श्री माताजी के विषय में

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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Mother Vol. 25 496 pages 1972 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्री माताजी के विषय में 439 pages 1973 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Shyam Sunder Jhunjhunwala
  Ravindra
Part I by Shyam Sundar Jhunjhunwala, Part II by Jagannath Vedalankar, Part III by Ravindra  PDF    LINK

श्रीमाताजी के प्रति उद्घाटन और समर्पण

 

साधना का केन्द्रीय रहस्य

 

चैत्य सत्ता के श्रीमाताजी के प्रति खुले रहने से कार्य या साधना के लिये जो कुछ आवश्यक होता है वह सब धीरे -धीरे विकसित होता रहता है, यह एक रहस्य है । साधना का केन्द्रीय रहस्य है ।

१३ - २ - ११३३ 

*

 

परंतु उपदेश के द्वारा न तो यह साधना सिखायी जाती है और न आगे चलायी जाती है । जो लोग अभीप्सा ओर श्रीमां का ध्यान करके अपने भीतर उनके कार्य और क्रियावली की ओर खुलने और उसे ग्रहण करने में समर्थ होते हैं केवल वे ही इस योग में सफल हो सकते हैं ।

२ १- ६ - १९३७

*

 

इन सब बातों के विषय में मन को परेशान करना और साधारण मन के द्वारा इन्हें व्यवस्थित करने की -चेष्टा करना भूल है । जब तुम्हारी चेतना तैयार होगी तब श्रीमाताजी पर भरोसा रखने से ही आवश्यक उद्घाटन हो जायेगा । तुम्हारे वर्तमान कार्य को इस प्रकार व्यवस्थित करने में कोई हर्ज नहीं है जिसमें थोड़ा ध्यान करने के लिये समय और शक्ति बच जाये, पर केवल ध्यान के द्वारा ही आवश्यक चीज नहीं आयेगी । वह श्रद्धा और श्रीमां के प्रति खुले रहने से ही आ सकती है ।

१ - १० - १९३४

*

 

अपने- आपको माताजी की ओर खोले रखो और उनके साथ पूर्ण एकता बनाये रहो । अपने को उनके स्पर्श के प्रति पूर्णरूप से नमनीय बना दो और उन्हें तुम्हें आता की ओर वेगपूर्वक गढ़ने दो ।

१ -३ - १९३४

९८


 

बस तुम्हारा काम है अभीप्सा करना, अपने-आपको श्रीमां की ओर खुला  रखना, जो भी चीज़ें उनकी इच्छा के विरुद्ध हैं उन साबका त्याग करना तथा अपने अंदर उन्हें कार्य करने देना -साथ ही अपने सभी कमों को उनके लिये ही करना और इस विश्वास के साथ करना कि केवल उनकी शक्ति के द्वारा ही तुम उन्हें कर सकते हो । इस तरह खुले रहो तो फिर यथासमय ज्ञान और उपलब्धि तुम्हें प्राप्त हो जायेंगी । 

 

 

 योगसाधना करने का मतलब ही है सब प्रकार की आसक्तियों को जितने और एकमात्र भगवान् की ओर मुंड जाने का संकल्प करना । योग की सबसे प्रधान बात है पग-पग पर भागवत कृपा पर विश्वास रखना, निरंतर अपने विचार भगवान् की ओर मोड़ते रहना और जबतक अपनी सत्ता उद्घाटित न हो जाये और आधार के अंदर कार्य करती हुई श्रीमां की शक्ति का अनुभव न हो सके तबतक अपने- आपको समर्पित करते रहना ।

*

सभी चीज़ें भगवान् हैं क्योंकि भगवान् उनके अंदर है, पर है छुपा हुआ । प्रकट नहीं; जब मन बाहर वस्तुओं की ओर जाता है तो वह इस अनुभूति और भाव के साथ नहीं जाता कि उनमें भगवान् हैं, बल्कि उन बाह्य रूपों के लिये ही जाता है जो भगवान् को छुपाये हुए हैं । अतएव साधक के रूप में तुम्हारे लिये यह आवश्यक है कि तुम पूर्ण रूप से माताजी की ओर मुंडों, जिनमें भगवान् प्रकट रूप में विद्यमान हैं, तथा उन बाह्य रूपों एवं प्रतीतियों के पीछे मत दौड़ जिनकी कामना या जिनमें रुचि भगवान् के साथ तुम्हारे मिलन में बाधा पहुँचाती है । जब एक बार सत्ता समापित हो जाती है, तब वह सर्वत्र भगवान् को देख सकती है - और फिर वह बिना किसी पृथक् रुचि या कामना के सभी वस्तुओं को एक ही चेतना में समाविष्ट कर सकती है ।

 

खुलने का ठीक तरीका

 

  खुलने का क्या अर्थ है?

उसका अर्थ है श्रीमाताजी की उपस्थिति और उनकी शक्तियों को ग्रहण करना । 

 *

९९


  इस उद्घाटन को पाने का ठीक-ठीक  ओर पूरा तरीका क्या है?

 

अभीप्सा, स्थिरता, ग्रहण करने के लिये अपने को फैलाना । उन सब चीजों का त्याग करना जो तुम्हें भगवान् की ओर से बंद कर देने की कोशिश करती हों ।

 *

 

  यह कैसे जाना न? सकता है कि, मैं श्रीमाताजी की ओर खुल रहा हूं अन्य किसी शक्ति की ओर नहीं?

