The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.
Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.
शान्ति और अचंचलता, श्रद्धा और समर्पण
अचंचल रहना ओर एकाग्र होना, ऊपर से शक्ति को अपना काम करने देना, यह किसी भी बीमारी और हर बीमारी को ठीक करने का सबसे निश्चित तरीका है । अविचल श्रद्धा और दृढ़ संकल्प के साथ अगर इसे ठीक तरह से, समय पर और पर्याप्त समय के लिए किया जाये तो ऐसी कोई भी बीमारी नहीं जो इसका प्रतिरोध कर सके ।
६ दिसम्बर, १९३४
*
मुझे बुखार है । पीछा छुड़ाने का सबसे अच्छा तरीका क्या है ?
शान्त और विश्वस्त रहो । यह जल्दी ही चला जायेगा ।
मेरे गले, गर्दन और सिर के पिछले हिस्से में सख्त दर्द है | दौरे असह्य होते है और मैं धीरज खो रहा हूं ।
तुम्हें धीरज नहीं खोना चाहिये, इससे बीमारी ज्यादा जल्दी ठीक नहीं होती । इसके विपरीत, तुम्हें इस बात पर शान्तिपूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिये कि तुम नीरोग हो जाओगे ।
५ अक्तूबर, १९३५
अपने शरीर में अधिक-से- अधिक महान् शान्ति और अचंचलता स्थापित करो, ये तुम्हें बीमारी के दौरों को रोकने का बल देंगी ।
२२ अक्तूबर, १९३५
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बीमारी के बारे में एकमात्र चीज जिसका मैं सुझाव दे सकती हूं वह है शान्ति को नीचे बुलाना । मन को किसी भी तरीके से शरीर से दूर रखो-चाहे श्रीअरविन्द की किताबें पढ़कर या ध्यान करके । इस स्थिति में भागवत कृपा कार्य करती है । और एकमात्र भागवत कृपा ही नीरोग बनाती है । दवाइयां केवल शरीर के अन्दर एक श्रद्धा जगाती हैं । बस इतना ही ।
मेरे प्रिय बालक, अब समय आ गया हे कि श्रद्धा सचमुच क्रियाशील हो और सभी असंगतियों के विरुद्ध अचल खड़ी रहे । श्रद्धा रखो, सच्ची श्रद्धा कि तुम रोगमुक्त हो जाओगे और तुम रोगमुक्त होकर रहोगे ।
मेरा प्रेम और आशीर्वाद ।
२ फरवरी, १९४९
क्षुब्ध होने और संघर्ष करने की जगह करने लायक सबसे अच्छी चीज है अपने शरीर को सच्ची प्रार्थना के साथ भगवान् को अर्पित करना, ''तेरी इच्छा पूरी हो ।'' अगर रोगमुक्त होने की कोई सम्भावना है तो यह उसके लिये अच्छी-से- अच्छी परिस्थिति पैदा करेगी; और अगर उसका ठीक होना असम्भव है तो शरीर से बाहर निकलने और बिना शरीर के जीवन के लिए यह अच्छे-से- अच्छी तैयारी है ।
बहरहाल, पहली अनिवार्य शर्त है भागवत संकल्प के प्रति अचंचल समर्पण ।
प्रेम और आशीर्वाद सहित ।
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अपने मन को कठिनाई की ओर से पूरी तरह से हटा लो, ऐकान्तिक रूप से ऊपर से आने वाली शक्ति और प्रकाश पर एकाग्र होओ; परम प्रभु तुम्हारे शरीर के लिए जो चाहते हैं उन्हें वही करने दो । अपनी भौतिक सत्ता का समस्त उत्तरदायित्व पूरी तरह से उनके हाथों में सौंप दो ।
यही उपचार है ।
मेरे आशीर्वाद के साथ ।
६ मार्च, १९५९
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रोगमुक्त होने के लिए अनिवार्य शर्तें हैं स्थिरता और अचंचलता । किसी भी तरह का विक्षोभ, कोई भी घबराहट बीमारी को बढ़ा देते हैं ।
२६ नवम्बर, १९६९
( ऐसे व्यक्ति को जो आमाशय और आंतों के कष्ट से पीड़ित था )
यह बेचैनी और विक्षोभ के कारण है । बात क्या है ? शान्ति, भागवत शान्ति को अपने आमाशय के अन्दर उतारो और वह ठीक हो जायेगा ।
अपने अन्दर शान्ति को पकड़ो और उसे शरीर के कोषाणुओं में प्रवेश कराओ । शान्ति के साथ-ही-साथ स्वास्थ्य लौट आयेगा ।
शान्ति और स्थिरता बीमारी के महान् उपचार हैं ।
जब हम अपने कोषाणुओं में शान्ति ला सकें, तो हम नीरोग हो जाते है ।
स्नायुओं में शान्ति : अच्छे स्वास्थ्य के लिए अपरिहार्य ।
भागवत कृपा द्वारा रोगमुक्ति
( वात के किसी रोगी ने लिखा : )
क्या मेरे भाग्य में पंगु होना लिखा है ? मैंने अपने जीवन का सबसे अच्छा भाग भगवान् को दे दिया | क्या यही मेरी नियति है ? इससे निकलने का क्या कोई रास्ता नहीं है ?
