CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.

माताजी के वचन - III

The Mother symbol
The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - III Vol. 15 409 pages 2004 Edition
English
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The Mother symbol
The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
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बीमारी और स्वास्थ्य

 

      तुम मुझसे पूछती हो कि क्या तुम्हारी बीमारी योग के कारण आयी है । हर्गिज नहीं-स्वास्थ्य बिगाड़ना तो बहुत दूर रहा, योग हृष्ट-पुष्ट और अक्षय स्वास्थ्य को बनाने में सहायता देता है ।

२१ जून, १४२

 

*

 

      यह न भूलो कि हमारे योग में सफल होने के लिए तुम्हारे पास सबल ओर स्वस्थ शरीर होना चाहिये ।

 

     इसके लिए, शरीर को व्यायाम करना चाहिये, तुम्हारा जीवन सक्रिय ओर नियमित होना चाहिये, तुम्हें शारीरिक काम करना चाहिये, अच्छी तरह खाना और सोना चाहिये ।

 

      अच्छे स्वास्थ्य में ही रूपान्तर की ओर जाने का मार्ग मिलता है ।

१८ अप्रैल,७१

*

 

     व्यायाम करना और सरल तथा स्वस्थ जीवन जीना अच्छा है, लेकिन शरीर के सचमुच पूर्ण होने के लिए, उसे भागवत शक्तियों के प्रति खुलना चाहिये, केवल भागवत प्रभाव के अधीन होना चाहिये, भगवान् को प्राप्त करने के लिए निरन्तर अभीप्सा करनी चाहिये ।

 

*

 

      अच्छा स्वास्थ्य आन्तरिक सामञ्जस्य को दर्शाता है । अगर हमारा स्वास्थ्य अच्छा है तो हमें गर्व होना चाहिये, उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये ।

 

*

 

      अब तक इस धरती पर सुख और अच्छा स्वास्थ्य स्वाभाविक अवस्थाएं नहीं हैं ।

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     हमें सावधानी के साथ उनके विरोधियों की घुसपैठ से उनकी रक्षा करनी चाहिये ।

 

बीमारी के आन्तरिक कारण

 

        मेरे साथ बहुत तरह की छाटोई-मोटी दुर्घटनाएं हो रही हैं और मुझे चोटें लग रही हैं, इससे मैं विचलित हो उठता हूं क्यिोंकि इनसे बचने के मेरे सारे प्रयास असफल प्रतीत हो रहे हैं | मुझे क्या करना चाहिय ?

 

तुम्हें इन छोटी-मोटी चीजों से अपने- आपको संत्रस्त नहीं करना चाहिये - अपने आपमें इन चीजों का कोई मूल्य नहीं है और इनका उपयोग हमें यह दिखाना होता है कि अभी तक हमारे स्वभाव में निश्चेतना कहां दुबकी हुई है ताकि हम वहां प्रकाश डाल सकें ।

१३ जुलाई, १९३७

 

*

 

      तुम्हें इस बीमारी को इस बात के चिह्न के रूप में लेना चाहिये कि तुम्हारी सभी धारणाओं और शायद संकल्पों के बावजूद तुम्हें साधना करनी होगी और काम में बाहरी उत्सर्ग के साथ मनोवैज्ञानिक रूपान्तर और गभीर समझ के आन्तरिक उत्सर्ग को जोड़ना होगा और उस उद्देश्य के लिए अपने एकान्त का भी उपयोग करना होगा ।

      मेरा प्रेम और आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।

६ अप्रैल, १९५२

 

*

 

      शारीरिक रोग हमेशा भौतिक सत्ता के किसी प्रतिरोध का चिह्न होते हैं; लेकिन भागवत 'संकल्प' के प्रति समर्पण और भागवत 'कृपा' के कार्य में पूर्ण विश्वास के रहते इन्हें जल्दी ही गायब होना पड़ेगा ।

२२ मई, १९५७

*

१५१


 

     श्रीअरविन्द कहते हैं :

 

    ''रोग बेकार में लम्बा खींचा जाता है और जितना अवश्यम्भावी है उससे कहीं अधिक बार उसका अन्त मृत्यु में होता है क्योंकि रोगी का मन शरीर के रोग को सहारा देता है और उसी के बारे में चिन्ता करता रहता है ।''

    मैं यह और जोड़ती हूं :

