१०. भक्तिबा द्वारा प्राप्त संदेश
दरबार गोपालदास और उनकी जाज्वल्यमान पली भक्तिबा गांधीजी के राष्ट्रमुक्ति आंदोलन में सक्रिय थे। दरबार गोपालदास तो सरदार वल्लभभाई पटेल के मित्र जैसे थे। इसलिये सरदार पटेल ने जब खेड़ा और बारडोली सत्याग्रह शुरु किया उसमें इस दम्पति ने सम्पूर्ण साथ दिया। उसमें बारडोली में सरकार ने गैरकानूनी भूमि- कर डाला, इसके विरोध में सरदार पटेल ने सत्याग्रह प्रारम्भ किया। उसमें दरबार गोपालदास और भक्तिबा भी सम्मिलित हुए। स्वयंसेवकों में चुनीलाल ने भी अग्रसर होकर भाग लिया। उन्हे काम मिला भक्तिबा की छावनी में, इस कारण भक्तिबा के साथ उनका परिचय बढ़ा। चुनीलाल की सेवा, त्यागवृति, मितभाषिता, कार्यनिष्ठा और सबसे अधिक तो उनकी परमतत्व को प्राप्त करने की लालसा, इन सबका भक्तिबा को परिचय होने से चुनीलाल के प्रति उन्हें विशेष लगाव हो गया। वे जब सत्याग्रह के लिये लोगों को समझाने जातीं, तब चुनीलाल को भी अपने साथ ले जाती थीं। भक्तिबा से चुनीलाल को बहुत कुछ सिखने को मिला। गांधीजी तब यरवदा जेल में थे। भक्तिबा ने, गांधीजी जेल में से छूटकर गुजरात आए तब गांधीजी को दस लाख रूपये की थैली अर्पण करने का निश्चय किया। इसके लिये चन्दा माँगने भक्तिबा जहाँ-जहाँ जाती वहाँ-वहाँ वे चुनीलाल को अपने साथ में ले जाती थीं। इस प्रकार गुजरात के गाँवो में घूमकर, अनेक लोगों को सम्पर्क करके उन्होंने चन्दा एकत्र करने में सहायता की थी। इस काम में उन्होंने न दिन देखा न रात इस कारण भक्तिबा दस लाख रूपये एकत्र कर सकी और यरवदा जेल में से छूटकर जब गांधीजी गुजरात में आए तब यह थैली उन्हें अर्पण की। देश या भगवद् कार्य के
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लिये रकम एकत्रित करने की शक्ति तो चुनीलाल में पहले से ही थी, इस शक्ति को फिर श्रीमाताजी ने परखा।
चन्दे के इस कार्य के परिणाम से चुनीलाल भक्तिबा के अन्तरंग वर्तुल में आ गए और विचक्षण भक्तिबा इस नवयुवक के अंतर तेज को पहचान गई। उन्हे लगा कि इस युवक का जीवन यहाँ रात-दिन चरखा कातने में या स्वयंसेवक बनकर, यहाँ-वहाँ भागदौड़ करने में व्यर्थ नही जाना चाहिये। यह रत्न तो योग्य झवेरी के हाथ में जाना चाहिये जो उसे सँवार दे, तब यह रत्न बहुमूल्य बनकर प्रकाशित हो उठेगा। चुनीभाई स्वयं इसके लिये सतत् प्रयत्न्शील थे पर उन्हें अपना अंतर सत्व को विकसित कर दे ऐसा कुशल झवेरी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। पर उनकी खोज चलती रही और अंत में वह सफल हुए।
भक्तिबा और दरबार साहेब पांडिचेरी गये थे। उसके बाद वहाँ से भक्तिबा अमदावाद आयी थीं। सरदार पटेल के यहाँ खमासा गेट के पास ठहरी थीं। दोपहर के बाद भक्तिबा ने सरदार पटेल के भतीजे से कहा, 'भाई, विधापीठ में से चुनीलाल को बुला लाओ, कहना खास काम है इसलिये अवश्य आए।' उस दिन काँतण (सूत कातने का) यज्ञ था। चुनीलाल भी उसमें सम्मिलित थे, तभी भक्तिबा का संदेश मिला। तत्काल आने को कहा था इसलिये चुनीलाल ने सोचा कि 'खास काम के वगैर भक्तिबा इस प्रकार नहीं बुलाऐँगी। ' कताई यज्ञ से अनुमति लेकर वह चल पड़ा। पैदल चलकर, लम्बी दूरी तय करके, खमासा गेट के पास सरदार पटेल के घर आ पहुँचा। भक्तिबा को प्रणाम किया। कुशलक्षेम पूछकर नम्रता से कहा, 'कहिये, किस सेवा के लिये बुलाया है?