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श्रद्धा रखो । ऐसा कोई रोग नहीं है जो भागवत कृपा द्वारा ठीक न हो सके ।
यह मत सोचो कि तुम हमेशा के लिए पंगु हो गये हो, क्योंकि परम प्रभु की कृपा अनन्त है ।
.
मैं तुम्हें प्रोत्साहन देने के लिए कि यह श्रद्धा रखो कि तुम्हारी आंखें ठीक हो जायेंगी, दो तेज निगाह वाली चिड़ियों का एक चित्र भेज रही हूं ।
मैं देखूंगी क्या किया जा सकता है ।
२८ जनवरी, १९३२
बीमारी के बारे में क्या किया जाये ?
निष्किय रूप से विश्वास रखो : मुझे काम करने दो और काम हो जायेगा ।
जब किसी बीमारी के चंगुल में फंस जाये तो उसे माताजी से किस तरह प्रार्थना करनी चाहिये ?
हे मां ! मुझे रोगमुक्त करो ।
उसकी मानसिक बीमारी जन्मजात, यानी, उसकी शारीरिक रचना के कारण थी, और वह जहां कहीं होती, जिस किसी जीवन में होती उसके साथ यही होता । वस्तुत: मैंने उसे यहां, वह और कहीं जितना जीती उसकी अपेक्षा, डेढ़ वर्ष अधिक जिन्दा रखा ।
ये जन्मजात बीमारियां केवल स्वयं शरीर के सर्वांगीण रूपान्तर द्वारा ही ठीक हो सकती हैं ओर हम साधना में अभी उस अवस्था तक नहीं
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पहुंच पाये हैं; अन्यथा यह केवल तथाकथित ''चमत्कारिक'' उपचार ही हो सकता है और ऐसा ''चमत्कार'' केवल भागवत कृपा में अचल श्रद्धा और भागवत उत्सर्ग में पूर्ण निष्कपटता के परिणामस्वरूप हो सकता है । उसमें यह बात न थी, वह भय, कामनाओं, मांगों से भरपूर थी और अपनी बाहरी सत्ता और जिसे वह अपनी आवश्यकताएं कहती थी उस पर भयंकर रूप से एकाग्र थी । यह सच्चे उत्सर्ग से एकदम उल्टी चीज है ।
२५ मार्च, १९३५
मेरे प्यारे बालक,
इस वर्ष तुम्हारी ग्रहणशीलता इस हद तक बढ़े कि वह तुम्हें इतना बल दे कि तुम उस शक्ति का पूरी तरह उपयोग कर सको जो इस समय तुम्हारे अन्दर पूर्ण स्वास्थ्य वापिस लाने के लिए कार्य कर रही है ।
मेरे प्रेम ओर आशीर्वाद सहित ।
२ फरवरी, १९४८
'क्ष' ने फिर से लिखा है । उसकी मित्र कु. 'त्र' ने (जो कुछ महीने पहले जब यहां आयी थी तो आपसे मिली थी) आपको दो चिठ्ठियां लिखी थी, कम--से- कम देखने में तो यही लगता है कि आपने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया-उसने अपने किसी कष्ट के लिए आशीर्वाद पुष्प मांगा था, वह उसे नहीं मिला । लोकिन अपनी चिठ्ठी में उसने अच्छी खबर सुनायी है |
ध्यान कैसे नहीं दिया ? वह नीरोग हो गयी! अल्प श्रद्धावान् मनुष्य!
