CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.

माताजी के वचन - III

The Mother symbol
The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - III Vol. 15 409 pages 2004 Edition
English
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The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
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मृत्यु और पुनर्जन्म

 

वृद्धावस्था और मृत्यु

 

    केवल वे ही वर्ष जो निरर्थक बिताये जाते हैं तुम्हें वृद्ध बनाते हैं । निरर्थक बिताया हुआ वर्ष वह है जिसमें कोई प्रगति नहीं हुई, चेतना में कोई वृद्धि नहीं हुई, पूर्णता की ओर एक भी कदम नहीं उठाया गया ।

 

    अपने जीवन को किसी ऐसी चीज की उपलब्धि के प्रति एकाग्र करो जो तुमसे अधिक ऊंची, अधिक विस्तृत हो और बीतते वर्ष तुम्हारे लिए कभी भार न बनेंगे ।

२१ फरवरी, १९५८

 

*

 

     जन्म से मरण तक, जीवन एक खतरनाक चीज है ।

     साहसी इसमें से खतरों की परवाह किये बिना गुजर जाते हैं ।

     सावधान सतर्कता से काम करता है ।

     भीरु सभी चीजों से डरते हैं ।

 

     लेकिन अन्त में, हर एक के साथ होता वही है जो परम संकल्प ने निश्चित किया हो ।

१९ जून, १९६६

 

*

 

     कुछ जीवित लोग अभी से आधे मरे हुए हैं । बहुत-से मरे हुए भी बहुत अधिक जीवित हैं ।

 

*

 

 

प्रिय मित्र,

 

    तुम्हारा पत्र वे खबरें लाया जिन्हें मैं पहले से जानती थी, क्योंकि बहुधा तुम्हारा विचार तुम्हारी याद को लिये आता है और तुम्हारे मनस्ताप के साथ मेरा सम्पर्क बनाये रखता है । सचमुच, हर एक के अपने मनस्ताप होते हैं और मेरी तरह तुम भी अच्छी तरह जानते हो कि केवल आन्तरिक

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वृत्ति में ही शान्ति पायी जा सकती है ।

 

     जब तक कि हम शरीर में हैं, चाहे उसकी कितनी भी उमर और कठिनाइयां क्यों न हों, यह निश्चित है कि हमें इसमें कुछ करना या सीखना है, और यह विश्वास सभी प्रतिकूलताओं का सामना करने के लिए आवश्यक बल देता है ।

 

    तुम्हें तिब्बत के शरणार्थियों के साथ सम्पर्क में लाकर मैंने आशा की थी कि उनमें से एक-न-एक तो ऐसा होगा जो बौद्धिक रूप से विकास के इस अवसर को पाकर अपने जीवन को समर्पित करने में खुश होगा या होगी और तुम्हारी इस सेवा के बदले तुम जो कुछ उसे सिखा सकते हो उसे वह सीख पायेगा या पायेगी ।

 

    क्या यह सम्भव नहीं होगा ?

    मेरे लिए भागवत कृपा क्रियाशील यथार्थता है जो युगों से हमारी नियति का पथ-प्रदर्शन करती आयी है ।

   तुम्हें उतावली में न होना चाहिये और प्रस्थान की जल्दी न करनी चाहिये, चाहे वह शाश्वत विश्राम या शून्यता के परमानन्द के लिए ही क्यों न हो । जब तक हम शरीर में हैं तब तक निःसन्देह हमें कुछ करना या सीखना होता है ।

 

*

 

    मृत्यु का यह सुझाव 'अहं' से आता है जब वह यह अनुभव करता है कि उसे जल्दी ही पद छोड़ना पड़ेगा । शान्त और निर्भीक रहो । सब कुछ ठीक हो जायेगा ।

 

*

 

    तुम सम्पूर्ण त्याग की बात कर रहे हो, लेकिन शरीर को छोड़ना सम्पूर्ण त्याग नहीं है । सच्चा और पूर्ण त्याग है अहं का त्याग जो कहीं अधिक दुःसाध्य प्रयास है । अगर तुमने अपने अहं को न त्यागा हो तो शरीर छोड़ देने से तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी ।

*

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    (श्रीअरविन्द की कविता ''प्रेम और मृत्यु'' में वर्णित रात्रि और दुःख के बारे में )

 

प्राणमय जगत् अधिकतर ऐसा ही होता है और जो ऐकान्तिक रूप से भौतिक और प्राण में रहते हैं वे मृत्यु के बाद वहीं जाते हैं । लेकिन भागवत कृपा भी रहती है !...

