CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on various aspects of spiritual life including some conversations.

माताजी के वचन - III

The Mother symbol
The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - III Vol. 15 409 pages 2004 Edition
English
 PDF   
The Mother symbol
The Mother

Part One consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the early 1930s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. There are also a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication. These reports are identified by the symbol § placed at the end. Part Two consists of thirty-two conversations not included elsewhere in the Collected Works. The first six conversations are the earliest recorded conversations of the 1950s' period. About three-fourths of these conversations were spoken in French and appear here in English translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - III 450 pages 2009 Edition
Hindi Translation
 PDF    LINK

व्यक्तिगत सलाहें

 

संक्षिप्त उत्त

 

       मेरा मन सन्देहों और अन्य निम्न प्रभावों से इतना ज्यादा घिरा हुआ है कि मुझे  लगता है कि अगर मेरा शरीर अभी छूट जाये तो ज्यादा अच्छा होगा ।  इस सबके बावजूद साक्षी पुरुष होने के नाते मैं इन सब बेतुकी गतिविधियों की ओर से तटस्थ हूं ।

 

हां, ये बेतुकी हैं । उन्हें झाड़ फेंको ।

       मेरे आशीर्वाद सहित ।

१९३३

*

 

      पता नहीं क्यों, कुछ दिनों से मैं कुछ अस्वस्थ-सा अनुभव कर रहा हूं । मेरा मन क्षुब्ध है, मेरा प्राण उदास है और मेरा शरीर रुग्ण ।

 

 चिन्ता न करो, चुपचाप रहो, अपनी श्रद्धा को अक्षुण्ण बनाये रखो । यह स्थिति चली जायेगी ।

१ फरवरी, १९३३

*

 

     पता नहीं कैसे, मेरे उत्सर्ग के लिए हानिकर विचार मेरे मन में घुस आते हैं और मुझे अस्त-व्यस्त कर देते हैं । में अपनी पूरी कोशिश करता हूं कि उन्हें भगा दूं और आपके ध्यान में मग्न रहूं लकिन बहुधा वे लौट आते हैं । बे बार-बार क्यों आते हैं और  कहां से आते है ?  क्या वे वैश्व प्रकृति से आते है जो अभी तक शुद्ध नहीं हुई है और क्या वे तब तक आते रहेंगे जब तक मेरा समस्त मानवीय स्वभाव रूपान्तरित न जायेगा ?

 

हां, वे पुनराद्धारवंचित विचार वैश्व प्रकृति से आते हैं लेकिन जिस हद तक

२६२


हम स्वयं रूपान्तरित होते हैं हम उन्हें भी दूर रख सकते हैं और फिर वे हमें तकलीफ नहीं देते ।

 

*

 

     हमेशा वह चीज ज्यादा पसन्द करना जो औरों के पास है, एक प्राणिक तरंग है । उसकी ओर ध्यान न दो ।

२ जून, १९३४

 

*

 

     क्या तुम्हारा मतलब यह है कि केवल तुम्हारा मन ही मेरी क्रिया के प्रति खुला है ? यह ठीक न होगा क्योंकि मैं मन की अपेक्षा कही अधिक तुम्हारे ऊपर हृदय द्वारा काम करती हूं ।

४ जून, १९३४

 

*

 

       हम अपने कार्यों और हरकतों के सच्चे आन्तरिक कारण के बारे में प्राय: हमेशा ही अचेतन होते हैं ।

 

हां, सत्ता की हरकतें हमेशा बहुत जटिल होती हैं ।

५ जून, १९३४

 

*

 

       मेरी भौतिक सत्ता आपके प्रेम के लिए प्यासी है । मां, देर न लगाइये । आप जानती हैं बच्चा तर्क की बात नहीं सुनता, वह केवल अपनी मां के वक्ष पर रहना चाहता है ।

 

तुम भली-भांति जानते हो कि मैं हमेशा तुम्हारे अन्दर और तुम्हारे साथ हूं । भौतिक चेतना में भी और अन्य चेतनाओं में भी ।

१० जुलाई १९३४

 

*

२६३


      हां, बाहरी प्रकृति को धीर, स्थिर होना चाहिये और भगवान् की ओर मुड़ना चाहिये ।

२१ दिसम्बर, १९३६

 

*

 

     कम-से-कम मानसिक तौर पर हम अपनी गलतफहमी और भूल के बारे में समझते हैं और हमने निश्चय कर रखा है की उन्हें सुधारने के लिये पूरा जोर लगायेंगे और हम यह विश्वास करते हैं की आपकी कृपा को शक्ति द्वारा वह सूधार तेजी से हो जायेगा | हां, वह बहुत थोड़े समय में भले ही न हो पर होगा जरुर |

 

वह तुरन्त क्यों न हो ? सद्‌भावना और श्रद्धा के साथ कुछ भी असम्भव नहीं है ।

६ जुलाई, १९३९

 

*

 

        माताजी, जब कोई मुझसे पूछता कि यहां वर्ष रह कर मैंने क्या किया है तो मैं कहता हूं कि मैंने भक्ति के साथ सेवा की है और यह मेरी साधना है । मैं और कुछ नहीं समझता | यह सच कि मैं बहुत देर से यह समझा और कभी-कभी मुझे चिन्ता भी हुई है । माताजी कृपा से मैं उनकी सेवा के बारे में कुछ- कुछ समझता हूं और उसी में मैं 'उनकी शक्ति' 'उनके प्रेम' का अनुभव करता हूं और मुझे लगता है कि मेरे लिए यह बहुत काफी है । क्यों, है न माताजी ?

