The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.
Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.
अतिमानस
सिद्धि : पृथ्वी पर अतिमानसिक सत्य की स्थापना ।
*
अतिमानसिक सत्य में सभी मिथ्यात्व विलीन हो जायेंगे ।
अतिमानस अपने-आपमें केवल सत्य ही नहीं, बल्कि मिथ्यात्व का नितान्त निषेध भी है । अतिमानस ऐसी चेतना में न कभी उतरेगा, न प्रतिष्ठित और अभिव्यक्त होगा जो मिथ्यात्व को आश्रय देती हो ।
स्वभावत: मिथ्यात्व को जीतने की पहली शर्त है झूठ न बोलना, यद्यपि यह केवल प्रारम्भिक कदम ही है । अगर लक्ष्य को पाना ही है तो सत्ता में और उसकी सभी गतिविधियों में निरपेक्ष, समग्र निष्कपटता को स्थापित करना ही होगा ।
१८ अप्रैल, १९३२
लड़ाई-झगड़े नहीं : अतिमन के आगमन को सहज बनाने के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण शर्त ।
धरती पर अतिमानसिक प्रकाश के अवतरण के लिए शर्ते हैं, अन्धकार-रहित ज्योतिर्मयी चेतना जो अतिमानसिक प्रकाश की ओर मुड़ी हो और अतिमानसभावापन्न नमनीयता से भरी हो ।
हमें कभी यह न भूलना चाहिये कि हमारा लक्ष्य है अतिमानसिक सद्वस्तु को अभिव्यक्त करना ।
२५ मई, १९५४
९९
दिव्य शक्ति अभिव्यक्त होने के लिए प्रतीक्षा कर रही है । हमें नये-नये रूपों की खोज करनी चाहिये जिनके द्वारा 'वह' अभिव्यक्त हो सके ।
१२ जून, १९५४
नयी शक्ति की अभिव्यक्ति के लिए नये रूपों की जरूरत हे ।
२६ जून, १९५४
अतिमानसिक शक्ति अभिव्यक्त होने के लिए तैयार है । आओ, हम भी तैयार हो जायें और वह अभिव्यक्त होगी ।
७ जुलाई, १९५४
जब अतिमानस अभिव्यक्त होता है तो पृथ्वी पर अद्वितीय आनन्द फैल जाता है ।
८ जुलाई, १९५४
समस्त भय, सारी अनबन, सभी झगड़े छोड़ दो । अपनी आंखें और अपने हृदय खोलो-अतिमानसिक शक्ति मौजूद है ।
९ जुलाई, १९५४
धीरज, बल, साहस और शान्त तथा अदम्य शक्ति के साथ हम अपने-आपको अतिमानसिक शक्ति को ग्रहण करने के लिए तैयार करेंगे ।
१० जुलाई, १९५४
नये विचारों को व्यक्त करने के लिए नये शब्दों की जरूरत होती है,
१००
नयी शक्तियों को अभिव्यक्त करने के लिए नये रूप जरूरी हैं ।
१ अगस्त, १९५४
हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि हम यहां पर अतिमानसिक सत्य और ज्योति की सेवा करने और अपने अन्दर तथा धरती पर उसकी अभिव्यक्ति की तेयारी करने के लिए हैं ।
१३ अगस्त, १९५४
वैश्व अभिव्यक्ति में हर नयी प्रगति का अर्थ होता है एक नये आविर्भाव की सम्भावना ।
२१ अगस्त, १९५४
धरती इतनी अधिक तमिस्त्रा से घिरी हे कि केवल अतिमानसिक अभिव्यक्ति ही उसे विलीन कर सकती हे ।
२६ अगस्त, १९५४
हम बिना रुके, हमेशा अधिक पूर्ण अभिव्यक्ति की ओर, हमेशा पूर्णतर ओर उच्चतर चेतना की ओर आगे बढ़ते रहें ।
३१ अगस्त, १९५४
अतिमानसिक शक्ति में वह सामर्थ्य होती है जो अधिक-से-अधिक अंधेरी घृणा को ज्योतिर्मयी शान्ति में बदल सकती है ।
११ अक्तूबर, १९५४
१०१
हम सारे अज्ञान से मुक्त होने के लिए, अपने अहंकार से मुक्त होने के लिए अभीप्सा करते हैं ताकि हम अतिमन की महिमामयी अभिव्यक्ति के द्वारों को पूरा-पूरा खोल सकें ।
२३ अक्तूबर, १९५४
हमारा सारा जीवन, हमारे सारे कर्म अतिमानसिक पूर्णता पाने की ओर एक सतत अभीप्सा होने चाहियें ।
२४ अक्तूबर, १९५४
प्रशान्त और निष्कंप चेतना जगत् की सीमाओं पर शाश्वतता के स्फिंक्स१ की तरह नजर रखती है । फिर भी वह किसी-किसी को अपना रहस्य बता देती है ।
इसलिए हमें यह निश्चिति प्राप्त है कि जो किया जाना है वह अवश्य किया जायेगा और हमारी वर्तमान व्यक्तिगत सत्ता को वास्तव में इस महान् विजय में, इस नूतन अभिव्यक्ति में सहयोग देने के लिए निमन्त्रण मिला है । ११-१२ नवम्बर, १९५४
सत्ता को अभिव्यक्ति की समस्त सम्भावना के समग्र प्राचुर्य को पाने के लिए एक-एक करके सभी बाधाओं को गिराना होगा ।
१४ दिसम्बर, १९५४
धरती पर एक नया प्रकाश आयेगा, सत्य और सामञ्जस्य का प्रकाश ।
२४ दिसम्बर, १९५४
१ प्राचीन मिस्र की मान्यता के अनुसार एक प्राणी जिसके रहस्य को जानना प्राय: असम्यव है ।
१०२
अतिमानसिक अभिव्यक्ति : इसका स्वागत होगा ।
धरती पर अतिमानस के अभिव्यक्त होने से पहले इन प्रश्नों का उत्तर भला कैसे दिया जा सकता है ? केवल उसकी अभिव्यक्ति के बाद ही हम जान सकते हैं कि वह कैसे आया और वह कैसे अभिव्यक्त होता है ?
