A collection of short prose pieces on the Mother and her four great Aspects - Maheshwari, Mahakali, Mahalakshmi, Mahasaraswati, along with 'Letters on the Mother'.
This volume consists of two separate but related works: 'The Mother', a collection of short prose pieces on the Mother, and 'Letters on the Mother', a selection of letters by Sri Aurobindo in which he referred to the Mother in her transcendent, universal and individual aspects. In addition, the volume contains Sri Aurobindo's translations of selections from the Mother's 'Prières et Méditations' as well as his translation of 'Radha's Prayer'.
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श्रीमाताजी की उपस्थिति
सतत उपस्थिति
हमेशा इस तरह रहो मानों तुम परात्पर प्रभु और भगवती माता की आंखों के एकदम नीचे हो । कोई ऐसा काम मत करो, कुछ भी ऐसा सोचने और अनुभव करने की चेष्टा मत करो जो भागवत उपस्थिति के लिये अनुपयुक्त हो ।
माताजी की व्यक्तिगत और विख्यात उपस्थिति
आपने लिखा हे : ' 'हमेशा इस तरह आचरण करो मानों माताजी तुम्हारी ओर ताक रही हों; क्योंकि वास्तव में के हमेशा उपस्थित रहती हैं '' आपने मुझे समझाया था कि इसका अर्थ यह नहीं है कि के भौतिक रूप में सर्वत्र उपस्थित रहती हैं क्योंकि यह संभव नर्ही हे परंतु मैंने जब इस विषय में माताजी से पूछा तो उन्होने कहा कि के सब स्थानों पर व्यक्तिगत रूप से उपस्थित रहती हौं भला इन विरोधी कर्तव्यों में सामंजस्य कैसे बेटाया जाये?
अगर ' भौतिक रूप से ' का मतलब तुम ' शरीर से ' -उनके दृश्य ठोस जड़ शरीर से -समझते हो तो यह स्पष्ट है कि ऐसा नहीं हो सकता । जब तुमने माताजी से वह प्रश्न पूछा था तब उन्होंने तुम्हारा यह मतलब नहीं समझा था -उन्होंने कहा कि वे सर्वत्र उपस्थित रह सकती हैं, और निश्चय ही उनका मतलब अपनी चेतना में उपस्थित रहने से था । एक चेतना ही -शरीर नहीं - -हमारे भीतर ' पुरुष ', ' व्यक्ति ' है, शरीर तो केवल चेतना के कार्य के लिये एक आधार और यन्त्र है । अपनी चेतना में माताजी व्यक्तिगत रूप से उपस्थित रह सकती हैं । विश्वगत रूप की उपस्थिति, निस् सन्देह, हमेशा रहती है और विश्वगत तथा व्यक्ति-गत एक ही सत्ता के दो स्वरूप हैं ।
२५-८-१९३६
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माताजी का लोगों के विचारों और कार्या को जानना
आपने कहा है? ' 'हमेशा इस प्रकार व्यवहार करो मानों श्रीमां तुम्हारी ओर ताक रही हो; क्योंकि वह सचमुच हमेशा उपस्थित रहती हैं '' क्या इसका अर्थ यह है कि श्रीमाताजी हमारे सभी मामूली विचारों को सदा ही जानती हैं अथवा जब वह एकाग्र होती हैं केवल तभी जानती हैं?
यह कहा गया है कि माताजी हमेशा उपस्थित रहती हैं और तुम्हारी ओर ताक रही हैं । इसका मतलब यह नहीं कि अपने भौतिक मन में वे हमेशा तुम्हारी ही बात सोचती रहती हैं और तुम्हारे विचारों को देखती रहती हैं । इसकी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि वे सर्वत्र हैं और अपने विश्वव्यापी ज्ञान के द्वारा सर्वत्र काय करती हैं ।
१२ - ८ - ११३३
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किस अर्थ में माताजी सर्वत्र हैं - क्या भौतिक स्तर पर होनेवाली सभी घटनाओं को के जानती हैं?
