Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
शारीरिक शिक्षा
मानव चेतना के जितने मी स्तर हैं उनमें भौतिक स्तर एक ऐसा स्तर है जो पूरी तरह से पद्धति, व्यवस्था, अनुशासन और प्रणाली के दुरा नियंत्रित होता है । जड़-तत्त्व में जो नमनीयता और ग्रहणशीलता का अभाव है उसके स्थान पर हमें पूरे झल्ले के साथ एक ऐसा सुसंगठन ले आना होगा जो सच्चा भी हों और व्यापक भी । इस सुसंगठन को लाते हुए, अवश्य ही हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि हमारी सत्ता के सभी लोक-लोकतंत्र परस्पर-संबद्ध एक-दूसरे पर आश्रित और एक-दूसरे में प्रवेश किये हुए हैं । फिर भी, यदि किसी मानसिक या प्राणिक आवेग को शरीर के अंदर व्यक्त होना हो तो उसे एक अनुचित और सुनिश्चित प्रणाली का अनुसरण करना होगा । यहीं कारण है कि शरीर की समस्त शिक्षा को, अगर उसे फलोत्पादक होना हो तो, कठोर और सविस्तार, पूर्वदर्शी और प्रणालीबद्ध होना होगा । उसे आदतों का रूप ग्रहण कर लेना होगा, क्योंकि शरीर सचमुच अम्यासों से गठित एक सत्ता है । परंतु वे सब अभ्यास संयमित और नियमित होने चाहिये और साथ हीं उनमें इतनी पर्याप्त मात्रा में लोच होनी चाहिये कि वे सभी परिस्थितियों और मानव आधार की वृद्धि और विकास की आवश्यकताओं के अनुकूल अपने को ढाल सकें ।
शरीर की समस्त शिक्षा एकदम जन्म के साथ ही आरंभ हों जानी चाहिये और जीवन-भर चलती रहनी चाहिये । उसके विषय मे ऐसा कभी नहीं कहा जा सकता कि उसका आरंभ बहुत जल्दी हो गया है अथवा वह बहुत देर तक चल रहीं है ।
शरीर की शिक्षा के तीन प्रधान रूप हैं : १. शारीरिक क्रियाओं को संयमित और नियमित करना, २. शरीर के सभी अंगों और क्रियाओं का सर्वांगपूर्ण, प्रणाली-बद्ध और सुसमंजस विकास करना और है. अगर शरीर में कोई दोष या विकृति हो तो उसे सुधारना ।
यह कहा जा सकता है कि जीवन के एकदम आरंभिक दिनों सें हीं, बल्कि करीब- करीब आरंभिक घंटों से हीं, बच्चे को भोजन, नींद, मलत्याग इत्यादि के विषय में पहले प्रकार की शिक्षा देती चाहिये । अगर बच्चा अपने जीवन के एकदम प्रारंभ से अच्छी आदतें डाल लें तो वह जीवन-भर बहुत-सी तकलीफों और असुविधाओं से बचा रहेगा, साथ हीं उसके जीवन के आरंभिक वर्षों में उसकी देखभाल का भार जिन लोगों पर होगा उनका काम भी बहुत अधिक आसान हो जायेगा ।
लोगों की यह मान्यता है कि अगर इस शिक्षा को युक्तिपूर्ण, उन्नत और फलदायी होना हों तो यह अवश्य हीं मानव शरीर के सरसरे ज्ञान पर, उसकी रचना और उसकी क्रियाओं के ज्ञान पर आश्रित होनी चाहिये । जैसे-जैसे बच्चा बड़ा हो, वैसे-वैसे उसे अपने अंग-प्रत्यंचों की क्रियाओं को देखने का अभ्यास कराना चाहिये ताकि वह उन्हें अधिकाधिक नियमित कर सके, इस बात का ध्यान रख सकें कि उनकी क्रियाएं