   ''शरीर की बीमारी हमेशा आन्तरिक सत्ता के किसी असामञ्जस्य, किसी अव्यवस्था की द्योतक, उसकी बाहरी अभिव्यक्ति होती है; जब तक यह आन्तरिक अव्यवस्था ठीक नहीं हो जाती, तब तक बाहरी इलाज पूर्ण और स्थायी नहीं हो सकता ।''

अक्तूबर, १९५९

 

*

 

     शारीरिक कष्ट हमेशा ऐसे पाठ के रूप में आते हैं जो हमें समता सिखलाते हैं और यह प्रकट करते हैं कि हमारे अन्दर कौन-सी चीज इतने पर्याप्त रूप में शुद्ध और दीप्त है जो अप्रभावित रहे । समता में ही तुम उपचार पाते हो ।

 

      एक महत्त्वपूर्ण बात : समता का अर्थ उदासीनता नहीं होता ।

११ दिसम्बर,  १९६५

 

*

 

    बीमारी एक परीक्षा के रूप में आयी और शुद्धीकरण के रूप में चली गयी । उस सबको बहा ले गयी जो पूर्ण उत्सर्ग के आनन्द के रास्ते में खड़ा था ।

२ फरवरी, १९६७

 

*

 

      यह बीमारी तुम्हारे ऊपर विरोधी शक्तियों के द्वारा कठिन परीक्षा के रूप में डाली गयी है ।

 

      तुमने इसे उचित मनोवृत्ति के साथ नहीं लिया ।

 

        १ 'विचार ओर सूत्र' ।

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      इसीलिए यह चलती चली जा रही है ।

      तुम्हारा मद्रास वापस जाना मनोवृत्ति में कोई सुधार नहीं लाता--बात इसके विपरीत है ।

     तुम भय और भगवान् के प्रति अविश्वास की क्रिया के सामने झुके हो । मुझे नहीं लगता कि यह तुम्हें किसी भलाई की ओर      ले जायेगी ।

 

*

 

    तुम्हारी बीमारी एक दुर्घटना मात्र नहीं थी । तुमने अपनी चेतना के विस्तार के साथ आन्तरिक परिवर्तन, मनोवैज्ञानिक परिवर्तन की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया । तुम अपने-आपमें सन्तुष्ट थे । तुम अपनी छोटी-सी सीप में बन्द थे और तुमने कोई प्रगति करने की कोशिश नहीं की । तुम कहते थे कि मुझे साधना में कोई रुचि नहीं है और सोचते थे कि जो थोड़ा-सा काम तुम कर रहे हो वह तुम्हारे लिए काफी था और इससे अधिक किसी चीज की जरूरत नहीं थी । यही मनोवृत्ति तुम्हें मेरी सुरक्षा से बाहर ले गयी । मैंने तुम्हें चेतावनी दी थी लेकिन तुमने यह कहकर प्रकृति को चुनौती दी कि तुम्हें कोई चीज नहीं छू सकती । ये सब चीजें मिल गयीं और मानसिक कठिनाइयां, कमजोरी और बीमारी ले आयीं ।

 

     तुम्हें बदलना होगा । तुम्हें महासरस्वती की शर्तों को पूरा करने की कोशिश करनी होगी, अपने काम को अधिकाधिक पूर्ण बनाना होगा, प्रगति करनी होगी और मनोवैज्ञानिक रूपान्तर के लिए कोशिश करनी होगी । इससे कम से तुम्हारा काम न चलेगा । यह कम-से-कम है और अगर तुम सचाई के साथ कोशिश करो तो मेरी सहायता हमेशा साथ होगी ।

 

     इन दिनों मेरा काम इतनी तेज गति से चल रहा है कि अगर तुम गम्भीरता से प्रयास न करोगे, तो बहुत पीछे छूट जाओगे और मेरे साथ न रह पाओगे । लेकिन अगर तुम मेरे कहे अनुसार करो, तो सब कुछ ठीक होगा ।

 

*

 

     तुम्हारी बीमारी ने तुम्हें एक आन्तरिक परिवर्तन की आवश्यकता के प्रति अपनी आखें खोलने का सुअवसर दिया । तुम्हें इससे लाभ उठाना

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चाहिये और प्रगति करनी चाहिये ।

 

*

 

      वे चीजें जो तुम्हारी प्रकृति में बदलना नहीं चाहती एक साथ मिल जाती हैं और बीमारी के रूप में बाहर आती हैं । सशक्त अभीप्सा और सर्वांर्तीण परिवर्तन ही करने लायक एकमात्र चीज है । तब सब ठीक हो जायेगा ।