 

तुम्हें जाग्रत् रहना होगा और यह देखना होगा कि तुम्हारे अंदर विक्षोभ, कामना, अहंकार आदि की कोई क्रिया न हो ।

*

 

  श्रीमाताजी के प्रति सच्चे उद्घाटन के चिह्न क्या- क्या हैं?

 

वह स्वयं अपने- आपको तुरत दिखा देता है -जब तुम दिव्य शांति । समता, विशालता, ज्योति, आनंद, ज्ञान, शक्ति का अनुभव करते हो, जब तुम श्रीमाताजी के सान्निध्य या उपस्थिति या उनकी शक्ति की क्रिया आदि के विषय में सचेतन होते हो । अगर इनमें से किसी भी चीज का अनुभव हो तो इसका अर्थ है कि उद्घाटन है - अगर अधिक चीजों का अनुभव हो तो समझना होगा कि उद्घाटन अधिक पूर्ण है ।

 

अप्रैल, ११३३

   खुलना-इसका अर्थ क्या है? क्या यह कि ''माताजी से कुछ भी छिपाकरन रखना ''?

 

यह खुलने की ओर पहला कदम है ।

 १७-६-१९३३

*

 

 भगवती माता की ओर कैसे खुला जाये?

 

शांत मन में श्रद्धा और समर्पण के द्वारा ।

 १७-६-१९३३

१००


श्रीमां के प्रति उद्घाटन

 

खुले रहने का अर्थ है श्रीमां की ओर महज इस तरह मुड़े रहना कि उनकी शक्ति तुम्हारे अंदर कार्य कर सके और कोई भी चीज उसके कार्य को अस्वीकार न करे अथवा बाधा न पहुंचाये । अगर मन अपने निजी विचारों में ही बंद रहे और उसे अपने अंदर ज्योति  और सत्य न लाने दे, अगर प्राण अपनी वासनाओं से चिपका रहे और जिस सच्चे प्रारंभ और जिन सब सत्य प्रवृत्तियों को श्रीमां की शक्ति ले आती है उन्हें न आने दे, अगर शरीर अपनी कामनाओं, आदतों और तामसिकता से अवरुद्ध हो, और ज्योति और शक्ति को अपने अंदर घुसने और कार्य करने न दे तो इसका अथ है कि व्यक्ति खुला नहीं है । एकदम आरंभ से ही अपनी समस्त गतिविधियों में पूर्ण रूप से उद्घाटित हो सकना संभव नहीं है, पर प्रत्येक भाग में एक केंद्रीय उद्घाटन और प्रत्येक अंग में  (केवल मन में नहीं) एकमात्र श्रीमां की ' क्रिया ' को ही होने देने की प्रबल अभीप्सा या संकल्प अवश्य होना चाहिये, तब बाकी चीज़ें धीरे -धीरे पूरी कर दी जायेगी ।

२८ - १० - १९३४

*

 

श्रीमां की ओर खुले रहने का तात्पर्य है बराबर शांत-स्थिर और प्रसत्र बने रहना तथा दृढ़ विश्वास बनाये रखना -न कि चंचल होना, दुःख करना या हताश होना, अपने अंदर उनकी शक्ति को कार्य करने देना जो तुम्हारा पथ- प्रदर्शन कर सके, ज्ञान, शांति और आनंद दे सके । अगर तुम अपने को खुला न रख सको तो फिर उसके लिये निरंतर पर खूब शांति से यह अभीप्सा करो कि तुम उनकी ओर खुल सको ।

  कुछ असंतोष पैदा होकर माताजी की ओर खुल रहे हृदय पर आक्रमण करते हैं?

 

इन असंतोषों से पिण्ड छुड़ाओ, ये स्थायी चैत्य उन्मीलन में रुकावट डालते हैं ।

*

 क्योंकि चैत्य अभी- अभी खुलना शुरू कर रहा है? शायद इसीलिये वह

१०१ 


  इन असन्तोषों के प्रभाव के अधीन हो जाता है?

 

चैत्य सदा यही अनुभव करता है कि ''माताजी जो करती हैं वह अधिक-से- अधिक भले के लिये होता है, '' और वह सब कुछ प्रसन्नता से स्वीकार करता है । हृदय का प्राणिक भाव ही सुझावों से सहज में प्रभावित हो जाता है ।

 

 अन्त: सत्ता का उन्मीलन

 

  क्या अन्त: सत्ता माताजी की ओर आप- से- आप खुल जाती है?

 

अन्त: सत्ता साधना के बिना या फिर जीवन में कोई चैत्य स्पर्श पाये बिना नहीं खुलती ।

३०-११-१९३३

*

 

  यह कौन-सा भाग है जो लिखने के द्वारा माताजी की ओर खुलने की चाह-सी अनुभव करता है तब भी जब कि वही-की-वही चीज

जाती रहती है?

 

वह आन्तरिक मन हो सकता है, वह चैत्य हो सकता है ।

 २८ - ११ - ११३३

 

श्रीमां की कृपा ग्रहण करना

 

   क्या माताजी की कृपा केवल साधारण होती है?

 

साधारण और विशेष दोनों प्रकार की होती है ।

 

  जो कुछ के साधारण रूप में देती हैं उसे कैसे ग्रहण किया जा सकता  है ?

