The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.
Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.
सरकार और राजनीति
दूसरों पर शासन करने की आशा करने से पहले तुम्हें अपने ऊपर नियन्त्रण कर सकना चाहिये ।
*
१. दूसरों पर नियन्त्रण रख सकने के लिए स्वयं अपने ऊपर पूर्ण नियन्त्रण पाना अनिवार्य शर्त है ।
२. कोई पसन्द न होना, एक को पसन्द और दूसरे को नापसन्द न करना, हर एक के साथ समान होना ।
३. हर एक के साथ धीरज रखना और सहिष्णु होना ।
और साथ ही केवल वही बोलना जो एकदम अनिवार्य हो, उससे अधिक नहीं ।
मार्च १९५४
जिन लोगों के जीवन पर तर्क-बुद्धि का राज है उनकी बातों को आदमी गम्भीरता से लेता है, लेकिन जो लोग वास्तव में अपने सनकी आवेगों के खिलौने हैं उनके तथाकथित निश्चयों को कोई कैसे महत्त्व दे सकता है ?
चिन्तन : सभी व्यवस्थापकों के लिए आवश्यक; व्यवस्था या संगठन का गुण उसी के गुण पर निर्भर होता है ।
व्यवस्थित करने की अपेक्षा दबा देना ज्यादा आसान है, लेकिन सच्ची व्यवस्था दबा देने की अपेक्षा कहीं अधिक उत्कृष्ट है ।
३० जून, १९५४
५९
समस्त उपलब्धि के लिए संगठन और अनुशासन आवश्यक नींव हैं । अच्छी तरह हुकुम देना जानने से पहले अच्छी तरह आज्ञापालन करना जानना चाहिये ।
केवल वही जो आज्ञापालन करना जानता है शासन करने योग्य है ।
उनके नाम जिनका काम शासन या नेतृत्व करना है |
जब तुम लोगों को खुश करना चाहते हो तो तुम चीजें जैसी हैं वैसी चलने देते हो, और प्रतीक्षा करते हो कि प्रकृति अपनी प्रगति मनुष्यों पर आरोपित करे । लेकिन यह सृष्टि का सत्य नहीं है । मनुष्य का सच्चा उद्देश्य है प्रकृति पर अपनी प्रगति आरोपित करना ।
२ दिसम्बर, १९५४
मनुष्य अपनी साधारण चेतना में, किसी ऐसी सत्ता को स्वीकार नहीं
६०
कर सकते चाहे वह कितनी भी युक्तियुक्त क्यों न हो, जो किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में हो जिसे वे अपने ही स्तर का समझते हैं ।
दूसरी ओर, मानव सत्ता औरों पर उचित रूप से अपना रौब छांट सके उसके लिए यह जरूरी है कि वह कम-से-कम इतनी प्रबुद्ध, निष्पक्ष और अहंकाररहित हो कि कोई भी आसानी से उसके मूल्य को चुनौती न दे सके ।
केवल वही अपनी आज्ञा मनवाने के अधिकार का दावा कर सकता है जिसमें सच्चे न्याय का भाव हो ।
जब मैं कहती हूं कि ''प्रज्ञावान्'' लोगों को संसार पर राज्य करना चाहिये तो मैं राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कहती हूं ।
सरकारों के विभिन्न रूप जैसे हैं वैसे ही रह सकते हैं; यह गौण महत्त्व की बात हे, लेकिन जो लोग शासनतन्त्र में हैं वे चाहे किसी भी सामाजिक स्तर के क्यों न हों, उन्हें अपनी प्रेरणा ऐसे लोगों से प्राप्त करनी चाहिये जिन्होंने सत्य को पा लिया है, जिनकी इच्छा परम प्रभु की इच्छा से भिन्न नहीं है ।
१७ सितम्बर, १९५९
राजनीति में बने रहो और राजनीति में सत्य को लाने की कोशिश करो, यह प्रभावकारी आध्यात्मिकता की ओर बहुत निश्चित मार्ग है ।
सार्वजनिक रूप से लोगों की वाणी या लेखनी द्वारा बुरा-भला कहने की यह सामान्य, गंवारू राजनीतिक आदत पूरी तरह छोड़ दो । तुम्हें व्यक्तित्वों का युद्ध नहीं, विचारों का युद्ध करना चाहिये ताकि सत्य की विजय हो ।
६१
मधुर मां,
आपके युवक-शिविरों१ के बारे में कहा है कि वहां राजनीति पर चर्चा नहीं होनी चाहिये ।
इस सन्दर्भ में आपसे कुछ पथ-प्रदर्शन के प्रार्थना करता हूं? मधुर मां, सिर्फ उनके लिए नहीं जो युवक-शिविरों मे बोलते हैं बल्कि सामान्यत: उन सबके लिए भी जो श्रीअरविन्द कर्मधारा के सिलसिले में दिश भर में भाषण जाते है ।...
