श्री माताजी के विषय में

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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Mother Vol. 25 496 pages 1972 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्री माताजी के विषय में 439 pages 1973 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Shyam Sunder Jhunjhunwala
  Ravindra
Part I by Shyam Sundar Jhunjhunwala, Part II by Jagannath Vedalankar, Part III by Ravindra  PDF    LINK

प्रथम भाग 

 

माता

 


दो शक्तियां ही अपने संगम से वह महान् और कठिन कार्य कर सकती हैं जो हमारी साधना का लक्ष्य है : एक अडिग और अटूट अभीप्सा जो नीचे से आह्वान करती है और ऊपर से परम भगवत्कृपा जो उत्तर देती है ।

   परंतु परम भगवत्कृपा ज्योति एवं सत्य की अवस्थाओं में ही कार्य करेगी; असत्य तथा अज्ञान ने उसपर जो अवस्थाएं लादी हैं इनमें वह कार्य नहीं करेगी । कारण, यदि वह असत्य की मांगों के सामने झुक जाये तो उसका उद्देश्य ही हार जायेगा ।

    ज्योति एवं सत्य की अवस्थाओं में ही, एकमात्र इन्हीं अवस्थाओं में सर्वोच्च ज्योति अवतरित होगी; और ऊपर से अवतरित होती और नीचे से उन्मिषित होती सर्वोच्च अतिमानसिक शक्ति ही भौतिक प्रकृति की बागडोर अपने हाथ में ले सकती और उसकी कठिनाइयों का विनाश कर सकती है ।... आवश्यक है समग्र एवं सच्चा समर्पण; आवश्यक है दिव्य शक्ति की ओर अनन्य आत्मोन्मेष आवश्यक हे अवतरित होते सत्य का सतत एवं प्रतिपद सर्वभावेण वरण और अभी भी पार्थिव प्रकृति पर शासन करती मनोमयी, प्राणमयी तथा अन्नमयी शक्तियों और रूपों के मिथ्यात्व का प्रतिपद सर्वभावेन वर्जन ।

   समर्पण होना होगा समग्र, उसे सत्ता के सारे अंगों में व्याप्त होना होगा । चैत्य का उत्तर और उच्चतर मनोमयी सत्ता की स्वीकृति पर्याप्त नहीं; यह भी पर्याप्त नहीं कि आंतरिक प्राण नत हो जाये और आंतरिक अन्नमयी चेतना प्रभाव को अनुभव करे । सत्ता के किसी भी अंग में । बाह्रा से बाह्य में भी, ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिये जिसे कोई संकोच हो, ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिये जो संशय, अस्पष्टता और छल-कपट के पीछे छिपा हो, ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिये जो विद्रोह या अस्वीकार करता हो ।

  यदि सत्ता का कोई अंग समर्पण करे किंतु दूसरा अंग संकोच करे, अपनी ही राह चले या अपनी ही शर्ते रखे तो जब-जब ऐसा होगा इसका अर्थ यह होगा कि भगवत्कृपा को तुम स्वयं ही अपने से दूर हटा रहे हो ।

   यदि अपनी भक्ति और समर्पण के पीछे तुम अपनी कामनाओं, अहमात्मिका मांगों और प्राणिक आग्रहों के लिये छिपने का स्थान बनाते हो, यदि तुम इन चीजों को सच्ची अभीप्सा के स्थान पर लाते या उसके साथ मिला देते हो और


 इन्हें भागवत शक्ति पर लादने की चेष्टा करते हो तो तुम्हारा भगवत्कृपा को अपने रूपांतर के लिये आह्वान करना निरर्थक है ।

    यदि तुम एक ओर या एक अंग में सत्य की ओर खुलते हो और दूसरी ओर बराबर शत्रु शक्तियों के लिये दरवाजे खोलते रहते हो तो यह आशा व्यर्थ है कि भगवत्कृपा तुम्हारे साथ रहेगी । तुम्हें मन्दिर को स्वच्छ रखना ही होगा यदि तुम वहां भगवान को जाग्रत् रूप से स्थापित करना चाहते हो ।

   जब-जब महाशक्ति आती और सत्य को लाती है तब-तब यदि तुम उसकी ओर पीठ फेर लो और उस मिथ्यात्व को फिर से बुला लो जिसे निकाल दिया गया है तो तुम भगवत्कृपा को निष्फलता का दोष नहीं दे सकते, दोष तुम्हारे अपने संकल्प के मिथ्याचार और तुम्हारे आत्मसमर्पण की अपूर्णता का है ।

   यदि तुम सत्य का आवाहन करते हो और फिर भी तुम्हारे अंदर ऐसा कुछ है जो असत्य, अज्ञान और अदिव्य का वरण करता हे किंवा उसका सर्वथा त्याग करने को अनिच्छुक ही है, तो तुम सदा ही आक्रमण की ओर खुले रहोगे और भगवत्कृपा तुमसे हट जायेगी । पहले यह खोजो कि तुममें असत्य या तमोग्रस्त क्या है और दृढ़ता से उसका त्याग करो, केवल तभी तुम्हें अपने रूपांतर के लिये दिव्य शक्ति के आवाहन का अधिकार होगा ।

   मत सोचो कि सत्य और असत्य, आलोक और अंधकार, आत्मदान और आत्मपरता भगवान् को निवेदित किये गये गह में एक साथ रहने दिये जा सकते हैं । रूपांतर सर्वांगीण होना होगा; फलत:, जो कुछ उसमें बाधक हो उसका त्याग भी सर्वांगीण होना होगा ।

   दूर कर दो इस मिथ्या  धारणा को कि  तुम यदि भगवत्रिर्दिष्ट शर्ते पूरी न करो तब भी दिव्य शक्ति तुम्हारे चाहने से तुम्हारे लिये सब कुछ करेगी या करने को बाध्य है । अपने समर्पण को सच्चा और संपूर्ण करो, केवल तभी बाकी सब कुछ तुम्हारे लिये किया जायेगा ।

दूर कर दो इस मिथ्या और अलस आशा को कि भगवती शक्ति तुम्हारे लिये समर्पण भी कर देगी । भगवन् तुम्हारा भागवती शक्ति के प्रति समर्पण चाहते हैं, पर जबर्दस्ती नहीं कराते : जबतक अटल रूपांतर नहीं हो जाता तबतक तुम भगवन् को नहीं मानने, उन्हें छोड देने या अपना आत्मदान वापस लेने को हर क्षण स्वतंत्र हो, किन्तु अवश्य ही तुम्हें उसका आध्यात्मिक फल भी भोगने को तैयार रहना होगा । तुम्हारे समर्पण को होना चाहिये स्वेच्छाकृत और स्वच्छंद; उसे होना चाहिये सजीव सत्ता का समर्पण, न कि जड कठपुतली या असहाय यंत्र का ।

 ४


     तामसिक निश्चेष्टता को वास्तविक समर्पण मानने की भूल सदा ही की जाती है, किन्तु तामसिक निश्चेष्टता में से कोई भी सच्ची और सबल वस्तु नहीं आ सकती । भौतिक प्रकृति अपनी तामसिक निश्चेष्टता के कारण ही सारे तामस या अदिव्य प्रभावों का शिकार बनती है । अपेक्षा है भागवती शक्ति की क्रिया के प्रति प्रसन्न, सबल और सहायक अधीनता और सत्य के आलोकित अनुयायी को, तम और असत्य से लड़नेवाले आतर योद्धा की, भगवान् के विश्वासी सेवक की आज्ञाकारिता की ।

    यही सच्चा भाव है, और जो इस भाव को धारण कर सकते और बनाये रख सकते हैं केवल वे ही निराशाओं और विपत्तियों के बीच अडिग विश्वास बनाये रख सकेंगे और अग्निपरीक्षाओं में से होकर परम विजय और महान् रूपांतर को प्राप्त करेंगे ।


    विश्व में जो कुछ भी किया जाता है उसमें भगवान् अपनी शक्ति द्वारा सारी क्रिया के पीछे हैं, किंतु वह अपनी योगमाया से आवृत हैं और अपरा प्रकृति में जीव के अहंकार द्वारा कार्य करते हैं ।

 योग में भी भगवान् साधक हैं और साधना भी । साधना उन्हीं की शक्ति से संभव होती है; उनकी शक्ति ही अपनी ज्योति, सामर्थ्य, ज्ञान । चेतना एवं आनन्द से आधार पर क्रिया करती है और आधार के उसकी ओर खुलने पर उसमें इन दिव्य शक्तियों के साथ प्रवाहित होती है । परंतु जबतक अपरा प्रकृति सक्रिय रहती है साधक की वैयक्तिक चेष्टा आवश्यक रहती है ।

  अपेक्षित वैयक्तिक चेष्टा अभीप्सा, वर्जन एवं समर्पण का त्रिविध अभ्यास है, -

  अनिमिष, अविराम एवं अविच्छिन्न अभीप्सा, -मन का संकल्प, हृदय की खोज, प्राणसत्ता की सम्मति, दैहिक चेतना तथा प्रकृति को उन्मीलित करने और सहजनम्य करने का संकल्प;

  अपरा प्रकृति की वृत्तियों का वर्जन,-मन के भाव, अभिमत, पक्षपात, अभ्यास और निर्माण का वर्जन ताकि सच्चे ज्ञान को नीरव मन में निर्बन्ध अवकाश मिल सके,-प्राणप्रकृति की कामना, वासना, लालसा, संवेदना, आवेग, स्वार्थपरता, अभिमान, अहंमन्यता, लोलुपता, लुब्धता, ईर्ष्या, असूया, सत्य के प्रति विरुद्धाचार इन सबका वर्जन ताकि ऊपर से सच्ची शक्ति और आनंद स्थिर, विशाल, सबल और निवेदित प्राणसत्ता में ढलते आ सकें, -शारीरिक प्रकृति की मूढ़ता, संशय, अविश्वास, अन्धकारिता, दुराग्रहिता, संकीर्णता, आलस्य, परिवर्तन-विमुखता और तामसिकता का वर्जन ताकि ज्योति, शक्ति एवं आनंद की सच्ची स्थिरता सदा अधिकाधिक दिव्य होते शरीर में स्थापित हो सकें

