दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


१७. भोजन कक्ष का विकास

 

भोजन कक्ष में उस समय दूध की समस्या खड़ी हो गई थी। प्रत्येक को ७५० सी.सी. दूध मिले, इस हिसाब से दूध खरीदा जाता था, पर साधकों को इस माप से कम दूध मिलता था। यह द्युमान को खटकता था। उन्होंने खोजबीन की कि दूध कम क्यों हो जाता है? खोज करने पर पता लगा कि दूधवाला जब दूध लाता है तब दूध फैनवाला होता है। फैन उतरने के बाद दूध प्रमाण में कम हो जाता है और दूध गरम करने पर भी कम हो जाता है। द्युमान ने माताजी को सारी सही बात बतायी। स्वयं अब नई व्यवस्था करना चाहते हैं इस विषय में भी बताया। माताजी को द्युमान की व्यवस्था उचित लगी तो स्वीकृति दे दी और इस प्रकार प्रत्येक साधक को दिन में तीन बार २०० सी.सी. दूध मिलने लगा। इस कारण साधकों को कम-ज्यादा दूध की शिकायत नहीं रही। जब श्रीअरविंद को पता चला तब द्युमान को मजाक में कहा कि ''(दूध का) तुम्हारा कप बहुत छोटा है।'' फिर दूध का वितरण ठीक से होने लगा। सभी साधकों को दिन में तीन बार दूध मिलने से वे भी सन्तुष्ट हो गये। बाद में द्युमान ने दूध में भी सुधार किया। जिसकी दूध के बदले दही चाहिये तो उन्हें दही भी दिया जाने लगा। साधक अपनी रुचि के अनुसार अब दूध या दही ले सकते थे।

द्युमान ने दूध में शक्कर देना भी शुरू किया। किसी को दूध फीका पीना हो या किसी को मीठा, इसलिये सबको संतोष हो ऐसी

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व्यवस्था की। भोजन कक्ष के मुख्य कमरे के कोने में एक अलमारी में प्रत्येक साधक के नाम लिखी हुई डिब्बी रखी गई। उस डिब्बी में उस साधक की शक्कर रखी होती थी। साधक भोजन के समय अपनी डिब्बी साथ ले जाते। उसमें रखी गई शक्कर का उपयोग अपनी पसंद से करके, खाली डिब्बी फिर यथास्थान रख देते। दूसरे दिन वह डिब्बी शक्कर से भरकर वहीं रख दी जाती। द्युमान की इस व्यवस्था से साधक सन्तुष्ट हुए क्योंकि अपने हिस्से की शक्कर स्वयं की रुचि से उपयोग करने की इसमें पूरी स्वतन्त्रता थी। साधकों को दूध की तरह भात को भी माप से देना निश्चित हुआ। अनुभव के आधार पर उन्होंने एक व्यक्ति को अनुमान से कितने चावल चाहिये उसके अनुसार मात्रा निश्चित की। यह माप था प्रत्येक व्यक्ति को १०० ग्राम चावल। . एक किलो चावल का प्रमाण १० मनुष्य के लिये ठीक था। द्युमान ने इस प्रमाण के विषय में एक वार्तालाप में बताया था कि ''आज ४८ वर्ष बाद भी चाहे जितनी संख्या में आदमी क्यों न हो, इसी माप के प्रमाण में भात बनाया जाता हैं। यह माप सही सिद्ध हुआ है। '' 

द्युमान ने रसोईघर की व्यवस्था सम्भाली तब दाल और अन्य वस्तुएँ, यहाँ तक कि नमक भी फ्रांस  से आता था। महामंदी के बाद वहाँ से सामान मँगवाना मुश्किल हो गया। इसलिए द्युमान ने बाजार से मूँग की दाल खरीदी और रसोई में बनवायी फिर माताजी को बतायी। श्री माताजी ने चखकर पसंद की। तब सर्वप्रथम आश्रम की रसोई में भारत की मूँगदाल का प्रवेश हुआ और फिर धीरे - धीरे सभी दालों की खरीददारी स्थानिक बाजार में से होने लगी। फ्रांस से आयात किये जाने वाले नमक के स्थान पर भारत का नमक रसोई में उपयोग करने लगे। परन्तु  का नमक बहुत सफेद था, जबकि भारत का नमक काला होता था। अब युमान ने काले नमक को सफेद करने की युक्ति अपनायी। वे नमक को पानी में गलाकर छान

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लेते और उबाल लेते उससे सफेद नमक बन जाता। इस प्रकार  से आयात सफेद नमक के स्थान पर भारत के नमक को सफेद बनाकर उपयोग में लिया। ऐसा ही फ़्रांस से आयात फॉस्को के विषय में भी हुआ। फॉस्को के स्थान पर उन्होंने भारतीय कोको का उपयोग किया। फॉस्को बनाने कि लिए वे सवेरे एक बजे उठकर काम में लग जाते। उठकर फॉस्को में शक्कर मिलाते, रात को ही द्युमान और रोहनलाल फॉस्को के टीन भर लेते। फिर उस पर कागज की रिबन बांधकर सील कर देते, तब वितरण के लिये स्टेन्ड पर तैयार रखते। इस प्रकार उनके रात भर के परिश्रम से साधकों को ''फ्रेन्च फॉस्को'' के बदले ''देशी कोको'' पीने को मिला।

उस समय भोजन कक्ष में रसोई मिट्टी के बर्तनों में बनती थी। हण्डे में भात बनता था। ताराबहन भात का उबलता हुआ पानी।(मांड) हण्डे में से निकाल रही थी और हण्डा फूट जाने से बहुत जल गई थी। एक महिने दवाई की, तब पैर के छाले ठीक हुए। द्युमान ने मीट्टी के बर्तन निकालकर उनके स्थान पर धीरे-धीरे नये बर्तन लेना प्रारम्भ किया। अन्य बर्तनों की भी बहुत कमी थी, पर नये बर्तनों के लिए पैसे नहीं थे इसलिये द्युमान ने टूटे चम्मच, रकाबी, डीश सबको पत्थर पर घीसकर उजले बनाए और सुधार कर उपयोग में लिये। उपरांत चीज के जो बॉक्स फाँस से आते थे, उसके उपर के टीन के छोटे छोटे ढक्कन को एकत्रित करके पवित्र के दे देते थे और पवित्र उनसे डीश या ढ़कने की प्लेट बना देते। इस प्रकार १९३० के समय बर्तनों की तंगी को उन्होंने दूर किया, फिर तो जैसे जैसे - पैसे मिलते गये, वैसे वैसे - नये स्टेनलेस स्टील के बर्तन बसाने लगे। भोजन कक्ष में प्रारम्भ में तो ब्रेड-बाहर से खरीदी जाती और वह मैदे की सफेद ब्रेड होती। ब्रेड सवेरे दस बजे ही मिलती और उसे दूसरे दिन की सुबह तक सम्मालना मुश्किल होता था। युमान उस

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ब्रेड की दस स्लाईस बनवाते। वह इतनी पतली स्लाईस होती थी कि बिरेन मजाक में उसे ''पेपर स्लाईस' कहते थे। इस स्लाईस को सेंककर-टोस्ट बनाकर द्युमान सबको देते थे। जब सबसे पहली बार आश्रम में ब्रेड बनाई गई तो वह ईट जैसी बनी। उपर से पत्थर जैसी कड़क बीच में से पोली और कच्ची। पर द्युमान ने आग्रह किया कि उसे फिर से सेंककर खा सकते हैं। इस प्रकार उन्होंने आश्रम की बेकरी में ब्रेड बनाना चालु रखा। धीरे - धीरे ब्रेड की गुणवत्ता सुधरती गई। प्रारम्भ में तो सफेद ब्रेड ही थी क्योंकि बाजार से मैदा खरीदकर ब्रेड बनवाते पर बाद में मद्रास से गेहूँ मंगवाना शुरू किया और उस गेहूँ के आटे से ब्रेड बनवाना शुरु किया, पर यह रोटी बनाने के गेहूँ थे इसलिये ब्रेड अच्छी नहीं बनती थी, फिर भी द्युमान  प्रयत्न करने रहे। उस ब्रेड की स्लाईस की मोटाई और पतलेपन के विषय में कितनी ही बार मजाक सुनने को मिलते थे। फिर उन्होंने माताजी की सम्मति लेकर एक ब्रेड में से २१ स्लाईस बनवाना निश्चित कर दिया, तब से अब तक यह प्रमाण चालु है।

