श्री माताजी के विषय में

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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Mother Vol. 25 496 pages 1972 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्री माताजी के विषय में 439 pages 1973 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Shyam Sunder Jhunjhunwala
  Ravindra
Part I by Shyam Sundar Jhunjhunwala, Part II by Jagannath Vedalankar, Part III by Ravindra  PDF    LINK

१०

 

कठिनाइयों में माताजी की सहायता

 

 विजय का आश्वासन

 

इस विषय में निस्सदिग्ध रहो कि तुम्हें इस पथ पर ले जाने के लिये माताजी सदा तुम्हारे साथ रहेंगी । कठिनाइयां आती हैं और चली जाती हैं, पर, माताजी हैं तो विजय सुनिश्चित है ।

 

१८-७-११३६ 

 

*

 

जो मार्ग तुमने अब अपनाया है-सभी परिस्थितियों में माताजी को दृढ़ता से पकड़े रहना और किसी भी चीज के द्वारा अपने को उस पथ से विचलित न होने देना-वह तुम्हें कठिनाइयों का सच्चा हल प्राप्त करा देगा। कारण, ऐसा प्रतीत होता है कि चैत्य पुरुष ने तुम्हारे अंदर अपना काम शुरू कर दिया है ।

 

२४-१२-११३५

 

*

 

अटल रहो और एक ही दिशा में-माताजी की ओर मुडे रहो ।

 

अवतरण और कठिनाइयां

 

क्या यह सच है कि अतिमानस का अवतरण जितना ही पास आता जायेगा उतना ही उन लोगों की कठिनाइयां अधिक बढ़ती जायेगी जिनमें उसे सबसे पहले उतरना है?

 

यह सच है, जबतक कि वे माताजी के प्रति इतने समर्पित, इतने चैत्यमय, इतने नमनीय और अहंमुक्त ही न हों कि उन्हें कठिनाइयों से बरी कर दिया जाये |

३१४ 


श्रीमां की क्रिया में विश्वास

 

समस्त बाह्य रूपों के पीछे होनेवाली श्रीमां की क्रिया में तुम्हें अटल विश्वास बनाये रखना चाहिये, और फिर तुम देखोगे कि वह विश्वास तुम्हें पथ पर सीधे लिये जा रहा है ।

 

३१ - ८ - १९३५ 

 

*

 

सब कुछ माताजी पर छोड़ देना, पूर्ण रूप से उन्हीं पर भरोसा रखना और उन्हें लक्ष्य की ओर ले जानेवाले पथ पर अपने को ले जाने देना ही समुचित मनोभाव है ।

 

२ - ३ - ११३६ 

 

*

 

कोई आदमी केवल अपनी ही शक्ति या अच्छे गुणों के द्वारा दिव्य रूपांतर नहीं प्राप्त कर सकता; केवल दो चीज़ें हैं जिनका मूल्य है : कार्य करनेवाली माताजी की शक्ति और उनकी ओर खुले रहने का साधक का संकल्प तथा उनकी क्रिया पर विश्वास । अपने संकल्प और विश्वास को बनाये रखो और बाकी चीजों की परवाह मत करो -वे केवल कठिनाइयां हैं जो साधना में सबके सामने आती हैं ।

 

१३ -५ - ११३६  

 

*

 

यदि चैत्य पुरुष की प्रकृति जाग्रत् हो जाये, अपने पीछे विद्यमान माताजी की चेतना और शक्ति के द्वारा तुम्हारा पथप्रदर्शन करे तथा तुम्हारे अंदर काय करे तो कुछ भी असंभव नहीं है ।

 

११ - १० - ११३५ 

 

*

 

यदि कोई माताजी में पूरा विश्वास बनाये रखे ओर अपनी चैत्य सत्ता को खोले रखे तो माताजी की शक्ति सब कुछ करेगी और मनुष्य का बस इतना ही काम होगा कि वह अपनी अनुमति दे, अपने को खोले रखे और अभीप्सा करे ।

 

१२ - ११ - ११३५

 

*

३१५ 


पश्चात्ताप के द्वारा सब दोषों और मूलों से छुटकारा मिल जाता है । माताजी पर भरोसा, उनके प्रति आत्मदान -इन्हें यदि तुम बढ़ाओ तो ये तुम्हारी प्रकृति में परिवर्तन ले आयेंगे । 

 

प्रगति चाहे तेज हो या धीमी, सर्वदा साधक का मनोभाव होना चाहिये माताजी पर सच विश्वास और भरोसा । जिस तरह तुम यह समझते हो कि प्रगति तुम्हारे अपने प्रयास या गुण का परिणाम नहीं थी, बल्कि तुम्हारे माताजी पर भरोसा रखने के समुचित मनोभाव तथा माताजी की शक्ति की क्रिया का परिणाम थी, ठीक उसी तरह तुम्हें यह नहीं समझना चाहिये कि कोई धीमापन या कठिनाई तुम्हारे अपने दोष के कारण थी, बल्कि भरोसा रखने के इस मनोभाव को ही बनाये रखने की कोशिश करनी चाहिये और माताजी की शक्ति को कार्य करने देना चाहिये - धीरे हो या तेजी से, उससे कुछ आता- जाता नहीं ।

 

१४ - ११- १९३५

 

*

 

नहीं । संभवत: यह ऐसा इसलिये लगता है कि प्राण-चेतना या भौतिक चेतना के कुछ अंश ने इसे ऐसा ही रूप दिया है । यह पथ रेगिस्तान नहीं है और न तुम अकेले ही हो, क्योंकि श्रीमां तुम्हारे साथ हैं ।

 

२ - ११ - ११३३

 

श्रीमां का निश्चित मनोभाव

 

श्रीमाताजी कभी भविष्य की कठिनाइयों, पतनों या विपत्तियों की बात नहीं सोचतीं । उनका ध्यान सर्वदा एकाग्र होता है प्रेम और प्रकाश पर, कठिनाइयों और अधः पतनों के ऊपर नहीं ।

 

*

 

माताजी उच्चतर सद्वस्तु को जगत् में ले आती हैं -उसके बिना बाकी सब कुछ अज्ञानपूर्ण और मिथ्या है ।

 

३ - ८ - ११३४

३१६


सर्वदा करने लायक एक चीज

 

एक बार जब मनुष्य योगमार्ग में प्रवेश कर जाता है तब उसे केवल एक ही चीज करनी होती है -उसे दृढ़ता के साथ यह निश्चय करना होता है कि चाहे जो कुछ भी क्यों न हो, चाहे जो भी कठिनाइयां क्यों न उठ खड़ी हों, मैं अंत तक अवश्य जाऊंगा । सच पूछा जाये तो कोई भी मनुष्य अपने निजी सामर्थ्य के द्वारा योग में सिद्धि नहीं प्राप्त करता -सिद्धि तो उस महत्तर शक्ति के द्वारा आती है जो तुमसे ऊपर आसीन है - और समस्त अवस्था-विपर्ययों में से गुजरते हुए, लगातार उस शक्ति को पुकारते रहने से ही वह सिद्धि आती है । उस समय भी, जब कि तुम सक्रिय रूप से अभीप्सा नहीं कर सकते, सहायता के लिये श्रीमां की ओर मुडे रहो -यही एकमात्र चीज है जिसे सर्वदा करना चाहिये ।

 

३ - १ - ११३४

 

कठिनाई में श्रीमां की शक्ति पर विश्वास

 

बस आवश्यकता है अध्यवसाय की -निरुत्साहित हुए बिना आगे बढ़ते जाने की और यह स्वीकार करने की कि प्रकृति की प्रक्रिया तथा श्रीमां की शक्ति की क्रिया कठिनाई के भीतर से भी काम कर रही है और जो कुछ आवश्यक है उसे करेगी । हमारी अक्षमता से कुछ नहीं आता-जाता -एक भी आदमी ऐसा नहि जो अपनी प्रकृति के भागों में अक्षम न हो -पर भगवती शक्ति भी विद्यमान है । अगर कोई उसपर विश्वास रखे तो अक्षमता क्षमता में परिवर्तित हो जायेगी । उस समय स्वयं कठिनाई और संघर्ष भी सिद्धि प्राप्त करने के साधन बन जाते हैं ।

 

२७ - ५ - ११३६  

 

*

 

अपनी कठिनाइयों पर सोच-विचार मत करते रहो । उन्हें माताजी पर छोड़ दो और उनकी शक्ति को अपने अंदर कार्य करने दो जिससे वह उन्हें तुम्हारे अंदर से बाहर निकाल दे ।

२२ - ३ - ११३५

३१७


इस विचार को कभी आने ओर अपने को परेशान मत करने दो की "मैं समर्थ  नहीं हूं, मैं यथेष्ट प्रयास नहीं करता हूं । '' यह एक तामसिक सुझाव है जो अवसाद ले आता है और फिर अवसाद अनुचित शक्तियों के आक्रमण के लिये दरवाजा खोल देता है । तुम्हारी स्थिति तो यह होनी चाहिये कि '' जो कुछ मैं कर सकूंगा वह करुंगा; माताजी की शक्ति, स्वयं श्रीभगवान् यह देखने के लिये मौजूद हैं कि समुचित समय के अंदर सब कुछ कर दिया जाये । ''

 

४ - ११ - ११३५ 

 

*

 

समुचित मनोभाव है घबराना नहीं, शांत-स्थिर बने रहना और विश्वास बनाये रखना । पर यह भी आवश्यक है कि श्रीमां की सहायता ग्रहण की जाये और किसी भी कारण से उनकी सहायता से पीछे न हटा जाये । हमें कभी असमर्थता, प्रत्युत्तर देने की अयोग्यता के विचारों में नहीं लगे रहना चाहिये, दोषों ओर असफलताओं पर अत्यधिक ध्यान नहीं देना चाहिये और उन सबके कारण मन को दुःखी और शर्मिन्दा नहीं होने देना चाहिये । क्योंकि ये विचार और बोध अंत में कमजोर बनानेवाली चीजों बन जाते हैं । अगर कठिनाइयां हैं, ठोकरें लगती हैं या असफलताएं आती हैं तो उन्हें शांत-स्थिर रहकर देखना चाहिये और उन्हें दूर करने के लिये शांति के साथ, निरंतर भागवत साहाय्य को पुकारना चाहिये । कभी विचलित या दुःखी या निरुत्साहित नहीं होना चाहिये । योग कोई सहज पथ नहीं है और प्रकृति का सर्वांगीण परिवर्तन एक दिन में नहीं किया जा सकता ।  

