Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
११ नवंबर १९६७
तो?
'क' : अभी हाल मे आपने 'ख' की चिट्ठी' का जो उत्तर दिया था उसका अर्थ दो प्रकार ले लगाया क्या है
कुछ लोग पहले वाक्य पर जोर दे रहे हैं जो है : ''विभाजन तुरंत गायब हो जाये तो बहुत अधिक अच्छा होना? '' उनका ख्याल है कि बुरे सकृत् क्वे लिये एक ही संगठन अपनाकर यानी वर्तमान मुक्त-प्रगति की कक्षाओं को सामान्य करके या समझौता करके भौतिक स्तर पर हमें इस विभाजन को हटाने का प्रयास करना चाहिये?
दूसरों का कहना है कि विशेष रूप से मनोवैज्ञानिक भेदों को हटाने का सवात्श्र है और सबसे पहले मुक्त-प्रगति की भावना को व्यापक करना चाहिये आपके उत्तर के अगले हिस्से को आधार बनाकर दे समझते हैं कि जो कक्षाएं अबतक रूढ़िगत मानों का अनुसरण करती आयी हैं उनके परिवर्तन के लिये कुछ समय की आवश्यकता है और हम बाद मे कुछ निखद करेंगे
उत्तर देने से पहले, सबसे पहले, मैं ठीक-ठीक यह जानना चाहूंगी, ठीक-ठीक, व्यावहारिक और भौतिक रूप से जानना चाहूंगी कि भेद क्या है ।
मेरा विचार हैं कि ''मुक्त-प्रगति-पद्धति' ' मै ऐसा नहीं है कि विद्यार्थी बैठे हों और अध्यापक मंच सें सारे समय भाषण देता रहे; विद्यार्थी तटस्थ भाव से अपनी-अपनी मेज़ पर बैठे हों । वे अपना मनपसंद काम कर रहे हों और अध्यापक कहीं भी, किसी कमरे मे या किसी विशेष जगह पर हो । विद्यार्थी को कोई प्रश्र पूछना हो तो वह उसके पास जाये । मै तो यहीं समझती हू, बिलकुल...
'ख' : ठीक ऐसा ही है माताजी !
तो अब, पुरानी पद्धति को जारी रखने के लिये यह जरूरी हैं कि सभी विद्यार्थी कतार बाधे बैठे रहें और अध्यापक अपने मंच पर बैठा हो, यानी, ऐसी स्थिति हो जो बिलकुल हास्यास्पद है । मुझे अच्छी तरह याद हैं, जब मैं 'क्रीड़ांगण' मे जाया करती थी, मुझे बड़ा अच्छा लगता था जब मै बैठती थी और सब लोग मेरे इर्द-गिर्द होते थे, हम स्वतंत्र होते थे... । लेकिन मेज़, मंच, ऐसे विद्यार्थी जो जड़ हुए हों... । दें
१ 'शिक्षा-केंद्र' के पांच अध्यापकों के साथ बातचीत ।
२ देखिये पृ० १६० ।
बिलकुल भौतिक रूप मे कह रहीं हूं, मनोवैज्ञानिक रूप से नहीं; फलस्वरूप, अगर यह बदल जाये तो भी बहुत बड़ा सुधार होगा ।
ऐसा न हो कि सभी विद्यार्थी, इस तरह लगभग पंक्ति बनाकर आयें, और फिर हर एक अपनी-अपनी जगह बैठ जाये, फिर अध्यापक आकर बैठे... । तब, अगर वे सभ्य शिष्ट हों तो सभी विद्यार्थी उठ खड़े हों (हंसी), अध्यापक बैठ जाये और अपना भाषण आरंभ कर दे । विद्यार्थी जिस किसी चीज के बारे मे सोचते रहें, उनका ध्यान चारों तरफ घूमता रहे और फिर अगर उनकी मर्जी हों तो अध्यापक की बात पर कान दें । हां तो, यह समय बरबाद करना है , बस यहीं ।
यह चीज बहुत, बहुत, बहुत भौतिक और व्यावहारिक हो इसे तुरंत बदला जा सकता हैं । अध्यापक कोई कोना या कोई जगह या छोटा कमरा चुनता है-मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानती, लेकिन मेरे लिये यह सब बराबर है- ऐसा कोई स्थान जहां विद्यार्थी आकर उससे सलाह कर सकें, वह चाहे उसी कमरे में हो या साथ के कमरे में । स्वयं अध्यापक इधर-उधर की बातें सोचने में नहीं, विद्यार्थियों के प्रश्रों के उत्तर तैयार करने मे अपना समय मजेदार ढंग से लगा सकता हैं ।
यह तो तुरंत किया जा सकता है, हैं न? लो, बस ।
अब, यह जरूरी नहीं है कि सभी दल एक हीं नाम अपनाये । यहीं... मनुष्य में एक प्रकार की वृत्ति होती है... आह! उसे हम शिष्टता के साथ... भेल-धसान कह सकते हैं, हैं न... । हमेशा उन्हें... पथ-प्रदर्शन करने के लिये किसी-न-किसी की जरूरत होती है ।
विद्यार्थी को स्कूल मे इस तरह न आना चाहिये मानों वह किसी बहुत हीं उबाऊ चीज के लिये आ रहा हों जिससे बचा नहीं जा सकता, बल्कि इस दिष्टि से आना चाहिये कि वहां कोई मजेदार चीज करने की संभावना हो सकतीं हैं । अध्यापक को इस विचार के साथ स्कूल में रहना या आना नहीं चाहिये कि वह केवल आध घंटे या पैंतालीस मिनट तक वह चीज सुनाने जा रहा है जिसके लिये उसने थोडी-बहुत तैयारी की हैं, जो खुद उसे भी उबाऊ लगती है, और फलस्वरूप वह विद्यार्थियों का मन नहीं बहला पाता, बल्कि उसे बहुत-से रूप लेने की प्रक्रिया में छोटे-छोटे व्यक्तित्वों के साय मानसिक- और अगर संभव हो तो ज्यादा गहरे- संपर्क में पैठने की कोशिश करनी चाहिये, ऐसे व्यक्तित्वों के साथ जिनमें, हम आशा करते हैं, कुछ जिज्ञासा हों । तो उसे इनकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर सकना चाहिये । बहुत विनम्र भाव से, इस बात के प्रति सचेतन होना चाहिये कि वह काफी नहीं जानता और उसे अभी बहुत कुछ सीखना हैं; पर किताबों से नहीं सीखना हैं-उसे जीवन को समह्मने की कोशिश करके सीखना हैं ।
तब तुम्हारे काम का एक और हीं ढांचा होगा । मै नहीं जानती... तुम विद्यार्थियों को चीजें बाँटते हो
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'क' : मधुर मां मैं आपको अभी बतलाता हूं कि हम किस तरह काम करनेवाले हैं यह एक सर्वागीण स्वतंत्रता हैं...
