Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
एक अंतर्राष्ट्रीय विश्रविधालय-केंद्र
मनुष्य जिन परिस्थितियों मे संसार मे रहते हैं वे उनकी अपनी चेतना के परिणाम हैं । चेतना को बदले बिना परिस्थितियों को बदलने की इच्छा करना कोरा स्वप्न है । जिन लोगों को इस बात का ज्ञान हों गया हैं कि मानव जीवन के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, वित्तीय तथा शिक्षा और स्वास्पय-संबंधी विभिन्न क्षेत्रों में स्थिति को सुधारने के लिये क्या किया जा सकता है और क्या करना चाहिये, है वही व्यक्ति हैं जिन्हेंने किसी-न-किसी अंश मे अपनी चेतना असाधारण ढंग से विकसित कर लीं है तथा ज्ञान के उच्चतर स्तरों के साथ अपना संबंध जोड़ लिया है । पर उनके विचार रहे सदा कम या अधिक सैद्धांतिक हीं, अथवा यदि उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया भी गया तो सदैव थोड़े-बहुत समय के बाद बुरी तरह से असफल हुआ कारण, कोई भी मानव-संगठन मूलत: नहीं बदला जा सकता जबतक कि मानव चेतना ही अपने-आपमें न बदली जाये । नयी मानवता के अग्रदूत एक के बाद एक आये, कई आध्यात्मिक और सामाजिक धर्म चलाये गये उनके प्रारंभिक प्रयत्न कभी- कभी आशापूर्ण भी होते थे, परंतु क्योंकि मानव-प्रकृति मूलतः नहीं बदली गयी थी, उसकी स्वाभाविक पुरानी भूलें धीरे-धीरे फिर प्रकट हो उठी । और कुछ ही समय में यह पता लगने लगा कि मनुष्य लगभग उसी स्थान पर खड़ा हैं जहां सै वह इतनी आशा और उत्साह लेकर चला था । मनुष्य की अवस्थाओं को सुधारने के प्रयत्न मे सदैव दो प्रवृत्तियां काम करती रहीं हैं; प्रकट रूप मे विरोधी प्रतीत होने पर भी दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं और दोनों मिलकर प्रगति के लिये कार्य करती हैं । एक प्रवृत्ति सामूहिक पुनस्संगठन का समर्थन करती है जो मानवजाति को सफल एकता की और ले जाये । दूसरी का मत हैं कि सब प्रकार का विकास पहले व्यक्ति को करना होगा; वह इस बात पर बल देती हैं कि व्यक्त्ति को वे सब अवस्थाएं प्रदान करनी चाहिये जिनमें वह स्वाधीनतापूर्वक उन्नति कर सके । ये दोनों प्रवृत्तियां समान रूप से सत्य हैं और साथ हीं आवश्यक भी । इसलिये, दोनों के लिये इकट्ठा प्रयत्न करना चाहिये । कारण, सामूहिक विकास और वैयक्तिक विकास अन्योन्याश्रित हैं । व्यक्ति लंबी छलांग लगा सकें उससे पहले सामूहिक जीवन का कुछ-न-कुछ विकास हो जाना आवश्यक हैं । अतएव, कोई ऐसा साधन ढूंढना चाहिये जिससे दोनों विकास साथ-साथ चल सकें ।
इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिये हीं श्रीअरविन्द ने अपने अंतर्राष्ट्रीय विष विद्यालय की योजना बनायी थीं । इससे उनका आशय कुछ ऐसे चुने हुए लोगों को तैयार करना था जो मानवजाति के क्रमिक एकीकरण के लिये कार्य कर सकें
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और साथ हीं उस नयी शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिये तैयार हो जायें जो पृथ्वी को रूपांतरित करने के लिये अवतरित हो रहो है । कुछ सामान्य विचार इस विश्वविद्यालय-केंद्र के संगठन का आधार-रूप होंगे, साका हीं वे अध्ययन के कार्यक्रम को भी निर्धारित करेंगे ।
इनमें ख सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विचार यह है कि मनुष्यजाति की एकता न तो एकरूपता से, न प्रभुत्व से और न ही दमन सें प्राप्त हो सकती हैं । सब राष्ट्रों का समस्यापूर्ण संगठन ही-ऐसा संगठन जिसमें प्रत्येक को अपनी प्रतिभा तथा समष्टि मे अपने उचित कर्म के अनुसार स्थान प्राप्त होगा-उस पूर्ण और विकसनशील एकता को लाने मैं समर्थ हो सकता है जो संभवत: स्थायी सिद्ध हों । यह समन्वय जीवंत हो इसके लिये समष्टिकरण को एक ऐसे केंद्रीय विचार पर आधारित होना होगा जो यथासंभव उच्च और व्यापक हो तथा जिसमें सब प्रवृत्तियों को, अत्यंत विरोधी प्रवृत्तियों को भी, अपना निश्रित स्थान प्राप्त हो । यह उच्चतम विचार हीं मनुष्य को जीवन की वे सब आवश्यक अवस्थाएं प्रदान करेगा जो उस नयी शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिये तैयार कर सकेगी; यह शक्ति हीं भावी जाति को उत्पन्न करेगा ।
