CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

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Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
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 PDF     On Education
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This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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महान् रहस्य

 

छ: एकालाप और एक सिंहावलोकन

 

माताजी दुरा लिखित

 

 इनके सहयोग से

 

नलिनी (लेखक)

पवित्र (वैज्ञानिक)

आंद्रे (उधोगपति)

प्रणव (व्यायामी)

 


महान् रहस्य के बारे मे माताजी का पत्र

 

 प्रिये आंद्रे,

 

   मुझे मालूम है कि तुम बहुत कार्य-व्यस्त रहते हो और तुम अधिक समय नहीं निकाल सकते । फिर मी, मैं तुमसे कुछ करने के लिये कह रही हूं और आशा करती हूं कि तुम्हारे लिये उसे करना संभव होगा ।

 

   बात यह है ।

 

पहली दिसम्बर के लिये मैं कुछ ऐसी चीज तैयार कर रही हू जो नाटक-कला की किसी भी श्रेणी में नहीं आती, जिसे निक्षय हीं नाटक नहीं कहा जा सकता, पर, फिर भी, उसे मंच पर दिखाया जायेगा और मुझे आशा है कि वह नीरस न होगा । मै ऐसे लोगों की जीभ पर शब्द रख रही हू जिनके जीवन और पेशे एक-दायरे से बहुत भिन्न रहे हैं, और स्वभावतः, ज्यादा अच्छा होगा कि है सब एक हीं भाषा न बोले; मेरा मतलब यह है कि उनकी शैलियाँ अलग-अलग हों । मैंने कई लोगों रो कहा है कि वे किसी-न-किसी पात्र का लबादा पहने लें, और, उनकी दृष्टि से, वह पात्र क्या कहेगा यह मुझे लिख दें । बाद मे, कुछ काट-छांट करनी होगी तो मै कर लुंगी ।

 

  मैं इसकी भूमिका भेज रही हू जो परदा उठने है पहले पढ़ी जायेगी! इससे तुम्हें कुछ अंदाज होगा कि मैं क्या करना चाहती हू और तुम्हें मेरा मतलब समझने मे मदद मिलेगी।

 

    तुम देखोगे कि पात्रों में एक उद्योगपति है, एक बढ़ा व्यापारी है । मैं अधोगति भाषा से भली-भांति परिचित नहीं हूं और मेरा ख्याल था कि तुम इसके लिये कोई देसी चीज लिखकर मेरी सहायता कर सकोगे जो वास्तविक जीवन के अनुरूप हो । यह आदमी अपनी जीवन-गाथा सुनाता है और मैं चाहती हूं कि यह किसी बड़े उद्योगपति की (अमरीकन या कोई और) जीवनी हो, उदाहरण के लिये, कोई जैसी जीवनी हो । मैं उनसे एक-के-बाद-एक बुलावा रही हू; उन्हें अपनी जीवन-गाथा, अपनी महान् विजयों को सुनाने के लिये अधिक-से-अधिक दस मिनट मिलेंगे । इस नाजुक समय पर, वे अपनी विजयों से असंतुष्ट और किसी ऐसी चीज के लिये लालायित हैं जिसे न तो वे जानते हैं और न समझते हैं । मै इसके साथ ही तुम्हें उद्योगपति के भाषण का, अपनी दिष्टि से, अंतिम भाग भी मेज़ रही हूं, लेकिन, निश्चय ही, तुम इसमें जो परिवर्तन जरूरी समझो कर सकते हो ।

 

  मैंने पवित्र से वैज्ञानिक का भाषण तैयार करने के लिये कहा है, नलिनी लेखक का वक्तव्य तैयार कर रहा है, व्यायामी क्या कहेगा यह प्रणव ने अंग्रेजी में तैयार कर लिया है, लेकिन मै उसे फ्रेंच रूप दे लुंगी, राजनेता की रूप-रेखा मैंने तैयार कर लौ है, कलाकार को देख रही हूं, अज्ञात व्यक्ति को तो खैर, देखुगी, क्योंकि उसके दुरा मै स्वयं बोल रही हूंगी ।

 

  उसके बाद हमें निक्षय करना होगा कि अभिनेता कौन होंगे; देबू अज्ञात व्यक्ति होगा, हृदय व्यायामी, मै पवित्र को वैज्ञानिक बनने के लिये राजी .करने की कोशिश कर रहीं हू, मनोज या तो लेखक होगा या कलाकार । स्वभावतः, आदर्श तो यह होगा कि तुम यहां आकर अपना लिखा हुआ स्वयं बोलों- लेकिन हो सकता है कि तुम्हें यह चरितार्थ -न हो सकनेवाली मूर्खता लगे... । सच तो यह है कि यह केवल टोह लेने का प्रयास हैं; इस बारे मे हम बाद में फिर बातचीत करेंगे... । मै आशा करती हूं कि मैंने कोई जरूरी बात छोड़ नहीं दी है । लेकिन अगर तुम कोई ब्योरा चाहो तो मै भेज दूंगी ।

 

(७-७-१९५४)

 

४३१


महान रहस्य

 

छ: एकालाप और एक सिंहावलोकन

 

   मानव प्रकृति के विषय मे होनेवाली एक विश्व परिषद् में भाग लेने के लिये जाते हुए संसार के सबसे प्रसिद्ध छ: आदमी, ऐसा लगता है कि संयोग सें, एक ''लाइफ- बोट' ' में आ मिलते हैं, क्योंकि उनका जहाज बीच समुद्र में डब गया हैं ।

 

   नौका में एक सातवां आदमी भी है । वह युवा प्रतीत होता हैं, या यूं कहें, वह वयस्-हीन हैं । उसका वेश-भूषा किसी देश या किसी युग जैसी नहीं है । वह चुपचाप निकल होकर पतवार के पास बैठा है, पर वह औरों की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा है । है उसकी ओर जस भी ध्यान नहीं देते, उसका होना-न-होना बराबर हैं !

 

 वे व्यक्ति हैं :

 

राजनीतिज्ञ

लेखक

वैज्ञानिक

कलाकार

उधोगपति

व्यायामी

अज्ञात व्यक्ति

 

   पानी खत्म हो चुका हैं, रसद चूक गयी है । उनकी शारीरिक यातनाएं असह्य हो उठी हैं । क्षितिज पर कही कोई आशा नहीं; मृत्यु निकट आती जा रही है । अपने वर्तमान क्लेशों से मन को हटाने के लिये, उनमें से हर एक अपनी जीवन-गाथा सुनाता है ।

 

 (परदा उठता है ।)

 


राजनीतिज्ञ

 

   आप लोगों की इच्छा हैं तो लीजिये, मै ही सबसे पहले बताता हूं कि मेरा जीवन कैसा रहा हैं ।

 

  मैं एक राजनीतिज्ञ का बेटा था और बचपन से हीं सरकारी बातों और राजनातिक समस्याओं से परिचित था । मेरे माता-पिता अपने मित्रों को जब दावत दिया करते थे तो इन बातों पर अच्छी तरह बहस हुआ करती थीं । मैं भी बारह वर्ष की आयु से वहां उपस्थित खा करता था । विभिन्न राजनीतिक दलों के मत मुझसे छिपे न थे और मै अपने छोटे-से उत्साहपूर्ण मस्तिष्क मे प्रत्येक कठिनाई का हल पा लेता था ।

 

   स्वभावतः, मेरी पढ़ाई-लिखाई भी इसी दिशा में चली और मैं राजनीति-विज्ञान का एक प्रतिभाशाली छात्र बन गया ।

 

  फिर, जब सद्धांतों को क्रिया मे लाने की बात आयी तब मुझे पहले गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पझ और तब मुझे मालूम हुआ कि अपने विचारों को क्रियान्वित करना लगभग असंभव-सा हैं । मुझे समझते करने पड़े और धीरे-धीरे मेरा महान् आदर्श मुरझा गया ।

 

    मैंने जाना कि सफलता सचमुच व्यक्तिगत मूल्यांकन नहीं है, बल्कि सफलता अपने-आपको परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेने और दूसरों को खुश करने की क्षमता का नाम हैं । इसके लिये, हमें दूसरों की त्रुटियां को ठीक करने की जगह उनकी कमज़ोरियों की लल्लो-चप्पा करनी पड़ती हैं ।

 

   निःसंदेह, आप सभी जानते होंगे कि मेरा उज्ज्वल जीवन कैसा रहा हैं, उसके बारे मैं स्वयं मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं । लेकिन हां, मैं इतना तो कहना हीं चाहूंगा कि जैसे हीं मैं प्रधान मंत्री वान और मेरे हाथ मे सचमुच कुछ शक्ति आयी, वैसे ही मैंने अपनी जवानी के पुरुषार्थ की महत्त्वाकांक्षाओं को याद किया और उन्हें चरितार्थ करने की कोशिश की । मैंने चाहा कि मैं दलबंदी में न पहूं । संसार मे राजनीतिक और सामाजिक प्रवृत्तियों, हलचलों में जो विग्रह मचा हुआ है और जो सारे संसार को तोड़ने में लगा है, फिर भी, मै समझता हू कि इनमें से प्रत्येक के अंदर कुछ अच्छाइयां और कुछ बुराइयों हैं, इस सबमें सें मैंने एक हल निकालना चाहा । इनमें से कोई भी पूत-पूरा अच्छा या पूरा-पूरा बुरा नहीं है, इनकी अच्छाइयों को बुनकर एक क्रियात्मक और सामंजस्यपूर्ण हल निकालना चाहिये । लेकिन मै ऐसे समन्वय का कोई सूत्र न पा सका जो परस्पर-विरोधी तत्त्वों में एकता ला सकें, उसे क्रियात्मक रूप देना तो और मी असंभव था ।