 

निश्चय ही तुम ऐसी चेतना के साथ अधिकाधिक अच्छी तरह समझते हो और कार्य करते हो जो पूर्ण प्रकाश की ओर प्रगति करती जा रही है ।

 

*

 

       जब कोई मुझसे कोई चीज मांगता है तो मना करना कुछ कठिन

२६४


       होता है । मुझे लगता कि यह मेरे स्वभाव की एक दुर्बलता है । है न माताजी ?

 

यह इस पर निर्भर है कि तुम उसे कैसे देखते हो और किस भाव से करते हो ।

 

*

 

       माताजी, आज मैंने कतरनों से यह पंखा बनाया और उसे आपके चरणों में अर्पित करता हूं । लकिन पता नहीं आप इसे कलात्मक गुणों के आधार पर स्वीकार करेंगी  या नहीं क्योकि वे तो इसमें हैं ही नहीं--  यह मैं अच्छी तरह जानता हूं । माताजी, मुझे विश्वास है कि आप इसे मेरी भौतिक भेंट के रूप में स्वीकारेंगी | हम जो काम करते हैं उनके अन्य गुणों की अपेक्षा मैं इसे बहुत मानता हूं । निश्चय ही, मेरा यह अर्थ नहीं है कि कलात्मक सुन्दरता की अवहेलना करना चाहिये | माताजी, क्या मेरी बात ठीक है ?

 

हां, तुम्हारी बात ठीक है और इसके अतिरिक्त पंखा अनाकर्षक नहीं है । इसमें एक अपनी ही मोहकता है ।

 

*

 

       मुझे बहुत खेद है कि मेरे बारे में कुछ धारणा बनी हे कि मैं पैसा खीच रहा हूं और उसे जहां जाना चाहिये अर्थात् माताजी के पास, वहां से अलग रास्ते पर लगा रहा हूं । मेरा प्रयत्न यह रहता है कि समस्त धन माताजी का है और हमें उनके आदेश के अनुसार ही उसका उपयोग करना चाहिये । जहां कहीं मेरी चलती है,  मैं यही करता हूं और दुःख है कि मेरे बारे में उल्टी धारणा बनी । मैं अपने मन का भार हल्का करने के आपको लिख रहा हूं ।

 

पता नहीं यह अफवाह किसने फैलायी है, लेकिन मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि मुझे मालूम है कि यह सच नहीं है । तो, चिन्ता न करो और मेरे

२६५


आशीर्वाद के साथ अपने हृदय में शान्ति बसने दो ।

 

*

 

      तुम जिस चीज की खोज करते हो वह हमेशा तुम्हारे लिए तैयार रहती है । चैत्य मोड़ को पूरा होने दो और वह अपने आप तुम्हें उस चीज तक पहुंचा देगा जिसके लिए तुम अभीप्सा कर रहे हो ।

      मेरा प्रेम और आशीर्वाद ।

१५ फरवरी, १९३९

 

*

 

कभी-कभी मैं गम्भीरता से सोचता तो हूं पर समझ नहीं पाता कि मेरी सत्ता क्या चाहती है । यह कैसी बात है कि मैं वास्तविक सत्ता को अनुभव नहीं करता जिसका अस्तित्व है और जिसे सत्ता सम्भवन का आनन्द प्राप्त होता है ? मुझे किसी सृजनात्मक कार्य में वास्तविक दिलचस्पी क्यों नहीं है ? मरे मन सक्रिय है । वह समझना और प्रकाशमय होना तथा चीजो के सत्य को देखना और जानना चाहता है । मुझे लगता है कि मेरा मन इस दिशा में विकसित हो रहा है | कभी-कभी मेरे हृदय में आवेग उठता कि किसी ऐसी चीज को पकड़ूं जो सचमुच मेरी आत्मा को सन्तुष्ट कर सके लकिन वह आवेग ज्यादा समय नहीं टिकता ।  वह सत्ता की एक सपाट-सी अवस्था में गायब हो जाता है । आपका क्या ख्याल है, मेरी सच्ची  सत्ता क्या चाहती है ?

 

भगवान् । 

 

        और मुझे यह भी लगता कि आप मुझ से कुछ सन्तुष्ट नहीं हैं  ।

 

ऐसी कोई बात नहीं है । हर एक की अपनी कठिनाइयां होती हैं । और मैं उसे उनमें से निकलने में सहायता देने के लिए हूं ।

         मेरा प्रेम और आशीर्वाद ।

२५ फरवरी, १९४२

*

२६६


      मुझे यह ख्याल आया है कि जब में आपसे सीधा सुझाव या आदेश न भी पाऊं तो आपके कार्य के हित में मुझे वही करना चाहिये जो मैं अपने-आप कर सकूं ताकि मैं अपने ही ढंग से अपनी अधिक- से- अधिक क्षमता के साथ आपकी सेवा कर सकूं । कृपया मुझे निर्देश दें और अगर मैं गलत होऊं तो ठीक कर दें ।

 

यह हमेशा खतरनाक होता है । तुम्हें भगवान् की सेवा अपने निजी ढंग से नहीं बल्कि भगवान् के ढंग से करनी सीखनी चाहिये ।

        आशीर्वाद ।

१० अप्रैल, १९४७

 

*

 

      निर्णय करने के लिए मैंने एक तरकीब खोज निकाली है । मैं मामले को स्थगित कर देता हूं और आन्तरिक रूप से उसे आपके आगे रखता हूं ।  समाधान अपने-आप आ जाता है ।

 

वास्तव में यही सच्चा तरीका है और सब जगह इसी का उपयोग करना चाहिये ।

 

*

 

        वर दीजिये कि जाने अजाने मैं वही करूं जो आप मुझसे करवाना चाहती हैं ।

 