 

*

 

इस सबका कुछ लाभ नहीं -इस प्रकार की शिकायतों, शंकाओं आदि को ताक पर धर दो । तुम्हें उदास या विचलित हुए बिना, माताजी की शक्तियों को ग्रहण करते हुए, उन्हें कार्य करने देते हुए, जो कुछ उनके मार्ग में आड़े आये उस सबको दूर फेंकते हुए, पर अपनी किसी कठिनाई या दोषों से अथवा माताजी की क्रिया में किसी प्रकार के विल्व या धीमेपन से विचलित हुए बिना शांत भाव से आगे बढ़ते जाना है ।

 

२५ - १० - ११३३

 

*

३१८


निराशा या अधीरता के इन सुझावों को अपने अंदर मत घुसने दो । माताजी की शक्ति को कार्य करने के लिये समय दो ।

 

१२ - ६ - ११३७ 

 

*

 

इस प्रकार का दुःख-शोक और निराशा सबसे बुरी बाधाएं हैं जिन्हें मनुष्य अपनी साधना में खड़ा कर सकता है -इनमें कभी संलग्न नहीं होना चाहिये । मनुष्य स्वयं जिसे नहीं कर सकता उसे वह माताजी की शक्ति को पुकार कर उससे करा सकता है । उसी को ग्रहण करना और उसे अपने अंदर करने देना साधना में सफलता पाने का सच्चा तरीका है ।

 

*

 

अभी चाहे जो कठिनाइयां क्यों न मौजूद हों, इस बात का विश्वास रखो कि उनपर विजय प्राप्त होगी । बाहरी सत्ता के घबराने का कोई कारण नहीं है - माताजी की शक्ति और तुम्हारी भक्ति रास्ते में आनेवाली सभी बाधाओं को पार करने के लिये काफी ढोंगी ।

 

*

 

निरुत्साहित होने का कोई कारण नहीं है । प्रकृति की तैयारी के लिये तीन वर्ष का समय बहुत अधिक नहीं है । प्रकृति साधारणतया उत्थान-पतन के भीतर से होती हुई धीरे-धीरे उस अवस्था के समीप पहुँचती है जहां निरन्तर उन्नति करना संभव हो जाता है । समस्त बाहरी रूपों के पीछे होनेवाली माताजी की. क्रिया के प्रति अपने विश्वास से दृढ़तापूर्वक चिपके रहना चाहिये और तब तुम देखोगे कि वह तुम्हें कठिनाइयों से बचा ले जायेगी |

 

३१ - ८ - ११३५ 

 

*

 

तुम्हें शोक-ताप या निराशा के वश में नहीं होना चाहिये -ऐसा करने का कोई कारण नहीं । माताजी की कृपा एक क्षण के लिये भी तुमसे अलग नहीं हुई है । दूसरों के आक्रमणों से इस प्रकार अपने को विचलित मत होने दो -तुम अच्छी तरह जानते हो कि किस उद्देश्य से वे अपना कार्य करते हैं - और पीछे वे उस पथ का ०० तक नहीं करेंगे जिसे उन्होंने क्रोध के आवेश में

३१९


ग्रहण किया था । माताजी का संरक्षण तुम्हारे ऊपर रहेगा और तुम्हें करने या शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं । भगवान् पर विश्वास करो और इन सब चीजों को एक विगत दुः स्वप्न की न्याईं झाड़ फेंको । विश्वास रखो कि हमारा प्रेम और हमारी कृपा तुम्हारे साथ हैं ।

 

*

 

तुमने सर्वदा ही अपने मन और संकल्पशक्ति की क्रिया पर अत्यधिक भरोसा रखा है -इसी कारण तुम उन्नति नहीं कर पाते । यदि तुम माताजी की शक्ति पर चुपचाप भरोसा बनाये रखने की आदत डाल लो -महज अपने निजी प्रयास की सहायता करने के लिये उसे पुकारने की आदत नहीं -तो बाधा कम हो जायेगी और अंत में एकदम दूर हो जायेगी ।

 

*

 

मनुष्य जितना ही अधिक माताजी की क्रिया की ओर खुला होता है उतनी ही आसानी से कठिनाइयां हल हो जाती हैं और यथार्थ चीज संपन्न हो जाती है ।

 

२१ -१ - १९३४  

 

*

 

बिना पथ-प्रदेशन के किये गये अपने व्यक्तिगत प्रयत्नों के कारण ही तुम कठिनाइयों में जा पड़े और ऐसी उत्तेजित अवस्था में पहुंच गये कि ध्यान आदि नहीं कर सके । मैंने तुमसे प्रयास बंद कर देने और शांत-स्थिर बने रहने के लिये कहा और तुमने वैसा ही किया । मेरा उद्देश्य यह था कि तुम्हारे शांत बने रहने पर माताजी की शक्ति के लिये तुम्हारे अंदर काय करना और एक अच्छा आरंभ तथा प्रारंभिक अनुभूतियों की एक धारा स्थापित करना संभव होगा । इसका आना आरंभ भी हो गया था, पर तुम्हारा मन यदि फिर से सक्रिय हो जाये और स्वयं साधना की व्यवस्था करने की चेष्टा करे तो गोलमाल उत्पन्न होने की संभावना है । भागवत पथ-प्रदर्शन तभी उत्तम रूप में. कार्य करता है जब चैत्य पुरुष खुला हुआ और सामने हो (तुम्हारे चैत्य पुरुष ने खुलना आरंभ किया था ), पर वह तब भी कार्य कर सकता है जब कि साधक उसके विषय में या तो सचेतन न हो या उसे केवल उसके परिणामों से ही जानता हो ।

३२०


कठिनाइयां और माताजी की कृपा

 

क्या इसपर विश्वास किया जा सकता है कि जब कठिनाइयां दूर नहीं होती तब भी माताजी की कृपाशक्ति कार्य करती रहती है?

 

उस अवस्था में तो प्रत्येक आदमी कह सकता है, '' मेरी सभी कठिनाइयां तुरत दूर हो जानी चाहिये, मुझे तुरत-फुरत और बिना किसी कठिनाई के हाता प्राप्त कर लेनी चाहिये, अन्यथा यह बात सिद्ध हो जाती है कि माताजी की कृपा मेरे ऊपर ' नहीं है । ''

 

२० - ७ - ११३३  

 

*

 

तुम्हें इस सबको दूर फेंक देना चाहिये । ऐसी उदासी तुम्हें उस चीज की ओर से बंद कर देगी जो माताजी तुम्हें दे रही हैं । ऐसे मनोभाव के लिये जरा भी कोई समुचित कारण नहीं है । कठिनाइयों का होना योग जीवन की एक जानी हुई बात है । अंतिम विजय या भागवत कृपा की कार्यकारिता पर संदेह करने का वह कोई कारण नहीं ।

 

४ - २ - १९३३

 

चैत्य विकास और माताजी की कृपा

 

माताजी की कृपा के कार्य करने का नियम क्या है?

 

साधक चैत्य पुरुष को जितना अधिक विकसित करता है उतना ही कृपा शक्ति के लिये कार्य करना अधिक संभव होता है ।

 

१३ - ८ - ११३३

 

*

 

जो भाग माताजी के विषय में सर्वदा सचेतन रहता है उसी भाग का निरंतर प्राधान्य प्राप्त करने योग्य वस्तु है -निस्सन्देह वह भाग चैत्य पुरुष है - क्योंकि वह चाहे फिलहाल ढका हुआ क्यों न हो, वह विरोधी सुझावों के द्वारा पथभ्रष्ट नहीं हो सकता । एक बार यदि वह हो जाये तो वह हमेशा

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अंधकार से बाहर निकल आता है -यही बात अंत में लक्ष्य तक पहुंचने का आश्वासन प्रदान करती है । परंतु यदि चैत्य पुरुष को सामने बनाये रखा जाये या सभी परिस्थितियों में पीछे की ओर उसे ज्ञानपूर्वक अनुभव भी किया जाये तो. रास्ते की मंजिल अपेक्षाकृत निरापद हो सकती है तथा अधिक सहज और सुरक्षित रूप में पार की जा सकती है ।

 

६- २ - १९३७  

 

*

 

जब बाहरी चीजों के प्रति, उनके अपने कारण, कोई आसक्ति नहीं रहती और सब कुछ केवल माताजी के लिये ही होता हे तथा अन्तरस्थ चैत्य पुरुष के द्वारा हमारा जीवन माताजी में ही केंद्रित हो जाता है तभी आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये सबसे उत्तम अवस्था उत्पन्न होती है ।

 

११ - ११ - ११३५

 

*

 

शरीर की पवित्रता के बारे में कभी चिंता मत करो । माताजी का प्रेम हृदय और शरीर दोनों को पवित्र करता है -यदि आत्मा की अभीप्सा वहां विद्यमान है तो शरीर भी पवित्र ही है । भूतकाल में जो कुछ हुआ उसका जरा भी महत्त्व नहीं ।

 

माताजी की सतत सहायता

 

