूद के लिये अपनी रुचि के कारण (भूखे इतनी रुचि थीं कि मैं इससे संबंध तोड़ना नहीं चाहता था) मैंने सोचा कि मैं इस शिक्षण-कार्य को ही अपने जीवन का ध्येय बना दूर । शारीरिक शिक्षण के सिद्धांत-पक्ष से भी भली-भांति परिचित होने के लिये मैं शारीरिक शिक्षण के एक प्रसिद्ध महाविद्यालय मे भरती हो गया और चार वर्ष मे मैंने वहां की उपाधि भी पा ली ।

 

    अब शारीरिक शिक्षण के सिद्धांत और प्रयोग, दोनों में निपुणता पकार मैं कार्यक्षेत्र में उतर पहा । जबतक मैं केवल व्यायामी था, मेरा मुख्य उद्देश्य था अपने शरीर के लिये स्वास्थ्य, बल, कौशल, शारीरिक सौंदर्य और शारीरिक पूर्णता पाना । अब मैं इसी उद्देश्य को लेकर औरों की सहायता करने लगा । मैंने अपने देश-भर मे प्रशिक्षकों के लिये प्रशिक्षण-केंद्रों की व्यवस्था की और बहुत अच्छे प्रशिक्षक और शारीरिक शिक्षण के निर्देशक तैयार किये । उनकी सहायता से मैंने देश के कोने-कोने में अनगिनत शारीरिक शिक्षा-केंद्र खोली । इन केंद्रों का उद्देश्य था साधारण जनता के अंदर स्वास्थ्य, व्यायाम और मनबहलाव को वैज्ञानिक रूप से लोकप्रिय बनाना । इन केंद्रों ने अपना कौम बढ़ी अच्छी तरह किया और कुछ हीं वर्षों में मेरे देशवासियों का स्वास्थ्य बहुत सुधर गया । देश-विदेश में वे खेल-कूद मे अच्छे परिणाम दिखाने लगे । खेल-कूद की दुनिया मै शीघ्र हीं मेरे देश का नाम चमक उठा । मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि मेरे देश की सरकार ने इस दिशा में मेरी बहुत सहायता की और मुझे मंत्रिमंडल में शारीरिक शिक्षण-मंत्री के रूप में स्थान दिया गया । इसी कारण मैं यह सब कर पाया !

 

   शीघ्र ही मेरा नाम देश-देशांतर में महान शारीरिक शिक्षक और व्यवस्थापक के रूप में फैल गया, और भूखे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शारीरिक शिक्षण के बारे में प्रामाणिक व्यक्ति माना जाने लगा । मुझे बहुत-से देशों में शारीरिक शिक्षण के बारे में बोलने और अपनी पद्धति का परिचय देने के लिये निमंत्रित किया गया । मेरे पास धरती के कोने-कोने से चिट्ठियों की बौछार आने लगी जिनमें मेरी पद्धति के बारे में पूछताछ

 

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होती थी और शारीरिक शिक्षण के क्षेत्र में उन देशों की विशेष समस्याओं के बारे में मेरी सलाह मांगी जाती थीं ।

 

   लेकिन इस सब कार्य-व्यस्तता के बीच मुझे ऐसा लगता था कि मेरी सारी शक्ति और मेरे कौशल, मेरे देश-व्यापी संगठन और उससे मिलनेवाली शक्ति, अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में मेरे जोरदार प्रभाव का शायद कुछ और ऊंचा, कुछ और महान और उदात्ता उद्देश्य हो सकता था और तभी मेरे सब किये-कराये का कुछ अर्थ हों सकता था । लेकिन मुझे अभीतक मालूम नहीं हों पाया कि वह उद्देश्य क्या है ।

 

   मुझे कई बार '' अतिमानव' ' कहा गया है; पर मै अतिमानव नहीं हू । मैं अब भी प्रकृति का दास हूं, मै एक मनुष्य हूं- अज्ञान से भरा, सीमाओं से घिरा, अक्षम, रोगों, दुर्घटनाओं और इच्छा-वासनाओं का शिकार जो मनुष्य को सारी शक्ति से खाली कर देती हैं । मुझे लगता है कि मैं अभीतक इन चीजों से ऊपर नहीं उठ पाया हूं, कोई और ही चीज है जिसे सीखना और पाना है ।

 

   अब, जब कि मौत के साथ आमना-सामना हो रहा हैं, मुझे मौत का जरा भी डर नहीं है । अत्यधिक कष्ट, भूख और प्यास के विचार मुझे नहीं सताते । लेकिन मुझे खेद हैं कि मै अपने जीवनकाल में अपनी समस्या को न सुलझा पाया । मैंने अपने जीवन में बहुत सफलता पायी, ख्याति मान, धन, यानी, मनुष्य जिस-जिस चीज के स्वप्न ले सकता है वह सब मुझे प्राप्त है । पर मैं संतुष्ट नहीं हूं क्योंकि मुझे इन प्रश्रों का कोई उत्तर नहीं मिला : -

 

   ''सब कुछ होते हुए भी वह कौन-सी चीज है जिसे मै नहीं पा सका? मेरी शारीरिक पूर्णता और दक्षता का ऊंचे-से-ऊंचा उपयोग क्या हों सकता था? देश-भर में फेल हुए मेरे संगठन और मेरे अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव का किस उद्देश्य के लिये अच्छे-से- अच्छा विनियोग हो सकता है । ''

 

   (तब अज्ञात व्यक्ति की शांत, मधुर, स्पष्ट, अधिकारपूर्ण और गंभीर आवाज सुनायी देती है ।)
 

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 अज्ञात व्यक्ति

 

     आप लोग जो जानना चाहते हैं, वह मैं आपको बता सकता हूं ।

 