  ; भगवान् और भागवती शक्ति के प्रति आत्मसमर्पण, हम जो कुछ भी हैं, जो कुछ भी हमारा है, हमारी चेतना का हर स्तर, हमारी हर गतिविधि, इन सबका समर्पण ।

  समर्पण और आत्म-निवेदन जितना बढ़ते हैं उसी अनुपात में साधक को यह बोध होता है कि भागवती शक्ति साधना कर रही है, उसके अंदर अपने-आपको उंडेल रही है, उसके अंदर दिव्य पराप्रकृति की रवतंत्रता


एवं पूर्णता को स्थापित कर रही है । यह चेतन प्रक्रिया उसकी अपनी चेष्टा का स्थान जितना अधिक लेती है उसकी प्रगति उतनी ही तेज और अधिक होती है । किन्तु वह वैयक्तिक चेष्टा की आवश्यकता का पूरा अंत तबतक नहीं कर सकती जबतक कि समर्पण तथा निवेदन ऊपर से नीचे तक विशुद्ध और संपूर्ण नहीं हो जाते ।

ध्यान रहे कि वह तामसिक समर्पण जो कि शर्ते पूरी करने से इनकार करता है और ईश्वर से यह चाहता है कि वे ही सब कुछ कर दें और तुम सारे कष्ट और संघर्ष से बचे रहो, प्रवंचना है और उससे स्वतंत्रता तथा पूणॅता की प्रान्ती नहीं होती !

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  जीवनयात्रा में सकल भय, संकट ओर आपदा के सामने कवचित होकर चलने के लिये केवल दो चीजें आवश्यक हैं और ये दो सदा साथ-साथ चलती है,-एक तो मां भगवती को कृपा और दूसरी, तुम्हारी ओर से श्रद्धा-निष्ठा- समर्पण से गठित आंतरिक स्थिति । श्रद्धा तुम्हारी होनी चाहिये विशुद्ध, निश्छल एवं निर्दोष । मन और प्राण की अहमात्मिका श्रद्धा, वह श्रद्धा जो आकांक्षा, अभिमान, दंभ, मानसिक अहंमन्यता, प्राणिक स्वैरता, वैयक्तिक चाह और निम्न प्रकृति की तुच्छ तृप्तिकामनाओं से कलुषित है, अनुत्रत और धुमाच्छत्र शिखा हे जो ऊर्ध्वमुख होकर स्वर्गलोकों की ओर प्रज्वलित नहीं हो सकती ! अपने जीवन को इस रूप में देखो कि वह तुम्हें केवल दिव्य कार्य के लिये और दिव्य अभिव्यक्ति मैं सहायता देने के लिये मिला है । और किसी भी चीज को चाह न करो, चाहो केवल दिव्य चेतना की विशुद्धता । शक्ति । ज्योति, विशालता, स्थिरता, आनन्द और तुम्हारे मन, प्राण तथा शरीर को रूपांतरित और पूर्णतासंपत्र करने के लिये उसका आग्रह । और कुछ भी न मांगो, तुम्हारी मांग हो दिव्य, आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक सत्य के लिये, धरती पर, तुममें और उन सबमें उसकी सिद्धि के लिये जो उसके लिये चुने गये हैं, उसके अधिकारी हैं और उन अवस्थाओं के लिये जो उसकी सृष्टि के लिये और सारी विरोधिनी शक्तियों पर उसकी विजय के लिये आवश्यक हैं ।

  तुम्हारी निष्ठा और समर्पण सत्यमय और संपूर्ण होने चाहियें । जब तुम अपना अर्पण करते हो तो अपने को दे डालो निःशेष रूप से । बिना किसी दावे के, बिना किसी शर्त के, बिना किसी संकोच के, ताकि तुम्हारे अंदर सब कुछ मां भगवती का होगा ओर अहं के लिये कुछ भी नहीं छोड़ा जायेगा, अन्य किसी शक्ति को कुछ भी नहीं दिया जायेगा ।

  तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक संपूर्ण होंगे उतना ही अधिक तुम कृपापात्र और सुरक्षित होओगे ! और यदि मां भगवती की कृपा और रक्षक हाथ तुम पर हों तो ऐसा क्या हे जो तुम्हें स्पर्श कर सके या जिसका तुम्हें भय हो? उसका अल्पांश भी तुम्हें सकल कठिनाइयों, बाधाओं और संकटों के पार कर देगा; उससे पूरे घिरे रहने पर तो, चूंकि वह पथ मां का ही है, तुम अपने पथ पर निरापद चल सकते हो तब तुम्हें किसी संकट

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की चिंता नहीं, तुम्हें कोई भी वैरता छू नहीं सकती वह चाहे कितनी ही सबल क्यों न हो, इस जगत् की हो या अदृश्य जगत् की । उसका स्पर्श कठिनाई को सुयोग में, विफलता को सफलता में और दुर्बलता को अडिग बल में बदल दे सकता है । कारण, मां भगवती को अनुकंपा परमेश्वर की अनुमति है और आज या कल उसका फल निश्चित है, पूर्व निर्दिष्ट, । अवश्यंभावी और अनिवार्य है !


  धन एक वैश्व शक्ति का दृश्यमान चिह्न है । और पृथ्वी पर अपने प्रकट्य में यह शक्ति प्राण और जड़ के क्षेत्रों में कार्य करती है और बाह्य जीवन की परिपूर्णता के लिये अपरिहार्य है । अपने मूल और अपनी सच्ची क्रिया में यह शक्ति भगवान् की है । परंतु भगवान् की अन्य शक्तियों की तरह यह शक्ति भी यहां हस्तांतरित कर दी गयी है और अध: प्रकृति के अज्ञान में अहं के उपयोग के लिये हड़प ली जा सकती या आसुरी प्रभावों द्वारा अधिकृत हो सकती और उनके उद्देश्य के लिये विकृत की जा सकती है । निस्सन्देह यह उन तीन शक्तियों में से है,- आधिपत्य, धन और काम, -जिनमें मानवीय अहं और असुर के लिये सबसे सबल आकर्षण है और जो प्रायः सर्वत्र अनधिकारियों के हाथों में पड़ जाती और उनके द्वारा अव्यवहत होती हैं । धन के आकांक्षी या भण्डारी धन के स्वामी न होकर प्रायः उसके दास ही हुआ करते हैं । असुरों ने लंबे समय से धन को अपने अधिकार में रखा है और उसे विकृत किया है, इससे उसपर एक ऐसी विकृतिकारिणी छाप पड़ गयी है जिससे बहुत कम लोग ही पूरे बच सकते हैं । इसी कारण अधिकतर आध्यात्मिक साधनमागो में पूरे आत्मसंयम, अनासक्ति और धन के सारे बंधनों और सारी वैयक्तिक तथा अहंकारयुक्त वित्तेषणा के त्याग पर जोर दिया जाता है । कुछ साधनमार्ग तो धन और संपदा पर निषेध ही लगा देते और जीवन की दरिद्रता और रिक्तता को एकमात्र आध्यात्मिक अवस्था घोषित करते हैं । परंतु यह भूल है; इससे धनबल विरोधिनी शक्तियों के हाथ में रह जाता है । उसे उसके अधिकारी भगवान् के लिये पुन: जीत लेना और दिव्य जीवन के लिये दिव्य रूप से उसका उपयोग करना साधक के लिये अतिमानसिक मार्ग है ।

  धनबल और उससे मिलनेवाले साधनों और पदार्थ  से तुम्हें संन्यासी की तरह मुंह नहीं मोड लेना चाहिये2375;, न ही तुम्हें उनके लिये राजसिक आसक्ति या उनके भोग के आत्मसुख की दासवृत्ति ही पोसनी चाहिये । धन को केवल ऐसी शक्ति के रूप में देखो जिसे मां के लिये पुन: जीत लेना और उनकी सेवा में नियोजित करना है ।

  सारा धन भगवान् का है; वह जिनके हाथ में है वे उसके ट्रस्टी हैं,मालिक नहीं । वह आज उनके पास है, कल और कहीं हो सकता है । सब कुछ

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इसपर निर्भर करता है कि जबतक वह उनके पास है वे इस ट्रस्ट का पालन कैसे करते हैं, किस अन्तर्भाव से करते हैं । किस चेतना से उसका उपयोग करते हैं, किस उद्देश्य के लिये करते हैं ।

  अपने लिये धन के उपयोग में जो कुछ भी तुम्हारा है या तुम्हें मिलता है या तुम लाते हो उसे मां का मानो । तुम्हारी कोई भी मांग न हो; तुम्हें मां से जो मिलता है उसे स्वीकार करो और उसे उन कामों में लगाओ जिनके लिये वह तुम्हें दिया गया हो । नितान्त निःस्वार्थ होओ, पूरे न्यायनिष्ठ बनो, सही- सही रहो, ब्योरों में सावधान रहो, अच्छे ट्रस्टी बनो; सदा यह मानो कि जिस धन का तुम उपयोग कर रहे हो वह मां का है, तुम्हारा नहीं । फिर, जो कुछ उनके लिये मिले उसे उनके सामने श्रद्धा से रखो, अपने या और किसी के काम में न लगाओ ।

