दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


४. आगे अभ्यास

 

नापाड में तो छोटी प्राथमिक शाला थी, वहाँ केवल पाँचवी कक्षा तक ही पढ़ाई हो सकती थी। चुनीलाल ने यह अभ्यास पूर्ण किया फिर आगे पढ़ने के लिये नापाड से लगभग चार किलोमीटर दूर नावली गाँव की शाला में प्रवेश लिया। इस शाला में अंग्रेजी की पहली, दूसरी, और तीसरी कक्षा होती थी अर्थात् गुजराती की पाँचवी, छवीं और सातवीं कक्षा तक। चुनीलाल ने नावली की शाला में प्रवेश लिया तब उनकी उम्र बारह वर्ष की थी। अपने एक मित्र के साथ प्रतिदिन पैदल नावली जाते और शाम को घर लौटते। दो वर्ष तक तो शाला में अभ्यास अच्छी तरह चलता रहा और परिणाम भी ठीक आया पर फिर चुनीलाल का मन पढ़ने में कम लगने लगा। छट्वीं कक्षा में भी पिछड़ने के कारण शिक्षकों ने उनके पिताजी को शिकायत की कि 'तुम्हारा पुत्र अभ्यास में पहले जैसा एकाग्र नहीं है, बहुत लापरवाह हो गया है।' पिताजी ने पता किया तो ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन पैदल आने-जाने के समय आवारा लड़कों के संग रहने लगा है यह उसका प्रभाव है। यह जानकर उनके पिता चिंता में पड़ गये। बुरी संगत में बच्चा रहेगा तो बिगड़ जाएगा इसलिये पिता ने उपालम्भ देने के बजाय दूसरा रास्ता सोचा। उन्होंने पुत्र को बुलाकर कहा, 'बेटा, तुम्हारी यह शाला ठीक नहीं लगती, देखो न तुम्हारे अंक भी कम आते हैं।' गायकवाड सरकार की अंग्रेजी शाला है वहीं पढ़ाई भी अच्छी होती है, शिक्षक भी अच्छे हैं, इसलिये (अंग्रेजी) तीसरी कक्षा

 

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तुम वहाँ पढ़ोगे तो अंक भी अच्छे आएंगे।' इस प्रकार समझा कर चुनीलाल को उस शाला से हटाकर गायकवाड के अंग्रेजी स्कूल में भेज दिया। पिता की यह युक्ति सफल रही।

नये विधालय में नये साथी मिले और पुराने आवारा मित्रों का साथ छूट गया, इससे अंग्रेजी की तीसरी कक्षा (गुजराती में सातवीं कक्षा) में चुनीलाल बहुत अच्छे अंकों से उतीर्ण हो गये।

अब फिर चुनीलाल के लिये आगे पढ़ने की समस्या खड़ी हो गई। नावली में अंग्रेजी की चौथी कक्षा थी ही नहीं, इसलिये पुत्र को यदि आगे पढ़ाना हो तो नावली से भी दूर भेजना पड़ेगा और खर्च भी अधिक होगा। इतना खर्च पिता वहन नहीं कर सकते थे फिर भी पुत्र को आगे पढ़ाने की देसाईभाई की तीव्र इच्छा थी। इसी असमंजस में थे तभी एक दिन उनके मित्र भीखाभाई कुबेरभाई पटेल उनके घर आए। वे बी. ए. तक पूना में पढ़े थे और आणंद के दादाभाई नवरोजी (डी. एन.) हाईस्कूल में मुख्य शिक्षक थे। वे दूसरी और तीसरी कक्षा की परीक्षा लेने के लिये नावली आते थे। उन्हें चुनीलाल की आगे पढ़ाई करने की इच्छा का पता था। वे बोरसद से परीक्षा लेने नावली आए थे, रास्ते में नापाड आने से अपने मित्र देसाईभाई से मिलने रुक गये थे। देसाईभाई ने बातचीत के समय पूछा, 'अब चुनीलाल को आगे पढ़ाने के लिये मेरे मन में बहुत दुविधा है। शहर के बोर्डिंग में भेजूँ तो इतना खर्च मैं उठा नहीं सकूँगा।'

'तुम इसे आणंद भेज दो। हम इसी वर्ष अंग्रेजी की चौथी कक्षा प्रारम्भ करनेवाले हैं। रहने के लिये छात्रावास में व्यवस्था कर देंगे, वहाँ रहकर चुनीलाल पढ़ेगा। इसमें तुम्हारा अधिक खर्च भी नहीं होगा।' यह सुनकर पिता के सिर का बोझ कम हो गया और वे प्रसन्न हो गये, अब वे निश्चित थे कि आराम से अपने तेजस्वी पुत्र को आगे

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पढ़ा सकेंगे। चुनीलाल को बुलाकर भीखाभाई ने कहा, 'बेटा, आणंद में तुम्हे छात्रालय में बहुत से लड़कों के साथ रहना पड़ेगा। क्या तुम्हें अच्छा लगेगा? छात्रालय के नियम भी कड़े होते हैं, बार बार घर नहीं आ सकोगे!'

चुनीलाल ने कहा, 'मुझे अच्छा लगेगा।'

यह सुनकर उसके पिता को विश्वास हो गया कि अब उनका पुत्र बहुत पढ़-लिखकर भीखाभाई जैसा महान बनेगा। भीखाभार्ड़ समग्र चरोतर प्रदेश में प्रशिक्षक और आचार्य के रूप में जाने जाते थे। भाईकाका ने वल्लभ विधानगर की स्थापना का प्रारम्भ १९४६ में किया तब से वे उनके सहयोगी थे।

आणंद डी. एन. विद्यालय में चुनीलाल ने प्रवेश लेकर छात्रालय में रहना प्रारम्भ किया और तभी से उनका अलग ही प्रकार के जीवन का निर्माण प्रारम्भ हुआ। बाद में द्युमान ने एक पत्र में लिखा था कि, 'तुम आज जो मेरा जीवन देख रहे हो उसका प्रारम्भ उसी दिन से हो गया था, उसके बाद सतत् विकास होता गया। उस क्षण से आज तक मैं पीछे नहीं हटा।'

 

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