 

भय और बीमारी

 

     सावधान रहो । 'क' पर भय की एक तरह की रचना थी--सर्दी जुकाम का भय, बुरे स्वास्थ्य का भय इत्यादि-- ध्यान रखो कि यह रचना तुम्हारे ऊपर न कूद पड़े, तुम्हें इसे दृढ़ संकल्प के साथ दूर फेंकना होगा ।

१९३७

 

*

 

     तुम्हें डरना नहीं चाहिये । तुम्हारी अधिकतर कठिनाइयां भय से आती हैं । वास्तव में, ९० प्रतिशत बीमारियां शरीर के अवचेतन भय का परिणाम होती हैं । शरीर की सामान्य चेतना में छोटी-से-छोटी शारीरिक गड़बड़ के परिणामों के बारे में एक न्यूनाधिक गुप्त चिन्ता होती है । इसे भविष्य के बारे में सन्देहभरे इन शब्दों में अनूदित कर सकते हैं : ''अब क्या होगा ? '' इसी चिन्ता को रोकना होगा । निश्चय ही यह चिन्ता भागवत कृपा में भरोसे का अभाव है और इस बात का अचूक चिह्न कि उत्सर्ग सर्वांगीण और पूर्ण नहीं है ।

 

     इस अवचेतन भय पर व्यावहारिक रूप में विजय पाने के लिए यह करो कि जब-जब इसका कोई भाग सतह पर आये, तब-तब सत्ता का अधिक प्रदीप्त अंश इस पर भागवत कृपा में पूर्ण विश्वास की आवश्यकता का और इस निश्चिति के होने का दबाव डाले कि यह भागवत कृपा हमेशा हमारे अन्दर और साथ ही औरों के अन्दर भी अच्छे-से- अच्छे के

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लिए कार्य कर रही है, और भागवत संकल्प के प्रति पूरी तरह और बिना कुछ बचाये अपने- आपको दे देने का निश्चय हो ।

 

     शरीर को यह जानना और यह विश्वास रखना चाहिये कि उसका सार तत्त्व भागवत है और यह कि अगर भागवत कार्य के रास्ते में कोई बाधा न डाली जाये तो हमें कोई भी चीज हानि नहीं पहुंचा सकती । इस प्रक्रिया को स्थिरता के साथ तब तक दोहराते रहना चाहिये जब तक भय का आना एकदम बन्द न हो जाये और तब अगर बीमारी प्रकट होने में सफल हो भी जाये तो भी उस पर निश्चित रूप से विजय पाने तक उसकी शक्ति और उसकी अवधि बहुत कम हो जायेगी ।

१४ अक्तूबर, १९४५

 

*

 

     जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये, तुम्हें उसका सामना साहस, शान्ति, भरोसे और इस निश्चिति के साथ करना चाहिये कि बीमारी एक मिथ्यात्व है और अगर तुम पूरे भरोसे के साथ, पूरी तरह, पूर्ण अचंचलता के साथ भागवत कृपा की ओर मुड़ो तो वह कृपा इन कोषाणुओं में उसी तरह पैठ जायेगी जिस तरह वह सत्ता की गहराइयों में पैठती है, और स्वयं कोषाणु शाश्वत सत्य और आनन्द के भागीदार होंगे ।

 

*

 

     कुछ समय से मैं अपने पैरों पर चर्मरोग के कारण सचमुच बहुत चिन्तित हूं । माताजी, कृपया मेरे शरीर से इस बीमारी को और मेरे मन से भय को दूर फेंक दीजिये ।

 

सच्ची बीमारी भय है । भय को दूर फेंक दो तो बीमारी चली जायेगी ।

     मेरी सहायता तुम्हारे साथ है ।

     आशीर्वाद ।

१९६५

*

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     कैंसर के बारे में : पहली चीज यह है कि तुम्हें समस्त भय को निकाल बाहर करना होगा ।

 

*

 

     अगर तुम नीरोग होना चाहते हो तो दो शर्तें हैं । पहली, तुम्हें भयरहित होना चाहिये एकदम-से भयरहित, समझ रहे हो ना, और दूसरी, तुम्हें भागवत सुरक्षा में पूर्ण विश्वास होना चाहिये । ये दोनों चीजें आवश्यक हैं ।

 

बीमारी के बारे में चिन्ता और परेशानी

 

चिकित्सक ने मेरे खून की जांच कर ली है । उन्होंने मुझे  यह पुर्जा आपको यह दिखाने और सूचित करने के कि मेरा खून कितना कमजोर है । थकान घटने के बजाय बढ़ती हुई प्रतीत होती है ।

 

तुम्हें चिन्ता नहीं करनी चाहिये; तुम शीघ्र ही फिर से अपने पैरों पर खड़े हो जाओगे, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि तुम्हारी प्राणशक्ति बहुत मजबूत बनी रही है । कोई भय न करो और भागवत कृपा पर पूरा भरोसा रखो ।

१८ फरवरी, १९३८

 

*

 

'क' ने मुझसे कहा, '' तुम्हारी यह गलती थी कि अपने शरीर के इतने दुबले-पतले और कमजोर के बारे में माताजी को सूचना नहीं दी ।''  कृपया मुझे इसे  सुधारने का रास्ता बताइये ।

 

इसके बारे में चिन्ता न करो और भागवत कृपा पर अपनी श्रद्धा बढ़ाओ ।

       आशीर्वाद ।

४ जुलाई,  १९३९

*

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     लोगों का कहना है कि बीमारी का यह आक्रमण बहुत अधिक काम करने और काम के कारण धूप और ठण्डी हवा मे रहने से होता है | यह बात मुझे चिन्तित करती है |

 

     यह आक्रमण काम या धूप और ठण्डी हवा में रहने के कारण नहीं बल्कि अवचेतना में से उठने वाली एक पुरानी आदत के कारण है । लोग जो कहते हैं उस पर कान न दो और भागवत कृपा पर श्रद्धा बनाये रखो । यथासमय सब कुछ ठीक हो जायेगा ।

     मेरे आशीर्वाद ।

८ जनवरी, १९४०

 

*

 

     चिन्ता मत करो ओर अपने हाथ को आराम दो । जल्दी ठीक होने का यह सबसे अच्छा तरीका है ।

 

*

 

     मेरी सलाह है : चिन्ता न करो । तुम उसके बारे में जितना अधिक सोचते हो उतना अधिक तुम उस पर एकाग्र होते हो, और उससे भी बढ्‌कर,  तुम जितना अधिक डरते हो उतना ही उस चीज को बढ़ने का अवसर देते हो ।

 

     इसके विपरीत, अगर तुम अपना ध्यान और अपनी रुचि किसी और चीज की और मोड़ दो तो तुम रोगमुक्त होने की सम्भावनाओं को बढ़ाते हो ।

 

*

 

     शरीर के इन जड़- भौतिक कार्यों को भला इतना महत्त्व क्यों दिया जाये ? इनसे पूरी तरह से मुक्त होने का अनुभव करना और इनके बारे में चिन्ता किये बिना इन्हें अपने रास्ते जाने देना ज्यादा अच्छा है जब तक कि हमारे अन्दर वह आवश्यक शक्ति और ज्ञान न हो जिससे हम उनके अन्धकार में हस्तक्षेप करके उन्हें बदलने और परम प्रकाश और परम

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चेतना की सच्ची अभिव्यक्ति बनने को बाधित कर पायें ।

 

*

 

      स्वास्थ्य : उसी के बारे में व्यस्त और व्यग्र न होना बल्कि उसे भगवान् के हाथों सौंप देना ।

 

*

 

      अपने और अपने स्वास्थ्य के बारे में कम सोचो ।

      निश्चय ही तुम अधिक बलवान् बनोगे ।

      लेकिन अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम्हें कोई बीमारी है तो अस्पताल जाओ, निश्चय ही वे कोई बीमारी ढूंढ निकालेंगे ।

 

*

 

     अगर मां-बाप अपने बच्चों को अकेला छोड़ दें,  तो वे इस तरह बहुधा बीमार न पड़ेंगे, शायद दस में से एक बार भी नहीं । हां, तुमने बच्चे से कुछ नहीं कहा, लेकिन तुम उसके स्वास्थ के बारे में कितनी चिन्तित थीं । ऐसा लगता था मानों कोई अनर्थ हो गया हो या बच्चे को अचानक, कैंसर हो गया हो । तुम्हारी चिन्ता ही सारे वातावरण को खराब करती और परेशानी बढ़ाती है ।

 

*

 