धरती पर अतिमानसिक अभिव्यक्ति
२१ फरवरी, १९५६
बुधवार के सम्मिलित ध्यान के समय
आज की शाम, ठोस और भौतिक भागवत उपस्थिति तुम्हारे बीच उपस्थित थी । मेरा रूपाकार जीवन्त स्वर्ण का हो गया था जो विश्व से बड़ा था, और मैं एक बृहत् तथा विशालकाय सोने के दरवाजे के सामने खड़ी थी जो जगत् को भगवान् से अलग कर रहा था ।
जैसे ही मैंने दरवाजे की ओर देखा, मैंने चेतना की एक ही गति में जाना और संकल्प किया कि ''समय आ गया है'' , और दोनों हाथों से एक बहुत बड़े सोने के हथौड़े को उठाकर मैंने एक प्रहार किया, दरवाजे पर मात्र एक प्रहार और दरवाजा टुकड़े-टुकड़े हो गया ।
तब अतिमानसिक 'प्रकाश', 'शक्ति' और 'चेतना' तीव्र गति से धरती पर उतरीं और अबाध गति से बह निकलीं ।१
१११५६ के अधिवर्ष में लिखा यह वक्तव्य पहली बार धरती पर अतिमानसिक अभिव्यक्ति के पहले वार्षिकोत्सव २९ फरवरी, १९६० के सन्देश के रूप में सार्वजनिक रूप से बांटा गया था ।
१०३
१९५६
२२ फरवरी-२९ मार्च
प्रभु तूने चाहा और मैं चरितार्थ कर रही हूं ।
धरती पर एक नया प्रकाश फूट रहा है ।
एक नया जगत् जन्म ले चुका है ।
जिन चीजों के लिए वचन दिया गया था वे चरितार्थ हो गयी हैं ।
१०४
२४ अप्रैल, १९५६
धरती पर अतिमानस का अवतरण अब एक आश्वासन भर नहीं है बल्कि एक जीवन्त तथ्य, एक यथार्थता बन चुका है ।
वह यहां काम में लगा है, और एक दिन आयेगा जब बिकुल अन्धा, बिकुल अचेतन, यहां तक कि बिलकुल अनिच्छुक व्यक्ति भी उसे पहचानने को बाधित होगा ।
मैं ऐसी अतिमानसिक अभिव्यक्ति की बात कर रही हूं जो सबके लिए, यहां तक कि अधिक-से- अधिक अज्ञानी के लिए भी प्रत्यक्ष हो-जिस तरह जब मानव अभिव्यक्ति हुई थी तो वह सबके लिए प्रत्यक्ष थी ।
उन सबको जो अभीप्सा करते हैं
अपने-आपको नयी 'शक्ति' के प्रति खोलो । उसे अपने अन्दर रूपान्तर का अपना कार्य करने दो ।
अप्रैल १९५६
१०५
अपने-आपको उस नये प्रकाश के प्रति खोलो जो धरती पर उदित हुआ है और तुम्हारे सामने एक ज्योतिर्मय पथ प्रशस्त हो जायेगा ।
२८ मई, १९५६
काल की परवाह न करते हुए, देश के भय से रहित, अग्नि-परीक्षा की ज्वालाओं से पवित्र होकर उठते हुए, हम बिना रुके, अपनी लक्ष्य-सिद्धि--अतिमानसिक विजय--कीं ओर उड़ेंगे ।
वर दे कि नया प्रकाश धरती पर फैले और मानव जीवन की अवस्था को बदल दे ।
६ जनवरी, १९५७
निस्सन्देह, यह अतिमानसिक प्रकाश है ।
अपने-आपको तनाव की स्थिति में न रखो, खुले रहो, निष्किय बनकर इसे अपने शरीर में गहरे पैठने दो । इसमें तुम्हारे अन्दर बल और स्वास्थ्य को लौटा लाने की शक्ति है ।
एक नये जगत् का जन्म हो चुका है--वे सब जो इसमें स्थान पाना चाहते हैं उन्हें सचाई के साथ इसके लिए अपने- आपको तैयार करना होगा ।
१५ अगस्त, १९५७
एक नये जगत् के जन्म की घोषणा करते हुए, हम उन सबको जो उसमें स्थान पाना चाहते हैं, सचाई के साथ अपने- आपको तैयार करने के
१०६
लिए आमन्त्रित करते हैं ।
१५ अगस्त १९५७
पिछली रात मुझे इसका अन्तर्दर्शन हुआ कि अगर लोग पर्याप्त रूप से तैयार न हुए तो अतिमानसिक जगत् कैसा होगा । जो हो सकता है उसके अनुपात में जगत् की वर्तमान अस्तव्यस्तता कुछ भी नहीं है । जरा कल्पना करो एक बहुत ही शक्तिशाली इच्छा की जिसमें अपनी मर्जी के अनुसार जड़-भौतिक को बदलने का सामर्थ हो ! अगर सामूहिक एकता शक्ति की वृद्धि के अनुपात में नहीं बड़ी तो उसके परिणामस्वरूप आने वाले संघर्ष हमारे सभी जड़-भौतिक संघर्षों से कहीं अधिक तीव्र और अस्तव्यस्त होंगे ।
१५ फरवरी, १९५८
अनित्य शरीर का जन्मोत्सव मनाना हृदय की कुछ निष्ठापूर्ण भावनाओं को सन्तुष्ट कर सकता है ।
शाश्वत चेतना की अभिव्यक्ति का उत्सव विश्व-इतिहास के प्रत्येक मुहूर्त में मनाया जा सकता है ।