  धनी के धन के कारण उसके सामने सर न नवाओ, उसके आडम्बर, बल या प्रभाव की छाप अपने पर न पड़ने दो । जब तुम मां के लिये मांगते हो तो तुम्हें यह अनुभव करना चाहिये कि वे ही तुम्हारे द्वारा अपनी वस्तु का अल्पांश चाह रही हैं और जिस व्यक्ति से तुम मांगते हो वह क्या उत्तर देता है उससे उसकी जांच होगी ।

  यदि तुम धनदोष से मुक्त हो और साथ ही संन्यासी की तरह तुम धन से भागते वर्ही, तो भागवत कार्य के लिये धन जय करने की अधिक क्षमता तुम्हें मिलेगी । मन का समत्व, स्पृहा का अभाव और जो कुछ तुम्हारा है और तुम्हें मिलता है उसका ओर तुम्हारी सारी अर्जनशक्ति का भगवती शक्ति को अर्पण इस मुक्ति के लक्षण हैं । धन और उसके उपयोग के संबंध में मन की कोई भी चंचलता, स्पृहा या कुण्ठा किसी-न-किसी अपूर्णता या बंधन का निश्चित चिह्न है ।

  इस मार्ग में आदर्श साधक वह है जो दरिद्रता की अवस्था में रहने की आवश्यकता होने पर वैसे ही रह सके और अभाव का कोई भी बोध उसे स्पर्श न करे, दिव्य चेतना की पूरी आंतरिक क्रीड़ा में बाधा न दे, और धनी की अवस्था में रहने की आवश्यकता होने पर वैसे ही रह सके और एक क्षण के लिये भी वासना में या अपने धन या उपयोगसामग्री की आसक्ति में या भोग वृत्ति की दासता में न जा पड़े । न ही दुर्बल होकर उन आदतों में बंध जाये जो धन रहने पर पंड जाती हैं । भागवती इच्छा और भागवत आनंद ही उसके लिये सब कुछ हैं ।

अतिमानसिक सृष्टि में धनशक्ति को भागवती शक्ति के हाथ में वापस

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करना है; उसे, स्वयं भगवती मां अपनी सृष्टि-दृष्टि से जैसा निर्णय करें उसी प्रकार, नूतन दिव्यकृत प्राण और देह की सच्ची, सुंदर और सुसमंजस सज्जा और सुव्यवस्था के लिये व्यवहृत करना होगा । परंतु पहले उसे मां के लिये फिर से जीत लाना होगा और इस विजय के लिये सबसे सबल वे होंगे जो अपनी प्रकृति के इस मा में सबल, विशाल और अहंकार -निर्मुक्त हैं, कोई प्रत्याशा नहीं करते, अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखते, संकोच नहीं करते और परमा शक्ति के विशुद्ध वीर्यवान् माध्यम हैं ।

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  यदि तुम दिव्य कर्म के सच्चे कर्मी बनना चाहते हो तो तुम्हारा पहला लक्ष्य होगा वासनामात्र और स्वार्थाभिमुख अहं से पूरा मुक्त होना । तुम्हारा सारा जीवन भगवान् को अंजलि और बलि के रूप में होगा; कर्म में तुम्हारा एकमात्र लक्ष्य होगा भगवती शक्ति की लीला में उनकी सेवा करना, उन्हें ग्रहण करना, कृतार्थ करना, उनके प्रकट्य का यन्त्र बनना । तुम्हें दिव्य चैतन्य में विकसित होते जाना होगा ताकि तुम्हारी इच्छा ओर उनकी इच्छा में कोई भेद न रह जाये, तुममें उनकी प्रेरणा के अलावा कोई और संकल्प न उठे, कोई ऐसा कर्म न हो जो तुम में और तुम्हारे द्वारा होनेवाला उन्हींका चिन्मय कर्म न हो ।

   जबतक तुम यह संपूर्ण सक्रिय एकत्व उपलब्ध नहीं कर सकते तुम्हें अपने- आपको इस रूप में देखना होगा कि तुम मां की सेवा के लिये सृष्ट जीव और देह हो, तुम्हारा सारा कर्म उन्हीं के लिये हे । यदि तुममें पृथक् कर्तृत्वबोध सबल हो और तुम्हें यह अनुभव होता हो कि तुम्हीं कर्ता हो तो भी वह कर्म मां के लिये ही करना है । अहमात्मिका पसंद का जोर, वैयक्तिक लाभ की लालसा, स्वार्थाभिमुखी कामना को प्रत्याशा, इन्हें शाका-पूरा उन्मूलित कर देना होगा प्रकृति में से । कोई फलेच्छा न रह जाये, पुरस्कार की एषणा न रह जाये; तुम्हारे लिये एकमात्र फल है भगवती मां की प्रसन्नता और उनके कार्य की पूर्ति, तुम्हारे लिये एकमात्र पुरस्कार है दिव्य चेतना, स्थिरता, बल एवं आनंद में निरंतर प्रगति । सेवा का आनंद और कर्म द्वारा आंतरिक वर्द्धन का आनंद ही निरहंकार कमी के लिये यथेष्ट प्रतिदान है ।

   परंतु एक समय आयेगा जब तुम अधिकाधिक यह अनुभव करोगे कि तुम यन्त्र हो, कर्ता नहीं । कारण, प्रथमत: तुम्हारे भक्तिबल से भगवती मां के साथ तुम्हारा संपर्क इतना घनिष्ठ हो जायेगा कि किसी भी समय एकाग्र होकर और सब कुछ उनके हाथों में छोड़कर तुम उनका आशु निदेश, प्रत्यक्ष आदेश या प्रेरणा पा लोगे, यह निश्चित संधान पा लोगे कि क्या करना हे, कैसे करना है और क्या फल होगा । और बाद में तुम यह अनुभव कर लोगे कि दिव्य शक्ति केवल प्रेरणा ही नहीं देती, पथ ही नहीं दिखाती, तुम्हारे कर्मो का प्रवर्तन और उद्यापन भी करती है; तुम्हारी सारी गतिविधि का उत्स मां में है, तुम्हारे सारे सामर्थ्य उन्हींके हैं; मन, प्राण और देह उन्हींकी क्रिया के चैतन्यमय, आनन्दमय

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यन्त्र हैं, उसकी लीला के साधन हैं, भौतिक विश्व में उनके प्राकट्य के आधार हैं । इस ऐक्य और निर्भरता की अपेक्षा अधिक सुखद स्थिति कोई और नहीं हो सकती; कारण, यह डग तुम्हें अज्ञान के संघर्ष-संकुल दुःखमय जीवन की सीमा को पार कराकर फिर से तुम्हारी आध्यात्मिक सत्ता के सत्य में, उसकी गभीर शांति एवं तीव्र आनंद में ले जायेगा ।

  जबतक यह रूपांतर-संपादन चलता है तुम्हारा अपने- आपको अहं के सारे विकारों के दोष से मुक्त रखना अन्य किसी भी समय को अपेक्षा अधिक आवश्यक होता है । तुम्हारे आत्मदान और आत्मोत्सर्ग की निर्मलता में कोई भी मांग । कोई भी हठ दबे पांव न आ जाये । उसे कलंकित न करे । कर्म या कर्मफल के प्रति कोई भी आसक्ति नहीं हो, कोई भी शर्ते न रखी जायें, तुम्हें जिस शक्ति द्वारा अधिकृत होना चाहिये उसपर अधिकार करने के लिये दावा न हो, यन्त्र होने का अभिमान न हो, कोई दम्भ या उद्धतता न हो । तुम्हारे मन या प्राण या दैहिक अंगों में ऐसा कुछ भी न रहने दिया जाये जो तुम्हारे द्वारा कार्य करती शक्तियों को महत्ता को अपने ही उपयोग के लिये विकृत करे या अपनी ही वैयक्तिक और पृथक् तुष्टि के लिये हस्तगत करे । तुम्हारी श्रद्धा, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी अभीप्सा की निर्मलता पराकाष्ठा को प्राप्त करें और सत्ता के सारे स्तरों और क्षेत्रों में व्याप्त हों; ऐसा होने पर हर क्षोभकारी तत्त्व और विकृतिकारी प्रभाव तुम्हारी प्रकृति में से अधिकाधिक निकलते जायेंगे ।

   इस सिद्धि का अंतिम पर्व तब आयेगा जब तुम भगवती मां के साथ पूरे एकीभूत हो जाओगे और अपने- आपको अन्य तथा पृथक् सत्ता, यन्त्र, सेवक या कर्ता के स्थान पर सत्यत: मां की चेतना एवं शक्ति की संतान और सनातन अंश अनुभव करोगे । वह सदा ही तुममें होंगी और तुम उनमें होगे; तुम्हें यह सतत, सहज और स्वाभाविक अनुभव होगा कि तुम्हारे सारे विचार, तुम्हारा सारा देखना, तुम्हारे सारे कर्म, तुम्हारा श्वास लेना या हिलना-डोलना भी उन्हीं से निःसृत हैं और उन्हीं के हैं । तुम यह जानोगे । देखोगे और अनुभव करोगे कि तुम वह व्यक्ति और शक्ति हो जिसे मां ने अपने- आप में से रचा है और जो लीला के लिये उनमें से निःसृत है और फिर भी सदा ही उनमें निरापद है और तुम उन्हीं की सत्ता की सत्ता, उन्हीं की चेतना की चेतना, उन्हीं की शक्ति की शक्ति, उन्हीं के आनंद के आनंद हो । जब यह अवस्था पूर्णाग होगी और मां की अतिमानसिक ऊर्जाराशि तुम्हें अबाध रूप से चालित कर सकेगी तब तुम सिद्ध भागवत कमी बनोगे; ज्ञान, इच्छा और कर्म तब सुनिश्चित, सहज, ज्योतिर्मय, स्वत:स्कूत और निर्दोष होंगे, परमेश्वर से प्रवाहित होंगे, शाश्वत की दिव्य गतिधारा होंगे ।

