श्री माताजी के विषय में

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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Mother Vol. 25 496 pages 1972 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्री माताजी के विषय में 439 pages 1973 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Shyam Sunder Jhunjhunwala
  Ravindra
Part I by Shyam Sundar Jhunjhunwala, Part II by Jagannath Vedalankar, Part III by Ravindra  PDF    LINK

 

श्रीमाताजी और आश्रम की कार्य-व्यवस्था

 

साधकों में माताजी की साधना

 

स्वभावत: ही, माताजी प्रत्येक साधक के अंदर साधना करती हैँ -लेकिन यह साधक के उत्साह और ग्रहण शीलता से सीमित होती है ।

 

४ - १ - १९३५

*

 

जिन चीजों को नीचे उतारना है उन्हें उतारने के विषय में माताजी के अपने निजी अनुभव हैं -परंतु जो कुछ साधक अनुभव करते है उसे भी उन्होंने बहुत पहले अनुभव किया था । पहले भगवान् जगत् के लिये साधना करते हैं आrर फिर दूसरों में साधना करते हैं ।

१२ - १ - ११३४

*

 

मैंने कहा है कि पहले भगवान् जगत् के लिये साधना करते हैं और फिर जो कुछ नीचे उतारा गया है उसे वे दूसरों को देते हैं । उपलब्धियों और अनुभूतियों के बिना कोई साधना नहीं हो सकती । '' प्रार्थनाएं ''' माताजी की अनुभूतियों के रिकॉर्ड (Record- अभिलेख ) हैं ।

४ - १ - ११३५

*

 

 आश्रम में तथा बाहर चैत्य संपर्क

 

निश्चय ही यह बिलकुल ठीक है कि दूर से भी चैत्य सम्पर्क बना रह सकता है और भगवान् देश से सीमित नहीं हैं । बल्कि सर्वत्र विद्यमान हैं । यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक आदमी आश्रम में ही रहे अथवा शरीर से श्रीमां के समीप रहे और तभी वह आध्यात्मिक जीवन यापन कर सकता है या योग का अभ्यास

 

  श्रीमाताजी-लिखित ' प्रार्थना और ध्यान ' नामक पुस्तक।

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कर सकता है । आरंभिक अवस्थाओं में तो यह बिलकुल ही आवश्यक नहीं है । परंतु यह सत्य का केवल एक पक्ष है; इसके अलावा एक दूसरा पक्ष भी है । अन्यथा यह युक्तिसंगत सिद्धांत निकल आयेगा कि माताजी के यहां रहने की, अथवा आश्रम के होने की, या किसी भी आदमी के यहां आने की बिलकुल ही कोई आवश्यकता नहीं है ।

  चैत्य पुरुष सबके अंदर होता है, पर वह बहुत थोड़े लोगों में अच्छी तरह विकसित हुआ होता है, अपनी चेतना में अच्छी तरह गठित और सामने प्रमुख स्थान में होता है; अधिकतर लोगों में यह ढका होता है । प्रायः कुछ भी करने में असमर्थ होता है या केवल एक प्रभाव भर डालता है, इतना पर्याप्त सचेत या सबल नहीं होता कि आध्यात्मिक जीवन को सहारा दे सके ।

  इसी कारण आवश्यक है कि जो लोग इस सत्य की ओर आकर्षित हुए हैं वे यहां आकर रहें जिससे कि वे स्पर्श प्राप्त कर सकें और उस स्पर्श से चैत्य पुरुष का जागरण हो या उसकी तैयारी हो -यही उन लोगों के लिये फलप्रद चैत्य सम्पर्क स्थापित करने का प्रारम्भ है ।

  फिर इस कारण भी यह आवश्यक है कि बहुतों के लिये यहां रहना जरूरी है - अगर वे तैयार हों -जिससे कि सीधे प्रभाव के नीचे या समीप में रहकर वे अपने चैत्य पुरुष की चेतना को विकसित करें या गठित करें अथवा उसे सामने ले आयें । जब स्पर्श दे दिया जाता है और साधक का उतना विकास साधित हो जाता है जितना उस समय उसके लिये संभव होता है, तब वह बाहरी जगत् में वापस लौट जाता है और संरक्षण तथा पथ-प्रदर्शन के अधीन दूर रहकर भी सम्पर्क बनाये रखने एवं अपना आध्यात्मिक जीवन जारी रखने में समर्थ होता है । परंतु बाहरी जगत् के प्रभाव चैत्य सम्पर्क और चैत्य विकास के अनुकूल नहीं हैं, और यदि साधक पूरी तरह सावधान या एकाग्र न हो तो । कुछ समय बाद चैत्य सम्पर्क सहज ही टूट सकता या ढक जा सकता है और विरोधी क्रियाओं या प्रभावों के कारण चैत्य विकास धीमा हो सकता, अटक सकता और यहांतक कि न्यून भी हो सकता है । अतएव यह बात आवश्यक है और प्रायः आवश्यक अनुभूति होती है कि केंद्रीय प्रभाव के स्थान में वापस आया जाया जिससे कि संपर्क को दृढ़ बनाया जाये या फिर से प्राप्त किया जाये अथवा विकास को पुन: जारी किया जाये या नया अग्रगामी वेग प्रदान किया जाये । समय-समय पर ऐसे सामीप्य के लिये उठनेवाली अभीप्सा कोई प्राणगत कामना नहीं होती; यह केवल तभी प्राणगत कामना बन जाती है जव अहंकारपूर्र्र्वक हठ करती या किसी प्राणिक उद्देश्य के साथ मिल जाती

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है, उस समय नहीं जव यह चैत्य  पुरुष की शांति और गंभीर अभीप्सा होती है तथा इसमें कोई चिल्लाहट या चंचल बनानेवाला आग्रह नहीं होता ।

  यह बात तो है उन लोगों के लिये जिन्हें बुलाया नहीं गया है या जिन्हें आश्रम में केंद्रीय दिव्य शक्ति या उपस्थिति के सीधे दबाव के नीचे रहने के लिये अभीतक बुलाया नहीं गया है । जिन लोगों को इस प्रकार रहना ही चाहिये, वे लोग हैं जो एकदम आरंभ से ही बुलाये गये हैं या जो तैयार हो गये हैं या जिन्हें किसी-न-किसी कारणवश उस काय या सृष्टि का एक अंग बनने का अवसर दिया गया है जो यहां योग द्वारा तैयार की जा रही है । उन लोगों के लिये यहां के वातावरण में, सामीप्य में रहना अत्यंत आवश्यक है; उनके यहां से चले जाने का अर्थ होगा उस सुयोग का त्याग करना जो उन्हें दिया गया है, अपनी आध्यात्मिक भवितव्यता की ओर पीठ फेर देना । उन लोगों की कठिनाइयां बहुधा देखने में उन लोगों के संघर्ष से कहीं अधिक होती हैं जो बाहर रहते हैं, क्योंकि उनसे बड़ी चीज की मांग की जाती है और उनपर दबाव भी बड़ा होता है; परंतु उसी तरह उनको बड़ा-सा सुयोग भी प्राप्त है तथा विकास के लिये उनपर अधिक शक्ति तथा प्रभाव डाला जाता है एवं वह चीज भी दी जाती है जो वे अध्यात्मत: बन सकते हैं और अवश्य बनेंगे यदि वे अपने चुनाव और पुकार के प्रति सच्चे हों |

७ - १० - १९३१ 

*

 

  क्या माताजी के भौतिक सामीप्य का कोई विशेष फल होता है?

 

भौतिक स्तर पर साधना की परिपूर्णता के लिये यह अनिवार्य है । भौतिक और बाह्य सत्ता का रूपांतर उसके बिना नहीं हो सकता ।

१८ - ८ - ११३३  

*

 

   क्या बहुत अधिक दूरी पर भी- जैसे बम्बई या कलकत्ते में भी - करीब- करीब उसी रूप में माताजी का संपर्क और उनकी सहायता ग्रहण करना संभव है जैसे यहां आश्रम में संभव है?

 

सर्वत्र ही मनुष्य  ग्रहण कर सकता है और अगर उसमें प्रबल आध्यात्मिक

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चेतना हो तो वह बहुत प्रगति भी कर सकता है । परंतु अनुभव इस विचार का समर्थन नहीं करता कि दोनों में कोई भेद नहीं है या दोनों करीब-करीब एक- जैसे ही हैं ।

१ ' - ८ - ११३३

 

आश्रम में भर्ती होने का निर्णय

 

तुम्हारे मन में इन लोगों या दूसरों को यहाँ ले आने की कोई इच्छा या बेचैनी नहीं होनी चाहिये । इन बातों का निर्णय एक ओर तो उनकी पुकार और योग्यता के द्वारा तथा दूसरी ओर माताजी की इच्छा से होना चाहिये ।

२८ - ६ - ११३६

 

 भीतर से चुनाव

 

यदि तुम स्वयं अपने मन और प्राण के कारण चले जाने के लिये उत्सुक हो तो माताजी के लिये यह संभव नहीं है कि वे तुम्हें रहने के लिये कहें । स्वयं तुम्हारे अंदर से ही यह स्पष्ट संकल्प आना चाहिये कि यहां रहना है या बाहर ।

 २४ - २ - ११३२

 

उम्मीदवारी का काल

 

हां, अत्यंत निश्चित रूप से कुछ लिखना ठीक नहीं है । विशेषकर आजकल जैसी परिस्थितियों में माताजी लोगों को उम्मीदवार के रूप में स्वीकार करती हैं, वे उन्हें तत्काल कोई बड़ी आशाएं नहीं बंधाती, बल्कि यह देखने के लिये प्रतीक्षा करती हैं कि वे किस प्रकार खुलते हैं । अगर वह अपनी अभीप्सा को  (अपने जीवन में) सच्चा सिद्ध करे तो सब कुछ ठीक ही होगा ।

२६ - २ - ११४३

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माताजी द्वारा पूर्ण स्वीकृति

 

  जब कोई आदमी माताजी के संरक्षण में योग करना आरंभ करता है तब क्या वह पूर्ण रूप से उनके द्वारा ग्रहण नहीं कर लिया जाता?

 

जबतक वह तैयार न हो जाये तबतक नहीं । सबसे पहले उसे माताजी को स्वीकार करना है और फिर अधिकाधिक अपना अहंभाव छोड़ना होता है । यहां ऐसे साधक भी हैं जो पग-पग पर विद्रोह करते हैं, माताजी का विरोध करते हैं । उनकी इच्छा का खण्डन करते हैं और उनके निर्णयों की टीका- टिप्पणी करते हैं । ऐसी अवस्थाओं में भला वे उन लोगों को पूर्ण रूप से कैसे ग्रहण कर सकती हैं?

२१ - ६ - ११३३ 

*

 

  क्या हमारे योग में गुरु भगवान् और सत्य में वस्तुत: कोई भेद है? मैं तो यही समझता आ रहा है कि माताजी और आप केवल गुरु ही नहीं हैं अपितु भगवान् भी हैं और कि आपमें से कोई भी जो कुछ भी कहता है वह ' सत्य ' का विधान है? तो फिर ( अनुशासन-विषयक मेरे प्रश्न के उत्तर में) आप इन तीन भिज्ञ शब्दों का प्रयोग क्यों कर रहे है?

 

मैंने आध्यात्मिक जीवन और आज्ञाकारिता का साधारण नियम लिखा था । तुम्हें यह नियम जानना चाहिये तथा इस अवस्था में उसके विशेष उपयोग को भी जानना चाहिये । इसके अतिरिक्त, यहांपर बहुत-से लोग यह कहकर ही संतुष्ट हो जाते हैं कि '' श्रीमाताजी भगवती हैं '', पर वे उनकी आज्ञाओं का अनुसरण नहीं करते -दूसरे वास्तव में उन्हें भगवती के रूप में स्वीकार नहीं करते -वे उनसे ऐसा व्यवहार करते हैं मानों वे एक साधारण गुरु हों । मैं कह चुका हूं कि योग में आज्ञाकारिता का अर्थ क्या है, उससे अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता ।

१३ - ६ - ११३३ 

 

  कल आपने माताजी के आदेशों की चर्चा की थी के क्या हैं? मैं उनपर

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  चलने का यत्न करना चाहता है? 

उन्हें सर्वविदित समझा जाता है । तुम्हें ठीक कार्य करना तथा सचाई के साथ योग का अनुसरण करना होगा ।

१४ - ६ - ११३३

*

 

  हमें बताया जात? है कि यदि साधक सच्चा ( सत्यहृदय) हो तो माताजी उसमें अच्छे- से- अच्छा कार्य कर सकती है / परंतु इसका अभिप्राय क्या है?

सच्ची साधना का क्या अभिप्राय है? ' सच्चा ' इस शब्द की माताजी द्वारा की हुई परिभाषा के अनुसार, इसका अर्थ है '' केवल भागवत शक्तियों की ओर खुलना '' अर्थात् अन्य सभी शक्तियों को, यदि वे आये भी तो निकाल फेंकना ।

 २१ - ४ - ११३६

 

माताजी की उपस्थिति के कारण आध्यात्मिक सम्भावना

 

निश्चय ही बहुत थोड़े-से लोग यह अनुभव करते हुए मालूम होते हैं कि उन्हें यहां किस बात की सम्भावना दी गयी है -जिस चैत्य और आध्यात्मिक उद्देश्य के लिये यह अभिप्रेत है उसके लिये इसका व्यवहार करने के बदले सब चीजों ही प्राण के मायाजाल या शरीर की तामसिकता के एक सुयोग में बदल दी गयी हैं ।

७ - ३ - ११३६ 

*

 

 मैं किसी खास चीज की बात नहीं कह रहा था -बल्कि मैं उस सारी आध्यात्मिक सम्भावना की बात कह रहा था जो यहां माताजी की उपस्थिति के कारण मौजूद है । बहुत थोड़े-से लोग ही यह समझते हैं कि इसका अर्थ क्या है और जिन्हें इसकी थोडी-सी धारणा है वे भी बहुत थोड़ा-सा ही लाभ उठाते हैं और अपनी निम्नतर प्रकृति को अपनी प्रगति में रोड़ा अटकाने का अवसर देते हैं ।

१ - ३ - ११३६

*

२००


क्योंकि यहां लोग माताजी की छत्रच्छाया में रह रहे हैं और मानव-जीवन के भारी कष्टों तथा दारुण विपत्तियों से बचे हुए हैं, अत: वे न-कुछ में से ही निराशाओं और दुःखद घटनाओं का ताना-बाना बुनने में लगे रहते है । प्राण अपनी शोक-वृत्ति का रस लेना । चीखना-चिल्लाना ओर रोना-कराहना चाहता हैं और यदि उसे ऐसा करने के लिये कोई अच्छा या बड़ा बहाना नहीं मिल पाता तो वह किसी बुरे या छोटे-से बहाने का ही उपयोग करेगा ।

१ - ३ - ११३६

 

 योग में सफलता के लिये प्राण को रूपांतरित करने की आवश्यकता

 

   मेरा विश्वास था कि जिन लोगों को यह योग करने के लिये पुकार आयी है के सभी इसी जीवन में देर- सवेर भगवान् को प्राप्त कर लेने पर्त्ह मैंने किसी से सुना है : ' 'निः सदेह माताजी ने केवल उन्हीं को चूना हे जिनमें यह योग करने की क्षमता है पर के लक्ष्य पर पंहुचेंगे  तभी यदि उनका प्राण रूपान्तरित हो जाये नहीं त?ए? उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति अगले जन्म में होगी '' क्या यह बात ठीक है?

 

माताजी ने यह कभी नहीं कहा कि कोई चीज अगले जन्म में संपन्न होगी । यदि व्यक्ति को सफलता प्राप्त करनी है तो स्वभावत: ही प्राण को रूपांतरित करना होगा ।

१५ - १ - ११३४

 

साधकों के माताजी को छोड़कर चले जाने के कारण

 

  यह क्या बात है कि जो लोग एक स्पष्ट अभीप्सा और पुकार लेकर माताजी के पास आते हैं के कुछ समय के बाद उनके पास से चले जाते हैं? कौन- सी चीज उन्हें यहां से ले जाती है?

 

विरोधी शक्तियों के सुझावों के कारण, अहंकार । स्वार्थपरता, महत्त्वकांक्षी, काम-वासना, दंभ, लोभ या विरोधी शक्तियों द्वारा उठाये गये किसी अन्य प्राणिक आवेश के कारण उन्हें जाना पड़ता है ।

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    क्या प्राणमय शक्तियां इतनी प्रबल होती हैं कि किसी व्यक्ति में स्पष्ट अभीप्सा और भागवत पुकार के होने पर भी वे उसे माताजी से दूर खीचे ले जा सकती हैं?

प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक क्षण भगवान् की पुकार को अपनी सम्मति देने या न देने के लिये, निम्नतर प्रकृति या अपने अंतरात्मा का अनुसरण करने के लिये स्वतंत्र है । 

*

 

  क्या उनके पथ से चले जाने का अर्थ यह नहीं है कि के अपने ज्ञान द्वारा यह निर्णय करने में असमर्थ थे कि भगवान् के लिये उनकी पुकार सच्ची थी या नहीं?

 

निर्णय करने की ये सब बातें बेमतलब हैं । तुम या तो पुकार को अनुभव करते हो या अनुभव नहीं करते और यदि तुम पुकार को अनुभव करते हो तो तुम काई हिसाब-किताब किये बिना या खतरों को गिने बिना या यह पूछे बिना कि तुम योग्य हो या नहीं, उसका अनुसरण करते हो ।

   जब लोग साधना छोड़कर माताजी से दूर चले जाने की प्रवृत्ति को बहुत जोर से अनुभव करते हैं तब उनके लिये इस प्रवृत्ति का प्रतिकार करने और माताजी का सहारा दृढ़तापूर्वक पकड़े रहने का सबसे उत्तम उपाय क्या है?

 

यह समझना कि शैतान उन्हें भुलावे में डाल रहा है और उसकी न सुनना । 

*

 

  जो साधक आश्रम में स्तुत दिनों तक रह चुके हैं के क्या आश्रम छोड़ देने के बाद माताजी की कृपा को भूल सकते हैं?

 

कुछ लोग भूले हुए-से मालूम होते हैं ।

 *

२०२


    क्या माताजी के अधीन साधना करने के लिये उनके वापस आने की कोई संभावना है?

 

यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है ।

६- १ - १९३३

*

 

  जब एक बार चैत्य पुरुष पूरा जाग्रत् हो जाता है तब साधक के लिये यह संभव नहीं कि वह विद्रोह करे और चला जाये; यदि वह ऐसा करता हे तो वह अपने अंतरात्मा को माताजी के पास छोड़ जाता है और उसकी केवल बाहरी सत्ता ही कुछ दिन अन्यत्र रहती है । परंतु यह अत्यंत दुःखदायी अवस्था है; या तो मनुष्य को वापस आना पड़ता है या जीवन यापन करना दूभर हो जाता है ।

२० - ११ - ११३५ 

*

 

तुमने जो कुछ लिखा है वह बिलकुल ठीक है । जब कोई साधक चला जाता है तब यह कहना कि भगवान् हार गये एक मूर्खतापूर्ण बात है । अगर साधक अपनी निम्नतर प्रकृति को अपने ऊपर प्राधान्य स्थापित करने दे तो यह उसकी हार है, भगवान् की नहीं | साधक इसलिये यहां नहिं आता कि भगवान् को उसकी आवश्यकता हे, बल्कि इस कारण आता है कि उसको भगवान् की आवश्यकता है । अगर वह आध्यात्मिक जीवन की शती को पूरा करे और माताजी के पथ-प्रदर्शन के प्रति अपने- आपको दे दे तो फिर वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । पर वह यदि अपनी शती को रखना चाहे और भगवान् पर अपने निजी विचारों तथा अपनी निजी कामनाओं को लादना चाहे तो फिर सब प्रकार की कठिनाइयां ही आयेंगी । ठीक यही बात ' अ ' और ' ब ' तथा कई अन्य लोगों के विषय में हुई । चूंकि भगवान् उनके सामने नहीं झुकते इसलिये वे चले जाते हैं । परंतु यह भला भगवान् की हार कैसे हुई?

२७ - ५ - १९३७

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आश्रम में चिन्मयी शक्ति (चित्-तपस्)  की क्रिया

 

जो बात मुझे अधिक महत्व की प्रतीत होती है वह है -यहां वस्तुएं कैसे कार्यान्वित की जाती है इसे समझाने का यत्न करना । वास्तव में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो इसे समझते हैं और फिर जो इसे अनुभव करते हैं वे तो और भी विरले ।

  पहले से निर्णीत कोई मानसिक योजना, निश्चित प्रोग्राम या व्यवस्था तो यहां कभी भी, किसी समय भी नहीं रही । सारी-की-सारी वस्तु का जन्म, संवर्धन और विकास एक सजीव प्राणी की भांति चेतना की एक ऐसी क्रिया (चित्-तपस् ) के द्वारा हुआ है जो निरन्तर चलती तथा बढ़ती रही है और प्रबल एवं दृढ़ होती रही है | जैसे ही चिन्मयी शक्ति जड़तत्त्व में उतरती और अपनी रश्मियां प्रसारित करती है, वह अपने को प्रकट ओर अभिव्यक्त करने के लिये उपयुक्त यन्त्रों की खोज करती है । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यन्त्र जितना अधिक खुला, ग्रहणशील और नमनीय होता है, परिणाम उतने अधिक अच्छे होते हैं । साधकों के अंदर और उनके द्वारा निर्विघ्न और सामंजस्यपूण ढंग से कार्य करने के मार्ग में जो दो बाधाएं आती हैं वे ये हैं :

  १. साधकों के पूर्वकल्पित विचार और मानसिक रचनाएं जो चिन्मयी शक्ति के कार्य और प्रभाव में रोडे अटकाती हैं ।

  २. प्राण की पसंदगियां और उसके आवेग जो अभिव्यक्ति को विकृत और मिथ्या रूप दे देते हैं ।

  ये दोनों चीजों अहं की स्वाभाविक उपज हैं । यदि इन दो तत्त्वों का हस्तक्षेप न हो तो भौतिक रूप में मेरी मध्यस्थता की आवश्यकता नहीं होगी ।

    '' माताजी को पसंद है '', '' माताजी को पसंद नहीं '' । इस कथन में जब तुम विश्वास नहीं करते तो तुम बिलकुल ठीक कर रहे होते हो : यह एक बिलकुल बचकानी व्याख्या है ।

  मुझे कार्यरत ' शक्ति ' और ' चेतना ' का स्पष्ट और सुनिश्चित प्रत्यक्षानुभव होता है, और जब भी यह ' शक्ति ' अपने कार्य में विकृत हो जाती है या यह  ' चेतना ' तम से आवृत हो जाती है तो मुझे बीच में पड़कर क्रिया को संशोधित करना होता है । बहुत-से व्यक्तियों में सब प्रकार की वस्तुएं मिल-मिला जाती हैं और फिर वहां भी मुझे विकृत प्रतिरूप को शुद्ध वस्तु से पृथक् करने के लिये हस्तक्षेप करना पड़ता है ।

   अन्यथा सभी को कार्य करने की बड़ी भारी स्वतंत्रता दी गयी है क्योंकि

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'चिन्मयी शाफि' अपने -आपको अगणित प्रकार से 

अभिव्यक्त  कर सकती है और,  अभिव्यक्त की  पूर्णता एवं समग्रता के हित, उनमें से किसी भी प्रकार या ढंग को पूर्वकल्पना के आधार पर ही बहिष्कृत नहीं कर देना चाहिये । चुनाव करने से पहले परख के लिये अवसर प्रायः ही दिया जाता है ।

२२ - ८ - ११३१

 

माताजीऔर आश्रम का अनुशासन

 

' अ ' के कथनानुसार उसने कहा कि अनुशासन का अभाव ही भारत का सबसे बड़ा दोष है; न तो व्यक्ति और न व्यक्तियों के समुदाय ही अनुशासन मानते हैं । तो भला वह इतने से कारण से क्यों रो पड़ा कि उसे अपना हैंड-बैग उस स्थान पर नहीं रखने दिया गया जो स्थान उसके लिये अभिप्रेत नहीं था? मैं स्वयं उसके साथ इस बात पर सहमत नहीं हूं कि आश्रम में पूछा अनुशासन का पालन होता है; बल्कि, इसके विपरीत, यहां उसका बहुत अधिक अभाव है, बहुत अनियमितता, लडाई-झगड़ा और हठधर्मिता है । यहां अगर कुछ संगठन और सुव्यवस्था है तो उसे इन सब बातों के होते हुए भी माताजी स्थापित करने और बनाये रखने में समर्थ हुई हैं । वह संगठन और सुव्यवस्था सभी सामूहिक कार्यो के लिये आवश्यक है; बाहर के जिन लोगों ने आश्रम देखा है उन सब लोगों ने इस बात की प्रशंसा की है और इसके लिये आश्चर्य प्रकट किया है; यही कारण है कि बहुत से लोगों के द्वेषपूर्ण आक्रमण के होते हुए भी, जिनकी चलती तो आश्रम कभी का खतम हो चुका होता, आश्रम जीवित है । माताजी अच्छी तरह जानती थीं कि वे क्या कर रही हैं और जो काम उन्हें करना है उसके लिये क्या आवश्यक है ।

अपने- आपमें अनुशासन विशेष रूप से पाश्चात्य वस्तु नहीं है; जापान, चीन और भारत-जैसे पूर्वीय देशों में एक समय में यह सर्वनियामक था और ऐसे ढंग से कठोर नियमों पर आधारित था जिसे पाश्चात्य लोग सहन नहीं करेंगे । सामाजिक रूप में हम चाहे जो भी आपत्तियां इस विषय में क्यों न उठाए, यह यथार्थ तथ्य है कि इसने युग-युग में और समस्त परिवर्तनों के अंदर हिन्दु-धर्म और हिन्दू-समाज की रक्षा की है । राजनीतिक क्षेत्र में, इसके विपरीत, अनुशासनहीनता, व्यक्तिस्वातंत्रवाद और कलह था; यह भी एक कारण है जिससे भारत का पतन हुआ और वह दासता का शिकार हुआ । संगठन और व्यवस्था लाने की चेष्टा तो की गयी पर वह स्थायी होने में असफल

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रही । आध्यात्मिक जीवन के अंदर भी भारत ने केवल ऐसे स्वतंत्र परिव्राजक संन्यासियों को ही नहीं उत्पन्न किया जो अपने- आप अपना कानून थे, बल्कि नियम-क़ानूनों और व्यवस्थापक समितियों से युक्त संन्यासियों के संघ बनाने की प्रेरणा का भी अनुभव किया और कठोर अनुशासन रखनेवाले मठों की स्थापना भी हुई । जब कि ऐसी चीजों के बिना कोई भी काम सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता -यहांतक कि व्यक्तिगत कार्यकर्ता को भी, जैसे कलाकार को, अपने कार्य से दक्ष बनने के लिये एक कठोर अनुशासन के भीतर से गुजरना होता है -तब भला, माताजी ने जिस अत्यंत कठिन कार्य को अपने हाथों में लिया है उसके लिये यदि वे अनुशासन पर जोर देती हों तो उन्हें दोष क्यों दिया जाये?

   पता नहीं तुम किस आधार पर बिना विधि-विधान या अनुशासन के ही सुव्यवस्था और संगठन की आशा करते हो । तुम मानों यह कहते हो कि लोगों को पूर्ण स्वाधीनता दे देनी चाहिये और केवल उतना ही अनुशासन होना चाहिये जितना वे स्वयं अपने ऊपर लादना पसंद करें; यह बात उस समय पर्याप्त होती जब यहांपर एकमात्र करने की चीज यही होती कि प्रत्येक व्यक्ति कोई आंतर उपलब्धि प्राप्त कर ले, जीवन का कोई प्रश्नन होता, या, यहां पर कोई सामूहिक जीवन और कार्य न होता और अगर होता भी तो उसका कोई महत्त्व न होता; पर यहां बात ऐसी नहीं है । हमने एक ऐसा कार्य अपने हाथ में लिया है जिसमें जीवन, कर्म और भौतिक जगत् शामिल हैं । जो कुछ मैं करने का प्रयत्न कर रहा हूं उसमें आध्यात्मिक उपलब्धि सबसे पहले आवश्यक है, लेकिन वह जीवन में । मनुष्यों में और इस संसार में भी बाह्य उपलब्धि प्राप्त किये बिना पूर्ण नहीं हो सकती । अंतर में आध्यात्मिक चेतना हो पर साथ ही बाहर आध्यात्मिक जीवन भी हो 1 आश्रम अपनी वर्तमान अवस्था. में उस आदेश रूप को प्राप्त नहीं हुआ है, उसके लिये उसके सभी सदस्यों को साधारण अहंकारपूर्ण मन तथा मुख्यतः राजसिक प्राण-प्रकृति में रहने की जगह आध्यात्मिक चेतना में निवास करना होगा । पर, फिर भी आश्रम हमारे प्रयास का पहला रूप है, यह एक क्षेत्र है जिसमें प्रारंभिक तैयारी का कार्य करना होगा । माताजी को यह आश्रम चलाना है और इसके लिये इस समस्त व्यवस्था और संगठन की भी आवश्यकता है तथा यह विधि-विधान और अनुशासन के बिना नहीं हो सकता । फिर अहंकार, मानसिक रुचियों और राजसिक प्राण-प्रकृति को पार करने के लिये भी, अथवा कम-से-कम उस कार्य में सहायक के रूप में, अनुशासन की आवश्यकता है । यदि इन चीजों को जीत लिया जाये तो बाहरी

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नियम आदि की आवश्यकता कम होगी; उनके स्थान पर स्वाभाविक मेल- मिलाप, एकत्व, सामंजस्य और समुचित कर्म आ जायेंगे । परंतु जबतक वर्तमान अवस्था विद्यमान है तबतक लोग जिस अनुशासन को अपने ऊपर लादना पसंद करेंगे या नहीं करेंगे उसके अतिरिक्त बाकी समस्त अनुशासन को त्याग देने या न मानने से उसका फल असफलता और अमंगल ही होगा ।... उस सिद्धांत के अनुसार तो इस कार्य का भी सत्यानाश हो गया होता, बस लड़ाई- झगड़े के सिवा और कुछ न होता । प्रत्येक कार्यकर्ता अपनी ही निजी भावना और इच्छा को प्रस्थापित करता और निरंतर संघर्ष रहता; वर्तमान अवस्था में भी यह सब प्रचुर मात्रा में है और केवल माताजी के प्रभाव, उनके दिये हुए ढांचे तथा विरोधी तत्वों से एक साथ काम लेने के उनके कौशल के कारण ही सारा काय चल रहा है ।

   मुझे नहीं लगता कि माताजी कठोरता के साथ नियम पालन कराती हैं । बल्कि इसके विरुद्ध मैंने देखा है कि उन्होंने नियमभंग, आज्ञा-लंघन, आत्मख्यापन और विद्रोह के उस विशाल स्तूप का सामना, जिसने उन्हें घेर रखा है । कितनी सतत मृदुलता, सहनशील धैर्य और दयालुता के साथ किया है; यहांतक कि अपने सामने किये गये विद्रोह और अपने- आपको अत्यंत बुरी निन्दाओं से आक्रांत करनेवाले उग्र पत्रों को सहा है । कोई कठोर अनुशासक इन सब चीजों के साथ इस तरह व्यवहार न करता ।

   मैं नहीं जानता कि दर्शकों के साथ क्या बुरा व्यवहार किया गया है, सिवा इसके कि नियम मानने का आग्रह किया गया जिसपर तुम आपत्ति कर रहे हो । परंतु यह कोई सार्वजनीन आपत्ति नहीं हो सकती, अन्यथा दर्शकों की संख्या निरन्तर बढ्ती न जाती और न इतने अधिक लोग दुबारा आना ही चाहते या यहांतक कि प्रत्येक बार ही आना चाहते या इतने अधिक लोग, यदि माताजी उन्हें अनुमति दें तो । यहां रहना ही चाहते । पर जो हो, वे लोग यहां किसी सामाजिक आवश्यकता के कारण नहीं आते बल्कि उन लोगों के दर्शनों के लिये आते हैं, जिन्हें वे आध्यात्मिक दृष्टि से महान् मानते हैं अथवा, सर्वदा आने-जाने वालों के प्रसंग में कहा जाये तो, आश्रम-जीवन में भाग लेने तथा आध्यात्मिक लाभ उठाने के लिये आते हैं । और इन दोनों ही उद्देश्यों के लिये उनसे यह आशा की जायेगी कि उनपर जो शर्तें लगायी जायें उन्हें वे इच्छापूर्वक स्वीकार करें और थोडी-बहुत असुविधा का ख्याल न करें ।

  अब गोलकुंड और उसके नियमों की बात लें -वे नियम दूसरी जगह  ' लगाये जाते - लगाने का ०० कारण है और वे निरर्थक नहीं हैं ।

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गोलकुंड में माताजी ने रेमों, सामेर और दूसरों के द्वारा अपनी निजी भावना को कार्यान्वित किया है । सबसे पहले, माताजी का विश्वास है कि सौन्दर्य आध्यात्मिक और दिव्य जीवन का एक अंग है; दूसरे, वे मानती हैं कि भौतिक वस्तुओं में भी भागवत चेतना है और वह चेतना उतना ही उन्हें सहारा देती है जितना वह सजीव वस्तुओं को देती हे; और तीसरे, उन भौतिक वस्तुओं का भी अपना व्यक्तित्व है और उनसे समुचित रूप में व्यवहार करना चाहिये, समुचित ढंग से उनका उपयोग करना चाहिये, न तो उनका दुरुपयोग होना चाहिये, न उनके साथ अनुचित ढंग का व्यवहार होना चाहिये, न तो उन्हें आघात पहुंचाना चाहिये और न उनकी उपेक्षा करनी चाहिये जिससे कि वे जल्द नष्ट हो जायें और अपना पूरा सौन्दर्य या मूल्य खो बैठें; वे उनके अंदर की चेतना को अनुभव करती हैं और उनके साथ इतनी अधिक सहानुभूति रखती हैं कि जो चीज दूसरे हाथों में थोड़े दिनों में ही खराब हो सकती या नष्ट हो सकती है वह उनके साथ बरसा  या दशकों तक बनी रहती है । इसी बात को आधार मानकर उन्होंने गोलकुंड की योजना बनायी थी । सर्वप्रथम, उन्होंने उच्च प्रकार की स्थापत्य-कला का सौन्दर्य चाहा था और इसमें वे सफल हुई -बस्तुकारों तथा गृहनिर्माण-कला का ज्ञान रखनेवाले लोगों ने बड़े उत्साह के साथ इसकी प्रशंसा की है और इसे एक अद्भुत कृति माना है । एक ने तो इसके विषय में यह कहा कि इस प्रकार के जितने भी भवन उसने देखे उनमें यह सबसे सुंदर है और इसकी बराबरी का भवन न तो समूचे यूरोप में है न अमेरिका में; और एक महान् गुरु के शिष्य एक फ्रेंच वास्तुकार ने कहा कि इस भवन में वह भावना अत्यंत उत्कृष्ट रूप में कार्यान्वित हुई है जिसे उसके गुरु कार्यान्वित करने की चेष्टा करते रहे, पर संपन्न करने में असफल रहे । पर इसके साथ माताजी ने यह भी चाहा था कि इस भवन की सभी चीजों । कमरे, सजावट की चीजों, सामान आदि सभी अपने- आपमें कलापूर्ण हों और सब मिलकर एक सुसमंजस संपूर्ण आकार ग्रहण करें । यह कार्य भी बड़ी सावधानी के साथ किया गया । इसके अलावा प्रत्येक चीज इस प्रकार निश्चित की गयी कि उसका अपना उपयोग हो । प्रत्येक चीज के लिये एक स्थान हो । और चीजों को मिलाजुला न दिया जाये । या अस्त-व्यस्त न कर दिया जाये या उनका गलत उपयोग न किया जाये । परंतु इन सब बातों को बनाये रखने और उन्हें व्यवहार में लाने की जरूरत थी; क्योंकि वहां रहनेवालों के लिये थोड़े समय में ही पूर्ण अस्तव्यस्तता उत्पन्न करना, दुरुपयोग करना और प्रत्येक चीज को  और नष्ट देना आधिक आसान  था | यहि कारण था

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कि नियम बनाये गये और उनका और कोई उद्देश्य नहीं था । माताजी को आशा थी कि यदि उपयुक्त मनुष्य वहां रखे जायें या कुछ दूसरों को साधारण लोगों की अपेक्षा कम जल्दबाजी करने की शिक्षा दी जाये तो उनकी भावना की रक्षा की जा सकती है और समस्त परिश्रम और व्यय को नष्ट होने से बचाया जा सकता है ।

   परंतु दुर्भाग्यवश स्थान की कठिनाई उत्पन्न हुई और हमें उन लोगों को गोलकुंड में रखने के लिये बाध्य होना पड़ा जिन्हें दूसरी जगह नहीं रखा जा सकता था और इस तरह सावधानी से चुनाव नहीं किया जा सका । इसलिये प्रायः ही कुछ टूटने-फूटने लगा और दुरुपयोग होने लगा और दर्शन के बाद माताजी को चीजों की मरम्मत कराने तथा जो कुछ वहां सम्पन्न किया गया है उसे फिर से ठीक करने में दो-तीन सौ रुपया खर्च करना पड़ता था । ' अ ' ने मकान को देखने और जहांतक संभव हो चीजों को ठीक बनाये रखने की जिम्मेदारी ले रखी है । यही कारण है कि हैण्ड-बैग के मामले में -वह मामला मेज़ के लिये भी उतना ही दुःखदायी था जितना कि डाँक्टर के लिये, क्योंकि हैण्ड-बैग से मेज पर खुरचन आ गयी और वह खराब हो गयी -उसने हस्तक्षेप किया और बैग तथा हजामत की चीजों को उनके लिये निश्चित किये गये स्थानों में रखने की चेष्टा की । अगर डाँक्टर के स्थान पर मैं होता तो मैं उसकी सावधानता और सहायता के लिये उसके प्रति कृतज्ञ होता, डॉक्टर की तरह उन बातों के लिये नाराज न होता जो उनकी दृष्टि में तो तुच्छ थीं, यद्यपि उसके लिये उसकी जिम्मेदारी के कारण महत्वपूर्ण थीं । जो हो, नियमों की यही यथा, व्याख्या है और वे मुझे निरर्थक विधि-विधान और अनुशासन नहीं प्रतीत होते ।

   अंत में । आर्थिक व्यवस्था की बात पर आवें । इस आश्रम को, इसके सदस्यों की निरन्तर बढ़नेवाली संख्या के साथ चलाना, आय-व्यय का लेखा बराबर बनाये रखना और कभी-कभी आय की कमी और उसके परिणामों को रोकना माताजी के और मेरे लिये एक दुः साध्य और कष्टकर कार्य हो रहा है और विशेषकर इस युद्ध के दिनों में जब कि सब चीजों का खर्च एक अद्भुत और कल्पनातीत ऊंचाई तक पहुंच गया है, हमारे ऊपर क्या बीती है उसे केवल वे ही लोग समझ सकते हैं जिन्हें ऐसी बातों का अभ्यास हो अथवा जिनपर ऐसी ही जिम्मेदारियां रही हो । यदि दिव्य शक्ति की क्रिया न हुई होती तो बिना किसी निश्चित आमदनी के इतने महान् कार्य को चलाना संभव न होता । दानशीलता के काय हमारे कार्य का अंग नहीं हैं । अन्य? लोग हैं

