Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
आचरण
बच्चों को सदा क्या याद रखना चाहिये
पूर्ण सच्चाई की आवश्यकता ।
'सत्य' की अंतिम विजय की निक्षयता ।
सिद्धि के संकल्प के रहते निरंतर उन्नति की संभावना ।
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आदर्श बालक
शान्त स्वभाव होता है
जब सारी बातें उसके विरुद्ध जाती हुई मालूम होती हैं अथवा सभी निर्णय उसके विपक्ष मे होते हैं तब भी वह क्रोधित नहीं होता ।
उत्साही होता है
जो कुछ वह करता हैं उसे वह अपनी योग्यता के अनुसार उत्तम-सें-उत्तम रूप मे करता है और यह जानते हुए भी कि असफलता प्रायः निश्चित है, वह अपना कार्य निरंतर करता रहता हैं । वह सर्वदा सीधे? ढंग से ही विचार करता है और सीधे ढंग से हीं कार्य करता है ।
सत्यनिष्ठ होता हैं
वह कभी सत्य बोलने से नहीं डरता-परिणाम चाहे कुछ भी क्यों न हो ।
धैर्यशील होता है
अपने प्रयासों का फल देखने के लिये यदि उसे दीर्घ काल तक प्रतीक्षा करनी पड़े तो भी वह निरुत्साहित नहीं होता ।
सहनशील होता हैं
वह सभी अनिवार्य कठिनाइयों और दुखों का सामना करता है और उनके कारण मन मे जस भी नहीं झुँझलाता ।
अध्यवसायी होता हैं
वह अपने प्रयास को कभी ढीला नहीं होने देता-चाहे जितने लंबे समय तक उसे क्यों न जारी रखना पड़े ।
समचित होता है
वह सफलता और विफलता दोनों अवस्थाओं मे समता बनाये रखता हैं ।
साहसी होता है
चाहे उसे बहुत बार पराजय का सामना क्यों न करना पेड़, वह हमेशा अंतिम विजय के लिये संग्राम मे लगा रहता है ।
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आनन्दी होता हैं
वह जानता हैं कि सब प्रकार की परिस्थितियों मे किस तरह हंसा जा सकता हैं और हृदय को प्रसन्न रखा जा सकता है ।
विनयी होता हैं
वह अपनी सफलता के ऊपर गर्व नहीं करता और न अपने सथियों से अपने को बड़ा हीं समझता हैं ।
उदार होता हैं
वह दूसरों के गुणों की प्रशंसा करता है और सफलता प्राप्त करने मे दूसरों को सहायता देने के लिये बराबर तत्पर रहता हैं ।
ईमानदार ओर आझाकारी होता हैं
वह सब प्रकार के अनुशासनों को मानता है और सदा हीं ईमानदारी सें काम लेता
हैं !
('बुलेटिन', अगस्त १९५०)
*
आदर्श बालक समझदार होता हैं !उसे जो कुछ कहा जाये वह सब समझता हैं , वह सीखने से पहले अपने पाठ को जानता हैं और उससे जो भी पूछा जाये वह उसका उत्तर देता है ।
उसे भविष्य पर श्रद्धा होती है, भविष्य सौंदर्य और प्रकाश से भरा हुआ और आनेवाली उपलब्धियों से भरपूर हैं ।
बचपन भविष्य का प्रतीक और आनेवाली विजयों की आशा है ।
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... जब विद्यालय में हो तो पढ़ना चाहता हैं,
... खेल के मैदान में हो तो खेलना चाहता है,
... भोजन के समय खाना चाहता है,
... सोने के समय सोना चाहता हैं,
... हमेशा अपने चारों ओर के लोगों के लिये प्रेम से भरा होता हैं,
... को हमेशा भागवत 'कृपा' पर विश्वास होता है,
... भगवान् के लिये गहरे आदर से भरा होता हैं ।
बच्चे को जो चीजें सिखाती चाहियें
१.पूरी पूरी सचाई और निष्कपटता की जरूरत ।
२.अंत में 'सत्य' की हीं विजय की निश्रित ।
३.प्रगति की संभावना और उसके लिये संकल्प ।
अच्छा स्वभाव, न्याय-संगत व्यवहार, सत्यनिष्ठा ।
धैर्य, सहनशीलता, अध्यवसाय ।
समता, साहस, प्रसन्नता ।
११ और १३ वर्ष की अवस्था के बच्चों की पढ़ाई मैं मुख्य रूप से किस बात पर ध्यान देना चाहिये?
सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो उन्हें सिखनी चाहिये वह हैं सच्चे और निष्कपट होने की परम आवश्यकता ।
समस्त असत्य को, चाहे वह कितना भी हल्का क्यों न हो, अस्वीकार करो । उन्हें सदा प्रगति करते रहना मी सिखाना चाहिये, क्याकि जैसे हीं कोई प्रगति करना बंद करता है, वैसे हीं वह पीछे गिरता हैं और यह क्षय का आरंभ है ।
मै जैसा देखती और जानती हू उसके अनुसार, सामान्य नियम यह होना चाहिये कि चीख वर्ष से ऊपर के बच्चों को स्वाधीनता मिलनी चाहिये । उन्हें सलाह तभी दी जाये जब हैं सलाह माँगें ।
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उन्हें यह पता होना चाहिये कि अपने जीवन की व्यवस्था करने के लिये वे स्वयं जिम्मेदार हैं ।
अभी तुमने जो विचार और भाव प्रकट किये हैं उन्हें सुनकर मै बहुत प्रसन्न हू और मैं तुम्हें अपने आशीर्वाद देती हू । मैं बस, यही चाहती हू कि तुम्हारे विचार केवल आदर्श न बने रहें बल्कि वास्तविकताएं बन जायें । तुम्हारी यह प्रतिज्ञा होनी चाहिये कि आदर्श को अपने जीवन और चरित्र में चरितार्थ करो । मैं इस अवसर पर तुम्हें कुछ ऐसी बात बताती हू जो मै तुम्हें बहुत दिनों से बतलाना चाहती थी । यह तुम्हारी पढ़ाई के बारे मे है । स्वभावत: अपवाद होते हैं पर अपवाद हीं नियम को बल देते हैं । उदाहरण के लिये, तुमने आज छुट्टी मांगी । मुज्ञो नहीं लगा कि तुम्हें अधिक विश्राम की जरूरत है । तुम्हारा यहां का जीवन लगभग सतत विश्राम के क्रम पर गठित है । फिर भी, मैंने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली । लेकिन तुमने ''शुभ-समाचार' ' को जिस तरह लिया उससे मुझे कष्ट हुआ । तुममें से कुछ ने तो इसे विजय भी मान लिया । लेकिन मैं पूछती हू, किसकी विजय? किसके विरुद्ध विजय? अधिकाधिक सीखने और जानने के आनंद पर निक्षेतना की विजय? सुव्यवस्था और नियम पर अव्यवस्था की विजय? प्रगति और आत्म-विजय के प्रयास पर अज्ञानपूर्ण और ऊपरी इच्छा- शक्ति की विजय?
तुम्हें मालूम होना चाहिये कि यह जीवन और शिक्षा की सामान्य अवस्था मे रहनेवाले लोगों की सामान्य प्रवृत्ति है । लेकिन तुम- अगर तुम उस महान आदर्श को चरितार्थ करना चाहते हो जो हमारा लक्ष्य है, तो तुम्हें सामान्य जीवन की अंधी और अलानपूर्ण स्थितियों मे रहनेवाले सामान्य लोगों की सामान्य और निरर्थक प्रतिक्रियाओं मे संतुष्ट न रहना चाहिये ।
जब मै ऐसी बातें कहती हू तो लगता है कि मै बहुत पुराने ख़यालों की हू, फिर भी, मुझे कहना चाहिये कि तुम्हें बाहरी प्रभाव और सामान्य आदतों के बारे मे बहुत ज्यादा सावधान रहना चाहिये । तुम्हें उनकों अपनी भावनाओं और अपनी जीवन- प्रणाली को आकार देने की स्वीकृति न देनी चाहिये । जो कुछ भी बाहरी और विजातीय वातावरण से आये उसे अपने अंदर न कूद पढ़ने दो-वह सब अतिसामान्य और अलानपूर्ण होता हैं । अगर तुम नव मानव के परिवार के बनना चाहते हों तो दयनीय रूप मे आज और बीते कल के बच्चों का अनुकरण न करो । दृढ़, बलवान् और श्रद्धा से भरपूर बनो । जैसा कि तुम कहते हो महान विजय प्राप्त करने के लिये युद्ध करो और उसमें जितो । जैसा तुम पर भरोसा है और मै तुम पर विश्वास करती हू ।
विश्वविद्यालय के वार्षिकोत्सवों के समय मैंने जो कहा था उसे मैंने अभीतक
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प्रकाशित नहीं किया हैं। मैंने आशा की थीं कि तुम इस पाठ से लाभ उठाओगे और अपनी गतिविधि को सुधार लोग । खेद के साथ मुझे कहना पड़ता है कि स्थिति सुधीर नहीं हैं : ऐसा मालूम होता है कि कुछ विद्यार्थियों ने कक्षा का समय अपने बुरे-से-बुरे रूप को प्रकट करने के लिये चूना हैं । वे सड़क के छोकरों से भी ज्यादा बुरा व्यवहार करते हैं । न केवल यह कि वे उन्हें दिये गायें अध्यापक से लाभ नहीं उठाते, बल्कि औरों को भी पाठ का लाभ न उठाने देने मे शरारत-भरी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं ।
हम जगत् को यह दिखाना चाहते हैं कि भावी कल का मनुष्य कैसा होना चाहिये । क्या हम उनके आगे यहीं उदाहरण रहेंगे ?
