The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.
Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.
देवता, उच्चतर सत्ताएं और विरोधी शक्तियां
देवता
जो अभी तक देवताओं पर विश्वास करते हैं वे, यदि उनकी इच्छा हो, निश्चय ही पूजा जारी रख सकते हैं । लेकिन उन्हें यह पता होना चाहिये कि इस मत और इस पूजा का श्रीअरविन्द की शिक्षा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, तथा अतिमानसिक सिद्धि के साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं है ।
१९६४
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अगर धरती पर दिव्य सृष्टि को चरितार्थ करना है तो देवताओं को भी परम प्रभु के प्रति समर्पण करना होगा ।
दीवाली, दशहरा, राखी पूनम आदि पर्वों का मूल और उनका महत्त्व क्या है ? --कुछ पाश्चात्य पत्रका का भी ? क्या देवता उन दिनों में मानव अभीप्सा का ज्यादा उत्तर देते हैं ? तीसरे, इन पर्वों के आन्तरिक सत्य और बाह्या समारोह, के बीच क्या सम्बन्ध है ? और इन पर्वों के प्रति हमारी मनोवृत्ति क्या होनी चाहिये ?
मनुष्य पर्वों, त्योहारों को पसन्द करते हैं ।
९ नवम्बर, १९६९
मैंने त्योहारों के महत्त्व के बारे में पूछते हुए आपको जो पत्र लिखा था उसके उत्तर में आपने लिखा है : ''लोग त्योहार पसन्द करते हैं'' तो क्या इसका मतलब यह है कि वे मनुष्यों की कल्पना ओर सनक हैं ? क्या उनका काई अर्थ और उपयोग नहीं होता ?
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त्योहार बने रहें इसलिए मनुष्य त्योहारों को न्यायसंगत ठहराने के लिए उन्हें अर्थ प्रदान करते हैं ।
२१ नवम्बर, १९६९
कृष्ण और राधा
कृष्ण वैश्व भगवान् और अन्तरस्थ भगवान् दोनों का प्रतिनिधित्व करते हैं । हम उनसे अपनी सत्ता के अन्दर भी मिल सकते हैं और अभिव्यक्त जगत् में जो कुछ है उसमें भी ।
और क्या तुम जानना चाहते हो कि उन्हें हमेशा बालक के रूप में ही क्यों चित्रित किया जाता है ? इसलिए कि वे निरन्तर प्रगति करते रहते हैं । जिस हद तक संसार पूर्ण होता है, उनकी लीला भी पूर्ण होती है । बीते कल की लीला आगामी कल की लीला न रहेगी । उनकी लीला तब तक अधिकाधिक सामञ्जस्यपूर्ण, सौम्य और आनन्दपूर्ण होती जायेगी, जब तक कि संसार उसे उत्तर देने और भगवान् के साथ उसका रस लेने योग्य नहीं हो जाता ।
कृष्ण की लीला : रूप रंगों के पीछे छिपी प्रगति की शक्ति ।
जड़-भौतिक में कृष्ण की लीला : सुन्दरता, प्रेम ओर आनन्द साथी हैं, यह लीला तुम्हें विस्तृत करती और तुम्हारी प्रगति करवाती है ।
भौतिक में कृष्ण की लीला : धरती पर अवतार का शासन यानी नये दिव्य जगत् की उपलब्धि ।
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क्या आप यह बतला सकती हैं कि राधा का अस्तित्व था या नहीं, यह प्रमाणित करने के लिए पोथियों-पर-पाथियां लिखी जा रही हैं कि उनका अस्तित्व नहीं था ।
निश्चय ही राधा जीवित थीं और अब भी जीवित हैं ।