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स्वाभाविक और सुसमंजस हों । जहांतक उठने-बैठने, हिलने-डुलने एवं अन्य चेष्टाओं के ढंग का प्रश्र है, बुरी आदतें बहुत कम उम्र में और बहुत जल्दी हीं बन जाती हैं और वे सारे जीवन के लिये बड़े खतरनाक परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं । जो लोग शिक्षा के प्रश्र पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हैं, अपने बच्चों को स्वाभाविक ढंग से विकसित होने के लिये उत्तमोत्तम सुविधाएं देना चाहते हैं, उन सबको आवश्यक सूचनाएं और उपदेश आसानी से प्राप्त हो सकते हैं । आज इस विषय का अध्ययन अधिकाधिक सावधानी के साथ किया जा रहा है और बहुत-सी पुस्तकें प्रकाशित हुई और हों रहीं हैं जो इस विषय पर आवश्यक सभी प्रकार के निर्देश और ज्ञान प्रदान करती हैं ।
यहां मेरे लिये यह संभव नहीं कि इस विषय के समाधान के लिये पूरे ब्योरे के साथ इसकी कार्य-प्रणाली में प्रवेश करूं, और फिर प्रत्येक समस्या हीं अन्यों से मित्र है और समाधान भी प्रत्येक व्यक्ति के प्रसंग मे अलग और समुचित होना चाहिये । भोजन के प्रश्र का अध्ययन खूब विस्तार और सावधानी के साथ किया गया हैं; बच्चों के विकास मै सहायता देनेवाले खाद्य पदार्थों को साधारणतया लोग जानते हैं और उनका उपयोग कर लाभ उठा सकते हैं । परंतु यहां यह याद रखना बहुत आवश्यक है कि शरीर की सहज-बुद्धि जबतक कि वह ज्यों-की-त्यों बनी रहती है, सभी सद्धांतों से अधिक जानती है । यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे बच्चे स्वाभाविक ढंग से विकसित हों तो तुम्हें उन्हें ऐसा भोजन खाने के लिये बाध्य नहीं करना चाहिये जिससे है अब गये हों, क्योंकि शरीर में प्रायः एक सुलिखित सहज-बोध होता हैं जिससे वह जान लेता है कि उसके लिये कौन-सी चीज हानिकारक है । अवश्य ही, अगर बच्चा चंचल और मनमौजी हों तो बात दूसरी है ।
अपनी साधारण स्थिति मे, अर्थात् मानसिक धारणाओं या प्राणिक आवेगों का कोई हस्तक्षेप न हों तो, शरीर यह भली-भांति जानता है कि उसके लिये कौन-सी चीज अच्छी ओर आवश्यक है; पर इस प्रकार की स्थिति सामान्य रूप से केवल तभी आसकती है जब कि बच्चे को खूब सावधानी के साथ शिक्षा दी गयी हों और वह वासनाओं को, आवश्यकताओं को पृथक करना सीख गया हो । जो भोजन सादा और स्वास्थ्यप्रद हो, सार-तत्त्व से भरपूर और भूख बढ़ानेवाला हो, सब प्रकार की व्यर्थ की जटिलताओं से खाली हो, उसका स्वाद उसे पड़ता चाहिये । उसे अपने रोज के भोजन मे उन सब चीजों से अवश्य परहेज रखना चाहिये जो महज पेट को भर देती और भारीपन ले आती हैं; विशेषकर उसे यह सिखाना चाहिये कि वह अपनी भूख के अनुसार भोजन करे, न अधिक, न कम, और न अपने लोभ और पेटूपन को तृप्त करने का एक अवसर समझकर भोजन करे । बिलकुल बचपन से हीं हमें यह जान लेना चाहिये कि हम अपने शरीर को सबल और स्वस्थ रखने के लिये भोजन करते हैं, रसना के सुखों का उपभोग करने के लिये नहीं । बच्चे को वही भोजन देना चाहिये जो उसके स्वभाव के अनुकूल हो, स्वास्थ्य और स्वच्छता-संबंधी नियमों के अनुसार
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बना हों, जो खाने मैं स्वादिष्ट हा और फिर भी बहुत सादा हो ओर यह भोजन बच्चे की उस और उसके नियमित कार्य के अनुसार चूना और नपा होना चाहिये, इसमें वे सभी रासायनिक और शक्तिशाली तत्त्व होने चाहियें जो शरीर के सभी अंगों के विकास और संतुलित वृद्धि के लिये आवश्यक हैं ।
