Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
रूपांतर
हम चाहते हैं सर्वागीण रूपांतर, शरीर और उसके सभी क्रिया-कलापों का रूपांतर । परंतु इसका एक प्रथम पूर्ण रूप से अनिवार्य पग हैं : चेतना का रूपांतर जिसे और कोई चीज आरंभ करने से पहले पूरा करना होगा । यह कहने की जरूरत नहीं कि इस विषय मे हमारी यात्रा का प्रारंभ-स्थल होगा इस रूपांतर की अभीप्सा और इसे सिद्ध करने का संकल्प; उसके बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता । परंतु अभीप्सा के साध यदि एक प्रकार का आंतरिक उद्घाटन, एक प्रकार की ग्रहणशीलता भी आ जूठे तो व्यक्ति एक ही छलांग में इस रूपांतरित चेतना में प्रवेश कर सकता है और वहीं बना रह सकता है । कहा जा सकता है कि चेतना का यह परिवर्तन अकस्मात् होता है; जब होता हैं तो एकाएक हों जाता है , उसकी तैयारी भले हीं बहुत धीरे-धीरे और दीर्घकाल सें होती आयी हो । मैं यहां मानसिक दृष्टिकोण मे होनेवाले किसी सामान्य परिवर्तन की बात नहीं कह रहीं, बल्कि स्वयं चेतना के परिवर्तन की बात कह रहीं हूं । यह एक प्रकार से पूर्ण और विशुद्ध परिवर्तन हैं, आधारभूत स्थिति मे होनेवाली एक क्रांति है; यह प्रायः गेंद को भीतर से बाहर उलट देने के जैसी बात है । इस परिवर्तित चेतना मे प्रत्येक चीज केवल नयी और भिन्न हीं नहीं मालूम होती, बल्कि पहले साधारण चेतना को जैसी मालूम होती थीं उससे प्रायः उलटी प्रतीत होती हैं । साधारण चेतना मे तुम धीरे-धीरे चलते हो, एक-के-बाद-एक प्रयोग करते हुए चलते हो, अज्ञान से किसी सुदूर-स्थित और यहांतक कि, संदिग्ध शान की ओर जाते हो । पर रूपांतरित चेतना में तुम ज्ञान से आरंभ करते हो, और ज्ञान से ज्ञान की ओर अग्रसर होते हो । फिर भी, यह है आरंभ हीं, क्योंकि बाहरी चेतना, बाहरी और क्रियाशील सत्ता के विभिन्न स्तर और अंश एक भीतरी रूपांतर के फलस्वरूप, धीरे-धीरे और क्रमश: हीं रूपांतरित होते हैं ।
वह वास्तव में चेतना का एक आशिक परिवर्तन है जिसके कारण तुम उन सब चीजों में बिलकुल रस लेना छोड़ देते हो जो पहले वांछनीय लगती थीं; लेकिन यह तो केवल चेतना का एक परिवर्तन है , वह चीज नहीं है जिसे हम रूपांतर कहते हैं । क्योंकि रूपांतर तो एक मौलिक और निरपेक्ष वस्तु हैं; वह एक परिवर्तन मात्र नहीं है, बल्कि चेतना का एकदम उलट जाना है : मानो सारी सत्ता एक चक्कर खा गयी हो और एक और ही स्थिति मे जा खड़ी हुई हो । इस उलटी हुई चेतना में हमारी सत्ता जीवन और वस्तुओं से ऊपर खड़े होती है और वहां से उनके साथ व्यवहार करती है; वह केंद्र मे होती है और वहीं सें अपनी क्रिया बाहर की ओर चलाती हैं । जब कि साधारण चेतना मे हमारी सत्ता बाहर और नीचे खड़ी रहती है : बाहर से वह केंद्र में आने के लिये प्रयास करती है, नीचे से वह अपने अज्ञान और अंधापन के बोध्य तले दबी हुई उनसे ऊपर उठने के लिये जी-तोड़ संघर्ष करती है । साधारण चेतना यह नहीं
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जानती कि वास्तव में चीजें कैसी हैं; वह केवल ऊपरी छिलके को, कठोर आवरण को ही देखती हैं । परंतु सच्ची चेतना केंद्र मे, सद्वस्तु के हृदय में रहती हैं और समस्त गतिविधि और क्रिया-कलाप के मूल को अपनी सीधी दृष्टि से देखती है । अंदर और अपर रहते हुए यह सभी वस्तुओं और शक्तियों के मूल उद्गम, कारण और परिणाम को जानती हैं ।
मै फिर दुहरा रही हूं, चेतना का यह मलटना आकस्मिक होता हैं । कोई चीज तुम्हारे अंदर खुल जाती हैं और तुम अपने को तुरत-फुरती एक नवीन जगत् मे पाते हो । यह परिवर्तन आरंभ सें हीं संभव हैं कि अंतिम और सुनिश्चित न हो इसे स्थायी रूप से जमाने और तुम्हारा सामान्य स्वभाव बनने के लिये समय की आवश्यकता होती हैं । परंतु एक बार परिवर्तन हो जाये तो वह तत्त्वतः, सदा के लिये बना रहता है; और उसके बाद जिस चीज की जरूरत होती हैं वह है अपनी ठोस अभिव्यक्ति के लिये उसका पूर्ण ब्योरे के साथ कार्यान्वित होना । रूपांतरित चेतना की पहली अभिव्यक्ति हमेशा आकस्मिक प्रतीत होती है । तुम्हें यह नहीं लगता कि तुम धीरे-धीरे और क्रमश: एक चीज सें दूसरी चीज मे बदलते जा रहे होरा बल्कि यह अनुभव करते हो कि तुम एकाएक एक नयी चेतना में जाग्रत् हो गये हो या जन्म पा रहे हो । मन का कोई मी प्रयास यह परिवर्तन नहीं ला सकता; क्योंकि मन से तुम यह कल्पना हीं नहीं कर सकते कि यह क्या चीज है और मन का कोई मी वर्णन यथार्थ नहीं हों सकता ।
यही समस्त, सर्वांगीण रूपांतर का प्रारंभ है ।
('बुलेटिन', अगस्त १९५०)
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