तुम्हें सिफर आपने-आपको खोले रखना होगा ओर फिर जो कुछ तुम्हारी लिये


२०२


आवश्यक होगा और जो उस समय तुम ग्रहण कर सकोगे वह अपने-आप आयेगा ।

 

१०-२-१९३४

*

 

  क्या 'पुरुष' ही समस्त सत्ता में होनेवाले माताजी की करुणा के कार्य को अनुमति देता है?

 

हां ।

 

  अगर ' पुरुष ' न दे तो क्या इसका मतलब यह हे कि अन्य सत्ताएं भी साधक को माताजी की कृपा ग्रहण करने के योग्य बनाने के लिये सामने वर्ही आ सकतीं?

 

नहीं । पुरुष प्रायः ही पीछे रुक जाता है और अन्य सत्ताओं को अपने स्थान में अनुमति देने या त्याग देने का मौका देता है ।

 

  जब माताजी की कृपा नीचे साधक के ऊपर उतरती है तो क्या वह  ' पुरुष ' की अनुमति से ही आती हे?

 

' अनुमति से ' कहने का तुम्हारा तात्पर्य क्या है? माताजी की कृपा माताजी की इच्छा से नीचे उतरती है । ' पुरुष ' कृपा को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता  है |

अप्रैल, १९३३

 

 उन्नति की शर्त

 

  यदि कोई साधक अपनी प्रकृति की बाधाओं के कारण बहुत दिनों के बाद भी अपने को माताजी की ओर पूर्ण रूप से न खोल सके तो क्या इसका अर्थ यह है कि वह माताजी द्वारा स्वीकृत नहीं होगा?

 

ऐसे प्रश्न का कोई अर्थ नहीं है । जो लोग यहां योग की साधना करते हैं वे माताजी द्वारा स्वीकृत हैं -क्योंकि ' स्वीकृत ' का अर्थ है '' योग में गृहीत, शिष्य- रूप में रबिकृत|"परंतु योग में उन्नति करना और योग में सिद्धि पाना '

 २०३


बात पर निमॅर करता है कि कितनी मात्रा में साधक उद्घाटित हुआ है ।

२४-६-१९३३ 

सच्चाई,उद्घाटन और रूपान्तर

 

  'क्ष ' कहता हे कि माताजी ने उससे कहा कि अगर सच्चाई पूर्ण रूप से हो त?ए रूपान्तर एक ही दिन में हो जायेगा! मैं समझता हूं कि यह संभव नहीं हो सकता - परिवर्तन और रूपान्तर की एक लम्बी प्रक्रिया महज एक दिन के अंदर कैसे हो सकती है !

 

सच्चाई से माताजी का मतलब था एकमात्र भगवान् के प्रभाव के सिवा अन्य किसी प्रभाव की ओर न खुलना । अब अगर समूची सत्ता -शरीर का प्रत्येक कोष तक -इस अर्थ में सच्ची हो तो अत्यंत तीव्र रूपान्तर को कौन-सी चीज रोक सकती है? अज्ञान की प्रकृति के कारण । जिसमें से कि साधारण प्रकृति तैयार हुई है, लोग ऐसे नहीं हो सकते, भले ही उनका आलोकित अंग चाहे जितना भी ऐसा होना क्यों न चाहे -इसी कारण एक लम्बी और कष्ट-साध्य क्रिया की आवश्यकता होती है ।

२६ - ७ - ११३४

 

उद्घाटन की क्रमश: वृद्धि

 

सर्वदा आरंभ से ही उद्घाटन पूर्ण नहीं होता -सत्ता का एक अंग खुलता है । चेतना के दूसरे अंग तब भी बंद पड़े रहते हैं या केवल अधखुले होते हैं - तबतक अभीप्सा करते रहना चाहिये जबतक सब अंग न खुल जायें । सबसे अच्छे और अत्यंत शक्तिशाली साधकों को भी पूर्ण उद्घाटन में समय लगता है; और ऐसा कोई भी आदमी नहीं है जो बिना संघर्ष के तुरत सभी चीजों का त्याग करने में समर्थ हुआ हो । इसलिये ऐसा समझने का कोई कारण नहीं कि अगर तुम पुकारा तो तुम्हारी पुकार नहीं सुनी जायेगी -माताजी मानव-प्रकृति की कठिनाइयों को जानती हैं और वे बराबर तुम्हारी सहायता करेंगी । सदा प्रयास करते रहो, सदा पुकारते रहो और तब प्रत्येक कठिनाई के बाद कुछ- न-कुछ प्रगति होगी ।

२० - ४ - ११३५

२०४ 


अन्तर और उच्चतर उद्घाटन

 

नित्य-स्मरण के द्वारा हमारी सत्ता पूर्ण उद्घाटन के लिये तैयार होती है । हृदय के खुल जाने पर श्रीमां को उपस्थिति का अनुभव होना आरंभ हो जाता है और, ऊपर की उनकी शक्ति की ओर उद्घाटित हो जाने पर उच्चतर चेतना की शक्ति नीचे शरीर में उतर आती है और वहां समुचि प्रकृति को बदल देने के लिये कार्य करती है ।

