CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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पढ़ना

 

 मधुर मई आपने कहा है कि मैं ठीक तरह नहीं सोचती हम अपने विचारों को कैसे विकसित कर सकते हे?

 

तुम्हें बहुत एकाग्रता और ध्यान के साथ ऐसी पुस्तकें पढ़नी चाहिये जो तुम्हें सोचने के लिये बाधित करती हैं, उपन्यास या नाटक नहीं । तुम जो पढो उसका ध्यान लगाओ, जबतक तुम किसी विचार को समझ न जाओ तबतक उसपर मनन करो । कम बोलो, शांत और एकाग्र रहो और तभी बोलो जब बोलना अनिवार्य हो ।

 

(३१-५-१९६०)

*

१२९


  मैं मोटरकार के बारे में एक पुस्तक पड़ रहा हूं लेकिन मैं तेजी ले पड़ जाता हू जटिल मशीनों के वर्णन को छोड़ता जाता हूं !

 

अगर तुम किसी विषय को पूरी तरह से, ईमानदारी के साध पूरे विस्तार से नहीं सीखना चाहते तो उसे हाथ न लगाना ही ज्यादा अच्छा है । यह मानना एक बहुत बढ़ी फल हैं कि वस्तुओं के बारे में अधूरा, ऊपरी ज्ञान किसी उपयोग का हो सकता हैं; यह लोगों का सिद्द फूला देने के सिवा और किसी काम का नहीं होता, क्योंकि वे मान बैठते हैं कि हैं जानते हैं, जब कि सचमुच कुछ भी नहीं जानते ।

 

*

 

  जो कुछ पढो ध्यान से पढो, और अगर तुम उसे भली-भांति नहीं समझ पाये हों तो फिर सें दोबारा पढ़ो ।

 

*

 

  'य' ने मुझे लिखा है कि तुम कितने सारे उपन्यास पढ़ते हो । मुझे नहीं लगता कि इस तरह का पढ़ना तुम्हारे लिये हितकर हैं - और जैसा कि तुमने मुझे बतलाया था, तुम शैली के लिये पढ़ते हो, तो किसी अच्छे लेखक की कोई अच्छी पुस्तक ध्यान से पढ़ना, तेजी से की गयी इस ऊपरी पढ़ाई से ज्यादा अच्छा हैं ।

 

 मेरे उपन्यास के दो कारण हैं शब्द और शैली सीखना !

 

सीखने के लिये तुम्हें बहुत ध्यान से पढ़ना चाहिये और जो पढ़ना हो उसे बहुत ध्यान से चुनो ।

 

(२५-१०-१९३४)

 

   क्या आपका ख्याल है कि मुझे गुजराती सरित् पढ़ना दर्द कर देना चाहिये?

 

यह सब इस पर निर्भर हैं कि इस साहित्य का तुम्हारी कल्पना पर क्या प्रभाव पड़ता है । अगर वह तुम्हारे सिर में अवांछनीय विचार और तुम्हारे प्राण मे कामनाएं भर देता हैं तो निंद्य ही इस प्रकार की पुस्तकों का पढ़ना बंद कर देना चाहिये ।

 

(२-११-१९३४)

 

   क्या फ्रेंच उपन्यास पढ़ने मे कोई हर्ज है

 

१३०


उपन्यास पढ़ना कभी हितकर नहीं होता ।

 

(२४-४-१९३७)

 

*

 

  जब कोई मंदी ' श अखिल उपन्यास पड़ता है ती क्या उसका प्राण मन के द्वारा उसमें रस नहीं लेता?

 

मन मै भी विकार होते हैं । वह प्राण बहुत ही तुच्छ और अपरिष्कृत हैं जो ऐसी चीजों में रस लेता है ।

 

*

 

  अनगढ़ मनवाले जो कुछ पढ़ते हैं, वह उसके मूल्य की परवाह किये बिना उनमें पैठ जाता हैं और सत्य के रूप मे अपनी छाप छोड़ जाता है । इसलिये उन्हें पढ़ने के लिये जो चीजें दी जायें उनके चुनाव में बहुत सावधानी बरतनी चाहिये और यह देखना चाहिये कि इसमें ऐसी चीजों को ही स्थान मिले जो सच्ची और अनेक निर्माण के लिये उपयोगी हों ।

 

(३-६-१९३९)

 

*

 

  मैं ऐसी साहित्य की कक्षाओं को स्वीकृति नहीं देती जो दिखावटी तौर पर ज्ञान के लिये हैं (?), हैं ऐसी मानसिक कीचड़ की अवस्था मे धंस जाती हैं जिनके लिये यहां स्थान नहीं हैं, और जो आगामी कल की चेतना के निर्माण मे किसी प्रकार की सहायता नहीं दे सकतीं । तुम्हारे पत्र के सिलसिले मै कल मैंने 'क' से यही बात कही थी और मैंने संक्षेप में बताया था कि जो होना चाहिये और जो है उनके बीच के संक्रमणकाल को मैं किस रूप मे देखती हू ।

 

  अगर हम, यहां या वहां एक सच्ची और ज्योतिर्मयी अभीप्सा की अभिव्यक्ति देख सकें, तो उसे अध्ययन का अवसर बनाया जा सकता हैं  और वह एक मजेदार उन्नति होगी ।

 

  तुम साथ मिलकर इस विषय का निर्राक्षण करो और मुझे बताओ कि तुम क्या निश्चय करते हो ।

 

  बहरहाल : ''साहित्य की कक्षाएं' ' बंद वि

 

(१८-७-१९५९)

 

१३१


  साहित्य का मूल्य क्या है?

 

यह इस पर निर्भर हैं कि तुम क्या होना या करना चाहते हो । अगर तुम साहित्यिक बनना चाहते हो तो तुम्हें बहुत-सा साहित्य पढ़ना चाहिये । तब तुम जानोगे कि क्या ।लिखा गया हैं और तुम पुरानी चीजों को नहीं दोहराओगे । तुम्हें एक जाग्रत मन रखना चाहिये और यह जानना चाहिये कि चीजें प्रभावशाली ढंग से कैसे कही जायें ।

 

  लेकिन अगर तुम सच्चा ज्ञान चाहते हो, तो यह तुम्हें साहित्य मे नहीं मिलेगा । मेरी दिष्टि मे, साहित्य अपने-आपमें बहुत ही निम्न स्तर पर है-इसमें अधिकांश सृजनात्मक प्राण का कार्य हैं, और जब वह बहुत ऊंचा उठता हैं तो विशुद्ध चक्र (कंठ स्थित चक्र) तक जा पाता हैं जो बाह्य अभिव्यक्ति वाले मन का स्थान है । यह मन तुम्हें बाहरी चीजों के संपर्क मे ला देता हैं । और, अपने क्रिया-कलाप मे, साहित्य शब्दों और विचारों को आपस मे जोड़ने का खेल है । यह मन मे एक प्रकार का कौशल विकसित कर सकता है, विवाद, वर्णन, मनोरंजन और विनोद की कुछ क्षमता पैदा कर सकता हैं ।

 

   मैंने अंग्रेजी साहित्य मे बहुत कुछ नहीं पूढा-मैंने कुछ सौ पुस्तकें हीं देखी हैं । लेकिन मैं फ्रेंच साहित्य को बहुत अच्छी तरह जानती हूं-मैंने एक पूरा पुस्तकालय पड रखा है और मैं कह सकती हूं कि 'सत्य' की दिष्टि से देखें तो उसका कोई अधिक मूल्य नहीं हैं । सच्चा ज्ञान मन के ऊपर से आता है । साहित्य बहुत सामान्य या तुच्छ विचारों का खेल होता है । कुछ विरले अवसरों पर ऊपर से कोई किरण आ जाती हैं । अगर तुम हज़ारों पुस्तकों मे खोजों तो कहीं इधर-उधर जरा-सा अंतर्भाव दिखा जायेगा । बाकी कुछ नहीं हैं ।

 

  मैं यह नहीं कह सकतीं कि साहित्य पढ़ने सें तुम श्रीअरविन्द को ज्यादा अच्छी तरह समझने के योग्य हो जाते हो । इसके विपरीत, यह बाधक भी हों सकता हैं । क्योंकि शब्द तो वही होते हैं लेकिन उनका उपयोग श्रीअरविन्द के उपयोग सें इतना भिन्न होता है, उन्हें जिस ढंग से इकट्ठा रखा गया हैं वह श्रीअरविन्द के ढंग सें इतना अलग होता हैं कि ये शब्द तुम्हें उस ज्योति से बहुत ककर देते हैं जिस ज्योति का श्रीअरविन्द इन शब्दों द्वारा वहन करना चाहते हैं । श्रीअरविन्द के प्रकाश तक पहुंचने के लिये हमें अपने मन को साहित्य ने जो कुछ कहा हैं या किया है उस सबसे खाली कर लेना चाहिये । हमें अंदर पैठकर ग्रहणशील नीरवता मे निवास करना और फिर उसे अपर की ओर मोड़ना चाहिये । केवल तभी हम ठीक ढंग  हैं कोई चीज पा सकते हैं । अपने सबसे बुरे रूप मे, मैंने देखा हैं कि साहित्य का अध्ययन आदमी को इतना ख और विकृत बना देता हैं कि वह श्रीअरविन्द की अंग्रेजी का मूल्य आकने बैठ जाये और उनके व्याकरण मे स्व निकाले!

 

  लेकिन हां, मै साहित्य के अध्ययन को बिलकुल अस्वीकृत नहीं कर रही । हमारे
 

१३२


बच्चों मे से बहुत-से अनगढ़ अवस्था मे हैं और साहित्य उन्हें कुछ रूप, कुछ लचकीलापन दे सकता है । उन्हें कई स्थानों पर काफी तराशने की जरूरत है । उन्हें बढ़ा बनाने, सक्रिय और फुर्तीला बनाने की जरूरत हैं ! साहित्य एक प्रकार की जिम्नास्टिक्स का काम देकर, उन्हें झकझोर कर तरुण बुद्धि को जगा सकता हैं ।

 

  मै इतना और कह दूं कि अभी पिछले दिनों अध्यापकों मे साहित्य के मूल्यांकन के बारे में जो विवाद चला था वह तुम्बी में तूफान के जैसा था । यह वास्तव में उस समस्या का एक अंग हैं  जिसका संबंध शिक्षा के पूरे आधार के साथ हैं । मेरी दृष्टि मे हमारे विद्यालय के प्रत्येक विभाग मे जो कुछ हो रहा हैं वह अपनी नींव में एक ही समस्या है । जब मैं हर जगह की शिक्षा पर नजर डालती हू तो मुज्ञो उस योगी के जैसा अनुभव होता हैं  जिससे कहा गया था कि एक दीवार के आगे बैठकर ध्यान करे । मुझे अपने सामने एक दीवार-सी दिखायी देती हैं । यह एक भूरि-सी दीवार हैं जिसमें इधर-उधर कुछ नीली धारियां हैं-ये अध्यापकों के कुछ सार्थक काम करने के प्रयास हैं- लेकिन सब कुछ ऊपरी सतह पर हो रहा है और इस सबके पीछे सब कुछ इस दीवार के जैसा हैं जिस पर मैं इस समय अपना हाथ मार रही हूं । यह कठोर और अभेद्य है, यह सच्चे प्रकाश को बंद कर देती है । कोई द्वार नहीं हैं-इसमें से घुसकर उस प्रकाश मे नहीं जाया जा सकता ।

 

  जब युवा विद्यार्थी मेरे पास आते हैं और मुझे अपने काम के बारे में कुछ बतलाते हैं तो हर बार जब मैं उनसे कोई उपयोगी चीज कहना चाहती हूं तो यहीं ठोस दीवार मेरे मार्ग में बाधक होती हैं ।

 

  मेरा इरादा बे कि शिक्षा की समस्या को अपने हाथ में लू । मैं उसके लिये अपने- आपको तैयार तैयार कर रहीं हूं । इसमें दो वर्ष लग सकते हैं । मैंने पवित्र ' को चेतावनी दे दी बे  कि जब मै हस्तक्षेप करूंगी और चीजों को फिर से गड़ंग तो एक बवण्डर के जैसा लगेगा । लोगों को ऐसा लगेगा कि हैं अपने पैरों पर खड़े तक नहीं रह सकते! इतने प्रकार की चीजें उलट-पुलट जायेंगी । पहले चारों ओर घबराहट फैलेगी । लेकिन, इस बवण्डर के परिणामस्वरूप, दीवार टूट जायेगी और प्रकाश फट पड़ेगा ।

 

  मुझे लगा कि पहले सें बतला देना अच्छा हैं कि आमूल परिवर्तन होगा । इस तरह अध्यापक उसके लिये तैयार हो सकते हैं ।

 

   मै साहित्य के अध्यापकों की सद्भावना के बारे में शंका या अवहेलना नहीं करना चाहती । और कुछ पुराने अध्यापक हैं जो सचमुच अपना अच्छे-से-अच्छा प्रयास कर रहे हैं । मै इस सबकी सराहना करती हूं । और विश्वविद्यालय मे परिवर्तन के बारे में मैंने हर चीज का ख्याल रूखा हैं । लेकिन मैं फिर से कहती हूं कि यह सारी बहस,

 

  १आश्रम के शिक्षा-विभाग के अध्यक्ष । - अनु

 

१३३


एक व्यर्थ की ओर बहुत सारी उत्तेजना रही हैं जिसे हम चीटियों की लड़ाई या सांप निकल जाने पर लकीर पीटना कह सकते हैं ।

 

 *

 

  एक सूक्ष्म जगत् है जहां तुम चित्रकारी, उपन्यास, सब प्रकार के नाटक और सिनेमा तक के लिये समस्त संभव विषय पा सकते हों ।

 

  अधिकतर लेखक वहीं से अपनी प्रेरणा पाते हैं ।

 

*

 

  (एक अध्यापक ने सुझाव दिया कि अपराध क्षइंसा स्वच्छंदता आदि ले संबंध रखनेवाली पुस्तकें विद्यार्थियों की पहुंच से बाहर होनी चाहिये !)

 

यह इतना विषय का प्रश्र नहीं हैं बल्कि जीवन की धारणा मे गंवारूपन और संकीर्णता और स्वार्थपूर्ण सामान्य बुद्धि का प्रश्र हैं जौ कलाहीन, महानताहीन और सुरुचिहीन ढंग सें अभिव्यक्त है । ऐसी चीजों को सावधानी के साथ बड़े और छोटे बच्चों की पाक्य सामग्री मे से हटा देना चाहिये । वे सब चीजें जो चेतना को नीचा करती और घटाती हैं निकाल दी जानी चाहिये ।

 

(१-११-१९५९)

 

*

 

  किताबों का चुनाव सावधानी के साथ करना चाहिये ! कुछ किताबों मे ऐसे विचार होते हैं जो निक्षय ही हमारे बच्चों की चेतना को नीचा करते हैं सिर्फ ऐसी ' के बारे मे ही सत्या दी जा सकती है जो हमारे आदर्श के अनुकृत हों या जिनमें ऐतिहासिक कहानियां साहसमरी कहानियां या खोजबीन की बातें हों

 

  ऐसी किताबों के बारे मे तुम कभी जरूरत से ज्यादा सावधान नहीं हो सकते जिनका बहुत विषैला असर होता हैं ।

 

आशीर्वाद ।

 

(१७-४-१९६७)

 

*

 

१३४


  मैं रामायण-महामारत की कहानियों और तुलसी कबीर मीरा आदि के गीतों ?पर बहुत जोर देता हूं क्या इन प्राचीन चीजों को जारी रखना आपके ममि के विपरीत हैं !

 

हर्गिज नहीं- महत्त्व मनोवृत्ति का है । भूत को भविष्य की ओर उछलने का तख्ता होना चाहिये, प्रगति को रोकनेवाली जंजीर नहीं । जैसा कि मैंने कहा हैं, सब कुछ भूतकाल की ओर तुम्हारी मनोवृत्ति पर निर्भर हैं ।

 

   कुछ अच्छे-अच्छे कवियों और संतों ने राधा और कृष्ण के प्रेम के बारे मे हंस तरह  लिखा हैं मानों वह ऐहिक प्रेम हो !

 

मैंने इसे हमेशा सच्चे शब्द और ठीक भाषा पाने की अक्षमता माना हैं ।

 

*

 

यह सब बेहूदगी पढ़ना बंद कर दो । जो रहस्यवाद पुस्तकों मे मिल सकता हैं वह प्राणिक और अत्यंत भयावह होता हैं ।

 

*

 

  अगर तुम सचमुच जानना चाहते हो कि संसार में क्या हों रहा है तो किसी प्रकार के मी अखबार पढ़ना बंद कर दो क्योंकि वे झूठ से भरे होते हैं ।

 

  अखबार पढ़ने का मतलब है महान सामूहिक मिथ्यात्व में भाग लेना ।

 

(२-२-१९७०)

 

   माताजी अगर हम अखबार न पढ़ें तो यह कैसे जान सकते हैं कि हमारे देश मे तथा अन्य देशों मे क्या हो रहा हैं ! हमें उनसे कम-से-कम कुछ अंदाज तो हो ही जाता हे ' न? या उन्हें बिलकुल न पढ़ना ज्यादा अच्छा होगा !

 

मैंने यह नहीं कहा कि तुम्हें अखबार नहीं पढ़ने चाहिये । मैंने कहा हैं कि तुम जो कुछ पढो उस पर आंख मूँद कर विश्वास न कर लो । तुम्हें जानना चाहिये कि सत्य एक अलग ही चीज है ।

 

   आशीर्वाद ।

 

(४-२-१९७०)

 

*

 

मैं देखना चाहता हू कि मैं पढ़ना बंद कर दूं तो क्या होगा?

 

 अपने मन को सदा एक ही चीज पर स्थिर रखना मुश्किल हैं, और अगर उसे व्यस्त रखने के लिये काफी काम न दिया जाये तो वह बेचैन हो उठता है । इसलिये मेरा खयाल हैं कि पढ़ना एकदम बंद कर देने की जगह ज्यादा अच्छा यह हैं कि पुस्तकों का चुनाव सावधानी के साथ करो ।

 

*

 

  (किसी आश्रमवासी को अपनी पुस्तक 'प्रार्थना और ध्यान' देते हुए माताजी ने यह टिप्पणी लिखी थी !

 

*

 

इस पुस्तक को मत पढो जबतक कि तुम्हारे अंदर यह इरादा न हो कि तुम उसके अनुसार काम करोगे ।

 

*

 

   पुस्तकालय को एक बौद्धिक मंदिर होना चाहिये जहां आदमी प्रकाश और प्रगति पाने के लिये आता है ।

 

 *

 

१३५

 









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