श्री माताजी के विषय में

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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Mother Vol. 25 496 pages 1972 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्री माताजी के विषय में 439 pages 1973 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Shyam Sunder Jhunjhunwala
  Ravindra
Part I by Shyam Sundar Jhunjhunwala, Part II by Jagannath Vedalankar, Part III by Ravindra  PDF    LINK

श्रीमाताजी के साथ सच्चा संबंध

 

माताजी के साथ विशेष संबंध

 

निश्चय ही यह ठीक है कि भगवान् में कोई पसंदगी या नापसंदगी नहीं है और वह सबके प्रति सम होते हैं, पर यह बात प्रत्येक के साथ एक विशिष्ट संबंध रखने से नहीं रोकती । फिर यह संबंध अधिक या कम तादात्म्य या एकत्व पर नहीं निर्भर करता । शुद्धतर आत्मा अधिक आसानी से भगवान् के पास पहुंचता है । अधिक विकसित स्वभाव के पास अधिक रास्ते होते ही हैं जिनके द्वारा वह उनसे मिलता है । तादात्म्य एक प्रकार का आध्यात्मिक एकत्व उत्पन्न करता है । परंतु और दूसरे व्यक्तिगत संबंध भी हैं जो दूसरे कारणों से उत्पन्न होते हैं । सभी संबंधों के एक कारण से ही निश्चित होने की बात अत्यंत जटिल है ।

   हां । जिन योगियों की उन्नति माताजी के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के ऊपर नहीं निर्भर करती उन्हें उनके साथ कोई व्यक्तिगत संबंध स्थापित करने की आवश्यकता नहीं -उनके लिये केवल एक दूर का आध्यात्मिक संस्पर्श ही पर्याप्त है । कोई- कोई विशेष संबंध भी बनाये रख सकते हैं, पर अपनी साधना के किसी विशिष्ट रूप के कारण ही वे ऐसा करते हैं | दूसरी ओर, कोई साधक साधना में कोई प्रगति न करने पर भी श्रीमाताजी के साथ व्यक्ति-गत संबंध बनाये रख सकता है । इस विषय में सभी प्रकार की संभावनाएं विद्यमान है ।

  जो लोग यहां आये हुए हैं उनमें जिनका चैत्य पुरुष इतने पर्याप्त रूप में विकसित हो चुका है कि वे इस संबंध को स्वीकार कर सके,  उन सभी लोगों के साथ माताजी का ऐसा संबंध है । दूसरे लोगों के लिये इस बात की संभावना ही अधिक है । यह जीवन में सिद्ध नहीं हुई है ।

  मोटे तौर पर कहें तो अभिव्यक्त सत्ता के तीन अंग हैं जो यहां पर कार्य करते हैं - (१ ) क्रमविकास में आया हुआ चैत्य पुरुष जो अपने साथ पूर्वजीवनों का प्राचीन अनुभव और पुराने व्यक्ति-स्वरूपों का कुछ अंश ले आता है, उतना ही अंश ले आता है जो वर्तमान जीवन के लिये उपयोगी बनाया जा सके; (२ ) वर्तमान रूप जो इस जन्म के कारण मिला है और जो बहुत-सी जटिल चीजों के मिलने से बना है; (३ ) भावी सत्ता, जिसका, हमारे अपने लिये, अर्थ होता है वर्तमान अभिव्यक्ति के ऊपर की उच्चतर चेतना की महान

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धाराएं जिनके साथ युक्त होने पर रूपांतर अधिक संभव होता है और जिस काय का प्रयास किया जा रहा है वह पूरा हो सकता है ।

    चैत्य पुरुष ही वह चीज है जो पूर्वजीवनों या व्यक्ति स्वरूपों के द्वारा उस चीज के द्वारा, जो उनके अंदर आवश्यक और अभीतक क्रियाशील है और जिसे उसने रखा है, संस्पर्श स्थापित करती है ।

    परंतु, इसके अलावा, कुछ ऐसे चैत्य पुरुष यहां आये हैं जो अध्व चेतना की महत्तर धाराओं के साथ युक्त होने के लिये तैयार हैं । बहुधा उच्चतर लोकों की सत्ताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसलिये जो महान् कार्य यहां किया जानेवाला है उसमें माताजी के साथ घनिष्ठ रूप में योग देने के लिये विशेष रूप से उपयुक्त हैं । इन सभी लोगों का माताजी के साथ विशेष संबंध है जो उनके पुराने संबंध के अतिरिक्त है ।

    वर्तमान रूप का जहांतक संबंध है, उसमें स्पष्ट ही ऐसे तत्त्व हो सकते हैं जो, माताजी के साथ सहयोग न देने या उनसे न मिलने के कारण, अपने को उनसे अपरिचित अनुभव करें । ऐसा ही तत्त्व यह अनुभव कर सकता है कि वह रास्ते में खड़ा है; परंतु यह एक बाहरी रचना है और कम-से-कम अपने वर्तमान स्वरूप में यह न तो पुराने विकास से संबंध रखता है और न भावी विकास से । इसे या तो नष्ट हो जाना होगा या रूपांतरित ।

१० - ६- ११३५

 

इस प्रसंग में बहुत ही अधिक मानसिक सूक्ष्मताओ में उतर पड़ना कोई अधिक सहायक नहीं; यह एक ऐसा विषय है जो मानसिक विश्लेषण से परे है और इसके बारे में मन की रचनाएं, अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तिवश, या तो बहुत ही कम अंश में सच्ची होती हैं या फिर भ्रांतिपूर्ण ।

  एक विश्वव्यापी भगवत्प्रेम है जो सबके लिये एक-सा है । एक चैत्य संबंध भी है जो व्यक्ति-गत है; वह सार रूप में तो सबके लिये एक समान है । पर उसमें प्रत्येक के साथ एक विशेष संबंध के लिये भी स्थान है जो सबके लिये एक-सा नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के दृष्टांत में भिन्न-भिन्न होता है । यह विशेष संबंध प्रत्येक दृष्टांत में पृथक्-पृथक् रहता है और इसका एक अपना ही स्वभाव होता है । जैसा कि कहा जाता है, यह अपने ही ढंग का होता है और अन्य संबंधों के साथ इसकी तुलना या बराबरी नहीं की जा सकती, न उनके पैमाने से इसे मापा ही जा सकता है, क्योंकि इनमें से हर एक अपने ही ढंग का होता है । अतएव कम या अधिक का प्रश्न यहां सर्वथा असंगत है ।

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यह कहना बिल्कुल गलत है की माताजी सबसे अधिक उनसे प्रेम करती हैं जो शरीर से उनके सर्बाधिक निकट हैं । यह बात मैं कितनी ही बार कह चुका हूं पर लोग इसपर विश्वास नहीं करना चाहते, क्योंकि वे मान लेते हैं कि माताजी साधारण मनुष्यों की तरह प्राणिक भाव- भावनाओं की गुलाम हैं और प्राण की रुचि- अरुचियों से शासित होती हैं । '' जिन्हें वे पसंद करती हैं उन्हें अपने समीप रखती हैं; जिन्हें कम पसंद करती हैं उन्हें कम समीप रखती हैं, जिन्हें वे पसंद नहीं करतीं या जिनकी परवाह नहीं करतीं उन्हें दूर रखती हैं '', यह है उनका बचकाना तर्क । जो लोग अपने साथ सदा ही माताजी की उपस्थिति और प्रेम अनुभव करते हैं उनमें से बहुतेरे छ: महीनों में एक बार या फिर वर्ष में एक बार को छोड़कर कदाचित् ही उनके दशन करते हैं । -हां, प्रणाम और ध्यान के समय के दर्शन इससे अलग हैं । दूसरी ओर यह हो सकता है कि शरीर से उनके समीप रहनेवाला या उन्हें बारंबार देखनेवाला ऐसी चीज बिलकुल ही न अनुभव करे; वह शिकायत कर सकता है कि माताजी की सहायता एवं प्रेम उसे बिलकुल ही प्राप्त नहीं या जितना वे इन्हें दूसरों को देती हैं उसकी तुलना में नहीं के बराबर प्राप्त हैं । यदि ऊपर दिया गया बचकाने ढंग का सरल त्रैराशिक नियम सच्चा होता तो ऐसे भावोद्गार संभव ही न होते ।

    कोई माताजी के प्रेम को अनुभव करता है या नहीं यह इसपर निर्भर करता है कि वह उसकी ओर खुला है या नहीं । यह चीज शारीरिक समीपता पर निर्भर नहीं करती । खुलने का अर्थ है उन सब चीजों को दूर करना जो मनुष्य को आंतरिक संबंध के प्रति अचेतन बना देती हैं -यह विचार कि इस संबंध को अपनी सत्ता के भीतर अनुभव करने के स्थान पर केवल किसी बाह्य अभिव्यक्ति के द्वारा ही मापना होगा, मनुष्य को आंतरिक संबंध के प्रति जितना अधिक अचेतन बनाता है उतना और कोई चीज नहीं बना सकती; यह व्यक्ति को उन बाह्य अभिव्यक्तियों के प्रति अंधा या असंवेदनशील बना देता है जो वहां विद्यमान होती हैं । कोई शरीर से दूर है या पास इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता । शरीर से दूर होता हुआ या माताजी के दशन नहीं के बराबर करता हुआ भी मनुष्य आंतरिक संबंध अनुभव कर सकता हे । दूसरी ओर, चाहे मनुष्य शरीर से माताजी के पास हो या प्रायः ही उनके भौतिक सान्निध्य  (उपस्थिति) में रहे तो भी यह संभव हे कि जब आंतरिक संबंध विद्यमान हो तब वह उसे अनुभव न कर पाये ।

११ - ६- ११३५

*

१४५


यदि साधक माताजी के प्रति कृतकर्म बन जाये तो इसका मतलब है कि वह साधना या माताजी को नहीं चाहता था, बल्कि अपनी कामनाओं और अपने अहंकार की तुष्टि चाहता था । यह योग नहीं है ।

     माताजी किसी के साथ '' घंटों '' मुलाकात नहीं करतीं -यदि कोई घंटों उनके पास रहे तो वे बहुत थक जायेंगी ।

     माताजी ' अ ' के साथ औरों की अपेक्षा अधिक मुलाकात इसलिये नहीं करती थीं कि वह औरों की अपेक्षा उसे अधिक प्यार करती थीं; बल्कि इसलिये कि वे उसके द्वारा काय के लिये कुछ ऐसी चीज करा लेने की कोशिश करती थीं जो हो जाने पर सबके लिये एक महान् विजय होती । परंतु ठीक इसी कारण कि उसने इसे गलत रूप में लिया और इसे एक व्यक्तिगत भौतिक संबंध और अपनी अहंकारपूर्ण कामना की तृप्ति के रूप में पकड़ने के लिये व्यग्र हो उठा, वह असफल हुआ और उसे चले जाना पड़ा । तुम्हारा  '' अंग '' भी वही इन्द्रियाश्रित अहंकार की सूर्खातापूर्ण और अज्ञानमय मांग पेश करता है और यदि माताजी इतनी मूर्ख हों कि उसे संतुष्ट करें तो इसका परिणाम ' अ ' के जैसा ही होगा ।