    आप लोगों के कार्यक्षेत्र भित्र-भित्र रहे हैं और कार्य की प्रकृति भिन्न-भिन्न रहीं हैं, फिर मी आप सबके अनुभव एक जैसे हैं । आप छ:-के-छ: बड़े परिश्रम के बाद सफलता प्राप्त करके भी एक ही परिणाम पर पहुंचे हैं । क्योंकि आप चेतना के ऊपरी तल पर रहे हैं और आपने चीजों के बाह्य रूप को हीं देखा है । आप सब विष की वास्तविकता से अनभिज्ञ हीं रह गये ।

 

   आप लोग मनुष्यों मे अभिजात श्रेणी के हैं, आपने अपने-अपने क्षेत्र मे यथासंभव अधिक-से-अधिक सफलता पायी है; अतः आप मानवजाति के मूर्द्धन्य हैं । लेकिन अब मानवजाति के शिखर पर पहुंचकर आगे बढ़ना असंभव हो गया है और आपके सामने एक बड़ी खाई है । आपमें से कोई भी संतुष्ट नहीं है, साथ हीं कोई यह भी नहीं जानता कि अब क्या किया जाये । आपके जीवन और आपकी सद्भावना ने जो दहरी समस्या आपके आगे रखी है उसका आपको कोई हल नहीं दिखता । मैंने कहा, दुहरी समस्या, क्योंकि सचमुच समस्या के दो पहलू हैं--व्यक्तिगत और सामाजिक : अपना और दूसरों का कल्याण कैसे किया जाये? आप लोग इस समस्या को हल नहीं कर पाये हैं, क्योंकि जीवन की यह समस्या आदमी के मन दुरा (चाहे वह कितना भी उन्नत क्यों न हो) हल होनेवाली नहीं है । इसके लिये, हमें एक नवीन और उच्चतर, 'सत्य-चेतना' मे जन्म लेना होगा । क्योंकि इन भागते हुए रूपों के पीछे एक अमर वास्तविकता छिपी हैं, इस निक्षेतना और परस्पर टरकाते हुए बहु के पीछे एक प्रशांत 'चेतना' है, इस अनवरत और असंख्य मिथ्याचार के पीछे एक पवित्र, दीप्तिमान 'सत्य' विद्यमान है, इस अंधकारमय और विद्रोही अज्ञान के र्पाछे सर्वज़यी ज्ञान है ।

 

    और यह 'वास्तविकता', यह 'सद्वस्तु' मौजूद है, बहुत हीं नजदीक है, आपकी सत्ता के ओर इस विश्व की सत्ता के केंद्र में मौजूद है । आपको सिर्फ इसी सत्ता को खोजना होगा और उसे अपने जीवन में मूर्त करना होगा और तब आप सारी समस्याएं हल कर सकेंगे, सब विघ्न-बाधाओं को पार कर सकेंगे ।

 

आप शायद कहें कि यहीं बात तो नाना धर्मों ने कही है : अधिकतर ने इस 'सद्वस्तु' को भगवान् का नाम दिया है, परंतु उनमें से कोई मी आपकी समस्या का संतोषजनक हल नहीं कर सका और न आपको आपके प्रश्रों का समुचित उत्तर दे पाया है, और है आर्तता मानवजाति के दुःख-दर्द को दुरा करने के प्रयास में पूरी तरह असफल हुए हैं ।

 

    इनमें से कुछ धर्म संतों दुरा सुनी गयी आंतरिक वाणी पर आधारित हैं, कुछ दार्शनिक और आध्यात्मिक आदर्श की भित्ति पर खड़े हैं, परंतु शीघ्र हीं आंतरिक वाणी का स्थान ले लेते हैं आचार-व्यवहार और कर्मकांड तथा दार्शनिक आदर्श का स्थान

 


कदूर मान्यताएं ले लेती हैं, और उनके अंदर का सत्य इस तरह गायब हों जाता है । इसके अलावा, सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रायः विना अपवाद के, इन धर्मों ने मनुष्य को प्रायः एक हीं प्रकार का समाधान दिया है और वह इहलोक को छोड़कर परलोक की ही बात करता है, मानों उनका समाधान जीवन पर नहीं मृत्यु पर आधारित हैं । उनका कहना कुछ-कुछ इस प्रकार का है : अपनी मुसीबतों को चुपचाप सहते जाओ, क्योंकि यह जगत् असाध्य रूप सें पापमय है, और तुम्हें मृत्यु के बाद इसका पुरस्कार मिलेगा; या वे कहते हैं : जीवन से सब प्रकार की आसक्ति छोड़ दो और तुम जीवित रहने की कठोर आवश्यकता से सदा के लिये मुक्त्ति हो जाओगे । निक्षय हीं ये हल धरती पर मनुष्य के दुःख-दर्द के लिये अथवा संसार की साधारण अवस्था के लिये कोई इलाज नहीं हैं । इसके विपरीत, यदि हमें संसार की इस विह्वलता, अव्यवस्था और दुर्दशा का कोई सच्चा इलाज ढूंढना हैं तो इसे इस धरती पर ही पाना होगा । और वस्तुत: यह समाधान यहीं मौजूद हैं, अंतर्निहित हैं, सिर्फ उसे ढूंढ निकालना होगा; वह रहस्यमय या काल्पनिक नहीं है; वह एक ठोस वास्तविकता है और यदि हम ठीक तरह निरीक्षण करना जानें तो पता लगेगा कि स्वयं प्रकृति ने हीं उसे यहां प्रस्तुत किया है । क्योंकि प्रकृति की गति ऊर्ध्वमुख हैं; वह एक ऐसे रूप, एक ऐसी जीव-श्रेणी के सृजन के लिये प्रयत्नशील है जो विश्व-चेतना को अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकें । इस सबसे यही प्रमाणित होता है कि धरती के विकास-क्रम में मनुष्य हीं अंतिम सीढ़ी नहीं है । मनुष्य के बाद निक्षय ही एक ऐसी जाति आयेगी जो मनुष्य के लिये वैसी हीं होगी जैसे मनुष्य पशु के आगे; मनुष्य की वर्तमान चेतना के जगह एक नयी चेतना आयेगी जो मानसिक नहीं, अतिमानसिक होगी । और यह चेनना एक अधिक उन्नत, अतिमानस और भागवत जाति को जन्म देगी ।