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जो ऐसे कार्य की देख-रेख कर सकते हैं । हमें तो सब कुछ उसी कार्य में खर्च करना होगा जिसे हमने अपने हाथ में लिया है और हमें जो कुछ मिलता है वह हमारी आवश्यकता के. अनुपात में कुछ भी नहीं है । हम लोग ऐसा कोई काम हाथ में नहीं ले सकते जो साधारण तरिकों से धन ले आये । हमारे लिये जो उपाय संभव हैं उन्हीं का हमें उपयोग करना होगा । यह कोई साधारण नियम नहीं है कि आध्यात्मिक मनुष्यों को परोपकार के कार्य करने ही चाहियें अथवा उनके पास जो कोई दर्शक आवें उन्हें वे रहने का स्थान ओर भोजन दें, उनका स्वागत करें और उनकी सुरक्षा का ख्याल रखें । अगर हम ऐसा करते हैं तो इसका कारण यही है कि यह हमारे कार्य का अंग बन गया है । माताजी दर्शकों से रहने और खाने का खर्च लेती हैं, क्योंकि उन्हें खर्च की व्यवस्था करनी है और वे हवा में से रुपया नहिं बना सकती; वे वास्तव में जितना व्यय करती हैं उससे कम ही लेती हैं । यह बिलकुल स्वाभाविक है कि वे यह न पसंद करें कि लोग उनसे अनुचित लाभ उठाए और उन लोगों को अनुमति दें जो झूठे बहाने बनाकर भोजन-गह में भोजन करने की चेष्टा करते हैं । आरंभ में ये लोग थोड़ ही क्यों न हों, यदि उन्हें खुली छूट मिल जाये तो, वे थोड़े-से लोग शीघ्र ही एक सेना में परिणत हो जायेंगी । अब लोगों को आज्ञा लिये बिना खुले तौर पर दर्शनों के लिये आने देने की जो बात है वह तो मुझे जल्द ही एक दिखावे की और कौतूहल की चीज, बहुधा निन्दात्मक या विरोधी कौतूहल की चीज बना देगी और तब मैं ही सबसे पहले चिल्ला उठूंगा -' ' बंद करो ।

   '' मैंने अपने दृष्टिकोण को समझने की चेष्टा की है और कुछ हद तक समझाया भी है । भले ही कोई इसे स्वीकार करे या न करे, पर यह है एक दृष्टिकोण और मैं समझता हूं कि यह युक्तिसंगत भी है । मैं केवल बाहरी दृष्टि से ही लिख रहा हूं और उन सब बातों की चचा नहीं करता जो पीछे विद्यमान हैं अथवा यौगिक दृष्टि से संबंधित हैं, उस यौगिक चेतना की दृष्टि से संबंधित हैं जिससे हम कार्य करते हैं; उसे व्यक्त करना अधिक कठिन होगा । यह महज बौद्धिक संतुष्टि के लिये ही है और यहां तर्क के लिये बराबर ही गुंजायश है ।

२५ - २ - ११४५

*

 

 यह बिलकुल ठीक है कि भौतिक वस्तुओं में चेतना है जो अनुभव करती है, सतर्कता का प्रत्युत्तर देती है और असावधानी के साथ छूने तथा कठोरतापूर्वक व्यवहार करने से ०० होती है । इसे जानना और करना तथा उनके

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विषय में सावधान होना सीखना चेतना की एक महान् प्रगति है । बराबर ही माताजी ने भौतिक वस्तुओं के विषय में ऐसा अनुभव किया है और इसके अनुसार व्यवहार किया है । चीजों दूसरों की अपेक्षा माताजी के साथ बहुत अधिक दिनों तक और अच्छी अवस्था में रहती हैं तथा अपना पूरा लाभ देती हैं ।

१६ - ४ - १९३६

*

 

 जो लोग '' खर्च नहीं दे सकते '' उनके आश्रम में आने या बिना खर्च रहने के विषय में माताजी ने कभी आपत्ति नहीं की है; वे केवल उन्हीं दर्शकों से खर्च पाने की आशा रखती हैं जो खर्च दे सकते हैं । उन्होंने निश्चय ही उन धनी दशकों के कार्य पर (एक अवसर पर ) बड़े ज़ोरों से आपत्ति की थी कि जो यहां आये, उन्होंने बाजार में चीज़ें आदि खरीदने में खुले दिल रुपया खर्च किया पर आश्रम को कुछ भी दिये बिना या माताजी को मामूली भेंट तक दिये बिना चले गये -बस इतना ही ।

२१ - १० - ११४३

 

आश्रम के भौतिक जीवन के दो आधार

 

ऐसा लगता हे कि इन विषयों में तुम्हारी प्राणिक सत्ता ने जो वृत्ति बराबर ही बनाये रखी है वह है '' सौदेबाजी '' या '' ढाबे '' की वृत्ति । व्यक्ति किसी प्रकार का माल देता है जिसे वह भक्ति या समर्पण कहता है और उसके बदले माताजी आध्यात्मिक, मानसिक, प्राणिक और शारीरिक -सभी प्रकार की मांगों और कामनाओं की तृप्ति करने के लिये बाध्य हैं । और यदि उनके काम में कमी रह जाये तो यह समझा जाता है कि उन्होंने वादा तोड़ दिया है । आश्रम एक प्रकार का सामुदायिक होटल या ढाबा है, माताजी होटल की स्वामिनी या ढाबे की प्रबन्धकर्त्री हैं । व्यक्ति जो कुछ दे सकता है या देना पसंद करता है वही कुछ देता है, अथवा यह भी हो सकता है कि वैह ऊपर कहे माल के सिवा कुछ भी न दे; बदले में जीभ और पेट की तथा अन्य सभी केतिक मांगों की पूरी-पूरी तृप्ति करनी होती है; नहीं तो, व्यक्ति को अपना धन अपने ही पास रखने का और भुगतान न करनेवाली होटल-की-मालकिन या ढाबे की प्रबन्धिका को गाली देने का हर प्रकार से अधिकार है । इस मनोवृत्ति का साधना या योग के साथ किसी प्रकार का भी संबंध नहीं और इसे मेरे काय के या आश्रम के

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जीवन के आधार के रूप में मुझपर थोपने के किसी भी व्यक्ति के अधिकार को मानने से मैं पूर्णतया इनकार करता हूं ।

  यहां के भौतिक जीवन के लिये बस दो ही आधार संभव हैं । एक यह कि व्यक्ति आश्रम का सदस्य है जो आश्रम आत्मदान और समर्पण के सिद्धांत पर स्थापित है । व्यक्ति भगवान् का है और जो कुछ उसके पास है वह सब भगवान् का है, यहां हम जो कुछ देते हैं वह अपना नहीं है बल्कि वह पहले से ही भगवान् का है । यहां मूल्य या बदले का कोई प्रश्न नहीं, कोई मोल-तोल नहीं, किसी मांग और कामना के लिये स्थान नहीं । माताजी ही एकमात्र अधिकारिणी हैं और वे अपने प्राप्त साधनों तथा अपने यंत्रों की क्षमताओं के अनुसार जितने उत्तम रूप में करना संभव है उतने उत्तम रूप में सारी चीजों की व्यवस्था करती हैं । वे साधकों के मानसिक मानदण्डों या प्राणिक कामनाओं और मांगों के अनुसार काम करने के लिये बंधी हुई बिलकुल नहीं हैं; उनके साथ व्यवहार करते समय वे प्रजातंत्रात्मक समानता का उपयोग करने के लिये बाध्य नहीं । वे प्रत्येक मनुष्य के विषय में यह देखती हैं कि उसकी सच्ची आवश्यकता क्या है और उसकी आध्यात्मिक प्रगति के लिये सबसे उत्तम क्या है और उसके अनुसार उसके साथ व्यवहार करने के लिये वे स्वतंत्र हैं । कोई भी आदमी उनके क्यों पर विचार नहीं कर सकता अथवा उनपर अपना निजी नियम और मानदंड नहीं लाद सकता; केवल वही नियम बना सकती हैं और अगर उचित समझे तो फिर उन नियमों का उल्लंघन भी कर सकती हैं, पर कोई भी आदमी यह मांग नहीं पेश कर सकता कि उन्हें ऐसा ही करना होगा । व्यक्तिगत मांगों और कामनाओं को उनपर नहीं लादा जा सकता । अगर किसी आदमी को अपनी सच्ची आवश्यकता की बात कहनी हो अथवा उसे कोई ऐसी सूचना देनी हो जो उसके अपने प्राप्त क्षेत्र के भीतर पड़ती हो तो वह कह सकता है; परंतु यदि माताजी स्वीकृति न दें तो उसे संतुष्ट रहना चाहिये और उस बात को वहीं छोड़ देना चाहिये । यही वह आध्यात्मिक अनुशासन है जिसका केंद्र वह व्यक्ति होता हे जो भागवत सत्य का प्रतिनिधित्व करता है या उसका मूर्त रूप होता है । या तो माताजी वही व्यक्ति हैं और इस प्रसंग की ये सब बातें स्पष्ट रूप से साधारण समझ की बातें हैं; अथवा माताजी वह नहीं हैं और उस हालत में किसी को यहां रहने की आवश्यकता नहीं । प्रत्येक आदमी अपने निजी रास्ते पर जा सकता है और फिर न तो आश्रम ही रह जाता है और न योग ही ।

   दूसरी ओर, यदि कोई आश्रम का सदस्य बनने या अनुशासन का पालन

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कर सकने के लिये तैयार नहीं और फिर भी उसे इस योग में कोई थान दिया जाता है तो वह आश्रम से अलग रहता है और अपना खर्च आप चलाता है । भौतिक स्तर पर उसके लिये, कार्य की सुरक्षा के लिये आवश्यक नियमों को छोड्कर और कोई अनुशासन नहीं होता । माताजी पर उस व्यक्ति का कोई भौतिक उत्तरदायित्व नहीं होता ।

११ - ४ - १९३०

 

माताजी के कार्य का तरीका और अपव्यय

 

अपव्यय के विषय में कुछ कहना मैं आवश्यक नहीं समझता; बस तुम्हें इतना ही विश्वास दिलाना चाहता हूं कि लोगों को केवल काम में लगाये रखने के लिये ही अनुपयोगी और अनावश्यक कार्य हाथ में लेना माताजी के कर्मसंबंधी सिद्धांत का कोई अंग नहीं है । माताजी को मालूम नहीं कि तुमने किस नल की बात लिखी थी और उसके विषय में पूछताछ करने के लिये न तो उनके पास समय था और न इच्छा ही थी । यह बिलकुल ठीक है कि जबतक साधक सिद्ध योगी नहीं बन जाते, कम-सेकम तबतक आत्मसंयम रखना ही धर्म है; उन्हें किसी भी दिशा में अति करने की आदत से ओर लापरवाही, लोभ या व्यक्तिगत मनमौज की पूर्ति से दूर रहना सीखना ही होगा -उन्हें जो चीजों दी जाती हैं वे एक साधक के लिये प्रचुर हैं और अन्य स्थानों में जो चीजों मिलती हैं उनसे बहुत अधिक हैं -जब लोग ऐसी चीजें करते हैं तो माताजी उन्हें रोकने के लिये प्रत्येक मुहूर्त हस्तक्षेप नहीं करती; एक नियम बना दिया गया है, अपव्यय न करने के लिये उन्हें चेतावनी दे दी गयी हे, एक चौहद्दी बना दी गयी है । बाकी चीजों के लिये उनसे यह आशा की जाती है कि वे स्वयं भीखेंगे और अपनी निजी चेतना और संकल्प के द्वारा अपनी कमजोरियों से बाहर निकलेंगे और इस काम में उन्हें सहायता देने के लिये माताजी की आंतर शक्ति विद्यमान है । कार्य का संगठन करने में पहले-पहल भीषण अपव्यय हुआ था, क्योंकि कार्यकर्ता और साधक माताजी की इच्छा का प्रायः एकदम कोई ख्याल नहीं करते थे और अपनी ही मनमौज का अनुसरण करते थे; पर वह पुनर्संगठन के द्वारा बहुत कुछ बंद हो गया । पर कुछ हदतक अभी अपव्यय जारी है और इसका बने रहना प्रायः तबतक अनिवार्य है जबतक साधक और कार्यकर्ता अपने संकल्प और चेतना में अपूर्ण हैं, श्रीमां की बतायी हुई बातों को सच्चे रूप में और ब्योरे के साथ क्रिया में नहीं लाते या अपने को श्रीमाताजी से

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अधिक बुद्धिमान समझते हैं और अपने ही '' स्वतंत्र '' विचारों को अनुचित स्थान देते हैं । ऐसा होने पर भी माताजी हमेशा आग्रह नहीं करतीं, वे प्रतीक्षा करती और देखती हैं, साधकों के व्यक्तिगत जीवन की अपेक्षा बाहरी कार्यो में अधिक हस्तक्षेप करती हैं, पर फिर भी उनके लिये अवसर छोड़ती हैं कि वे अपनी चेतना, अपनी अनुभूति ओर निजी भूलों के द्वारा प्राप्त शिक्षा की सहायता से बढ़े । माताजी प्रायः बाहरी दबाव के बदले आंतरिक दबाव का प्रयोग करना अधिक पसंद करती हैं । इन सब मामलों में उन्हें अपने निजी निर्णय और दृष्टि का ही उपयोग करना होता है और किसी दूसरे आदमी के स्वीकृति देने या सेंसर करने से कोई लाभ नहीं -क्योंकि वे एक ऐसे दृष्टिकेंद्र से कार्य करती हैं जो दूसरों की दृष्टि से भिन्न है । लोगों के पास कोई श्रेष्ठतर ज्योति नहीं हे जिससे वे माताजी की बातों को माप-तौल सकें या उन्हें पथ दिखा सकें ।

   जहांतक अपव्यय का प्रश्न है, मैं यह बता दूं कि हमारी दृष्टि में खुले हाथ खर्च करना सदा अपव्यय ही नहीं होता, इस अत्यंत तामसिक और पिछड़े हुए स्थान में जीवन का जो स्तर देखने में आता है उससे ऊंचा स्तर रखना अपव्यय ही हो यह आवश्यक नहीं । मकान बनाने और उनकी सार-संभाल रखने के मामलों में और इसी प्रकार के दूसरे विषयों में माताजी ने शुरू से ही एक मानक स्थापित किया है और वह वही नहीं जो यहां प्रचलित है -साधारण पद्धति है जहांतक हो सके सस्ते-से-सस्ते सामान और सस्ते-से-सस्ते श्रमिकों का प्रयोग करना और बाहरी रंग-रूप की परवाह न करना, चीजों को मैली- कुचैली रहने देना या उन्हें बनाये रखने के लिये केवल कुछ जोड-जाड कर देना । मैं समझता हूं '' मितव्ययी '' मनोवृत्तिवाले लोग स्थानीय सिद्धांत को युक्तियुक्त समझेंगे और उच्चतर मानक को अपव्यय । यदि उच्चतर मानक कायम रखा गया है तो यह किसी की, आश्रम या माताजी की मान-प्रतिष्ठा के लिये नहीं,  -मान-प्रतिष्ठा का सिद्धांत योग के लिये विजातीय है, -बल्कि किसी और ही दृष्टिकोण से कायम रखा गया है जो मानसिक नहीं है और जिसका पूरा मूल्यांकन तभी किया जा सकता है जब हमारी चेतना वस्तुओं-संबंधी उस अन्तर्दृष्टि को समझने में समर्थ हो जाये जिसके द्वारा माताजी ने कार्य आरंभ किया था । उसके संबंध में अभी कुछ लिखना मैं उपयोगी नहीं समझता, -इन विषयों में सामान्य भ्रांति तभी दूर हो सकती है जब साधक साधारण मन और प्राण से मुक्त हो जायेंगे और वस्तुओं को दृष्टि के उसी स्तर से देखने में समर्थ होंगे जिससे योग और कर्म की परिकल्पना का उदय हुआ था... ।

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इसी कारण मैं माताजी के विरुद्ध की गयी आलोचनाओं, आक्रमणों और जंघाओं का उत्तर देने से इनकार करता हूं ।

  चाहे कर्म में हो यो योग में । माताजी मन के द्वारा कार्य नहीं करती, अथवा चेतना के उस स्तर से नहीं करतीं जहां से ये समालोचनाएं उठती हैं, बल्कि वे एकदम दूसरी ही दृष्टि और चेतना से काम करती हैं । अतः यह बिलकुल बेकार है । और माताजी की जो स्थिति है उसके साथ एकदम बेमेल है कि साधारण मन और साधारण चेतना को ही जज और अदालत स्वीकार किया जाये । उनके सामने माताजी को उपस्थित होकर अपने पक्ष का समर्थन करने के लिये कहा जाये । ऐसी पद्धति असंगत और युक्तिविरुद्ध है और वह किसी परिणाम पर नहीं पहुंचाती; वह तो केवल एक ऐसे मिथ्या वातावरण की सृष्टि ही कर सकती या उसे बनाये रख सकती है जो एकदम साधना की उन्नति के लिये प्रतिकूल हो । इसी कारण जब ऐसे संदेह उठाये जाते हैं तो मैं उनका कोई उत्तर ही नहीं देता अथवा इस तरह से उत्तर देता हूं कि ऐसे अभियोग को फिर से दोहराने का साहस न हो । अगर लोग यह समझना चाहते हैं कि माताजी क्यों काम करती हैं तो उन्हें उसी आंतर चेतना में प्रवेश करना चाहिये जहां से माताजी देखती और कार्य करती हैं । और माताजी क्या हैं, यह भी या तो श्रद्धा की आंखों से या किसी गभीर दृष्टि से ही देखा जा सकता हे । यह भी कारण है जिससे कि हम ऐसे लोगों को यहां रखते हैं जिन्होंने अभीतक आवश्यक श्रद्धा या दृष्टि नहीं प्राप्त की है; हम लोग उन्हें भीतर से उसे प्राप्त करने के लिये छोड़ देते हैं और अगर उनमें साधना करने की सच्ची इच्छा हो तो वे उसे प्राप्त कर लेंगे ।

२६-१२ - ११३६

*

 

माताजी साधकों को सुख-सुविधा की वस्तुएं इसलिये नहीं देती कि वे समझती हैं कि कामनाओं । शौक और रुचि- अभिरुचियों को पूरा करना चाहिये -योग में तो लोगों को इन चीजों पर विजय पानी होती है । यहां उन्हें जो वस्तुएं मिलती हैं उनका दसवां हिस्सा भी उन्हें और किसी भी आश्रम में नहीं मिलेगा, उन्हें सभी संभावनीय असुविधाओं, कठिनाइयों, कठिन और कठोर तपस्याओं का सामना करना पड़ेगा , और यदि उन्होंने कुछ चूं-चां की तो उनसे कहा जायेगा कि तुम योग के योग्य नहीं । यदि यहां का नियम कुछ भिन्न है तो उसका कारण . कि कामनाओं का उपभोग करना है वरन यह कि काम्य

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पदार्थ के अभाव में नहीं बल्कि उनके होते हुए उनपर विजय प्राप्त करनी है । योग का पहला नियम ही यह है कि साधक को जो कुछ भी अनायास प्राप्त हो जाये । वह थोड़ा हो या बहुत, उससे वह संतुष्ट रहे; यदि वस्तुएं वहां हों तो उसे बिना आसक्ति या कामना के उनका उपयोग करने में समर्थ बनना होगा; यदि वे वहां नहीं हैं तो उनके अभाव के प्रति उसे उदासीन रहना होगा ।

७ - १ - ११३७

 

मांग और कामना

 

   किस प्रकार की चीजों '' मांग और कामना ''  की श्रेणी में आ सकती हैं?  '' मांग और कामना '' का ठीक-ठीक रूप क्या है?

 

ऐसी कोई विशेष प्रकार की चीजों नहीं हैं-मांग और कामना सभी चीजों को । वे कोई भी क्यों न हों, अपने क्षेत्र में ला सकती हैं-वे आत्मगत हैं, वस्तुगत नहीं ओर उनका अपना कोई विशेष रूप भी नहीं । मांग तब होती है जब तुम किसी वस्तु को पाने या अधिकृत करने के लिये उसका दावा करते हो, कामना एक व्यापक शब्द है । यदि कोई अपेक्षा करता है कि प्रणाम के समय माताजी उसे मुस्कान प्रदान करें और अगर वह उसे नहीं पाता तो उसे बुरा लगता है तो वह एक मांग है । यदि किसी को उसकी चाह है और उसके न मिलने पर दुःख होता है पर विद्रोह का या अनुचित रूप से वब्बित किये जाने का भाव नहीं पैदा होता तो यह सब कामना का द्योतक है । यदि कोई उनकी मुस्कान पकार हर्ष अनुभव करता है किन्तु उसके न मिलने पर शांत और स्थिर रहता है क्योंकि वह जानता है कि माताजी जो कुछ भी करती हैं वह सब भला ही होता है तो वहां कोई मांग या कामना नहीं है । 

  *

 

   आपने भगवान् के विषय में कहा हे : ' 'के वह सब कुछ दे सकते हैं जिसकी सचमुच में आवश्यकता हो- पर लोग साधारणतया इस विचार का यह अर्थ लगाते हैं कि के वह सब कुछ प्रदान करते हैं जिसकी के समझते हैं या उन्हें लगता है कि उन्हें जरूरत है के ऐसा कर सकते है:  - पर नहिं भी कर सकते!'' परंतु यह कहा जाता है कि के हमारी सभी चैत्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं ।

२१६ 


हां, अंततोगत्वा; पर लोग उनसे आशा  करते  हैं: "वे वह   जैसा कि सदा होता नहीं ।

३० - १ - ११३६ 

 

   यदि हमें अपनी कामनाओं का परित्याग ही करना है तो माताजी उन्हें कभी- कभी पूरा क्यों करती है?

 

 उनसे छुटकारा तो तुम्हें को पाना है । यदि माताजी उन्हें जरा भी पूरी न करें और साधक उन्हें अपने अंदर रखे रहे तो वे बाहर से आनेवाले सुझाव के द्वारा और भी प्रबल हो उठेंगी । हर एक को अंदर से ही उनके साथ निपटना है ।

४ - १ - १९३३  

*

 

   'क्ष ' ने मुझसे कहा कि यदि कोई चीज हमारे बिना मांगे हमें प्राप्त हो जाये तो हमें उसे अस्वीकार नहीं करना चाहिये उदाहरणार्थ कोई हमें मिठाई भेंट करता है : उसे हम स्वीकार कर सकते हैं परंतु जब हमारी चाही वरतुएं हमें न दी जायें तो हमें उदास नहीं होना चाहिये इस विषय में आपका क्या कहना है?

 

ऐसा नियम भला कैसे टिक सकता है? मान लो कि कोई तुम्हारे पास आकर तुम्हें मांस या शराब भेंट करता है, तो क्या तुम उसे स्वीकार कर सकते हो? स्पष्टत: ही नहीं । ऐसे और सैकड़ों दृष्टांत दिये जा सकते हैं जहां यह नियम टिक नहीं पायेगा । जो कुछ माताजी तुम्हें दें या स्वीकार करने की अनुमति दें वह तुम ले सकते हो ।

२४ - ३ - १९३३

 

आश्रम के कार्य पर एकमात्र माताजी का प्रभुत्व

 

यदि आश्रम में कोई व्यक्ति दूसरों पर प्रभुत्व या आधिपत्यपूर्ण प्रभाव स्थापित करने का यत्न करता है तो वह गलती में है । क्योंकि वह अवश्य ही अशुद्ध प्राणिक प्रभाव बन जायेगा और माताजी के कार्य में बाधा पहुंचायेगा ।

   समस्त कार्य एकमात्र माताजी की देखरेख में किया जाना चाहिये । सब

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प्रकार की व्यवस्था उन्हीं के स्वतंत्र निर्णय के अनुसार करनी होगी । काम के लिये तथा काम करनेवाले के लिये जो कुछ भी अच्छे-से- अच्छा है उसके अनुसार प्रत्येक की तथा सबकी क्षमताओं का पृथक्-पृथक् या संयुक्त रूप में प्रयोग करने के लिये वे अवश्य ही स्वतंत्र हैं।

   किसी को भी आश्रम के किसी दूसरे सदस्य को अपने अधीन नहीं समझना चाहिये और न वैसा समझते हुए उससे बर्ताव करना चाहिये । यदि कोई साधक किसी कार्य का अध्यक्ष है तो उसे दूसरों को उस कार्य में अपने सहयोगी और सहायक समझना चाहिये । और उसे उनपर अपना अधिकार जमाने या उनपर अपने विचारों तथा व्यक्तिगत सनकों को थोपने का यत्न नहीं करना चाहिये, बल्कि केवल माताजी की इच्छा को क्रियान्वित करने की ओर ही ध्यान देना चाहिये । किसी को भी अपने को अधीनस्थ नहीं मानना चाहिये, भले ही उसे दूसरे के द्वारा दिये गये निर्देशों को कार्यान्वित करना या अपने करणीय कार्य को किसी की देख-रेख के अधीन करना पड़ता हो ।

   सबको केवल यह सोचते हुए कि काय को कैसे  सर्वात्म रीति से सफल बनाया जाये, मिल-जुलकर काम करने का यत्न करना चाहिये । व्यक्तिगत भावों को हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहिये । क्योंकि काय में विघ्न, विफलता या गड़बड़ी का कारण बहुधा यही हुआ करता है। 

   यदि तुम कार्य-संबंधी इस सत्य को मन में रखो और इसपर सदा अटल रहो तो कठिनाइयां बहुत करके दूर हो जायेंगी; क्योंकि दूसरे लोग तुम्हारी मनोवृत्ति की यथार्थता से प्रभावित होंगे और तुम्हारे साथ बिना किसी संघर्ष के कार्य करेंगे अथवा, यदि अपने अंदर की किसी दुर्बलता या विकृति के कारण वे कठिनाइयां पैदा करें तो उनके परिणाम वापिस उनपर ही जा पड़ेंगे और तुम कोई विघ्न या कष्ट नहीं अनुभव करोगे ।

*

 

  एक बात है जो हर एक को याद रखनी चाहिये । जो कुछ भी किया जाये वह योग । साधना और माताजी की चेतना में दिव्य जीवन में विकसित होने की दृष्टि से किया जाये । अपने ही मन और उसके विचारों पर आग्रह करना, अपने निजी प्राणगत अनुभवों और प्रतिक्रियाओं के द्वारा अपने को परिचालित होने देना यहां के जीवन का विधान नहीं होना चाहिये । मनुष्य को इन सबसे पीछे हटना चाहिये, अनासक्त होना चाहिये, उनके स्थान पर ऊपर से सच्चा ज्ञान तथा भीतर की चैत्य सत्ता से सच्चे अनुभवों को ले आना चाहिये । अगर

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मन और प्राण समर्पण न करें, अगर वे अपने निजी अज्ञान की, जिसे वे सत्य, यथार्थ और न्याय के नाम से पुकारते हैं, आसक्ति का त्याग न करें तो यह नहीं किया जा सकता ।. समस्त कठिनाई उसी से उठती है; यदि उसे जीत लिया जाये तो वर्तमान उपद्रव और कठिनाई के स्थान पर जीवन का, कर्म का, सामंजस्य का, उस सबका जो भगवान् के साथ एकत्व होने पर आता है, सच्चा आधार धीरे-धीरे स्थापित हो जायेगा ।

*

 

माताजी के नाम तुम्हारे पत्र में मैं देखता हूं कि तुम्हारा दावा है कि तुम वह अपराध-स्वीकार के लिये लिख रहे हो, किन्तु असल में उसका लहजा तुम्हारी अपनी आत्मा को निर्दोष सिद्ध करता एवं उसका समर्थन करता है, इसके साथ ही वह माताजी पर पक्षपात, क्रोध और अन्याय का दोष लगाता है । मैंने इस बात पर भी गौर किया है कि तुम्हारा किया हुआ तथ्यों का वर्णन अशुद्ध है और, जहांतक उसका संबंध माताजी से है, वह भोंडा भी है । साथ ही तुम उस बात पर बल भी देते हो जिसमें तुम अपने को निर्दोष सिद्ध कर सकते हो और उन सब अन्य बातों की उपेक्षा कर देते हो जिनमें तुम दोषी थे । तथापि मैं यह मानूंगा कि यह सब तुमने जान-बूझकर नहीं किया और कि । ऐसा पत्र लिखते समय, तुम अपनी उस प्राणिक सत्ता की गतियों से सचेतन नहीं थे जिसने उसकी भावना और उसके लहजे को प्रेरित किया ।

  मैं यह सुझाव दूंगा कि दूसरों के साथ अपने संबंधों में, -ऐसा लगता है कि ये सदा ही अतीव बेसुरे रहे हैं, -जब कोई घटनाएं घटें तब तुम्हारे लिये यह अत्यधिक अच्छा होगा कि तुम यह दृष्टिकोण मत अपनाओ कि तुम बिलकुल ठीक हो और वे बिलकुल गलत हैं । अधिक बुद्धिमानी इसमें होगी कि तुम अपने चिंतन में निष्पक्ष और न्यायपूर्ण रहो, यह देखो कि तुमसे कहां भूल हुई है, और यहांतक कि अपने दोष पर बल दो न कि उनके दोष पर । वहुत संभवत: यह तुम्हें दूसरों के साथ तुम्हारे संबंधों में अधिक सामंजस्य की ओर ले जायेगा; कुछ भी हो, तुम्हारी आंतरिक प्रगति में तो यह अधिक सहायक होगा, जो कि किसी कलह में अड़ियल लड़ाकू बनने की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । और फिर यह भी अच्छा नहीं कि तुम अपने समर्थन और अपनी सत्यपरायणता की भावना को पालो-पोसो और अपने दोषों या अपनी भूलों को अपने- आपसे या माताजी से छुपाना चाहो ।

  जहांतक माताजी के संबंध में तुम्हारे संदेहों का प्रश्न है, वे संभवत:

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तबतक दूर नहीं हो सकते जबतक तुम यह समझते हो कि तुम अपने मन के प्रकाश से माताजी के मन को पढ़ सकते हो और इस प्रकार प्राप्त भ्रांतिपूर्ण तथ्यों से माताजी के तथा उनके क्यों के विषय में अपने मानसिक निर्णय घोषित कर सकते हो । साथ ही जब-जब वे कोई ऐसी चीज करें जिसे तुम्हारी सीमित बुद्धि नहीं समझ पाती या जो तुम्हारी प्राणिक प्रकृति की भावनाओं और मांगों के लिये अप्रीतिकर हो तब-तब हर बार यदि तुम्हारी श्रद्धा टूट जाये तो भी तुम्हारे संदेह आसानी से नहीं मिट सकते । यदि तुम्हारा यह विश्वास नहीं है कि उनकी चेतना तुम्हारी चेतना से अधिक महान् और विशाल है तथा उसकी नाप-जोख साधारण मानदण्डों और निर्णयों से नहीं हो सकती, या कम- से-कम वह एक यौगिक चेतना है । तो मैं नहीं देख पाता कि किस आधार पर तुम यहां उनके मार्गदर्शन में योगाभ्यास कर रहे हो । जो लोग निरंतर उनपर संदेह करते हैं, उनकी आलोचना एवं निंदा करते हैं अथवा अत्यंत साधारण और अभद्र मानवीय भाव- भावनाओं और हेतुओं को उनके कार्यो का मूल प्रेरक मानते हैं और फिर भी उन्हें स्वीकार करने या मुझे और मेरे योग को स्वीकार करने का ढोंग रचते हैं वे एक मूर्खतापूर्ण और तर्कविरुद्ध असंगति के अपराधी हैं । जहांतक समझने का प्रश्न है वह एक दूसरी ही बात है । मैं सुझाव दूंगा कि पहले तुम्हें विकास करते हुए साधारण मन से बाहर निकलना होगा और सच्ची चेतना के द्वारा सचेतन बनना होगा, उसके बाद ही कहीं तुम इस विषय को समझने की आशा कर सकते हो । और उसके लिये श्रद्धा, समर्पण, विश्वास-पात्रता और उद्घाटन ही वे अवस्थाएं हैं जिनका कुछ महत्त्व है ।

६ - ११ - ११२१ 

*

 

कैसे तुम माताजी को तरह कार्य कर सकते हो या वह कार्य कर सकते हो जो वे कर सकती हैं? यह तो महत्त्वाकांक्षा और मिथ्याभिमान का उभरना है ।

५ - ११ - ११३२

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तुम्हारे माताजी से मिलने के लिये कोई उचित कारण नहीं है और यह मिलने का समय भी नहीं है । न ही इस विषय में बहस की कोई गुंजायश है ।

   यहां दो बातें स्पष्ट रूप से समझ लेनी होगी । यहां का काय माताजी का है और वे जिस ढंग से पसंद करें उस ढंग से अपने आदेश देने का उन्हें

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अधिकार है और उन आदेशों का पालन करना ही होगा । उनके आदेश किसी भी रूप में पहुंचें, उनकी अवज्ञा करने या अपने निजी विचारों । अपनी इच्छा या सनकों पर आग्रह करने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती । यदि तुम बिना किन्हीं शती के उनके आदेशों का सम्मान करने और उनपर चलने के लिये तैयार हो तो तुम्हें काम करते रहने की अनुमति दी जा सकती है, अन्यथा तुम्हें काम करना छोड़ ही देना होगा ।

   दूसरे, सब प्रकार की जोर-जबर्दस्ती बंद करनी होगी । यदि तुम आश्रम में रहना चाहते हो तो इस प्रकार के व्यवहार से बाज आना होगा ।

१८ - ७ - ११३७

 

प्राणिक स्तर पर माताजी का कार्य

 

तुम्हारा स्वप्न, स्पष्ट ही, प्राणिक स्तर के किसी भाग का (जो मानव प्रकृति के एक भाग से भी मिलता जुलता है) सांकेतिक प्रतिरूप था । उस भाग में माताजी ने अपना घर बना रखा था (अपनी चेतना का कोई अंश स्थापित कर रखा था) | गांव मानव जीवन की किसी रचना का प्रतिनिधित्व करता था जिसमें यूरोपीय जीवन के किन्हीं भागों की भांति बाह्य सौंदर्य और सामंजस्य तो है पर भगवान् का स्पर्श कतई नहीं । जंगल उन परिवेशों को द्योतित करता था जिनमें यह रचना बनायी गयी है -यह एक ऐसी प्राणिक प्रकृति के बीच बनायी गयी है जो बर्बर, असभ्य और जंगली है और है भयानक वस्तुओं से भरी हुई - अतएव गांव अर्थात् रचना एक ऐसी वस्तु है जो सर्वथा असुरक्षित और कृत्रिम है । निःसंदेह, मानव सभ्यता के अधिकांश का यही स्वरूप है, भीषण रूप से असंस्कृत प्राणिक प्रकृति के बीच एक कृत्रिम रचना, और वह किसी क्षण भी व्यस्त हो सकती है । समुद्र है स्वयं प्राणिक चेतना, क्योंकि जल प्रायः प्राण का प्रतीक होता है । पगडण्डी किसी ऐसी वस्तु को द्योतित करती प्रतीत होती है जिसे, माताजी चाहती हैं कि साधक प्राण के उस भाग में निर्मित एवं गठित करें, पर जिसे बनाना सरल नहीं और जिसे केवल ऐसे सतत अध्यवसाय के द्वारा ही बनाया जा सकता है जो अन्ततोगत्वा प्राण की अस्थिरता पर विजय पा लेगा । इस प्रकार के स्वप्न बहुधा अत्यंत मनोरज्जक और बोधप्रद होते हैं यदि व्यक्ति उनके प्रतीकों का सूत्र पा सके, पर सूत्र पाना सदा सरल नहीं होता ।

 १३ - २ - ११३६

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२२१


मेरा किया हुआ प्राण का वर्णन उसके उस भाग पर लागू होता था जिसे तुमने स्वप्न में देखा था -वह आश्रम में विद्यमान प्राणिक स्तर का नहीं वरन् साधारण मानव सत्ता के कुछ एक पक्षों का वर्णन करता है । तथापि मानव प्राण सभी जगह, आश्रम में भी, उग्र और उच्छङ्खल शक्तियों से भरा है -क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या, आधिपत्य की लालसा, स्वार्थपरता, अपनी निजी इच्छा पर तथा अपने विचारों एवं अभिरुचियों पर आग्रह और अनुशासनहीनता परिपूर्ण है - और ये चीजों ही उस गड़बड़ी और कठिनाई का कारण हैं जो आश्रम के कार्य में देखने में आती है । इन प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने या इनका मुकाबला करने के लिये जो नियम स्थापित किया गया है वह यह है कि माताजी की इच्छा और उनके द्वारा कायम किये गये नियम एवं अनुशासन का पालन किया जाये, न कि प्रत्येक कार्यकर्ता  अपने ही अहं से परिचालित हो | पर ऐसे लोग बहुत-से हैं जो अपने ही अहं पर आग्रह करते हैं और अनुशासन को बुरा मानते हैं । वे माताजी की इच्छा, नियम एवं अनुशासन को केवल नाम के लिये ही और उसी हदतक मानने को तैयार हैं जिस हदतक वह उनके अपने विचारों और अभिरुचियों से मेल खाता है । इसका इलाज आंतरिक परिवर्तन के सिवा और कोई नहीं । आश्रम से बाहर के जीवन में अनुशासन बलात् लागू किया जाता है क्योंकि अनुशासन के पालन से इनकार करने पर कठोर दण्ड भोगने पड़ते हैं या फिर उसके परिणामस्वरूप नाना प्रकार की इतनी अधिक असुविधाएं झेलनी पड़ती हैं कि अनुशासनहीन व्यक्ति को या तो घुटने टेकने पड़ते हैं या फिर अपना रास्ता नापना होता है । परंतु यहां आश्रम में नियम को इस प्रकार थोपना संभव नहीं । बाह्य आज्ञापालन के मूल प्रेरणास्रोत के रूप में आंतरिक आज्ञापालन की वृत्ति को अपनाना ही होगा । एकमात्र उपाय है चेतना के भीतर उस सुनहले कमल का अवतरण जिसे तुमने अपने अन्तर्दर्शन में देखा था । जिस किसी में भी वह स्थापित हो जायेगा वह, या जो कोई इसके प्रभाव को ही अनुभव करेगा वह भी सच्ची चेतना और सच्चे काय का केन्द्र बन जायेगा जिससे आश्रम के जीवन में परिवर्तन आ जायेगा ।

१४ - २ - ११३३

 

 विभागीय अध्यक्ष की आवश्यकता

 

माताजी के लिये भौतिक रूप में यह संभव नहीं है कि वे प्रत्येक कार्यकर्ता को अपने- आप सीधा काय दें और उसपर सीधी निगरानी रख सकें जिसमें भौतिक

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रूप में और साथ ही आंतरिक रूप में वह (कार्यकर्ता) अपना काय उन्हें अर्पित कर सके । प्रत्येक विभाग के लिये एक अध्यक्ष होना ही चाहिये जो सभी महत्त्वपूर्ण विषयों में माताजी की सलाह ले और प्रत्येक चीज की रिपोर्ट उन्हें देता रहे; परंतु छोटी-छोटी बातों में उनका निर्णय जानने के लिये बराबर उनके पास आने की उसे कोई जरूरत नहीं -यह संभव भी नहीं है । ' अ ' गह- निर्माण-विभाग में अध्यक्ष के पद पर है, क्योंकि वह एक सुयोग्य इंजीनियर है । यह बाहरी व्यवस्था की एक आवश्यकता है जो यहां या अन्य जगहों में भी अनिवार्य है और यदि काम करना है तो इसे स्वीकार करना ही होगा । परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि लोगों को ' अ ' या किसी दूसरे अध्यक्ष को अपने से बड़ा व्यक्ति मानना चाहिये अथवा उसके अहंकार के प्रति समर्पण करना चाहिये । जहांतक संभव हो साधक को अपने निजी अहंभाव से मुक्त होना चाहिये और चाहे जिन अवस्थाओं में काय क्यों न किया जाये । अपने कार्य को माताजी की पूजा समझना ही चाहिये ।

२० -८ - ११३६

*

 

आश्रम की व्यवस्था के प्रत्येक ब्योरे को स्वयं अपने- आप देखना माताजी के लिये एकदम असंभव है; आजकल जो भी अवस्था है, उसमें उनके पास खाली समय बिलकुल नहीं है । यह बात जानी हुई है कि तुम... पा सकते हो, पर किसी व्यवस्था के कार्यान्वित होने के लिये तुम्हें उन लोगों पर जोर डालना चाहिये जिन्हें उसकी जिम्मेदारी दी गयी है ।

२० - ७ - ११३३.

