५. आणंद के डी. एन. हाईस्कूल में
ई. स. १९१६ में गांधीजी ने जिन्हे 'चरोतर का मोती' के रूप में परिचय करवाया था उन श्री मोतीभाई अमीन ने आणंद में चरोतर एज्यूकेशन सोसायटी की स्थापना की। चरोतर एज्यूकेशन सोसायटी ने राष्ट्रभावना के आधार पर दादाभाई नवरोजी हाईस्कूल (जो आज डी. एन. हाईस्कूल के रूप में गुजरात में जाना जाता है) की स्थापना की। इस स्कूल में अंग्रेजी की चौथी कक्षा की कक्षा प्रारम्भ हुई थी इसीलिये चुनीलाल २ अप्रैल १९१७ को, उसके उद्घाटन के दिन ही वहाँ आ पहुँचे। इसी दिन वहाँ छात्रालय का भी प्रारम्भ होना था।
आरंभ में तो छात्रालय में केवल सात विद्यार्थी ही थे। उसमें चुनीलाल को सबसे पहले प्रवेश मिला था।
उस समय विद्यालय का अपना कोई व्यवस्थित भवन नहीं था। मकान बनाने की नींव चरोतर एज्यूकेशन के स्वयंसेवकों और विद्यार्थियों ने खोदी थी। आज डी. एन. हाईस्कूल का जो भव्य भवन खड़ा है, उसकी नींव में, प्रारम्भ में प्रवेश प्राप्त किये सात विद्यार्थियों और आरम्भकाल के स्वयंसेवकों ने बहुत परिश्रम किया था। चुनीलाल ने नींव खोदने से लेकर चीनाई का काम और मकान की छत बनाने तक में सहायता की थी। चुनीलाल 'कठोर परिश्रम का कोई विकल्प नहीं' - का पाठ माध्यमिक शिक्षण के प्रवेश से ही सिख गये थे। निःस्वार्थ कार्य करने में, अन्य के लिये कार्य करने में कितना आनन्द होता है, इसका अनुभव भी उन्हें किशोरावस्था में होने लगा
था। भविष्य में जो महान कार्य उन्हें करना था, जो अथक परिश्रम करना था उसका बीजारोपण डी. एन. हाईस्कूल के प्रवेशकाल में ही हो गया था। समय-समय पर उस में अंकुर फूटते रहे। इस विषय में द्युमान ने स्वयं बाद में बताया था कि ' .... पर इतना तो निश्चित है कि आणंद के विधालय में प्रवेश के बाद मेरा जीवन बदल गया। १९१७की अप्रैल की दूसरी तारीख के दिन आज जो द्युमान है उसके बीज बोये गये, फिर फूले, फले और बड़े हुए।' चुनीलाल को. डी. एन. विधालय में घर जैसी उष्मा, माता-पिता जैसा वात्सल्य, मार्गदर्शन और भाईबन्धुओं जैसा मित्रों का साथ मिला। इसलिये विधालय में उन्हें बहुत अच्छा लगता था। छुट्टियों में घर जाने की बिलकुल इच्छा नहीं होती थी। विधालय के अन्तिम वर्षों में उन्हें अमूल डेरी के स्थापक त्रिमुवन भाई पटेल और शिवाभाई अमीन जैसे मित्र मिले, जिनकी मैत्री जीवन पर्यन्त बनी रही। वर्षों बाद त्रिमुवनदास भाई के साथ सरदार पटेल युनिवर्सिटी के भूतपूर्व कुलपति डो. दिलावरसिंहजी से भेंट हुई थी तब उन्होंने अपने इस बालसखा के विषय में कहा था, 'चुनीभाई पहले से ही अनोखा विद्यार्थी था। ' स्वभाव से धुनी लगता था। उसके अंतरंग को न पहचानने वाले सहपाठी उसे पागल मानते थे। आदर्शाभिमुख चुनीभाई के साथ त्रिमुवनदास भाई का आत्मीय सम्बंध था। छुट्टियों में आणंद आते थे तब चुनीभाई उनके यहाँ रात में रूकते थे। बाद में त्रिमुवनदास भाई उन्हें मिलने विशेष तौर पर पांडिचेरी गये थे।
विधालय का भवन तो तैयार हो गया। हरे-भरे वृक्षों के बीच शाला चलती हो तो कैसा तपोवन जैसा दृश्य लगे, चुनीलाल को लगा कि शाला में वृक्ष तो हॉने ही चाहिये इसलिये उन्होंने शाला में आम, नीम, जामुन आदि के ऐसे वृक्ष बोये जो बढ़कर घने बने। वे स्वयं उनकी देखभाल करते। पचास-सात फूट गहरे कुएँ से पानी खींचकर
