CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

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Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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भाग १

 

शिक्षा-विषयक लेख

 

  मै इन लेखों में सारी यौगिक परिभाषा को साधारण शब्दों में रखने की कोशिश कर रहीं हूं, क्योंकि ये 'बुलेटिन' अधिकतर ऐसे लोगों के लिये हैं जो सामान्य जीवन बिताते हैं, साथ ही योग के शिक्षणार्थियों के लिये भी हैं-मेरा मतलब ऐसे लोगों से है जिन्हें मूलतः शुद्ध भौतिक जीवन में रस है लेकिन जो अपने भौतिक जीवन में, सामान्य जीवन की अपेक्षा अधिक पूर्णता प्राप्त करना चाहते हैं । यह बहुत कठिन काम है पर है एक तरह का योग । ये लोग अपने-आपको ''भौतिकवादी'' कहते हैं और अगर योग की परिभाषाओं का उपयोग किया जाये तो वे उत्तेजित या क्षुब्ध हो उठते हैं । इसलिये हमें उनके साथ उन्हीं की भाषा बोलनी चाहिये और ऐसे शब्दों स बचना चाहिये जो उन्हें धक्का दें । लेकिन मैंने अपने जीवन में ऐसे लोगों को देखा है जो अपने-आपको ''भौतिकवादी" कहते तो थे, फिर मी, योग-साधना का दावा करनेवालों की अपेक्षा कहीं अधिक कठोर आत्मसंयम का पालन करते थे ।

 

   हम चाहते यही हैं कि मानवजाति प्रगति करे; चाहे वह योग-साधना का दावा करे या न करे, इसका महत्त्व नहीं हैं, बशर्ते कि वह प्रगति के लिये आवश्यक प्रयास करे।

 

(२५ -१२ -१९५०)

-माताजी

 

 प्रश्र और उत्तर १९५०-५१, 'श्रीमातृवाणी', खण्ड ४, पृ० ७-८


जीवन-विज्ञान

 

अपने-आपको जानना ओर संयत करना

 

  लक्ष्यहीन जीवन दुःखी जीवन होता है ।

 

  तुम में से प्रत्येक का अपना लक्ष्य होना चाहिये । परंतु यह कभी न भूलना कि तुम्हारे लक्ष्य के गुणों पर जीवन के गुण निर्भर होंगे ।

 

  तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये उच्च और विशाल, उदार और निष्काम । तब तुम्हारा जीवन तुम्हारे अपने लिये और दूसरों के लिये भी बहुमूल्य हों जायेगा ।

 

  परंतु तुम्हारा आदर्श चाहे जो भी हो, तुम उसे तबतक पूर्ण रूप से नहीं प्राप्त कर सकते जबतक कि तुम अपने अंदर पूर्णता नहीं पा लते ।

 

