CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.

माताजी के वचन - III

The Mother symbol
The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - III Vol. 15 409 pages 2004 Edition
English
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The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
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धर्म और गुह्यविद्या

 

धर्म

 

     भगवान् अपने-आपको अपनी समस्त सृष्टि को देते हैं । किसी एक धर्म के पास उनकी कृपा का एकाधिकार नहीं है ।

 

*

 

     एक-दूसरे का बहिष्कार करने की जगह, धर्मों को एक-दूसरे को पूरा करना चाहिये ।

 

*

 

    आध्यात्मिक भावपूजा, भक्ति और निवेदन के धार्मिक भाव के विपरीत नहीं है । धर्म में गलती है मन की कट्टरता जो किसी एक सूत्र को ऐकान्तिक सत्य मानकर उससे चिपकी रहती है । तुम्हें हमेशा याद रखना चाहिये कि सूत्र केवल सत्य की मानसिक अभिव्यक्ति होते हैं और इस सत्य को हमेशा बहुत-से दूसरे तरीकों से भी अभिव्यक्त किया जा सकता है ।

६ दिसम्बर, १९६४

 

*

 

     तुम श्रीअरविन्द पर अपनी श्रद्धा अमुक शब्दों में अभिव्यक्त करते हो और तुम्हारे लिए ये ही इस श्रद्धा की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हैं । यह बिलकुल ठीक है । लेकिन अगर तुम ऐसा मानते हो कि श्रीअरविन्द क्या हैं, इसे अभिव्यक्त करने के लिए केवल ये ही शब्द ठीक हैं तो तुम मतान्ध बन जाते हो और एक धर्म शुरू करने के लिए तैयार होते हो ।

५ मार्च, १९६५

 

*

 

     १ यहां धर्म शब्द का उपयोग रिलीजन के लिए किया गया है । -अनु०

३०


 

    कड़े स्वर में :

 

    ''श्रीमतीजी, आप वचन दे रही हैं ।''

 

    बहुत शान्ति के साथ :

 

    ''मैं जानती हूं महाशय, जब मैं वचन देती हूं तो उसका पालन करती हूं । लेकिन मेरे लिए इन चीजों का बहुत महत्त्व नहीं है । मेरा किसी धर्म के साथ लगाव नहीं है और जब लगाव न हो तो हटाव भी नहीं होता । मेरे लिए सभी धर्म आध्यात्मिक जीवन के बहुत ज्यादा मानवीय रूप हैं । हर एक एकमेव शाश्वत सत्य के एक पक्ष को प्रकट करता है लेकिन अन्य पक्षों को अलग करके वह उसे विकृत ओर छोटा कर देता है । किसी को यह अधिकार नहीं है कि अपने-आपको एकमात्र सत्य कहे, उसी तरह किसी को अधिकार नहीं है कि दूसरों के अन्दर निहित सत्य से इन्कार करे । और वे सब मिलकर भी परम सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त न होंगे क्योंकि वह हर एक के अन्दर उपस्थित होते हुए भी समस्त अभिव्यक्ति के परे है । ''

 

     शुष्क लहजे में :

 

     ''श्रीमतीजी, मुझे खेद है लेकिन इस क्षेत्र में मैं आपका अनुसरण नहीं कर सकता ।''

 

      मुस्कुराते हुए शान्ति से :

 

    ''मैं यह भलीभांति जानती हूं महाशय, मैंने आपसे यह सब केवल यह स्पष्ट करने के लिए कहा कि आप मुझसे जिस वचन की मांग कर रहे थे, उसे मैंने गम्भीरता से क्यों नहीं लिया ।''

 

*

 

    लोग पूजा क्यों करना चाहते हैं ?

    होना, पूजा करने से कहीं अधिक अच्छा है ।

    बदलने में आनाकानी ही पूजा करवाती है ।

२४ जून, १९६९

 

*

 

    आदमी पूजा करने से इसी शर्त पर अलग रह सकता हे कि वह

३१


बदले । लेकिन बहुत-से ऐसे हैं जो न तो बदलना चाहते हैं न पूजा करना !

