CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
Hindi Translation

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The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.

माताजी के वचन - III

The Mother symbol
The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - III Vol. 15 409 pages 2004 Edition
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The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
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भाग २

वार्तालाप


 

३० दिसम्बर, १९५०

 

यह वार्ता माताजी के लेख "पूर्वदृष्टि'' पर आधारित है ।

('श्रीमातृवाणी', खण्ड १२)

 

     ''नियति को पहले से देख सकना ! कितनों ने इसके लिए प्रयास किया है,  कितनी पद्धतियां बनी हैं, भविष्य-दर्शन की कितनी विद्याएं रची गयी हैं, विकसित की गयी हैं और फिर झूठे पांडित्य और अंधविश्वासों के आरोप के साथ नष्ट हो गयी हैं  |  नियति को पहले से जान लेना इतना कठिन क्यों रहा है ?  जब कि यह प्रमाणित हो चुका है कि हर चीज अनिवार्य रूप से पुर्वनिर्दिष्ट है तो क्या कारण कि हम नियति को निश्चित के साथ जानने में सफल नहीं होते ? ''

 

पूर्वदृष्टि का मतलब है पहले से देख लेना; पर क्या तुम मुझे बता सकते हो कि कल क्या होने वाला है  ? मुझे नहीं लगता कि तुम बता सकते हो । हां, तुम यह तो कह ही सकते हो कि हम खायेंगे, सोयेंगे आदि सामान्य चीजें लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि कोई अप्रत्याशित चीज घटेगी । क्यों ? किसी ने कहा है : ''इसके लिए विशेष आंख होनी चाहिये ।'' आकृतियों के बिना पूर्वदृष्टि सम्भव है : आकृतियों के बिना एक मानसिक ज्ञान भी होता है । सन्त लोग प्राय: पूर्वदृष्टि वाले होते हैं, हमेशा नहीं, पर बहुधा । मुझे नहीं लगता कि तुम तीसरी आख का मतलब साइक्लोप्स जैसी माथे के बीच में तीसरी आंख से ले रहे हो । नहीं, इसका मतलब है आन्तरिक आंख जो किसी और ही लोक की होती है । इस आख से आदमी साधारणत: भौतिक चीजें नहीं देखता और अगर देखता भी है तो बहुत विशेष कोण से । ऐसे लोग हैं जो यह देख सकते हैं कि बहुत अधिक दूरी पर या अन्य देशों में क्या हो रहा है ।

 

       क्या ये चीजें चैत्य दृष्टि  द्वारा देखी जाती हैं ?

 

नहीं, साधारणत: चैत्य दृष्टि भौतिक चीजों में नहीं पड़ती ।

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      तो क्या मानसिक होती है ?

 

हो सकता है, लेकिन तब तुम्हें प्राप्त होते हैं उन लोगों के विचार जो उस जगह हैं जिस जगह को तुम देख रहे हो क्योंकि ये लोग, वहां जो कुछ हो रहा है उस पर अपने विचार केन्द्रित कर रहे होते हैं ।

 

     सामान्यत: ''नियतिवाद'' का अर्थ लिया जाता है कारण-कार्य की शृंखला । अगर तुम यह करो तो वह होगा । उदाहरण के लिए, अगर तुम अमुक प्रकार का भोजन खाओ तो तुम बीमार हो जाओगे, अगर तुम विष निगल जाओ तो मर जाओगे, आदि-आदि । लेकिन बहुधा ऐसा होता है कि अमुक नियतिवादों के परिणामों को दूसरे नियतिवाद रद्द कर देते हैं ।

 

     ''इसका समाधान भी योग में पाया जाता है । योग साधना द्वारा तुम न केवल नियति को देख सकते हो बल्कि उसमें हेर-फेर भी कर सकते हो और उसे लगभग पूरी तरह बदल भी  सकते हो  I सबसे पहले, योग हमें यह सिखाता है कि हम एक अकेली सत्ता नहीं हैं, एक सीधी-सादी सत्ता नहीं हैं जिसकी केवल एक सीधी और तर्क- संगत नियति है I बल्कि हमें स्वीकार करना होगा कि अधिकतर लोगों की नियति जटिल, यहां तक कि अंड- बर्ड होती है I क्या यह जटिलता ही हमें,  अप्रत्याशित और अनिश्चित हांने का भाव नहीं देती जिसके परिणामस्वरूप हम कहते हैं कि इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता I"

 

ऐसे लोग हैं जिनकी नियति बहुत जटिल होती है जिसे देखकर लगता है कि उनके साथ जो कुछ घटता है वह अप्रत्याशित होता है और जब तक तुम किसी असाधारण दृष्टि से न ''देखो'' , उसे पहले से नहीं देखा जा सकता ।

 

      ''समस्या को हल करने के लिए, शुरू मे ही तम्हें यह जानना चाहिये कि सभी जीवित प्राणी और विशेषकर मनुष्य बहुत सारी सत्ताओं से मिलकर बने होते हैं I ये सत्ताएं एक-दुसरे  के पास आती हैं, एक

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      दुसरे में प्रवेशकरती है,  कभी आपस में एक-दुसरे  को इस तरह व्यवस्थित कर लेती हैं कि एक की पूरक बनें और कभी एक- दुसरे के विपरीत एक- का निषेध करती I ''

 

   ''सत्ता'' एक व्यक्तित्व या विलग सत्ता है । हममें से हर एक के अन्दर ऐसे बहुत-से ''व्यक्तित्व'' होते हैं । अगर ये व्यक्तित्व मेल खायें, एक-दूसरे के पूरक हों तो इनसे मनुष्य, एक समृद्ध और जटिल ''व्यक्ति'' बनता है । लेकिन सामान्यत: ऐसा होता नहीं । ये व्यक्तित्व एक-दूसरे के साथ मेल नहीं खाते । उदाहरण के लिए उनमें से एक कुछ प्रगति करना, अधिकाधिक पूर्ण बनना, चीजों का अधिक गहरा ज्ञान पाना, अधिक-से- अधिक चरितार्थ करना और सत्ता की पूर्णता की ओर बढ़ना चाहता है और हो सकता है कि दूसरा, जहां तक हो सके , केवल मौज-मजा करना चाहता है । एक दिन वह यह करेगा, दूसरे दिन कुछ और इत्यादि । अगर व्यक्तित्व मेल न खाये तो इस आदमी का जीवन असंगत होगा और यह असामान्य नहीं है : वस्तुत: ऐसे लोग बहुत-से हैं ।

 

     '' इनमें से हर एक सत्ता या सत्ता की अपने जगत् से सम्बन्ध रखती है और अपने साथ अपना भाग्य अपनी नियति लिये रहती है । इन सभी नियतियों का मेल व्यक्ति की नियति बनाता है और यह कभी-कभी बहुत असंगत होती है I ''

 

आदमी में बहुत-से व्यक्तित्व हो सकते हैं--उदाहरण के लिए दस या बीस और हर एक की अपनी नियति होती है । भौतिक जगत् में व्यक्तित्व का अर्थ है मानव शरीर । तो मानव शरीर में बहुत-सी विलग सत्ताएं होती हैं जिनमें से हर एक की अपनी नियति होती है । तब फिर क्या होता है ? ये सत्ताएं एक-दूसरे के साथ ठीक तरह नहीं चल पातीं और रगड़-झगड़ और आन्तरिक अव्यवस्था पैदा करती हैं । सबसे बलवान् का हाथ ऊंचा रहता है । वह और सब पर छा ही नहीं जाती बल्कि उन्हें दबा देती है और विद्रोह करने से रोकती है । तो अन्त में अभागी विलग सत्ताएं, जिन्हें दबा दिया जाता है, जाकर सो जाती हैं । वे अपना समय देखती रहती हैं और

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जब उनका समय आता है तो झट उछलकर ऊपर आ जाती हैं और सब कुछ उलट-पलट कर देती हैं । अगर ऐसा जल्दी-जल्दी हो तो उस व्यक्ति का जीवन बहुत अव्यवस्थित हो जाता है । वह आज एक चीज हाथ में लेगा और कल कोई और । इसी तरह चलता रहेगा ।

 

     मेरा ख्याल है कि यह कहना सच नहीं है कि जिसमें आन्तरिक जटिलता नहीं है वह सामञ्जस्यपूर्ण है । जिन लोगों के अन्दर इस तरह का भ्रान्तिमूलक सामञ्जस्य होता है वे भौतिक जीवन में बहुत गहरे डूबे होते हैं, जरा-सी भी अप्रिय चीज उन्हें पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर देती है क्योंकि उनके अन्दर और कुछ होता ही नहीं । नहीं, सचमुच सामञ्जस्य वाले व्यक्तित्व का अर्थ है आन्तरिक विलग सत्ताओं की सचेतन व्यवस्था; यह व्यवस्था सहज रूप से जन्म से पहले भी हो सकती है पर यह विरल है । व्यवस्था बाद में साधना द्वारा, उचित शिक्षा द्वारा प्राप्त होती है, लेकिन इसमें सफल होने के लिए तुम्हें सचेतन रूप से चैत्य पुरुष को केन्द्र बनाकर उसके चारों ओर विविध विलग सत्ताओं को व्यवस्थित करना और उनमें सामञ्जस्य लाना चाहिये । सच्चा सामञ्जस्य और आन्तरिक व्यवस्था ऐसे ही सतत प्रयास का परिणाम होती हैं ।

 

      "लकिन इन सत्ताओं की व्यवस्था और सम्बन्ध को व्यक्तिगत साधना ओर संकल्प के प्रयास द्वारा बदला जा सकता है चूंकि  उनकी विभिन्न नियतियां एक-दुसरे पर चेतना की एकाग्रता के अनुसार अलग- अलग क्रिया करती हैं और उनके संयोजन प्राय: हमेशा ही परिवर्तनशील हाते है उन्हें पहले से नहीं देखा जा सकता ।''

 

गणित में हम कभी-कभी बहुत-सी संख्याएं लेकर उनके सभी सम्भव संयोजन देखने की कोशिश करते हैं । हमें एकदम पता लग जाता है कि यह असम्भव है क्योंकि ऐसी बहुत-सी संख्याएं हैं जिन्हें व्यक्त नहीं किया जा सकता । इसी तरह तुम्हारे अन्दर अगर बहुत सारी नियतियां एक साथ आयें और विभिन्न संयोजनों में हों, यह इस पर निर्भर होता है कि उस समय सत्ता का कौन-सा भाग प्रधान होता है, उस समय अगर, तुम यह देखने की कोशिश करो कि क्या होने वाला है तो निश्चय ही यह बहुत अधिक कठिन होता

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है । चेतना की स्थितियों के बारे में भी यही बात है । एक नियति एक व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करती है । वे सब नियतियां एक-दूसरे पर क्रिया करती हैं और जो चीजें हो सकती हैं उनकी संख्या भयावह है । तो तुम उसे पहले से कैसे देख लोगे ? विश्व के '' विधान'' हमेशा स्वतन्त्र रूप से काम करते हैं और यही विश्व की संरचना का ''रहस्य'' है ।

 

      ''तो जीवन की कला इसमें होनी चाहिये कि आदमी अपनी उच्चतम चेतना में रहे और जीवन और कर्म में अपनी उच्चतम नियति को अन्य नितियां पर अधिकार करने दे ताकि भूल-चुक  होने के डर के बिना कह सके :  हमेशा अपनी चेतना के शिखर पर रहो और तुम्हारे साथ हमेशा वही होगा जो अच्छे-से- अच्छा होगा I लकिन यह पराकाष्ठा है जहां तक पहुंचना आसान नहीं है I अगर इस आदर्श अवस्था को पाना सम्भव न हो तो व्यक्ति कम-से-कम जब संकट में या बहुत नाजुक स्थिति में हो तो अभीप्सा, प्रार्थना और भगवान् के संकल्प के प्रति विश्वासपूर्ण समर्पण द्वारा अपनी उच्चतम नियति को बुला सकता है । तब, उसके आह्वान की सचाई के अनुपात में यह उच्चतर नियति सत्ता की साधारण नियति में और जहां तक उसका व्यक्तिगत सम्बन्ध है घटना-क्रम में अनुकूल रूप से हस्तक्षेप करती है । इस प्रकार की घटनाएं बाहरी चेतना को चमत्कार या भागवत हस्तक्षेप के रूप में दिखायी देती हैं I ''

 

मैं तुम्हें एक उदाहरण सुनाती हूं कि कैसे चेतना, उच्चतर चेतना हस्तक्षेप करती है ।

 

      एक आदमी दफ्तर जाने के लिए घर से निकलता है । वह कुछ दूर जाता है । अचानक उसे ख्याल आता है कि वह कुछ चीज भूल आया है । वह उस चीज को लाने के लिए पीछे को मुड़ता है और ठीक उसी समय उस जगह, जहां वह मुड़े बिना जा पहुंचता, वहां एक सीसे का पाइप आ गिरता है । इस आदमी की चेतना में किसी चीज ने उसे वापिस जाने के लिए कहकर उसकी जान बचा ली । जब हम कहते हैं कि चेतना का हस्तक्षेप नियति को बदल सकता है तो इसका यही मतलब होता है । इस

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मनुष्य की दो नियतियां थीं--शायद औरों के अतिरिक्त--एक चाहती थी कि वह मर जाये और दूसरी चाहती थी कि वह जीवित रहे ।

 

      क्या इसे "संयोग'' नहीं कह सकते ?

 

नहीं, क्योंकि संयोग प्राय: बिल्कूल असंगत चीज है, कोई ऐसी चीज जो बिना कारण होती है । अगर तुम यह मानते हो कि जीवन असंगत चीज है तो तुम्हें अभी बहुत कुछ सीखना है । इसके विपरीत वह बिलकुल सुसंगत है । हर छोटी-से-छोटी चीज भी सुनिश्चित है और अगर किसी चीज से तुम्हें ऐसा लगता है कि वह ''संयोग'' है तो इसका कारण यह है कि तुम नियतियों के बारे में कुछ नहीं जानते । वे तुम्हारी पहुंच के एकदम परे हैं क्योंकि ऐसे असंख्य विधान हैं जो आपस में अन्दर-ही- अन्दर बुने हुए हैं और तुम उनके बारे में कुछ नहीं जानते । तो अगर कोई चीज इन नियमों के अनुसार होती है तो तुम उसे  "संयोग'' या ''चमत्कार'' कहते हो ।

 

     पवित्र ने बतलाया है कि गणित में यदि बीच में आने वाले तत्त्वों की संख्या बहुत अधिक है और अगर वे स्वतन्त्र रूप से काम करते हैं तो परिणाम ''संयोग'' प्रतीत होता है ।

 

     मैंने अभी समझाया है कि यह केवल एक ' प्रतीति'' है ।

 

    जो लोग प्रगति करने और चेतना में विकसित होने के लिए कोशिश करते हैं वे अनुभव करते हैं कि जिस चीज को कभी वे मुसीबत या आफत मानते थे वह पन्द्रह वर्ष बाद उन्हें आशीर्वाद, भागवत कृपा का प्रभाव, परम कल्याण प्रतीत होता है । उच्चतर दृष्टिकोण से, यह एकदम स्पष्ट है कि अगर तुम अपने साधारण जीवन में उच्चतम चेतना को उतार लाओ तो, वह तुम्हारे जीवन में परम मंगलमयी होगी ।

 

     जिन लोगों ने थोड़ी प्रगति की है उन्हें हमेशा यह अनुभूति हुई है । वे स्पष्ट रूप से यह देखते हैं कि वह तथाकथित  "मुसीबत'' वस्तुत: उनके ऊपर उठने का पहला चरण था, एक ऐसा आरोहण था जो उस आफत के बिना सम्भव न होता । अगर किसी के अन्दर अन्तर्दृष्टि हो और वह अपनी इच्छा से उच्चतर चेतना में चढ़ सके तो वह देखेगा कि जब वह अपनी उच्चतम चेतना के सम्पर्क में होता है तो उसके लिए अच्छी-से-

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अच्छी चीज घटती है ।

 

     लेकिन यह समझ सकने के लिए दो शर्तें हैं । तुम्हें प्रगति करने के लिए प्रयास करना होगा और पूरी तरह सच्चे होना होगा, क्योंकि अगर तुम सच्चे नहीं होओगे तो तुम्हें अपने जीवन में अन्तदृष्टि कभी प्राप्त न होगी । तुम्हें अपने- आपको देख सकना और यह कह सकना चाहिये ''मैं कितना छोटा हूं ।''

 

      अगर कोई चीज अपरिहार्य रूप से निश्चित है तो उसे बदला कैसे जा सकता है ?

 

मैं तुम्हें एक सरल-सा उदाहरण दूंगी--लेकिन यह चेतना की किसी भी अवस्था में हो सकता है ।

 

     एक पत्थर गिरता है । अगर वह अपनी नियति पूरी करे तो वह जमीन पर आ गिरेगा । है न ? लेकिन तुम वहां हो और तुम्हारे अन्दर प्राणिक या मानसिक कामना जगी--एक या दूसरी--और तुम पत्थर को हाथ में पकड़ लेते हो । तुमने पत्थर की नियति बदल दी । एक पत्ता गिरता है, वह अपनी सामान्य नियति के अनुसार चले तो धरती पर आ रहेगा । तुम्हारे प्राण में कामना उठी, तुम पत्ते को अपने हाथ में ले लेते हो, तुमने पत्ते की नियति बदल दी । यह चीज विश्व में करोड़ों बार होती है और चूंकि यह बहुत सामान्य इसलिए कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता ।

 

    लेकिन कल्पना करो कि तुम्हारी चेतना का स्तर बहुत ऊंचा है । अगर तुम यहां की नियति में अभीप्सा, आवेग, प्रार्थना द्वारा उच्चतर चेतना ला सको, यानी अपनी उच्चतर चेतना तक पहुंच सको और उसे अपनी भौतिक नियति तक उतार लाओ तो हर चीज तुरन्त बदल जायेगी । लेकिन चूंकि तुम देख या समझ नहीं पाते कि क्या हो रहा है इसलिए तुम उसे संयोग या चमत्कार कह देते हो ।

 

     हर एक नियति भौतिक नियति में सक्रिय नहीं होती और अगर तुम इस भौतिक नियति को बदलना चाहो तो तुम्हें ऊपर से एक और नियति को नीचे उतार सकना चाहिये । इस तरह उसमें कोई नयी चीज प्रवेश करेगी--उच्चतर चेतना के ये  "अवतरण'' हमेशा होते रहते हैं लेकिन

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चूंकि हम उन्हें समझ नहीं पाते, आने वाली ''कोई नयी चीज''  साधारण मनुष्यों द्वारा ''चमत्कार'' में बदल दी जाती है ।

 

     हम जड़- भौतिक जगत् में अतिमानसिक शक्ति और चेतना को उतार कर ठीक यही चीज करना चाहते हैं । पहले-पहल यह सीधे नहीं, प्रसार और विस्तार द्वारा काम करती है । उसका कार्य लगभग प्रच्छन्न रहता है । वह जैसे-जैसे भौतिक जगत् में उतरती है उसका कार्य अधिकाधिक प्रच्छन्न और विकृत होता जाता है, यहां तक कि लगभग अदृश्य हो जाता है । अगर वह बिना किसी विकार और छिपाव के सीधा कार्य कर सकती तो वह हर चीज को बिलकुल अप्रत्याशित रूप से बदल देती ।

 

     मैं आशा करती हूं कि एक दिन तुम्हें इसका ठोस उदाहरण मिलेगा ।

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६ जनवरी, १९५१

 

( यह वार्ता माताजी के लेख ''रूपान्तर'' और ''बालक को हमेशा क्या याद रखना चाहिये'' पर आधारित है)

 

     ''हम सर्वांगीण रूपान्तर  चाहते है, शरीर के साथ- साथ उसकी सभी क्रियाओं का रूपान्तर I लकिन किसी भी दूसरी चीज को हाथ में लेने से अनिवार्य कदम जिसे करना होगा, वह है चेतना का रूपान्तर... यह तो बस एक आरम्भ है ; बाहरी चेतना के लिए, बाहरी सक्रिय सत्ता के विभिन्न क्षेत्र और विभिन्न भाग आन्तरिक रूपान्तर के परिणामस्वरूप क्रमश: धीरे--धीरे रूपान्तरित होते हैं  ।''

 

मैं सर्वांगीण रूपान्तर और चेतना के रूपान्तर, जिसके बारे में मैंने पहले कहा था, इन दोनों में भेद क्यों कर रही हूं ? चेतना और सत्ता के दूसरे भागों में क्या सम्बन्ध है ? ये दूसरे भाग कौन-से हैं ?

 

     चेतना का यह रूपान्तर ऐसी चीज है जो उन सभी को प्राप्त होती है जिन्होंने योग-साधना की हो और जो भागवत उपस्थिति या अपनी सत्ता के परम सत्य का अनुभव पा चुके हों । मैं यह नहीं कहती कि ''बहुतों ने''  इसे चरितार्थ किया है, लेकिन फिर भी ऐसे काफी हैं । इस अनुभूति और सर्वांगीण रूपान्तर में अन्तर क्या है ?

 

     सर्वांगीण रूपान्तर में बाहरी प्रकृति और आन्तरिक चेतना, दोनों का रूपान्तर होता है । चरित्र, आदतों इत्यादि के साथ-साथ विचार और चीजों के बारे में मानसिक दृष्टिकोण भी पूरी तरह से बदल जाता है ।

 

हां, लेकिन कोई ऐसी चीज भी है जिसमें परिवर्तन नहीं होता जब तक कि तुम खास ध्यान न दो और अपने प्रयास में डटे न रहो । वह क्या है ? शरीर की चेतना । शरीर की चेतना क्या है ? प्राणिक चेतना, निस्सन्देह--समग्र रूप में भौतिक चेतना । लेकिन फिर, इस समग्र भौतिक चेतना में, भौतिक मन है--ऐसा मन जो हर सामान्य वस्तु में व्यस्त रहता है और

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अपने चारों तरफ की हर वस्तु को प्रत्युत्तर देता है । इसमें प्राणिक चेतना भी होती है जो संवेदनों, आवेगों, उत्साहों और कामनाओं की अभिज्ञता है, अन्त में है स्वयं भौतिक चेतना, जड़- भौतिक चेतना, शरीर की चेतना, और यही है जिसका अभी तक कभी पूरी तरह से रूपान्तर नहीं हुआ है । शरीर की कुल मिलाकर व्यापक चेतना का रूपान्तर तो हो चुका है, यानी तुम उन विचारों, उन आदतों की दासता से छुटकारा पा सकते हो जिन्हें तुम अब आगे अनिवार्य नहीं समझते । यह परिवर्तन हो सकता है,  इसका परिवर्तन हुआ है । लेकिन जिसका परिवर्तन होना बाकी है वह है कोषाणुओं की चेतना ।

 

     कोषाणुओं में एक चेतना होती है, इसे ही हम ''शरीर चेतना'' कहते हैं । और यह पूरी तरह शरीर से बंधी होती है । इस चेतना को बदलने में बहुत कठिनाई होती है, क्योंकि यह सामूहिक सुझाव के प्रभाव के अधीन होती है जो पूरी तरह से रूपान्तर के विरुद्ध हे । अत: तुम्हें इस सामूहिक सुझाव के साथ संघर्ष करना पड़ता है, न केवल वर्तमान के सामूहिक सुझाव के साथ बल्कि उस सामूहिक सुझाव के साथ भी जो समूची पार्थिव चेतना से आता है, पार्थिव मानव चेतना, जो मानव के एकदम प्रारम्भिक रूप के साथ-साथ आयी है । इससे पहले कि कोषाणु सहज रूप से परम सत्य के प्रति, जड़- भौतिक की शाश्वतता के प्रति सचेतन हों उस पर विजय पानी होगी ।

 

     निस्सन्देह, अभी तक, जिन्होंने इस सचेतन रूपान्तर को पाया है, जो अपने अन्दर, अपनी सत्ता की गहराइयों में, शाश्वत और अनन्त जीवन के प्रति सचेत हो गये हैं वे इस चेतना को बनाये रखने के लिए, निरन्तर अपनी आन्तरिक अनुभूति से सम्बन्ध जोड़ते हैं, अपने आन्तरिक निदिध्यासन में लौटते हैं, एक तरह से लगभग सतत ध्यान में निवास करते हैं । और जब वे ध्यान से निकलते हैं, तो उनकी बाहरी प्रकृति पहले जैसी ही होती है, और उनके सोचने और प्रतिक्रिया करने के तरीके में कोई विशेष अन्तर नहीं आता--बशर्ते कि वे काम करना पूरी तरह से छोड़ दें । लेकिन इस स्थिति में आन्तरिक सिद्धि, चेतना का यह रूपान्तर केवल उसी व्यक्ति के लिए उपयोगी होता है जिसने उसे प्राप्त किया है, तो भी, वह जड़- भौतिक की अवस्था या पार्थिव जीवन को जरा भी नहीं बदलता ।

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      इस रूपान्तर की सफलता के लिए, मनुष्यों को, यहां तक कि सभी जीवित प्राणियों को अपने- अपने जड़-भौतिक परिवेश के साथ-साथ, रूपान्तरित होना होगा । अन्यथा चीजें जैसी हैं वैसी ही रहेंगी : एक व्यक्तिगत अनुभव पार्थिव जीवन को नहीं बदल सकता । रूपान्तर के पुराने विचारों में--यानी चैत्य सत्ता और आन्तरिक जीवन के साथ सचेतन होने--और जिस रूपान्तर की हम कल्पना करते और जिसके बारे में कहते हैं, उनमें यही मौलिक भेद है । केवल एक व्यक्ति या व्यक्तियों के एक समूह को या सभी व्यक्तियों को भी नहीं बल्कि जीवन को, न्यूनाधिक रूप से विकसित इस जड़- भौतिक जीवन की समस्त चेतना को, रूपान्तरित होना होगा । इस तरह के रूपान्तर के बिना संसार में वही कष्ट, वही विपत्तियां, वही नृशंसताएं बनी रहेंगी । कुछ गिने-चुने व्यक्ति अपने चैत्य-विकास द्वारा इससे छुटकारा पा लेंगे लेकिन सामान्य जनसमूह कष्ट की उसी अवस्था में रहेगा ।

 

     अगर केवल आन्तरिक चेतना का ही परिवर्तन हो, तो बाहरी सत्ता में कुछ अशुद्धियां  रह जायेगी क्या ?

 

हां, निश्चय ही । हमारे योग और पुरानी योग-साधनाओं में, जो केवल आन्तरिक चेतना से ही सम्बन्ध रखती थीं, यही मौलिक भेद है । पुराने विचार थे--और कुछ लोग भगवद्‌गीता की भी इसी तरह से व्याख्या करते हैं--कि धुएं के बिना अग्नि नहीं होती, जीवन में अज्ञान के बिना कोई जीवन नहीं होता । यह सामान्य अनुभूति है, लेकिन यह हमारा विचार नहीं है, है न ?

 

     हम अनुभूति से जानते हैं कि अगर हम नीचे अवचेतना में उतरें, भौतिक चेतना से नीचे, अवचेतना में और उससे भी अधिक नीचे निश्चेतना में उतरें तो हम अपने अन्दर इस कुलागत रोग का स्रोत पा सकते हैं जो हमारी प्रारम्भिक शिक्षा और जिस परिवेश में हम रहते थे उससे आता है । यह व्यक्ति को, उसकी बाहरी प्रकृति को एक विशिष्टता प्रदान करती है, और सामान्यत: ऐसा माना जाता है कि हम इसी तरह जन्मे हैं और इसी तरह रहेंगे । लेकिन नीचे अवचेतना में, निश्चेतना में जाने पर तुम इस अवधारणा के स्रोत को ढूंढ सकते हो, और जो कुछ किया जा चुका है उसे

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मिटा सकते हो, सचेतन और सोद्देश्य क्रिया द्वारा साधारण प्रकृति की प्रवृत्तियों और प्रतिक्रियाओं को परिवर्तित कर सकते हो और इस तरह अपने चरित्र का सचमुच रूपान्तर कर सकते हो । यह सर्वसुलभ प्राप्ति नहीं है, लेकिन ऐसा किया जा चुका है । इस तरह तुम निश्चित रूप से कह सकते हो कि न केवल यह किया जा सकता है, बल्कि यह किया जा चुका है । सर्वांगीण रूपान्तर की ओर यह पहला चरण है, लेकिन इसके बाद कोषाणुओं का रूपान्तर रह जाता है जिसके बारे में मैंने पहले कहा था ।

 

      किसी बुलेटिन में श्रीअरविन्द का एक लेख है जिसमें उन विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया गया है जिनके द्वारा समूची भौतिक सत्ता का परिवर्तन किया जा सकता है I और यही चीज है जो अब तक कभी नहीं की गयी ।

 

      क्या व्यक्ति के अन्दर की निश्चेतना उसकी अपनी होती है या सारी पृथ्वी की ?

 

निश्चेतना में व्यष्टि रूप नहीं है और जब तुम अपने अन्दर नीचे निश्चेतना में जाते हो तो वह जड़- भौतिक की निश्चेतना होती है । हम यह नहीं कह सकते कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निश्चेतना होती है, क्योंकि तब तो वहां पहले से ही व्यष्टिभाव का आरम्भ हो चुका होगा, और जब तुम निश्चेतना में उतरते हो, तो शायद वह वैश्व नहीं तो कम-से-कम पार्थिव निश्चेतना तो होती ही है ।

 

     वह प्रकाश, वह चेतना जो निश्चेतना में, उसे रूपान्तरित करने के लिए उतरती है, आवश्यक रूप से ऐसी चेतना होनी चाहिये जो उसके इतनी पास हो कि उसे छू सके । किसी ऐसे प्रकाश की कल्पना करना सम्भव नहीं है--उदाहरण के लिए अतिमानसिक प्रकाश की--जो निश्चेतना को व्यष्टिभाव दे सके । लेकिन एक सचेतन, व्यष्टिगत सत्ता के द्वारा इस प्रकाश को नीचे निश्चेतना में लाकर उसे धीरे-धीरे सचेतन बनाया जा सकता है ।

 

       १ श्री-अरविन्द शारीरिक शिक्षा-विभाग की पत्रिका ।

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     सबसे पहले, अवचेतना को सचेतन होना होगा, और सचमुच सर्वांगीण रूपान्तर की मुख्य कठिनाई यही है कि चीजें निरन्तर अवचेतना से ऊपर उठती रहती हैं । तुम सोचते हो कि तुमने अमुक वृत्ति को वश में कर लिया है--उदाहरण के लिए, क्रोध को । तुम अपने क्रोध को वश में करने का भरसक प्रयास करते हो और एक हद तक सफल भी हो जाते हो, पर फिर वह किसी ऐसे कारण से अचानक ऊपर उठ आता है जिसे तुम जानते तक नहीं, मानों तुमने उसके लिए एकदम कुछ न किया हो, और तुम्हें सब कुछ फिर से शुरू करना पड़ता है । अगर वह सत्ता का रूपान्तरित भाग होता जो अपनी पुरानी आदतों की ओर चला जाता तो यह बहुत ही दुःखद स्थिति होती, लेकिन बात ऐसी नहीं है । यह जड़- भौतिक भाग, जड़- भौतिक जीवन है जिसे हम, कह सकते हैं कि, अवचेतन जीवन पोसता और सहारा देता है । और यह अवचेतना कुछ लोगों के चारों तरफ व्यष्टिरूप लेना शुरू करती है; इसका एक प्रकार की अवचेतना के साथ सादृश्य होता है जो हमारी अपनी अवचेतना जैसी होती है । और यही वह जगह है जहां जो चीजें तुमने दबा दी थीं या अपनी प्रकृति से निकाल बाहर कर दी थीं, चली जाती हैं--और एक दिन वे फिर से उठ खड़ी होती हैं । लेकिन अगर तुम अवचेतना में प्रकाश ला सको और उसे सचेतन बना सको तो ऐसा फिर न होगा ।

 

     बहुधा ऐसा अनुभव होता है कि हम किसी विकार या गलत वृत्ति के विरुद्ध न्यूनाधिक सफलता के साथ सघंर्ष कर रहे हैं,  लकिन ठीक उस समय जब हम विजय की आशा छोड़ देते हैं, तो ऐसा लगता है मानो उसे बाहर से हटा गया है । ऐसा क्यों होता है ?

 

इसके दो मुख्य कारण हैं । ऐसी अवस्था में तुम अचानक ग्रहणशील बन सकते हो, और ग्रहणशीलता की इस स्थिति में तुम उस सहायता को पा लेते हो जो विकार को दूर करने के लिए आवश्यक होती है और इस तरह सहायता प्रभावशाली हो जाती है । दूसरा कारण यह है कि, धैर्य और अध्यवसाय के साथ कोशिश करते-करते, -शायद अजाने ही-तुम अवचेतना में कठिनाई के स्रोत को पा लेते हो । एक बार यह हो जाये तो तुम अपने

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अन्दर जिसे रूपान्तरित करना चाहते थे उसका रूपान्तर करना आसान हो जाता है । लेकिन तुम्हें ऐसा लग सकता है कि यह रूपान्तर ''बाहर'' से आया है, क्योंकि जो कुछ हो रहा था उसका तुम्हें भान नहीं था । यह बाहर से नहीं आता, यह तुम्हारी सक्रिय चेतना के बाहर होता है, और तुम्हें केवल अपनी क्रिया के ''परिणाम'' का भान होता है । यह इन दोनों में से कोई एक बात हो सकती है या फिर दोनों ही हो सकती हैं ।

 

 

''बालक को हमेशा क्या याद रखना चाहिये ?

 

      ''पूर्ण निष्कपटता की आवश्यकता I

      '' परम सत्य की अन्तिम विजय की निश्चिति I

      ''चरितार्थ करने की इच्छा के साथ निरन्तर प्रगति की सम्भावना ।''

 

मैं पूर्ण निष्कपटता पर जोर क्यों देती हूं ? शायद छोटे बच्चे निष्कपटता का अर्थ न जानते हों लेकिन बड़ों को निश्चित रूप से जानना चाहिये ! तुम सभी बचपन में से गुजर चुके हो और शायद तुम्हें याद हो जब तुम छोटे थे तो तुम्हें क्या सिखाया गया था, क्या बताया गया था । प्राय: हमेशा, मां-बाप अपने बच्चों से कहते हैं, ''तुम्हें झूठ नहीं बोलना चाहिये, झूठ बोलना बहुत बुरा है । '' लेकिन दुर्भाग्य यह कि वे स्वयं बच्चों की उपस्थिति में झूठ बोलते हैं और फिर बच्चे आश्चर्य करते हैं कि वे उनसे ऐसी चीजें क्यों करवाना चाहते हैं जो वे स्वयं नहीं करते ?

 

      लेकिन, इसके अलावा, मैं इस बात पर इतना जोर क्यों देती हूं कि बच्चों को बहुत ही छोटी उम्र से यह बताना चाहिये कि सच्चा और निष्कपट होना एकदम अनिवार्य है ? मैं उनकी बात नहीं कर रही जो यहीं बड़े हुए हैं, बल्कि उन्हें सम्बोधित कर रही हूं जो सामान्य परिवार में, सामान्य विचारों के साथ पले हैं । बच्चों को बहुधा यह सिखाया जाता है कि किस तरह दूसरों को नीचा दिखायें या दूसरों की आंखों में अच्छा दीखने के लिए किस तरह का स्वांग करें । कुछ मां-बाप बच्चों को डर से वश में

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रखने की कोशिश करते हैं । और यह शिक्षा का सबसे बुरा सम्भव तरीका है, क्योंकि यह झूठ, धोखा, कपट और इस तरह की बाकी चीजों को उकसाता है । लेकिन अगर तुम बच्चों को बार-बार कुछ इस तरह की चीजें समझाओ : अगर तुम पूरी तरह से सच्चे और निष्कपट नहीं होते, केवल दूसरों के साथ ही नहीं बल्कि अपने साथ भी, अगर तुम कभी भी अपनी अपूर्णताओं, अपनी असफलताओं को छिपाने की कोशिश करते हो, तो तुम कभी कोई प्रगति नहीं करोगे, तुम जीवन- भर कोई प्रगति किये बिना हमेशा जैसे हो वैसे ही बने रहोगे । इसलिए, अगर तुम केवल इस प्रारम्भिक अचेतन अवस्था से विकसनशील चेतना में उठना चाहते हो तो उसके लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज, एकमात्र महत्त्वपूर्ण चीज है निष्कपटता । अगर तुमने कोई ऐसा काम किया है जो तुम्हें नहीं करना चाहिये था, तो तुम्हें स्वयं अपने आगे उसे स्वीकार करना चाहिये; अगर तुम्हारे अन्दर कोई असराहनीय उचंग उठी हो तो तुम्हें उसकी ओर सीधा देख कर अपने- आप से कहना चाहिये, '' यह अच्छा नहीं था'', '' यह घृणास्पद था'' या यहां तक कि ''यह धूर्ततापूर्ण था '' ।

 

      और यह मत सोचो कि कुछ लोग हैं जिन पर यह नियम लागू नहीं होता, क्योंकि तुम भौतिक जगत् में भौतिक प्रकृति में हिस्सा लिये बिना नहीं जी सकते, और भौतिक जगत् मूल रूप में मिश्रण है । तुम देखोगे कि जब तुम पूरी तरह से सच्चे और निष्कपट बन जाओगे तो तुम्हारे अन्दर कुछ भी ऐसा नहीं है जो एकदम अमिश्रित हो । लेकिन केवल तभी जब तुम अपने- आपको अपनी चेतना के उच्चतम प्रकाश में आमने-सामने देख सको, तुम अपनी प्रकृति से जो कुछ निकालना चाहोगे वह सब गायब हो जायेगा । पूर्ण निष्कपटता को पाने की चेष्टा किये बिना, वह विकार, वह छोटी-सी छाया एक कोने में दुबकी रहती है और बाहर आने का अवसर ढूंढ़ती है ।

 

     मैं प्राण की बात नहीं कर रही जो पाखण्डी है । मैं केवल मन की बात कर रही हूं । यदि तुम्हारे अन्दर छोटी-सी अप्रिय संवेदना, जरा-सी व्याकुलता हो तो फिर देखो मन कितनी जल्दी तुम्हें अनुकूल सफाई दे देगा ! वह दोष को परिस्थितियों के या किसी और के मत्थे मढ़ देता है, वह कहता है कि तुमने जो किया वह ठीक था और तुम उसके लिए जिम्मेवार नहीं हो,

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इत्यादि । अगर तुम अपने अन्दर भली- भांति देखो तो तुम देखोगे कि ऐसा ही होता है और तुम इसे बहुत विनोदपूर्ण भी पाओगे ! अगर बालक बहुत छोटी उम्र से ही इस तरह सतर्कता के साथ अपने- आपको परखना शुरू कर दे, ईमानदारी के साथ अपना निरीक्षण करे जिससे वह न तो अपने-आपको धोखा दे न ही दूसरों को धोखा दे, तो यह उसकी आदत बन जायेगी और वह बाद के बहुत सारे संघर्षों से बच जायेगा ।

 

      अब मैं अभिभावकों और अध्यापकों से कह रही हूं क्योंकि बच्चों को यह सिखाना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि ऐसा ''दिखाना '' मानों वे बहुत अच्छे हैं, ऐसा ''दिखाना'' मानों वे आज्ञाकारी हैं, ऐसा ''दिखाना'' मानों वे अच्छी तरह से पढ़ रहे हैं, इत्यादि एकदम व्यर्थ होता है । बहुत बार, अभिभावक और शिक्षक इस मार्ग को अपनाते हैं कि वे उनकी ''मानों ऐसे हैं'' चीज को बढ़ावा देते हैं । बहुत बार देखा गया है कि अगर बच्चा आकर सहज रूप से अपनी गलती स्वीकार कर लेता है तो उसे डांट पड़ती है । यह अभिभावक के द्वारा की गयी गलतियों में सबसे बड़ी गलती है । तुम्हें स्वयं पर इतना काबू होना चाहिये कि तुम बच्चे को कभी न डांटो, चाहे उससे कोई बहुत कीमती और प्रिय वस्तु भी क्यों न टूट जाये । तुम्हें उससे बस इतना ही पूछना चाहिये,  "तुमने यह कैसे किया?''--''क्या हुआ?'' क्योंकि बच्चे को यह देखना चाहिये कि यह कैसे हुआ, ताकि वह अगली बार अधिक सावधान रहे । बस इतना ही । इस तरह तुम देखोगे कि बच्चा तुम्हें धोखा देने के बदले तुम्हारे प्रति सच्चा और निष्कपट होगा ।

 

     अपने चरित्र का रूपान्तर करने में सबसे बड़ी बाधा है पाखण्ड । अगर तुम किसी बच्चे के साथ व्यवहार करते हुए इस बात को हमेशा याद रखो तो तुम उसका बहुत भला करोगे । निश्चय ही तुम्हें उसे उपदेश या भाषण इत्यादि नहीं देने चाहियें । तुम्हें बस उसे इतना समझाना है कि सत्ता में एक आभिजात्य, एक महान् पवित्रता, सौन्दर्य के लिए एक महान् प्रेम होता है जो इतना शक्तिशाली होता है कि अधिक-से-अधिक धूर्त और अपराधी व्यक्ति भी सचमुच सुन्दर, वीरतापूर्ण या निःस्वार्थ कार्य को स्वीकार करने को बाधित होते हैं ।

 

     क्योंकि, मनुष्यों में, एक उपस्थिति होती है,  पृथ्वी की सबसे अलौकिक परम उपस्थिति, और केवल कुछ विरल अपवादों को छोड़कर जिनके बारे

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में यहां कहने की मुझे जरूरत नहीं, सभी में यह उपस्थिति उनके हृदय में सोयी पड़ी रहती है-- भौतिक हृदय में नहीं बल्कि चैत्य केन्द्र में--और जब यह परम वैभव पर्याप्त पवित्रता के साथ अभिव्यक्त होता है, तो वह सब प्राणियों में इस परम उपस्थिति की प्रतिध्वनि को गंजा देता है ।

 

      कपट को समाज की तरफ से इतना बढ़ावा क्यों मिलता है ?

 

क्योंकि समाज पर सफलता का भूत सवार होता है ।

 

      क्या सच्चाई, और वफादारी में भेद हो ?

 

दो भिन्न चीजों में हमेशा भेद होता है । निस्संदेह, सच्चे और निष्कपट हुए बिना वफादार होना और वफादार हुए बिना सच्चे होना बहुत कठिन है लेकिन मैं ऐसे लोगों को जानती हूं जो वफादार थे लेकिन फिर भी उनमें एक तरह की सचाई, निष्कपटता नहीं थी । इससे उल्टा भी असामान्य नहीं है । एक चीज से दूसरी अपने- आप नहीं आ जाती, लेकिन निश्चित रूप से ईमानदारी, ऋजुता, वफादारी और निष्कपटता का एक दूसरे से गहरा सम्बन्ध है । मेरे ख्याल से किसी के लिए वफादार और ईमानदार हुए बिना पूरी तरह से सच्चा और निष्कपट बनना बहुत कठिन है, लेकिन निश्चित ही इसमें सर्वाधिक प्रयास अपेक्षित है ।

 

       क्या यह सच नहीं है कि वफादारी किसी चीज या किसी व्यक्ति के प्रति किसी भावना तक सीमित होती है ?  क्या सचाई अधिक विस्तृत चीज नहीं होती ?

 

हां, है I कह सकते हैं वफादारी में किसी व्यक्ति या किसी वस्तु के प्रति एक तरह के क्रमसोपान का सम्बन्ध होता है । एक तरह का पारस्परिक अवलम्बन होता है । सामान्य धारणा है कि वफादारी का अर्थ है अपने वचन का पालन करना, अपने कर्तव्य को बहुत ही सावधानी से निभाना इत्यादि ।

 

      अगर कोई जंगल में एकदम अकेला रहता हो तो भी वह पूर्ण सचाई

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और निष्कपटता का पालन कर सकता है, लेकिन तुम वफादारी का पालन केवल समाज में, दूसरों के साथ सम्बन्ध रखते हुए कर सकते हो । ऐसा व्यक्ति जो भागवत उपस्थिति के प्रति आन्तरिक भक्तिभाव से पूरी तरह समर्पित हो वह उस परम उपस्थिति के प्रति वफादार हो सकता है । इसमें तुम्हारे सामने की किसी चीज के साथ या वैश्व सत्ता के साथ सम्बन्ध समाविष्ट हे ।

 

      जर्मनी के जनरल हिटलर के प्रति वफादार थे, लेकिन ले अपने प्रति सच्चे और निष्कपट नहीं थे I

 

यह बहुत जटिल प्रश्न है । हो सकता है कि वे अपने आदर्श के सम्बन्ध में सच्चे रहे हों । पता नहीं ।

 

      मैं ऐसी सत्ताओं को जानती हूं जो भागवत जीवन, भागवत उपलब्धि के विरुद्ध सबसे अधिक सक्रिय यन्त्र थे । हां, एक हद तक, वे अपने आदर्श के प्रति बहुत वफादार, अपने... में बहुत सच्चे ओर निष्कपट थे । ये सत्ताएं असुर कहलाती हैं, लेकिन जैसा कि मैंने अभी कहा, वे अपने आदर्श के मति सच्ची थीं ।

 

     तो सचाई, निष्कपटता पर्याप्त नहीं है ?

 

मैंने यह नहीं कहा कि उनके अन्दर पूर्ण सचाई थी । मैंने बस इतना ही कहा कि वे बहुत सच्चे थे । शायद, उनकी सत्ता के किसी भाग में कोई ऐसी चीज थी जिसने जितना वह जानती थी उससे अधिक जानने की कोशिश नहीं की । यह बहुत सम्भव है ।

 

      कुछ लोग समझते हैं कि उन्होने पूर्ण सचाई पा ली है ।

 

अगर तुम्हें विश्वास है कि तुमने पूर्ण सचाई पा ली है, तो तुम विश्वास रखो कि तुम मिथ्यात्व में डूबे हुए हो ।

 

       १ प्रतिलेखन में एक शब्द नहीं था ।

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१८ जनवरी, १९५१

 

(यह वार्ता माताजी के लेख ''जीवन विज्ञान'' पर आधारित है ।)

 

       चैत्य सत्ता की रचना आन्तरिक परम सत्य द्वारा होती है और वह उसके चारों ओर संगठित होती है ।

 

*

 

        प्राण कर्मों में जोश भरता है । यह इच्छाओं, आवेगों, कामनाओं, विद्रोह आदि का आसन है ।

 

*

 

       भौतिक वह ठोस क्षेत्र है जो विचारों को, प्राण की गतियों आदि को निश्चित रूप देता और सीमाबद्ध करता है । यह कर्मों का दृढ़ आधार है ।

 

*

 

       अपनी चैत्य सत्ता को पाने का अर्थ है एक तरह का दृढ़ विश्वास, चैत्य सत्ता के अस्तित्व पर श्रद्धा । तुम्हें उसके बारे में सचेत होना चाहिये और फिर जीवन और कर्मों को दिशा देने का काम उसे करने देना चाहिये, तुम्हें उसकी राय लेनी चाहिये और उसे अपना पथ-प्रदर्शक बनाना चाहिये । चैत्य सत्ता को अधिकाधिक सौंपने पर तुम अपनी सत्ता की गतिविधियों के बारे में सचेत होते जाते हो ।

 

*

 

       लक्ष्य का होना पर्याप्त नहीं है । हमेशा अपनी सभी गतिविधियों के मूल में जाने की कोशिश करते हुए लक्ष्य को पाने का संकल्प होना चाहिये ।

 

*

 

         आत्म-प्रभुत्व का अर्थ है अपने और अपनी गतिविधियों के बारे में

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सचेतन होना, वही करना जिसे करने का तुमने निश्चय किया है, वह नहीं जिसे दूसरे करवाना चाहते हैं ।

 

 

       ''अलग-अलग देश और काल में अपने अन्दर प्रत्यक्ष दर्शन (हमारे अन्दर स्थित चैत्य उपस्थिति) को पाने की और अन्त में उसके साथ एक हो जाने की बहुत- सी विधियां बतायी गयी हैं । कुछ विधियां मनोवैज्ञानिक हैं कुछ धार्मिक, यहां तक कि कुछ यान्त्रिक भी हैं I वस्तुत:  हर एक को वही विधि ढ़ूंढ़नी होगी जो उसके लिए सबसे अधिक अनुकुल हो, और अगर व्यक्ति के अन्दर उत्कट और अटल अभीप्सा हो, आग्रही और क्रियात्मक संकल्प हो, तो उसे किसी- न- किसी तरीके से निश्चित रूप से वह सहायता मिलेगी जिसकी लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आवश्यकता होगी । बाहरी रूप में पढ़कर अध्ययन द्वारा, और आन्तरिक रूप में एकाग्रता ध्यान, अन्त: प्रकाश और अनुभूति द्वारा मिल सकती है ।''

 

      यान्त्रिक, धार्मिक और मनोवैज्ञानिक विधियों में क्या अन्तर है ? धार्मिक विधियां वे हैं जो विभिन्न धर्मों के द्वारा अपनायी गयी हों । ऐसे धर्म बहुत नहीं हैं जो आन्तरिक परम सत्य की बात करते हैं; उनके लिए अपने भगवान् के साथ सम्पर्क में आना ही अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । स्वर्ग और नरक : यह घुमा-फिराकर कहने का तरीका होता है...

 

       मनोवैज्ञानिक पद्धतियां वे हैं जो चेतना की अवस्थाओं के साथ काम करती हैं, जो अपनी अन्तरात्मा को प्राप्त करने के प्रयास में समस्त क्रिया- कलापों से अलग होकर अनासक्ति आत्म-तन्मयता, एकाग्रता, उच्चतर सद्वस्तु, समस्त बाह्य गतिविधि के त्याग आदि की सचेतन आन्तरिक अवस्था उत्पन्न करने का प्रयास करती हैं । मनोवैज्ञानिक पद्धति वह है जो विचारों, भावनाओं और कर्मों पर काम करती है ।

 

      यान्त्रिक विधियां वे हैं जो शुद्ध रूप से यान्त्रिक तरीकों पर आधारित

 

        १ प्रतिलेखन में शब्द नहीं थे ।

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होती हैं--तुम उनका अमुक तरह से उपयोग करके उनसे लाभ पा सकते हो । उदाहरण के लिए प्राणायाम को लो, यह अक्सर यान्त्रिक रूप से कार्य करता है लेकिन कभी-कभी यह सलाह दी जाती है कि इसके साथ अपने विचार की किसी एकाग्रता को जोड़ दो, किसी शब्द को जपो जैसा कि विवेकानन्द की शिक्षा में है । यह एक हद तक क्रिया करता है लेकिन फिर इसका प्रभाव धुंधला पड़ जाता है । मनुष्यों की ऐसी चेष्टाएं भिन्न-भिन्न कालों और स्थानों में व्यक्तिगत रूप में कुछ-कुछ सफल हुई हैं लेकिन वे कभी कोई सामूहिक परिणाम नहीं लायीं ।

 

      मनोवैज्ञानिक विधि कहीं अधिक कठिन होती है लेकिन होती बहुत प्रभावकारी है : कर्म करते हुए अपने आन्तरिक संकल्प की ऐसी अवस्था में रहो जो तुम्हारी सत्ता के परम सत्य के सिवाय और किसी चीज को अभिव्यक्त न करे, और सभी चीजों को उसी परम सत्य पर आश्रित रखो । निश्चय ही, अगर तुम कुछ न करो, तो यह ज्यादा आसान होता है लेकिन उस हालत में अपने को ठगना भी आसान होता है । जब तुम एकान्त की पूर्ण नीरवता में लोगों से बहुत दूर बैठकर न्यूनाधिक सन्तोष की दृष्टि से अपने- आपका निरीक्षण करते हो तो तुम यह कल्पना कर सकते हो कि तुम किसी बहुत ही अद्‌भुत चीज को चरितार्थ कर रहे हो । लेकिन जब तुम जीवन के प्रत्येक क्षण परीक्षा में से गुजरते हो, तुम्हें अपनी अपूर्णताओं, अपनी कमजोरियों, दिन में सौ बार अपनी छोटी-छोटी दुर्भावनाओं के उठने के बारे में सचेतन होने का अवसर मिलता है तो तुम अपने... होने के भ्रम को पहचान लेते हो, और तब तुम्हारे प्रयास अधिक सच्चे और निष्कपट होते हैं ।

 

      इसीलिए किसी निर्जन वन में आश्रम बनाने का निश्चय करने की बजाय, जहां सब कुछ बहुत सुन्दर हो, बहुत शान्त हो, संसार से अलग- थलग रह कर केवल अपने छोटे-से स्व की परवाह करने के बजाय हम इससे उल्टा करने की कोशिश कर रहे हैं, यानी, जीवन के सभी क्रिया- कलापों को लेकर उन्हें यथासम्भव अधिक-से- अधिक सचेतन बनाने, और दूसरों के साथ सम्पर्क में अपनी सभी आन्तरिक वृत्तियों के प्रति अधिक

 

        १ प्रतिलेखन में शब्द नहीं है ।

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स्पष्ट रूप से अभिज्ञ होने की कोशिश कर रहे हैं ।

 

     कठिनाइयों से भागना उन्हें पार करने या उन पर विजय पाने का तरीका नहीं है । अगर तुम दुश्मन से दूर भागो तो उसे हरा नहीं पाओगे लेकिन उसे तुम्हें हराने का पूरा अवसर मिलेगा । इसीलिए हम हिमालय के किसी शिखर पर न होकर यहां पॉण्डिचेरी में हैं । यद्यपि मैं स्वीकार करती हूं कि हिमालय का शिखर आनन्ददायक होगा--लेकिन शायद इतना प्रभावकारी न हो ।

 

     अगली बार मैं मानसिक अनुशासन के बारे में कहूंगी, क्योंकि इस विषय पर कहने के लिए मेरे पास बहुत कुछ है । यह पथ पर भयंकर रोड़ा है; लोग समझते हैं कि उनमें श्रेष्ठ बुद्धि है और उसके आधार पर वे उन चीजों का मूल्यांकन करते हैं जिनके बारे में वे कुछ भी नहीं जानते । मनुष्यजाति के लिए अगर यह सबसे बड़ी बाधा न भी हो तो भी कम-से- कम बड़ी बाधाओं में से एक तो है ही । क्योंकि सब जानवरों में केवल मनुष्य ही ऐसा है--माफ करना, लेकिन हम अब भी पशु हैं-जो स्पष्ट वाणी का उपयोग कर सकता है और पृष्ठ पर पृष्ठ लिख सकता है... वह समझता है कि वह महान् है क्योंकि वह लिख सकता है और वह जो कुछ सोचता है, अनुभव करता है उसे दूसरों को पढ़ा भी सकता है । और फिर इस मानसिक महानता, मानसिक कुलीनता के ऊंचे आसन से वह अपने से कहीं अधिक श्रेष्ठ चीजों को बचकाना कहकर रफा-दफा कर देता है ।

 

      क्या चैत्य सत्ता आन्तरिक सत्य के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेती है ?

 

वह अपने- आपको उसके चारों ओर व्यवस्थित कर लेती है और उसके साथ सम्पर्क स्थापित करती है । चैत्य को परम सत्य ही गति देता है । परम सत्य ऐसी चीज है जो शाश्वत रूप से स्वयं सत् है । वह देश और काल में किसी पर निर्भर नहीं होता जब कि चैत्य सत्ता ऐसी सत्ता है जो बढ़ती है, रूप लेती है, प्रगति करती है और अधिकाधिक व्यष्टि रूप लेती है । इस तरह वह इस परम सत्य को अभिव्यक्त करने में अधिकाधिक समर्थ हो

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जाती है, उस शाश्वत सत्य को जो एक और चिरस्थायी है । चैत्य सत्ता प्रगतिशील सत्ता है अर्थात् चैत्य सत्ता और परम सत्य के बीच प्रगतिशील सम्बन्ध होता है । यह सम्भव नहीं है कि तुम्हें चैत्य सत्ता का तो भान हो पर साथ ही आन्तरिक सत्य का भान न हो । वे सब जिन्हें यह अनुभूति हो चुकी है--मानसिक अनुभूति नहीं बल्कि चैत्य सत्ता के साथ सम्पर्क की पूर्ण अनुभूति हुई है, चैत्य के बारे में अपनी बनायी हुई धारणा के साथ सम्पर्क नहीं बल्कि सचमुच ठोस सम्पर्क हुआ है--वे सब यही बात कहते हैं : जिस क्षण यह सम्पर्क होता है, व्यक्ति अपने अन्दर के शाश्वत सत्य के प्रति पूरी तरह से सचेतन हो जाता है और देखता है कि वही उसके जीवन का उद्देश्य और जगत् का पथ-प्रदर्शक है । व्यक्ति एक के बिना दूसरे को नहीं पा सकता; वास्तव में यही तुम्हें बोध कराता है कि तुम अपनी चैत्य सत्ता के सम्पर्क में हो । हो सकता है कि वह सचेतन सम्पर्क न हो, कोई ऐसी चीज हो जो तुम्हारे जीवन पर शासन करती है ।

 

      कुछ लोग कहते हैं कि उनकी इच्छा के बाहर की कोई ऐसी चीज होती है जो उनके सारे जीवन को व्यवस्थित करती है, उन्हें आवश्यक अवस्थाओं में रखती है, जो अनुकूल परिस्थितियों और व्यक्तियों को आकर्षित करती है यानी, जो उनकी बाहर की सभी चीजों को व्यवस्थित करती है । शायद वे अपनी बाहरी चेतना में कोई चीज चाहते थे और उन्होंने उसके लिए कार्य किया, लेकिन कोई और ही चीज आ गयी । फिर कुछ वर्षों के बाद उन्हें इसका पता चलता है कि वास्तव में यही होना चाहिये था । हो सकता था कि तुम अपने अन्दर चैत्य सत्ता के अस्तित्व के बारे में कुछ भी न जानते होओ फिर भी उसका पथ-प्रदर्शन पाते हो । क्योंकि किसी चीज से अभिज्ञ होने के लिए सबसे पहले तुम्हें यह स्वीकार करना होगा कि उस वस्तु का अस्तित्व है । कुछ लोग ऐसा नहीं करते हैं । मैंने ऐसे लोग देखे हैं जिनका अपनी चैत्य सत्ता के साथ सचमुच सम्पर्क था परन्तु वे यह नहीं जानते थे कि यह क्या है, क्योंकि उनके अन्दर ऐसा कुछ भी नहीं था जो इस चैत्य सम्पर्क के ज्ञान को समझता हो ।

 

     क्या अपनी चैत्य सत्ता के साथ किसी प्रकार के सम्पर्क के बिना, व्यक्ति शाश्वत परम सत्य के साथ सम्पर्क में हो सकता है

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हो सकता है कि विश्व की कुछ सत्ताओं का चैत्य सत्ता के सम्पर्क के बिना ही शाश्वत परम सत्य के साथ सीधा सम्पर्क हो-क्योंकि उनमें चैत्य सत्ता होती ही नहीं । लेकिन मनुष्य में हमेशा चैत्य सत्ता होती है और हमेशा इसी के द्वारा वह शाश्वत परम सत्य के साथ सम्पर्क में आता है । और चैत्य के साथ यह सम्पर्क साधारणत: उसके सामने उसी तरीके से प्रकट होता है, क्योंकि चैत्य सत्ता अपने साथ अपना लालित्य, अपनी भव्यता और आनन्द वहन करती है । चैत्य सत्ता मनुष्य की विशेषता है, और अगर हम बात की गहराई में उतरें तो शायद यही चीज है जो मनुष्य को श्रेष्ठता प्रदान करती है ।

 

     बहुत-से पुराने दर्शनों में सत्ता के वर्गीकरण का पूर्ण ज्ञान न था--वे चैत्य सत्ता और आन्तरिक परम सत्य के बारे में न जानते थे । इन मतों में बहुत सरल-सी धारणाएं थीं, जैसे, बाहरी और भीतरी चेतना, जाग्रत् और सुप्त चेतना । उनमें मानव मनोविज्ञान के बारे में ब्योरेवार ज्ञान न था, या था भी तो उन्होंने वह ज्ञान हर एक को देना ठीक न समझा । पहले ज्ञान यूं ही हर किसी को नहीं दिया जाता था । अमुक प्रकार का ज्ञान पाने से पहले मनुष्य को बहुत स्पष्ट रूप से अपनी सद्‌भावना दिखानी होती थी, पर्याप्त क्षमताएं, विकास का पर्याप्त स्तर दिखाना होता था । लेकिन आज, आधुनिक युग में यह ज्ञान छप जाता है और हर एक किताबें खरीद कर प सकता है और निश्चय ही तुम सैकड़ों ऐसे लोगों से मिलते हो जो यह जाने बिना कि उनका अर्थ क्या है ''ढेरों शब्द'' सीख चुके हैं । एक समय था जब हमारे यहां भी ऐसे लोग थे जो अपने अन्दर अतिमानस की सिद्धि पा लेने का दावा करते थे लेकिन यह भी न जानते थे कि वह है क्या ।

 

     प्रजातन्त्रीय व्यवस्था में ज्ञान का यूं सामान्य होना अनिवार्य है । शायद चुनाव के दूसरे तरीके हैं, अधिक गुप्त, कम प्रत्यक्ष लेकिन अधिक प्रभावकारी ।

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२२ जनवरी, १९५१

 

(यह वार्ता माताजी के लेख ''जीवन विज्ञान'' पर आधारित हे ।)

 

      ''मन ज्ञान का यन्त्र नहीं है ; वह ज्ञान पाने में असमर्थ है, लेकिन उसे ज्ञान द्वारा ही परिचालित होना चाहिये । ज्ञान मानव मन से  कहीं ऊंच क्षेत्र,  शुद्ध विचारों के स्तर से ऊंचे स्तर की चीज है I मन को ऊपर से ज्ञान पाने और उसे अभिव्यक्त करने के लिए नीरव और सावधान होना चाहिये । क्योकि यह रचना का, व्यवस्था क्रिया का यन्त्र है इसलिए इन चीजों मे यह अपना पूरा-पूरा मूल्य और सच्ची  उपयोगीता पाता है ।''

 

मन '' रचना, व्यवस्था और क्रिया का यन्त्र है '' क्यों ? मन विचारों को रूप देता है । यह रचना-शक्ति मानसिक सत्ताओं की रचना करती है जिनका जीवन उस मन से अलग होता है जिसने इनकी रचना की थी--वे ऐसी सत्ताओं की तरह क्रिया करती हैं जो अर्ध-स्वतन्त्र होती हैं । तुम किसी विचार को रूप दे सकते हो, जो फिर यात्रा करता है, किसी दूसरे के अन्दर चला जाता है और अपने अन्दर के विचार को फैला देता है । ठीक भौतिक पदार्थ की तरह मानसिक पदार्थ भी होता है और इस स्तर पर मन असंख्य रूपों का सृजन कर सकता है । इन रूपों को वस्तुनिष्ठ करके देखा जा सकता है, यह सपनों की व्याख्याओं में से एक बहुत सामान्य व्याख्या है । जब तुम क्रियाशील होते हो और जब भौतिक आखें भौतिक रूप में देख सकती हैं, उस समय कुछ लोग मानसिक रूप में भी देख सकते हैं । लेकिन जब तुम सोये होते हो, तुम्हारी आखें बन्द होती हैं, भौतिक सोया होता है उस समय मन और प्राण क्रियाशील हो जाते हैं ।

 

     मानसिक स्तर पर मन द्वारा बनायी गयी सभी रचनाएं--मन विचारों को जो यथार्थ ''रूप'' देता है--लौटकर तुम्हारे सामने यूं प्रकट होती हैं मानों वे बाहर से आ रही हैं और वे तुम्हें सपने देती हैं । अधिकतर सपने इसी तरह के होते हैं । कुछ लोगों का मानसिक जीवन बहुत सचेतन होता है और वे मानसिक स्तर में प्रवेश करके उसी स्वतन्त्रता के साथ घूम-फिर

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सकते हैं, जैसे भौतिक जीवन में घूमते हैं, ऐसे लोगों की रातें मानसिक रूप से वस्तुपरक होती हैं । लेकिन अधिकतर लोग यह करने में असमर्थ होते हैं : उनकी मानसिक गतिविधियां सोते समय चलती रहती हैं और आकार ग्रहण करती हैं, और ये आकार ही हैं जिन्हें वे स्वप्न कहते हैं ।

 

     बहुत ही सामान्य उदाहरण है--यह इसलिए मजेदार है क्योंकि बहुत जीवन्त है । अगर तुमने दिन में किसी के साथ झगड़ा किया है, हो सकता है तुम्हारी उस पर हाथ उठाने की इच्छा हुई हो, तुमने उसे बहुत अप्रिय बातें कहनी चाही हों, लेकिन तुम अपने पर काबू रख लेते हो, और वैसा नहीं करते, लेकिन तुम्हारा विचार तुम्हारा मन क्रियाशील रहता है और नींद में तुम भयंकर सपना देखते हो । हाथ में लकड़ी लिये कोई तुम्हारी ओर बढ़ रहा है और तुम दोनों एक दूसरे को मारते हो और जोरदार लड़ाई होती है । और जब तुम जगते हो, अगर तुम नहीं जानते, अगर तुम यह नहीं समझ पाते कि क्या हुआ, तुम अपने- आपसे कहते हो, '' कितना अप्रिय सपना देखा मैंने !'' लेकिन सचमुच वह तुम्हारा अपना विचार था जो इस तरह तुम पर पलट कर आ गया था । इसलिए सावधान रहो । जब तुम ऐसा कोई सपना देखो कि कोई तुम्हारे प्रति निर्दय रहा है तो सबसे पहले अपने- आप से पूछो ''उसके प्रति मेरे मन में कोई बुरा विचार तो नहीं आया था ? ''

 

     सचमुच विचार ऐसी सत्ताएं हैं जो साधारणत: तब तक बनी रहती हैं जब तक चरितार्थ न कर ली जायें । कुछ लोग अपने ही विचारों में जकड़े रहते हैं । वे किसी चीज के बारे में सोचते है और विचार वापिस आकर उनके सिर में यूं चक्कर लगाता है मानों वह को ऐसी चीज हो जो बाहर से आयी हो । लेकिन वे उनकी अपनी ही रचनाएं होती हैं जो बार-बार आकर उसी मन पर प्रहार करती हैं जिसने उसकी रचना की थी । यह विषय का एक पहलू है ।

 

     क्या तुम्हें कभी ऐसे विचार का अनुभव हुआ है जो शब्दों का या एक वाक्य का रूप लेकर बार-बार तुम्हारे मन में वापिस आये । लेकिन अगर तुम इतने समझदार हो कि एक कागज पेंसिल लेकर उसे लिख डालो--तो बस उसका वहीं अन्त हो जायेगा, वह फिर तुम्हारे अन्दर नहीं आयेगा, तुमने उसे अपने अन्दर से निकाल बाहर कर दिया । उस चीज ने अपना थोड़ा-सा सन्तोष पा लिया, उसने पर्याप्त रूप में अपने- आपको अभिव्यक्त

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कर दिया और अब वह वापिस नहीं आयेगी ।

 

      इससे भी ज्यादा रुचिकर और कुछ है : अगर तुम्हारे अन्दर कोई बुरा विचार हो जो तुम्हें सताता और परेशान करता हो तो उसे बहुत सतर्कता से, बहुत सावधानी के साथ, उसमें यथाशक्ति अपनी चेतना और संकल्प डालकर उसे एक कागज पर लिख लो, फिर उस कागज को एकाग्र होकर इस संकल्प के साथ फाड़ डालो कि विचार भी इसी तरह फट जाये । इस तरह तुम उससे छुटकारा पा लोगे ।

 

     मन व्यवस्था का एक यन्त्र है । बाहरी स्तर पर, कुछ लोगों के मन व्यवस्थित होते हैं । उन्होंने अपने विचारों को, अपने चिन्तन को व्यवस्थित किया है-- ध्यान रहे , आमतौर पर इतना भी नहीं होता ! लेकिन अगर तुम अपने अन्दर देखो, तो तुम पाओगे कि तुम्हारे अन्दर बहुत ज्यादा विरोधी विचार हैं और अगर तुमने उन्हें व्यवस्थित करने की सावधानी नहीं बरती है तो वे मानों तुम्हारे सिर में साथ-साथ रहेंगे, और बहुत अधिक अव्यवस्था पैदा करेंगे ।

 

     उदाहरण के लिए, मैं एक ऐसे आदमी को जानती थी जो अत्यधिक गुह्यवादी विचारों के साथ-हीं-साथ प्रत्यक्षवादी यानी एकदम जड़- भौतिकतावादी विचारों को भी रखता था, जो उन सभी चीजों का निषेध थे जो शुद्ध रूप से जड़- भौतिक न हों । उसके अन्दर यह सब कुछ अस्त-व्यस्त था और वह व्यक्ति हमेशा सतत उलझन में कभी इधर तो कभी उधर लुढ़कता फिरता था । ध्यान रहे कि मैं इससे असहमत नहीं हूं कि तुम्हारे अन्दर ये सभी विचार हों । चीजों को एक साथ सभी पहलुओं से देखना अच्छा है, जैसा कि हम उस दिन कह रहे थे, एकदम से विरोधी भावों को भी सामञ्जस्य में लाने का तरीका होता है । लेकिन तुम्हें उसे करने का कष्ट उठाना होगा, तुम्हें उन्हें मन में व्यवस्थित करना होगा, वरना तुम अव्यवस्था में रहोगे I मेंने एक चीज और देखी है : वे लोग जिनका मन अस्त-व्यस्त होता है अपने कमरे और अपनी चीजें उसी तरह की अस्त-व्यस्तता की हालत में रखते हैं । मैंने ऐसे लोग देखे हैं जिनके मन में कुछ भी व्यवस्थित नहीं था और अगर तुम उनकी दराजें या अलमारियां खोलो तो तुम भयंकर अव्यवस्था पाओगे--सब कुछ गड्डमड्ड । ऐसे लोग भी हैं जो बुद्धिमान् हैं, उदाहरण के लिए लेखक--वे अपने पास कागज के पुर्जे रखते हैं जिन पर वे कुछ

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लिखते हैं, --लेकिन संयोगवश अगर कभी उन्हें ऐसे पुरजों की आवश्यकता पड़े तो उन्हें ढूंने में एक घाण्टा लगाना पड़ता है, सब कुछ उलट-पुलट करते हैं, या तो उन्हें कागज रद्दी की टोकरी में मिलता है या फिर उस दराज में जिसमें वे अपने रुमाल रखते हैं । तो ऐसा होता है, है न ?

 

     कुछ ऐसे लोग हैं जो बहुत बुद्धिमान् तो नहीं है, लेकिन उन्होंने अपने विचारों में कुछ व्यवस्था लाने का कष्ट उठाया है । अगर तुम उनकी आलमारी खोलो तो देखोगे कि उनके पास बहुत कम चीजें हैं, लेकिन चीजें सफाई के साथ अच्छी तरह व्यवस्थित हैं । ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने अपनी भौतिक चीजों को भी अपने विचारों की तरह व्यवस्थित किया है । इसलिये मन व्यवस्था का यन्त्र है ।

 

    जिन लोगों में व्यवस्था करने की कुछ क्षमता हो वे अपनी छोटी-मोटी निजी चीजों को व्यवस्थित करना शुरू कर सकते हैं, फिर अपने जीवन और जीवन की घटनाओं को व्यवस्थित कर सकते हैं । कुछ लोग उनके नीचे काम करने वाले हो सकते हैं--वे किसी व्यापार की, किसी विद्यालय की, कुछ भी व्यवस्था कर सकते हैं । या फिर अगर उनमें शासन करने की शक्ति हो, तो वे किसी देश की शासन-व्यवस्था सम्भाल सकते हैं । कुछ में व्यवस्थापन की यह शक्ति होती है, कुछ में नहीं ।

 

    ैं तुम्हें एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण दूंगी जिसमें व्यवस्था करने की वह प्रतिभा थी । यह पुरानी कहानी है, लेकिन पुरानी कहानियां हमेशा सुनायी जा सकती हैं । मैं सर अकबर हैदरी को जानती थी जो हैदराबाद के वित्त मन्त्री थे, और बाद में प्रधान मन्त्री बने । उनके समय से पहले हैदराबाद की वित्तीय अवस्था एकदम अव्यवस्थित थी और सरकार को हमेशा पैसे की तंगी रहती थी । वह एक सम्पन्न इलाका था जिसे इस अवस्था में नहीं होना चाहिये था । फिर आये सर अकबर । वे वित्त मन्त्री बने और एकदम पहले ही साल से, वहां कुछ लाख की मालगुजारी प्राप्त हुई और सब कुछ इतनी अच्छी तरह व्यवस्थित हो गया कि दुनिया भर में शायद वही एक स्थान था जहां लोगों को कर नहीं देना पड़ता था, उन्हें कोई कर या शुल्क नहीं देना पड़ता था और राज्य में कभी पैसे की तंगी नहीं हुई और उनके मन्त्रित्व काल में ऐसा ही चलता रहा । लेकिन फिर वे बीमार पड़ गये और उन्हें छोड़ना पड़ा; और अन्त में उनका देहान्त हो

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गया । उनके स्थान पर एक ऐसा व्यक्ति आया जिसमें व्यवस्थापन की यह प्रतिभा न थी और तुरन्त, पहले ही साल से, फिर से उन्हें करीब सतरह लाख का घाटा हुआ ! प्रदेश वही था, मालगुजारी वही थी, लोग वही थे, लेकिन अब सर अकबर की व्यवस्थापन की अद्‌भुत प्रतिभा न थी । यह सच्ची कहानी है । बहुत कम लोगों में यह प्रतिभा होती है ।

 

     यह ऐसा है मानों तुम्हारे सामने बहुत बड़ी संख्या में फुटकर चीजें रखी हों, उन चीजों के सभी सम्भव संयोजन बनाने में एक सदी लग जायेगी । कुछ लोगों को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं होती--उन्हें अन्तर्दर्शन प्राप्त होता है और वे तुरन्त जान लेते हैं कि चीजों को कहां रखें और उनमें परस्पर एक ऐसा व्यवस्थित सम्बन्ध स्थापित करें जिससे किसी क्रमबद्ध और व्यवस्थित चीज की रचना हो सके । व्यवस्थापन की यह क्षमता जीवन में अनिवार्य है, और अगर तुम व्यवस्था करना सीखना चाहते हो तो अपनी दराज को व्यवस्थित करने से शुरू करो और इसका अन्त होगा तुम्हारे सिर की व्यवस्था में । कुछ लोगों को ये दोनों चीजें करनी चाहियें । विचारों को व्यवस्थित कर सकने से पहले तुम्हें उन्हें अपने मन में देखना चाहिये--कम-से-कम तुम अपने रुमालों और कपड़ों को तो देख ही सकते हो ! तुम देखोगे कि बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवस्था पाने के लिए एक हद तक सावधानी बरतनी पड़ती है-जिन चीजों का तुम रोज उपयोग करते हो उन्हें ऐसी चीजों के नीचे न रखो जिन्हें तुम महीने में एक बार उपयोग में लाते हो ।

 

     मन क्रिया का यन्त्र भी है । विचार योजनाएं बनाते हैं । मन किसी क्रिया की योजना बनाता है और उस स्वतन्त्र और क्रियाशील सत्ताओं की रचना करके, जिनके बारे में मैं पहले कह चुकी हूं, यह सत्ता के दूसरे भागों-प्राण और भौतिक-में हलचल पैदा कर देता है और उन्हें कार्य करने के लिए बाधित करता है । बहुधा ऐसा होता है कि तुम किसी-न- किसी क्रिया के बारे में सोचते हो-तुम उसे तुरन्त नहीं करते, लेकिन वह विचार जो इस क्रिया में अभिव्यक्त होना चाहता है बार-बार पलट कर

 

       १ यह राशि बहुत बड़ी लगती है । हो सकता है कि माताजी को ठीक-ठीक सूचना न दी गयी हो या ध्वन्यांकन से लिखते समय कुछ भूल हो गयी हो --अनु

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आता है । शायद तुम अपने मन में ये शब्द तब तक सुनो--''मुझे यह करना चाहिये '' ,'' मुझे यह करना चाहिये '' जब तक तुम सब कुछ छोड़कर वह न कर लो जिसके बारे में तुमने सोचा था । तो यह रही मन की क्रिया करने की शक्ति । इसे पाने से पहले, तुम्हें अपने मन को व्यवस्थित करना, उसमें सामञ्जस्य लाना और उसे अपने वश में करना सीखना चाहिये । जब तुम्हारे अन्दर यह शक्ति आ जाये तब तुम सोद्देश्य क्रिया कर सकते हो, जब कि अधिकतर लोग ऐसे विचारों द्वारा इधर-से-उधर लुढ़काये जाते हैं जिनकी रचना का उन्हें कोई भान तक नहीं होता ।

 

     ऐसे बहुत-से हैं जिनके विचार बाहर से आते हैं, उन्होंने अपने मन को व्यवस्थित करने की परवाह नहीं की । और उनका मन एक तरह का चौराहा होता है । अत: बाहर से आने वाले सभी विचार वहां मिलते हैं; कभी-कभी वहां टकराव भी होते हैं और तुम समझ नहीं पाते कि क्या करना चाहिये, तुम कुछ भी स्पष्ट नहीं देख पाते, इत्यादि । कुछ ऐसे हैं जो लगभग तटस्थ मनःस्थिति में रहते हैं । अचानक, वे अपने-आपको किसी ऐसे के संग पाते हैं जिसका मन सुव्यवस्थित है और वे भी स्पष्ट रूप से सोचना शुरू कर देते हैं--उन चीजों के बारे में जिनके विषय में उन्हें एक मिनट पहले कुछ भी पता न था । दूसरी ओर ऐसे भी होते हैं, जो सामान्यतया बहुत स्पष्ट रूप में सोचते हैं, और यथार्थ रूप से जानते हैं कि उनके मन में क्या चल रहा है । लेकिन वे अमुक लोगों के सम्पर्क में आते हैं और सब कुछ अस्त-व्यस्त, धुंधला और गड्डमगड्ड हो जाता है । वे अपने विचारों का सूत्र खो बैठते हैं और जो कुछ कहना चाहते थे भूल जाते हैं । यह संसर्ग का प्रभाव है और यह मानसिक संसर्ग निरन्तर होता रहता है । ऐसे बहुत कम होते हैं जो बाहर से विचारों को प्राप्त नहीं करते । मैं ऐसे लोगों को जानती हूं-बहुत-से लोगों को-जिनके अन्दर उदाहरण के लिए, बहुत दृढ़ श्रद्धा थी, जो अपने अन्दर बहुत स्पष्ट रूप से देख सकते थे, जो यह बहुत अच्छी तरह जानते थे कि उन्हें क्या करना है इत्यादि । लेकिन जब वे औरों के साथ होते और अभिव्यक्त करने के लिए उस सबको पकड़ने की कोशिश करते थे तो उसे वे न पकड़ पाते, इसके विपरीत कुछ ऐसा होता था जो अर्ध,- अन्धकारमय अस्त-व्यस्तता में चला जाता था और वे अपने विचार को जो पहले एकदम स्पष्ट था, शब्दों का

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रूप देने में अपने- आपको असमर्थ अनुभव करते थे ।

 

     और एक तथ्य है जिसे आध्यात्मिक माना जाता है, लेकिन जो केवल परोक्ष रूप से आध्यात्मिक है : वह है जब तुम अपने- आपको किसी ऐसे व्यक्ति के निकट पाते हो जिसने अपने विचार को वश में कर लिया हो और जिसने मानसिक नीरवता पा ली हो । अचानक तुम इस नीरवता को अपने अन्दर उतरता अनुभव करते हो और जो आधे घण्टे पहले तुम्हारे लिए असम्भव था वह अचानक यथार्थ बन जाता है । वैसे यह विरल ही होता है ।

 

   '' यहां एक अभ्यास जो चेतना प्रगति के बहुत सहायक हो सकता है I जब कभी किसी विषय पर असहमति हो, जैसे किसी निर्णय के बारे में या कोई काम के बारे में तो तुम्हें कभी भी केवल अपनी धारणा या अपने दृष्टिकोण में बन्द नहीं रहना चाहिये । इसके विपरीत, तुम्हें झगड़ा या कलह करने के बजाय दुसरे के दृष्टिकोण को समझने का, अपने- आपको उसके स्थान पर रखकर, समझने का प्रयास करना चाहिये और ऐसा हल निकालना चाहिये जो दोनों दलों को उचित रूप में सन्तुष्ट कर सके;  सद्‌भावना पूर्ण मनुष्यों के लिए एक-न-एक हल होता है ।''

 

यह मैंने विशेषकर कर्मठ लोगों के लिए कहा है जिनके विचार प्रत्यक्ष, रचनाशील, बहुत क्रियाशील और ऊर्जाशील होते हैं । वे चीजों को एक ही रेखा में देखते हैं और यह चीज काम करने के लिए अनिवार्य है; वे यह देख सकते हैं कि चीजों को अमुक- अमुक तरीके से करना चाहिये । हो सकता है दूसरे व्यक्ति का विचार भी उतना ही सक्रिय हो और वह कहे  ''नहीं, इसे यूं करना चाहिये ।''  फिर वे झगड़ते हैं और किसी समझौते पर नहीं आ पाते । लेकिन तुम एक मिनट के लिए शान्त रहकर चीज को शान्त मन के साथ देख सकते हो । जरूरी नहीं है कि दूसरा व्यक्ति अपनी दुर्भावना प्रकट कर रहा है, उसका दृष्टिकोण सच्चा या आंशिक रूप से सच्चा हो सकता है । प्रश्न  है यह खोजने का कि वह इस तरह क्यों सोचता है । अत: तुम यह सोचने के लिए रुक जाओ और दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण

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के साथ अपने-आपको एक करने की कोशिश करो, अपने-आपको उसके स्थान पर रखकर स्वयं से कहो,  ''वह जिस तरह सोच रहा है उस तरह सोचने का कोई कारण हो सकता है, और वह कारण मेरे कारण से अधिक अच्छा भी हो सकता है ।'' और इस तरह, तुम्हें ऐसा कोई हल ढूंढ़ने का प्रयास करना ही चाहिये जो उचित रूप से दोनों पक्षों को सन्तुष्ट कर सके । भौतिक चीजों के साथ काम करते हुए ऐसा करना बहुत आवश्यक होता है । स्वभावत: मनुष्य केवल अपनी दृष्टि से देखता है और उसका अपना दृष्टिकोण हमेशा स्वार्थपूर्ण होता है । किसी दूसरे के दृष्टिकोण को स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि यह दृष्टिकोण तुम्हारे लिए ''हानिकर''  हो सकता है । जहां राष्ट्रों की बात आती है वहां यह निर्विवाद  सत्य है । काश ! राष्ट्र सीधी-सादी चीजों के लिए हमेशा विवाद करने के, अपने ही स्वार्थों की रक्षा करने के और केवल अपना निजी दृष्टिकोण यानी अपना राष्ट्रीय व्यक्तित्व देखने के स्थान पर, यह समझने की कोशिश करते कि हर राष्ट्र को पृथ्वी पर जीने का अधिकार है और यह नहीं कि उन्हें इस अधिकार से वंचित किया जाये बल्कि ऐसा समझौता ढूंढ़ा जाये जो सबको सन्तुष्ट कर दे ! समाधान हमेशा होता है लेकिन एक शर्त पर और शर्त हल ढूंढ़ने में नहीं बल्कि उसे कार्यान्वित करने के बारे में है : व्यक्तियों और राष्ट्रों में सद्‌भावना होनी चाहिये ।

 

     अगर उनमें सद्‌भावना न हो, अगर वे अच्छी तरह जानते हों कि वे गलती पर हैं लेकिन इसकी परवाह नहीं करते, अगर वे पूरी तरह से गलत हों और फिर भी अपने स्वार्थों से चिपके रहें, तो कुछ नहीं किया जा सकता--बस, तुम उन्हें उनके झगड़े और एक-दूसरे की बरबादी के लिए छोड़ सकते हो । लेकिन इसके विपरीत, अगर पारस्परिक सद्‌भावना हो तो हमेशा कोई-न-कोई अच्छा हल मिल जाता है ।

 

     क्या आप ''समझौते''  की परिभाषा बता सकती हैं ?