प्रतिस्पर्धा की हर प्रकार की प्रवृत्ति तथा प्रधानता, और अधिकार प्राप्त करने के लिये प्रत्येक संघर्ष की जगह समस्वर संगठन तथा सूक्ष्म-दृष्टियुक्त्त प्रभावशाली सहयोग की भावना को प्रतिष्ठित करना होगा ।
इसे संभव बनाने के लिये यह आवश्यक है कि बच्चे छोटी अवस्था से न केवल उपर्युक्त विचार के हीं अभ्यस्त बनें बल्कि उनके अनुसार कर्म भी करें । इसीलिये यह ' अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय-केंद्र ' अंतर्राष्ट्रीय होगा- अंतर्राष्ट्रीय इस कारण नहो कि इसमें सब देशों के विद्यार्थी प्रविष्ट किये जायेंगे इसलिये भी नहीं कि यहां उन्हें अपनी मातृभाषा मे शिक्षा दी जायेगी, बल्कि इसलिये कि संसार के विचित्र प्रदेशों की संस्कृतियां यहां केवल बौद्धिक रूप में विचार, मत, सिद्धांत और भाषा मे हीं नहीं, वरन् जोवत रूप में अम्यारगें, रीति-रिवाजों और सब प्रकार की कलाओं- चित्रकला, मूर्तिनिर्माण, संगति, गृह-शिल्प, साज-सज्जा आदि- यहां तक स्थूल रूप में प्राकृतिक .दृश्य, वेश-भूषा, खेल-कूद उद्योग- धंधे तथा मोजनतक में सबके 'लिये सुलभ होगी । एक ऐसी विश्व-प्रदर्शनी की व्यवस्था करनी होगी जिसमें सब देश सजीव और साकार रूप मे उपस्थित होंगे । इसमें आदर्श यह होगा कि प्रत्येक राष्ट्र का, जिसकी अपनी निश्चित संस्कृति है, एक पृथक भवन होगा जो उस संस्कृति को प्रस्तुत करेगा; उसका निर्माण उसी नमूने के अनुसार किया जायेगा जो उस देश की रीति-नीति को अधिक-स-अधिक स्पष्ट रूपमे उपस्थित करेगा; वह राष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि-स्वरूप प्राकृतिक और निर्मित दोनों प्रकार की कुतियों, यहांतक कि ऐसी कुतियों को भी प्रदर्शित करेगा जो उसकी बौद्धिक ओर कलात्मक प्रतिभा तथा आध्यात्मिक प्रवृत्तियों
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को सर्वोत्तम रूप मे प्रकट करती हों । इस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र इस सांस्कृतिक समन्वय में अत्यंत क्रियात्मक और सजीव रुचि रखेगा और उस भवन का, जो उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता हैं, दायित्व लेकर इस कार्य मे सहायता पहुंचायेगा । इसके साथ ही उसी राष्ट्र के विद्यार्थियों के निवास के लिये एक छात्रावास भी होगा जो आवश्यकतानुसार छोटा-बड़ा हों सकता हैं । इस प्रकार ये विद्यार्थी अपनी मातृभूमि की संस्कृति का आनंद लेते हुए केंद्र मे ऐसी शिक्षा प्राप्त करेंगे जो संसार की अन्य संस्कृतियों के साथ इनका परिचय करा देगी । अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा तब स्कूल को बेंतों पर प्राप्त होनेवाली केवल सैद्धांतिक शिक्षा ही नहीं होगी, वरन् जीवन के समस्त अंगों में व्यावहारिक मी होगी ।
यहां इस संगठन का केवल एक सामान्य विचार उपस्थित किया गया हैं ।
इसलिये, पहला लक्ष्य यह होगा कि व्यक्तियों को इस बात मे सहायता दो जाये कि वे जिस राष्ट्र के हैं उसकी गंभीर प्रतिभा को भली-भांति जान लें तथा अन्य राष्ट्रों के रहन-सहन के ढंग सें भी परिचय प्राप्त कर लें ताकि वे संसार के सब देशों की सच्ची भावना को समान रूप से जान सकें तथा उसका मान कर सकें । समस्त विश्व- संगठनों को वास्तविक या जीवित रहने के योग्य बनने के लिये राष्ट्र-राष्ट्र के बीच तथा व्यक्ति-व्यक्ति के बच पारस्परिक आदर और पारस्परिक सद्भाव पर आधारित सहयोग हीं मनुष्य को आज की दुःखद अव्यवस्था मे से निकाल सकते हैं । इसी उद्देश्य और भावना के साथ इस विश्वविद्यालय-केंद्र मे समस्त मानवी प्रश्रों का अध्ययन किया जायेगा; और इनका हल भी उस अतिमानसिक ज्ञान की सहायता से किया जायेगा जिस पर श्रीअरविन्द ने अपने ग्रंथ में काफी प्रकाश डाला हैं ।
