CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
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 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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कक्षा के मुखिया को उत्तर
 


यहां हमारे इतने विविध प्रकार क्वे क्रिया- कलाप हैं कि किसी पक वरतु के साथ लगाकर उसमें प्रान्त करना कठिन हो जाता है शायद श्सीत्हिये हम साधारण भौसत अवस्था से आये नहीं बढ़ सकते! श फिर इसका कारण क्या हमारे अंदर दृढ़ एकाग्रता का अभाव है?

 

 साधारण औसत दर्जे के कार्य का कारण न तो विविधता है, न ही कार्य की अधिकता, कारण  है एकाग्रता की शक्ति का अभाव ।

 

   व्यक्ति को एकाग्र होना सीखना चाहिये और उसे सभी कार्य पूर्ण एकाग्रता के साथ करने चाहिये ।

 

(४ -७ -१९६१)

 

यह जानना सचमुच में एक समस्या हैं कि विधार्थियों मैं रुचि कैसे जगायी जाये चाहे वह खेलों मे हो या व्यायामों में अब हम किसी चीज में उनकी रुचि का अभाव देखते हैं तो हमारा उत्साह मी ठंडा पड़ जाता है

 

 विद्यार्थियों का उत्साह अध्यापक की सच्ची योग्यता के अनुपात में हीं होता हैं ।

 

(१२-७-१९६१)

 

   (दल-नायकों के लिये एक संदेश के विषय मे) आप हमसे जो चाहती हैं उससे हम बहुल दु? हैं कम-से-कम मैं ती हूं ? यह कार्य बड़ा कठिन है और हममें समय लगेमर बहुत तंबा समय ' अमी इस समय क्या किया जाये? चेतना को बदत्हना और श्रेष्ठ व्यक्ति बनने में काकी समय त्हनेमा अमी तो हम विद्यार्थियों के स्तर के ही हैं अतएव इस समय की समस्या का समाधान नहीं हुआ प्रत्येक दिन प्रत्येक विश्व क्वे लिये रुचि कैसे जगा सकते हैं?

 

    यह कार्य चेतना को बदलने और श्रेष्ठ बनने से भी अधिक दुः साध्य हैं । अतएव, तत्काल ही कार्य शुरू कर देना सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं । बाकी तो सब बहाने हैं जिन्हें हमारा आलस्य अपने आगे रख लेता है ।

 

(१५-७-१९६१)

 

हम अंतरात्मा और आत्मा फ्री प्रायः चर्चा करते हैं ' मैं इनके विषय में कुछ मी नहीं समझता  ये दोनों वस्तुए क्या हैं और इनकी अनुभूति कैसे प्रान्त की जा सकती है ?

 

३५७


श्रीअरविन्द ने इस विषय पर (अपने पत्रों मे) काफी कुछ लिखा हे और मैंने मी अपनी पुस्तक 'शिक्षा' मे इसकी पूरी व्याख्या की है । तुम्हें इस विषय को पढ़ना, अध्ययन करना चाहिये और सबसे बढ़कर इसे व्यवहार में लाना चाहिये ।

 

६४-१० -१९६१) ??

 

   मै चाहती हू कि तुम अपने अंदर ध्यानपूर्वक देखो और मुझे यह बताने का यत्न करो कि जासूसी कहानियों मे कौन-सी बात है जिसमें तुम्हें रस आता  है ।

 

(१६-१०-१९६१)

 

मैं इन्हें ' मन-बहलावा के लिये पड़ता हूं !जिस्मी विशेषतया पैरी मनसे की ' में ), सदा एक अदालत का दृश्य जिसमें वकील पैरी मेसन निश्चित रू से मुकदमा हारता प्रतीत, उसके को हत्या का अपराधी घोषित कर दिया जपता, सभी सबूत उसके विरूद्ध पढ़ते ? ' वकीत्च्च पैरी मेसन की कमात्ह की छात्र स्थिति को बदल देखती रहस्य- पितृहस्या ' और सारा मुकदमा किसी उच्च कोटि के बड़े पुत्रवान की मानसिक कसरत के समान प्रतीत ' हर बद्द पुस्तक की समाप्त करने के बाद ऐसा लगता कि प्राप्ति कुछ मी ', मैंने कुछ मी नया ' सीखा केवल समय नष्ट किया !