  अपनी पूर्णता प्राप्त करने के लिये सबसे पहला पग है अपने विषय में सचेतन होना, अपनी सत्ता के विभिन्न अंगों और उनकी अलग-अलग क्रियाओं के विषय में सचेतन होना । तुम्हें इन सब अंगों को एक-दूसरे से अलग करके देखना और पहचानना सीखना चाहिये ताकि तुम स्पष्ट रूपरो यह पता लगा सको कि तुम्हारे अंदर जो सब क्रियाएं होती हैं, तुम्हें कर्म में जोतनेवाले जो अनेक प्रकार के आवेगप्रवेग, प्रतिक्रियाएं और परस्पर-विरोधी इच्छाएं तुम्हारे अंदर उठती हैं, उन सबका मूल कहां है । यह एक श्रमसाध्य अध्ययन होगा और इसके लिये बहुत अधिक लगन और सच्चाई की आवश्यकता है । क्योंकि मानव स्वभाव की, विशेषकर मन के स्वभाव की यह एक सहज-प्रवृत्ति हैं कि हम जौ कुछ सोचते, अनुभव करते, कहते और करते हैं उसकी हम एक अनुकूल व्याख्या दे डालते हैं । जब हम बहुत अधिक सावधानी के सत इन सब क्रियाओं को देखेंगे, माना इन्हें अपने उच्चतम आदर्श के न्यायालय में पेश करेंगे और उसके निर्णय के सामने झुक जाने को एक सच्चा संकल्प बनाये रहेंगे, केवल तभी हम यह आशा कर सकते हैं कि हमारे अंदर एक ऐसा विवेक उत्पन्न होगा जो कभी भूल न करे । अगर हम सचमुच उन्नति करना और अपनी सत्ता के सत्य को जानने की क्षमता प्राप्त करना चाहते हैं, अर्थात् उस एक बात को जान लेना चाहते हैं जिसके लिये वास्तव में हमने जन्म लिया , जिसे हम इस पृथ्वी पर अपना उद्देश्य कह सकते हैं, तो फिर, जो चीजें हमारी सत्ता के सत्य का खंडन करती हैं, जो चीजें उसका विरोध करती हैं, उन सबको हमें खूब नियमित रूप से और निरंतर होनेवाली एक क्रिया के द्वारा अपने अंदर से निकालते रहना होगा अथवा उन्हें अपने अंदर नष्ट करते रहना होगा । बस, इसी तरह धीरे-धीरे हमारी सत्ता के सभी भाग, सर्दा अंग संघटित होकर हमारे चैत्य केंद्र के इर्द-गिर्द एक पूर्ण सुसमंजस वस्तु का रूप ग्रहण कर सकेंगे । इस एकीकरण के कार्य को एक हदतक पूर्णता प्राप्त कराने के लिये एक लंबे समय की आवश्यकता होती हैं । इसीलिये, इसे सिद्ध. करने के लिये,

 


हमें धैर्य और सहनशीलता-रूपी अस्त्रों से सुसज्जित होना चाहिये और यह निश्चय कर लेना चाहिये कि अपने प्रयास को सफल बनाने के लिये जितने दिनों तक अपना जीवन बनाये रखने की आवश्यकता होगी उतने दिनों तक बनाये रखेंगे ।

 

  और इस पवित्रीकरण और एकीकरण का प्रयास करने के साथ-हीं-साथ हमें अपनी खत्ता के यंत्रवत् काम करनेवाले बाहरी भाग को पूर्ण बनाने की ओर भी बहुत अधिक ध्यान देना चाहिये । जब उच्चतर सत्य अभिव्यक्त होना चाहे तब उसे तुम्हारे अंदर एक ऐसी मनोमय सत्ता मिलनी चाहिये जो पर्याप्त रूप में सूक्ष्म और समृद्ध हों, जो प्रकट होने की चेष्टा करनेवाली भावना को विचार का एक ऐसा रूप देने में समर्थ हों जो उसकी शक्ति और स्पष्टता की रक्षा कर सके । फिर, वह विचार जब शब्दों का जामा पहनने की चेष्टा करे तब तुम्हारे अंदर उसे अपने को व्यक्त करने की यथेष्ट शक्ति प्राप्त हों ताकि शब्द उस विचार को प्रकाशित कर सकें और उसे विकृत न कर डालें । और जिस सिद्धांत के अंदर तुम सत्य को मूर्तिमान करते हो, उसे तुम्हारे सभी मनोभावों, तुम्हारी सभी इच्छाओं और क्रियाओं, तुम्हारी सत्ता के सभी किया-कलापों मे ह्मलकते रहना चाहिये । और अंत में, निरंतर प्रयास के द्वारा, स्वयं इन सब क्रियाओं को भी अपनी उच्चतम पूर्णता प्राप्त करनी चाहिये ।

 

