CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
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 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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अध्यापन

 

विधालय अध्यापक और विधार्थी, दोनों की प्रगति का अवसर होना चाहिये । हर एक को मुक्त रूप से विकसित होने का अवसर मिलना चाहिये ।

 

 कोई पद्धति उतनी अच्छी तरह से कभी नहीं लागू की जा सकती जबतक कि स्वयं अध्यापक ने हीं उसे न खोजा हो । अन्यथा वह अध्यापक के लिये उतना हीं ऊबाऊ होता है जितना विद्यार्थी के लिये ।

 

 *

 

  एक बात हैं जिस पर मुझे जोर देना चाहिये । बाहर के विश्वविद्यालयों मैं जो किया जाता है उसका अनुसरण करने की कोशिश मत करो । विद्यार्थियों मे केवल आकड़े और जानकारी सस्ते की कोशिश न करो । उन्हें इतना अधिक काम न दो कि उन्हें और किसी चीज के लिये समय ही न मिले । तुम्हें रेल पकने की जल्दी नहीं है । विधार्थी जो सीखते हैं उसे समह्मने दो । उन्हें उसे आत्मसात करने दो । पाख्यक्रम

 

  १अध्यापकों की वार्षिक बैठक के लिए संदेश ।

 

१५४


समाप्त करना तुम्हारा लक्ष्य नहीं होना चाहिये । तुम्हें कार्यक्रम इस तरह बनाना चाहिये कि विद्यार्थियों को उन दूसरी चीजों के लिये भी समय मिल सके जिन्हें हैं सीखना चाहते हैं । उन्हें शारीरिक व्यायाम के लिये काफी समय मिलना चाहिये । मै नहीं चाहती कि वे बहुत अच्छे विद्यार्थी तो हों, पर रहें दुबला-पतले, रक्तहीन और पांडुर । शायद तुम्हारा जवाब यह हो कि इस तरह उन्हें पढ़ने-लिखने के लिये काफी समय न मिलेगा, लेकिन यह कमी पूरी करने के लिये उनके अध्ययन-काल को बढ़ाना जा सकता हैं, कोई पाख्यक्रम चार वर्ष में पूरा करने की जगह, तुम उसमें छ: वर्ष लगा सकते हो । यह उनके लिये ज्यादा अच्छा होगा; हैं यहां के वातावरण को ज्यादा आत्मसात् कर सकेंगे और उनकी प्रगति और सब छोड़कर एक हीं दिशा मे नहीं होगी । यह हर दिशा मे चौमुखी प्रगति होगी !

 

(१०-९-१९५३)

 

उच्चतर पाठधक्रम के विद्यार्थियों की पढार्ड का स्तर नीचा किये बिना उन्हें ज्यादा काम-मार न देने का यह उपाय है कि जिन्हें काम ज्यादा लगता हो उन्हें कुछ विषय छोड़ने की सत्हाह दी जाये तब वे अपना समय और अपनी शक्ति उन्हीं विषयों पर एकाग्र कर सकेंगे जिन्हें हैं सीखना चाहते हैं? पामक्रम हल्का करने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा होगा? पामक्रम हल्का करने से औरों की हानि होगी? यह स्वाभाविक है हमारे यहां प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के सक् ऐसे विद्यार्थी मी हैं जो इतने प्रतिभाशाली नहीं हैं जो उसी गति सै नहीं चल सकते ये अभी के लिये कुछ विषय छोड़ सकते हैं और बाद मे एक वर्ष अधिक त्हमाकर उसे मी सीख सकते हैं क्या यह एक अच्छा हल हैं !

 

यह निर्भर करता हैं । इसे सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता, उनमें से बहुतों के लिये यह विशेष उपयोगी न होगा । वे उस स्थिति तक नहीं पहुंचे हैं कि पढ़ने के विषय कम हों तो अमुक विषयों पर ज्यादा' एकाग्र हो सकें । परिणाम यहीं होगा कि उनमें ढीलें पढ़ने की वृत्ति बढ़ेगी- और यह एकाग्र होने से एकदम उलटा है ।- और इससे समय बरबाद होगा ।

 

  समाधान इसमें नहीं हैं । तुम्हें करना यह चाहिये कि विद्यार्थी जो भी कर रहे हों उसमें रस लेना दिखाओ-यह विद्यार्थियों की रुचिकर चीज करने के समान नहीं है! तुम्हें उनके अंदर ज्ञान और प्रगति के लिये इच्छा जगानी चाहिये । तुम किसी भी काम में, उदाहरण के लिये, कमरे में आलू लगाने में-रस ले सकते हो, बशर्ते कि तुम एकाग्रता के साथ करो, अनुभव प्राप्त करने के लिये, प्रगति करने और अधिक सचेतन

 

१५५


होने के लिये करो । मै प्रायः यह बात उन विद्यार्थियों सें कहा करती हू जो यह शिकायत करते हैं कि उनका अध्यापक अच्छा नहीं हैं । भले उन्हें अध्यापक पसंद न हो, भले वह बेकार बातें किया करता हों, भले वह ठीक स्तर का न हो, फिर भी, वे अपनी कक्षा मे कुछ लाभ उठा सकते हैं : कोई बहुत मजेदार चीज सीख सकते हैं और? चेतना मे प्रगति कर सकते हैं ।

 

  अधिकतर अध्यापक अच्छे विद्यार्थी पाना चाहते हे, ऐसे विद्यार्थी चाहते हैं जो अध्ययनशील, ध्यान देनेवाले हों, बात समह्मते हों : बहुत सारी चीजें जानते हों और अच्छे उत्तर दे सकते हों- यानी, अच्छे विद्यार्थी हों । इससे सब कुछ बिगड़ जाता हैं । विद्यार्थी पढ़ने और सीखने के लिये किताबें देखना शुरू करते हैं और केवल दूसरों की कही और पुस्तकों मे पढ़ीं चीजों पर हीं निर्भर रहते हैं, और उस अति चेतन भाग से संपर्क खो बैठते हैं जो अंतर्भाव के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता हैं । प्रायः छोटे बच्चों मे यह संपर्क रहता है, परंतु पढ़ाई की प्रक्रिया खो जाता हैं ।

 

  विद्यार्थी इस तरह की ठीक दिशा मे प्रगति कर सकें इसके लिये स्पष्ट हैं कि अध्यापक इस बात को समखें और देखने तथा पढ़ने के अपने पुराने तरीके बदले । उसके बिना, मेरा काम अटका हुआ है !