 

   अब समय आ गया है जब यह संभावना जिसे आर्ष-दृष्टि ने युगों पहले देखा था और जिसके बारे मे आदेश भी हो चुका है, वह धरती पर मूर्त रूप ले ले, और इसीलिये आप लोग इतने असंतुष्ट हैं और आपको लगता है कि आपने जीवन से जिस चीज की मांग की थीं वह नहीं मिली । पृथ्वी जिस अंधकार में द्वि हुई है उसमें से निकालने के लिये चेतना में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता हैं । सच पूछिरो तो चेतना का यह रूपांतर, एक उच्चतर और सत्यतर चेतना की अभिव्यक्ति केवल संभव हीं नहीं है, अनिवार्य है; वही हमारे जीवन का लक्ष्य और पार्थिव जीवन का रहस्य है । पहले चेतना का, फिर प्राण का और उसके बाद शरीर का रूपांतर करना होगा; नवीन सृष्टि इसी क्रम सें होगी । प्रकृति की भी क्रियाएं, जीवन का उस 'परम वास्तविकता' की ओर धीरे-धीरे वापिस ले जा रही हैं जो समग्र विश्व और उसके अणु- परमाणु का लक्ष्य और स्रोत हैं । हम सार-रूप में जो हैं वही स्थूल रूप में मी बनना होगा; जो सत्य, सौंदर्य, शक्ति और पूर्णता हमारी सत्ता की गहराई में निहित हैं उन्हें

 

४५३


समग्र भाव से जीवन में उतारना होगा, और तब सारा जीवन ही उस महान् शाश्वत और दिव्य ' आनंद' की अभिव्यक्ति हो उठेगा ।

 

   (सब लोग चुपचाप एक-दूसरे की ओर देखते हैं और सहमति प्रकट  करते है !  फिर:)

 

लेखक- आपकी वाणी में एक मंत्र-शक्ति है, एक जादुई बल है । हां, हमें लगता है कि हमारे लिये एक नया दरवाजा खुल गया है, हमारे हृदयों में एक नयी आशा ने जन्म लिया हैं । लेकिन उसे सिद्ध करने में समय लगेगा, शायद अभी बहुत समय की जरूरत हो । परंतु अब तो मृत्यु नजदीक हैं, हमारा अंत आ पहुंचा हैं । खेद है कि अब बहुत देर हो चुकी ।

 

अज्ञात व्यक्ति-नहीं, बहुत देर नहीं हुई, ऐसी देर कभी नहीं हुआ करती ।

 

हम सब अपनी संकल्प-शक्ति को एकत्र करके, एक महान् अभीप्सा के साथ भागवत 'कृपा' से प्रार्थना करें । चमत्कार किसी भी समय हों सकता है । श्रद्धा में बढ़ी शक्ति होती है । और अगर सचमुच भविष्य में होनेवाले महान कार्य में हमारे लिये कोई स्थान हैं तो भागवत सहायता आयेगी और हमारे जीवन की रक्षा करेगी । आइये, हम एक संत की नम्रता, एक शिशु की सरलता के साथ प्रार्थना करें; पूरी सच्चाई से उस नयी 'चेतना', उस नयी 'शक्ति', उस ' सत्य ' और उस 'सौंदर्य' का आवाहन करें जिसका अवतरण इस धरती पर रूपांतर करने के लिये, और यहां, इस पार्थिव जगत् में अतिमानस-जीवन सिद्ध करने के लिये जरूरी है ।

 

  (सब लोग एकाग्रचित्त होते हैं अज्ञात व्यक्ति बोलता है :)

 

  ''हे 'परम सत्य', हमने जिस उत्तम रहस्य को जाना है उसे समग्र सत्ता के जीवन में उतार सकें । ''

 

 (सब मिलकर यह प्रार्थना करते हैं फिर नीरव ध्यान करते हैं अचानक कलाकार चिल्ला पड़ता है :)

 

 देखो! देखो!

 

   (दूर क्षितिज ले एक बिंदु क्वे समान पक जहाज आता हुआ दिखायी देता है  सबको आश्चर्य होता है :)

 

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अज्ञात व्यक्ति-हमारी प्रार्थना सुन लीं गयी ।

 

    जब जहाज अच्छी तरह दिखायी देने लगता हैं तो व्यायामी उठकर खड़ा हो जाता है और जेब से सफेद रूमाल निकालकर जोर से हिलता है  जहाज और नजदीक आत ? जाता है वैज्ञानिक चिल्ला उठता है)

 

 उन लोगों ने हमें देख लिया हैं । बे हमारी ओर आ रहे हैं !

 

 अज्ञात व्यक्ति-(धीरे-धीरे) यही हैं मुक्ति, यही है नवजीवन!

 

(परदा गिरता है)

 

४५५

सत्य-आरोहण

 

 एक प्रस्तावना, सात पड़ाव और

एक उपसंहार के साथ जीवन का नाटक

 

 

पात्र:

 

लोक-सेवक

निराशावादी

वैझानिक

कलाकार

तीन बिधार्थी

दो प्रेमी

संन्यासी

दो साधक

 

प्रस्तावना : चित्रकार की चित्रशाल में, प्रारंभिक गोष्ठी ।

आरोहण के सात पड़ाव, और सातवां पड़ाव शिखर पर होगा ।

उपसंहार : नयी दुनिया ।

 


प्रस्तावना

 

चित्रकार की चित्रशाला में

 

   (सांध्यवेला 'सत्य' की खोज में लगे समान अभीप्सा मैं सम्मिलित दल की बैठक क्वे अंत मैं !

