३. दिव्य आदेश मिला
नापाड की प्राथमिक शाला में चुनीलाल का अभ्यास अच्छी तरह चल रहा था। जब वह चौथी कक्षा में थे तब उनकी उम्र ११ वर्ष की थी। इतनी छोटी उम्र में तो उन्हें ध्यान या दिव्य अनुभूतियों के विषय में जानकारी नहीं थी। यद्यपि घर में सत्संग का वातावरण अवश्य था पर वह भक्तिप्रधान वातावरण था, उसमें सूक्ष्म दर्शन या आध्यात्मिक अनुभूतियों का विचार नहीं आता था, फिर भी चुनीलाल के जीवन में ऐसी घटना हुई - इसे तो दिव्य कृपा का परिणाम ही मान सकते हैं।
यह घटना इस प्रकार थी : - वह मई महीने की गर्मी का दिन था। दोपहर को तीन बजे का समय था। तीखी धूप थी पर चुनीलाल को अपने मित्र से काम था इसलिये उसे बुलाने के लिये छत पर चढ़े, उन्होंने देखा, आसपास कोई नहीं था। इस तपती दोपहरी में पक्षी भी कहीं शांत बैठे थे। जरा भी आवाज नहीं हो रही थी। ऊपर खुला नि:स्तब्ध आकाश था। गरम छत पर ग्यारह वर्ष का किशोर खड़ा था, तभी उसे स्पष्ट आवाज सुनाई दी, 'तेरा जीवन सांसारिक कार्यों के लिये नहीं है।' वह चारों तरफ देखने लगा कि यह आवाज किसकी है? पर कोई दिखाई नहीं दिया। वह इधर-उधर देखता रहा, तब कुछ ही क्षणों में एक दैवी हाथ उसे चारों तरफ घूमता दिखाई दिया। वह हाथ उसे चारों तरफ फैले हुई जगत को बताकर कह रहा था कि, 'तू यह देख, इस दुनिया के लिये तू नहीं है। उच्च जीवन जीने के लिये
तेरा जन्म हुआ है।' यह शब्द शान्त हो गये और उसके समक्ष प्रकाश फैल गया। चारों तरफ फैले प्रकाश को देखकर वह स्तब्ध हो गया। यह क्या हो रहा है, उसे समझ नहीं आया।
अब मित्र को बुलाने के बदले वह सीधा नीचे उतर आया। उसका अंतर्मुखी और संकोची स्वभाव तो था ही इसलिये किसी को भी इस विषय में नहीं बताया। अब वह चिंतन करने लगा कि, 'इस वाणी का क्या अर्थ है ?' चाहे उस समय उसके बाल मन को अधिक समझ नहीं आया पर इतना तो अवश्य समझ आगया कि उसे दुनियादारी के जीवन से अलग उच्च जीवन जीना है। इस घटना के विषय में उन्होंने बाद में बताया था, '...उस दिव्य वाणी और दिव्य प्रकाश के चमत्कार के बाद उस अदृश्य दिव्य शक्ति ने मेरा समग्र जीवन अपने हाथ में ले लिया और मुझे मार्गदर्शन दिया, मुझे इधर उधर भटकने से रोका और सीधे रास्ते पर आगे बढ़ाया, इस कारण जीवन जीना मेरे लिये स्वाभाविक बन गया।'
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