'चुनीभाई, आज तो मैंने एक अलग ही काम के लिये बुलाया है। अभी कुछ दिन पहले ही मैं मेरे भाई काशीभाईको* को मिलने
*बारह वर्ष की छोटी उम्र में, पिताजी काशीभाई के मार्गदर्शन में, स्व. कमलाबहन श्री अरविंद- श्रीमाताजी के प्रकाश में जीवन निर्माण के लिये श्री अरविंद आश्रम पांडिचेरी में गये थे।
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पांडिचेरी गई थी। तुम तो जानते हो कि पहले वे कांसिया बेट में थे वहाँ छोटा-सा आश्रम स्थापित किया था। सभी वहाँ योगसाधना करते रहते थे, पर बाद में वे श्री अरविंद की अनुमति मिलने से हमेशा के लिये पांडिचेरी चले गये हैं। अभी मैं पांडिचेरी रहकर आई हूँ। वहाँ पहले भी दो तीन बार गई हूँ। श्री अरविंद' और श्रीमाताजी के मैंने दर्शन भी किये हैं। इस बार मैं वहाँ रही, तब मुझे मन में सतत् विचार आते रहे कि 'चुनीभाई के लिये यही स्थान उत्तम हैं।' इसलिये आज मैंने खास यह बात कहने बुलाया है कि, 'चुनीभाई, तुम विधापीठ के जीव नहीं हो। मुझे विश्वास हो गया है कि तुम विद्यापीठ के जीवन जीने के लिये नहीं जन्मे हो। तुम्हारा सच्चा घर पांडिचेरी है। तुम पांडिचेरी जाओ और श्री अरविंद के पास पहुँच जाओ।'
जैसे वर्षो पहले सुनी हुई वह देव वाणी - 'इस दुनिया के लिये तू नहीं जन्मा है!' - वह फिर इस नारी शक्ति के मुख से प्रगट हो रही थी, ऐसा चुनीलाल को लगा। जैसे दैवीय आदेश उन्हें उनकी आदरणीया भक्तिबा के मुख से दिया जा रहा था, ऐसा उन्हें अनुभव् हुआ इसलिये इस आदेश में सन्देह का कोई स्थान ही नहीं था। पूछने को कोई प्रश्न ही नहीं था। चुनीभाई का रोम-रोम पांडिचेरी का नाम सुनकर झनझना रहा था।
भक्तिबा जितनी उनकी हितचिंतक और निकट की स्वजन थी उतना शायद ही कोई होगा। इसलिए भक्तिबा ने जो सोचा था इसमें रत्तीभर भी तर्क का स्थान नहीं था। उसी क्षण चुनीलाल ने यह आदेश सहर्ष स्वीकार कर लिया और कहा, ''आपने जो मेरे बारे में सोचा है वह उत्तम है। पांडिचेरी तो मैं अभी चला जाऊँ पर आज मेरे पास पैसे नहीं हैं। इसलिये पैसे की सुविधा होगी, तब अवश्य जाऊँगा।''
''पैसे की चिंता मत करो। पांडिचेरी जाने और वहाँ रहने के खर्च के पैसे मैं तुम्हे दूंगी, पर तुम एकबार शीघ्र पांडिचेरी पहुँच जाओ।'' तब चुनीलाल को भक्तिबा का हृदय जगन्माता के वात्सल्य
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से छलकता हुआ लगा। एक माता अपने बालक की जितनी चिंता करती है, उतनी चिंता भक्तिबा चुनीलाल की कर रही थी। उन्होंने अहोभाव से भक्तिबा को वंदन किया, तभी भक्तिबा ने आगे कहा, ''तुम यहाँ से सीधे नापाड जाओ। वहाँ से काशीबहन को तुम्हारे साथ लेकर पांडिचेरी के लिए निकलो l दोनो के खर्च की यह रकम भी लेते जाओ।'' यह सुनकर चुनीलाल गदगद हो गये। इतनी ज्यादा चिंता माँ के सिवाय कौन करता है? एक माँ अपने पुत्र को जैसे उसकी सच्ची माता के पास भेज रही थी। इसका पता तब नहीं था कि दिव्य योजना की तो भक्तिबा एक साधन मात्र थीं। सूत्रधार वह अदृश्य शक्ति थी, जो अनेक मोड़ों से अन्त में निर्धारित स्थल ले ही आयी।
भक्तिबा के ऋण को द्युमान जीवनपर्यन्त नहीं भूले थे। एक पत्र में उन्होंने बताया था कि ''भक्तिबा के द्धारा ब्रहम आदेश आया और वैसा ही हुआ। मन का या विचार करने का स्थान ही नहीं था। आदेश तो आदेश था और उसका पालन हुआ... भक्तिबा ने मेरा भला चाहा था। मुझे उन्होंने अपने साथ गांधीजी के अभियान में बाँधकर नहीं रखा। उन्होंने चाहा होता तो मैं बँधा रहता, पर मेरी आत्मा का व्यवहार देखकर उन्होंने मुझे श्रीअरविंद के पास भेज दिया।'' द्युमान प्रत्येक जून में भक्तिबा को अचूक पत्र लिखते थे। आश्रम के एक अंतेवासी जब गुजरात आ रहे थे तब उन्होंने कहा था, ''तुम वसो जाना, भक्तिबा से मिलना। वे हमेशा मेरी प्रिय भक्तिबा हैं। उनसे तुम इतना कहना कि, १९२१से आज तक आप मेरे लिये वैसी ही हैं और जन्मजन्मांतर तक वैसी ही रहेंगी।''
उनको पांडिचेरी भेजनेवाली, रत्नापारखी भक्तिबा के प्रति द्युमान जीवनभर कृतज्ञता व्यक्त करते रहे।
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