दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


२७. दूरदर्शिता


द्युमान स्वप्नदृष्टा थे। वे दूर के भविष्य का  स्वप्न देखते और फिर उसे भौतिक स्तर पर साकार करने श्रद्धापूर्वक प्रयत्न में लग जाते। उनके स्वप्न इसी प्रकार साकार होते रहे। उन्होंने स्वप्न देखा था कि आश्रम में अधिक से अधिक लोग बाहर से आएँ और श्रीअरविंद तथा श्रीमाताजी की साधना के विषय में जानें। इसके लिये श्रीअरविंद के जन्मशताब्दी वर्ष से अच्छा दूसरा अवसर क्या हो सकता था। १९७२ की पन्द्रह अगस्त में आसपास के आश्रम में लगभग बीस हजार लोग बाहर से आएंगे, ऐसा उनका अनुमान था। इसके लिये पूर्व तैयारी उन्होंने १९६७ से, पाँच वर्ष पहले से प्रारम्भ कर दी थी।

इसके लिये रसोईघर की तैयारी पहले करनी थी। इतने अधिक मनुष्यों के लिये तीन समय के भोजन की व्यवस्था करना सरल नहीं था। इसकी तैयारी रसोईघर से प्रारम्भ की। रसोई में भाप से भोजन बने उसके लिये बॉयलर जुलाई १९६९ में उसी दिन आया जिस दिन नील आर्मस्ट्रोंग और उनके दो साथियों ने चन्द्रमा की धरती पर पैर रखे। यह 'स्टीम-कुकींग' रसोई के लिये आशीर्वाद रूप बन गया। १९७२ में श्रीअरविंद शताब्दि का भव्य आयोजन था जो स्वप्न द्युमान ने देखा था, वह भी उन्होंने पूरा किया। एक साथ बीस हजार ' से भी अधिक मनुष्यों की रसोई बन सके ऐसा वैज्ञानिक, आधुनिक उपकरण के उपयोग वाला, मंदिर जैसा स्वच्छ रसोईघर देखने के लिये आज देश विदेश से लोग आते ई। इसके पीछे द्युमान का अथक परिश्रम और दीर्घदृष्टि है।

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द्युमान ने देखा कि पांडिचेरी की जनसंख्या बढ़ती जा रही है। आश्रम में साधकों की संख्या भी भविष्य में बढ़नेवाली है। इस कारण आश्रम को मकान किराये का खर्च भी बढ़ता जाएगा इसलिये आश्रम का अपना निवासस्थान होना चाहिये। मकानमालिकों की दया पर आश्रम नहीं निभ सकेगा। इस समय आश्रम का आर्थिक आपातकाल समाप्त हो चुका था और निधि एकत्रित होने लगी थी, इसलिये द्युमान ने निर्माण कार्य पर ध्यान केन्द्रित करवाया। 'न्यूक्रिएशन देखने जाते। उनकी इस दूरदर्शिता के परिणाम से आश्रम भविष्य में होनेवाली आवास की बड़ी तंगी से बच गया।

द्युमान ने सोचा कि आश्रम को अनाज के सम्बन्ध में स्वावलम्बी होना चाहिये। इसलिये जैसे-जैसे धन की सुविधा होती गई वैसे-वैसे उन्होंने उजाड़, वीरान जमीन सस्ते भाव से खरीद ली और अपने संकल्पमय पुरुषार्थ से उस जमीन को फलद्रुप बनाया। रासायनिक खाद के उपयोग के बगैर, केवल देशी खाद का उपयोग करके जमीन में से वे गेहूँ चावल, फल और शाक-भाजी की भरपूर फसल लेने लगे। इसी प्रकार उन्होंने चावल, नारियल और फलों को बाहर से नहीं मँगाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कर दीं।

आश्रम के साधकों को गाय का शुद्ध दूध मिले, इसके लिये गोशाला भी होनी चाहिये, यह सोचकर द्युमान ने गोशाला का काम शुरू किया। उत्तम गायें मँगवायी, उनकी देखभाल की, गोपालन की पुस्तकों का अध्ययन करके एक आदर्श गौशाला खड़ी कर दीं। दूध के लिये भी उन्होंने आश्रम को स्वावलम्बी बना दिया। इस काम में उन्हें योग्य सहयोगी मिलते रहे। इतना ही नहीं, श्रीमाताजी ने दूध पीना छोड़ दिया था. पर द्युमान की गौशाला की प्रशंसा सुनकर उन्होंने दूध मँगाया और पीया, फिर तो वे भी गौशाला का दूध नियमित लेने लगीं।