     अगर तुम बीमार पड़ते हो तो तुम्हारी बीमारी की इतनी व्याकुलता और भय से देख-रेख की जाती है, तुम्हारी इतनी परिचर्या की जाती है कि तुम उस 'एकमेव' से सहायता लेना भूल जाते हो जो तुम्हारी सहायता कर सकता है और तुम एक कुचक्र में पड़ जाते हो और अपनी बीमारी में एक अस्वस्थ रुचि लेने लगते हो ।

 

*

 

     जब मैं बीस साल की थी, तो किसी चिकित्सक ने मुझसे कहा था कि आमाशय और आंतों की गड़बड़ में सबसे अच्छी चीज है सामान्य रूप से

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खाते रहना और गड़बड़ के बारे में बिलकुल चिन्ता न करना । उसने कहा था, ''अगर तुम्हारे पेट में अम्लरोग है तो तुम जो कुछ खाओगी उससे तुम्हें अम्ल पैदा होगा और तुम उसके बारे में जितनी चिन्ता करोगी उतना ही अधिक बढ़ेगा । अगर तुम अपने भोजन को बदलती जाओ, तो अन्त में तुम देखोगी कि तकलीफ में पड़े बिना तुम एक बूंद पानी भी नहीं पी सकती । लेकिन अगर तुम सामान्य रहो और चिन्ता न करो, तो तुम ठीक हो जाओगी ।"

 

     और मैंने इस सलाह को एकदम सच्चा पाया है ।

 

गलत तरीके से सोचना और बीमारी

 

     वस्तुत: मैं तुम्हें विश्वास दिला सकती हूं कि पेट में दर्द और अन्य बहुत-से असुख ९० प्रतिशत गलत तरीके से सोचने और प्रबल कल्पनाएं करते रहने से आते हैं--कहने का मतलब यह है कि उनके लिए भौतिक आधार प्राय: नगण्य होता है ।

प्रेम और आशीर्वाद सहित ।

१९४३

 

*

 

     अपने-आपको त्रस्त न करो और चिन्ता न करो; सबसे अधिक, समस्त भय को निकाल बाहर करने की कोशिश करो; भय एक खतरनाक चीज है । जो ऐसी चीज को महत्त्व दे सकती है जिसका कोई महत्त्व है ही नहीं । रोग के किन्हीं लक्षणों को फिर से आते हुए देखने का मात्र भय तक उस रोग को दुबारा लाने के लिए पर्याप्त होता है ।

२४ जुलाई, १९४५

 

*

 

      मेरी ऐसी धारणा है की बहुत प्रोटीन और स्टार्च वाला भोजन एक्ज़ीमा बढ़ाता है ।

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शरीर पर भोजन का ९० प्रतिशत प्रभाव सोचने की शक्ति से आता है । अगर तुम विश्वास के साथ डॉ. 'क' का इलाज करो तो तुम नीरोग हो जाओगे ।

      आशीर्वाद ।

अक्तूबर, १९६२

 

*

 

     शायद तुमसे कहा गया होगा कि शरीर के अमुक रोग से तुम्हें बहुत दर्द होगा । इस तरह की चीजें प्राय: कही जाती हैं । तब तुम डर की एक रचना बना लेते हो और दर्द के आने का इंतजार करते रहते हो । और दर्द तब भी आ जाता है जब उसके आने की कोई आवश्यकता नहीं होती ।

 

     लेकिन अगर अन्तत: दर्द है ही तो मैं तुमसे एक बात कह सकती हूं । अगर चेतना ऊपर की ओर मुड़ी  हो,  तो दर्द गायब हो जाता है । अगर वह नीचे की ओर मुड़ी हो तो दर्द का अनुभव होता है, यहां तक कि वह बढ़ भी जाता है । जब तुम उपरले और निचले मोड़ के साथ परीक्षण करते हो, तो तुम देखते हो कि शारीरिक रोगों का यूं दर्द के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । शरीर बहुत अधिक कष्ट पा सकता है या उसे बिलकुल कष्ट नहीं होता यद्यपि उसकी अवस्था एकदम वही-की-वही होती है । चेतना का मोड़ ही सारा भेद करता है ।

 

     मैं ''ऊपर मुड़े'' होने की बात कह रही हूं क्योंकि भगवान् की ओर मुड़ना सबसे अच्छा तरीका है, लेकिन सामान्य तौर पर यह कहा जा सकता है कि अगर चेतना दर्द से हटकर किसी काम या किसी ऐसी चीज की ओर मुड़ जाये जिसमें तुम्हें रस है तो दर्द बन्द हो जाता है ।

