A collection of short prose pieces on the Mother and her four great Aspects - Maheshwari, Mahakali, Mahalakshmi, Mahasaraswati, along with 'Letters on the Mother'.
This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.
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श्रीमाताजी की शक्ति की क्रिया
श्रीमां की शक्ति
श्रीमाताजी की शक्ति के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता ।
*
सब कुछ श्रीमां की शक्ति की क्रिया के द्वारा, जिसे तुम्हारी अभीप्सा, भक्ति और समर्पण की सहायता. प्राप्त हो । सिद्ध करना होगा ।
३०- १० - ११३४
माताजी की शक्ति क्या है?
आप प्रायः ही '' माताजी की शक्ति '' की बात कहते हैं वह क्या है?
वह है भागवत शक्ति जो अज्ञान का निवारण करने और मानव प्रकृति को दिव्य प्रकृति में परिवर्तित करने के लिये कार्य करती है ।
१८ - ६ - ११३३
प्रकृति की शक्ति और श्रीमां की शक्ति
जब मैं श्रीमां की शक्ति की बात कहता हूं तब मैं प्रकृति की शक्ति की बात नहीं कहता जिसके भीतर अज्ञान की चीज़ें होती हैं । बल्कि भगवान् को उच्चतर शक्ति की बात कहता हूं जो प्रकृति का रूपान्तर करने के लिये ऊपर से अवतरित होती है ।
नहीं, माताजी का कोई इरादा नहीं था । तुम स्वयं ही उनके पास आने के कारण अपनी? के विषय में सचेतन हो गये ।
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श्रीमां की उच्चतर शक्ति का अवतरण और उसकी क्रिया
एक ऐसी शक्ति है जो नयी चेतना के विकास के साथ आती है और तुरत उसके साथ-साथ बढ़ती है तथा उसके घटित होने और परिपूर्ण बनने में सहायता करती है । यह योगशक्ति हे । यह हमारी आंतर सत्ता के सभी केंद्रों (चक्रों ) में कुंडलित होकर सोयी पड़ी है और सबसे नीचे के तल में जो रूप है उसे तन्त्रों में कुंडलिनी शक्ति कहा गया है । परंतु यह हमारे ऊपर, हमारे सिर के ऊपर दिव्य शक्ति के रूप में भी विद्यमान है -वहां वह कुंडलित, निवर्तित, प्रसुप्त नहीं है, बल्कि जाग्रत्, चेतन, शक्तिपूर्ण, प्रसारित और विशाल है; यह वहां अभिव्यक्त होने के लिये प्रतीक्षा कर रही है और इसी शक्ति की ओर -श्रीमां की शक्ति की ओर -हमें - अपने- आपको खोलना होगा । यह शक्ति मन के अंदर एक दिव्य मानस-शक्ति या एक विराट मानस-शक्ति के रूप में प्रकट होती है और यह ऐसे प्रत्येक कार्य को कर सकती है जिसे व्यक्तिगत मन नहीं कर सकता; यह उस समय यौगिक मानस-शक्ति बन जाती है । जब यह उसी तरह प्राण या शरीर में प्रकट होती और कार्य करती है तब यह वहां एक यौगिक प्राण-शक्ति या यौगिक शरीर-शक्ति के रूप में दिखायी. देती है । यह बाहर और ऊपर की ओर फुटकर तथा नीचे की ओर से विशालता में फैलकर इन सभी रूपों में जागृत हो सकती है अथवा यह अवतरित हो सकती है और वहां वस्तुओं के लिये एक सुनिश्चित शक्ति बन सकती है; यह नीचे की ओर शरीर में बरस सकती है, वहां कार्य करके । अपना राज्य स्थापित करके, ऊपर से विशालता के अंदर प्रसारित होकर हमारे अंदर के सबसे नीचे के भागों को हमारे ऊपर के उच्चतम भागों के साथ जोड़ सकती है, व्यक्ति को एक विराट् विश्वभाव में या निरपेक्षता और परात्परता में ले जाकर मुक्त कर सकती है ।
निश्चय ही, एक अर्थ में उच्चतर शक्तियों का अवतरण श्रीमां का ही निजी अवतरण है -क्योंकि वास्तव में वही उन सबमें नीचे आती हैं ।
जब शांति स्थापित हो जाती है तब यह उच्चतर या भागवत शक्ति ऊपर से उतर सकती है और हमारे अंदर कार्य कर सकती है | साधारणतया यह पहले सिर में उतरती हे और आंतर मन के चक्रों को मुक्त करती है, फिर हृदय-केंद्र में आती है और चैत्य तथा भावमय पुरुष को पूर्ण रूप से मुक्त करती है, फिर नाभि-चक्र में और दूसरे प्राण-चक्रों में आकर आंतर प्राण को मुक्त करती है । उसके बाद मूलाधार और उससे नीचे उतरकर आंतर भौतिक सत्ता को करती है । यह एक साथ ही पूर्णता'' और मुक्ति के लिये कार्य
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करती है; यह समस्त प्रकृति के एक-एक अंग को लेती है और उनपर कार्य करती है, जो कुछ त्याग करने लायक हो उसे त्याग देती हे, जो कुछ उन्नत करने लायक हो उसे उन्नत करती है और जो कुछ उत्पन्न करना हो उसे उत्पन्न करती है । यह एकीभूत करती, सुसमंजस बनाती और प्रकृति में एक नया छंद स्थापित करती है । यह ऊंची और ऊंची से ऊंची शक्ति को तथा उच्चतर प्रकृति के स्तरों को, यदि वे साधना का लक्ष्य हों तो, तबतक नीचे उतार सकती है जबतक अतिमानसिक शक्ति और जीवन को उतार लाना संभव न हो जाये । इन सब बातों में हृदय-केंद्र में अवस्थित चैत्य पुरुष के कार्य के द्वारा तैयारी होती, सहायता मिलती है और कार्य अग्रसर होता है; चैत्य पुरुष जितना ही अधिक खुला हो, सामने और सक्रिय हो, शक्ति की क्रिया उतनी ही अधिक क्षिप्र, सुरक्षित और सहज हो सकती है । हृदय में जितना ही अधिक प्रेम, भक्ति और समर्पण का भाव बढ़ता है, साधना का विकास उतना ही तेज और पूर्ण बन जाता है । क्योंकि अवतरण और रूपांतर के साथ-साथ भगवान् के संग संबंध और एकत्व भी बढ़ता ही रहता है ।
यही है साधना का मूल सिद्धांत । इससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि यहांपर सबसे प्रधान दो बातें हैं, हृदय और मन के पीछे और ऊपर जो कुछ है उस सुबकी ओर हृदय-केंद्र और मानस-केंद्र का खुलना । कारण, हृदय चैत्य पुरुष की ओर खुलता ' है और मानस-केंद्र उच्चतर चेतना की ओर खुलते हैं तथा चैत्य पुरुष और उच्चतर चेतना के बीच का चक्र ही सिद्धि का प्रधान साधन है.। पहला उद्घाटन हृदय में ध्यान करने से, अपने अंदर अभिव्यक्त होने के लिये तथा चैत्य पुरुष के द्वारा समस्त प्रकृति को अधिगत करने और उसका पथ- प्रदर्शन करने के लिये भगवान् का. आवाहन करने से होता है । साधना के इस अंश के प्रधान सहायक हैं अभीप्सा, प्रार्थना, भक्ति, प्रेम और आत्मसमर्पण - साथ ही उन सब चीजों' का त्याग भी करना जरूरी है जो हमारी अभीप्सित वस्तु के मार्ग में बाधक हों । दूसरा उद्घाटन होता है सिर में (पीछे चलकर सिर के ऊपर ) चेतना को केंद्रित करने से तथा सत्ता के अंदर दिव्य शांति, ज्योति, ज्ञान और आनंद के अवतरण के लिये -पहले शांति के लिये अथवा शांति और शक्ति एक साथ दोनों के लिये - अभीप्सा करने, पुकारने और स्थायी संकल्प बनाये रखने से । अवश्य ही कुछ लोग पहले प्रकाश प्राप्त करते हैं या पहले आनंद अथवा ज्ञान का सहसा नीचे की ओर प्रवाह । कुछ लोगों में पहले एक ऐसा उद्घाटन होता है जो उनके सामने ऊपर की एक विशाल अनंत नीरवता, शक्ति, ज्योति या आनंद को प्रकट करता हे और उसके बाद या तो वे उसमें