 

 यह बिलकुल हीं निरर्थक तो नहीं  है । तुम्हारे मन मे निःसंदेह तमस् बहुत अधिक हैं और लेखक की ये मानसिक कलाबाजी इस तमस को थोड़ा-सा झकझोर कर तुम्हारे मन को जगा देती  है । किंतु ऐसा देर तक नहीं टिक सकता और तुम्हें उच्चतर वस्तुओं की ओर मुड़ना होगा ।

 

(१६ -१० -१९६१)

 मधुर मां

 

    मैन एक बात देखी जो हम सब पर लगे; वह यह वि हम दो दिसंबर के कार्यक्रम में अधिक-से-अधिक खेलों में मांग' क्या अधिक अच्छा नहीं कि हम बहुत-से खत्तों में स्तर का प्रदर्शन करने की जगह एक या दो खेल सुनकर उनमें अच्छे- से-अच्छा प्रदर्शन करें?

 

प्रत्येक लड़का या लड़की अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करता  है और यदि वह

 

 शारीरिक शिक्षा का वार्षिक प्रदर्शन ।

 

३५८


उस प्रकृति के नियम का साहस और सच्चाई के साथ पालन करता है, तो वह सत्य के अनुसार चलता है । अतएव दूसरों के विषय में कोई मत बनाना या निर्णय लेना संभव नहीं  है । व्यक्ति केवल अपने विषय में ही जान सकता हैं, और तब भी उसे अपने-आपको धोखा न देने के लिये बहुत अधिक सच्चाई के साथ कार्य करना होगा ।

 

(४-११-१९६१)

 

मधुर मां

 

  आपने हमें ग-बार बताया है कि हमारे सारे क्रिया-कलाप भगवान के प्रति निवेदित होने चाहिये  इसका ठीक अर्थ क्या हैं और इसे कैसे किया जाये? उदाहरणार्श्र जब आदमी टेकनी या बास्केट-बॉत्छ खेल तो उसे कैसे निवेदित करे? हसके लिये स्वमावतया मानसिक रचनाएं काफी नहीं होती!

 

इसका यह अर्थ है कि तुम जो कुछ करो उसे किसी वैयक्तिक अहंभावयुक्त्त उद्देश्य, सफलता के लिये, यश-प्राप्ति के लिये, भौतिक लाभ के लिये अथवा झूठे घमंड के लिये न करो, बल्कि सेवा और निवेदन के भाव से करो ताकि तुम भागवत इच्छा के प्रति अधिक सचेतन हो सको तथा अपने-आपको अधिक संपूर्ण रूप से उन्हें सौंप सको, यह तबतक करते रहना चाहिये जबतक कि तुम इतनी उत्तरी न कर को कि तुम यह जान जाओ और यह अनुभव करने लोग कि स्वयं भगवान् ही तुम्हारे अंदर कार्य कर रहे हैं, उन्हींकी शक्ति तुम्हें अनुप्राणित कर रही  है, उन्हींकी संकल्प तुम्हें सहारा दे रहा है-यह अनुभूति तुम्हें केवल एक मानसिक ज्ञान के रूप हीं नहीं होनी चाहिये, बल्कि यह तुम्हारी चेतना की सच्ची अवस्था, एक सशक्त, सजीव अनुभूति होनी चाहिये ।

 

     इसे संभव बनाने के लिये, सभी अहंभाव-युक्त हेतु तथा अहंभाव की सभी प्रतिक्रियाओं को लुप्त हो जाना चाहिये ।

 

(२० -१ १ -१९६१)

 

मधुर मा

 

    हमने शारीरिक-शिक्षण की समस्याओं और संवद प्रणालियों पर मित्रों के साध बातचीत की है मूल समस्या यह है : ऐसा कार्यक्रम कैसे बनाया जाये जिसे सब पसंद करते हों और जो सामान्यतया सभी सदस्यों क्वे लिये अधिक- से-अधिक प्रभावकारी हो? क्या सांख्य आवश्यक हैं? क्या हमें किसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती नहीं करनी चाहिये? और यदि स्वतंत्रता दे दी जाये तो क्या वह व्यावहारिक झप मे ठीक रहेगा? आदि... यह ऐसा विषय

 

३५९


   है जिसका ऐसा समाधान खोजना सरल नहीं है जो प्रत्येक को काफी मात्रा मे खुश रख सके झ यदि मां स्वयं हस्तक्षेप करें तो बात  है !

