श्री माताजी के विषय में

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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Mother Vol. 25 496 pages 1972 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्री माताजी के विषय में 439 pages 1973 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Shyam Sunder Jhunjhunwala
  Ravindra
Part I by Shyam Sundar Jhunjhunwala, Part II by Jagannath Vedalankar, Part III by Ravindra  PDF    LINK

द्वितीय भाग

 

 श्रीमाताजी के विषय में पत्र


 

 

 श्रीमाताजी और उनके देहधारण का प्रयोजन

 

 

श्रीमाताजी कौन हैं?

 

 

          आप अपनी पुस्तक '' माता '' में श्रीमां (हमारी माताजी) का ही जिक्र करते हैं न?

 

हां !

 

         क्रया बह ''याषिटभावापत्र'' भगवती माता ही वर्ही हैं जिन्होंने '' सत्ता के इन दो विशालतर स्वरूपों की - परात्पर और      विश्वगत  की -शक्ति को '' मूर्तिमान् किया है ?

 

हां, वही हैं ।

 

       वह हमारे प्रति अपने गभीर और महान् प्रेम के वश ही यहां (हमारे बीच) अंधकार और मिथ्यापन भूल- भ्रांति और मृत्यु   के अंदर अवतरित हुई न ?

 

हां !

१७-८-१९३८

                                                                                        

 

*

 

ऐसे बहुत- से लोग हैं जिनका मत है कि श्रीमां मनुष्य थी पर अब उन्होने भगवती माता को अपने अंदर किया है और उनका विश्वास है कि श्रीमां की प्रार्थनाएं'  इस मत को पुष्ट करती हैं पर मेरे मन की धारणा ,मेरे अंतरात्मा का अनुभव यह है कि वे 'स्वयं भगवती माता ही हैं जिनहोंने अंधकार दु?ख- कष्ट और अज्ञान का जामा 'पहनना इसलिये

 

     १श्रीमां द्वारा लिखित 'प्राथॅनाएं और ध्यान ' नामक पुस्तक ।

 ३१


   स्वीकार किया है कि वे सफलतापूर्वक हम मनुष्यों को ज्ञान सुख और आनदं की ओर तथा परम प्रभु की ओर ले जा सकें !

 

भगवान् स्वयं मार्ग पर चलकर मनुष्यों को राह दिखाने के लिये मनुष्य का रूप धारण करते हैं और बाहरी मानव-प्रकृति को स्वीकार करते हैं । पर इससे उनका 'भगवान्' होना खतम नहीं हो जाता । यह एक अभिव्यक्ति होती है । बढ्ती हुई भागवत चेतना अपने-आपको प्रकट करती हे 1 यह मनुष्य का भगवान् में बदल जाना नहीं है । श्रीमां अपने आंतर स्वरूप में बचपन में भी मानवत्व से ऊपर थीं । इसलिये ' बहुत-से लोगों ' का जो उपर्युक्त मत है वह भ्रमात्मक है ।

१७-८-१९३८

 

        मेरी यह भी धारणा है कि उनकी 'प्रार्थनाएं' हम अभीप्सु जीवों को यह दिखलाने के लिये लिखी गयी हैं कि भगवान् के सामने किस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये ! ( क्या यह ठीक है ?)

 

हां !

१७-८ १९३८

 

श्रीमां का आविर्भाव तथा अतिमानस का अवतरण

 

                            क्या श्रीमां के प्राकटय तथा अतिमानस के अवतरण में कोई अंतर है ?

 

श्रीमां अतिमानस को नीचे लाने के लिये ही आती हैं और अतिमानस का अवतरण होने पर ही उनका यहां पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होना संभव होता है ।

२३ - १ -११३५ 

*

 

         श्रीमां सीधे ऊपर के अपने लोक से साधक पर कार्य नहीं करती ,यद्यपि वे यदि ऐसा करना चाहें तो कर सकती हैं - यहांतक कि वे संसार को एक दिन में अतिमानसभावापत्र भी बना सकती है; पर उस हालत में यहां बननेवाली अतिमानसिक प्रकृति ठीक वैसी होगी जैसी कि वह ऊपर हे? न कि अतिमानसिक पृथिवी की ओर विकसित हुई अज्ञानमयी

३२


 पृथ्वी, एक ऐसी अभिव्यक्ति जो देखने में ठीक देसी ही नहीं होगी जैस? कि अतिमानस है?