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आरोहण करते हैं या ये चीजों निम्नतर प्रकृति में अवतरित होना आरंभ करती हैं । दूसरे लोगों में या तो अवतरण पहले सिर में, फिर नीचे हृदय-स्थान तक, फिर नाभि और ' उसके नीचे तक और शरीर भर में होता है, अथवा शांति, प्रकाश, विशालता या शक्ति का अन्य कोई अवर्णनीय उद्घाटन -उद्घाटन के किसी बोध के बिना ही, - अथवा विश्व-चेतना की ओर ऊर्ध्वमुखी उद्घाटन या एकाएक विस्तारित हो जानेवाले मन के भीतर ज्ञान का विस्फोट होता है । जो कुछ भी आये उसका स्वागत करना चाहिये -क्योंकि सबके लिये कोई एक ही अखण्ड नियम नहीं है -परंतु पहले यदि शांति न आयी हो तो खूब सावधानी रखनी चाहिये कि कहीं हम आह्लाद से फूल न उठे या अपनी समतोलता ही न खो बैठे । जो हो, सबसे प्रधान किया वह है जब कि भगवती शक्ति, माताजी की शक्ति नीचे आती है और अधिकार स्थापित करती है, क्योंकि तभी चेतना का संगठन आरंभ होता है और योग की विशालतर नींव पड़ती है ।
जो कुछ तुम नीचे की ओर बहते हुए अनुभव करते हो वह अवश्य ही श्रीमां की ऊर्ध्व शक्ति होगी । यह साधारणतया सिर के ऊपर से प्रवाहित होती हे और सबसे पहले मानस केंद्रों (सिर और गर्दन) में कार्य करती है और उसके बाद छाती और हृदय में उतरती है और फिर समस्त शरीर की क्रिया के भीतर चली जाती है ।
निश्चय ही इसी क्रिया का प्रभाव तुम अपने सिर के ऊपर से कंधोंतक अनुभव करते होंगे । ऊपर से जो शक्ति उतरती हे वह वह शक्ति है जो चेतना को एक उच्चतर आध्यात्मिक सत्ता की चेतना में रूपांतरित करने के लिये कार्य करती है । उससे पहले श्रीमां की शक्ति चैत्य । मनोमय, प्राणमय और स्वयं अन्नमय स्तर में चेतना का पोषण, पवित्रीकरण और चैत्य रूपांतर करने के लिये कार्य करती है ।
जिस प्रवाह को तुम अपने सिर पर उतरते हुए तथा अपने अंदर बरसते हुए अनुभव करते हो वह निः सन्देह माताजी की शक्ति की धारा है; उसका अनुभव प्रायः इसी प्रकार हुआ करता है; वह शरीर के अंदर धाराओं के रूप में प्रवाहित होता है और वहां चेतना को मुक्त तथा परिवर्तित करने के लिये कार्य करता है । जैसे-जैसे चेतना परिवर्तित और विकसित होगी वैसे-वैसे तुम स्वयं इन चीजों का अर्थ और इनकी कार्य-पद्धति को समझने लगोगे ।
२१ - ८ - ११३६
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सिर के चारों ओर श्रीमां को शक्ति का स्पंदन अनुभव करना मानसिक भावना अथवा मानसिक सिद्धि से भी अधिक कुछ है, वह एक अनुभूति है । यह स्पंदन, निस्संदेह । श्रीमां की शक्ति का काय है जिसका अनुभव पहले सिर के ऊपर या उसके चारों ओर होता है, फिर बाद में सिर के भीतर होता है । दबाव का अर्थ यह है कि मन और उसके चक्रों को खोलने के लिये वह कार्य कर रही है जिससे वह उनमें प्रवेश कर सके । मानस-चक्र सिर में हैं, एक तो उसके ऊपरी सिरे पर और उससे ऊपर है । दूसरा दोनों आंखों के बीच में और तीसरा गले में है । यही कारण है के तुम स्पंदन को सिर के चारों ओर और कभी-कभी गर्दन तक अनुभव करते हो, पर उससे नीचे नहीं । साधारणत: यह ऐसा ही होता है, क्योंकि केवल मन को घेर लेने और उसमें प्रवेश करने के बाद ही वह नीचे की ओर भावावेश और प्राण के क्षेत्रों (हृदय, नाभि आदि) में जाती है -यद्यपि कभी-कभी वह शरीर में प्रवेश करने से पहले बहुत अधिक चारों ओर से घेरे हुए होती है ।
२४ - ३ - ११३७
तुम्हारी अनुभूतियों का अर्थ यह है -
(१ ) ऊपर से भगवती माता की शक्ति तुम्हारे ऊपर अवतरित हो रही है और अपने सिर के ऊपर तुम जो दबाव अनुभव करते हो और जिन क्रियाओं के विषय में तुम सचेतन हुए हो, वे सब उन्हीं की हैं ।
अपने- आपको पूर्ण रूप से उनके हाथों में दे दो, पूरा भरोसा रखो, जो कुछ घटित हो उसे सावधानी के साथ और ठीक-ठीक देखो और उसे यहां लिख भेजो । विशेष रूप से उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि जो कुछ तुम्हारे लिये आवश्यक है वह किया जा रहा है ।
(२ ) पहला दबाव तुम्हारे मन पर था । मन के केंद्र हैं - (अ) सिर और उसके ऊपर । (ब) आंखों के बीच ललाट का चक्र, (स) गले का और प्राणगत- मनोमय (भावावेग का) और इंद्रियबोधात्मक मानस-चक्र छाती से लेकर नीचे की ओर हैं । यही पीछेवाली चीज है जो कि प्रथम प्राण है और जिसके विषय में तुम सचेतन हुए हो । शक्ति का कार्य था तुम्हारे इन दो भागों को विस्तारित करना और ऊपर उठाकर उन्हें तुम्हारे सिर के ऊपर की उच्चतर चेतना के निम्नतम केंद्र की ओर ले जाना, जिसमें इसके बाद वे दोनों ही वहां से सचेतन रूप में परिचालित हो सकें और ये दोनों ही एक ऐसी विशाल विश्वव्यापी चेतना में संचरण करें जो शरीर से सीमित न हो ।
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(३ ) दूसरा प्राण, चंचल प्राण, जिसके विषय में तुम सचेतन हुए, वह?? ह?ऐ प्राणमय पुरुष, कामना-वासना और प्राणिक गतियोंवाला पुरुष । दिव्य शक्ति का कार्य चंचल गतियों को शांत करने के लिये और मन की तरह उसे चेतना में विशाल बनाने के लिये प्रयुक्त किया गया है । जिस विशाल शरीर का तुम्हें अनुभव हुआ वह प्राणमय शरीर था, स्थूल शरीर नहीं ।
(४ ) तुम्हारी साधना का आधार निश्चल-नीरवता और स्थिरता होना चाहिये । तुम्हें स्वयं अपने अंदर और अपने चारों ओर विद्यमान जगत् के प्रति अपने मनोभाव में भी अत्यंत अचंचल और स्थिर बने रहना चाहिये और सर्वदा अधिकाधिक अचंचल और स्थिर बनते जाना चाहिये । अगर तुम ऐसा कर सको तो तुम्हारी साधना धीरे -धीरे प्रगति कर सकती है और कम-से-कम क्लेश और उपद्रव के साथ अपने- आपको विस्तारित कर सकती है ।
जो दिव्य शक्ति तुम्हारे अंदर कार्य कर रही है उसपर भरोसा रखते हुए चुपचाप आगे बढ़ते जाओ ।
सिर के ऊपर का यह बोझ या दबाव सदा इस बात का चिह्न होता है कि माताजी की शक्ति का संबंध तुम्हारे साथ है और वह तुम्हारी सत्ता को घेरने, आधार में प्रवेश करने तथा उसमें फैला जाने के लिये ऊपर से दबाव डाल रही है; -साधारणतया यह चक्रों के भीतर से होकर क्रमश: नीचे की ओर जाती है । कभी तो यह पहले शांति के रूप में आती है, कभी शक्ति के रूप में, कभी माताजी की चेतना और उनकी उपस्थिति के रूप में और कभी आनन्द के रूप में ।
