श्री माताजी के विषय में

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Mother Vol. 25 496 pages 1972 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्री माताजी के विषय में 439 pages 1973 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Shyam Sunder Jhunjhunwala
  Ravindra
Part I by Shyam Sundar Jhunjhunwala, Part II by Jagannath Vedalankar, Part III by Ravindra  PDF    LINK

श्रीमाताजी की ज्योतिया तथा दिव्य दर्शन

 

सुनहली ज्योति की रेखा उच्चतर भागवत सत्य की ज्योति की रेखा है जो हृदयाकाश में चारों ओर छा रही थी । हीरक-पुंज श्रीमां की ज्योति है जो उस आकाश में बरस रही थी । अतएव यह इस बात का चिह्न है कि हृदय-केन्द्र में (चैत्य और भाव के केन्द्र में ) उन शक्तियों की क्रिया हो रही है ।

१७ - १२ - १९३६

 

श्रीमां के कुछ सूक्ष्म दर्शन तथा अनुभव

 

  कल शाम को जब श्रीमाताजी दर्शन देने के लिये नीचे उतरीं तब मैंने उनके चेहरे पर प्रात :काल के सूर्य की तरह लाल रंग की ज्योति को चमकते हुए देखा लाल रंग की ज्योति का क्या अर्थ है?

 

लाल रंग भौतिक वातावरण में प्रेम की अभिव्यक्ति को सूचित करता है ।

 ५ - ६- ११३३ 

*

आज प्रणाम- गृह में श्रीमाताजी के आने से पहले ध्यान करते समय मैंने देखा कि श्रीमाताजी एक बहुत ऊंची जगह से उतर रही हैं वह गुलाबी रंग की साड़ी पहने हैं और अपने बालों में ' भागवत प्रेम ' नामक पुष्प लगाये हुए है इसका क्या तात्पर्य है?

 

यह भागवत प्रेम के अवतरण को सूचित करता है ।

 

५ - ६ - ११३३ 

*

 

  दो दिन हुए मैंने में देखा कि मैं एक कमरे में बिछौने पर लेटा हुआ हूं और वहां श्रीमाताजी गुलाबी रंग के एक घोड़े के साथ प्रवेश कर रही हैं । घोड़े को देखकर मैंने श्रीमां से कहा कि यह मुझे काटेगा, पर श्रीमाताजी ने उत्तर दिया कि नहीं यह नहीं काटेगा इस स्वप्न का क्या अर्थ है?

 

गुलाबी रंग चैत्य प्रेम का रंग है -घोड़ा सक्रिय शक्ति है । अतएव ' रंग


के घोड़े का अर्थ यह है कि श्रीमां अपने साथ प्रेम की सक्रिय शक्ति ला रही थीं ।

 

 ३ - ८ - १९३३ 

*

 

   आज प्रणाम- गृह में ध्यान करते समय मैंने देखा कि नीली ज्योति से भरपूर आकाश से एक सुन्दर पक्की सड़क पृथ्वी पर आ रही है और श्रीमाताजी धीरे- धीरे उस सड़क से नीचे उतर रही हैं श्रीमां का समूचा शरीर सफेद और सुनहली ज्योति से बना था और वह ज्योति ओर फैल रही थी । जब श्रीमाताजी रास्ते के अंत पर आ गयीं और पृथ्वी पर उतर आयीं तब उनका शरीर पृथ्वी के साथ मिलजुल गया तब मैं सहसा ध्यान से जग गया क्या यह कोई सूक्ष्म दर्शन था? इसका क्या तात्पर्य है?

 

हां, यह मन (साधारण मन नहीं, बल्कि उच्चतर मन) के स्तर पर प्राप्त एक सूक्ष्म दशन है । यह इस बात को सूचित करता है कि श्रीमाताजी पवित्र और दिव्य सत्य की (सफेद और सुनहली) ज्योति के साथ जड़-तत्त्व में उतर रही हैं ।

 

 ५ - ८ - १९३३ 

*

 

   दो दिन पहले मैंने स्तन्य में देखा कि श्रीमां एक ऊंची जगह पर खड़ी हैं और उनके सामने एक स्तम्भ है जिसपर एक तुलसी का पौधा लगा है इसका क्या मतलब है?

