श्री माताजी के विषय में

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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Mother Vol. 25 496 pages 1972 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्री माताजी के विषय में 439 pages 1973 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Shyam Sunder Jhunjhunwala
  Ravindra
Part I by Shyam Sundar Jhunjhunwala, Part II by Jagannath Vedalankar, Part III by Ravindra  PDF    LINK

११ 

 

कतिपय स्पष्टीकरण

 

श्रीमाताजी के चक्र का तात्पर्य

 

मैं प्रायः श्रीमाताजी के चक्र और उसके अर्थ के विषय में सोचता रहा हूं मैंने इसे इस प्रकार समझा है :

मध्य का वृत्त- परात्पर शक्ति/

चार भीतरी दल- अतिमानस से अधिमानस तक कार्य करनेवाली चार शक्तियां /

बारह बाहरी दल- अधिमानस से संबंध और मन तक उन चार शक्तियों का बारह शक्तियों में विभाग!

क्या आपके विचार में मैंने ठीक-ठीक अर्थ समझा है?

 

मूलत: (साधारण मूलतत्त्व में) १२ शक्तियां वे स्पंदन हैं जो अभिव्यक्ति के लिये आवश्यक हैं । ये बारह आरंभ से ही श्रीमाताजी के सिर के ऊपर देखी गयी हैं । इस तरह वास्तव में सूर्य से निकलनेवाली १२ किरणें हैं ७ नहीं । ग्रह आदि भी १२ हैं इत्यादि । शक्तियों के ब्योरे का ठीक-ठीक अर्थ करने का जहांतक संबंध है, मैं कोई ऐसी चीज नहीं देखता जो तुम्हारे बताये हुए क्रम के विरुद्ध हो । यह अर्थ अच्छी तरह लग सकता है ।

 

१५ - ४ - ११३४

 

माताजी की ध्वजा का तात्पर्य

 

नीली ध्वजा के विषय में । मैं माने लेता हूं कि तुम्हारा मतलब सफेद कमल-वाली ध्वजा से है । यदि ऐसा है तो वह माताजी की ध्वजा ' है, क्योंकि सफेद कमल उनका प्रतीक है जैसे लाल कमल मेरा । ध्वजा का नीला रंग श्रीकृष्ण के रंग के रूप में अभिप्रेत है और इसलिये आध्यात्मिक या दिव्य चेतना का द्योतक है जिसे स्थापित करना माताजी का कार्य हैं ताकि वह भूतल पर शासन कर सके । इस ध्वजा को आश्रम की ध्वजा के रूप में प्रयुक्त करने का अर्थ यह है कि हमारा कार्य इस चेतना को उतारना और इसे संसार के जीवन को नेत्री बनाना है ।

१४ - ३ - ११४१

३४८


श्रीमां के लिये जीवन की शक्तियों को जीतना

 

इस योग का उद्देश्य जीवन की शक्तियों का त्याग करना नहीं है, बल्कि एक आंतरिक रूपांतर ले आना और जीवन-संबंधी अपने मनोभाव और शक्तियों के व्यवहार में परिवर्तन ले आना ही इसका उद्देश्य है । ये शक्तियां अभी अहंकार- पूर्ण भाव में और भगवद्विरोधी उद्देश्यों के लिये व्यवहुत होती हैं; इनका व्यवहार भगवान के प्रति आत्मसमर्पण के भाव के साथ और भागवत कार्य के उद्देश्य से करना होगा । श्रीमां के लिये इन्हें फिर से जितने का तात्पर्य यही है ।

 

योगशक्ति के सहायक के रूप में बाह्य साधनों का प्रयोग

 

निःसंदेह, व्यक्ति को इन बाह्य साधनों का प्रयोग करना ही होगा और इस विषय में व्यक्ति को सावधान भी रहना होगा ताकि यथासंभव अधिक-से- अधिक साधन उसके पक्ष में हों और उसकी ओर से विरोधी शक्ति को यथासंभव कम-से- कम सुयोग मिले । परंतु हमारे लिये किसी भी बाहरी क्रिया की सफलता तबतक सुनिश्चित नहीं हो सकती जबतक उसके पीछे बढ़ती हुई यौगिक दृष्टि और यौगिक शक्ति न हो ।

 

स्वयं हमारे सामने बाहर से भीषण कठिनाइयां आयी हैं, पेरिस-स्थित उपनिवेश-मन्त्री को हमारे विरुद्ध अर्जियां भेजी गयीं और यहां के गवर्नर से रिपोर्ट मांगी गयी जिसपर यदि कार्रवाई की जाती तो आश्रम भीषण संकट में पंड जाता ।

 

   हमने बहुत हल्के और सादे ढंग के बाहरी साधनों का प्रयोग किया, अर्थात् माताजी के भाई (फांस-शासित विषुवदीय अफ्रीका के गवर्नर ) को  (और फांस के एक अग्रगण्य लेखक, हमारे एक शिष्य को भी ) प्रेरित किया कि वे फांस के मन्त्रिमण्डल और हमारे बीच मध्यस्थता करें, परंतु औपनिवेशिक कार्यालय की कार्रवाई को निर्धारित करने के लिये, यहां के गवर्नर से अनुकूल रिपोर्ट प्राप्त करने के लिये, यहां जो कुछ-एक लोग हमारे विरुद्ध थे उनके मनों को बदलने के लिये तथा दूसरों की शत्रुता को विफल करने के लिये मैंने अधिकतर तो एक प्रबल आंतरिक ' शक्ति ' का ही प्रयोग किया । इन सब विषयों में मुझे सफलता प्राप्त हुई और यहां हमारी स्थिति पहले से अधिक दुढ हो गयी है; विशेषकर यह कि एक नया और अनुकूल गवर्नर यहां आ गया है फिर भी हमें सजग रहना है ताकि स्थिति फिर से संकटग्रस्त न हो जाये । साथ

३४९ 


ही इस सबके परिणाम-स्वरूप एक हानि भी हुई है, -हमसे कहा गया है कि हम अब और अधिक घर न खरीदें, न ही किराये पर लें, बल्कि इसके स्थान पर अपने घर बनवायें । यह भूमि और अधिक धन के बिना कठिन ही है, अत: इस समय हम आश्रम का विस्तार करने में असमर्थ हैं ।

 

   परंतु कुछ अंशों में यह कोई हानि नहीं, क्योंकि दीर्घकाल से मेरी यह इच्छा रही है कि और अधिक विस्तार को स्थगित करके आश्रम के आंतरिक जीवन को अधिक पूर्ण रूप से आध्यात्मिक अर्थ में सुदृढ़ किया जाये ।

 

यह सब मैंने इस बात के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है कि यौगिक दृष्टिकोण से वस्तुओं के साथ कैसे निपटना होता है ।

 

२० - ३ - ११३५

 

भौतिक विस्तार और आंतरिक प्रगति

 

क्या माताजी का अधिक घर लेते जाना उनके कार्य की प्रगति का विद्वन् है?