पहले जब तुमने इसे खो दिया था तब या तो तुम्हारे अपने अंदर प्राणगत अपूर्णता के ऊपर उठ आने या बाहर से कोई आक्रमण होने के कारण ही वैसा हुआ होगा । दबाव के सदा ही बने रहने की आवश्यकता नहीं है; पर यदि गति स्वाभाविक रूप से चलती रहे तो प्रायः वह दबाव बार-बार आता है अथवा तबतक उसका आना जारी रहता है जबतक आधार खुल नहीं जाता और फिर उच्चतर चेतना के नीचे उतरने में कोई बाधा नहीं रह जाती ।
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यह ऊपर से मेरुदंड के द्वारा माताजी की शक्ति का अवतरण है; यह एक जानी हुई क्रिया है । अवतरण दो या तीन प्रकार के होते हैं । एक है मेरुदंड पर अवलंबित चक्रों के आधार को इस प्रकार स्पर्श करना । दूसरा है सिर के भीतर से होकर शरीर में तबतक एक-एक स्तर उतरते जाना जबतक कि समूचा शरीर न भर जाये और चेतना के सभी चक्र न खुल जायें । तीसरा है वह अवतरण जो बाहर से आधार को घेर लेता है ।
१ - २ - ११३४
माताजी ने जो कुछ किया था वह था अग्नि प्रज्वलित कर देना - अगर तुमने उसका अनुभव नहीं किया तो इसका कारण अवश्य ही यह होगा कि बाहरी आवरण ने अभी उसे बाहरी चेतना तक नहीं आने दिया होगा । परंतु आंतर सत्ता में किसी चीज ने उसे अवश्य रखा होगा और अधिक खुले रूप में अपने को खोल रखा होगा -इसी बात को नींद के समय की तुम्हारी अनुभूति सूचित करती है, क्योंकि वह स्पष्ट ही आंतर सत्ता में होनेवाली धीमा की एक किया थी । मेरुदंड में धारा का अवतरण सर्वदा माताजी की शक्ति का अवतरण होता है जो चक्रों को खोलने के लिये उनके अंदर कार्य करती है, और धारा में जो एक प्रबल' शक्ति का तुमने अनुभव किया वह स्पष्ट ही इस बात का सबूत है कि वहां एक विशालतर उद्घाटन हुआ है । तुम्हें बस लगे रहना है और अग्नि तथा शक्ति दोनों का प्रभाव ऊपरी चेतना में प्रकट होगा -कारण, बराबर ही आंतर सत्ता में पदे के पीछे तैयारी का काय तबतक होता रहता है जबतक पर्दा पतला होते-होते दूर नहीं हो जाता और फिर बाहरी चेतना के सहयोग के साथ समस्त क्रिया की जा सकती है ।
२२ - ४ - ११३७
कुछ चीज तुम्हारे अंदर बढ़ रही है, पर यह एकदम भीतर है -फिर भी यदि दृढ़ आग्रह बना रहे तो यह बाहर आने के लिये बाध्य होगी । उदाहरण के लिये धाराओं के साथ इस सफेद चमचमाती हुई ज्योति को लें; यह इस बात का निश्चित चिह्न है कि शक्ति (माताजी की) आधार में प्रवेश कर रही है और कार्य कर रही है, परंतु यह नींद में तुम्हारे पास आयी - अर्थात् आंतर सत्ता में,
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अभी पर्द के पीछे ही आयी । जिस क्षण यह बाहर आयेगी, यह सूखापन जाता रहेगा ।
५ - २ - ११३७
सायंकाल से शक्ति की क्रिया आरंभ हो गयी है । माताजी के सायं- दर्शन के समय मेरी चेतना ने अपने- आपको पहले के किसी भी अवसर की अपेक्षा अधिक विकृत रूप में उनकी ओर खोल दिया !
बहुत अच्छा । शक्ति साधारणतया इसी प्रकार, बीच-बीच में रुक-रुक कर, कार्य करती है और प्रत्येक बार अधिक प्रबल और पूर्ण बनकर लौटती है ।
४ - ८ - १९३४
श्रीमां की विश्वगत चेतना के साथ एकत्व
प्रत्येक व्यक्ति में मन । प्राण और शरीर की चेतना साधारणतया अपने- आपमें बन्द रहती है; वह संकीर्ण होती है, विशाल नहीं होती, अपने- आपको ही प्रत्येक चीज के केन्द्र के रूप में देखती है । अपनी निजी धारणाओं के अनुसार ही चीजों का मूल्यांकन करती है -वह वास्तव में किसी चीज को उसके सच्चे स्वरूप में नहीं जानती । पर, योगसाधना के द्वारा जब मनुष्य सच्ची चेतना की ओर उद्घाटित होना आरंभ करता है तब यह बाधा भंग होना आरंभ कर देती है । मनुष्य अनुभव करता है कि उसका मन विस्तारित हो रहा है, यहांतक कि अंत में भौतिक चेतना भी अधिकाधिक विस्तारित होने लगती है और उसके फलस्वरूप अंत में तुम सभी वस्तुओं को अपने अंदर, सभी वस्तुओं के साथ अपने को एक अनुभव करने लगते हो । उस समय तुम माताजी की विश्वगत चेतना के साथ एक हो जाते हो । यही कारण है कि तुम अपने मन को विशाल होते हुए अनुभव कर रहे हो । परंतु मानव-मन के ऊपर और भी बहुत कुछ है और यही वह चीज है जिसे तुम अपने सिर के ऊपर एक जगत् के समान अनुभव करते हो । ये सभी हमारे योग को साधारण अनुभूति हैं । यह महज आरंभ है । परंतु इस चीज के विकसित होते रहने के लिये यह आवश्यक है कि तुम अधिकाधिक अचंचल होओ, जो कुछ आवे उसे अत्यंत उत्सुक और उत्तेजित हुए बिना धारण करने में अधिकाधिक सक्षम होओ । पहली आवश्यक
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चीजें हैं शांति और स्थिरता और उसके साथ-साथ विशालता -जो कोई प्रेम या आनंद आवे, जो कोई शक्ति, जो कोई ज्ञान आवे, शांति के अंदर तुम उसे धारण कर सकते हो ।
विश्वव्यापी और रूपांतरकारी शक्ति
जितना ही अधिक हम व्यक्तिगत रूप से अपने को माताजी की ज्योति और शक्ति की ओर खोलते हैं उतना ही अधिक उनकी शक्ति विश्व के अंदर स्थापित होती हे- क्या यह सच है?
रूपांतर करनेवाली शक्ति स्थापित होती है -विश्वगत शक्ति तो वहां सदा ही विद्यमान रहती है ।
१३ - ८ - १९३३
माताजी की शक्ति और गुण
जब कोई अनुभव करता है कि उसके द्वारा माताजी की शक्ति कार्य कर रही है? उसकी अपनी शक्ति नहीं तब क्या केवल माताजी की शक्ति ही उसके कार्यों में क्रियाशील होती हे और (प्रकृति के) गुण चुपचाप पड़े रहते हैं?
नहीं, गण विद्यमान होते हैं और सुषुप्त नहीं होते -क्योंकि वे मध्यवर्ती होते हैं (अर्थात् वे मध्य में रहनेवाली चीजें हैं) । यदि शक्ति और आंतर चेतना बहुत प्रबल हों तो रजs की प्रवृत्ति होती है कि तपs के किसी निम्नतर रूप की तरह बन जाये और तमs की प्रवृत्ति होती है कि अधिकांश में एक प्रकार के जड़ शम की तरह बन जाये । इसी ढंग से रूपांतर आरंभ होता है, पर साधारणतया इसकी प्रक्रिया बड़ी धीमी होती है ।
२१ - १ - ११३६
जड़तत्त्व में माताजी की शक्ति
यह कब कहा जा सकता है कि जड़त्व भगवान् के लिये तैयार हो गया है?
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अगर जड़-चेतना खुल जाये, माताजी की शक्ति को अपने अंदर कार्य करते हुए अनुभव करे और उसका प्रत्युत्तर दे तो यह कहा जा सकता है कि वह तैयार है ।
११ - ६ - १९३३
यह (माताजी की चेतना) शरीर के सभी अणुओं में रह सकती है, क्योंकि सब कुछ गुप्त रूप से सचेतन है ।
५ - १० - ११३३
माताजी की शक्ति शरीर में पूर्ण रूप से कार्य करे इसके लिये यह आवश्यक है कि केवल मन में ही नहीं स्वयं शरीर में भी श्रद्धा हो और वह अपने- आपको खोले ।
१ - १० - ११३३
क्या माताजी आंतरिक भागों के तैयार कर लेने के बाद ही भौतिक प्रकृति पर कार्य करना. आरंभ करती हैं ?