७ - ८ - ११३४

*

इस योग की और कोई पद्धति नहीं है सिवा इसके कि चेतना को, - अच्छा हो कि हृदय में, -एकाग्र किया जाये और अपनी सत्ता को हाथ में लेने के लिये श्रीमां की उपस्थिति और शक्ति को पुकारा जाये और उनकी शक्ति की क्रिया के द्वारा चेतना को रूपांतरित किया जाये; कोई चाहे तो सिर में या भौंहों के बीच में भी चित्त को एकाग्र कर सकता है, पर बहुतों के लिये इन स्थानों में उद्घाटित होना अत्यंत कठिन है । जब मन स्थिर हो जाता है, एकाग्रता दृढ़ हो जाती है और अभीप्सा तीव्र हो जाती है, तब अनुभूति का आना आरंभ होता है । श्रद्धा जितनी ही अधिक होगी उतना ही शीघ्र फल भी दिखायी देने की संभावना है । बाकी चीजों के लिये साधक को केवल अपने ही प्रयास पर निर्भर नहीं करना चाहिये, बल्कि भगवान् के साथ संस्पर्श स्थापित करने और श्रीमां की शक्ति और उपस्थिति को ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त करने में सफल होना चाहिये ।

*

' सीधे चैत्य केन्द्र का खुलना केवल तभी आसान होता है जब अह-केंद्रितता  (अहंकार में केंद्रित रहना) बहुत अधिक कम हो जाये और उसके साथ ही श्रीमाताजी के प्रति खूब तीव्र भक्ति भी हो । आध्यात्मिक नम्रता, भगवान् के प्रति अधीनता और निर्भरता का बोध आवश्यक है ।

१६ - ७ - ११३६

 

*

हां मन को स्थिर कर देने पर ही तुम श्रीमां को पुकारने तथा उनकी ओर

१०५


खुलने में समर्थ होगे । शांतिदायी प्रभाव चैत्य पुरुष का स्पर्श था -वह उन स्पशों में से एक स्पर्श था जो चैत्य उद्घाटन की तैयारी करते हैं -उस उद्घाटन की जो अपने साथ आंतर शांति, प्रेम और आनंद का उपहार लाता है ।

. १७ - १ - ११३४

*

श्रीमां की शांति तुम्हारे ऊपर विद्यमान है -अभीप्सा तथा शांत-स्थिर आत्मोद्घाटन के द्वारा वह नीचे उतरती है । जब वह प्राण और शरीर के ऊपर अपना अधिकार जमा लेती है तब समता का आना आसान हो जाता है और अंत में वह स्वाभाविक बन जाती है ।

२८ - ८ - ११३३

 

श्रीमां की शक्ति की ओर उद्घाटन और अन्य शक्तियों से बचना

 

श्रीमां की शक्ति की ओर अपने को खुला रखो । पर सब प्रकार की शक्तियों पर विश्वास न करो । जब तुम आगे बढ़ते जाओगे और साथ ही सीधे रास्ते पर बने रहोगे तो । एक ऐसा समय आयेगा जब चैत्य पुरुष अधिक प्रमुखता के साथ क्रियाशील हो उठेगा और ऊपर से आनेवाली दिव्य ज्योति अधिक शुद्धता और प्रबलता के साथ कार्य करने लगेगी जिससे कि मानसिक कल्पनाओं तथा प्राणिक रचनाओं के सच्ची अनुभूति के साथ मिल-जुल जाने की संभावना कम हो जायेगी । जैसा कि मैंने तुमसे कहा है , ये न तो अति मानसिक शक्तियां हैं न हो ही सकती हैं; यह तो तैयारी का एक कार्य है जो एक भावी योगसिद्धि के लिये सारी चीजों को तैयार कर रहा है ।

१८ - १ - ११३२

*

  अपने अंदर माताजी की शक्ति को काम करने दो । पर किसी मिलावट या उसका स्थान ग्रहण करनेवाली किसी दूसरी चीज से -वह चाहे अहंकार की कोई अतिरंजित क्रिया हो या दिव्य सत्य के रूप में सामने आनेवाली कोई अज्ञान की शक्ति -बचने के लिये सावधान रहो । प्रकृति के अंदर से सब प्रकार के अंधकार और अचेतना के दूर होने के लिये विशेष रूप से अभीप्सा करो ।

१०६ 


श्रीमां के प्रति एकनिष्ठता और विश्वासपात्रता

अगर कोई विरोधी शक्ति आये तो हमें उसे स्वीकार नहीं करना चाहिये और न उसके सुझावों का स्वागत ही करना चाहिये, बल्कि हमें श्रीमां की ओर मुड जाना चाहिये और किसी हालत में भी उनसे विमुख नहीं होना चाहिये । चाहे कोई अपने को खोल सके या नहीं, उसे एकनिष्ठ ओर विश्वासपात्र जरूर बने रहना चाहिये । सच्चाई और विश्वासपात्रता ऐसे गुण नहीं हैं जिनके लिये मनुष्य को योग ही करना पड़े । वे बहुत सीधी-सादी चीज़ें हैं जिन्हें सत्य की अभीप्सा करनेवाले किसी भी पुरुष या स्त्री को प्राप्त करनेमें समर्थ होना चाहिये ।

 

 सफल होने का एकमात्र पथ

 

