CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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न्यू एज ऐसोसियेशन (नव युग संघ)

 

     नव युग संघ की स्थापना 'श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-केन्द्र' की उच्चतर कक्षाओं' के विधार्थियों के विचारों की अभिव्यक्त करने के लिये एक मंच के रूप मे १९६४ मे की गयी थी

 

    हर सम्मेलन के विषय पर नीचे कुछ संकेत-चिड़ दिये गये हैं पाठक उन्हें ध्यान में रखें:

 

(ग) - माताजी का दिया हुआ विषय

(घ) - प्रस्तावित विषयों मैं ले माताजी के दुरा चूना हुआ विषय;

(ङ)- माताजी के द्वारा विषय

 

  एक खुली बातचीत, जहां हर एक जो सोचता या अनुभव करता है उसे अभिव्यक्त कर सकता है ।

 

(१९६४)

 

*

 

उद्घाटन समारोह (१२-७-१९६४)

 

   यह कभी न मानो कि तुम जानते हो ।

   हमेशा ज्यादा अच्छी तरह जानने की कोशिश करो ।

   आशीर्वाद ।

 

(१२-७-१९६४)

 

*

 

 पहला सम्मेलन (९-८-१९६४)

 

     सामान्य मानसिक क्रिया-कलाप के पार जाने का सबसे अच्छा तरीका क्या है ? (ग)

 

 मेरा उत्तर है : चुप रहो ।

 

दूसरा सम्मेलन (२२-११-१९६४)

 

   'दिव्य जीवन' के लिये अपनी अभीप्सा मे स्थिर और सच्चे कैसे हों । (ग)

 

 'दिव्य जीवन' को प्राप्त करने लायक सबसे महत्त्वपूर्ण चीज मानो ।

 

*

 

 तीसरा सम्मेलन (१४-२-१९६५)

 

     कार्य के आवेगों में 'सत्य' और मिथ्यात्व के बीच फर्क कैसे करें । (ग)

 

 जो लोग अंधकार और मिथ्यात्व की शक्तियों पर 'सत्य' की ज्योति के विजयी होने मे सहायता करना चाहते हैं वे अपनी गतिविधि और क्रिया को शुरू करनेवाले आवेगों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करके, और उनके बीच भेद करके, जो 'सत्य' से आते हैं

 

२७५


और जो मिथ्यात्व सें आते हैं उनमें से पहले को स्वीकार और दूसरे को अस्वीकार करके ऐसा कर सकते हैं ।

 

   धरती के वातावरण मे 'सत्य की ज्योति ' के ' आगमन' के पहले प्रभावों मे से एक है- यह विवेक शक्ति ।

 

वास्तव में 'सत्य की ज्योति' दुरा लिये हुए इस विवेक के विशेष उपहार को पाये बिना, 'सत्य' के मनोवेगों और मिथ्यात्व के मनोवेगों में फर्क करना बहुत कठिन है । फिर भी, आरंभ में सहायता करने के लिये, तुम यह निर्देशक नियम बना सकते हो कि जो-जो चीजें शांति, श्रद्धा, आनंद, सामंजस्य, विशालता, एकता और उठता हुआ विकास लाती हैं वे 'सत्य' से आती हैं; जब कि जिन चीजों के साथ बेचैनी, संदेह, अविश्वास, दुःख, फूट, स्वार्थपूर्ण संकीर्णता, जड़ता, उत्साहहीनता और निराशा आयें वे सीधी मिथ्यात्व सें आती हैं ।

 

(२२ -१ -१९६५)

 

*

 

 चौथा सम्मेलन (२५-४-१९६५)

 

    अपने अध्ययन को साधना का साधन कैसे बनाया जाये? (घ)

 

*

 

 पांचवा सम्मेलन (८-८-१९६५)

 

     अपनी कठिनाइयों को प्रगति के अवसरों में कैसे बदला जाये? (घ)

 

*

 

 छठा सम्मेलन (२१-११-१९६५)

 

  १ -मानवजाति की प्रगति का सबसे अच्छा उपाय कौन-सा है'? (ड)