 

मेरी समझ में इसका अर्थ यह है कि श्रीमां ने भक्ति को नीचे उतारा है और उसे रोप दिया है ।

५-६-१९३३

 

 

५ - ६- ११३३ 

*

 

 सांप शक्तियां हैं -प्राण-जगत् के सांप साधारणतया अशुभ शक्तियां होते हैं और लोग प्रायः उन्हीं को देखते हैं । परंतु अनुकूल या दिव्य शक्तियां भी उस रूप में प्रतिबिम्बित होती हैं, जैसे, -शक्ति सांप के रूप में कल्पित की

 ७०


गयी है । श्रीमाताजी के सिर के ऊपर और चारों ओर घूमने-फिरने वाले सांप शायद विमति का स्मरण कराते हैं और उनका अर्थ है असंख्य शक्तियां जो सब अंत में उस एक अनंत शक्ति के अंदर एकत्र कर दी गयी हैं जिससे वे निकली हैं ।

 

२८ - १० - ११३६ 

*

 

   मुझे एक स्वप्न आया था जिसमे मैंने देखा कि श्रीमाताजी मेरे समीप है | एक बार जब थे हंसी तो मुझे ऐसा लगा मानों मैंने उनके मुंह के अंदर सभी जगतों को देखा, जैसे कि यशोदा ने क्रूसन के मुंह में देखा था? ऐसा देखने के बाद तुरंत ही मैंने अनुभव किया कि में इस जगत् से ऊपर उठ गया हूं और उसकी ओर एक मुक्त साक्षी की तरह देख रहा हूं? क्या यह एक सच्ची स्वम्नानुभूति थी और मैंने वास्तव में श्रीमाताजी को ही देखा अथवा यह कोई दूसरे प्रकार का प्रभाव था?

 

मैं नहीं समझता कि यह कोई दूसरा प्रभाव था । यह बहुत सच्ची अनुभूति के जैसा ही प्रतीत होता है ।

 

११ - ६- ११३५ 

*

 

   जब श्रीमाताजी छत पर आयीं तब उनकी ओर देखते समय मैंने सहसा उनकी गोद में एक बालक देखा जो मुझे ईसामसीह मालूम पड़ा, क्योंकि ईसामसीह के चेहरे से वह मिलता- जुलता था| यह सूक्ष्म- दर्शन लगभग एक मिनट तक बना रहा और यह सब मैंने खुली आंखों से देखा । क्या यह सत्य हो सकता है?

 

हो सकता है -क्योंकि ईसा भगवती माता के पुत्र थे ।

२५ - ११ - १९३३

 

*

 मालूम होता है कि तुम उच्चतर अध्यात्मभावापत्र मन के किसी लोक में ऊपर उठ गये हो और साथ ही उसमें भागवत सत्य की शक्ति को लिये महेश्वरी

 ७१


का अवतरण हुआ है । भौतिक चेतना में इसका फल यह हुआ कि तुमने सभी वस्तुओं में एक दिव्य चेतना और दिव्य जीवन को देखा और उच्चतर सत्य की सुनहली ज्योति से शरीर के सभी कोष प्रकाशित हो उठे ।

अक्टूबर, १९३३ 

*

 

  पिछली रात स्वप्न में मैंने देखा कि श्रीमाताजी के शरीर से मेरे शरीर में ज्योति आ रही है और उसे रूपांतरित कर रही है दोनों ही शरीर शायर शरीरों से अधिक लम्बे थे और पत्थर की तरह धुंधले रंग के थे इसका क्या अर्थ है?

 

बहुत अच्छा, यह श्रीमाताजी की ओर भौतिक चेतना का उद्घाटन है । तुमने जिसे देखा वह संभवत: अवचेतन शरीर था -इससे धुंधले रंग का अर्थ स्पष्ट हो जाता है -पत्थर स्थूल प्रकृति को सूचित करता है ।

३० - १ - ११३३ 

 

*

  हाल में मैं देख रहा हूं कि शाम को छत से नीचे उतरने के पहले श्रीमाताजी वहां बड़ी देर तक खड़ी रहती हैं | मैं अनुभव करता हूं कि उस समय के हमें विशेष रूप से कुछ देती हे: इसलिये मैं ग्रहण करने तथा वे जो कुछ देती हैं उसे अनुभव करने के लिये एकाग्र होता हूं । परंतु आज शाम को सहसा मैंने देखा ( जब मैं उनकी ओर ताकता हुआ ध्यान कर रहा था) कि उनका भौतिक शरीर विलीन हो गया - उनके शरीर का कोई विह्वल वहां नहीं था मानों के वहां थी ही नहीं फिर कुछ क्षणों के बाद उनकी आकृति पुन: प्रकट हो गयी उस समय मुझे ऐसा लगा कि के आकाश में मिल गयी थीं और सभी वस्तुओं के साथ एकाकार हो गयी थी | मैंने भला ऐसा क्यों देखा?