लेकिन एक नवीन जगत् के, अतिमानसिक जगत् के आगमन का उत्सव मनाना एक अद्भुत और असाधारण सौभाग्य की बात है ।
२१ फरवरी, १९५८
वह चाहे जिस नाम से पुकारा जाये अतिमानस एक सत्य और तथ्य है और उसका राज्य निश्चित है ।
२७ मार्च, १९५९
नये जगत् का आगमन अवश्यम्भावी तथ्य है और उसे चाहे जो नाम
१०७
दे लो, उसकी विजय निश्चित है ।
अतिमानसिक प्रभाव मनुष्य को उस सबसे मुक्त करता है जो उसे पशु बने रहने के लिए पीछे खींचता है ।
अतिमानसिक क्रिया-ऐसी क्रिया जो ऐकान्तिक नहीं अपितु समग्र है ।
अतिमानसिक ज्ञान : सभी समस्याओं का अचूक अन्तर्दर्शन ।
अतिमानसिक चेतना : भव्य रूप से जाग्रत् और शक्तिशाली, यह आलोकित है, अपने बारे में निश्चित और अपनी गतिविधियों में अचूक है ।
अतिमानसिक चेतना के प्रकाश में एक अधिक अच्छे भविष्य के निर्माता बनना ।
(धरती पर अतिमानसिक अभिव्यक्ति के प्रथम वार्षिकोत्सव के लिए सन्देश )
स्वर्णिम दिवस
अब से २९ फरवरी परम प्रभु का दिवस होगा ।
१९६०
१०८
आपने २१ फरवरी १९६० को जो पदक बांटे थे उनमें श्रीअरविन्द के प्रतीक में एक परिवर्तन । बीच के त्रिकोण जिनके बीच के समचतुषष्कोण में कमल ने त्रिकोण नहीं है और उनके स्थान पर सूर्य की किरणें है जो से समचतुष्कोण से फुट रही हैं । निश्चय ही आपने यह विशिष्ट परिवर्तन किसी महत्त्वपूर्ण कारण से किया होगा ? क्या आप बतायेंगी कि इस परिवर्तन का क्या कारण है ?
श्रीअरविन्द का प्रतीक देने का मेरा कोई इरादा न था ।
पदक पर दिये गये चित्र का अर्थ है-
अवतार की अभिव्यक्ति से नव-सर्जन की बारह किरणें निकल रही हैं ।
कमल- अवतार
समचतुष्कोण- अभिव्यक्ति
बारह किरणें-नयी सृष्टि
'' बुलेटिन के नवम्बर १९५७ के अंक में आपने अपनी वार्ता 'सच्चा अभियान' में कहा :
''पिछले वर्ष जब मैंने तुम्हारे सामने अतिमानसिक चेतना प्रकाश शक्ति की अभिव्यक्ति की घोषणा की थी तो यह जोड़ देना चाहिये था कि यह घटना एक नये जगत् के जन्म की अग्रगामिनी है ।"
इसका यह अर्थ हुआ कि नये जगत् का जन्म अतिमानसिक चेतना की अभिव्यक्ति के बाद हुआ । आपने २९ फरवरी, १९५६ अतिमानसिक अभिव्यक्ति की तारीख निश्चित की है । उसके बाद नये जगत के जन्म की कौन-सी तारीख माननी चाहिये ?
आधे घण्टे बाद ।
'बुलेटिन' के १९५८ के नवम्बर अंक में आपने अपने उत्तर 'नया जन्म' में कहा है :
''तुम्हें आश्वासन देने के लिए मैं कह सकती हूं कि इस एक तथ्य
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से कि तुम धरती पर इस क्षण जी रहे हो...तुम जिस हवा में सांस लेते उसके साथ-साथ इस नये अतिमानसिक तत्त्व को ग्रहण करते हो जो धरती के वातावरण में फैल रहा है और जो तुम्हारे अन्दर उन चीजों को तैयार कर रहा है जिन्हें तुम अचानक, उस समय अभिव्यक्त करोगे जब तुम निर्णायक कदम उठाओगे ।
''यह तुम्हें निर्णायक कदम उठाने में सहायता करेगा या नहीं यह एक प्रश्न जिस पर अध्ययन करना होगा, क्योकि अनुभूतियां भी हो रही हैं और अब अधिकाधिक होंगी क्योंकि ये एकदम नयी तरह की हैं, व्यक्ति पहले से यह नहीं कह सकता कि क्या होगा ; पहले उसे अध्ययन करना होगा, बारीक अध्ययन के बाद ही वह निश्चित रूप से यह कह सकने में समर्थ होगा कि यह अतिमानसिक तत्त्व नये जन्म के कार्य को सरल बनायेगा या नहीं । इसके बारे में मैं तुम्हें कुछ समय बाद बताऊंगी । फ़िलहाल ज्यादा अच्छा है कि इन चीजों पर आश्रित न होओ, बल्कि आध्यात्मिक जीवन में जन्म लेने का मार्ग अपनाओ । ''
क्या अब आप निश्चितता के साथ कह सकती है कि यह अतिमानसिक तत्त्व इस नये जन्म की सिद्धि के निर्णायक रूप से सहायता करेगा या नहीं ?