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अपनी भावी योजना को साकार करने के लिये द्युमान सतत् प्रयत्नशील रहते थे, अत: बहुत अधिक काम करना पड़ता था, वे कभी विचार नहीं करते थे या पूंजी कहीं से आएगी उसकी भी चिंता नहीं करते थे। बस उनके अंतर से लगता कि आश्रम के भावी विकास के लिये इस काम को करना आवश्यक है तो पैसा न हो तो भी काम प्रारम्भ कर देते और फिर पैसा कहीं न कहीं से उन्हें मिल ही जाता था। उन्हें विचार आया कि आश्रम की प्रवृत्तियों और श्रीमाताजी की एक डॉकयुमेंट्री  फिल्म बननी चाहिये, जिससे भविष्य में बालकों की श्रीमाताजी कैसी थीं, कैसे काम करती थी इसकी जानकारी मिले। 'श्री ओरोबिंदो आश्रम-फॉर चेप्टर्स' अजीत बोस द्धारा बनाई गई इस फिल्म के पैसे किसने दिये, इसका किसी को पता नहीं चला और किसीने जानने का प्रयल भी नहीं किया। आज इस फिल्म का मूल्यांकन नहीं कर सकते। देश-विदेश के केन्द्रों में इस फिल्म के द्धारा असंख्य लोग वास्तविक जीवन में श्रीमाताजी की कार्यवाही को देख सकते हैं। इसके पीछे भी दयुमान की दीर्घदृष्टि रही है।

इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं, तब आश्रम में आयी थीं। वे आश्रम के मुल्य निवास में पवित्रदा था। द्युमान नै सोच रखा था कि आवश्यक हुआ तो वे स्वयं इंदिरा गांधी के संत्री बनकर पूरी रात पहरा देंगे। उन्होंने यह किया भी। संत्री को वापस भेजकर उन्होंने स्वयं ही इंदिराजी की चौकीदारी की। दीर्घदृष्टि के साथ प्रत्युत्पनमति भी उनकी तेज थी अत: वे त्वरित कार्य कर पाते थे।

श्रीअरविंद नीरोदबरन से 'सावित्री' महाकाव्य लिखवाते थे। इस कारण द्युमान ने सोचा कि नीरोदबरन के मुख से सम्पूर्ण सावित्री की पंक्तियों बुलवाकर रिकार्ड की जाये तो भविष्य की पीढ़ी को पता चले कि जो 'सावित्री' का पवन कर रहे हैं, उन्हीं से श्रीअरविंद ने

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सम्पूर्ण 'सावित्री' महाकाव्य लिखवाया है। इस विचार को उन्होंने तुरन्त क्रियान्वित करना शुरू किया। नीरोदबरन को उन्होंने अपनी योजना समझायी और उनकी सहमति ले ली। इस काम के लिये महीने में दो बार वे नीरोदबरन को अपने साथ ग्लोरिया फार्म पर ले जाते थे। इस विषय में नीरोदबरन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि 'हम दोनों महीने में दो, तीन बार ग्लोरिया फार्म जाते, वहाँ मनीन्द्र मुझसे 'सावित्री' का पाठ बुलवाकर रिकार्ड करता था। इस प्रकार क्रमश: सम्पूर्ण सावित्री' महाकाव्य का रिकार्ड हुआ। उसके कैसेट मनीन्द्र के पास हैं। इसके पीछे द्युमान का क्या आशय था, मुझे नहीं पता। शायद मनीन्द्र जानता हो, पर द्युमान ने मुझसे 'सावित्री' का रिकार्डिंग इसलिये करवाया होगा कि श्रीअरविंद के पास बैठकर उनके बोले गये 'सावित्री' के मूल पाठ को मैंने सुना था और लिखा था। इसके उपरांत श्रीअरविंद को मैंने 'सावित्री' पढ़ते हुए सुना था, पर उन्ही की शैली में 'सावित्री' का पुन: प्रस्तुतिकरण मैंने किया है, ऐसा मानना सही नहीं है। '

चाहे नीरोदबरन ने उसी शैली में 'सावित्री' का पठन न किया हो, फिर भी उन्होंने कितनी बार श्रीअरविंद के मुख से 'सावित्री' को सुना था। इसीलिये सहज रुप से ही उनके उच्चारण आ जाये, यह स्वाभाविक था। शायद 'सावित्री' का इस रिकार्डिंग के पीछे द्युमान का हेतु कुछ और हो सकता है पर समग्र 'सावित्री' का पठन नीरोदबरन के मुख से करवाकर नई पीढ़ी के लिये उन्होंने एक खजाना सुरक्षित कर लिया है।

द्युमान के पास आश्रम के भावी रूप का दर्शन था। वे बहुत दूर तक देखते थे और उन्होंने इस प्रकार आश्रम के कार्यों का विकास किया कि आश्रम का यह भावी स्वरूप मूर्तिमंत होता चला गया।

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