Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
पत्रव्यवहार
मधुर मां
हमारे शिक्षा केंद्र विधार्थियों को डिप्लोमा या सर्टिफ़िकेट क्यों नहीं दिया जाते ?
लगभग एक शताब्दी से मानवजाति एक रोग से पीड़ित है जो अधिकाधिक बढ़ता हीं दिखा रहा है और आज वह अपनी चरम अवस्था पर आ पहुंचा हैं; इसे हम ''उपयोगितावाद' ' कहते हैं । ऐसा लगता है कि चीजों और मनुष्यों को, परिस्थितियों और कर्म को अनन्य रूप से उसी एक दृष्टिकोण से विचारना और सराहा जाता हैं । जिसकी कोई उपयोगिता नहीं उसका कोई मोल नहीं । यह ठीक है कि जो उपयोगी है वह निरुपयोगी से बेहतर है । लेकिन पहले यह समझ लेना चाहिये कि मनुष्य किसे उपयोगी मानता है-उपयोगी किसके लिये, किसके प्रति, किस लिये?
और, उत्तरोत्तर, बे जातियां जो अपने को सभ्य समझती हैं उसी चीज को उपयोगी कहती हैं जो धन ला सके, काम सके या पैदा कर सके । सबका निर्णय और मूल्यांकन उसी एक आर्थिक. दृष्टिकोण से किया जाता है । मैं इसे ही उपयोगितावाद कहती हूं । और यह रोग बहुत हीं संक्रामक हैं, क्योंकि बच्चे भी इससे अछूते नहीं रहते ।
उस उम्र मे जब कि सुन्दरता, भव्यता और पूर्णता के सपने संजोये जाने चाहिये, ऐसे सपने जौ शायद सामान्य अर्थों से कहीं अधिक उदात्ता होते हैं, पर जो निक्षय हीं कुष्ठित सामान्य बुद्धि से उच्चतर हैं, आजकल बच्चे पैसे के सपने देखते हैं और उसे कमाने के साधनों के बारे मे चिंतातुर रहते हैं ।
इसी तरह जब वे अपनी पढ़ाई के बारे में सोचते हैं तो उस सब पर विचार करते हैं जो आगे चलकर उनक लिये उपयोगी हो सके ताकि जब वै बड़े हों तो बहुता-सा धन काम सकें ।
और परीक्षाओं मे सफल होने के लिये तैयारी करना उनके लिये सबसे महत्त्वपूर्ण बन गया है, क्योंकि डिप्लोमा, सर्टिफ़िकेट और उपाधि ही उन्हें उच्च पद प्राप्त करा सकते हैं और इनकी सहायता से धन भी खूब काम सकते हैं ।
उनके लिये पढ़ाई का न कोई और उद्देश्य है, न महत्त्व ।
ज्ञान के लिये सीखना, प्रकृति और जीवन के रहस्यों को जानने के लिये पढ़ना, चेतना को विकसित करने के लिये अपने-आपको शिक्षित करना, आत्म-प्रभुत्व पाने के लिये स्वयं को अनुशासित करना, अपनी दुर्बलताओं, अक्षमताओं और अज्ञानताओं को अतिक्रम करने के लिये पढ़ना, जीवन मे अधिक उच्च, विशाल, उदार और सच्चे उद्देश्य की ओर बढ़ने के लिये अपने-आपको तैयार करना... यह तो बे सोच हीं नहीं
सकते, इसे तो वे कपोल-कल्पना हीं समझते हैं । बस, एक हों चीज महत्त्वपूर्ण हैं-व्यावहारिक होना, धन कमाना सीखना और उसके लिये अपने को तैयार करना ।
आश्रम का यह 'शिक्षा-केंद्र' उन बच्चों के लिये उपयुक्त्त स्थान नहीं हैं जो इस रोग के शिकार हैं । और उनके आगे इस बात को अच्छी तरह प्रमाणित कर देने के श्रव्य ही हम उन्हें किसी प्रकार की परीक्षा के लिये या किसी सरकारी प्रतियोगिता के लिये तैयार नहीं करते और न हीं उन्हें कोई डिप्लोमा या उपाधि देते हैं जो बाहरी दुनिया मे उनके काम आ सके ।
हम यहां केवल उन्हीं बच्चों को चाहते हैं जो एक उच्चतर और श्रेष्ठतर जीवन की अभीप्सा करते हैं, जिनमें ज्ञान और पूर्णता की प्यास है, जो एक पूर्णता सच्चे भविष्य की ओर उत्कटता से निहारते हैं !
बाकी सबके लिये दुनिया काफी बड़ी है ।
(१७-७-१९६०)
शारीरिक शिक्षा- विभाग में आपने सब आवश्यक व्यवस्था कर रखी है ताकि शारीरिक प्रशिक्षण द्वारा हम सब संभव तरीकों के अपने शरीर को विकसित कर सकें और इस तरह सर्वांगीण रूपांतर के महान कार्य में मांग लेने को तैयार हो जायें !
हम वर्षों सें खेल-कूद और सब तरह के शारीरिक व्यायाम सिखाते आ ने हैं लेकिन हम देखते हैं कि हमारे अधिकतर विद्यार्थी इस मूलमूत भाव को नहीं पकड़ पाते साधारणतया के मनोरंजन उत्तेजना आवेगमय विनोद और सब तरह की पसंद-नापसंद रहे बहक जाते हैं परिणामस्वरूप अनुशासन सदमावनर संकल्प दृढ़ निश्चय परिश्रम और सच्ची की जो निबल ही हमें प्रगति की ओर ले जाती है सामान्य कमी रहती है फुटबत्ह सांख्य श कोई उत्तेजक खेल उनमें खूब उत्साह जगाता है पर निष्ठा और एकाग्रता के लाख किया जानेवाले काम जो किन्हीं शारीरिक ' पर अधिकार पाने मे सहायता करता और अमुक दोषों को सुधार देता सदा ही बड़े प्रभावहीन ढंग ले किया जाता है विद्यार्थियों की बहुत बड़ी संख्या चाहे है छोटे हों श बड़े इस रोग ले ग्रस्त हैं ऐसे बहुत कम हैं जो शारीरिक शिला का अभ्यास ठीक से करते हैं इसे सामान्य अभ्यास मे उतारना कैसे सिखाया जाये?
चेतना का तत्त्व हीं बदलना होगा, चेतना का स्तर उठाना होगा, चेतना के धर्म को प्रगति करनी होगी ।
वस्तुस्थिति वैसी ही है जैसी तुमने बतायी है, क्योंकि अधिकतर बच्चों की चेतना
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शरीर में केंद्रित रहती है जो तामसिक होता हैं और प्रयास कम ही करना चाहता हैं । वे आराम की जिंदगी चाहते हैं, और उत्तेजना या खेल की प्रतियोगिता या होइ हीं उनमें इतनी-सी रुचि जगा पाती है कि है प्रयास करने के लिये तैयार हों सकें ।
इसके लिये, प्राणिक आवेग को जगाना होता है ताकि वह संकल्प में तीव्रता ला सके । प्रगति की भावना बौद्धिक संकल्प का अंश है जो उन बहुत थोड़े-से लोगों मे सक्रिय होती है जो अपने मे चैत्य पुरुष के साथ संपर्क मे होते हैं; बाद मे, उनमें जो मानसिक रूप से विकसित होते हैं और जो अपने विकास की आवश्यकता का अनुभव करते हैं और स्वयं पर काबू पाना चाहते हैं ।
मैंने बताया है कि इलाज है चेतना को ज्यादा ऊंचे स्तर तक ले जाना । पर स्वभावत:, यह कप्तानों और प्रशिक्षकों की चेतना से आरंभ करना होगा ।
सबसे पहले तो इस बात की स्पष्ट परिकल्पना होनी चाहिये कि वे उनसे क्या पाना चाहते हैं जिनके लिये वे जिम्मेदार हैं; और सिर्फ इतना हीं नहीं, उन्हें खुद भी उन गुणों को प्राप्त करना होगा जिनकी वे उनसे अपेक्षा रखते हैं । इसके अतिरिक्त, इन गुणों के साथ-साथ उन्हें अपने चरित्र और कार्य में अत्यधिक धैर्य, सहनशीलता, सद्भावना, समझ और निष्पक्षता विकसित करनी होगी । उनमें न तो पसंद-नापसंद होनी चाहिये, न आकर्षण या घृणा की भावना ।
इसलिये यदि हम चाहें कि विद्यार्थी अपनी ओर से इस सच्ची मनोवृत्ति को अपनाएं तो कप्तानों के इस नये दल को श्रेष्ठ लोगों का दल होना चाहिये, ताकि वे उनके सामने अच्छा उदाहरण रख सकें ।
अतः, मैं सबसे कहती हूं : सच्चाई से काम में लग जाओ, देर-सवेर बाधाएं कक्ष हो जायेंगी ।
(५ -७-१९६१)
हमारे शारीरिक प्रशिक्षण के कार्यक्रम मे कुछ ऐसी क्रियाएं हैं जो औरों की अपेक्षा अधिक गंभीर होती हैं और एकाग्रता की अपेक्षा रखती हैं; ये सहज हीं बच्चों को उठा देती हैं क्या कप्तानों को अपने दत्त को इस तरह व्यवस्थित करना चाहिये कि जो कुछ सिखाये वह लइचकर और मनोरंजक हरे या बच्चों को अपने अंदर रुचि पैदा करने की कोशिश करनी चाहिये?