 

यह एक मध्यवर्ती हल है । यह हमेशा सर्वोत्तम मार्ग नहीं होता । यह है एक तरह का सामञ्जस्य पाना ।

 

     मैं तुम्हें एक और कहानी सुनाती हूं, एक व्यापारी की कहानी जिसने

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यात्रा पर जाते समय अपने पड़ोसी से कहा: ''मैं यहां से जा रहा हूं, पता नहीं कब लौटूं । इस बड़े घड़े को तुम अपने पास रख लो, लौटकर मैं इसे ले लूंगा ।''  कुछ समय बाद, पड़ोसी को बर्तन खोलने का लोभ हुआ । उसने खोल लिया । धूल की मोटी तह के नीचे... उसने कुछ अशर्फियां देखीं ! उसके लिए यह भारी प्रलोभन था और उसने सोचना शुरू किया, ''शायद मेरा मित्र मर गया हो,  शायद वह लौटकर न आये । इस धन को इसके अन्दर रखने का क्या फायदा ? और मुझे पैसे की कितनी सख्त जरूरत

है !" उसने कुछ सिक्के लिये, कुछ ज्यादा लिये, बहुत सारे लिये जब तक कि बर्तन के सारे सिक्के खतम न हो गये । जिन जैतून के फलों के नीचे वे सिक्के छिपे थे वे खराब हो गये थे इसलिए उसने उन्हें फेंक दिया ।

 

     एक दिन व्यापारी वापिस आ गया और उसने पड़ोसी से कहा, ''मेरा बर्तन वापिस दे दो ।''  कुछ दिनों के बाद, पड़ोसी ने धूल से अटा हुआ बरतन लौटा दिया जैसा कि वह पहले था । व्यापारी ने बरतन खोला और उसे बस जैतून के कुछ ताजे फल मिले । सारा सोना जा चुका था । वह न्यायाधीश के पास गया और जो कुछ हुआ था उसे कह सुनाया । लेकिन न्यायाधीश ने कहा, ''मैं इस बात पर कैसे विश्वास कर सकता हूं कि तुम सच बोल रहे हो ? शायद तुम्हारा पड़ोसी सच बोल रहा हो ।'' उन्होंने बहस की लेकिन कोई हल न निकाल पाये । व्यापारी के सिर में दर्द हो रहा था, उसने सोचा, ''आज रात मैं शहर में घूमने जाऊंगा ।'' और वह शहर में घूमने निकल पड़ा । अचानक उसने कुछ बच्चों को खेलते देखा । उनके पास एक घड़ा था, एक व्यापारी था, उसका एक पड़ोसी था और था एक न्यायाधीश ! न्यायाधीश पड़ोसी से कह रहा था, ''बर्तन का ढक्कन खोलो । लेकिन मैं तो ताजे जैतून देख रहा हूं ! व्यापारी को गये कितना समय हुआ है ? '' ''ढाई साल'' । '' सच ! तो तुम इन जैतूनों को इतने लम्बे अरसे तक ताजा रख सके ? क्या तुमने कभी संयोगवश बर्तन में क्या है यह देखने के लिए उसे खोला नहीं था और थोड़े-से ताजे जैतून उसमें नहीं रखे थे ?'' पड़ोसी भाग खड़ा हुआ । व्यापारी ने सोचा, ''ये बच्चे मुझसे कहीं अधिक बुद्धिमान् हैं; इन्होंने हल तुरन्त ढूंढ़ निकाला । और वह अपने पड़ोसी के पास जा पहुंचा और उससे वही प्रश्न किया; और स्वाभावत: पड़ोसी और कुछ न कह सका और उसे सच बात कबूल करनी पड़ी ।

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३० जनवरी, १९५१

 

यह वार्ता श्रीअरविन्द की पुस्तक ''माता'' के तीसरे अध्याय पर आधारित है ।

 

     ''तुम्हार श्रद्धा, निष्कपटता जितने अधिक पूर्ण होंगे उतनी अधिक कृपा और सुरक्षा तुम्हारे साथ होंगी । और जब दिव्य मां की कृपा और सुरक्षा साथ हों तो कौन जो तुम्हें छू या डरने की जरूरतहै ?   जरा- कृपा और सुरक्षा भी तुम्हें सभी कठिनाइयों , बाधाओं और संकटों से पार कर देगी । कृपा और सुरक्षा की पूरी उपस्थिति से घिरे हुए तुम सभी जोखिमों परवाह किये बिना, किसी भी विरोध से प्रभावित हुए बिना, वह चाहे जितना सशक्त क्यों न हो, चाहे इस जगत् का हो या अदृश्य जगत् का, सुरक्षित रूप से अपने पथ पर चलते चले जाओगे क्योंकि यह पथ उनका ( दिव्य मां का) है । उनका स्पर्श कठिनाइयों को अवसरों में, असफलता को सफलता में और दर्बलता को अस्खलित शक्ति में बदल सकता । क्योकि दिव्य मां की कृपा परम प्रभु की स्वीकृति है और आज हो या कल, उसका प्रभाव अवश्य । यह ऐसी चीज है जो समादिष्ट, अवश्यम्भावी और अप्रतिरोध्य है ।''

 

"समादिष्ट'' का क्या अर्थ है ?

 

यह ''आदेश'' शब्द से आया है । यह एक नियम है, एक ऐसी चीज है जो... उदाहरण के लिए, ऐसा आदेश है कि फलां-फलां चीज फलां-फलां तरीके से होगी । सरकारें आदेश देती हैं कि क्या करना और क्या नहीं करना है । ये सरकारी आशाएं हैं । तो, यहां यह परम प्रभु की आज्ञा है, यह अनिवार्य आज्ञा है ।

 

     ''कृपा और सुरक्षा की पूरी उपस्थिति से घिरे हुए तुम सुरक्षित रूप से अपने पक्ष पर चलते चले जाओगे क्योंकि यह पक्ष उनका (दिव्य मां का) है I"

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यह भी उसी तरह है । जिस क्षण से तुम भागवत कृपा के घेरे में होते हो और भागवत कृपा को ग्रहण करने के लिए उचित अवस्था में होते हो उसी क्षण से तुम्हारा और उनका पथ एक एवं समान हो जाता है ।

 

      ''अदृश्य जगत्'' कौन से हैं ?

 

यह विकट प्रश्न है :

 

     तुमने पढ़ा और सुना है कि हम सत्ता की विभिन्न अवस्थाओं से बने हैं : भौतिक, प्राणिक, मानसिक, चैत्य, आध्यात्मिक इत्यादि । हां तो, सत्ता की ये सभी आन्तरिक अवस्थाएं अदृश्य जगतों के समरूप होती हैं । एक भौतिक जगत्, एक प्राणिक जगत्, एक मानसिक जगत्, एक चैत्य जगत्, और बहुत-से आध्यात्मिक जगत् होते हैं, परम प्रभु के अधिकाधिक निकट पहुंचने वाली अधिकाधिक सूक्ष्म जगतों की पूरी शृंखला होती है । अत: चूंकि तुम्हारे अन्दर उसी के समरूप एक शृंखिला होती है इसलिए अध्ययन करके और अपनी आन्तरिक सत्ता के प्रति अभिज्ञ होकर तुम क्रमश: इन अदृश्य जगतों की अभिज्ञता भी पा सकते हो । उदाहरण के लिए मन को लो : अगर मन सचेतन, समन्वित और सुनियन्त्रित हो तो वह मानसिक जगत् में ठीक उसी तरह घूम-फिर सकता है जिस तरह शरीर भौतिक जगत् में घूमता है और यह देख सकता है कि यह मानसिक जगत् कैसा है, वहां क्या चल रहा है, और इसकी क्या विशेषताएं हैं इत्यादि । ये चीजें अपने- आपमें अदृश्य नहीं होतीं-वे भौतिक चेतना, भौतिक इन्द्रियों के लिए अदृश्य होती हैं लेकिन चेतना की समरूप आन्तरिक अवस्थाओं या समरूप आन्तरिक इन्द्रियों के लिए अदृश्य नहीं होतीं । क्योंकि रीतिबद्ध विकास द्वारा व्यक्ति इन जगतों की इन्द्रियों को प्राप्त कर सकता है और फिर भिन्न विशेषताओं के साथ समान जीवन जी सकता है । मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर कोई अपने- आपको पर्याप्त रूप में विकसित कर ले तो वह इन जगतों में वस्तुपरक जीवन जी सकता है । नहीं तो हमारे लिए वे जगत् अस्तित्व नहीं रखते । अगर हमारे अन्दर विश्व में जो कुछ है उस सबके समरूप कुछ-न-कुछ न होता तो हमारे लिए इस विश्व का अस्तित्व ही न होता । यह केवल क्रमबद्ध और रीतिबद्ध विकास की बात

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है । कुछ लोगों में यह चीज नाना प्रकार के कारणों से, साधारणत: पिछले जन्मों की लम्बी तैयारी के परिणामस्वरूप, सहज रूप में होती है, तो कभी विशेष अनुकूल परिस्थितियों के कारण । वे अमुक परिवेश में जन्म लेते हैं, उन्हें ऐसे मां-बाप मिलते हैं जिन्होंने ये क्षमताएं विकसित की हों, और उन्हें बचपन से ही इन क्षमताओं को विकसित करने में सहायता मिलती है । दूसरों को क्रमिक रूप में, आन्तरिक अनुशासन द्वारा इसे प्राप्त करना होता है; इसमें समय लगता है, काफी समय, लेकिन फिर भी बच्चे के मस्तिष्क को अमूर्त गणित पकड़ने में जितना समय लगता है उससे अधिक नहीं । उसमें वर्षों लग जाते हैं ।

 

      क्या ये अदृश्य जगत् विश्व में किसी निश्चित स्थान पर होते हैं ?

 

निश्चय ही, ये विश्व का एक हिस्सा हैं । हां, तुम कह सकते हो कि वे निश्चित स्थान पर होते हैं । लेकिन इसे समझने के लिए, इन चीजों को समझने के लिए एक ऐसे मन की आवश्यकता है जो यह बात समझने में समर्थ हो कि एकदम-से जड़- भौतिक आयामों के अलावा और भी आयाम हैं । जब तुमसे कहा जाता है कि तुम्हारी चैत्य सत्ता तुम्हारे शरीर में है तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि अगर तुम अपने शरीर को चीरो तो अन्दर तुम अपनी चैत्य सत्ता पा लोगे । तुम्हें अपना हृदय, अपना पेट बाकी सब मिलेगा, लेकिन चैत्य सत्ता नहीं । और फिर भी यह कहना ठीक है कि वह तुम्हारे अन्दर है । वह तुमसे भी परे जाती है लेकिन फिर वह दूसरे आयाम की बात है । और तुम कह सकते हो कि जितने भिन्न-भिन्न जगत् हैं उतने ही आयाम भी हैं । निश्चय ही, ये सभी अदृश्य जगत्-तथाकथित अदृश्य जगत्-मुड़- भौतिक विश्व में समाये हुए हैं । लेकिन वे दूसरी वस्तुओं का स्थान नहीं घेरते । एक अपूर्ण तुलना के लिए--यह केवल तुलना के लिए ठीक है--तुम अपने मस्तिष्क में असंख्य विचार रख सकते हो और निश्चय ही तुम्हें यह अनुभव नहीं होता कि किसी और विचार को अन्दर आने देने के लिए एक विचार को निकाल बाहर करना होगा, होता है क्या ? उस अर्थ में वे कोई स्थान नहीं घेरते ।

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      '' और उसकी रचना के लिए आवश्यक शर्तें ।''

 

ये असंख्य हैं और व्यक्ति और परिस्थितियों के साथ बदलती हैं । लेकिन अन्तत: , ये कम की जा सकती हैं । उन्होंने शुरू में या कुछ आगे चलकर कहा, मैं भूल रही हूं.. .हां यहां : '' श्रद्धा, सचाई और समर्पण '' । ये आवश्यक शर्तें हैं । बाद में वे बतलाते हैं कि किस तरह की श्रद्धा, किस तरह की सच्चाई, और कैसा समर्पण । विरोधी शक्तियों पर विजय पा सकने के लिए ये आवश्यक शर्तें हैं--तुम्हारी ओर से आवश्यक शर्तें । उनकी शर्तें हैं--मेरे ख्याल से वे इन्हें सहज रूप से निभाती हैं-- अभीप्सा को उत्तर देना, शक्ति स्पष्टदृष्टि ज्ञान और इच्छा का होना । यह स्पष्ट है । अत: तुम्हें उन्हें कार्यक्षेत्र देना चाहिये, वे शर्तें निभानी चाहिये जिनमें वे कार्य कर सकें । और ये शर्तें हैं : श्रद्धा, सचाई और समर्पण--पवित्र, अमिश्रित श्रद्धा, पूर्ण सर्वांगीण सचाई और अप्रतिबन्ध समर्पण । यही है जिसका उन्होंने तुम्हारे लिए वर्णन किया है ।

 

      क्या आयामों की संख्या सीमित है ?

 

सीमित ? या असीमित ? तुम क्या पूछ रहे हो ? कितने आयाम हैं? ओह, क्या हमें गणितज्ञों या गुह्यविद्याधरों से पूछना चाहिये ? गुह्यविद्याधरों से !

 

      हां, एक तरह से संख्या सीमित है, लेकिन चूंकि हर एक आयाम में सीमित संख्या के उपविभाग हैं और चूंकि इन उपविभागों के फिर बहुत बड़ी संख्या में उपविभाग हैं,  इसलिए हम कह सकते हैं कि यह असीमित है--और फिर भी सीमित है । तो, अगर तुम कुछ समझ पाये तो भाग्यशाली हो !

 

       अगर संख्या सीमित है तो कितने आयाम हैं ?

 

बारह I

 

        ''भगवान्, आध्यात्मिक और अतिमानसिक सत्य, धरती पर, अपने अन्दर एवं उन सभी के अन्दर जिनकी पुकार हुई है और जो चुने गये हैं, इस सत्य की चरितार्थता और इसकी रचना के लिए आवश्यक शर्तों और सभी विरोधी शक्तियों पर इसकी विजय के अलावा और किसी वस्तु की मांग न करो ।''

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      ''मानसिक सत्ता मे अहंकारमयी श्रद्धा'' कैसे हो सकती है ?

 

उन्होंने इसका वर्णन बहुत अच्छी तरह किया है : ''महत्वाकांक्षा आदि से रंगी हुइ '' I  मुझे लगता है अगर तुम इसे दूसरी तरह से रखो तो यह और भी ज्यादा सच है । क्या कोई ऐसी श्रद्धा है जिसमें ये चीजें जरा भी न हों । क्योंकि कहा गया है, बार-बार कहा गया है कि श्रद्धा, अगर वह पवित्र हो, तो कुछ भी उसका विरोध नहीं कर सकता, वह समर्थ है... । तो इसका मतलब यह हुआ कि अगर किसी के अन्दर एकदम से पवित्र श्रद्धा, इन सभी चीजों से अछूती, सच्ची श्रद्धा हो, एकदम सच्ची, तो कुछ भी असम्भव न होगा । व्यक्ति रातों-रात रूपान्तरित हो सकता है, वह अतिमानस को पल भर में उतार ला सकता है, श्रद्धा हो तो व्यक्ति कुछ भी, कुछ भी कर सकता है । लेकिन वह श्रद्धा शुद्ध श्रद्धा होनी चाहिये, उसमें किसी भी तरह की व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं या व्यक्तिगत इच्छा का मिश्रण नहीं होना चाहिये ।

 

     शुद्ध श्रद्धा एक सर्व-शक्तिमान् और दुर्निवार चीज है । तुम ऐसी श्रद्धा को बहुधा न पाओगे जो सर्व-शक्तिमान् और दुर्निवार हो, और यह चीज दिखाती है कि श्रद्धा पूरी तरह से शद्ध नहीं है । प्रश्न को इस तरह रखना चाहिये : हममें से हर एक में श्रद्धा होती है, उदाहरण के लिए, किसी चीज में श्रद्धा, मान लो अपने अन्दर स्थित भागवत 'उपस्थिति' में श्रद्धा । अगर हमारी श्रद्धा शुद्ध हो तो हम अपने अन्दर स्थित भागवत उपस्थिति से तुरन्त अभिज्ञ हो जायेंगे । यह समझने के लिए बहुत सरल उदाहरण है । तुम्हारे अन्दर श्रद्धा है, वह है तो, लेकिन तुम्हें अनुभव नहीं होता । क्यों ? क्योंकि श्रद्धा शुद्ध नहीं है । अगर श्रद्धा पूरी तरह से शुद्ध होती तो चीज तुरन्त हो जाती । राह एकदम सच है । तो अगर तुम इस बात से अभिज्ञ हो जाते हो कि चीज तुरत चरितार्थ नहीं हो रही है तो तुम यूं देखना शुरू कर सकते हो : लेकिन राह चरितार्थ क्यों नहीं हुई ? मेरी श्रद्धा में क्या है आखिर ? और अगर तुम उसी सच्ची निष्कपटता के साथ देखते चलो तो

 

       १ ''मानसिक और प्राणिक सत्ता में, महत्त्वाकांक्षा, अहंकार, दम्भ, मानसिक दर्रा, प्राणिक हठ, व्यक्तिगत मांग, निम्न प्रकृति के तुच्छ सन्तोष की कामना से रंगी हुई अहंकारपूर्ण श्रद्धा मद्धिम और धुएं से धुंधली लौ होती है जो ऊपर स्वर्ग की तरफ नहीं उठ सकती ।''

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तुम देखोगे कि उसमें बहुत-सी छोटी चीजें हैं, कितनी ही छोटी-छोटी चीजें-बड़ी नहीं, इतनी बड़ी-जो घूणास्पद हैं । छोटी-छोटी चीजें । कितनी ही बार जरा-सा गर्व आ जाता है और फिर कामना, बहुत उग्र नहीं-ऐसी जो अपने आपको बहुत नहीं दिखाती । वह जो तुम्हें महानता देती है, जो तुम्हें शक्ति देगी और जो सन्तोष देगी... ।

 

       अदृश्य जगतों में चीजें भौतिक जगत् की चीजों की तरह दिखयी देती हैं या जैसी स्वप्नों में देखती हैं वैसी ?

 

स्वप्न क्या है इस पर हमें सहमत होना चाहिये ! कुछ स्वप्न ऐसे होते हैं जिनमें तुम चीजों को इतनी यथार्थता के साथ, इतने ठोस रूप में देखते हो कि तुलना में जड़- भौतिक जीवन अवास्तविक-सा लगता है । ऐसे स्वप्न होते हैं जिनमें चीजें इतनी तीव्र, इतनी यथार्थ इतनी ठोस, इतनी वस्तुपरक होती हैं और तुम पर इतनी जीवन्त छाप छोड़ जाती हैं कि तुम्हें जड़- भौतिक जगत् कुछ धुंधला-सा, बहुत साफ और बहुत स्पष्ट नहीं लगता । हां, तो अगर यह ऐसा स्वप्न हो तो उत्तर होगा, हां । लेकिन अगर ऐसा स्वप्न हो जहां चीजें असंगत और बेमेल रूप से एक-दूसरे के साथ भिड़े, तो नहीं ।

 

      पहला कदम : तुम्हें सत्ता की विभिन्न अवस्थाओं में भेद करना और उन्हें निश्चित रूप से जानना आना चाहिये : यह प्राण का है, यह मन का है, यह चैत्य का है, यह जड़- भौतिक का है । और जैसा कि मैंने पहले कहा, इन सबमें उपविभाग होते हैं । एक जड़-भौतिक प्राण, एक प्राणिक प्राण, एक मानसिक प्राण, एक चैत्य से प्रभावित प्राण होता है । तुम्हें चीजों का स्पष्ट रूप से वर्गीकरण करना आना चाहिये और अपने अन्दर किसी भी तरह के मिश्रण, धुंधली भ्रान्ति को नहीं आने देना चाहिये : '' ओह, यह क्रिया कहां से आयी ? यह क्या है ? '' --ऐसे अस्पष्ट भाव । यह पहला कदम है ।

 

      दूसरा कदम : तुम इनमें से किसी एक आन्तरिक अवस्था पर एकाग्र होना सीखो । उसे चुनो जो तुम्हें सबसे अधिक जीवन्त, अपने अन्दर सबसे अधिक विकसित लगे और वहीं पर एकाग्र होना सीखो । और फिर तुम

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वही कसरतें करो... मुझे पता नहीं, कि तुम्हें वे कसरतें याद हैं या नहीं जिन्हें तुम बहुत छोटी उम्र में चलने, पीने, बोलने, सुनने, अनुभव करने के लिए करते थे । तुम बहुत सारी कसरतें करते थे । सभी बच्चे बिना जाने कसरतें करते हैं, लेकिन वे करते जरूर हैं । तो तुम्हें कुछ-कुछ उसी दिशा में करना होगा । तुम्हें इन्द्रियों को जगाना होगा, उन्हें विकसित करना होगा, उन्हें सचेतन बनाना होगा, उन्हें अपने अवबोधों में स्वतन्त्र और यथार्थ बनाना होगा । यह दूसरी अवस्था है । इसमें समय लग सकता है, यह जल्दी भी हो सकती है, यह तुम्हारी आन्तरिक सत्ता के विकास के परिमाण पर निर्भर है ।

 

      उसके बाद--यह तो बस आरम्भ है--उसके बाद, तुम्हें सत्ता के अन्य सभी भागों से अपने-आपको पृथक् करके केवल उसी भाग पर एकाग्र होना सीखना होगा जिसमें तुम अनुभूति चाहते हो । तुम्हें इस तरह एकाग्र होना होगा कि तुम उसके समरूप बाहरी जगत् के सम्पर्क में आ जाओ । मेरा मतलब यह नहीं है कि यह बाह्यीकरण है जो तुम्हारे शरीर को अचेतनता की अवस्था में छोड़ जाता है । नहीं, बहुत तीव्र एकाग्रता पर्याप्त है, ऐसी शक्ति जो तुम्हें, तुम जिस स्थान पर एकाग्र हो रहे हो उसके अलावा और सभी चीजों से पृथक् कर दे । और फिर तुम तदनुरूप जगत् के साथ सम्पर्क में आते हो । तुम्हें यह चाहना होगा और धीरे-धीरे तुम इसे करना सीख जाओगे । और फिर जिन इन्द्रियों को तुमने क्रमश: विकसित किया है उन्हें अधिक अच्छा बनाने और उन्हें कार्यक्षेत्र देने के लिए आवश्यक कसरत करनी होगी । हो सकता है कि पहले पहल, तुम इस बाहरी जगत् में खो-से जाओ, हो सकता है, तुम चैन का अनुभव न करो । लेकिन धीरे- धीरे तुम इसके अभ्यस्त हो जाओगे और वहां उसी तरीके से घूमने फिरने लगोगे जो उनमें से हर एक जगत् के लिए उपयुक्त है ।

 

     लेकिन अगर तुम पहले से यह जान लो कि वे कैसे हैं तो-मन रचनाएं गढ़ने का इतना विलक्षण यन्त्र है कि वह तुम्हारे लिए एक पूरी अनुभूति का निर्माण कर देगा, और दुर्भाग्यवश, वह अनुभूति कभी असली न होगी--वह केवल एक मानसिक रचना होगी । अत:, साधारणत:, जब तुम इन गुह्य मामलों में किसी को निर्देश देना चाहते हो तो तुम शुरू में यह कभी नहीं बताते कि क्या होने वाला है । केवल जब व्यक्ति के अन्दर

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कुछ हुआ हो, अगर वह कहे, ''मेरे साथ यह हुआ'', तो तुम कहते हो, ''हां, यह ठीक है'', या ''नहीं, यह ठीक नहीं है ।'' तुम उसकी सहायता कर सकते हो । लेकिन तुम पहले से नहीं बताते, ''तुम अमुक-अमुक स्थान पर जाओगे । वह ऐसा होगा । तुम्हें फलां-फलां अनुभूतियां होंगी '' इत्यादि । क्योंकि तब ये सारी चीजें केवल बहुत ही अच्छी तरह निर्मित किसी मानसिक रचना के फलस्वरूप हो सकती हैं जिसमें तुम आसानी से आ- जा सकते हो । उस अवस्था में वह सचमुच स्वप्न होगा ।

 

      अगर कोई भागवान उपस्थिति से अभिज्ञ न हो, तो क्या वह भागवत सुरक्षा का सुख पा सकता है ?

 

यह भी व्यक्ति पर निर्भर है । ऐसा हो सकता हे; हमेशा ऐसा नहीं होता, पर यह हो सकता हे । यह भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति को कृपा के बारे में कुछ भी पता नहीं और भागवत कृपा उसे दी गयी । तुम जितना सोचते हो उससे कहीं अधिक बार ऐसा होता है ।

 

      क्या भाव हमेशा प्राणिक हलचल होता है ?

 

यह भाव पर निर्भर है और उस पर भी निर्भर है कि तुम किस भाव की बात कर रहे हो । उदाहरण के लिए, एक ऐसी अवस्था है जहां, अगर तुम अपने- आपको बहुत ही यथार्थ, बहुत ही स्पष्ट, एकदम से विशेष चैत्य गति के सामने पाओ-ऐसा बहुत बार होता है--यह भाव इतना प्रबल होता है कि तुम्हारी आंखों में आंसू भर आते हैं । तुम दुःखी नहीं होते, तुम खुश नहीं होते । इनमें से किसी भी अवस्था में नहीं होते । वह किसी विशेष अनुभव से सम्बन्ध नहीं रखती, लेकिन वह भाव की एक तीव्रता होती है जो किसी ऐसी चीज से आती है जो स्पष्ट रूप में, यथार्थत: चैत्य होती है । यह तुम्हारे अपने अन्दर हो सकती है, लेकिन उससे भी बढ़कर, बहुधा यह किसी दूसरे में होती है । जब तुम्हारा किसी ऐसे कर्म के साथ, किसी ऐसी गति के साथ, किसी ऐसी अभिव्यक्ति के साथ सम्पर्क हो जाये जो चैत्य से सम्बन्धित हो तो एकदम आंखें भर आती हैं । अगर तुम उसे भाव कहो...

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निश्चय ही यह भाव है । लेकिन साधारणत: यह एक चीज से आता है : भौतिक सत्ता की चैत्य जीवन के साथ सम्पर्क में आने की बहुत सचेतन न सही लेकिन तीव्र ललक से । जब वह चैत्य सत्ता के सम्पर्क में नहीं होती तो अपने- आपको दरिद्र, निराश्रित, अलग-थलग और परित्यक्त अनुभव करती है । लाखों में से एक भौतिक सत्ता भी इस तथ्य से अभिज्ञ नहीं है । इस तरह खो जाने का भाव, बिना किसी सुरक्षा, बिना किसी सहारे के यूं ही हवा में लटकने का भाव, किसी चीज का अभाव, लेकिन तुम यह नहीं जानते कि वह क्या है, कोई ऐसी चीज जिसे तुम समझ नहीं पाते लेकिन जिससे वंचित रहते हो, कहीं पर एक तरह का खालीपन; हां ये सारी चीजें, व्यक्ति जितना सोचता है उससे कहीं अधिक बार आती हैं--लोगों को इसका कोई आभास ही नहीं है कि यह क्या है । लेकिन, जब कभी किसी-न-किसी कारण से यह चेतना एकदम से स्पष्ट चैत्य तथ्य, चैत्य शक्तियों, चैत्य स्पन्दनों के सम्पर्क में आ जाती है तो वह अनुभव इतना शक्तिशाली, इतना शक्तिशाली होता है कि बहुधा, निश्चित रूप से, शरीर उसे सम्भाल नहीं पाता । यह एक तरह का आह्लाद होता है जो बहुत महान् है, जो हर तरफ से बह निकलता है, जिसे तुम अपने अन्दर नहीं रख सकते, नहीं बांध सकते । तो ऐसा होता है । अचानक एक तरह का उद्‌घाटन होता है जो बहुत सचेतन, बहुत स्पष्ट रूप में व्यक्त नहीं होता, ऐसा उद्‌घाटन....यही चीज है, मुझे यही पाना चाहिये । और वह इतना शक्तिशाली, इतना शक्तिशाली होता है कि तुम्हें एक भाव से भर देता है, जो इतनी चीजों से बना होता है कि तुम कह नहीं सकते कि वह क्या है । ये ऐसे भाव हैं जो प्राणिक नहीं हैं ।

 

     प्राणिक भाव एकदम से भिन्न प्रकृति के होते हैं--वे बहुत स्पष्ट, बहुत यथार्थ होते हैं, तुम उन्हें स्पष्ट रूप में व्यक्त कर सकते हो; वे उग्र होते हैं, साधारणत: वे तुम्हें एक तीव्रता, चञ्चलता और कभी-कभी एक महान् सन्तोष से भर देते हैं । और फिर इसके विपरीत चीज भी समान शक्ति के साथ आती है । इसलिए, बहुत-से लोग सोचते हैं--हम यह पहले ही कई बार कह चुके हैं--वे सोचते हैं कि वे प्रेम का अनुभव तभी करते हैं जब वह इस तरह का हो, जब वह प्राण में हो, जब वह प्राण की सभी क्रियाओं इस समस्त तीव्रता, इस उग्रता, इस यथार्थता, इस चमक-दमक के साथ,

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इस तड़क- भड़क के साथ आये । और जब यह न हो तो वे कहते हैं : ''ओह, यह प्रेम नहीं है ।''

 

     और वस्तुत:, इसी तरह प्रेम विकृत होता है : फिर वह प्रेम नहीं रह जाता, उसमें आवेश का आरम्भ हो जाता है । और मनुष्यों में यह भूल प्राय: सार्वभौम होती है ।

 

     कुछ लोग बहुत पवित्र, बहुत उच्च, बहुत निःस्वार्थ चैत्य प्रेम से भरे होते हैं लेकिन वे उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते और समझते हैं कि वे ठण्डे शुष्क और प्रेमहीन हैं क्योंकि उसमें प्राणिक स्पन्दन का यह मिश्रण नहीं होता । उनके लिए प्रेम का आरम्भ और अन्त इसी स्पन्दन में होता है ।

 

    और चूंकि यह स्पन्दन बहुत ही अस्थिर होता है जिसमें अवसाद और सन्तोष दोनों में ही सभी तरह की गतियां, प्रतिक्रियाएं और उग्रताएं होती हैं, इसलिए ऐसे लोगों के लिए प्रेम क्षणभंगुर होता है; उनके जीवन में प्रेम के कुछ छण होते हैं । वह कुछ घण्टे रह सकता है और फिर नीरस और सपाट बन जाता है और वे सोचते हैं कि प्रेम ने उन्हें छोड़ दिया है ।

 

    जैसा कि मैंने कहा, कुछ लोग इससे एकदम परे होते हैं, वे उसे इस तरीके से नियन्त्रित कर सकते हैं कि वह और किसी चीज के साथ न मिले; उनके अन्दर ऐसा चैत्य प्रेम होता है जो आत्म-विस्मृति, आत्मदान, अनुकम्पा, उदारता, जीवन की उदात्तता से भरपूर होता है । यह तादात्म्य की महान् शक्ति है । तो, इनमें से अधिकतर यही सोचते हैं कि वे ठंडे या निरपेक्ष हैं--वे बहुत अच्छे लोग होते हैं, लेकिन वे प्रेम नहीं करते--और कभी-कभी वे स्वयं भी नहीं जानते । मैं ऐसे लोगों को जानती हूं जो यह सोचते थे कि उनके अन्दर प्रेम नहीं है क्योंकि उनमें यह प्राणिक स्पन्दन नहीं था । साधारणत: लोग जब भावों के बारे में कहते हैं तो वे प्राणिक भावों की बात करते हैं । लेकिन एक दूसरी तरह का भाव भी है जो इससे अनन्तगुना उच्च कोटि का है और अपने--आपको उस तरीके से अभिव्यक्त नहीं करता । उसमें उतनी ही तीव्रता तो होती है लेकिन ऐसी तीव्रता जो नियन्त्रण में होती है, अन्तर्निहित, घनीभूत, एकाग्र होती है, और यह विलक्षण रूप से गतिशील शक्ति होती है ।

 

     सच्चा प्रेम असाधारण चीजें प्राप्त कर सकता है, लेकिन वह बहुत

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विरल होता है । प्रेम के द्वारा प्रेमपात्र के लिए सभी तरह के चमत्कार किये जा सकते हैं-सबके लिए नहीं, बल्कि उन लोगों या उस व्यक्ति के लिए जिससे तुम प्रेम करते हो । लेकिन वह प्रेम सभी प्राणिक घपले से मुक्त, एकदम से पवित्र और निःस्वार्थ प्रेम होना चाहिये जो बदले में कुछ नहीं मांगता, बदले में किसी वस्तु की आशा नहीं करता ।

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१ फरवरी, १९५१

 

(यह वार्ता माताजी के लेख '' स्वप्नों के बारे में'' पर आधारित है ।)

 

       किसी चीज को याद रखने के लिए तुम्हें सबसे पहले उसके बारे में सचेतन होना होगा ।

 

       मैंने सपने में ऐसा समुद्र देखा जो नीरवता के साथ बहता ही रहा । इससे मुझे बहुत सुख मिला I मैं भौतिक वस्तु की तरह अनुभव कर सकता था ।

 

यह लगभग अनुभूति है-स्वप्न से अधिक ।

 

      कुछ ऐसे स्थान हैं जहां तुम सपने में समय-समय पर जाया करते हो । कभी-कभी कुछ महीनों के अन्तराल के बाद भी पुराना सपना जारी रह सकता है । कुछ सपने चेतावनी भी देते हैं जो बहुधा एक ही चीज को दोहराते हैं ताकि तुम उस पर ध्यान देने के लिए बाधित होओ ।

 

      मैंने हाल ही में ''क'' को देखा I क्या वह सचमुच वही व्यक्ति था ?

 

व्यक्ति क्या है ? जब तुम शरीर में होते हो तो तुम हमेशा शरीर को देखते हो और सोचते हो कि वह व्यक्ति है । लेकिन इस शरीर में अभी संपूर्ण सत्ता है, अभी सत्ता का एक भाग और इसका शेष भाग कहीं और । कभी सत्ता की एक क्रिया सामने आती है तो कभी दूसरी । चूंकि तुम्हारे सामने एक शरीर होता है जिसे तुम देखते रहते हो, इसलिए तुम सोचते हो कि जिस सत्ता को तुम देख रहे हो वह हमेशा एक होती है, लेकिन यह सच नहीं है । सत्ता का केन्द्र, चैत्य सत्ता बहुत कम ही अभिव्यक्त सत्ता का रूप धारण करती है; चैत्य सत्ता तो असंख्य शरीरों से गुजर चुकी होती है और अगर वह उन सभी शरीरों की छाप रखे भी तो परिणाम पहचाना न जा सकेगा, है न ? जो व्यक्ति चला गया है उसका ख्याल ही प्राय: तुम्हारे वातावरण में या तुम्हारे अपने विचार में आकार बना लेता है । फिर एक स्वरूप-सा प्रकट होता है । वह मौजूद होता है और यह तुम्हारी अपनी अवस्था पर

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निर्भर है कि तुम उसे कितना स्पष्ट देखते हो । लेकिन तुम जो आकार देते हो वह तुम्हारी अपनी रचना होती है; तुम उस व्यक्ति के जिस भौतिक आकार को जानते हो वह उससे समानता रखता है । मैं यह नहीं कहती कि यह निरपेक्ष नियम है, लेकिन दस में से नौ बार ऐसा ही होता है ।

 

      और इसका मैं तुम्हें बहुत ही स्पष्ट उदाहरण दे सकती हूं । जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जिसे तुमने उसकी मृत्यु के समय नहीं देखा था, तो उस समय उसका जो आकार था तुम उसे नहीं देखते बल्कि उस आकार को देखते हो जो अन्तिम बार देखा था । अत: तुम आकार अपने-आप दे लेते हो । मैं यह नहीं कहती कि यह बिल्कुल ऐसा ही होता है । यह और तरह से भी हो सकता है, लेकिन यह इतना विरल है कि उसके बारे में न कहना ज्यादा अच्छा है । लाखों में से एक व्यक्ति ही इतना तटस्थ हो सकता है कि अपने अन्तर्दर्शन में कुछ भी न जोड़े । इसलिए, इसके बारे में न बोलना ही ज्यादा अच्छा है । यह एक आदर्श हो सकता है जिसके लिए अभीप्सा की जाये ।

 

      तुम जो कुछ देखते हो, सपने में हो या जागते हुए अन्तर्दर्शन देखने में, उसमें हमेशा काफी संख्या में आत्मपरक ब्योरे होते हैं । अगर तुम व्यक्ति को उस तरह न देखो जैसा कि तुमने उसे पिछली बार देखा था, तो भेद हमेशा तुम्हारे अपने विचार से आता है । अगर तुम सोचते हो कि व्यक्ति अधिक वृद्ध होना चाहिये, तो तुम उसे अधिक वृद्ध देखोगे; अगर सोचते हो कि उसे बीमार दीखना चाहिये, तो तुम उसे बीमार देखोगे, इत्यादि और इसी तरह चलता है । एकदम से तटस्थ दृष्टि जो पूरी तरह से सत्य के अनुरूप हो, बहुत विरल है । तुमने जिस स्वप्न की बात कही, उसका बस यही अर्थ है कि तुम्हारा उसके साथ स्निग्ध, प्यारभरा सम्बन्ध था इसलिए उसकी सत्ता का एक भाग तुम्हारे निकट ही रहा और किसी कारण से स्वप्न में तुम्हें उसका भान हुआ ।

 

      जब  से मैं अपने परिवार छोड़कर आया हूं, मैं नियमित रूप से हफ्ते में कम-से-कम एक बार उन्हें सपने में देखता  हूं ।

 

यह अवचेतना से आता है ।

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     जैसा कि मैंने तुमसे कहा, मैंने स्वप्न के विषय का गहराई से अध्ययन किया है । जब तक कि तुम विशेष तरीके से एकाग्र न होओ तुम हमेशा ऐसी चीजों को सपने में देखते हो जिनका तुमने अनुभव किया, जिन्हें तुमने महसूस किया या जिनसे तुम कुछ समय पहले परिचित थे; लेकिन तुम अपने वर्तमान जीवन की चीजों को सपने में नहीं देखते । तुम उनके बारे में सोच सकते हो, तुम उन्हें याद कर सकते हो, लेकिन तुम उन्हें सपने में नहीं देखते । बहुत ही विरल उदाहरणों को छोड़कर स्वप्न अवचेतना में अंकित किसी चीज का उद्‌घाटन होता है । यह ध्यन्यांकन धीरे-धीरे होता है; चीज अपने-आपको अभिव्यक्त कर सके इससे पहले एक तरह के आत्मसात्करण की आवश्यकता होती है, और आत्मसात् करने में समय लग सकता है । तुम उन चीजों को, उन व्यक्तियों को सपने में देखते हो जिन्हें तुम बहुत पहले जानते थे; जब बीच में बहुत समय बीत गया हो तो साधारणत: यह स्वप्न किसी विशेष कारण से आता है । कुछ चीजें नियमित अन्तराल में आती हैं और तुम्हारे सपने में क्रियाओं का एक तरह का चक्र चलता है । अगर तुम किसी ऐसे बिन्दु को पा लो जहां उपस्थित चीजों ने पहले कभी तुम्हारे जीवन पर छाप डाली हो तो तुम दोनों को एक साथ देख सकते हो ।

 

     बहुत ही कम सपनों का अर्थ और निर्देशात्मक मूल्य होता है, लेकिन सभी सपने तुम्हारी चेतना की वर्तमान अवस्था बता सकते हैं और साथ- ही-साथ यह भी दिखा सकते हैं कि अवचेतना में चीजें कैसे मिलती हैं, कौन-से पार्थिव प्रभाव होते हैं, वे कैसी छाप छोड़ जाते हैं और किस तरह समन्वित होते हैं । यह अध्ययन करने का बहुत ही रुचिकर विषय है ।

 

     स्वप्नों में हम अधिकतर निष्क्रिय होते हैं और साधारण जीवन में जिस प्रकार प्रतिक्रिया करते हैं उस तरह नहीं करते ? क्यों ?