 

 यह असंभव हैं । प्रत्येक की अपनी रुचि होती  है और अपना स्वभाव । बिना अनुशासन के कोई कार्य नहीं किया जा सकता-सारा जीवन ही अनुशासन हैं ।

 

(२०-९-१९६२)

 

    अपने शारीरिक शिला के कार्यक्रम तथा यहां क्वे कई अन्य क्रिया-कलापों के विषय मे जब मैं एक मित्र से बात कर रहा था तो उसने पूछा : ''क्या तुम एक मी ऐसे व्यक्ति का सच्चा उदाहरण दे सकते हो जो हनते सारे खेलों में माय लेता हो और उन सबमें अपना मानदंड काकी ऊंचा तख्ता हो- सारे संसार में सिर्फ एक व्यक्ति? ''

 

 यह न भूलो-तुम सब जो यहां हो- कि हम ऐसी वस्तु को उपलब्ध करना चाहते दवे जो अभीतक पृथ्वी पर कहीं चरितार्थ नहीं हुई हैं; अतएव जो हम करना चाहते हैं उसका उदाहरण कहीं अन्यत्र ढूंढना मूर्खता की बात है ।

 

   उसने यह भी कहा था : ''माताजी कहती हैं कि जिन लोगों के पास किसी विशेष विषय की प्रतिमा है और जो उसका दूरी तरह ले अनुसरण करना चाहते हैं उन्हें यहां दूरी स्वतंत्रता तथा सब ' प्रान्त हैं! ', उदाहरणार्श्र एक महान संगीतकार आदि बनने के लिये स्वतंत्रता कहां है '' मट्ठर मर क्या आप इस स्वतंत्रता के विषय पर कुछ कहेगी ?

 

 मैं जिस स्वतंत्रता की बात करती हूं वह  है आत्मा के संकल्प का अनुसरण करने की स्वतंत्रता, मानसिक और प्राणिक सनको और कल्पनाएं पर चलने की स्वतंत्रता नहीं ।

 

   में जिस स्वतंत्रता की बात करती हू वह है आडंबरहीन सत्य जो निम्नतर, अज्ञानमय सत्ता की सभी दुर्बलताओं और इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने की प्रवृत्ति रखता है ।

 

   मै जिस स्वतंत्रता की बात करती हूं वह हैं व्यक्ति की अपनी उच्चतम, श्रेष्ठतम और दिव्यतम अभीप्सा के प्रति पूर्ण और निःशेष भाव में निवेदित करने की स्वतंत्रता ।

 

   तुम में से कौन इस मार्ग का सच्चे दिल से अनुसरण करता हैं? गत बना लेना तो सरल  है, किंतु बात को समझना अधिक कठिन है और चरितार्थ करना तो इससे भी कहीं अधिक कठिन हैं ।

 

(१८-११-१९६२)


३६०


    लड़कियां सदा ही नुकसान में रहती हैं : दे लड़कों की तरह जो चाहे नहीं कर सकतीं !

 

क्यों नहीं?

 

    तुम्हारे कथन के विरोध में सैकड़ों प्रमाण हैं ।

 

(३१-५-१९६३)

 

   मेरे मस्तिष्क मैं काफी ''छुडा- कर्कट'' भरा है जो मुझे स्पष्टतया सोचने और नये विचारों को शीघ्रतापूर्वक ग्रहण करने से रोकता है मैं इससे कैसे मुक्त हो सकता हूं ?

 

अधिक अध्ययन करने से, अधिक सोचने-विचारने से, बौद्धिक व्यायाम से । उदाहरणार्थ, किसी भी सामान्य विचार का निरूपण करो और फिर उसके विरोधी विचार का और तब इन दोनों विचारों मे समन्वय खोजों, दूसरे शब्दों में, एक ऐसा तीसरा  ढूंढ जो इन दोनों मे समन्वय स्थापित कर दे ।

 

(२५-६-६ -१९६३)

 

 तुम उपन्यास क्यों पढ़ते हो ? यह एक मूर्खतापूर्ण कार्य है और इसमें समय नष्ट होता है । यह भी एक कारण है जिससे तुम्हारे मस्तिष्क में स्पष्टता नहीं है और वह अब भी अस्तव्यस्त हैं ।

 

(२७-६-१९६३)

 मधुर मां

 

 यह सहज-प्रवर्ती पुरुष मैंने ए-२ दल के बच्चों मे एक बड़ी अनोखी बात देखी; लड़के लड़कियों के सक् काम करना नहीं चाहते; यहां तक कि वे उनके पास श .उनके साध खड़ा होना मी रसद नहीं करते ? यह मेद-मान् हनन छोटे बच्चों मे जो अभी मुश्किल ले  वर्ष के ही हुई हैं कैसे आ नया बड़ी विचित्र बात है यह !