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स्वयं माताजी ने ही अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये (विभागों के ) अध्यक्षों का चुनाव किया था जिससे समस्त कार्य का संगठन हो सके; काम की सभी धाराएं, समस्त ब्योरा उन्हीं के द्वारा निश्चित किया गया था और अध्यक्षों को उनकी पद्धतियों का निरीक्षण करने की शिक्षा. दी गयी थी । इस सबके बाद ही वे पीछे हटीं और सारी चीज को अपने निश्चित किये हुए रास्ते से चलते रहने के लिये उन्होंने छोड़ दिया; पर वे बराबर ही एक सतर्क दृष्टि बनाये रखती हैं । अध्यक्ष लोग उनकी नीति और आदेशों को कार्यान्वित कर रहे हैं और प्रत्येक चीज की रिपोर्ट उर्न्हे देते हैं तथा जब वे उचित समझती हैं तब जो कुछ

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बे करते हैं उसमें प्रायः ही परिवर्तन करती हैं । अध्यक्षों का कार्य पूर्ण नहीं है, क्योंकि वे स्वयं भी अभीतक पूर्ण नहीं हैं और कार्यकर्ताओं तथा साधकों का अहंकार उनके मार्ग में रोड़ा भी अटकाता है । तबतक कुछ भी त नहीं हो सकता जबतक साधक और कार्यकर्ता यह नहीं अनुभव करने लगते कि वे अपने अहंकार के लिये, अपने प्राण की आत्मतुष्टि के लिये तथा शरीर की मांगों के लिये यहां नहीं है, बल्कि एक उच्च और अत्यधिक कठोर योग के लिये हैं जिसका पहला उद्देश्य है कामना का नाश करना तथा उसके स्थान पर भागवत सत्य और भागवत संकल्प को स्थापित करना ।

१ - १ - ११३६ 

*

 

 अपने पत्र में मैंने जो लिखा था उसका अभिप्राय यह था कि साधारणतया माताजी इन वस्तुओं के बारे में स्वयं नहीं सोचतीं, कार्य का सूत्रपात स्वयं नहीं करतीं, प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक प्रसंग में यह निर्देश नहीं देती कि उसे क्या या कैसे करना चाहिये, जबतक कि ऐसा करने के लिये कोई विशेष अवसर ही न आये | वास्तव में, वे कार्य के किसी भी विभाग में ऐसा नहीं करती । वे सामान्य रूप से कार्य पर अपनी दृष्टि रखती हैं, अनुमति देती हैं या उसमें संशोधन करती है या फिर अनुमति देने से इनकार कर देती हैं, जब वे आवश्यक समझती हैं तो अन्तःक्षेप भी करती हैं । ऐसे विषय तो बहुत थोड़े- से ही हैं जिनमें वे कार्य का उपक्रम करती हैं, योजना और रूप-रेखा बनाती हैं, विशेष और ब्योरेवार आदेश देती हैं । कशीदाकारी के विषय में कुछ पूछना आवश्यक हो तो ' क्ष ' माताजी से पूछ लेती है अथवा जब कोई कार्यकर्त्र कोई काम हाथ में लेती है तो वह माताजी को सूचना देती है कि वह उनके लिये कुछ बनाना चाहती है, रूमाल, पेशबंद, छादन या साड़ी । जो चीज सुझायी जाती है उसे माताजी या तो स्वीकार कर लेती हैं या अस्वीकार कर देती हैं अथवा वे स्वयं कोई चीज सुझाती हैं या जिस चीज का प्रस्ताव किया गया है उसमें कुछ परिवर्तन कर देती हैं । इस प्रकार से किया गया काम भी उतना ही माताजी की इच्छा के अनुसार किया गया काम है जितना कि कोई ऐसा काम जिसका उपक्रम, विचार और आयोजन समूचे रूप में और हर ब्योरे में केवल उन्हींके द्वारा किया जाता है । मैं पूरी तरह से नहीं समझ पाता कि क्यों तुम्हें यह समझना चाहिये कि काम के इस ढंग का अर्थ है माताजी की इच्छा के साथ एकता का या तुम्हारी ओर से समर्पण का अभाव । महत्त्वपूर्ण है

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तुम्हारे भीतर आत्म  निवेदन का भाव और वही समय  आने  पर  समर्पण की समग्र सम्पूर्णता ले आता है ।

१७ -१ - ११३६

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तुम किस चीज के लिये अनुमति चाहती हो यह मैं पूरी तरह से नहीं समझ पाया । यदि यह कसीदाकारी के विषय में है तो मैं तुमसे कह ही चुका हूं कि वर्तमान व्यवस्था के अनुसार चलना, अर्थात् जब सिलाई-कढ़ाई का कोई काम करने की इच्छा या अनुप्रेरणा तुम्हें हो तो उसे माताजी के सामने रखना और उनकी अनुमति ले लेना या उनके निर्णय के लिये प्रार्थना करना । माताजी की इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिये बिलकुल ठीक तरीका है । यह समर्पण- भाव के साथ तनिक भी असंगत नहीं । परंतु यदि तुम हर चीज माताजी पर छोड़ना और अपने- आप कोई भी सुझाव या प्रस्ताव न रखना अधिक पसंद करती हो तो तुम वैसा कर सकती हो ।

   माताजी ने मुझसे केवल यह कहा था कि मैं तुम्हें यह लिख दूं कि यहां सामान्यतया ये चीजों किस ढंग से की जाती हैं । क्योंकि वे इन चीजों के बारे में स्वयं सोचने की आदी नहीं हैं, इसलिये कोई चीज स्मृति में लाना या सोचकर बताना उनके लिये उतना सरल नहीं जितना अपने सामने रखे गये सुझावों पर निर्णय करना ।

१८ - १ - ११३६

 

अधीनता और सहकारिता सीखने की आवश्यकता

 

माताजी के निर्णय के लिये उनके अपने खास कारण होते हैं । उन्हें केवल एक विभाग का या शाखामात्र का ख्याल न करके समूचे कार्य और व्यवस्था की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सम्पूर्ण रूप से कार्य पर दृष्टि रखनी पड़ती है । यहां जो कोई कार्य किया जाता है उसमें मनुष्य को सदा अधीनता में रहना सीखना होता है या काम से संबंधित वस्तुओं के विषय में अपनी निजी भावनाओं और पसंदगियों को अलग रखना होता है तथा माताजी द्वारा निर्धारित शर्तो और निर्णयों के अनुसार उत्तम-से-उत्तम रूप में कार्य करना होता है । सारे आश्रम में यही मुख्य कठिनाई है, कारण कार्यकर्ता अपनी निजी भावनाओं के ' जिस तरीके को वह ठीक या समझता है

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उसीके अनुसार कार्य करना चाहता है और उसी के लिये अनुमति पाने की आशा करता है । यही काय के अंदर आनेवाली कठिनाई, संघर्ष या गोलमाल का प्रधान कारण है और स्वयं कार्यकर्ताओं के बीच, कार्यकर्ताओं और विभागों के अध्यक्षों के बीच, साधकों की भावना और माताजी की इच्छा के बीच विरोध उत्पन्न करता है । सामंजस्य केवल तभी रह सकता है जब सब लोग बिना ननुनच और व्यक्तिगत प्रतिक्रिया के माताजी की इच्छा को स्वीकार कर लें ।

   आश्रम में ' स्वतंत्र कार्य ' नहीं हे । सब कुछ सुसंगठित और परस्पर -सम्बद्ध है । और न तो विभागों के अध्यक्ष ओर न कार्यकर्ता ही स्वतंत्र हैं । समस्त सामूहिक काय के लिये अधीनता और सहकारिता को सीखना आवश्यक है; इसके बिना बस अस्तव्यस्तता ही आयेगी।

१ व - ३ - ११३६

*

 

व्यक्तिगत विचारों के अनुसार काय की व्यवस्था करना माताजी के लिये असंभव है क्योंकि उस स्थिति में सारा कार्य ही असंभव हो जायेगा ।

२५ - ७ - १९३४

*

 

समुचित भाव के साथ कार्य करने के लिये महत्त्वपूर्ण बातों

 

अगर ' अ ' को अपनी उदासी और बेचैनी से छुटकारा पाना हो तथा प्रसन्न और निश्चिंत होना हो तो उसे अपने मन में कुछ बातों को अवश्य बैठा लेना चाहिये । मैं यहां जो कुछ लिख रहा हूं उसे तुम स्पष्ट रूप में उसको समझा देना ।

  १. वह यहां । ' ब ' के भतीजे के रूप में नहीं है, बल्कि माताजी के बच्चे के रूप में है ।

  २. वह यहां ' ब ' की देखरेख, संरक्षण और अधीनता में नहीं है, बल्कि माताजी की अधीनता- और देख-रेख में है ओर उसे केवल उन्हीं के प्रति वफादार होना चाहिये ।

  ३. भंडार (5 १०ातD) में जो काम उसे दिया गया है वह माताजी का ही काम है और ' ब ' का नहीं है; इसी भावना के साथ, माताजी के कार्य के रूप में, और दूसरे किसीके कार्य के रूप में नहीं, उसे वह काम करना चाहिये ।

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४.' ब ' भांडार, बग़ीचे और अत्रागार का अध्यक्ष है और वह माताजी से अपने लिये आदेश ग्रहण करता है अथवा स्वीकृति के लिये अपनी व्यवस्था की रिपोर्ट उनके पास भेजता है -ठीक वैसे ही जैसे कि ' स ' ' बी. डी.' (गह- निर्माण विभाग) में या 'द ' भोजनगृह में या ' ई ' अथवा ' फ ' अपने विभागों में करते हैं । इन विभागों में काम करनेवाले अन्य लोगों के विषय में ऐसा समझा जाता है कि वे अध्यक्ष से अपने लिये आदेश ग्रहण करेंगे और उसीके अनुसार काम करेंगे । परंतु इसका कारण यह है कि काय में अनुशासन और सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये यह आवश्यक हे; इसका यह अर्थ नहीं हे कि वह काम  ' ब ' का है या गृहनिर्माण का कार्य ' स ' का है अथवा भोजनगृह का कार्य ' द ' का है -सब माताजी का कार्य हे और प्रत्येक आदमी के द्वारा, जैसे अध्यक्ष के द्वारा वैसे ही अन्य लोगों के द्वारा, वह उन्हींके लिये किया जाना चाहिये । यदि प्रत्येक कार्यकर्ता स्वतंत्र होने और सीधे माताजी के प्रति उत्तरदायी होने या अपने निजी ढंग से कार्य करने का आग्रह करे तो काम कराना संभव नहीं होगा; यह मनोभाव बहुत फैला हुआ है और यही अधिकांश गोलमाल और अव्यवस्था का कारण है । माताजी समस्त कार्य को स्वयं भौतिक रूप से नहीं देख सकतीं और न प्रत्येक कार्यकर्ता को सीधे हुक्म दे सकती हैं । अतएव जो व्यवस्था की गयी है वह अनिवार्य है । दूसरी ओर यह भी माना जाता है कि विभाग का अध्यक्ष माताजी के निर्देशों के अनुसार - अथवा जब वह स्वतंत्र छोड़ दिया गया हो तब उन्हीं के भावों के अनुसार -कार्य करेगा, अन्यथा नहीं । अगर वह महज अपने ख्याल के अनुसार कार्य करता है या अपनी निजी व्यक्तिगत पसंदगियों और नापसंदगियों का अनुसरण करता है अथवा अपनी व्यक्तिगत संतुष्टि या सुविधा के लिये अपने दायित्व का दुरुपयोग करता है तो उसके फलस्वरूप कार्य में जो असफलता आयेगी या अनुचित मनोभाव उत्पन्न होगा या संघर्ष होगा या अस्तव्यस्तता या मिथ्या वातावरण उत्पन्न होगा उसके लिये वह उत्तरदायी होगा ।

  ५. व्यक्तिगत रूप से ' ब ' के लिये या अन्य किसी के लिये (आश्रम के लिये नहीं ) जो कार्य किया गया है वह माताजी के कार्य का अंग नहीं हे ओर उसके साथ माताजी का कोई संबंध नहीं है । यदि ऐसा कार्य करने को कहा जाये, तो ' अ ' यदि वह चाहे तो, उसे करे या यदि उसे अनुचित समझे तो न करे ।

  ६. ' अ ' को कम-से-कम एक कार्य सीधे माताजी ने दिया है -वह है रसोईघर के बर्तन धोना । वह उसे माताजी के निर्देशों के  और छ

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सावधानी तथा पूर्णता के साथ करे; उसके लिये यह दिखलाने का यह एक सुअवसर होगा कि वह क्या कर सकता है और बाकी चीजों उसके बाद देखी जायेंगी ।

   ७. वह ' ग ' और ' ब ' से भोजन या उपहार आदि स्वीकार करने के लिये बाध्य नहीं है; यदि उसे यह पसंद नहीं है तो वह इन चीजों को क्यों लेता है? वह अस्वीकार करने के लिये पूर्ण रूप से स्वतंत्र है । उसका यहां रहना तथा अन्य सभी बातें ' ब ' पर निर्भर नहीं करतीं, बल्कि एकमात्र माताजी पर निर्भर  करती हैं - अतएव उसे डरने का कोई कारण नहीं ।

  ८. अंत में, उसे अपने प्राण को अशांति तथा कामनाओं से खाली कर देना चाहिये -क्योंकि उसमें, प्रत्येक मनुष्य की तरह ही, वही उदासी का मूल कारण है और, यदि वह कहीं अन्यत्र और कहीं अन्य परिस्थितियों में होता तो भी उदासी अवश्य आती क्योंकि मूल कारण तब भी वहां होता । यहांपर यदि वह संपूर्ण रूप से माताजी की ओर मुंड जाये, उनकी ओर खुले और उन्हीं की ओर मुड़े हुए कार्य करे और रहे तो वह छुटकारा और प्रसन्नता पा लेगा और ज्योति और शांति में वर्धित होगा तथा अपनी समस्त सत्ता में भगवान् का बच्चा बन जायेगा ।

११ - ३ - १९३२ 

*

 

तुमने यह बहुत अच्छा किया कि सब बातों को कहकर साफ कर लिया है । निश्चय ही, यह सर्वथा सत्य है कि आन्तर सत्ता को माताजी की ओर और केवल उन्हीं की ओर मोड़ना चाहिये ।

   जहांतक काय का संबंध है, अन्तर्विकास -चैत्य और आध्यात्मिक विकास  -निश्चित ही, प्रथम महत्त्व की वस्तु है और निरे काम के रूप में काम एक सर्वथा गौण वस्तु है । परंतु माताजी के प्रति अर्पण के रूप में किया गया काम अपने- आपमें साधना का एक भाग और अन्तर्विकास का एक साधन एवं अंग बन जाता है । जैसे ही तुम्हारे अंदर चैत्य का विकास होगा तुम इस बात को अधिक देख पाओगे । इसके अतिरिक्त कार्य इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है कि वह आश्रम के यथावत् चलते रहने के लिये आवश्यक है । जो (आश्रम) यहां माताजी के कार्य का बाहरी ढांचा है ।

  ' अ ' जो व्यक्तियों को महत्त्व देता है उसमें वह गलती पर नहीं है । यह बिल्कुल ठीक है कि इस समय जिन व्यक्तियों के हाथ में काय का भार है वे

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यदि न रहें और उनके स्थान पर दूसरे हों तो भी काम चलता रहेगा, पर अधिकतर विभागों में वह बुरे ढंग से चलेगा, या कम-से-कम आज की अपेक्षा खराब, और इस बात का कोई भरोसा नहीं होगा कि वे दूसरे अध्यक्ष माताजी की इच्छा के सक्षम यंत्र ही होंगे । उदाहरणार्थ, ' क ', ' ख ', ' ग ' जैसे व्यक्ति विभागों के दायित्व का जो कार्य कर रहे हैं उसके लिये इन गुणों का संयोग आवश्यक है -विशिष्ट क्षमता, व्यक्तित्व, नियंत्रण की शक्ति जिसे संगठन कहा जाता है और सबसे बढ़कर विश्वासपात्रता तथा माताजी की इच्छा का अनुवर्तन, उनकी प्रत्यक्ष अनुभूतियों में श्रद्धा तथा उन्हें कार्यान्वित करने की इच्छा । आश्रम में ऐसे लोग बहुत नहीं जिनमें इन गुणों का संयोग है । आजकल आश्रम- भोजनालय (Aroumé) और धान्यागार (Granaries) में जो कार्य होता है उसे माताजी ने जब ' क ' के द्वारा सीधे अपने हाथ में लिया उससे पहले वहां गडबड्घोटाला, अव्यवस्था, अपव्यय, असंयम । माताजी की इच्छा की अवहेलना  -बस यही कुछ था । अब, यद्यपि अवस्था पूर्णतया निर्दोष होने से कहीं दूर है क्योंकि कार्यकर्ताओं में पूर्णता बिलकुल ही नहीं है, तथापि वह सब स्थिति परिवर्तित हो चुकी है । इस परिवर्तन में, पाकशाला में तुम्हारी और धान्यागार में ' द ' की उपस्थिति ने बहुत महत्त्वपूर्ण भाग अदा किया है । माताजी काय की जैसी व्यवस्था चाहती थीं उसे क्रियान्वित करना वहां तुम्हारी उपस्थिति के बिना कहीं अधिक कठिन होता और कार्य के इन दो भागों में तो वह असंभव तक होता । ' भागवत इच्छा ' वहां अवश्य विद्यमान है पर वह व्यक्तियों के द्वारा ही काय करती हैं और एक तथा दूसरे यंत्र में बहुत अंतर होता है -यही कार-थ है कि व्यक्ति का इतना अधिक महत्त्व हो सकता है ।

   निश्चय ही । मैं नहीं कह सकता कि इस पत्र में तुमने जो विचार प्रस्तुत किये हैं वे सत्य हैं । वे उस भौतिक मन की भ्रांति हैं जो वस्तुओं-संबंधी वास्तविक सत्य को कदाचित् ही पकड़ पाता है । यह तथ्य नहीं कि जब-जब तुमने माताजी को ' अ ' के बारे में लिखा तब-तब हर बार माताजी तुमसे नाराज या गुस्सा हुई । इस प्रकार की बात साधक माताजी के संबंध में सदा ही सोचते और कहते रहते हैं, कि वे अमुक कारण से उनपर नाराज होकर गुस्सा हो रही हैं या अमुक कारण से उन्हें मुस्कान दे रही हैं । और अपने इस विचार या कथन के जो कारण वे लोग बताते हैं वे उनके अपने भौतिक मन के सुझाये होते हैं, पर माताजी की चेतना की किसी से उनका कुछ भी संबंध नहीं होता,

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क्योंकि उनकी चेतना में निरंतर खुशी और नाराजगी के बुलबुले नहीं उठते रहते । यह बात साधकों को समझाने के लिये मैंने बारंबार यत्न किया है, पर उन्हें यह मानना पसंद है कि उनके अपने मन निर्भ्रात हैं और जो मैं कहता हूं वह असत्य है | इसलिये मैं यही कहूंगा कि तुम्हारा विचार अशुद्ध है ।

 

 

  यह भी तधय  नहीं की तुम साधना नहीं कर सकते, क्योंकि कुछ समय तक तो तुम इसे कर ही रहे थे और अच्छी तरह कर रहे थे । परंतु तुम्हारा स्थूल मन आडे आया और वह तुम्हें भीतर जाने और रहने देने के स्थान पर बाहर ले गया और बाहर ही रखने का यत्न कर रहा है । यही कारण है कि मैं तुम्हें इस बात के लिये प्रेरित करने का यत्न करता आ रहा हूं कि तुम भीतर जाओ और रहने देने के  रतन पर बहार ही रखने  का यल कर रहा है|   थोतिक सत्ता के इन बाहरी विचारों और प्रतिक्रियाओं में निवास मत करो जो साधना को रोककर केवल कष्ट ही देते हैं ।

    यह सच नहीं कि माताजी चाहती हैं कि तुम ' अ ' की कठपुतली बनो । जहांतक काम का प्रश्न है । यह बात जरा भी स्पष्ट नहीं कि जो कुछ तुम सोचते हो वह सब ठीक है और जो कुछ ' अ ' करता है वह सब गलत । तुम अपने व्यक्तित्व की बात करते हो और यह कहते प्रतीत होते हो कि ' अ ' काम में अपने व्यक्तित्व को दूसरों पर लादने की चेष्टा कर रहा है और तुम उसके विरुद्ध अपने व्यक्तित्व को आख्यापित करना चाहते हो और माताजी को चाहिये था कि वे तुम्हारा समर्थन करतीं, पर वे तुम्हारे व्यक्तित्व का तनिक भी ख्याल न करके उसे ' अ ' के व्यक्तित्व के अधीन कर देने पर आग्रह करती हैं । परंतु माताजी इस विषय पर जरा भी इस दृष्टिकोण से नजर नहीं डालती, न वे किसी के व्यक्तित्व का ही ख्याल करती हैं । उनकी दृष्टि में तो, लोगों के व्यक्तित्वों का, अर्थात् उनके अहंकार का काम में कोई स्थान नहीं होना चाहिये । वह तुम्हारा काम नहीं या ' अ ' का काम नहीं, बल्कि भगवान् का काम है, माताजी का काम है, ओर उसे तुम्हारे विचारों या भावों से या ' अ ' के विचारों या भावों से या ' ब ' या ' स ' या ' द ' के या किसी ओर के विचारों या भावों से नहीं, बल्कि माताजी की उस दिव्य दृष्टि, अनुभूति एवं इच्छाशक्ति से शासित एवं परिचालित होना चाहिये जो किसी मानवीय व्यक्तित्व को प्रकट नहीं करती  (यदि वह करती तो इस आश्रम के अस्तित्व का औचित्य ही न होता), वरन् एक अधिक गहरी चेतना से उद्भूत होती है । लगभग प्रत्येक व्यक्ति में अपने निजी व्यक्तित्व की, अपने ही विचारों, भावों आदि की यह धारणा रही है और उसने उनपर ही आग्रह करने की थोड़ी-बहुत चेष्टा की है । और यह बात हमारे काम की  सफलता और समरसता में भारी बाधक बनी है यही अधिकतर

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कठिनाइयों का और समस्त असामंजस्य एवं कलह का कारण रही है । हम चाहते हैं कि यह सब बंद हो जाये; क्योंकि जब यह पूर्ण रूप से बंद हो जायेगा तभी मतभेदों और उपद्रवों के बंद होने की कुछ संभावना होगी और यहां का कार्य उस प्रयोजन को अधिक अच्छी तरह पूरा करेगा जिसके लिये माताजी ने इसकी सृष्टि की थी । इसी कारण मैं तुम्हें अपने व्यक्तित्व को गौण स्थान देने । भगवान् के लिये कर्म करने, अपने निजी व्यक्तित्व एवं अहंकार को तथा अपने विचारों एवं भावों को महत्त्वपूर्ण वस्तु मानकर उनपर आग्रह न करने की आवश्यकता समझने का यत्न करता आ रहा हूं । अब रहा यह प्रश्न कि काम में ' अ ' के और तुम्हारे बीच क्या संबंध हो -यह मैं दूसरे पत्र में लिखूंगा क्योंकि आज इससे अधिक समय नहीं है ।

४ - ७ - ११३७

 

पुनश्च -जब मैं यह कहता हूं कि तुम गलती पर हो या जब मैं तुमसे सहमत नहीं होता । तब तुम यह सोचते प्रतीत होते हो कि मेरे पत्र नाराजगी प्रकट करते हैं और कि मेरी तुमसे असहमति का अर्थ यह है कि तुम जो मुझे अपने विचार लिखते रहते हो उसके कारण मैं तुमसे तंग आ गया हूं; पर बात ऐसी नहीं है । यदि मैं तुम्हारी लिखी बातों का उत्तर देता हूं तो अवश्य ही वह तुम्हें यह बताने के लिये होता हे कि चीजों को देखने और काम करने का वह कौन-सा ढंग है जो मुझे और माताजी को ठीक प्रतीत होता है । वह किसी प्रकार की नाराजगी को सूचित नहीं करता ।

*

 

मैं नहीं समझता कि मैंने कहीं यह कहा था कि तुमने अपने काम में ' अ ' के निर्देशों के विपरीत कोई चीज की है । मैं तो, उसके काम करने के ढंग की आलोचना में तुमने जो लिखा था उसीके बारे में कुछ कह रहा था, और विशेषकर मैं तुम्हारा यह विचार दूर करना चाहता था कि उसके निर्देशों के अधीन काम करने की आवश्यकता का अर्थ है तुम्हारे व्यक्तित्व की अवहेलना या माताजी की तुम्हें ' अ ' की कठपुतली बनाने की इच्छा । जहां कोई बड़ा काम होता है जिसमें अनेकों आदमी मिलकर किसी ऐसे उद्देश्य के लिये कार्य कर रहे होते हैं जो सबका साझा होता है और किसी का व्यक्तिगत नहीं । वहां वह काम तबतक नहीं किया जा सकता जबतक कोई ऐसी नियत व्यवस्था न हो जिसके अंदर प्रत्येक कार्यकर्ता में अधीनता और ' की भी

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समाविष्ट हो । यह बात केवल यहीं नहीं सभी जगह ऐसी ही है । ' अ ' को माताजी के अधीन कार्य करना, उनके निर्देशों पर चलना, उनके दिये हुए विचारों के अनुसार कार्य करना होता है । उन्होंने वे कार्य-सरणियां निर्धारित कर दी हैं जिनके अनुसार उसे कार्य करना होगा, और वह जो कुछ भी करे वह सब अवश्यमेव उन्हीं सरणियों पर आधारित होना चाहिये । वह उन्हें बदलने के लिये या उसे दिये गये विचारों के विपरीत कुछ करने के लिये स्वतंत्र नहीं । जहां वह काम के ब्योरों के बारे में कुछ एक निर्णय  करे वहां वे इन सरणियों और विचारों के साथ संगत होने चाहियें । उसे सभी मामलों में माताजी को सूचना देनी एवं उनकी अनुमति लेनी होती है और उनके निर्णयों को स्वीकार करना होता है । यदि माताजी के निर्णय उसके प्रस्तावों के विपरीत हों अथवा क्या करना चाहिये इस विषय में उसके अपने विचारों के विरुद्ध हों तो भी उसे उन्हें स्वीकार कर कार्यान्वित करना होता है । यह धारणा गलत है कि भोजनालय का काम माताजी के नहीं वरन् उसके विचारों के अनुसार चलता है । परंतु यह सब केवल काम की आवश्यकता के वश ही ऐसा किया जाता है, यह ' अ ' के व्यक्तित्व की अवहेलना नहीं । इसी प्रकार तुम्हें भी ' अ ' के निर्देशों के अनुसार चलना होगा क्योंकि माताजी ने उसे इस काम का भार सौंपा है और उसे यह अधिकार दिया है । भोजनालय के सभी कार्यकर्ताओं का दर्जा एकसमान है और ऐसा समझा जाता है कि वे उसके निर्देशों का पालन करेंगे तथा अपने कार्य के विषय में उसे सूचना देते रहेंगे, क्योंकि वह हर चीज के लिये माताजी के प्रति सीधे जिम्मेवार है और जबतक उसे यह अधिकार न हो, वह अपना दायित्व नहीं नाभि सकता । इसी प्रकार पाकशाला में ' ब ' को तुम्हारे निर्देशों के अनुसार कार्य करने के लिये कहा गया है क्योंकि तुम पाकशाला के अध्यक्ष हो । यह सब तुम्हारे व्यक्तित्व या ' ब ' के व्यक्तित्व की अवहेलना या ' अ ' के व्यक्तित्व की संस्थापना नहीं -यह तो केवल कार्य की एक अनिवार्य व्यवस्था है जो इस व्यवस्था के अभाव में निर्विघ्न समापन्न नहीं हो सकता । यही वह बात है जिसे । मैं चाहता था कि तुम समझ लो ताकि तुम यह देख सको कि क्यों माताजी यह चाहती थीं कि तुम ऐसा करो, किसी और कारण से नहीं बल्कि कार्य की आवश्यकता के वश और इसलिये भी कि वह निर्विध्न संपन्न हो सके।

   दूसरी ओर, क्योंकि तुम एक काय के अध्यक्ष हो और उसका क्रियात्मक संचालन तुम्हारे हाथों में है, अतः तुम्हें हर प्रकार का अधिकार है कि उसमें जो कोई भी .'' आयें उन्हें ' अ ' के सामने रखकर उनका हल  पूछो?  ।

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 उधर, उसे बहुधा तुमसे सूचना पाने की आवश्यकता होगी ओर यह जानने की आवश्यकता भी हो सकती है कि तुम्हारी समझ में क्या किया जाना चाहिये । किन्तु यदि यह सब जानने के बाद भी वह, क्या करना चाहिये इस विषय में तुम्हारे नहीं अपने विचार पर चलना ठीक समझे तो तुम्हें उसका कुछ ख्याल नहीं करना चाहिये । जिम्मेवारी उसी की है और उसे, माताजी की अनुमति के अधीन, अपने ही ज्ञानालोकों के अनुसार कार्य करना होगा । जब तुम उसे सूचना दे देते और अपना विचार बता देते हो तो तुम्हारी जिम्मेवारी समाप्त हो जाती है । यदि उसका निर्णय गलत हो तो उसे बदलना माताजी का काम है ।

  मैं आशा करता हूं कि मैंने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी है । ' अ ' के विचारों से सहमत होना तुम्हारे लिये आवश्यक नहीं, न ही इस कार्य के क्षेत्र से बाहर तुम उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिये किसी प्रकार से बाध्य हो । वहां तुम सर्वथा स्वतंत्र हो । केवल इस कार्य में ही यह एक व्यवहारगत आवश्यकता है - और यह है इस कार्य की ही खातिर ।

  मैंने इतना अधिक इसलिये लिखा है कि तुम जानना चाहते थे कि माताजी तुमसे क्या करने की आशा करती हैं । इसका प्रयोजन तुमपर दबाव डालना नहीं, वरन् केवल कुछ चीजों की व्याख्या करना है और तुम्हें वह ढंग और कारण बताना है जिससे कि उन्हें करना आवश्यक है ।

५ - ७ - ११३७

*

 

जहांतक साधना का प्रश्न है । यह बात ठीक नहीं कि कुछ लोग यहां केवल इसलिये हैं कि वे धन देते हैं और दूसरे इसलिये कि वे केवल काम करनेवाले हैं । सच बात यह है कि ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अपने- आपको केवल कार्य के द्वारा ही तैयार कर सकते हैं, उनकी चेतना अभी अधिक प्रगाढ़ ढंग के ध्यान के लिये तैयार नहीं होती । परंतु जो लोग शुरू से ही तीव्र ध्यान कर सकते हैं उनके लिये भी कर्म के द्वारा साधना इस योग में आवश्यक है । व्यक्ति केवल ध्यान से ही इसके लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता । जहांतक तुम्हारी अपनी क्षमता का प्रश्न है, वह प्रत्यक्ष ही थी जब काफी लम्बे समय तक तुम्हारे अंदर सक्रिय साधना चल रही थी । तथापि प्रत्येक मनुष्य की क्षमता सीमित ही होती है -व्यक्ति की केवल अपनी सामर्थ्य से तो बहुत ही कम किया जा सकता है । भागवत शक्ति पर, माताजी की शक्ति और ज्योति पर निर्भरता और उसकी ओर छ ही वास्तविक क्षमता है । यह तुम्हारी अंदर कुछ समय तक थी,

२३३ 


पर जैसा कि दूसरे बहुत-से लोगों के साथ हुआ । यह भौतिक प्रकृति के । पूरे बल के साथ, उभर आने के कारण आच्छादित हो गयी । इस प्रकार की आच्छन्नता साधना के इस सोपान में प्रायः हर एक व्यक्ति में आती है, पर वह स्थायी हो यह जरूरी नहीं । यदि भौतिक चेतना अपने- आपको खोलने का दृढ़ निश्चय कर ले तो साधना में प्रगति के लिये ओर किसी चीज की जरूरत नहीं ।

१० - ७ - ११३७

*

 

   यदि तुम इसे पूरी तरह से माताजी पर छोड़ दो तो वे तुमसे यही चाहेंगी कि तुमने अपने पत्रों में जो चीजों गिनायी हैं उनसे अपने को क्षुब्ध या विचलित होने दिये बिना और अपने ही विचारों या प्राणिक भावों पर आग्रह किये बिना तुम अपना काम जितना अधिक-से- अधिक अच्छी तरह कर सकते हो, करते चले जाओ । निः सन्देह यही वह नियम है जिसका अनुसरण सभी को करना चाहिये, अर्थात् यहां अपने काम को अपना नहीं, माताजी का काम मानकर करना; कार्यकर्ता को यह आग्रह नहीं करना होगा कि काम उसके विचारों के अनुसार किया जाये; क्योंकि उसका अर्थ होगा काम को माताजी का नहीं अपना काम समझना । यदि कठिनाइयां और असुविधाएं हो, काम उस ढंग से न किये जाते हों जो उसे पसंद है । तो भी उन परिस्थितियों के बीच वह अपना काम जितना अधिक-से- अधिक अच्छी तरह कर सकता है । उसे करते ही जाना चाहिये । यही है साधना का नियम, बाहरी परिस्थितियों की बिलकुल परवाह न करना और व्यक्ति को जो कुछ करना होता है तथा जो कुछ वह कर सकता है वह सब शांत भाव से करना और शेष सब कुछ माताजी पर छोड़ देना । यह मानते हुए भी कि जिसे वह ठीक समझता है वही सर्वोत्तम है, इसी क्षण हर वस्तु को निर्दोष रूप से पूर्ण बना लेना संभव नहीं । आश्रम में तथा काम में ऐसा बहुत कुछ है जो वैसा पूर्ण नहीं जैसा माताजी उसे बनाना चाहेंगी, परंतु वे यह भी जानती है कि जिस पूर्णता को वे पसंद करेंगी वह परिस्थितियों के कारण तथा उनके यंत्रों की त्रुटि के कारण अभी संभव नहीं । इस समय जो संभव है उसके अनुसार वे सब चीजों की व्यवस्था अधिक-से- अधिक भले के लिये करती हैं । कार्यकर्ताओं को अपना काम माताजी के प्रबंध एवं व्यवस्था के अनुसार इसी भावना से करना चाहिये और उसे अपने काम का उपयोग

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दृष्टि से विकसित होने के साधन के रूप में करना चाहिये तथा अपने- आपे पर, अपने विचारों, भाव- भावनाओं और पसंदगियों पर आग्रह नहीं करना चाहिये । ऐसा करने में समर्थ होना चेतना को अंतरानुभव के लिये तथा साधना में प्रगति के लिये तैयार कर देता है ।

  माताजी क्या चाहती हैं और वैसा क्यों चाहती हैं यह समझने का मैंने यत्न किया है । वे चाहती हैं कि तुम उनका काम शांत भाव से करो, सभी असुविधाओं । त्रुटियों और कठिनाइयों को शांत भाव से देखो, और अपना काम भरसक यत्न से करो; ' क्ष ' जो कुछ करता या जो व्यवस्था करता है उससे तुम्हें क्षुब्ध नहीं होना चाहिये -यदि वह भूलें करता है तो उनके लिये माताजी के प्रति उत्तरदायी है और तब क्या करना चाहिये यह देखना माताजी का काम है । बस 1 माताजी तुमसे यही चाहती हैं -यदि तुम ऐसा कर सको तो सब काम अधिक निविंम्न रूप से चलेगा और वे उसे अधिक आसानी से अपनी अभीष्ट दिशा में ले जा सकेंगी । जैसा कि मैंने तुम्हें समझने की चेष्टा की है, यह तुम्हारी अपनी साधना के लिये भी सर्वोत्तम बात है ।

५ - ७ - ११३७

*

 

   तुम्हें याद ही होगा कि मैंने तुम्हें पहले लिखा था कि माताजी चाहती हैं कि तुम शांत रहो और इन चीजों से अपने को विक्षुब्ध होने दिये बिना, वर्तमान परिस्थितियों में जितनी अच्छी तरह से काम कर सकते हो करो । आश्रम में जीवन और कर्म की अवस्थाओं में किसी भी प्रकार का सुधार इसपर निर्भर करता है कि प्रत्येक व्यक्ति प्रगति के लिये तथा भीतर सच्ची चेतना की ओर खुलने के लिये यत्न करे, भीतर आध्यात्मिक तौर पर विकास करे तथा दूसरों के दोषों या आचार-व्यवहार पर ध्यान न दे । बाहरी उपायों से किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता; इसी कारण साधकों के पारस्परिक संघर्षी और मतभेदों में बाहरी तौर पर हस्तक्षेप करना माताजी ने दीर्घकाल  से बंद कर दिया है । हरएक को अंदर से उन्नति करने दो और ऐसा होने पर ही बाहरी कठिनाइयां या तो मिट जायेंगी या फिर नगण्य रह जायेंगी ।

२१ - ४ - ११३८

*

 

यह बिलकुल असंभव है कि तुम्हें रसोईघर से हटा दिया जाये और तुम्हारे

२३५ 


स्थान पर कार्य करने के लिये तुम्हारे दूसरे सहकारियों को वहीं रहने दिया जाये । ऐसा हल तुम्हारे लिये बहुत खराब होगा; क्योंकि इसका अथ होगा कि तुम उस काम को खो बैठोगे जिसमें दीर्घकाल से माताजी की शक्ति तुम्हारे साथ रही है, ओर तुम अपने कमरे में अपने विचारों को अपने साथ लिये बैठे रहोगे जो तुम्हारे लिये सहायक नहीं होगा, न तुम्हारी क्रियाशील प्रकृति के ही अनुकूल होगा । यह रसोईघर के लिये भी बहुत बुरा होगा; तुम्हारे स्थान की पूर्ति वहां काम करनेवाले और किसी भी व्यक्ति से नहीं हो सकती, वे व्यक्ति अपनी सीमाओं में कितनी भी अच्छी तरह से काम क्यों न करें -माताजी ने तुम्हें जो उत्तरदायित्व सौंप रखा है वह उनमें से किसी के भी सुपुर्द नहीं किया जा सकता ।

   तुम्हें जो कठिनाइयां हैं वे वही हैं जो आश्रम के प्रत्येक विभाग और कार्यालय में हमारे सामने आती हैं । उनका कारण होता है साधकों की त्रुटियां । उनकी प्राणिक प्रकृति । तुम्हारा यह सोचना गलत है कि वे वहां तुम्हारी उपस्थिति के कारण पैदा होती हैं और कि यदि तुम वहां से हट जाओ तो सब काम बिना विंध्न के चलने लगेगा । उनके अपने बीच भी वही-की-वही स्थिति चलती रहेगी, वही मतभेद, कलह, ईर्ष्या-द्वेष, कठोर शब्द, एक दूसरे की कर्कश आलोचनाए । ' अ ' की या किसी और की तुम्हारे विरुद्ध शिकायतों का कारण यह है कि तुम अपनी व्यवस्था में दुढ और सावधान हो; ' ब ' तथा अन्य जो साधक माताजी द्वारा सौंपा काम को अति सूक्ष्मता एवं सावधानता के साथ और सम्यक्तया संपादित करते हैं उनके विरुद्ध भी यही या ऐसी शिकायतें हैं । उनके विरुद्ध भी वही शिकायतें और ईर्ष्या-द्वेष देखने में आते हैं जिनका लक्ष्य रसोईघर में तुम्हें बनाया जाता है और इनका कारण है उनकी पद-प्रतिष्ठा और उनके द्वारा उसका प्रयोग । ' ब ' या दूसरे लोगों के लिये । जिनपर माताजी को विश्वास है, यह कोई समाधान नहीं होगा कि वे काम से पीछे हटकर अपना स्थान उनके लिये छोह दें जो अपना कर्तव्य कम बारीकी और सावधानी से तथा कम अच्छी तरह करेंगे । तुम्हारे संबंध में तथा रसोईघर के काम के बारे में भी यही बात है; यह कोई हल नहीं । हल तो केवल साधकों के आचरण में साधना की प्रक्रिया द्वारा लाये गये परिवर्तन से ही हो सकता है । तबतक तुम्हें समझदारी के साथ धीरज रखना चाहिये तथा दूसरों के अशुद्ध व्यवहार से अपने को क्षुब्ध नहीं होने देना चाहिये, बल्कि ' ब ' और माताजी ने तुम पर भरोसा रखकर तुम्हें जो सहारा दिया हे उससे अपने को संभाले रखकर अपना काम शांत भाव से, भरसक अच्छे-से- अच्छे ढंग से करते रहना चाहिये । यह

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माताजी का काम है और इसे करने में तुम्हें सहायता देने के लिये माताजी वहां विद्यमान ही हैं; उसपर भरोसा रखो और शेष किसी भी वस्तु को अपने ऊपर प्रभाव न डालने दो ।

१४ - ७ - ११३५ 

*

 