राधा की चेतना भगवान् के साथ पूर्ण आसक्ति का प्रतीक है ।
काली, महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती
जब लोग मेरे आगे आपके विरुद्ध बोलते हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि मेरे अन्दर अनेक जिह्वाओंवाली ज्वाला उठ रही है और सामने खड़ा आदमी नरम पड़ जाता हे ।
तुम काली की शक्ति का आह्वान करते होगे ।
'क' ने श्रीअरविन्द के बारे में जो पत्र लिखा हे उसके गंवारूपन ओर बेमुरव्वती के बारे में मेरी जो प्रतिक्रिया उसके सम्बन्ध में आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं । मुझे याद है जब कई वर्ष पहले मेरी एक मित्र आप दोनों के बारे में अभद्रता के साथ बोली थी तो मैंने तुरत मौखिक रूप से ही उसकी बोलती बन्द कर दी थी, लेकिन मेरे अन्दर क्रोधावेश जलता रहा । वह मेरे सीने में आग की तलवार की तरह था जो घंटों वार करती रही । मेरा मन उसे केवल ठीक दिशा दे सकता था पर प्रहार में उसका काई हाथ न था । अगले दिन उन महिला को बड़े जोर का अतिसार हो गया।
कल 'क' का पत्र पढ़कर मेरे सीने से फिर से वैसी ही लपट निकलने लगी । इस लपट को 'क' की पत्रिका की ओर भेजने में रत्ती भर भी संकोच न था, जिससे उसका भविष्य राख हो जाये ।
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यद्यपि मैंने 'ग' पर भी तलवार चलायी मानो उसे समाप्त कर देना चाहता हूं लोकिन मैंने उस आग्नेय हत्याकाण्ड को बढ़ावा नहीं दिया । मुझे सन्देह हो रहा है कि क्या मेरा किसी पर इस तरह आघात करना ठीक है । कई बार मैंने सोचा है कि मैंने बिलकुल न्यायसंगत काम किया है । कभी मुझे ऐसा लगा कि मुझे अपनी आग की तलवार आपको और श्रीअरविन्द को भेंट कर देनी चाहिये और अपने-आप एकाग्र होकर इसे 'क' की ओर माड्ने की जगह आप दोनों के हाथों में छोड़ देना चाहिये । अगर मुझे आपसे पथ-प्रदर्शन के कृछ शब्द मिल जायें तो मैं कृतज्ञ होऊंगा । कृपया यह ख्याल रखिये कि मैं केवल क्रोध के आवेग की बात नहीं कर रहा । किसी ऐसी शक्ति का अनुभव होता है जो नष्ट करना चाहती है और जिसे लगता है कि उसमें नष्ट करने की सामर्थ्य है । निश्चय ही मैं कभी उसका उपयोग किसी निजी उद्देश्य के लिए करने की न सोचूंगा
स्पष्ट है कि यह काली की शक्ति की क्रिया है जिसने तुम्हारे अन्दर यह आग सुलगायी है, उसकी क्रिया में कोई गलती नहीं है । यह तुम्हारा निजी क्रोध नहीं है, एक दिव्य शक्ति का प्रकोप है और उसे काम करने देना चाहिये । वस्तुत: मेरा ख्याल है कि तुम चाहो भी तो उसे जलने से नहीं रोक सकते । इस आदमी ने उसे अपनी ओर खींचा है और जो हो रहा है उसमें कोई भूल नहीं है । इसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है । हां, इसका उपयोग किसी निजी उद्देश्य या स्वार्थपूर्ण ढंग से नहीं होना चाहिये ।
८ अक्तूबर, १९५०
मां के सभी रूपों में से काली सबसे अधिक शक्ति के साथ स्पन्दनशील और सक्रिय प्रेम को प्रकट करती हैं और अपने कभी-कभी भयानक रूप के बावजूद वे अपने अन्दर सर्वशक्तिमान् प्रेम की स्वर्णिम भव्यता वहन करती हैं ।