 

(१६-१२-१९५९)

 

*

 

(अध्यापकों मे इस विषय मे मतभेद था कि उच्चतर कक्षाओं के साहित्य के विद्यार्थियों के लिये अंग्रेजी साहित्य को अनिवार्य बनाया जाये या ऐच्छिक जब निर्णय के लिये यह बात माताजी के सामने रखी गयी ती उन्होंने उत्तर दिया:)

 

अध्यापकों से :

 

 संगठन के ब्योरों को इतना अधिक नहीं, वृत्ति को बदलना चाहिये ।

 

 ऐसा मालूम होता हैं कि जबतक स्वयं अध्यापक सामान्य बौद्धिक स्तर सें ऊपर नहीं उठते तबतक उनके लिये अपना कर्तव्य पूरा करना और अपने कार्य को सिद्ध करना कठिन होगा ।

 

(१०-८-१९६०)

 *

 

  एकरूपता के द्वारा एकता नहीं प्राप्त की जाती ।

 

  कार्यक्रमों और पद्धतियों की एकरूपता के द्वारा शिक्षा की एकता नहीं पायी जा सकती ।

 

१५६


  एकता प्रश्र की मांग के अनुसार मौन या प्रकट रूप से केंद्रीय आदर्श, केंद्रीय शक्ति या ज्योति, शिक्षा के उद्देश्य या लक्ष्य के साथ सतत संपर्क द्वारा हीं आ सकती

 

  सत्य और परम 'एकता' अपने-आपको विविधता के द्वारा ही प्रकट करती है । मानसिक तर्क ही अभिन्नता की मांग करता है । व्यवहार में, हर एक को अपनी ही पद्धति-जिसे वह समझता और अनुभव करता है-खोजनी और काम में लाती होगी । केवल इसी तरह शिक्षा प्रभावकारी हों सकतीं है ।

 

(१३-१०-१९६०)

 

*

 

  माताजी क्या आप कृपया थोड़े-से शब्दों मे बतला सकेगी कि ''मुक्त प्रगति'' ले आपका क्या मतलब हैं?

 

एक ऐसी प्रगति जिसका निदेशन अंतरात्मा करती हो, आदतें, परिपाटियां या पूर्वकल्पित विचार नहीं ।

 

*

 

(कई अध्यापकों ने अपनी रिपोर्ट देते हुए विद्यार्थियों की अनियमित उपस्थिति और पढ़ाई के बारे मे चिंता व्यक्त की? अध्यापकों की राय थी कि कुछ ही विद्यार्थी संतोषजनक काम कर रहे हैं उन्होने कक्षाओं की ज्यादा कड़ी व्यवस्था करने का सुझाव दिया माताजी ने उत्तर दिया :)

 

पहले अध्यापकों के लिये :

 

  रिपोर्ट मे जो आकड़े दिये गये हैं उनसे मैं संतुष्ट हूं । लोग चाहे कुछ भी सोचे, बहुत अच्छे विधार्थियों का अनुपात संतोषजनक हैं । अगर डेढ़-सी विद्यार्थियों मे सात विशुद्ध मूल्यवाले हैं तो यह बहुत अच्छा हैं ।

 

अब संगठन के बारे में :

 

  सब मिलाकर कक्षाओं का पुनर्गठन बहुमत की आवश्यकताओं को पूरा करने की दृष्टि से किया जा सकता हैं, यानी, उनकी दिष्टि से जो, किसी बाहरी दबाव या अपर से लगाये गये नियंत्रण के बिना, बुरे तरह काम करते हैं और कोई प्रगति नहीं करते ।

 

  लेकिन यह आवश्यक है कि नयी कक्षाओं में वर्तमान शिक्षा-पद्धति बनी रहे, ताकि विलक्षण व्यक्ति आगे बढ़ सकें और मुक्त रूप से विकसित हों सके । यह हमारा

 

१५७


सच्चा लक्ष्य हैं। यह बात मालूम होनी चाहिये-हमें इसकी घोषणा करते हुए सकुचाना न चाहिये-कि हमारे विद्यालय का समस्त उद्देश्य है उन लोगों को खोजना और उन्हें प्रोत्साहित करना जिनमें प्रगति की आवश्यकता इतनी सचेतन हो गयी  हैं कि उनके जीवन को दिशा दे सके । इन ''मुक्त प्रगति' ' कक्षाओं में प्रवेश पाना एक षिशेषाधिकार होना चाहिये ।

 

  नियमित अवधि के बाद (उदाहरण के लिये, हर महीने) चुनाव होना चाहिये और जो इस विशेष शिक्षा से लाभ नहीं उठा सकते उन्हें साधारण धारा मे वापिस भेज देना चाहिये ।

 

  रिपोर्ट में जो आलोचनाएं की गयी हैं वह जितनी विद्यार्थियों पर लाम होती हे उतनी ही अध्यापकों पर भी । कच्छी क्षमतावाले विद्यार्थियों के लिये, अपने विषय का अच्छा जानकार एक अध्यापक काफी हैं-बल्कि एक अच्छी पाक्य-पुस्तक जिसके साथ विश्व-कोश तथा अन्य कोश हों, काफी हैं । लेकिन जैसे-जैसे तुम नीचे उतरते हों और विद्यार्थियों की क्षमता कम होती जाती है, वैसे-वैसे अध्यापक की क्षमता अधिकाधिक होनी चाहिये : अनुशासन, आत्म-संयम, समर्पण-भाव, मनोवैज्ञानिक समझ, संक्रामक उत्साह, विद्यार्थियों मे सोये हुए भाग-जानने की इच्छा, प्रगति की आवश्यकता, आत्मसंयम आदि-को जगाने की क्षमता ।

 

  जैसे हम विधालय की व्यवस्था इस तरह करते हैं कि विशिष्ट छात्रों की खोज कर सकें और उनकी सहायता कह सकें, उसी तरह, कक्षाओं को जिम्मेदारी विशिष्ट अध्यापकों को देनी चाहिये ।

 

  अतः मै हर अध्यापक से मांग करती हू कि वह अपने विद्यालय के काम को अपनी योग-साधना का सर्वोत्तम और हुत तम मार्ग समझे । और फिर, प्रत्येक कठिनाई और प्रत्येक कठिन बिधार्थी उसके लिये समस्या का दिव्य समाधान पाने का अवसर हो ।

 

(५-८-१९६३)

 

*

 

  माताजी मेरे विद्यार्थी कहते हैं कि 'अ' ने उनसे कहा हैं कि रीतिपूर्वक अम्यासों के द्वारा सुप्त क्षमताओं को विकसित किया जा सकना है कहते हैं कि आपने उसे ये अभ्यास बतलाये हैं उसने यह मी कहा है कि हमारे शिक्षा-केंद्र मे इनका परीक्षण होगा !

 

'क्ष' के आग्रह पर मैंने, पहले अभ्यास का संकेत दिया था-परंतु परिणाम दुर्भाग्यपूर्ण- से निकले, और मुझे बंद करना पड़ा ।

 

  जब समय आता है तो ये चीजें स्वभावतः, यूं कहें, सहजरूप में आती हैं । और

 

१५८


ज्यादा अच्छा यह हैं कि मनमाने संकल्प न किये जायें ।

 

आजकल यहां हमें जो शिला दी जाती है वह बाहर कहीं दी गयी शिक्षा ले बहुत मित्र नहीं है ठीक ईसी कारण हमें विद्यार्थियों की गुप्त आध्यात्मिक क्षमताओं को प्रशिक्षित करने की कोशिश करनी चाहिये लेकिन यह विधालय में कैसे किया जाये?