 

यह तो भौतिक विस्तार का चिह्न है । प्रगति उस चीज पर निर्भर करती है जो इसके पीछे है; यदि आंतरिक प्रगति वहां न हो तो भौतिक विस्तार का कोई अधिक प्रयोजन नहीं ।

 

७ - ७ - ११३३

 

व्यापार तथा आध्यात्मिक लाभ

 

अगर तुम माताजी को रुपया दो तो वह काय ' व्यापारिक ' नहीं बन सकता; व्यापार में व्यक्तिगत लाभ की भावना होती है, और यहां तुम्हारा लाभ केवल आध्यात्मिक है ।

 

२ - ४ - ११४

 

माताजी और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति

 

श्रीमाताजी  बहुमूल्य और सुन्दर कपड़े क्यों पहनती है ?

३५० 


क्या तुम्हारी धारणा यह है कि पृथ्वी पर दरिद्रता और कुरूपता के द्वारा ही भगवान का प्रतिनिधित्व होना चाहिये ।

 

सौन्दर्य भी ठीक उतने ही अंश में भगवान का एक प्रकाश है जितने अंश में ज्ञान, शक्ति या आनंद । भला कोई यह प्रश्न भी करता है कि श्रीमाताजी ज्ञान या शक्ति के द्वारा क्यों भागवत चेतना को अभिव्यक्त करना चाहती है, अज्ञान और दुर्बलता के द्वारा क्यों नहीं करती? यह प्रश्न उनके कलापूर्ण और सुन्दर कपड़े पहनने के विरुद्ध उठाये हुए प्राणपुरुष के प्रश्न से अधिक मूर्खतापूर्ण या अर्थहीन न होगा ।

 

२७-२-१९३३

 

चाहे माताजी सुन्दर साड़ियां पहनें या, चाहे महल मैं रहें या जंगल में इससे क्या उनकी चेतना में कोई अन्तर पड़ता है? भला. आंतरिक सद्वन्द्व में ये बाहरी चीजों क्या जोड़ सकती हैं? संभवत: उसे घटाने का ही कारण बनती होगी

 

बाहरी चीज़ें आंतर सद्वस्तु के अंदर की ही किसी चीज की अभिव्यक्ति होती हैं । सुन्दर साड़ी या महल वस्तुओं में विद्यमान सौन्दर्य-तत्त्व की अभिव्यक्तियां हैँ और यही उनका प्रधान मूल्य है । भागवत चेतना इन सब चीजों से बंधी हुई नहीं है और न उसमें कोई आसक्ति है; परंतु यदि वस्तुओं में विद्यमान सौंदर्य भी उसके अभीप्सित कम का अंग हो तो वह इन सब चीजों से विरत होने के लिये भी बाध्य नहीं है । जब आश्रम अभी बना नहीं था तब माताजी पैबन्द लगी हुई सूती साड़ियां पहनती थीं । जब उन्होंने काम का भार लिया तब यह आवश्यक हो गया कि वे अपनी आदतों को बदलें और इसीलिये उन्होंने ऐसा किया ।

 

२२-१०-१९३५

 

अतिमानस में निवास और संसार में रुचि

 

क्या माताजी के लिये या किसी के लिये भी यह किसी प्रकार संभव भी है कि वह ' अधिमानस ' में ऊपर या फिर नीरवता में ही निवास करते हुए संसार में किसी प्रकार की दिलचस्पी ले क्योंकि संसार तो वहां से  धूलि का एक कणमात्र अनुभूति होगा /

३५१ 


यह पूर्णतया इस पर निर्भर करता है कि किस आधार पर व्यक्ति नीरवता में या उससे ऊपर निवास करता है । ' भागवत चेतना ' की तो धूलि-कण में भी उतनी रुचि हो सकती है जितनी अनन्तता में ।

 

८ - ८ -१९ ३४

 

प्रफुल्लता और यौगिक प्रसन्नता

 

प्रफुल्लता और निश्चिंतता का जहांतक प्रश्न है-हलका ' परवाह नहीं ' वाला मनोभाव वह अंतिम चीज है जिसे रखने की सलाह हम किसी को देंगे । माताजी ने तो प्रसन्नता की बात कही थी, और अगर उन्होंने ' लाइट-हाटेड '  (मामूली हंसी-खुशी) शब्द का व्यवहार भी किया हो तो उससे उनका मतलब कोई, हल्की या निबोध प्रफुल्लता और निश्चिंतता नहीं था-यद्यपि एक गम्भीरतर और सूक्ष्मतर प्रफुल्लता को यौगिक स्वभाव के एक अंग के रूप में स्थान प्राप्त हो सकता है । उनका मतलब था कठिनाइयों के सामने भी प्रसन्नतापूर्वक समत्व का भाव बनाये रखना और इसमें यौगिक शिक्षा या उनके अपने अभ्यास के विरुद्ध कोई बात नहीं है । ऊपरी सतह पर प्राण-प्रकृति (सच्ची प्राण-प्रकृति की गहराइयां भिन्न प्रकार की होती हैं) एक ओर तो हंसी-खुशी और भोग से और दूसरी ओर दुःख, निराशा, उदासी और दुर्घटना से आसक्त होती है, - क्योंकि ये ही उसके लिये जीवन के अभीप्सित प्रकाश और अंधकार हैं; परंतु उज्ज्वल या विशाल और मुक्त शांति या आनंदमय तीव्रता या, सबसे उत्तम, इन दोनों का एक में घुल-मिल जाना ही योग में अंतरात्मा और मन दोनों को  - और सच्चे प्राण की भी-सच्ची स्थिति है । एकदम मानव साधक के लिये भी ऐसी स्थिति को प्राप्त करना त रूप से संभव है, इसे प्राप्त करने से पहले किसी को दिव्य होने की आवश्यकता नहीं है ।

 

सच्चा प्रेम और ईर्ष्या

 

केवल एक बात मुझे यहां अवश्य लिखनी होगी जिससे तुम्हारी बुद्धि में कहीं कोई भ्रांत भावना न बनी रह जाये । एक चिट्ठी के एक अंश में तुमने शायद ऐसा कहा है कि माताजी ने तुमसे यह कहा था कि साधारण जीवन में सच्चे प्रेम के अंदर ईर्ष्या का होना अनिवार्य है और अगर एक को दूसरी जगह प्रेम करते हुए देखने पर दूसरे में ईर्ष्या न हो तो फिर इसका मतलब है कि वे एक-

३५२ 


दूसरे को प्रेम नहीं करते । निश्चय ही तुमने माताजी की बात को सुनने और समझने में अपूर्व ढंग की भूल की होगी । इस विषय में माताजी ने जो कुछ बराबर कहा है और जैसा उनका विचार रहा है उसके ठीक विपरीत यह बात है और उनके समूचे ज्ञान और अनुभव के एकदम विरुद्ध है । यह तो ईर्ष्या और प्रेम के विषय में साधारण मन की भावना हे, उनकी नहीं । उन्हें अच्छी तरह याद है कि उन्होंने ठीक इसके विपरीत तुमसे यह कहा था कि साधारण जीवन में भी, यदि मनुष्य में सच्चा प्रेम हो तो, वह ईर्ष्या नहीं करता । मनुष्य के अहंकारपूर्ण निम्न प्राण में अपनी पसंद की चीजों या व्यक्तियों को पकड़ रखने और अधिकृत कर रखने की एक सहजवृत्ति होती है और उसी निम्न प्राण की एक साधारण क्रिया है ईर्ष्या, इससे भिन्न यह और कोई चीज नहीं हो सकती । यहां पर मैंने इस बात को स्पष्ट कर देना इसीलिये अधिक अच्छा समझा कि तुम्हारे अंदर इस बात के विषय में कोई भ्रांत धारणा न रह जाये कि निम्नतर प्राण-प्रकृति की ऐसी क्रियाओं को अंतरात्मा के सत्य के अंदर कोई अनुमति या आधार नहीं मिला करता; उनका संबंध प्राणगत अज्ञान से होता है और वे प्राणगत अहंकार के परिणाम होती हैं ।