 

*

 

    मृत्यु के बारे में तुम जैसा सोचते हो वह वैसी बिलकुल नहीं है । तुम मृत्यु से अचेत विश्राम की निरपेक्ष शान्ति की आशा रखते हो । लेकिन उस विश्राम को पाने के लिए तुम्हें उसके लिए तैयारी करनी होगी ।

    जब किसी की मृत्यु होती है तो वह केवल अपना शरीर खोता है और साथ-ही-साथ जड़-भौतिक जगत् पर क्रिया और उसके साथ सम्बन्ध की सम्भावनाओं को भी खोता है । लेकिन वह सब जो प्राण जगत् का है, वह जड़-भौतिक तत्त्व के साथ विलीन नहीं होता; उसकी सभी कामनाएं, आसक्तियां, लालसाएं कुण्ठा और निराशा के भाव के साथ डटी रहती हैं, और यह सब कुछ उसे प्रत्याशित शान्ति पाने से रोकता है । शान्त और घटनाविहीन मृत्यु के आनन्द के लिए तुम्हें उसकी तैयारी करनी होगी । और एकमात्र प्रभावकारी तैयारी है, कामनाओं का विलयन ।

 

    जब तक हमारा शरीर है हमें क्रिया करनी पड़ती है, काम करना पड़ता है, कुछ-न-कुछ करना ही पड़ता है लेकिन अगर परिणाम की आशा के बिना या यह चाहे बिना कि चीज इस तरह हो या उस तरह हो, हम चीजों को यूं ही करते चलें क्योंकि उन्हें करना है, तो हम क्रमश: निर्लिप्त होते जायेंगे और इस तरह अपने-आपको शान्तिपूर्ण मृत्यु के लिए तैयार कर सकेंगे ।

 

*

 

    अगर तुम मृत्यु से बच निकलना चाहते हो तो तुम्हें अपने-आपको किसी भी नश्वर वस्तु से नहीं बांधना चाहिये ।

    तुम केवल उसी को जीत सकते हो जिससे तुम भय नहीं खाते, और

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जो मृत्यु से भय खाता है वह पहले से ही मृत्यु से पराजित हो चुका है ।

 

*

 

     मृत्यु पर विजय पा सकने के लिए और अमरता को हस्तगत करने के लिए न तो तुम्हें मृत्यु से भय खाना चाहिये न ही उसकी कामना करनी चाहिये ।

 

*

 

     हम जिस लक्ष्य को निशाना बनाये हुए हैं वह है अमरता ।

    सभी आदतों में निश्चित रूप से मृत्यु सबसे अधिक दुराग्रही है ।

 

*

 

     आध्यात्मिक ज्ञान के दृष्टिकोण से, जरा और क्षय-विघटन-निस्सन्देह केवल गलत मनोवृत्ति का परिणाम हैं ।

 

     १. मनुष्य अपना शरीर छोड़ने के लिए बाधित क्यों होते हैं ?

 

क्योंकि वे भगवान- की ओर प्रकृति की प्रगति के साथ कदम मिलाना नहीं जानते ।

 

      २. क्या हमें किसी मृत व्यक्ति के शरीर का सम्मान करना चाहिये ? अगर हां, तो कैसे ?

 

तुम्हें हर चीज का, जीवित हो या मृत, सबका सम्मान करना चाहिये और यह जानना चाहिये कि सब कुछ भागवत चेतना में रहता है ।

 

       सम्मान का अनुभव हृदय और आन्तरिक मनोवृत्ति में करना चाहिये ।

 

        ३. क्या मृत शरीर में भी भगवान् होते है ?

 

भगवान् हर जगह हैं, और मैं फिर से दोहराती हूं कि भगवान् के लिए कुछ भी जीवित या मृत नहीं है-सब कुछ शाश्वत काल तक रहता है ।

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        ४. अन्तरत्मा को प्रन्न रखने के लिए हमें क्या करना चाहिये जिससे उसका पुनर्जन्म अच्छी अवस्थाओं में, उदाहरण के लिए आध्यात्मिक परिवेश में हो ।

 

दुःख न करो और बिलकुल शान्त और अचंचल बने रहो, साथ ही जो चला गया है उसकी स्नेहभरी स्मृति बनाये रखो ।

 

         ५.  क्या अन्तरात्माएं रोती हैं ?