साधारण क्रम यही है, किंतु आंतरिक भागों में कुछ कार्य सर्वदा, सभी समयों में चलता रहता है, क्योंकि वे (आंतरिक भाग और भौतिक प्रकृति) परस्पराश्रित हैं?
अवचेतना और पारिपाश्विंक चेतना पर माताजी का प्रभाव
प्रातःकाल से ही मेरे अंदर माताजी की चेतना में खो जाने की उत्कट अभीप्सा उठ रही थी? तब मुझे भान हुआ कि मेरी चेतना बारंबार ऊपर उठ रही है और वहीं अपना आसन जमा रही है? प्रणाम से पूर्व मुझे ऐसा लगा मानों नाभि के पास के और नीचे के भाग भी ऊपर की ओर खिंचे चले जा रहे हों प्रणाम के बाद मैंने अपने चारों ओर कुछ समय तक एक भिज्ञ प्रकार का वातावरण लगभग उसे रूप में भव किया /
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अतएव मैंने अनुमान किया कि माताजी ने मेरी अवचेतन और पारिपार्श्विक चेतना पर एक प्रबल आध्यात्मिक प्रभाव डाला होगा
यह बहुत अच्छा है, अवचेतना और इर्दगिर्द की चेतना के विषय में तुम्हारा कहना ठीक है; क्योंकि प्रभाव वहीं पर पड़ना चाहियें जिसमें कि चेतना ऊपर की ओर जाये और खुली शांति । ज्योति और आनंद में अपने- आपको दूर-दूर तक फैला दे तथा नीचे अवचेतना तक में उन्हें उच्चतर चेतना के साथ जोड़ दे । इसी अवस्था में माताजी की चेतना में जाने पर अहंकार का लोप होना संभव होता है ।
२५ - १ - ११३५
माताजी की शक्ति को आत्मसात् करना
माताजी की शक्ति को जब कोई ग्रहण करता है तब उसके लिये सबसे उत्तम तरीका यह है कि वह तबतक शांत-स्थिर बना रहे जबतक वह शक्ति उसके अंदर आत्मसात् न हो जाये । उसके बाद वह ठीक रहती है । बाहरी क्रिया या मिलने-जुलने से खो नहीं जाती ।
अगर ध्यान समचित्तता, शांति, एकाग्रता की अवस्था या दबाव या प्रभाव भी ले आता है तो वह कर्म में भी जारी रह सकता है । बशर्ते कि चेतना को शिथिल करके या छितरा कर साधक उसे दूर न फेंक दे । यही कारण था कि माताजी चाहती थी कि लोग प्रणाम या ध्यान के समय न केवल एकाग्र रहे बल्कि निश्चल-नीरव बने रहें और बाद में अपने अंदर ग्रहण करें या अपना अंश बना लें और ठीक इसीलिये कि माताजी उनके अंदर जो कुछ दें उसका असर बना रहे और उसके द्वारा मनोभाव में परिवर्तन आये, उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि ऐसी चीजों से बचा जाये जो व्यक्ति को ढीला-ढाला, अस्तव्यस्त या छिन्न-भिन्न कर देती हैं । पर मुझे भय है, अधिकतर साधकों ने न तो कभी समझा है और न इस तरह की किसी चीज का अभ्यास ही किया है -वे उनके उपदेशों को न तो पकड़ पाये और न समझ ही सके ।
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उन्नति करने के एक स्थिर और सुदृढ़ संकल्प को अपने अंदर जम जाने दो; जो कुछ श्रीमाताजी तुम्हारे अंदर डालती हैं उसे चुपचाप, लगातार और सम्पूर्ण रूप में अपनाने का अभ्यास डालो । यही उन्नति करने का पक्का रास्ता है ।
मार्च, ११२८
माताजी की शक्तियों को खींचना
जब कोई खुला हो । अत्यंत उत्सुक हो ओर शक्ति, अनुभूति आदि को चुपचाप उतरने देने के बदले उन्हें नीचे खींच लाने की चेष्टा करे तो उसीको हम 'खींचना ' कहते हैं । बहुत-से लोग माताजी की शक्तियों को खींचते हैं -जो कुछ वे आसानी से हजम कर सकते हैं उससे कहीं अधिक ग्रहण करने की चेष्टा करते हैं और क्रिया में गड़बड़ी उत्पन्न करते हैं ।
अप्रैल, ११३५
खींचने का अर्थ क्या हे? जब हम प्राणिक कामना के साथ माताजी से कोई चीज चाहते हैं तो क्या वह 'खींचना ' होता है? उसका हमपर क्या प्रभाव होता है?
हां; वह एक प्रकार का खींचना है -उसका परिणाम होता हे चेतना को अंध और अस्तव्यस्त कर देना । परंतु एक और प्रकार का खींचना भी होता है जो ठीक वस्तुओं के लिये होता है । वह अपने-आपमें बुरा नहीं और उसका प्रयोग बहुत-से लोग करते हैं -उदाहरणार्थ, ज्योति, शक्ति और आनंद के लिये खींचना । परंतु वह भगवान् के प्रति शांत उन्मीलन की अपेक्षा अधिक प्रतिक्रियाओं को उत्पन्न करता है ।
१- ६ - १९३३
नहीं, लोगों को सुधारने या पूर्ण बनाने के लिये उन्हें रोगी कर देना माताजी की विधि नहीं । परंतु कभी-कभी सिरदर्द-जैसी चीजों आया करती हैं और उसका कारण यह होता है कि मस्तिष्क ने या तो सीमा से अधिक श्रम किया होता है या फिर वह ग्रहण नहीं करना चाहता या कठिनाइयां पैदा करता है । परंतु यौगिक सिरदर्द विशेष प्रकार के होते हैं और जब मस्तिष्क ग्रहण करने या
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उत्तर देने का तरीका ढूंढ लेता है, उसके बाद वे बिलकुल नहीं आते ।
२० - ६- ११३५
शरीर में जो ताप अनुभूत होता है क्या वह ज्वर का है या माताजी की शक्ति का जिसने मेरे आधार पर बड़ा भारी दबाव डाला हे?