 तुम्हारे प्रति घृणा का भाव दर्शानेवाले लोगों का तुमने जो वर्णन किया है उससे मुझे विशेष रूप से आश्चर्य हुआ है । ' अ ' को जिसका यहां कोई प्रसंग ही नहीं, यदि छोड़ दिया जाये तो तुम्हारे साथ काम करनेवाला एक भी आदमी ऐसा नहीं जो साधना में बहुत आगे बढा हुआ हो या जिसे माताजी दूसरों की अपेक्षा अधिक विशेष रूप में अपना समझती हों । निःसंदेह तुम उतने ही उनके अपने हो जितना पाकशाला में काम करनेवाला और कोई भी व्यक्ति; उन्होंने सदैव तुम्हें अपना बच्चा और नन्हा सितारा माना है और इससे अधिक कोई क्या हो सकता है? इसलिये मुझे इस बात का कोई कारण नहीं दिखता कि यदि कोई आदमी तुम्हारे साथ ठीक से व्यवहार नहीं कर रहा तो तुम्हें इसका इतना ख्याल क्यों करना चाहिये । मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि आश्रम में लोग अपनी बाह्य सत्ता में अहंकार और अयुक्त विचारों एवं अयुक्त चेष्टाओं से अभी मुक्त नहीं हुए और यह बात उन लोगों के बारे में भी सत्य है जिन्हें आंतरिक अनुभूति होती हैं और जो कुछ खुले हुए हैं । किंतु इस बात से दुःखी या उदास होने का कोई लाभ नहीं । तुम्हारे लिये आवश्यक यह है कि तुम केवल माताजी की ओर मुडे रहो और उनपर भरोसा रखते हुए अपने काम और साधना में शांतभाव से आगे बढ़ते जाओ जबतक साधक इतने काफी जागरित और परिवर्तित नहीं हो जाते कि एक-दूसरे के साथ कहीं अधिक समस्वरता और एकता की आवश्यकता अनुभव करने लगें । तुम्हारे लिये केवल तुम्हारे आध्यात्मिक परिवर्तन और प्रगति का ही महत्त्व होना चाहिये और इसके लिये माताजी की शक्ति एवं उनकी कृपा में, जो तुम्हारे संग है, पूर्णरूप से विश्वास रखो - अपने- आपको वस्तुओं या व्यक्तियों से चलायमान मत होने दो, -क्योंकि माताजी की चेतना की पूर्ण ज्योति की और अन्त: स्थित सत्य की तुलना में इन वस्तुओं का कोई महत्त्व नहीं ।

६ - १२ - ११३५

*

 

सुज्ञे नहि मालूम क्यों तुम यह कल्पना करते हो कि माताजी तुम्हारी पत्र के

२३७ 


कारण तुमसे रुष्ट हैं | में समझता हूं कि मेरा उत्तर काफी कृपापूर्ण था और उसमें अप्रसन्नता की जरा भी गंध नहीं थी । तुमने जो लिखा था उसमें से अधिकांश के बारे में मैं मौन ही रहा, क्योंकि जब इस प्रकार के पत्र आते हैं तो मैं उन्हें इस रूप में लेता हूं कि वे मन को हल्का करने के लिये लिखे गये हैं और जहांतक वे दूसरे लोगों से संबंध रखते हैं वहांतक मैं या तो सदा ही मौन रहता हूं या फिर यह कहता हूं कि साधकों के दोषों । त्रुटियों और मूलों से छुटकारा पाने के लिये हमें आंतरिक चेतना के विकास पर भरोसा रखना होगा । मौन का अर्थ यह नहीं कि उनमें ये दोष और भूलें हैं ही नहीं । बल्कि सभी में नाना रूपों में दोष विद्यमान हैं तथा सभी भूलें करते हैं और श्रेष्ठ साधक भी उनसे मुक्त नहीं । मानवीय तरीका है भूल करनेवाले पर गुस्सा होना, उसे डांटना-फटकारना तथा उसकी निंदा करना और यदि माताजी वैसा नहीं करतीं तथा उसके प्रति कठोर नहीं होती तो यह सोचना कि वे अन्याय या पक्षपात करती हैं या अपने प्यारों के दोष नहीं देखतीं या उनके प्रति जानबूझ कर आंख मूंदती हैं । परंतु माताजी उनके प्रति अंध नहीं; वे सभी साधकों का स्वभाव अच्छी तरह जानती हैं, उनके गुणों की तरह ही उनके दोष भी, वे यह भी जानती हैं कि मानव की प्रकृति केसी है और ये चीजों कैसे आती हैं और इनके साथ निपटने का मानवीय ढंग ठीक ढंग नहीं और उससे कुछ भी अंतर नहीं आता । यही कारण है कि उनमें केवल कुछ-एक साधकों के लिये नहीं बल्कि उन सभी के लिये धैर्य, प्रेम और उदारता है जो अपने काम या साधना में सच्चे हैं ।

   यह भी विचित्र बात है कि तुम यह परिणाम निकालो कि वे तुम्हारी कोई कीमत नहीं समझतीं । शुरू से ही माताजी की तुमपर विशेष कृपा रही है; उन्होंने इतनी स्थिरतापूर्वक तुम्हारी सराहना और तुम्हारा समर्थन किया है कि लोगों ने उनपर तुम्हारे प्रति अंधे पक्षपात का दोष लगाया है, ठीक वैसे ही जैसे वे ' अ ' के संबंध में उनपर दोष लगाते हैं । जब तुम सुझावों और विद्रोहों को लेकर कष्ट और कठिनाई में थे तब वे तुम्हारे लिये मूर्तिमंत प्रेम और धैय ही थीं और उन्होंने उस सबके बीच तुम्हें सहायता और सहारा दिया । उसके बाद जब से तुम्हारी साधना खुलकर चलने लगी तबसे हम उत्सुकता-पूर्वक उसकी देख-रेख करते आ रहे हैं, -मैं तुम्हारे पत्रों के उत्तर लिखने के लिये, तुम्हें जो जानना चाहिये उसका ज्ञान तुम्हें देने के लिये, प्रेम और सतकता के साथ तुम्हें अले ले चलने का यत्न करने के लिये प्रतिदिन समय लगाता रहा हूं । यह सब किया ही क्यों जाता यदि हमें तुम्हारी कोई कदर न होती?

२३८ 


तुम ये बातें जानते हो परंतु तुम्हारा स्थूल मन अतीव सक्रिय हो उठा है और उसने कुछ समय के लिये तुम्हारे बोध को आच्छादित कर दिया है । तुम्हें उससे पीछे हटकर अपनी अन्तःस्थ आत्मा में लौट आना होगा ।

३० - ८ - १९३६

*

 

मैंने लिखा था कि तुम्हारा पत्र तुमपर पुरानी चेतना के आक्रमण को दर्शाता है क्योंकि उसमें यह स्वर गंज रहा है, '' मैं इन चीजों को नहीं सहने का -मेरे लिये यहां से चले जाना ही अच्छा है इत्यादि । '' ये पुराने सुझाव हैं, न कि तुम्हारी आंतरिक सत्ता की अन्तर्वृत्ति जो यह थी - अपने- आपको दे देना और सब कुछ माताजी पर छोड़ देना, तुम्हारी अन्तःसत्ता की वृत्ति को विस्तृत होकर इन बाह्य वस्तुओं के प्रति तुम्हारी वृत्ति में भी व्याप्त हो जाना होगा - यह जानते हुए कि जो कोई भी त्रुटियां हैं उन्हें प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंदर क्रिया करके वहां. से दूर करना होगा, ठीक वैसे ही जैसे तुम्हें अपनी न्यूनताएं माताजी की सहायता से और तुम्हारे भीतर उनकी क्रिया से अपने अंदर से दूर करनी हैं ।

  यह सब तो रहा तुम्हारे पिछले पत्र के संबंध में । अब इस नये पत्र के विषय में -जो कुछ तुम देखते हो उसे कह देना तो बिलकुल ठीक है पर तुमने जो लिखा है उसमें तुमने एक निर्णय भी दिया है जो तुमने अपने देखे हुए के आधार पर किया है । ये निर्णय तुमने उन तथ्यों के वर्णन में प्रकट किये हैं जिन्हें तुम ' क्ष ' के अशुद्ध प्रेरक भाव, कार्य और भूलें समझते हो । तुमने अपने ये वक्तव्य और निर्णय माताजी के सामने रखे हैं -पर किसलिये? इसलिये न कि वे कुछ कार्रवाई कर सकें? किंतु उसके लिये तो उन्हें अपने- आप निर्णय करना होगा, और ऐसा वे बिना तथ्यों के । बिना ठीक-ठीक तथ्यों के नहीं कर सकती -किसी के द्वारा दिये गये सामान्य वक्तव्य के आधार पर वे कोई कार्रवाई नहीं कर सकती । जिस व्यक्ति पर ' क्ष ' अंधवत् विश्वास करता है उसका नाम यदि बता दिया जाये तभी वे इस बारे में निर्णय कर सकती हैं कि  ' क्ष ' उसपर विश्वास करने में गलती पर है या नहीं । यदि वह (क्ष) कुछ लोगों की बात पर तो ध्यान देता है और दूसरों की बात पर नहीं, तो माताजी को यह अवश्य पता लगना चाहिये कि ये लोग कौन हैं और वे परिस्थितियां क्या हैं जिनमें उसने ऐसा किया; केवल तभी वे निर्णय कर सकती हैं कि वह ऐसा करने में ठीक है या गलत । हर मामले में यही बात होती है । ' क्ष ' के

 २३९


विरुद्ध दूसरों ने भी अनेकों सामान्य वक्तव्य दिये हैं, पर जब कभी विवाद में विशेष ब्योरों की बात उठी है तो माताजी ने देखा है कि उन्हें उसके निर्णय को केवल कभी-कभार ब्योरों में ही बदलने की जरूरत पड़ी, उसका किया हुआ सामान्य प्रबंध तो उन सरणियों के अनुसार ही था जिन्हें श्रीमां ने उसके लिये अनुसरणार्थ निर्धारित किया था । बात कहने के ढंग, चरित्र के दोष, ब्योरों के बारे में निर्णय की भूलें -ये अलग विषय हैं । ये हर एक में होते हैं और । जैसा कि मैं बहुधा कह चुका हूं, इन्हें अंदर से बदलना होगा; पर मैं बाहरी वस्तुओं, अमुक- अमुक कार्यो । काम करने के चिन्हों विशेष तरिकों के बारे में कह रहा हूं । इन विषयों में उसके कार्य में जिस बात की शिकायत हो वह माताजी को ठीक-ठीक तथ्यों के साथ बतानी आवश्यक है । यदि तुम भोजनालय और रसोई-घर (Auroumé) के काम के बारे में सामान्य शिकायत नहीं कर रहे, बल्कि विशेष रूप में अपने संबंध में तथा अपने काम के बारे में शिकायत कर रहे हो तो वहां भी, उसने क्या किया है या उसके काम में क्या चूक हुई है, इसके सुनिश्चित तथ्य तुम्हें पहले प्रस्तुत करने होंगे, उसके बाद ही माताजी निर्णय    कर सकती या कुछ कह या कर सकती हैं । तुम्हारे काम के या तुम्हारे बारे में वह कौन-सी बात है जो उसने माताजी को सूचित नहीं की या गलत रूप में बतायी है? वे क्या सुविधाएं हैं जो उसने तुम्हें नहीं दी ।

  यह सब मैंने इसलिये लिखा है कि तुम माताजी से यह आशा करते दिखते हो कि वे कुछ करेंगी । पर उनके लिये यह जानना आवश्यक है कि वह चीज क्या है, उसका आधार क्या है और क्या वे कार्य को लाभ पहुंचाती हुई उसे कर सकती हैं या नहीं । भोजनालय और पाकशाला में अहं के झगड़े और उसकी टक्करें भरपूर रही हैं, पर उस सबको तो वे अपनी कार्रवाई के आधार के रूप में स्वीकार नहीं कर सकतीं; इन चीजों में वे किसी एक का पक्ष नहीं लेती, न किसी दूसरे का विरोध ही करती हैं । उन्हें तो इस बात का विचार करना होता है कि काम के लिये क्या उचित या आवश्यक है ।

३ - १० - ११३६

*

 

 तुम्हारे और ' क्ष ' के बीच जो घटनाएं घटी हैं उनका तुमने जैसा वर्णन किया है उसके अनुसार वे सभी तुच्छ बातें हैं और दोनों ओर से थोडी-सी सद्भावना एवं सदिच्छा उन्हें महत्त्व से वञ्चित कर देने के लिये और उनसे पैदा हो सकनेवाले किसी प्रकार के तनिक क्षोभ पर विजय पाने के लिये पर्याप्त होनी

 २४०


चाहिये । झगड़े इस कारण हुआ करते हैं और बने रहते हैं कि प्रत्येक पक्ष यह सोचता है कि दूसरा गलती पर है और उसने किया है; किन्तु प्राणिक कलह में कोई भी पक्ष ठीक नहीं हो सकता । इस प्रकार से झगड़ने की बात ही दोनों को गलत सिद्ध कर देती है । और फिर, यह ठीक नहीं कि व्यक्ति दूसरे से शासित या नियंत्रित होने के बारे में इतना संवेदनशील हो । विशेषकर काम में मनुष्य को ऐसे किसी भी व्यक्ति का नियंत्रण स्वीकार करना ही होगा जिसे माताजी कार्य- भार सौंपती हैं,-पर केवल वहीतक जहांतक उस काम का संबंध है । दूसरे विषयों में वह, संबंधों को तोडे बिना या किसी प्रकार का झगड़ा किये बिना । अपनी उचित स्वतंत्रता बनाये रख सकता है ।

   तुम्हारा काम या तुम्हारा निवासस्थान बदल देना । चाहे यह वर्तमान परिस्थितियों में संभव हो तो भी, कतई लाभदायक नहीं होगा । जिसे ठीक रखने की जरूरत है वह है अन्तर्वृत्ति, सामज्जस्य के लिये संकल्प पूर्ण रूप से स्थापित करना होगा । कार्य का परिवर्तन यथार्थ उपाय नहीं । घर में अच्छे वायुमंडल या बुरे वायुमंडल का विचार भी एक ऐसी चीज है जिसे प्रश्रय नहीं देना चाहिये । मनुष्य को अपना निजी वायुमंडल बनाना होगा जिसमें दूसरे प्रभाव प्रवेश ही न पा सकें और माताजी के साथ अन्तर्मिलन एवं घनिष्ठता के द्वारा वह ऐसा सदा ही कर सकता है ।

२ - १० - ११३५ 

 

 तुमने जो लिखा है वह निःसंदेह ठीक है । कार्यकर्ताओं के मन में ये बहुत ही गलत विचार हैं । यह मनोवृत्ति बिलकुल ठीक नहीं । परंतु हमें काम साधकों की संतुष्टि के लिये नहीं करना वरन् असल में इसलिये करना है कि वह माताजी का काम है, भगवान् का काम है, और अतएव उसे अच्छी तरह तथा ठीक ढंग से करना है । यदि कार्यकर्ता तथा दूसरे लोग संतुष्ट नहीं होते तो भी उसे अच्छी तरह और ठीक ढंग से करना है । जब उनकी प्रकृति बदलेगी और वे अपनी भूल देख पायेंगे तब वे सत्य को पहचान कर अपनी मनोवृत्ति बदल लेंगे । कुछ लोगों में सदिच्छा है और उन्हें केवल अधिक साफ-साफ देखना सीखना है और अपने मानसिक मिथ्या-निर्णयों से मुक्त होना है । दूसरे लोग अधिक तमोग्रस्त तथा अहंपूर्ण हैं और उन्हें ठीक संतुलन प्राप्त करने में अधिक समय लगेगा । जबतक वैसा नहीं हो जाता तबतक हमें शांत दृढ़ता, दृढ़ निश्चय और महान धैर्य के साथ आगे बढ़ते जाना होगा ।

२४१


आश्रम का  कार्य और माताजी का कार्य

 

अगर यह माताजी का कार्य नहीं है तो और किसका है? जो कुछ तुम करते हो उस सबको तुम्हें माताजी के काय के रूप में ही करना चाहिये । आश्रम में होनेवाले सभी कार्य माताजी के हैं ।

  वे सभी कार्य, ध्यान, '' वार्तालाप ''' का पढ़ना | अंग्रेजी सीखना इत्यादि अच्छे हैं । तुम उनमें से किसी कार्य को उसे माताजी को उत्सर्ग करके कर सकते हो ।

  ध्यान का अर्थ है अपने- आपको माताजी की ओर खोलना, अपनी अभीप्सा के ऊपर एकाग्र होना तथा क्रिया करने और अपने को रूपांतरित करने के लिये अपने अंदर माताजी की शक्ति का आह्वान करना ।

१८ - १ - ११३२

 

माताजी के द्वारा कार्य की अनुमति देने के कारण

 

हां, यह ठीक है । माताजी स्वयं भोजन के रूप में भोजन की परवाह नहीं करतीं; परंतु ' अ ' को भेंट की सामग्री के रूप में उसे तैयार करने देती हैं । काम के बारे में भी यही बात है -यद्यपि कर्म का अपना निजी महत्व है । ' य ' और ' ज ' को कोई शारीरिक या व्यावहारिक बाहरी कार्य नहीं दिया गया है क्योंकि उस दिशा में उनकी शक्ति नहीं प्रवाहित हो सकती और न वे उसे कर सकेंगे -इस कारण नहीं कि सबके लिये स्थूल और व्यावहारिक काय की शिक्षा देना अच्छा नहीं है । आदर्श परिस्थितियों में सत्ता की बहुमुखी प्रवृत्ति ही सबसे उत्तम अवस्था होगी -परंतु अभी भी यह सर्वदा व्यवहार्य नहीं है ।

२ ६- १ - ११३३

 

  'कर्तव्य कर्म ' और माताजी द्वारा स्वीकृत कार्य

 

  क्या यह कहा जा सकता है कि माताजी द्वारा स्वीकृत सभी कार्य '' कर्तव्य कम '' हैं?

 

  

Conversation with the mother, जिसका हिन्दी अनुवाद ' मातृवाणी ', प्रथम भाग है| -अनुवादक

२४२ 


यदि साधक का प्रबल आग्रह हो या प्रबल इच्छा हो तो माताजी ' हां ' या ' जैसा चाहो करो ' कह सकती हैं अथवा जिस चीज की प्रार्थना या मांग की जाये उसे अपनी मंजूरी दे सकती हैं । परंतु इससे वह चीज '' कर्तव्य कर्म '' नहीं बन जाती, बल्कि महज एक ऐसी चीज होती है जिसे साधक कर सकता है । फिर अगर कोई कार्य स्वार्थशून्य हो या आपत्तिजनक न हो और कोई व्यक्ति माताजी से पूछे कि वह उसे कर सकता है या नहीं, और वे अनुमति दे दें तो भी वह उसे '' कर्तव्य कर्म '' के पद पर नहीं उठा ले जाता ।

३१ - ७ - ११३७

*

 

  अबतक मेरा विश्वास यही था कि माताजी द्वारा स्वीकृत सभी कार्य माताजी के कार्य हैं और उनके लिये किया हुआ कार्य हमारा '' कर्तव्य कर्म '' ने क्रय? ऐसा नहीं ने? यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार देश और समाज के प्रति अपने सभी कर्तव्यों को छोड़ दे और सच्चाई के साथ केवल भगवान् के लिये माताजी की पूजा के रूप में कार्य करे तो क्या वह माताजी के लिये कार्य नहीं कर रहा हे और क्या वह उसका '' कर्तव्य कर्म '' नहीं हे? बाहर इस बात का निर्णय करना कठिन हो सकता हे? पर यहां माताजी की जीवंत उपस्थिति में क्या यह एक सुनिश्चित तथ्य नहीं है? यदि नहीं तो फिर '' कर्तव्य कर्म '' का वास्तव में क्या तात्पर्य हे?

मुझसे पूछा गया था कि हमारे द्वारा किया हुआ ऐसा प्रत्येक कार्य । जिसके लिये माताजी की आज्ञा हो, ' कर्तव्य कर्म ' है या नहीं । लोग विभिन्न कारणों से प्रेरित होकर अनगिनत चीजों के लिये आज्ञा मांगते हैं -इसका मतलब यह नहीं है कि माताजी इन सभी चीजों के लिये स्वयं अपनी इच्छा के अनुसार आज्ञा देती हैं । जो कार्य माताजी का दिया हुआ है वह उनका काय है -यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि जो कोई कार्य सच्चाई के साथ माताजी की भेंट के रूप में किया गया है वह भी उनका काय है । परंतु ' कम ' के अंदर सभी प्रकार की क्रियाएं आ जाती हैं, केवल कार्य ही नहीं ।

३१ - ७ - ११३७

२४३ 


माताजी प्रचार को बहुत मूल्य नहीं देती, पर फिर भी उस तरह का कार्य उनका कार्य हो सकता है । केवल उसे आना चाहिये उनकी प्रेरणा से, किया जाना चाहिये शांति के साथ, नाप-तौल करके, जिस तरह वे चाहती हैं उस तरह । यह कार्य माताजी के संकल्प के साथ युक्त होकर आंतर सत्ता के द्वारा किया जाना चाहिये, प्राणगत मन के उत्सुक आवेग के द्वारा नहीं । साधक को पहली आवश्यकता है अपनी निजी आध्यात्मिक उन्नति और अनुभूति के लिये सबसे अधिक एकाग्र होना -दूसरों को सहायता करने के लिये उत्सुक होने से मनुष्य आंतरिक कार्य से अलग हट जाता है । स्वयं आत्मा में वर्द्धित होना ही सबसे बड़ी सहायता है जो मनुष्य दूसरों को दे सकता है, क्योंकि उस अवस्था में कोई चीज अपने- आप ही आसपास के लोगों की ओर प्रवाहित होती है और उनकी सहायता करती है ।

१ - ४ - ११३७

 

माताजी की स्वीकृति और सफलता की संभावनाएं

 

स्वीकृति या आज्ञा! लोगों के दिमाग में यह घुस जाता है कि उन्हें गाना-बजाना चाहिये क्योंकि यह एक फैशन है अथवा उन्हें यह बहुत अधिक पसंद है । और शायद माताजी भी इसकी अनुमति दे दें और वे कहें '' बहुत अच्छा, कोशिश करो । '' इसका यह मतलब नहीं है कि संगीतज्ञ - अथवा प्रसंग के अनुसार कवि या चित्रकार -होना उनके भाग्य में लिखा है अथवा उनकी नियति है । संभवत: जो लोग प्रयत्न करते हैं उनमें एक खिल उठे और दूसरे झड़ जायें ।  ' अ ' चित्रकारी आरंभ करता है और आरंभ में केवल काल्पनिक उत्साह दिखाता है, कुछ समय बाद वह अद्भुत कार्य कर दिखाता है । ' य ' चतुरतापूर्ण सुगम चीजों करता है; एक दिन वह गहराई में उतरने लगता है और एक घड़े जाते हुए भावी चित्रकार की रूपरेखा दिखाई देने लगती है; दूसरे -खैर, वे प्रगति नहीं करते । परंतु वे कोशिश कर सकते हैं -कम-से-कम वे चित्रकला के विषय में कुछ बातें तो सीख ही जायेंगे ।

मई । ११३५

२४४


 कार्य में भूलों के प्रति माताजी का मनोभाव

 

  कल माताजी ने जो कुछ कहा उससे प्रतीत होता हे कि काम में होनेवाली ई अपनी भूलों को हमें कोई महत्व नहीं देना चाहिये और दूसरों की भूलों की ओर न तो ध्यान देना चाहिये न उन्हें सुधारना चाहिये फिर वधकि भौतिक जगत् कई जगतों में से केवल एक जगत् है? ' अभिव्यक्ति का केवल एक छोटा- सा भाग है? इसलिये क्या हमें भौतिक चीजों भौतिक कार्य तक्ष उसके ब्योरों को स्तुत ही कम महत्व नहीं देन चाहिये ?

 

 माताजी का यह कहना था कि कार्य में होनेवाली भूलों को वे पूरी तरह जानती हैं, परंतु उन सब चीजों की ओर, बाहरी बुद्धि से नहीं बल्कि एक आंतरिक दृष्टि से देखते हुए उनके अंदर एक विशिष्ट ' शक्ति ' को उन्हें कार्यान्वित करना है और इसलिये वे प्रायः ही अपूर्णताओं और भूलों की उपेक्षा करना आवश्यक समझती हैँ । पर इसका यह अर्थ हर्गिज नहीं है कि साधक-कार्यकता जहां जिम्मेदार हो वहां वह इस बात की परवाह ही न करे कि उसके कार्य में भूलें हैं या नहीं । अगर दूसरे साधक भूलें करें तो उसके लिये वे जिम्मेदार हैं, हम उन्हें देख सकते और स्वयं वैसी भूलों से बच सकते हैं, मगर एक साधक दूसरे की भूलों को तबतक नहीं सुधार सकता जबतक वह उसकी जिम्मेदारी न हो -प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने- आपको, अपने दोषों और भूलों को सुधारना चाहिये ।

 

हम यहां इस भौतिक जगत् में हैं, दूसरे जगतों में नही है, सिफ उनके साथ हमारा एक आतरिक संबंध है । हमारा जीवन और कार्य भी यहीं हैं, इसलिये भौतिक जगत् और चीजों की उपेक्षी करने से काम नहीं चल सकता, यद्यपि हमें आसक्ति और वासना के द्वारा उनसे चिपकना और बंधना नहीं चाहिये । हमें दूसरे जगतों (लोकों) की प्रकृति और शक्तियों का, जहांतक इस जगत् के साथ वे लोक संबंधित हैं, ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और हम यहां के कार्य में सहायता करने और उसे ऊंचा उठाने में उनका उपयोग भी कर सकते हैं । फिर भी कार्य का क्षेत्र यही है, कहीं और नहीं ।

 

२१ - ८ - ११३६

२४५


बाहरी संगठन और भीतरी सामंजस्य

 

भूलें उन लोगों के कारण आती हैं जो कार्य के अंदर अपने अहंकार, अपने व्यक्तिगत भाव (पसंदगी और नापसंदगी), अपनी प्रतिष्ठा अथवा अपनी सुविधा के बोध, गर्व, अधिकार करने की भावना आदि को ले आते हैं । ठीक पथ है यह अनुभव करना कि कर्म श्रीमां का है -केवल तुम्हारा नहीं । बल्कि दूसरों का काम भी - और उसे ऐसे भाव के साथ संपन्न करना कि वहां एक साधारण सामंजस्य बना रहे । सामंजस्य केवल बाहरी संगठन के द्वारा ही नहीं लाया जा सकता; यद्यपि क्रमश: पूर्ण करनेवाले एक बाहरी संगठन की भी आवश्यकता है; भीतरी सामंजस्य तो होना ही चाहिये अन्यथा संघर्ष और अव्यवस्था बराबर ही बनी रहेंगी ।

 

*

 

 आपने लिखा है '' सामंजस्य केवल बाहरी संगठन के द्वारा ही नहीं लाया जा सकता... भीतरी सामंजस्य तो होना ही चाहिये अन्यथा संघर्ष और अव्यवस्था बराबर ही बनी रहेगी | '' वह भीतरी सामंजस्य क्या हे?

 

माताजी के अंदर एकत्व ।

 

२१ - ४ - १९३३ 

 

*

 

 माताजी की विजय मूलत: प्रत्येक साधक की अपने ऊपर विजय है । केवल उस दशा में ही कार्य का कोई बाहरी रूप सामंजस्यपूर्ण परिपूर्णता तक पहुंच सकता है ।

 

१२ -१ १ - १९३७

 

*

 

 इन चीजों का उपाय है माताजी का अधिकाधिक चिंतन करना और, माताजी से पृथक् रूप में, दूसरों के तुम्हारे साथ संबंधों के बारे में कम-से-कम सोचनेा । जिस प्रकार ' क्ष ' कर रहा है उसी प्रकार तुम्हें भी दूसरों से माताजी के भीतर, माताजी के साथ अपनी एकता की चेतना के भीतर ही मिलने का यत्न करना चाहिये, न कि किसी पृथक् व्यक्तिगत संबद में । ऐसा करने पर कठिनाइयों लुप्त हो जाती हैं ओर सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है -क्योंकि तब

२४६


दूसरों से मिलने का यत्न करके उन्हें प्रसन्न करने की आवश्यकता नहीं रहती  -बल्कि दोनों या सभी माताजी के लिये अपने प्रेम में और उनके लिये अपने काम में मिलते हैं ।

 

सबसे अधिक आवश्यक चीज

 

इस साधना के लिये सबसे अधिक आवश्यक चीज है शांति, स्थिरता, विशेषकर प्राण के अंदर -एक ऐसी शांति जो परिस्थितियों या पारिपार्श्विक अवस्थाओं के ऊपर निर्भर नहीं करती बल्कि एक उच्चतर चेतना के साथ, -जो कि भगवान् की, श्रीमां की चेतना है - आंतर संस्पर्श बनाये रखने पर निर्भर करती है । जिन लोगों में वह नहीं है अथवा जो उसे पाने की अभीप्सा नहीं करते, वे यहां आ सकते हैं और आश्रम में दस या बीस वर्षो तक रह सकते हैं और फिर भी वे सदा की भांति बेचैनी और संघर्षो से भरे रह सकते हैं -जो लोग अपने मन और प्राण को श्रीमां की शक्ति और शांति की ओर खोलते हैं वे अत्यंत कठिन और दुःखदायी कार्य तथा अत्यंत बुरी परिस्थितियों में भी उसे प्राप्त करते हैं ।

 

ओतोबेर, १९३३

 

साधारण संग-साथ और नयी चेतना के अंदर एकता

 

 आश्रम के सदस्यों के बीच साधारण  कोटि  का मानवीय संग-साथ हो, इस बात पर माताजी ने जोर नहीं डाला है (यद्यपि सद्भाव, परस्पर सम्मान और शिष्टता बराबर ही रहनी चाहिये ), क्योंकि वह हमारा उद्देश्य नहीं है; हमारा उद्देश्य है एक नयी चेतना में एकत्व प्राप्त करना, और उसके लिये सबसे पहली चीज यह है कि प्रत्येक व्यक्ति उस नयी चेतना में पहुंचने तथा उसमें एकता अनुभव करने के लिये साधना करे |

 

३१ - १० - १९३५

 

योग मे प्राणिक संबंधो के लिये कोई स्थान नहीं

 

इस योग का सारा मूलतत्त्व है अपने- आपको संपूर्ण रूप से केवल भगवान् को ही दे देना, किसी और व्यक्ति एवं . को नहीं, और भगवती ' के

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साथ एकत्व के द्वारा अपने अंदर विज्ञानमय भगवान् की समस्त विश्वतीत ज्योति, शक्ति, विशालता, शांति, पवित्रता, सत्य-चेतना और आनंद को उतार लाना । अतएव इस योग में दूसरों के साथ प्राणिक संबंधों या आदान-प्रदानों के लिये कोई स्थान नहीं हो सकता; ऐसा कोई भी संबंध या आदान-प्रदान अंतरात्मा को तुरंत ही निम्नतर चेतना और उसकी निम्नतर प्रकृति के साथ बांध देता है; भगवान् के साथ सच्चे और पूर्ण एकत्व में बाधा पहुंचाता है और अतिमानसिक सत्य-चेतना की ओर आरोहण तथा अतिमानसिक इश्वरी शक्ति का अवरोहण इन दोनों में रुकावट डालता है ।

 

माताजी इसके लिये दबाव डाल रही हैं कि कामवासना की कठिनाई साधकों में से दूर हो जाये -क्योंकि वह बडी भारी बाधा है । इसलिये उसे हटना ही होगा ।

 

 २१ - १० - ११३४

 

अंदर रहना सीखना

 

अपने अंदर माताजी के साथ रहना, उनकी चेतना के साथ संपर्क में रहना और दूसरों से केवल अपनी बाहरी स्थूल सत्ता के द्वारा ही मिलना तुम्हें सीखना होगा ।

 

*

 

यदि ऐसा है तो बहुत संभवत: उसका कारण यह है कि तुम अपनी अंतः सत्ता से बाहर रह रहे हो, अपने को बाहरी संपर्को से विचलित होने दे रहे हो । मनुष्य स्थायी ढंग का सुख तबतक नहीं प्राप्त कर सकता जब तक वह भीतर न रहने लगे । अपने- आपका, अपनी धारणाओं, पसंदगियों, वेदना और रुचियों- अरुचिरों का कुछ भी विचार किये बिना कर्म और क्रिया-चेष्टा को माताजी के अर्पण करना होगा, केवल उन्हीं लिये करना होगा । यदि व्यक्ति की आंखें इन पूर्वोक्त चीजों पर गडी हों तो पग-पग पर वह मन या प्राण में कुछ रगड़ अनुभव करेगा अथवा यदि वे अपेक्षाकृत शांत हों तो शरीर एवं स्नायु में । शांति और आनंद तो केवल तभी स्थायी हो सकते हैं यदि वह भीतर माताजी के साथ रहे ।

 

२ - १ - १९३७

२४८


यह बिलकुल ठीक है । किंतु मैंने जो लिखा था वह केवल तुम्हारे लिये ही एक नियम के रूप में नहीं नियत किया गाया था । वह एक ऐसा नियम है जिसका पालन हर एक को करना चाहिये, ' क्ष ' तथा अन्य प्रत्येक व्यक्ति को भी । क्योंकि जब कम और क्रिया-चेष्टा इस प्रकार से, अपने व्यक्तिगत विचारों और व्यक्तिगत हृद्भावों पर आग्रह किये बिना, अपने- आपका विचार किये बिना केवल भगवान् के लिये किये जाते हैं तभी कर्म पूर्ण रूप से साधना बन पाता है और आंतर तथा बाह्य प्रकृति सामंजस्य प्राप्त कर सकती हैं । इससे आंतर सत्ता के लिये यह अधिक संभव हो जाता है कि वह बाहरी कार्य को अपने हाथ में लेकर आलोकित करे और अपने पीछे स्थित माताजी की शक्ति से सचेतन हो जाये जो उसे उसके कायों में मार्ग दिखा रही हैं ।

 

३ - १ - ११३७

 

*

 

समय-विभाग निश्चित करना संभव या वांछनीय नहीं -तुम्हें अपनी दिनचर्या अपने- आप इस ढंग से व्यवस्थित करनी होगी कि दिन का अच्छे-से- अच्छा उपयोग हो और फिर माताजी को सूचना दे देनी होगी कि तुम इसे कैसे करते हो । सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है आंतरिक तौर पर माताजी की ओर और केवल उन्हीं की ओर मुडे रहना, बहुत सारे बाहरी संपर्को से बचना इस कार्य में सहायता के लिये ही आवश्यक है -किंतु लोगों के साथ संपर्कमात्र से बचना न तो आवश्यक है न वांछनीय । आवश्यक है इन संपर्क को ठीक मनोवृत्ति और ठीक चेतना के साथ ग्रहण करना, अपने- आपको बाहर नहीं फेंकना -उन्हें ऊपरी सतह की चीजें समझना, उनमें किसी प्रकार से भी आसक्त या अतिग्रस्त न होना ।

 

हां, निः सन्देह, वह एक आंतरिक एकाग्रतापूर्ण अवस्था थी जिसमें तुम माताजी के साथ संपर्क में आ सके । फूल सदा ही चेतना के किसी भाग में उद्घाटन (सामान्यतया चैत्य उद्घाटन) को सूचित करते हैं ।

 

२८ - २० - ११३३

 

पूर्ण एकान्तवास के लिये माताजी की अस्वीकृति

 

माताजी पूर्ण एकान्तवास की भावना को एकदम मंजूर नहीं करती । इससे संयम नहीं प्राप्त होता; केवल संयम का भ्रम होता है क्योंकि. समय के

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लिये ही असुविधा उत्पन्न करनेवाले कारण दूर होते हैं । बाहरी वस्तुओं के संस्पर्श में रहते हुए जो संयम स्थापित किया जाता है केवल वही सच्चा होता है । तुम्हें एक सुदृढ़ संकल्प और अभ्यास के द्वारा अंदर से उसी संयम को स्थापित करना चाहिये । अत्यधिक मिलने-जुलने और अत्यधिक बातचीत से बचना चाहिये, पर पूर्ण एकान्तवास आवश्यक चीज नहीं है । इससे अबतक किसी भी आदमी को अपेक्षित फल नहीं प्राप्त हुआ है ।

 

 २७ - ११ - ११३६

 

 साधकों के साथ व्यवहार करने के माताजी के तरिकों में भेद

 

तुमने अपने गाने की बात लिखी है । तुम अच्छी तरह जानते हो कि हम लोग उसे मंजूर करते हैं, और मैंने बराबर जोर दिया है कि तुम्हारे लिये उसकी और साथ ही तुम्हारी कविता की भी आवश्यकता है । परंतु माताजी ने ' अ ' को गाने की एकदम मनाही कर दी है । अतएव तुम देखते हो कि संगीत के विषय में कुछ लोगों के लिये तो वे उदासीन हैं या उन्हें निरुत्साहित भी करती हैं, दूसरों के लिये, जैसे ' ब', ' स ' तथा अन्य लोगों को उसकी अनुमति देती हैं । कुछ दिनों तक उन्होंने सामूहिक वाद्यों (Concerts) को प्रोत्साहित किया, फिर पीछे उन्होंने उन्हें बंद कर दिया । तुमने ' स ' के लिये की गयी मनाही और सामूहिक वाद्यों को बंद कर देने से यह सिद्धांत निकाला है कि माताजी को संगीत पसंद नहीं है अथवा भारतीय संगीत पसंद नहीं है अथवा उनके विचार में संगीत साधना के लिये बुरा है, तथा उसी ढंग की अन्योन्य नाना प्रकार की अद्भुत मानसिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं । माताजी ने ' अ ' को इस कारण मना किया कि जहां संगीत तुम्हारे लिये अच्छा था वहां वह ' अ ' के लिये आध्यात्मिक विष था -ज्यों ही उसने संगीत तथा श्रोताओं का विचार करना शुरू किया त्यों ही उसकी प्रकृति का सब प्रकार का भद्दापन और अनाध्यात्मिकता (अध्यात्मविरोधी भावना) ऊपर उठ आयी । तुम देख सकते हो कि वह अब उसके द्वारा क्या कर रहा है । फिर वही बात, यद्यपि थोड़े परिवर्तन के साथ, सामूहिक वाद्यों की है । उन्होंने उन्हें इस कारण बंद कर दिया कि उन्होंने देखा कि विरोधी शक्तियां वातावरण में आ रही हैं, जिनका स्वयं संगीत से कोई संबंध नहीं है, इसमें उनका उद्देश्य मानसिक नहीं था । ऐसे ही कारणों से वे ' द ' की तरह के बड़े सार्वजनिक प्रदर्शनों से अलग हो गयीं । दूसरी ओर उन्होंने टाउन हॉल में चित्रों की प्रदर्शनी का समर्थन किया और स्वयं उसकी योजना

२५०


बनायी । अतएव तुम देखोगे कि यहां कोई मानसिक नियम नहीं है, बल्कि प्रत्येक प्रसंग में पथप्रदर्शन आध्यात्मिक कारणों से निर्धारित होता है जो कठोर नहीं है । इसमें दूसरा कोई विचार नहीं, कोई नियम नहीं; संगीत, चित्रकला, कविता और दूसरी बहुत-सी प्रवृत्तियां, जो मन और प्राण की हैं, आध्यात्मिक विकास या कार्य के अंग के रूप में और आध्यात्मिक उद्देश्य के लिये व्यवहृत हो सकती हैं : '' यह उस मनोभाव पर निर्भर करता है जिसके साथ ये चीज़ें की जाती हैं ।

 

 '' यह बात स्थापित हो जाने पर । ये चीजों व्यक्ति के मनोभाव, उसकी प्रकृति, उसकी प्रकृति की आवश्यकताओं, अवस्थाओं और परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं ।

 

*

 

माताजी हमारे अंदर दिव्य सत्य के अनुसार और प्रत्येक स्वभाव की और प्रकृति के प्रत्येक स्तर की आवश्यकता के अनुसार साधना करती हैं । यह कोई सुनिश्चित पद्धति नहीं है ।

 

१३ - १ - ११३३

 

*

 

  बस, अपनी निजी उन्नति की ही बात सोचो और उस विषय में माताजी तुम्हें जो पथ दिखाती हैं उसीका अनुसरण करो । दूसरों को भी बस वैसा ही करने दो; श्रीमां उनकी आवश्यकता और उनकी प्रकृति के अनुसार उन्हें पथ दिखाने और सहायता करने के लिये मौजूद हैं । माताजी दूसरों के साथ जो तरीका अपनाती हैं वह यदि तुम्हारे साथ अपनाये हुए तरीके से भिन्न या उलटा प्रतीत हो तो इससे कुछ भी नहीं आता-जाता । उसके लिये वही ठीक तरीका है जैसे कि यह तुम्हारे लिये ठीक है ।

२५ - १० - ११३२

 

*

 

  माताजी बहुत अधिक तेज और चुभते हुए शब्दों में उन्हीं लोगों को कुछ कहती या लिखती हैं जिन्हें वे तेजी से योगमार्ग में आगे बढ़ाना चाहती हैं, क्योंकि वे इसके योग्य होते हैं, और वे दबाव और स्पष्टता के कारण न तो नाराज होते हैं न दु:खी बल्कि प्रसन्न होते हैं, क्योंकि वे अनुभव से यह जानते हैं कि इससे

२५१


उन्हें अपनी बाधाओं को देखने और उनमें परिवर्तन ले आने में सहायता मिलती है । यदि तुम तेजी से उन्नति करना चाहो तो तुम्हें अभिमान, दुःख, आहत भाव, आत्मख्यापन के लिये तर्क की खोज, मुक्त करने के लिये दिये गये स्पर्श के विरुद्ध चिल्लाहट आदि की इस प्राणगत प्रतिक्रिया से छुटकारा पाना होगा - कारण, जबतक ये सब चीजों तुम्हारे अंदर हैं तबतक प्राण-प्रकृति द्वारा पैदा की हुई बाधाओं के ऊपर स्पष्ट और दृढ़ रूप में कार्य करना हमारे लिये कठिन है ।

 

      तुम्हारे और ' अ ' के बीच के भेद के विषय में : माताजी ने जो तुम्हें चेतावनी दी थी कि अत्यधिक बातचीत करना, अनापशनाप बातें और गप्पें हांकना, सामाजिक बातों में अपने- आपको बिखेर देना अच्छा नहीं, वह चेतावनी पूरा मायने रखती थी और अब भी ठीक है; जब तुम इन सब चीजों में संलग्न होते हो तब तुम अपने- आपको एक बहुत तुच्छ और अज्ञानपूर्ण चेतना में फेंक देते हो जिसमें तुम्हारे प्राणगत दोष खुले रूप में कार्य करते हैं और इस कारण अपनी आंतर चेतना में तुमने जो कुछ विकसित किया है उसमें से तुम्हारे बाहर निकल आने' की संभावना हो जाती है । इसी कारण हमने कहा था कि  ' अ ' के घर जाने पर तुमने यदि इन चीजों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया अनुभव की थी तो वह तुम्हारे अंदर -तुम्हारी प्राणिक और स्नायविक सत्ता में चैत्य वेदनशीलता के आने का चिह्न थी, और हमारा मतलब था कि वह सब अच्छे के लिये था । परंतु दूसरों के साथ व्यवहार करते समय । इन चीजों से अलग होने के समय तुम्हें किसी श्रेष्ठता की भावना को अपने अंदर नहीं घूसने देना चाहिये, न अपने व्यवहार या भाव के द्वारा उनके ऊपर अस्वीकृति या दोषारोपण का भाव लादना चाहिये और न बदलने के लिये उनपर दबाव ही डालना चाहिये । इन चीजों से जो तुम पीछे हटते हो यह तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत आंतरिक आवश्यकता के लिये है, बस इतना ही । जहांतक उनका प्रश्न है, इन विषयों में वे जो कुछ, सही या गलत, करते हैं वह या तो उनका अपना मामला है, या हमारा । हम उस समय उनके लिये जो आवश्यक और संभव समझते हैं उसी के अनुसार उनके साथ व्यवहार करेंगे, और इस उद्देश्य के लिये हम केवल विभिन्न लोगों के साथ विभिन्न रूपों में ही व्यवहार नहीं करते, न सिर्फ यह कि एक को .वह काम करने देते हैं जिसे दूसरों के लिये मना किया करते हैं, बल्कि उसीके साथ विभिन्न समयों पर विभिन्न रूपों में भी व्यवहार कर सकते हैं, आज वह चीज करने देंगे या उसके लिये उत्साहित भी करेंगे जिसके लिये कल मनाही कर देंगे... । मानव प्राणी और प्रकृति के

२५२


साथ ऐसे मानसिक नियमों के द्वारा व्यवहार नहीं किया जा सकता जो प्रत्येक व्यक्ति के लिये एक समान लाग हों । अगर ऐसा होता तो फिर गुरु की आवश्यकता ही न होती, प्रत्येक आदमी सैंडो (Sandow) के व्यायाम के नियमों की तरह अपने सामने यौगिक नियमों का अपना चाट (chart) रख लेता और जबतक पूर्ण सिद्ध नहीं हो जाता तबतक उनका अनुसरण करता रहता!