ठीक 'है, ठीक है । अब कहते चलो । अपना प्रश्र ।
'क' : बहरहाल हमारी नयी दृष्टि मे और कुछ व्यावहारिक कारणों ये मी सैकड़ों विद्यार्थियों क्वे लिये एक ही संगठन की कल्पना से की जा सकतीं है विशेष विशेष लय से इसलिये क्योंकि हम बच्चे के विकास के लिये आवश्यक घनिष्ठता स्थापित करना चाहते हैं जब हमने 'म' के साथ इस समस्या पर विचार किया था ती हमने परिवार की रचना के बारे मे सोचा था यानी ज्यादा-से-ज्यादा १८० से २०० बच्चों के दल हरे जिनके संगठन का लक्ष्य एक ही हो और जिसमें तथाकथित माध्यमिक शिला के स्तर तक के बच्चों के विकास क्वे लिये सारी सुविधाएं हरे लेकिन साथ-ही-साथ कुछ हद तक हर फल की मौलिकता बनी रहे
इन दलों मे निश्चय ही लेन-देन तथा संपर्कों की शायद कुछ सामूहिक क्रिया-कलापों की मी सारी समावनाए रहेगी जो उच्चतर विद्यालय तक बढ़ती होगी ! उसके बाद पक और संगठन आयेगा जो विश्वविद्यालय के जीवन के विशिष्टीकरणों के अनुसार होगा !
सामान्य स्तर पर एकता रखते हुए मी हम हंस तरह पक जीवित-जाग्रत विचित्रता को बनाये रखेंगे हसके बारे मे आपका क्या विचार हैं?
ठीक है । इतना काफी है । यह अच्छा है । यह सिद्धांत है न?
'क' : जी हां माताजी ?
यह सिद्धांत है और अब, व्यावहारिक स्तर पर उतरें तो तुम्हारे पास कुछ कमरे हैं, और वह सब... । तुम किस तरह.
'क' : माताजी उसे जारी रखने क्वे बारे मैं मैं अपनी कलाओं की बात कर रहा हूं यानी जो अबतक?
बहुत अच्छा ।
( क ' '' मुक्त-प्रगति '' की कक्षाओं का लंबा विवरण देता हैं ।)
यह अच्छा हैं, अच्छा हैं । तो तुम क्या चाहते हो?... यह अच्छा हैं । लेकिन इसे निक्षय ही व्यापक बना सकते हैं!
'क'. मधुर मर हमें थोड़ा-सा संकोच हो खा है क्योंकि कठिनत कक्षओं ये ऐसे बच्चे हैं- स्वभावत: थोड़े बड़े - जिन्होने इस तरीके से काम करना नहीं सीख ? है इसलिये हम सोच रहे थे कि पिछली चिह में आपने जो लिखा था उसके मुताबिक परिवर्तन के लिये कछ समय दें और अगर जैसा कि आपने सुझाव दिया था उदखरण के लिये तीन महीने के अंत मे स्थिति ज्यादा तेज विकास के लिये अनुकूल न हो तो हम बदल लेंगे ।
('ख' से) लेकिन तुम, उदाहरण के लिये, तुम जो कर रहे थे उसकी जगह क्या करना चाहते हो?
'ख' : सिद्धता-रुप मंच वही जिसका 'कुं ने प्रस्ताव रखा है !
हां !
'ख' : बस फर्क इतना है कि दोपहर की अध्यापक पहले की तरह ही निद्रित समय पर विद्यार्थियों से मिलना चाहते हैं?
निश्रित समय पर? विद्यार्थी शिक्षित समय पर स्कूल आते हैं, आते हैं न?
'ख' : दोपहर को तीन अंतर होत्री रोज?
तीन अंतर?
'ख' : चालीस या पचास मिनट क्वे तीन अंतर? यानी दोपहर को हम वही रखना चाहते हैं जो पहले थर वही सिद्धांत
तीन अंतर? देखें...
'ख'. लगातार तीन कक्षाएं माताजी?
स्कूल निश्चित समय पर खुलता है, है न ? विद्यार्थियों को उस समय वहां उपस्थित रहना चाहिये । है जिस किसी समय नहीं आ संकेत ।
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'क ': जी हां माताजी
... क्योंकि ''मुक्त-प्रगति'' का अर्थ अनुशासन का अभाव नहीं है ...
'' 'क'. नहीं नहीं यह तो सु निशित हो
ऐसा न हो कि बिधार्थी स्वतंत्रता के बहाने आध घंटा देर से आये, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता स्वतंत्रता नहीं हैं, वह बस, अनुशासनहीनता है । यह जरूरी है कि हर एक के लिये सख्त अनुशासन हों । लेकिन बच्चा अपने-आपको अनुशासित करने मे समर्थ नहीं है, उसे अनुशासन का अभ्यास देना पड़ेगा । फलस्वरूप यह जरूरी हैं कि वह एक ही समय पर उठे, एक हीं समय पर तैयार हो, और एक हीं समय पर स्कूल आये । यह तो अनिवार्य है, वरना एक असंभव अस्तव्यस्तता हो जायेगी ।
'क' : पौने आठ बजे माताजी
ठीक हैं, तब स्कूल सचमुच आठ बजे खुलता है ।
'क' : पौने आठ बजे
नहीं । स्कूल, फाटक पौने आठ बजे खुलते हैं ।
'क' : जी नहीं जी नहीं... कक्षाएं पौने आठ बजे शुरू होते हैं !
ओह! बे पौने आठ बजे शुरू होती हैं । और खत्म होती हैं?
'क' : साढ़े ग्यारह बजे
सादे ग्यारह । ('ख' सें) तो तुम कहते हो कि दोपहर को तुम...
'ख' : थे स्कूल आयेंगे एक बजकर पचास मिनट पर !
और स्कूल से कितने बजे जायेंगे?
'ख': चार बजे
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चार बजे । 'क्रीड़ांगण में' उन्हें कितने बजे रहना पड़ता हैं?
'क' : साढ़े धार बजे लगभग ऐसा द्वै माताजी!