३१ मई, १९६७
सोने से पहले मैंने आपसे कहा, ''यह नहीं चल सकता । अगर यह फोड़ा रहा तो दर्शन के सप्ताह मुझे बिस्तर में रहना पड़ेगा | मुझे
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विश्वास नहीं कि यह सम्भव ? '' अगली सुबह फोड़ा अपनी जगह से तीन इंच हट गया और मुझे हिलने-डुलने की पूरी स्वतन्त्रता मिल गयी, एक दो दिन में वह फट भी गया और अब सूख गया है | मुझे आश्चर्य है कि क्या फोड़ा सचमुच इस तरह हट सकता ।
कुछ भी हो सकता है । केवल हमारे ''तार्किक मन'' ही सीमाएं बांधते हैं । मुझे तुम्हारे शरीर को उसकी ग्रहणशीलता के लिए बधाई देनी चाहिये ।
फरवरी १९७०
आपके आशीर्वाद से मेरा रोग आंशिक रूप से ठीक हो जाता है लकिन चला नहीं जाता ।
यह तुम्हारे शरीर की ग्रहणशीलता का यथार्थ परिमाण बताता है । रोगग्रस्त अंगों पर शक्ति को एकाग्र करो और उनमें सुधार होगा ।
औरों के बारे में मैं आपको मन--ही-- मन बता देता हूं और इससे काम हो जाता है । लोकिन अपनी बीमारी के बारे में मुझे आपको भौतिक रूप में बताना होता है-- क्यों ?
यह हर एक की भौतिक ग्रहणशीलता पर निर्भर है, ओर यह ग्रहणशीलता न्यूनाधिक रूप से हावी होने वाले मन पर निर्भर होती है ।
यह ग्रहणशीलता का प्रश्न है । मैं उसके लिए जो अच्छे-से- अच्छा किया जा सकता है वह कर रही हूं, लेकिन वह सोचता रहता है कि वह बीमार है । सारे समय वह इसी विचार में व्यस्त रहता है और उसने अपने चारों तरफ बीमारी का एक मजबूत घेरा बना लिया है । इस घेरे के कारण वह मेरी सहायता ग्रहण करने में असमर्थ है । वह बीमारी के विचार को
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निकाल बाहर करे तो उसके आधे से अधिक कष्ट खतम हो जायेंगे और उसे रोगमुक्त करना आसान होगा ।
चिकित्सक और दवाइयां
बीमारियां
सत्य परम सामञ्जस्य और परम आनन्द है ।
समस्त अव्यवस्था, समस्त कष्ट मिथ्यात्व हैं ।
अत: यह कहा जा सकता है कि बीमारियां शरीर के मिथ्यात्व हैं, और परिणामस्वरूप, चिकित्सक उस महान् और अभिजात सेना के सिपाही हैं जो जगत् में सत्य की विजय के लिए युद्ध कर रही है ।
अगर हम मानव शरीर को परम प्रभु के अस्थायी आवास के रूप में लें तो चिकित्सा-शास्त्र पूजा का अनुष्ठान बन जाता है और चिकित्सक वे पुजारी जो मन्दिर में पूजा-पाठ सम्पन्न करते हैं ।
इस तरह से देखा जाये तो चिकित्सा का पेशा पुरोहिताई का है और इसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिये ।
विस्तृत मन, उदार हृदय, अटल इच्छा-शक्ति शान्त-स्थिर निश्चय, अखूट ऊर्जा और अपने कार्य में पूर्ण विश्वास--इस सबसे बनता है एक पूर्ण चिकित्सक ।
अन्तत: बीमारी केवल शरीर के किसी भाग द्वारा ली गयी गलत वृत्ति है।
चिकित्सक का प्रमुख कार्य है विभिन्न तरीकों से, शरीर को भागवत
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कृपा में अपना विश्वास वापिस लाने के लिए प्रवृत्त करना ।
चिकित्सा-ज्ञान और अनुभव में, भागवत कृपा पर अपनी पूरी श्रद्धा जोड़ दो, ओर तुम्हारी रोगमुक्त करने की क्षमता की कोई सीमा न रहेगी ।
रोगमुक्त करने की आध्यात्मिक शक्ति : भागवत प्रभाव के प्रति उद्घाटन और ग्रहणशीलता ।
उपचार करने की भौतिक शक्ति व्यक्ति की सद्भावना में महान् सचाई की मांग करती है ।