जून १९६९

 

*

 

    (धर्मों के बारे में अपनाने लायक मनोवृत्ति)

 

    सभी पूजा करने वालों के प्रति हितैषितापूर्ण सद्‌भावना ।

    सभी धर्मों के प्रति प्रबुद्ध उदासीनता ।

    सभी धर्म उस एकमेव सत्य के आशिक सादृश्य हैं जो उनसे बहुत ऊपर है ।

अप्रैल १९६९

 

*

 

     सभी पूजा करने वालों के प्रति हितैषितापूर्ण सद्‌भावना ।

     सभी धर्मों के प्रति प्रबुद्ध उदासीनता ।

     रही बात अधिमानस की सत्ताओं के साथ सम्बन्ध की, अगर पहले से ही तुम्हारा सम्बन्ध है तो, हर एक का अपना ही समाधान होना चाहिये । 

 

     लोग के साथ क्यों चिपटे रहते हैं ।

 

   धर्म ऐसे मतों पर आधारित होते हैं जो आध्यात्मिक अनुभूतियों को उस स्तर पर नीचे उतार लाते हैं जहां वे आसानी से समझ में आ सकें,  लेकिन उसके लिए उन्हें अपनी समग्र शुद्धि और सत्य का मूल्य चुकाना होता है ।

 

   धर्मों का समय समाप्त हो गया है ।

   हम सार्वभौम आध्यात्मिकता के, अपनी आद्या शुद्धि में आध्यात्मिक अनुभूतियों के युग में आ गये हैं ।

 

*

३२


 

    ('नव युग में धर्म' नामक एक लेख के बारे मे)

 

    मैंने लेख पढ़ लिया है-वह ठीक है । मैंने केवल एक परिवर्तन किया है-अन्तिम पृष्ठ पर जहां तुम कहते हो ''चूंकि यह भगवान् का युग होगा'' (भगवान् अब भी बहुत धार्मिक हैं) मैंने कर दिया है 'एकमेव' का युग-क्योंकि यह सचमुच एकता का युग होगा ।

 

*

 

    मैं 'आर्य होम' में इस प्रथा को जारी रखने की अनुमति देती हूं बशर्ते कि जो वहां रहते हैं उन्हें अपने विश्वास के अनुसार उसमें भाग लेने या न लेने की पूरी छूट हो । इस प्रकार की प्रथाएं अगर आदत या मजबूरी से की जायें तो उनका कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं रहता, भले वह मानसिक मजबूरी ही क्यों न हो । मेरे कहने का मतलब यह है कि किसी तरह के प्रोपेगेंडे का बिलकुल उपयोग न किया जाये ।

 

    आशीर्वाद सहित ।

 

*

 

 

    धार्मिक विचारों का तब तक उपयोग नहीं किया जा सकता जब तक वे धर्मों के प्रभाव से मुक्त न हों ।

 

*

 

    धर्म की धारणा प्रायः भगवान् की खोझ के साथ सम्बद्ध होती है । क्या धर्म को केवल इसी प्रसगं में समझना चाहिये ? वस्तुत: आजकल अन्य प्रकार के धर्म नहीं है क्या ?

 

   हम धर्म को जगत् या विश्व के सम्बन्ध में किसी ऐसी धारणा को कहते हैं जिसे ऐकान्तिक सत्य माना जाता है जिसमें व्यक्ति की पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिये क्योंकि साधारणत: यह घोषणा की जाती है कि वह किसी

 

    १अग्निहोत्र

३३


अन्तःप्रकाश का परिणाम है ।

 

    अधिकतर धर्म भगवान् की उपस्थिति को और उसकी आज्ञा मानने के नियम को स्वीकार करते हैं लेकिन कुछ भगवान्हिन धर्म भी हैं जैसे सामाजिक-राजनीतिक संगठन जो आदर्श या राज्य के नाम पर उसी भांति आज्ञापालन की मांग करते हैं ।