माताजी की सहायता हमेशा ही मौजूद है, पर तुम उसके विषय में सचेतन नहीं हो -बस उसी समय सचेतन होते हो जब चैत्य पुरुष सक्रिय होता है और चेतना आच्छादित नहीं होती । सुझावों का आना इस बात का प्रमाण नहीं है कि सहायता नहीं मिल रही है । सुझाव सभी लोगों के पास आते हैं, यहांतक कि बड़े-से-बड़े साधकों के या अवतारों के पास भी आते हैं -जैसे कि वे बुद्ध या ईसा के पास आये थे । बाधाएं भी हैं -वे प्रकृति का अंग हैं और उन्हें जीतना ही होगा । अभी जो अवस्था प्राप्त करनी है वह है सुझावों को स्वीकार न करना, उन्हें सत्य या अपने निजी विचार न मानना, जिस उद्देश्य से वे आये हैं उसे देखना और अपने को उनसे अलग रखना । बाधाओं को इस प्रकार देखना होगा कि मानव-उ की मशीन के भीतर कुछ चीज़ें खराब हो गयी हैं जिन्हें

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डालना होगा -उन्हें कभी पाप या अपकर्म नहीं समझना चाहिये जिसके कारण कि अपने विषय में और साधना के विषय में निराशा आती है । 

 

*

 

आज काम करते समय मैंने एक शांतिपूर्ण शक्ति तथा बर्फ की तरह अपने सिर का स्पर्श करनेवाली एक चीज का अनुभव किया उसके बाद एक तीव्र बोध और दर्शन के साथ मेरे अंदर यह ज्ञान आया कि यद्यपि माताजी शरीर से हमारे निकट नहीं हे फिर भी वे .हमेशा हमारे पास और हमारे इर्द-गिर्द मौजूद रहती हैं और अपने प्रेमपूर्ण हाथ के स्पर्श से सब प्रकार की कठिनाइयों को निरन्तर दूर हटाती रहती हैं? यह कोई दर्शन था या कोई उपलब्धि? किस चेतना के द्वारा यह मुझे प्राप्त हुआ?

 

दर्शन और अनुभव से युक्त यह एक उपलब्धि है । चैत्य और मनोमय दोनों चेतनाओं ने मिलकर इसे उत्पन्न किया ।

 

११ - ६- १९३३

 

स्पष्टवादिता और माताजी की सहायता

 

जो लोग स्पष्टवादी नहीं हैं वे माताजी की सहायता से लाभ नहीं उठा सकते, क्योंकि वे स्वयं ही उसे वापस लौटा देते हैं । जबतक वे परिवर्तित नहीं हो जाते तबतक वे निम्नतर प्राण और भौतिक प्रकृति के अंदर अतिमानसिक ज्योति और सत्य के अवतरण की आशा नहीं कर सकते; वे स्वयं अपने ही द्वारा उत्पन्न कीचड़ में फंसे रहेंगे और उन्नति नहीं कर सकेंगे ।

 

नवम्बर, ११२८

 

श्रीमां की सहायता से प्राण का परिवर्तन

 

माताजी की सहायता उन लोगों के लिये बराबर ही मौजूद रहती है जो उसे ग्रहण करने के लिये इच्छुक हों । परंतु तुम्हें अपनी प्राण-प्रकृति के विषय में सचेतन होना चाहिये और प्राण-प्रकृति परिवर्तित होने के लिये अवश्य राजी होनी चाहिये । केवल इतना ही देखने से कोई लाभ नहीं कि वह अनिच्छुक है

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और जब उसके मार्ग में बाधा पहुंचायी जाती है तब वह तुम्हारे अंदर अवसाद उत्पन्न करती है । प्राण-प्रकृति आरंभ में हमेशा अनिच्छुक होती है और बराबर ही जब उसके मार्ग में बाधा पहुंचायी जाती है अथवा उसे परिवर्तित होने के लिये कहा जाता है तब वह अपने विद्रोह के द्वारा या अनुमति देना अस्वीकार करके इस अवसाद को उत्पन्न करती है । तुमको तबतक आग्रह करते रहना चाहिये जबतक कि वह सत्य को पहचान न ले और रूपांतरित होने तथा श्रीमां की सहायता और कृपा स्वीकार करने के लिये इच्छुक न हो जाये । अगर मन सच्चा हो और चैत्य अभीप्सा सच्ची और पूर्ण हो तो फिर सदा ही प्राण को परिवर्तित होने के लिये बाध्य किया जा सकता है ।

 

१५ - ७ - ११३२ 

 

*

 

यह विचार कि तुम असमर्थ हो, क्योंकि तुम्हारा प्राण अशुद्ध गतियों को स्वीकृति देता रहता है, तुम्हारे मार्ग में बाधक है । तुम्हें अपने आंतरिक संकल्प और माताजी की ज्योति को प्राण के ऊपर डालना होगा जिससे वह परिवर्तित हो, वह जो कुछ चाहे वही करने के लिये उसे छोड़ न दिया जाये । अगर कोई आदमी ' असमर्थ ' ही बन जाये और यंत्र-स्वरूप सत्ता के किसी भी अंश के द्वारा परिचालित हो तो फिर परिवर्तन कैसे संभव होगा? श्रीमां की शक्ति या चैत्य-पुरुष कार्य कर सकता है, पर इस शर्त पर कि सत्ता की भी उसके लिये अनुमति हो । अगर प्राण को अपनी इच्छा के अनुसार काय करने दिया जाये तो वह सर्वदा अपनी पुरानी आदतों का ही अनुसरण करेगा; उसे यह अनुभव कराना होगा कि उसे भी अवश्य परिवर्तित होना चाहिये ।

 

*

 

मन की शांति को एक समान और निरंतर बनाये रखने के लिये प्राण के अंदर जो भाग अभी चंचल है उसे स्थिर- अचंचल बनाना होगा । उसे संयमित तो करना होगा, पर केवल संयम ही पर्याप्त नहीं । माताजी की शक्ति को सर्वदा पुकारना होगा ।

 

१० - ४ - १९३४

 

*

 

अब अपनी प्राण-सत्ता के द्वार पर माताजी का यह नोटिस लगा दो, '' अब यहां किसी मिथ्यात्व का आना मना है । '' और फिर वहां ० संतरी बैठा दो जो यह

३२४


देखे कि इस नोटिस के अनुशार कार्य हो रहा है

 

२८- ५ - ११३३ 

 

*

 

माताजी तुमसे जाने के लिये नहीं कह सकतीं, क्योंकि ऐसा कोई वास्तविक कारण नहीं जिससे कि तुम्हें यहां से चले जाना चाहिये और ऐसा करना तुम्हारे लिये बहुत बुरा होगा और काम के लिये तथा अन्य हर चीज के लिये भी यह बुरा होगा । तुम्हें काम नहीं छोड़ना चाहिये -इसके लिये कारण बिलकुल वही हैं जो पहले थे और अब जो कुछ भी हुआ है उससे वे जरा भी नहीं बदले । निः सन्देह ईर्ष्या तुम्हारी प्रकृति का एक महान् दोष है, पर वह तो यहां बहुतों में है, लगभग हर एक व्यक्ति की प्रकृति में कोई-न-कोई गंभीर दोष है जो उसके मार्ग में रोड़ा अटकाता और उसे कष्ट देता है । परंतु काम एवं साधना छोड़ देना तथा माताजी को त्याग देना इसका इलाज नहीं । तुम्हारे पीछे कार्यरत माताजी की सहायता के द्वारा तुम्हें तबतक काम और साधना करते जाना होगा जबतक इस और अन्य सब बाधाओं से छुटकारा न मिल जाये । यह हम तुमसे पहले ही कह चुके हैं कि इन चीजों से छुटकारा एक ही दिन में नहीं हो सकता, पर यदि तुम लगे रहो और माताजी पर भरोसा रखो तो ये अब भी दूर हो जायेंगी 1 विरोधी शक्ति को अपने को पथ- भ्रष्ट मत करने दो; समस्त विषाद को परे फेंककर तबतक सीधे आगे बढ़ते जाओ जबतक कि लक्ष्य पर न पहुंच जाओ ।

 

१७ - ७ - ११३५

 

*

 

हमें यह सुनकर बहुत हर्ष हुआ कि तुम पहले से अच्छे हो और ' क्ष ' ने तुम्हारी सहायता करके तुम्हें संकट से उबार लिया है । निश्चय ही इस ईर्ष्या को मिटना ही होगा और लेशमात्र भी शेष नहीं रहना होगा । इसमें संदेह मत करो कि माताजी का प्रेम तुम्हारे साथ सदा ही है और रहेगा । उनकी कृपा में विश्वास रखो और यह सब कुछ तुम्हारे अंदर से निकल जायेगा और तुम माताजी के सच्चे शिशुमात्र रह जाओगे जैसे तुम. अपने मन और हृदय में सदा ही हो ।

 

१८ - ७ - ११३५

 

*

 

माताजी की तुम्हें त्याग देने की कतई इच्छा नहीं है और उनकी कभी यह इच्छा

३२५


नहीं रही कि तुम उनसे दूर चले जाओ । तुम्हें अपने- आपको उनकी इच्छा के साथ समस्वरित करना होगा और तब सब कुछ ठीक चलेगा । उनका प्रेम तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और उनका संरक्षण प्रभावकारी होगा ।

 

     जबतक तुम अच्छे नहीं हो जाते तबतक विश्राम करो । सामर्थ्य लाभ करने से पहले काम पर जाने की जल्दी मत करो ।

 

१९ - ७ - १९३५

 

कठिनाई में माताजी को पुकारना

 

जब कठिनाइयां आयें तो अपने अंदर अचंचल बने रहो और उन्हें दूर करने के लिये माताजी की शक्ति को पुकारो ।

 

२३-८-१९३३

 

*

 

सदा माताजी तो पुकारना और उसके साथ-साथ अभीप्सा करना और जब ज्योति आये तब उसे स्वीकार करना, कामना-वासना और प्रत्येक अंधकारपूर्ण क्रिया का त्याग करना तथा उनसे अपने को पृथक् रखना -यही प्रधान चीज है । परंतु यदि कोई अन्य चीजों को सफलतापूर्वक न कर सके तो भी उसे पुकारना चाहिये और बार-बार पुकारना चाहिये । श्रीमां की शक्ति को जब तुम अनुभव नहीं करते तब भी वह तुम्हारे साथ रहती है; स्थिर- अचंचल बने रहो और अपने प्रयास में लगे रहो ।