    माताजी ने इसलिये शरीर ग्रहण किया कि स्थूल ढंग का एक कार्य करना है (उसमें स्थूल जगत् का परिवर्तन भी शामिल है); वे लोगों के साथ '' स्थूल संबंध '' स्थापित करने के लिये नहीं आयी हैं । कुछ लोग कार्य में हिस्सा बंटाने के लिये उनके साथ आये हैं; कुछ लोगों को उन्होंने बुलाया है, दूसरे लोग ज्योति की खोज करने आये हैं । प्रत्येक के साथ उनका एक व्यक्तिगत संबंध है अथवा व्यक्तिगत संबंध होने की संभावना है, परंतु प्रत्येक संबंध अपने- अपने ढंग का अलग है और कोई भी यह नहीं कह सकता कि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान रूप से एक ही बात करनी चाहिये -कोई भी आदमी अपने अधिकार के रूप में यह दावा नहीं कर सकता कि उन्हें शरीर से उसके निकट रहना होगा क्योंकि वे शरीर से दूसरों के निकट हैं । कुछ लोगों ने उनके साथ व्यक्तिगत संबंध बना रखा है, फिर भी वे उनसे बहुत कम मुलाकात करती हैं -कुछ लोगों का व्यक्तिगत संबंध कम घनिष्ठ है और फिर भी किसी- न-किसी कारणवश वे उनके साथ अधिक बार और अधिक देर तक मुलाकात कर सकती हैं । इस प्रसंग में स्थूल मन के मूर्खतापूर्ण गणित-जैसे नियमों का व्यवहार करना निरर्थक है । तुम्हारा स्थूल मन यह नहीं समझ सकता कि माताजी क्या करती हैं; उसके मूल्य, मानदण्ड और भावनाएं माताजी की नहीं हैं । और उन्हें क्या करना चाहिये इसकी माप-जोख अपने व्यक्तिगत प्राण की

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मांग या कामना के द्वारा करना तो और भी अधिक बुरा है । वही रास्ता आध्यात्मिक सर्वनाश का है । माताजी प्रत्येक प्रसंग में उस प्रसंग के अनुकूल विभिन्न कारणों के अनुसार कार्य करती हैं ।

 

माताजी के सच्चे बच्चे

 

वे ही माताजी के सबसे नजदीकी बच्चे हैं जो उनकी ओर खुले हुए हैं, उनकी आंतर सत्ता में उनके निकट हैं, उनकी इच्छा के साथ ' एक ' हो गये हैं -वे लोग नहीं जो शरीर से उनके सबसे अधिक निकट हैं ।

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यदि किसी को निकट आंतरिक संबंध प्राप्त हो तो वह माताजी को सदैव अपने पास और अंदर तथा चारों ओर अनुभव करता है और उससे अधिक निकट भौतिक संबंध को उस संबंध की खातिर ही प्राप्त करने के लिये कतई आग्रह नहीं करता । जिन्हें यह प्राप्त नहीं उन्हें इसके लिये अभीप्सा करनी चाहिये और दूसरे प्रकार के संबंध के लिये लालायित नहीं होना चाहिये । यदि उन्हें बाह्य समीपता प्राप्त हो जाये तो उन्हें पता चलेगा कि आंतरिक एकता और समीपता के बिना उसका कुछ अर्थ नहीं । शरीर से व्यक्ति माताजी के पास हो सकता है और फिर भी उनसे उतना दूर हो सकता है जितना सहारा का मरुस्थल ।

११ - ६ - १९३४

 

माताजी के साथ आंतरिक एकत्व और बाहरी संबंध

 

आध्यात्मिक एकत्व भीतर से आरंभ होना चाहिये और फिर वहां से बाहर की ओर फैलना चाहिये; वह किसी भी बाहरी चीज पर अवलम्बित नहीं हो सकता  -क्योंकि, अगर इस तरह अवलम्बित हो तो, वह एकत्व आध्यात्मिक या सच्चा नहीं हो सकता । यही सबसे बड़ी भूल है जो यहां बहुत से आदमी करते हैं; वे माताजी के साथ बाहरी प्राणगत या' भौतिक संबंध पर ही सारा जोर डाल देते हैं; प्राणगत आदान-प्रदान या भौतिक संपर्क के लिये आग्रह करते हैं और जब वे उसे संतोषप्रद मात्रा में नहीं पाते तब वे सब प्रकार के गोलमाल, विद्रोह, शंका-सदेह और अवसाद में जा गिरते हैं । यह एकदम गलत दृष्टि है

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और इसने बहुत अधिक बाधा और उपद्रव ही खड़ा किया है । मन, प्राण और शरीर एकत्व में भाग ले सकते हैं और भाग लेना ही उनके लिये अभिप्रेत हे, पर उसके लिये उन्हें चैत्य पुरुष की अधीनता स्वीकार करनी होगी, स्वयं चैत्य- भावापन्न हो जाना होगा; एकत्व को मूलत: चैत्य और आध्यात्मिक एकत्व होना होगा और मन, प्राण और शरीर तक में फैल जाना होगा । शरीर तक को इस योग्य हो जाना होगा कि वह सूक्ष्म रूप से माताजी का सान्निध्य, उनकी ठोस उपस्थिति अनुभव कर सके -केवल तभी एकत्व वास्तव में स्थापित हो सकता और पूर्ण बन सकता है एवं केवल तभी कोई भौतिक सामीप्य या संस्पर्श अपना सच्चा मूल्य प्राप्त कर सकता और अपने आध्यात्मिक उद्देश्य को सिद्ध कर सकता है । जबतक ऐसा नहीं होता तबतक कोई भी भौतिक संसर्पण बस उतना ही मूल्य रखता है जितना कि वह आंतरिक साधना में सहायता पहुंचता है; परंतु कितना-सा दिया जा सकता है और कौन-सी चीज सहायक या बाधक होगी -इसका विचार एकमात्र माताजी ही कर सकती हैं, साधक इस विषय में निर्णायक नहीं बन सकता -वह तो अपनी कामनाओं और निम्नतर प्राणमय अहंकार के द्वारा पथभ्रष्ट हो जायेगा जैसा कि वास्तव में बहुत से लोग हो चुके हैं । जब प्राणगत मांग मौजूद होती हे, प्राण दावा करता है, विद्रोह करता है और बाहरी सम्पूर्ण या सामीप्य की कामना को इन सब चीजों का कारण या एक अवसर बना देता है तो ये सब चीजों आंतरिक एकत्व के विकसित होने में बड़ी रुकावट डालती हैं, उसमें बिलकुल ही सहायक नहीं होतीं । अपने अज्ञानवश साधक बराबर ही यह कल्पना करते हैं कि जब श्रीमाताजी एक व्यक्ति के साथ दूसरे की अपेक्षा अधिक मुलाकात करती हैं । तब इसका कारण यह है कि वे उसे अधिक पसंद करती हैं और उस व्यक्ति को अधिक प्रेम तथा सहायता दे रही हैं । यह एकदम भूल है । शारीरिक सामीप्य और संस्पर्श वास्तव में साधक के लिये एक कठोर अग्निपरीक्षा हो सकता है; वह प्राणगत मांग, दावे, ईर्ष्या आदि को बहुत ऊंचे शिखर तक ऊपर उठा सकता है; फिर दूसरी ओर । हो सकता है कि उसके कारण साधक बाहरी संबंध से ही संतुष्ट हो जाये और आंतरिक एकत्व के लिये कोई सच्चा प्रयास न करे; अथवा वह, साधारण और परिचित होने के कारण, एक यांत्रिक चीज बन जाये और किसी भी आंतरिक उद्देश्य के लिये एकदम बेकार हो जाये - ये सब चीजों केवल संभव ही नहीं हैं बल्कि बहुत लोगों में घटित भी हुई हैं । श्रीमाताजी यह जानती हैं और इसलिये इस विषय में उनकी व्यवस्था का कारण लोग जो कुछ समझते हैं उससे एकदम भिन्न होता है ।

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एकमात्र सुरक्षित बात है सबसे पहले और पूर्ण रूप से आंतर एकत्व पर ध्यान जमाना, उसी को प्राप्त करने योग्य एकमात्र चीज बना लेना और बाहरी किसी भी चीज के लिये सभी तरह की मांगों और दावों को अलग छोड देना, जो कुछ मां दें बस उसी से संतुष्ट रहना और एकदम उन्हींके ज्ञान और देख- रेख पर निर्भर करना । यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जानी चाहिये कि जो कामना विद्रोह, शंका-संदेह, अवसाद, भीषण संघर्ष आदि उत्पन्न करती है वह कभी आध्यात्मिक क्रिया का सच्चा अंग नहीं हो सकती । अगर तुम्हारा मन कह कि यह उचित है, तब निश्चय ही तुम्हें मन के सुझावों पर अविश्वास करना चाहिये । बस उसी एक आवश्यक चीज पर पूर्ण रूप से ध्यान एकाग्र करो, और, उन सभी संभावनाओं और शक्तियों को, अगर वे आवें तो, अलग रख दो जो उस चीज में गड़बड़ी उत्पन्न करना चाहें अथवा तुम्हें विपथगामी बानवेों । इन सब चीजों के लिये जो प्राण की स्वीकृति होती है उसे जीतना होगा, पर उसके लिये सबसे पहली बात है सब प्रकार की मानसिक स्वीकृति देना अस्वीकार कर देना; क्योंकि मानसिक अनुमोदन उन्हें इतनी अधिक शक्ति प्रदान करता है जितनी उन्हें अन्य किसी प्रकार नहीं प्राप्त होती । मन और गंभीरतर भावमय सत्ता में समुचित भाव जमाओ -जब विपरीत शक्तियां उठ खड़ी हों तब उसी से चिपके रहो और उसी दृढ़ चैत्य भाव के द्वारा उन्हें दूर भगा दो ।

१४ - ३ - १९३७

 

 बाहरी और भीतरी मां

 

यह ठीक है कि माताजी अनेक रूपोंवाली हैं, परंतु बाहरी और भीतरी मां के बीच, बहुत कठोर विभेद नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे केवल ' एक ' ही नहीं हैं, वरन् शरीररूपी मां अपने अंदर अन्य सभी रूपों को धारण करती हैं और उन्हीं के अंदर आंतर और बाह्य सत्ता के बीच संबंध स्थापित होता है । परंतु बाहरी माताजी को सचमुच में जानने के लिये हमें यह जानना होगा कि उनके भीतर क्या है और केवल बाहरी आकार की ही ओर नहीं देखना होगा । ऐसा करना केवल तभी संभव होता है जब मनुष्य अपनी आंतर सत्ता के द्वारा उनके साथ मिलता है और उनकी चेतना में वर्द्धित होता है -जो लोग केवल बाहरी संबंध ही स्थापित करना चाहते हैं वे ऐसा नहीं कर सकते ।

१० - ८ - १९३६

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मैं नहीं जानता कि कैसे तुम अभिव्यक्त रूप के ' अंदर निवास करने ' जा रहे हो । यह तो संभव है कि व्यक्ति, यहांतक कि उसकी भौतिक सत्ता भी, माताजी की चेतना में निवास करे और माताजी का अभिव्यक्त रूप इस एकता का केंद्र हो । शायद तुम्हारा यही मतलब हे? पर यह तुम कैसे करोगे यदि अन्य भागों को वैसे ही रहने के लिये स्वतंत्र छोड़ दिया जाये जैसे वे हैं? वे तुम्हें निरंतर सच्ची चेतना से बाहर खींचते रहेंगे जैसा वे अब करते हैं । और उनका परिवर्तन भला कैसे होगा यदि उन्हें बदलने के लिये उनके अंदर माताजी की शक्ति न हो?