'ख' : स चार या पांच
' क ' : कमी- कमी पांच बजे
जब वे जाते हैं तो खाते हैं, उन्हें कुछ खाना दिया जाता है । साढ़े चार बजे । हां, यह संभव है ...
'ख' : काना साढ़े तीन ले सादे वार तक दिया जाता है माताजी
यह संभव है, अगर वे बहुत नियमित हों तो । लेकिन मैं समझना चाहती हूं । ''तीन अंतर' ' का मतलब है... एक द्वि अध्यापक बच्चों के तीन अलग-अलग दल लेता है, या वही विद्यार्थी तीन अलग-अलग अध्यापकों के पास जाते हैं और अध्यापक हर एक को अलग से पढ़ता है ।
'ख' : नहीं मधुर मर यह कुछ अत्हम हो
अपनी बात स्पष्ट करो । तुम्हारी कक्षा में कितने बिधार्थी हैं?
'ख' : लगभग ढेड सौ !
डेढ़ सौ! ठीक है । तो डेढ़ सौ विद्यार्थी आते हैं । फिर क्या होता है ?
'ख' : हर एक के लिये एक शिक्षित कक्षा होगी जहां उसे जाना होगा
डेढ़ सौ ? एक कक्षा में डेढ़ सौ! यह तो असंभव है!
'ख' : एक कक्षा मे नहीं हम उन्हें कक्षाओं में बांट देते हैं फ्रेंच के लिये अंग्रेजी क्वे लिये अलाय-अत्हम स्तरों पत
ओह! तो सब एक ही स्तर के नहीं हैं ।
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'ख' : पांचवीं ले दसवीं तक?
ओह ओह, ओह! और तब डेढ़ सौ विद्यार्थियों के लिये कितने अध्यापक होंगे?
'ख' : तीस अध्यापक लमभम तीस
तीस अध्यापक । अच्छा । तो फिर क्या होता हैं ? तुम्हारे पास कितनी कक्षाएं हैं? कितने कमरे?
'ख' : लगभग पन्द्रह या सोलह कमरे हैं!
तो दोपहर को तुम क्या पढ़ाते हो ? देखो, क्या निश्चित विषय पढ़ाया जाते हैं या उसी प्रकार का काम होता है ?
'क' : माताजी अगर आप अनुमति दें तो... हमारे लिये फर्क यह होगा कि हम पूरी स्वतंत्रता चाहते हैं जब कि दे पहले की तक कुछ हद तक निमित कक्षाएं ही चलना चाहते हैं
शिक्षित कक्षाएं?
'क' : यानी एक निर्धारित स्तर बच्चे की निर्धारित संख्या निर्धारित अध्यापिका ...
ओह! तो अध्यापक का सिखाते का तरीका बदलेगा, लेकिन विशेष बच्चों को वह विशेष विषय पढ़ायेगा...
'क' :... उन बच्चों को उस समय वहां आना ही होगा !
हां, हां । यह ठीक है । यह चल सकता है । केवल इसका मतलब है कि तुमको... । लेकिन उस वक्त तुम लोग सिखाते क्या हो? भाषाएं?
'क' : जी हुई विशेष रूप से भाषाएं माताजी !
ओह ! तो यह केवल भाषाओं के लिये हैं ।
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'क'. यह केवल भाषाओं के लिये है !
अब मै समझी । तो इन डटे सौ विधार्थियों के लिये कितनी भाषाएं होगी?
'ख' : सिद्धांत: तीन : अंग्रेजी फेंच और उनकी अपनी मातृभाषा !
ओ! तब तो बहुत-सी भाषाएं हैं ! बंगाल, गुजराती, हिन्दी हैं और फिर तमिल, तेलुगु । इतने मे ही पांच हो गयीं ।
'ख' : संस्कृत
वह तो... । यह भाषा सबको सिखनी चाहिये । विशेष रूप से उन सबको सिखनी चाहिये जो यहां काम करते हैं... पंडितों की संस्कृत नहीं... सबको, सबको संस्कृत सिखनी चाहिये, चाहे उनका जन्मस्थान कोई भी क्यों न हो ।
'क' : माताजी सिद्धांत: यह वही चीज जिसके बारे मे हम विचार कर रहे है अगले साल सभी बच्चों को उनकी मातृभाषा के अशिरस्क संस्कृत प्रयोगी !
हां । लेकिन पांण्डित्य के स्तर की संस्कृत नहीं, बल्कि वह संस्कृत, वह संस्कृत- कैसे कहूं? - जो भारत की सभी भाषाओं के लिये द्वार खोलती है । मेरे ख्याल सें यह अनिवार्य है । आदर्श तो यह होगा कि, कुछ सालों में, एक नवविकसित कायाकल्प- प्राप्त संस्कृत, यानी, बोलचाल की संस्कृत भारत की प्रतिनिधि भाषा हो-भारत की सभी भाषाओं के पीछे संस्कृत दिखायी देती हैं और ऐसा हीं होना चाहिये । जब हमने इसके बारे मे बातचीत की थीं तो श्रीअरविन्द का यहीं विचार था । क्योंकि अब तो अंग्रेजी सारे देश की भाषा है, लेकिन यह अस्वाभाविक है । बाकी जगत् के साथ संबंध को ज्यादा सरल बनाने के लिये यह बहुत अच्छी हैं, लेकिन जिस प्रकार हर एक देश की अपनी भाषा होती है, उसी प्रकार यह जरूरी है कि... । और यहां, जैसे ही हम एक राष्ट्रभाषा की चाह करते हैं कि सब लोग झगड़ने लगते हैं । हर एक चाहता हैं कि उसी की भाषा राष्ट्रभाषा बने, और यह बिलकुल वाहियात है । लेकिन संस्कृत के विरोध में कोई कुछ नहीं कह सकता । यह दूसरी भाषाओं सें बहुत पुरानी हैं और इसमें बहुत- से शब्दों की धातुएं हैं ।
यह चीज मैंने श्रीअरविन्द के साथ पढ़ीं थीं और स्पष्टत: यह बहुत मजेदार बे । कुछ धातुएं हैं जो जगत् की सभी भाषाओं मे मिलती हूं-ऐसी ष्ठवनियां, धातुएं हैं जो उन
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सभी भाषाओं मे पायी जाती हैं । तो हां, यह, यह चीज, यहीं चीज सिखनी चाहिये और इसी को राष्ट्रभाषा होना चाहिये । जिस तरह फांस मे हर बच्चे को फ्रेंच आनी चाहिये, चाहे वह ठीक तरह न बोल पाये, या उसे अच्छी तरह नहीं जाने, लेकिन यह जरूरी -है कि उसे थोडी-बहुत फ्रेंच आती हो-उसी तरह भारत मे जन्ममें हर बच्चे को संस्कृत आनी चाहिये; और जगत् के सभी देशों के साथ यहीं बात हैं । यह जरूरी हैं कि उसे राष्ट्रभाषा आती हो । और फिर, जब वह इसे सीख जाये तो वह जितनी भाषाएं सीखना चाहे सीख ले । अबतक, लोग जगहों मे हीं खोये हुए हैं, और यह वातावरण किसी चीज का निर्माण करने के लिये बहुत खराब हैं । लेकिन मुझे आशा है कि एक दिन आयेगा जब यह संभव होगा ।
इसलिये मै चाहती हूं कि यहां सरल संस्कृत बढ़ायी जाये, जितनी सरल हो सके उतनी, लेकिन ऐसा नहीं जिसे ठीक-पीसकर सरल बना दिया गया हो-बल्कि ऐसी सरल जो अपने फल के अनुरूप हों... ये ष्ठवनियां, फल ष्ठवनियां जिनसे बाद में शब्द बने हैं । मुझे पता नहीं कि यहां कोई है मी जो यह काम कर सके । वस्तुतः, मुट्ठे पता नहीं कि ऐसा कर सुननेवाला भारत में भी कोई है या नहीं । श्रीअरविन्द जानते थे । लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति जिसे संस्कृत आर्त हों कर सकता है ... । मुझे पता नहीं । तुम्हारे यहां संस्कृत के अध्यापक कौन हैं? ''च' '?