स्पष्ट रूप से ।
२६ मार्च, १९६०
आपने कहा कि हमें ''अतिमानसिक शक्तियों के स्पन्दन के साथ एक घनिष्ट निरन्तर, निरपेक्ष, अपरिहार्य ऐक्य को विकसित करना चाहिये ।'' इस स्पन्दन को अनुभव करने की क्षमता प्राप्त की जाये ? अतिमानसिक अभिव्यक्ति द्वारा नये जगत् के सर्जन और जगत् की नयी अवस्थाओं के कारण साधना प्रक्रिया में परिवर्तन आया है क्या ? नयी अवस्थाओं में इस प्रगति को तेज करने के लिए साधक को क्या करना चाहिये ?
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हां, साधना में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है, क्योंकि तुम्हें अब स्वयं भौतिक में साधना करनी पड़ेगी ।
भौतिक रूपान्तर पर एकाग्र होओ; भौतिक से मेरा मतलब है--मानसिक, प्राणिक और शारीरिक चेतना पर ।
तुम अपने मन में अनुभूति पाने की कोशिश कर रहे हो, लेकिन मन उसे नहीं पा सकता । अपने मन से बाहर निकल आओ और तुम समझ जाओगे कि मैं क्या कहना चाहती हूं ।
मनुष्य को यह समझना चहिये कि अपनी सभी बौद्धिक उपलब्धियों के बावजूद वह अतिमानसिक स्पन्दनों का अनुभव कर सकने में उतना ही अक्षम है जितना पशु मानसिक स्पन्दनों का अनुभव कर सकने में उस समय अक्षम था जब मानवजाति के आने से पहले धरती पर उनका राज्य था ।
कोई बारहसिंगा पानी पीने के लिए किसी जंगल में से गुजरता है, लेकिन वह वहां से गुजरा है इसे प्रमाणित करने के लिए वहां क्या है ? अधिकतर लोग कोई चिह्न नहीं देखेंगे: शायद उन्हें यह भी मालूम न हो कि बारहसिंगा होता क्या है, और जो यह जानते हैं वे शायद यह न कह सकें कि वह इस रास्ते गुजरा था । लेकिन वह जिसने शिकार का विशेष अध्ययन किया है, जो पदचिह्न पहचानता है, स्पष्ट चिह्न देखेगा और वह न केवल यह बतला सकेगा कि किस तरह का बारहसिंगा गुजरा है बल्कि उसका आकार, उसकी उम्र, उसका नर या मादा होना इत्यादि भी बता देगा । उसी तरह ऐसे लोग भी जरूर होंगे जिनमें शिकारी जैसा आध्यात्मिक ज्ञान होता है, जो यह बता सकें कि व्यक्ति अतिमानस के सम्पर्क में है या नहीं, जब कि साधारण मनुष्य, जिन्होंने अपने मन को प्रशिक्षित नहीं किया इस चीज को नहीं देख पायेंगे । कहा गया है कि अतिमानस धरती पर उतर आया है, उसने अपने-आपको अभिव्यक्त कर कर दिया है । इस
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विषय के बारे में जितना लिखा गया है मैंने वह सारा पढ़ा है, लेकिन मैं ऐसे अज्ञानियों में से हूं जो कुछ देख नहीं पाते, किसी चीज का अनुभव नहीं करते । क्या व्यक्ति जिसका अन्तर्दर्शन अधिक प्रशिक्षित हो, मुझे यह नहीं बता सकता कि किन लक्षणों से मैं यह जान सकता हूं कि व्यक्ति अतिमानस के सम्पर्क में है ?
दो अकाटय लक्षण यह प्रमाणित करते हैं कि व्यक्ति अतिमानस के सम्पर्क में है:
१. पूर्ण और सतत समता
२. ज्ञान में निरपेक्ष दृढ़ निश्चितता ।
समता को पूर्ण होने के लिए, सभी परिस्थितियों, सभी घटनाओं, भौतिक या मनोवैज्ञानिक सम्पर्कों के प्रति, उनके स्वभाव या प्रभाव की परवाह न करते हुए अपरिवर्तनशील, सहज और प्रयासहीन होना चाहिये ।
तादात्म्य द्वारा अचूक ज्ञान का निरपेक्ष और अकाटय दृढ़ विश्वास ।
फरवरी १९६१
सभी परिस्थितियों में चाहे वे जड़-भौतिक हों या मनोवैज्ञानिक, एक पूर्ण समता और ज्ञान में निरपेक्षता, ऐसा ज्ञान जो मन के द्वारा नहीं बल्कि तादात्म्य द्वारा आता है । जिस व्यक्ति का अतिमानस के साथ सम्पर्क होगा उसमें ये दो गुण होते हैं ।
तुम तब तक नहीं समझ सकते जब तक तुम्हें अनुभूति न हो ।
२३ फरवरी, १९६१
क्या यह पहली बार नहीं है कि अतिमानस धरती पर उतरा है ?
निश्चित रूप से सारी पृथ्वी के रूपान्तर की व्यापक शक्ति के रूप में अतिमानस पहली बार धरती पर उतरा है । पार्थिव सृष्टि में यह एक नया आरम्भबिन्दु है ।
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लेकिन हो सकता हे कि पहले भी एक बार वचनबद्धता या उदाहरण के रूप में अतिमानसिक शक्ति किसी व्यक्ति के अन्दर आंशिक और अस्थायी रूप में अभिव्यक्त हुई हो ।
२६ अक्तूबर, १९६४
१९५६ में आपने कहा था: ''अतिमानसिक 'प्रकाश', 'चेतना' और 'शक्ति' अभिव्यक्त हो गये हैं । अतिमानसिक 'आनन्द' अब तक नहीं आया ।''
४.५.६७ एक बहुत महत्त्वपूर्ण तारीख मानी जाती है जब किसी विशेष चीज के होने की आशा है । क्या आप कृपया बतायेंगी कि क्या उस तारीख को अतिमानसिक 'आनन्द' अभिव्यक्त होगा ?