  २ -सच्ची स्वाधीनता क्या हैं और उसे कैसे पाया जाये ? (ङ)

 

१ -स्वयं प्रगति करना ।

२ -(क) अहं से मुक्ति ।

     (ख) अहं से छुटकारा पा कर ।

 

(१३-१०-१९६५)

 

*

 

२७६


सातवां सम्मेलन (२०-२-१९६६)

 

   'सत्य' की सेवा कैसे की जाये? (डा)

 

*

 

 आठवां सम्मेलन (६४-८-१९६६)

 

    मनुष्य की नियति क्या हैं? (घ)

 

*

 

 नवां सम्मेलन (२७-९१-१९६६)

 

       सच्चा प्रेम क्या हैं , उसे कैसे पाया जाये? (घ)

 

 क्या तुम जानते हो कि सच्चा प्रेम क्या हैं?

 

   सच्चा प्रेम केवल एक हीं है, भगवान् का प्रेम जो मनुष्यों मे भगवान् के लिये प्रेम मे बदल जाता है ।

 

   क्या हम कह सकते हैं कि भगवान् का स्वभाव हैं 'प्रेम'?

 

*

 

 यह प्रश्र २९६६ के नये वर्ष के संदेश से संबंध रखता हैं

 

     ''आओ, हम 'सत्य' की सेवा करें ।"

 

२७७


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 दसवां सम्मेलन (१९-२-१९६७)

 

     'चुनाव' अनिवार्य क्यों है ?' (घ)

 

क्योंकि जैसा श्रीअरविन्द ने कहा हैं, हम एक ''भागवत मुहूर्त' ' में हैं- और संसार के रूपांतरकारी विकास ने तेज और तीव्र गति अपना ली हैं ।

 

*

 

 ग्यारहवां सम्मेलन (३०-४-१९६७)

 

     इस समय की आवश्यकता क्या है? (घ)

 

सचाई (निष्कपटता) ।

 

   भगवान् को धोखा देने की कोशिश न करो ।

 

*

 

 बारहवां, सम्मेलन (१३-८-१९६७)

 

    श्रीअरविन्द और 'नव युग' । (घ)

 

*

 

 चौथा वार्षिक अधिवेशन (१०-९-१९६७)

 

  पुरानी रुचियों से अलग हो जाना और पुराने नियमों को न मानना अच्छा है-लेकिन इस शर्त पर कि व्यक्ति स्वयं अपने अंदर एक अधिक सच्ची और अधिक ऊंची चेतना पा ले जो 'सामंजस्य', 'शांति', 'सौंदर्य' और श्रेष्ठतर, विशाल और प्रगतिशील 'व्यवस्था' को अभिव्यक्त करे ।

 

(२६-८-१९६७)

 

*

 

यह प्रश्र १९६७ के नये वर्ष के संदेश से संबंध रखता हैं:

 

    मनुष्यों, देशों, महाद्वीपो । '

    चुनाव अनिवार्य है :

    सत्य या फिर रसातल ।

 

२७९


 तेरहवां सम्मेलन (२६-११-१९६७)

 

      शिक्षा पर नयी दृष्टि । (ध)

 

  शिला का निर्देशक सिद्धांत क्या ? होना चाहिये?

 

'सत्य', 'सामंजस्य', 'स्वाधीनता' ।

 

*

 

चौदहवा सम्मेलन (२५-२-१९६८)

 

    हम माताजी से क्या आशा रखते हैं । (ग)

 

    ठीक-ठीक वह क्या वरतु है जिसकी हमें आपसे आशा करनी चाहिये?

 

 सब कुछ!

 

   धरती पर अपने 'कार्य' की सिद्धि क्वे लिये आप हमसे और मानवजाति ले किसी चीज की आशा करती हैं?

 

 किसी चीज की नहीं ।

 

क्या अपने साठ वर्ष से अपर क्वे अनुभव मे आपने देखा है कि आपने हमसे और मानवजाति सें जो आशा की थी वह पर्याप्त रूप में सफल हे?

