CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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उद्देश्य

 

   हम श्रीअरविन्दाश्रम में क्यों हैं?

 

 प्रकृति।.में एक अपर उठनेवाला विकास हैं जो पत्थर से पौधों मे और पौधे से पशु मे तथा पशु से मनुष्य मे उठता हैं , चूंकि अभीतक मनुष्य हीं इस उठते हुए विकास की अंतिम सीढ़ी है, वह समझता हैं कि इस आरोहण मे वही सबसे ऊंचा स्तर हैं और यह मानता हैं कि धरती पर उससे ऊंचा कुछ हो ही नहीं सकता । लेकिन यह उसकी भूल हैं । अपनी भौतिक प्रकृति मे वह अभीतक पूरा-पूरा पशु है, एक विचारशील और बोलनेवाला पशु हैं, फिर भी, अपने भौतिक अम्यासों और सहज बोधों में पशु है । निःसंदेह, प्रकृति ऐसे अपूर्ण परिणामों से संतुष्ट नहीं हो सकती । वह एक ऐसी सत्ता को लाने के लिये प्रयत्नशील हैं जो मनुष्य की तुलना मे वैसा हीं होगा जैसा मनुष्य पशु की तुलना में, वह ऐसी सत्ता होगी जो अपने बाहरी रूप में तो मनुष्य हीं होगी, लेकिन उसकी चेतना मन तथा उसकी अज्ञान की दासता से बहुत ऊंची उठ जायेगी ।

 

  श्रीअरविन्द धरती पर मनुष्य को यहीं सत्य सिखाने के लिये आये थे । उन्होंने कहा कि मनुष्य केवल एक संक्रमणशील सत्ता हैं जो मानसिक चेतना में निवास करता है, लेकिन उसमें एक नयी चेतना, सत्य-चेतना प्राप्त करने की संभावना है । वह पूरी तरह सामंजस्यपूर्ण, शिव, सुंदर, सुखी और पूर्णतः सचेतन जीवन ज़ीने के योग्य होगा । अपने सारे पार्थिव जीवन में श्रीअरविन्द ने अपना पूरा समय अपने अंदर उस चेतना को स्थापित करने में लगाया जिसे उन्होंने अतिमानस का नाम दिया हैं , और जो लोग उनके इर्द-गिर्द इकट्ठे थे उन्हें सहायता दी कि वे भी इसे पा सकें ।

 

  तुम्हें यह बहुत बड़ा लाभ हैं कि तुम बहुत छोटी अवस्था मे हीं आश्रम में आ गये हो, यानी, अभी नमनीय अवस्था में आये हों जिसे नये आदर्श के अनुसार गाढ़ा जा सकता है और तुम नयी जाति के प्रतिनिधि बन सकते हो । यहां आश्रम मे तुम वातावरण, प्रभाव, शिक्षा और उदाहरण की दृष्टि से अच्छी-से-अच्छी अवस्था में हो ताकि तुम्हारे अंदर यह अतिमानसिक चेतना जगायी जा सके और तुम उसके विधान के अनुसार बढ़ सको ।

 

  अब, सब कुछ निर्भर हैं तुम्हारे संकल्प और तुम्हारी सच्चाई पर । अगर तुम्हारे अंदर यह संकल्प है कि अब और सामान्य मानवजाति के होकर न रहोगे, अब और विकसित पशु बनकर न रहोगे; अगर तुम्हारा संकल्प है कि नयी जाति के मनुष्य बनकर श्रीअरविन्द के अतिमानसिक आदर्श को चरितार्थ करोगे, एक नयी धरा पर नया और उच्चतर जीवन जायंगे तो तुम अपना अभीष्ट उद्देश्य पाने के लिये यहां समस्त आवश्यक सहायता पाओगे, तुम अपने आश्रम में रहने का पूरा-पूरा लाभ

 


 उठाओगे और अंततः, संसार के लिये जीते-जागते उदाहरण बनोगे ।

 

(२४-७-१९५१)

 

*

 

हमारे शिक्षा-केंद्र का असली उद्देश्य और लक्ष्य क्या है? क्या श्रीअरविन्द के ग्रंथ पढ़ाना? केवल यही? सभी ग्रंथ या उनमें ले कुछ? या हमें विद्यार्थियों को इस योग्य बनाना है कि बे माताजी और श्रीअरविन्द के ग्रंथ पड़ सकें? हमें उन्हें आश्रम-जीवन के लिये तैयार करना है श ''बाहरी'' काम के लिये मी? इस बारे मे बहुत सारे मत हवा मे चक्कर लाम रहे हैं और है मत लोग जिनसे हम जानने की आशा करते हैं दे मी बहुत-सी अलम-अलग बातें कहते हैं समझ मे नहीं आता कि किस पर विश्वास किया जाये किसी निहित और वास्तविक ज्ञान के बिना हम किस आधार पर काम करें? माताजी मैं आपसे मार्गदर्शन के लिये प्रार्थना करता हू?