 

उपस्थित

 

सद्भावनापूर्ण मनुष्य लोक-सेवक

 

   निराशावादी जिसका मोह भय हो क्या है ! बह अब धरती पर सुख की संभावना को नहीं मानता !

 

   बैज्ञानिक जो प्रकृति कि समस्याओं को हल करने की कोशिश मैं ह्वै कलाकार जो अधिक सुन्दर आदर्श के सपने लेता है

 

   तीन विधार्थियों का दल (दो लड़के एक लड़की) जिन्हें अधिक अच्छे जीवन पर और अपने अपर विश्वास है !

 

   दो प्रेमी जो मानद प्रेम में पूर्णता की खोज कर रहे हैं !

 

  संन्यासी जो 'सत्य' की खोज के लिये किसी मी तपस्या क्वे लिये तैयार है !

 

  दो साधक जिन्हें समान अभीप्सा ने इकट्ठा कर दिया है उन्होने अनंत को हुन है क्योंकि 'अनंत' ने उन्हें चून लिया है !

 

(परदा उठता हैं !)

 

 कलाकार-प्यारे दोस्तों, अब हमारी सभा विसर्जित होने को हैं । इससे पहले कि हम समाप्त करें और अपने संगठित कार्यक्रम के बारे मे कुछ संकल्प लें, मै आप लोगों से फिर से यह जान लेना चाहता हू कि क्या आप अपने पहले वक्तव्य मे और कुछ जोड़ना चाहते हैं?

 

लोकसेवक-हां, मै फिर से कहना चाहता हू कि मैंने अपना सारा जीवन लोक-सेवा के लिये समर्पित कर दिया है; मैंने बरसों तक सभी परिचित और संभव पद्धतियों को अपनाकर देखा, परंतु कोई संतोषजनक परिणाम नहीं निकला और अब मुझे विकास हो गया हैं कि यदि मैं अपने काम में सफलता चाहूं तो मुझे 'सत्य' की खोज करनी होगी । सचमुच, जबतक जीवन के सच्चे अर्थ का हीं पता न हो तबतक मनुष्य की सार्थक रूप से सहायता कैसे की जा सकती है? इस बीच जो कुछ उपचार किये जायें. वे ऊपरी मरहम-पट्टी होंगे-सच्चे इलाज नहीं हो सकते । केवल 'सत्त' की चेतना ही मानवजाति का उद्धार कर सकती है ।

 

निराशावादी-मैंने जीवन में बहुत दुःख झेले हैं । मै बहुत भ्रांतियों में पड़कर निराश

 


हुआ हूं, कितने अन्याय सहे हैं, कितनी मुसीबतें उठाये हैं । अब मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा, जगत् से या मनुष्य सें कोई आशा नहीं रहीं । अब केवल एक आशा बच गयी है और वह हैं 'सत्य'-संधान की-लेकिन वह भी तभी जब उसे पा - लेना संभव हो ।

 

'पहला साधक- आप लोग हम दोनों को एक साथ देख रहे हैं क्योंकि एक ही अभीप्सा हमारे जीवन को एक-दूसरे के निकट ले आयी हैं; हमारे अंदर शरीर या प्राण का भी कोई आकर्षण नहीं हैं । हमारे जीवन मे बस, एक ही धुन है : वह है 'सत्य'- संधान की।

 

एक प्रेमी- (साधक-साधिका की ओर देखकर? लेकिन हम दोनों इन दो बंधुओं से बिलकुल उलटे हैं, (अपनी प्रिया का आलिंगन करते हुए) हमारा जीवन एक-दूसरे के लिये, और एक-दूसरे के आधार पर खड़ा है ! पूर्ण मिलन हीं हमारी सबसे बढ़ी महत्त्वाकांक्षा हैं, हमारे दो शरीर हों, पर दोनों में सत्ता एक ही हो, हमारे विचार, हमारी इच्छाएं, हमारी भावनाएं एक हों; दो सीनों में एक हीं सांस चले और दो हृदयों में एक ही धड़कन हों । हमारे हृदय प्रेम के द्वारा, प्रेम में और प्रेम के लिये हीं जीवित हैं । हम प्रेम के संपूर्ण सत्य को खोजना चाहते हैं : हमने अपना जीवन इसी के लिये समर्पित कर दिया है ।

 

संन्यासी-लकिन मुझे नहीं लगता कि 'सत्य' इतनी आसानी से पाया जा सकता है । जो पथ हमें 'सत्य ' तक ले जायेगा वह कठोर, कगार जैसा ढलुऔ, नाना प्रकार की विपत्तियों, आपदाओं और भयंकर भ्रांतियों से भरा होगा । इन सब विपदाओं को पार करने के लिये अटल संकल्प-शक्ति और इस्पात की नारियों की जरूरत है । मैंने जो महान लक्ष्य अपने सामने रखा है, उसको पाने के लिये, उसके योग्य बनने के लिये सब प्रकार का त्याग, सब प्रकार की तपस्या करने और सब प्रकार का घोर कष्ट सहने को तैयार हूं ।

 

कलाकार- (सबकी ओर देखकर) आप लोगों को और कुछ नहीं कहना? नहीं । तो हम लोग एक. मत हैं : हम लोग एक साथ मिल-जुलकर 'सत्य' की ओर सिर उठाये हुए इस पुनीत पर्वत पर चढ़ने का प्रयास करेंगे । यह काम बढ़ा कठिन और श्रमसाध्य है, परंतु है करने योग्य, क्योंकि उसकी चोटी पर पहुंचने से 'सत्य' के दर्शन होंगे और सभी समस्याएं आवश्यक रूप से हल हो जायेंगी ।

 

तो हम लोग कल पहाड़ की तलहटी में मिलेंगे और एक साथ चढ़ना शुरू करेंगे । अच्छा, अब नमस्कार, कल फिर मिलेंगे ।

 

(सब ''फिर मिलेंगे' ' कहकर चले जाते हैं ?)