 

जब कोई चीज उन्हें भगवान् से अलग कर देती है ।

 

          ६. हम किसी को रोने से कैसे रोक सकते हैं ?

 

उसके आसुओं को रोकने की कोशिश किये बिना उसके साथ गहरा और सच्चा प्रेम करके ।

 

*

 

            सामान्यत: जो चला गया है, जाने के बाद उसके शरीर का कुछ भी हो,  उसकी चेतना को कोई कष्ट नहीं पहुंचता । लेकिन स्वयं जड़- भौतिक शरीर में एक चेतना है जिसे आकार या रूप की आत्मा कहते हैं और उसे एकत्रित कोषाणुओं से पूरी तरह बाहर निकलने में समय लगता है; सारे शरीर में सड़ान्ध का शुरू होना उसके चले जाने के बाद का पहला चिह्न है,  और जाने से पहले शरीर में जो कुछ हो रहा है उसके बारे में उसे एक तरह का अनुभव हो सकता है । इसीलिए हमेशा यह ज्यादा अच्छा होता है कि अन्त्येष्टि में जल्दबाजी न की जाये ।

१३ नवम्बर, १६६

 

*

 

      तुम कहते हो कि किसी अखबार के द्वारा तुम्हें अपने भतीजे की मृत्यु की खबर मिली । तो बच्चे की मृत्यु कुछ दिन पहले हुई थी । क्या 'क' और 'ख' ने अपने वातावरण में, अपने अनुभव, अपने विचारों और

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अपनी संवेदनाओं में कोई अन्तर महसूस किया-एक अन्तर एक तरह की बेचैनी या किसी ची के खोने का भाव, जो उनके दुःख का सच्चा आधार हो । मैं काफी निश्चित हूं कि उन्होंने ऐसा अनुभव नहीं किया । अत: उनका अवसाद, अगर उन्हें कोई अवसाद हो रहा है, तो वह सच्चा नहीं है बल्कि रूढ़िवादी विचारों और संवेदनाओं का परिणाम है; यह पारिवारिक विचार से आया हुआ केवल एक भ्रम है जो सबसे अधिक कृत्रिम और झूठी रूढ़ियों में से एक है ।

 

     सचमुच बच्चा उनके वातावरण में नहीं था, अन्यथा उसकी खबर पाने की आवश्यकता के बिना वे उसकी मृत्यु के बारे में अवगत हो जाते । रोज मरने वाले दो लाख मनुष्यों में वह भी एक था, उससे ज्यादा वह उनके वातावरण में नहीं था । रोज मरने वाले मनुष्यों की औसत संख्या दो लाख है । क्या उन्हें यह मालूम है ? क्या मृत्यु अति सामान्य और रोजमर्रा की चीज नहीं है और क्या वे इसकी आशा करते हैं कि वे जिन्हें जानते हैं उनमें से कोई इस आम नियम से बच निकलेगा ?

 

*

      तुम्हारे पिता इसलिए मरे क्योंकि वह उनके मरने का समय था । परिस्थितियां अवसर भले हों पर निश्चित रूप से, कारण नहीं हो सकतीं । कारण भागवत इच्छा में है और उसे कुछ भी नहीं बदल सकता ।

 

       इसलिए विलाप मत करो, और अपने अवसाद को भगवान् के चरणों में अर्पित कर दो । वे तुम्हें शान्ति और मुक्ति देंगे ।

 

*

 

        (उसको जिसके मित्र की मृत्यु हो गयी थी)

 

अब तुम इस शरीर पर झुककर उसकी देखभाल न कर सकोगे, अब तुम अपनी क्रियाओं द्वारा अपने गभीर स्नेह को अभिव्यक्त न कर सकोगे और यही कष्टकर है । लेकिन तुम्हें इस अवसाद पर विजय पानी चाहिये । अन्दर देखो, ऊपर देखो क्योंकि केवल जड़- भौतिक शरीर ही विघटित होगा । उसके अन्दर जिन चीजों से तुम प्रेम करते थे वे जड़- भौतिक आवरण के

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विघटन से किसी भी तरह प्रभावित नहीं होतीं, और अगर गभीर प्रेम की शान्ति में, तुम अपना विचार अपनी ऊर्जा उस पर एकाग्र करो, तो तुम देखोगे कि वह तुम्हारे निकट रहेगी और उसके साथ तुम्हारा सचेतन सम्पर्क हो सकता है, ऐसा सम्पर्क जो अधिकाधिक ठोस होगा ।

 

*

 

      जीवन अमर हे । केवल शरीर ही विघटित होता है ।

१० मार्च, १९६९

 

*

 

       हम मृत्यु को देवता क्यों कहते हैं ? क्या वह भी मिथ्यात्व के स्वामी की तरह असुर नहीं है ?