 

हमेशा नहीं । मैं ऐसे कई लोगों को जानती हूं जो सपने में अपने जाग्रत् जीवन से कहीं अधिक क्रियाशील थे और जो सपने में ऐसी चीजें करते थे जिन्हें करने में जाग्रत् अवस्था में वे कभी समर्थ न होते । उदाहरण के लिए मैं ऐसे लोगों को जानती हूं जो अपने जाग्रत् जीवन में डर के मारे जड़ हो

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जाते थे लेकिन सपने में अदम्य साहस प्रकट करते थे और सचमुच वीरतापूर्ण कार्य करते थे । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अगर तुम किसी अप्रिय चीज का सपना देखो, तो कोई प्रतिक्रिया करने की जगह तुम कहते हो, ''यह सब कुछ सपना है, यह सच नहीं है, यह असम्भव है, ''इत्यादि, और इस तरह सपना दूसरा रूप ले लेता है । निश्चय ही ऐसा होने के लिए जरूरी है कि तुम्हें यह भान हो कि तुम स्वप्न देख रहे हो । यह अवलोकन के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र है-सपने में तुम जो खोज कर सकते हो उसका कोई अन्त नहीं । लेकिन एक महत्त्वपूर्ण बात है; जब तुम बहुत थके हो तो तुम्हें सोना नहीं चाहिये, क्योंकि अगर तुम सो जाओ, तो तुम एक तरह की अचेतना में गिर जाते हो जिसमें सपने तुम्हारे साथ मनमानी करते हैं, और तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती । जैसा कि मैंने कहा कि भोजन से पहले विश्राम करना चाहिये उसी तरह मैं हर एक को सलाह दूंगी कि सोने से पहले आराम करो और उसके लिए, तुम्हें आराम करना आना चाहिये ।

 

     अब मैं तुम्हें अपना अभी हाल का सपना सुनाती हूं जिसे मैंने कुछ ही दिन पहले देखा था । सचमुच स्वप्न नहीं था, वह बहुत सचेतन था (मैं ऐसे लोगों में नहीं हूं जो उन चीजों को स्वप्न में देखते हैं जो बहुत पहले हुई हों; उनसे बचने के लिए क्या करना चाहिये, यह मैं जानती हूं ।) मैं प्राण लोक में एक ऐसे स्थान पर गयी जहां मैं जानती हूं कि हमारे बहुत से लड़के आराम के लिए जाते हैं- अपनी भौतिक नींद में तो कम-से-कम ऐसा ही दीखता है मानों वे आराम कर रहे हैं । लेकिन चूंकि वे सचमुच आराम करना नहीं जानते, इसलिए ऊर्जा संचित करने की जगह वे उसे खो देते हैं । उनमें से कुछ बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा खो बेठते हैं : अपनी ऊर्जा को पुन: प्राप्त करने के स्थान पर वे उसे नष्ट कर देते हैं । तो मैं वहां गयी और बहुत-सी पंक्तियां देखीं जिनमें खाट जैसी चीजें थी लेकिन सचमुच खाटें नहीं थीं I मैं कमरे में इधर-से-उधर गयी और मैंने उन्हें आराम करते देखा, वे आराम करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन चूंकि, वे आराम करना नहीं जानते थे इसलिए कर नहीं पा रहे थे । वे सभी लगभग पसरे हुए-से थे, उनकी आंखें खुली थीं-वे सो नहीं रहे थे, वह नींद नहीं थी, आराम की अवस्था थी, प्राण क्रियाशील नहीं बल्कि अर्ध- जाग्रत् अवस्था में था । मैंने उन्हें समझाया कि मैं उन्हें आराम करने का

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ऐसा तरीका बता सकती हूं जिसमें वे अपनी ऊर्जा को नष्ट करने के स्थान पर उसे पुन: पा सकते हैं । और क्या तुम विश्वास करोगे, उनमें से केवल एक ही इसे सीखने का इच्छुक था ! औरों ने कहा, ''नहीं, हम जैसे हैं ठीक हैं, हम और कुछ सीखना नहीं चाहते ! ''

 

      जब हम आपको सपने में देखते हैं तो आपको कहां देखते हैं ?  क्या वह हमेशा एक ही स्थान होता है ?

 

बहुत-से भिन्न-भिन्न स्थान हैं, बहुत-से । वह सूक्ष्म-भौतिक में हो सकता है, क्योंकि तुम सब मेरे भौतिक वातावरण में रहते हो इसलिए बहुधा तुम मुझे सूक्ष्म- भौतिक में देखते हो । और वहां तुम अनुभव करते हो कि जो कुछ तुम देख रहे हो प्राय: जड़- भौतिक है जिसमें हल्का-सा विकार आ गया है । चूंकि वह सूक्ष्म- भौतिक होता है इसलिए तुम जो देखते हो उसे बहुत आसानी से याद रख सकते हो । बहुधा, आधी रात को मैं तुम्हारा ख्याल करती हूं (मैं इसके बारे में डींग नहीं मारना चाहती) और मैं बहुत- सी ऐसी बातों को याद रखती हूं जिनका कुछ महत्त्व होता है--मैं सब कुछ याद नहीं रखती क्योंकि स्मरणशक्ति को निरर्थक चीजों के बोझ से लादने का कोई मूल्य नहीं । और मैंने देखा है कि तुममें से कई याद रख सकने में समर्थ होते हैं, लेकिन तुम्हारी चेतना में चीज जरा-से विकार के साथ होती है--वह ठीक वही चीज नहीं होती ।

 

     कुछ लोग मुझे प्राणिक रूप से देख सकते हैं, कुछ और चैत्य रूप से देख सकते हैं (यह बहुत विरल होता है) कुछ मानसिक रूप से देख सकते हैं और कुछ अवचेतना में और कुछ परिस्थितियों में अचेतना में देखते हैं लेकिन यह विरल है ।

 

     कुछ लोगों के सामने मेरा रहस्य खुल जाता है और वे मुझे वैसा ही देखते हैं जैसी मैं हूं ।

 

      सोने से पहले आराम करने का क्या तरीका है ?

 

बहुत-से तरीके हैं, लेकिन मैं तुम्हें एक बताऊंगी । सबसे पहले, तुम्हारा

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शरीर बिस्तर या आरामकुर्सी पर आरामदेह अवस्था में होना चाहिये--कहीं भी हो लेकिन आरामदेह अवस्था में होना चाहिये । फिर तुम अपनी स्नायुओं को एक-के-बाद-एक ढीला छोड़ना सीखो जब तक कि तुम पूरी तरह से शिथिल न हो जाओ । तुम्हें अपनी सभी स्नायुओं को ढीला छोड़ना होगा--तुम सबको एक साथ भी ढीला छोड़ सकते हो, लेकिन शायद उन्हें एक-के-बाद-एक शिथिल करना ज्यादा आसान होता है और यह बहुत रुचिकर बन जाता है । इसके हो जाने पर, तुम अपने दिमाग को निश्चल और नीरव करो और साथ-ही-साथ अपने शरीर को लत्ते की तरह बिस्तर पर रख दो । तुम्हें अपने दिमाग को पूरी तरह से स्थिर और इतना अचञ्चल बनाना चाहिये कि उसे अपना भान तक न हो । और फिर, सोने की कोशिश मत करो, बल्कि इस अवस्था से नींद की अवस्था में उससे अभिज्ञ हुए बिना, बहुत ही धीरे--धीरे चले जाओ । अगली सुबह उठकर अपने- आपको तुम ऊर्जा से भरा हुआ अनुभव करोगे । लेकिन अगर तुम बहुत थककर शान्त हुए बिना, अपने- आपको शिथिल करने की कोशिश भी किये बिना सोने जाओ तो तुम भारी, जड़ और अचेतन नींद में जा गिरोगे और प्राण अपनी सारी ऊर्जा खो बैठेगा । शायद उस पहली चीज का तुरन्त कोई असर न दीखे लेकिन ऐसी नींद में डूबने की जगह जहां तुम बहुत थक जाते हो, इसकी कोशिश करना ज्यादा अच्छा है ।

 

     सोने से पहले अगर तुम अपने- आपको बहुत-ही धीरे से शिथिल छोड़ दो तो सोने में तुम्हें बड़ा आनन्द मिलेगा, अगर तुम स्नायुओं को ढीला छोड़ सको, भले ही वह केवल एक हाथ या एक पैर की क्यों न हो, तुम देखोगे कि वह कितना सुखकर है । अगर तुम तनावभरी स्नायुओं से सोओगे तो तुम्हारी नींद बहुत अशान्त होगी और रात में तुम कई बार करवटें बदलोगे । इस तरह का आराम किसी काम का नहीं होता ।

 

     मैंने देखा है की अगर मैं एक करवट सोऊं तो दूसरी करवट उठता हूं । क्या हमेशा ऐसा ही होता है ?

 

नहीं, जरूरी नहीं है । कोई नियम नहीं है । अगर तुम सोचो कि ऐसा है तो ऐसा ही होगा !

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    मैंने देखा है की अगर कोई मजेदार सपना मुझे जगा दे तो मैं फिर से सोकर उस सपने को दिखना जरी रख सकता हूं I

 

हां, यह किया जा सकता है और इसका अर्थ है कि तुम अपने रात के क्रिया-कलाप के बारे में आंशिक रूप से सचेतन हो ।

 

    मैं एक व्यक्ति को जानता था जिसे एक स्वप्न तब तक आता रहा जब तक कि उसके स्वप्न और प्रत्यक्ष में भेद करना असम्भव नहीं हो गया ।

 

कभी-कभी ऐसा होता है कि जब तुम अपने शरीर से बाहर निकलते हो, सोते समय जब तुम अपना बाह्यीकरण करते हो और प्राणिक जगत् में सचेतन होते हो, तो तुम एक ऐसा प्राणिक जीवन जी सकते हो जो भौतिक जीवन के जितना सचेतन होता है । मैंने ऐसे लोग देखे हैं--शरीर से बाहर निकलने की यह क्षमता बहुतों में नहीं होती-लेकिन मैं ऐसे लोगों को जानती हूं जिनके अन्दर प्राण-जगत् के अनुभवों के लिए इतना प्रबल खिंचाव था कि अन्त में उन्होंने अपने शरीर में लौट आना अस्वीकार कर दिया, वे लगभग अनिश्चित काल तक सोते रहे ।

 

    अगर तम प्राण-जगत् में सचेतन और आत्मनियन्त्रित रहो और अगर वहां तुम्हारे अन्दर अमुक शक्ति हो, तो परिस्थितियां अद्‌भुत होती हैं, भौतिक जगत् से अनन्त गुना अधिक विविध और भव्य । यह सच है कि प्राण-जगत् के कुछ क्षेत्र अद्‌भुत हैं ।

 

    अब में तुम्हें बताऊंगी कि यह कैसे होता है ? जब तुम बहुत थके हुए होते हो और तुम्हें आराम की आवश्यकता है और अगर तुम अपना बाह्यीकरण करना जानते हो, अगर तुम अपने शरीर से बाहर निकलकर सचेतन रूप से प्राण-जगत् में प्रवेश करो, तो वहां प्राण-जगत् में ऐसे क्षेत्र हैं जो आश्चर्यकर अछूते जंगल की तरह हैं, जिनमें समृद्ध और समस्वर वनस्पति जगत् की भव्यता है और जहां दर्पण की तरह स्वच्छ और सुन्दर तड़ाग हैं । और सारा वातावरण पेड़-पौधों की जीवंत प्राण-शक्ति से भरा है. जहां सब तरह के हरे रंगों की छाया पानी में प्रतिबिम्बित होती है...

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और वहां तुम इतनी जीवन-शक्ति इतने सौन्दर्य, इतनी समृद्धि और प्राचुर्य का अनुभव करते हो कि तुम ऊर्जा से भरपूर होकर उठते हो । और यह सब कितना वस्तुपरक होता है ! मैं लोगों को इसके बारे में यह बताये बिना कि वहां क्या होगा वहां ले जाने में सफल हुई और वे उस स्थान का ठीक वैसा ही वर्णन कर सके जैसा कि मैं कर सकती हूं, उन्हें बिल्कुल वैसी ही अनुभूति हुई । सोने से पहले वे एकदम से थक कर चूर थे और सुबह परिपूर्णता, शक्ति, ऊर्जा के अद्‌भुत अनुभव के साथ उठे । वे वहां कुछ मिनट ही रहे थे ।

 

     ऐसे क्षेत्र हैं--बहुत नहीं, लेकिन उनका अस्तित्व है । और दूसरी ओर, प्राण-जगत् में बहुत-से अप्रिय स्थान भी हैं और वहां न जाना ज्यादा अच्छा है । उनकी बात छोड़ो जो अपने शरीर से इतने बंधे इतने चिपके हुए हैं कि वे अपने शरीर को छोड़ना तक नहीं चाहते, जो आसानी से अपने शरीर से बाहर निकलना सीख सकते हैं उन्हें भी यह बहुत सावधानी के साथ करना चाहिये । मैं यह चीज बहुत लोगों को नहीं सिखा पायी, क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि अगर वे अकेले में, मेरी उपस्थिति के बिना इसे करते हैं तो कभी-कभी मेरी सुरक्षा के बिना वे अपने- आपको ऐसी अनुभूतियों में फंसा हुआ पायेंगे जो उनके लिए बहुत हानिकर हो सकती हैं ।

 

     प्राण-जगत् अति का जगत् है । उदाहरण के लिए अगर तुम प्राण जगत् में अंगूर का एक गुच्छा खा लो तो ३६ घण्टे तक तुम बिना भूख लगे आराम से पूरी तरह से पोषित रह सकते हो । लेकिन तुम्हारा ऐसी चीजों से भी सामना हो सकता है, ऐसी जगहों पर जा सकते हो जो क्षण- भर में तुम्हारी सारी ऊर्जा को खींच लें, और कभी-कभी तुम्हें बीमार छोड़ जायें या बीमारी के ऐसे उत्तर-प्रभाव छोड़ जायें जो प्राण-जगत् के होते हैं ।

 

     मैं एक ऐसी महिला को जानती थी जो गुह्यविद्या की दृष्टि से एकदम अद्‌भुत थी । वह अपने बारे में, अपनी सत्ता के सभी क्षेत्रों के बारे में पूरी तरह से सचेतन थी; एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जा- आ सकती थी-संक्षेप में, वह अद्‌भुत थी । हां, तो प्राण-जगत् में उसके साथ एक दुर्घटना हुई । वह अपने किसी बहुत ही प्रिय व्यक्ति को बचाने के लिए प्राण जगत् की कुछ सत्ताओं के साथ युद्ध कर रही थी और उसकी आंख में एक घुंसा

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लगा । जब मैं उससे मिली तो वह एक आंख खो चुकी थी । प्राण-जगत् में बहुत से लोगों के साथ इस तरह की दुर्घटनाएं होती हैं और जग जाने पर घण्टों उन पर दुर्घटनाओं का असर रहता है । इसलिए तुम जिस किसी से यूं ही नहीं कह सकते, ''अपने शरीर से बाहर निकलना सीखो, ''क्योंकि सुरक्षा के साथ यह कर सकने से पहले बहुत कुछ करना आवश्यक होता है । अगर मिथ्यात्व और हिंसा की शक्तियों के साथ तुम्हारा जरा भी सादृश्य हो, तो अपने भौतिक शरीर में रहना ही ज्यादा अच्छा है I

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१२ नवम्बर, १९५२

 

अन्तरात्मा के सोपान

 

     व्यक्ति एक बहुत ही जटिल सत्ता है; वह असंख्य तत्त्वों से बनी है, और हर तत्त्व एक स्वतन्त्र सत्ता है जिसका प्राय: अपना व्यक्तित्व होता है । इतना ही नहीं, एकदम से विरोधी तत्त्व भी एक ही साथ रहते हैं । अगर कोई विशेष गुण या सामर्थ्य होती है तो मानों उसका अस्तित्व मिटाने वाला एकदम उल्टा तत्त्व भी उसके साथ उससे लगा हुआ मिलेगा । मैंने एक ऐसा आदमी देखा है जो साहस, निर्भीकता, शौर्य में चरम सीमा तक पहुंचा हुआ था, वह किसी भी खतरे से विचलित न होता था, बड़ी-सेबड़ी मुसीबत का बिना क्षुब्ध हुए सामना करता था, सचमुच वीरों में सबसे बड़ा वीर था; और फिर भी मैंने उसी व्यक्ति को कुछ परिस्थितियों में एकदम-से तुच्छ आतंक के सामने सबसे बड़े कायर की तरह संत्रस्त होते देखा है । मैंने एक बहुत ही बड़े दानी को, खर्चे के दान के किसी तरह के हिसाब-किताब के बिना, त्याग की भावना के बिना, बचाये रखने की जरा भी परवाह किये बिना, खुले हाथों बड़े-बड़े दान करते देखा है; और मैंने उसी आदमी को कुछ दूसरी अवस्थाओं में सबसे निकृष्ट कंजूस की भांति पाया है । और मैंने स्पष्ट मन, प्रकाश और बोध से भरे हुए, किसी भी विषय के तर्क को आसानी से समझ लेने वाले बहुत ही बुद्धिमान् व्यक्ति को देखा है और मैंने उसी व्यक्ति को बरबस अधिक-से- अधिक मूर्खता प्रदर्शित करते देखा है जिसे बिना किसी शिक्षा या बुद्धिवाला, एकदम-से सामान्य मनुष्य भी करने में असमर्थ होता । ये कोई काल्पनिक उदाहरण नहीं हैं : मैं जीवन में सचमुच ऐसे लोगों से मिली हूं ।

 

     जटिलता केवल विस्तार में ही नहीं गहराई में भी पायी जाती है । मनुष्य किसी एक स्तर पर नहीं बल्कि, एक साथ कई स्तर, पर जीता है । मानव चेतना में क्रमविन्यास का एक पैमाना होता है : क्रम में मनुष्य जितना अधिक ऊंचा उठता है उतनी ही अधिक संख्या में उसमें तत्त्व और व्यक्तित्व होते हैं । चाहे वह अधिकतर या मुख्य रूप से भौतिक, प्राणिक या मानसिक स्तर पर रहे या इन स्तरों के किसी विशेष भाग में रहे या

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इनसे ऊपर के स्तर पर या इनसे परे रहे, उसी के अनुसार व्यक्ति के व्यक्तित्व की गठन, या मनोदैहिक गठन में भेद होंगे । व्यक्ति जितना ज्यादा ऊपर उठा हुआ होगा उतना समृद्ध उसका व्यक्तित्व होगा क्योंकि वह केवल अपने सामान्य स्तर पर नहीं रहता बल्कि उन सभी स्तरों पर रहता है जो उससे नीचे हैं और जिनको उसने पार कर लिया है । कुछ गुह्यवादियों का कहना है कि पूर्ण या सर्वांगीण मनुष्य के तीन सौ पैंसठ व्यक्तित्व होते हैं; असल में तो इससे भी कहीं अधिक हो सकते हैं । वेद तीन, तैंतीस, तैंतीस सौ और तैंतीस हजार देवों के बारे में कहते हैं जो मनुष्य में निवास कर सकते हैं-स्पष्ट है कि आधारभूत त्रयी निश्चय ही शरीर, जीवन या प्राण और मन की तीन अवस्थाएं या तीन जगत् हैं ।

 

     मनुष्य के इस आत्म-विरोध और विभाजन का क्या अर्थ है ? इसे समझने के लिए हमें यह जानना और याद रखना चाहिये कि हर एक व्यक्ति अमुक गुण, या सामर्थ्य किसी उपलब्धि विशेष का प्रतिनिधित्व करता है जिसे मूर्त रूप देना है । उसे अच्छे-से- अच्छी तरह कैसे किया जा सकता है ? ऐसा कौन-सा उपाय है जिसके द्वारा मनुष्य किसी गुण को उसके शुद्धतम, उच्चतम, और पूर्णतम रूप में पा सकता है ? उसका विरोध स्थापित करके यह किया जा सकता है । इसी तरह किसी शक्ति को बढ़ाया और अधिक बलवान् बनाया जा सकता है--उसे जो चीज कमजोर बनाये और उसका विरोध करे उसके विरुद्ध लड़कर और उस पर विजय पाकर । किसी गण विशेष के सम्बन्ध में कमियां तुम्हें दिखाती हैं कि तुम्हें कहां सुधारना और मजबूत बनाना होगा और उसे पूर्णतया पूर्ण बनाने के लिए किस तरह बेहतर बनाना होगा । यह वह हथौड़ा है जो नरम और कमजोर लोहे को पीटकर कठोर इस्पात में बदल देता है । प्रारम्भिक असंगति उपयोगी होती है और तुम्हें अधिक ऊंचे सामञ्जस्य को लाने के लिए उसका उपयोग करना चाहिये । मनुष्य में आत्म-विरोध होने का यही रहस्य है । तुम ठीक उसी भाग में सबसे अधिक दुर्बल होते हो जो तुम्हारी महानतम सम्पदा बनने के लिए पूर्वनिर्धारित है ।

 

     तो हर व्यक्ति को एक उद्देश्य पूरा करना है, विश्व में उसे एक भूमिका निभानी है, उसे एक ऐसी भूमिका दी गयी है जिसे उसे वैश्व 'उद्देश्य' के लिए सीखना और निभाना है । उसके सिवाय उसे और कोई नहीं कर

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सकता । यह उसे जीवन के अनुभवों द्वारा यानी, एक जीवन में नहीं बल्कि जीवन-दर-जीवन सीखना और प्राप्त करना है । वस्तुत: जीवन की जीवन-श्रृंखला  का यही अर्थ है जिसमें से व्यक्ति को गुजरना पड़ता है, यानी अनुभूतियां प्राप्त कर गणों, विशेषताओं, शक्तियों और सामर्थ्थौ की लच्छी में से सूत्र निकालकर वह अपने जीवन को, उसे जिस तरह बुनना हो बुन ले । विकसनशील व्यक्ति की केन्द्रीय चेतना, उसकी अन्तरतम सत्ता उसका सच्चा व्यक्तित्व उसकी चैत्य सत्ता होती है । वह ऐसी होती है मानों प्रकाश का बहुत ही छोटा-सा स्फुलिंग हो जो सामान्य मनुष्यों में जीवन के अनुभवों के बहुत ही पीछे रहता है । विकसित आत्माओं में इस चैत्य चेतना में अधिक प्रकाश होता हैं--तीव्रता, घनता के साथ-साथ अधिक समृद्ध प्रकाश । इस तरह प्रौढ़ अनारात्माएं और नयी अन्तरात्माएं होती हैं । प्रौढ़ या पुरानी अन्तरात्माएं वे हैं जिन्होंने पूर्णता की समग्रता को पा लिया है या उसे पाने वाली हैं; वे असंख्य जीवनों से गजर चुकी हैं और उन्होंने सबसे अधिक जटिल, लेकिन साथ-ही-साथ सबसे अधिक सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकसित कर लिया है । नयी अन्तरात्मा वे हैं जो अभी- अभी केवल भौतिक-प्राणिक अस्तित्व से निकली है या निकल रही हैं, जो मुख्य रूप से शारीरिक जीवन से संबद्ध कम अवयवों से बनी सरल रचना की भांति होती हैं जिनमें जरा-सा मानसिक तत्त्व होता है । जो हो, अन्तरात्मा ही अनुभूतियों के साथ विकसित होती है और अन्तरात्मा ही व्यक्तित्व को रचती और उसे समृद्ध बनाती है । बाहरी जीवन का जो कोई भी अंश, मन, प्राण, शरीर का जो कोई तत्त्व चैत्य चेतना के साथ सम्पर्क में आने में सफल होता है, यानी, उसके प्रभाव में आ सकने में समर्थ होता है उसे लेकर वहां स्थापित कर दिया जाता है : वह चैत्य सत्ता में उसके जीवंत स्मरण और स्थायी सम्पति के रूप में रहता है । ये ही तत्त्व है जो आधार बनाते हैं, उस नींव को खड़ा करते हैं जिस पर सर्वांगीण और सच्चे व्यक्तित्व की इमारत को उठना है ।

 

     अत: सबसे पहली चीज यह ढूंढ़ना है कि वह कौन-सी चीज है जिसे चरितार्थ करने के लिए तुम आये हो, तुम्हें कौन-सी भूमिका निभानी है, तुम्हारा विशेष उद्देश्य क्या है और वे क्षमताएं या गुण कौन-से हैं जिन्हें तुम्हें अभिव्यक्त करना है । तुम्हें इसके साथ-साथ इसकी खोज भी करनी है

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कि वह कौन-सी चीज या चीजें हैं जो उसका विरोध करती हैं और उसे खिलने या पूर्णतया अभिव्यक्त नहीं होने देतीं । दूसरे शब्दों में, तुम्हें अपने- आपको जानना होगा, अपनी आत्मा या अपनी चैत्य सत्ता को पहचानना होगा ।

 

     उसके लिए तुम्हें पूरी तरह से सच्चा और पक्षपातहीन होना होगा । तुम्हें अपने- आपका इस तरह निरीक्षण करना होगा मानों तुम किसी और ही व्यक्ति का निरीक्षण और उसकी समालोचना कर रहे हो । तुम्हें इस विचार से शुरू न करना चाहिये कि यही मेरे जीवन का उद्देश्य है, यही मेरी विशेष सामर्थ्य है, मुझे यह या वह ही करना है, इसी में मेरी योग्यता या प्रतिभा छिपी है, इत्यादि । यह चीज तुम्हें उचित रास्ते से दूर हटा ले जायेगी । तुम्हारी सत्ता के बाहरी भाग की पसन्द या नापसन्द, तुम्हारा मानसिक, प्राणिक या भौतिक चुनाव तुम्हारे विकास की सच्ची दिशा का निश्चय नहीं करता । न ही तुम्हें यह कहकर इसके विपरीत वृत्ति अपनानी चाहिये  ''मैं इस विषय में किसी काम का नहीं हूं, उस विषय में बेकार हूं, यह मेरे लिए नहीं है ।''  न गर्व, न घमण्ड और न ही आत्म-उपेक्षा और झूठी नम्रता तुम्हें विचलित कर सके । जैसा कि मैंने कहा, तुम्हें एकदम-से पक्षपातहीन और बेलाग होना चाहिये । तुम्हें एक ऐसे दर्पण की तरह होना चाहिये जो सत्य को प्रतिबिम्बित तो करे परन्तु निर्णय न करे ।

 

     अगर तुम इस तरह की वृत्ति को बनाये रख सको, अगर तुम्हारी सत्ता में यह सुस्थिरता और शान्त भरोसा हो और जो अन्तर्दर्शन प्राप्त हो सकता है, तुम उसकी प्रतीक्षा करो तो कुछ ऐसा होता है : मानों तुम किसी अंधेरे, रवहीन जंगल में हो, तुम्हें सामने बस पानी की एक परत दिखायी देती है अन्धकारमयी और ठहरी हुई, जो मुश्किल से दीखती है--मानों अन्धकार में एक छोटा-सा तड़ाग जटित है; और धीरे-धीरे उस पर चन्द्रमा की एक किरण पड़ती है और शीतल, धुंधले प्रकाश में निश्चल तरल सतह उभर आती है । पहले सम्पर्क में तुम्हारी सत्ता का गुप्त सत्य इसी तरह तुम्हारे सामने प्रकट होगा : वहां तुम अपनी सत्ता के सच्चे गुणों को, अपने भागवत व्यक्तित्व की विशेषताओं को, तुम जो हो और तुम्हें जो बनना है उसे क्रमश: प्रतिबिम्बित होते देखोगे ।

 

      जिस किसी ने अपने-आपको यूं जान लिया है, अपने ऊपर अधिकार

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पा लिया है, अपने अन्दर के सभी विरोधों पर विजय पा ली है, इस तथ्य के द्वारा उसने अपने- आपको और अपनी विजय को विस्तृत कर लिया है, और उन लोगों के लिए काम आसान कर दिया है जो ऐसी या इसी तरह की विजय पाना चाहते हैं । ये ही हैं वे अग्रगामी और श्रेष्ठ मनुष्य जो अपने अन्दर विजयी अभियान द्वारा दूसरों को विजय पाने में सहायता पहुंचाते हैं ।

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५ फरवरी, १९५६

 

       दुःख-दर्द पर विजय कैसे पायी जा सकती है ?

 

समस्या इतनी आसान नहीं है । दुःख-दर्द के कारण असंख्य होते हैं और उनके स्तरों में भी बहुत भेद होता है, यद्यपि दुःख-दर्द की उत्पत्ति वही एक ही है और वह किसी भागवत-विरोधी इच्छा की प्रारम्भिक क्रिया से आता है । इसे आसानी से समझने के लिए तुम दुःख-दर्द को दो स्पष्ट श्रेणियों में बांट सकते हो, यद्यपि व्यवहार में वे बहुधा मिले-जुले होते हैं ।

 

     पहला शुद्ध रूप से अहंकारभरा होता है और इस अनुभव से आता है कि तुम्हारे अधिकारों पर आघात पहुंचाया गया है, तुम्हारी जरूरतों से तुम्हें वंचित रखा गया है, तुम्हें क्षुब्ध किया गया है, तुम्हें लूटा गया है, तुमसे विश्वासघात किया गया है और तुम्हें दुःख पहुंचाया गया है इत्यादि । कष्ट की यह सारी श्रेणी स्पष्ट रूप से विरोधी क्रिया का परिणाम है और यह न केवल चेतना के अन्दर विरोधी प्रभाव के लिए दरवाजा खोल देता है बल्कि संसार में उसके कार्य करने के सबसे अधिक शक्तिशाली तरीकों में से एक है, और वह सबसे अधिक शक्तिशाली बन जाता है अगर उसके साथ-साथ उसका स्वाभाविक और सहज परिणाम भी आ जाये; यानी, शक्तिशाली में घृणा और प्रतिशोध लेने की इच्छा, और निर्बल में निराशा और मरने की इच्छा ।

 

     दूसरी तरह के दुःख-दर्द का, जिसका प्रारम्भिक कारण विरोधी शक्ति के द्वारा रचा गया वियोग का दर्द है, स्वभाव एकदम उल्टा होता है : यह वह दु:ख-दर्द है जो भागवत अनुकम्पा से आता है, उस प्रेम का दुःख-दर्द जिसे जगत् के कष्टों के प्रति सहानुभूति का अनुभव होता है, उसका मूल कारण या प्रभाव चाहे कुछ भी क्यों न हो । लेकिन इस दु:ख-दर्द में, जो शुद्ध रूप से चैत्य प्रकार का है, किसी तरह का अहं, किसी तरह की आत्म-दया नहीं होती; वह शान्ति, शक्ति और कार्य-शक्ति, भविष्य के प्रति श्रद्धा और विजय के संकल्प से भरा होता है; वह दया नहीं दिखाता बल्कि ढाढ़स बंधाता है, वह दूसरों की अज्ञानमयी गतिविधि के साथ अपने- आपको एक नहीं कर लेता बल्कि उसे सुधारता और प्रकाशित करता है ।

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     यह स्पष्ट है कि जो मूलत: पवित्र है, केवल वही जो पूर्ण रूप में दिव्य है, उस दुःख-दर्द का अनुभव कर सकता है; लेकिन आंशिक रूप में कुछ क्षणों के लिए, अहंकार के घने बादलों के पीछे बिजली की कौंध की तरह यह उन सभी के अन्दर प्रकट होता है जिनका हृदय विशाल और उदार है । लेकिन, बहुधा, व्यक्तिगत चेतना में यह उस तुच्छ और नगण्य आत्मदया से मिला-जुला होता है जो अवसाद और दुर्बलता का कारण है । फिर भी, जब तुम इतने पर्याप्त रूप में जागरूक होते हो कि इस मिश्रण को अस्वीकार कर दो, या उसे कम-से-कम कर दो, तो तुम जल्दी ही समझ लेते हो कि यह भागवत अनुकम्पा, भव्य और शाश्वत हर्ष पर आधारित है, केवल उसी में जगत् को अज्ञान और दुर्दशा से उबारने की शक्ति और बल है ।

 

     और यह दुःख-दर्द भी केवल तभी विलीन होगा जब जगत् से विरोधी शक्ति के और उसकी क्रिया के सभी प्रभाव पूरी तरह से विलीन हो जायेंगे ।

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१९५८ (१)

 

पिछले जन्मों की यादें

 

 

     अगर तुम्हें चीजें सच्चे रूप में कहनी हों, तो तुम्हें सब कुछ विस्तार में कहना होगा । अपने अस्सी वर्ष के जीवनकाल में मुझे जो असंख्य अनुभूतियां हुई हैं उनमें से कई इतनी विविध और ऊपर से देखने में इतनी विरोधी थीं कि तुम कह सकते हो : आखिर सब कुछ सम्भव है । तो अगर मैं तुम्हें एक सूत्र में पिरोये बिना, पिछले जीवनों की कुछ बातें बतलाऊं तो वह रूढ़िवाद के लिए दरवाजा खोलना होगा । एक दिन तुम कहोगे, ''माताजी ने ऐसा कहा था, माताजी ने वैसा कहा था ।''  और इसी तरह, दुर्भाग्यवश, रूढ़ियां बनती हैं ।

 

     अत: अनुभूतियों की बहुलता और इस बात की असम्भावना देखकर कि मुझे अपना जीवन बातें करते और लिखते हुए बिताना चाहिये, तुम्हें अपने-आपसे कहना चाहिये कि सब कुछ सम्भव है और तुम्हें रूढ़िवादी नहीं होना चाहिये । फिर भी मैं तुम्हें कुछ सामान्य संकेत दे दूं ।

 

     जब तुम अपने दिव्य मूल के साथ सचेतन रूप से तादात्म्य स्थापित कर लो केवल तभी, तुम सचमुच पिछले जन्मों की यादों के बारे में कह सकते हो । श्रीअरविन्द, आत्मा जिन रूपों में निवास करती है उनमें उसकी उत्तरोत्तर अभिव्यक्ति की बात करते हैं । जब तुम इस अभिव्यक्ति के शिखर पर जा पहुंचते हो तो तुम्हें एक अन्तर्दर्शन प्राप्त होता है जो पार किये हुए मार्ग में डुबकी लगाता है और तुम्हें बातें याद आ जाती हैं ।

 

     लेकिन यह स्मृति मानसिक प्रकार की नहीं होती । जो लोग यह दावा करते हैं कि वे मध्ययुग के फलाने जागीरदार या अमुक व्यक्ति थे जो अमुक समय में अमुक स्थान पर रहता था, तो वे स्वैरी होते हैं, वे अपनी ही मानसिक कल्पना के शिकार होते हैं । वस्तुत: पिछले जीवनों की जो चीजें रहती हैं वे ऐसे सुन्दर चित्र नहीं होते जिनमें तुम किसी दुर्ग के महान् स्वामीसत्ता या किसी सेना के विजयी सेनापति दीखते हो--यह सब कोरी कल्पना है । स्मृति में रहते हैं वे क्षण जब चैत्य सत्ता तुम्हारी सत्ता की गहराइयों से उठकर अपने- आपको तुम्हारे सामने प्रकट करती है, यानी,

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उन क्षणों की स्मृति, जब तुम पूरी तरह से सचेतन थे । क्रमविकास के मार्ग में चेतना का यह विकास क्रमश: सम्पन्न होता है ओर पिछले जन्मों की स्मृतियां साधारणत: क्रम-विकास के क्रान्तिक क्षणों में, जिन निश्चित मोड़ो ने तुम्हारी चेतना के विकास को अंकित किया था, उन तक सीमित रहती है ।

 

     उस समय जब तुम अपने जीवन की ऐसी घडियों में जीते हो तो तुम इस बात को याद रखने की कोई परवाह नहीं करते कि तुम महाशय 'क' थे, फलां थे, फलां स्थान पर फलां युग में रहते थे; तुम्हें अपनी सामाजिक पद-प्रतिष्ठा की स्मृति नहीं रहती । इसके विपरीत, तुम इन नगण्य बाहरी चीजों, साधनों और नश्वर चीजों की सारी चेतना खो देते हो, ताकि तुम पूरी तरह आत्मा के अन्तर्दर्शन के प्रकाश या दिव्य सम्पर्क में रह सको । जब तुम्हें पिछले जन्मों के ऐसे क्षणों की स्मृति रहती है तो वह स्मृति इतनी तीव्र होती है कि वह बहुत ही निकट, उस समय भी जीवन्त प्रतीत होती है, और हमारे वर्तमान जीवन की अधिकांश सामान्य स्मृतियों से कहीं अधिक जीवन्त होती है । कभी-कभी, स्वप्न में जब तुम चेतना के अमुक स्तरों के सम्पर्क में आते हो तो तुम्हारे अन्दर, ऐसी तीव्रताभरी स्पन्दनशील रंगों की स्मृति रह जाती है जो भौतिक जगत् के रंगों और चीजों से अधिक तीव्र होते हैं । ये ही सच्ची चेतना के क्षण होते हैं, और सभी चीजों पर एक अद्‌भुत चमक छा जाती है, सब कुछ मुखर हो उठता है, एक ऐसी गुणवत्ता से अनुप्राणित हो उठता है जो साधारण दृष्टि से चूक जाता है ।

 

     अन्तरात्मा के साथ सम्पर्क के ये क्षण बहुधा वे क्षण होते हैं जो हमारे जीवन के किसी निर्णायक मोड़ एक आगे बढ़े कदम, चेतना में विकास को अंकित करते हैं, और बहुधा यह किसी संकटकाल, किसी बहुत ही तीव्र अवस्था के समय आता है, जब पूरी सत्ता में कोई पुकार उठती है, ऐसी प्रबल पुकार कि आन्तरिक चेतना उस ढकनेवाली निश्चेतना की परतों को भेद कर सतह पर पूरी तरह से प्रभासित होती हुई प्रकट होती है । सत्ता की यह पुकार, जब बहुत प्रबल होती है तो भगवान् के किसी निर्गत अंश को, किसी दिव्य व्यक्तित्व, किसी दिव्य पहलू को नीचे उतार सकती है जो तुम्हारे व्यक्तित्व के साथ निश्चित मुहूर्त में एक हो जाती है ताकि तुम

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निश्चित कार्य कर सको, किसी युद्ध को जीत सको , किसी-न-किसी वस्तु को अभिव्यक्त कर सको । काम खतम हो जाने पर, बहुधा वह निर्गत अंश पीछे हट जाता हे । तब तुम उन परिस्थितियों की स्मृति को बनाये रख सकते हो जो अन्तर्दर्शन या प्रेरणा के उन क्षणों में थी; तुम उस दृश्य को दुबारा देखते हो, उस समय पहनी अपनी पोशाक का रंग, अपनी त्वचा का रंग देखते हो और उस समय की आसपास की चीजों को देखते हो--सब कुछ असामान्य तीव्रता के साथ अमिट रूप से अंकित हो जाता है, क्योंकि उस समय साधारण जीवन की वस्तुएं अपने- आपको सच्ची तीव्रता और अपने सच्चे रंग में प्रकट करती हैं । वह चेतना जो स्वयं को तुम्हारे अन्दर प्रकट करती है, वह साथ-साथ उस चेतना को भी प्रकट करती है जो वस्तुओं में है । कभी-कभी इन ब्योरों की सहायता से तुम उस युग को फिर से रूप दे सकते हो जिसमें तुम रहे थे या जो कर्म तुमने किया था, उस देश को ढूंढ़ सकते हो जिसमें तुम रहे थे; लेकिन लम्बी-चौड़ी हांकना और कल्पना को सच्चाई समझ लेना भी बहुत आसान होता है ।