यही ठीक चीज है और है सबसे अधिक अच्छी ।

 

*

 

        मेरे प्यारे बालक, निश्चय ही तुम एक जीवन से दूसरे जीवन में चले गये हो लेकिन यह नया जन्म तुम्हारे शरीर में हुआ है और अब नयी

 

           १ माताजी ने इन चार शब्दों को रेखांकित कर दिया था ।

२६७


प्रगति के लिए तुम्हारे आगे मार्ग खुला हुआ है ।

         मेरे प्रेम और आशीर्वाद सहित ।

१९ अप्रैल, १९६०

 

*

 

         मैं मार्ग जानता हूं लेकिन अगर रास्ते में डाकू लूट लें तो मैं क्या करूं ?-- मौलाना आजाद ।

 

        डाकुओं को पकड़ने के लिए परम प्रभु को पुकारो ।

२६ अक्तूबर, १९६३

 

*

 

         मैं निम्नलिखित प्रश्न पर प्रकाश चाहता हूं । संसार जैसा है,  उसमें वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार ही हमें काम करना होता है  ।  तो हम उपलब्ध परिस्थितियों का उपयोग करते हुए बल इकट्ठा करें फिर भागवत इच्छा को उसके शुद्ध रूप में प्रकट करने का प्रयास क्यों न करें ?

 

लेकिन धरती पर जीने के तथ्य का मतलब ही यह है कि हम ''उपलब्ध परिस्थितियों का उपयोग'' कर रहे हैं, अन्यथा जीना असम्भव होता ।

          आशीर्वाद ।

१८ मार्च, १९६५

 

*

 

           भगवती मां,

 

                  अगर भविष्य में किसी भी तरह का दौरा आये तो क्या तुरन्त आपको सूचना भेज दूं बजाय कि लोग मुझे झट अस्पताल पहुंचा दें ?

 

निश्चय ही, मुझे तुरन्त सूचना दो ताकि मैं सहायता कर सकूं ।

३० सितम्बर, १९६६

 

*

२६८


           भगवती मां, मेरे प्राण में कुछ कठिनाई हो रही है । कृपया मेरी सहायता कीजिये ।

 

यदि तुम्हें कुछ काम करना होता ?...

        आशीर्वाद ।

२६ मई, १९६७

 

*

         भगवती मां,

 

               मैं जो चाहता हूं वह है अपनी समस्त सत्ता को भविष्य में आगे बढ़ने देना। क्या आप मेरे उन भागों को सहायता देगी जिन्हें धक्के की जरूरत है ?

 

यह बड़ा अच्छा निश्चय है । धक्का दिया जाता है और दिया जायेगा ।

       तो अब प्रतिरोध न करो ।

       प्रेम और आशीर्वाद ।

२० मई १९६८

 

*

 

          भगवती मां,

                 मैं तैयार हूं ।

 

तो चलो, शुरू करो ।

         आशीर्वाद ।

१ जुलाई, १९६९

 

*

 

        कल दर्शन के बाद से मुझे ऐसा लग रहा हे कि मेरे अन्दर कोई चीज आध्यात्मिक जीवन के विरुद्ध विद्रोह कर रही है । मुझे इस विद्रोह से डर लगता हे । में क्या करूं  ?

 

जब तुम मेरे सामने थे उस समय जिस चीज ने तुम्हारे अन्दर विद्रोह किया

२६९


था यह वही चीज है जो तुम्हें आध्यात्मिक जीवन बिताने से रोकती है । अब जब कि तुम शत्रु के बारे में सचेतन हो तो अगर तुम निश्चय करो तो उसे निकाल बाहर कर सकते हो ।

२१ नवम्बर, १९६९

 

*

 

        मैंने किताबों के लिए कुछ पैसे जमा किये थे । एक दिन मैंने वह पैसे आपको दे दिये । उसके तुरन्त बाद किसी ने मुझे ठीक वही किताबें बल्कि उनसे कुछ अधिक भेंट में दीं ।

 

इस प्रकार की चीजें सैकड़ों बार हो चुकी हैं और अधिकाधिक हो रही हैं -लेकिन मुझे यह बिलकुल ''स्वाभाविक'' मालूम होती है, यद्यपि मैं इसे समझाने के लिए इच्छुक नहीं हूं ।

 

*

 

        'क' आपकी और श्रीअरविन्द की फोटो पाकर बहुत खुश हुआ । उसने मुझसे कहा कि इन्हें खोलने के बाद उसने अपने कमरे के वातावरण में स्पष्ट परिवर्तन अनुभव किया  माताजी, आपने अपने हाथ से मुझे श्रीअरविन्द का जो फोटो दिया था उसके लिए मैंने भी यह अनुभव किया था कि वह जीवन से स्पन्दित हो रहा है । यह आपके स्पर्श के कारण है न ?

 

श्रीअरविन्द और मैं जिस फोटो पर हस्ताक्षर करते हैं उसमें हमेशा एक शक्ति रख देते हैं । इस फोटो को श्रीअरविन्द ने भी देखा था और उसके फ्रेम की प्रशंसा की थी ।

 

*

 

         (लेखन-कार्य में कठिनाई के बारे में)

 

ग्रहणशील बनो और सब ठीक हो जायेगा ।

*

२७०


       लिखते जाओ । तुम्हें कैसे पता कि प्रेरणा तुम्हारे पास आने के लिए तैयार नहीं है ?