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  मां की चार शक्तियां उनके चार प्रधान व्यक्त रूप हैं । उनके दिव्य स्वरूप के अंश और विग्रह हैं जिनके द्वारा वह अपने सृष्ट जीवों पर क्रिया करती हैं, लोक-सृष्टियों में व्यवस्था और सामंजस्य लाती हैं और अपनी हजारों शक्तियों के क्रियान्वयन का निदेशन करती हैं । कारण, मां एक हैं, किंतु हमारे सामने वह भित्र-भित्र रूपों में आती हैं; अनेकानेक उनकी शक्तियां ओर मूर्तियां हैं, अनेकानेक उनके स्फुलिंग और विभूतियां हैं जो विश्व में उनका कार्य करती हैं । जिन अद्वितीया को हम मां कहकर पूजते हैं वह हैं सकल अस्तित्व की अधिष्ठात्री भागवती चित्शक्ति, एका और साथ ही इतनी बहुरूपिणी कि अति क्षिप्र मन और सर्वथा विनिर्मुक्त और परम व्यापक बुद्धि के लिये भी उनकी गतिधारा को समझना असंभव है । मां हैं परमेश्वर की चेतना एवं शक्ति और अपनी सृष्टि से बहुत ही ऊपर । किंतु उनकी गतिविधि का कुछ आभास और अनुभव मिलता है उनके विग्रहों और उन देवीमूतिॅयें से जिनमें वह अपने सृष्ट जीवों के सामने प्रकट होना स्वीकार करती हैं और जो अपने अधिक निर्दिष्ट तथा मर्यादित गुण और कर्म के कारण अपेक्षाकृत सहजग्राह्य होती हैं ।

  मां की त्रिधा सत्ता का अनुभव तुम्हें तब हो सकता है जब तुमको हमें और विश्व को धारण करनेवाली चिन्मयी शक्ति के साथ एकत्व का संस्पर्श होगा । वह विश्वातीता हैं, आद्या पराशक्ति हैं; वह लोकों से ऊपर हैं और सृष्टि को परमेश्वर के चिर- अव्यक्त रहस्य से संयुक्त करती हैं । वह विध्यवासिनी हैं, विश्वरुपिणी महाशक्ति हैं; वह इन सारी सत्ताओं की सृष्टि करती हैं, इन कोटि- कोटि प्रक्रियाओं और शक्तियों को अपने अंदर धारण करती हैं, उनमें प्रवेश करती हैं, उन्हें अवलम्ब देती और परिचालित करती हैं । वह व्यष्टिरूपिणी हैं,  'वह अपनी सत्ता के इन दो वृहत्तर रूपों की शक्ति को शरीरी करती हैं, उन्हें हमारे लिये जीवन्त बनाती और निकट लाती हैं और मानवीय व्यक्तित्व तथा दिव्य प्रकृति के बीच मध्यस्थ होती हैं ।

  आद्या अद्वितीया पराशक्ति के रूप में मां सकल लोकों से ऊपर हैं और पुरुषोत्तम भगवान् को अपनी सनातन चेतना में धारण किये रहती हैं । पूर्ण शक्ति और अनिर्वचनीय सत्ता उन अद्वितीया में ही बसती हैं; जिन सत्यों को व्यक्त करना है उन्हें वह वहन करती या उनका आस्थान करती हैं वे जिस

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परम रहस्य में छिपे हुए थे उसमें से उतारकर उन्हें वह अपनी अनन्त चेतना के आलोक में ले आतीं, अपनी सर्वजयी शक्ति और अपार प्राणधारा में शक्ति का रूप देतीं और विश्व में शरीरी करती हैं । पुरुषोत्तम मां में सदा ही नित्य सच्चिदानन्द के रूप में प्रकट हैं, लोकों में उन्हीं के द्वारा ईश्वर और शक्ति के द्वैताद्वैत चैतन्य और पुरुष और प्रकृति के द्वैत तत्त्व-रूप में व्यक्त हुए हैं, लोकों और भुवनों में, देवों और देवशक्तियों में उन्हीं के द्वारा शरीरी हुए हैं और ज्ञाताज्ञात लोकों में जो कुछ है उसके रूप में उन्हीं के कारण साकार हुए हैं । सब कुछ पुरुषोत्तम के साथ उनकी लीला है; सब कुछ उनका शाश्वत के रहस्यों को, अनन्त के चमत्कारों को व्यक्त करना है । वही सब कुछ हैं, क्योंकि सब कुछ ही दिव्य चित्-शक्ति का अंश और अच्छेद्य अंग है । यहां या कहीं भी ऐसा कुछ भी नहीं हो सकता जो उनके द्वारा निर्दिष्ट और परमेश्वर द्वारा अनुमत न हो; जिसे वह परमेश्वर से चालित होकर दिव्य दृष्टि में देखतीं और फिर अपने सृष्टिशील आनन्द में बीजरूप में डालकर घडूती हैं । केवल वही वस्तु रूपायित हो सकती है ।

  महाशक्ति विश्वमाता को अपनी विश्वातीत चेतना द्वारा परम पुरुष से जो मिलता है उसे वह कार्यान्वित करती हैं और अपने बनाये लोकों में प्रवेश करती हैं; वहां उनकी विद्यमानता लोक-लोकों को उस दिव्य भाव और उस दिव्य सर्वपोषक शक्ति एवं आनंद से भरती और अवलम्ब देती है जिनके बिना उनका अस्तित्व नहीं हो सकता था । जिसे हम प्रकृति कहते हैं वह उनका सबसे बाहरी क्रियारूप है; महाशक्ति ही अपनी शक्तियों और प्रक्रियाओ को विन्यस्त करतीं और उनमें सामंजस्य लाती हैं, प्रकृति की क्रियाओं को चलाती और उनमें जो कुछ भी देखा जा सकता या अनुभव किया जा सकता या जीवनधारा में सचल किया जा सकता है उस सबमें, गुप्त या व्यक्त रूप से विचरण करती हैं । प्रत्येक लोक और कुछ नहीं, महाशक्ति की अखिल लोकसंस्थान-लीला में एक लीला है; महाशक्ति उनमें विश्वातीता मां की विश्वभूत आत्मसत्ता और व्यक्तित्व के रूप में हैं । प्रत्येक लोक वह वस्तु है जिसे उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि में देखा, अपने सौंदर्यमय एवं शक्तिमय हृदय में धारण किया और अपने आनंद में सृष्ट किया है ।

  किंतु उनकी सृष्टि के स्तर अनेक हैं, भागवती शक्ति के पादपीठ अनेक हैं । इस सृष्टि के शिखर पर जिसके कि हम अंग हैं, अनंत सत्ता, चेतना । शक्ति एवं आनंद के लोक हैं जिनपर मां अनावृत शाश्वत शक्तिरूप में खड़ी हैं । वहां सारी सत्ताओं का जीवन और विचरण अनिर्वचनीय सम्पूर्णता और व्यभिचारिणी

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एकता में होता है, क्योंकि मां उन्हें नित्य अपनी बांहों में लिये रहती हैं । हमारे अधिक समीप हैं पूर्ण अतिमानसिक सृष्टि के लोक जिनमें मां अतिमानसिक महाशक्ति हैं, दिव्य सर्वज्ञ इच्छा एवं सर्वशक्तिमय ज्ञान की शक्ति हैं जो अपनी अभ्रांत क्रियाओं में नित्य प्रकट है और प्रत्येक प्रक्रिया में स्वतास्कृर्त रूप से पूर्ण । वहां की सारी गतिविधि सत्य के पदक्षेप हैं; वहां सकल सत्ताएं दिव्य ज्योति के जीवभूत अंश, शक्तियां और शरीर हैं; वहां सारे अनुभव तीव्र परमानन्द के सागर, प्लावन और तरंगें हैं । किन्तु यहां, जहां कि हम रहते हैं । अज्ञान जगत् हैं, चेतना में अपने मूल से पृथक् हुए मन, प्राण और शरीर के जगत् हैं; यह पृथ्वी इनका सार्थक केन्द्र है और इसका क्रमविकास अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया । इतने सारे अंधकार, संघष और अपूर्णता से युक्त इस जगत् को भी विश्वमाता ने धारण कर रखा है; यह भी महाशक्ति द्वारा ही प्रचालित हो रहा है और अपने गुप्त लक्ष्य की ओर ले जाया जा रहा है ।

  अज्ञान के इस त्रिधा जगत् की महाशक्ति के रूप में मां एक मध्यवर्ती लोक में खडी हैं,-एक ओर है अतिमानस-ज्योति, सत्यात्मक जीवन, सत्यात्मिका सृष्टि जिसे यहां उतार लाना है, दूसरी ओर है चेतना के स्तरों का यह ऊर्ध्वगामी और निम्नगामी श्रोणीक्रम जो दोहरी सीढ़ी की तरह एक ओर जड़ के निर्ज्ञान में समाप्त होते हैं और फिर प्राण, हृदय एवं मन के प्रस्कुटन द्वारा परमात्मा के आनत्य में वापस उठते हैं । इस विश्व में और पार्थिव क्रमविकास में जो कुछ होना है उसे, वह जो देखती, अनुभव करती और अपने अंदर से उंडेलती हैं, उसके द्वारा निश्चित करती हुई मां वहां देवताओं से ऊपर खड़ी हैं और उनकी सकल शक्तियों और विग्रहों को कार्य के लिये उनके सामने लाया जाता है और मां उनके स्कृलिंगों को इन नीचे के लोकों में हस्तक्षेप करने, शासन करने, लड़ने और जीतने, । उनके युगचक्रों का परिचालन और आवर्तन करने । उनकी शक्तियों की समष्टिगत और व्यष्टिगत धाराओं का निदेशन करने के लिये नीचे भेजती हैं । ये स्कूलिंग ही वे बहुतेरे दिव्य रूप तथा विग्रह हैं जिनके द्वारा मनुष्य युग-युग में विभिन्न नामों से मां की पूजा करता रहा है । किन्तु इन शक्तियों और इनके स्कृलिंगों द्वारा वह अपनी विभूतियों के मन और शरीर को भी प्रस्तुत करती और घड़ती हैं, ताकि वह भौतिक जगत् में और मानवी चेतना के छद्मवेश अपनी शक्ति, गुण और सत्ता की कोई आभा व्यक्त कर सकें । पार्थिव लीला के सारे दृश्य ऐसे नाटक की तरह रहे हैं जो मां के द्वारा रचित, विन्यस्त और अभिनीत हैं और जिसमें विश्वदेव उनके सहकारी हैं और स्वयं मां प्रच्छत्र अभिनेत्री ।