यह बात अभी देखने की है । बहुत संभवत: वह ' तपस्' की गर्मी है; प्रश्न यह है कि क्या वह शरीर में कुछ अंश में ही ज्वर के रूप में परिणत होती है ।
७ - ६- ११३६
माताजी की शक्ति के प्रति चैत्य उद्घाटन
आवश्यकता इस बात की है कि खोज से लाभ उठाया जाये और बाधा-विक्रम से छुटकारा पाया जाये । माताजी ने केवल बाधा को ही सूचित नहीं किया था; उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप में तुम्हें यह भी दिखा दिया था कि उससे कैसे छुटकारा पाया जा सकता है और उस समय तुमने उनकी बात समझी थी, यद्यपि अब (मुझे अपनी चिट्ठी लिखने के समय) वह ज्योति, जिसे तुमने देखा था, तुम्हारे अपने प्राण को अधिकाधिक उदासीनता के कडुए आमोद-प्रमोद में संलग्न रखने के कारण ढक गयी-सी प्रतीत होती है । यह बिलकुल स्वाभाविक ही था, क्योंकि उदासी का फल हमेशा यही होता है । यही कारण है कि मैं दुःख-शोक के उपदेश के प्रति तथा दुःख-शोक को (अभिमान, विद्रोह, विरह आदि की तरह) अपना एक प्रधान तख्ता बनानेवाली किसी साधना के प्रति आपत्ति करता हूं । क्योंकि, दुःख-शोक, जैसा कि स्पिनोजा का कहना है । किसी महत्तर पूर्णता का मार्ग । सिद्धि का पथ नहीं है; वह हो नहीं सकता, क्योंकि वह मन को विभ्रान्त, दुर्बल और विक्षिप्त करता है, प्राण-शक्तियों को अव सन्न बनाता है और आत्मा को अंधकार से ढक देता है । प्रसत्रता, प्राणिक नमनीयता और आनंद से लौटकर शोक, आत्म- अविश्वास, अवसन्नता और दुर्बलता में जा गिरना एक बड़ी चेतना से छोटी चेतना में पीछे हट आना है, -इन अवस्थाओं का अभ्यास यह सूचित करता है कि प्राण का कोई अंश अधिक छोटी, धूमिल, अंधकारपूर्ण और दुःखपूर्ण क्रिया से चिपका हुआ है जिसमें से बाहर निकल आना ही योग का लक्ष्य है ।
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इसलिये यह कहना एकदम गलत है कि जिस गलत चाबी से तुम परियों का महल खोलने की चेष्टा कर रहे थे उस तो माताजी ने ले लिया और तुम्हारे पास कोई दूसरी चाबी नहीं रहने दी । क्योंकि उन्होंने तुम्हें सच्ची चाबी केवल दिखा ही नहीं दी वरन् वह तुम्हें दे भी दी । उन्होंने तुम्हें प्रसन्नता का अस्पष्ट- सा उपदेश ही नहीं दिया था । बल्कि उन्होंने ठीक तरह के ध्यान में अनुभूत अवस्था का ठीक-ठीक वर्णन भी किया था - आंतरिक विश्राम की अवस्था का, न कि थकावट की अवस्था का, शांत उद्घाटन की अवस्था का, न कि उत्सुक या जी तोड़खींच-तान की अवस्था का, एक ऐसी अवस्था का जिसमें भगवती शक्ति की क्रिया के लिये उसके हाथों में अपने- आपको सुसमंजस भाव से दे दिया जाये और फिर उसमें यह बोध बना रहे कि दिव्य शक्ति कार्य कर रही है । उसपर स्थिर विश्वास हो और बिना किसी चंचल हस्तक्षेप के उसे काय करने दिया जाये । और उन्होंने तुमसे पूछा कि क्या तुमने कभी उस अवस्था का अनुभव नहीं किया, और तुमने कहा था कि तुम्हें इसका अनुभव है और उसे तुम खूब अच्छी तरह जानते हो । वह अवस्था है चैत्य उद्घाटन की, यदि वह उद्घाटन तुम्हें प्राप्त हुआ था तो, तुम जानते ही हो कि चैत्य उद्घाटन क्या चीज है; निस्सन्देह, और भी बहुत कुछ है जो बाद में आता है, पर यही मौलक स्थिति है जिसमें यह अत्यंत आसानी से आता है | तुम्हें माताजी ने जो चाबी दी उसे तुम्हें अपनी चेतना में बनाये रखना और उसका उपयोग करना चाहिये था, -पीछे हटकर उदासी ओर पुरानी चीज के लिये रोने- धोने के भाव को अपने अंदर बढ़ने नहीं देना चाहिये था । इस अवस्था में, जिसे तुम समुचित या चैत्य भाव कहते हो, पुकार, प्रार्थना, अभीप्सा रह सकती है; तीव्रता, एकाग्रता अपने- आप आयेंगी, कठिन प्रयास करने या प्रकृति पर तीव्र दबाव डालने से नहीं । अनुचित क्रियाओं का त्याग, दोषों को स्पष्ट रूप में स्वीकार करना केवल इसके साथ मेल ही नहीं खाता, बल्कि इसके लिये सहायक भी है, फिर यह भाव त्याग करने और दोष स्वीकार करने की वृत्ति को सहज, स्वाभाविक, एकदम पूर्ण और सच्चा तथा फलप्रद बना देता है । यही उन सब लोगों का अनुभव है जिन्होंने इस भाव को ग्रहण करना स्वीकार किया है ।
प्रसंगवशात् मैं यह भी कह दु कि चेतना और ग्रहणशीलता एक ही चीज नहीं है; कोई आदमी ग्रहणशील हो सकता है । फिर भी हो सकता है कि बाहरी रूप में वह इस विषय में अनजान हो कि किस तरह ये सब चीजों हो रही है और क्या किया जा रहा है । दिव्य शक्ति, जैसा कि मैं बार-बार लिख चुका हूं । पदे के पीछे कार्य करती है । उसके परिणाम पीछे की ओर जमा रहते हैं
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और बाद में प्रकट होते हैं, बहुधा धीरे- धीरे । थोड़े-थोड़े, जबतक कि इतना अधिक दबाव न हो जाये कि किसी तरह वे फूट पड़ें और बाहरी प्रकृति पर अधिकार जमा लें । मानसिक और प्राणिक श्रम और खींच-तान तथा सहज चैत्य उद्घाटन में भेद है और यह कोई एकदम पहला ही अवसर नहीं है जब हमने इस भेद की बात कही हो । श्रीमाताजी और मैंने अनगिनत बार इसके विषय में लिखा और कहा है और हमने खींच-तान ' और श्रम को मना किया है तथा चैत्य उद्घाटन के भाव का समर्थन किया है । यह वास्तव में सही या गलत चाबी का प्रश्न नहीं है, बल्कि ताले में चाबी को सही या गलत तरीके से लगाने का प्रश्न है । या तो । किसी कठिनाई के कारण, तुम चाबी को जोर से इधर-उधर घुमाकर ताले को जबर्दस्ती खोलने की कोशिश करते हो या विश्वास-पूर्वक और शांति के साथ चाबी को ठीक तरीके से घुमाते हो और दरवाजा खुल जाता है ।
५-५-११३२
सक्रिय मन की बाधा
मेरा मन माताजी के विचारों से सचेतन होने और उन्हें ग्रहण करने का यत्न कर रहा था क्या यह क्रिया ठीक है?
यह तरीका बिलकुल ही नहीं है - अगर मन सक्रिय हो तो माताजी जो कुछ ला रही होती हैं उसके विषय में सचेतन होना अधिक कठिन होता है । वे विचारों को नहीं लातीं, बल्कि उच्चतर ज्योति, शक्ति इत्यादि लाती हैं ।
२२-३-१९३३
आज मैंने अनुभव किया कि माताजी मेरे सिर को अपने प्रकाश से भर रही हैं! क्या मैं वस्तुओं की कल्पना कर रहा था या उन्होने सचमुच में ऐसा किया?
' शक्ति का दृढ़तापूर्वक आहरण करना संभव है और वह ठीक वह चीज नहीं है जिसे मैं 'खीच-तान ' कहता है -शक्ति का आहरण करना आम बात है और सहायक क्रिया है ।
१३०
वे हर बार ऐसा करती हैं, अंतर इतना ही है कि आज तुमने उसे केवल ग्रहणा ही नहीं किया वरन् तुम सचेतन रूप से ग्रहणशील थे ।
८ - ५ - ११३३
माताजी की शक्ति की क्रिया को समझना
क्या यह समझना हमारे लिये सदा आवश्यक है कि माताजी की शक्ति हमारे योग की प्रगति के लिये हमारे अंदर क्या कर रही है?
कितने ही ऐसे लोग हैं जो यह समझे बिना कि शक्ति क्या कर रही हे वेगपूवक प्रगति करते हैं -वे बस निरीक्षण और वर्णन करते हैं और कहते हैं '' मैं सब कुछ माताजी पर छोड़ता हूं । '' अंततोगत्वा ज्ञान और समझ. भी आते ही हैं ।
१७ - ७ - १९३३
माताजी के प्रसंग में आपने एक बार कहा था '' उनकी शक्ति के प्रति सचेतन होने के लिये विनती करो '' क्या इसका यह अभिप्राय है कि मुझे उनकी शक्ति के विषय में जानने के लिये अभीप्सा करनी चाहिये?
हां, केवल मन से जानने के लिये ही नहीं बल्कि उसका वेदन प्राप्त करने तथा आंतरिक अनुभव से उसका साक्षात्कार करने के लिये ।
मान लीजिये मैं किसी उलझन में हूं और अपने ऊपर स्थित माताजी की शक्ति को नीचे उतार लाने के लिये पुकारता हूं /अब, मुझे कैसे पता चले कि वह उतरी है या नहीं?
उसकी अनुभूति या उसके परिणाम के द्वारा ।
२६ - ६ - १९३३
१३१
मान लीजिये वह उतर आयी हे: और मैंने अपनी पढ़ाई-लिखाई शुरू कर दी है; क्या तब से उसे यह आदेश दे सकता है कि वह बाह्य प्रभावों से मेरी रक्षा करे और इसके साथ ही जब मेरा मन किसी और काम में लगा हो तब भी माताजी के साथ मेरा पूर्ण संपर्क बनाये रखे?
तुम माताजी की शक्ति को कोई काम करने का आदेश नहीं दे सकते, माताजी की शक्ति स्वयं माताजी की ही अभिव्यक्ति है ।
मैं यह समझने में असमर्थ हूं कि कैसे यह शक्ति कोई कार्य निपटा सकती है
क्या तुम यह समझते हो कि माताजी की शक्ति का कार्य से कुछ भी संबंध नहीं या वह इतनी दुर्बल है कि कुछ कर ही नहीं सकती? या फिर और क्या? शक्ति भला काय करने के सिवा होती ही किस मतलब के लिये है?