'ख' : 'च; 'छ'..
'छ'...? लेकिन वह तो यहां कभी नहीं होता ।
'ख': बे फरवरी मे आ रहे हैं !
हां, बहुत पहले ''ज'' भी था ।
'ख' : 'जै फिर कुछ युवा अध्यापक है 'छ: और 'ट'!
नहीं, ऐसा कोई व्यक्ति होना चाहिये जो काफी जानता हो । मैंने एक बार 'च' से बात की थीं । उसने मुझसे कहा कि वह एक सरल व्याकरण तैयार कर रहा है-मुझे मालूम नहीं उसने इस भाषा के लिये क्या किया जो सारे देश में व्यापक हो सकती हैं । मुझे नहीं मालूम । शायद, आखिर, 'च' ही सबसे अच्छा है ।
तो, दोपहर को, कौन-कौन से अध्यापक हैं ? तुम्हारा कहना हैं कि लगभग तीस है !
'ख'. सभी कक्षाओं के लिये पांचवीं कक्षा से...
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पूरे स्कूल के लिये?
'क' : माध्यमिक कक्षाओं के लिये माताजी ?
इससे नीचे की कक्षाओं से तुम्हारा संपर्क नहीं हैं ?
'क' : उसकी देखभाल अध्यापकों के दूसरे दल करते हैं
हां, ठीक है । और माध्यमिक कक्षा के लिये लगभग डेढ़ सौ विद्यार्थियों के लिये तुम्हारे पास तीस अध्यापक हैं । तो जब वे आते हैं तो क्या जानते हैं ? कुछ नहीं ? किंकर गर्जन में फ्रेंच सिखाते की बात है, है न? उनके साथ फ्रेंच बोलते हैं । लेकिन मुझे पता नहीं इस बारे में सख्ती है या नहीं ।
'क' : बहुत सख्ती नहीं है माताजी?
बहुत नहीं, हैं न ?
'ध'. पहले सख्ती थी अब तो अधिकतर हिंदी में बोलते हैं
बिलकुल छुटपन से, छुटपन से हीं बच्चों में अपना मन बहलाने की प्रवृत्ति होती हैं, उनमें... उनमें कठोरता नहीं होती और उनकों यह जानने मे बड़ा मजा आता हैं कि कैसे एक हीं चीज को विभिन्न भाषाएं विभित्र नाम देती हैं । उनमें अब भी है ... या उनमें अभीतक मानसिक कठोरता नहीं होती । उनमें अब मी वह नमनीयता होती हैं जिससे वे सचेतन हो जाते हैं कि चीज का अपने-आपमें अस्तित्व है, कि उसे जो नाम दिया जाता है वह केवल एक रिवाज है । तो मेरा ख्याल है कि उनके लिये यहीं बात है , कि दिया गया नाम 'बस, एक रिवाज है । और इसलिये, कई बच्चों को फलाना कहने में, उदाहरण के लिये, ''हां' ' या ''ना' ' कहने में, ये हीं शब्द लो, ''हां' ' या ''ना' ' कहने में मजा आता है । फ्रेंच में इस तरह कहते हैं, जर्मन में इस तरह कहते हैं, अंग्रेजी में इस तरह कहते हैं, डटे लयन में इस नहर कहते हैं, हिंदी में इस तरह कहते हैं, संस्कृत में इस तरह... । तो अगर तुम खिलाना जानो तो यह बहुत मजेदार खेल है । कोई चीज ले लो और फिर कहो : ''देखो यह है ... । '' इस तरह । या कोई जीवंत कुत्ता लो, या एक जीवंत पक्षी, या एक छोटा जीवंत पैड, और फिर उनसे कहो, ''देखो, ये सब भाषाएं हैं और... । '' उनके अंदर बिलकुल कोरा होता है, वे बहुत अच्छी तरह, बहुत आसानी से सीख सकते हैं । यह बहुत मजेदार खेल है । ('ख' से)
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लेकिन इसके साथ तो तुम्हारा कोई संबंध नहीं, तुम तो पहले हीं...
ठीक है । तो, स्वभावतः, तुम्हारे तीस अध्यापक और डेढ़ सौ विद्यार्थी, उनके साथ तुम्हें... । है जो भाषा सीखना चाहते हैं, उसके मुताबिक अलग-अलग कक्षाओं मे जस्त हैं । यह काफी स्वाभाविक हैं, यहांतक कि मुझे अनिवार्य भी लगता हैं, क्योंकि सभों अध्यापकों के एक साथ रहने की जरूरत नहीं-वे बातें करने लग जायेंगे... और फिर बिधार्थी आयेंगे और यह सब पूरा एक... नहीं! यह ठीक हैं ।
जब तुम फ्रेंच सीखना चाहो तो इस कक्षा में जाते हों, जब तुम अंग्रेजी सीखना चाहो तो उस कक्षा मे, जब...