मैं अभी हृद्रोग के दुसरे दौरे से मुक्त नहीं हुआ हूं । पहला जून १९३८ में किसी उत्तेजक टॉनिक पाउडर की बहुत अधिक मात्रा के कारण हुआ था । इस बार हृदय की मांसपेशी पर ज्यादा भार के कारण हुआ है । चिकित्सकों ने पीठ पर लटे रहकर पूर्ण विश्राम की सलाह दी है | यहां तक कि सिर भी उठाया जा सकता | उन्होंने मुझे यह चेतावनी भी दी है कि अगर मैं बहुत अधिक सावधानी न बरतूंगा तो मुझे अधिक कष्ट हो सकता है । लकिन मैं अपने-आपको आपकी उपस्थिति से भरा हुआ अनुभव करता हूं और अचानक प्रचुर मात्रा में आती हुई काव्य-प्रेरणा मुझसे जो करवाती है वह करता हूं । मैं बहुधा उठ बैठता हूं । कविता के अंश से उत्तेजित हो जाता हूं, विशेषकर जब पंक्तियां विस्तृत, सुदूर क्षेत्रों से आती प्रतीत होती हैं--और उस समय मेरा हृदय जोरों से धड़कने लगता है । अगर उस समय चिकित्सक अपना स्टेथोस्कोप मेरी छाती पर रख सकें तो तेजी से स्वस्थ होने की सम्भावना पर अपना सिर हिला दें
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लेकिन मुझे कोई परवाह नहीं है । मुझे निचित रूप से आपकी शक्ति पर विश्वास है--और डाक्टर अच्छे- से- अच्छे अभिप्राय के साथ, स्वयं मेरे अपने में, हृदय के बारे में लापरवाही से आने वाले घोर अन्धकारमय भविष्य की जो चेतावनी देते हैं उसे हंसी में उड़ा देने को जी चाहता है । मेरी प्यारी मां, विश्वास है कि भागवत शक्ति सहायता कर सकती है--नहीं कर सकती है क्या ?
मेरे प्यारे बच्चे, मैं तुम्हारी इस बात से बिलकुल सहमत हूं कि चिकित्सकों और दवाइयों से कहीं अधिक समर्थ एक और शक्ति है और मुझे यह देखकर खुशी हुई कि तुम उस पर विश्वास करते हो । निश्चय ही सभी भयंकर चेतावनियों के बावजूद यह तुम्हें सभी कठिनाइयों से पार ले जायेगी । अपनी श्रद्धा को बनाये रखो और सब कुछ ठीक हो जायेगा ।
२८ मई, १९४८
(दवाइयां के बारे में )
मुझे इन चीजों में विशेष दिलचस्पी नहीं है जो बाहरी चेतना के लिए केवल बाहरी सहायता हैं और योग के लिए आवश्यक नहीं हैं ।
किसी भी दवाई का पूरा मूल्य उसके अन्दर निहित भाव में होता है ।
२२ फरवरी, १९६१
एक चिकित्सक से दूसरे चिकित्सक के पास जाना वैसी ही भूल है जैसी एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जाना । एक भौतिक स्तर पर और दूसरी आध्यात्मिक स्तर पर । तुम्हें अपने चिकित्सक को चुन लेना चाहिये और अगर तुम भौतिक गड़बड़ में नहीं पड़ना चाहते तो उसी के साथ लगे रहना चाहिये । अगर स्वयं चिकित्सक किसी और से या औरों से सलाह करने का
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निश्चय करे केवल तभी इसे सुरक्षित रूप से किया जा सकता है ।
१४ मार्च, १९६१
मैंने तुम्हें चिकित्सक के पास भेजा है और तुमसे वही करने की आशा रखती हूं जो करने के लिए वह कहे ।
१ अप्रैल, १९६१
क्या आपके ख्याल से मैं चिकित्सक ''क'' से इलाज करवा सकता हूं- -आखिर, कोई चिकित्सा-पद्धति नहीं बल्कि आपकी कृपा ही रोगमुक्त करती है ।
यह सच है कि चिकित्सक से बढ्कर श्रद्धा रोगमुक्त करती है । तुम चिकित्सक ''क'' का इलाज करवा सकते हो और भागवत सहायता को पुकार सकते हो ।
५ अगस्त, १९६२
क्या आप काली से मुझे ज्वर की अग्नि से जला देने के लिए कहेंगी ? मैं काफी निराश हो गया हूं। क्या मैं आयुर्वद की सीधी- सादी दवाइयां लूं ?