 

४६०


 आरोहण के सात पड़ाव

 पहला पड़ाव

 

   (पहाड़ के ऊपर हरी-भरी समतल भूमि च्छा से नीचे तलहटी का दृश्य अच्छी तन दिखायी देता है अभीतक रास्ता चिढ़ और सहज था अब अचानक संकरा हों उठता है और वार्ड ओर की ऊंची-छबि चट्टानों पर चक्कर थमाता हुआ आये बढ़ता है !

 

    सब सामर्थ्य और उत्साह से भरे हुए यक साथ ' हैं? सबने निवे तलहटी पर निगाह डाली लोक-सेवक के इशारे पर सब नजदीक आते है!)

 

लोकसेवक-मित्रों, मै आपसे कुछ कहना चाहता हू । मुझे कुछ गंभीर बातें कहनी हैं । (सब कुपचाप ध्यानपूर्वक सुनते हैं !

 

  हम बड़ी खुशी-खुशी, आराम सें, एक साथ इस उच्च भूमि तक चढ़ आये हैं । यहां से हम जीवन को देख सकते हैं, उसकी समस्याओं को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं और मनुष्य के दुखों के कारण को भी समझ सकते हैं । हमारा ज्ञान अधिक विस्तृत और गहरा हो गया है और मै जो हल ढूंढना चाहता था उसे हम पा सकते हैं । (मौन)

 

लेकिन अब हम एक नये मोड़ पर आ पहुंचे हैं जहां एक निश्चय करना होगा । आगे और भी खड़ी और कठिन चढ़ाई है । इस पर तुर्रा यह कि हम पहाड़ के उस ओर चले जायेंगे जहां से नीचे की वादी को और मनुष्यों की देख भी न सकेंगे । इसका मतलब यह हैं कि मुझे अपना काम छोड़ देना होगा और मानवसेवा के व्रत को तोड़ देना होगा । अब मुझे अपने साथ रहने के लिये न कहीये; आप लोगों को छोड़कर मुझे अपना कर्तव्य पूरा करने के लिये जाना हीं होगा ।

 

    (वह नीचे की ओर उतरता है सब जरा विस्मय और निराशा के सक् एक- दूसरे की ओर देखते हैं !)

 

संन्यासी-बेचारा मित्र ! नीचे की ओर चल पहा, कर्तव्य की आसक्ति, बाह्य जगत् के बाह्य रूपों की मोहमाया ने उसे जकड़े लिया । किंतु हमारे उत्साह मे रत्ती-भर कमी न आनी चाहिये; हम किसी खेद या दुविधा के बिना अपने रास्ते पर बढ़ते चले ।

 

(सब आये बढ़ते हैं ।)

 


दूसरा पड़ाव
 

  (रास्ते का हिस्सा एक और सीधी चढ़ाई रास्ता समकोण पर घूम जाता है जिससे यह नहीं मालूम होता है कि किधर जा रहा है नीचे लंबे सफेद बहुत घने बादल ने इस हिस्से को दुनिया ले बिलकुल अलग कर दिया है!

 

   निराशावादी को छोड़कर सब न्यूनाधिक आनंद में क्ले जा रहे हैं निराशावादी सबसे पीछे पांव घसीटता हुआ आ खा है आखिर रास्ते क्वे किनारे एक ऊंची-सी जगह देखकर बैठ जाता है अपने सिर को दोनों हाथों में लेकर वह गुमसुम बैठा ही रहता है औरों ने यह देखा तो सब उस ओर मुझे छात्र ने लौटकर उसके कंधे पर हाथ रखा !)

 

 छात्र- अरे, भई, क्या हुआ? बात क्या है ? थक नये क्या?

 

निराशावादी- (उसे पीछे हटाते हुए ) नहीं, मुझे छोड़ दो । मुझे छोड़ दो । बहुत हो चुका, और नहीं चाहिये! यह असंभव है !

 

बिधार्थी-लेकिन बात क्या है ? चलो, उठे, हिम्मत से काम लो!

 

निराशावादी-नहीं, नहीं, मैं कह तो चुका, मुझसे कुछ न होगा । यह मूर्खतापूर्ण और असंभव दुः साहस का काम है । (पैरों-तले बादल दिखाकर) देखो न, हम संसार से और जीवन से एकदम बिछुड़े गये हैं । अब समझने के लिये आधार-स्वरूप कुछ नहीं रहा, कुछ भी नहीं रहा ।

 

(फिर मुड़कर रास्ते के मोड़ की ओर देखता है !) और इधर देखो! यह भी पता नहीं लगता कि हम किधर जा रहे हैं! सारी चीज हीं निरर्थक या भांतिपूर्ण-या शायद दोनों-है ! आखिर, शायद खोजने योग्य कोई 'सत्य' हैं भी नहीं । यह जगत् और यह जीवन एक नरक है जिसमें से निकलने का कोई रास्ता नहीं, हम उसमें बंदी बने हुए हैं । तुम्हारी इच्छा हों तो आगे बढ़ते जाओ, लेकिन मै तो अब टस-से-मस न होऊंगी, मै और अधिक बेवकूफ नहीं बनना चाहता!

 

     (फिर दोनों हाथों में सिर रख लेता है बिधार्थी उसे समज्ञ सकने की आशा छोड़ देता है देर होने के डर से उसे अपनी निराशा के सक्  छोड़कर औरों के सक् चढ़ने लगता है !)

 

 तीसरा पड़ाव

 

    (वैज्ञानिक और कलाकार दल मे सबके पीछे चले आ रहे हैं मानों बातों के कारण पीछे रहा गये हैं !बातचीत का अंतिम मान !)

 

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वैज्ञानिक-हां, जैसा मै कह रहा था, मुझे लगता हैं कि हम जस हल्के-फुलके भाव से, गंभीरता के बिना ही इस अभियान पर चल पढ़ें हैं !