 

श्रीमाताजी आवाहन या अभीप्सा करती हैं और जबतक वह कार्य पूरा नहीं हो जाता तबतक खड़ी रहती हैं । कल कुछ समय तक वह शरीर के बोध से परे चली गयी थीं और शायद इसी बात के कारण तुमने उन्हें उस रूपमें देखा ।

२९-८-१९३२ 

७२


  *

 आज प्रणाम-गृह में ध्यान करते समय मैंने सूक्ष्म रूप में देखा कि श्रीमाताजी गभीर ध्यान में डूब गयी है। मैंने उन्हें इस रूप में क्यों देखा?

 

श्रीमाताजी अपनी आंतर सत्ता में बराबर ही ध्यानावस्थित चेतना में रहती हैं- इसलिये यह बिलकुल स्वाभाविक है कि तुम उन्हें उस रूप में देखो ।

 

५-६-१९३३

*

  नींद में या ध्यान में ऐसा हुआ मुझे याद नहीं पड़ता | मैं नाना प्रकार के हलों की वाली लिये श्रीमां के पास जा रहा था | प्रणाम करने से पहले मैंने उन्हें ''भगवत प्रेम'' के तीन हूल अर्पित किये | क्या इसका मेरी साधना से कोई संबंध है?

 

इस प्रसंग में यह ३ संख्या का क्या अर्थ है यह कुछ स्पष्ट नहीं । संभवत: यह सत्ता के तीन भागों में भगवान् के प्रेम के लिये अभीप्सा है ।

 

१२-७-१९३६

 

*

  मैंने माताजी को ''अनासक्ति'' के पुष्प के-से रंग में देखा? क्या इसका कोई अर्थ है?

 

इसका अर्थ अवश्य यही होगा कि माताजी तुम्हें यही शक्ति दे रही थी या फिर तुम्हें उनसे इसी शक्ति की आवश्यकता थी ।

 

१०-१-११३४

 

*

   माताजी एक पर्वत के शिखर पर बैठी हैं; एक सकरी पगडंडी उधर ले जा रही है और मैं क्रमश: उस ओर बढ़ रहा हूं?

 

यह केवल उच्चतर चेतना की उस पवित्रता और नीरवता का प्रतीक है जिस तक साधना के मार्ग से पहुंचना है । पर्वत कठिनाई का प्रतीक है क्योंकि व्यक्ति को एक या दूसरी ओर न फिसलकर सीधे जाना होगा ।

७३ 


 *

  दोपहर की झपकी के समय जो कुछ हुआ वह मैं आपको बता दूं मैं माताजी की गोद- में था /उन्होने अपना रूपान्तरकारी करतल मेरे सिर पर रखा हुआ था /अपने अंगूठे से के मेरे सिर के ब्रह्मकेन्द्र को दबा रही थी यों कहना चाहिये कि खोल रही थीं मुझे लगने लगा मानों वहां से कोई चीज प्राप्त हुई हो /तब एकाएक चेतना किसी और लोक में जा पहुंची । शरीर के कोषों में भी अतिभौतिक प्रकाश का अनुभव हुआ, शरीर तो पहले ही प्रकाश से परिप्लावित हो चुका था स्वयं भौतिक सात भी ऊपर उठा ले जायी गयी /क्या आप कृपा करके इस दृग विषय की व्याख्या करेंगे ?

इसमें व्याख्या करने की कोई बात नहीं । यह ऐसा ही था जैसा तुमने इसका वर्णन किया है : एकदम ही चेतना को उच्चतर भूमिका में ऊंचा उठा ले जाना और साथ ही उस चेतना का भौतिक सत्ता में उतरना ।

 

५ - १ - ११३४

*

  अपने सिर के ऊपर मुझे अनंत ओर शाश्वत शाश्वत शांति का स्तर दिखायी देता है । श्रीमां इस स्तर की सम्राज्ञी हैं वहां से मैं एक अनवरत ज्योतिर्धारा अपनी ओर आती अनुभव करता हूं / पहले वह मेरी उच्चतर सत्ता का स्पर्श करती हुई बिना किसी प्रतिरोध के उसमें से गुजर जाती हे कह फिर जब वह नीचे की ओर जाती है तो मार्ग में उसका प्रवाह तंग होकर एक छोटी- सी धारा का रूप ले लेता है जो ब्रह्मरंध्र में से गुज़रती हैयह वर्णन आपको कैसा लगता है?