 

१ - २ - ११३३

 

प्राणिक प्रेम की स्तुति करने की भूल

 

प्राणिक प्रेम का जादू कैसा भी क्यों न हो, जब एक बार वह झड़ जाये और मनुष्य एक अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंच जाये तो उसे प्राणिक प्रेम को यों देखना चाहिये कि वह कोई वैसी महान् वस्तु नहीं थी जिसकी उसने कल्पना की थी । उसका यह अतिरंजित मूल्यांकन अपने मन में बनाये रखने का अर्थ है अपनी चेतना को उस महत्तर वस्तु की ओर आकर्षण से रोके रखना जिसकी तुलना में प्राणिक प्रेम एक क्षण भी नहीं टिक सकता । यदि कोई मनुष्य एक घटिया अतीत के लिये इस प्रकार का तीव्र उत्साह बनाये रखे तो वह उत्साह निश्चय ही समग्र व्यक्तित्व को उच्चतर भविष्य के लिये विकसित करने के कार्य को अधिक कठिन बना देगा । निःसंदेह माताजी यह नहीं  चाहतों कि कोई व्यक्ति पीछे मुड़कर पुराने प्राणिक प्रेम की ओर उत्साहपूर्ण सराहना के भाव से .दृष्टि डाले । सचमुच, वस्तुओं के किसी भी यथार्थ मूल्यांकन में वह  '' इतना तुच्छ '' है । यह दो व्यक्तियों के प्राणिक रागावेश की तुलना का या उनमें से एक के रागावेश को तुच्छ बताकर दूसरे के रागावेश की अतिशय

३५३


सराहना करने का प्रश्न बिलकुल ही नहीं है । इस सारी-की-सारी चीज को ही क्षीण होकर नगण्य हो जाना होगा और भूतकाल की उन छायामय रचानाओं के गर्म में विलीन हो जाना होगा जिनका अब कोई महत्त्व ही नहीं ।

 

१९३४

 

यौन क्षुधा को भोग के द्वारा मिटाने का भ्रामक विचार

 

इस विचार के संबंध में सचाई तुम्हें माताजी पहले ही बता चुकी हैं । यह विचार कि यौन लालसा का पूरी तरह उपभोग करने से वह समाप्त हो जायेगी और सदा के लिये मिट जायेगी, प्राण के द्वारा अपनी कामना के लिये अनुमति पाने को मन के सामने रखा गया भ्रामक बहाना ही है; इसके अस्तित्व का और कोई कारण या सत्य या औचित्य नहीं । यदि कभी-कभी किया गया उपभोग यौन तृष्णा को खदबदाता रखता है तो आ उपभोग तो तुम्हें केवल उसकी दलदल में ही फंसा देगा । दूसरी भूखों की तरह यह भूख भी क्षणिक तृप्ति से मिटती नहीं; कुछ देर रुकी रहकर यह फिर जग उठती है और पुन: उपभोग चाहती है । न तो तर माल और न आकण्ठ उपभोग ही इसका ठीक इलाज हैं । यह तो बस मिट सकती है एक आमूल चैत्य परित्याग या पूर्ण आध्यात्मिक उद्घाटन से जिसके साथ एक ऐसी चेतना का अधिकाधिक अवतरण हो जो इसे नहीं चाहती और जिसके पास अधिक सच्चा आनन्द है ।

 

२३ - ४ - ११३७

 

समुचित अभिव्यक्ति के लिये श्रीमां की स्वीकृति

 

तुम यह क्यों समझते हो कि माताजी अभिव्यक्ति के लिये स्वीकृति नहीं देतीं  -बशर्ते कि वह समुचित चीज की समुचित अभिव्यक्ति हो, - अथवा यह क्यों मान लेते हो कि निश्चल-नीरवता और सच्ची अभिव्यक्ति परस्पर विरोधी चीजों हैं? सच पूछा जाये तो सबसे सच्ची अभिव्यक्ति अखण्ड आंतर निश्चल-नीरवता में से ही आती है । आध्यात्मिक निश्चल-नीरवता महज शून्यता -खालीपन ही नहीं है; और न उसे पाने के लिये समस्त क्रियाकलाप से दूर हटना ही अनिवार्य है!

३५४


माताजी द्वारा भारतीय संगीत का मूल्यांकन

 

तुम्हारे इस विचार से अधिक विचित्र भला और कौन-सी बात हो सकती है कि माताजी केवल यूरोपियन संगीत पसंद करती हैं और भारतीय संगीत को न तो पसंद करती हैं न उसे कोई मूल्य देती हैं-वह या तो उसे पसंद करने का महज दिखावा करती हैं या उसे यों ही होने देती हैं जिससे लोग निरुत्साहित न हों! याद रखो कि ये माताजी ही हैं जिन्होंने बराबर तुम्हारे संगीत की प्रशंसा की है और उसका समर्थन किया है और तुम्हारे पीछे अपनी शक्ति प्रयुक्त की है जिससे कि तुम्हारा संगीत आध्यात्मिक परिपूर्णता और सौन्दर्य की ओर विकसित हो । मैंने केवल तुम्हारे काव्य में और उसकी बारीकियों में सबसे अधिक तुम्हें सहायता दी; माताजी केवल साधारण शक्ति के द्वारा ही उसमें सहायता दे सकी, क्योंकि वे मूल कविताओं को नहीं पढ़ सकती थी (यद्यपि अनुवाद में उन्हें वे बहुत सुन्दर लगीं), पर संगीत में बात ठीक इसके विपरीत हुई हे । निश्चय ही तुम यह नहीं कह सकते कि इन सब बातों को तुमने अनुभव नहीं किया । और ' ' के विकास की बात? वह भी भारतीय संगीत था, यूरोपियन नहिं । और फिर मैं जब तुम्हारे संगीत की प्रशंसा तुम्हें लिखता हूं तब क्या तुम यह समझते हो कि मैं केवल अपनी ही राय प्रकट करता हूं? अधिकांश समय हम दोनों के भावों को प्रकट करने के लिये मैं केवल उन्हीं के शब्दों का व्यवहार करता हूं ।

 

२० - १२ - १९३२

 

माताजी का संगीत

 

माताजी के संगीत को प्रायः ही ' ' ने इस या उस राग का भारतीय संगीत बतलाया है । माताजी के भीतर से जो कुछ आता है उसे ही वे बजाती हैं-वे साधारणतया कोई निश्चित रूप से तैयार किया हुआ यूरोपियन या भारतीय राग नहीं बजाती- भारतीय संगीत तो वास्तव में उन्होंने कभी सीखा ही नहीं है|

 

११ - १ - १९३४ 

 

*

 

माताजी ने बचपन से लेकर बड़ी होने तक गाना-बजाना किया है-इसलिये

३५५


कई बार गाने या बजाने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती ।

 