तुम्हारी प्रकृति के एक बहुत ही प्रधान अंग में अहंपूर्ण व्यक्तित्व की एक मजबूत रचना है जिसने तुम्हारी आध्यात्मिक अभीप्सा के साथ अहंता और आध्यात्मिक महत्त्वकांक्षी का एक हठी तत्त्व मिला दिया है । इस रचना ने अधिक सत्य और अधिक दिव्य किसी चीज को स्थान देने के लिये कभी भी भंग होना स्वीकार नहीं किया है । अतएव,  जब कभी श्रीमाताजी ने तुम्हारे ऊपर अपनी शक्ति प्रयुक्त की अथवा जब-जब तुमने स्वयं अपने ऊपर शक्ति खींची तब-तब तुम्हारे अंदर की इस रचना ने उस शक्ति को अपने ढंग से काम करने से रोक दिया । इसने स्वयं ही मन की भावनाओं या अहंकार की किसी मांग के अनुसार अपने को गढ़ना आरंभ कर दिया है और यह अपने ' निजी ढंग ' से, अपने निजी बल, अपनी निजी साधना और अपनी निजी तपस्या से अपनी निजी सृष्टि करने की चेष्टा कर रही है । इस क्षेत्र में कभी कोई सच्चा आत्मसमर्पण नहीं हुआ है, तुमने कभी भगवती माता के हाथों में खुले तौर पर और सहज भाव से अपने- आपको नहीं दिया है । लेकिन यही है अतिमानस योग में सफलता पाने का एकमात्र रास्ता । योगी, संन्यासी या तपस्वी होना यहां का लक्ष्य नहीं है । यहां का लक्ष्य है रूपांतर और यह रूपांतर केवल तुम्हारी अपनी शक्ति से अनन्तगुनी बड़ी एक शक्ति के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है । यह केवल तभी सिद्ध हो सकता है जब तुम सचमुच भगवती माता के हाथों में एक बच्चे के समान बन जाओ ।

१०७


जो कोई भी माताजी की ओर मुड़ा हुआ है वह मेरा योग कर रहा है । यह समझना एक भारी भूल है कि व्यक्ति अपने निजी प्रयत्न से पूर्णयोग '' कर '' सकता है अर्थात् इस योग के सभी पक्षों का अनुसरण करके उन्हें पूर्णरूप से चरितार्थ कर सकता है । कोई मानव प्राणी ऐसा नहीं कर सकता । व्यक्ति को इतना ही करना है कि वह अपने को माताजी के हाथों में सौंप दे और सेवा, भक्ति एवं अभीप्सा के द्वारा अपने को उनकी ओर खोले; तब माताजी अपनी ज्योति और शक्ति के द्वारा उसके अंदर कार्य करती हैं जिससे साधना संपादित होती है । एक बहुत बडा पूर्णयोगी या अतिमानसिक जीव बनने की महत्त्वाकांक्षा रखना और अपने- आपसे यह पूछना कि कहांतक मैं उस ओर आगे बढ़ा हूं - यह भी एक भूल है । ठीक मनोवृत्ति यह है कि तुम अपने- आपको माताजी को दे दो और सौंप दो ओर वही बनने की इच्छा करो जो वे चाहती हैं कि तुम बनो । शेष सबका निर्णय करना और उसे तुम्हारे अंदर क्रियान्वित करना माताजी का काम है ।

अप्रैल, ११३५ 

*

 यदि बौद्धिक ज्ञान या मानसिक भावनाओं या किसी प्राणिक वासना के प्रति आसक्ति होने के कारण चैत्य नवजन्म को अस्वीकार किया जाये, श्रीमां का नवजात शिशु बनने से इन्कार किया जाये, तो फिर साधना में असफलता ही प्राप्त होगी ।

 

   अपनी साधना में कमी- कमी हम शांति शक्ति आनंद इत्यादि के विशाल अवतरण अनुभव करते हैं जिन्हें हमारा तुच्छ मानव अहंकार हड़प जाता ने और हमारे अंदर यह भाव भर देता हे कि हम माताजी के चुने हुए अतिमानवों के दल के होंगे । क्या यह भूल नहीं है?

 

अतिमानव बनने की इच्छा करना भूल है । यह इच्छा महज अहंकार को फुलाती है । हम अतिमानसिक रूपांतर सिद्ध करने के लिये भगवान् के सामने अभीप्सा कर सकते हैं, परंतु उसे भी तबतक नहीं करना चाहिये जबतक माताजी की शांति, शक्ति, ज्योति और पवित्रता के अवतरण के द्वारा हमारी सत्ता चैत्य और अध्यात्म- भावापत्र न हो जाये ।

२२-२-१९३६

१०८


   अतिमानसिक अवतरण के लिये हमें कैसी मन:स्थिति या कैसा मनोभाव रखना चाहिये?

 

जहांतक मनःस्थिति या मनोभाव का प्रश्न है -इस विषय में तुम्हें परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं । आदि से अंत तक एकमात्र आवश्यक शर्त है श्रीमां के प्रति पूर्ण श्रद्धा, उद्घाटन और आत्मदान ।

२३ - १ - १९३५

 समर्पण के प्रति प्राण का प्रतिरोध

 