२ ६- ६- १९३३
माताजी की शक्ति के साथ निम्नतर प्रकृति का मिश्रण
शक्ति के विषय में आपने कहा था '' वह मन में या अन्यत्र अपनी ही क्रियाओं का सर्जन करती है '' ऐसी दशा में तो मन या कोई अन्य भाग जिस पर वह कार्य करती हे केवल उसी चीज को व्यक्त करेगा जिसका सर्जन शक्ति ने किया हे
यह एक आदर्श अवस्था है जो तब होती है जब शक्ति एकमात्र वास्तविक शक्ति ही होती है -किंतु तुम्हारी प्रकृति में इतना अधिक मिश्रण है कि साधना की इस अवस्था में वह चीज संभव नहीं हो सकती ।
३ - ८ - ११३४
ऐसी दशा में क्या इसका. यह अर्थ नहीं कि मेरी चेतना जिसे 'शक्ति ' के
१३२
रूप में अनुभव करती हे वह माताजी की वास्तविक शक्ति नहीं?
मैं कह ही चुका हूं कि वह तुम्हारे वर्तमान मन, प्राण और शरीर की क्रिया से मिश्रित हो जाती हे । यह अनिवार्य ही है क्योंकि उसे उनपर कार्य करना होता है । केवल रूपांतर के बाद ही वह पूर्ण रूप से माताजी की एक ऐसी शक्ति हो सकती है जिसमें पृथक् व्यक्तित्व का जरा भी मिश्रण न हो । यदि आरंभ से ही, अपनी समस्त, अविमिश्र पूर्णता से संपन्न भागवत शक्ति को, वर्तमान प्रकृति का कोई भी विचार किये बिना कार्य करना होता तो साधना नाम की कोई चीज ही न होती, होती केवल बिना किसी कारण या प्रक्रिया के मानव की जगह भगवान् की चमत्कारपूर्ण प्रतिष्ठा ।
विवेक की आवश्यकता
तुम्हारे ऊपर '' जो कुछ अवतरित होने की चेष्टा कर रहा है उसके विरुद्ध विवेक और बचाव की सब तरह की बाधा खड़ी करने की बात '' को छोड़ देने का विचार करना खतरनाक है । क्या तुमने सोचा है कि जो कुछ अवतरित हो रहा है वह यदि दिव्य सत्य के साथ मेल खानेवाली कोई चीज न हो, संभवत: विरोधी भी हो तो फिर उसका मतलब क्या होगा? कोई विरोधी शक्ति साधक के ऊपर प्रभुत्व प्राप्त करने के लिये इससे अच्छी अवस्था की मांग नहीं करेगी । वास्तव में एकमात्र माताजी की शक्ति और दिव्य सत्य को ही बिना बाधा के आने देना चाहिये और उस अवस्था में भी हमें विवेक-विचार की शक्ति को अवश्य बनाये रखना चाहिये जिसमें कोई भी मिथ्या चीज यदि श्रीमां की शक्ति और दिव्य सत्य का रूप बनाकर आवे तो उसे हम पहचान जायें और त्याग की शक्ति को भी बनाये रखना चाहिये जो सब प्रकार की मिलावट को बाहर निकाल फेंके ।
अपनी आध्यात्मिक भवितव्यता में विश्वास रखो, भूल- भ्रांति से पीछे हटो और चैत्य पुरुष को श्रीमां की ज्योति और शक्ति के सीधे पथप्रदर्शन की ओर और भी अधिक खोलो । अगर केंद्रीय संकल्प सच्चा हो तो प्रत्येक भूल की पहचान सत्यतर क्रिया और उच्चतर प्रगति की ओर जाने के लिये एक-एक मंजिल साबित हो सकती है ।
१३३
यह कैसे पहचाना जाये कि कोई विशेष विचार हद्भाव या कार्य का आवेग स्वयं माताजी से आया है न कि किसी वैश्व शक्ति से? यदि वह प्रत्यक्षत: ही मिथ्यात्व से उत्पत्र हुआ हो तो उसे इस रूप में पहचाना जा सकता है पर इससे मित्र प्रकार के अन्य भी बहुत- से होते हैं और कभी- कभी मनुष्य यही सोचता रहत? है कि के भीतर से माताजी के द्वारा प्रेरित हैं यदपि के ऐसे होते नहीं /
यह केवल विवेक, सावधानता, सचाई, मन की गतियों पर सतत नियंत्रण और एक प्रकार के चैत्य युक्ति-कौशल के विकास के द्वारा ही किया जा सकता है जो किसी भी मानसिक अनुकरण को या इस मिथ्या सुझाव को ढूंढ निकालता है कि वह विचार आदि माताजी का है ।
२७ - ४ - १९३३
अवतरण के ख़तरों से बचने का उपाय
ऊपर से होनेवाले अवतरण तथा उसे क्रियान्वित करने की इस प्रक्रिया में सबसे प्रधान बात है स्वयं अपने ऊपर पूर्ण रूप से निर्भर न करना, बल्कि गुरु के पथ-प्रदर्शन पर निर्भर करना और जो कुछ घटित हो उसपर विचार करने । मत देने और निर्णय करने के लिये उन्हें बतलाना । क्योंकि प्रायः ही ऐसा होता है कि अवतरण के कारण निम्नतर प्रकृति की शक्तियां जागृत और उत्तेजित हो जाती हैं और उसके साथ मिल जाना तथा उसे अपने लिये उपयोगी बनाना चाहती हैं । प्रायः ही ऐसा होता है कि स्वभावत: अदिव्य कोई शक्ति या कई शक्तियां परमेश्वर या भगवती माता के रूप में सामने प्रकट होती हैं और हमारी सत्ता से सेवा और समर्पण की मांग करती हैं । अगर इन्हें स्वीकार किया जाये तो इसका अत्यंत सर्वनाशी परिणाम होगा । अवश्य ही, यदि साधक केवल भागवत क्रिया की अवस्था तक ऊपर उठा हुआ हो और उसी पथ- प्रदर्शन के प्रति उसने आत्मदान और समर्पण किया हो तो सब कार्य आसानी से चल सकते हैं । साधक का यह आरोहण तथा समस्त अहंकारपूर्ण शक्तियों या अहंकार को अच्छी लगनेवाली शक्तियों का त्याग पूरी साधना के भीतर हमारी रक्षा करता है । परंतु प्रकृति के रास्ते जालों से मरे पड़े हैं, अहंकार के छद्मवेश असंख्य हैं । अंधकार की शक्तियों की माया -राक्षसी माया - असाधारण से भरी है; हमारी - अयोग्य पथप्रदर्शक है और प्रायः ही विश्वासघात
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करती है; प्राणगत कामना सदा हमारे साथ रहकर हमें किसी आकर्षक पुकार का अनुसरण करने का लोभ देती रहती है । यही कारण है कि इस योग में हम बराबर ही समर्पण पर इतना अधिक जोर देते हैं । अगर हृदय-केंद्र पूरा खुला हो और चैत्य पुरुष का प्रभुत्व बराबर बना रहे तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं; सब सुरक्षित ही होता है । परंतु निम्नतर चीजों के ऊपर उठ आने से चैत्य पुरुष किसी भी क्षण ढका जा सकता है । सिर्फ थोड़े-से लोग ही इन ख़तरों से मुक्त होते हैं और निश्चित रूप से वे ही लोग ऐसे होते हैं जिनके लिये समर्पण करना आसान होता हे । जो व्यक्ति तादात्म्य के द्वारा स्वयं भगवान् हो गया है या भगवान् का प्रतिनिधित्व करता है, उसका पथप्रदर्शन इस कठिन प्रयास के लिये अत्यंत आवश्यक और अनिवार्य है ।