 

२५-१०-१९३२ 

 

*

      माताजी उन लोगों से मुंह मोड़ती नहीं दिखाई देती जो सच्चे नहीं हैं। बहुधा ही के उन्हें उनकी इच्छानुसार कार्य करने देती हैं|

 

 यह माताजी का कार्य है । केवल वही कह सकती हैं कि लोगों के साथ व्यवहार करने का कौन-सा तरीका ठीक है । यदि उन्हें मनुष्यों के दोषों के अनुसार उनके साथ व्यवहार करना पड़ते आश्रम में मुश्किल से आधा दर्जन लोग रह जायेंगे ।

 

२६-३-१९३३

 

*

 

  माताजी जो कुछ करती हैं वह साधक की भलाई और साधना की उन्नति के लिये होता है ।

 

१-१२-१९३५

 

*

 

       प्राणिक सत्ता को हम यह कैसे समझा सकते हैं कि माताजी कभी पक्ष- पात नहीं करती?

 

एक उपाय है माताजी में पूर्ण श्रद्धा रखना-दूसरा है यह विश्वास रखना कि वे तुमसे अधिक ज्ञानी हैं और जो कुछ भी वे करती हैं उसके लिये उनके पास ऐसे कारण अवश्य होंगे जो तुम्हारे मन के निर्णयों से अच्छे हों ।

 

२२-३-१९३४

 

*

२५३


         मेरा विश्वास हे कि माताजी जो कुछ भी करती हैं उसका कुछ कारण होता हे: और जो बे  करती हैं वह हर एक की आवश्यकता के अनुसार होता हे, कितू  प्राण इसपर विश्वास नहीं करता और मन में भी यह बात अभी अच्छी तरह से नहीं नम पायी! मन में यह कैसे दृढ़तापूर्वक जम सकती हे जिससे वह किसी भी प्रलोभन के आगे झुके नहीं !

 

        यह उसमें जमनी चाहिये -बस इतना ही । जबतक प्राण और मन अपने को माताजी से अधिक बुद्धिमान् तथा उनके विषय में निर्णय करने के योग्य समझते हैं तबतक तुम इन मूर्खताओं के लुप्त होने की कैसे आशा कर सकते हो?

 

 २२ - ३ - ११३४

 

*

 

    क्या भौतिक मन माताजी के व्यवहारों को ठीक-ठीक समझ सकता है?

 

तबतक नहीं समझ सकता जबतक वह सच्ची चेतना और ऊपर से आनेवाले ज्ञान से आलोकित न हो जाये ।

४ - ७ - १९३६

 

माताजी द्वारा महाकाली की पद्धति का प्रयोग

 

ये सभी चीजें निर्भर करती हैं व्यक्ति, अवस्था और परिस्थितियों के ऊपर । तुमने जिस पद्धति की बात लिखी है उसका अर्थात् महाकाली की पद्धति का उपयोग माताजी करती है -

 

       १. उन लोगों के लिये जिनके उन्नति करने की महान् उत्सुकता होती है और जिनके प्राणतक में, कही-न-कही मूलगत सच्चाई होती है;

 

        २. उन लोगों के लिये जिनके साथ वे घनिष्ठतापूर्वक मिलती हैं और जो, वे जानती हैं कि, उनकी कठोरता से असंतुष्ट नहीं होंगे या उसका गलत अर्थ नहीं समझेंगे अथवा यह नहीं मान बैठेंगे कि माताजी ने उनकी ओर से अपनी दयालुता या कृपा हटा ली है, बल्कि उसे सच्ची कृपा और अपनी साधना के लिये एक सहायता के रूप में स्वीकार करेंगे ।

 

         फिर दूसरे लोग हैं जो इस पद्धति को बर्दाश्त नहीं कर सकते - अगर उसे जारी रखा जाये तो वे गलतफहमी के अंदर हजारों मील दूर जा गिरेंगे, विद्रोह

२५४


करेंगे  और निराश हो जायोंगे! माताजी लोंगी के लिये बस यही चाहती है कि उन्हें अपने अन्तरात्मा के लिये पूरा-पूरा सुयोग प्राप्त हो । फिर पद्धति चाहे छोटी और तेज हो या लम्बी और टेढी-मेढी । प्रत्येक मनुष्य के साथ उन्हें उसके स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करना पड़ता है ।

 

१ - ५ - ११३३

 

*

 

 यदि तुम माताजी की डांट-डपट से डरते हो तो तुम उन्नति कैसे करोगे? जो लोग शीघ्र उन्नति करना चाहते हैं वे महाकाली की मार तक का स्वागत करते हैं, क्योंकि वह उन्हें अधिक तेजी के साथ योगमार्ग पर धकेल ले जाती है ।

 

*

 

        क्या माताजी के साथ ऐसा संबंध रखना संभव है जिसमें के मेरी भाव- भावनाओं का किसी भी प्रकार का विचार किये बिना मेरी गलती और यह बताने में अपने को स्वतंत्र अनुभव करें कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं?ऊ

 

निश्चय ही, जब भागवत चेतना पूर्णतया उपलब्ध हो जायेगी तब माताजी की और साधक की इच्छा में कोई भेद नहीं रहेगा ।

 

       एक ऐसे संबंध के स्थापित होने के लिये जिसमें माताजी वैसा कर सकें जैसा तुमने कहा है, साधक को उनके महाकाली-रूप से भयभीत नहीं होना होगा और केवल मधुरता की ही मांग नहीं करनी होगी । उसे महाकाली के प्रहारों को आशीर्वाद के रूप में ग्रहण करने में समर्थ होना होगा । उसे उनकी दिव्य दृष्टि, उनके निर्णय और वाणी में भी विश्वास करना होगा अन्यथा जब वे उसके अहं को अप्रिय लगनेवाली कोइ बात कहेगी या करेंगी तो उसका अहं रूठ जायेगा, अपना समर्थन करेगा और उन्हें गाली देगा इत्यादि, जैसी कि आश्रम में बहुतों की आदत है, जब माताजी उनकी पसंद के अनुसार नहीं करती तो वे ऐसा ही करते हैं । ऐसे लोग यहां बहुत ही कम हैं जो इस वृत्ति को, अपूर्ण रूप में ही सही, अपना सकें, परंतु उन्हींके साथ ही माताजी का ऐसा संबंध होता है । दूसरों के साथ, जिनकी प्रकृति इससे भिन्न हे वे भिन्न रूप में व्यवहार करने के सिवा और कर ही क्या सकती हैं -क्योंकि उन्हें हर एक के साथ उसक.इँ के  ही व्यवहार करना होता है ।

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 श्रीमां की कार्यविधि

 

तुमने यह मांग पेश की है कि माताजी को प्रत्येक चीज के विषय में योजना बनाकर तुम्हारे लिये एक कायक्रम निश्चित कर देना चाहिये जिसका तुम अवश्यमेव पालन करो; पर उस मांग को पूरा करने में कठिनाई यह है कि अधिकतर विषयों में श्रीमां का कार्य करने का तरीका इसके एकदम विरुद्ध है । अत्यंत भौतिक विषयों में तुम्हें एक कायक्रम बनाना होता है जिसमें समय का ठीक-ठीक उपयोग किया जा सके, नहीं तो सब कुछ गोलमाल और अनिश्चयता का एक सागर बन जाता है । भौतिक वस्तुओं की व्यवस्था के लिये भी बंधे- बंधाये नियम बनाने पड़ते हैं जबतक कि लोग इतनी काफी मात्रा में विकसित न हो जायें कि बिना नियम के ही वे ठीक-ठीक ढंग से उनके साथ व्यवहार कर सकें । परंतु जिन सब चीजों के विषय में तुमने लिखा है वे एकदम भिन्न हैं; उनका संबंध तुम्हारे अपने आतर विकास से । तुम्हारी निजी साधना से है । सच पूछा जाये तो बाहरी चीजों के विषय में भी श्रीमाताजी अपने मन के द्वारा कोई योजना नहीं बनातीं और जो कुछ करना हे उसका कोइ मानसिक नक्शा और नियम नहीं बनातीं; वे बस यह देखती हैं कि प्रत्येक मनुष्य के लिये क्या करना उचित है और फिर प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव के अनुसार उसे व्यवस्थित और विकसित करती हैं । और आतरिक विकास और साधना के विषय में तो यह और भी अधिक असंभव है कि पूरे -पूरे ब्योरे के साथ एक सुनिश्चित योजना तैयार कर ली जाये और यह कहा जाये कि '' सर्वदा तुम यहां, वहां, इस ढंग से पैर रखना अथवा यही लकीर है और दूसरी कोई नहीं । '' तब तो चीजें इतनी अधिक बंध जायेंगी और कठोर हो जायेगी कि कुछ भी करना सभव नही होगा; कोइ भी सच्ची और उपयोगी क्रिया नहीं हो सकेगी ।

 

 अगर श्रीमां ने तुमसे यह कहा था कि तुम उन्हें प्रत्येक बात बतलाते रहना तो यह इसलिये नहीं कहा था कि वे प्रत्येक ब्योरे के साथ तुम्हें निर्देश देती रहेंगी और तुम्हें उसे मानकर चलना होगा । यह तो इसलिये कहा गया था कि, इससे एक आ घनिष्ठता उत्पन्न हो सकेगी जिसमें तुम उनकी ओर संपूर्ण रूप से उद्घाटित होओगे और इस तरह वे तुम्हारे अंदर अधिकाधिक और लगातार तथा प्रत्येक मौके पर भागवत शक्ति ढाल सकेंगी जो तुम्हारे अंदर ज्योति बढ़ायेगी, तुम्हारे कार्य को पूर्ण बनायेगी, तुम्हारी प्रकृति को मुक्त और विकसित करेगी । बस यही बात महत्त्वपूर्ण है; अन्य सब चीजें गौण हैं; केवल उतने ही अंश में .. हैं जितने अंश में वे इस बात में सहायता करती अथवा

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 बाधा डालती हैं । इसके अतिरिक्त, यह बात उन्हें इस विषय में सहायता करेगी कि जहां कहीं आवश्यकता हो वहां वह आवश्यक निर्देश, आवश्यक सहायता या चेतावनी दे सकें, अवश्य ही बराबर शब्दों के द्वारा नहीं, बल्कि अधिकांश में मौन हस्तक्षेप और दबाव के द्वारा । यही उन लोगों के साथ उनका काय करने का तरीका है जो उनकी ओर खुले हुए हैँ; यह कोई जरूरी नहीं हे कि प्रत्येक मुहूर्त और प्रत्येक ब्योरे में साफ-साफ हुक्म दिया जाये । विशेषकर, अगर चेत्य-चेतना उद्घाटित हो और साधक पूरी तरह उसमें निवास करता हो तो वह तुरंत सूचनाएं पकड़ लेती, चीजों को स्पष्ट रूप में देखती और सहायता, हस्तक्षेप, आवश्यक निर्देश या चेतावनी को ग्रहण करती है । वास्तव में यही बहुत अधिक मात्रा में उस समय हो रहा था जब कि तुम्हारी चैत्य-चेतना खूब सक्रिय थी, परंतु तुम्हारे प्राण का एक भाग ऐसा था जिसमें तुम खुले हुए नहीं थे और जो बार-बार ऊपर उठ आता था, और बस इसी ने गोलमाल और उपद्रव उत्पन्न किया है ।

 

प्रत्येक चीज आंतरिक अवस्था पर निर्भर करती है, और बाहरी क्रिया आंतरिक अवस्था को प्रकट या पुष्ट करने और उसे सक्रिय और फलदायी बनाने के लिये केवल एक साधन और सहायता के रूप में ही उपयोगी होती है । अगर तुम कोई चीज ऊर्ध्वतम चैत्य-चेतना से अथवा ठीक-ठीक आंतरिक स्पर्श बनाये रखकर करो या कहो तो वह फलोत्पादक होगी; अगर तुम उसी चीज को अपने मन से या प्राण से या किसी अनुचित या मिश्रित वातावरण में करो या कहो तो वह बिलकुल बेकार हो सकती है । किसी उचित कार्य को प्रत्येक अवस्था और प्रत्येक मुहूर्त में उचित ढंग से करने के लिये मनुष्य को यथाथ चेतना में रहना होगा -उसे कोई ऐसे कठोर मानसिक नियम का अनुसरण करके नहीं कर सकता जो किसी परिस्थिति में तो ठीक निकले और दूसरी परिस्थिति में एकदम बेकार साबित हो । एक साधारण सिद्धांत निश्चित किया जा सकता है अगर वह सत्य के साथ मेल खाता हो, पर उसके व्यवहार का निर्णय तो आंतर चेतना के द्वारा पग-पग पर यह देखते हुए ही करना होगा कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये । अगर चैत्य पुरुष सबसे ऊपर हो, अगर पूरी सत्ता संपूर्ण रूप से श्रीमा की ओर मुड़ी हो और चैत्य पुरुष का अनुसरण करती हो तो फिर अधिकाधिक मात्रा में ऐसा किया जा सकता है ।

 

          अतएव सब कुछ साधना में अनुसरण करने योग्य किसी मानसिक नियम पर निर्भर नहीं करता, बल्कि चैत्य चेतना को फिर से प्राप्त करने और उसकी ज्योति को इस प्राणमय भाग पर डालने और उस भाग को पूर्णता: श्रीमां की

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ओर सोड़ देने पर आश्रित है । बात यह नहीं है कि ' अ ' के पास तुम्हारे बहुत अधिक जाने का प्रश्न कोई महत्त्व नहीं रखता -वह काफी महत्त्वपूर्ण है -पर संपर्क सीमित करना केवल तभी उपयोगी है जब कि पुरानी गतिविधियों की इस दासता से दूर हटने में तुम अपने इस प्राण-भाग को सहायता देने का उसे एक साधन बनाओ । यह एक ही बात सवत्र लागू होती है ।

 

जिस प्रकार की बाहरी आज्ञाकारिता पर तुम जोर देते हो और प्रत्येक ब्योरे में एक निर्देश चाहते हो -वह सब आत्मसमर्पण का मूल स्वरूप नहीं है, यद्यपि आज्ञाकारिता आत्मसमर्पण का स्वाभाविक फल और बाहरी शरीर है । आत्मसमर्पण भीतर से होता है और उसके लिये मन, प्राण और शरीर को, सबको माताजी की ओर खोल देना और उन्हीं को दे देना होता है ताकि वे उन्हें अपनी निजी वस्तु के रूप में ग्रहण करें और उन्हें उनके उस सच्चे स्वरूप में फिर से गढु सकें जो कि भगवान् का एक अंश है; बाकी सब चीजें इसके परिणामस्वरूप आती हैं । उस समय प्रत्येक ब्योरे में उनसे कोई बाहरी संदेश या आज्ञा मांगने की आवश्यकता न होगी, सारी सत्ता ही उनकी इच्छा के अनुसार अनुभव करेगी और कार्य करेगी; उनकी अनुमति उस समय बस उस आतर एकत्व के ऊपर, उनकी इच्छा की ग्रहणशीलता और आज्ञाकारिता के ऊपर मुहर-छाप के रूप में ही मांगी जायेगी ।

 

११ - ६- ११३२

 

 सत्य के प्रति माताजी का आदरभाव

 

यह बात माताजी के कानों में पहुंची थी कि ' क्ष ' ने उनके कमरे में तुम्हारे काम करने के विषय में आपत्ति की थी, परतु उन्होंने उसे यह कहकर टाल दिया कि उसका कोई महत्त्व नहीं हो सकता । उस आपत्ति का माताजी के निर्णय के साथ कोई संबंध नहीं; वह निर्णय तो उससे एकदम स्वतंत्र अन्य कारणों से किया गया था ।

 

झूठ  झूठ ही हे उसे चाहे जो भी बोले । अन्य लोग जो कुछ समझते या कहते हैं उसे यदि तुम मूल्य देने लगो और माताजी की किसी क्रिया के बारे में उन लोगों के बताये हुए उद्देश्य को तो सच मानो और अपने उद्देश्य के विषय में कही हुइ माताजी की बात को असत्य मानो और किसी दूसरे की बात को, जो सच को जान ही नहीं सकता, पक्का और सच्चा समझो और उसके आधार पर माताजी पर स्पष्टवादिता के अभाव का दोषारोपण करो तो

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क्या उससे उत्पन्न कठिनाई के लिये हम दोषी हैं? यह प्रश्न वक्तव्यों या साधकों की व्याख्याओं, या अपने मन की जल्दबाजी- भरी मान्यताओं या अनुमानों, या आवश्यक सूचना प्राप्त किये बिना अपने प्राण-पुरुष के वेदनों पर विश्वास रखने की अपेक्षा कहीं अधिक माताजी पर विश्वास रखने का है । यदि तुम इस स्वभाव से छुट्टी पा जाते तो सारी बातें बहुत अधिक आसान हो जातीं ।

 

२५-५-२९३६

 

*

 

       भला आपकी यह ''झूठ झूठे ही है '' सब पर कैसे लागू हो सकती है?  यह केवल उन्हीं पर लागु हो सकती है जो नैतिक तथा सामाजिक विधि-विधानों से बंधे है, अथवा एक सिद्धांत के रूप में यह तभी लागू हो सकती है यदि झूठ बोलने का उद्देश्य ही बुरा हो यदि कोई उच्चतर उद्देश्य किसी चीज को छुपाने या शब्दों द्वारा गलत रूप में प्रस्तुत करने की मागं करता है तो मैं उसे शायद ही झूठ कहूं उSएश्य और आधार रूप से अतिमानवीय हैं और के श्रेणी में नहीं आ सकते? मैं समझता हूं सदा ठीक-ठीक सत्य बात नही कहा करते थे और उनकी आधी बातें उनकी कहानियां सभी लोगों में सदा समझदारी की मुस्कुराहट पैद  करती हैं ।

 

यदि माताजी कोई काम एक कारण से करें और उससे एकदम भिन्न कारण से, जो सचमुच उनका कारण नहीं था, उसे किया हुआ बतलावें तो मैं यह नहीं समझ पाता कि यह बात मिथ्यापन के अतिरिक्त और दूसरी चीज कैसे हो सकती है । कोई अतिमानवोचित उद्देश्य मिथ्यापन का मिथ्यापन होना दूर नहीं कर सकता । और फिर, यदि तुम सचमुच यह विश्वास करो कि भगवान् जो बात सत्य नहीं है उसे, उसके झूठ हुए बिना, कह सकते हैं ओर ऐसा करना भगवत्ता का एक अंग है, तो फिर जब तुम यह समझते हो कि माताजी ने ऐसा किया है तब भला तुम नाराज क्यों हो जाते हो, जिसे तुम अपने प्रति किया गया उनका अन्याय और कपटपूर्ण व्यवहार समझते हो उसके लिये तुम दुःखी और कुद्ध क्यों होते हो और यह रोना क्यों रोते हो कि उन्हें साफ-साफ कहना चाहिये था आदि- आदि? बल्कि उसके बदले तुम्हें यह समझना चाहिये था कि वे अतिमानवोचित उद्देश्यों से ऐसा कर रही है और जो कुछ वे करें उसे प्रसत्रता से स्वीकार करना चाहिये था । कम-से-कम ऐसी अवस्था में यही

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न्यायसंगत बात मालूम होती है । तुमने स्पष्ट ही इस बात को अपना आधार बनाया है कि भागवत चेतना अच्छाई और बुराई से ऊपर है । परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि वह तटस्थ रहकर बुरा और भला किया करती है, । इसका बस यही अर्थ हो सकता है कि वह एक ज्योति के द्वारा काय करती है और वह ज्योति मानव चेतना के उस स्तर के परे होती है जो इन चीजों के विषय में मानवीय मानदण्ड निश्चित करता है । मनुष्य जिस बाहरी अच्छाई का अनुसरण करता हे उससे कहीं महान् अच्छाई के लिये और उसके द्वारा वह कार्य करती है । फिर मनुष्य जिस सत्य की कल्पना करते हैं उससे कहीं अधिक महान् सत्य के अनुसार वह कार्य करती है । यही कारण है कि मनुष्य का मन भागवत कर्म ओर उसके उद्देश्यों को नहीं समझ सकता -उसे सबसे पहले एक उच्चतर चेतना में ऊपर उठना चाहिये और भगवान् के साथ आध्यात्मिक सम्पर्क या एकत्व प्राप्त करना चाहिये । परंतु इस बात को यदि कोई स्वीकार करे तो फिर वह अपने मानवीय मन द्वारा और अपने मानवीय दृष्टिकोण से भागवत काय का विचार नहीं कर सकता । ये दोनों बातें एकदम असंगत होंगी ।

 

परंतु यह किसी ऐसी व्याख्या के अधीन नहीं आता । झूठे उद्देश्य का दोषारोपण करना किसी महत्तर सत्य और चेतना का कार्य नहीं हो सकता । मौन रहना और अपने उद्देश्य को प्रकट न करना एक बात है -यह कहना कि मैंने उस उद्देश्य से काम नहीं किया जब कि वास्तव मेँ मैंने वैसा ही किया, मौन नहीं है । वह मिथ्यापन है । यह विषय नैतिक दृष्टि से नहीं वरन् आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्व रखता है । माताजी सत्य का पूरा ख्याल रखती हैं और उन्होंने बराबर ही यह कहा है कि असत्य- भाषण और मिध्याचार सिद्धि के मार्ग में भीषण बाधा उत्पत्र करते हैं । फिर भला वे स्वयं ऐसा कैसे कर सकती हैं? कृष्ण की कहीं कोई असत्य या अर्द्ध-सत्य बात मुझे याद नहीं, इसलिये उस विषय पर में कुछ नही कह सकता । परंतु महाभारत या भागवत के अनुसार उन्होंने ऐसा किया भी हो तो हम लोग न तो उस लेख से और न उस आदर्श से ही बंधे हुए हैं । मैं समझता हूं राम और बुद्ध ने कोइ झूठ बात नहीं कही।

 

१७ - ५ - ११३६

 

*

 

यदि इस बंधन से तुमने अपने को मुक्त कर लिया है तो यह अच्छा ही है । सत्य के प्रति प्रेम होना दिव्य  गुण है '' इस तरह का सत्य स्न मिलावटी

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माल होता है और उसके साथ कठोरता या भीषण क्रोध लगा होता है । सत्य उच्चरित शब्द के साथ अंधभाव से दृढ बने रहने पर आग्रह नहीं करता - उदाहरणार्थ, एक आदमी को यह धारणा हो जाती है कि दूसरे आदमी ने उसके प्रति घोर अपराध किया है और वह दूसरे से कहता है कि वह उसे मार डालेगा और पीछे जब वह जान लेता है कि दूसरा निदोष है और उसने कोई अपराध नहीं किया तो भी वह अपने वचन को कार्यनीति करता है । यदि कहे हुए शब्द पर अक्षरश: दृढ बने रहने को सिद्धांत के रूप में ठीक-ठीक ग्रहण किया जाये तो उसका यही मतलब होगा । परंतु सत्य, इसके विपरीत, यह मांग करता है कि मनुष्य केवल वस्तुओं में विद्यमान सत्य के तत्त्व से ही चिपका रहे, और, ऊपर के उदाहरण में, सत्य के तत्त्व की मांग यह होगी कि उसे अपना प्रण तोडू देना चाहिये, उसे पूरा नहीं करना चाहिये । यदि कोई मनुष्य ऐसी किसी चीज की प्रतिज्ञा करे जो प्रेम और करुणा के तत्त्व के विरुद्ध हो, या भगवान् के प्रति आज्ञाकारिता और समर्पण के भाव के विरुद्ध हो तो उस प्रतिज्ञा का पालन करना सत्य नहीं है -क्योंकि वह तो मिथ्यात्व का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा होगी - और भला सत्य को मिथ्यापन का भक्त कैसे बनाया जा सकता है? वह तो दिव्य नहीं बल्कि आसुरिक सत्यवादिता होग ।

 

माताजी का जहांतक प्रश्न है, उनके अंदर एक बार बनायी हुई व्यवस्था के प्रति इस प्रकार की अंधी आसक्ति नहीं पायी जाती ।उदाहरणार्थ, यदि उन्होंने किसी को कहा कि दूसरी बार यदि तुम किसी भी रूप में काम-वासना के शिकार हुए तो तुम्हें आश्रम छोड्कर चले जाना पड़ेगा, और यदि वह आदमी शिकार हो गया पर उसने पश्चात्ताप किया तो हो सकता है कि वे भी नर्म हो जायें और अपनी धमकी के अनुसार कार्य करने का आग्रह न करें । लोगों से मिलने की जो बातें हैं वे कोई प्रतिज्ञाए, शर्तनामे या निश्चित कार्यक्रम नहीं हैं, -वे केवल व्यवस्थाएं हैं और बदली जा सकती हैं । यदि उन्होंने आधे घंटे के लिये व्यवस्था की है तो वे उसे तीन-चौथाइ घंटा भी दे सकती हैं - अथवा उसे घटाकर बीस मिनट का भी कर सकती हैं । समय की गति में एक प्रकार की नमनीयता की आवश्यकता है और जीवन का अभ्यास उसका अपनी गति में कठोर होना नहीं सहन कर सकता, अन्यथा जीवन या तो महज एक यंत्र में परिणत हो जायेगा या टुकड़े-टुकडे हो जायेगा । परंतु इस प्रसंग में कोई इरादा नहीं था; वह विशुद्ध आकस्मिक घटना थी; किसी प्रमादवश तुम्हारा नाम सवेरे की लिस्ट में नहीं लिखा गया और लिस्ट के आदमी जब खतम हो गये तो माताजी दरवाजे पर चली आयीं । वे फिर वापस नहीं जा सकीं, क्योंकि

२६१


बहुत अधिक देर हो चुकी थी और वह बडा लंबा तथा थकानेवाला प्रातःकाल था जो विरोधी शक्तियों के साथ निरंतर संघर्ष करने में बीता था और उन्हें भीतर आना था, जो कुछ अभी करना बाकी था उसे करना था तथा मेरे पास आकर जो कुछ हुआ था उसकी रिपोर्ट मुझे देनी थी ।

 

       परंतु तुम्हारे लिये अज्ञात किसी कारणवश उन्होंने जान-बूझकर भी वैसा किया हो तो भी तुम्हारी प्रतिक्रिया समुचित नहीं थी । क्योंकि अपने योग के लिये तुमने जो आधार ग्रहण किया है वह है दिव्य इच्छा का अनुसरण करना, वह चाहे कुछ भी क्यों न हो । ये चीजें -ऊपर से आकस्मिक मालूम होने पर भी -तभी घटती हैं जब वे पहले से ही निर्धारित होती हैं और वे प्राण-सत्ता के किसी भाग के लिये, जिसे इस दुःखदायी प्रक्रिया के द्वारा परिवर्तन स्वीकार करना होता है, एक अग्निपरीक्षा के रूप में आती हैं ।

 

२८ - १ - १९३३

 

मन के द्वारा माताजी के कार्यो को परखने की निरर्थकता

 

स्पष्ट ही है । न तो प्रकृति न भवितव्यता और न भगवान् ही मानसिक तरीके से या मन के नियम या उसके मानदंडों के अनुसार काम करते हैं -यही कारण है कि वैज्ञानिक और दार्शनिक को भी प्रकृति, नियति, भगवान् की पद्धति, इस सबमें एक रहस्य-सा प्रतीत होता है । माताजी मन के द्वारा कार्य नहीं करती, अतएव मन के द्वारा उनके कार्य का विचार करना निरर्थक है ।

 

५ - ५ - ११३६

 

*

 

  श्रीमाताजी अपने शिष्यों के साथ इन सब मानसिक समस्याओं पर बहस नही करतीं । बुद्धि के साथ इन सब बातों का मेल बैठाने को चेष्टा करना बिलकुल व्यर्थ है । क्योंकि, यहां दो बातें हैं, एक तो है अज्ञान जिससे संघर्ष और असामंजस्य उत्पन्न होते हैं और दूसरी है गुप्त ज्योति, एकता, आनंद और सामंजस्य । बुद्धि अज्ञान की चीज है । केवल एक अधिक अच्छी चेतना में प्रवेश करने पर ही कोई ज्योति, आनन्द और एकत्व में निवास कर सकता है और बाहरी असामंजस्य और संघर्ष से अछूता रह सकता है । अतएव चेतना का वह परिवर्तन ही एकमात्र चीज है जो मूल्य रखती है, बुद्धि के साथ मेल बैठाने से कुछ  भी अंतर नहीं पड़ेगा ।

२६२


 माताजी के शब्दों को गलत रूप में पेश करना

 

केवल ' अ! ही नहीं, बल्कि बहुतेरे या अधिकतर लोग ऐसे हैं जो इस तरह  (माताजी द्वारा कही हुई) बातों को बदल देते हैं -यह मानव-प्रकृति की प्रायः विश्वव्यापी प्रवृत्ति है । बेईमानी के कारण वह या अन्य लोग ऐसा नहीं करते  बल्कि इसलिये करते हैं कि जब वे सुनते हैं तब उनका मन शांत नहीं होता, बल्कि सक्रिय होता है और उनके मन का विचार उनकी सुनी हुई बात के साथ मिल जाता है और वह उसे दूसरा ही मोड़ या आकार या रंग दे देता है । बहुत बार प्राण भी हस्तक्षेप करता है और अपनी कामना या सुविधा के अनुसार उसे अतिरंजित करता या नये रूप में ढाल देता है । ऐसा बहुत अधिक अंश में सचेतन की अपेक्षा अचेतन रूप में ही होता है ।

 

          वर्तमान प्रसंग में, माताजी ने बिलकुल साधारण रूप में ही बात की थी, न तो ' य ' के विषय में कुछ कहा था न ' न ' के विषय में घटित बात के विषय में । उनके कहने का मतलब यह था कि जो कुछ याद रहना चाहिये वह याद नहीं रहता, क्योंकि कोई प्रबल तात्कालिक कामना स्मृति-शक्ति को तबतक पीछे धकेल रखती है जबतक कि वह पूरी नहीं हो जाती, और, स्मृति यदि आये तो । वह केवल उसके बाद ही आती है । स्पष्ट ही ' अ ' ने अपने विचारों को जोड़ .दिया, विशेषकर उसने ' य ' के कार्य के ऊपर उसे प्रयुक्त किया और सोचा कि माताजी ने यह कहा है कि वैसा जान-बूझकर किया गया था - उसीको ' य ' ने याद रखा और फिर अपनी कामना को पूरी करने के लिये वह सत्यसम्बन्धी अपने सचेतन बोध के विरुद्ध चली गयी । माताजी ने वह बात नहीं कही थी और न उनके साधारण कथन का वह अर्थ ही था ।

 

३० - ३ - ११३३  

 

*

 

जब माताजी सीधे तुमसे कुछ कहें तभी तुम कह सकते हो '' माताजी ने कहा है । ''

 

१ - ७ - ११३३

 

'' सब  कुछ माताजी से आने '' के सिद्धांत के खतरे

 

तुमने जो कुछ लिखा है वह अपने- आपमें निरपवाद रूप में सच है - आरंभ में साधकों के सामने यह प्रताव रखा भी गया था किंतु कठिनाई भी निशिचत

२६३


रूप से यहीं है, प्रकृति के अंदर पूर्ण सच्चाई होने में ही । थोडे-से लोग इस अवस्था तक ऊपर उठने में समर्थ हुए हैं और कुछ लोगों ने केवल सुदूर निकटता (यदि यह वर्णन स्वीकार किया जा सके) प्राप्त की है । अपूर्ण सच्चाई के अलावा भी एक कठिनाई यह है कि अहंभाव और कामना के द्वारा मस्तिष्क आच्छादित हो जाता है तथा यह कल्पना करने लगता है कि वह ठीक वही चीज कर रहा है जब कि वह कोई दूसरी ही चीज करता होता है । यही कारण है कि मैंने ''सब कुछ माताजी के यहां से आने '' के सिद्धांत के खतरे की बात कही थी । ऐसे लोग हैं जिन्होंने इस बात को इस प्रकार लिया है कि जो कुछ अहंकार या प्राण से आता है वह सब माताजी के यहां से आता है, उन्हीं की अंतःप्रेरणा होता है या उन्हीं का दिया हुआ होता है । फिर कुछ दूसरे लोग ऐसे हैं जिन्होंने स्वतंत्र रूप में उसी पुरानी लीक पर चलने के लिये इसे एक बहाने के रूप में ग्रहण किया है और जो यह कहते हैं कि जब माताजी चाहेंगी तब सारी बातें बदल जायेंगी । कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने इसी आधार पर अपने अंदर एक आतरिक माताजी का निर्माण कर लिया, उसके आदेशों तथा अहंकार और कामना के बढ़ावे को यहांपर विद्यमान माताजी के विरोधी आदेशों के मुकाबले रखा तथा यह समझने लगे कि ये बाहरी माताजी आखिरकार नयी हैं, सच्ची चीज तो वे भीतरी मां ही हैं अथवा यह मानने लगे कि माताजी आतरिक आदेशों का विरोध करके हमारी अग्निपरीक्षा ले रही हैं और यह देख रही हैं कि हम क्या करते हैं । सत्य तो सत्य ही रहता है, परंतु मन और प्रकृति को विकृत करनेवाली इस शक्ति को भी दृष्टि में रखना चाहिये ।

 

१७ - १० - ११३६

 

माताजी का काम और समय

 

बात यह नहीं हे कि तुम्हारी फ्रेंच भूलों से भरी होने के कारण माताजी उसे शुद्ध नहीं करतीं, बल्कि इस कारण नहीं करती कि मैं । जहांतक संभव हो, उन्हें अपने ऊपर अधिक कार्य नहीं लेने देता । अब भी रात को पूरा विश्राम करने के लिये उनके पास समय नहीं है और प्रायः सारी रात उन्हें कापियों, रिपोर्टो और चिट्ठियों को लेकर, जो ढेर-की-ढेर उनके पास आया करती हैं, काम करना पड़ता है । फिर भी वे उन्हें सवेरे समय पर खतम नहीं कर पातीं । अगर उन सभी लोगों की, जिन्होंने अभी- अभी फ्रेंच में लिखना आरंभ किया है तथा अन्यान्य लोगों की भी, सभी चिटिठयों को उन्हें  करनपड़े तो इसका

२६४


अर्थ होगा घंटा-ढो -घंटा और कम करना-फिर वे सवेर ९ बजे तक ही कार्य समाप्त कर सकेंगी और साढे दस बजे नीचे उतरेंगी । अतएव मैं इसे बंद करने की चेष्टा कर रहा हूं ।

 

*

 

माताजी समय के अभाव के कारण कभी चिट्ठियां खोलने या किसी दूसरे काम से नहीं कतरातीं; जब वे अस्वस्थ होती हैं या आराम करने के लिये उनके पास समय नहीं होता तो भी उनके पास जो भी काम आते हैं सबको पूरा करती हैं ।

 

१५ - २ - ११३६ 

 

*

 

माताजी चाहती हैं कि जब वे छत पर घूमें तब लोग उनकी ओर न देखें, क्योंकि थोड़ी ताजी हवा खाने तथा शरीर के स्वास्थ्य के लिये थोडी हरकत करने की आवश्यकता के अतिरिक्त -केवल वही समय होता है जब वे स्वयं अपने ऊपर थोडी-सी एकाग्रता कर सकती हैं । अगर उन्हें उतने अधिक लोगों की पुकार का प्रत्युत्तर देना पड़े तो फिर वह एकाग्रता नहीं हो सकती । बातचीत के लिये वे तुम्हें जो समय देती हैं वह एकदम दूसरी बात है; वे स्वयं उसकी व्यवस्था करती हैं और वह उनके कार्य का ही एक अंग है; अतएव उसे बदलने की कोई जरूरत नहीं । जो बात कही गयी थी वह केवल छत पर टहलने के विषय में थी ।

 

*

 

लोगों से मुलाकात करने के लिये माताजी के पास बहुत थोडा समय है -उन्हें कितना काम करना पड़ता है! अतएव जब कोई प्रबल आवश्यकता आ पड़ती है केवल तभी वे मुलाकात करती है -जिन लोगों को उनके साथ काम करना होता है, उनकी बात अलग है ।

 

 ११३३

 

माताजी से मिलने का ठीक तरीका

 

जब माताजी किसी के साथ मुलाकात करती हैं तब उनके पास जाने के लिये  .' मनोभाव है अपनी सत्ता को पूर्ण  रूप से शांत-स्थिर बनाये रखना

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और मन की किसी क्रिया या प्राण की किसी कामना के बिना, केवल समर्पण- भाव तथा जो कुछ दिया जाये उसे स्वीकार करने के लिये चैत्यपुरुषोचित तत्परता के साथ ग्रहण करने के लिये खुले रहना ।

 

२३ - २ - १९३२

 

*

 

 जब कोई माताजी के पास आता है तब उसे इन सब चीजों को मन में लेकर नहीं आना चाहिये -बल्कि स्थिरता और ज्योति में एकमात्र उस चीज को उनसे लेने के लिये आना चाहिये जिसे कि वह आत्मसात् कर सके ।

 

१० - ४ - ११३४

 

*

 

 जो लोग माताजी के पास भेट-वार्ग के लिये आते हैं उनके साथ वे साधारणतया उनके शुरू करने से पहले बात नहीं करतीं । यदि उन्हें बात करनी पड़े तो वे बहुतों को मुलाकात बिलकुल ही न दें; क्योंकि तब उनके पास समय ही नहीं होगा । और फिर, माताजी साधकों की चेतना पर अपना कार्य वाणी या उपदेश के द्वारा या प्रश्नों के उत्तर देकर नहीं करती बल्कि एक ऐसे नीरव प्रभाव के द्वारा करती हैं जिसकी ओर अपने को खोलना उन्हें सीखना होता है ।

 

जहांतक आश्रम-जीवन के लिये तुम्हारी तैयारी का प्रश्न है, यह तो तुम्हें अपनी प्रतिक्रियाओं से, विशेषकर अपने परिवार के विषय में प्रतिक्रियाओं से, प्रत्यक्ष हो जाना चाहिये कि तुम तैयार नहीं हो -इन वेदनों के द्वारा तुम दूर खींच ले जाये जाते और वह तुम्हारे लिये भीषण पतन होता । अपने विषय में सच्ची बात का बताया जाना और बिना प्रार्थना किये मागदर्शन प्राप्त करना - यह एक कृपा है जिसे साधक प्रसत्रता से स्वीकार करते हैं -रोना- धोना और आघात अनुभव करना प्राण की प्रतिक्रिया है जिसपर विजय पानी होगी । चैत्य रुदन, अंदर गहराई में स्थित अंतरात्मा से फूटनेवाला रुदन, अंतरात्मा की तीव्र चाह के आसू, प्रकृति के प्रतिरोध के लिये शोक के और आनंद या प्रेम या भक्ति के अश्रु पतन का कारण नहीं होते, वे तो सहायक हो सकते हैं और आतर आत्मा को खोलकर उसके पदों के भीतर से ऊपर ला सकते हैं; किंतु इस रुदन मेँ कोई आयास या कष्ट नहीं होता, यह तो कोई बहुत गहरी और शांत वस्तु होता है और अपने साथ पवित्रीकरण एवं मुक्ति की अनुभूति लाता है । जो रोदन प्राण से आता है और ठेस या अभिमान या निराशा से उत्पत्र

२६६


होता है अथवा प्रकृति को झकझोरता या विचलित कर देता है उसमें यह बात नहीं होती ।

 

१ ६- ३ - ११३७

 

*

 

      कल माताजी से मिलने से पहले ही मैं निम्नतर शक्तियों को निश्चित रूप से झाडू फेंकना चाहता हूं! यदि मैं ऐसा न कर सका तो मैं उन्हें अपना मुहं नहीं दिखाना चाहता!