 

यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण सत्य है ।

१७ - ६- ११३५

 

श्रीमां के मृत का उद्देश्य

 

            क्या मेरा यह सोचना ठीक है कि माताजी एक व्यक्ति के रूप मृति मान  में समस्त भागवत शक्तियों को  करती हैं और अधिकाधिक भागवत कृपा को भौतिक स्तर पर उतार लाती हैं? और उनका? होना

भौतिक स्तर के लिये परिवर्तित और रूपांतरित होने का एक हे?

 

हां, उनका मूर्तिमान् होना पृथ्वी की चेतना के लिये अपने अंदर अतिमानस को ग्रहण करने तथा उसे संभव बनाने के लिये पहले जो रूपांतर जरूरी है उसे प्राप्त करने का एक सुयोग है । पीछे चलकर अतिमानस के द्वारा और भी रूपान्तर साधित होगा, परंतु समूची पार्थिव चेतना अतिमानसभावापत्र नहीं हो जायेगी -सबसे पहले एक नयी जाति उत्पन्न होगी जो अतिमानस को प्रकट करेगी, जैसे कि मनुष्य मन को अभिव्यक्त करता है !

 

१३ - ८ - ११३३

 

*

 

 केवल एक ही दिव्य शक्ति है जो विश्व में भी कार्य करती है और व्यक्तियों में भी, और फिर जो व्यक्ति और विश्व के परे भी है । श्रीमां इन सबकी प्रतिनिधि हैं, पर वे यहां शरीर में रहकर कुछ ऐसी चीज उतारने के लिये कार्य कर रही हैं जो अभी तक इस स्थूल जगत् में इस तरह अभिव्यक्त नहीं हुई है कि यहां के जीवन को रूपांतरित कर सके - अतः तुम्हें उनको इस उद्देश्य से यहां कार्य करनेवाली भागवती शक्ति समझना चाहिये । वे अपने शरीर में वही हैं, पर अपनी संपूर्ण चेतना में वे भगवान् के सभी स्वरूपों के साथ अपना तादास्थ्य बनाये हुई हैं ।

 

*

  माताजी बहुत सारी नहीं हैं, माताजी एक ही हैं पर उनके रूप बहुत-से हैं ।

३३


परात्पर रूप श्रीमां का केवल एक रूप है । मैं नहीं जानता कि परात्परा मां के मूर्त स्वरूप का क्या अर्थ है । एक ही मां का मूतॅ स्वरूप होता है - उसके द्वारा वे किस चीज को अभिव्यक्त करती हैं यह स्वयं उनपर निर्भर है ।

७-७-२९३६

 

*

   

    अपने विश्व- कार्य में श्रीमां वरतुओं के नियम के अनुसार, क्रयों कार्य करती है और अपने भौतिक शरीर में वे बराबर कृपा- शक्ति के द्वारा क्यों कार्य करती '7

 

विश्व को और विश्व के विधान को बनाये रखना विश्व-शक्ति का कार्य है । महत्तर रूपांतर आता है विश्वातीत परात्पर से और उसी परात्पर कृपा-शक्ति को कार्य-रूप में लाने के लिये यहां श्रीमां का मूर्त स्वरूप विद्यमान है ।

१३-८-१९३३

 

  भौतिक रूप में श्रीमां के पास जाने की उपयोगिता के विषय में आपका क्या विचार हैं ?

 

भौतिक रूप में श्रीमां के पास जाने की उपयोगिता है -यह सशरीर मन और प्राण का उनकी सशरीर शक्ति के पास जाना है । अपने विश्व-कार्य में श्रीमां वस्तुओं के नियम के अनुसार कार्य करती हैं -उनकी मूत भौतिक क्रिया निरंतर कृपा-प्राप्ति का सुयोग प्रदान करती है -वास्तव में यही शरीर ग्रहण करने का उद्देश्य है ।

१२ - ८ - ११३३

 

 श्रीमां के विभिन्न रूप

 