 

*

 

        जो उसे ग्रहण करना जानता है उसके लिए प्रेरणा अपने बहुत सारे उपहार लेकर आती है ।

 

*

 

         मधुर मां,

 

             एक युवक,, जिसने अपनी ''उच्चतर शिक्षा '' समाप्त कर ली है, कुछ दिन पहले मेरे पास आया था । उसने कहा कि वह मेरे साथ ''दिव्य जीवन'' पढ़ना चाहता है । चूंकि मैंने पुस्तक सिर्फ यज्ञ-तत्र, अंशों में पढ़ी है इसलिए मैंने उससे कह दिया कि मैं उसकी सहायता न कर सहूंगा । लोकिन वह बहुत आग्रह करता रहा और आखिर उसकी बात माननी पड़ी ।

 

          वह पुस्तक में से प्रश्न पूछता है जिनमें से कुछ काफी कठिन होते हैं । और यद्यपि मैं उत्तर नहीं जानता, पर वे जैसे-जैसे मेरे पास आते हैं,  मैं उसे देता जाता हूं ।  हम दोनों ने देखा कि उत्तर ठीक होते हैं और उत्तरों की भाषा लगभग वैसी ही होती है जैसी इस पुस्तक में श्रीअरविन्द की भाषा है ।

 

       मैं जानना चाहता हूं (१) क्या यह अन्त-प्रेरणा है ?  ( २) क्या ऐसा कोई लोक है जहां समस्त ज्ञान रहता है और अगर हम उस लोक की ओर खुल सकें तो हमें जिस किसी ज्ञान की जरूरत हो वह मिल सकता है ?  (३) अगर पढ़ाना मेरा कार्य है तो ग्रहणशीलता बढ़ाने के लिए मुझे क्या करना चाहिये ?

 

श्रीअरविन्द की शिक्षा के साथ तुम्हारा सचेतन सम्पर्क है । वह उच्चतर मानसिक जगत् में सार्वभौम और अमर है ।

२७१


       तुम मौन होकर जितने एकाग्र होओगे उतने ही स्पष्ट रूप से उसे पा सकोगे ।

       आशीर्वाद ।

१३ जून, १९६८

 

*

 

        (२४ जून १९७० को 'श्रीअरविन्द शोध अकादमी'  की स्थापना हुई थी .ताकि उच्चतर स्तर पर माताजी और श्रीअरविन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने के इच्छुक शोध करने वाले छात्रों की सहायता की जा सके । जब इसका पहले-पहल प्रस्ताव रखा गया तो माताजी ने संस्थापक को लिखा :)

 

जो कुछ भी किया जाये वह मानवजाति की प्रगति में योगदान दे सकता है, लेकिन सब कुछ निर्भर है उसे करने के ढंग पर ।

 

      तुम्हारे ओर तुम्हारी योजना के लिए मेरे आशीर्वाद ।

मार्च १९७०

 

कुछ लम्बे पत्र

 

     तुम्हारा पत्र मुझे दिया गया है । तुमने उसमें जो प्रश्न पूछे हैं वे मेरे विकास के एक स्तर पर बहुत अधिक रुचिकर थे इसलिए बड़ी खुशी से मैं उनका उत्तर दूंगी । फिर भी, जो उत्तर मानसिक रूप से तैयार किया जाता है, वह कितना ही पूर्ण क्यों न हो, सच्चा उत्तर नहीं हो सकता, ऐसा उत्तर जो मन के सभी प्रश्नों और सन्देहों को चुप करा सके । निश्चिति केवल आध्यात्मिक अनुभूति से आती है और सुन्दर-से-सुन्दर दार्शनिक ग्रन्थ कभी कुछ क्षणों के लिए जिये गये ज्ञान का स्थान नहीं ले सकते या उसकी बराबरी नहीं कर सकते ।

 

     तुम कहते हो : ''क्या एक औसत विकासवाला आदमी, जो अब पार्थिव कामनाओं से दुःखी नहीं होता, जो संसार के साथ केवल अपने स्नेह द्वारा

२७२


संलग्न है, पुनर्जन्म की आशा छोड़ सकता है ? क्या मानवीय स्तर से परे एक कम पार्थिव अवस्था नहीं है जहां आदमी तब जाता है जब कामनाएं उसे मानवीय स्थिति में वापिस नहीं बुलातीं । मुझे यह बात बिलकुल तर्कसंगत मालूम होती है । मनुष्य श्रेणीक्रम के शिखर पर नहीं हो सकता । पशु उसके बहुत निकट है; क्या वह भी परवर्ती स्तर के बहुत नजदीक नहीं है ? ''

 

      पहली बात तो यह है कि जो चीज धरती के साथ सम्बन्ध बनाये रखती है वह केवल प्राणिक कामना नहीं हैं बल्कि कोई भी विशिष्ट मानव क्रियाकलाप है और निश्चय ही स्नेह इसका एक भाग है । व्यक्ति पुनर्जन्म की अनिवार्यता के साथ, कामनाओं के साथ जितना बंधता है उतना ही अपनी संवेदनशीलता और स्नेह द्वारा भी । लेकिन हर चीज की तरह पुनर्जन्म के बारे में भी हर मामले का अपना समाधान होता है और यह निश्चित है कि पुनर्जन्म से मुक्ति की सतत अभीप्सा और उसके साथ चेतना के उत्थान और उदात्तीकरण के लिए सतत प्रयास--इन दोनों का परिणाम होना चाहिये पार्थिव जीवन की शृंखला का कट जाना, यद्यपि वह वैयक्तिक अस्तित्व का अन्त नहीं कर देता जो एक और लोक में बढ़ता चला जाता है । लेकिन यह क्यों सोचा जाये कि उसका एक और अधिक वायवीय जगत् में अस्तित्व उसकी ''परवर्ती अवस्था'' होगी जो मानव की तुलना में वैसी होगी जैसा मानव पशु की तुलना में है । मुझे तो यह सोचना ज्यादा युक्तिसंगत लगता है (और ज्यादा गहरा ज्ञान इस निश्चिति की पुष्टि करता है) कि परवर्ती स्थिति भी भौतिक होगी, यद्यपि हम इस भौतिक के बारे में यह सोच सकते हैं कि वह अवतरण के कारण, 'प्रकाश' और 'सत्य' के मेल के कारण आवर्धित और रूपान्तरित होगा । मानव जीवन के सभी बीते युगों और कल्पों ने इस नयी स्थिति के अवतरण की तैयारी की है और अब उसके साकार और ठोस रूप में चरितार्थ होने का समय आ गया है । यही श्रीअरविन्द की शिक्षा का सारतत्त्व है, उस दल का लक्ष्य है जिसे उन्होंने अपने चारों ओर इकट्ठा होने दिया है, उनके आश्रम का लक्ष्य ।