इस बात तक को कि आज लायड जार्ज ने क्या जलपान किया अथवा रूज- बैलट ने नौकरों के विषय में अपनी धर्मपत्नी से क्या कहा? भला क्यों माताजी को भौतिक स्तर पर होनेवाली सभी घटनाओं को मनुष्य के ढंग से '' जानना '' ही चाहिये? शरीर धारण करने पर उनका कार्य होता है विश्वशक्तियों की क्रियाओं को जानना और अपने कार्य के लिये उनका उपयोग करना; बाकी चीजों के संबंध में, जिन चीजों को जानने की उन्हें जरूरत होती है उन्हें वे जानती हैं -कभी तो अपनी आंतरिक सत्ता के द्वारा और कभी अपने भौतिक मन के द्वारा । अपने विश्वव्यापी आत्मा के अंदर उन्हें समस्त ज्ञान प्राप्त है, पर वे केवल उसी को आगे ले आती हैं जिसे आगे ले आने की आवश्यकता होती है, जिससे कि कार्य किया जा सके |
१३ - ८ - ११३३
किसी आदमी का कहना हे कि माताजी हमारी सभी भौतिक क्रियाओं
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को देखती हैं यह भला कैसे होता हे? क्या हमारे सभी भौतिक कार्य उनके मन पर प्रतिबिम्बित होते है और छायाचित्र की तरह के उन्हें देखती हैं अथवा जब हम लोग उन्हें करते हैं तब उसी समय वे उनकी चेतना में भी घटित होते हैं? पर क्या यह बात उन्हें बहुत घबरा देनेवाली और होगी? और यह क्या अत्यंत स्थूल प्रकार की कोई ''टेलीपैथी '' नहीं होगी?
इसका कुछ मूल्य नहीं है । लोग जो कुछ करते हैं उसे माताजी देख सकती हैं; उनके छायाचित्र माताजी सूक्ष्म स्थिति में, जो नींद या ध्यान से मिलती-जुलती हे, ग्रहण करती हैं अथवा साधारण स्थिति में उनके छायाचित्र या सूचनाएँ प्राप्त करती हैं; परंतु इस तरह अपने- आप जो कुछ आता है उसका बहुत-सा अंश अनावश्यक ही होता है और प्रत्येक चीज को हमेशा ग्रहण करना असह्य दुःख देनेवाला ही होगा, क्योंकि वह लाखों तुच्छ चीजों में चेतना को लगाये रखेगा; अतएव वैसा नहीं होता । अधिक महत्त्व की बात है उनकी आंतरिक अवस्था को जानना और मुख्यतः यही उनके पास आती है ।
२१ - ६ - ११३७
(हाल में घटी एक घटना के विषय में) मेरी ऐसी धारणा थी कि माताजी को ऐसी बातों का तुरंत ज्ञान हो सकता है । कुछ लोग तो यहांत
क कहते हैं कि के सब कुछ जानती हैं- भौतिक या आध्यात्मिक जो कुछ भी है वह सब- का- सब दूसरे यह मानते ने कि के केवल उन्हीं विषयों को जानती हैं जिनमें चेतना का उलझाव होता है जैसे कामुक चेष्टाएं इत्यादि पर भौतिक वस्तुओं के विषय में के उतना नहीं जानती
हे भगवान्! तुम यह आशा नहीं करते कि उनका मन सभी स्तरों पर तथा सभी लोकों में घटित हो रही सभी घटनाओं का तथ्य-निरूपक विश्वकोष हो? अथवा इस भूतल पर ही, उदाहरणार्थ, लॉयड जार्ज ने कल रात क्या खाना खाया था?