२४ फरवरी, १९६५
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काली कभी-कदास ही मन में कार्य करती हैं । उच्चतर क्षेत्रों में वे प्रेम की शक्ति हैं जो प्रगति और रूपान्तर की ओर धकेलती है । प्राण में वे मिथ्यात्व, आडम्बर और दुर्भावना के विनाश की शक्ति हैं ।
जो कुछ शुभ, सत्यमय और प्रगतिशील हो उसे वे कभी नष्ट नहीं करतीं, इसके विपरीत वे उसकी रक्षा करती और उसे बनाये रखती हैं ।
५ जून, १९६५
सभी विनाशों के पीछे चाहे वे प्रकृति के असीम विनाश हों, जैसे भूकम्प, ज्वालामुखी के विस्फोट तूफान, बाढ़ आदि या कूरतापूर्ण मानव-विनाश हों, जैसे युद्ध, क्रान्तियां, विद्रोह आदि, मैं काली की शक्ति देखती हूं जो पार्थिव वातावरण में रूपान्तर की प्रगति को तेज करने के लिए काम कर रही है ।
वह सब जो केवल तत्त्वत: ही नहीं, बल्कि चरितार्थता में भी दिव्य है वह इन विनाशों से ऊपर और उनसे अछूता रहता है । इस तरह विनाश का परिमाण अपूर्णता का परिमाण बताता है ।
इन विनाशों के बार-बार आने से बचने के लिए सच्चा तरीका है उनसे मिलने वाला पाठ सीखना और आवश्यक प्रगति करना ।
महालक्ष्मी की पूर्ण सम्पदा : क्रियाशीलता के सभी क्षेत्रों में भावों और कार्यों की सम्पदा-बौद्धिक, मनोवेज्ञानिक और भौतिक ।
महासरस्वती का उद्देश्य है संसार को पूर्णता की आवश्यकता का अहसास कराना, लेकिन स्वयं पूर्णता केवल परम प्रभु की चीज है । और कोई जान भी नहीं सकता कि वह क्या है ।
माताजी, कृपया श्रीअरविन्द द्वारा 'द मदर' पुस्तक में वर्णित माता
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के चार स्वरूपों को स्पष्टतया में मदद कीजिये ।
अधिमानस से ऊपर उच्चतर लोकों में मां के स्वरूपों की आकृतियां अत्यन्त सरल हैं, उन आकृतियों में अनेक अंग नहीं होते ।
सभी विस्तार और जटिलताएं ऐसे रूप हैं जिन्हें मनुष्य ने अदृश्य गुणों को प्रतीकात्मक अर्थ देने के लिए जोड़ दिया है ।
२९ सितम्बर, १९६७
अवतार
अवतार : धरती पर शरीर में अभिव्यक्त परम पुरुष ।
अवतार : किसी निश्चित उद्देश्य के लिए पार्थिव शरीर में अभिव्यक्त परम पुरुष-साधारणत: मानव शरीर में ।
सर्वशक्तिमान् होने के नाते भगवान् धरती पर उतरने का झंझट किये बिना ही लोगों को ऊपर उठा सकते हैं । अवतारवाद का तभी कुछ अर्थ होता है जब वह सांसारिक व्यवस्था का एक अंग हो, भगवान् मानवजाति का भार अपने ऊपर लें और उसके लिए रास्ता खोलें ।
६ मार्च, १९३५
मनुष्य धरती पर भगवान् की उपस्थिति को इसी शर्त पर सहते हैं कि भगवान् यहां पर कष्ट भोगें ।
केवल तभी जब मनुष्य ऐकान्तिक रूप से, भगवान-पर निर्भर होंगे,
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और किसी पर नहीं, अवतार के लिए यह जरूरी न रहेगा कि वह उनके लिए जान दे ।
२ अगस्त, १९५२
''अवतार'' का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के आगे यह ठोस रूप से प्रमाणित करना है कि भगवान् धरती पर प्रकट हो सकते हैं ।