 

   अतः, मै राष्ट्रों में शांति, एकता और सौहार्द चाहता था, मै सबके भले के लिये सहयोग -चाहता था और मुझसे बड़ी शक्ति ने मुझे युद्ध करने पर, आबिवेकी तरीकों और अनुदार निर्णयों दुरा विजय प्राप्त करने पर बाधित कर दिया ।

 


   लेकिन फिर भी मुझे एक बड़ा नीतिकुशल नेता माना जाता है, मेरे अपर आदर, सम्मान और प्रशंसा की बौछार की जाती है ओर मुझे ''मानवजाति का मित्र' ' माना जाता हैं ।

 

   लेकिन मै अपनी कमजोरी जानता हूं और मैंने उस सच्चे ज्ञान और सच्ची शक्ति को खो दिया ओ मेरे बचपन की सुन्दर आशाएं को सफलता का मुकुट पहना सकतीं ।

 

  और अब अब कि अंत नजदीक हैं, मुझे लगता हैं कि मैंने बहुत हीं थोड़ा किया है और जो किया हैं वह मी शायद बुरी तरह, और मैं मृत्यु के दुरा पर टूटे सपनों का विषाद लेकर पहुंचेंगे ।

 

४३४


लेखक

 

   इस मर्त्यलोक मे स्पंदन करते हुए सत्य और सौंदर्य को मैंने पंखदार शब्दों से पकड़ना चाहा । हमारी आंखों के सामने जो सृष्टि का सौंदर्य-विस्तार फैला हुआ है-यह चंराचर जगत् ये दृश्य और घटनाएं- और इसी तरह फैला हुआ हमारी अनुभूतियों और संवेदनों का दूसरा जगत् हमारी चेतना में एक रहस्यमय मायाजाल बना देता हैं, मानों मय दानव की बनायी भूल-भुलाया हों । वह सृष्टि मेरे ऊपर सम्मोहन-जाल फेंकती है, उसकी वाणी में किब्ररियों की बांसुरी से ज्यादा मधुरता हैं, वह भूखे बुल रही हैं अपने- आपको जानने, पहचानने और मूर्त रूप देने के लिये । मैंने अपने शब्दों को वही ध्वनि देनी चाही ।

 

   मैंने वस्तुओं के मर्म को वाणी देनी चाही, मैंने चाहा कि काल-पुरुष के रहस्यों का उद्घाटन करूं । जो कुछ छिपा हुआ हैं, जो अज्ञात हैं, जो अपनेर सुदूर रहस्यमय आवास से सूर्य और नक्षत्र और मानव-हृदय का परिचालन करता हैं, मैंने उसे खोलकर दिव्य लोक में लाकर रखना चाहा । पार्थिव और अपार्थिव वस्तुओं के आयास-प्रयास मूक कठपुतलियों के अस्तव्यस्त नाटक जैसे हैं; मैंने उन्हैं वाचा और चेतना अर्पित की । मेरी दृष्टि में शब्द एक अनुपम यंत्र हैं, उनसे बढ़कर परिवाहक यंत्र कोई नहीं । शब्दों की गहन कुछ ऐसी है कि वे वस्तु को मूर्त रूप मी दे सकते हैं और प्रकाश मे भी ला सकते हैं, वे तरल होते हुए भी अस्पष्ट नहीं हैं, ठोस होते हुए भी पारदर्शक नहीं हैं । शब्द एक ही समय दो सृष्टियों के साथ संबंध रखता है । वह पार्थिव जगत् का है इसलिये स्थूल आकार दे सकता हैं : और पर्याप्त सूक्ष्म होने के नाते अत्यंत सूक्ष्म वस्तुओं, शक्ति और स्पंदन, नियम और विचारों के साथ संबंध रखता है । वह अपार्थिव को पार्थिव बना सकता है, अशरीरी को शरीर दे सकता है; और इनसे बढ़कर, वह वस्तुओं के सच्चे अर्थ को, रूप के पिंजरे में बंद यथार्थ भाव को मुक्त करता है ।

 

     मैंने अपने गीति-काव्य में, मनुष्य और प्रकृति के हृदय की व्याकुलता, उनके क्रंदन, उनके शत्रुओं के रहस्य को खोलना चाहा । कथा-कहानी के विशालतर पट पर, मैंने जीवन के विविध भावों और आवेगों का चित्रण किया, उसके उलंग ज्ञान-शिखर और उसकी साधारण दैनिक मूढ़ता को आका, जो घटनाएं मनुष्य और प्रकृति के इतिहास मे घटती हैं मैंने उनमें प्राण का स्पंदन पैदा किया और उन्हें एक भावपूर्ण वास्तविकता प्रदान की । मैंने जीवन के हास्य और रुदन को नाटक का रूप दिया और मुझे यह बताने की जरूरत नहीं हैं कि उस प्राचीन रूप को ही नवीन आवश्यकताओं और मांगो को भली-भांति पूरा करते हुए देखकर आप लोगों को कितना आनंद हुआ था । मैंने जीवित शक्तियों के पात्रों को कभी न भुलाये जा सकनेवाले व्यक्तित्व के सांचे में ढाला । शायद उपन्यास, जो अधिक विस्तृत और अधिक सुस्पष्ट यंत्र है, इस युग की

 


वैज्ञानिक शोधवृत्ति के अधिक अनुकूल हैं । क्याकि इसमें चित्र और व्याख्या, दोनों हैं । मैंने व्यष्टि और समष्टि के जीवन का इतिहास दिया और उसके साथ हीं संपूर्ण मानवजाति के इतिहास की कभी गोल, कभी कुंडलियों जैसी और कभी बढ़ती हुई गति के कुछ अंश को देना चाहा । लेकिन मैंने जाना और अनुभव किया कि मनुष्य की अंतरात्मा के लिये केवल परिधि का विस्तार और बाह्य प्रसार काफी नहीं हैं । वह ऊंची उजान चाहती है । वह ऊर्ध्वता शैली की मांग करती है । यह सोचकर मैंने महाकाव्य रचा । इसमें निश्चय ही सारे जीवन का परिश्रम लग गया । हां तो, आपमें से बहुत-से उसके मर्म को न समझ पाये, अधिकतर उससे अभिभूत हो गये, फिर भी सभी ने उसके जादुई स्पंदन का अनुभव किया । हां, रहस्यों का पर्दा चाक करने के लिये यह मेरा जी-जान से अंतिम प्रयास था ।

 

   मैंने अपने विषय और भाषा को कैसे चित्र-विचित्र रूप दिये । एक निपुण वैज्ञानिक की नाई मैंने शब्दों के साथ खेल किया, मै उन्हें उलट-पलट कर, उनमें हेर-फेर करके उनका रूपांतर करना जानता था और जानता था उनमें नवीन अर्थ, नवीन स्वर, नवीन व्यंजना लाना । मैं सिसरो की तरंग, मिलटन की उच्च गंभीरता, रासीन की मधुर सुकुमारता को हस्तगत कर सकता था; मेरे लिये वईसवर्थ की सर्वोत्तम काव्य की सरलता या शेक्सपीयर का जादू अनुपलब्ध न था । वाल्मीकि की उलंग महिमा या व्यास की उदात्ता मेरे लिये अगम्य शिखर न थे ।

 

और फिर भी मैंने जो चाहा था वह न पा सका । मुझे संतोष न हों पाया । मैं अतृप्त रह गया । क्योंकि आखिर, मैंने जो कुछ किया है वह एक स्वप्न से बढ़कर नहीं है, मानों हवा मे स्वप्न बिखेर हों । आज मुझे लगता है कि मैंने वस्तुओं के वास्तविक सत्य को छुआ तक नहीं है, उनकी सौंदर्य-आत्मा की हवा तक नहीं पा सका । मैं ऊपर-ही-ऊपर एक खरोंच-सी कर पाया हूं , मैं प्रकृति के बाह्य आवरण का स्पर्श-भद्द कर पाया हू; पर उसका शरीर, उसकी अपनी सत्ता मुझसे दूर ही रहीं हैं । बाहर से देखने मे चाहे कितना भी सच्चा और मनोहर क्यों न लगे, पर मै सृष्टि के अंग-प्रत्यंग पर एक मकड़ी का जाल हीं तो रच पाया हूं । जिन उपायों और यंत्रों को मैंने एक बार स्वभावत: अपनी क्षमता में निष्कलंक और पूर्ण माना था, मेरी धारणा थी कि वे सर्वग्राही, सर्वप्रकाश और सर्वसमर्थ हैं, वही साधन अंत मे मुझे हताश कर रहे हैं । अब मुझे लगता है कि एक महान नीरवता, एकांत मौन हीं वस्तुओं के हार्य के अधिक नजदीक है । इसी चिंतन-प्रवाह मे, इस अनंत चपलता के बीच में अपनी असहाय भुजाएं उठाकर फाउस्टस की तरह चिल्ला उठता हूं : '' ओ असीम प्रकृति रानी, मै तुम्हें कहां पा सकूंगी ?'' एक और महाकवि की तुलना उस असमर्थ देवदूत से की गयी थी जो शून्य में अपने चमकदार सुनहरे पंखों को फड़फड़ा रहा हो । सारी मानवजाति इससे बढ़कर और कुछ नहीं हैं ।

 

    आज अपने जीवन की संध्या में, एक बच्चे के अलान के सहा मै पूछता हूं कि

 