 

मनुष्य की चेतना में वह भगवान् बन गया है और यही कारण है कि उसे रूपान्तरित करना इतना कठिन है ।

२१ अक्तूबर, १९७२

 

पुनर्जन्म

 

 श्रीअरविन्द कहते हैं कि मृत्यु के कुछ समय बाद प्राणिक और मानसिक आवरण विघटित हो जाते हैं और अन्तरात्मा को तब तक के लिए चैत्य जगत् में विश्राम करने के लिए छोड़ जाते हैं जब तक कि वह नये आवरण न ले ले । तब पुराने आवरणों के 'कर्म' और संस्कार, का क्या होता है ?  क्या वे भी अच्छा या बुरा परिणाम लाये बिना विघटित हो जाते हैं जैसा कि कर्म के सिद्धान्त के अनुसार उन्हें  जाना चाहिये ? और प्राणिक मानसिक आवरणों के विघटन के बाद प्राणिक और मानसिक सत्ताओं का क्या है ?

 

केवल बाहरी आकार का विघटन होता है, वह भी तभी तक जब तक कि वह भी सचेतन न हो जाये और भागवत केन्द्र के चारों ओर व्यवस्थित न

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हो । लेकिन सच्चा मन, सच्चा प्राण यहां तक कि सच्चा सूक्ष्म- भौतिक भी बना रहता है : ये ही पार्थिव जीवन में प्राप्त सभी संस्कारों को रखते हैं और कर्म की शृंखला  की रचना करते हैं ।

 

*

 

     अगर हम अपने अन्दर कुछ अधिक अन्दर जायें तो हमें पता लगेगा कि हममें से हर एक के अन्दर एक चेतना है जो युगों से जीती आ रही है और विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होती आ रही है ।

२४ जनवरी, १९३५

 

*

 

      पुनर्जन्म में बाहरी सत्ता, जो मां-बाप, परिवेश और परिस्थितियों के द्वारा बनती है-मन, प्राण और भौतिक-का दुबारा जन्म नही होता : केवल चैत्य सत्ता ही एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है । अत: यह तर्कसंगत है कि न मानसिक और न ही प्राणिक सत्ता पूर्व जन्मों को याद कर सकती है, न ही इस या उस व्यक्ति के चरित्र या जीवन की पद्धति में अपने-आपको पहचान सकती है । केवल चैत्य सत्ता ही याद रख सकती है; और अपनी चैत्य सत्ता के प्रति सचेतन होकर ही हम अपने पिछले जन्मों के बारे में ठीक-ठीक जान सकते हैं ।

 

      इसके अतिरिक्त, हम जो बन चुके हैं उसकी अपेक्षा हम जो बनना चाहते हैं उस पर अपनी एकाग्रता स्थिर करना हमारे लिए कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

२ अप्रैल, १९३५

*

 

मेरी प्रिय बच्ची,

      'क' का अचानक निधन यहां सबके लिए कष्टदायक क्षति है । वह अपने उत्सर्ग में और अपने काम की ईमानदारी में पूर्ण था, ऐसा आदमी जिस पर हम भरोसा कर सकते थे, जो सचमुच एक विरल गुण है । वह सौर प्रकाश में चला गया है और उस सचेतन विश्राम का उपभोग कर रहा

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है जिसका वह सचमुच अधिकारी था ।

५ जुलाई, १९६५

 

*

 

      अपने सपनों में मैं 'क' को बहुत प्रसन्न  देखती हूं ।  एक दिन मैंने उसे अपनी मेज पर झुके  हुए देखा और उसने मुझसे कहा, ''जाते वक्त मुझे तुमसे  कुछ कहने का अवसर न मिला, क्योंकि श्रीअरविन्द की पुकार के कारण मुझे तुरन्त जाना पड़ा ।''  माताजी इस स्वान में क्या कुछ सत्य ?

 

 निश्चित रूप से यह सपना सच्चा हे क्योंकि 'क' सीधा श्रीअरविन्द के साथ एक होने के लिए चला गया ।

 

      मधुर मां, मैं इन प्रश्नों के उत्तर चाहूंगा जो उसके चले जाने के बाद से प्राय: मेरे मन में आते हैं  ।

 

     क्या जो अन्तरात्मा आपके प्रति सचेतन है, जाने के बाद तुरन्त पुनर्जन्म लेती है ? या उसे काफी समय करनी प्रतिक्षा करनी होती है ?

