३१. बिदाई
१९९२ की १५ अगस्त का दर्शन दिवस पास होने से द्युमान का कार्यभार बढ़ गया था। दर्शनार्थियों की संख्या सतत् बढ़ने से भोजन कक्ष में दर्शन दिवस के समय भोजन की विशिष्ट व्यवस्था की जाती है। इसके उपरांत बाहर से आनेवाले सभी आगन्तुक उन्हें सतत् मिलते रहने से भी उन - दिनों में आराम का समय बहुत कम मिलता था। १५ अगस्त को सवेरे साढ़े चार बजे वे भोजन- कक्ष में गये। वेदप्रकाश से मिलकर सभी व्यवस्था के विषय में जानकारी ली। नाश्ता करके फिर संदेश-वितरण के काम में लग गये। सबेरे साढ़े पाँच से साढ़े नौ तक चार घंटे दर्शनार्थियों को अपने हाथ से १५ अगस्त के दर्शन दिवस के संदेश दिये। उसके बाद समाधि के पास ध्यान का समय था इसलिये संदेश वितरण को रोककर वे अपने ऑफिस में आ गये। कागज़ात पर आवश्यक हस्ताक्षर किये। 'चेक ड्राफ्ट' जो 'ओफरींग' के आए थे, उन सबको नोट किया। फिर साढ़े दस बजे संदेश-वितरण के लिये आ गये। दोपहर के बाद लगभग सवा चार बजे तक सतत् संदेश- वितरण किया। फिर कैशियर के ऑफिस में आकर आवश्यक कागज़ात देखे। तब शाम के लगभग पौने छ: बज रहे थे। अविरत काम से उनका शरीर थकान अनुभव कर रहा था।
१६ अगस्त को इच्छाबहन के अग्निसंस्कार की विधि में वे श्मशान गये। शरीर अत्यन्त थक गया था। बिस्तर पर सोए पर बैचेनी होने लगी और बुखार आ गया, पर रात को उन्होंने किसी को बताया नहीं। १७ तारीख को सबेरे स्वास्थ्य अधिक खराब होने से डॉक्टर को बुलाया गया। डॉक्टर ने जाँच करके आश्रम के नर्सिंग होम में भरती करने की सलाह दी क्योंकि वहीं उन्हें ठीक से आराम मिल सकता था। वे नर्सिंग होम नहीं जाना चाहते थे परंतु डॉक्टर के आग्रह
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से नर्सिंग होम में १७ तारीख को सवेरे भर्ती हो गये। वहाँ डॉस्टरो ने इलाज शुरू कर दिया। शाम को पाँच बजे भोजन कक्ष के उनके सहयोगी मनसुखभाई जोशी उनकें स्वास्थ्य की पूछताछ करने आए तब वे बिस्तर पर लेटे थे। उन्होंने संकेत से मनसुखभाई को पास बुलाकर, हस्ताक्षर किये हुए कागज की थप्पी बताते हुए कहा, 'कागज तैयार है, ले जाओ।' मनसुखभाई ने उनके शरीर पर हाथ रखकर देखा तो बुखार नहीं था इसलिये उन्होंने कहा, 'बुखार तो नहीं है, अब आपको कैसा लग रहा है ?'
कुछ देर बाद द्युमान ने धीरे से कहा, 'मैं ठीक नहीं हूँ।'
'क्या हो रहा है ?' फिर थोड़ा रुककर उन्होंने अंग्रेजी में कहा, Pressure of things', 'अर्थात् ?' मनसुखभाई ने स्पष्ट करने को कहा, इसलिये फिर बोले, Pressure of atmosphere ( फिर मनसुखभाई ने अधिक स्पष्टता का आग्रह नहीं किया और पूछा,।'आपको कमजोरी लगती है ?' 'ही' इतनी बातचीत करके मनसुखभाई लौट गये और द्युमान नर्सिंगहोम में डॉस्टरो की देखभाल में आराम करने लगे।
दूसरे दिन १८ तारीख को मनसुखभाई शाम को सवा चार बजे फिर द्युमान के पास आए तब ड़ेाकटर बहन ने उन्हें कहा, 'द्युमानभाई को साँस की तकलीफ है, देखना कि वे अधिक बातें न करें। कमरे में किसी को आने मत देना।' मनसुखभाई द्युमान के पास आए। वे पलंग पर दो तकियों का सहारा लेकर बैठे थे। बोलने की मनाही थी, इसलिये मनसुखभाई पास में बैठकर देखते रहे। द्युमान को साँस की तकलीफ थी, कभी साँस तेज हो जाती थी, कभी धीमी हो जाती थी, वे बार- बार अपनी आँखे बन्द कर रहे थे। अपने आप में पूरे जागृत थे। एक हाथ से गद्दे पर थपकी मार रहे थे जैसे उनके मन में कुछ उथलपुथल चल रही हो। पाँच बजे मनसुखभाई ने पूछा, 'मैं जाऊँ ?' 'जाओ' उन्होंने कहा।
मनसुखभाई सीधे भोजन कक्ष में गये। वेदप्रकाश जी को
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मिलकर सारी बातें बताई। वेदप्रकाशजी तुरन्त नर्सिंगहोम में आ पहुँचे। द्युमान को पूछा, 'कैसे हो?' तब द्युमान ने कहां, 'मनसुख ने तुमको मेरे साथ हुई बातचीत बताई है क्या? वेदप्रकाश जी ने 'हाँ' कहा, फिर वे द्युमान के शरीर पर हाथ फेरने लगे। कुछ ही देर में द्युमान की आंखों में आँसू थे। वेदप्रकाशजी बताते हैं कि, 'मैंने उनकी आँखों में कभी आँसू नहीं देखे थे। मैं हिल गया। ये आँसू प्रेम के, जुदाई के, बिदाई के, विश्वास के, भक्ति, कृतज्ञता के जीवन और मृत्यु पर स्मित के थे। मैं नहीं जानता था कि इस प्रकाशमय व्यक्तित्व की शाश्वती के, दु:खपूर्ण आशीर्वाद के आँसुओं को किस प्रकार स्वीकार करूँ?
मैंने काँपती उँगलियों से उन आँसुओं को पोंछ दिया। तब मुझे पता नहीं था कि वे हमेशा के लिये बिदाई ले रहे हैं।
बिदा की घड़ी में वेदप्रकाशजी द्युमान के पास थे। १९ अगस्त को द्युमान का स्वास्थ्य अधिक खराब हो गया था। उन्हें आक्सीजन देना प्रारम्भ किया गया। द्युमान आक्सीजन की टयूब को खींचकर निकालने लगे तब डॉक्टर बहन ने कहा, 'इससे आपको अच्छा आराम मिलेगा। ' फिर आज्ञाकारी बालक की तरह वे आक्सीजन लेने लगे। साढ़े सात के बाद तबियत अधिक बिगड़ने पर अन्य द्रस्टियों को समाचार दिये गये।
सभी ट्रस्टी तत्काल आ पहुँचे। द्युमान आँखें बन्द करके जैसे आराम से सो रहे थे। रात्रि को लगभग आठ बजे उनका धड़कता हुआ हृदय बन्द हो गया। फिर उनके पार्थिव शरीर को उनके कमरे में दर्शनार्थ रखा गया। उसके बाद उनकी देह को मेडिटेशन हॉल में दर्शनार्थ रखा गया। रात-दिन दर्शनार्थी आते रहे। उनके अंतिम दर्शन के लिये बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हो गये थे। २१ अगस्त को सवेरे नौ बजे आश्रम के कोझनोव गार्डन में नलिनीकान्त गुण की समाधि के पास उनके पार्थिव शरीर को समाधि दी गई।
दिव्यलोक के ऋषिकुल से श्रीमाताजी के कार्य के लिये पृथ्वी पर
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उतर आयी यह वीर आत्मा अपने जीवन के अंतिम समय तक सेवा में प्रवृत्त रही। जब उनकी हिसाब की डायरी के पृष्ठ खोलें गये, तब १९ अगस्त तक का व्यवस्थित हिसाब लिखा हुआ था। १९ तारीख को तो उन्होंने चिरबिदा ली। उनकी श्रीमाताजी के प्रति अपूर्व श्रद्धा भक्ति, उनकी कार्यनिष्ठा, अथवा कार्य करने की शक्ति और सामुहिक जीवन में भी दिव्यशक्ति के अवतरण वारा उच्च आध्यात्मिक समाज की स्थापना की उनकी उत्कट अभीप्सा, माटी जैसी जड़ मानी जानेवाली वस्तु में भी प्रेम और पुरुषार्थ की, प्रकाश और चेतना जगाने के लिये उनकी साधना केवल आश्रम के लोगों को ही नहीं, अपितु उनके सम्पर्क में आनेवाले प्रत्येक को ऊर्ध्वमार्ग में जाने के लिये, दिव्य जीवन जीने के लिये, निरंतर प्रेरणा देती रहेगी। उनकी प्रकृति में एक विशिष्टता थी, उनके आसपास के लोगों को वे 'अपने दयुमान' जैसे आत्मीय लगते थे।
कर्मयोगी द्युमान के लिये प्रभु की सेवा में किया गया कर्म, योग का पर्याय था। उनका जीवनकार्य गुरु की सेवारूप में समर्पित था। श्री अरविंद और श्रीमाताजी की समाधि के ऊपर छाया करता, सदा जलता 'सर्विस ट्री' जैसे द्युमान के जीवन का प्रतीक लगता है। अपने अस्तित्व के अणु-अणु को, रोम-रोम को दयुमान ने माँ और श्री अरविंद के चरणों में न्योछावर कर दिया था। गुरु के प्रति पूर्ण विश्वसनीयता, गुरु के लिये पूणॅ प्रेम, गुरुवरों की पूर्ण सेवा -यही युमान के ध्येयमंत्र थे। आरम्भिक वर्षों में श्रीमाताजी ने द्युमान को पूछा था, 'किस वर्ष में तुम्हारा जन्म हुआ था ?' द्युमान ने कहा, ' १९०३ में। ' श्रीमाताजी तुरन्त बोली थीं, 'तो फिर तुम जन्मे हो, सेवा के लिये (यु केम डाउन टु सर्व! )' दिव्यता की तेजोमय किरण उन दयुमान को अपनी सब की शताब्दीवंदना!
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