क्योंकि बच्चे को वही भोजन दिया जायेगा जो उसके स्वास्थ्य की रक्षा करने और आवश्यक शक्ति प्रदान करने के लिये आवश्यक होगा; हमें डस विषय मे खूब सावधान रहना चाहिये कि 'बच्चे को परेशान करने या दण्ड देने के एक उपाय के रूप में भोजन का उपयोग न किया जाये । बच्चे को यह कहने की आदत कि 'तुम अच्छे बच्चे नहीं हो, तुम्हें तीसरे पहर का कलेवा नहीं दिया जायेगा इत्यादि, बहुत हानिकारक है । ऐसा कहकर तुम उसकी उन्हीं-सी चेतना मे यह संस्कार उत्पन्न करते हो कि भोजन उसे मुख्यतः अपनी लोभ-लालसा को दृष्ट करने के लिये दिया जाता है, न कि इसलिये कि वह उसके शरीर के अच्छे ढंग से कार्य करते रहने के लिये अनिवार्य है ।
उसके बाद, एक दूसरी बात बच्चे को एकदम बाल्यकाल मे हीं सिखाना चाहिये और वह है- स्वच्छता और स्वस्थ आदतों के प्रति अनुराग । अगर तुम चाहते हो कि स्वच्छता के लिये यह अनुराग स्वास्थ्य के नियमों के लिये आदर-भाव बच्चे में दिखायी दें तो तुम्हें बड़ा सावधानी के साथ यह ख्याल भी करना चाहिये कि कहीं तुम उसके अंदर बीमारी का भय न भर दो । भय शिक्षा के लिये सबसे बुरा साधन हैं, क्योंकि भय अपने विषय को खींच ले आने का सबसे अधिक निश्रित पथ हैं । फिर भी, जहां एक ओर बीमारी का भय नहीं होना चाहिये, वहां दूसरी ओर उसमें किसी प्रकार की रुचि होनी भी उचित नहीं । यह एक प्रचलित विश्वास है कि तीक्ष्मा बुद्धिवाले लोगों का शरीर दुर्बल होता हैं । यह भ्रम है और इसका कोई आधार नहीं । संभवत: कभी एक युग था जब कि शारीरिक अस्तव्यस्तता के प्रति लोगों की एक विचित्र और गंधी रुचि थी, पर सौभाग्य की बात है कि वह प्रवृत्ति अब थ हो गयी है । आजकल लोग सुगठित, सुदृढ़, मांसल, बलिष्ठ और पूर्ण सुडौल शरीर की प्रशंसा करते हैं और उसका सच्चा मूल्य समझते हैं । पर, जो हो, बच्चों को यह शिक्षा देनी चाहिये कि वे स्वास्थ्य को आदर की दृष्टि से देखें, उस स्वस्थ मनुष्य की प्रशंसा करें जिसका शरीर बीमारी के आक्रमण को थ फेंक देने की कला जानता है । बहुत बार बच्चे बीमारी का बहाना करते हैं ताकि वे किसी आवश्यक, किंतु कष्टपूर्ण कार्य से बच जायें, उस कार्य से बच जायें जिसमें उनकी रुचि नहीं, अथवा उनके माता-पिता का हृदय पसीज जाये और वे उनकी इच्छा को तृप्त कर दें । बच्चे को यथासंभव शीघ्र-सें-शीघ्र यह भी सीखा देना चाहिये कि यह पद्धति बहुत लाभदायी नहीं है और बीमार हो जाने पर लोग तुम मे अधिक दिलचस्पी नहीं दिखलायेंगे, बल्कि उससे विपरीत अवस्था मै दिखलायेंगे । दुर्बल लोगों मे यह विश्वास करने की प्रवृत्ति होती हैं कि उनकी दुर्बलता
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उन्हें विशेष रूप से लोगों का प्रिय बना देतो हैं और वे लोग, यदि आवश्यक हों, अपने साथ और इर्द-गिर्द रहनेवाले लोगों का ध्यान. सहानुभूति अपनी ओर आकर्षित करने के एक साधन के रूप मे अपनी इस दुर्बलता का और, यहां तक कि, अपनी बीमारी का उपयोग करते हैं । किसी मा कारण सै इस घातक प्रवृति को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये । बच्चों को सिखाना चाहिये कि बीमार होना दोष-त्रुटि और हीनता का सूचक है , न कि किसी गुण या त्याग का ।
इसके लिये उत्तम बात यह हैं कि जब बच्चा अपने अंगों का व्यवहार करने योग्य हो जाये तब प्रतिदिन कुछ समय अपने शरीर के सभी भागों को विधिपूर्वक और नियमित रूप से विकसित करने मे लगाये । प्रत्येक दिन २० सै ३० मिनट तक- अगर संभव हों तो सवेरे बिछौने से उठने के बाद का समय अधिक अच्छा होगा-यदि लगाये जायें तो वे मांसपेशियों मे अच्छी गति ओर संतुलित वृद्धि ले आने के लिये पर्याप्त होंगे । साथ ही, उससे जोडों और रीढ़ की हड्डी का सख्त पंडू जाना भी रुक जाता है जो कि, साधारणतया, अपने समय रो पहले ही आ जाता हैं । बच्चों की शिक्षा के साधारण कार्यक्रम के अंदर खेल-कूद को काफी अच्छा स्थान देना चाहिये, इससे उसे समस्त औषध-जगत् की अपेक्षा, कहीं अधिक अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त होगा । अगर धूप में घंटा व्यायाम किया जाये (शारीरिक हरकत की जायें), तो कमजोरी या फल की कमी दूर करने मे वह बलवर्धक दवाओं (टनाकों) के समूचे भंडार से कहीं अधिक काम करता है । मैं तो तुम्हें यह सलाह दूंगी कि जबतक दूसरी तरह से काम चलाना पूर्ण रूप से असंभव न हो जाये तबतक कभी औषध मत ग्रहण करो; और इस '' पूर्ण रूप से असंभव' ' के विषय में मी तुम्हें पूर्ण रूप से कठोर होना चाहिये-इस स्थिति को सहज ही स्वीकार नहीं करना चाहिये । यद्यपि शरीर-चर्या के इस प्रोग्राम के अंदर कुछ प्रसिद्ध साधारण पद्धतियां हैं जिनके द्वारा शरीर का उत्तमोत्तम विकास किया जा सकता है; फिर भी, यदि किसी पद्धति को पूर्ण रूप सें फलदायी बनाना हो तो प्रत्येक व्यक्त्ति के लिये स्वतंत्र रूप से विचार करना चाहिये और उसके लिये कोई पद्धति निश्रित करने के लिये यदि संभव हों तो किसी सुयोग्य व्यक्ति की सहायता लेन चाहिये, अथवा इस विषय से संबंधित पुस्तकों का अवलोकन करना चाहिये । ऐसी पुस्तकें काफी छप चुकी हैं अथवा छप रहो हैं ।
पर, हर हालत में, बच्चों को, चाहे वह जो कुछ भी करता हो, सोने के लिये काफी समय मिलना चाहिये । यह समय उम्र के अनुसार अलग-अलग हो सकता है । पालने के बच्चे को जगाने की अपेक्षा, सोना अधिक चाहिये । पर जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे सोने का समय कम होता जायेगा । परंतु युवा अवस्था आने तक, यह समय ८ घंटे से कम नहीं होना चाहिये और फिर सोने का स्थान खूब शांत और हवादार होना चाहिये । और कभी व्यर्थ में बच्चे को प्रारंभिक रात की नींद सें वंचित नहीं करना चाहिये । स्नायुओं को आराम पहुंचाने के लिये आधी रात सें पहले का
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समय सबसे उत्तम है । फिर जगने के समय भी, प्रत्येक आदमी के लिये, जो अपनी स्नायुओं में समतोलता बनाये रखना चाहता है , विश्राम करना अत्यंत आवश्यक है । मांसपेशियों और स्नायुओं को विश्राम देने की विधि जानना एक कला है और बिलकुल छोटी अवस्था में हीं बच्चे को इसकी शिक्षा देनी चाहिये । पर बहुतेरे माता-पिता ऐसे होते हैं जो इसके विपरीत अपने बच्चों को निरंतर कार्य करते रहने के लिये बाध्य करते हैं । जब बच्चा चुपचाप बैठता है तब है समझते हैं कि वह बीमार हो गया है । यहांतक कि, ऐसे माता-पिता भी हैं जिन्हें अपने बच्चों से घरेलू काम कराने की बुरी आदत होती है, और इस तरह वे बच्चों के आराम करने का समय ले लेते हैं । एक बढ़ते हुए स्नायुमंडल के लिये इससे अधिक बुरी चीज और कोई नहीं । अत्यंत लगातार होनेवाले प्रयास का दबाव अथवा उसके अपर लादे हुए, स्वेच्छापूर्वक पसंद किये गये कार्य का भार सहने मे वह असमर्थ होता है । समस्त प्रचलित भावनाओं और धारणाओं के विरुद्ध मेरा तो मत यह है कि बच्चों से सेवा की मांग करना उचित नहीं है, यह समझना अनुचित है कि माता-पिता की सवा करना बच्चे का कर्तव्य है । बल्कि अधिक बड़ा सत्य इसके विपरीत है : निक्षय हीं यहीं स्वाभाविक है कि माता-पिता अपने बच्चों की सेवा करें, कम-से-कम उनकी अधिकतम देखभाल करे । यदि बच्चा स्वतंत्रतापूर्वक परिवार के लिये काम करना स्वयं पसंद करे और कार्य को खेल के रूप में करे तभी उसे ऐसा करने देना उचित है । और उस हालत में भी हमें इस विषय में सावधान रहना चाहिये कि किसी तरह उसके आराम का समय कम न हो जाये जो उसके शरीर के समुचित रूप से कार्य करने के लिये अत्यंत आवश्यक है ।
मैं कह चुकी हूं कि बिलकुल छोटी उम्र से हो बच्चों को शारीरिक स्वास्थ्य, शक्ति-सामर्थ्य और संतुलन का आदर करना सिखाना चाहिये । सौंदर्य की महान् आवश्यकता के अपर भी खूब जार देना चाहिये । छोटे-छोटे बच्चों मैं सौंदर्य की अभीप्सा होनी चाहिये, इसलिये नहीं कि दूसरे उससे प्रसन्न होंगे या उससे उनका नाम होगा, बल्कि स्वयं सौंदर्य के प्रेम के लिये सौंदर्य की चाह होनी चाहिये । क्योंकि, सौंदर्य वह आदर्श है जिसे भौतिक जीवन मे सिद्ध करना है । प्रत्येक मनुष्य के अंदर यह संभावना निहित है कि वह अपने शरीर की विभिन्न गतियों में सामंजस्य स्थापित करे । मनुष्य का शरीर, यदि वह अपने जीवन के आरंभ से हीं शरीर-चर्या की किसी युक्तिपूर्ण पद्धति का अनुसरण करे तो वह अपना सामंजस्य स्थापित कर सकता है और इस तरह सौंदर्य अभिव्यक्त करने के योग्य हो सकता है । जब हम सर्वांगपूर्ण शिक्षा के अन्यान्य पहलुओं की चर्चा करेंगे तब हम देखेंगे कि एक दिन, यदि इस सौंदर्य को अभिव्यक्त होना है तो उसके लिये हमें किन भीतरी शर्तों को पूरा करना होगा ।
अबतक मैंने केवल बच्चों को दी जानेवाली शिक्षा की बात कही हैं क्योंकि उचित
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समय पर दिये जानेवाले उन्नत शारीरिक शिक्षण के दुरा बहुत-से शारीरिक दोषों को, कुरूपताओं को दूर किया जा सकता है । पर अगर किसी कारणवश किसी को यह शिक्षा बचपन मै न दी गयी हो तो इसका आरंभ किसी भी उम्र में किया जा सकना है और फिर सारे जीवन इसका अनुसरण किया जा सकता है । परंतु जितनी हीं देर सै हम आरंभ करेंगे उतना ही अधिक हमें बुरी आदतों का मुकाबला करना, उन्हें सुधारने, जड़ता-कठोरता को दूर कर कोमलता-नमनीयता लाने और विकृत अंगों को दुरुस्त करने के लिये तैयार रहना होगा । इस तैयारी के काम के लिये बहुत अधिक धैर्य ओर लगन की आवश्यकता होगी और तब कहीं वह अवस्था आयेगी जब हम शरीर के आकार और उसकी गतियों मे सामंजस्य स्थापित करने के लिये किसी क्रियात्मक प्रोग्राम को आरंभ कर सकेंगे । परंतु जिस सौंदर्य को प्राप्त करना है उसके जीवंत आदर्श को अगर तुम अपने अंदर धारण करो तो अपने लक्ष्य पर पहुंचना तुम्हारे लिये सुनिश्चित हैं ।
('बुलेटिन', अप्रैल १९५१)
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