CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation

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The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.

माताजी के वचन - II

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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - II Vol. 14 367 pages 2004 Edition
English
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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
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भाग ५

मानव सम्बन्ध


ओरों का मूल्यांकन करना

 

    मन जितना अज्ञानी होता है उतनी ही ज्यादा आसानी से हर उस चीज का मूल्यांकन करता है जिसे वह नहीं जानता या जिसे समझने में वह अक्षम है ।

 

*

 

    मैं चाहती हूं कि तुम्हारे मन में शान्ति आये और साथ ही वह अचंचल, धैर्यशील बुद्धिमत्ता जो तुम्हें जल्दबाजी में निष्कर्ष निकालने या मूल्यांकन करने से रोकती है ।

 

*

 

   आवश्यक जानकारी प्राप्त होने से पहले मन को अचंचल रखना ओर जल्दबाजी में निष्कर्ष निकालने से बचना हमेशा अच्छा हे ।

१२ अप्रैल, १९३२

 

*

 

    अपने प्राण से कहो कि बाहरी रूप-रंग के आधार पर मूल्यांकन न करे और सहयोग दे । आगे चलकर सब कुछ अच्छा होगा ।

 

*

 

    तुम्हारा व्याकुल होना गलत था । वह दिखाता है कि तुम्हारे मन और हृदय में सन्देह था । और अगर तुम अपने-आपमें पूरी तरह पवित्र हो तो तुम्हें सन्देह नहीं हो सकता । मन जानने में अक्षम है । वह बाहरी रूप-रंग के आधार पर मूल्यांकन करता है और वह भी समग्रता से नहीं बल्कि उस अंश के आधार पर जिसे वह देख सकता है और उसका मूल्यांकन निश्चय ही मिथ्या होता है । केवल सत्य-चेतना ही सत्य को जान सकती है और वह कभी न तो सन्देह करती है, न मूल्यांकन ।

१४ नवम्बर, १९५२

*

 

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   यह निर्णय करने से पहले कि औरों में या परिस्थितियों में कुछ भूल है, तुम्हें अपने मूल्यांकन के ठीक होने का पूरा विश्वास होना चाहिये । और कौन-सा मूल्यांकन ठीक हो सकता है जब तक कि तुम सामान्य चेतना में निवास करते हो जो अज्ञान पर आधारित और मिथ्यात्व से भरी है ?

 

   केवल 'सत्य-चेतना' ही मूल्यांकन कर सकती है इसलिए ज्यादा अच्छा यह है कि सभी परिस्थितियों में निर्णय भगवान् पर छोड़ दो ।

 

*

 

   जब कभी कोई प्रचलित लीक के अनुसार नहीं चलता, अगर उसके सभी अंगों और क्रियाओं में सामान्य सन्तुलन नहीं है, अगर कुछ क्षमताएं थोड़ी-बहुत कम हैं और कुछ अन्य बड़ी-चढ़ी हुई हैं तो सामान्यतया सीधे-सीधे उसे ''अपसामान्य'' घोषित कर दिया जाता है और जल्दबाजी के साथ की गयी इस दण्डाज्ञा के बाद मामला खतम । और अगर यह संक्षिप्त-सा निर्णय किसी उच्च पदाधिकारी ने दिया हो तो इसके नतीजे अनर्थकारी हो सकते हैं । ऐसे लोगों को जानना चाहिये कि सच्ची अनुकम्पा क्या है, तब वे दूसरी तरह से व्यवहार करेंगे ।

 

   पहली आवश्यकता यह है कि किसी के बारे में निन्दात्मक ढंग से सोचने से परहेज करो । जब हम किसी आदमी से मिलते हैं तो हमारे आलोचनात्मक विचार मानों उसकी नाक पर घूंसा जमाते हैं जो स्वभावत: उसके अन्दर विद्रोह पैदा करता है । हमारी यह मानसिक रचना ही उस व्यक्ति के लिए विकृत छवि दिखाने वाले दर्पण का काम करती है और तब आदमी विचित्र न हो तो भी हो जायेगा । लोग अपने मन से यह विचार क्यों नहीं निकाल सकते कि यह या वह व्यक्ति अस्वाभाविक है ?  वे किस कसौटी से परखते हैं ? वास्तव में स्वभाविक है कौन ? मैं तुमसे कह सकती हूं कि एक भी व्यक्ति सामान्य या स्वाभाविक नहीं है क्योंकि स्वाभाविक होने का अर्थ है भगवान् होना ।

 

    मनुष्य का एक पैर पाशविकता में है और दूसरा मानवता में और साथ-ही-साथ वह देवत्व का प्रत्याशी है । उसकी अवस्था सुखद नहीं है । सच्चे पशु ज्यादा अच्छी हालत में हैं । वे आपस में ज्यादा सामनञ्जपूर्ण हैं । वे मनुष्यों की तरह लड़ते-झगड़ते नहीं । वे अकड़फूं नहीं करते वे

 

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लोगों को नीचा समझकर उन्हें दूर नहीं रखते ।

 

    तुम्हारे अन्दर सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण होना चाहिये और तुम्हें अपने साथियों के साथ सहयोग करना सीखना चाहिये । उनके अन्दर जो कुछ घटिया दीखता हो उसका मजाक उड़ाने की जगह उनकी सहायता करना और उन्हें ऊंचा उठाना चाहिये ।

 

    अगर किसी के अन्दर कुछ त्रुटि है और वह अति संवेदनशील और हठी है तो तुम उसे बाधित करके या फटाफट बाहर निकाल कर सुधारने की आशा नहीं कर सकते । उसी के जैसा बर्ताव करके उसके अहंकार को अपने अहंकार द्वारा मजबूर मत करो । उसके स्वभाव के अनुसार उसका पथ-प्रदर्शन नरमी और समझदारी के साथ करो । यह देखो कि क्या तुम उसे ऐसी जगह रख सकते हो जहां वह औरों के साथ बिना टकराहट के काम कर सके ।

 

    अगर, जिन लोगों के हाथ में सत्ता हो और वे अपनी महत्ता से फूले रहें तो वे सच्चे कार्य में बाधा देते हैं । उनके अन्दर जो भी क्षमताएं हों उनकी उपलब्धि ही वास्तविक चीज नहीं है ।

 

    लेकिन ऐसी बात नहीं है कि उनमें हमेशा सद्‌भावना की कमी होती है । क्या उचित है इसके बारे में उनके अन्दर गलत विचार होते हैं । अगर वे भागवत लक्ष्य के बारे में ज्यादा सचेतन हो जायें तो वे निश्चय ही उसे पूरा करने में सफल हो सकते हैं ।

 

*

 

    जैसे-जैसे हमारी अपनी पूर्णता बढ़ती है वैसे-वैसे दूसरों को उदारता के साथ समझने की क्षमता भी बढ़ती है ।

१८ जुलाई, १९५४

 

*

 

    और लोग क्या करते हैं, इससे अपने-आपको व्यथित न करो, यह बात मैं तुम्हें बार-बार नहीं कह सकती । मूल्यांकन न करो, आलोचना न करो, तुलना न करो, यह तुम्हारा काम नहीं है ।

१९५७

*

 

३०१


    तुम्हें किसी आदमी का मूल्य आंकने का कोई अधिकार नहीं है जब तक कि वह जो काम करता है उसे तुम उससे ज्यादा अच्छी तरह न कर सको ।

२७ जून, १९६४

 

*

 

    और "क'' के निर्णय करने की कसौटी क्या है ? क्या वह भगवान् बन गया है ? केवल भगवान् ही हर एक का सच्चा मूल्य जानते हैं ।

२५ जुलाई, १९७१

 

*

 

    वह सद्यःप्राप्त पवित्रता की ऊंचाइयों पर चढ़कर ऐसे बड़े भाई का मूल्यांकन और उसकी अनुचित तीव्र आलोचना करती है जो हमेशा उसके प्रति बहुत दयालु रहा है ।

 

*

 

    औरों के साथ सख्ती बरतने से पहले अपने साथ कठोर बनो ।

 

*

 

    औरों की मूर्खताओं की परवाह न करो अपनी मूर्खताओं को देखो ।

 

*

 

    ज्यादा अच्छा होगा कि मन भी औरों के मामले में टांग न अड़ाये । और भी ज्यादा अच्छा होगा कि प्राण भी उनमें कोई रस न ले ।

 

*

 

    मैं तुम्हारे भविष्य के मार्गदर्शन के लिए यह सुझाव दूंगी कि उन मामलों में हस्तक्षेप न करो जिनका तुम्हारे साथ सम्बन्ध नहीं है । अगर "क'' अब भी यहां है तो इसका कारण यह है कि मैं उसे अपने साथ रखना पसन्द करती हूं ।

 

*

 

उच्चतम गुणों में से एक है औरों के मामलों में टांग न अड़ाना ।

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