श्रीमां। के बहुत-से अलग- अलग व्यक्तित्व हैं और उनमें जो व्यक्तित्व प्रधान होता है उसके अनुसार उनका बाह्य रूप बदल जाता है । अवश्य ही कुछ साधारण चीजें सबमें एक-सी बनी रहती हैं । सबसे पहला वह व्यक्तित्व है जिसे ये सब व्यक्ति-रूप अभिव्यक्त करते हैं पर जिसे नाम या शब्द द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता -फिर अतिमानसिक स्वरूप भी है जो पर्दा के पीछे से वर्तमान

३४


१ - ११ - १९३३

 श्रीमां का केवल एक ही रूप नहीं है, बल्कि विभिन्न समयों पर उनके विभिन्न रूप होते हैं ।

 

*

 

भौतिक शरीर के पीछे श्रीमां के बहुत-से रूप, शक्तियां और व्यक्तित्व विद्यमान रहते हैं ।

 

१४-५-१९३३

   दो दिन हुए मैंने सूक्ष्म दर्शन के रूप में यह देखा कि मेरे हृदय से अभीप्सा की आप उठ रही है और ऊपर की ओर जा रही है तथा उसके साथ श्रीमाताजी की याद निरंतर बनी हुई हौं ! फिर मैने देखा कि श्रीमाताजी जिस रूप में हम उन्हें रूल शरीर में देखते है आग में उतर रही हैं और मेरे सभी अंगों को शान्ति और शक्ति से भर रही हैं यह दर्शन क्या सूचित करता है ? मैंने श्रीमां को उनके दिव्य रूप में न देख ठीक वैसा ही क्यों देखा जैसा कि हम उन्हें रुथूल शरीर में देखते हैं?

 

यह सूचित करता है अभीप्सा को और केवल आंतर सत्ता में ही नहीं वरन् बहरी प्रकृति में भी सिद्धि ले आनेवाली क्रिया को । जब यह आंतरिक क्रिया अथवा दूसरे स्तर की क्रिया होती है तब मनुष्य श्रीमां को उनके किसी एक रूप में देख सकता है, पर भौतिक स्तर पर सिद्धि प्राप्त करने के लिये उनका उपयुक्त रूप वही है जिसे उन्होंने यहां धारण कर रखा है ।

 

१५ - ७ - ११३३

*

 

 श्रीमाताजी विभित्र समयों पर जैसे प्रणाम या 'प्रॉस्पेरिटी' या मुलाकात के समय अलग- अलग रूपों में क्यों दिखायी देती हैं? यहांतक कि कभी- कभी तो उनके स्थूल अंगों में भी अतंर दिखायी देता है उनके आकार में इस प्रकार का अंतर दिखायी देने का कारण क्या है? क्या यह इस बात पर निर्भर करत[ है कि किस हद तक के बाहर की ओर मुड़ती हैं?

३५


मेरी समझ में यह बात निर्भर करती है उस व्यक्ति-स्वरूप पर जो सामने की ओर अभिव्यक्त होता है -क्योंकि उनके बहुत-से व्यक्ति-स्वरूप हैं और उनका शरीर सामने आनेवाले प्रत्येक स्वरूप का कुछ-न-कुछ अंश अभिव्यक्त करने के लिये काफी नमनीय है ।

 

४ - १२ - ११३३

 

*

 

   प्रायः ही जब मैं श्रीमाताजी को देखता हूं तब मैं अनुभव करता हूं मानों वे दिव्य आनंद की प्रतिमा हों और उनका रूप एक छोटी लड़की के जैसा दिखायी देता है क्या मेरे अनुभव में कोई सत्य है?

 

आनन्द ही एकमात्र चीज नहीं है -ज्ञान, शक्ति, प्रेम तथा भगवान् की बहुत-सी दूसरी शक्तियां भी हैं । सिर्फ एक विशेष अनुभव के रूप में यह ठीक हो सकता है ।

 ३० - ४ - ११३३

*

  हां । बहुत-से लोग ऐसा देखते हैं, मानों श्रीमाताजी अपने साधारण भौतिक आकार से अधिक लम्बी हों ।

 

२१ - १ - ११३३

 

श्रीमां के अवतरित होने का पूर्वज्ञान

 