१२ जुलाई, १९५४
जब तक कि धरती पर भगवान् की उपलब्धि तुम्हारा एकमात्र लक्ष्य न हो तब तक भगवान् के सन्देशवाहकों के बहुत नजदीक न आने में पूरी सावधानी बरतो, क्योंकि उनकी क्रिया तूफान जैसी होती है जो सभी स्थापित चीजों को उड़ा देता है ।
७ मई, १९५७
उच्चतर सताएं
मानवजाति उच्चतर सत्ताओं की उपस्थिति को इसी शर्त पर सहती और स्वीकार करती है कि वे उसकी सेवा में रहें ।
४ फरवरी, १९६५
साधारण मनुष्य के लिए सन्त एक प्रकार का बुद्धिमानी के संगीत का डब्बा होता है जिसमें बस प्रश्न का एक पैसा डालो और यन्त्रवत् उत्तर पा लो ।
लोग किसी देवता को तब स्वीकारते हैं जब उसके सिर के पीछे
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प्रकाश का घेरा हो, किसी राजा को तब स्वीकारते हैं जब उसके हाथ में राजदण्ड हो ।
जो व्यक्ति अहंकारपूर्ण न रहे उसका इस जगत् में कोई व्यक्तिगत स्थान नहीं रहता । कहने का आशय यह है कि उसकी निर्वैयक्तिकता के ठीक अनुपात में यह व्यक्तिगत जगत् उसके साथ कोई व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं रखता । उसका जगत् के साथ, सत्ताओं और वस्तुओं के साथ सम्बन्ध होता है लेकिन वैसा ही जैसा वैश्व और निर्वैयक्तिक शक्तियों का होता हे । उन्हीं की भांति वह सबमें क्रिया करता है, सबको अनुप्राणित करता है, सबको सहारा देता है लेकिन सामान्य रूप में वह जिन्हें अनुप्राणित करता है, सहारा देता है और क्रियाशील बनाता है उन सबके द्वारा पूरी तरह उपेक्षित रहता है ।
यह बात नहीं है कि वह संसार को अब ओर नहीं चाहता, बल्कि संसार उसे अब ओर नहीं चाहता, यहां तक कि वह इस ओर ध्यान भी नहीं देता कि उसका अस्तित्व है ।
विरोधी शक्तियां
हर बार जब हम आध्यात्मिक प्रगीत में एक निर्णायक पग उठाते हैं तो भगवान् के अदृश्य शत्रु हमेशा बदला लेने की कोशिश करते हैं । जब वे अन्तरात्मा को नुकसान नहीं पहुंचा सकते तो शरीर पर प्रहार करते हैं । लेकिन उनके सारे प्रयास व्यर्थ हैं और अन्त में वे पराजित होंगे क्योंकि भागवत कृपा हमारे साथ है ।
हमें विरोधी शक्तियों को अपनी शरारत करने का अवसर कभी न देना चाहिये-वे जरा-सी अचेतनता का भी लाभ उठाती हैं ।
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ईर्ष्या, स्वार्थपूर्ण असन्तोष और आहत दर्प तुम्हें भागवत संरक्षण से बाहर खींचकर चेतना के द्वार विरोधी आक्रमणों के लिए खोल देते हैं ।
इन भ्रान्तिपूर्ण गतिविधियों को अपने अन्दर होने देने से इन्कार करके ही तुम विपरीत प्रभाव और उसके विपत्तिजनक परिणामों से छुटकारा पाने की आशा कर सकते हो ।
महान् अज्ञान व्यक्ति से अन्धकार और विनाश की शक्तियों के सुझावों को उत्तर दिलवाता है । भगवान् की अपार दया के प्रति सच्ची कृतज्ञता के भाव द्वारा आदमी ऐसे संकटों से बच सकता है ।
ये सुझाव क्या हैं जो कभी-कभी मेरे ऊपर आक्रमण करते हैं ? क्या वे बाहर से नहीं आते ?