पहले अतिमानसिक अवतरण का वार्षिकोत्सव हर चार साल के बाद आता है (अधिवर्ष) । मुझे नहीं समझ में आता कि इस मामले में ७ की संख्या का क्या स्थान है । यह साल १९६४ (अधिवर्ष) पहले अवतरण का दूसरा वार्षिकोत्सव था । अगला २१ फरवरी १९६८ को होगा-और पहली अभिव्यक्ति के ठीक बारह वर्ष हो जायेंगे, तब हम देखेंगे कि क्या होता है ।
१४ नवम्बर, १९६४
४.५.६७ के लिए सन्देश
पार्थिव जीवन एक महान् देवत्व का अपना चुना हुआ निवास-स्थल है और उस देवत्व का शाश्वत संकल्प है कि इसे अन्ध कारागार से अपने मनोहर प्रासाद तथा उच्च स्वर्गचुंबी मन्दिर में परिवर्तित कर दे |
--श्रीअरविन्द
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श्रीअरविन्द ने जिस देवत्व की बात कही है वह कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि एक अवस्था है जो उन सभी को प्राप्त होगी जिन्होंने उसे ग्रहण करने के लिए अपने-आपको तैयार कर लिया है ।
मई १९६७
क्या मैं जान सकता हूं कि रोमन कैथालिर्को द्वारा ४ मई बृहस्पतिवार को मनाया गया ईसामसीह के अलौकिक स्वर्गारोहण के दिन का ४५.५.६७ की महान् तारीख के साथ किसी तरह का कोई सम्बन्ध है ? या फिर यह केवल संयोग है ?
श्रीअरविन्द के लिए ''संयोग'' अस्तित्व नहीं रखते । जो कुछ घटता है वह भागवत 'चेतना' की क्रिया का परिणाम होता है । वह शक्ति जो इस समय काम कर रही है सामञ्जस्य की शक्ति है जो एकता की ओर बढ़ रही है--उन सभी प्रतीकों की एकात्मता जो भागवत 'सत्य' को अभिव्यक्त करते हैं ।
५ मई, १९६७
''१९६७ में अतिमानस चरितार्थ करने वाली शक्ति की अवस्था में प्रवेश करेगा ।'' ''चरितार्थ करने वाली शक्ति'' का सचमुच क्या अर्ध है ?
मनुष्यों के मन और घटनाक्रम पर निर्णायक रूप से क्रिया करना ।
चरितार्थ करने वाली शक्ति का माताजी की अपनी भौतिक सत्ता पर क्या प्रभाव होगा और फिर दूसरे पर व्यापक रूप में जगत् (आज के जगत् की मुख्य समस्याओं पर भी) कैसा प्रभाव पड़ेगा ?
हम जरा धीरज के साथ प्रतीक्षा कर सकते हैं और तब हम जान जायेंगे ।
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क्या यह तारीख (४. ५. ६७) उस नयी जाति के आरम्भ का चिहन है जिसे माताजी और श्रीअरविन्द ने नयी जाति- अतिमानव जाति--कहा है ?
कुछ महीनों से जो बच्चे, विशेषकर हमारे लोगों में, जन्म ले रहे है वे बहुत ही विशेष प्रकार के हैं ।
(धरती पर अतिमानसिक अभिव्यक्ति के तीसरे वार्षिकोत्सव के लिए सन्देश)
केवल 'सत्य' ही जगत् को भागवत 'प्रेम' को प्राप्त करने ओर उसे अभिव्यक्त करने की शक्ति दे सकता हे ।
२९ फरवरी, १९६८
नयी चेतना१
बिना विकृत किये नयी चेतना को प्राप्त कर सकना :
व्यक्ति को बिना कोई परछाई डाले परम चेतना के प्रकाश में स्थित रह सकना चाहिये ।
१६ अप्रैल, १९६९
केवल एक ही नया तथ्य है-इस वर्ष के आरम्भ से एक नयी चेतना अभिव्यक्त हुई है और वह नयी सृष्टि के लिए धरती को तैयार करने के
१ धरती पर नयी चेतना १ जनवरी, १९६९ को अभिव्यक्त हुई । उसके लक्षण जनवरी १९६१ की बहुत-सी वार्ताओं में उल्लिखित हैं । माताजी ने इसे अतिमानव की चेतना कहा है । ये वार्ताएं शताब्दी खण्ड ११, 'पथ पर' में प्रकाशित हुई हैं ।
११५
लिए पूरे जोश के साथ कार्य कर रही है ।
१७ अप्रैल, १९६९
कुछ समय से में निरन्तर यह अनुभव करता हूं कि मेरे शरीर में ऊपर से एक शक्ति प्रवाहित हो रही है जो ठोस रूप में एक मीठे द्रव की-सी अनुभूति देती है । वह निरन्तर मेरे सारे शरीर में बहती है और कभी-कभी मैं उससे तरह सराबोर और तरबतर हो जाता हूं ? यह द्रव बहुत सुखद और शामक संवेदना लाता है मानो किसी तरह का आनन्द ऊपर से मेरे अन्दर बह रहा । मुंह में एक मीठा स्वाद आ जाता है ।
मैं ठीक तरह से नहीं जानता कि इस अनुभूति का क्या अर्थ है । क्या यह वह नयी चेतना है जिसके बारे में आपने कहा था कि वह इस वर्ष की पहली जनवरी को आयी थी ? या फिर यह कोई नया अवतरण है जो हाल में हुआ है ? या फिर यह व्यक्तिगत चीज है ?