 

पूरी तरह से सचेतन और विकसित हर एक चैत्य सत्ता को यह चुनने की छूट होती है कि उसका अगला जीवन कैसा होगा और वह जीवन कब लेगी ।

 

       क्या यह अन्तरात्मा जन्म लेने के बाद आपका भागवत कार्य पूरा करने के लिए आश्रम में आती है ?

 

जब वह तुरन्त जन्म लेती है तो सामान्यत: उसका यही चुनाव होता है ।

 

      क्या यह अन्तरात्मा अपने जन्म का चुनाब करने और आश्रम जीवन के सुख का आनन्द लेने में समर्थ है ?

 

अगर वह पूरी तरह से विकसित हो, तो वह ऐसा करने में समर्थ होती है ।

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         अतिमानसिक प्रकाश और सौर प्रकाश में क्या सम्बन्ध है ?

 

सौर प्रकाश अतिमानसिक प्रकाश का प्रतीक है ।

          आशीर्वाद । 

२ जुलाई, १९६६

 

*

 

मधुर मां ,

 

       बुलेटिन में आपने कहा है : "चैत्य की यादों का बहुत ही विशेष ही गुण होता है, उनमें विलक्षण तीव्रता होती है...| वे जीवन के अविस्मरणीय क्षण होते हैं जब चेतना तीव्र, उज्जवल, बलवान्, सक्रिय,   शक्तिशाली होती है और कभी-कभी वे जीवन के ऐसे मोड़ होते हैं जो मनुष्य के जीवन की दिशा को बदल देते हैं | लेकिन तुम कभी यह नहीं बता सकोगे की तुमने क्या पहना था या किन सज्जन से बातें की थीं या तुम्हारे पड़ोसी कौन थे, और तुम किस क्षेत्र में थे |" और फिर यादों के इन छोटे-छोटे ब्योरों के बारे में आपने कहा : " ये बिलकुल बचकाने हैं |"

 

      लेकिन फिर यह कैसे होता है कि अखबारों में हम बहुधा ऐसे छोटे बच्चों की बातें पढ़ते है जिन्हें अपना पिछला जीवन याद रहता है और उनके ब्योरे सत्य प्रमाणित हुए हैं ?  और ये घटनाएं हैं जिनके आधार पर परामनोवैज्ञानिक पुनर्जन्म के अस्तित्व को प्रमाणित करता है । तो क्या वे तरह से गलत रास्ते पर नहीं हैं ?  फिर पुनर्जन्म दूसरे किसी भी वैज्ञानिक तरीके से किस तरह जा सकता है ?

 

तुम जिन स्मृतियों की बात कह रहे हो, जिनकी अखबारों में चर्चा होती है वे स्मृतियां प्राणिक सत्ता की होती हैं, जो सत्ता अपवादिक रूप से, किसी दूसरे शरीर में प्रवेश करने के लिए एक शरीर से निकल जाती है । यह

 

        १बुलेटिन, नवम्बर, १९६७ ।

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ऐसी चीज है जो घट सकती है लेकिन बहुधा नहीं होती ।

 

    जिस स्मृति के बारे में मैं कह रही हूं वह चैत्य सत्ता की होती है, और तुम उसके बारे में केवल तभी सचेतन हो सकते हो जब तुम्हारा अपनी चैत्य सत्ता के साथ सचेतन सम्बन्ध हो ।

 

     इन दोनों चीजों में कोई विरोध नहीं है ।

२१ नवम्बर, १९६७

 

*

 

     क्या यह जानना आवश्यक है की अपने पिछले जन्म में मैं क्या था ?

 

अगर आवश्यक होगा तो तुम उसे जान लोगे ।

१४ फरवरी, १९७३

 

*

 

      बहुत ही विरल अपवादों को छोड़कर, पशुओं की व्यक्तिगत सत्ता नहीं होती और मरने के बाद वे अपनी जाति की आत्मा में वापस चले जाते हैं ।

 

आत्महत्या 

 

 

     दिव्य मां,

 

          मेरे मस्तिष्क में कुछ गड़बड़ चल रही है | मैं बहुधा आत्महत्या की बात सोचता हूं | कृपया मुझे क्षमा कर दीजिये और मुझे अपनी सुरक्षा और अपना आशीर्वाद दीजिये |

 