अभी तक हमारी दृष्टि में ''राजनीति'' में ऐसे क्रिया-कलाप की गिनती होती है जिसके द्वारा व्यक्ति दूसरों पर अपना या अपने दल का आधिपत्य जमाता है । इनमें कुचक्र अनाचार भी आ जाते हैं । इसमें यह माना जाता कि हमारी विचार-सरणी ही सच्ची है, बाकि सब गलत है ।
इस प्रकार की राजनीति से हमें पूरी तरह से बचना चाहिये, है न ?
हां ।
लकिन श्रीअरविन्द ने ऐसे विषयों को बहुत ही ऊंचे द्रष्टिकोण से देखा है जिसमें उन्होंने यह देखा है कि हर उपगमन हर विचारधारा में सत्य क्या है और उन्होंने इन सब आंशिक सत्यों के सच्चे एकीकरण के वास्तविक समन्वय का मार्ग दिखलाया है । अगर हम उनसे सीख सकें और उनके पथ का अनुसरण करें तो हम विषयों पर सचमुच विचार कर सकते हैं और हमें उनसे कतराने आवश्यकता नहीं होगी । क्या हमारा इस चीज को इस तरह लेना और समझना ठीक है ?
जब हमसे बैकों के राष्ट्रियकरण, राजाओं की निजी आदमिनी, प्रेस विधेयक आदि के बारे में सीधे प्रश्न किये जाते हैं तो जब तक हमें
१ श्रीअरविन्द और माताजी की किताबों का अध्ययन करने के लिए कई-कई दिन के सेमिनार ।
६२
आपका या श्रीअरविन्द का उत्तर न मालूम हो तो हम यही कह देते हैं कि ये सब ऊपरी सतह की चीजें है और व्यवस्था की बातें हैं । अपने-आपमें ये उन समस्याओं को हल नहीं कर सकतीं । केवल चेतना के परिवर्तन से या कम-से-कम सत्य के लिए अभीप्सा और उसके परिणामस्वरूप परिवर्तन की ओर उद्घाटन से ही इन समस्याओं को हल किया जा सकता है । किसी योजना या व्यवस्था का रूप कैसा भी क्यों न हो उसे पूरा करने वाले तो मनुष्य ही होते हैं । किसी योजना या व्यवस्था का रूप कैसे भी क्यों न हो उसे पूरा करने वाले तो मनुष्य ही होते हैं । अगर मनुष्य अन्धकार और मिथ्यात्व में बने रहें तो भी योजना या व्यवस्था-वह चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न लगती हो--सफल नहीं हो सकती ।
तो स समस्याओं का एक ही समाधान है, और वह आपका दिया हुआ है--केवल शाश्वत आज्ञा मानो सत्य के अनुसार जीवन बिताओ ।
क्या यह उत्तर ठीक पर्याप्त है ?