 

     मनुष्य को अधिकार है कि वह स्वतन्त्र रूप से दिव्य सत्य की खोज करे और स्वतन्त्र रूप से अपने ही ढंग से उसकी ओर बड़े । लेकिन हर एक को जानना चाहिये कि उसकी खोज केवल उसी के लिए अच्छी है, उसे औरों पर आरोपित नहीं करना चाहिये ।

मई,७०

 

*

 

     तुम्हें धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा में घालमेल नहीं कर देना चाहिये । धार्मिक शिक्षा भूतकाल की चीज है और प्रगति को रोकती है ।

 

     आध्यात्मिक शिक्षा भविष्य की शिक्षा है-वह चेतना को आलोकित करती है और उसे भावी उपलब्धि के लिए तैयार करती है ।

 

     आध्यात्मिक शिक्षा धर्मों से ऊपर है और सार्वभौम दिव्य सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करती है ।

 

     वह हमें भगवान् के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ने की शिक्षा देती है । १ जुलाई,७२

 

गुह्यविद्या

 

         गुह्यविद्या तब तक सचमुच नहीं खिलती जब तक वह भगवान् को समर्पित न हो ।

 

    फिर भी एक सादृश्य है । जैसे तुम भले पियानो-वादन की कला के बारे में यथासम्भव सभी पुस्तकें पढ़ लो लेकिन अपने-आप पियानो न बजाओ तो तुम कभी पियानोवादक नहीं बन सकते, उसी तरह तुम गुहविद्या के बारे में लिखा हुआ सारा साहित्य पढ़ जाओ लेकिन अपने-आप

३४


उसका अभ्यास न करो तो तुम कभी गुह्यवेत्ता न बनोगे ।

नवम्बर, १५७

 

*

 

     पूर्व-दृष्टि : अपनी चेतना को भविष्य में प्रक्षिप्त करने की शक्ति

 

*

 

     मुझे ये दिखावटी चमत्कार पसन्द नहीं हैं । वे बहुधा दिव्य शक्ति के दबाव तले दयनीय रूप से असफल होते हैं । पहला प्रभाव है अहंकार का भयानक रूप से फूल उठना । इन सबके आगे केवल एक वृत्ति है अपनाने योग्य-अपना अच्छे-से-अच्छा प्रयास करो और परिणाम प्रभु के हाथों में छोड़ दो ।

 

*

 

     हम कई सन्तों के जीवन-वृत्तान्त में पढ़ते हैं कि भक्त ने विश्वास के साथ यह निश्चय किया कि जब तक भगवान् भोग न लगायेंगे तब तक वह न खायेग। तब भगवान् प्रकट हुए ! उन्हांने खाया और मनुष्य की तरह व्यवहार किया । क्या कथाओं में कुछ सत्य है ?

 

     एक मनोवैज्ञानिक सत्य क्योंकि अगर तुम निश्चय करो तो कोई भी तुम्हारे लिए भगवान् बन सकता है । व्यक्तिपरक दृष्टिकोण को सामान्य रूप में जितना स्वीकार किया जाता है, वह उससे कहीं अधिक व्यापक है ।

 

*

 

     मैंने तुम्हारे भेजे हुए कागज देख लिये हैं ।

 

     इन कागजों का ऐतिहासिक भाग सच्चा मालूम होता है । संस्थापक को काबला और एशिया कोचक के कुछ गुह्यविदों का परिचय रहा होगा । ऐसा मालूम होता ह कि मूल लैटिन में था जिसमें काबला सम्पर्क के कारण कुछ हिब्रू शब्द भी आ गये । लेकिन ओसिरिस- आइसिस का भाग मुझे हाल में, शायद पचास साठ वर्ष पहले, जोड़ा गया लगता है ।

