CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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कला

 

भौतिक स्तर पर भगवान् अपने-आपको सौंदर्य मे प्रकट करते हैं ।

 

*

 

    भौतिक जगत् में, और सब चीजों की अपेक्षा सौंदर्य भगवान् को सबसे अच्छी तरह अभिव्यक्त करता हैं । भौतिक जगत् रूप और आकार का जगत् हैं, और रूप की पूर्णता ही सौंदर्य हैं । सौंदर्य 'शाश्वत' का निर्वचन करता, उसे प्रकट और अभिव्यक्त करता हैं ! उसकी भूमिका हैं सारी अभिव्यक्त प्रकृति की रूप और आकार की पूर्णता के द्वारा, सामंजस्य द्वारा और अपर उठानेवाले तथा किसी उच्चतर की ओर ले जानेवाले आदर्श देह द्वारा 'शाश्वत' के संपर्क मे लाना ।

 

*

 

 सौंदर्य तुम्हारा अविचल आदर्श हो ।

अंतरात्मा का सौंदर्य

भावों का सौंदर्य

बिचारों का सौंदर्य

क्रिया का सौंदर्य

कर्म का सौंदर्य

 

ताकि तुम्हारे हाथों से कभी कोई ऐसी चीज न निकले जो शुद्ध और सामंजस्यपूर्ण सौंदर्य की अभिव्यक्ति न हों ।

 

   और 'भागवत सहायता' हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी ।

 

*

 

   सर्वश्रेष्ठ कला ऐसे 'सौंदर्य ' को प्रकट करती हैं जो तुम्हें 'भागवत सामंजस्य' के संपर्क में ला देता हैं ।

 

*

 

   अगर कला को दिव्य 'जीवन' में कुछ अभिव्यक्त करना  है , तो वहां भी, विशाल और ज्योतिर्मय शांति को अपने-आपको प्रकट करना चाहिये ।

 

*

 

२११


 आध्यात्मिक सौंदर्य में संक्रामक शक्ति होती है ।

 

*

 

 सौंदर्य प्रकृति का आनन्दमय समर्पण हैं ।

 

*

 

  सच्ची कला का अर्थ  है भौतिक जगत् में सौंदर्य की अभिव्यक्ति । पूर्णतया परिवर्तित जगत् मे, यानी, समग्ररूप से भागवत सद्वस्तु की अभिव्यक्ति में, कला को जीवन में दिव्य सौंदर्य का प्रकट करनेवाला और शिक्षक होना चाहिये ।

 

*

 

  कला में भी हमें ऊंचाइयों पर रहना चाहिये ।

 

*

 

  सुरुचि कला की कुलीनता हैं ।

 

 *

चित्रकला

 

   सच्ची चित्रकला का लक्ष्य है सामान्य वास्तविकता से अधिक सुन्दर चीज का सृजन करना ।

 

(३-४-१९३२)

 

*

 

    क्या नाप चाहेगा कि मैं कमी-कमी चचियों और पशुओं  के चित्र बनाऊं?

 

अगर तुम चाहो-लेकिन प्रकृति से आंकना सीखने के लिये ज्यादा अच्छा है ।

 

(२३-१२-१९३२)

 

२१२


   आपने आज जो रेखांकन भेजा थर मैंने उसकी नकल करने की कोशिश की !

 

   सीखने के लिये, रेखांकन को ज्यादा बड़ा करना ज्यादा अच्छा होगा जिससे उसकी ब्योरे की बातें बाहर आ सकें ।

 

(५ -१ -१९३३)

 

*

 

   मैंने किसी की सहायता के बिना यह चित्र बनाया है यह कैसा बना हैं ? क्या मैं सीख सकूंगी?

 

सीखने का अर्थ हैं कोई चित्र बनाने सें पहले महीनों पर महीने अध्ययन करना; प्रकृति सें अध्ययन करना, पहले लंबे समय तक रेखांकन करना, उसके बाद कहीं जाकर रंग भरना ।

 

   अगर तुम नियमित रूप से कठोर अध्ययन करने को तैयार हो, तो शुरू कर सकते हो, वरना प्रयास न करना ज्यादा अच्छा  है ।

 

(६ -१ -९९३३)

 

*

 

   मैं यह जानना चाहूंगा कि क्या चित्र देखना हानिकर है !

 

स्वभावत: यह इसपर निर्भर हैं कि कौन-से चित्र हैं । बहुधा, बे सामान्य जीवन के बोर में होते हैं, और इसलिये चेतना को नीचे की ओर खींचते हैं ।

 

(१०-१२-१९३४)

 

*

 

 ''क्यूबिज्म ' तथ' अन्य अत्याधुनिकवाद

 

 अगर ये कलाकार सच्चे और निष्कपट होते, अगर उन्होंने वही चित्रित किया होता जो उन्होने देखा और अनुभव किया  है, तो उनके चित्र एक अस्तव्यस्त मन और असंयत प्राण की अभिव्यक्ति होते । लेकिन, खेद की बात है कि ये चित्रकार निष्कपट नहीं हूं और ये चित्र मिथ्यात्व की अभिव्यक्ति, कुछ विचित्र होने, ध्यान आकर्षित करने के लिये लोगों को चकराने की इच्छा पर आधारित कृत्रिम कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं और वास्तव मे, इसका सौंदर्य के साथ कोई संबंध नहीं है ।

 

(२७ -३ -१९५५)

 

*

२१३


फूलों के चित्रों में सबसे बड़ा कबसे अच्छा हैं, क्योंकि वह ज्यादा सहज और मुक्त्ति  है । तुम जो चित्रित करते हो उसे अनुभव करना चाहिये और जो करो खुशी से करो ।

 

  बहुत-सी सुन्दर चीजों की नकल करो, लेकिन वहां भी वस्तुओं के भाव, गहरे जीवन को पकड़ने की कोशिश करो ।

 

(१२ -८ -१९६२)

 

आपके आये अपनी कठियार स्पष्ट करने के लिये मैं अपने दो नये चित्र भेज रहीं हूं ? एक को मैंने पूरा कर लिया है पर भूखे संतोष नहीं हे? दूसरे थे केंद्र अमी अधूरा है मैं जानती हू कि मैं क्या करना चाहती हूं पर मै कर नहीं पाती मै आपसे यह पूछना चाहती हूं कि क्या मैं पेरिस में अध्ययन करने सै ज्यादा प्रगति कर पतंगी या मेरे लिये यहीं खाकर प्रयास करना ज्यादा अच्छा छै? मैं खुशी सै आपके फ़ैसले क्वे अनुसार करूंगी?

 

प्यारी बच्ची,

 

  मैंने तुम्हारे चित्र देखे हैं-वे लगभग पूर्ण हैं । लेकिन उनमें जो कमी है वह तकनीक की नहीं-चेतना की है । अगर तुम अपनी चेतना को विकसित करो तो तुम सहजरूप से खोज लोग कि अपने-आपको कैसे व्यक्त किया जाये । कोई भी, और विशेषकर कोई औपचारिक शिक्षक, तुम्हें यह चीज नहीं सीखा सकता ।

 

  तो, यहां से छोड़कर कहीं और जाना, किसी ''कला अकादमी '' में जाना, प्रकाश को छोड्कर अंधकार और निक्षेतना के गढ़ने में उतरना होगा।

 

   तुम चालाकियों के दुरा चित्रकार बनना नहीं सीख सकती-यह तो ऐसा हीं होगा जैसे धार्मिक अनुष्ठान की नकल करके भगवान् को पाने की चाह करना ।

 

  सबसे बढ़कर और हमेशा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज हैं सचाई, निष्कपटता । अपनी आंतरिक सत्ता को विकसित करो- अपनी अंतरात्मा को पा लो, और उसके साथ-ही-साथ तुम सच्ची कलात्मक अभिव्यक्ति पा लोग ।

 

   मेरे आशीर्वाद के साथ ।

 

(२५-५-१९६३)