  यह सब एक चतुर्विध साधना के दुरा प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी साधारण रूप-रेखा हम यहां दे रहे हैं । इस साधना के ये चारों रूप एक-दूसरे से अलग-अलग नहीं हैं, इनका अनुसरण मनुष्य एक साथ ही कर सकता हैं; वास्तव में, ऐसा करना हीं अधिक अच्छा है । इस साधना का जहां से आरंभ होता है उसे हम चैत्य साधना कह सकते हैं । हम अपनी सत्ता की अंतश्चेतना के केंद्र को अपने जीवन के उच्चतम सत्य के आंतर धाम को ''चैत्य' ' नाम से पुकारते हैं, यहीं वह केंद्र हैं जो इस सत्य को जान सकता है और अभिव्यक्त कर सकता है । अतएव, हमारे लिये सबसे प्रधान बात यह है कि हम अपने अंदर इसकी उपस्थिति के अपर ध्यान एकाग्र करें और अपने लिये इसे एक जीवंत सत्य बना लें और इसके साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लें ।

 

  इस सचेतनता को प्राप्त करने के लिये और अंत में इस तादात्म्य को सिद्ध करने के लिये देश और काल के अंतर्गत बहुत-सी पद्धतियां निश्रित की गयी हैं और कुछ यांत्रिक भी हैं । सच पूछा जाये तो प्रत्येक मनुष्य को वह पद्धति ढूंढ निकालनी होगी जो उसके लिये सबसे अधिक उपयुक्त हो । और अगर साधक में सच्ची और सुदृढ़ अभीप्सा हो, अदद और सक्रिय संकल्प-शक्ति हों तो यह निश्रित हैं कि वह एक-न- एक तरीके से, बाहर से अध्ययन और उपदेश के द्वारा, भीतर से एकाग्रता, ध्यान, अनुभव और दर्शन के दुरा उस सहायता को अवश्य पायेगा जो लक्ष्य तक पहुंचने के लिये उसके लिये आवश्यक है केवल एक हीं चीज है जो पूर्ण रूप से अनिवार्य है और वह बे उसे खोज निकालने और प्राप्त करने का संकल्प । यह खोजने और प्राप्त

 


करने का प्रयास हीं जीव का सबसे पहला कार्य होना चाहिये, यही वह बहुमूल्य मोती है जिसे हमें चाहे किसी मूल्य पर प्राप्त करना चाहिये । तुम चाहे जौ कुछ करो, तुम्हारा व्यवसाय और कार्य जो भी हों, अपनी सत्ता के सत्य को पाने और उसके साथ युक्त होने का तुम्हारा संकल्प बराबर ही जीवंत बना रहना चाहिये, जो कुछ तुम करते हों, जो कुछ तुम अनुभव करते हो और जो कुछ तुम विचार करते हो, उस सबके पीछे उसे सदा विद्यमान रहना चाहिये । '

 

  आंतरिक खोज की इस क्रिया को पूरा करने के लिये यह अच्छा हैं कि मानसिक विकास की उपेक्षा न की जाये । क्योंकि हमारा मनोमय यंत्र एक समान हीं हमारा बहुत बहा सहायक या बहुत बड़ा बाधक हो सकता है  । अपनी सबसे स्वाभाविक स्थिति में मानव मन बराबर हीं अपनी दृष्टि में सीमित होता है, अपनी समझ में संकीर्ण और अपनी परिकल्पनाओं में कठोर । और इसे विशाल, गभीर और नमनीय बनाने के लिये कुछ प्रयास की आवश्यकता होती है  इसलिये यह बहुत आवश्यक है कि मनुष्य प्रत्येक बात पर जितने दृष्टिकोण से विचार करना संभव हो उतने दृष्टिकोण सै विचार करे । इस विषय से संबंधित एक अभ्यास ऐसा हैं जो विचार में बहुत अधिक नमनीयता और ऊंचाई ला देता है । वह इस प्रकार है : स्पष्ट रूप सें प्रकट की गयी एक प्रतिज्ञा-एक प्रतिपाद्य मत सामने रख देना चाहिये, फिर उसके मुकाबले में उसका विरोधी मत भी ला उपस्थित करना चाहिये जो वैसी हीं सूक्ष्मता के साथ प्रकट किया गया हो । फिर, सावधानी के साथ सोचते-विचारते हुए उस समस्या को विस्तारित करना चाहिये अथवा उसका अतिक्रम करना चाहिये, ताकि एक ऐसा समन्वय प्राप्त हो जाये जो उन अत्यंत विरोधी मातों को भी एक विशालतर, उच्चतर और अधिक व्यापक भावना के अंदर युक्त कर दे ।