 १४ - १ - ११३६

 

माताजी के साथ सच्चा आंतरिक संबंध

 

आंतरिक (अंतरात्मा के) संबंध का तात्पर्य यह है कि मनुष्य माताजी की उपस्थिति का अनुभव करे, सर्वदा उनकी ओर मुड़ा रहे । यह जाने कि उनकी शक्ति ही उसे चला रही है, पथ दिखा रही है और सहायता कर रही है, उनके प्रति प्रेम से भरपूर रहे और चाहे वह शरीर से उनके पास हो या न हो, बराबर ही उनका महान् सामीप्य अनुभव करे । यह संबंध मन, प्राण और आंतर शरीर को तबतक ऊपर उठाता जाता है जबतक कि मनुष्य अपने मन को माताजी के मन के समीप, अपने प्राण को उनके प्राण के साथ सुसमंजस और अपनी शारीरिक चेतना तक को उनसे भरा-पूरा अनुभव नहीं करता । ये सभी आंतरिक एकत्व से, केवल आत्मा और आंतर स्वरूप के अंदर के नहीं प्रत्युत प्रकृति के अंदर के एकत्व से संबंध रखनेवाली बातें हैं ।

   मुझे याद नहीं आता कि मैंने क्या लिखा था, परंतु यह एक घनिष्ठ आंतर संबंध है और बाहरी संबंध से एकदम भिन्न है । बाहरी संबंध तो केवल इस बात पर निर्भर करता है कि मनुष्य किस प्रकार उसके साथ बाहरी भौतिक स्तर में मिलता है । यह बिलकुल संभव और सच्ची बात है कि यदि कोई उनको शरीर से केवल प्रणाम और ध्यान के समय तथा वर्ष में केवल एक बार । संभवत: जन्मदिन के अवसर पर ही देखे तो भी यह घनिष्ठ आंतर संबंध पाया जा सकता है । 

*

 संपर्क तो बराबर ही रहता है, आत्मा में और चैत्य पुरुष में; परंतु मन, प्राण और शरीर में यदि बाधाएं हों तो फिर वह संपर्क प्रकट नहीं हो सकता

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अथवा, यदि प्रकट हो भी तो । उसमें ऐसी चीज़ें मिली होती हैं जो उसे अपूर्ण और अनुपयुक्त बना देती हैं । सच्चा संपर्क तो चैत्य और आध्यात्मिक ही है; अन्य अंगों का संबंध इसी चैत्य और आध्यात्मिक संबंध के आधार पर बनाये रखना चाहिये और तभी यह स्थायी हो सकता है ।

*

भगवान् के साथ का संबंध, माताजी के साथ का संबंध होना चाहिये प्रेम, श्रद्धा- भक्ति, विश्वास, निर्भरता और आत्मसमर्पण का संबंध; साधारण प्रकार का कोई भी दूसरा प्राणगत संबंध ऐसी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करता है जो साधना के विरुद्ध होती हैं -जैसे । कामना-वासना, अहंकारपूर्ण अभिमान, मांग, विद्रोह और अज्ञानमयी राजसिक प्रकृति का सारा विक्षोभ जिससे दूर हटना ही साधना का लक्ष्य है ।

 २६-४-१९३३

सतत चैत्य सामीप्य

 

  मैं अपने-आपको माताजी के बहुत नजदीक अनुभव करता हूं मानों हमारे बीच कोई पार्थक्य ही न हो /लेकिन यह कैसे संभव हो सकता है जब कि उनके और मेरे बीच इतनी बड़ी खाई है-बे तो हैं अतिमानसिक स्तर पर और मैं हूं मानसिक स्तर पर?

 

परंतु माताजी केवल अतिमानसिक स्तर पर ही नहीं हैं बल्कि सभी स्तरों पर हैं । और विशेषकर चैत्य भाग (आंतर हृदय) में वह प्रत्येक व्यक्ति के समीप हैं, इसलिये जब चैत्य भाग खुलता है तब स्वभावत: ही सामीप्य का अनुभव होता है ।

११ - १२ - ११३३

*

 जो चीज आवश्यक है वह है तुम्हारे चैत्य पुरुष का आगे आना और मेरे तथा माताजी के प्रत्यक्ष, यथार्थ तथा सतत आंतर संस्पर्श के प्रति तुम्हें खोल देना । अबतक तुम्हारे अंतरात्मा ने मन के द्वारा और उसके आदर्श तथा पसंदगियो के द्वारा अथवा प्राण और उसके उच्चतर .सुखों और अभीप्साओं के द्वारा

१५१ 


अपने- आपको अभिव्यक्त किया है; परंतु भौतिक कठिनाइयों को जितने तथा जड़तत्त्व को आलोकित करने और रूपांतरित करने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है । वास्तव में स्वयं तुम्हारे अंतरात्मा को, तुम्हारे चैत्य पुरुष को सामने आना होगा, संपूर्ण रूप से जागृत होना होगा ओर मूलगत परिवर्तन ले आना होगा । चैत्य पुरुष को बौद्धिक आदेशों के समर्थन की या बाहरी चिस्नों और सहायताओं की कोई आवश्यकता न होगी । केवल यही वह चीज है जो तुम्हें भगवान् की सीधी अनुभूति दे सकती है । सतत सान्निध्य, आंतर अवलम्ब और साहाथ्य दे सकती है । उस समय तुम माताजी को दूर नन्हाँ अनुभव करोगे और न सिद्धि के विषय में फिर कोई संदेह ही करोगे; क्योंकि मन ही विचार करता हे और प्राण लालायित होता है, पर अंतरात्मा भगवान् को अनुभव करता और जानता है ।

 

  यहांपर जो कुछ तुमने लिखा है वह चैत्य पुरुष और माताजी के साथ उसके संबंध का ठीक-ठीक वर्णन है । यही सच्चा संबंध है । अगर इस योग में तुम सफल होना चाहते हो तो तुम्हें चैत्य संबंध को अवश्य ही अपनाना चाहिये और अहंकारपूर्ण प्राणिक क्रिया का त्याग करना चाहिये । चैत्य पुरुष का सामने आना और वहां बने रहना ही योग की निर्णायक क्रिया है । जब तुम पिछली बार माताजी से मिले तब यही हुआ था, तुम्हारा चैत्य पुरुष सामने आ गया था । परंतु तुम्हें उसे सामने ही बनाये रखना होगा । किंतु तुम यदि प्राणगत अहंकार की बात और उसकी चिल्लाहटों को सुनोगे तो तुम यह करने में समर्थ नहीं होगे । श्रद्धा-विश्वास, आत्मसमर्पण और शुद्ध आत्मदान का आनंद  -चैत्य-पुरुषोचित भाव -ही वह चीज है जिसकी सहायता से मनुष्य सत्य में वर्द्धित और भगवान् के साथ युक्त होता है ।

 

२६-२-१९३३

 

*

 

   जब मैं ठीक-ठीक एकाग्र नहीं हो सका तब मैंने ऊपर से पवित्रता आवाहन किया तुरत सारी सत्ता शांति और पवित्रता से भर गयी और बिना किसी कठिनाई के मैंने हृदय में माताजी की उपस्थिति का अनुभव किया? हृदय से नीचे से सच पूछा जाये तो   सत्ता के प्रत्येक अंग से तीव्र अभीप्सा उठने लगी हृदय माताजी के प्रति दूना के भाव से भर गया था; भक्ति सच्चे समर्पण तथा माताजी के साथ एकत्व की प्राप्ति से मिलनेवाली महान निश्चिंतता का भाव वर्तमान था । पवित्रता के लिये

 १५२


  भी तीव्र अभीप्सा उठ रही थी क्या यह चैत्य उद्घाटन था?