 

यह बिलकुल ठीक है । किंतु बहुतों में वह सारे सिर में से एक पुब्ज रूपमें उतरती है, न कि ब्रह्मरंध्र में से एक धारा के रूप में ।

१३ - २ - ११३६

*

माताजी अपने आसन पर विराजमान हैं । उनके पीछे अनेक फणोंवाला नाग उनके सिर पर छत्रचछाया किये हुए है / उसका रंग चमकीला सुनहरा

७४ 


  है; प्रत्येक कण के केंद्र में एक बमकीला लाल गोल धब्बा है /

नाग ' प्रकृति-शक्ति ' का प्रतीक है; सुनहरा = उच्चतर ' सत्य-प्रकृति '; अनेक फण = अनेक शक्तियां । लाल बहुत संभवत: महाकाली-शक्ति का चिह्न है । अपने कणों से सिर पर छत्रच्छाया करता हुआ नाग राजाधिराजता का प्रतीक है ।

 २३ - १ - ११३७

*

 

 मुझे एक विषम चट्टान दिखायी देती है । उसपर सूर्य का प्रकाश पड़ता है और उसका आकार बदल जाता है; कन्द में एक खोखला वृत्त बन जाता है और चट्टानें अपने- आपको उस वृत्त के चारों ओर व्यवस्थित कर लेती है वृत्त के केन्द्र में लगभग दो फिट ऊंची शिव की प्रस्तर- मूर्ति प्रकट होती है; उसके बाद शिव की इस मूर्ति से माताजी का आविर्भाव होता है वे ध्यानस्थ हैं । सूर्य का प्रकाश माताजी की देह के ठीक पीछे पड़ता है इसका क्या अर्थ है?

 

चट्टानें = भौतिक ( अत्यंत जड़ सत्ता ) ।

 जड़ सत्ता का उद्घाटित होना जो वहां आध्यात्मिक चेतना के निर्माण के लिये स्थान बना देता है ।

 शिव की प्रस्तर-मूर्ति = वहां नीरव आत्मा या ब्रह्म का (अनन्त की शांति, नीरवता एवं विशालता का । साक्षी पुरुष की पवित्रता का) साक्षात्कार ।

 इस नीरवता में से आविभूत होती है भगवती शक्ति जो जड़ के रूपांतर के लिये घनीभूत है

 सूर्य का प्रकाश = सत्य की ज्योति ।

१२ - १० - ११३६

*

 परले दिन आपने मुझे समाधि में सचेतन रहने के लिये कहा था; मैंने इसके लिये जी- तोड़ यत्न किया और उसका परिणाम यह है : मैंने एक परम पावन देवी को एक स्थान में प्रवेश करते देखा जहां कुछ साधक उनके दर्शन के लिये एकत्रित थे वे एक बंद कमरे में गयीं जहां हमें एक- एक करके जाना था मैंने देखा कि हर एक को एक- दो मिनट दिये जा रहे थे जैसा हमारे दर्शन- दिनों में होता है | मेरी बारी अंत में आयी |

 ७५


कमरे के बीचों- वदि के देवी सादे कपड़े पहने विराजमान थीं / उनके मुंह की ओर देखे बिना मैंने अपना सिर उनकी गोद .में रख दिया उन्होने अपने हाथ मेरे सिर पर रखकर हल्के- से पुचकारा इस बीच वे धीरे- धीरे कुछ ऐसा-सा गुनगुना रही थी '' उसे... प्राप्त हो जाये '१ वाक्य का दूसरा शब्द मैं उस समय साफ- साफ पकड़ पाया था पर अब याद नहीं कर पा रहा । वह किसी आध्यात्मिक शक्ति का नाम था / ज्यों ही उन्होंने यह वाक्य पूरा किया मैंने उस शक्ति को एकाएक प्रबल धारा के रूप में मेरे सिर में प्रवेश करते अनुभव किया कुछ क्षण बाद उन्होने एक और शक्ति का नाम उच्चारित किया / इस शक्ति ने प्रचण्ड बल के साथ मेरा द्वार खटखटाया- इसकी तीव्रता चूर-चूर कर देनेवाली थी ।