(अप्रैल १९५३ में प्रकाशित)
अध्यापकों की सभा ने कुछ विद्यार्थियों के नियंत्रण सदाचार और सद्व्यवहार के बारे मैं चिंता प्रकट की !
मैं शिष्ट व्यवहार की आवश्यकता पर जोर देती हूं । मै नाली के कीड़े जैसे व्यवहार मे कोई बड़ी बात नहीं देखती ।
(४-३-१९६०)
सच्चा बल और सुरक्षा हृदय में स्थित भागवत सत्ता से आते हैं ।
अगर तुम इस सत्ता को हमेशा अपने अंदर रखना चाहो तो सावधानी के साथ वाणी, आचार और क्रिया है समस्त अशिष्टता और गंवारूपन को दूर रखो ।
स्वाधीनता की स्वच्छंदता और आजादी को अभद्र व्यवहार न मान बैठो : विचार शुद्ध होने चाहिये और अभीप्सा तीव्र ।
(२६-२-१९६५)
क्या यह जो स्वाधीनता हमें दी गयी हे वह उन लोगों के लिये खतरनाक नहीं है जो अभी तक जाग्रत नहीं हैं जो अभीतक अचेतन हैं? किस बिरले पर हमें यह सौभाग्य प्रदान किया क्या है?
संकट और जोखिम प्रगति का भाग होते हैं । उनके बिना, कभी कोई चीज आगे न बढ़ेगी; इसके अतिरिक्त, ये उन लोगों के चरित्र-निर्माण के लिये अनिवार्य हैं जौ प्रगति करना चाहते हैं ।
(१३-४-१९६६)
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दो चीजें करने की जरूरत हैं । बच्चों को यह सिखाना चाहिये :
क) परिणाम चाहे कुछ क्यों न हों, वे कभी झूठ न बोलें;
ख) उग्रता, कोप, क्रोध पर संयम रखें ।
अगर ये दो चीजें की जा सकें, तो वे अतिमानवता की ओर ले जाये जा सकते हैं।
यह ख्याल है कि अगर हम परंपराएं और बंधनों को थोड़े तो हम सामान्य मानवजाति की सीमाओं से मुक्त हो जाते हैं । लेकिन यह गलत हैं ।
जिसे हम ''परामानव' ' कह सकते हैं वह होने के लिये इन दो चीजों को पाना जरूरी है : झूठ न बोलना और अपने-आपको वश में रखना ।
भगवान् के लिये संपूर्ण भक्ति सबसे अंतिम अवस्था है, लेकिन ये दो बातें पहले चरितार्थ करनी होगी !