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मां केवल सबपर ऊपर से शासन ही नहीं करती, अपितु इस निम्नतर त्रिधा जगत् में उतर आती हैं । निर्वयक्तिक रूप में, यहां की सारी वस्तुएं, अज्ञान की गतिविधि भी, अपनी शक्ति को प्रच्छन्न रखनेवाली मां ही हैं; वे उन्हीं की क्षीणीकृत सत्त्ववाली सृष्टियां हैं, उन्हीं की प्रकृतिदेह और प्रकृतिशक्ति हैं, और उनका अस्तित्व इसलिये हे कि परमेश्वर के रहस्यमय आदेश से चालित होकर, एक ऐसी चीज को कार्यान्वित करने के लिये जो कि अनन्त की संभावनाओं में विद्यमान थी, मां ने यह महान् आत्मबलिदान स्वीकार किया है और अज्ञान के अन्तःकरण और रूपों को अवगुण्ठन की तरह धारण किया है । परंतु व्यक्तिगत रूप में भी वह करुणावश यहां अन्धकार में उतर आयी हैं उसे ज्योति की ओर ले जाने के लिये । मिथ्यात्व और प्रमाद में उतर आयी हैं उसे सत्य में संपरिवर्तित करने के लिये, इस मृत्यु में उतर आयी हैं उसे देवोचित जीवन में बदलने के लिये । इस जगत्-वेदना और उसके दुरपनेय दुःख और कष्ट में उतर आयी है उसे अपने उदात्त आनंद के रूपान्तरकारी उल्लास में पर्यवसित करने के लिये । अपनी संतान के लिये अपने गभीर विपुल स्नेहवश ही मां ने इस अंधकार का आवरण ओढ़ना चाहा है, अंधकार और मिथ्यात्व की शक्तियों के आक्रमणों और उत्पीड़क प्रभावों को सहना स्वीकार किया है, उस जन्म के तोरण में से होकर निकलना सह है जो कि मृत्यु है, सृष्टि की वेदना, दुःख और कष्ट को अपने अंदर लिया है, -कारण, ऐसा दीख पड़ा था कि उसे केवल इसी प्रकार ज्योति, आनन्द, सत्य एवं अनंत जीवन की ओर उत्रीत किया जा सकेगा । यही वह महान् आत्मबलिदान है जिसे समय-समय पर पुरुष-यज्ञ कहा गया है किंतु जो गभीरतर अर्थ में प्रकृति का आत्मस्वाहाकार है, मां भगवती का यज्ञ है ।

   मां के इस विश्वपरिचालन में, पार्थिव लीला के साथ उनके व्यवहार में, उनके चार महारूप, उनकी प्रधान शक्तियों और विग्रहों में से चार, सामने रहे हैं । उनके एक विग्रह में है प्रशान्त विशालता, व्यापक ज्ञान, अचंचल मांगल्य, अपार करुणा, अतुल अद्वितीय महिमा, विश्वराट् गौरव महिमा । दूसरे में मूतॅ है उनके भास्वर वीर्य और अदम्य आवेग की शक्ति, उनका योद्रुभाव । उनका सर्वजयी संकल्प, उनकी प्रखर क्षिप्रता और प्रलयंकर प्रताप । तीसरा है कान्तिमय, माधुर्यमय, सोन्दर्यमय, -वहां है मां का सौन्दर्य, सुसंगति और सुचारु छन्द का प्रगाढ़ रहस्य, उनका विचित्र सुकुमार वैभव, उनका दुर्निवार्य आकर्षण, उनकी मोहिनी मधुरिमा । चौथा विभूषित है मां के अंतरंग ज्ञान, निपुण, निदोष कर्म और सब चीजों में प्रशान्त और शुद्ध पूर्णता के सामर्थ्य से । ज्ञान, बल, सामंजस्य,

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संसिद्धि उनके विभित्र गुण हैं; वे इन्हें ही जगत् में अपने साथ लाते है, अपनी विभूतियों को मानवीय वेश में व्यक्त करते हैं और जो लोग अपनी पार्थिव प्रकृति को मां के साक्षात् तथा जीवन्त प्रभाव की ओर खोल सकते हैं उनमें उनकी ऊर्ध्वस्थ दिव्य स्थिति के धर्मानुसार उन्हें प्रतिष्ठित करेंगे । इस चतुष्टय को हम ये चार महान् नाम देते है,-महेश्वरी, महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती ।    

    राजराजेश्वरी महेश्वरी आसीन हैं विचारमानस और इच्छाशक्ति से ऊपर की विशालता में और उन्हें वह शोधित तथा उत्रीत करके ज्ञानस्वरूप और वृहत् बनाती या पराज्योति से प्लावित करती हैं । कारण, महेश्वरी ही वह शक्तिमयी ज्ञानमयी हैं जो हमें अतिमानसिक आनत्यों और वैश्व बृहत्ताओं की ओर, परमा ज्योति के ऐश्वर्य की ओर, अलौकिक ज्ञान के भण्डार की ओर, मां की चिरन्तन शक्तियों की अपरिमेय गति की ओर खोलती हैं । अचंचला और अद्भुत हैं वह महिमामयी चिरप्रशान्ता । उन्हें कोई भी चीज चला नहीं सकती क्योंकि सकल ज्ञान उनमें है; ऐसी कोई चीज नहीं जिसे वह जानना चाहें पर जो उनसे छिपी रहे; सकल वस्तु, सकल सत्ता, उनकी प्रकृति, उन्हें क्या चलाता है, जगत् का विधान, उसके कालविभाग, सब कुछ कैसा था, है और होगा, यह सब उन्हें ज्ञात है । उनमें वह बल है जो सबका सामना करता और सबको वश में करता है और उनकी वृहत् दुराधिगम्य ज्ञानातीत ओर समुत्रत प्रशान्तशक्ति के सामने अंत में कोई भी नहीं ठहर सकता । वह सम हैं, धीर हैं, अटल उनकी इच्छाशक्ति है; मनुष्यों से वह उनकी प्रकृति के अनुसार व्यवहार करती हैं और वस्तुओं तथा घटनाएं से उनकी शक्ति और उनके अन्तरस्थ सत्य के अनुसार । उनमें पक्षपात है ही नहीं, परंतु वह परमेश्वर के आदेशों का अनुसरण करती हैं और किन्हीं को ऊपर उठाती हैं और किन्हीं को नीचे गिराती या अपने से अलग हटाकर अंधकार में डाल देती हैं । ज्ञानियों को वह और भी महान् । और भी ज्योतिर्मय ज्ञान देती हैं; दृष्टिवानो को वह अपनी मन्त्रणा में सम्मिलित करती हैं; विरोधियों को वह विरोध के परिणाम भोग कराती हैं; अज्ञ और छू जनों को वह उनकी अंधता के अनुसार लिये चलती हैं । प्रत्येक मनुष्य में उसकी प्रकृति के विभिन्न तत्त्वों को वह उनकी आवश्यकता, प्रवृत्ति ओर वांछित प्रकृति के अनुसार उत्तर देती और संचालित करती हैं, उनपर यथावश्यक दबाव डालतीं या उन्हें उनकी प्रिय स्वतंत्रता में छोड़ देती हैं ताकि वे अज्ञान-राहों में फलें-फूलें या विनष्ट हो जायें । कारण, वह सबसे ऊपर हैं, जगत् की किसी भी वस्तु से बद्ध नहीं, आसक्त नहीं । फिर भी अन्य किसी की भी अपेक्षा उनका हृदय जगन्माता का है । कारण, उनकी

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करुणा अनन्त और अपार है; उनकी आंखों में सब कोई, असुर, राक्षस, पिशाच । विद्रोही और विरुद्धाचारी भी उन्हीं की सन्तान और उन एक अद्वितीय के अंश हैं । उनका अस्वीकरण स्थगन ही है और उनसे मिला हुआ दण्ड उनका प्रसाद । किंतु उनकी करुणा के कारण उनके ज्ञान पर पर्दा नहीं पड़ता, उनका कर्म निर्दिष्ट पथ से नहीं हटता; कारण । वस्तुओं का सत्य ही उनका विषय है, ज्ञान उनका शक्ति केन्द्र है और हमारे अंतरात्मा तथा हमारी प्रकृति को दिव्य सत्य में निर्मित करना उनका व्रत और प्रयास ।