 

     तुम्हारे दूसरे प्रश्न के बारे में, मैं तुम्हें श्रीअरविन्द के लेखों के कुछ

 

       १''भागवत आत्मा ने मूत रूप लिया तो उसने पहले ही से सब कुछ देख लिया था और हर चीज के लिए इच्छा की थी, तब फिर ऐसा क्यों लगता है कि वह किसी

२७३


उद्धरण भेजने की सोच रही हूं । लेकिन जब मैंने उनसे कहा कि मैं 'लाइफ डिवाइन' के कुछ सन्दर्भों का अनुवाद करके तुम्हें भेजना चाहती हूं तो उन्होंने कहा कि अगर मैं तुम्हें समुचित रूप से पूरा उत्तर भेजना चाहूं तो मुझे कम-से-कम दो अध्यायों का अनुवाद करना होगा । मेरी परेशानी देखकर स्वयं उन्होंने निश्चय किया है कि वे इस विषय पर कुछ पृष्ठ लिख देंगे । उन्होंने अभी हाल में ये पृष्ठ मुझे दिये हैं और मैंने तुरन्त उनका अनुवाद करना शुरू कर दिया है ।

 

     मुझे जिन पृष्ठों के अनुवाद करने का गौरव प्राप्त होगा, मैं उनकी ताजगी नहीं बिगाड़ना चाहती, इस बीच जब तक मैं वह तुम्हें न भेज पाऊं मैं यूं कह सकती हूं कि मैं समस्या की अपनी बहुत सरल और संक्षिप्त- सी दृष्टि प्रस्तुत करती हूं ।

 

     इस बारे में तो कोई सन्देह ही नहीं है कि जिस संसार में हम जीते हैं वह निःशेष रूप से अपनी बाह्यतम अभिव्यक्ति में बहुत अधिक सफल नहीं है लेकिन इस बात पर भी शंका नहीं की जा सकती कि हम उसके भाग हैं और परिणामस्वरूप करने लायक युक्तियुक्त और समझदारी की बात एक ही है कि हम उसे पूर्ण करने के लिए काम में जुट जायें, अधिक-से- अधिक खराब में से भी सर्वोत्तम को निकालें और उसे अधिक-से-अधिक सम्भव अद्‌भुत जगत् बनायें । क्योंकि मैं यह और कह दूं कि, यह रूपान्तर सम्भव ही नहीं, निश्चित है । 'ज्ञान' की शान्ति और उसका आनन्द तुम्हारे साथ रहें ।

४ जून, १३३

 

*

------------------ 

लक्ष्य या चेतना की खोज में है क्योंकि इसे तो वह आरम्भ में ही चरितार्थ कर सकती थी ? उसने पीड़ा और अशुभ को अनुमति ही क्यों दी, जो उसके सारतत्त्व में मौजूद हैं ? अगर मानव अशुभ की जिम्मेदारी मनुष्य पर ही डाली जाये तो भी पशुओं और वनस्पतियों को जो अन्याय आक्रान्त करता है उसकी जिम्मेदारी तो भागवत विधान की ही है । भागवत विधान ने सब कुछ आनन्द में ही क्यों नहीं रचा ? पीड़ा हमें हमेशा पूर्णता की ओर नहीं ले जाती, इसकी जगह बहुत बार वह हमें असाध्य निराशा में डाल देती हे ।''

 

       १ श्रीअरविन्द साहित्य संग्रह के २२ वें खण्ड में प्रकाशित ।

२७४


पहले से और चिरकाल के लिए सखी और बहन,

 

      पने जून के पत्र में जो अभी-अभी मिला है तुम कहती हो कि बुद्ध ''कोमल व्यंग्य के साथ मुस्कुरा रहे हैं,''  लेकिन बुद्ध की मुस्कान केवल ज्योतिर्मय उपलब्धि से पहले की पूर्ण समझदारी की मुस्कान हो सकती है ।

 

     और इस स्थिति में जिसमें भौतिक जीवन तुम्हारे लिए अपनी बहुत कुछ ठोस वास्तविकता खो चुका है, तुम चाहे हिमालय के एकान्त में होओ या 'न' की ओर जाती हुई सड़क पर स्थित मकान की निर्जनता में, तुम्हारे लिए प्रगाढ़ बौद्ध अनुकम्पा की गहरी शान्ति में रहना समान रूप से सरल होना चाहिये ।

 

*

 

     हां, तो मेरा ख्याल है कि तुमसे यह कहने वाली मैं पहली हूं कि तुम मुझे औरों से इतने भिa नहीं लगते-मेरा मतलब है, विशिष्ट व्यक्ति--क्योंकि यूं तो एक तरह से हर एक अन्य सबसे भिन्न होता है, लेकिन यह वह भिन्नता नहीं है जिसकी तुम बात कर रहे हो ।

 

