The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.
Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.
रूपान्तर और अतिमानस
रूपान्तर
एक परम दिव्य चेतना है । हम इस दिव्य चेतना को भौतिक जीवन में अभिव्यक्त करना चाहते हैं ।
आशीर्वाद ।
*
अपने-आपको भागवत चेतना में खो देना लक्ष्य नहीं है । लक्ष्य है भागवत चेतना को जड़ द्रव्य में प्रविष्ट होने देना और उसे रूपान्तरित करना ।
भागवत चेतना तुम्हारा रूपान्तर करने के लिए काम कर रही है, उसे अपने अन्दर निर्बाध रूप से काम करने देने के लिए तुम्हें उसकी ओर खुलना चाहिये ।
१७ अक्तूबर १९३७
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सभी चीजों में सबसे अधिक कठिन है भागवत चेतना को भौतिक जगत् में उतारना; क्या इसीलिए इस प्रयास को छोड़ देना चाहिये ? हर्गिज नहीं ।
२ जुलाई, १९५५
तुम उस आध्यात्मिक स्थिति के हो जिसे जड़ द्रव्य को अस्वीकार करने की जरूरत पड़ती है ओर उससे बच निकलना चाहती है । आगामी कल की आध्यात्मिकता जड़ द्रव्य को लेकर उसे रूपान्तरित करेगी ।
३० जुलाई, १९६५
सच्ची आध्यात्मिकता जीवन को रूपान्तरित करती है ।
***
मानवीय तरीकों के छिछलेपन और अक्षमता के एक वर्ष के अनुभव के बाद समय आ गया है कि अब सच्चे लक्ष्य, रूपान्तर की ओर ले जाने वाली खड़ी चढ़ाई पर चढ़ना शुरू किया जाये ।
रूपान्तर : सृष्टि का लक्ष्य ।
नया जगत् : रूपान्तर का परिणाम ।
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तीन शर्तें
एक ऐसा कार्य जिसका लक्ष्य है पार्थिव प्रगति, तब तक नहीं शुरू किया जा सकता जब तक उसे भगवान् की स्वीकृति और सहायता प्राप्त न हो ।
वह तब तक नहीं टिक सकता जब तक ऐसी निरन्तर भौतिक वृद्धि न हो जो दिव्य प्रकृति की इच्छा को सन्तुष्ट करे ।
उसे मानवीय दुर्भावना के सिवा कुछ भी समय से पहले नष्ट नहीं कर सकता । यह दुर्भावना ही भगवान् की विरोधी शक्तियों के यन्त्र का काम करती है जो भगवान् की अभिव्यक्ति और पृथ्वी के रूपान्तर में यथासम्भव देर लगाना चाहती हैं ।
तुम्हें एक बात जान लेनी चाहिये और उसे कभी न भूलना चाहिये : रूपान्तर के कार्य में जो कुछ सत्य और निष्कपट है उसे हमेशा रखा जायेगा, जो कुछ मिथ्या और कपटपूर्ण है वह गायब हो जायेगा ।
जैसे-जैसे रूपान्तर प्रगति करेगा वैसे-वैसे धुंधलापन अधिकाधिक गायब होता जायेगा ।
तुममें से हर एक उन कठिनाइयों में से एक-एक का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें रूपान्तर के लिए पार करना होगा ।
जब तक तुम्हारे अन्दर अनन्त धैर्य और अटल अध्यवसाय न हो तब तक रूपान्तर के पथ पर न चलना ही ज्यादा अच्छा है ।
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हर एक दुःख रूपान्तर का रास्ता तैयार करे ।
३ जुलाई १९५४
स्थिर-शान्त रहो और केवल काम के लिए ही नहीं, रूपान्तर सिद्ध करने के लिए भी बल और सामर्थ्य जुटाओ ।
२८ जुलाई, १९५५
पूर्ण समग्र सन्तुलन : तुम रूपान्तर के लिए तैयार हो।
रूपान्तर के लिए भगवान् को निरन्तर याद रखना अनिवार्य है ।
बस, भगवान् के सच्चे आज्ञाकारी बने रहो-यह तुम्हें रूपान्तर के मार्ग पर दूर तक ले जायेगा ।
बाहर के सारे रव को नीरव कर दो, भगवान् की सहायता के लिए अभीप्सा करो । जब वह आये तो उसकी ओर पूण रूप से खुलो और उसकी क्रिया के आगे समर्पण करो । यह प्रभावकारी रूप से तुम्हारा रूपान्तर कर देगी ।
भागवत प्रेम में होती है रूपान्तर की परम शक्ति ।
रूपान्तर की शक्ति भागवत प्रेम में होती है । उसके अन्दर यह शक्ति इसलिए होती है क्योंकि उसने अपने-आपको जगत् के रूपान्तर के लिए
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अर्पित कर दिया है और हर जगह अभिव्यक्त हुआ है । उसने अपने-आपको केवल मनुष्य में ही नहीं बल्कि द्रव्य के प्रत्येक अणु-परमाणु में उंडेल दिया है ताकि जगत् को उसके मौलिक 'सत्य' में वापिस ले आये । जिस क्षण तुम उसकी ओर खुलते हो, तुम्हें उसकी रूपान्तर की शक्ति भी प्राप्त होती है । लेकिन तुम उसे मात्रा के हिसाब से नहीं नाप सकते, जो चीज अनिवार्य है वह है सच्चा सम्पर्क । क्योंकि तुम देखोगे कि उसके साथ सच्चा सम्पर्क तुम्हारी सारी सत्ता को एकदम पूरी तरह भर देने के लिए काफी है ।
और जब परम प्रेम की अभिव्यक्ति का दिन आयेगा, परम प्रेम के पारदर्शक, सघन अवतरण का दिन, तो वस्तुत: वही रूपान्तर का क्षण होगा । क्योंकि कोई चीज उसका प्रतिरोध न कर सकेगी ।
रूपान्तर और सत्ता के भाग
क्या रूपान्तर बहुत उच्च स्तर की अभीप्सा, समर्पण और ग्रहणशीलता की मांग नहीं करता ?
रूपान्तर सम्पूर्ण और समग्र समर्पण की मांग करता है । लेकिन क्या सभी सच्चे निष्कपट साधकों की यही अभीप्सा नहीं होती ?
समग्र समर्पण का अर्थ है सत्ता की सभी अवस्थाओं में, जड़तम भौतिक से लेकर सूक्ष्मतम तक, सीधी खड़ी रेखा में समर्पण ।
सम्पूर्ण समर्पण का अर्थ है क्षैतिज रूप में सभी विभिन्न और बहुत बार परस्पर विरोधी भागों का समर्पण, जिनसे सत्ता का बाहरी, भौतिक, प्राणिक और मानसिक भाग बनता है ।
चैत्य के चारों ओर व्यवस्थित सत्ता : रूपान्तर का पहला चरण ।
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मानसिक उद्घाटन : रूपान्तर की ओर मन का पहला चरण ।
मानसिक प्रार्थना : रूपान्तर की अभीप्सा करने वाले मन के अन्दर सहज ।
समझने की प्यास : रूपान्तर के लिए बहुत उपयोगी ।
भौतिक मन में ईमानदारी : रूपान्तर के लिए अनिवार्य प्राथमिक अवस्था ।
प्राण का सम्पूर्ण समर्पण : रूपान्तर के मार्ग में एक महत्त्वपूर्ण स्थिति ।
भावुकतापूर्ण कामनाओं का त्याग : रूपान्तर के लिए अनिवार्य ।
केवल मन और प्राण ही नहीं, शरीर को भी अपने सभी कोषाणुओं में भागवत रूपान्तर के लिए अभीप्सा करनी चाहिये ।
भौतिक नमनीयता : रूपान्तर के लिए आवश्यक अवस्थाओं में से एक ।
भौतिक अपने-आपको निष्कपट रूप से भगवान् के अर्पित करे तो वह रूपान्तरित हो जायेगा । यह अपने-आपको अहं से मुक्त करने के संकल्प का प्रमाण है ।
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भौतिक प्रकृति में भगवान् के प्रति नम्रता : रूपान्तर के लिए आवश्यक पहली वृत्ति ।
भौतिक गतिविधियों में चैत्य-प्रकाश : भौतिक के रूपान्तर के लिए पहला चरण ।
जड़- भौतिक गतिविधियों में चैत्य का प्रकाश : रूपान्तर के लिए अनिवार्य स्थिति ।
जड़-भौतिक में चैत्य प्रबोध : आध्यात्मिक जीवन के प्रति खुला जड़- भौतिक ।
अतिमानसिक निदेशन तले जड़-भौतिक : उसके रूपान्तर के लिए आवश्यक अवस्था ।
अवचेतना में अतिमानसिक प्रकाश : रूपान्तर के लिए अनिवार्य शर्त ।
अवचेतना में अतिमानसिक प्रभाव : अपने विनीत रंग-रूप में यह रूपान्तर के लिए महान् शक्ति है ।
रूपान्तर वह परिवर्तन है जिसके द्वारा सत्ता के सभी तत्त्व और सभी गतिविधियां अतिमानसिक सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए तैयार हो जाते हैं ।
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