अगर तुम मुझे देखने के लिए अपनी अभीप्सा में सच्चे और निष्कपट हो, तो तुम्हें आत्महत्या के इन दूषित, विकृत विचारों को अपने से बहुत दूर फेंक देना होगा, ये किसी भी भागवत जीवन के एकदम विरोधी होते हैं । धीर, दृढ़ और स्थिर रहो, जीवन की कठिनाइयों का शान्ति के साथ सामना करो और उससे भी अधिक शान्ति के साथ ''साधना'' की कठिनाइयों का

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सामना करो-तब तुम अन्तिम सफलता के बारे में निश्चित हो सकते हो ।

        आशीर्वाद सहित ।

२१ अगस्त, १९६४

 

*

 

     मैं अनुभव करता हूं कि मैं निष्फल भाग्य के साथ जन्मा आपका शून्य बालक हूं; ऐसे बालक के लिए जीवन में सम्पादित करने के लिए कोई कार्य नहीं है |  क्या जगत् से चला जाना ज्यादा अच्छा न होगा ?

 

तुम्हें इसी जगत् में बदलना होगा और परिवर्तन सम्भव है । अगर तुम इस जगत् से भाग जाओगे तो तुम्हें वापिस आना पड़ेगा, शायद अधिक बुरी परिस्थितियों में आना पड़े और तुम्हें सारी चीज फिर एक नये सिरे से करनी पड़ेगी ।

 

      ज्यादा अच्छा है कि भीरु मत बनो, अभी परिस्थिति का सामना करो और उस पर विजय पाने के लिए आवश्यक प्रयास करो । सहायता सदैव तुम्हारे साथ है;  तुम्हें उससे लाभ उठाना सीखना होगा ।

      प्रेम और आशीर्वाद ।

१३ नवम्बर, १९६७

 

*

 

      यह निश्चित रूप से जान लो कि मनुष्य जो कुछ कर सकता है उसमें आत्महत्या सबसे अधिक मूर्खतापूर्ण क्रिया है क्योंकि शरीर के अन्त का अर्थ चेतना का अन्त नहीं होता और जो चीज तुम्हें जीते जी तंग कर रही थी वही मरने पर भी तंग करती रहती है । जीते जी तुम मन की दिशा बदल सकते हो पर मरने पर वह सम्भावना नहीं रहती ।

१६ जुलाई, १९६९

 

*

 

       'मदर इंडिया'  के एक पाठक से मुझे एक काफी दर्दभरा  पत्र मिला

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है  वह लिखता है :

 

      ''यद्यपि मैं अपने जीवन में माताजी के निर्दशनों का के साथ पालन करने की चेष्टा कर रहा हूं, फिर भी मैं कठिनाई से बुरी तरह घिरा हूं-इस हद तक कि आत्महत्या एकमात्र  हल रह जाता है । अत: मैं आपसे निवेदन करूंगा कि कृपया मेरी प्रार्थना माताजी की सेवा में पहुंचा दें । ''

माताजी मुझे क्या उत्तर देना चाहिये ?

 

आत्महत्या हल से बहुत दूर की चीज है, यह परिस्थिति में एक ऐसा मूर्खतापूर्ण प्रकोप ले आती है जो शायद शताब्दियों तक जीवन असह्य बना देता है ।

जून, १७२

 

*

 

      रामायण में कहा गया हे कि जब श्रीरम ने देखा कि धरती पर उनका काम समाप्त हो गया है, तो उन्हांने अपने साथियों के सा सरयू नदी में प्रवेश किया । यह तो सामूहिक आत्महत्या जेसी चीज लगती है और आत्महत्या सबसे बड़ा पाप माना गया हे। इसे कैसे  समझा जाये ?

 

१. परम प्रभु के लिए कोई पाप नहीं होता ।

    २. भक्त के लिए प्रभु से दूर रहने से बढ्‌कर कोई पाप नहीं है ।

    ३. जिस समय रामायण की परिकल्पना और रचना हुई थी, उस समय श्रीअरविन्द के द्वारा प्रकट किया हुआ यह ज्ञान जाना या माना हुआ नहीं था कि धरती भागवत जगत् और परम प्रभु के वासस्थान में रूपान्तरित हो जायेगी ।

 

     अगर तुम इन तीन बातों पर ध्यान दो तो तुम कथा को समझ लोगे । (यद्यपि हो सकता है कि वास्तविक तथ्य ऐसे न हों जैसे बतलाये गये हैं ।)

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