 

१५ - १ - ११३४

 

*

 

तुम्हें अपने- आपको इन छोटी-छोटी चीजों से चलायमान नहीं होने देना चाहिये । जिन गतिविधियों के बारे में तुमने शिकायत की है वे जब आयें तब यदि तुम शांत रहो और अपने- आपको माताजी की ओर खोलो तथा उन्हें पुकारो तो कुछ समय बाद तुम देखोगे कि तुम्हारे अंदर एक प्रकार का परिवर्तन आने लग रहा है । ध्यान ही पर्याप्त नहीं; माताजी का चिंतन करो और अपना काम तथा अपनी क्रिया-चेष्टा उन्हीं को अर्पित करो, उससे तुम्हें अधिक अच्छी सहायता प्राप्त होगी ।

 

७ - ४ - ११३२

 

*

३२६ 


यदि तुम अपना संकल्प-बल न लगा सको तो फिर केवल एक ही रास्ता है - वह है शक्ति को पुकारना; केवल मन के द्वारा या मानसिक शब्द के द्वारा पुकारना भी एकदम निष्कियता बने रहने और आक्रमण के अधीन हो जाने की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छा है, -क्योंकि, मानसिक पुकार यद्यपि तुरंत सफल नहीं भी होती तो भी वह अंत में शक्ति को ले आती है. और फिर से चेतना को खोल देती है । क्योंकि प्रत्येक चीज उसी पर निर्भर करती है । बहिर्मुखी चेतना के अंदर अंधकार और दुःख-क्लेश हमेशा ही रह सकते हैं; किंतु जितना ही अधिक अंतर्मुखी चेतना का राज्य बढ़ता जाता है उतना ही अधिक ये सब चीजों पीछे और बाहर धकेल दी जाती हैं, और पूर्ण अंतर्मुखी चेतना में ये चीजों नहीं रह सकतीं - अगर वे आती हैं तो मानों बाहरी स्पर्श के समान होती हैं जो सत्ता के अंदर निवास करने में असमर्थ होता है ।

 

२१ - ८ - १९३३

 

*

 

अगर कोई तेजी से माताजी की शक्ति को न भी पुकार सके तो भी उसे यह भरोसा बनाये रखना चाहिये कि वह जरूर आयेगी ।

 

२ ६- ८ - ११३६

 

*

 

भौतिक मन ही अपने को अत्यधिक जड़ अनुभव करता है -पर, सत्ता का कोई भी अंश यदि माताजी की ओर मुड जाये तो वह सहायता ले आने के लिये पर्याप्त है ।

 

२५ - १ - ११३४ 

 

*

 

यह एक तरह से अवचेतन भौतिक सत्ता का एक भूत हे और यही इन सब पुराने विचारों को वापस ले आया है कि '' मैं ठीक-ठीक पुकार नहीं सकता - मेरे अंदर सच्ची अभीप्सा नहीं है, इत्यादि । '' अवसाद, स्मृति आदि भी उसी एक स्रोत से आयी हैं । इन सब विचारों में डूबे रहने से कोई लाभ नहीं । अगर तुम माताजी को अपनी समझ के अनुसार ठीक तरीके से न पुकार सको तो उन्हें किसी भी तरह पुकारो -यदि तुम उन्हें पुकार न सको तो इन सब चीजों से छुटकारा पाने की इच्छा रखते? उनका चिंतन करो । प. अंदर सच्ची

३२७ 


अभीप्सा है या नहीं -इस बात की दुशचिंता करके परेशान मत होओ -चैत्य पुरुष चाहता है और यही पर्याप्त है । बाकी चीजों भागवत कृपा के ऊपर ई जिसपर हमें दृढ़तापूर्वक निर्भर करना चाहिये -मनुष्य की अपनी योग्यता,  'अपने गण या अपनी क्षमता के द्वारा सिद्धि नहीं आती ।

 

   जो हो, मैं इस भूत को भगाने के लिये शक्ति भुजंगा, पर तुम यदि इन सब अभ्यासगत विचारों का त्याग कर सको तो इस आक्रमण को दूर करना अधिक आसान हो जायेगा ।

 

४ - १ - ११३७ 

 

*

 

इन सब कठिनाइयों में सर्वदा सबसे उत्तम बात है माताजी को कहना और सहायता के लिये उन्हें पुकारना । संभवत: उसकी प्राण-सत्ता के अंदर कोई चीज अपने संरक्षण और देख- भाल के लिये किसी की आवश्यकता अनुभव करती है -परंतु तुम्हें इस भावना का अभ्यस्त होना चाहिये कि वह आवश्यक नहीं है और उस व्यक्ति को माताजी की देख-रेख में छोड़ देना सबसे उत्तम है- अपने प्रेम के विषय को उनके चरणों में समर्पित कर दो ।

 

१५-११-१९३७

 

भीतरी और बाहरी वस्तुओं के लिये माताजी से प्रार्थना

 

आप कहते है? ''जब कोई व्यक्ति एक साधक हो तो उसे साधना से संबद्ध भीतरी वस्तुओं के लिये ही प्रार्थना करनी चाहिये और  जहां तक साधना  के लिये वहीं तक प्रार्थना करनी चाहिये जहां तक के साधना के लिये और भागवत कर्म के लिये आवश्यक हों '' आपके इस कथन का पिछला भाग- बाहरी वस्तुओं के लिये प्रार्थना वाला- मुझे स्पष्ट वर्ही हुआ? क्या आप कृपा करके मुझे समझा सकते है?

 

सब कुछ इसपर निर्भर करता है कि क्या बाहरी वस्तुओं की चाहना अपनी निजी सुख-सुविधा और निजी लाभ आदि के लिये की जाती है, या आध्यात्मिक जीवन के अंग के रूप में और कर्म की सफलता तथा कारणों के विकास एवं सक्षमता आदि के लिये आवश्यक साधनों के रूप में । यह मुख्यतया आंतरिक ब्रुती का प्रशन है | उदाहरणार्थ , यदि तुम रसना की त्रुपुत के निर्मित बढ़िया

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भोजन खरीदने के लिये किसी से पैसा मांगते हो तो यह बात साधक के लिये ठीक नहीं; यदि तुम माताजी को देने और उनके काम में सहायता करने के लिये धन मांगते हो तो यह उचित है ।

 

मैं कई प्रकार की प्रार्थनाएं यहां उदित  करता हूं जो मैं किया करता हूं और मैं आभारी होऊंगा यदि आप मुझे बतायें कि उनमें से कौन- सी बाह्य या आंतरिक हैं ठीक या गलत हैं सहायक या बाधक हैं अथवा उनमें क्या सुधार कियजाये जिससे के पवित्र बन सकें -

 

     १. रात के समय जब में पढ़ने बैठता हूं और असमय मुझे नींद आ घेरती हे तो मैं माताजी से प्रार्थना करता है कि के मुझे नींद के आक्रमण से मुक्त करें ।

 

यदि तुम्हारा पढ़ना साधना का भाग है तो यह प्रार्थना बिलकुल ठीक है ।

 

     २. जब मैं सोने जाता हूं तो माताजी से प्रार्थना करता है कि उनकी शक्ति नींद के समय मेरी साधना को अपने हाथ में ले ले मेरी नींद को सचेतन और प्रकाशमय बनाये नींद में मेरी रक्षा करे मुझे माताजी के प्रति सचेतन बनाये रखे!

 

      ३. जब मैं नींद में किसी समय जान पड़ता हूं तो माताजी से प्रार्थना करता हूं कि के मेरे साथ रहें और मेरी रक्षा करें

 

ये दोनों साधना का भाग हैं ।

 

      ४. भ्रमण के लिये जाते समय और भ्रमण करते समय मैं प्रार्थना करता हूं कि माताजी मुझे अधिक व्यायाम करने तथा अधिक बल और स्वास्थ्य- लाभ करने की शक्ति दें और फिर सहायता के लिये उन्हें धन्यवाद देता हूं

 

यदि बल और स्वास्थ्य की प्रार्थना इसलिये की जाये कि वे साधना के लिये तथा आधार की पूर्णता के विकास के लिये आवश्यक हैं तो वह बिलकुल ठीक है ।

 

      ५. जब मैं सैर करते समय रास्ते में कोई कुत्ता देखता है तो मैं तुरंत

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  माताजी से प्रार्थना करता हूं कि उसके आक्रमण से बचायें और मेरा भय दूर करें ।

 

रक्षा के लिये पुकार सदा ही उचित होती है । भय दूर करना साधना का अंग है|

 

. जब मैं खाना खाने जाता हूँ तो मैं प्रार्थना करता हू कि माताजी की शक्ति मेरी सहायता करे जिससे मैं प्रत्येक ग्रास माताजी को अर्पित कर सकृं हर चीन आसानी से हजम हो जाये मैं अपनी चेतना में पूर्ण समता और अनासक्ति का विकास कर सकृं जो किसी भी आहार को बिना किसी आग्रह या चाह या लोभ- लालसा के विश्वगत आनन्द के समरस. के साथ ग्रहण करने के योग्य बनाये /

 

यह भी साधना का अंग है ।

 

७. जब मैं काम के लिये जाता हूं तो प्रार्थना करता हूं कि माताजी की शक्ति मेरा काम अपने हाथ में ले ले मेरी सहायता करे और प्रेम भक्ति एवं हर्ष के साथ माताजी का स्मरण करते हुए उनकी सहायता और सहारे का अनुभव करते हुए बिना अहंकार या कामना के अच्छी तरह और सावधानी से इसे करने की प्रेरणा दे?

 

यह भी |

 

८. काम के बीच भी जब विराम होता है तो मैं शक्ति सहायता और सतत के लिये प्रार्थन? करता हूं?

 

यह भी |

 

जब कोई बुरा या अपवित्र विचार अवलोकन एवं संवेदन मेरे अंदर पैदा होते हैं तो में उनके निवारण के लिये और पवित्रता के लिये प्रार्थना

करता हूं /

 

यह भी ।

३३० 


१०.पढ़ते समय मैं यथासंभव 'यह प्रार्थना करने का यत्न करता हूं कि सब कुछ जल्दी से समझ जाऊं पूर्ण रूप से ग्रहण और आत्मसात कर लू / 

 

यदि यह साधना के रूप में या आधार के विकास के लिये है तो यह बिलकुल ठीक है |

 

११. जब मैं काम में कोई भूल करता हूं तो प्रार्थना करता हूं कि अधिक सचेतन सतर्क और निकमाद बनूं

 

यह भी साधना का भाग है ।

 

१२. जब मैं अपने मित्र के नाम प्रसाद का पार्सल पंजीयित ( रजिस्टर) कराने डाकखाने जाता हूं तो प्रार्थना करता हूं कि वह तुरंत स्वीकार हो जाये अ?एर उसमें किसी प्रकार की देर न लगे !

 

यह प्रार्थना की जा सकती है यदि समय के अपव्यय से बचने को साधना के जीवन की ठीक नियम-व्यवस्था का अंग समझा जाये ।

 

१३. जब मैं ध्यान के लिये बेठता हूं तो प्रार्थना करता हूं कि माताजी की शक्ति मेरी ध्यान- क्रिया को अपने हाथ में लेकर उसे गहरी स्थिर एवं एकाग्र बनाये और विझकारी विचारों प्राणिक बेचैनी आदि के समस्त आक्रमणों से मुक्त करे /

 

यह साधना का भाग है ।

 

१४. उदासी कठिनाई गलत सुझावों सदेह और जड़ता की अवस्था में किसी भी अवसर पर य? किसी भी घटना के समय मै माताजी से प्रार्थना करता हूं कि साहस अ?एर श्रद्धा बनाये रख तथा उन सबका सामना कर उनपर विजय पाऊं!

 

यह भी ।

३३१ 


१५. अन्य सब समयों में यहांतक मुझसे बन पड़ता है? मैं माताजी से प्रार्थना करता है कि के मुझे अपनी शाति शक्ति औr ज्योति आदि से भर दे या फिर और किसी प्रकार की अपोइक्षत प्रार्थना करता हूं और मुझे सहायता बल और सहारा देने के लिये उन्हें धन्यवाद देता हूं

 

यह भी ।

 

बार-बार आनेवाली कठिनाइयों को दूर करना

 

बार- बार आनेवाली अपनी कठिनाइयों का मुकाबला करने का सही तरीका क्या है?

 

समता, त्याग और माताजी की शक्ति को पुकारना ।

 

१ - ८ - ११३३ 

 

*

 

पुरानी मिलावट का बार-बार आनेवाला चक्कर रास्ते में आ खडा होता है । उसे तोड़कर बाहर निकलना एक ऐसी आतरिक यौगिक स्थिरता और शांति प्राप्त करने के लिये बहुत आवश्यक है जो इन सब चीजों से डावांडोल नहीं होती । यदि वह स्थापित हो जाये तो उसमें माताजी की उपस्थिति को अनुभव करना, उनके पथ-प्रदर्शन की ओर खुल जाना और आकस्मिक झांकियों के द्वारा नहीं वरन् एक स्थायी उद्घाटन तथा विकास के अंदर चैत्यपुरुषोचित अनुभव एवं आध्यात्मिक ज्योति और आनंद का अवतरण प्राप्त करना संभव हो जायेगा । उसके लिये सहायता तुम्हें प्राप्त होगी ।

 

७ - ३ - ११३७ 

 

*

 

बहुत-से आदमी इस अवस्था में हैं (यह मानव-स्वभाव है) और स्वभावत: ही इससे बाहर आने का एक मार्ग भी है -माताजी में पूरा विश्वास रखकर आतर मन को (बाहरी मन के दुःखदायी बने रहने पर भी) अचंचल बनाना और वहां से माताजी की शांति और शक्ति को । जो तुम्हारे ऊपर सर्वदा विद्यमान है, आधार में बुलाना । एक बार, सचेतन रूप में, वह वहां आ जाये तो अपने-

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आपको उसकी ओर खोले रखना होगा और अपनी पूरी सहायता के साथ, निरंतर अपनी स्वीकृति का अवलम्बन देते हुए तथा जो उस चीज से भिन्न हो उस सबका शानपूर्वक त्याग करते हुए उसे तबतक कार्य करने देना होगा जबतक कि समस्त आतर सत्ता धीर-स्थिर नहीं बन जाती और माताजी की शक्ति, शांति, प्रसन्नता ओर उपस्थिति से नहीं भर जाती -तब बाहरी प्रकृति भी उसी पथ का अनुसरण करने के लिये बाध्य हो जायेगी ।

 

८- ५ - ११३३

 

बुरी अवस्थाओं से बाहर निकलना

 

ये बुरी अवस्थाएं अंतर स्थिति से (बहुधा बहुत मामूली कारण से ) बाहरी चेतना में गिर जाने की अवस्थाएं हैं । जब ये आयें तब इनसे प्रभावित मत होओ, बल्कि धीर -स्थिर बने रहो, माताजी को पुकारो और भीतर की ओर वापस चले जाओ ।

 

२४ - १ - ११३६

 

*

 

समय-समय पर चेतना का नीचे गिर जाना सबके अंदर घटित होता है । इसके कई कारण होते हैं, बाहर से कोइ स्पर्श आता है, प्राण में, विशेषकर निम्नतर प्राण में कोई चीज अभी अपरिवर्तित होती है या अधूरे रूप में परिवर्तित होती है, प्रकृति के भौतिक अंगों से कोई तमs या अंधकार उठ आता है । यह आये तो स्थिर बने रहो, माताजी की ओर अपने को खोलो, अच्छी अवस्थाओं को वापस बुलाओ और स्पष्ट तथा असुव्य विवेक-शक्ति के लिये अभीप्सा करो जो तुम्हारे अंदर उस चीज का कारण तुम्हें दिखा दे जिसे ठीक करने की आवश्यकता है ।

 

४ - ३ - ११३२

 

आक्रमण के समय माताजी की सहायता

 

अज्ञान की शक्तियां ही घेरा डालना आरंभ करती हैं और फिर एक साथ आक्रमण करती हैं । प्रत्येक बार जब ऐसे आक्रमण को हटाकर दूर भगा दिया जाता है तब र साफ हो जाता है, मन, प्राण या शरीर में या सत्ता के

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समीपवर्ती अंगों में माताजी के लिये एक नया क्षेत्र जीत लिया जाता है । प्राण में माताजी द्वारा अधिकृत स्थान धीरे -धीरे बढ रहा है -इसका पता इस बात से लगता है कि अब तुम इन चढ़ाइयों का विरोध अधिक जोर के साथ कर रहे हो जो पहले तुम्हें एकदम अभिभूत कर डालती थीं ।

 

    ऐसे समयों पर माताजी की उपस्थिति और शक्ति का आवाहन करना ही कठिनाई का मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका है ।

 

जो माताजी सर्वदा तुम्हारे साथ और तुम्हारे अंदर हैं उर्न्ही के साथ तुम बातचीत करते हो । बस एकमात्र आवश्यक बात है ठीक-ठीक सुनना जिससे कि कोई दूसरी वाणी बीच में न आ जाये ।

 

७ - १२ - ११३३

 

*

 

यदि तुमने माताजी की ओर खुले रहने का अभ्यास बना लिया है तो चाहे आक्रमण कितना भी प्रबल क्यों न हो, और यदि वह अभी तुम्हें परास्त भी कर डाले, तो भी वह तेजी से निकल जायेगा ।

 

     यदि तुम अचंचल बने रहो और शांति की ओर तथा दिव्य शक्ति की ओर खुले रहो तो शांति फिर वापस आ जायेगी । एक बार जब दिव्य सत्य का कुछ अंश तुम्हारे अंदर प्रकट हो चुका है, तो, चाहे अभी कुछ समय के लिये भले ही वह अशुद्ध गतियों के बादलों से क्यों न ढक जाये, वह फिर भी आसमान में चमकनेवाले सूर्य की तरह हमेशा चमकने लगेगा । अतएव विश्वास के साथ प्रयास में लगे रहो और कभी साहस मत खोओ ।

 

१४ - ३ - ११३२ 

 

*

 

विद्रोही शक्ति की क्रिया के कारण आनेवाले दूःख- कष्ट से बचने का साधकों के लिये सबसे उत्तम उपाय क्या है?

 

 

माताजी पर श्रद्धा और पूर्ण समर्पण ।

 

 १७-६-११३३ 

 

जब साधक रूपांतर की प्रक्रिया में अपनी प्रकृति की किसी कमजोरी

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की उपेक्षा करते हैं तब क्या यह संभव नहीं है कि माताजी उस दुर्बलता को उन्हें दिखा दे बजाय इसके कि विरोधी शक्तियों के कमजोर स्थान पर किये गये : आघात के द्वारा वे उसे जानें ?

