CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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अध्ययन

 

 मेरे प्रिय बालक,

 

   सच्ची बुद्धिमत्ता हैं किसी मी स्रोत सें आनेवाले ज्ञान को सीखने के लिये तैयार रहना ।

 

  हम फूल से, पशु से, एक बच्चे हैं चीजें सीख सकते हैं बशर्ते कि हम हमेशा अधिक जानने के लिये उत्सुक हों क्योंकि संसार मे केवल एक हीं 'शिक्षक' हैं - परम

 

११७


प्रभु-और बे हर चीज मे से अभिव्यक्त होते हैं ।

 

  मेरे समस्त प्रेम के साथ ।

 

(९-३-१९६७)

 

*

 

  अच्छा काम करने के लिये अच्छी रुचि होनी चाहिये ।

 

  रुचि अध्ययन और सुरुचिपूर्ण लोगों की सहायता से शिक्षित की जा सकतीं है ।

 

  सीखने के लिये, पहले तुम्हें यह अनुभव होना चाहिये कि तुम नहीं जानते ।

 

(१५-१२-९९६५)

 

*

 

  जब तुम्हें लगे कि तुम कुछ नहीं जानते हो तुम सीखने के लिये तैयार होते हो ।

 

*

 

(दिसंबर १९६५)

 

   सारा प्रश्र यह हैं कि क्या विद्यार्थी अपना ज्ञान बढ़ाने और अच्छी तरह रहने के लिये, जो जानना जरूरी है उसे सीखने के लिये विधालये जाते हैं-या वे दिखावा करने के लिये और अच्छे अंक लेने के लिये विद्यालय जाते हैं ताकि वे इस बारे मे घमंड छांट सकें ।

 

  'शाश्वत चेतना' के आगे, सचाई और निष्कपटता की एक बूंद का मूल्य दिखावे और आडंबर के समुद्र से बढ़कर है ।

 

 *

 

   देखो, वत्स, दुर्भाग्य की बात यह हैं कि तुम अपने-आपमें बहुत ज्यादा रमे रहते हो । तुम्हारी उम्र मे, मै पूरी तरह से अपनी पढ़ाई मे लगी रहती थीं- अपने-आपको जानकारी देने, सीखने, समझने और जानने में लगी रहती थीं । इसी मे मुझे रस आता था, यही मेरा आवेग था । मेरी मां, जो मुझसे और मेरे भाई सें बहुत प्रेम करती थी, हमें कभी अनमना, असंतुष्ट या आलसी न होने देती थी । वह हमारे ऊपर हंसती, हमें डाँटती और हमसे कहती थी : ''यह क्या मूर्खता है? हास्यास्पद न बनो, जाओ और अपना काम करो, अपनी अच्छी या बुरी मनोदशा की परवाह न करो! इसमें कोई मजा नहीं हैं । ''

 

   तकनीकी पाख्यक्रम के उद्घाटन के समय दिया गया संदेश ।

 

११८


  मेरी मां की बात बिलकुल ठीक थी और झ अनुशासन तथा काम करते हुए एकाग्रता और आत्म-विस्मृति सीखने के लिये उनकी बहुत कृतज्ञ हूं ।

 

  मैंने तुम्हें यह इसलिये बताया हैं क्योंकि तुम जिस चिंता की बात करते हो वह इसलिये आती है क्योंकि तुम अपने-आपमें बहुत ज्यादा रमे रहते हों । तुम्हारे लिये बहुत ज्यादा अच्छा होगा कि जो कर रहे हो (चित्रकला या संगीत) उसमें मन लगाओ, अपने मन को विकसित करो जो अभीतक बहुत अशिक्षित है, और ज्ञान के हैं तत्त्व सीखने मे लगाओ जिनका जानना अनिवार्य है यदि तुम अज्ञानी और असंस्कृत नहीं रहना चाहते ।

 

  अगर तुम नियमित रूप से दिन मे आठ-नौ घंटे काम करो तो तुम्हें भूख लगेंगी । तुम अच्छी तरह हैं  जाओगे और शांति से सकोगे और तुम्हारे पास यह सोचने के लिये समय न होगा कि तुम अच्छी मनोदशा मे हो या बुरी ।

 

  मैं ये सब बातें तुम्हें पूरे प्यार के साथ बता रहीं हू और आशा करती हू कि तुम उन्हें समझ लोगे ।

 

  तुम्हारी मां जो तुमसे प्यार करती हैं ।

 

(१५-५ -१९३४)

 

*

 

   हे मां मैं आपकी इच्छा के अनुसार चलना चाहता हूं और कुछ नहीं चाहता ।

 

तो जल्दी से वह रास्ता छोड़ दो जो तुमने अपना रखा है- अपना समय मटरगश्ती और लड़कियों के साथ बातचीत में न गंवाओ । फिर से गंभीरता के साथ काम करना शुरू करो, पदो, अपने-आपको शिक्षित बनाओ, अपने मन को रुचिकर और उपयोगी चीजों मे लगाओ, व्यर्थ की बकवास मे नहीं और अपने प्राणिक आकर्षणों के लिये झूठे बहाने न बनाओ । अगर सचमुच यह तुम्हारी सच्ची (निष्कपट) इच्छा हैं तो विश्वास रखो कि मेरी शक्ति विजय पाने मे तुम्हें सहायता देगी !

 

(२७-९-१९३४)

 

   जिन दिनों मैं पढार्ड नहीं करता मुझे बुरा लगता है लेकिन जब मैं पढ़ना शुरू कर देता हू तो प्रसन्नता वापिस आ जाती  हैं ! मैं यह प्रक्रिया नहि समय पाता?

 

प्रक्रिया से तुम्हारा क्या मतलब हैं ? यह कोई प्रक्रिया नहीं है; बुरा लगने का अंत स्वाभाविक रूप से मन को पढ़ाई पर एकाग्र करने का स्वाभाविक परिणाम है । पढ़ाई एक ओर, मन को एक स्वस्थ क्रियाशीलता देती हैं  और दूसरी ओर, उसकी एकाग्रता को छोटे-से भौतिक अहंकार के रुग्ण चिंतन से दूर हटाती हैं ।

 

(३-१२ -१९३४)

 

११९


  माताजी क्या 'द' के यहां उसकी गुजराती कविताएं पढ़ने के लिये जाना ठीक

 

   यह सब इस पर निर्भर हैं कि उसका तुम पर क्या प्रभाव पड़ता हैं । अगर वहां से ''अधिक शांत और संतुष्ट होकर आते हो ती ठीक है । इसके विपरीत, अगर इससे तुम दुःखी और असंतुष्ट हो जाते हो तो वहां न जाना ज्यादा अच्छा होगा । तुम अवलोकन करो कि तुम्हारे ऊपर क्या असर होता है और उसके अनुसार निर्णय करो ।

 

(१३-१२-११३४)

 

   मैंने स्वप्न मे देखा कि आपने लिखा हे : ''मेरे बच्चे तुमने पढ़ना क्यों छोड़ दिया? '' आपने और मी बहुत कुछ लिखा था मैं चाहूंगा कि अमर संभव हो तो आप वह यहां लिख दें ।

 

हां, वास्तव मे कल रात मैंने तुमसे पूछा था कि तुम क्यों नहीं पढ़ते, और मैंने तुमसे कहा था कि प्राणिक आवेगों के आगे इस तरह से झुक जाना, निश्चित रूप से, उन्हें वश मे करने का तरीका नहीं है । अगर तुम प्राणिक दुर्भावना और मानसिक अवसाद को खतम करना चाहते हो तो तुम्हें अपने लिये अनुशासन नियत करना चाहिये, और चाहे किसी कीमत पर क्यों न हो, उसे अपने ऊपर लागू करना चाहिये । अनुशासन के बिना आदमी जीवन मे कुछ नहीं कर सकता और समस्त योग उसके बिना असंभव हैं ।

 

  जब बुरा लगता है तो शारीरिक काम करना तो कठिन नहीं होती पर पंडित मैं अनुशासन के अनुसार चलना कठिन हो जाता है फिर भी मैंने निक्षय किया है कि जब मैं पढ़ाई-लिखाई नहीं करूंगा तो काना नहीं खाऊंगा?

 

कैसा अजीब-सा विचार हैं न तुम्हारा! प्राण के अपराध के लिये शरीर को दंड देना! यह उचित नहीं है ।

 

(२२-१२-३४)

 

  आज सवेरे सै बहुत अवसाद छाया है और श्सलिये पढ़ना-लिखना असंभव हो गया हैं !

 

यह नहीं चलेगा ।

 

   तो माताजी मैं क्या करूं?

 

१२०


अपने-आपको पढ़ने के लिये बाधित करो और अवसाद भाग जायेगा । क्या तुम यह कल्पना कर सकते हो कि कोई छात्र विद्यालय मे जाकर अध्यापक से कहे : ''महाशय, आज मैंने गृहकार्य नहीं किया क्योंकि मे अवसादग्रस्त था' '?

 

  अध्यापक निश्चय ही उसे कड़ी सजा देगा ।

 

(१६-१-१९३५)

 

  मेरा ख्याल है कि पक बात आपको पसंद नहीं है- कि मैं पढार्ड-लिखाई लगाकर नहीं करता

 

पढ़ाई मन को मजबूत बनाती है और उसकी एकाग्रता को प्राण के आवेगों और कामनाओं से हटाती है । मन और प्राण पर काबू पाने के तरीकों मे से पढ़ाई-लिखाई पर एकाग्र होना एक बहुत शक्तिशाली तरीका है; इसीलिये पढ़ना-लिखना इतना जरूरी हैं ।

 

(२८-१-१९३५)

 

   मेरा मन शांत नहीं होता शायद इसलिये कि मैं पढार्ड मे मेहनत नहीं करता । पढार्ड मे बहुत मजा नहीं आता

 

 आदमी मजे के लिये नहीं पढ़ता-वह पड़ता है सीखने और अपने मस्तिष्क को विकसित करने के लिये ।

 

(१-२-१९३५)

 

   मेरे लिये पढ़ना एकदम असंभव है क्योंकि जड़ता आ जाती है

 

अगर तुम नहीं पड़ोगे तो जड़ता बढ़ती जायेगी ।

 

(४-३-१९६५)

 

  समझ मैं नहीं आत? समय कैसे काहू समझ मे तो कुछ आता नहीं?

 

पढो, समह्मने का सबसे अच्छा तरीका यही हैं ।

 

  आप कहती हैं पढो लेकिन पढ़ना अच्छा नहीं लगता

 

तुम पढ़ाई मे काफी समय नहीं लगाते, इसलिये तुम्हें मजा नहीं आता । आदमी

 

१२१


सावधानी के साथ जो भी करे वह निश्चय हीं मजेदार हों जाता हैं ।

 

(१०-४-१९३५)

 

  तो मैं कौन-सा रास्ता अपनऊं? प्रयास करने का ठीक और सच्चा रास्ता कोना-सा हैं ? 

 

वही करो जो मैंने कल बतलाया था-नियमित और सुव्यवस्थित ढंग सें पढ़कर अपने मस्तिष्क सें काम करवाओ; तब उन घंटों मे जब तुम पढ़ता न रहे होंगे, तुम्हारा मस्तिष्क काफी काम कर चुकने के कारण आराम कर सकेगा और तुम्हारे लिये यह संभव होगा कि अपने हृदय की गहराई मे एकाग्र हो सको और वहां चैत्य स्रोत को पा सको; वहां तुम कृतज्ञता और सच्चे सुख, दोनों के बारे मे सचेतन हो सकोगे ।

 

(२२-५-१९३५)

 

  सतत अवसाद के कारण मेरी पोइस खटाई मे पड़ी हो !

 

मै तुम्हें बता चुकी हू कि पढ़ाई के द्रारा ही तुम अवसाद पर विजय पा सकते हों ।

 

(२७-५-१९६५)

 

  मैं यह जानना चाहता हू कि क्या छोटे बच्चों के लिये सारे समय खेलते रहना अच्छा है?

 

 बच्चों के लिये काम और पढ़ाई का एक समय होना चाहिये और खेल का मी समय होना चाहिये ।

 

(१६-११-१५३६)

 

  क्या आपका ख्याल है कि मेरा मन विकसित हो का है ?

 

नियमित पढ़ाई उसे विकसित किये बिना न रहेगी ।

 

(७-१२-१९३६)

 

   मैं पपड़ी की ओर अधिकाधिक हुक रहा हू और साधना की ओर कम ध्यान देता हूं? पता नहीं यह वांछनीय है या नहीं ?

 

 यह ठीक हैं; पढ़ाई साधना का अंग बन सकती हैं ।

 

(८-१२ -१९३६)

 

१२२


  अगर कोई मुझे पढ़ता है तो क्या यह जरूरी है कि वह मेरे अपर यकाय होने के लिये मेरे साथ तादात्म्य स्थापित करे?

 

 एकाग्रता के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता ।

 

(१८-५-१९३७)

 

  क्या आपका ख्याल हैं कि बहुत ज्यादा मानसिक काम की वजह ले थकान आती हैं?

 

नहीं, वह मानसिक तमस् के कारण आती हैं?

 

(२१-१-१९४१)

 

*

 

   (किसी अध्यापक ने लिखा कि मेरे विद्यार्थी ने मेहनत नहीं की ?

 

 धीरज बनाये रखो-यह किसी प्रकार का मानसिक तमस् है; एक दिन वे जाग उठेंगे।

 

*

 

   अपनी किताबें होते हुए मी विद्यार्थी अपने पाठ नहीं सीख सकते?

 

छोटे बच्चों के साथ बहुत धीरज होना चाहिये और एक ही बात बार-बार दोहराते जाओ, तरह-तरह से समझाते जाओ । धीरे-धीरे वह उनके मन मे प्रवेश करेगी ।

 

*

 

 काम मे नियमित होने की अपेक्षा बुद्धि और समझने की क्षमता निक्षित रूप है ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं । स्थिरता बाद में प्राप्त की जा सकती हैं? ।

 

*

 

   माताजी आलस्य से कैसे छुटकारा पाया जा सकता है?

 

आलस्य दुर्बलता या रस के अभाव से आता हैं । पहली चीज का उपचार करने के लिये-तुम्हें मजबूत होना चाहिये ।

 

१२३


दूसरी चीज को ठीक करने के लिये-कुछ रुचिकर काम करना चाहिये ।

 

*

  मधुर मां

 

  आपने मनुष्यसे कहा है कि दुर्बलता को दूर करने के लिये मजबूत बनना चाहिये माताजी क्या आप मुझे बनायेगी कि मजबूत कैसे बना जाता  हैं ?

 

पहले तुम्हारे अंदर समग्र संपूर्ण रूप से उसके लिये चाह होनी चाहिये और फिर जो कुछ जरूरी हैं वह करना चाहिये ।

 

*

 

  मानसिक जड़ता ले कैसे पिंड छुड़ाया जाये?

 

इसका इलाज मन को जगाने का प्रयास नहीं हैं  । उसे अचल, नीरव अवस्था मे ऊपर की ओर, अंतर्भासिक ज्योति के क्षेत्र की ओर स्थिर, शांत अभीप्सा मे मोड़ों और नीरवता मे प्रतीक्षा करो ताकि ज्योति नीचे उतरते और तुम्हारे मस्तिष्क मे बालू ला दे । इससे मस्तिष्क थोझ-थोड़ा करके इस प्रभाव की ओर खुलेगा और अंतर्भाव को ग्रहण और प्रकट करने योग्य बनेगा ।

 

  प्रेम और आशीर्वाद ।

 

(२६-९-१९६७)

 

*

  मधुर मां

 

  पता नहीं इस वर्ष क्या बात है हम विद्यालय मैं या क्रीड़ांगण मे जरा मी प्रगति नहीं कर पा रहे ! हमारे मन हमेशा बेचैन और क्षुब्ध क्षमे हैं हम एकाग्रता खो हैं हम गप्प लगाने और बुरी बातों के बारे मे सोचने मे अपना समय नष्ट करते हैं हम अपनी असफलताओं को पार नहीं कर पाते माताजी हम आपसे विनय करते हैं कि हमें हंस कष्टकर स्थिति मे ले उबारिये हम प्रगति करना चाहते हैं? हम आपके सच्चे बालक बनना चखते हैं  कृपया मार्ग दिखाइये ।

 

विलाप करने से कोई लाभ नहीं होता ।

 

१२४


तुम्हारे अंदर संकल्प होना चाहिये, आवश्यक प्रयास करो ।

 

*

 

   संकल्प-शक्ति को मजबूत बनाने के लिये क्या करना चाहिये?

 

 उसे प्रशिक्षित करो, जैसे मांसपेशियों से काम लेकर उनसे कसरत करवायी जाती हैं, वैसे हीं इससे कसरत करवाओ ।

 

(२३-३-१९३४)

 

*

 

  एकाग्रता और संकल्प-शक्ति को मांसपेशियों की तरह विकसित किया जा सकता हर हैं नियमित प्रशिक्षण और कसरत से विकसित होते हैं ।

 

*

 

  माताजी,

 

   अपने  संकल्पशक्ति को मजबूत कैसे बनाया जाये?

 

 कसरत करके ।

 

*

 

   कोई चीज सीखने मे कुछ महीनों से अधिक लगते हैं । प्रगति करने के लिये तुम्हें अध्यवसाय के साथ काम करना चाहिये ।

 

(९२-११-१९५४)

 

*

 

   एक प्रबल आवेग मुझे इतना अधिक अध्ययन करने के लिये बाधित करता है ।

 

 जबतक तुम्हें अपने-आपको गठित करने की जरूरत हैं, अपने मस्तिष्क का निर्माण करने की जरूरत हैं तबतक तुम्हें अध्ययन के लिये इस आवेग का अनुभव होता रहेगा; लेकिन जब मस्तिष्क भली-भांति बन चुकेगा तो धीरे-धीरे अध्ययन के लिये रुचि भी कम हो जायेगी ।

 

१२५


  हमारे जीवन मैं तर्कबुद्धि का क्या उपयोग है ?

 

तर्कबुद्धि के बिना मानव जीवन असंगत और अनियंत्रित रहेगा; हम आवेगमय पशुओं या असंतुलित पागलों जैसे होंगे ।

 

(६-४-१९६१)

 

*

 

   माताजी छान और बुद्धि क्या हैं? क्या हमारे जीवन मे उनकी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका हैं ?

 

ज्ञान और बुद्धि यथार्थ रूप में मनुष्य के उच्चतर मन के गुण हैं जो उसे पशु से अलग करते हैं ।

 

  ज्ञान और बुद्धि के बिना व्यक्ति मनुष्य नहीं, मानव रूप मे पशु होता हैं ।

 

आशीर्वाद ।

 

(३०-१२-१९६९)

 

*

 

  अपने 'वार्तालाप' मे आपने कह? है कि बुद्धि सत्य छान और धरती पर उसकी चरितार्थता के बीच मध्यस्थ का काम करती है क्या इसका यह मतलब नहीं है कि मन ले अपर उठाकर सत्य ज्ञान प्रान्त करने के लिये बौद्धिक शिक्षण अनिवार्य है?

 

एक अच्छा, विशाल, नमनीय और समृद्ध मानसिक यंत्र बनाने के लिये बौद्धिक शिक्षण अनिवार्य है, परंतु उसकी क्रिया वहीं समाप्त हो जाती हैं ।

 

   मन सें अपर उठने में, वह सहायक की अपेक्षा बाधक अधिक हैं क्योंकि साधारणत:, एक सुसंस्कृत और शिक्षित मन अपने-आपसे संतुष्ट रहता हैं और ऐसा विरल ही होता हैं कि वह अपने-आपको चुप करने की कोशिश करे ताकि उसे पार किया जा सके ।

 

*

 

  तुम जो कुछ जानते हो वह सब, वह चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, जो तुम

 

१२६


जान सकते हो उसकी तुलना मे कुछ भी नहीं है, बशर्ते कि तुम अन्य उपायों का उपयोग कर सको ।

 

*

 

  समझने का सबसे अच्छा तरीका यह हैं कि अपनी चेतना मे हमेशा इतने ऊंचे उठ कि तुम सभी परस्पर-विरोधी विचारों को एक सामंजस्यपूर्ण समन्वय मे एक कर सको ।

 

  और उचित वृत्ति के लिये, यह जानना कि क्षणभरके के लिये भी अपने एकमात्र लक्ष्य-भगवान् के प्रति आत्म-निवेदन और उनके साथ तादात्म्य-को नजर से ओझल किये बिना नमनीयता के साध एक स्थिति से दूसरी स्थिति मे कैसे जाया जाये ।

 

(२९-४-१९६४)

 

*

 

   महत्त्वपूर्ण बात है यह जानना कि मन उस एक परम पुरुष को जानने मे अक्षम हैं- इसलिये उनके बारे मे जो कुछ कहा या सोचा जाता है वह एक विडंबना और मोटा-मोटा अनुमान है और शिक्षित रूप से ऐसे विरोधों से भरा है जिनमें कोई संगति नहीं हों सकतीं ।

 

  इसीलिये हमेशा यह शिक्षा दी गयी है कि सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिये मानसिक नीरवता अनिवार्य हैं ।

 

(३१-८-१९६५)

 

*

 

 स्पष्ट समज्ञ, अंतर्दर्शन और उचित क्रिया के लिये एक बहुत-बहुत स्थिर, शांत मस्तिष्क अनिवार्य हैं ।

 

*

 

   कृपया विचारों के प' और आवश्यकताओं के अंतर्दर्शन के बीच भेद कर सकने मे सहायता दीजिये

 

 अपर से प्रेरणा पाने के पहले मन को स्थिर-शांत और नीरव होना चाहिये ।

 

१२७


  मन को स्थिर शांत रहना चाहिये ताकि संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये 'शक्ति' उसके द्वारा प्रवाहित हो सके ।

 

*

 

   हम विद्यार्थी की ठीक तरह सोचना कैसे सीखा सकते हैं?

 

मानसिक क्षमता नीरव ध्यान मे विकसित होती हैं ।

 

(२३-३-९९६६)

 

*

 

  मैं अतर्मास की सहायता से काम करने की कोशिश करुंगा मेरे प्रयास मे सहायता कीजिये

 

प्राण को अचंचल बनाओ ।

 

  मन को शांत करो ।

 

  मस्तिष्क को नीरव और स्थिर रखो- एक समतल भूमि की न्याई । ऊर्ध्वमुख और एकाग्र ।

 

  और प्रतीक्षा करो...

 

(२९-९-११६७)

 

*

 

  तुम मानसिक क्रिया-कलाप के द्वारा मन को स्थिर-शांत नहीं कर सकते, तुम्हें जिस सहायता की आवश्यकता हैं वह किसी उच्चतर या गहनतर स्तर से प्राप्त हो सकती हैं । और दोनों को नीरवता मे हीं पाया जा सकता है ।

 

(१८-१२-१९७१)

 

*

 

   मन मे वाद-विवाद को कैसे रोका जाये?

 

पहली शर्त है जितना हों सके उतना रूम बोलो ।

 

   दूसरी शर्त है, केवल उसी चीज के बारे मे सोचो जो तुम इस समय कर रहे हो, उसके बारे मे मत सोचो जो तुम्हें करना हैं या जो तुम कर चुके हो ।

 

  जो हो चुका है उसके लिये कभी न पछताओ और जो होनेवाला है उसकी कल्पना न करो ।

 

जहांतक बन पड़े अपने विचारों मे निराशा को रोको और स्वेच्छापूर्वक आशावादी बनो ।

 

*

 

 माताजी 

 

  रबतंत्र शांत,निरबा मन बहुत अच्छी चीज हैं मैं उसे ज्यादा-ज्यादा पाना चाहूंगा मैं अपने अंदर विचारों और भावनाओं के भंवर से बचना चाहूंगा जो मुझे खिलौने की तरह इधर-से-उधर फेंकते रहते हैं?

 

यह क्रमश: आला हैं ।

 

  जोर मत डालो ।

  शांत और विश्वस्त रहो ।

 

(१२-३-१९७३)

 

*

 

   अब, बुद्धि जिस चीज को समझ गयी हैं उसे सारी सत्ता अनुभव करे । मानसिक ज्ञान का स्थान प्रगति की प्रज्वलित शक्ति को लेना चाहिये ।

 

*

 

१२८









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