 

  तुम ब्योरों में क्यों जाना चाहती हो? यह बिलकुल आवश्यक नहीं है । चित्रकला प्रकृति की नकल करने के लिये नहीं हूं, बल्कि प्रकृति का सौंदर्य देखकर अनुभव होनेवाले संस्कार, भाव, भावना को व्यक्त करने के लिये हैं । यही चीज मजेदार है और इसी को व्यक्त करना चाहिये और चूंकि तुम्हारे अंदर यह करने की संभावना है इसलिये मैं तुम्हें चित्र बनाने के लिये प्रोत्साहित करती हूं ।

 

(१९६३)

 

*

 

२१४


   मैंने तुम्हारे चित्र देखे हैं और निक्षय हीं पिछले वर्ष से प्रगति हुई हैं ।

 

  आधुनिक कला एक परीक्षण है, जो केवल भौतिक रंग-रूप से भिन्न कुछ और चीज व्यक्त करना चाहता है, पर अभी है बहुत भद्दा । विचार अच्छा हैं-लेकिन स्वभावत: अभिव्यक्ति का मूल्य पूरी तरह से उसके मूल्य पर निर्भर है जो अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहता है ।

 

  आजकल प्रायः सभी कलाकार सबसे निकली प्राणिक और मानसिक चेतना में निवास करते हैं, और परिणाम बिलकुल तुच्छ होते हैं ।

 

  अपनी चेतना को विकसित करने की कोशिश करो, अपनी अंतरात्मा को खोजने का प्रयास करो, तब तुम जो करोगे वह सचमुच रसमय होगा ।

 

  तुम्हारे लिये आज सें जो नया वर्ष शुरू हो रहा है उसके लिये मै तुम्हें यह कार्यक्रम दे रहीं हूं ।

 

(९२ -८ -१९६३)

 

 मुझे यह कहते हुए खेद होता है कि चित्रों में पिछले वर्ष की अपेक्षा कोई विशेष प्रगति नहीं हुई । उनमें सचाई और सहजता की कमी है; इनमें दिष्टि नहीं, विचार हैं- और विचार एक बचकाना तरीका है । मैंने पिछले वर्ष जो कहा था उसे चरितार्थ करना बाकी है । चेतना को ज्योति और सचाई मे विकसित होना पक्षीय और आंखों को कलात्मक रीति से देखना सीखना चाहिये ।

 

(१२ -८ -१९६४)

 

   मै आजतक तुम्होरे चित्रों को न देख पायी । निश्चय हीं तुमने प्रयास किया है और जो चित्र प्रेम मैं हैं वह आंखों के लिये मोहक है ! लेकिन तुम बहुत ज्यादा सोचती हो ओर काफी नहीं देखती । दूसरे शब्दों मे, तुम्हारी दिष्टि मौलिक, सहज या प्रत्यक्ष नहीं हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हारा चित्रण अभीतक रूढिप्रधान  है और उसमें मौलिकता का अभाव है-जो दूसरे करते हैं उसकी नकल हैं ।

 

  सभी चित्रों के पीछे एक दिव्य सौंदर्य है, एक दिव्य सामंजस्य  है : हमें इसके संपर्क में आना चाहिये; हमें इसे अभिव्यक्त करना चाहिये ।

 

(१२-८-१९६५)

 *

 

 संगीत

 

   उन सबके नाम जिन्हेंने आज के संगीत में मांग लिया था : श्रीअरविन्द ने और

 

२१५


मैंने यह अनुभव किया कि इस बार बहुत प्रगति हुई हैं । केवल प्रस्तुत करने के बाहरी ढंग में हीं नहीं, पीछे के बढ़े लक्ष्य, एकाग्रता और आंतरिक वृत्ति में भी । यह दिन सबके लिये आशीर्वाद लाये ।

 

 (२४-४-१९३२)

 

*

 