इतने निराश होने से पहले, आयुर्वेद-चिकित्सा कर देखो । और इसे काली की शक्ति पर एकाग्र होकर लो ।
आशीर्वाद ।
४ मई, १९६२
हर एक स्थिति में ' शक्ति ' ही रोगमुक्त करती हे ।
दवाइयों का प्रभाव कम ही होता है; दवाइयों में श्रद्धा ही रोगमुक्त करती है ।
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उसी चिकित्सक से इलाज करवाओ जिस पर तुम्हें विश्वास है और केवल वही दवाइयां लो जो तुम्हारे अन्दर विश्वास जगायें ।
शरीर को केवल भौतिक उपायों पर विश्वास होता है इसीलिए तुम्हें उसे दवाइयां देनी पड़ती हैं--लेकिन दवाइयों का असर केवल तभी होता है अगर उनके द्वारा 'शक्ति' कार्य करे ।
एलोपैथ चिकित्सक साधारणत: एक चीज को रोगमुक्त कर देते हैं, लेकिन दूसरी किसी चीज को बिगाड़ कर रख देते हैं ।
आयुर्वेद-चिकित्सकों में सामान्यत: यह त्रुटि नहीं होती । इसीलिए मैं उनके पास जाने की सलाह देती हूं ।
२० दिसम्बर, १९६५
चिकित्सक की सहायता के साथ या उसके बिना अपनी प्रकृति की शुद्धि के लिए चाहे केसी भी अग्निपरीक्षा क्यों न हो, मुझे उससे गुजरना ही होगा ।
तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है । अपनी श्रद्धा से चिपके रहो और तुम रोगमुक्त हो जाओगे ।
आशीर्वाद सहित ।
६ जुलाई, १९६७
आश्रम के चिकित्सा-विभागों के लिए सन्देश
('आयुर्वेद विभाग' के उदधाटन के लिए सन्देश)
इस नये क्रिया-कलाप में अतीत के ज्ञान को आज के अन्त:-प्रकाश से प्रदीप्त होना चाहिये ।
मेरे आशीर्वाद सहित।
२२ फरवरी, १९५७
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( 'बच्चों की डिस्पेन्सरी' के उद्घा टन के लिए सन्देश)
बच्चों की डिस्पेंसरी
जितने रोगी
उतने उपचार
चिकित्सा शास्त्र में सबसे महत्त्वपूर्ण चीज है शरीर को उचित तरीके से प्रतिक्रिया करना ओर बीमारी को त्यागना सिखलाना ।
२ जुलाई, १९६३
( 'स्कुल फॉर परफेक्ट आसाइट ' के उद्घाटन के लिए सन्देश)
मन जितना अचञ्ल होगा, दृष्टि उतनी ही अच्छी होगी।
५ मई, १९६८
('प्राकृतिक चिकित्सा विभाग' के लिए सन्देश)
प्रकृति सर्वतोमुखी 'चिकित्सक' है ।
२ जुलाई, १९६८
('मुख्य डिस्पेन्सरी' के लिए सन्देश)
अन्त में श्रद्धा ही रोगमुक्त करती है ।
९ अगस्त, १९६९
***
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(पॉण्डिचेरी के पास 'जवाहरलाल इन्सटिटयुत ऑफ पोस्टग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन ऐण्ड रिसर्च' जिपमेर) के सन्देश)
सत्य ही रोगमुक्त करता है ।
१९५७
सामान्य
माताजी, कई दिनों से मैं नियमित रूप से-स्नान कर रहा हूं । खांसी धीरे- धीरे जा है । अब थोड़ी- सी खांसी आती है लेकिन अब वह मुझे परेशान नहीं करती। क्या सूर्य-स्नान जारी रखना अच्छा होगा ?
हां, तुम्हें यह प्रतिदिन करना चाहिये; यह बल देता है और तुम्हारी ऊर्जा को बनाये रखता है ।
जहां तक हो सके तुम्हें खांसी को रोकना चाहिये । संकल्प द्वारा खांसी को वश में किया जा सकता हे: और तुम्हें हमेशा इस संयम को पाने की कोशिश करनी चाहिये, क्योंकि खांसी अनावश्यक रूप से थकाने वाली होती है ।
माताजी, यह खांसी बहुत दुःख दे रही है । इसे वश में करना मुश्किल हो रहा है । जब मैं आपको लिखता हूं तो कम हो जाती है, लकिन कुछ दिनों के बाद फिर लौट आती । माताजी, इसका कारण क्या है ?
सम्भवत: कोई बुरे सुझाव हों जिन्हें तुम्हें दूर भगाना सीखना होगा ।
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(हल्के बुखार के बाद)
माताजी, मुझे लगता है कि मेरे शरीर में गर्मी की शुद्धि की आग से आती है । क्या यह सच है ?
शुद्धि की अग्नि को बुखार लाये बिना शुद्ध करना चाहिये, ओर बीमार पड़े बिना शुद्ध होना बहुत सम्भव हे ।
२८ मार्च, १९३५
एक वृद्ध ओर बहुत ही दुर्बल व्यक्ति की अष्ठीला ( प्रॉस्टेट ग्रन्यि) बढ़ गयी है । चिकित्सक शल्यक्रिया सलाह दे रहें हैं | वह आपका मार्गदर्शन चाहता है ।
बहुत सम्भव है कि अन्त निकट आ रहा है । सब कुछ उसके स्वभाव और संकल्प पर निर्भर है । अगर वह बिना संघर्ष के शान्ति से चले जाना अधिक पसन्द करता है तो उसे शान्त रहने दो और जितना अधिक खींच सके खींचने दो । अगर वह संघर्ष पसन्द करे तो ऑपरेशन होने दो, देखें क्या होता है । हर हालत में मेरे आशीर्वाद उसके साथ होंगे ।
ऑपरेशन के बाद 'क' की मृत्यु के समाचार से मैं कृछ उदास-सा हो गया । वह आपके असाधारण क्षमतावाले कार्यकर्ताओं में से एक था । यह कैसी बात है कि वह आपके प्रभाव और मार्ग- दर्शन के बावजूद गुजर गया ?
ऑपरेशन बिलकुल सफल हुआ था, एक बहुत ही कुशल शल्य-चिकित्सक ने किया था लेकिन ''क'' का हृदय जितना सोचा था उससे कहीं अधिक कमजोर निकला और वह ऑपरेशन के पांच दिन बाद चल बसा । यह एक दुःखद घटना हुई और काम के लिए बड़ी हानि । लेकिन कुछ समय से उसे बहुत कष्ट हो रहा था और वह थक गया था । उसने कई बार शरीर
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परिवर्तन और ज्यादा अच्छा शरीर पाने की इच्छा प्रकट की थी । निश्चय ही जो हुआ है उसके लिए इस इच्छा की जिम्मेदारी थी ।
२२ नवम्बर, १९४५
यह कहना कठिन है कि इन दोनों सम्भावनाओं में से ठीक-ठीक कौन- सी तुम्हारे स्वास्थ्य-लाभ के लिए ज्यादा सहायक होगी । लेकिन सामान्यतया लम्बे समय के बाद शरीर के लिए हवा बदलने के स्थान पर शुरू में ही वैसा कर लेना ज्यादा सहायक रहता है क्योंकि स्वास्थ्य के लिए जीवन और उसके परिवेश में दिलचस्पी न होना सबसे अधिक हानिकर चीज है । कुछ समय के लिए कोई भी नयी चीज दिलचस्पी पैदा कर सकती है-- लेकिन उसका असर कभी स्थायी नहीं होता ।
२१ फरवरी, १९४६
ये परस्पर विरोधी संस्कार बिलकुल स्वाभाविक हैं ।
पार्थिव चेतना स्वाभाविक रूप से खुश होती है जब परिस्थितियां इस तरह जुट जाती हैं कि जिन्हें वह अपनी आवश्यकताएं समझती है उनकी तुष्टि हो । बहरहाल, ये फिर से जीवन में सन्तुलन और विश्वास ले आने में सहायक होती हैं ।
अन्तरात्मा इसमें आत्मा पर पार्थिव तत्त्व की एक और विजय देखती है (क्योंकि हर ऐसी बीमारी जो आन्तरिक उपचार के आगे प्रतिरोध करती है, आत्मा की हार होती है । वह चाहे थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो पर होती हार ही है) अन्तरात्मा न तो कष्ट पा सकती है न दुःखी होती है क्योंकि उसे अपनी शाश्वतता में श्रद्धा होती है और वह इसे जानती है लेकिन कभी-कभी वह जरा उदास हो सकती है ।
१९ जून, १९६०
कृपया माताजी से कहिये कि सारे समय मुझे लगता रहता है
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कि मेरे हाथ-पैरों से मेरा प्राण और ऊर्जा चले जा रहे हैं । मैं उसे रोक नहीं पाता ।
वह शिकायत क्यों करता है ? नयी शक्ति आने के लिए शक्ति का खर्च होना ही चाहिये । मानव शरीर बन्द घड़ा नहीं है जो खर्च करने से खाली हो जाये । मानव शरीर एक वाहिका है जिसमें कुछ आता तभी है जब खर्च हो ।
वह अच्छी तरह खाये, अच्छी तरह सोये, गलत विचारों से बचे और सामान्य रूप से खर्च करे । वह शीघ्र ही स्वस्थ हो जायेगा ।
२० अप्रैल, १९६८
अपनी जीवन-पद्धति को सुधारने से ही तुम अच्छा स्वास्थ्य पाने की आशा कर सकते हो ।
तुम्हारे झगड़े-झंझट चीख-पुकार बेचैनी, घबराहट उत्तेजना लड़ाई-झगड़े के कारण ही ''क'' बीमार है । मैंने शुरू से ही कहा था कि उसे आराम और शान्ति की जरूरत है । यह विशेष रूप से अनिवार्य था लेकिन उसके चारों ओर उल्टा ही वातावरण रहा है-इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि वह बीमार है । वह रोती ओर कांपती है क्योंकि उसकी स्नायुओं पर अधिक भार पड़ रहा है ओर उन पर अधिक भार इसलिए पड़ रहा है क्योंकि तुम सबका अपने ऊपर संयम नहीं है और अपनी जबान पर लगाम नहीं ।
उसके लिए पकाना बहुत अच्छा है लेकिन यह काफी नहीं है, तुम्हें उसे शान्ति और अचञ्चलता भी देनी चाहिये ताकि वह खा सके ।
जब मैं किसी रोग, के साथ सहानुभूति रखता हूं तो मैं स्वयं उसकी बीमारी के लक्षण अनुभव करने लगता हूं ।
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सबसे अच्छा उपाय है सत्य और सामञ्जस्य की दिव्य उपस्थिति को पुकारना ताकि वह अव्यवस्था ओर अस्तव्यस्तता के स्पन्दनों को बदल दे ।
सिर दर्द और सिर के चक्करों से पिण्ड छुड़ाना बहुत कठिन नहीं है । तुम्हारी अवस्था कितनी भी खराब क्यों न हो, ऊपर से प्रकाश को पुकारों । यह अनुभव करने की कोशिश करो कि तुम्हारे सिर के ऊपर से प्रकाश तुम्हारे अन्दर प्रवेश कर रहा है और अपने साथ स्थिरता और शान्ति ला रहा है । अगर तुम गम्भीरता के साथ ऐसा करो तो तुम्हारा सिर दर्द और चक्कर तुरत छू-मन्तर हो जायेंगे ।
अर्बुद हमेशा प्रकृति में किसी कठिनाई के सूचक होते हैं । कुछ कोषाणु शरीर के नियन्त्रण से स्वतन्त्र होने का निश्चय कर लेते हैं । वे शरीर के अन्य भागों के साथ सामञ्जस्य में नहीं रहते और समस्त अनुपात छोड़कर बढ़ना शुरू करते हैं । साधारणत: यह प्रकृति में बहुत अधिक लोभ का लक्षण होता है । वह भौतिक चीजों के लिए लालच हो सकता है या शक्ति अथवा किसी अन्य सूक्ष्म चीज के लिए लोभ हो सकता है ।
ऑपरेशन करके तुम अर्बुद को निकाल सकते हो लेकिन अगर भीतरी प्रकृति वैसी-की-वैसी बनी रहे तो वह किसी और भाग में उभर आयेगा और रोगी ने ऑपरेशन और उसके बाद के प्रभाव से जो कष्ट झेला वह सब व्यर्थ हो जायेगा ।
शरीर के कोषाणु बिना कारण बढ़ने की आदत डाल लेते हैं । यही कैंसर है । अगर तुम कोषाणुओं की चेतना बदल सको और उनकी आदत छुड़ा दो तो कैंसर ठीक हो जायेगा ।
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