CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

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Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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 स्त्रियों की समस्या

 

  मैं आज स्रियों की समस्या के विषय में कुछ कहना चाहती हूं । यह समस्या देखने - में तो उतनी ही पुरानी है जितनी की मनुष्यजाति, परंतु अपने मूत्र में यह इससे भी ' बहुत अधिक पुरानी हैं। कारण, यदि कोई एक ऐसे नियम को ढूंढना चाहे जो इसका शासन तथा समाधान करता हैं , तो उसे विश्व के उद्गम तक, बल्कि सृष्टि के भी परे जाना होगा ।

 

  कुछ प्राचीनतर परंपराएं, संभवत: प्राचीनतम परंपराएं विश्व की उत्पत्ति का कारण 'सर्वोच्च सत्ता' का वह संकल्प बताती हैं जो आत्मनिष्ठ रूप में अपने-आपको व्यक्त करने के लिये होता हैं। ऐसा प्रतीत होता हैं कि इस विषयीकरण का पहला कार्य था सृजनात्मक 'चेतना' का प्रकट होना । यह सत्य है कि ये प्राचीन परंपराएं अभ्यासवश ही 'सर्वोच्च सत्ता' की पुल्लिंग के रूप में और 'चेतना' की सीलिंग के रूप में चर्चा करती हैं तथा इस आदि भाव को ही पुरुष और स्त्री के विभेद का स्रोत बना देती हैं, इसी के दुरा वे पुरुष को स्त्री पर प्रधानता भी दे देती हैं, जब कि वास्तविक बात यह हैं कि अभिव्यक्ति सें पहले दोनों हीं एक, अभिद्रव तथा सहवर्ती थे । पुरुष-सत्ता ने हीं पहला निर्णय किया और उसी ने उस निर्णय को चरितार्थ करने के लिये सर्वसत्ता को जन्म भी दिया । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि स्त्री-सत्ता के बिना सृष्टि-कार्य नहीं हो सकता, तो पुरुष-सत्ता के प्रारंभिक निश्चय के बिना स्त्री-सत्ता का आविर्भाव भी नहीं हो सकता ।

 

  निश्चय ही, यहां यह प्रश्र किया जा सकता हैं कि क्या यह व्याख्या कुछ अत्यधिक मानवीय नहीं हैं । किंतु, सच्ची बात यह है कि समस्त व्याख्याएं ही, जो कि मनुष्य कर सकता हैं, कम-से-कम अपने बाह्य स्वरूप में, अवश्य हीं मानवीय होगी । कारण, कुछ असाधारण व्यक्ति उस ' अज्ञेय' ओर ' अचिंत्य' की ओर अपनी आध्यात्मिक चढ़ाई में मानव प्रकृति से ऊपर जा सके हैं तथा अपनी खोज के ध्येय के साथ, एक उच्च तथा एक प्रकार की अकल्पनीय अनुभूति में, एक हों सके हैं, किंतु ज्यों हीं उन्होंने अपनी उपलब्धि से दूसरों को लाभ पहुंचाना चाहा, उन्हें उसे सूत्रबद्ध करना पड़ा और उनके सूत्र को तब ग्राह्य बनने के लिये मानवीय और प्रतीकात्मक होना पड़ा । फिर भी, यह प्रश्र किया जा सकता है कि क्या ये अनुभव और इनके दुरा प्रदर्शित सत्य प्रधानता के उस भाव के लिये उत्तरदायी हैं जो पुरुष खिल के प्रति हमेशा बनाये रखता है, या, इसके विपरीत, सामान्य रूप से प्रचलित यह प्रधानता का भाव हीं अनुभूतियों के सूत्रबद्ध रूप के लिये उत्तरदायी हैं...

 

  बहरहाल, यह तथ्य तो निर्विवाद ही है कि पुरुष अपने-आपको बढ़ा सम्मतता है तथा अपना प्रभुत्व जमाना चाहता हैं, उधर स्त्री अपने-आपको उत्पीड़ित अनुभव करती हैं और फिर परोक्ष या अपरोक्ष रूप में विद्रोह करती है; और इन दोनों का यह झगड़ा

 

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युग-यग सें चला आ रहा हो यह स्व मे एक हीं हैं, पर अनगिनत रूप-रंगों मे प्रकट होता हैं ।

 

  यह तो मानो हुई बात हैं कि पुरुष सारा दोष स्त्री पर थोपता है और उसी प्रकार स्त्री सारा दोष पुरुष पर थोपती हैं । पर, वास्तव में, दोष समान रूप में दोनों का मानना चाहिये और दोनों में से किसी को भी अपने-आपको दूसरों से बढ़ा मानने का गर्व नहीं करना चाहिये । बल्कि जबतक प्रधानता और हीनता का यह विचार छू नहीं कर दिया जायेगा तबतक कोई भी वस्तु या कई भी व्यक्ति इस भ्रांति को दूर नहीं कर सकेगा जो मानवजाति को दो विरोधी शिविरों मे बांट देती है, और न तबतक समस्या का कोई समाधान हीं हो पायेगा ।