 

यह पूर्वजों से आयी हुई चीज है और अवचेतना सें उठी है ।

 

   यह सहज-प्रवृत्ति पुरुष जाति के दंभ, अपनी श्रेष्ठता के मूर्खतापूर्ण विचार, और इससे मी अधिक इस मूर्खतापूर्ण भय पर आधारित है कि खो एक भयंकर प्राणी है जो तुम्हें पाप के मार्ग पर खींच लाती .हैं । बच्चों मे, अभीतक यह अवचेतन रूप मे है, पर उनके कार्य पर अपना प्रभाव अवश्य डालती है ।

 

३६१


मधुर मां

 

  आपने हमें बताया है कि लड़के और लड़कियों का यह अलगाव पूर्वजों से आयी हुर्र चीज है किंतु तो मी आपसे यह इतना आवश्यक हो गया है कि - हमें कप्तानों को क्या करना चाहिये मेरा अपना विचार तो यह है कि इस उन्हें त्राहि देना श कमी डाटना मी अधिक पसंद करते हैं मैं सोचता हूं कि हंस ओर  आंखें मूंद लेने ले उस समस्या का महत्व कम हो जाता है और इस तद् लड़कियों और लड़कों के बीच का भेद मी कृमिल पड़ जाता है  आपका क्या विचार है ?

 

 इसके लिये कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता, सब कुछ विशेष व्यक्ति और परिस्थितियों पर निर्भर हैं । दोनों ढंगों से अच्छे-बुरे तत्त्व, लाभ और हानियां हैं । कप्तानों के लिये, मुख्य बात यह हैं कि उनमें व्यवहार-कौशल और पर्याप्त आंतरिक बोध हो ताकि जब जरूरत हो तो वे हस्तक्षेप कर सकें और जब न देखना ज्यादा अच्छा हो तो आंखें मूंद सकें ।

 

(१५-७-१९६३)

 

क्या यहां इस स्थान पर जहां हमें इतनी अधिक स्वतंत्रता प्राप्त हैं और जिससे हम लाभ उठाने मे असमर्थ हैं पक आधारभूत अनुशासन का होना अधिक अच्छा नहीं होगा ?

 

 तुम यह कह रहे हो, किंतु तुम स्वयं उन लोगों में सें हो जिनसे अति आवश्यकता पड़ने पर, उदाहरणार्थ, शारीरिक शिक्षा में, जरा-से भी अनुशासन की मांग की जाये तो (कम-से-कम विचार मे) विद्रोह कर बैठते हैं ।

 

(२१-७-१९६३)

 

हमारे अध्यापक 'क' ने गंभीर और ढंग ले हमें भाषण दिया है : ''कठिन परीक्षाओं को पास करने के लिये तैयार रहो हम पक कठिन और भयानक स्थिति क्वे कगार पर हैं '' ' उन्होने हल्की व्याख्या नहीं की

 

 वे अपने विचार को समह्म देते तो अच्छा रहता, क्योंकि मुझे पता नहीं कि है किस बात की चर्चा कर रहे थे- शायद वे तुम्हें छिछोरेपन, विचारशीलता, लापरवाही और असावधानी के प्रति चौकस करना चाहते थे ।

 

    तुम सब युवा लोगों का जीवन यहां बड़े आराम का रहा है, और तुम इससे लाभ

 

३६२


उठाकर आध्यात्मिक विकास पर पूरा ध्यान देने के स्थान पर, बहुत ज्यादा बदनामी मोल लिये बिना, जितना हो सका अपना मनबहलाव करते रहे, अतएव तुम्हारी सजगता दबी रहीं।

 

    निःसंदेह 'क' ने तुम्हें फिर से जगाने के लिये ही ऐसा कहा होगा ।

 

(२७-८-१९६३)

 

   पहली दिसंबर क्वे प्रदर्शन के लिये मेरी दूरी तैयारी नहीं हुई है और सबा हई उसके लिये मुझमें जरा मी उत्साह नहीं है