 न जाने कौन यह गप्प फैला रहा है कि मुझेसंगीत पसंद नहीं हैं । यह बिलकुल सच नहीं है-मुख संगीत बहुत पसंद है, लेकिन उसे छोटी-सी मंडली में सुनना चाहिये, यानी, ज्यादा-से-ज्यादा पांच-छ: आदमियों के लिये हो । अगर भीड़ हो तो, बहुधा, वह सामाजिक समारोह हो जाता  है  और जो वातावरण बनता हैं वह अच्छा नहीं होता ।

 

*

 

   तुम्हारे लिये अपने-आपको संगीत और लेखन में व्यस्त रखना हमेशा अच्छा है; क्योंकि तुम्हारी प्रकृति को इसमें अपना अंतर्जात कार्य मिल जाता है और यह प्राणिक ऊर्जा को सहारा देता और संतुलन बनाये रखता हैं ।

 

*

 

   साधना के बारे मे मैं तुमसे पूछना चाहूंगी : संगीत के दुरा हीं साधना क्यों नहीं करते? निश्चय हीं ध्यान हीं साधना का एकमात्र उपाय नहीं है । तुम्हारे संगीत के द्वारा भक्ति और अभीप्सा में विकास हो सकता हैं और प्रकृति को सिद्धि के लिये तैयार किया जा सकता हैं ।

 

   अगर ध्यान और एकाग्रता के क्षण अपने-आप आयें तो ठीक हैं! लेकिन उनके लिये जोर डालने की जरूरत नहीं ।

 

(२३ -१ -१९३९)

 

*

 

   संगीत भी धरती की सभी चीजों का अनुकरण करता हैं-जबतक वे भगवान् की ओर न मुझे बे दिव्य नहीं हो सकतीं ।

 

(२५-५-१९४१)

 

*

 

क्या मेरा यह कहना ठीक होगा कि जब माताजी ऑर्गन बजाती हैं तो संगीत की अमुक त्रिया उन स्पंदनों का सृजन करती हैं जो उस उच्चतर 'शक्ति' की अभिव्यक्ति के लिये जरूरी .हैं ज़िले माताजी धरती पर स्थापित करना चाहती

 

२१६


जब कोई उच्चतर चेतना में निवास करता  है तो वह जो भी करे, सोचे या बोले उसमें इस उच्चतर चेतना के स्पंदन प्रकट होते ही हैं । इस व्यक्ति की धरती पर उपस्थिति के तथ्य से हीं उच्चतर स्पंदन व्यक्त होते हैं ।

 

  आशीर्वाद ।

 

   आपके संगीत में जो बुन बार-बार आया करती है उसका अर्थ क्या है?

 

 तुमने देखा होगा कि यह धुन साधारणत: तब आती हैं जब कोई कष्ट या दुर्व्यवस्था प्रकट की गयी हो । वह समस्या के समाधान के रूप में आती है । इसका अर्थ हैं आगे बढ़ना, प्रगति, चेतना में एक कदम आगे । यह बोध के रूप मे आती  है । मेरा संगीत साधना की आंतरिक गतियों के अनुरूप होता है । कभी-कभी कोई कष्ट, कोई दुर्व्यवस्था, कोई समस्या, कोई गलत गति, जिसके बारे में हम समझते थे कि हमने उसे जीत लिया हैं, वह और अधिक बल के साथ वापिस आती हैं । लेकिन तब, उसके उत्तरस्वरूप या सहायता के रूप में, वृद्धि चेतगा का उद्घाटन- और फिर अंतिम बोध ।

 

   इस संगीत को समझना बहुत कठिन हैं-विशेषकर पश्चिमी मन के लिये । प्रायः पक्षिमी लोगों के लिये इसका कोई अर्थ नहीं होता; है आसानी सें उसमें तदनुरूप गतियों का अनुभव ही नहीं करते । अधिकतर वे लोग जो भारतीय राम मे रस ले सकते हैं उन्हें यह संगीत पसंद आ सकता हैं; क्योंकि इसमें रागों का कुछ सादृश्य हैं । लेकिन यहां भी रूप की दृष्टि से, संगीत के नियमों और स्वरांकण की सभी परंपराओं को तोड़ा गया हैं ।

 

(३० -१० -१९५७)

 

*

 

   क्रीड़ांगण में आपके संगीत के साथ ध्यान करते समय हमें क्या करना चाहिये?

 

इस संगीत का लक्ष्य होता है अमुक गहन भावों को जगाना ।

 

  उसे सुनने के लिये तुम्हें अपने-आपको जितना हों सके उतना नीरव और निश्चेष्ट बनाना चाहिये । और यदि, मानसिक नीरवता में, सत्ता का एक भाग साक्षी-भाव धारण कर सके जो भाग लिये या प्रतिक्रिया किये बिना केवल देखता हैं तो वह देख सकता हैं कि भावों और भावनाओं पर संगीत का क्या असर हो रहा हैं और; अगर वह गहरी स्थिर शांत और अर्द्धसमाधि की स्थिति पैदा करे तो यह काफी अच्छा  है ।

 

(१५ -११ -१९५९)

 

*

 

२१७


  मधुर; मां हम किसी और के बजये हुए सभीत की भावनाओं में कैसे प्रवेश कर सकते है !

 

 उसी तरह जैसे तुम सहानुभूति, सहजता, कम या ज्यादा गहरी सजातीयता या फिर गहरी 'एकाग्रता के द्वारा- जो अंत मे तादात्म्य बन जाती है- दूसरों के भावों में भाग लेता है ! जब तुम तीव्र, धनी एकाग्रता के साथ संगीत सुनते हो यहांतक कि मस्तिष्क के अंदर के, और सारे शोर को बंद करके पूर्ण नीरवता प्राप्त कर लेते हो तो ऊपर कही गयी अंतिम पद्धति का अनुसरण होता है । संगीत के स्वर बूंद-बूंद करके उस नीरवता मे गिरते हैं और केवल वही एक शब्द रहता है; और उस ध्वनि के साथ सभी भावनाएं, सभी भावों की गतियां इस तरह देखी और अनुभव की जाती हैं मानों  है स्वयं हमारे अंदर पैदा हो रहीं हों ।

 

(२० -१० -११५१)

 

'क' और मैं मिलकर ' बजाते हैं हमें एक पुस्तक मिली है जिसके गति बहुत सुंदर बहुत सरल और लय बजाते के लिये बहुत संयम हैं हम जानना चाहेगा कि क्या प्रेम और मृत्यु की कविताएँ जो हमारे आश्रम के आदर्श के सक् मेल नहीं खाती अपनी त्व मे कई भावना लिये छठी हैं? क्या गिरजाघर में बजाये जानेवाले संमति के बजाना हमारे लिये ठीक नहीं है ? अगर ऐसा है तो हम गंवारू शब्दों या धार्मिक शनोंवाली तानें नहीं बजयोगी !

 

 तुम दोनों अवस्थाओं मे शब्द छोड़कर केवल संगीत रख सकते हों ।

 

   अगर तुम संगीत लिखना जानते हो तो (शब्दों की नकल किये बिना) केवल तानों की नकल कर लो । अगर तुम संगीत लिखना नहीं जानते तो किसी जानकार से लिखवा लो, वह तुम्हारे लिये लिख दे या तुम्हें लिखना सीखा दे ।

 

   इन किताबों को अपने पास मत रखो, इन किताबों का बुरा असर हो सकता है ।

 

(९९६५)

 

 *

 

 हमें संमति से किस चीज की आशा करनी चाहिये?

संगीत के किसी द्कड़े के गुण का मूल्यांकन कैसे किया जाये?

(संगीत के लिये) सुधि कैसे पैदा की जाये?

सिनेमा जैज वग़ैरा के हल्के संगीत क्वे बारे मे आपकी क्या राय है? हमारे बच्चों की यह बहुल पसंद है ।
 

 २१८


संगीत का' काम है चेतना की अपने-आपको आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक उठाने में सहायता करना ।

 

   वह सब तो चेतना को नीचा करता है, कामनाओं को प्रोत्साहित करता और आवेगों को जगाता हैं, संगीत के सच्चे लक्ष्य के वरिष्ठ  है  और उससे बचना चाहिये ।

 

   यह नाम का नहीं, प्रेरणा का प्रश्र हैं-अरि केवल आध्यात्मिक चेतना हीं इसमें निर्णायक हो सकती हैं ।

 

(२२-७-१९६७)

 

*

 

 (एक मध्यकालीन गीत के बारे में)

 

   शब्द बेतुके हैं, बल्कि कुरुचिपूर्ण हैं । साधारणत:, जब हम कोई गीत सीखते थे तो अगर उसके शब्द अशोभन होते तो उन्हें बदल दिया जाता था और केवल तर्ज रखी जाती थीं ।

 

   जिसमें लय का ज्ञान हो वह इसे आसानी से कर सकता हैं ।

 

(फरवरी १९६८)

 

    (किसी मान-समारोह के कार्यक्रम पर छपी दो ईसाई सूक्तियों के बारे में)

 

 यह ठीक है बशतें कि यह ऐकांतिक न हो और अन्य धर्मों को भी स्थान मिले ।

 

(मार्च १९६८)

 

*

 

 कविता

 

 कविता आत्मा की संवेदनशीलता हैं ।

 

*

 

       मेरे लिये सच्ची कविता समस्त दर्शन और समस्त व्याख्या से परे हैं ।

 

*

 

२१९


 फोटोग्राफी

 

    आधुनिक फोटोग्राफी एक कला बन गयी है और, अन्य कलाओं की तरह, सार्थक रूप में, सच्चे सौंदर्य-बोध के साथ अंतरात्मा की आंतरिक भावनाओं को व्यक्त कर सकती है ।

 

*

 

    अगर फोटोग्राफर कलाकार हो तो फोटोग्राफी कला बन जाती हैं ।

 

 

सिनेमा

 

    आजकल हम लोग बहुत ज्यादा फिल्में देखते हैं पता नहीं वे हमें किस तरह शिला दे सकती हैं !

 

अगर तुम्हारे अंदर सच्ची वृत्ति हों तो हर चीज कुछ सीखने का अवसर होती है ।

 

    बहरहाल, इस अधिकता से तुम यह समझ सकते हो कि कुछ लोगों की फिल्में देखने की निरंकुश कामना उतनी हीं घातक हो सकतीं है जितनी अन्य सब कामनाएं ।

 

(११ -५ -१९६३)

 

*

 

    हम चाहेंगे कि बच्चों को ऐसे जीवन के चित्र दिखा सकें जैसा वह होना चाहिये, लेकिन हम उस बिंदु तक नहीं पहुंचे हैं, उससे अभी हैं । ऐसी फिल्में अभीतक बनी नहीं हैं । और अभी तो, बहुधा, सिनेमा ऐसा जीवन दिखलाता हैं जैसा नहीं होना चाहिये, वह इतनी तीव्रता से दिखाया जाता हैं कि तुम्हें जीवन से धृणा हो जाती है । यह भी तैयारी के रूप मे उपयोगी हैं ।

 

   आश्रम मे फिल्में को मनोरंजन की दृष्टि से नहीं, शिक्षा के एक अंग की दृष्टि से प्रवेश मिलता है । तो हमारे सामने शिक्षा की समस्या होती है ।

 

   अगर हम यह सोचे कि बच्चे को केवल वही सीखना और जानना चाहिये जो उसे हर निम्न, भद्दी, उग्र ओर गिरानेवाली गति से शुद्ध रख सके तो हम एक साथ सारी मानवजाति के साथ पूरा संपर्क खतम कर देंगे, आरंभ होगा युद्ध और हत्या की, संघर्ष

 

२२०


और धोखेबाजी की कहानियों से जो इतिहास के नाम से चलती हैं; हमें परिवार के साथ, रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ सभी संबंध खतम कर देने होंगे; हमें उनकी सत्ता के सभी प्राणिक आवेगों पर अंकुश लगाना होगा ।

 

   कन्वेंट की चारदीवारी मे बंद साधु-जीवन या भुजाओं ओर वनो में संन्यासी जीवन के पीछे यही विचार था ।

 

  लेकिन यह उपचार बिलकुल प्रभावहीन निकला और मानवजाति को दलदल में सें निकालने में असमर्थ रहा ।

 

   श्रीअरविन्द के अनुसार, उपचार कुछ और हीं है ।

 

   हमें संपूर्ण जीवन का. उसमें अभीतक बाकी समस्त कुरूपता, मिथ्यात्व और कुरता का सामना करना चाहिये, लेकिन हमें अपने अंदर समस्त शिव और सुन्दर, समस्त ज्योति और समस्त सत्य को खोजने की सावधानी बरतनी चाहिये ताकि हम सचेतन रूप से इस स्रोत का बाकी संसार के साथ नाता जोड़ सकें और उसे रूपांतरित कर सकें ।

 

  यह भाग जाने या न देखने के लिये आंखें मूँद लेने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन है, लेकिन यही एक सच्चा प्रभावकारी उपाय है-यह उन लोगों का मार्ग है जो सचमुच बलवान और शुद्ध हैं, जो 'सत्य' को अभिव्यक्त करने मे समर्थ हैं ।

 

(२९ -५ -११६८)

 *

 

माताजी फिल्में कैसे देखनी चाहिये? अमर हम पात्रों के साथ एक हो जाये और यदि वह दुखान्त या फिल्म हो तो हम उसमें बहुत फंसे जाते हूं रोते और भयभीत होते हैं अगर हम अलग- थलग रहे तो उसका भली-भांति मजा नहीं सकते ? तब क्या करना चाहिये?

 

प्राण के ऊपर प्रभाव पड़ता है और वही द्रवित होता है ।

 

   अगर तुम मानसिक रूप से देखो, तो वही रुचि नहीं रहती; कष्ट पाने या द्रवित होने की जगह तुम शांति के साथ फिल्म का मूल्यांकन कर सकते हों, तुम देख सकते हो कि वह ठीक तरह बनी हैं या नहीं, अभिनय अच्छा है या नहीं और चित्रों का कोई कलात्मक मूल्य हैं या नहीं ।

 

    पहली अवस्था में तुम '' अच्छे दर्शक '' हो, दूसरी में तुम ज्यादा शांत होते हो । आशीर्वाद ।

 

(३० -१ -१९७०)
 

*

 

२२१


(ओरोवील में सिनेमा के बारे में)

 

 १५ वर्ष से कम के बच्चे केवल शिक्षणात्मक फिल्में देखेंगे ।

 

  ओरोवील मे दिखायी जानेवाली फिल्में के चुनाव में सावधानी बरतनी चाहिये ।  ओर बोली सबसे बचना चाहिये जो निम्न गतियों और क्रियाओं को प्रोत्साहन देता है ।

 

 (२५-२-१९७२)

 *

 

 नीरव होना सीखो

 

   सिनेमा उन लोगों के लिये दिखाया जाता है जो चित्रों को देखना तथा शब्दों और संगीत को सुनना चाहते हैं । उन्हें यह अधिकार है कि वे शांति के साथ देख-सुन सकें ।

 

   जो बातें करना, गप्पें लगाना, हंसना और शोर मचाना यहांतक कि दौड़-भाग करना बंद नहीं कर सकते उन्हें वहां न रहना चाहिये, क्याकि वे जो कुछ करते हैं उसे, अपने से मित्र प्रकार के लोगों के रंग में भंग किये बिना, कहीं और कर सकते हैं ।

 

   तो फैसला यह है : चुपचाप दर्शक-या फिर सिनेमा बंद ।

 

(१२ -१० -१९६२)

 

*

 

 ''विज़र्ड ऑफ आज''

 

   आज रात को तुम्हें जो फिल्म दिखायी जायेगी उसके बारे में जरा-सी व्याख्या उसे ज्यादा रसप्रद बना देगी ।

 

  यह फिल्म तीन भागों में है , दो काले और एक, सबसे विस्मृत भाग, रंगीन । दो काले भाग (पहला और अंतिम) यह दिखाते हैं कि चीजें भौतिक जगत् में कैसी दिखती हैं; रंगीन चित्र ऐसे हीं कथाक्रम और ऐसे हीं चरित्रों को प्राणमय लोक में दिखाता है, यह वह जगत् है जहां आदमी गाड़ी नींद में अपना शरीर छोड़कर जाता हैं । जबतक तुम्हारा भौतिक शरीर हो, तबतक प्राण-जगत् में कोई सच्ची हानि नहीं हो सकतीं, भौतिक शरीर रक्षक का काम देता है , और तुम हमेशा, जब चाहो, उसमें पहले दो वाक्य माताजी की टिप्पणियां पर आधारित हैं । जब ये उन्हें दिखलाये नये तो उन्होंने तीसरा वाक्य जोड़ दिया ।

 

  आश्रम में जब यह फिल्म दिखायी गयी थीं तो माताजी ने लाउड-स्पीकर पर यह टिप्पणी की थी ।

 

लौटकर आ सकते हों । यह चीज इस चित्र में शास्त्रीय ढंग से दिखायी गयी हैं ! तुम देखोगे कि छोटी लड़की अपने पैरों में जादुई लाल-सुर्ख जूते पहनती हैं, और जबतक वह जूते पहने रहती हैं तबतक उसे कोई नुकसान नहीं हो पाता । ये लाल-सुर्ख जूते भौतिक शरीर के साथ संबद के प्रतीक हैं, और जबतक ये जूते पैरों मे रहते हैं, वह, जब मरज़ी, शरीर मै लौट सकतीं हैं और वहां आश्रय पा सकतीं हैं ।

 

दो और बातें मजेदार हैं । एक है बरफ की बौछार जो दल को दुष्ट डायन के प्रभाव से बचाती है । इस डायन ने अपने जादू के द्वारा कल्याणकारी ऊर्जा के मरकत भवन की ओर उन्हें बढ़ने से रोक दिया हैं । प्राणिक जगत् मे, बरफ पवित्रता का प्रतीक हैं । उनकी भावनाओं और उनके इरादों की पवित्रता उन्हें महान विपदा है बचा लेती वे । यह भी ख्याल करो कि अच्छे जादूगर के कीले में जाने के लिये उन्हें सुनहरी ईटों के चौथे रास्ते पर से, प्रकाशमय विश्वास और आनन्द के रास्ते से जाना पड़ता है ।

 

   दूसरी बात है : डॉरोथी भूसे के आदमी को आग से बचाने के लिये उस पर पानों डालती है, तो कुछ पानी उस डायन के मुंह पर गिरता हैं जिसने आग सुलगाती थी और वह तुरंत घूमकर मर जाती हैं । पानी पवित्रता की शक्ति का प्रतीक हैं और इस शक्ति का उपयोग सद्भावना और सचाई के साथ किया जाये तो कोई भी विरोधी सत्ता या शक्ति उसके सामने नहीं ठहर सकती ।

 

   अंत में, जब अच्छी परी छोटी लड़की को बतलाती हैं कि वह कैसे एक जूते से दूसरे को बजाकर वर लौट सकतीं है, तो वह कहती है कि धर से अच्छा कुछ भी नहीं है; तो यहां ''घर' ' का मतलब हैं भौतिक जगत् जो सुरक्षा और सिद्धि का स्थान है ।

 

  जैसा कि देखते हों, इस फिल्म का विषय मजेदार है और ज्ञान सें रिक्त नहीं हैं । खेद की बात हैं कि यह उतनी अच्छी, सुंदर और सामंजस्यपूर्ण नहीं हो पायी जितनी कि हों सकती थी । इसके ढांचे मे बहुत-सी रस की दृष्टि से गंभीर भूलें हैं और बहुत- से शोचनीय गंवारूपन हैं ।

 

(१४ -९ -१९५२)

 

*

 

२२२









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