      और मेरा ख्याल है कि तुम्हारा अपने लोगों पर और जिनके साथ तुम रहते थे उनके मन पर तुम्हारे ''भिन्न'' होने का प्रभाव इस तथ्य से पड़ा क्योंकि तुम रूढ़िविरोधी हो । इसे साधारणत: स्वभाव और मिजाज में बहुत बड़ा ''अन्त '' माना जाता है । यह केवल इस बात का चिह्न है कि तुम, आन्तरिक स्वाधीनता की एक हद तक पहुंच गये हो जो तुम्हें कम-से-कम आशिक रूप में सामूहिक सुझावों और सामाजिक नियमों से स्वाधीन बना देती ह और वह आन्तरिक स्वाधीनता विकसित चैत्य के चिहनों में से एक है । लेकिन अब जो लोग धरती पर हैं उनमें विकसित चैत्य, आखिर, कोई बहुत अपवादिक चीज नहीं ह

 

      मुझे लगता है कि तुम्हें भी औरों की तरह हमसे प्रोत्साहन का अपना हिस्सा मिला है लेकिन तुमने उसकी उपेक्षा की क्योंकि हो सकता है कि यह ठीक वैसा न था जिसकी तुम आशा या इच्छा करते थे ।

 

      निश्चय ही इससे पहले कि तुम आध्यात्मिक प्रगति कर सको एक अहंकार-केन्द्रित गर्व को तोड़ना जरूरी था लेकिन अब चीज लगभग पूरी

२७५


हो चुकी और भविष्य के लिए चिन्तित होने की जरूरत नहीं ।

 

     अभी के लिए मैं इतना ही कह सकती हूं ।

     मेरी सहायता, मेरा प्रेम और मेरे आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।

२३ अक्तूबर, १

 

*

 

प्रिय महोदया,

 

     तुम्हारा पत्र मुझे अभी-अभी मिला है और मैं तुरन्त उत्तर दे रही हूं । तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर ये हैं :

 

     तुम्हारी बहन की बीमारी की तीव्रता बहुत कम समय रही और उसे बहुत अधिक कष्ट नहीं हुआ । अन्तिम दिनों में वह कह रही थी कि वह अपने ऊपर महान् ज्योति और शक्ति का अनुभव कर रही थी, उसका अन्त बहुत शान्तिपूर्ण रहा । उसे पता न था कि वह मरने वाली है, हम भी उसे जिन्दा रखने के लिए संघर्ष कर रहे थे और उसे खतरे की संगीनता के बारे में कुछ नहीं बताया गया था । केवल एक बार उसे कुछ ऐसा लगा था कि वह शरीर छोड़ने वाली है और वह अपनी भौतिक चीजों, धन, सम्पत्ति आदि के बारे में तुम्हें वसीयत लिख भेजना चाहती थी । उसने मुझे बताया कि वह क्या लिखना चाहती थी लेकिन जब ठीक लिखने की बात आयी तो उसे बहुत कमजोरी का अनुभव होने लगा और उसने यह काम छोड़ दिया । उस समय उसे तुम्हारी बहुत चिन्ता हो रही थी और वह सोच रही थी कि तुम उसके बिना क्या करोगी--इससे पहले कई बार उसने यह इच्छा प्रकट की थी कि तुम यहां आकर उसके साथ रहो । कई बार उसने यह निवेदन किया कि मेरी शक्ति और सुरक्षा तुम्हारे साथ रहें और मैंने उसे यह वचन दिया कि जब कभी तुम उनकी चाह करोगी ये तुम्हारे साथ होंगी ।

 

     हम बड़ी खुशी से उसकी कब्र का पत्थर अपने ही खर्च से बनवा लेते परन्तु मैं इसके बारे में तुम्हारी भावना समझती हूं और यह काम तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही होगा । उसके नक्शे के लिए मैं अपने यहां के वास्तुकार पर निर्भर थी । उसकी तुम्हारी बहन के साथ बहुत दोस्ती थी और तुम्हारी बहन उसके काम को बहुत पसन्द करती थी । लेकिन उसे भारत की सेना से बुलावा आया है और अब वह कहीं बहुत दूर है और इतना व्यस्त है

२७६


कि उसके पास नक्शा बनाने के लिए समय नहीं है । समय बचाने के लिए मैंने यह सोचा कि तुम खुद ही उसके लिए डिज़ाइन की व्यवस्था कर लो और उसे बनवाने के लिए मेरे पास भेज दो । हां, वह बहुत ज्यादा सीधी-सादी होनी चाहिये वरना उसे यहां बनवाना कठिन होगा । मैं इतना कह दूं कि उसे अपनी कब्र के पत्थर पर सलीब बनवाना पसन्द न आता । मेरा प्रस्ताव है कि उस पर एक अभिलेख हो (फ्रेंच में हो क्योंकि यह एक फ्रेंच कब्रिस्तान है)

 

       ('क' के भौतिक अवशेष यहां दफनाये गये हैं)

       (जन्म की तारीख-मृत्यु की तारीख)

 

     हम स्मारक-शिला, जहां तक हो सके उसकी वार्षिकी के आस-पास खड़ी करना चाहते हैं अत: मुझे डिज़ाइन की जल्द से जल्द जरूरत है । उस जमीन का माप संलग्न है, स्मारक जमीन से छोटा होना चाहिये ।

भवदीया

९४

*

 

(दो सरकारी उच्च पदधिकारियों को लिखे गये पत्रों के बारे मे)

 

       मैंने "क'' को लिखा गया तुम्हारा पत्र पढ़ लिया है । मुझे खेद है कि मुझे "ख'' को लिखे गये पत्र को पढ़ने का अवसर नहीं मिला ।

 