निः सन्देह, चेतना के विषयों को तो वे सदैव अपने बाह्यतम स्थूल मन से भी जानती हैं । स्थूल भौतिक तथ्य वे जान अवश्य सकती हैं पर ऐसा करने के लिये वे बाध्य नहीं । यह कहना ठीक होगा कि यदि वे किसी विषय पर एकाग्रता करें या उसकी ध्यान खींचा जाये
ओर वे उसे जानने का निश्चय
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कर लें तो वे उसे जान सकती हैं । किसी के द्वारा किसी घटना की सूचना उन्हें मिलने से पहले ही मुझे बहुधा उनसे पता चल जाता है कि क्या घटना घटी है । पर सामान्यतया वे ऐसा करने की परवाह नहीं करती |
१६ - ७ - ११३५
माताजी के ज्ञान के विषय में यह प्रश्न आज मेरे लिये और भी रोचक हो उठा उन्होने मुझे एक कुल दिया जिसका अर्थ है '' अनुशासन '' मुझे आश्चर्य होने लगा कि क्यों यह विशेष कुल दिया गया है; अंत में मुझे याद आया कि कल 'भ ' और ' य ' के साथ भोजन करने के मामले में मैंने ठीक अनुशासन का पालन नहीं किया था /
इस विषय में माताजी अपने सहजबोधों से परिचालित होती हैं जो उन्हें यह बताते हैं कि किसी विशेष क्षण किस फूल की आवश्यकता है या कौन-सा फूल सहायक होगा । कभी तो उस सहजबोध के साथ चेतना की विशेष अवस्था का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, कभी भौतिक तथ्य का प्रत्यक्ष बोध; पर केवल कोरा तथ्य ही, उदाहरणार्थ । साधारणतया, वह ऐसा विवरण नहीं देगा कि '' अमुक विशेष कार्य '' किया गया अथवा ' क्ष ' या ' य ' बीच में कैसे आये । यह नहीं कि ऐसा विवरण प्राप्त होना असंभव है, पर यह अनावश्यक है और जबतक आवश्यकता न हो तबतक ऐसा नहीं होता ।
१६ - ७ - १९३५
माताजी हमारे विचार जान सकती हैं ,पर क्या बे उन विचारों के ठीक- ठीक शब्द भी जान सकती हैं?
हां । यदि व्यक्ति का मन बहुत स्पष्ट हो तो; अन्यथा जो कुछ आता है वह केवल सार, या विचार का एक भाग या कोई सामान्य भाव ही हो सकता है ।
१९ - ५- ११३३
' अ ' के विषय में जो ?? ० लिखा है वह ठीक है... । वह यह नहीं
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समझती कि दूसरे उपायों से माताजी इन सब बातों को जानती हैं और कोई भी खबर जो उन्हें मिलती है वह केवल उनकी पहले से जानी हुई बात: में ही विशेष भौतिक यथार्थता जोड़ देती है ।
जब वह माताजी के विरुद्ध ऐसे-ऐसे विचार रखती है तब वह भला कैसे खुल सकती है? ये विचार अनिवार्य रूप में उसे माताजी के प्रभाव की ओर से बंद ही कर देंगे ।
माताजी ने उसे लिखा है कि ' य ' ने कुछ नहीं कहा था और उन्होंने बिना कोई खबर पाये स्वयं ' अ ' की आंतर सत्ता से ही उसके विषय में सारि बातें जान ली थी; उसकी आंतर सत्ता निरन्तर उनके पास आती है और उनसे कहती है अथवा जो कुछ उसकी प्रकृति में है उसे उन्हें दिखा देती है ।
इसके अतिरिक्त माताजी सूक्ष्म दर्शन के अंदर चीजों को देखती हैं और प्रणाम या अन्य समयों पर साधकों के विचारों को ग्रहण करती हैं... । परंतु माताजी इन अतिभौतिक सूचनाओं के आधार पर कभी कार्य नहीं करती, तबतक नहीं करती जबतक कि कोई भौतिक प्रमाण नहीं मिल जाता, जैसे कि इस प्रसंग में स्वयं पत्र से मिला । कारण, कोई भी आदमी उनके कार्य को नहीं समझेगा - भौतिक मन में रहनेवाले साधक उनके कार्य को निराधार बतलायेंगे, और जिनपर इसका असर पड़ेगा वे अपने गुप्त विचारों । भावनाओं और क्रियाओं को ज़ोरों से अस्वीकार करेंगे, जैसा कि पहले बहुत-से लोगों ने किया है । यह सब मैं खानगी तौर से तुम्हें बता रहा हूं जिससे कि तुम यह समझ सको कि ' अ ' के नाम लिखें माताजी के पत्रों का सच्चा आधार क्या है ।
१०-९-१९३६
माताजी कि अंशविभूतियां
आपके इस कथन का ठीक-ठीक अभिप्राय क्या है : '' सदा इस प्रकार आचरण करो मानों माताजी ओर ताक रही हो' क्योंकि के सचमुच में सदा उपस्थित रहती हैं ''?
माताजी की एक अंशविभूति प्रत्येक साधक के साथ हर समय विद्यमान रहती है । पुराने दिनों की बात है जब वे सारी रात समाधि में बिताया करती थी और आश्रम में कार्य नहीं करती थीं, वे अपने साथ उस सबका ज्ञान लेकर लौटा करता थीं भी किसी भी चाकरी के होता था | आजकल वैसा
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करने के लिये उनके पास समय नहीं ।
यह सब अत्यंत मनोरंजक है? और मैं समझता हूं स्वयं आपकी भी इतनी अंशविभूतियां हैं | अवश्य ही उनका उडेश्य होगा हमें संरक्षण प्रदान करना |
अपनी किन्हीं भी अंशविभूतियों के बारे में मुझे कुछ पता नहीं । जहांतक माताजी की अंशविभूतियों का संबंध है, वे वहां संरक्षण देने के लिये नहीं बल्कि व्यक्ति के साथ वैयक्तिक संबंध या संपर्क को सहारा देने के लिये उपस्थित हैं, और जहांतक वह उन्हें क्रिया करने दे वहां तक क्रिया करने के लिये भी ।
कृपया हमें अंशविभूतियों के विषय में समझने के लिये इन पर कुछ अधिक प्रकाश डलिये कैसे के वैयक्तिक संबंध को सहारा देती हैं? मैं समझता था कि सभी वैयक्तिक संबंधी सीधे माताजी के साथ होते है; किसी सहकारी के द्वारा नहीं जब 'छ ' कहता है कि उसे माताजी का भौतिक स्पर्श अनुभूत होता है तो उसका संपर्क किसके साथ होता है- माताजी या अंशविभूति? और फिर माताजी के जो विभित्र रूप हम स्वभों में देखते हैं के भी क्या उनकी अंशविभूतियां होते है?
'रन वस्तुओं के संबंध में लिखना नितांत ही कठिन है, क्योंकि तुम सब इनके विषय में महामूढ़ हो और पग-पग पर समझने में गलती करते हो । अंश- विभूति माताजी की कोई सहकारी नहीं, स्वयं माताजी ही होती हैं । वे अपने शरीर से बंधी नहीं, बल्कि अपने को जिस रूप में चाहें बाहर प्रकट कर सकती हैं (अपनी अंशविभूति के रूप में बाहर जा सकती हैं) । जो अंश बाहर जाता है वह अपने को उस व्यक्तिगत संबंध के स्वरूप के अनुकूल बना लेता है जो माताजी का किसी साधक-विशेष के साथ होता है और वह संबंध प्रत्येक साधक के साथ अलग- अलग होता है, पर ऐसा करने से उस अंशविभूति के
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स्वयं माताजी ही बने रहने में कोई बाधा नहीं पड़ती । उस अंश का साधक के समीप उपस्थित रहना उसके विषय में साधक की सचेतनता पर निर्भर नहीं करता । यदि प्रत्येक वस्तु साधक की उपरितलीय चेतना पर ही निर्भर करे तो कहीं भी दिव्य क्रिया के होने की संभावना नहीं रहेगी; मानव-कीट नित्य- शाश्वत काल के लिये मानव-कीट ही रहेगा और मानव-गर्दभ मानव-गर्दभ । कारण । यदि भगवान् पर्द के पीछे न रह सकते हों तो कैसे इनमें से कोई युग- युग तक भी अपने कीटपने और गर्दभपने के सिवा किसी और चीज से कभी भी सचेतन हो सकेगा?
('' जब ' क्ष ' कहता है कि उसे माताजी का भौतिक स्पर्श अनुभूत होता है तो उसका संपर्क किसके साथ होता है...?'' इस प्रश्न के सामने हाशिये में श्रीअरविन्द ने लिखा, '' माताजी के साथ - अंशविभूति उसमें सहायता करती है -उसका काम ही यही है । '' )
११ -७ - ११३५
माताजी जब अतिभौतिक स्तर पर कार्य करती हैं तो वे बाहर एक भिन्न प्रकार की अंशविभूति के रूप में प्रत्येक साधक के पास जाती हैं |
११ - १२ - ११३३
स्वप्नावस्था में होनेवाले अनुभव में हमें कभी- कभी माताजी के दर्शन होते हो क्या वह रूप उनकी अंशविभूति होता है या स्वयं उनका शरीर ही?