 

अगर वे पर्याप्त रूप से माताजी की ओर खुले हों तो ऐसा किया जा सकता है  -लेकिन अधिकतर साधकों में बहुत अधिक अहंकार, श्रद्धा का अभाव, अंधता, स्वेच्छा और प्राणिक कामनाएं होती हैं -ये ही चीजें उन्हें माताजी की ओर से बंद कर देती हैं और विरोधी शक्तियों की क्रिया का आवाहन करती हैं ।

 

१७ - ६- ११३३

 

*

 

अज्ञान से संबंधित मानव-प्रकृति के मानसिक और प्राणिक दोषों को तबतक काय करने का मौका दिया जाता है -जैसे कि आसुरिक शक्तियों के आक्रमणों और सुझावो को भी अवसर दिया जाता है -जबतक प्रकृति में कोई भी ऐसी चीज रहती है जो इन चीजों का प्रत्युत्तर देती है । यदि माताजी के सामने ये चीजें तुममें उठती हैं तो इसका कारण यह है कि उस समय उनपर एक प्रबल दबाव डाला जाता है जिससे या तो वे निकल जायें या बने रहने के लिये युद्ध करें । इसका उपाय है केवल माताजी की ओर खुलना और अन्य सभी शक्तियों का पूर्ण रूप से और सर्वदा त्याग करना तथा जब वे सबसे अधिक क्रियाशील हों तब उनका सबसे अधिक त्याग करना । बाकी कार्य श्रद्धा, सरलता, अध्यवसाय आदि से पूरा हो जायेगा ।

 

१६ - ११ - ११३२

 

श्रीमां द्वारा परीक्षा

 

परीक्षा करने की भावना भी बहुत स्वस्थ भावना नहीं है और उसपर बहुत अधिक जोर नहीं देना चाहिये । भगवान् की ओर से नहीं, बल्कि निम्नतर लोकों की -मानसिक, प्राणिक और भौतिक लोकों की शक्तियों की ओर से परीक्षाएं की जाती हैं और भगवान् उन्हें होने देते हैं, क्योंकि परीक्षा होना अंतरात्मा की शिक्षा का एक अंग है और वह उसे अपने- आपको, अपनी शक्तियों को तथा जिन सीमाओं को उसे पार करना है उनको जानने में सहायता करता है । माताजी प्रत्येक तुम्हारी परीक्षा नहीं कर रही हैं, बल्कि परीक्षाओं

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और निम्नतर चेतना से संबंध रखनेवाली कठिनाइयों की आवश्यकता से परे चले जाने में तुम्हें प्रत्येक मुहूर्त सहायता कर रही हैं । अगर तुम हमेशा उस सहायता के विषय में सचेतन रहो तो वह सभी आक्रमणों के समय -चाहे वे विरोधी शक्तियों के हों या तुम्हारी अपनी निम्नतर प्रकृति के -तुम्हारा सबसे  अच्छा रक्षक साबित होगी  ।

 

सहायता के लिये की गयी पुकारों का उत्तर देने के लिये

माताजी की गुह्य क्रिया

 

अब अनुभव की बात । निश्चय ही सहायता के लिये की गयी ' ' की पुकार माताजी तक पहुंची थी, भले ही उसने अपने पत्र में जिन सब ब्योरे की बातों का वर्णन किया है वे सब माताजी के भौतिक मन के सामने उपस्थित न भी हों । इस तरह की पुकारें बराबर माताजी के पास आ रही हैं, कभी-कभी तो एक-पर -एक लगी हुई सैकड़ों आती हैं और सर्वदा ही उत्तर दिया जाता है । इनके अवसर नाना प्रकार के होते हैं, पर चाहे जिस आवश्यकता के कारण पुकार क्यों न की गयी हो, शक्ति उसका उत्तर देने के लिये तैयार रहती है । गुह्य लोक में इस क्रिया का यही सिद्धांत है । यह साधारण मानवीय क्रिया-जैसी कोई चीज नहीं हे और जो पुकारता है उसकी ओर से कोइ लिखित या मौखिक संदेश भेजने की आवश्यकता नहीं होती; शक्ति को कार्य में प्रवृत्त करने के लिये चैत्य सत्ता द्वारा वार्तालाप करना ही पर्याप्त होता है । फिर यह कोई निवैयक्तिक शक्ति नहीं है और एक ऐसी दिव्य शक्ति का सुझाव, जो पुकारनेवाले किसी भी व्यक्ति को उत्तर देने और संतुष्ट करने के लिये तैयार हो, यहां बिलकुल ही संगत नहीं बैठता । यह माताजी की एक व्यक्तिगत चीज है और यदि उनमें यह शक्ति न होती और इस तरह की क्रिया वे न कर सकतीं तो वे अपना काम करने में समर्थ न होतीं; परंतु यह भौतिक स्तर पर की गयी बाहरी व्यावहारिक क्रिया से एकदम भित्र है; और यद्यपि गुह्य क्रिया और भौतिक क्रिया मिल सकती हैं और मिलती भी हैं और गुह्य क्रिया भौतिक क्रिया को अत्यंत फलप्रद बनाती है तो भी भौतिक स्तर की पद्धतियां निश्चय ही एकदम भिन्न होती हैं 1 अब सहायता-प्राप्त व्यक्ति को काम करनेवाली शक्ति का बोध न होने की बात लें; अवश्य ही उसका जानना कार्य को फलप्रद बनाने में बहुत अधिक मात्रा में सहायता करता, पर वह जानना अनिवार्य नहीं हो सकता; अगर वह न भी जाने कि कार्य कैसे आ है तो भी उसका फल

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होगा ही । उदाहरणाथ, कलकत्ते के तथा दूसरी जगहों के तुम्हारे कार्य में मेरी सहायता तुम्हारे साथ हमेशा थी और मेरी समझ में यह नहीं कहा जा सकता कि वह फलप्रद नर्हां थी; परंतु तुम्हें यदि किसी-नकिसी प्रकार इस बात का ज्ञान न भी होता कि मेरी सहायता तुम्हारे साथ है तो भी वह उसी गुह्य स्वभाव की होती और उसका वही परिणाम होता ।

 

२४ - ३ - ११४१ 

 

*

 

रात के एक बजे का समय था जब मेरे भाई ने यत्रणाकारी पीडा की अवस्था में मुझे युकारा और यूछा कि क्या श्रीअरविन्द उसे स्वस्थ कर सकते हैं? मैने कुछ प्रसाद- के- कुल निकाले जो मेरे पास थे और उनसे उसके रोगाक्रान्त अंग को छुआ और अहो? पीडा मिट गयी और वह ठीक होने लगा मैं जानना चाहता हूं कि क्या आप इस बात से सचेतन थे और आपने मेरी प्रार्थना सुनी थी /

 

ऐसे दृष्टान्तों में जो कुछ होता है वह यह है कि जब माताजी किसी व्यक्ति को स्वीकार कर लेती हैं तो वे अपनी सत्ता का कोई अंश उसके पास भेजती हैं और वह व्यक्ति जहां कहीं भी जाये वह अंश उसके साथ रहता है और यहां विराजमान माताजी के साथ सदा सम्पर्क में रहता है । इसलिये जब वह कोई ऐसी चीज करता है जैसी तुमने श्रद्धा और भक्ति के साथ इस मामले में की तो वह चीज माताजी की उस अंशविभूति के द्वारा जो उस व्यक्ति के साथ होती है उनकी आंतर या बाह्य चेतना में पहुंचती है और उसके बदले में परिणाम पैदा करने के लिये यहां से ' शक्ति ' जाती है ।

 

माताजी द्वारा पुकारों को सुनने के बारे में गलत विचार

 

जब 'छ! ने अपनी ई कठिनाई के बारे में मुझसे शिकायत की तो मैने उससे कहा कि माताजी की सहायता को पुकार कर इसे दूर किया जा सकता है परह उसने तर्क किया कि उस- जेसी नवागन्तुका की पुकारे माताजी द्वारा सुनी जाने की कार्ड़े आशा नहीं शाने और समुन्नत साधकों से इतनी अधिक पुकारें माताजी के पास जाती रहती हैं कि उस- जैसी आरम्भकर्त्री साधिका से की जानेवाली नयी युकारें अरण्य- रोदन- मात्र

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होंगी और उस कोलाहल में ही रह जायेगी मैने उत्तर दिया कि यदि हमारी ' के उत्तर में माताजी हमारे पास नहीं मती तो उसके लिये अवश्य उनके पास कुछ अपने ही कारण होने; ?एर इसमें कोई सदेह नहीं हो सकता कि जब के आयेगी तो ठहरने के लिये आयेगी इस बीच हमारे अंदर श्रद्धा और समता होनी चाहियें और हमें आवश्यक अवस्थाओं की तेयारी करनी चाहिये 7 संभवत: उनके पास हमारे आदेश के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा अधिक कार्य करने को है? और हम इस बात का आग्रह क्यों करें कि के वह काम छोड्कर हमारी ओर ध्यान दें? ऐसा कभी में नहीं आया कि जब किसी के द्वारा सीधे अपने हृदय से सच्ची पुकार माताजी के पास भेजी जाती है तो के उत्तर देने में चूक जाती है? क्योकि स्वयं पुकार में निहित शक्ति ही करती है कि वहां माताजी उपस्थित हे? जब मेन '' से यह बात कही तो मैने अपने ललाट- केंद्र से एक प्रबल दबाव अ?एर स्पदंनों को नीचे की ओर भौहों के बीच आते अनुभव किया? इसका क्या कारण है ?

 

' क्ष ' के तर्क कोई विशेष युक्तियुक्त नहीं; तुम्हारे अधिक अच्छे है, यद्यपि सर्वथा निर्दोष नहीं । माताजी भौतिक मन से सीमित नहीं, अतएव चाहे उनके पास  '' अधिक महत्त्वपूर्ण '' कार्य करने को हो फिर भी वह अरण्य से या और कही से भी आनेवाली पुकार को सुनने के मार्ग में जरा भी बाधक नहीं होगा । साथ ही, व्यक्तियों पर आध्यात्मिक क्रियाएं उनकी ज्येष्ठता के क्रम से नढ़ीं की जातीं; सो '' पुराने व्यक्तियों '' की चीख-पुकार उन्हें (किसी और पर क्रिया करने से ) क्यों रोके? वे उन सबके साथ, जिन्हें उनकी जरूरत है, रह सकती हैं और रहती ही हैं । इसलिये तुम्हारा यह कहना कि '' माताजी नहीं आतीं? नहीं आयेगी?'' कोई विशेष संगत नहीं, पर तुम्हारा बाकी का उत्तर बिलकुल संगत है । माताजी अब भी वहां उपस्थित हैं और तुम्हारे अंदर कार्य भी कर रही हैं, केवल, तुम्हारी आतर दृष्टि एवं अनुभूति खुली हुई नहीं है और इसलिये तुम उन्हें देख नहीं सकते या अनुभव नहीं कर पाते ।

 