में कह चुका हूं कि मानवी प्राण किसी दूसरे के द्वारा नियन्त्रित या शासित होना पसंद नहीं करता और मैंने कहा था कि यह भी एक कारण है जिससे साधक माताजी के प्रति समर्पण करने में कठिनाई अनुभव करते हैं । क्योंकि प्राण अपने ही विचारों, आवेगों, कामनाओं और अभिरुचियों को दृढतापूर्वक स्थापित करना चाहता है और जो कुछ उसे पसंद है वही करना चाहता है, वह यह अनुभव नहीं करना चाहता कि उसके अपने स्वभाव की शक्ति से भिन्न कोई शक्ति उसे राह दिखा रही या चला रही है; किंतु माताजी के प्रति समर्पण का अर्थ यह है कि उसे ये सब व्यक्तिगत वस्तुएं छोड देनी होंगी और माताजी की शक्ति को इसके लिये अवसर देना होगा कि वह उच्चतर सत्य के तरीकों से, जो उसके अपने तरीके नहीं हैं, उसे मान दिखाये या चलाये : इसीलिये वह प्रतिरोध करता है, सत्य के प्रकाश और माताजी की शक्ति से शासित नहीं होना चाहता, अपनी स्वतंत्रता के लिये आग्रह और समर्पण करने से इन्कार करता है । और फिर पस्त और परास्त होने के तथा वैयक्तिक कुण्ठा के ये विचार भी गलत सुझाव है और अपने- आपसे असंतोष भी लगभग उतना ही हानिकारक है जितना माताजी से असंतोष होना । वह उस विश्वास एवं साहस को बनाये रखने में बाधक होता है जो साधना के पथ पर चलने के लिये आवश्यक हैं । इन सुझावों को तुम्हें अपने अंदर से निकाल फेंकना होगा ।

 ८ - १० - ११३६

१०९ 


 

श्रीमां को आत्मसमर्पण करने की आवश्यकता

 

अगर तुम आत्म-समर्पण न करो तो फिर माताजी की ओर खुले रहने का कोई विशेष आध्यात्मिक अर्थ नहीं है । आत्मदान या समर्पण की मांग उन लोगों से की जाती है जो इस योग का अभ्यास करते हैं । क्योंकि सत्ता की ओर से बढ़ता हुआ समर्पण हुए बिना कहीं भी लक्ष्य के समीप पहुंचना एकदम असंभव है । उनकी ओर खुले रहने का अर्थ है अपने अंदर कार्य करने के लिये उनकी शक्ति का आवाहन करना, और अगर तुम उस शक्ति के प्रति समर्पण नहीं करते तो इसका तात्पर्य हो जाता है अपने अंदर उस शक्ति को एकदम कार्य न करने देना अथवा केवल इस शर्त पर कार्य करने देना कि वह उसी तरह कार्य करे जिस तरह कि तुम चाहते हो, अपने निजी तरीके से, जो कि दिव्य सत्य का तरीका है, कार्य न करे । इस तरह का सुझाव साधारणतया किसी विरोधी शक्ति के यहां से आता है अथवा मन या प्राण के किसी अहंकार -पूर्ण अंश से आता है जो भागवत कृपा या शक्ति को चाहता तो है पर केवल इसलिये कि वह अपने किसी निजी उद्देश्य के लिये उसका उपयोग करे और यह अंश भागवत उद्देश्य के लिये जीवन यापन करने के लिये इच्छुक नहीं होता, -जो कुछ वह ले सके वह सब भगवान् से ले लेने के लिये तो वह उत्सुक होता है, पर स्वयं अपने- आपको भगवान् के हाथों में दे देने के लिये नहीं । अंतरात्मा, हमारा सच्चा स्वरूप, इसके विपरीत, भगवान् की ओर मुड़ता है और आत्म-समर्पण करने के लिये केवल इच्छुक ही नहीं होता बल्कि उत्सुक होता है और उससे उसे प्रसत्रता होती है ।

  इस योग में साधक से प्रत्येक मानसिक आदर्शवादी संस्कृति से परे चले जाने की आशा की जाती है । भावनाएं ओर आदर्श मन से संबंध रखते हैं और वे केवल अद्धे-सत्य हैं, मन भी, बहुत बार, एक आदर्श बना लेने से ही संतुष्ट रहता है, आदर्शवादिता के सुख में डूबा रहता है, और जीवन में ज्यों-का-त्यों, अरूपान्तरित अवस्था में पड़ा रहता है अथवा केवल थोड़ा-सा और वह भी ऊपर से देखने में ही परिवर्तित होता है । अध्यात्म का साधक उपलब्धि की चेष्टा से विरत होकर केवल आदर्श बनाने में ही नहीं लग जाता; आदर्श बनाना नहीं, बल्कि दिव्य सत्य को उपलब्ध करना ही उसका लक्ष्य होता है, चाहे जीवन से परे जाकर या जीवन में ही रहते हुए, और इस अवस्था में यह आवश्यक है कि मन ओर प्राण को रूपांतरित किया जाये और यह रूपांतर भगवती शक्ति, श्रीमां के कार्य के प्रति  आत्मसमर्पण किये बिना नहीं हो सकता ।

 ११०


   निवैयक्तिक की खोज करना उन लोगों का पथ है जो जीवन से अलग होना चाहते हैं, पर साधारणतया वे चेष्टा करते हैं अपने निजी प्रयास के बल पर, वे किसी श्रेष्ठतर शक्ति की ओर अपने- आपको खोलकर या आत्मसमर्पण के पथ से नहीं चलते; क्योंकि निराकार ऐसी चीज नहीं है जो पथ दिखाती या सहायता करती हो, बल्कि वह ऐसी चीज है जो प्राप्त की जाती है और वह प्रत्येक मनुष्य को अपनी प्रकृति के पथ और क्षमता के अनुसार उसे प्राप्त करने के लिये छोड़ देती है । दूसरी ओर, श्रीमां की ओर अपने को खोलकर और उन्हें आत्मसमर्पण करके मनुष्य निराकार को भी प्राप्त कर सकता है और सत्य के दूसरे सभी रूपों को भी ।