(१८-७-१९७१)
मनुष्य होने के लिये अनुशासन अनिवार्य हैं । अनुशासन के बिना तुम जानवर के सिवा कुछ नहीं हो । मै तुम्हें दो सप्ताह देती हू ताकि तुम यह दिखा सको कि तुम सचमुच बदलना चाहते हो और नियंत्रण मे रहना चाहते हो । अगर तुम नियंत्रित और आज्ञाकारी बनना चाहते हो तो मैं तुम्हें एक और अवसर देने के लिये तैयार हूंं । लेकिन धोखेबाजी की कोशिश मत करो... । कपट का जरा-सा भी चिह्न दिखायी दिया तो मुझे तुम्हें भेज देना पड़ेगा ।
व्यक्ति आदमी बनना तभी शुरू करता हैं जब वह उच्चतर और सत्यतर जीवन के लिये अभीप्सा करना शुरू करता है और रूपांतर का अनुशासन स्वीकार करता हैं ।
इसके लिये तुम्हें अपनी निम्नतर प्रकृति और अपनी कामनाओं को वश में करने से प्रारंभ करना चाहिये ।
(८-३-१९७२)
विधार्थियों से
कक्षा में शोर मचाना स्वार्थपूर्ण मूढ़ता का कार्य है ।
अगर तुम चुपचाप ध्यान देकर कक्षा में उपस्थित होने का इरादा नहीं रखते तो न आना ज्यादा अच्छा हैं ।
विद्यालय में लड़ना कक्षा में लड़ना, क्रीढ़ांगण में लड़ना, गली में लड़ना, धर पर
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लड़ना (चाहे अपने धर में हो या छात्रावास मे) मना हैं ।
हमेशा और हर जगह बच्चों को आपस मे लड़ने की मनाही हैं , क्योंकि हर बार, जब तुम किसी पर प्रहार करते हो तो वह तुम्हारी अपनी अंतरात्मा पर प्रहार होता हैं ।
(१५-१-१९६३)
जब मै अपने खेल के सथियों सें असहमत होती थी तब जिस उपाय को काम मे लाती थीं, तुम्हें भी वही उपाय सुझा रही हू । उन दिनों मैं बहुत संवेदनशील थी, जैसे तुम हो । जब वे बुरा-भला कहते तो मुझे बहुत चोट लगती थी, विशेषकर जब वे ऐसे लोग होते जिन्हें मैंने हमेशा सहानुभूति और सद्भावना दिखायी थीं । मै अपने-आपसे कहा करती थीं : ''मै दुःखी और दीन क्यों बनें? अगर वे जो कहते हैं वह ठीक है तो मुझे खुश होना चाहिये कि मुझे यह पाठ मिला और मुझे अपने-आपको ठीक कर लेना चाहिये; और अगर वे गलती पर हैं तो मै उनके लिये चिंता क्यों करूं? -उन्हें अपनी भूलो के लिये दुःखी होना चाहिये । दोनों अवस्थाओं में मेरे लिये सबसे अच्छी और प्रतिष्ठापूर्ण बात यही है कि मैं बलवान् शांत और अविचल बनी रहूं । ''
मै अपने-आपको जो पाठ आठ वर्ष की अवस्था में पढ़ाया करती थीं और जिसका अनुसरण करने की कोशिश करती थीं वह इसी प्रकार के सभी उदाहरणों मे अब भी उपयोगी हैं ।
(१७-४ -१९३२)
बच्चों सै कुछ बातें
१. अगर तुम यह नहीं चाहते कि दूसरे तुम्हारा मजाक करें तो तुम मी औरों का मजाक न उड़ाओ ।
२. अगर तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारा सम्मान करें तो तुम भी हमेशा सम्माननीय ढंग से काम करो ।
है. अगर तुम चाहते हो कि सब तुमसे प्यार करें तो तुम मी सबसे प्यार करो ।
चूंकि यहां लड़के-लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं इसलिये हमने हमेशा आग्रह किया हैं कि उनके आपसी संबंध सामान्य सथियों जैसे हों जिनमें सेक्स या कामुकता का कोई स्थान न हो और सब प्रकार के प्रलोभनों सें बचने के लिये उन्हें एक-दूसरे के कमरे में जाने या अकेले मे गुप्त रूप से मिलने के लिये मना किया गया है । यह हर
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एक के आगे स्पष्ट कर दिया गया है । अगर इन नियमों का कठोरता से पालन किया जाये तो कोई अप्रिय चीज नहीं हो सकती ।
(१६-८-१९६०)
ज्योतिषियों का कहना है कि जिनका जन्म नवम्बर मे होता है बे सेक्स के पीछे पागल होने हैं !
ज्योतिषी जो कहते हैं उस पर विश्वास हीं क्यों करते, हों? यह विकास ही कष्ट लाता
श्रीअरविन्द कहते हैं कि आदमी वही बन जाता है जो वह अपने बारे में सोचता है । इस उपाय का उपयोग करके देखो, यह सचि कि तुम अच्छे बच्चे हो और सेक्स से छुटकारा पा जाओगे ।
आग्रह के साथ लगातार पांच वर्षों तक इस उपाय का प्रयोग करो । अपने अंदर संदेह या अनुत्साह को घुसने मत दो और पांच साल के बाद मुझे परिणाम बताना । इसका बहुत ख्याल रखो कि परिणाम के बारे में कभी संदेह न करना ।
(१९६५)
तुम इस सेक्स के मामले को बहुत अधिक महत्त्व दे रहे हो ।
उसके बारे मे बिलकुल न सोचों-ज्यादा रुचिकर चीजों मे रस लो । ज्ञान और चेतना मे बढ़ने की कोशिश करो और जब सेक्स के विचार या सेक्स के आवेग आये तो उन्हें लात मारकर भगा दो-तब तुम मेरे सैनिकों मे से एक बनने की आशा कर सकते हो ।
मैं पहले ही तुम सबसे कह चुकी हू कि यह न सोचों कि तुम लड़के हो या लड़की । अपने-आपको मानव सत्ताएं मानो जो समान रूप से भगवान् को पाने, वही होने और उन्हें अभिव्यक्त करने के लिये प्रयत्नशील हैं ।
(१६-२-१९६६)
सेक्स के बारे मे जानकारी का एकदम अभाव गंभीर तकलीफें पैदा कर सकता मै जिन बच्चों को जानता हू ' कुछ जानकारी देन? चाहता हू?