जो कुछ ललाट-केंद्र में उतरा वह था उत्तर, या यूं कहें कि माताजी की उपस्थिति का स्पर्श -उनकी चेतना, उनकी शक्ति जो आंतर मन । आंतर संकल्प । आंतर दृष्टि का केंद्र खोलने के लिये तुम पर कार्य कर रही है ओर जब वह छ जाता है तो मनुष्य  वह भी देखने और जानने लगता है जो क आंख

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के लिये अदृश्य और ऊपरी मन के लिये अज्ञेय है ।

 

अचूक सहायता और संरक्षण

 

' नाम ' की शक्ति एवं संरक्षण के विषय में तुम्हें जो अनुभव हुआ वह ऐसे प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है जिसने ऐसी ही श्रद्धा और निर्भरता के साथ इसका प्रयोग किया है । जो लोग संरक्षण के लिये हृदय से पुकारते हैं उन्हें प्राप्त होने से यह चूक नहीं सकता । किसी बाहरी परिस्थिति को तुम अपनी श्रद्धा को विचलित मत करने दो; क्योंकि सब कुछ को पार कर लक्ष्य तक पहुंचने के लिये इस श्रद्धा से बढ़कर अधिक बल और कोई चीज नहीं देती । ज्ञान और तपस्या का कुछ भी बल क्यों न हो, उनमें धारक शक्ति इससे कम ही होती है- श्रद्धा यात्रा के लिये सबसे मजबूत सहारा है ।

 

माताजी का संरक्षण वहां तुम्हारे ऊपर विद्यमान है और उनका सजग प्रेम भी । उसपर भरोसा रखो और अपनी सत्ता को उसकी ओर अधिकाधिक खुलने दो -तब वह आक्रमणों को परे हटा देगा और तुम्हें सदा थामे रहेगा ।

 

८ - १० - ११३६

 

माताजी के संरक्षण-कार्य करने की शर्ते

 

समस्त गुह्य शक्तियों को दृष्टि में रखकर तथा मृत्यु और रोग आदि की कुछ शक्तियों से साधकों की रक्षा करने के लिये जिन सब उत्तम अवस्थाओं को उत्पन्न करना संभव है उन सबको ध्यान में रखकर ही माताजी ने एक व्यवस्था की है । पर यह पूर्ण रूप से कार्य नहीं कर सकती, क्योंकि स्वयं साधकों में भोजन तथा उसी तरह की प्राण से संबंध रखनेवाली अन्यान्य भौतिक चीजों के प्रति समुचित मनोभाव नहीं है । पर फिर भी एक प्रकार का संरक्षण है । यदि साधक माताजी की व्यवस्था के बाहर जायें तो वे बस अपनी जिम्मेदारी पर ही जा सकते हैं ।... पर यह व्यवस्था केवल आश्रम के लिये है । उन लोगों के लिये नहीं जो आश्रम से बाहर हैं ।

 

१४ - ७ -१ १३३

 

*

३३९ 


क्या यह सच नहीं कि साधक माताजी द्वारा निर्धारित नियमों का पालन इसलिये करते हैं कि उन्हें महसूस होता है कि उनका पालन न करने और माताजी की आज्ञा का उल्लंघन करने से मनुष्य उनके संरक्षण के घेरे से बाहर चला जाता है

 

ठीक यही बात है -मनुष्य तुरंत संरक्षण के घेरे से बाहर चला जाता है ।

 

८ - ६ - ११३३ 

 

सब चाहेंगी कि माताजी का संरक्षण हमारे साथ रहे; पर शायद कुछ सनती पूरी करनी होती हैं?

 

बहुत ही कम लोग ऐसे हैं जो उनके संरक्षण को अपने साथ रहने देते हैं । एक सर्व-सामान्य संरक्षण सभी के चारों ओर विद्यमान है, पर अधिकतर लोग अपने मनोभाव, अपने विचारों या कायों से उसके बाहर चले जाते हैं या फिर अन्य शक्तियों के लिये द्वार खोल देते हैं ।

 

२४ - ८ - १९३३

 

*

 

इसका कारण यह नहीं है कि माताजी ने अपना संरक्षण हटा लिया है -उन्होंने यह नहीं किया है । अधिक संभव है कि वह (कठिनाई) इस कारण आयी कि तुम अपनी आंतर सत्ता से बहुत अधिक बाहर चले जाते हो और अपने को बहिमुर्खी बना लेते हो । यह अधिक अच्छा है कि तुम फिर भीतर हट आओ और आंतरिक स्थिरता और शांति को प्राप्त करो । 

 

*

 

यदि माताजी का संरक्षण लोगों के चारों ओर सतत बना रहे तो मैं नहीं समझता कि उन्हें कभी विशद और संदेह होगा या कोई भी भगवद्- विरोधी वक्ष कभी उनके पास आयेगी ।

 

ये वस्तुएं आने की चेष्टा कर सकती हैं पर ये घुसने या टिकने नहीं पायेंगी ।

 

*

३४० 


यदि कोई बालक छोटी उम्र में ही यहां आ जाये तो क्या वह उन कठिनाइयों से मूक हो  जायेगा जो काम- वासना के लग सामान्यतया ही रहा करती हैं?

 

यह कोई स्वतःसिद्ध सत्य नहीं -यह केवल संभावित है -इस शर्त पर कि वह पूर्ण रूप से माताजी के प्रभाव तले आ जाये । जिन दूसरे साधकों में यह वासना है उनके वातावरण के प्रति अत्यधिक खुला न हो, शूरू की उम्र में ही चलायमान न हो जाये और न औगारमय साहित्य पढ़ने आदि के द्वारा अपने को विचलित ही कर ले । ऐसा एक भी बालक नहीं जो अबतक यह सब करने में समर्थ हुआ हो ।

 

८ - ११ - १९३३

 

 दुर्घटनाएं और माताजी का संरक्षण

 

आज सवेरे .' ' के साथ मोटर- दुर्घटना हो गयी । क्या माताजी पहले से इस दुर्घटना की संभावना को नहीं देख सकीं और उसे नहीं रोक सकीं? या यह इस कारण घटित हुई कि ' ' किसी तरह उनके संरक्षण- क्षेत्र से बाहर चला गया था?

 

दुर्घटना को रोकना संभव नहीं था । जब खतरा आये तब सबसे पहले करने की चीज है माताजी को पुकारना, उससे साधारण संरक्षण तुरत फलप्रद हो जाता है । ' ' वैसा करने के लिये अनुपयुक्त अत्यंत बहिर्मुखी अवस्था में था और जो करना चाहिये था उसके एकदम विपरीत चीज ही उसने की -मोटर के पीछे जाने के बजाय उसने उसके सामने चले जाने की चेष्टा को । परंतु सच्चा कारण तो बहुत भीतर की चीज थी -यह आंतर सत्ता के किये हुए उन चुनावों में से एक था (अवश्य ही सचेतन मन को मालूम नहीं था) जो प्रत्युत्तर के रूप में इन चीजों को ले आते हैं ।

२७ - १ - १९३६

 

प्राणलोक में माताजी का संरक्षण

 

यह प्राणलोक का एक स्वप्न था जहां सब प्रकार के खतरे तबतक आते रहते हैं जबतक ०.' उनका .. करने का साहस नहीं आ जाता । अगर

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तुममें भय न हो अथवा माताजी का संरक्षण हो (जो उन्हें याद करने या पुकारने से प्रकट होता है), तब ये खतरे काफूर हो जाते हैं । तुम्हें पागल लोगों से जो भय था उसीने प्राण में यह चीज उत्पन्न की थी । इस भय की तरह ही इन चीजों को भी प्रकृति से बाहर निकाल फेंकना होगा ।

 

८ - १ - ११३३ 

 

*

 

तुम्हारी अनुभूति में हुआ यह कि तुम्हारा प्राण-पुरुष माताजी के साथ युक्त होने की अपनी इच्छा के कारण शरीर से मुक्त हो गया (तुम प्राणमय और भौतिक लोक की सीमा पर माताजी से मिले) और शरीर से स्वतंत्र अपना निजी जीवन यापन करने लगा । वह प्राणलोक में प्रविष्ट हुआ और, अब शरीर पर आश्रित न होने के कारण, पहले अपने- आपको निःसहाय अनुभव करने लगा जबतक कि उसने माताजी को नहीं पुकारा । ' ' का वहां प्रकट होना संभवत: स्वयं ' ' के प्राण के किसी भाग का प्रकट होना था, पर अधिक संभव हे कि उसके रूप में शायद किसी प्राणमय सत्ता का, संभवत: उसी प्राणमय सत्ता का जो उसे परेशान करती रही है, प्रकट होना हो । जब तुम प्राणमय लोक में जाते हो तब बहुत-सी ऐसी चीजों से तुम्हारी भेंट होती है, एकमात्र पर्याप्त संरक्षण है माताजी को पुकारना ।

 

७ - १ - ११३३

 

आंतरिक समर्पण के द्वारा कठिनाइयों का त्याग

 

किसी उपद्रव से छुट्टी पाने के लिये शरीर से माताजी के पास आना अनावश्यक और व्यर्थ है; तुम्हें अंतर में पैठकर उनका आश्रय ग्रहण करना चाहिये और अनुचित क्रिया का त्याग करना चाहिये, जैसा कि इस अवसर पर तुमने स्वयं भी समझा है । शरीर से उनके पास आने पर बस भूल करते रहने और उसे ठीक करने के लिये उनके पास आने की एक आदत-सी पड़ जायेगी और फिर वह, भीतर से कठिनाइ को छोड देने, उससे समपण करा देने के बदले, उसको उन्हीं के ऊपर फेंक देने की अनुचित क्रिया भी उत्पन्न करेगी । वास्तव में एक प्रकार के साधारण समर्पण की आवश्यकता है जो छोटी-छोटी बातों पर होनेवाले इन सब उपद्रवों को, अहंकार, अपने ही दृष्टिकोण पर आग्रह, अपने ही ढंग से चलने का मौका न मिलने अथवा अपनी स्वतंत्रता या महत्त्व को लोगों के