   कुछ देर बाद मैंने सिर उठाकर उन देवी की ओर पहली बार दृष्टिपात किया उनकी आकृति श्रीमां- जैसी दिखायी देती थी । तब मैंने उनसे कहार '' क्या मैं आपसे एक प्राशन पूछ / सकता हूं'' ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्हें यह प्रश्न अच्छा नहीं लगा पर क्योंकि उन्होने इनकार नर्मी किया था मैंने फिर यही प्रश्न पूछा इस बार उन्होने कहा '' प्रश्नों का जाना पसंद नहीं /'' (उन्होने मुद्दे दो विभित्र शक्तियों के जो उपहार दिये थे उन्हींके बारे में मैं पूछना चाहता था / ) उसके बाद, याद वर्ही मैंने क्या कहा बहुत देर के बाद हम दोनों बाह्य चेतना में लौट आये क्योंकि हम दोनों ही एक साथ समाधि में चले गये थे इसका पता हमें तभी चला जब हमने द्वारपाल से पूछा कि हमने कितना समय साथ- साथ बिताया उसके बाद मैंने उनसे कहा '' अवश्य ही आप समाधि में बली गयी होगी और बस में भी आपके पीछे- पीछे वहीं पहुंच गया! ''

   यह सारा ही मेरी समझ के परे है ।

 

   १. वे परम पावन देवी कौन थी?

   २. उन्होने अपनी शक्तियों का दान देने का अनुग्रह क्यों किया

   ३. समाधि के अंदर समाधि ! यह एक नयी ही वस्तु है !

 

स्पष्टत: ही, वे परम पावन देवी स्वयं माताजी ही थीं - अपने अतिभौतिक रूप में । उन्हें प्रशन पसंद न हों यह स्वाभाविक ही था -मानसिक प्रश्न माताजी को कभी भी विशेष पसंद नहीं और जब वे ध्यान करा रही होती हैं, जैसा कि वे इस अनुभव में करा रही थीं तब तो? ही कम । यह सचमुच में अजीब

 ७६


उच्चतर शक्तियां '' = '' (तुम्हारा वही शाश्वत क्यों) -दी गयीं यह पूछना सचमुच ही अजीब बात है । लोग शक्ति के उपहारों के विषय में किसी प्रकार की शंका नहीं करते और जब वे उपहार प्रदान करती हैं तो उनसे उनके प्रदान करने के कारणों की जिज्ञासा नहीं करते, वे बस उन्हें पाकर अतीव आनंदित होते हैं । निःसन्देह, समाधि के भीतर समाधि, क्योंकि तुम्हारी साधना समाधि में, समाधि के तरिकों के अनुसार ही चल रही थी । सचेतन निद्रा में भी यह इसी प्रकार चल सकती है ।

  जब मैं तीसरे पहर झपकी ले रहा था तब एक अत्यंत सुन्दर नारी के अन्तर्दर्शन हुए जो - तले बैठी थी । की किरणें या तो उसे घेरे थीं या उसी के शरीर से छिटक रही थीं- मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि वह कौन थी उसकी आकृति और वेष- मूषा की अपेक्षा कहीं अधिक प्रतीत होती थी ।

 

यह कोई नारी नहीं । नारी के शरीर से किरणें नहीं फटती, न वह किरणों से घिरी ही होती है । बहुत संभवत: वह थी ' सूर्य-देवी ' या अन्तर्ज्योति की शक्ति, श्रीमां की शक्तियों में से एक ।

 

२० - १२ - ११३५

*

  आज हमें '' ने बताया कि श्रीमां पूजा के दिन दुर्गा के विग्रह को उतारने का यत्न कर रही थीं /

 

कोई यत्न नहीं किया गया -दुर्गा का विग्रह उतरा ।

 

  जब मैं प्रणाम के लिये पहुंचा, माताजी की आकृति देखकर मुझे अनुभूति हुई कि के स्वयं दुर्गा ही है / मैं नहीं जानता कि ऐसी अनुभूति उस दिन की पूजा के साथ संबद्ध होने के कारण उत् पत्र हुई, या उससे बिलकुल स्वतंत्र रूप में

 

यह सब उस भौतिक मन की .३ है जो आंतरिक अनुभूति या आंतरिक

७७ 


प्रत्यक्ष को शब्दजाल से उडा देने में अपने को अति चतुर समझता है ।

  ये अनुभूतियां इतनी अनिश्चित और क्षणिक होती है, और फिर इनके साथ कोई ठोस अन्तर्दर्शन भी नहीं होता /

 

इन प्रथम स्पशों से तुम और क्या आशा करते हो!