 

 चूंकि मै किसी चीज की आशा नहीं करती इसलिये मै इस प्रश्र का उत्तर नहीं दे सकतीं ।

 

क्या हमारे और मानवजाति के लिये आपके 'कार्य' की सफलता किसी रूप मे हमारे और मानवजाति के दुरा आपकी आशाएं की पूर्ति पर निर्भर है?

 

 सौभाग्यवश नहीं ।

 

(२०-२-१९६८)

 

*

 

२८०


पन्द्रहवां सम्मेलन (२८-४-१९९६८)

 

      १. युवा कैसे रहा जाये? (घ)

      २. निरन्तर प्रगति का रहस्य क्या हे?' (घ)

 

 १ - चूंकि हास और विघटन जो. को जानेवाली चीजें हैं वे मृत्यु का आरंभ हैं तो क्या यह संभव है कि मृत्यु पर विजय पाये विना. को रोका जा सके?

 

  क्या शरीर के भौतिक कोषों को अतिमानसिक आनंद के द्वारा पूर्णत: रूपांतरित किये विना शारीर को निरंतर युवा रखा जा सकता है?

 

   जबतक अतिमानस धरती पर अभिव्यक्त न हो जाये तबतक इन प्रश्रों का उत्तर कैसे दिया जा सकता ३? उसकी अभिव्यक्ति के बाद हीं हम जान सकेंगे कि वह कैसे आया और कैसे अभिव्यक्त हुआ ।

 

(२५-४-१९६८)

 

   २ - क्या आपके उत्तर का मतलब यह है कि अतिमानस अभीतक धरती पर अभिब्यक्त नहीं हुआ है? या आपका मतलब है निश्चेतन 'जड़ पदार्थ' के मुल तक मे संपूर्ण अभिव्यक्ति? आपने कहा ह्वै कि २९ फरवरी १९५६ को अतिमानसिक अभिव्यक्ति का आरंभ हो क्या था हो सकना हैं किंतु आपके इस उत्तर का मातहत है पूर्ण अभिव्यक्ति । क्या आप इसे स्पष्ट करने की कृपा करेगी?

 

मैं उस अतिमानसिक अभिव्यक्ति की बात कह रहीं हू जो सबके लिये स्पष्ट हो, निपट अज्ञानी के लिये भी- जैसे मानव अभिव्यक्ति सबके लिये स्पष्ट हुई जब वह अभिव्यक्त हुई ।

 

(२६ -४ -१९६८)

 

*

 

सोलहवां सम्मेलन (२३-२-१९६९)

 

  १-धर्मों के भगवान और एकमेव भगवान् । (घ)

   -तपक्षर्या और सच्चा संयम । (घ)

 

  ये प्रश्र १९६८ के नये वर्ष के संदेश सें संबंध रखते हैं :

 

     ''हमेशा युवा रहो, कभी पूर्णता के लिये प्रयास करना बंद न करो ।"

 

२८१


श्रीअरविन्द के योग के साधक को मृतकाल और वर्तमान मे पूजे जानेवाले भयावन के विभित्र रूपों के ?जारियों के प्रति कैसी वृत्ति रखनी चहिर्य? अगर वह उनकी पूजा जारी रखे तो क्या वह उसकी प्रगति मे बाधक होगी और ' उसके लक्ष्य की सिद्धि को रोकेंगी?

 

सभी पुजारियों की ओर शुभचितायुक्त सद्भावना ।

        सभी धर्मों के प्रति एक प्रबुद्ध उदासीनता ।

        रही बात ' अधिमानस ' सत्ताओं के साथ संबंध की, अगर यह संबंध पहले से हैं, हर एक का अपना अलग समाधान होगा ।

 

 धर्मों के विभित्र देवताओं की अतिमानसिक युग में क्या भूमिका होगी? क्या दे धरती पर अतिमानसिक 'सत्य' की प्रतिष्ठा और 'जड़-तत्त्व' के रूपांतर में सहायता कर सकते हैं?

 

 अभी से यह प्रश्र नहीं किया जा सकता ।

 

(१९-२-१९६९)

 

*

 

 सत्रहवां सम्मेलन (२७-४-१९६९)

 

   १ -हमारा योग एक साहस--कार्य क्यों है? (घ)

   २ - श्रद्धा की शक्ति । (घ)

 

   १ - हमारा योग किस अर्थ मैं साहस-कार्य है?

