गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

विभूति का सिद्धांत

 

     गीता का दशम अध्याय प्रथम दृष्टि में जैसा प्रतीत होता है उसकी अपेक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण है । जो मतवाद इह-जीवन से चरम मुक्ति चाहता है और मानव आत्माको जगत् से विमुख कर, इसको सब संबंधों से विरक्तकर सुदूर, कूटस्थ, निरपेक्ष सत्ता की ओर ले जाना चाहता है, उस मतवाद को ढूँढ़ निकालने के लिए पक्षपातयुक्त दृष्टि से ही गीताके श्लोकोंको पढ़ने पर इस अध्याय का यथार्थ महत्व समझ में नहीं आ सकता । गीता का संदेश यह है कि भगवान् मनुष्य के अंदर निवास करते हैं और वे बढ़ते हुए मिलन की शक्ति के द्वारा अपने-आपको निम्नतर प्रकृति के पर्दे से बाहर प्रकट करते हैं, मानव आत्मा के सम्मुख अपनी विश्वव्यापी आत्मा को प्रकाशित करते हैं, अपनी निरपेक्ष परात्परताओ को प्रकट करते हैं, अपने-आपको मनुष्य में तथा सर्व भूतों में प्रकाशित करते हैं । यह जो मिलन एवं दिव्य योग है, यह जो मनुष्य का ईश्वर की ओर विकसित होना और ईश्वर का मानव आत्मा के अंदर तथा मानवीय अंतर्दृष्टि के सम्मुख प्रकट होना है, इसके फलस्वरूप ही हम यहाँ सीमित अहंसे मुक्त होकर दिव्य मानवता की उच्चतर प्रकृति की ओर ऊपर उठ सकते हैं । क्योंकि तीन गुणोंके मर्त्य ताने-बाने या उनकी उलझी हुई जटिलता में नहीं बल्कि इस महत्तर आध्यात्मिक प्रकृति में निवास करते हुए मनुष्य ज्ञान, प्रेम और संकल्प, तथा भगवान् के प्रति अपनी संपूर्ण सत्ताके आत्म-दान के द्वारा उनके साथ एक होकर, निःसंदेह, निरपेक्ष परात्परता की ओर उठने में और साथ ही जगत् पर कार्य करने में भी समर्थ होता है, पहले की तरह अज्ञान में नहीं वरन् परम देव के साथ व्यक्ति के यथार्थ संबंध से, आत्मा के सत्यमें, अमरत्व में कृतार्थ होकर, अब और अहंके लिए नहीं बल्कि विश्वगत ईश्वर के लिए कार्य करने के योग्य बन जाता है । अर्जुन का इस कार्यके लिए आह्वान करना, जो सत्ता और शक्ति वह है उससे तथा जिस परम सत्ता और शक्ति का संकल्प उसके द्वारा कार्य करता है उससे उसे सचेतन करना ही देहधारी भगवान् का प्रयोजन है । इस उद्देश्य के लिए ही भगवान् श्रीकृष्ण उसके सारथि हैं, इस उद्देश्य के लिए ही उसे महान् विषाद ने तथा अपने कार्यके हीनतर मानवीय प्रेरक-भावोंके प्रति

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गहरे असंतोष ने आ घेरा था; उनके स्थान पर विशालतर आध्यात्मिक प्रेरक-भावको प्रतिष्ठित करनेके लिए उसे अपने लिए नियत कर्म की महान् घड़ी में यह सत्यदर्शन प्रदान किया गया है । विश्वपुरुष का दर्शन तथा कर्मके लिये दिव्य आदेश ही वह सर्वोच्च शिखर है जिसकी ओर उसे ले जाया जा रहा था । अब वह शिखर निकट आ पहुँचा है; परंतु अभी उसे विभूतियोग के द्वारा जो ज्ञान दिया गया है उसके बिना वह शिखर अपने पूर्ण अर्थ से रिक्त ही रहता ।

 

     जगत्-सत्ता का रहस्य कुछ अंश में गीता ने प्रकट कर दिया है । कुछ अंश में ही, क्योंकि उसकी अनंत गहराइयों का संपूर्ण निरूपण भला कौन करेगा अथवा कौन मतवाद या दर्शन यह कहेगा कि जगत्-रूपी चमत्कार का समस्त मर्म उसने थोड़े से स्थान में प्रकाशित कर दिया है या एक संक्षिप्त शास्त्र में आबद्ध कर दिया है ? परंतु जहाँतक गीता के प्रयोजन के लिए आवश्यक है वहाँतक वह हमारे सामने प्रकट कर दिया गया है । भगवान् से जगत् के उत्पन्न होने का प्रकार, उसके अंदर भगवान् का अंतर्यामी-रूपसे रहना और उसका भगवान् के अंदर रहना, समस्त सत्ता का मूल एकत्व, प्रकृति के अंदर तमसाच्छन्न मानव आत्मा का परमेश्वर से संबंध, आत्मज्ञान के प्रति उसका जागरण, महत्तर चेतना में उसका जन्म, अपनी आध्यात्मिक ऊँचाइयों की ओर उसका आरोहण--यह सब हमें बता दिया गया है । परंतु जब मूल अविद्या के स्थान पर यह नयी आत्म-सृष्टि और चेतना प्राप्त हो गयी, तब भला मुक्त पुरुष की अपने चारों ओर के जगत् के विषय में क्या दृष्टि होगी, जिस जगत्-अभिव्यक्ति का प्रधान रहस्य अब उसे ज्ञात हो गया है उसके प्रति उसकी कैसी वृत्ति होगी ? सर्वप्रथम, उसे सत्ता की एकता का ज्ञान तथा उस ज्ञान की ऐक्य-दृष्टि प्राप्त होगी । वह अपने चारों ओर रहनेवाले सब भूतों को एक ही दिव्य सत्ता की आत्मा में, आकृतियों और शक्तियों के रूप में देखेगा । उसके बाद से वह दृष्टि उसकी चेतना के सभी बाह्यांतर व्यापारों का आरंभ-बिंदु होगी; वही उसकी मूल दृष्टि होगी, उसके समस्त कार्यों का आध्यात्मिक आधार होगी । वह सब वस्तुओं तथा सभी प्राणियों को एकमेव में निवास करते, चलते-फिरते तथा काम-काज करते और दिव्य एवं नित्य सत् में ही अवस्थित देखेगा । परंतु वह उस एकमेव को भी. सबका अंतर्वासी, उनकी आत्मा, उनकी अंत:स्थ मूल अध्यात्मसत्ता अनुभव करेगा; वह देखेगा कि अपनी सचेतन प्रकृति के अंदर उस एकमेव की गुप्त उपस्थिति के बिना वे न तो जी सकते थे और न किसी प्रकार की गति-चेष्टा या कार्य-व्यापार ही कर सकते थे और उसके संकल्प, शक्ति, अनुमति या मौन स्वीकृति के बिना किसी भी क्षण उनकी. एक भी चेष्टा संभव न होती । स्वयं उन्हें भी, उनकी आत्मा, मन, प्राण और भौतिक ढाँचे को भी, वह इस एक