४३७


इस सबका मतलब क्या है ? हम किस देवता के आगे सिर झुकाएं और किसे अपनी हवि दें- कसौ दैव्य अविष विधेम । सेकीना की अंतर्दृष्टि क्या हैं? हम किसलिये जियें और किसलिये मरें? पृथ्वी पर इस अड़ते हुए आविर्भाव का अर्थ क्या हे? इस .सारे प्रयास और संघर्ष का, इतने कष्टों और इतनी सफलताओं के मुकाबिले मे इतनी 'वेदना का क्या मूल्य हैं? ऐसी ज्वलंत आशाएं और विजयी उत्साह का क्या अर्थ है जो अज्ञान और अचेतना की ऐसी खाई मे ले जायें जिसे कोई पाट न सके? और इस सबकी अनिवार्य समाप्ति-विलय और विनाश जो आविर्भाव से मी अधिक रहस्यमय हैं-देखकर लगता है मानों सारा ही एक अविश्वसनीय, वीभत्स और व्यर्थ का मजाक हो ।

 

 कृपा की मुद्रा मे ईश्वर (इबरानी भाषा) ।

 

४३८


वैज्ञानिक

 

   आप लोगों में से कइयों की तरह, मैंने अपना जीवन मानवजाति की अवस्था सुधारने के उद्देश्य ये नहीं शुरू किया था । मेरे लिये कर्म नहीं, ज्ञान ही मुख्य आकर्षण था-ज्ञान का भी आधुनिक रूप : विज्ञान । मुझे लगता हैं कि प्रकृति के रहस्यों को छिपानेवाले परदों के एक कोने को उठाकर वहां छिपे स्रोतों को जस अधिक जान लेने से बढ़कर अद्भुत और हों ही क्या सकता ? मैंने, शायद अनजाने हीं, प्रचलित धारणा के अनुसार यह मान लिया था कि ज्ञान की वृद्धि के परिणामस्वरूप शक्ति आवश्यक रूप से बढ़ेगी, और प्रकृति पर हर नयी विजय आज न सही कल, मनुष्य की अवस्था को जरूर सुधारेगी, उसकी नैतिक और भौतिक स्थिति में उब्रति लायेगी । उन विचारों की न्याई, जिनकी जुड़े भौतिक विज्ञान की प्रतिष्ठा करनेवाली गत शताब्दी में हैं, मेरी दृष्टि में भी अज्ञान, एकमात्र नहीं तो मुख्य पाप तो अवश्य था ! यही मानव के पूर्णता की ओर अभियान में बाधा देता था । हम बिना ननुनच के, मनुष्य की असीम पूर्णता को मान बैठे थे । हम मानते थे कि धीमी हो या तेज, पर प्रगति है अवश्यंभावी । हमें विश्वास था कि जब इतनी तक आ चुके हैं तो आगे भी जाया जा सकता है । हमारे लिये, ज्यादा जानने का अर्थ ही था अधिक समझना, अधिक बुद्धिमान और न्यायसंगत होना-एक शब्द में कहें तो उन्नति करना ।

 

हमने इस धारणा को भी स्वतःसिद्ध मान लिया : 'विश्व' जैसा हैं उसे वस्तुपरक रूप मे वैसा जानना, उसके नियमों पर अधिकार कर लेना संभव है । यह बात इतनी स्पष्ट थीं कि हमें उसके बारे मे जस भी शंका नहीं हुई । 'विष' और मैं-हम दोनों का अस्तित्व हैं, एक का काम है दूसरे को समझना । निस्संदेह, मैं 'विश्व' का एक अंग हूं, पर उसे समह्मने की प्रक्रिया मे उससे खड़ा होकर वस्तुपरक रूप सें देखता हूं । मै स्वीकार करता हूं कि जिन्हें मैं प्रकृति के नियम कहता हूं उनकी अपनी पृथक सत्ता है, वे मेरे या मेरे मन के ऊपर निर्भर नहीं हैं; है सभी विचारवान लोगों के लिये एक ही हू ।

 

   मैंने विशुद्ध ज्ञान के इस आदर्श से प्रेरित होकर अपना काम शुरू किया । मैंने भौतिक विज्ञान और उसमें भी विशेषकर अणु, तेजष्कियता (रेडियो एक्टिविटी) के क्षेत्र को चूना जिसमें बेकरेल और दोनों क्यूरी ने पहले से ही राजमार्ग बना रखा था । यह वह समय था जब प्राकृतिक तेजष्कियता का स्थान कृत्रिम तेजकियता ने ले रखा था, जब कीमियागरों के स्वप्न सच्चे हो रहे थे । मैंने उन बड़े वैज्ञानिकों के साथ काम किया जिन्होने यूरेनियम विस्फोट की खोज की और मैंने अणुबम के जन्म को भी देखा : ये कठोर, अविच्छिन्न और एकनिष्ठ परिश्रम के वर्ष थे । उन्हीं दिनों मुझे वह प्रेरणा मिली जिसके कारण मैंने अपनी पहली खोज की, यानी, अणु-केंद्रित ऊर्जा या न्यूक्कियर ऊर्जा से सीधी-सीधी बिजली प्राप्त करने को संभव बनाया । आप जानते

 

४३९


ही हैं कि इस खोज ने सारी दुनिया की आर्थिक स्थिति मे एक मौलिक परिवर्तन ला दिया, क्योंकि इसके कारण ऊर्जा सस्ती होने के कारण सर्वसुलभ हो गयी । अगर यह खोज सनसनीपूर्ण थी तो उसका कारण यह था कि इसने मनुष्य को श्रम के अभिशाप ?से मुक्त कर दिया, अब वह रोटी कमाने के लिये खून-पसीना एक करने के लिये विवश न रहा ।

 

   इस भांति मैंने अपने यौवन के स्वप्न को सिद्ध किया- एक महान् खोज की- और साथ ही मैंने मनुष्यजाति के लिये उसका महत्त्व भी समज्ञ । बिना विशेष प्रयास के मैं मनुष्यजाति के लिये एक वरदान ले आया था ।

 

    मेरी पूर्णतया संतुष्ट होने के भरपूर कारण थे, पर यदि मै संतुष्ट हुआ भी तो ज्यादा देर के लिये नहीं । अब हम मृत्यु के दुरा पर खड़े हैं और मेरा रहस्य संभवत: मेरे साथ हीं विलीन हो जायेगा, इसलिये मै कह सकता हूं कि इसके कुछ समय बाद हीं, मैंने न केवल यूरेनियम, थोरियम आदि दुर्लभ धातुओं से, अपितु तांबा और एल्यूमिनियम आदि सें भी अणु-शक्ति को मुक्त कराने का तरीका खोज निकाला । लेकिन फिर मेरे सामने एक जटिल समस्या आ खड़ी हुई जिसके भार ने मुझे लगभग ढेर कर दिया । क्या अपनी खोज को प्रकट कर दूं? मेरे सिवा इस रहस्य को अभीतक और कोई नहीं जानता था ।

 

     आप सब अणु-बम की कहानी जानते .हीं हैं । आप यह भी जानते हैं कि उसके बाद उससे भी भयंकर एक अस की खोज हुई-वह था उदजन बम । मेरी तरह आप भी जानते हैं कि मानवता इन खोजों के भार से लड़का रहीं है, इन खोजों ने मनुष्य के हाथ में संहार की कल्पनातीत शक्ति पकड़ा दी है । पर अब अगर मैं अपनी इन खोजों को प्रकाशित कर दूं उनके रहस्यों को खोल दूं तो एक विकट संहार की आसुरी शक्ति जिस किसी के हाथ लग सकतीं है । और इस पर किसी का कोई अधिकार या नियंत्रण न रहेगा... । यूरेनियम और थोरियम को सरकारें आसानी सें अपने हाथ मे रख सकती थीं, एक तो इसलिये कि वे दुष्प्राप्य थीं, पर उससे भी बढ़कर इसलिये कि उन्हें परमाणु राशि के काम में लगाना बहुत कठिन था । पर आप कल्पना कर सकते हैं कि वह स्थिति कितनी भयंकर होगी जब हर हत्यारा या पागल या मतांध व्यक्ति अपनी कामचलाऊ प्रयोगशाला मे ऐसे अस बना सके जिनसे पैरिस, लंदन या न्यूयार्क को उडाया जा सके! क्या यह मानवजाति के लिये एक घातक प्रहार न होगा? मैं खुद अपनी खोज के भार से चकराया । मैं बहुत देर तक हिचकिचाता और अभीतक किसी ऐसे निक्षय पर नहीं पहुंच पाया जो मेरे दिल और दिमाग, दोनों को संतुष्ट कर सके ।

 

     इस भांति अपनी जवानी में जिस पहले सूत्र को लेकर मैं प्रकृति कै रहस्यों की खोज करने चला था, वही टुकड़े-टुकड़े हों गया । अगर ज्ञान की हर वृद्धि अधिक शक्ति लाती हो, तब भी यह हर्गिज नहीं कहा जा सकता कि उससे मानव कल्याण

 

४४०


भी होता है । वैज्ञानिक प्रगति का यह अर्थ हैं कि उसके सहन हीं नैतिक प्रगति भी हो । वैज्ञानिक और बौद्धिक ज्ञान मानव प्रकृति को बदलने मे असमर्थ हैं, फिर भी इनकी आवश्यकता अनिवार्य हो उठी है। मानव की लोलुपता और मनोवेग आज भी प्रायः वैसे हीं हैं जैसे अश्मकाल में थे; यदि भविष्य में मी वे ऐसे बने रहे तो मानव का सर्वनाश शिक्षित हीं है । अब हम ऐसी अवस्था तक पहुंच चुके हैं कि यदि शीघ्र हीं आमूल नैतिक रूपांतर न हो तो मानवजाति अपने हीं हाथों इस नयी शक्ति से अपना विनाश कर लेगी ।

 

अच्छा, अब देखें मेरे यौवन की दूसरों स्वतःसिद्ध धारणा का क्या हुआ । क्या मैं कम-रहने-कम विशुद्ध ज्ञान का आनंद पा सका, क्या मै शिक्षित रूप से प्रकृति की रचना के छिपे तलों को थोड़ा-बहुत भी पकड़ पाया? क्या मैं यह आशा कर पाया कि प्रकृति को संचालित करनेवाले सच्चे नियमों को जानने का आनंद ले सकूंगी? खेद की बात तो यह हैं कि यहां भी मेरे आदर्श ने मुह्मे निराश कर दिया । हम वैज्ञानिकों ने कब से यह विचार छोड़ रखा हैं कि हर परिकल्पना या सिद्धांत को पूरा- पूरा सत्य या असत्य होना हीं चाहिये । हम अब यही कहते हैं कि यह सुविधाजनक एक, यह तथ्यों के साथ मेल खाता एक और एक काम-चलाऊ व्याख्या देता है । मगर यह जानना कि यह सच है या नहीं, अर्थात् वास्तविकता के साथ मेल खाता है या नहीं-यह वों एक और किस्सा है । और शायद यह प्रश्र ही निरर्थक है । निःसंदेह और सिद्धांत भी हैं, निःसंदेह क्यों, अवश्य ऐसे सिद्धांत भी हैं जो इन्हीं तथ्यों को इतनी ही अच्छी तरह स्पष्ट कर सकते हैं और इसलिये है भी इतने हीं न्यायसंगत हैं । आखिर, ये सिद्धांत हैं क्या? वे बिम्बमात्र हीं तो हैं । वे उपयोगी अवश्य हैं, क्योंकि उनके दुरा हम भविष्य की अनेक चीजों को देख सकते हैं; वे यह तो दिखाते हैं कि घटनाएं कैसे घटती हैं, पर उनके अस्तित्व के ' क्यों' और 'कैसे' का उत्तर नहीं दे पाते । वे हमें वास्तविकता की ओर नहीं ले जाते । इसे सारे समय हीं लगता है कि हम सत्य और वास्तविकता के चारों ओर चक्कर काट रहे हैं, उन्हें भित्र-भित्र कोणों से देखते हैं, भिन्न-भिन्न दिशाओं से नजर डालते हैं, पर उसे खोजने में या पकड़ पाने में कभी सफलता नहीं मिलती; यह अपने-आप भी पर्दा हटाकर अपने-आपको प्रकट नहीं करता ।

 

और फिर, दूसरी ओर, हम जो कुछ माप-तोल करते हैं, जिससे हम आशा करते हैं कि वह इस स्थूल जगत् के बारे में कुछ बनायेगा, उसमें भी मानव सहायता की जरूरत होती है । इस माप-जोख की क्रिया से ही हम बाहरी तथ्य पर कुछ-न-कुछ हलचल पैदा कर देते हैं और यह हलचल जगत् के बाह्य रूप में कुछ तो हेर-फेर कर ही देती है । तो इस माप-तोल. से मिलनेवाला ज्ञान भी पूरी तरह नि:संदिग्ध नहीं है । इस सब हिसाब-किताब से हम संसार का जो चित्र बनाते हैं वह संभव तो होता है, पर सुशिक्षित नहीं । हम भौतिक जगत् के जिस स्तर पर रहते हैं वहां यह अनिश्चितता

 

४४१


नगण्य-सी होती है, पर इससे अत्यंत सूक्ष्म अणु-परमाणु के जगत्( के लिये यहीं बात नहीं कही जा सकती । यहां पर एक मौलिक अक्षमता है, एक ऐसी बाधा हैं जिसे पार करने की आशा तक नहीं की जा सकती । इसका कारण हमारी अनुसंधान-पद्धति की त्रुटि नहीं है, चीजों की अपनी प्रकृति हीं ऐसी है, अतः हम जिन रंगीन चश्मों से सृष्टि देखते हैं उन्हें उतार फेंकना असंभव है । मेरे सारे हिसाब, मेरी सारी परिकल्पनाओं, है जितने परिमाण में जगत् को पकड़ पाते हैं उतने हीं परिमाण मुझे और मेरे मन को मी लिये रहते हैं । है जितने वस्तुपरक हैं उतने हीं आत्मपरक, और वस्तुतः, उनका अस्तित्व शायद मेरे मन में हीं हो ।

 

   'असीम' के तट पर, मैंने एक पदचिह्न देखा और बालू पर निशान देखकर मैंने उसकी मूर्ति गढ़ने चाही जिसने यह पदचित छोड़ था । मुझे आखिर सफलता तो मिली, लेकिन मैंने देखा, वह व्यक्ति स्वयं मैं ही था । आज मेरी यह अवस्था है-हम सबकी अवस्था यही है- और भूखे कोई मार्ग नहीं दिखता ।...

 

    लेकिन आखिर शायद इस बात से कुछ आशा बंधती है कि मैंने विश्व के बारे में असंख्य संभावनाएं हीं देखी हैं, कोई निश्रित ज्ञान नहीं पाया- शायद इसी में यह आशा छिपी है कि मनुष्य का भविष्य सदा के लिये अवरुद्ध नहीं है ।

 

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कलाकार

 

   मेरा जन्म एक संभांत मध्यवर्गीय कुटुम्ब मे हुआ था । मेरे घरवाले कला को आजीविका नहीं, मन-बहलाव की चीज मानते थे और उनके मतानुसार कलाकार बड़े हल्के, अनैतिक और धन के प्रति उदासीन होते हैं- और उनकी दृष्टि मे यह बड़ी खतरनाक चीज थी । शायद विरोध की भावना है प्रेरित होकर हीं मैंने चित्रकला को अपने जीवन का आदर्श बना लिया । मेरी सारी चेतना दो आंखों में केंद्रित थी और मै शब्दों की अपेक्षा रेखा-चित्रों द्वारा अपने-आपको ज्यादा अच्छी तरह व्यक्त कर पाता था । मैंने पुस्तकें पढ़कर सीखने की अपेक्षा चित्र देखकर अधिक सीखा; और एक बार देखें हुए प्राकृतिक दृश्य, मानव-आकृति या रेखांकित चित्रों को कभी न भूलता था ।

 

    मैंने कठोर परिश्रम दुरा, तेरह वर्ष की आयु मे हीं रेखांकन, जल-रंग, पेस्टल और तैल-चित्र की तकनीक अच्छी तरह सीख ली थी । फिर अपने माता-पिता के मित्रों और परिचितों के लिये छोटे-मोटे काम करके कुछ कमाने का अवसर मिल गया, और पैसा आते ही मेरे परिवार ने मेरे काम को गंभीरता सें लेना शुरू कर दिया । इससे लाभ उठाकर मैंने यथासंभव गहरा अध्ययन शुरू किया । ठीक आयु होने पर मै ललितकला-शाला मे भरती हो गया और शीघ्र ही प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगा । 'रोम' पुरस्कार पानेवाले सबसे छोटी आयुवालों में मै भी एक था और इससे मुझे इटालियन कला का गहरा अध्ययन करने के लिये अच्छा अवसर मिला । कुछ समय बाद, छात्रवत्ति पाकर मैंने स्पेन, बेलजियम, हालैंड, इंग्लैंड और अन्य देशों का भ्रमण किया । मैं एक हीं शैली या एक हीं युग का कलाकार न बनना चाहता था । मैंने पूर्व और पश्चिम के सभी देशों की सब प्रकार की कला का अध्ययन किया ।

 

    साथ ही मेरा अपना काम भी जारी था । मैं एक नये कला-सूत्र के संधान मे लगा था । इसमें महान सफलता मिली, यश मिला और ख्याति मिली; चित्र-प्रदर्शनियों में प्रथम पुरस्कार मिले, चित्रों की परीक्षा करनेवाली ज्यूरी में स्थान मिला, मेरे चित्र सारे संसार के बढ़े-बड़े संग्रहालयों में स्थान पाने लगे और मेरी चीजों के लिये चित्र- विक्रेता पागल हो उठे । चारों ओर से धन, उपाधि, सम्मान की वर्षा होने लगी लोग मुझे ''प्रतिभाशाली' ' तक कहने लगे... । पर मै संतुष्ट नहीं हूं । प्रतिभा की मेरी कल्पना कुछ और ही है । प्रतिभाशाली को एक नये ही आधार पर एक नये उच्चतर, अधिक शुद्ध अधिक सत्य और अधिक महान सौंदर्य को नये साधन, नवीन पथ और पद्धति से अभिव्यक्त करना होगा । जबतक मै मानव पशुता का बंदी हूं, तबतक जड़ प्रकृति के रूप से पूरी तरह छुटकारा पाना संभव नहीं । उसके लिये अभीप्सा तो रहीं है, पर ज्ञान, अंतर्दृष्टि का अभाव था ।

 

   और आज जब हम सब मरने लगे हैं तो मुझे लग रहा है कि मैं जैसा सृजन करना चाहता था, न कर पाया, मैं जिस चीज को आंकना चाहता था न आक पाया । और मुझे लगता है कि यश-ख्याति के ढेर के होते हुए भी मैं असफल ही रहा ।

 


उधोगपति

 

   यहां हम सब ही अपने हृदय खोल रहे हैं और, साथ हीं, मैं जो कहूंगा उसका --उपयोग मेरे प्रतिरूप या मेरी सफलता-या यूं कहिये तथाकथित सफलता-से जलने- '''वाले न कर पायेंगे, इसलिये मै आपको अपनी दृष्टि से अपनी कहानी सुनाता हूं-ठीक वैसी जैसे मैं उसे देखता हूं, वैसे नहीं जैसे अन्य लोग उसका बखान करते हैं ।

 

   घटनाएं तो ठीक हीं बतायी गयी हैं । मेरे पिता एक छींटे-से गांव में लोहार थे । मैंने उनसे पितृदाय मे धातुओं के काम में रस लेना सीखा; उन्होंने मुझे अच्छी तरह किये गायें काम में मजा लेना सिखाया और सिखाया हाथ में लिये काम में अपने- आपको भुला देना । मैंने अपने काम का अतिक्रमण करना-दूसरों से मी ज्यादा अच्छा करना, प्रगति करना-उनसे हीं सीखा । मुनाफा ही उनका मुख्य उद्देश्य न था, फिर भी उन्हें अपने व्यवसाय में सर्वोपरि होने का गर्व जरूर था और वे प्रशंसा सुनकर खिल उठते थे ।

 

   इस शताब्दी के आरंभ मे जब अंतर्दहन द्वारा चलनेवाला इंजन आया तो उसकी शक्तियों को देखकर हम छोटे लड़के पागल हों उठे । बिन घोड़े की गाड़ी को, या जिसे आज मोटरकार कहते हैं, बनाना हमारे लिये ऐसा लक्ष्य था जो महानतम प्रयास के योग्य हो । सच तो यह है कि उन दिनों जो इने-गिने नमूने बने थे है भी पूर्णता से बहुत दूर थे  ।

 

   कुछ कल-पुरज़े इकट्ठे किये और उस भानुमति के पिटारे से जो इस काम के लिये नहीं बना था, मैंने पहली मोटर तैयार की । उसने जीवन में मुझे सबसे अधिक प्रसन्नता दी । डगमगाती असुविधाजनक सीट पर बैठकर मैंने अपनी गाड़ी को पिताजी के कारखाने से नगरपालिका तक कुछ सौ गज चलाया । यह लड़खड़ाता, हांफता-कांपता, अजीबो-गरीब यंत्र राहगीरों को डराता था, और उसे देखकर कुत्ते भोंकते और घोड़े बिदकते थे, फिर भी मेरी दृष्टि में इस यंत्र सें बढ़कर सुन्दर कोई और चीज न थी ।

 

   मैं इसके तुरंत बाद की, उन लोगों के द्वेष की बात नहीं कहता जो कहते थे कि भगवान् ने घोड़ा को गाड़ी खींचने के लिये बनाया है , रेल को बनाकर काफी भ्रष्टाचार फैलाया जा चुका है, अब इस पैशाचिक यंत्र को सड़कों और शहरों में भीड़ बढ़ाने के लिये लाने की जरूरत नहीं । ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक थी जो कहते थे कि इन तुनकमिजाज मशीनों के लिये, जिन्हें सिर्फ विशेषज्ञ या सनकी ही संभाल सकते हैं, कोई भविष्य नहीं । कुछ ऐसे साहसी मी निकल आये जिन्होने इस्पात खरोदने और दो-एक कारीगर रखने लायक पैसे उधार दे दिये । इन लोगों में वैसी हीं अंध-श्रद्धा थी जैसी पिछले शताब्दी में अमरीका के सोने की खोज में भागते हुए सनकियों में, जो वीरान और सब तरह प्रतिकूल प्रदेश में अशिक्षित और मृगतृष्णा-सी समृद्धि के पीछे भागते थे ।

 


   मैं पैसे के पीछे दीवाना नहीं था । अभी-अभी बनी मटरों से ज्यादा सुविधाजनक और ज्यादा सस्ती मोटर बना सकने का संतोष ही मेरे लिये पर्याप्त था । मुह्मे कुछ ऐसा लगता था कि यातायात का यह साधन अधिक सस्ता रहेगा, क्योंकि आखिर, उसकी चालक शक्ति को बैठकर नहीं खिलाना होगा । उसमें तेल की तभी जरूरत होगी जेब वह काम करे । अगर इसका दाम कम रखा जा सके तो बहुत-से लोग जो फोड़ों को पालने के स्थायी खर्च से सकुचाते हैं, इसे ले सकेंगे ।

 

   बड़े पैमाने पर गालियां पैदा करने के लिये जिस नमूने का उपयोग हुआ था उसे सब आज भी याद करते हैं । वह पहियों से बहुत ऊंचा था ताकि देहातों की ऊबड़- खाबड़ सड़कों पर चल सके, उसे खूब मजबूत बनाया गया था ताकि अक्खड़ किसान भी उसका उपयोग कर सकें, परंतु जो इसे अभीतक बड़े आदमियों के चोंचले हीं मानते थे, इसकी उपेक्षा करते थे । इस गाड़ी को चलाना बहुत आसान था, उसमें कोई प्रयास न करना पड़ता था । इससे हमें विश्वास हो गया कि शीघ्र हीं अच्छी मोटरों को चलाने के लिये भा विशेषज्ञ की जरूरत न होगी ।

 

  प्रथम महायुद्ध ने हीं मोटर को घोड़े सें आगे बढ़ने का पहला मौका दिया । रोगिवाहक गाड़ियों के लिये, हथियारों के यातायात के लिये, उन सब चीजों के लिये जिन्हें शीघ्र ले जाना था, सब भारी-भारी चीजों के लिये मोटरों की जरूरत हुई । मेरे कारखाने में बहुत ज़ोरों सें काम होने लगा । सेना-विभाग से बढ़ी-बढ़ी मांग आने लगीं जिन्होने मुझे अपने यंत्रों को सुधारने और उत्पादन तथा संयोजन-विधियों को पूर्णता की ओर ले जाने का अवसर दिया ।

 

   महायुद्ध के अंत तक, मेरे पास एक सुव्यवस्थित संस्था थो । लेकिन ऐसा लगता था कि नागरिक आवश्यकताओं की तुलना मे यह बहुत ज्यादा भारी-भरकम थीं । मेरे सहायक घबरा उठे । उन्होंने आग्रह किया कि मै उत्पादन कम कर दूं कर्मचारियों की संख्या घटा दूं सामान भेजनेवालों के दिये झ आम्र रद्द करवा दूं और कुछ समय तक प्रतीक्षा करके देखें कि मांग का प्रवाह किस स्तर पर आकर टिकता हैं । बेशक, ये बुद्धिमानी की बातें थीं; लेकिन दुनिया की सबसे सस्ती मोटर का उत्पादन करने के लिये यह बढ़ा अच्छा अवसर था, ऐसे अवसर बार-बार नहीं आया करते । उत्पादन कम करने का अर्थ होता लागत में वृद्धि । तो मैंने निक्षय  कि हमें बिक्री को देखकर उत्पादन कम नहीं करना चाहिये, बल्कि उत्पादन के अनुसार बिक्री को बढ़ाना चाहिये । छ: महीने की धुआंधार इश्तहारबाज़ी ने मेरी बात को सत्य प्रमाणित कर दिया ।

 

   उसके बाद से मेरी कंपनी मानों अपने-आप आगे बढ्ती गयी । मुझे महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का भार अधिकाधिक अपने सहायकों पर छोड़ना पड़ा, मैं अपने-आप केवल सिद्धता निरूपित करता था । मेरा सिद्धांत था कि अपनी चीजों का स्तर गिराये बिना और मज़दूरों के वेतन कम किये बिना-मैं चाहता था कि मेरे कार्यकर्ता दुनिया

 

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में सबसे अधिक वेतन पानेवाले हों-हमें अपनी चीजें कम-से-कम खर्च पर तैयार करनी चाहिये, कम-से-कम दाम पर बेचने चाहिये, ताकि हमेशा नयी-नयी श्रेणी के ग्राहकों तक पहुंचा जा सके-व्यापार की क्षति कम किये बिना मुनाफा कम करना था, विज्ञापन और प्रचार को इस तरह संगठित करना था कि उत्पादन के खर्च पर ज्यादा डाले बिना अपेक्षित मुनाफा पाना; अंत में, यदि माल देनेवाले हमसे अतिरिक्त मुनाफा लें तो मुझे मशीनरी के भाग, तैयार या आधे तैयार हिस्से तथा कच्चा माल भी अपने-आप तैयार करने में न हिचकिचाना चाहिये ।

 

   मेरा व्यवसाय एक जीवित बढ़ते हुए प्राणी की तरह विकसित होने लगा । मैं जिस चीज में हाथ लगाता उसीमें सफलता मिलती । परिणामस्वरूप, मै पौराणिक गाथाओं के नायक जैसा एक छोटा-मोटा देवता बन गया जिसने एक नयी जीवन-प्रणाली को जन्म दिया, मै एक उदाहरण बन गया जिसका अनुसरण किया जाता था । मेरी किसी भी मामूली बात का, मेरे नगण्य-से कामों का विश्लेषण किया जाता था, उनके बाल की खाल निकाली जाती थी और उन्हें एक वेद-वाक्य के रूप मे जनता के सामने पेश किया जाता था ।

 

इस सबके पीछे कोई सत्य है? मेरा व्यापार आगे बढ़ता जाता है और इसीलिये जीवित है । उसकी प्रगति मे कोई रूकावट उसके लिये सांघातिक होगी । क्योंकि उन्नतिशील व्यवसाय में ऊपरी खर्च उत्पादन के खर्च सें थोड़ा पीछे रहता है, यदि उत्पादन का खर्च उसके बराबर हो जाये तो वह जो थोड़ा-सा मुनाफा रखा जाता हैं, उसे निगल जायेगा । मेरा व्यापार इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि परिपक्वता की ओर बढ़नेवाले स्वस्थ शरीर की अपेक्षा, एक फूला हुआ मुसब्बर लगता है । उदाहरण के लिये, मेरे कुछ विभागों में औरों के साथ कदम मिलाये रखने के लिये मज़दूरों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करना पड़ता है, और जैसे ही इस विभाग में मशीनों मे सुधार करके स्थिति ठीक की जाती है, वैसे हीं किसी दूसरे विभाग में यहीं हाल हो जाता हैं । मै इस मामले में अपने-आपको असहाय-सा पाता हूं, क्योंकि सारी गति मे यदि कहीं मी रुकावट आयी तो कार्यकर्ता की और मी अधिक दुर्दशा हों जायेगी ।

 

   और मैंने मानवजाति को क्या दिया? लोग ज्यादा आसानी से सफर कर सकते हैं । लेकिन क्या वे एक-दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह समश पाते हैं? मेरा अनुसरण करते हुए, जीवन को अधिक सरल बतानेवाली बहुतेरी चीजों को बेह पैमाने पर तैयार करना और अधिक-से-अधिक ग्राहकों तक पहुंचाना शुरू हुआ । लेकिन इसके परिणामस्वरूप क्या नयी-नयी आवश्यकताएं नहीं पैदा की गयीं और उसके साथ-हीं- साथ मुनाफ़े के लिये लोभ नहीं बढ़ता गया? मेरे आदमियों को अच्छा वेतन मिलता है लेकिन ऐसा लगता है कि मै उनमें अधिकाधिक और उससे भी अधिक, अन्य कारख़ानों के लोगों से अधिक कमाने की तृष्णा पैदा करने मे हीं सफल हुआ हूं । मुझे लगता है कि वे असंतुष्ट हैं, दुःखी हैं । मेरी आशाओं के विपरीत, उनका जीवन-स्तर

 

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उठाने से, उनके योग-क्षेम की ठीक व्यवस्था कर देने से उनके अंदर मानव व्यक्तित्व का विकास नहीं हुआ । सच पूछिये तो मनुष्य के दुखों का भार जैसे-का-तैसा हीं बना है, आज मी वह पहले जैसा दुः सह है, और, ऐसा लगता है कि मैंने जो उपाय किये हैं उनसे उसका उपचार नहीं हों सकता । मुझे लगता है कि आधार में ही कोई ऐसी स्व रह गयी है जिसे मेरे उपाय ठीक नहीं कर पाते । इतना हीं नहीं, मै उसे जानता और समझता भी नहीं हूं । मुझे लगता हैं कि कोई रहस्य है जिसका उद्घाटन करना अभी बाकी है; और उसके बिना हमारे सारे प्रयास बेकार हैं ।

 

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व्यायामी

 

    मैं कसरती परिवार में पैदा हुआ था । मेरे मां-बाप खेल-कूद, दौड़-भाग और विभिन्न कसरतों मे निपुण थे । मेरी मां तैराकी, डुबकी, धनुर्विद्या, पटेबाजी और नृत्य में विशेष रूप से कुशल थीं । वह इन चीजों के लिये काफी विख्यात थीं और उन्हें कई स्थानीय पारितोषिक भी मिल चुके थे ।

 

    मेरे पिता एक विलक्षण व्यक्ति थे । वे जिस चीज में हाथ लगाते उसी में सफलता मिलती थीं । है अपने विद्यार्थी-जीवन मे फुटबॉल, बास्केटबॉल और टेनिस के जाने- माने खिलाडी थे । मुष्टि-युद्ध और लंबी दौड़ में वे अपने ज़िले मे सबसे अच्छे थे । फिर, बाद में, एक सरकस-दल में जा मिले और वहां फलांग देखी तथा घुड़सवारी के खेलों में नाम पाया । लेकिन उनकी अपनी विशेषता थी शरीर-गठन (''बॉडी बिल्डिंग' ') और कुश्ती । इनके लिये उन्होंने बहुत ख्याति पायी ।

 

    स्वस्थ, सबल और सक्षम शरीर पाने के लिये ऐसे परिवार में पैदा होना और पलना स्वभावत: एक आदर्श अवस्था थीं । मेरे माता-पिता ने जो शारीरिक उपलब्धिया बड़े कष्ट से परिश्रम कर-कर के पायो थीं, वे मुझे सहज प्राप्त हो गयीं । इसके अतिरिक्त, मेरे व्यायामी माता-पिता मेरे अंदर अपने स्वप्नों की सार्थकता देखना चाहते थे, -वे मुझे एक महान् और सफल व्यायामी के रूप में देखना चाहते थे । अतः उन्होंने मुझे बड़ी सावधानी के साथ पाला, है चाहते थे कि मैं स्वास्थ्य, बल, तेज और ओज प्राप्त कर सकूं । इस विषय में उन्हें जितनी जानकारी थीं, जितना भी अनुभव था, उस सेबका उपयोग मेरे लालन-पालन मे किया; और उन्होंने इसमें कोई कसर न रखी । मेरे जन्म से हीं स्वास्थ्य और स्वास्थ्य-विज्ञान को दृष्टि से भोजन, वक, नींद, सफाई और अच्छी आदतों का यथासंभव पूरा ख्याल रखा गया । उसके बाद व्यवस्थित रूप से कसरतों की बारी आयी जिनके द्वारा मेरे शरीर मे सौष्ठव, उचित अनुपात, शोभा, छंद और सुसंगति लाये गये । फिर तत्परता, फुर्ती, साहस, सतर्कता, यथार्थता और अंग- प्रत्यंग की क्रियाओं में सहयोग लाने की शिक्षा दी, और अंत में शक्ति और सहनशीलता प्राप्त करना सिखाया ।.

 

   मुझे एक छात्रावास में भेजा गया । स्वभावत: मुझे शारीरिक शिक्षण का कार्यक्रम सबसे अधिक पसंद आया । मैंने उसमें खूब रस लेना शुरू किया और कुछ ही वर्षों में मुझे विद्यालय के अच्छे खिलाडियों और व्यायामिकों में स्थान मिलने लगा । मुद्ये पहली बार सफलता मिली जब मै अंतर्विद्यालय मुष्टि-युद्ध प्रतियोगिता में चैम्पियन बना । यह देखकर मेरे मां-बाप कितने प्रसन्न हुए! उन्हें लगा कि उनके स्वप्न चरितार्थ होने लगे हैं । इस सफलता से मुझे बहुत बढ़ावा मिला, और तबसे मैंने पूरी दृढ़ता, बड़े ही यत्न और परिश्रम के साथ शारीरिक शिक्षण की विविध शाखाओं के कौशल का सीखना और उनमें निष्णात होने का प्रयास शुरू कर दिया । मुझे सब प्रकार के खेल-

 


कूद और कसरतों में भाग लेकर शरीर की नाना प्रकार की क्षमताओं को विकसित करना सिखाया गया । मेरा ख्याल था कि शारीरिक शिक्षण की एक व्यापक पद्धति के दुरा आदमी एक से अधिक या यूं कहिये, कई प्रकार की शारीरिक प्रवृत्तियों में बहुत सफल और दक्ष हों सकता है । इसलिये जिस-जिस खेल में मौका मिला, मैंने उस-उस में भाग लिया । मैंने बरसों खुली प्रतियोगिताओं में कुश्ती, मुष्टि-युद्ध भार उठाना, शरीर-गठन, तैराकी, दौड़-भाग, कूद-फांद, टेनिस, कसरत आदि मे नियमित रूप से प्रथम पुरस्कार लिये ।

 

   अब मै अठारह वर्ष का था । मैं खेलों की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेना चाहता था । मैं सर्वांगीण विकास का पक्षपाती था इसलिये मैंने राष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिये डेकैथलन को चूना । यह सबसे अधिक कठिन होता है, - इसमें तेजी, बल, सहनशक्ति और सब अंगों का समन्वय आदि गुणों की बड़ी कड़ी परीक्षा होती है । मैं कठिन अभ्यास के लिये मैदान मे उतर पड़ा और छ: महीने के कठोर परिश्रम के बाद आसानी सै राष्ट्रीय पारितोषिक प्राप्त कर लिया, मेरे बाद का व्यक्ति मुझसे बहुत दूर रह गया था ।

 

   राष्ट्रीय शरीर-शिक्षण संस्था के व्यवस्थापक मेरी सफलता देखकर स्वाभाविक रूप से मुह्मे 'विश्व-आलिम्पिक्स' में भेजने के बारे में सोचने लगे । अगले दो वर्ष के अंदर 'विश्व-ऑलिम्पिक्स' होनेवाली थीं और मुह्मे वहां डेकैथलन में देश का प्रतिनिधित्व करने का निमंत्रण मिला । विश्व-प्रतियोगिता में भाग लेना हंसी-खेल नहीं है, वहां सारे संसार के अच्छे-से-अच्छे खिलाडी इकट्ठे होते हैं । अब समय नष्ट करने का अवसर नहीं था ।

 

  तो मैंने पिताजी के निर्देश और मां की देखभाल में प्रशिक्षण शुरू कर दिया । मुझे बड़ा कठिन परिश्रम करना पड़ता था । कभी-कभी प्रगति असंभव-सी लगती थीं और हर बात कठिन मालूम होती थी । फिर भी मैं दिन-पर-दिन, मास-पर-मास काम पर पिला रहा, और फिर आखिर ' ऑलिम्पिक' के खेलों का दिन आ गया ।

 

   मुझे शेखी नहीं बघारनी चाहिये, पर मैंने अपनी ही आशा से बहुत ज्यादा अच्छा किया । मैं प्रथम तो आया ही, परंतु न मुझसे पहले और न मेरे बाद किसी ने मेरे जितने अंक पाये । यह बात किसी को संभव न लगती थीं । पर हुआ यहीं, और मेरी और माता-पिता की ऊंची-सें-ऊंची महत्त्वाकांक्षा पूरी हो गयी ।

 

  लेकिन मेरे अंदर एक आश्चर्यजनक बात हुई । यद्यपि मै सफलता और यश के शिखर पर था, फिर भी लगा कि मेरे अंदर एक उदासी और एक खोखलेपन का भाव आ खा है; -ऐसा लगता था मानों मेरे अंदर कोई कह रहा ही कि कोई कसर रह गयी है, किसी चीज की खोज करनी होगी, अपने अंदर किसी चीज की प्रतिष्ठा करनी होगी । ऐसा लगता था मानों वही वाणी कह रहीं है : शायद कोई और रोम हो जिसके लिये मेरी शारीरिक दक्षता, क्षमता और ऊर्जा का अधिक अच्छा उपयोग हो सकता है ।

 

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परंतु वह चीज क्या हैं इसका मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था । धीरे-धीरे यह स्थिति चली गयी । इसके बाद भी मैंने बहुत-सी महत्त्वपूर्ण प्रतियोगिताओं मे भाग लिया, और सबमें काफी सफल रहा । परंतु प्रत्येक विजय के बाद यह भावना मुझे जोर से आ अकड़ती थी।

 

मेरी ख्याति के कारण नवयुवकों का एक दल मेरे चारों ओर इकट्ठा हो गया । युवक शारीरिक शिक्षण के भिन्न-भिन्न विषयों मे मेरी सहायता चाहते थे, मैंने बड़ी खुशी से सहायता दी । मैंने देखा कि अपने प्रिय विषय मे, यानी, खेल-कूद, व्यायाम आदि में दूसरों की सहायता करने मे एक आनंद हैं । मै प्रशिक्षक के रूप मे सफल हो रहा था । मेरे कई विद्यार्थी खेल-कूद, व्यायाम आदि मे आश्चर्यजनक सफलता पा रहे थे । शिक्षक-रूप मे अपनी सफलता देखकर और खेल-कूद के लिये अपनी रुचि के कारण (भूखे इतनी रुचि थीं कि मैं इससे संबंध तोड़ना नहीं चाहता था) मैंने सोचा कि मैं इस शिक्षण-कार्य को ही अपने जीवन का ध्येय बना दूर । शारीरिक शिक्षण के सिद्धांत-पक्ष से भी भली-भांति परिचित होने के लिये मैं शारीरिक शिक्षण के एक प्रसिद्ध महाविद्यालय मे भरती हो गया और चार वर्ष मे मैंने वहां की उपाधि भी पा ली ।

 

    अब शारीरिक शिक्षण के सिद्धांत और प्रयोग, दोनों में निपुणता पकार मैं कार्यक्षेत्र में उतर पहा । जबतक मैं केवल व्यायामी था, मेरा मुख्य उद्देश्य था अपने शरीर के लिये स्वास्थ्य, बल, कौशल, शारीरिक सौंदर्य और शारीरिक पूर्णता पाना । अब मैं इसी उद्देश्य को लेकर औरों की सहायता करने लगा । मैंने अपने देश-भर मे प्रशिक्षकों के लिये प्रशिक्षण-केंद्रों की व्यवस्था की और बहुत अच्छे प्रशिक्षक और शारीरिक शिक्षण के निर्देशक तैयार किये । उनकी सहायता से मैंने देश के कोने-कोने में अनगिनत शारीरिक शिक्षा-केंद्र खोली । इन केंद्रों का उद्देश्य था साधारण जनता के अंदर स्वास्थ्य, व्यायाम और मनबहलाव को वैज्ञानिक रूप से लोकप्रिय बनाना । इन केंद्रों ने अपना कौम बढ़ी अच्छी तरह किया और कुछ हीं वर्षों में मेरे देशवासियों का स्वास्थ्य बहुत सुधर गया । देश-विदेश में वे खेल-कूद मे अच्छे परिणाम दिखाने लगे । खेल-कूद की दुनिया मै शीघ्र हीं मेरे देश का नाम चमक उठा । मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि मेरे देश की सरकार ने इस दिशा में मेरी बहुत सहायता की और मुझे मंत्रिमंडल में शारीरिक शिक्षण-मंत्री के रूप में स्थान दिया गया । इसी कारण मैं यह सब कर पाया !

 

   शीघ्र ही मेरा नाम देश-देशांतर में महान शारीरिक शिक्षक और व्यवस्थापक के रूप में फैल गया, और भूखे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शारीरिक शिक्षण के बारे में प्रामाणिक व्यक्ति माना जाने लगा । मुझे बहुत-से देशों में शारीरिक शिक्षण के बारे में बोलने और अपनी पद्धति का परिचय देने के लिये निमंत्रित किया गया । मेरे पास धरती के कोने-कोने से चिट्ठियों की बौछार आने लगी जिनमें मेरी पद्धति के बारे में पूछताछ

 

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होती थी और शारीरिक शिक्षण के क्षेत्र में उन देशों की विशेष समस्याओं के बारे में मेरी सलाह मांगी जाती थीं ।

 

   लेकिन इस सब कार्य-व्यस्तता के बीच मुझे ऐसा लगता था कि मेरी सारी शक्ति और मेरे कौशल, मेरे देश-व्यापी संगठन और उससे मिलनेवाली शक्ति, अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में मेरे जोरदार प्रभाव का शायद कुछ और ऊंचा, कुछ और महान और उदात्ता उद्देश्य हो सकता था और तभी मेरे सब किये-कराये का कुछ अर्थ हों सकता था । लेकिन मुझे अभीतक मालूम नहीं हों पाया कि वह उद्देश्य क्या है ।

 

   मुझे कई बार '' अतिमानव' ' कहा गया है; पर मै अतिमानव नहीं हू । मैं अब भी प्रकृति का दास हूं, मै एक मनुष्य हूं- अज्ञान से भरा, सीमाओं से घिरा, अक्षम, रोगों, दुर्घटनाओं और इच्छा-वासनाओं का शिकार जो मनुष्य को सारी शक्ति से खाली कर देती हैं । मुझे लगता है कि मैं अभीतक इन चीजों से ऊपर नहीं उठ पाया हूं, कोई और ही चीज है जिसे सीखना और पाना है ।

 

   अब, जब कि मौत के साथ आमना-सामना हो रहा हैं, मुझे मौत का जरा भी डर नहीं है । अत्यधिक कष्ट, भूख और प्यास के विचार मुझे नहीं सताते । लेकिन मुझे खेद हैं कि मै अपने जीवनकाल में अपनी समस्या को न सुलझा पाया । मैंने अपने जीवन में बहुत सफलता पायी, ख्याति मान, धन, यानी, मनुष्य जिस-जिस चीज के स्वप्न ले सकता है वह सब मुझे प्राप्त है । पर मैं संतुष्ट नहीं हूं क्योंकि मुझे इन प्रश्रों का कोई उत्तर नहीं मिला : -

 

   ''सब कुछ होते हुए भी वह कौन-सी चीज है जिसे मै नहीं पा सका? मेरी शारीरिक पूर्णता और दक्षता का ऊंचे-से-ऊंचा उपयोग क्या हों सकता था? देश-भर में फेल हुए मेरे संगठन और मेरे अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव का किस उद्देश्य के लिये अच्छे-से- अच्छा विनियोग हो सकता है । ''

 

   (तब अज्ञात व्यक्ति की शांत, मधुर, स्पष्ट, अधिकारपूर्ण और गंभीर आवाज सुनायी देती है ।)
 

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 अज्ञात व्यक्ति

 

     आप लोग जो जानना चाहते हैं, वह मैं आपको बता सकता हूं ।

 

    आप लोगों के कार्यक्षेत्र भित्र-भित्र रहे हैं और कार्य की प्रकृति भिन्न-भिन्न रहीं हैं, फिर मी आप सबके अनुभव एक जैसे हैं । आप छ:-के-छ: बड़े परिश्रम के बाद सफलता प्राप्त करके भी एक ही परिणाम पर पहुंचे हैं । क्योंकि आप चेतना के ऊपरी तल पर रहे हैं और आपने चीजों के बाह्य रूप को हीं देखा है । आप सब विष की वास्तविकता से अनभिज्ञ हीं रह गये ।

 

   आप लोग मनुष्यों मे अभिजात श्रेणी के हैं, आपने अपने-अपने क्षेत्र मे यथासंभव अधिक-से-अधिक सफलता पायी है; अतः आप मानवजाति के मूर्द्धन्य हैं । लेकिन अब मानवजाति के शिखर पर पहुंचकर आगे बढ़ना असंभव हो गया है और आपके सामने एक बड़ी खाई है । आपमें से कोई भी संतुष्ट नहीं है, साथ हीं कोई यह भी नहीं जानता कि अब क्या किया जाये । आपके जीवन और आपकी सद्भावना ने जो दहरी समस्या आपके आगे रखी है उसका आपको कोई हल नहीं दिखता । मैंने कहा, दुहरी समस्या, क्योंकि सचमुच समस्या के दो पहलू हैं--व्यक्तिगत और सामाजिक : अपना और दूसरों का कल्याण कैसे किया जाये? आप लोग इस समस्या को हल नहीं कर पाये हैं, क्योंकि जीवन की यह समस्या आदमी के मन दुरा (चाहे वह कितना भी उन्नत क्यों न हो) हल होनेवाली नहीं है । इसके लिये, हमें एक नवीन और उच्चतर, 'सत्य-चेतना' मे जन्म लेना होगा । क्योंकि इन भागते हुए रूपों के पीछे एक अमर वास्तविकता छिपी हैं, इस निक्षेतना और परस्पर टरकाते हुए बहु के पीछे एक प्रशांत 'चेतना' है, इस अनवरत और असंख्य मिथ्याचार के पीछे एक पवित्र, दीप्तिमान 'सत्य' विद्यमान है, इस अंधकारमय और विद्रोही अज्ञान के र्पाछे सर्वज़यी ज्ञान है ।

 

    और यह 'वास्तविकता', यह 'सद्वस्तु' मौजूद है, बहुत हीं नजदीक है, आपकी सत्ता के ओर इस विश्व की सत्ता के केंद्र में मौजूद है । आपको सिर्फ इसी सत्ता को खोजना होगा और उसे अपने जीवन में मूर्त करना होगा और तब आप सारी समस्याएं हल कर सकेंगे, सब विघ्न-बाधाओं को पार कर सकेंगे ।

 

आप शायद कहें कि यहीं बात तो नाना धर्मों ने कही है : अधिकतर ने इस 'सद्वस्तु' को भगवान् का नाम दिया है, परंतु उनमें से कोई मी आपकी समस्या का संतोषजनक हल नहीं कर सका और न आपको आपके प्रश्रों का समुचित उत्तर दे पाया है, और है आर्तता मानवजाति के दुःख-दर्द को दुरा करने के प्रयास में पूरी तरह असफल हुए हैं ।

 

    इनमें से कुछ धर्म संतों दुरा सुनी गयी आंतरिक वाणी पर आधारित हैं, कुछ दार्शनिक और आध्यात्मिक आदर्श की भित्ति पर खड़े हैं, परंतु शीघ्र हीं आंतरिक वाणी का स्थान ले लेते हैं आचार-व्यवहार और कर्मकांड तथा दार्शनिक आदर्श का स्थान

 


कदूर मान्यताएं ले लेती हैं, और उनके अंदर का सत्य इस तरह गायब हों जाता है । इसके अलावा, सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रायः विना अपवाद के, इन धर्मों ने मनुष्य को प्रायः एक हीं प्रकार का समाधान दिया है और वह इहलोक को छोड़कर परलोक की ही बात करता है, मानों उनका समाधान जीवन पर नहीं मृत्यु पर आधारित हैं । उनका कहना कुछ-कुछ इस प्रकार का है : अपनी मुसीबतों को चुपचाप सहते जाओ, क्योंकि यह जगत् असाध्य रूप सें पापमय है, और तुम्हें मृत्यु के बाद इसका पुरस्कार मिलेगा; या वे कहते हैं : जीवन से सब प्रकार की आसक्ति छोड़ दो और तुम जीवित रहने की कठोर आवश्यकता से सदा के लिये मुक्त्ति हो जाओगे । निक्षय हीं ये हल धरती पर मनुष्य के दुःख-दर्द के लिये अथवा संसार की साधारण अवस्था के लिये कोई इलाज नहीं हैं । इसके विपरीत, यदि हमें संसार की इस विह्वलता, अव्यवस्था और दुर्दशा का कोई सच्चा इलाज ढूंढना हैं तो इसे इस धरती पर ही पाना होगा । और वस्तुत: यह समाधान यहीं मौजूद हैं, अंतर्निहित हैं, सिर्फ उसे ढूंढ निकालना होगा; वह रहस्यमय या काल्पनिक नहीं है; वह एक ठोस वास्तविकता है और यदि हम ठीक तरह निरीक्षण करना जानें तो पता लगेगा कि स्वयं प्रकृति ने हीं उसे यहां प्रस्तुत किया है । क्योंकि प्रकृति की गति ऊर्ध्वमुख हैं; वह एक ऐसे रूप, एक ऐसी जीव-श्रेणी के सृजन के लिये प्रयत्नशील है जो विश्व-चेतना को अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकें । इस सबसे यही प्रमाणित होता है कि धरती के विकास-क्रम में मनुष्य हीं अंतिम सीढ़ी नहीं है । मनुष्य के बाद निक्षय ही एक ऐसी जाति आयेगी जो मनुष्य के लिये वैसी हीं होगी जैसे मनुष्य पशु के आगे; मनुष्य की वर्तमान चेतना के जगह एक नयी चेतना आयेगी जो मानसिक नहीं, अतिमानसिक होगी । और यह चेनना एक अधिक उन्नत, अतिमानस और भागवत जाति को जन्म देगी ।

 

   अब समय आ गया है जब यह संभावना जिसे आर्ष-दृष्टि ने युगों पहले देखा था और जिसके बारे मे आदेश भी हो चुका है, वह धरती पर मूर्त रूप ले ले, और इसीलिये आप लोग इतने असंतुष्ट हैं और आपको लगता है कि आपने जीवन से जिस चीज की मांग की थीं वह नहीं मिली । पृथ्वी जिस अंधकार में द्वि हुई है उसमें से निकालने के लिये चेतना में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता हैं । सच पूछिरो तो चेतना का यह रूपांतर, एक उच्चतर और सत्यतर चेतना की अभिव्यक्ति केवल संभव हीं नहीं है, अनिवार्य है; वही हमारे जीवन का लक्ष्य और पार्थिव जीवन का रहस्य है । पहले चेतना का, फिर प्राण का और उसके बाद शरीर का रूपांतर करना होगा; नवीन सृष्टि इसी क्रम सें होगी । प्रकृति की भी क्रियाएं, जीवन का उस 'परम वास्तविकता' की ओर धीरे-धीरे वापिस ले जा रही हैं जो समग्र विश्व और उसके अणु- परमाणु का लक्ष्य और स्रोत हैं । हम सार-रूप में जो हैं वही स्थूल रूप में मी बनना होगा; जो सत्य, सौंदर्य, शक्ति और पूर्णता हमारी सत्ता की गहराई में निहित हैं उन्हें

 

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समग्र भाव से जीवन में उतारना होगा, और तब सारा जीवन ही उस महान् शाश्वत और दिव्य ' आनंद' की अभिव्यक्ति हो उठेगा ।

 

   (सब लोग चुपचाप एक-दूसरे की ओर देखते हैं और सहमति प्रकट  करते है !  फिर:)

 

लेखक- आपकी वाणी में एक मंत्र-शक्ति है, एक जादुई बल है । हां, हमें लगता है कि हमारे लिये एक नया दरवाजा खुल गया है, हमारे हृदयों में एक नयी आशा ने जन्म लिया हैं । लेकिन उसे सिद्ध करने में समय लगेगा, शायद अभी बहुत समय की जरूरत हो । परंतु अब तो मृत्यु नजदीक हैं, हमारा अंत आ पहुंचा हैं । खेद है कि अब बहुत देर हो चुकी ।

 

अज्ञात व्यक्ति-नहीं, बहुत देर नहीं हुई, ऐसी देर कभी नहीं हुआ करती ।

 

हम सब अपनी संकल्प-शक्ति को एकत्र करके, एक महान् अभीप्सा के साथ भागवत 'कृपा' से प्रार्थना करें । चमत्कार किसी भी समय हों सकता है । श्रद्धा में बढ़ी शक्ति होती है । और अगर सचमुच भविष्य में होनेवाले महान कार्य में हमारे लिये कोई स्थान हैं तो भागवत सहायता आयेगी और हमारे जीवन की रक्षा करेगी । आइये, हम एक संत की नम्रता, एक शिशु की सरलता के साथ प्रार्थना करें; पूरी सच्चाई से उस नयी 'चेतना', उस नयी 'शक्ति', उस ' सत्य ' और उस 'सौंदर्य' का आवाहन करें जिसका अवतरण इस धरती पर रूपांतर करने के लिये, और यहां, इस पार्थिव जगत् में अतिमानस-जीवन सिद्ध करने के लिये जरूरी है ।

 

  (सब लोग एकाग्रचित्त होते हैं अज्ञात व्यक्ति बोलता है :)

 

  ''हे 'परम सत्य', हमने जिस उत्तम रहस्य को जाना है उसे समग्र सत्ता के जीवन में उतार सकें । ''

 

 (सब मिलकर यह प्रार्थना करते हैं फिर नीरव ध्यान करते हैं अचानक कलाकार चिल्ला पड़ता है :)

 

 देखो! देखो!

 

   (दूर क्षितिज ले एक बिंदु क्वे समान पक जहाज आता हुआ दिखायी देता है  सबको आश्चर्य होता है :)

 

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अज्ञात व्यक्ति-हमारी प्रार्थना सुन लीं गयी ।

 

    जब जहाज अच्छी तरह दिखायी देने लगता हैं तो व्यायामी उठकर खड़ा हो जाता है और जेब से सफेद रूमाल निकालकर जोर से हिलता है  जहाज और नजदीक आत ? जाता है वैज्ञानिक चिल्ला उठता है)

 

 उन लोगों ने हमें देख लिया हैं । बे हमारी ओर आ रहे हैं !

 

 अज्ञात व्यक्ति-(धीरे-धीरे) यही हैं मुक्ति, यही है नवजीवन!

 

(परदा गिरता है)

 

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