 

यह किसी बाहरी उपाय से नहीं किया जा सकता । यह लगभग पूरी तरह अध्यापक की वृत्ति और चेतना पर निर्भर है । अगर स्वयं उसमें अंतर्दृष्टि और अंतर्ज्ञान नहीं हैं तो वह ये चीजें विद्यार्थियों को कैसे दे सकता है?

 

  सच पूछो तो, हम मुख्य रूप सें आध्यात्मिक शक्ति से भरे वातावरण पर निर्भर हैं जो चारों ओर से घेरे हुए हैं , जिसका प्रभाव अवश्य होता हैं , भले वह दिखायी न दे या अनुभव न हो ।

 

(२०-४-९९६६)

 

*

 

अध्यापकों और विद्यार्थियों के नाम :

''वैर ला पैर्फेक्सियों' '' की कक्षाएं श्रीअरविन्द की शिक्षा के अनुसार हैं ।

वे 'सत्य' की सिद्धि की ओर ले जाती हैं ।

जो इस बात को नहीं समझते वे अपने भविष्य की ओर पीठ कर रहे हैं ।

 

(सितंबर १९६६)

 

(किसी अध्यापक ने शिकायत की कि बहुत-सी व्यर्थ की बातें बढ़ायी जाती हैं-उदाहरण के लिये भाषाओं की कक्षा मे विद्यार्थियों से मूर्खतामरी कहानियां पढ़ने के लिये कहा जाता है और उन्हें लोगों के जीवन और रीति-रिवाजों के बारे मे नगण्य चीजें बतलायी जाती हैं !

 

तुम्हारी कठिनाई इस कारण आती है क्योंकि तुम्हारे अंदर अभीतक वह पुरानी मान्यता हैं कि जीवन मे कुछ चीजें ऊंची हैं और कुछ नीची । यह ठीक नहीं है । चीजें या क्रियाएं अपने-आपमें ऊंची-नीची नन्हों होती, करनेवाले की चेतना सत्य या मिथ्या होती है ।

 

  'मुक्त प्रगति पद्धति' के अनुसार वर्गीकृत कक्षाओं का नाम ।

 

१५९


  अगर तुम अपनी चेतना को 'परम चेतना' के साथ एक करके 'उसे' अभिव्यक्त करो तो तुम जो कुछ सोचोगे, जो कुछ अनुभव करोगे या जो कुछ करोगे वह सब ज्योतिर्मय और सत्य बन जायेगा । पढ़ाने का विषय बदलने की जरूरत नहीं है, तुम जिस चेतना के साथ पढ़ाते हो उसे प्रबुद्ध होना चाहिये ।

 

(३१-७-१९६७)

 

*

 

मुझे नहीं मालूम कि मेरे अंदर अंतरात्मा जैसी कोई चीज है मी या नहीं फिर मी अध्यापक के नाते आशा की जाती है कि मैं विद्यार्थियों की अंतरात्मा के विकास पर जोर दूं- इस पर कुछ प्रकाश डलिये

 

विरोध इस कारण आता है कि तुम इसे मानसिक रूप देना चाहते हों और यह असंभव हैं । यह वृत्ति की बात है, मुख्य रूप सें आंतरिक वृत्ति की जो यथासंभव बाहरी क्रियाओं का भी संचालन करती है । यह पढ़ाने की नहीं, उससे कहीं अधिक ज़ीने की चीज हैं ।

 

*

 

  अगर हमें कोई नयी पद्धति अपनानी है तो उसको ठीक-ठीक रूप क्या होगा?

 

वह हर अध्यापक की क्षमता के अनुसार, यथासंभव अधिक-से-अधिक अच्छे ढंग से क्रियान्वित की जायेगी ।

 

(२५-७-१९६७)

 

*

 

(किसी अध्यापक ने अमुक आयु के बच्चों का कार्यक्रम बदलने का सुझाव दिया उसने सतर्क दी कि कक्षाएं कम कर दी जाये; अध्यापक व्यक्तिगत रूप मै सवेरे के समय विद्यार्थियों की सहायता करें और केवल दोपहर को कक्षा के रूप मे मिले अंत मे उसने लिखा:)

 

  बहुत-से अध्यापक यह अनुभव करते हैं कि 'क्ष' की कक्षओं और ''पुरानी पद्धति'' कहनेवाले कथाओं मे विभाजन अवांछनीय क्ष हम आशा करते हैं कि क्रर्यठन के कारण दोनों के बीच का फर्क बहुत कम ख जायेगा क्या आपका ख्याल हैं किंतु  विभाजन जारी रहन? चाहिये? क्या हमें उसके माय होने के लिये राह देखते रहन? चाहिये?

 

१६०


यह कहीं अधिक अच्छा होगा कि भेद तुरंत गायब हो जाये । जो तुम सुझा रहे हों उसकी सार्थकता व्यवहार मे हीं दिखायी देगी । इसलिये मुझे लगता है कि सबसे अच्छा यहीं हैं कि प्रयोग करके देखा जाये, अगर परिणाम आने मे देर लगे तो पूरे एक वर्ष तक, और अगर परिणाम तबतक स्पष्ट होने लगे तो तीन महीने के लिये परीक्षण करके देखा जाये ।

 

  सचाई और लचीलेपन के साथ तुम समस्या हल कर सकोगे ।

 

 (६-११-१९६७)

 

*

 

९-११-१९६७ पक्ष को उच्चतर पामक्रम के अध्यापकों की बैठक मे उच्चतर पामक्रम मे परिवर्तन के बारे मे बातचीत के बाद निम्नलिखित सुझाव दिये गये

 

  १. विद्यार्थी पूरी स्वतंत्रता के साथ विषयों का चुनाव करे और यह चुनाव विद्यार्थी की वास्तविक खोज और उसके उत्साह को प्रतिबिम्यित करे!

 

  २. हल तश्त चुने हुए हर विषय की एक परियोजना हो जो आवश्यकता के अनुसार छोटी-फ्री हो !

 

  है. प्रत्येक परियोजना मे विद्यार्थी उस विषय के जानकार अध्यापक या अध्यापकों की सहायता ले सकें !

 

  ४. कोई निश्चित मौखिक कक्षाएं न होगी; लेकिन विद्यार्थियों के सक् समझौता करके जब जरूरी द्वि मौखिक कक्षाएं ली जा सकती द्वै परंतु यह कक्षाएं दोपहर को हों तो ज्यादा अच्छा है?

 

  ५. यह निशित नहीं किया जा सकता कि हर विद्यार्थी अपने चुने हुए कार्यक्रम मे ले कितना करेगा अपना पामक्रम पूरा कर लेने के लिये विद्यार्थी मे सतत प्रयास क्षमताओं का विकास अपने विषयों की समझ काफी स्पष्टता और यथार्थता के सक् लिखने तथा विषयसंगत प्रश्नों का मौखिक उत्तर देने की क्षमता होनी चाहिये  काम की राशि की अपेक्षा उसके स्तर का महत्व ज्यादा होमर यद्यपि राशि की उपेक्षा नहीं होगी पर उसे हमारे उच्च स्तर के अनुरूप होना चाहिये

 

  उक्त प्रस्ताव कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः सर्वसम्मति ले स्वीकृत हुआ और यह नय हुआ कि इसे मर्म-दर्शन के लिये माताजी के पास भेजा जाये !