३५


    सारी चीज शुरू से ही सुनिर्मित, सुदृढ़, विस्तृत, मानसिक रचना है जिसे बड़े शक्तिशाली रूप में बनाया गया है ताकि व्यक्तियों के बाहर और भीतर के प्राणिक तत्त्वों और शक्तियों को पकड़ सकें, उन पर शासन और उनका उपयोग कर सकें और प्राण के द्वारा भौतिक पर आशिक अधिकार पा सकें ।

 

    अनेकों हैं इस प्रकार की रचनाएं । वे धरती पर गुप्त संगठनों के रूप में अनूदित होती हैं । मैंने इस प्रकार के बहुत-से संगठन देखे हैं जो कुछ-कुछ प्राचीन, थोड़े-बहुत सशक्त रूप से संगठित थे परन्तु थे सब एक ही प्रकार के । वे अपनी प्रकृति में आध्यात्मिक नहीं होते । अगर उनमें कोई आध्यात्मिकता हो तो वह स्वयं रचना के कारण नहीं बल्कि संगठन में आध्यात्मिक स्वभाव या उपलब्धिवाले किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की उपस्थिति से आती है ।

 

***

 

     प्राचीनकाल में महान् आध्यात्मिक सत्यों की शिक्षा गुप्त रखी जाती थी, अल्पसंख्यक दीक्षित लोगों के लिए ही आरक्षित रहती थी ।

 

     अब भी ऐसी चीजें हैं जो कही जाती हैं लेकिन लिखी नहीं जा सकतीं, छापने का तो सवाल ही नहीं ।

 

*

 

     अपने दैनिक अभ्यासों में हम 'भागवत अवतार' के महान् रहस्य को प्रकट करने का प्रयास कर रहे हैं ।

 

*

 

     अन्तिम विश्लेषण में, सूत्रबद्ध ज्ञान केवल एक भाषा है जो इस ज्ञान के विषय पर कार्य करने की शक्ति देता ह

 

*

 

     (किसी साधक ने लिखा कि लोग माताजी और श्रीअरविन्द के चित्रों के सामने, देवी-देवताओं की तरह पूजा-अर्चना करते हैं । यथाविधि

३६


     पूजा में देवता का आवाहन करने के लिए कोई बीजमन्त्र हना चाहिये । तो क्या 'माताजी' 'श्रीअरविन्द' के लिए कोई ऐसा बीजमन्त्र हे ? माताजी ने उत्तर दिया :)

 

मैं हमेशा यही सलाह देती हू कि मन्त्र को हृदय की गहराइयों से सच्ची अभीप्सा के रूप में उठने दो ।

 

*

 

    मेरी इच्छा हो रही है कि मैं आपसे जप के लिए कोई बीजमन्त्र  मांगूं । 

 

 

*

ॐ 'प्रभु' का  हस्ताक्षर है

 

    (प्रणाम के बारे में-भगवान् के प्रति श्रद्धा, सम्मान का संकेत)

 

यह मुद्रा, यदि पूरी सचाई के साथ की जाये तो समस्त सृष्टि में विद्यमान प्रभु के प्रति समर्पण होता है । यही, हां, यही इस चीज का आरम्भ है... । सृष्टि में विद्यमान भगवान् का सम्मान, सम्मान और उनके प्रति समर्पण ।

 

    यही सच्चा अर्थ है । स्पष्ट है कि बाह्य रूप में हजार में से एक भी इस भाव से नहीं करता... लेकिन इस मुद्रा का सच्चा अर्थ यही है । (ध्वन्यांकित)

मार्च, १७३

 

ज्योतिष

 

    अपने जीवन के लिए डरो मत-ज्योतिषियों का कहा हमेशा सच नहीं होता ।

७ नवम्बर, १

*

३७


    ग्रहों का कोई निर्णायक प्रभाव नहीं होता । जब आदमी भगवान् पर विश्वास नहीं करता तभी यह मानकर अपने-आपको अनावश्यक यातना देता रहता है कि वे उसके जीवन का निर्णय करते हैं ।

 