  इसका एक उदाहरण आपको देता हूं : मुझे यों सुनायी पड़ा मानों देवी भगवती मुझे कह रही हो '' मैं आ रही है '' तथा ऐसी और बहुत- सी बातें जो मुझे अब याद नहीं

 

ये वस्तुएं कम-सें-कम इस बात का प्रमाण हैं कि आतरिक मन और प्राण अतिभौतिक वस्तुओं की ओर खुलने का यत्न कर रहे हैं । परंतु ज्यों ही यह चीज शुरू हो, यदि तुम इसे तुरंत ही तुच्छ समझो तो यह भला कभी विकसित ही कैसे हो सकती है!

 

  अब मैंने हृदय में एकाग्रता करना शुरू कर दिया है / गत रविवार को जब मैं ध्यान कर रहा था, मुझे आपके मुखमंडल का अंतर्दर्शन हुआ वह कोई एक घंटा भर मेरे सामने तैरता- सा रहा उसके साथ ही हुआ गहरे हर्षाल्लास का अनुभव मैं पूर्णरूप से सचेतन श पर शरीर बिलकुल सुत्र पंड गया था / क्या मेरे अंदर कोई चीज खुल गयी है? क्या यह सब देवी भगवती के दिये हुए वचन का पूरा होना है?

 

यह ऐसा ही लगता है । कुछ भी हो, स्पष्टत: ही हृदय-केन्द्र में उद्घाटन हुआ है, नहि तो तुममें यह परिवर्तन न होता और न शरीर में भौतिक चेतना के निश्चल होने के साथ-साथ यह अन्त दर्शन ही होता ।

 

 साक्षात्कार और श्रीमां का अन्तर्दर्शन

 

  क्या श्रीमां के अन्तर्दर्शन को अथवा स्वप्न या जागरित अवस्था में उन्हें देखने को साक्षात्कार कहा जा सकता है?

 

बह साक्षात्कार न होकर अनुभव होगा | साक्षात्कार होगा अपने अंदर माताजी

७८


की उपस्थिति को देखना । उनकी शक्ति को कार्य करते अनुभव करना - अथवा सर्वत्र शांति या निश्चल-नीरवता का, वैध प्रेम, वैश्व त।सौन्दर्य या आनंद आदि- आदि का साक्षात्कार करना । अन्तर्दर्शन अनुभवों की श्रेणी में आते हैं, जबतक वे अपने को स्थिर रूप से प्रतिष्ठित न कर लें और उनके साथ एक ऐसा साक्षात्कार न हो जिसे वे मानों सहारा देते हैं -उदाहरणार्थ, हृदय में या सिर के ऊपर सदा माताजी का सूक्ष्मदर्शी इत्यादि |

 १२-३ - ११३४

अन्तर्दर्शन की क्षमता और आध्यात्मिक उन्नति

  कुछ लोगों को माताजी के चारों ओर ज्योति आदि के दर्शन होते है पर मुझे नहीं होते मेरे अंदर क्या रुकावट है?

 

यह कोई रुकावट नहि -यह केवल आंतरिक इन्द्रियों के विकास का प्रश्न है । इसका आध्यात्मिक उन्नति के साथ कोई अनिवार्य संबंध नहीं । कुछ लोग पथ पर बहुत आगे बढ़ चुके हैं पर उन्हें इस प्रकार का अन्तर दशन यदि होता भी है तो बहुत ही कम -दूसरी ओर । कभी-कभी यह निरे आरंभिक साधकों में, जिन्हें अभी केवल अत्यंत प्राथमिक आध्यात्मिक अनुभव ही हुए होते है, बहुत बड़ी मात्रा में विकसित हो जाता हे ।