'ग' : माताजी ऐसी बात नहीं हो
तब फिर?
'ख' : सुबह ऐसा होता हो
तो तुम क्या पढ़ाते हो?
' ख ' : मैं गणित सिखाता हूं !
भाषाओं के साथ तो इसका कोई संबंध नहीं हैं!
'ख' : और इतिहास!
तुम गणित फ्रेंच मे पढ़ाते हो? हां, पर तब तो समस्या और जटिल हो जाती है... । क्या (हंसी), क्या बात हैं? ('ख' से) तुम्हें क्या कहना है?
'क' 'ख' ले कहता है) : क्या बतलाया जाये?
'ख ' : हम जौ करना चाहते हैं ठीक-ठीक वही
'प' : क्या मौखिक कक्षाएं मी होती हैं?
'ख' केवल भाषाओं के लिये ही नेही बल्कि गणित और विज्ञान के लिये मी मौखिक कक्षाएं होनी हैं?
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'क' : माताजी जिन निशित कक्षाओं ने बच्चों को मकानों गणित और विज्ञान के लिये जाना पड़ता है उन्हें जारी रखा जा खा है सुबह का समय स्वतंत्र काम क्वे लिये रखा क्या है? तीन विषयों क्वे लिये उन्होने दोपहर तिन निशित कक्षाएं रखी हैं जब कि हमें ..
भाषाएं?
'क' : भाषाएं गणित और विज्ञान... और इतिहास मी !
विज्ञान?
'ख'. जी हां विज्ञान-वनस्पति विज्ञान भौतिक विज्ञानता!
हां, यह पूरा एक जगत् है । तो फिर क्यों?... तो बाकी क्या रह गया? साहित्य '? क्या? हर चीज को समा लेनेवाला विज्ञान के अतिरिक्त, साहित्य हैं, और फिर? कला? स्वभावतः, यह तो...
'क' : ('ख' ले) क्या तुम सनी विषयों क्वे लिये निशित कक्षाएं रख रहे हो? (माताजी ले) मुहर मर हम संक्षेप मे कह सकते हैं कि दोपहर करे कुछ हदतक एक ऐसे संगठन को जारी रखा जा रहा है जो पहले के संगठन से मित्हता-जुत्हता है यानी निशित कक्षाएं केशी लेकिन सुबह का काम अपेक्षाकृत स्वतंत्र हो !
यहां मै कुछ जानना चाहूंगी । भाषा किस तरह सिखायी जाती है ? क्योंकि जो अध्यापक सभी को एक ही चीज कहना शुरू कर देता हैं... । विद्यार्थी वहां से निकलते हैं और उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता! भाषा, उसे तो यथार्थतः सबसे अधिक जीती-जागती चीज होनी चाहिये, सबसे अधिक जीवंत! और उसके जीवंत होने के लिये यह जरूरी है कि विद्यार्थी उसमें भाग लें । उन्हें केवल ऐसे कान नहीं होने चाहिये जो कुर्सी पर बैठे सुनते रहें! अन्यथा, वहां से निकलने पर उन्होंने कुछ भी न सीखा होगा ।
'क ' : माताजी जहांतक. हमारा संबंध, कक्षाएं इस प्रकार व्यवस्थित की जाती हैं : हर प्रकार क्वे लिखित काम खै लिये: अध्यापक और विद्यार्थी क्वे बीच व्यक्तिगत संबंध हर प्रकार के मौखिक काम बैठक इत्यादि के
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लिये हम बच्चों क्वे सामने रोज कई समावनाए रखते हैं और है उनमें से किसी मे माय लेने के लिये स्वतंत्र होते हैं
संभावना
'क': उदाहरण के लिये विभित्र बीजों पर वाद-विवाद वार्तालाप होते हैं- कुछ बच्चे हैं जो उदखरण क्वे लिये सामयिक विषय आदि की अपेक्षा वैज्ञानिक विषय ज्यादा पसंद करते हैं श नाटक के बारे मे तात्कालिक प्रयास होता है इत्यादि यह सब बच्चों को एक दिन पहत्हे या उसी दिन बताया जाता है उनकों एक कक्षा मे जाना पड़ता है लेकिन वह चून सकते हैं कि किसमे जायें... और फिर लेखन व्याकरण यह सब होता है?
हां, क्योंकि इन बच्चों को भाषा आती हैं । ('ख' से) और तुम?
'क ' उसके लिये भी चीज
('क' से) हां, इस तरह, यह ठीक हैं ।
('ख' सें) लकिन तुम्हारी दोपहरवाली कक्षा... तुम रूहें किस तरह चलाने की सोच रहे हो? इस तरह? बच्चे कुर्सियों पर बैठे रहेंगे और .अध्यापक भाषण देगा? है भगवान्! कितना उबाऊ है! अध्यापक ऊब जाता है, सबसे पहले वही अब जाता है, तो स्वभावत: वह अपनी ऊब विद्यार्थियों को बांट देता है ।
इस तरह की व्यवस्था हो सकतीं है : एक विषय ले लो और अध्यापक इस या उस व्यक्ति से प्रश्र पूछे : ''इसके बारे में तुम्हारी क्या राय है? इसके बारे मे तुम क्या जानते हो?'' और यों ही, इस तरह, और फिर, स्वभावत:, अगर दूसरे लोग कान दे रहे हैं तो उनकों लाभ होगा । इस तरह एक प्रकार की जीवित-जाग्रत व्यवस्था- ऐसा उबाऊ भाषण नहीं-जिससे पांच मिनट मे आंख लग जाये । तुम प्रश्र पूछो, या फिर, अगर बोर्ड हो तो... बोर्ड पर मोटे-मोटे अक्षरों मे बड़ा प्रश्र लिखी ताकि सब लोग पढ़ा सकें, फिर पूछो : ''इसका जवाब कौन दे सकता हैं?'' इस तरह करो, यहां-वहां प्रश्र पूछो, उनसे पूछो जिन्होने प्रश्र किया है ... । और जब एक व्यक्ति उत्तर दे तब कहो : '' क्या कोई है जो इसकी बात को पूरा कर सके?'' यह जरूरी हैं कि अध्यापक मे कुछ जान हों ।
मैं समझती हूं-हर एक भाषा के लिये एक कक्षा, अलग-अलग दल-दोपहर को, ठीक हैं । लेकिन भगवान् के लिये, यह नहीं कि... और कुर्सी पर बैठकर : ''यह कब खत्म होगा?'' वे अपनी जड़ी देखते हैं... । और सौ मे से एक भी अध्यापक ऐसा
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नहीं जो सबका मनोरंजन करने के लिये खुद काफी मनोरंजक ही । और पहली बात यह हैं कि वही सबसे पहले ऊबने लगता हैं । उसके लिये, यह... यहां नहीं, लेकिन बाहर यहीं आजीविका है, इसलिये...