 

     तुम्हें यह भी नहीं सोच लेना चाहिये कि बीते जीवनों की सभी स्मृतियां महान् संकट या महत्त्वपूर्ण उद्देश्य या अन्तर्दर्शन की घड़ियां थीं I कभी- कभी वे बहुत ही सरल, पारदर्शक क्षण होते हैं जब सत्ता का सर्वांगीण, पूर्ण सामञ्जस्य प्रकट होता है । हो सकता है कि वह एकदम से नगण्य बाहरी अवस्थाओं से सम्बन्धित हो ।

 

     उस क्षण तुम्हारे बिल्कुल आसपास की चीजों के अलावा, चैत्य सत्ता के तुम्हारे सम्पर्क के अलावा और कुछ नहीं रहता । विशेष कृपा के क्षण बीत जाने पर चैत्य सत्ता एक आन्तरिक तन्द्रा में डूब जाती है और सम्पूर्ण बाहरी जीवन एक ऐसी धूसर और उदासीन एकरसता में बदल जाता है जो कोई चिह्न तक नहीं छोड़ता । इसके अतिरिक्त, तुम्हारे वर्तमान जीवनकाल में भी यही कुछ होता है : उन विशेष क्षणों को छोड़कर जब तुम अपनी सत्ता के शिखर पर होते हो, चाहे वह मानसिक हो, प्राणिक हो या यहां तक कि भौतिक ही क्यों न हो, तुम्हारा शेष जीवन एक अस्पष्ट रंग में पिघलता हुआ प्रतीत होता है जिसमें विशेष कोई मजा नहीं होता, जब इस बात का अधिक मूल्य नहीं होता कि तुम अमुक स्थान की जगह अमुक स्थान में थे, कि तुमने यह काम किया या वह किया । अगर तुम अपने

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सारे जीवन को, वह जैसा था उसके निचोड़ को पाने के लिए एक साथ देखने की कोशिश करो, बीस, तीस या चालीस वर्ष पीछे जाओ, तो तुम दो-तीन चित्रों को सहज रूप से उभरता देखोगे जो तुम्हारे जीवन के सच्चे क्षण थे; बाकी सब मिट जाता है । एक तरह का सहज चुनाव तुम्हारी चेतना में कार्य करता है और बहुत-सी चीजों का सफाया हो जाता है । यह चीज, पिछले जन्मों में क्या होता है इसका तुम्हें कुछ भान देगी : कुछ खास-खास क्षणों का चुनाव और प्रचुर निष्कासन ।

 

     यह बहुत सच है कि सबसे प्रारम्भिक जीवन बहुत ही अविकसित होते हैं : उनमें से बहुत कम चीजें रहती हैं, इधर-उधर बिखरी हुई कुछ थोड़ी-सी स्मृतियां बच रहती हैं । लेकिन तुम चेतना में जितनी अधिक प्रगति करते हो, चैत्य सत्ता उतने ही अधिक सचेतन रूप से बाहरी क्रियाओं से सम्बद्ध रहती है; स्मृतियों की संख्या बढ़ जाती है और वे अधिक सामञ्जस्यपूर्ण और यथार्थ बन जाती हैं । लेकिन फिर भी, वहां भी, जो स्मृति रहती है वह अन्तरात्मा के साथ सम्पर्क की स्मृति होती है और कभी-कभी उन चीजों की स्मृति होती है जो चैत्य अन्तर्दर्शन से सम्बद्ध थीं--वह सामाजिक पद-प्रतिष्ठा या आस-पास बदलते दृश्यों की स्मृति नहीं होती । और यह चीज इसकी व्याख्या करेगी कि तथाकथित पूर्व पशु-जीवन की स्मृतियां सबसे अधिक विलक्षण क्यों होती हैं : उनके अन्दर भागवत स्फुलिंग इतना अधिक नीचे दबा रहता है कि वह सचेतन रूप से सतह पर नहीं आ सकता, बाहरी जीवन के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ सकता । सचमुच यह कह सकने के लिए कि तुम्हें अपने पिछले जन्मों की याद है, तुम्हें पूरी तरह से सचेतन सत्ता बनना होगा, ऐसी सत्ता जो अपने सभी भागों में सचेतन हो, अपने भागवत मूल के साथ पूरी तरह से एक हो ।

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१९५८ (२)

 

आन्तरिक सिद्धि बाहरी सिद्धि की कुञ्जी

 

     जब विरोधी शक्तियां उन व्यक्तियों पर प्रहार करना चाहती हैं जो मेरे आसपास हैं और जब वे उन्हें श्रीअरविन्द के कार्य के विरोध में या व्यक्तिगत रूप से मेरे विरुद्ध मोड़ने में सफल नहीं होतीं तो वे हमेशा इसी तरीके से, इसी तर्क को लेकर आगे बढ़ती हैं वे कहती हैं : ''तुम्हारे अन्दर मनचाही आन्तरिक सिद्धियां हो सकती हैं, आश्रम की चहारदीवारी में यथासम्भव सबसे अधिक सुन्दर अनुभूतियां हो सकती हैं, लेकिन बाहरी स्तर पर तुम्हारा जीवन बरबाद हो गया, व्यर्थ हो गया है । आन्तरिक अनुभूति और जगत् में ठोस सिद्धि के बीच में एक ऐसी खाई है जिसे तुम कभी नहीं पाट सकोगे ।''

 

     विरोधी शक्तियों का यह सबसे पहला तर्क होता है । मैं इसे जानती हूं । लाखों वर्षों से मैं इसी बात को बार-बार सुनती चली आयी हूं और हर बार मैंने उनका मुखौटा उतारा है । यह मिथ्यात्व है--यही प्रधान मिथ्यात्व है । वह सब जो जगत् और आत्मा में अलगाव स्थापित करना चाहता है, वह सब जो जगत् में भागवत उपलब्धि से आन्तरिक अनुभूति को अलग करता है, वह उनके लिए अच्छा होता है । लेकिन सच है इससे विपरीत बात : आन्तरिक सिद्धि ही बाहरी सिद्धि की कुञ्जी है । जब तक कि तुम अपनी सत्ता के सत्य को नहीं पा लेते तब तक तुम उस सच्ची चीज को जानने की आशा कैसे कर सकते हो जिसे तुम्हें जगत् में चरितार्थ करना है ?

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३० मई, १९५८

 

भगवद्-विरोधी

 

     मैंने गौर किया है कि निन्यानबे प्रतिशत लोग अपने लिए इसका (विरोधी शक्तियों के आक्रमण का) बहाना बना लेते हैं । मैंने देखा है कि करीब-करीब सभी जो मुझे लिखते हैं : ''विरोधी शक्तियों ने मुझ पर बुरी तरह से आक्रमण किया है, '' वे इसे बहाने के रूप में लिखते हैं । चूंकि उनकी प्रकृति में ऐसी बहुत-सी चीजें होती हैं जो समर्पित नहीं होना चाहतीं, इसलिए वे सारा दोष विरोधी शक्तियों पर मढ़ देते हैं ।

 

     वास्तव में, मैं अधिकाधिक ऐसी चीज की ओर मुड़रही हूं जहां विरोधी शक्तियों की भूमिका घट कर परीक्षक की रह जायेगी; यानी, वे तुम्हारी आध्यात्मिक खोज की निष्कपटता की परख करने के लिए होगी । इन चीजों का अस्तित्व काम करने और काम के लिए होता है--और इसका बहुत महत्त्व हैं--लेकिन जब तुम अमुक क्षेत्र के परे चले जाते हो तो ये सब एक ऐसे बिन्दु पर पहुंच जाती हैं जहां वे इतनी भिन्न और सुस्पष्ट नहीं होतीं । गुह्य जगत् में, या यूं कहें कि अगर तुम जगत् को गुह्यविद्या के दृष्टिकोण से देखो, तो ये विरोधी शक्तियां बहुत सच्ची होती हैं, उनकी क्रियाएं बहुत सच्ची, पूरी तरह से ठोस होती हैं, और भागवत उपलब्धि के प्रति उनकी मनोवृत्ति निश्चित रूप से विरोधी होती है । लेकिन जैसे ही तुम इस प्रदेश से निकलकर आध्यत्मिक जगत् में प्रवेश करते हो जहां भगवान् के सिवा कुछ नहीं है, वे ही सब कुछ हैं, और जहां ऐसा कुछ नहीं है जो भगवान् न हो, तब ये ''विरोधी शक्तियां'' पूरी लीला का एक अंश बन जाती हैं और फिर उन्हें विरोधी शक्तियां नहीं कहा जा सकता । वह केवल एक भंगिमा है जो उन्होंने अपनायी है; अधिक यथार्थ रूप से कहें तो, यह बस एक भंगिमा विशेष है जिसे भगवान् ने अपनी लीला में अपनाया है ।

 

     श्रीअरविन्द ''योग-समन्वय'' में जिन द्वैतों की बात करते हैं उनमें ये भी हैं वे द्वैत जो पुन: आत्मसात् कर लिये जाते हैं । मुझे मालूम नहीं कि इन्होंने इस द्वैत विशेष के बारे में कहा है या नहीं--मुझे नहीं लगता लेकिन

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यह वही चीज है; यह देखने का एक तरीका है । उन्होंने वैयक्तिक, निर्वैयक्तिक, ईश्वर -शक्ति पुरुष-प्रकृति इन द्वैतों की बात कही है । एक और है : भगवत् और भगवद्-विरोधी ।

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१९ जुलाई, १९५८

 

 फल खाना

 

    आड़ू को पेड़ पर पकने देना चाहिये; यह ऐसा फल है जिसे उस समय तोड़ना चाहिये जब उस पर धूप पड़ रही हो । जब उस पर सूरज का प्रकाश पड़ता है उस समय तुम आकर उसे तोड़ो और खाओ । तब वह एकदम स्वर्गिक होता है !

 

     इस तरह के दो फल हैं : आड़ू और सुनहरा अलूचा । दोनों के लिए यही बात है : तुम्हें इन्हें पेड़ से तब तोड़ना चाहिये जब ये ऊष्मा से भरे हों, फिर उसे खाओ, और तुम दिव्य रस से भर जाओगे ।

 

     प्रत्येक फल विशेष तरीके से खाना चाहिये ।

 

     मूलत: यह पार्थिव स्वर्ग और ज्ञान-वृक्ष का प्रतीक है : ज्ञान के फल को खाते हुए, तुम क्रियाओं की अपनी सहजता खो बैठते हो, वस्तुपरक दृष्टि से देखना, सीखना और विचार-विमर्श करना आरम्भ कर देते हो, अत: जब उन्होंने (आदम और हौवा ने) यह फल खा लिया तो वे पाप से भर गये ।

 

     मैंने कहा, हर फल को उसके अपने तरीके से खाना चाहिये । अपनी प्रकृति, अपने सत्य के अनुसार जीने वाली हर सत्ता को चीजों का उपयोग करने का अपना तरीका सहज रूप से खोज लेना चाहिये । जब तुम अपनी सत्ता के सत्य के अनुसार जीते हो, तो तुम्हें चीजें सीखने की कोई आवश्यकता नहीं होती, तुम उन्हें सहज रूप में, आन्तरिक नियम के अनुसार करते हो । जब तुम अपनी प्रकृति का अनुसरण सहज रूप से निष्कपटता के साथ करते हो तब तुम दिव्य होते हो । जैसे ही तुम सोचते हो, अपने- आपको काम करते देखते हो या विचार-विमर्श शुरू कर देते हो, तुम पाप से भर जाते हो ।

 

     वह मनुष्य की मानसिक चेतना है जिसने सारी 'प्रकृति' को पाप से और उससे आने वाले दु:ख के विचार से भर दिया है ! जानवर उस तरह दुःखी नहीं होते जैसे हम होते हैं, एकदम नहीं, बिलकुल भी नहीं, केवल, जैसा कि श्रीअरविन्द कहते हैं, वे दुःखी होते हैं जो भ्रष्ट हो गये हैं । भ्रष्ट

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वे हैं जो मनुष्यों के साथ रहते हैं । कुत्तों में पाप और अपराध-भावना होती है । यह इसलिए होता है क्योंकि उनकी सारी अभीप्सा मनुष्य बनने की होती है-मनुष्य देव हैं-और फिर स्वांग या कपट मिथ्यात्व । कुत्ते झूठ बोलते हैं । मनुष्य इसकी सराहना करता है, वह कहता है, ''ओह ! कितने बुद्धिमान् हैं ये !''

 

    वे अपना देवत्व खो बैठे हैं ।

 

    सर्पिल आरोहण में मानव जाति सचमुच एक ऐसे बिन्दु पर है जो सुन्दर नहीं है ।

 

   लेकिन, क्या कुत्ता बाघ से अधिक सचेतन, अधिक विकसित और सर्पिल आरोहण में अधिक ऊंचा नहीं होता, यानी, भगवान् के अधिक निकट ?

 

 

बात सचेतन होने की नहीं है । मनुष्य बाघ से अधिक विकसित है, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं, लेकिन बाघ मनुष्य से अधिक दिव्य है । तुम्हें चीजों में घपला नहीं करना चाहिये : ये दो चीजें एकदम भिन्न हैं ।

 

    देखो, भगवान् हर जगह हर चीज में हैं I तुम्हें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिये, क्षण-भर के लिए भी तुम्हें यह न भूलना चाहिये । वे हर जगह हैं, हर चीज में हैं; और अचेतन रूप में, लेकिन सहजतया और इसीलिए निष्कपट रूप में वह सब जो मानसिक अभिव्यक्ति के नीचे है, बिना मिश्रण के भगवान् है, यानी सहज रूप से, महज़ अपनी प्रकृति द्वारा दिव्य है । मनुष्य ही अपने मन द्वारा अपराध-भावना के विचार को लाया है । स्वाभाविक है कि वह कहीं अधिक सचेतन है ! यह विवादास्पद नहीं, यह भली-भांति अवगत है, क्योंकि जिसे हम चेतना कहते हैं (जिसे ''हम'' यानी, मनुष्य चेतना कहते हैं) वह ऐसी शक्ति है जिसमें विषयाश्रित होने और वस्तुओं को मानसिक रूप देने की शक्ति होती है । यह सच्ची चेतना नहीं है, लेकिन वह है जिसे मनुष्य चेतना कहते हैं । अत: इस मानवीय तरीके से यह जानी हुई बात है कि मनुष्य पशु से कहीं अधिक सचेतन है I लेकिन मनुष्य के साथ-साथ पाप और विकार आ जाते हैं, जो उस अवस्था से बाहर नहीं हैं जिसे हम ''सचेतन'' कहते हैं, लेकिन वह सचमुच सचेतन

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नहीं है, वह केवल चीजों को मानसिक रूप देती है, उन्हें विषयाश्रित करने की सामर्थ्य देती है ।

 

    यह आरोहण का एक घुमाव है, लेकिन वह घुमाव भगवान् से दूर हटा ले जाता है, और तुम्हें फिर से, स्वाभाविक है, अधिक उच्च भगवान् को पाने के लिए अधिक ऊंचा उठना होगा, क्योंकि ये सचेतन भगवान् हैं जब कि दूसरे ऐसे भगवान् हैं जो सचेतन हुए बिना, सहज और नैसर्गिक रूप से भगवान् होते हैं । और स्वयं हमने अपने अच्छे और बुरे की सारी नैतिक धारणा को सृष्टि में अपनी विकृत और भ्रष्ट चेतना द्वारा प्रक्षिप्त किया है । हमने ही इनका आविष्कार किया है ।

 

    पशु की शुद्धता और देवों की दिव्य शुद्धता के बीच में हम ही विकार लाने वाले मध्यस्थ हैं ।

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२१ जुलाई, १९५८

 

शक्ति का अपव्यय मत करो

 

    मनुष्य शक्ति को बचा कर रखना नहीं जानते । जब कभी कुछ हो जाता है, कोई दुर्घटना या कोई बीमारी, तो मनुष्य सहायता की मांग करते हैं और दुगुनी, तिगुनी मात्रा में शक्ति उन्हें दी जाती है । वे अनुभव करते हैं कि वे ग्रहणशील हैं और ग्रहण कर लेते हैं । यह शक्ति दो कारणों के लिए दी जाती है : दुर्घटना या बीमारी के कारण आयी अव्यवस्था को ठीक करना, और सुधार करने के लिए उस चीज को बदलने की शक्ति देना जो बीमारी या दुर्घटना का सच्चा कारण थी ।

 

      शक्ति का इस तरीके से उपयोग करने की बजाय, वे उसे तुरन्त, तुरन्त बाहर फेंक देते हैं । वे घूमना शुरू कर देते हैं, सक्रिय होना, काम करना, बोलना शुरू कर देते हैं... वे अपने-आपको शक्ति से भरपूर अनुभव करते हैं और सब कुछ बाहर फेंक देते हैं ! वे कुछ भी नहीं रख सकते । तब स्वभावत: चूंकि शक्ति इस तरह नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि आन्तरिक उपयोग के लिए थी, वे एकदम छूंछे पड़ जाते हैं । यह सर्वसामान्य है । वे नहीं जानते, वे यह क्रिया करना नहीं जानते : अपने अन्दर जाना, उस शक्ति का उपयोग करना--उसे रखना नहीं, उसे रखा नहीं जा सकता--उसका उपयोग करना, शरीर में हुई हानि को ठीक करना और गहरे उतरकर दुर्घटना या बीमारी के कारण को जानना, और वहां, उसे अभीप्सा, आन्तरिक रूपान्तरण में बदल देना, यह वे नहीं जानते । इसके स्थान पर लोग तुरन्त बातें करना, घूमना-फिरना, क्रिया करना इस या उस काम को करना शुरू कर देते हैं ।

 

   वस्तुत: अधिकतर मानव अपने-आपको जीवित तभी अनुभव करते हैं जब वे अपनी शक्ति का अपव्यय कर रहे हों अन्यथा उन्हें वह जीवन ही नहीं लगता ।

 

    शक्ति का अपव्यय न करने का अर्थ है उसका उसी उद्देश्य के लिए उपयोग करना जिसके लिए वह दी गयी है । अगर शक्ति रूपान्तर के लिए, सत्ता के उन्नयन के लिए दी गयी हो तो उसका उसी के लिए उपयोग करना

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चाहिये; अगर शक्ति शरीर में हुई किसी अव्यवस्था को ठीक करने के लिए दी गयी है, तो उसका उपयोग उसी के लिए करना चाहिये ।

 

   स्वभावत: अगर किसी को कोई कार्य-विशेष दिया गया है, और अगर उसे उस कार्य को करने के लिए शक्ति भी दी गयी है, तो ठीक है, वह उसके निजी उद्देश्यों के लिए उपयोग में आयेगी, वह उसी के लिए तो दी गयी थी ।

 

   जैसे ही मनुष्य शक्ति से भरपूर अनुभव करता है , वह तुरन्त क्रियाशील हो उठता है । या, जिनके अन्दर कोई उपयोगी वस्तु करने की अक्ल नहीं होती वे गप्पें मारना शुरू कर देते हैं । इससे भी खराब वे होते हैं जिनका अपने ऊपर कोई नियन्त्रण नहीं होता, वे असहिष्णु हो उठते हैं और कलह करने लगते हैं ! अगर उनकी इच्छा का विरोध हो तो वे अपने- आपको शक्ति से भरपूर अनुभव करते हैं और उसे पवित्र क्रोध के रूप में ले लेते हैं !

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(जुलाई ?) १९५८

 

   क्या, और किस तरह मानसिक सूत्रीकरण किसी अनुभूति को छितरा देता है, चेतना पर क्रिया करने के लिए अनुभूति की शक्ति के अधिकाशं भाग के खोने का कारण बनता है ?

 

उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी गलत गतिविधि से छुटकारा पाना चाहते हो और भागवत कृपा के परिणामस्वरूप इस उद्देश्य के लिए तुम्हारे पास शक्ति भेजी जाती है, यह शक्ति तुम्हारी चेतना पर कार्य करना शुरू कर देती है । तब, अगर तुम उसे अपनी ओर खींचो, अर्थात् सूत्रबद्ध करने के लिए अपनी ओर खींचो तो स्वभावत: तुम उसे विकेन्द्रित, तितर-बितर कर देते हो और खो बैठते हो ।

 

   लेकिन बस इतना ही नहीं होता : केवल किसी दूसरे से बात करने भर से स्वत: ही तम उस सबके प्रति खुल जाते हो जो उस व्यक्ति से आ सकता है; हमेशा पारस्परिक आदान-प्रदान होता है । इस तरह उसकी उत्सुकता, उसका अन्धकार, उसकी सद्‌भावना और कभी-कभी उसकी दुर्भावना भी हस्तक्षेप करती है, बदलाव लाती है या विकृत करती है ।

 

   दूसरी तरफ, अगर तुम अपनी अनुभूति अपने गुरु से कहना चाहते हो और अगर वे उसे सुनना स्वीकार करें तो इसका अर्थ है कि शक्ति की क्रिया में वे अपना बल, अपना ज्ञान और अपनी अनुभूति जोड़ देते हैं और परिणाम लाने में मदद करते हैं ।

 

    लकिन फिर भी सूत्रीकरण द्वारा हुई हानि नहीं बनी रहती क्या ?

 

बनी रहती है लेकिन वे उसका परिमार्जन कर देते हैं ।

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(जुलाई ?) १९५८

 

सौन्दर्य-बोध

 

    इस योग को करने के लिए तुम्हारे अन्दर, कम-से-कम थोड़ा-सा सौन्दर्य बोध तो होना चाहिये । अगर तुम्हारे अन्दर वह न हो तो तुम भौतिक जगत् के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से एक से वंचित रहते हो ।

 

    यह सौन्दर्य, अन्तरात्मा का यह आभिजात्य--एक ऐसी वस्तु है जिसके बारे में मैं बहुत संवेदनशील हूं । यह एक ऐसी वस्तु है जो मुझे छू जाती है और हमेशा मेरे अन्दर बड़े आदर-भाव को जगाती है ।

 

    हां, अन्तरात्मा का यह सौन्दर्य, इस प्रकार का आभिजात्य, सर्वांगीण सिद्धि का यह सामञ्जस्य मुख पर दिखायी देता है । जब अन्तरात्मा भौतिक में दिखायी देती है तो वह उसे यह गौरव, यह सौन्दर्य, यह भव्यता प्रदान करती है, ऐसी भव्यता जो तुम्हारे शरीर के यज्ञ की वेदी बनने से आती है । तब उन चीजों पर भी जिनमें कोई विशेष सौन्दर्य नहीं होता, शाश्वत सौन्दर्य का, एकमात्र दिव्य शाश्वत सौन्दर्य का भाव आ जाता है ।

 

    मैंने इस तरह के चेहरे देखे हैं जो अचानक एक कौंध की तरह एक छोर से दूसरे छोर पर जा पहुंचते हैं । किसी के शरीर में इस प्रकार का सौन्दर्य और सामञ्जस्य, दिव्य गौरव का यह भाव होता है और अचानक किसी बाधा, किसी कठिनाई और त्रुटि का, क्षुद्रता का बोध आ जाता है--और फिर, रूप में एक विकार, नाक-नक्श में एक तरह का विघटन आ जाता है ! चेहरा वह-का-वही रहता है । वह चीज बिजली की कौंध की तरह थी, भयंकर । यन्त्रणा और अधोगति की इस तरह की विकरालता - जिसे धर्मों में ''पाप की यन्त्रणा'' के रूप में अनूदित किया गया है--एक चेहरा जरूर देती है ! अपने-आपमें सुन्दर नाक-नक्श भी भयंकर हो जाते हैं जब कि चेहरा-मोहरा वही होता है, व्यक्ति वही होता है ।

 

    तब मैंने देखा कि पाप का भाव कितना भयंकर है, वह कितना मिथ्यात्व के जगत् का है ।

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१० अक्तूबर, १९६५

 

जड़-भौतिक में परम-प्रभु की पूजा

 

    सभी धमों में, विशेषकर गुह्यविद्या की दीक्षा में विभिन्न अनुष्ठानों की विधियां ब्योरेवार विहित हैं । प्रत्येक उच्चारित शब्द का, प्रत्येक मुद्रा का अपना महत्त्व होता है और नियम का जरा-सा उल्लंघन, जरा-सी भूल भयंकर परिणाम ला सकती है । जड़- भौतिक जीवन की भी यही बात है, और अगर तुम जीने की सच्ची कला में दीक्षित किये जाओ तो तुम भौतिक अस्तित्व का रूपान्तर करने में समर्थ होगे ।

 

    अगर शरीर को प्रभु का मन्दिर मान लिया जाये, तो, उदाहरण के लिए चिकित्सा-विज्ञान मन्दिर की सेवा के लिए आरम्भिक पूजा बन जाता है और सभी तरह के चिकित्सक वे पुजारी बन जाते हैं जो पूजा की विभिन्न विधियों के पुरोहित होते हैं । इस तरह चिकित्सा सचमुच पुरोहिताई है और उसे उसी तरह मानना चाहिये ।

 

    यही बात शारीरिक प्रशिक्षण और उन सभी विज्ञानों के लिए कही जा सकती है जो शरीर और उसके कार्यों के साथ सम्बन्ध रखते हैं । और जड़-भौतिक विश्व को अगर परम प्रभु की अभिव्यक्ति और बाहरी लबादे के रूप में देखो तो कहा जा सकता है कि साधारणत:, सभी भौतिक विज्ञान पूजा के कर्मकाण्ड हैं ।

 

    अत: हम हमेशा उसी चीज पर लौट आते हैं : पूर्ण निष्कपटता, पूर्ण ईमानदारी और तुम जो कुछ करो उसमें गरिमा के भाव की नितान्त आवश्यकता, ताकि तुम चीज को उसी तरह करो जैसे करना चाहिये ।

 

    अगर तुम सभी ब्योरों को सचमुच पूरी तरह जान सको, जीवन के अनुष्ठान के, भौतिक जीवन में परम प्रभु की पूजा के सभी ब्योरे जान सको, जानकर फिर और भूलें न करो, कभी गलती न करो तो बहुत ही अद्‌भुत बात होगी । तब तुम एक दीक्षा की पूर्णता की न्याईं अनुष्ठान सम्पन्न करते हो ।

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४ नवम्बर, १९५८

 

    क्या पुराणों के देवताओं, यूनान और मिश्र गाथाओं के देवताओं का सचमुच अस्तित्व है ?

 

पुराणों के देवताओं और यूनान और मिश्र की गाथाओं के देवताओं में बहुत तरह की समानता पायी जाती है; यह अध्ययन के लिए एक मजेदार विषय हो सकता है । आधुनिक पाश्चात्य जगत् में, ये सभी देवता-यूनानी और दूसरे ''मूर्तिपूजक'' देवता, जैसा कि वे उन्हें कहते हैं--और कुछ नहीं, केवल मानव कल्पना की उपज हैं और विश्व में किसी भी सच्ची चीज से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । लेकिन यह बहुत बड़ी भूल है ।

 

     वैश्व जीवन, यहां तक कि पार्थिव जीवन की रचना को भी समझने के लिए तुम्हें वस्तुत: यह जानना होगा कि ये सभी अपने-अपने क्षेत्र में सच्ची और जीवन्त सत्ताएं हैं, और सबकी पृथक् वास्तविकता है । मनुष्यों का अस्तित्व न भी रहे तो भी इनका अस्तित्व बना रहेगा । इनमें से अधिकतर देवता मनुष्यों के पहले से चले आ रहे हैं ।

 

    बहुत पुरानी परम्परा में, शायद कैल्डियन और वैदिक परम्परा से भी पहले, ये दोनों इसी की शाखाएं हैं, सृष्टि का इतिहास तात्त्विक या मनोवैज्ञानिक नहीं, बल्कि वस्तुपरक दृष्टिकोण से सुनाया गया है, और यह इतिहास हमारे ऐतिहासिक युगों के इतिहास के जितना सच है । निश्चय ही, वस्तु को देखने का यह एकमात्र तरीका नहीं है, लेकिन यह किसी भी दूसरे तरीके के जितना ही न्यायसंगत है; ओर बहरहाल, यह इन भागवत सत्ताओं के ठोस अस्तित्व को मानता है ।

 

     ये ऐसी सत्ताएं हैं जो विश्व के प्रगतिशील सृजन की सत्ताए हैं । स्वयं उन्होंने अधिक-से-अधिक वायवीय या सूक्ष्म से लेकर अधिकतम जड़-भौतिक क्षेत्रों तक की रचना का संचालन किया है । यह भागवत सृजनशील 'आत्मा' का अवरोहण है । और वे धीरे-धीरे अधिकाधिक वास्तविकता के साथ नीचे उतरीं-हम घन नहीं कह सकते, क्योंकि यह धन नहीं है, हम जड़- भौतिक नहीं कह सकते क्योंकि हम जैसे जड़त्त्व को जानते हैं वैसे जड़त्त्व का उन स्तरों पर अस्तित्व नहीं है--वे अधिकाधिक ठोस

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वास्तविकताओं द्वारा नीचे उतरीं ।

 

     परम्पराओं और गुह्यविद्या के सम्प्रदायों के अनुसार वास्तविकताओं के इन सभी क्षेत्रों, वास्तविकताओं के इन सभी स्तरों के अलग-अलग नाम हैं; इनका अलग तरीके से वर्गीकरण किया गया है, लेकिन इनके मूल में एक सादृश्य है और अगर तुम परम्पराओं में काफी पीछे जाकर देखो तो तुम देश और भाषा के अनुसार केवल शब्दों में बदलाव पाओगे । अब भी, पाश्चात्य गुह्यविद्याधरों और पूर्वीय गुह्यविद्याधरों के अनुभव में बहुत समानताएं पायी जाती हैं । जो लोग इन अदृश्य जगतों की खोज के लिए निकले उन सबने उनके बारे में जो विवरण दिये थे वे बहुत अधिक एक-से वर्णन हैं, चाहे वे पूर्व के हों या पश्चिम के । वे भिन्न शब्दों का उपयोग करते हैं, लेकिन अनुभूति में बहुत समानता होती है और शक्तियों के संचालन में समानता होती है ।

 

      गुह्य जगतों का यह ज्ञान सूक्ष्म शरीरों और उन शरीरों के अनुरूप सूक्ष्म जगतों पर आधारित है । ये वे हैं जिन्हें मनोवैज्ञानिक पद्धति ''चेतना की अवस्थाएं'' कहती है, लेकिन ये चेतना की अवस्थाएं सचमुच जगतों के अनुरूप होती हैं । और तब गुह्यविद्या की प्रक्रिया में इन विभिन्न आन्तरिक अवस्थाओं या सूक्ष्म शरीरों के प्रति सचेतन होना होता है और उन पर इतना प्रभुत्व पाना होता है कि तुम उत्तरोत्तर एक-एक करके उनमें से बाहर निकल सको । सचमुच सूक्ष्मताओं की एक पूरी श्रेणी है जो, तुम जिस दिशा में जाते हो उसके अनुरूप घटती या बढ़ती है, और गुह्यविद्या में तुम अधिक सघन शरीर से निकलकर अधिक सूक्ष्म शरीर में जाते हो और इस तरह तुम सबसे अधिक वायवीय क्षेत्रों में जा सकते हो । तुम क्रमिक बाह्यीकरणों द्वारा अधिकाधिक सूक्ष्म शरीरों और जगतों में जाते हों । यह कुछ ऐसा होता है मानों हर बार तुम किसी दूसरे आयाम में पहुंच जाते हो । भौतिक शास्त्रियों का चौथा आयाम और कुछ नहीं गुह्यविद्या की वैज्ञानिक अनुकृति है । एक और चित्र रखती हूं : हम कह सकते हैं कि भौतिक शरीर केन्द्र में है--यह सबसे अधिक जड़-भौतिक, सबसे अधिक घन और सबसे छोटा है--और अधिक सूक्ष्म आन्तरिक शरीर केन्द्रीय भौतिक शरीर के ऊपर अधिकाधिक उमड़ते हैं; वे उसमें से गुजरते हैं और अपने-आपको अधिकाधिक दूर तक फैलाते हैं जैसे पानी किसी सरंध्र

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पात्र से उड़ जाता है और चारों तरफ एक तरह की भाप बना देता है । जितनी अधिक सूक्ष्मता होगी उतना अधिक वह विस्तार विश्व के विस्तार से एक होने की कोशिश करेगा : और अन्त में व्यक्ति अपने-आपको वैश्व बना लेता है । और यह एकदम ठोस प्रक्रिया है जो अदृश्य जगतों को वस्तुपरक अनुभूति प्रदान करती है ओर यहां तक कि तुम्हें इन जगतों में क्रिया करने में समर्थ भी बनाती है ।

 

    हां तो, पश्चिम में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है जो यह जानते हैं कि ये देवता केवल आत्मनिष्ठ और काल्पनिक नहीं हैं--न्यूनाधिक अनियन्त्रित रूप से काल्पनिक-बल्कि वे किसी वैश्व सत्य के अनुरूप हैं ।

 

    ये सभी प्रदेश, ये सभी क्षेत्र सत्ताओं से भरे हैं और हर एक अपने स्तर पर अस्तित्व रखती है, और अगर तुम किसी स्तर विशेष के बारे में जाग्रत् और सचेतन हो--उदाहरण के लिए, किसी अधिक जड़-भौतिक शरीर से बाहर निकलते समय अगर तुम किसी उच्चतर स्तर पर खुल जाओ, तो तुम्हारा उस स्तर की चीजों और लोगों के साथ ठीक वही सम्बन्ध हो जाता है जैसा सम्बन्ध जड़-भौतिक जगत् की चीजों और लोगों के साथ होता है । यानी, एकदम वस्तुपरक सम्बन्ध जिसका, तुम्हारे उन चीजों के बारे में जो विचार हो सकते हैं, उनसे कोई सम्बन्ध न हो । स्वभावत: जैसे-जैसे तुम भौतिक, जड़-भौतिक जगत् की ओर बढ़ते हो वैसे-वैसे सादृश्य बढ़ता जाता है, और एक ऐसा समय भी आता है जब एक क्षेत्र की दूसरे क्षेत्र पर सीधी क्रिया होती है । बहरहाल, जिन्हें श्रीअरविन्द अधिमानसिक जगत् कहते हैं, उनमें तुम एक ऐसी ठोस वास्तविकता को पाओगे जो तुम्हारे निजी अनुभव से एकदम स्वतन्त्र होगी; तुम वहां दुबारा जाओ तो तुम्हें वहां, तुम्हारी अनुपस्थिति में जो हेर-फेर हुए उनके साथ वही-की-वही चीजें मिलेंगी । और तुम्हारा उन सत्ताओं के साथ ऐसा सम्बन्ध होगा जो, भौतिक सत्ताओं के साथ तुम्हारे सम्बन्ध के अनुरूप होगा, भेद केवल यही होगा कि वह सम्बन्ध अधिक लोचदार अधिक नमनीय और सीधा होगा-उदाहरण के लिए, वहां तुम जिस आन्तरिक अवस्था में हो उसके अनुसार तुम्हारे अन्दर बाहरी, प्रकट रूप को बदलने की सामर्थ्य होगी । तुम किसी के साथ मिलने का समय निश्चित कर सकते हो और उस स्थान पर पहुंचकर उसी सत्ता से दोबारा मिल सकते हो, बस उसमें

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थोड़े-से वे भेद होंगे जो तुम्हारी अनुपस्थिति में उसमें हुए थे; यह पूरी तरह से ठोस चीज है, और इसके परिणाम भी पूरी तरह से ठोस होते हैं ।

 

    इन चीजों को समझने के लिए तूम्हें इसकी कम-से-कम थोड़ी अनुभूति तो होनी ही चाहिये । वरना, जिन लोगों को यह विश्वास है कि यह सब केवल मानव कल्पना और मानसिक रचना है, जो यह मानते हैं कि इन देवताओं के अमुक रूप इसलिए हैं क्योंकि मनुष्यों ने उनके बारे में इसी तरह सोचा है, और उनके अन्दर अमुक विकार या अमुक गुण इसलिए हैं क्योंकि मनुष्यों ने उनकी वैसी ही कल्पना की है--वे सब जो कहते हैं कि भगवान् मनुष्य की कल्पना में हैं और वे केवल मानव विचार में ही अस्तित्व रखते हैं, ऐसे लोग नहीं समझ पायेंगे; उन्हें यह एकदम से हास्यास्पद, पागलपन लगेगा । चीज कितनी अधिक ठोस है यह जानने के लिए तुम्हें उसे थोड़ा-सा तो जीना चाहिये, विषय में कुछ तो चंचुपात होना चाहिये ।

 

     स्वभावत:, बच्चे बहुत अधिक जानते हैं, बशर्ते कि उन्हें बिगाड़ा न गया हो । ऐसे कितने ही बच्चे हैं जो रोज रात को एक ही स्थान पर जाते हैं और उस जीवन को जारी रखते हैं जिसे उन्होंने वहां शुरू किया था । अगर उम्र के साथ ये क्षमताएं बिगड़ न जायें तो ये तुम्हारे पास रहतीं I एक समय जब मैं स्वप्नों में विशेष रूप से रुचि रखती थी, तो मैं ठीक उसी स्थान पर लौट सकती थी और उस कार्य को जारी रख सकती थी जिसे मैंने शुरू किया था : किसी चीज का निरीक्षण करना, उदाहरण के लिए, किसी चीज को व्यवस्थित करना, व्यवस्था, खोज या अन्वेषण का कोई काम करना । तुम तब तक जाते हो जब तक कि किसी बिन्दु-विशेष पर न पहुंच जाओ, जिस तरह तुम जीवन में आगे बढ़ते हो, फिर तुम थोड़ा आराम करते हो, उसके बाद लौटकर दोबारा शुरू करते हो--तुम कार्य को उसी स्थान से शुरू करते हो जहां उसे छोड़ा था और आगे जारी रखते हो । तुम देखोगे कि कुछ चीजें तुमसे एकदम स्वतन्त्र हैं, इस अर्थ में कि तुम्हारी अनुपस्थिति में ऐसे परिवर्तन अपने- आप हो गये हैं जिनके कर्ता तुम नहीं हो ।

 

     लेकिन इसके लिए तुम्हें इन अनुभूतियों को अपने-आप जीना होगा, तुम्हें उन्हें अपने-आप देखना होगा और यह देखने के लिए कि वे हर मानसिक रचना से स्वतन्त्र हैं तुम्हें उन्हें पर्याप्त निष्कपटता और सहज

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भाव से जीना होगा । तुम इसके विपरीत भी कर सकते हो और घटनाओं पर मानसिक रचना की क्रिया के अध्ययन को ज्यादा गहरा कर सकते हो । यह बहुत मजेदार है लेकिन यह एक अलग क्षेत्र है । यह अध्ययन तुम्हें बहुत जागरूक, बहुत समझदार बना देता है क्योंकि तुम्हें इस बात का आभास हो जाता है कि तुम किस हद तक अपने-आपको छल सकते हो । अत: यह देखने के लिए कि इन दोनों में क्या मौलिक भेद है तुम्हें स्वप्न और गुह्य यथार्थता, दोनों का अध्ययन करना चाहिये । एक तुम्हारे अपने ऊपर निर्भर है; दूसरे का अपना निजी अस्तित्व है; हम उसके बारे में कुछ भी क्यों न सोचें, वह उससे बिलकुल स्वतन्त्र होता है ।

 

     जब तुम उस क्षेत्र में कार्य कर चुको , तो वस्तुत: तुम यह जान लेते हो कि एक बार किसी विषय का अध्ययन कर लेने पर या किसी चीज को मानसिक रूप से सीख लेने पर, जानना या सीखना अनुभूति को विशेष रंग दे देता है; अनुभूति एकदम सहज और सच्ची हो सकती है, लेकिन केवल यही तथ्य कि विषय का पहले से पता था और उसका अध्ययन किया गया था, उसे विशेष गुण प्रदान करता है । जब कि अगर तुमने प्रश्न के बारे में कुछ नहीं सीखा हो, अगर तुम्हें उसके बारे में एकदम कुछ भी पता न हो, तो अनुभूति होने पर वह पूरी तरह सहज और सच्ची होगी, वह न्यूनाधिक रूप में पर्याप्त होगी लेकिन वह पहले से बनायी गयी मानसिक रचना का परिणाम न होगी ।

 

     स्वाभाविक है कि जगत् में यह गुह्यविद्या या यह अनुभूति बहुधा नहीं होती, क्योंकि उन लोगों में जिनका आन्तरिक जीवन विकसित नहीं होता, बाह्य चेतना और अन्तरतम चेतना में सचमुच बहुत व्यवधान होते हैं, सत्ता की अवस्थाओं को जोड़ने की कड़ियां नहीं होती हैं और उनका निर्माण करना होता है । इसलिए जब लोग उसमें पहली बार जाते हैं तो भौचक्के रह जाते हैं, उन्हें ऐसा लगता है मानों वे रात्रि में जा गिरे हैं शून्यता, अस्तित्वहीनता में जा गिरे हैं !