अपने और श्रीमां की शक्ति के बीच किसी चीज और किसी व्यक्ति को न आने दो । वास्तव में तुम्हारे उस शक्ति को आने देने और उसे बनाये रखने तथा सच्ची अंतः प्रेरणा का प्रत्युत्तर देने पर ही सफलता निर्भर करती है, मन की बनायी हुई किसी धारणा पर नहीं । यहांतक कि वे धारणाएं और योजनाएं भी, जो अन्य प्रसंगों में उपयोगी हो सकती थीं, असफल हो जायेगी अगर उनके पीछे सच्चा भाव और सच्ची शक्ति तथा प्रभाव न हों ।
अगर तुम अपने विश्वास को फिर से पाना चाहते हो और उसे बनाये रखना चाहते हो तो तुम्हें सबसे पहले अपने मन को शांत-स्थिर करना चाहिये और उसे माताजी को शक्ति की ओर खोल देना और उसका आज्ञाकारी बना देना चाहिये । अगर तुम्हारा मन उत्तेजित रहता हो और प्रत्येक प्रभाव और आवेग की मर्जी पर चलता हो तो तुम परस्पर-संघर्षकारी और परस्पर विरुद्ध शक्तियों का ही एक क्षेत्र बने रहोगे और उन्नति नहीं कर सकोगे । तुम फिर श्रीमां के ज्ञान के स्थान पर अपने निजी अज्ञान की बातें सुनना आरंभ कर दोगे और स्वभावत: ही तुम्हारा विश्वास उठ जायेगा और तुम अनुचित स्थिति और अनुचित मनोभाव के शिकार बन जाओगे ।
मार्च । ११२८
१३५
परिवर्तन के लिये श्रीमां की शक्ति
यह मान लेना होगा कि तुममें इस परिवर्तन की क्षमता है, क्योंकि तुम यहां माताजी के सान्निध्य और संरक्षण में हो । श्रीमां की शक्ति का दबाव और उसकी सहायता बराबर ही मौजूद है । तुम्हारी प्रगति की तीव्रता निर्भर करती है उसकी ओर अपने- आपको खोल रखने पर और अन्य शक्तियों के समस्त सुझावों और आक्रमणों का शांति के साथ, धीर-स्थिर भाव से और लगातार त्याग करते रहने पर । विशेषकर प्राणमय सत्ता की स्नायविक उत्तेजना का त्याग करना ही होगा; स्नायु-सत्ता और शरीर में एक शांत और स्थिर शक्ति का होना ही एकमात्र सुदृढ़ आधार है । यह तुम्हारे ग्रहण करने के लिये मौजूद है अगर तुम इसकी ओर सदा खुले रहो ।
२७ - ८ - १९३२
किसी कठिनाई के कारण बेचैन या निरुत्साहित मत होओ, बल्कि चुपचाप और सरल भाव से अपने को माताजी की शक्ति की ओर खोले रखो और उसे अपने अंदर परिवर्तन ले आने दो ।
माताजी की शक्ति केवल ऊपर, सत्ता के शिखर पर ही नहीं है, वह तुम्हारे साथ और तुम्हारे पास भी है । जिस समय तुम्हारी प्रकृति उसे कार्य करने देगी उस समय कार्य करने के लिये वह तैयार बैठी है । यहां के प्रत्येक आदमी के साथ वह इसी प्रकार विद्यमान है ।
१५ - १ १- ११३६
माताजी की शक्ति प्रत्येक कार्य कर सकती है, पर हमें अपनी सत्ता और प्रकृति के विषय में और जो कुछ उसके नीचे है उसके विषय में अधिकाधिक सचेतन होना चाहिये ।
यह कोई मानसिक निर्णय का प्रश्न नहीं है -इन मामलों में वह बहुत थोड़ा ही उपयोगी होता है -बल्कि यह प्रश्न है चेतना का, बोध करने और देखने का ।
सत्ता के निम्नतर स्तरों में अतिमानस सुसंगठित नहीं आ है जिस तरह
१३६
कि अन्य चीजों हुई हैं । उसका केवल एक प्रच्छन्न प्रभाव ही पड़ता हे । अन्यथा अतिमानसिक सिद्धि प्राप्त करना आसान होता ।
२२ - ५ - ११३४
तुम्हें अनन्य रूप से किसी दूसरी चीज पर निर्भर नहीं करना चाहिये, चाहे वह कितनी ही सहायता पहुंचानेवाली क्यों न मालूम हो, बल्कि प्रधानत: प्रथमत: और मूलत: माताजी की शक्ति पर निर्भर करना चाहिये । सूर्य और ज्योति सहायक हो सकते हैं और होंगे ही यदि वे सच्चे सूर्य और सच्ची ज्योति हों, पर वे श्रीमां की शक्ति का स्थान नहीं ग्रहण कर सकते ।
जिस दृढ़ता को तुमने प्राप्त किया है वह कोई व्यक्तिगत गुण नहीं हे, बल्कि वह तुम्हारे माताजी के साथ संस्पर्श बनाये रखने पर निर्भर करती है । कारण, उनकी ही शक्ति उसके पीछे और तुम जो कुछ उन्नति कर सकते हो उस सबके पीछे विद्यमान है । उसी शक्ति पर निर्भर करना । उसी की ओर अधिक पूर्णता के साथ अपने को खोले रखना और आध्यात्मिक उन्नति को महज अपने लिये ही नहीं पर भगवान् के लिये पाने का प्रयास करना सीखे, तब तुम अधिक आसानी से अग्रसर होगे ।
वे इन दो कारणों से उन्नति करने में असमर्थ हैं :
१. वे निराशा, उदासी और निर्बलता के भ्रम के अधीन हो जाते हैं ।
२. वे केवल अपने ही बल पर प्रयास करते हैं और न इस बात की परवाह करते हैं या इसे जानते हैं कि किस प्रकार माताजी को शक्ति की क्रिया का आवाहन किया जाता है ।
१० - ६ - ११३६
माताजी की शक्ति का प्रतिरोध
तुम्हारी बीमारियों इस बात का चिह्न हैं कि तुम्हारी भौतिक चेतना भागवत शक्ति की क्रिया का प्रतिरोध करती है ।
अगर तुम साधना में उन्नति नहीं कर पाते तो इसका कारण यह है कि तुम
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विभक्त हो और बिना कुछ बचाये अपने- आपको नहीं दे देते । तुम प्रत्येक चीज माताजी को समर्पित करने की बात कहते हो परंतु तुमने वह एक चीज भी नहीं दी है जिसे माताजी ने तुमसे मांगा था और जिसे देने का वचन तुमने कई बार दिया था । यदि भागवत शक्ति की क्रिया का आवाहन करने के बाद तुम अन्य प्रभावों को रहने दो तो भला तुम बाधा-विघ्न और कठिनाइयों से छुटकारा पाने की आशा कैसे कर सकते हो?