 

  इस समस्या पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है । इस पर इतने दृष्टिकोण से विचार किया गया है कि इसके सब पक्षों का विवेचन करने के लिये एक पोथा भी पर्याप्त न होगा । साधारणतया, सिद्धांत बहुत अच्छे होते हैं और हर एक के अपने- अपने गुण भी होते हैं, किंतु व्यवहार में ये उतने सुखदायी नहीं सिद्ध होते । मुझे नहीं मालूम कि सफलता के स्तर पर हम पाषाण-युग से कुछ आगे बढ़े हैं या नहीं । कारण, पारस्परिक संबंध मे पुरुष और स्त्री एक दूसरे के पूरी तरह निरंकुश स्वामी और साथ हीं कुछ दयनीय दास भी होते हैं ।

 

  हां, सचमुच दास; क्योंकि जबतक मनुष्य में इच्छाएं हैं, अभिरुचि और आसक्तिया हैं, तबतक वह इन वस्तुओं का और उन व्यक्तियों का भी दास बे जिन पर वह इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये निर्भर रहता है ।

 

  अतएव, स्त्री पुरुष की दासी इसलिये हैं कि वह पुरुष और उसके बल के प्रति आकर्षण अनुभव करती हैं , उसके अंदर घर बसाने की इच्छा होती हैं, वह घर से प्राप्त होनेवाली सुरक्षा को चाहती हैं, और अंत में उसके अंदर मातृत्व के प्रति मोह भी होता है । इधर पुरुष भी स्त्री का दास हैं , अधिकार-भावना के कारण, शक्ति और प्रभुत्व की तृष्णा के कारण, काम-वासना की तृप्ति की इच्छा तथा विवाहित जीवन की छोटी- मोटी सुख-सुविधाओं के प्रति आसक्ति के कारण ।

 

  इसलिये कोई भी कानून स्त्री को तबतक बंधनमुक्त्त नहीं कर सकता जबतक वह स्वयं हीं बंधनमुक्त्त न हो जाये; इसी प्रकार पुरुष भी अधिकार जमाने की आदतों के होते हुए तबतक दासता से मुक्त नहीं हो सकता जबतक वह अपने अंदर की सारी दासता से मुक्त न हो जाये ।

 

  यह गुप्त संघर्ष की अवस्था जिसे प्रायः कोई स्वीकार नहीं करता; किंतु जो, अच्छे-सें-अच्छे दृष्टांत मे भी, सदा अवचेतन में उपस्थित रहती है, तबतक अनिवार्य प्रतीत होती हैं, जबतक मनुष्य पूर्ण चेतना के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिये, 'सर्वोच्च सत्ता' के साथ एक होने के लिये, अपनी सामान्य चेतना से ऊपर नहीं उठ जाते । कारण, जब तुम उस उच्च चेतना को प्राप्त कर लेते हो तो देखते हो कि

 

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पुरुष और स्त्री का भेद केवल शारीरिक भेद रह जाता हैं ।

 

  हो सकता हैं कि वस्तुतः, प्रारंभ में पृथ्वी पर एक विशुद्ध पुल्लिंग और एक विशुद्ध सीलिंग का प्रतिरूप रहा हो, प्रत्येक के अपने-अपने स्पष्ट भिन्न प्रकार के गुण रहे होंगे, किंतु समय के प्रवाह में अनिवार्य मिश्रण, आनुवंशिकता, पुत्रों का माता से सादृश्य और पुत्रियों का पिता से सादृश्य, सामाजिक उन्नति, एक ही व्यवसाय-इन सबने मिलकर हमारे समय में एक विशुद्ध प्रतिरूप को पाना दुर्लभ कर दिया हैं । सब पुरुष अपने कई पक्षों में स्त्री-सदृश हैं । इसी प्रकार सब स्त्रियों भी कई गुणों के ख्याल से, विशेषतया आधुनिक समाज में, पुरुष-सदृश हैं । दुर्भाग्य से, शारीरिक आकृति के कारण झगड़े की आदत चली आ रही हैं, बल्कि प्रतिदुंदिता की भावना के कारण शायद बढ़ भी गयी है ।

 

  पुरुष और स्त्री , दोनों हीं अपने अच्छे क्षणों में लिंग-भेद मूल जाते हैं, किंतु जरा-सी उत्तेजना पाते हीं वह भेद फिर से आ जाता है; स्त्री अनुभव करने लगती हैं कि वह स्त्री है, और पुरुष तो यह जानता ही हैं कि वह पुरुष है और झगड़ा फिर अशिक्षित अवधि के लिये, किसी-न-किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष स्तर पर चलने लगता है और प्रकट रूप में जितना कम स्वीकार किया जाता है उतना हीं कटु होता है । कोई पूछ सकता है कि क्या यह झगड़ा तबतक ऐसा ही न चलता रहेगा जबतक पुरुष और स्त्री न रहकर ऐसी जीवंत आत्माएं नहीं बन जाते जो लिंग-रहित शरीर में अपने एक ही अमित्र स्रोत को अभिव्यक्त करती हों ।

 

  कारण, हम एक ऐसे संसार का स्वप्न देखते हैं जिसमें अंततः, ये सब विरोध विलीन हों जायेंगे, जहां केवल एक ऐसी सत्ता हीं जीवित रह सकेगी तथा उन्नति को प्राप्त होगी जो उस सबका, जो मानव सृष्टि मे सर्वश्रेष्ठ है, सामंजस्यपूर्ण समन्वय होगी और जो अखंड चेतना एवं क्रिया मे, विचार एवं कार्यान्वित में, अंतर्दृष्टि एवं सृजन मे एकत्व लाभ कर लेगी ।

 

  जबतक समस्या का यह सुखद और आमूल समाधान नहीं हो जाता, भारतवर्ष और बातों की भांति इस बात में भी उन प्रचंड विरोधात्मक भेदों का देश रहेगा जिन्हें फिर भी एक अत्यंत व्यापक एवं विस्तृत समन्वय में परिणत किया जा सकता है ।

 

  वस्तुतः, क्या भारतवर्ष मे ही उस परम जननी की अत्यधिक तीव्र भक्ति और पूर्ण उपासना नहीं की जाती जो विश्व को बतानेवाली और शत्रुओं पर विजय पानेवाली हैं, जो समस्त देवताओं और समस्त जगतों की माता है, सकल-वरदायिनी है?

 

   और क्या भारत में ही हम स्त्री -तत्त्व, 'प्रकृति', अर्थात् 'माया' की अत्यंत आमूल रूप में निंदा और उसके प्रति अत्यधिक घृणा प्रदर्शित होते नहीं देखते, क्योंकि वह एक विकारजनक भ्रम हैं तथा समस्त दुःख और पतन का कारण हैं, अर्थात् ऐसी प्रकृति हैं जो विमोहित और कलुषित करती हैं तथा व्यक्ति को भगवान् सें ले जाती है?

 

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भारतवर्ष का सारा जीवन हीं इस विरोध से सराबोर हैं; वह अपने मन और हृदय, दोनों में इससे पीड़ित हैं । यहां, सर्वत्र, मंदिरों में देवियों की मूर्तिया प्रतिष्ठित हैं, मां दुर्गा हैं हीं भारतवर्ष की संतानें मुक्ति और मोक्ष की आशा करती हैं । और फिर भी एक भारतवासी ने ही यह कहा है कि अवतार कभी स्त्री के शरीर में जन्म नहीं लेगा, क्योंकि तब कोई विचारवान हिंदू उसे न पहचान पायेगा! पर यह प्रसन्नता की बात हैं कि भगवान् इस संकीर्ण सांप्रदायिक भावना सें प्रभावित नहीं होते और न ही इन तुच्छ विचारों द्वारा प्रेरित होते हैं । जब उनकी पार्थिव शरीर में अवतरित होने की इच्छा होती है तो वह इस बात की परवाह कम ही करते हैं कि लोग उन्हें पहचानेंगे या नहीं । इसके अतिरिक्त, ऐसा प्रतीत होता है कि अपने सब अवतारों में उन्होंने विद्वानों की अपेक्षा बच्चों और सरल हृदयों को अधिक पसंद किया हैं।

 

  जो भी हों, जबतक एक ऐसी नयी जाति को, जिसे प्रजनन की आवश्यकता के अधीन होने की जरूरत न हो और जो सत्ता के दो पूरक लिंगों में विभाजित होने के लिये बाध्य न हों, उत्पन्न करने के लिये प्रकृति को प्रेरित करनेवाला नया विचार एवं नयी चेतना प्रकट नहीं हो जाते, तबतक वर्तमान मानवजाति की उन्नति के लिये अधिक-सें-अधिक यहीं किया जा सकता हैं कि पुरुष और स्त्री दोनों के साथ पूर्ण समानता का व्यवहार किया जाये, दोनों को एक ही शिक्षा तथा प्रशिक्षा दी जाये तथा दिव्य सत्ता के साथ, जो कि समस्त लिंग-भेदों सें ऊपर हैं, सतत संपर्क स्थापित करके समस्त संभावनाओं और समस्त समस्वरताओं के उद्गम को प्राप्त किया जाये ।

 

 और तब शायद भारतवर्ष, जो विषमताओं का देश हैं, नयी उपलब्धियों का देश बन जायेगा, जैसे यह इनकी परिकल्पना का पालना रहा हैं।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९५५)

 

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