 

     मेरा एक डेन्मार्कवासी मित्र चित्रकार था, वह इसी तरह का था । वह चाहता था कि मैं उसे शरीर से बाहर निकलना सिखाऊं; उसे मजेदार सपने आते थे और उसने सोचा कि वहां सचेतन रूप से जाना सार्थक होगा । अत: मैंने उसे ''बाहर निकाला'' --लेकिन यह भयावह चीज थी !

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जब वह सपना देखता था तो उसके मन का एक भाग उस समय भी सचेतन सक्रिय होता था, और इस सक्रिय भाग और उसकी बाहरी सत्ता में एक तरह का सम्बन्ध रहता था; फिर उसे अपने कुछ सपने याद रहे, लेकिन वे बहुत ही आंशिक विवरण थे । अगर तुम इस चीज को विधिपूर्वक करो तो अपने शरीर से बाहर जाने का अर्थ होता है सत्ता की सभी अवस्थाओं से एक-एक करके गुजरना । सूक्ष्म-भौतिक में ही तुम करीब-करीब निर्वैयक्तिक हो जाते हो, और जब तुम अधिक आगे जाते हो तो कुछ भी नहीं रहता, क्योंकि कोई चीज रूपायित नहीं होती, किसी चीज का व्यक्तित्व नहीं रहता ।

 

     अत:, जब लोगों को ध्यान करने या अपने अन्दर प्रवेश करने के लिए कहा जाता है, तो वे संतप्त हो उठते हैं-स्वाभाविक है ! उन्हें ऐसा भान होता है कि वे गायब हो रहे हैं । और कारण भी है : वहां कुछ भी नहीं है, कोई चेतना नहीं है ।

 

     ये चीजें जो हमें काफी स्वाभाविक और स्पष्ट लगती हैं, उन लोगों के लिए जो कुछ नहीं जानते, बेलगाम कल्पना होती है । उदाहरण के लिए, अगर तुम इन अनुभूतियों को या इस ज्ञान को पश्चिम में ले जाओ, और अगर तुम गुह्यविदों की गोष्ठियों में नहीं हो तो वे तुम्हारी तरफ भौचक्के होकर, आखें फाड़कर देखेंगे और तुम्हारे पीठ फेरते ही चट कह देंगे, ''ये लोग सनकी हैं ।''

 

     अब चलो फिर देवताओं की बात पर आयें और खतम करें । यह कहना आवश्यक है कि उन सभी सत्ताओं में जिनका कभी पार्थिव अस्तित्व नहीं रहा--देवता या दानव, अदृश्य सत्ताएं या शक्तियां--उनमें वह चीज नहीं होती जिसे परम प्रभु ने मनुष्य में रखा है । वह है : चैत्य सत्ता । और यह चैत्य सत्ता मनुष्य को सच्चा प्रेम, दयालुता, अनुकम्पा, गभीर कृपालुता प्रदान करती है जो उसकी सभी बाहरी त्रुटियों की क्षतिपूर्ति कर देती है ।

 

    देवताओं में कोई त्रुटि नहीं है क्योंकि वे अपनी प्रकृति के अनुसार सहज और बिना किसी विवशता के जीते हैं : देवताओं के रूप में, यही उनके रहने का तरीका है । लेकिन अगर तुम ऊंचे दृष्टिकोण को लो, अगर तुम्हारे अन्दर ऊंचा अन्तर्दर्शन हो, समग्रता का अन्तर्दर्शन हो तो तुम देखोगे कि वे कुछ ऐसे गुणों से वंचित रहते हैं जो एकदम-से मानवीय

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हैं । जब मनुष्य अहंकारी नहीं होता, जब उसने अहं पर विजय पा ली हो तो वह अपने प्रेम और आत्मदान की सामर्थ्य द्वारा देवताओं के जितनी, उनसे भी अधिक शक्ति पा सकता है ।

 

    अगर वह आवश्यक शर्त को पूरा करे तो मनुष्य देवताओं की अपेक्षा परम प्रभु के अधिक निकट होता है । वह निकटतर हो सकता है । वह सहज रूप से अपने-आपमें ऐसा नहीं है लेकिन उसके अन्दर ऐसा बनने की शक्ति और सम्भाव्यता है ।

 

    अगर मानव प्रेम अपने-आपको बिना किसी मिश्रण के अभिव्यक्त करे तो वह सर्वशक्तिमान् होगा । दुर्भाग्यवश, मानव-प्रेम में अपने-आपके लिए भी उतना ही प्रेम होता है जितना प्रेमपात्र के लिए; यह ऐसा प्रेम नहीं है जिसमें तुम अपने-आपको भूल जाओ ।

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८ नवम्बर, १९५८

 

५ नवम्बर, १९५८ की अनुभूति

 

    १९५९ के नये साल का सन्देश

 

   ''निश्चेतना के एकदम तल में जो सबसे अधिक कठोर, सबसे अधिक अनम्य, संकीर्ण और दम घोटनेवाला है, मैं एक सर्वशक्तिमान् कमानी (स्प्रिंग) से टकरायी जिसने मुझे तुरन्त आकारहीन असीम बृहत् में ऊपर उछाल दिया जो नये जगत् के बीजों से स्पन्दित हो रहा था ।''

 

इस सन्देश का मूल यह है :

 

    कल शाम कक्षा में मैंने देखा कि उन बच्चों को, जिनके पास, जो पाठ हम पढ़ रहे हैं उसके बारे में प्रश्न तैयार करने के लिए पूरा एक सप्ताह था, एक भी प्रश्न नहीं मिला । भयंकर तन्द्रिलता ! रुचि का पूरी तरह से अभाव ! जब मैंने पढ़ना खत्म किया तो मैंने अपने-आपसे पूछा, ''भला इन मस्तिष्कों में क्या भरा है जो अपने छोटे-छोटे व्यक्तिगत मामलों के सिवाय और किसी चीज में रस नहीं लेता ? आखिर, इन आकारों के पीछे, वहां, अन्दर क्या हो रहा है ? ''

 

    फिर ध्यान के समय मैंने, अपने चारों तरफ बैठे लोगों के मानसिक वातावरण के अन्दर जाना शुरू किया ताकि वहां उस छोटे-से प्रकाश को, प्रत्युत्तर देने वाली चीज को पा सकूं । और मैं सचमुच तली में, मानों किसी छिद्र में नीचे तक खींच ली गयी ।

 

    उस छिद्र में मैंने वह चीज देखी जिसे मैं अब भी देख रही हूं । मैं नीचे एक दरार के अन्दर चली गयी, वह दो ऐसी नुकीली चट्टानों के बीच थी जो बसाल से भी अधिक कठोर और साथ-ही-साथ काली धातु की बनी थीं जिनके किनारे इतने तेज थे कि ऐसा लगता था कि उन्हें छू भर देने से तुम्हारी चमड़ी उतर जायेगी । वह कोई ऐसी चीज थी जिसका कोई तल, कोई अन्त न मालूम होता था, और वह कुप्पी की तरह संकरी, अधिक

 

     १माताजी की साप्ताहिक ''बुधवार कक्ष'' जो आश्रम क्रीडांगण में होती थी ।

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संकरी होती गयी, यहां तक संकरी हो गयी कि चेतना के गुजरने के लिए भी स्थान न रहा । तल अदृश्य था, एक काला छिद्र था जो नीचे-नीचे उतरता चला गया था, जिसमें न हवा थी, न प्रकाश था, केवल एक तरह की टिमटिमाहट थी, ऐसा प्रतिबिम्ब, जो चट्टानों के शिखर पर होता है, ऐसी टिमटिमाहट जो कहीं दूर से आती थी, ऐसी किसी चीज से जो स्वर्ग भी हो सकती थी लेकिन वह अदृश्य चीज थी । मैं उस दरार में नीचे फिसलती गयी और मैंने उन किनारों को, उन काली चट्टानों को देखा, जो मानों कैंची से अभी-अभी काटी गयी थीं, किनारे इतने तेज थे मानों चाकू की धार हों । इधर एक था, उधर एक था, यहां था, वहां था, चारों तरफ थे । और मैं नीचे खिंचती चली गयी, खिंचती चली गयी, खिंचती चली गयी--मैं नीचे, नीचे, नीचे चली गयी लेकिन उसका कोई अन्त न था । वह अधिकाधिक उमसदार श्वासरोधक दम घोंटनेवाला बन गया ।

 

    भौतिक रूप से शरीर ने अनुसरण किया, उसने अनुभूति में हिस्सा लिया । वह हाथ जो कुर्सी के हत्थे पर था वह नीचे फिसल गया, फिर दूसरा हाथ और सिर अप्रतिरोध्य गति से नीचे झुक गये । तब मैंने अपने-आप से कहा, ''लेकिन यह बन्द होना चाहिये क्योंकि अगर यह जारी रहा, तो मेरा सिर जमीन पर आ रहेगा । (चेतना कहीं और थी, लेकिन मैं अपने शरीर को बाहर से देख रही थी ।) और मैंने अपने-आप से पूछा, 'इस छिद्र के तल में आखिर है क्या ?' ''

 

    इस प्रश्न के उठते-न-उठते मुझे ऐसा लगा कि मैंने किसी स्प्रिंग को छू दिया जो छिद्र के एकदम तल में था, जिस पर अभी तक मेरा ध्यान न गया था, और तुरन्त उसने महान् शक्ति के साथ कार्य किया और एक ही छलांग में मुझे सीधा ऊपर एकदम हवा में उछाल दिया, मैं उस दरार से एक ऐसे अनन्त, आकारहीन बृहत् में जा पहुंची, जो अनन्त गुना सुखदायक था-ठीक ऊष्मापूर्ण नहीं, लेकिन उससे आन्तरिक ऊष्मा के सुखद भाव का अनुभव हुआ । उस पर्याप्त रूप से कष्टप्रद अवतरण के बाद, यह एक तरह का अति-सुख था, एक आराम था, ऐसा आराम जो अपनी पराकाष्ठा पर था । और मेरे शरीर ने तुरन्त उस गति का अनुसरण किया, सिर फिर से तुरन्त सीधा हो गया । और मैंने यह सब एकदम विषयाश्रित हुए बगैर जिया; मैं इसका लेखा-जोखा नहीं कर रही थी कि वह क्या था । वह जो

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था वही था, मैंने उसे जिया बस इतना ही । अनुभूति एकदम-से सहज थी ।

 

    वह सर्वशक्तिमान् था, अनन्त रूप से समृद्ध; उसका एकदम कोई रूप या आकार न था, कोई सीमा न थी-स्वभावत: मैंने उसके साथ तादात्म्य कर लिया था और इसीलिए मैं यह जान सकी कि उसकी कोई सीमा या आकार न था । वह ऐसा था मानों--मैं ''मानों'' इसलिए कह रही हूं क्योंकि वह दिखायी नहीं दे रहा था--मानों वह विशालता असंख्य अगोचर बिन्दुओं से बनी थी, ऐसे बिन्दुओं से जो अन्तरिक्ष में कोई स्थान नहीं घेर रहे थे (वहां कोई अन्तरिक्ष न था), ऐसे बिन्दु जो गहरे ऊष्मापूर्ण, स्वर्ण-सम थे; लेकिन यह केवल एक आभास था, एक प्रतिकृति । और वह सब पूरी तरह से जीवन्त था, ऐसी शक्ति से जीवन्त था जो असीम प्रतीत हो रही थी । और फिर भी वह निश्चल था, और वह निश्चलता इतनी पूर्ण थी कि शाश्वतता का अनुभव दे रही थी, लेकिन जिसके अन्दर क्रिया और जीवन की अकल्पनीय आन्तरिक तीव्रता थी-वह आन्तरिक थी, अपने- आपमें समाहित थी-और निश्चल थी, बाह्य की तुलना में निश्चल, अगर कोई बाह्य था तो । ओर उसमें असीम जीवन था-केवल रूपक में हम उसे अनन्त कह सकते हैं-और उसमें तीव्रता, शक्ति, बल, शान्ति, शाश्वत की शान्ति, नीरवता, अचञ्चलता और ऐसी शक्ति थी जो सब कुछ करने में समर्थ होती है ।

 

    ओर मैंने उसके बारे में सोचा नहीं, मैंने उसे वस्तुनिष्ठ नहीं किया, मैंने उसे सुख से, बहुत ही सुख से जिया । यह अनुभूति बहुत देर तक चली-ध्यान के बाकी समय तक ।

 

    वह ऐसी थी मानों उसमें सम्भावनाओं की सारी सम्पत्ति निहित थी । और उसमें, हालांकि उसका कोई आकार न था लेकिन आकार लेने की शक्ति थी ।

 

     कुछ क्षण बाद मैंने अपने-आप से पूछा, ''यह क्या है, किसके अनुरूप है ? '' स्वभावत: मैंने बाद में जान लिया, और अन्त में आज सुबह मैंने अपने-आपसे कहा, ''हां, तो यह मुझे आने वाले वर्ष का मेरा सन्देश देने के लिए है ।'' फिर मैंने उसका लिप्यन्तरण किया-स्वाभाविक है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, वह अवर्णनीय है । वह मनोवैज्ञानिक प्रतिभास था और वे आकार और कुछ नहीं केवल अपने लिए मनोवैज्ञानिक अवस्था

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का वर्णन करने के तरीके थे । और यही वह है जो मैंने लिखा, स्पष्ट है कि मानसिक तरीके से लिखा । मैंने किसी चीज का वर्णन नहीं किया है मैंने केवल एक तथ्य सामने रखा है :

 

    ''निश्चेतना के एकदम तल में जो सबसे अधिक कठोर, सबसे अधिक अनम्य, संकीर्ण और दम घोंटनेवाला है, मैं एक सर्वशक्तिमान् कमानी (स्प्रिंग) से टकरायी जिसने मुझे तुरन्त असीम आकारहीन असीम बृहत् में ऊपर उछाल दिया जो नये जगत के बीजों से स्पन्दित हो रहा था ।''

 

साधारणत: निश्चेतना से किसी ऐसी चीज का भान होता है जो रूपहीन, जड़, आकारहीन, तटस्थ और धूम्रवर्ण हो-पहले, जब मैंने निश्चेतना के क्षेत्रों में प्रवेश किया था तो मैंने सबसे पहले इसी चीज को देखा था; लेकिन कल की अनुभूति में, वह एक कठोर, अनम्य और जमी हुई निश्चेतना थी, मानों किसी विरोध के लिये जम गयी हो । वह मानसिक निश्चेतना थी; और सारे प्रयास उस पर कोई छाप नहीं डालते थे, कोई चीज उसे भेद नहीं पाती थी । यह निश्चेतना शुद्ध जड़-भौतिक निश्चेतना से कहीं अधिक खराब है । यह मूल निश्चेतना न थी, यह हम यूं कह सकते हैं, एक मानसिक भावापन्न निश्चेतना थी । यह सभी अनम्यता, कठोरता, संकीर्णता, जड़ता, विरोध सृष्टि में मानसिक उपस्थिति से आते हैं : मन ही इसे निश्चेतना में लाया है । जब मन का आविर्भाव नहीं हुआ था, तो निश्चेतना ऐसी न थी : वह आकारहीन थी और उसमें आकारहीन चीजों की नमनीयता थी । वह नमनीयता गायब हो गयी है ।

 

    अनुभूति का आरम्भ निश्चेतना में मन की क्रिया का बहुत अभिव्यंजक चित्र है : उसने निश्चेतना को आक्रामक बना दिया--वह पहले ऐसी न थी--आक्रामक, प्रतिरोधी और दुराग्रही । असल में यही मेरी अनुभूति का आरम्भ बिन्दु था । वस्तुत: मैं लोगों कि मानसिक निश्चेतना में देखने की कोशिश कर रही थी, और यह मानसिक निश्चेतना बदलने से इकार करती है जब कि दूसरी विरोध नहीं करती; शुद्ध जड़-भौतिक निश्चेतना के अस्तित्व की कोई प्रणाली नहीं है, वह अस्तित्व नहीं रखती, वह किसी भी प्रकार से व्यवस्थित नहीं है । जब कि यह एक व्यवस्थित निश्चेतना है,

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जिसकी व्यवस्था मानसिक प्रभाव के आरम्भ से हुई थी--और यह सौ गुना अधिक खराब है ! अब यह पहले से कहीं अधिक बड़ी बाधा बन गयी है । पहले इसमें प्रतिरोध करने की शक्ति तक न थी, इसमें कुछ न था, यह सचमुच निश्चेतना थी । अब यह ऐसी निश्चेतना बन गयी है जो अपने परिवर्तन के निषेध में संगठित है । इसलिए मैंने लिखा, ''सबसे अधिक कठोर, अनम्य और संकीर्ण''--यह ऐसी किसी चीज का भाव है जो तुम पर दबाव डालती है, अधिकाधिक दबाव डालती है--''सबसे अधिक दम घोंटने वाली ।''

 

    फिर मैंने लिखा, ''मैं एक सर्वशक्तिमान् कमानी से टकरायी'' इसका ठीक-ठीक यह अर्थ है : निश्चेतना की गहनतम गहराई में, एक सर्वश्रेष्ठ कमानी है जो हमें परम प्रभु का स्पर्श करा सकती है । क्योंकि निश्चेतना के एकदम तल में परम प्रभु हैं । परम प्रभु ही हमें परम प्रभु का स्पर्श करा सकते हैं । यही ''सर्वशक्तिमान् कमानी'' है ।

 

    यह हमेशा वही विचार है कि उच्चतम ऊंचाई गहनतम गहराई को छूती है । विश्व वृत्त की तरह है, उसे एक ऐसे सर्प की तरह माना जाता है जो अपनी ही पूंछ काटता है । इसका यह अर्थ है कि उच्चतम ऊंचाई अधिकतम जड़-भौतिक तत्त्व को बिना किसी मध्यस्थ के छूती है । मैं यह बहुत बार कह चुकी हूं, लेकिन यहां उस चीज की अनुभूति थी जो मुझे प्राप्त हुई, थी ।

 

    और अन्त में मैंने कहा : ''आकारहीन असीम बृहत् जो नये जगत् के बीजों से स्पन्दित हो रहा था ।'' यह आदिकालीन सृष्टि की ओर नहीं बल्कि अतिमानसिक सृष्टि की ओर संकेत है; तो यह अनुभूति सभी चीजों के परम उद्‌गम की ओर लौट जाने से सम्बद्ध नहीं है । मुझे एकदम ऐसी अनुभूति हुई कि मैं अतिमानसिक सृष्टि के उद्‌गम में प्रक्षिप्त की गयी : यह परम प्रभु की कोई ऐसी चीज है जिसे शायद पहले से ही अतिमानसिक सृष्टि के लिए प्रकट किया गया है ।

 

    वस्तुत: शक्ति ऊष्मा और स्वर्ण का पूरा भाव था । वह तरल न था, बल्कि चूरन जैसे कोहरे की तरह था । और इन चीजों में से हर एक चीज (उन्हें कण या अंश यहां तक कि बिन्दु भी नहीं कहा जा सकता, जब तक कि उन्हें गणित के अर्थ में न लिया जाये, बिन्दु जो देश में कोई स्थान नहीं

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घेरता) जीवन्त स्वर्ण की तरह थी, ऊष्मा भरे स्वर्ण का चूरन जैसा कोहरा, तुम उसे चमकदार नहीं कह सकते, न ही तुम उसे अन्धकारमय कह सकते हो; न ही वह प्रकाश था : स्वर्ण के असंख्य बिन्दु थे, बस इसके सिवा और कुछ नहीं । कह सकते हैं कि उन्होंने मेरी आंखों को, मेरे मुंह को स्पर्श किया... जबरदस्त शक्ति के साथ ! और साथ ही साथ वहां एक परिपूर्णता का भान भी था, सर्वशक्तिमती शान्ति का भाव था--वह भरा हुआ, समृद्ध था । वह अपनी पराकाष्ठा तक पहुंची हुई गति था जो हर उस वस्तु से असंख्य गुना तेज था जिसकी तुम कल्पना कर सकते हो । और साथ ही साथ वह पूर्ण शान्ति और निश्चलता से भरपूर था ।

 

    और यह सर्वश्रेष्ठ कमानी, सबके लिए जो होता है, होकर रहेगा और होगा उसका पूरा-पूरा चित्र थी : तुम तुरन्त बृहत् में जा उछलते हो ।

 

जिस अनुभूति का मैंने अभी-अभी वर्णन किया उसके बाद ही दूसरी अनुभूति हुई, उसे भी मैंने उसी समय लिख लिया था ।

 

 १५ नवम्बर, १९५८ की अगली वार्ता देखिये ।

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१५ नवम्बर, १९५८

 

१३ नवम्बर, १९५८ की अनुभूति

 

    सच पूछो तो, तुम विरोधी शक्तियों के चंगुल से तब तक नहीं छूटते जब तक कि तुम हमेशा के लिए निम्न गोलार्द्ध के ऊपर, प्रकाश में न निकल आओ । और वहां ''विरोधी शक्तियां'' यह कथन अपना अर्थ खो बैठता है; वहां केवल प्रगति करने की शक्तियां होती हैं ताकि वे तुम्हें प्रगति करने को विवश करें । लेकिन तुम्हें चीजों को इस तरीके से देखने के लिए निम्न गोलार्द्ध से बाहर निकलना होगा; क्योंकि नीचे वे भागवत योजना का विरोध करने के लिए बहुत वास्तविक हैं ।

 

    पुरानी परम्पराओं में कहा जाता था कि तुम अपने शरीर को छोड़े बिना, परम उद्‌गम में वापिस लौटे बिना, बीस दिनों से अधिक उस उच्चतर अवस्था में नहीं जी सकते । अब यह बात सच्ची नहीं रही ।

 

    पूर्ण सामञ्जस्य की ठीक यही अवस्था जो सभी प्रहारों के परे है, अतिमानसिक उपलब्धि के साथ सम्भव होगी । यही वह अवस्था है जो उन सभी के लिए चरितार्थ होगी जो अतिमानसिक रूपान्तर के लिए निर्दिष्ट हैं । विरोधी शक्तियां यह अच्छी तरह से जानती हैं कि अतिमानसिक जगत् में वे स्वत: विलीन हो जायेंगी : कोई उपयोग न रहने के कारण कुछ भी किये बिना, केवल अतिमानसिक शक्ति की उपस्थिति से, वे विघटित हो जायेंगी । इसीलिए वे सब चीजों को सभी चीजों को नकारती हुई क्रोध में इधर-से-उधर दौड़ती फिर रही हैं ।

 

    लेकिन दोनों जगतों के बीच की कड़ी अभी तक नहीं बनी है--वह बन रही है । तीन फरवरी की अनुभूति का यही अर्थ था ,  मुख्य रूप से इन दोनों जगतों के बीच सम्बन्ध जोड़ना था । क्योंकि वस्तुत: ये दोनों जगत् मौजूद हैं--एक के ऊपर एक नहीं बल्कि एक के अन्दर दूसरा--दो भिन्न आयामों में--लेकिन दोनों में कोई सम्पर्क नहीं । वे बिना एक साथ

 

    १माताजी ने इस अनुभूति के बारे में, ११ फरवरी, १९५८ (प्रश्नोत्तर १९५७-५८, 'श्रीमातृवाणी', खण्ड ९) की अपनी वार्ता में कहा है ।

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मिले एक-दूसरे को ढक लेते हैं । ३ फरवरी की अनुभूति में मैंने कुछ यहां के और कुछ बाहर के लोगों को देखा जो अपनी सत्ता के एक भाग में अभी से अतिमानसिक जगत् के सदस्य हो चुके हैं; लेकिन बीच में कोई सम्पर्क नहीं, कोई सम्मिलन नहीं । विश्व के इतिहास में वह समय अभी-अभी आया है जब इन दोनों के बीच नाता जोड़ना होगा ।

 

    पांच नवम्बर की अनुभूति दोनों जगतों के बीच कड़ी के निर्माण में एक नया चरण थी । वस्तुत: मैं अतिमानसिक सृष्टि के एकदम मूल में प्रक्षिप्त की गयी थी : वह सारा ऊष्माभरा स्वर्ण, वह जीवन्त विस्मयकारी शक्ति, वह परमोच्च शान्ति । मैंने एक बार फिर से देखा कि वे मूल्य जो इस अतिमानसिक जगत् में प्रचलित हैं, उनका हमारे नीचे के मूल्यों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, यहां तक कि सबसे अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण मूल्यों का भी, यहां तक कि वे मूल्य भी जिन्हें हम निरन्तर भागवत उपस्थिति में रहते हुए एकदम दिव्य समझते हैं, उनका भी कोई सम्बन्ध नहीं होता । सब कुछ एकदम अलग है ।

 

    न केवल पूजा और परम प्रभु के प्रति समर्पण की अवस्था में बल्कि यहां तक कि हमारे तादात्म्य की अवस्था में भी तादात्म्य की कोटि भिन्न होती है, यह इस पर निर्भर करता है कि हम इस ओर हैं, निम्न गोलार्द्ध में प्रगति कर रहे हैं या इसे पार करके दूसरे जगत् में, दूसरे गोलार्द्ध, उच्चतर गोलार्द्ध में निकल आये हैं ।

 

    उस क्षण परम प्रभु के साथ मेरा जिस तरह का सम्बन्ध था या वह जिस कोटि का था वह उस सम्बन्ध से एकदम भिन्न था जैसा हमारा उनके साथ यहां होता है, और यहां तक कि तादात्म्य की कोटि भी भिन्न थी । निम्न गतिविधियों को तो तुम बहुत अच्छी तरह समझ सकते हो कि वे भिन्न हैं, लेकिन वह हमारी यहां की अनुभूति की पराकाष्ठा थी, वह तादात्म्य जिसमें परम प्रभु ही रहते हैं और शासन करते हैं । हां तो, जब हम इस निम्न गोलार्द्ध में होते हैं और जब हम अतिमानसिक जीवन में होते हैं तो दोनों में वे एकदम भिन्न तरीके से रहते, शासन करते और जीते हैं । और उस क्षण अनुभूति को जिस चीज ने तीव्रता दी वह यह थी कि मैंने

 

     ११३ नवम्बर की अनुभूति ।

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अस्पष्ट रूप में चेतना की इन दोनों अवस्थाओं को एक साथ देखा । यह प्राय: ऐसा है मानों अपने-आपमें परम प्रभु ही भिन्न हैं, यानी, उनकी जो अनुभूति हमें होती है वह भिन्न है । और फिर भी दोनों अवस्थाओं में परम प्रभु के साथ सम्पर्क था । हां शायद, हम उन्हें कैसे देखते हैं, देखी हुई वस्तु को कैसे अनूदित करते हैं इसमें भेद है; लेकिन अनुभूति की कोटि अलग होती है ।

 

    दूसरे गोलार्द्ध में एक ऐसी तीव्रता, एक ऐसी बहुलता है जो अपने-आपको एक ऐसी शक्ति के द्वारा अभिव्यक्त करती है जो यहां की शक्ति से भिन्न है । इसे कैसे समझाया जाये ? नहीं समझाया जा सकता । स्वयं चेतना का गुण बदला हुआ प्रतीत होता है । हम यहां जिस शिखर तक चढ़ सकते हैं यह कोई उससे भी ऊपर की चीज नहीं है, वह एक कदम आगे नहीं है : यहां हम अन्त में, शिखर पर हैं । यह कोटि ही भिन्न है, इस अर्थ में कि वहां एक बहुलता, एक समृद्धि, एक शक्ति है । हमारे तरीके से यह एक अनुवाद है, लेकिन कोई ऐसी चीज है जो हमारी पकड़ में नहीं आती--यह सचमुच चेतना का नया उल्टाव है ।

 

   जब हम आध्यात्मिक जीवन जीना शुरू करते हैं, तो चेतना में एक उल्टाव आ जाता है, जो हमारे लिए इस बात का प्रमाण है कि हमने आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश कर लिया है; हां, तो जब हम अतिमानसिक जगत् में प्रवेश करते हैं तो चेतना का एक और उल्टाव होता है ।

 

   इसके अतिरिक्त, शायद हर बार जब नया जगत् खुलेगा, तो फिर से इसी तरह का नया उल्टाव होगा । अत: यहां तक कि हमारा आध्यात्मिक जीवन भी--जो साधारण जीवन की तुलना में एकदम पूरी तरह से उल्टा है--अतिमानसिक चेतना, अतिमानसिक सिद्धि की तुलना में एकदम से इतना अलग है और अलग दीखता भी है कि दोनों के गुण लगभग विपरीत- से हैं ।

 

   हम इसे यूं कह सकते हैं (लेकिन यह बहुत अयथार्थ, घटिया बल्कि उससे भी बढ़कर विकृत है) : यह ऐसा है मानों हमारा सारा आध्यात्मिक जीवन चांदी से बना था जब कि अतिमानसिक सोने से बना है, मानों सम्पूर्ण आध्यात्मिक जीवन यहां नीचे, चांदी का स्पन्दन था, आभाहीन नहीं, लेकिन बस एक प्रकाश ही था, एक ऐसा प्रकाश जो शिखर तक

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जाता है, एकदम शुद्ध प्रकाश, शुद्ध और तीव्र; लेकिन दूसरे जीवन में, अतिमानसिक जीवन में एक समृद्धि और एक शक्ति है और सारा भेद इसी में है । हमारी चैत्य सत्ता का यह सारा आध्यात्मिक जीवन और हमारी वर्तमान चेतना जो इतनी ऊष्माभरी, इतनी भरपूर, इतनी विलक्षण, साधारण चेतना के सामने, इतनी चमकदार दीखती है, हां, तो यह सारी चमक नये जगत् की भव्यता के सामने निस्तेज दीखती है ।

 

    इस तथ्य को इस तरीके से बहुत अच्छी तरह से समझाया जा सकता है : उल्टावों की एक क्रमिक शृंखला, एक-के-बाद-एक, सृष्टि की नित नयी समृद्धि लाती है और इस तरह जो कुछ पहले था वह वर्तमान की तुलना मैं निस्तेज प्रतीत होता है । हमारे साधारण जीवन की तुलना में जो हमारे लिए बड़ी महान् समृद्धि होती है, वह चेतना के इस नये उल्टाव की तुलना में बहुत फीकी लगती है । मेरी अनुभूति यही थी ।

 

    पिछली रात जब मैंने यह जानने की कोशिश की कि कमी किस चीज की है ताकि मैं तुम लोगों को पूरी तरह से, सचमुच तुम्हारी कठिनाइयों से उबार सकूं, तो इस प्रयास ने मुझे उस बात की याद दिला दी जो मैंने तुम्हें परम शक्ति के बारे में बतायी थी, रूपान्तर की शक्ति उपलब्धि की सच्ची शक्ति अतिमानसिक शक्ति । एक बार तुम वहां प्रवेश कर लो , उस अवस्था तक उठ जाओ, तो तुम देखोगे कि यहां हम जो हैं उसकी तुलना में वह सचमुच सर्वशक्तिमान् है । तो मैंने फिर से एक बार देखा, और एक साथ दोनों अवस्थाओं को अनुभव किया ।

 

    लेकिन जब तक यह उपलब्धि पूर्ण तथ्य के रूप में चरितार्थ न हो जाये तब तक वह प्रगति की क्रिया ही रहेगी-प्रगति की क्रिया, एक चढ़ाई : तुम प्राप्त करते हो, तुम्हारा क्षेत्र बढ़ता जाता है, तुम अधिकाधिक ऊपर चढ़ते हो; यह तब तक होता है जब तक कि नया उल्टाव न आये, यह ऐसा है मानों वहां सब कुछ फिर से करने की आवश्यकता होती है । यहां नीचे की अनुभूति की वह पुनरावृत्ति होती है--उसे वहां दोहराया जाता है ।

 

    और हर बार तुम्हें यह आभास होता है कि तुम चीजों की सतह पर रहे हो । यह एक ऐसा आभास है जो बार-बार होता है । हर एक नयी विजय पर तुम्हें यह अनुभव होता है : ''अभी तक मैं चीजों की केवल

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सतह पर ही रहा हूं--चीजों की सतह पर--उपलब्धि की सतह पर, समर्पण की सतह पर, शक्ति की सतह पर--वह केवल चीजों की सतह थी, अनुभूति की सतह थी ।'' उस सतह के पीछे एक गहराई है और जब तुम गहराइयों में उतरते हो केवल तभी सच्ची चीज को छू सकते हो । और हर बार वही अनुभूति होती है : जो गहराई प्रतीत होती थी वह सतह बन जाती है, सतह, अपने सभी अर्थों में, यानी जो अयथार्थ, कृत्रिम, एक कृत्रिम अनुकृति, एक ऐसी चीज जो यह आभास देती है कि यह सचमुच जीवन्त नहीं है; यह नकल है, बनावटी है--एक चित्र है, छाया है लेकिन स्वयं वस्तु नहीं है । तुम किसी दूसरे क्षेत्र में निकल जाते हो और ऐसा भान होता है कि तुमने 'स्रोत' और 'शक्ति' को, चीजों के परम 'सत्य' को पा लिया; और फिर यह स्रोत, यह शक्ति । यह सत्य नयी उपलब्धि की तुलना में छाया, कृत्रिमता, अनुकृति बन जाते हैं ।

 

    इस बीच हमें सचमुच यह जानना चाहिये कि अभी तक हमें कुंजी प्राप्त नहीं हुई है; यह हमारी पहुंच के अन्दर नहीं है । या हमें यह अच्छी तरह मालूम है कि वह कहां है, और हमें बस एक ही चीज करनी है : पूर्ण समर्पण, जिसके बारे में श्रीअरविन्द ने बतलाया है, चाहे जो भी हो, यहां तक कि रात्रि के अन्धकार में भी, भागवत संकल्प के प्रति पूर्ण आत्म-दान ।

 

    रात्रि भी है, सूर्य भी है, रात्रि और सूर्य, फिर से रात्रि, कई रात्रियां, लेकिन तुम्हें समर्पण के इस संकल्प से चिपके रहना होगा, उसके साथ ऐसे चिपके रहना होगा मानों तुम तूफान में हो और सभी चीजों को परम प्रभु के हाथों में सौंप देना होगा जब तक कि पूर्ण विजय-दिवस न आ जाये जब 'सूर्य' सदा-सर्वदा चमकता रहेगा ।

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२२ नवम्बर, १९५८

 

कर्म

 

    इस तरह की भवितव्यता जिसका हम अपने जीवन पर कभी-कभी भारी दबाव अनुभव करते हैं, जिसे भारत में 'कर्म' कहा जाता है, पूर्व जीवनों का परिणाम है; सचमुच, यह ऐसी चीज है जिसे निःशेष कर देना चाहिये, यह ऐसी चीज है जो मनुष्य की चेतना पर भार बन जाती है ।

 

    चीजें यूं होती हैं : चैत्य सत्ता एक जीवन से दूसरे जीवन में जाती है, धरती का जीवन अधिक प्रगति, अधिक बुद्धि का अवसर और साधन होता है । लेकिन हो सकता है कि चैत्य अमुक अनुभूति से गजरने के लिए, अमुक चीज को सीखने, या किसी निश्चित अनुभूति द्वारा किसी गुण-विशेष के विकास के इरादे से जन्म ले । फिर उस जीवन में, उस जीवन में जिसमें वह अनुभव होना है, किसी-न-किसी कारण से-बहुत-से कारण हो सकते हैं-अन्तरात्मा ठीक उस स्थान पर नहीं गिरती जहां उसे गिरना चाहिये था : किसी तरह का कोई स्थानान्तरण हो सकता है, विरोधी परिस्थितियां आ सकती हैं--ऐसा हो सकता है-और ऐसी अवस्था में जन्म पूरी तरह से विफल होता है और अन्तरात्मा दूसरे ज्यादा अच्छे अवसर की प्रतीक्षा में चली जाती है । लेकिन दूसरी अवस्थाओं में अन्तरात्मा को यह अवसर मिलता ही नहीं कि वह यथार्थ रूप में जो चाहती है उसे करे और वह अपने-आपको अभागी परिस्थितियों में घसीटे जाता हुआ पाती है--केवल वस्तुपरक दृष्टि से नहीं बल्कि अपने विकास के लिए भी अभागी । और इससे यह जरूरी हो जाता है कि वह अपनी अनुभूति को फिर से शुरू करे और बहुधा पहले से कहीं अधिक कठिन परिस्थितियों में ।

 

    और अगर--कुछ भी हो सकता है-अगर यह दूसरा प्रयास भी असफल रहे, अगर परिस्थितियां एक बार फिर से, चैत्य जो करना चाहता है उसे असम्भव बना दें, अगर, उदाहरण के लिए शरीर में अपर्याप्त इच्छा या विचार में कोई विकार, या बहुत ही कठोर अहं हो और प्रयास का अन्त आत्महत्या में हो, तो चीज बहुत भयंकर बन जाती है । मैंने ऐसा कई बार देखा है; यह एक भीषण कर्म का सृजन करता है जिसकी पुनरावृत्ति जन्म-

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जन्मान्तर तक हो सकती है जब तक कि अन्तरात्मा जीतने में और वह जो करना चाहती है उसे करने में समर्थ न हो जाये । और हर बार परिस्थितियां अधिकाधिक कठिन होती जाती हैं, हर बार बहुत अधिक प्रयास की मांग की जाती है । कभी-कभी यह भी कहा गया है कि मनुष्य इससे बाहर नहीं निकल सकता । वस्तुत: अतीत की अवचेतन स्मृति, कठिनाई से बचने के लिए एक तरह की दुर्निवार कामना पैदा करती है और तुम फिर से वही बेवकूफी या उससे भी ज्यादा बड़ी बेवकूफी शुरू कर देते हो, और जो कठिनाई पहले से ही इतनी बड़ी थी, उसमें एक और कठिनाई जुड़ जाती है । इसके अतिरिक्त, ऐसे क्षण आते हैं--क्षण या परिस्थितियां--जब तुम्हारी सहायता करने के लिए, तुम्हें निर्देश देने के लिए, तुम्हारा पथ प्रदर्शन करने के लिए कोई नहीं होता । तुम एकदम-से अकेले होते हो और यह नहीं जान पाते कि किसका सहारा लिया जाये । तब वस्तुस्थिति बहुत भयंकर हो जाती हैं, परिस्थितियां बहुत जघन्य होती हैं ।

 

    लेकिन बस एक बार अगर अन्तरात्मा अभ्यर्थना करे अगर एक बार उसका भागवत कृपा के साथ सम्पर्क हो जाये तो फिर अगले जीवन में वह अपने-आपको एकदम-से ऐसी परिस्थितियों में पाती है जहां सभी चीजें एक ही झटके में समाप्त की जा सकती हैं । उस क्षण तुम्हारे अन्दर महान् साहस, महान् सहिष्णुता होनी चाहिये, जब कि कभी-कभी सच्चा प्रेम ही काफी होता है । और अगर श्रद्धा हो-थोड़ी, बहुत थोड़ी भी पर्याप्त है-तो सभी चीजें एकदम साफ हो जाती हैं । लेकिन अधिकतर व्यक्तियों में आवश्यकता होती है महान् आत्मसंयमी साहस की, सहने और डटे रहने के सामर्थ्य की; प्रतिरोध करने की, विशेषकर उस अवस्था में जब पहले आत्महत्या की गयी हो, उसी बेबकूफी को फिर से करने के आकर्षण का प्रतिरोध करने की क्योंकि यह चीज बहुत भयंकर रचना खड़ी कर देती है । समस्या का सीधा सामना न करने की आदत भी होती है जो पलायन में अनूदित होती है । जब पीड़ा आये तो उड़ो, उड़ो । समस्या को अपने अन्दर सोखने की जगह, उसे कसकर जकड़ने की बजाय, यानी अन्दर से हिले-डुले बिना, झुके बिना, हां, सबसे बढ़कर, जब तुम अन्दर यह अनुभव करो, ''मैं इसे और नहीं सह सकता'' तो कभी मत झुको । अपने सिर को यथासम्भव शान्त रखो, उस गति का अनुसरण न करो, स्पन्दन की आज्ञा न मानो ।

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    इसी की आवश्यकता होती है, बस इतने की ही : भागवत कृपा में श्रद्धा, भागवत कृपा का अन्तर्दर्शन, या फिर, पुकार की तीव्रता, या इससे भी अधिक अच्छा है, प्रत्युत्तर, प्रत्युत्तर, खुलती हुई, टूटती हुई गांठ, भागवत कृपा के इस अद्‌भुत प्रेम को प्रत्युत्तर ।

 

    दृढ़ संकल्प के बिना यह कठिन है, सबसे अधिक, सबसे बढ़कर कठिन है उस प्रलोभन का प्रतिरोध करना जो पिछले जन्मों की संचित शक्ति के कारण घातक प्रलोभन बन गया है । हर एक पराजय उसे नया बल देती है । छोटी-सी विजय उसे विघटित कर सकती है ।

 

    सबसे भयंकर चीज तब होती है जब तुम्हारे अन्दर बल नहीं होता, साहस नहीं होता, ऐसी चीज नहीं होती जो अदम्य हो । कितनी ही बार लोग मुझसे आकर कहते हैं : ''मैं मरना चाहता हूं मैं भाग जाना चाहता हूं, मैं मरना चाहता हूं ।'' और उन्हें उत्तर मिलता है : ''हां, तो, फिर अपने प्रति मरो ! तुमसे अपने अहं को जिन्दा रखने के लिए किसी ने नहीं कहा ! चूंकि तुम मरना चाहते हो तो अपने प्रति मरो ! वह साहस जुटाओ, अपने अहं के प्रति मरने का सच्चा साहस ।''

 

    लेकिन चूंकि यह 'कर्म' है, इसलिए तुम्हें अपने-आप भी कुछ करना होगा । कर्म अहं की रचना है; अहं को कुछ करना होगा, उसके लिए सब कुछ नहीं किया जा सकता । सच तो यह है कि 'कर्म' अहं की क्रियाओं का परिणाम है, और केवल तभी जब अहं अपनी गद्दी छोड़ दे, 'कर्म' विलीन होता है । तुम अहं की सहायता कर सकते हो, उसे सहयोग दे सकते हो, तुम उसे बल दे सकते हो और उसे साहस से अनुप्राणित कर सकते हो, लेकिन उसे इनका उपयोग करना होगा ।

 

    हम जो सचमुच हैं और जैसे वर्तमान में हैं, इन दोनों के बीच इतनी बड़ी खाई है कि इससे कभी-कभी हमारा सिर चकराने लगता है । हमें इस चक्कर के सामने झुकना नहीं चाहिये । हिलो मत । पत्थर की तरह तब तक निश्चल रहो जब तक यह चीज गुजर न जाये ।

 

    साधारणत: जब किसी 'कर्म' पर विजय पाने और भागवत कृपा द्वारा उसके विलीन होने का समय आ जाता है तो उस  'कर्म' के कारण के यथार्थ तथ्यों की अनुभूति, ज्ञान या उसका चित्र भी सामने आ जाता है, और तब उस क्षण से तुम सफाई शुरू कर सकते हो ।

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    लेकिन बस, उस सबसे अधिक पीड़ाजनक बिन्दु पर, वहां जहां सुझाव सबसे अधिक शक्तिशाली होते हैं, तुम्हें प्रहार को सह जाना होगा । वरना तुम्हें हमेशा फिर से आरम्भ करना पड़ेगा, हमेशा फिर से आरम्भ करना पड़ेगा ।

 

    एक दिन, एक ऐसा क्षण आता है जब चीज करनी होती है, जब तुम्हें वह सच्ची आन्तरिक क्रिया करनी पड़ती है जो मुक्त करती है । सच बात तो यह है कि इस समय पृथ्वी पर एक ऐसा सुअवसर है जो हजारों वर्षों बाद ही आता है, आवश्यक शक्ति के साथ सचेतन सहायता । एक समय था जब ऐसा माना जाता था कि 'कर्म' के परिणामों को मिटाने का बल किसी चीज में नहीं है, और यह कि केवल शुद्धीकरण के ढेर-सारे अनुष्ठानों द्वारा उसे एकदम-से समाप्त करके ही परिणामों को रूपान्तरित, पूरी तरह से समाप्त किया और मिटाया जा सकता है । लेकिन अतिमानसिक शक्ति द्वारा, मुक्ति की प्रक्रिया के सभी सोपानों से गजरने की आवश्यकता के बिना इसे किया जा सकता है ।

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जनवरी १९६०

 

    मैने पढ़ा कि कृछ सन्तों के शरीर, उनकी मृत्यु के बाद, या तो विलीन होकर पुष्प बन गये, या फिर आकाश में गायब हो गये । क्या ऐसी चीज हो सकती है ?