 

कलाकार-यह तो ठीक है कि अभीतक हमारी चढ़ाई काफी निष्फल-सी रहीं हैं । मैं यह नहीं कहता कि हमें बहुत-सी चित्ताकर्षक वस्तुओं को देखने का अवसर नहीं मिला, लेकिन ये सब चीजें बहुत लाभदायक नहीं निकली ।

 

वैज्ञानिक-हां, मुझे तो अपनी ही पद्धति पसंद हैं-हमारी विधि ज्यादा युक्तियुक्त है। वह निरंतर परीक्षण पर आधारित हैं और मै पहले कदम की सत्यता के बारे में निश्चित प्रमाण पाये बिना दूसरा कदम आगे नहीं बढ़ाता । चली, हम अपने साथियों को जस आवाज दे लें- मुझे उनसे कुछ कहना है । (आवाज देकर और हाथ के हारे से सबको पास बुत्कर वैज्ञानिक उन्हें संबोधित करता है!)

 

मेरे प्यारे मित्रों और एक हीं पथ के सहयात्रियो, हम जगत् से और उसको कठोर वास्तविकता से जितनी दूर होते जा रहे हैं, उतना ही मुझे यह लग रहा हैं कि हम बचकाने काम में लगे हैं । हमें यह बोध दिया गया था कि यदि हम इस सीधी बढ़नेवाले पहाड़ की चोटी तक चढ़ सकें-जहां अभीतक कोई नहीं पहुंच पाया है-तो हम 'सत्य' को पा लेंगे- और हम रास्ते के बारे में जानकारी प्राप्त किये बिना मुंह उठाकर चल पड़े । कौन कह सकता हैं कि हम रास्ते में भटके नहीं हैं? कौन विश्वास के साथ कह सकता है कि हमें आशा के अनुसार हीं फल मिलेगा? मुझे लगता है कि हमने अक्षय्य चंचलता के साथ काम किया हैं और हमारा यह प्रयास बिलकुल अवैज्ञानिकता  मुझे बड़ा दुःख के साथ कहना पड़ता है कि मैंने यहीं रुकने का निश्चय किया हैं । आप लोगों के साथ मेरी मैत्री अक्षुण्ण बनी रहेगी, परंतु मै यहीं रुककर समस्या का अध्ययन करुंगा और यदि संभव हो तो शिक्षित रूप से यह पता लगाऊंगा कि कौन-से रास्ते से आगे बढ़ना चाहिये, सही रास्ते से जिससे हम लक्ष्य तक अवश्य जा पहुँचें ।

 

(थोडी देर के बाद) इसके अतिरिक्त, मुझे यह विश्वास हो गया है कि यदि मै पृथ्वी की किसी मामूली-से-मामूली चीज की रचना का पूरा रहस्य जान लूं, उदाहरण के लिये, रास्ते के इस तुच्छ पत्थर के रहस्य को भी जान लूं तो उसी से मैं उस 'सत्य' को भी पा सकूंगी जिसकी हमें खोज हैं । अच्छा, तो फिर मै यहीं ठहरूगा और आप सबसे कहूंगा : '' पुनर्दर्शनाय' ' -हां, मैं सचमुच ''पुनर्दर्शनाय' ' कह रहा हूं, क्यग़ॅक मैं आशा करता हूं कि या तो आप लोग मेरे और मेरी वैज्ञानिक पद्धति के लिये यहां लौट आयेंगे, या मै जिस चीज की खोज मे हूं उसे पकार आप लोगों को खुशखबरी देने वहां आ जाऊंगी ।

 

कलाकार-मैं भी आप लोगों का साथ छोड़नी की सोच रहा हूं। मेरा और हमारे वैझानिक मित्र का कारण एक तो नहीं है, पर हैं उतना ही जोरदार ।

 

   इस मनोरम चढ़ाई में, मैंने बहुत-से अनुभव प्राप्त किये हैं : मैंने नये सौंदर्य को

 

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देखा है; या यूं कहें कि मेरे अंदर सौंदर्य के एक नये बोध का प्रादुर्भाव हुआ है । साथ हीं, एक तीव्र और अदम्य इच्छा उत्पन्न हो रहे है कि मैं अपनी अनुभूति को भौतिक रूप दूं उन्हें 'जड़-तत्त्व' के अंदर उतार जाऊं, ताकि वे सबके शिक्षण में सहायक हों सकें और विशेष रूप से यह भौतिक जगत् आलोकित हो उठे ।

 

 तो, बढ़े दुःख के साध आप सबसे अलग हो रहा हूं, और जबतक अपनी नूतन अनुभूतियों को मूर्त रूप न दे लुंगी तबतक मै यहीं रहूंगा । भूखे जो कुछ करना हैं उसे साकार कर चुकने के बाद, मैं फिर से चढ़ाई आरंभ कर दंगा और आप लोग जहां जा पहुंचे होंगे वहीं आ मिछंगा और नवीन खोज में लग जऊंगा ।

 

अच्छा, तो आप चलिये, आपका मार्ग शुभ हो ।

 

(सब लीन जरा दुःख के साथ देखते हैं बिधार्थी कह उठती है )

 

विधार्थिनी-इस प्रकार के पथ-त्याग से हमारा कुछ नहीं बनता-बिछड़ता! हर व्यक्ति अपनी नियति के अनुसार चलता है और अपनी प्रकृति के अनुसार काम करता है । हमें अपने अभियान से कुछ नहीं रोक सकता । चलो, जरा भी थके बिना, साहस और धैर्य के साथ हम लोग अपने रास्ते पर बढ़े ।

 

(वैज्ञानिक और कलाकार को छोड्कर सब आये बढ़ते हैं )

 

 चौथा पड़ाव

 

 (साधक साधिका .और संन्यासी बिना रुके निशित और स्थिर गति से आये बढ़ता जाते हैं?