 

यह निम्नतर शक्तियों का सुझाव है ! वे तुम्हारे इस प्रकार अलग-थलग रहने के लिये एक बहाना गढ़ना चाहती हैं ।

 

*

 

       ऐसा प्रतीत हातो है कि कल अपने जन्मदिन पर , जब कि माताजी ने मुझे भेट- वार्ता का सुयोग दिया श मैंने अपने विषय में बहुत कुछ सीखा! वह संभवत: उनकी शक्ति की सहायता से प्राप्त हुआ एक प्रकार का अनुभवाश्रित ज्ञान हो ! अब मैं अपने को पहले की तरह उतना दुर्बल असहाय या अपने दोषों एवं दृटियों का दास नहीं अनुभव करता ! बल्कि मेरे अंदर एक वढता हुआ विश्वास है कि में अपनी सारी निम्नतर प्रकृति से छुटकारा पा सकूंगा!

 

यह वही चीज है जिसे हम ' सचेतन होना ' कहते हैं -एक ऐसी अनुभूति है जिसका आधार चैत्यपुरुष ही होता है, भले ही यह मन में हो अथवा प्राण या भौतिक सत्ता मै । इसमें संदेह नहीं कि जिस शक्ति ने इसे जगाया वह माताजी से आयी थी ।

 

१ - १ - ११३७

 

*

 

पहले से ही तुम यह निश्चय क्यों कर लेते हो कि तुम्हारा जन्मदिवस निरर्थक हो गया । तुम्हें बस इन बुरी भावनाओं और बोधों को दूर फेंक देना चाहिये जो बाहरी सत्ता के अभी अपूर्ण रूप से शुद्ध हुए अंश से आते हैं तथा तुम्हें वही उचित मनोभाव ग्रहण करना चाहिये जो माताजी के पास आते समय

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बराबर बनाये रखते हो । दूसरे क्या भाव रखते या नहीं रखते हैं इस विषय का कोई विचार नहीं आना चाहिये -तुम्हारा संबंध माताजी और तुम्हारे बीच का संबंध है और उसका दूसरों के साथ कोइ मतलब नहीं । स्वयं अपने और भगवान् के सिवा और किसी चीज का अस्तित्व तुम्हारे लिये नहीं रहना चाहिये  -तुम अपने अंदर प्रवाहित होनेवाली उनकी शक्ति को बस ग्रहण करते रहो ।

 

 इस अवस्था को अधिक अच्छे रूप में प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक हे कि जो समय तुम्हारे हाथ में है उसे तुम बातचीत में खर्च मत करो विशेषकर यदि अवसाद की कोई चीज तुम्हारे अंदर हो तो वह तर्क-वितर्क करने में समय नष्ट करेगी और उससे सच्ची चेतना को प्राधान्य प्राप्त करने में सहायता नहीं मिल सकती । एकाग्र होओ, अपने को उद्घाटित करो और अपने- आपको फिर से चैत्य अवस्था में माताजी को ले आने दो जिस अवस्था के द्वारा वह ध्यान और नीरवता में तुम्हारे अंदर अपनी शक्ति ढालेंगी ।

 

१६ - ५ - १९३३

 

जन्मदिवस की मुलाकात का तात्पर्य

 

          माताजी जो साधकों से उनके जन्मदिवस पर मुलाकात करती हैं उसका कोई विशेष मतलब है?

 

जन्मदिवस के विषय में! जागतिक शक्तियों की क्रिया के अंदर एक (बहुतों में से एक) छन्द होता है जो सूर्य और ग्रहों के साथ संबंधित होता है । वह छन्द साधक की सत्ता के अधिक नमनीय होने की संभावना होने पर जन्मदिवस को संभवनीय नवरूपान्तर का दिवस बना देता है । इसी कारण माताजी लोगों से उनके जन्मदिवस पर मुलाकात करती हैं ।

 

१८-५-१९३४

 

*

 

        आपने एक बार लिखा था कि अन्य दिनों की अपेक्षा जन्मदिवस पर  साधकों की भौतिक सत्ता माताजी की ओर अधिक और ग्रहणशील होती है । क्या इसी कारण माताजी हम लोगों को जन्मदिवस के अवसर पर विशेष रूप से आशीर्वाद देती हैं?

 

यह भौतिक जन्मदिन या शरीर के जन्मदिन का प्रश्न  नहीं है -यह भीतर के

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नवजनम की वृद्धि के साथ-साथ जीवन में एक नये वर्ष प्रारंभ का  अवसर माना जाता है । यही अर्थ है जिस अर्थ में माताजी जन्मदिन को ग्रहण करती हैं ।

 

 ७ - दूं ० - ११३६

 

 स्वप्न  में माताजी के साथ मुलाकात

 

           बहुत दिनों से मैं माताजी से मिलने की बात सोचा करता था परंतु मिलने की आज्ञा मागंने में हिचकिचाता था!  गत रात स्वप्त में उनसे मेरी मुलाकात हुई और उनके साथ मेरी बातचीत भी हुई  क्या वे सच्ची मां थीं जिनसे मेरी मुलाकात हुई या वह मेरे स्वप्नाधिभूत मन की गडी हुई कोई आकृति थी?

 

निस्सन्देह वे माताजी ही थीं जिनसे तुम्हारी भेंट हुई और यह भेंट उनसे मिलने के विषय में तुम्हारे विचार के कारण ही हुई होगी ।

 

१ - ६ - ११३५

 

*

 

          कृपा कर मुझे बतलाइये कि अतिभौतिक स्तर पर बार- बार माताजी के पास मेरे जाने का क्या मतलब है ! क्या मेरा प्राण अपनी शक्ति को फिर से ताजा बनाने के लिये अपनी शुद्धि आदि के लिये जाता है?

 

अगर साधक थोडे सचेतन हों तो सभी इस प्रकार अपनी नींद और स्वप्न में माताजी का पास आने का अनुभव करते हैं । जो लोग साधक नहीं हैं अथवा जो लोग माताजी को जानते नहीं हैं वे लोग भी उनके पास आते हैं, पर वे इस विषय में सचेतन नहीं होते । प्राण-लोक एक अतिभौतिक लोक हे । प्राण अपने निजी लोक में इधर-उधर घूमता है और भौतिक मन या उसकी चेतना या अनुभूति से सीमित नहीं होता ।

 

१३ - ७ - ११३७

 

*

यह (अतिभौतिक लोक में माताजी के पास जाना) किसी भी उद्देश्य के लिये

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या बिना किसी विशिष्ट उद्देश्य के भी हो सकता है-ऐसी बातों का कोई खास नियम नहीं  है ।

 

१४-७-११३७

 

*

 

        मैंने दो बार स्वपन  में देखा कि माताजी सुज्ञे अपने हाथों से ' सूप ' (तरकारी का रस?) दे रही हैं और मैं उनके चरणों में प्रणाम कर रहा हूं! मैने

क्यों देखा? माताजी जो ' रसा ' हमें दिया करती थी उसका आध्यात्मिक अर्थ क्या है?

 

' सूप ' का इन्तजाम एक  ऐसा साधन स्थापित करने के लिये किया गया था जिससे साधक भौतिक चेतना में किये गये आदान-प्रदान के द्वारा माताजी से कुछ चीज ग्रहण कर सकें । संभवत: उसी पुराने संस्कारवश जब तुम्हारी भौतिक चेतना माताजी से कोई चीज स्वप्न में ग्रहण करती है तब वैसा देखती है ।

 

२७ - ७ - ११३३

 

 ध्यान में माताजी की क्रिया

 

 जब मैंने आश्रम के आंतर मन की बात कही थी तब मैंने संक्षिप्त रूप मेँ  ' आश्रम के सदस्यों के मनों ' की बात कही थी और तब दल के समष्टिगत मन की ओर मेरा ख्याल नहीं था । परंतु ध्यान के समय श्रीमाताजी का काय एक ही साथ समष्टिगत और व्यष्टिगत दोनों होता है । वे आश्रम के वातावरण में यथार्थ चेतना उतार लाने की चेष्टा कर रही हैं -क्योंकि साधकों के मन और प्राण का कार्य एक साधारण वातावरण उत्पन्न करता ही है । उन्होंने सन्धा के इस ध्यान को एक ऐसे छोटे-से अवसर के रूप में लिया है जिसमें अवतरण करनेवाली दिव्य शक्ति की एकमात्र सामर्थ्य के अंदर सब लोग एकाग्र हों । साधकों को यह अवश्य समझना चाहिये कि वे केवल एकाग्र होने के लिये, केवल ग्रहण करने के लिये, माताजी की ओर केवल उद्घाटित होने के लिये ही वहां हैं और दूसरी किसी चीज का कोई मूल्य नहीं ।

 

नवम्बर, ११३४

 

*


अब ध्यान और बैठने की जगह की बात पर आयें । माताजी यह ध्यान केवल इसलिये कराती हैं कि साधकों में वे सच्ची ज्योति और चेतना उतार लायें । वे यह नहीं चाहतीं कि उसे महज एक बाह्याचार में बदल दिया जाये और न वे यह चाहती हैं कि वहां पर कोई व्यक्तिगत प्रश्न ही उठाया जाये । उसे एकमात्र ध्यान और एकाग्रता ही रहने देना चाहिये, वहां व्यक्तिगत या अन्य प्रकार की कामनाओं या मांगों या भावनाओं को नहीं उठने देना चाहिये और उसे श्रीमां के उद्देश्य में बाधक नहीं होने देना चाहिये ।

 

२ - ११ - ११३

 

*

 

भौतिक उपस्थिति के द्वारा नहीं बल्कि ध्यान के समय माताजी जो एकाग्र होती हैं उससे उन लोगों में शांति उतरती है जो उसे ग्रहण करने में समथ होते हैं ।

 

६ - ३ - ११३७

 

*

यहां आदेश केवल माताजी ही दे सकती हैं ।

         माताजी तुमसे यह चाहेंगी कि तुम अहंभाव, क्रोध और दूसरों के साथ कलह के समस्त भावों को तथा इस या उस वस्तु की मांग को ताक में रखकर, केवल अपनी साधना का ही विचार करते हुए और जो एकमात्र, सचमुच में मूल्यवान् एवं आवश्यक वस्तुएं हैं उन्हें माताजी से ग्रहण करने के लिये अपने को शांत बनाकर ध्यान और प्रणाम में आओ ।

 

२२-९-१९३६

 

*

      जब मे माताजी की उपस्थिति में ध्यान करने का यल  करता हूं तो  बे फया  उतार ला रही हैं इत्यादि के विषय में विचार पर विचार वेग से आकर सदा ही विप्त डालते हैं?

 

यह निरी मन की एक बुरी आदत है, एक अशुद्ध क्रिया हे । मन के लिये यह जरा भी लाभदायक नहीं कि वह यह पूछे या निश्चित रूप से जानने की चेष्टा करे कि माताजी की क्या इच्छा है या वे क्या ला रही हैं -इससे केवल विन्न

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ही होता है । उसे बस स्वयं शांत और एकाग्र रहकर शक्ति को काम करने देना होगा ।

 

११ - १ - ११३४

 

*

          एकाग्रता के समय मेरे अंदर सब प्रकार के निरर्धक विधार और कामनाएं' उठती रहती है जिन्हें मैं बाद में भूल जाता हूं ! किस प्रकार मैं उन्हें याद कर माताजी की ओर खोलूं?

 

उसी समय अभीप्सा करो -वे स्वयं माताजी की ओर खुल जायेंगे ।

 

२६ - ६ - ११३३  

 

*

            माताजी के साथ सामूहिक ध्यान के समय मेर चेतना एक पूर्ण- निस्किय अवस्था में ऊपर उठ गय  मुझे ग्रीवा तक अपने शरीर की कोई सुध नही रही ।

 

उसका अर्थ है कि सम्पूर्ण मन कुछ समय के लिये देह-बुद्धि की कैद से मुक्त हो गया और विशालतर आत्मा की निष्क्रियता में मुक्त हो गया ।

 

१६ - ८ - ११३४ 

 

*

          में अनुभव करता है कि जब माताजी ध्यानगृह में ध्यान कराने के लिये  ' नीचे उतरती हैं तब ध्यानगृह का वातावरण आश्रम के सभी मकानों में फैल जाता है 7 क्या मेरा अनुभव ठीक है?

 

यह स्वाभाविक है कि बात ऐसी ही हो; क्योंकि माताजी को यह अभ्यास हो गया है कि जब वे आंतर कार्य पर एकाग्र होती हैं तब वे अपनी चेतना को सहज भाव से सारे आश्रम के ऊपर फैला देती हैं । सो, जो आदमी अनुभव कर सकता है वह इसे आश्रम में कहीं भी अनुभव करेगा, यद्यपि शाम के ध्यान जैसे अवसरों पर पास के घरों में शायद अधिक तीव्रता के साथ अनुभव कर सकता है ।

 

७-११-१९३४

२७२


प्रणाम के समय माताजी की क्रिया

 

     क्या प्रणाम के समय माताजी अधिमानस के स्तर से कार्य करती हैं?

 

साधारण अधिमानस से नहीं बल्कि उससे ऊपर की शक्ति से । स्वभावत: ही अधिमानस को एक प्रणालिका के रूप में प्रयोग में लाना होता है ।

 

२२ - १ १- ११३३  

 

दर्शन और प्रणाम का ठीक-ठीक उपयोग

 

दिव्य प्रेम और पूजा की ओर अग्रसर होने के लिये भौतिक साधनों (जैसे दर्शन और प्रणाम के द्वारा स्पर्श) का उपयोग किया जा सकता है और किया जाता भी है; वे मानवीय दुर्बलताओं के लिये महज एक रियायत के रूप में नहीं मंजूर किये गये हैं और न वास्तव में यह बात ही है कि चैत्यपुरुषोचित पद्धति के अंदर ऐसी चीजों के लिये कोई स्थान ही नहीं है । इसके विपरीत, भगवान् के पास पहुंचने, ज्योति को ग्रहण करने और चैत्य संपर्क को भौतिक रूप देने के लिये ये एक साधन हैं और जबतक ये उचित मनोभाव के साथ किये जाते हैं और इनका व्यवहार वास्तविक उद्देश्य के लिये किया जाता है तबतक इनका स्थान है । जब इनका दुरुपयोग किया जाता है अथवा मनुष्य की पहुंच उचित नहीं होती क्योंकि वह उदासीनता और तामसिकता या विद्रोह या शत्रुता या किसी स्थूल कामना से कलुषित होती है, केवल तभी ये अनुपयोगी होते हैं और उलटा फल भी उत्पन्न कर सकते हैं -जैसा कि माताजी ने सवदा ही लोगों को सावधान किया है और यह कारण बताया है कि क्यों वे प्रत्येक आदमी के लिये खुली छूट देना पसंद नहीं करती ।

 

 किसी भी आदमी को न तो प्रणाम को कोई बाह्य दैनिक क्रिया मानना चाहिये, न कोई अनिवार्य अनुष्ठान ओर न ही अपने- आपको यहां आने के लिये बाध्य समझना चाहिये । प्रणाम का उद्देश्य यह नहीं है कि साधक माताजी को एक बाहरी या नियमबद्ध दैनिक सम्मान अर्पित करें, बल्कि उद्देश्य यह है कि साधक माताजी के आशीर्वाद के साथ-साथ उतनी आध्यात्मिक सहायता या प्रभाव ग्रहण कर सकें जितना कि उनकी अवस्था में ग्रहण या आत्मसात किया जा

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सकता है । उस उद्देश्य की पूति के लिये शांत-स्थिर और आत्म-समाहित वातावरण बनाये रखना आवश्यक है । 

 

*

 

अगर तुम माताजी के दर्शन को कोई मूल्य देते हो तो अधिक अच्छा यह है कि तुम अन्तर्मुख (recueilliरकई) रहो । यदि उनका आना भोजन की न्याईं दैनिक कार्यक्रम का ही केवल एक व्यापार हो तो निःसंदेह उसका कोई महत्व नहीं ।

 

          Recueilli (रकई ) का अर्थ है अन्तर्मुख, शांत और आत्म-समाहित ।

 

२४ - ७ - १९३३

 

*

 

 दर्शन करने का सबसे उत्तम तरीका है अपने- आपको खूब एकाग्र और अचंचल बनाये रखना तथा माताजी जो कुछ दें उसे ग्रहण करने के लिये खुला रहना ।

 

१२ - २ - ११३७

 

रोगी और विक्षिप्त व्यक्तियों को दर्शन के लिये लाना उचित नहीं

 

माताजी उस महिला को मुलाकात नहीं दे सकतीं । अधिक-से- अधिक हम इतना ही स्वीकार कर सकते हैं कि उसे प्रस्तावित ढंग से दर्शन के लिये लाया जा सकता है, किंतु उसे बस आशीर्वाद लेते ही चल देना होगा, रुकना कतई नहीं होगा । रोगी या उन्मादी व्यक्तियों को इलाज के लिये दर्शनार्थ लाना भूल है- दर्शन का प्रयोजन यह नहीं । यदि उनके लिये कुछ करना हो या किया जा सकता हो तो वह दूर से ही किया जा सकता है । दर्शन के समय जो शक्ति कार्य करती है वह और ही प्रकार की होती है और विक्षिप्त या दुर्बल मनवाला व्यक्ति उसे ग्रहण अथवा आत्मसात् नहीं कर सकता -यदि वह ग्रहण कर भी ली जाये तो उक्त अशक्तता के कारण विपरीत परिणाम पैदा कर सकती है । यदि हम शक्ति को रोक लें तो दर्शन निरर्थक हो जाता है, और यदि उसे ऐसे लोग ग्रहण कर लें तो वह उनके लिये निरापद नहीं । इस प्रकार के कारण ही उस नियम के प्रेरक हैं जो कच्ची उम्र के बालकों को दर्शन पर लाने की मनाही करता है ।

१३ - ८ - ११३७

 

२७४


 दूसरों प्रणाम करने का गलत सुझाव

 

यह (दूसरों को प्रणाम करने की इच्छा) कहीं दूसरी जगह से आया हुआ एक गलत सुझाव है । यह बड़ा जरूरी है कि दूसरों को प्रणाम करने की वृत्ति को न अपनाया जाये अथवा विचार तक में भी दूसरों को माताजी की बराबरी का या उसके लगभग भी कोई स्थान एकदम न दिया जाये ।

 

२७ - ७ - ११३४

 

प्रणाम और माताजी का सम्पर्क

 

माताजी का सम्पर्क तो सारे दिन और सारी रात बना रहता है । यदि कोई सारे दिन अपने भीतर उनके साथ समुचित सम्पर्क बनाये रखे तो फिर प्रणाम अपना ठीक-ठीक फल उत्पन्न करेगा, क्योंकि उस समय तुम ग्रहण करने की ठीक-ठीक अवस्था में होगे । सारे दिन को प्रणाम पर निभ,र रखना, समूचे आंतरिक मनोभाव को बाहरी सम्पर्क के अत्यंत बाह्य स्वरूप पर निर्भर रखना सारी चीज को एकदम उलट-पुलट देना है । यही भौतिक मन और प्राण द्वारा की हुई मौलिक मूल है जो सारी कठिनाई का कारण है ।

 

१ ६- ३ - ११३५

 

*

यदि वकोई भौतिक संपर्क की आवश्यकता के बिना माताजी के आंतरिक स्पर्श को अनुभव कर सके तो केवल तभी भीतिक संपर्क का सच्चा मूल्य वास्तव और सक्रिय रूप में प्राप्त हो सकता है । अन्यथा यह खतरा है कि वह महज अस्वाभाविक उत्तेजक वस्तु के जैसा बन जायेगा या स्वयं अपने लाभ के लिये माताजी से प्राणशक्ति आहरण करने का अवसर बन जायेगा ।

 

२ - ३ - ११३७

 

*

 

 यदि वे भौतिक स्पर्श पर इतना निर्भर करते हैं कि उसके बिना वे कुछ भी अनुभव नहीं कर पाते तो इसका यह मतलब है कि उन्होंने आंतरिक संबंध का विकास करने के लिये उसका बिलकुल ही उपयोग नहीं किया है । यदि उन्होंने किया होता तो इतने वर्षो बाद वह आंतरिक संबंध अवश्य  होता ।

२७५


आंतरिक संबंध केवल आंतरिक एकाग्रता और अभीप्सा के द्वारा ही विकसित किया जा सकता है, प्रत्येक दिन के महज बाहरी प्रणाम के द्वारा नहीं । अधिकतर लोग माताजी से महज प्राण-शक्ति आहरण करते हैं और उसी पर जीते हैं - किंतु प्रणाम का उद्देश्य यह नहीं है ।

 

४ - ३ - ११३७

 

*

  हां, परंतु प्राण की परीक्षा बहुत मूर्खतापूर्ण होती है । चाहे तुम माताजी को देखो या न देखो तब भी यदि तुम्हारी साधना चलती रहे तो यह इस बात को सूचित करेगा कि चैत्य संबंध स्थायी रूप से बना हुआ है और सर्वदा कार्य कर रहा है ओर वह भौतिक संपर्क पर निर्भर नहीं करता । मालूम होता है कि तुम्हारा प्राण यह समझता है कि यदि तुम माताजी को न देखो तो तुम्हारी साधना अवश्य बंद हो जायेगी, परंतु इसका तो केवल यही अर्थ होगा कि प्रेम और भक्ति को भौतिक संपक की उत्तेजना की आवश्यकता होती है । किन्तु, उसके विपरीत, प्रेम और भक्ति की सबसे बडी पहचान यह है कि उनकी आग लम्बी अनुपस्थिति में भी उतने ही जोर से जलती रहे, जितने जोर से वह उपस्थिति में जलती है । अगर तुम्हारी साधना प्रणामवाले दिनों में और बिना प्रणामवाले दिनों में भी चलती रहे तो फिर यह सिद्ध नहीं होता कि तुममें प्रेम और भक्ति नहीं हे, बल्कि यह सिद्ध होता है कि वे इतने प्रबल हैं कि सभी परिस्थितियों में अपने- आप बने रह सकते हैं ।

 

८-६-१९३६

 

*

     यह बड़ी विचित्र बात है कि जब माताजी हमले मिलती हैं और घनिष्ठता के साथ हमसे बातें करती हैं उस समय की अपेक्षा मैं प्रणाम के समय उन्हें अधिक निकट अनुभव करता हूं क्या भौतिक मन के किसी दोष के कारण ऐसा होता है?

 

हां,-अथवा कम-से-कम भौतिक चेतना के किसी भाग की किसी कमी के कारण ।

 

३०-४-११३४

*

२७६


माताजी को प्रणाम करने के ठीक बाद मैने हृदय में एक अकल्पनीय गहराई का अनुभव किया, साथ ही यह भी कि एक अग्नि फूटी पड़ रही है!

 

यह नि:सन्देह चैत्य गहराई और चैत्य अग्नि है ।

 

५ - ५ - ११३६

 

*

             जब माताजी ने 'श ' को आशिर्वाद  देने के लिये उसके सिर पर अपना हाथ रखा तो मैने अपने सिर पर उनका स्पर्श ठोम रूप में अनुभव किया यह कैसे होता है?

 

इससे पता चलता है कि तुम्हारी सूक्ष्म भौतिक सत्ता सचेतन बन रही है और उसने माताजी का स्पर्श एवं आशीर्वाद अनुभव किया जो वहां सदा ही विद्यमान है ।

 

 २०-३-१९३५

*

 

प्रणाम के समय माताजी की ओर से एक स्पर्श सदा ही आ रहा होता है, उसे ग्रहण करने के लिये व्यक्ति को सचेतन और उन्मीलित होना होता है ।

 

१४-११-११३३  

 

*

          क्या आश्रम में कुछ दूरी पर माताजी के प्रभाव को उसी प्रकार ग्रहण करना संभव है जिस प्रकार हम प्रणाम के समय ग्रहण करते हैं?

 

ग्रहण करना संभव तो है, पर उसी प्रकार से नहीं । वहां एक चीज की कमी रहती है, वह है भौतिक चेतना पर स्पर्श ।

 

३०-५-११३३ 

*

 

        सायंकाल जब सुज्ञे  देर हो जाती है और मैं माताजी के दर्शन से चूक

२७६


       जाता हूं तो क्या मैं उनका प्रकाश उसी प्रकार ग्रहण करता हूं जिस प्रकार मैं वहां उपस्थित होने पर करता?

 

तुम उनका प्रकाश सब समय ग्रहण कर सकते हो -यद्यपि भौतिक सान्निध्य की अवस्था की अपेक्षा कम ठोस रूप में ।

 

१ - १ - ११३३

 

 *

        आपने लिखा था : '' आंतरिक स्पर्श के बिना आंतर सत्ता कार्य नहीं कर सकती '' मेरी समझ में नहीं आया कि इससे मेरे प्रश्न का समाधान कैसे हुआ माताजी का जो आंतरिक या सूक्ष्म स्पर्श मैने पहले अनुभव किया था उसका वही प्रभाव नहीं हुआ जो प्रणाम के समय उनके भौतिक स्पर्श का हुआ! पहला तो आया गैर क्रियात्मक दृष्टि से काई भी प्रभाव छोडे बिना कुछ क्षणों में ही अदृश्य हो गया जब कि दूसरे की छाप विषाद और प्रतिरोध के रहते भी दीर्घकाल तक बनी रही ।

 

ऐसा इसलिये है कि तुम अपनी बाह्य सत्ता में रहते हो, अन्तःसत्ता में नहीं । पर जबतक तुम आन्तरिक स्पर्श की ओर नहीं खुलते तबतक आतर सत्ता विकसित नहीं हो सकती ।

 

३ - २ - ११३७

*

 

आंतर स्पर्श का अर्थ है अन्तःसत्ता में अनुभूत माताजी का प्रभाव ।

 

६ - २ - ११३६

*

 

        जब मुझे अनुभव और साक्षात्कार हुए तो फिर मुझे आंतर स्पर्श का संवेदन क्यों नहीं हुआ, क्योंकि यह कहा जाता है कि उसके बिना किसी को भी अनुभव ( जो अन्तःसत्ता के विकास के ही फल है) प्राप्त नहीं हो सकते?

 

तुम्हें उसका संवेदन इसलिये नहीं हुआ कि अन्तःसत्ता उसकी ओर जागरित

२७८


नहीं थी -उसने (अन्तःसत्ता ने) केवल परिणामों को ही अनुभव किया - और ये परिणाम स्वयं अन्तःसत्ता में नहीं बल्कि ऊर्ध्वस्थ आत्मा में अनुभूत हुए ।

 

६- २ - १९३७

 

भीतरी और बाहरी सम्पर्क

 

माताजी के साथ अपने भीतर संपर्क को बढ़ने दो -यदि वह न हो तो बाहर संपर्क अत्यधिक बढ जाने पर सहज ही विकृत होकर दैनिक कार्यक्रम बन जाता है । 

*

 

मेरा मतलब है आंतरिक सम्पर्क जिसमें या तो मनुष्य अपने को उनके साथ एक या उनके सम्पर्क में अनुभव करता है या उनकी उपस्थिति के विषय में सचेतन होता है अथवा कम-से-कम सदा उनकी ओर मुडा होता है ।

 

१ ६- ३ -१९ ३५ 

 

*

       आज मुझे ऊपर माताजी के कमरे में जाने की बड़ी तीव्र इच्छा हुई थी जिससे कि मैं उनके समीप और घनिष्ट सम्पर्क में पहुंच सकृं

 

परंतु माताजी के निकट आना ' भीतरी ' कमरों में होना चाहिये, बाहरी कमरों में नहीं । क्योंकि भीतरी कमरों में मनुष्य सर्वदा प्रवेश कर सकता है और वहां स्थायी रूप से रहने की व्यवस्था भी कर सकता है ।

 

८ - ३ - ११३५

 

*

       यह कैसी बात है कि आपको पत्र लिखते समय उच्चतर वस्तुएं बड जाती और प्रबलतर हो जाती है?

 

 मेरी समझ में इसका कारण यह है कि लिखने की क्रिया में या वस्तुत: उसके आरंभ में तुम माताजी के और ' शक्ति ' के सम्पर्क में आ जाते हो ।

२७९


श्रीमां के देने के दो तरीक

 

माताजी दोनों तरीकों से देती हैं । आखों के द्वारा वे चैत्य पुरुष को देती हैं और हाथ के द्वारा स्थूल सत्ता को ।

 

२१ - १ - १९३२

*

 

 स्पष्ट ही इसके साथ समय का कोई संबंध नहीं है । एक घंटे का स्पर्श हो या एक क्षण का -जितना एक के द्वारा दिया जा सकता है उतना ही दूसरे के द्वारा भी ।

 

१८ - ४ - ११३५ 

 

*

 

माताजी ने तुम्हें जो संक्षिप्त-सा ही आशीर्वाद दिया वह तुम्हारे किसी दोष के कारण नहीं; ऐसा उन्हें उन सभी के लिये करना होता है जो शुरू में आते हैं क्योंकि उन्हें जल्दी से अपने काम पर जाना पड़ता है । यदि तुम्हें देर तक आशीवाद चाहिये तो तुम्हें पीछे आना होगा । परंतु जब तुम्हें शुरू में आना पडे तब भी यदि तुम शांत और खुले रहो तो माताजी के संक्षिप्त-से आशीर्वाद में से भी उतना ही लाभ प्राप्त कर सकते हो ।

 

 माताजी के फूल देने का तात्पर्य

 

        प्रतिदिन प्रणाम के समय माताजी जो हमें कुल देती हैं उसका क्या अर्थ है?

 

 उसका अर्थ है उस चीज को उपलब्ध करने में सहायता देना जिसका सूचक वह फूल होता है ।

 

२ ' - ४ - ११३३

 

*

        क्या कुल महज प्रतीक ही है, ऐ उससे अधिक और कुछ नहीं? उदाहरण के लिये क्या नीरवता का प्रतीक फुल नीरवता की उपलब्धि में सहायता कर सकता है?

२८०


जब माताजी फूल के अंदर अपनी शक्ति भर देती हैं तभी वास्तव में वह एक प्रतीक से अधिक कुछ बनता है । उस समय, यदि उसे पानेवाले आदमी में ग्रहणशीलता हो तो, वह बहुत प्रभावशाली हो सकता है ।

 

१९ - ७ - १९३७

*

 

       हम माताजी से वह फुल नहीं पाते जो हमारे मन के मतानुसार हमें मिलना चाहिये!

 

स्पष्ट ही है कि वैसा नहीं होता -मन अपनी पसंदगी या ख्याल के अनुसार या क्या होना चाहिये इस विषय की किसी मानसिक भावना के अनुसार इच्छा करता है; जो कुछ आवश्यक है उसे संबोधि द्वारा देखकर माताजी निर्णय करती हैं ।

 

१ - ७ - ११३४

*

 

माताजी का भौतिक सामीष्य और साधना मे उत्रति

 

यह समझना भूल है कि जो लोग शरीर से माताजी के पास जाते हैं वे उन लोगों की अपेक्षा, जो प्रणाम या ध्यान के सिवा अन्य समय उनसे मुलाकात नहीं करते, पूर्णता के अपने लक्ष्य के कहीं अधिक निकट हैं । सब निर्भर करता है आंतर सत्ता पर और इस बात पर कि वह सत्ता किस प्रकार उनसे मिलती, उनकी शक्ति को ग्रहण करती और उससे लाभ उठाती है । निःसन्देह, यदि लोग अपने चैत्य पुरुष को प्रमुख स्थान में रखकर उनसे मिलें, और केवल बाहरी चेतना में ही न मिलें, तो बात दूसरी ही होगी, पर... ।

 

२१ - ७ - ११३६ 

*

 

         बहुत- से लोग ऐसा विश्वास करते है कि जिन लोगें  को माताजी बार- बार मिलने के लिये मौका देती हैं और प्रायः ही चीजें भेजती हैं के उनके बहुत समीप हैं तथा तेजी से उन्नति कर रहे हैं; परंतु जिन लोगों से बे अक्सर नहीं मिलती या जिनके पास चीजों नहीं भेजंती , उन्हें अपने  साधना करने का केवल एक मौका ही दिया गया है क्या यह विश्वास   ठीकि  है?

२८१


यह सब निरर्थक बात है । जिन लोगों को माताजी बहुत कम या कभी नहीं बुलाती और जिन्हें कुछ नहीं भेजतीं उन लोगों में भी कुछ लोग अत्यंत ऊंचे साधक हैं । वे लोग इसकी आशा भी नहीं करते -वे निरंतर माताजी को अपने साथ अनुभव करते और संतुष्ट रहते हैं तथा और कोई चीज नहीं मांगते ।

 

२७-७-१९३३

*

 

        आपने कहा है कि जो लोग आश्रम से बाहर साधना करते है वे लोग इसे पूरी तरह नहीं कर सकते क्योकि आश्रम में माताजी के भौतिक सामीन्क में रहना ही रूपातंर की संभावना उत्पन्न कर सकत? है!  इस बात को थोडा और आगे खीच ले जाने पर स्वभावत: ही यह सिद्धांत निकलता है कि आश्रम में भी जो लोग शरीर से माताजी के अधिक निकट निवास करते हे और उनसे अधिक बार मिलते हैं वे  भीतरी दल के लोग है बाहरी रूप में भी अधिक घनिष्ट हैं और इसलिये रूपांतर के अधिक निकट हैं ! यह ठीक है न?

 

आश्रम में रहना एक बात है और माताजी के साथ एक छोटी-सी चौहद्दी के अंदर रहना दूसरी बात । तुम्हारा प्रतिपाद्य विषय बहुतेरे मानसिक तर्की की तरह जीवन के वास्तविक तथ्यों के द्वारा खण्डित होता है । उस आधार पर यह तर्क किया जा सकता है कि माताजी के साथ एक ही मकान में रहनेवाला ' अ ' बाहर रहनेवाले ' ब ' की अपेक्षा पूर्णता के अधिक निकट तथा ' स ' या ' द ' को अपेक्षा और भी अधिक निकट है । ' इ ' प्रणाम के समय तथा अपने जन्मदिन को छोड्कर माताजी के साथ कभी मुलाकात नहीं करती, इसलिये वह निश्चय ही एकदम पिछड़ी हुई साधिका होगी और ' फ ' माताजी से रोज पांच, दस, पन्द्रह या बीस मिनट तक बातें करता है इसलिये वह ' ई ' से बहुत आगे बढ़ा हुआ होगा, आता की ओर काफी आगे होगा । परंतु ये बातें ठीक ऐसी नहीं है । इसलिये यह तर्क किसी बात में नहीं ठहरता । साधना में उन्नति करना या उच्च योग्यता का होना माताजी के निकट होने या अधिक बार उनसे मुलाकात करने पर नहीं निर्भर करता ।

 

३० - ७ - ११३६

 

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२८२


       जो लोग बहुधा  माताजी के पास जाते हैं के बडे ही सौभाग्यशाली होगा!  क्या यह ठीक नहीं?

 

अगर किसी के अंदर कामना या मांग हो तो वह सब प्रकार के दावे, क्रोध, ईर्षा, निराशा, विद्रोह आदि को ले आती है जो साधना को नष्ट कर देते हैं और उसमें कोई सहायता नहीं पहुंचाते । कुछ दूसरों के लिये माताजी का सामीप्य एक मिली-जुली चीज बन जाता है ।

 

*

कुछ वर्ष पूर्व माताजी खुले तौर पर लोगों को अपना भौतिक सम्पर्क प्रदान करती थीं । अगर साधकों में समुचित प्रतिक्रिया हुई होती तो क्या तुम समझते हो कि वे पीछे हट जाती और उसे घटाकर कम-से-कम कर देती? निःसंदेह, अगर मनुष्य यह जानें कि किस भाव में उनसे चीजें ग्रहण करनी चाहियें तो भौतिक स्पर्श एक बहुत बड़ी चीज है -परंतु उसके लिये निरंतर शरीर से निकट रहना आवश्यक नहीं है । बल्कि उससे बहुत जोर से दबाव पड़ता है और उसे कितने आदमी सह सकते हैं?