एक अंशविभूति । उनका भौतिक शरीर स्वप्नानुभव में भला कैसे दिखायी दे सकता है?
७-७-१९३३
ऐसा लगता है कि तीसरे पहर की नींद के समय बहुधा माताजी का संपर्क प्राप्त होता है । क्या तक माताजी ही अपनी अंशविभूति भेजती हैं?
हां, या वास्तव में उनका कोई अंश सदा ही तुम्हारे साथ रहता है ।
१४-१२-१९३३
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माताजी की उपस्थिति और भागवत चेतना
क्या माताजी की उपस्थिति ओर भागवत चेतना में कोई भेद हे?
भागवत चेतना को मनुष्य निवैयक्तिक तौर पर, केवल एक नयी चेतना के रूप में ही, अनुभव कर सकता है । माताजी को उपस्थिति इससे अधिक कुछ है - मनुष्य साक्षात् उन्हींको अपने अंदर या ऊपर उपस्थित या उसे चारों ओर से घेरे हुए अनुभव करता है या ये सभी चीज़ें एक साथ ।
८-७ - ११३५
अंतर में माताजी की उपस्थिति
उसे अपने भीतर जाना होगा और अंतर में भगवती माता की ओर हृदय के पीछे चैत्य पुरुष की उपस्थिति को ढूंढ निकालना होगा और फिर वहीं से ज्ञान आयेगा और आंतरिक बाधाओं को विलीन कर देने की समस्त शक्ति आयेगी ।
माताजी की सतत उपस्थिति अभ्यास के द्वारा आती हे; साधना में सफलता पाने के लिये भागवत कृपा अत्यंत आवश्यक है, पर अभ्यास ही वह चीज है जो कृपा-शक्ति के अवतरण के लिये तैयारी करती है ।
तुम्हें भीतर की ओर जाना सीखना होगा, केवल बाहरी चीजों में ही रहना बंद करना होगा, मन को स्थिर करना होगा और अपने अंदर होनेवाली माताजी की क्रिया के विषय में सचेतन होने की अभीप्सा करनी होगी ।
हमारा विश्वास है कि माताजी हम सबके अंदर साधना कर रही हैं विशेषकर हृदय के द्वारा; पर यह केसी बात है कि हम इसे विरले ही अनुभव करते हैं ? अवश्य ही हमारे अंदर कोई पर्दा है
यह एक ऐसा पर्दा है जो तब हट जाता है जब माताजी की क्रिया और उनकी
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उपस्थिति सब समय सचेतन रूप से अनुभूत होती है ।
७-१-१९३५
माताजी की ठोस उपस्थिति को मनुष्य सब समय कैसे और कब, अनुभव कर सकता है?
यह प्रथम तो चैत्य की सतत क्रिया का विषय है और दूसरे भौतिक सत्ता के परिवर्तन का तथा आंतरिक अधिभौतिक अनुभव की ओर उसके खुलाव का । प्राण और उसके उपद्रवों के अतिरिक्त भौतिक सत्ता यौगिक चेतना और अनुभव की अविच्छिन्न धारा को स्थापित करने में प्रधान बाधा है । यदि भौतिक सत्ता पूर्णतया रूपांतरित -उद्युक्त और सचेतन -हो जाये तो स्थिरता और अविच्छिन्नता सुलभ हो जाती हैं ।
१६ - १० - ११३३
साधना में यह बात बिलकुल ठीक है ओर ठीक चेतना का ही अंग है कि तुम हृदय में माताजी की ओर आकर्षण अनुभव करो और उनकी उपस्थिति के सूक्ष्म दर्शन एवं साक्षात्कार के लिये अभीप्सा करो । किन्तु इस अनुभूति के साथ किसी प्रकार की बेचैनी नहीं जूड़ी होनी चाहिये । वह अनुभूति शांत रूप से तीव्र होनी चाहिये । तब यह अधिक आसान हो जायेगा कि तुम्हें उपस्थिति का संवेदन हो और वह तुम्हारे अंदर बढ़ता जाये ।
उपस्थिति और प्रतिमूर्ति
क्या यह सच है कि जब उपस्थिति (प्रतिमूर्ति) हृदय में दिखायी देती है तो निम्न प्रकृति की सभी आदतें और क्रियाएं विलुप्त हो जाती हैं?
प्रतिमूर्ति ओर उपस्थिति एक ही वस्तु नहीं । मनुष्य प्रतिभूति को देखे बिना भी उपस्थिति को अनुभव कर सकता है । परंतु तुमने जिन परिणामों का उल्लेख किया है उन्हें उत्पन्न करने के लिये हृदय में ' उपस्थिति ' ही पर्यंत नहीं, उसके लिये यह आवश्यक है कि ' उपस्थिति ' संपूर्ण चेतना में हो और माताजी की शफरी प्रकृति की समर क्रियाओं पर शासन करे |
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सामने माताजी की उपस्थिति
शाम के ध्यान में हृदय से समर्पण की तीव्र क्रिया हो रही थी तुरत मुझे अपने सामने माताजी की उपस्थिति का बोध हुआ और पैरों के नीचे से पैरों से मूलाधार चक्र से अभीप्सा उठने लगी; हृदय से समस्त सत्ता से एक स्वेच्छाकृत और प्रेमपूर्ण समर्पण का भाव मानों संसिद्धि होने के लिये निकल रहा था । में समझता है कि चैत्य पुरुष सामने आ गया था! पर मैंने माताजी की उपस्थिति को अपने सामने क्यों अनुभव किया अपने भीतर क्यों नहीं?
उस समय तुम्हें चैत्य-पुरुषोचित अवस्था प्राप्त हुई थी और उसका मतलब है कि चैत्य-पुरुष का प्रभाव सामने आ रहा है । जब पूर्ण चैत्य उद्घाटन हो जाता है तभी उपस्थिति अंदर आती है । उपस्थिति के सामने होने का यह अथ है कि वह तुम्हारे साथ है पर अभी भीतर प्रवेश करना उसके लिये बाकी है ।
१३ - ७ - १९३७
हृदय की धड़कन में उपस्थिति का अनुभव
पर मैं कोई कारण नहीं देखता कि क्यों मैं उस अनुभव को भावुकता कहूं और यह समझूं कि हृदय की धड़कनों आदि में माताजी की उपस्थिति का तुम्हारा बोध झूठा था । तुम्हारे चैत्य पुरुष ने ही तुम्हें यह सुझाव दिया था और उसका प्रत्युत्तर यह सूचित करता है कि चेतना तैयार थी । माताजी ने अनुभव किया था कि तुम्हारे अंदर कुछ घटित हो रहा है और यह अनुभव किया कि यह किसी उपलब्धि का आरंभ है -वे उसे प्रोत्साहित कर रही थीं; उन्होंने उसे निरुत्साहित नहीं किया । अगर वह कोई गलत या प्राणिक क्रिया होती, तो उन्होंने उस तरह अनुभव न किया होता ।
१३ - ८ - ११३४
दिन के समय उपस्थिति का अनुभव
अगर तुम दिन के अधिकतर भाग में माताजी की उपस्थिति को अनुभव करते से तो इसका अर्थ यह है कि वास्तव में तुम्हारा चैत्य पुरुष क्रियाशील हो रहा है और वही इस तरह अनुभव कर रहा है । क्योंकि चैत्य पुरुष की क्रिया के
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बिना यह संभव नहीं होता । अतएव तुम्हारा चैत्य पुरुष मौजूद है और वह बिलकुल दूर नहीं है ।
१४ - ३ - १९३५
नींद में उपस्थिति का अनुभव
यह (नींद में माताजी की उपस्थिति का अनुभव) स्वभावत: जागृत अवस्था में उपस्थिति के बोध के बाद आता है, पर इसमें थोड़ा समय लगता है ।
११ - १ - ११३५
क्या व्यक्ति निद्रा में भी माताजी की उपस्थिति के प्रति पूर्णतया जाग्रत् हो सकता है?
ऐसा होता अवश्य है । पर साधारणत: केवल तभी जब अंतरात्मा की क्रिया अपने पूरे जोर पर हो ।
काम में उपस्थिति का अनुभव
अधिकांश लोगों के लिये काम के साथ-साथ माताजी की उपस्थिति को अनुभव करना आसान नहीं है -वे अनुभव करते हैं मानों वे काम कर रहे हों, मन काम में व्यस्त होता जाता है और समुचित निष्कियता या स्थिरता नहीं रख पाता ।
माताजी की उपस्थिति और एकता का बोध
यह कोई आवश्यक नियम नहीं है कि सबसे पहले मनुष्य को उपस्थिति का अनुभव प्राप्त करना चाहिये और फिर उसके बाद ही वह यह अनुभव कर सकता है कि वह माताजी का है । बल्कि अधिकतर यह होता है कि इस (उनका होने के) अनुभव के बढ़ने से ही वह उपस्थिति आती है । क्योंकि यह अनुभव आता है चैत्य चेतना से और उस चैत्य चेतना के बढ़ जाने से ही अंत में सतत उपस्थिति का बना रहना संभव होता है । यह अनुभव चैत्य पुरुष से आता है और आंतर सत्ता का जहांतक संबंध है यह सत्य है -इसका अभी
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तक संपूर्ण सत्ता में सिद्ध न हो पाना इसे ' कल्पना ' नहीं बना देता -बल्कि इसके विपरीत । जितना ही अधिक यह बढ़ता है उतनी ही अधिक समस्त सत्ता के इस सत्य को चरितार्थ करने की संभावना भी बढ़ जाती है । आंतर भाव बाहरी चेतना के ऊपर अपना अधिकाधिक अधिकार जमाता जाता है और उसे इस तरह फिर से गढ़ता है कि वह यहां भी एक सत्य बन जाये । यही है यौगिक रूपांतर के अंदर कर्म का अटल सिद्धांत -जो कुछ सत्य है वह बाहर आ जाता है, मन, हृदय तथा संकल्पशक्ति पर अपना अधिकार जमा लेता है और उनके द्वारा बाह्य अंगों के अज्ञान के ऊपर विजयी होता तथा वहां भी आंतर सत्य को प्रकट करता है ।
१६-९-१९३६
मैंने माताजी को क्रौंच में एक प्रार्थना लिखी | उन्होंने उसका यह अन्तर दिया :(Ouvre ton Coeur et tu me trouveras déjà lá.) (''अपना हृदय खोलो और वहां तुम पहले से ही उपस्थित पाओगे') इसका ठीक-ठीक अभिप्राय क्या है?
माताजी का अभिप्राय यह था कि जब हृदय का कुछ उन्मीलन हो जाता है तो तुम देखते हो कि शाश्वत एकत्व वहां सदा से ही था (वही एकत्व जिसे तुम अर्धावस्था ' आत्मा ' में सदैव अनुभव करते हो ) ।
कुछ साधक कहते हैं कि उन्हें माताजी के साथ एकत्व प्राप्त है '' सदेह है कि यह माताजी के साथ समीपता की उस अनुभूति से अधिक कुछ है जो उन्हें कमी-कमी प्राप्त होती हो /
में समझता हूं कि वे माताजी की उपस्थिति को अनुभव करने का यत्न कर रहे हैं, इसलिये यदि उन्हें समीपता की किसी प्रकार की अनुभूति प्राप्त होती है तो वे उसे एकत्व कहते हैं । पर निः सन्देह वह एकत्व की ओर एक पगमात्र है एकत्व उससे कहीं अधिक कुछ है ।
५-३-१९३४
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कल आपने लिखा था: ''उन्मीलन केवल अन्तर्दर्शनों से नहीं मापा जाता /'' बिलकुल ठीक पर शरीर के चारों ओर सूयॅ और चन्द्र की किरणों के धूल-मिलकर एक हो जाने की अनुभूति अवतरण की और अपने अंदर पीछे तथा ऊपर माताजी की उपस्थिति की अनुभूति क्या एक असाधारण दिग्दर्शन और अनुभव नहि? क्या यह माताजी के प्रति पर्यापत उद्घाटन हुए बिना प्राप्त हो सकता हे?