('बुलेटिन' अप्रैल १९५२)
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'श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय-केंद्र' में दी जानेवाली शिक्षा को जो नियम संचालित करेंगे उनके विषय में यह कहा गया था कि प्रत्येक राष्ट्र को विश्व की समस्वरता में अपना स्थान प्राप्त करना होगा, अपनी भूमिका निभानी होगी ।
पर इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि प्रत्यक राष्ट्र स्वच्छंदतापूर्वक अपनी किसी महत्त्वाकांक्षा और लालसा के अधीन होकर अपना स्थान चुनेगा । किसी देश का लक्ष्य मानासेक रूप में, बाह्य चेतना की अहंकारयुक्त और अज्ञानमूलक रुचियों दुरा निर्धारित नहीं किया जा सकता । क्योंकि ऐसा होने से राष्ट्रों में केवल संघर्ष का क्षेत्र हीं बदलेगा, संघर्ष फिर भी, और शायद अधिक तीव्र रूप में बना रहेगा ।
जिस प्रकार व्यक्ति की अपनी अंतरात्मा होती हैं जी उसकी वास्तविक सत्ता हैं और उसके भविष्य को थोड़े-बहुत प्रत्यक्ष रूप में परिचालित करती है, उसी प्रकार
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प्रत्येक राष्ट्र की भी अंतरात्मा होती है, उसको सच्ची सत्ता वही है और वही उसकी भवितव्यता का पर्दे के पीछे से निर्माण करती हैं । यहीं देश की आत्मा हैं, राष्ट्रीय प्रतिभा है, जाति की भावना है, राष्ट्रीय अभीप्सा का केंद्र है , किसी देश के जीवन में जो कुछ सुन्दर, उत्कृष्ट, महान और उदार होता हैं उसका फ्ल स्रोत है । सच्चे देश-भक्त प्रत्यक्ष सत्ता के रूप में इसकी उपस्थिति अनुभव करते हैं । इसी को भारतवर्ष में एक दिव्य सत्ता का-सा रूप दे दिया गया है; जो लोग अपने देश से सच्चा प्रेम करते हैं वे इसे भारत माता कहकर पुकारते हैं और अपने देश के हित के लिये इसी के आगे अपनी दैनिक प्रार्थना करते हैं । यह भारत माता ही देश के सच्चे आदर्श को, विश्व में उसके सच्चे उद्देश्य को सांकेतिक रूप मे व्यक्त करती है , उसे मूर्तिमान करती है ।
भारतवर्ष के कुछ विशिष्ट विचारक तथा अध्यात्मचेता श्रेष्ठ जन तो इसे विथमाता की हीं एक विभूति मानते हैं, जैसा कि दुर्गा-माता के एक स्तोत्र से प्रकट होता है । इसके कुछ पदों का अनुवाद नीचे दिया जा रहा है :
''मां दुर्गे ! सिंहवाहिनी, सर्वशक्तिदायिनि, तेरे... शक्ति-अंश से उत्पन्न हम भारत के युवकगण तेरे मंदिर में बैठे हैं । माता, हमारी प्रार्थना सुन, तू पृथ्वी पर अवतरित हो, अपने-आपको लू भारत की इस भूमि पर अभिव्यक्त कर ।
''मां दुर्गे! शक्तिदायिनि, प्रेमदायिनि, ज्ञानदायिनि, सौम्य-रौद्र-रूप-धारिणि मां ! सु अपने शक्ति-स्वरूप में भयंकर है । जीवन-संग्राम में, भारत संग्राम में हम तेरे हीं दुरा प्रेरित योद्धा हैं; मां, लू हमारे हृदय मे, हमारे मन में असुर की शक्ति दे, हमारी आत्मा और हमारी बुद्धि को देवता का गुण, कर्म और ज्ञान दे ।
''मां दुर्गे! भारत, जगत् की सर्वश्रेष्ठ जाति, घोर तिमिर से आच्छन्न थीं । मां, तू पूर्वगगन में प्रकट हो रही है, तेरे दिव्य अंगों की आभा के साथ-साथ उषा का आगमन हो रहा है और वह अंधकार को छिद्र-भिन्न कर रहीं है । अपने आलोक का विस्तार कर, मां, अंधकार का नाश कर ।
''मां दुर्गे! हम तेरी संतान हैं, तेरी कृपा से, तेरे प्रभाव से हम महत् कार्य के, महत् आदर्श के योग्य बनें । हमारी क्षुद्रता का, हमारे स्वार्थ का, हमारे भय का लू विनाश कर मां!