दोनों चीजें अनिवार्य हैं और, जहांतक हो को, दोनों को हमेशा रहना चाहिये ।
शिक्षक उन्हें जो कुछ सिखाये उसमें थोडी-सी कल्पना और आविष्कारशील नमनीयता के साथ कुछ आकर्षक और कुछ अप्रत्याशित मिला देना चाहिये ।
अपनी ओर से, बच्चों को, खुद ही प्रगति के लिये संकल्प और अभिरुचि को
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संवारते हुए, वे जो कुछ मी करें उसमें सतत रुचि पैदा करनी चाहिये ।
जबतक ऐसा न हों जाये तबतक कप्तान बच्चों को उनके व्यायामों की व्यवस्था का थोड़ा-बहुत भार सौंप दें ताकि जो विचार उन्हें सूझते हों, यदि है ठीक हों तो ठनाका यथासंभव उपयोग हो सके ।
यदि सहयोग और उत्तरदायित्व की भावना बच्चों मे जगायी जाये तो बे जो कुछ करते हैं उसमें रुचि लेंगे और उसे खुशी से करेंगे ।
(२१ -७ -१९६१)
हम प्रायिक दिन खेल से पहले और बाद में एक मिनट के लिये मन को एकाग्र करते हैं इस एकाग्रता के समय हमें क्या करने का प्रयास करना चाहिये ?
पहले, तुम जो कुछ करने जा रहे हों उसे भगवान् को अर्पित करो, ताकि वह समर्पण की भावना से किया जा सके ।
बाद में, भगवान् से प्रार्थना करो कि तुम्हारे अंदर प्रगति के संकल्प की वृद्धि हो ताकि तुम उनकी सवा के अधिकाधिक योग्य यंत्र बन सको ।
तुम शुरू करने सें पहले नीरवता मे आत्मनिवेदन भी कर सकते हो ।
और अंत में, भगवान् के प्रति चुपचाप कृतज्ञता अर्पित करो ।
मेरा मतलब है कि यह गति हृदय से, दिमाग में किसी शब्द के बिना की जाये ।
(२४ -७ -१९६१)
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मानव जीवन में सभी कठिनाइयों, सभी विसंगतियों, सभी नैतिक कष्टों का कारण होता है, हर एक के अंदर उपस्थित अहंकार और उसके साथ उसकी कामनाएं, उसकी रुचियां और अरुचिया । निःस्वार्थ काम मे भी जिसमें दूसरों की सहायता करनी होती हैं, जबतक तुम अहं और उसकी मांगो पर विजय पाना न सीख लो, जबतक तुम उसे चुपचाप और शांत रहकर एक कोने मे बैठने के लिये बाधित न कर सको, अहंकार हर उस चीज के विरुद्ध प्रतिक्रिया करता हैं जो उसे पसंद नहीं आती, एक आंतरिक तूफान खड़ा कर देता है जो सतह पर आता है और सारा काम बिगाड़ देता है ।
अहंकार पर विजय पाने का यह काम लंबा, धीमा और कठिन है; यह (काम) सतत चौकसी और निरंतर प्रयास की मांग करता है । यह प्रयास कुछ लोगों के लिये ज्यादा सरल होता है और कुछ लोगों के लिये ज्यादा कठिन ।
हम यहां आश्रम में यह काम मिलकर श्रीअरविन्द के ज्ञान और उनकी शक्ति की
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सहायता से करने के लिये हैं; हम इस कोशिश में हैं कि एक ऐसेसमाज चरितार्थ कर जो ज्यादा सामंजस्यपूर्ण; ज्यादा ऐक्य पूर्ण और परिणामस्वरूप, जीवन में ज्यादा सार्थक हो ।
जबतक मैं भौतिक रूप से तुम सबके साथ रहती थीं, मेरी उपस्थिति हीं तुम्हें अहंकार पर यह प्रभुता पाने में सहायता देती थी और इसलिये मुझे व्यक्तिगत रूप से इस विषय मे प्रायः बोलने की जरूरत न होती थी ।
परंतु अब यह प्रयास हर व्यक्ति के जीवन का आधार होना चाहिये, विशेष रूप से तुममें से उन लोगों के लिये जो जिम्मेदारी की स्थिति में हैं और जिन्हें औरों की देखभाल करनी होती है । नेताओं को हमेशा उदाहरण रखना चाहिये, जो लोग उनकी देख-रेख मे हैं उनसे वे जिन गुणों की मांग करते हैं स्वयं उन्हें उन गुणों को आचरण मे लाना चाहिये; उन्हें समझदार, धीर, सहनशील, सहानुभूति पूर्ण होना चाहिये, उनमें ऊष्मा और मैत्रीपूर्ण सद्भावना होनी चाहिये, लेकिन अपने लिये मित्र जुटाने की अहंकारपूर्ण वृत्ति से नहीं, बल्कि उदारता के दुरा, ताकि वे औरों को समझ सकें और उनकी सहायता कर सकें ।
सच्चा नेता होने के लिये अपने-आपको, अपनी रुचियों और पसंदों को क्या जाना अनिवार्य हैं ।
मै अब तुमसे इसी की मांग कर रहीं हू ताकि तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को उस तरह निभा सको जैसे निभाना चाहिये । और तब तुम अनुभव करोगे कि जहां तुम अव्यवस्था और अनैक्य देखते थे, है गायब हों गये हैं और उनकी जगह सामंजस्य, शांति और आनंद ने ले लीं है ।
तुम जानते हो कि मै तुमसे प्रेम करती हूं और मै तुम्हें सहारा देने, तुम्हारी सहायता करने और रास्ता दिखाने के लिये हमेशा तुम्हारे साथ हूं ।
आशीर्वाद ।
(२६ -८ -१९६९)
कुछ बच्चे पूछते हैं कि यहां छछिया बिताने का सबसे अच्छा तरीका क्या है !
यह कोई रोचक काम करने का, कुछ नया सीखने का या अपने स्वभाव या पढ़ाई मे किसी कमी को सुधारने-संवारने का बहुत अच्छा अवसर है ।
यह किसी काम का स्वतंत्र चुनाव करने का और इस तरह अपनी सत्ता की सच्ची क्षमताओं को खोजने का बहुत अच्छा मौका हैं ।
(१-११-१९६९)
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क्या आपको यह पसंद हैं कि चुटियों में विद्यार्थी अपने माता-पिता क्वे पास जायें या कहीं बाहर जाकर ' बितायें?
यह कहा जा सकता हैं कि छुट्टियों में बच्चे जो कुछ करते हैं वह इसका प्रमाण हैं कि वे क्या हैं और अपने यहां के निवास सें कितना लाभ उठा पाते हैं । इस तरह, हर एक के लिये बात अलग-अलग होती है और उसकी प्रतिक्रिया का गुण उसके चरित्र का गुण सूचित करता हैं ।
सच पूछो तो, जो विद्यार्थी कुछ और करने की अपेक्षा यहां रहना पसंद करते हैं, वै ही यहां की शिक्षा से पूरी तरह लाभ उठाने के योग्य हैं और उनमें जिस आदर्श की शिक्षा यहां दी जात्रा हैं उसे पूर्णतया समझने की क्षमता हैं ।
(२ -११ -१९६९)
क्या इसका अथ छ जो बाहर जाते हैं बे उस आदर्श को जिसकी उन्हें यहां शिला दी जाती है तरह समझने मे असमर्थ हैं या हम उन्हें अपना आदर्श समझाने मे असमर्थ हैं?
मैं यह नहीं कहती कि यहां की शिक्षा पूर्ण और वैसी हीं हैं जैसी होनी चाहिये । पर यह निश्रित है कि विद्यार्थियों की एक अच्छी संख्या बहुत रुचि रखती है और अच्छी तरह समझती हैं कि यहां कुछ ऐसा है जो और कहीं नहीं मिल सकता ।
अतः, ऐसे विद्यार्थियों को ही यहां रहना चाहिये, और चूंकि मांग पूरी करने के लिया हमारे पास जगह की कमी है, इसलिये चुनाव करना आसान रहेगा ।
(३ -११-१९६९)
क्या यह आदर्श उन्हें सिखाया जा सकता है जो इसे नहीं समझ सकते और इसे उन्हें कैसे सिखाया जाये? क्या हम शिक्षक और प्रशिक्षक? इस कठिन कार्य को करने के योग्य हैं?
हम जो सिखाना चाहते हैं वह सिर्फ एक मानसिक आदर्श नहीं हैं, वह हैं एक नये जीवन की परिकल्पना और चेतना की एक उपलब्धि । सभी के लिये यह उपलब्धि
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नयी हैं, और इसे दूसरों को सिखाते का एक ही सच्चा तरीका हैं : इस नयी चेतना के अनुसार खुद जीना और इसके द्वारा अपने-आपको रूपांतरित होने देना । उदाहरण सें बढ़ी कोई और सीख नहीं हैं । दूसरों से कहना : '' अहंकारी मत बनो, '' कुछ अर्थ नहीं रखता, पर यदि कोई सब प्रकार के अहं से मुक्त हो तो वह औरों के लिये शानदार उदाहरण बन जाता हैं; और जो 'परम सत्य' के अनुसार कार्य करने की सच्ची अभीप्सा करता हैं, वह अपने आस-पास रहनेवालों पर एक छूत का-सा प्रभाव डालता हैं । अतएव उन सबका, जो प्रशिक्षक या अध्यापक हैं, पहला कर्तव्य हैं स्वयं उन गुणों का उदाहरण बनना जो हैं दूसरों को सिखाना चाहते हैं ।
और यदि, इन शिक्षकों और प्रशिक्षकों मे कुछ ऐसे हैं जो इस पद के योग्य नहीं हैं, क्योंकि हैं अपने चरित्र के दुरा बुरे उदाहरण रखते हैं, तो उनका पहला कर्तव्य हैं अपने चरित्र और अपनी क्रिया को बदलकर योग्य बनना; और कोई उपाय नहीं हैं! आशीर्वाद ।
(४ -१ १ -११६९)
आपके बिचार मै आश्रम के किसी शिक्षक या प्रशिक्षक मे कौन-से गुण आवश्यक हैं? यदि कोई शिक्षक अनुभव करे कि उसमें इस काम को ठीक तरह करने की योग्यता नहीं है ती क्या यह अच्छा न होगा कि वह इस काम को छोड़ दे? क्योंकि हमारी वजह सें बच्चों को हानि होती है है न?
यहां के शिक्षकों और प्रशिक्षकों में चाहे कितनी खामियां क्यों न हों, है बाहर के शिक्षकों से सदा अच्छे होंगे । कारण जो यहां काम करते हई वे पारिश्रमिक के लिये नहीं करते, वरन एक उदात्ता आदर्श की सेवा के लिये काम करते हैं । यह जानी हुई बात है कि हर एक, उसमें चाहे जो गुण और क्षमताएं क्यों न हों, उस आदर्श की सिद्धि की ओर निरंतर प्रगति कर सकता हैं और करते जाना चाहिये जो अब भी वर्तमान मानव उपलब्धियों सें बहुत ऊंचा है ।
पर यदि कोई सचमुच अच्छे-से-अच्छा करने को उत्सुक हैं तो वह काम करते- करते हीं प्रगति करता जाता हैं और अधिक-से-अधिक अच्छा करना सीखता हैं ।
आलोचना कभी-कदास ही उपयोगी होती हैं, वह सहायता करने के बदले निरुत्साहित ही अधिक करती है । हर शुभ संकल्प को बढ़ावा देना चाहिये, क्योंकि ऐसी कोई प्रगति नहीं जो धैर्य और सहनशीलता से साधित न हो सके ।
मूल बात तो यह हैं कि व्यक्ति में यह विश्वास होना चाहिये कि चाहे जितना उपलब्ध हो चुका हो फिर भी उसके अंदर इच्छा हो तो वह हमेशा ज्यादा अच्छा कर सकता हैं ।
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जिस आदर्श को प्राप्त करना हैं वह है आत्मा और चरित्र की अचूक समता, हर कसौटी पर अटल धीरता और, स्वभावतः, पसंद-नापसंद और कामना का अभाव ।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जो सिखाता हैं उसके काम की उचित पूर्ति के लिये अनिवार्य शर्त है अहंकार का अभाव; और ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो इस प्रयास की आवश्यकता से बच सकें ।
लेकिन, मैं दोहराती हूं, और कहीं की अपेक्षा, यह प्रयास यहां कहीं ज्यादा आसानी से किया जा सकता है ।
(५ -९१ -१९६९)
जो साधारण जीवन के सुख-मोम से जैसे सिनेमा होटल सामाजिक जीवन आदि ले आकर्षित होने हैं क्या उन्हें हमारे स्कूल मे पढ़ने के त्शिये आन? चखिये? क्योंकि ऐसा लगता हे कि सामान्यतया हमारे अधिकतर बिधार्थी हसीत्हिये अपनी छुखइयां बाहर बिताने जाते हैं और जब हैं वापिस आते हैं तो उन्हें हर बार अपने-आपको यहां के अनुकूल बनाने में काफी समय लग जाता हैं!
जो साधारण जीवन और उसकी उत्तेजना से बहुत ज्यादा आसक्त हों उन्हें यहां नहीं आना चाहिये, क्योंकि वे विस्थापित-से रहते हैं और अव्यवस्था पैदा करते हैं ।
किंतु उनके यहां आने से पहले यह जानना कठिन हैं, क्योंकि इनमें से अधिकतर लोग बहुत छोटे होते हैं, और उनका चरित्र अभी कच्चा होता है ।
लेकिन ज्यों ही दुनिया का पागलपन उन्हें अपनी पकड़ मे लेने लगे, तो उनके अपने लिये और दूसरों के लिये, यही अच्छा होगा कि हैं अपने माता-पिता के पास, और अपनी आदतों की ओर लौट जायें ।
(१४ -९१ -११६९)
यहां बहुत -से बच्चे हैं जिन्हें उनके माता-पिता ने केवल शिला के लिये यहां भेजा ३? यह भावना उनके अंदर अच्छी तरह धर कर गयी है कि है सिर्फ विद्यार्थी हैं और अध्ययन दूत इने के बाद यहां से चले जायेंगे
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जब हम जानते हैं कि इन बच्चों के सामने यह विचार स्पष्ट है कि दे क्या करना चाहते हैं तो क्या उन्हें अधिकारियों की ओर ले यहां सै चले जाने एवं कहीं और जा कर अध्ययन करने की सलाह देना अच्छा नहीं होश? अ चूंकि एक बार है स्वीकार कर लिये नये हैं अत: उन्हें अपना अध्ययन यहीं जारी रखने और इस करने देना चाहिये?
दुर्भाग्यवश, बहुत-से मां-बाप ऐसे हैं जो अपने बच्चों को यहां इसलिये नहीं भेजते कि उन्हें विशेष शिक्षा मिलेगी, बल्कि इसलिये कि आश्रम निः शुल्क शिक्षा देता है; फलस्वरूप उन्हें और कहीं की अपेक्षा यहां बहुत कम खर्च करना पड़ता हैं ।
पर इस सौदेबाजी के लिये बेचारे बच्चों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, और यदि वे इस योग्य हों तो हमें उन्हें अपने-आपको पूर्णत: विकसित करने का अवसर देना चाहिये । इसलिये हम यहां उन्हें स्वीकार कर लेते हैं जिनमें कुछ संभावना देखते हैं । और जब हमें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता हैं कि वे यहां की शिक्षा से कोई लाभ नहीं उठा पा रहे, केवल तभी हम उन्हें यहां से चले जाने की छूट देने के लिये तैयार हो जाते हैं और वह भी तब जब वे स्वयं जाना चाहें ।
(१५ -११ -१९६९)
जो बिधार्थी यह जानते हैं कि उन्हें अपनी शिला समाप्त कर लेने के बाद यह? ले चले जाना है क्या उन्हें समय-समय पर बाहर नहीं जाते रहना चाहिये ताकि बाद में दे स्वयं को साधारण जीवन के अनुरूप डाल सकें?
साधारण जीवन को अपनाने में कोई कठिनाई नहीं होती, इस गुलामी के सामने तो लोग जन्म सें हीं घुटना टेक हुए हैं, सभी इसे परंपरागत रोग की तरह ढोते रहते हैं । जिनका जन्म हीं मुकुल होने के लिये हुआ उन्हें भी इस विरासत से सच्ची मुक्ति पाने के लिये सतत और कठिन संघर्ष करना होगा ।
(१६-११-११६९)
जो छात्र अपनी करके च्छा सै बखर चले जायेने उनसे आप क्या आशा करती हैं? निचय ही उनमें और साधारण लोके मे काकी अंतर होना चखिये क्या होना क अंतर?
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प्रायः, इनमें से अधिकतर जब अपने-आपको सामान्य जीवन में पाते हैं तो इस अंतर को समझ लेते हैं और वे जो कुछ खो बैठे हैं उसके लिये पछताते हैं । उनमें से कम ही लोगों में इतना साहस होता है कि वे साधारण परिस्थितियों से प्राप्त सुविधाओं से मुंह मोड सकें, पर दूसरे भी जीवन का सामना उतनी अचेतना से उन लोगों की तरह नहीं फेरते जिनका आश्रम से कभी संपर्क नहीं रहा ।
हम जो काम कर रहे हैं वह किसी बदले की आशा सें नहीं, बल्कि मानवता की प्रगति मे सहायता पहुंचाने के लिये है ।
(१८-११-१९६९)
आपके बिचार में किस हद तक छात्रों पर अनुशासन थोपना शीक्ष या प्रशिक्षक का कर्तव्य है?
स्पष्टतः, छात्रों को अनियमितता, अशिष्टता या लापरवाही से रोकना अनिवार्य है; दुर्भावनापूर्ण और अहितकर शरारतें भी सहन नहीं की जा सकतीं ।
पर एक आम और सामान्य अपवादरहित नियम यह है कि शिक्षकों को, विशेषकर शारीरिक शिक्षा देनेवाले प्रशिक्षकों को सदा उन गुणों का जीवंत उदाहरण बनना चाहिये जिनकी वे छात्रों से मांग करते हैं; अनुशासन, नियमितता, शिष्ट व्यवहार, साहस, अध्यवसाय, प्रयास में धारिता शब्दों की अपेक्षा उदाहरण से अधिक अच्छी तरह सीख जाते हैं । और यह तो पक्की बात हैं : बच्चों के सामने वह कभी मत करो जिसके लिये तुम उन्हें मना करते हो ।
बाकी के लिये, हर स्थिति का अपना समाधान होता है, कौशल और विवेक सै काम लेना चाहिये ।
इसीलिये शिक्षक या प्रशिक्षक बनना अनुशासनों में सबसे अच्छा अनुशासन है, यदि कोई उसका पालन करना जाने ।
(२०-११-१९६९)
बच्चों को यह समझकर शरारत छोड़नी चाहिये कि शरारती होना शर्म की बात है, न कि सजा के डर से । '
१बाद में माताजी ने यह जोड़ दिया : ''यह पहला कदम है । जब वह इतनी कु तक आ गया वह और आगे प्रगति कर सकता है ओर अच्छा बनने का आनंद जान सकता है। ''
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पहली अवस्था में, वह सचमुच उन्नति करता हैं ।
दूसरी मे, वह मानव चेतना में एक पग और नीचे उतर जाता है, क्योंकि भय चेतना का अधःपतन है ।
(२१-११-१९६९)
क्या शिक्षाक या प्रशिक्षक का उत्तरदायित्व स्कूल या खेल के घंटों के साथ समाप्त हो जाता है?
मैं यह इसलिये पूछ रहीं हू क्योंकि साधारणतया हमारे बच्चे सड़कों पर बहुत महा आचरण करते हैं सड़क पर मनमाने ढंग. से चत्हती हैं बीच सड़क पर होकर गप्पें लगाते हैं और सबसे जटिल समस्या तो तब खड़ी होती है जब क्ष बिना बीत या बुरे के साड़कित्क चत्कते हैं या फिर एक ही समशील पर दो-दो सवार हो जाते हैं हूलसे हम मै ले किसी का कोई सरोकार नहीं होता क्योंकि यह काम क्वे घटों के बाद होता है?
और ' इसे बंद करने के लिये कोई कदम नहीं उठाता अत: नियम- पालन के प्रति उदासीनता इतनी बढ़ गयी है कि जिम्मेदार लोग मी स्व नियमों की अवहेलना करते हैं
ऐसी परेशान करनेवाली स्थिति का सबसे अच्छा इलाज है, जब सब बच्चे इकट्ठे हों (संभवत: खेल के मैदान में), तब उन्हें इस विषय पर छोटा-सा भाषण दिया जाये कि बड़कों पर कैसा आचरण करना चाहिये-- क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये । यदि उन्हें यह सब दिलचस्प बनाकर बताया जाये, और हो सके तो विनोदपूर्ण ढंग से, तो निक्षय हीं इसका असर होगा ।
क्या इसका अर्थ यह हुआ कि एक बार छात्रों को यह समझाने के बाद कि सड़क पर कैसा आरक्त करना चाहिये काम के घटों के बाद किये जाये उनके व्यवहार के प्रति हमारा कोई उत्तरदायित्व नहीं ख जाता?
जिस घटना को तुमने देखा न हों उसमें हाथ डालना कठिन हैं । गप्पी की बात हमेशा अनिच्छित रहती हैं । पर यदि कोई प्रशिक्षक अपने किसी छात्र के अशिष्ट आचरण के समय स्वयं उपस्थित हों, तो उसका बीच मे पड़ना समयोचित होगा, निक्षय हीं लेकिन
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इस शर्त पर कि छात्र के प्रति उसका व्यवहार स्नेह और सद्भावना से भरा हों । आशीर्वाद।
(२२-९९ -१९६९)
क्या आप यह ठीक नहीं समझती कि बच्चों को आश्रम के लिये कोई निःस्वार्थ काम करना सिखाना हमारी शिला के कार्यक्रम का अंग होना चाहिये कम-से-कम सप्ताह मे एक बार?
निःस्वार्थ काम करना सदा ही अच्छा होता है। पर यह और भी अच्छा होगा यदि काम मनोरंजक भी हो, उठा देनेवाला नहीं ।
(२६ -११ -९९६९)
हर साल हम ए-२ और ए-र दलों क्वे सर्वत्र छात्रों को विशेष पुरस्कार देते हैं इस वर्ष एक लड़के ने सतर्क-भर बहुत अच्छा काम किया लेकिन ईन छुट्टियों मैं वह अपने माना-पिता के पास चला क्या और उसने २ दिसंबर के खेलों के प्रदर्शन मे मान नहीं लिया क्या आपके विचार मे उसे इस वर्ष का पुरस्कार देना उचित होगा?
यह इस पर निर्भर हैं कि वह यहां से नया कैसे : उसने अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया है या वह स्वयं हीं जाना चाहता था । यदि वह स्वयं जाना चाहता था तो, उसके बाह्य गुण कुछ भी क्यों न हों, उसे यह पुरस्कार न देना हीं उचित होगा, क्योंकि देने का अर्थ होगा हम आंतरिक वृत्ति और विद्यार्थी के द्वारा नयी सृष्टि के लिये कल के मानव तैयार करने के लक्ष्य-जिसका हम अनुसरण कर रहे हैं- के बोध को कोई महत्त्व नहीं देते ।
(९ -१२ -१९६९)
क्या बच्चों को काम करने और उनमें रुचि जमाने के लिये कोई पुरस्कार या हमनाम देन? अभीष्ट है?
यह तो स्पष्ट है कि बच्चों के लिये यह श्रेयस्कर होगा कि वे अपनी चेतना के विकास
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के लिये अध्ययन करें और उन विषयों के बारे मे सीख़ें जिन्हें वे नहीं जानते; लेकिन उन्हें पुरस्कार देने मे कोई हर्ज नहीं जो विशेष रूप से अध्ययनशील, अनुशासन में रहनेवाले और काम में एकाग्र रहे हों ।
(१७-१२ -१९६९)
क्या आप यह ठीक समझती हैं कि यहां शिक्षक या प्रशिक्षक बनने के लिये खासकर बच्चों का प्रशिक्षक बनने के लिये अमुक अवधि तक आश्रम मे रहना आवश्यक हैं?
इसके लिये चेतना की एक खास वृत्ति का होना आवश्यक हैं- और दुर्भाग्यवश, आश्रम मे कई वर्ष रह लेने पर भी वह यथार्थ वृत्ति हमेशा नहीं आती ।
सच पूछो तो, शिक्षकों को जांच-परखकर नियुक्त करना चाहिये और देखना चाहिये कि वे इस यथार्थ वृत्ति को प्राप्त करके अपने-आपको अपने काम की आवश्यकता के अनुरूप ढाल सकते हैं या नहीं ।
(१९-१२-१९६९)
यहां मता -पिता और अभिभावकों कि क्या भूमिका है ? छात्रों कि अधिक अच्छी शिक्षा में बे किस तरह मदद दे सकते है!
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यहां, माता-पिता या अभिभावकों का पहला कर्तव्य है अपने बच्चों की दी जानेवाली शिक्षा का उदाहरण या शब्दों के द्वारा विरोध न करें ।
निश्चय ही, जो सबसे अच्छा काम वे कर सकते हैं वह यह हैं कि बच्चों को आज्ञापालन करने और अनुशासन मै रहने के लिये प्रोत्साहित करें ।
. (२४ -१२-१९६९)
वेश-मूषा फैशन और गहने के बारे मे आपकी क्या राय है?
आपके विचार मैं आश्रम-जीवन मे सुसंस्कृत अभिरुचि कैसी होनी चाहिये?
सौभाग्यवश, मेरी कोई राय नहीं ।
मेरे लिये सुसंस्कृत रुचि का अर्थ है सरल और सच्चा होना ।
(४-१-१९७०)
आपने हमें जो स्वतंत्रता दे रखे है उसे व्यवस्थित करना बच्चों की कैसे सिखाया जाये ?
बच्चों को तो सभी कुछ सीखना है । यही उनका मुख्य काम होना चाहिये ताकि अपने-आपको उपयोगी और सृजनशील जीवन के लिये तैयार करे ।
साथ-हीं-साथ, जैसे-जैसे बे बढ़े होते जायें, उन्हें अपने अंदर खोज करनी चाहिये कि वह चीज या चीजें कौन- सी हैं जिनमें वे सबसे ज्यादा रुचि लेते हैं ओर जिन्हें वे अच्छे ढंग से कर सकते हैं । सुप्त क्षमताएं होती हैं जिन्हें विकसित करना चाहिये । ऐसी क्षमताएं भी होती बे जिन्हें खोजा जा सकता हैं ।
बच्चे में कठिनाइयों पर विजय पाने की चाह जगानी चाहिये और यह भी कि यह (विजय) जीवन को विशेष मूल्य देती हैं; जब व्यक्ति ऐसा करना जान ले तो वह सदा के लिये अवसाद का नाश कर देता है और जीवन मे नयी रुचि पैदा कर देता है !
हम प्रगति करने के लिये धरती पर हैं और हमें सब कुछ सीखना है ।
(१४ -१-१९७१)
कल आपने लिखा था : ''समा क्षमताएं होती हैं जिन्हें विकसित करना
३३६
चाहिये ऐसी क्षमताएं मी होती हैं जिन्हें खोजा जा सकता है ''
इन क्षमताओं की खोज में शिक्षक या प्रशिक्षक की क्या भूमिका हैं?
शिक्षकों को एक किताब नहीं बनना चाहिये जो स्वभाव और चरित्र का भेद किये बिना, सबके लिये एक समान, ऊंची आवाज से पढ़ी जाये । शिक्षक का पहला कर्तव्य है कि वह छात्र को अपने-आपको जानने मे जिस चीज के योग्य उसकी खोज करने मे मदद दे ।
इसके लिये उसके खेलों की, वह सहज और स्वाभाविक रूप से जिन क्रिया- कलापों की ओर आकर्षित होता है और यह भी कि वह क्या सीखना पसंद करता है, क्या उसकी बुद्धि सजग है या नहीं, उसे कैसी कहानियां अच्छी लगती हैं, कौन-से कामों मे वह रस लेता है, कौन-सी मानवीय उपलब्धिया उसे आकर्षित करती हैं, ये सब उसे ध्यान मैं रखना होगा ।
शिक्षक को यह पता लगाना होगा कि जिन बच्चों का उस पर उत्तरदायित्व है उनमें सें हर बच्चा किस श्रेणी का 'है । और सतर्क निरीक्षण के पश्चात् यदि उसे दो या तीन असाधारण बच्चे मिल जायें जिनमें जानने की प्यास हों, प्रगति के लिये लगन हो, तो उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि जो शक्तियां उनका व्यक्तिगत विकास साधित करती हैं उनमें चुनाव की स्वतंत्रता देते हुए वह इस उद्देश्य के लिये उन शक्तियों का उपयोग करने मे उनकी मदद करे ।
एक साथ बैठे श्रेणी के बच्चों को एक हीं पाठ पढ़ाने का पुराना तरीका, निश्चय हीं मितव्ययी और आसान है, पर साथ हीं वह नितांत प्रभावहीन भी है, और इस तरह सबका समय बरबाद होता है ।
(१५-१-१९७२)
आपने लिखा है : ''सतर्क निरीक्षण के पड़ता यदि उसे (अध्यापक की) दो श तीन असाधारण बच्चे मिल जाये जिनमें जानने की प्यास हरे प्रगति क्वे लिये तगना हो तो उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि जो शक्तियां उनका व्यक्तिगत विकास साधित करती हैं उनमें चुनाव की स्वतंत्रता देते हुए वह इस उमेश के लिये उन शक्तियों का उपयोग करने में उनकी मदद करे ! ''
क्या आप यह कहना चखती हैं कि चुनाव की स्वतंत्रता सिर्फ असाधारण बच्चों को ही दी जानी चाहिये ? और दूसरों को?
मैंने चुनाव की स्वतंत्रता असाधारण छात्रों को देने की बात इसलिये कही है कि यदि सचमुच तुम पूर्णतः विकसित होने में उनकी मदद करना चाहो तो उनके त्शिये यह नितांत अपरिहार्य है ।
३३७
निस्संदेह, तुम सभी बच्चों को चुनाव की स्वतंत्रता दे सकते हों और यह उनके यथार्थ स्वभाव को जानने का एक अच्छा साधन है; पर उन में सें अधिकतर आलसी और पढ़ाई में कम रुचि रखनेवाली होंगे । लेकिन, दूसरी ओर, हो सकता हैं कि वे हाथ के काम में दक्ष हों और स्वेच्छा सें उन वस्तुओं को बनाना सीख़ें । इसे भी प्रोत्साहन त्रिलना चाहिये । इस तरह बच्चे समाज मे अपना ठीक-ठीक स्थान खोज जायेंगे और जब बड़े होंगे तो उस स्थान को भरने के लिये तैयार होंगे ।
सभी को यह सिखाना चाहिये कि वे जो कुछ करें अच्छी तरह करने के आनंद से करें, चाहे वह बौद्धिक काम हों या कलात्मक या शारीरिक, और विशेषकर यह सिखाना चाहिये कि काम कैसा भी क्यों न हो, यदि उसे यत्न और कुशलता सें किया जाये तो उसकी अपनी गरिमा है ।
(१६ -१ -१९७२)
क्या आपको विचार मे असाधारण बच्चों की शक्तियों को उनकी विशेष प्रतिमा क्वे काम मे लगाना पक्षीय श उन्हें पूरन विकास की ओर मोड़ना अधिक
यह पूरी तरह बच्चे और उसकी क्षमताओं पर निर्भर हैं ।
(९८-१-१९७२)
एक बार मैंने आपसे पूछा था कि बडों को आश्रम के लिये कोई निःस्वार्थ काम करना सिखाना मी हमारी शिला क्वे कार्यक्रम का अंग होना चाहिये या नहिं कम-से-कम सप्ताह मे एक बार और आपने कहा था :
''निस्वार्थ काम करना सदा ही अच्छा होता है पर यह और मी अच्छा होगा यदि काम मनोरंजक मी हरे उठा देनेवाला नहीं ''
क्या आप कोई सुझाव देगी कि इसे हमारे कार्यक्रम मे कैसे रखा जाये?
यदि बच्चे यह देख सकें कि कौन-कौन से काम हैं जिन्हें बे कर सकते हैं, तो उनमें कोई-न-कोई काम करने की रुचि जगेगी और यदि वे सचमुच समझदार हों तो यह उनके लिये खेल की तरह मनोरंजक बन जायेगा ।
(१८-१-१९७२)
३३८
जब आपने फाहा था कि बच्चों के खेलों को ध्यान ले देखना ', तब आपका आशय कितनी उम्र के बच्चों ले था?
यह पूरी तरह बच्चों पर निर्भर है । कुछ तो सात साल की उम्र में हीं सजग होते हैं, कुछ काफी समय लेते हैं ।
महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि बच्चों को खुद को देखने और परखने का अवसर दिया जाये ।
मां, सात साल सै लेकर कितने साल तक ?'
कह सकते हो करीब-करीब अठारह साल की उम्र तक । यह तो बच्चे-बच्चे पर निर्भर है । ऐसे बच्चे होते हैं जो चौदह या पंद्रह साल की उम्र में पूर्णतः विकसित हो जाते हैं । हर एक के लिये बात अलग होगी । यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर हैं... ।
आपने लिखा है ''विदरक की यह पता लगाना होगा कि उस पर जिन बच्चों का उत्तरदायित्व है उनमें से हर बच्चा किस श्रेणी का है ''
बच्चों की श्रेणी को कैसे पहचाना जाये?
उनका रहन-सहन देखकर ।
बच्चों को श्रेणीबद्ध करने के लिये उनके चरित्र को, उनकी आदतों और प्रतिक्रियाओं के निरीक्षण दुरा जानना होगा ।
शिक्षक को पाठ सुनाने का यंत्र नहीं बनना चाहिये, उसे मनोवैज्ञानिक और निरीक्षक बनना होगा ।
(११ -१ -१९७२)
मधुर मां क्या समान स्तर क्वे बच्चों को एक ही दल मे हरद्वार रखना चाहिये !
इसके अपने लाभ और असुविधाएं, दोनों हैं । छात्रों के दल इस आधार पर बनाने
१ जनवरी, ९९७२ की चिट्ठी ।
२मौखिक प्रश्र और उत्तर ।
३३९
चाहिये कि तुम उन्हें क्या दे सकते हों और तुम्हारे पास क्या सुविधाएं हैं । व्यवस्था नमनीय होनी चाहिये ताकि आवश्यकता के अनुसार उसे सुधार जा सके ।
एक अच्छा शिक्षक बनने के लिये गुरु की सूक्ष्म दिष्टि और उनका ज्ञान होना चाहिये और साथ ही सब कसौटियों के लिये धैर्य ।
(११-१-१९७२)
आपने कहा है : ''शिक्षकों का पहला कर्तव्य है कि वह छात्रों, को अपने- आपको जानने मे मदद दे ! ''
हम किस तरह अपने-आपको जानने मे छात्र की मदद कर सकते हैं? उसके लिये क्या यह जरूरी नहीं है कि हम खुद उच्चतर चेतना के अमुक्त स्तर तक पहुंच चुके हों ?
हां, जरूर । '
शिक्षक की मनोवृत्ति होनी चाहिये प्रगति के लिये सतत संकल्प, वह बच्चों को जो सिखाना चाहता है केवल उसी को ज्यादा अच्छी तरह जानने के लिये ही नहीं, बल्कि उससे भी बढ़कर वे क्या बन सकते हैं यह दिखाने के लिये उसका जीवंत उदाहरण बनना ।
(पांच मिनट के ध्यान के बाद) शिक्षक बच्चों से जो बनने की अपेक्षा रखता है उसे उसका जीता-जागता उदाहरण बनना चाहिये ।
(९९ -१ -१९७२)
क्या छात्रों को क अपने-आपको जानना सिखाते के लिये यही एक तरीका हैं!
ठीक तरीका बस यहीं हैं । यदि शिक्षक उनसे कहें : ''झूठ नहीं बोलना चाहिये' ' और वह खुद झूठ बोले; ''गुस्सा नहीं करना चाहिये' ' और वह स्वयं गुस्सा करे-तो इसका फल क्या होगा? बच्चे न केवल अध्यापक पर विश्वास करना छोड़ देंगे, बल्कि उस पर भी जो वह सिखाता हैं...
१मौखिक उत्तर (यही वाक्य) ।
३४०
मां जो कुछ आप लिखती हैं मैं उसे हर रोज -मंडित कर लेती हूं और 'प ' उसे और अध्यापकों को दिखाने के लिये स्कूल ले जाता है और फेर (उसे पढ़कर) बड़े प्रसव होते हैं अब कई शिक्षक आपसे पूछने के लिर्य प्रश्र देने लगे हैं '
(हंसते हुए) अच्छी बात हैं! बड़ी अच्छी बात हैं!
(१९-१-१९७२)
जब बच्चे कि पहल करने की क्षमताओं क्वे आधार पर वर्गों को व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं तो हम देखते हैं कि मित्र-मित्र विषयों की पढार्ड क्वे स्तर में समानता नहीं होती? यह उन अध्यापकों के काम को कठिन बना देता हैं जिन्हें प्रतिहत पद्धति ले पडाने की आदत है ।
हम यहां हैं ही कठिन काम करने के लिये । यदि हम वही दोहराते रहें जो दूसरे करते हैं तो इसकी सार्थकता हीं क्या है; पहले हीं दुनिया में बहुतेरे विद्यालय हैं ।
जनता के अज्ञान को कु करने की कोशिश की गयी है और इसके लिये सबसे सरल पद्धतियां अपनायी गयी हैं । पर अब वह समय बीत गया हैं और मानवजाति ज्यादा और पुर्जा रूप से सीखने के लिये तैयार हैं । यह उनकी जिम्मेदारी हैं जो पथ- प्रदर्शनों की पंक्ति मे अग्रणी हैं ताकि दूसरे उनका अनुसरण कर सकें ।
(२१-१-१९७२)
बच्चों शोधक्षमताओं को खोजने. का अवसर देने और व्यक्तिगत विकास कंप पक्ष का अनुसरण करने के लिये हमारी शिक्षण-संस्था की व्यवस्था के बारे में आपकी क्या कल्पना है?
हम यहां यहीं करने की कोशिश कर रहे हैं । यह अध्यापक पर निर्भर है । मेरे पास कोई ऐसा सिद्धांत नहीं जिसे काम पर उतारा जा सके...
हम यहां यहीं करने में लगे हैं । पर इसे ठीक ढंग से कर पाना शिक्षकों पर निर्भर है, वे कितना कष्ट उठा सकते हैं और उनमें मनोवैज्ञानिक सुध-बूझ की कितनी क्षमताएं हैं । उसे विद्यार्थी के स्वभाव और उसकी क्षमता को जानने मे समर्थ होना
१मौखिक प्रश्र और उत्तर ।
२मौखिक उत्तर (सिर्फ यही अनुच्छेद) ।
३४१
चाहिये ताकि वह हर एक की आवश्यकता के अनुसार अपनी शिक्षा की रीति बदल सकें ।
२२-१-१९७२)
क्या शिक्षाको का वर्गीकरण होना चाहिये? क्या यहीं सबसे अच्छा तरीका है?
जब सभी को ज्ञान की एक समान साधारण उपयोगी नींव दे दी गयी हो, जैसे कि पढ़ना-लिखना, कम-से-कम एक भाषा अच्छी तरह बोल पाना, तोड़ी-सी सामान्य भूगोल की जानकारी, आज के विज्ञान का सामान्य ज्ञान और सामूहिक या सामाजिक जीवन के आचार-व्यवहार के कुछ अनिवार्य नियम जान लेने के बाद जब कोई एक या एक से अधिक विषय का गहराई से अध्ययन करना चाहे तो विषयवार वर्गीकरण महत्त्वपूर्ण होता हैं ।
किसी विषय के विस्मृत और गहरे अध्ययन की उचित उम्र बच्चे पर और उसकी सीखने की क्षमता पर निर्भर है ।
जल्दी हीं बेह हो जानेवाले बारह वर्ष की उम्र मे आरंभ कर सकते हैं । अधिकतर बच्चे शायद पन्द्रह वर्ष की उम्र मे आरंभ करें, सत्रह या अठारह मे मी हों सकता हैं। और जब कोई एक विषय पर प्रभुत्व पाना चाहता है, विशेषकर वैज्ञानिक या दार्शनिक विषय मे, तो उसे जीवन-भद्दा सखिने के लिये तैयार रहना चाहिये; अध्ययन कभी बंद नहीं होना चाहिये ।
(२२ -१ -११७२)
में फिर से उसी प्रश्र पर लतों रही ''बच्चों के वर्ग'' से आपका ठीक- ठीक क्या मतलब है?
क्या इन वर्गों मे केवल उनके चरित्र को ही ध्यान मे रखना चाहिये या हूनकी रुचियों को मी?
चरित्र के वर्ग ।
बच्चों की संभावनाओं का मूल्यांकन करने के लिये साधारण नैतिक विचार कम हीं उपयोगी होते हैं । विद्रोही, अनुशासनहीन, जिद्दी स्वभाववाले प्रायः अपने अंदर वे गुण छिपाये रहते हैं जिनका उपयोग करना सीखा नहीं गया हैं । हो सकता हैं कि निठल्ला भी शांति और धैर्य की बड़ी संभावनाओं को छिपाये हों ।
३४२
खोजने के लिये पूरी दुनिया पड़ी हैं और सरल समाधान शायद हीं किसी काम के होते हों । विभित्र चरित्र को पहचानने और उन्हें अच्छी तरह उपयोगी बनाना जानने के लिये अध्यापकों को छात्रों सें कहीं ज्यादा मेहनत करनी होगी ।
(२३ -१ -११७२)
कल आपने आचार- व्यवहार के नियमों के बारे मे बताया था ! सामूहिक जीवन मे आप आचरण के कौन- से नियमों की अनिवार्य मानती हैं!
धैर्य, अध्यवसाय, उदारता, उदात्ता या विशाल मन, सूक्ष्म दिष्टि, शांत और व्यापक दृढ़ता और अहं पर तबतक प्रभुत्व जबतक कि वह पूरी तरह वश में न आ जाये या उसका अंत हीं न हो जाये ।
मां यह ठीक वही बात ' जो मैं आपसे पूछना थी मैंने ''आचार- व्यवहार क्वे नियम' ' का महत्ता ''शिष्टाचार' ' समझा था !
शिष्टाचार सामान्य जीवन के नैतिक नियम हैं और इनका हमारे दृष्टिकोण से कोई महत्त्व नहीं !
(२३-१-१९७२)
आपने फाहा श कि चरित्र के अनुसार छात्रों का वर्गीकरण करना ! अपनी अज्ञान की वर्तमान अवस्था में हम एक वर्गीकरण लादने का प्रयास करें तो क्या वह बहुत मनमाना और साथ बढ़ते हुए बच्चों के लिये एक खतरनाक खेल न होगा !
स्वभावत:, यह अंश होगा कि मनमाने और अज्ञानपूर्ण निर्णय न लिये जायें । यह बच्चों के लिये घातक होगा ।
मैंने जो कहा था वह उनके लिये हैं जो चरित्र को पहचानने और उसका ठीक मूल्यांकन करने में समर्थ हैं, नहीं तो. उसका फल घृणित और प्रचलित यांत्रिक शिक्षा से मी अधिक अनिष्टकारी होगा ।
(२४ -१ -१९७२)
३४३
आपने हमसे कुछ करने के लिये कहा है उसे कर सकने के लिये क्या शिक्षक का पहला कर्तव्य यह न होगा कि उतावल और मनमाने ढंग ले कुछ कर बैठने के पहत्हे सच्च ले कठोर योग-साधना करे?
जरूर!१
जो कुछ मैंने लिखा है वह आदर्श हैं जिसे चरितार्थ करना है; इसे कर सकने के लिये अपने-आपको तैयार करना होगा ।
इस प्रणाली को अपना सकने के लिये शिक्षक को सूक्ष्मदर्शी मनोवैज्ञानिक होना चाहिये और इसके लिये समय और अनुभव की आवश्यकता हैं ।
बच्चे के बिगो ललक को सूक्ष्मदर्शी मनोवैज्ञानिक एक गुरु होना बछिये आपको तो माध्यम ही है कि हम उससे कोसों छ हैं शिक्षक जैसे द्रव उसे देखते हुए शिला की प्रणाली को कैसे व्यवस्थित किया जाये ताकि सिखाते की पद्धति को सुधार? जा सके?
यह जानते हुए कि उन्हें सब कुछ सीखना हैं, वे जो कुछ कर सकें, करें । इस तरह उन्हें अनुभव होगा और वे अधिकाधिक अच्छा करेंगे । यह सीखने की उत्तम रीति हैं और यदि उन्होंने इसे पूरी सच्चाई से अपनाया तो वे दो-तीन साल मे प्रवीण हों जायेंगे और सचमुच उपयोगी होंगे ।
स्वभावतया, इस तरह से किया गया काम सचमुच रोचक होगा और छात्रों की ही नहीं, शिक्षकों की भी प्रगति करायेगा ।
(२५ -१ -१९७२)
मधुर मा
बच्चों के बर्ग की तरह क्या अध्यापकों के भी-उनके पडाने के तरीके उनके दृष्टिकोण और कुछ काल विषयों मैं सहज पैठ के अनुसार- वर्य होने चाहिये ?
इसके लिये आवश्यक हैं कि जो पढ़ाई की व्यवस्था करते हैं उन्हें सूक्ष्मदर्शी
१ मौखिक उत्तर (यही वाक्य) ।
३४४
मनोवैज्ञानिक, सचेत होना चाहिये और उनमें बहुत सद्भावना होनी चाहिये, उन्हें यह पता हो कि उन्हें भी सीखना हैं और प्रगति करनी है ।
सच्ची मनोवृत्ति तो यह होनी चाहिये कि जीवन सतत अध्ययन का क्षेत्र है जहां सीखना यह सोचकर कभी बंद नहीं करना चाहिये कि हमें जो कुछ जानना चाहिये वह सब हम जानते हैं । हम सदा अधिक सीख सकते हैं और ज्यादा समझ सकते हैं ।
(२५-१-१९७२)
यदि बच्चे तो कि उम्र ले हैं? हलैक्दोनिक विभाग में क्रियात्मक काम करना चाहें तो क्या उन्हें प्रोत्साहन देना चाहिये?
हा, जरूर ।
(२५ - १ - १९७२)
काम कि इस पद्धति मे अध्यापक को हर छात्र क्वे लिये अलम-अत्हम काफी समय देना होगा पर अध्यापकों की संख्या इतनी नहीं है सभी सहायता मागनेवालों को यथासंभव संतुष्ट करते हुए उनकी मान पर केले ध्यान
इसके लिये कोई सिद्धांत नहीं बनाया जा सकता । यह व्यक्ति-विशेष पर, संभावनाओं और परिस्थितियों पर निर्भर है । यह एक मनोवृत्ति हैं जिसे शिक्षक को अपनाना चाहिये और अपनी शक्ति-भर अच्छी-से-अच्छी तरह काम में लाना चाहिये और संभव हो तो अधिकाधिक काम में लाना चाहिये ।
(२६ -१ -१९७२)
आपने उस काहा था कि ऐसे शिक्षक हैं जो योग्य नहीं हैं उन्हें पढ़ाना छोड़ देना चाहिये शिक्षक की क्षमता का मूल्यांकन करने का क्या मापदंड है?
पहले तो उसे यह समझना, यह जानना चाहिये कि हम क्या करना चाहते हैं और ठीक-ठीक यह समझे कि उसे कैसे किया जाये ।
दूसरे, उसमें छात्रों को समझने के लिये मनोवैज्ञानिक विवेक होना चाहिये, उसे यह पता होना चाहिये कि उसके छात्र कैसे हैं और क्या कर सकते हैं ।
३४५
स्वभावतः, जो विषय पढ़ता हैं उसमें वह पारंगत हो । यदि वह फ्रेंच पढ़ता हैं, तो उसे फ्रेंच आनी चाहिये । यदि वह अंग्रेजी, भूगोल, विज्ञान पढ़ता हैं, वह जो कुछ पढ़ता है उसे उसका ज्ञान होना चाहिये!
लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह हैं कि उसमें मनोवैज्ञानिक विवेक हो । '
(३१-१-१९७२)
आजकल बाहरा के विद्यालयों में विशेषकर पाश्चात्य देशों मे '' ' ' पर बहुल जोर दिया जा खा हैं!
''यौन शिक्षा' ' क्या है? वह क्या सिखाती हैं?
मुझे तो पसंद नहीं कि इन चीजों मे व्यस्त रहा जाये । हमारे समय में हम कभी इन विषयों में नहीं उलझा करते थे । अब बच्चे हर जड़ी इसी की चर्चा करते हैं-यह उनके दिमाग मे, उनकी भावना में घर कर गया है । यह बात घिनौनी है । यह कठिन हैं, बहुत कठिन है ।
लेकिन यदि बाहर इसकी चर्चा करते हैं तो यहां भी उसके बारे मे बताना चाहिये । उन्हें यह बता देना चाहिये कि इन चीजों का क्या परिणाम होता है । खासकर लड़कियों को बता देना चाहिये कि परिणाम घातक हों सकते हैं । मै जब छोटी थी, उस जमाने मे, कमी इन सब चीजों की चर्चा नहीं होती थी, इन विषयों में सिर नहीं खाया जाता था । उस जमाने में, इन सबके बारे में कोई बात ही नहीं करता था । मै नहीं चाहती कि यहां इस विषय पर बहस की जाये । इसीलिये तो तुम शारीरिक व्यायाम मे लगे रहते हो । इस तरह सारी शक्तियां बल, सुन्दरता, क्षमता आदि विकसित करने में काम आती हैं, और तुम्हें अधिकाधिक संयम करने का बल मिलता हैं । तुम देखोगे कि जो बहुत शारीरिक व्यायाम करते हैं वे आवेगों को दमन करने में अधिक सबल होते हैं । '
(ध्यान के बाद) जिस शक्ति का उपयोग मनुष्य प्रजनन में करते हैं और जिसने उनके जीवन मे एक गुरुतर स्थान बना लिया है, उस शक्ति का उपयोग उन्हें इसके विपरीत प्रगति और उच्चतर विकास के लिये करना चाहिये, नयी जाति के आगमन की तैयारी मे लगाना चाहिये । पर पहले शरीर और प्राण को कामनाओं से मुक्त्ति करना होगा; नहीं तो भयंकर अनर्थ होने का डर रहता हैं।
(१ -२ -११७२)
१मौखिक उत्तर ।
२मौखिक उत्तर (यहांतक हीं) ।
३४६
छोटे बच्चों और (उदाहरण के लिये चौदह या पन्द्रह सात् के बच्चों) के सक् शिक्षकों क्वे आचरण और उत्तरदायित्व में क्या मुख्य अंतर है?
स्वभावतया, जिस अनुपात में बच्चों की चेतना और बुद्धि विकसित होगी, उतना हीं उनकी मध्यस्थता सें हमारा वास्ता पड़ेगा ।
(३-२-१९७२)
क्या बच्चे को सजा देनी चाहिये?
सजा ? सजा से तुम्हारा क्या मतलब हैं? यदि एक लड़का कक्षा मे शोर मचाता हैं और दूसरों को काम करने से रोकता है तो उससे ठीक तरह व्यवहार करने के लिये कहना चाहिये; और यदि वह फिर भी करता रहे तो उसे कक्षा से निकाल देना चाहिये । यह, यह तो कोई सजा नहीं, यह तो उसके किये का सहज परिणाम हैं ! लेकिन सजा देना! सजा देना! तुम्हें सजा देने का कोई अधिकार नहीं । क्या तुम भगवान् हो? तुम्हें सजा देने का अधिकार दिया किसने? बच्चे भी तुम्हारी हरकतों पर तुम्हें सजा दे सकते हैं । क्या तुम स्वयं निर्दोष हो? क्या तुम जानते हो कि क्या अच्छा हैं और क्या खराब? केवल भगवान् जानते हैं । भगवान् को ही सजा देने का अधिकार हैं । '
तुम जैसे स्पंदन छोड़ते हो वैसे हीं स्पंदनों सें तुम्हारा संपर्क हो जाता हैं३ । यदि तुम बुरा और नाशक स्पंदन छोड़ तो यह बिलकुल स्वाभाविक होगा कि तुम वैसे ही स्पंदन को अपनी ओर आकर्षित करो और यहीं है सच्ची सजा, यदि तुम इसी शब्द का प्रयोग करना चाहो; पर यह दुनिया की भागवत व्यवस्था से कतई मेल नहीं खाता ।
प्रत्येक कार्य का अपना भला या बुरा परिणाम होता हैं, पर पुरस्कार या दंड का विचार निरा मानवीय विचार हैं जो 'सत्य-चेतना' की कार्य-पद्धति सें बिलकुल मेल नहीं खाता । यदि वह 'चेतना' जो दुनिया को चलाती है, मानवीय पुरस्कार और दंड की नीति से काम करती तो धरती कब की मनुष्यों से खाली हो चुकी होती ।
जब मनुष्य इतने पवित्र हो जायेंगे कि दिव्य स्पंदनों को विकृत किये बिना प्रसारित कर सकेंगे तब, दुनिया से दुःख-कष्ट मिट जायेगा । यहीं हैं एकमात्र उपाय ।
१मौखिक उत्तर (यहीं अनुच्छेद) ।
३४७
कुछ अध्यापकों ने मुझे लिखा है कि मैंने तुम्हें जो कुछ लिखा है वह उन्होंने पहा हैं और उससे उन्हें बहुत लाभ हुआ है । अतः तुम उन्हें दिखाना जारी रख सकतीं हो ।
यह प्रार्थना मां?
हां, यदि तुम इसे अलग कागज पर टंकी कर को, यह :
''हम भगवान् के सच्चे सेवक बनना चाहते हैं । ''
और इसके बाद प्रार्थना :
''परम प्रभु, 'पूर्ण चैतन्य', केवल तू ही ठीक-ठीक जानता हैं कि हम क्या हैं, हम क्या कर सकते हैं, हमें क्या प्रगति करनी है जिससे हम तेरी सेवा के योग्य और समर्थ हो सकें? जैसा कि हम चाहते हैं । हमें अपनी संभावनाओं के प्रति सजग-सचेतन बना, अपनी कठिनाइयों के प्रति भी ताकि हम निष्ठा के साथ तेरी सेवा करने के लिये उस पर विजय पा सकें । ''
उसके बाद यह-शेष अंश :
''भगवान् के सच्चे सेवक बनने मे हीं परम आनंद है । ''
ऐसे भी लोग हैं जिन्हें इससे लाभ पहुंचा हैं । क्या तुमने उन्हें अपनी कापी दिखायी ?
यह कापी (ध्यान की कापी) मैं सबको नहीं दिखाती? कापी से शिक्षा- संबंधी प्रश्रों को टंकित करके स्कूल भेज देती हूं पर यह कापी मैं सबको नहीं दिखती !
नहीं, यह तो तुम्हारे लिये है । लेकिन तुम इस तरह की चीजों की नकल कर सकतीं हो जो सबके लिये हो । तुम उन्हें सट्भावनावालों को दिखा सकती हो । बहुतों ने मुझे लिखा हैं कि इससे उन्हें बहुत लाभ हुआ है । इसलिये तुम उन्हें दिखाना जारी रख सकतीं हो ।
हां मैं यह कापी सभी को नहीं दिखाती क्योंकि मेरा ख्याल था कि आप जल्दी द्वि हलका उपयोम '' में करना चाहेगा !
सबका नहीं । उदाहरण के लिये, इसे मैं 'बुलेटिन' में छापना नहीं चाहूंगी ।
(१४-२-१९७२)
१इस तारीख (१४ फरवरी) का सारा वार्तालाप मौखिक हैं ।
३४८
आपने जैसा वर्गीकरण विद्यालय में करने क्वे लिये कहा थर क्या उसी तरह का वर्गीकरण शारीरिक शिला में मी होना चाहिये?
शारीरिक व्यायाम के लिये, सब कुछ शरीर और उसकी क्षमताओं पर निर्भर है । सरल और न थकानेवाले व्यायाम सभी को दिये जा सकते हैं ।
इसके बाद, सब कुछ उनके शरीर, उनकी शक्ति, उनके स्वास्थ्य, थकान के प्रति उनकी सहनशक्ति आदि, आदि पर निर्भर हैं ।
क्षमताओं के अनुकूल व्यायाम देना चाहिये और क्षमताओं के अनुरूप हीं बच्चों का वर्गीकरण होना चाहिये । यह अनुभव और निरीक्षण का प्रश्र हैं ।
शारीरिक शिक्षा का अच्छा शिक्षक बनने के लिये शरीर-विज्ञान, शरीर-अव्ययों के अलग-अलग काम, उनका विकास और उनकी क्रियाओं के बारे मे जानना चाहिये । (१६ -२ -१९७२)
क्या आप अनुशासन के बारे में कुछ लिखने की कृपा करेगी?
भौतिक जीवन के लिये अनुशासन अनिवार्य हैं । अंगों के सुचारु कार्य का आधार है अनुशासन । जब शरीर का कोई अंग या भाग सामान्य शारीरिक अनुशासन की अवज्ञा करता है ठीक तभी तुम बीमार पढ़ते हो ।
प्रगति के लिये अनुशासन अनिवार्य है । तुम दूसरों के लगाये अनुशासन से केवल तभी बच सकते हो जब तुम अपने अपर कठोर और ज्ञानयुक्त्त अनुशासन लगा सको । सर्वोत्कृष्ट अनुशासन हैं भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण और भावना मे या क्रिया- कलाप मे कहीं किसी की कोई सुनवाई न हों । इस समर्पण के कुछ भी न बच पाये- यहीं चरम और कठोर अनुशासन है ।
६१७-२ -१९७२)
कल आपने अनुशासन के बारे में लिखा था लेकिन आरोपित किये भैये उस अनुशासन क्वे बारे मैं हमारी क्या मनोवृत्ति होनी चाहिये जिसका सामान्य जीवन में हमें अनुसरण करना पड़ता है?
सामुदायिक जीवन में अनुशासन आवश्यक हैं ताकि कमजोर बलवान दुरा सताये न जायें; और जो लोग समाज में रहना चाहते हैं उन सभी को इस अनुशासन का मान करना चाहिये ।
३४९
किंतु यह अनुशासन उनके द्वारा लागू होना चाहिये जिनके मन सबसे विशाल हैं, यदि संभव हो तो ऐसों के द्वारा जो 'भागवत उपस्थिति' के प्रति सचेतन और समर्पित हों, ताकि समाज सुखी रह सकें ।
सह शक्ति उन्हीं के हाथों में होनी चाहिये जो 'भागवत इच्छा' के प्रति सचेतन हैं, ताकि धरती प्रसन्न रहे । पर अभी तो यह असंभव हैं क्योंकि जो 'भागवत इच्छा' के प्रति सचमुच सचेतन हैं उनकी संख्या नगण्य है, और चूंकि उनमें ऐसी कोई आकांक्षा भी नहीं है।
वास्तव में, जब इस उपलब्धि का समय आयेगा तो वह स्वभावतः अपनी जगह ले लेगा।
प्रत्येक का कर्तव्य है कि अपनी शक्ति-भर पूरी तरह अपने-आपको इसके लिये तैयार करे ।
(१८ -२ -१९७२)
मां कुछ लोग इस बात की आलोचना करते हैं कि शारीरिक शिला मै हमने बहुत सारे नियम बन? रखे हैं और बच्चों पर कडा अनुशासन लादते हैं
बिना अनुशासन के शारीरिक शिक्षा संभव नहीं है । कठोर अनुशासन के बिना स्वयं शरीर भी काम न कर सकेगा । असल मे, इस तथ्य को न स्वीकारना ही व्याधियों का मुख्य कारण हैं ।
पाचन, वृद्धि रक्त-संचरण, सब, सब कुछ हीं तो एक अनुशासन है चिंतन, गतियां, चेष्टाएं सभी तो एक अनुशासन है । यदि अनुशासन न हो तो लोग तुरत बीमार क्या जाते हैं । '
(१८-२-१९७२)
बिधार्थी खासकर? किशोर यह शिकायत करते हैं कि प्रायः वै उन शारीरिक व्यायामों को मी करने के लिये बाधित किये जाते हैं जिन्हें करना वे पसंद नहीं करते और जो उन्हें रुचिकर नहीं लगते मर क्या आप इसके बारे मे कुछ कहेंगी ?
हम धरती पर अपना मनचाहा करने के लिये नहीं हैं, बल्कि प्रगति करने के लिये हैं ।
शारीरिक व्यायाम तुम्हारे मनोरंजन या तुम्हारी सनको को तृप्त करने के लिये
मौखिक उत्तर (यहीं अनुच्छेद ।
३५०
नहीं, बल्कि शरीर को विकसित करने और मजबूत बनाने के लिये विधिवत् अनुशासन के रूप में बनाये गये हैं ।
सच्ची बुद्धिमानी तो यह है कि जो कुछ करो खुशी से करो, और यह संभव है यदि तुम जो कुछ करो उसे प्रगति का साधन बना लो । पूर्णता पाना बहुत कठिन है और इसे उपलब्ध करने के लिये हमेशा बहुत प्रगति की आवश्यकता होती हैं ।
सुख की खोज में जाना निखद हीं अपने-आपको दुःखी करने का सबसे अच्छा उपाय है ।
यदि तुम सचमुच शांति और आनंद चाहते हो तुम्हारी सतत लगन होनी चाहिये : ''मुझे ऐसी कौन-सी प्रगति करनी चाहिये ताकि मैं भगवान् को जान सकूं, उनकी सेवा कर सकूं?'''
तुम इसे 'च' को दिखा देना । जो कुछ बच्चे कहते हैं उस पर उसे कान नन्हा देना चाहिये था । वह बहुत दिनों से यहां है । उसे यह बात मालूम होनी चाहिये ।
यह (''सुख की खोज में जाना निक्षय हीं अपने-आपको दुःखी करने का सबसे अच्छा उपाय है' ') पूर्ण सत्य है । यह इस बात की पुष्टि करता हैं कि यदि तुम अपने क्षुद्र अहं को संतुष्ट करना चाहते हो तो तुम जरूर दुःखी होओगे । निश्चय हीं । अपने- आपको दुःखी करने का यह सबसे अच्छा तरीका हैं । यह कहना : '' ओह, यह मुझे उठा देता है; ओह, मुझे जो पसंद हों वह करना चाहिये; ओह फलाना मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता; ओह, जिंदगी मुझे वह नहीं देती जो मैं चाहता हूं !'' ओह!!! ''क्या मैं वह हू जो मुझे होना चाहिये?
''क्या मै वह करता हू जो मुझे करना चाहिये?
''क्या मैं उतनी प्रगति कर रहा हू जितनी मुझे करनी चाहिये?''
तब वह रोचक बन जाता हैं । समझे!
'' अपनी अगली प्रगति के लिये मुझे क्या सीखना चाहिये? मेरी कौन-सी कमजोरियां हैं जिन्हें मुझे सुधारना चाहिये? कौन-सी कठिनाई हैं जिसे मुझे पार करना है? मेरी कौन-सी कमजोरी है जिसे मुझे मिटाना ३?'' बस यहीं ।
और तब, स्वभावतया, अगले क्षण : ''भगवान् की सेवा करने और उन्हें समझने के लिये मैं कैसे समर्थ बानू ?'' बस यहीं!
मैंने खास तौर से इसे लिख दिया हैं ताकि तुम 'च ' को दिखा सको ।
हर्र मां वह यह बात जानती है परंतु वह जानना चाहती थी कि बच्चों को यह बात कैसे समझाती जाये?
हां, इतना ही कहना हैं ।
(१९ -२ -११७२) '
१लिखित प्रश्र और उत्तर । निम्नलिखित टिप्पणी मौखिक हैं ।
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शारीरिक शिक्षा के प्रशिक्षकों के लिये कुछ उपयोगी सुज्ञाव
(ये वाक्य प्रणव ने अंग्रेजी मे लिखकर माताजी को दिये
थे, और लगता है कि फ्रेंच मे इसका अनुवाद माताजी
और पवित्र ने किया था) ।
१.कक्षा में आने से पहले पाठ की तैयारी करके आओ । सोचो और हर ब्योरे को पहले से निर्धारित कर को ।
२.ठीक समय से जरा पहले आओ कक्षा के लिये जो कुछ जरूरी है उस सबकी जांच कर को और उसे तैयार रखो । काम में आनेवाले सभी उपकरणों को तैयार रखो ।
३.तुम खुद समय के पाबंद बनो और छात्रों से समय की पाबंदी का आग्रह करो ।
४.ठीक ढंग से क्ट्रपदे४ पहने और सीटी ले जाना मत भूलो ।
५.लड़को सें आग्रह करो कि ठीक ढंग की वरदी पहने ।
६.काम आरंभ करने से पहले कम-से-कम समय लो ।
७.अच्छी तरह बोलना और उत्तम आदेश देना सीखो ।
८.जब जरूरी समज्ञ तभी बोलो । तुम्हारी सभी व्याख्याएं संक्षिप्त होनी चाहिये । काम को प्रधानता दो !
९.प्रारंभिक कार्य मे यथार्थता पर बल दो । दैहिक फल पाने के लिये व्यायाम को बार-बार देहराओ ।
१०.खेल के समय खूब छूट दो और उसमें खुलकर खुशी से भाग लेने के लिये प्रोत्साहन दो । लेकिन उदासीनता और अनुशासनहीनता को प्रश्रय मत दो ।
११लड़कों में से हीं मुखिया को चुनो और कक्षा के कार्यों मे अच्छे फल के लिये उनका उपयोग करो ।
१२.ऐसा प्रयास करो कि लड़के अपने-आपको अनुशासित करने मे रस लें ।
१३.कक्षा की समझदारी को जगाओ ताकि छात्र कार्यक्रम मे अपनायी गयी क्रियाओं के तर्कसंगत और शिक्षात्मक मूल्य को समह्म ।
१४.व्यायाम की गतिविधि को कक्षा के पाठ के लिये पोषक द्रव्य का काम करना चाहिये और अंत तक उसे ठीक रीति से चलते रहना चाहिये : थकावट और परेशानी से बचने के लिये छात्रों की उस और उनकी क्षमता को ध्यान में रखकर सावधानी से व्यायाम का चुनाव करो ।
१५.थकावट और अब को दूर भगाते का मूल मंत्र हैं मनोरंजन ।
१६.और अधिक प्रयास के लिये प्रोत्साहित करने का सबसे अच्छा तरीका है अच्छे काम की सराहना ।
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१७. रुचि को बनाये रखने के लिये हेर-फेर और विविधता जरूरी हैं । और पाठ में मनोयोग को बनाये रखने के लिये जरूरी है व्यायाम और सातत्य ।
१८. हर श्रमसाध्य व्यायाम सें पहले शरीर को गरमा लेना नहीं भूलना चाहिये ।
१९.एक. स्वर्णिम नियम जिसे सदा याद रखना चाहिये : वे व्यायाम और क्रियाएं जिन्हें प्रशिक्षक अच्छी तरह जानता हैं एक लंबे अभ्यास के बाद हीं आसान बनी हैं, पर वे नौसिखिये के लिये नयी और कभी-कभी कठिन भी होती हैं । अतः प्रशिक्षक को एक ही दिन में पूर्णता की आशा नहीं करनी चाहिये ।
२०.जबतक छात्र धोरे-धीरे, सावधानी सें कठिन व्यायाम और कसरत के लिये तैयार नहीं हो जाते तबतक उन्हें ये चीजें करने की अनुमति कभी नहीं देनी चाहिये । बार-बार की असफलताओं आसानी से आत्म-विश्वास को नष्ट कर देती हैं ।
२१.जब प्रशिक्षक कुछ समझाये या दिखाये तब लड़कों को अर्धवृत्त में खड़े हो जाना चाहिये और छोटे कद के लड़कों को आगे । प्रशिक्षक को इस तरह खड़ा होना चाहिये कि वह सब को देख सके और छात्र भी अपनी-अपनी जगह से प्रशिक्षक को देख सकें ।
२२.सूरज की ओर मुंह करके छात्रों को कभी खड़ा नहीं करना चाहिये; जहांतक संभव हो उन्हें छाया मे ले आना चाहिये ।
२३.नियमित कार्यक्रम आरंभ करने से ठीक पहले पूरे दल को सावधान की मुद्रा मैं खड़ा करना अच्छा हैं । यदि जस भी बाधा आ जाये तो पूरे दल को आराम की मुद्रा में कर देना चाहिये । व्यर्थ मे छात्रों को सावधान की मुद्रा में रखना उचित नहीं, और जब छात्र सावधान की मुद्रा मे खड़े हों तो उन्हें जैसे-तैसे खड़े होने देने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
२४.प्रत्येक पाठ का आरंभ सिलसिलेवार और आकर्षक ढंग उ होना चाहिये और समाप्ति भी उसी आकर्षक ढंग सें हो । पाठ के आरंभ के कुछ पहले पूरे दल को कुछ क्षणों के लिये सावधान की मुद्रा मे खड़ा होना होगा और छुट्टी देने के ठीक पहले भी इसी क्रम को दोहराना चाहिये । यह क्रिया में एकाग्रता और सचेतन प्रयास को सरल बनाता और उसके सामने एक लक्ष्य रखता है ।
२५.सारी शारीरिक क्रियाओं के पहले ''सुरक्षा '' का मूलमंत्र होना चाहिये ।
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