  अवश्य ही आत्मसमर्पण क्रमोन्नतिशील होना चाहिये । कोई भी आदमी आरंभ से ही त आत्मसमर्पण नहीं कर सकता, इसलिये यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जब मनुष्य अपने भीतर की ओर ताकता है तो उसका अभाव ही पाता है । पर यह कोई कारण नहीं कि आत्मसमर्पण का सिद्धांत ही न स्वीकार किया जाये और धीर-स्थिर रूप से एक-एक स्तर, एक-एक क्षेत्र में, क्रमश: प्रकृति के सभी अंगों में उसे प्रयुक्त करते हुए, उसे जीवन में न उतारा जाये ।

*

तो यह आत्मसमर्पण का संकल्प है । पर आत्मसमर्पण श्रीमां के प्रति ही होना चाहिये -शक्ति के प्रति भी नहीं, स्वयं श्रीमां के प्रति ।

४ - १० - ११३६

*

यदि चैत्य पुरुष प्रकट हो तो वह तुमसे अपने प्रति नहीं, बल्कि माताजी के प्रति आत्मसमर्पण करने को कहेगा ।

*

सबसे उत्तम उपाय है चैत्य पुरुष में निवास करना, क्योंकि वह सदा ही माताजी के प्रति समर्पित रहता है और दूसरों (अन्य भागों ) को भी ठीक रास्ते से ले जा सकता है । संयम करने के लिये किसी स्थान में एकाग्र होने की आवश्यकता होती है -कोई तो मन के अंदर या मन के ऊपर एकाग्र होते हैं, दूसरे हृदय में एकाग्रता लाते हैं और हृदय के द्वारा चैत्य केंद्र में ।

११ - ६ - ११३३

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  सच्चा और पूर्ण समर्पण

 

अगर तुम अपनी साधना में प्रगति करना चाहते हो तो यह आवश्यक है कि जिस नीति और समर्पण की बात तुम करते हो उसे सरल, सच्चा और पूर्ण बनाओ । यह तबतक नहीं किया जा सकता जबतक कि तुम अपनी वासनाओं को अपनी आध्यात्मिक अभीप्सा के साथ मिलाते हो । यह तबतक नहीं किया जा सकता जबतक कि तुम परिवार, संतान या अन्य किसी चीज या मनुष्य के प्रति अपनी प्राणगत आसक्ति का पोषण करते हो । अगर तुम्हें यह योग करना है तो तुम्हें बस एक ही कामना और अभीप्सा, आध्यात्मिक सत्य को ग्रहण करने और उसे अपने सभी विचारों, अनुभवों । क्रियाओं और प्रकृति के अंदर अभिव्यक्त करने की कामना और अभीप्सा रखनी चाहिये । तुम्हें किसी के साथ किसी प्रकार का संबंध बनाने के लिये लालायित नहीं होना चाहिये । दूसरों के साथ साधक के संबंध उसके भीतर से, जब वह सत्य चेतना प्राप्त कर लेता है और ज्योति में निवास करता है, तब उत्पत्र होने चाहियें । वे संबंध उसके भीतर भगवती माता की शक्ति और इच्छा के द्वारा, दिव्य जीवन और दिव्य कर्म के लिये आवश्यक अतिमानसिक सत्य के अनुसार, निश्चित होंगे; वे कभी उसके मन और उसकी प्राणगत वासनाओं के द्वारा निश्चित नहीं होने चुहियों । इस बात को तुम्हें अवश्य याद रखना होगा । तुम्हारा चैत्य पुरुष श्रीमां के हाथों में अपने- आपको दे देने की और सत्य के अंदर निवास करने और वर्द्धित होने की क्षमता रखता है; पर तुम्हारा निम्नतर प्राण-पुरुष आसक्तियों और संस्कारों से तथा कामना की अपवित्र गतिविधि से बराबर भरा रहा है और तुम्हारा बाहरी भौतिक मन अपने अज्ञानपूर्ण विचारों और आदतों को झाडू फेंकने तथा सत्य की ओर खुल जाने में असमर्थ रहा है । यही कारण था कि तुम उन्नति करने में असमर्थ रहे, क्योंकि तुम बराबर ही एक ऐसी चीज और ऐसी गतियों को बनाये रखते थे जिन्हें रखने नहीं दिया जा सकता था; कारण दिव्य जीवन में जो कुछ स्थापित करने की आवश्यकता होती है ठीक उसके विपरीत ये सब चीज़ें थीं । एकमात्र श्रीमां ही तुम्हें इन सब चीजों से मुक्त कर सकती हैं, अगर तुम सचमुच ऐसा चाहो । केवल अपनी चैत्य सत्ता में ही नहीं । बल्कि अपने भौतिक मन और अपनी समस्त प्राणिक प्रकृति में भी । इस चाह का लक्षण यह होगा कि तुम अपनी व्यक्तिगत धारणाओं, आसक्तियों या कामनाओं को अब और पोसे नहीं रखोगे या उनपर जोर नहीं दोगे । और चाहे दूरी जितनी हो और तुम चाहे जो कुछ भी हो, अपने- आपको खुला हुआ और

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श्रीमां की शक्ति ओर उपस्थिति को अपने साथ और अपने अंदर कार्य करते हुए अनुभव करोगे और संतुष्ट, धीर-स्थिर, विश्वास से भरपूर बने रहोगे, अन्य किसी चीज का अभाव नहीं अनुभव करोगे और बराबर ही श्रीमां की इच्छा की प्रतीक्षा करोगे ।