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शरीर-विधान की दृष्टि से कुछ विचार देना विकृति लानेवाले लज्जा के पुराने हानिप्रद और मूर्खतापूर्ण भाव को दूर कर सकते हैं ।
कुछ विद्यार्थी कहते हैं कि हम लिंगहीन समाज की बाट जोह रहे हैं फिर भाषा मे लिंग के मत्थे मे क्यों पड़े?
यह केवल मजाक हैं... या मन की एक मरोड़ हैं और जो सलाह दी गयी है उसे होशियारी के साथ समझने सें इंकार करती है ।
कुछ अच्छे विधर्मी धन की इतना? अधिक महत्व देते हैं कि सुनकर एक धक्का लगता है! क्या हम इस विषय पर बातचीत कर सकते हैं?
हां, कोशिश करो-इसकी बहुत अधिक) जरूरत है । ऐसा लगता है कि आजकल धन ही परम प्रभु बन गया हैं - सत्य पृष्ठभूमि मे हटता जा रहा हैं , रहा प्रेम, वह तो बिलकुल अदृश्य है!
मेरा आशय है भागवत प्रेम से, क्योंकि मनुष्य जिसे प्रेम कहते हैं वह तो धन का बड़ा अच्छा मित्र है ।
जब कोई बच्चा तुम्हें अपने परिवार के धन-दौलत की कहानियां सुनाकर प्रभावित करना चाहे तो चुपचाप मत बैठे रहो । तुम्हें उसे समझाना चाहिये कि यहां संसारी दौलत का महत्त्व नहीं है, केवल उसी धन का कुछ महत्त्व है जो भगवान् को अर्पण कर दिया गया हो, कि तुम बड़े मकान मे रहने से, पहले दर्जे मे यात्रा करने से या बहुत खुले हाथों खर्च करने से बड़े नहीं बन जाते । तुम्हारी महत्ता सत्यवादी, निष्कपट और कृतज्ञ होने से हीं बढ़ सकती हैं वि
मैंने कहा है और मैं इस निर्णय को फिर से दोहराती हू कि पन्द्रह साल से छोटे बच्चों को नौ बजे तक सो जाना चाहिये-जों ऐसा नहीं करते वे आज्ञाकारी नहीं हैं और यह बात दुःखद है ।
माताजी नींद के लिये आधी रात मे पहले का समय आधी रात के बाद के समय मे ज्यादा अच्छा क्यों है?
क्याकि प्रतीकात्मक रीति से, आधी रात के समय तक सूर्यास्त होता रहता है जब कि आधी'शत के तुरंत बाद, पहले घंटे से ही सूर्योदय हो जाता है ।
आशीर्वाद ।
(२२-८-१९६९)
माताजी जल्दी सोना और जल्दी जागना कैसे लाभप्रद होता है?
जब सूर्यास्त होता हैं तो धरती पर एक प्रकार की शांति उतरती है और यह शांति नींद के लिये हितकर है ।
जब सूर्योदय होता हैं तो धरती पर एक ओजस्वी शक्ति उतरती हैं और यह शक्ति काम में सहायक होती हैं ।
जब तुम देर में सोते और देर में उठते हो, तो तुम प्रकृति की शक्तियों से उलटे चलते हो और यह बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं हैं ।
(२१-१२-१९६९)
माताजी यहां अध्यापकों और कप्तानों के प्रति हमारी क्या वृत्ति होनी
आझाकसि, विनीत और स्नेहभरी वृत्ति । हैं तुम्हारे बह माई या बढ़ी बहनें हैं जो तुम्हारी सहायता करने के लिये बहुत कष्ट उठाते हैं ।
(१-२-१९७०)
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