    मेरा हिन्दुस्तान और यूरोप दोनों जगह अनेकों ज्योतिषियों से परिचय रहा है । अभी तक कोई भी ठीक-ठीक भविष्य नहीं बांच सका । असफलता के तीन कारण हैं : पहला, ज्योतिषी ठीक तरह से भविष्य बांचना नहीं जानते । दूसरे, जन्मपत्री हमेशा गलत बनी होती है--अगर आदमी में गणित की प्रतिभा हो तो और बात है--और ऐसे आदमी के लिए भी जन्मपत्री बनाना काफी कठिन होता है । तीसरे, जब लोग कहते हैं कि जन्म के समय इस या उस राशि में अमुक ग्रह थे और वे तुम्हारे जीवन पर शासन करते हैं तो यह बात बिलकुल गलत होती है । तुम जिस ग्रहदशा में पैदा हुए हो वह तो केवल भौतिक परिस्थितियों का ''ध्वन्यांकन'' मात्र है । वह अन्तरात्मा के भविष्य पर शासन नहीं करती । कोई चीज उनके भी परे है जो स्वयं ग्रहों और अन्य सभी चीजों पर शासन करती है । अन्तरात्मा इस 'परम सत्ता' से सम्बन्धित है । और अगर वह  'योग' कर रही हो तब तो उसे ग्रहों की या किसी और की शक्ति में कभी भी विश्वास न करना चाहिये ।

 

    जो ज्योतिषी तुम्हारे लिए अनर्थ की भविष्यवाणी करता है वह मसखरे की तरह है । बहुत-से मसखरे ऐसी बातें कहते हैं, ''आज तुम अपनी गरदन तोड़ लोगे !'' लेकिन उनके मजाक के बावजूद होता कुछ नहीं ।

 

    केवल एक महान् 'योगी' ही तुम्हारा भविष्य ठीक-ठीक बतला सकता है । लेकिन उसके ऊपर भी 'परम संकल्प' है, केवल वही सब पर नियन्त्रण करता और हर चीज का निश्चय करता है ।

८ सितम्बर, १६१

 

*

 

    'क' ज्योतिष का अध्ययन करता हैउसने मेरी जन्मपत्री बनायी है मैं उसे आपके पास देखने के लिए भेज रहा हूं  । मेरे भविष्य के बारे में उसने जो संकेत दिये हैं आपके ख्याल से उनका कुछ मूल्य है ?

३८


जन्मपत्री काफी अस्पष्ट और तुम्हारे भविष्य के बारे में मानसिक विचार बनाने के लिए काफी अच्छा आधार है ।

 

     जन्मपत्री मैं सबसे महत्त्वपूर्ण चीज होती है ज्योतिषी की स्वयंस्फूर्त ज्ञान की क्षमता ।

मई, १६४

 

*

 

     तुम ज्योतिषियों की बात पर विश्वास ही क्यों करते हो ? यह विश्वास ही मुश्किल लाता है ।

 

     श्रीअरविन्द कहते हैं कि मनुष्य अपने बारे में जो सोचता है वही बन जाता है ।

 

*

 

     जो लोग योग-साधना करते हैं उनके लिए जन्मपत्रियों का कोई मूल्य नहीं होता, क्योंकि योग के द्वारा जो प्रभाव काम करता है वह ग्रहों के प्रभाव से कहीं अधिक शक्तिशाली होता है ।

 

सामुद्रिक शास्त्र

 

    सामुद्रिक शास्त्र एक बड़ी मजेदार कला है लेकिन वह अपनी यथार्थता और सचाई के लिए पूरी तरह उसका अभ्यास करनेवाले की योग्यता पर निर्भर होती है । और फिर उसका सम्बन्ध केवल भौतिक नियति से होता है और ह नियति उच्चतर शक्तियों के हस्ताक्षेप से बदली जा सकती है ।

३ जनवरी, ९५१

 

संख्याएं

 