 

  यहां चौदह प्रस्तावों मे से केवल वे पांच प्रस्ताव ही दिये गये हैं जीवनपर माताजी का उत्तर आधारित हैं ।

 

१६१


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यह ठीक है । अब महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसे सचाई तथा सम्यकता के साथ किया जाये ।

 

आशीर्वाद ।

(नवंबर १९६७)

 

*

 

'छ' ने कह? कि हमें माताजी ले पूछना चाहिये कि इस योजना- पद्धति के अनुसार हर विद्यार्थी ले कहा जायेगा कि वह गहन अध्ययन और गवेषणा के लिये एक या अधिक विषयों का बुनाव करे तो क्या उसके सक् छात्रों को ज्ञान की अन्य प्रशाखाओं का अधिक परिचय देने के लिये कुछ और व्यापक अध्ययन नहीं करना चाहिये?

 

विधालय विधार्थियों को सोचने, अध्ययन करने, प्रगति करने और हो सके तो बुद्धिमान बनने की तैयारी करवाने के लिये है-यह सब केवल विद्यालय में हीं नहीं, सारे जीवन में चलता रहना चाहिये ।

 

(नवंबर १९६७)

 

*

 

  यह मानी हुई बात ह्वै कि माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी योग करने के लिये श यह निश्चय करने के लिये कि उन्हें योग-साधना करनी है श नहीं बहुत छोटे होते हैं इसलिये उनकी शिला केवल शिला है और कुछ नहीं ?

 

  लेकिन उच्चतर कलाएं' में मेरा ख्याल है यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि उनमें वही तहों प्रवेश फ सकते हैं जो योग करना चाहते हों- अश्व शिला योग बन जाती है!

 

  अगर माताजी इस विषय पर निर्देशन दे सकें तो हममें ले कड़यों के लिये यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जायेगी

 

बात बिलकुल ऐसी नहीं है । सभी स्तरों पर, प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर, सभी कक्षाओं मे बच्चे योग-पद्धति का अनुसरण करेंगे और नये ज्ञान को नीचे लाने की तैयारी और कोशिश करेंगे । अतः कहा जा सकता है कि सभी बच्चे योग कर रहे हैं ।

 

लेकिन, फिर भी, योग करनेवालों और शिष्यों मे भेद करना चाहिये । शिष्य होने के लिये व्यक्ति को समर्पण करना होता है और इसका निर्णय संपूर्ण और सहज होना चाहिये । ऐसा निश्चय व्यक्तिगत रूप से, जब पुकार आये तभी लिया जा सकता है

 

१६३


और यह थोपा नहीं जा सकता, यहां तक कि इसका सुआव भी नहीं दिया जा सकता।

 

आशीर्वाद ।

 

(१६-११-१९६७)

 

*

 

   (गणित की कक्षा के लिये पाक्य-पुस्तक के चुनाव के बारे में)

 

 मुझे केवल फ्रेंच पुस्तक हीं काम लायक लगती है-दूसरी तो असंभव हैं और काम में अरुचि पैदा करती हैं ।

 

  लेकिन मैं यह सलाह नहीं दूंगी कि यह फ्रेंच पुस्तक विद्यार्थियों को दी जाये । उन्हें सचमुच पुस्तकों की जरूरत नहीं है  अध्यापक या अध्यापकों को पुस्तक का उपयोग करके विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुसार, उनकी जानकारी और क्षमता के अनुसार पाठ तैयार करने चाहिये । मतलब यह कि अध्यापक को पढ़ना चाहिये कि पुस्तक में क्या है , उसे थोड़ा-थोड़ा करके, काफी व्याख्या के साथ, टिप्पणियां और उदाहरणों के साथ विद्यार्थियों को समझाना चाहिये ताकि विषय सुगम और आकर्षक बन सके, यानी, निर्जीव सूखा सिद्धांत न बनकर सजीव व्यावहारिक चीज बन जाये ।

 

(३-१२-१९६७)

 

*

 

मधुर मां लगभग एक सप्ताह हुआ जब हमने 'उच्चतर कक्षाओं' मे नया परीक्षण शुरू किया था हुमने मैं ही कुछ धन उठ खड़े हुए हैं जिन पर मैं आपसे 'प्रकाश' और 'मार्गदर्शन' चाहता हूं !

 

  अध्यापकों और विद्यार्थियों की व्यवस्था और कार्यक्रम को ऐसा रूप दिया क्या है कि व्यक्ति का खुलकर विकास और प्रगति हो सके

 

  १. कुछ अध्यापकों का कहना है कि यह श्रेष्ठ विधार्थियों के लिये ठीक है लेकिन साधारण या औसत बिधार्थी के लिये ठीक नहीं है !

 

  लेकिन माताजी क्या हमें यह प्रयास न करना चाहिये कि साधारण और औसत विद्यार्थी को श्रेष्ठ बिधार्थी में बदल सकें? अमर झ तो क्या यह ज्यादा अच्छा न होगा कि श्रेष्ठ लोके के प्रशिक्षक पर जोर दिया जाये और कभी-कदास कुछ थोडी श अधिक अवधि के लिये औसत विद्यार्थियों के लिये सुविधाएं दी जायें- लेकिन हमेशा लक्ष्य यही रह कि ये सुविधाएं अनावश्यक हो जायें?

 

 अपनी समीक्षा का यह विवरण पढ़कर माताजी ने ''आशीर्वाद' ' लिखा और अपने हस्ताक्षर किये !

 

१६४


हम यहां उन्हीं बच्चों को लेना चाहते हैं जो श्रेष्ठ कहला सकें । व्यवस्था उन्हीं के लिये होनी चाहिये । जो इसमें ठीक न बैठे उन्हें एक साल के परीक्षण के बाद चले जाना चाहिये ।

 

२. कुछ अध्यापकों का कहना है कि वैयक्तिक प्रगति और व्यक्ति जिस समुदाय का अंग ह्वै उस समुदाय की प्रगति मे टक्कर होती है इसे कैसे ठीक किया जाये? इस टक्कर का क्या उपाय है?

 

  कहा क्या है कि अगर व्यक्ति न्यूनाधिक रूप मैं अपने दल के साके रहता है तो वह समुदाय के अनुभव से लाभ उठा सकता है सामुदायिक अध्ययन बातचीत आदि ले लाम उठा सकता है?

 

यह सब बेकार है- अगर व्यक्ति अपनी अधिक-से-अधिक गति से प्रगति कर सके तो निक्षय हीं दल को उससे लाभ होगा । अगर व्यक्ति को समुदाय की संभावना या क्षमता के अधीन रखा जाये तो वह अपनी समग्र प्रगति का अवसर खो बैठता हैं ।

 

 (२२-१२-१९६७)

 

*

 

  'क्ष' ने कुछ समय पहले मुझसे पूछा था कि क्या मैं 'मुक्त प्रगति' कक्षाओं में काम करना चाहूंगा अभी मैं उन कलाएं में काम कर रहा हूं जिन्हें ''पुरानी पद्धति' ' की कक्षाएं कहा जाता है?