 

    और केवल दर्द के लिए ही नहीं बल्कि अंगों की किसी भी क्षति को उस समय अधिक आसानी से ठीक किया जा सकता है जब चेतना को कष्ट से दूर हटा लिया जाये और तुम भगवान् की ओर खुले रहो । भगवान् का एक रूप 'सत्' -ब्रह्माण्ड के ऊपर, परे या पीछे शुद्ध परम 'सत्' है । अगर तुम उसके साथ सम्पर्क बनाये रख सको तो सभी शारीरिक रोगों को दूर किया जा सकता है ।

२५ नवम्बर, १९६२

 

*

१६०


 

     मधुर मां

 

           डेंग्यू ज्वर के कारण मैं बार- बार टखनों की सूजन की असह्य पुनरावृत्ति से कष्ट पा हूं

 

         चिकित्सक ''क'' मेरा इलाज कर रहे हैं, लकिन मैं आपकी 'उपचारक शक्ति' के लिए प्रार्थना करती हूं और खुकने के लिए मैं अपना अधिक- से- अधिक प्रयास कर रही हूं ताकि सकंट के इस क्षण में हमारा कार्य प्रगति कर सके ।

 

गलत चीजों की कल्पना करना बन्द कर दो तो साथ ही तुम्हारे कष्ट भी समाप्त हो जायेंगे ।

        आशीर्वाद ।

१० दिसम्बर, १९६४

 

*

 

        उसकी प्राणशक्ति बहुत कमजोर है, लेकिन मानसिक सुझाव काफी मजबूत ।

        कुछ समय के लिए वह जो मांगे कर दो । शायद वह यह जान ले कि यह सब उसकी कल्पना है, क्योंकि उसकी कल्पना ही उसे बीमार बनाती बल्कि उसे बीमारी का आभास देती है ।

 

बीमारी को जीतने का संकल्प

 

        अपने अन्दर जीतने का संकल्प जगाओ । केवल मन में ही संकल्प नहीं, बल्कि शरीर के कोषाणुओं तक में संकल्प । इसके बिना तुम कुछ नहीं कर सकते; तुम सैकड़ों दवाइयां ले सकते हो लेकिन वे तुम्हें नीरोग न कर सकेंगी जब तक तुम्हारे अन्दर शारीरिक बीमारी को जीतने का संकल्प न हो ।

         मैं उस विरोधी शक्ति को नष्ट कर सकती हूं जिसने तुम पर अधिकार कर लिया है । मैं इस क्रिया को हजारों बार दोहरा सकती हूं । लेकिन हर

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बार जब कोई रिक्तता पैदा होगी तो वह इन बहुत-सी शक्तियों में से किसी- न-किसी से पुन: भर जायेगी जो अन्दर घुसने की फिराक में रहती हैं । इसीलिए मैं कहती हूं; जीतने के संकल्प को जगाओ ।

२० अक्तूबर, १९५७

 

*

 

       अपने अस्वास्थ्य से प्रेम न करो और अस्वास्थ्य तुम्हें छोड़ देगा।

२८ अगस्त, १९६६

 

*

 

      दोनों बातें ठीक हैं । अपनी बीमारी से छुटकारा पाने के लिए तुम्हें दृढ़ संकल्प करना होगा और परिणामों के प्रति शान्त और अविचल रहना होगा । ये दोनों चीजें परस्पर विरोधी नहीं हैं । एक को दूसरे का साथ देना चाहिये । जब तुम पूरी तरह से नीरोग हो जाओ तो यह किसी आन्तरिक प्रगति का सूचक होगा ।

      तुम्हारी सहायता के लिए श्रीअरविन्द की अनुकम्पा हमेशा मौजूद है, लेकिन तुम्हारी ओर से भी कुछ प्रयास आवश्यक है ।

 

*

 

       उसे ठीक होने का संकल्प लेना चाहिये, नहीं तो वह कभी ठीक न होगी ।

 

*

 

      अगर शरीर नीरोग होने का निश्चय कर ले तो वह नीरोग हो जाता है ।

 

*

 

       हम जिस उत्साह के साथ मन से मिथ्यात्व का त्याग करते हैं उसी उत्साह के साथ शरीर को बीमारी को त्यागना चाहिये ।

 

१६२


 

 









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