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आत्मा और अध्यात्म-सत्ता की शक्ति, संकल्प सामर्थ्य का परिणाम-मात्र देखेगा । उसके लिये सब कुछ इस एक विश्वव्यापी सत् का ही भूतभाव होगा । उनकी चेतना को वह पूर्णतया उसकी चेतना से निकली हुई, उनके बल और संकल्प को उसकी शक्ति और संकल्प से आहरण किये हुए तथा उसीपर निर्भर और उनके आंशिक प्रकृति-प्रपंच को उसकी महत्तर दिव्य प्रकृति का परिणाम अनुभव करेगा, भले ही तात्कालिक वस्तुस्थिति में वह मन को परमेश्वर की अभिव्यक्ति मालूम पड़े या उसका छद्मरूप, उसका एक आकार प्रतीत हो या विकार । वस्तुओं का कोई भी प्रतिकूल या भ्रांति-जनक बाह्य रूप इस दृष्टि की पूर्णता को न तो जरा भी कम करेगा और न उसका विरोध ही करेगा । यह उस महत्तर चेतना का, जिसमें वह ऊपर उठा है, मुख्य आधार है, यह परमावश्यक ज्योति है, जो उसके चारों ओर खुल गयी है, तथा देखने का वह एकमात्र पूर्ण ढंग है, वह एकमात्र सत्य है जो अन्य सबको संभव कर देता है ।

 

     परंतु यह संसार परमेश्वर का केवल एक आंशिक प्राकटप है, यह केवल अपने-आप ही वह भगवान् नहीं है । भगवान् उससे अनंतगुना महान् हैं जितनी कि कोई प्रकृतिगत अभिव्यक्ति हो सकती है । अपनी अनंतता के ही कारण, उस अनंतता की पूर्ण स्वतंत्रता के कारण वे लोकों की किसी भी योजना या विश्वप्रकृति के किसी भी विस्तार में परिपूर्ण रूप से रूपायित हो जाने की समस्त संभावना से परे हैं,  भले ही यह या प्रत्येक भुवन हमें कैसा भी विशाल, जटिल, अनंतत: विविध क्यों न मालूम पड़े 'नास्ति अन्तो विस्तरस्य मे'  भले ही हमारी सांत दृष्टिको वह कितना ही अनंत क्यों न दीख पड़े । अतएव विश्व से परे मुक्त आत्मा के चक्षु इन परम भगवान् को देखेंगे । इस विश्व को वह आकारातीत भगवान् से लिये गये एक आकार, निरपेक्ष सत्ता के अंदर एक शाश्वत गौण अवस्था के रूपमें देखेगा । प्रत्येक सापेक्ष और सांत सत्ता को वह दिव्य 'निरपेक्ष', और 'अनंत'  के एक आकार के रूप में देखेगा, तथा सब सांतों से परे जाकर और प्रत्येक सांत के भीतर से होकर वह उस अनंत पर ही पहुँचेगा, प्रत्येक दृग्विषय, प्रकृतिगत जीव तथा सापेक्ष कर्म और प्रत्येक गुण तथा प्रत्येक घटना के परे सदा उसी को देखेगा; इनमें से प्रत्येक चीज को तथा उससे परे देखता हुआ वह भगवान् में ही उसका आध्यात्मिक अर्थ प्राप्त करेगा ।

 

     ये चीजें उसके मन के लिये बौद्धिक प्रत्यय नहीं होंगी, न जगत् के प्रति यह भाव केवल विचारने का एक ढंग या एक व्यावहारिक सिद्धांत ही होगा । क्योंकि, यदि उसका ज्ञान केवल प्रत्ययात्मक हो तो वह एक दार्शनिक सिद्धांत एवं बौद्धिक रचना होगी, आध्यात्मिक ज्ञान एवं दृष्टि नहीं, चेतना की आध्यात्मिक स्थिति नहीं ।