''मां दुर्गे! तू काली है... हाथ मे कृपाण धारण करके तू असुरों का नाश करती है । देवी! अपने कूर निनाद सें तू हमारे अंत-स्थित शत्रुओं का नाश कर । इनमें से एक भी हमारे अंदर जीवित न रहे; हम शुद्ध और निर्मल हो जायें- यहीं हमारी प्रार्थना है; मां लू प्रकट हो ।
''मां दुर्गा ! भारत, स्वार्थ, भय और क्षुद्रता के हीन गर्त मे गिरा हुआ है । हमें महान बना, हमारे प्रयत्नों को महत् रूप दें, हमारी हृदय को विशाल बना, हमें अपने संकल्प
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के प्रति सच्चा रख । ऐसी कृपा कर कि हम और अधिक उस वस्तु की कामना न करें जो क्षुद्र, निःशक्त आलस्य पूर्ण, तथा भयग्रस्त हो ।
''मां दुर्गे! योगशक्ति का अत्यधिक विस्तार कर, हम तेरी आर्यसंतान हैं; हमारे अंदर लुप्त शिक्षा, चरित्र, मेधाशक्ति, श्रद्धा-भक्ति, तपोबल, ब्रह्मचर्यबल और सत्य शान का पुन: विकास कर- इन सबका जगत् में वितरण कर । हे विश्वजनीन, मनुष्य की सहायता के लिये प्रकट हो, अशुभ का नाश कर ।
''मां दुमें! अंतस्थ शत्रुओं का संहार कर और फिर चारों ओर की बाधाओं को निर्मूल कर दे । भद्र, वीर और पराक्रमी भारत-जाति, प्रेम और एकता मे, सत्य और शक्ति में, शिल्प और साहित्य मे, विक्रम और ज्ञान में श्रेष्ठ भारत-जाति उसके पवित्र काननों में, उर्वर खेतों मे, गगनचुंबी पर्वतों के तले, पूतसलिला नदियों के तीर पर निवास करे । तेरे चरणों में हमारी यही प्रार्थना है, मां, तू प्रकट हो ।
''मां दुर्गे! अपने योग-बल द्वारा हमारे शरीर मे प्रवेश कर । हम तेरे यंत्र बनेंगे, तेरी अशुभनाशक तलवार बनेंगे, तेरा ज्ञानविनाशी प्रदीप होंगे । अपने शिशुओं की इस अभिलाषा को पूर्ण कर, मां ! तू स्वामिनी बनकर अपना यंत्र चला, तलवार हाथ मे लेकर अशुभ का नाश कर, प्रदीप ऊंचा उठकर ज्ञान का प्रकाश विकीर्ण कर; तू प्रकट हो । ''
हम अन्य देशों में मी राष्ट्रीय आत्मा के लिये इसी प्रकार का आदर-भाव, उसके सर्वोच्च आदर्श की अभिव्यक्ति के लिये योग्य यंत्र बनने की ऐसी ही अभीप्सा, प्रगति और पूर्णता के लिये ऐसी ही लगन देखना चाहेंगे जो प्रत्येक जाति को अपनी राष्ट्रीय आत्मा के साथ एकाकार होने और इस प्रकार अपने सच्चे स्वरूप और कार्य को जानने के लिये उत्साहित करती है । इससे प्रत्येक मनुष्य, इतिहास की सभी आकस्मिक घटनाओं के होते हुए भी, एक सजीव तथा अमर सत्ता बन जायेगा ।
('बुलेटिन', अगस्त १९५२)
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नवागंतुको को परामर्श
अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय-केंद्र धीरे-धीरे संगठित हो रहा है । जबतक नया भवन तैयार नहीं हो जाता, जहां इस केंद्र की स्थायी रूप में स्थापना की जायेगी, जिसका नक्शा तैयार है, कुछ विभागों का, जैसे पुस्तकालय, वाचनालय तथा कुछ थोडी-सी कक्षाओं का प्रबंध पुराने मकानों में ही कर दिया गया हैं; ये मकान बाद में गिरा दिये जायेंगे । शिक्षकों और विद्यार्थियों ने आना आरंभ कर दिया है । कुछ लोग विदेशों से भी
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आये हैं जिनके लिये इस देश का जलवायु तथा रीति-रिवाज, सब नया है । ये आश्रम मैं पहली बार आये हैं और इसके जीवन और रहन-सहन से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ! कुछ तो सवा करने या सोखने की मानसिक अभीप्सा से प्रेरित होकर आये हैं; कुछ योग करने, भगवान् को पाने तथा उससे युक्त होने की आशा लेकर आये हैं । कुछ ऐसे भी हैं जो अपने-आपको पूर्ण रूप से पृथ्वी पर भागवत कार्य के लिये समर्पित कर देने के इच्छुक हैं । सभी अपने चैत्य पुरुष से प्रेरित होकर आते हैं जिसका उद्देश्य उन्हें आत्म- उपलब्धि की ओर ले जाना है । तब उनका चैत्य पुरुष आगे होता है और चेतना को शासित करता हैं; व्यक्तियों और वस्तुओं से उनका संबंध चैत्य द्वारा हीं होता हैं । उन्है सब कुछ अच्छा और सुन्दर लगता हैं, उनका स्वास्थ्य सुधरा जाता है , चेतना निर्मल हो जाती है और वे प्रसन्न, शांत और सुरक्षित अनुभव करते हैं; उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होने अपनी चेतना का उच्चतम संभावना पा लीं है । इस शांति, परिपूर्णता और प्रसन्नता को प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक व्यक्ति मे स्वभावतः वै चैत्य द्वारा दी गयी देखते हैं । यह संबंध उन्हें उस सच्ची चेतना के प्रति ग्रहणशील बना दात है जो यहां व्याप्त है और सब कार्य संपन्न कर रहीं हैं । जबतक यह ग्रहणशीलता रहती है, शांति, परिपूर्णता और प्रसन्नता भी रहती है, साथ ही विकास के तात्कालिक फल भा दिखायी देने लगते हैं-उनका शरीर ठीक और स्वस्थ हो जाता है, प्राण मे शांति और सदिच्छा का ओर मन मे निर्मलता और व्यापकता का निवास रहता है । सामान्य रूप रो ही उनमें संतोष और दृढ़ विश्वास की भावना बनी रहती है । पर मनुष्य के लिये अपने चैत्य पुरुष के साथ सतत संबंध बनाये रखना कठिन हैं । जैसे ही कोई नवागंतुक यहां स्थिर रूप मे बस जाता है और उसके अनुभव की ताजगी मंद पंडू जाती है, पुराना व्यक्त्तित्य पुनः अपनी सब आदतों, रुचियों, छोटी-मोटी सनकों, दुर्बलताओं तथा भ्रांतियों के साध अपर आ जाता है; शांति का स्थान अशांति ले लेती है, प्रसन्नता लुप्त हो जाती है, बुद्धि विमुख हो जाती है और यह भाव प्रवेश करने लगता है कि यह स्थान भी वैसा ही हैं जैसे और स्थान हैं, कारण, अब वह स्वयं वैसा बन गया है जैसा और जगह था । जो कुछ किया जा चुका है उसकी ओर देखने के स्थान पर वह अब अधिकाधिक और प्रायः उसी को ओर देखने लगता है जो अभी किया जाना है; वह उदास और असंतुष्ट हों उठता है, अपने-आपको दोषी माननई के स्थान पर अन्य व्यक्तियों और वस्तुओं को दोषी ठहराने लगता हूं । वह शिकायत करने लगता है कि यहां सुख-सुविधा का अभाव है, जलवायु अनुकूल नहीं है, भोजन अनुपयुक्त हैं जिससे उसका पाचन बिगड़ जाता है आदि-आदि । श्रीअरविन्द की इस शिक्षा का आश्रय लेकर शरीर योग का एक अनिवार्य आधार हैं तथा इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, बल्कि इसका खूब ध्यान रखना चाहिये, उसकी भौतिक चेतना अपने- आपको पूर्ण रूप सें इसी पर एकाग्र करने लगती हैं और इसे संतुष्ट करने के साधन ढूंढने मे लग जाती है जो व्यवहारिक रूप मे संभव नहीं है । शायद कुछ अपवाद को
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छोड़कर ही, जितना दिया जाता है माँगें उतनी हीं बढ़ती हैं । इसके अतिरिक्त, भौतिक सत्ता अज्ञानमयी और अंधी है; वह मिथ्या धारणाओं, पूर्व-कल्पित विचारों, पक्षपातों और अभिरुचियों से परिपूर्ण हैं । अपने-आप वह शरीर के साथ उपयुक्त व्यवहार करने में सफल नहीं हों सकतीं । यह तो केवल अंतरात्मा की चेतना है जिसके पास ठीक ढंग से कार्य करने के लिये आवश्यक बुद्धि और निर्मल दृष्टि होती हैं ।
तुम पूछोगे कि इस अवस्था का इलाज क्या है? यहां हम भ्रांति के चक्कर मे पड़ गये हैं, क्योंकि सारा कष्ट चैत्य पुरुष सें संबंध-विच्छेद होने पर पैदा होता है और केवल चैत्य पुरुष ही इन समस्याओं का हल ढूंढ सकता है । अतएव, इलाज एक ही है; सावधान रहो चैत्य पुरुष को दृढ़ता से पकड़े रहो, उसे पीछे की ओर न चले जाने दो, अपनी चेतना मे से किसी चीज को भी अपने और उसके बीच मे न पडूने दो, कान बंद कर लो, अन्य किसी भी सुआव को मत सुनो, अपना विश्वास केवल उसी मे रखो ।
सामान्यतया, जो व्यक्ति अपने चैत्य पुरुष के प्रति सचेतन हो जाते हैं वे इसके द्वारा प्राणिक और शारीरिक आकर्षणों और क्रियाओं से मुक्ति पाना चाहते हैं; वे भगवत् चिंतन के आनंद तथा उसके साथ सतत संपर्क की अटल शांति मे निवास करने के लिये संसार का त्याग करने के इच्छुक रहते हैं । पर जो लोग श्रीअरविन्द के योग को अपनाते हैं उनकी वृत्ति इससे सर्वथा मित्र होती है । जब ये अपनी अंतरात्मा को पा लेते हैं और उसके साथ युक्त हो जाते हैं तो ये उससे अपेक्षा करते हैं कि वह शरीर की ओर ध्यान दे, भगवान् के साथ अपने स्वाभाविक संबंध से उत्पन्न हुई चेतना के द्वारा उस पर कार्य करे और उसका रूपांतर करे ताकि वह दिव्य चेतना एवं सामंजस्य को ग्रहण और अभिव्यक्त करने के योग्य हों जाये ।
हमारे प्रलय का यहां यही उद्देश्य है और यही अंतर्राहीय विश्वविद्यालय-केंद्र की शिक्षा का चरम लक्ष्य मी होगा ।
इसलिये उन सब लोगों से जो विश्वविद्यालय मे आ रहे हैं मै फिर कहूंगी-हमारी कार्य-योजना को और अपने आने के मूल कारण को कभी मत भूलो । किंतु अपनी ओर से पूरा प्रयत्न करने पर भी यदि बादल घिरी आयें, आशा और आनंद तिरोहित हो जायें और उत्साह ठंडा पड़ जाये तो याद रखो कि यह इस बात का लक्षण हैं कि' तुम अपने चैत्य पुरुष से छ हट गये हो और तुमने उसके आदर्श के साथ अपना संपर्क खो दिया है । इस बात को याद रखने से तुम एक गलती से बच जाओगे । तुम अपने चारों ओर के व्यक्तियों तथा दूसरी चीजों को दोषी नहीं ठहराओगे और इस प्रकार निरर्थक रूप में अपने कष्टों और कठिनाइयों की वृद्धि नहीं करोगे ।
('बुलेटिन' नवम्बर १९५२)
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