   महाकाली की प्रकृति और है । बृहत्ता नहीं, उतुंगता, ज्ञान नहीं, शक्ति और बल उनके विशेष्य गुण हैं । उनमें दुर्निवार तीव्रता है, संसिद्धि के लिये शक्ति का विपुल आवेग है, सारी सीमाओं और बाधाओं को चूर्ण करने के लिये धावन करनेवाली दिव्य प्रचण्डता है । उनका सारा दिव्यत्व प्रस्कुटित होता है रुद्रकर्म की प्रभा में; वह हैं क्षिप्रता के लिये । आशुफलदायिनी प्रक्रिया के लिये, हुत, ऋजु आघात के लिये, सर्वजयी सम्मुखीन आक्रमण के लिये । असुर के लिये भयंकर उनका मुखमणाडल है, भगवद्विर्द्वोषेयों के लिये निदारुण और निर्मम उनका चित्त है; विश्वलोकों की रणरंगिणी हैं वह, संग्राम से वह कभी भी विमुख नहीं होतीं । अपूर्णता उन्हें सहन नहीं; मनुष्य में जो कुछ भी अनिच्छुक है उसके प्रति उनका व्यवहार रूढ़ है, जो कुछ अज्ञान और अंधकार के लिये हठ करता है उसपर कठोर हैं वह । विश्वासघात, मिथ्याचार और विद्वेष पर उनका कोप अविलम्ब और भीषण होता है, दुष्ट इच्छा पर उनके शल का प्रहार तुरत होता है । भागवत कर्म में औदासीन्य, अवहेलना और आलस्य उन्हें सह नहीं; असमय सोनेवाले और दीर्घसूत्री को, आवश्यकता होने पर, वह तुरत तीक्ष्ण वेदना से प्रहारित करके जगाती है । क्षिप्र, ऋजु और अकपट प्रेरणाएं, अकुण्ठ और अव्यभिचारिणी गतिधाराएं, अग्निशिखा की तरह ऊर्ध्वगामिनी अभीप्सा, -ये महाकाली के संचार हैं । अदम्य उनकी अन्तर्वृत्ति है । श्येन पक्षी की उड़ान की तरह अतुंग और दूरप्रसारिणी उनकी दृष्टि और इच्छाशक्ति हैं, ऊधर्बपथ में हुत उनकी गति है, उनकी भूजाएं मारने और तारने के लिये फैली हुई हैं । कारण, वह भी मां ही हैं; उनका स्नेह उतना ही तीव्र है जितना कि उनका कोप और उनमें गभीर तथा आवेग- आस्तुत करुणा है । जब उन्हें अपने बल के साथ हस्तक्षेप करने का अवसर मिलता है तब साधक की गति को रुद्ध करनेवाले विघ्न, उसपर आक्रमण करनेवाले शत्रु असंहत वस्तुओं की तरह एक ही क्षण में चूर्ण हो जाते हैं । विरोधी के लिये उनका कोप भयंकर है और दुर्बल और कायर के लिये उनके दबाव का प्रको पीड़ाकर, किंतु

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महान्, बलवान् ओर उदात्त जनों का प्रेम पाती हैं वह, उनसे पूजित हैं वह, कारण, वे यह अनुभव करते हैं कि मां के प्रहार उनके आधार में जो विद्रोही है उसे ठोक-पीट करके समर्थ और निर्दोष सत्य बना देंगे, जो कुटिल और विकृत है उसपर सीधा हथौड़ा चलायेंगे और जो अशुद्ध या सदोष है उसे निकाल बाहर करेंगे । वह न हों तो जो काम एक दिन में किया जाता है उसमें शताब्दियाँ लग सकती थीं, उनके बिना आनंद विशाल और गभीर या कोमल, मधुर और सुंदर तो हो सकता था किंतु उसे अपनी परम पराकाष्ठाओं का प्रज्वलित उल्लास न मिलता । वह ज्ञान को विजयिनी शक्ति देती हैं, सौन्दर्य एवं सामंजस्य में उच्च ऊर्ध्वगामिनी गति और पूर्णता के मंद और कठिन श्रम में वह आवेग लाती हैं जो शक्ति को बहुगुणित करता है और लम्बे मार्ग को छोटा । परतम आनंद, उच्चतम उच्चता, महत्तम लक्ष्य और विशालतम दृष्टि से न्यून रहनेवाली कोई भी चीज उन्हें तुष्ट नहीं कर सकती । अतएव भगवान् की विजयिनी शक्ति उन्हीं के साथ है और यदि महासिद्धि बाद में न होकर अभी ही हो सके तो ऐसा उन्हीं के तेज, आवेग और क्षिप्रता के प्रसाद से होगा ।

 ज्ञान और शक्ति ही परमा माता की एकमात्र अभिव्यक्तियां नन्हाँ; उनकी प्रकृति का एक और भी सूक्ष्मतर रहस्य है ओर उसके बिना ज्ञान और शक्ति अधूरी वस्तुएं होंगी और पूर्णता पूर्ण नहीं होगी । उनसे ऊपर है शाश्वत सौन्दर्य का आदृभ्रुत्य, दिव्य सामंजस्यों का इन्द्रिय- अगम्य रहस्य, दुर्निवार विश्वव्यापक श्री ओर आकर्षण की मोहिनी शक्ति जो वस्तुओं, शक्तियों और सत्ताओं को खींचती और साथ धरे रखती और परस्पर सम्मिलित ओर संयुक्त होने को बाध्य करती हे ताकि अन्तराल से एक प्रच्छन्न आनंद लीलायित होवे और उन्हें अपने छंद और अपने रूप बनावे । यह महालक्ष्मी की शक्ति है और देहधारी जीवों के चित्त के लिये दिव्य शक्ति का इससे अधिक आकर्षक रूप और कोई नहीं । महेश्वरी इतनी अति स्थिर । महीयसी और दूर लग सकती हैं कि पार्थिव प्रकृति की क्षुद्रता उनतक पहुंचने या उन्हें धारण करने में असमर्थ हो, महाकाली उसकी दुर्बलता की सहनशक्ति के लिये अति क्षिप्र और प्रचण्ड हो सकती हैं, किंतु महालक्ष्मी की ओर तो सब कोई हर्ष और चाह से मुड़ते हैं । कारण, वह  .भगवान् की उन्मादिका माधुरी का जादू डालती हैं : उनके निकट होना गभीर सुख है और उन्हें हृदय मेँ अनुभव करना जीवन को आहलादमय और अद्भुत बना देना है; श्री, शोभा और स्नेहधारा उनसे वैसे ही प्रवाहित होती हैं जैसे सूर्य से प्रकाश और जहां कहीं वह अपनी अद्भुत दृष्टि जमाती या अपनी मुस्कान का माधुर्य टपकाती हैं, अंतरात्मा पकड़ में आ जाता, बन्दी हो जाता और

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अगाध आनंद की गहराइयों में ड़ूब जाता है । उनके हाथों के स्पर्श में चुम्बकत्व है, उनके करकमलों का गुह्य कोमल प्रभाव मन, प्राण और शरीर को मार्जित करता है और जहां उनके चरण पड़ते हैं वहां बह निकलते हैं चित्तोन्मादक आनंद के अलौकिक स्रोत !

   तथापि इस मोहिनी शक्ति को प्रसत्र करना या अपने अंदर बसाये रखना सहज नहीं । महालक्ष्मी प्रसन्न होती हैं मन और अंतरात्मा के सामंजस्य और सोन्दर्य से, विचार और अनुभव के सामंजस्य और सौन्दर्य से, प्रत्येक बहिर्मुख कर्म और गतिविधि से, सामंजस्य ओर सौन्दर्य से, जीवन ओर चतु:पार्श्व के सामंजस्य और सोन्दर्य से । जहां निगूढ़ विश्वानन्द के छंदों के साथ साम्य है । जहां सर्व-सुंदर की पुकार को उत्तर दिया जाता है, जहां स्वरसंगति है, ऐक्य है, भगवान् की ओर मुड़े हुए अनेकानेक जीवनों का सानन्द प्रवाह है, वैसे वातावरण में ही रहने को वह सम्मत होती हैं । किंतु जो कुछ कुत्सित, नीच और हीन है । जो कुछ दीन, मलिन और अशुचि है, जो कुछ निर्मम और रुक्ष है, वह सब उनके आगमन का प्रतिरोध करता है । जहां प्रेम और सौन्दर्य हैं नहीं या होना नहीं चाहते, वहां वह नहीं आती; जहां वे अपकृष्ट वस्तुओं से मिश्रित और विकृत हो जाते हैं, वहां से प्रस्थान करने के लिये वह जल्दी मुंड जाती हैं या वहां वह अपने वैभव उंडेलने को इच्छुक नहीं होतीं । यदि वह अपने- आपको मनुष्यों के हृदयों में स्वार्थपरता, घृणा, ईर्ष्या, असूया, विद्वेष और कलह से घिरा पाती हैं, यदि देवोद्दिष्ट अर्ध्यपात्र में विश्वासघातकता । लोभ और कृतघ्याता मिली हुई हैं । यदि आवेग की स्थूलता और अमार्जित कामना भक्ति को अवनत करती हैं, तो ऐसे हृदयों में सौम्या, सौन्दर्यमयी देवी नहीं ठहरेंगी । एक दैवी घृणा से उनका चित्त उचाट हो जाता है और वह वहां से हट जाती हैं, कारण, उनकी प्रकृति आग्रह या आयास करने को नहीं; या वह अपना सुखद प्रभाव फिर से प्रतिष्ठित करने के पहले अपने मुखड़े पर अवगुण्ठन डालकर इसकी प्रतीक्षा करती हैं कि यह कटु और विषाक्त आसुरी वस्तु वर्जित और विलुप्त हो जाये । संन्यासी की रिक्तता और रुक्षता उन्हें पसंद नहीं, हृदय के गभीरतर आवेगों का निरोध और अंतरात्मा तथा जीवन के सौन्दर्य- अंशों का कठोर दमन भी नहीं । कारण, वह प्रेम एवं सौन्दर्य द्वारा ही मनुष्यों पर भगवान् का जूआ डालती हैं । उनकी समुच्चतम सृष्टियों में जीवन परिणत हो जाता है स्वर्गिक श्रीसम्पत्र कलाकृति में और निखिल सत्ता परिणत हो जाती है पुनीत आनंद के काव्य में; जगत् की सम्पदा को एक महत्तम व्यवस्था-क्रम के लिये एकत्र ओर सज्जित किया जाता है, अति साधारण और अति सामान्य वस्तुएं