 

  माताजी बतलाइये कि मैं जहां हूं वहीं बना ख या 'मुक्त प्रगति' कक्षाओं मे काम करूं?

 

पढ़ाने का पुराना ढंग निक्षय हीं पुराना पंडू चुका है और धीरे-धीरे सारे संसार से उठ जायेगा ।

 

  सच्ची बात तो यह है कि हर अध्यापक को, आधुनिक विचारों से प्रेरणा लेते हुए वह पद्धति खोजनी चाहिये जो उसकी प्रकृति के अधिक अनुकूल है। अगर उसे पता न हो कि क्या करना चाहिये तो वह 'क्ष' की कक्षा के साथ मिल सकता है !

 

*

 

  साधारण कक्षाएं भूतकाल की चीजें हैं और धीरे-धीरे गायब हों जायेंगी । रहीं बात अलग काम करने की या ''पूर्णता की ओर' ' कक्षाओं के साथ मिलने की. तो यह चुनाव पूरी तरह तुम पर निर्भर है । क्योंकि किसी को पढ़ाने, उसे पढ़ाने के लिये

 

१६५


तुम्हें सिद्धांतों और बौद्धिक चिंतनों से हटकर बहुत ठोस व्यावहारिकता और उसके सभी ब्योरों मे आना होगा ।

 

  कक्षा लेते समय पढ़ाना सिखाना निक्षय हीं अध्यापक बननेवाले के लिये बहुत अच्छा है, परंतु निक्षय ही विधार्थियों के लिये कम उपयोगी हैं ।

 

  ''पूर्णता की ओर' ' कक्षओं मे जाना शुरू करनेवाले के लिये बहुत उपयोगी हो सकता है, जो वहां पढ़ाने का क्रियात्मक ढंग सीख सकता है ।

 

  चुनाव तुम्हारे हाथों मे है ।

 

*

 

मैंने अपने अंदर दो परस्पर विरोधी विचार देखे हैं अ एक प्रकार के विचार व्यक्तिगत कार्य के पक्ष में हैं प्रकार के कार्य के?

 

क्या यह संभव नहीं हैं कि कक्षा के समय की दो बराबर या आवश्यकता के अनुसार कम-ज्यादा भागों में बांटा जाय और दोनों पद्धतियों का निरीक्षण किया जाये? इससे पढ़ाने में विविधता आयेगी और विद्यार्थियों तथा उनकी क्षमता का अवलोकन करने के लिये ज्यादा विस्तृत क्षेत्र मिलेगा ।

 

*

 

  (१४ से १८ की उम्र के बच्चों के दो दलों के बारे मैं कुछ प्रश्रों का सारांश दे रहा हूं यद्यपि दोनों दल 'मुक्त प्रगति-पद्धति' पर आधारित थे, पर ''आये की ओर'' का कार्यक्रम ''पूर्णता की ओर'' की अपेक्षा ज्यादा संघटित था !)

 

  १. अध्यापकों मे हमारे विद्यालय की दिशा के बारे में कुछ मतभेद है ! ईन मतभेदों ले कैसे बचा जाये?

 

  २. क्या चौदह वर्ष कार्य कम उम्र के बच्चों के लिये निश्चित कार्यक्रम और निशित कक्षाएं हों या उन्हें मी अपनी कार्य दिशा और अपनी गति बनने की स्वाधीनता होनी चाहिये?

 

  है. यह हमारा आवश्यक कार्य है या नहीं कि यह देखें कि बच्चे की अंतरात्मा के लिये किन परिस्थितियों मैं आये आना और उसके विकास को दिशा देना संभव होगा

 

  ४. क्या हम ''आगे की ओर'' और ''पूर्णता की ओर' ' खो पक करने के बारे में विचार करें?

 

१६६


ये बातें एक हीं साथ ठीक भी हैं और गलत भी ।

 

  सबसे पहले ऐसा मालूम होता हैं कि सात वर्ष की आयु के बाद, जिन लोगों मे जीवित अंतरात्मा होती है वे इतने जाग्रत होते हैं कि अगर उनकी सहायता की जाये तो उसे पाने के लिये तैयार होते हैं । सात से नीचे यह अपवाद स्वरूप हैं ।

 

  हमारे बच्चों में बहुत भेद हैं । पहले वे हैं जिनमें जीती-जागती अंतरात्मा है । उनके लिये कोई प्रश्र हीं नहीं । हमें उसे पाने में उनकी सहायता करनी चाहिये ।

 

  लेकिन दूसरे मी हैं, जो छोटे जानवरों के-से हैं । अगर वे बाहर के बच्चे हैं, जिनके मां-बाप आशा करते हे कि उन्हें पढ़ाया जायेगा- तो उनके लिये '' आगे की ओर' ' ठीक हैं । इसका कोई महत्त्व नहीं ।

 

  समस्या यह नहीं है कि कक्षाएं और कार्यक्रम हों या नहीं । समस्या हैं बच्चों के चुनाव की ।

 

  सात वर्ष की अवस्था तक बच्चों को मौज करनी चाहिये । विद्यालय एक खेल हो और वे खेल हीं खेल में सीख़ें । खेलते-खेलते उनके अंदर सीखने, जानने और जीवन को समझने के लिये रस उत्पन्न होगा । पद्धति का बहुत महत्त्व नहीं हैं । अध्यापक की वृत्ति का महत्त्व हैं । अध्यापक को ऐसी चीज नहीं होना चाहिये जिसे दबाव के कारण स्वीकार किया जाता है । वह सदा एक ऐसा मित्र होना चाहिये जिससे तुम प्यार करते हों क्योंकि वह तुम्हारी मदद और मनोरंजन करता है ।

 

 सात वर्ष सें ऊपर, जो तैयार हैं उनके लिये नयी पद्धति का उपयोग किया जा सकता है, बशर्ते कि एक ऐसी कक्षा भी हो जिसमें और बच्चे सामान्य रीति से काम कर सकें । और उस कक्षा के लिये अध्यापक को यह विश्वास होना चाहिये कि वह जो कुछ करवा रहा  है वही ठीक तरीका हैं । उसे यह नहीं लगना चाहिये कि उसे एक घटिया काम की ओर धकेल दिया गया है ।

 

  जब लोग सहमत नहीं होते हों इसका काराग होता है उनका ओछापन और उनकी संकीर्णता, यहीं चीजें उन्हें सहमत होने से रोकती हैं । वे अपने विचार मे ठीक हो सकते हैं... पर हो सकता हैं कि वे ठीक चीज नहीं कर रहे, अगर उनके अंदर आवश्यक उद्घाटन नहीं है ।

 

  ये चीजें व्यक्तित्व के विचार से ऊपर होनी चाहिये । इन दोनों को मिला देना कमजोरी है । व्यक्तित्व का कोई विचार नहीं होना चाहिये ।

 

  कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें हम नहीं कर सकते ! उदाहरण के लिये, अगर हम सभी बच्चों को नयी पद्धति मे लेना चाहें तो हमें सबको एक-दो महीने लच्छे परीक्षण के लिये लेना होगा, यह पता लगाना होगा कि कौन चल सकते हैं, और बाकी को अपने-अपने धर लौटा देना होगा । यह असंभव है ।

 

  इसलिये हमें अंदर से समाधान लाना होगा । ऐसे बच्चे हैं जो नयी पद्धति को पसंद नहीं करते-उत्तरदायित्व उन्हें चिंता में डाल देता है । बच्चों ने अपने पत्रों मे मुझे

 

१६७


इस बात की सूचना दी है । हम उन्हें जैसा-का-वैसा छोड़ सकते हैं ।

 

  हर एक को, बिना अपवाद के, बिना अपवाद के, यह जानना चाहिये कि वह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो जानता है और जो जानता है उसे क्रिया में लाता हैं । हर एक, उसे -जो होना चाहिये वह होना और जो करना चाहिये वह करना सीख रहा हैं।

 

(१६-११-१९६८)

 

*

 

  तुमने अपने काम के बारे में जो लिखा हैं उसे मैंने संतोष के साथ पड़ा और तुम्हारे अपने काम के लिये उसे स्वीकार करती हूं ।

 

  लेकिन तुम्हें समझना चाहिये कि दूसरे अध्यापक अपने काम के बारे में और तरह से सोच सकते हैं और वे भी उतने ही ठीक हों सकते हैं ।

 

  'य' के बारे में तुम्हारी समालोचना पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि मैं उसके और उसकी वृत्ति के बारे में जो जानती हूं यह उसके साथ मेल नहीं खाती ।

 

  मैं इस अवसर पर तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि आध्यात्मिक प्रगति और 'सत्य' की सेवा सामंजस्य पर आधारित होती हैं, विभाजन और समालोचना पर नहीं ।

 

(१५-११-१९६८)

 

*

 

  प्रगति विस्तार में है, प्रतिरोध में नहीं ।

 

  सभी दृष्टिबिडओं को, हर एक को उसके सच्चे स्थान पर रखकर, साथ लाना चाहिये किसी की अवहेलना करके किसी और पर जोर न देना चाहिये ।

 

  सच्ची प्रगति आत्मा के विस्तार और सभी सीमाओं के समापन में है ।

 

(२२-९०-१९७१)

 

*

 

  अध्यापकों को आवश्यक चेतना में विकसित होना चाहिये, काम के वास्तविक अनुभव पर जोर होना चाहिये और बच्चे के मन में खेल और काम के बीच कोई फर्क न होना चाहिये-सब कुछ रुचिमय हो रस से भरपूर । अध्यापक का काम हैं ऐसी रुचि उत्पन्न करना ।

 

अगर रुचि है तो काम ठीक होगा हीं ।

 

(१-११-११७१)

 

*

 

  आज 'र' था और कक्षा के बाद पता लगा कि आपने उसे मेरी कक्षा बढुड़इमिरि की कक्षा में जाने की दी है?

 

१६८


उसने मुझसे कहा कि वह पढ़ाई-लिखाई की जगह हाथ का काम करना बहुत ज्यादा पसंद करेगा । मुझे लगा कि अपने सहज-बोध में वह ठीक है और उसकी प्रकृति के अनुसार उसका चुनाव अच्छे-से-अच्छा है । इसलिये मैंने उसे आवश्यक अनुमति दे दी ।

 

(२६-३-१९५६)

 

*

 

  तुम्हें इस बात का बहुत ख्याल रखना चाहिये कि जो पाठ तुम पढ़ते हो वे एक ही न हों । तुम्हारे विषय एक-दूसरे के साथ संबंधित हैं । अगर दो अध्यापक एक हीं विषय पर बोले तो स्वभावत: दोनों के दृष्टिबिडओं में कुछ भेद होगा । अलग-अलग कोण से देखें तो एक ही चीज अलग-अलग दिखाई देती हैं । इससे बच्चों के युवा मानस में गड़बड़ी पैदा होगी और है अध्यापकों मे तुलना करना शुरू करेंगे जो बहुत वांछनीय नहीं है । इसलिये हर एक को दूसरों के विषय में चक्कर लगाये बिना अपने ही विषय तक रहना चाहिये ।

 

(१०-९-१९५३)

 

*

 

  बच्चों सें जो प्रश्र पूछे जायेंगे उनके बारे में चाहूंगी कि अध्यापक शब्दों की जगह विचारों में सोचें ।

 

  और फिर बाद में, जब विचारों के द्वारा सोचना उनके लिये सामान्य हो जाये तो मै उनसे ज्यादा प्रगति करने के लिये कहूंगी, जो निर्णायक प्रगति होगी, यानी, विचारों से सोचने की जगह अनुभूतियों से सोचना होगा । जब तुम यह कर सको तभी वास्तव मे समझना शुरू करते हो ।

 

*

 

  आपने अध्यापकों से ''शब्दों में सोचने की जगह विचारों मे सोचने के लिये'' कहा है ! साथ ही आपने यह मी कहा है कि इसके बाद आप उनसे अनुभवों मे सोचने के लिये कहेगी क्या आप सोचने के इन तीन प्रकारों पर प्रकाश डालने की कृपा करेंगी?

 

हमारे मकान पर एक बहुत ऊंचा मीनार है; उस मीनार मे सबसे ऊपर एक प्रकाशमान खुला कमरा है , यह खुली हवा और पूर्ण प्रकाश में प्रवेश पाने से पहले सबसे अपर का है ।

 

१६९


  कभी-कभी, जब हमें अवकाश हों, हम इस प्रकाशमान कमरे मे चढ़ जाते हैं, और वहां अगर हम बिलकुल शांत रहें, तो दो-एक या कई मेहमान हमसे मिलने आते हैं; कोई लंबा होता हैं, कोई ठिगना, कोई अकेला होता हैं, कोई दल समेत; सब-के-सब प्रकाशमान और मनोहर ।

 

साधारणतः, उनके आगमन की खुशी मे और उनका अच्छी तरह स्वागत करने की जल्दी मे, हम अपनी शांति खो बैठते हैं और दौड़ते हुए उस बड़े हाल मे नीचे आते हे जो मीनार का आधार है और जो शब्दों का गोदाम है । यहां कम या ज्यादा उत्तेजित होकर, हम अपने पास आनेवाले इस या उस मेहमान का आलेखन करने के प्रयास मे अपनी पहुंच के सभी शब्दों को चुनते, रद्द करते, जोड़ते, इकट्ठा करते, फिर से व्यवस्थित करते हैं । लेकिन बहुधा हम उनका जो चित्र बनाने में सफल होते हैं वह एक चित्र होने की अपेक्षा व्यंग्य-चित्र होता हैं ।

 