   जब रामकृष्ण साधना कर रहे थे श्रीमां अपने बचपन के शुरू के आठ साल १८७८ से १८८ S तक भौतिक रूप में पृथ्वी पर थीं ! क्या उन्हें ज्ञात था कि माताजी अवतरित हो गयी हैं? कम- से- कम उन्हें मां के अवतरित होने का कुछ अंतर्दर्शन अवश्य हुआ होगा पर इस विषय में हमें निश्चित रूप से कहीं कुछ लिखा नहीं मिलता । और जब रामकृष्ण मां को अति तीव्र रूप में बुला रहे होने तब मां को भी उस उम्र में कुछ अनुभूति अवश्य हुई होगी

 

श्रीमाताजी ने अपने बचपन के .सूक्ष्म दर्शन में '- देखा था और 'कृष्ण''

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समझा था -उन्होंने रामकृष्ण को नहीं देखा ।

  यह आवश्यक नहीं था कि उनको (रामकृष्ण को ) माताजी के अवतरित होने का दर्शन प्राप्त हो, क्योंकि वे भविष्य की बात नहीं सोच रहे थे और न ज्ञानपूर्वक उसके लिये तैयारी कर रहे थे । मैं नहीं समझता कि उन्हें श्रीमाताजी के किसी अवतरण का कोई ख्याल था!

 

११ - ७ - ११३५

 

*

 

 ' क्ष ' की प्रकृति बहुत कुछ अत्यधिक वेदान्ती की-सी है । जिस चीज में हमारा विश्वास है उसमें और अवतरण आदि में उसका विश्वास नहीं । तथापि उसे स्वयं कुछ ऐसे अनुभव हुए जिनमें माताजी ने प्रत्यक्ष, मुक्त भौतिक रूप में हस्तक्षेप किया और उसे वह चीज नहीं करने दी जो वह करना चाहता था ।

 ७ - ७ - ११३६

*

 माताजी में भगवान् को देखना

 

      आज प्रात: काल मैंने माताजी में महान् सौन्दर्य का अवलोकन किया यह तो ऐसा था मानो उनका सारा शरीर अलौकिक प्रकाश से देदीप्यमान हो रहा हो वास्तव में मुझे यों अनुभव हुआ मानों परात्पर? देवी ऊपर के धुलोकों से नीचे उतर आयी हों इसकी व्याख्या करने की कृपा कीजिये !

 

यह महज इतना था कि तुमने उनके संग रहनेवाली दिव्यता का अनुभव किया जो वहां सदैव रहती है ।

 

२० - ७ - ११३३

*

 

 जहांतक पहली दृष्टि में ही माताजी में भगवान् को देखने की बात है, ऐसा देखनेवाला अकेला वही नहीं है । कितने ही लोग ऐसा देख चुके हैं... उदाहरण थ,  ' क्ष' की चचेरी बहन, एक मुसलमान कन्या । ज्यों ही श्रीमां से मिली त्यों ही बोल उठी, '' ये स्त्री नहीं, देवी हैं,'' और तब से उसे सदैव मां के विषय में महत्त्वपूर्ण स्वप्न आते रहे हैं, और जब कभी उसे कोई कष्ट होता है वह उनका

 

 ३७


चिन्तन करती है और उनकी सहायता से कष्ट से मुक्त हो जाती है । माताजी में भगवान् को देखना उतना कठिन नहीं जितना तुम इसे समझ रहे हो ।

२३ - ७ - ११३५

   मुझे मालूम नहि उस मुस्लिम महिला ने ठीक-ठीक क्या देखा था जो आपने कहा हे उससे लगता हे कि वह अन्तर्ज्ञान की झलकी थी !

 

बिलकुल नहीं, वह उनमें स्थित देवत्व का प्रत्यक्ष संवेदन था -क्योंकि मैं समझता हूं अंतर्ज्ञान से तुम्हारा मतलब एक इस प्रकार के विचार से है जो एकाएक आ जाता है? साधारणतया लोग अन्तर्ज्ञान से यही कुछ समझते है । उस महिला के और ' क्ष ' के दृष्टान्त में यह चीज नहीं थी ।

 २९-७-१९३५

   परंतु क्या पूर्णतया देदीप्यमान ज्योतिर्मयी भगवती माता के दर्शन करना अतीव कठिन नेही है?