 

  उनके पीछे प्रेमी युगपत् हैं हाथ में हाथ डाले बिना किसी की परवाह किये अपने- आपमें मस्त चले जा रहे हैं?

 

  सबके पीछे तीन बिधार्थी हैं देखने मैं थके हुए लगते हैं है सकते हैं)

 

 पहला बिधार्थी-उफ़! भाई, क्या चढ़ाई हैं यह! बाप-रे-बाप । क्या रास्ता है! बस, चढ़ने ही जाओ, कहीं रुकने का नाम हीं नहीं-दम लेने की फुरसत नहीं । मैं तो अब थक चला ।

 

विधार्थियों-यह भी कोई बात है भला! तुम भी हमें  छोड़ जाना चाहते हो? यह भी कोई भद्रता हुई!

 

पहला बिधार्थी- अरे नहीं, नहीं, छोड़नी का सवाल नहीं है । लेकिन क्या हम थोड़ा आराम भी नहीं कर सकते? जरा बैठकर दम भी नहीं ले सकते? ओह, पैर मन- मन-भर के हो रहे हैं ! जरा-सा आराम कर लेने है अधिक अच्छी तरह चढ़ जायेगा । अच्छा, अब जस दया करो और थोड़ा बैठ जाओ, सिर्फ थोडी ही देर के लिये । उसके बाद हम फिर चल पढ़ेंगे, तब देखना कैसी तर्ज से चढ़ जायेगा ।

 

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दूसरा बिधार्थी- अच्छा । हम तुम्हें यहां पडे-पड़े उदास होने के लिये अकेले नहीं छोह देंगे । इसके अतिरिक्त, भूखे भी तो थोड़े-सी थकान लग रहीं है । आओ, सभी थोडी देर बैठ लें और रास्ते में जो कुछ देखा-सीखा हैं उसकी बातचीत करें ।

 

विधार्थिनी- (क्षण-भर हिचकिचाकर वह मई बैठ जाती है !) चलो, यहीं सही । तुम्हारा साथ नहीं छोड़ना चाहती, इसीलिये । लेकिन ज्यादा देर न बैठना । रास्ते में देर करना हमेशा खतरनाक होता है ।

 

 (प्रेमी और प्रेयसी मुड़कर देखते हैं कि ये तीनों बैठ गये फिर आगे चल पढ़ते हैं !)

 

 पांचवां पड़ाव

 

 (स्थान बहुत ऊंचा हैं रास्ता और मी संकरा है क्षितिज बहुत विशाल हो क्या है ! नीचे घने सफेद बादलों के कारण वादी अब मी दिखायी नहीं देती बायीं ओर रास्ते ले जरा हटाकर एक छोटा-सा मकान है जिसके सामने खत्ता आसमान है !पहले तीन बिना रूके आये बढ़ गये !उनके पीछे गत्ढ़बहियां किये, अपने ही स्वप्नों में मस्त प्रेमी- आते हैं)

 

 प्रेयसी- (एकान्त देखकर) वाह, और कोई नहीं... । हम अकेले हैं । लेकिन दूसरों की क्या परवाह! हमें उनकी जरूरत नहीं-हम एक-दूसरे के साथ कितने खुश हैं !

 

प्रेमी- (रास्ते के पास का मकान देखकर? देखो तो, प्रिय, ढाल पर यह छोटा-सा मकान, कितना सुनसान, फिर भी कितना मनोरम, कितना अंतरंग, पर फिर भी अनंत आकाश की ओर खुला हुआ है । ऐसा लगता हैं मानों खास हमारे लिये हीं बना हो । हमें और क्या चाहिये? हमारे मिलने के लिये यह आदर्श स्थान है । क्योंकि हम दोनों ने पूर्ण, अखण्ड मिलन प्राप्त कर लिया है जिसमें परछाई या बादलों का भी स्थान नहीं है । जो चढ़ रहे हैं उन्हें उस अशिक्षित 'सत्य' की ओर चटते रहने दो--हम दोनों को तो अपना सत्य मिल हीं गया । हमारे लिये यही काफी हैं ।

 

प्रेयसी-हां, प्रियतम । चलो, जाकर इस मकान में डेरा डालें और अपने प्रेम का रसास्वादन करें । और किसी की क्या परवाह!

 

 (दोनों एक-दूसरे क्वे गले में कहें डाले ही मकान की ओर जाते हैं !)

 

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छठा

 

 (रास्ते का अंत बहुत अधिक संकरा हो क्या है और अचानक एक बड़ी च्छान के आये आगे जाता है ! चाहना   सिर उठाकर सीधी आकाश ले बातें कर रहे है । चोटी दिखायी तक नहीं देती बायां ओर थोडी-सी समतल भूमि है  उसके पतली ओर पक छोटी-सी नीची झोपड़ी है सारा स्थान निर्जन और असर दिखता है

 

   आखिरी तीन यात्री एक साथ ना पहुंचाते हैं? संन्यासी रुकता है और बाकी दोनों को मी हशारे ले रोकता है !)

 

संन्यासी-मुझे आप दोनों सें एक बहुत आवश्यक बात कहनी है । आप सुनूंगा ? इस चढ़ाई में मैंने अपने सच्चे स्वरूप को, अपनी सच्ची 'सत्ता' को पा लिया हैं । मै 'शाश्वत' के साथ एकाकार हो गया हूं, मेरे लिये अब और किसी का अस्तित्व ही नहीं है, अब मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं रहीं । अब जो कुछ 'वह' नहीं है वह एक व्यर्थ की भांति है । तो मेरा ख्याल है कि मैं पथ के अंत पर आ पहुंचा हूं । (बायीं ओर की समतल भूमि दिखाकर) और वह देखो, यह कैसा महान् और निर्जन स्थान है । मैं अब जिस प्रकार का जीवन बिताना चाहता हूं, यह स्थान उसके ठीक अनुकूल है । मैं वहां जाकर धरती और मनुष्यों सें के , जीवित रहने के कर्तव्य से भी मुक्त होकर ध्यान कर सकूंगा ।

 

   (और कुछ कहे- विना पीछे देखे श बिदा लिये बिना हई सीधा अपनी व्यक्तिमत सिद्धि के लक्ष्य की ओर चला जाता है?