ब्रेड के लिये गेहूँ मद्रास से ही आता था। १९३४ के बाद मद्रास के बदले द्युमान ने, जब गणपतराम और मंगलराय आश्रम में स्थायी हो गये, उनसे पंजाब के गेहूँ के विषय में जानकारी ली और वहाँ से गेहूँ मँगवाना प्रारम्भ किया। यह गेहूँ बहुत अच्छे प्रकार का था। इससे ब्रेड की गुणवता भी सुधरी। दूसरे विश्वयुद्ध के समय गेहूँ मिलना मुश्किल हो रहा था। द्युमान के एक मित्र ने कहा ''कराँची से जितने हो सके उतने गेहूँ मंगवा लो, नहीं तो बाद में गेहूँ कहीं नहीं मिलेंगे। इसलिए द्युमान ने कराँची के मेयर से सम्पर्क किया। उन्होंने तार से परिस्थिति बताकर मदद करने को कहा। उस पारसी मेयर ने द्युमान की बहुत मदद की क्योंकि कराँची ही अन्तिम बन्दरगाह था वहाँ से माल भर कर स्टीमर निकलता था, पर इतने थोक में गेहूँ खरीदने के

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लिये  पैसे कहीं से लाएँ? द्युमान ने एक वार्तालाप में कहा था कि, ''मैंने अपने मन में निश्चित कर लिया था कि जहाँ तक सम्भव हो, वहाँ तक श्री माताजी से एक भी पैसा नहीं लेना है, इतनी थोकबँध खरीददारी के लिये भी नहीं। भगवान ने आजतक मेरी लाज रखी है। जब भी मुझे पैसे की आवश्यकता होती है, तब प्रत्येक समय कहीं न कहीं से सहायता आ जाती है। सभी ने स्वीकार कर लिया था कि जब भी द्युमान कुछ माँगे, वह माताजी के काम के लिये, और उनके कार्य के लिये उपयोग में आता है।'' लोगों को उन पर इतना अधिक विश्वास था और इसी कारण आश्रम के कार्यों के लिए आर्थिक तंगी नहीं आयी। इस गेहूँ की थोक खरीदी का भुगतान भी एक भक्त धरमचन्दजी ने कर दिया।

भोजन कक्ष में परोसने के छोटे से कार्य से, उनका उतरदायित्व दिन प्रतिदिन बढ़ता ही गया। यह कार्य ही द्युमान की साधना थी, श्री माताजी के प्रति भक्ति थी। एक बार श्री माताजी ने अपना स्वयं का जापान में लिया हुआ फोटो देकर कहा, ''द्युमान, यह फोटो भोजन कक्ष में रखना। सवेरे भोजन कक्ष खोलो तब इस फोटो के सामने तुम कुछ समय ध्यान करना और इसी प्रकार रात को बन्द करते समय भी ध्यान करना।'' भोजन कल में श्रीमाताजी के अन्नपूर्णा स्वरुप का ध्यान प्रतिदिन द्युमान दो बार करते थे, तब से आज तक यह ध्यान होता आया है और भोजन कक्ष का दिन प्रतिदिन विस्तार होता रहा है। भोजन कक्ष का काम कोई स्थूलकार्य नहीं था यह तो उनकी भक्ति और साधना थी। इस साधना और भक्ति के द्धारा द्युमान की आंतरिक शक्तियों इतनी विकसित हो गई थी कि बाद में इस कार्य के साथ साथ अन्य अनेक कार्य का दायित्व भी वे उठाने लगे

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