Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
मन की शिक्षा
सब प्रकार की शिक्षाओं मै सबसे अधिक प्रचलित हैं मन की शिक्षा । तो भी कुछ एक अपवादों को छोड्कर, साधारणत:, इसमें ऐसे छिद्र रह जाते हैं जो इसे बहुत हीं अपूर्ण और अंत में एकदम निरर्थक बना देते हैं ।
मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि शिक्षा का अर्थ लोग समह्मते हैं मन की आवश्यक शिक्षा । बच्चे को कुछ वर्ष एक कठोर शिक्षा पद्धति के अनुसार शिक्षा दे चुकने पर, जो उसके मस्तिष्क को प्रबुद्ध करने की अपेक्षा कहीं अधिक उसमें ज्ञान- सामग्री को दंभ देती है, हम समझ लेते हैं कि उसके मानसिक विकास के लिये जो कुछ करम आवश्यक था वह पूरा हो गया । पर बात ऐसी नहीं है । अगर शिक्षा समुचित मात्रा मैं और विचार-विमर्श के साध मी दी जाती है और वह मस्तिष्क को कोई हानि नहीं पहुंचाती तो भी वह मानव मन को वे सब क्षमताएं नहीं दे पाती जो उसे एक अच्छा और उपयगी यंत्र बनाने के लिये आवश्यक है । साधारणतया जो शिक्षा बच्चों को दी जाती हे वह, अधिक-से-अधिक, शारीरिक व्यायाम की तरह मस्तिष्क की नमनीयता को बढ़ा सकतीं है । इस दृष्टिकोण से देखें तो, मानवी विद्या की प्रत्येक शाखा ही एक विशेष प्रकार का मानसिक व्यायाम होती है, और इन सब शाखा- प्रशाखाओं मे सें प्रत्येक के अंदर जिस शब्दावलि का प्रयोग किया जाता है वह उस शाखा की अपनी विशेष और सुशिक्षित भाषा होती है ।
मन की सच्ची शिक्षा के, उस शिक्षा के जो मनुष्य को एक उच्चतर जीवन के लिये तैयार करेगी, पांच प्रधान अंग हैं । साधारणतया ये अंग एक के बाद एक आते हैं, पर विशेष व्यक्तियों मे बे अदल-बदल कर या एक साथ भी आ सकते हैं । वे पांचों अंग, .संक्षेप मे, इस प्रकार हैं :
१. एकाग्रता की शक्ति का, मनोयोग की क्षमता का विकास करना ।
२. मन को व्यापक, विशाल, बहुविध और समृद्ध बनाने की क्षमताओं विकसित करना।
है. जो केंद्रीय विचार या उच्चतर आदर्श या परमोल्लल भावना जीवन मे पथ- प्रदर्शन का काम करेगी उसे केंद्र बनाकर समस्त विचारों को सुसंगठित, व्यवस्थित करना ।
४. विचारों को संयमित करना, अनिष्ट विचारों का त्याग करना, ताकि मनुष्य अंत में, जैसा चाहे वैसा और जब चाहे तब कर सकें ।
५. मानसिक निश्रित का, परिपूर्ण शांति का और सत्ता के उच्चतर क्षेत्रों से आनेवाली अंत:प्रेरणाओं को अधिकाधिक पूर्णता के साथ ग्रहण करने की क्षमता का विकास करना ।
शिक्षा के इन अंगों को कार्यान्वित करने के लिये मित्र व्यक्तियों के लिये जिन
पद्धतियों का व्यवहार किया जा सकता हैं उन सबका पूरा ब्योरा देना तो यहां संभव नहीं है, पर फिर भी कुछ व्याख्यात्मक सूचनाएं दी जा सकतीं हैं।
यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकतीं कि बच्चे की मानसिक उन्नति को जो चीज सबसे अधिक बाधा पहुंचाती है वह है उसके विचारों का निरंतर विक्षिप्त होते रहना । बालक का विचार तितली की तरह इधर-उधर उड़ता रहता बे और उसे एकाग्र करने के लिये उसे अपनी ओर से महान प्रयास करने की आवश्यकता होती है । फिर भी यह क्षमता उसमें गुप्त रूप सें विद्यमान है । क्योंकि जब तुम किसी चीज मे उसकी दिलचस्पी