एक साथ बीस, तीस, चालीस विद्यार्थी होने चाहिये... एक साथ कितने, बीस? लगभग बीस?
'ख' : जी हां माताजी
केवल : '' ओह! अब हम एक रोचक कार्य करेंगे । चालों देखें, हम मन बहलाने के लिये क्या कर सकते हैं? कौन-सा खेल खेल सकते हैं?'' तो, स्वभावतः, इस तरह तुम कुछ ढूंढने हो, खोज करते हो । और तब वह (अध्यापक) सजीव रहता है, क्योंकि उसे कुछ खोजना पड़ता है, और विद्यार्थी सामने बैठे होते हैं, इस प्रकार... । जब: उनमें थोड़ा आत्म-सम्मान हो तो वे भी कुछ कह सकना चाहते हैं, और इस तरह वातावरण जीवंत बन जाता है । क्या यह घर पर बैठकर करने... सीखने की अपेक्षा ज्यादा मजेदार न होगा? अगर तुम सच्चे हो, तो अगले दिन तुम जो कक्षा लेनेवाले हो उसके लिये शाम को काम करते हो, बहुत सावधानी के साथ सीखते हो, नोदन लेते हो, और लिखते हों, और... । तुम विषय तैयार कर सकते हो, है न, तैयार करते हो ताकि सभी प्रश्रों का उत्तर दे सको । यह हमेशा आसान नहीं होता । लेकिन अच्छी तरह अपना विषय तैयार करना यह अच्छा हैं; रात के समय थोड़ा प्रकाश और थोडी अभीप्सा पाने की कोशिश करना, और फिर, अगले दिन, तुम जो जानते हो उसे ज़ीने के लिये एक जीवंत तरीका ढूंढना । और वहां अध्यापक और विद्यार्थी न हों... नहीं, नहीं! जीती-जागती सत्ताओं का एक दल हो, जिसमें कुछ व्यक्ति औरों सें कुछ अधिक जानते हैं, बस ।
'क' : माताजी अब एक मंत्र है एक और महत्त्वपूर्ण मंत्र आपने हमसे बहुत बार कहा हैं कि हम जो प्रश्र करते हैं उसका सच्चा उत्तर केवल शांति मे ही मिल सकता है बच्चों ले यह खोज कराने का कि यह शांति कैसे स्थापित होती है सबसे अच्छा तरीका क्या है? क्या इसी तरह ज्ञान का स्थान चेतना
(लंबा मौन)
देखो. कक्षाओं की इस पद्धति मे जहां सब बैठे हैं, अध्यापक भी बैठा हैं और काम करने का समय भी सीमित है, यह संभव नहीं हैं । अगर तुम्हारे अंदर निरपेक्ष स्वतंत्रता
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हैं तभी तुम जब कभी तुम्हारे अंदर नीरव होने की आवश्यकता हो, तुम नीरवता स्थापित कर सकते हो । लेकिन जब सभी विद्यार्थी कक्षा मे हों और अध्यापक भी... जब अध्यापक अपने अंदर शांति स्थापित कर रहा हों, सभी विद्यार्थी... तब यह - संभव नहीं है ।
वह घर पर रात को नीरवता स्थापित कर सकता है, एक दिन पहले कर सकता है, ताकि वह अगले दिन के लिये तैयारी कर सके, लेकिन वह... । यह तुरंत लागू होनेवाला नियम नहीं बन सकता । स्वभावतः, जब तुम नसैनी के सबसे अपर के खड्डे पर हो और तुम्हें अपने मन को बिलकुल नीरव रखने की आदत हों तो तुम कुछ और नहीं कर सकते; लेकिन तुममें से कोई भी वहां नहीं पहुंचा है । इसलिये उसकी बात न करना ज्यादा अच्छा है । इसलिये मेरा ख्याल है कि... । विशेष रूप सें इस पद्धति में-सीमित समय की कक्षाएं, विद्यार्थियों की सीमित संख्या, शिक्षित अध्यापक और निश्रित विषय... उस समय तुम्हें क्रियाशील रहना चाहिये ।
यह जरूरी है कि... । अगर विद्यार्थी ध्यान या एकाग्रता का अभ्यास करना चाहें, अंदर पैठने की कोशिश करना चाहें... तो यह अंतर्भासिक जगत् के साथ संपर्क मे आना है, केवल मानसिक उत्तर पाने की जगह जो ऐसा हैं-अपर से उत्तर पाना है, वह उत्तर जो कुछ ज्योतिर्मय और सजीव होता है । लेकिन इसके लिये घर मे रहते हुए अभ्यास करना चाहिये ।
स्वभावत:, जिसको आदत है उसे कक्षा में-जब अध्यापक प्रश्र पूँछें, बोर्ड पर प्रश्र लिखे या कहे : ''इसका जवाब कौन दे सकता है?'' -तब यह व्यक्ति इस तरह कर सकता है (माताजी अपने दोनों हाथ अपने ललाट पर रखती हैं), कुछ पा सकता है, ओह! और उसके बाद कह सकेगा... । लेकिन... जब हम उस बिंदुतक पहुंच जायेंगे तो यह एक बड़ी प्रगति होगी !
वरना, तुम जो कुछ सीखते हो उसी को मस्तिष्क के भंडार सें बाहर निकाल लाते हो । यह बहुत मजेदार नहीं होता, लेकिन कम-से-कम इससे कुछ मानसिक कसरत मिल जाती है । और कक्षा की पद्धति लोकतंत्रीय पद्धति है, क्यों! यह इसलिये क्योंकि... सीमित समय मे, सीमित स्थान पर... अधिक लोगों को सीखा सकना चाहिये, ताकि हर एक लाभ उठा सके । यही पूरी-पूरी लोकतंत्र की भावना हैं । तब एक प्रकार का... समीकरण अनिवार्य हो जाता है । हां तो... तुम सबको एक ही स्तर पर रख देते हो और यह बात शोचनीय है । लेकिन जगत् की वर्तमान स्थिति में, हम कह सकते हैं : '' अभी इसकी आवश्यकता है । '' केवल धनवान लोगों के बच्चे हीं जो खर्चा दे सकेंगे... स्पष्टतः, इसके बारे में सोचना बहुत सुखद नहीं हैं । नहीं, पूरी आबादी के लिये... ओरोवील के लिये, प्रारंभिक. कक्षाओं की समस्या होगी और यह मजेदार समस्या होगी : उन बच्चों को कैसे तैयार किया जाये जो इधर-उधर से इकट्ठे किये गये हैं, जिनके घर में सीखने के लिये कोई साधन नहीं है, जिनके मां-बाप
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अज्ञानी हैं, सीखने के साधन की कोई संभावना नहीं हैं, कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं, केवल कचवा महल हैं, इस तरह-उनकों जीना कैसे सिखाया जाये? यह एक मजेदार समस्या होगी ।
'क' : माताजी अगले साल के लिये हमने जो कुछ तैयार किया है उसके अनुसार हम बच्चे के व्यक्तित्व के लिये दूत सम्मान फ लेंगे सर्वागीण रुपए वे हर क्षण- केवल बच्चे का महत्व होगा उस दत्तक का नहीं जिसका वह अंग है तरह और फिर अभी मैं आपसे जो प्रश्र पूछ खा था उसके संबंध मे- सुबह के काम की परिस्थितियां कछ मित्र हैं क्योंकि काम स्वतंत्र रूप मैं होना? तोशायद ऐसी परिस्थितियों मे बच्चे स्वतंत्र...
हां, वहां, सुबह का काम, वहां जो काम होता है इस तरह, ''पूर्णता की ओर' ''... । वे भली-भांति ऐसा कर सकते हैं : क्षण-भर के लिये नीरव, एकाग्र रह सकते हैं, अंदर जो कुछ शोर मचाता है उसे इस तरह चुप करके प्रतीक्षा कर सकते हैं । सवेरे है यह कर सकते हैं । नहीं, मेरे कहने का मतलब यह है कि जब घटे-भर की या पौन घंटे की कक्षा हों... जिसमें एक दल और एक अध्यापक हो... तो तुम कार्यव्यस्त रहने के लिये बाधित होते हो ! यह मजेदार होगा अगर पौन घंटे तक सब लोग... (हंसी) । एक चीज एक बार की जा सकती हैं, कम-से-कम एक बार : तुम एक विषय रखो, अन्य पाक्य विषयों से, यह विषय उनके सामने रखो और कहो : ''हम पंद्रह मिनट तक चुपचाप रहेंगे, चुपचाप; बिना आवाज किये, किसी को मी आवाज नहीं करनी चाहिये । हम पंद्रह मिनट तक चुपचाप रहेंगे । पंद्रह मिनट तक बिलकुल, बिलकुल नीरव, निक्षल और सतर्क रहने की कोशिश करेंगे, और फिर हम देखेंगे कि पंद्रह मिनट के बाद क्या होता है । '' शुरू मे हम पांच मिनट हीं कर सकते हैं, तीन मिनट, दो मिनट, कोई हर्ज नहीं । पंद्रह मिनट बहुत ज्यादा हैं, लेकिन यह करना चाहिये... यह प्रयास करो... यह देखो । कुछ बच्चे छटपटाने लगेंगे । शायद बहुत कम बच्चे हैं जो चुपचाप रहना जानते हैं; या फिर है सो जाते हैं-लेकिन अगर है सों जायें तो कोई हर्ज नहीं ! हम यह कम-से-कम एक बार करके देख सकते हैं, यह देख सकते हैं कि क्या परिणाम आता हैं : ''देखें ।! दस मिनट की नीरवता के बाद मेरे प्रश्र का उत्तर कौन देता है? लेकिन ऐसा न हों कि उन दस मिनिटों में तुम मानसिक रूप से उस विषय के बारे मे जितना आन सको उतना इकट्ठा करने की कोशिश करो, नहीं, नहीं-ये दस मिनट ऐसे हों जब तुम बिलकुल ऐसे, कोरे, निश्चल, नीरव, सतर्क रहो... सतर्क और नीरव । ''
१ '' मुक्त-प्रगति-पद्धति '' पर आधारित एक दल का नाम ।
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अब, अगर अध्यापक सच्चा अध्यापक हैं तो इन दस मिनिटों में वह अंतर्भाव के क्षेत्र से उस ज्ञान को उतारता हैं और उसे कक्षा में फैलाता है । और इस तरह तुम मजेदार काम करते हो, और उसका परिणाम मी देखोगे । तब स्वयं अध्यापक मी थोडी प्रगति करने लगेगा । तुम कोशिश कर सकते हों । कोशिश करो, फिर देखोगे!
'क' : माताजी हमने यह कोशिश की है
देखो, जो लोग सच्चे हैं, सच्चे और बहुत- कैसे कहा जाये? -जो अपनी अभीप्सा में बिलकुल निष्कपट हैं, उन्हें इसमें अद्भुत सहायता मिलती हैं, एक चेतना है जो बिलकुल जीवंत, बिलकुल क्रियाशील होती है जो... हर प्रकार की एकाग्र नीरवता को प्रत्युत्तर देने के लिये तैयार रहती हैं । इससे छ: साल का काम छ: महीनों में किया जा सकता है, लेकिन... यह जरूरी है कि इसमें कहीं ढोंग न हो, ऐसी चीज नहीं होनी चाहिये जो नकल करने की कोशिश करती हो, दिखावा करती हों । वहां... सचमुच, तुम्हें पूरी तरह, निष्कपट, पवित्र, सच्चा, होना चाहिये, इस बात के प्रति सचेतन होना चाहिये कि. च. हम केवल उसी के सहारे जीते हैं जो ऊपर से आता है । तब... तब... तब तुम लंबे गडों से आगे बढ़ सकोगे ।
लेकिन इसे रोज, नियमित रूप से, शिक्षित समय पर मत करो, क्योंकि तब वह एक आदत और उबानेवाले चीज बन जाती है । यह... अप्रत्याशित होना चाहिये! तुम अचानक कह उठते हो : ''चलो, हम ऐसा करें' '.. अ जब तुम्हें लगे कि तुम खुद कुछ ऐसे हो, कुछ-कुछ तैयार । यह बहुत मजेदार होगा ।
एक प्रश्र पूछो, भरसक बुद्धिमानी का प्रश्र, केवल सैद्धांतिक या पंडिताऊ प्रश्र नहीं- थोड़ा जीवंत प्रश्र । वह मजेदार होगा ।
(मौन)
तुम देखोगे जैसे-जैसे तुम इसे सिद्ध करने के लिये प्रयास करोगे वैसे-वैसे तुम प्रकृति में,-निम्नतर प्रकृति मे, यानी, निम्नतर मन, निम्नतर प्राण, निम्नतर शरीर में-कितना ढोंग भरा हैं, कितनी झूठी महत्त्वाकांक्षा भरी है... । तुम कोई भी... । दिखावा करने की इच्छा पाओगे : यह जरूरी है कि इन सबको पूरी तरह, जड़ से निकाल दिया जाये, उनका स्थान अभीप्सा की सच्ची लौ ले ले, उस पवित्रता के प्रति अभीप्सा जो हमें 'परम चेतना' हमसे जो चाहती है उसी के लिये जीता रखती हो, जो हमसे वही करवाती हो जो 'परम चेतना' चाहती है और तभी करवाती है जब वह चाहती है । तब तुम एकदम अलग व्यक्ति हों संकेत हो... । यह मार्ग पर काफी थ है, लेकिन तुम इसे, सारी सत्ता की शुद्धि... हमेशा, करने की कोशिश करते रहो । तब न स्कूल होता हैं, न अध्यापक, न विद्यार्थी, न अब; तब... केवल जीवन
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होता हैं जो रूपांतरित होने की अभीप्सा करता हैं । यह लो : यही है आदर्श, हमें वहां तक जाना है ।
तुम्हें और भी प्रश्र पूछने हैं?
'क' : माताजी क्या आप स्कूल के लिये नये सत्र के लिये कोई संदेश दे सकेगी? वह दिसंबर ले शुरू होता है !
अगर कुछ आ गया तो दे दूंगी ।
'स' मुझे फूल दो । वहां एक गुलदान हैं जिसमें लाल छुच्छ हैं । वहां । वे इन दोनों के लिये हैं । वहां ।
('क' से) यह ले , तुम्हारे लिये ।
('ख' से) और यह रहा तुम्हारा । तुम्हारे लिये तो पूरा भविष्य सामने है । तुम्हें तोड़ना पड़ेगा... । जानते हो, विचार में तुम अभी तक पुरानी आदतों सें बंदे हों । तुम हमेशा सें यहीं रहते आये हो, लेकिन इसका तुमने पर्याप्त लाभ नहीं उठाया, तुम अभीतक बहुत ज्यादा वैसे हो... ।
तो अब, तुम्हें यह लेना होगा, सब कुछ तोड़ना होगा, सब कुछ तोड़ना होगा, सब कुछ तोड़ना होगा । ऊपर से जो प्रकाश आता है उसी के सहारे जीना होगा । अपनी चेतना को मुक्त्ति करो, मुक्त करो । यह जरूरी है । अच्छा हुआ कि तुम आये । तुम अभीतक बहुत बंद हो, इस तरह, पुरानी आदतों से बंदे हो और... और अभितप्त, एक और चीज हैं, अभी पूर्वजता आदि का बोझ है... । यह सभी के लिये है, लेकिन फिलहाल केवल... । मै अभीतक तुम्हें मुक्त कर रहीं हूं । तुम अभीतक ऐसे हो... ऐसे... ऐसे... ऐसे... सोचने की तुम्हारी पुरानी आदतें, सीखने की तुम्हारी पुरानी आदतें, तुम्हारी पुरानी आदतें-बहुत पुरानी नहीं-सिखाते की पुरानी आदतें । तो यह सब : उन्हें तोड़ दो! इस तरह... यह जरूरी है कि जब तुम कक्षा में जाओ, तो रोज कक्षा मे जाने से पहले एक प्रकार की प्रार्थना करो, 'परम चेतना' का आह्वान करो, और उनसे इस दल का निर्देशन करने के लिये सहायता मांगो, इस जीवंत पदार्थ की राशि को उनके प्रभाव मे लाने के लिये सहायता मांगी । तब यह कितना मजेदार और जीवंत हों जायेगा... । तो यह बात है ।
पुनर्दर्शनाय ।
और अब, 'घ' के लिये, एक गुलाब ।
('घ' से) यह लो । यह देखो, यह ज्यादा क्रियाशील है । तुम इसे न देख पाओगी, पर यह अधिक क्रियाशील है ।
लेकिन नारियों, नारियां सिद्धांत: कार्यकारिणि शक्ति 'हैं । यह कभी नहीं भूलना चाहिये । और प्रेरणा ग्रहण करने के लिये, अगर तुम्हें जरूरत मालूम हों तो पुरुष की
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चेतना से सहारा ले सकतीं हो । 'परम चेतना' ज्यादा शिक्षित होती है, लेकिन फिर भी, अगर तुम्हें माध्यम की जरूरत हो... । लेकिन कार्य करने के लिये, तुम्हारे अंदर ही वह शक्ति हैं जो समस्त संगठन की शक्ति के साथ, सभी ब्योरों मे जा सकतीं हैं । मै संसद की नारी-सदस्यों में यह चीज भरने में लगीं हूं-तुम्हें मालूम हैं संसद मे नारियां हैं ? मैं उनकों यह सीखा रहीं हूं : वे पुरुष के आगे दस्यु न बनें । तुम्हारे अंदर कार्यान्वयन की शक्ति है । इसका प्रभाव पड़ेगा ।
('क' और 'ख' से) ओह ! यह तुम्हें नीचा दिखाने के लिये नहीं हैं (हंसी)... । प्रेरणा आती हैं... कार्यान्वयन... । लो बस ।
तो मैं तुम्हें दे चुकी, तुम्हें दे चुकी... । ('स' से) तुम्हें-तुम्हें मैंने नहीं दिया । वहां!
लो । और यह 'ग' के लिये हैं ।
तो, मेरे बच्चों, पुनर्दर्शनाय ।
('क' से) और अगर तुम्हें जरूरत पेड़ तो हमेशा लिख सकते हो । मै नहीं कहती कि मै तुरंत जवाब दूंगी, लेकिन इस तरह (माताजी माथे पर हाथ रखती हैं), मै तुरंत जवाब देती हूं । यह तुम्हें सीखना होगा, क्यों! इस तरह (लिखने का संकेत) समय लगता है । फिर भी, मुझे सूचना देते रहना अच्छा है ।
'क'. जी हां माताजी?
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