  लेकिन अगर हम ज्यादा बुद्धिमान होते, तो हम कहीं, मीनार की चोटी पर बिलकुल शांत, स्थिर, आनंदपूर्ण चिंतन मे बने रहते । तब, कुछ अवधि के बाद, हम देखेंगे. कि स्वयं मेहमान धीरे-धीरे, लालित्य के साथ, शांति सें, अपने सौंदर्य और सुरुचि को खोये बिना नीचे उतर रहे हैं और, जब वे शब्दों के भंडार मे सें गुजरेंगे तो बिना प्रयास के, सहज रूप से, एकदम भौतिक मकान मे मी दिखाई देने योग्य शब्दों का परिधान पहन लेंगे ।

 

  इसे मैं विचारों के द्वारा सोचना कहती हू ।

 

  जब यह पद्धति तुम्हारे लिये रहस्यमय न रह जायेगी तब मैं तुम्हें बताऊंगी कि अनुभवों के द्वारा सोचना किसे कहते हैं ।

 

(३१-५-१९६०)

 

*

 

  जब तुम शब्दों के द्वारा सोचते हो तो तुम जो सोचते हो उसे केवल उन्हीं शब्दों के दुरा व्यक्त कर सकते हो । विचारों द्वारा सोचने पर एक हीं विचार को नाना प्रकार के शब्दों के दुरा व्यक्त किया जा सकता है । शब्द भी अलग-अलग भाषाओं के हा सकते हैं-बशर्ते कि तुम एक से अधिक भाषाएं जानते हो । विचारों के द्वारा सोचने के बारे में यह पहली, सबसे अधिक प्रारंभिक बात हैं ।

 

  जब तुम अनुभव से सोचते हो, तो तुम बहुत ज्यादा गहराई मे जाते हो और तुम एक हीं अनुभव को नाना प्रकार के विचारों के दुरा व्यक्त कर सकते हो । तब विचार किसी भी भाषा मे यह या वह रूप ले सकता हैं और सभी में अदल-बदल के बिना सारभूत उपलब्धि एक ही रहेगी ।

 

*

 

१७०


  बोलते समय विश्वास पैदा करने के लिये, विचारों मे नहीं, अनुभवों मे सोचो ।

 

*

 

  क्या तुम 'क' के साथ अध्यापकों की सभा मे गये थे? वह सभा इसलिये हों रहीं थी क्योंकि बे अपने अध्ययन के अतिरिक्त हर एक को कोई विशेष योजना देना चाहते थे । बे  उन्हें ऐसी चीजें खोजने मे सहायता करना चाहते थे जिनका वैज्ञानिक आजकल पता लगा रहे हैं-''पानी क्या है, '' ''शक्कर पानी मे क्यों घुलती है ?'' - और इन सब बातों सें वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि बे कुछ नहीं जानते।

 

  अतः मैंने उससे प्रश्र किया : ''मृत्यु क्या है?''

 

  यह बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । सैकड़ों वर्षों से मनुष्य यह प्रश्र पूछते आये हैं । वे नहीं जानते ।

 

  विधार्थी कहेंगे कि वे नहीं जानते कि मृत्यु क्या है, लेकिन वे अन्वेषण के द्वारा पता लगा लेंगे । यह समझने के लिये, तुम्हें यह जानना चाहिये (माताजी बहुत-सी दिशाओं की ओर संकेत करती हैं), और अंत में अगर तुम सीधी लकीर पर चलते चले जाते हो, तो उसकी अपेक्षा यह ज्ञान बहुत ज्यादा विस्मृत होगा ।

 

  नीरवता मे, हम, 'सत्य' के संपर्क मे आते हैं ! फिर विचार उतरता है , शब्दों के 'पुस्तकालय' मे सें गुजरता है और सबसे अधिक उपयुक्त्त शब्द चून लेता है। पहले यह धुंधले रूप मे आता है । जबतक वह यथार्थ रूप न ले ले तुम्हें प्रयास करते जाना चाहिये । तुम्हें उसे लिख लेना चाहिये, पर तुम्हें शांत रहना और जारी रखना चाहिये । तब तुम्हें ठीक शब्द मिलेगा । इस तरह जो शब्द आता है  वह अपने तात्त्विक अर्थ मे होता है, रूढ़िगत अर्थ मे नहीं ।

 

यह ठीक सद्वस्तु नहीं है; परंतु सद्वस्तु के निकटतम आनेवाले यही शब्द हैं । अध्यापकों को यह करना चाहिये । यह बहुत उपयोगी होगा बजाय इसके कि (सिर के अंदर गोल-गोल चक्कर लगाने का संकेत) ।

 

 (मौन)

 

  पता नहीं, दुमने मानसिक नीरवता पाने का प्रयास किया हैं या नहीं । तुम अपना सारा जीवन उसमें लगा सकते हो और हों सकता हैं कि लगभग कुछ भी प्राप्ति न हों, जब कि यह बहुत मजेदार है ।

 

  पहले कुछ नहीं होता । तुम्हें यूं ही रहना होगा : सक्रिय रूप से नहीं-भगवान् की ओर अभीप्सा में रहो । मन में कोई भी गति न हो समर्पण भी नहीं, यह गति है संपूर्ण... कुछ-कुछ आत्मदान और आत्मत्याग के बीच की चीज । और अगर मन

 

१७१


अपनी सत्ता-पद्धति का निवेदन कर दे तो एक दिन सहज रूप मे उत्तर आ जाता है । वह प्रकाश की तरह आता है ।

 

  तुम जितने अधिक शांत होंगे, तुम्हारे अंदर जितना विश्वास होगा, तुम जितना अधिक ध्यान दोगे, वह उतने हीं अधिक स्पष्ट रूप में आयेगा । समय आता है जब तुम्हें' 'केवल इतना करना होता है (खोलने का संकेत)... । विद्यार्थी एक प्रश्र पूछता है । तुम वैसे हीं रहते हो (वही संकेत)...

 

  और सबसे बढ़कर, यह कि सक्रिय रूप में न सोचों : ''मै जानना चाहता हूं... मै इससे क्या कहूं?'' नहीं!

 

  तब तुम्हें हमेशा विद्यार्थी के लिये उत्तर मिलेगा । शायद उसके पूछे हुए प्रश्र का उत्तर नहीं, बल्कि वह उत्तर जिसकी उसे जरूरत है । और वह हमेशा मजेदार होगा...

 

  वहां, ऊपर, तुम्हें सब कुछ मालूम होता है । जब तुम यह मानने लोग कि मन शक्तिहीन है, कि वह कुछ नहीं जानता तो तुम नीरव हों जाते हों । तुम्हें अधिकाधिक विश्वास होता जाता है कि वहां, ऊपर, एक ऐसी चेतना है जो न सिर्फ जानती है, बल्कि जिसमें शक्ति हैं, जो छोटे-से-छोटे ब्योरे को देखती है और परिणामतः विद्यार्थी की आवश्यकता को जानती हैं और उसका उत्तर देती है । जब तुम्हें इस बात का विश्वास हो जाये तो तुम निजी हस्तक्षेप छोड़ देते हो और कहते हो: ''लो, मेरा स्थान ले लो ।"

 

(३१ -७-१९६७)

 

*

 

मैंने ईन तीन बच्चों को अधिकर खेलने दिया और इस आशा ले कि बे इस तरह जल्दी द्वि उसके बाहर निकल आयेंगे !