 

उसे एक साहस-कार्य कहा जा सकता है क्योंकि यह पहली बार है कि कोई योग भौतिक जीवन सें बच निकलने की जगह उसका रूपांतर करने और उसे दिव्य बनाने का लक्ष्य अपना खा हैं ।

 

   २ - योग में श्रद्धा की ऐसी अनिवार्य आवश्यकता क्यों है?

 

क्योंकि हम एक पैसे लक्ष्य के लिये प्रयास कर रहे हैं जैसा पहले कर्मों नहीं किया गया ।

 

    ३- श्रद्धा में निहायत शक्ति किस कारण होती है?

 

२८२


तुम्हारी श्रद्धा तुम्हें 'परम पुरुष' के रक्षण में रख देती है और वे सर्वशक्तिमान हैं ।

 

(२६-४-१९६९)

 

*

 

 छठा वार्षिक अधिवेशन (१७-८-१९६९)

 

   स्व शब्दों से अपर, सब विचारों हैं अपर अभीप्सा करती हुई श्रद्धा की प्रकाशमान नीरवता मे अपने-आपको पूरी तरह, बिना कुछ बचाये हुए, समस्त जीवन के परम प्रभु के अर्पण कर दो और वे तुम्हें जो बनाना चाहते हैं वही बना देंगे ।

 

     मेरे प्रेम और आशीर्वाद के साथ ।

 

*

 

 अठारहवां सम्मेलन (२३-११-१९६९)

 

    यह रहा एक विषय ।

 

    जगत् का निस्तार एकता और सामंजस्य मे हैं । इस एकता और सामंजस्य के बारे मे तुम्हारी क्या कल्पना हैं?

 

      आशीर्वाद । (ग)

 

 उत्रिसवां सम्मेलन (२२-२-१९७०)

 

    वह कौन-सा बड़ा परिवर्तन हैं जिसके लिये संसार तैयारी कर रहा है? हम उसकी सहायता कैसे कर सकते हैं? (ङ)

 

   १ - यह कौन-सा महान परिवर्तन है जिसके लिये संसार तैयारी कर रहा हैं?

 

 चेतना का परिवर्तन । और जब हमारी चेतना बदल जायेगी तब हम जान लेंगे कि यह परिवर्तन क्या हैं ।

 

    २ - हम इस परिवर्तन को लाने मैं कैसे सहायता दे सकते हैं ?

 

   यह प्रश्र १९७० के नये वर्ष के संदेश के साथ संबंध रखता है :

 

   ''संसार एक महान् परिवर्तन की तैयारी में हैं। क्या तुम सहायता करोगे?''

 

२८३


परिवर्तन के आने मे हमारी सहायता की जरूरत नहीं हैं, लेकिन हमें अपने-आपको उस चेतना के प्रति खोलना चाहिये ताकि उसका आना हमारे लिये व्यर्थ न हो ।

 

(१९-२-१९७०)

 

*

 

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२८४


बीसवां सम्मेलन (२६-४-११७०)

 

   क्या सुखी होना जीवन का लक्ष्य हैं? (घ)

 

 क्या सुखी होना जीवन का लक्ष्य है?

 

   यह तो चीजों को ऊट-पटांग ढंग से रखना हुआ ।

 

   मानव जीवन का लक्ष्य हैं भगवान् को खोजना और उन्हें अभिव्यक्त करना । स्वभावतः इस खोज से सुख मिलता है; परंतु यह सुख अपने-आपमें लक्ष्य न होकर एक परिणाम है । और मनुष्यजाति पर आनेवाली अधिकतर विपदाओं का कारण है एक सामान्य अनुवर्ती परिणाम को जीवन का लक्ष्य मान बैठने की स्व ।

 

(२- ३-१९७०)

 

*

 

 सातवां वार्षिक अधिवेशन (१६-८-९९७०)

 

    श्रीअरविन्द के 'स्वप्न' का भारत । (ङ)

 

   अपने एक संदेश मे आपने कहा है :

     ''भारत की सबसे पहली समस्या है अपनी अंतरात्मा को फिर से पाना और

   उसे अभिव्यक्त करना? ''

       भारत की अंतरात्मा को फिर से कैसे पाया जाये?