यह वह चेतना है जो जनवरी से कार्य में लगी है । लेकिन उसकी क्रिया अब कहीं अधिक तीव्र हो गयी है ।
२६ नवम्बर, १९६९
१९१९ में श्रीअरविन्द ने लिखा था कि अस्तव्यस्तता और विपत्तियां शायद एक नयी की प्रसव-वेदना हैं । यह स्थिति कब तक चलती रहेगी ? यह वेदना आश्रम में, भारत में और अन्त में जगत् में कब तक चलेगी ?
यह तब तक चलती रहेगी जब तक जगत् नयी सृष्टि का स्वागत करने के लिए तेयार ओर इच्छुक न हो; इस नयी सृष्टि की चेतना धरती पर इस वर्ष के आरम्भ से कार्य कर ही रही है । अगर प्रतिरोध करने की बजाय
११६
लोग सहयोग दें तो काम ज्यादा जल्दी होगा ।
लेकिन मूढ़ता और अज्ञान बहुत दुराग्रही हैं !
२१ नवम्बर, १९६९
माताजी, 'जगत् एक बड़े परिवर्तन के लिए तैयारी कर रहा है, क्या तुम सहायता करोगे ?'१ वह महान् परिवर्तन कौन-सा है जिसके बारे में आपने कहा है ? और हम उसमें किस प्रकार सहायता कर सकते हैं ?
यह महान् परिवर्तन जगत् में एक नयी जाति का प्रादुर्भाव करेगा जो मनुष्य के लिए वैसी ही होगी जैसा पशु के लिए मनुष्य है । इस नयी जाति की चेतना धरती पर उन लोगों को प्रबुद्ध करने के लिए कार्य कर रही है जो उसे प्राप्त करने और उसकी ओर ध्यान देने में समर्थ हैं ।
१९७०
आपने हमसे सहायता करने के लिए कहा है । मैं आपकी सहायता किस तरह कर सकता हूं ? मुझे क्या करना है ?
एकाग्र रहना और नयी विकसनशील चेतना को ग्रहण करने के लिए खुला रहना, उन नयी चीजों को ग्रहण करना जो नीचे उतर रही हैं ।
३ मार्च, १९७०
परिवर्तन को आने के लिए हमारी सहायता की आवश्यकता नहीं है, लेकिन हमें अपने-आपको चेतना के प्रति खुला रखने की आवश्यकता है ताकि उसका आगमन हमारे लिए व्यर्थ न हो ।
११९७० का नये साल का सन्देश ।
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पिछले साल जो नयी चेतना उतरी थी उसकी क्रिया को मुक्त रूप से कार्य करने देने के साधक को क्या करना चाहिये ?
१. ग्रहणशील बनो
और
२. नमनीय बनो ।
नयी चेतना को ग्रहण करने के लिए, स्वयं को तैयार करने के लिए पहली अनिवार्य शर्त है सच्ची और सहज नम्रता जो हमें गभीर रूप से इसका अनुभव कराती है कि हमें जो अद्भुत वस्तुएं प्राप्त करनी हैं उनके सामने हम कुछ भी नहीं जानते और कुछ नहीं हैं ।
अतिमानस और नयी सत्ता
आओ, हम नयी सत्ता के आगमन के लिए अपने-आपको यथासम्भव अच्छे-से-अच्छी तरह तैयार करें ।
मन को निश्चल-नीरव करना चाहिये और उसके स्थान पर सत्य चेतना को आना चाहिये जो समग्र की चेतना और ब्योरे की चेतना का सामञ्जस्य हो ।
मन को निश्चल-नीरव रहना होगा ताकि अतिमानसिक चेतना अपना स्थान ले सके ।
'सत्य-चेतना' को समस्त सत्ता पर छा जाना चाहिये, सभी गतिविधियों को वश में करना चाहिये और चंचल भौतिक मन को शान्त करना चाहिये ।
११८
अभिव्यक्ति के लिए ये प्रारम्भिक शर्तें हैं ।
भौतिक मन में प्रज्ञा : धरती पर अतिमानसिक अभिव्यक्ति की ओर बढ़ा एक पहला चरण ।
(धरती पर अतिमानसिक अभिव्यक्ति के चोथे वार्षिकोत्सव के लिए सन्देश )
जब अतिमानस दैहिक-मन में अभिव्यक्त होगा केवल तभी उसकी उपस्थिति स्थायी हो सकती है ।
२१ फरवरी, १९७२
हर एक के लिए अपने चैत्य को ढूंढ़ना और उसके साथ निश्चित रूप से तादात्म्य पाना अनिवार्य है । अतिमानस अपने- आपको चैत्य द्वारा ही अभिव्यक्त करेगा ।
२४ जून, १९७२
'सत्य चेतना' केवल उन्हीं में अभिव्यक्त हो सकती है जिन्होंने अहं से पीछा छुड़ा लिया हो ।
मनुष्य और मन सृष्टि की अन्तिम सीमा नहीं हैं । एक अतिमानसिक सत्ता तैयार हो रही है ।
२५ दिसम्बर, १९७२
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मन सचमुच नहीं जानता; निष्कपट रूप से अतिमन की अभीप्सा करो ।
जनवरी १९७३
***
अतिमानवता : हमारी अभीप्साओं का लक्ष्य ।
जो है और जिसे चरितार्थ करना है, मनुष्य उन दोनों के बीच की मध्यवर्ती सत्ता है ।
३० अगस्त, १९५४
धरती पर मनुष्य अन्तर्वर्ती सत्ता है अत: उसके विकासक्रम में उसके बहुत से उत्तरोत्तर स्वभाव आये जिन्होंने ऊपर उठते हुए घुमाव का अनुसरण किया और मनुष्य तब तक इसी तरह ऊपर उठता जायेगा जब तक कि वह अतिमानस की देहली पर न पहुंच जाये और अतिमानव में रूपान्तरित न हो जाये । यह घुमाव सर्पिल मानसिक विकास है । हर एक सहज अभिव्यक्ति, जो किसी चुनाव या किसी पूर्वनिश्चित निश्चय का परिणाम न हो, यानी जिसमें मानसिक क्रिया का हस्तक्षेप न हो उसे "स्वाभाविक'' कहने की हमारी प्रवृत्ति है । इसीलिए, जब किसी व्यक्ति के अन्दर प्राणिक सहजता हो जो बहुत अधिक मानसिक न हो तो वह अपनी सरलता में हमें अधिक ''स्वाभाविक'' लगता है । लेकिन यह ऐसी स्वाभाविकता है जो पशु की स्वाभाविकता से ज्यादा मिलती है और जो मानव क्रमविकास की शृंखला की एकदम तली में होती है ।
तुम्हें यह कभी न भूलना चाहिये कि बाहरी व्यक्ति शाश्वत अद्वस्तु का केवल एक आकार और प्रतीक है, और यह भी कि भौतिक रूप से गुजर कर तुम्हें उस सद्वस्तु के प्रति मुड़ना है । भौतिक सत्ता शासत सद्वस्तु को
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सचमुच तब तक प्रकट नहीं कर सकती जब तक वह अतिमानसिक अभिव्यक्ति द्वारा पूरी तरह रूपान्तरित न हो जाये । और तब तक तम्हें उससे गुजर कर ही सत्य को ढूंढ़ना होगा ।
मधुर मां, ''परम क्षमताएं '' क्या हैं ?