 

 जब व्यक्ति कोई कार्य करने का निर्णय कर ले और उसे स्वीकार कर ले तो उसे अधिक-से-अधिक अच्छे ढंग से करना चाहिये ।

 

  प्रत्येक वस्तु चेतना और आत्म-संयम के विकास करने का अवसर हो सकती हैं । और विकास कर सकने का यह प्रयत्न तत्काल कार्य को, वह चाहे जो भी हो, रोचक बना देता हैं।

 

(२६ -९ -१९६३)

 

श्रीअरविन्द अपने एक सूत्र' [न० १६४ ) मे लिखते हैं : ''जो लोम अपने अपर स्वेच्छापूर्वक आरोपित कानन को स्वतंत्रतापूर्वक पूर्व रूप से और बुद्धिमानी से मानने मैं असमर्थ हैं उन्हें दूसरों की इच्छा के अधीन रहना चाहिये । '' मां मैं ऐसा ही प्राणी हू क्या आप मुझ पर अपना अनुशासन प्रयुक्त करेगी?

 

मेरे बच्चे, ठीक यहीं मैं काफी अरसे से करने की कोशिश कर रही हूं, विशेषतया जब सें मै तुम्हारी कापी अपने पास मंग रहीं हूं और उसे शुद्ध कर रहीं हूं ।

 

   अनुशासन के इसी उद्देश्य से मैंने तुम्हें रोज एक हीं वाक्य लिखने को कहा हैं- उसका लंबा होना भी आवश्यक नहीं, किंतु उसे शुद्ध होना चाहिये- पर अफसोस!

 

   अभीतक, मुझे इसमें सफलता नहीं मिली हैं- तुम्हारे वाक्य प्रायः ही लंबे और अस्पष्ट होने हैं, कुछ अन्य छोटे भी होते हैं-पर सभी में गलतियों होती हैं और प्रायः, प्रायः हीं, वही-की-वही गलतियों, लिंग की, वाक्यों के अंदर शब्दों के परस्पर-संबंध की तथा क्रिया के रूपों की गलतियों होती हैं जिन्हें मैं कितनी हीं बार ठीक कर चुकी हूं ।

 

    ऐसा लगता हैं कि मुझसे वापिस पाने पर तुम अपनी कापी को चाहे देखते तो हो, पर उसका बारीकी से अध्ययन नहीं करते अपनी उन्नति के लिये उससे लाभ उठाने की कोशिश भी नहीं करते ।

 

 सेटिनरी वोल्यूम', खण्ड १७, पृ० ९९ ।

 

३६३


   जीवन को अनुशासन में रखना आसान नहीं है, उन लोगों के लिये भी जो बलवान हैं, अपने साथ कड़ाई का प्रयोग करते हैं, जो साहसी एवं सहनशील हैं ।

 

   किंतु अपने सारे जीवन को अनुशासित करने के लिये प्रयत्न करने से पहले, त्रस्त को अपनी कम-से-कम एक क्रिया को ही अनुशासन में रखने की कोशिश करनी चाहिये, और तबतक करते रहना चाहिये जबतक उसमें सफलता न प्राप्त हो जाये ।

 

(१३ -१० -१९६३)

 

सुना हैं कि आपकी के लिये आपके पास (अंग्रेजी साहित्य की) कुछ ' की मैत्री गयी ' आय केवल माताजी और श्रीअरविन्द की ' का ही पड़ा जाना पसंद करती हैं आपने बल्कि यह मी कहा है कि इन ' के ये चेतना का स्तर नीचे गिर जाता है !

 

   मां क्या यह बात उन पर ही प्रयुक्त होती है जो योग कर रहे हैं या यह सत्हाह आप सबको देती हैं ?

 

 पहली बात यह है कि जो कुछ तुमसे कहा गया है वह ठीक नहीं हैं । दूसरी, सलाह जिसे दी जाती हैं उसीके लिये होती हैं, इसे सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता ।

 

(१२-११-१९६३)

 

    मैं अपनी मे बहुत अनियमित हूं मेरी समझ मे नहीं आता कि हसके  लिये क्या करूं?

 

 अपने ''तमस'' को थोड़ा हटा दो, अन्यथा तुम मूर्ख-के-मूर्ख रह जाओगे!

 

(२७-१२-१९६३)

 

हम प्रायः नयी चीज करने ले डरते हैं; शरीर नये तरीके ले काम करने ले इनकार करता है उदाहरण के लिये जिम्नास्टिक्स की कोई नयी कसरत या लगाने के किसी नये तरीके ले डरता है । यह डर कहां से आता है? सहस मुक्त कैसे हुआ जा सकता है? और फिर ' को उसके त्रिये कैसे प्रोत्साहित किया जा सकता है?

 

 शरीर किसी भी नयी चीज से डरता हैं क्योंकि उसका आधार हीं हैं तमस प्राण ही उसमें राज्य की प्रमुखता लाता है । इसी लिये, सामान्यतः, महत्त्वाकांक्षा, स्पर्धा और

 

३६४


अहंकार के रूप में प्राण का हस्तक्षेप हीं शरीर के तमस को आह फेंकने और प्रगति के लिये आवश्यक प्रयास करने के लिये बाधित करता है ।

 

    स्वभावतः, जिनमें मन प्रधान हैं है अपने शरीर को भाषण देकर भय पर विजय पाने के लिये सब प्रकार की युक्तियाँ दे सकते हैं ।

 

    सबके लिये सबसे अच्छा उपाय है भगवान् के प्रति आत्म-निवेदन और उनकी अनंत 'कृपा' पर विश्वास ।

 

(१३ -५ -१९६४)

 

आध्यात्मिक अनुशासन के लिये तैयार हो जाने की प्रतीक्षा करते हुए मुझे माताजी ये इस निद्रा मैं ले बाहर निकालने और अपनी चैत्य चेतना को जगाने की प्रार्थना करने के अतिरिक्त और क्या करना चाहिये ?

 

 अपनी बुद्धि को विकसित करने के लिये नियमित रूप से और बढ़े ध्यान के साथ श्रीअरविन्द की कृतियों पढ़ो । अपने प्राण को विकसित करने और उस पर प्रभुत्व पाने के लिये, कामनाओं को जितने के संकल्प के साथ - ध्यान से अपनी गतियों और प्रतिक्रियाओं का अवलोकन करो, अपने चैत्य पुरुष को पाने और उसके साथ एक होने के लिये अभीप्सा करो । भौतिक रूप से, तुम जो कर रहे हो उसे करना जारी रखो, अपने शरीर को विधि पुरःसर विकसित करो और उस पर अधिकार प्राप्त करो, क्रीड़ांगण मैं और अपने काम के स्थान पर काम द्वारा अपने-आपको उपयोगी बनाओ, और यह सब जितना बने निःस्वार्थ रूप से करो ।

 

अगर तुम सच्चे, ईमानदार और निष्कपट हो तो मेरी सहायता जरूर तुम्हारे साथ रहेगी और एक दिन तुम उसके प्रति सचेतन हो जाओगे ।

 

(२२ -७ -१९६४)

 

कई बार मेरी अच्छा होती हैं कि मैं अपनी सारी किया-' छोड़ दूं- खेत्हू बैठूं अध्ययन आदि और सारा समय काम मैं लगा दूं ' मेरा तर्क इसे स्वीकार नहीं करता यह विचार ' कहां से और क्यों आता है ?

 

 इस संबंध में तुम्हारा तर्क ठीक है । मनुष्य की बाह्य प्रकृति में प्रायः हीं एक तामसिक प्रवृत्ति विधामान रहती हैं और उसका कार्य होता है जीवन-संबंधी अवस्थाओं को सरल बना देना ताकि जटिल परिस्थितियों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न न करना पड़े । किंतु यदि व्यक्ति अपनी समग्र. सत्ता विकसित करना चाहता हैं तो यह सरलीकरण बिलकुल ठीक नहीं ।

 

(१९ -८ -१९६४)

 

३६५


 प्रायः मैं श्रीअरविन्द की कृतियां पढ़कर या उनके शब्द सुनकर आश्चर्यचकित ख जाता हू : यह शाश्वत सत्य यह अभिव्यक्ति का सौंदर्य लोगों की आंखों ले कैसे बच निकत्हता है? यह सचमुच आचार्य की बात हे कि अभीतक उन्हें ' कम-से-कम एक परम स्रष्टा शुद्ध कलाकार उत्कृष्ट कवि क्वे कप में मान्यता नहीं मिली? तो मैं अपने-आप ले कहता हूं कि मेरे निर्णय मेरे मूल्यांकन श्रीअरविन्द के प्रति भक्ति में रंग हुए हैं- और हर एक नकल नहीं है त्वेकिन नहीं लगता कि यह ठीक है? तो फिर औरों क्वे हृदय उनके शब्दों रहे मंत्रमुग्ध क्यों नहीं होते?

 

 श्रीअरविन्द को कौन समझ सकता है ? बे समस्त विश्व के जैसे विशाल हैं और उनकी शिक्षा अनंत हैं...

 

  उनके जरा नजदीक आने का एकमात्र उपाय है उन्हें पूरी सच्चाई के साथ प्यार करना और अपने-आपको बिना संकोच के उनके कार्यों के प्रति समर्पित कर देना । इस तरह, हर एक अपना अच्छे-से-अच्छा प्रयास करता है और श्रीअरविन्द ने संसार के जिस रूपांतर की भविष्यवाणी की है उसके लिये अपनी ओर से भरसक सहयोग देता हे ।

 

(२-१२-१९६४)

 

श्रीअरविन्द ने कही पर कह? है कि अगर हम भागवत कृपा क्वे आगे समर्पण कर दें तो वह हमारे लिये सब कुछ कर देगी तब फिर तपस्या का क्या

 

 अगर तुम यह जानना चाहो कि श्रीअरविन्द ने अमुक विषय पर क्या कहा है तो तुम्हें कम-से-कम वह सब तो पढ़ना ही चाहिये जो उन्होंने उस विषय पर लिखा है । तब तुम देखोगे कि उन्होंने ऊपरी तौर पर बहुत अधिक परस्पर-विरोधी बातें कही हैं । लेकिन जब तुम सब कुछ पढ़ लो और थोड़ा-बहुत समझ लो तो देखोगे कि सभी विरोध एक-दूसरे के पूरक हैं और उन्हें संपूर्ण समन्वय मे व्यवस्थित और एकीकृत किया गया हैं ।

 

    यह रहा श्रीअरविन्द का एक और उद्धरण जो तुम्हें बनायेगा कि तुम्हारा प्रश्र अज्ञान पर आधारित है । और भी बहुत-से हैं जिन्हें तुम रुचि के साथ पढ़ा सकते हो, जो तुम्हारी समझ को ज्यादा नमनीय बनायेगा : '

 

   '' अगर पूर्ण समर्पण न हो तो बिल्ली के बच्चे की वृत्ति नहीं अपनायी जा सकती; वह तामसिक निष्ठित बन जाती है ओर अपने-आपको समर्पण का नाम दे लेती

 

३६६


है । अगर शुरू मे पूर्ण समर्पण संभव न हो तो इसका मतलब यह है कि व्यक्तिगत प्रयास आवश्यक है । ''

 

(१६-१२-१९६४)

 

    एकाग्रता और संकल्प-शक्ति को कैसे बढ़ायी जाये? कोई भी काम करने के लिये इनकी बहुत आवश्यकता होती है?

 

एक नियमित, अध्यवसायी, कठोर, अविचल अभ्यास के द्वारा-मेरा अभिप्राय हैं एकाग्रता और संकल्प-शक्ति के अभ्यास द्वारा ।

 

(७-४-१९६५)

 

    क्या मानसिक उदासीनता और उत्सुकता का अभाव एक तरह की मानसिक

 

 साधारणत: ये चीजें मानसिक जड़ता के कारण होती हैं, लेकिन कोई बहुत तीव्र साधना के द्वारा शांत-स्थिरता और तटस्थता तथा परिणामतः पूर्ण समता प्राप्त कर सकता हैं जिसके आगे अच्छा-बुरा, प्रिय और अप्रिय बाकी नहीं रहते । लेकिन उस हालत में, मानसिक क्रिया की जगह बहुत ऊंचे प्रकार की अंतर्भासिक किया ले लेती है !

 

(२५ -५ -१९६६)

 

       इस मानसिक आलस्य और जड़ता से कैसे निकला जाये?

 

 चाह कर, अध्यवसाय और आग्रह से । हर रोज पढ़ने, व्यवस्था करने और विकास के मानसिक व्यायाम दूरा ।

 

  दिन के दौरान कभी यह किया जाये और कभी एकाग्रता में मानसिक नीरवता का अभ्यास, बारी-बारी से बदलते रहें ।

 

(१-६ -१९६६)

 

३६७









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