 

   इसी तरह के बहुत-से अभ्यास काम में लाये जा सकते हैं; ऐसे कुछ अम्यासों का चरित्र के ऊपर लाभदायी प्रभाव पड़ता है और इसलिये वे द्विविध लाभ प्रदान करते हैं एक ओर तो वे मन को विकसित करते हैं और दूसरी ओर मनुष्य के अनुभवों और उनके परिणामों के ऊपर संयम स्थापित करते हैं । उदाहरणार्थ, तुम्हें वस्तुओं और लोगों के विषय में अपने मन को कोई निर्णय नहीं करने देना चाहिये, क्योंकि मन ज्ञान का यंत्र नहीं है-यह तो ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ  बल्कि इसे स्वयं ज्ञान के द्वारा चालित होना चाहिये । ज्ञान तो उस क्षेत्र की चीज हैं जो मानव मन के क्षेत्र से बहुत ऊपर है, यहां तक कि वह शुद्ध भावनाओं के क्षेत्र से भी परे हैं । मन को निक्षल-नीरव और सतर्क बनाना होगा ताकि वह ऊपर से ज्ञान को ग्रहण कर सके और उसे अभिव्यक्त कर सके, क्योंकि वह रूप देने, संघटन करने और कार्य करने का यंत्र है । वास्तव में, इन्हीं कार्यों के अंदर वह अपने पूरे मूल्य और यथार्थ उपयोगिता को प्राप्त करता है ।

 

  एक दूसरा अभ्यास है जो चेतना की प्रगति में बहुत अधिक सहायक हों सकता हैं ।

 


जब कभी किसी विषय पर मतभेद हो, जैसे कि कोई निर्णय करने के समय अथवा कोई कार्य पूरा करने के समय, तब हमें कभी अपनी धारणा या दृष्टिकोण सें चिपके नहीं रहना चाहिये । बल्कि, इसके विपरीत, हमें दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करना चाहिये, अपने-आपको उसके स्थान पर रख देना चाहिये और तर्क- वितर्क या, यहांतक कि, लड़ाई-झगड़ा करने के बदले, एक ऐसा समाधान इदं निकालना चाहिये जो दोनों पक्षों को युक्तिसंगत ढंग से संतुष्ट कर सके सदिच्छा- संपन्न मनुष्यों के लिये बराबर ही ऐसा एक समाधान तैयार रहता है ।

 