 

यह इन ग्रंथों या अन्य ग्रंथों को पढ़ने के लिये तैयार करने का सवाल नहीं है । सवाल है उन सबको जो इसके योग्य हों साधारण मानव विचार, भाव और क्रिया की रूढ़ि मे से खींचने का; जो यहां हैं उन सबको अपने अंदर से मानव विचार और क्रिया-पद्धति की दासता को निकाल फेंकने के अवसर देना । जो लोग सुनना चाहते हैं उन सबको यह सिखाना है कि ज़ीने का एक और अधिक सत्य मार्ग है, कि श्रीअरविन्द ने हमें बताया है कि किस प्रकार जीवित का और सत्य सत्ता बना जा सकता है- और यह कि यहां की शिक्षा बच्चों को उस जीवन के लिये तैयार करने और उसके योग्य बनाने के लिये है ।

 

   बाकी सबके लिये, मानव विचार और जीवन-पद्धति के लिये संसार बहुत विशाल हैं और वहां सबके लिये जगह है ।

 

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  हम संख्या नहीं, एक चयन चाहते हैं हम प्रखर विधार्थी नहीं जीवित आत्माएं चाहते हैं ।

 

 *

 

  यह मालूम होना चाहिये और हमें यह खुलकर कहन मे संकोच न करना चाहिये कि हमारे विद्यालय का उद्देश्य हैं उन लोगों का पता लगाना ओर उन्हें प्रोत्साहित करना जिनमें प्रगति की आवश्यकता इतनी सचेतन हो गयी हैं कि उनके जीवन को दिशा दे सके ।

 

*

 

  सांसारिक दृष्टि-बिंदु से, प्राप्त परिणामों की दिष्टि से निश्चय हीं चीजें ज्यादा अच्छी तरह की जा सकती हैं । परंतु मैं किये गये प्रयास की बात कह रहीं हू, और प्रयास अपने अधिक-से-अधिक गहरे अर्थों में । काम शरीर के द्वारा की गयी प्रार्थना है । तुम्हारे काम के उस प्रयास से भगवान् संतुष्ट हैं; जिस चेतना ने इसे देखा है वह सचमुच संतुष्ट है । ऐसी बात नहीं है कि मानव दृष्टि सें इससे ज्यादा अच्छा नहीं किया जा सकता । बहरहाल, हमारे लिये यह उद्यम-विशेष बहुतों में से एक है; यह हमारी साधना में एक गति मात्र है । हम और भी बहुत-सी चीजों में लगे हैं । काम के किसी एक अंग-विशेष को लगभग पूर्णता तक पहुंचाने मे समय, साधन ओर उपायों की जरूरत हैं और वे हमारे पास नहीं हैं । लेकिन हम किसी एक चीज मे पूर्णता नहीं चाहते, हमारा लक्ष्य है संपूर्ण उपलब्धि ।

 

  बाहरी दिष्टि समालोचना योग्य बहुत कुछ पा सकती है और समालोचना करती भी है, लेकिन आंतरिक दृष्टि से जो कुछ किया गया है, भली-भांति किया गया है । बाहरी दृष्टिकोण से तुम सब प्रकार के मानसिक, बौद्धिक रूपों को लेकर आते हो और तुम्हें लगता है कि यहां जो कुछ किया गया है उसमें कुछ भी असाधारण नहीं है । लेकिन इस तरह तुम उसे नहीं देख पाते जो साधना के पीछे  है। एक अधिक गहरी चेतना उपलब्धि की ओर बढ़ते उस अभियान को देख सकेगी जो सबसे बाजा ले जाता है। बाहरी दिष्टि आध्यात्मिक जीवन को नहीं देखती । वह अपनी तुच्छता से हीं निर्णय करती  है ।

 

  लोग हमारे विश्वविद्यालय में भरती होने के लिये छुट्टियां लिखते हैं और पूछते हैं कि हम किस प्रकार की उपाधि या प्रमाणपत्र के लिये तैयारी करवाते हैं, किस प्रकार की आजीविका के लिये रास्ता खोलते हैं । मै उनसे कहती हूं : अगर तुम 'यही चाहते हो तो कहीं और चले जाओ, इससे कहीं ज्यादा अच्छी और बहुत-सी जगहें हैं, सभ्य

 

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भारत में भी इससे बहुत ज्यादा अच्छी जगहों हैं । उस दिशा मे हमारे पास न तो उनकी साज-सज्जा है, न वह शान है । तुम्हें जिस प्रकार की सफलता की चाह है वह तुम्हें वहां मिल जायेगी ! हम उनसे प्रतियोगिता नहीं करते । हम एक और हीं क्षेत्र मे, एक और ही स्तर पर गति करते हैं ।

 

  लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं चाहती हू कि तुम अपने-आपको औरों सें श्रेष्ठ मानो । सच्ची चेतना अपने-आपको औरों सें श्रेष्ठ मानने मैं अक्षम होती है । केवल तुच्छ चेतना ही अपनी श्रेष्ठता दिखाने की कोशिश करती है । ऐसी सत्ता से एक बच्चा भी श्रेष्ठ होता है, क्योंकि वह अपनी गतिविधि में सहज-स्वाभाविक होता है । इस सबसे अपर उठे । भगवान् के साथ अपने संबंध और उनके लिये तुम जो करना चाहते हों उसे छोड्कर और किसी बात में रस न लो । यहीं एकमात्र रुचिकर चीज है ।

 

(३०-११-१९५५)

 

*

 

   हम यहां एक सरल और आरामदेह जीवन बिताने के लिये नहीं हैं । हम यहां भगवान् को पाने के लिये, भगवान् बनने के लिये, भगवान् को अभिव्यक्त करने के लिये हैं ।

 

  हमारा क्या होता है यह भगवान् की चिंता का विषय है, हमारी चिंता का नहीं । हमारी अपेक्षा भगवान् ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया की प्रगति के लिये और हमारी प्रगति के लिये क्या अच्छा है ।

 

(२३-८-१९६७)

 

*

 

  सेवा भाव विकसित करना यहां के प्रशिक्षण का भाग है और यह बाकी पढ़ाई- लिखाई को पूरा करता है ।

 

(१३-६-१९६१)

 

  तुम्हें धार्मिक शिक्षा को आध्यात्मिक शिक्षा न समझ बैठना चाहिये ।

 

  धार्मिक शिक्षा भूतकाल की चीज है और प्रगति को रोकती है ।

 

  आध्यात्मिक शिक्षा भविष्य की शिक्षा है--यह चइतना को प्रदीप्त करती हे और उसे भावी उपलब्धियों के लिये तैयार करती है ।

 

जहां कहीं ऐसा चिह्न (मै) आता हैं, उसका मतलब यह हैं कि यह माताजी की मौखिक टिप्पणी है जिसे किसी साधक ने लिख लिया था और बाट में माताजी की दिखाकर स्वीकृति ले लीं थी ।

 

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  आध्यात्मिक शिक्षा धार्मिक शिक्षा से ऊपर हैं और सार्वभौम सत्य की ओर प्रयास करती हैं ।

 

  वह हमें भगवान् के साथ सीधा नाता जोड़ना सिखाती हैं ।

 

(१२-२-१९७२)

 

*

 

  शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को जीवन मे और समाज में सफलता के लिये तैयार करना नहीं हैं, बल्कि उसकी पूरणीयता को ऊपरी चरम गति तक बढ़ाना है।

 

 *

 

  सफलता को लक्ष्य न बनाओ । हमारा लक्ष्य है पूर्णता । याद रखो तुम नये जगत् की देहली पर हो, उसके जन्म में मांग ले रहे हो और उसके सृजन मे सहायक हो । रूपांतर से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं है । इससे अधिक मूल्यवान् कोई हित नहीं

 

*

 

  साधारण तौर पर शिक्षा, संस्कृति, इन्द्रियों की सुरुचिपूर्णता गंवारू सहजवृत्ति, कामना और आवेग की गतियों का मार्जन करने के साधन हैं । उन्हें मिटा देना उनका उपचार नहीं है; इसकी जगह उन्हें सुसंस्कृत बनाना, बौद्धिक और सुरुचिपूर्ण बनाना चाहिये । उनका प्रतिकार करने का यही सबसे अच्छा तरीका हैं । उन्हें चेतना की प्रगति और विकास की दिष्टि से अपना अधिक-से-अधिक विकास प्रदान करना मनुष्य की शिक्षा और संस्कृति का भाग है, ताकि मनुष्य सामंजस्य के भाव और प्रत्यक्ष दर्शन की यथार्थता पा ले ।
 

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