हर ओर सूर्य और चांद को देखना या चारों ओर सर्वत्र माताजी की उपस्थिति अनुभव करना असाधारण क्यों होना चाहिये? ऐसे अनेकों साधक हैं जिन्हें यही या ऐसे अनुभव हुए हैं । सदा-सर्वदा इसी प्रकार माताजी की उपस्थिति अनुभव करना असाधारण हो सकता है । परंतु समय-समय पर इस प्रकार के अनुभव तो बहुतों को हो चुके हैं ।
१५ -१ - १९३६
ध्यान के समय मुझे माताजी की चेतना के साथ एक प्रकार की एकता का अनुभव होता है) पर इन दिनों ध्यान में गहरे जाना मेरे लिये जरा भी संभव नहीं होता क्या ध्यान किये बिना एकत्व की यह अनुभूति प्राप्त करना संभव नहीं?
सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हे चेतना का वह परिवर्तन जिसका एक अंग है एकत्व की यह अनुभूति । ध्यान में गहरे जाना तो एक साधनमात्र है और यदि महान् अनुभव इसके बिना ही आसानी से आ जाएं तो यह सदा आवश्यक नहीं होता ।
८-४ - ११३४
माताजी को पत्र लिखना और उनकी उपस्थिति का अनुभव करना
माताजी की उपस्थिति या निकटता का अनुभव करना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि तुम उन्हें पत्र लिखते हो या नहीं । बहुत से लोग, जो बार-बार लिखते हैं, उसे अनुभव नहीं करते, कुछ लोग, जो प्रायः नहीं लिखते, उन्हें सर्वदा समीप अनुभव करते हैं ।
११-६-१९३६
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माताजी की उपस्थिति का आच्छादित हो जाना
माताजी की उपस्थिति हमेशा रहती ही है; पर तुम यदि स्वयं अपने ही ढंग से - अपनी निजी भावना, वस्तुओं के विषय में अपनी निजी धारणा, वस्तुओं के प्रति अपनी निजी इच्छा और मांग के अनुसार कार्य करने का निश्चय करो तो यह बिलकुल संभव है कि उनकी उपस्थिति आच्छादित हो जाये; वास्तव में स्वयं वे तुम्हारे पास से अलग नहीं हट जातीं, बल्कि तुम्हीं उनके पास से पीछे चले जाते हो । पर तुम्हारा मन और प्राण इसे स्वीकार नहीं करना चाहते, क्योंकि अपनी ही गतियों का समर्थन करना बराबर ही उनका अपना पेशा रहा है । और चैत्य पुरुष को उसका पूर्ण अधिकार दे दिया गया होता तो ऐसा न होता; उसने आच्छादन का अनुभव किया होता, बल्कि उसने तुरत यह कहा होता, '' अवश्य मेरे अंदर ही कोई भूल रही होगी, मेरे अंदर कुहासा उत्पन्न हो गया है, '' और उसने कारण को खोजा और पा लिया होता ।
२५ - ३- ११३२
जिस उपस्थिति के चले जाने के कारण तुम्हें दुःख हुआ है वह तभी अनुभूत हो सकती है जब कि आन्तर सत्ता समर्पित रहना जारी रखे और बाहरी प्रकृति को आन्तर आत्मा के साथ समस्वर बनाये रखा जाये अथवा कम-से-कम उसके स्पर्श के अधीन रखा जाये ।
परंतु तुम यदि ऐसे कार्य करो जिन्हें तुम्हारी आन्तर सत्ता पसंद न करे तो अंत में यह अवस्था धीमी हो जायेगी गैर प्रत्येक बार उपस्थिति को अनुभव करने की संभावना कम होती जायेगी । अगर माताजी की कृपा को बनाये रखना है और उसे फलोत्पादक होना है तो तुम्हें शुद्धि के लिये एक सबल संकल्प रखना चाहिये और एक ऐसी अभीप्सा रखनी चाहिये जो न कभी ढीली पड़े और न बंद हो ।
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