    १. एकमेव

    २. 'सृजन' का निश्चय

३९


     ३.  'सृष्टि' का आरम्भ

     ४.  अभिव्यक्ति

     ५.  शक्ति

     ६.  सृष्टि

     ७.  सिद्धि

     ८. गुह्य रचना

     . अचल परिपूर्ति की शक्ति

     १०.अभिव्यञ्जना की शक्ति

     ११.प्रगति

     १२.स्थायी पूर्ण अभिव्यक्ति

 

*

 

 

      १. उद् भव

      २. 'सृजनात्मक चेतना' का प्रादुभाव

      ३. सच्चिदानन्द

      ४. अभिव्यक्ति

      ५. शक्ति

      ६. नूतन सृजन

      ७. सिद्धि

      ८. दोहरा अहाता (बाहरी और भीतरी शत्रु ओं से रक्षा)

      ९. नूतन जन्म

      १०. पूर्णता

      ११. प्रगति

      १२. दोहरी पूर्णता (आध्यात्मिक और भौतिक)

      १४. रूपान्तर

 

*

 

     आज प्रणाम के बाद आपने मुझे सचाई के चार फुल देकर आशीर्वाद दिया मुझे लगता है कि इसका कुछ विशेष अर्थ है,  लकिन मैं उसे जान नहीं  सका । क्या आप बताने की कृपा करेगी ?

४०


जब मेंने तुम्हें देने के लिए फूल उठाये तो मुझे लगा कि कई फूल आ रहे हैं तो मैंने इच्छा की ''यह सत्ता के उन स्तरों की संख्या हो जिनमें सचाई (भगवान् के प्रति निवेदन में सचाई) निश्चित रूप से स्थापित होगी ।'' चार का अर्थ है पूर्णता : सत्ता की चार अवस्थाएं मानसिक, चैत्य, प्राणिक और भौतिक ।

२७ दिसम्बर, १३३

 

रंग

 

     क्या यह जाना जा सकता है कि पीला रंग कब मन का प्रतीक होता है और कब प्रकाश का ?

 

हरा-पीला मानसिक है ।

     नारंगी-पीला प्रकाश का प्रतीक है ।

 

प्रतीक

 

     लिफाफे पर लोमड़ी का अर्थ है चालाकी ।

जनवरी, १३२

 

*

 

      यह खरगोश है--"समझदारी'' ।

फरवरी, १३२

 

*

 

      माताजी, हरिण का क्या अर्थ है ?

 

     गति की सौम्यता और तेजी ।

*

४१


    साधारणत: सांप मिथ्यात्व की गति का प्रतीक होता है । जब स्वभाव में कोई चीज मिथ्यात्व से सादृश्य रखती है तो सांप आकर्षित होते हैं । मिथ्यात्व की प्रकृति का संकेत सांप की प्रकृति और उस स्तर से मिलता है जहां वह प्रकट होता है ।

३० अगस्त, १९३२

 

*

 

     कृपया मुझे बताइये कि घोड़े का क्या अर्थ हे ?

 

घोड़ा व्यक्तिगत सत्ता की उन शक्तियों का प्रतीक है जिन्हें वश में करना चाहिये (लगाम लगानी चाहिये) ।

१ जनवरी, १९३३

 

*

 

      आपने मुझे जो लिफाफा भेजा था उस पर जो चित्र था उसका क्या अर्थ है ?

 

वह मेमना है, जिसका अर्थ है ''शुद्धि'' ।

४ जनवरी, १९३३

 

*

 

       आपने जो चित्र मुझे भेजा है उसका क्या अर्थ है ?

 

यह सूअर कामनाओं का प्रतीक है ।

१९३३

 

*

 

        (बाज का प्रतीक)

 

तीक्षण दृष्टि ।

१९३३

*

४२


    सांप शक्ति का नहीं, ऊर्जा का प्रतीक है और जैसे अन्धकारमयी और विकृत ऊर्जाएं होती हैं उसी तरह सांप भी संस्कारशून्य और भागवत विरोधी शक्तियों का प्रतीक हो सकता है ।

२१ मई, १९३४

 

*

 

    क्या वास्तव में गाय में कोई विशेष पवित्रता होती है या यह केवल आर्थिक आवश्यकताओं पर आधारित परम्परा है ?