२० - ११ - ११२८
माताजी का दबाव डालना
मैं केवल तुम्हारी बात कह रहा था -मेरा कहने का मतलब यह नहीं था कि माताजी कभी दबाव डलाती ही नहीं । परंतु दबाव भी बहुत प्रकार का हो सकता हे । जब दिव्य शक्ति मन । प्राण या शरीर में प्रवेश करती है तब उसका एक दबाव पड़ता है -यह दबाव होता है अधिक तेज चलाने । निर्माण करने या रूप लेने या तोड़ने के लिये, तथा और भी बहुत-सी चीजों के लिये । तुम्हारे अंदर अगर कोई दबाव है तो वह है सहायता करने या अवलम्ब देने या आक्रमण को दूर करने के लिये, परंतु मुझे ऐसा नहीं लगता कि उसे ठीक- ठीक दबाव कहा जा सकता है ।
प्रारंभिक चेतना में माताजी का कार्य
जो अनुभूतियां तुम्हें हुई हैं वे सिद्धि के लिये अच्छा प्रारंभ हैं । उन्हें एक गंभीरतर स्थिति की ज्योति के रूप में विकसित होना होगा जिसमें पहुंचने पर तुम्हारे अंदर एक उच्चतर चेतना का अवतरण होगा । अपनी जिस वर्तमान चेतना में तुम इन चीजों को अनुभव कर रहे हो वह अभी केवल प्रारंभिक स्थिति की एक चीज है -जिसमें श्रीमां तुम्हारी चेतना की स्थिति और तुम्हारे कर्मो के अनुसार अपनी विश्वशक्ति के द्वारा तुम्हारे अंदर कार्य कर रही हैं और उस क्रिया में सफलता और विफलता दोनों आ सकती हैं -मनुष्य को सफलता का प्रयास करते हुए दोनों के प्रति सम-चित्त बने रहना चाहिये । इस प्रारंभिक चेतना के अंदर भी निश्चित पथप्रदर्शन मिल सकता है अगर तुम एकमात्र श्रीमां की ही ओर पूर्ण रूप से मुड़े रहो और इस तरह मुड़े रहो कि तुम उनके सीधे पथप्रदर्शन का अनुभव कर सको उसका ' कर सको
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और तुम्हारे ऊपर काय करने के लिये उस समय दूसरा कोई प्रभाव या शक्ति हस्तक्षेप न करे । पर इस अवस्था को प्राप्त करना या बनाये रखना आसान नहीं है -इसके लिये आवश्यकता होती है महान् अनन्यता और निरन्तर एकचित्त आत्मदान को । जब उच्चतर चेतना अवतरित होगी तब अधिक घनिष्ठ एकत्व, भागवत उपस्थिति की अधिक गंभीर चेतना और अधिक ज्योतिमय संबोधी का आना संभव होगा ।
१७ - ११ - ११३४
दूर से माताजी की शक्ति ग्रहण करना
तुम्हारा दूसरा मित्र जो कुछ पूछता है उसके बारे में यह कहना है कि यदि वह अपने हृदय में माताजी के प्रति पूजा का भाव बनाये रखे और तीव्रता से पुकारता रहे तो जहां वह है वहीं, यहां आये बिना भी, उसके लिये ग्रहण करना बिलकुल संभव है ।
२८ - ५ - ११३५
मेरे मित्र 'श ' के विषय में आपने कहा था कि वह माताजी की शक्ति ग्रहण कर रहा है मैं थोड़ा श्रम में पड़ गया है क्योंकि मैं समझ ही नहीं पाता कि किस माताजी की बात आपने लिखी है / क्या वह हम लोगों की माताजी हैं या कोई दूसरी जिन्हें लोग विश्वजननी कहते हैं? मैं इस कारण भ्रम में पड़ गया है कि वह माताजी का आवाहन नहीं करता और फिर भी माताजी की शक्ति को पाता है ।
संभवत: मैंने जो लिखा था वह था : भागवत शक्ति के '' संस्पर्श में '', जो माताजी की शक्ति है । क्या तुमने । फोटो और उसके पत्र के द्वारा, उसके साथ हमारा संबंध नहीं स्थापित कर दिया है? क्या वह इस दिशा में नहीं मुंडा है? क्या उसने 'य ' के साथ मुलाकात नहीं की है और उससे -संस्पर्श के तीसरे माध्यम से- वह प्रभावित नहीं हुआ है? अगर उसमें श्रद्धा हो और यौगिक झुकाव हो तो संस्पर्श करने में उसे सहायता करने के लिये यह बिलकुल पर्याप्त है ।
११३६
१३९
मैं नहीं जानता कि माताजी स्वीकृत अर्थ में शक्ति भेज रही हैं या नहीं; मैंने उनसे पूछा नहीं है । पर जो हो, जिस आदमी में श्रद्धा और सच्चाई हो, जिसका चैत्य पुरुष जगना आरंभ हो गया हो और जो अपने को खोले रखता हो, वह शक्ति ग्रहण कर सकता है -चाहे वह जाने या नहीं कि वह ग्रहण करता है । अगर ' अ ' कल्पना भी करता हो कि वह ग्रहण कर रहा है तो इससे सच्चे रूप में ग्रहण करने का रास्ता खुल सकता है - अगर वह इसे अनुभव करता हो तो उसके अनुभव पर संदेह ही क्यों किया जाये? वह निश्चय ही परिवर्तित होने के लिये खूब अधिक चेष्टा कर रहा है और यही पहली आवश्यकता है; अगर कोई इसके लिये प्रयत्न करे तो यह सर्वदा, कम या अधिक समय में, सिद्ध किया जा सकता है ।
२८ - ६ - ११४३
तुम्हारे लिये यह बिलकुल संभव है कि तुम घर पर और अपने काम के बीच रहकर साधना करते रहो -बहुत-से लोग ऐसा करते हैं । आरंभ में बस आवश्यकता यह है कि जितना अधिक संभव हो उतना माताजी को स्मरण करो । प्रत्येक दिन कुछ समय हृदय में उनका ध्यान करो, अगर संभव हो तो भगवती माता के रूप में उनका चिंतन करो, अपने भीतर उनको अनुभव करने की अभीप्सा करो, अपने कर्मो को उन्हें समर्पित करो और यह प्रार्थना करो कि वे भीतर से तुम्हें मार्ग दिखावों और तुम्हें संभाले रखें । यह आरंभिक अवस्था है और बहुधा इसमें बहुत समय लग जाता है, पर कोई यदि सच्चाई और लगन के साथ इस अवस्था में से गुजरता है तो मनोवृत्ति कुछ-कुछ बदलना आरंभ कर देती है और साधक में एक नयी चेतना खुल जाती है जो अंतर में श्रीमां की उपस्थिति के बारे में, प्रकृति में और जीवन में होनेवाली उनकी क्रिया के बारे में अथवा सिद्धि का दरवाजा खोल देनेवाली किसी अन्य आध्यात्मिक अनुभूति के बारे में अधिकाधिक सचेतन होना आरंभ करती है ।
माताजी को स्मरण करो और, यद्यपि शरीर से तुम उनसे बहुत दूर हो, उनको अपने साथ अनुभव करने का प्रयास करो और तुम्हारी आंतर सत्ता जिस चीज को उनकी इच्छा बतलावे उसी के अनुसार कार्य करो । तब तुम अच्छी तरह उनकी और मेरी उपस्थिति का अनुभव कर सकोगे और एक
१४०
संरक्षण के रूप में अपने चारों ओर हमारे वातावरण को लिये रहोगे तथा स्थिरता और ज्योति का एक घेरा सर्वत्र तुम्हारे साथ बना रहेगा ।
१२ - १२ - १९३६
माताजी के चित्र से शक्ति ग्रहण करना
जब मैं माताजी के चित्रों के सामने ध्यान करने बैठता हूं या उनके चरणों का चित्र खींचता है तब में शक्ति ग्रहण करता हूं! क्या यह केवल काल्पनिक अनुभव है?
नहीं, यह सिर्फ काल्पनिक नहीं है । उनके (चित्रों के ) पास ध्यान करने से तुम उनके द्वारा माताजी का संस्पर्श पाने में समर्थ हुए हो और उनकी शक्ति तथा उपस्थिति का कुछ अंश वहां मौजूद है ।
१४ - ७ - ११३४
नीरोग करनेवाली शक्ति का कार्य और माताजी
नीराग करनेवाली शक्ति के कार्य के विषय में ' अ ' के साथ मेरी गरमा- गरम लेकिन मित्रतापूर्ण बहस हो गयी थी उसका मत था कि अब चूंकि उसे यहां उतार लाया गया हे संसार के अन्य भागों में भी उसके क्रिया करने की संभावना है और कोई भी राम श्याम और यदु आध्यात्मिक दृष्टि से अनुन्नत होने पर भी इसका व्यवहार कर सकता है! क्या यह सच है?
वह क्रिया कर सकती है पर प्रत्येक ' र ', ' श ' । ' य ' के द्वारा नहीं, -कम-से-कम आरंभ में तो नहीं ।
३ - २ - ११३६
मैंने प्रतिवाद किया कि नीरोग करनेवाली शक्ति केवल माताजी के द्वारा कार्य करेगी और दूसरे इसका उपयोग करने में तभी समर्थ होंगे जब कि वे किसी रूप में उनके प्रति खुले होंगे या ज्ञानपूर्वक उनके साथ संबंध
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बनाये होने और उनके साथ भौतिक संपर्क रखते होंगे इन लतों को पूरा किये बिना कोई उसका व्यवहार नहीं कर सकता आपका क्या कहना हे?
निश्चय ही आरंभ में यही होगा अगर वह सच्ची शक्ति हो, पर जब वह एक बार पृथ्वी-चेतना में जमकर बैठ जायेगी तब रोग दूर करने में अतिभौतिक शक्ति का अधिक व्यापक व्यवहार करना संभव हो सकेगा ।
और यह भी हमेशा जरूरी नहीं है कि जिस ' संबंध ' की बात तुम कहते हो वह सचेतन ही हो । उदाहरणार्थ, बिना जाने ही 'कुए' (coué) का संबंध माताजी के साथ था । किसी भी आदमी के ' कुए ' को जानने से बहुत पहले ही उन्होंने उसके कुछ शक्ति प्राप्त करने और उसके कार्य के प्रारंभ होने की बात मुझसे कही थी (अवश्य ही वे उसका नाम नहीं जानती थीं, पर उन्होंने उसका और उसके कार्य का वर्णन ऐसे ढंग से दिया था कि वह स्पष्ट ही उसके साथ मिलता-जुलता था) ।
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