सन्दर्भ देखे बिना उत्तर देना मुश्किल है । तुम किन ''परम क्षमताओं'' के बारे में कह रहे हो ? उनके बारे में जो अतिमानव बनने के मार्ग पर चलने वाले मानव में होती हैं या फिर वे जो अतिमानव को प्राप्त होंगी जब वह धरती पर प्रकट होगा ?
पहली हालत में, ये वे क्षमताएं हैं जो मनुष्य में तब विकसित होती हैं जब वह उच्चतर मन और अधिमन की ओर खुलता है और उनके द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त करता है । ये क्षमताएं परम सत्य की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं होतीं बल्कि उसकी अनुकृति, उसकी अप्रत्यक्ष प्रतिच्छाया होती हैं । इनमें अन्तःप्रेरणा, पूर्वज्ञान, तादात्म्य द्वारा ज्ञान और कुछ दूसरी शक्तियां भी आ जाती हैं जैसे स्वस्थ करने या अमुक हद तक परिस्थितियों पर क्रिया करने की क्षमता ।
अगर वह अतिमानसिक सत्ता की परम क्षमताओं के सन्दर्भ में हो तो हम उनके बारे में बहुत कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि अभी हम उनके बारे में जो कुछ कह सकते हैं वह ज्ञान के राज्य की अपेक्षा कल्पना के राज्य की वस्तु अधिक है क्योंकि यह सत्ता अभी तक धरती पर अभिव्यक्त नहीं हुई है ।
२३ अप्रैल, १९६०
मधुर मां,
निम्नलिखित मजेदार प्रश्न उठता है: "जड़-में अतिमानस के अवतरण के साथ, और यह मान लेने पर कि जब नये विधान और क्रियाएं प्रभाव डालने लगेंगे तो क्या हम सत्ताओं की
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कल्पना कर सकते हैं जिनका अपने शरीर पर इतना अधिकार होगा कि वे विकिरणशीलता (रेडियो एक्टिविटी) को अपने अन्दर लेने या उसे निष्प्रभाव करने में या वैश्व किरणों (कॉस्मिक रेंज़) के प्रति खुले रह सकने में समर्थ होंगे ? ''
आश्रम के किसी विद्वान ने कहा कि विकिरण से मुक्त होना ''असम्भव'' है क्योकि भौतिक जड़ द्रव्य निम्न प्रकृति द्वारा शासित होता है । मैं आपसे यह आशा रखता हूं कि हमारे लिए कुछ भी ''असम्भव'' नहीं है |
दोनों बातें सच हैं ।
१. जब तक कि जड़- भौतिक जैसा है वैसा ही रहेगा, उसे निरापद नहीं बनाया जा सकता । लेकिन २. आशा की जाती है कि अतिमानसिक शक्ति (अन्ततोगत्वा) जड़- भौतिक शरीर को भी रूपान्तरित कर देगी और जब यह हो जाये तो हर चीज सम्भव हो जाती है या यूं कहें, कुछ भी असम्भव नहीं है ।
आशीर्वाद ।
२६ अगस्त, १९६१
अगर विश्व-युद्ध छिड़ जाये तो न केवल मानवता का अधिकांश नष्ट हो सकता जो बचे रहेंगे उनके लिए भी आणविक निक्षेप के प्रभाव के कारण जीने की परिस्थियां असम्भव हो उठेंगी । अगर ऐसे युद्ध की अब तक सम्भावना बनी है तो क्या धरती पर 'अतिमानसिक सत्य' 'नयी जाति' के आगमन पर प्रभाव न पड़ेगा ?
ये सभी मानसिक अनुमान हैं और एक बार मानसिक कल्पनाओं के क्षेत्र में घुस जाने पर समस्याओं और उनके समाधानों का कोई अन्त नहीं होता । लेकिन ये सब तुम्हें सत्य के एक पग भी निकट नहीं लाते ।
मन के लिए सबसे सुरक्षित और सबसे स्वस्थ मनोवृत्ति इस तरह की
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है : हमसे सुनिश्चित और सकारात्मक तरीके से कहा गया है कि वर्तमान सृष्टि के बाद अतिमानसिक सृष्टि आयेगी, अत: भविष्य के लिए जो कुछ तैयारी हो रही है वह उस आगमन के लिए आवश्यक परिस्थितियां होंगी चाहे वे कुछ भी क्यों न हों और चूंकि हम इन परिस्थितियों का ठीक-ठीक पूर्वदर्शन करने में असमर्थ हैं, अत: इनके बारे में चुप रहना ज्यादा अच्छा है ।
कठिनाइयों का पूर्वानुमान करना उन्हें आने में सहायता देना है ।
परम कृपा में पूर्ण विश्वास रखकर हमेशा अच्छे-से-अच्छे का पूर्वदर्शन करना धरती पर अतिमानसिक कार्य में प्रभावशाली रूप से सहयोग देना है ।
आज सुबह अपने ध्यान में मैंने ऐसी कितनी चीजें देखी जिनका तार्किक रूप से सम्बन्ध न था, लोकिन निश्चित रूप से उनसे ऐसा असर पड़ा कि कुछ विलक्षण होने वाला है । शायद पहली बार मुझे ऐसी पूर्वसंवेदना हुई जो करीब एक घण्टे तक रही ।
मै यह जानना चाहता हूं कि इसमें कोई सत्य है या नहीं और हमें इसके लिए कैसे तैयारी करनी चाहिये ?
पिछली रात हम लोग (तुम, मैं और कुछ अन्य) काफी समय के लिए श्रीअरविन्द के स्थायी निवास-स्थान, सूक्ष्म- भौतिक में एक साथ थे (जिसे श्रीअरविन्द सच्चा भौतिक कहते थे) । वहां जो कुछ हुआ (कहने के लिए बहुत ही लम्बी और जटिल बात है) सब कुछ व्यवस्थित था, यानी रूपान्तर की वर्तमान गतिविधि की द्रुतता को ठोस रूप में अभिव्यक्त करने के लिए था । और एक स्मित के साथ श्रीअरविन्द ने तुमसे कुछ-कुछ ऐसा कहा : ''अब मानते हो तुम ?'' ऐसा था मानों वे सावित्री की ये तीन पंक्तियां सुना रहे थे :
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''बुद्धिमान-लोग बातें करते और सोते रह जायेंगे और भगवान् जग कर चले देंगे |
मनुष्य को उनके आगमन का तब तक पता नहीं चलेगा जब तक मुहूर्त नहीं आ जाता,
और विश्वास नहीं होगा जब तक काम पूरा न हो जाये''
मेरे ख्याल से जिस ध्यान की तुम बात कर रहे हो उसकी यह पर्याप्त व्याख्या है ।
मेरे आशीर्वाद ।
१ फरवरी, १९६३
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किसी ने मुझसे पूछा,--
''रूपान्तर के कार्य में कौन अपना कार्य करने में सबसे अधिक धीमा है, मनुष्य या भगवान् ?''
मैंने जवाब दिया--
मनुष्य को लगता है कि उसकी प्रार्थनाओं का उत्तर देने में भगवान् बहुत धीमे हैं ।
भगवान् को लगता है कि उनके प्रभाव को ग्रहण करने में मनुष्य बहुत धीमा है ।
लेकिन 'सत्य-चेतना' के लिए सब कुछ उसी तरह चल रहा है जैसे चलना चाहिये ।
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परम प्रभु शाश्वत और अनन्त हैं ।
यहां तक कि जब धरती पर अतिमानस पूरी तरह से अभिव्यक्त हो जायेगा तब भी परम प्रभु इस सिद्धि से अनन्त गुने अधिक होंगे । उसके बाद परम प्रभु की अनन्त अभिव्यक्तियां आयेंगी ।
जो रूपान्तर के लिए तैयार हैं वे उसे कहीं भी कर सकते हैं । और जो तैयार नहीं हैं वे चाहे जहां हों उसे नहीं कर सकते ।
१२ नवम्बर, १९७१
अतिमानसिक रूपान्तर कठिन परिश्रम है ओर उसके लिए मजबूत शरीर की आवश्यकता है । और कुछ समय के लिए, शायद सौ साल से अधिक तक, भौतिक शरीर को अपनी शक्ति बनाये रखने के लिए खाने की आवश्यकता होगी; और हमें इस आवश्यकता को पूरा करना होगा ।
दिसम्बर १९७२
अमरता
शाश्वत यौवन : यह ऐसा उपहार है जो भगवान् हमें तब देते हैं जब हम अपने-आपको उनके साथ एक कर लेते हैं ।
रूप निरन्तर बदलते रहते हैं; अपने-आपको अमर चेतना के साथ एक कर लो और तुम ''वही'' बन जाओगे ।
अमरता लक्ष्य नहीं है, यहां तक कि साधन भी नहीं है । सत्य को जीने भर से यह स्वाभाविक रूप से आ जायेगी ।
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सर्वांगीण अमरता : यह एक प्रतिज्ञा है । यह भौतिक हकीकत कब बनेगी ?
अतिमानसिक अमरता : यह एक प्रतिष्ठित तथ्य है, लेकिन थोड़े ही मनुष्यों ने इसका अनुभव किया है ।
धरती पर अतिमानसिक अमरता : इसे चरितार्थ करना बाकी है ।
प्राणिक अमरता : अपने क्षेत्र में इसका अस्तित्व है लेकिन है भगवान् के प्रति समर्पण पर निर्भर ।
अमरता के लिए अभीप्सा : पवित्र, अभीप्सा करती हुई और विश्वास करती हुई ।
अमरता के लिए भौतिक अभीप्सा : तीव्र अभीप्सा लेकिन साधनों से अनभिज्ञ ।
सर्वांगीण अमरता के लिए अभीप्सा : चेतना का व्यवस्थित, दृढ़ और विधिवत् विकास ।
अमरता की ओर प्रयास : अध्यवसायी और समन्वित ।
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