पैदा कर पाते हों तब वह काफी हद तक ध्यान जमाने मे समर्थ हो जाता हैं । अतएव, यह शिक्षा की चतुराई पर निर्भर करता है कि वह धीरे-धीरे बच्चे के अंदर ध्यान जमाने के लिये निरंतर एक समान प्रयास करने और कोई कार्य करते समय उसमें अधिकाधिक पूर्णता के साथ डूब जाने की क्षमता और योग्यता पैदा करे । ध्यान एकाग्र करने की इस क्षमता को विकसित करनेवाले सभी साधन अच्छे हैं; आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार खेल से आरंभ कर पारितोषिक तक, सभी काम मे लायी जा सकते हैं । पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण चीज है मनोवैज्ञानिक क्रिया । सर्वप्रथम साधन यह है कि जो चीज हम बच्चे को सिखाना चाहते हैं उसमें उसकी दिलचस्पी उत्पन्न कर दें, कार्य करने की रुचि, उन्नति करने की इच्छा जगा दें । बच्चे को देने योग्य सबसे मूल्यवान उपहार यहीं है कि हम उसमें सीखने का अनुराग, सर्वदा और सर्वत्र सीखने का अनुराग पैदा कर दें ताकि उसके लिये जीवन की सभी परिस्थितियां, सभी घटनाएं अधिक और सदा अधिकाधिक सीखते रहने के लिये नित्य नवीन अवसर बन जायें ।
इसके लिये सजगता और एकाग्रता के अतिरिक्त निरीक्षण, यथार्थ अंकन तथा विश्वस्त स्मरणशक्ति भी पैदा करनी चाहिये । निरीक्षण की क्षमता का विकास विभिन्न प्रकार के और स्वाभाविक अम्यासों के द्वारा, बच्चे के विचार को सजग, सतर्क और स्फूर्तिमान बनाये रखने मे सहायता देनेवाले सभी सुअवसरों का उपयोग करके किया जा सकता है । स्मरण-शक्ति की अपेक्षा उसकी बोध-शक्ति को बढ़ाने पर बहुत अधिक बल देना चाहिये । मनुष्य केवल वही जानता हैं जिसे वह समझता है । जो चीज मनुष्य यंत्र की तरह रट लेता हैं वह धीरे-धीरे धुंधली होती जाती है और अंत मे विलीन हो जाती है । जो कुछ तुम समझ जाते हो उसे तुम कभी नहीं भूलते । कोई भी चीज कैसे और क्यों होती है यह बच्चे को समझाने में तुम्हें कभी आनाकानी नहीं करनी चाहिये । अगर तुम स्वयं न समझा सको तो तुम्हें उसे किसी ऐसे व्यक्ति के पास भेज देना चाहिये जो उसका उत्तर देने योग्य ज्ञान रखता हो अथवा उस प्रश्र से संबंध रखनेवाली पुस्तकें दे देनी चाहिये । बस, इसी तरह तुम धीरे-धीरे बच्चे में सच्चे अध्ययन की रुचि तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिये अथक यत्न करने की आदत जगा सकते हो ।
इस तरह स्वभावत: हम विकास के दूसरे स्तर में आ जायेंगे जहां पर मन अपने को विस्तारित और समृद्ध बनायेगा ।
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जैसे-जैसे बच्चा उन्नति करे वैसे-वैसे तुम उसे यह दिखलाओगे कि किस प्रकार प्रत्येक चीज अध्ययन का सुन्दर विषय बन सकतीं है, बशर्ते कि प्रश्र पर ठीक ढंग से विचार किया जाये । प्रत्येक दिन, प्रत्येक मुहूर्त का जीवन समस्त पाठशालाओं से बढ़कर होता है; वह होता हैं बहुविध और जटिल, अदृष्टपूर्व अनुभवों से, समाधान के लिये प्रस्तुत समस्याओं से, स्पष्ट और प्रभावक उदाहरणों से तथा प्रत्यक्ष परिणामों से भरा-पूरा । अगर तुम बच्चों के पूछे हुए असंख्य प्रश्रों का बुद्धिमानी तथा स्पष्टता के साथ उत्तर दे सको तो उनमें बड़ी आसानी से एक स्वस्थ-सुन्दर खोज