 

मैं नहीं समझता कि 'क्ष' को या किसी और को पहली ही दृष्टि में श्रीमाताजी के पूर्ण दिव्यत्व के दर्शन हुए होंगे । वह दर्शन केवल तभी हो सकता है जब कि किसी ने पहले से ही गुह्य लोकों का सूक्ष्म दर्शन प्राप्त करने की शक्ति विकसित कर रखी हो । अधिक महत्त्व की बात यह है कि इस बात का स्पष्ट दर्शन या घनिष्ठ आंतरिक अनुभव या प्रत्यक्ष बोध हो कि '' यही वे हैं । '' मैं समझता हूं कि इन मामलों में तुम्हारा झुकाव बहुत अधिक काल्पनिक और काव्यमय होने की ओर है और आध्यात्मिक रूप से यथार्थवादी होने की ओर बहुत कम ।

   बहुत-से लोगों में, जब वे साधना आरंभ करते हैं तब, गुह्य दशन की इस प्रकार की शक्ति सबसे पहले विकसित होती है और दूसरों में यह शक्ति स्वभावत: ही उपस्थित रहती है अथवा योग की किसी साधना के बिना ही कभी-कभी आती है । परंतु जो लोग मुख्यत: बुद्धि में निवास करते हैं उनमें  (कुछ लोगों को छोड़कर ) यह शक्ति साधारणतया स्वभावत: ही उपस्थित नहीं होती और उनमें से बहुतों को उसे विकसित करने में बड़ी कठिनाई होती है ।इस विषय में मेरे ऐसा ही हुआ था !

 ३८


          इस

दर्शनशाक्री के बिना चीजों को देखना एक प्रकार का जादू ही होगा ।

हम लोग यहां इस प्रकार के जादू का बहुत अधिक कारबार नहीं करते ।

 २१ - ७ - १९३५

 श्रीमां के दिव्यत्व की पहचान

 

 कुछ लोग एकदम आरंभ कर देते हैं और दूसरों को समय लगता है । 

 'क्ष' ने पहली दृष्टि में ही श्रीमाताजी को भगवती के रूप में पहचान लिया था और उसके बाद से बराबर ही वह प्रसन्न रहा है; दूसरे लोगों को, जो श्रीमाताजी के भक्तों में ही शामिल हैं । इस बात का पता लगाने या इसे स्वीकार करने में वर्षों लग गये, पर वे सब उस स्थिति को प्राप्त हुए । कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें अपनी साधना के पहले पांच, छ:, सात या अधिक वर्षों तक कठिनाइयों और विद्रोहों के सिवा और कुछ नहीं मिला, फिर भी अंत में चैत्य पुरुष जग गया । समय लगने की बात गौण है; एकमात्र आवश्यक बात है वहां पहुंच जाना -फिर चाहे जल्दी हो या देर में, आसानी से हो या कठिनाई के साथ ।

*

 

     बहुत बार में देखता हूं कि पुराने संस्कार उठ खड़े होते हैं और श्रीमां तथा उनकी दिव्यता में मेरी श्रद्धा को विचलित कर देते हैं ! इस स्थिति को कैसे रोका जा सकता है ?

 

 

विश्वास स्थिर रूप से तभी जम सकता है ! यदि तुम माताजी की दिव्यता के दर्शन कर लो -यह आंतरिक चेतना और दिव्यदर्शन का प्रश्न है ।

 

५ - ६- ११३७

 

*

   मन को यह विश्वास कैसे दिलाया जाये कि श्रीमां दिव्य हैं और उनकी क्रियाएं मानवी नहीं?

 

यह इस प्रकार किया जा सकता है कि चैत्य को खोल दिया जाये और उसे मन तथा प्राण पर शासन करने दिया जाये -क्योंकि चैत्य को (श्रीमां की दिव्यता

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का) ज्ञान है और वह उस चीज को भी देख सकता है जिसे मन नहीं देख सकता ।

*

 

  ऐसा मालूम होता है कि मेरी सात का जो बाहरी भाग माताजी को स्वीकार नहीं करता था वह अब उनके दिव्यत्व को पहचानने लगा हे ! पर जब मैं शरीर से उनके सामने जाता हूं तब मैं इसे क्यों भूल जाता

 

अपनी अत्यंत बाहरी किया में भौतिक मन स्थूल वस्तुओं को केवल स्थूल रूप में ही देखता है ।

 

१५ - ८ - ११३७

 

*

 