१ - १२ - ११३३

*

'क्ष ' ने मुझे बताया '' पांडिचेरी में पैर रखने से चिरकाल पूर्व मुझे भगवती माता के साथ सतत संपर्क प्राप्त हो चुका था / मैं उन्हें केवल ध्यान या अन्तर्दर्शन में ही नहीं देखती थी अपितु अपनी पूरी उघड़ी आंखों के सामने भी ठोस रूप में देखा करती थी । मैं प्रायः ही उनसे बातचीत किया करती थी विशेषकर अपनी कठिन घड़ियों में जब के आकर मुझे बताया करती थीं कि मुझे क्या करना चाहिये इतनी बात अवश्य है कि जबतक मैंने इस स्थान के दर्शन नहीं किये तबतक मुझे यह मालूम नहीं था कि भगवती माता आश्रम की श्रीमां से भिप्र और कोई नहीं, और उन्होंने ही अपने को इस भौतिक साँचे में ढाल रखा है? '' हां तो मैं इतना अधिक व्यवहारवादी हूं कि ऐसी सब बातों पर

७९ 


  विश्वास नहीं कर सकता विशेषकर नमी आंखों से श्रीमां के दर्शन करने के उसके दावे पर जिसका अर्थ होगा - साधना में आगे बढ़े होना ।

 

पर इसमें असंभाव्य कुछ भी नहीं । इसका अर्थ केवल यही है कि उसने अपने आन्तर दिव्यदर्शन और अनुभव को बाह्य रूप दिया जिससे वह स्थूल आंखों से भी देख सके, पर देखती थी आन्तर दृष्टि ही और सुनती भी आन्तर श्रवण- शक्ति ही थी, न कि भौतिक दृष्टि या श्रवणशक्ति | यह काफी सामान्य बात है । यह '' आगे बढ़ी हुई '' साधना की सूचक नहीं । -'' आगे बढ़ी हुई '' इन शब्दों का अर्थ कुछ भी क्यों न हो, -वरन यह केवल विशेष क्षमता की सूचक है ।

२ -७ -१९ ३६

*

ये वस्तुएं (अपने आराध्य देवता के दर्शन करना और उनसे बातचीत करना) योगाभ्यासियों में सर्वत्र ही अतीव सामान्य रूप से देखने में आती हैं । इस आश्रम में साधक इतने अधिक बुद्धिप्रधान, सन्देहवादी और यथातथ्यता हैं कि इस प्रकार का अनुभव अधिक नहीं प्राप्त कर सकते | यहांतक कि जो लोग इसे विकसित कर सकते हैं वे भी वायुमण्डल में प्रबलता से छायी हुई बहिर्मुख और भौतिकताग्रस्त मनोवृत्ति के कारण वंचित हो जाते हैं ।

२ - ७ - ११३६ 

 *

यह बात साधना की एक विशेष अवस्था में उन लोगों के लिये बिलकुल सामान्य है जिनमें अपने आराध्य देवता के दशन करने या उनकी वाणी सुनने और कार्य या साधना के संबंध में उस इष्टदेव या इष्टदेव से सतत आदेश- निर्देश ग्रहण करने की क्षमता होती है । त्रुटियां और कठिनाइयां बनी रह सकती हैं, पर यह बात सीधे मार्गदर्शन की सत्यता में बाधक नहीं हो सकती । ऐसे दृष्टान्तों में गुरु की आवश्यकता यह देखने के लिये होती हे कि वह अनुभव, वाणी या अन्त दर्शन यथार्थ है या नहीं -क्योंकि झूठे मार्गदर्शन का प्राप्त होना भी संभव है । जैसा ' क्ष ' और ' ' को प्राप्त हुआ ।

८ - ७ - ११३६

८० 


  कल रात स्वन में मुझे माताजी का रूप दिखायी दिया 7 क्या वह वास्तविक था या उसमें केवल कल्पना ही कार्य कर रही थी?

 

 वास्तविक से तुम्हारा क्या मतलब है? वह स्वप्नानुभव में माताजी का रूप था । कल्पना केवल जाग्रत् मन से संबंध रखती है ।

३ - ७ - ११३३

*

 पर क्या मिथ्या शक्तियां माताजी का रूप नहीं धार सकतीं?