 

  और वास्तव मे हुआ मी यही । तीसरे सप्ताह के आरंभ मे तीनों बच्चा व्यक्तिगत खेलों के लिये अपने नाम देखे हैं और अपने शोर-शराबें के खेलों को भूलते जा रहे हैं!

 

  क्या मैं ऐसा करना जारी रख : ''स्कूल के बाहर'' के बने इस छोडे को बनने और कुटने दूं तथा इसमें जो समय लगता है जो विद्यालय की दृष्टि से समय की बरबादी है उसकी परवाह न करूं?

 

 निक्षय हीं, यही सबसे अच्छा उपाय है ।

 

  क्या विद्यालय के ढांचे मे लते हुए हम ''स्कूल के बखर'' के कुछ खेलों के लिये अनुमति दे दें जैसे चूका-छिपी मेद के खेल (क्रिकेट) गृह-निर्माण आदि... बच्चों को इन चीजों के लिये शोर मचाते हुए देखकर हमें लगा

 

१७२


कि शायद हमारे बच्चे अमुक प्रकार कौवे क्रिया-कलाप से- कमी किसी खैर मैदान मैं परी आजादी के साथ खेलने सै !- कटे रहे होने क्या यह वास्तव मै बच्चों की सच्ची आवश्यकता है?

 

निःसंदेह

 

(२३-९-१९६०)

 

*

 

 बच्चों के लिये उपयोगी और लाभदायक खेल चुनना बहुत कठिन है । इसके लिये बहुत चिंतन और मनन की जरूरत है , और जो कुछ बिना सोचे-समझे किया जाता है उससे असुखकर परिणाम हो सकते हैं ।

 

*

 

 अगर बच्चों को, बहुत छोटों को भी, चीजें व्यवस्था मे रखना और एक प्रकार की चीजों को एक साथ सजाना आदि आदि, सिखाया जाये तो वे उसे बहुत पसंद करते हैं और भली-भांति सीखते हैं । बच्चों को सुव्यवस्था और साफ-सुथरापन के पाठ सिखाते का, सैद्धांतिक नहीं बल्कि क्रियात्मक ओर व्यावहारिक ढंग से पाठ सिखाने का, यह अच्छा अवसर है ।

 

  परीक्षण करो, मुझे विश्वास है कि बच्चे चीजों को व्यवस्थित करने में तुम्हारी सहायता करेंगे ।

 

  प्रेम और आशीर्वाद ।

 

(१४-१२-१९६३)

 

*

 

देखा गया है कि काकी बड़ी संख्या मे बच्चे बैठने या लिखने के समय ठीक ढंग ले नहीं बैठते लिखते समय वै कापी अपने सामने नहीं रखते ४५ से ९० दरजे के कोण पर रखते हैं

 

शायद ज्यादा अच्छा होगा कि पहले स्वयं अध्यापक लिखते समय उचित ढंग से बैठना सीख़ें?

 

  मेरे आशीर्वाद के साथ ।

 

*

 

१७३


अपने एक पत्र मे श्रीअरविन्द ने और साधना के लिये उसकी तैयारी के बारे लिखा है मैं उसकी प्रतिलिपि आपके पास भेज खा हूं मैं यह जानना चाहना कि क्या छोटी मतवालों को उत्साह के साथ आध्यात्मिक जीवन और विचारों के बारे मे दी गयी चेतावनी की कक्षा के विद्यार्थियों के आये बोलते हुए ध्यान मे रखना जरूरी है? क्या उसके अंदर श्रीअरविन्द के शब्दों मे ''नकली और अवास्तविक आय का भय'' है?

 

   श्रीअरविन्द का पत्र : ''सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि और को और विशेष रूप ले युवावर्ग को साधना की ओर खींचने के लिये बहुत ज्यादा आतुर होना नहीं है जो साधक इस योग की ओर उतार है उसमें वास्तविक पुकार होनी बछिये और वास्तविक पुकार के होते हुए मी प्रायः यह काफी कठिन होता है लेकिन जब तुम लोगों की उत्साहपूर्ण प्रोपेगडा नाव ले खिचते हो तो सच्ची अग्नि नहीं एक नकली और अवास्तविक आय सुलगाने का भय खता है या एक ऐसी अल्पजीवी आम सुलगती है जो टिक नहीं सकती और प्राणिक लहरों के उतर मैं दब जाती है यह विशेष रूप ले उन तकवा के बारे मे ज्यादा होता है जो नमनीय होते हैं और आसानी सै अपने नहीं किसी और के दिये हुए विचारों और मावों मैं पकड़े जाते हैं- बाद मे प्राण अपनी असंतुष्ट मौक़े के सक् उठ ख़म होता है और है दो परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच जाते हैं या तेजी से सामान्य जीवन और क्रिया कै आकर्षण और कामनाओं की के आये हक जाते हैं तहक अवस्था मे साधारणके रुकाव हंसी तरफ होता है या फिर एक अयोग्य आधार ऐसी पुकार के दबाव मे कष्ट पाता है जिसके लिये वह तैयार न थर या शर्म-से-कम अमी तैयार न था जब व्यक्ति के अपने अंदर सच्ची चीज होती है तो वह आगे बढ़ता है और अंत मे साधना का पूछ मार्ग अपना लेता ह्वै लेकिन मेंसे बहुत ही कम होते हैं उन्हीं लोगों को लेना ज्यादा अच्छा है जो अपने-आप उत हैं और उनमें भी दे जिनमें सतत और सच्ची पुकार है !"

 

यह उद्धरण बहुत सुन्दर हैं और बहुत अधिक उपयोगी हैं ।

 

  तरुणों के साथ बोलते हुए, जो स्वभावत: अपने विचार आसानी से बदल लेते हैं, श्रीअरविन्द की चेतावनी को निश्चित रूप से याद रखनी चाहिये ।

 

  कक्षा मे तुम्हें बहुत ज्यादा वस्तुनिष्ठ होना चाहिये ।

 

  आशीर्वाद ।

 

(२-६ -१९६७)

 

*

 

मूल -लैटर्स ऑन योग, सेण्टनरी वोल्यूम २४, पृ० १६१५-१६ ।

 

मैं जानना चाहूंगा कि इस पत्र मे 'वस्तुनिष्ठ' ले आपका क्या मतलब है? क्या आपका मतलब यह है कि विधार्थियों को साधना-संबंधी आपके और श्रीअरविन्द के दर्शन को समझाते हुए विचार और वाणी मे व्यक्तिगत भावों को न आने दिया जाये?

 

हां, यहीं ।

 

  अपने बारे मे या अपनी अनुभूति के बारे मे मत बोलों ।

 

(५-६-१९६७)

 

*

 

  अध्यापकों को अपनी कक्षा के दिन या समय अनुपस्थित न रहना चाहिये । अगर कोई विधालय के समय बाहरी क्रिया-कलाप के लिये बाधित होता है तो वह अध्यापक नहीं हो सकता ।

 

(५-३-१९६७)

 

 

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