 

पुराने प्रतीकों पर आधारित परम्परा मात्र ।

 

***

 

    माताजी, इस चित्र में मकान का क्या अर्थ है ?

 

मुझे याद नहीं मैंने कौन-सा चित्र भेजा था । साधारणत: मकान विश्राम और सुरक्षा का स्थान होता है ।

 

*

 

    स्वस्तिक के तीन चित्र

 

 

P-43.jpg*

४३


    यह छोटा-सा बिल्ला जैसा है वैसा ही चुना गया था--अनगिनत रेशमी धागों से लटकती हुई एक गेंद-इसके कारण ये हैं ।

 

    गेंद-गोला-सार्वभौमिकता, समग्रता और अनन्तता का चिह्न है । एक, यह उस 'परम ऐक्य' का प्रतीक बन जाता है जो सत्ता के सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्त है और बहुलता--रेशमी डोरी द्वारा प्रदर्शित है ।

 

*

 

    'आपके' यहां से आज मुझे जो चित्र मिला हे उसमें मैं देखता हूं कि कोई दोनों हाथा से एक पूरा खिला हुआ लाल कमल, एक कमल की कली और एक माला अर्पण कर रहा है । चित्र की जमीन पीली है । इस सबका क्या अर्थ है ?

 

लाल कमल अवतार का प्रतीक है और लाल कमल अर्पण करने का मतलब है अवतार के प्रति पूर्ण समर्पण । पीली जमीन अतिमानसिक अभिव्यक्ति का प्रतीक है ।

८ नवम्बर, १९३३

 

*

 

    आपने जो चित्र दिया है उसमें झरने का क्या अर्थ है ? क्या यह आपकी आनन्दमयी शान्ति और आपकी दिव्य शक्ति नहीं है जो मुझे हमेशा सराबोर किये रहती है ?

 

हां, यह भौतिक स्तर पर दिव्य शक्तियों के अवतरण का प्रतीक है ।

२५ जनवरी,  १९३४

 

*

 

    जल बहुत-सी चीजों का प्रतीक है, जैसे तरलता, नमनीयता, सुनम्यता, पवित्र करने वाला तत्त्व । यह चालक शक्ति है और व्यवस्थित जीवन के आरम्भ का चिह्न है ।

*

४४


    जल प्राण के अनुरूप है, मन वायु के, अग्नि चैत्य, पृथ्वी भौतिक द्रव्य के और आकाश आत्मा के अनुरूप है ।

२० अगस्त, १९५५

 

*

 

    हीरा शुद्ध आध्यात्मिक प्रकाश का प्रतीक है । कोई भी विरोधी शक्ति उसे पार नहीं कर सकती । अगर तुम यह प्रकाश किसी विरोधी शक्ति पर डालो तो वह बिलकुल गल जाती है । लेकिन हीरे के प्रकाश का उपयोग जैसे-तैसे बिना विवेक के हर जगह नहीं किया जा सकता । क्योंकि जो मनुष्य इन शक्तियों को आश्रय देते हैं उन पर बड़ा भयंकर प्रभाव पड़ता है ।

 

    निश्चय ही मैं भौतिक हीरों की बात नहीं कर रही ।

 

*

 

      'अतिमानसिक प्रकाश' और सूर्य के प्रकाश में क्या सम्बन्ध है ?

 

सूर्य का प्रकाश 'अतिमानसिक प्रकाश' का प्रतीक हे ।

९ जुलाई, १९६५

 

*

 

    हम सूर्य के प्रकाश का, 'परम प्रभु' के प्रतीक का आवाहन करते हैं ताकि वे हमें 'दिव्य सत्य का प्रकाश' प्रदान करें ।

 

*

 

    प्रतीक एक प्रथा या परम्परा हैं और उनका मूल्य वही है जो भाषाओं का होता है ।

१० अप्रैल, १९६६

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