 

यदि मिथ्या शक्तियां माताजी का रूप धारों तो वह किसी बुरे उद्देश्य से होगा । यदि कोई आक्रमण नहीं हुआ या गलत सुझाव नहीं दिया गया तो तुम्हें यह कल्पना करने की जरूरत नहीं कि झूठी शक्तियों ने ही यह रूप धारा है ।

    नि:सन्देह, यह सदैव संभव है कि तुम्हारी अपनी चेतना की कोई वस्तु माताजी के विषय में स्वप्न रच ले या उनका आकार वहां ला खड़ा करे जब कि वे वहां स्वयं उपस्थित न हों । ऐसा तब होता है जब वह किसी और स्तर का अनुभव न होकर एक निरा स्वप्न हो, अर्थात् मन के बहुत से विचार और स्मृतियां आदि एकत्र कर दिये गये हों ।

' ' ११३३

*

 

  अवश्य ही, माताजी अपने भौतिक रूप के अतिरिक्त अन्य अनेक रूपों में प्रकट हो सकती हैं, ओर यद्यपि मैं उनसे कहीं कम अनेक-रूपधारी हूं तथापि मैं भी रूप धार सकता हूं । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि तुम किसी भी महाशय को मैं और किसी भी महिला को माताजी समझ सकते हो । तुम्हारे स्वम्नगत आत्मा को एक प्रकार का विवेक विकसित करना होगा । वह विवेक अपना कार्य चिस्नों और रूपों के आधार पर नहीं कर सकता, क्योंकि प्राणलोक के भिक्षुक लगभग हर एक वस्तु का अनुकरण कर सकते हैं - अत : उसे  (विवेक को) अन्तर्ज्ञानमय होना चाहिये ।

२३ - ५- १९३५

८१ 


  आपकी पुस्तक ''Bases of yoga '' (बसेस ऑफ योग '' योग के आधार '), में एक स्थान पर यह आता हे '' तुम माताजी के साथ ही बातचीत करते हो जो सदा तुम्हारे साथ और तुम्हारे अंदर हैं '' क्या आप कृपा करके मुझे समझा सकते हैं कि व्यक्ति माताजी के साथ कैसे बातचीत करता हे?

 

व्यक्ति वाणी या विचार को अपने अंदर बोलते हुए सुनता है और वह उत्तर भी अंदर -ही- अंदर देता है । इतना जरूर है कि यदि साधक में अहंभाव, कामना, मिथ्याभिमान, महत्त्वाकांक्षा के रूप में किसी प्रकार की असत्यहृदयता हो तो इस प्रकार की बातचीत उसके लिये सदा निरापद नहीं होती -क्योंकि तब वह अपने मन में स्वयं एक वाणी या विचार रचकर उसे माताजी पर आरोपित कर सकता है और वह वाणी या विचार उससे ऐसी प्रिय और खुशामद भरी बातें कहेगा जो उसे पथभ्रांत कर देंगे । या फिर यह भी हो सकता है कि वह किसी अन्य ' वाणी ' को माताजी की समझ बैठे ।

२ - ७ - ११३६

*

  क्या मनुष्य केवल अंदर से आनेवाली वाणी पर निर्भर कर सकता है और इस प्रकार माताजी के द्वारा परिचालित हो सकता हे ?

 

यदि वह माताजी की वाणी हो; पर तुम्हें इसका पक्का निश्चय होना चाहिये ।

७ - ७ - ११३३

*

 

   क्या यह तथ्य नहीं कि अन्तर में माताजी की वाणी सुनना और उसे उनकी करके पहचान पाना आसान है?

 

नहीं, अपने अंदर माताजी की वाणी को सुनना और पहचान पाना सुगम नहीं ।

८ - ७ - १९३३

*

 

 

कब व्यक्ति को अंदर से माताजी की वाणी सुनने के लिये तैयार कहा जाता है?

८२ 


जब उसमें समता । विवेक ओर पर्यापत यौगिक अनुभव हो - अन्यथा किसी भी वाणी को माताजी का समझ बैठने की संभावना रहती है ।

 ७-७-१९३३

*

  प्रणाम के समय माताजी की गोद में अपना सिर रखते हुए, '' एक?? वाणी दी । वह माताजी की लगी । क्या सचमुच में उन्होने

अंदर से कुछ कहा था या यह निरा मेरा भ्रम था ?

 

हो सकता है कि माताजी ने तुमसे कोई बात कही हो । पर इस समय उन्हें ऐसा याद नहीं पड़ता ।

२७ - ४ - ११३३

 ८३









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates