CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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चतुर्विध तपस्या और चतुर्विध मुक्ति

 

(१)

 

  अतिमानसिक उपलब्धि की ओर ले जानेवाली सर्वांगीण शिक्षा की खोज करने के लिये चार तपस्याओं और साथ ही चार प्रकार की मुक्त्ति की जरूरत हैं ।

 

   साधारणत:, लोग तपस्या और आत्म-दमन को एक हीं समझने की मूल करते हैं । जब तपस्या की बात की जाती है तो लोग उस तपस्वी की साधना की बात सोचते है जो भौतिक, प्राणिक और मानसिक जीवन को आध्यात्मिक बनाने के कठिन काम से बचने की कोशिश करता है और इसलिये यह घोषणा करता है कि यह रूपांतर के योग्य है  हीं नहीं, और उसे निर्दय होकर व्यर्थ भार, बंधन, आध्यात्मिक प्रगति मे बेड़ी मानकर फेंक देता है  । बहरहाल, यह माना जाता है कि यह ऐसी चीज है जिसे ठीक करना असंभव है, एक भार है जिसे न्यूनाधिक रूप मे खुशी-खुशी तबतक ढोते रहना  जबतक प्रकृति या भगवान् की कृपा मृत्यु के द्वारा तुम्हें उससे छुटकारा न दिल दे । धरती का जीवन अच्छे-सें-अच्छे रूप मे प्रगति के लिये क्षेत्र है और मनुष्य को उससे अधिक-से-अधिक लाभ उठाने की कोशिश करनी चाहिये और जल्दी-से-जल्दी पूर्णता की उस स्थिति तक पहुंचना चाहिये जो इस परीक्षा को अनावश्यक बनाकर इसका अंत कर दे ।

 

  हमारे लिये समस्या बिलकुल और हीं है !हमारे लिये पार्थिव जीवन केवल एक रास्ता या साधन नहीं है उसे रूपांतर के द्वारा एक लक्ष्य, एक उपलब्धि बनना चाहिये । जब हम तपस्या की बात करते हैं तो शरीर के लिये निंदा की या अपने- आपको उससे अलग कर लेने की दृष्टि नहीं होती । हम आत्म-संयम और आत्म-प्रभुत्व की आवश्यकता के कारण तपस्या की बात छेड़ते हैं । क्योंकि एक ऐसी तपस्या है जो तपस्वी की सभी तपस्याओं सें बढ़कर, उनसे अधिक पूर्ण और अधिक कठिन है-वह है रूपांतर के लिये आवश्यक चतुर्विध तपस्या जो व्यक्ति को अतिमानस सत्य की अभिव्यक्ति के लिये तैयार करती हैं । इस तरह, उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं कि शरीर की पूर्णता के लिये शारीरिक प्रशिक्षण जिस तपस्या की मांग करता है उसकी बराबरी करनेवाली तपस्याएं कम हीं होगी । लेकिन उसकी बात हम उचित समय पर करेंगे ।

 

  अपेक्षित चार प्रकार की तपस्याओं का वर्णन करने से पहले मुझे एक प्रश्र स्पष्ट कर देना चाहिये जो अधिकतर लोगों के मन मे बहुत सारी गलतफहमियों और उलझनों का कारण है ।  यह है तपस्वी की इन क्रियाओं के बारे मे जिन्हें लोग आध्यात्मिक साधना मानते हैं । इन क्रियाओं मे शरीर के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है ताकि, जैसा कहा जाता है उसके अनुसार, आत्मा को उससे मुक्त किया जा

 

 


सकें । वास्तव में, ये क्रियाएं आध्यात्मिक साधना का ऐंद्रिय विकृत रूप हैं । कष्ट पाने की विकृत आवश्यकता हीं तपस्वी से आत्म-पीड़न करवाती है । साधुओं का कीलों का बिछौना और ईसाई साधुओं की टाट की वेश-भूषा और कोह की मार मे एक, थोड़ा- बहुत छिपा हुआ, पीडासक्ति का प्रभाव होता है जिसे न तो स्वीकार किया जाता है, न स्वीकार किया हीं जा सकता है । यह उग्र संवेदनों के लिये एक अस्वस्थ चाह या अवचेतन आवश्यकता  है । वास्तव में, ये चीजें आध्यात्मिक जीवन से कोसों दु की हैं । ये भद्दी, निम्नकोटि की, अंधेरी और रुग्ण हैं । इनके विपरीत, आध्यात्मिक जीवन प्रकाश और संतुलन, सौंदर्य और आनंद का जीवन हैं । शरीर पर की जाने वाली एक प्रकार की मानसिक और प्राणिक कुरता ने इनका आविष्कार और गुणगान किया हैं । लेकिन कुरता, चाहे वह अपने हीं शरीर पर क्यों न हो, आखिर कुरता हैं और सभी प्रकार की कुरता बहुत बड़ी निश्चेतना का चिह्न हैं । अचेतन प्रकृतियों को प्रबल संवेदनों की जरूरत होती है, उसके बिना उन्हें कुछ अनुभव हीं नहीं होता; और कुरता एक प्रकार की प्रपीड़न कामुकता है जो बहुत प्रबल संवेदन पैदा करती है । इस प्रकार की क्रियाओं का उद्देश्य यह माना जाता हैं कि सभी प्रकार के संवेदनों से छुट्टी पा लीं जाये ताकि शरीर हमारी आत्मा की ओर की उड़ान में और बाधा न दे सके । परंतु इसकी उपयोगिता संदेहास्पद है । यह भली-भांति जानी हुई बात है कि अगर तुम तेजी से प्रगति करना चाहते हो तो तुम्हें कठिनाइयों से डरना न चाहिये; इसके विपरीत, जब कभी अवसर आये तब कठिन चीजों को चुनने से हीं संकल्प-शक्ति बढ्ती है और स्नायुओं में बल आता है । वास्तव में, तपस्या की विकृतियों और उनके विघटनकारी परिणामों के द्वारा सुख की विकृतियों और उनके अज्ञानमय परिणामों के साथ संघर्ष करने कर अपेक्षा, संयम और संतुलन के साथ समुचितता और स्थिरता का जीवन बिताना कहीं अघिक कठिन है । अपनी भौतिक सत्ता के साध इस हद तक बुरा व्यवहार करना कि वह शन्यवत् हो जाये, इसकी अपेक्षा, उसमें स्थिरता और सरलता के साथ सामंजस्यपूर्ण उत्तरोत्तर विकास पाना बहुत अधिक कठिन हैं । बड़े गर्व के साथ अपने संयम का प्रदर्शन करने के लिये शरीर को उसके लिये आवश्यक आहार और शुद्ध अम्यासों से वंचित करने की अपेक्षा, बिना इच्छा के गंभीरतापूर्वक जीना कहीं ज्यादा कठिन है । रोग या दुर्भावना की अवहेलना करने और उसकी ओर ध्यान न देने और उसे अपना विनाश कार्य करते रहने देने की अपेक्षा, उस पर आंतरिक और बाल सामंजस्य, शुद्धि और संतुलन दुरा विजय प्राप्त करना या उसे आने न देना बहुत ज्यादा कठिन है । और सबसे कठिन काम है चेतना को हमेशा उसको क्षमता के शिखर पर बनाये रखना और शरीर को कभी निचले आवेगों या प्रेरणाओं के प्रभाव में आकर काम न करने देना ।

 

 इस लक्ष्य को सामने रखकर हमें चार तपस्याएं अपनानी चाहिये, जिनके परिणाम-

 

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स्वरूप चार मुक्तियां आयेंगी । उनके अभ्यास सें हीं चार प्रकार की साधनाएं या तपस्याएं संघटित होंगी जिन्हें हम कह सकते हैं :

 

१. प्रेम की तपस्या

२. ज्ञान की तपस्या

३. शक्ति की तपस्या

४. सौंदर्य की तपस्या

 

  इनका क्रम, कह सकते हैं, ऊपर सें नीचे की ओर है । परंतु इनके क्रम को देखकर किसी को श्रेष्ठ या हीन न मान लेना चाहिये और न हीं कम या ज्यादा कठिन मानना चाहिये । इससे यह मी नहीं पता चलता कि इन तपस्याओं को किस क्रम में लिया जाना चाहिये या लिया जा सकता हैं । इनका क्रम, महत्त्व और कठिनाई व्यक्ति- व्यक्ति के हिसाब सें अलग हैं और इनके बारे मे कोई पक्का नियम नहीं बनाया जा सकता । हर एक को अपनी क्षमता और निजी आवश्यकता के अनुसार अपनी पद्धति खोजनी होगी और उसे कार्यान्वित करना होगा ।

 

  यहां केवल एक व्यापक दृष्टि दी जायेगी जो यथासंभव पूर्ण आदर्श-प्रणाली सामने रख सके । तब हर एक इसे अपनी क्षमता के अनुसार अच्छे-से-अच्छे रूप में व्यवहार में का सकेगा ।

 

  सौंदर्य की तपस्या हमें भौतिक जीवन की तपस्या के द्वारा कर्म की स्वतंत्रता की ओर ले जायेगी । इसका आधारभूत कार्यक्रम होगा एक ऐसा शरीर बनाना जो आकार में सुन्दर, ठवन और भंगिमा में सामंजस्यपूर्ण, अपनी गतिविधि में लचीला और फुर्तीला, कार्य में सबल और स्वास्थ्य तथा जीवन-क्रियाओं में प्रतिरोध की शक्ति रखनेवाला हो ।

 

  इन परिणामों को पाने के लिये, सामान्य रूप में, ऐसी आदतें डालना और उनका उपयोग करना अच्छा होगा जो भौतिक जीवन का संगठन करने में सहायक हों । क्योंकि शरीर नियमित कार्यक्रम के चौखटे मे ज्यादा अच्छी तरह काम करता है । फिर भी व्यक्ति मे वह सामर्थ्य होनी चाहिये कि वह अपनी आदतों का, वे चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हों, दास न बन जाये; उसमें अधिक-सें-अधिक नमनीयता होनी चाहिये ताकि जब-जब जरूरत हो आदमी अपनी आदतों को बदल सके ।

 

  तुम्हें नमनीय और बलवान् मांसपेशियों के शरीर में इस्पात की स्नायुएं बनानी चाहिये ताकि, जब अनिवार्य हो तो तुम सब कुछ सह सको । लेकिन साथ हीं इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि शरीर से, वृद्धि और प्रगति के लिये जितना प्रयास, जितनी शक्ति जरूरी है उससे ज्यादा की मांग न की जाये, उन सब चीजों से पूरी सावधानी के साथ बचा जाये जो थकाकर चूर कर देनेवाली हों और अंत में भौतिक तत्त्वों के विघटन और क्षय की ओर ले जायें ।

 

  जो शारीरिक शिक्षण ऐसा शरीर बनाना चाहता हैं जो उच्चतर चेतना का उपयुक्त

 

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यंत्र बन सके वह बहुत कठोर आदतों की मांग करता है : भोजन, नींद, शारीरिक व्यायाम और सभी अन्य क्रियाओं मे बहुत अधिक नियमितता । तुम्हें अपने शरीर की आवश्यकताओं का बढ़ी सावधानी से अध्ययन करना चाहिये-ये व्यक्ति-व्यक्ति मे बदलती रहती हैं- और फिर एक सामान्य कार्यक्रम निश्चित कर लेना चाहिये; एक बार कार्यक्रम निश्रित हो जाये तो तुम्हें, उसे हिलानेवाली मन-मौज या ढील के बिना कटाई के साथ उसका पालन करना चाहिये । इसमें उस तरह के अपवाद बिलकुल न हों जिनमें मनुष्य बस ''एक बार' ' के लिये रस लेता हैं- क्योंकि ''एक बार' ' बार-बार आने लगता है । केवल एक बार सें भी तुम अपने संकल्पबल की प्रतिरोध-शक्ति को कम कर देते हों और हर पराजय के लिये द्वार खोल देते हो । तुम्हें सब कमजोरियों के लिये रास्ता बंद कर देना चाहिये : रात की शरारतें बिलकुल न होनी चाहिये जिनसे तुम एकदम टूटकर लौटते हो । दावतों के, भकोसना के ऐसे कार्यक्रम न होने चाहिये जो पेट की सामान्य क्रिया मे गड़बड़ करे । कोई ऐसे विक्षेप, मन-बहलावा या आमोद-प्रमोद न होने चाहिये जो तुम्हारी शक्ति नष्ट करते हैं और तुम्हें दैनिक अभ्यास के लिये उदासीन या निर्जीव छोड़ जाते हैं । तुम्हें एक बुद्धिमत्तापूर्ण और सुशिक्षित जीवन की तपस्या करनी चाहिये, भौतिक रूप से तुम्हारा सारा ध्यान शरीर को भरसक पूर्ण बनाने मे लगा रहे । इस आदर्श लक्ष्य को पाने के लिये तुम्हें सब प्रकार की अतियों से, छोटी-बढ़ी, सब तरह की बुरी आदतों से बचना चाहिये; तमाकू शराब आदि जैसे मंद विषों से अपने-आपको मुल्क रखना चाहिये; लोग इन्हें अनिवार्य आवश्यकता बना लेते हैं और ये धीरे-धीरे उनके संकल्प-बल और स्मृति को नष्ट कर देते हैं । बिना अपवाद के लोग, यहांतक कि बहुत अधिक बुद्धिवादी भी, भोजन मे, उसके तैयार करने और खाने में जो सर्वग्राही रस लेते हैं, उसके स्थान पर शरीर की आवश्यकताओं के लगभग रासायनिक ज्ञान तथा इन्हें पूरा करने के लिये विशुद्ध वैज्ञानिक प्रकार की तपस्या को बिठाना चाहिये । भोजन की इस तपस्या के साथ हमें एक और तपस्या भी जोड़ देनी चाहिये और वह है नींद की तपस्या । इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें सोये बिना रहना चाहिये, नहीं, तुम्हें यह जानना चाहिये कि कैसे सोया जाये । नींद का अर्थ निश्चेतना मे जा गिरना न होना चाहिये जिससे शरीर ताजा होने की जगह, भारी हो जाये । संयत भोजन हो और सब प्रकार की अतियों सें परहेज रहे तो सो सखने से पहले कई घंटे खराब करने की जरूरत नहीं पड़ती । फिर भी, नींद की मात्रा की अपेक्षा, उसके गुण का महत्त्व अधिक है । अगर नींद से सचमुच लाभदायक विश्राम पाना हो तो बिस्तर पर जाने से पहले, उदाहरण के लिये, दम्य, संप या फल के रस का एक प्याला पी लेना लाभदायक होता हैं । हल्का भोजन शांतिपूर्ण नींद लाता है । हर हालत मे, तुम्हें बहुत अधिक भोजन से बचना चाहिये । क्योंकि उससे नींद खराब और अशांत होती है  और दुः स्वप्न आते हैं या नींद भारी, स्थूल और तामसिक हो जाती है , लेकिन सबसे जरूरी चीज हैं मन को निर्मल रखना, भावनाओं

 

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को अचंचल रखना, इच्छाओं की बुदबुदाहट और उसके साथ की चेष्टाओं को शांत करना, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि कोई सोने से पहले बहुत बोल चुका हो, ज़ोरों से बहस कर चुका हो, कोई बहुत मजेदार और उत्तेजक चीज पढ़ चुका हो तो ज्यादा अच्छा यह हैं कि सोने रो पहले थोड़ा आराम कर लिया जाये ताकि मन के क्रिया-कलाप शांत हो जायें और जब केवल शरीर सो रहा हो तब मस्तिष्क असंयत गतिविधियों मे न फंसा रहे । दूसरी ओर, अगर तुम्हें ध्यान का अभ्यास है तो ज्यादा अच्छा होगा कि तुम कुछ क्षणों के लिये किसी उच्च और विश्रामदायक विचार पर उच्चतर और महानतर चेतना के लिये अभीप्सा करते हुए, अपने मन को एकाग्र करो । इससे तुम्हारे नींद को बहुत लाभ होगा और तुम बढ़ी हद तक, नींद मै निश्चेतना मे जा गिरने के भय से सुरक्षित रहोगे ।

 

  संपूर्ण विश्राम, शांति और नीरव निद्रा की रात्रि की तपस्या के बाद दिन की तपस्या आती है जिसकी व्यवस्था ज्ञान से की गयी हो । शारीरिक विकास के लिये आवश्यक क्रमबद्ध विकसनशील कसरतों और काम के बीच, तुम जो कुछ भी करो, तुम्हारी दिनचर्या बुद्धिमानी से विभाजित होनी चाहिये । ये दोनों ही शारीरिक तपस्या के अंग हो सकते हैं और होने चाहिये । जहांतक व्यायाम का प्रश्र है, हर एक को ऐसे व्यायाम चुनने चाहिये जो उसके शरीर के लिये सबसे अधिक अनुकूल हों । और अगर हो सके तो इसका चुनाव किसी ऐसे विशेषज्ञ की सहायता से किया जाये जो व्यायाम से होनेवाले अधिकतम लाभ को दृष्टि मे रखते हुए उन्हें क्रमबद्ध करके मिला सके । इनका चुनाव या कार्यान्वयन मन की मौज के अधीन नहीं होना चाहिये । तुम्हें यह या वह चीज इसलिये नहीं करनी चाहिये कि वह ज्यादा सरल या सुखद है । तुम अपने कार्यक्रम मे तभी कुछ हरे-फेर करो जब तुम्हारा प्रशिक्षक उसे आवश्यक समझे । अपनी पूर्णता और उन्नति की दृष्टि से हर शरीर एक समस्या है जिसे हल करना होगा । और उसे हल करने के लिये बहुत धीरज, अध्यवसाय और नियमितता की आवश्यकता है । लोग जो कुछ मी सोचे, व्यायामी का जीवन सुख और विक्षेप का जीवन नहीं होता । उसके विपरीत, यह वांछित परिणाम पाने के लिये क्रमबद्ध प्रयत्न और कठोर अम्यासों का जीवन होता हैं । इसमें बेकार और हानिकर सनको के लिये कोई स्थान नहीं होता ।

 

  काम भी एक तपस्या है । इसमें यह जरूरी है कि अपनी पसंद न हो, जो भी करना हो उसे रस लेकर किया जाये । जो व्यक्ति अपने-आपको पूर्ण बनाना चाहता हैं उसके लिये छोटे या बड़े, महत्त्वपूर्ण और महत्त्वहीन काम के जैसी कोई चीज नहीं होती । जो प्रगति और आत्म-प्रभुत्व के लिये अभीप्सा करता  उसके लिये सभी काम एक- से उपयोगी हैं । कहा जाता हैं कि तुम जिस काम मे रस लेते हो उसी को अच्छे-से- अच्छी तरह कर सकते हों । यह सच हैं, लेकिन यह और भी सच है कि तुम जो भी करो, चाहे वह कितना हीं नगण्य क्यों न लगता हो, उसमें रस ले सकते हो । इस

 

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प्राप्ति का रहस्य पूर्णता की अभीप्सा में है । तुम्हारा चाहे जो पेशा हो, तुम्हारा चाहे जो काम हो, उसे प्रगति के संकल्प के साथ करो । तुम जो कुछ करो, उसे न सिर्फ अपनी सामर्थ्य-भर अच्छा करो, बल्कि हमेशा पूर्णता की ओर बढ़ते हुए, हमेशा अच्छे-से- अच्छा करते रहने के उत्साह के साथ करो । इस तरह, बिना अपवाद के, सभी चीजें रुचिकर हों जाती हैं, एकदम शारीरिक श्रम से लेकर अत्यधिक कलात्मक और बौद्धिक कार्य तक, सभी चीजें रुचिकर और रसप्रद हों जाती हैं । प्रगति के लिये अनंत क्षेत्र हैं और तुम छोटी-से-छोटी चीज में भी गंभीर हो सकते हों ।

 

  यह हमें स्वाभाविक रूप में कर्म में मुक्ति की ओर ले जाता है । तुम्हें अपने कार्य में सभी सामाजिक रूढ़ियों और नैतिक पसंदों से मुक्त होना चाहिये । इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हें स्वच्छंद, असंयत जीवन बिताना चाहिये । इसके विपरीत, यहां तुम एक ऐसे नियम के अधीन हाते हो जो सभी सामाजिक नियमों की अपेक्षा अधिक कठोर है, क्योंकि वह किसी ढोंग को नहीं सहता, वह संपूर्ण निष्कपटता की मांग करता है । सभी शारीरिक क्रियाएं इस तरह व्यवस्थित की जानी चाहिये जिससे शरीर संतुलन, शक्ति और सौंदर्य में बढ़ता जाये । इस लक्ष्य को दृष्टि में रखते हुए मनुष्य को सब प्रकार की विलास-प्रियता और काम-केलि से बचना चाहिये । क्योंकि प्रत्येक कामुक किया मृत्यु की ओर एक और कदम है । इसीलिये, सभी युगों में, सभी पवित्र संप्रदायों में, अमरता की अभीप्सा करनेवालों के लिये यह क्रिया वर्जित रही हैं । इसके बाद ही निश्चेतना का कम या ज्यादा लंबा काल आता हैं जो सब प्रकार के प्रभावों के लिये द्वार खोल देता है और चेतना को नीचे गिरा देता है । वास्तव में जो अतिमानसिक जीवन के लिये तैयारी करना चाहता है उसे अपनी चेतना को कभी सुख-भोग, विश्राम या मन-बहलावे के बहाने भी असंयम या निश्चेतना में न फिसलनें देना चाहिये । विश्राम शक्ति और प्रकाश में लेना चाहिये, न कि अंधकार और दुर्बलता में । उन सब लोगों के लिये जो उन्नति के लिये अभीप्सा करते हैं, संयम ही नियम है । परंतु विशेषकर उनके लिये जो लोग अपने-आपको पूर्ण रूपांतर और अतिमानसिक अभिव्यक्ति के लिये तैयार करना चाहते हे, उनके लिये तो संयम की जगह पूर्ण ब्रह्मचर्य की जरूरत है जो दबाव के द्वारा या जोर-जबरदस्ती से नहीं, बल्कि एक आंतरिक किमिया के द्वारा जो सामान्यतया, प्रजनन के कार्य मैं लगनेवाली शक्ति को ओज में, प्रगति और सर्वांगीण रूपांतर की शक्ति में बदल दे । यह कहने की तो जरूरत हीं नहीं हैं कि पूरा-पूरा, सच्चा लाभदायक परिणाम पाने के लिये सब प्रकार की काम-वासना और आवेग को शारीरिक संकल्प के साथ-हीं-साथ मानसिक और प्राणिक चेतना से निकाल बाहर करना चाहिये, समस्त आमूल और स्थायी रूपांतर अंदर से बाहर की ओर .होता है । बाह्य रूपांतर आंतरिक रूपांतर का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम होता है  ।

 

  प्रकृति की आज्ञा के अनुसार वर्तमान जाति को जैसा-का-तैसा बनाये रखने के

 

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लिये शरीर को इस काम के लिये सौंप देना या इसी शरीर को एक नयी जाति की सृष्टि के लिये एक कदम बनाना-इन दोनों में से एक निर्णायक चुनाव करना होगा । दोनों एक साथ नहीं चल सकते । हर क्षण तुम्हें निश्चय करना होगा कि तुम्हें बीते कल की मानवता में बने रहना है या भावी कल की अतिमानवता का अंग बनना है । अगर तुम भावी जीवन के लिये तैयारी करना चाहते हों और उसके सक्रिय, समर्थ सदस्य बनना चाहते हो तो तुम्हें वर्तमान जीवन के अनुसार ढलन से और उसमें सफल होने से इनकार कर देना होगा ।

 

  अगर तुम समग्र सौंदर्य और सामंजस्य में जीने के आनंद की ओर खुलना चाहते हों तो तुम्हें अपने-आपको सुख-भोगों से वंचित रखना होगा ।

 

  यह स्वभावत: हमें प्राणिक तपस्या की ओर ले आता है : संवेदनों की तपस्या, शक्ति की तपस्या की ओर । प्राणमय पुरुष, वास्तव मे, शक्ति का, उपलब्ध करनेवाले उत्साह का आधार है । प्राण में ही विचार संकल्प में बदलकर कर्म की सक्रियता का रूप लेता है । यह सच हैं कि प्राण हीं कामनाओं और आवेगों, उग्र आवेशों और साथ हीं उतनी हीं उग्र प्रतिक्रियाओं की, विद्रोह और अवसाद की भूमि हैं । साधारणतः, इसका इलाज हैं गला घोंट देना, इसे संवेदनों से वंचित कर देना । वास्तव में, संवेदन हीं इसका मुख्य आहार है और उसके बिना यह सो जाता हैं, शिथिल और मंद पड़ जाता हैं और अंत में पूरी तरह खाली हो जाता हैं ।

 

  तथ्य तो यह हैं कि प्राण तीन स्रोतों से पोषण प्राप्त करता हैं । उसके लिये सबसे आसान है , नीचे की ओर से संवेदनों दुरा आनेवाली भौतिक शक्तियों तक पहुंचना । दूसरा स्रोत है स्वयं अपने हीं स्तर पर वैश्व प्राणिक शक्तियां, लेकिन इसके लिये उसे काफी विशाल और ग्रहणशील होना चाहिये ।

 

  तीसरा स्रोत अपर की ओर हैं जिसके प्रति साधारणत: वह तभी खुलता है जब वह प्रगति के लिये तीव्र अभीप्सा दुरा, आध्यात्मिक शक्तियों और अंत:प्रेरणाओं से अनुप्राणित होकर उन्हें आत्मसात् करे ।

 

  मनुष्य प्रायः हमेशा, कम या ज्यादा, इनमें एक और स्रोत जोड़ने की कोशिश करते हैं । साथ हीं यह स्रोत उनके लिये उनके अधिकतर दुखों और दुर्भाग्यों का स्रोत होता हैं । यह है अपने साथी-प्राणियों के साथ प्राणिक शक्तियों का आदान-प्रदान । साधारणतः, यह दो-दो के दल में होता हैं जिसे वे फल से प्रेम मान बैठते हैं, लेकिन यह दो शक्तियों के बीच आकर्षण मात्र होता है जो परस्पर आदान-प्रदान में ही सुख मानती हैं ।

 

  तो अगर हम अपने प्राण को भूखा नहीं मारना चाहते तो संवेदनों का न तो त्याग करना चाहिये, न उन्हें रूम करना या भोथरा बनाना चाहिये । उनसे बचने की भी जरूरत नहीं हैं, बल्कि उनका बुद्धि और विवेक के साथ उपयोग करना चाहिये । संवेदन जान और शिला के लिये बहुत अच्छे यंत्र हैं । उन्हें इस काम में उपयोगी बनाने के

 

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लिये जरूरी है कि उनका उपयोग अहंकारपूर्ण हेतु के लिये, आमोद-प्रमोद के लिये या सुख और आत्म-तुष्टि की अंधी अज्ञानमयी खोज के लिये न किया जाये ।

 

  इंद्रियों को हर चीज घृणा या अप्रसन्नता के बिना ले सकनी चाहिये और साथ ही उन्हें विभिन्न प्राणिक स्पंदनों के गुण, स्रोत और परिणाम के बारे में अधिकाधिक विवेक-शक्ति विकसित करनी चाहिये और यह जानना चाहिये कि वे भौतिक और प्राणिक सत्ता की प्रगति और उनके संतुलन में सहायक हैं या नहीं । इसके अतिरिक्त, भौतिक और प्राणिक जगत् को उनकी सारी जटिलताओं के साथ समझने और उनका अध्ययन करने के लिये साधन के रूप में इंद्रियों का उपयोग होना चाहिये । इस तरह है रूपांतर के महान प्रयत्न में अपना सच्चा स्थान लेगी ।

 

 प्राण को कमजोर बनाकर नहीं, बल्कि उसे प्रकाशयुक्त, बलवान और शुद्ध करके हीं व्यक्ति सत्ता की सच्ची प्रगति मे सहायता दे सकता हैं । अपने-आपको संवेदनों सें वंचित करना मी उसी तरह हानिकर है जैसे भोजन खै वंचित रखना । लेकिन जैसे भोजन का चुनाव बुद्धिमत्ता के साथ, शरीर के विकास ओर उसके व्यापार-विशेष को ध्यान मे रखते हुए करना चाहिये, उसी तरह संवेदनों का चुनाव और नियंत्रण भी विशुद्ध वैज्ञानिक ढंग की तपस्या के दुरा, इस अत्यधिक सक्रिय यंत्र की उन्नति और पूर्णता को हीं ध्यान में रखते हुए करना चाहिये, क्योंकि वह सत्ता के अन्य सभी भागों के विकास के लिये आवश्यक हैं ।

 

  प्राण को शिक्षा देकर, उसे अधिक शिष्ट, अधिक भावुक और अधिक सूक्ष्म या यूं कहें, अधिक सुरुचि-संपत्र-शब्द के अच्छे-से-अच्छे अर्थों मे- बनाकर हीं व्यक्ति इसकी हिंसामय उग्रताओं और पाशविकताओं पर विजय पा सकता है । ये चीजें प्रायः उसकी अशिष्टता ओर अज्ञानमयी, सुरुचिविहीन क्रियाएं होती हैं ।

 

   वास्तव मे, प्राण, जब शिक्षित और प्रकाशयुक्त हों तो, उतना हीं महान वीर और निःस्वार्थ हो सकता हैं जितना अभी सहज रूप से शिक्षा के बिना अशिष्ट, अहंकारपूर्ण और विकृत हैं । अगर हर एक अपने अंदर सूख की खोज को अतिमानसिक पूर्णता की अभीप्सा मे बदलना जाने तो यह काफी हैं । उसके लिये यदि प्राण की शिक्षा अध्यवसाय और निष्कपटता के साथ काफी आगे बढ़ायी जाये तो एक ऐसा क्षण आता है जब उसे लक्ष की महानता और उसके सौंदर्य के बारे मे विश्वास हो जाता है और वह भागवत आनंद को पाने के लिये अपनी इंद्रियों के तुच्छ और म्रांतिजनक संतोषों को त्याग देता हैं ।

 

('बुलेटिन', फरवरी १९५३)

 

(२)

 

 जब हम मानसिक तपस्या के विषय मे बात करते हैं तो .हमें तुरंत उन लंबे ध्यानों

 

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का ख्याल आता है जो विचारों पर नियंत्रण और अंत में शिखर के रूप में आंतरिक नीरवता की ओर ले जाते हैं ! योग-साधना का यह पक्ष सुपरिचित हैं और इसके बारे में विस्तार से कुछ कहने की जरूरत नहीं । लेकिन इसका एक और पक्ष भी है जिसकी ओर लोग ज्यादा ध्यान नहीं देते, यह है वाणी का संयम । कुछ विरल अपवादों को छोड्कर, साधारणतः, खुली बकवास के विरुद्ध पूर्ण मौन को ही खड़ा किया जाता है। लेकिन वाणी का नियंत्रण करना पूर्ण निरोध की अपेक्षा ज्यादा महान् और फलप्रद तपस्या है ।

 

  धरती पर मनुष्य ही पहला प्राणी है जो स्पष्ट रूप में उच्चारित ध्वनि का उपयोग करता है । वह सचमुच इस पर गर्व करता है और बिना सोचे-समझे, बिना विवेक के इसका उपयोग करता है । संसार उसके शब्दों के कोलाहल सें बहरा हो गया है, इसलिये कभी-कभी मनुष्य को वनस्पति-जगत् की समस्वर नीरवता का अभाव खलता है ।

 

  यह एक जाना हुआ तथ्य है कि मानसिक शक्ति जितनी कम होगी बोलने की आवश्यकता उतनी ही अधिक होगी । उदाहरण के लिये, आदिम जातियां हैं, ऐसे लोग हैं जिन्हें कोई शिक्षा नहीं मिली, है बोले बिना सोच ही नहीं सकते । तुम उन्हें कम या अधिक धीमी आवाज में बुदबुदाते सुन सकते हो । अपनी विचार-धारा का अनुसरण करने के लिये उनके पास बस, यहीं एक तरीका है, बोले हुए शब्दों के बिना उनके विचार कोई रूप हीं नहीं ले सकते ।

 

  काफी बढ़ी संख्या मे ऐसे लोग हैं, पढे-लिखों मे भी, जिनकी मानसिक शक्ति बहुत दुर्बल हैं और है  कहने से पहले  यह नहीं जानते कि उन्हें क्या कहना है । उनके साथ बातचीत बहुत बतानेवाली हो जाती है और उसका अंत हीं नहीं आता । लेकिन जब वह बोलते हैं तो उनके विचार अधिकाधिक स्पष्ट और यथार्थ हो जाते हैं और इस कारण वह एक हीं बात को बार-बार, बार-बार दोहराने के लिये बाधित होते हैं ताकि वह उसे ज्यादा-ज्यादा ठीक तरह कह सकें । कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें वे जो कुछ कहना चाहते हों उसे पहलई से तैयार करना पड़ता है और अगर उन्हें अचानक कहीं कुछ बोलना पंडू जाये तो है हिचकिचाते, हकलाने लगते हैं, क्योंकि वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसके लिये उपयुक्त शब्दों को क्रमबद्ध करने का उन्हें समय हीं नहीं मिला ।

 

  और अंत मे, कुछ जन्मजात वक्ता होते हैं जिन्हें भाषण-कला पर पूरा अधिकार होता हैं । वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसे कहने और भली-भांति कहने के लिये उन्हें सहज रूप से शब्द मिलते जाते हैं ओर वे अच्छी तरह बोलते हैं ।

 

  फिर भी, यह सब मानसिक तपस्या की दृष्टि से बकवास की गिनती मे आ जाता हैं । बकवास से मेरा मतलब है ऐसा कोई भी शब्द बोलना जो एकदम अनिवार्य न हो । तुम पूछ सकते हो, इसका निर्णय कैसे किया जाये? इसके त्शिये हमें सामान्य

 

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रूप में बोले गये शब्दों का वर्गीकरण करना होगा ।

 

  सबसे पहले, भौतिक क्षेत्र मे, वे सब शब्द हैं जो भौतिक कारणों से बोले जाते हैं । बे सबसे ज्यादा संख्या मे हैं और सामान्य जीवन में शायद सबसे अधिक उपयोगी भी हैं । ऐसा लगता है कि शब्दों की एक सतत गूंज हमारे दैनिक रूढ़ कार्य की अनिवार्य संगत बन गयी है । लेकिन फिर अगर तुम शोर को कम-से-कम करने का प्रयत्न करो तो तुम देखना शुरू करोगे कि बहुत-सी चीजें नीरवता में ज्यादा अच्छी और ज्यादा जल्दी की जा सकतीं हैं । और इससे आंतरिक शांति और एकाग्रता बनाये रखने में मी सहायता मिलती हैं ।

 

  अगर तुम अकेले नहीं हो, बल्कि औरों के साथ रहते हों तो ऐसी आदत डालों कि अपने-आपको सारे समय ऊंची आवाज में उच्चारित शब्दों मे अभिव्यक्त न करते रहो, तब तुम देखेगी कि तुम्हारे और औरों के बीच थोड़ी-थोडा करके एक आंतरिक समझ पैदा हों गयी है; तब तुम उनके साथ कम-से-कम शब्दों मे या बिना शब्दों के हीं एक-दूसरे से संपर्क रख सकोगे । यह बाहरी मौन आंतरिक शांति के लिये बहुत अनुकूल होता है और अगर तुम्हारे अंदर सद्भावना और सतत अभीप्सा हैं तो तुम प्रगति के लिये सहायक वातावरण पैदा कर सकोगे ।

 

  सार्वजनिक जीवन मे, उन शब्दों के साथ जिनका संबंध जीविका और भौतिक व्यापार से जुड़ा होता हैं, बे शब्द भी जुड़ जाते हैं जो संवेदनों, भावनाओं और आवेगों को व्यक्त करते हैं । इस क्षेत्र मैं बाहरी मौन की आदत बहुमूल्य सहायक सिद्ध होती है । क्योंकि जब तुम पर संवेदनों या भावनाओं का हमला होता है  तो यहीं मौन की आदत तुम्हें सोचने का अवकाश देती है  और अगर जरूरत हो तो तुम्हें अपने संवेदनों और भावों को शब्दों मे प्रकट करने सें पहले हीं रोक लेती है । इस तरह कितने सारे लझई-झगडों को रोका जा सकता है; तुम कितनी बार उन मनोवैज्ञानिक विपदाओं सें बच सकते हो जो बहुत बार वाणी के असंयम का परिणाम होती हैं !

 

  तुम इस हद तक भले न जाओ, पर तुम्हें हमेशा अपने उच्चारित शब्दों पर संयम रखना चाहिये । तुम्हें अपनी जीभ को क्रोध, उग्रता या रोष के अधीन कभी काम न करने देना चाहिये । उससे आनेवाले परिणामों मे केवल झगड़ा हीं बुरा नहीं है, बल्कि यह तथ्य भी है कि तुम बरनी जीभ के द्वारा वातावरण मे बुरे भाव प्रक्षिप्त होने देते हो, क्योंकि ध्वनि के स्पंदनों से ज्यादा छुतहा कोई और चीज नहीं है । इन गतियों को अपने-आपको प्रकट करने का अवसर देकर तुम उन्हें अपने अंदर और दूसरों के अंदर स्थायी बनाते हों ।

 

  सबसे अधिक अवांछनीय प्रकार की बकवास में उस बातचीत की भी गिनना चाहिये जो तुम औरों के बारे में करते हो ।

 

   जबतक तुम संरक्षक, अध्यापक या विभागाध्यक्ष के रूप में कुछ लोगों के उत्तरदायी न हो तबतक दूसरे क्या करते हैं और क्या नहीं करते इसके साथ तुम्हारा

 

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कोई मतलब नहीं । तुम्हें औरों के बारे में बातचीत करने से, उनके बारे में राय देने से, या वे क्या करते हैं या दूसरे उनके बारे में क्या सोचते या कहते हैं, इस विषय में कुछ कहने सें बचना चाहिये ।

 

हो सकना है कि तुम्हारा काम हीं ऐसा हो कि किसी विशेष विभाग या व्यवसाय या सामूहिक कार्य में क्या हो रहा हे इसकी सूचना देना तुम्हारा कर्तव्य हो जाता हैं । ऐसी हालत में, तुम्हारी रिपोर्ट शुद्ध रूप से काम के साथ ही संबद्ध होनी चाहिये, किसी व्यक्तिगत मामले से नहीं । वह हर हालत में पूरी तरह वस्तुनिष्ठ होनी चाहिये । तुम्है उसके अंदर व्यक्तिगत प्रतिक्रिया, पसंद, सहानुभूति या विरोध की प्रवेश न करने देना चाहिये । विशेष रूप से, तुम्हें जो काम सौंपा गया हैं उसमें किसी निजी तुच्छ वैरभाव को कभी न मिलने दो ।

 

हर हालत मैं, सामान्य रूप से, दूसरों के बारे मे तुम जितना हीं कम बाख-उनकी प्रशंसा मे भी-उतना ही अच्छा । अपने अंदर क्या हों रहा हैं उसे हीं ठीक-ठीक जानना इतना मुश्किल है-फिर भला निश्रित रूप से यह कैसे जाना जाये कि दूसरों में क्या हो रहा हैं? इसलिये किसी भी व्यक्ति के बारे मे कोई अटल निर्णय न सुना दो । वह यदि दुर्भावनापूर्ण न भी हुआ तो मूर्खतापूर्ण तो अवश्य होगा ।

 

  जब विचार शब्दों मे अभिव्यक्त किया जाता है तो ध्वनि के स्पंदन में विचार के साथ सबसे अधिक भौतिक तत्त्व का संबंध जोड़कर उसे ठोस और प्रभावशाली वास्तविकता बना देने की काफी क्षमता होती है । इसलिये तुम्हें चीजों या लोगों के बारे में बुरी बातें न कहनी चाहिये, शब्दों मे ऐसी चीजों को व्यक्त न करना चाहिये जो भागवत उपलब्धि की प्रगति का विरोध करें । यह एक सामान्य और सुशिक्षित नियम हैं । किंतु इसका एक अपवाद भी  है । तुम्हें किसी चीज या कर्म की आलोचना तबतक न करनी चाहिये जबतक तुम्हारे अंदर उसका- जिसकी तुम आलोचना कर रहे हों- अंत करने या उसका रूपांतर करने की सचेतन शक्ति और सक्रिय संकल्प न हो । वस्तुतः, इस सचेतन शक्त्ति और क्रियाशील संकल्प में स्थूल भौतिक पदार्थ मे प्रतिक्रिया की संभावना उत्पन्न करने की, पूरे स्पंदन को अस्वीकार करने की और अंत में उसे इस हद तक सुधारने की क्षमता होती हूं कि उसके लिये अपने-आपको भौतिक स्तर पर व्यक्त करना असंभव हो जाता है ।

 

  यह काम बिना किसी .संकट और भय के केवल वही कर सकता हैं जो विज्ञानमय लोकों में विचरण करता हो और जिसे अपनी मानसिक क्षमताओं में आत्मा का प्रकाश और सत्य की शक्ति प्राप्त हो । वह दिव्यकर्मी सब प्रकार की पसंद और आसक्ति से मुक्त्ति होता हैं । वह अपने अंदर अहंकार की सीमाओं को तोड़ चुकता है उत् वह धत्ती पर अतिमानसिक कार्य के पूर्णतया शुद्ध और निवैयक्तिक के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ।

 

  ऐसे शब्द भी हैं जो विचार, सम्मति, मनन और अध्ययन के परिणामों को व्यक्त

 

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करने के लिये काम आते हैं । यहां हम बौद्धिक क्षेत्र मे हैं ओर यह सोच सकते हैं कि इस क्षेत्र मे मनुष्य ज्यादा समझदार और संतुलित होते हैं और यहां कठोर तपस्या कम अनिवार्य हैं । लेकिन बात ऐसी बिलकुल नहीं हैं, क्योंकि यहां भी लोगों ने विचारों और ज्ञान के इस क्षेत्र में भी, विश्वासों की उग्रता, साम्प्रदायिक असहिष्णुता और पसंद का, आवेग का प्रवेश करा दिया है । अतः यहां भी व्यक्ति को मानसिक तपस्या का आश्रय लेना चाहिये और उन विचारों के आदान-प्रदान से सावधानी के साथ बचना चाहिये जिनकी समाप्ति ऐसे तर्क-वितर्क में होती हैं जो अधिकतर कटु और प्रायः हमेशा हीं निरर्थक होते हैं; और उन मतभेदों से भी बचना चाहिये जिनका अंत गरिमा-गरम बहस, यहांतक कि झगड़े में मी होता है । यह सब मन की संकीर्णता सें आता है और जब आदमी मानसिक क्षेत्र मे काफी ऊंचा उठ जाये तो इसका इलाज आसानी से हो सकता है ।

 

  वास्तव में, आदमी जब यह जान जाये कि सूत्रबद्ध विचार उस चीज को कहने का केवल एक ढंग हैं जो वर्णन से परे है , तो फिर सांप्रदायिकता असंभव हो जाती है । हर विचार या भाव मे थोड़ा-सा सत्य या सत्य का एक पहलू होता है, पर कोई विचार या भाव ऐसा नहीं है जो अपने-आपमें पूर्ण सत्य हो ।

 

   चीजों की सापेक्षता का यह भाव, व्यक्ति मे संतुलन रखने और उसकी बातचीत मे गंभीर संयम बनाये रखने मे बहुत सहायक होता है । मैंने एक गुह्यवेत्ता, जिसे कुछ ज्ञान प्राप्त था, यह कहते हुए सुना था : ''कोई भी चीज तत्त्व: अशुभ या बुरी नहीं हैं; केवल ऐसी चीजें हैं जो अपने स्थान पर नहीं हैं । हर एक चीज को उसके अपने स्थान पर रख दो और तुम सामंजस्यपूर्ण संसार पा जाओगे । ''

 

  फिर भी, काय की दिष्टि से, विचार का मूल्य उसकी व्यावहारिक शक्ति के अनुपात मे होता है । यह सच है कि यह शक्ति जिन लोगों में काम करती हैं उनके अनुसार भिन्न होती है । एक भाव-विशेष जो एक व्यक्ति में महान प्रेरक शक्ति रखता  वहां दूसरे में एकदम असफल होता है । लेकिन शक्ति अपने -आपमें संक्रामक है । कुछ भावों मे दुनिया का रूपांतर करने की शक्ति होती है । इन्हीं को व्यक्त करना चाहिये । ये आत्मा के आकाश में पथ-प्रदर्शक नक्षत्र हैं और ये हीं धरती को अपना परम उपलब्धि की ओर ले जाते हैं ।

 

  अंत में, वे सब शब्द हैं जो पढ़ाने के लिये काम में लाये जाते हैं । शब्दों की यह श्रेणी शिशु-विहार से लेकर विश्वविद्यालय तक फैली है  जिसमें मनुष्य के कलात्मक ओर साहित्यिक सर्जनों का भी समावेश है जो या तो मनोरंजक होते हैं या शिक्षाप्रद । हंस क्षेत्र में सब कुछ कार्य के मूल्य पर निर्भर है और यह विषय इतना बड़ा है  कि इसे यहां पर ले सकना संभव नहीं हैं । यह एक तथ्य हैं कि आजकल शिक्षा की ओर बहुत ध्यान दिया जा रहा है और नयी-सें-नयी वैज्ञानिक खोजों का उपयोग करके उन्हें शिक्षा की सेवा में लगाने का सराहनीय प्रयास हों रहा है । लेकिन सत्य के लिये

 

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 अभीप्सा करनेवालों के लिये यहां भी तप की जरूरत है ।

 

  आमतौर पर यह माना जाता हैं कि शिक्षा की प्रक्रिया मे हल्की, मनोरंजक बल्कि तुच्छ कृतियों को मी स्थान मिलना चाहिये ताकि प्रयास का दबाव कम पड़े और केवल बच्चों को हीं नहीं, बडों को भी कुछ आसानी हो । एक दृष्टिकोण से यह सच है लेकिन दुर्भाग्यवश इस मान्यता के कारण चीजों की, एक ऐसी पूरी-की-पूरी श्रेणी को आयात करने का बहाना मिल गया है जो मानव प्रकृति मे जो कुछ गंवारू, भद्दा और निम्न कोटि का हैं उसके खिलने से क्रम नहीं है । इस मान्यता मे अत्यंत जघन्य प्रवृत्तियों तथा अति हीन रुचियों को अनिवार्य आवश्यकता के रूप में अपना प्रदर्शन करने और अपने-आपको स्थापित करने का अच्छा बहाना मिल जाता है । लेकिन बात ऐसी नहीं है; आदमी कामुक हुए बिना विश्राम कर सकता है, वह लंपट बने बिना भी अपने-आपको आराम दे सकता है । वह विश्राम कर सकता है , पर अपनी प्रकृति की स्थूल चीजों को उभरने दिये बिना । लेकिन तपस्या की दृष्टि से इन आवश्यकताओं को भी अपनी प्रकृति बदलने की जरूरत है; आराम एक आंतरिक नीरवता में, विश्राम ध्यान मे, और शिथिलीकरण आनंद मे बदल जाता है ।

 

  मन-बहलाव की, काम में आराम की, जीवन के लक्ष्य को कुछ समय के लिये या ज्यादा समय के लिये पूरी तरह मूल जाने की और साथ हीं जीवन के छ? हेतु को भूल जाने की आवश्यकता को बिलकुल स्वाभाविक और अनिवार्य नहीं मान लेना चाहिये । यह एक ऐसी दुर्बलता है जिसके आगे मनुष्य अभीप्सा की तीव्रता के अभाव, संकल्प-शक्ति की अस्थिरता, अज्ञान, निश्चेतना और निरुत्साह के कारण झुक जाता है। इन प्रवृत्तियों को न्यायसंगत न ठहराओ और शीघ्र ही तुम देखोगे कि ये जरूरी नहीं रहीं; कुछ समय बाद ये तुम्हारे लिये अरुचिकर, यहांतक कि, अग्राह्य हो जायेंगी । तब मनुष्य की कृतियों का एक छोटा नहीं, बल्कि काफी बड़ा भाग, जो ''मनबहलाव '' कहाता है पर सचमुच है नीचे ले जानेवाला, अपना आधार और प्रोत्साहन खो बैठेगा ।

 

  फिर भी यह न समझो कि बोले हुए शब्दों का मूल्य बातचीत के विषय पर निर्भर हैं । तुम आध्यात्मिक विषयों पर भी उसी तरह बकवास कर सकते हो जैसे किसी और विषय पर । लेकिन इस प्रकार की बकवास सबसे अधिक भयंकर बकवासों में से एक हो सकतीं है । उदाहरण के लिये, नया साधक जो थोड़ा-बहुत जानता है उसे औरों में बांटने के लिये बहुत उत्सुक रहता है । लेकिन जैसे वह मार्ग पर आगे बढ़ता है उसे अधिकाधिक पता लगता हैं कि वह बहुत नहीं जानता और औरों को सिखाने का प्रयास करने से पहले उसे अपने ज्ञान के मूल्य के बारे में निश्रित होना चाहिये जबतक कि अंत में वह बुद्धिमान न हो जाये और यह अनुभव न करने लगे कि कुछ मिनिटों तक उपयोगी बात करने के लिये घंटों की नीरव एकाग्रता की जरूरत होती हैं । इसके अतिरिक्त, आंतरिक जीवन और आध्यात्मिक साधना के बारे में वाणी के

 

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उपयोग पर कठोर ज्यादा अनुशासन रखना होगा और जबतक एकदम आवश्यक ही न हो कुछ न कहा जाये ।

 

  यह भली-भांति जाना हुआ तथ्य हैं कि अगर तुम अपनी अनुभूति मे इकट्ठी की गयी शक्ति को, जो तुम्हारी प्रगति को तेज करने के लिये है, क्षण-भर में गायब होते नहीं देखना चाहते तो तुम्हें अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों के बारे में कभी न बोलना चाहिये । इसमें केवल एक हीं अपवाद हो सकता है-गुरु, जब तुम उनसे अपनी अनुभूति के बारे में कोई व्याख्या चाहो या उसके अर्थ के संबंध में कोई आदेश चाहो । वास्तव में, तुम केवल अपने गुरु के सामने ही इन चीजों के बारे में बिना किसी भय के बोल सकते हो, क्योंकि केवल गुरु अपने ज्ञान दुरा तुम्हारी अनुभूति के तत्त्वों की तुम्हारी भलाई के लिये नयी चढ़ाई के सोपान में बदल सकते हैं ।

 

  यह सत्य है कि गुरु भी स्वयं अपनी निजी बातों के बारे में इसी तरह नीरवता के नियम के अधीन होते हैं । प्रकृति में हर चीज गतिशील है; अत: जो आगे नहीं बढ़ता वह पीछे हटाने के लिये बाधित है । अपने शिष्य की भांति गुरु को भी आगे बढ़ना चाहिये, चाहे उनकी प्रगति उसी स्तर पर न हो । उनके लिये भी अपनी अनुभूति के बारे में बोलना हितकर नहीं है : अनुभूति की गतिशील शक्ति को शब्दों मे प्रकट किया जाये तो वह बड़ी हदतक भाप बनकर उड़ जाती है । दूसरी ओर, शिष्यों को अपने अनुभव समझाकर गुरु उनकी समझ और उनकी प्रगति में प्रबल सहायता पहुंचाते हैं । उन्हें अपनी समझ के अनुसार यह जानना होगा कि किस हदतक की दूसरे के लिये बलि चढ़ाये । यह तो जानी-मानी बात है कि उनके वर्णन मे शेखी या अहंमन्यता का प्रवेश नहीं होना चाहिये, क्योंकि जरा-सा अभिमान उन्हें गुरु की जगह पाखंडी बना देगा ।

 

  रहीं बात शिष्य की, तो उससे मैं कहूंगी : ''हर हालत मे अपने गुरु के प्रति निष्ठावान बने रहो, वह चाहे कुछ भी क्यों न हो तुम जितनी दूरतक जा सको वह तुम्हें उतनी दूरतक ले जायेंगे । लेकिन अगर तुम्हें भगवान् को हीं गुरु के रूप में पाने का सौभाग्य प्राप्त हा तो तुम्हारी उपलब्धि की कोई सीमा न होगी । ''

 

  फिर भी, जब भगवान् धरती पर अवतार लेते हैं तो वे भी प्रगति के इस विधान के अधीन होते हैं । उनकी अभिव्यक्ति के यंत्र को, भौतिक सत्ता को, जो उनका परिधान होती है, सतत प्रगति की अवस्था में रहना चाहिये और उनकी निजी आत्माभिव्यक्ति का नियंत्रण करनेवाले विधान एक तरह से धरती की प्रगति के सामान्य विधान से जुड़े रहते हैं । इस तरह सशरीर भगवान धरती पर तबतक पूर्ण नहीं हो सकते जबतक मनुष्य पूर्णता को समझने और स्वीकार करने के लिये तैयार न हों । ऐसा एक दिन होगा जब मनुष्य सब कुछ भगवान् के प्रति प्रेम के कारण करेंगे, आज की तरह उनके प्रति कर्तव्य मानकर नहीं । तब प्रगति एक प्रयास, और बहुधा संघर्ष होने की जगह एक आनंद होगी, 'या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि प्रगति समस्त सत्ता की निष्ठा

 

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के आनंद के दुरा होगी, अहंकार के प्रतिरोध के दमन दुरा नहीं, जिसका अर्थ होता है बहुत प्रयास और कभी-कभी बहुत दुःख-कष्ट ।

 

  अंत मे, मैं तुमसे यह कहूंगी : यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारी वाणी सत्य को अभिव्यक्त करे और भागवत शब्द की शक्ति प्राप्त करे तो पहले से मत सोचो कि तुम क्या कहोगे, यह निश्चय न करो कि क्या कहना अच्छा या बुरा होगा, यह हिसाब न लगाओ कि जो तुम कहनेवाले हो उसका क्या प्रभाव होगा । अपने मन मैं नीरव रहो और 'सर्व प्रज्ञा', 'सर्व ज्ञान', 'सर्व चेतना' के लिये सतत अभीप्सा के सच्चे भाव मे स्थिर रहो । तब, अगर तुम्हारी अभीप्सा निष्कपट है , अगर यह चीजों को अच्छी तरह करने और सफल होने की महत्त्वाकांक्षा को छिपाने के लिये एक आवरण नहीं है, अगर वह शुद्ध सहज और सर्वांगीण है तो तुम सरलता के साथ बोल सकोगे, वही शब्द बोलेगा जो बोले जाने चाहिये, न अधिक, न कम, और उनमें सर्जक शक्ति होगी ।

 

('बुलेटिन' अप्रैल १९५३)

 

(३)

 

   सभी तपस्याओं में यह सबसे कठिन ही संवेदन और भावों की तपस्या, प्रेम की तपस्या ।

 

  वस्तुत:, शायद भावों के क्षेत्र मे मनुष्य को, अन्य सब क्षेत्रों से बढ़कर, एक विवशता, अदम्यता और अनिवार्यता का अनुभव होता हैं, एक शासक नियति का भाव होता है जिससे वह बच नहीं सकता । प्रेम को (कम-से-कम वह चीज जिसे मनुष्य यह नाम देते हैं) विशेष रूप में एक ऐसा निरंकुश प्रभु माना जाता है जिसकी सनको से नहीं बचा जा सकता, जो तुम्हारे अपर मनचहिए ढंग से प्रहार करता है, और तुम चाहो या न चाहो, तुम्हें आज्ञापालन के लिये बाधित करता है । प्रेम के नाम पर बुरे- से-बुरे अपराध किये गये हैं, बेलगाम मूर्खताएं की गयी हैं ।

 

  और फिर भी, मनुष्य ने प्रेम की इस शक्ति को वश मै करने की आशा से, इसे सौम्य ओर विनीत बनाने के लिये सब प्रकार के नैतिक और सामाजिक नियम बनाये हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वह नियम तोड़ने के लिये हीं बनाये गायें थे और उसकी स्वछंद गति पर लगाये गायें प्रतिबंध उसकी विस्फोटक शक्ति को बढ़ाते प्रतीत होते हैं । क्योंकि प्रेम की गतिविधि को नियमों के दुरा वश में नन्हों किया जा सकता । प्रेम के अदम्य आवेगों को केवल प्रेम की अधिक महान अधिक ऊंची और अधिक सच्ची शक्ति हीं वश में कर सकतीं है । प्रेम हीं प्रेम पर, उसे प्रकाशित करके, उसका रूपांतर करके और उसे बढ़कर शासन कर सकता है । क्योंकि यहां भी, अन्य किसी भी और स्थान की अपेक्षा कहीं अधिक, संयम दाबने या त्यागने में नहीं, एक उदात्ता किमिया

 

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के दुरा रूपांतरित करने मे हैं । इसका कारण यह हैं कि संसार पर क्रिया करनेवाली सभी शक्तियों मे प्रेम ही सबसे अधिक शक्तिशाली, सबसे अधिक अदम्य हैं । प्रेम के बिना जगत् फिर से निक्षेतना की अवस्था मे जा गिरेगा ।

 

  वस्तुतः, चेतना विश्व की स्रष्टा है, परंतु प्रेम उसका रक्षक हैं । केवल सचेतन अनुभूति हीं इस बात की झांकी दे सकती है कि प्रेम क्या है, क्यों है और कैसे हैं । उसकी प्रतिलिपि शब्दों मे निश्रित रूप से उस वस्तु का मानसिक छद्यवेश हैं  जो सब प्रकार की अभिव्यक्ति से बच निकलती हैं । दार्शनिक, गुह्मवेत्ता, रहस्यवादी, सब प्रयास कर चुके हैं, लेकिन व्यर्थ । मै यह दावा नहीं करती कि जहां है असफल हों गये वहां मैं सफल होऊंगी । मेरा उद्देश्य है उस चीज को सरल-से-सरल भाषा मे रखना जो उनकी लेखनी के द्वारा इतना अमूर्त और जटिल रूप ले लेती है । मेरे शब्दों का केवल यहीं लक्ष्य होगा कि है एक बच्चे को भी जीवित-जाग्रत् अनुभूति की ओर ले जायें ।

 

  प्रेम, अपने सार-तत्त्व में, एकात्मता का आनंद हो वह ऐक्य के आनंद में अपनी चरम अभिव्यक्ति पाता हैं । इन दो अवस्थाओं के बीच वैध अभिव्यक्ति के सभी पक्ष आ जाते हैं ।

 

  इस अभिव्यक्ति के आरंभ में, प्रेम अपने उद्गम की पवित्रता मे दो गतियों से बना होता हैं, पूर्ण मिलन की प्रवृत्ति के दो पूरक ध्रुवों सें बना होता है । एक ओर आकर्षण की परम शक्ति और दूसरी ओर हैं पूर्ण आत्म-समर्पण की आवश्यकता जिसका कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता । व्यक्तिगत सत्ता में चेतना के अपने मुछ स्रोत सें बिछुड़कर निश्रेतना बनते समय जो खाई खुद गयी थीं उसे पाटने के लिये -कोई और शक्ति प्रेम से बढ़कर नहीं हो सकती ।

 

  जो -चीज देश-काल मे प्रक्षिप्त की गयी थीं उसे इस भांति बनी हुई सृष्टि को नष्ट किये बिना स्वयं अपने में वापिस लाना था । इसके लिये प्रेम, जो मिलन की एकमात्र अदम्य शक्ति हैं, उमर पड़ा ।

 

  वह अंधकार और निक्षेतना पर मंडराता रहा हैं, उसने अपने-आपको अगाध रात्रि के वक्ष में बिखेर दिया है, चूर-चूर कर दिया हैं । और तभी सें जागरण और आरोहण का आरंभ द्रुआ हैं, धीरे-धीरे जढ़तत्त्व का निर्माण और उसका अंतहीन विकास शुरू हुआ था । क्या यह प्रेम ही नहीं है जो एक म्रांतिणि और अंधेरे रूप मे भौतिक और प्राणिक प्रकृति की सभी प्रेरणाओं के साथ जुड़ा है तथा प्रत्येक क्रिया और प्रत्येक समूहीकरण की ओर प्रेरित करता हैं? वनस्पति जगत् मे यह बिलकुल स्पष्ट दिखायी देता हैं । पेड़-पौधों मे यह अधिक प्रकाश और अधिक हवा, अधिक स्थान पाने के लिये बढ़ने की आवश्यकता हैं, तो फूल मे यही सौंदर्य और सुरभि के साथ प्रस्फुटन हैं । और पशु-जगत् मे क्या यहीं भूख-प्यास, अधिकार, विस्तार और प्रजनन, संक्षेप मे कहें तो सभी कामनाओं के पीछे जाने-अजाने रूप मे नहीं रहता? और उच्चतर श्रेणियों में

 

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मादा की अपने बच्चों के लिये निःस्वार्थ निष्ठा मे यहीं चीज नहीं है? यह चीज हमें स्वभावत: मानवजाति तक ले आती हैं जहां मानसिक गतिविधि के विजयपूर्ण आगमन सें यह संबंध अपनी चरम सीमा को पा लेता हैं , क्योंकि वहां पर यह सचेतन और सुविवेचित हैं । वास्तव में, धरती के विकास में जब यह संभव हुआ तो प्रकृति ने प्रेम की इस महान शक्ति को लेकर प्रजनन के साथ जोड़कर, मिलाकर अपनी सर्जक शक्ति की सेवा मे लगा दिया । यह संयोग इतना ज्यादा हिल-मिल कर घनिष्ठ हो गया कि बहुत क्रम लोगों में इतनी प्रबुद्ध चेतना हैं कि वे इन दोनों को अलग करके इनका अलग-अलग अनुभव कर सकें । इस प्रकार प्रेम को सब तरह की अधोगति सहनी पड़ी, वह पशुता के स्तर तक उतर गया ।

 

  इसी अवस्था से प्रकृति के कामों में धीरे-धीरे क्रमिक अवस्थाओं के द्वारा अधिकाधिक जटिल और बहुतेरे समूहों की सहायता से फिर से आद्य ऐक्य की रचना करने की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में प्रकट हुई । उसने प्रेम की शक्ति दुरा दो मनुष्यों को साथ लाकर दो का समूह पैदा किया जो कुटुंब का फल हैं । एक बार उसने व्यक्तिगत अहंभाव की सीमाओं को दोहरे अहं का रूप देकर तोड़ दिया और फिर बालक को प्रकट करके परिवार की ज्यादा जटिल इकाई को जन्म दिया । आगे चलकर कुटुंबों के अनेक संबंधों और व्यक्तियों के आदान-प्रदान और रक्त के मिश्रण से गोत्र, वंश, जाति, वर्ग और अंत में, राष्ट्र की रचना की । समूहों की रचना का काम संसार-भर में एक हीं साथ अलग-अलग स्थानों पर होता रहा और इसी ने विभिन्न जातियों के निर्माण को स्पष्ट रूप दिया । प्रकृति इन जातियों को मी, धीरे-धीरे, मानव एकता का स्थूल और वास्तविक आधार बनाने के प्रयत्न मे एक-दूसरे सें मिला देगी ।

 

  अधिकतर लोगों की चेतना को यह जीवन के संयोगों का खेल लगता है; किसी सार्वभौम योजना की और उनका ध्यान हीं नहीं जाता । परिस्थितियां जैसे-जैसे आती हैं, हैं उन्हें अपने स्वभाव के अनुसार कम या ज्यादा आसानी के साथ स्वीकारते हैं, कुछ लोग संतुष्ट होते हैं और कुछ असंतुष्ट ।

 

  संतुष्ट लोगों मे, एक श्रेणी ऐसे लोगों की हैं जो प्रकृति के तौर-तरीके के साथ पूरा मेल खाते हैं : ये हैं आशावादी । उन्हें रात के कारण दिन अधिक प्रकाशमान दीखता हैं, छाया के कारण रंग अधिक चमकीले हैं, कष्ट के कारण हर्ष अधिक तीव्र होता है, दुःख सुख को अधिक मोहक बनाता हैं । रोग स्वास्थ्य को उसका पूरा मूल्य प्रदान करता है; मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए भी सुना हैं कि वे दुश्मन पकार खुश होते हैं, क्योंकि तब बे अपने मित्रों का मूल्य ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं । बहरहाल, ऐसे लोगों के लिये काम-केलि सबसे अधिक सुखकर कार्य है, जीभ की संतुष्टि जीवन के उन रसों में से है जिनके बिना काम नहीं चल सकता; उनके लिये यह बिलकुल स्वाभाविक बात हैं  कि जो पैदा हुआ हैं उसे मरना भी होगा : यह उस यात्रा का अंत है जो अगर बहुत ज्यादा चलती तो नीरस तौर उबाऊ हो जाति ।

 

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  संक्षप में, उन्हें जीवन जैसा है वैसा हीं बिलकुल ठीक लगता  हैं । वे यह जानने की परवाह नहीं करते कि उसका कोई हेतु या लक्ष्य भी  या नहीं; वे दूसरों के दुःख- दैन्य से कष्ट नहीं पाते और प्रगति की कोई आवश्यकता नहीं देखते ।

 

  लेकिन तुम्हें ऐसे लोगों का ''मत परिवर्तन' ' करने की कोशिश कभी नहीं करनी चाहिये; यह बहुत बड़ी स्व होगी । अगर दुर्भाग्यवश वे तुम्हारी बात मान लें तो हैं  अपना वर्तमान संतुलन खो बैठेंगे, लेकिन कोई नया संतुलन न पायेंगे । वे आंतरिक जीवन के लिये तैयार नहीं हैं, लेकिन वे प्रकृति के प्यारे हैं; उसके साथ उनकी घनिष्ठ मैत्री है और उनकी इस प्राप्ति को बिना कारण धक्का न पहुंचना चाहिये ।

 

  संसार मे दूसरे संतुष्ट लोग ऐसे हैं जो इनसे जस कम संतुष्ट और, सबसे बढ़कर, कम स्थायी रूप में संतुष्ट हैं । उनकी संतुष्टि प्रेम की क्रिया के जादू के कारण होती है । हर बार जब कोई व्यक्ति उस संकीर्ण सीमा को तोड़ता  हैं जिसमें उसके अहं ने उसे बंद कर रखा है, जैसे हीं वह आत्म-दान के कारण खुली हवा मे उठता है, वह चाहे किसी और मनुष्य के लिये हो या परिवार या देश या अपने श्रद्धा-विश्वास के लिये, उसे इस आत्म-विस्मृति के अंदर प्रेम के अद्भुत आनंद का पूर्ण रस प्राप्त होता हैं और इससे उसे ऐसा लगता हैं कि वह भगवान् के संपर्क में आ गया  हैं। लेकिन बहुधा यह क्षणिक संपर्क होता है, क्योंकि मनुष्यों मे प्रेम तुरंत अहंकारपूर्ण निम्न गतियों मे मिल जाता बे जो उसे बदरंग बना देती हैं और उसकी पवित्रता की सारी शक्ति को छू कर देती हैं । फिर भी, अगर वह शुद्ध बना भी रहता तो भी भागवत सत्ता के साथ यह संपर्क चिरस्थायी न होता, क्योंकि प्रेम भगवान् का केवल एक पक्ष  हैं , एक ऐसा पक्ष जो धरती पर अन्य पक्षों की तरह समान रूप से विकृत हों गया  हैं ।

 

  बहरहाल, ये सब अनुभूतियां उस सामान्य मनुष्य के लिये बहुत अच्छी और उपयोगी हैं जो सामान्य पथ पर भावी ऐक्य के लक्ष्य की ओर डिगते पैरों से बढ़ती गयी प्रकृति का अनुसरण करता है, लेकिन इनसे उन लोगों को संतोष नहीं हो सकता जो गति को तेज करना चाहते हैं । दूसरे शब्दों मे कहें तो ये उन्हें संतुष्ट नहीं कर सकतीं जो किसी और धारा का, अधिक सीधी और अधिक तेज धारा का अनुसरण करना चाहते हैं, जो उन्हें सामान्य मानव प्रकृति और उसकी अनंत यात्रा से मुक्त कर दे, जो उन्हें आध्यात्मिक प्रगति मे भाग लेने योग्य बना दे, जो उन्हें हुत मार्ग से उस नयी जाति की सृष्टि की ओर ले जाये जो धरती पर अतिमानसिक सत्य को अभिव्यक्त करेगी । इन विशिष्ट आत्माएं को मनुष्य-मनुष्य के बीच सारे प्रेम का त्याग करना होगा, क्योंकि वह चाहे कितना भी सुन्दर और पवित्र क्यों न हो, वह एक प्रकार से लघु परिपथ (शार्ट सर्किट) बना देता है और भगवान् के साथ सधे संबंध को काट देता है ।

 

  जिसने भागवत प्रेम को जान लिया है वह और सभी प्रकार के प्रेम को धुंधला, क्षुद्र अहंकार और अंधकार सें मिला हुआ पाता है; वह व्यापार या श्रेष्ठता के लिये,

 

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अधिकार के लिये संघर्ष के जैसा लगता है और अपने अच्छे-से-अच्छे रूप मे भी वह गलतफहमी, चिड़चिड़ेपन, मन-मुटाव और नासमझी से भरा रहता  हैं ।

 

   और फिर, यह जानी हुई बात  हैं कि तुम जिससे प्रेम करते हो उसी के जैसे बनते जाते हों । अगर तुम भगवान् जैसे बनना चाहो तो तुम्हें केवल उन्हीं से प्रेम करना चाहिये । जिसने भगवान् के सायुज्य के आनंद का अनुभव किया  हैं वही जान सकता  हैं कि बाकी सारा प्रेम उसकी तुलना मे कितना नीरस, मंद और शक्त्तिहीन होता  हैं और यदि इस सायुज्य को प्राप्त करने के लिये कठोरतम तपस्या की जरूरत पड़ तो भी कोई चीज अत्यंत कठिन, बहुत अधिक लंबी या अत्यंत कठोर नहीं हैं- बशर्ते कि वह तुम्हें वहांतक पहुंचा दे-क्योंकि यह सब प्रकार की अभिव्यक्ति से परे है ।

 

   हम धरती पर इस अद्भुत स्थिति को चरितार्थ करना चाहते हैं । यहीं धरती का रूपांतर करके उसे भागवत सत्ता के योग्य आवास बनायेगी । तब सच्चा और विशुद्ध प्रेम एक ऐसे शरीर में अवतार लेगा जो उसके लिये आवरण या छद्यवेश न रहेगा । तपस्या को ज्यादा सरल बनाने के लिये तथा ज्यादा नजदीक और स्पष्ट रूप से अनुभव की जा सकनेवाली घनिष्ठता उत्पन्न करने के लिये भगवान् ने प्रेम के सर्वोच्च रूप मे एक ऐसा भौतिक शरीर ग्रहण करने की इच्छा की जो देखने मे मनुष्य-शरीर के जैसा हीं हो । लेकिन हमेशा हीं जडू-द्रव्य के स्थूल रूप मे बंद होने के कारण वह अपना एक विकृत रूप ही व्यक्त कर सके । बे अपनी पूर्णता के वैभव मे अपने- आपको तभी अभिव्यक्त कर सकेंगे जब मनुष्य अपनी चेतना और शरीर मे कुछ अनिवार्य प्रगति कर लेंगे; क्योंकि मनुष्य का तुच्छता-भरा मिथ्याभिमान और उसका मूर्खतापूर्ण अहंभाव, मानव शरीर मे अभिव्यक्त भागवत प्रेम को दुर्बलता, निर्भरता और आवश्यकता का चित मान लेता है ।

 

  लेकिन फिर भी, मनुष्य शुरू मे धुंधले रूप मे, लेकिन जैसे-जैसे वह पूर्णता की ओर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ज्यादा स्पष्ट रूप में यह जानने लगता है कि केवल प्रेम हीं संसार के दुःख-कष्ट का अंत ला सकता है; प्रेम का अनिर्वचनीय आनंद हीं, अपने सार-तत्त्व में, संसार से विछोह की जलती हुई पीड़ा को थ कर सकता है । क्योंकि परम ऐक्य के आनंद मे ही सृष्टि को अपने अस्तित्व का हेतु और उसकी चरितार्थता प्रान्त हो सकतीं  हैं ।

 

  इसलिये कोई भी प्रयास बहुत कठिन नहीं हैं, कोई तपस्या बहुत कठोर नहीं हैं अगर वह भौतिक तत्त्व को इतना प्रकाशित, शुद्ध पूर्ण और रूपांतरित कर सके कि भगवान् जब उसमें रूप धारण करें तो वह उन्हैं छिपा न पाये । तब वह अद्भुत प्रेम अपने-आपको इस जगत् में प्रकट कर सकेगा, इस भागवत प्रेम  हीं जीवन को मधुर आनंद के स्वर्ग में बदलने की क्षमता  हैं ।

 

  तुम कह सकते हो कि यह तो चरम उद्देश्य, प्रयास का मुकुट, अंतिम विजय है;

 

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लेकिन वहांतक पहुंचने के लिये क्या किया जाये? कौन-से मार्ग का अनुसरण किया जाये ओर रास्ते के पहले कदम कौन-से हैं?

 

  चूंकि हमने यह निक्षय कर लिया हैं कि पूर्ण वैभवमय प्रेम को भगवान् के साथ अपने व्यक्तिगत संबंध के लिये सुरक्षित रखें, इसलिये औरों के साध अपने संबंध मे प्रेम की जगह एक पूर्ण अपरिवर्तनशील, स्थायी और अहंकारजन्य शुभ कामना और सद्भावना रखेंगे जो बदले में किसी पुरस्कार, कुतज्ञता या मान्यता की भी आशा न करेगी । दूसरे तुम्हारे साथ चाहे जैसे व्यवहार करें, तुम अपने-आपको किसी मनोमालिन्य या नाराजगी मे न बहने दोगे; और भगवान् के प्रति अपने विशुद्ध प्रेम में तुम उन्हें हीं इस बात के लिये एकमात्र निर्णायक बनाओगे कि बे दूसरों की गलतफहमी और दुर्भावना से तुम्हारी रक्षा कैसे करेंगे ।

 

  तुम अपने आनंद या अपने सुख के लिये केवल भगवान् पर ही निर्भर रहोगे, केवल उन्हीं मे सहायता और आश्रय खोजोगे और पाओगे । वे तुम्हें हर दुःख मे आश्वासन देंगे, तुम्हें पथ पर चलायेंगे, तुम ठोकर खा जाओ तो तुम्हें उठायेंगे और यदि दुर्बलता और क्कांति की घड़ियां आयें तो प्रेम की बलवान भुजाओं मे लकर अपनी सुखद मधुरिमा. मे लपेट लेंगे ।

 

  यहां एक गलतफहमी से बचने के लिये मुझे यह बता देना चाहिये कि भाषा की मांग के कारण मुझे भगवान् के लिये पुल्लिंग रूप का उपयोग करना पड़ता  हैं। लेकिन वास्तव मे मै प्रेम के रूप मे जिस सत्य के बारे मे बोल की हू वह सीलिंग और पुल्लिंग सब प्रकार के लिंगों से ऊपर ओर परे है; और जब वह मानव देह लेता हैं, तो तटस्थ भाव से, उसे जो काम करना  हैं उसकी जरूरत की दृष्टि से नर या नारी का शरीर धारण करता हैं ।

 

  संक्षेप में, भाव की तपस्या मे सब प्रकार की भाव-संबंधी आसक्ति का त्याग आता  हैं , वह चाहे किसी प्रकार का क्यों न हो, चाहे किसी व्यक्ति के लिये हो, परिवार के लिये हों, देश के लिये हो या किसी और चोज के लिये हो । और इस त्याग के साथ भगवान् के लिये अनन्य रूप से आसक्ति होनी चाहिये । इस एकाग्रता की पूर्णाहुति होगी सर्वांगीण तादात्म्य मे, और यह घरती पर अतिमानसिक उपलब्धि के लिये यंत्र- रूप होगी ।

 

  यह बात हमें बिलकुल स्वाभाविक रूप मे चार मुन्स्तियों तक ले जाती है जो इस सिद्धि के चार मूर्त्त रूप हैं । भाव-संबंधी मुक्ति, अतिमानसिक एकता की सर्वांगीण उपलब्धि के परिणामस्वरूप, कष्टों सें मुक्ति होगी । मानसिक मुक्त्ति, अर्थात् अज्ञान से मुक्ति सत्ता मे प्रकाशमय मन, अर्थात् अतिमानसिक चेतना की प्रतिष्ठा करेगी जो अपने-आपको 'वाणी ' की सर्जक शक्ति के रूप मे प्रकट करेगी ।

 

  प्राणिक मुक्ति या इच्छा-कामना से मुक्त्ति व्यक्तिगत संकल्प को भागवत संकल्प के साथ पूरी तरह और सचेतन रूप मे एक होने की क्षमता प्रदान करेगी और शांति,

 

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धीरज और परिणामस्वरूप, शक्ति लायेगी ।

 

  अंत मे, सबसे ऊपर मुकुट के रूप मै आती है भौतिक मुक्ति या भौतिक कार्य- कारण के नियम से मुक्त्ति । तुम पूरी तरह अपने स्वामी होने के कारण प्रकृति के नियमों के दास नहीं रहते जिसके कारण तुम अवचेतन और अर्धचेतन प्रेरणाओं द्वारा चलाये जाते हो, जो तुम्हें साधारण जीवन की लीक से बांध देता है । इस मुक्ति के कारण तुम पूर्ण ज्ञान के साथ यह निश्चय कर सकते हो कि तुम कौन-सा मार्ग अपनाना चाहते हो, उस कार्य को चून सकते हो जिसे तुम चरितार्थ करना चाहते हो, अपने-आपको अंध नियति से मुक्त्ति कर सकते हो । अपने जीवन-पथ मे उच्चतम संकल्प, सत्यतम ज्ञान और अतिमानसिक चेतना के सिवा किसी और को हस्तक्षेप न करने दो ।

 

  ('बुलेटिन', अगस्त १९५ वे)

 

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