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उन्हें पिलाते। इस प्रकार पौधे बड़े होने लगे, पर फिर गर्मियों की छुट्टियों हो गईं। छुट्टियों में तो विधालय और छात्रालय दोनो बन्द हो जाते थे। विधार्थिओं को अनिवार्य रूप से घर जाना पड़ता था। चुनीलाल को अपने प्रिय वृक्षों की चिंता होने लगी और उन्होंने भीखाभाई साहब से अनुमति ले ली कि प्रतिदिन नापाड से पैदल आकर वृक्षों को पानी पिलाकर चले जाएँगे। इस प्रकार पूरी छुट्टियों में प्रतिदिन सवेरे चार-पाँच मील चलकर आणंद आते, कुएँ से पानी खींच-खींच कर वृक्षों को वे पानी देते और फिर उतना ही चलकर नापाड लौट जाते! वृक्षों के प्रति इतना उत्कट प्रेम जो उनके आश्रम जीवन में फला-फूला उसका मूल डी. एन. हाईस्कूल के वृक्षों की देखभाल में है (यह बात द्युमान ने डो. दिलावरसिंह जाडेजा को पांडिचेरी में भेंट के समय कही थी। )'
सेवाभावना का पाठ भी. डी. एन. हाईस्कूल के अभ्यासकाल में चुनीलाल को सीखने को मिला। पंचमहाल में जब भयंकर अकाल पड़ा था तब राहत कार्य के लिये इस स्कूल के विद्यार्थी गये थे, उसमें चुनीलाल भी थे। आदिवासी और भील लोगों के बीच इन विधार्थियों ने ठक्करबापा के नेतृत्व में अकाल राहत कार्य किया था। शैशवकाल से ही अन्य के दुःख में सहायता करने की वृत्ति उनमें थी, वह किशोरावस्था में विकसित हुई। आदिवासी विस्तारों में घूमना, गरीब लोगों को दुःख में राहत मिले ऐसे कार्य करना, उन्हें आश्वासन देना - यह सब कार्य अपनी सुविधा की परवाह किये बगैर वे करते थे। जीवन के ऐसे पाठ उन्हें राहतकार्य के द्वारा मिले। इस विषय में द्युमानभाई ने बाद में लिखा था कि, 'यह शरीर तब बराबर प्रशिक्षित हुआ, मन तैयार हुआ, वह भविष्य के जीवन के लिये ही तैयारी रही होगी।
चुनीलाल को पढ़ने का बहुत शौक था। अन्तर्मुखी होने से मित्र
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मंडली में शायद ही कभी दिखते। पुस्तकें उनकी सच्ची मित्र थीं। डी. एन. हाईस्कूल के अभ्यास काल के समय उन्हें शाला के समृद्ध पुस्तकालय से अनेक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला था।*
गहन विषयों की पुस्तकें भी उन्होंने विधार्थी अवस्था में पढ़ डाली थीं। इस विषय में उन्होंने लिखा है कि, 'मेरे जीवन का निर्माण गंभीर विषयों की पुस्तक पढ्ने से हुआ है।' बी. ए. की टेक्स्ट बुक जैसी अंग्रेजी पुस्तकों को मैं, अंग्रेजी की छटविं सातवीं कक्षा में पढ़ता था और वह मुझे समझ आती थीं।
'स्वामी विवेकानंद, श्री रामकृष्ण, स्वामी रामतीर्थ इत्यादि की सभी पुस्तकें उन्होंने अंग्रेजी में उस समय पढ़ी थी। साधु-सन्तों के जीवन चरित्र पढ़े थे। डी. एन. हाईस्कूल के पुस्तकालय से लेकर गिरधर कृत रामायण, तुलसीदास का रामचरित मानस, प्रेमानंद के काव्य, नरसिंह महेता के पद, मीराबाई के भजन, श्रीमद् भागवत, भारत का इतिहास, महाभारत आदि का अध्ययन किया। वेद - उपनिषद और पुरातत्व विधा की पुस्तकें भी पढ़ी। इसमें से कुछ समझ में आया और कुछ नहीं भी समझ आया।'
चाहे सब नहीं समझ में आया पर इन सब पुस्तकों के पठन से उनका अंतरमन सँवरता गया और उसमें भी उपनिषद के दो किशोर पात्र नचिकेता और सत्यकाम-जाबाल तो उनके लिये आदर्श हो गये! जीवन नचिकेता जैसा सत्यपरायण, ध्येयनिष्ठ और सत्यकाम-जाबाल जैसा गुरु समर्पित होना चाहिये, ऐसा उनके अंतर में द्रढ़ता से अंकित हो गया। इसके अलावा चरोतर एज्युकेशन सोसायटी के शिक्षक और
*श्री अरविंद का नाम दार्शनिक के कप में भारत में तब बहुत कम जाना जाता था, तब उनके सम्पादन में १९१४ में प्रारम्भ हुआ (अंग्रेजी) 'आर्य' मासिक आणंद के डी. हाईस्कूल में वहाँ के जागृत शिक्षक के कारण पांडिचेरी से नियमित आता था l*
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स्वयंसेवक शिवाभाई पटेल के पास से उन्हें 'आर्य' के अंक पढ़ने को मिले। चुनीलाल को श्री अरविंद के नाम का परिचय तो था ही। वे स्काउट की प्रवृत्ति से जुड़े हुए थे। उस में विद्यार्थियों की अलग-अलग टुकडियाँ बनाई गई। उन टुकडियों के नाम देश कै नेताओं के नाम से रखे गये। तिलक टुकड़ी, गोखले टुकड़ी अरविंद टुकड़ी आदि। उस में चुनीलाल अरविंद टुकड़ी में थे। इसलिये उन्हें श्री अरविंद के विषय में जानने को मिला। तब श्री अरविंद की योगसाधना को सिद्धि के विषय में लोग कहते थे कि 'वे जमीन से अधर में चलते हैं। ' यह बात भी चुनीलाल को सुनने को मिली। इससे श्री अरविंद के विषय में किशोर चुनीलाल के मन में उस समय बहुत जिज्ञासा जागी। उसके बाद श्री अरविंद के योगदर्शन को व्यक्त करता 'आर्य' मासिक उन्हें मिलता तो वह पढ़ने में डूब जाते।
इस विषय में एक पत्र में द्युमान ने लिखा है कि, 'मैंने 'आर्य' के 'सीक्रेट ऑफ वेदाज' लेख पढ़े तब मुझे लगा कि जैसे श्री अरविंद मुझे वेद पढ़ा रहे हैं, पर तब मैं, उसमें से कितना समझा, भगवान ही जाने! वेद का रस मुझमें गहराई तक उतर गया उसने मेरा जीवन गढ़ा है। 'आर्य' मासिक में श्री अरविंद के एक साथ छः छः ग्रंथों के प्रकरण प्रकाशित होते थे, उन सब ग्रंथों के प्रकरण इतनी छोटी उम्र में वे अंग्रेजी में नियमित पढ़ने लगे। इस प्रकार उनके अंतर में 'योग' के लिये भूमिका तो डी. एन. हाईस्कूल के समय में ही तैयार हो गई थी।
डी. एन. हाईस्कूल के शिक्षकों, स्वयंसेवकों के द्धारा चुनीलाल को जीवन-विज्ञान के अनेक पाठ सीखने को मिले। छोटाभाई से श्रीअरविंद के साहित्य का परिचय हुआ तो अम्बुभाई पुराणी द्धारा अखाड़ा और खेलकूद के महत्व की जानकारी मिली। अम्बुभाई पुराणी श्री चुनीलाल के शिक्षक थे, उनसे उन्होंने मेकाले का 'होरेशियस' पढ़ा। पर उस समय न तो अम्बुभाई को पता था न
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चुनीलाल को कि उन दोनों को एक महान गुरु के शिष्य बनकर एक साथ काम करना होगा। उस समय अम्बुभाई और उनके बड़ेभाई छोटुभाई पुराणी ने सुरत से अमदावाद तक अनेक स्थान पर अखाड़े शुरू किये थे, उसमें अनेक युवक तैयार हो रहे थे। परंतु चुनीलाल को अखाड़े या खेलकूद में रूचि नहीं थी। इस विषय में भी उन्होंने बताया था कि, 'मैं अकेला मेरे पथ पर चलता जा रहा था। मुझे समूह मैं ज्यादा रुचि नहीं थी।' एकाकी रहने का स्वभाव होने के कारण वे इतर प्रवृतियों में कहीं दिखाई नहीं दिये। पर आध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन से अंतरविकास सतत् होता रहा। फलस्वरूप सामान्य शिक्षण में रूचि कम होने लगी। अंतर में कितनी बार उलझन होती कि उनका अंतर जो चाहता वह यह शिक्षण नहीं दे सकता, तो क्या करें? फिर सच्ची शिक्षा की शोध में वे आणन्द से सुरत के पाटीदार आश्रम में पहुँच गये। उन्हें आशा थी कि यहाँ कुछ नयी शिक्षा मिलेगी, पर वहाँ पता किया तो वही सामान्य शिक्षण था इसलिये वहाँ से लौटकर फिर डी. एन. हाईस्कूल में अभ्यास में लग गये।
डी. एन. हाईस्कूल के अभ्यास के समय उन्हें गांधीजी के भी दर्शन हुए। १९१७ में भरूच में गुजरात शिक्षण मंडल की वार्षिक बैठक हुई थी, उसके प्रमुखपद पर गांधीजी थे। भीखाभाई कई विधार्थियों को गांधीजी के दर्शन के लिये भरुच ले गये थे, उसमें चुनीलाल भी थे। इस बैठक में उन्होंने गांधीजी के प्रथम दर्शन किये। गांधीजी धोती, अंगरखा पहनते थे। सिर पर काठियावाडी पगड़ी बाँधते थे। गांधीजी की सीधीसादी पर अंतर से निकलने वाली स्पष्ट वाणी का चुनीलाल पर बहुत प्रभाव पड़ा। इसलिये ये कहाँ रहते हैं, उसकी जानकारी ले ली। उन्हें पता चला कि अमदावाद में गांधीजी का साबरमती आश्रम चलता है, उसमें गांधीजी के बहुत से छोटे-बड़े साथी रहते हैं और गांधीजी के मार्गदर्शन में सेवाकार्य, तथा देश की
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आज़ादी के लिये कार्य करते हैं। तब ही चुनीलाल ने मन में संकल्प किया कि गांधीजी के आश्रम में जाकर रहना है। अब यहाँ सामान्य अभ्यास नहीं करना है। भरूच से लौटकर आणंद में अभ्यास में लग गये पर अब उनका मन वहाँ लगता नहीं था। अमदावाद गांधीजी के आश्रम में जाने के विचार बार-बार आते थे। ये विचार इतने प्रबल थे कि एक दिन किसी को कहे बगैर चुनीलाल चुपचाप आणंद से अमदावाद साबरमती आश्रम में पहुँच गये।
रेल्वे स्टेशन से तपती दोपहर को दो बजे पैदल चलकर वे आश्रम पहुँचे। भूख भी लग रही थी। आश्रम में कोई जानता भी नहीं था पर मन में संकल्प था कि अब गांधीजी के सानिध्य में रहना है। आश्रम में पूछा तो पता चला कि गांधीजी तो नहीं हैं, तब कस्तुरबा के पास पहुँच गये। उन्होंने भयंकर गर्मी में बापु से मिलने आए हुए इस तरुण विधार्थी का प्रेम से स्वागत किया। कुशल-मंगल पूछकर हाथ, पैर, मुंह धोने की व्यवस्था कर दी। उसके बाद भोजन करवाया। भोजन करते समय बा ने आने का कारण पूछा; तब बताया कि 'मुझे तो बापु के साथ रहना है, इसलिये मैं आया हूँ। 'बा तब कुछ नहीं बोलीं, प्रेम से भोजन करवाकर, आश्रम के व्यवस्थापक फूलचंदभाई के पास ले गई। सारी बात उन्हें बतायी। फूलचंदभाई ने पूछा, 'तुम अपने माता-पिता की अनुमति लेकर आए हो ?' 'नहीं'।'तो तुम अनुमति लेकर आओ, तो ही यहाँ रह सकोगे। ' यह सुनकर चुनीलाल की सभी इच्छाओं पर पानी फिर गया। वह एकदम निराश हो गया। उसे लगा कि इस प्रकार भागकर आना बेकार गया। कस्तुरबा इस तरुण किशोर की मनोव्यथा समझ गई। उन्होंने कहीं, 'बेटा, आज की रात यहाँ रुक जाओ, कल सवेरे चले जाना।' चुनिलाल उस रात साबरमती आश्रम में ठहर गये।
इधर माता-पिता को समाचार मिला कि चुनीलाल कहीं चला
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गया है तो वे व्याकुल हो गये। वे तत्काल आणंद पहुँचे। माँ चुनीलाल के मित्र त्रिभोवनदास से मिली और पूछा, 'मेरा चुनीलाल कहाँ गया होगा?' पर मित्र को भी पता नहीं था तो वह कुछ नहीं बता पाया। परंतु भीखाभाई साहब के अनुमान से उसके पिता अमदावाद साबरमती आश्रम में दूसरे दिन सवेरे उसे ढूंढनें पहुँच गये और उनका पुत्र वहाँ आया है या नहीं, यह पूछा। तभी बा ने चुनीलाल को बुलाकर पूछा, 'क्या यही तुम्हारा पुत्र है ?'
पुत्र को देखते ही पिता प्रसन्न हो गये। फिर बा ने चुनीलाल को प्रेमपूर्वक कहा, 'बेटा! तुम अपने पिता के साथ घर जाओ। इस प्रकार किसी को बताए बगैर नहीं आना चाहिए, माता-पिता को कितनी चिंता होती है? वे सारी रात सोये नहीं होंगे, जाओ बेटा!'
पिता को इतनी जल्दी सवेरे उसे ढूंढने आए हुए देखकर चुनीलाल को बहुत क्षोभ हुआ। पिता ने परिस्थिति को समझकर उपालम्भ का एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने कहा, 'बेटा, चलो घर। ' फिर पिता पुत्र सीधे आणंद पहुँचे। पिता उसे डी. एन. हाईस्कूल में भीखाभाई साहब के पास ले आए। भीखाभाई ने भी उसे उपालम्भ में कुछ नहीं कहा और पूछा, 'आ गया तू ?' और फिर कहा।'जाओ, भोजन कर लो।' चुनीलाल ने चुपचाप भोजन तो कर लिया पर पिता और साहब जरा गुस्सा नहीं हुए, इस बात का उस पर बहुत प्रभाव पड़ा, वह बहुत रोया। उसे पूछे वगैर जाने की भूल समझ में आ गई। पिता और शिक्षक ने उसे प्रेम से लौटा लिया और उसकी भाग जाने की वृति को प्रेम से निर्मूल कर दिया।
ई. स.१९१७ क से १९२० तक चार वर्ष चुनीलाल ने डी. एन. हाईस्कूल में विद्याभ्यास किया। उस समय डी. एन. हाईस्कूल मुम्बई विश्वविधालय के साथ जुड़ी हुई थी। मैट्रिक की परीक्षा मुम्बई विश्वविधालय द्धारा ली जाती थी। परंतु स्वदेशी आंदोलन और
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असहयोग आंदोलन के कारण अनेक विधालय और महाविधालय भी राष्ट्रीय स्तर पर चलने लगे थे। डी. एन. हाईस्कूल ने भी अंग्रेज सरकार की मैद्रिक परीक्षा न लेते हुए, राष्ट्रीय महाविद्यालय जैसे विधापीठ के साथ सम्पर्क करके, उनकी विनीत की परीक्षा लेने का निश्चित किया। इस प्रकार चुनीभाई ने मैद्रिक की समकक्ष विनीत की परीक्षा अच्छे गुणांक के साथ उत्तीर्ण करके, डी. एन. हाईस्कूल का अभ्यास पूरा कर लिया। बाद में दयुमान ने बताया था कि, 'मेरा प्रशिक्षण डी. एन. हाईस्कूल में हुआ, उसका मैं ऋणी हुँ। प्रतिवर्ष मैं डी.एन. हाईस्कूल को उसके स्थापना दिवस पर पत्र लिखता हूँ। ' इस प्रकार डी. एन. हाईस्कूल ने चुनीलाल के व्यक्तित्व की जो नींव डाली यह इतनी द्रढ़ थी कि फिर अनेक झंझावात आने के बाद भी वे अपने ध्येय से तिल भर भी नहीं डिगे।
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