१५-९-१९३३

 

*

 

संगीत के पीछे क्या है यह समझने के लिये संगीत-कला का ज्ञान होना जरूरी नहीं है । अवश्य ही माताजी संगीत-कला का प्रभाव उत्पन्न करने के लिये नहीं, बल्कि उच्चतर लोकों से कुछ चीजों नीचे उतार लाने के लिये बाजा बजाती हैं और कोई भी आदमी, जो खुला है, उसे ग्रहण कर सकता है ।

 

१५-१-११३३

 

*

 

(माताजी के संगीत की) समझ संगीत के ज्ञान से नहीं आती; न वह मन के प्रयत्न से ही आती है-वह आती है अंदर से निश्चल-नीरव बनने से, भीतर खुलने और उनके संगीत में जो कुछ है उसकी स्वयंस्कृर्त अनुभूति प्राप्त करने से ।

 

१९३२ 

 

*

 

हां । यह सब बिलकुल सच है । माताजी संगीत में प्रार्थना या आवाहन ही करती हैं ।

 

१-६-११३५

 

*

 

क्या यह सच है कि जब माताजी 'ऑरगन' बजाती हैं तब के हमारी सहायता करने के लिये उच्चतर लोकों के देवताओं का नीचे आवाहन करती हैं?

 

सचेतन रूप में नहीं ।

 

१-२-१९३४

 

*

 

क्या इसका मतलब यह है कि देवता उनके संगीत से आकर्षित होते और नीचे उतर आते हैं?

३५६ 


वे आकर्षित हो सकते हैं । 

१० - २ - १९३४

*

 

क्या बाना बनाते समय माताजी कोई चीज प्रकट करती है7 अगर वे कोई चीज नहीं प्रकट करती हैं?

 

अगर बे कोई चीज नहिं प्रकट करती तो भला वे बाजा बजायें ही क्यों?

 

१९-४-१९३४

 

संगीत और महालक्ष्मी

 

आज के संगीत के समय '' और '' के गीत सुनने का मुझ पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि मेरे मन में प्रश्न उठा-क्या यह माताजी का महालक्ष्मी-पक्ष है जो इन दिनों काम कर रहा है?

 

संगीत के दिनों में सदा-सर्वदा महालक्ष्मी-पक्ष ही सवप्रधान होता है।

 

२५-१२-१९३३

 

एक रोमांचक अनुभव

 

जब मैंने माताजी को 'Priers et meditations" (''प्रीऐर ए मेदितसियों"-''प्रथना और ध्यान'' मूल फ्रेंच में) पढ़ते सुना तो मेरा शरीर रोमांचित हो उठा? कैसे?

 

जब एक तीव्र ' शक्ति ' बाहर की ओर प्रकट की जाती है तो वह स्वभावत: ही उसे ग्रहण करनेवाले लोगों में पुलक पैदा करेगी ।

 

कला और परम्परा

 

माताजी ' क्ष ' के चित्रों को विकराल और दानवी अनुभव करती हैं, वे उन्हें कला के नाम से गौरवान्वित नहीं करना चाहती । परंतु यह इसलिये नहीं कि वे परम्परा से हट गये हैं । माताजी परम्परा में विश्वास नहीं करती -वे

३५७


मानती हैं कि ' कला ' को सदा ही, नये रूपों का विकास करना चाहिये-किंतु फिर भी यह आवश्यक है कि ये रूप ' सौन्दर्य ' के एक सत्य के अनुरूप हों जो सार्वभौम और सनातन है, भगवन् का ही एक अंश है । जहांतक तुम्हारे चित्र का प्रश्न है, उसे वे भावव्यज्जक पाती हैं । उन्हें तुरंत अनुभव हो गया कि उसका क्या अर्थ है- अतः '' की आलोचना नहीं टिक सकती ।

 

८ - १२ - ११३३

 

कला में ठीक प्रभावों के सम्पर्क में रहने का महत्त्व

 

एक समय माताजी ने तुमसे कहा था कि अपनी मानवाकृति के चित्रों में तुम ठीक ' प्रभाव ' के संपर्क में नहीं प्रतीत होते और तुमने कहा था कि तुम्हें  ' प्रकृति ' में विद्यमान शाश्वत ' सौन्दर्य ' के साथ तो सम्पर्क अनुभूत होता है पर मानवाकृति के संबंध में तुम्हें वैसा संपर्क प्राप्त नहीं । अतएव, अब क्योंकि तुम योग का अभ्यास कर रहे हो और केवल ठीक ' प्रभावों ' के साथ ही सम्पर्क स्थापित करना तुम्हारे लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, यह अधिक अच्छा होगा कि तुम फिलहाल मानव आकृति और छवि के साथ सरोकार मत रखी । योग में वह चीज भी, जो मन को एक छोटी-सी ब्योरे की बात प्रतीत हो सकती है, उन वस्तुओं का द्वार खोल सकती है जिनके चेतना पर प्रबल प्रभाव पड़ते हैं और जो उसके सामंजस्य को अस्तव्यस्त कर देती हैं या अन्त:प्रेरणा, अन्तर्दर्शन  अनुभव के मूलस्रोतों में हस्तक्षेप करती है ।

 

११३३

 

फ्रेंच का ज्ञान और माताजी के साथ घनिष्ठता

 

क्या यह कहना ठीक हे कि जो फ्रेंच जानते हैं के भविष्य में माताजी की सेवा अधिक अच्छे रूप में कर सकेंगे?

 

यह अधिकांश में माताजी के एक अंश के साथ एक प्रकार की घनिष्ठता उत्पन्न करता है ।

 

३ - ५ - १९४५

३५८ 


माताजी की पुस्तकें पढ़कर उनकी चेतना के साथ एकात्मता प्राप्त करना

 

ब मैं माताजी की 'प्रार्थनाएं ' और ' वार्तालाप ' पड़ता हूं तब मैं अनुभव करता हूं मानों मैं माताजी की चेतना के संपर्क में आ जाता हूं इससे मेरे मन में यह विचार उठता है कि क्या यह संभव हे कि उनकी पुस्तकें पढ़कर मनुष्य अपनी चेतना को इतना तीव्र बना ले कि वह उनकी चेतना के साथ एक हो जाये और उसके फलस्वरूप प्राण और दूसरे अंग भी उत्रत हो जायें?