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सब कुछ अपने हृदय में विराजमान श्रीमां के सामने रख दो जिससे उनकी ज्योति अच्छे-से- अच्छे परिणाम लाने के लिये क्रिया कर सके ।

२१ - ४ - ११३५

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 संसार का जीवन अपने स्वभाव में अशांति का क्षेत्र है -ठीक रास्ते से उस जीवन को पार करने के लिये जीवन और कर्म भगवान् को समर्पित करने चाहियें और अन्तरस्थ भगवान् की शांति पाने की प्रार्थना करनी चाहिये । जब मन स्थिर हो जाता है तब मनुष्य अनुभव कर सकता है कि भगवती माता जीवन को सहारा दे रही हैं और वह उनके हाथों में प्रत्येक चीज को छोड़ सकता है ।

१६ - ४ - ११३३

 

आवश्यक प्रयास

 

साधना के विषय में तुमने जो कहा है वह ठीक है । साधना आवश्यक है और भागवत शक्ति शून्य में अपना कार्य नहीं कर सकती, बल्कि अवश्य ही वह प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रकृति के अनुसार एक ऐसे बिंदुतक ले जाती है जहां वह यह अनुभव कर सके कि माताजी उसके अंदर क्रिया कर रही हैं तथा उसके लिये सभी कुछ कर रही हैं । तबतक साधक की अभीप्सा, आत्म- निवेदन, माताजी की क्रियाओं को सहमति और सहारा देना । जो कुछ भी मार्ग में आडे आये उस सबका परित्याग करना अत्यंत आवश्यक है - अनिवार्य है । २५ - १ २५-९-११३६

 

साधक से जो प्रयास करने की मांग की जाती है वह है अभीप्सा, त्याग और आत्मसमर्पण । अगर ये तीनों चीज़ें की जायें तो फिर बाकी चीज़ें श्रीमां की

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कृपा से और तुम्हारे अंदर उनकी शक्ति की क्रिया के कारण अपने- आप ही आयेंगी । परंतु इन तीनों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है आत्मसमर्पण और उसका प्रथम आवश्यक स्वरूप है कठिनाई के समय विश्वास, भरोसा और धैर्य । यह कोई नियम नहीं है कि विश्वास और भरोसा केवल तभी रह सकते हैं जब कि अभीप्सा भी हो । बल्कि उसके विपरीत, जब कि तामसिकता के दबाव के कारण अभीप्सा नहीं होती तब भी विश्वास, भरोसा और धैर्य विद्यमान रह सकते हैं । यदि अभीप्सा के प्रसुप्त रहने पर विश्वास और धैर्य साथ छोड़ दें तब उसका मतलब यह होगा कि साधक एकमात्र अपने निजी प्रयास पर ही निर्भर करता है -उसका अर्थ होगा -'' ओह, मेरी अभीप्सा असफल हो गयी है, इसलिये अब मेरे लिये कोई आशा नहीं । मेरी अभीप्सा असफल हो रही है:, इसलिये भला माताजी भी क्या कर सकती हैं? '' पर, इसके विपरीत, साधक का भाव यह होना चाहिये, '' कोई बात नहीं, मेरी अभीप्सा फिर से वापस आयेगी । इस बीच, मैं जानता हूं कि जब मैं श्रीमां को अनुभव नहीं करता तब भी वे मेरे साथ हैं; वे मुझे अंधकारमय घड़ियों से भी पार करेंगी । '' यही पूर्णत: यथार्थ भाव है जिसे तुम्हें अवश्य बनाये रखना चाहिये । जिनमें यह भाव होता है, अवसाद उनका कुछ भी नहीं कर सकता; अगर अवसाद आता भी है तो उसे किंकर्तव्यविमूढ होकर वापस लौट जाना पड़ता है । यह चीज तामसिक आत्मसमर्पण नहीं है । तामसिक समर्पण तो उसे कहते हैं जब मनुष्य कहता है कि '' मैं कुछ भी नहीं करूंगा; श्रीमां सब कुछ कर दें । अभीप्सा, त्याग और आत्मसमर्पण भी आवश्यक नहीं हैं । माताजी ही मेरे अंदर यह सब कर दें । '' इन दोनों भावों में बहुत बड़ा अंतर है । एक भाव तो है उस पीछे हटनेवाले का जो कुछ भी नहीं करना चाहता और दूसरा है उस साधक का जो अपनी शक्ति भर प्रयास करता है, पर जब वह कुछ समय के लिये अकर्मण्यता में जा गिरता है और चीज़ें विपरीत हो जाती हैं तब भी वह सब चीजों के पीछे विद्यमान श्रीमां की शक्ति और उपस्थिति में अपना विश्वास बराबर बनाये रखता है और उस विश्वास के द्वारा विरोधी शक्ति को चकमे में डाल देता है और साधना की क्रिया को फिर वापस ले आता है ।

२६ - १० - ११३६

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 माताजी की गोद में

 

  मुझे ठीक तरह से ध्यान करने में बड़ी कठिनाई मालूम पड़ती हो जब कि मैं ठीक-ठीक ध्यान नहीं कर पाता तब क्या मेरे लिये सबसे उत्तम यह न होगा कि मैं यह कल्पना करूं कि मैं चिरदिन माताजी की गोद में ही पड़ा है?

 

यही सबसे उत्तम प्रकार का ध्यान है ।

१२-८-१९३५

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