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भी महालक्ष्मी की एकत्वसंबोधि और उनकी अंत:सत्ता के श्वास से अनोखी बन जाती हैं । उन्हें हृदय में स्थान देने से वह ज्ञान को अपूर्व शिखरों पर पहुंचा देती हैं और उसके सामने सारे ज्ञान से अतीत उल्लास के गुप्त रहस्यों को प्रकट करती हैं, भक्ति को भगवान् के तीव्र आकर्षण का उत्तर देती हैं । शक्ति और बल को वह छन्द सिखाती हैं जो उनके कार्यो के वीर्य को समंजस और परिमित रखता है ओर संसिद्धि पर ऐसी मोहिनी डाल देती हैं जिससे वह चिरस्थायिनी हो जाती है ।

   महासरस्वती मां की कर्मशक्ति हैं, उनकी पूर्णता एवं व्यवस्था को वृत्ति है । वह चारों में सबसे कनिष्ठा हैं, कार्यनिष्पादन की क्षमता में सबसे निपुण हैं और स्थूल प्रकृति के निकटतम हैं । महेश्वरी विश्वशक्तियों की वृहत् धाराएं निर्दिष्ट करती हैं, महाकाली उनकी ऊर्जा और वेग को प्रेरित करती हैं, महालक्ष्मी उनके छंदों और मापों को प्रकट करती है, किंतु महासरस्वती उनके संगठन और क्रियान्वयन के ब्योरों की, अंगों के संबंध, शक्तियों के प्रभावी संयोजन और परिणाम तथा परिपूति के अचूक यथातथ्य की अध्यक्षा हैं । वस्तुओं की विद्या, कार्यपद्धति और प्रयोगरीति महासरस्वती के प्रान्त हैं । सिद्धकर्मी का अंतरंग और यथायथ ज्ञान, उसकी सूक्ष्मदर्शिता और धीरता, उसके संबोधिमय मन, चेतन हाथों और दर्शिनी आखों की निर्भूलता, इन्हें महासरस्वती अपनी प्रकृति में निरन्तर धारण किये रहती हैं और जिन्हें उन्होंने वरण किया है उनको ये चीजें प्रदान कर सकती हैं । यह शक्ति सारे लोकों की सबल, अक्लांत, सतर्क और निपुण निर्मात्री, विधात्री, शासिका, प्रयोगज्ञानवती, कलावती और श्रेणी-विभागकर्त्री है । जब वह प्रकृति के रूपांतर और नवनिर्माण को हाथ में लेती हैं उनका कार्य श्रमसाध्य होता है, ब्यौरों में बारीकी से जाता है और प्रायः हमारी अधीरता को धीमा और असमाप्य लगता हे, किंतु होता है अविराम, सर्वांगीण और दोषलेशशून्य । कारण, उनके कर्मों में रहनेवाली इच्छा सतर्क, अतन्द्र और अक्लान्त है; वह हम पर आनत होकर प्रत्येक छोटे-छोटे ब्यौरे को देखती और स्पर्श करती हैं, प्रत्येक बारीक दोष, छिद्र, कुटिलता या असम्पूर्णता को देखती हैं, जो कुछ किया जा चुका है और बाद के लिये जो करना अभी शेष रह गया है उसपर विचार करती, उसे ठीक-ठीक तौलती हैं । उनकी दृष्टि के लिये कोई भी चीज अति तुच्छ या आपात-नगण्य नहीं; कोई भी चीज कितनी ही स्पर्श- अगम्य, छड्रमयुक्त या गुप्त क्यों न हो, वह उनसे नहीं बच सकती । वह हर अंग को गढ़ती और फिर से गढ़ती हुई उसपर तबतक परिश्रम करती हैं जबतक कि वह अपना सच्चा रूप न प्राप्त कर लेवे, समग्र में अपने

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ठीक स्थान पर न रख दिया जाये और अपना ठीक-ठीक कार्य पूरा न करे । निरन्तर अध्यवसाय से वस्तुओं का आयोजन और पुनरायोजन करने में उनकी आंखें एक साथ ही सारी आवश्यकताओं और उनकी पूति के उपाय को देखती हैं उनकी संबोधि यह जानती है कि किसे वरण करना है और किसका वर्जन । और वह सही यन्त्र, सही समय, सही अवस्थाओं और सही प्रक्रिया को सफलता से निर्धारित करती हे । अनवधान, अवहेलन और आलस्य से उन्हें घृणा है; किसी भी तरह जल्दबाजी से या उलट-पुलट कर काम निपटा देना, कोई भी अपटुता, न्यूनाधिकता और लक्ष्यभ्रष्टता, करणों और वृत्तियों का मिथ्या अनुकूलन और अपव्यवहार और चीजों को बिना किये या आधा करके छोड़ देना उनकी प्रकृति के लिये अप्रिय और विजातीय है । जब उनका कार्य शेष हो जाता है तो देखने में आता है कि कोई भी बात भुलाया नहीं गयी है । कोई भी अंश अस्थान में नहीं है, छूट नहीं गया है, दोषयुक्त अवस्था में नहीं छोड़ दिया गया है; सब कुछ ठोस, निर्मूल, सम्पूर्ण और प्रशंसनीय है । पूर्ण पूर्णता से न्यून रहनेवाले कोई भी चीज उन्हें तुष्ट नहीं करती और उनकी सृष्टि की सर्वांगपूति के लिये यदि आवश्यक हो तो वह अनन्त काल तक श्रम करने को प्रस्तुत हैं । अतः मां की सारी शक्तियों में महासरस्वती ही मनुष्य और उसके सहस्र दोषों को सबसे अधिक सहती रही हैं । सदया, सुस्मिता, समीप और सदा सहाय हैं वह; वह आसानी से विमुख या हताश नहीं होतीं, बार-बार की विफलता के बाद भी उनका आग्रह रहता है; पद-पद पर उनका हाथ हमें संभाले रहता है, किंतु शर्त यह हे कि हमारा संकल्प अव्यभिचारी हो, हम ऋजु ओर एकनिष्ठ हों, कारण । द्विधा मन उन्हें सहन नहीं और उनका उद्भासक रूप विदूप अभिनय, छलकला, आत्मप्रवंचना और पाखण्ड के लिये निर्मम होता है । हमारे अभावों की पूर्ति के लिये वह मां हैं, हमारी कठिनाइयों में बंधु हैं । धीर ओर प्रशांत मन्त्री और परामर्शदात्री हैं; वह अपनी भास्वर मुस्कान से विषाद, अवसाद और खिन्नता के बादल छिन्न-भिन्न कर देती हैं, सदा नित्य विद्यमान सहायता को याद दिलाती हैं, चिरप्रकाश सूर्यकिरण की ओर अंगुली-निर्देश करती हैं; वह हमें उच्चतर प्रकृति की सर्वांगपूर्णता की ओर चलानेवाली प्रेरणा में दृढ़, अचंचल और अध्यवसायी हैं । अन्य शक्तियों का सारा कार्य अपनी सम्पूर्णता के लिये महासरस्वती पर अवलम्बित है, क्योंकि वे ही भौतिक आधार को सुनिश्चित करती हैं, अंग-प्रत्यंग को सविस्तार प्रस्फुटित करती हैं और इमारत को खड़ा करती और उसका कवच कस देती हैं ।

   मां भगवती के और भी कई महान विग्रह हैं परंतु उन्हें उतार लाना

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अधिक कठिन था और पृथ्वीपुरुष के क्रमविकास में वे उतनी स्पष्टता से सामने खड़े नहीं हुए । उनमें ऐसे भी हैं जो अतिमानसिक सिद्धि के लिये अपरिहार्य हैं,-सबसे अधिक वह जो मां का भागवत प्रेम से प्रवाहित होते दुशेय और दुर्वार उल्लास एवं आनंद का विग्रह है, एकमात्र वह आनंद ही अतिमानसिक पुरुष के उच्चतम शिखरों और जड़तत्त्व के अधस्तम गत्वरों के बीच की खाई का उपचार कर सकता है, उसी आनंद में अनोखे दिव्यतम जीवन की कुंजी है और वही अभी भी विश्व की सारी अन्य शक्तियों के कार्य को अपने गुप्त धामों से सहारा दे रहा है । परंतु मानवीय प्रकृति सीमाबद्ध, अहमात्मिका और तमोग्रस्त है, इन महती सत्ताओं को धारण करने या उनकी विपुल किया का आधार होने में असमर्थ है । वे अन्य विरलतर शक्तियां पार्थिव गतिधारा में केवल तब व्यक्त हो सकती हैं और अतिमानस-क्रिया केवल तब संभव हो सकती है जब कि शक्तिचतुष्टय ने रूपान्तरित मन, प्राण, देह में अपना सामंजस्य और स्वातंत्र्य प्रतिष्ठित कर लिया हो । कारण, जब मां के सारे विग्रह उनमें एकत्र होते हैं । व्यक्त किये जाते हैं और उनकी पृथक् क्रिया को सामंजस्यपूर्ण एकत्व में परिणत किया जाता है और वे मां में अपने अतिमानसिक देवस्वरूपों तक उठ जाते हैं, तभी मां अतिमानसिक महाशक्ति के रूप में व्यक्त होती हैं और अपनी ज्योतिर्मयी लोकातीत धाराओं को उनके अनिर्वचनीय व्योमधाम से बरसाती हुई लाती हैं । और तभी मानवीय प्रकृति सक्रिय देवप्रकृति में परिवर्तित हो सकती है, कारण, तब अतिमानसिक ऋत-चित् और ऋत-शक्ति की सारी मूल धाराएं साथ गुंथ जाती हैं और जीवन-वीणा अनन्त के छन्दों के योग्य हो जाती है !