 

२२ - ४' - १९३३

*

 

  यह अहं ही है जो यह चाहता है कि सबसे पहला या विशेष रूप से चुना हुआ एकमात्र अकेला व्यक्ति होने से जो तुष्टि होती है वह मुझे प्राप्त हो । इस अहमय प्राणिक मांग और इससे उत्पन्न सभी परिणामों और उपद्रवों के कारण माताजी के लिये यह आवश्यक हो गया कि वे समीपता की भौतिक अभिव्यक्ति को कम-सेकम कर दें ।

 

१७ - ४ - ११३५

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  बस । एक ही प्रधान बात है भीतरी मनोभाव को बनाये रखना तथा सभी बाहरी परिस्थितियों से स्वतंत्र रूप में माताजी के साथ भीतरी संबंध स्थापित करना । यही वह चीज है जो सभी आवश्यक चीजों को ले आती है । जो लोग योग में अत्यंत गहराई तक पहुंचे हुए हैं वे वे लोग नहीं हैं जो भौतिक रूप में माताजी से सबसे अधिक मिलते- हैं । कुछ लोग ऐसे भी हैं जो निरन्तर उनके

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सान्निध्य या एकत्व में निवास करते हैं पर जो प्रणाम या शाम के ध्यान के अतिरिक्त साल में केवल एक बार ही उनके पास जाते हैं ।

 

१३ - ११ - ११३४

 

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वर्तमान अवस्था में शरीर से माताजी के पास आने की अपेक्षा उनकी ओर अपने को खोलकर अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है । कुछ लोग तो, जो यह आग्रह करते हैं कि माताजी उन्हें बुलायें, आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे हटते हैं-क्योंकि वे इसका आग्रह करते हैं और इस तरह वे प्राणिक मांग का एक आधार स्थापित करते हैं जो माताजी के साथ के संबंधों के लिये एक बालू की भीत का काम करता है ।

 

*

 

         क्या यह सच नहीं है कि जो माताजी को बहुत अधिक बार देखता और उनसे बातचीत करता है वह उनकी उपस्थिति में रहने के कारण अधिक प्रकाश ग्रहण करता है?

 

नहीं । यह संपूर्ण रूप से निभर करता है व्यक्ति की अवस्था और उसके मनोभाव के ऊपर । विशेषकर, अगर वे माताजी को देखने का अथवा जब वे यह चाहें कि वे चले जायें तब रहने का हठ करें या उनका मनोभाव खराब हो और वे उसे माताजी पर फेंकें तो माताजी से मिलना उनके लिये बहुत हानिकारक होगा । माताजी उन्हें जो कुछ देती हैं उसीसे उनमें से प्रत्येक व्यक्ति को सतुष्ट रहना चाहिये, क्योंकि एकमात्र वही यह समझती हैं कि वे क्या ग्रहण कर सकते हैं और क्या नहीं । इस प्रकार की मानसिक रचनाएं और प्राणिक मांगें बराबर ही मिथ्या होती हैं ।

 

३ - ४ - ११३३

*

 

 यहांपर जरा गोलमाल है । माताजी की कृपा एक चीज है, परिवर्तन के लिये पुकार दूसरी, और उनके सामीप्य का दबाव तो और भी भिन्न चीज है । जो लोग शरीर से उनके निकट हैं वे किसी विशेष कृपा या प्रेम के कारण नहीं, बल्कि अपने काम की आवश्यकता के कारण निकट हैं -इसी बात को यहां

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प्रत्येक व्यक्ति समज्ञने या बीश्रस करने से इनकार करता है,पर यही यथार्थ बात है कि सामीप्य अपने- आप एक दबाव के रूप में काम करता है, दूसरी किसी चीज के लिये न भी हो तो, इसलिये कि वे अपनी चेतना को माताजी की चेतना के अनुकूल बनायें और इसका अर्थ है परिवर्तन; परंतु ऐसा करना उनके लिये कठिन होता है, क्योंकि उन दोनों चेतनाओं के बीच का अंतर, विशेषकर भौतिक स्तर पर, बहुत बडा है और वे काम के लिये इस भौतिक स्तर पर ही उनसे मिलते हैं ।

 

२७-४-१९४४

 

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            क्या यह सच नर्ही है कि जो लौग शरीर से माताजी के अत्यतं समिप  हैं के वही व्यक्ति हैं जो उनकी ओर हुए हैं उनके संकल्प के साथ  ' एक ' बने हुए हैं और अपनी आंतर सत्ता में उनके समीप हैं? क्या यह भी ठीक बात नहीं है कि शरीर से माताजी के पास रहने से विशेष लाभ प्राप्त होते हैं?

 

माताजी के '' संकल्प के साथ एक '' होना या पूर्ण रूप से खुल जाना इतना आसान नहीं है । शरीर से नजदीक रहने से आगे बढ़ने के लिये, पूर्ण होने के लिये निरंतर दबाव पड़ता रहता है जिसका प्रत्युत्तर देने में आजतक कोई समर्थ नहीं हुआ है । इस विषय में लोगों ने मानसिक विचार बना लिये हैं और वे सही नहीं हैं ।

 

         ' अ ' की मांग थी कि उसे भीतर रहने दिया जाये या सब समय (माताजी के कमरे में) उसे आने-जाने की स्वतंत्रता दी जाये (जो किसी भी आदमी को, न तो : ब ' को, न ' स ' को, न और ही किसी को दी गयी है) और जो लोग वहां आते-जाते हैं उनके साथ उसे बराबरी का या उनसे ऊंचा स्थान दिया जाये । ऐसी मांग यह सूचित करती है कि जिन कारणों से (इसमें किसी पर विशेष कृपा या प्रेम करने की कोई बात नहीं है) इस बात की आज्ञा दी जाती है, उनके और साथ ही वस्तुओं की उपयुक्तता के विषय में भी उसमें पूरी नासमझी है । अगर उसे इसकी आज्ञा दे दी गयी होती तो वह उसे थोडे दिनों तक भी सहन? न कर पाती । ' ब ' और ' स ' की बात भित्र है -उनको वहां विशेष काम करना होता है और उसी कारण उनका माताजी के पास आना या उनसे बार-बार मुलाकात करना आवश्यक होता है । साधना की दृष्टी से बड़े

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होने के साथ इसका बिलकुल ही कोई संबंध नहीं है, जिसकी ओर स्वयं तुमने भी ' द ' आदि के उदाहरण देकर संकेत किया है ।

 

७ - ३ - ११३५ 

 

*

 

मेरा मतलब यह नहीं था कि शरीर के समीप रहना महत्त्वपूर्ण है बल्कि यह था कि इसे आसानी से नहीं सहन किया जा सकता । प्रणाम के समय स्पर्श प्राप्त करना और शरीर से समीप रहना दोनों का अर्थ एक नहीं है । शरीर से समीप रहने का मेरा मतलब था माताजी के साथ रहना या उनके साथ बार-बार भौतिक संपर्क में आना... । समीपता को सहन करने का जहांतक सबंध है, अधिकांश लोग यथासंभव दबाव की ओर से अपने को बंद करके ही साधारणतया उसे सहन करते हैं -जब वे वैसा नहीं कर पाते तब वे उससे घबरा जाते हैं । इस विषय की सारी बात बस यही है ।

 

५ -७ - १९३५

 

*

मेरा ख्याल है कि ये सब मानसिक रचनाएं हैं । तुम अपने मन में यह गढ़ रहे हो कि ' क ' को क्या अनुभव करना चाहिये । परंतु सच पूछा जाये तो न तो  ' क ' की, न और किसी की कठिनाइयां माताजी के पास आने या उनके साथ एक, दो या तीन घंटे तक बैठे रहने से दूर होती हैं । बहुत लोगों ने ऐसा किया है और जैसे वे आये वैसे ही दुःखी, निराश और विद्रोही बनकर चले गये । जो लोग माताजी से भेंट किया करते हैं उनमें से कुछ लोगों के सामने उतनी ही बुरी और उतनी ही अधिक कठिनाइयां हैं जितनी तुम्हारे सामने । यह भी सच नहीं है कि जिन लोगों ने माताजी के साथ अधिक बातचीत (मकानों, मरम्मतों, नौकरों आदि के विषय में ) की है उन्होंने माताजी को अधिक अच्छा समझा है । आरंभ के दिनों में लोग दूसरे ढंग से माताजी के साथ बहुत अधिक मुलाकात किया करते थे, वे उनके साथ सब प्रकार के विषयों पर बातें किया करते थे -पर उन लोगों ने भी वास्तव में माताजी को नहीं समझा था । मैं फिर कहता हूं कि यह सब मन को सृष्टि और गढ़ी-गढाई कल्पना है तथा यथाथ बातों के साथ इसका कोई मेल नहीं । जब कोई भीतर से माताजी की ओर खुला होता है केवल तभी उनके ' सेपक ' से, भौतिक नहीं वरन् आध्यात्मिक या आंतर संपर्क से लाभ उठाता है, और फिर उनके विषय का महज एक

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विचार ही भी गलत चीज को सकता ह! उस समय भौतिक संपर्क भी सहायता कर सकता है, पर वह अनिवार्य नहीं है । रही उनको समझने की बात, सो कोइ उन्हें केवल आध्यात्मिक चेतना में प्रवेश करने पर ही समझ सकता है, अथवा यदि मन में न समझे तो कम-से-कम एक बढ़ते हुए एकत्व के द्वारा यह अनुभव कर सकता है कि वे क्या हैं और उसके अनुरूप कार्य कर सकता है ।

 

४ - ८ - ११३५ 

 

*

इस अर्थहीन भ्रांत विश्वास को वापस बुलाना या इसे आंतरिक शांति को भंग करने देना एक बड़ी मूर्खता है, -क्योंकि दूसरी कोई बात वास्तविक और व्यावहारिक सत्य से उतनी अधिक दूर नहीं हो सकती जितनी यह मान्यता कि जो लोग शरीर से माताजी के निकट रहते हैं या बार-बार उनके पास जाते हैं वे दूसरों की अपेक्षा अधिक सुखी या अधिक संतुष्ट हैं -यह जरा भी सत्य नहीं है । अगर तुम केवल इस भ्रम से छुटकारा पा जाओ तो कोई भी चीज दिव्य शांति की वृद्धि को रोक नहीं सकती और न उस आंतरिक सामीप्य में ही बाधा पहुंचा सकती है जो इस आश्रम में लोगों को दिव्य प्रसन्नता देनेवाली एकमात्र वस्तु है । प्रसन्नता अंतरात्मा की संतुष्टि से प्राप्त होती है, प्राण की या शरीर की संतुष्टि से नहीं ! प्राण कभी संतुष्ट नहीं होता; शरीर भी जो कुछ आसानी से या बराबर पाता है उससे आकर्षित होना शीघ्र ही बंद कर देता है । एकमात्र चैत्यपुरुष ही सच्ची प्रसन्नता और आनंद ले आता है !

 

८ - १ - १९३४

 

' बिलकुल ठीक ' । किसी को भी किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या करने की जरूरत नहीं, क्योंकि हर एक का (माताजी के साथ) संपर्क का अपना एक विशेष बिंदु होता है जो दूसरे किसी भी व्यक्ति का नहीं होता -वह उस बिंदु से अलग होता है जो सबमें होता है ।

 

४ - १ - ११३४

२८७


प्रणाम के समय की माताजी की मुस्कान और

  स्पर्श के विषय में भ्रांत धारणाएं

 

माताजी प्रत्येक आदमी के साथ अलग- अलग तरीके से, उसकी आवश्यकता और उसके स्वभाव के अनुसार बर्ताब करती हैं, किसी कठोर मानसिक नियम के अनुसार नहीं करती । यह बात उनके लिये बिलकुल निरर्थक है कि वे प्रत्येक आदमी के साथ बस एक ही जैसा व्यवहार करें मानों सब लोग मशीन हों और उन्हें एक तरह से ही छूना और चलाना जरूरी हो । इसका बिलकुल ही यह मतलब नहीं है कि वे एक आदमी को दूसरे से अधिक प्यार करती हैं अथवा जिन्हें वह एक खास ढंग से छूती हैं वे अधिक अच्छे या कम अच्छे साधक हैं । साधक इस ढंग से विचार करते हैं क्योंकि वे अज्ञान और अहंकार से भरे हैं । सच पूछा जाये तो उन्हें यह नहीं सोचना चाहिये कि माताजी एक पर अधिक कृपा करती हैं या दूसरे पर कम और न उन्हें जो कुछ वे करती हैं उसमें मुकाबला करना और उसका निरीक्षण करना चाहिये, बल्कि उसके बदले उन्हें प्रणाम के समय बस इसी बात से संबंध रखना चाहिये कि माताजी के प्रभाव के प्रति स्वयं उनमें कितनी आध्यात्मिक ग्रहणशीलता है । प्रणाम इसीलिये हे, अन्य चीजों के लिये नहीं जिनका साधना के साथ कोइ संबंध नहीं ।

 

 इर्ष्या ओर स्पर्द्धा मानव स्वभाव की सामान्य चीजें हैं, पर ये ठीक वही चीजें हैं जिन्हें एक साधक को अपने अंदर से अवश्य निकाल फेंकना चाहिये । नहीं तो वह भला साधक ही किसलिये है? उसके यहां रहने का उद्देश्य ही यह माना जाता है कि वह भगवान् की खोज करेगा -परंतु भगवान् की खोज के अंदर ईष्या, स्पर्द्धा, क्रोध आदि के लिये कोई स्थान नहीं । ये सब अहंकार की क्रियाएं हैं और भगवान् के साथ एकत्व प्राप्त करने में केवल बाधाएं ही उत्पन्न  कर सकती हैं ।

 

 बहुत अच्छा हो यदि मनुष्य यह याद रखे कि वह भगवान् की खोज कर रहा है और उसे ही अपने जीवन की संपूर्ण नियामक भावना और लक्ष्य बना ले । यही चीज माताजी को दूसरी किसी चीज से कहीं अधिक प्रसन्न करती है; ये ईर्ष्या-द्वेष और स्पर्द्धा और उनकी कृपा पाने की प्रतियोगिता आदि चीजें उन्हें केवल अप्रसत्र और दुःखी ही बना सकती हैं ।

 

३१ - १० - ११३५

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२८८


            प्रणाम के समारोह के समय मैं माताजी की क्रिया के रहस्य की थाह नहीं ले पाता : के क्या देती हैं और कैसे मैं उसे ग्रहण करता है । मेरे सिर पर उनके स्पर्श का या मेरी आखों में उनके दृष्टी डालने का आतंरिक अर्थ क्या है?

 

पहले तुम्हें आंतरिक अन्तर्ज्ञानमयी प्रतिक्रिया का विकास करना होगा - अर्थात् सोचने और देखने की क्रिया मन से कम और अन्तश्चेतना से अधिक करनी होगी । अधिकतर लोग सब कुछ मन से करते हैं, किंतु मन भला कैसे जान सकता है? मन तो अपने ज्ञान के लिये इन्द्रियों पर निर्भर करता है ।

 

१० - ७ - ११३६

 

*

 

माताजी की दृष्टि और आशीर्वाद देते हुए उनके हाथ के विषय में आश्रम में जो विचार फैला हुआ है वह पूर्ण रूप से अयुक्तिसंगत, मिथ्या और मूर्खतापूर्ण भी है । मैंने सैकड़ों बार लोगों को लिखा है कि यह सारी बात ही गलत है और उपद्रव खड़ा करने की दृष्टि से किये गये विरोधी शक्तियों के मिथ्या सुझाव पर अवलम्बित है । माताजी अपनी नाराजगी दिखाने के लिये या साधक के किसी कृत्य के कारण मुस्कुराना बंद नहीं करतीं या अपनी मुस्कुराहट या आशीवाद देने का ढंग नहीं बदलतीं । वह, जैसा कि कुछ लोग नाराजगी के साथ विश्वास करते हैं, इस ढंग से अपनी हंसी या आशीर्वाद की मात्रा ठीक नहीं करतीं जिससे प्रत्येक साधक के लिये उसके अच्छे या बुरे आचरण के अनुसार नम्बर प्राप्त हो जायें । इन परिवर्तनों का उद्देश्य, एक ही श्रेणी के छात्रों की तरह, प्रत्येक साधक के लिये प्रतिद्वन्द्विता में प्राप्त स्थान निश्चित करना नहीं है । ये सब विचार एकदम युक्तिविरुद्ध, नगण्य और अनाध्यात्मिक हैं । आश्रम कोई विद्यार्थियों की कक्षा नहीं है और न योग ही प्रतियोगितात्मक परीक्षा, (Competitive Exmation) है । यह सब संकीर्ण भौतिक मन और प्राणगत अहंकार तथा कामना-वासना की सृष्टि है । यदि साधक सच्चा आधार पाना चाहें और सच्ची उन्नति करना चाहें तो उन्हें इन विचारों को एकदम अपने मन से निकाल डालना चाहिये । परंतु उनके मन को यह मिथ्यापन इतना प्रिय है कि जो कुछ मैं लिख सकता हूं वह सब लिखने पर भी वे इससे हठपूर्वक चिपके रहते हैं । तुम्हें इससे पूरी तरह छुटकारा पा लेना चाहिये । प्रणाम के समय माताजी साधक की सहायता करने के लिये अपनी शक्ति देती हैं-साधक का यह

२८९


कर्तव्य है कि वह उसे चुपचाप और सरल भाव से ग्रहण करे, इन मूर्खतापूर्ण विचारों के द्वारा तथा यह सब देखने में ही उस अवसर को न खो दे कि कौन उनका हाथ और उनकी मुस्कुराहट अधिक पाता है और कौन कम । यह सब अवश्य दूर होना चाहिये ।

 

७-१९-१९३६

*

 

          प्रणाम के समय माताजी अपने विशेष हाव- भाव से हमें फया दिंखाना चाहती हैं? क्या उनका हाव- भाव सम्बद्ध व्यक्तियों के किसी कार्य को उनके पसंद करने या न करने को प्रकट करता है?

 

 वे तुम्हें कुछ भी नहीं दिखाना चाहतीं; माताजी का हाव- भाव साधकों के कार्यो या गलत कायों से कोई संबंध नहीं रखता । प्रणाम का प्रयोजन यह नहीं कि व्यक्ति माताजी के हाव- भाव को ध्यान से देखे या यह देखें कि अमुक- अमुक व्यक्ति के साथ वे क्या करती हैं या किस प्रकार मुस्कुराती हैं अथवा अपने हाथ के कितने भाग से आशीर्वाद  देती हैं -साधकों का इन चीजों में लगे रहना सुखातापूर्ण  है और अधिकांश में यह भ्रांत अनुमानों एवं कल्पनाओं से और बहुधा कौतूहल, गपशप की इच्छा, आलोचना आदि से भरा होता है । मन की ऐसी अवस्था साधना में बाधक ही होती है, सहायक नहीं । ठीक मनोभाव हे आत्मोत्सर्ग का भाव और माताजी जो कुछ देना चाहती हैं उसके प्रति सीधी-सादी और सरल ग्रहणशीलता का तथा सत्ता में उनकी क्रिया के प्रति क्षोभरहित तथा अक्षोभजनक उद्घाटन का भाव । 

 

*

 

 यह एकबारगी समझ लो कि माताजी प्रणाम का उपयोग अपनी प्रसन्नता और अप्रसन्नता प्रकट करने के लिये नहीँ कर रही; वह इस प्रयोजन के लिये अभिप्रेत नहीं । वह एकमात्र अवस्था, जिसमें प्रणाम के समय माताजी का मनोभाव साधक के कार्यो से प्रभावित हो सकता है, तब उत्पन्न होती है जब कोई भारी विश्वासघात या आध्यात्मिक जीवन के मुख्य नियमों का उग्र भंग होता है... अथवा जब साधक माताजी और योग का सुनिश्चित रूप से विरोधी बन गया होता है !परंतु ताब यह प्रणाम के समय अप्रसत्रता का बीशोष

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प्रकाशन नहीं बल्कि कृपा के दान का वापिस ले लेना होता है जो एक बिलकुल भिन्न बात है ।

 

*

बहुत-से साधकों को यह सोचने की आदत है कि माताजी नाराज हैं, उन्हें मुस्कान नहीं दे रहीं, कुपित हैं, जब कि बात इससे बिलकुल उलटी होती है । ऐसा साधारणतया तब होता है जब उनकी अपनी चेतना शांत नहीं होती अथवा जब वे अपने दोषों या उन अशुद्ध क्रियाओं या गलत कार्यो के विषय में सोच रहे होते हैं या उनसे सचेतन होते हैं जो उन्होंने किये हों । यह विचार कि माताजी कुपित हैं एक कल्पना ही है; यदि कोई ऐसी चीज हो जो सामान्यतया नहीं होती तो वह स्वयं साधक में होती है, माताजी में नहीं । 

 

*

 

 माताजी की शक्ति सर्वथा सुचारु रूप से और धीरे से उतर सकती है -उसके लिये हृदय के धड़कने, सिर में चक्कर आने या जी मिचलाने को कोई जरूरत नर्ही ।

 

माताजी तुम पर जरा भी गुस्सा नहीं थी । मैं समझता हूं तुमने आशा की थी कि वे गुस्सा होंगी और फिर बैसी ही तुम उन्हें देखते हो? सभी साधक ऐसा ही करते हैं और माताजी के चेहरे या ढंग में अपनी ही कल्पना की चीजों को देखने की इस आदत से मैं उन्हें अभी तक मुक्त नहीं कर पाया ।

 

*

 

        हम तो इसपर बहुत अधिक निर्भेंर करते हैं कि माताजी के तरीकों में हमारे लिये उनका प्रेम प्रकट होता दीखता दे या नहीं? हमें लगता हे कि इसे पाने पर हम उत्रति कर सकते हैं

 

प्रेम के भौतिक प्रकाशन की यह मांग मिटनी ही चाहिये .। यह साधना के मार्ग में एक भयंकर रोडा है । इस मांग की तुष्टि के द्वारा की गयी प्रगति एक असुरक्षित प्रगति है जो इसे लानेवाली शक्ति के द्वारा ही किसी भी क्षण नष्ट की जा सकती है ।

 

८ - १० - १९३५ २

 

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२९१


       मैने सुना है कि बहुत- सी साधिकाएं माताजी से इतना अधिक प्रेम करती हैं कि के उनके लिये मर-मिटने को तैयार हैं !परंतु यदि उनसे माताजी का प्रेम भौतिक रूप में कतई प्रकट न हो तो बे उनसे प्रेम नहीं कर पाती और कुछ-एक तो विद्रोह रोना- धोना या उपवास तक हरू कर देती है

 

यह तो स्वप्रेम ही है जो उनसे ऐसा कराता है । यह बिलकुल उसी प्रकार का प्राणिक प्रेम है जो लोगों में बाहरी दुनिया में होता है (किसी से अपने ही लिये प्रेम करना, अपने प्रेमपात्र के लिये नहीं) । यहां साधना में भला उसका क्या लाभ? वह केवल बाधक ही हो सकता है ।

 

१५ - १० - १९३५

 

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 वास्तव में मन .नहीं बल्कि निम्नतर प्राण प्रणाम के बाद विक्षब्ध हो उठता है  -बाकी सब चीजें सुझावों के रूप में अंदर आती है, क्योंकि इस विक्षोभ के द्वारा उनके लिये दरवाजा खुल गया होता है । साधना नष्ट करने के लिये विरोधी शक्ति के पास कुछ निश्चित युक्तियां हैं और उनमें से एक है निम्नतर प्राण में इस धारणा का होना कि प्रणाम के समय पूर्ण रूप से आशीर्वाद नहीं मिला है या मुस्कुराहट नहीं मिली है या ठीक तरह की मुस्कराहट नहीं मिली है या माताजी का चेहरा गंभीर और कठोर था । जो कोई इस भाव को अपने अंदर आने देता है उसी के मन में तुरत विद्रोह, अवसाद या असंतोष के सुझाव आ घुसते हैं । उसके लिये बस यही करना आवश्यक है कि इस भाव को स्वीकार करने की समस्त वृत्ति को यह जानते हुए कि यह विरोधी शक्ति के यहां से आयी हुई विष की बूंद है, धैर्यपूवक निकाल फेंका जाय ।

 

२८ - ७ - १९३६

 

*

 

निश्चय ही तुम्हारी कल्पना ही तुम्हें यह समझाती है कि माताजी प्रणाम के समय तुम्हारे प्रति ' उदासीन ' या ' कठोर ' थीं । माताजी तो, इसके विरुद्ध, तुम्हें सहायता करने के लिये आशीर्वाद देती हुई विशेष रूप से एकाग्र हुई थी । यहांपर कुछ साधक ऐसे हैं जो, जब-जब माताजी एकाग्र होती हैं तब-तब यह ० हैं कि '' आज आप मेरे ऊपर नाराज और कठोर क्यों थीं?'' फिर कुछ

२९२


दूसरे लोग ऐसे हैं जो, नित्थ के साधारण बर्ताव में जरा-सा भी अंतर पड़ा कि, चिल्ला उठते हैं और यह मान बैठते हैं कि निश्चय ही उसमें माताजी का कोई उद्देश्य होगा और वह उद्देश्य निश्चय ही उनके प्रतिकूल होगा, उदासीनता या अप्रसन्नता का कोई उद्देश्य होगा, और बहुत बार जब वे उन्हें उत्साह देने के लिये रोज से अधिक हंसती हैं तब वे उन्हें लिखते हैं कि आज आप बहुत गंभीर थीं और जरा भी नहीं हंसी । इस छूत की बीमारी को अपने पास मत फटकने दो और उनके जैसा मत बनो; क्योंकि जो सहायता दी जाती है उसके लिये यह बात बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करती है और प्राणगत भीषण उपद्रवों के लिये दरवाजा खोल देती है । विश्वास और भरोसा रखते हुए महज श्रीमां की सहायता की ओर अपने को खोलो, यही उनसे अपने को बहुत दूर अनुभव न करने का सबसे अच्छा उपाय है ।

 

श्रीमां को उस समय यह नहीं मालूम था कि ' अ ' के साथ तुम्हारी बातचीत हुई थी । अतएव तुम्हारा यह अनुमान कि वही उनकी काल्पनिक नाराजगी का कारण होगा, बिलकुल निराधार है । यह समझना एकदम गलत है कि माताजी साधकों पर अप्रसन्न और कुद्ध होती हैं और उस भाव को अपने कार्यो के द्वारा प्रणाम के समय प्रकट करती हैं । भगवान् या श्रीमां के विषय में ऐसे विचार बनाना एक बहुत बडी भूल है और तुम्हें ऐसी बात के चंगुल में नहीं फंसना चाहिये ।

 

५ -७ - १९३५

 

*

 

प्रणाम के समय जब माताजी नहीं हंसती-मुस्कुराती तो उसका कोई कारण नहीं होता; बल्कि करीब-करीब हर प्रसंग में ऐसा कारण होता है जिसका साधक के किसी कार्य के साथ कोई संबंध नहीं होता, -जो क्रिया हो रही है उसमें तल्लीन या एकाग्र होने के कारण यह होता है । जैसा कि तुम कहते हो, उससे कुछ भी नहीं आता-जाता -मुख्य बात यह है कि जो ग्रहण करने की चीज है उसे ग्रहण किया जाये ।

 

४ - ११ - ११३४

 

*

 

यह समझना भूल है कि माताजी के न मुस्कुराने का मतलब है उनकी अप्रसन्नता या साधक के अंदर की किसी अनुचित चीज की नामंजूरी । अधिकतर यह

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महज तल्लीनता का या आंतरिक एकाग्रता का चिह्न होता है । इस मौके पर माताजी तुम्हारे अंतरात्मा से एक प्रश्न पूछ रही थीं ।

 

३१ - ७ - ११३८

 

*

 

 यह बहुत शोचनीय बात है कि तुमने इस विचार को अपने अंदर आने तथा तुम्हें अस्तव्यस्त करने दिया कि माताजी तुम्हारे साथ कड़ाई से व्यवहार कर रही हैं । ये विचार कभी सच्चे नहीं होते और जब कभी कोई साधक इनमें ग्रस्त हो जाता है तो पुरानी चेष्टाएं उसपर सदा ही आक्रमण करती हैं । माताजी का प्रेम और दया तुम्हारे लिये सदा वैसे-के-वैसे रहे हैं और सदा वैसे-के-वैसे रहेंगे, अतः तुम्हें इस विचार को कभी प्रश्रय नहीं देना चाहिये कि वे अप्रसन्न या कठोर हैं । परंतु चाहे जो भी भूलें या कठिनाइयां हों । हमारी सहायता तुम्हारे साथ रहेगी और माताजी की शक्ति तुम्हें उनसे बाहर निकाल लाने और उस चैत्य उन्मीलन एवं शांति को फिर से प्राप्त कराने के लिये कार्य करेगी जो तुम्हें इस बार बहुत दिनों तक प्राप्त रहे और जो कुछ समय बाद अवश्य ही लौट आयेंगे तथा स्थायी हो जायेंगे ।

 

१९-११-१९३५

 

*

         जब लोग देखते हैं कि माताजी   सुरकुराने जगह  गंभीर  दिखायी दे रही हैं तो के व्याकुल हो उठते हौ उन्हें यह अनुभव न करना कठिन लगता है कि उन्होने किसी-न-किसी प्रकार माताजी को नाराज किया है।

 

इस कठिनाई का सारा आधार ही गलत है । यह विचार गलत है कि यदि माताजी गंभीर हैं तो अवश्यमेव उसका कारण '' मुझ '' से उनकी किसी प्रकार की व्यक्तिगत नाराजगी ही है -'' मुझ '' का मतलब है ऐसा हर एक साधक जो शिकायत करता है कि नाराजगी का कारण '' मैं '' ही हूं । मैंने इन शिकायतों पर सौ बार यह बात दुहरायी है कि असल में ऐसा नहीं है, किंतु कोई भी व्यक्ति इस विचार को छोड़ना नहीं चाहता -यह अहं के लिये इतना बहुमूल्य है । माताजी की गंभीरता का कारण होता है -किसी कार्य में जिसे वे कर रही होती हैं एक प्रकार की तल्लीनता अथवा, बहुत बार, वातावरण में विद्यमान

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विरोधी शक्तियों का कोई प्रबल आक्रमण ।

 

११ - ४ -१९ ३५

 

*

         कभी- कभी माताजी हम पर मुस्कान के साथ दृष्टि डालती हैं मानों के प्रसत्र हों; किर्न्ही और समयों में बिलकुल भित्र प्रकार से कुछ गंभीर ढंग से !

 

ऐसा क्यों न हो? क्या माताजी गंभीर, अपने में ही लीन नहीं हो सकतीं? अथवा क्या तुम सोचते हो कि साधकों से नाराजगी ही उन्हें ऐसा बना सकती है?

 

 १८ - ६- १९३३

 

*

     जब लोग प्रणाम के लिये माताजी के सामने से गुजर रहे होते हैं तो कभी- कभी व्यक्ति वातावरण से एक प्रकार का विषाद पकड़ लेता है ;वह मुख्यतया माताजी के मुस्कुराने या न मुस्कुराने से संबद्ध होता है

 

उसका कारण यह है कि बहुत-से साधक इस विचार से ओत-प्रोत हैं ! माताजी से कुछ ग्रहण करने के लिये शांत और एकाग्र रहने के स्थान पर वे यह देखने के लिये उनपर दृष्टि डाल रहे होते हैं कि वे मुस्कुराती हैं या नहीं अथवा कैसे मुस्कुराती हैं या क्या करती हैं । अतएव वायुमण्डल इसी चीज से भरा है ।

 

६ - १० - ११३३ 

 

*

        जब भौतिक सत्ता का श्रीमां  की दृष्टि से मिलन होता है तो वह उनकी मुस्कान की आवश्यकता अनुभव करती है क्या यह एक प्रकार की कामना है?

 

हां । जब मुस्कान प्राप्त न हो तो तुम्हारे अंदर किसी प्रकार की खलबली नहीं होनी चाहिये (यह जानते. कि उसका अभाव अप्रसन्नता का या इस प्रकार

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की किसी भी वस्तु का चिह्न नहीं) -तब उसे प्राप्त करने का आनंद अधिक शुद्ध होगा ।

 

११ - १२-१३३

 

*

 

निश्चय ही तुम्हें अपने प्राण की मांग को और तुम्हारी साधना में वह जो गड़बड़ी उत्पन्न कर रही है उसको दूर फेंक देना चाहिये । माताजी सबकी ओर मुस्कुराती हैं; यह बात नहीं है कि कुछ लोगों के लिये उसे रोक लेती और दूसरों को बांटती हैं । लोग जो अन्यथा समझते हैं उसका कारण यह होता है कि कोई प्राणगत विक्षोभ, अवसाद या मांग अथवा ईर्ष्या, द्वेष या प्रतियोगिता करने की कोई भावना उनकी दृष्टि को विकृत कर देती है ।

 

२७ - २ - ११३३

 

*

 

 उस दिन माताजी किसी के लिये नहीं मुस्कुराईं । वह व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिये ही नहीं था । एक विशेष प्रकार की शक्ति उनके अंदर कार्य कर रही थी जिसने सामान्य तरीके से कार्य नहीं किया ।

 

१० - ४ - ११३४ 

 

*

 

 यदि माताजी प्रणाम के समय साधक के सिर पर अपना हाथ नहीं रखतीं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे नाराज हैं -उसके एकदम दूसरे कारण हो सकते हैं । लोगों का यही विचार है पर वे इस विषय में एकदम गलत हैं । कुछ दिन हुए माताजी ने दो दिनों तक प्रणाम के समय एक साधिका के सिर पर अपना हाथ नहीं रखा । लोगों ने उसकी खिल्ली उड़ायी और उसे नीची नजर से देखा । परंतु सच बात यह थी कि उसे अद्भुत अनुभूतियां हो रही थीं और प्रणाम के समय साधारण दिनों की अपेक्षा वह माताजी से अधिक शक्ति पा रही थी । यह समूची भावना ही एक भूल है ।

 

 २ - ८ - ११३३

 

*

 

 यदि अहं माताजी के मुरककूराने से या हमारे सिर पर हाथ रखने से. चूक

 

 २९६


जाने के अनुसार अपने विद्रोह का निश्चय करता है तो यह कैसी बात है कि कई बार वह उनके ऐसा करने से वृक जाने पर भी शांत रह पाता

है?

 

अहं इन चीजों के अनुसार कार्य तभी करता है जब वह प्रबल होता है; जब वह प्रबल नहीं होता या वहां होता ही नहीं तो ये प्रेरक भाव कोई प्रभाव नहीं उत्पन्न कर सकते । सारा प्रश्न यह है कि क्या सत्ता का नेतृत्व अहं करता है या और कोई भाग । यदि नेतृत्व उच्चतर चेतना करती हो तो चाहे माताजी जरा भी न मुस्कुराये या हाथ बिलकुल न रखें तो भी अहमय प्रतिक्रिया कतई नहीं होगी । एक बार एक साधिका के साथ ऐसा ही हुआ । क्योंकि माताजी समाधि में थीं -परिणाम यह हुआ कि उस साधिका को उससे अधिक बल एवं आनंद प्राप्त हुआ जितना माताजी के पूरा हाथ रखने पर उसे पहले कभी प्राप्त हुआ था ।

 

११-११-१९३५

 

*

 

कल ऐसा हुआ कि प्रणाम के सँमय माताजी ने मेरे सि?रंपरं हाथ रखकर आशीर्वाद नहीं दिया 7 किंतु मैं प्रतिदिन की अपेक्षा अधिक आनंदित और हुआ इससे अधिक आस्माद क्यों मिला? ऐसा केवल मेरे साथ ही क्यों होता हे?