हां, सच है ।
अमुक विषयों पर जहां आपने या श्रीअरविन्द ने सीधे उत्तर दिये हैं, हम भी ठीक-ठीक उत्तर दे देते हैं, हम भी ठीक-ठीक उत्तर दे देते हैं, जैसे, भारत और पाकिस्तान की एकता एक सत्य जिसके बिना बांगला देश आदि की समस्याओं का हल नहीं हो सकता, या भाषाओं का प्रश्न जिस पर आपने राष्ट्र के कहा है कि, १. क्षेत्रीय भाषा शिक्षा का माध्यम हो । २. सस्कृंत राष्ट्रभाषा हो और ३. अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा
क्या इस प्रकार के प्रश्नों के जाने पर हमारा यह उत्तर देना ठीक है ?
आशीर्वाद ।
बोलो कम, सच्चे बनो, सचाई से काम करो ।
४ अक्तूबर, १९७१
६३
यह सोचना कि साम्यवाद एकमात्र सत्य है वही भूल है जो सभी धार्मिक कट्टरताओं ने की है और यह साम्यवाद को अन्य सभी धर्मों के स्तर पर लाकर रख देता है... दिव्य सत्य से बहुत दूर ।
मानव-एकता
अमेरिका के नाम सन्देश
यह सोचना छोड़ दो कि तुम पश्चिम के हो और दूसरे पूर्व के । सभी मनुष्य एक ही दिव्य कुल के हैं और धरती पर हम इस मौलिक एकता को व्यक्त करने के लिए हैं ।
४ अगस्त, १९४९
धरती स्थायी और सजीव शान्ति तभी पायेगी जब मनुष्य यह समझ लेंगे कि उन्हें अपने अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार में भी सच्चा और निष्कपट होना चाहिये ।
सरकारों के लिए ईमानदारी केवल इसी में नहीं है कि वे जो करती हैं वही कहें, बल्कि वही करें भी जो वे कहती हैं ।
अगर कूटनीति छल-कपट और मिथ्यात्व पर आधारित होने की जगह दिव्य सत्य और भागवत कृपा का यन्त्र बन जाये तो यह मानव एकता और सामञ्जस्य की ओर एक बड़ा कदम होगा ।
१५ अप्रैल, १९५५
शान्ति के बारे में
धरती पर सच्ची ओर स्थायी शान्ति केवल मानव एकता की चेतना की वृद्धि और प्रतिष्ठा के द्वारा ही चरितार्थ हो सकती हे । इस लक्ष्य की ओर ले जाने वाले सभी साधनों का स्वागत है यद्यपि बाहरी साधनों का
६४
बहुत ही सीमित प्रभाव होता है, फिर भी, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण, अत्यावश्यक और अनिवार्य है स्वयं मानव चेतना का रूपान्तर, उसकी कार्यसरणि का प्रबुद्ध और रूपान्तरित होना ।
इस बीच कुछ बाहरी कदम उपयोगी रूप में उठाये जा सकते हैं । दोहरी राष्ट्रीयता की स्वीकृति उनमें से एक है । इसके विरुद्ध मुख्य आपत्ति हमेशा यही रही है कि उन लोगों की कैसी विकट स्थिति होगी जिन्होंने दोहरी राष्ट्रीयता अपना ली है, और जिन देशों की राष्ट्रीयता अपनायी है उनमें युद्ध छिड़ जाये ।
लेकिन जो लोग सचाई के साथ शान्ति चाहते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि युद्ध के बारे में सोचना, युद्ध की बात करना, युद्ध का पहले से ही अनुमान करना उसके लिए द्वार खोलना है ।
इसके विपरीत, युद्ध के उन्मुल में जितने अधिक लोगों को सक्रिय रस होगा, स्थायी शान्ति के अवसर उतने ही प्रभावकारी होंगे । यह तब तक रहेगा जब तक मनुष्य में नयी चेतना का आगमन युद्ध को असम्भव न बना दे ।
२४ अप्रेल, १९५५
समस्त संकीर्णता, स्वार्थपरता, सीमाबन्धन को झाड़ फेंको और मानव एकता की चेतना के प्रति जागो । शान्ति और सामञ्जस्य पाने का यही एक रास्ता है ।
मई, १९५५
हमले राष्ट्रों के स्तर पर बात कीजिये ।
खेद है, अगर मैं ऐसे बोलूं तो वह बहुत ऊंचे स्तर से न होगा ।
अभी तक राष्ट्र किसी सच्चे आध्यात्मिक सन्देश को सुनने के लिए तैयार नहीं मालूम होते ।
११ मई, १९५७
६५
राष्ट्रों की कृतघ्नता के बारे में :
जो तुम्हारा भला करता है उससे नाराज न होने के लिए चरित्र की उदात्तता की जरूरत होती है ।
(श्रीअरविन्द सोसायटी की पहली विश्व-परिषद् के लिए सन्देश)
धरती का भविष्य चेतना के परिवर्तन पर निर्भर है ।
भविष्य के लिए एकमात्र आशा है आदमी की चेतना में परिवर्तन और परिवर्तन अवश्यम्भावी है ।
लेकिन यह निश्चय मनुष्यों के हाथ में छोड़ा गया है कि वे इस परिवर्तन के लिए सहयोग दें या इसे उन पर कुचलती हुई परिस्थितियों की शक्ति द्वारा आरोपित किया जाये ।
तो, जागो और सहयोग दो !