 तुम्हारे अंदर का यह संघर्ष (श्रीकृष्ण की भक्ति और माताजी के दिव्यत्व के बोध के बीच का संघर्ष ) एकदम अनावश्यक है; क्योंकि ये दोनों चीजें एक हैं और पूर्ण रूप में एक साथ चल सकती हैं । श्रीकृष्ण ही तुम्हें माताजी के पास ले आये हैं और माताजी की पूजा करके ही तुम उनको (श्रीकृष्ण को ) पा सकते हो । वह स्वयं इस आश्रम में हैं और यहां जो काम हो रहा है वह उन्हीं का है ।

 

१९३३

 

*

 

   'क्ष ' जैसे अच्छे भक्त और तेज विधार्था को भी श्रीमाताजी को स्वीकार करना कठिन मालूम हो रहा है मैं नहीं समझ पाता कि श्रीमां- संबंधी सरल सत्य को वह क्यों नहीं देख सकता ?

 

अगर श्रीमाताजी को स्वीकार करना उसके लिये कठिन है तो वह भला अच्छा भक्त कैसे हुआ और भक्त है तो किसका? तेज छात्र होना दूसरी बात है; हो सकता है कि कोई मेधावी छात्र तो हो पर आध्यात्मिक विषयों में एकदम अयोग्य हो । अगर कोई विष्णु या किसी अन्य देवता का भक्त हो तो वह अलग बात है -वह केवल अपनी पूजा के विषय को ही देख सकता है और इसलिये

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किसी अन्य वस्तु को स्वीकार करने में समर्थ नहीं होता ।

 

१४ - ११ - ११३४

 

*

 

    कुछ लोग उच्चतर लोकों के क्रम में श्रीमाताजी की स्थिति को समझने में एकदम पथभ्रष्ट- से प्रतीत होते हे । जब वे इन लोकों में होते हैं या उनसे कोई चीज ग्रहण करते हैं तब बे ऐसा समझना आरंभ कर देते हैं कि वे एक बड़ी ऊंचाई पर पहुंच गये है? और उच्चतर लोकों का माताजी के साथ कोई भी संबंध नहीं हे  विशेषकर अतिमानस के विषय में उनकी ऐसी विचित्र धारणाएं हैं मानों वह श्रीमाताजी से कहीं बड़ी कोई चीज हो !

 

अगर उन्हें श्रीमाताजी से बड़ी अनुभूति या चेतना प्राप्त है तो उन्हें यहां नहीं रहना चाहिये और बाहर जाकर उसके द्वारा जगत् की रक्षा करनी चाहिये । 

*

 

  क्या यह मनोभाव कि में ब्रह्म हूं पूर्णयोग में आवश्यक नहीं?

 

संपूर्ण प्रकृति का रूपांतर करने के लिये यह पर्याप्त नहीं । यदि पर्याप्त होता तो माताजी के यहां होने को आवश्यकता ही न होती । तब तो अपने विषय में यह सोचने भर से कि मैं ब्रह्म हूं रूपांतर साधित हो सकता । माताजी की उपस्थिति या उनकी शक्ति की कोई आवश्यकता न होती ।

२७ - १२ - ११३५

 

माताजी का सत्य का प्रस्ताव

 

माताजी तुम्हारे लिये यह निश्चय नहीं कर सकतीं कि तुम्हें निर्विकल्प समाधि के मार्ग का अनुसरण करना चाहिये या इस योग को स्वीकार करना चाहिये; वह तो केवल सत्य का प्रस्ताव तुम्हारे सामने रख सकती हैं और अगर तुम उसे स्वीकार करो तो वह उसकी ओर तुम्हें ले जा सकती हैं ।

८ - १ - १९३३

 


भला माताजी ज्ञानयोग को नापसन्द क्यों करें? आत्मा का और विश्वपुरुष का साक्षात्कार (जिसके बिना आत्मा का साक्षात्कार अधूरा रह जाता है) हमारे योग का आवश्यक अंग है; यह अन्य योगों का अंत है, पर यह वास्तव में हमारे योग का आरम्भ है, अर्थात् यह वह स्थान है जहां से इसकी विशिष्ट अनुभूति आरम्भ हो सकती है ।

 

२६-३-१९३६ 

 

*

निश्चय ही, समाधि इस योग में वर्जित नहीं । यह तथ्य कि माताजी सदैव इसमें जाया करती थीं इस बात का पर्याप्त प्रमाण है ।

 

१०-६-११३६

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