३४२


स्वीकार न करने पर होनेवाले क्रोध आदि को रोक सके | 

 

आंतरिक एकता ही त्राण करती है, न कि बाह्य समीपता ।

 

१७ - ११ - ११३३

 

सहायता के लिये श्रीमां को लिखना

 

' ' से बातें करके और माताजी को भी लिखकर तुमने अच्छा ही किया । निश्चय ही माताजी ने ' ' की कठिनाइयों को देखा था । यह ठीक है कि उसकी कठिनाई है एक प्रकार के अबाध उद्घाटन का अभाव -अन्यथा वह सब शीघ्र दूर किया जा सकता और धीरे- धीरे आसानी से ही प्रकृति (मन, अहंकार इत्यादि) में आवश्यक परिवर्तन ले आया जाता । लिखना, जैसा कि तुम करते हो, अपने- आपको उद्घाटित करने और ठीक-ठीक स्पर्श ग्रहण करने में सहायक होता है । ' ' का जो यह तर्क है कि माताजी तो जानती ही हैं और इसलिये उन्हें लिखने की कोई आवश्यकता नहीं, वह तभी लाग हो सकता है जब कि श्रीमां और साधक के बीच आदान-प्रदान का एक उन्यूक्त अथवा कम-सेकम, पयाप्त प्रवाह चल रहा हो, पर । जब कोई गंभीर कठिनाई आ जाये तब वह उतना लाग नहीं होता 1 स्वभावत: ही हम लोग उसके संघर्ष में उसकी सहायता करने का अधिक-से- अधिक प्रयत्न करेंगे ।

 

१४ - ५ - ११३६

 

सभी चेष्टाएं माताजी के सामने खोलकर रख देना

 

तुम्हारे लिये मैं एक नियम निश्चित कर सकता हूं, '' ऐसी कोई बात मत करो, कहो या विचारो जिसे तुम माताजी से छिपाना चाहो । '' और यह बात उस आपत्ति का उत्तर दे देती है जो '' इन छोटी-छोटी बातों '' को श्रीमां के ध्यान में ले आने के विरुद्ध तुम्हारे अंदर -तुम्हारी प्राण-सत्ता की ओर से, ठीक है न?  -उठायी गयी थी । भला तुम यह क्यों सोचते हो कि माताजी इन सब चीजों के कारण परेशान होगी अथवा इन्हें नगण्य समझेंगी? अगर ' समस्त ' जीवन को ही योग होना हो तो फिर जीवन में ऐसी कौन-सी चीज है जिसे तुच्छ या महत्त्वहीन कहा जाये? अगर माताजी उत्तर न भी दें तो भी श्त कार्य और

३४३ 


आत्मोन्नति से संबंधित किसी बात को समुचित भाव के साथ उनके सामने रखने का अर्थ है उसे उनके संरक्षण में, सत्य की ज्योति में, रूपांतर के लिये कार्य करनेवाली शक्ति की किरणों के नीचे रख देना -क्योंकि जो बात उनके ध्यान में लायी जाती है उसपर तुरत ही वे किरणें कार्य करना आरंभ कर देती हैं । तुम्हारे भीतर जो चीज' वैसा न करने की सलाह देती है जब कि तुम्हारेी आत्मा तुमसे उसे कराना चाहती है, वह निश्चय ही प्राण-सत्ता की एक युक्ति होगी जिसके द्वारा वह ज्योति की किरण और शक्ति की क्रिया से बचना चाहती है ।   

 

१८ - ५ - १९३२ 

 

*

 

आज  मेरे मन में एक विचार आया हे : ''क्यों तुम प्राणिक सत्ता के नियंत्रण के विषय में अपने ऊपर इतनी जबरदस्ती कर रहे हो? अच्छा हो तुम अपने विचारों और कामनाओं को माताजी के आगे खोलकर रखने की चिंता मत करो; वरंच तुमपर कार्य करना माताजी पर छोड़ दो '' 

 

यदि तुम चाहते हो कि माताजी तुम्हारे अंदर कार्य करें तो तुम्हें अपने विचारों और कामनाओं को उनके सामने रखना और बहिष्कृत करना होगा ।

 

३ - १ - १९३३ 

 

*

 

माताजी के नाम अपना कल का पत्र पढ्ने पर आज मुझे लगता है मानो के '' अएर ' ' के बारे में मेरे अशुद्ध विचारों को उनके सामने रखने से कोई विशेष प्रसब्र नहीं हुई /

 

तुम्हारे इन बातों के लिखने से माताजी को किसी प्रकार की नाराजगी नहीं होती । यदि कोई ऐसी बातें हों तो उनके बारे में चुप रहने की अपेक्षा उन्हें लिखना ही अधिक अच्छा है ।

 

१ - ६- ११

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शरीर को नीरोग करने के लिये माताजी की शक्ति का कार्य

 

शरीर में निहित शक्ति इस तरह की चीज़ें नहीं किया करती । माताजी की शक्ति ही ऐसी चीजों करती है, जब कोई उसे पुकारता है और अपने- आपको उसकी ओर खोलता है । जिन लोगों ने कभी योग नहीं किया और किसी चीज के विषय में सचेतन नहीं हैं, वे लोग भी इस तरह, कारण जाने बिना अथवा जिस रीति से उनका रोग ठीक किया गया उसे अनुभव किये बिना, रोगमुक्त हो जाते हैं । शक्ति ऊपर से आती है अथवा अवतरित होते समय वह चारों ओर से घेर लेती है और बाहर से भीतर प्रवेश करती है अथवा भीतर अवतरित होने के बाद भीतर से बाहर आती है । जब तुम शक्तियों के कार्य के विषय में सचेतन होते हो तब तुम क्रिया को अनुभव करते हो ।

 

इसका (जागरण का) मतलब है पीछे से चैत्य पुरुष का सज्ञान कार्य करना । जब यह सामने की ओर आ जाता है तब यह मन, प्राण और शरीर पर छा जाता है और उनकी क्रियाओं को चैत्यभावापन्न बनाता है । यह अभीप्सा करने और निःसंशय होकर माताजी के प्रति पूर्णरूपेण मुंड जाने और आत्मसमर्पण करने पर सबसे उत्तम रूप में सामने आता है । पर जब आधार तैयार हो जाता है तब कभी-कभी यह स्वयं अपने- आप भी सामने आ जाता है ।

 

५-५-११३३

 

जब मैं नींद से उठा तो मैंने पाया कि मेरे अंदर सर्दी हे मेरी चेतना माताजी की शक्ति को उतार लायी और सर्दी गायब हो गयी अन्य कष्टों के लिये भी मैंने इसी प्रक्रिया का प्रयोग किया । मैं जानना चाहता हूं कि क्या 'शक्ति ' के लिये अपनायी गयी विधि ठीक थी या नहीं

 

यह बिलकुल ठीक तरीका है । यह बहुत अच्छा है कि तुम ' शक्ति ' का प्रयोग करना सीख रहे हो ।

 

२७ - ८ - १९३४

 

*

 

यह मेरा एक? तथ्य है कि जब शरीर में ?? प्रबल और लू विरोध

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हो तो स्वयं शरीर पर अधिक सीधा कार्य करने के लिये शक्ति के एक यंत्र के रूप में भौतिक साधनों की कुछ सहायता लेना लाभदायक सिद्ध .हो सकता है; क्योंकि उस हालत में शरीर यह अनुभव करता है कि वह विरोध का सामना करने में दोनों ओर से । भौतिक तथा अतिभौतिक दोनों साधनों से, सहारा पा रहा है । माताजी की शक्ति एक साथ ही दोनों के द्वारा कार्य कर सकती है ।

 

१ -१ - १९३६

 

*

 

प्रायः पंद्रह दिन से अधिक हुए प्रत्येक दिन जब मैं प्रणाम के समय माताजी का स्पर्श पाता हूं तब मुझे एक प्रकार के प्रबल पोषण का अनुभव होता है और उसके साथ प्रसत्रता और शक्ति भी मिली होती हे मानों एक नया पदार्थ मेरे भौतिक शरीर तक में ढाला जा रहा हो ।

 

चूंकि तुम अस्वस्थ हो, इसलिये माताजी तुम्हारी भौतिक सत्ता में, उसके सत्त्व को नया बनाने के लिये, दिव्य शक्ति और स्वास्थ्य का पोषक पदार्थ ढालती हैं ।

 

४ - ११ - ११३४

 

रोग को ठीक करने में माताजी की क्रिया

 

हाल ही में माताजी के सामने एक रोगी का जो मामला रखा गया था उसमें उनकी क्रिया किस आधार पर आगे बढ़ी?

 

माताजी ने उस सारे मामले 'के संबंध में अपने आंतरिक प्रत्यक्ष के आधार पर कार्य किया; वे केवल बाहरी तथ्यों के ही नहीं बल्कि जिस चीज को वे उनके पीछे स्थित अनुभव करती या देखती हैं उसके आधार पर कार्य करती हैं ।

 

२१ - ८ - १९३५  '

 

*

 

'क्ष ' का अपनी कटि- सीध- पीड़ा के विषय में मुझे लिखा गया पत्र मैंने उसी दिन नहीं अगले दिन माताजी को भेजा तो भी '' के बिलकुल नये पत्र से जान पड़ता हे कि उसका दर्द मुझे वह पत्र पहुंचने के तुरत बाद ही हो गया था क्या उस पत्र का विषय माताजी को बताये

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जाने से पहले ही उसका आप- से- आप परिणाम उत्पत्र हो गया था ?

 

' ' ने उसी दिन ' क्ष ' के ददे के बारे में माताजी को बताया था -इसलिये स्वयं पत्र का आप-से- आप परिणाम उत्पन्न होने की कल्पना करने की जरूरत नहीं । किंतु, ऐसा स्वतः -प्रवृत्त परिणाम प्रायः ही या तो पत्र लिखने के तुरंत बाद या उसके माताजी के वायुमण्डल में प्रवेश करने पर अवश्यमेव पैदा होता है ।

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