 

 ऐसी बात नहीं । दूसरों के साथ भी ऐसा हो चुका है । उनमें से कम-सेकम एक  (साधिका) को ऐसा भान हुआ था । उसे एक ऐसे अवसर पर माताजी की शक्ति प्रतिदिन की और साधारण अवसरों की अपेक्षा अधिक अपने अंदर प्रवाहित होती अनुभूत हुई थी । 

 

*

 

यह ठीक नहीं है । ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें माताजी बिलकुल नहीं मुस्कुराई और न (समाधि में रहने के कारण ) हाथ ही रखा, फिर भी समुचित और ग्रहणशील मनोभाव बनाये रखने के कारण साधक ने पहले के किसी भी समय से बहुत अधिक ग्रहण किया ।

 

*

२९७


माताजी की रहस्यपूर्ण मुस्कान के विषय में तुम्हारा ख्याल तुम्हारी अपनी कल्पना है -माताजी कहती हैं कि वह अत्यंत करुणा के साथ मुस्कुराई थी और उन्होंने तुम्हारे प्रति यथासंभव अत्यंत साहाथ्यपूण मनोभाव ही ग्रहण किया था । मैंने तुम्हें पहले भी लिखा था कि तुम्हें अपने और श्रीमां के बीच इन सब कल्पनाओं को कभी नहीं रखना चाहिये; क्योंकि जो सहायता दी जाती है उसे ये तुमसे दूर धकेल देती हैं । ये कल्पनाएं और तुम्हारे ऊपर उनका प्रभाव- ये सब उन्हीं प्राणमय शक्तियों के सुझाव हैं जो तुम्हें इसलिये उद्विग्न कर रही हैं कि तुम इस उपद्रव से मुक्त न हो जाओ ।

 

     मेरी सहायता और श्रीमां की सहायता मौजूद है -तुम्हें बस इन सबसे मुक्त होने के लिये उनकी ओर अपने को खोल रखना होगा ।

 

२७ - ३ - ११३३ 

 

*

 

 तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि माताजी नाराज डोंगी? हमने स्वयं तुमसे कहा है कि प्रत्येक चीज साफ-साफ लिखो और कोई चीज मत छिपाओ -सो, इसकी जरा भी संभावना नहीं है कि जो कुछ तुम लिखोगे उससे वे रुष्ट डोंगी । इसके अलावा, वे साधना और मानवीय प्रकृति की कठिनाइयों को खूब अच्छी तरह जानती हैं और अगर साधक में सदिच्छा और सच्ची अभीप्सा हो, जैसी कि तुममें है, तो किसी क्षण कोई ठोकर खाने या भूल कर बैठने के कारण साधक के प्रति उनके मनोभाव में कोई अंतर नहीं पड़ता । माताजी का ख्याल है कि तुम्हें गलत धारणा हो गयी होगी कि उन्होंने बस थोड़ा-सा ही हाथ रखा - क्योंकि उन्होंने ठीक वैसा ही तुम्हारे साथ किया जैसा कि बराबर करती है और ऐसा कोई कारण नहीं था जिससे उसमें कोई परिवर्तन हो ।

 

१७ - ४ - ११३३

 

*

 

मैं बिलकुल नहीं समझ पाता कि तुम यह क्यों सोचते हो कि, चाहे किसी भी कारण से क्यों न हो, माताजी तुमसे नाराज थीं । वे तुम्हारे साथ जैसी रहा करती हैं, ठीक वैसी ही थी । अगर तुमने कोई भूल भी की तो भी अब उनकी प्रवृत्ति यही है कि वे मूलों की उपेक्षा करें और सब कुछ ठीक करने के लिये दिव्य ज्योति तथा साधक के चैत्य पुरुष के दबाव के अधीन छोड़ दें । परंतु तुमने जो ' ' के साथ फ्रेंच क्लास बंद कर देना चाहा था उसके कारण या

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ऐसे ही किसी तुच्छ कारण से भला वे क्या कभी नाराज होंगी? तुम अपना क्लास जारी रखोगे या बंद कर दोगे -यह एक ऐसे ब्योरे की बात है जिसे तुम्हारे मन की अवस्था तथा तुम्हारी साधना की अवस्था को देखते हुए तय करना होगा और यह दोनों ही दृष्टियों से तय की जा सकती है । यह आश्चर्य की बात है कि तुम यह समझो कि ऐसी मामूली बात पर भी माताजी नाराजगी दिखा सकती हैं । तुम्हें इस तरह की स्नायविक दुर्बलता से मुक्त होना चाहिये और कल्पनाओं के द्वारा अपनी अच्छी स्थिति को नहीं बिगाड़ना चाहिये - कारण, यह बस एक कल्पना है क्योंकि इसके पीछे कोई भी सत्य नहीं । अधिक पूर्ण विश्वास बनाये रखो और जहां कोई कठिनाई नहीं है वहां अपने मन को कठिनाइयां पैदा मत करने दो । 

 

*

 

चाय के संबंध में माताजी तनिक भी नाराज नहीं थीं; उसके लिये भला वे क्यों नाराज होतीं? और वे तुम्हारे ऊपर भी एकदम नाराज नहीं थीं । रोज की तरह ही वे तुम्हारी ओर मुस्कुराई -तुम शायद और कोई बात सोच रहे होगे और उसे देखा नहीं होगा । अतएव तुम्हारे उदास होने का कोई कारण नहीं है -तुम्हें इन सब विचारों को एक ओर फेंक देना चाहिये, माताजी ऐसी तुच्छ बातों पर नाराज नहीं हुआ करतीं ।

 

३० - ११ - १९३३

 

*

 

 एकदम ठीक, मैं कहता हूं, ''माताजी का मुस्कराना या न मुस्कुराना तुम्हारे अंदर की किसी चीज से कोई संबंध नहीं रखता । '' मैं यह भी कहता हूं कि  '' तुम्हारा स्वयं सचेतन होना ही, माताजी का कोई असंतोष नहीं, तुम्हें सचेतन बनाता है -उनकी महज उपस्थिति ही वह चीज है जो तुम्हारे लिये अपने विषय में सचेतन होना संभव बनाती है, कोई नाराजगी, कोई उदासी- भरी दृष्टि ऐसा नहीं करती ।

 

*

 

'' ऐसी कोई संभावना नहीं कि माताजी तुमपर वैसी '' दृष्टि '' डालें जिससे तुम डर रहे हो । अपनी ओर से किसी ऐसी चीज की कल्पना मत करो जो है ही नहीं -कितने ही लोग फिर भी ऐसा कर रहे हैं ।

 

२९९


 निस्सन्देह, यह पुरानी प्राण-सत्ता की खडी की हुई पुरानी क्खं इ ने रु छैं जा रही है और उसीके कारण यह झुंझलाहट तथा माताजी की, अप्रसन्नता के विषय में ये सुझाव उत्पत्र हो रहे हैं । क्योंकि, सच पूछा जाये तो, श्रीमां के मन में तुम्हारे विरुद्ध किसी प्रकार का असंतोष नहीं था और यह विचार साधारणतया साधक के मन में दिया हुआ उस शक्ति का सुझाव होता है जो चले जाने की इच्छा या कोई अन्य प्रकार का असंतोष या अवसाद उत्पन्न करना चाहती है । यह एक अद्भुत ढंग का भ्रम है जिसने, मानों, आश्रम के वातावरण में अपनी जड जमा ली है और यह व्यक्तिगत प्राण-सत्ता के द्वारा उतना पोषण नहीं पाता जितना कि उन शक्तियों के द्वारा पाता है, जो अगर संभव हो तो, साधना को ही भंग कर देने के लिये उसपर कार्य करती हैं । इस चीज को तुम्हें जरा भी प्रश्रय नहीं देना चाहिये अन्यथा यह चाहे जितना भी उपद्रव खडा कर सकती है । समुचित नींद का अभाव स्वभावत: ही स्नायुओं में थकावट की एक अवस्था ले आता है और वह थकावट इन चीजों के आने में सहायता करती है - क्योंकि ये चीजें भौतिक चेतना के भीतर से आक्रमण करती हैं और अगर किसी तरह वह थकावट उस चेतना को तामसिक बना दे तो उनका प्रवेश करना अधिक आसान हो जाता है ।

 

१५ - १ - ११३६

 

*

 

माताजी का रुख तुम्हारे प्रति किसी तरह बदला नहीं है और न वह तुमसे निराश ही हुई हैं-वह तो स्वयं तुम्हारी ही मानसिक अवस्था से आया हुआ एक सुझाव है और माताजी के ऊपर असंतोष और अयोग्यता का अपना झूठा बोध आरोपित कर रहा है । अपना भाव बदलने या निराश होने का उनके पास कोई कारण नहीं है । क्योंकि वे तुम्हारे अंदर की प्राणगत बाधाओं को हमेशा से जानती हैं ओर फिर भी उन्होंने आशा की थी, और अब भी करती हैं कि तुम इन्हें जीत सकोगे । कुछ चीजों को, जो मानव-स्वभाव के मूल में ही निहित प्रतीत होती है, परिवर्तित करने की पुकार करना सबसे अच्छे साधकों के लिये भी कठिन सिद्ध हो रहा है, परंतु कठिनाई का होना असमर्थता का प्रमाण नहीं है । चले जाने की ठीक इस प्रेरणा को ही तुम्हें अपने अंदर घुसने न देना चाहिये -क्योंकि जबतक ये शक्तियां यह समझती हैं कि वे ऐसा करा सकती हैं तबतक वे इस बात पर यथाशक्ति जोर देती रहेंगी । तुम्हें अपने उस अंग में माताजी की शक्ति की ओर अधिक अ भी चाहिये और इसके लिये माताजी

३०० 


के असंतोष या उनके प्रेम  के अभाव से संबंधित इस सुज्ञाब से छुटकारा पाना आवश्यक है, क्योंकि यही प्रणाम के समय प्रतिक्रिया उत्पत्र करता है । हमारी सहायता, सहारा, प्रेम सब पहले की तरह ही बराबर मौजूद हैं -उनकी ओर अपने को खुला रखो और उनकी सहायता से इन सुझावों को दूर भगाओ ।

 

२६ - १ - ११३७

 

*

 

माताजी ने ठीक रोज की तरह ही अपना हाथ रखा था । और केवल इतना ही नहीं, बल्कि ज्यों ही उन्होंने देखा कि तुम्हारी आंतर स्थिति को विशेष सहायता की आवश्यकता है त्यों ही उन्होंने सहायता देने की कोशिश की । परंतु, जब कि तुम इस अवस्था में हो, यह दुर्भाग्य की बात है कि तुम दुःख शोक की भावना में इतने अधिक डूब गये हो कि ऐसा और कोई भी अनुभव नहीं कर पाते जो कि दुःख-कष्ट में सहायता या वृद्धि नहीं करता । हमारी सहायता सर्वदा तुम्हें प्राप्त है; ऐसा कोई कारण हरगिज नहीं है कि हम उसे वापस ले लें । अगर कोई आश्रम में घोर विपत्ति में होता है तो वह विपत्ति हमारे ऊपर पड़ी है और उसमें भी अधिक माताजी के ऊपर - अतएव यह मानना मूर्खता पूर्ण है कि किसी आदमी का दुःख देखकर हमें आनंद हो सकता है । दुःख-कष्ट, बीमारी, प्राणिक तूफान (कामना-वासना, विद्रोह, क्रोध) इत्यादि इतनी अधिक विपरीत चीज़ें हैं जिन्हें दूर करने का हम प्रयास कर रहे हैं और इसलिये हमारे कार्य में बाधाएँ हैं । जितना शीघ्र संभव हो, उनका अंत कर देना ही एकमात्र संकल्प है जिसे हम रख सकते हैं, न कि उन्हें बनाये रखने की इच्छा ।

 

काश, जब ये तूफान आते हैं तब तुम यदि कहीं अपने अंदर इनसे अलग हट आने की शक्ति प्राप्त कर पाते, जो प्रेरणा या विचार उठते हैं उनके प्रवाह में न बह जाते! तब ऐसी कोई चीज होती जो सहारे को अनुभव कर पाती और इन शक्तियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया करने में भी समर्थ होती ।

२८ - ६- ११३५

 

*

 

यह पूर्ण रूप से गलत बात है कि आज माताजी तुम्हें दूर ठेल रही थीं । ऐसे दिन हो सकते हैं जब वे गंभीरता में डूब जायें और इसलिये बाह्य रूप में उन्हें ध्यान न रहे कि उनका हाथ क्या कर रहा है । परंतु आज तो उन्होंने विशेष रूप से ल ओर ध्यान दिया था और प्रणाम के समय शांति और समता

३०१ 


लाने और कठिनाई को दूर करने के लिये तुम्हारे ऊपर वे शक्ति का प्रयोग कर रही थीं । यदि उन्होंने अपनी हथेली या अन्य किसी चीज से कार्य किया भी हो तो वह इसी कार्य के लिये । इस विषय में कोई भूल नहीं हो सकती, क्योंकि वे आज अपने कार्य और उद्देश्य के विषय में विशेष रूप से सचेतन थीं । हुआ यह होगा कि तुम्हारे अंदर की किसी चीज ने दबाव का अनुभव किया और हस्तक्षेप करके इस सुझाव के द्वारा तुम्हारे भौतिक मन को प्रभावित किया होगा कि माताजी कठिनाई को नहीं, तुम्हें ही धकेल रही हैं । यह बहुत स्पष्ट उदाहरण है कि साधकों के लिये गलत अनुमान करना और माताजी जो कुछ कर रही हों उसको उलटे रूप में समझना कितना आसान है । अनेक बार जब उन्होंने उनकी कठिनाइयों को बाहर ढकेलते हुए उन्हें सहायता देने के लिये अत्यधिक एकाग्रता की तब उन्होंने (साधकों ने) उन्हें लिखा -'' आज सवेरे आप मेरे प्रति बहुत कठोर और नाराज थीं । '' इन गलत प्रतिक्रियाओं से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि माताजी पर पूर्ण चैत्यपुरुषोचित आस्था रखी जाये और यह विश्वास किया जाये कि माताजी जो कुछ कर रही हैं वह सब उनके भले के लिये है और भगवती माता के तत्त्वाधान में उनके होने के कारण कर रही हैं, उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर रही हैं । तब इस तरह की कोई भी बात घटित नहीं होगी । जो लोग ऐसा करेंगे वे उनकी एकाग्रता की, अगर वे अपनी तल्लीनता के कारण हाथ से न छुए या न मुसकराई तो भी, पूरी सहायता प्राप्त कर सकते हैं । इसी कारण मैं लगातार साधकों से कहता आ रहा हूं कि प्रणाम के समय माताजी के बाह्य स्वरूप या क्रियाओं का वे अपना निजी अर्थ न लगायें-क्योंकि ये अर्थ सर्वदा ही गलत होंगे और निराधार अवसाद और आक्रमण के लिये दरवाजा खोल देंगे ।

 

२३ - १ - ११३५ 

 

*

 

मुस्कान और स्पर्श-संबंधी इस आवेश को जीतना होगा और इसका त्याग करना होगा, क्योंकि यह साधकों को विचलित करने और उनकी उन्नति को रोकने के लिये विरोधी शक्तियों का एक साधन बन गया है । मैंने बहुत से ऐसे प्रसंग देखे हैं जिनमें साधक अच्छी तरह चल रहा है या यहांतक कि ऊंची अनुभूतियां पा रहा है और उनकी चेतना में परिवर्तन आ रहा है और अकस्मात् उसकी कल्पना आ उपस्थित होती है और सब कुछ अस्त-व्यस्तता, विद्रोह, शोक-संताप और निराशा में परिणत हो जाता है और आंतरिक कार्य रुक

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जाता है और खतरे में पड़ जाता है । अधिकतर क्षेत्रों में इस आक्रमण के साथ- साथ इन्द्रियों में भ्रम उत्पन्न होता है जिससे यदि माताजी रोज की अपेक्षा अधिक मुस्कराती हैं अथवा अपनी सारी शक्ति लगाकर आशीर्वाद देती हैं तो भी उनसे कहा जाता है कि '' आप नहीं मुसकराई, आपने स्पर्श नहीं किया '' या  '' आपने मुश्किल से स्पर्श किया । '' फिर ऐसे उदाहरण भी बहुतेरे देखे गये हैं  -माताजी मुझसे कहती हैं, '' मैंने ' ' को घबराया हुआ देखा या उसकी ओर एक सुझाव आते हुए देखा और मैं उसकी ओर बहुत करुणा के साथ हंसी और उसे आशीर्वाद दिया '', और फिर भी बाद में हम उससे एकदम उलटी बात, '' आप नहीं मुस्कुराई आदि '' की स्थापना करनेवाला पत्र पाते हैं । और तुम सब माताजी पर झूठ का आरोप लगाने के लिये तैयार बैठे हो । क्योंकि तुमने समझा कि तुमने देखा ओर तुम्हारी इन्द्रियों को कोई धोखा नहीं हो सकता! मानों वि क्षुब्ध मन इन्द्रिय-दर्शन को भी विकृत न करता हो! मानों मनोविज्ञान का यह एक सामान्य तथ्य न हो कि मनुष्य अपनी मानसिक स्थिति या विचार के अनुसार धारणा बनाता है! यदि मुस्कान या स्पर्श कम भी हो तो ये ऐसे उलाहनों के कारण नहीं होने चाहियें यदि उनके पीछे कोई इरादा न हो और हमने तुम सबको बार-बार चेतावनी दी है कि उनमें एकदम कोई भी इरादा नहीं है । निःसंदेह, कारण यह है कि साधक माताजी के प्रति प्राणगत मानवीय प्रेम की क्रियाओं का प्रयोग करते हैं और साधारण प्राणगत मानवीय प्रेम अविश्वास, ग़लतफ़हमी, ईर्षा, क्रोध और निराशा आदि विरोधी गतियों से भरा होता है । परंतु योग में यह अत्यंत अवांछनीय है -क्योंकि यहां माताजी पर विश्वास, उनके दिव्य प्रेम पर श्रद्धा रखना बहुत आवश्यक है; जो कोई चीज इसे अस्वीकार करती या विकृत करती है वह बाधाओं और अनुचित प्रतिक्रियाओं के लिये दरवाजा खोलती है । ऐसी बात नहीं कि प्राण में प्रेम होना ही नहीं चाहिये । बल्कि उसे इन सब प्रतिक्रियाओं को दूर कर अपने को शुद्ध करना चाहिये और चैत्य पुरुष के विश्वास और आस्था युक्त आत्मदान को अपने अंदर स्थापित करना चाहिये । तब फिर पूरी-पूरी उन्नति हो सकती है ।

 

 ३० - ६ - ११३५

 

*

 

इन सब चीजों का पूर्णरूपेण त्याग होना चाहिये । जब ये उठती हैं तब प्रायः ही चेतना को इतना अधिक ऐंठ देती हैं कि कभी-कभी तो स्वयं दृष्टि को और बराबर ही बोध को '०० बना देती हैं । माताजी ने निरन्तर देखा है कि जिन

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लोगों की ओर वे मुस्कुराई थीं वे उनसे कहते है कि वे घूर रही थीं और कठोर थी या वे असंतुष्ट थी जब कि उनमें कोई असंतोष नहीं था । और फिर उसी आधार पर वे एकदम गलत रास्ते पर चले जाते हैं ।

 

१०- ४-१९३३

 

*

 

मैं देखता हूं कि हर सायंकाल कोई सत्ता यह कहती हुई  मुझपर  सुझाव फेंकती है? '' भगवान् ' पसंद नहीं करते '' हाल में उन ' की आग्रह- शक्ति बड़ गयी है । मैं उन्हें बाहर फेंकने के लिये भरसक यत्न करता है पर कुछ भी सफलता नहीं मिलती? मेरी प्रार्थना है कि माताजी इस सत्ता को मेरे पास आने से सदा के लिये रोक दें !

 

वह सत्ता क्या है? किसी प्राणिक लोक की है क्या?

 

हां, वह प्राणिक लोक से आनेवाली एक मिथ्यात्व की सत्ता है जो यह यत्न करती है कि व्यक्ति उसके झूठे सुझावों को सत्य मान ले और इस प्रकार उसकी चेतना गड़बड़ा जाये, वह सरल मार्ग छोड़ दे और या तो विषाद में पड़ जाये या फिर माताजी के विरुद्ध हो जाये । यदि तुम उसे सदा ही बाहर फेंकते रहो, उसपर कान देने या विश्वास करने से इनकार करते रहो तो वह लुप्त हो जायेगी ।

 

 ३० - ३ - ११३३

 

माताजी की झूठी आलोचना को सुनना उचित नहीं

 

' ' को इस विषय में सावधान कर देना लाभदायी हो सकता है कि वह  (माताजी के विषय में) इस तरह की मूर्खतापूर्ण टिप्पणियां न सुने, भले ही वे किसी भी व्यक्ति की क्यों न हों, और, अगर वह उन्हें सुने तो उनका प्रचार करने का प्रयास न करे । वह बहुत अच्छी तरह उन्नति कर रहा था, क्योंकि उसने अपने को माताजी की ओर खोल रखा था; अगर वह इस तरह की अता अपने मन में घुसने दे तो वह उसे प्रभावित कर सकती है, माताजी की ओर से उसे बंद कर सकती है और उसकी उन्नति रोक सकती है ।

 

' ' का जहांतक संबंध है, यदि (माताजी के विषय में ) उसने ऐसी बात कही या सोची तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इसी कारण वह हाल में इतनी अधिक बीमारी भोगता रहा है । यदि कोई विरोधी शक्तियों का प्रचारकर्ता बन

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 जाये और उनके मध्याह्न को रबीकार करे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं की उसके भीतर कोई चीज बिगड़ जाये ।

 

७ - १ - ११३२

 

माताजी की बीमारी के कारण

 

माताजी पर बहुत उग्र आक्रमण हुआ  है और इस बात को दृष्टि में रखते हुए कि २४ नवम्बर का दिन उनके लिये कितना आयासपूर्ण होगा उन्हें अपनी शक्तियों का प्रयोग पूर्ण मितव्ययता से करना होगा । इस बीच उनके लिये हर एक से मिलने और सबके लिये द्वार खुला रखने का प्रश्न बिलकुल नहीं उठता -एक प्रातःकाल ही इस प्रकार का कार्य करने से वे बिलकुल थककर चूर हो जायेंगी । तुम्हें याद रखना होगा कि उनके लिये दूसरों के साथ इस प्रकार का भौतिक सम्पर्क कोई निरी सामाजिक या घरेलू भेंट नहीं जिसमें कुछ-एक ऐसी ऊपरी क्रियाएं करनी होती हैं जिनमें कुछ इधर-उधर होने पर भी कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता । उनके लिये इसका अर्थ है एक प्रकार का आदान-प्रदान, अपनी शक्तियों को दूसरों पर उड़ेलना और उनसे अच्छी, बुरी और मिश्रित वस्तुओं को ग्रहण करना । इस क्रिया में बहुधा समायोजन और बहिष्करण का बड़ा भारी श्रम करना पड़ता है और इससे सभी व्यक्तियों के तो नहीं पर बहुतों के मामले में उनके शरीर पर कठोर तनाव पड़ता है । यदि केवल दो या तीन व्यक्तियों का ही प्रश्न होता तो वह एक भिन्न बात होती; पर यहां तो सारे आश्रम का प्रश्न है, माताजी ने अपने दरवाजे खोले नहीं कि यहां का प्रत्येक व्यक्ति अपनी- अपनी मांग लादने के लिये तैयार बैठा है । निश्चय ही तुम, उनके स्वास्थ्य और सामर्थ्य लाभ करने से पहले, उन पर यह सब भार नहीं डालना चाहते! माताजी ने अपने शरीर या स्वास्थ्य की उसी की खातिर कभी जरा भी परवाह नहीं की और उनके शरीर या स्वास्थ्य की जो क्षति हुई है उसका एक कारण यह उदासीनता ही रही है, चाहे है यह केवल एक बाहरी कारण ही, अतएव स्वयं काम के हित की दृष्टि से भी मुझे इस बात पर आग्रह करना होगा कि वे कार्य का पुनः आरम्भ धीमे-धीमे ही करें और शुरू में केवल उतना ही काम करें जितना उनका स्वास्थ्य सहन कर सके । मुझे लगता है कि जो भी लोग उनका कुछ ख्याल करते हैं उन सबको उसी प्रकार का अनुभव करना चाहिये जिस प्रकार मैं करता हूं ।

 

१२ - ११ - ११३१

 

*

३०५ 


मैंने जल्दी ही लिखने की आशा की थी, परंतु मैं लिख न सका । अतएव, चूंकि आज सवेरे यह पत्र तुम्हें भेजने का मैंने वायदा किया है इसलिये मैं अभी दूसरी बात के विषय में, बस इतना ही दुहराऊंगा कि मैंने यह नहीं कहा है कि किसी भी अंश में तुम या साधारण रूप में साधकगण माताजी की बीमारी के कारण थे । एक दूसरे आदमी को, जिसने उसी व्यक्तिगत स्थिति से उसी तरह की कुछ बात लिखी थी, मैंने उत्तर दिया था कि माताजी की बीमारी विश्वगत शक्तियों के साथ संघर्ष होने के कारण हुई थी जो किसी व्यक्ति या व्यक्तिसमूह के दायरे से बहुत परे था । मैंने भौतिक संपर्क के कारण माताजी पर जोर पड़ने की बात के विषय में जो लिखा था वह उनके फिर से काम आरंभ करने से संबंध रखता था - और उसका संबंध उन अवस्थाओं से है जिनमें काम सबसे उत्तम रूप में हो सकता है ताकि ये शक्तियां भविष्य में लाभ न उठा सकें । विगत वर्षा में संभवत: वस्तुओं के अनिवार्य विकास के कारण अवस्थाएं विशेष रूप में कठिन रही हैं, जिसके लिये मैं किसी को उत्तरदायी नहीं समझता; परंतु अब जब कि साधना अत्यंत भौतिक स्तर पर उतर आयी है जहां अभी भी विरोधी शक्तियां आघात कर सकती हैं, यह आवश्यक है कि कुछ परिवर्तन किया जाये और वह परिवर्तन साधकों के आंतरिक मनोभाव में परिवर्तन आने पर बहुत उत्तम रूप में साधित हो सकता है; क्योंकि केवल वही इस समय -  -जबतक कि निश्चित रूप में अतिमानसिक ज्योति और शक्ति का अवतरण नहीं हो जाता -बाहरी अवस्थाओं को अधिक आसान बना सकता है । परंतु इस विषय में मैं एक पत्र के पुनश्च में कुछ नहीं लिख सकता ।

 

१ ६- ११ - १९३१

 

*

 

 अभीतक मैंने माताजी की बीमारी के विषय में कुछ नहीं कहा है, क्योंकि इसके लिये इस बात पर विस्तार के साथ विचार करने की आवश्यकता होगी कि ऐसे कार्य के केंद्र में जो लोग होते हैं उन्हें क्या-क्या होना होता है, मानवीय या पार्थिव प्रकृति और उसकी सीमाओं में से उन्हें स्वयं अपने ऊपर क्या लेना होता है और रूपांतर की कितनी अधिक कठिनाइयों को उन्हें सहना पड़ता है । यह सब अपने- आपमें मन की समझ में आने में ही केवल कठिन नहीं है बल्कि इसे इस तरह लिखना भी मेरे लिये कठिन है जिसमें उन लोगों की भी समझ में यह आ जाये जिन्हें हमारी चेतना या हमारी अनुभूति प्राप्त नहीं है । मैं समझता ' कि इसे लिखना ही होगा, पर अभी 'उ न तो इसकी

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आवश्यक रूप-रेखा ही मिली है और न आवश्यक अवकाश !  

 

१९ - ११ - १९३१ 

 

*

 

माताजी पर श्रद्धा रखकर बीमारी से मुक्त हो जाना साधक के लिये बहुत अधिक आसान है, स्वयं माताजी के लिये बीमारी से मुक्त रहना उतना आसान नहीं -कारण । माताजी के कार्य का स्वरूप ही ऐसा है कि उन्हें साधकों के साथ अपना तादात्म्य बनाये रखना पड़ता है, उनकी सभी कठिनाइयों को वहन करना पड़ता है, उनकी प्रकृति के सारे विष को अपने अंदर ग्रहण करना पड़ता है और उसके साथ-साथ विराट  पार्थिव प्रकृति की समस्त कठिनाइयों को, मृत्यु और रोग की संवनाओं तक को अपने ऊपर लेना होता है जिससे कि मुकाबला करके उन्हें खतम किया जाये । अगर वे ऐसा न करती तो एक भी साधक इस योग की साधना करने में समर्थ न होता । भगवान् को इसलिये मानवत्व ग्रहण करना पड़ता है कि मनुष्य भी भगवान् तक ऊपर उठ सके । यह एक सीधा-सा सत्य है; पर मालूम होता है कि कोई भी यह समझ नहीं पाता कि भगवान् यह सब कर सकते हैं और फिर भी मनुष्य से भिन्न बने रह सकते हैं -फिर भी वे भगवान् बने रह सकते हैं ।

 

८-५-१९३३

 

*

 

आश्रम के लोग यह विश्वास करते हैं कि उनकी कठिनाइयों और  बीमारियों  को माताजी अपने ऊपर ले लेती हैं और इसलिये कभी-कभी उन्हें दुख भोगना पड़ता है! परंतु बात यदि ऐसी है तब तो स्तुत-से साधकों से उनके ऊपर ऐसी चीजों की भयंकर बाड़- सी आ सकती है । मेरे मन में यह विचार आता है कि इन कठिनाइयों मेरा बीमारियों में से कुछ को मैं अपने ऊपर ले लूं जिसमें मैं भी उनके साथ दूःख भोग सकृं /

 

सुखपूर्वक? और चाहे कुछ हो, पर वह तुम्हारे या हमारे लिये कम-से-कम सुख तो हर्गिज न होगा । उसमें सुख नाम की कोई चीज न होगी ।

यह एक सच्चे तथ्य का मानों भद्दा और स्थूल वर्णन है । अपना काम करने के लिये माताजी को अपनी व्यक्तिगत सत्ता और चेतना के अंदर सभी साधकों को लेना पड़ा इस तरह व्यक्तिगत रूप से (केवल निर्बोयक्तिक रूप से

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ही नहीं ) उनके अंदर ले लिये जाने के कारण साधकों के सभी संघर्ष  और कठिनाइयों, उनकी बीमारियों आदि के साथ, इस रूप में माताजी के ऊपर आ पड़ीं जिस रूप में, यदि उन्होंने पृथक्त्व के आत्मसंरक्षण का त्याग न किया होता तो, न आयी होतीं । केवल दूसरों की बीमारियां ही उनके शरीर पर होने वाले आक्रमणों में नहीं बदलीं -इनके विषय में ज्यों ही वे देखती कि वे कहां से और क्यों आयी हैं त्यों ही साधारणतया वे उन्हें दूर फेंक देतीं -बल्कि लोगों की आंतरिक कठिनाइयों, विद्रोहों, उनके विरुद्ध क्रोध और घृणा के उद्गारों का भी वही या उससे भी बुरा प्रभाव पड़ा । उनके लिये केवल वही खतरा था (क्योंकि आंतरिक कठिनाइयां आसानी से जीती जा सकती हैं), पर जड़तत्त्व और शरीर हमारे योग के दुर्बल या संकटपूर्ण स्थल हैं, क्योंकि यह क्षेत्र आध्यात्मिक शक्ति द्वारा कभी जीता नहीं गया है, पुराने योगों ने या तो इसे यों ही छोड़ दिया या इसपर  केवल छोटी-मोटी मानसिक और प्राणिक शक्ति का ही प्रयोग किया, साधारण आध्यात्मिक शक्ति का नहीं, यही कारण था कि आश्रम-वातावरण की अत्यंत बुरी अवस्था के कारण उनके बहुत अधिक बीमार हो जाने के बाद मैंने उनपर दबाव डाला कि वे कुछ समय आशिक एकान्तवास करें जिसमें उनपर पड़नेवाले दबाव का अत्यंत ठोस अंश कुछ कम हो जाये । स्वभावत: ही भौतिक स्तर पर पूरी विजय हो जाने पर सभी बातों में क्रांति आ जायेगी, पर अभी तक तो यह संघर्ष का ही क्षेत्र है ।

 

३१-३-१९३४

 

*

 

क्या यह अनिवार्य नहीं  है कि परिवर्तन और रूपांतर की इस प्रक्रिया  में ये बाधाएं उक्तव और विद्रोह प्रत्येक साधक के अंदर उठ खड़े हों? क्या कोई आदमी अपनी साधना के प्रारंभ में ही इन सब चीजों को दूर कर सकता है जिससे माताजी को स्वयं अपने ऊपर लेने के लिये ये चीज़ें कम हो जायें?

 

पार्थिव चेतना का स्वरूप और मनुष्य-जाति की प्रकृति अभी जैसी है उसे देखते हुए ये चीज़ें कुछ अंश में अनिवार्य हैं । केवल थोड़े -से लोग ही इनसे बचते हैं, उनमें महज कुछ मामूली विरोधी क्रियाएं होती हैं । परंतु कुछ समय बाद ये चीज़ें दूर हो जानी चाहियें । व्यक्तियों में से तो ये इस प्रकार दूर हो जाती हैं -परंतु  इन्हें आश्रम के वातावरण में से करना  कठिन प्रतीत

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होता है -एक-न-एक इन्हें बराबर लेता रहता है और उससे ये दूसरों में भी फैलने की चेष्टा करती हैं । निश्चय ही, इसका कारण यह है कि अज्ञान के अनुसार जीवन के तत्त्वों में से एक तत्त्व इनके पीछे विद्यमान है -वह है गहराई तक जड़ जमाये हुई प्राण-प्रकृति की एक प्रवृत्ति । परंतु साधना का उद्देश्य ही है उसे जीतना और उसके स्थान पर एक सत्यतर और दिव्यतर प्राण-शक्ति को ला बिठाना ।

 

१ - ४ - ११३४

 

*

 

जो कुछ तुमने देखा वह ठीक है; पर साधक का भाव यदि सच्चा चैत्य भाव हो तो माताजी को कोई कष्ट उठाना नहीं पड़ता; अपने ऊपर कोई चीज आये बिना वे साधकों पर कार्य कर सकती हैं ।

 

२२ - १ - १९३७

 

*

 

माताजी पर फेंकी हुई साधकों की अशुद्धि यों के कारण ऐसा हुआ है ।

 

    भौतिक प्रकृति का रूपांतर होने से पहले इसका कोई उपाय निकालना संभव नहीं प्रतीत होता । यदि माताजी अपने और साधकों के बीच एक आंतरिक दीवार खड़ी कर दें तो यह नहीं होगा, पर साधक माताजी से कुछ भी पाने में असमर्थ होंगे । अगर सब लोग अधिक सावधान होकर अपनी गंभीरतर और उच्चतम चेतना के साथ उनके पास आयें तो इन चीजों के होने की संभावना कम होगी ।

 

दूसरों की सहायता करने का खतरा उनकी कठिनाइयों को अपने ऊपर लेने का खतरा है । अगर कोई अपने को पृथक् रखते हुए सहायता कर सके तो फिर ऐसा नहीं होता । परंतु सहायता करने के समय उस व्यक्ति को अंशत: या मूलत: अपनी बृहत्तर आत्मा में ले लेने की प्रवृत्ति रहती है । यही चीज माताजी को साधकों के साथ करनी पड़ती है और यही कारण है कि उन्हें कभी-कभी दुःख झेलना पड़ता है, क्योंकि कोई मनुष्य हमेशा किसी... से सावधान नहीं रह सकता ।

 

जब मनुष्य तल्लीन होता है या काम में लगा होता है तब सर्वदा ही यह कठिनाई होती है कि जिस व्यक्ति को सहायता दी जाती है वह तुम्हारी शक्तियों का आहरण करने और खींचने का अभ्यासी हो जाता है वह? ऊपर नहीं

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छोड़ देता कि तुम जो दे सको या जो देना उचित हो बस उतना ही उसे दो । अन्य छोटी-छोटी बहुत-सी बातों का सामना सहायता करनेवाले को करना पड़ता है ।

 

२१ - १ - ११३५

 

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ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्होंने अतीत काल में ऐसा किया । मुझे मालूम नहीं कि वह अब भी ऐसा करता है । परंतु माताजी पर फेंके गये सब बुरे विचार या उनपर मलिनताओं का फेंकना उनके शरीर पर प्रभाव डाल सकता है क्योंकि उन्होंने साधकों को अपनी चेतना में ले रखा है, वे इन चीजों को उनके पास वापिस भी नहीं भेज सकतीं क्योंकि इससे उन्हें ठेस पहुंच सकती है ।

 

१७ - ३ - ११३६

 

*

 

मलिनताओं को अपने अंदर खींचने की माताजी को लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं -ठीक वैसे ही जैसे साधक को मलिनता को अपने अंदर आने के लिये निमंत्रित करने की जरूरत नहीं । मलिनता को तो परे फेंकना है न कि भीतर खींचना ।

 

१८ - ३ - १९३६ 

 

*

 

कामनाओं, अपूर्णताओ, अपवित्रताओं, बीमारियों आदि को माताजी के ऊपर उतार फेंकने की भावना, जिसमें कि साधकों के बदले स्वयं माताजी ही उनके फल भोगें, बड़ी ही विचित्र है । मेरी समझ में यह बात इस इसाई आदर्श की नकल है कि मनुष्य-जाति के लिये ईसा सूली पर दुःख भोगते हैं । परंतु इस रूपांतर योग के साथ इस बात का कोई संबंध नहीं ।

 

१ - ११ - ११३६

 

माताजी की अस्थायी कार्यनिवृत्ति के कारण

 

जबतक प्राण माताजी के संबंध में गलत दृष्टिकोण से विचार करता रहेगा,- उदाहरणार्थ, यदि और जबतक वह उनके बारे में इस बात के द्वारा निर्णय करने पर आग्रह करेगा कि वे उसकी मांगों का और उन्हें उसको क्या देना चाहिये

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इस विषय मे उसके विचारों का क्या उत्तर देती हैं, तो और तबतक स्थूल मन और प्राण की शंकाएं, तरह-तरह की उथल-पुथल और अस्तव्यस्तता सदा ही बनी रहेंगी । भगवान् पर अपने मन को या अपने प्राण की इच्छा को न थोपना बल्कि उनकी इच्छा को ग्रहण करना तथा उसका अनुसरण करना ही साधना की सच्ची वृत्ति है । यह न कहना कि '' यह मेरा हक और दावा है, मेरी मांग, कामना और आवश्यकता है, मुझे यह चीज क्यों नहीं मिलती?'', वरन् अपने को दे देना, आत्म-समर्पण कर देना और भगवान् जो कुछ दें उसे, शोक या विद्रोह न करते हुए, हर्षपूर्वक ग्रहण करना ही ठीक ढंग है । तब व्यक्ति जो कुछ पायेगा वह उसके लिये ठीक चीज होगी । यह सब तुम्हें अच्छी तरह मालूम है; तो फिर क्यों तुम निरंतर अपने बाहरी प्राण को यह सब भुलाकर तुम्हें पुरानी अशुद्ध मनोवृत्ति की ओर पीछे घसीट ले जाने की अनुमति देते हो?

 

यहांतक यह प्रश्न है कि माताजी साधकों से संबद्ध अपने पुराने नित्य कार्यक्रम एवं दिनचर्या आदि से विरत हो गयी हैं उसके विषय में यही कहना है कि वह कर्म और साधना के लिये एक आवश्यक अवस्थामात्र है! प्रत्येक चीज गलत लीक पर पंड गयी थी, मिश्रित गतियों और भ्रांत मनोवृत्ति से भरी थी - और परिणामत: सभी चीज़ें, पिंजरे में बंद गिलहरी की तरह, उसी राजस- तामसिक घेरे में चक्कर काट रही थीं और उससे बाहर निकलने की कोई? संभावना ही नहीं थी । माताजी की बीमारी एक प्रबल चेतावनी थी कि यह अवस्था और अधिक देर तक चलने नहीं दी जा सकती । माताजी के कार्य और संबंधों का एक नया आधार निर्मित करने की आवश्यकता है जिसमें ऐसा प्रतीत होगा कि साधकों की उन विगत भात गतियों को, जो परम सत्य के भौतिक (अन्नमय) प्रकृति में उतरने के मार्ग में बाधा डाल रही थी, अब और कभी अनुमति नहीं दी जायेगी । आधार का निर्माण एक ही दिन में नहीं हो सकता, पर (उक्त काय व संबंधों से ) पीछे हटकर स्थित होना माताजी के लिये आवश्यक था, अन्यथा उसका निर्माण करना ही असंभव होता ।

 

७ - १२ - ११३१ 

 

*

 

यह सच नहीं कि माताजी उत्तरोत्तर कार्य से अवकाश ले रही हैं या कि वे मेरी तरह ही पूर्ण रूप से भीतर चले जाने का कोई इरादा रखती हैं । विशेष सौभाग्यशाली कुछ-एक लोगों के विषय में तुम्हारी टिप्पणियां मेरी समझ से बाहर हैं; ऐसा नहीं कि हम '' को ० समझकर उन इने-गिने लोगों पर

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ही विश्वास कर रहे हैं अथवा जो कुछ हो रहा है वह सब उन्हें तो बता रहे हैं और तुम पर प्रकट नहीं कर रहे । यह तुम्हारी पुरानी शिकायत है जिसका कोई आधार नहीं । यदि कोई आदमी दावा करता है कि माताजी उसपर विशेष भरोसा करती हैं तो वह एक अहमय दावा कर रहा हे जिसे उचित नहीं ठहराया जा सकता । तुम्हारी असली बात यह मालूम होती है कि माताजी सूप देना और उसके साथ के अन्य कार्य करना फिर से क्यों शुरू नहीं कर रहीं । मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि क्यों उन्हें अपनी बीमारी के अनुभव ने पुरानी दिनचर्या से विरत होने के लिये बाधित किया -जो अधिकतर साधकों के लिये एक प्रकार की अर्ध-पुरोहितीय दिनचर्या से अधिक कुछ नहीं रह गयी थी । इसका कारण था साधकों की गलत मनोवृत्ति जिसने एक ऐसा वायुमण्डल पैदा कर दिया था जो योग-विरुद्ध चेष्टाओं से भरा हुआ था और संकट की ओर ले जा सकता था -जिसकी ओर ले जाना उसने शुरू भी कर दिया था । पुराने आधार पर ही सूप-वितरण शुरू करने का अर्थ होगा पुरानी अवस्थाओं को वापिस ले आना और उसका अंतिम रूप होगा गलत चेष्टाओं के उसी चक्र की तथा उन्हीं परिणामों की पुनरावृत्ति ।अपनी बीमारी के बाद इन सब अवस्थाओं को एक और ही आधार पर नये सिरे से नियंत्रित करने के लिये माताजी धीमे- धीमे और सावधानी से कदम उठाती आ रही हैं, पर वे ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकतीं जो पुरानी अंधकारमय क्रियाओं को वापिस आने दे- उन क्रियाओं को जिनमें से कुछ, मेरी समझ में, स्वयं तुम्हारी नजर में भी आने लगी थी । अगला कदम स्वयं साधकों को उठाना है; (अपनी मनोवृत्ति के परिवर्तन से, निम्नतर प्राणिक और भौतिक स्तर पर सच्ची चेतना में उठ जाने के जू निश्चय से ) उन्हें इस बात को संभव बनाना होगा कि उस स्तर पर ठीक ढंग से और ठीक परिणाम सहित माताजी के साथ एकत्व संभव हो जाये । इससे अधिक मैं अभी कुछ नहीं कह सकता; परंतु आगे चलकर, व्यक्तियों की ओर विशेष संकेत किये बिना जहांतक बन पड़ेगा वहांतक, अधिक स्पष्ट रूप में लिखने का मेरा पूरा विचार है; क्योंकि लोगों के योग में व्यक्तिगत चीज़ें भी होती हैं जिनके विषय में बहुधा केवल उन्हीं से कहा जा सकता है, दूसरों से नहीं ।

 

तुम्हारे अन्य प्रश्नों पर मैं एक और पत्र में विचार करुंगा । मैं केवल यही कहूंगा कि जो कुछ होता है वह '' सबसे अधिक भलाई के लिये '' इस अर्थ में ही होता है कि सब कठिनाइयों के रहते भी अंत में भगवान् की ही विजय होगी  -मेरी -, मेरी श्रद्धा एवं मेरा आश्वासन यही रहा है और सदा यही रहेगा

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-यदि तुम इसे मेरे कहने पर रविकर करने को उधत हो | परंतु उसका यह अर्थ नहीं कि तुम्हारी उदासी और विषाद इस गतिविधि के लिये आवश्यक है! जितनी ही जल्दी वे फिर कभी न लौटने के लिये तुमसे दूर हट जायें उतने ही अधिक आनंदपूर्वक माताजी और मैं शिखरों की ओर जानेवाले ढालू मार्ग पर अग्रसर हो पायेंगे और तुम्हारे लिये भी अपनी अभीष्ट वस्तु, पूर्ण भक्ति और आनंद को प्राप्त करना उतना ही अधिक सुगम होगा ।

 

२८ - १२ - १९३१

 

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३१३

 









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