  यहां पर अब प्राण को विकसित करने की चर्चा भी अवश्य करनी चाहिये । हमारे अंदर यह प्राणमय सत्ता ही आवेग-प्रवेग और कामना-वासना का, उत्साह और तीव्रता का, क्रियात्मक शक्ति और निराशापूर्ण अवसाद का, उत्तेजना और विद्रोह का घर है, यह प्रत्येक चीज को गति प्रदान कर सकतीं, गूढ़ सकतीं और सिद्ध कर सकती है, साथ हीं यह प्रत्येक चीज को तोड़-फोड़ और नष्ट भी कर सख्ती है । ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य के अंदर यही भाग ऐसा है जिसे उन्नत करना सबसे अधिक कठिन है । इसे उन्नत करना दीर्घ परिश्रम का कार्य है और इसके लिये महान् धैर्य की आवश्यकता है, और यह पूर्ण सच्चाई की अपेक्षा रखता हूं । क्योंकि सच्चाई न होने पर मनुष्य एकदम आरंभ से ही अपने-आपको धोखा देने लगेगा और उन्नति का उसका सारा प्रयास व्यर्थ चला जायेगा । अगर प्राण का सहयोग प्राप्त हो तो कोई भी सिद्धि असंभव नहीं मालूम होती, किसी प्रकार का रूपांतर असाध्य नहीं प्रतीत होता । परंतु निरंतर उसका यह सहयोग प्राप्त करना बड़ा कठिन है । प्राण एक अच्छा कार्यकर्ता है, परंतु अधिकांश मे वह अपनी तुष्टि की चेष्टा करता है । अगर उसकी कामना पूरी नहीं की जाती है, चाहे वह पूर्ण रूप में या आशिक रूप में भी, तो वह झूँझल जाता है और नाराज हो जाता है ओर हड़ताल कर बैठता हैं । फलस्वरूप, कम या अधिक पूर्ण रूप से शक्ति विलीन हो जाती है और अपने स्थान में मनुष्यों और वस्तुओं के प्रति विराग, निरुत्साह या विद्रोह, अवसाद और असंतोष छोड़ जाती है । ऐसे मौक़ों पर मनुष्य को स्थिर-अचंचल बने रहना चाहिये और क्रिया करना अस्वीकार कर देना चाहिये, क्योंकि ऐसे ही समय मे लोग मूर्खतापूर्ण कार्य कर बैठते हैं और जिस चजि को उन्होंने महीनों निरंतर प्रयास करके प्राप्त किया होता है उसको, उसका द्वारा प्राप्त की हुई सारी उन्नति को, है  कुछ मिनिटों में ही बिगाड़ या चौपट कर सकते हैं । ये सब कठिन परिस्थितियां उन सब लोगों के लिये कम टिकाऊ और कम खतरनाक होती हैं जिन्हेंने अपने महापुरुष के साथ ऐसा संस्पर्श स्थापित कर लिया हैं जो उनके अंदर अभीप्सा की ज्योति को सजीव रखने के लिये और जिस आदर्श को सिद्ध करना है उसका बोध बनाये रखने के लिये पर्याप्त है । वे लोग इस चेतना की सहायता से, धैर्य और लगन से अपने प्राण के साथ एक विद्रोही बच्चे की तरह व्यवहार कर सकते हैं, उसे सत्य और ज्योति दिखा सकते हैं, उसमें विश्वास जमाने का और जो सदिच्छा कुछ

 


समय के लिये आच्छादित हो गयी थीं, उसे उनमें जगाने का प्रयास कर सकते हैं । ऐसे धैर्यपूर्ण हस्तशेप की सहायता से प्रत्येक कठिन परिस्थिति को एक नयी प्रगति के रूप में, लक्ष्य की ओर बड़े हुए एक नये पग के रूप में परिवर्तित किया जा सकता हे । प्रगति धीमी हो सकतीं है, पतन बार-बार हो सकता है, पर यदि साहसपूर्ण संकल्प बनाये रखा जाये, तो यह निहित है कि हम एक दिन विजयी होंगे और यह देखेंमें कि सभी कठिनाइयां सत्य की जाज्वल्यमान चेतना के सामने गल गयी या विलीन हो गयी हैं ।

 

  अंत में, एक युक्तिसंगत और स्पष्टदर्शी शारीरिक शिक्षण के द्वारा हमें अपने शरीर को सुदृढ़ ओर सुकोमल अवश्य बनाना चाहिये ताकि जो सत्य-शक्ति हमारे अंदर अभिव्यक्त होना चाहती है उसके लिये हमारा शरीर इस जड़ जगत् के अंदर एक उपयुक्त यंत्र बन सके ।

 

    वास्तव में, शरीर को कभी हुक्म नहीं चलाना चाहिये, उसे तो हुक्म मानना चाहिये । अपने सहज-स्वभाव में वह एक अनुगत और' विश्वासपात्र सेवक है । दुर्भाग्यवश, अपने प्रभुओं के-मन और प्राण के-विषय में विवेक-विचार करने की क्षमता बहुधा उसमें नहीं होती ! वह अंध-भाव से, अपने निजी हित का बलिदान देकर भी, उनकी आज्ञा का पालन करता है । मन अपने मतवादों, अपने कठोर बघौर मनगढ़ंत सद्धांतों के द्वारा, प्राण अपनी उत्तेजनाओं, अपनी ज्यादतियों और दुवृत्तियों के द्वारा शरीर की स्वाभाविक समतोलता नष्ट करने के लिये और उसमें थकान, दुर्बलता और रोग उत्पन्न करने के लिये शीघ्र सब कुछ कर डालेंगे । इस अत्याचार से शरीर को अवश्य मुक्त करना होगा, और चैत्य केंद्र के साथ सत्ता का निरंतर एकत्व स्थापित करने पर ऐसा करना संभव हो सकता है । हमारे शरीर में मेल बैठने और सहन करने को अद्भुत क्षमता हैं । हम साधारणतया जितना अनुमान कर सकते हैं उससे बहुत अधिक कार्य करने की क्षमता उसमें है । अभी जो अज्ञानी और स्वेच्छारगरी प्रभु इस पर शासन कर रहे हैं उनके स्थान में यदि सत्ता के केंद्रीय सत्य का शासन इस पर हो जाये नौ उस समय इसकी कार्यक्षमता को देखकर मनुष्य दंग रह जायेगा । तब शांत और स्थिर, दृढ़ और अचल रहते हुए हम जितना चाहें उतना प्रयास वह प्रत्येक मुहूर्त करेगा, क्योंकि उस समय वह सीख चुका होगा कि काम के अंदर किस तरह विश्राम लिया जाता है, जिस शक्ति को वह ज्ञानपूर्वक और लाग के लिये खर्च कर रहा है उसकी पूर्ति वह विश्वशक्तियों के साथ संस्पर्श स्थापित करके किस प्रकार कर सकता हैं । इस स्वस्थ और संतुत्श्ति जीवन में शरीर के अंदर एक नया सामंजस्य अभिव्यक्त होगा जो उच्चतर क्षेत्रों के सामंजस्य को प्रतिबिंबित करगा और यह उच्चतर सामंजस्य शरीर को पूर्ण अंगसौष्ठव और आदर्श सौंदर्य प्रदान करेगा । और यह सामंजस्य क्रमश: बढ़ता रहेगा, क्योंकि सत्ता का सत्य कर्ता अचल-अटल नहीं होता । वह निरंतर एक वर्द्धनशील, एक अधिकाधिक सर्वागीण और सर्वग्राही परिपूर्णता की ओर खुलता रहता

 


है । जैसे ही शरीर एक क्रमवर्द्धमान सामंजस्य की मति का अनुसरण करना सीख लेगा, वैसे ही उसके लिये, रूपांतर-सिद्धि की लगातार होनेवाली एक प्रक्रिया के द्वारा, भंग और विनष्ट होने की आवश्यकता से बच जाना संभव हो जायेगा । इस तरह मृत्यु के अटल विधान के बने रहने के लिये कोई कारण नहीं रह जायेगा ।

 

  जब हम पूर्णता की इस मात्रा को प्राप्त हो जायेंगे, जो कि हमारा लक्ष्य है , तब हम देखेंगे कि जिस सत्य की खोज हम कर रहे हैं वह चार प्रधान चीजों सें बना है- प्रेम, ज्ञान, शक्ति और सौंदर्य । सत्य के ये चारों रूप अपने-आप हमारी सत्ता के अंदर अभिव्यक्त होंगे । चैत्य पुरुष होगा सच्चे और शुद्ध प्रेम का वाहन, मन होगा अभ्रांत ज्ञान का यंत्र, प्राण प्रकट करेगा एक अदम्य शक्ति और सामर्थ्य; और शरीर बन जायेगा पूर्ण सौंदर्य और पूर्ण सामंजस्य की प्रतिमा ।

 

('बुलेटिन', नवम्बर १९५०)

 









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