 

सब कुछ सम्भव है, हो सकता है कि ऐसा हुआ हो, लेकिन मुझे विश्वास नहीं कि ऐसा हुआ था । किताबों में जो कुछ कहा जाता है हम उस पर हमेशा विश्वास नहीं कर सकते । न ही इन घटनाओं और सन्त होने में कोई आवश्यक सम्बन्ध ही है । कुछ ''माध्यमों'' में, जैसा कि उन्हें कहा जाता है, असाधारण क्षमता होती है । उन्हें कुर्सी पर बिठाकर उससे बांध दिया जाता है, चारों तरफ लोगों का पहरा रहता है और कमरे को बाहर से सुरक्षित रूप से अच्छी तरह ताला लगा दिया जाता है और फिर कमरे में अंधेरा कर दिया जाता है । कुछ समय बाद--माध्यम की क्षमता के अनुसार, कुछ कम या अधिक समय बाद - गांठे खुली मिलती हैं, कुर्सी खाली दीखती है : व्यक्ति गायब हो चुका है । फिर, साथ के कमरे में वह गहरी समाधि में लेटा हुआ मिलता है । माध्यम बन्द दरवाजों और मोटी दीवारों में से निकल गया । यह भौतिक तत्त्व को छिन्न-भिन्न करने और फिर से एकाग्र करने की शक्ति द्वारा होता है ।

 

    ऐसी घटनाएं एकदम से कठोर वैज्ञानिक नियन्त्रण में हुई हैं । तो विरले उदाहरणों में ऐसा सचमुच होता है लेकिन ये किसी धार्मिकता की निशानी नहीं हैं । उनमें कोई आध्यात्म तत्त्व नहीं होता । जो कुछ हो रहा होता है वह शुद्ध रूप से प्राणिक सत्ता की कोई क्षमता होती है । और बहुधा ये माध्यम बहुत ही निम्न चरित्र के लोग होते हैं जिनमें सन्तपने का कोई लवलेश तक नहीं होता ।

 

    लेकिन असली बात पर आये । बड़े आदमियों या सन्तों के सम्बन्ध में सब तरह की कहानियां शुरू हो जाती हैं । जब श्रीअरविन्द ने शरीर नहीं छोड़ा था तो एक कहानी फैली हुई थी कि वे अपने कमरे की छत से निकलते थे--हां भौतिक रूप में- और सब तरह के स्थानों पर घूमा करते थे । यहां तक कि यह किसी किताब में लिखा भी है । उन्होंने स्वयं

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मुझे इसके बारे में बताया था ।

 

    कई किताबों में कहा गया हे कि मीराबाई भोतिक रूप से श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गयीं थीं और फिर उन्हे किसी ने नहीं देखा ।

 

क्या दूसरी किताबों में और कहानियां नहीं हैं ?

 

    यह थी सुना था कि आप कभी कलम से नहीं लिखतीं I कलम आपके लिए लिखता है I

 

तो लो !

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तारीख के बिना : फरवरी १९६० से पहले

 

सच्चा करण  

 

    जो लोग सच्चे पथ का अनुसरण करना चाहते हैं वे स्वभावत: दुर्भावना की सभी शक्तियों के प्रहारों के प्रति खुल जाते हैं जो न केवल समझती नहीं हैं बल्कि साधारणत: जिसे नहीं समझती उससे धृणा करती हैं ।

 

    लोग तुम्हारे बारे में जो द्वेषपूर्ण बेवकूफीभरी बातें कहते हैं अगर तुम उनसे परेशान, उद्विग्न या हतोत्साह भी हो जाते हो तो तुम पथ पर बहुत आगे न बढ़ पाओगे । और ये चीजें तुम्हारे पास इसलिए नहीं आतीं कि तुम अभागे हो या तुम्हारे भाग्य में सुख नहीं बदा, बल्कि इसके विपरीत, इसलिए आती हैं कि भागवत परम चेतना और परम कृपा तुम्हारे संकल्प को गम्भीरता से ले रही हैं और ऐसी परिस्थितियां बनाती हैं कि वे तुम्हारे रास्ते पर कसौटी बनें, यह देखने के लिए कि तुम्हारा संकल्प सच्चा है और तुम कठिनाई का सामना करने के लिए पर्याप्त रूप से बलवान् हो या नहीं ।

 

    इसलिए, अगर कोई तुम्हारा मजाक उड़ाये या कोई कठोर बात कहे तो सबसे पहली चीज है अपने अन्दर देखो और यह देखो कि वह कौन-सी दुर्बलता या अपूर्णता है जिसने ऐसी चीज को होने दिया । तुम इसलिए निराश, कुपित या उदास न होओ कि जिसे तुम अपना उचित मूल्य समझते हो लोग उसकी प्रशंसा नहीं करते; इसके विपरीत, तुम्हें भागवत कृपा को धन्यवाद देना चाहिये कि उसने तुम्हारी उस दुर्बलता, अपूर्णता या विकार की ओर इशारा किया जिसे तुम्हें ठीक करना है ।

 

    इसलिए दुःखी होने की जगह तुम पूरी तरह से सन्तुष्ट हो सकते हो और लाभ उठा सकते हो, उस हानि से पूरा लाभ उठा सकते हो जो कोई तुम्हें पहुंचाना चाहता था ।

 

    इसके अतिरिक्त, अगर तुम सचमुच पथ का अनुसरण और योग करना चाहते हो, तुम्हें वह इसलिए नहीं करना चाहिये कि लोग तुम्हारी प्रशंसा करें या तुम्हारा सम्मान करें; तुम्हें वह इसलिए करना चाहिये कि यह तुम्हारी सत्ता की अनिवार्य आवश्यकता है, इसलिए कि तुम केवल इसी

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तरीके से सुखी हो सकते हो । लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं या नहीं करते इसका तुम्हारे लिए बिलकुल कोई महत्त्व नहीं । तुम शुरू से ही अपने-आपसे कह सकते हो कि तुम सामान्य आदमी से जितने अधिक दूर होगे, सामान्य व्यक्ति के तरीकों से जितने अधिक अपरिचित होगे, उतनी ही कम तुम्हारी प्रशंसा होगी--यह बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि वे तुम्हें समझ नहीं पायेंगे । और मैं फिर से कहती हूं कि इस चीज का किसी तरह का कोई महत्त्व नहीं है ।

 

    असली सच्चाई पथ का अनुसरण इसलिए करने में है क्योंकि तुम अन्यथा कर ही नहीं सकते अपने-आपको भागवत जीवन के अर्पण करने में है क्योंकि तुम अन्यथा कर ही नहीं सकते, अपनी सत्ता को रूपान्तरित करने के प्रयास और प्रकाश में उठ आने में है क्योंकि तुम अन्यथा कर ही नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारे जीने का यही एकमात्र कारण है ।

 

    जब ऐसा हो तो तुम निश्चित हो सकते हो कि तुम उचित पथ पर हो ।

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४ जून, १९६०

 

    हम सवेरे थके हुए क्यों उठते हैं, और ज्यादा अच्छी नींद के लिए हमें क्या करना चाहिये ?

 

अगर तुम सवेरे थके हुए उठते हो तो यह तमस् के कारण है, और किसी चीज के कारण नहीं, भयंकर पुंजीभूत तमस्; जब मैंने शरीर का योग आरम्भ किया तो मैंने स्वयं यह देखा था । जब तक शरीर रूपान्तरित न हो जाये यह अपरिहार्य है I

 

    तुम्हें पीठ के बल सीधे लेट जाना चाहिये और अपनी सभी मांसपेशियों और सभी स्नायुओं को ढीला छोड़ देना चाहिये-यह सीखना आसान है--एकदम ऐसा होना चाहिये जिसे मैं बिस्तर पर पड़े लत्ते जैसा होना कहती हूं : अन्य कुछ नहीं रहता । और अगर तुम मन के साथ भी यही कर सको, तो तुम उन सभी मूर्खताभरे सपनों से पिंड छुड़ा सकते हो जो तुम्हें जागने पर, बिस्तर पर जाते समय की अपेक्षा ज्यादा थका देते हैं । मस्तिष्क की कोषीय गतिविधि ही बिना नियन्त्रण के निरन्तर चलती रहती है और यह तुम्हें बहुत थका देती है । तो, होनी चाहिये एक पूर्ण शिथिलता, एक तरह की पूर्ण निश्चलता जिसमें कोई तनाव न हो, जिसमें सब कुछ थम जाये । लेकिन यह तो आरम्भ मात्र है ।

 

    बाद में, तुम यथासम्भव पूर्ण आत्मदान करो, सभी चीजों का, ऊपर से लेकर नीचे तक, बाहर से लेकर अन्दर तक, सबका । और अपने अहं के सारे प्रतिरोध का यथासम्भव पूर्ण रूप से उन्मूलन करो । और बाद में तुम अपना मन्त्र जपना शुरू करो--तुम्हारा अपना मन्त्र, अगर तुम्हारे पास कोई हो तो, या कोई भी शब्द जिसमें तुम्हारे लिए शक्ति हो, ऐसा शब्द जो प्रार्थना की तरह, सहज रूप में हृदय से प्रकट हो, ऐसा शब्द जो तुम्हारी अभीप्सा को समाहित करे । उसे कई बार दोहराने के बाद, अगर तुम अभ्यस्त हो तो समाधि में चले जाओ । और उस समाधि से होकर नींद में प्रवेश करो । समाधि उतनी देर रहती है जितनी देर रहनी चाहिये और फिर सहज, नैसर्गिक रूप से तुम नींद में चले जाते हो । लेकिन इस नींद से जब

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तुम जगते हो, तो तुम्हें सब कुछ याद रहता है; नींद में भी मानों समाधि ही जारी रही ।

 

    मूलत: नींद का एकमात्र उद्देश्य है शरीर को समाधि के प्रभाव को पचा लेने के योग्य बनाना जिससे कि प्रभाव सभी जगह ग्रहण किया जा सके और शरीर को इस योग्य बनाया जा सके कि वह विष निष्कासन का अपना स्वाभाविक रात का काम कर सके । और इस तरह जब तुम जागते हो तो नींद से आने वाला वह भारीपन लेशमात्र भी नहीं होता : समाधि का प्रभाव जारी रहता है ।

 

    उन लोगों के लिए भी जो कभी समाधि में नहीं गये, सोने से पहले कोई मन्त्र या शब्द जपना या प्रार्थना करना अच्छा है । लेकिन शब्दों में जीवन होना चाहिये; मेरा मतलब बौद्धिक अर्थ से नहीं है, उस तरह की किसी चीज से नहीं, बल्कि स्पन्दन से है । और उसका शरीर पर असाधारण प्रभाव होता है : उसमें स्पन्दन आरम्भ हो जाता है, वह स्पन्दित, स्पन्दित, स्पन्दित होता है... और फिर शान्ति से तुम अपने-आपको छोड़ दो, मानों तुम सोना चाहते हो । शरीर अधिकाधिक स्पन्दित होता है, अधिकाधिक, अधिकाधिक स्पन्दित होता है और तुम दूर चले जाते हो । तमस् का यही उपचार है ।

 

    तमस् ही बुरी नींद का कारण है । बुरी नींद दो तरह की है : एक तो वह जो तुम्हें भारी, सुस्त बना देती है मानों तुम पिछले दिन किये गये प्रयास के सारे प्रभाव को खो बैठे हो; और दूसरी वह जो तुम्हें एकदम श्रांत बना देती है मानों तुमने अपना समय लड़ने में बिताया हो । मैंने देखा है कि अगर तुम अपनी नींद को टुकड़ो में बांट लो (यह एक ऐसी आदत है जिसे तुम डाल सकते हो) तो रातें ज्यादा अच्छी हो जाती हैं । यानी तुम्हें नियत अन्तराल में अपनी सामान्य चेतना और अपनी सामान्य अभीप्सा में लौट आ सकना चाहिये--तुम चेतना की पुकार के साथ वापिस आ सको । लेकिन इसके लिए तुम्हें अलार्म-घड़ी का उपयोग नहीं करना चाहिये ! जब तुम समाधि में हो, तो उसमें से झकझोर कर बाहर निकाला जाना अच्छा नहीं होता ।

 

    जब तुम सोने के लिए जाने लगो, तो तुम एक कार्यक्रम बना सकते हो; कहो : ''मैं अमुक समय पर उठ जाऊंगा'' (बचपन में तुम इसे बहुत

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अच्छी तरह कर सकते हो) नींद के पहले अन्तराल में तुम्हें तीन घण्टे रखने चाहियें, अन्तिम के लिए एक घाटा पर्याप्त है । लेकिन पहला कम-से-कम तीन घण्टों का होना चाहिये । कुल मिलाकर, तुम्हे बिस्तर पर कम-से-कम सात घण्टे रहना चाहिये; छह घण्टों में तुम्हारे पास रातों को उपयोगी बनाने के लिए कुछ अधिक करने का समय नहीं होता (स्वभावत: मैं इसे साधना के दृष्टिकोण से देख रही हूं) ।

 

    रातों को उपयोगी बनाना बहुत अच्छी बात है । इसका दोहरा प्रभाव होता है : एक होता है नकारात्मक प्रभाव, जो तुम्हें पीछे गिरने से, जो कुछ तुमने पाया है उसे खोने से बचाता है--यह खोना सचमुच पीड़ाजनक है--और एक होता है सकारात्मक प्रभाव, तुम कुछ प्रगति करते हो, तुम प्रगति करना जारी रखते हो । तुम रातों को उपयोगी बनाते हो, अत: इस तरह थकान लेशमात्र भी नहीं आती ।

 

    तुम्हें दो चीजें निकाल बाहर करनी चाहिये : अवचेतन और निश्चेतन की उन सब चीजों के साथ, -जो ऊपर उठती हैं, तुम पर आक्रमण करती हैं, तुममें प्रवेश करती हैं, -निश्चेतना के व्यामोह में जा गिरना; और दूसरी चीज है प्राणिक और मानसिक अति-क्रियाशीलता जिसमें तुम शब्दश: भयंकर युद्ध लड़ते हुए अपना समय गुजारते हो । लोग उस अवस्था में से आहत होकर निकलते हैं, मानों उन्हें घूंसे लगे हों । और उन्होंने सचमुच घूंसे खाये भी--''मानों'' नहीं ! और मैं इससे बाहर निकलने का एक ही रास्ता जानती हूं : नींद की प्रकृति को बदलना ।

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१८ जुलाई, १९६०

 

    स्वाभाविक है इन पुरानी वार्ताओं पर तारीखें लिखी गयी हैं, लेकिन कोई इन तारीखों पर ध्यान नहीं देता । उन्हें आज की चीजों के साथ भला किस तरह मिलाया जा सकता है जो बिकुल भिन्न स्तर पर हैं ?

 

    एक ऐसी अनुभूति होती है जहां तुम एकदम से कालातीत होते हो, यानी, सामने, पीछे ऊपर, नीचे, सब समान होता है । इस तादात्म्य में, तादात्म्य के क्षण में भूत, वर्तमान, भविष्य कुछ नहीं रह जाता । और सचमुच, जानने का यही एकमात्र तरीका है ।

 

    जैसे-जैसे अनुभूतियां बढ़ रही हैं, ये पुरानी वार्ताएं मुझे ऐसे आदमी का आभास देती हैं जो किसी बगीचे के बाहर चारों तरफ घूमता हुआ अन्दर की चीजों के बारे में बताता हो । लेकिन एक समय आता है जब तुम स्वयं बगीचे में प्रवेश करते हो और वहां क्या है इसके बारे में कुछ ज्यादा जान लेते हो । और मैं प्रवेश करना आरम्भ कर रही हूं । मैं आरम्भ कर रही हूं ।

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१८ जुलाई, १९६१

 

प्रस्तुत प्रश्न श्रीअरविन्द के इस सूत्र पर आधारित है : ''पाप वह है जो एक समय अपने स्थान पर था, दुराग्रह करते हुए अब वह स्थानभ्रष्ट हो गया है; इसके अलावा कोई दूसरा पाप नहीं है । ''

 

    वे कौन-सी सबसे पहली चीजें है जिन्हें अतिमानसिक शक्ति निकाल बाहर करना चाहती है या बाहर निकालने की कोशिश कर रहीं है, जिससे व्यक्तिगत और वैश्व दोनों रूपों में हर चीज अपने स्थान पर हो ?

 

बाहर निकालना ? लेकिन क्या वह किसी भी चीज को निकाल बाहर करेगी ? अगर हम श्रीअरविन्द के विचार को स्वीकारें तो वह हर चीज को यथास्थान रख देगी, बस इतना ही ।

 

    एक चीज अनिवार्य रूप से बन्द होनी ही चाहिये, और वह है विकृति, यानी, परम सत्य के ऊपर मिथ्यात्व का पर्दा, क्योंकि जो कुछ हम यहां देखते हैं उसके लिए वही उत्तरदायी है । अगर उसे हटा दिया जाये तो चीजें पूरी तरह से बदल जायेंगी, पूरी तरह से । वे वैसी ही हो जायेंगी जैसा हम उन्हें इस चेतना से बाहर निकलने पर अनुभव करते हैं । जब व्यक्ति इस चेतना से निकलकर सत्य चेतना में प्रवेश करता है, तो भेद इतना महान् होता है कि वह आश्चर्य करता है कि दुःख-दर्द सन्ताप, मृत्यु और इसी तरह की चीजें भला हो कैसे सकती हैं । अचरज इस अर्थ में होता है कि तुम यह नहीं समझ पाते कि यह कैसे हो सकता है--जब तुम सचमुच दूसरी तरफ चले जाते हो । लेकिन साधारणत: जैसा कि हम जानते हैं यह अनुभूति जगत् की अयथार्थता की अनुभूति से सम्बद्ध कर ली जाती है; जब कि श्रीअरविन्द कहते हैं कि अतिमानसिक चेतना में रहने के लिए जगत् की अयथार्थता का दर्शन जरूरी नहीं है, यह केवल मिथ्यात्व की अयथार्थता है, जगत् की अयथार्थता नहीं । यानी, मिथ्यात्व से स्वतन्त्र,

 

     १ प्रश्न और इस वार्ता के पहले तीन परिच्छेद 'मातृवाणी' खण्ड १० में ('विचार और सूत्र' के प्रसंग में) भी प्रकाशित हुए हैं I

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जगत् की अपनी यथार्थता है ।

 

   मेरे ख्याल से अतिमन का यह पहला प्रभाव है--व्यक्ति पर पहला प्रभाव, क्योंकि वह व्यक्ति से ही शुरू होगा ।

 

   सम्भवत: नयी चेतना की इस अवस्था को स्थायी अवस्था बनना पड़े । लेकिन तब एक समस्या उठ खड़ी होती है : व्यक्ति जगत् की इस वर्तमान विकृत अवस्था के सम्पर्क में कैसे रह सकता है ? क्योंकि मैंने एक चीज देखी है : जब मेरे अन्दर यह अवस्था बहुत तीव्र होती है, बहुत तीव्र, इतनी तीव्र कि वह बाहर से बमवर्षा करने वाली किसी भी चीज का प्रतिरोध कर सकती है, उस समय मैं जो कुछ कहती हूं, लोग उसे बिल्कुल नहीं समझ पाते, बिलकुल कुछ नहीं; तो निश्चित रूप से यह अवस्था एक उपयोगी सम्पर्क से दूर हटा लेती है ।

 

   उदाहरण के लिए केवल पृथ्वी को लो, तो थोड़ी-सी अतिमानसिक सृष्टि कैसे हो सकती है, अतिमानसिक क्रिया का एक केन्द्रबिन्दु जो पृथ्वी पर विकीरित हो ? क्या यह सम्भव हे ? तुम अतिमानवीय सृष्टि और अतिमानवों के किसी केन्द्रबिन्दु की भली-भांति कल्पना कर सकते हो, यानी, ऐसे मनुष्यों की जो क्रमविकास और रूपान्तर (शब्द के सच्चे अर्थ में) के द्वारा अतिमानसिक शक्तियों को अभिव्यक्त करने में सफल हुए; लेकिन उनका मूल मानव है और चूंकि उनका मूल मानव है इसलिए आवश्यक रूप से एक सम्पर्क भी रहता है; अगर सब कुछ रूपान्तरित हो गया हो, यहां तक कि अवयव भी शक्ति के केन्द्रों में रूपान्तरित हो गये हों, फिर भी कुछ-न-कुछ मानवीय रह जाता है मानों कुछ रंग रह गया हो । परम्परा के अनुसार ये ही सत्ताएं सामान्य 'प्रकृति' की प्रक्रिया में से गुजरे बिना सीधे होने वाले अतिमानसिक प्रजनन के रहस्य को खोजेंगी और इन्हीं के द्वारा अतिमानसिक सत्ताएं जन्म लेंगी, वे सत्ताएं जो अनिवार्य रूप से अतिमानसिक जगत् में रहेंगी । लेकिन फिर इन सत्ताओं और साधारण जगत् के बीच सम्पर्क कैसे स्थापित होगा ? तब 'प्रकृति' के रूपान्तरण की अवधारणा कैसे की जा सकती है, ऐसे पर्याप्त रूपान्तर की जो पृथ्वी पर अतिमानसिक सृष्टि को लाये । मैं नहीं जानती ।

 

   स्वाभाविक है कि किसी ऐसी चीज के होने के लिए, पर्याप्त लम्बी अवधि की आवश्यकता होती है, यह हम जानते हैं; और शायद श्रेणियां

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हों, सोपान हों और ऐसी चीजें प्रकट हों जिन चीजों के बारे में हम अभी कुछ नहीं जानते या जिनकी कल्पना नहीं करते, वे पृथ्वी की अवस्थाओं को बदल देंगी--लेकिन इसका अर्थ हुआ हजारों वर्ष आगे की देखना I

 

   यह समस्या बनी रहती है : क्या देश की इस धारणा का उपयोग किया जा सकता है, मेरा मतलब है पार्थिव गोले के देश से । क्या ऐसा स्थान मिलना सम्भव है जहां हम भावी अतिमानसिक जगत् के अंकुर या उसके भ्रूण की रचना कर सकें ? यह योजना सम्पूर्ण ब्योरे के साथ आयी, लेकिन यह एक ऐसी योजना है जो अपने भाव और चेतना में पृथ्वी पर, अभी जो सम्भव है, उसके साथ बिलकुल भी सादृश्य नहीं रखती; यद्यपि अपनी सबसे अधिक जड़-भौतिक अभिव्यक्ति में, यह पार्थिव अवस्थाओं पर आधारित थी । यह एक ऐसी आदर्श नगरी की धारणा है जो एक आदर्श देश का केन्द्र होगी, ऐसी नगरी, जिसके बाहरी जगत् के साथ एकदम सतही और अपने प्रभाव में बहुत ही सीमित सम्पर्क होंगे । और तुम्हें उसकी धारणा पहले से बना लेनी होगी--यह सम्भव है--ऐसी शक्ति की धारणा जो पर्याप्त रूप से बलशाली हो और साथ-ही-साथ दुर्भावना, घुसपैठ और सम्मिश्रण के विरुद्ध बचाव हो (इस सुरक्षा को पाना अत्यधिक कठिन न होगा) । अगर आवश्यक हो तो तुम उसकी धारणा बना सकते हो । सामाजिक दृष्टिकोण से, व्यवस्था की दृष्टि से, आन्तरिक जीवन के दृष्टिकोण से ये समस्याएं नहीं हैं । समस्या है, जो अतिमानसिक नहीं बना है उसके साथ सम्बन्ध की, घुसपैठ को रोकने और सम्मिश्रण न होने देने की : यानी, केन्द्र को पलटकर निम्न सृष्टि में गिरने से बचाने की--यह संक्रमणकाल की समस्या है ।

 

   उन सब लोगों ने जिन्होंने इस समस्या के बारे में सोचा है हमेशा किसी ऐसी चीज की कल्पना की है जो शेष मानवता के लिए अज्ञात हो, उदाहरण के लिए हिमालय की किसी घाटी में, ऐसा स्थान, जो शेष जगत् के लिए अज्ञात हो । लेकिन यह समाधान नहीं है; बिकुल नहीं ।

 

   नहीं, एकमात्र समाधान है कोई गूह्यशक्ति, लेकिन इसका यह अर्थ हो

 

    १ बाद में इस वाक्य का अर्थ पूछने पर माताजी ने हंसते हुए कहा: ''मैंने इसे दूसरी तरफ का देश कहा था ! -उस तरफ का जहां देश की धारणा इतनी ठोस नहीं है ।''

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गया कि कुछ किया जा सके इसके पहले एक निश्चित संख्या में व्यक्ति सिद्धि की महान् पूर्णता तक पहुंच चुके हों । लेकिन तुम इसकी कल्पना कर सकते हो कि अगर यह किया जा सके, तो एक ऐसा स्थान हो सकता है जो बाहरी जगत् के बीच में होते हुए भी पृथक् हो (किसी तरह का कोई सम्पर्क न हो), ऐसा स्थान जहां सब कुछ ठीक अपने स्थान पर होगा । हर चीज ठीक अपने स्थान पर, हर मनुष्य अपने स्थान पर, हर गति ठीक अपने स्थान पर--आरोहण करती हुई प्रगतिशील गति में यथास्थान, जहां किसी तरह का कोई प्रत्यावर्तन न होगा, यानी सामान्य जीवन में जो होता है उससे एकदम विपरीत होगा । स्वभावत:, इससे एक तरह की पूर्णता का पूर्वानुमान लगाया जाता है, एक तरह की एकता का पूर्वानुमान लगाया जाता है, इससे यह पूर्वानुमान लगाया जाता है कि परम प्रभु के विभिन्न पहलू प्रकट किये जा सकते हैं, और निस्सन्देह, एक असाधारण सौन्दर्य, एक पूर्ण सामञ्जस्य और एक ऐसी पर्याप्त बलशालिनी शक्ति का पूर्वानुमान लगाया जाता है जो 'प्रकृति' की शक्तियों से आज्ञापालन करवा सके । उदाहरण के लिए, अगर यह स्थान विनाश की शक्तियों से घिरा हो तो भी उनके अन्दर क्रिया करने की शक्ति न होगी; पर्याप्त सुरक्षा होगी । यह सब उन व्यक्तियों से चरम पूर्णता की मांग करता है जो इस तरह की चीज के प्रबन्धक होंगे ।

 

(मौन)

 

    सचमुच, कोई नहीं जानता कि आदिम मनुष्यजाति कैसे बनी, मन कैसे अस्तित्व में आया । हम यह भी नहीं जानते कि क्या वे पृथक्-पृथक् व्यक्ति थे या समूह थे, क्या यह दूसरों के बीच हुआ या निर्जनता में । मैं नहीं जानती । लेकिन भावी अतिमानसिक सृष्टि के साथ ऐसा साम्य हो सकता है । इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है कि हिमालय के एकान्त या किसी अछूते वन की निर्जनता में कोई एक व्यक्ति अपने चारों तरफ अपने छोटे-से अतिमानसिक जगत् का निर्माण आरम्भ कर दे । यह कल्पना करना आसान है । लेकिन वही चीज आवश्यक होगी : उसे ऐसी पूर्णता तक पहुंचना होगा कि किसी भी अनुचित हस्तक्षेप को हटाने के लिए उसकी

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शक्ति स्वयमेव क्रिया करे, ताकि उसका जगत् स्वत: सुरक्षित रहे, यानी सभी प्रतिकूल या विजातीय तत्त्व पास आने से रोक दिये जायें ।

 

    इस तरह की कहानियां कही जाती रही हैं, ऐसे लोगों की जो एक आदर्श एकान्त में रहते थे । इसकी कल्पना करना असम्भव बिलकुल नहीं है । जब तुम इस 'शक्ति' के सम्पर्क में होते हो, जब यह तुम्हारे अन्दर होती है, उस क्षण तुम भली- भांति देखते हो कि यह बच्चों का खेल है; यहां तक कि कुछ चीजों को बदलना भी सम्भव हो जाता है, आस-पास के स्पन्दनों और आकारों पर प्रभाव डालना सम्भव हो जाता है जो स्वत: ही अतिमानसिक बनना शुरू कर देते हैं । यह सब सम्भव है, लेकिन है व्यक्तिगत स्तर पर । जब कि, जो कुछ यहां हो रहा है उसका उदाहरण लो, व्यक्ति इस सारी विशृंखलता के ठीक केन्द्र में रहता है, कठिनाई यही है ! क्या इस एक तथ्य का यह अर्थ नहीं है कि तब उपलब्धि में एक तरह की पूर्णता पाना असम्भव है ? लेकिन फिर, वन की निर्जनता के उदाहरण में भी यह बिलकुल भी प्रमाणित नहीं होता कि शेष मानवता उसका अनुसरण कर पायेगी या नहीं; जब कि जो कुछ यहां हो रहा है वह अपने-आपमें अभी से कहीं अधिक प्रसारित होने वाली क्रिया है । निश्चित समय पर यही होना चाहिये, इसे अनिवार्य रूप से होना चाहिये । लेकिन समस्या बनी ही रहती है : क्या यह चीज उसी समय या दूसरी चीज के चरितार्थ होने से पहले हो सकती है--व्यक्ति के, एक व्यक्ति के अतिमानसिक होने से पहले या उसी समय ?

 

    स्पष्टतया, किसी भी व्यक्तिगत उपलब्धि की अपेक्षा समूह या दल के साथ रहते हुए उपलब्धि बहुत अधिक पूर्ण सर्वांगीण, समग्र और शायद अधिक परिपूर्ण होती है । व्यक्तिगत उपलब्धि तो हमेशा अनिवार्य रूप से बाहरी, जड़-भौतिक स्तर पर एकदम सीमित होती है, क्योंकि यह तो सत्ता की केवल एक विधा, अभिव्यक्ति की मात्र एक विधा होती है, यह तो बस स्पन्दनों के एक अति सूक्ष्म समूह को छूती है ।

 

    लेकिन कार्य की सरलता की दृष्टि से. मेरा ख्याल है इनमें कोई तुलना नहीं है ।

 

(मौन)

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समस्या बनी रहती है । बुद्ध और दूसरे सभी लोगों ने पहले सिद्धि प्राप्त की और फिर वे जगत् के साथ सम्पर्क में आये : हां, यह बहुत आसान है । लेकिन मेरी दृष्टि में जो है उसके लिए क्या यह अनिवार्य अवस्था नहीं है, कि सिद्धि को पूर्ण बनाने के लिए व्यक्ति जगत में रहे ?

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३ अप्रैल, १९६२

 

(कई हफ्तों की गम्भीर बीमारी के बाद जिसमें माताजी का जीवन खतरे में था ।)

 

    कल रात ठीक ११, १२ बजे के बीच मुझे एक अनुभूति हुई जिससे मुझे यह पता चला कि व्यक्तियों का एक दल है-जानबूझकर मुझे उनका परिचय नहीं दिया गया--जो श्रीअरविन्द के दैवी सन्देश पर आधारित एक धर्म की स्थापना करना चाहते हैं । लेकिन उन्होंने केवल शक्ति और बल का पक्ष लिया है, एक तरह का ज्ञान और उस सबका जो आसुरिक शक्तियों द्वारा उपयोग में लाया जा सकता है । एक बहुत बड़ी आसुरिक सत्ता है जो श्रीअरविन्द का रूप धरने में सफल हो गयी है । वह रूप मात्र है । श्रीअरविन्द के इस रूप ने मेरे सामने घोषणा की कि मैं जिस काम को कर रही हूं वह उनका काम नहीं है । उसने यह घोषणा की कि मैं उनके और उनके काम के प्रति विश्वासघाती हूं और उसने मेरे साथ कोई सम्बन्ध रखने से इन्क्रार कर दिया ।

 

    उस दल में एक आदमी ऐसा है जिसे मैंने एकाध बार देखा जरूर होगा, जो भाव में उनके साथ एक नहीं है केवल बाहरी रूप-रंग में उनके साथ है । लेकिन वह ज्ञानरहित है, वह नहीं जानता कि वह किस तरह की सत्ता है । और वह यह मानते हुए कि वह सचमुच श्रीअरविन्द है, हमेशा यह आशा रखता है कि वह उस सत्ता के द्वारा मुझसे स्वीकार करवा लेगा । उस सत्ता को मैंने पिछली रात देखा था । मैं अन्तर्दर्शन के सब ब्योरे नहीं दूंगी--ह आवश्यक नहीं है । लेकिन मुझे कहना पड़ेगा कि मैं पूरी तरह सचेतन थी, हर चीज से अभिज्ञ थी, मुझे यह मालूम था कि वह आसुरिक शक्ति थी--लेकिन मैं श्रीअरविन्द की अनन्तता के कारण उसका त्याग नहीं कर रही थी । मैं जानती थी कि हर वस्तु उनका अंश है और मैं किसी वस्तु का त्याग नहीं करना चाहती । पिछली रात मैं इस सत्ता से तीन बार मिली, यहां तक कि मैंने पूरे प्रेम ओर समर्पण के साथ उन पापों के लिए भी क्षमा-याचना की जो मैंने नहीं किये । मैं १२ बजे जगी, मुझे सब कुछ याद था । सवा बारह से दो बजे तक मैं सच्चे श्रीअरविन्द के साथ पूर्णतम, मधुरतम सम्बन्ध के साथ थी--वहां भी पूर्ण चेतना, जागरूकता,

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शान्ति और समभाव में थी । दो बजे मैं जगी और मैंने देखा, ठीक उससे पहले स्वयं श्रीअरविन्द ने मुझे यह दिखाया कि अभी तक वे पूरी तरह से भौतिक राज्य के स्वामी नहीं हैं । मैं दो बजे उठी और मैंने देखा कि यह दल जो इस शरीर से मेरा जीवन ले लेना चाहता था, उसके प्रहार से मेरे हृदय पर प्रभाव पड़ा क्योंकि वह जानता था कि जब तक मैं पृथ्वी पर सशरीर हूं तब तक उसका उद्देश्य सफल न होगा । इस दल का पहला प्रहार बहुत साल पहले, अन्तर्दर्शन और क्रिया में हुआ था । वह रात को हुआ था और मैंने इसके बारे में किसी से कुछ नहीं कहा । मैंने वह तारीख लिख ली थी, और अगर मैं इस संकट से निकल सकी तो मैं उसे ढूं कर प्रकट कर दूंगी । वे मुझे बरसों पहले मरा देखना चाहते थे । मेरे जीवन के इन प्रहारों के उत्तरदायी वे लोग ही हैं । अब तक मैं इसलिए जिन्दा हूं क्योंकि परम प्रभु मुझे जिन्दा रखना चाहते हैं, नहीं तो मैं कब की चली गयी होती ।

 

    मैं अब अपने शरीर में नहीं हूं । मैंने उसकी देखरेख भगवान् के हाथों में सौंप दी है, वे ही निश्चय करेंगे कि उसे अतिमानसिक होना है या नहीं । मैं जानती हूं और मैंने कह भी दिया है कि यह अन्तिम युद्ध है । यह शरीर जिस उद्देश्य के लिए जी रहा है अगर उसे चरितार्थ होना है, यानी अतिमानसिक रूपान्तर की ओर पहले चरण रखने हैं, तो यह आज जीना जारी रखेगा । यह परम प्रभु का निश्चय है । मैं पूछ तक नहीं रही कि उनका निश्चय क्या है । अगर शरीर युद्ध को सहने में अक्षम हो, अगर उसे विघटित होना पड़े तो मानवजाति बहुत ही संकट-काल से गुजरेगी । जो आसुरिक क्ति श्रीअरविन्द का रूप धरने में सफल हुई है वह अतिमानसिक सिद्धि के नाम पर एक नये धर्म या विचार का निर्माण करेगी जो शायद क्रू, दयाहीन हो । लेकिन सबको यह जानना चाहिये कि यह सच नहीं है, यह श्रीअरविन्द की शिक्षा नहीं है, उनकी शिक्षा का सत्य नहीं है । श्रीअरविन्द का सत्य प्रेम, प्रकाश और करुणा का सत्य है । वे मंगलकारी हैं, महान् हैं, अनुकम्पा के आगार हैं और भगवान् हैं । और अन्तिम विजय उन्हीं की होगी ।

 

    अब, अगर व्यक्तिगत रूप से तुम सहायता करना चाहते हो तो तुम्हें बस प्रार्थना करनी होगी । परम प्रभु जो चाहेंगे वह होगा । वे जो चाहेंगे, इस शरीर से वही करायेंगे, यह शरीर जो क्षुद्र चीज है ।

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बाद में जब इस प्रतिलिपि को श्रीमां को सुनाया गया, तो उन्होंने कहा:

 

    युद्ध शरीर के अन्दर हो रहा है । यह नहीं चल सकता । या तो उन्हें पराजित होना होगा या फिर यह शरीर पराजित होगा । सब कुछ परम प्रभु के निर्णय पर निर्भर करता है ।

 

    यह युद्धक्षेत्र है । यह कहां तक सह सकता है, मुझे मालूम नहीं । अन्तत: यह उन पर निर्भर है । वे जानते हैं कि समय आ गया है या नहीं, विजय के आरम्भ का समय-तब शरीर जियेगा; अगर ऐसा न हुआ तो मेरा प्रेम और मेरी चेतना तो रहेंगे ही ।

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१३ अप्रैल, १९६२

 

१२ अप्रैल, १९६२ की रात की अनुभूति

 

(कई हफ्तों की गम्भीर बीमारी के बाद जिसमें माताजी का जीवन खतरे में था ।)

 

    अचानक रात को मैं इस पूर्ण अभिज्ञता के साथ जगी जिसे हम 'जगत् का योग' कह सकते हैं । परम प्रेम महान् स्पन्दनों द्वारा अभिव्यक्त हो रहा था और, हर स्पन्दन जगत् को उसकी अभिव्यक्ति में और अधिक आगे ले जा रहा था । वे शाश्वत अलौकिक भागवत प्रेम के महान् स्पन्दन थे, केवल भागवत प्रेम के । भागवत प्रेम का हर स्पन्दन जगत् को उसकी अभिव्यक्ति में और अधिक आगे ले जा रहा था ।

 

    और उसके साथ यह निश्चिति थी कि जो होना था हो गया है और यह कि अतिमानसिक अभिव्यक्ति चरितार्थ हो गयी है ।

 

    सब कुछ निर्वैयक्तिक था, कुछ भी व्यक्तिगत न था ।

    यह चलता रहा, चलता रहा, चलता ही रहा ।

    यह निश्चिति कि जो होना था हो चुका ।

 

    मिथ्यात्व के सभी परिणाम विलीन हो गये थे : मृत्यु एक भ्रान्ति थी, बीमारी एक भ्रान्ति थी, अज्ञान एक भ्रान्ति थी-ऐसी चीज जिसमें कोई वास्तविकता न थी, जिसका कोई अस्तित्व न था । केवल 'प्रेम' 'प्रेम' 'प्रेम' और 'प्रेम'--असीम, महान्, अलौकिक जो हर चीज को अपने में समाये हुए था ।

 

    उसे जगत् में कैसे अभिव्यक्त किया जाये ? वह विरोध के कारण असम्भव-सा था । लेकिन फिर यह आया : ''तुमने स्वीकार कर लिया है कि जगत् को अतिमानसिक सत्य जानना चाहिये... और वह पूरी तरह से, सर्वांगीण रूप में अभिव्यक्त होगा ।'' हां, हां... ।

 

    और चीज हो गयी ।

 

(लम्बा मौन)

 

     व्यक्तिगत चेतना वापस आ गयी : एक तरह के सीमाबन्धन का भाव,

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दर्द का सीमाबन्धन; कोई व्यक्ति नहीं उसके बिना ।

 

    'विजय' के बारे में सुनिश्चित, हम फिर से रास्ते पर ब चले ।

    आकाश 'विजय' के गीतों से गूंज रहे हैं ।

    केवल दिव्य सत्य का ही अस्तित्व है; केवल वही अभिव्यक्त किया जायेगा । आगे बढ़ो !