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ईश्वर और जगत्-विषयक आध्यात्मिक दृष्टि केवल विचारात्मक ही नहीं होती,  न वह प्रधानत: या प्रथमतः ही विचारात्मक होती है । वह तो एक प्रत्यक्ष अनुभूति होती है और उतनी ही सत्य, जीवंत, निकट, अविच्छिन्न, कार्यकर तथा घनिष्ठ होती है जितना कि मन के लिये आकारों, पदार्थों और व्यक्तियों का इंद्रियों द्वारा देखना और अनुभव करना । केवल स्थूल मन ही ईश्वर और आत्मा के विषय में यों सोचता है कि वे एक भावात्मक विचार हैं जिसे वह दृष्टि का विषय नहीं बना सकता और न शब्दों, नामों, प्रतीकात्मक रूपों तथा कल्पनाओं के बिना अपने सम्मुख निरूपित ही कर सकता है । आत्मा आत्मा को देखती है, दिव्यीकृत चेतना ईश्वर को वैसे ही प्रत्यक्ष रूप में तथा उससे भी अधिक प्रत्यक्ष रूप में, वैसे ही धनिष्ठ रूपमें तथा उससे भी अधिक घनिष्ठ रूप में देखती है जिस रूपमें कि शारीरिक चेतना जड़ पदार्थ को देखती है । वह भगवान् को देखती तथा अनुभव करती है, उनके विषय में सोचती तथा इंन्द्रियों के द्वारा जानती है । कारण, आध्यात्मिक चेतना को समस्त व्यक्त सत्ता आत्मा का जगत् प्रतीत होती है, जड़तत्त्व का जगत् नहीं, प्राण का जगत् नहीं, यहाँतक कि मन का जगत् भी नहीं; ये अन्य वस्तुएँ उसकी दृष्टि में केवल ईश्वर-विचार, ईश्वर-शक्ति, ईश्वर-रूप ही होती हैं । वासुदेव में ही निवास करने और कर्म करने, 'मयि वर्तते' से गीता का यही तात्पर्य है । आध्यात्मिक चेतना परमेश्वर से उस घनिष्ठ तादात्म्य-ज्ञानके द्वारा सचेतन है जो चिंत्य वस्तु के किसी भी मानसिक बोध या गोचर पदार्थ के किसी भी ऐंद्रिय अनुभव से बहुत ही अधिक वास्तविक है । उस निरपेक्ष सत् से भी, जो समस्त जगत्-सत्ता के पीछे और परे विद्यमान है और जो उसका मूल है तथा उससे अतीत है और उसके उतार-चढ़ावों से सदा के लिये पृथक् है, यह उसी प्रकार सचेतन है |  इन परमेश्वर के उस अक्षर आत्मा से भी, जो जगत् के परिवर्तनों में व्याप्त है तथा जिन्हें अपनी अपरिवर्तनशील नित्यता के द्वारा धारण करता है, यह चेतना उसी प्रकार तादात्म्य के द्वारा, अर्थात् हमारी अपनी कालातीत अपरिवर्तनशील अमर आत्मा के साथ इस आत्मा के एकत्व के द्वारा, सचेतन है । और फिर यह उस दिव्य पुरुष से भी उसी प्रकार सचेतन है जो इन सब पदार्थों और व्यक्तियों में अपने-आपको जानता है और अपनी चेतना में सभी पदार्थों और व्यक्तियों का रूप धारण करता है और अपने अंतर्निहित संकल्प के द्वारा उनके विचारों और रूपों को गढ़ता है तथा उनके कार्यों का परिचालन करता है । निरपेक्ष ईश्वर से, आत्मा, अध्यात्मसत्ता, अंतरात्मा और प्रकृति के रूप में विद्यमान ईश्वर से यह घनिष्ठ रूप में सचेतन है । यहाँतक कि इस बाह्य प्रकृति को भी यह तादात्म्य तथा आत्म-अनुभव के ही द्वारा जानती

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है, पर उस तादात्म्य के द्वारा जो सत्ता की एकमात्र शक्ति के विभेदों तथा संबंधों को और उसके महत्तर तथा हीनतर कोटिके कार्यों को स्वतंत्रतापूर्वक स्वीकार करता है । क्योंकि, प्रकृति ईश्वर की नानाविध आत्म-विभूति की शक्ति है ।

 

     परन्तु जगत्-सत्ता-विषयक यह अध्यात्म-चेतना इस संसार में प्रकृति को उस प्रकार नहीं देखेगी जिस प्रकार मनुष्य का सामान्य मन उसे अज्ञान में देखता है, न यह उसे केवल उस रूप में ही देखेगी जैसी कि यह अज्ञान के परिणामों  बीच में है । इस प्रकृति की जो चीज अज्ञानात्मक है, जो चीज अपूर्ण या दुःखदायक या विकृत और घृणाजनक है, वह परमेश्वर की प्रकृति के सर्वथा विपरीत वस्तु नहीं है, वरन् उसका मूल उसके पीछे वर्तमान किसी वस्तु में है, आत्मा की किसी रक्षक शक्ति में है, जिसमें वह अपनी सच्ची सत्ता तथा सार्थकता प्राप्त कर सकती है । एक आद्या सर्वजननी परा प्रकृति है जिसमें भागवत शक्ति एवं आत्म-प्रकाश का संकल्प अपने निजी निरपेक्ष स्वरूप और शुद्ध प्राकटच का उपभोग करता है । वहाँ, संसारमें हम जितनी भी शक्तियां देखते हैं उन सबसे उच्च एवं पूर्ण शक्ति पायी जाती है । वही हमारे सामने परमात्मा की आदर्श प्रकृति, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण शक्ति एवं संकल्प, पूर्ण प्रेम और आनंद की प्रकृति के रूप में उपस्थित होती है । उसके गुण और शक्तिके सब अनंत प्रभेद, 'अनन्त-गुण, अगणन-शक्ति,' वहाँ इस परिपूर्ण प्रज्ञा, संकल्प, शक्ति, आनंद और प्रेम के ऐसे स्वतंत्र आत्म-रूपायन हैं जो अद्भुत रूप से विविध हैं तथा स्तुत्य और सहज-स्वाभाविक रूप से सुसंगत हैं । वहाँ सब कुछ अनंतताओं की एक बहुमुखी अबाधित एकता है । आदर्शभूत दिव्य प्रकृति में प्रत्येक शक्ति एवं प्रत्येक गुण अपने कार्य में शुद्ध, पूर्ण, आत्म अधिकृत तथा समस्वर है; वहाँ कोई भी चीज अपनी पृथक् सीमित स्वचरितार्थता के लिए चेष्टा नहीं करती, सब एक अवर्णनीय एकत्वमें कार्य करते हैं । वहाँ सब धर्म, सत्ता के सब विधान-धर्म, सत्ताका विधान, दिव्य शक्ति और गुणका, 'गुण-कर्म' का, केवल एक विशेष व्यापार है,--एक ही स्वतंत्र और नमनशील धर्म है । सत्ता की वह एकमात्र दिव्य शक्ति  अपरिमेय स्वतंत्रता के साथ कार्य करती है और, किसी एक ही ऐकांतिक नियम से न बंधी रहकर, किसी बांधनेवाली प्रणाली से सीमित न रहते हुए, अनंतता की अपनी निजी क्रीड़ामें आनंद लेती है और आत्म-अभिव्यक्ति के अपने सदा-पूर्ण सत्य से कभी नहीं डगमगाती ।

 

    परंतु जिस संसार में हम रहते हैं उसमें चुनाव ज़ौर विभेदन का पृथक्कारी तत्त्व विद्यमान है । यहाँ हम यह देखते हैं कि प्रत्येक शक्ति एवं प्रत्येक गुण,

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, तपस्, चित्-शक्ति |

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जो अभिव्यक्ति के लिये सामने जा आता है, मानो अपने ही अधिकार के लिये चेष्टा कर रहा है, जिस भी तरह से हो सके, यथासंभव अधिक-से-अधिक स्व-अभिव्यक्ति प्राप्त करने का यत्न कर रहा है और उस यत्न को अन्य शक्तियों तथा गुणों के अपनी पृथक् स्व-अभिव्यक्ति के लिए किये गये सहचारी या प्रतिस्पर्धी प्रयत्न के साथ जैसे-तैसे, यथासंभव अच्छे-से-अच्छे या बुरे-से-बुरे ढंग से अनुकूल बना रहा है । परम आत्मा, भगवान् इस संघर्षरत विश्व-प्रकृति में निवास करते हैं तथा आभ्यंतरिक गुप्त एकत्व के उस अविच्छेद्य नियम के द्वारा, जिसपर इन सब शक्तियों का कार्य आधारित है, इसमें एक विशेष प्रकार की समस्वरता स्थापित करते हैं । परंतु वह एक सापेक्ष समस्वरता है जो मूल विभाजन का परिणाम प्रतीत होती है और मूल एकत्व से नही, बल्कि विभाजनों के आघात से प्रकट होती तथा उसीके सहारे स्थित रहती हुई दिखायी देती है । अथवा, कम-से-कम ऐसा प्रतीत होता है कि एकत्व दबा और सोया हुआ है, तथा अपने-आपको प्राप्त नहीं करता, अपने चकरानेवाले छद्मवेशों को कभी भी उतार नहीं फेंकता । और, सचमुच ही वह अपने-आपको तबतक नहीं ढूँढ़ पाता जबतक इस जगत्-प्रकृति में विद्यमान व्यक्ति अपने अंदर उस उच्चतर दिव्य प्रकृति को नहीं खोज लेता जिससे कि यह हीनतर गति उत्पन्न हुई है । तो भी, इस संसार में कार्यरत गुण और शक्तियाँ, जो मनुष्य, पशु, पौधे तथा जड़ पदार्थ में नाना प्रकार से क्रिया कर रही हैं, सदा ही दिव्य गुण और शक्तियाँ हैं, भले ही वे कोई भी रूप क्यों न धारण करें । सभी शक्तियों और गुण परमेश्वर की ही शक्तियाँ हैं । प्रत्येक उनकी दिव्य प्रकृति से उद्भूत होती है, यहाँ निम्नतर प्रकृति में अपनी स्व-अभिव्यक्ति के लिए कार्य करती है, इन बाधक अवस्थाओं में अपने ख्यापन तथा संसिद्ध मूल्यों की सामर्थ्य बढ़ाती है और, जैसे ही यह अपनी स्व-शक्ति के शिखरों पर पहुँचती है, यह भगवान् के प्रत्यक्ष प्रकटीकरण के निकट आ जाती है और अपने-आपको परमोच्च, आदर्श दिव्य प्रकृति में निहित अपने निरपेक्ष रूप की ओर उत्प्रेरित करती है । क्योंकि, प्रत्येक शक्ति परमेश्वर की ही अंशसत्ता और शक्ति है, इसलिए शक्ति का विस्तार तथा स्व-प्राकटच सदा परमेश्वर का ही विस्तार एवं प्राकट्य होता है ।

 

     कोई यहाँतक कह सकता है कि अपनी तीव्रता के एक विशेष स्थल पर हमारे अंदर की प्रत्येक शक्ति, ज्ञान की शक्ति, संकल्प की शक्ति, प्रेम की शक्ति, आनंद की शक्ति एक ऐसा विस्फोट उत्पन्न कर सकती है जो निम्नतर रूप-रचना के आवरण को छिन्न-भिन्न कर डालता है और उस शक्ति को उसकी पृथक्कारी क्रिया से हटाकर दिव्य पुरुष की अनंत स्वतंत्रता और शक्ति के साथ उसके एकत्व

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में मुक्त कर देता है । एक सर्वोच्च भगवन्मुख प्रयास मन को ज्ञान की एक परिपूर्ण दृष्टि के द्वारा मुक्त कर देता है, हृदय को परिपूर्ण प्रेम और आनंद के द्वारा मुक्त कर देता है, संपूर्ण सत्ता को एक महत्तर सत्ता की ओर जाने के संकल्प की पूर्ण एकाग्रता के द्वारा मुक्त कर देता है । परंतु यह आघात तथा मुक्तिदायक प्रेरणा तो हमारी वर्तमान प्रकृति पर भगवान् के उस स्पर्श के द्वारा ही प्राप्त होते हैं जो शक्ति को उसकी सामान्य सीमित भेदमूलक क्रिया तथा उद्देश्यों से विमुख कर सनातन, विराट् और विश्वातीत की ओर अभिप्रेरित करता है, अनंत तथा परिपूर्ण ब्रह्म की ओर फेर देता है । सत्ता को दिव्य शक्ति की सक्रिय सर्वव्यापकता का यह सत्य ही विभूति के सिद्धांत का मूल स्तंभ है ।

 

   अनंत दैवी शक्ति सर्वत्न विद्यमान है और इस नीचे के जगत् को गुप्त रूप से धारण करती है, 'परा प्रकृतिमें यया धार्यते जगत्,',  परंतु वह अपने-आपको तबतक पीछे की ओर, प्रत्येक प्राकृतिक सत्ता के हृदय में, 'सर्वभूतानां ह्रूद्देशे', छिपाये रखती है जबतक कि ज्ञान की ज्योति के द्वारा योगमाया का पर्दा नहीं फट जाता । जीव, अर्थात् मनुष्य की आध्यात्मिक सत्ता दिव्य प्रकृति से युक्त है । वह दिव्य-प्रकृति-युक्त ईश्वर की अभिव्यक्ति है, 'परा प्रकृतिर्जीवभूता', और उसके अंदर सभी दिव्य शक्तियाँ और गुण, परमात्मा की ज्योति, शक्ति और तपस् प्रसुप्त रूप में निहित हैं |  परंतु इस अपरा प्रकृति में, जिसमें हम रहते हैं, जीव चुनाव और सांत निर्धारण के सिद्धांत का अनुसरण करता है, और यहाँ जन्म में जो शक्ति-धारा, जो गुण या आध्यात्मिक तत्त्व वह अपने साथ लाता है या अपने आत्म-प्राकटय के बीज के रूप में प्रस्तुत करता है वह उसके स्वभाव का क्रियाशील अंश, उसकी आत्म-संभूति का नियम बन जाता है और उसके स्वधर्म अर्थात् कर्म के नियम का निर्धारण करता है । और, यदि यही सब कुछ होता तो कोई कठिनाई या परेशानी न होती; मनुष्य का जीवन भगवान् का ज्योतिर्मय विकास होता । परंतु हमारे जगत् की यह निम्नतर शक्ति अज्ञान, अहंभाव और तीन गुणों की प्रकृति है । क्योंकि यह अहंभाव की प्रकृति है, जीव अपनेको पृथक्कारी अहं समझता है वह अहंभावमय ढंग से, दूसरों की पृथक्कारी अस्तित्व-इच्छा के साथ संघर्ष तथा संसर्ग में आनेवाली एक पृथक्कारी अस्तित्व-इच्छा के रूप में, अपनी आत्म-अभिव्यक्ति साधित करता है । वह जगत् को संघर्ष के द्वारा अधिकृत करने का यत्न करता है, एकता और समस्वरता के द्वारा नहीं; वह अहं-केन्द्रिक विरोध-वैषम्य पर बल देता है । क्योंकि यह अज्ञान, अंध अवलोकन तथा अपूर्ण या आंशिक आत्म-अभिव्यक्ति की प्रकृति है, वह अपने-आपको नहीं

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१. ७-५

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जानता, अपनी सत्ता का नियम नहीं जानता, बल्कि अंधप्रेरणावश उसका अनुसरण करता है, जगत्-शक्ति की ठीक तरह से न समझी हुई प्रेरणा के अनुसार, संघर्ष-पूर्वक, अत्यधिक अंतर्विरोध के साथ, च्युत होने को बहुत ही बड़ी संभावना के साथ उसका अनुसरण करता है |  क्योंकि यह तीन गुणों की प्रकृति है, यह अस्तव्यस्त और आयासशील स्वाभिव्यक्ति अक्षमता, विच्युति या आंशिक आत्म-उपलब्धि के नानाविध रूप ग्रहण करती है । तमोगुण अर्थात् अंधकार और जड़ता के गुण के वशीभूत होकर सत्ता की शक्ति दुर्बलतापूर्ण अस्तव्यस्तता, प्रबल अक्षमता, अज्ञान की शक्तियों की अंध यांत्निकता के प्रति अभीप्सा-रहित अधीनता के साथ कार्य करती है । रजोगुण अर्थात् कर्म, कामना और अधिकार के गुण की प्रबलता होने पर संघर्ष तथा प्रयास देखने में आता है, शक्ति-सामर्थ्य का विकास होता है, परंतु वह (विकास ) स्खलनशील, दुःखदायी तथा उग्र होता है; अशुद्ध धारणाओं, पद्धतियों तथा आदर्शों के कारण पथभ्रांत हो जाता है; ठीक धारणाओं, पद्धतियों या आदर्शों का दुरुपयोग करने, उन्हें बिगाड़ने तथा उलटा कर देने की ओर प्रेरित होता है, और विशेषकर, अहंभाव के बहुत अधिक और प्रायः ही विराट् अतिरंजन की ओर प्रवृत्त होता है । सत्त्वगुण अर्थात् प्रकाश, संतुलन और शांति के गुण की प्रबलता होने पर अधिक सामंजस्यपूर्ण कार्य और प्रकृति के साथ यथोचित व्यवहार होता है, पर वह व्यवहार वैयक्तिक ज्योति की तथा इस निम्नतर मानसिक संकल्प और ज्ञान के अधिक अच्छे रूपों का अतिक्रमण करने में असमर्थ शक्ति की सीमाओं के भीतर ही उचित होता है । इस उलझन से छुटकारा पाना, अज्ञान, अहंता और त्रिगुण से परे उठ जाना दिव्य पूर्णता की ओर पहला यथार्थ कदम है । ऐसे अतिक्रमण से ही जीव अपनी दिव्य प्रकृति तथा सच्ची सत्ता प्राप्त करता है ।

 

    आध्यात्मिक चेतना में विद्यमान मुक्त ज्ञान-चक्षु जगत् पर दृष्टिपात करते हुए केवल इस संघर्षशील निम्नतर प्रकृति को ही नहीं देखते हैं । यदि हम अपनी तथा दूसरों, की प्रकृति के दृश्यमान बाह्य-तथ्य को ही देखते हैं तो अज्ञान की आँख से देखते हैं और सबमें, सात्विक, राजसिक तथा तामसिक प्राणी में, देव और दानव में, संत और पापी में, ज्ञानी और अज्ञानी में, बड़े और छोटे में, मनुष्य, पशु, वनस्पति तथा जड़ सत्ता में समान रूप से ईश्वर को नहीं जान सकते । मुक्त दृष्टि तो प्राकृतिक सत्ता के संपूर्ण गुह्य सत्य के रूप में एकसाथ तीन वस्तुओं को देखती है । प्रथमत: और प्रधानत: वह दृष्टि सबमें दिव्य प्रकृति को गुप्त, उपस्थित तथा विकास के लिए प्रतीक्षा करते हुए देखती है;  वह उसे सब वस्तुओं में विद्यमान वास्तविक शक्ति के रूप में देखती है, एक ऐसी शक्ति के रूप में जो विभिन्न गुण

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और शक्ति के इस समस्त प्रतीयमान व्यापार को उसका मूल्य प्रदान करती है, और गुण एवं शक्ति-रूपी इन दृग्विषयो के अर्थ का अनुशीलन वह इनकी अपनी अहंता और अज्ञान की भाषा में नहीं बल्कि दिव्य प्रकृति के प्रकाश में करती है । इसलिए, दूसरे नंबर पर, वह. देव और राक्षस, मनुष्य, पशु, पक्षी और सरीसृप, सज्जन और दुर्जन, मूर्ख और विद्वान् में प्रतीयमान कार्य के भेदों को भी देखती है, पर इन अवस्थाओं में, इन आवरणों की ओट में होते हुए दिव्य गुण और शक्ति के व्यापार के रूप में ही । वह आवरण से भ्रांत नहीं हो जाती, बल्कि प्रत्येक आवरण के पीछे परमेश्वर को पहचान सकती है !  वह विकृति या अपूर्णता को देखती है, पर उसे भेद कर उसके पीछे विद्यमान आत्मा के सत्य तक जा पहुँचती है, इतना ही नहीं, बल्कि वह उसे उस विकृति एवं अपूर्णता में भी ढूँढ़ निकालती है जो अपने-आपसे अंधी बनी हुई है, अपने स्वरूप को पाने के लिए संघर्ष कर रही है, स्व-अभिव्यक्ति और अनुभूति के अनेक रूपों के द्वारा अपनी आत्मा के पूर्ण ज्ञान, अपने अनंत और चरम रूप पर पहुँचने के लिए अंधवत् टटोल रही है ।  मुक्त दृष्टि विकृति और अपूर्णता पर अनुचित बल नहीं देती, बल्कि सबको, हृदय में पूर्ण प्रेम और उदारता, बुद्धि में पूर्ण समझ तथा आत्मा में पूर्ण समता रखते हुए, देखने में समर्थ होती है । अंत में, वह संभूति-संकल्प की प्रयासकारी शक्तियों के ईश्वर की ओर ऊर्ध्वमुख-संवेग को देखती है; शक्ति और गुण की सभी उच्च अभिव्यक्तियों को, देवत्व की जाज्वल्यमान जिह्वाओं को, निम्नतर प्रकृति के स्तरों से समुज्जवल प्रज्ञा और ज्ञान, महान् शक्ति, सामर्थ्य, क्षमता, साहस, वीरता, प्रेम और आत्म-दान के सदय माधुर्य, उत्साह और गौरव, उत्कृष्ट सद्गुण, श्रेष्ठ कर्म, मोहक सुषमा तथा समस्वरता, सुन्दर तथा दिव्य सृजन के शिखरों की ओर ऊपर उठी हुई अपनी प्रखरताओं से युक्त आत्मा, मन और प्राण की आरोही महानताओं को वह सम्मानित, अभिनंदित और प्रोत्साहित करती है । आत्मिक चक्षु महान् विभूति के अंदर मनुष्य के उदीयमान देवत्व को देखता और उसे पहचान लेता है ।

 

      उसका वह पहचानना परमेश्वर को शक्ति के रूप में पहचानना होता है, पर शक्ति यहाँ अपने व्यापकतम अर्थ में अभिप्रेत है, अर्थात् केवल बल-सामर्थ्य ही नही, बल्कि ज्ञान, संकल्प, प्रेम, कर्म, पवित्रता, मधुरता तथा सुन्दरता की शक्ति के अर्थ में भी । भगवान् सत्ता, चेतना और आनंद हैं,  और इस जगत् में सब बस्तुएँ अपने-आपको व्यक्त करती हैं और फिर सत्ता की शक्ति तथा चेतना एवं आनंद की शक्ति के द्वारा अपना स्वरूप पुन: प्राप्त कर लेती हैं; यह दिव्य शक्ति के कार्यों का जगत् है । वह शक्ति यहाँ अपने-आपको असंख्य प्रकार के

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भूतों में रूपान्वित करती है और उनमें से प्रत्येक के अंदर उसकी शक्ति की निजी विशिष्ट शक्तियाँ हैं । प्रत्येक शक्ति उस रूप के अंदर विद्यमान स्वयं भगवान् ही हैं, जैसे हरिणी में वैसे ही सिंह में, जैसे देव में वैसे ही दानव में, जैसे भूतल पर रहनेवाले विचारशील मनुष्य में वैसे ही आकाश में जगमगानेवाले अचेतन सूर्य में वे ही विद्यमान हैं । त्रिगुण के द्वारा उत्पन्न विकार वास्तव में मुख्य नहीं, बल्कि गौण रूप है; मुख्य वस्तु तो वह दिव्य शक्ति है जो आत्म-अभिव्यक्ति को प्राप्त कर रही है । भगवान् ही अपने-आपको महान् मनीषी, वीर, जननायक, महान् गुरु, ज्ञानी, पैगम्बर, धर्म-संस्थापक, संत, मानवप्रेमी, महाकवि, महान् कलाकार, महान् वैज्ञानिक, तप-परायण आत्म-वशी, वस्तुओं, घटनाओं तथा शक्तियों को वश में करनेवाले मनुष्य में प्रकट करते हैं । स्वयं वह कृति भी, वह उच्च काव्य, सौन्दर्य का पूर्ण रूप, गभीर प्रेम, उदात्त कर्म, दिव्य उपलब्धि ईश्वर की ही गति होती है; वह अभिव्यक्तिगत भगवान् ही होती है ।

 

    यह एक ऐसा सत्य है जिसे सब प्राचीन संस्कृतियाँ स्वीकृत और समादृत करती थीं, परंतु आधुनिक मन के एक पार्श्व को इस विचार के प्रति अपूर्व घृणा है, वह इसमें निरे शक्ति-सामर्थ्य की पूजा, अज्ञानपूर्ण या आत्म-पतनकारी वीर-पूजा या आसुरी अतिमानव के सिद्धांत को ही देखता है । निःसंदेह, जैसे सभी सत्यों को ग्रहण करने का एक अज्ञानमय तरीका है वैसे ही इस सत्य को ग्रहण करने का भी एक अज्ञानमय तरीका है; परंतु प्रकृति की दिव्य नियम-व्यवस्था में इसका अपना एक विशेष स्थान है, एक अनिवार्य कार्य है । गीता इसे उस समुचित स्थान में तथा उस दृष्टि-बिन्दु से हमारे सामने रखती है । इसे सब मनुष्यों तथा सब प्राणियों में विद्यमान दिव्य आत्मा के प्रत्यभिज्ञान पर आधारित होना होगा; बड़ी और छोटी, प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध सब अभिव्यक्तियों के साथ इसे हार्दिक समभावपूर्वक सुसंगति रखनी होगी । अज्ञानी, दीन, दुर्बल, पापी तथा पतित-सभी में ईश्वर को देखना और प्रेम करना होगा । स्वयं विभूति में भी जिस सत्ता को इस प्रकार स्वीकृत तथा सम्मानित करना होगा वह बाह्य व्यक्ति नहीं, बल्कि वे एकमात्र देवाधिदेव हैं जो अपने-आपको उस शक्ति में प्रकट करते हैं, हाँ, प्रतीक-रूप में व्यक्ति की स्वीकृति और सम्मान एक अलग बात है । परंतु यह बात इस तथ्य को रद्द नहीं कर देती कि अभिव्यक्ति में एक चढ़ती हुई शृंखला है और प्रकृति अपनी आत्म-अभिव्यक्ति के क्रमों में अपने अंधान्वेषी, अंधकारमय या अप्रकाशित प्रतीकों से परमेश्वर की प्रथम गोचर अभिव्यक्तियों की ओर ऊपर आरोहण करती है । प्रत्येक महान् सत्ता, प्रत्येक महान् प्राप्ति उसकी स्व-अतिक्रमण की शक्ति का चिह्न है और साथ ही चरम-

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परम अतिक्रमण का आश्वासन है । स्वयं मनुष्य भी पशु. तथा उदरसर्पी जीवों की अपेक्षा प्राकृतिक अभिव्यक्ति का एक उच्चतर सोपान है, यद्यपि दोनों में वही एक 'समं ब्रह्य' विद्यमान है । परंतु मनुष्य अभी अपने स्व-अतिक्रमण के उच्चतम शिखरों पर नहीं पहुँचा है और इस बीच उसके अंदर निहित अस्तित्व-संकल्प की महान् शक्ति के प्रत्येक इंगित को आश्वासन और संकेत मानना होगा । जब हम उन महान् मार्गदर्शकों के पद-चिह्नों की ओर दृष्टिपात करते हैं, जो उसे उपलब्धि के चाहे किसी भी सोपान से अतिमानवता की ओर ले जाते हैं या संकेत करते हैं, तो मनुष्य में, सभी मनुष्यों में अवस्थित देवत्व के लिये हमारा सम्मान कम नहीं होता, बल्कि बढ़ता ही है और साथ ही उसे एक अधिक समृद्ध अर्थ भी प्राप्त होता है ।

 

     स्वयं अर्जुन भी एक विभूति है; वह आध्यात्मिक विकास में एक उच्चता-प्राप्त मनुष्य है, अपने सम-सामयिकों के समुदाय में एक विख्यात व्यक्ति, मानव-जाति में विराजमान ईश्वर, भगवन्नारायण का चुना हुआ यंत्र है । एक स्थान पर भगवान् गुरु सबके परम तथा सम आत्मा के रूप में बोलते हुए घोषित करते हैं कि न कोई मेरा प्रिय है न द्वेष्य, पर अन्य स्थानों पर वे कहते हैं कि अर्जुन उनका प्रिय और भक्त है और इसलिए वह उनके द्वारा परिचालित तथा उनके हाथों में सुरक्षित है, दिव्य दर्शन तथा ज्ञान के लिए चुना हुआ है । यहाँ असंगति केवल ऊपरी है । विश्व के आत्मा के रूप में वह शक्ति सबके प्रति सम है, अतएव प्रत्येक मनुष्य को वे उसकी प्रकृति के व्यापारों के लिए तदनुसार प्रदान करते हैं; किन्तु पुरुषोत्तम का मनुष्य के साथ वैयक्तिक सम्बन्ध भी है जिसमें वे उस व्यक्ति के लिए विशेष रूप से निकट हैं जो उनके पास पहुँच गया है । ये सब शूरवीर और महारथी जो कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध में सम्मिलित हुए हैं भगवत्संकल्प के वाहन हैं और प्रत्येक के द्वारा वे उसकी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं पर उसके अहं के पर्दे की ओट में ही । अर्जुन उस स्थल पर पहुँच गया है जहाँ आवरण को विदीर्ण किया जा सकता है तथा देहधारी भगवान् अपनी विभूति के सम्मुख अपनी कार्यशैली का रहस्य प्रकाशित कर सकते हैं । इतना ही नहीं, बल्कि सत्य का दर्शन कराना आवश्यक भी है । वह एक महान् कर्म का यंत्न है, ऐसे कर्म का जो देखने में तो भीषण है पर मानवजाति की यात्रा में आगे की ओर एक लंबा कदम उठाने के लिए तथा धर्मराज्यॠत और सत्य के राज्य के संस्थापनार्थ किये जानेवाले उसके संघर्ष में एक निर्णायक गतिविधि के लिए आवश्यक है । मानव के युग-चक्रों का इतिहास मानवता के अंतरात्मा और जीवन में परमेश्वर को निरावृत करने के लिए होनेवाला एक क्रम-विकास है; उसकी प्रत्येक महान्

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घटना और अवस्था एक दिव्य अभिव्यक्ति है । गुप्त इच्छाशक्ति के प्रधान यंत्न, महान् नायक अर्जुन को वह महान् कर्म सचेतन रूप से, भगवान् के कार्य के रूपमें करनेके योग्य दिव्य मानव बनना होगा । इस प्रकार करने से ही वह कर्म आन्तरात्मिक रूप से सजीव बन सकता है तथा अपना आध्यात्मिक महत्त्व और अपने गुप्त अर्थ की ज्योति एवं शक्ति प्राप्त कर सकता है । उसे आत्म-ज्ञान के लिए आह्वान प्राप्त हुआ है; उसे ईश्वर को विश्व के स्वामी तथा जगत् के प्राणियों और घटनाओं के मूल के रूप में तथा सबको प्रकृति के अन्दर परमेश्वर की आत्म-अभिव्यक्ति के रूप में देखना होगा, सबके अन्दर ईश्वर को देखना होगा, अपने अन्दर मानव तथा विभूति के रूप में ईश्वर को ही अनुभव करना होगा, सत्ता की निचाइयों में तथा उसकी ऊँचाइयों पर, उच्च-से-उच्च शिखरों पर ईश्वर को ही देखना होगा, उसे मनुष्य को भी ऊँचाइयों पर विभूति के रूप में, तथा परम मोक्ष और मिलन में अंतिम शिखरों की ओर आरोहण करते हुए देखना होगा । अपने उत्पत्ति और संहार के कर्ममें अपने पग रखते हुए काल को भी उसे परमेश्वर को मूर्त्ति के रूप में देखना होगा,--ऐसे पग जो सृष्टि के उन विकास-चक्रों को पूरा करते हैं जिनकी गति के आवर्तों पर मानव-देह में अवस्थित दिव्य आत्मा जगत् में ईश्वर की विभूति के रूप में उनका कार्य करता हुआ परमोच्च परात्परताओं की ओर उन्नीत हो जाता है । यह ज्ञान प्रदान कर दिया गया है; भगवान् का काल-रूप अब प्रकट किया जाना है और उस रूप के कोटि-कोटि मुखों से मुक्त-विभूति के सम्मुख नियत कर्म के लिए आदेश नि:सृत होनेवाला है ।

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