       तुम यह पत्र मुझे दिखलाये बिना ही भेजना चाहते थे, इस तथ्य से ही तुम्हें सावधान हो जाना चाहिये था कि तुम जिस आवेश का आज्ञा-पालन कर रहे थे उसकी प्रेरणा कहां से है । स्पष्ट है कि वह भागवत प्रेरणा नहीं हो सकती ।

 

       यह तो हुआ, अब मुझे कहना है कि पत्र में अपने-आपमें मूलत: कोई गलत चीज नहीं है । तुम जो कहते हो वह ठीक है लेकिन निश्चय ही यह उस व्यक्ति के लिए नहीं है जिसे तुम यह भेजना चाहते थे, न ही यह किसी और ऐसे ही व्यक्ति के लिए, यानी, किसी प्रमुख राजनतिक पदवाले व्यक्ति के लिए है । राजनेता केवल अपने ही ज्ञान और अपनी ही शक्ति पर विश्वास करते हैं और फिर उनके पास ऐसे लोगों के सैकड़ों पत्र आते हैं

२७७


जो यह सोचते हैं कि उन्हें संसार की अवस्था का समाधान मिल गया है और सामान्यत: इन राजनैतिक नेताओं में विवेक-क्ति नहीं होती । वे क्या सत्य है और क्या मिथ्या इसमें पहचान नहीं कर सकते और समझते हैं कि ऐसे पत्र धार्मिक कट्टरपंथियों (पागलों) के गरम दिमाग की उपज होते हैं । हम नहीं चाहेंगे कि हमें उनके साथ मिलाया जाये, अत: सम्भ्रान्त मौन ही ज्यादा अच्छा है ।

 

       बहरहाल, निन्नानवे प्रतिशत से अधिक सम्भावना तो यही है कि यह पत्र गंतव्य स्थान तक कभी पहुंचेगा ही नहीं और किन्हीं अवाच्छनीय हाथों में पड़ जा सकता है ।

जून, १९५४

 

*

 

      निश्चय ही उचित ची का करना कूरता या स्वार्थपरता नहीं है । जो चीज क्रूर और स्वार्थपूर्ण है वह है अन्धे होकर अपनी कमजोरी के पीछे चलते जाना और इस तरह किसी दूसरे को भी अपने साथ ऐसे गढ़े में घसीट ले जाना जिसमें से बाहर निकल आना हमेशा कठिन होता है और यह कभी अपना बहुत-सा समय और शक्ति नष्ट किये बिना नहीं होता--चाहे इससे कहीं अधिक ज्यादा और कहीं अधिक खराब न भी हो । अत: चिन्ता न करो । अब गम्भीरता के साथ अपने जीवन का अर्थ और लक्ष्य जानने की कोशिश करो और उसे पूरी तरह, सचाई के साथ पूरा करने के लिए अपने- आपको तैयार करो ।

 

*

 

        चिन्ता न करो । यह गुजर जायेगा ।

 

       प्राण के आत्म-सम्मान के चेहरे पर एक अच्छी चपत लगी है, वह रूठ गया है और उसने हड़ताल कर दी है । जब वह यह समझना शुरू करेगा कि यह मूर्खता है और इसका परिणाम कुछ नहीं होता तो वह फिर से समझदार हो जायेगा और फिर से चैत्य की समझदारी भरी सलाह मानेगा जो उसे स्थिर-शान्त रहने के लिए और अपना काम अच्छी तरह करने के लिए कहती है । वह कहती है कि कोई भी सच्चे मूल्य की वस्तु

२७८


गुम नहीं हुई है, अपरिवर्तनीय सच्चा प्रेम हमेशा रहता है, केवल वही गतिविधियां नष्ट की गयी हैं जो 'भागवत कार्य' के साथ मेल नहीं खाती थीं ।

 

        तुम्हें ऐकान्तिक रूप से भगवान् के कार्य से सम्बन्ध रखना चाहिये क्योंकि केवल वही हमारे जीवन में सच्चा सुख दे सकता है ।

 

*

 

        जो हुआ है लगभग वैसी ही आशा थी । हर एक अपने जीवन में अपनी निजी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है और जो अपनी श्रद्धा में स्थिर नहीं हैं वे अपने प्रेम में भी स्थिर नहीं हो सकते ।

 

        निश्चय ही मैं तुमसे नाराज नहीं हूं और जब कभी तुम चाहो, मेरी सहायता हमेशा तुम्हारे साथ है । रही बात कुछ गलत चीज करने की तो सभी मनुष्य गलतियां करते हैं जब तक वे इस अज्ञान के जगत् में रहते हैं, क्योंकि अगर वे ठीक करना भी चाहें तो जब तक उनकी चेतना का रूपान्तर न हो जाये, तब तक उन्हें यह पता नहीं होता कि ठीक है क्या । और रूपान्तर के लिए जिस पहली चीज की जरूरत है वह है सचाई, निष्कपटता, केवल सच बोलना ही नहीं (यह कहने की जरूरत नहीं कि यह एक प्रारम्भिक अनिवार्य शर्त है) बल्कि हमेशा अपने और भगवान् के प्रति सच्चा होना ।

 

*

 

      सारी चीज इतने सशक्त रूप से प्रतीकात्मक है और इतने स्पष्ट रूप से यह प्रकट करती है कि किसी अक्ख और अज्ञानी मानव मन के नेतृत्व में रहना कितना भयंकर हो सकता है जो केवल अपनी ही शक्ति पर निर्भर रहता हो और भागवत कृपा की सहायता को अस्वीकार करता हो ।

 