हां, निश्चय ही वे बाहर से आते हैं, किसी प्राणिक सत्ता से जो उन्हें तुम्हारे पास भेजने में, यह देखने में कि तुम उन्हें कैसे लेते हो, मजा लेती है । जब मैंने तुम्हें फूल दिया था तो मैंने इस सुझाव को गुजरते हुए देखा था । मैंने उसे कोई महत्त्व नहीं दिया क्योंकि वह निरी मूर्खता थी--लेकिन मैं देखती हूं कि तुमने उसे ग्रहण कर लिया ।
२८ अप्रैल, १९३४
महाकाली का प्रकोप समय-समय पर प्रकट होता है और ठीक क्रिया भी करता है लेकिन उसका प्रभाव टिकता नहीं क्योंकि जो लोग विरोधी शक्तियों को प्रत्युत्तर देते हैं वे सचमुच उनसे पिंड नहीं छुड़ाना चाहते-वे सच्चे, निष्कपट नहीं होते ।
१ जुलाई, १९३५
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माताजी, आक्रमण अनगिनत हैं और कल मैंने बहुत दुर्बलता का अनुभव किया ।
अगर तुम आक्रमणों के बारे में कम सोचो तो वे इतने अधिक न होंगे ।
७ अक्तूबर, १९३५
हमेशा विरोधी शक्तियों के बारे में सोचते रहना और उनसे डरना बहुत भयानक दुर्बलता है ।
जैसा कि तुम कहते हो, स्वयं विरोधी शक्ति को जीतना और नष्ट करना होगा अन्यथा उसे ऐसे लोग हमेशा मिलते रहेंगे जो उसे अभिव्यक्त करें ।
२८ मई, १९३६
विरोधी शक्तियों को संसार में इसीलिए सहा जाता है क्योंकि वे मनुष्य की सचाई की परख करती हैं । जिस दिन मनुष्य पूरी तरह सच्चा हो जायेगा वे चली जायेंगी, क्योंकि तब उनके अस्तित्व का कोई कारण न रह जायेगा ।
१३ मार्च, १९४९
आज रात फिर विरोधी शक्तियों का जोदार आक्रमण हुआ | नींद बिलकुल गायब हो गयी । मैं पूरी सचाई के साथ आपसे प्रार्थना करता हूं कि मुझे इन कर्कशाओं के चंगुल से बचाइये | वे मेरे पेट, जंघाओं और घुटनों पर आक्रमण करती हैं । कृपया मुझे सलाह दीजिये जिसके लिए आप वचन दे चुकी हैं ताकि मैं हमेशा के लिए इनसे पिंड छुड़ा सकूं
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ये विरोधी शक्तियां काम-वासना से सम्बन्ध रखती हैं । वे उस ऊर्जा पर जीती हैं जो इस क्रिया में नष्ट होती है । एक विचार, एक मानसिक या प्राणिक कामना भी इसके लिए पर्याप्त है कि वे आकर वातावरण में बस जायें । इस तरह स्वयं मन के अन्दर ही शुद्धि होनी चाहिये ।
मेरे आशीर्वाद ।
१२ सितम्बर, १९५०
माताजी, कभी-कभी मैं एक अजीब चीज देखता हूं | मैं ऐसा क्षेत्र देखता हूं जहां मरी हुई मक्खियां जाती हैं | उनकी अवस्था बहुत दयनीय होती है | वे शिकायत करती हैं कि मैं इतनी सारी मक्खियों को मारता हूं |
ये अन्तर्दर्शन कल्पनाएं हैं जो सम्भवत: पुराने विचार-संस्कारों से आती हैं । मक्खियों के बारे में भावुक होने की जरूरत नहीं । ये ऐसी सत्ताएं हैं जिन्हें विरोधी शक्तियों ने रचा है और उन्हें धरती से गायब हो जाना चाहिये ।
पार्थिव व्यवस्था में, हम कह सकते हैं कि कीड़े-मकोड़ों का जगत् प्राणिक जगत् में सीधा वैरी स्त्रष्टाओं का काम है । वे विरोधी और प्राय: पैशाचिक विचारों और कल्पनाओं के परिणाम हैं । वे मनुष्य के नहीं भगवान् के कार्य को निशाना बनाते हैं । प्राय: जो कीड़ा बिलकुल निर्दोष दीखता है वह अशुभ ओर दुर्भावनापूर्ण इच्छा का सन्देशवाहक होता है । उस हालत में तुम्हें उसके साथ सख्ती से व्यवहार करना चाहिये ।
प्रेम सब कुछ सह सकता है-परन्तु क्रिया में भगवान् चुनते और निर्णय करते हैं । फिर भी, उनके ध्वंस-कार्य में भी शुद्ध प्रेम, उत्कृष्ट प्रेम चमकता है ।
१४ अक्तूबर, १९५५
२४
जब विरोधी शक्तियों के साथ ठीक तरह से व्यवहार किया जाता है, तो वह सब जो कुरूप और मिथ्या होता है केवल सत्य और सुन्दर के लिए स्थान छोड़कर गायब हो जाता है ।
तुम्हारे अहंकार की आदत है कि अगर जरा-सी चीज भी उसे नाखुश कर दे तो वह तुम्हारी सत्ता के दरवाजे अक्खड़ और धृष्ट अविश्वास वाली एक अशुभ प्रेतात्मा के लिए खोल देता है । वह सभी पवित्र और सुन्दर चीजों पर कीचड़ और गन्दगी फेंकने में अपना समय बिताती है, विशेषकर तुम्हारी अन्तरात्मा की अभीप्सा और भागवत कृपा से मिलने वाली सहायता पर ।
अगर इसे जारी रहने दिया जाये तो इसका अन्त अनर्थ और विध्वंस में होना निश्चित है । इसे समाप्त करने के लिए सख्ती से कदम उठाने पड़ेंगे और उसके लिए तुम्हारी अन्तरात्मा के सहयोग की जरूरत है । उसे जाग उठना चाहिये और दृढ़ निश्चय के साथ इस अशुभ प्रेतात्मा के लिए द्वार बन्द करके अहंकार के विरुद्ध लड़ाई में भाग लेना चाहिये ।
९ अप्रैल, १९५८
आखिर स्वाधीनता क्या है ? मनमानी करते चले जाना ? लेकिन क्या तुम जानते हो कि यह ''तुम'' है कौन ? क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी अपनी इच्छा क्या है ? क्या तुम जानते हो कि क्या तुम्हारे अन्दर से आता है और क्या कहीं और से ? अगर तुम्हारे अन्दर प्रबल इच्छा-शक्ति होती तो मैं तुम्हें काम करने देती । लेकिन बात ऐसी नहीं है । केवल आवेग तुम्हें नचाते हैं और वे भी तुम्हारे अपने नहीं होते । वे बाहर से आते हैं और तुमसे सब तरह की बेहूदा चीजें करवाते हैं । तुम राक्षसों के हाथों में जा गिरते हो । पहले वे तुमसे बेहूदा चीजें करवाते हैं, फिर ऊपर से हंसते हैं । अगर तुम्हारे अन्दर प्रबल इच्छा-शक्ति हो, अगर तुम्हारी इच्छा-शक्ति, तुम्हारे आवेश और बाकी सब, चैत्य के चारों ओर संकेन्द्रित हों तब, और तभी
२५
तुम्हें आजादी और स्वाधीनता का कुछ स्वाद मिल सकता है अन्यथा तुम गुलाम होते हो ।
अगर तुम भगवान् और उन्हें प्रकट करने वाले गुरु के आज्ञाकारी और समर्पित सेवक होने से इन्कार करते हो तो इसका अर्थ है कि तुम हमेशा अपने अहंकार के, अपने दर्प, अपनी धृष्ट महत्त्वाकांक्षाओं के गुलाम रहोगे । तुम राक्षसों के हाथ में खिलौना बने रहोगे जो तुम्हारे ऊपर कब्जा करने के प्रयास में तुम्हें चमक-दमक वाले चित्रों से लुभाते हैं-वे हमेशा असफल नहीं होते ।
अगर तुम समझ पाते और ठीक प्रतिक्रिया करते तो तुम इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते और केवल इस विशेष कठिनाई से ही नहीं बल्कि सम्भवत: इस विरोधी प्रभाव से ही पूरी तरह छुटकारा पा लेते । लेकिन तुम असफल रहे और उसके अधिकार में आ गये । मेरे करने के लिए बस एक ही चीज बच रही थी, वह यह कि में तुम्हारे अन्दर शुद्ध प्रकाश की, पवित्रीकरण के श्वेत प्रकाश की बाढ़ ला देती और तुम्हारे अन्दर से घुसपैठियों को खदेड़ देती । शायद तुमने इसे हमारे सम्बन्ध को काटना, मेरे ओर तुम्हारे बीच अलग करने वाली दीवार मान लिया । ऐसी कोई चीज न थी । मैं हमेशा की तरह भेदती हुई तुम्हारे अन्दर थी लेकिन थी इस परम पवित्रता के रूप में जो उन सब चीजों के लिए बिलकुल विजातीय है जो भगवान् के विरुद्ध हैं, इतना ही नहीं, समस्त सामान्य मानव गतिविधियों के लिए भी ।
यह विरोधी सत्ता केवल प्राणिक नहीं है । यह मानसिक भी है और अपनी कामनाओं का कुछ ऐसे युक्तियुक्त सिद्धान्तों द्वारा समर्थन करती है जो अपनी कठोरता के कारण बिल्कुल मूर्खतापूर्ण बन जाते हैं । जब यह चीज तुम्हें पकड़ती है तो ऐसा लगता है कि तुम अपनी सारी सामान्य बुद्धि और प्रारम्भिक समझ भी खो बेठते हो ।
कोई दीवार बिलकुल नहीं है, केवल शुद्ध प्रकाश, पवित्रीकरण की
२६
श्वेत ज्वाला पूरी तरह अन्दर भेदती हुइ, बाहर से अन्दर और अन्दर से बाहर की ओर भेदती हुई ।
मैं अब तुम्हें बतला सकती हूं कि क्या हुआ था क्योंकि कुछ सम्भावना है कि तुम समझ सकोगे ।
(किसी साधक की दुर्घटना के बारे में)
मेंने जो कुछ कहा था उसका यह एक दुःखद परन्तु ज्वलन्त उदाहरण है । यह मामला स्पष्ट है । किसी अहंकारपूर्ण कारण से उसने जितना वह कर सकता था उससे ज्यादा करने की कोशिश की ।
अगर वर्ष, अच्छा होता तो वह सफल हो सकता था ।
साधारण या मध्यम वर्ष में वह सफल तो न होता पर स्वयं उसके लिए या औरों के लिए दुष्परिणाम भी न आते ।
चूंकि यह वर्ष, भयंकर रूप से बुरा है इसलिए परिणाम पूरे जोश से आये हैं । अब मैं बस यही कर सकती हूं कि इस स्थिति का अच्छे-से-अच्छा उपयोग करूं; लेकिन यह एक बड़ा संग्राम बन गया है ।
जब मैंने कहा था तो मेरा यही मतलब था लेकिन बहुत कम लोग 'सावधान रहो' का अर्थ समझ पाये थे । मेरा मतलब था ''तुम जितना अच्छे-से-अच्छा कर सकते हो करो और यथासम्भव कोई आध्यात्मिक भूल न करो ।'' इसके विपरीत अधिकतर लोग डरने लगे और यह अपने-आप में ही बहुत बड़ी आध्यात्मिक भूल थी । अधिक जागरूक और अधिक वफादार होने की जगह अधिकतर लोगों ने तुरन्त वैरी सुझावों के लिए द्वार खोल दिये ओर स्थिति को ज्यादा खराब बना दिया । कुछ तो इस हद तक गये कि यह कहने के लिए वे मुझे दोष देने लगे । वे यह नहीं समझ पाये कि अगर मैं यहां के लोगों को सावधान नहीं कर सकती और उन्हें उचित वृत्ति में दृढ़ रहने की सलाह नहीं दे सकती तो इसका अर्थ यह है कि वे सच्चे साधक नहीं हैं और उनकी वृत्ति में निष्कपटता नहीं है ।
अपनी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए मैंने जो कहा था उसे
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फिर से दोहराती हूं : इस तरह के वर्ष में, जब विरोधी शक्तियों ने अपनी पूरी क्षमता के साथ आक्रमण करने का निश्चय कर लिया है, जिन लोगों ने भागवत उपलब्धि के लिए लड़ने का निश्चय कर लिया है उनसे आशा की जाती है कि वे सावधानी के साथ समस्त भय को दूर रखें ।
जब मैं वर्ष के आरम्भ में बोली थी तो मैंने विशेष रूप से जागरूक रहने की आवश्यकता पर बल दिया था क्योंकि जब बुरा समय हो उस समय आदमी जो भी भूल करे उसके तुरन्त पूरे परिणाम आते हैं । विरोधी आक्रमण की तीव्रता भागवत कृपा के कार्य में बाधा देती है । श्रद्धा अधिक पूर्ण होनी चाहिये, जागरूकता अधिक निरन्तर और भगवान् पर भरोसा अधिक निरपेक्ष ।
१९५५
रही बात तुम्हारे ऊपर की ओर खुलने की-तो किसी चीज से न डरो, सब कुछ तुम्हारी सचाई पर निर्भर है । अगर तुम एकमात्र भगवान् को ही चाहते हो, कोई निजी लाभ नहीं चाहते तो एकमात्र भगवान् ही तुम्हारी पुकार का उत्तर देंगे, विरोधी उत्तरों का खतरा तभी होता है जब तुम्हारा उद्देश्य अहंकारपूर्ण हो ।
मेरे आशीर्वाद सहित ।
५ सितम्बर, १९६४
आज सवेरे तीन बने के लगभग, थकी कुछ उत्तेजित अवस्था में मैंने आपको बुलाया । कुछ क्षणों के बाद, तीन बार
मुझे लगा कि प्रबल शक्ति अशक्त और संस्तब्ध किये दे है और निश्चेतना में धंसा रही है । मैंने विरुद्ध बहुत संघर्ष किया क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि विरोधी शक्ति मेरे सूक्ष्म शरीर को ले जाना चाहती है । तीसरी बार जब मेरी एक आंख तो मैंने एक लम्बे आदमी के नीले चोगे का कुछ सिरा देखा यह आदमी
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मुझे ले जाने के लिए प्रतिकक्षा कर रहा था । ऐसा लगा कि 'क' से निकली एक सत्ता उसके साथ थी ।
यह केसी बात है माताजी कि आपको बुलाने के बाद भी मुझे अनुभूति हुई ?
यह अपने-आपको कई गुह्य शक्तियों के प्रभाव तले रखने का नुकसान है ।
पिछले जमाने में, बिना कारण यह नहीं कहा जाता था कि बड़ी सावधानी से एक आध्यात्मिक गुरु चुन लो और औरों से न मिलने की सावधानी बरतो ताकि प्रभावों के घालमेल से बचे रहो जो गम्भीर नुकसान पहुंचा सकता है । तथाकथित आधुनिक बुद्धिमत्ता, जो अज्ञान से पैदा होती है, सब प्रकार के प्रभावों की ओर खुली रहती है जो कभी-कभी परस्पर विरोधी होते हैं और परिणाम होता है महती अस्तव्यस्तता ।
अब केवल एक ही समाधान है, सभी मानव प्रतिरूपों के परे जाकर भरसक सचाई के साथ सीधे परम के पास जाओ, और... परिणाम की प्रतीक्षा करो ।
आशीर्वाद ।
२५ मार्च, १९७०
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