 

जो कुछ तुम पढ़ते हो उसकी सहायता से माताजी की चेतना के साथ अपने- आपको तीव्र भाव से एक कर देना संभव है-उस हालत में जिस परिणाम की बात तुम लिखते हो वह आ सकता है । उसका प्रभाव एक हद तक प्राण पर भी पड़ सकता है ।

 

२१ - ८ - १९३५

 

गुरु, भगवन् और अवतार

 

तुमने मुझे जो तीन पत्र भेजे थे उनमें से गुजरने का मुझे बिलकुल अभी ही समय मिला है 1 अवश्य ही, ' क्ष ' को  (कन्वसेशन्स) पुस्तक मिल सकती है । तुम्हारा दूसरा मित्र जो चीज पाना चाहता है उसे, यहां आये बिना, जहां वह है वहीं ग्रहण कर सकना उसके लिये सर्वथा संभव है यदि उसके हृदय में माताजी के प्रति भक्ति है और है तीव्र पुकार ।

 

अब अवतार के प्रश्न के संबंध में । मैं नहीं समझता कि इस विषय में आग्रह करना लाभदायक होगा । गुरु को अवतार मानने की लोगों की, बहुत ही अधिक, एक प्रवृत्ति बन चुकी है, विशेषकर बंगाल में । प्रत्येक शिष्य के लिये गुरु भगवान् ही होता है, पर एक विशेष अर्थ में -क्योंकि यह माना जाता है कि गुरु भागवत चेतना में रहता है, उनके साथ एकत्व प्राप्त कर चुका है, और जब वह शिष्य को कुछ देता है तो भगवान् ही वह चीज देता है और जो चीज वह देता है वह है भगवान् की चेतना जो भगवान् गुरु के भीतर हैं । परंतु यह चीज और अवतारवाद दो अलग- अलग वस्तुएं हैं । वे महापुरुष जिनका, अवतार कहकर, जयजयकार किया गया, हाल में तो अधिकतर पूर्वी बंगाल में ही - हैं; जिनका भी आविर्भाव आ उनमें से प्रत्येक को उस कार्य

३५९


की धारणा थी जो जगत् के लिये करना था और थी यह अनुभूति कि एक भागवत शक्ति उनके द्वारा कार्य कर रही है । यह बात दिखलाती है कि वहां अभिव्यक्ति के लिये दबाव था और प्रत्येक दृष्टान्त में ही कोई चीज अभिव्यक्त हुई, क्योंकि जब भी भागवत शक्ति को पुकारा जाता है तो उसकी कोई कला सदा ही आती है, परंतु ऐसा नहीं दीख पड़ता कि कहीं भी पूर्ण अवतरण हुआ हो । इसी चीज ने इस धारणा को जन्म दिया होगा कि वहां अवतार का जन्म हो गया है । अब जो 'आविर्भाव ' होने को है उसके विषय में सदैव यह कहा गया है कि ऐसे बहुत-से लोग होंगे जिनमें यह लगेगा कि वह हो गया है, किंतु वास्तविक अवतार तबतक पर्दे के पीछे कार्य करता रहेगा जबतक विधि- नियत घड़ी नहीं आ जाती ।

 

जिसे तुमने अपने गुरु का कहा हुआ वचन कहकर उद्धृत किया है उससे मुझे यह ग्रहण नहीं होता कि उनका दावा था कि मैं अवतार हूं 1 मुझे लगता है कि उनका दावा था कि मैं एक भागवत शक्ति हूं जो भगवती माता के कार्य के लिये मार्ग प्रशस्त कर रही है और साथ ही उन्होंने दावे के साथ यह निर्देश भी दिया कि वे जो कुछ भी करना चाहते थे वह सब उनके अपने अनुयायियों द्वारा ही नहीं बल्कि अन्य सम्प्रदाय के लोगों द्वारा भी अभिव्यक्त किया जायेगा, जो सम्प्रदाय स्पष्टत: ही उन लोगों से संघटित होगा जिनके गुरु वे नहीं रहे वरन् कोई अन्य अध्यक्ष एवं आचार्य थे । यह भी उनके इस कथन से सम्पूष्ट होता है कि संभवत: उनके शिष्यों से भिन्न कोई और उनके 'प्रकाश ' का यन्त्र बनेगा -  - अर्थात् उनके कार्य को चलाते रहने और श्रीमां की अभिव्यक्ति में सहायता करने का साधन बनेगा । यदि इसका अर्थ यह हो कि उन्होंने घोषित किया कि मैं अवतार हूं तो मैं नहीं देख पाता कि यह उस दूसरे कथन से कैसे मेल खा सकता है कि उनके देह त्यागने के बाद अवतार उनके बनाये आश्रम में आयेगा ।

 

मुझे पूरी तरह से ज्ञात नहीं कि 'अयोनिसम्भव ' से क्या अभिप्रेत है । अवतार सदा मानवीय माता के द्वारा होता है, यद्यपि दो-एक ऐसे अवतार भी हुए हैं जिनके अक्षतयोनि कुमारी से जन्म ग्रहण करने की घोषणा की गयी है  (ईसा और बुद्ध) । यदि हम एक अभूतपूर्व चमत्कार की ही कल्पना करें तो दूसरी बात हे, नहीं तो 'अयोनिसंभव ' का एकमात्र दूसरा अर्थ हो सकता है एक ऐसा अवतरण जैसा कभी-कभी हुआ करता है, अर्थात् परमेश्वर किसी ऐसे मानव में अभिव्यक्त हो जायें जो जन्म के समय ' विभूति ' था, पूर्ण अवतार नहीं । परंतु स्वयं तुम्हारे गुरु के किसी स्पष्ट वक्तव्य के अभाव में ये सब केवल कलपनाएं ' ही हैं ।

३६० 


तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में मैंने इतना अधिक लिख डाला है, पर मुझे संदेह है कि इसका कोई भी अंश अपने मित्रों को लिख भेजना तुम्हारे लिये आवश्यक या उचित है । इस विषय में उनके हृदय का अपना निजी भाव है; उसे आलोड़ित न करना या उसमें खलबली न पैदा करना ही मुझे अधिक अच्छा लगता है ।

 

२५ - ८ - १९३५

 

माताजी का विगत जन्मों की बातें कहना

 

माताजी केवल तभी लोगों से उनके पुराने जन्मों की बातें कहती हैं जब वह ध्यान के द्वारा निश्चित रूप में उनके गत जन्मों का कोई दृश्य या स्मृति देखती हैं, परंतु आजकल ऐसा बहुत कम होता है ।

 

३० - ६ - ११३३ 

 

*

 

माताजी साधारणतया अतीत जीवनों के भीतर दृष्टिपात नहीं करती; जब अतीत से कोई चीजों स्वयमेव उनके सामने आती हैं तब ही वे उन्हें देखती हैं ।

२४ - ७ - ११३४

 

मृत व्यक्तियों से मुलाकात

 

जब माताजी ने यह कहा था कि मृत व्यक्तियों से मिलने की चेष्टा करना अच्छा नहीं है तब उन्होंने यह बात आध्यात्मिक दृष्टि से कही थी जिसका पता साधारणतया प्रेतात्मवादियों को नहीं होता या जिसका वे कोई ख्याल नहीं करते ।

 

२५ - ८ - १९३६

 

दिवंगत आत्माओं को सहायता

 

क्या कोई ऐसा संकेत आपको प्राप्त हुआ जिससे आपको पता चला हो कि मेरे भाई की आत्मा सचमुच में अपने अंतकाल में माताजी की और गुरुदेव की ज्योति की शरण में आना चाहती थी?