    हे प्रभो, परम विजेता ! तेरी जय हो !

 

(मौन)

 

    अब चलो, काम पर ।

    धैर्य, सहिष्णुता, पूर्ण समता, ओर निरपेक्ष श्रद्धा ।

 

(मौन)

 

    अगर मैं अनुभूति के साथ तुलना करूं तो जो मैं कह रही हूं वह कुछ नहीं है, कुछ नहीं, कुछ नहीं, शब्दों के सिवा बिलकुल कुछ भी नहीं ।

 

    और हमारी चेतना एक ही है, एकदम परम प्रभु की चेतना के समान है । कोई भेद न था, कोई भेद न था ।

 

    हम तत् हैं, हम तत् हैं, हम तत् हैं ।

 

(मौन)

 

    बाद में मैं ज्यादा अच्छी तरह समझाऊंगी । यन्त्र अभी तक तैयार नहीं है । यह तो बस आरम्भ है ।

 

बाद में माताजी ने जोड़ा:

 

    अनुभूति कम-से-कम चार घण्टों तक चली ।

    बहुत-सी चीजें हैं जिनके बारे में मैं बाद में कहूंगी ।

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७ सितम्बर, १९६३

 

एक जड़वादी के साथ बातचीत

 

    हे मृत्यु, तू सत्य कहती है लेकिन सत्य जो हनन करता है, मैं तुजे सत्य से उत्तर देता हूं जो रक्षा करता है

--श्रीअरविन्द (सावित्री १०, ३)

 

उस दिन, कार्यसम्बन्धी किसी प्रश्न के सिलसिले में, मुझे अपनी स्थिति को जड़वादी के विश्वास की दृष्टि से समझाने का अवसर मिला । मुझे मालूम नहीं अब उनकी क्या स्थिति है क्योंकि साधारणत: मैं इन चीजों में नहीं पड़ती ।

 

    उनके लिए, मनुष्य जितने भी अनुभव प्राप्त करता है वे सब किसी मानसिक व्यापार के परिणाम होते हैं-बस यही । हमने उत्तरोत्तर प्रगतिशील मानसिक विकास पा लिया है । लेकिन वे यह बताने में असमर्थ होंगे कि यह क्यों और कैसे हुआ ! --लेकिन संक्षेप में, जड़-भौतिक ने जीवन को विकसित किया, और जीवन ने मन को विकसित किया, और मानव की सभी तथाकथित आध्यात्मिक अनुभूतियां मानसिक रचनाएं हैं--वे दूसरे शब्दों का उपयोग करते हैं, लेकिन मेरा ख्याल है कि उनका विचार यही होता है । जो हो, यह अपने-आप में सारे आध्यात्मिक अस्तित्व का निषेध है और परमत्ता या किसी परम शक्ति या किसी ऐसी उच्च वस्तु का निषेध है जो हर चीज पर शासन करती है ।

 

    मैं फिर कहती हूं मुझे पता नहीं अब उनकी क्या स्थिति है लेकिन मुझे इस तरह के विश्वास से पाला पड़ा था ।

 

   अत: मैंने कहा, ''लेकिन यह तो बहुत आसान है ! मैं तुम्हारे दृष्टिकोण को स्वीकार करती हूं । हम जो कुछ देखते हैं, मानवता को जैसा देखते हैं, उसके सिवाय और कुछ नहीं है और तथाकथित आन्तरिक सत्य मन और मस्तिष्क की क्रिया के परिणाम हैं; और जब तुम मरते हो, तो तुम मर जाते हो, यानी, जब संचय का यह व्यापार अपने जीवन के अन्त में पहुंचता और विघटित हो जाता है, तो सब कुछ विघटित हो जाता है । यह ठीक है ।''

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   शायद अगर चीजें ऐसी होतीं, तो जीवन इतना घूणित होता कि मैं इसमें से कब की बाहर निकल गयी होती । लेकिन मुझे इसी क्षण कहना चाहिये कि ऐसा नहीं है, कि मैं किसी नैतिक या यहां तक कि आध्यात्मिक कारण से आत्महत्या को अस्वीकार करती हूं । मेरे लिए यह एक भीरुता है, और मेरे अन्दर कोई ऐसी चीज है जो भीरुता को पसन्द नहीं करती और इसलिए मैं... मैं समस्या से कभी भी भाग खड़ी न होऊंगी ।

 

   यह पहली बात है ।

 

   और फिर, एक बार जब तुम यहां हो, तो तुम्हें अन्त तक जाना ही चाहिये, चाहे अन्त शून्य हो तो भी-तुम अन्त तक जाओ, और ज्यादा अच्छा है कि यथासम्भव उत्तम पथ से जाओ, यानी, उस पथ से जो तुम्हारे लिए सबसे अधिक सन्तोषजनक हो । ऐसा हुआ कि मेरे अन्दर कुछ दार्शनिक उत्सुकता जगी और मैंने इन सभी समस्याओं के बारे में थोड़ा-बहुत अध्ययन किया । मैंने अपने-आपको श्रीअरविन्द की शिक्षा के सम्मुख पाया, वे जो कहते हैं वह मेरे लिए, और सबकी अपेक्षा सबसे अधिक सन्तोषजनक था । उन्होंने जो सिखाया (मुझे कहना चाहिये जो प्रकट किया, यह बात जड़वादी के लिए नहीं है) वह मेरे लिए मनुष्यों द्वारा बनायी पद्धतियों से कहीं अधिक, सबसे अधिक सन्तोषजनक, सबसे अधिक पूर्ण है, यह किये जा सकने वाले सभी प्रश्नों का सबसे अधिक सन्तोषजनक तरीके से समाधान करता है । इसी ने मुझे यह अनुभव करने में सबसे अधिक सहायता पहुंचायी है कि जीवन जीने योग्य है । इसलिए वे जो सिखाते हैं उसके अनुरूप बनने की मैं पूरी कोशिश करती हूं और उसे अपने लिए पूर्ण रूप से यथासम्भव उत्तम तरीके से जीने की कोशिश करती हूं--मेरे लिए उत्तम तरीके से । अगर दूसरे इस पर विश्वास न भी करें फिर भी मेरे लिए चीज वह-की-वही है--वे इस पर विश्वास करें या न करें इससे मुझे कोइ, फर्क नहीं पड़ता । मुझे दूसरों के विश्वास का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है; मेरा अपना सन्तोष पर्याप्त है । हां तो, अब और अधिक कहने के लिए नहीं है ।

 

    परीक्षण लम्बे समय तक चला । सभी समस्याओं का मैंने पूरे ब्योरे के साथ इस तरह उत्तर दिया । और जब मैंने खत्म कर लिया तो अपने-आपसे कहा, ''तर्क, के रूप में यह विलक्षण है !'' क्योंकि सन्देह, अज्ञान,

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अबोध्यता, दुर्भावना, निषेध के सभी तत्त्व, वे सब चीजें जो आती हैं इस तर्क के सामने एकदम-से गायब हो जाती है; वे मिट जाती हैं, उनका कोई प्रभाव नहीं रहता ।

 

    और उसके बाद, सब कुछ सुरक्षित, ठोस रूप से पकड़ में आ गया । तुम्हें क्या कहना है ?

 

(मौन)

 

    किन्हीं धार्मिक लोगों की अपेक्षा किसी ऐसे जड़वादी को उत्तर देना कहीं ज्यादा आसान है जो दुराग्रही, निश्चित, सच्चा (यानी, अपनी चेतना की सीमा में सच्चा) हो-कहीं अधिक आसान !

 

    लेकिन स्वाभाविक है कि बौद्धिक दृष्टिकोण से देखने पर, सभी मानव-विश्वासों की एक व्याख्या और एक स्थान होता है । मनुष्य ने ऐसा कुछ नहीं सोचा जो सत्य की विकृति न हो । समस्या वहां नहीं है, बल्कि इस तथ्य में है कि धार्मिक लोगों के लिए कुछ ऐसी चीजें हैं जिन पर विश्वास करना उनका कर्तव्य है और मन को उस पर ऊहापोह करने के लिए छोड़ देना पाप है--अत:, स्वाभाविक है कि वे अपने-आपको बन्द कर लेते हैं और कभी किसी तरह की कोई प्रगति नहीं कर सकते । जब कि, इसके विपरीत, यह माना जाता हे कि जड़वादी को सब कुछ जानना चाहिये, व्याख्या करनी चाहिये : वे सब कुछ तार्किक रूप से समझाते हैं । और इस तरह (माताजी हंसती हैं) इस एक तथ्य से कि वे सब कुछ समझा देते हैं, तुम उन्हें जहां ले जाना चाहो ले जा सकते हो ।

 

    धार्मिक लोगों के साध कुछ नहीं किया जा सकता ।

 

हां ।

 

    लेकिन आखिर, वह भी ठीक नहीं है । अगर वे किसी धर्म से चिपके हैं तो इसलिए कि उस धर्म ने उन्हें किसी-न-किसी तरीके से सहायता पहुंचायी है, ठीक उसी चीज की सहायता की हे जिसे निश्चिति की आवश्यकता थी, ताकि ढूंढ़ना न पड़े बल्कि व्यक्ति किसी दृढ़ वस्तु का आश्रय ले सके और उस दृढ़ता के लिए वह उत्तरदायी न हो-उसका उत्तरदायी तो कोई

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और है (माताजी हंसती हैं) और यह इसी तरह चलता चला जाता है । उन्हें उसमें से निकालने की इच्छा करना अनुकम्पा का अभाव है--वे जहां हैं उन्हें वहीं छोड़ देना ज्यादा अच्छा है । मैं कभी किसी ऐसे व्यक्ति का प्रतिवाद नहीं करती जिसमें श्रद्धा हो-उसे अपनी श्रद्धा रखने दो ! मैं इसका ध्यान रखती हूं कि कोई ऐसी बात न कहूं जो उसकी श्रद्धा को हिला दे, क्योंकि यह अच्छा न होगा-ऐसे लोग कोई और श्रद्धा रखने में समर्थ नहीं होते ।

 

    लेकिन किसी जड़वादी के लिए : ''मैं प्रतिवाद नहीं करती, मैं तुम्हारी दृष्टि को स्वीकार कर रही हूं, बात इतनी-सी है कि तुम्हारे पास कुछ कहने को नहीं है--मैं अपने स्थान पर हूं, तुम अपने पर रहो । तुम्हारे पास जो कुछ है अगर तुम उससे सन्तुष्ट हो तो उसे अपने पास रखो । अगर वह जीने में तुम्हारी सहायता करे तो बहुत अच्छा है ।

 

    ''लेकिन तुम्हें मुझ पर आरोप लगाने या मेरी समालोचना करने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि वह तुम्हारे अपने आधार पर है । अगर जो कुछ मैं सोचती हूं वह केवल कल्पना है तो भी मैं तुम्हारी कल्पना से अपनी कल्पना को ज्यादा पसन्द करती हूं ।''

 

     तो !

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२४ दिसम्बर, १९६६

 

सत्य को चुनना

 

    सत्य क्या है ? जब आप ''सत्य'' के बारे में कहती हैं तो उससे आप का क्या अर्थ होता है ?

 

तुम 'सत्य' की मानसिक परिभाषा चाहते हो । 'सत्य' मानसिक शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । हां, ऐसा ही है । और सभी प्रश्न मानसिक प्रश्न हैं ।

 

    सत्य को सूत्रबद्ध नहीं किया जा सकता, इसकी परिभाषा नहीं दी जा सकती--इसे जीना होता है ।

 

    और जो पूरी तरह 'सत्य' को समर्पित है, जो 'सत्य' को जीना चाहता है, 'सत्य' की सेवा करना चाहता है, वह हर क्षण यह जान लेगा कि क्या करना चाहिये : यह एक तरह की अन्तःप्रेरणा या अन्तर्दर्शन होगा (बहुत बार शब्दों के बिना, लेकिन कभी-कभी शब्दों में भी अभिव्यक्त होगा) जो तुम्हें हर क्षण यह बतायेगा कि उस क्षण का सत्य क्या है । और यही है वह चीज जो इतनी मजेदार है । तुम ''सत्य'' को ऐसी चीज के रूप में जानना चाहते हो जिसकी अच्छी तरह से व्याख्या की गयी हो, जिसका भली-भांति वर्गीकरण किया गया हो, जो सुस्थापित हो, और फिर तुम चैन से रहो : फिर और खोजबीन की जरूरत न रहे ! तुम उसे ही पकड़ कर गांठ बांध लेते हो और कहते हो : ''लो, यह है ''सत्य'' और बस वह अटल हो जाता है । सभी धर्मों ने यही किया है । उन्होंने अपने सत्य को रूढ़ि के रूप में स्थापित कर लिया लेकिन फिर वह 'सत्य' नहीं रह जाता ।

 

    'सत्य' जीवन्त, गतिमान्, हर क्षण अपने-आपको अभिव्यक्त करने वाली चीज है, और परम प्रभु तक पहुंचने का यह एक तरीका है । परम प्रभु तक पहुंचने का हर एक का अपना तरीका होता है । शायद कुछ ऐसे हैं जो एक साथ सभी दिशाओं से उन तक पहुंचने में समर्थ हैं, लेकिन कुछ हैं जो 'प्रेम' द्वारा पहुंचते हैं, कुछ 'शक्ति' द्वारा पहुंचते हैं, कुछ 'चेतना' द्वारा पहुंचते हैं, और कुछ 'सत्य' द्वारा पहुंचते हैं । लेकिन इनमें से हर एक पक्ष

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स्वयं प्रभु के जितना निरपेक्ष, अनिवार्य और अपरिभाष्य है । परम प्रभु अपनी क्रिया में निरपेक्ष, अनिवार्य, अपरिभाष्य और अग्राह्य हैं और उनके लक्षणों की भी यही विशेषता है ।

 

    एक बार यह जान लेने पर, जो इन पक्षों में से किसी एक पक्ष की सेवा में हो वह जान लेता है (यह जीवन में, काल में, काल की गतिविधि में अभिव्यक्त होता है), वह हर क्षण जानता चलेगा कि 'सत्य' क्या है, हर क्षण जानता चलेगा कि 'चेतना' क्या है, हर क्षण जानता चलेगा कि 'शक्ति' क्या है, और हर क्षण जानता चलेगा कि 'प्रेम' क्या है । और यह अनेक-रूप 'शक्ति', 'प्रेम', 'चेतना', 'सत्य' है जो जगत् की अभिव्यक्ति में अपने-आपको विभिन्न रूपों में प्रकट करता है जिस तरह परम प्रभु जगत् की अभिव्यक्ति में स्वयं को असंख्य रूपों में प्रकट करते हैं ।

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११ मई, १९६७

 

    देखो, जगत् की वर्तमान अवस्था में परिस्थितियां हमेशा कठिन रही हैं । सारा संसार कलह और संघर्ष की स्थिति में है- अभिव्यक्त होने की इच्छुक सत्य और प्रकाश की शक्तियों और उन सबके बीच संघर्ष जो बदलना नहीं चाहता, जो ऐसे भूतकाल का प्रतिनिधि है जो स्थिर और कठोर है, जो जाने से इन्कार करता है । स्वभावत: हर व्यक्ति अपनी कठिनाइयों का अनुभव करता है और उसे उन्हीं बाधाओं का सामना करना पड़ता है ।

 

    तुम्हारे लिए बस एक ही रास्ता है । वह है पूर्ण, समग्र और बिना शर्त के समर्पण । इससे मेरा मतलब है न केवल अपनी क्रियाओं, कर्मों महत्त्वाकांक्षाओं को छोड़ देना बल्कि अपने सभी भावों को भी छोड़ देना है, यानी तुम जो करते हो, तुम जो हो वह सब अनन्य रूप से भगवान् के लिए हो । तब तुम अपने-आपको मानव प्रतिक्रिया के घेरे से ऊपर अनुभव करते हो--केवल उनसे ऊपर ही नहीं बल्कि भागवत कृपा की दीवार द्वारा उनसे सुरक्षित रहते हो । एक बार तुम्हारे अन्दर कामनाएं न रहें, आसक्तियां न रहें, एक बार तुम मनुष्यों से, चाहे वे कोई भी क्यों न हों, पारितोषिक लेने की समस्त आवश्यकताओं को त्याग दो--यह जानो कि एक मात्र पाने योग्य पारितोषिक वह है जो परम प्रभु से आता है और जो कभी निराश नहीं करता-एक बार तुम सभी बाहरी सत्ताओं और चीजों की आसक्ति छोड़ दो, तो तुम तुरन्त अपने हृदय में उस परम उपस्थिति, उस परम शक्ति, उस परम कृपा का अनुभव करते हो जो हमेशा तुम्हारे साथ होती है ।

 

    कोई और उपचार नहीं है । बिना अपवाद हर एक के लिए यही एकमात्र उपचार है । वे सभी जो पीड़ित हैं, उनसे यही एक बात कहनी चाहिये : समस्त दु:ख इस बात का सूचक है कि समर्पण समग्र नहीं है । तो जब तुम अपने अन्दर इस तरह के ''प्रहार'' का अनुभव करो तो यह कहने की बजाय, ''ओह, यह खराब है'' या ''यह परिस्थिति कठिन है'' , तुम यह कहो,  "मेरा समर्पण पूर्ण नहीं है,'' तो यह ठीक होगा । और फिर तुम उस परम कृपा का अनुभव करोगे जो तुम्हारी सहायता करती है, जो तुम्हारा

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पथ-प्रदर्शन करती है और तुम आगे बढ़ते चले जाते हो । और फिर एक दिन तुम उस शान्ति में उभर आते हो जिसे कुछ भी विचलित नहीं कर सकता । तुम सभी प्रतिरोधी शक्तियों, प्रतिरोधी गतिविधियों, प्रहारों गलतफहमियों, दुर्भावनाओं का उत्तर उसी मुस्कान के साथ देते हो जो 'भागवत कृपा' में पूर्ण विश्वास से आती है । और बचने का यही एकमात्र तरीका है, कोई दूसरा नहीं है ।

 

    यह जगत् संघर्ष, दुःख-दर्द, कठिनाइयों, तनावों का जगत् है; यह इन्हीं से बना है । यह अभी तक बदला नहीं है, बदलने में कुछ समय लगेगा । और हर एक के लिए बाहर निकलने की संभावना है । अगर तुम भागवत कृपा की उपस्थिति का सहारा लो, तो यही एकमात्र उपाय है बाहर निकलने का । मैं दो-तीन दिनों से निरन्तर तुमसे यही कहती आ रही हूं ।

 

    तो अब ?

 

     क्या किया जाये ?

 

क्या ? तुम्हारे काम के बारे में कुछ नहीं कहना है । तुम उसे बिलकुल अच्छी तरह से, ठीक जैसा करना चाहिये कर रहे हो; यह ठीक है । तुम्हारा काम बिलकुल ठीक है ।

 

    मैं यही पूछना चाहता था : यह काम किसी भी तरह आवश्यक है या नहीं ? मैं इसे क्यों करता चला जाऊं ?

 

अत्युत्तम, इसे करते चलो । तुम इसे बिलकुल अच्छी तरह कर रहे हो । मानव सराहना की आशा मत करो-क्योंकि मनुष्य, यह नहीं जानते कि किस आधार पर चीजों की सराहना की जाये, और इससे भी बढ़कर, जब कोई ऐसी चीज होती है जो उनसे ज्यादा ऊंची हो तो वे उसे पसन्द नहीं करते ।

 

    लेकिन यह बल मैं कहां से पाऊं ?

 

अपने अन्दर से । भागवत उपस्थिति तुम्हारे अन्दर है । वह तुम्हारे अन्दर

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है । तुम उसे बाहर ढूंढ़ते हो; अन्दर देखो । वह तुम्हारे अन्दर है । भागवत उपस्थिति वहां मौजूद है । तुम बल पाने के लिए औरों की प्रशंसा चाहते हो, वह तुम्हें कभी न मिलेगी । बल तुम्हारे अन्दर है । अगर तुम चाहो, तो उसकी अभीप्सा कर सकते हो जो तुम्हें परम लक्ष्य, परम प्रकाश, परम ज्ञान, परम प्रेम प्रतीत हो । लेकिन वह तुम्हारे अन्दर है-वरना तुम कभी उसके साथ सम्पर्क में न आ पाते । अगर तुम अपने अन्दर पर्याप्त गहरे जाओ तो वह अभीप्सा तुम्हें वहां एक ज्वाला की तरह मिलेगी जो हमेशा सीधी ऊपर की ओर जलती है ।

 

    और यह मत सोचो कि यह करना बहुत कठिन है । यह कठिन इसलिए है क्योंकि दृष्टि हमेशा बाहर की ओर मुड़ी होती है और तुम परम उपस्थिति का अनुभव नहीं करते । हर क्षण यह जानने के लिए कि क्या करना चाहिये, कैसे करना चाहिये, बाहर सहारा ढूंढ़ने की जगह अगर तुम अन्दर, भागवत ज्ञान पर एकाग्र होओ और प्रार्थना करो, और अगर तुम स्वयं जो कुछ हो उसे दे दो, जो कुछ करो पूर्णता पाने के लिए करो, तो तुम अनुभव करोगे कि सहारा मौजूद है, हमेशा पथ-प्रदर्शन कर रहा है, रास्ता दिखा रहा है । और अगर कोई समस्या आये तो उससे युद्ध करने की इच्छा के स्थान पर तुम उसे परम प्रज्ञा के हवाले कर दो कि वह सभी दुर्भावनाओं, सभी गलतफहमियों, सभी बुरी प्रतिक्रियाओं के प्रति जो उचित है वह कर ले । अगर तुम पूरी तरह से समर्पण कर दो तो फिर उसके साथ तुम्हारा सम्बन्ध नहीं रह जाता; वह परम प्रभु की चीज हो जाती है जो उसका भार ले लेते हैं, जो इसके सम्बन्ध में क्या करना चाहिये यह किसी भी व्यक्ति से ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं । यही एकमात्र तरीका है, यही एकमात्र तरीका है । तो, मेरे बच्चे ।

 

    एक चीज है कि में वहां जो कुछ करता हूं, वह मेरे अपने लोगों को पसन्द नहीं आता हे ।

 

तुम्हारे अपने लोगों में सब कुछ का मिश्रण हैं, जैसा कि हर एक है ।

 

    लेकिन मेरा अनुभव इतना दृढ़ है--न केवल दृढ़, बल्कि वह इतना

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    स्पष्ट है जैसे दिन की रोशनी हो कि मानो मैं आपकी उपस्थिति में बैठा हूं-कि मैं कुछ भी अपने-आप नहीं करता । इतने वर्षों का यह मेरे लिए इतना महान् सुस्पष्ट अनुभव । मेरे द्वारा जो कुछ किया जा रहा वह मेरे द्वारा बिलकुल नहीं, किसी दिव्य शक्ति के द्वारा किया जा रहा । वह कार्य करवा लेती है लेकिन फिर...

 

क्या ! तुम आशा करते हो कि दुनिया यह समझे ?

 

    जी नहीं I वे न समझें, मैं इसके लिए श्रेय नहीं चाहता, लेकिन, बाधाएं और...

 

अगर तुम यह मानते हो कि मैं समझ रही हूं और जानती हूं, तो तुम्हें मेरा पूरा सहारा प्राप्त है । मैंने तुमसे कभी नहीं कहा कि तुम गलत चीज कर रहे हो, कहा है क्या ? अब तुम्हें हमेशा के लिए यह समझ लेना चाहिये कि जब तक लोग सच्चे योगी न हों, अपने अहं से मुक्त न हों, भगवान् को पूरी तरह समर्पित न हों तब तक वे समझ नहीं सकते । भला कैसे समझ सकते हैं वे ? वे केवल बाहरी आंखों और ज्ञान द्वारा देखते हैं; वे बाहरी चीजों और बाहरी रूप-रंग को देखते हैं । वे अन्दर की चीज को नहीं देखते । जब हम बाहर से यानी मनुष्यों से सराहना पाने की आशा छोड़ देते हैं तो हमारे पास शिकायत करने का कोई कारण नहीं रह जाता । वे सराहना करें तो उनके लिए बहुत अच्छा है । वे सराहना न करें तो कोई हर्ज नहीं । यह उनका निजी दृष्टिकोण है । हम उन्हें खुश करने के लिए नहीं करते, हम चीजें इसलिए करते हैं क्योंकि हम यह अनुभव करते हैं कि इन्हें करना चाहिये ।

 

    मैंने कभी सराहना की आशा नहीं की, माताजी।

 

शायद चीजें तुम्हें यह स्थिति अपनाने के लिए बाधित करने को आ रही हैं-क्योंकि यही मुक्ति है, यही सच्ची मुक्ति है ।

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    जी अहंकार से नहीं कह रहा, बल्कि स्वभाव से ही मैं साधु हूं । बिलकुल किसी चीज की आवश्यकता नहीं है ।

 

यह ठीक हे, लेकिन तुम्हें अपने परिवार की सराहना की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिये ।

 

    मेरी सभी असफलताओं और कमजोरियों के हुए, मुजे किसी चीज की आवश्यकता नहीं, मुझे किसी तरह की सराहना की जरूरत नहीं है I

 

तब तुम दुःख नहीं पा सकते । क्योंकि एकमात्र वस्तु जिसकी तुम्हें आवश्यकता है वह है भागवत सहारा, और वह तुम्हें प्राप्त है । तब तुम्हें दुःख नहीं हो सकता ।

 

    लिकिन मैं बहुत अधिक दुःख जेल रहा हूं I

 

हां, तुम्हारी सत्ता के अन्दर संघर्ष है । तुम्हारी चेतना का एक भाग जानता है, लेकिन फिर भी एक भाग है जो परिस्थितियों का दास है ।

 

(मौन)

 

    शायद यह सब तुम्हारे ऊपर परम और पूर्ण मुक्ति के लिए आ रहा हे । और अगर तुम इसे भागवत कृपा की अभिव्यक्ति के रूप में लो तो तुम परिणाम देखोगे । ऐसी शान्ति, ऐसी शान्ति मिलेगी जिसे कुछ भी विचलित नहीं कर सकता, पूर्ण समचित्तता ओर ऐसा बल प्राप्त होगा जो कभी धोखा नहीं देता ।

 

(लम्बा मौन)

 

    आज इसे नये जन्म के रूप में लो । नया जीवन जो शुरू हो रहा है ।

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१५ अगस्त, १९६७

 

    मैं अपने आसन पर बैठ गयी, समय प्राय: हो गया था, शायद आधा मिनट हो, और अचानक, बिना किसी तैयारी के, यूं ही, हथौड़े की चोट के समान : ऐसा प्रभावकारी अवतरण हुआ-पूरी तरह से स्थिर-किसी ऐसी वस्तु का...मानों उसी समय श्रीअरविन्द ने मुझसे कहा (क्योंकि व्याख्या अनुभूति के साथ-साथ आयी : यह एक अन्तर्दर्शन था जो अन्तर्दर्शन न था, वह इतने समग्र रूप में ठोस था) और शब्द थे : ''स्वर्णिम शान्ति'' । कितनी जोरदार ! और फिर वह अनुभूति हटी नहीं । पूरे आधे घण्टे तक नहीं हटी । यह नयी चीज है जिसे मैंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था । मैं यह नहीं कह सकती...वह देखी गयी, लेकिन वह वस्तुपरक अन्तर्दर्शन की तरह नहीं थी । और सहज रूप से दूसरों ने मुझसे कहा कि जिस क्षण वे ध्यान के लिए बैठे (राशिभूत अवतरण का संकेत) कोई चीज महान् शक्ति के साथ नीचे उतरी जो पूरी तरह से स्थिर थी, और ऐसी शान्ति का अनुभव हुआ जिसका उन्होंने अपने जीवन में कभी अनुभव नहीं किया था ।

 

   स्वर्णिम शान्ति । और यह सच है, उसने स्वर्णिम अतिमानसिक प्रकाश का भाव जगाया । लेकिन वह...एक शान्ति थी ! पता है, वह ठोस थी, अव्यवस्था और क्रिया-कलाप का निषेध नहीं, नहीं : ठोस, ठोस शान्ति थी । मैं रुकना नहीं चाहती थी । समय हो चुका था, फिर भी मैं दो-तीन मिनट रही । जब मैं रुकी तो यह अनुभूति जा चुकी थी । और इसने मेरे शरीर में बहुत बड़ा अन्तर कर दिया-स्वयं शरीर में इतना बड़ा अन्तर आ गया कि जब वह चली गयी तो मैंने बहुत बेचैनी का अनुभव किया । मुझे अपना सन्तुलन वापस लाने में आधा मिनट लगा ।

 

    वह आयी और चली गयी । वह ध्यान के लिए आयी और फिर वह चली गयी । आधे घण्टे से ज्यादा, पैंतीस मिनट तक रही ।

 

    शाम को, बालकनी में, भीड़ थी । मेरे ख्याल से यह हमारे यहां की

 

    ११५ अगस्त, श्रीअरविन्द के जन्मदिन पर, माताजी अपने ऊपर के कमरे की बालकनी पर कुछ मिनट खड़ी होकर नीचे सड़क पर खड़े लोगों को दर्शन दिया करती थीं ।

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सबसे बड़ी भीड़ थी : सभी सड़कों पर भीड़ केली थी, मैं जहां तक देख सकती थी, सड़कें लोगों से खचाखच भरी थीं । तब मैं बाहर आयी और जैसे ही मैं बाहर निकली तो इस भीड़ से ऐसी चीज उठी जो एक अभ्यर्थना, एक प्रार्थना, एक प्रतिवाद जैसा था जो इस जगत्, विशेषकर इस देश की अवस्था के बारे में था । यह चीज लहरों में उठी । मैंने उसकी ओर देखा (वह बहुत ही अनुरोधपूर्ण थी) ओर फिर मैंने अपने आपसे कहा : ''यह मेरा दिन नहीं है, यह तो श्रीअरविन्द का दिन हे ।'' ओर मैं यूं चली गयी (हटने का संकेत) और मैंने श्रीअरविन्द को आगे कर दिया । ओर जब वे आगे आये तो सामने खड़े होकर उन्होंने बस इतना ही कहा, बस यही : ''परम प्रभु सबसे अच्छी तरह जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं ।'' (माताजी हंसती हैं) तुरन्त, में मुस्कुराने लगी (मैं हंसी नहीं, बल्कि मुस्कुराने लगी) और वही सुबह वाली शान्ति उतर आयी ।

 

    तो ऐसा हुआ ।

 

    ''परम प्रभु सबसे अच्छी तरह जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं,'' अपने पूर्ण विनोद भाव के साथ ओर तुरन्त सब कुछ शान्त हो गया ।

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२५ मई, १९७०

 

    देश को कठिनाई से उबारने के लिए क्या करना चाहिये ? श्रीअरविन्द ने सभी मुश्किलों को पहले से देख लिया था ओर उन्होंने समाधान दे दिया है । हम उनकी शताब्दी के करीब पहुंच रहे हैं; ऐसा लगता है मानों सब कुछ पहले से आयोजित हो, मानों, भागवत रूप से आयोजित हो, क्योंकि यह सारे देश में उनकी शिक्षा को प्रसारित करने के लिए एक विलक्षण सुअवसर होगा : शिक्षा, व्यावहारिक शिक्षा, भारत के बारे में शिक्षा, भारत को किस तरह संगठित किया जाये, भारत का मिशन इन सबके बारे में बताने का सुअवसर होगा । मुझे लगता है कि शताब्दी को सुअवसर मानकर कुछ ज्यादा आयोजन के साथ उनकी शिक्षा को सारे देश में फैलाया जा सकता है ताकि उनके विचार फैलें । जिन लोगों की दिलचस्पी इसमें है वे यह काम लेकर इसकी शिक्षा दे सकते हैं, सभाएं करवा सकते हैं और लोगों को प्रकाश और ज्ञान दे सकते हैं । यह विलक्षण सुअवसर है और केवल यही इन सब कठिनाइयों पर प्रकाश डाल सकता है ।

 

    जो कुछ हो चुका है और जो कुछ अब हो रहा है, उसके बारे में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि पीछे जाना व्यर्थ है । हमें देश को उसका सच्चा स्थान देना चाहिये, यानी, भगवान् पर भरोसा करने की स्थिति । स्वाभाविक है कि लोग आज जिस पर विश्वास करने की चेष्टा करते हैं, यह चीज उससे एकदम दूसरे छोर पर हे । लेकिन श्रीअरविन्द उसे इस तरीके से समझाते हैं कि जो उसके विरुद्ध हैं वे भी सहमत हो सकते हैं । समझ रहे हो न ? उन्होंने कहने का ऐसा तरीका ढूंढ़ निकाला है जिसे सब समझते हैं । जहां तक मैं देखती हूं यही एकमात्र समाधान है । यही एकमात्र समाधान है । बाकी सबका अर्थ होगा जटिलता, प्रतिवाद और कलह ।

 

    उनकी शिक्षा के एक तरह के प्रदर्शन की व्यवस्था के लिए अभी हमारे सामने दो वर्ष हैं । और यह राजनीति से ऊपर है, देखो, यह दलबन्दी का प्रश्न नहीं, यह ऐसी बात नहीं है कि चूंकि कुछ लोग उसके पक्ष में हैं अत: स्वभावत: दूसरे उसके पक्ष में न होंगे । यह सारी राजनीति से ऊपर हे । राजनीति से परे देश को व्यवस्थित करना है । और यही एकमात्र तरीका है । राजनीति में हमेशा लड़ाई, भद्दी लड़ाई होती है--भद्दी । स्थिति

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इतनी खराब हो चुकी है । वे हमेशा मुझसे कहा करते थे कि चीजें बद से बदतर होती जायेंगी, क्योंकि यह उस युग का अन्त है । हम एक ऐसे युग में पदार्पण कर रहे हैं जहां चीजों को भिन्न तरीके से व्यवस्थित होना होगा । इसीलिए यह विषम काल है ।

 

    चूंकि हम जानते हैं कि क्या आनेवाला है, हम उसे कम संघर्ष के साथ अधिक जल्दी लाने में सहायता कर सकते हैं । पीछे जाने में कोई आशा नहीं है; इससे चीजें अनन्त काल तक चलती चली जायेंगी । हमें आगे बढ़ना चाहिये, पूरी तरह से, और हमें परे जाना होगा, दलबन्दी के परे । और इस चीज को श्रीअरविन्द से अधिक अच्छी तरह और कोई नहीं समझा सकता क्योंकि वे दलबन्दी से बहुत, बहुत अधिक परे थे, उन्होंने सभी दलों के लाभ और हानियों को देखा था और सटीक रूप से समझाया था ।

 

    उन्होंने जो लिखा है, और बहुत लिखा है, उसे अगर तुम सावधानी से पढ़ो तो तुम इन सभी प्रश्नों के उत्तर पा लोगे । और साथ-साथ तुम यह भी जान लोगे कि तुम्हें भागवत शक्ति का पूरा-पूरा सहारा मिलेगा । वह शक्ति जो उनके पीछे थी वही इस रूपान्तर के पीछे है । रूपान्तर का समय आ गया है । हम अतीत से चिपके नहीं रह सकते ।

 

    राजनीति से परे जाने का सबसे अच्छा उपाय है श्रीअरविन्द के सन्देश का प्रसार करना । क्योंकि अब वे राजनीति में नहीं हैं जो शक्ति हथियाना चाहें; अब हैं केवल उनके विचार और आदर्श । और निश्चय ही, अगर लोग समझ सकें और उनके कार्यक्रम को चरितार्थ कर सकें, तो देश बहुत शक्तिशाली बन जायेगा, बहुत शक्तिशाली ।

 

    जो उनकी शिक्षा को समझते हैं, उसे संगठित करने और फैलाने का काम अपने हाथों में ले सकते हैं ।

 

    लेकिन माताजी जब तक माताजी के बच्चे सरकार में नहीं आते...

 

(माताजी हंसती हैं) वे टूट जायेंगे । और वे स्वयं इतना सीमित अनुभव करेंगे ।

 

अगर कोई ऐसा व्यक्ति है जो राजनीति में जाना चाहता है तो बात

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अलग है; लेकिन मेरे ख्याल से दूसरे उसमें प्रवेश किये बगैर अधिक मजबूत होंगे ।

 

    लकिन बहरहाल सरकार तो होगी ही I अगर माताजी...

 

लेकिन वे स्वभाव में राजनीतिक लोग होने चाहियें ।

 

    राजनीति हमेशा दलबन्दी से, विचारों से और कर्तव्यों से भी सीमित होती है--जब तक कि हम ऐसी सरकार न बनायें जिसमें कोई दल न हो, ऐसी सरकार जो सभी विचारों को स्वीकारे क्योंकि वह दलबन्दी से ऊपर होगी । दलबन्दी हमेशा एक सीमा होती है; यह एक बक्से की तरह है : तुम बक्से के अन्दर चले जाते हो (माताजी हंसती हैं) । निश्चय ही, अगर कुछ ऐसे लोग होते जो बिना किसी दल के सरकार में रहने का साहस करते--"हम किसी दल का प्रतिनिधित्व नहीं करते ! हम भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं''--तो चीज अद्‌भुत होती ।

 

    चेतना को ऊपर उठाओ, ऊपर, दलबन्दी से ऊपर ।

 

    फिर, स्वभावत: कुछ लोग जो राजनीतिक दल में नहीं आ सके-वे ! यही है आगामी कल के लिए काम करना । आगामी कल में ऐसा ही होगा । यह सारा संघर्ष इसलिए है क्योंकि देश को आगे बढ़ना है, इन सभी पुरानी राजनीतिक आदतों से ऊपर उठना है । बिना किसी दल की सरकार । ओह ! यह अद्‌भुत होगा !

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