 

 अपने चैत्य पुरुष के बारे में सचेतन होओ । तुम्हारी चैत्य सत्ता भारत की ' अंतरात्मा' में तीव्र रूप से रस ले और उसके लिये सेवा-भाव सें अभीप्सा करे; और अगर तुम सच्चे और निष्कपट हो तो सफल होओगे ।

 

(१५ -६ -१९७०)

 

*

 

 इक्कीसवां सम्मेलन (२९-११-१९७०)

 

       संसार की समस्याओं का समाधान चेतना के परिवर्तन में है । इस परिवर्तन के बारे में तुम्हारी क्या कल्पना हैं ? इसे कैसे लाया जाये? (घ)

 

२८५


जिस चेतना को अभिव्यक्त करना हैं वह धरती के वातावरण में आ चुकी हैं । अब केवल ग्रहणशीलता का प्रश्र हैं ।

 

(१९-११-१९७०)

 

*

 

बाईसवां सम्मेलन (२८-२-१९७१)

 

      भविष्य में छलांग किस तरह लगायी जाये?' (घ)

 

अपने पिछले नये सत्रह ले संदेश मैं आपने कह? था : ''चुनाव अनिवार्य है '' इस वर्ष आपने एक ''छलांग' ' लगाने के लिये कहा है ? उस ''चुनाव' ' और इस ''छलाग' ' मे क्या फर्क है?

 

 चुनाव मानसिक हैं । छलांग पूरी सत्ता लगाती हैं ।

 

    यह छलांग कैसे लगायी जाये?

 

हर पक का अपना तरीका होगा ।

 

    आपने इस वर्ष क्वे संदेश मे बाइबल क्वे शब्द ''केसेड'' (धन्य) का उपयोम क्यों किया हैं? क्या हलका कोई विशेष महत्व हे?

 

 ''जलसे'' पर बाइबल का एकाधिकार नहीं हैं ।

 

(२४-२-१९७१)

 

 तेईसवां सम्मेलन (२५-४-१९७१)

 

     समग्र पूर्णता का हमारा आदर्श क्या है? (घ)

 

भगवान् के साथ सचेतन ऐक्य ।

 

(२८-३१९७१)

 

*

 

   यह प्रश्र १९७९ के नये वर्ष के संदेश से संबद रखता है :

   ''धन्य हैं बे जो भविष्य की ओर छलांग लगाते हैं ।',

 

२८६


आठवां वार्षिक अधिवेशन (२२-८-१९७१)

 

    श्रद्धा रखो और सच्चे (निष्कपट) बनो ।

    आशीर्वाद ।

 

(२२-८-१९७१)

 

*

 

 चौवीसर्वा सम्मेलन (२८-११-१९७१)

 

        युवकों को श्रीअरविन्द का आह्वान । (घ)

 

     युवकों को श्रीअरविन्द का आह्वान क्या है?

 

'अतिमानसिक' चेतना के प्रकाश में ज्यादा अच्छे भविष्य के निर्माता बनो ।

 

(२७-११-१९७१)

 

*

 

 पच्चीसवां सम्मेलन (२७-२-९९७२)

 

    श्रीअरविन्द की शताब्दी के योग्य कैसे बनें?' (ड)

 

इस वर्ष पहली जनवरी को आपने कहा था : ''इस वर्ष श्रीअरविन्द की शताब्दी के लिये धरती पर एक विशेष सहायता आयी है ''

 

   क्या -आप कृपया इस शक्ति क्वे स्वरूप और उसकी क्रिया के बारे मे बता सकेगी और यह मी कि उसका लाभ उठाने के लिये हमें क्या करना चाहिये?

 

 जो अपने अहंकार पर चैत पुरुष के आधिपत्य के द्वारा ग्रहणशील बन सकेंगे, वे इस सहायता को जानेंगे और उसका पूरा लाभ पायेंगे ।

 

(२४-२-१९७२)

 

*

 

 छब्बीसवा सम्मेलन

 

(२३-४-१९७२)

 

*

 

   शिक्षा और योग ! (घ)

 

   यह प्रश्र ११७२ के नये वर्ष के संदेश से संबंध रखता हैं :

 

    ''आओ, हम सब श्रीअरविन्द की शताब्दी के योग्य बनने की कोशिश करें ।''

 

२८७


    अगर शिला को योग के अंग के रूप मे लिया जाये तो उसमें कौन-सी भावना होगी उसका क्या रूप होगा ?

 

श्रीअरविन्द की किताबें पढो ।

 

(१९-४-१९७२)

 

*

 

नवां वार्षिक अधिवेशन (१२-८-१९७२)

 

    श्रीअरविन्द भविष्य को प्रकट करते हैं । (ग)

 

२ जनवरी १९७२ के संदेश मे आपने कहा है :

       ''उनकी शताब्दी के इस वर्ष में उनकी सहायता और मी प्रबल  होगी! यह हम पर छोहा क्या है कि हम उसके प्रति अधिक सतहें और उससे लाभ उठाते!

    ''भविष्य उनके लिये है जो वीर आत्मा हैं ! ''

     क्या आप यह बताने की कृपा करेगी कि हूस संदेश मे ''वीर'' से आपका क्या मतलब है?

 

वीर किसी चीज से नहीं डरता, किसी चीज की शिकायत नहीं करता और कभी हार नहीं मानता ।

 

*

 

सत्ताईसवां सम्मेलन (२५-२-१९७३)

 

    जगत् को यह दिखाने के लिये कि मनुष्य भगवान् का सच्चा सेवक बन सकता है हम किस तरह सच्चा सहयोग दे सकते हैं ? (घ)

 

भगवान् के सच्चे सेवक बनकर ।

 

(२४-२-१९७३)

 

*

 

 यह प्रश्र १९७२ मे बड़े दिन के अवसर पर दिये गये संदेश से संबंध रखता हैं :

 

     ''हम जगत् को दिखाना चाहते हैं कि मनुष्य भगवान् का सच्चा सेवक बन सकता हैं । पूरी सचाई के साथ कौन सहयोग देगा ? ''

 

२८८


अट्ठाईसवां सम्मेलन (२२-४-१९७६)

 

    व्यक्ति की स्वाधीनता की मांग और समष्टि की एकता और सुव्यवस्था की आवश्यकता मे कैसे मेल बिठाया जाये? (ङ)

 

 स्वाधीनता का मतलब अव्यवस्था और अस्तव्यस्तता से बहुत भिन्न हैं ।

 

   हमें आंतरिक स्वाधीनता प्राप्त होनी चाहिये, और अगर तुम्हें वह प्राप्त हैं तो कोई भी उसे तुमसे नहीं छीन सकता ।

 

(२८-३-१९७३)

 

*

 

(अक्तूबर १९६७ में कुछ विद्यार्थी इन सम्मेलनों मैं बोलने से कतरा रहे थे अपनी कठिनहि के रूप में मानसिक तमस और संकोच और लोगों के सामने बोत्हने में लज्जा को कारण बतला रहे थे ये कठिनाइयां माताजी के सामने रखी गयीं तो उन्होने लिखा:)

 

 इस प्रकार के कार्य-कलाप का मुख्य उद्देश्य हीं है उन कठिनाइयों को छू करना जिन्हें वे गिना रहे हैं-तमस संकोच, आलस्य आदि ।

 

   और ठीक इसी कारण मैंने तुमसे वर्ष में चार बार करने के लिये कहा हैं ।

 

  बिधार्थी यहां सुखी जीवन के लिये नहीं हैं बल्कि अपने-आपको दिव्य जीवन के लिये तैयार करने के लिये हैं ।

 

  अगर वे किसी प्रयास सें बचे, आलसी तथा ''तामसिक' ' बने रहें तो तैयार कैसे होंगे?

 

(३०-१० -१९६७)

 

२८९









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