३६१


माताजी विशिष्ट रूप से नहीं कह सकतीं क्योंकि कितने ही लोग रात को दूसरे छोर की ओर प्रयाण के लिये उनके पास आते हैं जिन्हें वे शरीर से नहीं जानती होतीं । तुम्हारा भाई बखूबी उनमें से एक रहा होगा और ' क्ष ' के दिये विवरण को दृष्टि में रखते हुए इसमें संदेह नहीं के बराबर है कि वह आया ही होगा ।

 

दुर्बल सहानुभूति का संकट

 

मैंने ध्यान से देखा हे कि संवेदनशील प्रकृति का झुकाव स्तुत .अधिक नीचे की ओर हो जाता हे जिससे वह उन लोगों से जो प्राणिक शक्तियों से मरे है: उन शक्तियों को अपने अंदर सहज ही घुसने देती है, विशेषकर तब जब कि उनकी कठिनाइयों के समय उनकी सहायतार्थ परोपकार की कामना के वश उनके प्रति भाविक सहानुभूति का भाव अपनाया जाता है /

 

 यह बहुत ही रोचक बात है-क्योंकि यह माताजी के इस सतत आग्रहपूर्ण कथन से मेल खाती है कि प्राणिक शक्तियों से अधिकृत लोगों के प्रति अपने अंदर सहानुभूति या किसी प्रकार का दुबल परोपकारी ढंग का भाव अनुभव करना अत्यंत ही संकटपूर्ण होता है क्योंकि वह हमारे अपने ऊपर उन शक्तियों का आक्रमण ला सकता है जो फिर कोई भी रूप ले सकता है । उनके लिये जो कुछ करने योग्य हो वह तो हमें करना ही चाहिये पर ऐसी समस्त दुर्बलता से बचना होगा ।

 

११ - १० - ११३६

 

माताजी की सहायता को प्रभावकारी ढंग से प्रवाहित करना

 

मनुष्य माताजी की सहायता के लिये एक प्रणालिका बन सकता है, किंतु इसमें यह विचार आड़े आता है कि मैं दूसरों की सहायता कर रहा हूं और जब तक यह वहां रहता है तब तक मनुष्य एक वस्तुत: प्रभावकारी प्रणालिका नहीं बन सकता ।

 

१७ - ४ - १९३५

३६२ 


माताजी का गुल प्रयोग

 

' ' ने शायद एक अनुभव का हवाला दिया होगा जिसमें माताजी शरीर से अलजीरिया में रहने पर भी पेरिस में बैठे हुए कुछ मित्रों की एक मंडली के सामने प्रकट हुई और एक पेंसिल उठाकर उन्होंने एक कागज पर कुछ शब्द लिखे । जब उन्हें यह संतोष हो गया कि यह संभव है तब उन्होंने उसे और आगे विकसित नहीं किया । यह उन्होंने उस समय किया था जब वे अलजीरिया में तेआ के साथ गुह्यविद्या का अभ्यास कर रही थीं । स्थूलीकरण संभव है, पर यह आसानी से नहीं होता -इसके लिये शक्तियों के ऊपर अत्यंत विरल और कठिन एकाग्रता करने की आवश्यकता होती है या किसी गुह्य प्रक्रिया की आवश्यकता होती है जिसके पीछे प्राण-जगत् की सत्ताएं होती हैं और वस्तुओं को स्थूल रूप प्रदान करती हैं, जैसा कि उन पत्थरों के विषय में हुआ था जो ' रेस्ट हाउस '  में हम लोगों के रहने के समय रोज फेंके जाते थे । परंतु दोनों ही हालतों में यह कोई चमत्कार नहीं है । परंतु, जैसा कि तुम कहते हो, इसे एक सामान्य या नित्य-नैमित्तिक व्यापार के रूप में करना मुश्किल से व्यावहारिक होगा और आध्यात्मिक दृष्टि से उपयोगी भी न होगा, क्योंकि कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं बल्कि एक गुह्य मनोमय-प्राणमय शक्ति ही यह क्षमता देती है । ऐसा करने से तो योग आध्यात्मिक रूपांतर की प्रक्रिया के बदले गुह्यविद्या की करामातों के प्रदर्शन मै बदल जायेगा ।

 

२० - १० - ११३५

 

माताजी का नारद को देखना

 

मेरा ख्याल है कि नारद के विषय में मैं विशेष कुछ नहीं जानता । माताजी ने उन्हें एक बार अधिमानस और अतिमानस के बीच, जहां वे दोनों मिलते हैं, खड़ा देखा था मानों वही उनका सर्वोच्च स्थान हो । परंतु उनका काय निम्नतर लोक में भी रहता है-सिर्फ मैं ठीक तरह यह नहीं जानता कि वह क्या कार्य है । पौराणिक कहानियों में एक ओर तो शुद्ध प्रेम और भक्ति और दूसरी ओर मनुष्य में झगड़ा लगाने का आनंद उनका मुख्य स्वभाव मालूम होता है ।

 

५ - ५- ११३५

३६३


माताजी का अन्य ग्रहों में जाना

 

मैं सोचा करता है कि क्या माताजी मंगल ग्रह या किसी अन्य सुदूरस्थित ग्रह के साथ जो संभवत: रहने के योग्य हो या जहां लाने रहते हो कोई प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करने में समर्थ हुई है

 

बहुत दिन पहले माताजी सूक्ष्म शरीर से सर्वत्र जाया करती थीं, परंतु उन्हें वह बहुत गौण विषय प्रतीत हुआ । हमारा ध्यान पृथ्वी पर ही एकाग्र होना चाहिये, क्योंकि हमारा काम यहीं पर है । इसके अलावा, पृथ्वी अन्य सभी जगतों का केंद्रीभूत स्थान है और पार्थिव वातावरण में विद्यमान उनसे मिलते-जुलते किसी तत्त्व को छूकर मनुष्य उन्हें छू सकता है ।

 

१३ - १ - ११३४

 

ठीक-ठीक बोध करने की क्षमता

 

' ' ने माताजी का मंतव्य ठीक-ठीक बतलाया है, पर ऐसा मालूम होता है कि उसने उसे समझा नहीं है । माताजी का यह मतलब कभी नहीं था कि महज इच्छा करने से ही कोई यह जान सकता है ' कि दूसरे में क्या है या दूसरे के विषय में किसी की सभी धारणाएं सहजभाव से और बिना भूल के ठीक ही होगी । उनका मतलब यह था कि एक ऐसी क्षमता या शक्ति (गुह्य या यौगिक क्षमता ) है जिससे मनुष्य ठीक-ठीक बोध और धारणा प्राप्त कर सकता है, और किसी को यदि इच्छा हो तो वह उसे विकसित कर सकता है । तुरत नहीं, किसी सहज पद्धति से नहीं -यह लो, सुन लिया न तुमने : इसमें वषों लग सकते हैं और इस विषय में मनुष्य को बहुत सावधान और सचेत रहना होता है; क्योंकि ये संबोधी द्वारा प्राप्त बोध होते हैं और संबोधी एक ऐसी चीज है जिसकी नकल चेतना की दूसरी बहुतेरी क्रियाएं कर सकती हैं और वे बहुत अधिक भ्रमात्मक होती हैं । तुम्हारी धारणाएं' या तो मानसिक हो सकती हैं या प्राणिक और ऐसी बातें हो भी सकती हैं या नहीं भी हो सकती जो किसी मानसिक या प्राणिक धारणा को पुष्ट करें-परंतु मानसिक होने पर भी यह बात बिलकुल निश्चित नहीं है कि यह सही हो; अगर यही बात हो तो भी हो सकता है कि वह अशुद्ध रूप में पकड़ी गयी हो- अथवा भूल- भ्रांतियों की बहुत अधिक मिलावट के साथ ग्रहण की गयी हो, तोड़-मरोड़कर मिथ्यापन में

३६४


बदल दी गयी हो, गलत तरीके से प्रकट का गयी हो, आदि। और फिर ऐसा भी हो सकता है कि उसका बिलकुल ही कोई आधार न हो; वह महज तुम्हारे अपने ही मन या प्राण की अशुद्ध रचना. हो या किसी दूसरे. की ही भ्रांत धारणा तुम्हारे पास आ गयी हो और तुमने उसे अपनी धारणा के रूप में स्वीकार कर लिया हो । तुम्हारी धारणाओं के बनने का यह कारण भी हो सकता है कि तुम्हारे और उस व्यक्ति के बीच कोई आंतरिक समानता न हो और जब तुम उसे खाली और निस्सार समझते हो तब उसका कारण यह हो कि तुम यह अनुभव करने में असमर्थ हो कि उसमें क्या है, वह चीज स्पष्ट रूप में तुम्हारी समझ में नहीं आती, अथवा जब तुम यह अनुभव करते हो कि वह गलत स्थिति में है तब केवल इस कारण से तुम्हें वैसा लगता हो कि उसकी प्राणगत संबोधी तुम्हें गलत रूप में स्पर्श करती हो । इस तरह की अनगिनत चीजों हैं जिन्हें बड़ी सावधानी से और सही-सही समझने की शक्ति मनुष्य में होनी चाहिये; जबतक कोई अपनी निजी चेतना और उसकी क्रियाओं को अच्छी तरह नहीं जानता तबतक वह दूसरों की चेतना की क्रियाओं को नहीं जान सकता । परंतु एक विशेष प्रकार की प्रत्यक्ष दृष्टि या एक विशिष्ट प्रत्यक्ष अनुभव-शक्ति या संपर्क विकसित करना संभव है जिससे मनुष्य जान सकता है, पर केवल बहुत समय लगाकर और बहुत सावधान । सचेत तथा जाग्रत् होकर निरीक्षण और अभ्यास करने के बाद ही । तबतक कोई घूम-घूम कर यह प्रचार नहीं कर सकता कि यह उन्नत साधक है या वह उन्नत साधक नहीं है और वह दूसरा एकदम किसी काम का नहीं है । अगर कोई जाने भी तो यह आवश्यक नहीं कि वह अपने ज्ञान का दिखावा करता फिरे ।

 

१ - २ - ११३५

 

चेतना को उलट देने का कौशल

 

जब माताजी ने यह कहा था कि यह महज चेतना को उलट देने का एक कौशल है तब उनका मतलब यह था कि बाहरी मन को सर्वदा हस्तक्षेप करने और अपने ही निजी सामान्य अभ्यासगत दृष्टिकोण को प्रस्थापित करने के बदले एकदम उलट जाना चाहिये, यह स्वीकार करना चाहिये कि चीजों भीतर से बाहर की ओर कार्य कर सकती हैं और अपने- आपको यह देखने के लिये पर्याप्त मात्रा में स्थिर बनाये रखना चाहिये कि अंदर से बाहर की ओर काय का विकास हो रहा है और काम पुरा हो रहा है । ऐसा होने पर एक आंतरिक

३६५


मन स्वयं प्रकट होता है जो अदृश्य शक्तियों का अनुसरण करने और उनका यंत्र बनने में समर्थ होता है ।

 

२ - ८ - १९३२

 

शरीर से बाहर निकलने पर धक्के का अनुभव

 

जब चेतना क्षण भर के लिये या अधिक लम्बे समय के लिये शरीर से बाहर निकल कर ऊपर जाती है तब बहुतों को धक्के या एक सेकेंड के लिये दम बंद होने और नीचे गिर जाने के जैसा अनुभव होता है । धक्का या तो चेतना के ऊपर जाने के कारण या शरीर में उसके वापस आने के कारण लगता है । माताजी को सैकड़ों बार यह अनुभव हुआ करता था । यह शरीर से संबंध रखनेवाली कोई चीज नहीं है (डाक्टर ने भी, जैसा कि तुम कहते हो, कुछ नहीं पाया ) जब चेतना की यह क्रिया अधिक स्वाभाविक हो जायेगी तब संभवत: यह बोध दूर हो जायेगा ।

 

१ - १० - ११३५

 

माताजी के हिसाब में संख्यात्मक सामंजस्य 

 

'क्ष' ' ने आज मुझे अपनी लेखा- पज्जी दिखायी जिसमें कुल योग लिखा था ७ रू. ७ आ ७ पाई । साथ ही आज वर्ष के ७ वे महीने का ७ बाईं दिन भी है और इसके बारे में आपको लिखने का निर्णय करने के बाद मैंने देखा कि जिस घर में में काम कर रहा है उसका नवम्बर भी छ ने? आश्रम से अन्यत्र व्यक्ति के सामने संख्याओं की ऐसी क्रीड़ा नहीं आती मेरे विचार में यहां ऐसा इसलिये होता है कि सखियां ( शायद सख्याओं की गुह्य सत्ताएं) हमारे वायुमण्डल में वैसा ही सुख आराम अनुभव करती हैं जैसा आश्रम के मुख्य भवन में चिड़िया और के ऐसे असामंजस्यों का खेल खेलना पसंद करती हैं । सरकारी विभागों एवं अन्य स्थानों में वे वायुमण्डल को यान्त्रिक भारी और कठोर अनुभव करती हैं और इसलिये वहां उन्हें ऐसे खेल में कोई आनंद नहीं आता!

 

मैं समझता हूं तुम्हारी व्याख्या ठीक है, और नहीं तो गुह्य दृष्टिकोण से यह ठीक ही है । माताजी के हिसाब-किताब में संख्याओं के ये लयताल सदा ही होते हैं ।

३६६ 


बिल्लीयों को नाम देना

 

माताजी ने बिल्लियों को नाम इस कारण दिये कि वे समझती और उत्तर देती हैं; उन्होंने पक्षियों को कभी कोई नाम नहीं दिये और न देना ही चाहती हैं । अब तो वे बिल्लियों को भी नाम नहीं दे रहीं ।

 

२८ - ४ - ११३२

 

माताजी के शरीर पर दवाइयों की क्रिया

 

माताजी के शरीर पर दवाइयों की क्रिया उससे बिलकुल भिन्न होती है जो तुम्हारे या ' क्ष ' के या किसी और के शरीर पर होगी और उनके प्रति माताजी की प्रतिक्रिया साधारणतया अनुकूल नहीं होती । उनकी भौतिक चेतना वैसी नहीं जैसी साधारण लोगों की होती है-यद्यपि साधारण लोगों में भी वह सभी दृष्टान्तों में उतनी एकसमान नहीं होती जैसी कि '' विज्ञान '' चाहेगा कि हम उसे मानों ।

 

१ - २ - ११३७

 

चिकित्सा-संबंधी विषयों में माताजी के विचार

 

प्रस्तुत विषय में माताजी ने जो कुछ कहा है वह वही है जो उन्होंने डी. ' क्ष ' से कहा था और जिससे वे पूर्णतया सहमत हुए थे - अर्थात डॉक्टर द्वारा लक्षणों के आधार पर रोग का अध्ययन (निः सन्देह, स्पष्ट और सीधे-सादे रोगों को छोड़कर) सामान्यतया अनेक सम्भावनाओं को तौलकर एक निर्णय करना मात्र होता है और इस प्रकार निकाला गया निष्कर्ष एक अनुमानभर । वह अनुमान ठीक हो सकता है और तब सब कुछ ठीक चलेगा अथवा वह गलत हो सकता है और तब सब कुछ ही गलत हो जायेगा, हां, यदि प्रकृति डाक्टर से इतनी अधिक बलवान् हो कि वह उसकी भूल के परिणामों पर विजय पा ले तो दूसरी बात है-या फिर, कम-से-कम उसका उपचार सफल नहीं होगा । इसके विपरीत, यदि कोई निदान-संबंधी अन्तःप्रेरणा को विकसित कर ले तो वह तुरंत देख सकता है कि अनेक संभावनाओं के बीच यथार्थ वस्तु क्या है और यह भी देख सकता है कि क्या करना चग़इहये । बहुतेरे सफल डाँक्टरों में यही चीज होती है, उनके पास यह कूर-प्रकाश होता है जो उन्हें

३६७


असली बिंदु दिखला देता है । ' क्ष ' ने इस बात से सहमत होकर कहा था कि अनुमान का कारण यह होता है कि लक्षणों के पूरे गुटके-गुट होते हैं जो अनेक रोगों में से किसी एक से सम्बद्ध हो सकते हैं और निर्णय करना अत्यंत नाजुक एवं सूक्ष्म कार्य होता है, पुस्तकीय ज्ञान या तर्क-वितर्क की कितनी भी मात्रा यथार्थ निर्णय का विश्वास नहीं दिला सकती । जरूरत है एक विशेष अन्तर्दृष्टि की जो केवल लक्षणों पर ही नहीं वरन् उनके पार भी देख सके । प्रसंगत: यह अंतिम वाक्य मेरा है, ' क्ष ' का नहीं । अन्तर्ज्ञान के विकास के विषय में फिर लिखूंगा - आज रात समय नहीं है ।

 

६ - ४ - ११३७ 

 

*

 

इन विषयों पर बहस करने से कोई लाभ नहीं । माताजी के विचार अपरम्परागत लटकों से इतने अधिक दूर हैं कि वे डॉक्टरी दिमाग की समझ में नहीं आ सकते, उन डाँक्टरों की बात अलग है जो अपरम्परागत लीक से परे हट गये हैं या उनकी भी जिन्होंने लंबे अनुभव के बाद वस्तुओं को देख लिया है और अपने '' विज्ञान '' की सीमाओं के संबंध में इतने स्पष्टवादी हो सकते हैं कि उसे जड़ से उखाड़ दें ।

 

  इस विषय में अलग- अलग विचार हैं ।

  माताजी और ' क्ष ' दोनों ही चार महीने के बच्चे को जुलाब दिये जाने के विचार से दहल उठे । फांस के सर्वप्रमुख '' शिशु-चिकित्सक '' ने माताजी से कहा था कि १२ महीने से नीचे के किसी भी शिशु को रेचक नहीं देना चाहिये, क्योंकि वह बड़ी हानि पहुंचा सकता है और खतरनाक तक हो सकता है । परंतु यहां हमें पता चला है कि बच्चों को लगभग उनके जन्मदिन से लेकर ही बेरोक-टोक जुलाबों की दवा देने का रिवाज है । शायद यही चीज और दवाइयों देने में अति करना ही बच्चों को मृत्यु-संख्या के अत्यधिक होने का कारण है ।

 

४ - ४ - ११३७

 

*

 

सभी '' औषध-विज्ञान '' बच्चों को एरण्ड का तेल (कोस्टर ऑयल) देने की सिफारिश नहीं करते-मैं समझता हूं कि यह उन्नीसवीं सदी की सनक हे जिसने अपने को कुछ लंबा खींच लिया है । माताजी के '' शिशु-चिकित्सक '' ने उनसे कहा था कि एरण्ड का तेल नहीं देना चाहिये-साथ ही जब माताजी स्वयं

३६८ 


बच्ची थीं तो उनकी बीमारी में डाँक्टरों ने यह कह कर कि यह पेट और जिगर को खराब करता है, इसे देने की आग्रहपूर्वक मनाही कर दी थी । मेरी समझ में तुम कहोगे कि डाँक्टरों के मत अलग- अलग होते हैं? हां, होते ही हैं!

 

१ - ४ - १९३७ 

 

*

 

माताजी का मतलब था कि अनुचित भोजन और अनुचित पाचन से उत्पन्न विष -ये दोनों चीजों जीवन के दीर्घायु होने में सबसे बड़ी बाधा हैं ।

१४ - १ - ११३५ 

 

*

 

एक बार माताजी ने कहा था कि ऐसी बीमारी शायद ही कोई हो जो योग से ठीक न हो सके क्या यमार्बुद (कैंसर) भी इससे ठीक हो सकता है?

 

निःसंदेह यह ठीक हो सकता है, परंतु इस शर्त पर कि रोगी में श्रद्धा या खुलाव हो या दोनों हों । यहांतक कि मानसिक सुझाव भी कैंसर को ठीक कर सकता है- अवश्य ही, भाग्य का साथ हो तो, जैसा कि एक स्त्री के उदाहरण से सिद्ध होता है जिसके कैंसर का ऑपरेशन (शल्यकर्म) किया गया था पर सफल नहीं हुआ, किंतु डाँक्टरों ने उसे झूठ-फ कह दिया कि सफल हो गया है । परिणाम क्या हुआ, कैंसर के सभी लक्षण गायब हो गये और वह बहुत वर्ष बाद एक बिलकुल और ही रोग से मरी ।

 

११ - १० - ११३५

 

अस्पतालों के बिना स्वर्गराज्य

 

मुझे स्वप्न आया कि माताजी एक स्तुत बड़ा अस्पताल बना रही हैं क्या यह एक भावी स्वर्गराज्य का पहले से ही स्वप्न है?

 

यह कहीं बड़ा स्वर्गराज्य होगा यदि अस्पताल की बिलकुल ही जरूरत न रहे और डाँक्टर अपने चुभनेवाले सूचीवेध के उपकरणों को ' फाउन्टेन-पैन ' में बदल दें-निः सन्देह यदि वे उन पैनों का '' न करें...

३६९ 


इन्नेक्शन (सूचीवेध) देने के उपकरणों पर आप इतने आग-बबूला क्यों होते है, श्रीमन्? उन्हें तो स्तुत ही प्रभावकारी समझा जाता है?

 

उससे अस्पतालों, रोगों और इन्नेक्शनों की वृद्धि स्वर्गराज्य का आदर्श नहीं बन जाती...

 

   परंतु उन उपकरणों का स्थान भला फाउप्टैन- पैन को दिया ही क्यों जाये?

 

मैं केवल पैगम्बर इसाइआ की इस कहावत का प्रयोग कर रहा था, '' तलवारों को हलों में बदल दिया जायेगा '' । किंतु डाँक्टर का उपकरण हल बनाने के लिये काफी बड़ा नहीं, अत: मैंने उसके स्थान पर ' फाउन्टैन-पैन ' शब्द का प्रयोग किया ।

 

१९- ७ -१९ ३७

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