  यदि तुम यह रूपांतर चाहते हो तो अपने- आपको मां और उनकी शक्तियों के हाथों में दे डालो बिना कुण्ठा के, बिना बाधा के, और तुम्हारे अंदर मां का काम होवे । तुममें तीन चीजें आवश्यक हैं, -चेतना, नमनीयता, निःशेष समर्पण । कारण, तुम्हें चेतन होना होगा अपने मन, अन्तरात्मा, हृदय और प्राण में, अपने शरीर के कोषों में भी, और तुम्हें मां, उनकी शक्तियों और उन शक्तियों की क्रिया के प्रति सबोध होना होगा, कारण, यद्यपि वह तुम्हारी तामसिकता और तुम्हारे अचेतन अंगों और अचेतन अवस्थाओं में भी कार्य कर सकती हैं और सदा करती भी हैं, तथापि यह एक बात है और तुम्हारा उनसे जाग्रत् एवं जीवंत संयोग में होना एक और बात है । तुम्हारी सारी प्रकृति को उनके स्पर्श के प्रति सुनम्य होना होगा; -वह प्रश्नन न करे जैसे कि आत्मनिर्भर और अज्ञ मन प्रश्नन, संशय और विवाद करता और अपने प्रबोधन और परिवर्तन

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का आप ही शत्रु होता है; वह अपनी ही प्रवृत्तियों के लिये हठ न करे जैसे कि मनुष्य की प्राणसत्ता उनके लिये हठ करती और हर दिव्य प्रभाव के विरोध में अपनी उन्मार्गगामिनी कामनाओं और दुर्भावनाओं को दृढ़ता से खड़ा करती है; वह बाधा न दे, अक्षमता, जड़ता और तमस् में न गडी हो, जैसे कि मनुष्य की शरीर-चेतना बाधा देती और अपनी क्षुद्रता और अंधकार के सुख से आसक्त रहती हुई उस प्रत्येक स्पर्श के विरुद्ध चीत्कार करती है जो उसके अंत:शन्य नित्यकर्म या उसके निष्प्राण आलस्य या उसकी घोर तन्द्रा में विघ्न डालता हो । तुम्हारी अन्त:सत्ता और बहिर्सत्ता का निःशेष समर्पण तुम्हारी प्रकृति के सारे अंगों में यह नमनीयता ले आयेगा; ऊपर से प्रवाहित हो आती ज्ञानवत्ता । ज्योति । शक्ति । सामंजस्य, सोन्दर्य, पूर्णता की ओर निरन्तर उन्मीलन से चेतना तुम्हारे अंग-प्रत्यंग में जाग्रत् होगी । शरीर भी जाग जायेगा और अंत में अपनी चेतना को, जो कि तब अवगूढ न रह जायेगी, अतिमानसिक अतिचेतन शक्ति से संयुक्त कर देगा, मां की सारी शक्तियों को ऊपर, नीचे और चारों ओर से ओत-प्रोत करते अनुभव करेगा और परम प्रेम एवं परम आनंद से पुलकित होगा ।

  परंतु सावधान रहो और मां भगवती को अपने क्षुद्र पार्थिव मन से समझने और परखने की चेष्टा मत करो जो कि अपनी पहुंच से परे की वस्तुओं को भी अपने ही नाप और मानकों, अपनी संकीर्ण युक्तियों और प्रमादी धारणाओं, अपने दर्पभरे अथाह अज्ञान और अपने तुच्छ आत्मविश्वस्त ज्ञान के नीचे लाना चाहता है । अपने अर्द्ध-प्रकाशित अंधकार के कारागार में बंद रहनेवाला मन भागवती शक्ति के पदक्षेपों की बहुमुखी स्वतंत्रता का अनुसरण नहीं कर सकता । मां की दृष्टि और क्रिया की क्षिप्रता और जटिलता मन की रखलनशील धारणा-शक्ति से बाहर छूटी रहती हैं; मां की गति के माप मन के माप नहीं हैं । उनके बहुतेरे रूपों के हुत परिवर्तन, उनके छन्द-निर्माण और छन्द- भंग, उनके गतिवेग के वर्द्धन और गतिहास, व्यक्ति-व्यक्ति की समस्याओं के साथ उनके नाना रीतियों के व्यवहार, उनका कभी इस धागे को और कभी और किसी को लेना और छोड़ देना और उनका उन सभी को एक साथ ग्रथित करना, इन सबसे  हुआ मन परमा शक्ति की रीति को नहीं पहचान सकता जब कि वह शक्ति अज्ञान की गहनता को भेद करके चक्कर काटती हुई पराज्योति की ओर तेजी से बढ्ती है । वरन् मां की ओर अपने अन्तर्हदय को उन्मीलित करो, उन्हें अपनी चैत्य प्रकृति से अनुभव करने और चैत्य दृष्टि से देखने में तुष्टि रहो,  एकमात्र यह ' और यह दुषिट ही सत्य को सीधा उत्तर देती हैं ।

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तब स्वयं मां तुम्हारे मन, हृदय, प्राण और शारीर चेतना को उनके चैत्य तत्त्वों द्वारा प्रबुद्ध करेंगी और उनके सामने अपनी रीति और प्रकृति को व्यक्त करेंगी ।

  फिर, अज्ञ मन की इस मांग की भूल से भी बचो कि भगवती शक्ति सदा ही सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्तासंबंधी हमारी स्थूल सतही धारणाओं के अनुसार कार्य करे । कारण, हमारा मन पद-पद पर अघटनसाधिका शक्ति, सहज सफलता और चकाचौंध करनेवाले ऐश्वर्य से प्रभावित होने को आकुल रहता है, नहीं तो भगवान् यहां हैं इसका उसे विश्वास ही नहीं होता । मां अज्ञान के क्षेत्र में अज्ञान से वरत रही हैं; वह वहां उतर आयी हैं और सर्वथा ऊपर नहीं हैं । अपने ज्ञान और शक्ति को वह अंशत: अवगुण्ठित रखती हैं और अंशत: व्यक्त करती हैं, प्रायः उनको अपने यंत्रों और विभूतियों से छिपाये रखती हैं और जिज्ञासु मन, अभीत्सु अंतरात्मा, युयुत्सु प्राण और पाशबद्ध व्यथाक्लिष्ट स्थूल प्रकृति की राह चलती हैं जिससे कि वह उन्हें रूपांतरित कर सकें । कुछ ऐसे विधान हैं जो परमा इच्छाशक्ति द्वारा निर्दिष्ट हैं । ऐसी बहुतेरी जटिल ग्रंथियां हैं जिन्हें खोलना होगा और अकस्मात् नहीं काट दिया जा सकता । इस क्रमविकासशीला पार्थिव प्रकृति पर असुर और राक्षस अधिकार जमाये हुए हैं और उन्हीं के दीर्घकाल से अधिकृत राज्य और क्षेत्र में उन्हीं की शर्तों पर उनका सामना करना और उन्हें जीतना होगा । हमारे अंदर की मानवीय सत्ता को उसकी सीमाओं के अतिक्रमण के लिये निर्देशित करना होगा और तैयार करना होगा; वह इतनी अधिक दुर्बल और तमोग्रस्त है कि उसे उससे परे बहुत दूर के रूप की ओर अकस्मात् उत्रीत नहीं किया जा सकता । भागवती चेतना और शक्ति विद्यमान हैं; जो कार्य पथ की अवस्थाओं में आवश्यक है उसे वे प्रति क्षण करती हैं, सदा यथानिर्दिष्ट डग भरती और अपूर्णता के बीच भावी पूर्णता को घड़ती हैं । किंतु तुममें अतिमानस का अवतरण हो जाने पर ही मां का अतिमानसिक प्रकृतियों के साथ अतिमानसिक शक्ति की तरह साक्षात् व्यवहार हो सकता है । यदि तुम अपने मन के पीछे चलते हो तो यदि मां तुम्हारे सामने प्रकट होंगी तो भी उन्हें पहचाना नहीं जायेगा । अपने मन के पीछे नहीं, अपने अंतरात्मा के पीछे चलो; सत्य को उत्तर देनेवाले अपने अंतरात्मा के पीछे चलो । न कि बाह्य रूपों पर उछलनेवाले मन के पीछे । भागवती शक्ति में आस्था रखो, वह तुम्हारे अंतर में देवोचित तत्त्वों को मुक्त करेंगी और सबको भगवती प्रकृति की अभिव्यक्ति के रूप में ढाल देंगी ।

  अतिमानसिक परिवर्तन नियति-निर्दिष्ट है और पार्थिव चेतना के क्रम- विकास में अनिवार्य; कारण, उसका ऊर्ध्वारोहण समात नहीं हुआ है, मन

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उसका सर्वोच्च शिखर नहीं । परंतु वह परिवर्तन आये, रूप ग्रहण करे और स्थायी हो, इसके लिये आवश्यक हे नीचे से उसके लिये आवाहन और उस आवाहन के साथ यह संकल्प कि जब ज्योति अवतीर्ण हो तो उसे अस्वीकार नहीं करना, पहचानना है, ओर आवश्यक है ऊपर से परमेश्वर की अनुमति । इस अनुमति और इस आवाहन के बीच कड़ी का काम करनेवाली शक्ति मां भगवती की सत्ता और शक्ति है । कोई मानवीय प्रयास या तपस्या नहीं, एकमात्र मां को ही शक्ति आच्छादन को छिन्न और आवरण को विदीर्ण कर पात्र को स्वरूप में गढ़ सकती और इस अंधकार, असत्य, मृत्यु, वेदना के जगत् में ला सकती है सत्य एवं ज्योति । दिव्य जीवन एवं अमृतत्व- आनन्द ।

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