     मुझे विस्तृत व्याख्या में जाने की जरूरत नहीं क्योंकि इस संकेत से तुम आसानी से सारी ची समझ सकते हो । क्या तुम्हें याद है कि मैं कुछ आग्रह के साथ तुमसे पूछ रही थी कि मोटर कौन चला रहा था और जब तुमने कहा कि तुम्हारा ड्राइवर चला रहा था तो मुझे राहत का अनुभव हुआ । लेकिन स्टीयरिंग व्हील तुम्हारे ड्राइवर के हाथ में नहीं था और इस

२७९


परिवर्तन के कारण उस बेचारे को भोगना पड़ा ।

 

       जो ची सारे मामले को इतना अधिक असाधारण बना रही है वह है क ''के" साथ मेरी बातचीत । मैंने उससे पूछा कि क्या तुम्हें योग में दिलचस्पी है । उसने कहा दार्शनिक ऊहापोह के रूप में मुझे दिलचस्पी है लेकिन व्यवहार में लाने में नहीं । जब मैंने कहा कि यह दिलचस्पी बाद में आ सकती है तो उसने कहा, ''जी नहीं, मैं नास्तिक हूं मैं भगवान् को नहीं मानता ।'' मैंने मुस्कुराते हुए पूछा, ''तो फिर तुम अपने विश्व की व्यवस्था कैसे करते हो ? '' तब वह व्यंग्य समझ गया और उसने उत्तर दिया, ''मेरी वैज्ञानिक वृत्ति है, मैं किसी चीज का खण्डन नहीं करता पर मैं किसी चीज पर विश्वास भी नहीं करता ।''  मैंने 'ख' के लिए खतरे का अनुभव किया और कुछ जोर देकर कहा, '' लेकिन मैं आशा करती हूं कि तुम औरों के विश्वासों में दखल भी नहीं दोगे, तुम 'ख' को जैसा वह सोचे और अनुभव करे वैसा मानने की छूट दोगे ।''  ''निश्चय ही'' उसका उत्तर था, लेकिन मैंने उस पर विश्वास नहीं किया ।

 

       'ख' से कहो कि उसका मन और मनोभाव बदलने के लिए उस पर कितना भी दबाव क्यों न पड़े  वह अपनी श्रद्धा अटूट बनाये रखे । उसे कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है लेकिन उसे कभी विश्वास के साथ भागवत कृपा को पुकारना न भूलना चाहिये और भागवत सुरक्षा और सहायता निश्चय ही उसके साथ होंगी ।

 

      रही तुम्हारी बात तो, 'ख' के लिए चिन्ता या भय की बात न सोचो । उसकी कठिनाइयां--और जीवन कभी उनसे खाली नहीं होता--अधिक बाहरी प्रकार की होंगी, ऐसी सम्भावना नहीं है और दूसरी तरह की कठिनाइयों का वह श्रद्धा के साथ सामना कर सकती है और उन पर विजय पा सकती है ।

 

*

 

       अपनी मां से कहो कि वह अपने हृदय के अन्दर गहराई में पैठे, वह अनुभव करेगी कि भागवत कृपा उसके साथ है । मैं उसे अपने आशीर्वाद सहित एक कार्ड भेज रही हूं । उस पर जो लिखा है, तुम उसका अनुवाद उसे सुना दो । उसे यह भी बतला दो कि दुर्घटना के समय तुम्हारे पिता की

२८०


चेतना अपने शरीर को छोड़ गयी थी । इसी कारण वह हिला-डुला या बोला नहीं । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है और इसके लिए विशेष रूप से दु:खी होने का कोई कारण नहीं है ।

 

      मैंने इसलिए उत्तर नहीं दिया कि उसका मन अपनी कामनाओं के कारण इतना अधिक अस्तव्यस्त था कि मैं जो कुछ लिखती उसे वह न समझ पाती । तब से मैंने उसके मन और प्राण को जरा अधिक खोलने और उन्हें ग्रहणशील बनाने के लिए उन पर काम करने का प्रयास किया है जिससे वह यह समझ सके कि बच्चों के लिए प्रेम और सृष्टि में वे भविष्य के लिए जिस बढ़ती हुई आशा का प्रतिनिधित्व करते हैं उसका यह अर्थ नहीं है कि हर एक के और सभी के बच्चे होने चाहियें । हर एक के लिए, स्त्री हो या पुरुष, मैं वही बताती हूं जो उसके लिए उसकी प्रकृति और आध्यात्मिक आवश्यकता के अनुसार अच्छे-से- अच्छा हो । लेकिन निश्चय ही यह हमेशा कामनाओं के अनुसार नहीं होता ।

अक्तूबर, १९६०

 

*

 

       'ग' बहुत ही सुसंस्कृत लड़की है, बहुत ही अधिक संवेदनशील है । उसे बहुत जल्दी चोट पहुंचती है । उसे कभी न डांटो, उसके साथ कठोरता से न बोलो या उसे कुछ भी करने के लिए बाधित न करो । मुझे वह बहुत अच्छी लगी । लेकिन वह इतनी भयभीत लग रही थी-मुझे पता नहीं उसे मेरे बारे में किसने क्या कहा होगा जो उसे ऐसा लग रहा था । उससे कह दो कि मुझे वह बहुत अच्छी लगी । वह बहुत सुसंस्कृत है लेकिन किसी कारण वह एकदम बन्द रहती है । उसे पूरी तरह मुक्त अनुभव करने दो, उसके चारों तरफ कोई घेरा न डालो । वह यहां पूरी तरह से विश्रांत और मुक्त अनुभव करे, और उससे कह दो कि वह अपने- आपको ढीला छोड़ दे और यह अनुभव करे मानों वह हमेशा सूर्य के प्रकाश में है ।

१६ सितम्बर, १९६८

२८१


 









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates