दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


२५  आज्ञाकारी सेवक

 

'आश्रम में आने के बाद मेरे कई मित्रों ने अलग-अलग भाषा सिखी, उन्होंने पुस्तकें पढ़ी, लेखन कार्य किया। कई नियमित समुद्र के किनारे भ्रमण को जाते, समुद्र के किनारे बैठते। परन्तु मैंने माताजी के काम के सिवाय दूसरा कुछ नहीं किया। मैं एक समय खिलाड़ी था, अखाड़ेबाज़ था, दौड़ में प्रथम आता था। आश्रम में आकर जब मैंने श्रीअरविन्द के दर्शन किये तब मुझ पर अपूर्व शांति उतर आई। उसी क्षण मेरी सभी विशेषताओं. का लोप हो गया, रह गई केवल सेवावृत्ति। बस, माताजी और श्रीअरविंद का काम रात-दिन करता रहा। मैं आश्रम के बाहर कहीं गया ही नहीं। कुछ देखा भी नहीं। मैंने तो आश्रम के खेल के मैदान में दिखाई जानेवाली फिल्म भी नहीं देखी क्योंकि उसके कारण मेरा काम अटक जाता। मेरे चौबीस घंटे सेवा में ही जाते हैं। माताजी और श्रीअरविंद की कृपा से मुझे कोई काम असम्भव नहीं लगा, यही मेरी साधना रही है।'

एक पत्र में द्युमान ने अपनी साधना के विषय में उपर्युक्त कथन लिखा था। श्रीअरविंद और श्रीमाताजी के कार्य ही उनकी जीवन साधना थी। अविरत कार्य के द्धवारा माताजी की अधिकतम सेवा करना, यह उनका जीवन ध्येय था। इसलिये जबतक श्रीमाताजी देह में थीं, तबतक वे पांडिचेरी के बाहर नहीं गये। उसके बाद केवल एक बार और वह भी माताजी के कार्य के लिये उड़िसा गये थे। उनकी अपने लिये तो समय ही कहीं था? कई बार तो रात - रात भर वे

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काम करते रहते। प्रतिदिन अठारह घंटे तक काम करना उनके लिये सामान्य था।

एक बार रात को वे माताजी के साथ काम करने लगे, उसमें इतने मग्न हो गये कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। काम समाप्त हुआ, घड़ी देखी तो सबेरे के चार बजे थे। यह देखकर माताजी बोलीं, 'अरे द्युमान, चार बज गये।'।

'यस, मधर।'।

'चलो, फिर अब नया काम शुरु करें। सोने का समय तो चला गया। '।

'यस मधर। '

और फिर दोनों ने नया काम हाथ में ले लिया। इस प्रकार कई बार वे रातभर काम करते रहते थे।

श्रीमाताजी आश्रम के बाहर के व्यवहार और कार्यों के विषय में द्युमान पर बहुत निर्भर रहती थीं। इसीलिये उन्हें बार-बार द्युमान को पूछना पड़ता था। रात को भी माताजी देर तक काम करती रहती और उन्हें द्युमान से कुछ पूछना होता था। श्रीमाताजी को तकलीफ न हो और वे उन्हें तत्काल बुला सकें इसलिये माताजी के काम करने के कमरे के बाहर के बरामदे में वे सो जाते। श्रीमाताजी को काम होता तब अपने कमरे का दरवाजा खोलकर आवाज देती, 'द्युमान' और द्युमान तुरन्त उठ खड़े होते। ऊपर सीढि से जाने पर देर होगी इसीलिये आंगन में पड़ी हुई निसरणी को दीवार पर अड़ाकर ही रखते, ताकि माताजी बुलाए तो तुरन्त निसरणी से चढ़कर जा सकें, इसके लिये बरामदे या माताजी के कमरे के बाहर जमीन पर चटाई डालकर, तकिया रखकर वर्षों तक सोते रहे। इस प्रकार दिन हो या रात, अपने शरीर द्धवारा श्रीमाताजी का काम अधिक से अधिक हो, उसके लिये सदैव तत्पर रहते थे।

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१९३८ में श्रीअरविंद कै साथ दुर्घटना हो गई। उसके बादवेकयुम क्लीनर से श्रीअरविंद का कमरा साफ करने का काम श्रीमाताजी ने द्युमान को सौंपा था। अतिमानस के अवतरण की साधना के परिणाम से श्रीअरविंद की देह अत्यन्त तेजस्वी हो गई थी, अत: द्युमान को माताजी ने कहा था, 'तुम श्रीअरविंद का कमरा साफ करो तब श्रीअरविंद की और मत देखना।'

श्रीमाताजी के आज्ञाकारी इस सेवक ने पाँच वर्ष तक श्रीअरविंद का कमरा साफ करने का काम किया, पर एक बार भी उन्होंने श्रीअरविंद की और नहीं देखा। कैसी अद्दभूत आज्ञाकारिता। एकबार उन्हें श्रीअरविंद के कमरे की छत का एक पटिया ठीक करने का काम श्रीमाताजी ने सौंपा। इस पटिये में छेद करके भंवरी ने बिल बना दिये थे। द्युमान ने सीढ़ी लगाई, उस पर चढ़कर पटिये को वेकयुम क्लीनर से साफ किया और उसे सील कर दिया। यह सब उन्होंने इतनी सतर्कता से किया कि एक छोटा-सा कंकर भी नीचे नहीं गिरा। इस पटिये के ठीक नीचे श्रीअरविंद का पलंग था और वे सो रहे थे, पर उन्हें पता भी नहीं चला। सच में उनका यह काम सभी कार्यों से आत्यधिक कठिन था और वे जानते थे कि माताजी उनकी कसौटी कर रही हैं। इस कसौटी में वे सम्पूर्ण रूप से खरे उतरे।

श्रीमाताजी से साधक आए दिन माँग करते रहते। माताजी उनको पूरा करने के लिये द्युमान को बुलाकर कहती, 'द्युमान, ये वस्तुऐं लानी हैं, अथवा इतने रुपये चाहिये। ' दयुमान वह वस्तु या उतनी रकम श्रीमाताजी को तत्काल दे देते। श्रीमाताजी का कब किसकी आवश्यकता होगी, यह उन्हें पता होता था इसीलिये पहले से ही वस्तुएँ तैयार रखते थे, पर कभी- कभी श्रीमाताजी अचानक भी कुछ माँग लेतीं, इसलिये आश्रम में आनेवाली भेंट की राशि अपने पास सम्मालकर रखते थे, इस कारण श्रीमाताजी माँगे तब अपने इस

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कोष से तत्काल दे सकते थे। एक बार श्रीमाताजीने द्युमान से कहा,।'मुझे पच्चीस हजार रुपये की तुरन्त आवश्यकता है।'

'हाँ, माताजी! अभी लाता हूँ' और यह राशि उन्होंने तुरन्त लाकर दे दी, माताजी ने पूछा, 'तुम अब क्या करोगे?'

'मैं फिर से एकत्र कर लूँगा। ' माताजी को कभी आर्थिक तंगी न हो, इसके लिये वे बहुत सावधान रहते थे। श्रीमाताजी का अपना कोई व्यक्तिगत कमरा नहीं था। जिस कमरे में वे आराम करती थी, वह भी सार्वजनिक कमरा था। उसमें लोगों का आना-जाना लगा रहता था। इस कारण माताजी ठीक से आराम भी नहीं कर पाती थीं। एक दिन माताजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। क्रीडागण से जल्दी आ गई और युमान को बुलाकर कहा, 'द्युमान, तकिया लाओ, मुझे कुछ देर सोना है। ' द्युमान ने तकिया लाकर दिया। कमरे में अंधेरा करके माताजी ने आधे घंटे आराम किया। तब द्युमान को चिंता हो गई। वे सोचने लगे कि 'माताजी को दिन में आराम करना हो तो कहीं करेंगी? इस विषय में उन्होंने श्रीमाताजी से पूछा भी। फिर कहा, 'माताजी, यह तो सार्वजनिक कमरा बन गया है। आपके लिये एक अलग कमरा होना चाहिये, ऐसा आपको नहीं लगता है ?' तब माताजी ने कहा, 'क्या आवश्यकता है ?' तब द्युमान ने कहा, 'माताजी बहुत आवश्यक है, आपकी तबियत ठीक नहीं तब दिन में आप कहीं आराम कर पाएंगी? द्युमान के आग्रहपूर्वक आवश्यकता बताने पर उन्होंने कहा,

'ठीक है, कमरा बनाओ पर उस कमरे के लिये आश्रम के पैसे का उपयोग नहीं होना चाहिये, देखना।'।

'ठीक है माताजी, आश्रम का एक पैसा भी उपयोग में नहीं लेंगे। ' द्युमान ने मुम्बई में नवजात को पत्र लिखा कि, 'मुझे एक लाख

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रूपये भेजो। उससे माताजी के लिये कमरा बनाना है।' नवजात ने तुरन्त रुपये भेज दिये। द्युमान ने श्रीमाताजी के लिये विशेष रुप से कमरा बनवा दिया।१९६२ से श्रीमाताजी उस कमरे में रहने गईं, पर वहाँ भी परिस्थिति वही की वही रही। मुलाकाती, साधक, जन्मदिवस के आशीर्वाद लेनेवालों का आना-जाना लगा रहता था।

कई बार द्युमान को श्रीमाताजी से आश्रम के विषय में तत्काल कुछ पूछना या निर्णय लेना होता था और उस समय माताजी समाधि में (ट्रान्स में) चली गई हों तब द्युमान अपनी आत्मा द्धारा श्रीमाताजी के पास पहुँच जाते और उन्हें समाधि से जागृत करते। श्रीमाताजी अपने कमरे से बाहर आकर द्युमान को पूछती थीं कि, 'द्युमान, क्या बात है ?' तब द्युमान श्रीमाताजी से मार्गदर्शन ले लेते। श्रीमाताजी के साथ उनका इतना प्रगाढ़ आंतरिक सम्बन्ध था कि वे आत्मा बस श्रीमाताजी के पास पहुँच जाते थे। श्रीअरविंद ने ५ दिसम्बर१ १९५० की रात को १ बजकर २० मिनट पर देहत्याग किया उस समय माताजी अपने कमरे में समाधि में थीं। अब, श्रीमाताजी समाधि में हो तब उनके शरीर को स्पर्श करके जगाने की तो मनाही थी और श्रीमाताजी का इस घटना की तत्काल जानकारी देना अनिवार्य था। इसलिये फिर द्युमान को कहा गया कि, 'तुम माताजी को समाधि में से जागृत करो।' द्युमानने अपने आत्मिक सम्पर्क डाल माताजी को समाधि में से जगाया। ऐसी माताजी की चेतना के साथ द्युमान की प्रगाढ़ तद्रुपता थी।

उषाकाल से मध्यरात्रि तक द्युमान सतत् कार्यरत रहते थे। प्रतिदिन सवेरे छ: बजे और दर्शन दिवस हो तो सवेरे चार बजे भोजन कक्ष में पहुँच जाते। वहाँ की सारी व्यवस्था देखते, रसोईघर में रसोई की व्यवस्था पर दृष्टि डाल लेते। जो कुछ सूचनाएँ देनी हो या कुछ कहना हो तो कह देते। उसके बाद जब तक श्रीमाताजी देह में रहीं,

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तब तक उनके काम के लिये खड़े पाँव उपस्थित रहते थे। साथ में ऑफिस भी सम्भालते  देश-विदेश से पत्र-व्यवहार करते। वे जब मेनेजिंग ट्रस्टी बने तो काम और बढ़ गया, फिर भी वे सभी कार्य करते रहते - जैसे शक्ति का अनन्त स्तोत्र उनमें सतत् बहता रहता था। आश्रम का सारा उत्तरदायित्व, उपरांत खेती-बाड़ी काम भी उन्होंने ले रखा था। सभी कार्य वे श्रीमाताजी को अर्पण रूप से करते थे। इसमें उनका अहंभाव कहीं नहीं था। इसी कारण कार्य द्धवारा उनकी साधना अति शीघ्र हुई। श्री के. डी. सेठना (अमल किरण) उनके संस्मरणों में लिखते हैं कि, 'श्रीमाताजी ने उन्हें 'परफेक्ट वर्कर' -पूर्ण कार्यकर्ता के रूप में उनके एक जन्मदिवस पर सम्बोधित किया है। ऐसा माताजी ने किसी के लिये नहीं कहा।' वे श्रीमाताजी के, श्रीअरविंद आश्रम के सृजन के एक मुख आधार स्तम्भन थे। श्रीअरविंदने 'माँ' पुस्तक के पाँचवें प्रकरण में दिव्य कर्मों के कर्ता के जो लक्षण बताये हैं, उसका द्युमान मूर्तिमंत उदाहरण हैं। श्रीअरविंदने लिखा है, कर्म करने में तुम्हारा एकमात्र हेतु दिव्यशक्ति की कर्म डाल सेवा करना, उसे जीवन में सार्थक करना तथा उसके आविर्भाव का माध्यम बनकर रहना, इतना ही होना चाहिये।' यह कथन द्युमान के जीवन के प्रत्येक क्षण में चरितार्थ होता दृष्टिगोचर होता है।

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