की वृत्ति जगायी जा सकतीं हैं । कोई भी मजेदार उत्तर अपनी शृंखला में अन्यान्य चीजों को खींच ले आता है और बच्चा, अपना ध्यान आकृष्ट होने के कारण, बिना किसी प्रयास के बहुत अधिक, पाठशाला में बैठकर साधारणतया जो कुछ सीखता है उससे बहुत अधिक सीख जाता है । सावधानी तथा बुद्धिमानी के साथ पुस्तकों का चुनाव करने से भी बच्चे मे लाभदायी चीजें पढ़ने की रुचि उत्पन्न होती है जो एक साथ ही शिक्षाप्रद और आकर्षक होती है । तुम्हें ऐसी किसी चीज से डरना नहीं चाहिये जो बच्चे की कल्पना-शक्ति को जगाती और संतुष्ट करती है; कल्पना हीं वह चीज हैं जो सर्जनशील मानसिक वृत्ति को विकसित करती तथा यहीं वह चीज है जो अध्ययन को एक सजीव वस्तु बना देती है और जिससे मन आनंद के साथ वर्द्धित होता है ।
मन की नमनीयता और विशालता बढ़ाने के लिये हमें केवल अनेक और बहुविध विषयों के अध्ययन की ओर हीं नहीं, बल्कि, विशेषकर, एक हीं विषय पर विभिन्न दिशाओं से विचार करने की ओर ध्यान देना चाहिये । ऐसा करने से बालक व्यावहारिक तरीके से यह समझ जायेगा कि एक हीं बौद्धिक समस्या का सामना, निपटारा तथा समाधान करने के बहुतेरे रास्ते हैं । इस तरह उसका मस्तिष्क सब प्रकार की कठोरता से मुक्त हो जायेगा और, साथ-हीं-साथ उसकी चिंतनशक्ति अधिक समृद्ध तथा नमनीय हों जायेगी और कहीं अधिक बहुमुख एवं व्यापक समन्वय के लिये तैयार हो जायेगी । इस तरीके सें बच्चे मे यह भाव मी भरा जा सकता है कि मानसिक ज्ञान अत्यंत आपेक्षिक वस्तु है और फिर धीरे-धीरे ज्ञान के एक अधिक सच्चे उद्गम के लिये उसमें अभीप्सा जगायी जा सकती है !
निःसंदेह, जैसे-जैसे बच्चा अपने अध्ययन मे अग्रसर होता है और उम्र मे बड़ा होता है, वैसे-वैसे उसका मन भी परिपक्व होता है और सामान्य भावनाओं को ग्रहण करने में अधिकाधिक सक्षम होता हैं; और फिर, इसके साथ-साथ सदैव निञ्जयात्मक भाव की आवश्यकता उत्पन्न हों जाती हैं, एक ज्ञान की आवश्यकता महसूस होती हैं जो इतना अधिक स्थायी हों कि उसे आधार बनाकर एक मानसिक रचना तैयार की जा सकें-ऐसी रचना तैयार की जा सके जो मस्तिष्क मे एकत्र हुई सभी भिन्न और अस्त- व्यस्त और बहुधा विरोधी भावनाओं को सुव्यवस्थित तथा क्रमबद्ध करने दे । निक्षय हीं, यदि हम अपने विचारों की अस्तव्यस्तता से बचना चाहें तो उन्हें इस प्रकार क्रमबद्ध
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करना बहुत ही आवश्यक हैं । सभी विरोधी चीजें प्रतिपूरक चीजों मे रूपांतरित हो सकती हैं; पर उसके लिये हमें एक ऐसी उच्चतर भावना को ढूंढ निकालना होगा जो उन्हें सुसमंजस बनाने मे समर्थ हो । यह सदा हीं अच्छा है कि सभी समस्याओं पर संभाव्य सभी दृष्टिकोणों से विचार किया जाये ताकि पक्षपात और संकीर्णता से बचा जाये; पर अगर हमारे विचार का सक्रिय और सृष्टिक्षम होना हो तो उसे, प्रत्यय) क्षेत्र मे, गृहीत सभी दृष्टिकोणों एक स्वाभाविक और युक्तिसंगत समन्वय होना चाहिये । अगर तुम्हें अपने सभी विचारों को एक साथ शक्तिशाली तथा निर्माणकारी शक्ति का रूप देना हों ती तुम्हें अपने मानसिक समन्वय की केंद्रीय भावना को चुनने मे बहुत सावधानी रखनी चाहिये; क्योंकि उसी के अपर तुम्हारे समन्वय का मूल्य निर्भर करेगा । जितनी हीं ऊंची और विशाल तुम्हारी केंद्रीय भावना होगी और जितनी ही अधिक वह विश्वजनीन होगी, काल और देश से ऊपर उठी हुई होगी, उतनी हीं अधिक और जटिल भावनाओं, धारणाओं और विचारों को वह सुव्यवस्थित और सुसमंजस बनाने मैं समर्थ होगी ।
कहने की आवश्यकता नहीं कि व्यवस्थित करने का कार्य तुरत पूरा-का-पूरा नहीं किया जा सकता । मन को, अगर उसे अपने बल और यौवन को बनाये रखना है तो, नित्य-निरंतर उन्नत होना होगा, सभी नये-नये ज्ञानों के प्रकाश मे अपनी मान्यताओं को सुधारते रहना होगा, नयी मान्यताओं को शामिल करने के लिये अपने क्षेत्र का बढ़ाना होगा और इसके लिये अपने विचारों को फिर से श्रेणीबद्ध और सुसंगठित करना होगा ताकि उनमें से प्रत्येक विचार को, दूसरों के साथ उसके संबंध को देखते हु (र, अपना समुचित स्थान प्राप्त हो और इस तरह समूचा विचार-समुदाय सुसमंजस और सुव्यवस्थित हो जाये ।
परंतु हमने अबतक जो कुछ कहा है वह सब चिंतनशील मन से संबंध रखता ३७, उस मन से संबंध रखता है जो ज्ञान प्राप्त करता है । पर ज्ञानार्जन मानसिक कार्य का केवल एक अंग है; कम-से-कम इतना हीं प्रधान दूसरा अंग है रचनात्मक वृत्ति, रूप देखने की क्षमता और इसलिये कार्य के लिये तैयारी करने को क्षमता । मानसिक कार्य के इस अंश को, यद्यपि यह है बहुत हीं महत्त्वपूर्ण, बहुत कम लोगों ने ही विशेष अध्ययन या अनुशीलन का विषय बनाया हे । केवल वही लोग जो किसी कारणवश अपनी मानसिक क्रियाओं पर कठोर नियंत्रण करना चाहते हैं, इस रचनात्मक वृत्ति का निरीक्षण और अनुशासन करने की बात सोचते हैं; और फिर, जब वे इसके लिये प्रयास करने लगते हैं तब ऐसी महान् कठिनाइयां उनके सामने खड़ी हो जाती हैं जो अलंध्य प्रतीत होती हैं ।
फिर भी फन की इस रचनात्मक किया के ऊपर संयम स्थापित करना आत्म- शिक्षण का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है; यहांतक कहा जा सकता है कि इसके बिना किसी मी प्रकार का मानसिक प्रभुत्व पाना संभव नहीं । अध्ययन का जहांतक संबंध
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हैं, सभी विचार स्वीकार करने योग्य हैं और उन सबको उस समन्वय के अंदर ले आना चाहिये जिसका कार्य ही होगा अधिकाधिक समृद्ध और बहुविध होना; पर कार्य का जहांतक संबंध है, बात इससे एकदम भिन्न होगी । जिन विचारों को हम स्वीकार करेंगे उन्हें कार्य रूप मे परिणत करने के लिये हमें उनपर कठोर संयम स्थापित करना होगा । हमारे मानसिक समन्वय के आधारभूत केंद्रीय विचार का साधारण झुकाव जिस ओर हो, उसी के साथ मेल खानेवाली भावनाओं को हमें कार्य रूप मे अभिव्यक्त होने देना चाहिये । इसका अर्थ होता है कि हमारी मानसिक चेतना में में जो भी विचार प्रवेश करे उसे हमें केंद्रीय भावना के सामने ला रखना चाहिये । और अबतक एकत्र किये हुए विचारों के बीच में अगर उस विचार को अपना समुचित स्थान -प्राप्त हो जाये तो उसे समन्वय के अंदर शामिल करना चाहिये; अगर उसे अपना समुचित स्थान प्राप्त न हो तो उसे बाहर फेंक देना चाहिये ताकि वह कार्य के अपर कोई भी प्रभाव न डाल सके । मानसिक पवित्रीकरण का यह कार्य खूब नियमित रूप से करना चाहिये और तभी अपने कार्य के ऊपर हमारा पूर्ण अधिकार सुरक्षित रह सकता है ।
इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये उत्तम यह है कि थोड़ा-सा समय दैनिक रूप में नियत रखा जाये जब हम अपने विचारों को चुपचाप देखें और अपने समन्वय के भीतर यथास्थान सजाकर रखें । एक बार जहां इस बात की आदत पड गयी कि फिर तुम अपने विचारों के अपर, कार्यादि के भीतर भी, संयम बनाये रख सकोगे और इस योग्य हो जाओगे कि जो -कार्य तुम कर रहे हो उसके लिये जो विचार उपयोगी नहीं हैं उन्हें सामने न आने दो । विशेषकर, यदि सजगता और एकाग्रता की शक्ति को बढ़िया जाये तो, हमारी बाह्य सक्रिय चेतना केवल उन्हीं विचारों को आने देगी जिनकी आवश्यकता होगी और तब है सब-के-सब अधिक शक्त्ति-संपन्न और फलोत्पादक हो जायेंगे । और अगर, एकाग्रता तीव्र हो जाने पर, यह आवश्यक हो कि चिंतन बिलकुल किया हीं न जाये, तो समस्त मानसिक प्रकंपन बंद करके प्रायः पूर्ण निकल-नीरवता प्राप्त की जा सकती है। इस निक्षल-नीरवता के अंदर मनुष्य धीरे- धीरे उच्चतर मानस क्षेत्रों की ओर खुल सकता है और वहां से जो अतःप्रेरणाएं आती हैं उन्हें स्मरण रखना सीख सकता है ।
परंतु इस अवस्था के प्राप्त होने से पहले भी निक्षल-नीरवता अपने-आपमें अत्यंत उपयोगी चीज हैं । जिन लोगों का मन कुछ विकसित और क्रियाशील होता है उनमें से अधिकांश का मन कभी शांत नहीं रहता । दिन के समय, उसकी क्रिया पर एक प्रकार का संयम रहता है; पर रात के समय, शरीर की निद्रा की अवस्था में, जाग्रत् अवस्था के संयम के प्रायः संपूर्ण रूप मे हट जाने पर, मन अत्यधिक क्रियाशील हो जाता है और उसकी सारी क्रियाएं बहुधा असंबद्ध होती हैं । इसके कारण मन पर एक प्रकार का जोर पड़ता है जो अंत में थकावट ले आता है और मानसिक शक्तियों को कम कर देता है ।
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असली बात यह है कि मानव सत्ता के अन्य सभी भागों की तरह मन को भी विश्राम की आवश्यकता होती है ओर उसे यह विश्राम तबतक नहीं मिल सकता जबतक कि हम यह न जान लें कि यह दिया कैसे जाता है । अपने मन को विश्राम देने की कला एक ऐसी चीज है जो हमें अवश्य आयत्त करनी चाहिये । मन को विश्राम देने का एक तरीका है मन के कार्य को बदलते रहना; परंतु सबसे अधिक विश्राम की संभावना विद्यमान हैं निक्षल-नीरवता के अंदर । जहांतक मानसिक तृतीयों का संबंध है , निक्षल-नीरवता की शांति मे कुछ मिनट बिताने का अर्थ होता है घंटों सोने की अपेक्षा कहीं अधिक लाभदायी विश्राम लेना ।
जब हम अपनी इच्छानुसार मन को निक्षल-नीरव बनाना और ग्रहणशील निक्षल- नीरवता में उसे एकाग्र करना सीख जायेंगे तब ऐसी कोई समस्या नहीं रह जायेगी जिसे हम हल न कर सकें, कोई ऐसी मानसिक कठिनाई नहीं रह जायेगी जिसका कोई समाधान न प्राप्त हो जाये । जब विचार चंचल होता है तब वह अस्त-व्यस्त और शक्तिहीन हो जाता है; सजग शांति के अंदर ही ज्योति प्रकट हो सकतीं है और मनुष्य की क्षमताओं के नवीन क्षेत्रों को उद्युक्त कर सकतीं है ।
('बुलेटिन', नवम्बर १९५१)
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