 

हां, निःसंदेह यह चैत्य उद्घाटन था और जिस बात पर अधिक जोर था वह था उच्चतर पवित्रता के लिये उद्घाटन और वह बहुत आवश्यक है । वह चैत्य उद्घाटन तथा माताजी के साथ आंतर संपर्क प्राप्त करने के लिये एक अत्यंत आवश्यक चीज है ।

 

१४ - ७ - १९३७ 

*

 

 जो पुकारता है वह है तुम्हारा अपना ही चैत्य पुरुष जिसका स्थान है हत्केंद्र के पीछे गभीर तल में । बहुत से आदमी समय-समय पर वहां से माताजी के लिये उठती हुई पुकार अनुभव करते हैं । यह पुकार नींद में अथवा अर्द्ध-जाग्रत् अवस्था में अधिक आसानी से उठती है । क्योंकि उस समय ऊपरी मन सक्रिय नहीं होता और इसी कारण भीतर आंतर सत्ता में जो कुछ होता है वह प्रकट हो सकता है ।

 

२१ - १० - ११३४

 

साधना का सच्चा आधार

 

हां, यही सच्चा आधार है । पूर्ण समता के अंदर माताजी के साथ सच रूप से युक्त हो जाना जिसमें उच्चतर चेतना जीवन में उतर सके और प्रकृति के अत्यंत बाहरी भागों में भी लायी जा सके ।

 

२२ - ५ - ११३४ 

*

 

 जितना ही अधिक माताजी के साथ एकत्व बढ़ता जाये साधना के लिये वह उतना ही अच्छा है ।

 

२ - १० - १९३३ 

*

 

 हां, यह बहुत उत्साहित करनेवाली प्रगति है । अगर तुम विशालता और स्थिरता को पहले की तरह बनाये रखो और साथ ही हृदय में माताजी के लिये प्रेम भी

१५३ 


बनाये रखो तो सब सुरक्षित रहेगा -क्योंकि इसका अर्थ होगा योग का द्विविध आधार - अपनी शांति । स्वतंत्रता और आत्मप्रसाद के साथ ऊपर से उच्चतर चेतना का अवतरण तथा चैत्य पुरुष का उद्घाटन जो समस्त प्रयास या समस्त स्वाभाविक क्रिया को सच्चे लक्ष्य की ओर मोडे रखता है ।

१० - १० - १९३४

 

माताजी का प्रेम

 

तुम माताजी के बच्चे हो और अपने बच्चों के लिये माताजी का प्रेम असीम है तथा वे उनके स्वभाव के दोषों को धैर्य के साथ सहन करती हैं । माताजी का सच्चा बच्चा होने की चेष्टा करो; वे तुम्हारे भीतर ही हैं, पर तुम्हारा बाहरी मन छोटी-छोटी निरर्थक बातों में लगा रहता है और बहुधा उनके विषय में बहुत अधिक हो-हल्ला मचाया करता है । तुम्हें केवल स्वप्न में ही माताजी को नहीं देखना चाहिये बल्कि सब समय उन्हें अपने साथ और अपने भीतर देखना और अनुभव करना सीखना चाहिये । तब तुम अपने को संयत करना और परिवर्तित करना अधिक आसान पाओगे -क्योंकि वहां मौजूद होने के कारण माताजी ही तुम्हारे लिये यह कर देने में समर्थ होंगी ।

 

*

  श्रीमाताजी के विषय में ये भाव और साथ ही यह कि केवल काम करने के बदले में ही लोगों को उनका प्रेम प्राप्त होता है अथवा उन्हीं लोगों को प्राप्त होता है जो साधना अच्छी तरह कर सकते हैं, यह प्राणगत- भौतिक मन का अर्थहीन साधारण विचार है और इसका कोई मूल्य नहीं ।

 

१७ - १ - ११३७

*

 

यदि ध्यान से तुम्हें सिरदर्द हो जाता है तो तुम्हें ध्यान वर्ही करना चाहिये । यह सोचना भूल है कि ध्यान साधना के लिये अनिवार्य है । ऐसे कितने ही लोग हैं जो ध्यान नहीं करते, किंतु वे माताजी के समीप हैं और उतनी ही अच्छी तरह प्रगति करते हैं जितनी लम्बे ध्यान करनेवाले साधक ।

 

  एकमात्र आवश्यक वस्तु है माताजी की ओर मुड़े होना और बस केवल इसी का प्रयोजन है । डरो मत और न उदास ही होओ । पर माताजी को तुम्हारे

 १२४


अंदर और तुम्हारे द्वारा अपना कार्य शांति से करने दो और तब सब कुछ ठीक हो जायेगा ।

 

१ ६- ३ -१ १३५

*

 

निश्चय ही तुम्हारे लिये यह आवश्यक नहीं है कि तुम इसलिये ' अच्छा ' बनो कि माताजी तुम्हें अपना प्रेम दे सकें । उनका प्रेम बराबर ही है और उस प्रेम के सामने मानव-प्रकृति की अपूर्णताओ का कोई मूल्य नहीं । एकमात्र आवश्यक बात यह है कि तुम वहां पर बराबर उसके विषय में सचेतन बने रहो । उसके लिये यह जरूरी है कि चैत्य पुरुष सामने आ जाये -क्योंकि चैत्य पुरुष ही जानता है, जब कि मन । प्राण और शरीर केवल ऊपरी रूपों को देखते और उनकी गलत व्याख्या करते हैं ।

 

२४ - ६- ११३६ 

*

 

 ' क्ष ' संभवत: दो भूलें कर रहा है -पहली, वह यह आशा करता है कि माताजी अपने प्रेम को बाह्य रूपों में प्रकट करेंगी; दूसरी, फल की कोई मांग न कर अपने- आपको खोले रखने और समर्पित कर देने की ओर मन लगाने के बदले वह उन्नति की प्रतीक्षा कर रहा है । ये ही दो भूलें हैं जिन्हें साधक बराबर करते रहते हैं । अगर कोई अपने- आपको खोले । अगर कोई आत्मसमर्पण करे तो फिर जैसे ही प्रकृति तैयार होगी वैसे ही उन्नति भी अपने- आप होगी; परंतु उन्नति के लिये व्यक्तिगत रूप से मन को एकाग्र करने से कठिनाइयां, बाधा- विरोध और निराशा ही उत्पन्न होती है, क्योंकि उस समय मन समुचित दृष्टि से चीजों को नहीं देखता । ' क्ष ' के ऊपर माताजी की विशेष कृपा है और प्रत्येक दिन प्रणाम के समय वे उसे एक ऐसी शक्ति देने की चेष्टा करती हैं जो उसे सहारा दे । उसे अपने मन और प्राण में खूब शांत-स्थिर बने रहना सीखना चाहिये और अपने- आपको उत्सर्ग कर देना चाहिये जिससे वह सचेतन हो सके तथा साथ ही ग्रहण कर सके । मानव-प्रेम से भिन्न, भागवत प्रेम गभीर, विशाल और नीरव होता है; उसे पहचानने और उसका प्रत्युत्तर देने के लिये साधक को भी अचंचल और उदार-विशाल होना चाहिये । उसे बस समर्पित हो जाना ही अपना पूर्ण उद्देश्य बना लेना चाहिये जिसमें कि वह एक पात्र और यंत्र बन जाये और अपने- आपको आवश्यक चीजों से भरने के लिये भागवत ज्ञान और

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प्रेम के ऊपर छोड़ दे । उसके मन में इस बात को भी जमकर बैठ जाने दो कि उसे इस बात का आग्रह नहीं करना चाहिये कि एक निश्चित समय के भीतर उसे उन्नति करनी ही होगी, विकास करना ही होगा, अनुभूतियां पानी ही डोंगी  -जितना भी समय इसमें लगे, उसे प्रतीक्षा करने के लिये तैयार रहना चाहिये और प्रयास में लगे रहना चाहिये तथा अपने समस्त जीवन को ही केवल एक चीज अर्थात् भगवान् को ही पाने की अभीप्सा और उद्घाटन में परिवर्तित कर देना चाहिये । अपने- आपको दे देना ही साधना का रहस्य है, कोई चीज मांगना और प्राप्त करना नहीं । जितना ही अधिक कोई अपने- आपको देता है उतना ही अधिक उसमें ग्रहण करने की शक्ति बढ़ती है । परंतु इसके लिये सब प्रकार की अधीरता और विद्रोह अवश्य दूर हो जाना चाहिये । ऐसे सभी सुझावों का त्याग करना चाहिये कि हम कुछ पा नहीं रहे हैं । हमें सहायता नहीं मिल रही है, प्रेम नहीं मिल रहा है हमें चले जाना चाहिये, जीवन या आध्यात्मिक प्रयास को ही छोड़ देना चाहिये ।

 

१ - १ - ११३६

 

 स्पष्ट ही है कि लोग यदि माताजी से साधारण ढंग का प्रेम पाने की आशा करें तो वे अवश्य निराश होंगे -वह प्रेम जो प्राण और उसके ख़्यालों पर आधारित होता है । यह तो ठीक वही प्रेम है जिसे योग में अतिक्रम करना अथवा अन्य किसी चीज में रूपांतरित करना होता है ।

१४ - ३ - ११३६

*

यह सब बिलकुल ठीक है । (माताजी के) मानवीय या चैत्य प्रेम को भी बहुत से लोग अनुभव करने या समझने में असमर्थ होते हैं; क्योंकि वह ठीक साधारण मानवीय ढंग का नहीं होता ।

 

 

५ - ५ - ११३५

*

 

परंतु तुम उनसे ' मानव ' माता के रूप में क्यों मिलना चाहते हो? अगर तुम भगवती माता को मानव-शरीर में देख सको तो वह पर्याप्त होगा और वह कहीं अधिक लाभदायी मनोभाव होगा । जो लोग मानव माता के रूप में उनके

 

१५६


पास आते हैं वे प्रायः अपनी कल्पना के कारण संकट में पड़ जाते हैं और उनके निकट आने में सब तरह की भूलें करते हैं ।

 

२-५-१९३४

*

 

  जब साधक को माताजी की उपस्थिति का अनुभव नहीं होता तो बह अपने को अकेला अनुभव करता और कष्ट पाता है क्या देह में अवतरित श्रीमां अपने बच्चे का अभाव उस प्रकार अनुभव करती हैं जिस प्रकार मानवी माता करती है? अथवा क्या के मानवी मां से अधिक  : होती है क्योंकि के अपना भाव उतने रूप में नहीं प्रकट कर सकतीं जितना मानवी मां?

 

यदि ऐसी बात होती तो माताजी को हर समय लाखों गुना गहरे दुःख की अवस्था में रहना पड़ता -क्योंकि वे केवल साधकों के लिये ही दुःखी क्यों हों? ऐसी प्रत्येक आत्मा के लिये जो अज्ञान में भटक रही है दुःखी क्यों न हों? बच्चे को दुःखी होने की जरूरत ही नहीं, उसे तो बस जब श्रीमां पुकारें उनके पास वापिस लौट आना चाहिये ।

 

२४ - १ - ११३४ 

*

 

 तुम्हारा यह विचार कि माताजी सबकी अपने बच्चों की तरह देखभाल करती हैं और तुम्हारी परवाह नहीं करतीं । स्पष्ट ही एक सर्वथा निराधार विचार है और किसी ठोस आधार पर स्थित नहीं । तुम्हारे लिये अपने प्रेम में तथा तुम्हारी देखभाल करने में और तुम्हारे प्रति... अपने ढंग में वे उतनी ही वात्सल्यपूण हैं जितनी किन्हीं दूसरों के प्रति और बहुतों की अपेक्षा तो तुम्हारे प्रति अधिक वात्सल्यमय हैं । हमें दीख सकनेवाली ऐसी कोई ठोस या विशेष चीज नहीं जिसपर तुम्हारा विचार टीक सके । निश्चय ही, यह माताजी की भाव- भावनाओं में विद्यमान किसी वास्तविक तथ्य से संबंध नहीं रखता ।

 

  पर मैंने देखा है कि इस प्रकार का विचार साधकों और सालिकाओं  (विशेषकर साधिकाओं) के मनों में तब ' सदा ही ' उठा करता है जब वे निराश हो जाते हैं या अपने बाहर से आनेवाले सुझावों पर ध्यान देते हैं । वे सदा वही बात कहते हैं जो तुमने कही है, '' आप सबसे प्रेम करती हैं और सबकी देखभाल करती हैं; केवल ०?' आप प्रेम नहीं करतीं, न मेरी परवाह ही

१५७ 


करती हैं । स्पष्टत: ही मैं योग के अयोग्य हूं । अन्यथा आप मुझे इस प्रकार अपने से दूर न रखती । मुझे कभी कुछ भी प्राप्ति नहीं होने की । केवल आपको कष्ट देने के लिये यहां रहने से क्या लाभ? मैं यहां रहूं ही क्यों?'' परंतु जब चैत्य पुरुष अच्छी तरह जाग जायेगा । तब ये विचार, यह निराशा, ये अशुद्ध धारणाएं अवश्य ही दूर हट जायेंगी । अतएव जो कुछ तुम अनुभव कर रहे हो वह है बस यही निराशा और इसके द्वारा लाये गये गलत सुझाव; यह माताजी की भाव- भावनाओं में या तुम्हारे प्रति उनके व्यवहार में विद्यमान किसी वास्तविक तथ्य से संबंध नहीं रखता । जैसे-जैसे तुम्हारा अंतः पुरुष । तुम्हारी अंतरात्मा अधिकाधिक आगे आती जायेगी वैसे-वैसे और चीजों के साथ यह निराशा भी हट जायेगी -क्योंकि तुम्हारी अंतरात्मा यह जानती है कि उसे माताजी से प्रेम है और माताजी तुमसे प्रेम करती हैं; वह मन और प्राणिक प्रकृति को धोखा देनेवाली सुझावों से अंधी नहीं हो सकती ।

  अतएव इन विचारों में मत पड़े रहो जिनका कोई आधार ही नहीं, बल्कि जो केवल निराशा का भाव या बाहर से आया सुझावमात्र है । अपने अंदर स्थित चैत्य पुरुष को विकसित होने दो और माताजी की शक्ति को कार्य करने दो । शिशु और भगवती मां का संबंध वहां तुम्हारी अंतरात्मा में है ही; वह अपने को तुम्हारे मन, प्राण और भौतिक चेतना में तबतक अनुभव कराता रहेगा जबतक वह संपूर्ण चेतना का एक ऐसा आधार नहीं बन जाता जिसपर सारी साधना दृढ़ और सुरक्षित हो सके ।

२६ - ७ - ११३५४

*

 

माताजी का समस्त प्रेम और सहायता तुम्हारे साथ पहले की तरह रहेंगे, उनमें कोई परिवर्तन नहीं आयेगा । सारी कठिनाई आती है प्राण की गतिविधि से जो माताजी के हृदय ओर आत्मा के साथ, तुम्हारे हृदय और आत्मा के घनिष्ठ संबंध में पूरी तरह से निवास करने के स्थान पर । दूसरे साधकों के साथ तुलना करके, गलत ढंग से माताजी के प्रेम और सहायता को पाना और उसपर अधिकार जमाना चाहती है । ' क्ष ' के साथ तुम्हारे संबंध में भी यही बात देखने में आती है । पर यह तो एक ऐसा दोष है जो मानव प्रकृति में सामान्य रूप से पाया जाता है और यहां यह बहुतों में है । यह कोई ऐसी चीज नहीं जिसे अपनी प्रकृति में से दूर न किया जा सके । निःसंदेह । क्योंकि तुम्हारा हृदय और अन्तरात्मा इससे  होना चाहते हैं, यह हटे बिना रह नहीं सकता ।

 १५८


अतएव जब यह पुराने अभ्यास के कारण लौट आये तो निरुत्साहित मत होओ । तुम्हारा हृदय और अंतरात्मा जो कुछ चाहते हैं वह माताजी के प्रेम और उनकी सहायता के द्वारा अवश्य होकर रहेगा और तुम्हें तमसाच्छत्र करनेवाला अशुद्ध तत्त्व मिट जायेगा ।

२५ - १ - ११३५ 

*

 

  मुझे यह भान होता है कि इधर कुछ  वर्षा से मेरा चैत्य पुरुष मेरी सत्ता के अग्र भाग में सदा ही क्रियाशील रहता हे क्या यह भान ठीक हे-?

 

यदि तुम्हारा चैत्य आगे आया हुआ है और क्रियाशील है, अर्थात् वह मन, प्राण और शरीर को परिवर्तित और नियंत्रित करने में लगा हुआ है, तो यह केसी बात है कि तुम्हारे साथ माताजी के व्यवहारों से तुम्हारी प्रकृति में उथल- पुथल मचा गयी है? यदि चैत्य अग्रभाग में स्थित और क्रियाशील हो तो वह प्रकृति के किसी भी भाग को, जो अस्त-व्यस्त होना चाहता है, तुरंत यह कहेगा, '' माताजी जो भी किया या निर्णय करें उसे समर्पण और प्रसन्नता के भाव से स्वीकार करना होगा । मन को यह नहीं मानना होगा कि वह माताजी से अधिक अच्छी तरह जानता है कि क्या किया जाना चाहिये,' प्राण को यह नहीं चाहना होगा कि माताजी उसकी मांगों और पसंदगियों के अनुसार कार्य करें । क्योंकि ऐसे विचार और कामनाएं पुरानी प्रकृति की चीज़ें हैं और चैत्य तथा आध्यात्मिक प्रकृति में उनका कोई स्थान नहीं । वे अहंभाव की भूलें हैं । '' और यदि चैत्य को प्रकृति पर नियंत्रण प्राप्त होता तो विक्षोभ तुरंत समाप्त हो जाता या क्षीण पड़कर मिट जाता । वास्तव में, यदि उसे पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त होता तो ऐसे विक्षोभ संभव ही न होते । अतएव यह मानना होगा कि संभवत: चैत्य पुरुष तुम्हारी सत्ता पर कुछ प्रभाव डालता चला आ रहा है पर उसका नियंत्रण च होने से कहीं दूर है या फिर प्राण उठ खड़ा हुआ है और उसने चैत्य को ढक कर उसका प्रभाव रोक दिया है । परंतु यदि चैत्य पूरी तरह से सामने आया हुआ हो, ढका हुआ न हो या केवल अभी- अभी उभर ही न रहा हो । तो उसे बिलकुल ढक देना संभव ही नहीं होगा -तब तो केवल अधिक-से- अधिक ऊपरी सतह पर ही खलबली हो सकती है जब कि भीतर सब कुछ शांत, सचेतन और अर्पित ही रहेगा ।

२ - ७ - ११३६

१५९ 


जो प्रेम भगवान् की ओर मुडा होता है उसे कभी वह सामान्य प्राणगत भाव नहीं होना चाहिये जिसे साधारणतया लोग प्रेम के नाम से पुकारते हैं; क्योंकि वह प्रेम नहीं है, बल्कि वह तो एक प्राणगत वासना है, आत्मसात् करने की सहजवृत्ति है, अधिकार करने और एकाधिकार जमाने की प्रेरणा है । केवल यही नहीं कि यह दिव्य प्रेम नहीं है बल्कि इसे कम-से-कम मात्रा में भी योग के साथ नहीं मिलने देना चाहिये । भगवान् के लिये जो सच्चा प्रेम है वह है आत्मदान, उसमें कोई मांग नहीं होती, वह नति और समर्पण के भाव से भरपूर होता है । वह कोई दावा नहीं करता, कोई शर्त नहीं लादता, कोई मोल-तोल नहीं करता, ईर्ष्या या अभिमान या क्रोध के कारण किसी प्रकार का आक्रमण नहीं करता -क्योंकि ये सब चीजों उसकी बनावट में नहीं होती । बदले में स्वयं भगवती माता भी अपने- आपको देती हैं, पर देती हैं खुले तौर पर - और यह प्रकट होता है एक आंतर आत्मदान के रूप में -उनकी उपस्थिति तुम्हारे मन में, तुम्हारे प्राण में, तुम्हारी भौतिक चेतना में विद्यमान रहती है, उनकी शक्ति दिव्य प्रकृति के अंदर तुम्हारा पुनः सृजन करती है, तुम्हारी सत्ता की सभी गतिविधियों को अपने हाथ में लेती और उन्हें पूर्णता और सिद्धि की ओर ले जाती है, उनका प्रेम तुम्हें घेर लेता है और अपनी गोद में उठाकर तुम्हें भगवान् की ओर ले जाता है । इसी बात को अपने समस्त अंगों में -एकदम स्थूल अंग तक में अनुभव करने और प्राप्त करने को अभीप्सा तुम्हें करनी चाहिये और इस विषय में न तो समय की कोई सीमा है और न परिपूर्णता की । अगर कोई वास्तव में इस बात की अभीप्सा करे और इसे पा ले तो फिर किसी दूसरी मांग अथवा किसी दूसरी अतृप्त कामना के लिये कोई स्थान वर्ही रह जाना चाहिये । और अगर कोई सचमुच अभीप्सा करे तो फिर वह, जैसे-जैसे उसकी पवित्रीकरण की किया आगे बढ़ती हे और उसकी प्रकृति में आवश्यक परिवतंन आता जाता है वैसे-वैसे, उसे निश्चित रूप से पाता ही है ।

    समस्त स्वार्थपूण मांगों और कामनाओं से अपने प्रेम को शुद्ध रखो; तुम देखोगे कि उसके प्रत्युत्तर में तुम इतना अधिक प्रेम पा रहे हो जितना कि तुम सहन और आत्मसात् कर सकते हो ।

    फिर यह भी समझने की जरूरत है कि साक्षात्कार की प्राप्ति ही सबसे मुख्य कार्य है; तुम्हें जो करना है वह यही है, न कि दावों और इच्छाओं की ल । जब भागवत चेतना अपने अतिमानसिक प्रकाश और शक्ति के रूप में

१६० 


उतर आवे और भौतिक सत्ता को रूपांतरित कर दे, तभी अन्य वस्तुओं को प्रमुख स्थान दिया जा सकता है - और तब भी कामना को तृप्त नहीं करना होगा, किंतु भागवत सत्य को पूर्णतया चरितार्थ करना होगा -प्रत्येक में तथा  'सर्व ' में और उस नवीन जीवन में जिसे इस सत्य की अभिव्यक्ति करनी हे । दिव्य जीवन में सब कुछ भगवान् के लिये होता है न कि अहं के लिये ।

  ग्रंथियां दूर करने के लिये मुझे शायद दो-एक बातें और कह देनी चाहियें । प्रथम, भगवान् के प्रति जिस प्रेम की मैं चर्चा कर रहा हूं वह केवल आंतरात्मिक प्रेम ही नहीं है; वह प्रेम है व्यक्ति की सारी सत्ता का, जिसमें प्राण और प्राणमय भौतिक सत्ता भी आ जाती है, -ये सभी आत्मोत्सर्ग के लिये एकसमान योग्य हैं । दूसरे, यह मान लेना अशुद्ध होगा कि अगर प्राण प्रेम करे तो अवश्य ही वह ऐसा प्रेम होगा जो अपनी कामना-तृप्ति की मांग करेगा और उसे शर्त के रूप में लादेगा यह सोचना गलत होगा कि वह या तो अवश्य ऐसा ही होगा या प्राण के लिये आवश्यक है कि वह अपनी '' आसक्ति '' से बचने की खातिर अपने प्रेम के पात्र से सर्वथा दूर हट जाये । प्राण अपने याचनारहित आत्मदान में उतना ही निरपेक्ष हो सकता है जितना प्रकृति का अन्य कोई भी भाग; जब यह प्रियतम के लिये स्व को भुला देता है तब कोई भी भाग इसकी अपेक्षा अधिक उदार नहीं हो सकता । प्राण और शरीर दोनों को सच्चे तरीके से - सच्चे प्रेम के तरीके से । अहं की इच्छा के तरीके से नहीं - अपना उत्सर्ग करना चाहिये ।

 

सच्चा प्रेम और अहंपरायणता

 

  हम सभी माताजी का प्रेम चाहते हे पर संदेह है कि हममें से कितने लोग सचमुच माताजी से प्रेम करते हैं हममें से अधिकतर लोग अपनी निजी पसंदगी और नापसंदगी सुख और दूःख, संतोष और निराशा में गई निवास करते हैं पर से ही कोई आदमी वास्तव में माताजी को प्यार करता है?

 

इसका यह मतलब नहीं है कि उनमें प्रेम नहीं है, पर वह प्रेम स्वार्थपरता, मांग और प्राणिक क्रियाओं से मिलाजुला और ढका हुआ है । कम-से-कम अधिकतर लोगों की यही अवस्था है । निःसंदेह, ० लोग ऐसे हैं जिनमें एकदम प्रेम

 १६१


नहीं है अथवा जो कुछ वे पाते हैं केवल उसी के लिये ' प्रेम ' - अगर उसे यह नाम दिया जाये -करते हैं; एक या दो ऐसे हैं जो सचमुच में प्रेम करते हैं, पर बहुत से लोगों में चैत्य स्फुलिंग घने धुएं में छिपा हुआ है । उस धुएं से छुटकारा पाना ही होगा जिससे कि स्फुलिंग को अग्निशिखा के रूप में बढ़ने का अवसर प्राप्त हो ।

 

१ - ११ - ११३४

 

चैत्य, मानसिक और प्राणिक भक्ति

 

   माताजी के प्रति चैत्य भक्ति मानसिक भक्ति और प्राणिक भक्ति में क्या अंतर है?

 

चैत्य भक्ति प्रेम और आत्मदान से बनी होती है और उसमें कोई मांग नहीं होती; प्राणिक भक्ति माताजी द्वारा अधिकृत होने और उनकी सेवा करने के संकल्प से तथा मानसिक भक्ति श्रद्धा, और माताजी जो कुछ हैं, जो कुछ कहती और करती हैं उस सबको बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लेने के भाव से गठित होती है । अवश्य ही ये सब बाहरी चिह्न हैं - अपने आंतर स्वरूप में ये तीनों स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं पर इनके भेद को शब्दों में नहीं रखा जा सकता ।

 २७-४-१९३३

*

 

  क्या इस योग में मानसिक और प्राणिक भक्ति के लिये कोई समाधान नहीं है?

 

कौन कहता है कि नहीं है? सभी प्रकार की भक्ति के लिये स्थान है बशर्ते कि वह सच्ची भक्ति हो ।

२८ - ४ - ११३३

*

 

यह है अपने अहंभाव सहित पुराना प्राण जो फिर-फिर उभर आता है । यह उच्चतर सत्ता का अनुसरण करने और उन सच्चे भक्तों-जैसा बनने से इन्कार

१६२


करता है जो कुछ नहीं मांगते और उस सब कुछ से ही संतुष्ट रहते हैं जो माताजी करती हैं या नहीं करती: कारण, जो कुछ भी वे करती हैं वह अवश्य ही भला होगा क्योंकि वे भगवती मां हैं । तुम्हें इस प्राणिक भाग पर इस सत्य को बल-पूर्वक लागू करना होगा ।

६- ५ - १९३५ 

*

 

शुद्ध और पूर्ण भक्ति कैसे प्राप्त की जाये?

 

पहले शांत अवस्था प्राप्त करो -फिर उस शांत भूमिका से अभीप्सा करो और अपने- आपको शांत भाव से तथा सचाई के साथ माताजी की ओर खोल दो ।

 १५ - दे १ - ११३३

*

 

   मुझे भक्ति का एक छोटा- सा कण प्रदान कीजिये हे मां बस उसकी एक छोटा- सी कणिका भर? अन्यथा न मालूम मुझे क्या हो जायेगा सचमुच मुझे यह भी पता नहीं कि मैं यहां कैसे रह सकता हूं और मैं आपके चरण- कमलों का आश्रय छोड़ना भी नहिं चाहता /

 

ऐसा करो कि मानसिक आतुरता तुम्हें परेशान न करने पाये । माताजी की शक्ति की क्रिया की प्रतीक्षा करो । वे तुम्हारे हृदय-कमल को खोल देंगी । ऊपर से आनेवाली ज्योति में भक्ति तुम्हारे अंदर प्रस्फुटित हो उठेगी ।

२५ - १० - ११३६

 

श्रद्धा और प्रेम

 

  क्या यह सच नहीं है कि जिन लोगों को माताजी में श्रद्धा-विश्वास है उनमें उनके लिये प्रेम भी हे? क्या श्रद्धा-विश्वास और प्रेम साथ- साथ नहीं रहते?

 

सर्वदा नहीं । ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्हें प्रेम के बिना भी कुछ श्रद्धा-विश्वास होता है । यद्यपि उनमें एक प्रकार की मानसिक भक्ति हो सकती हे, और बहुतेरे

 १६३


ऐसे होते हैं जिनमे कुछ प्रेम तो होता है पर श्रद्धा-विश्वास नहीं होता । परंतु यदि सच्चा चैत्य प्रेम हो तो श्रद्धा-विश्वास भी उसके साथ रहता है । और यदि पूर्ण श्रद्धा-विश्वास हो तो फिर चैत्य प्रेम शीघ्र जाग्रत् हो जाता है । तुम्हारा कहना तभी ठीक है यदि वह अंतरात्मा का विश्वास हो, अंतरात्मा का प्रेम हो  -परंतु कुछ लोगों में केवल प्राणिक भाव ही होता है और जब वह निराश होता है तब वह विद्रोह और क्रोध ले आता है और वे चले जाते हैं ।

 

८-५-११३३

 

माताजी के लिये चैत्य भाव

 

 वह किस प्रकार का भाव है जिसमें माताजी को केवल देखने से ही संतोष और आनंद मिलता है?

 

 वह चैत्य भाव है ।

 

  वह किस प्रकार का भाव है जिसमें माताजी को केवल याद करने में ही संतोष र आनंद मिलता है?

 

चैत्य ।

  वह किस प्रकार का भाव है जिसमें माताजी के विरुद्ध कुछ पर हृदय में चोट पहुंचती है?

 

चैत्य

  वह किस प्रकार का भाव है जिसमें  मनुष्य अपने हृदय में माताजी की उपस्थिति के निकट अपने को अनुभव करता हे जब कि के शरीर से बहुत दूर होती हैं

 

चैत्य

   मैं यह कैसे

पता लगाऊं कि मैं पूरे चैत्य प्रेम की अवस्था में  हूं'?

 १६४


अहंकार के अभाव, विशुद्ध भक्ति, भगवान् के प्रति नति और आत्मसमर्पण के द्वारा |

९५-१९३३

*

 

  जब सारी- की- सारी '' श्रीमां,? '' शब्द के चारों ओर वेदन, चिंतन और और कर्म करने में निरत हो तो क्या चैत्य पुरुष की उपलब्धि हो जायेगी?

 

वह अपने-आपमें चैत्य अवस्था होगी ।

 *

  क्या चैत्य के पूरी तरह से सामने आने से पहले उसके द्वारा माताजी के साथ सचेतन संपर्क स्थापित हो सकता है?

 

हां, चैत्य तो वहां सदा ही उपस्थित है ।

*

 

  जब- जब भी मैं माताजी के दर्शन करता है हर बार ही मुझे प्रेम और आनंद की अनुभूति क्यों नहीं होती?

 

जहांतक प्रेम एवं आनंद का प्रश्न है, वह चैत्य के ऊपर की ओर उभर आने पर निर्भर करता है ।

 

२१ -७ - १९३४ 

*

 

  जब कभी माताजी के लिये आंतरिक प्रेम फुट पड़ता है आंसू भी उमड़ आते हैं

 

ये भक्ति आदि के चैत्य आंसू हैं ।

२५-८-१९३४ 

*
१६५


 

    

एक दर्शक महिला आज आश्रम से जानेवाली थी ज्यों ही माताजी ने प्रणाम- समारोह समाप्त किया यह महिला रोने लगी वास्तव में उसने अपने को रोकने का भरसक प्रयत्न किया क्योंकि हम सब अभी वर्ही थे पर लगता है यह उसके बस की बात नहीं थी क्या इसका कारण यह नहीं था कि उसका चैत्य उस समय के लिये सामने आ गया था?

 

यह चैत्य के सामने आने की बात नहिं । उसका चैत्य पुरुष जागा हुआ है और आंतरिक स्तर पर चिरकाल से उसके चैत्य का माताजी के साथ संबंध रहा है ।

 २८ - ८ - ११३४ 

*

 

  ऊपर से एक सिहरन आती है और मेरे शरीर में गुजर जाती है कुछ समय के लिये वह आधार को शान निश्चल कर देती है/ में उसके विषय में कुछ विशेष नहीं समझ पाता वह ठीक-ठीक क्या चीज है?

 

निःसंदेह वह माताजी के स्पर्श की सिहरन है जो ऊपर से आती है और जिसे चैत्य और प्राण एक साथ अनुभव करते हैं ।

२८ - ८ - ११३४ 

*

 

  हम देखते हैं कि माताजी की उपस्थिति में या उनसे मिलकर हम विषाद से निकल आते हैं और हर्षोद्रेक अनुभव करते हैं । क्या ऐसा चैत्य मिलन के द्वारा होता हे या आंतर प्राणिक स्तर पर मिलन के द्वारा?

 

यह इसपर निर्भर करता है कि क्या वह हर्षोल्लास माताजी से प्राणशक्ति का आहरण करने से आता है या केवल उन्हें देखने की खुशी से या उनसे कुछ प्राप्त करने के कारण । पिछली दो अवस्थाओं में वह सामान्यतया चैत्य या चैत्य-प्राणिक होता है, पहली अवस्था में प्राणिक

*

  यदि किसी मनुष्य को यह वेदन होता हे कि वह माताजी का सबसे सुखी बच्चा हे तो क्या ऐसा अहंभाव के कारण होता है?

 १६६


यह उस वेदन के मूलस्रोत पर निर्भर करता है । यदि सुख सच्चा हो तो वह अहंभाव नहीं है । यदि उसका कारण हो अपने श्रेष्ठ होने की भावना तो वह अहंभाव है । 

*

 

  मेरा चैत्य कभी- कभी अपने को उदास और अकेला अनुभव करता है क्योंकि उसे लगता है कि ग माताजी को ठीक तरह से प्रेम नहिं कर सकता

 

ऐसी बात है तो वह चैत्य हो ही नहीं सकता । चैत्य को कभी ऐसा नहीं लगता कि वह भगवान् से प्रेम नहीं कर सकता ।

*

 

  माताजी के प्रति चैत्य प्रेम- नहीं तो मृत्यु : कभी- कभी व्यक्ति एक अंतिम निश्चय के रूप में ऐसा अनुभव करता है /

 

यह बिलकुल गलत मनोवृत्ति है । यह एक बार फिर प्राण का आ घुसना है - यह चैत्य मनोभाव नहीं । यदि चैत्य प्रेम की मांग करते हुए तुम एक ऐसा मनोभाव अपनाते हो जो प्राणिक है, चैत्य नहीं, तो तुम चैत्य के आने की आशा ही कैसे करते हो?

२ - ३ - ११३५ 

*

 

   केवल इस बात पर ध्यान एकाग्र करना कि मैं माताजी के हृदय के संग ही रहूं और यह चाहना कि केवल उन्हीं के लिए जिऊं तथा और  किसी अनुभव की परवाह न करना : इस मनोभाव के विषय में आपका क्या विचार है?

 

चैत्य सत्ता और सामान्यतया आंतर सत्ता को जनाने के लिये यह भाव अच्छा है । परंतु यदि उच्चतर अनुभव आये तो उसे रोकना नहीं चाहिये ।

१२ - ३ - ११३५

१६७


  उच्चतर या गभीरतर अनुभव भी कतई मूल्यवान् नहीं प्रतीत होते यदि व्यक्ति माताजी से सच्चे हृदय के साथ प्रेम नहीं कर सकता

 

ऐसा सोचना एक भूल है । अनुभव सत्ता के विभिन्न भागों को ठीक ढंग से प्रेम करने के लिये तैयार करते हैं, जिससे ऐसा न हो कि केवल आत्मा ही प्रेम करे । जबतक वे अज्ञान और अहंभाव की ओर खुले है तबतक वे प्रेम को ठीक तरह से ग्रहण और धारण नहीं कर सकते ।

२३ - १० - १९३५

 

चैत्य और प्राणिक प्रेम

 

प्रेम और भक्ति चैत्य पुरुष के उद्घाटन पर निर्भर करती हैं और उनके लिये कामनाओं का नाश आवश्यक है । बहुत-से लोग जो माताजी के प्रति चैत्य प्रेम के बदले प्राण्ग़ात प्रेम प्रदर्शित करते हैं उससे अन्य चीजों की अपेक्षा गोलमाल की ही सृष्टि अधिक होती है । क्योंकि उस प्रेम के साथ कामना जुडी होती है ।

 ८ - १ - ११३६

*

 

 प्राणगत प्रेम रखने में कोई हानि नहीं है बशर्ते कि वह सब प्रकार की असरलता  (उदाहरणार्थ, आत्मश्लाघा इत्यादि) से और सब प्रकार की मांग से खाली हो । माताजी को देखने में प्रसन्नता का अनुभव करना बिलकुल ठीक है । पर अपने अधिकार के रूप में उसकी मांग करना । जब न मिले तो दुःखी होना या विद्रोह करना या अभिमान करना, जो लोग उसे पायें उनसे ईर्ष्या करना -यह सब मांग कहलाता हे और एक प्रकार की अपवित्रता उत्पन्न करता है जो प्रसन्नता और प्रेम दोनों को नष्ट कर देती है ।

 १३ - १ - ११३४ 

*

 

 जहांतक माताजी को देखने की ' उत्सुकता ' का प्रश्न है, उसका ठीक होना या न होना भाव के स्वरूप पर निर्भर करता है । यदि उसमें कोई मांग या दावा नहीं । जब वह पूरी न हो तो किसी प्रकार का असंतोष नहीं होता, वरन् वह केवल, जब कभी भी संभव हो, उन्हें देखने की तीव्र इच्छा का और उनके

१६८ 


दर्शन करने के आनंद का एक भाव ही है तो वह बिलकुल ठीक है । निःसंदेह । वहां क्रोध या  ईर्षा लेशमात्र भी नहीं होनी चाहिये । प्राण को भी साधना में भाग लेना ही है, इसलिये वह भाव निरे इस तथ्य के कारण गलत नहीं हो जाता कि उसमें प्राणिक तत्त्व है, बशर्ते कि प्राणिक तत्त्व ठीक प्रकार का हो ।

६- १२ - ११३१ 

*

 

अगर माताजी के विरुद्ध तुम्हें मान (नाराज़गी) न हुआ हो तो वह भी निश्चय ही बहुत अच्छा है । मान, क्षोभ आदि जीवन के चिह्न हो सकते हैं पर प्राणगत जीवन के चिह्न हैं, आंतरिक जीवन के नहीं । उन्हें अवश्य शांत हो जाना चाहिये और आंतरिक जीवन को स्थान देना चाहिये । आरंभ में परिणामस्वरूप एक उदासीनता- भरी शांति आ सकती है, परंतु अधिक यथार्थ नयी चेतना को पाने के लिये मनुष्य को अकसर ऐसी अवस्था में से गुजरना होता है ।

२ - १ - ११३७

*

 

इस अशांत प्राणगत क्रिया में संलग्न रहने से कोई लाभ नहीं । इस चीज के द्वारा तुम श्रीमां के साथ एकत्व नहीं प्राप्त कर सकते । तुम्हें शांति के साथ अभीप्सा करनी चाहिये -खाना, सोना और अपना काम करना चाहिये । शांति ही वह एकमात्र वस्तु है जिसे इस समय तुम्हें मांगना चाहिये -एकमात्र शांति और स्थिरता के आधार पर ही सच्ची उन्नति और सिद्धि आ सकती है । तुम्हारी खोज में अथवा माताजी के प्रति होनेवाली तुम्हारी अभीप्सा में किसी प्रकार की कोई प्राणगत उत्तेजना नहीं होनी चाहिये ।

२० - १० - ११३३

 

प्राण का मोलतोल और सच्चा आत्मदान

 

जो कुछ तुम्हें अनुभव हुआ हे वह निम्न प्राण का अपनी मांगों और वासनाओं के साथ फिर से जग जाना या तुम्हारे ऊपर पुन: लौट आना है । उसका सुझाव यह है कि '' मैं योग कर रहा हूं, पर कर रहा हूं किसी लाभ के लिये । मैंने प्राणगत वासना और तृप्ति का जीवन छोड़ दिया है पर इसीलिये कि मुझे माताजी के साथ घनिष्ठता प्राप्त हो -संसार के द्वारा तृप्ति पाने के बदले मैं

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भगवान् के द्वारा तृप्ति पाऊं और अपनी कामनाओं को चरितार्थ करूं । अगर मुझे माताजी के साथ घनिष्ठता न प्राप्त हो और तुरत न प्राप्त हो और जैसे मैं चाहता हूं वैसे न प्राप्त हो तो फिर मैं पुरानी चीजों को ही क्यों छोडूं?'' और इसके स्वाभाविक फल के रूप में पुरानी चीजों फिर आरंभ हो जाती हैं -' अ ' और ' ब ' तथा ' ब ' और ' अ ' एवं ' स ' की भूलें आदि । इस निम्न प्राण की मशीन को तुम्हें अवश्य देखना चाहिये और इसकी क्रिया को त्यागना चाहिये । वास्तव में आत्मदान के पूर्ण चैत्य संबंध द्वारा ही भगवान् के साथ एकता और घनिष्ठता बनायी रखी जा सकती है -दूसरा जो है वह प्राणगत अहंकार की क्रिया का अंग है और वह केवल चेतना का पतन ही करा सकता और गोलमाल की सृष्टि कर सकता है ।

२० - ६ - ११३३ अ

*

 

तुम्हें केवल अपने- आप और भगवान् से मतलब है । भगवान् के साथ के तुम्हारे संबंध में तुम्हारा मतलब यह नहीं है कि भगवान् तुम्हारी व्यक्तिगत कामनाओं को तुष्ट करें बल्कि यह है कि वे तुम्हें इन चीजों से बाहर खींचकर तुम्हारी उच्चतम आध्यात्मिक संभावनाओं तक ऊपर उठा ले जायें जिससे कि तुम अपने अंतर में माताजी के साथ युक्त हो सको और उसके फलस्वरूप अपनी बाहरी सत्ता में भी युक्त हो सको । तुम्हारी प्राणगत वासनाओं को तृप्त करके ऐसा नहीं किया जा सकता -उनको तृप्त करने से तो वे और भी बेढंगी और तुम्हें साधारण प्रकृति के अज्ञान तथा चंचल वि खलता के हाथों में सौंप देंगी । ऐसा तो केवल तुम्हारे आंतरिक विश्वास और आत्मसमर्पण के द्वारा तथा भीतर से काम करनेवाली और तुम्हारी प्राण-प्रकृति को बदलनेवाली माताजी की शांति और शक्ति के दबाव के द्वारा ही किया जा सकता है । इसी बात को जब तुम भूल जाते हो तब तुम गलत रास्ते पर चले जाते हो और दुःख पाते हो; जब तुम इसे याद रखते हो तब तुम आगे बढ़ते हो और कठिनाइयां धीरे - धीरे कम होने लगती हैं ।

१३ - १ - ११३३

*

अगर यह प्राण का वही अंश हो जो पहले ठीक दिशा में था और अब माताजी के विरुद्ध चला गया है तब इसका कारण बिलकुल । इसने जो साथ

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दिया उसका कारण यह था कि इसने समझा था कि सहयोग देने पर माताजी इसकी कामनाओं को संतुष्ट कर देंगी; पर यह देखकर कि इसकी कामनाएं चरितार्थ नहीं हो रही हैं । यह उनके विरुद्ध चला गया है । साधारण मनुष्य और साधारण जीवन में प्रायः प्राणिक क्रिया ऐसी ही होती है और योग में इसका कोई भी यथार्थ स्थान नहीं है । साधकों के ठीक इसी मनोभाव को योग में ले आने और बराबर बनाये रखने के कारण अंत में यह आवश्यक हो गया कि माताजी एकान्त में चली जायें जैसा कि उन्होंने अब किया है । वास्तव में तुम्हें करना यह चाहिये कि तुम इन निम्नतर भागों को यह समझा दो कि उनका अस्तित्व स्वयं उनके लिये नहीं है बल्कि भगवान् के लिये है और बिना किसी मांग या हिचकिचाहट या छल-कपट के उन्हें सहयोग देने के लिये है । इस समय साधना का यही समूचा प्रश्न है । क्योंकि जब ऐसा किया जायेगा केवल तभी भौतिक चेतना परिवर्तित हो सकेगी और अवतरण के योग्य बन सकेगी । अन्यथा सत्ता के किसी-न-किसी भाग में सर्वदा ही इस प्रकार उतार-चढ़ाव होता रहेगा -कम-से-कम, विलम्ब, गोलमाल और उथलपुथल बनी रहेगी । यही सत्य-चेतना में जम जाने और साधना का एक सीधा मार्ग पाने का एकमात्र सच्चा आधार है ।

१४ - १२ - ११३१

 

माताजी के साथ घनिष्ठता प्राप्त करने में भय के कारण बाधा

 

समस्त भय को निकाल फेंकना चाहिये । भय की यह किया प्राण के अभी अपरिवर्तित उस भाग से संबंध रखती है जो पुराने विचारों, अनुभवों और प्रतिक्रियाओं का प्रत्युत्तर देता है । इसका एकमात्र प्रभाव है माताजी के मनोभाव या उनके शब्दों या उनकी दृष्टि या उनकी मुखाकृति के अंदर निहित उद्देश्य की तुमसे गलत व्याख्या कराना । अगर माताजी गंभीर हो जाती हैं या व्यंग्यपूर्ण हंसी हंसती है तो इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि वे नाराज हैं या उन्होंने अपना प्रेम हटा लिया है; बल्कि, इसके विपरीत, जिन लोगों के साथ उनकी अत्यंत आंतरिक घनिष्ठता है उन्हीं लोगों के साथ वे ऐसा भाव ग्रहण करने में -यहांतक कि उनकी कठोर भत्सना करने में भी - अत्यंत स्वतंत्रता अनुभव करती हैं । वे लोग उनके भाव को समझते हैं और वे न तो घबड़ाते हैं न डरते हैं । -वे बस अपनी दृष्टि भीतर की ओर मोड लेते हैं और यह देखते हैं कि आखिर वह कौन-सी चीज है जिसपर वे दबाव डाल रही हैं । उस

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दबाव को वे एक विशेष सुविधा तथा उनकी कृपा का एक चिह्न मानते हैं । भय इस पूर्ण घनिष्ठता और विश्वास के मार्ग में बाधा पहुंचाता है और केवल गलतफहमी ही उत्पन्न करता हे; तुम्हें इसे एकदम निकाल फेंकना चाहिये ।

२५ - ५ - ११३२  

*

 

क्षमा मांगने की कोई आवश्यकता नहिं; क्योंकि माताजी तुमसे जरा भी नाराज या असंतुष्ट नहीं हुई हैं । तुम बराबर उनके प्रेम के विषय में निश्चिंत रह सकते हो ।

२१ - १ - १९३३

*

दूसरों की बातों को महत्त्व देना बराबर ही भूल है -माताजी के प्रति सच्ची भक्ति और समुचित मनोभाव बनाये रखना ही पर्याप्त है । तुम्हें इस तरह की आशंका करने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है ।

२८ - ४ - १९३३

*

 माताजी की ओर खुले रहने के तीन नियम

 

भौतिक मन के प्रभाव से अधिक खतरनाक चीज और कोई नहीं है । भौतिक मन बराबर बाहरी रूपों को देखकर ही अपने निर्णयों पर पहुंचने का प्रयास करता है और उनके निन्यानवे प्रतिशत मिथ्या होने की ही संभावना होती है । साधक को बाहरी रूपों के आधार पर किये गये जल्दबाजी के निर्णयों पर अविश्वास करना सीखना चाहिये -क्या यही सच्चा ज्ञान प्राप्त करने की पहली शर्त नहीं है ?- और भीतर से चीजों को देखना और जानना सीखना चाहिये ।

   तुम पूछ रहे हो कि इन सब क्रियाओं को कैसे बंद किया जाये? आरंभ में बस इन तीन नियमों का पालन करो :

   १. सर्वदा माताजी के संरक्षण और प्रेम पर भरोसा रखो -उन्हीं पर विश्वास करो और प्रत्येक सुझाव पर, प्रत्येक बाहरी रूप पर जो उनका विरोध करता हुआ मालूम हो, अविश्वास करो ।

   २. ऐसे प्रत्येक भाव, प्रत्येक प्रबेग का तुरत त्याग कर दो जो तुम्हें माताजी से -उनके साथ के तुम्हारे सच्चे संबंध से, आंतरिक सामीप्य से, उनके प्रति

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तुम्हारे सरल और सीधे-सादे विश्वास से -अलग हटाता है ।

  ३. बाहरी लक्षणों पर अत्यधिक बल मत दो -उनको देखने-विचारने से तुम सहज ही गलत रास्ते पर चले जा सकते हो । श्रीमां की ओर अपने को खोले रखो और अपने हृदय से - आंतर हृदय से, ऊपरी प्राणगत वासना के द्वारा नहीं, बल्कि सच्चे भावावेगवाले हृदय के द्वारा -उन्हें अनुभव करो; वहीं उन्हें प्राप्त करना अपने अंदर सर्वदा उनके सान्निध्य में रहना और जो कुछ तुम्हें देने के लिये वह निरन्तर कार्य कर रही हैं उसे ग्रहण करना तुम्हारे लिये अधिक संभव है ।

११३१

*

 

यदि तुम अपने और माताजी के बीच में किसी व्यक्ति को लाओगे तो उससे कष्ट पैदा होकर ही रहेगा ।

५ - ४ - ११३३

 

 माताजी के साथ सीधा संबंध

 

माताजी के साथ सीधा संबंध तुम्हारे लिये सदा ही खुले रूप में सुलभ है, अपिच, वह वहां विद्यमान ही है और तुम जब चाहो उसे अनुभव कर सकते हो; क्योंकि वह आंतर सत्ता की वस्तु है । जब कभी तुम अपने अंदर गहरे जाते हो, उसे पा लेते हो; उसे बाहर आकर बाल प्रकृति और जीवन पर शासन करना है । इसी कारण मैं चाहता हूं कि तुम भीतर जाने के लिये तथा साधना में आंतरिक प्रगति के लिये समय दो । ' क्ष ' के साथ संबंध, जिसे स्थापित करने का माताजी ने विचार किया था, उनके काम में दो मित्रों एवं सहकर्मियों का संबंध था । यह कभी अभिप्रेत नहीं था कि वह तुम्हारे और माताजी के बीच में आये । 'य ' वाले मामले में हमें तुमको सहायता देनी थी ताकि तुम उन आक्रमणों के कारण जिनमे तुम कष्ट भोग रहे थे, अपना संतुलन न खो बैठ और तुम्हें तबतक के लिये समय और सहारा मिल जाये जबतक तुम ऐसे बिंदु तक नहीं पहुंच पाते जहां तुम अपने अंदर और अपने साथ माताजी की उपस्थिति को प्राप्त करने के लिये यत्न कर सको 1 वैसा यत्न तुम अब कर सकते हो और कोई कारण नहीं कि किसी को भी किसी प्रकार मध्यस्थ बनने के लिये कहा जाये -हमारा काम सीधे प अंदर और

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तुम पर है, न कि किसी दूसरे के द्वारा ।

२२-१२-१९३६

इसपर विचार मत करो कि लोग तुमसे सहमत हैं या असहमत अथवा तुम अच्छे हो या बुरे । वरन् यह विचार करो कि '' माताजी मुझसे प्रेम करती हैं और मैं माताजी का हूं । '' यदि तुम इस विचार को अपने जीवन का आधार बनाओ तो सब कुछ शीघ्र ही आसान हो जायेगा ।

३० - ४ - ११३५

*

 

दूसरों के विषय में तथा अपनी '' बुराई '' के विषय में विचार करते रहने के कारण ही तुम अपने को माताजी से दूर अनुभव करते हो । सब समय वे तुम्हारे अत्यंत समीप हैं और तुम उनके । यदि तुम इस दृष्टिकोण को अपनाओ जो मैंने प्रतिपादित किया था कि '' माताजी मुझसे प्रेम करती हैं और मैं उनका हूं,'' और इसी को अपने जीवन का आधार बना लो तो पर्दा शीघ्र ही हट जायेगा, क्योंकि वह इन्हें विचारों से बना है और किसी चीज से नहीं ।

१ - ५ - ११३५

*

तुम्हारे और ' क्ष ' और ' य ' के विषय में लोग जो कुछ कहते हैं उसपर कान देना और उनकी मूर्खतापूर्ण बकबक को कोई महत्त्व देना तुम्हारी भूल थी... माताजी जो कुछ कहती हैं वही सत्य और महत्त्वपूर्ण है न कि जो कुछ लोग कहते हैं; लोग जो कुछ कहते हैं उसपर यदि तुम कान दो तो तुम माताजी की चेतना के साथ संपर्क खो दोगे । इसी कारण अपनी बुराई के विषय में ये विचार तथा अन्य ऐसी चीजों तुमपर लौट आयी हैं... बहुत दिनों तक तुम्हें शांति एवं आनंद प्राप्त रहे और साथ ही चंचल मन से मुक्ति भी तथा तुम्हारा चैत्य भी खुला हुआ था । अब तुम्हें फिर उसी अवस्था में लौटना होगा और वैसा ही करना होगा जैसा तुम पहले कर रहे थे । केवल माताजी की ओर ही मुडो और उनकी चेतना तथा इच्छा शक्ति को अपने अंदर काय करने दो । तब तुम वह चीज फिर से प्राप्त कर लोगे जो तुम्हें पहले प्राप्त थी, मन को निश्चल-नीरव कर दो और मुक्त हो जाओ ।

२१ - ४ - ११३३

१७४









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