 

  साधिका और साधक अकेले रह नये हैं संन्यासी क्वे व्यवहार की भव्यता से प्रभावित होकर अहोने एक- की ओर देखा फिर तुरंत सम्यक नये ! साधिका बोल उठी:

 

 साधिका- नहीं, नहीं! यह कमी 'सत्य' नहीं हो सकता, यह पूर्ण 'सत्य' नहीं है । यह सारी विध-सृष्टि केवल श्रमजल नहीं हो सकतीं जिससे भाग खड़ा होना जरूरी हो । इसके अतिरिक्त, अभी तो हम पर्वतशिखर पर नहीं पहुंचे, अभी तो हमारी चढ़ाई खतम नहीं हुई ।

 

साधक- (रास्ता सीधी दीवार जेली विहान पर आकर खतम हो जाता है ! उसे दिखाते हुए) तैयार रास्ता तो यहां खतम हो रहा है । मेरा ख्याल है कि कोई मनुष्य इससे आगे नहीं गया । इस दीवार जैसी सीधी चट्टान पर चढ़ना तो एकदम असंभव-सा हैं । इसे पार करने के लिये हमें अपने-आप पग-पग पर रास्ता बनाना होगा । यहां बिना किसी सहायता या मार्ग-दर्शक के अपने ही प्रयास से, केवल अपने संकल्प

 

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और अपनी श्रद्धा के बल पर आगे बढ़ना होगा । निःसंदेह हमें अपना मार्ग अपने- आप हीं काटकर तैयार करना होगा ।

 

साधिका- (उत्साह के साध) कोई परवाह नहीं! चलो, बढ़े चले, हमेशा बढ़ते चालें । अभी हमारी खोज के लिये बहुत कुछ बाकी है  : इस सृष्टि के पीछे एक अर्थ है । हमें उसे खोज निकालना है ।

 

(दोनों फिर चक्र पढ़ते हैं !)

 

सातवां पड़ाव

 

   (साधक-साधिका बड़ी वीरता क्वे साथ सब विप्त-बाधाओं को पार करके आये हैं और अब दूत जोर लगाकर पूर्ण प्रकाश मे पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाते हैं यहां सब कुछ ज्योतिर्मय है  च्छान के उस संकरे इससे को छोड़कर जिस पर दोनों की मुश्किल ले खड़े हैं सब कुछ ज्योतिर्मय है !)

 

 साधक- आखिर हम शिखर पर आ पहुंचे! दमकता हुआ, चाधियानेवाला 'सत्य', उसके सिवा कुछ नहीं !

 

साधिका- और सब कुछ अदृश्य हो गया है । हम इतना परिश्रम करके जिन पीढ़ियों पर चढ़कर यहांतक पहुंचे हैं वे मी गायब हो गयीं ।

 

साधक- आगे-पीछे, इधर-उधर, चारों ओर शन्य-ही-श्ल्य है; सिर्फ पैर रखने के लिये जगह हैं, और कुछ नहीं ।

 

साधिका- अब किधर जायें? क्या करें?

 

साधक-यहां तो बस, 'सत्य'-हीं-'सत्य' हैं, चारों ओर, सब दिशाओं मे एकमात्र 'सत्य' ।

 

साधिका-लेकिन उसे प्राप्त करने के लिये अभी और मी आगे जाना होगा । और इसके लिये एक और रहस्य की खोज करनी होगी ।

 

साधक-यह स्पष्ट है कि यहां व्यक्तिगत प्रयास की संभावना तक खतम हो जाती है । अब एक और शक्ति को आकर हस्तक्षेप करना होगा ।

 

साधिका- अब 'कृपा', केवल 'कृपा' हीं काम कर सकती है । वही आगे का पथ खोल सकतीं है, वही महान चमत्कार दिखा सकती है ।

 

साधक-(क्षितिज की ओर हाथ फैलाकर) देखो, देखो उधर, दूर, उस अतल खाई के उस पार एक शिखर दिखायी देता है । कैसा अनुपम, सर्वागसुन्दर, सुषमापूर्ण, आलोकित और अद्भुत रूप सें सामंजस्यपूर्ण हैं । यह वही पुण्यभूमि है, यह वही तपोभूमि है जिसके बारे में हमें आदेश दिया गया था!

 

साधिका-हां, हमें वहीं जाना चाहिये । पर कैसे?

 

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साधक-यदि हमें वहां पहुंचना ह्वै तो हमें रास्ता भी जरूर मिल जायेगा ।

 

साधिका-हां, श्रद्धा रखनी चाहिये, 'कृपा' पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिये, भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण होना चाहिये ।

 

साधक-हां, 'भगवान् की. इच्छा' के सामने पूर्ण समर्पण की जरूरत है । जब कोई ।. रास्ता न दिखता हो तब हमें पूर्णतया निर्भय होकर, बिना किसी हिचकिचाहट के, पूरी श्रद्धा के साथ छलांग लगानी होगी ।

 

साधिका- और हमें अपने गंतव्य स्थान तक पहुंचा दिया जायेगा ।

 

(दोनों छलांम मारते हैं ??

 

उपसंहार

 

 सिट्टी

 

 (जादू-भरी ज्योति का देश)

 

साधक-लो, हम आ पहुंचे । कोई अद्भुत शक्ति अदृश्य पंखों पर यहांतक उड़ा लायी ! साधिका-(चारों ओर देखते हुए) कैसी अद्भुत ज्योति है । अब बस, नवजीवन जीना सीखना बाकी है ।

 

 (परदा गिरता है !
 

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