अगस्त ११६४
(माताजी ने उस सभा में भाग लेने वालों के विचारार्थ निम्नलिखित प्रश्न और उनके अपने उत्तर दिये थे ।)
मानवजाति एक कैसे हो सकती है ?
अपने मूल के बारे में सचेतन होकर ।
मनुष्य के अन्दर मानव एकता की चेतना को विकसित करने का क्या तरीका है ?
आध्यात्मिक शिक्षा यानी ऐसी शिक्षा जो किसी भी धार्मिक ओर नैतिक सीख या भौतिक तथाकथित ज्ञान की अपेक्षा आत्मा के विकास को अधिक महत्त्व देती हो ।
६६
चेतना का परिवर्तन क्या है ?
चेतना का परिवर्तन नवजन्म का समानार्थक है यानी सत्ता के ज्यादा ऊंचे क्षेत्र में जन्म लेना ।
चतेना का परिवर्तन धरती पर जीवन को कैसे बदल सकता है ?
मानव चेतना में परिवर्तन धरती पर उच्चतर शक्ति, शुद्धतर प्रकाश, अधिक सम्पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति को सम्भव बनायेगा ।
अगस्त १९६४
मानवजाति जिस भयंकर दुर्दशा में धंसी हुई है उससे चेतना के आमूल परिवर्तन के सिवा उसे कोई नहीं बचा सकता ।
ये सब तथाकथित व्यावहारिक उपाय बचकाने हैं जिनके द्वारा मनुष्य अपने-आपको अन्धा बना लेते हैं ताकि वे सच्ची आवश्यकता और एकमात्र उपचार को न देख सकें ।
स्थायी विश्व-ऐक्य पाने का सच्चा उपाय क्या है ?
एकमेव की चेतना को प्राप्त करना ।
१३ अक्तूबर, १९६५
(श्रीअरविन्द सोसायटी ने श्रीअरविन्द की जन्म-शताब्दी के अवसर
पर उनके चित्रों और सन्देशों का एक सेट तैयार किया था और उसे
देश-विदेश के अनेकों दूतवासों को भेजा था । यह सन्देश उसी से
सम्बन्ध रखता है ।)
६७
सत्य पर आधारित और मिथ्यात्व की दासता से इन्कार करने वाला एक नया संसार जन्म लेना चाहता है ।
सभी देशों में ऐसे लोग हैं जो इसे जानते हैं, कम-से-कम अनुभव करते हैं ।
उन्हें हमारी टेर है :
क्या तुम सहयोग दोगे ?
१९७२
'वर्ल्ड यूनियन'१ (विश्व ऐक्य) को सन्देश
संसार एक इकाई है । वह हमेशा इकाई रहा है और अब भी है । इस समय भी है । ऐसी बात नहीं है कि उसमें एकता नहीं है और उसे कहीं बाहर से लाना और उस पर आरोपित करना होगा ।
केवल, संसार अपनी एकता के बारे में सचेतन नहीं है । उसे सचेतन बनाना है ।
हम समझते हैं कि इस प्रयास के लिए यह समय सबसे अधिक शुभ है । क्योंकि, तुम इस तत्त्व को जो चाहो कह लो, एक नयी शक्ति या चेतना या ज्योति संसार में अभिव्यक्त हुई है और अब संसार में अपनी एकता के बारे में सचेतन होने की क्षमता है ।
२५ मार्च, १९६०
तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है । इस नये काम के लिए पुरानी पद्धतियां नहीं चल सकतीं । केवल इतना ही नहीं कि कोई सचमुच प्रभावकारी चीज करने से पहले नयी चेतना को स्थिर रूप से स्थापित होना होगा बल्कि नयी पद्धति भी खोजनी होगी ।
१५ जनवरी, १९६१
१ नवम्बर १९५८ में स्थापित एक धर्मादाय संस्था जो आध्यात्मिक शिक्षा के आधार पर संसार में शान्ति और एकता लाने के सपने देखती है । अपने इस कार्य में उसे श्रीअरविन्द की पुस्तक 'मानव एकता का आदर्श' से प्रेरणा मिली है ।
६८
'विश्व ऐक्य' के कार्य से सम्बन्ध रखने वालों के नाम
तुम्हारे सभी भेद शुद्ध रूप से मानसिक हैं और तुम उन्हें जो अत्यधिक महत्त्व देते हुए मालूम होते हो उसके बावजूद, वस्तुत: उनका बहुत ही कम महत्त्व है और अगर हर एक जरा विशाल होने की कोशिश करे और यह समझे कि वह जो कुछ सोचता है वह प्रश्न का एक दृष्टिबिन्दु भर है और प्रभावशाली होने के किसी भी प्रयास में अन्य दृष्टिबिन्दुओं का भी स्थान होना चाहिये और उसे उन सबका समन्वय करना चाहिये तो उन पर विजय पायी जा सकती है ।
अन्यथा तुम्हारी बुद्धि का जो भी गुण हो, तुम निराशाजनक रूप से संकीर्ण और संकुचित हो । यह बात हर एक पर लागू होती है जिसने अतिमानसिक चेतना प्राप्त नहीं की है और जो उच्चतर गोलार्द्ध में नहीं चला गया है ।
तुम सब मिलकर सामञ्जस्य के साथ, हंसी-खुशी, अपने भेदों को भूलकर काम करो । हर एक अपने ही काम के बारे में सोचे और अपने विचार के अनुसार अच्छे-से-अच्छा करे लेकिन मौन रूप से दूसरों के विचारों के औचित्य को मान्यता दे और उन सबका समन्वय करने की आवश्यकता को स्वीकार करे ।
६ अप्रैल, १९६१
जो एक है उसे विभक्त मत करो । विज्ञान (सायंस) और आध्यात्मिकता दोनों का एक ही लक्ष्य है-परम देवत्व । उनमें फर्क बस इतना है कि आध्यात्मिकता उसे जानती है और विज्ञान नहीं जानता ।
दिसम्बर १९६२
मैं तुमसे पहले ही कह चुकी हूं कि 'वर्ल्ड यूनियन' उन लोगों के लिए एक बाह्य आन्दोलन है जिन्हें अपनी श्रद्धा को अधिक ठोस वास्तविकता देने के लिए बाहरी क्रिया-कलाप और संगठन की जरूरत है ।
यह ऐसे लोगों के लिए आदर्श कार्य है जो मानवजाति में, जैसी वह
६९
है उसमें, सामञ्जस्य लाना चाहते हैं ताकि उसे भावी सम्पूर्ण प्रगति के लिए तैयार कर सकें ।
कुछ दूसरे--बहुत ही कम--आन्तरिक व्यक्तिगत तैयारी और प्रगति पर अधिक जोर देते हैं । वे अग्रदूत हैं जो जगत् को मार्ग दिखाते हैं । उन्हें उनकी एकाग्रता में से बाहर नहीं खींचना चाहिये । उन्हें 'वर्ल्ड यूनियन' का सहानुभूतिपूर्ण साक्षी रहना चाहिये, सक्रिय सहभागी नहीं ।
१ जुलाई, १९६३
करुणामयी मां, हमें आपका पथ-प्रदर्शन चाहिये जो हमें इस योग्य बनाये कि हम अपनी अभीप्सा के प्रति तब भी निष्ठावान् बने रहें जब हमें उनके साथ काम करना पड़े जिनके काम का तरीका आवश्यक रूप से हमारी अभीप्सा के साथ मेल न खाता हो या कभी-कभी उससे भिन्न भी हो । कृपया हमें मार्गदर्शक सूत्र बतलाइये ।
यह रही मेरी व्याख्या जो आदर्श वाक्य ओर कार्यक्रम का काम भी दे सकती है ।
एक ऐसा विश्व ऐक्य जो आत्मा के सत्य को चरितार्थ करती हुई मानव एकता के तथ्य पर आधारित हो ।
आशीर्वाद सहित ।
अप्रेल १९६४
मैं तुमसे कहना चाहती हूं कि उच्चतर दृष्टि से समस्त जगत् तेजी से आमूल परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है । अगर 'वर्ल्ड यूनियन' को ठीक तरह चलाया जाये तो परिवर्तन में उसका विशेष स्थान हो सकता है ।
२४ जुलाई, १९६४
एकता किसी बाहरी व्यवस्था से नहीं आती, वह आती हे शाश्वत
७०
'ऐक्य' के बारे में सचेतन होने से ।
१२ अगस्त, १९६४
इन सब सिद्धान्तों के पीछे कुछ सत्य है, लेकिन कोई भी अपने-आपमें पूर्ण नहीं है ।
एक सुनम्य, प्रगतिशील और विशाल समन्वय प्रतिपादित करना चाहिये लेकिन मनमाने मानसिक ढंग से नहीं, जीवन्त अनुभूति और आन्तरिक प्रगति द्वारा ।
पूर्णतर उपलब्धि की ओर आगे बढ़ने के संकल्प के साथ हम अभी जो हैं उसी को लेकर शुरू कर सकते हैं ।
अक्तूबर १९६४
श्रीअरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा-केन्द्र के विद्यार्थियों को एक स्थानीय
गोष्ठी में भाग लेने के लिए निमन्त्रित किया गया था जिसका विषय
था ''१९६५--अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का वर्ष '' । )
मुझे इस प्रदर्शन में 'वर्ल्ड यूनियन' के, तुम्हारे या 'क' के भाग लेने में कोई आपत्ति नहीं है लेकिन मैंने उसमें विद्यार्थियों के भाग लेने की एकदम मनाही कर दी है क्योंकि जहां संसार की समस्याओं का प्रश्न हो वहां मैं बोले गये या लिखे गये वचनों की उपयोगिता को नहीं मानती ।
मैं इस बात पर आग्रह करती हूं कि अपने अन्दर एकता की चेतना पाने का प्रयत्न करना और परिणामस्वरूप अपने कर्म का रूपान्तर करना भाषणों और लेखों से अनन्तगुना अधिक प्रभावकारी है ।
जनवरी १९६५
बड़े दिन के लिए लिखे गये सन्देश का इसी उद्देश्य से ब्लॉक बनवाया गया था । तुम्हें उसका उपयोग करना चाहिये ।
७१
अगर तुम धरती पर शान्ति चाहते हो
तो पहले अपने हृदय में शान्ति स्थापित करो ।
अगर तुम जगत् में ऐक्य चाहते हो
तो पहले स्वयं अपनी सत्ता के विभिन्न भागों को एक करो ।
फरवरी १९६५
जो कहा जाता है उसे बहुत अधिक महत्त्व न दो । शब्द केवल शब्द हैं और हर एक मन में वे अलग ही रंग लेते हैं ।
फरवरी १९६६
तुम आपस में एक होकर संसार के आगे यह सिद्ध करो कि 'एकता' सम्भव है ।
१९ फरवरी, १९६६
मानवजाति की एकता मूलभूत और विद्यमान तथ्य है ।
लेकिन मानवजाति की बाह्य एकता मनुष्य की सचाई और सद्भावना पर निर्भर है ।
१२ अगस्त, १९६७
विभाजन की शक्ति अस्थिर और अस्थायी है ।
ऐक्य स्थिर शक्ति और सामञ्जस्यपूर्ण भविष्य के लिए काम करता है ।
२५ अप्रैल, १९६९
जब मनुष्य उस मिथ्यात्व से धृणा करने लगेंगे जिसमें वे निवास करते हैं, तब संसार 'सत्य' के राज्य के लिए तैयार होगा ।
१४ अगस्त १९७१
७२
अगर तुम संसार में एकता चाहते हो तो पहले अपनी निजी सत्ता के विभिन्न भागों में एकता लाओ ।
१७ दिसम्बर, १९७१
अगर तुम अपने अन्दर से उन चीजों का उन्मूलन कर दो जो संसार में भ्रान्तिपूर्ण हैं तो संसार भ्रान्तिपूर्ण न रहेगा ।
२३ अप्रैल, १९७२
आज का संसार
श्रीअरविन्द के शब्दों में हम ''भागवत मुहूर्त'' में जी रहे हैं और सारे संसार के रूपान्तरकारी विकास ने एक तेज और तीव्र गति अपना ली है ।
यह सच है कि ''हम'' कठिन समय में से गुजर रहे हैं ("हम'' का अर्थ है संसार) लेकिन जो डिगेंगे नहीं वे उसमें से पहले की अपेक्षा बहुत अधिक मजबूत होकर निकलेंगे ।
निश्चय ही हम ऐसे काल में नहीं जी रहे जब मनुष्यों को उनके अपने साधनों पर छोड़ दिया गया हो ।
भगवान् ने उन्हें प्रबुद्ध करने के लिए अपनी चेतना को नीचे भेजा है । जो भी उससे लाभ उठा सकते हों उन्हें लाभ उठाना चाहिये ।
समस्त उथल-पुथल के बावजूद सत्य की विजय होगी ।
७३
अस्तव्यस्तता के अन्दर भी भागवत व्यवस्था का बीज है ।
अन्दर से चीजें सुधरती हुई मालूम हैं लेकिन बाहर से तो ऐसे
लगता कि विघटन द्वार पर खड़ा आखिर हम हैं कहां ?
एक सुन्दर उपलब्धि के सामने ।
हर रोज चीजें ज्यादा ज्यादा बिगड़ती हुई मालूम होती हैं । वस्तुत: हमें पुरानी सड़ती हुई दुनिया से अधिकाधिक घृणा होती जा रही है और हमें एक ऐसे नये जगत् की स्थापना की आवश्यकता का अधिकाधिक विश्वास होता जा रहा है जो घिसे-पिटे रास्तों से दूर जीवन का एक नया पहलू हो जिसमें नयी और अधिक सच्ची ज्योति अभिव्यक्त हो सके , एक नया जगत् आ सके जो स्वार्थभरी प्रतियोगिताओं और अहंकारपूर्ण संघर्षों पर आधारित न होकर सभी के कल्याण, ज्ञान और प्रगति के लिए व्यापक उत्सुक प्रयास पर आधारित हो, एक ऐसा समाज हो जो धन के लोभ और भौतिक शक्ति की जगह आध्यात्मिक अभीप्सा पर आधारित हो ।
मैं जो देखती हूं वह आगामी कल की दुनिया है, लेकिन बीते कल की दुनिया अभी तक जिन्दा है और अभी कुछ समय और जीती रहेगी । पुरानी व्यवस्थाओं को तब तक चलने दो जब तक वे जिन्दा हैं ।
धरती पर परिवर्तन धीरे-धीरे आते हैं ।
चिन्ता न करो-भविष्य के लिए आशा बनाये रखो ।
ठहरो और प्रतीक्षा करो । परिणाम निश्चित है-लेकिन मार्ग और समय अनिश्चित हैं ।
७४
Home
The Mother
Books
CWM
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.